Thursday, October 30, 2025

जय गुरु गीता गोपाल (Jai Guru Geeta Gopal )


गुरुर्देवो गुरुर्धर्मो गुरौ निष्ठा परं तपः | गुरोः परतरं नास्ति त्रिवारं कथयामि ते || ...... भगवान शिवजी कहते हैं - "गुरु ही देव हैं, गुरु ही धर्म हैं, गुरु में निष्ठा ही परम तप है | गुरु से अधिक और कुछ नहीं है यह मैं तीन बार कहता हूँ |" (श्री गुरुगीता श्लोक 152)........... हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम ! कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा !!

गुरु गीता(Guru Gita)
गुरु गीता गुरु गीता एक हिन्दू ग्रंथ है। इसके रचयिता वेद व्यास हैं। वास्तव में यह स्कन्द पुराण का एक भाग है। इसमें कुल ३५२ श्लोक हैं।गुरु गीता में भगवान शिव और पार्वती का संवाद है जिसमें पार्वती भगवान शिव से गुरु और उसकी महत्ता की व्याख्या करने का अनुरोध करती हैं। इसमें भगवान शंकर गुरु क्या है, उसका महत्व, गुरु की पूजा करने की विधि, गुरु गीता को पढने के लाभ आदि का वर्णन करते हैं।

वह सतगुरु कौन हो सकता है उसकी कैसी महिमा है। इसका वर्णन इस गुरुगीता में पूर्णता से हुआ है। शिष्य की योग्यता, उसकी मर्यादा, व्यवहार, अनुशासन आदि को भी पूर्ण रूपेण दर्शाया गया है। ऐसे ही गुरु की शरण में जाने से शिष्य को पूर्णत्व प्राप्त होता है तथा वह स्वयं ब्रह्मरूप हो जाता है। उसके सभी धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य आदि समाप्त हो जाते हैं तथा केवल एकमात्र चैतन्य ही शेष रह जाता है वह गुणातीत व रूपातीत हो जाता है जो उसकी अन्तिम गति है। यही उसका गन्तव्य है जहाँ वह पहुँच जाता है। यही उसका स्वरूप है जिसे वह प्राप्त कर लेता है।

गुरु गीता में ऐसे सभी गुरुओं का कथन है जिनकों 'सूचक गुरु' ,'वाचक गुरु', बोधक गुरु', 'निषिद्ध गुरु', 'विहित गुरु', 'कारणाख्य गुरु', तथा 'परम गुरु' कहा जाता है। इनमें निषिद्ध गुरु का तो सर्वथा त्याग कर देना चाहिए (तत्वमोहन, मारण, वशीकरण आदि तुच्छ मंत्रों को बताने वाले तत्वदर्शी पंडित गुरु को) निषिद्ध गुरु कहते हैं।तथा अन्य गुरुओं में परम गुरु ही श्रेष्ठ हैं वही सतगुरु हैं।

असत्य नहीं, सत्य की ओर चलें (कर्म का अभीष्ट)!
मोह-अन्धकार नहीं, दिव्य-ज्योति की ओर चलें (योग या अध्यात्म का अभीष्ट) !!
मृत्यु नहीं, अमरता की ओर चलें (ज्ञान का अभीष्ट) !!!
जो विश्वास्पात्र न हो, उस पर कभी विश्वास न करें और जो विश्वास्पात्र हो उस पर भी अधिक विश्वास न करें क्योंकि विश्वास से उत्पन्न हुआ भय मनुष्य का मूलोच्छेद कर देता है ।

मनुष्य को दो प्रकार की व्याधियां होती हैं – एक शारीरिक और दूसरी मानसिक । इन दोनों की उत्पत्ति एक दूसरे के आश्रित हैं, एक के बिना दूसरी का होना सम्भव नहीं है ।

जीव एवं आत्मा और परमात्मा और स्वाध्याय, अध्यात्म तथा तत्त्वज्ञान तीनों का तुलनात्मक विवरण इस प्रकार है-
1.जीव प्रत्येक शरीर में रहता है । 1. ईश्वर प्रत्येक जीवधारी शरीर में भी और शरीर के बाहर आकाश में भी रहता है । 1. परमेश्वर अवतार बेला में अवतारी शरीर के सिवाय सदा-सर्वदा परम आकाश रूप परमधाम

गुरु गोरखनाथ
सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथपंथियों की हठयोग साधना आरम्भ हुई। इस पंथ को चलाने वाले मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) तथा गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) माने जाते हैं। इस पंथ के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है। कहा यह भी जाता है कि सिद्धमत और नाथमत एक ही हैं।

गोरक्षनाथ के जन्मकाल पर विद्वानों में मतभेद हैं। राहुल सांकृत्यायन इनका जन्मकाल 845 ई. की 13वीं सदी का मानते हैं। नाथ परम्परा की शुरुआत बहुत प्राचीन रही है, किंतु गोरखनाथ से इस परम्परा को सुव्यवस्थित विस्तार मिला। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ थे। दोनों को चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है।

गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ भी कहा जाता है। इनके नाम पर एक नगर का नाम गोरखपुर है। गोरखनाथ नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं भगवान शिव को माना जाता है। शिव की परम्परा को सही रूप में आगे बढ़ाने वाले गुरु मत्स्येन्द्रनाथ हुए। ऐसा नाथ सम्प्रदाय में माना जाता है।

गोरखनाथ से पहले अनेक सम्प्रदाय थे, जिनका नाथ सम्प्रदाय में विलय हो गया। शैव एवं शाक्तों के अतिरिक्त बौद्ध, जैन तथा वैष्णव योग मार्गी भी उनके सम्प्रदाय में आ मिले थे।

गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणीधान को अधिक महत्व दिया है। इनके माध्यकम से ही उन्होंने हठयोग का उपदेश दिया। गोरखनाथ शरीर और मन के साथ नए-नए प्रयोग करते थे।
जनश्रुति अनुसार उन्होंने कई कठ‍िन (आड़े-त‍िरछे) आसनों का आविष्कार भी किया। उनके अजूबे आसनों को देख लोग अचहम्भित हो जाते थे। आगे चलकर कई कहावतें प्रचलन में आईं। जब भी कोई उल्टे-सीधे कार्य करता है तो कहा जाता है कि 'यह क्या गोरखधंधा लगा रखा है।'

गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है।

सिद्ध योगी : गोरखनाथ के हठयोग की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले सिद्ध योगियों में प्रमुख हैं :- चौरंगीनाथ, गोपीनाथ, चुणकरनाथ, भर्तृहरि, जालन्ध्रीपाव आदि। 13वीं सदी में इन्होंने गोरख वाणी का प्रचार-प्रसार किया था। यह एकेश्वरवाद पर बल देते थे, ब्रह्मवादी थे तथा ईश्वर के साकार रूप के सिवाय शिव के अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं मानते थे।

नाथ सम्प्रदाय गुरु गोरखनाथ से भी पुराना है। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। पूर्व में इस समप्रदाय का विस्तार असम और उसके आसपास के इलाकों में ही ज्यादा रहा, बाद में समूचे प्राचीन भारत में इनके योग मठ स्थापित हुए। आगे चलकर यह सम्प्रदाय भी कई भागों में विभक्त होता चला गया।

आदि शंकराचार्य की दृष्टि में गुरु तत्व
आदि शंकराचार्य सनातन सांस्कृतिक धारा के प्रमाण पुरुषों में गिने जाते हैं। उन्होंने गुरु वन्दना करते हुए लिखा है-

नमोस्तुगुरवेतस्मैगायत्री रूपिणेसदा। यस्यवागमृतंहन्तिविषंसंसार संज्ञकं॥उन गुरु को नमस्कार है, जो सदा गायत्री रूप में स्थित होते हैं, जिनकी अमृत वाणी संसार रूपी विष को नष्ट कर देती है।

यह बडी सारगर्भित वन्दना है, जिसमें गुरुतत्वके प्रति श्रद्धा के साथ ही उसके स्वरूप एवं प्रभाव को भी बडी सुन्दरता के साथ व्यक्त किया गया है। इस श्लोक में चार चरण हैं-गुरु को नमन, गुरु का गायत्री रूप में स्थित होना, गुरु-वाणी अमृत स्वरूप होना, उससे संसार रूपी निन्दा का शमन होना। क्रमश:प्रत्येक चरण के भावों का समीक्षात्मक अध्ययन करें।

गुरु को नमन-गुरु अपने विषय के विशेषज्ञ होते हैं। उनसे अनुदान पाने के लिए श्रद्धा भाव आवश्यक है। गुरु केवल विधि ही नहीं बतलाते, अपनी शक्ति का, अपने प्राणों का एक अंश भी देने में समर्थ होते हैं। जिस प्रकर पानी का प्रवाह ऊपरी सतह से निचली सतह की ओर होता है, उसी प्रकार चेतना-ज्ञान का प्रवाह श्रद्धास्पद व्यक्तित्व की ओर से नमनशीलव्यक्तित्व की ओर होता है। यह सनातन नियम है। व्यक्ति में पात्रता हो, लेकिन वह नमनशीलन हो, अहंकारी हो, तो उसे कल्याणकारी ज्ञान प्राप्त होना और फलित होना असंभव हो जाता है।

यहां नमस्कार केवल शिष्टाचार वाला हो, तो काम नहीं चलेगा। उसे श्रद्धा से प्रेरित होना चाहिए। किंतु समस्या यह आ जाती है कि श्रद्धा हर जगह नहीं झुकती। गुरु में श्रद्धा को आकर्षित करने की शक्ति होनी चाहिए। यदि पाने वाले में श्रद्धा न हो, तो भी बात नहीं बनती और गुरु में श्रद्धास्पद बनने की क्षमता न हो तो भी नमन की स्थिति नहीं बन पाती। शिष्य को नमनशीलश्रद्धालु होना चाहिए, तो गुरु को भी श्रद्धास्पद होना चाहिए। गुरु कैसे होते हैं, यह बात आगे के चरणों में स्पष्ट की गयी है।

गुरु सदा गायत्री रूप हो-भारतीय संस्कृति के अनुसार गुरु तत्व को व्यक्ति रूप में भी पाया जा सकता है और शक्ति रूप में भी। दोनों ही स्थितियों में उसे गायत्री रूप में प्रतिष्ठित होना चाहिए, ऐसा आचार्य शंकर का मत है। गायत्री का अर्थ है, गय-प्राण,त्री-त्रायते,त्रण-उद्धारकरने वाली शक्ति। प्राण तत्व जब ईश्वरीय अनुशासन में बंधकर व्यक्त होता है, तो सृष्टि के विभिन्न घटक बनते हैं। सृष्टि के उद्भव का, उसे प्रकट करने का यह कार्य ईश्वर का- नियन्ता का है। जो प्राण पदार्थ के साथ संयुक्त होकर प्राणी के रूप में स्थापित हो गए, उन्हें प्राण की मुख्यधारा से जोडे रखना ही प्राणों का त्राण करना है।

जीवन की सारी क्रियाएं प्राण से ही संचालित होती हैं। प्राण में विकार आ जाने से जीवन की सभी क्रियाएं, सारा जीवन विकार ग्रस्त हो जाता है। शारीरिक-मानसिक रोग, तनाव, पाप-वृत्तियां सब इसी प्राण के विकारों की ही उपज हैं। प्राण के प्रकटीकरण का कार्य ईश-तत्व का है और उसके त्राण का कार्य गुरु तत्व का है। इसीलिए गुरु को गायत्री रूप में-प्राणों का त्राण करने वाली साम‌र्थ्य के रूप में सदैव प्रतिष्ठित रहना आवश्यक है। भारतीय संस्कृति में ऋषियों ने इसीलिए यह व्यवस्था बनाई है कि यदि व्यक्ति रूप में गुरु की प्राप्ति न हो सके, तो मन्त्र रूप-शक्ति रूप में गायत्री विद्या को गुरु मानकर आत्म-लाभ किया जा सकता है। इसीलिए अनादि काल से गायत्री मंत्र को गुरु मंत्र के रूप में ऋषियों ने प्रतिष्ठित रखा है।

संसार का विष और गुरु वचनों का अमृत- प्राणी संसार में ही रहता है। यह संसार सत् एवं असत्, अमृत तथा मरणशील तत्वों के संयोग से बना है। जीवन की कलाकारिता इसी में है कि संसार में संव्याप्तविष से बचते हुए व अमृत का उपयोग करते हुए आगे बढा जाए। विष के संसर्ग से प्राण पीडित होते हैं और अमृत के संसर्ग से वे आनंदित होते हैं। प्राणों के विषों की ओर आकर्षित होने से रोक कर उसे अमृत की ओर प्रेरित करने की जीवन कला सिखाने का कार्य गुरु का है। यदि प्राण में विष को नकारने की या अमृत की ओर गतिशील होने की क्षमता नहीं रह गयी है, तो उचित उपचार द्वारा दुर्बल प्राणों को पुन:तेजस्वी बनाना भी गुरु अपने परिष्कृत और प्रखर प्राणों के संयोग से करते हैं।

सही दिशा की प्रेरणा का प्राथमिक प्रवाह वाणी से ही प्रकट होता है। गुरु उस अमृत तत्वयुक्तवाणी को प्रगट करता है और शिष्य उसे धारण करता है। वाणी के साथ समाविष्ट अमृत रूप प्राण शिष्य में स्थित होकर उसकी साधना से परिपक्व होता है। वही परिपक्व प्राण उसे अमृतत्व की दिशा में प्रेरित करता है, गति देकर सद्गति का अधिकारी बनाता है। गायत्री महामंत्र में भी यही चार चरण हैं, भूर्भुव:स्व: में व्याप्त उस महाप्राणको गुरु रूप में नमन्, उसके वरणीय देवत्व युक्त भर्गतेज प्राण को सविता सर्वप्रेरकरूप में स्वीकार करना, उस अमृत प्राण प्रवाह को अपने अंत:करण में धारण करना तथा उस महाप्राणद्वारा जीवन को संचालित किया जाना।
आदि शंकाराचार्यद्रष्टा थे, शिव रूप में थे। उन्होंने गुरु तत्त्‍‌व को इस युग में जिस रूप में फलित होने का संकेत किया है, उसे अपनाकर हम सब लौकिक प्रगति तथा आत्मिक सद्गति के अधिकारी बन सकते हैं।

गुरू(Guru)
आज का साधारण व्यक्ति धर्म, जाति और यम-नियमों में इतना अधिक उलझा हुआ है, कि यदि उसके सामने आकर कोई सत-धर्म कि बात कहे, तो वह सुनने को तैयार नहीं है। आज के समय में कितने ही निगुरे (बिना गुरू वाले), गुरू बने बैठे हैं। स्वयं का गुरू ना होते हुऐ भी दूसरों को गुरू धारण करने एवं मंत्र-दीक्षा लेने को कहते हैं। अगर हम ध्यान से देखे तो हिन्दुस्तान के अन्दर कितने ही महा-पुरूष बिना गुरू के उत्पन्न हुऐ है और उन्होनें सत-धर्म का प्रचार-प्रसार किया, लेकिन उनकी तरह नकल कर लेने से तो कोई भी उनके जैसा बन नहीं सकता। इस समय में जो-जो गुरू अपने आपको ब्रह्म-ज्ञानी मानते हैं या बने हुऐ हैं, अगर हम ध्यान से उनका अवलोकन करे तो उनके पास अपना कुछ भी नहीं हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि आज का प्रत्येक संत एक दूसरे की या पवित्र धर्म-ग्रंथो की बातें ही सुनाता है। उनके पास स्वयं का कुछ भी ज्ञान नहीं है। जो संत धर्म-ग्रंथो की चर्चा या उनकी कथा-कहानी कहता या सुनाता है, वह कथा-वाचक तो हो सकता है, ब्रह्म-ज्ञानी कदापि नहीं हो सकता।

समय के अनुसार अनादि काल से ही गुरूओं मे भेद रहें हैं। जब बच्चे का नामकरण या जनेउ संस्कार होता है। ऐसे संस्कार कराने वाले गुरू को दीक्षा- गुरू कहते हैं। उसके उपरान्त जब बालक को मंत्र ज्ञान दिया जाता है, जो कि गायत्री मंत्र से ले कर किसी भी देव विशेष का मंत्र होता है। यह बच्चे को उसका बौद्धिक-ज्ञान एवं आगे जा कर भौतिक सुखों की पूर्ति करता है। ऐसे मंत्र देने वाले गुरू को मंत्र-गुरू कहते हैं। इसके उपरांत जो बालक या साधक, जिसके अंदर विद्या को जानने की इच्छा होती है।

तब ऐसा साधक ज्ञान प्राप्ति हेतु जिस गुरू की खोज करता है। उसे सत्-गुरू कहते हैं। सत्-गुरू ऐसे साधक को देव विशेष का मंत्र न देकर परमात्मा के निज-नाम का उपदेश देता है एवं विद्या या अविद्या को सम्पूर्ण रूप से शिष्य को समझाते है। जब ऐसा साधक विद्या और अविद्या के भेद को सुक्ष्म रूप से जान कर परमात्मा के निज-नाम का जाप करता है, तो ऐसा साधक कैवल्य को प्राप्त होता है।

अनेकों साधुओं के मन में यह प्रश्न उठता है कि मेरे गुरू ने तो मुझे देव विशेष का मंत्र दिया है। इससे मुझे वह परमात्मा मिलेगा या नहीं। स्पष्टतः हम यही कहेगें की किसी भी देव विशेष के मंत्र का जाप आप कितना ही क्यों न करें, उससे आप को उस देव विशेष की शक्तियाँ एवं आप उस की कृपा के कृपा-पात्र तो बन सकते हैं, किन्तु उस परमात्मा को कभी भी प्राप्त नही कर सकते। जिस तरह हनुमान जी की कृपा के लिऐ ‘हनुमान चालिसा’, शिवजी की कृपा के लिए ‘ॐ नमः शिवाय’, देवी की कृपा के लिऐ ‘दुर्गा सप्तशति’ आदि जाप अनिवार्य है। उसी तरह उस परमात्मा को पाने के लिऐ उसके निज-नाम का जाप अनिवार्य है।

इसके बाद अनेकों ही साधको के मन में एक प्रश्न और उठता है, कि गुरू एक ही हो या अनेक, इस को समझने के लिऐ हमें फिर से बीते हुऐ युगों के साथ-साथ इस युग के भी कुछ महापुरूषों के चरित्र को समझना और जानना होगा। सबसे पहले हम बात करेगें भगवान राम की जिन्होंने की वशिष्ठ और विश्वामित्र को अपना गुरू बनाया, इसके साथ ही जब भगवान राम 14 वर्षों के लिऐ वनवास गये, तो वहाँ पर भी अनेकों ॠषि, महर्षियों से ज्ञान प्राप्त किया। स्पष्टतः हम राम के चरित्र को देखें तो हमें पता चलता है, कि भगवान राम दोनों वक्त की संध्या करते थे।

उनके कुल-देवता भगवान सूर्य नारायण थे। उन के इष्ट देव भगवान शिव थे। उन्होंने अपने जीवन काल में हवन और तर्पण किये थे और उन्होंने अनेकों जगह से ज्ञान प्राप्त किया था। इसलिऐ उनके अनेकों गुरू थे। मुख्यतः वशिष्ठ उनके कुल-गुरू थे। यहाँ पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि हमें पूर्णता की प्राप्ति के लिऐ भगवान राम की तरह ही अपने कुल देवता, इष्ट देवता, हवन, तर्पण एवं जहाँ से भी ज्ञान प्राप्त हो, वहीं पर उस व्यक्ति विशेष को अपना गुरू मानना चाहिये। भगवान राम के चरित्र को देखने पर ऐसा महसूस नहीं होता की सिर्फ एक ही गुरू होना चाहिऐ। बल्कि हमें भगवान राम की तरह ही जहाँ से भी जितना भी ज्ञान मिले, उसे प्राप्त करना चाहिऐ। इसी तरह अगर हम भगवान कृष्ण जी की बात करें, तो उनके भी दो गुरू हुऐं है। पहले सांदीपन, जिनसे कि उन्होंने व्यवहारिक शिक्षा प्राप्त की एवं दूसरे गुरू उपमन्यु थे, जिनसे कि उन्होंने ब्रह्म ज्ञान प्राप्त किया। आज राम और कृष्ण को मानने वाले, राम और कृष्ण का नाम तो जपते हैं, लेकिन जिस परमात्मा को स्वयं राम और कृष्ण ने माना उस परमात्मा को मानने को तैयार नहीं है। जिस परमात्मा ने इस सम्पूर्ण सृष्टि एवं राम और कृष्ण को जन्म देने वाले को, जो स्वयं में अजूणी है, उसे मानने को तैयार नहीं।

वेद शास्त्रों में स्पष्टतः उल्लेख है, कि वह परमात्मा कभी जन्म नहीं लेगा, लेकिन हम फिर भी देह धारी को भगवान मान बैठते है। वह परमात्मा कण-कण में है। इसलिए सभी देहधारी उस परमात्मा का अंश तो हैं, लेकिन परमात्मा नहीं है। हमें बूंद और समुंद्र को समझना पड़ेगा, कि बूंद तो बूंद है, और समुंद्र तो समुंद्र है। बूंद और समुंद्र दोनो का गुण धर्म एक है, किन्तु दोनों की शक्तियाँ अलग-अलग है। बूंद समुंद्र में जा कर विलीन हो सकती है, लेकिन बूंद चाहे तो उस परमात्मा रूपी समुद्र को अपने अन्दर आत्मसात नहीं कर सकती। इसलिऐ हमें उस परमात्मा को समझने के लिऐ, उसको जानने के लिऐ, अनेकों ही गुरूओं का सहारा लेना पड़ सकता है। इसलिऐ हमे मिथ्या परपंच मे नहीं पड़ना चाहिऐ, कि गुरू सिर्फ एक ही हो। बल्कि हमें इस मिथ्या परपंच को छोड़ कर ज्ञान की खोज करनी चाहिऐ। जो भी सतपुरुष मिलें उन से ज्ञान को ग्रहण करना चाहिए। अगर हम बात करें महात्मा-बुद्ध की, तो उन्होनें भी अपने जीवन काल में अनेकों महर्षियों से ज्ञान प्राप्त करते हुऐ, अन्त में बौद्धि-वृक्ष के नीचे, बौद्धित्व को प्राप्त हुऐ। इसी प्रकार रामकृष्ण-परमहंस ने भी गुरु की सहायता से काली सिद्धि एवं ज्ञान को प्राप्त किया, किन्तु पूर्ण आत्म-ज्ञान सन्त तोतापुरी जी महाराज के सान्निधय में प्राप्त हुआ।

समय का चक्र स्वयं चलता रहता है। जैसे कि बाबा नानक को बिना गुरू के ही उस परमात्मा की प्राप्ति हुई और बाबा नानक ने मूल-मन्त्र में ही उस परमात्मा के लिऐ ही गुरू-प्रसाद शब्द का उल्लेख किया, कि यह जो ज्ञान मुझे प्राप्त हुआ है उस परमात्मा अर्थात् उस गुरू का प्रसाद ही है। उसी परमात्मा को उन्होंने वाहे-गुरू कहा, कि एक वही गुरू है। अगर हम सभी बाबा नानक की तरह बनने की कोशिश करें, कि जिस प्रकार बिना देहधारी गुरू के उनको ज्ञान प्राप्त हो गया, ऐसा हमें भी प्राप्त हो जाऐ तो ऐसा सम्भव नहीं है।

यह सब उस परमात्मा की ही इच्छा है, कि वह किसी को बिना देहधारी गुरू के, किसी को एक गुरू से ही एवं किसी को अनेकों गुरूओं की कृपा से मिलता है। हमे सिर्फ परमात्मा और ज्ञान के प्रति जिज्ञासु बने रहते हुऐ, खोज करनी चाहिऐ। यह खोज चाहे बिना गुरू के या एक गुरू से हो या अनेकों गुरूओं की मदद लेनी पड़े। हमें सब कुछ विधि पर छोड़ कर ज्ञान की खोज में आगे बढ़ते रहना चाहिऐ। उस परमात्मा की बंदगी में कभी आलस्य को स्थान न दे, अगर तुम्हारा संकल्प दृढ़ है तो किसी ना किसी तरह वह परमात्मा एक दिन अवश्य ही तुम्हारे सामने प्रकट होगा। तुम्हारे मन में जो सोच बनी हुई है, कि मेरा गुरू बड़ा और बाकी गुरू छोटे हैं।

जो व्यक्ति यह भेद बुद्धि रखता है, वह कितनी ही गुरू की सेवा क्यों न कर ले, फिर भी अंत समय में नरक-गामी होगा। बिना सोचे, बिना समझे, बिना जाने किसी को भी छोटा या बड़ा कहने का अधिकार नहीं है। कोई भी गुरू उस परमात्मा को कितना ही क्यों न जान ले फिर भी वह अधूरा है। इसलिऐ संतो ने उस परमात्मा के लिऐ नेति-नेति कहा है। जब इतने पहुँचे हुऐ सन्त ही उस परमात्मा के सम्पूर्ण रहस्यों को नहीं जान पाऐ तो फिर तुम कैसे कह सकते हो, कि तुम्हारा गुरू बड़ा है। आज का संत सिर्फ दसवें-द्वार या सच्च-खण्ड तक की ही बात करता हैं। कुल मिलाकर आज के साधक 14 मण्डलों, या यों कहें कि 14 भुवनों के बारे में ही जानते है, जबकि मण्डल या भुवनों की सँख्या 36 है। सही मायने में अगर सत्य कहा जाये तो 36 मन्डलों का रहस्य जानने वाला ही पूर्ण गुरू है। आज के वक्त में कितने सन्त हैं जो पूर्ण रूप से 36 मन्डलों के नाम या उनके रहस्य को जानते है?

शब्द या मन्त्र भी किसी देवी या देवता के ही होते हैं। बल्कि गुरूओं को चाहिऐ कि वे देवी, देवता के मंत्र ना दे कर उस परमात्मा के निज-नाम का जाप शिष्यों को बतायें। आज कल के गुरू तो बिना सोचे, बिना समझे, बिना जाने कि यह शिष्य किस मंत्र का अधिकारी है, उसे मन्त्र प्रदान कर देते है। मन्त्र-दीक्षा कोई खेल नहीं है, कि जिसे मर्जी, जो मर्जी मन्त्र दे दिया जाये, मान लो एक बच्चे को जो कि कम उम्र का है, उसे कोई भी पुस्तक दे दी जाये और कहा जाऐ कि इसे घर ले जा और पढ़ लेना तो क्या ऐसा बालक उस पुस्तक को अगर घर में ला कर पढ़ सकता हैं, और अगर वह किसी तरह पढ़ भी ले तो क्या उसे कुछ प्राप्त हो सकेगा? कहने का तात्पर्य यह है कि यदि कोई बच्चा स्कूल कि सारी किताबें घर बैठ कर पढ़ ले तो कोई भी स्कूल उसे मान्यता नहीं देगा।

उसी तरह किसी साधक को कोई भी मन्त्र दे दिया जाये और कहा जाये की घर में जा कर इसका आवश्यक्ता अनुसार जाप करना, तो क्या ऐसे साधक को ज्ञान की प्राप्ति सम्भव है? कदापि नहीं। ऐसा साधक उस मन्त्र का कितना भी जाप क्यों न करे, उसे कुछ भी प्राप्ति सम्भव नहीं है। जब तक एक स्कूल की तरह जिसमें कि शिक्षक अपने छात्र को एक-एक विषय समझाता है। उसी तरह जब तक गुरू उपने शिष्य को अविद्या और विद्या के बारे में एक-एक करके नहीं समझायेगा तब तक मन्त्र जाप सफल नहीं होगा। आज के समय फिर से आवश्कता है कि नये आश्रमों की स्थापना हो जहाँ पर की श्रेष्ठ-गुरू एवं श्रेष्ठ-शिष्य ज्ञान का आदान-प्रदान करें एवं एक नये युग की स्थापना करें। आज फिर से आवश्यक्ता है कि गुरू और शिष्य मिल कर पुरूषार्थ करें और जो धर्म के नाम पर आडम्बर कर रहे है ऐसे स्वार्थी लोगों को सत्य का आभास करायें कि मन्त्र, गुरू और शिष्य यह परम्परा इतनी सहज नहीं है। जितना की आज के वक्त मे समझा जाता है।

गुरु प्राप्ति - एक लक्ष्य
मनुष्य अपने आप में अधूरा और अपवित्र है। वह अपने आपको पूर्ण कहता है, मगर पूर्ण है नहीं, क्योंकि उसके जीवन में कोई न कोई अधूरापन रहता ही है, धन है तो प्रतिष्ठा नहीं, प्रतिष्ठा है तो पुत्र नहीं है, पुत्र है तो सौभाग्य नहीं, सौभाग्य है तो रोग रहित जीवन नहीं है। यदि आधुनिक विज्ञान के अनुसार मानव शरीर की चीड-फाड की जाय, तो उसमे से केवल मांस निकलेगा, हड्डिया निकलेगी, रूधिर निकलेगा, मल-मूत्र निकलेगा।

इसके अलावा शरीर के अन्दर कुछ ऐसी चीज नहीं है, जिससे की इस शरीर पर गर्व किया जा सके। हम भोजन करते हैं, वह भी मल बन जाता है। हम चाहे हलवा खायें, चाहे घी खाये, चाहे रोटी खायें, उसको परिवर्तित मल के रूप में ही होना है। सामान्य मानव शरीर में ऐसी क्रिया नहीं होती, जो उसे दिव्य और चेतना युक्त बना सके और ऐसा शरीर अपने आपमें व्यर्थ है, खोकला है, उस देह में उच्चकोटि का ज्ञान, उच्चकोटि की चेतना समाहित नहीं हो सकती।

क्यो नहीं प्राप्त हो सकती? फिर मनुष्य योनि में जन्म लेने का अर्थ ही क्या रहा? जो पुष्प मल में पडा हुआ है, उसको उठा कर भगवान् के चरणों में नहीं चढाया जा सकता। यदि हम शरीर को भगवान् के या गुरु के चरणों में चढायें - हे भगवान्! हे गुरुदेव! यह शरीर आपके चरणों में समर्पित है, तो शरीर तो ख़ुद अपवित्र है, जिसमें मल और मूत्र के अलावा है ही कुछ नहीं। ऐसे गन्दे शरीर को भगवान् के चरणों में कैसे चढ़ा सकते हैं? ऐसे शरीर को अपने गुरु के चरणों में कैसे चढ़ा सकते हैं?

देवताओं का सारभूत अगर किसी में है, तो वह गुरु रूप में है, क्योंकि गुरु प्राणमय कोष में होता है, आत्ममय कोष मैं होता है। वह केवल मानव शरीर धारी नहीं होता। उसमे ज्ञान होता है, चेतना होती है, उसकी कुण्डलिनी जाग्रत होती है, उसका सहस्रार जाग्रत होता है। न उसे अन्न की जरूरत पड़ सकती है, न पानी की जरूरत हो सकती है, न तो उसे मूत्र त्याग की जरूरत होगी, न मल विसर्जन होगा। जब भूख-प्यास ही नहीं लगेगी, तो मल मूत्र विसर्जित करने की जरूरत हे नहीं होगी।

इसलिए उच्चकोटि के साधक न भोजन करते है, न पानी पीते हैं, न मल-मूत्र विसर्जन करते है, जमीन से छः फीट की ऊंचाई पर आसन लगाते हैं और साधना करते हैं। जो इस प्रकार की क्रिया करते हैं, वे सही अर्थों में मनुष्य है। जो इस प्रकार की क्रिया नहीं कर सकते, जो मलयुक्त हैं, जो गन्दगी युक्त हैं, वे मात्र पशु हैं।

इस जगह से उस जगह तक छलांग लगाने की कौन सी क्रिया है? कैसे वहां पहुंचा जा सकता है, जीवन में मनुष्य कैसे बना जा सकता है?

जीवन में वह स्थिति कब आएगी, जब जमीन से छः फूट ऊंचाई पर बैठ करके साधना कर सकेंगे? जमीन का ऐसा कोई सा भाग नहीं है, जहां रूधिर न बहा हो। धरती का प्रत्येक इंच और प्रत्येक कण अपने आप में रूधिर से सना हुआ है, अपवित्र है, उस भूमि में साधना कैसे हो सकती है।

बिना पवित्रता के उच्चकोटि की साधनाएं सम्पन्न नहीं हो सकती, हजारो वर्षों की आयु प्राप्त नहीं की जा सकती, सिद्धाश्रम नहीं पहुंचा जा सकता और जब नहीं पहुंचा जा सकता, तो ऐसा जीवन अपने आप में व्यर्थ है, किसी काम का नहीं हैं, वह सिर्फ श्मशान की यात्रा ही कर सकता है।

ऐसा जीवन तो आपकी पिछली अनेक पीढियां व्यतीत कर चुकी है और अब उनका नामोनिशान भी बचा नहीं है। आपको अपने दादा परदादा के सब नाम तो मालूम है, लेकिन यह नहीं मालूम, की आपके परदादा के पिता कौन थे, उन्होनें क्या कार्य किया और किस प्रकार उन्होनें अपना जीवन बिताया, यदि आप भी ऐसा ही करना चाहते है, तो फिर आपको जीवन में गुरु की कोई जरूरत ही नहीं है।

यह शरीर कितना अपवित्र है, की चार दिन भी बाहर के वातावरण को झेल नहीं सकता। यदि चार दिन स्नान नहीं करें, तो आपके शरीर से बदबू आने लगेगी, कोई आपके पास बैठना भी नहीं चाहेगा, बात भी करना नहीं चाहेगा। जबकि भगवान् श्रीकृष्ण के शरीर से अष्टगंध प्रवाहित होती थी, उच्चकोटि के योगियों से अष्ठगंध प्रवाहित होती है।

तो आप में क्या कमी है, जो अष्टगंध प्रवाहित नहीं होती? आप जब निकले, तो दुनिया वाले मुड कर देखे, की पास में से कौन निकला? यह सुगंध कहां से आई, उसके व्यक्तित्व में क्या है?

और यदि ऐसा व्यक्तित्व नहीं बना, तो जीवन का मूल अर्थ, मूल लक्ष्य नहीं प्राप्त हो सकता, जिसके लिए देवता भी इस पृथ्वी लोक पर जन्म लेने के लिए तरसते हैं। राम के रूप में जन्म लेते है, कृष्ण के रूप में जन्म लेते हैं, इसा मसीह के रूप में जन्म लेते हैं, पैगम्बर मोहम्मद के रूप में जन्म लेते हैं।

इस शरीर को पवित्र बनाने के लिए, यह आवश्यक है कि हम देह तत्व से प्राण तत्व में चले जायें। जब प्राण तत्व में जायेंगे, तो फिर देह तत्व का भान रहेगा ही नहीं।

फिर जीवन के साए क्रियाकलाप तो होंगे, मगर फिर मल-मूत्र की जरूरार नहीं रहेगी, फिर भोजन और प्यास की जरूरत नहीं रहेगी, फिर शून्य सिद्धि आसन लगा सकेंगे, फिर शरीर से सुगंध प्रवाहित हो सकेगी और एहसास हो सकेगा, कि आप कुछ है।

प्राण तत्व में जाकर आप में चेतना उत्पन्न हो सकेगी, अन्दर एक क्रियमाण पैदा हो सकेगा, सारे वेद सारे उपनिषद् कंठस्थ हो पायेंगे।

आप कितनी साधना करेंगे? कितना मंत्र जपेंगे? कब तक जपेंगे? ज्यादा से ज्यादा साठ साल की उम्र तक। सत्तर साल तक, लेकिन आपके जीवन का आधिकांश समय तो व्यतीत हो चुका है, जो बचा है, वह भी सामाजिक दायित्वों के बोझ से दबा हुआ है फिर वह जीवन अद्वितीय कैसे बन सकेगा? और अद्वितीय नहीं बना, तो फिर जीवन का अर्थ भी क्या रहा?

कृष्ण को कृष्ण के रूप में याद नहीं किया, कृष्ण तो जगत गुरु के रूप में याद किया जाता है। उनको गुरु क्यों कहा जाता है? इसलिए, की उन्होनें उन साधनाओं को, उस चेतना को प्राप्त किया, जिसके माध्यम से उनके शरीर से अष्टगंध प्रवाहित हुई, उनका
प्राण तत्व जाग्रत हुआ।

मैं आपको एक द्वितीय साधना दे रहा हूं (गुरु हृदयस्थ स्थापन), हजार साल बाद भी आप इस साधना को अन्यत्र नहीं कर पायेंगे, पुस्तकों से आपको प्राप्त नहीं हो पायेगा, गंगा किनारे बैठ करके भी नहीं हो पायेगा, रोज-रोज गंगा में स्नान करने से भी नहीं प्राप्त हो पायेगा। यदि गंगा में स्नान करने से ही कोई उच्चता प्राप्त होती है, तो मछलियां तो उस जल में रहती है, वे अपने आप में बहूत उच्च बन जाती।

जीवन में अद्वितीयता हो, यह जीवन का धर्म है। हमारे जैसा कोई दूसरा हो ही नहीं। ऐसा हो, तब जीवन का अर्थ है। ऐसा जीवन प्राप्त करने के लिए बस एक ही उपाय है, की हम ऐसे गुरु की शरण में जायें, जो अपने आप में पूर्ण प्राणवान हों, तेजस्विता युक्त हों, वाणी में गंभीरता हो, आँख में तेज हो, वे जिस को देख लें, वह सम्मोहित हो, अपने आप में, सक्षम हो, और पूर्ण रूप से ज्ञाता हो।

लेकिन आपके पास कोई कसौटी नहीं है, कोई मापदण्ड नहीं है। आप उनके पास बैठ कर उनके ज्ञान से, चेतना से, प्रवचन से एहसास कर सकते हैं। यदि आपको जीवन में सदगुरू की प्राप्ति हो गई, तो आपको जीवन का अर्थ समझ में आयेगा, तब आपको गर्व होगा, की आप एक सदगुरू के शिष्य है, जिनके पास हजारों हजारों पोथियों ज्ञान है।

यदि व्यक्ति में ज़रा भी समझदारी है, यदि उसमें समझदारी का एक कण भी है, तो पहले तो उसे यह चिंतन करना चाहिए, की उसे ऐसा जीवन जीना ही नहीं, जो मल-मूत्र युक्त है, क्योंकि ऐसे जीवन की कोई सार्थकता ही नहीं है और फिर उसे सदगुरू को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए, जो उसे तेजस्विता युक्त बना सके, जो उसे प्राण तत्व में ले जा सकें, जो उसके शरीर को सुगंध युक्त बना सके।

यदि ऐसा नहीं किया, तो भी यह शरीर रोग ग्रस्तता और वृद्धावस्था को ग्रहण करता हुआ मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा। फिर वह क्षण कब आयेगा, जब आप दैदीप्यमान बन सकेंगे? कब आपमें भावना आएगी, कि मुझ को दैदीप्यमान बनना ही है, अद्वितीय बनाना ही हैं, सर्वश्रेष्ठ बनना है?

ऐसा तब सम्भव हो सकेगा, जब आपके प्राण, गुरु के प्राण से जुडेंगे, जब आपका चिंतन गुरुमय होगा, जब आपके क्रिया-कलाप गुरुमय होंगे और इसके लिए एक ही क्रिया है - अपने शरीर में पूर्णता के साथ गुरु को स्थापित कर देना है, जीवन में उतार देना।

शरीर में उनका स्थापन होते ही, उनकी चेतना के माध्यम से यह शरीर अपने आप में सुगन्ध युक्त, अत्यन्त दैदीप्यमान और तेजस्वी बन सकेगा, जीवन में अद्वितीयता और श्रेष्ठता प्राप्त हो सकेगी, जीवन में पवित्रता आ सकेगी, प्राण तत्व की यात्रा सम्भव हो सकेगी और उनका ज्ञान आपके अन्दर उतर कर सकेगा।
सदगुरुदेव


गुरु पूर्णिमा पर सदगुरुदेव ने आहवान किया था 
यह शिष्य पूर्णिमा है, मैं तुम्हारें पिछले कई जन्मों का साक्षीभूत हूं, मैंने अपना खून देकर तुम्हें सींचा है
मैं तुम्हारा हर दृष्टी से रखवाला हूं, यह पर्व सही अर्थों में गुरु का पर्व है ही नहीं, यह तो शिष्य पर्व है, इसे शिष्य पूर्णिमा कहा जाता है, क्योंकि यह शिष्य के जीवन का एक अन्तरंग और महत्वपूर्ण क्षण है। यह उसके लिए उत्सव का आयोजन है, यह मन की प्रसन्नता को व्यक्त करने का त्यौहार है, यह ऐसा पर्व है, जो जीवन की प्रफुल्लता, मधुरता और समर्पण के पथ पर गुरु के चरण चिह्न अंकित कर अपने आप को सौभाग्यशाली मानता है।

यदि तुम मेरे आत्मीय हो, मेरे प्राणों के घनीभूत हो, मेरे जीवन का रस और चेतना हो तो यह निश्चय ही तुम्हारे लिए उत्सव, आनन्द और सौभाग्य का पर्व है, क्योंकि शिष्य अपने जीवन की पूर्णता तभी पा सकता है, जब वह गुरु ऋण से उऋण हो जाय। मां ने तो केवल तुम्हारी देह को जन्म दिया, पर मैंने उस देह को संस्कारित किया है, उसमें प्रानश्चेतना जाग्रत की है, उस तेज तपती हुई धुप में वासंती बहार का झोंका प्रवाहित किया है, मैंने तपते हुए भूखण्ड पर आनन्द के अमिट अक्षर लिखने की प्रक्रिया की है, और मैंने तुम्हे पुत्र शब्द से भी आत्मीय प्राण शब्द से संबोधित किया है।

और यह गुरु के द्वारा ही सम्भव हो सका है, यह इस जीवन का ही नहीं, कई-कई जन्मों का लेखा-जोखा है। मैं तुम्हारें इस जन्म का साक्षीभूत गुरु ही नहीं हूं, अपितु पिछले २५ जन्मों का लेखा-जोखा, हिसाब-किताब मेरे पास है, और हर बार मैंने तुम्हें आवाज दी है, और तुमने अनसूनी कर दी है, हर बार तुम्हारे प्राणों की चौखट पर दस्तक दी है, और हर बार तुम किवाड़ बंद करके बैठ गए हो, हर बार तुम्हें झकझोरने का, जाग्रत करने का, चैतन्यता प्रदान करने का प्रयास किया है, और हर बार तुमने अपना मुंह समाज की झुरभुरी रेत में छिपाकर अनदेखा, अनसुना कर दिया है। पर यह कब तक चलेगा, कितने-कितने जन्मों तक तुम्हारी यह चुप्पी, तुम्हारी यह कायरता, तुम्हारी यह बुजदिली मुझे पीडा पहुंचाती रहेगी, कब तक मैं गला फाड़-फाड़ कर आवाजें देता रहूंगा और तुम अनसुनी करते रहोगे, कब तक मैं तुम्हारा हाथ पकड़ कर सिद्ध योगा झील के किनारे ले जाने का प्रयास करूंगा और तुम हाथ छुडाकर समाज की उस विषैली वायु में साँस लेने के लिए भाग खड़े जाओगे, ऐसा कब तक होगा? इस प्रकार से कब तक गुरु को पीडा पहुंचाते रहोगे, कब तक उसके चित्त पर अपने तेज और नुकीले नाखूनों से घाव करते रहोगे, कब तक उसके प्राणों को वेदना देते रहोगे?

मैंने तुम्हें अपना नाम दिया है, और इससे भी बढ़ कर मैंने तुम्हें अपना पुत्र और आत्मीय कहा है, अपना गोत्र (कौशल गोत्र) तुम्हें प्रदान किया है और अपने जीवन के रस से सींच-सींच कर तुम्हारी बेल को मुरझाने से बचाने का प्रयास किया है, तुम्हारी सूखी हुई टहनियों में रस प्रदान करने का सफलतापूर्वक प्रयास किया है, और मेरा ही यह प्रयत्न है, की इन सूखी हुई टहनियों में फिर नई कोपलें आवें, फिर वातावरण सौरभमय बने, मैंने अपने जीवन के प्रत्येक कषक को इसके लिए लगाया है, अपनी जवानी को हिमालय के पत्थरों पर घिस-घिस कर तुम्हें अमृत पिलाने का प्रयास किया है, तुम्हारें प्रत्येक जन्म में मैंने चेतना देने की कोशिश की है, और हर बार तुम्हारे मुरझाये हुए चहरे पर एक खुशी, एक आहलाद एक चमक प्रदान करने का प्रयास किया है।

पर यह सबकुछ यों ही नहीं हो गया, इसके लिए मुझे तुमसे भी ज्यादा परिश्रम करना पडा है। मैंने अपने शरीर की बाती बना कर तुम्हारे जीवन के अंधकार में रोशनी बिखरने का प्रयत्न किया है, अपने प्राणों का दोहन कर उस अमृत जल से तुम्हारी बेल सींचने का और हरी-भरी बनाए रखने का प्रयास किया है, तिल-तिल कर अपने आप को जलाते हुए भी, तुम्हारे चहरे पर मुस्कराहट देने की कोशिश की है , और मेरा प्रयेक क्षण, जीवन का प्रत्येक चिन्तन इस कार्य के लिए समर्पित हुआ है, जिससे कि मेरे मानस के राजहंस अपनी जाति को पहचान कर सकें, अपने स्वरुप से परिचित हो सकें, अपने गोत्र से अभिभूत हो सकें और मेरे ह्रदय के इस मान सरोवर में गहराई के साथ दुबकी लगाकर लौटते समय मोती ले सकें।

और यह हर बार हुआ है, और यह पिछले जन्मों से होता रहा है, क्योंकि मैं हर क्षण तुम्हारे लिए ही प्रयत्न किया है, मेरा जीवन अपने स्वयं के लिए या परिवार के लिए नहीं है, मेरा जीवन का उद्देश्य तो शिष्यों को पूर्णता देने का प्रयास है, और इसके लिए मैं सिद्धाश्रम जैसा आनन्ददायक और अनिर्वचनीय आश्रम छोडा और तुम्हारें इन मैले-कुचैले, गलियारों में आकर बैठा, जो वायुवेग से एक स्थान से दुसरे स्थान पर जाने के लिए सक्षम था, उसे तुम्हारें लिए अपने आप को एक छोटे से वाहन में बंद कर लिया, जिसका घर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड था, और किसी भी ग्रह या लोक में विचरण करता हुआ जो निरंतर आनंदयुक्त था, उसने तुम्हारे लिए अपने आप को एक छोटे से घर में आबद्ध, तुम्हारें लिए इस समाज से जूझा, आलोचनाएं सुनीं, गालियां खाई, और कई प्रकार के कुतर्कों का सामना किया, यह सब क्यों? क्या जरूरत थी यह सब सहन करने कि, झेलने की, भुगतने की?

और मैंने ऐसा किया, प्रत्येक क्षण इस बात के लिए कृत संकल्प था, और हूं कि मैं तुम्हें समाज में गर्व से सर तानकर खडा रहने की प्रेरणा दूं? मैं तुम्हें इस गन्दगी से भरे समाज में देवदूत बनाकर खडा कर सकूं, तुम्हारी आखों में एक चमक कर सकूं, तुम्हारे पंखों में इतनी ताकत दे सकूं, कि तुम आकाश से सुदूर ऊंचाई पर बिना थके पहुँच सको, और इस ब्रम्हत्व का, आनन्द ले सको, मैं तुम्हें उन इन्द्र धनुष के रंगों पर रंग बिखरने के लिए तैयार कर सकूं, जहां विस्तृत आकाश हो, जहां आनन्द की शीतल बयार हो, जहां पूर्णता और सिद्धियाँ जयमाला लिए तुम्हारें गले में डालने के लिए उद्यत और उत्सुक हों।

और यह सब बराबर हो रहा है, तुमने अपने आपको पहली बार पहचानने का प्रयत्न किया है, पहली बार यह अहसास किया है, कि तुम संसार में अकेले नहीं हो, कोई तुम्हारा रखवाला अवश्य है, जो तुम्हारें जीवन की बराबर चौकीदारी कर रहा है, कोई ऐसा व्यक्तित्व तुम्हारे जीवन में अवश्य है, जिसे अपनी चिंताएं, परेशानियां और समस्याएं खुशी-खुशी देकर अपने आपको हल्का कर सकते हो, और मुझे तुम जो दे रहे हो, उससे मुझे प्रसन्नता है।

क्योंकि मैं तुम्हारें साथ हूं, क्योंकि तुम्हारें पांव मेरे पाव के साथ आगे बढ़ रहे है, क्योंकि मैं तुम्हारें जीवन का ध्यान रखने वाला, तुम्हारे जीवन को आल्हाद कारक बनाने वाला और तुम्हारें जीवन का प्रत्येक क्षण का हिसाब-किताब रखने वाला हूं।

मैं इन सबके लिए गुरु पूर्णिमा पर आवाज दे रहा हूं, क्योंकि यह तुम्हारा स्वयं का पर्व है। यदि शिष्य है, यदि सही अर्थों में वह मेरी आत्मा का अंश है, यदि सही अर्थों में मेरी प्राणश्चेतना है, तो उसके पाव किसी भी हालत में रूक नहीं सकते, समाज उसका रास्ता रोक नहीं सकता, परिवार उसके पैरों में बेडिया डाल नहीं सकता, वह तो हर हालत में आगे बढ़ कर गुरु चरणों मेर, मुझ में एकाकार होगा ही, क्योंकि यह एकाकार होना ही जीवन की पूर्णता है, और यदि ऐसा नहीं हो सका तो वह शिष्यता ही नहीं है, वह तो कायरता है, बुजदिली है, कमजोरी है, नपुंसकता है, और मुझे विश्वास है, कि मेरे शिष्यों के साथ इस प्रकार घिनौने शब्द नहीं जुड़ सकते ।
तुम्हारा अपना कौशल

गुरु पूर्णिमा संदेश
आत्मस्वरुप का ज्ञान पाने के अपने कर्त्तव्य की याद दिलाने वाला, मन को दैवी गुणों से विभूषित करनेवाला, सदगुरु के प्रेम और ज्ञान की गंगा में बारंबार डुबकी लगाने हेतु प्रोत्साहन देनेवाला जो पर्व है - वही है 'गुरु पूर्णिमा' ।

भगवान वेदव्यास ने वेदों का संकलन किया, १८ पुराणों और उपपुराणों की रचना की। ऋषियों के बिखरे अनुभवों को समाजभोग्य बना कर व्यवस्थित किया। पंचम वेद 'महाभारत' की रचना इसी पूर्णिमा के दिन पूर्ण की और विश्व के सुप्रसिद्ध आर्ष ग्रंथ ब्रह्मसूत्र का लेखन इसी दिन आरंभ किया। तब देवताओं ने वेदव्यासजी का पूजन किया। तभी से व्यासपूर्णिमा मनायी जा रही है। इस दिन जो शिष्य ब्रह्मवेत्ता सदगुरु के श्रीचरणों में पहुँचकर संयम-श्रद्धा-भक्ति से उनका पूजन करता है उसे वर्षभर के पर्व मनाने का फल मिलता है।और पूनम (पूर्णिमा) तो तुम मनाते हो लेकिन गुरुपूनम तुम्हें मनाती है कि भैया! संसार में बहुत भटके, बहुत अटके और बहुत लटके। जहाँ गये वहाँ धोखा ही खाया, अपने को ही सताया। अब जरा अपने आत्मा में आराम पाओ।

हरिहर आदिक जगत में पूज्य देव जो कोय ।
सदगुरु की पूजा किये सबकी पूजा होय ॥

कितने ही कर्म करो, कितनी ही उपासनाएँ करो, कितने ही व्रत और अनुष्ठान करो, कितना ही धन इकट्ठा कर लो और् कितना ही दुनिया का राज्य भोग लो लेकिन जब तक सदगुरु के दिल का राज्य तुम्हारे दिल तक नहीं पहुँचता, सदगुरुओं के दिल के खजाने तुम्हारे दिल तक नही उँडेले जाते, जब तक तुम्हारा दिल सदगुरुओं के दिल को झेलने के काबिल नहीं बनता, तब तक सब कर्म, उपासनाएँ, पूजाएँ अधुरी रह जाती हैं। देवी-देवताओं की पूजा के बाद भी कोई पूजा शेष रह जाती है किंतु सदगुरु की पूजा के बाद कोई पूजा नहीं बचती।

सदगुरु अंतःकरण के अंधकार को दूर करते हैं। आत्मज्ञान के युक्तियाँ बताते हैं गुरु प्रत्येक शिष्य के अंतःकरण में निवास करते हैं। वे जगमगाती ज्योति के समान हैं जो शिष्य की बुझी हुई हृदय-ज्योति को प्रकटाते हैं। गुरु मेघ की तरह ज्ञानवर्षा करके शिष्य को ज्ञानवृष्टि में नहलाते रहते हैं। गुरु ऐसे वैद्य हैं जो भवरोग को दूर करते हैं। गुरु वे माली हैं जो जीवनरूपी वाटिका को सुरभित करते हैं। गुरु अभेद का रहस्य बताकर भेद में अभेद का दर्शन करने की कला बताते हैं। इस दुःखरुप संसार में गुरुकृपा ही एक ऐसा अमूल्य खजाना है जो मनुष्य को आवागमन के कालचक्र से मुक्ति दिलाता है।

जीवन में संपत्ति, स्वास्थ्य, सत्ता, पिता, पुत्र, भाई, मित्र अथवा जीवनसाथी से भी ज्यादा आवश्यकता सदगुरु की है। सदगुरु शिष्य को नयी दिशा देते हैं, साधना का मार्ग बताते हैं और ज्ञान की प्राप्ति कराते हैं। सच्चे सदगुरु शिष्य की सुषुप्त शक्तियों को जाग्रत करते हैं, योग की शिक्षा देते हैं, ज्ञान की मस्ती देते हैं, भक्ति की सरिता में अवगाहन कराते हैं और कर्म में निष्कामता सिखाते हैं। इस नश्वर शरीर में अशरीरी आत्मा का ज्ञान कराकर जीते-जी मुक्ति दिलाते हैं।

सदगुरु जिसे मिल जाय सो ही धन्य है जन मन्य है।
सुरसिद्ध उसको पूजते ता सम न कोऊ अन्य है॥

अधिकारी हो गुरुदेव से उपदेश जो नर पाय है।
भोला तरे संसार से नहीं गर्भ में फिर आय है॥

गुरुपूनम जैसे पर्व हमें सूचित करते हैं कि हमारी बुद्धि और तर्क जहाँ तक जाते हैं उन्हें जाने दो। यदि तर्क और बुद्धि के द्वारा तुम्हें भीतर का रस महसूस न हो तो प्रेम के पुष्प के द्वारा किसी ऐसे अलख के औलिया से पास पहुँच जाओ जो तुम्हारे हृदय में छिपे हुए प्रभुरस के द्वार को पलभर में खोल दें।

मैं कई बार कहता हुँ कि पैसा कमाने के लिए पैसा चाहिए, शांति चाहिए, प्रेम पाने के लिए प्रेम चाहिए। जब ऐसे महापुरुषों के पास हम निःस्वार्थ, निःसंदेह, तर्करहित होकर केवल प्रेम के पुष्प लेकर पहुँचते हैं, श्रद्धा के दो आँसू लेकर पहुँचते हैं तो बदले में हृदय के द्वार खुलने का अनुभव हो जाता है। जिसे केवल गुरुभक्त जान सकता है औरों को क्या पता इस बात का ?

गुरु-नाम उच्चारण करने पर गुरुभक्त का रोम-रोम पुलकित हो उठता है चिंताएँ काफूर हो जाती हैं, जप-तप-योग से जो नही मिल पाता वह गुरु के लिए प्रेम की एक तरंग से गुरुभक्त को मिल जाता है, इसे निगुरे नहीं समझ सकते.....

आत्मज्ञानी, आत्म-साक्षात्कारी महापुरुष को जिसने गुरु के रुप में स्वीकार कर लिया हो उसके सौभाग्य का क्या वर्णन किया जाय ? गुरु के बिना तो ज्ञान पाना असंभव ही है। कहते हैं :

ईश कृपा बिन गुरु नहीं, गुरु बिना नहीं ज्ञान ।
ज्ञान बिना आत्मा नहीं, गावहिं वेद पुरान ॥

बस, ऐसे गुरुओं में हमारी श्रद्धा हो जाय । श्रद्धावान ही ज्ञान पाता है। गीता में भी आता हैः

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
अर्थात् जितेन्द्रिय, तत्पर हुआ श्रद्धावान पुरुष ज्ञान को प्राप्त होता है।

ऐसा कौन-सा मनुष्य है जो संयम और श्रद्धा के द्वारा भवसागर से पार न हो सके ? उसे ज्ञान की प्राप्ति न हो ? परमात्म-पद में स्थिति न हो?

जिसकी श्रद्धा नष्ट हुई, समझो उसका सब कुछ नष्ट हो गया। इसलिए ऐसे व्यक्तियों से बचें, ऐसे वातावरण से बचें जहाँ हमारी श्र्द्धा और संयम घटने लगे। जहाँ अपने धर्म के प्रति, महापुरुषों के प्रति हमारी श्रद्धा डगमगाये ऐसे वातावरण और परिस्थितियों से अपने को बचाओ।

शिष्यों का अनुपम पर्व
साधक के लिये गुरुपूर्णिमा व्रत और तपस्या का दिन है। उस दिन साधक को चाहिये कि उपवास करे या दूध, फल अथवा अल्पाहार ले, गुरु के द्वार जाकर गुरुदर्शन, गुरुसेवा और गुरु-सत्सन्ग का श्रवण करे। उस दिन गुरुपूजा की पूजा करने से वर्षभर की पूर्णिमाओं के दिन किये हुए सत्कर्मों के पुण्यों का फल मिलता है।
गुरु अपने शिष्य से और कुछ नही चाहते। वे तो कहते हैं:

तू मुझे अपना उर आँगन दे दे, मैं अमृत की वर्षा कर दूँ ।

तुम गुरु को अपना उर-आँगन दे दो। अपनी मान्यताओं और अहं को हृदय से निकालकर गुरु से चरणों में अर्पण कर दो। गुरु उसी हृदय में सत्य-स्वरूप प्रभु का रस छलका देंगे। गुरु के द्वार पर अहं लेकर जानेवाला व्यक्ति गुरु के ज्ञान को पचा नही सकता, हरि के प्रेमरस को चख नहीं सकता।अपने संकल्प के अनुसार गुरु को मन चलाओ लेकिन गुरु के संकल्प में अपना संकल्प मिला दो तो बेडा़ पार हो जायेगा।नम्र भाव से, कपटरहित हृदय से गुरु से द्वार जानेवाला कुछ-न-कुछ पाता ही है।

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥

'उस ज्ञान को तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत्-प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म-तत्व को भलीभाँति जाननेवाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञान का उपदेश करेंगे।' (गीताः ४.३४)

जो शिष्य सदगुरु का पावन सान्निध्य पाकर आदर व श्रद्धा से सत्संग सुनता है, सत्संग-रस का पान करता है, उस शिष्य का प्रभाव अलौकिक होता है। 'श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण' में भी शिष्य से गुणों के विषय में श्री वशिष्ठजी महाराज करते हैः "जिस शिष्य को गुरु के वचनों में श्रद्धा, विश्वास और सदभावना होती है उसका कल्याण अति शीघ्र होता है।"

शिष्य को चाहिये के गुरु, इष्ट, आत्मा और मंत्र इन चारों में ऐक्य देखे। श्रद्धा रखकर दृढ़ता से आगे बढे़। संत रैदास ने भी कहा हैः

हरि गुरु साध समान चित्त, नित आगम तत मूल।
इन बिच अंतर जिन परौ, करवत सहन कबूल ॥

'समस्त शास्त्रों का सदैव यही मूल उपदेश है कि भगवान, गुरु और संत इन तीनों का चित्त एक समान (ब्रह्मनिष्ठ) होता है। उनके बीच कभी अंतर न समझें, ऐसी दृढ़ अद्वैत दृष्टि रखें फिर चाहे आरे से इस शरीर कट जाने का दंड भी क्यों न सहन करना पडे़ ? अहं और मन को गुरु से चरणों में समर्पित करके, शरीर को गुरु की सेवा में लगाकर गुरुपूर्णिमा के इस शुभ पर्व पर शिष्य को एक संकल्प अवश्य करना चाहियेः 'इन्द्रिय-विषयों के लघु सुखों में, बंधनकर्ता तुच्छ सुखों में बह जानेवाले अपने जीवन को बचाकर मैं अपनी बुद्धि को गुरुचिंतन में, ब्रह्मचिंतन में स्थिर करूँगा।'

बुद्धि का उपयोग बुद्धिदाता को जानने के लिए ही करें। आजकल के विद्यार्थी बडे़-बडे़ प्रमाणपत्रों के पीछे पड़ते हैं लेकिन प्राचीन काल में विद्यार्थी संयम-सदाचार का व्रत-नियम पाल कर वर्षों तक गुरु के सान्निध्य में रहकर बहुमुखी विद्या उपार्जित करते थे। भगवान श्रीराम वर्षों तक गुरुवर वशिष्ठजी के आश्रम में रहे थे। वर्त्तमान का विद्यार्थी अपनी पहचान बडी़-बडी़ डिग्रियों से देता है जबकि पहले के शिष्यों में पहचान की महत्ता वह किसका शिष्य है इससे होती थी। आजकल तो संसार का कचरा खोपडी़ में भरने की आदत हो गयी है। यह कचरा ही मान्यताएँ, कृत्रिमता तथा राग-द्वेषादि बढा़ता है और अंत में ये मान्यताएँ ही दुःख में बढा़वा करती हैं। अतः साधक को चाहिये कि वह सदैव जागृत रहकर सत्पुरुषों के सत्संग सेम् ज्ञानी के सान्निध्य में रहकर परम तत्त्व परमात्मा को पाने का परम पुरुषार्थ करता रहे।

संसार आँख और कान द्वारा अंदर घुसता है। जैसा सुनोगे वैसे बनोगे तथा वैसे ही संस्कार बनेंगे। जैसा देखोगे वैसा स्वभाव बनेगा। जो साधक सदैव आत्म-साक्षात्कारी महापुरुष का ही दर्शन व सत्संग-श्रवण करता है उसके हृदय में बसा हुआ महापुरुषत्व भी देर-सवेर जागृत हो जाता है। महारानी मदालसा ने अपने बच्चों में ब्रह्मज्ञान के संस्कार भर दिये थे। छः में से पाँच बच्चों को छोटी उम्र में ही ब्रह्मज्ञान हो गया था। ब्रह्मज्ञान हो गया था। ब्रह्मज्ञान का सत्संग काम, क्रोध, लोभ, राग, द्वेष, आसक्ति और दूसरी सब बेवकूफियाँ छुडाता है, कार्य करने की क्षमता बढाता है, बुद्धि सूक्ष्म बनाता है तथा भगवद्ज्ञान में स्थिर करता है। ज्ञानवान के शिष्य के समान अन्य कोई सुखी नहीं है और वासनाग्रस्त मनुष्य के समान अन्य कोई दुःखी नहीं है। इसलिये साधक को गुरुपूनम के दिन गुरु के द्वार जाकर, सावधानीपूर्वक सेवा करके, सत्संग का अमृतपान करके अपना भाग्य बनाना चाहिए।

राग-द्वेष छोडकर गुरु की गरिमा को पाने का पर्व माने गुरुपूर्णिमा तपस्या का भी द्योतक है। ग्रीष्म के तापमान से ही खट्टा आम मीठा होता है। अनाज की परिपक्वता भी सूर्य की गर्मी से होती है। ग्रीष्म की गर्मी ही वर्षा का कारण बनती है। इसप्रकार संपूर्ण सृष्टि के मूल में तपस्या निहित है। अतः साधक को भी जीवन में तितिक्षा, तपस्या को महत्व देना चाहिए। सत्य, संयम और सदाचार के तप से अपनी आंतर चेतना खिल उठती है जबकि सुख-सुविधा का भोग करनेवाला साधक अंदर से खोखला हो जाता है। व्रत-नियम से इन्द्रियाँ तपती हैं तो अंतःकरण निर्मल बनता है और मेनेजर अमन बनता है। परिस्थिति, मन तथा प्रकृति बदलती रहे फिर भी अबदल रहनेवाला अपना जो ज्योतिस्वरुप है उसे जानने के लिए तपस्या करो। जीवन मेँ से गलतियों को चुन-चुनकर निकालो, की हुई गलती को फिर से न दुहराओ। दिल में बैठे हुए दिलबर के दर्शन न करना यह बडे-में-बडी गलती है। गुरुपूर्णिमा का व्रत इसी गलती को सुधारने का व्रत है।

शिष्य की श्रद्धा और गुरु की कृपा के मिलन से ही मोक्ष का द्वार खुलता है। अगर सदगुरु को रिझाना चाहते हो तो आज के दिन-गुरुपूनम के दिन उनको एक दक्षिणा जरूर देनी चाहिए। चातुर्मास का आरम्भ भी आज से ही होता है। इस चातुर्मास को तपस्या का समय बनाओ। पुण्याई जमा करो। आज तुम मन-ही-मन संकल्प करो। आज की पूनम से चार मास तक परमात्मा के नाम का जप-अनुष्ठान करूँगा.... प्रतिदिन त्रिबंधयुक्त 10 प्राणायाम करुँगा।शुक्लपक्ष की सभी व कृष्णपक्ष की सावन से कार्तिक माह के मध्य तक की चार एकादशी का व्रत करूँगा.... एक समय भोजन करूँगा, रात्रि को सोने के पहले 10 मिनट ‘हरिः ॐ...’ का गुंजन करुँगा.... किसी आत्मज्ञानपरक ग्रंथ (श्रीयोगवाशिष्ठ आदि) का स्वाध्याय करूँगा.... चार पूनम को मौन रहूँगा.... अथवा महीने में दो दिन या आठ दिन मौन रहूँगा.... कार्य करते समय पहले अपने से पूछूँगा कि कार्य करनेवाला कौन है और इसका आखिरी परिणाम क्या है ? कार्य करने के बाद भी कर्त्ता-धर्त्ता सब ईश्वर ही है, सारा कार्य ईश्वर की सत्ता से ही होता है - ऐसा स्मरण करूँगा। यही संकल्प-दान आपकी दक्षिणा हो जायेगी।

इस पूनम पर चातुर्मास के लिए आप अपनी क्षमता के अनुसार कोई संकल्प अवश्य करो।
आप कर तो बहुत सकते हो आपमेँ ईश्वर का अथाह बल छुपा है किंतु पुरानी आदत है कि ‘हमसे नही होगा, हमारे में दम नहीं है। इस विचार को त्याग दो। आप जो चाहो वह कर सकते हो। आज के दिन आप एक संकल्प को पूरा करने के लिए तत्पर हो जाओ तो प्रकृति के वक्षःस्थल में छुपा हुआ तमाम भंडार, योग्यताओं का खजाना तुम्हारे आगे खुलता जायेगा। तुम्हें अदभुत शौर्य, पौरुष और सफलताओं की प्राप्ति होगी।

तुम्हारे रुपये-पैसे, फल-फूल आदि की मुझे आवश्यकता नहीं है किंतु तुम्हारा और तुम्हारे द्वारा किसी का कल्याण होता है तो बस, मुझे दक्षिणा मिल जाती है, मेरा स्वागत हो जाता है।ब्रह्मवेत्ता सदगुरुओं का स्वागत तो यही है कि उनकी आज्ञा में रहें। वे जैसा चाहते हैं उस ढंग से अपना जीवन-मरण के चक्र को तोडकर फेंक दें और मुक्ति का अनुभव कर लें।

सत् शिष्य के लक्षण
सतशिष्य के लक्षण बताते हुए कहा गया हैः
अमानमत्सरो दक्षो निर्ममो दृढसौहृदः । असत्वरोर्थजिज्ञासुः अनसूयुः अमोघवाक ॥
‘सतशिष्य मान और मत्सर से रहित, अपने कार्य में दक्ष, ममतारहित गुरु में दृढ प्रीति करनेवाला, निश्चल चित्तवाला, परमार्थ का जिज्ञासु तथा ईर्ष्यारहित और सत्यवादी होता है।‘

इस प्रकार के नौ-गुणों से जो सत शिष्य सुसज्जित होता है वह सदगुरु के थोडे-से उपदेश मात्र से आत्म-साक्षात्कार करके जीवन्मुक्त पद में आरुढ हो जाता है।ब्रह्मवेत्ता महापुरुष का सान्निध्य साधक के लिए नितांत आवश्यक है। साधक को उनका सान्निध्य मिल जाय तो भी उसमें यदि इन नौ-गुणों का अभाव है तो साधक को ऐहिक लाभ तो जरूर होता है, किंतु आत्म-साक्षात्कार के लाभ से वह वंचित रह जाता है।अमानित्व, ईर्ष्या का अभाव तथा मत्सर का अभाव - इन सदगुणों के समावेश से साधक तमाम दोषों से बच जाता है तथा साधक का तन और मन आत्मविश्रांति पाने के काबिल हो जाता है।सतशिष्यों का यहाँ स्वभाव होता हैः वे आप अमानी रहते हैं और दूसरों को मान देते हैं। जैसे, भगवान राम स्वयं अमानी रहकर दूसरों को मान देते थे।

साधक को क्या करना चाहिए? वह अपनी बराबरी के लोगों को देखकर ईर्ष्या न करें, न अपने से छोटों को देखकर अहंकार करे और न ही अपने से बडों के सामने कुंठित हो, वरन सबको गुरु का कृपापात्र समझकर, सबसे आदरपूर्ण व्यवहार करें, प्रेमपूर्ण व्यवहार करें ऐसा करने से साधक धीरे-धीरे मान, मत्सर और ईर्ष्यासहित होने लगता है। खुद को मान मिले ऐसी इच्छा रखने पर मान नहीं मिलता है तो दुःख होता है और मान मिलता है तब सुखाभास होता है तथा नश्वर मान की इच्छा और बढती है । इस प्रकार मान की इच्छा को गुलाम बनाती है जबकि मान की इच्छा से रहित होने से मनुष्य स्वतंत्र बनता है। इसलिए साधक को हमेशा मानरहित बनने की कोशिश करनी चाहिये। जैसे, मछली जाल में फँसती है तब छ्टपटाती है, ऐसे ही जब साधक प्रशंसकों के बीच में आये तब उसका मन छ्टपटाना चाहिये। जैसे, लुटेरों के बीच आ जाने पर सज्जन आदमी जल्दी से वहाँ से खिसकने की कोशिश करता है ऐसे ही साधक को प्रशंसकों प्रलोभनों और विषयों से बचने की कोशिश करनी चाहिए।

जो तमोगुणी व्यक्ति होता है वह चाहता है कि ‘मुझे सब मान दें और मेरे पैरों तले सारी दुनिया रहे।‘ जो रजोगुणी व्यक्ति होता है वह कहता है कि ‘हम दूसरों को मान देंगे तो वे भी हमें मान देंगे।‘ ये दोनों प्रकार के लोग प्रत्यक्ष या परोक्षरूप से अपना मान बढाने की ही कोशिश करते हैं। मान पाने के लिये वे सम्बंधों के तंतु जोडते ही रहते हैं और इससे इतने बहिर्मुख हो जाते हैं कि जिससे सम्बंध जोडना चाहिये उस अंतर्यामी परमेश्वर के लिये उनको फुर्सत ही नही मिलती और आखिर में अपमानित होकर जगत से चले जाते हैं इअसा न हो इसलिये साधक को हमेशा याद रखना चाहिये कि चाहे कितना भी मान मिल जाय लेकिन मिलता तो है इस नश्वर शरीर को ही और शरीर को अंत में जलाना ही है तो फिर उसके लिए क्यों परेशान होना ?

संतों ने ठीक ही कहा हैः
मान पुडी़ है जहर की, खाये सो मर जाये ।
चाह उसी की राखता, वह भी अति दुःख पाय॥

एक बार बुद्ध के चरणों में एक अपरिचित युवक आ गिरा और दंडवत् प्रणाम करने लगा।
बुद्धः "अरे अरे, यह क्या कर रहे हो ? तुम क्या चाहते हो? मैं तो तुम्हें जानता तक नहीं।"
युवकः "भन्ते! खडे़ रहकर तो बहुत देख चुका। आज तक अपने पैरों पर खडा़ होता रहा इसलिये अहंकार भी साथ में खडा़ ही रहा और सिवाय दुःख के कुछ नहीं मिला। अतः आज मैं आपके श्रीचरणों में लेटकर विश्रांति पाना चाहता हूँ।"

अपने भिक्षुकों की ओर देखकर बुद्ध बोलेः "तुम सब रोज मुझे गुरु मानकर प्रणाम करते हो लेकिन कोई अपना अहं न मिटा पाया और यह अनजान युवक आज पहली बार आते ही एक संत के नाते मेरे सामने झुकते-झुकते अपने अहं को मिटाते हुए, बाहर की आकृति का अवलंबन लेते हुए अंदर निराकार की शान्ति में डूब रहा है।"

इस घटना का यही आशय समझना है कि सच्चे संतों की शरण में जाकर साधक को अपना अहंकार विसर्जित कर देना चाहिये। ऐसा नहीं कि रास्ते जाते जहाँ-तहाँ आप लंबे लेट जायें।

अमानमत्सरो दक्षो....
साधक को चाहिये कि वह अपने कार्य में दक्ष हो। अपना कार्य क्या है? अपना कार्य है कि प्रकृति के गुण-दोष से बचकर आत्मा में जगना और इस कार्य में दक्ष रहना अर्थात डटे रहना, लगे रहना। उस निमित्त जो भी सेवाकार्य करना पडे़ उसमें दक्ष रहो। लापरवाही, उपेक्षा या बेवकूफी से कार्य में विफल नहीं होना चाहिये, दक्ष रहना चाहिये। जैसे, ग्राहक कितना भी दाम कम करने को कहे, फिर भी लोभी व्यापारी दलील करते हुए अधिक-से-अधिक मुनाफा कमाने की कोशिश करता है, ऐसे ही ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग में चलते हुए कितनी ही प्रतिकूल परिस्थितियाँ आ जायें, फिर भी साधक को अपने परम लक्ष्य में डटे रहना चाहिये। सुख आये या दुःख, मान हो या अपमान, सबको देखते जाओ.... मन से विचारों को, प्राणों की गति को देखने की कला में दक्ष हो जाओ।

नौकरी कर रहे हो तो उसमें पूरे उत्साह से लग जाओ, विद्यार्थी हो तो उमंग के साथ पढो़, लेकिन व्यावहारिक दक्षता के साथ-साथ आध्यात्मिक दक्षता भी जीवन में होनी चाहिए। साधक को सदैव आत्मज्ञान की ओर आगे बढना चाहिए। कार्यों को इतना नही बढाना चाहिये कि आत्मचिंतन का समय ही न मिले। सम्बंधोम् को इतना नहीं बढाना चाहिए कि जिसकी सत्ता से सम्बंध जोडे जाते हैं उसी का पता न चले।

एकनाथ जी महाराज ने कहा हैः 'रात्रि के पहले प्रहर और आखिरी प्रहर में आत्मचिंतन करना चाहिये। कार्य के प्रारंभ में और अंत में आत्मविचार करना चाहिये।' जीवन में इच्छा उठी और पूरी हो जाय तब जो अपने-आपसे ही प्रश्न करे किः 'आखिर इच्छापूर्ति से क्या मिलता है?' वह है दक्ष। ऐसा करने से वह इच्छानिवृत्ति के उच्च सिंहासन पर आसीन होनेवाले दक्ष महापुरुष की नाईं निर्वासनिक नारायण में प्रतिष्ठित हो जायेगा।

अगला सदगुण है। ममतारहित होना। देह में अहंता और देह के सम्बंधियों में ममता रखता है, उतना ही उसके परिवार वाले उसको दुःख के दिन दिखा देते हैं। अतः साधक को देह और देह के सम्बंधों से ममतारहित बनना चाहिये।

आगे बात आती है- गुरु में दृढ़ प्रीति करने की। मनुष्य क्या करता है? वास्तविक प्रेमरस को समझे बिना संसार के नश्वर पदार्थों में प्रेम का रस चखने जाता है और अंत में हताशा, निराशा तथा पश्चाताप की खाई में गिर पडता है। इतने से भी छुटकारा नहीं मिलता। चौरासी लाख जन्मों की यातनाएँ सहने के लिये उसे बाध्य होना पडता है। शुद्ध प्रेम तो उसे कहते हैं जो भगवान और गुरु से किया जाता है। उनमें दृढ प्रीति करने वाला साधक आध्यात्मिकता के शिखर पर शीघ्र ही पहुँच जाता है। जितना अधिक प्रेम, उतना अधिक समर्पण और जितना अधिक समर्पण, उतना ही अधिक लाभ।

कबीर जी ने कहा हैः
प्रेम न खेतों उपजे, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा चहो प्रजा चहो, शीश दिये ले जाये॥

शरीर की आसक्ति और अहंता जितनी मिटती जाती है, उतना ही स्वभाव प्रेमपूर्ण बनता जाता है। इसीलिए छोटा-सा बच्चा, जो निर्दोष होता है, हमें बहुत प्यारा लगता है क्योंकि उसमें देहासक्ति नहीं होती। अतः शरीर की अहंता और आसक्ति नहीं होती। अतः शरीर की अहंता और आसक्ति छोड़कर गुरु में, प्रभु में दृढ़ प्रीति करने से अंतःकरण शुद्ध होता है। 'विचारसागर' ग्रन्थ में भी आता हैः 'गुरु में दृढ़ प्रीति करने से मन का मैल तो दूर होता ही है, साथ ही उनका उपदेश भी शीघ्र असर करने लगता है, जिससे मनुष्य की अविद्या और अज्ञान भी शीघ्र नष्ट हो जाता है।'

इस प्रकार गुरु में जितनी-जितनी निष्ठा बढ़ती जाती है, जितना-जितना सत्संग पचता जाता है, उतना-उतना ही चित्त निर्मल व निश्चिंत होता जाता है।इस प्रकार परमार्थ पाने की जिज्ञासा बढ़ती जाती है, जीवन में पवित्रता, सात्विक्ता, सच्चाई आदि गुण प्रकट होते जाते हैं और साधक ईर्ष्यारहित हो जाता है।

जिस साधक का जीवन सत्य से युक्त, मान, मत्सर, ममता और ईर्ष्या से रहित होता है, जो गुरु में दृढ़ प्रीतिवाला, कार्य में दक्ष तथा निश्चल चित्त होता है, परमार्थ का जिज्ञासु होता है - ऐसा नौ-गुणों से सुसज्ज साधक शीघ्र ही गुरुकृपा का अधिकारी होकर जीवन्मुक्ति के विलक्षण आनन्द का अनुभव कर लेता है अर्थात परमात्म-साक्षात्कार कर लेता है।

गुरुपूजन का पर्व
गुरुपूर्णिमा अर्थात् गुरु के पूजन का पर्व। गुरुपूर्णिमा के दिन छत्रपति शिवाजी भी अपने गुरु का विधि-विधान से पूजन करते थे।किन्तु आज सब लोग अगर गुरु को नहलाने लग जायें, तिलक करने लग जायें, हार पहनाने लग जायें तो यह संभव नहीं है। लेकिन षोडशोपचार की पूजा से भी अधिक फल देने वाली मानस पूजा करने से तो भाई ! स्वयं गुरु भी नही रोक सकते। मानस पूजा का अधिकार तो सबके पास है।"गुरुपूर्णिमा के पावन पर्व पर मन-ही-मन हम अपने गुरुदेव की पूजा करते हैं मन-ही-मन गुरुदेव को कलश भर-भरकर गंगाजल से स्नान कराते हैं.... मन-ही-मन उनके श्रीचरणों को पखारते हैं.... परब्रह्म परमात्मस्वरूप श्रीसद्गुरुदेव को वस्त्र पहनाते हैं.... सुगंधित चंदन का तिलक करते है.... सुगंधित गुलाब और मोगरे की माला पहनाते हैं.... मनभावन सात्विक प्रसाद का भोग लगाते हैं.... मन-ही-मन धूप-दीप से गुरु की आरती करते हैं...."

इस प्रकार हर शिष्य मन-ही-मन अपने दिव्य भावों के अनुसार अपने सद्गुरुदेव का पूजन करके गुरुपूर्णिमा का पावन पर्व मना सकता है। करोडों जन्मों के माता-पिता, मित्र-सम्बंधी जो न से सके, सद्गुरुदेव वह हँसते-हँसते दे डा़लते हैं।
'हे गुरुपूर्णिमा ! हे व्यासपूर्णिमा ! तु कृपा करना.... गुरुदेव के साथ मेरी श्रद्धा की डोर कभी टूटने न पाये.... मैं प्रार्थना करता हूँ गुरुवर ! आपके श्रीचरणों में मेरी श्रद्धा बनी रहे, जब तक है जिन्दगी.....

वह भक्त ही क्या जो तुमसे मिलने की दुआ न करे ?
भूल प्रभु को जिंदा रहूँ कभी ये खुदा न करे ।हे गुरुवर !
लगाया जो रंग भक्ति का, उसे छूटने न देना ।
गुरु तेरी याद का दामन, कभी छूटने न देना ॥
हर साँस में तुम और तुम्हारा नाम रहे ।
प्रीति की यह डोरी, कभी टूटने न देना ॥
श्रद्धा की यह डोरी, कभी टूटने न देना ।
बढ़ते रहे कदम सदा तेरे ही इशारे पर ॥
गुरुदेव ! तेरी कृपा का सहारा छूटने न देना।
सच्चे बनें और तरक्की करें हम,
नसीबा हमारी अब रूठने न देना।
देती है धोखा और भुलाती है दुनिया,
भक्ति को अब हमसे लुटने न देना ॥
प्रेम का यह रंग हमें रहे सदा याद,
दूर होकर तुमसे यह कभी घटने न देना।
बडी़ मुश्किल से भरकर रखी है करुणा तुम्हारी....
बडी़ मुश्किल से थामकर रखी है श्रद्धा-भक्ति तुम्हारी....
कृपा का यह पात्र कभी फूटने न देना ॥
लगाया जो रंग भक्ति का उसे छूटने न देना ।
प्रभुप्रीति की यह डोर कभी छूटने न देना ॥

आज गुरुपूर्णिमा के पावन पर्व पर हे गुरुदेव ! आपके श्रीचरणों में अनंत कोटि प्रणाम.... आप जिस पद में विश्रांति पा रहे हैं, हम भी उसी पद में विशांति पाने के काबिल हो जायें.... अब आत्मा-परमात्मा से जुदाई की घड़ियाँ ज्यादा न रहें.... ईश्वर करे कि ईश्वर में हमारी प्रीति हो जाय.... प्रभु करे कि प्रभु के नाते गुरु-शिष्य का सम्बंध बना रहे...'

गुरु और तत्वज्ञान
मैं एक आध्यात्मिक गुरु, जिनको निष्चित रूप से सभी लोग जानते हैं, उनके जिज्ञासु शिष्य द्वारा पत्र भेज कर पूंछे गए प्रश्न तथा गुरुजी द्वारा दिए गए उत्तर के सन्दर्भ में आप सभी से विचार आदान-प्रदान करना चाहूंगा :
जिज्ञासु का पत्र : ज्ञान मिला तो नाचने लगे, घर पहुंचे तो नाचते हुए आनंदित, घर वाले घबडा गए, समझे पागल हो गए हैं बड़े ज्ञान की बात करते हैं, पकड़ लिया और अस्पताल में भरती करा दिया, सदा हंसता रहता हूँ, लोग समझते है मैं काम से गया. गुरूजी द्वारा उत्तर दिया गया था : ऐसा स्वाभाविक है

मेरी कुछ अनुत्तरित जिज्ञासा :
यदि उपरोक्त स्थिति स्वाभाविक है तो अगर सबको ज्ञान मिल गया तो क्या होगा, तथा परमपिता के उस उद्देश्य का क्या होगा जिसके लिए हमारी रचना हुई !आध्यात्म में हमेशा चर्चा का विषय रहा है कि हमें जिसने बनाया है वो कौन है, कहाँ है और हम उसे कैसे प्राप्त कर सकते हैं !जबकि चर्चा का यह विषय होना चाहिए कि हम क्यों है, हमारे रचनाकार का हमें रचित करने का उद्देश्य क्या है और क्या हम उसे पूरा कर रहे हैं ! हमारे द्वारा निर्मित बल्ब उजाला न देकर यदि हमें ही जानने में लग जाय तो हम उसे फ्यूज घोषित कर देते है ! इसी तरह यदि हम सिर्फ उजाला कर रौशनी दें अपने रचनाकार को जाने या न जाने कोई फर्क नहीं पड़ता, न रचनाकार को न हमको उद्देश्य विहीन ज्ञान पागल पन है बेकार है क्या जनक जैसे ब्रम्हवेत्ता, कृष्ण जैसे तत्वज्ञानी या विवेकानंद जैसे बुद्धिमान एवं परमात्मप्राप्त उपरोक्त वर्णित स्वाभाविक स्थिति में थे।

जगत की हर रचना है गुरु

गुरु पूर्णिमा के अवसर पर हर धर्मावलंबी अपने गुरु के प्रति श्रद्धा और आस्था प्रगट करता है। जीवन में सफलता के लिए हर व्यक्ति गुरु के रुप में श्रेष्ठ मार्गदर्शक, सलाहकार, समर्थक और गुणी व्यक्ति के संग की चाहत रखता है। इसलिए वह गुरु के रुप में किसी संत, अध्यात्मिक व्यक्तित्व या किसी कार्य विशेष में दक्ष और गुणी व्यक्ति को चुनना चाहता है।

किंतु इस धारणा के विपरीत पुराणों में आए प्रसंग यह संदेश देते है कि अगर मन में लगन हो, इच्छा शक्ति हो, कुछ जानने, सीखने का दृढ संकल्प हो तो कोई भी व्यक्ति गुरु को कहीं भी पा सकता है। क्योंकि गुरु की महिमा ही ऐसी है कि ईश्वर की तरह गुरु हर जगह मौजूद है। सिर्फ चाहत और दृष्टि चाहिए गुरु को पाने और देखने की।

जगद्गुरु दत्तात्रेय ऐसे ही शिष्य के रुप में भी प्रसिद्ध हैं। जिनके अनेक गुरु हुए। जबकि उन्होनें किसी से गुरु दीक्षा नहीं पाई थी। आखिर यह कैसे संभव हुआ। बात वही थी-ज्ञान पाने की ललक। गुरु दत्तात्रेय ने समस्त जगत में मौजूद हर वनस्पति, प्राणियों, ग्रह-नक्षत्रों को अपना गुरु माना। जिनकी प्रकृति और गुणों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। इनकी संख्या २४ थी। इनमें प्रमुख रुप से पृथ्वी, आकाश, वायु, जल, सूर्य, चंद्र, कबूतर, मधुमक्खी, हाथी, अजगर, पतंगा, हिरण, मछली, गरुड़, मकड़ी, बालक, वैश्या, कन्या, बाण प्रमुख थे। जिनसे उन्होंने कोई गुरु मंत्र और शिक्षा नहीं ली। मात्र इनकी गति, प्रकृति, गुणों को देखकर अपनी दृष्टि और विचार से शिक्षा पाई और आत्म ज्ञान पा लिया। इससे ही श्री दत्तात्रेय जगद्गुरु बन गए।

गुरु दत्तात्रेय ने जगत को बताया कि मात्र देहधारी कोई मनुष्य या देवता ही गुरु नहीं होता। बल्कि पूरे जगत की हर रचना में गुरु मौजूद है। यहां तक कि स्वयं के अंदर भी। जिनको देखना और जानना बहुत जरुरी है।

क्यों करें भगवान से पहले गुरु की पूजा?
हिन्दू धर्म में आषाढ़ पूर्णिमा गुरु भक्ति को समर्पित गुरु पूर्णिमा का पवित्र दिन भी है। भारतीय सनातन संस्कृति में गुरु को सर्वोपरि माना है। वास्तव में यह दिन गुरु के रुप में ज्ञान की पूजा का है। गुरु अज्ञान रुपी अंधकार से ज्ञान रुपी प्रकाश की ओर ले जाते हैं। गुरु धर्म और सत्य की राह बताते हैं। गुरु से ऐसा ज्ञान मिलता है, जो जीवन के लिए कल्याणकारी होता है।

गुरु शब्द का सरल अर्थ होता है- बड़ा, देने वाला, अपेक्षा रहित, स्वामी, प्रिय यानि गुरु वह है जो ज्ञान में बड़ा है, विद्यापति है, जो निस्वार्थ भाव से देना जानता हो, जो हमको प्यारा है। गुरु का जीवन में उतना ही महत्व है, जितना माता-पिता का। माता-पिता के कारण इस संसार में हमारा अस्तित्व होता है। किंतु जन्म के बाद एक सद्गुरु ही व्यक्ति को ज्ञान और अनुशासन का ऐसा महत्व सिखाता है, जिससे व्यक्ति अपने सद्कर्मों और सद्विचारों से जीवन के साथ-साथ मृत्यु के बाद भी अमर हो जाता है। यह अमरत्व गुरु ही दे सकता है। सद्गुरु ने ही भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम बना दिया। इसलिए गुरुपूर्णिमा को अनुशासन पर्व के रुप में भी मनाया जाता है। इस प्रकार व्यक्ति के चरित्र और व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास गुरु ही करता है। जिससे जीवन की कठिन राह को आसान हो जाती है।

जब अध्यात्म क्षेत्र की बात होती है तो बिना गुरु के ईश्वर से जुडऩा कठिन है। गुरु से दीक्षा पाकर ही आत्मज्ञान, ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है। हिन्दु धर्म ग्रंथों में गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश माना गया है।

गुरुब्र्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वरा:।
गुरुर्साक्षात् परब्रह्म तस्मै: श्री गुरुवे नम:॥

सार यह है कि गुरु शिष्य के बुरे गुणों को नष्ट कर उसके चरित्र, व्यवहार और जीवन को ऐसे सद्गुणों से भर देता है। जिससे शिष्य का जीवन संसार के लिए एक आदर्श बन जाता है। ऐसे गुरु को ही साक्षात ईश्वर कहा गया है। इसलिए जीवन में गुरु का होना जरुरी है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...
मनीष
ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....

Tuesday, October 7, 2025

प्राचीन रीति-रिवाज और परंपराएं (Prachin Riti Riwaj)



अनादि काल से एक ही परिपाटी चली आ रही थी, जिसमें की साधक और गुरू, चाहे वशिष्ठ हो या राम, कृष्ण हो या सांदीपन, दोनो ही गायत्री मंत्र युक्त संध्या व हवन करते थे एवं ॐकार के द्वारा ध्यान करते थे। इस तरह गायत्री संध्या से उस आदिशक्ति की उपासना पूर्ण होती थी और ॐकार के ध्यान के द्वारा परब्रहम् की उपासना सम्पूर्ण होती थी। प्राचीन महर्षियों ने पुरूष और प्रकृति की उपासना का यह विधान इतना श्रेष्ठ बनाया था, की इस विधान के करने वाले साधक को भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में सम्पूर्ण सफलता मिलती थी। वह सम्पूर्ण शक्तियों का मालिक बनते हुऐ, उस परमात्मा में लीन रहता था। सम्पूर्ण सुख-समृद्धि का भोग करते हुऐ मोक्ष को प्राप्त करता था। किन्तु समय का पहिया गतिशील है। प्रकृति में समय-समय पर बदलाव होते रहे हैं, उसी के अनुसार साधक की मन और बुद्धि भी बदलती है।

कालान्तर में गायत्री-संध्या के साथ-साथ अनेकों ही महापुरूषों ने तान्त्रिक-संध्या का विधान बनाया। जहाँ गायत्री-संध्या में गायत्री-मंत्र की ही उपासना होती थी एवं गायत्री ही सबकी अधिष्ठात्री होती थी। वहीं पर तान्त्रिक-संध्या में नये-नये देवता और मंत्र जुड़ने लगे। सर्वप्रथम जहाँ पर गायत्री को इष्ट माना जाता था, वहीं पर साधकों ने बाद में अपने अलग-अलग इष्ट बनाने प्रारम्भ कर दिये। जो साधक शिव को अपना इष्ट मानने लगा, वह शिव मंत्र के द्वारा ही संध्या करने लगा। यह शिव की तान्त्रिक-संध्या कहलाई। इस सम्प्रदाय को मानने वाले साधकों ने जो अपना मत बनाया वह शैव-मत कहलाया। भगवान शिव के उपासकों में घन्टाकर्ण नाम का एक ऐसा उपासक भी हुआ, जिसने अपने कानों में घन्टे लटका लिये। अगर उसके सामने कोई भी व्यक्ति या साधक भगवान शिव के नाम के अलावा, किसी भी दूसरे देव का नाम लेता था, तो वह अपने सिर को हिलाने लगता था। जिससे कि उसके कानों में बंधे हुऐ घन्टे बजने लगते थे और किसी दूसरे देव का नाम उसे सुनाई नहीं पड़ता था।

इसी तरह शैव-मत के बाद वैष्णव-मत सामने आया, जिसमें कि राम, कृष्ण और विष्णु की मुर्ति-रूप में सुन्दर प्रतीक बनाये जाने लगे और विष्णु के मंत्रो के द्वारा ही संध्या की जाने लगी। उसके कुछ समय बाद दस महा-विद्या सामने आई और इन महा-विद्याओं के मंत्रों के द्वारा तान्त्रिक-संध्या करने वाले साधक शाक्त कहलाये, यहीं से कलियुग का प्रारम्भ हुआ और धीरे-धीरे यह तीनों ही मत फलने-फूलने लगे। जिस तरह गायत्री-संध्या के बाद तान्त्रिक-संध्या आई, उसी तरह शक्ति मत के भी दो मत हो गये। शक्ति-मत में दस महा-विद्याओं की तान्त्रिक-संध्या करने वाले व्यक्ति दो कुलों में विभाजित हो गये। एक श्रीकुल कहलाया एवं दूसरा कालीकुल । यहाँ तक दोनों कुलों की उपासना करने वाले, तन्त्र के साथ-साथ ब्रहम् को भी मानने वाले थे। धीरे-धीरे ये दोनों कुल भी दो भागों में बँट गये। एक दक्षिण-मार्गी और दूसरा वाम-मार्गी। दक्षिण-मार्गी उन को कहा गया, जो कि काली-कुल के अन्तर्गत आने वाली शक्तियों की उपासना सात्विक रूप से करते थे। प्रारम्भ में दोनों कुलों के उपासक सात्विक ही थे, किन्तु बाद में जब इसके दो भेद हो गये, तो दक्षिण-मार्गी सात्विक कहलाऐ एवं वाम मार्गी तामसिक। सात्विक मार्ग में अनादि काल से ले कर आज तक बहुत कम बदलाव आया जो थोड़ा बहुत बदलाव आया, तो वह यह था कि अपने इष्ट के सामने प्रतीक रूप में घी की बजाय तेल का दिया जलाना। आज भी कुछ साधक शक्ति मार्ग में घी का दीपक जलाते है, तो कुछ सरसों के तेल का और कुछ तिलों के तेल का। दुसरा जो बदलाव आया वह वस्त्र का था।

सात्विक शक्ति उपासक अपनी इच्छा के अनुसार सफेद या लाल कपड़े का इस्तेमाल करने लगे। जबकि तामसिक साधक अधिकतर काले कपड़ो का इस्तेमाल करने लगे।कोई काली को बड़ा मानता तो कोई तारा को और कोई श्रीविद्या को। अनेकों ही शक्ति की साधना-उपासना करने वालों ने अपने-अपने ग्रन्थ लिखे और अपने-अपने इष्ट को सम्पूर्ण बताया। छोटे-बड़े का मत भेद बढ़ता चला गया। किन्तु अन्तः करण से सभी उस अनादि शक्ति को ही अपने इष्ट-रूप में मानते थे। सभी साधक यही कहते थे कि सभी महा-विद्याऐं उस आदिशक्ति का ही अंश रूप है। किन्तु अंश रूप में भी सभी भेद रखते थे। जिस प्रकार वैष्ण्व मत में राम को 14 कला अवतार एवं कृष्ण को 16 कला अवतार माना जाता है। उसी प्रकार शाक्त मत में भी यही भेद था, किन्तु धीरे-धीरे इनके अधिकार क्षेत्र बांट दिये गये। हर महाविद्या को एक सीमित क्षेत्र में सीमित कर दिया गया। जब की वह महाविद्या अपने आप में सम्पूर्ण थी। जहाँ दुष्टों के नाश का अधिकार क्षेत्र बगलामुखी को दिया गया, वहीं धन का अधिकार क्षेत्र कमला-महाविद्या को दिया गया। काली को जो अधिकार क्षेत्र दिया गया वह शक्ति का था और तारा का अधिकार क्षेत्र ज्ञान की वृद्धि के लिये था। भुवनेश्वरी का अधिकार क्षेत्र आकस्मिक धन प्राप्ति के लिऐ होता था। वहीं मातगीं का अधिकार क्षेत्र वशीकरण, आकर्षण एवं विद्या क्षेत्र था। जहाँ शरीर के ताप को मिटाने का और तान्त्रिक द्वारा अभिचार कर्म को काटने का अधिकार क्षेत्र धूमावती के पास था। वहीं साधक की इच्छाओं की पूर्ती का अधिकार क्षेत्र छिन्नमस्ता के पास है। जहाँ मन, इच्छा अनुसार स्त्री या पुरूष की प्राप्ति का अधिकार क्षेत्र त्रिपुर-भैरवी के पास है। यह साधकों के अन्दर भय का नाश करती है। वहीं सम्पूर्ण सुख-समृद्धि एवं ऐश्वर्य प्राप्ति का अधिकार क्षेत्र श्रीविद्या राज-राजेशवरी त्रिपुर-सुन्दरी के पास है।

शक्ति उपासकों का जो दुसरा वाम मार्गी मत था, उसमें शराब को जगह दी गई। उसके बाद बलि प्रथा आई और माँस का सेवन होने लगा। इसी प्रकार इसके भी दो हिस्से हो गये, जो शराब और माँस क सेवन करते थे, उन्हे साधारण-तान्त्रिक कहा जाने लगा। लेकिन जिन्होने माँस और मदिरा के साथ-साथ मीन(मछली), मुद्रा(विशेष क्रियाँऐं), मैथुन(स्त्री का संग) आदि पाँच मकारों का सेवन करने वालों को सिद्ध-तान्त्रिक कहाँ जाने लगा। आम व्यक्ति इन सिद्ध-तान्त्रिकों से डरने लगा। किन्तु आरम्भ में चाहे वह साधारण-तान्त्रिक हो या सिद्ध-तान्त्रिक, दोनों ही अपनी-अपनी साधनाओं के द्वारा उस ब्रहम् को पाने की कोशिश करते थे। जहाँ आरम्भ में पाँच मकारों के द्वारा ज्यादा से ज्यादा ऊर्जा बनाई जाती थी और उस ऊर्जा को कुन्डलिनी जागरण में प्रयोग किया जाता था, ताकि कुन्डलिनी जागरण करके सहस्त्र-दल का भेदन किया जा सके और दसवें द्वार को खोल कर सृष्टि के रहस्यों को समझा जा सके। किन्तु धीरे-धीरे पाँच मकारों का दुर-उपयोग होने लगा और यह पाँच मकार सिर्फ स्वार्थ सिद्धि, नशा और काम वासना की पुर्ति के साधन मात्र ही रह गये।

कोई माने या न माने लेकिन यदि काम भाव का सही इस्तेमाल किया जा सके तो इससे ब्रहम् की प्राप्ति सम्भव है।इसी वक्त एक और मत सामने आया जिसमें की भैरवी साधना या भैरवी चक्र को प्राथमिकता दी गई। इस मत के साधक वैसे तो पाँचो मकारों को मानते थे, किन्तु उनका मुख्य ध्येय काम के द्वारा ब्रहम् की प्राप्ति था इसी समय में शैव-मत में से एक मत अलग हो कर बाहर आया जिसे अघोर-मत कहा जाने लगा। आघोर-मत को मानने वाले साधक नशे के रुप में गाँजे का सेवन करते थे एंव श्मशान में बैठ कर तामसिक शिव या भैरव मंत्रों का जाप करते थे। प्रारम्भ में जहाँ नशा करके चेतन मन को शान्त कर दिया जाता था और अवचेतन मन के द्वारा परमात्मा के नाम का जाप किया जाता था। वहीं बाद में परमात्मा के ‘ॐ’ नाम को छोड़ कर विभिन्न मंत्रों का जाप होने लगा। धीरे-धीरे यह साधक पर-ब्रहम् को भूल कर आम व्यक्तियों को चमत्कार दिखाने की खातिर शव-साधना करने लगे। ऐसे मंत्रों का निर्माण हुआ जिन के द्वारा तुच्छ सिद्धियाँ प्राप्त करके आम जनता को चमत्कार दिखाया जा सके। आज वाम मार्गीयों का सबसे वीभत्स रूप हमारे सामने है। आज के समय में साधारण-तान्त्रिक, सिद्ध-तान्त्रिक, भैरवी-मत को मानने वाले या अघोर आदि अधिकतर साधक उस परमात्मा को भूल ही गये है। अगर ऐसा नहीं होता तो आज जो तान्त्रिकों का विभत्स रूप हमारे सामने है, वह नहीं होता।

ब्रहम् को मानने वाला तान्त्रिक अपनी शक्तियों का कभी दुर-उपयोग नहीं करेगा।लेकिन आज अधिकतर तान्त्रिक अपनी सिद्धियों का दुर-उपयोग के अलावा और कहीं इस्तेमाल नहीं करते। प्रारम्भ का तान्त्रिक जहाँ ब्रहम् का उपासक होता था, वहीं आज का तान्त्रिक पैसे का उपासक बन गया है। कुछ सौ वर्षों पहले एक नई विद्या प्रकाश में आई। इसको मानने वाले भी अपने आप को तान्त्रिक, ओझा या गुणी कहते थे। अगर इस विद्या का सही इस्तेमाल किया जाऐ तो, आम व्यक्ति को काफी हद तक फायदा हो सकता है। किन्तु इससे ब्रहम् की प्राप्ति सम्भव नहीं है। इस विद्या को मानने वाले साबर-मंत्रों का प्रयोग करते है। इस विद्या का अपना कोई नाम नहीं है। किन्तु साबर-मंत्रों का इस्तेमाल करने वालों को ओझा या गुणी ही कहा जाता है। नाथ समप्रदाय में ‘बाबा मछन्दर नाथ’ के शिष्य ‘गुरू गोरक्ष नाथ जी’ थे। गुरू गोरक्ष नाथ जी ने साबर-मंत्रों की रचना साधारण व्यक्तियों के लिये की। जिससे की वे साबर-मंत्रों का प्रयोग करके सुख-समृद्धि को प्राप्त कर सके। आज के समय में साबर-मंत्रों के उपर अनेकों ग्रन्थ देखने में आते है, पर इन ग्रथों के अन्दर न तो सही विधि-विधान लिखा हुआ है और न ही सम्पूर्ण मंत्र लिखें हुऐ हैं। साबर-मंत्रों में जो सिद्ध मंत्र है, वह आज भी गुरू परम्परा के अनुसार चले आ रहे हैं । अगर कोई साधक गुरू से प्राप्त साबर-मंत्र का जाप करता है, तो उसे सभी भौतिक सुखों की प्राप्ति होती है। साथ ही इन मंत्रों के द्वारा लोक-देवताओं की सिद्धि भी सम्भव है। गोरक्ष नाथ जी द्वारा रचित साबर-मंत्रों में काली, भैरव, हनुमान की सिद्धि, वीर सिद्धि, मन इच्छा अनुसार खाद्य-पदार्थ सामग्री को प्राप्त करने हेतु वेताल सिद्धि आदि है। किन्तु आज के समय में साबर-मंत्रों का भी दुर-उपयोग होने लगा है।

प्रारम्भ का तान्त्रिक केवल 10 महा विद्याओं को मानता था, किन्तु जैसे-जैसे समय बदलता चला गया वैसे-वैसे साधक 10 महा विद्याओं की कठिन साधना से बचने लगे और जो दुसरा तान्त्रिक पड़ाव आया उस में 10 महाविद्याओं कि जगह, 9 दुर्गाओं ने ली। कहने का तात्पर्य यह है कि आम व्यक्ति दस महा विद्याओं की कठिन साधनाओं को छोड़ कर नौ दुर्गाओं की साधना करने लगा और इस प्रकार नवरात्रों का प्रारम्भ हुआ। कहने को तो यह 9 दुर्गायें आदिशक्ति माता पार्वती का ही रूप है। किन्तु इनकी शक्तियाँ एवं कार्य क्षेत्र अगल-अगल है। इन्ही नौ दुर्गाओं के आधार पर नवरात्रे शुरू हुऐ, जिसमें कि तान्त्रिक साधक आदिशक्ति के नाम पर उपवास रखतें है और अपनी इच्छा अनुसार दुर्गा के किसी एक रूप की साधना करते है। आज भी अनेकों साधक इसी नियम को मानते हुऐ साधना करते आ रहे है। किन्तु इन साधकों में भी दो मत बन गये- एक सात्विक दुसरा तामसिक। सात्विक साधक साधना पूर्ण होने पर खीर-हलवे आदि का भोग लगाते है। किन्तु तामसिक साधक साधना पूर्ण होने पर मदिरा और बकरे आदि कि बलि लगाते है। सिद्धियाँ दोनों ही साधकों को प्राप्त होती है और दोनों ही साधक अपनी इच्छा अनुसार अपनी सिद्धियों का उपयोग करते है। किन्तु जो साधक लोक-कल्याण में अपनी सिद्धि का उपयोग करता है, वह सद्गति को प्राप्त होता है। और जो साधक अपनी सिद्धि का दुर-उपयोग करता है, वह दुर्गति को प्राप्त होता है।

शैव-सम्प्रदाय को मानने वाले तान्त्रिक शिव के साथ-साथ धीरे-धीरे भैरव की उपासना करने लगे। भैरव-साधना को स्थापित करने के पीछे जो मूल कारण था, वह यह था कि साधक का तामसिक होना। क्योंकि भगवान शिव कि साधना सात्विक है। इसलिऐ शिव-संप्रदाय में जो तामसिक साधक पैदा हुऐ, उन्होंने भैरव-साधना प्रारम्भ कि और साथ ही माँस-मदिरा का सेवन प्रारम्भ कर दिया। यहीं से तान्त्रिकों में व्यभिचार उत्पन्न हो गया। क्योंकि जो साधक सात्विक से तामसिक बन गया हो, तो उस कि तामसिकता का अन्त सहज नहीं होता। धीरे-धीरे भैरव-उपासकों ने एवं नौ दुर्गा उपासकों ने अपने आप को नीचे कि तरफ गिराना प्रारम्भ कर दिया। धीरे-धीरे मूल साधनाऐं और सात्विक साधनाऐं समाप्त होने लगी और सभी जगह तामसिकता ने स्थान ग्रहण कर लिया। नौ दुर्गाओं का स्थान 64 योगनियों ने ले लिया और साथ-ही-साथ डाकनी, शाकनी की पूजा, नवदुर्गा के सात्विक और तामसिक साधकों ने प्रारम्भ कर दी। दुसरी तरफ भैरव-साधना करने वाले साधक भूत, प्रेत की सिद्धि करने लगे। इन साधकों का मुख्य ध्येय यही था कि आम व्यक्तियों को अपनी सिद्धि का चमत्कार दिखाया जा सके और चमत्कार के द्वारा अपना स्वार्थ सिद्ध किया जा सके। तान्त्रिकों का व्यभिचार बढ़ता चला गया।

तन्त्र के इस वीभत्स रूप को देख कर आम व्यक्ति सामने आया, जो शास्त्रों कि बड़ी-बड़ी सिद्धियों को तो नहीं कर सकता था। अपितु वह परमात्मा के लिये श्रद्धा और भावना से भरा हुआ था। इन आम व्यक्तियों ने छोटे-छोटे मंत्र जिनकों कि यह असानी से याद कर सकते थे, उनका जाप प्रारम्भ कर दिया। इन मंत्रो में अधिकतर साबर मंत्र थे, क्योंकि साबर मंत्र आम बोल-चाल कि भाषा में होते थे और इन्हे याद करना भी आसान होता था। कहते हैं कि श्रद्धा में शक्ति होती है और इन आम व्यक्तियों कि श्रद्धा रंग लाई और ओझा-गुणीयों का मत प्रारम्भ हो गया। ये ओझा-गुणी-साधक न तो कोई लम्बा चौड़ा विधान जानते थे और न ही कोई विशेष कर्म-कांड करते थे। यह साधक तो श्रद्धा और भावना से भरे हुऐ थे। धीरे-धीरे तन्त्र-सम्प्रदाय मिटने लगा और ओझा-गुणीयों का समप्रदाय फलने-फुलने लगा। आम व्यक्ति या जन-मानस को अत्यधिक फायदा होने लगा। अधिकतर हर छोटी-बड़ी समस्याओं का ईलाज, इन साधकों के पास होता था और ये साधक नि-स्वार्थ भाव से जन-सेवा करते थे। एक समय ऐसा भी आया जब तान्त्रिकों और इन साधकों में टकराव उत्पन्न हुआ। जिस में तान्त्रिकों कि हार हुई और इन श्रद्धा से भरे हुऐ साधकों कि जीत हुई। इस जीत से भी इस सम्प्रदाय को बल मिला और धीरे-धीरे यह सम्प्रदाय, एक छोटे से गाँव से ले कर शहरों तक फैलता चला गया।

इस सम्प्रदाय कि मुख्य पहँचान यही थी कि यह साधक सात्विक होते हुऐ भी श्रद्धा और भावना से भरे हुऐ थे। मंत्रो के नाम पर सिर्फ अपने देवता का नाम लेते थे और हर समस्या का समाधान करते थे। यह साधक लोक-देवताओं को प्रधान मानते हुऐ, निष्कपट भाव से उनकी सेवा करते थे। जहाँ तान्त्रिक अनुष्ठान करके सिद्धि को प्राप्त करते थे, वहीं यह साधक अपने लोक-देवता को स्नान आदि करा कर या सिर्फ अपने घर में ही एक अलग स्थान बना कर, अपने देवता के नाम का एक अलग दीपक(चिराग) जलाते थे। इतना भर करने से ही उन्हें उस देवता कि कृपा प्राप्त होती थी। जो साधक मन, क्रम, वचन से अधिक पवित्र होता था, उसे उतनी ही जल्दी उस देवता कि कृपा प्राप्त होती थी। इन साधकों ने अपने लोक-देवताओं में जिनको मुख्य स्थान दिया- उन में हनुमान जी, भैरव जी, क्षेत्रपाल, कुल देवता (अपने कुल की परम्परा में जिस देवता की पूजा होती थी), ग्राम देवता(गाँव में जो प्रधान देवता होता है), नगर देवता(सम्पूर्ण नगर का श्रेष्ठ देवता, जैसे कि दिल्ली में कालका जी)। सिर्फ इतना ही नहीं, इन साधकों ने हिन्दु और मुस्लिमों का भेद भाव त्याग कर सयैद, पीर, परी आदि कि साधना भी प्रारम्भ की। प्रत्येक साधक अपनी गुरू परम्परा के अनुसार या अपनी इच्छा अनुसार देवताओं की पूजा करने लगा। इन्हीं साधकों ने कुछ समय बाद सात-माताओं की पूजा पर बल दिया और हर गाँव या नगर में, एक छोटे से मन्दिर के रूप में इन सात माताओं कि स्थापना होने लगी। साधकों के साथ-साथ आम व्यक्ति भी इन माताओं की पूजा करते लगा। आज भी होली से ठीक सात दिन बाद जो शीतला माता की पूजा होती है, वह वास्तव में सात माताओं कि पूजा होती है।

सात माताओं कि सहज पूजा के मूल में दस महाविद्याओं में से सात महाविद्याओं का रहस्य छिपा हुआ है। दस महाविद्याओं कि साधना कठिन होने कि वजह से इन्हें सात-माताओं का सुक्ष्म रूप दिया गया। दस में से सात को स्थान देने के पीछे जो रहस्य था, वह यही था कि दस महाविद्याओं में से सात महाविद्याऐं सात्विक और तामसिक दोनों है। इसलिऐ एक नई परिपाटी प्रारम्भ की ताकि सात्विक और तामसिक दोनों ही साधक अपनी इच्छा अनुसार पूजा कर सके। क्योंकि ओझा-गुणीयों में भी धीरे-धीरे तामसिकता आने लगी थी। आज भी इन सात-माताओं की पूजा सात्विक और तामसिक दोनों साधक अपने-अपने ढंग से करते है एवं हिन्दु धर्म की लगभग सभी जातियाँ इनकी पूजा करती है, चाहे वह क्षत्रिय हो या ब्राह्मण, वैश्य हो या शुद्र। इससे जो सबसे बड़ा फायदा हुआ, वह यह था कि दोनों ही तरह के साधक एक ही जगह बन्ध कर रह गये। जहाँ पुरानी परिपाटी में सात्विक-सात्विक था और तामसिक-तामसिक, वहीं इस नई परिपाटी में दोनों एक हो गये और जन-मानस को फायदा होने लगा। सात-माताओं कि स्थापना गाँव कि सीमा पर की जाती थी। इससे साधकों को दुसरा जो सबसे बड़ा फायदा था, वह यह था कि यह सात-माताऐं उस गाँव को प्रत्येक अला-बला और बिमारियों से सुरक्षा प्रदान करती थी।

इन सात-माताओं के साधकों में से कुछ साधक व्यभिचार होकर श्मशान की साधनाओं की तरफ बढ़ने लगे। श्मशान की तरफ बढ़ने वाले ये साधक, भैरव-साधकों की तरह भूत, प्रेत या शव-साधना नहीं करते थे। बल्कि ये मसान और कलवों की पूजा करने लगे। इस पूजा में यह लोग मरे हुऐ छोटे बच्चों के शव को बाहर निकालतें और उस कि सिद्धि करते, जिसे कलवा सिद्धि या मसान सिद्धि कहाँ जाता है। इन साधकों कि यह सिद्धि प्रारम्भ में लोक-कल्याण कारक थी, किन्तु कुछ समय बाद इसका भी वीभत्स रूप आम व्यक्ति को देखने को मिला। मसान आदि की सिद्धि करने वाले साधक धीरे-धीरे लोभ में फँसने लगे और जहाँ ये साधक प्रारम्भ में जन सेवा करते थे या दुष्टों का मूठ या घात चला कर नाश करते थे। वहीं बाद में ये साधक पैसा ले कर किसी के उपर भी मूठ या घात चलाने लगे जिससे कि आम जन-मानस परेशान हो उठा। ऐसे दुष्ट-साधकों से बदला लेने के लिये वीर-सिद्धि के साधक सामने आये। इसमें पाँच-वीरों की साधना को प्रधानता दी गई। इन पाँच-वीरों को एक चिराग या पाँच चिराग जला कर और सफेद रंग का कोई भी प्रसाद लगा कर सिद्ध किया जाता था। इन पाँच-वीरों में जो मुख्य स्थान मिला वह गुगाजी(जाहर वीर) को था। गुगाजी को जाहर वीर भी कहा जाता है। जाहर वीर के झन्ड़े तले पाँच वीरों की स्थापना हुई और 52 वीरों का जन्जीरा बना। कुछ साधक 52 वीरों के जन्जीरे को, 52 डोर के नाम से भी जाना जाता है। पाँच वीरों में जाहार वीर, हनुमन्त वीर, नाहरसिहं वीर, अंघोरी वीर, भैरव वीर मुख्य थे। 52 वीरों के जन्जीरे के पाँच मालिक हैं। सात्विक और तामसिक देवताओं का यह अनुठा गठबन्धन था। इन वीरों में जहाँ जाहर वीर और हनुमन्त वीर सात्विक है, वहीं नारसिहं, भैरव वीर और अंघोरी वीर तामसिक है। इस की जो स्थापना की गई, उसमें सात्विक और तामसिक दोनों ही पूजा विधान रखे गये। इस साधना में भी श्रद्धा और भावना को प्रधान माना गया। किन्तु पाँच वीरों की साधना करने वाला साधक, अपनी इच्छा अनुसार अपनी सिद्धि का इस्तेमाल नहीं कर सकते थे।

यहाँ पर साधक या आम व्यक्ति केवल अर्जी लगा कर (प्रार्थना करके) छोड़ देता है। उस अर्जी का फैसला उन पाँच वीरों के हाथ में होता है। ये पाँच वीर साधक की अर्जी को सुनकर, उसके भाग्य, कर्म, श्रद्धा और भक्ति को देख कर ही फैसला करते है। हिन्दुओं की इस नई व्यवस्था को देख कर ही, मुस्लिम सम्प्रदाय में भी पाँच पीरों की स्थापना हुई। इन पाँच पीरों को कुछ साधक पाँच-बली भी कहते है। अस्त बली, शेरजंग, मोहम्मद वीर, मीरा साहब और कमाल-खाँ-सैयद जैसी व्यवस्था पाँच पीरों-वीरों की साधना में थी। वैसी ही परम्परा और व्यवस्था पाँच पीरों में थी जैसी कि पाँच वीरों में थी। दोनों ही मतों में श्रद्धा और भावना प्रदान थी। आज के समय में इस परम्परा का रूप अनेकों ही जगह देखा जा सकता है। धीरे-धीरे पाँच हिन्दू वीर और पाँचों मुस्लमानी पीर इकठ्ठे पूजे जाने लगे। अधिकतर हिन्दू पाँच वीरों के साथ-साथ पाँच पीरों को भी मानने लगे। जहाँ पाँच वीर साधक और आम व्यक्ति को सुरक्षा प्रदान करते हुऐ, दुष्टों का विनाश करते थे, वहीं पाँचों पीर सुख और समृद्धि प्रदान करते थे। इसी प्रकार सिख धर्म में भी पंच प्यारे हैं।

धीरे-धीरे आवेश का प्रचलन प्रारम्भ हुआ जो साधक बदन को हिलाते अर्थात झुमते हुऐ लोगों कि समस्याओं का समाधान करने थे। ऐसे साधकों के बारे में कहा जाता है कि इस साधक के अन्दर देवता की आत्मा ने प्रवेश किया हुआ है। साधक के शरीर में किसी भी देवी या देवता की आत्मा का प्रवेश करना आवेश कहलाता है। ऐसे साधक जोर-जोर से हिलने लगते है और अपने पास आये हुऐ आम व्यक्तियों का ईलाज करते है। इस व्यवस्था में आम व्यक्ति और देवता के बीच कोई माध्यम नहीं होता अपितु आप व्यक्ति सीधे ही देवता से बात करके अपनी समस्या का समाधान पाता है।

साधना का यह प्रयोग भी आम व्यक्तियों के बीच में काफी प्रचलित है। किन्तु सही मायने में यह क्रिया तभी फलीभूत है, जब साधक गुरू के सान्निध्य में इस साधना को बार-बार करे। क्योंकि ऐसा न करने वाले साधक को अनेकों ही परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। मान लीजिऐ किसी साधक के अन्दर देवता के आवेश की बजाऐ किसी भूत या प्रेत का आवेश आ गया और उसे देवता का आवेश मान कर वह साधक जन-कल्याण करने लगा तो सम्भव है, कि आम व्यक्ति की समस्याऐं तो दूर होने लगेगीं, किन्तु साधक और उसके परिवार को अनेकों ही परेशानियों का सामना करना पड़ेगा। आज अनेकों ही ऐसे साधक हैं, जिन में देवता का नहीं बल्कि भूत-प्रेतों का आवेश आता है।

जिसके द्वारा वह जन कल्याण करते हैं। किन्तु साधक व उसका परिवार अनेकों ही परेशनियों से घिरा रहता है। अगर कोई उनसे कहे कि आप तो साधक हो देवता कि आप के ऊपर असीम कृपा है। फिर आप या आपके परिवार में परेशानी क्यों है। तो ऐसे साधक हँसकर यही जवाब देते हैं, कि जैसी देवता की इच्छा। अगर अधिक जोर देकर उनसे पूछा जाऐ तो वह, यह कहते है, कि जिस प्रकार एक डॉक्टर अपना ईलाज़ स्वयं नहीं कर सकता उसी तरह हम स्वयं अपनी समस्या का समाधान नहीं कर सकते। जो साधक ऐसा कहते है, यह पूर्णतः मिथ्या प्रचार है। अगर आप मन, कर्म, वचन से पवित्र हैं और पूर्णतः देवता का ही आवेश है, तो आपके घर परिवार में किसी भी प्रकार की कोई भी परेशानी नहीं होगी। जिन साधकों के घरों में यह परेशानियाँ है, वह साधक मन, कर्म, वचन से पवित्र नहीं है अथवा देवता के आवेश के स्थान पर भूत या प्रेत का आवेश है। आज का जो समय है, इसमें सबसे ज्यादा जो देखने को तन्त्र मिलता है, वह ओझा, गुणी या आवेश वाले तान्त्रिकों का अधिक है। सिद्ध तान्त्रिक तो बहुत ही कम देखने को मिलते है। अघोर-विद्या के जो भी सिद्ध तान्त्रिक थे, वह भी धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे है। भैरवी-साधना का तो बड़ी मुश्किल से ही कोई नाम लेवा बचा है। कोई माने या न माने किन्तु सभी साधनाऐं धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है।

इसके मूल में जो कारण है, वह यही है कि तान्त्रिकों का व्यभिचारी होना एवं शिष्यों की आस्था का न होना। जब तक गुरू और शिष्य दोनों के ही अन्दर श्रद्धा भाव नहीं होगा और दोनों ही ब्रहम् के प्रति समर्पित नहीं होगे, तब तक तन्त्र का उत्थान सम्भव नहीं है। प्राचीन काल में जो भी साधना की जाती थी, उसके मूल में गुरू और शिष्य का एक ही उद्देश्य होता था कि अधिक से अधिक ऊर्जा का इकट्ठा करना एव कुन्डलिनी-शक्ति को जाग्रत करते हुऐ, उस के द्वारा ब्रहम् को प्राप्त करना। ऊर्जा शक्ति को इकट्ठा करने हेतु, फिर चाहे सात्विक साधना करनी पड़े या तामसिक। साधना कोई भी क्यों न हो सभी साधनाऐं हमें ऊर्जा प्रदान करती है। अगर इस ऊर्जा का हम सही इस्तेमाल करें, तो हम पूर्ण ब्रहम् को प्राप्त कर सकते हैं। अगर हमारा उद्देश्य पवित्र है, तो फिर कोई भी शक्ति हमें उस परमात्मा से मिलने से रोक नहीं सकती।

हम सभी का कर्तव्य है कि एक बार फिर से एक नये युग की रचना हो और जितनी भी साधनाऐं लुप्त होती जा रही है, उन सबको पुनः स्थापित करें।अगर हमने समय रहते अपने आपको जागरूक नहीं बनाया तो एक दिन ऐसा आयेगा, जब हमारी सभी प्राचीन धरोहर समाप्त हो जायेगी। अगर हम ध्यान-पूर्वक अध्ययन करें तो कुछ वक्त पहले वेदों का अध्ययन सभी करते थे, किन्तु आज के समय में अधिकतर व्यक्तियों को तो चार वेदों के नाम तक भी मालूम नहीं है। कैसी विड़म्बना है कि जिन चार वेदों से यह सम्पूर्ण सृष्टि बनी है हमें उन का नाम तक याद नहीं। अगर यही हाल रहा तो एक समय ऐसा भी आयेगा, जब हम धीरे-धीरे करके सब कुछ खो चुके होगें। किन्तु कहते है कि ‘फिर पछतायेत होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत’ इसलिये हम आवाहन करते है, उन साधकों का जो सही मायने में हिन्दु धर्म कि सभ्यता को और हिन्दु धर्म के मूल तत्त्व श्रद्धा और भावना को बचाना चाहते है।

अगर हमने समय के रहते अपने आप को नहीं संभाला तो एक समय ऐसा भी आऐगा, जब हमारी हालत पश्चिमी सभ्यता से भी बुरी हो जाऐगी। पश्चिम के देशों की नकल करके हम अपने आप को महान समझ रहे है। ध्यान-पूर्वक अध्ययन करने पर पता चलता है कि आज वही पश्चिमी देश वेद-मंत्रों और गीता के ऊपर अनुसंधान (रिसर्च) कर रहे है। आर्य सभ्यता में 21 वीं सदी के अन्दर धीरे-धीरे जहाँ यह कहा जाने लगा है कि वेदों में क्या रखा है। वही पश्चिमी देशों ने वेदों का अध्ययन करके अपनी ध्यान-योग की शक्ति को इतना अधिक बढ़ा लिया है, कि जिसके बारे में हिन्दुस्तान का आम व्यक्ति सोच भी नही सकता। हिन्दुस्तान का आम व्यक्ति पश्चिमी सभ्यता की देन रेकी, लामाफैरा, क्रिश्टल-हीलिंग, फैंग-शूई, टच-थेरेपी आदि की तरफ भाग रहा है। वही पश्चिम का आम व्यक्ति हिन्दुस्तान के प्राचीन ग्रन्थों का अनुसंधान करने में लगा हुआ है। इसे हम अपना दुर्भाग्य ही कहगें कि आर्यों के पास सब कुछ होते हुऐ भी, वह पश्चिम के देशों की नकल कर रहा है। इसलिऐ हम सबको फिर से जागना होगा और जगाना होगा आम व्यक्ति को, ताकि लुप्त होती जा रही आर्य सभ्यता को समय के रहते बचाया जा सके।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...
मनीष
ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....