इंद्रिय निग्रह
'निग्रह' शब्द का अर्थ है- नियंत्रित करना, रोकना या वश में करना। अत: इंद्रिय निग्रह शब्द का अर्थ है-इंद्रियों को वश में करना या इंद्रियों को नियंत्रित करना। इंद्रिय निग्रह इतना महत्वपूर्ण एवं परम उपयोगी कार्य है कि इसे विश्व के सभी धर्मों में मनुष्य का धर्म कर्तव्य माना गया है। धर्म में जितना महत्व सत्य, प्रेम, अहिंसा, दया, परोपकार, क्षमा आदि सद्गुणों को दिया गया है उतना ही महत्व इंद्रिय निग्रह को भी दिया गया है।
पंच ज्ञानेंद्रियां
हम जानते हैं कि पांचों इंद्रियां- नेत्र, श्रवण, गंध, स्वाद एवं स्पर्श, मानव जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण है। ईश्वर ने ये पांचों इंद्रियां मनुष्य को संसार का अनुभव प्राप्त करने एवं अपना विकास करने के लिए प्रदान की हैं। इंद्रिय निग्रह को ऋषि-मुनियों, पीर-पैगंबरों, संत-महात्माओं, विद्वानों, विचारकों एवं तत्व ज्ञानियों ने समान रूप से अति महत्वपूर्ण एवं आवश्यक बताया है।
इंद्रिय निग्रह से शक्ति संग्रह
मानव जीवन में इंद्रिय निग्रह का इतना महत्व इसलिए है कि इंद्रिय निग्रह से मनुष्य का शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक विकास संभव है। आंखों का उपयोग सदैव सार्थक, उपयोगी एवं कल्याणकारी दृश्य देखने में ही हो, यह आंख नामक इंद्रिय का निग्रह है। जो अतिआवश्यक, पूर्ण सत्य,मधुर एंव परम कल्याणकारी बात हो वही बोलना चाहिए। सत्य, नैतिक, वास्तविक, मर्यादित, सार्थक व सोद्देश्यपूर्ण बातें या वचन ही सुनना चाहिए। भोजन स्वाद के दृष्टिकोण से नहीं अपितु स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से ग्रहण करना चाहिए। इसी प्रकार स्पर्श और गंध इंद्रियों का भी उचित, नैतिक एवं सार्थक प्रयोग करना स्थाई लाभकारी होता है। किंतु ऐसा करना तभी संभव हो पाता है। जब हमारा अपनी इंद्रियों पर पूर्ण नियंत्रण हो। यदि इंद्रियां अनियंत्रित है तो वे जीवन की सफलता एवं सार्थकता की बजाए दो क्षण का स्वाद चखने में ही जीवन को नष्ट कर देगी।संयम से ही होता है इंद्रिय निग्रह
दूसरों के प्रति हमारा दायित्व है दान
दान का अर्थ है -देना। अपनी खुशी से किसी को कुछ भी देना जिसे वापस पाने की कामना न हो, दान कहलाता है। सभी धर्मों के शास्त्र में यह अनिवार्य कर्म बताया गया है। अपनी मेहनत की शुद्ध कमाई में से दस प्रतिशत दान देने का विधान है। यह केवल कोई धार्मिक क्रिया नहीं है बल्कि समाज के कमजोर वर्ग के प्रति हमारा दायित्व भी है।
सब हमारा, हम सबके :- अपनी कमाई से केवल अपना और अपने परिवार का पालन करना ही कोई बड़ी बात नहीं है। यह मानव धर्म भी नहीं। बल्कि जरूरतमंदों की अपने सामथ्र्यनुसार मदद करना ही सच्चा धर्म है। दान, त्याग सिखाता है।
दान के प्रकार :- दान के चार प्रकार बताए गए हैं1. नित्य दान - रोजाना किया जाने वाला दान।2. नैमित्तिक दान - किसी कामना से कभी-कभी दिया दान।3. काम्यदान - संतान, विजय, सुख, स्वर्ग प्राप्त करने की इच्छा से दान।4. विमल दान - ईश्वर की प्रसन्नता के लिए दिया दान।दान हमेशा सुपात्र को ही दें। कुपात्र को दिया दान व्यर्थ है।
सामाजिक संतुलन - सभी धर्मों में कहा गया है कि हर जीव में परमात्मा का वास होता है। अत: कोई व्यक्ति भूखा न रहे दान में यही व्यवस्था चलती है। जो सक्षम है वह निर्धन लोगों को दान से सहायता करते हैं, जिससे सामाजिक संतुलन बना रहता है।विधान - दान का विधान जो धन धान्य से संपन्न है, केवल उनके ही लिए है। जो निर्धन है, उनके लिए दान देना जरूरी नहीं है।धन से मोह कम हो तथा देने की भावना जागे यही इसका भाव है।
क्षमा : मन का बोझ हल्का कर देती है माफी
क्षमा शब्द का अर्थ है - बिना बदले की भावना के किसी के दुव्र्यवहार या अपराध को सह लेना। सहनशीलता और माफी शब्द भी क्षमा के लिए प्रयुक्त होते हैं। धर्म के प्रमुख लक्षणों सत्य, अहिंसा, प्रेम, दया, दान, परोपकार, तप आदि में क्षमा को भी धर्म का प्रमुख अंग माना गया है। क्रोध का कारण उत्पन्न होने पर भी यदि संयम रखा जाए तो ऐसी भावना क्षमा कहलाती है। क्षमा की भावना दोषी अथवा अपराधी को सुधारने या बदलने का मौका देती है एवं प्रेरित करती है। इसके विपरित यदि दोषी या अपराधी पर क्रोध किया जाए तो ऐसा व्यक्ति अपनी गलती कभी स्वीकार नहीं करता। क्रोध से क्रोध भड़कता है और वातावरण, घृणा और हिंसा से भर जाता है। जबकि क्षमा प्रेम, दया और पश्चाताप की जननी है। जिस व्यक्ति को क्षमा कर दिया जाता है वह पश्चाताप के जल में धुलकर निर्मल हो जाता है। जबकि जिसपर क्रोध किया जाता है वह क्रोध की अग्नि में जलकर खाक हो जाता है।
संसार का हर व्यक्ति किसी न किसी अवगुण या बुराई से ग्रस्त होता है। ऐसा मनुष्य अपवाद ही है जो पूर्णत: दोष रहित हो। प्रत्येक व्यक्ति में अलग-अलग कमजोरियां एवं दोष होते हैं। इसलिए समझदारी यह कहती है कि हमें दूसरों के दोषों एवं अपराधों को संभवत: सहन करते हुए क्षमता कर देना चाहिए। जो व्यक्ति बार-बार जानबूझकर कोई अपराध करें और क्षमा करने पर, समझाने पर भी न माने ऐसे व्यक्ति का मुनासिब (आवश्यक) प्रतिकार अवश्य करना चाहिए। क्षमा का उद्देश्य दोषी या अपराधी को सुधरने या बदलने का मौका देना होता है। क्षमा कायरता की पहचान नहीं होनी चाहिए। अर्थात् यदि क्षमा को कोई अपराधी आपकी कायरता, कमजोरी, मजबूरी समझे तो ऐसे व्यक्ति को सबक सिखाना आवश्यक हो जाता है। अत: जिनके सुधरने या बदलने की संभावना हो उसे क्षमा करना धर्म है अन्यथा नहीं।
दूसरों की मदद का भाव परोपकार
परोपकार का अर्थ है- दूसरों के हित का काम। अनुभवी लोग कहते हैं कि अपने लिए पशु भी जी लेते हैं मनुष्य जीवन की सार्थकता तो इसी में है कि वह औरों के लिए, समाज के लिए, विश्व के लिए और अंतत: प्राणीमात्र के लिए भी अपना समय और संपत्ति लगाए खर्च करें। एकमात्र मनुष्य को ही दया-करुणा जैसी उच्च भावनाएं प्राप्त है।
ईश्वर का उपहार- मनुष्य को जन्म से ही ईश्वर ने दया की भावना के रूप में एक अनुपम उपहार दिया है। किसी को दुखी, अभावग्रस्त, रोगी, असमर्थ देखकर हर संवेदनाशील मन में दया की भावना जन्म लेती है। दया-करुणा की संवेदनाएं मनुष्य को परोपकार, सेवा और त्याग के लिए प्रेरित करती हैं।
सभी का जन्म एक ही स्रोत से - धार्मिक दृष्टिकोण के सोचें या वैज्ञानिक दृष्टिकोण से, सिद्ध यही होता है कि सभी मनुष्यों एवं प्राणियों का जन्म एक ही तत्व या शक्ति से हुआ है। इस प्रकार संसार के समस्त प्राणी आपस में सगे भाई-बंधु है। यदि संसार के किसी भी हिस्से में कोई मनुष्य या प्राणी दु:खी और अभावग्रस्त है तो प्रत्येक व्यक्ति का यह धर्म कर्तव्य है कि वह उसकी सेवा सहायता करे। किसी को दु:खी, दरिद्र एवं अभावग्रस्त देखकर उसकी मदद न करना हृदय की कठोरता, पशुता एवं संवेदन हीनता का प्रमाण है।सच्चा धर्मसत्य, प्रेम, अहिंसा, दया जैसे धर्म के प्रमुख लक्षणों में परोपकार (दूसरों की सेवा-सहायता) को भी धर्म का प्रमुख लक्षण माना गया है। घोर स्वार्थी और कठोर हृदय व्यक्ति ही किसी को दु:खी देखकर उसकी सेवा सहायता किए बिना रह सकता है। परोपकार धर्म को संसार के सभी धर्मों ने अत्यंत महत्वपूर्ण माना है। हिंदू धर्म में कहा गया है 'परहित सरिस धर्म नहीं कोई, इस्लाम की मान्यता है कि जिसका पड़ोसी दु:खी है वह सच्चा मुसलमान नहीं है, ईसाई धर्म की मान्यता है कि- स्वयं भूखे रहकर, अपना हिस्सा जरूरतमंद को दे देना ही सच्ची मनुष्यता है।
दान एक धर्मः जो आर्थिक असमानता दूर करता है
दान शब्द का अर्थ है किसी वस्तु पर से अपना हक समाप्त कर किसी और को उसका मालिक बना देना। दान एक एसा धर्म है जिससे आर्थिक असमानता दूर होती है।भारतीयसंस्कृति एवं भारतीय धर्मों में दान का अत्यधिक महत्व बताया गया है। धर्मशास्त्रों में भी सभी मनुष्यों के लिए अपनी मेहनत और ईमानदारी की कमाई का एक भाग जरूरत मंद व्यक्तिया अन्य प्राणी को देना धर्म का कार्य बताया गया है।धर्म के अन्य अंगों-सत्य, प्रेम, अहिंसा, दया आदि के समान दान को भी धर्म का अंग मानकर उसका महत्व माना गयाहै।शास्त्रों में दान देने के विषय में भी मार्गदर्शन किया गया है।दान सदैव सुपात्र को-विद्वानों, ऋषि-मुनियों और तत्व ज्ञानियों की भी यही मान्यता है कि दान सदैव सुपात्र (दानपानेकेयोग्य) को ही देना चाहिए।यानि किसीदुराचारी, व्यभिचारी, नशेबाज एवं ढोंगी व्यक्ति को कभी भी दान नहीं देना चाहिए।गलत अथवा अपात्र व्यक्ति को दान देने से समाज में पाप, दुराचार एवं अधर्म की वृद्धि होतीहै।दान का महत्व मनुष्य के जीवन में दान का अत्यधिक महत्व बताया गया है यह एक प्रकार का नित्यकर्म है।मनुष्य को प्रतिदिन अपनी क्षमता के अनुसार कुछ दान अवश्य करना चाहिए।मानव जाति के लिए दान परम आवश्यक है जो मनुष्य की करुणा, प्रेम, उदारता एवं प्राणी मात्र के प्रति अपनत्वका परिचायक है।वैभव होना तो सामान्य बात है, पर उस वैभव को दूसरों के लिए दे देना यह मन की उदारता एवं हृदय की विशालता पर ही निर्भर है। यह नित्य कर्म है। दैनिक जीवन में जिस प्रकार व्यक्ति के द्वारा अन्य सत्कर्म संपन्न होते हैं, उसी प्रकार दान भी प्रतिदिन नियम पूर्वक अवश्य ही करना चाहिए।इस प्रकार के दान में अन्नदान का विशेष महत्व बताया गया है।दान देने की परंपरा से समाज में प्रेम व भाईचारा बना रहता है।दान देने की परंपरा समाज में दया एवं करुणा के आदर्श मानवीय भावों की वाहक है।दान देने की परंपरा से समाज में आर्थिक संतुलन भी स्थापित होता है।
हर धर्म की जड़ है सत्य
जिस प्रकार लज्जा को स्त्री का आभूषण माना जाता है, उसी प्रकार वाणी की शोभा या सार्थकता सत्य बोलने में है।तीन प्रकार के तपों में,सत्य बोलना वाणी का तप है।जैसा कि सभी जानते हैं कि तप कठिन होता है, उसी प्रकार वाणी का तप (सत्यबोलना) भी कठिन है।माना कि सदैव सत्य बोलना कठिन हैकिंतु इसके लाभ उतने ही बडे़ एवं महान हैं।
सर्वोच्च धर्म – धर्म के चार प्रमुख लक्षणों में सत्य का स्थान सर्वोच्च है।सत्य को जीवन में पूरी तरह उतारने वाले राजा हरिशचंद्र की कथा सारे विश्व में विख्यात है।अच्छे गुण की यह विशेषता होती है कि वह अपने जैसे अन्य गुणों को भी आकर्षित करता है।जीवन में सत्य को अपनाने से दया, दान, त्याग, तपस्या आदि जैसे सदगुण भीस्वत: ही आने लगते हैं। इसलिए मानव मात्र के लिए सत्य का पालन प्राचीनकाल से ही आकर्षण का केंद्र रहा है।सत्य निष्ठा किसी भी मनुष्य कीमहानता की पहली पहचान है।
साधक के लिए अनिवार्य – साधना के क्षेत्र में भी सत्य को साधक के लिए अनिवार्य योग्यता माना गया है। लोभ, मोह, भय अथवा अज्ञान के कारण कभी भी सत्य का त्याग नहीं करना चाहिए।ऐसे कई उदाहरण हैजिसमें सत्य वादियों ने मृत्यु को गले लगाकर भी सत्य का दामनन हीं छोड़ा।सत्य पालन करने वाले को शारीरिक एवं मानसिक दु:खों का सामना नहीं करना पड़ता।भारतीय धर्म एवं हिंदू संस्कृति में सत्य की महत्ता एवं उपयोगिता को देखकर इसकी अत्यधिक प्रशंसा की गई है।जहां सत्य बोलने की प्रशंसा हुई है, वहीं असत्य वाणी की कटु निंदा भी की गई है।
प्रबलशत्रु - असत्य बोलने को रोग, जहर तथा भयंकर शत्रु के समान बताया गया है।असत्यवादी (झूठबोलनेवाले) को भयंकर शत्रु के समान हानि पहुंचाने वाला माना गया है।असत्य बोलने वाला किसी का सच्चा विश्वासपात्र नहीं बन पता।जब कि सत्य बोलने वाले व्यक्ति पर सभी आंख मूंद कर भरोसा कर लेते हैं।लंबे समय तक पूर्ण सत्य का पालने वाले व्यक्ति को वाक्सिद्धि प्राप्त होती है यानि उसकी कही बातें हूबहू घटित होने लगती हैं।अत: हम कह सकते हैं कि अपना हर तरह से स्थाई हित चाहने वाले व्यक्ति को अपने जीवन में निश्चित रूप से सत्य को अपनाना चाहिए।
करुणा से ही मन में उपजता है प्रेम
करुणाःअर्थ: करुणा का अर्थ है दया, रहम या संवेदनशीलता।
करुणा का मतलबःमनुष्य जीवन में करुणा एक अत्यंत महत्वपूर्ण भाव है। मनुष्य को उदार, सहृदय, संवेदनशील एवं प्रेममय बनाने वाला जो आदर्शभाव है। वह करुणा ही है। करुणा भाव की महत्ता एवं उच्चता के आधार पर ही इसे सत्य, प्रेम एवं अहिंसा जैसे शाश्वत धार्मिक लक्षणों में शामिल किया गया है। करुणा ही मनुष्य या अन्य जीवन को दुखी देखकर हृदय में में जो दया की भावना जन्म लेती है वह करुणा कहलाती है। दूसरे को दुख में, कष्ट में, अभाव में अथवा पतित अवस्था में देखकर स्वयं द्रवित हो जाना, दुखी हो जाना करुणा के कारण ही होता है। करुणा को धर्म का अंग इसीलिए माना गया है। क्योंकि वह मनुष्य को सेवा, सहायता अथवा परोपकार की प्रेरणा देती है। करुणा ही मनुष्य को प्रेरित करती है कि वह अपना स्वार्थ भूलकर दूसरों की सेवा एवं सहायता करें।
करुणा का महत्वःकरुणा नामक भाव मनुष्य को संवेदनशील बनाकर मानवीयता का पाठ पढ़ाता है। मनुष्य को संकीर्णता से मुक्त करके प्राणीमात्र के प्रति प्रेम और अपनत्व जगाने में करुणा का ही योगदान है। करुणा ईश्वर द्वारा मनुष्य को प्रदान किया गया अमूल्य वरदान है। करुणा मनुष्य को स्वार्थ और मोह के दायरे से बाहर निकालकर संपूर्ण संसार के साथ जोड़ती है। करुणा ऐसी भावना है जो अपने और पराए शब्द का भेद नहीं करती है। अत: हम कह सकते हैं कि करुणा मनुष्य को जन्म से प्राप्त एवं ऐसी भावना है जो उसे संपूर्ण प्राणियों के प्रेम, अपनत्व एवं अभिन्नता का पाठ पढ़ाती है।
मन, वचन ओर कर्म, तीनों से हो अहिंसा
मन, वचन या कर्म के द्वारा किसी को हानि पहुंचाना, कष्ट देना या दु:खी करना, हिंसा का कार्य है। सामान्यत: सोचा जाता है कि हथियारों से या हाथ पैर से किसी को मारना-पीटना ही हिंसा है, जबकि यह तो हिंसा का मात्र एक प्रकार है। बिना हाथ हिलाए, बिना बोले भी हिंसा हो सकती है। यदि आप किसी से मन ही मन घृणा करें या उसकी उपेक्षा (अनदेखा) करें तो यह भी एक प्रकार की हिंसा ही है। मन, वचन व कर्म से हो पालन - सत्य, प्रेम, दया, करुणा आदि के समान ही अहिंसा भी परम धर्म है। अहिंसा अपनाने से वही पुण्य या परिणाम होता है जो सत्य को अपनाने से होता है। अहिंसा का दायरा बहुत बड़ा है। असत्य बोलना भी हिंसा है, क्योंकि ऐसा करके आप किसी को सच्चाई से वंचित करते हैं। अहिंसा धर्म को पूरी तरह से अपनाने का तात्पर्य है कि मन, वचन अथवा कर्म से किसी भी मनुष्य या अन्य प्राणी को दु:ख, कष्ट, अथवा किसी भी प्रकार की हानि न पहुंचाना।
न करें स्वयं के प्रति हिंसा- हिंसा सदैव दूसरों के साथ होती हो यह भी आवश्यक नहीं है, जाने-अनजाने मनुष्य खुद अपने प्रति भी हिंसा का आचरण करता रहता है। मनुष्य हीन भावनासे, अज्ञानता से और मनोरोगों से घिरकर जाने-अनजाने स्वयं के प्रति भी हिंसा करता है।
संत परंपरा - महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी, रामकृष्ण परमहंस, महात्मा गांधी आदि अवतारों और महापुरुषों ने अहिंसा को परम धर्म बताते हुए उसका जीवन भर आचरण किया है। जो सभी मनुष्यों को सदैव प्रेरणा प्रदान करता रहेगा।मन, वचन या कर्म से किसी को भी कष्ट न पहुंचाना ही अहिंसा है। अहिंसा को परम धर्म कहा गया है।
प्रेम: एक सर्वश्रेष्ठ जीवन मूल्य
प्रेमः प्रेम एक ऐसा अतिमहत्वपूर्ण मानवीय भाव है जिसे संसार के सभी धर्मों में सर्वश्रेष्ठ जीवनमूल्य माना गया है। सत्य, अहिंसा, दया, करुणा, परमार्थ, त्याग, सेवा एवं परोपकार जैसे आदर्श जीवन मूल्यों में प्रेम को अतिमहत्वपूर्ण माना गया है। ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, राजयोग के समान ही प्रेमयोग भी ईश्वर प्राप्ति का अनुभव सिद्ध एवं प्रमाणिक मार्ग है। प्रेम को उसके स्वरूप, स्तर और प्रकृति के आधार पर अलग-अलग रूपों में देखा जाता है जो कि इस प्रकार है।
स्वार्थजन्य प्रेम (लौकिक प्रेम):स्वार्थ पर आधारित संबंध, धन के प्रति, यश के प्रति, शरीर के प्रति, रंग, रूप, रस, स्पर्श आदि के प्रति जो लगाव या आकर्षण है वह स्वार्थ जन्म प्रेम होता है।
मोहजन्य प्रेम: माता-पिता का संतान के प्रति, संतान का माता-पिता के प्रति, पति-पत्नी का आपसी प्रेम आदि इसी प्रकार के सांसारिक रिश्तों से जन्मा प्रेम मोहजन्य प्रेम के अंतर्गत आता है।
निस्वार्थ पे्रम: सर्वत्र सभी के प्रति, अपेक्षा रहित स्नेह की पवित्र, कोमल आत्मीय भावना जिसमें कोई स्वार्थ या बदले की आशा निहित न हो, वह निस्वार्थ या आत्मीय प्रेम कहलाता है।
अलौकिक प्रेम:उच्च आदर्शों के प्रति प्रेम, ईश्वरीय विधि-विधान के प्रति प्रेम, ईश्वर रचित संपूर्ण सृष्टि एवं मर्यादाओं के प्रति प्रेम आदि रूपों में अभिव्यक्त प्रेम अलौकिक प्रेम कहलाता है।
कर्म तो सभी करते हैं मगर फर्क है
कुशलता जरूरी है : कर्म के मर्म को समझना यानि कर्म करने की पूर्ण कुशलता प्राप्त करना प्रत्येक मनुष्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। सांसारिक जीवन में सफलता प्राप्त करना हो या आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रगति करना हो दोनों ही कार्य, कर्म करने की कुशलता पर निर्भर हैं। कर्म करने में कुशल व्यक्ति लौकिक एवं अलौकिक दोनों ही क्षेत्रों में सफलता प्राप्त कर सकता है। कर्म सिर्फ शरीर की क्रियाओं से ही संपन्न नहीं होता बल्कि मन से, विचारों से एवं भावनाओं से भी कर्म संपन्न होता है। कर्म के महत्व को व्यक्त करने के लिए ही कहा गया है : कर्म प्रधान विश्व रचि राखा। क्यों करि तर्क बढ़ावंहि शाखा। सकल पदारथ है जग माहीं कर्म हीन नर पावत नाहीं।
अत: हमें कहना एवं मानना चाहिये कि मनुष्य जीवन में कर्म का बड़ा ही महत्वपूर्ण योगदान है। कर्म ही जीवन है। कर्म और भाग्य को लेकर अक्सर मतभेद पाया जाता है। एक तरफ भाग्यवादी हैं जो भाग्य को ही अंतिम मानते हुए 'भाग्य फलति सर्वदा' का नारा देते हैं । वहीं दूसरी तरफ कर्मवाद के समर्थक हैं जो 'कर्म प्रधान विश्व रचि राखा' का उद्घोष करते करते रहते हैं। जबकि बात उतनी कठिन नहीं जितनी कि लोगों ने बना रखी है। वास्तविकता यह है कि दोनों अलग हैं ही नहीं, भाग्य का अतीत ही कर्म हैं तथा कर्म का भविष्य ही भाग्य ।
उन्हें आगे, पीछे और चारों ओर से प्रणाम
प्रणाम करने के भी कई तरीके या प्रकार हैं। हाथ जोड़कर, झुककर, पैर छूकर या साष्टांग दण्डवत होकर। प्रणाम करने की यह क्रिया, सम्मान करने और पाने वाले पर निर्भर करती है। किसी के प्रति सम्मान व्यक्त करने का कार्य हृदय से होता है न कि दिमाग से। जिसके प्रति हमारे हृदय में सच्चा सम्मान होता है तो प्रणाम करने की क्रिया अनायास ही हो जाती है। यदि प्रणाम करने से पूर्व हमारा दिमाग सक्रिय हो तो समझना चाहिये कि सम्मान सच्चा नहीं महज दिखावा है।
माता-पिता और गुरु के प्रति हमारे मन में ऐसा ही सच्चा प्रेम होता है। इनमें भी जो प्रेम गुरु के प्रति होता है वह अधिक आदर्श माना गया है। क्योंकि गुरु और शिष्य का रिश्ता ही सर्वाधिक लम्बा और स्थाई होता है। माता-पिता, पति-पत्नी तथा संतान आदि के प्रति जो प्रेम संबंध होता है, वह सांसारिकता और मोह से जन्मा होता है। जबकि गुरु के प्रति जो प्रेम संबंध होता है वह आध्यात्मिक और निस्वार्थ होता है। एक मात्र गुरु ही है जो हमारे दु:ख को स्थाई रूप से दूर कर सकता है। कहा जाता है कि इंसान अकेले ही आता है और अकेले ही जाता है। यह बात सांसारिक रिश्तों पर ही लागू होती है क्योंकि गुरु मरने के बाद भी जन्मों तक साथ निभाने की क्षमता रखता है। इसीलिये सच्चे गुरु और माता-पिता को किया गया प्रणाम ही सार्थक एवं फलदाई होता है।
भोग करो मगर खुली आंख से
वैसे तो भोग-विलास को धर्म अध्यात्म के क्षेत्र में त्याज्य यानि कि त्याग देने योग्य कार्य माना गया है। किन्तु यह नियम या मर्यादा उस साधक के लिये है जो साधना के क्षेत्र में पर्याप्त उन्नति एवं प्रगति कर चुका हो।किसी नए एवं कच्चे साधक को यदि पूर्ण त्याग या पूर्ण वैराग्य की सीख दी जाए तो उसके लिये इसका पालन करना प्राय: कठिन ही होता है। यदि हिम्मत करके कोई साधक अपनी समस्त वृत्तियों पर एक ही साथ पूर्ण बंदिश लगा भी देता है तो इस बात की पूरी संभावना रहती है कि मौका मिलते ही नियंत्रण का बांध एक ही झटके में चरमरा के गिर जाता है।
अत: बार-बार की ठोकर खाने से अच्छा है कि हर कदम फूंक-फूंक कर ही रखा जाए। मन को किसी कार्य से एक साथ रोकने की बजाय अनुभव से सीखने दिया जाए। अध्यात्म के तत्व ज्ञान में भी यही बात कुछ इस तरह से कही गई है - ' तेन त्यक्तेन भूंजीथा
कहने का मतलब यह है कि भोग करो मगर त्याग के साथ। त्याग के साथ भोग करने का मतलब है खुली आंखों से भोग करना। यानि जब भी किसी इन्द्रिय सुख का भोग करो उसका पूरे ध्यान से निरीक्षण भी करो। पूरे साक्षी भाव से किया गया निरीक्षण आपको उस दिव्य ज्ञान से रूबरू करवा देगा जिसे पाकर आप समझ जाएंगे कि हर इंद्रिय सुख का अन्तिम परिणाम दु:ख ही है। जबकि हर त्याग का परिणाम अन्तत: सुखद ही होता है।
विवाह के सातों वचन क्या और क्यों ?
निर्विवाद रूप से विश्व की प्राचीनतम संस्कृ ति होने का गौरव, भारतीय संस्कृति को ही प्राप्त है। भारतीय संस्कृकि की आदर्श, वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक परंपराएं ही इसे सर्वश्रेष्ठ एवं महान बनाती हैं। ऐसी ही एक परंपरा है-विवाह परंपरा। जंहा विश्व के अन्य देशों विवाह को महज एक आवश्यकता और समझोता माना जाता है वहीं भारत में विवाह को धर्म का अनिवार्य अंग माना गया है। विवाह का आयोजन भी पूरे धार्मिक तरीके से सम्पंन किया जाता है। विवाह में वर और वधु के द्बारा पवित्र बंधन में बंधने से एक-दूसरे को कुछ वचन दिये जाते हैं जिनका पालन ताउम्र किया जाता है। ये वचन इस प्रकार हैं -
वर से लिए गए वचन:ग़ृहस्थ जीवन में सुख-दु:ख की स्थितियां आती रहती हैं, लेकिन तुम हमेशा अपना स्वभाव मधुर रखोगे।मुझे बताये बिना कुआँ - बावड़ी - तालाब का निर्माण, यज्ञ-महोत्सव का आयोजन और यात्रा नहीं करोगे।मेरे व्रत, दान और धर्म कार्यों में रोक-टोक नहीं करोगे।मेहनत से जो कुछ भी अर्जित करोगे, मुझे सौंपोगे। मेरी राय के बिना कोई भी चल-अचल सम्पति का क्रय-विक्रय नहीं करोगे।घर की सभी कीमती चीजें, गहने, आभूषण मुझे रखने के लिए दोगे।माता-पिता के किसी आयोजन में मेरे पीहर जाने पर आपत्ति नहीं करोगे।
वधु से लिए गए वचन:मेरी अनुपस्थिति में बिना बताए कहीं नहीं जाओगी।विष्णु, वैश्वानर, ब्राह्मण, मेहमान और परिजन सभी साक्षी हैं कि मैं तुम्हारा हो चुका हूँ।मेरे मन में तुम्हारा मन रहे। तुम्हारी बातों में मेरी बातें रहें और मुझे अपने ह्रदय में रखोगीमेरी इच्छाओं और आज्ञाओं का निरादर नहीं करोगी और बड़ों का सम्मान करोगी।हमेशा मेरी विश्वसनीय बनी रहोगी।
हर कीमती वस्तु कठिनाई से ही मिलती है
प्राय: लोगों के मन में यह जिज्ञासा उठती है कि जब धर्म अथवा सत्य का मार्ग इतना कठिन है तो उसपर चलने का क्या लाभ? यह प्रश्र उन्हीं के जहन में उठता है जो प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानने की भूल में रहते हैं। यह इंसान की उथली सोच का ही परिणाम है कि वह धर्म के अप्रत्यक्ष यानि कि अदृश्य फल को देख नहीं पाता। अब यदि कोई यह कहे कि मैं तो तभी स्नान करूंगा जब बदले में कोई मुझे १००रु दे, या फिर कोई नहाने के बाद कहे कि नहाने से मैं मोटा तो हुआ ही नहीं ,फिर ऐसे नहाने से क्या फायदा? सोचिए ऐसे व्यक्ति को आप क्या कहेंगे। धर्म का फल भी नहाने के फल की तरह ही है, जो दीखता भले ही न हो पर होता बड़ा मूल्यवान है।
धर्म अदृश्य फल देने वाला होता है। जब हम धर्ममय आचरण करते हैं, तो चाहे हमें उसका फल तत्काल दिखाई नहीं दे, किंतु समय आने पर उसका प्रभाव सामने आता है। सत्य को जानने का फल, हमें अपने जीवन में प्रज्ञा यानि कि सद्भुद्धि के रूप में मिलता है। जब हम धर्म का आचरण करते हैं तो कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ता है। किंतु ये कठिनाइयां हमारे ज्ञान और समझ को बढ़ाती हैं।
धर्म के कई द्वार हैं। जिनसे वह अपनी अभिव्यक्ति करता है। धर्ममय आचरण करने पर धर्म का स्वरूप हमें समझ में आने लगता है, तब हम अपने कर्मों को ध्यान से देखते हैं और अधर्म से बचते हैं। धर्म की कोई भी क्रिया विफल नहीं होती, धर्म का कोई भी अनुष्ठान व्यर्थ नहीं जाता। महाभारत के इस उपदेश पर हमेशा विश्वास करना चाहिए और सदैव धर्म का आचरण करना चाहिए।
मां निस्वार्थ प्रेम का सबूत है
प्रेम को दुनियां के तमाम धर्मों और शिक्षाओं में सर्वोच्च मानवीय गुण के रूप में स्वीकार किया गया है। जप, तप, भक्ति, योग, ध्यान आदि जितने भी साधना के मार्ग संसार भर में प्रचलित हैं उनमें प्रेम का स्थान सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। ईश्वर प्राप्ति के लिये प्रेम से बढ़कर और किसी चीज की आवश्यकता नहीं होती है। तपस्वी, ज्ञानी और योगी भले ही परमात्म मिलन से वंचित रह जाएं किन्तु एक प्रेमी भक्त को भगवान कभी भी निरास नहीं करते।
बड़े-बड़े ज्ञानी तक यह कहते हैं कि इस माया जनित संसार में सबकुछ धोका और स्वार्थ ही है। यहां तक कि इंसानी प्रेम को भी स्वार्थ का व्यापार कह कर अपमानित किया जाता है। किन्तु ईश्वर ने निस्वार्थ प्रेम की सच्चाई का सबूत देने के लिये धरती पर मां के अस्तित्व की रचना कर सारे तर्कों को सदैव के लिये विराम दे दिया। निस्वार्थ प्रेम उसे कहते हैं, जिसमें बदले की कोई अपेक्षा न हो। मां यह अच्छी तरह जानती है कि उसका बेटा बड़ा होकर उससे दूर अपनी ही दुनिया में खो जाएगा। लेकिन सब कुछ जानकर भी, हर तकलीफ और अभाव सहते हुए मां अपनी संतान पर कलेजे का सारा प्रेम-स्नेह न्योछावर कर देती है। इस संसार में निस्वार्थ प्रेम का अस्तित्व भी मोजूद है, इस बात की घोषणा मां का अस्तित्व सदैव करता रहेगा।
यहां एक के बदले में करोड़ मिलते हैं.....
कड़ी मेहनत और खून-पसीने से प्राप्त हुए अनाज के दानों को कोई मिट्टी में क्यों मिला देता है। आश्चर्य में पडऩे की आवश्यकता नहीं है। दुनिया का हर किसान यही तो करता है। लेकिन ऐसा करने वाले किसान को कोई भी गलत नहीं ठहराता। अनाज के दानों को मिट्टी में मिलाने वाले किसान को दूरदर्शी औ समझदार ही कहा जाता है। क्योंकि किसान द्वारा मिट्टी में मिलाया गया एक-एक दाना सेकड़ों बन कर वापस किसान को ही मिल जाता है। सामान्य किसान और जमीन की खेती की बात तो आप सभी जानते हैं। किन्तु दूसरी खेती भी है, जो दुनिया की सबसे ज्यादा फायदे की खेती है। यहां की जमीन इतनी उपजाऊ है कि एक रुपया लगाने पर करोडों का मुनाफा होता है।सत्य को किसी प्रमाण यानि सबूत की आवश्यकता नहीं होती। फिर भी यदि किसी के मन में संका या संदेह हो, तो उसे एक बार प्रयोग के तोर पर ही सही पर अवश्य आजमाना चाहिये-
'मन, कर्म और वचन से पूरी ईमानदारी पूर्वक कमाई गई सम्पत्ति में से कुछ भाग समाज की भलाई में लगाएं। यानि अपनी कड़ी मेहनत की कमाई का कुछ हिस्सा, बिना किसी स्वार्थ और बदले की भावना से जरूरतमंद इंसान, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे या किसी अन्य के लिये खर्च करें। यकीन माने कि आपके द्वारा लगाया गया समय,श्रम या धन कई गुना होकर वापस लौट आएगा।'
हर टेंशन से पाएं मुक्ति
आगे बढऩे और कुछ कर दिखाने की होड़ ने इंसान की दशा बिगाड़ दी है। बाहर से देखने पर भले ही आधुनिक मनुष्य प्रगतिशील और सम्पन्न नजर आता है किन्तु अंदर सिवाय चिंता, भय,आशंका और तनाव के कुछ और नहीं है। असीमित आवश्यकताओं, अपेक्षाओं और महत्वाकाक्षांओंने तनाव और दूसरे अन्य मानसिक रोगों को जन्म दे दिया है। सारी सुविधाएं, वैज्ञानिक प्रगति तथा मनोरंजन के ढेरों साधन मोजूद हैं फिर भी तनाव जैसी समस्या लाइलाज होती जा रही है। ऐसे में यदि इनसे मुक्ति पाने की कोई कारगर युक्ति मिल जाए तो इसे ईश्वर की कृपा ही समझना चाहिये। धर्म में ऐसे उपाय हैं जो तनाव मिटाने में १०० प्रतिशत कारगर हैं। तो लीजिये जानिये वे क्या हैं:-
सेवा की संजीवनी - जरुरतमंदों और असहायों की सेवा ऐसी रामबाण औषधि है जो हर तरह का तनाव मिटा सकती है। इससे अहंकार मिटता है तथा मनोग्रंथिया नष्ट होती हैं।
क्षमा की सुधा- क्रोध और बदले की भावना से मन और दिमाग पर बेतहाशा बोझ पड़ता है। यह बोझ ही कई तरह के मानसिक रोगों का कारण बन जाता है। ईश्वर की व्यवस्था पर भरोसा रखते हुए यदि क्षमा करेगें तो इससे हमारा ही अप्रत्याशित लाभ होगा।
सही जगह दोगे तो हजार गुना मिलेगा
वो पूरे छह महीने पृथ्वी का रस चूसता है..........आनंद लो आनंद दो......यह पुरानी कहावत तो है ही कि अपना धन और समय बड़ी अक्ल लगाकर खर्च करना चाहिये। जबकि आज मनी इनवेस्टमेंट और टाइम मेनेजमेंट का हर तरफ ध्यान रखा जाता है। जहां समय को बांटने या विभाजित करने के कई तरीके हैं वहीं आयुर्वेद की अपनी कालगणना है। इस गणना में दो काल है- आदान काल और विसर्ग काल। आदान का अर्थ है लेना और विसर्ग का अर्थ है जो लिया है उसे लौटाना। माघ, फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़ ये आदान काल है। शेष छह माह विसर्ग काल है। अर्थात् माघ से आषाढ़ तक के छह माह में सूर्य पृथ्वी का रस लेता है और श्रावण से पौष तक के मास में प्राप्त रस वापस लौटाता है। कहने का अर्थ है आषाढ़ आदान काल का अंतिम मास है। इस संदेश के साथ कि जिसने लिया है वही दे सकता है। यह लेना धन, पद, सुख का लेना नहीं है। इसका अर्थ भौतिक संदर्भों में कतई नहीं है। इसका अर्थ तो रस के संदर्भ में है। आदान काल में आखिर सूर्य पृथ्वी का रस ही तो लेता है, जिसमें विसर्ग काल में हजार गुना कर लौटाता है। आषाढ़ संदेश देता है लो, मगर इस भाव से कि फिर हजार गुना करके लौटाना है। इस अर्थ में आषाढ़ काल का अंतिम ग्राहक है। जो इसलिए पूजनीय है कि वह भी लेने आया है। और लेने क्या आया है? उत्तर होगा- रस अर्थात् आनंद। आषाढ़ सिखाता है आनंद लो और आनंद हजार गुना कर वापस लौटाओ।
प्रेम पाना क्यों चाहता है हर इंसान ?
प्रेम कैसे पैदा हो जाए............प्रेम, प्यार, स्नेह, मोहब्बत, लगाव, जुड़ाव, ममता और भी न जाने कितने ही नामों से जाना जाता है इस कोमल मानवीय भाव को। लोगों ने प्रेम के जितने नाम रखें हैं, दुनिया में उतनी ही भ्रांतियां और धोके बढ़े हैं प्रेम को लेकर। जैसा कि तथा कथित प्रेम गुरुओं द्वारा कहा और बताया जाता है कि प्रेम पाना बड़ा कठिन है और इसे पाने के लिये आग का दरिया पार करना पड़ता है। ये बातें पहले से ही उलझे हुए इंसान को और भी अधिक उलझा देती हैं। जिसने वास्तव में प्रेम को जीया है, वह जानता है कि जिसे वह बाहर खोज रहा था वह तो उसी के भीतर मौजूद था।
हर इंसान प्रेम चाहता है, इसका कारण क्या है? इंसान भीतर से दु:खी हो तभी वह प्रेम की मांग करता है। इसके विपरीत यदि इंसान के अंदर हो तो वह बिना किसी स्वार्थ के ही हर किसी से प्रेम ही करेगा। वास्तव में प्रेम जो है अंदर के आनंद का ही प्रकाश है। तो जो आदमी भीतर आनंद से भरेगा उसके जीवन के चारों तरफ प्रेम विकीर्ण हो जाएगा। जो भी उसके पास आएगा उसे प्रेम के शीतल स्पर्श का अहसास अवश्य होगा। उस आनंद के लिए यदि यह कहा जाए कि प्रेम आनंद का प्रकाश है, तो आनंद आत्मबोध का अनुभव है, उसके पूर्व नहीं है। दुख है कि हम अपने को नहीं जानते, अपने को नहीं जानते इसलिए प्रेम मांगते हैं। अगर हम अपने को जानेंगे, आनंद होगा; आनंद होगा तो प्रेम हमसे चारों तरफ फैलेगा होगा।
धन-संपत्ति, यश-वैभव या लम्बी उम्र क्या चाहिये?
जैसा बीज वैसा फल........, जैसा दान वैसा लाभ ....... इस तरह की लोक कहावतें हम सभी सुनते आ रहे हैं। कोई घटना या प्रसंग कहावत के रूप में तभी प्रसिद्ध होता है, जब उसे हजारों लाखों लोग आजमा लेते हैं। वैसे तो दान को धर्म का अंग यानि कि हिस्सा माना ही जाता है। किन्तु क्या और कितना दान देने से प्रतिक्रिया के रूप में लौटकर देने वाले को क्या लाभ होता है, यह बहुत महत्वपूर्ण बात है। शास्त्र और जानकारों का मानना है कि दान देने से कई लाभ होते हैं। कहते हैं जैसा दान होता है वैसा ही लाभ होता है। जानें, किस वस्तु के दान से क्या लाभ होता है-
वस्तु - लाभ
जल- तृप्ति
अन्न- अक्षय सुख
तिल- अभीष्ट संतान इच्छानुसार
भूमि- पदार्थ
स्वर्ण- लंबी उम्र
चांदी- अच्छा रूप
गृह- उत्तम भवन
वस्त्र- चंद्रलोक
अश्व- अश्विनीकुमार का लोक
बैल- विपुल संपत्ति
गाय- सूर्यलोक
यान या शय्या- पत्नी
धान्य- अनंत सुख
वेदाध्यापन- ब्रह्म का सान्निध्य
ज्ञानोपदेश- स्वर्गलोक
गाय को घास- पापों से मुक्ति
काष्ठ- तेजस्विता
औषधि- सुख
भोजन- दीर्घायु
दीपदान- अच्छे नेत्र
अभयदान- ऐश्वर्य
बारिश में रखें ये सावधानियां........
बारिश में विज्ञान व धर्म सचेत करते हैं हमें......आषाढ़ में गर्मी और बारिश का मिला-जुला-सा प्रभाव वातावरण में दिखाई देता है। इसलिए इस माह में स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रहने की आवश्यकता है। इस माह में ज्यादा लवणयुक्त, अम्लीय पदार्थ का सेवन नहीं करें। तिल-तेल, बैंगन, सरसों, राई का भी सेवन न करें। भाप युक्त हवा चलने से हमारी पाचन प्रणाली पर प्रभाव पड़ता है। कफ जमने की शिकायत बढ़ती है। वायु, पित्त और कफ तीनों प्रकार के दोषों के कारण कई तरह के रोग होने की आशंका रहती है। इस दौरान उबालकर ठंडा किया पानी पीना स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है।
संधिकाल में जाने वाली ऋतु के अनुकूल आहार-विहार को कम करते जाना चाहिए और आने वाली ऋतु के आहार-विहार का अभ्यास शुरू कर देना चाहिए। इससे अचानक खान-पान आदि में आए परिवर्तन का दुष्प्रभाव नहीं होता। यदि हम अचानक अपना खान-पान बदल लें तो शरीर और स्वास्थ्य पर इसका बुरा प्रभाव होता है। इसलिए सभी आवश्यक छह रसों का सेवन हमेशा आहार में बनाए रखें किंतु ऋतु के अनुकूल रसों का सेवन अधिक करना उत्तम रहता है।
एक लफ्ज प्रेम का .............
धर्म हमें प्रेम, इंसानियत, समानता और भाईचारे का संदेश देता है। ईश्वर एक है और विभिन्न धर्म-पंथ उस तक पहुंचने के रास्ते हैं। एक भक्त के लिये उसका धर्म, अध्यात्म, ज्ञान सब कुछ प्रेम ही है। भक्त जानता है कि यह प्रेम सरल नहीं है, यह न तो खेत में पैदा हो सकता है और न ही हाट में मिलता है। प्रेम पाने के लिए इंसान को सबसे पहले अपने अहंकार को समाप्त करना ही कसौटी है।
जहां अहंकार खत्म होता है, वहीं से प्रेम शुरू होता है। आज की विषम परिस्थितियां केवल अहंकार के कारण ही खड़ी हैं। धर्म कोई भी क्यों न हो किन्तु एक सच्चा भक्त यही कहेगा कि- अहंकार छोड़ो और प्रेम से गले लग जाओ। धर्म के नाम पर एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश करने वालों को प्रेम के मार्ग का पथिक यही कहेगा कि राम और रहीम एक ही हैं। जब हमें यह ज्ञान हो जाए कि इस संसार में एक ही ईश्वर सर्वव्याप्त है तो झगड़ा ही मिट जाएगा।
जब हम सबमें ईश्वर को ही देखेंगे तो फिर अहम् की भावना मिट जाएगी। एक भक्क्त इसी भावना को इस तरह व्यक्त करते हैं- जब मैं था तब हरि नहिं, अब हरि है मैं नहिं। कहने का मतलब यह कि जब 'मैं' का भाव था तब तक हृदय में ईश्वर की अनुभूति नहीं हुई, जब हृदय में ईश्वर की अनुभूति हुई तो 'मैं' का भाव समाप्त हो गया। अब तो हर तरफ केवल ईश्वर ही दिखाई देता है।
अहिंसा ऐसे बनाती है मजबूत और समर्थ
धर्म के पालन में अहिंसा का स्थान उतना ही अहम माना गया है, जितना सत्य का। सामान्यत: अहिंसा का मतलब शरीर को हानि पहुंचाने के अर्थ में लिया जाता है। जबकि धर्म के नजरिए से अहिंसा शरीर की ही नहीं बल्कि मन और बोल से भी होती है। हर धर्म किसी भी तरह की हिंसा को नकारता है।
व्यावहारिक जीवन की बात करें, खासतौर पर आज का युवा जहां सफल भी है, तो कुछ सफलता के लिए ऐसे रास्ते अपनाते हैं, जो उनके जीवन के लिए ही बाधा बन जाते हैं। उनमें से ही एक है हिंसा। आज के युवा में हिंसा का भाव तब देखा जाता है जब बहुत कुछ जल्द पाने की लालसा में वह असफल हो जाए और दूसरा संयम की कमी। इससे बचने का ही सटीक उपाय धर्म में अहिंसा का बताया गया है। अहिंसा जीवन में उन्नति के लिए किस रुप में लाभ देती है, जानते हैं -
- अहिंसा की बात करने वाला प्राय: डरपोक या भीरु मान लिया जाता है। वास्तव में अहिंसा आपको निर्भय करती है। क्योंकि वह बदले का भाव पैदा ही नहीं होने देती।
- अहिंसा का भाव आपको मानसिक विकारों से दूर करता है। आप अपने लक्ष्य के प्रति स्थिर मन और एकाग्र होते हैं।
- अहिंसा सामाजिक स्तर पर प्रेम और विश्वास बढ़ाती है और आपका सम्मान भी।
- अहिंसा का भाव परिवार में कलह को दूर करता है। मेलजोल और भरोसा बनाए रखता है।
- अहिंसा आपको बैचेनी और व्यर्थ की उलझनों से बचाती है।
व्यावहारिक जीवन के नजरिए से यह असंभव लगता है कि मन, वचन या कर्म की हिंसा से पूरी तरह से बचा जा सकता है। लेकिन अहिंसा से सफलता तक का सफर देवीय रुप में महावीर स्वामी से लेकर मानव रुप में महात्मा गांधी सहित अन्य महापुरुषों ने भी पूरा किया।
सच ही बनाता है सफल
जीवन में सफलता के लिए अनेक बातें महत्व रखती है। किंतु धर्म के नजरिए से सफल जीवन के लिए सत्य यानि सच बहुत अहम है। हमारे धर्मग्रंथ और इतिहास भी बताते हैं कि अलग-अलग देव अवतारों और महापुरुषों ने सत्य की राह पर चलकर समाज को दु:ख और कष्टों से मुक्त जीवन जीना सिखाया।
धर्म का यह अहम सूत्र ऐसा लगता है कि आज के जमाने में पद, प्रतिष्ठा और सफलता पाने की चाहत में तेज रफ्तार से भागती दुनिया में कहीं खोने लगा है।
आज सफलता का सूत्र सच से ज्यादा स्मार्ट होने के नाम पर चालाकी और झूठ बनता जा रहा है। इन तरीकों से व्यक्ति को कुछ सफलता जरुर मिल जाती है। लेकिन यह सफलता ठोस और स्थायी नहीं होती और अंतत: किसी न किसी रुप में बुरे परिणाम दे सकती है।
जबकि सत्य या सच आपको सही मायनों में सफल बनाता है। क्योंकि बोल, व्यवहार और विचार से सच्चा व्यक्ति हमेशा सरल, शांत और आत्मविश्वास से भरा होता है।
सच का यह असर ही परिवार, समाज और कार्यक्षेत्र में आपको भरोसेमंद बनाता है। ऐसा व्यक्तित्व होने पर ही लोग आपसे जुड़ते हैं। आपका मान-सम्मान और कद बढ़ता है।
ऐसा भी हो सकता है कि ताउम्र एक झूठ आपके किसी दोष को छुपा ले। लेकिन आपके जाने के बाद भी वही झूठ सामने आने पर आपके साथ आपके परिवार, समाज या देश को दाग लगा सकता है।
चूंकि हर इंसान के मन में यह भाव जरुर होता है कि वह कुछ ऐसा कर जाए कि परिवार, समाज और देश के लिए उसका जीवन यादगार बन जाए। इसलिए सच ही ऐसा उपाय है जिससे आप मरकर भी अमर बन सकते हैं।
भीतरी शांति के लिए जरूरी है सत्य
सच का दायरा बोल तक खत्म नहीं होता, बल्कि उसका महत्व तभी है, जब बोल को कर्म में उतार दिया जाए। अगर हम झूठ के सहारे चलते हैं तो कभी भी भीतर से शांत नहीं रह सकते। शांति के लिए सत्य जरूरी है।
हम परिवार, दोस्तों और सहकर्मियों के साथ होने पर कई बार यह सुनते और कहते हैं कि कथनी और करनी में अंतर नहीं होना चाहिए। इस बात का व्यावहारिक पक्ष देखने पर यह पाते हैं कि अक्सर यह बात हर व्यक्ति दूसरे के लिए जरुर करता है, किंतु स्वयं का अवसर आने पर वह ऐसा करने में चूक जाता है। वास्तव में इस बात में भी सत्य यानि सच का महत्व साफ दिखाई देता है।
सरल शब्दों में आप जब आप अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक या सामाजिक कार्यों के लक्ष्यों को बनाते समय जो बातें करें, तो उन बातों को सच्ची लगन और ईमानदारी से पूरा करने की हरसंभव कोशिश करें। ऐसी सच्चाई से मिली सफलता आपको लोगों का विश्वासपात्र बना देगी।सार यह है कि असफलता से विचलित होकर मान-सम्मान की चाहत में दिखावटी या बनावटी बातें की जा सकती है। लेकिन उससे आप सफल नहीं हो सकते। आप खुद से भाग नहीं सकते। बल्कि स्वयं के प्रति सच्चे और ईमानदार बनने पर ही आप सुख, सफलता और भरोसा पा सकते हैं।बात साफ है कि जब-जब आप सच के साथ चलेंगे तब सच भी जीवन में सुख, सफलता और शांति लाकर आपका साथ निभाएगा।
क्या आप भी है ऐसे दानवीर?
हिन्दू धर्मग्रंथों और पुराण कथाओं में राजा बलि, कर्ण जैसे दानवीरों के बारे में लिखा गया है। इनके द्वारा दान का जीवन में महत्व भी स्थापित किया गया है। साथ ही दान से त्याग, मोह, स्वार्थ की भावना को छोडऩे का संदेश दिया गया। किंतु युग के बदलाव के साथ दान का मूल भाव कहीं खोने लगा और वह धार्मिक परंपराओं का अंग माने जाने लगा।
धार्मिक दृष्टि से दान के अर्थ की गहराई में न जाएं तो दान के पीछे देने या छोडऩे का भाव मुख्य है। इसलिए यहां हम आधुनिक समय में दान में छुपे इसी भाव को व्यावहारिक जीवन की कसौटी पर परखते हैं और पाते हैं कि हम भी कितने दानी है -
- माता-पिता ने सफल इंसान बनाने के लिए अनेक कठिनाईयों के बाद भी हर संभव सुख-सुविधा जुटाई। आज सफल बनने पर पर क्या आप उनकी भावनाओं को सहेजकर व उम्मीदों पर खरे उतरते हुए उनको सुख दे रहे हैं।
- परिवार में माता-पिता के अलावा बचपन से लेकर किसी जिम्मेदार पद पर पहुंचने तक अपने लक्ष्य पाने की तैयारी में आपको छोटे भाई-बहनों का स्नेह, उत्साह और बड़ों से मार्गदर्शन मिला होगा। क्या माता-पिता की तरह अब आप भी उन भाई-बहनों का भविष्य संवारने के लिए जरुरी सहयोग और समय देते हैं।
- आपकी सफलता के लिए आपके स्कूल, कॉलेज, कॉलोनी, मोहल्ले में रहने वाले अनेक मित्रों ने भी तन, मन, धन से आपकी जरुरतों को पूरा किया होगा। समर्थ होने पर क्या अब आप भी उनकी जरुरतों और मुश्किल समय में साथ देते हैं।
- हो सकता है कुछ महत्वपूर्ण पद या जिम्मेदारियों के रहते आप प्रत्यक्ष रुप से अपने समाज के विकास में भागीदारी न कर पाएं। किंतु क्या आप अप्रत्यक्ष रुप से किसी के माध्यम से योगदान दे रहे हैं। किसी भी परिवार को आगे बढ़ाने में समाज की भूमिका अहम होती है।
- आपका जीवनसाथी असफलता में हर पल आपके साथ रहता है। सफल होने पर क्या आप मन, विचार और वाणी से उसकी भावनाओं का ख्याल कर उतना ही सुख दे रहे हैं, जितना कष्ट आपके साथ उसने विपरीत समय में उठाया।
इस व्यावहारिक कसौटी पर आप खरे उतरते हैं, तो यह तय है कि आप जीवन में सुख और शांति के रुप में शुभ फल की मिठास सीधे ही अनुभव करेंगे। ठीक वैसे ही जैसे धार्मिक दृष्टि से दान के शुभ फल अदृश्य रुप में मिलते हैं। तभी आप सही मायनों में दानवीर बनेंगे।
ऐसा मनोबल ही तय करता है जीत
जब अपने ही बुरे गुण या समाज को दुर्जन लोग पीड़ा पहुँचाने लगे, तब भी हम सद्गुणों की उपेक्षा करें या सज्जन लोग दुर्जनों के बुरे कर्मों की अनदेखी करें, तब इसके बुरे परिणाम व्यक्ति और व्यवस्था को ही भोगना ही पड़ते हैं। व्यक्ति का मनोबल और अच्छाईयों के एकजुट होने पर ही इस हालात से बाहर आ सकते हैं। देवी कथा में छुपे रहस्य इसी बात की ओर इशारा करते हैं -
जब देवताओं को हराकर महिषासुर ने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया। तब उसका अंत करने के लिए भगवान शंकर, भगवान विष्णु और देवताओं के सामुहिक तेज और शक्ति से नारी रुप देवी प्रगट हुई। इसी देवी के हाथों महिषासुर मारा गया। ऐसे ही देवी रुप के हाथों शुम्भ-निशुम्भ मारे गए।
इस तरह कथा निचोड़ यही है कि बुरे गुणों को छोडऩे के लिए मन पक्का करें, मनोबल जगाएं और दुष्कर्मों का एक होकर सामना करें, विरोध करें तो व्यक्ति, समाज और शासन में फैली सभी बुरी आदतों, व्यवस्थाओं और बुरे लोगों को मधु-कैटभ, महिषासुर या शुम्भ-निशुम्भ की तरह मारना संभव है। क्योंकि एकाग्रता और एकता ही शक्ति ही। चाहे वह व्यक्तिगत् स्तर पर मन के संयम के रुप में पैदा हो या सामाजिक स्तर कुव्यवस्थाओं के विरोध के रुप में। सार है मनोबल और भरोसा ही जीत तय करता है।
अहं पैदा करते हैं ऐसी यादें और अतीत
संसार की रचना से लेकर आज तक यह बात हर कोई जानता है कि अहं या घमण्ड अंतत: दु:ख का कारण बनता है। फिर भी देव, दानव और मानव तीनों ही इस बुराई से अलग न रह पाए। हालांकि इससे बचना असंभव नहीं है। लेकिन ऐसा क्यों होता है कि नासमझ ही नहीं विद्वान भी घमण्ड, दंभ, शेखी, हेकड़ी, नकचढ़ापन जैसे अलग-अलग रुप में अहंकार बता ही देते हैं। यहां जानते हैं कि अहं से जुड़े धार्मिक और व्यावहारिक पहलू, जिससे अहं की जड़े स्वभाव से लेकर व्यवहार तक फैल जाती है -
धर्म के नजरिए से पांच तत्वों से बनी इस देह में मन और बुद्धि के साथ अहंकार की प्रवृत्ति भी अपने आप ही बनती है। सरल शब्दों में अहंकार का मतलब किसी भी काम को या कर्तव्य को पूरा करते यह भाव आ जाना कि सिर्फ मैं ही इस कार्य को करने में समर्थ हूं।व्यावहारिक जीवन में अहं पैदा होने के पीछे बीता समय और यादें किसी भी व्यक्ति की सोच पर सबसे ज्यादा असर करती है। बीते समय के दु:खद अनुभवों और यादों को सोचकर हम जीवन व्यतीत करते हैं, यह जानते हुए भी कि समय और उसकी गति का नियंत्रण हमारे हाथ में नहीं है, पीछे जाकर हम कुछ भी कर नहीं सकते। इस सोच में बहुत समय गंवा देते हैं। इन बातों में स्वयं को जकड़ लेते हैं।इसी तरह मानव स्वभाव का दूसरा पहलू है कि कोई सफलता पाने पर लंबे समय तक उसी की बातों और यादों में खोया रहता है। यह मानसिक बोझ ही है। इसी तरह सपनों की दुनिया में रहना वर्तमान जीवन की गति में बाधा पैदा करता है। जबकि आज ही सच होता है, जिसमें जीना हर व्यक्ति को तनावरहित कर सकता है। किन्तु बीती यादों की पीड़ा और जो कुछ हुआ नहीं, उस बारे में सोचकर, कुछ हद तक माहौल भी व्यक्ति को इन बातों से अलग नहीं होने देते और ऐसी मनोदशा और हालात अंहकार की जमीन तैयार करती है।
उदाहरण के लिए अगर बीते समय में उपेक्षित व्यक्ति आज धन से सबल हो जाए। तब बीती यादों को सामने रखकर वह सामाजिक रुतबे और शासन में हस्तक्षेप के बल पर उन लोगों से विपरीत व्यवहार कर सकता है, जिनसे वह उपेक्षित हुआ। यहां बदला नहीं बल्कि अहं भाव ही होता है। इस तरह यादें और अहं व्यक्ति के भावों और स्वभाव को बनाने में अहम भूमिका होती है।
रावण का ऐसा साया करता है राम से दूर
हर विजयादशमी पर हम जितना भगवान राम का स्मरण करते हैं, उतनी ही दफा रावण भी याद आ ही जाता है। हिन्दू धर्म के पुराणों में देव अवतारों द्वारा अंत किए गए सभी दुराचारी पात्रों में रावण धर्मावलंबियों के बीच भी सबसे अधिक लोकप्रिय रहा है।
रावण की अद्भुत गुण, ताकत और युद्ध कौशल का अंदाजा इसी से लग जाता है कि युद्ध में अंतत: श्रीराम भी गुप्त भेद जानने के बाद ही उसका अंत कर पाए। इस तरह व्यावहारिक दृष्टि से विचार किया जाए तो रावण की क्षमता भगवान राम से कमतर नहीं थी। फिर ऐसा क्या था कि वनवासी राम से पराजित होकर लंकापति रावण मृत्यु को प्राप्त हुआ। इस पर विचार करने से अनेक कारण सामने आ सकते हैं। किंतु हम बड़े और अहम कारणों को ढूंढे, जिनसे रावण का पतन हो गया, तो वह है घमण्ड और मर्यादाहीन आचरण, जिससे श्रीराम अछूते रहे।
व्यावहारिक जीवन में भी अगर कोई काबिल व्यक्ति भी इन दुर्गुणों से ग्रस्त हो तो उसकी दुर्गति टालना संभव नहीं है। इसलिए विजयादशमी के पर्व में इन दो बुराईयों को जीवन से दूर रखने के व्यावहारिक उपाय जानते हैं - - सबसे आसान उपाय है कि हमेशा खुद को ऊपर रखकर बातें करना बंद करें। न ही किसी ओर से अपनी झूठी तारीफ सुनें। इसके स्थान पर अपनी अच्छाई-बुराई के बारें में ईमानदारी से सोचें। - अपनी इच्छाओं को दबाएं नहीं लेकिन काबू में रखें। इससे आपकी मानसिक बल मिलता है, यह आपकों अहं से दूर रखने में मदद करेगा। - धर्म के नजरिए से हर व्यक्ति को अपनी मृत्यु का ध्यान रखना चाहिए। एक दिन मौत आने पर है बल, धन, सौंदर्य, ज्ञान सब कुछ यहीं छूट जाता है। फिर क्यों उसके पहले मेरा-तेरा की भावना रख या दूसरों को कमतर बताकर क्लेश का जीवन जीते रहें। - हमेशा विनम्रता से व्यवहार करने की कोशिश करें। विनम्रता अहं के अंत की सबसे अच्छी औषधी है। जिसने आप पर उपकार किया, उसे न भूलें, न अपमानित करें ।- अपेक्षा न रखें, यह सभी कहते हैं, लेकिन इससे दूर रहना कठिन कार्य है। यह अपेक्षा ही अहं और टकराव का कारण बनती है, इसलिए मन में हमेशा देने का भाव रखें, तो अपेक्षा नहीं सताएगी, न ही अहंकार। - अंत में सबसे बडा सच यही है कि जब तक व्यक्ति स्वयं अहंकार का एहसास नहीं करता, तब तक वह अहंकार से बाहर नहीं आ सकता। - जब आप अहंकार के विसर्जन के इन कुछ उपायों को अपनाएंगे, तब आचरण और व्यवहार में मर्यादा अपने आप स्थान बना लेगी। जिससे आप दिल और दिमाग से अधिक संयमित और अनुशासित बनेगें। ऐसा होने पर ही अहं से मिले दु:खों से दूर होकर आपका जीवन सुख, शांति और आनंद से बीतेगा।
ताकत बन जाती है ऐसी माफ़ी
धर्म का पालन क्षमा का भाव रखे बगैर संभव नहीं होता। धर्म की दृष्टि से क्षमा यानि माफी उतनी ही अहम है जितनी सत्य, प्रेम, अहिंसा, दया, दान, परोपकार।
व्यावहारिक जीवन के नजरिए से क्षमा या माफी को समझें तो माफी का मूल भाव होता है - सहन कर लेना। किसी व्यक्ति या किसी स्थान पर आपके साथ किया गया अपमान या गलत व्यवहार जरुर मन में कड़वाहट पैदा करता है। जिससे आवेश भी आता है, लेकिन उसी पल अगर उसे धीरज रखकर दबा दिया जाए तो यही क्षमा भाव होता है। माफी का यह भाव आपके जीवन में अनेक लाभ पहुंचा सकता है और हानि से बचा सकता है -
- माफी से बदले की भावना खत्म हो जाती है, जो आपके साथ दूसरों को भी किसी बड़ी हानि से बचा सकती है।
- क्षमा का अभाव आवेश पैदा करता है। इससे पैदा हुआ कोई भी अपराध संभवत: परायों के ही नहीं अपनों के मन में भी नफरत पैदा कर सकता है। माफी का भाव इससे बचाता है।
- माफी से प्रेम पैदा होता है। प्रेम, स्नेह से बिगड़े काम भी बन जाते हैं। बल्कि लोगों के मन में आपके प्रति सम्मान भी पैदा करता है।
- आपके साथ गलत और अपमानजनक व्यवहार करने के बाद भी अगर आप किसी व्यक्ति को माफ कर दें तो इसका असर दोषी व्यक्ति के पछतावे का कारण बन सकता है। यानि माफी से बिना किसी अस्त्र, शस्त्र के विरोधी भी पस्त हो सकते हैं।
-किसी व्यक्ति से अपराध हो चुका है तो उससे घृणा करने के बजाय माफी का भाव उसमें सुधार और बदलाव की संभावना बनाता है।
माफी के इन सूत्रों को जीवन में अपनाने का मतलब यह कतई नहीं है कि आप माफी को कमजोरी बना लें। बल्कि इसे अपनी ताकत और मजबूती बनाएं। यह आपके विवेक पर निर्भर करता है यानि सही और गलत का फैसला कर आप अन्याय, अधर्म या गलत व्यवस्थाओं का विरोध करने में भी पीछे न रहें। माफी शब्द की आड़ लेकर इन्हें सहन न करें। वरना ऐसी सोच कमजोरी बनकर आपका आत्मसम्मान और आत्मविश्वास खत्म कर सकती है।
क्यों पैसा सब कुछ नहीं होता?
अनेक मौकों पर यह देखा जाता है कि परिश्रम, मेहनत से दूर और आलस्य से घिरा व्यक्ति पैसों को माया, मोह बताते देखे जाते है। किंतु यह बात कर्महीन बनकर कहना दूसरों से ज्यादा खुद को अधिक धोखा देने के सिवा कुछ नहीं। हालांकि यह बात धर्म की नजर से सही भी है। क्योंकि धर्म दर्शन है जन्म से लेकर मृत्यु तक माया से दूर नहीं रहा जा सकता।
धन को माया कहना किस हद तक सही है, इसके लिए पहले यह जानना जरूरी हैं कि धर्म की नजर से माया क्या है। माया को सरल अर्थ में जानें तो मा का मतलब होता है नहीं और या का अर्थ है जो है यानि माया का मतलब हुआ जो है नहीं। माया का काम ही होता है जो नहीं होता उसको दिखाना और जो होता है उसे छुपाना। जैसे हम भगवान को मानते हैं, किंतु वह साक्षात दिखाई नहीं देते। उसी तरह सभी जानते है संसार नाशवान है, फिर भी वह दिखाई देता है। यही माया है।
माया के इसी रुप को धन में देखें तो व्यावहारिक जीवन में हम कईं बार सुनते हैं कि पैसा बहुत कुछ होता है, किंतु सब कुछ नहीं होता। इस बात में कहीं न कहीं धन में समाया माया का भाव ही है। क्योंकि जिंदगी में ऐसे मौके आते हैं जब व्यक्ति धन की लालसा, स्वार्थ या मोह में रिश्तों, मित्रों, अपनों को अनदेखा कर देता है। किंतु धन के अहं और विवेक की कमी से संकट में फंसने पर सभी याद आते हैं।
यह वक्त ही धन के मायाजाल का अहसास कराता है। जब धन से समर्थ होने पर भी आंखों से दिखाई देने वाली वस्तुएं, सुख-सुविधाएं तो व्यक्ति पा सकता है, किंतु उसी धन से अपनों की संवेदना, भावना, जज्बात को चाहकर भी खुद पा नहीं सकता। यह आंखों से दिखाई नहीं देते, पर गहराई से महसूस जरूर होते हैं।
इस तरह सच यही है कि जिंदगी में कदम-कदम पर धन की माया या यूं कहे धन होना या न होना आपके सोच और व्यवहार में बदलाव लाता है। इसलिए धन को माया कहने या उससे बचने की सार्थकता तभी है जब कर्म व धन के साथ बुद्धि, विवेक और अपनों से भी नजदीकी बनी रहे।
रूप चतुर्दशी : सूरत के साथ सीरत निख़ारने की घड़ी
कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को नरक चतुर्दशी या छोटी दीवाली एवं रूप चतुर्दशी का पर्व मनाया जाता है। पौराणिक मान्यताओं में आज के दिन भगवान कृष्ण ने नरकासुर नामक दैत्य का वध कर जगत को भयमुक्त किया था। इसकी स्मृति में यह पर्व मनाया जाता है।
वैसे इस पर्व परंपरा में इस दिन शरीर की पवित्रता से आचरण, विचार और चरित्र की पावनता के भाव हैं। इसलिए यह रूप चतुर्दशी के नाम से लोकप्रिय है। धार्मिक नजरिए से स्वर्ग ऐसा स्थान है, जो सुखों और आनंद से भरा और दु:खों दूर है। वहीं नरक पीड़ा और कष्ट से भरपूर जगह है। मान्यता है कि कोई व्यक्ति अच्छे-बुरे गुणों के आधार पर स्वर्ग या नरक मिलता है।
व्यावहारिक नजरिए से विचार करें तो जीवन में मिलने वाले सुख-दु:ख से ही मन में स्वर्ग या नरक के विचार बनते हैं। जब भी हमें किसी वस्तु, स्थान या व्यक्ति के साथ सुकून मिलता है, हम उसे स्वर्ग के सुख से जोड़ते हैं। किंतु चिंता, दु:ख और परेशानियों से घिरने पर नारकीय जिंदगी की बात करते हैं।असल में जिंदगी को स्वर्ग या नरक बनाना इंसान के हाथों में है। इसकी शुरुआत होती है शरीर और स्वास्थ्य से।
पर्व यही संदेश देता है कि शरीर की मलीनता और दरिद्रता मन में बुरे विचार लाकर तन और मन दोनों पर बुरा असर डालते हैं। जिससे व्यक्ति का जिंदगी के लक्ष्यों से ध्यान हटता है और तब पतन तय है। जीवन में किसी भी समय असफलता या पतन निराशा, दु:ख, कष्ट और तनाव का कारण बनते हैं। ऐसी हालात ही जीवन में नरक के समान मानी जाती है। ऐसे नरक से छुटकारा तभी मिलेगा जब व्यक्ति शरीर के साथ ही सोच को भी निखारें, ज्ञान, बुद्धि और विवेक का उपयोग करें तो उसे जीवन में सुंदरता के साथ सुखों की प्राप्ति होती है। सरल शब्दों में सूरत के साथ सीरत का निखार भी जरूरी है।
कैसे परिवार बने मोहब्बत का आशियाना?
हर धर्म में प्रेम को ही मानव ही नहीं ईश्वर से भी जुडऩे का श्रेष्ठ उपाय माना गया है। असल में प्रेम भी ईश्वर का ही रूप है। क्योंकि यह भी देने, समर्पण, अर्पण, विनम्रता के भावों भरा होता है, जो ईश्वर की आराधना में भी जरूरी है। धर्म की नजर से ईश्वर का अस्तित्व कण-कण में हैं। वैसे ही प्रेम भी संसार और जिंदगी के लिए अहम है।
व्यावहारिक जिंदगी में भी प्रेम ही परिवार, समाज, कार्यक्षेत्र हर जगह दिलों में मोहब्बत पैदा करता है। इसके बिना संवेदना और भावनाएं खो जाती है, जो विचार, व्यवहार और आचरण में दोष पैदा करती है। चूंकि संस्कारों की पाठशाला परिवार ही होता है। इसलिए हम यहां जानते हैं परिवार में प्रेम के बीज कैसे बोएं, जिससे पनपा प्रेम का वृक्ष अपनी छांव से आने वाली पीढ़ी को भी ठंडक और राहत का एहसास कराए।
- परिवार में प्रेम के लिए जरूरी है अहं का भाव छोडऩा। क्योंकि अहं के होते प्रेम नहीं रहता।
- जीवनसाथी, पत्नी या बच्चों के साथ विश्वास और अपनत्व से भरा व्यवहार हो।
- परिवार के सदस्यों पर अधिकार जताएं किंतु उपेक्षा से भरा ऐसा व्यवहार न करें, जिससे वह आपके सामने डरे-सहमे या बंधे महसूस करें। लंबे समय के लिए यह माहौल परिवार में प्रेम के रस को सूखा देगा।
- जहां किसी भी तरह की जकडऩ होती है, वहां प्रेम नहीं होता। जहां प्रेम न हो वहां धर्म पालन असंभव है। इसलिए जरूरी है कि परिवारिक माहौल में इतना खुलापन हो कि सभी सदस्य अपने विचारों को एक-दूसरे से बांट सके।
- किसी बात पर मतभेद या समस्या हो तो परिवार हित को ऊपर रखकर तुरंत सुलझा लें।
- प्रेम की खासियत है कि उसमें लेने का भाव नहीं होता। इसलिए बच्चों से उम्मीदें पूरी करने के लिए अपनी मर्जी न थोपें। जिससे संतान भी घुटन महसूस नहीं करेगी। उनकी जिंदगी से जुडें फैसलों में उनके साथ बातचीत कर भरोसा पैदा करें। इससे प्रेम और रिश्ता मजबूत होगा।
- बच्चे का मन कोमल होता है, इसलिए परिवार और कुटुंब के सदस्यों का आपसी व्यवहार और बोलचाल का बालमन पर गहरा असर करता है। इसलिए अगर परिवारिक वातावरण स्नेह से भरा होगा तो अगली पीढ़ी में भी ऐसे ही संस्कार झलकेंगे।
- हिन्दू धर्म ग्रंथ महाभारत में प्रसंग है कि अर्जुन का पुत्र अभिमन्यु मां के गर्भ में रहते ही युद्धकला सीख गया। इससे सीख लेकर परिवार का माहौल भी ऐसा बनाएं कि घर के छोटे सदस्य बड़ों की नजर-व्यवहार में प्रेम ही पाएं और सीखें।
ऐसे प्रेम से होता है दाम्पत्य सुखी
धर्म और प्रेम एक-दूसरे के पर्याय हैं। धार्मिक दृष्टि से दोनों ही मोक्ष की राह पर ले जाते हैं। जिसका अर्थ है वह जनम-मरण के बन्धन से मुक्त करने वाले हैं। इस तरह धर्म और प्रेम दोनों ही बंधन से परे होते हैं। दोनों से बाहरी दिखावों द्वारा जुड़ा जा सकता है किंतु उनकी गहराई तक पहुंचना आंतरिक भावनाओं और समर्पण के बिना संभव नहीं।
गृहस्थ जीवन भी ऐसा ही धर्म है जिसका पालन प्रेम और समर्पण के बिना संभव नहीं होता। दाम्पत्य की सफलता के लिए जरूरी बातों में पति-पत्नी के बीच प्रेम होना सबसे अहम होता है। इसके अभाव में बाकी सभी सुख-सुविधा अर्थहीन हो जाती हैं। हर धर्म की वैवाहिक रस्में बिना शर्त प्रेम को दाम्पत्य जीवन में उतारने का संकल्प ही होती है। व्यावहारिक जीवन के नजरिए से भी जानते हैं कि दाम्पत्य में प्रेम बनाए रखने के लिए कौनसी बातें जरूरी है -
- आज दौड़भाग भरी जिंदगी में कामकाजी पति-पत्नी के लिए सबसे अहम समस्या है एक-दूसरे के लिए समय की कमी। इसलिए जब भी काम से फुर्सत मिले जीवनसाथी और परिवार के साथ समय बिताने का मौका न खोएं। इससे दाम्पत्य में प्रेम की जड़े गहरी होंगी।
- दोनों या किसी एक के आत्मनिर्भर या आर्थिक रूप से मजबूत होने पर कई बार विवाद और कटुता का कारण अहंकार बन जाता है। इसलिए पहले मैं की भावना को छोड़कर यथासंभव पैसों के ऊपर परिवार को अहमियत दें। इससे एक-दूसरे के लिए गहरा प्रेम और भरोसा पैदा होगा। क्योंकि पैसा फिर भी कमाया जा सकता है, किंतु परिवार की कमी आपको अंदर से तोड़ कर प्रेम के भाव से दूर ले जा सकती है।
- एक-दूसरे पर अटूट विश्वास और भावना रखें। यह दो बातें रिश्तों को प्रेम के बंधन में मजबूती से बांधे रखेगी। इसके बाद एक-दूसरे पर अधिकार और बंधन जताने की बातों से पैदा हुए कलह और बेचैनी से भी बचा जा सकेगा।
- शंका या संदेह प्रेम का अंत कर दाम्पत्य के बिखराव का कारण बन सकता है। इसका बचाव और उपचार विश्वास और प्रेम से ही संभव है।
- हर व्यक्ति में गुण-दोष होते हैं। इसलिए दाम्पत्य में भी एक-दूसरे के दोष और गुणों को स्वीकारें। मात्र दोषों सामने रख बहस और विवाद आपसी प्रेम को घटाता है।
- एक-दूसरे की किसी भी तरह से प्रशंसा का अवसर न चूकें। जन्मदिन, वैवाहिक सालगिरह या किसी शुभ अवसरों की तारीखों पर एक-दूसरे से संवाद, संपर्क करने के साथ समय भी निकालें। उपहार दें।
- दाम्पत्य जीवन में धर्म को भी स्थान दें। धार्मिक यात्राओं और क्रियाओं को पूरी आस्था और श्रद्धा से साथ-साथ करें।
आधुनिक समय में इन छोटी-छोटी बातों से जिंदगी में प्रेम के साथ सुख और सुकून भी सदा बना रहेगा।
ऐसे बेगानों को बनाएं अपना
हर व्यक्ति की जिंदगी इच्छा, अपेक्षा और उम्मीदों के साये में गुजरती है। खासतौर पर विचार, व्यवहार और कर्मों में अपेक्षाएं हावी रहती है। यहां तक कि जिंदगी के सुख और दु:ख भी अपेक्षाओं के पूरे होने या न होने पर निर्भर हो जाते हैं। किंतु जरूरत से ज्यादा अपेक्षाएं रखने व उनके पूरा न होने की स्थिति में अनेक मौकों पर उसकी पीड़ा जीवन को इतना बाधित कर देती है कि व्यक्ति जिंदगी के प्रति अनासक्त भी हो जाता है। जिसके परिणाम बुरे भी आ सकते हैं।
स्वार्थ और उम्मीदों के पूरे न होने से बनी बुरी मनोदशा और पैदा हुए विकारों से दूर ले जाकर मानवीय जिंदगी को सही दिशा देने के लिए धर्म में दान का महत्व बताया गया है। सरल भाषा में दान का मतलब सीधा है- देना। धर्म के नजरिए से वास्तव में दान किसी किसी को कुछ दे देना ही नहीं है, बल्कि दान में यह भावना भी जरूरी है कि देने के बदले कुछ लेने की सोच न हो।
यही कारण है कि हर धर्म की धार्मिक रस्मों में भी दान अहम हिस्सा है। जैसे मुस्लिम धर्म में जकात या हिन्दू धर्म के व्रत-त्यौहारों पर दान की परंपरा आदि। अध्यात्मिक नजरिए से भी दान व्यक्ति को खुद से अंदर और बाहरी दोनों तरह से जोड़ता है। जानते हैं दान का व्यक्ति और समाज पर किस तरह सकारात्मक असर होता है -
- दान स्वार्थ, ईर्ष्या जैसे विकारों के साथ इनसे जुड़े दोषों का अंत करता है।
- दान मन से संचय के भाव और उससे पैदा हुई गैर जरूरी चिंता और बैचेनी को दूर करता है।
- दान विषयों और वस्तुओं के व्यर्थ मोह से दूर ले जाकर मानसिक सुकून देता है।
- दान इंसानों के बीच भावना और संवेदनाओं को जगाता और बनाए रखता है।
- दान स्वभाव और व्यवहार से संकुचित विचारों और कुण्ठा को दूर करता है।
- दान व्यावहारिक, सामाजिक स्तर पर ऊंच-नीच, भेदभाव को दूर रखता है। यह सही मायनों में मानव को धर्म से जोड़ता है।
सुख के लिए अपनाएं ये पांच तरीके
हर धर्म में संयम को सुखी जिंदगी के लिए बहुत जरूरी बताया गया है। खासतौर पर अक्सर धर्म उपदेशों और प्रवचनों में इन्द्रिय सुखों और संयम के बारे में सुना या पढ़ा जाता है। संयम का सीधा मतलब मन को काबू करने से होता है। मन का संबंध इंद्रियों से होता है। इसलिए जैसी मनोदशा होती है बाहरी तौर पर इंद्रियों पर भी वैसा ही प्रभाव दिखाई देता है।
साधारण इंसान के लिए जरूरी है कि बाहरी तौर पर हम इंद्रियों की क्रियाओं पर नियंत्रण रखें। इसलिए यहां जानते हैं इंद्रियों के नाम और उनको वश में रखने के तरीके -
मानव शरीर में पांच ज्ञानेन्द्रियां होती हैं। यह हैं - आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा। इनसे ही कोई व्यक्ति सौंदर्य, रस, गंध, स्पर्श, स्वाद महसूस करता है। इन इन्द्रियों पर व्यक्ति का जीवन, चरित्र और व्यक्तित्व का विकास निर्भर होता है। इसलिए यह भी सीखना जरूरी है कि इनको बुरे प्रभाव से कैसे बचाएं।
आंख - इनका उपयोग सुंदर ओर मनोरम दृश्यों को देखने में करें। थकान से बचाएं और उचित आराम दें।
जीभ - इसका उपयोग मात्र स्वाद के लिए ही नहीं बल्कि इससे मधुर वाणी और सच बोलने का भी अभ्यास करें।
कान - बुरी बातों को सुनने से बचें।
नाक - इस पर गंध ही नहीं सांस भी निर्भर है, जो जिंदगी के लिए जरूरी है। इसलिए जहां तक संभव हो साफ वातावरण को महत्व दें। प्राणायम करें। त्वचा - यह मात्र वस्तुओं का नहीं भावनाओं के अहसास का भी माध्यम है। इस पर सौंदर्य भी निर्भर करता है। इसलिए इसकी सुरक्षा और स्वच्छता का खास ध्यान रखें।
इस तरह इन पांच इंद्रियों के संयम पर ही शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक सुख टिके होते हैं। इसलिए लंबी उम्र, कामयाबी और सुखी जिंदगी के लिए थोड़ी देर मन पर काबू करने पर भी ध्यान लगाएं।
क्या होता है तंत्र?
तंत्र, तांत्रिक या टोने-टोटके का नाम सुनते ही हर आदमी के मन में एक डर बैठ जाता है। तंत्र केवल अनिष्ट कार्यों के लिए ही नहीं होता बल्कि यह एक तरह की ऐसी विद्या है जो व्यक्ति के शरीर को अनुशासित बनाती है, शरीर पर खुद का नियंत्रण बढ़ाती है। मोटे तौर पर देखा जाए तो तंत्र की परिभाषा बहुत सीधी और सरल है। सामान्य शब्दों में कहें तो तंत्र शब्द का अर्थ तन यानी शरीर से जुड़ा है। ऐसी सिद्धियां जिन्हें पाने के लिए पहले तन को साधना पड़े, या ऐसी सिद्धियां जिन्हें शरीर की साधना से पाया जाए, उसे तंत्र कहते हैं।
तंत्र एक तरह से शरीर की साधना है। एक ऐसी साधना प्रणाली जिसमें केंद्र शरीर होता है। तंत्र शास्त्र का प्रारंभ भगवान शिव को माना गया है। शिव और शक्ति ही तंत्र शास्त्र के अधिष्ठाता देवता हैं। शिव और शक्ति की साधना के बिना तंत्र सिद्धि को हासिल नहीं किया जा सकता है। तंत्र शास्त्र के बारे में अज्ञानता ही इसके डर का कारण हैं। दरअसल तंत्र कोई एक प्रणाली नहीं है, तंत्र शास्त्र में भी कई पंथ और शैलियां होती हैं। तंत्र शास्त्र वेदों के समय से हमारे धर्म का अभिन्न अंग रहा है। वेदों में भी इसका उल्लेख है और कुछ ऐसे मंत्र भी हैं जो पारलौकिक शक्तियों से संबंधित हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि तंत्र वैदिक कालीन हैं।
ऐसे थे शिरड़ी के साईं बाबा
धर्म की स्थापना और बुराई पर विजय के लिए समय-समय पर धरती पर अनेक संतो ने जन्म लिया। ऐसे संत विरले ही मिलते हैं जिन्हें हिन्दू, मुसलमान सिख और ईसाई सभी समान भाव से पूजते है। ऐसे ही एक संत हुए शिरड़ी के साईं बाबा जिन्होंनें जात-पात के भेद भाव से ऊपर उठकर लोगों को मानवता का पाठ पढ़ाया। साईं बाबा एक ऐसे संत थे जिन्होंनें कभी भी किसी धर्म की अवहेलना नहीं की बल्कि सभी धर्मों का सम्मान करके मानवता को ही सबसे बड़ा धर्म बताकर जीवन जीने की शिक्षा प्रदान की।
महाराष्ट्र में अहमदनगर जिले के रहता तहसील में एक छोटा सा कस्बा है शिरड़ी जहां साईं बाबा का विशाल मंदिर है। यह वह स्थान है जहां साईं बाबा ने 15 अक्टूबर 1918 में समाधि ली थी। उनके समाधि स्थल पर ही एक विशाल मंदिर बनवाया गया है जिसमें बाबा की चरण पादुकाऐं रखी गई हैं वर्तमान में यहां साईं की मूर्ति भी है। सभी धर्मों के लोग बाबा को गुरु के रूप में पूजते हैं विश्व के हर कोने से लाखों भक्त साईं के दर्शन के लिए यहां आते हैं।
कथा: 18वीं सदी में एक 20 वर्षीय युवा ने महाराष्ट्र के शिरड़ी गांव की एक मस्जिद में शरण ली और वहीं बस गया कोई नहीं जानता था कि वह युवक कहां से आया है। वह भिक्षा मांग कर अपना पेट भरने लगा उसकी छवि एक फकीर के जैसी थी जिसे न कोई लालच था न कोई मोह। धीरे-धीरे लोग उनकी बातों से प्रभावित होने लगे और उन्हें बाबा कह कर पुकारने लगे। लोग उन्हें ईश्वर का अवतार मानने लगे। वो लोगों की पीड़ा दूर करते, गरीबों की मदद करते। साईं बाबा ने जात पात का भेद मिटाकर सबका मालिक एक का संदेश प्रदान किया। तभी से लोगों ने उन्हें गुरु के रूप में पूजना शुरू कर दिया। लोग दूर-दूर से उनके दर्शन करने आने लगे तब से यह स्थान तीर्थ के रूप में माना जाने लगा।
साईं के शिक्षा संदेश:
1- सबका मालिक एक ... साईं बाबा की सबसे बड़ी शिक्षा और सन्देश जाति, धर्म, समुदाय आदि व्यर्थ की बातों में न पड़ कर आपस में प्रेम और सदभावना से रहना है क्यों कि सबका मालिक एक है।
2- श्रद्धा और सबूरी...साईं बाबा ने कहा है कि हमेशा श्रद्धा, विश्वास और सब्र के साथ जीवन गुजारें।
3- मानवता ही सबसे बड़ा धर्म है।
4-गरीबों और लाचारों की मदद करना सबसे बड़ी पूजा है।
5- माता-पिता और बुर्जुगों का सम्मान करना चाहिए।
जीवनपथ की सुगमता के लिए धम्मपद में उतरें
धम्मपद: जीवनपथ की सुगमता के लिए हमसे कहते हैं....
शुभ कर्म करने वाला मनुष्य दोनों जगह प्रसन्न रहता है। यहां भी और परलोक में भी।
बुद्धिमान मनुष्य वही है जो उद्योग (परिश्रम, पुरुषार्थ), निरालस्यता, संयम और (मन पर नियंत्रण) आदि के द्वारा अपने जीवन को पूर्ण सुरक्षित एवं प्रगतिशील बना लेता है।
बुद्धिमान मनुष्य कठिनाई से वश में होने वाले मन को नियंत्रित एवं प्रशिक्षित करता है। नियंत्रित मन अत्यंत ही भला करने वाला तथा सुख देने वाला होता है।
राग, द्वेष और इंद्रिय भोगों में आसक्त मनुष्य को यमराज आहत अवस्था में ही अपने वश में कर लेता है।
यदि अच्छे चरित्र के श्रेष्ठ मनुष्यों का साथ न मिले तो अकेले ही रहना चाहिए। दुराचारी, अहंकारी, मूर्ख एवं व्यसनी मनुष्य का साथ एक क्षण के लिए भी नहीं करना चाहिए।
जो व्यक्ति दोष दिखाने वाले व्यक्ति को अत्यंत प्रिय एवं शुभचिंतक समझता है उसका कल्याण ही होता है।
लाखों व्यक्तियों को जीतने की अपेक्षा, स्वयं को जीतना अधिक कठिन एवं महान है।
व्यर्थ और अनावश्यक शब्दों से युक्त हजारों कथाओं, वाणियों एवं उपदेशों की बजाय वह एक शब्द ही अधिक श्रेष्ठ है जो शांति और सद्ज्ञान प्रदान करें।
मनुष्य अपने कर्मों के फल से कभी भी और कहीं भी बच नहीं सकता है।
जिन्होंने जवानी में ब्रह्मचर्य और धन का संग्रह नहीं किया वे शेष जीवनभर पछताते ही रहते हैं।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
'निग्रह' शब्द का अर्थ है- नियंत्रित करना, रोकना या वश में करना। अत: इंद्रिय निग्रह शब्द का अर्थ है-इंद्रियों को वश में करना या इंद्रियों को नियंत्रित करना। इंद्रिय निग्रह इतना महत्वपूर्ण एवं परम उपयोगी कार्य है कि इसे विश्व के सभी धर्मों में मनुष्य का धर्म कर्तव्य माना गया है। धर्म में जितना महत्व सत्य, प्रेम, अहिंसा, दया, परोपकार, क्षमा आदि सद्गुणों को दिया गया है उतना ही महत्व इंद्रिय निग्रह को भी दिया गया है।
पंच ज्ञानेंद्रियां
हम जानते हैं कि पांचों इंद्रियां- नेत्र, श्रवण, गंध, स्वाद एवं स्पर्श, मानव जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण है। ईश्वर ने ये पांचों इंद्रियां मनुष्य को संसार का अनुभव प्राप्त करने एवं अपना विकास करने के लिए प्रदान की हैं। इंद्रिय निग्रह को ऋषि-मुनियों, पीर-पैगंबरों, संत-महात्माओं, विद्वानों, विचारकों एवं तत्व ज्ञानियों ने समान रूप से अति महत्वपूर्ण एवं आवश्यक बताया है।
इंद्रिय निग्रह से शक्ति संग्रह
मानव जीवन में इंद्रिय निग्रह का इतना महत्व इसलिए है कि इंद्रिय निग्रह से मनुष्य का शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक विकास संभव है। आंखों का उपयोग सदैव सार्थक, उपयोगी एवं कल्याणकारी दृश्य देखने में ही हो, यह आंख नामक इंद्रिय का निग्रह है। जो अतिआवश्यक, पूर्ण सत्य,मधुर एंव परम कल्याणकारी बात हो वही बोलना चाहिए। सत्य, नैतिक, वास्तविक, मर्यादित, सार्थक व सोद्देश्यपूर्ण बातें या वचन ही सुनना चाहिए। भोजन स्वाद के दृष्टिकोण से नहीं अपितु स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से ग्रहण करना चाहिए। इसी प्रकार स्पर्श और गंध इंद्रियों का भी उचित, नैतिक एवं सार्थक प्रयोग करना स्थाई लाभकारी होता है। किंतु ऐसा करना तभी संभव हो पाता है। जब हमारा अपनी इंद्रियों पर पूर्ण नियंत्रण हो। यदि इंद्रियां अनियंत्रित है तो वे जीवन की सफलता एवं सार्थकता की बजाए दो क्षण का स्वाद चखने में ही जीवन को नष्ट कर देगी।संयम से ही होता है इंद्रिय निग्रह
दूसरों के प्रति हमारा दायित्व है दान
दान का अर्थ है -देना। अपनी खुशी से किसी को कुछ भी देना जिसे वापस पाने की कामना न हो, दान कहलाता है। सभी धर्मों के शास्त्र में यह अनिवार्य कर्म बताया गया है। अपनी मेहनत की शुद्ध कमाई में से दस प्रतिशत दान देने का विधान है। यह केवल कोई धार्मिक क्रिया नहीं है बल्कि समाज के कमजोर वर्ग के प्रति हमारा दायित्व भी है।
सब हमारा, हम सबके :- अपनी कमाई से केवल अपना और अपने परिवार का पालन करना ही कोई बड़ी बात नहीं है। यह मानव धर्म भी नहीं। बल्कि जरूरतमंदों की अपने सामथ्र्यनुसार मदद करना ही सच्चा धर्म है। दान, त्याग सिखाता है।
दान के प्रकार :- दान के चार प्रकार बताए गए हैं1. नित्य दान - रोजाना किया जाने वाला दान।2. नैमित्तिक दान - किसी कामना से कभी-कभी दिया दान।3. काम्यदान - संतान, विजय, सुख, स्वर्ग प्राप्त करने की इच्छा से दान।4. विमल दान - ईश्वर की प्रसन्नता के लिए दिया दान।दान हमेशा सुपात्र को ही दें। कुपात्र को दिया दान व्यर्थ है।
सामाजिक संतुलन - सभी धर्मों में कहा गया है कि हर जीव में परमात्मा का वास होता है। अत: कोई व्यक्ति भूखा न रहे दान में यही व्यवस्था चलती है। जो सक्षम है वह निर्धन लोगों को दान से सहायता करते हैं, जिससे सामाजिक संतुलन बना रहता है।विधान - दान का विधान जो धन धान्य से संपन्न है, केवल उनके ही लिए है। जो निर्धन है, उनके लिए दान देना जरूरी नहीं है।धन से मोह कम हो तथा देने की भावना जागे यही इसका भाव है।
क्षमा : मन का बोझ हल्का कर देती है माफी
क्षमा शब्द का अर्थ है - बिना बदले की भावना के किसी के दुव्र्यवहार या अपराध को सह लेना। सहनशीलता और माफी शब्द भी क्षमा के लिए प्रयुक्त होते हैं। धर्म के प्रमुख लक्षणों सत्य, अहिंसा, प्रेम, दया, दान, परोपकार, तप आदि में क्षमा को भी धर्म का प्रमुख अंग माना गया है। क्रोध का कारण उत्पन्न होने पर भी यदि संयम रखा जाए तो ऐसी भावना क्षमा कहलाती है। क्षमा की भावना दोषी अथवा अपराधी को सुधारने या बदलने का मौका देती है एवं प्रेरित करती है। इसके विपरित यदि दोषी या अपराधी पर क्रोध किया जाए तो ऐसा व्यक्ति अपनी गलती कभी स्वीकार नहीं करता। क्रोध से क्रोध भड़कता है और वातावरण, घृणा और हिंसा से भर जाता है। जबकि क्षमा प्रेम, दया और पश्चाताप की जननी है। जिस व्यक्ति को क्षमा कर दिया जाता है वह पश्चाताप के जल में धुलकर निर्मल हो जाता है। जबकि जिसपर क्रोध किया जाता है वह क्रोध की अग्नि में जलकर खाक हो जाता है।
संसार का हर व्यक्ति किसी न किसी अवगुण या बुराई से ग्रस्त होता है। ऐसा मनुष्य अपवाद ही है जो पूर्णत: दोष रहित हो। प्रत्येक व्यक्ति में अलग-अलग कमजोरियां एवं दोष होते हैं। इसलिए समझदारी यह कहती है कि हमें दूसरों के दोषों एवं अपराधों को संभवत: सहन करते हुए क्षमता कर देना चाहिए। जो व्यक्ति बार-बार जानबूझकर कोई अपराध करें और क्षमा करने पर, समझाने पर भी न माने ऐसे व्यक्ति का मुनासिब (आवश्यक) प्रतिकार अवश्य करना चाहिए। क्षमा का उद्देश्य दोषी या अपराधी को सुधरने या बदलने का मौका देना होता है। क्षमा कायरता की पहचान नहीं होनी चाहिए। अर्थात् यदि क्षमा को कोई अपराधी आपकी कायरता, कमजोरी, मजबूरी समझे तो ऐसे व्यक्ति को सबक सिखाना आवश्यक हो जाता है। अत: जिनके सुधरने या बदलने की संभावना हो उसे क्षमा करना धर्म है अन्यथा नहीं।
दूसरों की मदद का भाव परोपकार
परोपकार का अर्थ है- दूसरों के हित का काम। अनुभवी लोग कहते हैं कि अपने लिए पशु भी जी लेते हैं मनुष्य जीवन की सार्थकता तो इसी में है कि वह औरों के लिए, समाज के लिए, विश्व के लिए और अंतत: प्राणीमात्र के लिए भी अपना समय और संपत्ति लगाए खर्च करें। एकमात्र मनुष्य को ही दया-करुणा जैसी उच्च भावनाएं प्राप्त है।
ईश्वर का उपहार- मनुष्य को जन्म से ही ईश्वर ने दया की भावना के रूप में एक अनुपम उपहार दिया है। किसी को दुखी, अभावग्रस्त, रोगी, असमर्थ देखकर हर संवेदनाशील मन में दया की भावना जन्म लेती है। दया-करुणा की संवेदनाएं मनुष्य को परोपकार, सेवा और त्याग के लिए प्रेरित करती हैं।
सभी का जन्म एक ही स्रोत से - धार्मिक दृष्टिकोण के सोचें या वैज्ञानिक दृष्टिकोण से, सिद्ध यही होता है कि सभी मनुष्यों एवं प्राणियों का जन्म एक ही तत्व या शक्ति से हुआ है। इस प्रकार संसार के समस्त प्राणी आपस में सगे भाई-बंधु है। यदि संसार के किसी भी हिस्से में कोई मनुष्य या प्राणी दु:खी और अभावग्रस्त है तो प्रत्येक व्यक्ति का यह धर्म कर्तव्य है कि वह उसकी सेवा सहायता करे। किसी को दु:खी, दरिद्र एवं अभावग्रस्त देखकर उसकी मदद न करना हृदय की कठोरता, पशुता एवं संवेदन हीनता का प्रमाण है।सच्चा धर्मसत्य, प्रेम, अहिंसा, दया जैसे धर्म के प्रमुख लक्षणों में परोपकार (दूसरों की सेवा-सहायता) को भी धर्म का प्रमुख लक्षण माना गया है। घोर स्वार्थी और कठोर हृदय व्यक्ति ही किसी को दु:खी देखकर उसकी सेवा सहायता किए बिना रह सकता है। परोपकार धर्म को संसार के सभी धर्मों ने अत्यंत महत्वपूर्ण माना है। हिंदू धर्म में कहा गया है 'परहित सरिस धर्म नहीं कोई, इस्लाम की मान्यता है कि जिसका पड़ोसी दु:खी है वह सच्चा मुसलमान नहीं है, ईसाई धर्म की मान्यता है कि- स्वयं भूखे रहकर, अपना हिस्सा जरूरतमंद को दे देना ही सच्ची मनुष्यता है।
दान एक धर्मः जो आर्थिक असमानता दूर करता है
दान शब्द का अर्थ है किसी वस्तु पर से अपना हक समाप्त कर किसी और को उसका मालिक बना देना। दान एक एसा धर्म है जिससे आर्थिक असमानता दूर होती है।भारतीयसंस्कृति एवं भारतीय धर्मों में दान का अत्यधिक महत्व बताया गया है। धर्मशास्त्रों में भी सभी मनुष्यों के लिए अपनी मेहनत और ईमानदारी की कमाई का एक भाग जरूरत मंद व्यक्तिया अन्य प्राणी को देना धर्म का कार्य बताया गया है।धर्म के अन्य अंगों-सत्य, प्रेम, अहिंसा, दया आदि के समान दान को भी धर्म का अंग मानकर उसका महत्व माना गयाहै।शास्त्रों में दान देने के विषय में भी मार्गदर्शन किया गया है।दान सदैव सुपात्र को-विद्वानों, ऋषि-मुनियों और तत्व ज्ञानियों की भी यही मान्यता है कि दान सदैव सुपात्र (दानपानेकेयोग्य) को ही देना चाहिए।यानि किसीदुराचारी, व्यभिचारी, नशेबाज एवं ढोंगी व्यक्ति को कभी भी दान नहीं देना चाहिए।गलत अथवा अपात्र व्यक्ति को दान देने से समाज में पाप, दुराचार एवं अधर्म की वृद्धि होतीहै।दान का महत्व मनुष्य के जीवन में दान का अत्यधिक महत्व बताया गया है यह एक प्रकार का नित्यकर्म है।मनुष्य को प्रतिदिन अपनी क्षमता के अनुसार कुछ दान अवश्य करना चाहिए।मानव जाति के लिए दान परम आवश्यक है जो मनुष्य की करुणा, प्रेम, उदारता एवं प्राणी मात्र के प्रति अपनत्वका परिचायक है।वैभव होना तो सामान्य बात है, पर उस वैभव को दूसरों के लिए दे देना यह मन की उदारता एवं हृदय की विशालता पर ही निर्भर है। यह नित्य कर्म है। दैनिक जीवन में जिस प्रकार व्यक्ति के द्वारा अन्य सत्कर्म संपन्न होते हैं, उसी प्रकार दान भी प्रतिदिन नियम पूर्वक अवश्य ही करना चाहिए।इस प्रकार के दान में अन्नदान का विशेष महत्व बताया गया है।दान देने की परंपरा से समाज में प्रेम व भाईचारा बना रहता है।दान देने की परंपरा समाज में दया एवं करुणा के आदर्श मानवीय भावों की वाहक है।दान देने की परंपरा से समाज में आर्थिक संतुलन भी स्थापित होता है।
हर धर्म की जड़ है सत्य
जिस प्रकार लज्जा को स्त्री का आभूषण माना जाता है, उसी प्रकार वाणी की शोभा या सार्थकता सत्य बोलने में है।तीन प्रकार के तपों में,सत्य बोलना वाणी का तप है।जैसा कि सभी जानते हैं कि तप कठिन होता है, उसी प्रकार वाणी का तप (सत्यबोलना) भी कठिन है।माना कि सदैव सत्य बोलना कठिन हैकिंतु इसके लाभ उतने ही बडे़ एवं महान हैं।
सर्वोच्च धर्म – धर्म के चार प्रमुख लक्षणों में सत्य का स्थान सर्वोच्च है।सत्य को जीवन में पूरी तरह उतारने वाले राजा हरिशचंद्र की कथा सारे विश्व में विख्यात है।अच्छे गुण की यह विशेषता होती है कि वह अपने जैसे अन्य गुणों को भी आकर्षित करता है।जीवन में सत्य को अपनाने से दया, दान, त्याग, तपस्या आदि जैसे सदगुण भीस्वत: ही आने लगते हैं। इसलिए मानव मात्र के लिए सत्य का पालन प्राचीनकाल से ही आकर्षण का केंद्र रहा है।सत्य निष्ठा किसी भी मनुष्य कीमहानता की पहली पहचान है।
साधक के लिए अनिवार्य – साधना के क्षेत्र में भी सत्य को साधक के लिए अनिवार्य योग्यता माना गया है। लोभ, मोह, भय अथवा अज्ञान के कारण कभी भी सत्य का त्याग नहीं करना चाहिए।ऐसे कई उदाहरण हैजिसमें सत्य वादियों ने मृत्यु को गले लगाकर भी सत्य का दामनन हीं छोड़ा।सत्य पालन करने वाले को शारीरिक एवं मानसिक दु:खों का सामना नहीं करना पड़ता।भारतीय धर्म एवं हिंदू संस्कृति में सत्य की महत्ता एवं उपयोगिता को देखकर इसकी अत्यधिक प्रशंसा की गई है।जहां सत्य बोलने की प्रशंसा हुई है, वहीं असत्य वाणी की कटु निंदा भी की गई है।
प्रबलशत्रु - असत्य बोलने को रोग, जहर तथा भयंकर शत्रु के समान बताया गया है।असत्यवादी (झूठबोलनेवाले) को भयंकर शत्रु के समान हानि पहुंचाने वाला माना गया है।असत्य बोलने वाला किसी का सच्चा विश्वासपात्र नहीं बन पता।जब कि सत्य बोलने वाले व्यक्ति पर सभी आंख मूंद कर भरोसा कर लेते हैं।लंबे समय तक पूर्ण सत्य का पालने वाले व्यक्ति को वाक्सिद्धि प्राप्त होती है यानि उसकी कही बातें हूबहू घटित होने लगती हैं।अत: हम कह सकते हैं कि अपना हर तरह से स्थाई हित चाहने वाले व्यक्ति को अपने जीवन में निश्चित रूप से सत्य को अपनाना चाहिए।
करुणा से ही मन में उपजता है प्रेम
करुणाःअर्थ: करुणा का अर्थ है दया, रहम या संवेदनशीलता।
करुणा का मतलबःमनुष्य जीवन में करुणा एक अत्यंत महत्वपूर्ण भाव है। मनुष्य को उदार, सहृदय, संवेदनशील एवं प्रेममय बनाने वाला जो आदर्शभाव है। वह करुणा ही है। करुणा भाव की महत्ता एवं उच्चता के आधार पर ही इसे सत्य, प्रेम एवं अहिंसा जैसे शाश्वत धार्मिक लक्षणों में शामिल किया गया है। करुणा ही मनुष्य या अन्य जीवन को दुखी देखकर हृदय में में जो दया की भावना जन्म लेती है वह करुणा कहलाती है। दूसरे को दुख में, कष्ट में, अभाव में अथवा पतित अवस्था में देखकर स्वयं द्रवित हो जाना, दुखी हो जाना करुणा के कारण ही होता है। करुणा को धर्म का अंग इसीलिए माना गया है। क्योंकि वह मनुष्य को सेवा, सहायता अथवा परोपकार की प्रेरणा देती है। करुणा ही मनुष्य को प्रेरित करती है कि वह अपना स्वार्थ भूलकर दूसरों की सेवा एवं सहायता करें।
करुणा का महत्वःकरुणा नामक भाव मनुष्य को संवेदनशील बनाकर मानवीयता का पाठ पढ़ाता है। मनुष्य को संकीर्णता से मुक्त करके प्राणीमात्र के प्रति प्रेम और अपनत्व जगाने में करुणा का ही योगदान है। करुणा ईश्वर द्वारा मनुष्य को प्रदान किया गया अमूल्य वरदान है। करुणा मनुष्य को स्वार्थ और मोह के दायरे से बाहर निकालकर संपूर्ण संसार के साथ जोड़ती है। करुणा ऐसी भावना है जो अपने और पराए शब्द का भेद नहीं करती है। अत: हम कह सकते हैं कि करुणा मनुष्य को जन्म से प्राप्त एवं ऐसी भावना है जो उसे संपूर्ण प्राणियों के प्रेम, अपनत्व एवं अभिन्नता का पाठ पढ़ाती है।
मन, वचन ओर कर्म, तीनों से हो अहिंसा
मन, वचन या कर्म के द्वारा किसी को हानि पहुंचाना, कष्ट देना या दु:खी करना, हिंसा का कार्य है। सामान्यत: सोचा जाता है कि हथियारों से या हाथ पैर से किसी को मारना-पीटना ही हिंसा है, जबकि यह तो हिंसा का मात्र एक प्रकार है। बिना हाथ हिलाए, बिना बोले भी हिंसा हो सकती है। यदि आप किसी से मन ही मन घृणा करें या उसकी उपेक्षा (अनदेखा) करें तो यह भी एक प्रकार की हिंसा ही है। मन, वचन व कर्म से हो पालन - सत्य, प्रेम, दया, करुणा आदि के समान ही अहिंसा भी परम धर्म है। अहिंसा अपनाने से वही पुण्य या परिणाम होता है जो सत्य को अपनाने से होता है। अहिंसा का दायरा बहुत बड़ा है। असत्य बोलना भी हिंसा है, क्योंकि ऐसा करके आप किसी को सच्चाई से वंचित करते हैं। अहिंसा धर्म को पूरी तरह से अपनाने का तात्पर्य है कि मन, वचन अथवा कर्म से किसी भी मनुष्य या अन्य प्राणी को दु:ख, कष्ट, अथवा किसी भी प्रकार की हानि न पहुंचाना।
न करें स्वयं के प्रति हिंसा- हिंसा सदैव दूसरों के साथ होती हो यह भी आवश्यक नहीं है, जाने-अनजाने मनुष्य खुद अपने प्रति भी हिंसा का आचरण करता रहता है। मनुष्य हीन भावनासे, अज्ञानता से और मनोरोगों से घिरकर जाने-अनजाने स्वयं के प्रति भी हिंसा करता है।
संत परंपरा - महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी, रामकृष्ण परमहंस, महात्मा गांधी आदि अवतारों और महापुरुषों ने अहिंसा को परम धर्म बताते हुए उसका जीवन भर आचरण किया है। जो सभी मनुष्यों को सदैव प्रेरणा प्रदान करता रहेगा।मन, वचन या कर्म से किसी को भी कष्ट न पहुंचाना ही अहिंसा है। अहिंसा को परम धर्म कहा गया है।
प्रेम: एक सर्वश्रेष्ठ जीवन मूल्य
प्रेमः प्रेम एक ऐसा अतिमहत्वपूर्ण मानवीय भाव है जिसे संसार के सभी धर्मों में सर्वश्रेष्ठ जीवनमूल्य माना गया है। सत्य, अहिंसा, दया, करुणा, परमार्थ, त्याग, सेवा एवं परोपकार जैसे आदर्श जीवन मूल्यों में प्रेम को अतिमहत्वपूर्ण माना गया है। ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, राजयोग के समान ही प्रेमयोग भी ईश्वर प्राप्ति का अनुभव सिद्ध एवं प्रमाणिक मार्ग है। प्रेम को उसके स्वरूप, स्तर और प्रकृति के आधार पर अलग-अलग रूपों में देखा जाता है जो कि इस प्रकार है।
स्वार्थजन्य प्रेम (लौकिक प्रेम):स्वार्थ पर आधारित संबंध, धन के प्रति, यश के प्रति, शरीर के प्रति, रंग, रूप, रस, स्पर्श आदि के प्रति जो लगाव या आकर्षण है वह स्वार्थ जन्म प्रेम होता है।
मोहजन्य प्रेम: माता-पिता का संतान के प्रति, संतान का माता-पिता के प्रति, पति-पत्नी का आपसी प्रेम आदि इसी प्रकार के सांसारिक रिश्तों से जन्मा प्रेम मोहजन्य प्रेम के अंतर्गत आता है।
निस्वार्थ पे्रम: सर्वत्र सभी के प्रति, अपेक्षा रहित स्नेह की पवित्र, कोमल आत्मीय भावना जिसमें कोई स्वार्थ या बदले की आशा निहित न हो, वह निस्वार्थ या आत्मीय प्रेम कहलाता है।
अलौकिक प्रेम:उच्च आदर्शों के प्रति प्रेम, ईश्वरीय विधि-विधान के प्रति प्रेम, ईश्वर रचित संपूर्ण सृष्टि एवं मर्यादाओं के प्रति प्रेम आदि रूपों में अभिव्यक्त प्रेम अलौकिक प्रेम कहलाता है।
कर्म तो सभी करते हैं मगर फर्क है
कुशलता जरूरी है : कर्म के मर्म को समझना यानि कर्म करने की पूर्ण कुशलता प्राप्त करना प्रत्येक मनुष्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। सांसारिक जीवन में सफलता प्राप्त करना हो या आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रगति करना हो दोनों ही कार्य, कर्म करने की कुशलता पर निर्भर हैं। कर्म करने में कुशल व्यक्ति लौकिक एवं अलौकिक दोनों ही क्षेत्रों में सफलता प्राप्त कर सकता है। कर्म सिर्फ शरीर की क्रियाओं से ही संपन्न नहीं होता बल्कि मन से, विचारों से एवं भावनाओं से भी कर्म संपन्न होता है। कर्म के महत्व को व्यक्त करने के लिए ही कहा गया है : कर्म प्रधान विश्व रचि राखा। क्यों करि तर्क बढ़ावंहि शाखा। सकल पदारथ है जग माहीं कर्म हीन नर पावत नाहीं।
अत: हमें कहना एवं मानना चाहिये कि मनुष्य जीवन में कर्म का बड़ा ही महत्वपूर्ण योगदान है। कर्म ही जीवन है। कर्म और भाग्य को लेकर अक्सर मतभेद पाया जाता है। एक तरफ भाग्यवादी हैं जो भाग्य को ही अंतिम मानते हुए 'भाग्य फलति सर्वदा' का नारा देते हैं । वहीं दूसरी तरफ कर्मवाद के समर्थक हैं जो 'कर्म प्रधान विश्व रचि राखा' का उद्घोष करते करते रहते हैं। जबकि बात उतनी कठिन नहीं जितनी कि लोगों ने बना रखी है। वास्तविकता यह है कि दोनों अलग हैं ही नहीं, भाग्य का अतीत ही कर्म हैं तथा कर्म का भविष्य ही भाग्य ।
उन्हें आगे, पीछे और चारों ओर से प्रणाम
प्रणाम करने के भी कई तरीके या प्रकार हैं। हाथ जोड़कर, झुककर, पैर छूकर या साष्टांग दण्डवत होकर। प्रणाम करने की यह क्रिया, सम्मान करने और पाने वाले पर निर्भर करती है। किसी के प्रति सम्मान व्यक्त करने का कार्य हृदय से होता है न कि दिमाग से। जिसके प्रति हमारे हृदय में सच्चा सम्मान होता है तो प्रणाम करने की क्रिया अनायास ही हो जाती है। यदि प्रणाम करने से पूर्व हमारा दिमाग सक्रिय हो तो समझना चाहिये कि सम्मान सच्चा नहीं महज दिखावा है।
माता-पिता और गुरु के प्रति हमारे मन में ऐसा ही सच्चा प्रेम होता है। इनमें भी जो प्रेम गुरु के प्रति होता है वह अधिक आदर्श माना गया है। क्योंकि गुरु और शिष्य का रिश्ता ही सर्वाधिक लम्बा और स्थाई होता है। माता-पिता, पति-पत्नी तथा संतान आदि के प्रति जो प्रेम संबंध होता है, वह सांसारिकता और मोह से जन्मा होता है। जबकि गुरु के प्रति जो प्रेम संबंध होता है वह आध्यात्मिक और निस्वार्थ होता है। एक मात्र गुरु ही है जो हमारे दु:ख को स्थाई रूप से दूर कर सकता है। कहा जाता है कि इंसान अकेले ही आता है और अकेले ही जाता है। यह बात सांसारिक रिश्तों पर ही लागू होती है क्योंकि गुरु मरने के बाद भी जन्मों तक साथ निभाने की क्षमता रखता है। इसीलिये सच्चे गुरु और माता-पिता को किया गया प्रणाम ही सार्थक एवं फलदाई होता है।
भोग करो मगर खुली आंख से
वैसे तो भोग-विलास को धर्म अध्यात्म के क्षेत्र में त्याज्य यानि कि त्याग देने योग्य कार्य माना गया है। किन्तु यह नियम या मर्यादा उस साधक के लिये है जो साधना के क्षेत्र में पर्याप्त उन्नति एवं प्रगति कर चुका हो।किसी नए एवं कच्चे साधक को यदि पूर्ण त्याग या पूर्ण वैराग्य की सीख दी जाए तो उसके लिये इसका पालन करना प्राय: कठिन ही होता है। यदि हिम्मत करके कोई साधक अपनी समस्त वृत्तियों पर एक ही साथ पूर्ण बंदिश लगा भी देता है तो इस बात की पूरी संभावना रहती है कि मौका मिलते ही नियंत्रण का बांध एक ही झटके में चरमरा के गिर जाता है।
अत: बार-बार की ठोकर खाने से अच्छा है कि हर कदम फूंक-फूंक कर ही रखा जाए। मन को किसी कार्य से एक साथ रोकने की बजाय अनुभव से सीखने दिया जाए। अध्यात्म के तत्व ज्ञान में भी यही बात कुछ इस तरह से कही गई है - ' तेन त्यक्तेन भूंजीथा
कहने का मतलब यह है कि भोग करो मगर त्याग के साथ। त्याग के साथ भोग करने का मतलब है खुली आंखों से भोग करना। यानि जब भी किसी इन्द्रिय सुख का भोग करो उसका पूरे ध्यान से निरीक्षण भी करो। पूरे साक्षी भाव से किया गया निरीक्षण आपको उस दिव्य ज्ञान से रूबरू करवा देगा जिसे पाकर आप समझ जाएंगे कि हर इंद्रिय सुख का अन्तिम परिणाम दु:ख ही है। जबकि हर त्याग का परिणाम अन्तत: सुखद ही होता है।
विवाह के सातों वचन क्या और क्यों ?
निर्विवाद रूप से विश्व की प्राचीनतम संस्कृ ति होने का गौरव, भारतीय संस्कृति को ही प्राप्त है। भारतीय संस्कृकि की आदर्श, वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक परंपराएं ही इसे सर्वश्रेष्ठ एवं महान बनाती हैं। ऐसी ही एक परंपरा है-विवाह परंपरा। जंहा विश्व के अन्य देशों विवाह को महज एक आवश्यकता और समझोता माना जाता है वहीं भारत में विवाह को धर्म का अनिवार्य अंग माना गया है। विवाह का आयोजन भी पूरे धार्मिक तरीके से सम्पंन किया जाता है। विवाह में वर और वधु के द्बारा पवित्र बंधन में बंधने से एक-दूसरे को कुछ वचन दिये जाते हैं जिनका पालन ताउम्र किया जाता है। ये वचन इस प्रकार हैं -
वर से लिए गए वचन:ग़ृहस्थ जीवन में सुख-दु:ख की स्थितियां आती रहती हैं, लेकिन तुम हमेशा अपना स्वभाव मधुर रखोगे।मुझे बताये बिना कुआँ - बावड़ी - तालाब का निर्माण, यज्ञ-महोत्सव का आयोजन और यात्रा नहीं करोगे।मेरे व्रत, दान और धर्म कार्यों में रोक-टोक नहीं करोगे।मेहनत से जो कुछ भी अर्जित करोगे, मुझे सौंपोगे। मेरी राय के बिना कोई भी चल-अचल सम्पति का क्रय-विक्रय नहीं करोगे।घर की सभी कीमती चीजें, गहने, आभूषण मुझे रखने के लिए दोगे।माता-पिता के किसी आयोजन में मेरे पीहर जाने पर आपत्ति नहीं करोगे।
वधु से लिए गए वचन:मेरी अनुपस्थिति में बिना बताए कहीं नहीं जाओगी।विष्णु, वैश्वानर, ब्राह्मण, मेहमान और परिजन सभी साक्षी हैं कि मैं तुम्हारा हो चुका हूँ।मेरे मन में तुम्हारा मन रहे। तुम्हारी बातों में मेरी बातें रहें और मुझे अपने ह्रदय में रखोगीमेरी इच्छाओं और आज्ञाओं का निरादर नहीं करोगी और बड़ों का सम्मान करोगी।हमेशा मेरी विश्वसनीय बनी रहोगी।
हर कीमती वस्तु कठिनाई से ही मिलती है
प्राय: लोगों के मन में यह जिज्ञासा उठती है कि जब धर्म अथवा सत्य का मार्ग इतना कठिन है तो उसपर चलने का क्या लाभ? यह प्रश्र उन्हीं के जहन में उठता है जो प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानने की भूल में रहते हैं। यह इंसान की उथली सोच का ही परिणाम है कि वह धर्म के अप्रत्यक्ष यानि कि अदृश्य फल को देख नहीं पाता। अब यदि कोई यह कहे कि मैं तो तभी स्नान करूंगा जब बदले में कोई मुझे १००रु दे, या फिर कोई नहाने के बाद कहे कि नहाने से मैं मोटा तो हुआ ही नहीं ,फिर ऐसे नहाने से क्या फायदा? सोचिए ऐसे व्यक्ति को आप क्या कहेंगे। धर्म का फल भी नहाने के फल की तरह ही है, जो दीखता भले ही न हो पर होता बड़ा मूल्यवान है।
धर्म अदृश्य फल देने वाला होता है। जब हम धर्ममय आचरण करते हैं, तो चाहे हमें उसका फल तत्काल दिखाई नहीं दे, किंतु समय आने पर उसका प्रभाव सामने आता है। सत्य को जानने का फल, हमें अपने जीवन में प्रज्ञा यानि कि सद्भुद्धि के रूप में मिलता है। जब हम धर्म का आचरण करते हैं तो कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ता है। किंतु ये कठिनाइयां हमारे ज्ञान और समझ को बढ़ाती हैं।
धर्म के कई द्वार हैं। जिनसे वह अपनी अभिव्यक्ति करता है। धर्ममय आचरण करने पर धर्म का स्वरूप हमें समझ में आने लगता है, तब हम अपने कर्मों को ध्यान से देखते हैं और अधर्म से बचते हैं। धर्म की कोई भी क्रिया विफल नहीं होती, धर्म का कोई भी अनुष्ठान व्यर्थ नहीं जाता। महाभारत के इस उपदेश पर हमेशा विश्वास करना चाहिए और सदैव धर्म का आचरण करना चाहिए।
मां निस्वार्थ प्रेम का सबूत है
प्रेम को दुनियां के तमाम धर्मों और शिक्षाओं में सर्वोच्च मानवीय गुण के रूप में स्वीकार किया गया है। जप, तप, भक्ति, योग, ध्यान आदि जितने भी साधना के मार्ग संसार भर में प्रचलित हैं उनमें प्रेम का स्थान सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। ईश्वर प्राप्ति के लिये प्रेम से बढ़कर और किसी चीज की आवश्यकता नहीं होती है। तपस्वी, ज्ञानी और योगी भले ही परमात्म मिलन से वंचित रह जाएं किन्तु एक प्रेमी भक्त को भगवान कभी भी निरास नहीं करते।
बड़े-बड़े ज्ञानी तक यह कहते हैं कि इस माया जनित संसार में सबकुछ धोका और स्वार्थ ही है। यहां तक कि इंसानी प्रेम को भी स्वार्थ का व्यापार कह कर अपमानित किया जाता है। किन्तु ईश्वर ने निस्वार्थ प्रेम की सच्चाई का सबूत देने के लिये धरती पर मां के अस्तित्व की रचना कर सारे तर्कों को सदैव के लिये विराम दे दिया। निस्वार्थ प्रेम उसे कहते हैं, जिसमें बदले की कोई अपेक्षा न हो। मां यह अच्छी तरह जानती है कि उसका बेटा बड़ा होकर उससे दूर अपनी ही दुनिया में खो जाएगा। लेकिन सब कुछ जानकर भी, हर तकलीफ और अभाव सहते हुए मां अपनी संतान पर कलेजे का सारा प्रेम-स्नेह न्योछावर कर देती है। इस संसार में निस्वार्थ प्रेम का अस्तित्व भी मोजूद है, इस बात की घोषणा मां का अस्तित्व सदैव करता रहेगा।
यहां एक के बदले में करोड़ मिलते हैं.....
कड़ी मेहनत और खून-पसीने से प्राप्त हुए अनाज के दानों को कोई मिट्टी में क्यों मिला देता है। आश्चर्य में पडऩे की आवश्यकता नहीं है। दुनिया का हर किसान यही तो करता है। लेकिन ऐसा करने वाले किसान को कोई भी गलत नहीं ठहराता। अनाज के दानों को मिट्टी में मिलाने वाले किसान को दूरदर्शी औ समझदार ही कहा जाता है। क्योंकि किसान द्वारा मिट्टी में मिलाया गया एक-एक दाना सेकड़ों बन कर वापस किसान को ही मिल जाता है। सामान्य किसान और जमीन की खेती की बात तो आप सभी जानते हैं। किन्तु दूसरी खेती भी है, जो दुनिया की सबसे ज्यादा फायदे की खेती है। यहां की जमीन इतनी उपजाऊ है कि एक रुपया लगाने पर करोडों का मुनाफा होता है।सत्य को किसी प्रमाण यानि सबूत की आवश्यकता नहीं होती। फिर भी यदि किसी के मन में संका या संदेह हो, तो उसे एक बार प्रयोग के तोर पर ही सही पर अवश्य आजमाना चाहिये-
'मन, कर्म और वचन से पूरी ईमानदारी पूर्वक कमाई गई सम्पत्ति में से कुछ भाग समाज की भलाई में लगाएं। यानि अपनी कड़ी मेहनत की कमाई का कुछ हिस्सा, बिना किसी स्वार्थ और बदले की भावना से जरूरतमंद इंसान, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे या किसी अन्य के लिये खर्च करें। यकीन माने कि आपके द्वारा लगाया गया समय,श्रम या धन कई गुना होकर वापस लौट आएगा।'
हर टेंशन से पाएं मुक्ति
आगे बढऩे और कुछ कर दिखाने की होड़ ने इंसान की दशा बिगाड़ दी है। बाहर से देखने पर भले ही आधुनिक मनुष्य प्रगतिशील और सम्पन्न नजर आता है किन्तु अंदर सिवाय चिंता, भय,आशंका और तनाव के कुछ और नहीं है। असीमित आवश्यकताओं, अपेक्षाओं और महत्वाकाक्षांओंने तनाव और दूसरे अन्य मानसिक रोगों को जन्म दे दिया है। सारी सुविधाएं, वैज्ञानिक प्रगति तथा मनोरंजन के ढेरों साधन मोजूद हैं फिर भी तनाव जैसी समस्या लाइलाज होती जा रही है। ऐसे में यदि इनसे मुक्ति पाने की कोई कारगर युक्ति मिल जाए तो इसे ईश्वर की कृपा ही समझना चाहिये। धर्म में ऐसे उपाय हैं जो तनाव मिटाने में १०० प्रतिशत कारगर हैं। तो लीजिये जानिये वे क्या हैं:-
सेवा की संजीवनी - जरुरतमंदों और असहायों की सेवा ऐसी रामबाण औषधि है जो हर तरह का तनाव मिटा सकती है। इससे अहंकार मिटता है तथा मनोग्रंथिया नष्ट होती हैं।
क्षमा की सुधा- क्रोध और बदले की भावना से मन और दिमाग पर बेतहाशा बोझ पड़ता है। यह बोझ ही कई तरह के मानसिक रोगों का कारण बन जाता है। ईश्वर की व्यवस्था पर भरोसा रखते हुए यदि क्षमा करेगें तो इससे हमारा ही अप्रत्याशित लाभ होगा।
सही जगह दोगे तो हजार गुना मिलेगा
वो पूरे छह महीने पृथ्वी का रस चूसता है..........आनंद लो आनंद दो......यह पुरानी कहावत तो है ही कि अपना धन और समय बड़ी अक्ल लगाकर खर्च करना चाहिये। जबकि आज मनी इनवेस्टमेंट और टाइम मेनेजमेंट का हर तरफ ध्यान रखा जाता है। जहां समय को बांटने या विभाजित करने के कई तरीके हैं वहीं आयुर्वेद की अपनी कालगणना है। इस गणना में दो काल है- आदान काल और विसर्ग काल। आदान का अर्थ है लेना और विसर्ग का अर्थ है जो लिया है उसे लौटाना। माघ, फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़ ये आदान काल है। शेष छह माह विसर्ग काल है। अर्थात् माघ से आषाढ़ तक के छह माह में सूर्य पृथ्वी का रस लेता है और श्रावण से पौष तक के मास में प्राप्त रस वापस लौटाता है। कहने का अर्थ है आषाढ़ आदान काल का अंतिम मास है। इस संदेश के साथ कि जिसने लिया है वही दे सकता है। यह लेना धन, पद, सुख का लेना नहीं है। इसका अर्थ भौतिक संदर्भों में कतई नहीं है। इसका अर्थ तो रस के संदर्भ में है। आदान काल में आखिर सूर्य पृथ्वी का रस ही तो लेता है, जिसमें विसर्ग काल में हजार गुना कर लौटाता है। आषाढ़ संदेश देता है लो, मगर इस भाव से कि फिर हजार गुना करके लौटाना है। इस अर्थ में आषाढ़ काल का अंतिम ग्राहक है। जो इसलिए पूजनीय है कि वह भी लेने आया है। और लेने क्या आया है? उत्तर होगा- रस अर्थात् आनंद। आषाढ़ सिखाता है आनंद लो और आनंद हजार गुना कर वापस लौटाओ।
प्रेम पाना क्यों चाहता है हर इंसान ?
प्रेम कैसे पैदा हो जाए............प्रेम, प्यार, स्नेह, मोहब्बत, लगाव, जुड़ाव, ममता और भी न जाने कितने ही नामों से जाना जाता है इस कोमल मानवीय भाव को। लोगों ने प्रेम के जितने नाम रखें हैं, दुनिया में उतनी ही भ्रांतियां और धोके बढ़े हैं प्रेम को लेकर। जैसा कि तथा कथित प्रेम गुरुओं द्वारा कहा और बताया जाता है कि प्रेम पाना बड़ा कठिन है और इसे पाने के लिये आग का दरिया पार करना पड़ता है। ये बातें पहले से ही उलझे हुए इंसान को और भी अधिक उलझा देती हैं। जिसने वास्तव में प्रेम को जीया है, वह जानता है कि जिसे वह बाहर खोज रहा था वह तो उसी के भीतर मौजूद था।
हर इंसान प्रेम चाहता है, इसका कारण क्या है? इंसान भीतर से दु:खी हो तभी वह प्रेम की मांग करता है। इसके विपरीत यदि इंसान के अंदर हो तो वह बिना किसी स्वार्थ के ही हर किसी से प्रेम ही करेगा। वास्तव में प्रेम जो है अंदर के आनंद का ही प्रकाश है। तो जो आदमी भीतर आनंद से भरेगा उसके जीवन के चारों तरफ प्रेम विकीर्ण हो जाएगा। जो भी उसके पास आएगा उसे प्रेम के शीतल स्पर्श का अहसास अवश्य होगा। उस आनंद के लिए यदि यह कहा जाए कि प्रेम आनंद का प्रकाश है, तो आनंद आत्मबोध का अनुभव है, उसके पूर्व नहीं है। दुख है कि हम अपने को नहीं जानते, अपने को नहीं जानते इसलिए प्रेम मांगते हैं। अगर हम अपने को जानेंगे, आनंद होगा; आनंद होगा तो प्रेम हमसे चारों तरफ फैलेगा होगा।
धन-संपत्ति, यश-वैभव या लम्बी उम्र क्या चाहिये?
जैसा बीज वैसा फल........, जैसा दान वैसा लाभ ....... इस तरह की लोक कहावतें हम सभी सुनते आ रहे हैं। कोई घटना या प्रसंग कहावत के रूप में तभी प्रसिद्ध होता है, जब उसे हजारों लाखों लोग आजमा लेते हैं। वैसे तो दान को धर्म का अंग यानि कि हिस्सा माना ही जाता है। किन्तु क्या और कितना दान देने से प्रतिक्रिया के रूप में लौटकर देने वाले को क्या लाभ होता है, यह बहुत महत्वपूर्ण बात है। शास्त्र और जानकारों का मानना है कि दान देने से कई लाभ होते हैं। कहते हैं जैसा दान होता है वैसा ही लाभ होता है। जानें, किस वस्तु के दान से क्या लाभ होता है-
वस्तु - लाभ
जल- तृप्ति
अन्न- अक्षय सुख
तिल- अभीष्ट संतान इच्छानुसार
भूमि- पदार्थ
स्वर्ण- लंबी उम्र
चांदी- अच्छा रूप
गृह- उत्तम भवन
वस्त्र- चंद्रलोक
अश्व- अश्विनीकुमार का लोक
बैल- विपुल संपत्ति
गाय- सूर्यलोक
यान या शय्या- पत्नी
धान्य- अनंत सुख
वेदाध्यापन- ब्रह्म का सान्निध्य
ज्ञानोपदेश- स्वर्गलोक
गाय को घास- पापों से मुक्ति
काष्ठ- तेजस्विता
औषधि- सुख
भोजन- दीर्घायु
दीपदान- अच्छे नेत्र
अभयदान- ऐश्वर्य
बारिश में रखें ये सावधानियां........
बारिश में विज्ञान व धर्म सचेत करते हैं हमें......आषाढ़ में गर्मी और बारिश का मिला-जुला-सा प्रभाव वातावरण में दिखाई देता है। इसलिए इस माह में स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रहने की आवश्यकता है। इस माह में ज्यादा लवणयुक्त, अम्लीय पदार्थ का सेवन नहीं करें। तिल-तेल, बैंगन, सरसों, राई का भी सेवन न करें। भाप युक्त हवा चलने से हमारी पाचन प्रणाली पर प्रभाव पड़ता है। कफ जमने की शिकायत बढ़ती है। वायु, पित्त और कफ तीनों प्रकार के दोषों के कारण कई तरह के रोग होने की आशंका रहती है। इस दौरान उबालकर ठंडा किया पानी पीना स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है।
संधिकाल में जाने वाली ऋतु के अनुकूल आहार-विहार को कम करते जाना चाहिए और आने वाली ऋतु के आहार-विहार का अभ्यास शुरू कर देना चाहिए। इससे अचानक खान-पान आदि में आए परिवर्तन का दुष्प्रभाव नहीं होता। यदि हम अचानक अपना खान-पान बदल लें तो शरीर और स्वास्थ्य पर इसका बुरा प्रभाव होता है। इसलिए सभी आवश्यक छह रसों का सेवन हमेशा आहार में बनाए रखें किंतु ऋतु के अनुकूल रसों का सेवन अधिक करना उत्तम रहता है।
एक लफ्ज प्रेम का .............
धर्म हमें प्रेम, इंसानियत, समानता और भाईचारे का संदेश देता है। ईश्वर एक है और विभिन्न धर्म-पंथ उस तक पहुंचने के रास्ते हैं। एक भक्त के लिये उसका धर्म, अध्यात्म, ज्ञान सब कुछ प्रेम ही है। भक्त जानता है कि यह प्रेम सरल नहीं है, यह न तो खेत में पैदा हो सकता है और न ही हाट में मिलता है। प्रेम पाने के लिए इंसान को सबसे पहले अपने अहंकार को समाप्त करना ही कसौटी है।
जहां अहंकार खत्म होता है, वहीं से प्रेम शुरू होता है। आज की विषम परिस्थितियां केवल अहंकार के कारण ही खड़ी हैं। धर्म कोई भी क्यों न हो किन्तु एक सच्चा भक्त यही कहेगा कि- अहंकार छोड़ो और प्रेम से गले लग जाओ। धर्म के नाम पर एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश करने वालों को प्रेम के मार्ग का पथिक यही कहेगा कि राम और रहीम एक ही हैं। जब हमें यह ज्ञान हो जाए कि इस संसार में एक ही ईश्वर सर्वव्याप्त है तो झगड़ा ही मिट जाएगा।
जब हम सबमें ईश्वर को ही देखेंगे तो फिर अहम् की भावना मिट जाएगी। एक भक्क्त इसी भावना को इस तरह व्यक्त करते हैं- जब मैं था तब हरि नहिं, अब हरि है मैं नहिं। कहने का मतलब यह कि जब 'मैं' का भाव था तब तक हृदय में ईश्वर की अनुभूति नहीं हुई, जब हृदय में ईश्वर की अनुभूति हुई तो 'मैं' का भाव समाप्त हो गया। अब तो हर तरफ केवल ईश्वर ही दिखाई देता है।
अहिंसा ऐसे बनाती है मजबूत और समर्थ
धर्म के पालन में अहिंसा का स्थान उतना ही अहम माना गया है, जितना सत्य का। सामान्यत: अहिंसा का मतलब शरीर को हानि पहुंचाने के अर्थ में लिया जाता है। जबकि धर्म के नजरिए से अहिंसा शरीर की ही नहीं बल्कि मन और बोल से भी होती है। हर धर्म किसी भी तरह की हिंसा को नकारता है।
व्यावहारिक जीवन की बात करें, खासतौर पर आज का युवा जहां सफल भी है, तो कुछ सफलता के लिए ऐसे रास्ते अपनाते हैं, जो उनके जीवन के लिए ही बाधा बन जाते हैं। उनमें से ही एक है हिंसा। आज के युवा में हिंसा का भाव तब देखा जाता है जब बहुत कुछ जल्द पाने की लालसा में वह असफल हो जाए और दूसरा संयम की कमी। इससे बचने का ही सटीक उपाय धर्म में अहिंसा का बताया गया है। अहिंसा जीवन में उन्नति के लिए किस रुप में लाभ देती है, जानते हैं -
- अहिंसा की बात करने वाला प्राय: डरपोक या भीरु मान लिया जाता है। वास्तव में अहिंसा आपको निर्भय करती है। क्योंकि वह बदले का भाव पैदा ही नहीं होने देती।
- अहिंसा का भाव आपको मानसिक विकारों से दूर करता है। आप अपने लक्ष्य के प्रति स्थिर मन और एकाग्र होते हैं।
- अहिंसा सामाजिक स्तर पर प्रेम और विश्वास बढ़ाती है और आपका सम्मान भी।
- अहिंसा का भाव परिवार में कलह को दूर करता है। मेलजोल और भरोसा बनाए रखता है।
- अहिंसा आपको बैचेनी और व्यर्थ की उलझनों से बचाती है।
व्यावहारिक जीवन के नजरिए से यह असंभव लगता है कि मन, वचन या कर्म की हिंसा से पूरी तरह से बचा जा सकता है। लेकिन अहिंसा से सफलता तक का सफर देवीय रुप में महावीर स्वामी से लेकर मानव रुप में महात्मा गांधी सहित अन्य महापुरुषों ने भी पूरा किया।
सच ही बनाता है सफल
जीवन में सफलता के लिए अनेक बातें महत्व रखती है। किंतु धर्म के नजरिए से सफल जीवन के लिए सत्य यानि सच बहुत अहम है। हमारे धर्मग्रंथ और इतिहास भी बताते हैं कि अलग-अलग देव अवतारों और महापुरुषों ने सत्य की राह पर चलकर समाज को दु:ख और कष्टों से मुक्त जीवन जीना सिखाया।
धर्म का यह अहम सूत्र ऐसा लगता है कि आज के जमाने में पद, प्रतिष्ठा और सफलता पाने की चाहत में तेज रफ्तार से भागती दुनिया में कहीं खोने लगा है।
आज सफलता का सूत्र सच से ज्यादा स्मार्ट होने के नाम पर चालाकी और झूठ बनता जा रहा है। इन तरीकों से व्यक्ति को कुछ सफलता जरुर मिल जाती है। लेकिन यह सफलता ठोस और स्थायी नहीं होती और अंतत: किसी न किसी रुप में बुरे परिणाम दे सकती है।
जबकि सत्य या सच आपको सही मायनों में सफल बनाता है। क्योंकि बोल, व्यवहार और विचार से सच्चा व्यक्ति हमेशा सरल, शांत और आत्मविश्वास से भरा होता है।
सच का यह असर ही परिवार, समाज और कार्यक्षेत्र में आपको भरोसेमंद बनाता है। ऐसा व्यक्तित्व होने पर ही लोग आपसे जुड़ते हैं। आपका मान-सम्मान और कद बढ़ता है।
ऐसा भी हो सकता है कि ताउम्र एक झूठ आपके किसी दोष को छुपा ले। लेकिन आपके जाने के बाद भी वही झूठ सामने आने पर आपके साथ आपके परिवार, समाज या देश को दाग लगा सकता है।
चूंकि हर इंसान के मन में यह भाव जरुर होता है कि वह कुछ ऐसा कर जाए कि परिवार, समाज और देश के लिए उसका जीवन यादगार बन जाए। इसलिए सच ही ऐसा उपाय है जिससे आप मरकर भी अमर बन सकते हैं।
भीतरी शांति के लिए जरूरी है सत्य
सच का दायरा बोल तक खत्म नहीं होता, बल्कि उसका महत्व तभी है, जब बोल को कर्म में उतार दिया जाए। अगर हम झूठ के सहारे चलते हैं तो कभी भी भीतर से शांत नहीं रह सकते। शांति के लिए सत्य जरूरी है।
हम परिवार, दोस्तों और सहकर्मियों के साथ होने पर कई बार यह सुनते और कहते हैं कि कथनी और करनी में अंतर नहीं होना चाहिए। इस बात का व्यावहारिक पक्ष देखने पर यह पाते हैं कि अक्सर यह बात हर व्यक्ति दूसरे के लिए जरुर करता है, किंतु स्वयं का अवसर आने पर वह ऐसा करने में चूक जाता है। वास्तव में इस बात में भी सत्य यानि सच का महत्व साफ दिखाई देता है।
सरल शब्दों में आप जब आप अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक या सामाजिक कार्यों के लक्ष्यों को बनाते समय जो बातें करें, तो उन बातों को सच्ची लगन और ईमानदारी से पूरा करने की हरसंभव कोशिश करें। ऐसी सच्चाई से मिली सफलता आपको लोगों का विश्वासपात्र बना देगी।सार यह है कि असफलता से विचलित होकर मान-सम्मान की चाहत में दिखावटी या बनावटी बातें की जा सकती है। लेकिन उससे आप सफल नहीं हो सकते। आप खुद से भाग नहीं सकते। बल्कि स्वयं के प्रति सच्चे और ईमानदार बनने पर ही आप सुख, सफलता और भरोसा पा सकते हैं।बात साफ है कि जब-जब आप सच के साथ चलेंगे तब सच भी जीवन में सुख, सफलता और शांति लाकर आपका साथ निभाएगा।
क्या आप भी है ऐसे दानवीर?
हिन्दू धर्मग्रंथों और पुराण कथाओं में राजा बलि, कर्ण जैसे दानवीरों के बारे में लिखा गया है। इनके द्वारा दान का जीवन में महत्व भी स्थापित किया गया है। साथ ही दान से त्याग, मोह, स्वार्थ की भावना को छोडऩे का संदेश दिया गया। किंतु युग के बदलाव के साथ दान का मूल भाव कहीं खोने लगा और वह धार्मिक परंपराओं का अंग माने जाने लगा।
धार्मिक दृष्टि से दान के अर्थ की गहराई में न जाएं तो दान के पीछे देने या छोडऩे का भाव मुख्य है। इसलिए यहां हम आधुनिक समय में दान में छुपे इसी भाव को व्यावहारिक जीवन की कसौटी पर परखते हैं और पाते हैं कि हम भी कितने दानी है -
- माता-पिता ने सफल इंसान बनाने के लिए अनेक कठिनाईयों के बाद भी हर संभव सुख-सुविधा जुटाई। आज सफल बनने पर पर क्या आप उनकी भावनाओं को सहेजकर व उम्मीदों पर खरे उतरते हुए उनको सुख दे रहे हैं।
- परिवार में माता-पिता के अलावा बचपन से लेकर किसी जिम्मेदार पद पर पहुंचने तक अपने लक्ष्य पाने की तैयारी में आपको छोटे भाई-बहनों का स्नेह, उत्साह और बड़ों से मार्गदर्शन मिला होगा। क्या माता-पिता की तरह अब आप भी उन भाई-बहनों का भविष्य संवारने के लिए जरुरी सहयोग और समय देते हैं।
- आपकी सफलता के लिए आपके स्कूल, कॉलेज, कॉलोनी, मोहल्ले में रहने वाले अनेक मित्रों ने भी तन, मन, धन से आपकी जरुरतों को पूरा किया होगा। समर्थ होने पर क्या अब आप भी उनकी जरुरतों और मुश्किल समय में साथ देते हैं।
- हो सकता है कुछ महत्वपूर्ण पद या जिम्मेदारियों के रहते आप प्रत्यक्ष रुप से अपने समाज के विकास में भागीदारी न कर पाएं। किंतु क्या आप अप्रत्यक्ष रुप से किसी के माध्यम से योगदान दे रहे हैं। किसी भी परिवार को आगे बढ़ाने में समाज की भूमिका अहम होती है।
- आपका जीवनसाथी असफलता में हर पल आपके साथ रहता है। सफल होने पर क्या आप मन, विचार और वाणी से उसकी भावनाओं का ख्याल कर उतना ही सुख दे रहे हैं, जितना कष्ट आपके साथ उसने विपरीत समय में उठाया।
इस व्यावहारिक कसौटी पर आप खरे उतरते हैं, तो यह तय है कि आप जीवन में सुख और शांति के रुप में शुभ फल की मिठास सीधे ही अनुभव करेंगे। ठीक वैसे ही जैसे धार्मिक दृष्टि से दान के शुभ फल अदृश्य रुप में मिलते हैं। तभी आप सही मायनों में दानवीर बनेंगे।
ऐसा मनोबल ही तय करता है जीत
जब अपने ही बुरे गुण या समाज को दुर्जन लोग पीड़ा पहुँचाने लगे, तब भी हम सद्गुणों की उपेक्षा करें या सज्जन लोग दुर्जनों के बुरे कर्मों की अनदेखी करें, तब इसके बुरे परिणाम व्यक्ति और व्यवस्था को ही भोगना ही पड़ते हैं। व्यक्ति का मनोबल और अच्छाईयों के एकजुट होने पर ही इस हालात से बाहर आ सकते हैं। देवी कथा में छुपे रहस्य इसी बात की ओर इशारा करते हैं -
जब देवताओं को हराकर महिषासुर ने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया। तब उसका अंत करने के लिए भगवान शंकर, भगवान विष्णु और देवताओं के सामुहिक तेज और शक्ति से नारी रुप देवी प्रगट हुई। इसी देवी के हाथों महिषासुर मारा गया। ऐसे ही देवी रुप के हाथों शुम्भ-निशुम्भ मारे गए।
इस तरह कथा निचोड़ यही है कि बुरे गुणों को छोडऩे के लिए मन पक्का करें, मनोबल जगाएं और दुष्कर्मों का एक होकर सामना करें, विरोध करें तो व्यक्ति, समाज और शासन में फैली सभी बुरी आदतों, व्यवस्थाओं और बुरे लोगों को मधु-कैटभ, महिषासुर या शुम्भ-निशुम्भ की तरह मारना संभव है। क्योंकि एकाग्रता और एकता ही शक्ति ही। चाहे वह व्यक्तिगत् स्तर पर मन के संयम के रुप में पैदा हो या सामाजिक स्तर कुव्यवस्थाओं के विरोध के रुप में। सार है मनोबल और भरोसा ही जीत तय करता है।
अहं पैदा करते हैं ऐसी यादें और अतीत
संसार की रचना से लेकर आज तक यह बात हर कोई जानता है कि अहं या घमण्ड अंतत: दु:ख का कारण बनता है। फिर भी देव, दानव और मानव तीनों ही इस बुराई से अलग न रह पाए। हालांकि इससे बचना असंभव नहीं है। लेकिन ऐसा क्यों होता है कि नासमझ ही नहीं विद्वान भी घमण्ड, दंभ, शेखी, हेकड़ी, नकचढ़ापन जैसे अलग-अलग रुप में अहंकार बता ही देते हैं। यहां जानते हैं कि अहं से जुड़े धार्मिक और व्यावहारिक पहलू, जिससे अहं की जड़े स्वभाव से लेकर व्यवहार तक फैल जाती है -
धर्म के नजरिए से पांच तत्वों से बनी इस देह में मन और बुद्धि के साथ अहंकार की प्रवृत्ति भी अपने आप ही बनती है। सरल शब्दों में अहंकार का मतलब किसी भी काम को या कर्तव्य को पूरा करते यह भाव आ जाना कि सिर्फ मैं ही इस कार्य को करने में समर्थ हूं।व्यावहारिक जीवन में अहं पैदा होने के पीछे बीता समय और यादें किसी भी व्यक्ति की सोच पर सबसे ज्यादा असर करती है। बीते समय के दु:खद अनुभवों और यादों को सोचकर हम जीवन व्यतीत करते हैं, यह जानते हुए भी कि समय और उसकी गति का नियंत्रण हमारे हाथ में नहीं है, पीछे जाकर हम कुछ भी कर नहीं सकते। इस सोच में बहुत समय गंवा देते हैं। इन बातों में स्वयं को जकड़ लेते हैं।इसी तरह मानव स्वभाव का दूसरा पहलू है कि कोई सफलता पाने पर लंबे समय तक उसी की बातों और यादों में खोया रहता है। यह मानसिक बोझ ही है। इसी तरह सपनों की दुनिया में रहना वर्तमान जीवन की गति में बाधा पैदा करता है। जबकि आज ही सच होता है, जिसमें जीना हर व्यक्ति को तनावरहित कर सकता है। किन्तु बीती यादों की पीड़ा और जो कुछ हुआ नहीं, उस बारे में सोचकर, कुछ हद तक माहौल भी व्यक्ति को इन बातों से अलग नहीं होने देते और ऐसी मनोदशा और हालात अंहकार की जमीन तैयार करती है।
उदाहरण के लिए अगर बीते समय में उपेक्षित व्यक्ति आज धन से सबल हो जाए। तब बीती यादों को सामने रखकर वह सामाजिक रुतबे और शासन में हस्तक्षेप के बल पर उन लोगों से विपरीत व्यवहार कर सकता है, जिनसे वह उपेक्षित हुआ। यहां बदला नहीं बल्कि अहं भाव ही होता है। इस तरह यादें और अहं व्यक्ति के भावों और स्वभाव को बनाने में अहम भूमिका होती है।
रावण का ऐसा साया करता है राम से दूर
हर विजयादशमी पर हम जितना भगवान राम का स्मरण करते हैं, उतनी ही दफा रावण भी याद आ ही जाता है। हिन्दू धर्म के पुराणों में देव अवतारों द्वारा अंत किए गए सभी दुराचारी पात्रों में रावण धर्मावलंबियों के बीच भी सबसे अधिक लोकप्रिय रहा है।
रावण की अद्भुत गुण, ताकत और युद्ध कौशल का अंदाजा इसी से लग जाता है कि युद्ध में अंतत: श्रीराम भी गुप्त भेद जानने के बाद ही उसका अंत कर पाए। इस तरह व्यावहारिक दृष्टि से विचार किया जाए तो रावण की क्षमता भगवान राम से कमतर नहीं थी। फिर ऐसा क्या था कि वनवासी राम से पराजित होकर लंकापति रावण मृत्यु को प्राप्त हुआ। इस पर विचार करने से अनेक कारण सामने आ सकते हैं। किंतु हम बड़े और अहम कारणों को ढूंढे, जिनसे रावण का पतन हो गया, तो वह है घमण्ड और मर्यादाहीन आचरण, जिससे श्रीराम अछूते रहे।
व्यावहारिक जीवन में भी अगर कोई काबिल व्यक्ति भी इन दुर्गुणों से ग्रस्त हो तो उसकी दुर्गति टालना संभव नहीं है। इसलिए विजयादशमी के पर्व में इन दो बुराईयों को जीवन से दूर रखने के व्यावहारिक उपाय जानते हैं - - सबसे आसान उपाय है कि हमेशा खुद को ऊपर रखकर बातें करना बंद करें। न ही किसी ओर से अपनी झूठी तारीफ सुनें। इसके स्थान पर अपनी अच्छाई-बुराई के बारें में ईमानदारी से सोचें। - अपनी इच्छाओं को दबाएं नहीं लेकिन काबू में रखें। इससे आपकी मानसिक बल मिलता है, यह आपकों अहं से दूर रखने में मदद करेगा। - धर्म के नजरिए से हर व्यक्ति को अपनी मृत्यु का ध्यान रखना चाहिए। एक दिन मौत आने पर है बल, धन, सौंदर्य, ज्ञान सब कुछ यहीं छूट जाता है। फिर क्यों उसके पहले मेरा-तेरा की भावना रख या दूसरों को कमतर बताकर क्लेश का जीवन जीते रहें। - हमेशा विनम्रता से व्यवहार करने की कोशिश करें। विनम्रता अहं के अंत की सबसे अच्छी औषधी है। जिसने आप पर उपकार किया, उसे न भूलें, न अपमानित करें ।- अपेक्षा न रखें, यह सभी कहते हैं, लेकिन इससे दूर रहना कठिन कार्य है। यह अपेक्षा ही अहं और टकराव का कारण बनती है, इसलिए मन में हमेशा देने का भाव रखें, तो अपेक्षा नहीं सताएगी, न ही अहंकार। - अंत में सबसे बडा सच यही है कि जब तक व्यक्ति स्वयं अहंकार का एहसास नहीं करता, तब तक वह अहंकार से बाहर नहीं आ सकता। - जब आप अहंकार के विसर्जन के इन कुछ उपायों को अपनाएंगे, तब आचरण और व्यवहार में मर्यादा अपने आप स्थान बना लेगी। जिससे आप दिल और दिमाग से अधिक संयमित और अनुशासित बनेगें। ऐसा होने पर ही अहं से मिले दु:खों से दूर होकर आपका जीवन सुख, शांति और आनंद से बीतेगा।
ताकत बन जाती है ऐसी माफ़ी
धर्म का पालन क्षमा का भाव रखे बगैर संभव नहीं होता। धर्म की दृष्टि से क्षमा यानि माफी उतनी ही अहम है जितनी सत्य, प्रेम, अहिंसा, दया, दान, परोपकार।
व्यावहारिक जीवन के नजरिए से क्षमा या माफी को समझें तो माफी का मूल भाव होता है - सहन कर लेना। किसी व्यक्ति या किसी स्थान पर आपके साथ किया गया अपमान या गलत व्यवहार जरुर मन में कड़वाहट पैदा करता है। जिससे आवेश भी आता है, लेकिन उसी पल अगर उसे धीरज रखकर दबा दिया जाए तो यही क्षमा भाव होता है। माफी का यह भाव आपके जीवन में अनेक लाभ पहुंचा सकता है और हानि से बचा सकता है -
- माफी से बदले की भावना खत्म हो जाती है, जो आपके साथ दूसरों को भी किसी बड़ी हानि से बचा सकती है।
- क्षमा का अभाव आवेश पैदा करता है। इससे पैदा हुआ कोई भी अपराध संभवत: परायों के ही नहीं अपनों के मन में भी नफरत पैदा कर सकता है। माफी का भाव इससे बचाता है।
- माफी से प्रेम पैदा होता है। प्रेम, स्नेह से बिगड़े काम भी बन जाते हैं। बल्कि लोगों के मन में आपके प्रति सम्मान भी पैदा करता है।
- आपके साथ गलत और अपमानजनक व्यवहार करने के बाद भी अगर आप किसी व्यक्ति को माफ कर दें तो इसका असर दोषी व्यक्ति के पछतावे का कारण बन सकता है। यानि माफी से बिना किसी अस्त्र, शस्त्र के विरोधी भी पस्त हो सकते हैं।
-किसी व्यक्ति से अपराध हो चुका है तो उससे घृणा करने के बजाय माफी का भाव उसमें सुधार और बदलाव की संभावना बनाता है।
माफी के इन सूत्रों को जीवन में अपनाने का मतलब यह कतई नहीं है कि आप माफी को कमजोरी बना लें। बल्कि इसे अपनी ताकत और मजबूती बनाएं। यह आपके विवेक पर निर्भर करता है यानि सही और गलत का फैसला कर आप अन्याय, अधर्म या गलत व्यवस्थाओं का विरोध करने में भी पीछे न रहें। माफी शब्द की आड़ लेकर इन्हें सहन न करें। वरना ऐसी सोच कमजोरी बनकर आपका आत्मसम्मान और आत्मविश्वास खत्म कर सकती है।
क्यों पैसा सब कुछ नहीं होता?
अनेक मौकों पर यह देखा जाता है कि परिश्रम, मेहनत से दूर और आलस्य से घिरा व्यक्ति पैसों को माया, मोह बताते देखे जाते है। किंतु यह बात कर्महीन बनकर कहना दूसरों से ज्यादा खुद को अधिक धोखा देने के सिवा कुछ नहीं। हालांकि यह बात धर्म की नजर से सही भी है। क्योंकि धर्म दर्शन है जन्म से लेकर मृत्यु तक माया से दूर नहीं रहा जा सकता।
धन को माया कहना किस हद तक सही है, इसके लिए पहले यह जानना जरूरी हैं कि धर्म की नजर से माया क्या है। माया को सरल अर्थ में जानें तो मा का मतलब होता है नहीं और या का अर्थ है जो है यानि माया का मतलब हुआ जो है नहीं। माया का काम ही होता है जो नहीं होता उसको दिखाना और जो होता है उसे छुपाना। जैसे हम भगवान को मानते हैं, किंतु वह साक्षात दिखाई नहीं देते। उसी तरह सभी जानते है संसार नाशवान है, फिर भी वह दिखाई देता है। यही माया है।
माया के इसी रुप को धन में देखें तो व्यावहारिक जीवन में हम कईं बार सुनते हैं कि पैसा बहुत कुछ होता है, किंतु सब कुछ नहीं होता। इस बात में कहीं न कहीं धन में समाया माया का भाव ही है। क्योंकि जिंदगी में ऐसे मौके आते हैं जब व्यक्ति धन की लालसा, स्वार्थ या मोह में रिश्तों, मित्रों, अपनों को अनदेखा कर देता है। किंतु धन के अहं और विवेक की कमी से संकट में फंसने पर सभी याद आते हैं।
यह वक्त ही धन के मायाजाल का अहसास कराता है। जब धन से समर्थ होने पर भी आंखों से दिखाई देने वाली वस्तुएं, सुख-सुविधाएं तो व्यक्ति पा सकता है, किंतु उसी धन से अपनों की संवेदना, भावना, जज्बात को चाहकर भी खुद पा नहीं सकता। यह आंखों से दिखाई नहीं देते, पर गहराई से महसूस जरूर होते हैं।
इस तरह सच यही है कि जिंदगी में कदम-कदम पर धन की माया या यूं कहे धन होना या न होना आपके सोच और व्यवहार में बदलाव लाता है। इसलिए धन को माया कहने या उससे बचने की सार्थकता तभी है जब कर्म व धन के साथ बुद्धि, विवेक और अपनों से भी नजदीकी बनी रहे।
रूप चतुर्दशी : सूरत के साथ सीरत निख़ारने की घड़ी
कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को नरक चतुर्दशी या छोटी दीवाली एवं रूप चतुर्दशी का पर्व मनाया जाता है। पौराणिक मान्यताओं में आज के दिन भगवान कृष्ण ने नरकासुर नामक दैत्य का वध कर जगत को भयमुक्त किया था। इसकी स्मृति में यह पर्व मनाया जाता है।
वैसे इस पर्व परंपरा में इस दिन शरीर की पवित्रता से आचरण, विचार और चरित्र की पावनता के भाव हैं। इसलिए यह रूप चतुर्दशी के नाम से लोकप्रिय है। धार्मिक नजरिए से स्वर्ग ऐसा स्थान है, जो सुखों और आनंद से भरा और दु:खों दूर है। वहीं नरक पीड़ा और कष्ट से भरपूर जगह है। मान्यता है कि कोई व्यक्ति अच्छे-बुरे गुणों के आधार पर स्वर्ग या नरक मिलता है।
व्यावहारिक नजरिए से विचार करें तो जीवन में मिलने वाले सुख-दु:ख से ही मन में स्वर्ग या नरक के विचार बनते हैं। जब भी हमें किसी वस्तु, स्थान या व्यक्ति के साथ सुकून मिलता है, हम उसे स्वर्ग के सुख से जोड़ते हैं। किंतु चिंता, दु:ख और परेशानियों से घिरने पर नारकीय जिंदगी की बात करते हैं।असल में जिंदगी को स्वर्ग या नरक बनाना इंसान के हाथों में है। इसकी शुरुआत होती है शरीर और स्वास्थ्य से।
पर्व यही संदेश देता है कि शरीर की मलीनता और दरिद्रता मन में बुरे विचार लाकर तन और मन दोनों पर बुरा असर डालते हैं। जिससे व्यक्ति का जिंदगी के लक्ष्यों से ध्यान हटता है और तब पतन तय है। जीवन में किसी भी समय असफलता या पतन निराशा, दु:ख, कष्ट और तनाव का कारण बनते हैं। ऐसी हालात ही जीवन में नरक के समान मानी जाती है। ऐसे नरक से छुटकारा तभी मिलेगा जब व्यक्ति शरीर के साथ ही सोच को भी निखारें, ज्ञान, बुद्धि और विवेक का उपयोग करें तो उसे जीवन में सुंदरता के साथ सुखों की प्राप्ति होती है। सरल शब्दों में सूरत के साथ सीरत का निखार भी जरूरी है।
कैसे परिवार बने मोहब्बत का आशियाना?
हर धर्म में प्रेम को ही मानव ही नहीं ईश्वर से भी जुडऩे का श्रेष्ठ उपाय माना गया है। असल में प्रेम भी ईश्वर का ही रूप है। क्योंकि यह भी देने, समर्पण, अर्पण, विनम्रता के भावों भरा होता है, जो ईश्वर की आराधना में भी जरूरी है। धर्म की नजर से ईश्वर का अस्तित्व कण-कण में हैं। वैसे ही प्रेम भी संसार और जिंदगी के लिए अहम है।
व्यावहारिक जिंदगी में भी प्रेम ही परिवार, समाज, कार्यक्षेत्र हर जगह दिलों में मोहब्बत पैदा करता है। इसके बिना संवेदना और भावनाएं खो जाती है, जो विचार, व्यवहार और आचरण में दोष पैदा करती है। चूंकि संस्कारों की पाठशाला परिवार ही होता है। इसलिए हम यहां जानते हैं परिवार में प्रेम के बीज कैसे बोएं, जिससे पनपा प्रेम का वृक्ष अपनी छांव से आने वाली पीढ़ी को भी ठंडक और राहत का एहसास कराए।
- परिवार में प्रेम के लिए जरूरी है अहं का भाव छोडऩा। क्योंकि अहं के होते प्रेम नहीं रहता।
- जीवनसाथी, पत्नी या बच्चों के साथ विश्वास और अपनत्व से भरा व्यवहार हो।
- परिवार के सदस्यों पर अधिकार जताएं किंतु उपेक्षा से भरा ऐसा व्यवहार न करें, जिससे वह आपके सामने डरे-सहमे या बंधे महसूस करें। लंबे समय के लिए यह माहौल परिवार में प्रेम के रस को सूखा देगा।
- जहां किसी भी तरह की जकडऩ होती है, वहां प्रेम नहीं होता। जहां प्रेम न हो वहां धर्म पालन असंभव है। इसलिए जरूरी है कि परिवारिक माहौल में इतना खुलापन हो कि सभी सदस्य अपने विचारों को एक-दूसरे से बांट सके।
- किसी बात पर मतभेद या समस्या हो तो परिवार हित को ऊपर रखकर तुरंत सुलझा लें।
- प्रेम की खासियत है कि उसमें लेने का भाव नहीं होता। इसलिए बच्चों से उम्मीदें पूरी करने के लिए अपनी मर्जी न थोपें। जिससे संतान भी घुटन महसूस नहीं करेगी। उनकी जिंदगी से जुडें फैसलों में उनके साथ बातचीत कर भरोसा पैदा करें। इससे प्रेम और रिश्ता मजबूत होगा।
- बच्चे का मन कोमल होता है, इसलिए परिवार और कुटुंब के सदस्यों का आपसी व्यवहार और बोलचाल का बालमन पर गहरा असर करता है। इसलिए अगर परिवारिक वातावरण स्नेह से भरा होगा तो अगली पीढ़ी में भी ऐसे ही संस्कार झलकेंगे।
- हिन्दू धर्म ग्रंथ महाभारत में प्रसंग है कि अर्जुन का पुत्र अभिमन्यु मां के गर्भ में रहते ही युद्धकला सीख गया। इससे सीख लेकर परिवार का माहौल भी ऐसा बनाएं कि घर के छोटे सदस्य बड़ों की नजर-व्यवहार में प्रेम ही पाएं और सीखें।
ऐसे प्रेम से होता है दाम्पत्य सुखी
धर्म और प्रेम एक-दूसरे के पर्याय हैं। धार्मिक दृष्टि से दोनों ही मोक्ष की राह पर ले जाते हैं। जिसका अर्थ है वह जनम-मरण के बन्धन से मुक्त करने वाले हैं। इस तरह धर्म और प्रेम दोनों ही बंधन से परे होते हैं। दोनों से बाहरी दिखावों द्वारा जुड़ा जा सकता है किंतु उनकी गहराई तक पहुंचना आंतरिक भावनाओं और समर्पण के बिना संभव नहीं।
गृहस्थ जीवन भी ऐसा ही धर्म है जिसका पालन प्रेम और समर्पण के बिना संभव नहीं होता। दाम्पत्य की सफलता के लिए जरूरी बातों में पति-पत्नी के बीच प्रेम होना सबसे अहम होता है। इसके अभाव में बाकी सभी सुख-सुविधा अर्थहीन हो जाती हैं। हर धर्म की वैवाहिक रस्में बिना शर्त प्रेम को दाम्पत्य जीवन में उतारने का संकल्प ही होती है। व्यावहारिक जीवन के नजरिए से भी जानते हैं कि दाम्पत्य में प्रेम बनाए रखने के लिए कौनसी बातें जरूरी है -
- आज दौड़भाग भरी जिंदगी में कामकाजी पति-पत्नी के लिए सबसे अहम समस्या है एक-दूसरे के लिए समय की कमी। इसलिए जब भी काम से फुर्सत मिले जीवनसाथी और परिवार के साथ समय बिताने का मौका न खोएं। इससे दाम्पत्य में प्रेम की जड़े गहरी होंगी।
- दोनों या किसी एक के आत्मनिर्भर या आर्थिक रूप से मजबूत होने पर कई बार विवाद और कटुता का कारण अहंकार बन जाता है। इसलिए पहले मैं की भावना को छोड़कर यथासंभव पैसों के ऊपर परिवार को अहमियत दें। इससे एक-दूसरे के लिए गहरा प्रेम और भरोसा पैदा होगा। क्योंकि पैसा फिर भी कमाया जा सकता है, किंतु परिवार की कमी आपको अंदर से तोड़ कर प्रेम के भाव से दूर ले जा सकती है।
- एक-दूसरे पर अटूट विश्वास और भावना रखें। यह दो बातें रिश्तों को प्रेम के बंधन में मजबूती से बांधे रखेगी। इसके बाद एक-दूसरे पर अधिकार और बंधन जताने की बातों से पैदा हुए कलह और बेचैनी से भी बचा जा सकेगा।
- शंका या संदेह प्रेम का अंत कर दाम्पत्य के बिखराव का कारण बन सकता है। इसका बचाव और उपचार विश्वास और प्रेम से ही संभव है।
- हर व्यक्ति में गुण-दोष होते हैं। इसलिए दाम्पत्य में भी एक-दूसरे के दोष और गुणों को स्वीकारें। मात्र दोषों सामने रख बहस और विवाद आपसी प्रेम को घटाता है।
- एक-दूसरे की किसी भी तरह से प्रशंसा का अवसर न चूकें। जन्मदिन, वैवाहिक सालगिरह या किसी शुभ अवसरों की तारीखों पर एक-दूसरे से संवाद, संपर्क करने के साथ समय भी निकालें। उपहार दें।
- दाम्पत्य जीवन में धर्म को भी स्थान दें। धार्मिक यात्राओं और क्रियाओं को पूरी आस्था और श्रद्धा से साथ-साथ करें।
आधुनिक समय में इन छोटी-छोटी बातों से जिंदगी में प्रेम के साथ सुख और सुकून भी सदा बना रहेगा।
ऐसे बेगानों को बनाएं अपना
हर व्यक्ति की जिंदगी इच्छा, अपेक्षा और उम्मीदों के साये में गुजरती है। खासतौर पर विचार, व्यवहार और कर्मों में अपेक्षाएं हावी रहती है। यहां तक कि जिंदगी के सुख और दु:ख भी अपेक्षाओं के पूरे होने या न होने पर निर्भर हो जाते हैं। किंतु जरूरत से ज्यादा अपेक्षाएं रखने व उनके पूरा न होने की स्थिति में अनेक मौकों पर उसकी पीड़ा जीवन को इतना बाधित कर देती है कि व्यक्ति जिंदगी के प्रति अनासक्त भी हो जाता है। जिसके परिणाम बुरे भी आ सकते हैं।
स्वार्थ और उम्मीदों के पूरे न होने से बनी बुरी मनोदशा और पैदा हुए विकारों से दूर ले जाकर मानवीय जिंदगी को सही दिशा देने के लिए धर्म में दान का महत्व बताया गया है। सरल भाषा में दान का मतलब सीधा है- देना। धर्म के नजरिए से वास्तव में दान किसी किसी को कुछ दे देना ही नहीं है, बल्कि दान में यह भावना भी जरूरी है कि देने के बदले कुछ लेने की सोच न हो।
यही कारण है कि हर धर्म की धार्मिक रस्मों में भी दान अहम हिस्सा है। जैसे मुस्लिम धर्म में जकात या हिन्दू धर्म के व्रत-त्यौहारों पर दान की परंपरा आदि। अध्यात्मिक नजरिए से भी दान व्यक्ति को खुद से अंदर और बाहरी दोनों तरह से जोड़ता है। जानते हैं दान का व्यक्ति और समाज पर किस तरह सकारात्मक असर होता है -
- दान स्वार्थ, ईर्ष्या जैसे विकारों के साथ इनसे जुड़े दोषों का अंत करता है।
- दान मन से संचय के भाव और उससे पैदा हुई गैर जरूरी चिंता और बैचेनी को दूर करता है।
- दान विषयों और वस्तुओं के व्यर्थ मोह से दूर ले जाकर मानसिक सुकून देता है।
- दान इंसानों के बीच भावना और संवेदनाओं को जगाता और बनाए रखता है।
- दान स्वभाव और व्यवहार से संकुचित विचारों और कुण्ठा को दूर करता है।
- दान व्यावहारिक, सामाजिक स्तर पर ऊंच-नीच, भेदभाव को दूर रखता है। यह सही मायनों में मानव को धर्म से जोड़ता है।
सुख के लिए अपनाएं ये पांच तरीके
हर धर्म में संयम को सुखी जिंदगी के लिए बहुत जरूरी बताया गया है। खासतौर पर अक्सर धर्म उपदेशों और प्रवचनों में इन्द्रिय सुखों और संयम के बारे में सुना या पढ़ा जाता है। संयम का सीधा मतलब मन को काबू करने से होता है। मन का संबंध इंद्रियों से होता है। इसलिए जैसी मनोदशा होती है बाहरी तौर पर इंद्रियों पर भी वैसा ही प्रभाव दिखाई देता है।
साधारण इंसान के लिए जरूरी है कि बाहरी तौर पर हम इंद्रियों की क्रियाओं पर नियंत्रण रखें। इसलिए यहां जानते हैं इंद्रियों के नाम और उनको वश में रखने के तरीके -
मानव शरीर में पांच ज्ञानेन्द्रियां होती हैं। यह हैं - आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा। इनसे ही कोई व्यक्ति सौंदर्य, रस, गंध, स्पर्श, स्वाद महसूस करता है। इन इन्द्रियों पर व्यक्ति का जीवन, चरित्र और व्यक्तित्व का विकास निर्भर होता है। इसलिए यह भी सीखना जरूरी है कि इनको बुरे प्रभाव से कैसे बचाएं।
आंख - इनका उपयोग सुंदर ओर मनोरम दृश्यों को देखने में करें। थकान से बचाएं और उचित आराम दें।
जीभ - इसका उपयोग मात्र स्वाद के लिए ही नहीं बल्कि इससे मधुर वाणी और सच बोलने का भी अभ्यास करें।
कान - बुरी बातों को सुनने से बचें।
नाक - इस पर गंध ही नहीं सांस भी निर्भर है, जो जिंदगी के लिए जरूरी है। इसलिए जहां तक संभव हो साफ वातावरण को महत्व दें। प्राणायम करें। त्वचा - यह मात्र वस्तुओं का नहीं भावनाओं के अहसास का भी माध्यम है। इस पर सौंदर्य भी निर्भर करता है। इसलिए इसकी सुरक्षा और स्वच्छता का खास ध्यान रखें।
इस तरह इन पांच इंद्रियों के संयम पर ही शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक सुख टिके होते हैं। इसलिए लंबी उम्र, कामयाबी और सुखी जिंदगी के लिए थोड़ी देर मन पर काबू करने पर भी ध्यान लगाएं।
क्या होता है तंत्र?
तंत्र, तांत्रिक या टोने-टोटके का नाम सुनते ही हर आदमी के मन में एक डर बैठ जाता है। तंत्र केवल अनिष्ट कार्यों के लिए ही नहीं होता बल्कि यह एक तरह की ऐसी विद्या है जो व्यक्ति के शरीर को अनुशासित बनाती है, शरीर पर खुद का नियंत्रण बढ़ाती है। मोटे तौर पर देखा जाए तो तंत्र की परिभाषा बहुत सीधी और सरल है। सामान्य शब्दों में कहें तो तंत्र शब्द का अर्थ तन यानी शरीर से जुड़ा है। ऐसी सिद्धियां जिन्हें पाने के लिए पहले तन को साधना पड़े, या ऐसी सिद्धियां जिन्हें शरीर की साधना से पाया जाए, उसे तंत्र कहते हैं।
तंत्र एक तरह से शरीर की साधना है। एक ऐसी साधना प्रणाली जिसमें केंद्र शरीर होता है। तंत्र शास्त्र का प्रारंभ भगवान शिव को माना गया है। शिव और शक्ति ही तंत्र शास्त्र के अधिष्ठाता देवता हैं। शिव और शक्ति की साधना के बिना तंत्र सिद्धि को हासिल नहीं किया जा सकता है। तंत्र शास्त्र के बारे में अज्ञानता ही इसके डर का कारण हैं। दरअसल तंत्र कोई एक प्रणाली नहीं है, तंत्र शास्त्र में भी कई पंथ और शैलियां होती हैं। तंत्र शास्त्र वेदों के समय से हमारे धर्म का अभिन्न अंग रहा है। वेदों में भी इसका उल्लेख है और कुछ ऐसे मंत्र भी हैं जो पारलौकिक शक्तियों से संबंधित हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि तंत्र वैदिक कालीन हैं।
ऐसे थे शिरड़ी के साईं बाबा
धर्म की स्थापना और बुराई पर विजय के लिए समय-समय पर धरती पर अनेक संतो ने जन्म लिया। ऐसे संत विरले ही मिलते हैं जिन्हें हिन्दू, मुसलमान सिख और ईसाई सभी समान भाव से पूजते है। ऐसे ही एक संत हुए शिरड़ी के साईं बाबा जिन्होंनें जात-पात के भेद भाव से ऊपर उठकर लोगों को मानवता का पाठ पढ़ाया। साईं बाबा एक ऐसे संत थे जिन्होंनें कभी भी किसी धर्म की अवहेलना नहीं की बल्कि सभी धर्मों का सम्मान करके मानवता को ही सबसे बड़ा धर्म बताकर जीवन जीने की शिक्षा प्रदान की।
महाराष्ट्र में अहमदनगर जिले के रहता तहसील में एक छोटा सा कस्बा है शिरड़ी जहां साईं बाबा का विशाल मंदिर है। यह वह स्थान है जहां साईं बाबा ने 15 अक्टूबर 1918 में समाधि ली थी। उनके समाधि स्थल पर ही एक विशाल मंदिर बनवाया गया है जिसमें बाबा की चरण पादुकाऐं रखी गई हैं वर्तमान में यहां साईं की मूर्ति भी है। सभी धर्मों के लोग बाबा को गुरु के रूप में पूजते हैं विश्व के हर कोने से लाखों भक्त साईं के दर्शन के लिए यहां आते हैं।
कथा: 18वीं सदी में एक 20 वर्षीय युवा ने महाराष्ट्र के शिरड़ी गांव की एक मस्जिद में शरण ली और वहीं बस गया कोई नहीं जानता था कि वह युवक कहां से आया है। वह भिक्षा मांग कर अपना पेट भरने लगा उसकी छवि एक फकीर के जैसी थी जिसे न कोई लालच था न कोई मोह। धीरे-धीरे लोग उनकी बातों से प्रभावित होने लगे और उन्हें बाबा कह कर पुकारने लगे। लोग उन्हें ईश्वर का अवतार मानने लगे। वो लोगों की पीड़ा दूर करते, गरीबों की मदद करते। साईं बाबा ने जात पात का भेद मिटाकर सबका मालिक एक का संदेश प्रदान किया। तभी से लोगों ने उन्हें गुरु के रूप में पूजना शुरू कर दिया। लोग दूर-दूर से उनके दर्शन करने आने लगे तब से यह स्थान तीर्थ के रूप में माना जाने लगा।
साईं के शिक्षा संदेश:
1- सबका मालिक एक ... साईं बाबा की सबसे बड़ी शिक्षा और सन्देश जाति, धर्म, समुदाय आदि व्यर्थ की बातों में न पड़ कर आपस में प्रेम और सदभावना से रहना है क्यों कि सबका मालिक एक है।
2- श्रद्धा और सबूरी...साईं बाबा ने कहा है कि हमेशा श्रद्धा, विश्वास और सब्र के साथ जीवन गुजारें।
3- मानवता ही सबसे बड़ा धर्म है।
4-गरीबों और लाचारों की मदद करना सबसे बड़ी पूजा है।
5- माता-पिता और बुर्जुगों का सम्मान करना चाहिए।
जीवनपथ की सुगमता के लिए धम्मपद में उतरें
धम्मपद: जीवनपथ की सुगमता के लिए हमसे कहते हैं....
शुभ कर्म करने वाला मनुष्य दोनों जगह प्रसन्न रहता है। यहां भी और परलोक में भी।
बुद्धिमान मनुष्य वही है जो उद्योग (परिश्रम, पुरुषार्थ), निरालस्यता, संयम और (मन पर नियंत्रण) आदि के द्वारा अपने जीवन को पूर्ण सुरक्षित एवं प्रगतिशील बना लेता है।
बुद्धिमान मनुष्य कठिनाई से वश में होने वाले मन को नियंत्रित एवं प्रशिक्षित करता है। नियंत्रित मन अत्यंत ही भला करने वाला तथा सुख देने वाला होता है।
राग, द्वेष और इंद्रिय भोगों में आसक्त मनुष्य को यमराज आहत अवस्था में ही अपने वश में कर लेता है।
यदि अच्छे चरित्र के श्रेष्ठ मनुष्यों का साथ न मिले तो अकेले ही रहना चाहिए। दुराचारी, अहंकारी, मूर्ख एवं व्यसनी मनुष्य का साथ एक क्षण के लिए भी नहीं करना चाहिए।
जो व्यक्ति दोष दिखाने वाले व्यक्ति को अत्यंत प्रिय एवं शुभचिंतक समझता है उसका कल्याण ही होता है।
लाखों व्यक्तियों को जीतने की अपेक्षा, स्वयं को जीतना अधिक कठिन एवं महान है।
व्यर्थ और अनावश्यक शब्दों से युक्त हजारों कथाओं, वाणियों एवं उपदेशों की बजाय वह एक शब्द ही अधिक श्रेष्ठ है जो शांति और सद्ज्ञान प्रदान करें।
मनुष्य अपने कर्मों के फल से कभी भी और कहीं भी बच नहीं सकता है।
जिन्होंने जवानी में ब्रह्मचर्य और धन का संग्रह नहीं किया वे शेष जीवनभर पछताते ही रहते हैं।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK
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