क्यों चैत्र प्रतिपदा से शुरू होता है हिन्दू नववर्ष?
हिन्दू पंचांग का चैत्र माह दो ऋतुओं का संधिकाल होता है। इस माह पतझड के मौसम की बिदाई होती है और चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को ही बसंत ऋतु का आगमन का प्रथम दिन होता है। इसमें रात्रि छोटी और दिन बड़े होने लगते हैं। सभी पेड-पौधे, वनस्पतियों में नए पत्ते, फूल की खुशबुओं, रंग से भरी होती है। प्रकृति नया रूप लेती है। प्रकृति में बदलाव से सभी मानव, पशु-पक्षी भी जड़ता, आलस्य, दरिद्रता से मुक्त होकर उमंग और उत्साह से भर जाते हैं। वसंतोत्सव का भी यही आधार है। सारी प्रकृति शक्ति रुपा दिखाई देने लगती है। इसलिए इस माह में शक्ति उपासना का भी बहुत महत्व है। इस माह में बर्फ पिघलने लगती है। आम के वृक्षों पर बौर आने लगते हैं। प्रकृति में व्याप्त हरियाली और लालिमा नए जीवन संदेश लेकर हमारे जीवन से जुड़ जाती है।
हिन्दू माह चैत्र शुक्ल प्रतिपदा का दिन चंद्रमा की कला का प्रथम दिवस माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि जीवन के मुख्य आधार पेड-पौधों को चंद्रमा से ही जीवनदायी रस प्राप्त होता है। यह औषधियों और वनस्पतियों का राजा कहलाता है। इसीलिए इस दिन को वर्षारंभ माना जाता है।
चैत्र प्रतिपदा को नवसंवत्सर की शुरूआत होने के कारण अनेक लोगों की जिज्ञासा होती है कि जब हिन्दू पंचाग के अनुसार चंद्रमास कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से शुरु होता है, तो फिर संवत्सर का आरंभ चैत्र माह के शुक्ल पक्ष से क्यों? इसका उत्तर शास्त्र मुताबिक यही है कि कृष्णपक्ष में मलमास आने की संभावना होती है। विधान अनुसार मलमास में शुद्ध और शुभ काम नहीं किए जाते। जबकि चैत्र शुक्ल पक्ष इनके लिए शुभ माना जाता है।
इसके अलावा मान्यता है ब्रह्मदेव ने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही सृष्टि की रचना शुरू की थी। इस भाव से कि सृष्टि निरंतर प्रकाश यानि सृजन की ओर बढ़े। उस काल में इसे प्रवरा यानि सर्वश्रेष्ठ तिथि माना गया। इसकी श्रेष्ठता और पवित्रता के कारण ही आज भी अनेक धार्मिक, सामाजिक, लोक व्यवहार और शासकीय महत्व के कार्य इसी तिथि से शुरु होते हैं।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि से ही सतयुग का प्रारंभ माना जाता है। यह युग कर्म, कर्तव्य और सत्य को जीवन में अपनाकर आगे बढऩे का प्रतीक है। यह दिन भगवान विष्णु के मत्स्यावतार का भी माना जाता है। साथ ही ब्रहृमा द्वारा सृष्टि आरंभ भी इसी दिन से मानने के कारण इस तिथि से संवत्सर की शुरूआत मानी जाती है।
नीम और गुड़ खाकर ऐसे बढ़ाएं सुख और साख
गुड़ी पड़वा यानी हिंदू नव वर्ष का पहला दिन। इस दिन नए साल के स्वागत में उत्सव मनाया जाता है। गुड़ी का अर्थ होता है विजय ध्वज। इस संबंध में ऐसी मान्यता है कि इस दिन भगवान श्रीराम ने बाली को मारा था। बाली के त्रास से मुक्त हुई प्रजा ने घर-घर में उत्सव मनाकर पताका (गुडिय़ां) फहराई।
गुड़ी को एक स्त्री का रूप दिया जाता है। एक लकड़ी के डण्डे के ऊपरी सिरे पर कलश रख उसके चारों ओर साड़ी लपेट दी जाती है। उसे फूलों की माला पहनाकर घर के द्वार पर लगा दी जाती है। उसकी पूजा-हवन किए जाते हैं। जिसके पीछे स्त्री के सम्मान का भाव भी जुड़ा है। किंतु इस दिन की खास परंपराओं में भोजन में श्रीखण्ड, पूरन पोली का विशेष महत्व है।
इन पूरन पोली या मीठी रोटीयों में गुड़, नीम के फूल, इमली, नमक और कच्चा आम खासतौर पर मिलाए जाते हैं। प्रतीकात्मक रूप से गुड़ बोल व व्यवहार में मधुरता के लिए, नीम के फूल मन से कलह व कड़वाहट को दूर रखने और इमली व आम की खटाई जीवन के उतार-चढ़ाव में संतुलन का संदेश हैं।
इस दिन औषधी के रूप में नीम की पत्तियाँ, काली मिर्च, अजवाइन, मिश्री और सौंठ भी खाए जाते हैं, जो अपने औषधीय गुणों के असर से व्यक्ति को निरोग, सबल, ऊर्जावान बनाते हैं। साथ ही शरीर को बढते तापमान के अनुकूल भी बनाते हैं।
इस तरह नीम, गुड़ और खटाई खाने के पीछे व्यावहारिक संकेत यही हैं कि जीवन में कटु बातों और व्यवहार को भुलाकर हम प्रेम और स्नेह के मार्ग पर चलें। निराशा को हटाकर उत्साह से आगे बढ़ें। लोभ, निंदा, कटु बोल, बुरी आदतें, असंयम और गलत लोगों का साथ छोड़ें। ईश्वर के प्रति आस्थावान होकर अपने कर्तव्यों का पालन नि:स्वार्थ भाव से करें। आपकी ऐसी सोच ही आपके तन, मन को सुख देने के साथ ही साख बढ़ाने वाली भी साबित होगी।
क्यों ॐ कहलाता है प्रणव मंत्र?
सनातन धर्म और ईश्वर में आस्था रखने वाला हर व्यक्ति देव उपासना के दौरान शास्त्रों, ग्रंथों में या भजन और कीर्तन के दौरान ॐ महामंत्र को अनेक बार पढ़ता, सुनता या बोलता है। धर्मशास्त्रों में यही ॐ प्रणव नाम से भी पुकारा गया है। असल में इस नाम से जुड़े गहरे अर्थ हैं, जो अलग-अलग पुराणों और शास्त्रों में तरह से बताए गए हैं। यहां हम जानते शिव पुराण में बताए ॐ के प्रणव नाम से जुड़े भाव और महत्व को -
शिव पुराण में प्रणव के अलग-अलग शाब्दिक अर्थ और भाव बताए गए हैं। जिनके मुताबिक -
- प्र यानी प्रपंच, न यानी नहीं और व: यानी तुम लोगों के लिए। सार यही है कि प्रणव मंत्र सांसारिक जीवन में प्रपंच यानी कलह और दु:ख दूर कर जीवन के अहम लक्ष्य यानी मोक्ष तक पहुंचा देता है। यही कारण है ॐ को प्रणव नाम से जाना जाता है।
- दूसरे अर्थों में प्रनव को प्र यानी यानी प्रकृति से बने संसार रूपी सागर को पार कराने वाली नव यानी नाव बताया गया है।
- इसी तरह ऋषि-मुनियों की दृष्टि से प्र - प्रकर्षेण, न - नयेत् और व: युष्मान् मोक्षम् इति वा प्रणव: बताया गया है। जिसका सरल शब्दों में मतलब है हर भक्त को शक्ति देकर जनम-मरण के बंधन से मुक्त करने वाला होने से यह प्रणव है।
- धार्मिक दृष्टि से परब्रह्म या महेश्वर स्वरूप भी नव या नया और पवित्र माना जाता है। प्रणव मंत्र से उपासक नया ज्ञान और शिव स्वरूप पा लेता है। इसलिए भी यह प्रणव कहा गया है।
यह मौत में भी देता है साथ!
यह सभी जानते हैं कि जन्म के समय हर व्यक्ति खाली हाथ आता है और मौत होने पर खाली हाथ चला जाता है। यहां तक कि माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी, पुत्र, पुत्री सहित अनेक संबंधी भी मृत शरीर का साथ छोड़ देते हैं। किंतु धर्म शास्त्रों में लिखी बातों पर गौर करें तो व्यक्ति अकेला नहीं जाता है, बल्कि उसके साथ जाने वाला भी कोई होता है। कौन है वह जो हर व्यक्ति के साथ जीवन ही नहीं मृत्यु में भी साथ निभाता है? जानते हैं -
धर्म शास्त्रों में यह बात गहराई से समझकर व्यवहार में अपनाई जाए तो संभवत: व्यक्ति ही नहीं हमारे आसपास फैले अशांत और कलह भरे माहौल को खुशहाल बना सकती है। क्योंकि यह बात जीवन से जुड़ी सच्चाई ही उजागर नहीं करती बल्कि व्यावहारिक संदेश भी देती है।
शास्त्र लिखते हैं कि -
मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्टलोष्टसमं जना:।
मुहूर्तमिव रोदित्वा ततोयान्ति पराङ्मुखा:।।
तैस्तच्छरीमुत्सृष्टं धर्म एकोनुगच्छति।
तस्माद्धर्म: सहायश्च सेवितव्य: सदा नृभि:।।
इसका सरल और व्यावहारिक अर्थ यही है कि मृत्यु होने पर व्यक्ति के सगे-संबंधी भी उसकी मृत देह से कुछ समय में ही मोह या भावना छोड़ देते हैं और अंतिम संस्कार कर चले जाते हैं। किंतु इस समय भी मात्र धर्म ही ऐसा साथी होता है, जो उसके साथ जाता है।
इस बात में संकेत यही है कि धर्म पालन यानि व्यक्ति द्वारा जीवन में किए गए अच्छे काम ही उसकी पहचान, व्यक्तित्व और चरित्र बनाते हैं। यह तभी संभव है जब व्यक्ति ने जीवन में स्वभाव, व्यवहार और बोल में प्रेम, सच, दया, भलाई जैसी बातों को अपनाया हो। इसलिए माना गया है कि ऐसा व्यक्ति मृत्यु के बाद भी लोगों की यादों में हमेशा जीवित रहता है।
धर्म के नजरिए से यही भाव व्यक्ति की मृत्यु होने पर धर्म के साथ जाने से जुड़ा है। इसलिए जहां तक संभव हो जिंदग़ी में अच्छा और ऊंचा उठने का संकल्प रखें। ताकि जीवन में ही नहीं मौत के पहले भी मन अशांत और बेचैन न रहे।
इन 6 बुराईयों को दूर कर बने सफल व धनवान
धन-संपत्ति या सुख-सुविधाओं की चमक किसी न किसी रूप में अपना असर दूसरों पर भी छोड़ती है। इनका प्रभाव या आकर्षण किसी के भी मन में वैसे ही सुखों को पाने की चाहत पैदा करता है। गुणी व्यक्ति में यह चाहत प्रेरणा के रूप दिखाई देती है, तो गलत व्यक्ति किसी छोटे रास्ते इनको पाने के लिए गलत कामों को चुनते हैं। वहीं धर्म की नजरिए से सुख पाने का सबसे अच्छा उपाय है- कर्म।
धर्म शास्त्रों में ऐश्वर्य और ऊंचाई पाने के लिए कर्म से ही जुड़े कुछ व्यावहारिक दोषों को दूर करना भी अहम माना है। जिसके बिना कोई भी व्यक्ति दु:ख और पतन की खाई में गिर सकता है। खासतौर पर सफलता के लिए बेताब आज की युवा पीढ़ी के लिए यह छ: दोष दूर करना बहुत जरूरी है।
हिन्दू धर्म शास्त्र महाभारत में लिखा है कि -
षड् दोषा: पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता।।
यहां बताए ये छ: दोष या दुर्गुणों का व्यावहारिक अर्थ कुछ ऐसा है -
नींद - अधिक सोना समय को खोना माना जाता है, साथ ही यह दरिद्रता का कारण बनता है, इसलिए नींद भी संयमित, नियमित और वक्त के मुताबिक हो।
तन्द्रा - तन्द्रा यानि ऊँघना निष्क्रियता की पहचान है। यह कर्म और कामयाबी में सबसे बड़ी बाधा है।
डर - भय व्यक्ति के आत्मविश्वास को कम करता है। जिसके बिना सफलता संभव नहीं।
क्रोध - क्रोध व्यक्ति के स्वभाव, गुणों और चरित्र पर बुरा असर डालता है।
आलस्य - आलस्य लक्ष्य को पाने में सबसे बड़ी कमजोरी है। संकल्पों को पूरा करने के लिए जरूरी है आलस्य को दूर ही रखें।
दीर्घसूत्रता - इसका सीधा मतलब है जल्दी हो जाने वाले काम में अधिक देर नहीं होना चाहिए।
स्त्री की कामयाबी तय करते हैं ये सूत्र
आज महिलाएं हर क्षेत्र में अपने गुण, योग्यता और ताकत का लोहा मनवा रही है। जिससे वे सारी दकियानूसी सोच और परंपराएं पीछे छूटती चली जा रही हैं, जिससे घर की दहलीज के अंदर स्त्री की जिंदगी तमाम हो जाती है। इस बात का मतलब यह नहीं है कि आज कामकाजी स्त्रियां बेहतर और गृहस्थ महिला कमतर है। बल्कि यही बताना है कि स्त्रियां दोनों ही रूपों में समान रूप और जज्बे से जिम्मेदारियों को पूरा करती है।
धर्म शास्त्रों में भी ऐसी ही अनेक गृहस्थ और पतिव्रता स्त्रियों के बारे में लिखा गया है, जो आज भी हर नारी के लिए आदर्श और प्रेरणा है। भारतीय संस्कृति में ही ऐसे ही गुणों के लिए शक्ति रूपा माता सीता को याद किया जाता है। अनेक लोगों माता सीता के जीवन को संघर्ष से भरा भी मानते हैं, लेकिन असल में उनके ऐसे ही जीवन में हर कामकाजी या गृहस्थ स्त्री के लिए बेहतर और संतुलित जीवन के अनमोल सूत्र छुपे हैं। जानते हैं ये संदेश -
- माता सीता ने असाधारण पातिव्रत धर्म का पालन किया। वनवास श्रीराम को मिला, किंतु सीता ने महल के सारे सुख ओर दौलत के ऊपर पति का साथ सही माना।
- वनवास के दौरान रावण द्वारा अपहरण और अशोक वाटिका में रहने के दौरान शील, सहनशीलता, साहस और धर्म का पालन करने से नहीं चूकीं। उन्होंने रावण की ताकत और वैभव के आगे अपने पति श्रीराम और शक्ति के प्रति पूरा विश्वास ही नहीं रखा बल्कि अपने शील और साहस के बल पर रावण को भी झुकने को मजबूर किया।
- श्रीराम के द्वारा त्याग करने पर भी उस फैसले को कुल के सम्मान के लिए बिना किसी को दोषी ठहराए सीता ने पूरी सहनशीलता के साथ स्वीकार कर धर्म का पालन किया।
इन बातों का निचोड़ यही है कि आज की स्त्री भी सीता के पावन चरित्र की तरह ही सेवा, संयम, त्याग, शालीनता, अच्छे व्यवहार, हिम्मत, शांति, निर्भयता, क्षमा और शांति को जीवन में स्थान देकर कामकाजी और दाम्पत्य जीवन के बीच संतुलन के साथ सफलता और सम्मान भी पा सकती है।
ऐसे लोग हमेशा रहते हैं दु:खी
सुख के पीछे कहीं न कहीं पाने का भाव जुड़ा है तो दु:ख के पीछे खोने को। जहां व्यक्ति कोशिशों के जरिए ही कुछ पा सकता है, वहीं व्यक्ति के अपने दोष या खामियां ही उसके दु:ख का कारण बन जाती है। किंतु साधारण इंसान दु:खों में खुद के दोष ढूंढने के बजाय दूसरों को कारण मानकर विचार व व्यवहार करता है।
हिन्दू धर्म शास्त्रों में इंसान के विचार और व्यवहार को सही और संतुलित करने के लिए अनेक सूत्र बताते हैं। जिनसे हर व्यक्ति अपने दु:ख के कारण जानकर सुखी जीवन बीता सकता है।
धर्म ग्रंथ महाभारत में स्वभाव से जुड़ी कुछ ऐसी बातें बताई गई हैं, जिनके कारण कोई व्यक्ति हमेशा ही दु:खी रहता है। इन दोषों
को दूर कर हर व्यक्ति व्यावहारिक जीवन में बेहतर बदलाव ला सकता है।
महाभारत में लिखा है -
ईर्ष्या घृणो न संतुष्ट: क्रोधनो नित्यशङ्कित:।
परभाग्योपजीवी च षडेते नित्यदु:खिता:।।
सरल शब्दों में मतलब है कि जिन लोगों के स्वभाव में ऐसे दोष होते हैं, वह सदा संताप और कष्टों से घिर होते हैं -
- ईर्ष्या यानी जलन रखने वाला
- घृणा यानी नफरत करने वाला
- असंतोषी
- क्रोधी यानी गुस्सैल व्यक्ति
- हमेशा शंका करने वाला
- दूसरे के भाग्य पर जीवन जीने वाला यानी दूसरों पर पर आश्रित या सुखों पर जीवन बिताना।
तब नहीं होती श्री गणेश की पहली पूजा
हिन्दू धर्म में पंचदेवों को एक ही ईश्वर का अलग-अलग रूप और शक्तियां माना जाता है। यही कारण है कि जो व्यक्ति किसी भी कामना सिद्धि या हर काम में सफलता चाहता है, शास्त्रों के मुताबिक उसे एक नहीं बल्कि अनेक देवताओं की पूजा करना चाहिए। जिसके लिये श्री गणेश के संग सूर्यदेव, दुर्गा, शिव और श्री विष्णु की पूजा जरूरी बताई गई है।
ऐसी स्थिति में जबकि किसी भक्त की पंचदेवों में ही गहरी आस्था हो तो सबसे पहले किस देवता की पूजा करे? क्योंकि सामान्यत: श्री गणेश को पहले पूजने की परंपरा है। इस संबंध में शास्त्रों में बताया गया है कि समान भक्ति भाव होने पर भक्त को सबसे पहले गणेश नहीं बल्कि सूर्य देव की पूजा करनी चाहिए। जानते हैं इससे जुड़ी शास्त्रों में लिखी यह बात -
शास्त्र कहते हैं -
रविर्विनायकश्चण्डी ईशो विष्णुस्तथैव च।
अनुक्रमेण पूज्यन्ते व्युत्क्रमे तु महद् भयम्।।
इसका अर्थ है उपासक को पंचदेवों में सबसे पहले भगवान सूर्य उनके बाद श्री गणेश, मां दुर्गा, भगवान शंकर और भगवान विष्णु को पूजना चाहिए।
इन 10 लोगों को न दें सीख
शास्त्रों की सीख पर गौर करें तो धर्म जीवन को सुखी, शांत, अनुशासित और संयम से जीने की राह बताता है। किंतु व्यावहारिक सच यह भी है कि अनेक लोग दूसरों से अच्छी बात या अच्छे व्यवहार की अपेक्षा रखते हैं, किंतु दूसरों की ऐसी ही अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाते।
ऐसे लोग दूसरों को धर्म की बातें जैसे प्रेम, सत्य, परोपकार, दान, अच्छे आचरण की सीखे देने में पीछे नहीं रहता, किंतु सीखने या सुनने में रुचि नहीं लेते। कुछ लोग विवशता या स्वार्थ के कारण भी सही बातों को नजरअंदाज करते हैं। सीधे शब्दों में कहें तो ऐसे लोगों से धर्म की बात करना कलह, विवाद या अशांति का कारण बन सकता है।
धर्मग्रंथ महाभारत में किसी न किसी कारण से ऐसे ही धर्म विरोधी लोगों से दूर रहने की सीख दी गई है। जानते हैं कौन है वह दस लोग -
- नशेड़ी
- पागल
- क्रोधी
- लापरवाह
- भूखा
- कामी
- भयभीत
- थका हुआ
- जल्दबाजी करने वाला
- लालची या लोभी
व्यावहारिक रूप से भी ऐसे लोग मजबूरी, स्वार्थ या स्वाभाविक दोषों के कारण अच्छाई को नकारते हैं।
अगर चाहें रफ्तारभरी ज़िंदगी तो...
धर्मशास्त्रों से लेकर इंसानी जीवन पर गौर करें तो पता चलता है कि देव, दानव हो या मानव तीनों में ही एक बुराई दु:ख का कारण बनी। वह है - अहं। घमण्ड, दंभ, शेखी, हेकड़ी, नकचढ़ापन भी इसके ही अलग-अलग रूप है। आखिऱ ऐसा क्यों होता है कि नासमझ ही नहीं विद्वानों पर भी अहं हावी हो जाता है? यहां जानते हैं धार्मिक और व्यावहारिक नजरिया -
धर्म के नजरिए से इंसानी देह पांच तत्वों से बनी है। जिसमें मन और बुद्धि के साथ अहंकार भी स्वाभाविक रूप से बसता है। सरल शब्दों में अहंकार का मतलब किसी भी काम या कर्तव्य को पूरा करते यह भाव आ जाना कि सिर्फ मैं ही इस कार्य को करने के काबिल या समर्थ हूं।
व्यावहारिक जीवन के नजरिए से समझें तो बीता समय और यादें भी किसी भी व्यक्ति की सोच मे बदलाव लाकर अहं का कारण बन जाती है। यह सच जानते हुए भी कि समय और उसकी गति पर किसी का काबू नहीं होता या बीते समय में जाना असंभव है। फिर भी अनेक अवसरों पर व्यक्ति बुरे अनुभवों और यादों को मन में रखकर जीवन गुजारता है। जिसके चलते अच्छी हालात या समय आने पर वह भी दूसरें लोगों से बुरा व्यवहार या बातें भी करता है, जो अहं का ही रूप होता है।
अहं का कारण हमेशा बुरा अनुभव ही नहीं होता, बल्कि सफलता भी सिर चढऩे पर अहं का कारण बन सकती है। क्योंकि अनेक मौकों पर इंसान कामयाबी की खुशियों और यादों में इतना डूब जाता है कि दूसरों को कमतर समझ उपेक्षा या अपमान भी कर देता है, जो असल में अहं ही होता है।
इस तरह बीते समय का दु:ख, सफलता का नशा और उससे बनी काल्पनिक सोच व माहौल भी अहंकार को पालता-पोषता है। किंतु दोनों ही हालात में अहं व्यावहारिक जीवन पर होने वाले बुरे असर से ज़िंदगी थम सी जाती है। जिससे बचने का एक ही सटीक उपाय है कि आज को सच मानकर और अपनाकर तनावरहित, शांत किंतु रफ्तारभरी जिंदगी बिताई जाए।
बुराइयों पर कहर ढाता है शनि का ऐसा रंग-रूप
हिन्दू धर्म में सूर्य पुत्र शनिदेव को पृथ्वी का न्यायदाता माना जाता है। जिसका अर्थ है वह ऐसे देवता हैं, जो अच्छे-बुरे कर्मों के हिसाब से जगत के प्राणियों को दण्ड देते हैं। दण्डाधिकारी होने से उनका स्वभाव क्रूर भी माना गया है। इसलिए शनि भक्ति के पीछे संदेश यही है कि व्यक्ति अच्छे कर्म, विचारों और संयम के साथ जीवन गुजारे।
असल में शास्त्रों में लिखी बातों पर गौर करें तो शनि की दशा हमेशा दु:ख देने वाली नहीं होती है। क्योंकि शनि देव के प्रसन्न होने पर अपार धन, सुख-संपदा मिलती है। किंतु रुष्ट होने पर व्यक्ति को गहरे दु:ख पाने के साथ सम्मान भी खो देता है। यह स्थिति तभी बनती है, जब व्यक्ति की सोच, व्यवहार या आचरण अपवित्र होते हैं।
शास्त्रों में राजा दशरथ द्वारा की गई शनि स्तुति में शनि का ऐसा अद्वितीय स्वरूप बताया गया है, जो बुराईयों और दुष्ट प्रवृत्तियों पर कहर बनकर टूटता है। जानते हैं कैसा है शनि का वह रूप?
- शनि का रंग कृष्ण या नीला भगवान शंकर की तरह है।
- उनकी दाढ़ी, मूंछ ओर जटा बढ़ी हुई और शरीर मांसहीन यानी कंकाल जैसा है।
- उनकी बड़ी-बड़ी गहरी और धंसी हुई आंखे हैं।
- पेट का आकार भयानक है, घोर तप से पेट पीठ से सटा हुआ है।
- उनका शरीर लंबा-चौड़ा किंतु रुखा है।
- उनकी दाढ़ें काल का साक्षात रूप मानी जाती हैं।
- इस भयानक रूप के साथ वह धीरे-धीरे चलते हैं।
यह धन कभी चोरी नहीं होता!
क्या ऐसा संभव है कि व्यक्ति हमेशा धनवान बना रहे और उसके धन की न हानि हो, न चोरी? चूंकि इंसानी जीवन में धन की अहमियत मात्र शारीरिक सुख और सुविधाओं को पाने तक ही नहीं बल्कि यह विचार और व्यवहार को भी नियत करने वाला होता है। इसलिए धन हानि इच्छापूर्ति, रोग या चोरी के रूप में हो ही जाती है। किंतु शास्त्रों में ऐसा ही धन बताया गया है, जिससे व्यक्ति हमेशा अमीर बना रहता है। जानते हैं कौन-सा है वह धन -
शास्त्रों में विद्या को ऐसा धन बताया गया है जो गुप्त भी होता है और सुरक्षित भी। विद्या या ज्ञान इंसान के चरित्र, आचरण और व्यक्तित्व को उजला बनाने वाली होती है। शास्त्रों में लिखी यह बात साफतौर पर जीवन में विद्या के महत्व को उजागर करती है-
लिखा है कि -
विद्या नाम कुरूपरूपमधिकं विद्यापति गुप्तं धनं।
विद्या साधुकरी जनप्रियकरी विद्या गुरूणां गुरु:।।
विद्या बन्धुजनार्तिनाशनकरी विद्या परं दैवतं।
विद्या राजसु पूजिता हि मनुजो विद्याविहीन: पशु:।।
सरल शब्दों में जानें तो विद्या बदसूरत व्यक्ति को भी खूबसूरत बना देती है। यही नहीं यह व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार को पावन कर लोकप्रिय व भरोसेमंद भी बनाती है। यह व्यक्ति की ही नहीं बल्कि परिवार को भी संकट से बचाती है। विद्वान के आगे ऊंचे पद पर बैठा व्यक्ति भी झुक जाता है।
इस तरह विद्या से दूर इंसान पशु के समान माना गया है। किंतु विद्या या विद्वानता ऐसा धन है, जिसे कोई दूसरा किसी भी तरह से चुरा नहीं सकता।
यह था श्रीराम के पुत्र लव-कुश का वंश
हिन्दू धर्म में भगवान श्रीराम विष्णु अवतार माने जाते हैं। श्रीराम ने धर्म, नीति, चरित्र और आचरण से ऐसे आदर्श स्थापित किए कि वह मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम से पूजनीय हैं। पुराणों के मुताबिक भगवान राम सूर्यवंशी राजा दशरथ के पुत्र थे।
सामान्यत: धर्मावलंबी भगवान राम के वंश और कुल के साथ उनके दो पुत्रों लव-कुश के बारे में तो जानते हैं, लेकिन अनेक लोग उनके भाई लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के पुत्र और कुश के पुत्र-पौत्र की जानकारी नहीं रखते। इसलिए जानते हैं इससे ही जुड़ी रोचक बातें -
- भगवान श्री राम के भाई भरत के दो पुत्रों का नाम तार्क्ष और पुष्कर।
- लक्ष्मण का पुत्र चित्रांगद और चन्द्रकेतु
- शत्रुघ्न के पुत्र सुबाहु और शूरसेन
इसी तरह राम पुत्र कुश का वंश इस तरह आगे बढ़ा -
कुश - अतिथि - निषध - नल - नभ - पुण्डरीक - क्षेमन्धवा - देवानीक - अहीनक - रुरु - पारियात्र - दल - छल - उक्थ - वज्रनाभ - गण - उषिताश्व - विश्वसह - हिरण्यनाभ - पुष्पक - ध्रुवसन्धि - सुदर्शन - अग्रिवर्ण - पद्मवर्ण - शीघ्र - मरु - सुश्रुत - उदावसु - नन्दिवर्धन - सकेतु - देवरात - बृहदुक्थ - महावीर्य - सुधृति - धृष्टकेतु - हर्यव - मरु - प्रतीन्धक - कुतिरथ - देवमीढ़ - विबुध - महाधृति - कीर्तिरात - महारोमा - स्वर्णरोमा - ह्रस्वरोमा - सीरध्वज
कुश वंश के राजा सीरध्वज को सीता नाम की एक पुत्री हुई। सूर्यवंश इसके आगे भी बढ़ा, जिसमें कृति नामक राजा का पुत्र जनक हुआ, जिसने योगमार्ग का रास्ता अपनाया था।
गृहस्थी पर संकट का संकेत हैं ये 6 बातें
हिन्दू धर्मशास्त्रों की दृष्टि से गृहस्थ जीवन चार पुरुषार्थों को पाने का अहम चरण है। सुखी, शांत और लंबे गृहस्थ जीवन के लिए आपसी विश्वास, सहयोग, संतोष, मन और विचारों में तालमेल जैसी बातें जरूरी होती है। चूंकि काल पर किसी का काबू नहीं होता, इसलिए अच्छा या बुरा समय भी गृहस्थ जीवन में आता है। जिसके लिए हर व्यक्ति को पूरी तरह से तैयार रहना चाहिए। शास्त्रों में कुछ ऐसी ही बातें लिखी हैं जो व्यक्ति को परिवार पर आने वाले संकट के संकेत देती हैं। जिनको पहचान कर समय रहते गृहस्थी को कलह से बचाया जा सकता है।
जानते हैं वह 6 बातें जिनसे गृहस्थ जीवन में उथल-पुथल मच सकती हैं -
बुद्धिहीन पुत्र - ऐसे पुत्र के गलत कामों, खराब आचरण और गंदे चरित्र से परिवार भी लज्जित और संकट में पड़ जाता है।
कलहप्रिय स्त्री - अशांत स्वभाव की स्त्री से घर में कलह पैदा होता है। आपसी कटुता से गृहस्थी की गाड़ी डगमगा जाती है।
रोग - बार-बार बीमारी का प्रकोप परिवार के हर सदस्य पर मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से बुरा असर डालता है।
दारिद्रय - घर या परिवार के सदस्यों में किसी भी रूप में अपवित्रता दरिद्रता के संकेत है, जिससे परिवार विपत्तियों में पड़ सकता है।
कुअन्न का भोजन - आहार शुद्धि ही तन, मन, व्यवहार और विचार को पवित्र बनाती है। किंतु घर में अशुद्ध या मांसाहार भोजन के रूप में अपवित्रता परेशानियों का कारण बन सकती है।
कलंक - परिवार और व्यक्ति की प्रतिष्ठा व मान-सम्मान एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। इसलिए किसी भी व्यक्ति के गलत आचरण, चरित्र से लगा कलंक परिवार में बिखराव ला सकता है।
धर्म उपदेशों में बताई इन बातों को अगर आप भी गृहस्थ जीवन में घटता देखें तो सावधान होकर इनको सुलझाने की हर संभव कोशिश करें। तभी तनाव, कलहमुक्त जीवन का लुत्फ संभव होगा।
यह है असफलता से बचने का अहम सूत्र
सफलता इंसान को ऊर्जावान बनाती है। कामयाबी इंसान को शरीर, मन और विचारों के स्तर पर पूरे विश्वास और उत्साह से भर देती है। तब असंभव बातें भी संभव लगती है। कामयाबी से साधारण व्यक्ति भी असाधारण बनकर दूसरों की नजरों में प्रेरणा बन जाता है। अनेक लोग मात्र धन, सुविधा या अनुकूल हालात को ही ऐसी सफलता का कारण मानते हैं। जबकि धर्मशास्त्रों के मुताबिक कामयाबी के लिए इन बातों के अलावा भी एक गुण अहम है, जो हर इंसान में होना जरूरी है। जानते हैं यह खूबी -
असल में जीवन में काम ही इंसान को पहचान और सम्मान देता है। हिन्दू धर्म शास्त्रों में भी कर्म को ही सुख और सफलता का मंत्र बताया गया है। यह कर्म तभी संभव है जब इंसान में उद्यम यानी मेहनत और परिश्रम का भाव संकल्प की तरह मौजूद रहे। यही कारण है कि शास्त्र लिखते हैं कि -
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महिरिपु:।
नास्त्युद्यमसमो बन्धु: कुर्वाणो नावसीदति।।
संदेश है कि परिश्रम की भाव ही हर इंसान का सबसे अच्छा मित्र है। जिसके रहते कोई भी व्यक्ति कभी भी नाकामी या पतन का सामना नहीं करता है। जबकि इसके विपरीत आलस्य यानी काम को टालने या बचने की मानसिकता इंसान के लिये दुश्मन बनकर बार-बार नाकामयाबी का मुंह देखने को मजबूर करती है।
गुणों की अनदेखी से आती हैं ये 3 आफतें
धर्मशास्त्रों की शिक्षाओं से यह संदेश मिलता है कि धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य का संघर्ष युगों से चलता आ रहा है और आगे भी जारी रहेगा। किंतु आख़िरकार किसी न किसी रूप से बाजी धर्म के पक्ष में ही झुकती है। फिर चाहे ऊपरी तौर पर अधर्म या बुराई ही ज्यादा दु:ख देने वाली दिखाई दे।
व्यावहारिक रूप से भी समझें तो परिवार, समाज या कार्यक्षेत्र में पद, पैसा या सुखों की चाहत में इंसान पर श्रेष्ठता का अहं, स्वार्थ या हित की भावना इतनी हावी हो जाती है कि तब वह सही या गलत का फर्क समझें बगैर क्षणिक लाभ के लिये योग्यता या गुणी व्यक्तियों की उपेक्षा, अनदेखी या अहित करने को भी सही ठहराता है। लेकिन वह भूल जाता है लंबे वक्त के लिये यह सोच या नीति अनचाहे दु:ख और संकट का कारण बन सकती है।
हिन्दू धर्मग्रंथ शिव पुराण में प्रजापति दक्ष द्वारा श्रेष्ठता के दंभ में भगवान शिव के अपमान के बाद आया संकट इस बात का ही संदेश देते हैं। इस प्रसंग में साफतौर पर सीख दी गई है कि जब पूजनीय लोगों के स्थान पर अपूज्यनीय लोगों को पूजा जाता है। वहां दरिद्रता, मृत्यु या भय इन तीन मुसीबतों का सामना जरूर करना पड़ता है।
संकेत यही है कि जीवन में बड़े सुखों की चाहत में क्षण भर के लिए भी विवेक (सही और गलत का फर्क) का साथ न छोड़ स्वयं के साथ दूसरों की काबिलियत और सम्मान को अहमियत दें। इससे मिली सफलता तमाम संकटों से रक्षा कर चैन के साथ सहयोग और प्रेम भी लाएगी।
देवी-देवता भी पूजते हैं ऐसे अद्भुत शिवलिंग
हिन्दू धर्म व शैव शास्त्रों में पंचदेवों में भगवान शिव को परब्रह्म माना गया है। ब्रह्मरूप होने के कारण शिव को निष्कल यानि निराकार भी माना गया है। शिव का निराकार रूप शिवलिंग के रूप में पूजित है। धार्मिक मान्यताओं में शिवलिंग पूजा सभी तरह के संताप को दूर कर कल्याणकारी मानी गई है। शास्त्रों के मुताबिक आशुतोष शिव की प्रसन्नता के लिए देवता, ऋषि-मुनियों यहां तक कि दैत्यों ने भी शिवलिंग पूजा से शक्ति और कामनाओं की पूर्ति की। शिवपुराण में अलग-अलग देवी-देवताओं द्वारा भी अलग-अलग पदार्थो, धातु व रत्नों से बने शिवलिंग की पूजा करना बताया गया है। शिवपुराण में लिखा है कि भगवान विष्णु ने पूरे जगत के सुख और कामनाओं की पूर्ति के लिए भगवान विश्वकर्मा को अलग-अलग तरह के शिवलिंग बनाकर देवताओं को देने की आज्ञा दी। यहां जानते हैं विश्वकर्मा द्वारा किस-किस तरह के शिवलिंग देवताओं को दिए गए?
इन्द्र - पद्मराग
मणि कुबेर - सोना
धर्म - पुखराज
वरुण - श्याम या काले रंग
विष्णु - इन्द्रनील
ब्रह्मा - चमकीला सोने
विश्वेदेव - चांदी
वसुगण - पीतल
अश्विनी कुमार - पार्थिव लिंग
लक्ष्मी - स्फटिक
आदित्यगण - तांबे
सोम - मोती
अग्रिदेव - हीरे
ब्राह्मण - मिट्टी
मयासुर - चन्दन
नाग - मूंगा
देवी - मक्खन
योगी - भस्म
यक्ष - दही
ब्रह्मपत्नी - रत्न
बाणासुर - पारद या पार्थिव
यह है सुख के साथ संपत्ति पाने का सूत्र
धर्मशास्त्रों के मुताबिक कर्म ही व्यक्ति के सुख और दु:ख नियत करते हैं। फिर चाहे वह पूर्वजन्मों के हो या वर्तमान जीवन के। व्यावहारिक जीवन में भी देखा जाता है कि यही सुख और संपत्ति पाने के लिए हर इंसान तरह-तरह से कोशिशें करता है। वहीं दु:ख व संकट से बचने के लिए भी हरसंभव तरीके अपनाता है। किंतु सुख और दु:ख कब और कितना मिलेगा, यह जानना मुश्किल है। क्या कोई ऐसा उपाय है, जो हमेशा व्यक्ति को सुख पाने और दु:ख से दूर रहने की राह बता सके?
हिन्दू धर्मग्रंथ तुलसीकृत रामचरितमानस न केवल धार्मिक और आध्यात्मिक लाभ देता है, बल्कि इसमें लिखें धर्म उपदेश व्यावहारिक जीवन को साधने के सूत्र भी बताते हैं। यहां जानते हैं रामचरितमानस में लिखी वह चौपाई, जो खुशी को पाने और दु:खों से बचने के साफ और सीधे तरीके बताती है -
जहां सुमति तहं संपत्ति नाना। जहां कुमति तहं बिपत्ति निदाना।।
इस चौपाई का व्यावहारिक अर्थ यही है कि अच्छी सोच, आचरण और संगति से बना स्वभाव और व्यवहार मनचाहे सुख देने वाला होता है। जिसके लिए व्यक्ति शिक्षा, कुशल और परिश्रम को जीवन में स्थान दे। धर्म के नजरिए से इस बात का अर्थ है कि सद्बुद्धि व्यक्ति को बुरे कामों से दूर रख अनेक तरह के सुखों से जोड़ती है।
इसके विपरीत बुरे विचार, कर्म और साथ व्यक्ति के लिए दु:ख यानी विपत्ति का कारण बनते हैं। जिसे यहां कुमति बताया गया है। धर्म दर्शन भी यही है कि पाप कर्मों से बुद्धिदोष पैदा होता है और बुरी सोच गलत कामों से अलग नहीं होने देती, जो आखिरकार व्यक्ति के गहरे संकट का कारण बन जाती है।
मृत्यु को बुलावा है ऐसे काम
इंसानी स्वभाव होता है कि उसे दूसरों के दोष जल्दी नजर आ जाते हैं। लेकिन अपनी कमियों को पहचानने में चूक करता है। इस कमजोरी की वजह से इंसान अनेक परेशानियों का सामना करता है। फिर भी हर व्यक्ति स्वयं को र्निदोष या निष्पाप मानकर अपने आस-पास होने वाले दोष व अपराधों को देखता-सुनता तो है, पर अपने बारे में यह विचार करना नहीं चाहता कि वह भी किसी न किसी तरह से पाप से जुड़ा है।
दरअसल धर्म के नजरिए से कोई भी व्यक्ति पाप से अछूता नहीं। क्योंकि जीवन में हर व्यक्ति मन, वचन, कर्म से कोई न कोई पाप जरूर करता है। कुछ लोगों को पाप उजागर होता है, वहीं कुछ का पाप दबा रहता है। किंतु उसके भी बुरे नतीजे जरूर मिलते हैं। धर्म शास्त्र महाभारत में व्यावहारिक जीवन से जुड़े ऐसे ही पाप कर्म बताए गए हैं। जिनको करने से व्यक्ति पाप का भागी बनता है और ऐसे पापों का बढऩा ही अंत का कारण बनता है।
- घर में आग लगाना या कलह करवाना
- चुगली करना
- मित्र के साथ विश्वासघात
- परायी स्त्री को बुरी नजर से देखना, बुरा व्यवहार या संबंध बनाना
- गर्भ हत्या करने वाला
- ब्राह्मण होकर शराब पीना
- क्रूर स्वभाव वाला
- धर्म या ईश्वर का विरोध
- वेद की बुराई करना
- शराब बेचना
- हथियार वनाना या बेचना
- वाचालता या बकवास करना
- जहर देना
- गुरु की स्त्री से संबंध
- शक्तिशाली होते हुए किसी के द्वारा रक्षा की मांग करने पर भी उसके साथ हिंसा करना।
खुली शिव की तीसरी आंख और मच गया..
सनातन धर्म में फाल्गुन पूर्णिमा के दिन होलिकोत्सव के साथ ही बसंतोत्सव मनाया जाता है। वैसे माघ मास में वसंत पंचमी वसंत ऋतु के आने का संदेश दे जाती है। वसंत पंचमी से लेकर फाल्गुन पूर्णिमा तक कुदरत भी जैसे बसंत ऋतु के स्वागत में उल्लास से भरी दिखाई देती है और इसके आते ही उत्सव का सिलसिला फाल्गुन पूर्णिमा से लेकर चैत्र कृष्ण रंगपंचमी तक चलता है।
बसंतोत्सव और फाल्गुऩ माह सुख, सौंदर्य, शांति को अपनाने के साथ कामनाओं पर संयम का संदेश भी देता है। इस विशेष काल और अवसर से जुड़ी एक पौराणिक कथा और व्यावहारिक सूत्र है -
मान्यता है कि फाल्गुन माह में ही देवताओं के कहने पर कामदेव ने भगवान शंकर को काम आसक्त करने की कोशिश की। भगवान शंकर ने क्रोधित होकर अपने त्रिनेत्र खोलकर कामदेव को भस्म कर दिया। किंतु ऐसा करने से प्रकृति का सृजन चक्र रुक गया। तब कामदेव की पत्नी रती ने जगत के हित के लिए भगवान शंकर से अपने पति को फिर से प्राणदान करने की प्रार्थना की।
माना जाता है कि भगवान ने कामदेव को सशरीर तो नहीं किंतु भाव रूप में पूरे जगत के प्राणियों में और अपने नेत्रों में स्थान दिया। यही कारण है कि भगवान शंकर को संहार ही नहीं सृजन का देवता भी माना जाता है।
इस कथा में भगवान शंकर द्वारा काम को नेत्रों में बसाना इस बात का प्रतीक है कि चूंकि दृष्टि ही भाव पैदा करती है। जिससे सौंदर्य को देखकर मोह और काम भाव पैदा होता है। जिन पर धैर्य से काबू रखना चाहिए। क्योंकि अनुशासन और संयम से भरा काम योगी बनाता है यानी जीवन और जगत की सृजन चक्र की गति बनाए रखता है, किंतु असंयमित काम भोगी और रोगी बनाता है, जो अंतत: पतन का कारण बनता है।
नज़रों और सोच में हो ऐसा बेजोड़ सौंदर्य
खूबसूरती और मादकता का संगम हर किसी को मोहित कर देता है। ऐसा मोह ही कामनाएं पैदा करता है। असल में कुदरत और इंसान का अटूट रिश्ता है। मानव शरीर भी पंच भूतों यानी आकाश, पृथ्वी, आकाश, अग्रि और जल से बना है। यही कारण है कि प्राकृतिक बदलावों से इंसान का स्वभाव व व्यवहार भी बदलता है।
बसंत ऋतु का सुहाना मौसम भी मानव में इच्छाओं और मादकता को जन्म देता है। जिससे बसंत ऋतु में काम भाव प्रकृति और मानव दोनों में समाया होता है। काम भाव भी कामनाओं का ही एक रुप होता है। हिन्दू धर्म ग्रंथों में भी जीवन के चार पुरुषार्थों में काम को अहम माना जाता है। जिसके पीछे संयम भरे काम से सृजन का भाव जुड़ा है, जो प्रकृति और प्राणी दोनों के अस्त्तित्व के लिए जरूरी है।
बसंत के ही सुहाने मौसम के आने पर हिन्दू धर्म परंपराओं में होलिका दहन के बाद शुरू होता है बसंतोत्सव, जो मदनोत्सव का अंतिम दिन भी माना जाता है।
बसंत ऋतु को प्रकृति के श्रृंगार का समय माना जाता है। बसंत ऋतु के आते ही पेड-पौधों पर नई कोपलें आती है, चारों ओर हरियाली दिखाई देती है, टेसू और सेमल के गहरे लाल रंग के साथ ही अनेक रंगों के फूल और उनकी सुगंध, उन पर मंडराते भंवरे और तितलियां, इसके साथ खेतों में सरसों के पीले फूलों से प्रकृति भी सुन्दर और मादक दिखाई देती है।
यही कारण है कि बसंत ऋतु को ऋतुराज माना जाता है। वसंत ऋतु जगत को समानता का संदेश देती है। जिस तरह बसंत ऋतु का प्रभाव छोटे-बड़े सभी पेड-पौधों पर समान रूप से दिखाई देता है। उसी तरह हर इंसान को अपने जीवन में परिवार, समाज में ऊंच-नीच, छोटे-बड़े की भावना को छोड़कर समानता के भावों को स्थान देना चाहिए। जिससे मानवता के साथ दृष्टि और विचारों की खूबसूरती भी बनी रहे।
ये हैं धन पाने और बचाने के 4 तरीके
धन व्यक्ति के शरीर, मन और व्यवहार में असाधारण ऊर्जा और विश्वास भर देता है। वहीं धन के अभाव से बलवान व्यक्ति का जोश, उत्साह और मानसिक बल भी डांवाडोल हो जाता है। यही कारण है कि सांसारिक जीवन में सुख बंटोरने की चाहत से व्यक्ति धन कमाने ही नहीं, बल्कि उसे बचाने के लिए भी भरपूर कोशिश करता है।
इंसान की धन की इसी जरूरत को ही ध्यान में रखकर विचारे करें तो क्या कोई ऐसा उपाय है? जिससे कोई भी व्यक्ति धन कमा और बचा सकता है। धन की इसी अहमियत को समझाते हुए हिन्दू धर्मग्रंथ महाभारत में लक्ष्मी को पाने और उसकी प्रसन्नता बनाए रखने के कुछ अहम सूत्र बताए गए हैं। जानते हैं ऐसे ही चार तरीके -
कहा गया है कि -
श्रीर्मङ्गलात् प्रभवति प्रागल्भात् सम्प्रवर्धते।
दाक्ष्यात्तु कुरुते मूलं संयमात् प्रतितिष्ठत्ति।।
इस श्लोक में साफ तौर पर चार सूत्र बताए गए हैं। समझते है इनका शाब्दिक व व्यावहारिक मतलब -
- पहला अच्छे कर्म से लक्ष्मी आती है। व्यावहारिक नजरिए से परिश्रम या मेहनत और ईमानदारी से किए गए कामों से धन की आवक होती है।
- दूसरा प्रगल्भता सरल शब्दों में धन का सही प्रबंधन यानी बचत से वह लगातार बढ़ता है।
- तीसरा चतुरता यानी अगर धन का सोच-समझकर उपयोग, आय-व्यय का ध्यान रखा जाए तो अधिक धन का संतुलन बना रहता है।
- चौथा और अंतिम सूत्र संयम यानी मानसिक, शारीरिक और वैचारिक संयम रखने से धन की रक्षा होती है। सरल शब्दों में कहें तो सुख पाने और शौक पूरा करने की चाहत में धन का दुरुपयोग न करें।
यह चार संदेश देती हैं श्री गणेश की चार भुजाएं
हिन्दू धर्मशास्त्रों के मुताबिक कलियुग में भगवान गणेश के धूम्रकेतु रूप की पूजा की जाती है। जिनकी दो भुजाएं होती है। किंतु भगवान गणेश का चार भुजाधारी स्वरूप भी पूजनीय है। जिनमें से एक हाथ में अंकुश, दूसरे हाथ में पाश, तीसरे हाथ में मोदक व चौथे में आशीर्वाद है। श्री गणेश के चार हाथ प्रतीक रूप में जीवन से जुड़े कुछ संदेश देते हैं -
पहले हाथ में अंकुश इस बात का सूचक है कि कामनाओं यानी वासना व विकारों पर संयम जरूरी है।
पाश नियंत्रण, सयंम और दण्ड का प्रतीक है। हर व्यक्ति को स्वयं के आचरण और व्यवहार में इतना संयम और नियंत्रण रखना जरूरी है, जिससे जीवन का संतुलन बना रहे।
मोदक यानि जो मोद (आनन्द) देता है, जिससे आनन्द प्राप्त हो, संतोष हो, इसका गहरा अर्थ यह है कि तन का आहार हो या मन के विचार वह सात्विक और शुद्ध होना जरूरी है। तभी आप जीवन का वास्तविक आनंद पा सकते हैं।
मोदक ज्ञान का प्रतीक है। जैसे मोदक को थोड़ा-थोड़ा और धीरे-धीरे खाने पर उसका स्वाद और मिठास अधिक आनंद देती है और अंत में मोदक खत्म होने पर आप तृप्त हो जाते हैं, उसी तरह वैसे ही ऊपरी और बाहरी ज्ञान व्यक्ति को आनंद नही देता परंतु ज्ञान की गहराई में सुख और सफलता की मिठास छुपी होती है।
इस प्रकार जो अपने कर्म के फलरूपी मोदक भगवान के हाथ में रख देता है, उसे प्रभु आशीर्वाद देते हैं। यही चौथे हाथ का संदेश है।
काम भारी और मुश्किल लगता है, क्योंकि..
साधारण व्यक्ति के लिए धर्म पर बात करना तो सरल है, लेकिन धर्म को जीवन में उतारना या व्यवहार में अपनाना उतना ही मुश्किल। मानवीय स्वभाव भी होता है कि वह आसानी, सुविधा और अच्छा व्यवहार चाहता है और बुरे समय या बातों से दूर रहना पसंद करता है। किंतु मुश्किल काम या हालात को आसान और अनुकूल बनाना तभी संभव है जब व्यवहार, विचार और स्वभाव में कुछ जरूरी बदलाव लाए जाए।
धर्मशास्त्रों में बताए कुछ सूत्र हर व्यक्ति को धर्म से जोड़कर व्यावहारिक जीवन को भी सुखी और शांत बनाते हैं। जानते हैं क्या कहते हैं ये सूत्र? लिखा गया है कि -
असता धर्मकामेन विशुद्धं कर्म दुष्करम्।
सता तु धर्मकामेन सुकरं कर्म दुष्करम्।।
शाब्दिक अर्थ है धर्म की कामना करने वाले इंसान का आचरण अगर बुरा है तो उसके लिए पवित्र काम करना कठिन है। किंतु अगर उसका आचरण पवित्र है तो उसके लिए मुश्किल काम भी आसान हो जाते हैं।
व्यावहारिक मतलब यही है कि जो व्यक्ति अपनी खुशियों और कामयाबी के साथ दूसरों से भी प्रेम, सहयोग और सम्मान चाहता है तो पहले वह स्वयं अपने बोल, व्यवहार व सोच में सुधार लाए। वह कटु बोल, दूसरों के अपमान या उपेक्षा, ईर्ष्या जैसे बुरे भावों को छोड़ दे। इन बदलावों से दूसरों का भरपूर प्रेम, सम्मान, मदद और भरोसा व्यक्ति को मिलेगा।
यह बात परिवार, कार्यक्षेत्र और पूरे जीवन पर लागू होती है। ऐसा होने पर आप कहीं भी हो, वहां हर पल और काम आसान बन जाएगा।
यह है शीतला माता के रूप और शक्ति से जुड़ा विज्ञान
ऋषि-मुनियों और तपस्वियों ने मौसम में होने वाले बदलावों के कारण होने वाले इन रोगों को अपने ज्ञान और अनुभव से पहचाना। अत: इन रोगों से बचाव के लिए ही धार्मिक परंपराओं में इन रोगों के उपचार और शमन के अचूक उपाय जोड़े। यह उपाय मनुष्य को धर्म से जोड़कर तन के साथ ही मन को भी संयमित और अनुशासित रहना सिखाते हैं। ऐसे ही रोगों में चेचक नामक रोग का प्रकोप खासतौर पर गर्मी के मौसम में भारत ही नहीं दुनिया के अनेक स्थानों पर आज भी देखा जाता है। इसे भारतीय समाज में माता या शीतला के नाम से भी जाना जाता है।
हिन्दू धार्मिक परंपराओं में चैत्र माह कृष्ण पक्ष अष्टमी को शीतलाष्टमी का व्रत रखा जाता है। इसमें भगवती स्वरूप शीतलादेवी को बासी या शीतल भोजन का भोग लगाया जाता है। इसलिए यह व्रत बसोरा नाम से भी जाना जाता है।
धार्मिक दृष्टि से यह व्रत शीतला माता की प्रसन्नता के लिये किया जाता है। किंतु वैज्ञानिक दृष्टि से इस व्रत को रखने का आशय इस रोग से बचाव व इसकी पीड़ा का शमन करना ही है। धर्मशास्त्रों में भी इस रोग का संबंध माता के गर्भ से ही बताया गया है। जिसके अनुसार जब बालक गर्भ में होता है तब उसकी नाभि माता के ह्दय से एक रक्त नली द्वारा जुडी होती है। उसी से उसका पोषण भी होता है। यही संधि स्थान ही इस रोग का मुख्य केन्द्र माना जाता है। गर्भ से बाहर आने पर कालान्तर में अनियमित खान-पान और मौसम के बदलाव से व्यक्ति के माता से प्राप्त इसी रक्त में दोष पैदा होने से चेचक नामक रोग उत्पन्न होता है। विशेष रुप से गर्मी के मौसम में यह भीषण प्रकोप होता है।
इस व्रत और रोग के संबंध में धार्मिक दर्शन यह है कि पुराणों में माता के सात मुख्य रूप बताए गए हैं। ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, इन्द्राणी और चामुण्डा। धर्मावलंबी इनमें से भाव के अनुसार किसी माता को सौम्य एवं किसी को उग्र भाव मानते हैं। इस रोग से कौमारी, वाराही और चामुण्डा को प्रभाव भयानक माना जाता है। जिसके संयम और लापरवाही की स्थिति में रोगी के नेत्र, जीभ के साथ ही शरीर से हमेशा के लिए असहाय हो जाता है।
पुराणों में माता शीतला के रूप का जो वर्णन है, उसके मुताबिक उनका वाहन गधा बताया गया। उनके हाथ में कलश, झाडू होते हैं। वह नग्र स्वरुपा, नीम के पत्ते पहने हुए और सिर पर सूप सजाए हुए होती है। चेचक रोग की दृष्टि से इस स्वरुप की प्रतीकात्मकता यह है कि चेचक का रोगी बैचेन होकर निर्वस्त्र हो जाता है। संक्रमण से बचाने के लिए उसे सूप हिलाकर हवा से ठंडक करते हैं और झाडू से चेचक के फोडे फट जाते हैं। नीम के पत्ते औषधीय गुणों के कारण फोडों को सडऩे नहीं देते। कलश का यह महत्व है कि बुखार में तपते रोगी को ठंडा जल अच्छा लगता है। गधे का स्वभाव भी सहनशील और धैर्यवान माना जाता है। जो यह सीख देता है कि चेचक का रोगी भी इस रोग की पीड़ा में सहनशील रहकर उचित समय तक संयम रखने पर इस रोग से मुक्ति पा सकता है। ऐसा माना जाता है कि गधे की लीद से चेचक के दाग हल्के हो जाते हैं।
संदेश यह है कि मौसम और जीवन के बदलाव में संयम, धैर्य और अनुशासन से से जीवन बीताने पर ही सुख और शांति संभव है। नहीं तो मृत्यु के समान दु:ख भोगना पड़ सकते हैं।
सुख-शांति के लिए इन 9 बातों को गुप्त रखें
इंसान के स्वभाव में एक रोचक बात होती है कि दूसरों की जिन बातों में वह फायदा देखता है, उसे तुरंत जानना चाहता है। किंतु जिन बातों से वह स्वयं लाभ कमाता है, वह यथासंभव उजागर नहीं करना चाहता। ऐसी सोच इंसान के कर्म, व्यवहार और स्वभाव को भी नियत करती है। इसलिए हर व्यक्ति को कोशिश जरूर करना चाहिए कि ऐसी सोच जीवन और रिश्तों में नकारात्मक नतीजे न लाए। शास्त्रों में भी ऐसी ही कुछ बातों को गुप्त रखने की सीख दी गई है, जिनसे कोई भी इंसान अनचाहे कलह से बच सकता है।
शास्त्रों के मुताबिक नीचे लिखी नौ बातें किसी भी व्यक्ति को अनचाही परेशानी से बचा सकती है -
वित्त यानी धन - धन किसी भी व्यक्ति की ताकत का पैमाना होता है। यह दूसरों का आपके प्रति व्यवहार नियत ही नहीं करता, बल्कि इसके उजाग़र होने पर शत्रु द्वारा या मित्र के मन भी लोभ आने पर किसी न किसी रूप में हानि पहुंचाई जा सकती है।
गृहछिद्र यानी घर की फूट - घर या परिवार का आपसी कलह उजागर होना परिवार के साथ हर सदस्य को व्यक्तिगत, व्यावहारिक और सामाजिक स्तर पर नुकसान का कारण बनता है।
मंत्र - शास्त्रों के मुताबिक गुरु हो या इष्ट मंत्र, इनको गुप्त रखने पर ही इनकी शक्तियों का लाभ मिलता है।
औषध - शास्त्रोक्त मान्यता है कि औषधी के शुभ प्रभाव गुप्त रखने पर ही होते हैं।
मैथुन - शास्त्रों में इंसान के लिए काम यानी मैथुन क्रिया की मर्यादा नियत की गई है। जिनका भंग होना या इसका उजाग़र होना चरित्र हनन का कारण बनता है।
दान - धार्मिक दृष्टि से गुप्त दान बहुत ही पुण्य देने वाला होता है, जबकि दान देकर बताना अपयश का कारण बनता है।
मान - अपनी मान-प्रतिष्ठा का बखान भी अहं पैदा करता है, जिससे अनेक स्वाभाविक दोष पैदा होते हैं।
अपमान - अनेक मौकों पर अपमान को छुपा लेना या पचा लेना व्यक्ति के लिए हितकारी होता है। बार-बार स्वयं के अपमान को उजागर करना व्यक्ति की कमजोरी बताने के साथ ही स्वयं के मानसिक कष्टों का कारण भी बनता है।
आयु - व्यावहारिक रूप से आयु को गुप्त रखना मुश्किल होता है। किंतु अनेक अवसरों पर उम्र छुपाना भी हानि से बचा सकता है। इसमें दर्शन देखें तो व्यक्ति द्वारा आयु को औरों की तुलना में स्वयं से छिपाना सार्थक है यानी उम्र का ख्याल दिमाग पर हावी न रख कर्म के संकल्प के साथ जीवन जीना चाहिए।
चिंता और निराशा दूर करते हैं ये सूत्र
हर इंसान के जीवन में ऐसे अनेक अवसर आते हैं, जब वह हालात से जूझता हुआ दिखाई देता है। कुछ लोग अपनी हिम्मत और जज्बे से समय को बदलकर अपना बना लेते हैं, तो कुछ टूटकर बिखर भी जाते हैं। किंतु जीवन के प्रति सही और सकारात्मक सोच रखी जाए तो हर मुश्किलों से पार पाना संभव है। शास्त्रों में ऐसे ही अनमोल सूत्रों को बताया गया है, जिनसे किसी भी अशांत स्थिति में इंसान अपना संतुलन बनाए रख सकता है।
ऋग्वेद का एक बेहतरीन सूत्र है -
विश्वाउत त्वया वयं धारा उदन्या इव। अति गाहे महि द्विष:।।
जिसका सरल शब्दों में यही संदेश है कि जीवन में अनेक परेशानियां, मुसीबतें, जिम्मेदारियां या शत्रु रुकावटे पैदा करते हैं। किंतु ईश्वर व खुद पर भरोसे के दम पर इन पर काबू पाया जा सकता है। ठीक उसी तरह जैसे नाव से नदी पार की जाती है।
यहां दो सूत्र साफ हो जाते है हैं कि संकट और मुसीबतों से बाहर आने के लिए खुद पर विश्वास और भगवान के प्रति आस्था व श्रद्धा सबसे बड़ी ताकत है। यह शक्ति तभी संभव है जब इंसान शांत चित्त रहने का अभ्यास करें। क्योंकि अशांत मन से पैदा हुए तरह-तरह के दोषों, चिंता और घबराहट से इंसान डगमगा जाता है। इसके उल्टे शांत दिमाग से सोच, ऊर्जा और एकाग्रता के संतुलन द्वारा बुरे वक्त को भी आसानी से बदला जा सकता है।
इन बातों को अपनाएं, हमेशा रहेंगे खुश
जीवन में अपेक्षा दु:खों के अनेक कारणों में एक होती है। इसी तरह इच्छाओं का भी कोई अंत न होने से मृत्यु के पहले या बाद भी इंसान की अंतिम इच्छा के बारे में विचार किया जाता है। इन बातों का अर्थ यह नहीं है कि अपेक्षा या इच्छाओं को कष्टों का कारण मानकर कोई व्यक्ति कर्तव्यों या जिम्मेदारियों से मुंह मोड ले बल्कि ज्यादा अपेक्षा न रखते हुए नि:स्वार्थ भाव से काम और दायित्वों को पूरा करे।
यह सब जानते हुए भी अनेक लोग उम्मीदों और इच्छाओं पर काबू न होने से जीवन को उलझन बना लेते हैं। जिससे वे अपने साथ ही दूसरों का जीवन भी अशांत कर देते हैं। इस अशांति से बचने के लिए ही हिन्दू धर्म शास्त्र गीता, वेद, उपनिषद आदि में जियो और जीने दो का संदेश देते हैं।
लिखा गया है -
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वेसन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:ख भाग्भवेत्।।
इस सूत्र में सभी के सुखी होने और दु:ख से बचने की कामना की गई है। व्यावहारिक जीवन के लिए शास्त्रों में बताए ऐसे ही उपदेशों का ही सरल शब्दों में निचोड़ बताया जा रहा है कि इंसान अपना काम, सोच और व्यवहार कैसा रखे? जिससे उसकी इच्छाएं और अपेक्षा दायरे में रहे और वह भी दूसरों की उम्मीदों पर खरा उतर सके -
- किसी को किसी भी रूप में दु:ख न दें बल्कि सुख देने की कोशिश करें।
- सभी के साथ प्रेम रखें यानी बोल, व्यवहार और स्वभाव में प्रेम को स्थान दे।
- हमेशा मेहनत को ही सफलता का सूत्र बनाए और आलस्य से दूर रहें।
- लाभ के लिये मर्यादा और मूल्यों को कभी न भूलें।
- ऐसे कामों से बचें जो अपमान का कारण बने या चरित्र पर दाग लगे।
- बुरे समय या हालात में गहरे दु:ख या शोक में न डूबें। सुख-दु:ख में समान रहने का अभ्यास करें।
- बच्चों की तरह साफ मन और स्वभाव रखें, जो पल में ही कटुता भूल जाए।
- हिम्मत और साहस रखें।
- हमेशा ईश्वर पर आस्था और विश्वास रखें।
- मृत्यु को न भूलें और संसार को अस्थायी ठिकाना मानें। इससे अहंकार नहीं आएगा।
सही है या गलत, समझ नहीं आता, क्योंकि..
जीवन को सफल और सुखी बनाने के लिए अहम होता है - निर्णय। किंतु फैसला करने के लिए जरूरी है सही और गलत की समझ, जिसे विवेक कहते हैं। विवेक के अभाव में अच्छे या बुरे की पहचान करना मुश्किल हो जाता है। जिसके नतीजे में मिली असफलता जीवन में कलह और अशांति ला सकती है। क्या आप जानते हैं कि वक्त आने पर सही फैसला न ले पाने की कमजोरी आपके स्वभाव में मौजूद होती है। जानते हैं वह दोष और उससे बचने का उपाय-
यह ऐसी कमजोरी है जो धर्म के नजरिए से दोष भी मानी गई है। यह दोष है - क्रोध यानी गुस्सा। जी हां, क्रोध वह कारण है, जिससे विवेक खो जाता है। हिन्दू धर्म ग्रंथ गीता में क्रोध को दोष मानकर लिखा गया है -
क्रोधाद्भवति सम्मोह:।
जिसका सरल शब्दों में मतलब है क्रोध से विवेक यानी बुरे या भले को समझने वाली बुद्धि खत्म हो जाती है। जिससे अंत में नुकसान ही हाथ लगता है। यहां सवाल ये उठता है, कि क्रोध से कैसे बचें? जवाब है अगर क्रोध से बचना है तो इंसान इन दो उपायो को अपनाएं -
शास्त्रों के मुताबिक गुस्सा पैदा होने का कारण ज्ञान की कमी होती है। वहीं इसके बढऩे का कारण अभिमान होता है। इसलिए अगर जीवन में लगातार तरक्की और सुखों की चाहत है तो हर इंसान को हर तरह के ज्ञान को पाने की भरसक कोशिश करना चाहिए। साथ ही घमंड से बचकर भी रहे। इन दो उपायों से क्रोध भी काबू में रहेगा और सही क्या? गलत क्या? की समझ भी बनी रहेगी।
मूर्ख दिवस लाता है ऐसे सुख
1 अप्रैल का दिन पूरे विश्व में मूर्ख दिवस या अप्रैल फूल दिवस के नाम से प्रसिद्ध है। यह दिन मूर्ख बनकर या मूर्ख बनाकर भी मन को सुख देता है। यही अनूठा भाव ही इसकी लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण है। मूर्ख बनने या बनाने का अर्थ ठगने या ठगाने से नहीं है वरन इसका संबंध थोडा-सा सुख और आनंद पाने की उन मानवीय भावनाओं से है, जिसके लिये हर व्यक्ति जीवन में दिन-रात जूझता है।
आज के तेजी से बदलते जीवन की भागदौड़ और आपाधापी में हर व्यक्ति तनाव, अवसाद और समस्याओं का सामना करता है और आपसी संबंधों में भी अविश्वास और अहं भाव के कारण कटुता महसूस करता है।
ऐसे समय में मूर्ख दिवस का दिन कुछ समय के लिये सही लेकिन लोगों के चेहरे पर हंसी देने के साथ ही मन को आनंद से भरता है। यह समय जीवन में घुली नीरसता से दूर ले जाता है। जो व्यक्ति इस क्षण को सकारात्मक भाव से जी लेता है, वह स्वयं को तनावरहित करने के साथ ही सुख, शांति और विश्वास की ऊर्जा पाकर इस दिन को सार्थक बना सकता है।
मूर्ख भी ऐसे हो सकता है सफल
मूर्ख दिवस यानी 1 अप्रैल के दिन अगर आपको मित्रों, परिजनों या अनजान लोगों द्वारा मूर्ख बनाने की कवायद की जाए, तो उससे मन में नकारात्मक भाव न लाएं बल्कि सफलता का यह बेहतरीन सूत्र सीखें -
मूर्ख दिवस का एक दर्शन यह भी है कि मूर्ख बनना भी जीवन में उन्नति और विकास का कारण बन सकता है। यह एक अचंभित करने वाली बात हो सकती है। लेकिन सकारात्मक रुप से विचार करें तो इसका मतलब साफ हो जाता है कि चूंकि हर व्यक्ति में अहं किसी न किसी रूप में होता ही है। ज्ञानी, विद्यावान या स्वयं को सबसे ऊपर समझना भी अहंकार के कारणों में एक माना जाता है। जिसके कारण से कोई भी व्यक्ति एक सीमा में जकड़ा होता है।
मूर्ख दिवस के दिन जब किसी बात या विषय को लेकर व्यक्ति के इसी ज्ञान और बुद्धि की एक छोटी परीक्षा होती है, तब वह समय हल्के से व्यक्ति के अहं को झकझोर देता है। जो व्यक्ति इस बात को समझ लेता है, वह अहं की जकडऩ से मुक्त होकर खुद के विकास और सफलता की राह आसान कर लेता है। क्योंकि अहं छोडऩे पर ही सृजन या ऊंचाई संभव है। अहं भार बढ़ाता है और भारीपन नीचे ले जाता है। जबकि हल्कापन ऊंचाई की ओर ले जाता है, जो अहंकार छोडऩे पर संभव है। इस तरह आज के दिन मूर्ख बनकर और दूसरों को मूर्ख बनाकर खुद भी जागें और दूसरों को भी जगाएं। लेकिन जो कुछ भी करें सीमाओं में रहकर करें, ताकि जीवन और मूर्ख दिवस का आनंद दोगुना हो जाए।
जबर्दस्त शक्ति व ऊर्जा देता है गायत्री मंत्र
गायत्री वेदमाता मानी गई है। वह ज्ञान या चेतना शक्ति मानी जाती है। ज्ञान शक्ति रूप चारों वेदों की उत्पत्ति भी गायत्री से ही मानी गई है। यही कारण है कि इस शक्ति का साकार रूप माता गायत्री के रूप में पूजनीय है।
शास्त्रों के मुताबिक गायत्री उसे कहा जाता है जो इस शक्ति का गायन, ध्यान, स्मरण या जप करने वाले की त्राण यानी रक्षा करे। गायत्री की इसी महाशक्ति की उपासना के लिए गायत्री मंत्र का महत्व बताया गया है। गायत्री मंत्र को महामंत्र और सर्वश्रेष्ठ मंत्र बताया गया है। यह मंत्र है -
ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्॥
यहां जानते हैं गायत्री साधना व मंत्र जप के धार्मिक, व्यावहारिक व वैज्ञानिक लाभ -
धार्मिक दृष्टि से गायत्री महामंत्र के 24 अक्षर 24 देव शक्तियों का रूप है। जिनके स्मरण से तन, मन और विचारों के दोष दूर होकर जीवन में प्रेम, शांति, विवेक, आत्म बल आता है।
गायत्री के 24 अक्षरों का संबंध 24 तत्वों पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, गंध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द, वाक्य, पैर, मल, मूत्रेंद्रिय, त्वचा, आंख, कान, जीभ, नाक, मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त और ज्ञान से माना गया है।
वैज्ञानिक नजरिए से इनका संबंध मानव शरीर की 24 ग्रंथियों से है। यही कारण है कि जब गायत्री मंत्र बोला जाता है, तब उसकी शब्द शक्ति और ऊर्जा शरीर के रग-रग में प्राणशक्ति का संचार करती है। जिससे शारीरिक अंग और कियाएं सही ढंग से काम करती है और खून शुद्ध होता है। जिससे गायत्री उपासक निरोग और ऊर्जावान बना रहता है।
भक्ति और रिश्तों के लिए जरूरी ऐसा प्रेम
आज के दौर में रिश्ते हो या भक्ति, दोनों में सच्चे प्रेम के स्थान पर स्वार्थ या दिखावा अधिक दिखाई देता है। जबकि धर्मशास्त्रों में प्रेम धर्म पालन का अहम अंग बताया गया है। सरल शब्दों में कहें तो बोल, व्यवहार और आचरण में अगर प्रेम का भाव नहीं उतरता तो सुखों की आशा करना व्यर्थ है। आखिर एक साधारण इंसान सच्चे प्रेम को कैसे जाने और अपनाएं? शास्त्रों में लिखी कुछ बातों से इस सवाल का जवाब बेहतर तरीके से समझा जा सकता है।
हिन्दू धर्म शास्त्र नारद भक्ति सूत्र में लिखा है - अनिर्वचनीयं प्रेम स्वरूपम्।
इसका आसान शब्दों में मतलब है कि प्रेम महसूस किया जा सकता है, लेकिन बोलकर बताया नहीं जा सकता। प्रेम का भाव अनुभव योग्य, अटूट, अदृश्य, इच्छाओं और अपेक्षाओं से परे होता है।
इस तरह कहा जा सकता है कि स्वार्थ, गुणों या इच्छा के वशीभूत होने पर पैदा भाव प्रेम नहीं होता, बल्कि आकर्षण होता है। इसके विपरीत नि:स्वार्थ प्रेम कभी कम नहीं होता, वह अमर और अंतहीन होता है। ऐसा प्रेम ही सांसारिक जीवन में किसी चाहने वाले को दिलो-दिमाग और व्यवहार में करीब रखता है। वहीं भक्ति में ऐसे प्रेम से भक्त का मन भगवान के ही चिंतन और मनन में डूब जाता और उसे दूसरों में भी भगवान के अलावा कोई नजर नहीं आता।
नए साल में ठान लें ये बात, सफलता चूमेगी कदम
हिन्दू नववर्ष की चैत्र मास के शुक्ल पक्ष प्रतिपदा (4 अप्रैल) से शुरूआत जीवन के उजले पक्ष को देखने को प्रेरित करता है। इस दिन की सकारात्मकता, स्नेह, प्रेम और रचनात्मकता के भाव ही आज की भागदौड़, दबाव और तनाव से भरी जिंदगी में ऊर्जा और विश्वास भरने वाले होते हैं।
नए वर्ष का पहला दिन लक्ष्य और उसके अनुसार परिश्रम और पुरुषार्थ नियत करने का होता है। साथ ही यह गुजरे समय में किए गए कार्यों के पर विचार करने का भी होता है। यह आकलन ही भविष्य के लिए नई प्रेरणा देता है। ऐसा प्रयास करें कि वर्ष का पहला दिन बुरे कार्यो, दरिद्रता में न बीते, बल्कि अच्छे कामों, प्रसन्नता और खुशी में गुजर जाए।
चरित्र और आचरण को शुद्ध करने के लिए नए वर्ष में यह संकल्प लेना चाहिए कि हम नए वर्ष से धैर्य, क्षमा, संयम, पवित्रता, सत्य के साथ जीवन बिताएंगे। ऐसा कोई आचरण नहीं करेंगे जिससे दूसरों को कष्ट पहुँचे। संकल्प को पूरा करने में बाधाएं भी आती है, किंतु स्वयं और ईश्वर पर विश्वास कर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहें। इसी आत्मविश्वास और ईश्वर कृपा से सारे संकल्पों को पूरे हो जाते हैं।
इन खास बातों के कारण बहुत ही शुभ है गुड़ी पड़वा
हिन्दू माह चैत्र के शुक्ल पक्ष का पहला दिन यानी प्रतिपदा धार्मिक और लोक मान्यताओं में बहुत ही शुभ माना जाता है। जिसका कारण धर्मग्रंथों और लोक मान्यआतों से जुड़ी बातें और शुभ अवसरों का संयोग है, जिनका संबंध अलग-अलग युग, काल से है, लेकिन दिन एक ही है और वह है चैत्र शुक्ल प्रतिपदा यानी हिन्दू नवसंवत्सर। यह दिन गुड़ी पड़वा के रूप में भी प्रसिद्ध है।
यहां जानते हैं उनमें से ही कुछ विशेष बातें जो इस दिन को धार्मिक दृष्टि से ही पवित्र, पुण्यदायी और शुभ नहीं बनाती बल्कि व्यावहारिक रूप से भी प्रेरणा देने वाली है -
- इसी दिन ब्रह्मदेव ने सृष्टि की रचना शुरूआत की। जिसके पीछे प्रतीक रूप में संदेश है कि मन, विचार और कर्म में सृजन का भाव रखें और विनाशक प्रवृत्तियों को छोड़े। सृजन भी ऐसा हो जिससे सभी का हित हो।
- माना जाता है कि इस दिन से ही सतयुग का आरंभ हुआ। संकेत है कि जीवन में सत् यानी सत्य को उतारें। सात्विक यानी सच्चे और अच्छे विचारों के साथ जीवन बिताएं।
- यह दिन भगवान विष्णु के मत्स्यावतार का भी माना जाता है। जिन्होंने प्रलयकाल में मनु की संकट में पड़ी नाव को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया। संदेश यही है कि चूंकि जल के बिना जीवन संभव नहीं होता और जीवन की शुरूआत भी जल से ही मानी गई है। चूंकि मछली जल का जाना-पहचाना प्राणी है, इसलिए भगवान विष्णु का मत्स्यावतार शुभ शुरूआत का ही प्रतीक हैं, जिसके साथ जीवन में चरित्र रूपी पानी बनाए रखा जाए तो हर संकट से बचते हुए सही दिशा और मंजिल तक पहुंचा जा सकता है।
- यह दिन मर्यादापुरुषोत्तम भगवान राम के राज्याभिषेक का भी माना जाता है। राम का स्मरण कर जीवन मर्यादा के साथ गुजारने पर सुख, यश और सम्मान बना रहता है।
- यह दिन धर्मराज युधिष्ठिर के राज्याभिषेक का भी माना गया है। संकेत है कि जीवन धर्म यानी मन, वचन और कर्म में सत्य और पवित्र भावों के साथ गुजारने पर कोई व्यक्ति सुख, पद और प्रतिष्ठा से वंचित नहीं रहता।
- इस दिन से शक्ति की उपासना शुरू होती है। संदेश है कि मात्र पूजा, अनुष्ठान कर धार्मिक क्रियाओं में न डूबे, बल्कि व्यावहारिक रूप से भी अपनी शक्तियों को पहचान उसका उपयोग सही उद्देश्य को पाने और दूसरों की भलाई के लिए करें। यह संकेत भी है कि स्त्री जाति के प्रति भी पूरा सम्मान का भाव रखें।
कल से शुरू होगा हिंदू वर्ष 2068, लें ऐसा संकल्प
बदलाव अच्छे भी होते हैं और बुरे भी। किंतु बदलाव ही जीवन के मूल्यांकन का सही मौका होते हैं। अनेक अवसरों पर व्यक्ति अनिश्चय और कुछ खोने के भय से बदलाव को स्वीकार नहीं कर पाते, जबकि बदली हुई स्थितियों में स्वयं को ढालने पर ही कोई भी बदलाव अंतत: खुशी का कारण ही नहीं बनता बल्कि इंसान को आगे बढऩे का हौंसला और भरोसा देता है। सनातन धर्म में ऐसे ही सुखद बदलाव का अवसर चैत्र माह शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को माना जाता है।
कल यानी 4 अप्रैल से विक्रम संवत 2068 शुरू हो रहा है। इसे हिंदू पंचांग का नया साल कहा जाता है। चूंकि भारतीय कालगणना प्रकृति के बदलावों और ग्रह नक्षत्रों की गति पर ही आधारित है। इसलिए यह इंसान को प्रकृति के अनुकूल बनाने में भी अहम है। यह किसी भी धर्म, जाति या व्यक्ति विशेष के लिए नहीं बल्कि पूरी मानव जाति के लिए ही शारीरिक, मानसिक, वैज्ञानिक और व्यावहारिक रूप से शुभ है।
इसे नव संवत्सर भी कहते हैं। जिसका अर्थ है ऐसा विशेष काल जिसमें बारह माह होते हैं। हिंदू पंचांग में एक मास में दो पक्ष होते हैं। पहला, कृष्णपक्ष इसमें चंद्रमा निरंतर घटता जाता है एवं अमावस्या पर पूर्ण अंधकार हो जाता है। दूसरा, शुक्ल पक्ष जिसमें चंद्रमा बढ़ता है व पूर्णिमा पर पूर्ण प्रकाशित हो जाता है।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से हिंदू नववर्ष के आरंभ होने का भी यही भाव है कि जीवन से अज्ञान, अशांति व कलह रूपी अंधकार यानी सारे कष्ट, दुख, दर्द, कठिनाइयां दूर हो और आनंद, सुख, प्रसन्नता और समृद्धि को पाने के संकल्प के साथ आगे बढ़ें। सरल शब्दों में कहें तो बीते कल की बुरी यादों को छोड़कर नई और बेहतर सोच रख बुलंदियों को छूने के इरादों से काम का आगाज करें।
ये 9 शक्तियां देती है नवदुर्गा उपासना
मां से ही जीवन का आरंभ होता है, पालन और पोषित होता है, आगे बढ़ता और ऊंचाईयों को छूता है। इस तरह जन्म के बाद शरीर से अलग होकर भी मातृ शक्ति से कोई अलग नहीं हो सकता। मां कर्म, विचार और ऊर्जा को नियंत्रित करने वाली होती है। यही कारण है कि हिन्दू धर्म में शक्ति उपासना का महत्व बताया गया है। हिन्दू नववर्ष की शुरूआत भी नवदुर्गा की उपासना से होती है। चैत्र माह के पहले नौ दिनों में मातृशक्ति के नौ अलग-अलग रूपों का स्मरण किया जाता है।
दरअसल, माता के ये नौ रूप स्त्री शक्ति के अलग-अलग रूपों को उजागर करता है। जानते हैं नवरात्रि के इस खास अवसर पर नवदुर्गा के इन रूपों से जुड़े संदेशों को -
शैलपुत्री - शास्त्रों में माता को हिमालय की पुत्री बताया गया है। जिस कारण वह शैलपुत्री भी कहलाती है। उसी तरह माता के स्वामी भगवान शंकर भी कैलाशवासी यानी उनका निवास पर्वतों पर बताया गया है। इस तरह शैलपुत्री भी प्रकृति रूपा मानी गई है। इनकी उपासना स्वयं के साथ ही प्रकृति की शक्तियों को जानने, समझने, रक्षा और सम्मान करने की प्रेरणा देती है।
ब्रह्मचारिणी - तप और योग की अधिष्ठात्री देवी। शक्ति का यह रूप इंद्रिय संयम के द्वारा सांसारिक ही नहीं अध्यात्मिक और आत्मिक सुख देने वाला माना गया है।
चंद्रघंटा - आदिशक्ति का यह सौम्य और सात्विक रूप है। माता का यह रूप सद्गुणों से मान-सम्मान, प्रतिष्ठा व पद पाने की प्रेरणा देता है।
कूष्मांडा - माता कूष्मांडा को जड-चेतन जगत की अधिष्ठात्री देवी माना जाता है। यही कारण है कि जीवन से जुड़े सभी कष्टों, शोक, दु:खों को दूर कर निरोगी जीवन माता कूष्मांडा की प्रसन्नता से मिलता है।
स्कन्दमाता - आदिशक्ति का यह ममतामयी रूप है। गोद में स्कन्द यानी कार्तिकेय स्वामी की लेकर विराजित माता का यह स्वरूप जीवन में प्रेम, स्नेह, संवेदना का बनाए रखने की प्रेरणा देता है।
कात्यायनी - देवी का यह रूप पुराणों के मुताबिक वरदान के फलस्वरुप कात्यायन ऋषि की पुत्री के रूप में प्रकट हुआ और उनके वंश को आगे बढ़ाया। माता का यह रूप स्त्री की शक्ति, गुणों व क्षमताओं का सम्मान करने की प्रेरणा देता है।
कालरात्री - यह आदिशक्ति का तामसी रूप माना जाता है। किंतु इनकी उपासना भक्तों के लिए शुभ मानी गई है। इसलिए इनका नाम शुभंकरी भी है। कालरात्री की भक्ति विपरीत स्थितियों में भी अपनी शक्तियों का सदुपयोग कर परोपकार और संकटनाश की प्रेरणा देती है।
महागौरी - यह आदिशक्ति का शांत और करूणामयी स्वरूप है। इनकी उपासना जीवन में शांति, एकाग्रता, संतुलन, संयम रखने की प्रेरणा देती है।
सिद्धिदात्री - यह भगवती का कल्याणकारी और मंगलकारी रूप माना जाता है। माता की उपासना सभी सिद्धियां और सुखों को देने वाली मानी गई है। जिसके पीछे संदेश यही है कि सफल, सबल, कुशल, दक्ष और सुखी बनने के लिए अपनी मानसिक, शारीरिक और वैचारिक शक्ति में संतुलन बनाकर सही उपयोग करें।
ऐसे शक्ति प्रबंधन से उखाड़ फेंकें बुराई की जड़
चैत्र नवरात्र शक्ति की आराधना का काल है, जो शक्ति संचय, शक्ति आह्वान और उसके सही उपयोग से राक्षस रूपी बुरी प्रवृत्तियों के नाश की प्रेरणा देता है। शक्ति का उपयोग कब, कहां और कैसे हो? प्रतीकात्मक रूप से ऐसे ही सूत्र सिखाती है देवी शक्ति से जुड़ी धर्मग्रंथों में लिखी कथाएं।
प्रलयकाल के समय क्षीरसागर में शेषशैय्या पर सो रहे भगवान विष्णु के कानों से मधु तथा कैटभ नामक दो राक्षस पैदा होकर ब्रह्मदेव को मारने के लिए दौड़े। ब्रह्माजी ने नारायण को जगाने के लिए उनके नेत्रों में निवास कर रही योगनिद्रा की स्तुति की। जिससे तमोगुणी देवी योगनिद्रा भगवान के नेत्र, मुख, नाक, भुजाओं, हृदय और वक्षस्थल से बाहर आकर ब्रह्मा के सामने प्रकट हुई। नारायण भी जाग गये। उन्होंने उन दैत्यों से पांच हजार साल युद्ध किया। देवी ने उन राक्षसों को मोहपाश में डाल दिया। तब दोनों दैत्यों ने विष्णु के पराक्रम से खुश होकर उनसे वरदान मांगने को कहा। नारायण ने अपने हाथों से उनके ही मरने का वर मांग कर राक्षसों का वध कर दिया।
इसी तरह दूसरी देवी कथा है कि एक बार देव और दानवों में सौ साल तक युद्ध चलता रहा। देवताओं के राजा इंद्र थे तथा दानवों के महिषासुर। महिषासुर देवताओं को हराकर कर स्वयं इंद्र बन गया। पराजित देवता भगवान शंकर और विष्णु के पास पहुंचे। उन्होंने आप-बीती सुनाकर महिषासुर के वध की प्रार्थना की। भगवान शंकर तथा विष्णु को असुरों पर बड़ा क्रोध आया। तब भगवान शंकर और विष्णु सहित सभी देवताओं के शरीर में बड़ा भारी तेज प्रकट हुआ। सभी के सामूहिक तेज ने स्त्री का रूप धारण कर लिया। देवताओं
ने उसकी पूजा कर अपने अस्त्र-शस्त्र तथा आभूषण उसे अर्पित कर दिये।
अमोघ शक्तियों वाली इस देवी ने जोर से गर्जना की। जिसे सुनकर दैत्य फिर से युद्ध के लिए उठ खड़े हुए। महिषासुर दैत्य ने सेना सहित देवी पर आक्रमण किया और देवी के हाथों मारा गया। यही देवी फिर शुम्भ और निशुम्भ का वध करने के लिए गौरी देवी के शरीर से प्रकट हुई और संसार में शांति स्थापित हुई।
इन देवी कथाओं का व्यावहारिक और सामाजिक संकेत यही है कि जब समाज में दुर्जन लोग समूह बनाकर लोगों को पीड़ा पहुँचाते हैं और सद्गुणी, सज्जन लोग यह सब देखकर भी उनके बुरे कर्मों की अनदेखी करते हैं, तब इसके बुरे नतीजे व्यक्ति और व्यवस्था को ही भोगना ही पड़ते हैं। किन्तु इसके विपरीत इन बुरे लोगों और बुरे कामों का एक होकर सामना करें, विरोध करें तो समाज और शासन में फैली सभी बुरी व्यवस्थाओं और बुरे लोगों को मधु-कैटभ, महिषासुर या शुम्भ-निशुम्भ की तरह मारना संभव है। क्योंकि एकता ही शक्ति है। चाहे वह व्यक्तिगत् स्तर पर मन के संयम के रूप में पैदा हो या सामाजिक स्तर पर कुव्यवस्थाओं के विरोध के रूप में।
नवग्रह दोष शांति करता है यह एक देवी मंत्र
शाक्त ग्रंथों के मुताबिक आदिशक्ति दुर्गा जगतजननी हैं। यह मातृशक्ति ही चर-अचर जगत की रचना, पालन और नियंत्रण करने वाली है। इसी कड़ी में देवी दुर्गा को ही ग्रह-नक्षत्रों की गति और प्रभाव को नियत करने वाला माना गया है। इसलिए ज्योतिष शास्त्रों में देवी उपासना से ग्रह दोष शांति के अनेक उपाय बताए गए हैं।
ऐसे ही उपायों के लिए मातृशक्ति की साधना के विशेष काल में नवरात्रि को बहुत ही प्रभावी माना गया है। इस काल में देवी उपासना के विशेष मंत्रों का जप ग्रह दोष को दूर कर देता है। यहां बताया जा रहा है एक ऐसा विशेष देवी मंत्र जिसके जप से एक नहीं बल्कि नौ ही ग्रहों के बुरे प्रभाव से छुटकारा मिल जाता है।
यह देवी का नौ अक्षरी बीज मंत्र है। इस मंत्र के नौ अक्षर नवदुर्गा की नौ शक्तियां मानी गई हैं। यह नौ शक्तियां ही नवग्रहों में से एक-एक ग्रह की नियंत्रक मानी गई है। ये ग्रह हैं - सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु। इसलिए इस मंत्र के जप का नवग्रह दोष शांति के लिए भी विशेष महत्व है।
यह मंत्र है -
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।
नवरात्रि में पूर्ण पवित्रता के साथ देवी की सामान्य पूजा कर इस मंत्र का नौ दिनों तक यथाशक्ति जप करें। यह मंत्र जप ग्रह दोष शांति कर सांसारिक कामनाओं की पूर्ति के साथ ही दु:ख, संकट व संताप से रक्षा करता है।
क्या आप जानते हैं, राम क्यों हैं मर्यादा पुरुषोत्तम?
धार्मिक ग्रंथों के अनुसार चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी को भगवान राम ने धरती पर अवतार लिया था। आज भी इस तिथि को भगवान राम का जन्मदिवस श्रृद्धा व भक्ति से मनाया जाता है। इस उत्सव को रामनवमी कहते हैं। इस बार यह पर्व 12 अप्रैल, मंगलवार को है।
हिंदू धर्म ग्रंथों में भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया है जिसका अर्थ है सदैव मर्यादा के अनुसार कार्य करने वाला सबसे श्रेष्ठ पुरुष। श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम इसलिए कहा जाता है कि उन्होंने अपने जीवन में कभी भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया और हमेशा धर्मानुसार आचरण किया। पिता के कहने पर 14 वर्ष के वनवास पर जाने का प्रसंग हो या साधारण मनुष्य की तरह रावण जैसे महाबली राक्षस का वध करने का। श्रीराम ने अपना पूरा जीवन मर्यादा के अनुरूप ही निर्वाह किया।
जबकि श्रीराम स्वयं भगवान विष्णु के अवतार थे, वे चाहते तो पलभर में ही रावण को मारकर सीता को उसके दासत्व से मुक्त करा सकते थे लेकिन ऐसा करने से मर्यादा का हनन होने का भय था इसलिए श्रीराम ने साधारण मनुष्य की तरह ही पहले सीता की खोज की, वानरों व भालुओं की सेना को साथ लेकर समुद्र पर बांध बनाया और मर्यादा अनुरूप ही युद्ध कर रावण का वध किया। भगवान श्रीराम ने पुत्र, पति, भाई, मित्र, पिता तथा राजा आदि सभी संबंधों का निर्वाह मर्यादा के अनुरूप ही किया। इसलिए भगवान श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हैं।
राम सिर्फ नाम नहीं, मंत्र भी है
भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया है। हमारे धर्म शास्त्रों के अनुसार राम सिर्फ एक नाम नहीं अपितु एक मंत्र है, जिसका नित्य स्मरण करने से सभी दु:खों से मुक्ति मिल जाती है। राम शब्द का अर्थ है- मनोहर, विलक्षण, चमत्कारी, पापियों का नाश करने वाला व भवसागर से मुक्त करने वाला। रामचरित मानस के बालकांड में एक प्रसंग में लिखा है-
नहिं कलि करम न भगति बिबेकू।
राम नाम अवलंबन एकू।।
अर्थात कलयुग में न तो कर्म का भरोसा है, न भक्ति का और न ज्ञान का। सिर्फ राम नाम ही एकमात्र सहारा हैं।
स्कंदपुराण में भी राम नाम की महिमा का गुणगान किया गया है-
रामेति द्वयक्षरजप: सर्वपापापनोदक:।
गच्छन्तिष्ठन् शयनो वा मनुजो रामकीर्तनात्।।
इड निर्वर्तितो याति चान्ते हरिगणो भवेत्।
स्कंदपुराण/नागरखंड
अर्थात यह दो अक्षरों का मंत्र(राम) जपे जाने पर समस्त पापों का नाश हो जाता है। चलते, बैठते, सोते या किसी भी अवस्था में जो मनुष्य राम नाम का कीर्तन करता है, वह यहां कृतकार्य होकर जाता है और अंत में भगवान विष्णु का पार्षद बनता है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि जो शक्ति भगवान की है उसमें भी अधिक शक्ति भगवान के नाम की है। नाम जप की तरंगें हमारे अंतर्मन में गहराई तक उतरती है। इससे मन और प्राण पवित्र हो जाते हैं, बुद्धि का विकास होने लगता है, सारे पाप नष्ट हो जाते हैं, मनोवांछित फल मिलता है, सारे कष्ट दूर हो जाते हैं, मुक्ति मिलती है तथा समस्त प्रकार के भय दूर हो जाते हैं।
रामनवमी पर जप करें इस मंत्र का
रामायण भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर है। इसे पढऩे या सुनने मात्र से जन्म-जन्मांतर के पाप धुल जाते हैं। वर्तमान की भागदौड़ भरी जिंदगी में किसी के पास इतना समय नहीं होता कि वह संपूर्ण रामायण का पाठ या श्रवण कर सके। ऐसे में नीचे लिखे इस एक मंत्र का विधि-विधान पूर्वक जप करने से संपूर्ण रामायण पढऩे या सुनने का फल मिलता है। इस श्लोक का एक श्लोकी रामायण कहते हैं। यह बहुत चमत्कारी श्लोक है। इसका जप करने से साधक की हर मनोकामना पूरी होती है।
मंत्र
आदि राम तपोवनादि गमनं, हत्वा मृगं कांचनम्।
वैदीहीहरणं जटायुमरणं, सुग्रीवसंभाषणम्।।
बालीनिर्दलनं समुद्रतरणं, लंकापुरीदाहनम्।
पश्चाद् रावण कुम्भकर्ण हननम्, एतद्धि रामायणम्।।
जप विधि
- सुबह जल्दी नहाकर, साफ वस्त्र पहनकर भगवान श्रीराम के चित्र का विधिवत पूजन करें।
- भगवान श्रीराम के चित्र के सामने आसन लगाकर रुद्राक्ष की माला लेकर इस मंत्र का जप करें। प्रतिदिन पांच माला जप करने से उत्तम फल मिलता है।
- आसन कुश का हो तो अच्छा रहता है।
- एक ही समय, आसन व माला हो तो यह मंत्र जल्दी ही सिद्ध हो जाता है।
देवी लक्ष्मी के बताए इन 3 उपायों से मिलता है धन
हिन्दू धर्म ग्रंथों में देवी लक्ष्मी को सुख, ऐश्वर्य और धन की देवी माना गया है। दरअसल, प्राचीन ऋषि-मुनियों ने ज्ञान और अनुभव के द्वारा सांसारिक जीवन में धन का महत्व जानकर ही इसे न केवल धर्म, काम और मोक्ष के साथ इंसानी जीवन के चार पुरुषार्थों में शामिल किया बल्कि इसे शक्ति और पवित्रता के साथ भी जोड़ा गया है।
शक्ति का यही रूप महालक्ष्मी के रूप में पूजनीय है, वहीं इसे पाने के लिए पवित्रता को अपनाने पर जोर दिया गया है। जिसके लिए दरिद्रता यानी मन, वचन, कर्म में बुराईयों से दूर रहकर पवित्र आचरण, विचार और परिश्रम के द्वारा धन कमाया जाए। ऐसा धन ही यश, सम्मान और निरोगी जीवन देने वाला माना गया है।
व्यावहारिक जीवन में धन पाने और बढ़ाने के लिए इंसान अनेक तरीकों के बारे में विचार करता है, कुछ अपनाता भी है। जिनमें वह कभी सफल होता है तो कभी असफल भी। लेकिन शास्त्रों में धन पाने के कुछ ऐसे उपाय बताए गए हैं, जो धन के साथ-साथ हमेशा सुख, शांति और प्रतिष्ठा भी बढ़ाते हैं।
शास्त्रों के मुताबिक धन कमाने और बढ़ाने के ये उपाय स्वयं देवी लक्ष्मी द्वारा बताए गए हैं। इन उपायों को आधुनिक संदर्भ में सोच-विचार किया जाए तो यह बहुत ही खुशहाल बनाने वाले हैं। लिखा गया है कि -
धनमस्तीति वाणिज्यं किंचिस्तीति कर्षणम्।
सेवा न किंचिदस्तीति भिक्षा नैव च नैव च।।
सरल शब्दों में इसका अर्थ यह है कि अगर धन हो तो व्यवसाय करें। कम पैसा हो तो कृषि कार्य करें। अगर धन न हो तो कोई नौकरी करना ही बेहतर है। किंतु किसी भी हालात में धन पाने के लिए किसी के सामने भिक्षा न मांगे।
व्यावहारिक रूप से इन बातों का संकेत यही है कि हर इंसान को मेहनत और समर्पण के साथ धन कमाने और बढ़ाने की हरसंभव कोशिश करना चाहिए।
ये हैं उन पंच प्यारों के नाम, जिनको गुरु ने छकाया अमृत
भारतीय संस्कृति अनेकता में एकता का मूल भाव ही पूरी दुनिया को भारत के करीब लाता है। इसी मूल भावना को मजबूत करने वाले अलग-अलग धर्मों के अनेक त्यौहार यहां साल भर मनाए जाते हैं। वैशाखी एक ऐसा ही राष्ट्रीय त्यौहार है।
सिक्ख धर्म के दसवें गुरु गोविंद सिंह ने वैशाखी के दिन ही खालसा-पंथ की नींव डाली। 'खालसा' खालिस शब्द से बना है। जिसका मतलब होता है- शुद्ध, पावन या पवित्र। खालसा-पंथ की स्थापना के पीछे गुरु गोविंद सिंह का मकसद लोगों को तत्कालीन मुगल शासकों के जुल्मों से मुक्त कर उनके धार्मिक, नैतिक और व्यावहारिक जीवन को बेहतर बनाना था।
इस पंथ के द्वारा गुरु गोविंद सिंह ने लोगों को धर्म और जाति के आधार पर भेदभाव छोड़कर इसके स्थान पर मानवीय भावनाओं को आपसी संबंधों में महत्व देने की भी दृष्टि दी। इसलिए छुआछूत की भावना को खत्म करने के उद्देश्य से ही उन्होंने वैशाखी के पवित्र दिन ही श्री गुरु गोविंद सिंह ने पंजाब के श्री केशगढ़, आनंदपुर साहिब में अपने चेलो, जो पंज प्यारे के नाम से प्रसिद्ध हैं और अलग-अलग जाति के थे, को खण्डे की पाहुल यानी अमृत पान कराया और उनको सिंह के नाम से नवाजा। साथ ही उन्होंने अपने गुरु का पद छोड़कर गुरुग्रंथ साहिब को सर्वोपरी मानकर गद्दी पर रख नई परंपरा की शुरुआत की।
जानते हैं इन पंज प्यारों के नाम और उनका मूल स्थान -
भाई दयासिंह लाहौर, पंजाब
भाई धर्मसिंह हस्तिनापुर, मेरठ
भाई मोहकम सिंह, द्वारिका, गुजरात
भाई हिम्मतसिंह, जगन्नाथपुरी,
भाई साहिबसिंह, बीदर, कर्नाटक
इस प्रकार इस शुभ दिन से ही गुरु गोविंद सिंह ने सिक्ख धर्म के साथ ही पूरे मानव समाज की धार्मिक, सामाजिक विचारधारा को नई दिशा दी।
यह है अशांति से बचने का बेहतर तरीका
अशांति आज की जीवनशैली का अभिन्न हिस्सा बन चुका है। अनेक लोग अशांत जीवन का कारण बाहर या दूसरों में तलाशते रहते हैं। जबकि सुकून और शांति को पाने का उपाय हर इंसान के पास मौजूद होता है, किंतु वह उसको न अपनाने के कारण बेचैन रहता है। क्या है यह कारण जानते हैं?-
दरअसल, सच का दायरा बोल तक खत्म नहीं होता, बल्कि उसकी अहमियत तभी है, जब बोल को कर्म में उतार दिया जाए। अगर हम झूठ के सहारे चलते हैं तो कभी भी भीतर से शांत नहीं रह सकते। शांति के लिए सत्य जरूरी है।
हम परिवार, दोस्तों और सहकर्मियों के साथ होने पर कई बार यह सुनते और कहते हैं कि कथनी और करनी में अंतर नहीं होना चाहिए। इस बात का व्यावहारिक पक्ष देखने पर यह पाते हैं कि अक्सर यह बात हर व्यक्ति दूसरे से चाहता है, किंतु स्वयं का मौका आने पर वह ऐसा करने में चूक जाता है। वास्तव में इस बात में भी सत्य यानि सच का महत्व साफ दिखाई देता है।
सरल शब्दों में आप जब आप अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक या सामाजिक कार्यों के लक्ष्यों को बनाते समय जो बातें करें, तो उन बातों को सच्ची लगन और ईमानदारी से पूरा करने की हरसंभव कोशिश करें। ऐसी सच्चाई से मिली सफलता औरों की नजर में भरोसेमंद बनाएगी।
सार यह है कि असफलता से विचलित होकर मान-सम्मान कायम रखने की सोच में दिखावटी या बनावटी बातें की जा सकती है। लेकिन उससे आप सफल नहीं हो सकते। आप खुद से भाग नहीं सकते। बल्कि खुद के प्रति सच्चे और ईमानदार बनने पर ही आप सुख, सफलता और भरोसा पा सकते हैं।
बात साफ है कि जब-जब आप सच के साथ चलेंगे तब सच भी जीवन में सुख, सफलता और शांति लाकर आपका साथ निभाएगा।
इन 4 शक्तियों से मिलती है मनचाही सफलता
शक्ति के बिना जीवन का कोई भी मकसद पूरा करना असंभव है। यही कारण है कि इंसान शक्ति का संचय किसी न किसी रूप में करता है और अलग-अलग तरह की गुण और शक्तियों के द्वारा कामयाबी की ऊँचाईयों को छूता भी है। लेकिन शास्त्रों में शक्ति के ऐसे चार रूप बताए गए हैं, जो हर इंसान के सुखी, शांत और कामयाब जीवन के लिए बहुत जरूरी है।
जानते हैं शक्ति यानी बल के ऐसे ही चार रूप जिसको पाना, बढ़ाना या बनाए रखना हर इंसान का लक्ष्य होना ही चाहिए -
देह बल - निरोग, ऊर्जावान, तेजस्वी देह यानी शरीर को सफल जीवन की पहली जरूरत है। यह खान-पान, रहन-सहन के संयम और अनुशासन के द्वारा ही संभव है। वहीं धार्मिक और आध्यात्मिक उपायों में हनुमान उपासना बहुत ही कारगर मानी गई है।
धन बल - शास्त्रों में सुखी जीवन के लिए धन को भी अहम माना गया है। जहां धन का अभाव व्यक्ति के तन, मन और विचारों से कमजोर बनाता है। वहीं धन संपन्नता व्यक्ति के आत्मविश्वास और सोच को मजबूत बनाती है। धन और ऐश्वर्य के लिए शास्त्रों में देवी लक्ष्मी की उपासना का महत्व बताया गया है।
बुद्धि बल - सफल, सुखी और शांत जीवन के लिए सबसे बड़ी ताकत बन जाता है- बुद्धि बल। क्योंकि बुद्धि की ताकत ही शरीर और धन बल को भी काबू कर करती है। बुद्धि के अभाव में शरीर से बलवान और धनवान भी दुर्बल हो जाता है। इसलिए बुद्धिबल के बिना शरीर और धन बल को भी बेमानी माना गया है। धार्मिक दृष्टि से भगवान श्री गणेश और सरस्वती की उपासना बुद्धि बल को बढ़ाने वाली होती है।
देव बल - ईश्वर का स्मरण एक ऐसी शक्ति है, जो अदृश्य रूप में भी शक्ति, ऊर्जा, एकाग्रता और आत्मविश्वास को बढ़ाने वाला होता है। शास्त्रों में भगवान के मात्र नाम का ध्यान भी देवकृपा करने वाला माना गया है। यही कारण है कि जागते और सोते वक्त देव स्मरण व इष्ट की उपासना का धार्मिक परंपराओं में महत्व बताया गया है।
आगे बढ़ना है तो अपनाएं श्री हनुमान के ये सूत्र
आज अनेक युवाओं के संघर्ष भरे जीवन का एक बड़ा कारण लक्ष्य का अभाव भी है। जिससे तमाम कोशिशों के बाद भी अनेक अवसरों पर वह असफलता का सामना करते हैं। हालांकि लक्ष्य न साधने या एकाग्रता भंग होने का कारण कभी-कभी विपरीत हालात भी होते हैं। लेकिन ऐसे ही बुरे वक्त के थपेड़ों से जूझकर जो मकसद को पा ले, ऐसा चरित्र ही दुनिया में प्रेरणा बन जाता है।
हिन्दू धर्म शास्त्रों में रुद्रावतार श्री हनुमान का चरित्र शक्ति, ऊर्जा, बल के सही उपयोग और मजबूत इरादों से लक्ष्य भेदने के सूत्र सिखाता है। यहां जानते हैं रामायण में श्री हनुमान से जुड़े प्रसंगों के माध्यम से कुछ ऐसे ही अहम सूत्र -
रावण द्वारा सीताहरण के बाद श्री हनुमान ने माता सीता की खोज में लंका तक पहुंचते तक अनेक मुश्किलों का सामना किया। लेकिन इस दौरान अपने लक्ष्य के प्रति वह इतने दृढ़ थे कि उसको पाने के लिए उन्होंने बुद्धि, बल और साहस से सारी मुसीबतों को मात दी। यहां जानते हैं क्या सिखाते हैं श्री हनुमान -
मैनाक पर्वत - दरअसल, मैनाक पर्वत कर्मशील को विश्राम के लालच का प्रतीक है, ऐसा भाव लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए कहीं न कहीं आता है। श्री हनुमान द्वारा इसे ठुकराकर कर आगे बढऩा यही संदेश देता है कि लक्ष्य को पाना है तो हमेशा गतिशील रहें।
सुरसाराक्षसी - सुरसा उन बाधाओं और उतार-चढ़ाव का प्रतीक है, जो लक्ष्य में रुकावटे डालते हैं। किंतु श्री हनुमान ने अपने आकार को बढ़ा-छोटा कर यही संदेश दिया कि हालात के मुताबिक ढल कर लक्ष्य से ध्यान न हटाएं।
सिंहिका - मकसद को पाने के लिए ऐसा वक्त भी आता जब इंसान के मन में दूसरों की सफलता से द्वेष या ईर्ष्या के भाव पैदा होते हैं, जिससे लक्ष्य पाना मुश्किल हो सकता है। सिंहिका ऐसे ही बुरे भावों की प्रतीक है। जिसे मारकर श्री हनुमान ने यही संदेश दिया कि लक्ष्य को पाने के लिए ऐसी सोच से दूर हो जाना चाहिए।
लंका और लंकिनी - लंका और उसकी रक्षक लंकिनी असल में खूबसूरती, मोह और आसक्ति का रूप है। जिसके कारण कोई भी संत और तपस्वी भी लक्ष्य से भटक सकता है। किंतु श्री हनुमान लंकिनी को मारकर और लंका के सौंदर्य से प्रभावित हुए बगैर सीता की खोज कर लंका में आग लगाकर यही संकेत करते हैं कि लक्ष्य को पाने के लिए प्रलोभन, मोह, आकर्षण से दूर रहना ही हितकर होता है।
श्री हनुमान की अलग-अलग मूर्तियां पूरी करे एक विशेष कामना
श्री हनुमान भक्ति धर्म, गुण, आचरण, विचार, मर्यादा, बल और संस्कार से जोड़ देती है। श्री हनुमान के इस दिव्य चरित्र के कारण भी चिरंजीवी और कालजयी है। यही कारण है कि हर युग और काल में श्री हनुमान का स्मरण सुखदायी और संकटनाशक माना गया है। श्री हनुमान के प्रति ऐसी आस्था और विश्वास के साथ उनके अलग-अलग रूप पूजनीय है।
हनुमान जयंती के पुण्य अवसर पर हम यहां बता रहें हैं श्री हनुमान की कुछ विशेष मूर्तियों की उपासना से कौन-सी कामनाओं की पूर्ति और शक्तियां प्राप्त होती है?
वीर हनुमान - वीर हनुमान की प्रतिमा की पूजा साहस, बल, पराक्रम, आत्मविश्वास देकर कार्य की बाधाओं को दूर करती है।
भक्त हनुमान - राम भक्ति में लीन भक्त हनुमान की उपासना जीवन के लक्ष्य को पाने में आ रहीं अड़चनों को दूर करती है। साथ ही भक्ति की तरह वह मकसद पाने के लिए जरूरी एकाग्रता, लगन देने वाली होती है।
दास हनुमान - दास हनुमान की उपासना सेवा और समर्पण के भाव से जोड़ती है। धर्म, कार्य और रिश्तों के प्रति समर्पण और सेवा की कामना से दास हनुमान को पूजें।
सूर्यमुखी हनुमान - शास्त्रों के मुताबिक सूर्यदेव श्री हनुमान के गुरु हैं। सूर्य पूर्व दिशा से उदय होकर जगत को प्रकाशित करता है। सूर्य व प्रकाश क्रमश: गति और ज्ञान के भी प्रतीक हैं। इस तरह सूर्यमुखी हनुमान की उपासना ज्ञान, विद्या, ख्याति, उन्नति और सम्मान की कामना पूरी करती है।
दक्षिणामुखी हनुमान - दक्षिण दिशा काल की दिशा मानी जाती है। वहीं श्री हनुमान रुद्र अवतार माने जाते हैं, जो काल के नियंत्रक है। इसलिए दक्षिणामुखी हनुमान की साधना काल, भय, संकट और चिंता का नाश करने वाली होती है।
उत्तरामुखी हनुमान - उत्तर दिशा देवताओं की मानी जाती है। यही कारण है कि शुभ और मंगल की कामना उत्तरामुखी हनुमान की उपासना से पूरी होती है।
यह रोचक बात है श्री हनुमान जन्म और लंकादहन का कारण
श्री हनुमान रामायण रूपी माला के रत्न पुकारे गए हैं, क्योंकि श्री हनुमान की लीला और किए गए कार्य अतुलनीय और कल्याणकारी रहे। श्री हनुमान ने जहां राम और माता सीता की सेवा कर भक्ति के आदर्श स्थापित किए, वहीं राक्षसों का मर्दन किया, लक्ष्मण के प्राणदाता बने, देवताओं के भी संकटमोचक बने और भक्तों के लिए कल्याणकारी बने। रामायण में आए श्री हनुमान से जुड़ें ऐसे ही अद्भुत संकटमोचन करने वाले प्रसंगों में लंकादहन भी प्रसिद्ध है।
सामान्यत: लंकादहन के संबंध में यही माना जाता है कि सीता की खोज करते हुए लंका पहुंचे और रावण के पुत्र सहित अनेक राक्षसों का अंत कर दिया। तब रावण के पुत्र मेघनाद ने श्री हनुमान को ब्रह्मास्त्र छोड़कर काबू किया और रावण ने श्री हनुमान की पूंछ में आग लगाने का दण्ड दिया। तब उसी जलती पूंछ से श्री हनुमान ने लंका में आग लगा रावण का दंभ चूर किया। किंतु पुराणों में लंकादहन के पीछे भी एक ओर रोचक बात जुड़ी है, जिसके कारण श्री हनुमान ने पूंछ से लंका में आग लगाई। जानते हैं वह रोचक बात -
दरअसल, श्री हनुमान शिव अवतार है। शिव से ही जुड़ा है यह रोचक प्रसंग। एक बार माता पार्वती की इच्छा पर शिव ने कुबेर से सोने का सुंदर महल का निर्माण करवाया। किंतु रावण इस महल की सुंदरता पर मोहित हो गया। वह ब्राह्मण का वेश रखकर शिव के पास गया। उसने महल में प्रवेश के लिए शिव-पार्वती से पूजा कराकर दक्षिणा के रूप में वह महल ही मांग लिया। भक्त को पहचान शिव ने प्रसन्न होकर वह महल दान दे दिया।
दान में महल प्राप्त करने के बाद रावण के मन में विचार आया कि यह महल असल में माता पार्वती के कहने पर बनाया गया। इसलिए उनकी सहमति के बिना यह शुभ नहीं होगा। तब उसने शिवजी से माता पार्वती को भी मांग लिया और भोलेभंडारी शिव ने इसे भी स्वीकार कर लिया। जब रावण उस सोने के महल सहित मां पार्वती को ले जाना लगा। तब अचंभित और दु:खी माता पार्वती ने विष्णु को स्मरण किया और उन्होंने आकर माता की रक्षा की।
जब माता पार्वती अप्रसन्न हो गई तो शिव ने अपनी गलती को मानते हुए मां पार्वती को वचन दिया कि त्रेतायुग में मैं वानर रूप हनुमान का अवतार लूंगा उस समय तुम मेरी पूंछ बन जाना। जब मैं माता सीता की खोज में इसी सोने के महल यानी लंका जाऊंगा तो तुम पूंछ के रूप में लंका को आग लगाकर रावण को दण्डित करना।
यही प्रसंग भी शिव के श्री हनुमान अवतार और लंकादहन का एक कारण माना जाता है।
बेगि हरो हनुमान महाप्रभु जो कछु संकट होय हमारो
18 अप्रैल सोमवार को हनुमान जयंती है और इस दिन पवनपुत्र बजरंग बली की आराधना से सभी संकट दूर होते हैं। श्री हनुमान को संकट मोचन कहा गया है। वे पलभर में ही भक्तों के बड़े-बड़े संकट समाप्त कर देते हैं। हनुमानजी सीताराम के आर्शीवाद से अष्टचिरंजिव में शामिल है। अत: वे भगवान शिव की तरह ही तुरंत प्रसन्न होने वाले और भक्तों पर सर्वस्व न्यौछावर करने वाले हैं। ऐसी मान्यता है कि आज भी जहां-जहां श्रीराम का नाम पूरी श्रद्धा से लिया जाता है हनुमानजी वहां किसी ना किसी रूप में अवश्य प्रकट होते हैं। ऐसी कई कथाएं हैं जहां हनुमान ने श्रीराम के भक्तों का पूर्ण कल्याण किया है। हनुमान के नाम मात्र से ही भूत पिशाच निकट नहीं आते। सारी समस्याएं स्वत: ही समाप्त हो जाती है।
हनुमानजी ही ऐसे भक्त और भगवान हैं जो हमारे सभी दुख और परेशानियों का समाधान कुछ ही क्षण में कर सकते हैं। बस आवश्यकता है तो सभी अधार्मिक कार्यों और कुसंगति को छोड़कर श्रीराम की श्रद्धा और भक्ति में मन लगाने की।
ऐसा काम बना देता है आपकी पहचान
हिंदू पंचांग का दूसरा माह वैशाख (19 अप्रैल से शुरू) मात्र तीस दिनों की काल अवधि मात्र नहीं हैं बल्कि इसमें ऐसे पौराणिक, धार्मिक और आध्यात्मिक सूत्र छिपे हैं, जो मानसिक, शारीरिक और वैचारिक शक्तियों को सही दिशा में उपयोग करने की सीख देते हैं।
पौराणिक नजरिए से स्कंदपुराण में वैशाख माह को माधव मास भी कहा गया है। इसको सतयुग, वेद और गंगा के समान श्रेष्ठ बताया गया है। त्रेतायुग की शुरुआत भी वैशाख मास की अक्षय तृतीया तिथि से माना जाता है।
त्रेतायुग जहां मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का युग है, वहीं माधव मास का संबंध कर्मयोग का संदेश देने वाले भगवान श्रीकृष्ण से है। संदेश यही है कि जीवन में मर्यादाओं में बंधकर निरंतर कर्म करते रहें। तभी कर्म अक्षय हो जाएंगे और जब कर्म अक्षय होते हैं तो व्यक्ति अमर हो जाता है।
यही कारण है कि इस माह हुए भगवान विष्णु के सभी अवतार युगों बाद भी व्यक्ति, समाज और प्रकृति को गतिवान और ऊर्जावान होने का संदेश देते हैं।
सफलता के गुर भगवान विष्णु के इन अवतारों से सीखें
हिन्दू पंचांग के 12 महीनों मे दूसरा माह वैशाख होता है। इस माह में गर्मी के मौसम की शुरुआत यानी ऋतु परिवर्तन के साथ-साथ जीवन में सुखद बदलाव के संदेश भी छुपे हैं। जिनसे तालमेल बैठाकर इंसान मौसम की गर्माहट के साथ ही दु:ख और कष्टों के ताप से भी अपनी रक्षा कर सकता है।
दरअसल, इस माह के पहले चैत्र माह में जहां शक्ति पूजा की जाती है, वहीं वैशाख माह में जगत के पालक विष्णु की भक्ति का महत्व है। जिसके पीछे संकेत है कि है कि जिंदगी में किसी भी लक्ष्य को पाने के लिये पहले मां के आशीर्वाद से सारी शक्ति संचित करें और फिर पिता का प्रेम, विश्वास और सहयोग पाकर सफलता को अपनी मु़ट्ठी में कर लें। इस प्रकार ग्रीष्म ऋतु के आरंभ का माह वैशाख मास जीवन जीने की कला भी सिखाता है।
यही नहीं वैशाख माह में ही जगत के पालक भगवान विष्णु के अनेक अवतारों के कारण भी पवित्र और पूजनीय है। क्योंकि भगवान विष्णु के 24 अवतारों में से ह्यगीव, नर-नारायण, परशुराम और नृसिंह अवतार इसी माह में हुए, जो जगत के लिए यही संदेश देते हैं कि बुराई, अधर्म दुर्गुणों, दुराचरण की विनाश की ओर ले जाती है। जबकि भगवत भक्ति के साथ पवित्र मन, वचन, कर्म हमेशा सुख, सफलता व शांति लाते हैं। यही कारण है कि वैशाख माह भगवत भक्ति और कृपा का मास भी कहलाता है।
इस तरह विष्णु भक्ति का काल वैशाख माह दान, पुण्य, जप, तप के रूप में जीवन में कर्तव्य, परिश्रम और समर्पण के भाव जगाता है। यही बातें इंसान को ऊर्जावान बनाए रखकर जीवन को सफल बनाती है।
है शांति और खुशियों की चाहत तो अपनाएं यह कारगर फार्मूला
संसार का हर प्राणी चाहे वह पशु-पक्षी हो या इंसान शांति और सुकून पसंद करता है। खासतौर पर इंसानी जिंदगी की बात करें तो अशांति का असर तन, मन और व्यवहार पर देखा जा सकता है। किंतु इंसान देखने, सुनने और महसूस करने के बाद भी बाहरी बातों या कारणों को बेचैनी का जिम्मेदार मानता है। जबकि शांति पाने का बेहतर उपाय हर इंसान के स्वभाव और प्रवृत्ति में छुपा होता है।
आज की तेज रफ्तारभरी जिंदगी में शांत और प्रसन्न रहने के लिए प्रभु यीशु द्वारा बताया यह सूत्र बहुत कारगर साबित हो सकता है। ईसा मसीह द्वारा बताया शांति का यह उपाय है - क्षमा या माफ करना। हालांकि हर इंसान के लिए इस गुण को अपना लेना इतना आसान नहीं है, किंतु असंभव भी नहीं।
ईसा मसीह ने यही सिखाया कि मन के हालात की मानवीय संबंधों में अहम भूमिका होती है। इसलिए जीवन में जो लोग अपने मन
पर काबू कर उसे अपनी इच्छानुसार चलाना चाहते है, उनके लिये बहुत जरूरी है कि वे अपने मन से दूसरों के लिए द्वेष, दुर्भावना, ईर्ष्या, कटुता को निकाल फेंके, जो क्षमाभाव द्वारा ही संभव है।
क्षमा भाव से ही विनम्रता, करुणा, दया की भावना पैदा होती है, जो स्वभाव को सहज, सरल बनाती है और मन को स्वस्थ्य रखती है। वहीं मन में घृणा, कटुता विरोध और संशय की भावना मन को बीमार रखेगी और कलह, अशांति का कारण बनेगी। इसलिए क्षमा करना सीखें, जिससे शांत मन और एकाग्रता जीवन के नियत लक्ष्यों तक पहुंचने में मददगार होगें।
किससे और कैसा करें प्रेम?
प्रेम के अनेक रूप और रंग है। स्नेह, वात्सल्य, भक्ति के रूप में प्रेम के बगैर इंसान ही नहीं भगवान से भी जुडऩा संभव नहीं। प्रेम छोटे-बड़े, ऊंच-नीच या अमीरी-गरीबी का भेद खत्म कर देता है। यही कारण है कि हर धर्म प्रेम को सभी भावनाओं में श्रेष्ठ मानता है। इसी कड़ी में ईसाई धर्म में प्रभु यीशु के जीवन और उपदेशों में प्रेम के द्वारा ही सुकूनभरा जीवन जीने के सूत्र मिलते हैं।
ईसा मसीह ने शत्रुओं द्वारा सूली पर लटकाने के बाद भी ईश्वर से उनको माफ करने की प्रार्थना की। ईसा के इस क्षमामूर्ति रूप में भी उस प्रेम के दर्शन होते हैं, जो समर्पण, त्याग के भावों के साथ उम्मीदों से परे होता है। प्रभु यीशु के प्रेम के इस अनूठे रूप ने संसार को यही दृष्टि दी कि दुर्जनों को अपना बनाने के लिए भलाई और प्रेम का मार्ग बेहतर है।
प्रभु यीशु का पूरा जीवन और आचरण प्रेम, सत्य और ईमानदारी से भरा था। जिसका प्रमाण यीशु की यह बात है जिसके मुताबिक अपने पड़ोसी से सदा प्यार करो, पड़ोसी से प्यार करोगे तो संसार आप से प्यार करेगा, जो प्रेम के साथ आज भी समाज को अच्छाई और भलाई के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।
प्रभु यीशु ने प्रेम को ही व्यावहारिक और मानसिक द्वंद से बचने का सही तरीका माना। उन्होनें बताया कि प्रेम के साथ शांति, दया, अहिंसा, क्षमा जीवन में आते हैं। इसलिए स्वयं के दुर्गुणों के अंत के लिए भी प्रेम को अपनाना जरूरी है। इस तरह गुड फ्रायडे यही संदेश देता है कि बुराई पर अच्छाई से, हिंसा पर अहिंसा से और नफरत पर प्रेम से ही जीत पाई जा सकती है।
ऐसी भक्ति व भोजन, भीषण गर्मी में तन व मन को दे ठंडक
हिन्दू पंचांग का दूसरा माह वैशाख कहलाता है। हिन्दू धर्म शास्त्र स्कन्दपुराण में देवर्षि नारद ने वैशाख माह की श्रेष्ठता बताई है कि जिस तरह विद्याओं में वेद श्रेष्ठ है, मंत्रों में प्रणव, वृक्षों में कल्पवृक्ष, धेनुओं में कामधेनु, देवताओं में विष्णु, वर्णों में ब्राह्मण, वस्तुओं में प्राण, नदियों में गंगा, तेजों में सूर्य, अस्त्र-शस्त्रों में चक्र, धातुओं में स्वर्ण, वैष्णवों में शिव तथा रत्नों में कौस्तुभमणि श्रेष्ठ है, उसी तरह सभी महीनों में वैशाख मास श्रेष्ठ है। यह भगवान विष्णु की भक्ति और स्मरण का का पवित्र काल है।
देवर्षि नारद ने इसके साथ ही वैशाख माह में विष्णु भक्ति और धर्म पालन के साथ आचरण की पवित्रता का महत्व बताया। आचरण की पवित्रता में भोजन भी अहम होता है। असल में वैशाख माह से गर्मी का मौसम शुरु होता है। जिसमें सूरज की तपन से शरीर की ऊर्जा कम होने लगती है। इसलिए इस माह में सेहत को लेकर की गई थोड़ी लापरवाही भी किसी को भी रोगी बना सकती है। इसलिए पुराणों और आयुर्वेदिक ग्रंथों में वैशाख माह में खान-पान से जुड़े आचरण व्यवहार से संबंधित अनेक उपाय बताए गए हैं। डालते हैं इन पर एक नजर -
ऐसा हो खानपान- वैशाख मास में गर्मी से बचाव के लिए चिकने मीठे, ठंडे और तरल पदार्थों को ग्रहण करना फायदेमंद होता है। ऐसा करने से शरीर में नमी, शीतलता बनी रहती है। इन पदार्थों में मुख्य रुप से दूध, दही, चावल की खीर, मीठे चावल, शर्करायुक्त दूध, घी, रोटी, सब्जियां, पत्तेदार भाजीयाँ, लौकी, परवल, टमाटर, कच्चे केले, तरबूज, हरी मटर, आलू, ककड़ी, मूंग दाल, मसूर दाल, संतरा, आम, अनार, अंगूर, मौसंबी, प्याज, पुदीना, हरा धनिया, सत्तू, नीबू, आगरा का पेठा, लस्सी, शर्बत हैं।
ऐसा खान-पान न करें - इस मौसम में कुछ खाद्य पदार्थं ऐसे हैं जिनका सेवन स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकता है। जिनमें तले हुए नमकीन, मिर्च मसालेदार, चने के आटे से बने, बासी, गरम मसाले युक्त खाद्य पदार्थों के सेवन से बचे। रात्रि में दही न खाएं। इमली, अमचूर, सिरका, खट्टे, कड़वे, उड़द, चने की दाल, लहसुन, सरसों के तेल से बनी खाने-पीने की सामग्री से बचें। धूप से बचें। भोजन कर या कुछ खा-पीकर बाहर निकलें।
इस तरह तन और मन के सुख के लिए भक्ति, भजन के साथ खान-पान के संयम से इंसान खुद को चुस्त-दुरुस्त रख सकता है। निरोगी काया ही पहला सुख माना जाता है।
शांति, स्फूर्ति और ताजगी दे स्नान, दान व ध्यान
प्राचीन ऋषि-मुनियों ने प्रकृति के बदलावों को अपने अनुभव और ज्ञान से समझकर ऐसे व्रत, पर्व, त्यौहार की परंपराएं बनाकर उनके नियम-संयम को लोक व्यवहार से जोड़ा, जिनको अपनाने पर हर इंसान शरीर, मन और विचारों के स्तर पर शांति, स्फूर्ति, ताजगी और ऊर्जा पाता है।
इस कड़ी में हिन्दू पंचाग के वैशाख माह (19 अप्रैल से शुरू) में धार्मिक कर्म, स्नान, ध्यान और दान का बहुत महत्व बताया गया है। ये धार्मिक परंपराएं इंसान को सरलता और परोपकार की भावना से जीना सिखाती है। साथ ही सादगी से रहने और हर प्राणी मात्र के प्रति संवेदना रखने की प्रेरणा देती है। यही कारण है कि वैशाख को पवित्र मास माना गया है। जानते हैं स्नान, दान और ध्यान के व्यावहारिक लाभ पर एक नजर -
स्नान - वैशाख माह में तीर्थ, पवित्र स्थान या अपने निवास पर ही स्नान श्रेष्ठ बताया गया है। चूंकि वैशाख माह से गर्मी का मौसम शुरु होता है। इसलिए नियमित रुप से प्रात: स्नान करने से तन को तपन से भी राहत मिलती है।
ध्यान - इसी तरह यह माह शांतिस्वरुप भगवान विष्णु की आराधना का काल है। विष्णु उपासना मानव को धर्म से जोड़ती है। इस तरह स्नान के बाद देव उपासना तन के साथ-साथ मन की शांति देने वाली होती है। इस काल में सुबह जल्दी उठकर देव उपासना की क्रियाओं में ध्यान, प्राणायाम, योग आदि की क्रियाओं से तन व मन पर हावी तनाव और थकान दूर होते हैं। जिससे मौसम के बदलाव में भी व्यक्ति खुद को निरोग रख पाता है। वहीं सुबह जल्दी उठने से दिनचर्या में भी अनुशासन आता है। अनुशासन ही जीवन में सफलता तक पहुंचने का एक अहम सूत्र है।
दान - दान की परंपरा मानवीय संवदेनाओं से भरी हुई है, जो मानवता की भावना को बढ़ाने वाली है। वैशाख माह में भूखे को भोजन दान और प्यासे जीव को जल पिलाना श्रेष्ठ कर्तव्य बताया गया है। इस माह में मौसम कीं गर्माहट शीतलता देने के लिए प्याऊ लगाना, पंखा दान जो ठंडी हवा देता है, धूप की तपन से बचने के लिए छायादार स्थान बनाना, धूप से तपती जमीन से पैरों को बचाने के लिए पदयात्रियों को जूते-चप्पल या पादुका देना तथा भोजन कराने भी पुण्य कार्य बताया गया है।
इन पर गिरती है शनि की गाज
हिन्दू धर्म शास्त्रों के मुताबिक शनि सूर्य पुत्र हैं। शनि दण्डाधिकारी या न्याय के देवता भी कहलाते हैं। उनका स्वभाव और दृष्टि क्रूर बताई गई है। ज्योतिष शास्त्रों के अनुसार इनका असर शनि दशा, साढ़े साती या कुण्डली में शनि के बुरे योग में माना जाता है, जो सबल व्यक्ति को भी बेहाल कर सकता है।
शनि के स्वभाव, क्रूर दृष्टि और दण्डाधिकारी होने से जुड़ी पौराणिक कथा है। जिसके मुताबिक शनि-सूर्य पिता-पुत्र होने पर भी उनके बीच शत्रुभाव है। जिसका कारण यह बताया गया है कि शनि सूर्य की पत्नी छाया की संतान थे। किंतु शनि के जन्म के समय उनका रंग-रूप देखकर सूर्य ने अपना पुत्र मानने से इंकार किया और छाया की उपेक्षा और अपमान किया।
माता का अपमान सहन न कर शनि ने घोर तप कर भगवान शिव को प्रसन्न किया और सूर्य से भी अधिक बलवान बनने का वर मांगा। भोलेनाथ ने भी शनि को इस वर के साथ ही नवग्रहों में सबसे ऊंचा स्थान और इंसान ही नहीं देवताओं को भी शनि की शक्ति के आगे नतमस्तक होने का वर दिया। इसके अलावा बुरे कर्मों के लिए जगत के हर प्राणी को दण्ड देने का अधिकार भी दिया।
यही कारण है कि धार्मिक मान्यताओं में शनि की तिरछी नजर सबल, सक्षम को भी पस्त करने वाली मानी गई है। शनि की ऐसी ही क्रूर दृष्टि से कौन-कौन बदहाल हो सकता है? इसका जवाब भी शास्त्रों में लिखा गया है कि -
देवासुरमनुष्याश्च सिद्धविद्याधरोरगा:।
तव्या विलोकिता: सर्वे नाशं यान्ति समूलत:।।
जिसका अर्थ है - देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और नाग इन सभी का शनि की टेढ़ी नजर समूल नाश कर सकती है।
इन 10 रिश्तों से रखें सही तालमेल, हमेशा रहेंगे सुखी
आज इंसान पर भौतिक सुखों की चाहत इतनी हावी दिखाई देती है कि वह सही और गलत का फर्क समझकर भी नजरअंदाज कर देता है। यही विवेकहीनता भविष्य में जीवन में अशांति घोल देती है। जबकि सुखी और सफल जीवन बनाने में मात्र धन या सुविधाएं ही अहम नहीं होती, बल्कि वह सारे रिश्ते, भावनाएं व अदृश्य देव कृपा भी महत्व रखती हैं, जिनके बीच या साथ कोई व्यक्ति पनपता और जुड़ा रहता है।
हिन्दू धर्म ग्रंथ रामचरितमानस भी व्यावहारिक जीवन से जुड़े संदेश देता है। सुन्दरकाण्ड में लिखी चौपाई में इंसानी जीवन में रिश्तों के सही प्रबंधन के ऐसे सूत्र बताए गए हैं, जिनको समझ और अपनाकर भौतिक सुखों के साथ आध्यात्मिक सुख भी पाए जा सकते हैं। जानते हैं वह चौपाई और उसका अर्थ, जो श्रीराम और शरणागत विभीषण से संवाद के दौरान आई है -
जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुह्रद परिवारा।।
सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बॉंध बरि डोरी।।
शाब्दिक सरल अर्थ जानें तो इस चौपाई में श्रीराम ने स्वयं बताया है कि उनको वह प्रिय है जो माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार के ममताभरे धागों को एक सूत्र में बांधकर उनके साथ मन को मेरे चरणों में बांध देता है।
संकेत यही है कि हर इंसान के जीवन में यहां बताए 10 रिश्तें अहम है। जिनके बिना जीवन संपूर्ण नहीं माना जाता। इनसे सही तालमेल और संतुलन होने पर ही हर इंसान चिंता, डर और दु:खों से दूर होता है। किंतु इनके साथ थोड़ा भी असंतुलन अशांति लाता है। इसलिए इन सुखों को स्थायी बनाने के लिए इन रिश्तों और खुशियों के साथ रहकर ईश्वर का स्मरण और भक्ति की जाए तो इंसान सुख-दु:ख में समान रहना सीख हर तरह से मजबूत भी बना रहता है। सार यही है कि गृहस्थ जीवन में सही संतुलन बनाने पर आध्यात्मिक जीवन और देव कृपा भी संभव है।
मानवता के लिए शहीद हुए गुरु अर्जुनदेव
गुरु अर्जुनदेव सिक्खों के पांचवे गुरु थे। इनका जन्म वैशाख मास के कृष्ण पक्ष की सप्तमी को हुआ था। गुरुग्रंथ साहिब में तीस रागों में गुरुजी की वाणी संकलित है। गणना की दृष्टि से श्री गुरुग्रंथ साहिब में सर्वाधिक वाणी पंचम गुरु की ही है। मानव-कल्याण के लिए उन्होंने आजीवन शुभ कार्य किए। 24 अप्रैल, रविवार को गुरु अर्जुनदेव की जयंती है।
गुरु ग्रंथ साहिब का संपादन गुरु अर्जुनदेव ने भाई गुरदास की सहायता से 1604 में किया। ग्रंथ साहिब की संपादन कला अद्वितीय है, जिसमें गुरु जी की विद्वत्ता झलकती है। उन्होंने रागों के आधार पर ग्रंथ साहिब में संकलित वाणियों का जो वर्गीकरण किया है, उसकी मिसाल मध्यकालीन धार्मिक ग्रंथों में दुर्लभ है। यह उनकी सूझबूझ का ही प्रमाण है कि ग्रंथ साहिब में 36 महान वाणीकारों ंकी वाणियां बिना किसी भेदभाव के संकलित हुई।
गुरु ग्रंथ साहिब के संपादन को लेकर कुछ असामाजिक तत्वों ने अकबर बादशाह के पास यह शिकायत की कि ग्रंथ में इस्लाम के खिलाफ लिखा गया है, लेकिन बाद में जब अकबर को सच्चाई का पता चला, तो उन्होंने भाई गुरदास एवं बाबा बुढ्ढा के माध्यम से 51 मोहरें भेंट कर खेद ज्ञापित किया। 16 जून 1606 को जहाँगीर ने लाहौर जो की अब पाकिस्तान में है, में अत्यंत यातना देकर गुरु अर्जुनदेव की हत्या करवा दी।
अमर वाणी है गुरु अर्जुनदेव की सुखमनी साहिब
गुरु अर्जुनदेव ने सिक्ख संस्कृति को घर-घर तक पहुंचाने के लिए अथक प्रयत्न किए। गुरु दरबार की सही निर्माण व्यवस्था में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। उनके मन में सभी धर्मों के प्रति अथाह स्नेह था। गुरु अर्जुनदेव द्वारा रचित वाणी ने संतप्त मानवता को शांति का संदेश दिया।
सुखमनी साहिब उनकी अमर-वाणी है। सुखमनी साहिब में चौबीस अष्टपदी हैं। सुखमनी साहिब राग गाउडी में रची गई रचना है। यह रचना सूत्रात्मक शैली की है। इसमें साधना, नाम-सुमिरन तथा उसके प्रभावों, सेवा और त्याग, मानसिक दुख-सुख एवं मुक्ति की उन अवस्थाओं का उल्लेख किया गया है, जिनकी प्राप्ति कर मानव अपार सुखों की उपलब्धि कर सकता है। सुखमनी शब्द अपने-आप में अर्थ-भरपूर है। मन को सुख देने वाली वाणी या फिर सुखों की मणि इत्यादि।
सुखमनीसुख अमृत प्रभु नामु।
भगत जनां के मन बिसरामु॥
सुखमनी साहिब सुख का आनंद देने वाली वाणी है। सुखमनी साहिब मानसिक तनाव की अवस्था का शुद्धीकरण भी करती है। प्रस्तुत रचना की भाषा भावानुकूलहै। सरल ब्रजभाषा एवं शैली से जुड़ी हुई यह रचना गुरु अर्जुन देव की महान पोथी है।
शत्रु को चारों खाने चित्त कर देता है यह तरीका
इंसान सामाजिक प्राणी माना गया है। यही कारण है कि धर्म शास्त्रों में भी इंसान को अनुशासन और संयम से जीवन गुजारने के लिए आचरण और व्यवहार की मर्यादाएं नियत है। किंतु हर इंसान इनका पालन नहीं करता। बस, यही कारण आपसी टकराव, संघर्ष और कलह को पैदा करता है, जिससे मनचाहे लक्ष्य को पाना मुश्किल हो जाता है।
यह स्थिति परिवार, समाज, कार्यक्षेत्र में बड़े या छोटे स्तर पर देखी जाती है। ऐसी हालात से निबटने के लिए ही हिन्दू धर्म शास्त्रों में बताए कुछ सूत्र कारगर साबित हो सकते हैं। अगर आप भी आज की चकाचौंधभरी जिंदगी की इस दौड़ में बने रहने या कामयाबी के ऊंचे मुकाम छूने की चाहत रखते हैं तो यहां बताया जा रहा है वह तरीका, जिसके आगे विरोधी भी नतमस्तक हो सकते हैं -
हिन्दू धर्म ग्रंथ महाभारत में लिखा है कि -
प्राप्यापदं न व्यथते कदाचि-
दुद्योगमन्विच्दति चाप्रमत्त:।
दु:खं च काले सहते महात्मा
धुरन्धरस्तस्य जिता: सपत्ना:।।
सरल शब्दों में अर्थ है कि विपरीत हालात या मुसीबतों के वक्त जो इंसान दु:खी होने के स्थान पर संयम और सावधानी के साथ पुरुषार्थ, मेहनत या परिश्रम को अपनाए और सहनशीलता के साथ कष्टों का सामना करे, तो उससे शत्रु या विरोधी भी हार जाते हैं।
इस बात में संकेत यही है कि अगर जीवन में तमाम विरोध और मुश्किलों में भी मानसिक संतुलन और धैर्य न खोते हुए हमेशा सकारात्मक सोच के साथ आगे बढऩे का मजबूत इरादा रखें तो राह में आने वाले हर विरोध या रुकावट का अंत हो जाता है।
श्री हनुमान की ऐसी शक्ति के आगे शनि भी होते हैं नतमस्तक
रुद्राक्ष शिव का अंश माना गया है। धार्मिक मान्यताओं में इसकी उत्पत्ति भी शिव के आंसुओं से मानी गई है। रुद्र और अक्ष यानी आंसु शब्द को मिलाकर इसे रुद्राक्ष पुकारा जाता है। शिव का अंश होने से ही यह सांसारिक पीड़ाओं को दूर करने वाला तो माना ही गया है। साथ ही धर्म और आध्यात्मिक रूप से भी रुद्राक्ष का प्रभाव धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष देने वाला होता है।
पुराणों में अलग-अलग रूपों और आकार के रुद्राक्ष जगत के लिए संकटमोचक, सुख-सौभाग्य देने वाले और मनोरथ पूरे करने वाले बताए गए हैं। रुद्राक्ष की पहचान उस पर बनी धारियों से होती है। इन धारियों को रुद्राक्ष का मुख मानकर शास्त्रों में एकमुखी से इक्कीस मुखी रुद्राक्ष का महत्व बताया गया है।
इन सभी रुद्राक्ष में अलग-अलग देव शक्तियों का रूप और वास माना गया है। जिनमें बहुत से दुर्लभ हैं। जिनमें चौदह मुखी रुद्राक्ष श्री हनुमान का रूप माना गया है। जिसकी पूजा या धारण करने से श्री हनुमान की शक्तियों का प्रभाव विपत्तियों से बचाने वाला माना गया है।
श्री हनुमान भी रुद्रावतार है और रुद्राक्ष भी शिव का वरदान माना गया है। वहीं पौराणिक मान्यताओं में शनि ने शिव कृपा से ही शक्ति और ऊंचे पद को पाया। इसलिए माना गया है कि शिव और हनुमान की शक्तियों के आगे शनि भी नतमस्तक रहते हैं।
यही कारण है कि शनि साढ़े साती, महादशा या शनि पीड़ा के दौरान चौदह मुखी रुद्राक्ष को पहनना या उसकी उपासना शनि दशा में अनिष्ठ से रक्षा ही नहीं करती, बल्कि सुख-सौभाग्य लाने वाली होती है।
चौदहमुखी रुद्राक्ष श्री हनुमान कृपा से उपासक को निडर, ऊर्जावान, निरोगी बनाता है। यह संतान व भूतबाधा दूर करता है। धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक इसके गुण व शुभ प्रभाव अनंत है। यह स्वर्ग के सुख के साथ ही शनि पीड़ा जैसे क्रूर देवीय प्रकोप से भी बचाता है।
बर्फबारी और बेहद सर्दी में भी जलती है यह अखण्ड जोत!
हिन्दू धर्म के पावन तीर्थों में शामिल चार धामों में एक वैष्णव धाम भगवान बद्रीनाथ मंदिर के कपाट इस वर्ष 9 मई को खुलेंगे। मंदिर के कपाट यानी द्वार अगले छ: माहों के लिए खुलते हैं। मंदिर के कपाट अप्रैल-मई में खुलकर अक्टूबर-नवंबर विजयादशमी तक खुले रहते हैं। मंदिर के कपाट खुलने की तिथि फरवरी-मार्च में बसंत पंचमी के दिन शुभ मूहुर्त देखकर नियत की जाती है, जो परंपराओं के मुताबिक आज भी उत्तराखंड के टेहरी गढ़वाल क्षेत्र के महाराजा की मौजूदगी में विद्वान ब्राह्मणों और ज्योतिषों द्वारा तय की जाती है।
हिन्दू तीर्थ बद्रीनाथ धाम में कपाट खुलते ही सबसे अधिक महत्व अखण्ड ज्योति के दर्शन का है। यह अखण्ड ज्योति वर्ष भर लगातार प्रज्जवलित रहती है। यहां तक कि कपाट बंद होने के दौरान ठंड के मौसम के छ: माहों की अवधि में भी यह अखण्ड जोत प्रकाशित रहती है। जब नवंबर या दशहरे के दिन बंद होते हैं, तब अखण्ड जोत के पारंपरिक और बड़े दीपक में घी या तेल डाल दिया जाता है। यही अखण्ड जोत बर्फबारी और ठण्डे मौसम में भी अगले छ: माहों तक निरंतर जलती रहती है। इसलिए कपाट खुलने के समय अखण्ड ज्योति के दर्शन का विशेष महत्व है। श्रद्धालु इस अखण्ड ज्योति को भगवत कृपा और आशीर्वाद का ही एक रूप मानते हैं। क्योंकि मान्यता है कि कपाट बंद होने के बाद भगवान ब्रद्रीनाथ योग मुद्रा में जाते हैं और देवताओं द्वारा उनकी पूजा की जाती है।
मंदिर के कपाट खुलने और बंद होने के समय पूजा और आरती की परंपरा है। कपाट खुलने पर दर्शन मंडप से पुजारियों और कुछ विशेष लोगों द्वारा भगवान और अखण्ड ज्योति की पूजा की जाती है। बाकी सभी तीर्थयात्री पवित्र तप्त कुंड में डुबकी लगाकर सभा मंडप या बाहर से ही भगवान की पूजा और अखण्ड ज्योति के दर्शन करते हैं।
बुद्धि फेर देती हैं ये बातें..! इनसे बचकर रहें
हर धर्म में अच्छी और बुरी ताकतों के बीच संघर्ष में अच्छाई की जीत और उसे अपनाने को ही जीवन में अपने साथ दूसरों के सुखों का सूत्र बताया गया है। हर इंसान जीवन में व्यक्तिगत रूप से भी व्यावहारिक जीवन में हर रोज अच्छे-बुरे को चुनने की मानसिक जद्दोजहद में लगा रहता है।
सुख की चाहत में इंसान की यह कवायद उसके मन को अस्थिर और अशांत भी करती है। मन की शांति और स्थायी सुख पाने के लिये ही हिन्दू धर्मग्रंथ श्रीमद्भावतगीता में एक छोटा-सा सूत्र बताया गया है।
लिखा गया है कि -
'मन: स्वबुद्ध्यामलय नियम्य'
जिसका अर्थ है कि अपनी पवित्र बुद्धि से ही मन को साधें। इसमें बुद्धि की पावनता द्वारा कर्म, वचन और व्यवहार में बुराई से बचने का संकेत है। यह तभी संभव है जब यहां बताए जा रहे कुछ बुरे काम और भावों से इंसान बचकर रहे। जानते हैं शास्त्रों में बताई ये बुरी बातें -
अहं, कर्महीनता, नफरत यानी घृणा, बुरे संस्कार और आचरण, मान-सम्मान की लालसा, राग, मोह, आसक्ति, ईष्र्या, द्वेष, स्त्री प्रसंग, स्वार्थ भाव के कारण मन व ह्दय से उदार न होना, दुराग्रह, झूठा दंभ।
स्वभाव, व्यवहार से जुड़ी ये सारी बातें इंसान के बुद्धि और विवेक पर सीधे ही बुरा असर डालती है, जिससे जीवन में आए बुरे बदलाव दु:ख और पीड़ा का कारण बन सकते हैं। इसलिए संयम और समझ के साथ इन बुरी बातों से बचने की यथासंभव कोशिश करें।
जादुई खूबी! जिससे पाएं लगातार सफलता
हर इंसान की जिंदगी का काफी समय और बल सफलता पाने या सफलता को कायम रखने में लग जाता है। वहीं दूसरी ओर सच यह भी है कि वक्त के उतार-चढ़ाव से सफलता या असफलता का दौर स्थायी नहीं होता। नाकामी और कामयाबी के दौर में मिले अच्छे-बुरे अनुभव इंसान को कभी सुख देते हैं तो कभी कसक भी छोड़ देते हैं।
इंसान के मन को ऐसे छुपे दु:खों से दूर रखने के लिये शास्त्रों व संत-महात्माओं ने कुछ ऐसी व्यावहारिक बातें बताई हैं, जो सफलता या असफलता दोनों ही हालात में हर इंसान की ताकत और खुशियों का कारण बन सकती है। इस बात को इंसान को व्यवहार में उतारना ही चाहिए।
सफलता और सुख का ऐसा ही एक सूत्र है - मीठी वाणी या बोल। जी हां, शब्द और बोल में कटुता जहां भारी दु:खों का कारण बन सकते हैं, वहीं मीठे और कोमल शब्द और वाणी इंसान को गहरी मुसीबतों से बाहर निकाल सकती है।
धार्मिक दृष्टि से भी वाणी में मां सरस्वती का वास माना गया है। इसलिए मीठे वचन मां सरस्वती की उपासना ही हैं। महान ग्रंथ रामचरितमानस रचने वाले संत गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा भी है कि -
तुलसी मीठे वचन ते सुख उपजत चहुं ओर।
बसीकरन यह मंत्र है परिहरु बचन कठोर।।
साफ है कि मीठे बोल अपार सुख का कारण बनते हैं। इसलिए वाणी में पहले कोमलता लाने की कोशिश करें। शब्द और आवाज से कर्कशता या कड़े शब्दों को निकालें। इसके साथ ही मानसिक अभ्यास से दूसरों की प्रतिकूल बातों को सुनकर आवेशित होने की आदत पर काबू पाएं, जिससे वचन कठोर हो जाते हैं।
मीठी वाणी और मन के संतुलन और अभ्यास से हर इंसान अच्छी-बुरी स्थितियों में भी दूसरों को अपना बनाकर सहयोग, प्रेम और विश्वास पाता है, जो कामयाबी की राह बेहद आसान बना देते हैं। सरल शब्दों में कहें तो मीठे शब्दों के जादू से सारी दुनिया को मुट्ठी में करना संभव हो सकता है।
क्रमश:...
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
No comments:
Post a Comment