Thursday, November 5, 2020

जीवन जीने की राह (Jeevan Jeene Ki Rah11)

 अपना भला करें पर दूसरों का बुरा न हो....

निज हित की कामना सभी के भीतर होती है। कोई भी काम करना हो, अपना भला जरूर हो ऐसी भावना सभी रखते हैं। लोग अपने भले के लिए ही कार्य आरंभ करते हैं। बहुत कम लोग होते हैं जो अपना भी अच्छा हो जाए और दूसरे का बुरा भी न हो ऐसी वृत्ति रखते हों। ऐसी वृत्ति हो तो अपनी भलाई सोचना स्वार्थ नहीं होगा। हमें स्वार्थ छोड़कर ऐसे काम जरूर करने चाहिए, जिनसे दूसरों का भला हो। कैसे अपना भला हो जाए, दूसरे का बुरा न हो यह श्रीराम से सीखा जा सकता है। लंका कांड में भगवान राम अंतिम समय तक प्रयास करते रहे कि रावण के भीतर की बुराई मिट जाए। जामवंत के प्रस्ताव पर अंगद को दूत बनाकर भेजना तय हुआ। अंगद रामजी की सेना का सबसे युवा सदस्य था। नई पीढ़ी को समय रहते अधिकार और जिम्मेदारियां सौंप देनी चाहिए। अंगद जाने लगे तो श्रीराम ने उन्हें बड़ी अद्भुत शिक्षा दी। तुलसीदासजी ने लिखा, ‘बहुत बुझाइ तुम्हहि का कहऊॅ। परम चतुर मैं जानत अहऊॅ।।’ काजु हमार तासु हित होई। रिपु सन करेहु बतकही सोई।। रामजी कहते हैं, ‘अंगद, मैं जानता हूं तुम परम चतुर हो परंतु रावण से बात करते समय पूरी तरह से सावधान रहना। वैसी ही बात करना, जिससे हमारा काम भी हो जाए और उसका भी कल्याण हो। यह कहने के लिए बड़ी ताकत चाहिए। राम जैसे लोग ही ऐेसे संवाद बोल सकते हैं। जब हम भक्ति कर रहे हों, उसमें अपना भला जरूर सोचिए पर दूसरे का बुरा न हो जाए, इसे लेकर भी सावधान रहिए।

काम में तत्परता के साथ सहजता भी हो...
अब आलस्यअपराध है। तय करने के तुरंत बाद ही काम निपटाना पड़ेगा। इसे तत्परता कहते हैं, जो धीरे-धीरे योग्यता बन जाती है। टीवी पर जो ‘करोड़पति’ कार्यक्रम देखा जा रहा था, उसमें आपके पास कितना ही ज्ञान हो पर चयन तत्परता से होता था कि किसने सीमित समय में कितनी जल्दी उस काम को निपटाया। कई लोग जल्दी से काम निपटाते भी हैं।

धीरे-धीरे तत्परता आदत बन जाती है और आदत बनते ही वह हड़बड़ाहट में बदल जाती है। खूबी ही कमजोरी बन जाती है, क्योंकि तत्परता और हड़बड़ाहट के बीच सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है सहजता। अपनी सहजता कभी खोएं। कितनी ही जल्दी परफार्मेंस देना हो, सहज बनें रहें। वरना हड़बड़ा जाएंगे। खास तौर पर जब चुनौती सामने खड़ी हो तो हड़बड़ाहट बिल्कुल करें। मनुष्य के जीवन की समस्याएं उसके शरीर के दो अंगों की तरह होती हैं। बाल और नाखून। इन्हें काटते समय हम बहुत सावधान रहते हैं। यदि जल्दबाजी कर भी रहे हों तो हड़बड़ाहट नहीं करते, क्योंकि हम जानते हैं इनका जरा-सा गलत कटना नुकसान दे सकता है। इन्हे जड़ से उखाड़ने की गलती भी करें। इसी तरह जब समस्याएं-चुनौतियां सामने हों, तत्परता बनाए रखें, सहजता खोएं तो आप हड़बड़ाहट में नहीं उतरेंगे। परत-दर-परत जब आप समस्याओं को खोलेंगे तो सबसे नीचे समाधान छुपा हुआ पाएंगे। सहज होकर खोलेंगे तो उस अंतिम बिंदु पर पहुंच जाएंगे जहां समाधान हैं। इसलिए तत्पर रहें, सहज रहें, हड़बड़ाहट से बचें।

ईश्वर को पूजते हैं, तो उनके गुण भी अपनाएं..
सबसे शानदार इंसान वह है, जो दूसरों को खुशी बांट सके। दूसरों की झोली में जितनी अधिक प्रसन्नता, मस्ती और आनंद डालेंगे, ऊपर वाला इन्हीं चीजों से आपकी झोली भर देगा। लेकिन इसके लिए देने की तैयारी करनी होगी। जब भी कुछ देने जाएंगे तो मन समझाएगा कि क्यों बेकार का लेन-देन कर रहे हो? इस मामले में मन कंजूस है। इसके लिए भीतर वृत्ति पैदा करनी पड़ेगी तब बिना किसी समीकरण के दूसरों को कुछ दे पाएंगे। इस वृत्ति का नाम है दया। जैसे ही यह वृत्ति भीतर उतरती है, हम दूसरों की मदद करने की इच्छा रखने लगते हैं। किसी के कठिन समय में उसका सहारा बन जाते हैं। उसके साथ रहकर अपने जीवन का कुछ रस उसे दे देते हैं। लेकिन, यदि हमारे भीतर दया नहीं है तो यह काम नहीं कर पाएंगे और करेंगे भी तो जमानेभर के समीकरण बैठाएंगे। आपका संबंध किसी भी धर्म से हो, घर में कहीं कहीं परमात्मा की कोई छवि, मूर्ति या स्थान जरूर होगा। जो दूसरों का दुख दूर करने की भावना रखे उसे दयावान कहा गया है। ऐसा व्यक्ति बड़ा कीमती होता है। शास्त्रों में ईश्वर के रूप को दयामय माना है। इसीलिए रहीम और रहमान जैसे शब्द निकलकर आए। क्षमा, करुणा, दया ये दिव्य गुण परमात्मा में होते हैं और इसीलिए वह पूजनीय है। ऐसी शक्ति को यदि आप पूज रहे हैं तो उसके कुछ गुण हमारे भीतर भी उतरने चाहिए। जब बिना किसी समीकरण के दूसरों का हित करते हैं, ऊपर वाला हमारे लिए खुशियों की बारिश करने लगता है।

देह के साथ संयम रखेंगे तो प्रदर्शन से बचेंगे...
बहुत कमलोग ऐसे हैं, जो अकेले में अपनी देह के साथ मनुष्य जैसा व्यवहार करते हों। चाहे खान-पान का हो या भोग विलास, अकेले में मनुष्य अधिकांश मौकों पर जानवर जैसा हो जाता है। भोग-विलास में संयम रखना तो बड़े-बड़ों के बस की बात नहीं रही। एकांत में जिसने देह के साथ मनुष्य जैसा व्यवहार किया, वे समझ जाएंगे तप क्या होता है, एकांत की दिव्यता क्या होती है शरीर का सदुपयोग क्या होता है? कई बार हम एकांत में अपने शरीर के साथ ऐसा कर चुके होते हैं कि याद आने पर शर्मिंदगी महसूस होती है। यदि एकांत में मनुष्य देह को संयमित कर मनुष्य जैसा आचरण किया तो इसका लाभ आपके व्यावसायिक, सार्वजनिक जीवन में भी मिलेगा। वरना जब हम छुप-छुपकर बिना लोगों की जानकारी के देह के साथ जो खिलवाड़ कर चुके हैं उसी देह की हमारी आदत हो जाती है और हम सबके सामने जो भी काम करते हैं उसमें शरीर को प्राथमिक रखते हैं। इसीलिए कोई भी काम कर रहे हों, इरादा होता है लोग मुझे पहचानें, मुझे ख्याति मिले। लोग तो शरीर को लाइट हाउस बना देते हैं। जैसे जहाज को उतरने के लिए प्रकाश स्तंभ की आवश्यकता होती है, बस ऐसे ही लोगों ने शरीर को ऐसा इस्तेमाल किया कि सब हमें देखें, हमारा प्रदर्शन हो। यहां से अहंकार जन्म लेता है। अकेले में अपनी देह को मनुष्य समझें, फिर सबके सामने प्रदर्शन से बचेंगे। काम तो अपना ही कर रहे होंगे लेकिन, नाम और ख्याति की भावना नहीं आएगी।

सफलता मिलने पर अहंकार नहीं करें...
करना तो सब हमें ही है लेकिन, करा कोई और रहा है। वो ‘और’ ऐसी परमशक्ति है जिसे सभी धर्मों ने अपने-अपने हिसाब से नाम दिया है। जिस दिन ये समझ और भाव हमारे भीतर उतर आता है, उस दिन से हम सारे काम करते हुए भी शांत रह सकते हैं। हमारी जिंदगी ऊपर वाले की लिखी पटकथा है। इसे भाग्य से न जोड़ें। पटकथा लिखने के बाद भी अभिनेता को अभिनय में हुनर दिखाना होता है। बहुत सारी चीजें पटकथा को सफल बनाती हैं। यह हमें अंगद समझा रहे हैं। जैसे ही तय हुआ कि वे श्रीराम के दूत बनकर रावण के पास जाएंगे, अंगद ने रामजी को प्रणाम करते हुए टिप्पणी की कि जिस पर आप कृपा कर दें, वह गुणों का सागर हो जाता है। अपने ऊपर किसी परमशक्ति को मानते हुए काम करना भी एक गुण है। यहां तुलसीदासजी ने लिखा,‘स्वयंसिद्ध सब काज नाथ मोहि आदरु दियउ। अस बिचारी जुबराज तन पुलकित हरषित हियउ।। स्वामी के सब काम अपने आप सिद्ध हैं। यह तो प्रभु ने मुझे आदर दिया है। ऐसा विचार कर अंगद का हृदय और शरीर पुलकित हो गया। ऊपर वाले के पास इतनी ताकत है कि वह सारे काम कर सकता है लेकिन, कराता हमसे है। हमें लगने लगता है हमने किया। हम तो निमित्त हैं, किसी भी घटना और स्थिति के कारणभर हैं। यह भाव जागने के बाद हमें आलसी नहीं होना है और न ही भाग्य पर टिकना है, बल्कि यह मानना है कि सारे काम हम करेंगे। परिणाम यदि सफलता के रूप में आया तो अहंकार नहीं करेंगे, असफल रहे तो उदास नहीं होंगे।

शब्दों के पीछे के इरादे पर भी नज़र रखें...
शतरंज के खिलाड़ी इस बात के लिए तैयार रहते हैं कि आगे कौन-सी चाल हम चलेंगे और कौन-सी सामने वाला चलेगा। आगे की सोच के कारण शतरंज के अधिकतर खिलाड़ी विक्षिप्त-से हो जाते हैं। ऐसे में उन्हें एक तैयारी यह भी रखनी है कि खेल तो खेलना है पर पागल नहीं होना है। जैसे मोहरे चाल चलते हैं, ऐसे ही ज़िंदगी में एक शतरंज चलती रहती है और वह है शब्दचाल की शतरंज। जब भी किसी के शब्द सुनें, कोई आपसे बात कर रहा हो तो केवल सुनिएगा नहीं। शतरंज के खिलाड़ी की तरह उन शब्दों के पीछे बोलने वाला व्यक्तित्व उस समय कैसा है, किस नीयत से बोल रहा है, उसके क्या इरादे हो सकते हैं इस पर भी नज़र रखें। व्यक्ति जैसा होता है, कभी-कभी उससे हटकर बोलता है। एक उदाहरण है कि कैकयी मंथरा के शब्दों को ठीक से पकड़ नहीं पाई थी। मंथरा बोल रही थी मैं तुम्हारी सबसे बड़ी हितैषी हूं। कैकयी समझ नहीं पाई कि इन शब्दों के पीछे मंथरा का मतलब क्या है। आज हमारी व्यावसायिक दुनिया में मंथराओं की कमी नहीं है। मंथरा वृत्ति है, जो अच्छे-अच्छे समझदारों को निपटा देती है। मंथराएं सत्ता, पावर की निकटता बनाने में माहिर होती हैं। मंथरा जैसे लोग अपनी कमजोरी छिपाने के लिए चापलूसी भरे शब्द, हितैषी बनने के दावे करके समझदारों की बुद्धि हर लेते हैं। इसलिए खासतौर पर बाहर की दुनिया में शब्द सुनते समय सावधान रहिए, क्योंकि बोलने वाले की नीयत सुनाई नहीं देती, उसके पीछे के भाव दिखाई नहीं देते।

संतान के साथ गुरु-शिष्य का रिश्ता रखें
कई माता-पिता को तो यह पता ही नहीं होता कि वे माता-पिता बन क्यों गए? एक वर्ग इसको विवाह का परिणाम मानता है तो एक वर्ग कहता है बच्चे तो पैदा होते रहे हैं इसलिए हमने भी किए। संतानों को सुख दें, साधन उपलब्ध कराएं इसमें कोई बुराई नहीं है लेकिन, ऐसा करते-करते जब हम अति पर टिक जाते हैं तो हमसे ज्यादा कीमत हमारी संतान चुकाती है। आजकल के बच्चे माता-पिता से जो मिलता है उसे अपना हक मानते हैं। इसमें कोई दिक्कत भी नहीं है लेकिन, खतरा तब शुरू होता है जब वे इसे माता-पिता की ड्यूटी मान लेते हैं। उनका अनिवार्य कर्तव्य मानने लगते हैं। कई घरों में बहस करते हुए बच्चे कहते हैं हमारा अधिकार है कि हमको जरूरत की हर चीज मिले, क्योंकि आप ही हमें धरती पर लाए हैं। हमें सुविधाएं नहीं दे सकते थे तो फिर पैदा क्यों किया? कई बच्चों द्वारा माता-पिता पर इस प्रकार के प्रहार किए जाने लगे हैं। यहां माता-पिता एक प्रयोग कर सकते हैं कि बच्चों से एक रिश्ता और जोड़ें- गुरु-शिष्य का। अध्यात्म की दुनिया में जब कोई अपने गुरु से रिश्ता बनाता है तो अधिकतर शिष्य गुरु के प्रति आधी श्रद्धा रखते हैं और आधे संदेह में जीते हैं। बच्चे भी ऐसे ही होते हैं। उनमें माता-पिता के प्रति जो संदेह है उससे उनको लड़ने दें लेकिन, श्रद्धा के मामले में प्रयास करें कि उनकी श्रद्धा गतिमान हो। एक दिन जब बच्चे परिपक्व होंगे तो संदेह दूर हो जाएगा और उस समय श्रद्धा काम आएगी। इसलिए बच्चों से गुरु-शिष्य का संबंध भी रखें। ऐसा तब कर पाएंगे जब आपके जीवन में भी कोई गुरु हो। कोई और न मिले तो हनुमानजी को ही गुरु बनाया जा सकता है। इस तरह अध्यात्म परिवार की बुनियाद बनेगा।

सुबह उठना यानी प्रकृति से श्रेष्ठतम लेना
आजकल जितने भी काम कठिन माने जाते हैं उनमें से एक है सुबह जल्दी उठना। आने वाले 10-15 साल बाद तो शायद देश के घरों में जल्दी उठने वाली पीढ़ी ही खत्म हो जाएगी। जल्दी उठने का महत्व तब समझेगा जब प्रात:काल का मतलब समझ में आएगा। प्रात:काल यानी सूर्योदय की घड़ी। चूंकि उस समय सूरज प्रकट होता है, इसलिए ध्यानमय, ज्ञानमय और पराक्रममय ऊर्जा बिल्कुल ताजी-ताजी प्रकट होती है। इस समय सारे देवता अपनी शक्ति के साथ हवा के रूप में आते हैं। शास्त्रकारों ने तो कालपुरुष को एक घोड़े की उपमा देते हुए कहा है कि उषाकाल यानी प्रात:काल उस घोड़े का सिर है। जिसने यह समय गंवाया, समझो उसने कालपुरुष का सिर ही काट दिया। इसलिए सुबह उठना केवल बिस्तर छोड़ना नहीं, उससे भी ज्यादा प्रकृति से कुछ पकड़ना है। सुबह जल्दी उठना एक अनुशासन है। फिर दिनभर हमें परिश्रम करना है। जिसे अनुशासन का स्पर्श मिल जाए वह कम श्रम में भी ज्यादा परिणाम पा लेगा। एक पहलवान दूसरे पहलवान को गिराकर उसकी छाती पर चढ़ जाए तो ऊपर वाले को ज्यादा ताकत लगती है, क्योंकि उसे फिक्र रहती है कि नीचे वाला पहलवान खिसक न जाए। परिश्रम नीचे वाले पहलवान की तरह है। हमने ऊपर वाले के रूप में उस पर अनुशासन लाद दिया है। अनुशासन को दबाव न बनाएं। सुबह उठने का मतलब यूं समझें कि प्रकृति जो अपना श्रेष्ठ दे रही है, हमें वह लेना है।

अशांति से काम करेंगे तो कामयाबी अधूरी...
इसमें बुराई नहीं है कि हमारा कोई आदर्श हो। जिन्हें हम रोल मॉडल मानते हैं, उन्होंने जैसे काम किए हैं यदि वैसे हम करें तो भी कोई दिक्कत नहीं। हमारी मौलिकता और जिन्हें हम श्रेष्ठ या अपना आदर्श मानते हैं उनकी अच्छी बातें यदि जुड़ जाएं तो परिणाम अच्छे ही आएंगे। इसे एक उदाहरण से समझें। अंगद हनुमानजी को रोल मॉडल मानते थे।

हनुमानजी की कार्य शैली पर बारीक नज़र रखते थे। इसीलिए जब हनुमानजी पहली बार लंका गए उस समय जो दृश्य उन्होंने निर्मित किया वही अंगद ने भी किया। लंका जाते समय हनुमानजी ने सभी वानर साथियों को प्रणाम किया, श्रीराम को हृदय में धरा, चेहरे पर प्रसन्नता रखी और रवाना हो गए। उसके बाद जब अंगद को दूत बनकर रावण के पास जाने का अवसर आया तो उन्होंने भी ऐसा ही किया। तुलसीदासजी ने लिखा, ‘बंदि चरन उर धरि प्रभुताई। अंगद चलेउ सबहिं सिरु नाई।।

श्रीराम के चरणों की वंदना कर, उनकी प्रभुता को हृदय में धरकर अंगद सबको प्रणाम करते हुए चल दिए। मनुष्य जब ईश्वर को हृदय में रख लेता है, काम में मस्ती रखता है तो उसके इरादे जरूर पूरे होते हैं। ऐसे लोगों को अवश्य आदर्श बनाएं, जिन्होंने जीवन में संघर्ष के समय धैर्य नहीं छोड़ते हुए पूरी शांति से काम किया। अशांत रहकर काम करेंगे तो कामयाबी अधूरी होगी। प्रसन्नता के साथ कठिन काम भी किया जाए तो सफलता अशांति नहीं लाती। किसी को आदर्श बनाते हुए उसके जैसी ही कार्यशैली अपनाई जाए तो राह आसान हो जाती है।

बदलाव भीतर से हो तो आसान होता है...
बदलाव मनुष्य का मूल स्वभाव है। कुछ न कुछ बदलते रहना उसकी तासीर में है। बदलाव शब्द को अगर ठीक से न समझा जाए तो यह हथियार भी बन जाता है। देश के नेता कहते हैं हम बदलाव की तैयारी में हैं। व्यवस्था बदल देंगे। लेकिन क्या करें जनता नहीं बदलती। लोग कहते हैं हम कैसे बदलें? नेता ही नहीं बदल रहे। चूंकि दोनों बदलाव का अर्थ नहीं समझते, इसलिए परिवर्तन के उन प्रयासों के अच्छे परिणाम नहीं निकल पाते।

हिंदू धर्म में अवतार की परम्परा बदलाव की कहानी है। राम ने चरित्र में बदलाव लाकर कृष्ण बन गए। देश-काल-परिस्थिति के अनुसार बदलाव जरूरी हो जाता है। लेकिन, याद रखें परिवर्तन दो तरह से होता है। एक बाहर की व्यवस्था में बदलाव जैसे हमारी जीवनशैली, कामकाजी दुनिया आदि में परिवर्तन। इसके लिए नियम, अनुशासन ये सब लादने पड़ते हैं। लेकिन इस समय यदि भीतर चैंज नहीं किया गया तो बाहर का बदलाव औपचारिकता, मजबूरी और दिखावा मात्र बन जाएगा।

मनुष्य जब भीतर से बदलने को तैयार होता है तब अपने संस्कारों पर काम करता है। वहां उसे बाहर कोई ढोंग या अभिनय नहीं करना होता। देश जब बदलेगा, तब बदलेगा परंतु कम से कम हम तो स्वच्छता, ईमानदारी, सेवा आदि को समझते हुए भीतर उतारें। भीतर का ऐसा बदलाव हमारे शरीर से निकलने वाली तरंगों को पॉजिटीव करता है और तब बाहर परिवर्तन लाना आसान हो जाता है।

मूर्ति को प्राण के भाव से पूजें, परिणाम मिलेंगे
शास्त्रों में लिखा है मूर्ति पूजा आदमी को ईमानदार बनाती है। लेकिन, मूर्ति के मामले में पूजा का अर्थ अलग ढंग से समझना होगा। कोई मूर्ति तब पूजने योग्य होती है, जब उसकी प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। यानी मनुष्य की तरह पत्थर में प्राण डालना। जब किसी ऐसी मूर्ति की पूजा करते हैं, उसमें तो प्राण देखना ही है, आपके साथ जो जीवंत लोग रहते हैं उनके भीतर के प्राणों का भी मोल समझना है। लोग मूर्ति को तो पूजते हैं पर आसपास रहने वालों के प्रति तो संवेदनशील होते हैं, प्रेमपूर्ण। जिस दिन घर में बच्चों के, पति-पत्नी, माता-पिता या किसी सदस्य के भीतर प्राण देख लेंगे, आपका पूरा व्यवहार बदल जाएगा। हम मूर्ति के सामने माथा झुका रहे हैं और अपने लोगों से झगड़ रहे हैं यह कहां तक ठीक है? सही है कि प्राण प्रतिष्ठित मूर्ति आपको देख रही होती है लेकिन जब कोई गलत काम करते हैं तो मूर्ति यह नहीं पूछती कि ये तुमने क्या किया? बल्कि यह बताती है कि तुम कुछ श्रेष्ठ कर सकते थे, जो नहीं किया। वे सजग करती हैं कि अपने आचरण को ऐसे उठाओ। जिन धर्मस्थलों पर प्राण प्रतिष्ठित मूर्तियां हों वहां इसीलिए जाना चाहिए कि उस जगह मंत्रोच्चार हो चुका होता है, कई लोग वहां श्रद्धा अर्पित करते हैं। जीवन के लिए ऊर्जा, मार्गदर्शन और प्रेरणा प्राप्त होती है। मूर्ति को प्राण के भाव से पूजा जाए तब तो परिणाम मिलेंगे, वरना आप केवल पत्थर पूजकर रहे हैं, जो मात्र औपचारिकता है, जिसका कोई सदपरिणाम प्राप्त नहीं होगा।

तीन पंखों की उड़ान पहुंचाती है ऊंचाई पर...
केवल लंबी छलांग से जीवन में सफलता नहीं मिलती। उसके लिए एक उड़ान भी जरूरी है। उड़ान का मतलब परिंदों से अच्छा और कौन समझ सकता है। लेकिन बहुत ऊंची उड़ान भरने वाले परिंदे भी यह नहीं जान पाते हैं कि उड़ान के लिए दो पंखों की जरूरत होती है। पक्षी तो केवल उड़ना जानते हैं। उनके लिए वह जीवन की एक ऐसी क्रिया है, जो पुरखे उन्हें सिखा गए। लेकिन, मनुष्य उड़ान को ठीक से समझ सकता है। उड़ान का मतलब समझ लें तो यह पता चल जाएगा कि पक्षी भले ही दो पंख से उड़ लें पर मनुष्य को उड़ने के लिए तीन पंख लगेंगे और ये हैं- ज्ञान, कर्म और उपासना के। जब उड़ान ले रहे होते हैं तो सबसे बड़ी बाधा हमारे दुर्गुण ही बनते हैं। इन्हीं दुर्गुणों से निपटने के लिए पंख गति के भी काम आते हैं और हथियार बनकर सुरक्षा के भी। जटायु ने अपने पंखों को शस्त्र बनाते हुए ही रावण से टक्कर ली थी। जीवन की कुछ यात्राएं ऐसी हैं, जहां किसी एक पंख के सहारे नहीं जाया जा सकता। हमारे पास ज्ञान, कर्म और उपासना रूपी पंख हैं और ज़िंदगी की उड़ान में इन तीनों की जरूरत पड़ेगी। जो केवल ज्ञान मार्ग से चलेंगे वे बाकी दो चीजें यानी कर्म और उपासना का मतलब नहीं समझ पाएंगे और उनका ज्ञान अधूरा रह जाएगा। न तो केवल कर्म से और न केवल उपासना से जीवन की यात्रा पूरी हो सकती है। ज्ञान, कर्म और उपासना के तीनों पंखों से भरी उड़ान उस ऊंचाई पर पहुंचा देगी, जिसे आप छूना चाहते हैं।

सीखे हुए को कर दिखाने में ही उसका महत्व...
चुनौती बड़ी हो तो प्रयास छोटे नहीं होने चाहिए। कोई बेजोड़ काम किया जाए, जिसे देखकर सब चौंक उठे तो वह लोगों की नज़र में आता है और हमें भी प्रोत्साहित करता है। अंगद हनुमानजी से प्रेरित थे और वे लंका में क्या करके आए थे, यह जान चुके थे। अंगद ने सुन रखा था कि हनुमानजी ने रावण के बेटे अक्षयकुमार को मार डाला था। एक बार हनुमानजी से पूछा भी था कि लंका में जाकर राजा के बेटे को ही मार दिया। ऐसा आपने क्या सोचकर किया? तब हनुमानजी ने कहा, ‘जब प्रहार ही करना हो तो सीधे उस स्थान पर किया जाए कि परिणाम हमारी सफलता में मददगार हो।अंगद को यह बात याद थी। तुलसीदासजी ने लिखा, ‘पुर पैठत रावन कर बेटा। खेलत रहा सो होइ गै भेटा।। तेहिं अंगद कहुं लात उठाई। गहि पद पटकेउ भूमि भंवाई।।’ लंका में प्रवेश करते ही अंगद की भेंट रावण के बेटे से हो गई, जो वहां खेल रहा था। उसने लात उठाई, तभी अंगद ने उसे पैर पकड़कर जमीन पर दे मारा। हनुमानजी ने तो अक्षयकुमार को इसलिए मारा था कि वह आक्रमण कर उन्हें रोकना चाहता था। उन्हें तो रावण तक पहुंचना था। लेकिन अंगद तो रावण तक सीधे पहुंच सकते थे क्योंकि वे दूत बनकर गए थे। फिर उन्होंने ऐसा क्यों किया? युवा वर्ग जोश में कभी-कभी होश खो देता है। अंगद ने भी वही किया पर हमें शिक्षा दे गए कि जीवन में जब बहादुरी दिखाने का अवसर आए तो फिर चूकना नहीं चाहिए। सीखा हुआ सही समय पर, सही ढंग से कर किया जाए तब ही सीखे का महत्व है।

उत्सवों के माध्यम से भीतरी बदलाव लाएं...
शरीर काहर अंग स्वार्थी है। वैसे यह सही है कि शरीर मन की तुलना में ईमानदार है। मन की बेईमानी के तो हर पल नए-नए किस्से हैं। लेकिन, यही मन जब शरीर पर आक्रमण करता है तो हर अंग को बेईमान, स्वार्थी, लुटेरा और विलासी बना देता है। कान को प्रशंसा सुनना पसंद है। आंखें वो सारे दृश्य देखना चाहती हैं जो उन्हें नहीं देखना चाहिए। इसी तरह बाकी अंगों से भी मन वो सारे काम करवाना चाहता है, जो मर्यादा में उन अंगों को नहीं करना चाहिए। कुल मिलाकर आज मनुष्य का जीवन मन से संचालित हो रहा है और इसका परिणाम अपराध के रूप में सामने आता है। शरीर से होने वाले और शरीर के प्रति किए जाने वाले अपराधों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। खासकर महिलाओं के प्रति जो अपराध हो रहे हैं उनमें उम्र की सीमा ही नहीं रही। स्त्री देह के साथ पुरुष के अपराध मन ने ऐसी मर्यादा तोड़ी कि अब ढाई साल की बच्ची से लेकर 80 बरस की स्त्री पर भी शारीरिक आक्रमण होने लगे हैं। जब सबकुछ शरीर पर केंद्रित हो जाए तो ऐसे दिन तो आने ही थे। हमारे देश में जितने उत्सव और त्योहार मनाए जाते हैं, सबके पीछे संदेश होता है नैतिक जीवनशैली। अब सामूहिक रूप से प्रयास करने होंगे कि हर उत्सव-त्योहार पर उस पीढ़ी को यह संदेश दिया जाए कि शरीर के साथ अनैतिक काम करें। अपने, दूसरे के। मनुष्य को भीतर से बदलने के लिए जो-जो भी प्रयास किए जाएं उनमें उत्सव और त्योहारों को जोड़ते हुए इनके संदेश को योजनाबद्ध तरीके से भारतीय मन तक पहुंचाया जाए।

ऊर्जा बचाने, प्रेमपूर्ण होने की साधना है मौन...
थकान औरविवाद इस समय ये दोनों ही बातें गलत जगह पर होने लगी हैं। कई लोग जरा-सी मेहनत करते हैं और थक जाते हैं। जो खूब परिश्रम करते हैं वो थकते तो देर से हैं पर गलत जगह थक जाते हैं। जैसे कोई घर आकर तब थकता है, जब बाकी सदस्य उसके साथ होते हैं। दिनभर खूब मेहनत की और जिनके लिए की उनके सामने आकर थक गए। ऐसे ही हाल विवाद के हैं। हम उस जगह विवाद करते हैं जहां प्रेमपूर्ण रहना चाहिए। और जहां विरोध करना चाहिए वहां बचते हैं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं थकान और विवाद जिन-जिन बातों से जुड़े हैं उनमें से एक है बोलना। शब्द और वाणी का परिणाम बोलना कहा जा सकता है। यदि आप बोलते समय सावधान नहीं हैं और शब्दों को शरीर से निकालने में बेहिसाब हैं तो थकेंगे भी और विवाद में भी पड़ेंगे। अब सवाल यह उठता हैं कि शब्दों को संतुलित कैसे किया जाए? ज्यादातर लोग जानते हैं कि चाहते हुए कुछ ऐसा बोलने में जाता है, जो विवाद का कारण बन जाता है। कई लोग तो यह जानते ही नहीं कि शब्द हमारी बहुत ऊर्जा खा जाते हैं। इसीलिए हम तब थक जाते हैं जब नहीं थकना चाहिए। शब्दों को इसलिए बचाइए कि उनका परिणाम दूसरी जगह दे सकें या ले सकें और अनावश्यक विवाद से भी बचे रहें। इसका एक तरीका है मौन। जब तक मौन नहीं साधेंगे, आप सिर्फ शब्दों का वहन करेंगे। जिन्होंने थोड़ी देर भी मौन साध लिया, वो शब्द से ऊर्जा भी बचा लेंगे और विवाद से बचे रहने के कारण और प्रेमपूर्ण हो जाएंगे।

सब कुछ ईश्वर पर छोड़ दें, अशांत नहीं होंगे...
हम कुली क्यों करते हैं? इसलिए कि हमारे पास जितना बोझ होता है उसे उठा नहीं पाते और किसी की आवश्यकता लगती है, जो उस वजन को उठा सके। यात्रा में कुली लगता है, यह तो सबको समझ में आता है पर जीवन की यात्रा में कुछ बोझ ऐसे होते हैं, जिन्हें उठाना नहीं चाहिए और हम उठा लेते हैं। ऐसे ही कुछ वजन स्मृतियों के, स्वार्थ के होते हैं। धीरे-धीरे ये इतने भारी हो जाते हैं कि हमारी चाल लड़खड़ा जाती है। शास्त्रों में एक शब्द आया है- रिक्त हो जाएं तो ईश्वर जल्दी मिल जाता है। रिक्त होने का अर्थ है थोड़ा खाली या निर्भार हो जाएं। अभी हम बहुत भारी हैं। अपने भीतर अहंकार का, हिंसा का, तनाव का इतना भार पैदा कर लिया है कि दबे ही जा रहे हैं। निर्भार होते ही भीतर शांति जागती है, आप प्रेमपूर्ण हो जाते हैं, जीवन में परमात्मा उतर आता है। परमात्मा के आते ही हम कहने लगते हैं- बस, अब जीवन की गाड़ी आप ही चलाइए। एक बार राजस्थान में यात्रा के समय टैक्सी ड्राइवर ने मुझे बार-बार हुकम, हुकम कहा। मैने पूछा- आप हमें हुकम क्यों कहते हैं? इसका मतलब तो आदेश होता है। तब उसने कहा- मैं जानता हूं हुकम का मतलब आदेश है पर मैं इसलिए कह रहा हूं कि आप ही हमारे आदेश हैं। नानकजी ने भी एक जगह ईश्वर के लिए लिखा था-‘हुजूर का हुकूम। जिस दिन हम परमात्मा को हुकूम या आदेश मान लेते हैं, उस दिन निर्भार हो जाते हैं। फिर कैसा भी काम करें, अशांत नहीं होंगे, क्योंकि आप जानते हैं हुक्म कोई और दे रहा है, हुकम कोई और है।

खुद के साथ रहने से मिलती है ऊर्जा...
चाहें या ना चाहें, सभी को दो तरह से जीना पड़ता है। या कहें कि जीने के लिए दो प्रकार के अवसर मिलते हैं। पहला, जब हम दूसरों के साथ जीवन बीता रहे होते हैं और दूसरा मौका स्वयं के साथ जीने का होता है। इन स्थितियों से कोई नहीं बचेगा। जब दूसरों के साथ जीते है,ं जो कि जरूरी भी है, उस समय हमारी तैयारी अपने साथ जीने की भी होनी चाहिए। यदि स्वयं के साथ जीने की तैयारी नहीं है तो तनाव में पड़ेंगे, अशांत रहेंगे। जब दूसरों के साथ रहते हैं तो उसमें अहंकार, स्वार्थ, झूठ, छल ये सब अपना काम करते ही हैं। खासकर मेरे-तेरे का खेल होना स्वाभाविक है। सामने वाले की अपनी सोच, आपकी अपनी मर्जी दोनों टकराएंगी ही। यदि आप सिर्फ दूसरों के साथ जीते हैं तो जरूर अशांत रहेंगे। इसलिए खुद के साथ जीने का ढंग भी आना चाहिए और यह संभव हो सकता है योग से। जब स्वयं के साथ जीते हैं तो हमारी और ईश्वर की मर्जी जुड़ जाती हैं। योग सिखाता है कि हमारे ऊपर भी एक परमशक्ति है। तो आपकी इच्छा को उस परमशक्ति की इच्छा से जोड़ दीजिए। बस, यहां से टकराहट बंद और आप शांत होना शुरू हो जाएंगे। हम मनुष्य बिना मांगे रह नहीं सकते। इसलिए ऊपर वाले से भी यह मांग करें कि मेरी मर्जी में तेरी मर्जी जुड़ जाए। फिर देखिए, आप व्यक्ति कोई और होने लगेंगे। अपने साथ रहने के बाद जो ऊर्जा प्राप्त होगी वही ऊर्जा दूसरों के साथ रहते हुए भी शांत रहने में मदद करेगी। कुछ समय अपने साथ जरूर रहिए, फिर संसार के साथ रहने में दिक्कत नहीं आएगी।

ज्ञान, कर्म और उपासना का संतुलन हो
हमारे कृत्य हमारी छाप बन जाते हैं। कुछ न कुछ तो सभी को करना है और लोग कर भी रहे हैं। लेकिन, जो अच्छा या बुरा करके जाएंगे उसे लोग याद रखेंगे और उनके मन में वैसी ही हमारी छाप बनती है। कई तो ज़िंदगी में ऐसे काम कर जाते हैं कि दुनिया छोड़कर जाने के बाद लोग उन्हेें उन कामों से याद रखते हैं। इसीलिए कृत्य ऐसे हों जो छवि भी अच्छी बनाएं। हमारे यहां ज्ञान, कर्म और उपासना, ये तीन शब्द अपने आप में जीवनशैली का संदेश हैं। केवल कर्म से जुड़ेंगे तो हो सकता है ज्ञान और उपासना का लाभ नहीं उठा सकें। कुल मिलाकर किसी एक पर आधारित जीवन नहीं चल सकता। इन तीनों का संतुलन चाहिए।

हनुमानजी तीनों का संतुलन रखकर परिणाम देने में अद्‌भुत थे और इसीलिए लंका कांड में एक घटना घटती है कि जब अंगद रामदूत बनकर लंका गए तो राक्षसों ने उनको देखा और जिस प्रकार से प्रतिक्रिया की उस पर तुलसीदासजी ने लिखा- ‘भयउ कोलाहल नगर मझारी। आवा कपि लंका जेहिं जारी।। भय के मारे लंका के राक्षसों में कोलाहल मच गया कि जिसने लंका जलाई थी, वही वानर फिर आ गया है।

ये पंक्तियां बता रही हैं कि राक्षसों को हनुमानजी और उनका पराक्रम याद था। हमारे लिए समझने की बात यह है कि जिस प्रकार हनुमानजी उनको याद थे, हम भी ऐसे ही कर्म रखते हुए वे सदपरिणाम दें जो कि लोगों के मन में उतर जाएं और वर्षों बाद भी हमें इस बात के लिए याद रखें कि यह अच्छा काम उनके द्वारा किया गया था।

आंखों के इस प्रयोग से बढ़ाएं सकारात्मकता
हम आंख वाले अंधे हैं। दुनिया में बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो देख सकते हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो नहीं देख पा रहे हैं। ज्यादातर लोग जो देख सकते हैं, उन्हें यह बात समझ लेनी चाहिए कि कहीं न कहीं हम भी अंधे हैं। देखने में दृष्टि महत्वपूर्ण होती है, दृश्य नहीं। हम लोग देखने का अर्थ सिर्फ दृश्य से ल़ेते हैं। कुछ न कुछ दिख रहा है और मान लेते हैं कि हम देख रहे हैं। पर इस सब के पीछे काम कर रही होती है दृष्टि। तीन बातें हमें अंधा बनाती हैं- अहंकार, अशिक्षा और स्वार्थ।

ध्यान रखिएगा, यदि अहंकार बलवान होता जा रहा है, स्वार्थ में डूब रहे हैं और पढ़े-लिखे नहीं हैं तो आप आंख होते हुए भी अंधे ही हैं। इसीलिए योग में आंख का भी प्रयोग है। आंख का बंद होना, खुलना और अधखुली आंख इन तीन बातों की कला जब समझ में आती है तो उसे दृष्टि कहा जाता है। कुछ लोग जन्मांध होते हैं, कुछ किसी दुर्घटना या उम्र के प्रभाव के कारण देख नहीं पाते।

ऐसे लोगों को एक प्रयोग करना चाहिए। पलकों को बहुत धीरे-धीरे खोलिए और वैसे ही धीरे-धीरे बंद कीजिए। चूंकि किसी भी कारण से संसार को नहीं देख पा रहे इसलिए आपके भीतर एक बेचैनी है, अवसाद होता है। मन उस स्थिति को और बल दे रहा होता है पर पलकों को धीरे-धीरे खोलने और बंद करने से मन की पॉजिटीविटी बढ़ती है और हमारे भीतर आ चुका दोष और निराश नहीं कर पाता। सबकुछ देख सकने वाले भी यह प्रयोग करें तो ‘आंख होकर भी अंधे की स्थिति से बच पाएंगे।

बच्चों के विकास को गांवों से जोड़िए..
भारत में जो भी प्रगति और विकास हो, भारतीयता उससे विलग नहीं होना चाहिए। इस आदर्श वाक्य को यदि जीवंत करना हो हर आदमी कुछ काम आसानी से कर सकता है। प्रवचन-कथाओं के लिए मुझे पूरे देश-दुनिया में प्रवास करना पड़ता है। इसी सिलसिले में एक बार किसी घर में ठहरा तो बड़ा चौंकाने वाला संवाद सुना। सुबह जब दूध वाला आया तो सात साल का बच्चा मां से पूछ रहा था यह आदमी दूध कहां से लाता है? प्रश्न छोटा था पर मेरे मन में सवाल कौंध गया। यदि बच्चों को यह नहीं मालूम कि दूध कहां से आता है तो हमें सोचना चाहिए कि यह शहरी गति किसी दिन इनको और अशांत कर देगी। आज भी भारत की पहचान गांवों से है। वहां बहुत कुछ ऐसा है जो हमें शांति प्रदान कर सकता है।

हमारे बच्चों को कहीं न कहीं गांव से जोड़ने के लिए कुछ प्रकल्प करते रहना चाहिए। गांव से सीधे आने वाले सामान से बच्चों को जरूर जोड़ें। गांवों के विकास के लिए सरकारी योजनाएं बना दी गईं, शहरी विकास के लिए मल्टी नेशनल बाजार व्यवस्था तैयार हो गई लेकिन, इन दोनों के बीच भारतीय मनुष्य का क्या होगा? इसलिए कम से कम अपने निजी विकास को गांव से जोड़े रखिए। आपका गांव से जुड़ना जीवन में कुछ ऐसा देगा जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। उस सुगंध से अपने व्यक्तित्व को महकाने के लिए कोई अवसर मत छोड़िए। हम गांव का मतलब गंदगी, अशिक्षा मान लेते हैं। लेकिन, इस अशिक्षा-गंदगी के पीछे एक बहुत बड़ी तालीम छुपी है। पकड़ सकें तो जरूर पकड़िएगा।

बुद्धि का उचित प्रयोग कर विलक्षण बनें
जीवन में सफल होने के लिए केवल बुद्धिमान होने से काम नहीं चलेगा। हमें विलक्षण भी होना पड़ेगा। क्या फर्क है इन दोनों में? बुद्धिमान होना परिश्रम है, एक व्यवस्थित प्रक्रिया है और इसमें शिक्षा सहयोग करती है। बुद्धि हम सबके भीतर होती है, क्योंकि शरीर का अंग मस्तिष्क है और मस्तिष्क में बुद्धि दी गई है। किसी के पास कम होगी, किसी के पास ज्यादा हो सकती है। यह एक इंस्ट्रुमेंट है, जो भगवान ने हमें दिया है। इसका थोड़ा-सा उपयोग कर लें तो बुद्धिमान हो जाएंगे। लेकिन, बुद्धि जब सार्वजनिक रूप से, निजी, पारिवारिक और व्यावसायिक रूप से सदुपयोग में आ जाए और अच्छे परिणाम दे दे उसे विलक्षणता कहते हैं। आपने कारोबार में कामयाबी हासिल कर ली और परिवार में कलह चल रहा है। परिवार संभाल लिया, धंधा ठीक चल रहा है पर निजी रूप से परेशान हैं। यदि सबकुछ ठीक हो और समाज या राष्ट्र के प्रति जिम्मेदार नहीं हैं तो समझ लीजिए बुद्धि का आधा ही उपयोग हो पा रहा है और आप विलक्षण होने से चूक रहे हैं। बुद्धि विलक्षण तब होती है या बुद्धिमान व्यक्ति अपने आपको विलक्षण तब मानें जब वह उक्त चारों क्षेत्र में पूरी तरह से सकारात्मक परिणाम दे सके। यदि इन चारों के प्रति जागरूक नहीं हैं तो एक न एक दिन आपका मन बुद्धि से वह काम करवा लेगा, जिसके सामने आने पर छवि खराब हो सकती है, प्रतिष्ठा गिर सकती है। आप अपराधी भी बन सकते हैं। बुद्धि का वैसा उपयोग कीजिए, जिसके लिए ईश्वर ने यह दी है। फिर आपको विलक्षण होने से कोई नहीं रोक सकता।

पुण्य भी गोपनीय रखकर ही करने चाहिए
पुण्य भी पाप की तरह गोपनीय बनाकर करना चाहिए। हम लोग जब कोई गलत काम करते हैं तो उसे छिपाने का प्रयास करते हैं और अच्छे काम को बहुत प्रचारित करने लगते हैं। जबकि सच तो यह है कि धर्म यानी सदकार्य गोपनीय हो और अधर्म (दुष्कर्मों) का प्रदर्शन करना चाहिए। जब अधर्म प्रदर्शित करेंगे तो स्वयं अपने आप नियंत्रित होने लग जाएंगे। लेकिन कभी-कभी पुण्य को इसलिए प्रकट करना पड़ता है कि पाप का नाश हो। यदि उद्‌देश्य ऐसा हो तो धर्म को, पुण्य को, अच्छी बात को प्रचारित करने में बुराई नहीं है।

अंगद ने लंका में ऐसा ही किया था। जब रामदूत बनकर पहुंचे तो उन्हें देख सारे राक्षस डर गए। लंका के राक्षस यानी दुर्गुण। क्या दृश्य लिखा है यहां तुलसीदासजी ने, ‘अब धौं कहा करिहि करतारा। अति सभीत सब करहिं बिचारा।। बिनु पूछें मगु देहिं दिखाई। जेहि बिलोक सोइ जाइ सुखाई।।’ मतलब राक्षसरूपी दुर्गुण भयभीत होकर विचार करने लगे कि अब पता नहीं विधाता क्या करेगा? वे बिना पूछे ही अंगद को रास्ता दे रहे थे। जिस पर भी अंगद की दृष्टि पड़ती, वह डर के मारे सूख जाता था। जब हम सदमार्ग पर चलते हैं तो बाधा पहुंचाते हैं हमारे ही दुर्गुण। यहां दुर्गुण अंगद की मदद कर रहे थे कि आप मंजिल तक पहुंच जाएं, क्योंकि रामदूत होने का पुण्य अंगद के साथ था। तो हमारे पुण्य तब जरूर प्रकट कीजिए जब पाप का विनाश करना हो। वरना अधिक प्रचारित सदकार्य भी अहंकार का कारण बन जाएंगे।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.... मनीष
ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....

Sunday, September 20, 2020

जीवन जीने की राह (Jeevan Jeene Ki Rah9)

 नवीनता की खोज में मूल्य न छूट जाएं...

जवानी को अनदेखे को देखने में, अथाह की थाह पाने में बड़ा मजा आता है। जवानी अज्ञात कुछ भी नहीं रखना चाहती। इसीलिए कई बार जीवन की कई ढंकी चीजों पर भी टूट पड़ती है। शास्त्रों में तो लिखा है कि युवा पीढ़ी को वैसा ब्रह्म बहुत अच्छा लगता है, जिसका चिंतन कभी किसी ने न किया हो। जिसका चिंतन हो चुका हो, उसका आकर्षण समाप्त हो जाता है। इसीलिए जवान लोग नया-नया ढूंढ़ने में लग जाते हैं। आज का धर्म है मैक इन इंडिया। यह भी एक खोज है। कहते हैं ब्रह्म को जानना हो तो नई दृष्टि विज्ञान की चाहिए और उसको जीना हो तो नई दृष्टि संस्कार की चाहिए। युवा पीढ़ी जब खोजने निकलेगी तो सहारा विज्ञान का लेना पड़ेगा लेकिन, जिसे खोजने निकले हैं उसके भीतर कुछ ऐसा है, जिसके लिए विज्ञान के साथ संस्कार और संस्कृति की भी जरूरत पड़ेगी। उमंग और उत्साह जवानी के लक्षण हैं लेकिन, इसे बनाए रखने के लिए जवानी भटककर गलत रास्ते पर चली जाती है। उमंग के लिए जीवन को विलास में न बदला जाए। युवा यदि संस्कार से जुड़ते हैं तो एक बात बहुत अच्छे से समझ में आएगी कि वे युवा हैं इसलिए एक पीढ़ी बाद आए हैं। तो जो पीढ़ी गुजरी उससे कुछ नया करके जाएं और जो नई पीढ़ी आएगी उसके लिए और कुछ नया छोड़कर जाएं लेकिन, मूल्य न छूट जाएं। नए को खोजिए, नवीनता सांस में उतारिए लेकिन, ऐसा न हो कि वह भोग-विलास लेकर आ जाए। ऐसा हुआ तो वह नया बहुत महंगा पड़ जाएगा।

संसार में रहकर भी हम ईश्वर के अंश...
तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘बिस्वरूप रघुबंसमनि करहुं वचन बिस्वासु। लोक कल्पना बेद कर अंग अंग प्रति जासु।। पति-पत्नी केबीच झगड़े के जितने कारण हैं उनमें एक है हस्तक्षेप। दोनों में सबसे अधिक निकटता होती है और इतनी नज़दीकी वाले लोग भी यदि हस्तक्षेप पर आपत्ति ले तो कलह होना ही है। इसलिए जब भी हस्तक्षेप जैसी स्थिति बने, दोनों को ही सबसे पहले यह देखना चाहिए कि हस्तक्षेप के पीछे अहंकार है या हित की भावना। केवल हठ है या प्रेम भी बोल रहा है। मंदोदरी जब पति रावण को समझाने का प्रयास कर रही थी और वह समझ नहीं रहा था तो प्रभाव बनाने के लिए राम के व्यक्तित्व पर टिप्पणी की। तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘बिस्वरूप रघुबंसमनि करहुं वचन बिस्वासु। लोक कल्पना बेद कर अंग अंग प्रति जासु।।’ यहां मंदोदरी ने श्रीराम को विश्वरूप कहा है। यानी सारा संसार उन्हीं का रूप है। परमात्मा प्रकृति के कण-कण में बसा है। हमारे भीतर भी वह उसी प्रमाण में है। यदि उसका सदुपयोग कर लें तो सही मार्ग पर जाएंगे और उसके विपरीत चलना ही गलत रास्ता है, जो रावण कर रहा था। परमात्मा विश्वरूप है इसलिए विशाल है और हम लोग ओस की बूंद की तरह बहुत छोटे हैं। पर ओस की बूंद की एक खूबी होती है कि वह जिस पत्ते पर होती है उसका रंग उसी में उतरता है। लगता है बूंद का रंग वही है जो पत्ते का है। पर ऐसा है नहीं। ओस की बूंद पत्ते से बिल्कुल अलग है। हम संसार में रहें, उस संसार की झलक हममें दिखे पर अलग हटते ही वापस परमात्मा का अंश बन जाएंगे। रावण इसे भले ही नहीं समझा हो पर हमारे लिए अभी समझने की संभावनाएं बनी हुई हैं।

अपनी दृष्टि को भीतर की ओर मोडि़ए....
दूसरों की गलतियां देखना बहुत आसान है लेकिन, अपनी भूल देखने के लिए निगाह दूसरी चाहिए। जिन नेत्रों से हम बाहर की दुनिया देखते हैं, जिनके माध्यम से कई दृश्य जीवन में उतार लेते हैं वे आंखें स्वयं की भूल देखने के काम नहीं आतीं। दूसरों की गलतियां देखना बहुत आसान है लेकिन, अपनी भूल देखने के लिए निगाह दूसरी चाहिए। इन्हीं आंखों को थोड़ा-सा भीतर मोड़ दें तब अपनी भूल नज़र आ सकती है। चूंकि नेत्रों का शारीरिक गठन बाहर खुलता है इसलिए लोग इतने आदी हो जाते हैं कि भूल ही जाते हैं कि इन्हें भीतर भी मोड़ा जा सकता है। पलकें तो आदमी या तो नींद में बंद करता है या जितनी स्वत: झपकती है उतनी ही बंद होंगीं। यदि किसी से पांच-दस मिनट पलकें बंद कर बैठने को कहें तो उसके भीतर तूफान शुरू हो जाता है। लेकिन, जिन्होंने लंबे समय पलक बंद करने का अभ्यास कर लिया उनके नेत्र भीतर की ओर अपने आप मुड़ने लगेंगे और अपनी भूलें भी दिखने लगेंगीं। भीतर नेत्र मुड़ते ही आपका दृष्टिकोण बदल जाएगा और आसपास जितने रिश्ते, जितने व्यक्ति हैं, उनकी समझ के मामले में आप परिपक्व हो जाएंगे। फिर जो आपको नापसंद हों, उन्हें लेकर भी सोचने लगेंगे कि इसके पीछे का कारण मैं ही तो नहीं? खुशी और गम इसी दृष्टिकोण से उत्पन्न होने लगेंगे। मनोवैज्ञानिकों ने तो कहा है सुख-दुख साइकोलॉजिकल स्थितियां हैं। यदि स्वयं को देखने में योग्य हो गए तो दूसरे जिन बातों से दुखी हैं उन्हीं में सुख ढूंढ़ लेंगे। वरना खुशी की बातें या स्थितियां भी गम दे जाएंगीं। जब भी समय मिले, पलकों को अपनी ओर से बंद करिए।

परिवार भीतर के संसार का पहला दरवाजा...
ईश्वर मात्रा से नहीं, गुण से प्रगट होता है। इसे थोड़ा सरल बनाकर समझा जाए। सबसे पहले तो यह तय कर लें कि ऊपर वाला प्रकट कहां होता है। यानी किन-किन चीजों में उसको देखा जा सकता है? हमारे पास दो तरह के संसार हैं। एक बड़ा जो बाहर है, जिसमें हमारा व्यावसायिक, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन चलता है। एक छोटा संसार है जो भीतर का है। इसमें निजी जीवन संचालित होता है। परिवार का जीवन बाहर और भीतर के बीच का होता है। परिवार में कुछ गतिविधियां बड़े संसार जैसी होती हैं। धन-दौलत, अपना-पराया ये बाहर का संसार है, जो परिवार में भी होता है। इन दोनों में ही परमात्मा का अंश होता है लेकिन, बाहर के संसार में यदि परमात्मा को खोजें तो वह बड़ा जरूर है यानी मात्रा में अधिक हो सकता है पर गुण में छोटा ही होगा। जब अपने भीतर के छोटे संसार में उतरेंगे तो परमात्मा मात्रा में भी छोटा मिलेगा और गुण में एक स्वाद देता जाएगा। ईश्वर की खोज बाहर कठिन हो सकती है। ईश्वर खोजने से ज्यादा जीने का विषय है और जिंदगी जीने के मौके परिवार व निजी जीवन में ज्यादा हैं। बाहर के संसार में जब जीवन जीने जाते हैं तो कई बाधाएं होती हैं। वहां एक खींचतान है इसलिए आप जीवन को लेकर थोड़ा असहज महसूस करेंगे। अत: रोज थोड़ी देर भीतर के छोटे और निजी संसार में जरूर जाया करें, जिसका पहला दरवाजा परिवार होता है। इसका माध्यम है योग। प्रयोग करके देखिए, परिवार के मतलब भी बदल जाएंगे और परमात्मा का स्वाद भी।

समर्पण से जीवनसाथी के अस्तित्व को जानें...
समझदार पति-पत्नी एक-दूसरे का व्यक्तित्व तो बचा लेते हैं लेकिन, अस्तित्व नहीं बचा पाते। उसके लिए समझ से ज्यादा समर्पण जरूरी होता है। चूंकि उम्र का एक लंबा समय दोनों ने अलग-अलग बिताया होता है और पति-पत्नी बनने के बाद इनकी पहली मुलाकात व्यक्तित्व से ही होती है, इसलिए सारी समझ इसी को बचाने में लगा दी जाती है। जीवनसाथी का अस्तित्व टटोलने के लिए केवल निकटता काम नहीं आती। समर्पण भाव भी पैदा करना पड़ता है, जिसकेे लिए अहंकार छोड़ना जरूरी है। व्यक्तित्व गतिशील भी होता है और परिवर्तनशील भी। जैसे-जैसे किसी विवाहित जोड़े की उम्र बढ़ती है, उनके व्यक्तित्व में भी परिवर्तन आने लगता है। बहुत से लोग जो पहले गंभीर थे, अब मस्ताने हो गए और वैवाहिक जीवन की शुरुआत मस्ती से करने वाले थक गए, उदास हो गए। अस्तित्व भी गतिशील होता है लेकिन, परिवर्तनशील नहीं होता। इसलिए जीवनसाथी के अस्तित्व को टटोलना हो तो थोड़ा रुकना पड़ेगा। यहां रुकने से मतलब है उसके शरीर से आगे बढ़कर उसकी आत्मा को स्पर्श करना। आज भी अधिकतर जोड़े जीवन की यात्रा शरीर से शुरू कर शरीर पर ही खत्म कर देते हैं। शरीर झलकता है व्यक्तित्व से और आत्मा के दर्शन होंगे अस्तित्व में। जिन क्षणों में जरा भी जीवनसाथी की आत्मा महसूस की जाती है, वो दांपत्य के दिव्य क्षण होते हैं। इन्हें पाने के लिए शुरुआत समर्पण से ही करनी पड़ेगी।

प्रार्थना में करुणा से भक्ति पैदा होती है...
विज्ञान ने भौतिकता को तो आसान बना दिया है लेकिन, आत्मिक बातें कठिन होती जा रही हैं। इन दिनों हमारे जीवन में एक विषय है जनसंपर्क। मोबाइल ने इसे इतना सरल कर दिया कि सारी दुनिया मुट्ठी तो दूर, उंगली की छोटी-सी नोक पर आ गई है पर प्रेमपूर्ण संबंधों के मतलब ही बदल गए। प्रेम पर वासना की ऐसी परत जमी कि लोग भूल ही गए प्रेम होता क्या है। ऐसे में प्रेमपूर्ण होना कठिन हो गया है। यदि हमें दूसरों को प्रेम का मतलब समझाना हो या खुद प्रेम में उतारना हो तो एक आध्यात्मिक तरीका है- करुणामय हो जाना। करुणा प्रेम का ऐसा विकल्प है, जिसमें थोड़ी बहुत सुगंध और स्वाद रह सकता है। करुणा की विशेषता यह है कि वह अलग-अलग क्रिया में भिन्न परिणाम देती है। करुणा को सहयोग से जोड़ दें तो प्रेम की झलक मिलेगी। करुणा वाणी से जुड़ जाए तो भरोसा पैदा होता है। चिंतन में यदि करुणा का समावेश हो जाए तो परिपक्वता आ जाती है। क्रिया से जुड़ जाए तो परोपकार बनने लगता है। क्रोध में उतर आए तो हितकारी दृष्टि, स्नेह और ममता जाग जाती है। मांग में करुणा आने पर प्रार्थना पैदा होती है और प्रार्थना में यदि करुणा उतर जाए तो फिर भक्ति पैदा हो जाती है। जब भी भीतर करुणा उतरे, पहला काम यह किया जाए कि इसे दूसरों से जोड़ें। अपनी करुणा को खुद पर खर्च करने में कंजूसी न करें। यदि प्रेमपूर्ण होना कठिन हो तो कम से कम करुणामय तो हो ही जाएं। करुणामय व्यक्ति विज्ञान का भी दुरुपयोग नहीं करेगा।

दक्षता बढ़ाने के लिए भीतर पंचतत्व उतारें....
संगठन पंचतत्वकी तरह व्यक्त होता है। आजकल परिवार हो या व्यापार, संगठन का महत्व बढ़ रहा है। राष्ट्र की तो ताकत ही संगठन है। यदि कुछ लोग एक छत के नीचे, एक साथ रह रहे हों तो उस रहन-सहन को संगठन में बदल लेना चाहिए। किसी संस्थान में यदि संगठन ठीक से उतर आए तो अधिकारियों और कर्मचारियों की योग्यता, निष्ठा, ईमानदारी और परिश्रम के मतलब ही बदल जाएंगे। हम अपने संस्थान या संगठन में किसी से उम्मीद करते हैं कि वह किसी एक क्षेत्र में परिपक्व, कामयाब हो तो दूसरे क्षेत्र में भी वैसा ही प्रदर्शन करे। प्रबंधन की भाषा में कहें तो यदि कोई मार्केटिंग में दक्ष है तो वह एचआर विभाग में कमजोर पड़ जाता है। पर यदि संगठन को पंचतत्व से जोड़ें तो सभी लोग सभी कामों में दक्ष हो सकेंगे। पंचतत्व में सबसे पहले पृथ्वी को समझें। इसमें पहाड़ भी होते हैं, वृक्ष भी हैं। दूसरा तत्व है जल जिसमें नदी, तालाब, समुद्र हैं। तीसरा है अग्रि। इसमें राख, अग्नि और धुंआ है। वायु में वेग, सुगंध और आंधी है तथा अंतिम तत्व यानी आकाश विशाल है, ध्वनि लिए हुए है और बादल का परदा उस पर है। ये पांचों तत्व एक साथ मिलकर पूरी सृष्टि चलाते हैं। हमारे भीतर ये पंचतत्व हैं और यदि ये संगठित हो जाएं, तो वह व्यक्ति जिस भी संगठन में होगा, उसे ऊंचाइयां देगा। प्रयास करें कि इस पूरी प्रकृति में जो पंचतत्व हैं वे हमारे भीतर उतरें और हम जिस भी संगठन से जुड़ें, हर क्षेत्र में दक्ष होकर उसके लिए खूब योगदान दे सकें।

सोच-समझकर किसी की जय जयकार करें...
परमात्मा की जय की जाए यह तो समझ में आता है पर दो कोड़ी के लोगों की भी जय करने लगते हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि जब किसी की जय कर रहे होते हैं तो उसके गुण-दुर्गुण आपके भीतर उतरने लगते हैं। अब तो उन लोगों की भी जय-जयकार होती है, जिनमें गुण ढूंढ़े नहीं मिलते और दुर्गुण रोम-रोम में होते हैं। लिहाजा जय का नारा भी एक-दूसरे के भीतर दुर्गुण स्थानांतरित करने का जरिया बन जाता है। बहुत सारी चीजों की जय करें तब इस जय के नारे को गृहस्थी से भी जोड़ें। जय गृहस्थी, जय परिवार, जय ऐसा कहने में बुराई नहीं है। परिवार में सब लोग अपना यशदान करते हैं। एक की खूबी दूसरे में उतरे, जिनमें योग्यता है वो उसका परिणाम परिवार में देना चाहें तो दिनभर में एक बार ‘जय गृहस्थी’ जरूर बोला जाए। जिस घर में हम रहते हैं, जिस परिवार के सदस्य हैं उससे हमें बहुत कुछ मिला होता है। जयकारे का मतलब है अब वह लौटाया जाए। परिवार भी एक संस्था है और हमारा कारोबार भी एक संस्था है। संसार नाम की संस्था में इंद्रियां फैलती हैं, परिवार नामक संस्था में इंद्रियां मुड़ती हैं। इसलिए जब इंद्रियों का उपयोग संसार में कर चुके हों और घर लौट रहे हों तो इंद्रियों द्वारा संग्रहित वस्तुओं को थोड़ा छानकर घर में लाएं। जय शब्द के अर्थ ठीक से समझें। जय का मतलब यदि परिवार में ठीक से उतार सकें तो आज परिवार टूटने के जो खतरे हमारे सामने मंडरा रहे हैं वो दूर हो जाएंगे।

अहंकार को काबू कर पुरुष परिवार बचाएं...
नारी की उपस्थिति से ही मकान घर बनता है। वरना वह ईंट-सीमेंट के ढांचे से ज्यादा कुछ नहीं होता। पुरुष अपने स्वभाव के कारण मकान को घर बना ही नहीं सकता। यह काम महिलाएं ही करती हैं। किसी भी घर का आधार आपसी समझ और प्रेम होता है। रावण के पास बहुत बड़ा महल था। पत्नी मंदोदरी बार-बार उस महल को घर बनाने का प्रयास करती पर जिद्दी और अहंकारी रावण ऐसा होने नहीं दे रहा था। मंदोदरी जब समझा रही थी तो रावण ने न सिर्फ पत्नी का मजाक उड़ाया बल्कि समूची नारी जाति पर व्यक्तिगत टिप्पणी कर दी। रावण विद्वान था लेकिन, अहंकार जितने भेद पैदा करता है उनमें से एक स्त्री और पुरुष का भी कर देता है। अहंकार से भरी रावण की उस वाणी पर तुलसीदासजी ने लिखा, ‘साहस अनृत चपलता माया। भय अबिबेक असौच अदाया।। रिपु कर रूप सकल तैं गावा। अति बिसाल भय मोहि सुनावा।।’ रावण मंदादरी से कहता है- साहस, झूठ, चंचलता, छल, भय, अविवेक, अपवित्रता और निर्दयता.. तूने शत्रु का समग्र रूप गाकर मुझे बड़ा भारी भय सुनाया? यहां वह स्त्रियों के आठ अवगुण गिना रहा है। हमारे समाज में, परिवार में जब पुरुष के भीतर का रावण अंगड़ाई लेता है तो मातृशक्ति पर इसी तरह के आरोप जड़ देता है, आलोचना करने लगता है और इसी भेद के कारण घर टूट जाते हैं। घर-परिवार में रहते हुए अपने भीतर के रावण को नियंत्रित रखिएगा। वरना भारत की सबसे बड़ी पूंजी परिवार है और हम अपने ही भीतर के रावण के कारण उसे तोड़ बैठेंगे।

रिश्तों को मन से बचाएं, हृदय से निभाएं...
रिश्ते भी फसल की तरह होते हैं। इनके बीज बड़ी सावधानी से बोना पड़ते हैं और उससे भी ज्यादा सावधानी देख-रेख में बरतनी पड़ती है। फसल के लिए सबसे नुकसानदायक होती है खरपतवार। ये वो छोटे-छोटे पौधे होते हैं जो मूल फसल के पौधे के आसपास उगकर उसका शोषण करते हैं। किसान समय-समय पर खरपतवार को नष्ट करता रहता है। रिश्तों की फसल बचाना है तो मस्तिष्क, मन, हृदय और आत्मा को समझना होगा। मस्तिष्क के रिश्ते व्यावहारिक होते हैं। व्यापार की दुनिया में मस्तिष्क काम आता है। हृदय में घर-परिवार के रिश्ते बसाए जाते हैं। आत्मा से रिश्ते निभाना थोड़ा ऊंचा मामला है। रिश्तों की फसल में सबसे खतरनाक खरपतवार मन के रूप में होती है। यहां-वहां फैली गाजरघास या किसी नदी में उगी जलकुंभी को देखेंगे तो मन की भूमिका समझ जाएंगे। मन रिश्तों के मामले में ऐसा ही करता है। इसलिए रिश्ते निभाइए हृदय से। उन्हें पालना हो तो आत्मा का उपयोग कीजिए। मस्तिष्क से रिश्ते निभाने पड़ते हैं यह जीवन का व्यावहारिक पक्ष है लेकिन, रिश्तों को मन से पूरी तरह बचाइएगा। रिश्तों की फसल के लिए सबसे अच्छी खाद होती है समय, समझ और समर्पण की। यह खाद ठीक ढंग से दी जाए तो फसल बहुत अच्छे से फूलेगी-फलेगी, अन्यथा मन भेद को जन्म देता है। भेद का अर्थ है संदेह, ईर्ष्या, झूठ, कपट। यहीं से रिश्ते एक-दूसरे का शोषण करने पर उतर आते हैं। रिश्तों की फसल बहुत सावधानी से बोइए, उगाइए, बचाइए और फल के परिणाम तक ले जाइए।

नाम-दाम कमाएं पर त्याग की वृत्ति रखें...
एक दिन ऊपर जाने का मौका आएगा ही और कहीं ऐसा न हो कि तब हमारा उत्साह खत्म हो जाए। सीढ़ियों के सहारे आप ऊपर से नीचे उतर सकते हैं और नीचे से ऊपर चढ़ भी सकते हैं। परमात्मा जब अवतार लेता है तो ऊपर से नीचे धरती पर उतरता है। अपनी लीला से यह संदेश देता है कि मैं ईश्वर हूं पर ऊपर से नीचे उतरकर मनुष्य बन गया हूं। अगर ऊपर से नीचे उतरा जा सकता है तो नीचे से ऊपर क्यों नहीं चढ़ सकते? यह प्रश्न हर अवतार ने अपने समय के मनुष्यों से किया है और आज भी कर रहा है। हम चाहें तो ऊपर चढ़ सकते हैं। इसमें मदद करेंगे हमारे धर्म ग्रंथ। आपका संबंध किसी भी धर्म से हो, सभी के पास अपने ग्रंथ हैं और उनके प्रसंग या संदेश ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ी हैं। सीढ़ी चढ़ने या उतरने में जरा-सी लापरवाही हुई तो गिर भी सकते हैं। सीढ़ी चढ़ते हुए जब सबसे ऊपर के पायदान पर पहुंचते हैं तो वहां भगवान को नहीं पाएंगे। आपको लगेगा स्वयं ही भगवान जैसे हो गए। सबसे ऊंची पायदान पर आप और भगवान में कोई फर्क नहीं है। लेकिन, ऊपर चढ़ने में हमें संसार की आसक्ति रोकती है। संसार नीचे की ओर खींचता है, इसलिए जब ऊपर चढ़ना हो तो उत्साह बनाए रखना पड़ेगा, जिसमें त्याग, आकांक्षा दोनों जुड़े रहेंगे। आकांक्षा से हम संसार में उतरते हैं और यदि त्याग की वृत्ति आ जाए तो संसार छोड़कर सीढ़ी चढ़ने में दिक्कत नहीं होगी। संसार में खूब नाम-दाम कमाइए पर त्याग की वृत्ति रखिए। एक दिन ऊपर जाने का मौका आएगा ही और कहीं ऐसा न हो कि तब हमारा उत्साह खत्म हो जाए।

मन कुटिल हो तो गुण भी दोष दिखते हैं...
माया को छल बताकर कहता है स्त्री छली होती है, जबकि स्त्री को अपनी देह के कारण माया माना गया है। स्त्री का चरित्र भावनाओं की लहर की तरह होता है, जिसकी कोई व्याख्या नहीं की जा सकती, अनुभूति जरूर की जा सकती है। पुरुष का चरित्र आक्रामक होकर शोषण की वृत्ति रखता है। स्त्री के चरित्र की कूटनीतिक चालों की तरह व्याख्या रावण जैसे लोग ही कर सकते हैं। लंका कांड में मंदोदरी जब पति रावण को समझा रही थी तो चूंकि वह उस समय राजनीतिक भाषा बोल रहा था, चरित्र में कुटिलता उतर आई तो स्त्रियों की आठ खूबियों को दोष बता दिया। पहले कहा- साहस। स्त्री का सबसे बड़ा साहस होता है कि वह मां बनने की क्षमता रखती है। जबकि प्रसव मृत्यु को आमंत्रण भी हो सकता है। अनृत, यानी झूठ। रावण कहता है स्त्रियां झूठ बहुत बोलती हैं। तो क्या पुरुष इसमें कम पड़ता है? स्त्री की चंचलता को वह दोष बताता है, जबकि चंचलता उसका खुलापन है। माया को छल बताकर कहता है स्त्री छली होती है, जबकि स्त्री को अपनी देह के कारण माया माना गया है। उसे डरपोक कहता है। जो परिवार के लिए कुछ भी करने को तैयार हो वह डरपोक कैसे हो सकती है? उसके बाद अविवेक का दोष बताता है। जबकि स्त्री का विवेक पुरुष के मुकाबले अधिक जागा हुआ होता है। इसी प्रकार अपवित्रता और निर्दयता को भी उसने स्त्रियों के साथ दोष के रूप में जोड़ा है। रावण जैसे लोग समाज में स्त्रियों के प्रति इस प्रकार की टिप्पणियां कर समूची मानवता के विरोधी बन जाते हैं। राम ऐसे ही रावण को मिटाने के लिए धरती पर आए थे।

प्रेम पति-पत्नी के रिश्ते का प्राण है...
खतरा तब और बढ़ता है जब स्त्री-पुरुष एक-दूसरे पर सत्ता जमाने लगते हैं। सत्ता स्वभाव से ही स्वभक्षी होती है। इसकी कामना रखने वाला तैयार रहे कि यह एक दिन उसे भी कुतर-कुतरकर खा जाएगी। खतरा तब और बढ़ता है जब स्त्री-पुरुष एक-दूसरे पर सत्ता जमाने लगते हैं। उनमें जेंडर कॉन्शसनेस की समस्या आ ही जाती है। मैं स्त्री हूं, मैं पुरुष हूं ऐसे झगड़े नौकरी-व्यापार में दिखना आम है, लेकिन जब पति-पत्नी एक-दूसरे पर सत्ता बनाना चाहते हैं तो कीमत बच्चे चुकाते हैं। आजकल पढ़े-लिखे स्त्री-पुरुषों के लिए प्रेम एक काम हो गया है। प्रेम इस रिश्ते का प्राण है लेकिन, व्यस्तताओं के बीच प्रेम काम की तरह निपटाया जा रहा है। यह फर्क जरूर है कि पुरुष के पास स्त्री के मुकाबले काम अधिक होते हैं, इसलिए प्रेम उसके लिए अंतिम प्राथमिकता है। स्त्रियां भी बहुत काम करती हैं, उनके लिए भी प्रेम एक काम है। इसीलिए दोनों के बीच रूखापन उतर आया है। स्त्रियों के मन में यह भाव गहरा रहा है कि वे पुरुषों से पीछे न रह जाएं। स्त्री के पास उसका स्वधर्म इतना मजबूत है कि जहां खड़ी हो, वहीं ऊंचाई पा सकती है। उसे ऊंचा होने के लिए पुरुष का प्लेटफॉर्म चाहिए भी नहीं। लेकिन दोनों के बीच अजीब-सा मुकाबला है और उसमें प्रेम दम तोड़ता जा रहा है। जैसे ही पति-पत्नी के बीच का प्रेम टूटता है, उनकी उदासी बच्चों में उतर आती है। आजकल ज्यादातर बच्चे चिड़चिड़े और जिद्दी इसलिए भी पाए जाते हैं कि उनके प्रेम का स्रोत समाप्त हो गया है। प्रेम को प्रेम ही रहने दीजिए। तब ही रिश्ते सुरक्षित रह पाएंगे।

समय के महत्व को ठीक से समझें...
सबको सभी बातों का ज्ञान हो जाए, जरूरी नहीं है। जब हम अज्ञान की स्थिति में होते हैं तो कुछ वस्तुओं, व्यक्तियों को लेकर भ्रम हो जाता है। पर दुनिया का सबसे बड़ा भ्रम है स्वयं के बारे में गलतफहमी। रावण ऐसे ही भ्रम में जी रहा था। पत्नी मंदोदरी के समझाने पर पहले तो उसने मंदोदरी की आलोचना की। फिर अपनी प्रशंसा के बीच बड़ी सफाई से उसकी भी तारीफ करने लगा। कहता है, ‘सारा संसार मेरे वश में है यह बात तेरी कृपा से अब मेरी समझ में आई है। मैं तेरी चतुराई समझ गया हूं। तू समझाने के बहाने मेरी प्रभुता का बखान कर रही है।

इस संवाद पर तुलसीदासजी ने लिखा, ‘तव बतकही गूढ़ मृगलोचनि। समुझत सुखद सुनत भय मोचनि।। मंदोदरि मन महुं अस ठयऊ। पियहि काल बस मति भ्रम भयऊ।।’ रावण कहता है, ‘हे मृगनयनी, तेरी बातें बड़ी रहस्यभरी हैं। समझने पर सुख देने वाली और सुनने से भय मुक्त करने वाली हैं।’ तब मंदोदरी सोचने लगी कि काल के वश में होने के कारण पति को मति-भ्रम हो गया है।

हमें यह समझना है कि समय इंसान की बुद्धि को बदल देता है। इसलिए समय का सम्मान करें, उसके महत्व को ठीक से समझें। यदि अपने ही समय को पढ़ना नहीं आया तो एक दिन वह बुद्धि को पलटकर ऐसा आचरण करा सकता है कि आप सोच भी नहीं सकते। सच है, काल पर किसी का वश नहीं होता लेकिन, कम से कम अपने ऊपर तो वश है कि काल को समझ सकें और रावण जैसी गलती न करें।

मिलकर निर्णय लें, मिलकर जीना सीखें....
परिवार में बड़े-बूढ़े कई आदर्श वाक्य सुनाते रहते हैं। ऋषि-मुनियों ने तो गृहस्थ जीवन पर बहुत कुछ कहा है लेकिन, आज के दौर में परिवार जिन हालात से गुजर रहे हैं उसमें शंकराचार्यजी ये शब्द बहुत काम काम हैं,‘न नेयो न नेता। यानी आने वाले समय में न कोई नेता होगा और न ही कोई उनका अनुयायी। सबको मिलकर चलना होगा। आज परिवारों में यह इसलिए लागू है, क्योंकि यहां सबको मिलकर चलना ही पड़ेगा वरना परिवार तेजी से टूटते जाएंगे।

शिक्षा से प्राप्त योग्यता और धन से प्राप्त जीवनशैली ने परिवारों में शक्ति के कई केंद्र बना दिए। सब नेतृत्व चाहते हैं। बड़े तो इस झंझट में उलझे ही हैं, छोटे से बच्चे को भी लगता है कि मेरा कहा माना जाए। लेकिन अब मिल-जुलकर ही चलना पड़ेगा। काल प्रवाह से परिवार भी नहीं बचे। बहुत तेजी से पुराना गुजरता जा रहा है और नित नया परिवारों में प्रवेश कर रहा है। ऐसे में मिल-जुलकर, एक-दूसरे की बात का मान रखकर ही परिवार चलाने पड़ेंगे। सबसे पहले अहंकार विलीन करना होगा।

किसी एक को नहीं, परिवार के प्रत्येक सदस्य को अपनी योग्यता को परिवार का हिस्सा मानना पड़ेगा। अपनी शिक्षा को परिवार की देन समझना होगा। वरना परिवार बंट जाएंगे। लेकिन इस बंटवारे में तन भले ही बंट जाएं पर मन न बंटे। छत बंट जाए पर रिश्ते नहीं टूट जाएं। इसलिए शंकराचार्यजी की इस बात को याद रखते हुए सब मिलकर ही निर्णय लें, मिलकर ही जीना सीखें।

मूल्यों पर चलकर होश में रहना आसान...
होश, बेहोश और जोश ये स्थितियां सभी के जीवन में घटती हैं। कुछ लोग जानते हैं कि कब होश में रहना, कैसे बेहोशी से बचना कैसे इन दोनों के बीच जोश बनाए रखना है। होश का मतलब है जब ज़िंदगी की राह में गिरें तो गिरे ही नहीं रहना है, उठना भी है। जोश यानी आगे बढ़ना और बेहोशी का मतलब है रुक जाना। प्रगति करना हो तो बदलाव पर नज़र रखिए। एक तो स्वयं में हो रहे बदलाव पर पकड़ होनी चाहिए, दूसरा आपके आसपास के वातावरण में हो रहे बदलाव की भी पूरी समझ होनी चाहिए। पहले जीने के लिए परम्परा आधारित जीवन पर्याप्त था लेकिन, वक्त बदला तो परम्पराएं भी तेजी से बदलीं। इसलिए अब परम्परा आधारित जीवन नुकसान पहुंचा सकता है। जैसे पिछले दिनों गुरु परम्परा प्रश्नों के घेरे में गई। अब लोग लंबे समय तक गुरुओं से दूरी बना सकते हैं या गुरु बनाने में संकोच करेंगे। जब परम्परा आधारित जीवन से हटें तो मूल्य आधारित जीवन पर जाएं। मूल्य कभी नहीं बदलेंगे। सत्य, अहिंसा, प्रेम, करुणा ये मूल्य हैं। मूल्यों पर चलने वालों के लिए होश बनाए रखना आसान होगा। ज़िंदगी की राह में ठोकरें लगेंगी, आप गिर भी जाएंगे पर यदि होश कायम है तो खुद को उठा भी लेंगे। यदि खुद को नहीं बदला, परम्पराओं पर टिके रहे तो यह भी बेहोशी होगी, जो इनसान के कदम लड़खड़ा देती है, उसे रोक देती है। होश और बेहोशी के बीच जरूरत पड़ती है जोश की। यह जोश ही आपको आगे ले जाएगा।

अपनी योग्यता को अहंकार से न जोड़ें...
राजसत्ता पर बैठे व्यक्ति की जब कमर टूट जाती है तो वह न किसी की गर्दन मरोड़ सकता है और न ही खुद उसकी गर्दन मरोड़ने की जरूरत रह जाती है। युद्ध शुरू होने से पहले ही रावण का आचरण बता रहा था कि उसकी कमर टूट चुकी है। घर, सेना और मैदान में सभी दूर हालात विपरीत हो रहे थे। पत्नी मंदोदरी ने समझाया तो पहले तो उसका परिहास किया, फिर शब्दों में उसकी प्रशंसा ढूंढ़ने लगा। यहां तुलसीदास ने व्यंग्य करते हुए लिखा है, ‘एहि बिधि करत बिनोद बहु प्रात प्रगट दसकंध। सहज असंक लंकपति सभॉ गयउ मद अंध।’ यानी इस प्रकार अज्ञानवश विनोद (हास-परिहास) करते हुए रावण को सुबह हो गई। तब स्वभाव से निडर और अहंकार में अंधा लंकापति सभा में पहुंचा। पति-पत्नी एकांत में रहें, विनोद करें तो ये अच्छे लक्षण हैं। लेकिन, रावण तब विनोद कर रहा था, जब उसे बहुत गंभीर होना था।

तुलसीदासजी ने उसे निडर बताने के साथ अंधा भी लिखा। दु:साहसी व्यक्ति की यदि दृष्टि चली जाए तो उसके लिए खतरा बढ़ जाता है। फिर उसका हर कदम गलत होता है। रावण के माध्यम से हमें यही समझना चाहिए कि जब आप अपनी योग्यता को अहंकार से जोड़ते हैं, शिक्षा को भोग-विलास में उतार लेते हैं तो फिर सही निर्णय ले पाने की संभावना समाप्त हो जाती है। शिक्षित व्यक्ति को दुर्गुण नहीं पालना चाहिए, योग्य को आलसी नहीं होना चाहिए। वरना जो आचरण रावण कर रहा था वैसा ही हम भी जीवन में कहीं न कहीं करते रहेंगे।

करुणा से मिलती है संकल्प को ताकत...
संकल्प लेकर उसे तोड़ना इंसान की फितरत हो गई है। बड़े संकल्प की तो बात दूर है, छोटा-मोटा संकल्प भी पूरा नहीं कर पाते। बहुत से लोग हैं, जो रात को संकल्प लेते हैं कि सुबह जल्दी उठेंगे और सुबह होने पर रात का संकल्प धरा रह जाता है। भोजन के नियंत्रण का संकल्प खाना दिखते ही टूट जाता है। क्यों हमारे संकल्प पूरे नहीं हो पाते? संकल्प पूरा करने के लिए संयम आवश्यक है और संयम में भगवान की उपस्थिति बहुत जरूरी है। यदि आप संयम में यह मानकर चलेंगे कि परमात्मा अनुपस्थित होकर भी मुझे देख रहा है तो संयम को ठीक से पाल सकेंगे। परमात्मा सदैव साथ है, यह भाव उतरते ही आपके भीतर जो सबसे बड़ा गुण आता है वह है करुणा। जब आप करुणामय होते हैं तो न तो अपने प्रति अपराध करेंगे, न दूसरे के प्रति कुछ गलत कर पाएंगे।

करुणामय व्यक्ति का संयम भी बहुत तगड़ा होता है, क्योंकि उसे परमात्मा का सहारा मिल जाता है। वेद में कहा गया है-’श्रत्ते दधामि प्रथमाय मन्यवे। इसमें ऋषि ने परमात्मा से कहा है कि आपका जो पहला संकल्प होगा उसमें मेरी पूरी श्रद्धा है और वह संकल्प है सबके लिए करुणा। इसलिए जब कोई संकल्प लें, उसे पूरा करने के लिए जिस संयम की आवश्यकता हो उसमें सदैव यह ध्यान रखें कि आप अकेले उसे पूरा नहीं कर पाएंगे। इसमें एक और परमशक्ति की ताकत लगेगी। जैसे ही करुणामय हुए, अपने संयम को ताकत दे सकेंगे और फिर संकल्प कभी नहीं टूटेंगे।

जीवन की जडे़ं ढूंढ़ने के लिए मंदिर जाएं..
किस मंदिर में जाकर माथा टेंकें, किस मूर्ति को मान्यता दें? आजकल लोग यह सवाल बहुत पूछते हैं। धर्म के प्रति आधुनिक दृष्टि रखने में बुराई नहीं है पर आधुनिक होते-होते लोग आलोचनात्मक हो जाते हैं। आसान है यह कहना कि मंदिरों में सिवाय लूट के और क्या है। लोग भीख मांगने जाते हैं भगवान से। बाबाओं ने मंदिरों को लूट का केंद्र बना रखा है, पुजारी अपनी दुकान चलाता है। ऐसी बातें आसानी से कह दी जाती हैं। मुझसे लोग पूछते हैं कि आखिर मंदिर जाएं क्यों? इसका उत्तर है यदि आप किसी बात को ठीक से नहीं देख-समझ पाएंगे तो उसका सही अर्थ नहीं पकड़ पाएंगे। यह सही है कि मंदिर लूट, अंधविश्वास, मारामारी के केंद्र बन गए हैं लेकिन, हर बात का सतह के नीचे का पहलू होता है। भले ही सब भीख मांगने जा रहे हों, कोई लूट रहा हो, आप वहां से बहुत कुछ प्राप्त कर सकते हैं। आप जीवन की जड़ें ढूंढ़ने मंदिर में जाएं। जीवन सदैव मौन या एकांत में मिलता है। अभ्यास कीजिए उस देवस्थान पर कितना भी शोर हो पर आपके भीतर शांति घट जाए। 

दूसरे क्या कर रहे हैं यह छोड़ प्रार्थना कीजिए, अपना रोम-रोम धैर्य से भर लीजिए। पूजा-पाठ, कर्मकांड, हल्ला-गुल्ला ये अपनी-अपनी रुचि का विषय हैं और काफी हद तक मनुष्य की मानसिकता पर टिका है। कोई टिप्पणी या आलोचना करने की जगह उस वरदान से न चूकें जो मंदिर की उस चारदीवारी में बड़ी आसानी से मिल सकता है। जो श्रेष्ठ है, मिल सकता है, उसे लपक लीजिए।

नियति व्यवस्था है पर निर्णय हमें लेना है....
जब सब कुछ भगवान की इच्छा से हो रहा है, हर परिणाम में भाग्य काम कर रहा है, हर बात का कोई निमित्त है तो फिर गलत को गलत क्यों ठहराया जाता है? इस तरह के प्रश्न आजकल पढ़े-लिखे समाज में खूब उछाले जाते हैं। केवल सैद्धांतिक पंक्तियों को पकड़ेंगे तो आरोप सही लगेंगे लेकिन, यह अच्छे से समझना होगा कि भगवान जितना नियंता है, उतनी ही नियति है। नियंता का अर्थ है व्यवस्था चलाने वाला और नियति का मतलब है उसने एक ऐसी नीति बना दी है, जो कंप्यूटर के सॉफ्टवेयर की तरह है। आप जैसा करेंगे, वैसा परिणाम मिल जाएगा। नियंता के रूप में भगवान ने नियम बनाया कि पृथ्वी गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण हर चीज को खींचती है। अब यदि गिर जाएं तो यह नहीं कह सकते कि भगवान की इच्छा थी, पृथ्वी ने खींच लिया तो गिर गए। नियंता ने नियम बनाया लेकिन, गिरना आपकी नियति थी। आप ठीक से संभल नहीं पाए तो पृथ्वी खींच रही है। भगवान कृष्ण ने महाभारत युद्ध से पहले कहा था, ‘एक तरफ मैं अकेला हूं, वह भी बिना शस्त्र उठाए तथा दूसरी ओर मेरी सेना होगी। आपको जो लेना हो, ले लो। कौरवों ने सेना चुनी, पांडवों ने निहत्थे कृष्ण को चुन लिया। कुल मिलाकर निर्णय हमारे ऊपर है, भगवान अपनी व्यवस्था कर चुके हैं। इसलिए ऐसे प्रश्नों का कोई मतलब नहीं है। आपको संभावना और चयन ऊपर से दिया गया है और उसी के दायरे में अपना जीवन चलाइए।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है... मनीष
ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....

Saturday, August 15, 2020

जीवन जीने की राह (Jeevan Jeene Ki Rah8)

 पानी के तीन रूपों जैसे पति-पत्नी के रिश्ते

हमारे यहां दृष्टांत से सिद्धांत समझाने की पुरानी परम्परा है। दृष्टांत और उदाहरण में छोटा-सा फर्क है। बहुत से लोग हर बात को समझाने में कुछ उदाहरण दिया करते हैं। जैसे व्यापार की दुनिया में खेल का उदाहरण दे देते हैं। खिलाड़ियों को व्यापार का उदाहरण देकर समझाते हैं।

हमारे यहां दृष्टांत से सिद्धांत समझाने की पुरानी परम्परा है। दृष्टांत और उदाहरण में छोटा-सा फर्क है। बहुत से लोग हर बात को समझाने में कुछ उदाहरण दिया करते हैं। जैसे व्यापार की दुनिया में खेल का उदाहरण दे देते हैं। खिलाड़ियों को व्यापार का उदाहरण देकर समझाते हैं। व्यापार की दुनिया में खेल का, खेल की दुनिया में व्यापार का और परिवार में इन दोनों का उदाहरण देना, ऐसे प्रयोग बहुत लोग करते हैं। यदि आप कर रहे हों तो थोड़ा सावधान हो जाएं। किसी एक जगह का उदाहरण जरूरी नहीं कि दूसरी जगह उपयोगी रहे और सही साबित हो।

उदाहरण के तौर पर यदि आप अपने व्यवसाय में खेल का उदाहरण दें कि खेल में कोई एक जीतता है, दूसरे को हारना ही पड़ता है..। लेकिन याद रखिएगा, व्यापार में हार-जीत से जरूरी है ग्राहक को जीतना। अब यह नियम खेल में लागू नहीं होता। वहां कोई ग्राहक नहीं होता। आपके सामने आपका प्रतिद्वंद्वी है और आपको या तो जीतना है या हारना है। ये दोनों उदाहरण घर में बिल्कुल नहीं चल सकते। परिवार में न तो कोई हारता है न किसी की जीत होती है, क्योंकि परिवार न तो व्यापार की तरह चलता है, न खेल की तरह। वहां सभी जीतते हैं और हारते भी सभी हैं। एक रिश्ता पति-पत्नी का ऐसा होता है, जिसके आगे न तो किसी खेल का उदाहरण चलेगा, न व्यवसाय का। इसे समझाने का अच्छा उदाहरण हो सकता है पानी। पानी की तीन स्थिति होती है। जमी हुई स्थिति बर्फ है। कुछ दंपती बर्फ की तरह जड़ हो जाते हैं। पिघला तो तरल होकर सबमें मिल जाता है यह दूसरी स्थिति है। तीसरी स्थिति होती है भाप। जिस दिन ये दोनों भाप बनकर एक-दूसरे में घुल जाते हैं, उस दिन से इनके साथ-साथ पूरे परिवार के लिए शुभ की शुरुआत होगी।

अर्जित ज्ञान समय रहते दूसरों तक पहुंचाएं
जीवन में विपरीत का अनुभव होना ही चाहिए। इसके लिए प्रयोग करते रहें। यदि आप अमीर हैं तो इसका विपरीत यानी गरीबी जरूर देखिए। प्रसिद्धि कमाई है तो गुमनामी क्या होती है इसे भी चखिए। हर स्थिति का एक विपरीत है और जीवन में परिपक्वता लाने के लिए उसका अनुभव, उसका स्वाद होना ही चाहिए।

जीवन में विपरीत का अनुभव होना ही चाहिए। इसके लिए प्रयोग करते रहें। यदि आप अमीर हैं तो इसका विपरीत यानी गरीबी जरूर देखिए। प्रसिद्धि कमाई है तो गुमनामी क्या होती है इसे भी चखिए। हर स्थिति का एक विपरीत है और जीवन में परिपक्वता लाने के लिए उसका अनुभव, उसका स्वाद होना ही चाहिए। लेकिन विपरीत का अनुभव करना आसान नहीं है। उसके लिए तप करना पड़ता है।

हिंदू शास्त्रों में जब यह प्रश्र उठाया जाता है कि सबसे बड़ा तप कौन-सा? तो उपनिषद में इसका उत्तर है स्वाध्यायी। इसका शाब्दिक अर्थ तो है स्वयं का अध्ययन। लेकिन इसके तीन चरण होते हैं तब स्वाध्यायी होता है। यदि आपकी रुचि तप में है तो फिर सबसे बड़ा तप ही कीजिए। तीन स्तर से स्वाध्यायी पूरा होता है।
पहला, ज्ञान को सही जगह से प्राप्त करें। वह स्थान शास्त्र या गुरु हो सकते हैं। जब सही जगह से ज्ञान प्राप्त हो जाए तो उसे बहुत अच्छे तरह से जीवन में उतारें। स्वाध्यायी का दूसरा स्तर है दोहरा जीवन न जीएं और तीसरा चरण है जो कुछ आपने पाया उसे आगे बढ़ाएं। लोगों में बांटे, खासकर नई पीढ़ी तक जरूर पहुंचाएं। अर्जित ज्ञान को समय रहते दूसरों तक नहीं पहुंचाया तो तप एक तरह से खंडित ही माना जाएगा। तपस्वी व्यक्ति केवल धार्मिक कार्य करे यह जरूरी नहीं है।

एक तपस्वी जब दुनियादारी में उतरता है तो उसका तप उसे सिखाता है कि तुम अपना पेट भर सके ऐसा काम तो करो ही लेकिन, हमारे काम के कारण कई लोगों का पेट पल जाए ऐसा जरूर किया जाए। आज के दौर में जब चारों ओर वासनाओं की आंधियां चल रही हों, गलत रास्ते से लक्ष्य प्राप्त करने के तरीके सिखाए जा रहे हों, मनुष्य अधीर और अधीर होता जा रहा है ऐसे समय जीवन में तप का बड़ा महत्व है।

लक्ष्य बड़े हों तो दिल भी बड़ा होना चाहिए
बड़े सपने देखे जाएं, विशाल अभियान हाथ में लिए जाएं, लक्ष्य छोटे न हों। ऐसी बातें आजकल युवा पीढ़ी को सिखाई जाती हैं। उन्हें दक्ष किया जाता है कि छोटा मत सोचो, बड़ा ही बनना है। आसमान के तारे से नीचे की बात न करो।

बड़े सपने देखे जाएं, विशाल अभियान हाथ में लिए जाएं, लक्ष्य छोटे न हों। ऐसी बातें आजकल युवा पीढ़ी को सिखाई जाती हैं। उन्हें दक्ष किया जाता है कि छोटा मत सोचो, बड़ा ही बनना है। आसमान के तारे से नीचे की बात न करो। तारे तोड़ने का इरादा रखोगे तो भले ही हाथ कुछ न लगे, कम से कम कीचड़ में सनने से तो बच जाएंगे। उड़ान ऐसी हो कि आसमान भेद दो। कम से कम धरती की धूल गंदा तो नहीं कर पाएगी। ऐसे सारे सूत्र आधुनिक प्रबंधन में सिखाए जाते हैं। ये सब बहुत अच्छा है। ऐसा होना भी चाहिए लेकिन, इसे थोड़ा आध्यात्मिक दृष्टि से भी देखा जाए। अध्यात्म कहता है लक्ष्य बड़े हों तो हृदय भी बड़ा होना चाहिए। दिल बड़ा हो तो बड़े लक्ष्य प्राप्त करने में दिक्कत नहीं होती, क्योंकि बड़े दिल में चारों दुर्गुण (काम, क्रोध, अहंकार और लोभ) अपने अच्छे और बुरे दोनों रूप में रहते हैं। काम अपने आपमें एक ऊर्जा है और विलास भी। जिसका हृदय बड़ा होता है वह ऊर्जा के सदुपयोग और भोग-विलास की मस्ती दोनों का संतुलन बैठा लेता है। क्रोध की उत्तेजना स्वयं को और दूसरों को अनुशासन सिखा सकती है और इसकी कमी आपको कमजोर प्रशासक बना सकती है। बड़े दिल वाला संतुलन करके चलता है। अहंकार से आप प्रभावशाली भी हो सकते हैं और इसके कारण अकेले भी हो सकते हैं। बड़े दिल वाला अहंकार को नियंत्रित करके चलता है। चौथा दुर्गुण है लोभ। आपकी इस वृत्ति में अनेक लोग समा जाएं तो सबका भला हो जाएगा, वरना यह वृत्ति आपको मृत्यु तक ले जाएगी। दुर्गुण सभी में होते हैं पर उनमें से सदगुण निकाल लेना और सदगुण को दुर्गुणों से बचा लेना बड़े दिल वालों की विशेषता होती है, इसलिए जिनके लक्ष्य बड़े हों वे हृदय जरूर बड़ा रखें।

गलत काम करके सही लक्ष्य नहीं मिलते
भोग-विलास की वृत्ति वे सारे आईने तोड़ देती है, जिनमें आदमी अपना विकृत चेहरा देख सके। विलासी व्यक्ति के विचार भी एकतरफा हो जाते हैं। उसका हर इरादा दूसरे को भोगने का होता है। फिर इसके लिए वह झूठ भी बोलता है, हिंसा भी करता है। इसका बहुत बड़ा उदाहरण था रावण। लंकाकांड के आरंभ में श्रीराम सेना के साथ लंका में डेरा डाल चुके थे। बेटे प्रहस्त द्वारा समझाने के बाद रावण अपने महल में चला गया जहां हर दिन नाच-गाने की महफिल चलती थी। अप्सराएं नृत्य कर रही थीं, रावण विलास में डूबा अट्‌टहास किए जा रहा था। इस दृश्य पर तुलसीदासजी ने एक दोहा लिखा, ‘सुनासीर सत सरिस सो संतत करइ बिलास। परम प्रबल रिपु सीस पर तद्यपि सोच न त्रास।।’ अर्थात राम के रूप में मौत माथे पर नाच रही थी फिर भी विलासी रावण को न चिंता थी न कोई डर। भय नहीं होने का यह मतलब नहीं कि रावण निर्भय था। न ही यह मान सकते हैं कि वह बहुत आत्मविश्वास से भरा था इसलिए चिंतित नहीं था। दरअसल नशे में डूबा आदमी इन दोनों (डर व चिंता) के प्रति लापरवाह हो जाता है। भूल ही जाता है कि ऐसा करते हुए वह स्वयं के अहित के साथ और भी कई लोगों को परेशानी में डाल रहा है। आज के समय में हम रावण से यह शिक्षा ले सकते हैं कि जब किसी बड़े अभियान की तैयारी कर रहे हों तो भोग-विलास से बचकर रहें। भोग-विलास आलस्य और लापरवाही के रूप में भी जीवन में उतरता है। जब सामने चुनौती खड़ी हो और आप लापरवाह या आलसी हो जाएं तो समझो रावण वाली गलती कर रहे हैं। प्रतिस्पर्धा के इस दौर में जबकि जीवन में हर पल कोई चुनौती है, गलत काम करते हुए सही लक्ष्य प्राप्त नहीं किए जा सकते।

भरोसा हो तो भरपूर बरसती है ईश-कृपा
मनुष्य कई घटनाओं का जोड़ है। हमारे आसपास प्रतिपल कुछ घटता है, हमें स्पर्श कर जाता है। कुछ घटनाएं धक्का दे जाती हैं, कुछ दाएं-बाएं से निकल जाती हैं। गौर करें तो हमारा व्यक्तित्व कई घटनाओं के जोड़ से बना है।

मनुष्य कई घटनाओं का जोड़ है। हमारे आसपास प्रतिपल कुछ घटता है, हमें स्पर्श कर जाता है। कुछ घटनाएं धक्का दे जाती हैं, कुछ दाएं-बाएं से निकल जाती हैं। गौर करें तो हमारा व्यक्तित्व कई घटनाओं के जोड़ से बना है। चूंकि हमारे पास समय नहीं रहता तो हम उनका मूल्यांकन नहीं करते लेकिन, कुछ घटनाएं ऐसी हैं जो संकेत करती हैं कि अब आगे कष्ट होना है, हानि उठानी पड़ेगी, हम चिंता में डूबने वाले हैं। ऐसी घटना को साहित्य में विपत्ति कहा गया है। जब किसी मनुष्य के जीवन में विपत्ति आती है तो वह उससे निपटने के कई तरीके अपनाता है। तुलसीदासजी रामभक्त तो थे ही, बहुत बड़े समाजसेवक भी थे। वे चाहते थे कि भक्त को उदास नहीं होना चाहिए। इसलिए उन्होंने एक बहुत अच्छी पंक्ति लिखी है, ‘तुलसी साथी विपत्ति के विद्या विनय विवेक। साहस सुक्रति सुसत्यव्रत रामभरोसे एक।। तुलसी ने सात बातें बताई हैं, जो विपत्ति के समय हमारी मदद करेंगी। शुरुआत की है विद्या से। जब विपत्ति आती है तो शिक्षा मनुष्य का सबसे बड़ा सहारा है। इसलिए पढ़ाई-लिखाई के इस युग में बच्चों को जरूर पढ़ाएं। फिर कहते हैं पढ़ा-लिखा आदमी विनम्र होना चाहिए। तीसरे में कहा है शिक्षा का उपयोग विवेक से करें। साहस न छोड़ें, अच्छे काम करें, सत्य पर टिके रहें। इन छह के अलावा सबसे बड़ा सहारा है भरोसा भगवान का, जिसे उन्होंने रामभरोसा कहा है। भरोसा एक तरह का पात्र है। उस परमशक्ति की कृपा लगातार बरस रही है। यदि अपने पात्र को खुला रखा तो लबालब हो जाएगा। भगवान समान रूप से कृपा बरसाते हैं। जिसके पास भरोसे का पात्र है, उसका भर जाता है और फिर विपत्ति के समय यह भरोसा ही उसकी सबसे बड़ी ताकत बन जाता है।

अपने शरीर में अच्छे अतिथि बनकर रहें
यदि संभाला नहीं तो शरीर भी स्वभक्षी हो जाता है। यानी यह शरीर जिसे हम खिलाते-पिलाते हैं, एक दिन हमें ही खा जाता है। यदि संभाला नहीं तो शरीर भी स्वभक्षी हो जाता है। यानी यह शरीर जिसे हम खिलाते-पिलाते हैं, एक दिन हमें ही खा जाता है। बात बड़ी गहरी है पर इसे ठीक से समझना पड़ेगा। आज ज्यादातर लोग शरीर का मतलब नाम, धर्म, पद-प्रतिष्ठा की एक पहचान मान लेते हैं और समझते हैं यही शरीर है। यह भोग-विलास का माध्यम, खाने-पीने का रास्ता है। तो क्या सचमुच शरीर केवल इतना है? इन दिनों लगातार काम करने की ललक नशा बनकर जिन-जिन चीजों का नुकसान कर रही है उनमें एक है शरीर। समाजसेवा के क्षेत्र में एक शब्द चलता है मित्र। कोई वृक्ष मित्र बन जाता है, कोई इको फ्रेंडली हो जाता है। कंप्यूटर के जानकारों के लिए कहा जाता है यह कंप्यूटर फ्रेंडली है। आप बेशक कई चीजों के मित्र बनें लेकिन प्रयास कीजिए शरीर मित्र भी बनें। यदि शरीर से मित्रता निभाई तो शायद वृद्धावस्था में यह भी आपसे दोस्ती निभाएगा। वरना बुढ़ापे में तो अपना ही शरीर अपना दुश्मन हो जाता है। इस शरीर को थोड़ा जीतना पड़ता है। जैसे घुड़सवार कमजोर हो तो घोड़े का क्या दोष? शरीर इंद्रियों से बना है और इंद्रियों पर चढ़कर काम करना पड़ता है, वरना ये आपको पटक देंगी। असल में हम शरीर हैं ही नहीं। हम आत्मा हैं जो शरीर में अतिथि के रूप में है। जब आप किसी के अतिथि होते हैं तो इस बात के लिए सावधान रहते हैं कि यहां की वस्तु का उपयोग तो कर सकता हूं पर इस पर मेरा अधिकार नहीं है। अच्छे अतिथि जहां जाते हैं, बड़े कानून-कायदे से रहते हैं। आप भी अपने शरीर में अतिथि बनकर रहें। उसे साफ-सुथरा रखें, उसका मान करें। जो शरीर मित्र बनेगा वह स्वयं को जीत लेगा और जो खुद से जीता, फिर दूसरों के लिए उसे हराना मुश्किल हो जाता है।

हमारा चरित्र व भीतर की गंभीरता बची रहे
गलती करके उसे स्वीकार नहीं करना और बड़ी गलती है। कुछ लोग गलत बात या काम करने के बाद पता ही नहीं लगा पाते कि इसमें गलती हो गई और कुछ ऐसे भी होते हैं, जिन्हें मालूम होता है कि गलती हो गई पर स्वीकार नहीं करते।

गलती करके उसे स्वीकार नहीं करना और बड़ी गलती है। कुछ लोग गलत बात या काम करने के बाद पता ही नहीं लगा पाते कि इसमें गलती हो गई और कुछ ऐसे भी होते हैं, जिन्हें मालूम होता है कि गलती हो गई पर स्वीकार नहीं करते। स्वीकार कर लेने से गलती हल्की या दूर हो जाती है। लेकिन, हम लोग अड़ जाते हैं और उस गलती का कारण स्वयं में न देखते हुए दूसरों में ढूंढ़ने लगते हैं। इस दौर में ऐसा ज्यादा होने लगा है। कोई अपनी गलती मानने को तैयार ही नहीं। इसका एक बड़ा कारण है कि लोग गंभीरता से कट गए। हर बात को हल्के में लेने लगे। पहले ‘गंभीरता शब्द का उपयोग समझाने के लिए किया जाता था। जैसे- परीक्षाएं आ रही 
हैं, थोड़ा गंभीर हो जाओ, सामने बहुत बड़ी चुनौती है, इसे गंभीरता से लो..

इसका मतलब होता था आगे भविष्य में गलती न हो। आज आदमी अपनी जीवनशैली में गंभीरता नहीं रख पाता। व्यक्तित्व में अजीब-सा उथलापन दिखने लगा है। ध्यान रखिए, गंभीर होने का मतलब यह नहीं है कि मुंह थोड़ा चढ़ा हुआ हो, जरूरत पड़ने पर भी बात न करें, एक चुप्पी ओढ़ ली जाए। गंभीर बनने या दिखने के लिए व्यक्तित्व में तीन बातें उतारनी होती हैं। एक, परिश्रम। गंभीर व्यक्ति आलसी नहीं हो सकता। दो, परमार्थ। गंभीरता इसी में है कि सदकार्य करते हुए दूसरों का भला करें। तीसरी महत्वपूर्ण बात है चरित्र। गंभीर व्यक्ति चरित्र पर टिकता है। आज तो बड़े से बड़ा अपराध करने के बाद भी लोग गंभीर नहीं हैं। जिसे जो समझ में आता है, बोल रहा है, कर रहा है। लेकिन, यदि सच्चे भारतीय हैं तो हमारा चरित्र और हमारे भीतर की गंभीरता बची रहनी चाहिए। इसके लिए परिश्रम, परमार्थ और चरित्र इन तीन चीजों पर काम करते रहिए।

चातुर्मास में जीवन सद्‌गुण संकल्प से जोड़ें
नींद एक ऐसी जरूरत है, जिसके बिना कोई रह नहीं सकता। हिंदू धर्म में नींद को बहुत सुंदर दर्शन से जोड़ा गया है। नींद एक ऐसी जरूरत है, जिसके बिना कोई रह नहीं सकता। हिंदू धर्म में नींद को बहुत सुंदर दर्शन से जोड़ा गया है। आज की तिथि हरिशयनी एकादशी कहलाती है। आज से विष्णुजी चार महीनों के लिए निद्रा में जाएंगे। विष्णु सात्विक भाव के प्रतीक हैं और जब सत्वभावचार मास निद्रा में है तो हमारी जिम्मेदारी और बढ़ जाएगी। इन चार महीनों में कोई ऐसा संकल्प लीजिए जो भीतर के सात्विक भाव को बनाए रखे। जब विष्णु सोते हैं तो वेद हमारे मार्गदर्शक बन जाते हैं। जो वेद न पढ़ सके वह ऐसे शास्त्र पढ़ें, जिनमें वेद का निचोड़ हो। 

ऐसा ही शास्त्र है रामचरित मानस। इन चार महीनों में रामचरित मानस से संदेश लिया जा सकता है कि कैसे परमपिता अपने आपको विश्राम में लेकर संदेश देता है कि विश्राम का अर्थ है ऊर्जा का पुनर्संचरण। लंका कांड में रावण भोग-विलास में डूबा हुआ था और रामजी सेना लेकर लंका पहुंच चुके थे। तब तुलसीदासजी ने लिखा, ‘तहं तरू किसलय सुमन सुहाए। लछिमन रचि निज हाथ डसाए।। ता पर रुचिर मृदुल मृगछाला। तेहिं आसन आसीन कृपाला।। अर्थात लक्ष्मणजी ने वृक्षों के कोमल पत्ते और सुंदर फूलों पर अपने हाथों से कोमल मृगछाल बिछा दी जिस पर कृपालु श्रीराम विराजमान थे। यहां रामजी किस तरह से बैठे हैं, बताया गया है। यह वही दृश्य है कि विष्णु सोकर भी होश में हैं। हम लोग नींद का मतलब इतना समझते हैं कि जागने के समापन को नींद कहते हैं। असल में होना यह चाहिए कि नींद भी आए और होश भी रहें। राम उस समय पूरे होश में थे और रावण जागते हुए भी सोया हुआ था। यही स्थिति उसके पतन का कारण बनी थी। हम भी चातुर्मास से संदेश लें कि इन चार महीनों में अपने भीतर के सदगुण, संकल्प बहुत अच्छे से जीवन से जोड़ेंगे।

संस्थान व कर्मचारी परस्पर मददगार बनें
हर हाल में हम किसी सूक्ष्म नेत्र के परीक्षण में होते हैं। वह ईश्वर हो सकता है, आपका जमीर हो सकता है। आप स्वयं को जरूर देख रहे होंगे। इस बात को कभी न भूलें कि आपको कोई देख रहा है। अकेले में कुछ करते हुए मान लें कि जो भी कर रहे हैं उसे कोई नहीं देख रहा है तो यह आपकी बहुत बड़ी गलतफहमी होगी। हर हाल में हम किसी सूक्ष्म नेत्र के परीक्षण में होते हैं। वह ईश्वर हो सकता है, आपका जमीर हो सकता है। आप स्वयं को जरूर देख रहे होंगे। कुछ संस्थानों में जो एचआर विभाग होता है, उसमें इस बात पर बहस होती है कि हमारे यहां काम करने वालों के व्यक्तिगत जीवन में संस्थान कितना हस्तक्षेप करेगा। कई बार काम करने वाले कुछ लोग कहते हैं हमारे निजी जीवन में संस्थान को कोई रुचि नहीं होनी चाहिए। उन्हें परिणाम चाहिए, जो हम परिश्रम से दे रहे हैं। वैधानिक दृष्टि से बात सही है लेकिन, नैतिक दृष्टि से देखेंगे तो अर्थ बदल जाएंगे। निजी जीवन के क्रियाकलाप सार्वजनिक जीवन पर प्रभाव डालेंगे ही। यदि आप अपने एकांत या निजी जीवन में परेशान हैं तो इसका असर कामकाज पर पड़ेगा। शास्त्रों में कहा गया है कि जल में स्नेह और अनुराग स्वत: होता है, इसीलिए वह नीचे की तरफ दौड़ता है। किसी में भी घुल-मिल जाना पानी का लक्षण या स्वभाव है। इसे करुणा की वृत्ति कहते हैं। संस्थान अपने काम करने वालों में निजी रूप से रुचि रखे यह पानी जैसी वृत्ति है। वह हस्तक्षेप नहीं, सहानुभूति है। ये ही भाव काम करने वालों को भी रखना चाहिए। उन्हें लगना चाहिए कि हमारा निजी जीवन इतना भी निजी नहीं है कि उसे संस्थान से पूरी तरह ही काट लिया जाए। दोनों ही एक-दूसरे में पानी की तरह भाव रखें। एक-दूसरे को जानें और निजी व सार्वजनिक जीवन में इतनी रुचि जरूर लें कि एक-दूसरे की परेशानी को कम करने में मददगार बन सकें।


ख्याति मिलने पर अहंकार में डूबें
मशहूर लोगों को उन्हीं की ख्याति का खंजर जरूर चुभता है। जब उससे घायल होते हैं तो कई बार तो घाव लाइलाज हो जाते हैं। मशहूर लोगों को उन्हीं की ख्याति का खंजर जरूर चुभता है। जब उससे घायल होते हैं तो कई बार तो घाव लाइलाज हो जाते हैं। लोकप्रिय होने की चाह मनुष्य स्वभाव में है। नाम, मान, पहचान सभी चाहते हैं। ध्यान रखिएगा, लोकप्रिय बने रहने की आदत है तो थोड़ी सावधानी बरतें।

ख्याति बहुत तरल होती है। लोकप्रिय लोग कल्पना में बहने लगते हैं। पहचान की स्वीकृति की चाहत मनुष्य को बेचैन कर देती है। जब वह थोड़ा ख्यात हो जाता है तो यह मान लेता है कि मेरे बारे में जो मैं सोच रहा हूं वह सब सही है और दूसरे भी ऐसा ही सोचें। ऐसे लोग इसके लिए बाहर की स्थितियों, व्यक्तियों पर दबाव बनाते हैं लेकिन, स्थितियां सदैव एक जैसी नहीं रहतीं। संसार नाम ही सरकने का है। स्थितियां बदल जाती हैं, लोग हट जाते हैं पर ख्यात लोग उसी दुनिया में उलझे रहते हैं। बड़े-बड़े बादशाह दफन हो गए। जिनके सिक्के चलते थे उन्हें कोई पूछने वाला नहीं रहा। ऐसे ही एक दिन सभी की लोकप्रियता दिशा मोड़ेगी। यदि आप जरा भी लोकप्रिय हैं तो इस बात का ध्यान रखिएगा कि ख्याति अनियंत्रित, अनियमित, सशर्त, अस्थायी होकर अहंकार के साथ आती है। उसके साथ एक अनोखा डर जुड़ा होता है। ख्यात लोग इस बात को लेकर भयभीत रहते हैं कि यह मान, पहचान किसी भी तरह बना रहे, कहीं चला जाए। ऐसे में आप दयनीय स्थिति में जाते हैं। इसलिए जब भी ख्यात होने की स्थिति बने, पहले तो उसे सावधानी से अर्जित करें और मानकर चलें कि यह अस्थायी है। आज हमारे पास है, कल किसी और के पास हो सकती है। यदि लोकप्रियता चली भी जाए तो आप वही रहेंगे जो थे। ख्याति मिल जाने पर अहंकार पालें और चली जाने पर अवसाद में डूबें।

हठ को मन से नहीं, बुद्धि से जोड़ना होगा..
हठ करो-हासिल करो, इस तरह के आदर्श वाक्य से लोगों को प्रोत्साहित और प्रेरित किया जाता है। कहते हैं यदि ज़िद ठान लें तो संसार में जो चाहें, पा सकते हैं। हठ करो-हासिल करो, इस तरह के आदर्श वाक्य से लोगों को प्रोत्साहित और प्रेरित किया जाता है। हठ करना बुरी बात नहीं है। हठ यदि शुभ संकल्प में बदल जाए तब तो बात ही अलग होगी। दार्शनिक लोग कहते हैं दुनिया में तीन लोगों का हठ बड़ा चर्चित है- राजहठ, बालहठ और त्रियाहठ। राजा जिद पर आ जाए, बच्चा मचल जाए और स्त्री अपनी बात मनवाने पर अड़ जाए तो परिणाम लोग अलग-अलग ढंग से भुगतते हैं। शास्त्रों में एक बात बड़े अच्छे ढंग से कही गई है कि संसार में केश (बाल) और नाखून का हठ भी बड़ा मशहूर है क्योंकि दोनों को काटो और फिर उग आते हैं। इसके अलावा एक और हठ बताया गया है- मन का। हमारा मन बड़ा हठी होता है। कितना ही काबू में करने की कोशिश कर लें, वह अपना काम दिखा ही देता है। मन दो तरह के हैं- मंकी माइंड और काउ माइंड। मंकी माइंड का मतलब है किसी बंदर की तरह उछलकूद करने वाला। काउ माइंड वह जो गाय की तरह शांत हो और जिसमें से पॉजीटिव वाइब्रेशन्स निकल रहे हों। विचार करें हमारा मन कैसा है और प्रयास कीजिएगा काउ माइंड हो। मन हर एक पर अपने वांछित व्यवहार का दबाव बनाता है। जैसा मैं चाहता हूं वैसा ही हो जाए यह मन का अति आग्रह या हठ है। चूंकि बाहर उसका हठ पूरा नहीं हो पाता इसलिए भीतर दृश्य निर्मित करता है और भीतर के ये ही दृश्य आपको तनाव में पटक देते हैं। छलावा, षड्यंत्र ये सब मन के हठ के परिणाम हैं। याद रखिएगा, हठ यदि मन से जुड़ा है तो आप नुकसान में हैं और यदि बुद्धि से जुड़ा है तो सफलता के मतलब बदल जाएंगे।

गुरु न मिले तो हनुमानजी को गुरु मान लें
कोई बच्चा माता-पिता या परिवार के बड़े-बुजुर्गों की अंगुली पकड़कर ही दुनियादारी देखने और उसे समझने की शुरुआत करता है। कहा जाता है मानव जीवन की पहली पाठशाला परिवार होती है। सच भी है, कोई बच्चा माता-पिता या परिवार के बड़े-बुजुर्गों की अंगुली पकड़कर ही दुनियादारी देखने और उसे समझने की शुरुआत करता है। लेकिन, इस तथ्य को भी नहीं भुला सकते कि माता-पिता या परिवार से प्राप्त शिक्षा सफलता की सीढ़ियां तो दिखा सकती हैं परंतु लक्ष्य तक पहुंचने के लिए कुछ और भी चाहिए। बिना सही मार्गदर्शन के केवल ज्ञान या जानकारी के बूते कामयाबी के शीर्ष तक नहीं पहुंचा जा सकता। यह मार्गदर्शन सिर्फ गुरु ही दे सकते हैं। बात महान दार्शनिक अरस्तू की हो या स्वामी विवेकानंद की, इनके समग्र दर्शन और व्यक्तित्व के पीछे गुरु कृपा का आलोक ही काम कर रहा था। स्वामी विवेकानंद ने तो स्वयं ही स्वीकार किया था कि यदि गुरु रूप में रामकृष्ण परमहंसजी नहीं मिले होते तो मैं साधारण नरेंद्र से ज्यादा कुछ नहीं होता। हर माता-पिता की चाहत होती है उनकी संतान श्रेष्ठ होकर शीर्ष तक पहुंचे। समय रहते बच्चों के लिए कोई योग्य गुरु ढूंढ़ दीजिए। वे वहीं पहुंच जाएंगे, जिस मुकाम पर आप उन्हें देखना चाहते हैं। हालांकि श्रेष्ठ गुरु मिल जाना भी इस दौर की बड़ी चुनौती है। तुलसीदासजी ने श्री हनुमान चालीसा की सैंतीसवीं चौपाई, ‘जै जै जै हनुमान गोसाई कृपा करहुं गुरुदेव की नाई लिखकर इस चुनौती को बहुत आसान कर दिया है। कोई अच्छा गुरु नहीं मिले तो हनुमानजी को ही गुरु और हनुमान चालीसा को मंत्र मान लीजिए। सफल कैसे हुआ जाए और सफलता मिल जाने के बाद क्या किया जाए यह हनुमानजी से अच्छा कोई नहीं सिखा सकता। गुरु रूप में उनकी जो कृपा बरसेगी वह आपका जीवन बदल देगी। कल गुरुपूर्णिमा है, क्यों न शुरुआत इसी शुभ दिन से की जाए..

राम से सीखें एक साथ कई भूमिकाएं निभाना
दो हाथ से चार गेंद उछालना और किसी एक को भी गिरने नहीं देना, यह काम या तो जादूगर कर सकता है या कोई बड़ा कलाबाज। दो हाथ से चार गेंद उछालना और किसी एक को भी गिरने नहीं देना, यह काम या तो जादूगर कर सकता है या कोई बड़ा कलाबाज। लेकिन कुछ लोग वास्तविक जिंदगी में भी अपने कामों, अपनी परिस्थितियों को ऐसे ही उछालते हैं। एक बार में अनेक काम साध लेते हैं और सफल भी हो जाते हैं। प्राणियों में सिर्फ इंसान है, जिसे मानव कहा गया है और वह इसलिए कि उसके भीतर मानस होता है। मानस सक्रिय होता है तो मस्तिष्क बनकर कई काम एक साथ करने की क्षमता रखता है। लंकाकांड के एक अनूठे दृश्य पर तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘प्रभु कृत सीस कपीस उछंगा। बाम दहिन दिसि चाप निसंगा।। दुहुं कर कमल सुधारत बाना। कह लंकेस मंत्र लगि काना।। बड़भागी अंगद हनुमाना। चरन कमल चापत बिधि नाना।। प्रभु पाछें लछिमन बीरासन। कटि निषंग कर बान सरासन।। यहां बताया गया है कि किस प्रकार राम विश्राम की मुद्रा में लेटे हैं और सुग्रीव, विभीषण, हनुमान, अंगद आदि उनके आसपास बैठे सेवा में लगे हैं। श्रीराम विश्राम भी कर रहे हैं और सक्रिय भी हैं। स्वयं काम कर रहे हैं और अपने सभी साथियों को भी काम पर लगा रखा है। जब मनुष्य का मस्तिष्क सक्रिय होता है तो चार रंगों से गुजरता है। इन्हें शास्त्रों ने वर्ण कहा है। पहला होता है शूद्र। इसे आज की भाषा में स्वामी भक्ति कह सकते हैं। दूसरा वैश्य। यानी चौकसी के साथ अपने हानि-लाभ के लिए सक्रिय रहना। क्षत्रिय वर्ण में नेतृत्व क्षमता आ जाती है और ब्राह्मण वर्ण यानी ज्ञान का सदुपयोग करना। इस तरह एक मस्तिष्क आपको कई अवसरों से गुजार सकता है। जब एक साथ कई भूमिकाएं चल रही हों तो श्रीराम से सीखा जाए कैसे दो हाथों में चार गेंद उछालें और गिरने भी न दें। यही कलाबाजी आपकी योग्यता बन जाएगी।

संतान के भीतर सद्‌विचारों की तरंगें उतारें
अच्छी-अच्छी बातों-सूक्तियों को तोड़-मरोड़कर रुचिकर बनाते हुए नारों की शक्ल में उछाल देने की कला वॉट्सएप ने सबको सिखा दी आदर्श वाक्यों, अच्छी-अच्छी बातों-सूक्तियों को तोड़-मरोड़कर रुचिकर बनाते हुए नारों की शक्ल में उछाल देने की कला वॉट्सएप ने सबको सिखा दी है। जिसे देखो वह मोबाइल के माध्यम से ज्ञान बांट रहा है। फिर उस ज्ञान को हम नेत्रों से पढ़ते तो हैं लेकिन, बात हृदय तक नहीं पहुंचती। कुल-मिलाकर चारों ओर ज्ञान की वर्षा हो रही है पर आचरण में उतारने को कोई तैयार नहीं। जैसे भिखारी भीख मांगता है और लोग कह देते हैं आगे बढ़ो, बस उसी तरह ज्ञानवर्धक संदेश तुरंत आगे बढ़ाए जा रहे हैं। किसी इंसान को तैयार करना हो तो सबसे पहले उसके आचरण पर काम करना पड़ता है। माता-पिता संतान को सिर्फ जन्म ही नहीं देते, उन्हें तैयार भी करते हैं। बायो टेक्नोलॉजी के इस युग में लगातार प्रयोग हो रहे हैं, जिनमें कुछ चौंकाने वाले हैं। एक ही पेड़ पर हर डाली अलग-अलग आकार और स्वाद के फल दे सकती है। ऐसे सफल प्रयोग हो चुके हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार मनुष्य को सिर्फ एक प्रतिशत दूसरी बातें प्रभावित करती हैं, बाकी निन्यानबे प्रतिशत वह प्रकृति द्वारा संचालित होता है। जब फलों पर इतना काम हो रहा हो तो संतानरूपी फसल पर भी गंभीरता से काम करना पड़ेगा। इसकी शुरुआत उनके आचरण से कीजिए। अन्न का मन पर पूरा असर पड़ता है। बायो टेक्नोलॉजी के युग में खान-पान की चीजों पर बहुत काम हो रहा है परंतु ध्यान रखिए, एक अन्न विचारों का भी होता है। माता-पिता के शरीर और मस्तिष्क से निकली तरंगें भी अन्न की तरह प्रभावी होकर बच्चों के लिए बहुत उपयोगी होती हैं। सद्‌विचारों की ये तरंगें उनके भीतर उतारिए। कहीं ऐसा न हो कि हम उन्हें मौखिक निर्देश, आदर्श वाक्य और सूत्र बांटते रहें और वो सब ऊपर से निकलकर उनका आचरण कोरा रह जाए।

अपने अंदर अध्यात्म का स्वराज्य लाएं
भारत में जो भी किया जाए, भारतीयता उससे विलग नहीं होनी चाहिए। राज्य और स्वराज्य दो अलग चीजें हैं। हमारे देश का जो राज्य, जो शासन है वह लगातार ऐसे प्रयोग कर रहा है कि एक भारतीय की संवैधानिक स्थिति में कुछ अनुकूल और कुछ प्रतिकूल परिवर्तन आ रहे हैं। कई इनके समर्थन हैं तो कुछ विरोध भी कर रहे हैं। सामान्यजन के पास सिवाय प्रतीक्षा करने के और कुछ नहीं है। ऐसे समय जब नए-नए नियम आ रहे हों, कर के रूप बदल रहे हों, देश विकास के मार्ग पर गति पकड़ रहा हो, उपलब्धि होने और नहीं होने- दोनों ही स्थितियों में अध्यात्म की बहुत जरूरत पड़ेगी। भारत में जो भी किया जाए, भारतीयता उससे विलग नहीं होनी चाहिए। कुछ मामलों में अध्यात्म और भारतीयता एक ही है। राज्य वह होता है, जिसे कुछ लोग चलाते हैं। जैसे हमारे यहां लोकतंत्र है। लेकिन स्वराज्य का मामला थोड़ा आत्मा से जुड़ा है। आप जितना स्वराज्य पर टिक जाएंगे, राज्य से होने वाली तकलीफों की पीड़ा कम होगी और उपलब्धियों का सदुपयोग कर सकेंगे। स्वराज्य की सीधी-सी परिभाषा है स्वयं द्वारा स्वयं पर शासन। यहां स्वयं का मतलब आत्मा से है। जितना आत्मा को जानेंगे उतना ही स्वराज्य का आनंद ले पाएंगे। स्वयं मर्यादा में रहना सीख गए तो दूसरों को भी यही सहूलियत देंगे और खुद भी हर स्थिति का आनंद ले सकेंगे। स्वराज्य पाने के लिए चौबीस घंटे में कुछ समय योग करिए। तब स्वयं पर शासन करते हुए बाहर की परिस्थितियों से उतने प्रभावित नहीं होंगे, जितने आज होकर परेशानी उठा रहे हैं। बाहर की दुनिया तो ऐसे ही चलती है। जो राजा आएगा, अपना सिक्का चलाएगा। उसका सिक्का आपके लिए कोड़ा और घोषणाएं पीड़ा न बन जाए, इसलिए अध्यात्म की दृष्टि से एक स्वराज्य अपने भीतर जरूर ले आइए।

अहिंसक भाव हो तो व्यक्तित्व सुखदायक..
एक चौंकाने वाला आंकड़ा सामने आया है कि मनुष्यों के बीच सामूहिक हिंसा कम होकर व्यक्तिगत हिंसा बढ़ गई है। एक चौंकाने वाला आंकड़ा सामने आया है कि मनुष्यों के बीच सामूहिक हिंसा कम होकर व्यक्तिगत हिंसा बढ़ गई है। सामूहिक हिंसा की जो भी घटनाएं हो रहीं हैं वे आतंकियों द्वारा की जा रही है। हिंसा का अर्थ किसी का रक्त बहाना या किसी की जान लेना ही नहीं है। गहराई से विचार करें तो आपके द्वारा किसी को आहत करना भी हिंसा ही है।

मनोवैज्ञानिकों का मानना है इन दिनों जीवनशैली ऐसी हो गई कि व्यक्तिगत रूप से मनुष्य बहुत हिंसक होकर साथ रहने वालों को लगातार आहत कर रहा है, उनके प्रति हिंसा कर रहा है। एक-दूसरे के साथ रहने के बाद भी लोग असुरक्षित महसूस करते हुए असहिष्णु होते जा रहे हैं। व्यक्तिगत हिंसा कम करना हो तो पहले अपने व्यक्तित्व में दो बातें देखिए- क्या आप मनभावन हैं या सुखदायक व्यक्तित्व के धनी हैं? मनभावन व्यक्तित्व वाले लोग अच्छे तो लग सकते हैं पर भीतर से वो क्या कर रहे हैं, कौन-सी नेगेटिव एनर्जी फैला रहे हैं, यह आप नहीं जान पाएंगे। सुखदायक प्रवृत्ति वाले साथ वालों को हमेशा पॉजिटिव वायब्रेशन्स ही देेंगे। हमारे भीतर विचार सूचना और ऊर्जा दोनों लेकर आते हैं। जब ये किसी निर्णय या इरादे से जुड़ते हैं तब तरंगें बनती हैं। यदि आप भीतर से अहिंसक हैं तो ये ही तरंगे पॉजिटिव और हिंसक हैं तो निगेटिव हो जाएंगी। आज व्यक्तिगत हिंसा के लक्षण परिवार में रिश्तों के बीच उतर आए हैं। बच्चे ऐसा-ऐसा बोल जाते हैं कि माता-पिता आहत हो जाते हैं। माता-पिता की वाजिब डांट भी बच्चों को हिंसा-सी लगती है। पति-पत्नी के बीच आक्रमण के दृश्य तो गजब के ही होते हैं। इन नकारात्मक स्थितियों से स्वयं और परिवार को दूर रखना हो तो भीतर अहिंसक भाव पैदा करते हुए व्यक्तित्व को सुखदायक बनाइए।

ऊर्जा पाने के लिए ईश्वर पर ध्यान लगाएं
जीवन में असफल रहना कोई नहीं चाहता लेकिन, कुछ अवरोध ऐसे जाते हैं जिनसे निपटना ही पड़ता है। असफलता यदिभयानक है तो अवरोध डरावना होता है। जीवन में असफल रहना कोई नहीं चाहता लेकिन, कुछ अवरोध ऐसे जाते हैं जिनसे निपटना ही पड़ता है। इसके लिए आंतरिक शक्ति, अतिरिक्त ऊर्जा प्राप्त करनी होगी। जब हम किसी बड़ी यात्रा पर चलते हैं तो कुछ रुकावटें कुदरत दे देती है और कुछ हम स्वयं पैदा कर लेते हैं। दुनिया में कई महान लोगों को कुदरती रुकावटों का सामना करना पड़ा है। सूरदासजी दृष्टिहीन थे, तुलसीदासजी को जीवन के अंतिम दौर में कैंसर हो गया था। चर्चिल हकलाते थे, सुकरात का पारिवारिक जीवन तनावपूर्ण था और आचार्य नरेंद्रदेव दमा से पीड़ित थे। लेकिन, ये सब तमाम रुकावटों से पार पाते हुए अपने लक्ष्य तक पहुंचे। हमारे जो भी भौतिक लक्ष्य हों पर एक बड़ा लक्ष्य होना चाहिए दुर्गुणों का सामना कर उन्हें खत्म करना। रावण दुर्गुणों का जीता-जागता स्वरूप था। लंका कांड में राम उससे टक्कर लेने जा रहे थे और इस पर तुलसीदासजी ने दोहा लिखा- ‘एहि बिधि कृपा रूप गुन धाम रामु आसीन। धन्य ते नर एहिं ध्यान जे रहत सदा लयलीन।। यहां कृपा, रूप और गुण तीन बातें रामजी से जोड़ते हुए कहा गया है कि जो लोग इसमें ध्यान लगाएंगे उन्हें अतिरिक्त ऊर्जा मिलेगी। प्रकृति और परमपिता की कृपा, उनका रूप गुण हमारे लिए एक शक्ति है। ऐसा तुलसीदासजी ने इसलिए लिखा कि अब रावण से टकराने का अवसर रहा था। राम तो एक बार टकराए थे पर हमें तो हर दिन अपने ही भीतर के रावण से टकराना है। इसीलिए जो आंतरिक शक्ति ऊर्जा प्राप्त करनी है उसमें परमशक्ति की कृपा, रूप और गुण का ध्यान लगाइए। बाधाएं-रुकावटें अपने आप दूर हो जाएंगी। वरना ये अवरोध असफलता के बड़े कारण बन जाएंगे।

परिवार में अन्य सदस्यों के लिए उपयोगी बनें
हम दूसरों का उपयोग कर लें लेकिन, जब दूसरा हमारा उपयोग करे तो कई तरह के समीकरण बैठाने लगते हैं। अपना थोड़ा-बहुत उपयोग दूसरों के लिए भी होने दें, इसमें कोई बुराई नहीं है। हम लोग इस मामले में बड़े सावधान रहते हुए खुद को बचाकर चलते हैं। हम दूसरों का उपयोग कर लें लेकिन, जब दूसरा हमारा उपयोग करे तो कई तरह के समीकरण बैठाने लगते हैं। बाहर की दुनिया में ऐसा चल सकता है पर आजकल लोग घर में भी ऐसा ही करने लगे हैं। परिवार छोटे होते जा रहे हैं लेकिन, यदि अपनापन नहीं बचा तो छोटे परिवार बनाने से भी क्या मतलब?..

मजबूरीवश कभी-कभी परिवार छोटे करना पड़ते हैं। अब बहुत सारे लोग एक साथ नहीं रह सकते। काम-धंधे के कारण घर से बाहर निकलना पड़ता है। यदि किसी परिवार में तीन या चार सदस्य हैं और लगे कि हमारा परिवार छोटा है तो वो एक प्रयोग कर सकते हैं। हर सदस्य तय कर ले कि ये बचे हुए तीन मेरा जमकर उपयोग करें। गणित कुछ ऐसा बैठेगा कि चार लोगों का परिवार सोलह जैसा सुख देने लगेगा। अपना उपयोग दूसरे करें ऐसा स्वभाव बनाने के लिए एक आध्यात्मिक प्रयोग करिए। हमारे शरीर के सात चक्रों में कोई एक केंद्रीय चक्र होता है जहां से हमारा स्वभाव नियंत्रित होता है। उस चक्र का जो स्वभाव होगा, हम वैसा ही करते हैं।
इसीलिए बहुत नज़दीकी संबंध होने के बाद भी लोगों के स्वभाव अलग-अलग होते हैं। एक ही माता-पिता के बच्चों की आदतें, क्रिया-कलाप में अंतर होता है। यदि लगातार गहरी सांस के साथ प्रत्येक चक्र पर चिंतन करें तो कुछ दिनों में अंदाज हो जाएगा कि आपका केंद्रीय चक्र क्या है? उस पर टिककर अपने स्वभाव को परिपक्व कीजिए, अपने आप प्रसन्नता के साथ अपना उपयोग दूसरों को करने देंगे। यहीं से छोटे परिवार का एकाकीपन दूर होकर आप कम लोगों में भी ज्यादा का आनंद उठा पाएंगे।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है... मनीष 
ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....