Monday, September 6, 2010

Thantrik Vidya (तान्त्रिक विद्या)

तान्त्रिक विद्या

तन्त्र ! एक मौन विस्फोट। जनसामान्य के सम्मुख तन्त्र का नाम आते ही अनेक भाव स्फूर्त होने लगते हैं। कभी व्यक्ति के मुख पर घृणा की रेखाएं कभी जुगुप्सा के भाव तो कभी कुतर्क भरे तर्कों की मुखरता, तो कभी (आपदग्रस्त व्यक्ति है तो) श्रद्धा और विश्वास तथा प्रशंसा के कृत्रिम मुखौटे सहजता से देखे जा सकते हैं।
स्वयं को भगवत्भक्त और आध्यात्मिक मानने वाले ऐसे अनेक व्यक्ति मिले जो आवश्यकता होने पर किंवा अकल्पित संकटापन्नवस्था में उनकी निरीहता देखते ही बनती है। उन्हें न तो मारीच बनने में कोई संकोच है और न ही पाणिपातता में।

तन्त्र के प्रति अधिकांशजनों में एकमेव यही भाव दिखाई देता है कि तन्त्र मारण, उच्चारण, वशीकरण तथा विद्वेषण आदि षट्कर्मों का ही शास्त्र है। अधिक-से अधिक तन्त्र को अपना कर व्यक्ति भूत प्रेत आदि निकृष्ट सिद्धियों से समाज को कष्ट दे सकता है इससे अधिक कुछ नहीं। दूसरे उन व्यक्तियों का सोचना है जो कुछ उदारमना हैं, किन्तु वे भी अपनी उदारता को प्रकट कर तन्त्र पर उपकार कर देना चाहते हैं. ऐसे जनों के अनुसार तन्त्र षट्कर्मों के अतिरिक्त लोकोपकारी विद्या भी है। इससे अधिक उनकी कथित उदारता आगे जाती भी नहीं है।

तृतीय बौद्धिक-चिन्तक और साधक वर्ग है यह वर्ग तन्त्र को आत्ममार्गण के रूप में तो स्वीकार करता ही है, आनन्दमार्गण मानने में भी संकोच नहीं करता। उनकी दृष्टि में यह भुक्ति ही नहीं ‘मुक्ति’ का प्रदाता मार्ग भी है। झाड़-फूँक कर रोग निदानक, मन्त्रों से, तान्त्रिक पद्धिति से, प्रेतादि ग्रहों से मुक्ति दिलाने वाले कथित साधकों को ही हमारे समाज में तान्त्रिक का पद प्राप्त है तो रसायनादि से चमत्कार दिखाकर जनसामान्य को भ्रमित करने वाले चतुर-चालाक ऐन्द्रिजालिकों को भी तान्त्रिक ही मान लिया जाता है। जबकि इस प्रकार के भ्रम फैलाने वाले और झाड़-फूँक कर आजीविका अथवा यश कमाने वाले दोनों ही तान्त्रिक नहीं हैं।

वर्तमान में ऐसे तान्त्रिकों की कमी नहीं है। पत्र-पत्रिकाओं में तान्त्रिक, तन्त्र सम्राट तन्त्र मर्मज्ञ, तन्त्र शिरोमणि जैसे स्वयंभू उपाधि धारकों के विज्ञापन आपको सहज ही मिल जायेंगे तो धनी (कथित) तान्त्रिक धनकुबेर अपने संस्थान के बने सिद्ध प्राण-प्रतिष्ठित यन्त्रों को भारी मूल्य पर बेचने में कोई संकोच नहीं करते। एक तन्त्राचार्य (जो अब शेष नहीं हैं) ने एक अत्याकर्षण मासिक पत्रिका प्रारम्भ की, जिसके प्रत्येक पृष्ठ पर मात्र उन्हीं का महिमामण्डन था। वे पृथक-पृथक देवताओं की मंत्रों की दीक्षा देते थे। प्रत्येक दीक्षा का शुल्क, माला का शुल्क, यन्त्र का शुल्क, उनसे मिलने का शुल्क मिलाकर दो हजार से अधिक रुपये, आना-जाना मार्ग व्यय अतिरिक्त। मन्त्र जाग्रत न हो तो (कभी किसी साधक को सफलता मिली अथवा नहीं ? ज्ञात नहीं है) पुनः उसी मंत्र की दीक्षा। एक बार फिर प्रारम्भ से प्रयास, उतने ही रुपयों का पुनः अपव्यय।

इस प्रकार का छल निश्चय ही अपराध है, ऐसा अपराध जो अक्षम्य है, किन्तु ऐसे ठगों को कौन दण्डित करे ? हमारी विधि संहिता के संरक्षकों को प्रथम तो इतना अवकाश ही नहीं है जो ऐसे पाखण्ड और पाखण्डियों को रोकें। द्वितीय अगर है भी तो वे ही उस कुचक्र में फँसे हुए हैं। कहीं राजनैतिक विवशता है तो कहीं तन्त्र से अनिष्ट का भय। डर है कि ऐसे व्यक्तियों पर न्यायालयीन कार्यवाही की तो वोट नहीं मिलेंगे अपयश होगा। विवशता है, जान-बूझकर हम उन पाखण्डियों के अशोभन को भोगने में विवश हैं।

इसके विपरीत जो वास्तविक अर्थों में तान्त्रिक है उसकी ओर हमारा ध्यान ही नहीं है। क्योंकि वह विज्ञापनहीन है, परोपकारी कर्म का सौदा नहीं करता, सुनहरे सपनों को नहीं बेचता। उसका मूल उद्देश्य मात्र पराम्बा का नित्यार्चन है, जीवनोमुक्ति ही उसका लक्ष्य है। वह स्वयं को न तो तान्त्रिक कहता है न ही मान्त्रिक। ऐसे व्यक्ति को निकट से देखने का अवसर मिला जो वास्तव में ही तन्त्र-पथिक है पर उसने कभी श्मशान में जाकर साधना नहीं की, किसी को अपने तन्त्र बल से डराया-धमकाया नहीं। हाँ, उससे एक भूल अवश्य हुई, वह यह कि जीवन लक्ष्य से भटके अशान्त और अभिशप्त लोगों को सदमार्ग पर चलाने का सोच लिया। उसने कलम का आश्रय लेकर अपने साधनागत अनुभव अन्य साधकों से प्राप्य तन्त्रोक्त अनुभवों को लिपिबद्ध कर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कराना प्रारम्भ कर दिया।

उस कृपामय व्यक्तित्व के पास जनसम्मर्द एकत्र होने लगा। वह सोत्साह बिन किसी शुल्क दक्षिणा आदि के मित्रभाव से जनसंकुल को सद्मार्ग भगवत भक्ति आदि के लिए प्रेरित करने लगा। सरलमनः सन्त हृदय संसार के छल को कभी नहीं पहचान सकता। उसके यश और लोकप्रियता से द्वेष कर उसके अपने कथित स्नेहियों ने ही उसका कुप्रचार प्रारम्भ कर दिया तो जो उससे दूर रहकर विद्वेषी थे, उन्होंने तो उसे नष्ट कर देने का बीड़ा ही उठा लिया। एक छोटा-सा आदमी, इतना लोकप्रिय कैसे हो गया ? उसके पास नित्य ही ढेरों पत्र और अनेक जन क्यों आने लगे ? किन्तु इन सब विघ्नों से परे वह अपना कार्य करता रहा।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....मनीष

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