Friday, January 4, 2019

श्रद्धा (Shradha )

श्रद्धा से मिलता है अटूट आत्मिक बल’
प्रभु यीशु के अनेक शिष्य थे। यीशु उन्हें नित्य ही धर्मोपदेश देते थे। कई बार वे उनके साथ भ्रमण भी करते थे और इसी दौरान घटने वाली स्थितियों के माध्यम से वे उन्हें जीवनोपयोगी शिक्षा देते थे। एक बार यीशु अपने शिष्यों के साथ तिनेरियस झील पार कर रहे थे। शाम का शांत वातावरण था। ठंडी-ठंडी बयार बह रही थी। ऐसे सुहाने मौसम में यीशु नाव के पिछले हिस्से में आराम कर रहे थे। शिष्य अपनी सामान्य चर्चा में मशगूल थे। नाव गंतव्य की ओर धीरे-धीरे बढ़ रही थी। एकाएक मौसम ने पलटी खाई। आसमान पर घने बादल छा गए और तेज हवाएं चलने लगीं।

नाव हिचकोले खाने लगी और इसी क्रम में उसमें पानी भरने लगा। यीशु को छोड़कर सभी शिष्य भयभीत हो गए, मगर उन्होंने इसे प्रकट नहीं किया। वे लोग इस घटना में कुछ रहस्य की आशा रख शांत बने रहे, किंतु ज्यों-ज्यों डूबने का खतरा बढ़ता दिखने लगा, उन्होंने यीशु को जगाते हुए कहा- प्रभु! हम डूब रहे हैं। क्या आपको इसकी चिंता नहीं है। यीशु जागे और सहज भाव से वायु और झील को डांटते हुए बोले शांत हो जाओ, थम जाओ। उनके ऐसा कहते ही वायु मंद हो गई और जल का ज्वार थम गया। सभी शिष्य खुश होकर तालियां बजाने लगे। तब यीशु ने मुस्कुराकर कहा-‘‘तुम लोग इस तरह डरते क्यों हो? क्या तुम्हें अब तक विश्वास नहीं है? विश्वास करना सीखो। विश्वास के साथ जीवन में एक प्रशांति उपलब्ध होती है और अलौकिक शक्ति का विकास होता है। विश्वास रखने वाला मन निर्भय होता है और उसके संकल्प का सम्मान प्रकृति की शक्तियां भी करती हैं।’’सभी शिष्य यीशु से सहमत हुए और भविष्य में ऐसे ही दृढ़ विश्वास पथ पर चलने का संकल्प लिया।वस्तुत: यह विश्वास ही उस श्रद्धा को जन्म देता है, जो अखूट आत्मिक बल की सृजनकर्ता होती है और इस बल से संपन्न व्यक्ति को वह दृढ़ता प्राप्त होती है, जिससे उसके मार्ग में आनेवाली हर बाधा पराजित हो जाती है और सफलता के द्वार खुल जाते हैं।

सच्ची श्रद्धा से प्रतिकूलताओं पर विजय संभव है
उमर खैयाम अपने साथियों और शिष्यों के साथ देशाटन किया करते थे। एक दिन वे अपने एक शिष्य के साथ घने जंगल से होते जा रहे थे। चलते-चलते नमाज़ का वक्त हो गया। दोनों नमाज़ अदा करने बैठ गए। तभी शेर की जोरदार दहाड़ सुनाई दी। शिष्य घबरा गया और नमाज़ अधूरी छोड़कर एक पेड़ पर चढ़कर बैठ गया। किंतु उमर बिना विचलित हुए अपनी नमाज़ अदा करते रहे।कुछ देर बाद शेर वहां आया। उसने उमर को देखा और सिर झुकाकर हट गया। थोड़ी दूर जाने पर उसने पेड़ पर चढ़े हुए शिष्य को देखा, तो जोर से दहाड़ा, जिससे वह और भी डर गया। उसे डराकर शेर वापस जंगल में चला गया। शिष्य काफी देर तक पेड़ पर ही चढ़ा रहा। जब उसे विश्वास हो गया कि शेर चला गया है, तब वह पेड़ से उतरा। उमर ने बड़े आराम से अपनी नमाज़ खत्म की और दोनों पुन: अपनी यात्रा पर चल दिए।शिष्य के मन में कई सवाल उठ रहे थे, मगर वह खामोश रहा। थोड़ी देर बाद शिष्य को जोरदार थप्पड़ मारने की आवाज आई। उसने पलटकर उमर को देखा और पूछा- ‘‘आपने अपने ही गाल पर थप्पड़ क्यों मारा?’’ उमर ने जवाब दिया- ‘‘मेरे गाल पर एक मच्छर बैठा था, जिसने मुझे काट लिया। उसे मारने के लिए मैंने चांटा मारा।’’ शिष्य ने पूछा- जब शेर आया, तो आप बगैर डरे नमाज़ पढ़ते रहे और जब आपके साथ मैं भी हूं, तब एक मच्छर से आपको इतनी परेशानी हो गई? तब उमर हंसकर बोले- ‘‘उस वक्त मैं खुदा के साथ था और इस वक्त बंदे के साथ। खुदा के साथ होने पर सच्चे भक्त को उसकी श्रद्धा के कारण किसी बात की न खबर होती है और न चिंता।’’सच ही है कि यदि ईश्वर के प्रति समर्पित भक्ति भाव हो अर्थात् सच्ची श्रद्धा हो, तो व्यक्ति निर्भय हो जाता है और संकट अपने आप दूर हो जाता है। श्रद्धा की अनन्यता सदैव सद्परिणाम मूलक होती है।

इसलिए कहते हैं मन चंगा तो कठौती में गंगा
कहते हैं मन में श्रद्धा हो तो अपने भीतर ही भगवान के दर्शन किये जा सकते है। फिर न तो आपको मंदिर जाने की जरूरत है न मस्जिद और न ही किसी तीर्थ यात्रा पर।श्रद्धा और विश्वास के साथ प्रभु के प्रति समर्पण भाव से ही ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता है।संत रैदास जूते गांठने का काम किया करते थे। जिस रास्ते पर रैदास बैठा करते थे वहां से कई ब्राह्मण गंगा स्नान के लिए जाते थे। किसी विशेष पर्व के समय एक पंडित ने रैदास से गंगा स्नान को चलने के लिए कहा तब रैदास जूते गांठते हुए बोले कि पंडि़त जी मेरे पास समय नहीं है। जब पंडि़त पैसे देने लगा तो रैदास बोले कि पंडि़त जी आप मुझे पैसे मत दीजिए पर मेरा एक काम कर दीजिए, फिर अपनी जेब में से चार सुपारी निकालते हुए कहा कि ये सुपारियां मेरी ओर से गंगा मइया को दे देना।

पंडित जी ने स्नान के बाद सोचा कि बड़े-बड़े संतों के लिए गंगा मइया को फुरसत नहीं और ये रैदास कितना घमंड़ी है फिर भी रैदास का सच जानने के पंडि़त जी ने गंगा में सुपारी ड़ालते हुए कहा कि रैदास ने आपके लिए भेजी हैं। जैसे ही पंडितजी वापस आने लगे तभी गंगा मां प्रकट हुईं और पंडित को एक कंगन देते हुए कहा कि यह कंगन मेरी ओर से रैदास को दे देना। हीरे जड़े कंगन को देख कर पंडित के मन में लालच आ गया और उसने कंगन को अपने पास ही रख लिया।

कुछ समय बाद पंडित ने वह कंगन राजा को भेंट में दे दिया। रानी ने जब उस कंगन को देखा तो प्रसन्न होकर दूसरे कंगन की मांग करने लगीं। राजा ने पंडित को बुलाकर दूसरा कंगन लाने को कहा। पंडित घबरा गया क्योंकि उसने रैदास के लिए दिया गया कंगन खुद रख लिया था और उपहार के लालच में राजा को भेंट कर दिया था। वह रैदास के पास पहुंचा। रैदास ने जब पंडित को मुसीबत में देखा तो दया आ गयी। तब रैदास ने अपनी कठौती (पत्थर का बर्तन जिसमें पानी भरा जाता है) में जल भर कर भक्ति के साथ मां गंगा का आवाहन किया। गंगा मइया प्रसन्न होकर कठौती में प्रकट हुईं और रैदास की विनती पर उसे दूसरा कंगन भी भेंट किया। रैदास ने कंगन पंडित को देते हुए राजा को दे आने के लिए कहा। रैदास ने पंडित को समझाया कि भक्ति के लिए स्नान, तीर्थ और पूजापाठ का प्रदर्शन करने की जरूरत नहीं होती, अगर आपका मन साफ हो तो भगवान आप पर यूं ही प्रसन्न रहता है। आप उसे अपने भीतर ही महसूस कर सकते हैं।

भक्ति ऐसी हो कि भगवान खुद आ जाएं
गांव के बाहर पुरातन भगवान लक्ष्मीनारायण का एक सुंदर मंदिर था। एक ज्ञानी और एक भक्त वहां प्रतिदिन नियमित सेवा-पूजा करते थे।ज्ञानी अपने ज्ञान के अनुसार भगवान का सागोपांग पूजन करता तथा भक्त जिसको ज्ञान तो कुछ न था परंतु वह भगवान की मूर्तियों की सेवा बड़ी तन्मयता से करता था। वह मंदिर जाकर बासी फूल उतारकर भगवान को चंदन युक्त जल से स्नान कराकर इत्र लगाता भगवान के अंगों पर इत्र की मालिश करता उनको नवीन पुष्पों की माला पहनाता। एक सेवक की तरह वह उनका ध्यान रखता था।

नियति के अनुसार ज्ञानी और भक्त दोनों के यहां एक साथ एक रात चोरी होने वाली थी और उसी सुबह वह ज्ञानी भगवान के पूजन के लिए गया। तब भगवान ने उसको संकेत दिया कि, आज रात तुम्हारे यहां चोरी होने वाली है। अत: सावधान रहना। ज्ञानी ने कहा, ठीक है। प्रभु मैं अपने ज्ञान के सहारे इस घटना से बच जाऊंगा। भगवान को अपना सहायक मान, प्रसन्न मन से वह घर जाकर चोरी से बचने का मार्ग खोजने लगा। उसके पश्चात् भक्त मंदिर पहुंचा। बड़ी तन्मयता से वह प्रभु लक्ष्मीनारायण की सेवा करने लगा तथा अपना पूजन कर वह घर चला गया। उसके जाते ही माता-लक्ष्मी ने भगवान नारायण से कहा, हे प्रभु यह दोनों ज्ञानी और भक्त आपकी सेवा पूजन करते हैं। आज इन दोनों के यहां चोर चोरी के लिए हमला करने वाले हैं। आपने ज्ञानी को संकेत करके तो बता दिया कि तेरे यहां चोरी का आक्रमण होगा। वह सावधान भी हो गया। परंतु आपने अपने भक्त को चोरी के हमले के बारे में कुछ संकेत नहीं दिया। वह बेचारा अभी भी इस खतरे से अंजान है। माता लक्ष्मी के इस प्रकार पूछने पर भगवान नारायण बोले, हे भगवती यह ज्ञानी और भक्त दोनों मेरी सेवा करते हैं। इनमें से ज्ञानी को तो अपने ज्ञान का भरोसा है। इसलिए मैंने उसे खतरे का संकेत दिया वह अपने ज्ञान से अपनी रक्षा करे। परंतु जो यह मेरा भक्त है इसको तो केवल मेरा सहारा है। यह तो रात्रि में आराम से विश्राम करेगा और मैं रातभर इसके घर के बाहर खड़ा होकर चोरों से इसकी रक्षा करुंगा। इसलिए मैंने उसे बताया नहीं।

जहां दुख हैं वहीं श्रीकृष्ण हैं
अब तक इतिहास में सर्वश्रेष्ठ मानव हैं श्रीकृष्ण। श्रीकृष्ण संपूर्ण कलाओं और विद्याओं के साथ अवतरित हुए एकमात्र भगवान हैं। श्रीकृष्ण के जीवन पर असंख्य ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। हर ग्रंथ में श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व के नए-नए पहलु पर प्रकाश डाला गया है। श्रीकृष्ण भगवान थे फिर भी उन्होंने मनुष्य की तरह कई लीलाएं की। जैसे कंस से छुपकर वे गोकुल में रहे, गोकुल के ग्वालों के साथ खेलें, माता यशोदा से डांटा और मार खाई, माखन चुराया, गोपियों के साथ रास किया, वे जन्म से ही सारी विद्याओं और कलाओं के ज्ञाता थे फिर भी महर्षि सांदीपनि से शिक्षा प्राप्त की वो मात्र 64 दिनों में। उन्होंने वे सारी लीलाएं की जो मनुष्य अपने जीवन में करता है। श्रीकृष्ण से जुड़ी कई कथाएं प्रचलित हैं जो हमें जीवन जीने की कला सिखाती हैं।

जब महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया और पांडव को राज मिलने के बाद श्रीकृष्ण द्वारका लौट रहे थे तब सभी से श्रीकृष्ण से सुख, शांति और धन आदि की मांग की। श्रीकृष्ण ने सभी की इच्छाओं को से पूर्ण कर सभी तृप्त कर दिया, परंतु कुंती ने अब तक श्रीकृष्ण से कुछ नहीं मांगा था।यह देख श्रीकृष्ण ने कुंती से कहा बुआ आप कुछ नहीं मांगेगी?तब कुंती ने आप मुझे दुख दे दीजिए।

यह सुनकर श्रीकृष्ण को आश्चर्य हुआ कि सभी सुख मांगते हैं आप दुख मांग रही हैं?कुंती ने कहा कि जब-जब हम पर दुख आया आप वहां साक्षात् उपस्थित थे और हमें संकट से मुक्ति दिलाई। परंतु सुख के समय आप नहीं रहते वही बात मुझे विचलित कर देती है। आपके दर्शन तो सिर्फ दुख में ही हो सकते हैं अत: आप मुझे दुख दे दीजिए। इस संवाद से यही शिक्षा मिलती है कि जहां दुख हैं वही ईश्वर हैं, अत: दुख के समय हमें घबराना नहीं चाहिए और प्रभु का स्मरण करते रहने से सारे दुख दूर हो जाते हैं।

श्रद्धा से मिलता है भगवान
एक विधवा अपने इकलौते पुत्र के साथ गांव में रहती थी। बड़े कष्टों से अपने व अपने बच्चे का पालन करती थी। उसने अपने बालक को पढऩे के लिए दूसरे गांव के स्कूल में भेजा था। दोनों गांवों के मध्य एक निर्जन वन पड़ता था। बालक को उस वन से गुजरने में बड़ा भय लगता था। उसने अपनी मां से कहां- मां मैं स्कूल नहीं जाऊंगा। मुझे वन से गुजरने में बड़ा भय लगता है। मां उसकी इस बात से बड़ी परेशान थी। वह खुद भी उसे छोडऩे नहीं जा सकती थी।

एक दिन उसने एक उपाय किया और बेटे से कहा बेटा जब भी तुझे डर लगे तो तेरा बड़ा भाई वन में रहता है। उसे पुकार लेना। पुत्र ने पूछा मां उनका नाम क्या है? मां ने कहां 'गोपाल।' यह सुनकर बेटा स्कूल की ओर चल दिया। रास्ते में फिर वहीं वन आया। लड़का भयभीत तो था ही डर के मारे चिख निकल गई गोपाल भइया बचाओ। उसी समय वहां एक ग्वाला आया और उसने बालक को हाथ पकड़कर स्कूल तक छोड़ दिया, तथा ले भी आया। अब रोजाना यही सिलसिला चलता रहा। मां ने एक दिन पूछा बेटा अब डर तो नहीं लगता। बेटे ने कहा नहीं मां गोपाल भइया बचा लेते हैं। मां ने समझा बच्चा बहल गया है। और अपने काम में लग गई।

एक बार स्कूल में एक कार्यक्रम हुआ जिसमें सभी बच्चों को एक रुपया और एक लोटा दूध ले जाना था। बालक ने अपनी मां से कहां, मां ने कहा बेटा हम गरीब है। एक रुपया, एक लोटा दूध हम नहीं दे सकते। ऐसा कर तु अपने गोपाल भइया से मांग लेना। बालक ने कहा ठीक है। वह बालक उठकर विद्यालय की ओर चल दिया। रास्ते में उसने अपने गोपाल भइया को बुलाया और कहा आज स्कूल में एक रुपया और दूध ले जाना है।

गोपाल ने कहा रुपया तो मेरे पास नहीं है। दूध ले जाओ यह कहकर गोपाल ने एक लौटा दूध बालक को दे दिया। बालक खुशी-खुशी स्कूल आया। जब उसके लोटे का दूध बड़े बरतन में डाला गया तो वह पूरा भर गया। पर लोटा खाली नहीं हुआ। सब आश्चर्यचकित हो गए। ऐसे ही एक के बाद एक कई बरतन भर गए पर लोटे का दूध समाप्त नहीं हुआ। स्कूल के प्रिंसीपल ने बालक से पूछा यह कहां से लाए हो? वह बालक बोला गोपाल भइयां ने दिया है। किसी को विश्वास नहीं हुआ। सभी उसकी मां के पास गए। मां ने भी कहां मैं किसी गोपाल को नहीं जानती हूं। बच्चे ने कहा अरे मां वो वन में रहने वाले गोपाल भइया ने दिया है। तब सभी वन में गए और बालक ने बहुत आवाज लगाई। पर कोई गोपाल नहीं आया।

सभी ने सोचा यह बालक झूठ बोल रहा है। या कोई जादु-टोना है। बालक की बात कोई सुनने को राजी ना था। सभी उस पर नाराज हो रहे थे तथा उस दूध को अन्य कोई पदार्थ जान रहे थे। सभी बालक को संदेह की नजर से देख रहे थे। तब बालक ने करुण पुकार की हे गोपाल भइया... सुनो आप आओ नहीं तो यह सब मुझे और मेरी मां को मार देंगे। बालक की करुण पुकार सुनकर सभी को एक गंभीर वाणी सुनाई दी- पुत्र मैं तो इन सभी के सामने ही हूं। किंतु इनको दिखाई नहीं देता, क्योंकि इनकी आंखों पर मान, मद, मोह और संदेह का पर्दा पड़ा हुआ है। केवल तु मुझे इसलिए देख पाता है कि तेरा मन पवित्र है। अब इस लोटे का मधुर दुध कभी खाली नहीं होगा। तुम इसी से अपनी आजीविका चलाओ इतना कहकर वाणी मौन हो गई। सभी स्तब्ध रह गए कि यह साक्षात परमेश्वर की कृपा है। सभी एक साथ बोल उठे गोपाल भइया की जय। कथा का सार है कि भगवान को पाना है तो खुद उनके जैसे निर्मल बनों।

परमार्थ हेतु दिया गया दान श्रेष्ठ होता है
जैन धर्म साहित्य में दान के महत्व को दर्शाती एक कथा है। एक अति संपन्न व्यक्ति था, लेकिन जितना पैसा उसके पास था, उतना धैय नहीं था। यदि किसी को वह एक पैसा देता, तो सैकड़ों हजारों के गीत गाता। हर जगह, हर व्यक्ति से अपनी दानशीलता और संपन्नता का गुणगान करना उसका प्रिय कार्य था।

एक दिन उसे ज्ञात हुआ कि शहर में एक बड़े महात्मा आए हैं। उसने सोचा कि इनसे मिलकर इन्हें भी कुछ भेंट करना चाहिए। वह उनके पास पहुंचा। अभिवादन के पश्चात महात्मा ने उससे आने का प्रयोजन पूछा, तो पहले तो उसने अपनी अमीरी का बखान किया, फिर अपनी दानशीलता की प्रशंसा की। महात्मा समझ गए कि यह आदमी कितने पानी में है। स्वप्रंशसा के लंबे आख्यान के बाद उस आदमी ने एक थैली निकालकर महात्मा के सामने रखी और बोला- ''मैंने सोचा कि आपको पैसे की तंगी रहती होगी। इसलिए यह लेता आया हूं। पूरे एक हजार दीनार हैं।'' ऐसा कहते-कहते उस धनिक की आंखों में उसका अभिमान उभर आया। महात्मा ने थैली को एक और हटाते हुए कहा- ''मुझे तुम्हारे पैसे की नहीं बल्कि तुम्हारी जरूरत है अमीर मर्माहत हो गया। आखिर महात्मा की हिम्मत कैसे हुई जो उसकी दी हुई भेंट को ठुकरा दिया? आज तक यह साहस किसी ने नहीं किया।
उसका अभिमान और तीव्र हो गया। महात्मा उसकी यह अवस्था देखकर बोले- ''क्या तुम्हें बुरा लगा?'' धनिक ने कहा- ''बुरा लगने की बात ही है। इतनी बड़ी रकम को आपने ऐसे ठोकर मार दी, जैसे वह मिट्टी हो।'' तब महात्मा बोले- ''सेठ, याद रखो, जिन दान के साथ दाता अपने को नहीं देता, वह दान मिट्टी के बराबर होता है। दान का अर्थ है- सम विभाजन। दूसरे का जो हिस्सा तुमने लिया है उसे लौटाते हो तो इसमें अभिमान का अवसर कहां रहता है? यह तो चोरी का प्रायश्चित है।'' यह सुनकर धनिक का अहंकार चूर-चूर हो गया और उसके जीवन की दिशा बदल गई। वस्तुत: परमार्थ के लिए दिया गया दान ही श्रेष्ठ होता है। यदि परमार्थ में स्वार्थ शामिल हो जाए तो ऐसा दान मात्र स्वप्रशंसा बटोरने का माध्यम बन कर रह जाता है। दाता याचक दोनों को कोई सुख नहीं पहुंचता।

नि:स्वार्थ दान मोक्ष की उपलब्धि कराता है
महाभारत में एक कथा है जो सच्ची दानवीरता की मिसाल है।एक बार कुरु युवराज दुर्योधन के महल के द्वारा एक भिक्षुक आया और दुर्योधन से बोला- ''राजन, मैं अपनी वृद्धावस्था से बहुत परेशान हूं। चारों धाम की यात्रा करने का प्रबल इच्छुक हूं, जो युवावस्था के ऊर्जावान शरीर के बिना संभव नहीं है। इसलिए आप यदि मुझे दान की इच्छा रखते हैं, तो अपना यौवन मुझे दान कर दीजिए।''दुर्योधन ने कहा- ''महाराज, मेरे यौवन पर मेरी पत्नी का अधिकार है। आपकी अनुमति हो तो उससे पूछ आऊं?'' भिक्षुक ने सहमति दे दी।दुर्योधन अंत:पुर में गया और पत्नी को भिक्षुक की इच्छा बताई। उसकी पत्नी ने स्पष्ट रूप से इंकार कर दिया।

दुर्योधन उदास मुख लेकर बाहर लौटा, तो भिक्षुक उसके बगैर बोले ही उसकी पत्नी का नकारात्मक जवाब समझकर चला गया।फिर वह महादानी कर्ण के पास पहुंचा। कर्ण के समक्ष भी उसने वही मांग रखी। कर्ण ने उससे प्रतीक्षा करने के लिए कहा और अपनी पत्नी से अनुमति मांगने अंत:पुर में गया। यथा भर्ता तथा भार्या कर्ण की पत्नी ने संहर्ष भिक्षुक को यौवन दान कर देने को कहा। कर्ण ने बाहर आकर यौवन दान की घोषणा कर दी। तभी भिक्षुक अदृश्य हो गया और उसके स्थान पर भगवान विष्णु वहां प्रकट हुए जो दरअसल कर्ण व कर्ण पत्नी की परीक्षा लेने आए थे। दोनों ही इस परीक्षा में खरे उतरे। भगवान विष्णु ने गदगद होकर दोनों को मंगल आशीष दिए। वास्तव में दान वही श्रेष्ठ है, जो नि:स्वार्थ भाव से लेने वाले की इच्छा और आवश्यकता के अनुरूप प्रसन्न तथा उदार मन से किया जाए। इस तरह से किया गया दान ही पुण्य का मीठा फल देता है। ऐसे दानी मनुष्य को सांसारिक माया-मोह से मुक्ति मिल जाती है और वह मोक्ष को प्राप्त हो जाता है।

पुरुषार्थ से मिलती है देव कृपा
एक किसान के चार पुत्र थे। सबसे छोटा ईश्वरवादी था। वह अपनी मेहनत एवं भगवान के कर्मफल के बारे में जानता था। छोटा बेटा किसी कार्य से बाहर गया था। उसी दौरान उसके पिता की मृत्यु हो गई। तीनों बड़े भाइयों ने संपत्ति का आपस में बंटवारा कर लिया। जब छोटा भाई आया तो उसे बताया कि टीले के ऊपर जो पथरीली जमीन है पिता ने वही तेरे लिए छोड़ी है। छोटे पुत्र को अपनी मेहनत और ईश्वर पर भरोसा था। अत: वह अपनी पत्नी सहित वहां के लिए रवाना हो गया। उसकी पत्नी ने कुछ विरोध किया परंतु उसने उसे रोक दिया। दोनों पति-पत्नी ने जी तोड़ मेहनत कर उस पथरीली जमीन को खेती लायक बना लिया। टीले के नीचे से पानी ला-लाकर उसे उपजाऊ बनाया। बीज बोए। फिर वर्षा का इंतजार करने लगे। पति-पत्नी काम-काज के साथ ईश्वर आराधना भी पूर्ण मन से करते थे।

उनकी निष्काम भक्ति देखकर भगवान प्रसन्न हुए। इंद्र को आदेश दिया कि जाओ हमारे इस भक्त पर कृपा रुपी वर्षा करो और इसके जिन भाइयों ने एवं गांव वालों ने इसके साथ अन्याय किया है उन्हें जल से डूबो दो। इंद्र ने भगवान की इच्छा का अक्षरश: पालन किया। जोरदार वर्षा ने पूरे गांव को जल मग्न कर दिया। सभी रक्षा के लिए टीले के ऊपर भागे। ऊपर जाकर सभी ने देखा कि छोट पुत्र और उसकी पत्नी ने वहां का काया कल्प ही कर दिया था। जहां पत्थर ही पत्थर थे, वहां हरियाली लहलहा रही थी। बाढ़ का पानी भी टीले के ऊपर नहीं आ पा रहा था। उन दोनों की ऐसी मेहनत और लगन देखकर तथा ईश्वर की उन पर असीम कृपा देखकर सभी गांव वाले एवं उसके भाई लज्जित हुए और ईश्वर से क्षमा मांगने लगे। छोटे पुत्र और उसकी पत्नी ने भी सभी को आश्रय दिया। उनके लिए जलपान की व्यवस्था की। बड़े भाइयों ने जिस संपत्ति के लालच में अपने छोटे भाई को कष्ट दिया। वह जल मग्न हो चुकी थी। उन्होंने अपने छोटे भाई से क्षमा मांगी तथा उसको पूरा हक देने की बात कही। गांव वालों ने भी क्षमा मांगी। परंतु छोटा भाई बोला आप लोगों को शर्मिंदा होने की आवश्यकता नहीं है। आपने तो अच्छा ही करा जो आप लोग ऐसा नहीं करते तो यहां हमेशा पत्थर ही रहते। अब यह जगह सभी के लिए उपयोगी हो गई है। ऐसे भी भगवान के भक्त होते हैं। जो ईश्वर से कुछ अपेक्षा नहीं करते। वे केवल अपना कर्म करते हैं, और फल देना भगवान की मर्जी पर छोड़ देते हैं। उनको हर कार्य में सार्थकता ही नजर आती है। भगवान भी अपने प्रति किए गए अपराध को क्षमा कर देते हैं। परंतु अपने भक्त के प्रति किए अपराध को वह कतई क्षमा नहीं करते। कहानी का संदेश यही है कि अपने कार्य को पूरी निष्ठा, ईमानदारी से करो जो भी जिम्मेदारी मिले उसे पूर्ण करो तथा फल देना न देना ईश्वर पर छोड़ दे। उसकी दृष्टि सभी पर होती है।

जहां भगवान हैं, स्वर्ग वहीं है
द्वारका में एक बार कृष्ण अस्वस्थ हो गए। वैद्य ने कहा- किसी की चरणरज चाहिए, तभी उपचार होगा। चरणरज लाने की जिम्मेदारी नारद को सौंपी गई। वे रुक्मणि, सत्यभामा सहित ऋषिमुनियों के पास पहुंचे। किसी ने भी रज नहीं दी। डर था कृष्ण को अपनी चरणरज देकर नर्क कौन जाएं। थके हारे नारद कृष्ण के पास लौटे और आप बीती सुनाई। कृष्ण मुस्कुराए और कहा एक बार ब्रज जाकर देख लें, वहां किसी की रज मिल जाए। नारद ब्रज पहुंचे तो कृष्ण के अस्वस्थ होने की सूचना से सभी चिंतित हो गए। राधा और गोपियां बहुत दु:खी थीं। जब पता चला चरणरज से कृष्ण स्वस्थ हो सकते हैं तो सभी अपनी रज देने को उतावली हुईं। नारद ने पूछा- तुम्हें नर्क का डर नहीं है। जवाब मिला- यदि कृष्ण स्वस्थ हुए तो उनके साथ नर्क भी स्वर्ग बन जाएगा। नारद की खुशी और आश्चर्य का ठिकाना न रहा। राधा की चरणरज ली और कृष्ण स्वस्थ हो गए। नारद को भी पता चला भगवान का सुख बड़ा है। यदि भगवान स्वस्थ और सुखी हैं तो नर्क भी स्वर्ग बन जाता है।

सिर्फ भक्ति ही नहीं पहचनना भी जरूरी
किसी गांव में एक व्यक्ति रहता था नाम था उसका देवधर। देवधर ईश्वर की बहुत भक्ति करता था। दिनभर बस भगवान का नाम ही जपते रहता। इसी वजह से गांव में उसका बहुत मान-सम्मान था। सभी गांववाले उसकी भक्ति की ही बात किया करते थे।

बारिश के दिन थे... बारिश शुरू हुई... इतनी वर्षा हुई कि गांव में बाढ़ आ गई, चारों ओर पानी ही पानी था, सभी के घर के घर पानी में बह गए और सभी जैसे-तैसे अपनी जान बचा रहे थे। देवधर को तैरना नहीं आता था। वह एक पेड़ पर चढ़ गया और भगवान का नाम जपने लगा। धीरे-धीरे जल स्तर और बढऩे लगा, जब देवधर के पैर तक पानी आ पहुंचा तब उसने भगवान से प्रार्थना की कि हे प्रभु अब मेरे प्राणों का संकट आन पड़ा है, आज आपको ही मेरे जीवन की रक्षा करनी है। इसी समय एक अनजान आदमी नाव लेकर उधर से निकला और उसने देवधर को पेड़ पर देखा। उस आदमी ने देवधर बिसे कहा भाई मेरी नाव में आ जाओ मैं तुम्हें सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दूंगा, यहां जल स्तर बढ़ते ही जा रहा है। देवधर उस आदमी से बोला नहीं... मैं तुम्हारे साथ नहीं आ सकता, आज मुझे बचाने के लिए स्वयं भगवान को ही आना पड़ेगा। यह सुनकर वह आदमी नाव चलाते हुए वहां से चले गया। देवधर फिर से भगवान का स्मरण करने लगा। थोड़ी देर बार उसके सामने एक गाय आई। गाय उसके सामने रुक गई। देवधर ने सोचा गाय की पूंछ पकड़कर प्राण बचा लू। परंतु उसे अपना प्रण याद आया कि आज तो मेरे प्राण स्वयं भगवान को ही बचाना होंगे। कुछ देर में वह गाय भी वहां से चले गई। अब तक जल स्तर देवधर की कमर से ऊपर तक पहुंच गया था। इतने में कहीं से एक लकड़ी बड़ा लट्ठा तैरते हुए उसके पास आ गया, परंतु देवधर ने उस लकड़ी के लट्ठे की भी मदद नहीं ली और उसे दूर धकेल दिया। कुछ ही देर में जल स्तर और अधिक बढ़ गया, जिससे देवधर पानी में बह गया और उसकी जीवन लीला समाप्त हो गई।

देवधर के समक्ष बार-बार भगवान ही अलग-अलग रूप में पहुंचे परंतु वह उन्हें पहचान नहीं सका। कोरी भक्ति से भी हमारा कल्याण नहीं हो सकता। अत: भगवान की भक्ति के साथ-साथ उन्हें पहचानना और समझना भी जरूरी है। सभी प्राणी भगवान का ही अंश है यह सोचकर सभी के साथ उचित व्यवहार करना चाहिए।

जब अर्जुन हो गया अहंकारी
अर्जुन, श्रीकृष्ण के बहुत बड़े भक्त थे। धीरे-धीरे उनमें यह गर्व का भाव पनपने लगा कि वे ही श्रीकृष्ण के सबसे बड़े भक्त हैं। उन्हें लगता कि जो निष्ठा व समर्पण भाव उनमें है, वैसा किसी और में होना संभव नहीं है। जब श्रीकृष्ण को यह अहसास हुआ कि अर्जुन में अहंकार आ गया है तो उन्होंने उसे निर्मल करने की ठानी।एक दिन वे अर्जुन को लेकर भ्रमण हेतु निकले। चलते-चलते श्रीकृष्ण एक स्थान पर रुक गए। वहां एक ब्राह्मण बैठा सूखी घास खा रहा था। सहसा अर्जुन की दृष्टि ब्राह्मण की कमर में लटकती तलवार पर गई।

अर्जुन ने ब्राह्मण से इसका कारण जानना चाहा। तब उस ब्राह्मण ने कहा- इससे मुझे चार लोगों को समाप्त करना है। सर्वप्रथम उस नारद को, जो जब चाहे गाते-बजाते आए और मेरे भगवान श्रीकृष्ण को जगा दे। दूसरा है प्रह्लाद, उस धूर्त ने मेरे भगवान की मक्खन जैसी कोमल देह को कठोर स्तंभ के भीतर से निकलने पर बाध्य कर दिया। तीसरी वह द्रोपदी है, जिसकी इतनी हिम्मत कि जब मेरे भगवान भोजन करने बैठे, तभी उनको बुलाकर भोजन नहीं करने दिया और चौथा है अर्जुन, जिसका इतना दुस्साहस कि त्रैलोक्य के स्वामी, जगतपालक, मेरे प्रभु को अपना सारथी बना डाला। उसे तो मैं किसी हाल में नहीं छोड़ूंगा। ब्राह्मण के भक्तिभाव की गहराई देख अर्जुन का अहंकार समाप्त हो गया। कथा का मर्म यह है कि अहंकार से योग्यता उस तरह फलदायी नहीं रह पाती जैसी कि निरभिमान स्थिति में होती है। बड़ी से बड़ी उपलब्धि पर भी अहंकाररहित होकर सहज बने रहना ही सच्चे अर्थ में बड़ा बनना होता है ।

किसी भी परिस्थिति में घबराना नहीं
ईरान के सुलतान एक बार किसी कारणवश ईरान के एक कबीले कबूदजामा के सरदार नसीरुद्दीन से नाराज हो गए। उन्होंने अपने एक अन्य सरदार को हुक्म दिया कि जाकर नसीरुद्दीन का सिर काटकर ले आओ।अपने एक रिश्तेदार से नसीरद्दीन को यह समाचार मालूम पड़ा। नसीरुद्दीन को सभी ने भाग जाने की सलाह दी। किंतु वह बोला- अगर मेरी मौत मेरे पास आ रही है, तो यहां से जाने के बाद भी हर जगत मेरा पीछा करेगी। इसलिए भागने से कुछ नहीं होगा। मैं यहीं रहकर इस परिस्थिति का सामना करुंगा।

सुल्तान का भेजा सरदार नसीरुद्दीन के घर जा पहुंचा और सुल्तान का हुक्म सुनाया। नसीरुद्दीन ने हंसते हुए कहा- मेरा सिर हाजिर है लेकिन उसे यहां से काटकर दरबार तक ले जाने में परेशानी होगी। बेहतर होगा कि मैं आपके साथ दरबार तक चलूं, वहां सुल्तान के सामने आप मेरा सिर काट देना। सरदार राजी हो गया। जब दोनों दरबार पहुंचे तो सुल्तान नसीरुद्दीन को जीवित देखकर बहुत नाराज हुआ। हुक्म की तामील न करने के कारण उसने सरदार को भी मौत की सजा सुना दी। तब नसीरुद्दीन ने एक रुबाई पढ़ी, जिसका अर्थ था मैं अपनी बुद्धि के नेत्रों में तेरे द्वार के रजकणों को भरे हुए अकेला नहीं बल्कि सैकड़ों प्रार्थनाओं के साथ आया हूं। तुमने मेरा सिर मांगा था, तो मैं यह सिर दूसरे किसी को क्यों देता। इसीलिए मैं अपना सिर अपनी गर्दन पर डालकर तुम्हारे लिए ला रहा हूं। नसीरुद्दीन का यह निर्भय उत्तर सुनकर सुल्तान खुश हुआ हो गया और दोनों को छोड़ दिया।

कथा संदेश देती है कि विकट परिस्थितियों में घबराने के स्थान पर साहस से काम लिया जाए, तो सकारात्मक परिणाम सामने आते हैं। अत: भय को छोड़े साहस से काम लें।

प्रसन्नता से ईश्वर की प्राप्ति होती है
दो संयासी थे एक वृद्ध और एक युवा। दोनों साथ रहते थे। एक दिन महिनों बाद वे अपने मूल स्थान पर पहुंचे, जो एक साधारण सी झोपड़ी थी। जब दोनों झोपड़ी में पहुंचे। तो देखा कि वह छप्पर भी आंधी और हवा ने उड़ाकर न जाने कहां पटक दिया। यह देख युवा संयासी बड़बड़ाने लगा- अब हम प्रभु पर क्या विश्वास करें? जो लोग सदैव छल-फरेब में लगे रहते हैं, उनके मकान सुरक्षित रहते हैं। एक हम हैं कि रात-दिन प्रभु के नाम की माला जपते हैं और उसने हमारा छप्पर ही उड़ा दिया।

वृद्ध संयासी ने कहा- दुखी क्यों हो रहे हों? छप्पर उड़ जाने पर भी आधी झोपड़ी पर तो छत है ही। भगवान को धन्यवाद दो कि उसने आधी झोपड़ी को ढंक रखा है। आंधी इसे भी नष्ट कर सकती थी किंतु भगवान ने हमारी भक्ति-भाव के कारण ही आधा भाग बचा लिया।

युवा संयासी वृद्ध संयासी की बात नहीं समझ सका। वृद्ध संयासी तो लेटते ही निंद्रामग्न हो गया किंतु युवा संयासी को नींद नहीं आई। सुबह हो गई और वृद्ध संयासी जाग उठा। उसने प्रभु को नमस्कार करते हुए कहा- वाह प्रभु, आज खुले आकाश के नीचे सुखद नींद आई। काश यह छप्पर बहुत पहले ही उड़ गया होता।यह सुनकर युवा संयासी झुंझला कर बोला- एक तो उसने दुख दिया, ऊपर से धन्यवाद। वृद्ध संयासी ने हंसकर कहा- तुम निराश हो गए। इसलिए रातभर दुखी रहे। मैं प्रसन्न ही रहा। इसलिए सुख की नींद सोया।

कथा का संकेत यही है कि निराशा दुखदायी होती है। हर परिस्थिति में प्रसन्न रहकर ही हम ईश्वर के समीप पहुंच सकते हैं और शांति को उपलब्ध हो सकते हैं। यह काम किसी भी प्रार्थना से अधिक शक्तिशाली है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....मनीष
ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....

विश्वास (Vishwas )

सच्चा विश्वास इस तरह बदल सकता है हर परिस्थिति को
जिंदगी सिर्फ एक ही आधार पर चलती है। वो आधार है विश्वास। अगर हमारे मन से विश्वास समाप्त हो जाए तो फिर सबकुछ खत्म हुआ समझिए। विश्वास ही एक ऐसा साधन है जिस पर सबकुछ टिका है। परमात्मा हैयह विश्वास ही अंतिम समय में परिस्थितियों को बदल सकता है।

अगर आपके मन में विश्वास कायम रखना चाहते हैं तो अपने मन में दो भाव और जगाइएआस्था और समर्पण का। जिस पर आपको विश्वास हो उसके प्रति आस्था और समर्पण भी रखें। फिर कभी भी आपको निराशा हाथ नहीं लगेगी। भगवान को ये तीन भाव ही सबसे ज्यादा प्रिय हैं। जब तक ये तीन कायम हैं कोई भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता।

महाभारत के उस दृश्य में चलते हैं जहां इतिहास के सबसे भीषण युद्ध की नींव रखी गई। हस्तिनापुर के राजमहल में कौरव और पांडवों के बीच जुआ खेला जाना। पांडव लगभग सभी चीजें हार चुके थेराज्यसेनाधनअपने आप को भीइसके बाद दाव पर लगाया गया द्रौपदी को।

कौरवों ने उसे भी जीत लिया। दुर्योधन ने दु:शासन को आदेश दिया कि वो द्रौपदी को खींचकर राजसभा में ले आए। ऐसा ही हुआ। द्रौपदी के वस्त्र उतारने का आदेश दिया गया। दु:शासन ने वैसा ही किया। द्रौपदी ने राजसभा में बैठे हर व्यक्ति से सहायता मांगी लेकिन कोई नहीं उठा। दु:शासन ने उसकी साड़ी खींचना शुरू की।

तब द्रौपदी ने सब कुछ भगवान कृष्ण पर छोड़ दिया। उसे विश्वास था कि अब केवल वो ही उसे बचा सकते हैं। वो कृष्ण का नाम जपने लगी। और फिर अचानक द्रौपदी की साड़ी अपने आप बढऩे लगी। दु:शासन जितना खिंचता कपड़ा उतना ही बढ़ जाता। वो थक गया। लेकिन द्रौपदी के कपड़े नहीं उतार सका। आखिरी में उसे हार माननी पड़ी।

ये चमत्कार था द्रौपदी के विश्वास का। उसकी कृष्ण में आस्था और अपना भविष्य कृष्ण पर ही छोड़ देने का। हमारे साथ यह होता है कि जैसे-जैसे परिस्थितियां बदलती हैं हमारा विश्वास डिगने लगता है। जब तक विश्वास अडिग नहीं होगापरमात्मा कभी हमारी सहायता करने नहीं आएगा।

अगर मनचाही सफलता चाहिए तो सबसे पहले यह करें...
अक्सर हम दुनिया जीतने निकल पड़ते हैं लेकिन खुद पर ही भरोसा नहीं होता। खुद पर भरोसे का मतलब है आत्म विश्वास से। जब भी कोई मुश्किल काम करने जाते हैं तो एक बार सभी के हाथ कांप ही जाते है।

सफलता का पहला सूत्र आत्म विश्वास ही है। अगर हम खुद पर ही भरोसा नहीं कर सकतेखुद की योग्यता का अनुमान ही नहीं लगा सकते हैं तो फिर किसी पर भी किया गया विश्वास हमारे काम नहीं आ सकता।

रामायण के एक प्रसंग में चलते हैं। वानरों के सामने समुद्र लांघने का बड़ा लक्ष्य था। समुद्र पास बसी लंका से सीता की खोज खबर लाना थी। जामवंत ने कहा कौन है जो समुद्र पार जा सकता है। सबसे पहले आगे आए अंगद। बाली के पुत्र अंगद में अपार बल था लेकिन उन्होंने कहा कि मैं समुद्र लांघ तो सकता हूं लेकिन लौटकर आ सकूंगा या नहीं इस पर संदेह है। जामवंत ने उसे रोक दिया। क्योंकि उसमें आत्म विश्वास की कमी थी।

जामवंत की नजर हनुमान पर पड़ी। जो शांत चित्त से समुद्र को देख रहे थे जैसे ध्यान में डूबे हों। जामवंत ने समझ लिया कि हनुमान ही हैं जो पार जा सकते हैं। क्योंकि इतनी विषम परिस्थिति में भी वो शांत चित्त हैं। जामवंत ने हनुमान को उनका बल याद दिलाया और बचपन की घटनाएं सुनाई।

हनुमान विश्वास से भर गए। एक ही छलांग में समुद्र लांघने को तैयार हो गए। उनका यह विश्वास काम आया। समुद्र लांघासीता का पता लगायाऔर फिर इस पार लौट आए।

अंगद भी ये काम कर सकते थे लेकिन उनके भीतर खुद की योग्यता पर विश्वास नहीं था। इस आत्म विश्वास की कमी से वो एक बड़ा मौका चूक गए।

ऐसा हो भरोसा तो हर काम में मिलेगी सफलता...
थोड़ी सी असफलता से विचलित हो जाना हमारा स्वभाव होता है। इसका कारण हैहमारे भीतर अविश्वास जागना। जब तक कर्म और आस्था में अविश्वास होगासफलता नहीं मिल सकती। सफलता के लिए चाहिए कि मन में एक विश्वास कायम रहे। पुरानी कहावत है कि जैसे हमारे भीतर के विचार होते हैंहमारे कामों के परिणाम पर भी उसका वैसा ही प्रभाव होता है।

काम करते-करते अगर मन में थोड़ा भी अविश्वास आ जाए तो फिर सफलता दूर हो जाती है। विश्वास आस्था को बल देता हैआस्था से प्रार्थनाओं में असर आता हैये असर काम को सफल बनाने में मददगार होता है। कोशिश करेंजब भी कोई काम शुरू करें तो उसकी सफलता के प्रति थोड़ी भी आशंका मन में ना लाएं। ये आशंका आपके प्रयासों को धीमा कर देगी।

विश्वास पत्थरों में भी जान डाल देता है। भागवत में कथा आती है दो असुर भाइयों की। हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु ये दो भाई थेजिन्होंने देवताओं को बहुत प्रताडि़त किया। देवताओं ने हिरण्याक्ष को मार दिया। हिरण्यकशिपु उनसे बदला लेने के लिए तप करने लगा। तप से कई शक्तियां पा लीं लेकिन उसका पुत्र प्रहलाद भगवान विष्णु का भक्त था। पांच साल के प्रहलाद की आस्था विष्णु में अटूट थी।

हिरण्यकशिपु को ये पता चला तो उसे क्रोध आया। उसने प्रहलाद को कई तरह से समझाया कि विष्णु की भक्ति छोड़ दे लेकिन वह नहीं माना। उसे दंड दिया गया। हाथी के पैर तले कुचला गयापहाड़ से नदी में फेंका गयाजलाया गया लेकिन हर बार बच गया। हिरण्यकशिपु ने उसे चुनौती दी। अगर भगवान है तो इस खंभे से निकालकर दिखा। प्रार्थना की और भगवान विष्णु नरसिंह अवतार में खंभा तोड़कर प्रकट हो गए।

ऐसा हर बार संभव नहीं हैक्योंकि इसके लिए आस्था और विश्वास प्रहलाद जैसा होना चाहिए। प्रहलाद का भरोसा एक बार भी टूटता तो शायद कभी नरसिंह अवतार होता ही नहीं।

मन में भरोसा है तो साधारण शब्द भी कर सकते हैं चमत्कार...
लोग गुरुमंत्र तो लेते हैं लेकिन अक्सर उसके पीछे अपनी शंकाएं भी चिपका देते हैं। मन में अविश्वास का भाव आया कि मंत्र का असर ख़त्म हुआ समझिए। मन का विश्वास ही एक साधारण से मंत्र को चमत्कारी बना सकता है। अगर गुरु से मंत्र दीक्षा में लिया है तो उसमे पूरा भरोसा रखिये। विश्वास से बड़ा कोई मंत्र नहीं है।

शंका करना मन का स्वभाव होता है। किसी पर अविश्वास करके मन बड़ा प्रसन्न रहता है। इसीलिए लोग गुरु के शब्दों में भी संदेह ढूंढ़ते हैं। सिद्ध गुरु आरंभ में शब्द ऐसे बोलते हैं कि मन के द्वार बंद न हो जाएं। गुरुमंत्र में ऐसा प्रभाव होता है कि वह मन में प्रवेश करता है और फिर धीरे-धीरे उसकी सफाई करता है।

शक्तिपात गुरु स्वामीजी महाराज कहा करते थे कि मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा विकसित हो गया है कि वह हर बात में शंका करता है। उससे कोई कितनी भी सहानुभूति करेवह उसमें भी संशय करता है। अध्यात्म के विषय में उसने केवल सुना ही सुना हैअनुभव नहीं किया। इसलिए इस संबंध में वह और भी अधिक शंकालु हो गया है। जब तक उसके मन में गुरु वचनों पर दृढ़ श्रद्धा नहीं होतीअंतर की शंका नीचे नहीं दबती। गुरु इस बात से अच्छी तरह परिचित होते हैं। अत: वह अपनी कृपा से शिष्य को चेतना शक्ति की जागृति का प्रत्यक्ष अनुभव करा देते हैं। चित्त में एक चिंगारी सुलग उठती हैजो आध्यात्मिक जागृति के लिए बीज का काम करती है।

सूर्य के फैलने वाले प्रकाश के पूर्व किरण होती हैजिससे साधक को ज्ञात हो जाता है कि चित्त में चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश होने वाला हैजिससे उसके मन में गुरु के प्रतिसाधन के प्रतिअनुभव के प्रति श्रद्धा पैदा हो उठती है। श्रद्धा ही साधन का आधार है तथा सभी शंकाओं को दूर करने में मददगार है। श्रद्धा को केवल कर्मकांड से बलवती नहीं बनाया जा सकताइसके लिए ध्यान बहुत जरूरी है। लगातार ध्यान करने से जो अनुभव होते हैंउससे श्रद्धा परिष्कृत होती है।

विश्वास करने का सही अर्थ यह होता है...
कई लोगों की आदत होती है जिस पर विश्वास करेंगेआंखें मूंद कर करेंगेजिस पर भरोसा नहीं होउसका गाहे-बगाहे अपमान करते रहेंगे। भगवान और भक्ति के मामले भी कुछ लोगों का नजरिया ऐसा ही होता है। जिस भगवान को मानते हैं उसे सबकुछ तो मानेंगे लेकिन दूसरे भगवानों को वे हमेशा अविश्वास की नजर से देखते हैं।

जिस संत को गुरु माना उसे भगवान की तरह पूजेंगे लेकिन अन्य संतों को ढोंगी बाबा कहने से नहीं चूकते। ऐसा विश्वास किसी काम का नहीं होता जो दूसरों पर अविश्वास और अपमान करवाता है। विश्वास वो दृष्टि है जो सभी के प्रति समानता का नजरिया पैदा करे। आप जिसे मानते हैंपूजते हैंपूजें लेकिन दूसरों को अपमानित ना करें। किसी में विश्वास करने का मतलब यह नहीं होता कि दूसरे में अविश्वास करें या उनका अपमान करें। विश्वास करने का अर्थ है सबका सम्मान करें। तुलसीदासजी ने हनुमानचालीसा की 35वीं चौपाई में समझाया है कि विश्वास का क्या अर्थ है।

और देवता चित्त न धरई। हनुमत सेइ सर्ब सुख करई।।

हे हनुमानजीआपकी इस महिमा को जान लेने के बाद लोग अन्य देवता को अपने चित्त में स्थान नहीं देंगे। केवल आपकी ही सेवा में सारे सुख मिल जाएंगे। 'और देवताकहने का एक अन्य अर्थ भी है। 'और अधिकदेवताओं को चित्त में न रखें। जो भी आपके इष्ट हों उन्हें बनाए रखेंलेकिन दूसरों के इष्ट की आलोचना भी न करें।

इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि यदि हनुमानजी को आप पूजेंगेतो अन्य देवता आपको परेशान नहीं करेंगे। जैसे होता है कि कभी हम सोचते हैं शनि महाराज नाराज हो जाएंगे। तो तुलसीदासजी यह आश्वासन दे रहे हैं कि चिंता न की जाए। जिन्हें ज्योतिष में विश्वास हैवे ग्रहों के रूप में शनि को अत्यधिक पीड़ादायक मानते हैं। यदि जातक की राशि में शनि का प्रवेश होतो हर संभव प्रयास किया जाता है कि उनके कोप से बचा जाए। एक बार गर्व में डूबे सूर्य पुत्र शनि ने श्रीराम के ध्यान में मग्न श्री हनुमान को बाधा पहुंचाई।

हनुमानजी ने शनिदेव को समझाया कि वे ध्यान कर रहे हैंपरेशान न करें। किन्तुशनिदेव ने उन्हें बलपूर्वक युद्ध के लिए ललकारा। तब हनुमानजी ने अपनी पूंछ से शनिदेव को लपेटा और चारों ओर घुमाते हुए चट्टानों पर पटक-पटक कर लहूलुहान कर दिया। पीडि़त शनिदेव ने अपनी मुक्ति के लिए श्री हनुमानजी को यह वचन दिया कि 'मैं कभी आपके भक्त की राशि में प्रवेश नहीं करूंगा।अपने घावों से परेशान होकर शनिदेव तेल-तेल का विलाप करने लगे। इसीलिए उन्हें तेल चढ़ाकर प्रसन्न किया जाता है।

धर्म की राह पर विश्वास से बढ़ कर कुछ भी नहीं...
हमारे देश में बात-बात पर धर्म की दुहाई दी जाती है। धर्म पर बात करना आसान हैधर्म को समझना सरल नहीं हैधर्म को समझ कर पचा लेना उससे भी अधिक मुश्किल हैलेकिन सबसे कठिन है धर्म में जी लेना। धर्म में जी लेना जितना कठिन हैजीने के बाद उतना ही आसान भी है। बिल्कुल इसी तरह है कि जब कोई पहली बार साइकिल सीखने जाता है।

तब उसे ऐसा लगता है कि दुनिया में इससे असंभव काम कोई नहींक्योंकि जैसे ही वह दोपहिया वाहन पर बैठता हैवह लडख़ड़ाता हैगिर जाता है। सीखने वाला आदमी जब दूसरे को साइकिल मस्ती में चलाते हुए देखता है तो उसे बड़ा अजीब लगता है। यह कैसे मुमकिन है मैं तो पूरे ध्यान से चला रहा हूं फिर भी गिर जाता हूं और वह बड़ी मस्ती में चला रहा है।

जब एक बार आदमी साइकिल चलाना सीख जाता है तो वह भी मस्ती से साइकिल चला लेता है। धर्म का मामला कुछ इसी तरह का हैजब तक उसे जिया न जाए यह बहुत खतरनाकपरेशानी में डालने वालालडख़ड़ाकर गिर जाने वाला लगता है। लेकिन एक बार यदि धर्म को हम जी लें तो फिर हम उस मस्त साइकिल सवार की तरह हैं जो अपनी मर्जी से लहराते हुए चलाता हैअपनी मर्जी से रोक लेता हैअपनी मर्जी से उतर जाता है और बिना लडख़ड़ाहट के चला लेता है।

जीवन में धर्म बेश कीमती हीरे की तरह है। जिसे हीरे का पता नहीं वो जिंदगीभर कंकर-पत्थर ही बीनेगा। पहले तो हमारी तैयारी यह हो कि हम जौहरी की तरह ऐसी नजर बना लें कि धर्म को हीरे की तरह तराश लें। वरनाहम हीरे को भी कंकर-पत्थर बनाकर छोड़ेंगे।

सफलता के लिए जरुरी है कि पहले भरोसा जीता जाए...
जीवन में संदेह और विश्वास का खेल चलता ही रहता है। जब अपने पर ही संदेह होने लगे तो उसका निराकरण आत्मविश्वास से होता हैलेकिन जब दूसरों पर संदेह हो तो या तो हमें उदारता से उन पर विश्वास करना पड़ेगा या सामने वाले को अपनी निष्ठाईमानदारी व योग्यता से संदेह का निवारण करना पड़ेगा।

फिर आज के दौर में विश्वास करना भी कठिन काम है। देखा जाता है कि मनुष्यमनुष्य से बात कर रहा होता हैलेकिन भीतर ही भीतर हर शब्द को संदेह की दृष्टि से तौल ही रहा होता है। भरोसा ही नहीं होता कि आदमी की उपस्थितिशब्दों और निर्णयों में कितनी सच्चई है।
सुंदरकांड में हनुमानजी और सीताजी की बातचीत हो रही थी। हनुमानजी सीताजी के सामने अपने आप को रामजी का दूत साबित कर चुके थेलेकिन फिर भी सीताजी को उनकी क्षमता पर संदेह था।

हे सुत कपि सब तुम्हहि समाना। जातुधान अति भट बलवाना।।
हे पुत्र! सब वानर तुम्हारे ही समान (नन्हे-नन्हे) होंगेराक्षस तो बड़े बलवान योद्धा हैं।
अत: मेरे हृदय में भारी संदेह है कि तुम जैसे बंदर राक्षसों को कैसे मारोगेहनुमानजी समझ गए कि संदेह का निवारण अब शब्दों से नहीं होगा। यह सुनकर हनुमानजी ने अपने शरीर को विशालकाय बना लिया। तब उन्होंने बताया कि हम आचरण से ही दूसरों के प्रति विश्वसनीय हो सकते हैं।

तुलसीदासजी ने लिखा -
सीता मन भरोस तब भयऊ। पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ।।
तब सीताजी के मन में विश्वास हुआ। हनुमानजी ने फिर छोटा रूप धारण कर लिया। इसलिए संदेह होना स्वाभाविक हैलेकिन हमें विश्वास जीतना भी आना चाहिए।

किसके भरोसे पर करें जीवन का सफ़र...
अपनी जीवन यात्रा अपने ही भरोसे पूरी की जाए। यदि सहारे की आवश्यकता पड़े तो परमात्मा का लिया जाए। सहयोग संसार से लिया जा सकता हैपर इसके भरोसे न रहें। संसार के भरोसे ही अपना काम चला लेंगे यह सोचना नासमझी हैलेकिन केवल अपने ही दम पर सारे काम निकाल लेंगेयह सोच मूर्खता है।

इसलिए सहयोग सबका लेना है लेकिन अपनी मौलिकता को समाप्त नहीं करना है। इसके लिए अपने भीतर के साहस को लगातार बढ़ाते रहें। अपने जीवन का संचालन दूसरों के हाथ न सौंपें। हमारे ऋषिमुनियों ने एक बहुत अच्छी परंपरा सौंपी है और वह है ईश्वर का साकार रूप तथा निराकार स्वरूप। कुछ लोग साकार को मानते हैं।

उनके लिए मूर्ति जीवंत है और कुछ निराकार पर टिके हुए हैं। पर कुल मिलाकर दोनों ही अपने से अलग तथा ऊपर किसी और को महत्वपूर्ण मानकर स्वीकार जरूर कर रहे हैं। जो लोग परमात्मा को आकार मानते हैंमूर्ति में सबकुछ देखते हैं वह भी धीरे-धीरे मूर्ति के भीतर उतरकर उसी निराकार को पकड़ लेते हैं जिसे कुछ लोग मूर्ति के बाहर ढूंढ रहे होते हैं। भगवान के ये दोनों स्वरूप हमारे लिए एक भरोसा बन जाते हैं।

वह दिख रहे हैं तो भी हैं और नहीं दिख रहे हैं तो भी हैं। यहीं से हमारा साहस अंगड़ाई लेने लगता है। जीवन में किसी भी रूप में परमात्मा की अनुभूति हमें कल्पनाओं के संसार से बाहर निकालती है। भगवान की यह अनुभूति यथार्थ का धरातल है। व्यर्थ के सपने बुनकर जो अनर्थ हम जीवन में कर लेते हैंपरमात्मा के ये रूप हमें इससे मुक्त कराते हैं। क्योंकि हर रूप के पीछे एक अवतार कथा है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....मनीष
ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....
  



Thursday, January 3, 2019

जीवन जीने की राह (Jeevan Jeene Ki Rah)


श्रेष्ठता एकांत में ही जन्म लेती है
जब भी कोई मनुष्य अपने भीतरीपन को समझ लेता है, अपने एकांत से ठीक से गुजर जाता है तब उसके जीवन में श्रेष्ठ जन्म ले लेता है। हनुमानजी के साथ ऐसा ही हुआ था। वे आंखें बंद करके बैठे थे, चूंकि वानरों ने तय कर लिया था कि लंका अब सिर्फ हनुमान ही जा सकते हैं और इसीलिए जामवंत हनुमानजी को समझाते हैं- ‘पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।। कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं।। हनुमानजी को बल, बुद्धि, विवेक से जोड़ते हुए कहा गया है कि संसार का ऐसा कोई काम नहीं, जो वे नहीं कर सकते।

सबसे चौंकाने वाली बात यह कि हनुमानजी के लिए विज्ञानी लिखा है। उनका काम करने का तरीका बहुत वैज्ञानिक था। आज के समय में विज्ञान और धर्म पीठ करके खड़े हो जाएं यह ठीक नहीं है। धर्म को भी विज्ञान की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी विज्ञान को धर्म की होनी चाहिए। दोनों कुछ मामलों में असहमत भी हैं और बहुत कम मामलों में सहमत हैं, लेकिन एक-दूसरे के बिना दोनों का काम भी नहीं चलता। अगर विज्ञान का महत्व धर्म में समझना हो तो हनुमानजी की जीवनशैली से समझा जा सकता है। एकांत धर्म का मामला है, सार्वजनिक गतिविधियां विज्ञान से जुड़ी हैं। वैज्ञानिक शोध सबको परिणाम मिले इसलिए होते हैं।

धर्म और अध्यात्म कहता है पहले एकांत से स्वयं को साधो, सक्षम बनो, फिर संसार में उतरो। श्रेष्ठता जब भी जन्मेगी, एकांत में ही जन्मेगी और इसके लिए एकांत साधना पड़ेगा। एकांत साध चुके हनुमानजी को जामवंत ने कहा कि आपने भीतर जो अध्यात्म पाया है अब उसका उपयोग बाहर ऐसे करिए जैसे विज्ञान का किया जाता है। इस संतुलन को हम भी जीवन में बनाए रखें तो हमारी सफलता शांति देकर जाएगी।

बाल मन व ममता से काबू होते हैं दुर्गुण
शेर को कुश्ती लड़कर न तो काबू में किया जा सकता है, न मारा जा सकता है। इसलिए यदि हिंसक जानवरों, कुछ हिंसक परिस्थितियों को जीतना हो तो ऐसी शैली अपनानी पड़ेगी जो दिखेगी तो गलत पर होगी सही। जब शेर का शिकार किया जाता है तो बहुत काम छुपकर होता है। मानवीय दृष्टिकोण से यह धोखा है, लेकिन व्यावहारिक बात यह है कि ऐसा किए बिना कोई व्यवस्था चलाई भी नहीं जा सकती। इसको अपने जीवन से जोड़कर देखें तो दुर्गुण हिंसक पशु की तरह हैं, जो कभी भी हम पर आक्रमण कर सकते हैं।

कुछ दुर्गुण ऐसे हैं, जिनके लिए हमें अभयारण्य बनाना पड़ेगा। अहंकार एक ऐसा दुर्गुण है जिसे मारा न जाए, क्योंकि इसमें जोश भी भरा है। क्रोध भी ऊर्जा का काम है। पर ये दुर्गुण जब आप पर आक्रमण करें और आप सोचे कि इनसे सीधे-सीधे निपट लें तो बिल्कुल शेर से कुश्ती लड़ने वाली बात होगी। कोशिश यह की जाए कि इन्हें एक जगह सुरक्षित रख दें, देखें, आनंद लें। इसके लिए थोड़ा छल करना पड़ेगा। हिंदू संस्कृति में भगवान विष्णु पालनकर्ता माने गए हैं। जब भी उन्होंने देखा कि सामने स्थितियां बहुत बिगड़ी हुई हैं खासकर दैत्यों के सामने तो उन्होंने छल से कई रूप रखे। स्त्री और बच्चे बनने में तो विष्णुजी ने कई कथाएं रच दीं। उनका यह चरित्र समझाता है कि दुर्गुणों का सामना करने के लिए हमें स्त्रैण चित्त और बालमन की जरूरत पड़ती है।

बालमन शुद्ध होता है और स्त्रैण चित्त में ममता होती है। ये दोनों दुर्गुणों को रोकने में बड़े काम आएंगे। इसके लिए कोई बड़ा आंदोलन नहीं चलाना है, बस भीतर की तैयारी ऐसी करें और समय के अनुसार उन विधियों को अपनाएं, इसलिए बहुत ही समझदारी, सावधानी और जरूरत पड़े तो छल के साथ दुर्गुणों के आक्रमण को रोकना ही होगा।

विचारशून्यता में किया कार्य सुंदर होगा
हमारे किए गए कार्यों का महत्व इसमें भी है कि कार्य संपन्न होने पर उसका अच्छापन सामने आए, उसकी निर्दोषिता दिखे और लोग प्रशंसा करें। इसी में उस कर्म की स्वीकृति है। इसके लिए अपनी क्रियाशक्ति में ओज और तेज भरना होगा। हर काम को बड़े अच्छे ढंग से पूरा कीजिए। अध्यात्म में सुंदर शब्द है- गौरव की कसौटी पर कसकर हर कृत्य को पूरा करें। इसमें जो सर्वश्रेष्ठ है उसे परखा जाएगा।

सीधी भाषा में कहें तो रोज परीक्षा देनी है इस भाव से काम कीजिए। पूरी तन्मयता लानी पड़ेगी तब काम पूरा होगा। अपना प्रत्येक कार्य परिपक्व और प्रशंसा के योग्य चाहते हैं तो कामों की प्राथमिकता तय करें। जिस काम को विशेष आवश्यकता की श्रेणी में लेना है उसे सुबह से ही ले लें और जुट जाएं। ध्यान रखिए, हमने जो तय किया है उसमें लोगों, परिस्थितियों, वक्त की और कई प्रकार की अन्य अड़चनें आ सकती हैं। एक बाधा और आती है वह है हमारी निजी स्वस्ति। हमारे भीतर कोई एक चीज है, जो हमें गड़बड़ा देगी। इस पर नियंत्रण पाते हुए काम में जुट जाएं। यदि एक प्रयोग करेंगे तो आपका प्रत्येक कार्य प्रशंसनीय हो जाएगा। दिनभर में एक-दो घंटे या इससे ज्यादा ऐसा समय निकालिए, जो थॉटलेस टाइम यानी विचारशून्य अवधि होगी। उस दौरान पूरी तरह विचारशून्य हो जाएं।

तय कर लीजिए कि दो घंटे विचारशून्य रहेंगे, केवल कृत्य करेंगे। मान लें कि हम मशीन हैं किसी के हाथ की, कोई परमशक्ति हमसे कृत्य करा रही है। बस, यह विचारशून्यता आपके कृत्य को इतना सुंदर बना देगी कि फिर उसको प्रशंसा मिलनी ही है। धीरे-धीरे यह अभ्यास बढ़ाते रहिए। विचारशून्य होने का मतलब है काम के प्रति लापरवाह नहीं होना, बिना चिंतन के कुछ नहीं करना। विचारों को रोककर जब कोई कृत्य किया जाता है तो परिणाम शुभ मिलते ही हैं।

भीतरी शक्ति का संग्रहण व उपयोग सीखें
परमात्मा ने जन्म से ही हमारे भीतर शक्ति डाली है। हम उसका कैसा उपयोग करते हैं इस पर हमारा जीवन टिका है। बचपन में इस शक्ति को बचाने और बढ़ाने का काम वे लोग करते हैं, जिन्होंने हमारा लालन-पालन किया हो। दुर्भाग्य से कुछ लोगों को ऐसे अवसर नहीं मिल पाते तो बचपन में उनकी ऊर्जा का उपयोग नहीं हो पाता। किंतु जिनको ठीक से लालन-पालन मिला हो वो जब युवा हो जाएं, तब तरुणाई से ही इस शक्ति का सदुपयोग सीख जाएं।

अवसर न मिले हों, दरिद्रता घेर चुकी हो तब तो वह शक्ति विचलित हो ही जाएगी, लेकिन जिन्हें सारे अवसर, सुख-सुविधाएं मिली हों वे भी शक्ति न बचाएं तो यह मूर्खता होगी। पहचानिए, मानिए और विश्वास कीजिए कि अपने भीतर शक्ति है, जिसे एकाग्रता से और तीव्र बनाना है। तो पहला काम हुआ एकाग्रता, दूसरा उसे ठीक से संग्रहित करना और तीसरा है उपयोग करना। जरा-सी भाप को यदि ठीक से एकाग्र कर लें, तो इंजन चलने लगता है। बंदूक की गोली बहुत छोटी होती हैं, लेकिन ये तीनों क्रियाएं उससे जुड़ी हैं। चिंगारी का स्पर्श मिलते ही चुटकीभर बारूद क्या गजब ढा सकता है।

हमारे भीतर हमारी शक्ति ऐसी ही बारूद की तरह है। उपयोग करना आना चाहिए। इस शक्ति का संग्रहण मस्तिष्क में कीजिए, क्योंकि मस्तिष्क खुद बहुत बड़ा बिजलीघर है। इसको एकाग्र करना हो तो मन से गुजारिए फिर शरीर से इसका उपयोग, इसका विस्तार कीजिए। इसमें काम आएगा गुरुमंत्र। गुरु एक मंत्र देगा और उस मंत्र को जैसे ही सांस से जोड़ेंगे, आप संग्रहित भी ठीक से करेंगे, एकाग्र भी अच्छे से होंगे और उपयोग तो श्रेष्ठ कर ही पाएंगे। जीवन में कोई गुरु नहीं मिले तो हनुमानजी को गुरु व हनुमान चालीसा को मंत्र बना लीजिए और अपनी शक्ति का अधिकतम सदुपयोग कीजिए।

अच्छे श्रोता बनने के लिए मेडिटेशन करें
जब सब एक-दूसरे को जीतने में लगे हों, तो लोग इस बात को लेकर बहुत परेशान हो जाते हैं कि कौन से रास्ते अपनाएं? अध्यात्म में बहुत सरल रास्ता है, जिससे जीत-हार का सवाल तो नहीं उठता, लेकिन आप अजातशत्रु यानी जिसका कोई शत्रु न हो, बन जाएंगे। फकीरों ने कहा है, शास्त्रों में लिखा है कि अच्छे श्रोता बन जाइए। यदि गहराई से किसी को सुना जाए तो आप मेडिटेशन से भी गुजर सकते हैं। इस तरह सुनने का व्यावहारिक लाभ यह है कि बोलने वाले के मन में आपके प्रति आदर का भाव जागता है, जो दोनों में निकटता बढ़ाता है और आप उसे अच्छे से जान पाते हैं। हर आदमी वह सबकुछ बोलना चाहता है जो मन में चल रहा होता है।

यदि आप उसे सुन लेते हैं तो उसे बड़ा संतोष मिलता है। ठीक से सुनकर आप उसकी परिस्थिति, उसके व्यक्तित्व पर ठीक से चिंतन कर पाएंगे। आजकल आधुनिक प्रबंधन में जब कोई व्यक्ति संस्थान छोड़कर जाता है तो उसका एग्जिट इंटरव्यू लिया जाता है, ताकि उसे ठीक से सुना जा सके कि वह क्यों जा रहा है और उसमें संस्थान के अनुकूल जो बातें पता चलें, उन्हें लागू किया जा सके। आप भी हर व्यक्ति को एग्जिट इंटरव्यू की तरह सुनें, क्योंकि वह आपके भीतर एंट्री ले रहा होता है। किसी के जाने पर यदि आप गंभीर हैं तो किसी के आने पर भी सावधान रहिए। इसी को नैतिक चर्चा कहेंगे। मतलब यह नहीं है कि सिद्धांत और नीतियों पर ही बात हो।

सामने वाले को ठीक से सुन लेना भी नैतिक चर्चा है। जिस समय आप नैतिकता, गहराई, शांति से सुनते हैं, बोलने वाले को तो प्रसन्नता होती ही है, आपको भी लाभ होगा। अच्छे श्रोता बनने के लिए भीतर से विचारशून्य होना पड़ता है और इसके लिए ध्यान यानी मेडिटेशन जरूर कीजिए।

मैं गिरते ही मिल जाते हैं भगवान
ईश्वर है या नहीं, यह संदेह और बहस का पुराना विषय है। जो मानते हैं कि भगवान होते हैं फिर उनका अगला चरण होता है उन्हें ढूंढ़ा जाए। जिसे कभी देखा न हो, उसे ढूंढ़ना और भी मुश्किल होता है। आइए, समझते हैं कि भगवान को ढूंढ़ने के कौन-कौन से तरीके हो सकते हैं। इसमें हनुमानजी बहुत दक्ष हैं। वे हमारे और भगवान के बीच की कड़ी हैं। उन्हें वे सारे तरीके और सूत्र आते हैं, जिनसे ईश्वर तक पहुंचा जा सकता है।

किष्किंधा कांड में तुलसीदासजी ने लिखा है,‘राम काज लगि तव अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्वताकारा।’ जामवंत ने कहा और हनुमानजी पर्वत के आकार के हो गए। पर्वताकार हो जाने का मतलब है हनुमानजी यह जान चुके थे कि मेरा जो कुछ भी लक्ष्य है, रूप है वह परमात्मा को पाने के लिए है। यहां हनुमानजी सिखाते हैं कि जब हम अपने ‘मैं’ को ठीक से ढूंढ़ लेंगे तो पता चलेगा दरअसल ‘मैं था ही नहीं। वह एक भ्रम था। तो हनुमानजी ने सारी कोशिश अपने ‘मैं को ढूंढ़ने में लगाई। जामवंत ने कुछ कहा तो पर्वताकार हो गए।

हनुमानजी को समझ में आ गया कि मैं भगवान को ढूंढ़ने के लिए इस संसार में आया हूं। मेरे होने का मतलब ही यह है कि परमात्मा को प्राप्त कर लूं। अगर हम भी प्रतिदिन कुछ समय अपने ‘मैं को ढूंढ़ने में लगाएं तो जैसे ही उसे प्राप्त करेंगे, पाएंगे कि जिसे हम ढूंढ़ रहे थे दरअसल वह तो था ही नहीं। जैसे ही यह समझ हुई कि ‘मैं  कुछ होता ही नहीं, यहीं से परमात्मा आरंभ हो जाता है। ‘मैं  गिरते ही ‘तू दिखने लगता है। यह कला हमें हनुमानजी ने ही सिखाई। ‘मैं गिराने के लिए सबसे अच्छा साधन होता है योग-ध्यान करना। ‘मैं का निवास मन में होता है और मन तक सही तरीके से पहुंचने का ध्यान से अच्छा और कोई तरीका नहीं हो सकता।

मौलिक सोच वालों से ही सलाह लें
दुनिया में जो चीजें मुफ्त मिलती हैं उनमें से एक है सलाह। यदि आप कोई व्यवसाय या नौकरी कर रहे हों तो कार्यस्थल पर कुछ ऐसे लोग जरूर होंगे जो बिना मांगे सलाह देंगे। तेजी से बदलते वातावरण में हर बात का ज्ञान नहीं हो सकता। ऐसे में कुछ लोग तो चाहिए जो सलाह दें। जैसे खूब पढ़े-लिखे दक्ष लोग पद, धन कम और प्रतिष्ठा कमा लें तो अशांत हो जाएंगे। इसके लिए उन्हेें सलाह लेनी ही पड़ेगी।

सलाह लेने में कोई बुराई नहीं है पर किसी गलत व्यक्ति से सलाह न लें। दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं। पहले कुएं की तरह और दूसरे टंकी या हौज की तरह। जब आप हौज वाले लोगों से मिलेंगे तो वे नकारात्मक बातें करेंगे। उनकी प्रतिक्रियाएं कुंठा से भरी होंगी, क्योंकि हौज या टंकी में पानी बाहर से लाकर भरा जाता है।

उपयोग किया जा रहा है संग्रहण के लिए और आप समझ रहे हैं आपने निर्माण किया। कुएं का पानी किसी नदी से चलकर, किसी सागर से बहकर आया होता है, जिसे सामान्य भाषा में झरण कहते हैं। इसमें पृथ्वी के सारे तत्वों ने भूमिका निभाई होगी। जो लोग कुएं की तरह हैं उनके पास एक विचार होगा, गहराई होगी।

वे जानते हैं कि जो पानी मेरे पास है वह कहीं और से आया है। ऐसे लोगों का ‘मै’ गिरा हुआ होगा और वे जो सलाह देंगे वह सदैव सकारात्मक और जीवन की गहराई लिए होगी। इसलिए हमेशा उन लोगों का साथ रखिए जो कुएं की तरह गहरे हों, जिनकी झरण खुली हुई हो, जिनमें हमेशा पानी आता हो। कुआं छोटा हो, हौज बड़ा भी हो सकता है इसलिए बात यह नहीं है कि सलाह देने वाला व्यक्ति बड़ा है या छोटा। बात यह है कि वह भीतर से कैसा है। यदि कुटिल है तो नकारात्मक बात कहेगा, यदि सहज-सरल है तो कोई ऐसी बात कह जाएगा जो आपके लिए जीवनभर उपयोगी होगी।

अकेलापन नहीं, एकांत देता है भरोसा
पागल को देखकर मन में सवाल उठता है कि यह पागल हो क्यों गया? ईश्वर न करे आपको पागलखाने जाने का अवसर मिले पर यदि जाएं तो वहां लगे बोर्ड पर कुछ लक्षणों के अंत में यह भी लिखा होता है कि यदि ऐसा है तो आपको अपना मानसिक इलाज कराना चाहिए। हर व्यक्ति पाएगा कि इसमें से 80 प्रतिशत लक्षण उसमें हैं तो क्या वह पागल हो गया? हम कितने पागल हैं यह आपको अकेले में पता लगेगा। अकेले में इतने विचार हमारे भीतर आते हैं कि हम खुद से ही बातें करने लगते हैं।

बड़े से बड़ा समझदार व्यक्ति भी स्वयं से बात करता है और सारी सीमाएं लांघ जाता है। अकेले में जो भी बात की हो, जो भी विचार आपके भीतर प्रवेश किए हों, यदि उन्हें सिलसिलेवार कागज पर लिख लें और पढ़ें तो पता चल जाएगा कि आप किस किस्म के पागल हैं। अकेले में हमारी जीवन शक्ति खिसककर मन पर टिक जाती है।

मन को अकेलापन बहुत पसंद है। वह जानता है मेरा मालिक अकेला है और मैं इसे कहीं भी ले जाकर पटक सकता हूं। मन अपना काम शुरू कर देता है और फिर अकेलेपन में हम वो सब हो जाते हैं, जो बाहर नहीं हो पाए। धीरे-धीरे मन का खिलौना बन जाते हैं। लेकिन, जिस मन को अकेलेपन में अच्छा लगता है वही एकांत में डर जाता है। अकेलेपन को एकांत में बदलने के लिए योग करना पड़ता है, अपने भीतर परिपक्वता लानी पड़ती है।

एकांत में यह भरोसा होता है कि आपके अलावा एक परम शक्ति आपके साथ है। अकेलेपन में हम सारा संसार हमारे साथ है, ऐसा मान लेते हैं और अकेलापन पागल कर देता है, इसलिए जितने लोग, जितने विचार आएं, या तो उनको हटा दें या उनसे स्वयं हट जाएं। धीरे-धीरे अकेलापन एकांत में बदलने लगेगा और आप अपने ही पागलपन को पहचान जाएंगे।

सहज स्वीकारें विवाह बाद का बदलाव
सभी के जीवन में कभी न कभी ऐसा अवसर आता है जब लगने लगता है कि हमारी निजता कहीं खो गई है, मूल स्वभाव खंडित हो गया है। ऐसा अधिकतर लोगों के साथ विवाह के बाद होता है। मुझे कई युगल मिलते हैं, जो अलग-अलग अपनी पीड़ा व्यक्त करते हैं। वह पीड़ा पुरुषों में कम होती है, क्योंकि विवाह के बाद पुरुषों की परिस्थिति तो बदलती है, रहन-सहन बदल जाता है परंतु प्लेटफॉर्म नहीं बदलता। जिस परिवार में वे बड़े हुए हैं, उन्हें उसी परिवार में रहना है।

विवाह के बाद स्त्रियों के जीवन में चुनौतियां अधिक आती हैं, क्योंकि उन्हें नए परिवेश, नए परिवार के अनुसार ढलना पड़ता है। मायके में रहकर जैसा जीवन गुजारा है वह ससुराल में आकर या तो आहत होता है या अदृश्य हो जाता है। पिछले दिनों एक बहू ने शिकायत की कि इन दिनों जिस प्रकार का पारिवारिक जीवन है, कभी-कभी तो लगता है मेरा मूल स्वभाव ही खो गया है। देखिए, स्थितियों में कोई बदलाव नहीं हो सकता। ऐसे समय सबसे अच्छा तरीका है सबसे पहले स्थिति को अपने रोम-रोम में धन्यवाद भाव से स्वीकार करें। उस स्थिति को अभिशाप न मानते हुए परमात्मा शायद आपकी परीक्षा ले रहा है, ऐसा सोचकर उससे गुजरें। दुख बढ़ाने वाली बातों को सोचना, दोहराना छोड़, अपनी समूची चेतना और स्वभाव को परमात्मा से जोड़िए।

जीवन के प्रत्येक पल को प्रसन्नता की कसौटी पर कसें। जब भी कोई विपरीत परिस्थिति आए, सबसे पहले उसे सरल बनाएं, फिर उसमें अपने व्यक्तित्व का सहयोग दें, उसके बाद एक समझ तैयार होगी और फिर पूरी तरह सहज हो जाएंगे। सहज होकर ही इन हालात से निपटा जा सकता है। कष्ट को बार-बार याद करने से वह घटेगा नहीं, उल्टा बढ़ेगा ही।

बोलने में प्रस्तुति व समय का ध्यान रखें
बातचीत एक कला है। व्यक्ति और वस्तुओं की पहचान के साथ बच्चे का बोलना शुरू हो जाता है। झंझट शुरू होती है बाद में। जो लोग अधिक बोलते हैं उनके मुंह से कब कोई अप्रिय बात निकल जाए, पता नहीं लगता। ज्यादा बोलने के दो नुकसान हैं। एक तो सामने वाले पर आपकी अच्छी छवि नहीं बनती। दूसरा, हमारी ही मानसिक शक्ति खर्च हो जाती है और कई नुकसान उठाने पड़ सकते हैं। बोलते समय विषय, उसकी प्रस्तुति का क्रम और समय का निश्चित होना बहुत जरूरी है। चलिए, हनुमानजी से सीखते हैं यह कला।

हनुमानजी बड़बोले नहीं हैं, लेकिन वे जानते थे कि वानर निराशा में डूबे हुए हैं। इनके उत्साह को जगाने के लिए ऐसी वाणी बोलनी पड़ेगी, जिसमें बड़बोलापन दिखेगा। कहा, मैं खेल-खेल में इस समुद्र को लांघ सकता हूं। रावण को मारकर त्रिकूट पर्वत उखाड़कर ला सकता हूं। सुनने में अतिशयोक्ति लगती है, लेकिन हनुमानजी इस कला में माहिर थे कि शब्दों का कैसे उपयोग किया जाए। इसके तुरंत बाद उन्होंने जामवंत से विनम्रतापूर्वक प्रश्न पूछा और तुलसीदासजी ने लिखा,‘जामवंत मैं पूंछउं तोही। उचित सिखावनु दीजहु मोही।। हे जांबवान, मैं तुमसे पूछता हूं। मुझे उचित सीख देना कि मुझे क्या करना चाहिए। चूंकि जामवंत श्रीराम की सेना के सबसे वृद्ध सदस्य थे।

हनुमानजी उनके अनुभव का लाभ लेना चाहते थे। लेकिन इसी पंक्ति में हनुमानजी ने ‘उचित’ भी बोल दिया। उचित शब्द आया है तो लगता है कि क्या जामवंत अनुचित भी बोल सकते थे। हनुमानजी जानते थे कि जामवंत वृद्ध हैं। बातचीत करते हुए बूढ़े लोग कुछ भूल जाते हैं, विषय से भटक जाते हैं। बुढ़ापा सबको आना है। ऐसे लोगों के लिए यह बातचीत शिक्षा है। हम इसकी चर्चा करते चलेंगे।

योग्य पालक बनना है तो प्राणायाम करें
कुछ खेल ऐसे होते हैं, जिनमें प्रदर्शन खुलकर करना पड़ता है और कुछ ऐसे होते हैं; जिनमें छुपाना ही उसकी खूबी है। ताश का खेल ऐसा ही होता है। आपकी गोपनीयता आपकी चाल को मजबूत बनाएगी। बच्चों के लालन-पालन में माता-पिता को कभी-कभी ताश के खेल की तरह निर्णय लेने पड़ते हैं।

वर्षों पहले लालन-पालन में संतानों के प्रति माता-पिता आंख बंद करके भरोसा कर सकते थे। चूंकि आज के बच्चे भी चाल चलने में माहिर हैं, तो लालन-पालन अंधेरी गुफा से गुजरने जैसा है। पता नहीं गुफा का मुहाना कब मिले। इस अंधकार को ऐसे प्रकाश से मिटाना होगा, जिसे अध्यात्म में आत्म-प्रकाश कहा है। माता-पिता को सबसे पहले एक प्रयोग खुद पर करना होगा। पिता या माता की भूमिका में अपना पति-पत्नी होना या पुरुष-स्त्री होना बिलकुल अलग रखें, क्योंकि इससे आपके वाइब्रेशन में फर्क आएगा। पुरुष या पति, स्त्री या पत्नी के रूप में तनाव, बेचैनी, निराशा, आवेश और उदासी काम कर रही होती है। ऐसे में जब आप माता-पिता होते हैं और यदि अपने पुरुष या स्त्री, पति या पत्नी होने की स्थिति को नहीं भूलेंगे तो आपके निगेटिव वाइब्रेशन बच्चे लेंगे। अपने आप को इस स्थिति से काटने के लिए उस आत्म-प्रकाश को जगाना पड़ेगा, जिससे लालन-पालन की सुरंग में रोशनी आ जाए, आप अपनी संतानों को ठीक से देख सकें तथा बच्चे भी आपको ठीक से पहचान सकें।

प्राणायाम मनुष्य को उसकी काया से काटता है। जब आप देह से हटते हैं तब पुरुष या पति, स्त्री या पत्नी की भूमिका से हटना आसान हो जाता है और आप पिता या माता की भूमिका में आसानी से आ जाते हैं। एक ऐसी भूमिका जो भीतर से प्रसन्नचित्त, आशान्वित और सहज होगी।

बच्चों के खेल को मस्ती में न बदलने दें
राइट और रियलिटी में फर्क देखना हो तो छोटे बच्चों में झांकिए। बचपन में सही और वस्तुस्थिति की समझ नहीं होती। मसलन, यह सही है कि बच्चों के पास बहुत धन है। वे धनाढ्य परिवार में हैं, लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि वह धन का उपयोग वैसा नहीं कर सकते जैसा बड़े लोग कर रहे होंगे। अधिकतर बच्चे सनकी और जिद्‌दी इसीलिए हो जाते हैं। हर बच्चा अपने साथ मूल स्वभाव लेकर आता है।

पुनर्जन्म मानने वाली हिंदू संस्कृति तो कहती है कि हर जन्म में पूर्व जन्म के संस्कार भी आते हैं। जो इसे नहीं मानते वे भी सहमत हैं कि जन्म-पूर्व समय में माता-पिता का आचरण भी बच्चों का स्वभाव बन जाता है। उस मूल स्वभाव को मिटाया नहीं जा सकता। उसके भीतर छुपी अच्छी-बुरी आदतें अपने समय में बाहर निकलेंगी जरूर। किंतु जन्म के बाद उस बच्चे में जो जोड़ना है उसे लेकर सावधान रहें। आजकल आम शिकायत है कि बच्चे जिद्‌दी बहुत हैं। ध्यान रखिए, कोई भी बच्चा जि़द पकड़ने के पहले चार चरणों से गुजरता है। एक, खेल। हर बच्चा खेलता है। यदि खिलौना नहीं मिले तो खुद से खेलने लगता है। परमात्मा ने बचपन को नैसर्गिक ऊर्जा दी है, वह खेल में निकलती है। दो, खेल मस्ती में बदल जाता है। बस, यहीं से सावधान होना पड़ेगा। खेल एक अनुशासित शारीरिक क्रिया होती है, लेकिन बच्चा नियम भंग करता है तो उसे मस्ती कहेंगे।

मस्ती पर नियंत्रण नहीं पाया गया तो अगला चरण है धमाल और यदि धमाल को नियंत्रित नहीं किया तो अगला चरण होगी शैतानी अौर फिर शुरू हो जाती है जिद। बच्चे की जिद को लेकर परेशान होने के पहले समय रहते तैयारी की जा सकती है। बालदेह अपने साथ भगवान की पहली ऊर्जा लेकर आई है। इसमें जोड़-घटाव हमें ही करना है।

ससुराल में अध्यात्म की दुनिया बसाएं
स्त्रियां अपने जीवन में पुरुषों के मुकाबले कुछ अलग ही हालात से गुजरती हैं। खासतौर पर जब मैं कथा कर रहा होता हूं तब ऐसी अनेक स्त्रियां मिलती हैं, जो बताती हैं कि विवाह के पश्चात हमारा वैवाहिक जीवन वैसा नहीं है, जैसा सोचा था और इसके कारण वे खुश नहीं हैं या डिप्रेशन में आ गईं हैं। इसका निदान दूसरे किसी व्यक्ति से नहीं मिल सकता, क्योंकि स्त्रियों को जीवन में एक बार प्लेटफॉर्म बदलना पड़ता है, जिससे पुरुष मुक्त हैं।

मायके से ससुराल तक की यात्रा हर स्त्री के लिए बड़ी कठिन और चुनौतीपूर्ण है। पीहर अतीत है, जहां लालन-पालन में लाड़-प्यार के कारण उसकी कमजोरियों को दबा दिया गया। समझदार माता-पिता ने यदि समझाया भी है तो रिजर्वेशन के साथ। वे भूल जाते हैं कि भविष्य में बेटी को इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है। ससुराल के जीवन में उसे आक्रामकता, स्पष्टता, परायापन और शोषण दिखने लगता है, क्योंकि वहां जो भी समझाएगा उसका लेवल वह नहीं होगा, जो मायके में माता-पिता का रहा होगा। उस युवती को लगता है कि ससुराल के लोग प्रेम नहीं, दिखावा कर रहे हैं। ऐसा हो भी सकता है और नहीं भी। लोग लाख चिल्ला लें कि सास-ससुर माता-पिता बनें, बहू को बेटी समझें, लेकिन होगा वही जो यथार्थ है।

मायके और ससुराल के बीच की यात्रा सुखमय बनानी है तो नई दुनिया बसानी पड़ेगी जो है अध्यात्म की दुनिया। घर चलाते हुए किसी भी स्त्री के लिए योग का बड़ा परिणाम होगा आत्मबल और आंतरिक प्रसन्नता। यह ताकत उसे स्वयं ही अर्जित करनी होगी। आपके लिए कोई नहीं बदलेगा, लेकिन यदि आप बदल गईं तो फिर उस योग के दायरे में आकर दूसरे भी शायद ऐसे हो जाएंगे जैसा आप चाहती हैं।

बच्चों को गहरे रिश्तों का उपहार दें
जन्मदिन और उपहार परम्परा है। बच्चों के जन्मदिन पर हम ढूंढ़-ढूंढ़कर उपहार देते हैं। इसे उल्टा करके बोलिए। उपहार ऐसा दें कि उससे नया जन्म हो जाए। दार्शनिक कहते हैं- हम प्रतिदिन मरते हैं। जिस दिन मृत्यु आती है उस दिन पल-पल मरने का काम पूरा हो जाता है। ऐसे ही हम प्रतिदिन जन्म भी लेते हैं। यदि इस बात को समझें तो उपहार के मतलब बदल जाएंगे। बच्चों को आप जो सबसे अच्छा उपहार दे सकते हैं वह है गहरा रिश्ता।

कुछ ऐसे रिश्ते हैं कि यदि सही ढंग से जीवन में आ जाएं तो इससे अच्छा कोई उपहार नहीं। यह कठिन चुनौती का दौर है। कभी संसार परेशान करेगा, कभी संपत्ति उलझा देगी, कभी संबंधों से पीड़ा होगी, कोई स्वास्थ्य के कारण टूट जाएगा और कभी संतान से दिक्कत पैदा होगी। ऐसे समय गहरे रिश्ते ही काम आएंगे। बच्चों को कुछ ऐसे गहरे रिश्ते जरूर सौंप दीजिए। मैं ऐसे अनेक परिवारों को जानता हूं, जो सात समंदर पार रहने के बाद भी मुसीबत में एक-दूसरे के लिए दौड़ पड़ते हैं। यह रिश्ते की गहराई है कि वे एक-दूसरे का दर्द नहीं देख सकते। 

बच्चों को लालन-पालन के समय ही आपस में शिकायत करने वाले चित्त को विराम देना सिखाएं। उनमें सहयोग की भावना डालें और उसके बाद सहायता क्यों और कैसे की जाती है इसे कूट-कूटकर भर दें।
कभी-कभी माता-पिता पाते हैं कि बच्चे आपस में मिलकर उनकी आलोचना कर रहे होते हैं। उनके लालन-पालन के ढंग पर असहमति व्यक्त हो रही होती है। ऐसे समय आवेश में न आएं, बल्कि यह मानें कि ये आपस में इस विषय पर खुल रहे हैं और उनका यही खुलना उन्हें एक बना देगा, इसलिए पारिवारिक जीवन जीने वाले लोगों के लिए किसी को देने के लिए सबसे बड़ा उपहार है एक ऐसा गहरा रिश्ता, जो विपरीत समय में आपके साथ खड़ा हो जाए।

बुजुर्गों के अनुभवों का लाभ लीजिए
पुरानी कहावत है, हर अच्छी चीज की सीमा होती है। अच्छा बहुत अधिक नहीं हो सकता पर एक अच्छी बात है, जो बहुत अधिक भी हो सकती है और वह है प्रशंसा। किंतु ध्यान रखें, तारीफ यदि सीमा लांघ जाए तो चापलूसी के घेरे में आ जाएगी या लोग संदेह करेंगे। प्रशंसा सदैव उपलब्धि के अनुपात में होनी चाहिए। जामवंत हनुमानजी की पर्याप्त प्रशंसा कर चुके थे।

हनुमानजी जानते थे, इस प्रशंसा के पीछे प्रोत्साहन है, प्रेरणा है। प्रशंसा मिले तो विनम्र हो जाएं। यह हनुमानजी की विनम्रता ही थी कि उन्होंने जामवंत से पूछा और तुलसीदासजी ने लिखा, ‘जामवंत मैं पूंछउं तोही। उचित सिखावनु दीजहु मोही।।’ जामवंतजी, उचित सीख दीजिए कि अब मुझे क्या करना चाहिए। यहां उचित शब्द का अर्थ है हनुमानजी जानते थे कि जामवंत वृद्ध हो गए हैं। किसी वृद्ध व्यक्ति से बात करें तो वह दो लेवल पर चलता है- अपने समय की पुरानी बात करेगा या एक ही विषय में दो-चार अन्य विषय डालकर सारी बातें एक साथ करने लग जाएगा। हनुमानजी गुजरती पीढ़ी को संदेश देना चाहते हैं कि आप बातचीत करते समय जागरूक रहें। आपका शरीर थका है, इन्द्रियां शिथिल हुई हैं, लेकिन होश बचाए रखिए। वे युवा पीढ़ी को भी संदेश देते हैं कि उन्हें बुजुर्गों की वाणी का सम्मान करना चाहिए, अनुभवों का लाभ लेना चाहिए।

जामवंत भी समझ गए थे कि उचित क्यों कहा गया है, इसलिए बहुत ही सारगर्भित ढंग से हनुमानजी से कहा,‘एतना करहु तात तुम्ह जाई। सीतहि देखि कहहु सुधि आई।।’ हे हनुमान, तुम इतना ही करो कि सीताजी को देखकर लौट आओ और उनकी खबर कह दो।’ हनुमानजी मन ही मन मुस्कुराए। जामवंतजी ने लिमिट बना दी है, लंका में जाकर सीमा में रहकर काम को अंजाम देना है और उन्होंने ऐसा ही किया भी।

न्याय से प्राप्त दुख सहना यानी तितिक्षा
हमारे शास्त्रों में धन पर बहुत लिखा गया है। लक्ष्मी न हो तो दुख, हो तो भी दुख। विशेषज्ञ जो भी विश्लेषण करें, पर आज भारतीय जीवन उथल-पुथल से गुजर रहा है। इसे आध्यात्मिक ढंग से देखें तो बाहर की दिक्कत पर तो कोई नियंत्रण नहीं किया जा सकता, लेकिन यह परेशानी भीतर अलग ढंग से स्वीकार की जा सकती है।

इस समय लोग त्रस्त, चिंतित और भयभीत हैं। इन तीनों स्थितियों का एकसाथ इलाज केवल अध्यात्म के पास है। भागवत के 11वें स्कंध के 19वें अध्याय में श्रीकृष्ण जीवन से जुड़े कुछ शब्दों की व्याख्या कर उद्धव को समझा रहे थे। उस समय एक शब्द आया ‘तितिक्षा। ‘तितिक्षा दु:खसंमर्षो जिह्वोपस्थजयो धृति:’ न्याय से प्राप्त दुख के सहने का नाम तितिक्षा है। जिह्वा और जननेंद्रियों पर विजय प्राप्त करना धैर्य है। श्रीकृष्ण ने बहुत अच्छे ढंग से समझाया जो आज हमारे बहुत काम का है। इस समय हमें जो दुख हो रहा है वह न्याय के कारण है। इसे अन्याय नहीं कह सकते, यह तितिक्षा है। आगे कृष्ण समझाते हैं- अपनी जीभ और खासकर भोग-विलास से जुड़ी इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने को धैर्य कहेंगे। जिन बड़े नोटों को मोक्ष प्रदान किया गया है उनके उत्तरकर्म में ऐसे दृश्य आने ही थे, क्योंकि लक्ष्मी की ये दो बड़ी संतानें लोगों के भोग-विलास और अनुचित आचरण में काम आने लगी थीं। यदि कृष्णजी की मानें तो आने वाले समय में धैर्य बहुत काम आएगा।

अधीरता अशांति को ही आमंत्रण देना है, इसलिए सत्संग कर लें, शास्त्र पढ़ लें और खासतौर पर योग कर लें। योग मनुष्य को वर्तमान से जोड़ता है। अभी की घटना हमें या तो अतीत में या भविष्य में फेंक रही है। हनुमान चालीसा से योग तो इस वक्त और कारगर होगा। वर्तमान पर टिकें, इसे समझें तो अतीत व भविष्य दोनों का सही ढंग से लाभ मिल जाएगा।

लापरवाही से बचें, बेपरवाही अपनाएं
जिम्मेदारी का अहसास खुद एक तपस्या है। गैर-जिम्मेदार लोग खुद के और दूसरों के लिए भी हानिकारक हैं। लापरवाहों से सदैव बचिए। बाहर का निपटारा तो कायदे-कानून लागू करके किया जा सकता है, लेकिन घर-आंगन में अपने ही लोगों की लापरवाही खुलेआम नाचती है।

बच्चों के लालन-पालन में माता-पिता को जिन बातों में ज्यादा दिक्कत आती है उसमें एक है लापरवाही। समय रहते यदि बच्चों की लापरवाही पर नियंत्रण नहीं पाया तो उसका अगला कदम आलस्य हो जाता है। आलस्य वक्त आने पर प्रमाद में बदल जाता है और प्रमादी व्यक्ति के द्वार पर सफलता कभी नहीं फटकती। अच्छे से अच्छे तपस्वी, समझदार और योग्य व्यक्ति के भीतर भी लापरवाही का थोड़ा अंश जरूर रहता है। ऋषि-मुनियों ने एक शब्द दिया है- बेपरवाही। गुरुनानक देव इस पर बहुत अच्छा बोले हैं। ओशो ने अपने ढंग से व्याख्या की और राम व कृष्ण तो इसे आचरण में उतारकर बता गए। हर धर्म के शीर्ष लोगों ने इसे अनूठे ढंग से जीया है। लापरवाही कृत्य से जुड़ी है। बेपरवाही परिणाम से जुड़ी है। बेपरवाह व्यक्ति कोई भी काम करना छोड़ता नहीं है, लेकिन परिणाम जो भी मिले वह परमशक्ति पर डाल देता है। जैसे ही ईश्वर पर भरोसा बढ़ाते हैं, वह आपकी बेपरवाही देखकर ही लापरवाही से बचा लेता है।

बच्चों को बारीकी से बेपरवाही का अर्थ बताया जाए। संतान ने आपके मुकाबले दुनिया कम देखी है। आपकी चाहत उसकी समझ बन जाना आसान नहीं है। बच्चे तो यह भी नहीं जानते कि वे लापरवाही कर रहे हैं। उन्हें लापरवाही की जगह बेपरवाही समझाएं, महान हस्तियों की कथा से जोड़ें। यदि वे बेपरवाही समझ गए तो लापरवाही जाती रहेगी।

टारगेट के तनाव से निकलने का सूत्र
इन दिनों प्रबंधन से जुड़े लोगों से यदि पूछें कि आपको सबसे ज्यादा तनाव किस बात का है? तो जवाब होगा टारगेट का। पुराणों में वर्णित एक राक्षस को वरदान था कि उसकी रक्त की बूंदें धरती पर गिरेंगी तो और बड़ी मात्रा में रक्त बढ़ जाएगा, इसीलिए देवी ने संहार करते समय उसके रक्त को पी लिया।

आजकल टारगेट इसी तरह हैं। सभी कहते हैं एक लक्ष्य पूरा करो तो अगली बार उसमें और अधिक जुड़ जाता है। कुछ तो इतने दबाव में आ गए हैं कि डिप्रेशन में चले गए अथवा दूसरी बीमारियां लग गईं। यह तय है कि लक्ष्य में बढ़ोतरी खत्म नहीं होगी। जो किया जा सकता है, कम से कम वह तो करें। वह है अपनी सुरक्षा। बढ़ते हुए लक्ष्य तक पहुंचना है, लेकिन खुद का नुकसान न हो जाए यह सावधानी भी रखनी होगी। नियम बना लें कि सुबह उठने, घर से निकलने, वापस घर आने पर और रात को सोते समय कुछ सकारात्मक शब्दों का प्रयोग करते रहेंगे। ऐसे शब्द जिनमें आशा, आनंद, विजय की कामना, जीत की जि़द जैसे भाव हों। कुछ लोग तो घर से निकलते समय काम के दबाव के कारण कहते हैं- आज फिर मरेंगे। ऐसे ही जब थके-मांदे घर आते हैं तो कहते हैं- आज भी निपट गए।

धीरे-धीरे ये शब्द सोच बन जाते हैं, जिससे परेशानियां बढ़ जाती हैं। हमारे यहां बहुत से ऐसे मंत्र, चौपाइयां, महापुरुषों-फकीरों के आदर्श वाक्य हैं, जिन्हें इन चार समय पर दोहराया जा सकता है। आप पाएंगे आपकी मानसिकता मे परिवर्तन आया और सोचने लगेंगे कि ‘क्या हुआ है?’ इसे छोड़ें और ‘ऐसा भी कुछ हो सकता है’ इस पर सोचें। भगवान ने मनुष्य बनाकर आप पर भरोसा किया है। आप उस पर भरोसा करके देखिए, आपका श्रेष्ठ आपको निराश नहीं होने देगा।

ध्यान, योग से मस्तिष्क रचनात्मक बनाएं
इस दौर में हर कोई ‘दोगुना’ के चक्कर में है। ईश्वर जानता था कि जब मनुष्य को संसार में भेजूंगा तो वह दोगुने के चक्कर में जरूर पड़ेगा, इसलिए हमारी पहले ही मदद कर दी। सारी इन्द्रियां दो कर दीं। आंख, नाक, कान, हाथ, पैर आदि। ये सब अंग तो दिखते हैं, लेकिन जो नहीं दिखता वह है हमारा मस्तिष्क।
फकीरों ने इसके भी दो भाग बताए हैं। विज्ञान इस पर काफी हद तक सहमत है। योग विज्ञान कहता है इसका बायां हिस्सा चंद्र और दायां सूर्य है। चंद्र स्वर स्त्रीभाव है और सूर्य स्वर पुरुषभाव। यह एक पूरा दर्शन है। काम की बात यह है कि जब भी हम किसी चुनौती के सामने होते हैं, हमारा मस्तिष्क दो तरह से काम करने लगता है।
एक रचनात्मक विचार और दूसरा परम्परागत सोच। जब आप रचनात्मक पक्ष से विचार कर रहे होते हैं तो परिवर्तन सहर्ष स्वीकार करते हैं। टेलीफोन, टीवी और कंप्यूटर पर वर्षों पहले जो बात कही गईं, कुछ लोगों ने उनकी खिल्ली उड़ाई, उसे स्वीकार नहीं किया, लेकिन रचनात्मक विचार वाले इससे उसी समय जुड़ गए और लाभ भी उठाया। आज भी यदि कहा जाए कि बैंक 24 घंटे खुले रहने चाहिए, रेल व्यवस्था सरकार से लेकर निजी हाथों में दे दी जाए, सरकारी अस्पताल बंद हो जाएं तो सुनकर जो लोग कहें कि यह खतरनाक है, वे पारम्परिक सोच वाले होंगे। यह सही है या गलत, हमें इसमें नहीं जाना है।

बात यह है कि ऐसी अविश्वसनीय बातें स्वीकार किस ढंग से करते हैं, यहां से रचनात्मक विचार हमारे काम आते हैं। यदि हमारे भीतर कुछ नया करने की ललक बनी रही, परिवर्तन से जुड़ने की इच्छा तीव्र होती गई तो कम परिश्रम में अधिक सफलता अर्जित कर लेंगे, इसलिए अपनी इन्द्रियों का उपयोग तो करते ही हैं, मस्तिष्क को भी रोज ध्यान-योग से गुजारते हुए रचनात्मक बनाइए।

सफलता के साथ दिलाए, वही नेतृत्व
सभी को कभी न कभी किसी न किसी नेतृत्व की जरूरत होती है। विज्ञान और तकनीक के इस युग में अब लोगों को सबकुछ खास तौर पर ज्ञान और जानकारी इतनी आसानी से मिल जाते हैं कि उन्हें इसके लिए नेतृत्व की जरूरत नहीं होती।

पहले यह काम नेता किया करते थे, लेकिन अब न ऐसे नेता रहे और न नेतृत्व ग्रहण करने वाले लोग। इसलिए इस युग में लोग किसी का नेतृत्व स्वीकार करने की बजाय बहस ज्यादा करते हैं। ऐसे समय में सामूहिक प्रयास खासकर अध्यात्म के क्षेत्र में इस स्थिति को और अच्छा बना सकता है, क्योंकि ज्ञान-विज्ञान ने जो अशांति दी है उसे अध्यात्म ही मिटा सकता है। अध्यात्म कहता है एकांत में खुद को शांत करें, परिपक्व करें और फिर यही प्रयोग सामूहिक रूप से भी करें। किष्किंधा कांड के अंतिम चरण में जामवंत हनुमानजी को समझा रहे हैं, ‘सीताजी को देखो, लौटकर आओ और उनकी खबर सुनाओ, यह स्पष्ट काम उन्होंने हनुमानजी को सौंपकर जो कहा और तुलसीदासजी ने लिखा वह हमारे बड़े काम का है। ‘तब निज भुज बल राजिव नैना। कौतुक लागि संग कपि सेना।।’ कमल नयन श्रीराम बाहुबल से राक्षसों का संहार कर सीताजी को ले आएंगे। खेल के लिए ही वे वानरों की सेना साथ लेंगे।

जामवंत ने हनुमानजी को समझाने के तुरंत बाद रामजी को याद करते हुए उनके पराक्रम का बखान किया। जीवन में जब भी कोई काम करने जाएं, यह न भूलें कि हमसे बड़ी एक शक्ति है और यदि वह हमारे साथ है तो जो भी काम करेंगे, उसमें सफलता तो सुनिश्चित होगी ही, बाद में शांत और प्रसन्नचित्त भी रहेंगे। ज्ञान-विज्ञान के इस युग में अब कोई ऐसा नेतृत्व चाहिए जो सफलता के साथ शांति भी दिलाए और वह नेतृत्व परमपिता परमेश्वर हो सकते हैं।

अपने वर्तमान को उत्साह से जोड़िए
आप चाहें या न चाहें, कुछ न कुछ काम तो करना ही पड़ेगा। कुछ लोग बहुत ज्यादा काम करते हैं, कुछ सामान्य रूप से काम करते हैं, लेकिन शायद ही कोई ऐसा होगा जो कुछ भी नहीं कर रहा हो। जिसको हम ‘कुछ भी नहीं कर रहा’ कहते हैं, दरअसल या तो वह दिशा भटकना है या आलस्य है। लेकिन, आलस्य भी दिशाहीन सूक्ष्म क्रिया है। केवल मुर्दा ही होता है जो कुछ नहीं करता।

हमें तो हर समय कुछ न कुछ करना ही है तो फिर जो भी करें, पूरे उत्साह से करें। चार स्तरों पर उत्साह रखा जा सकता है। एक, शरीर से उत्साह बनाए रखिए, दो, दिल से उत्साह होना चाहिए, तीन, दिमाग से भी उत्साह रखिएगा और चार, कभी-कभी मजबूरी में भी उत्साह बनाए रखना पड़ता है। जैसे बहुत थके हुए आए हों और घर में प्रवेश करते ही बच्चा जिद करे कि मेरे साथ खेलो। उस समय भले ही आप दिल-दिमाग और शरीर से थके हुए हों पर बच्चे के साथ उत्साह से खेलना पड़ता है। यह मजबूरी का उत्साह होता है। कई बार लोग इस उत्साह को जीवनसाथी के साथ भी प्रयोग में ले आते हैं लेकिन, इतना तो तय कर लीजिए कि बिना उत्साह के कोई काम नहीं करेंगे। उत्साह बना रहे इसके लिए शास्त्रों में एक वचन आया है, ‘नवो नवो भवति जाय मानव

रोज-रोज नया जन्म होता है। जो मनुष्य आपको कल मिला था वह आज वैसा नहीं है और स्वयं आप भी वह नहीं हैं, जो कल थे। पुराने कपड़े की तरह पुराना दिन फटकर चला जाता है और एक नया आपके सामने होता है। जब जीवन प्रवाह में रहता है, बहता हुआ रहता है तो स्वच्छ भी रहता है और शांत भी। इसलिए बीते हुए पर बहुत अधिक मत टिकिए, आने वाले कल को लेकर बहुत अधिक चिंतन न करें। बस, वर्तमान को उत्साह से जोड़िए। यहीं शांति बसी है।

पारिवारिक जीवन में गीता को उतारें
महाभारत में यूं तो बहुत से दृश्य ऐसे हैं जो बहुत बड़ा संदेश देते हैं, लेकिन कुरुक्षेत्र में युद्ध के पहले अनूठी घटनाएं घटी हैं जिनमें से एक है गीता का जन्म। युद्ध से ठीक पहले के दृश्य की विशेषता यह रही कि एक ही परिवार एक साथ भी खड़ा था और आमने-सामने भी खड़ा था। थोड़ी देर बाद कौरव-पांडवों के बीच युद्ध आरंभ होने वाला था। उसी समय अर्जुन की निराशा का समापन करने के लिए श्रीकृष्ण बोलने लगे।

गीता हिंसा के वातावरण में बोले गए प्रेम के अद्‌भुत बोल हैं। जब चारों ओर इतनी नकारात्मकता फैली हो, तब भगवान कृष्ण संसार के सबसे अद्‌भुत वक्तव्य जारी कर रहे थे। गीता की विशेषता यह है कि रोमांच के साथ रोमांस किया जा रहा था। रोमांस का अर्थ होता है प्रेम की अनुभूति। कृष्ण जैसे परत दर परत जीवन खोल रहे थे। उनके शब्द प्रेम से घुले हुए थे। हमारे परिवारों में भी कई बार कुरुक्षेत्र जैसे अवसर आ जाते हैं। अपने अपनों के सामने होते हैं। चाहे वे पिता-पुत्र, भाई-भाई या पति-पत्नी हों। ऐसे समय गीता बहुत बड़ा आश्वासन है। हमारे रिश्तों के बीच गीता अवश्य घटते रहनी चाहिए, क्योंकि अर्जुन का विरोध था कि मैं वह नहीं करूंगा जो आप कह रहे हैं।

कृष्ण चाहते थे जो मैं कह रहा हूं उसे तुम समझ लो और उसके बाद वह करो, जो तुम्हे ठीक लगे। आज परिवारों की भाषा ऐसी ही होनी चाहिए। अब परिवारों में नेतृत्व बंट चुका है। पहले एक दादा, पिता या बड़ा भाई जो कह देता था उसे सब मान लेते थे। अब परिवारों में शक्ति के छोटे-छोटे केंद्र बन गए हैं। ऐसे समय सदस्यों को एक-दूसरे के साथ जीने, समझने और करने के लिए जिस भाषा की जरूरत है वह गीता में बसी है। इसलिए प्रत्येक घर में न सिर्फ गीता रखी जाए बल्कि जरूरत पड़ने पर उसे पढ़ा भी जाए और जीवन में उतारा जाए।

मन काबू में तो व्यक्तित्व प्रभावशाली
यदि आप प्रभावशाली बनना चाहते हैं तो केवल धन, पद और प्रतिष्ठा से काम नहीं चलेगा। ये सब तो अस्थायी होते हैं। आज हैं, कल नहीं रहेंगे। फिर भी मनुष्य को प्रभावशाली होना चाहिए। आपसे कोई मिले, आपके पास बैठे तो उसे लगना चाहिए कि किसी ऐसे व्यक्ति के पास बैठे हैं, जिसके पास से जीवन की तरंगें महसूस हो रही हैं। यह तब होगा जब मन नियंत्रण में हो, आप भीतर से शाांत हों। जैसे ही मन नियंत्रित हुआ, हम प्रभावशाली हो जाते हैं, क्योंकि हमारे शरीर से पॉजिटीव रेज़ निकलने लगती हैं। इसलिए जिन्हें प्रभावशाली होना है उन्हें मन पर काम करते रहना चाहिए।

मन उत्सुक होता है और उसकी उत्सुकता तुरंत भोग में बदल जाती है। समय से पूर्व मनचाहा मिल जाए, सीमा से अधिक प्राप्त हो ये मन की मांग हैं। यदि चिकित्सा विज्ञान का कोई छात्र पढ़ते समय ऑपरेशन करने की सोचे तो यह ठीक नहीं होगा। किंतु मन खुद को आगामी भूमिकाओं में तुरंत पटक देता है। उसके अहंकार के शोर में शांति की गूंज दब जाती है। हमारे समूचे चिंतन पर जब मन प्रभावशाली होता है तो इसमें दूसरों का प्रवेश हो जाता है। याद रखिए, हमारे भीतर इतने दूसरे लोग प्रवेश कर जाते हैं कि हम उनसे छूट ही नहीं पाते। इसलिए ध्यान रखिए, अगर प्रभावशाली होना है तो मन जो आपाधापी मचाता है, अनेक व्यक्तियों को हमारे भीतर एक साथ प्रवेश करा देता है, इन सबसे बचना होगा।

इसलिए मन को नियंत्रत कीजिए और इसके लिए जब भी समय मिले, योग जरूर कीजिए। हनुमान चालीसा से मेडिटेशन मन को नियंत्रित करने का सरलतम तरीका है। जैसे ही मन नियंत्रित हुआ, आपके पास कोई सांसारिक पद न हो, धन न हो पर आपके रोम-रोम से प्रभाव बहेगा और दूसरे उसका दिल से सम्मान करेंगे।

भक्त बनकर जीवन में शांति उतारें
दुुनियादारी के सारे काम करते हुए यदि कोई खुश रहना चाहे तो वह जितने प्रयास करे वे सारे अधूरे हो सकते हैं। किंतु यदि कोई खुद को भक्त बना ले तो वह शांत जरूर हो सकेगा। आज के समय में भक्त बनने की बात कम जमती है। खास तौर पर नई पीढ़ी के बच्चे तो सवाल उछाल देते हैं कि आखिर भक्ति करें क्यों? किसी भी धर्म से हों, यदि भक्ति करते हैं तो आप अपने से ऊपर एक शक्ति पर विश्वास करने लगते हैं। ईश्वर से यह रिश्ता रस बनकर अापके जीवन में उतरता है। मनुष्य भीतर से जितना नीरस होगा उतना अशांत होगा और जितना रसभोर होगा उतनी जल्दी शांत हो जाएगा।

भक्ति को केवल पूजा या कर्मकांड न मानें। यह किसी परमशक्ति से अदभुत  रिश्ते की शुरुआत है, जिसमें सबकुछ अनुभूति पर आधारित है। भक्ति में पांच रस हैं- शांत, दास्य, सख्य, वात्सल्य और मधुर। हमें सबसे अधिक जरूरत है शांत रस की। विज्ञान के इस युग में प्रत्यक्ष अनुभव हावी हो गया है। अध्यात्म कहता है बहुत कुछ शांति अनुभूति पर आधारित है।

भक्ति में भी शांत रस का जन्म अनुभूति से होता है। हम सब शांति की तलाश में हैं। यदि भक्त बनते हैं तो दुनिया का कोई काम छोड़ना नहीं है लेकिन, हमारे भीतर शांत रस उतरेगा ही उतरेगा। फिर यही अनुभूति रस बनती है और यही रस आपको शांत करता है। रस दुनिया में भी होता है, लेकिन दुनिया की वस्तु में जो रस आता है वह अस्थायी होकर जल्दी अशांत करता है। परमात्मा से जुड़ने में जो रस आता है वह स्थायी होकर शांति को जन्म देता है। शांति जिस भी कीमत पर मिले, हासिल कर लीजिए। वरना आने वाले समय में तो इसे ढूंढ़ते रह जाएंगे। जीवन में सबकुछ मिलेगा, बस शांति का ही पता नहीं होगा।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....मनीष
ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....जय शुक्रताल धाम...