tag:blogger.com,1999:blog-61010912642944539662024-03-25T00:19:24.963-07:00JAI GURU GEETA GOPALगुरुर्देवो गुरुर्धर्मो गुरौ निष्ठा परं तपः। गुरोः परतरं नास्ति त्रिवारं कथयामि ते ।। भगवान शिवजी कहते हैं - "गुरु ही देव हैं, गुरु ही धर्म हैं, गुरु में निष्ठा ही परम तप है। गुरु से अधिक और कुछ नहीं है। यह मैं तीन बार कहता हूँ।" (श्री गुरुगीता श्लोक 152)........... हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम ! कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा !! "इस ब्लॉग में जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू ब्रह्मलीन स्वामी कल्याण देव जी का प्रसाद है, और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है" मनीष कौशलJai Guru Geeta Gopalhttp://www.blogger.com/profile/01621836960274288942noreply@blogger.comBlogger527125tag:blogger.com,1999:blog-6101091264294453966.post-757885584002307562022-01-28T05:34:00.004-08:002022-01-28T05:36:18.162-08:00श्रीमद् भागवत Srimdbhagwat Part (10)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b>भागवत में लिखा है, कलयुग आएगा तो ऐसे मिलेंगे संकेत...</b><br />
यदुवंश के मृत व्यक्तियों का श्राद्ध अर्जुन ने विधिपूर्वक करवाया। भगवान के न रहने पर समुद्र ने एकमात्र भगवान श्रीकृष्ण का निवास स्थान छोड़कर एक ही क्षण में सारी द्वारिका डुबो दी।पिण्डदान के पश्चात स्त्रियों, बच्चों और बूढ़ों को लेकर अर्जुन इन्द्रप्रस्थ आए। वहां सबको यथायोग्य बसाकर अनिरुद्ध के पुत्र वज्र का राज्याभिषेक कर दिया। हे परीक्षित्! तुम्हारे दादा युधिष्ठिर आदि पाण्डवों को अर्जुन से ही यह बात मालूम हुई कि यदुवंशियों का संहार हो गया है। तब उन्होंने अपने वंशधर तुम्हें राज्यपद पर अभिषिक्त करके हिमालय की वीरयात्रा की।<br />
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परीक्षित ने शापित होने के कारण शुकदेवजी से जो कथा सुनी थी उसके नायक भगवान श्रीकृष्ण थे। नायक अपनी लीला समेट कर जा चुके हैं और परीक्षित के मन में अनेक छोटे-बड़े प्रश्न पुन: तैयार हो गए हैं। शुकदेवजी परीक्षित को समझा चुके हैं कि मैंने विस्तार से कृष्ण चरित्र सुनाया है और तुम जान गए होंगे कि धर्म क्या है? जीवन का आरंभ, मध्य और समापन कैसे होता है? इस प्रकार ग्यारहवें स्कंध का समापन होता है।<br />
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आइए, इसी के साथ भागवत की कथा अब बारहवें स्कंध में प्रवेश कर रही है। यहां कलयुग का वर्णन आएगा। शुकदेवजी ने जिस बारीकी से और विस्तार के साथ कलयुग का वर्णन किया है हमारी आंखें खोलने के लिए काफी है। अब जो चित्रण आएगा उससे हम अच्छी तरह से परिचित हैं, लेकिन हमें अब उससे सीखना है कि कलयुग की घटनाएं हमारे भीतर न जन्म लेने लगे। बाहर के दुनियादारी के जीवन में कलयुग का होना स्वाभाविक है। बारहवें स्कंध से हम यह सीखें कि हमारे भीतर कलयुग की स्थिति न बन जाए।<br />
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कलयुग तो प्रतीक्षा ही कर रहा था कि भगवान जाएं और मैं आऊं। जब-जब जीवन से भगवान गए, कलयुग आया। भगवान कह रहे हैं अब मैं जा रहा हूं, आप कलयुग को पहचानिए, जानिए। द्वादश स्कंध के आरंभ में शुकदेवजी कलयुग के बारे में जानकारी दे रहे हैं। कलयुग आएगा तो हमको दिखेगा जीवन का विपरीत घट रहा है। कलयुग में वो लोग जो नीचे बैठे हुए, ऊपर नजर आएंगे। कलयुग जब आएगा तो पापी व्यक्ति जो हैं वे पूजे जाएंगे। कलयुग जब आएगा तो अयोग्य लोग समर्थों पर राज करेंगे। कलयुग जब आएगा तो जो चोर होगा वह साहूकार के रूप में पूजा जाने लगेगा। जो जोर से बोलेगा उसकी बात सुनी जाएगी। भगवान कलयुग का लम्बा-चौड़ा वर्णन करते हैं और हम तो कलयुग को अच्छी तरह से परिचित हैं।<br />
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'समय-समय की बात है और समय-समय का योग, लाखों में बिकने लगे दो कौड़ी के लोग।कलयुग में ऐसा होता है। जो पतीत है, जो चरित्र से गिरा है वह ऊपर चला जाता है। 'गिरने वाला तो छू गया बुलंदी आसमान की और जो संभलकर चल रहे थे वो रेंगते नजर आए इसका नाम कलयुग है। कलयुग में कौन किसकी मदद कर रहा है यह पता ही नहीं लगता। आपको जो सहयोगी दिख रहा है वह पीछे षडयंत्र कर रहा होगा। कलयुग में कौन आपसे प्रेम से बात कर रहा है यह ज्ञात ही नहीं होता। कलयुग में आपका शत्रु है या मित्र है यह भान ही नहीं होता। कलयुग में मनुष्य प्रेम प्रदर्शन के, एक-दूसरे से हिसाब-किताब चुकाने के नए-नए तरीके ढूंढ लेता है।<br />
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<b>जानिए, कलयुग में कैसा होगा वैवाहिक जीवन?</b><br />
शुकदेवजी कहते हैं- राजन् परीक्षित! ज्यों-ज्यों घोर कलयुग आता जाएगा, त्यों-त्यों धर्म, सत्य, पवित्रता, क्षमा, दया, आयु, बल और स्मरणशक्ति का लोप होता जाएगा। कलयुग में जिसके पास धन होगा, उसी को लोग कुलीन, सदाचारी और सद्गुणी मानेंगे। जिसके हाथ में शक्ति होगी वही धर्म और न्याय की व्यवस्था अपने अनुकूल करा सकेगा। विवाह संबंध के लिए कुल-शील-योग्यता आदि की परख-निरख नहीं रहेगी, युवक-युवती की पारस्परिक रूचि से ही संबंध हो जाएगा।<br />
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आज जिस तरह से विवाह हो रहे हैं वो परिवार चलाने के लिए न होकर सिर्फ एक समझौता किया जा रहा है। भारत के परिवार अपने दाम्पत्य के कारण जाने गए। विवाह केवल स्त्री-पुरुष का मिलन नहीं होता। इसमें वंश वृद्धि का भी एक भाव रहता है। पर आज महत्वाकांक्षा के युग में जब विवाह हो रहे हैं तो केवल स्त्री-पुरुष नहीं मिल रहे दो शिक्षाएं, दो महत्वाकांक्षाएं और दो अहंकार का मिलन हो रहा है। और इसीलिए विवाह संबंध बोझ बन गए हैं, तनावपूर्ण बन गए हैं। कलयुग में दाम्पत्य में स्त्री-पुरुष के संबंधों को भक्ति से संयुक्त रखना लाभकारी होगा।<br />
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शास्त्रों में व्यक्त है कि गृहस्थी में कर्म करते हुए भी भक्त को स्त्री, धन, नास्तिक तथा वैरी का चरित्र नहीं सुनना चाहिए। यहां सवाल उठता है कि भक्त का अधिकार क्या केवल पुरुषों को ही है जो उन्हें ही स्त्रियों का चरित्र सुनने से मना किया गया है। यदि कोई स्त्री भक्त हो तो वह क्या करे? शास्त्रों में स्त्री शब्द का प्रयोग प्रतीकात्मक ही है जिसे काम-वासना के रूप में लिया जाना चाहिए। जिस प्रकार पुरुष भक्तों को स्त्रियों का चरित्र नहीं सुनना चाहिए उसी प्रकार स्त्री भक्तों को भी पुरुषों का चरित्र सुनने से बचना चाहिए। इसी प्रकार आत्मविमुख स्त्री-पुरुषों के जीवन-प्रसंग तथा अपने प्रति शत्रुता का भाव रखने वाले स्त्री-पुरुष की बातें तथा धन-संचय-चर्चा भक्त को नहीं सुनना चाहिए।<br />
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काम-वासना के संस्कार प्रत्येक स्त्री-पुरुष के मन में जन्म-जन्मांतर से ही संचित हैं, जिनकी प्रसंग श्रवण से उद्वीप्त हो उठने की सम्भावना हो सकती है। जिसका मन काम-वासना में लिप्त हो, वह भला भगवान का भजन क्या करेगा। मन उधर गया कि लक्ष्य अंतर-जाग्रत भक्ति-शक्ति से हट गया। इस प्रकार बार-बार लक्ष्य काम-वासना की ओर ही जाते रहने से, भक्ति-शक्ति की क्रियाशीलता में अंतर आ सकता है। चिन्तन-श्रवण से काम की उत्पत्ति होती है तथा काम, प्रेम का विरोधी भाव है। प्रेम की पवित्रता इसी में है कि उसमें वासना का लेशमात्र भी समावेश न हो।<br />
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<b>जानिए, कितने दिनों का होता है ब्रह्माजी का एक दिन?</b>श्री शुकदेव ने कहा - परीक्षित! (तीसरे स्कंध में) परमाणु से लेकर द्विपरार्ध पर्यन्त काल का स्वरूप और एक-एक युग कितने-कितने वर्षों का होता है, यह मैं तुम्हें बतला चुका हूं। अब तुम कल्प की स्थिति और उसके प्रलय का वर्णन भी सुनो। इस प्रकार अब हम 12 वें स्कंध के चौथे अध्याय में प्रवेश कर रहे हैं। परीक्षित देह छोडऩे वाले हैं। जाते-जाते शुकदेवजी उनको प्रलय के बारे में बता रहे हैं।एक हजार चतुर्युगी का ब्रह्मा का एक दिन होता है। ब्रह्मा के इस दिन को ही कल्प भी कहते हैं।<br />
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एक कल्प में चौदह मनु होते हैं। कल्प के अन्त में उतने ही समय तक प्रलय भी रहता है। प्रलय को ही ब्रह्मा की रात भी कहते हैं। उस समय ये तीनों लोक लीन हो जाते हैं, उनका प्रलय हो जाता है। इसक नाम नैमित्तिक प्रलय है। इस प्रलय के अवसर पर सारे विश्व को अपने अंदर समेट कर लीन कर ब्रह्मा और तत्पश्चात शेषशायी भगवान नारायण भी शयन कर जाते हैं।इस प्रकार रात के बाद दिन और दिन के बाद रात होते-होते जब ब्रह्माजी की अपने मान से सौ वर्ष की और मनुष्यों की दृष्टि में दो पराद्र्ध की आयु समाप्त हो जाती है।<br />
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तब महत्तत्व, अहंकार और पंचजन्मात्रा ये सातों प्रकृतियाँ अपने कारण मूल प्रकृति में लीन हो जाती हैं। राजन्! इसी का नाम प्राकृतिक प्रलय है।उस समय ब्रह्माण्ड के भीतर का सारा संसार एक समुद्र हो जाता है, सबकुछ जलमग्न हो जाता है। इस प्रकार जब जल-प्रलय हो जाता है, तब जल पृथ्वी के विशेष गुण गन्ध को ग्रस लेता है, अपने में लीन कर लेता है। गन्ध गुण के जल में लीन हो जाने पर पृथ्वी का प्रलय हो जाता है, वह जल में घुल-मिलकर जलरूप बन जाती है।इस प्रकार प्रलय का वर्णन शुकदेवजी ने किया।<br />
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हमारे समझने की बात यह है कि प्रलय का अर्थ है ध्वंस और पुनर्निर्माण। जीवन में स्थितियों के साथ ऐसा ही होता है। जब हम असफल हो जाएं तो पुन: सफलता की तैयारियां करें। शुकदेवजी आगे समझा रहे हैं।जैसे व्यवहार में मनुष्य एक ही सोने को अनेकों रूपों में गढ़-गलाकर तैयार कर लेते हैं और वह कंगन, कुण्डल, कड़ा आदि अनेकों रूपों में मिलता है। इसी प्रकार व्यवहार में निपुण विद्वान् लौकिक और वैदिक वाणी के द्वारा इन्द्रियातीत आत्मस्वरूप भगवान का भी अनेकों रूपों में वर्णन करते हैं।<br />
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बादल सूर्य से उत्पन्न होता है और सूर्य से ही प्रकाशित। फिर भी वह सूर्य के ही अंश नेत्रों के लिए सूर्य का दर्शन होने में बाधक बन बैठता है। इसी प्रकार अहंकार भी ब्रह्म से ही उत्पन्न होता है, ब्रह्म से ही प्रकाशित होता और ब्रह्म के अंश जीव के लिए ब्रह्मस्वरूप के साक्षात्कार में बाधक बन बैठता है।<br />
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परीक्षित को शुकदेवजी ने चार प्रकार के प्रलय का वर्णन किया- नित्य प्रलय, नैमित्तिक प्रलय, प्राकृतिक प्रलय और आत्यन्तिक प्रलय। वास्तव में काल की सूक्ष्म गति ऐसी ही है। हे परीक्षित! भगवान नारायण ही समस्त प्राणियों और शक्तियों के आश्रय हैं।<br />
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<b>'काया कसो कि बन बसो, हसो की साधौ मौन'</b><br />
एक जगह तुलसीदास जी भी लिखते हैं कि कुछ भी कर लो मुक्ति और परमात्मा तब तक नहीं मिलता है जब तक की मन को साधा न जाए। वे कहते हैं कि 'काया कसो कि बन बसो, हसो की साधौ मौन। तुलसी मन साधे बिना, छुटे न पावा गौन ' यानी परमात्मा की प्राप्ति के लिए आप कुछ भी कर लो। शरीर को सुखाकर कस लो, यानी व्रत उपवास करो जिंदगी भर, या फिर वन में ही बस जाओ। खूब हंसों या एकदम मौन साध लो, मुक्ति तो तभी संभव है जब आप मन को साध लें। मन को साधे बिना कल्याण संभव नहीं है। श्रीकृष्ण ने उद्धवजी को और शुकदेव जी भी राजा परीक्षत को यही समझा रह हैं। शुकदेवजी ने परीक्षित को जीवन का सार समझाया है। सारे झगड़ों की जड़ हमारा मन ही है। बुद्धि में जब तक विवेक नहीं जागेगा तब तक वह मन के मत से ही चलेगी। परीक्षित! तुम अपनी विशुद्ध एवं विवेकवती बुद्धि को परमात्मा के चिन्तन से भरपुर कर लो और स्वयं ही अपने अंतर में स्थित परमात्मा का साक्षात्कार करो। देखो, तुम मृत्युओं की भी मृत्यु हो। तुम स्वयं ईश्वर हो। ब्राह्मण के शाप से प्रेरित तक्षक तुम्हें भस्म न कर सकेगा।<br />
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तक्षक की तो बात ही क्या, स्वयं मृत्यु और मृत्युओं का समूह भी तुम्हारे पास तक न फटक सकेंगे। तुम इस प्रकार अनुसंधान चिंतन करो कि मैं ही सर्वाधिष्ठान परब्रह्म हूं। स्वयं के भीतर ही उतर जाओ, तुम्हें सारी सृष्टि खुद के भीतर दिखाई देने लगेगी। हमारे भीतर मृत्यु का जो भय बैठा हुआ है वह स्वयं ही दूर हो जाएगा। इस प्रकार तुम अपने आपको अपने वास्तविक एकरस अनन्त अखण्ड स्वरूप में स्थित कर लो। तुम ये स्वीकार कर लो कि तुम उसी परमपिता परमात्मा के एक अंश हो और वह साक्षात तुम्हारे भीतर विराजमान है। उसे अपने भीतर ही खोज लो। संसार में बाहरी साधनों परमात्मा की खोज बहुत मुश्किल भी है और इसमें कई जन्मों को समय भी लग सकता है लेकिन अपने भीतर के परमात्मा को खोजने में तुम्हें कुछ ही क्षण लगेंगे। इसके लिए ध्यान में परमात्मा को केंद्र बनाओ और अपने भीतर के विषय विकार वाले सारे विचारों को निकाल फेंकों।<br />
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<b>मन की मत सुनिए नहीं तो मुश्किल हो जाएगी</b><br />
श्रीकृष्ण ने उद्धवजी को और शुकदेव जी भी राजा परीक्षत को यही समझा रहे हैं। शुकदेवजी ने परीक्षित को जीवन का सार समझाया है। सारे झगड़ों की जड़ हमारा मन ही है। बुद्धि में जब तक विवेक नहीं जागेगा तब तक वह मन के मत से ही चलेगी। परीक्षित! तुम अपनी विशुद्ध एवं विवेकवती बुद्धि को परमात्मा के चिन्तन से भरपुर कर लो और स्वयं ही अपने अंतर में स्थित परमात्मा का साक्षात्कार करो। देखो, तुम मृत्युओं की भी मृत्यु हो। तुम स्वयं ईश्वर हो। ब्राह्मण के शाप से प्रेरित तक्षक तुम्हें भस्म न कर सकेगा।<br />
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तक्षक की तो बात ही क्या, स्वयं मृत्यु और मृत्युओं का समूह भी तुम्हारे पास तक न फटक सकेंगे। तुम इस प्रकार अनुसंधान चिंतन करो कि मैं ही सर्वाधिष्ठान परब्रह्म हूं। स्वयं के भीतर ही उतर जाओ, तुम्हें सारी सृष्टि खुद के भीतर दिखाई देने लगेगी। हमारे भीतर मृत्यु का जो भय बैठा हुआ है वह स्वयं ही दूर हो जाएगा। इस प्रकार तुम अपने आपको अपने वास्तविक एकरस अनन्त अखण्ड स्वरूप में स्थित कर लो।<br />
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तुम ये स्वीकार कर लो कि तुम उसी परमपिता परमात्मा के एक अंश हो और वह साक्षात तुम्हारे भीतर विराजमान है। उसे अपने भीतर ही खोज लो। संसार में बाहरी साधनों परमात्मा की खोज बहुत मुश्किल भी है और इसमें कई जन्मों को समय भी लग सकता है लेकिन अपने भीतर के परमात्मा को खोजने में तुम्हें कुछ ही क्षण लगेंगे। इसके लिए ध्यान में परमात्मा को केंद्र बनाओ और अपने भीतर के विषय विकार वाले सारे विचारों को निकाल फेंकों।<br />
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<b>सुख तब तक सुख नहीं जब तक कि.....</b><br />
परीक्षित! जरा नाम का एक बहेलिया था। उसने मूसल के बचे हुए टुकड़े से अपने बाण की गाँसी बना ली थी। उसे दूर से भगवान का लाल-लाल तलवा हरिन के मुख के समान जान पड़ा। उसने उसे सचमुच हरिन समझकर अपने उसी बाण से बींध दिया। जब वह पास आया, तब उसने देखा कि अरे! ये तो चतुर्भुज पुरुष हैं। तब तो वह अपराध कर चुका था, इसलिए डर के मारे काँपने लगा।<br />
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उसने कहा- हे भगवान! मैंने अनजाने में यह पाप किया है। आप कृपा करके मेरा अपराध क्षमा कीजिए। मैंने स्वयं आपका ही अनिष्ट कर दिया। आप मुझे अभी-अभी मार डालिए, क्योंकि मर जाने पर मैं फिर कभी आप जैसे महापुरुषों का ऐसा अपराध नहीं करूंगा।भगवान कृष्ण ने कहा- तू डर मत! यह तो तूने मेरे मन का काम किया है। जो मेरी आज्ञा से तू उस स्वर्ग में निवास कर, जिसकी प्राप्ति बड़े-बड़े पुण्यवानों को होती है।<br />
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जरा नाम का शिकारी भगवान की कृपा पा गया। भक्ति इसी का नाम है। हम भी जीवन को समेटने के अवसर पर एक बात समझ लें। सूत्रकार ने दु:ख से पहले सुख त्याग की बात कही है। यह सम्भव नहीं कि जीव दु:ख का त्याग कर दे तथा सुख भोग ले। यद्यपि प्रत्येक जीव जगत में सुख की ही कामना करता है, परन्तु पाता दु:ख ही है। बीच-बीच में उसे सुख का आभास अवश्य होता रहता है। सुख दु:ख का जोड़ा है। कभी सुख तो कभी दु:ख। न सदैव सुख रहता है, न दु:ख। जिसे सुख-दु:ख से अतीत अवस्था प्राप्त करने की जिज्ञासा हो, उसे दोनों का ही त्याग करना होगा। सुख का अर्थ न यहां सुख से है, न दु:ख का अर्थ दु:ख से है। अपितु सुखी होना तथा दु:खी होना है, क्योंकि सुख तब तक सुख नहीं जब तक कोई उससे सुखी न हो। इसी प्रकार दु:ख भी तब तक दु:ख नहीं जब तक कोई उसमें दु:ख का अनुभव न करे।<br />
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सुख तथा सुखी होने और दु:ख तथा दु:खी होने का यह अंतर विचारणीय है। भाव यह है कि नारदजी जब सुख-दु:ख के त्याग की बात कहते हैं तो उनका भाव सुखी तथा दु:खी न होने से है। सुख दु:ख तो प्रारब्धवशात आएंगे ही। उन्हें त्यागने का अधिकार मनुष्य के पास है ही नहीं। किन्तु, हां वह भक्ति के निरन्तर अभ्यास तथा परम-प्रेम-रूपा भक्ति की कृपा से, ऐसा चित्त अवश्य विकसित कर सकता है जो सुख से सुखी न हो तथा दु:ख से दु:खी न हो। यही सूत्रकार भक्त से आशा करते हैं।<br />
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अब रही बात इच्छा की, तो किसी की भी सब इच्छाएं पूरी हुई हैं क्या? यदि कभी भाग्यवश कोई पूरी होती भी है तो उससे पूर्व ही दस दूसरी उभर आती हैं। अभाव का भाव सदैव ही यथावत रहता है। इच्छा पूर्ति का केवल एक ही उपाय है कि कोई इच्छा रहे ही नहीं। यही पूर्णकामता है जो परम-प्रेम-रूपा भक्ति की कृपा से ही प्राप्त हो सकती है। उसी अवस्था की इच्छा करने को नारदजी कहते हैं। यह इच्छा पूरी होने पर अन्य सभी इच्छाएं समाप्त हो जाती हैं।<br />
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लाभ से अर्थ हानि-लाभ का विचार है जिसके फल की आशा रख कर ही जीव लाभ के लिए कर्म करता है। वह कर्म के मनोनुकूल फल को ही लाभ मानता है। किन्तु, लाभ अकेला कभी नहीं आता, उसके साथ सदैव हानि भी लगी रहती है। अपितु हानि तो लाभ से भी आ पहुंचती है। सुख दु:ख की भ्रान्ति हानि-लाभ का भी अर्थ है। फल की अनुकूलता-प्रतिकूलता तो प्रारब्ध के अधीन है, जो होना होगा।<br />
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<b>नजरिया बदलिए तो नजारे अपने आप ही बदल जाएंगे</b><br />
निंदा आपको भीतर से चाटती है। आपके सत्य, प्रेम, निष्ठा, सृजन हर चीज को खत्म करती है। निंदा को जीवों में दीपक की तरह माना गया है। यह हमें भीतर से खोखला करती है। हम निंदा में रस की अनुभूति करते हैं लेकिन यह रस भीतर हमारे लिए विष का काम करता है। हमारी अच्छाइयों को गलाता है, जलाता है। निंदा की आदत से बचिए। बुरा देखने, सुनने और बोलने तीनों कामों में हमारे अच्छे कर्मों और अमूल्य समय का नाश होता है। इससे बेहतर है कि जो अच्छा है उससे कुछ सीखें। उसी में अपने आप को डूबो दें। बुराई करना और सुनना दोनों कई लोगों के लिए आनंददायक काम है लेकिन यह केवल हमारी शक्ति का हृास और समय की बर्बादी है। एक घटना है, एक भैयाजी थे और वो इस बात के लिए मशहूर थे कि उनको किसी भी कार्यक्रम में बैठा दो वो कुछ न कुछ छांटकर आपकी निंदा करके बता ही देंगे। वो ढूंढ लेते थे कि गड़बड़ क्या है।<br />
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वे इस बात में दक्ष थे। लोग डरते थे कि कार्यक्रम में ये आए तो कुछ न कुछ खोट निकालकर जाएंगे, इनका निंदा का स्वभाव है। एक बार कुछ युवकों ने सोचा कि यह अंकलजी जो हैं हर कार्यक्रम में कुछ न कुछ छेड़ाखानी करते हैं। उन्होंने सोचा कि एक बार हम ऐसा कार्यक्रम करेंगे और इन अंकलजी को बुलाकर कहेंगे अब आप बताओ इसमें क्या खोट है। बड़ा परफेक्ट कार्यक्रम किया उन्होंने। हर चीज व्यस्थित और अंकलजी को बुलाया।अंकलजी ने आते ही अपना काम शुरू किया, आसपास देखना शुरू किया। एक- आधे घंटे में उनका स्वास्थ्य बिगडऩे लगा। जब कार्यक्रम अच्छे से निपट गया तो बच्चों ने पूछा अंकलजी! इस कार्यक्रम के बारे में आप बताएं। अंकजलजी ने सोचा पीछे से निकलो कुछ दिखा तो है ही नहीं। लेकिन बच्चों ने पकड़ लिया और पूछा अंकलजी बताएं आपको कुछ दिखता है ऐसा। अंकलजी क्या बताएं, उनको कुछ समझ नहीं आ रहा था, क्या बोलें। पर अंकलजी का स्वभाव बन गया निंदा, जब बहुत ज्यादा दबाव डाला गया तब अंकलजी ने कहा- अब भला इतना अच्छा भी करना किस काम का। जब निंदा बस जाती है तो बड़ी मुश्किल से छुटती है।<br />
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आपने सुना होगा बहू कछ भी करे सासूजी उसमें खोट निकालती थी। बहू जब भी भोजन बनाती सासूजी ने तय कर लिया था कि आज यह खराब, इसमें यह नहीं डला, बेचारी परेशान हो गई। छह महीने तक सेवा करती रही, नई-नवेली थी। उसने सोचा एक दिन ऐसा भोजन बनाऊंगी जिसमें खोट न हो। ससुरजी से पूछा आपको तो मालूम होगा न इनको कैसा खाना पंसद है। ससुरजी ने कहा यदि मुझे मालूम होता तो क्या बात थी, यह तो तू ही जान तेरी। बेचारी परेशान हो गई। तमाम विधियां अपनाई उसने और एक दिन ऐसा स्वादिष्ट भोजन बनाया और रख दिया थाली में।<br />
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सचमुच भोजन ऐसा था कि ससुर ने कहा आज ये बोल नहीं पाएगी। देखते हैं आज सासूजी क्या करती है। जैसे ही सासू ने भी खाया तो ऐसा ही था निर्दोष। अब बहू ने सोचा कि अब देखते हैं क्या बोलती हैं।<br />
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तारीफ करने का तो सवाल ही नहीं था, चुप रही सासूजी। ससुरजी ने कहा आज तो भोजन बहुत अच्छा है, कुछ बोलो बहू को। सासूजी ने कहा- पहले ऐसा भोजन क्यों नहीं बनाती थी। अगर आप तय कर लें कि निंदा करना है तो यही आपका स्वभाव बन जाएगा। नजरिया बदलिए तो नजारे अपने आप ही बदल जाएंगे और जो नजरिया नहीं बदलना चाहते उनका कोई इलाज ही नहीं है। अहंकार इसलिए स्वभाव नहीं बनता कि आपसे बड़ा वाला आ जाए तो आप दो मिनट में चुप हो जाओगे। लेकिन निंदा का क्या करोगे और निंदा भगवान को इसलिए भी पसंद नहीं है। भगवान बोलते हैं कि सब मेरी कृति है जब आप किसी के नयन, नक्ष, चाल, ढाल, बोलचाल पर टिप्पणी कर रहे हैं तो आप भगवान की कृति का अपमान कर रहे हैं। यह इसका आध्यात्मिक अर्थ है। इसलिए निंदा घोर दुर्गुण है।<br />
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<b>ये है पूजा का नियम जब भी करें पूजन ध्यान रखें</b><br />
दिनभर जिसकी पूजा करते हो उसकी कृति का अपमान करना गलत है। कोई अपने माता-पिता को बुरा नहीं कहता है। बेटा कितना ही पढ़ा लिखा हो जाए और मां अगर कम पढ़ी लिखी है, सुदर्शना नहीं है तो भी वह उतना ही सम्मान करता है। मेरी कृति है, मुझे रचाया है मां ने। आप अपने परमात्मा की कृति की निंदा करेंगे तो आप उसकी ही निंदा करेंगे? यानी आप परमात्मा को कोस रहे हैं।सावधान हो जाइए, निंदा छोड़ दीजिए। लोग हमसे पूछते हैं पंडितजी निंदा कैसे छोड़ें।<br />
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हम कहते हैं एक सिद्धांत बना लीजिए निंदा छूट जाएगी। सिद्धांत यह कि जो व्यक्ति आपके सामने उपस्थित न हो उसकी चर्चा नहीं करेंगे। बात कर सकते हैं, टिप्पणी मत करिएगा। चर्चा तो करनी पड़ती है कि वह आ रहे हैं, वह जा रहे हैं। पर पीठ पीछे किसी पर टिप्पणी नहीं करें, आपसे निंदा छूट जाएगी। हालांकि दो-तीन दिन तबीयत खराब रहेगी। पहली बात सत्य बोलें, अहंकार न करें, निंदा न करें, जिन्हें निंदा की वृत्ति छोडऩा हो वे त्याग को अपनाएं। बिना आसक्ति-त्याग के, त्याग का कोई अर्थ नहीं, क्योंकि तब जीव भौतिक दृष्टि से किसी कर्म का त्याग करके भी मानसिक स्तर पर उसी से जुड़ा रहता है तथा राग-द्वेष के संस्कार संचय करता, कामना को बल प्रदान करता है।<br />
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भावनायुक्त समर्पण में भी समर्पण का आधार परिपक्व नहीं होता, क्योंकि उसमें कुछ अनुभव तो होता ही नहीं, केवल भावना ही होती है। इसलिए अंतर में सूक्ष्म स्तर पर अहंकार बना रहता है। इसके लिए गीता में कर्म करने के उपरांत, कर्म फल भगवान को अर्पण कर देने का मार्ग सुझाया गया है। किन्तु कर्म करते समय जो मन में कामना होगी, उसका संस्कार तो संचित हो ही जाएगा। भगवान को कर्मफल अर्पण कर देने का अभिमान भी उदय हो सकता है। यही अभिमान आगे जाकर निंदा करवाता है।<br />
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चौथी बात नित्य पूजा करें। हमारे यहां पूजा को भी कार्यक्रम बना लिया है लोगों ने। जिसको जैसे टाईम मिला, खड़े हैं तो खड़े, बैठे हैं तो बैठे हैं। अनुशासन लाइए जीवन में। व्यक्ति श्रृंगार करता है तो क्रम होता है- पहले मुखड़ा सजाएगा, देह सजाएगा उल्टा कोई श्रृंगार नहीं करता। हर चीज का नियम है, पर आदमी पूजा का नियम नहीं पालता। पूजा करने का नियम है सबसे पहले सूर्य को अध्र्य दें, तुलसी को जल दें, गाय को घास दें उसके बाद स्वरूप पूजा करें, नित्य पाठ करें जो भी आप पाठ करते हैं एक चौपाई, एक मंत्र, लेकिन पाठ करें खड़े होकर, ग्रंथ को खोलकर छोटी सी किताब रख लीजिए।नित्यपाठ इसलिए कहते हैं कि चौबीस घंटे में एक बार घर में ग्रंथ खुलना चाहिए। ग्रंथ में परमात्मा बसता है। जैसे ही आप ग्रंथ खोलते हैं वह बाहर निकलता है, आपके घर में सुंगध देने के लिए। अब तो समय जब मिलता है तभी खुलता है हफ्ते में एक बार, महीन में एक बार। पाठ के साथ-साथ कभी कथा भी बाचें। थोड़ा इसे समझा जाए।<br />
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<b>अगर आता हो बार-बार गुस्सा तो ऐसे दूर करें...</b><br />
पांचवां है- मौन। चौबीस घंटे में पांच-सात मिनट मौन रखें। मौन का अर्थ है अपने से भी बात न करें। ध्यान रखिए मौन और चुप्पी में फर्क है। हम लोग चुप्पी रखते हैं और उसी को मौन मान लेते हैं। पति-पत्नी के बीच कुछ वार्तालाप हो जाए, कुछ खटपट हो जाए, बात नहीं करना हो तो बच्चों के माध्यम से बात की जाती है। बच्चे से बोल दिया पिताजी से कह देना यह ले आना, पिताजी ने कह दिया समय नहीं है। उनसे पूछो आज आप बात नहीं कर रहे हैं। उन्होंने कह दिया आज अपना मौन है।<br />
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चुप्पी बाहर का मामला है और मौन भीतर घटता है। चुप्पी वाला मौन तो लोगों को दिनभर में दस-बारह बार हो जाता होगा। इसलिए दो मिनट, पांच मिनट एकदम मौन हो जाइए। मौन का एक लाभ होता है, हमारा क्रोध नियंत्रित हो जाता है। क्रोध भक्ति में बाधा है।<br />
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ध्यान के द्वारा विषय का संग होने से मन में विषय को प्राप्त करने, भोगने की कामना उत्पन्न हो जाती है और विघ्न उपस्थित होने पर क्रोध पैदा हो जाता है। यह क्रोध कोई नया पैदा नहीं होता, चित्त में प्रसुप्त क्रोध ही जाग्रत हो जाता है। यह तत्काल तो जीव के शरीर तथा मन को जलाता ही है और भी पुष्ट होकर विच्छिन्न अवस्था में लौटता है।<br />
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उस प्रकार बार-बार क्रोध करते रहने से क्रोध बलवान होता जाता है। जब जीव प्रबल क्रोध की पकड़ में होता है तो अपना 'मैं भूल जाता है। उसे कौन, क्या, कैसा, किस जगह का भी ध्यान नहीं रहता। बस साक्षात क्रोध रूप ही हो जाता है। इसका मूल कारण संग ही है जो प्रसुप्तावस्था से क्रोध को उदार बना देता है। योग और ध्यान के माध्यम से ही आप क्रोध से छुटकारा पा सकते हैं। योग और गुरुमंत्र का प्रभाव से क्रोध को कम किया जा सकता है। यदि अवसर मिले तो योग्य गुरु से दीक्षा अवश्य लें।<br />
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<b>7 दिन पूरे होने को थे नाग राजा को डसने के लिए जा रहा था तब....</b><br />
अब राजा परीक्षित का काल नजदीक है। तक्षक उन्हें अपने विष से भस्म करने वाला है। शौनकादि ऋषियों! मुनिपुत्र श्रृंगी ने क्रोधित होकर परीक्षित को शाप दे दिया था। अब उनका भेजा हुआ तक्षक सर्प परीक्षित को डसने के लिए उनके पास चला। रास्ते में उसने कश्यप नाम के एक ब्राह्मण को देखा। कश्यप ब्राह्मण सर्प विष की चिकित्सा करने में बड़े निपुण थे। तक्षक ने बहुत सा धन देकर कश्यप को वहीं से लौटा दिया, उन्हें राजा के पास न जाने दिया। और स्वयं ब्राह्मण के रूप में छिपकर राजा परीक्षित के पास गया, क्योंकि वह इच्छानुसार रूप धारण कर सकता था।चलिए आइए परीक्षितजी अपनी देह छोडऩे वाले हैं, तक्षक आने वाला है।<br />
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उस दृश्य पर पुन: विचार करें। सात दिन की अवधि पूरी हो रही है। तक्षक परीक्षित को डंसने के लिए आ रहा है। शुकदेवजी कह रहे हैं- परीक्षित अब मैं तुम्हें जीवन का अंतिम उपदेश दे रहा हूं। 7 दिन तक तुमने सबकुछ छोड़कर भागवत सुनी। अब मैं तुमसे अंतिम बात कर रहा हूं और यह भागवत का अंतिम उपदेश है। शुकदेव पूछ रहे हैं परीक्षित से कि एक बात बताओ तुम्हें तुम्हारी देह और आत्मा का भान हुआ या नहीं। क्या तुम्हें भागवत सुनने के बाद ऐसा लग रहा है कि तुम्हारी देह अलग है और तुम्हारी आत्मा अलग है।<br />
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वास्तव में कथा श्रवण का महत्व तभी है जब देह और आत्मा दोनों की अनुभूतियां अलग हों। अगर हम अनुभूति नहीं कर पा रहे हैं तो फिर हमारे कथा श्रवण में ही त्रुटि है। हम केवल कानों से कथा सुन रहे हैं, इसका भाव मन तक पहुंच ही नहीं रहा है। भाव और सार मन तक पहुंचें तो आत्मा की अनुभूति अलग होगी और देह की अलग। कथा समझा रही है कि देह नित्य नहीं है, आत्मा नित्य नहीं है। देह एक दिन खत्म हो जाएगी और आत्मा फिर कोई दूसरा चोला पहन लेगी।<br />
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<b>भागवत सुने तो ये बात जरूर ध्यान रखें क्योंकि...</b><br />
इस बात को स्वीकार कर लेना ही असली कथा श्रवण है। भागवत हमें यही अंतर समझा रही है। जिन्हें यह समझ आ जाता है वे परीक्षित की तरह निद्र्वद्व और निर्विकार हो जाते हैं लेकिन जो लोग सिर्फ इसे कथा का एक हिस्सा मानकर बैठ जाते हैं वो देह से ऊपर नहीं उठ पाते। भागवत कथा सुनने से क्या मिलता है इसे समझ लें। इस कथा को सुनने से हमारे मन में भक्ति जाग जाती है। इस भक्ति को गौणी भक्ति भी कहा गया है।भक्ति का एक स्वरूप गौणी भक्ति भी है। जो गौण हो, मुख्य नहीं हो वही गौणी भक्ति है। सामान्यतया जीव जगत व्यवहार करे अथवा प्रभु-भक्ति उसमें चित्त की संकुचितता तथा अहंकार बना रहता है, जिससे उसके अंतर में कर्मों तथा उपासनाओं के संस्कार संचित होते रहते हैं जबकि भक्ति का मूल उद्देश्य चित्त को निर्मलता प्रदान कर उसमें जगत का अनुभवात्मक वैराग्य भर देना तथा प्रभु के प्रति प्रेम भाव उदय करना है।<br />
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भक्ति का यह भाव ही हममे कथा श्रवण का रस अनुभूत कराता है। भक्ति जीवन में जरूरी है। यह संस्कारों को जन्म देती है। संस्कारों से विचारों में दिव्यता आती है, विचारों की दिव्यता ही हमारे व्यक्तित्व को निखारती है। भक्ति का रूप कोई भी हो लेकिन उसमें भाव, आस्था और विश्वास होने चाहिए। जब तक हमारी भक्ति में ये बातें नहीं होती तब तक भक्ति केवल एक स्वांग ही दिखाई देती है। असली भक्त प्रक्रिया पर नही भावो पर ध्यान केंद्रित करता है। कई लोग केवल प्रक्रिया को ही भक्ति मान बैठते हैं। भक्ति के लिए जो भी विधियां बनाई गई हैं वे केवल इसलिए हैं कि हमारे मन में उस काम के प्रति थोड़ी एकाग्रता रहे। जब तक एकाग्रता नहीं होगी, भाव नहीं जागगे।<br />
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भाव नहीं जागेंगे तो भक्ति में रस नहीं आएगा। निरस भक्ति भगवान को जागृत नहीं कर सकती। भक्ति जरूरी है और इसे हमारे जीवन में उतारना बहुत आवश्यक है। निर्गुण या सगुण कोई रूप हो, भगवान में आस्था होनी चाहिए। यह कार्य अहंकार युक्त गौणी-भक्ति से संभव नहीं। हम यह नहीं कहते कि जीव को जप नहीं करना चाहिए अथवा करना ठीक नहीं। किन्तु जब तक मन अहंकार मुक्त नहीं तथा वैराग्य युक्त नहीं, तब तक उसकी भक्ति गौणी ही है। जब तक उसे ईश्वर की चाहे छोटी सी ही क्यों न हो, प्रत्यक्ष, निश्चित एवं अनुभव युक्त झलक प्राप्त नहीं हो जाती, तब तक उसकी भक्ति गौणी ही है। उसे ईश्वर की चाहे छोटी सी क्यों न हो, निश्चित एवं अनुभव युक्त झलक प्राप्त नहीं हो जाती तब तक न तो यथार्थ में उसमें परम प्रेम उदय हो सकता है और न ही जगत के प्रति पूर्ण वैराग्य। क्योंकि भक्ति मार्ग प्रेम तथा समर्पण का मार्ग है।<br />
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<b>क्या आप जानते हैं, इसलिए सुनाई जाती है भागवत कथा?</b><br />
शुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित! तुम्हारी देह और आत्मा अलग-अलग है, क्योंकि यदि ऐसा नहीं हुआ तो मैं यहां से नहीं जा पाऊंगा और जब तक मैं यहां हूं तब तक तुम्हें तक्षक डसने नहीं आ सकता और वो आएगा नहीं तो तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी। जिस उद्देश्य के लिए भागवत की रचना की गई है उसके लिए जरूरी है क्या तुम्हें देह और आत्मा का भान अलग-अलग हुआ।<br />
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असली गुरु वो ही है जो आपके लिए कुछ भी करने को तैयार हो। शुकदेवजी ने केवल परीक्षित को कथा ही नहीं सुनाई, उनसे कथा के प्रभाव के बारे में भी पूछ रहे हैं। जिस प्रयोजन से कथा कही गई थी वो पूरा हुआ या नहीं। परीक्षित को संसार और देह में जो आसक्ति थी, शुकदेवजी उनसे पूछ रहे हैं कि वो समाप्त हुई या नहीं। अगर अभी भी कोई आसक्ति शेष है तो फिर कथा सुनाना और सुनना दोनों ही व्यर्थ गए। शुकदेव जी जो कह रहे हैं उसके पीछे कई बातें हैं। एक तो वे जानना चाहते हैं कि परीक्षित ने पूरे मन से कथा श्रवण किया या नहीं, अगर कथा श्रवण किया तो फिर उसका कितना चिंतन किया, कितनी बातें समझीं और अब उसके व्यवहार, विचार और स्वभाव में क्या परिवर्तन आया है।<br />
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शुकदेवजी यह भी सोच रहे हैं कि परीक्षित ने तो पूरे मन से सुनी हो सकता है मुझसे भी कोई त्रुटि हो गई हो। मैं पूरे भाव से कथा नहीं सुना सका। इस बोध के कारण वे कह रहे हैं अगर तुम्हें देह और आत्मा का भान अलग-अलग न हुआ हो तो मैं यहां से नहीं जा पाऊंगा। मुझे यह बात परेशान करेगी कि मैं कथा कहने की जिम्मेदारी ठीक से निभा नहीं पाया। शुकदेवजी परीक्षित की ओर देख रहे हैं, परीक्षित का चेहरा भयमुक्त और निर्विकार है। उसे मृत्यु का सुनकर भी भय नहीं लग रहा है।<br />
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परीक्षित भगवान शुकदेव के पास खीसककर आते हैं, धीरे से उनको प्रणाम करते हैं और बोलते हैं- मैं अपनी देह से मुक्त हो गया हूं। आपने मुझ पर बड़ा उपकार किया है। मैं आपको नमन करता हूं और मैं अपनी मृत्यु के स्वागत के लिए तैयार हूं। शुकदेव बोलते हैं मैं यहां से प्रस्थान करूंगा, मैं यहां से जाऊंगा तभी मृत्यु आ पाएगी। शुकदेवजी महाराज को विदा करते हैं और यहीं से कथा सूतजी के ऊपर आ गई।<br />
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जीवन में गुरु की भूमिका इतनी ही होती है, वो आपको तैयार करके, प्रशिक्षित करके चुनौती के सामने खड़ा कर देता है। चुनौती आपकी अपनी है, उसका सामना आपको ही करना है। गुरु उस समय आपके साथ ही रहे जरूरी नहीं। अगर पूरा प्रशिक्षण पा लेने के बाद भी आपको गुरु की जरूरत पड़े तो समझिए कि या तो आपने सीखने में या गुरु ने सिखाने में कोई भूल की है। शुकदेव जी परीक्षित को छोड़कर चल दिए। अब मृत्यु का इंतजार अकेले परीक्षित को करना है। वो इसके लिए पूरी तरह तैयार भी हैं। न तो अपनी देह के प्रति कोई आसक्ति रह गई है और न ही अपने परिवार के प्रति कोई मोह। राजपाट तो वो पहले ही छोड़ आए थे।<br />
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<b>इसलिए कहते हैं इंतजार करना जरूरी होता है...</b><br />
लोग भजन तो करते हैं, नियम भी पालते हैं, रोज के अपने कायदे भी बनाते हैं लेकिन जो चीज सबसे ज्यादा अनिवार्य है उसमें चूक कर जाते हैं। हमारे मन में धैर्य का होना आवश्यक है। धैर्य के साथ मानसिक भक्ति बनी रहे। कितनी परेशानियां आए, कितनी ही मुश्किलें आएं, हमारा धैर्य नहीं टूटना चाहिए। धैर्य टूटा की भक्ति निष्फल हुई, समझो। एक पल का अधैर्य हमारे जीवनभर के तप को धूमिल कर सकता है। परमात्मा आपके धैर्य की परीक्षा लेता है जैसे भी हो अगर धैर्य संभला रहा तो फिर उसकी कृपा होना तय है।<br />
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एक कथा है।किसी गांव के मंदिर में एक पुजारी था। भगवान की सेवा करके गुजर-बसर चलता था। उसके दो बेटे थे। दोनों ही धार्मिक स्वभाव के थे लेकिन बड़ा बेटा थोड़ा जल्दबाज था, इसलिए ज्यादा प्रयास कर अधिक से अधिक फल प्राप्ति की इच्छा करता था। पिता उसे समझाते तो भी नहीं मानता। एक दिन कपता गुजर गए। मंदिर की सेवा दोनों भाइयों के हाथ में आ गई। छोटा भाई अपने बड़े भाई से बिलकुल विपरित था। हमेशा संतोष रखता। इंतजार करता, जो भी मिले उसे प्रभु प्रसाद समझकर अपना लेता। शिकायत नहीं करता। दोनों ने समय-समय की पूजा आपस में बांट ली। बड़ा भाई थोड़ा असंतोषी था, जल्दबाज था सो हमेशा कुछ अतिरिक्त करने के चक्कर में लगा रहता। सोचता मंदिर में ज्यादा से ज्यादा समय मैं ही बैठूं ताकि दक्षिणा का बड़ा हिस्सा मुझे मिले। छोटा भाई बड़े की हरकतों का कोई प्रत्युत्तर नहीं देता, वो सिर्फ उसे भगवान की मर्जी मानकर स्वीकार कर लेता।<br />
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उसे विश्वास था कि भगवान सब देख रहे हैं और एक दिन उसे उसके सब्र का फल अवश्य मिलेगा। मंदिर के पास ही एक नदी बहती थी। बारीश का मौसम था, एक दिन सुबह से मूसलाधार बारीश शुरू हो गई। दोनों भाई मंदिर में भगवान की प्रतिमा और कुछ मूल्यवान आभूषण को बाढ़ से बचाने के लिए गए। धीरे-धीरे बाढ़ का पानी मंदिर को डूबो रहा था और दोनों भाई शिखर की ओर चढ़ रहे थे। थोड़ी देर में बाढ़ का प्रवाह और बढ़ गया। दोनों भाइयों का विश्वास था कि भगवान उनकी रक्षा करेंगे। दोनों नाम जप करने लगे। आंखें मूंद लीं, होठों से भगवान का नाम बुदबुदाने लगे। बाढ़ का पानी तेजी से मंदिर के शिखर को छू रहा था। बड़े भाई की बेचैनी बढ़ रही थी, कैसे जान बचाए। छोटे ने धीरज बंधाया भइया, धैर्य रखों भगवान आते ही होंगे। नाम जप और ज्यादा ध्यान लगा कर करो। फिर आंखें मूंद ली, दोनों भाई नाम जपने लगे। लेकिन बड़े से रहा नहीं गया आंखें खोलकर देखा तो बाढ़ का पानी शिखर को आधा डूबो चुका था। छोटे ने फिर समझाया कि भइया धैर्य रखो अभी तो पानी काफी नीचे है। ध्यान लगाओ और भगवान को पुकारो, वो ही हमारी रक्षा कर सकते हैं। दूर-दूर तक अथाह पानी है और नदी का बहाव भी तेज है, हम तैर नहीं पाएंगे।<br />
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अब पानी उनके पैरों को छूने लगा था, कुछ ही क्षणों में शिखर भी डूबने वाला था। छोटा आंखें बंदकर ध्यान में लगा हुआ था लेकिन बड़े से रहा नहीं गया। उसने आंखें खोली और देखा पानी उनके पैरों तक आ गया है तो बोला छोटे तू बैठा रह यहां, कोई भगवान आने वाला नहीं है, मैं तो जैसे तैसे तैर कर प्राण बचा लूंगा। इतना कहकर उसने शिखर को छोड़ दिया और पानी में कूद पड़ा। बहाव इतना तेज था कि पानी में कूदते ही वह बह गया। छोटे ने फिर आंखें बंद की जप शुरू किया, तभी एक नाव वाला गुजरा, उसने उसे अपनी नाव में शरण दी और सुरक्षित किनारे पर उतार दिया। बड़ा भाई अधैर्य के चलते प्राण गवां बैठा। बाढ़ खत्म हुई तो मंदिर भी अकेले उसका था और उससे मिलने वाली सारी दक्षिणा भी छोटे की ही थी। तभी तो कहा जाता है कि भक्ति में धैर्य का होना बहुत आवश्यक है।<br />
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<b>मौत से डरने वालों का ऐसा होता है हाल...</b><br />
सूतजी शौनकादिजी से बोल रहे हैं- सुनो अब समापन होने जा रहा है। मैं जो कथा तुम्हें सुना रहा था, शुकदेवजी परीक्षित को सुना रहे थे अब दृश्य ऐसा हो गया शुकदेवजी गए। परीक्षित अकेले हैं, मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे हैं। परीक्षितजी ध्यान में बैठ गए। आंखें बंद की, अपनी ऊर्जा को ऊपर लिया, अपने प्राणों को नियंत्रण में किया। आज्ञा चक्र से उठकर ऊर्जा सहस्त्रार पर हैं और आदेश दिया अपने प्राण को मुक्त हो एकदम से प्राण मुक्त हुए, अब केवल देह रह गई। परीक्षितजी दूर खड़े अपनी देह को देख रहे हैं।<br />
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ये दृश्य बहुत कम लोग देख पाते हैं। कोई शांत मन से अपनी देह का मोह छोड़े मृत्यु के स्वागत में बैठा है। वो राजा परीक्षित सात दिन पहले जो चक्रवर्ती सम्राट थे। भगवान श्रीकृष्ण ने खुद जिन्हें जीवन दान दिया था। मृत्यु के मुख से बचाकर लाए थे। महान पांडवों का वो वंशज था। दुनियाभर के वैभव, सुख और जिसने भोग किया। परमपराक्रमी और धर्म के तत्व को जानने वाला राजा परीक्षित आज सब कुछ छोड़कर अपनी मृत्यु के इंतजार में बैठ गया है। बिना डरे, बिना किसी असमंजस के। दुनिया में कई शूरवीरों को धूल चटा देने वाला योद्धा आज खाली हाथ मौत से मिलने के लिए बैठा है।आइए उस दृश्य को देखें। तक्षक ने जैसे ही प्रवेश किया, तकक्ष यानी मृत्यु आई है। आज तक्षक के रूप मृत्यु पहली बार अपने जीवन में शरमा गई। मृत्यु ने कहा- यह क्या हुआ मेरा तो सारा आतंक, मेरा सारा अभिमान, भय है और जिस व्यक्ति को मैं मारने आई हूं यह तो निर्भय खड़ा है, दूर खड़ा देख रहा है इसको कोई फर्क नहीं पड़ रहा है और मुस्कुराते हुए स्वागत किया जा रहा है।<br />
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आज मृत्यु शरमा गई। मौत का सारा आतंक किसमें है, भय में है। दुनिया में सारा आतंक भय के कारण है अगर आपके मन से भय दूर हो जाए तो सारा आतंक खुद-ब-खुद दूर हो जाएगा।एक गांव में हैजा फैला तो हजार लोग मर गए। गांव के बाहर एक फकीर बैठा था उसने देखा रात को त्राही-त्राही मची और छम-छम करती हुई एक काली सी औरत जा रही है। उसने पूछा देवी आप कौन हैं? वह बोली- मैं मृत्यु की देवी हूं। इस गांव में हजार लोग मारने आई थी कल फिर आऊंगी, क्योंकि हजार और मारना है।<br />
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फकीर ने कहा - कल देखेंगे। कल हुआ, पर मर गए दो हजार। जब वो जा रही थी तो फकीर ने उसको रोककर पूछा- तुमने तो कहा था हजार लोग मारने आओगी, पर संख्या तो दो हजार की हो गई। जिंदगी झूठ बोलती है यह तो सुना था पर मौत भी झूठ बोलती है यह आज देखा मैंने। तुमने हजार की जगह दो हजार मार दिए। मौत ने बड़ा सुंदर जवाब दिया- मैं तो हजार ही मारने आई थी और हजार का ही विधान था, बाकी जो एक्स्ट्रा एक हजार मरे वो मेरे डर के मारे मर गए। आदमी डर के मारे ही मर जाता है।<br />
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<b>ऐसे लोगों से मौत भी हार जाती है क्योंकि...</b><br />
परीक्षित बाहर खड़े होकर देख रहे हैं, आओ आपका स्वागत है, मैं तैयार हूं। और परीक्षित की देह को तक्षक ने जैसे ही डसा वो भस्म हो गई, लेकिन तब तक परीक्षित बाहर खड़े थे। वो जो शुकदेव ने तैयार किए थे, वो जो भागवत का शुकदेव था, वो जो भागवत का प्रताप था, वो दूर खड़ा अपनी मृत्यु को देख रहा है। स्वागत कर रहा है, सम्मान कर रहा है और कह रहा है मैंने देह और आत्मा का अंतर जान लिया है। यह कौन सी मृत्यु है, कौन तक्षक है जानते हैं आप। प्रतिकूल परिस्थितियां तक्षक है, जीवन का तनाव तक्षक है, जीवन में उलटे-सीधे काम तक्षक है और यह हमें डसता रहता है।<br />
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हमारी देह काली-पीली होती रहती है। जो अपनी आत्मा और देह का अंतर जान जाएंगे वे तनाव से, विषाद से, अवसाद से मुक्त हो जाएंगे।यह घटना कह रही है इसको इस रूप में समझना ही पड़ेगा। परीक्षित ने देह त्याग दी यहां आकर सूतजी कहते हैं कि भागवत का मुख्य प्रसंग समाप्त हो गया। जिसके लिए भागवत कही गई वो दृश्य समाप्त हो गया जो भागवत का नायक था वो संसार से चला गया। जो भागवत के प्रमुख वक्ता और श्रोता थे वो कथा का समापन कर रहे हैं तो भागवत यहां समापन की ओर जा रही है।<br />
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मृत्यु पर जीवन की विजय हुई। मरते-मरते परीक्षित के चेहरे पर प्रसन्नता के जो भाव थे वे म़त्यु को चुनौती देने वाले थे। आज मृत्यु बौनी साबित हुई। उसका भय जाता रहा। इस दृश्य को जिसने देखा वो आश्चर्य में पड़ा था। एक कथा के श्रवण से इतना परिवर्तन कैसे हो सकता है। देवता भी सब प्रसन्न हो गए। परीक्षित की दिग्विजय पर सब साधु-साधु कह रहे थे। लोग तो धरती के टूकड़े जीतते हैं तो उत्सव मनाते हैं ,लेकिन मौत का भय उन्हें भी रहता है, परीक्षित ने तो धरती की दिग्विजय की ही लेकिन आज तो साक्षात मृत्यु को भी हरा दिया। उसके भय को मिटा दिया। मृत्यु को मजा तब आता है जब जिसके वो प्राण हरण कर रही हो वो डरे लेकिन मरने वाला अगर उसका स्वागत करने लगे तो फिर मृत्यु की हार तो तय है ही, मर कर भी परीक्षित अमर हो गए। देवता तुल्य हो गए। शुकदेवजी का सारा प्रयास सफल रहा। कथा श्रवण निष्फल नहीं गया।<br />
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स्वर्ग लोक में मानो उत्सव हो गया हो। सारे देवता इतने प्रसन्न थे कि परीक्षित ने तो मर कर भी अमरत्व प्राप्त कर लिया, हम देवता तो अमृत के लिए मरे जा रहे हैं। इसने तो कानों से अमृत का पान किया। मृत्यु को जीत लिया। कैसा अद्भुत संयोग है। कोई अपनी मृत्यु का दोनों हाथ पसार कर स्वागत कर रहा है। तक्षक के रूप में आया काल भी हैरत में था। परीक्षित की देह तक्षक के विष से जल उठी है। प्राण निकले और सीधे अपने पूर्वजों की शरण में चल पड़े। परीक्षित ने देखा देह अब किसी काम की नहीं रही। निस्तेज, विष से जली हुई और धूल-धूसरित धरती पर पड़ी है। आसमान से देवता फूल बरसा रहे हैं, अप्सराएं नृत्य कर रही है। मृत्यु मानो महोत्सव बन गई है।<br />
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<b>जनमजेय ने नाग यज्ञ किया और कर दिया सारे नागों का अंत क्योंकि...</b><br />
जब जनमेजय ने सुना कि तक्षक ने मेरे पिताजी को डस लिया है, तो उसे बड़ा क्रोध हुआ। उसने सारी धरती की सर्प जातियों को खत्म करने का प्रण ले लिया। देश-दुनिया के ब्राह्मणों को बुलाया गया। नाग दाह यज्ञ का आयोजन कराया गया। जैसे ही यज्ञ आरंभ हुआ नागों में हड़कंप मच गया। जैसे ही यज्ञ कुंड से अग्रि की लपटें उठने लगीं, ब्राह्मणों ने मंत्रों का उच्चारण शुरू किया, मंत्रों के प्रभाव से एक-एक करके नाग यज्ञकुंड में आकर गिरने लगे। चारों ओर यज्ञकुंड का धुआं और नागों के जलने की दुर्गंध वायु मंडल में फैल गई।<br />
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जन्मजेय का प्रण था जब तक उसके पिता को डसने वाले तक्षक नाग को भस्म न कर दूं यज्ञ बंद नहीं होगा। नागों के मारे जाने से नाग लोक में भी हाहाकार मच गया। प्रकृति का संतुलन बिगडऩे लगा। अब वह ब्राह्मणों के साथ विधिपूर्वक सर्पों का अग्निकुण्ड में हवन करने लगे। तक्षक ने देखा कि जनमेजय के सर्प सत्र की प्रज्वलित अग्नि में बड़े-बड़े महासर्प भस्म होते जा रहे हैं, तब वह अत्यंत भयभीत होकर देवराज इन्द्र की शरण में गया। मंत्रों का आकर्षण ऐसा था कि बड़े-बड़े नाग आकर हवनकुंड में गिरने लगे। देवताओं को भी चिंता सताने लगी। लेकिन जनमजेय को रोके कौन यह बड़ा सवाल था। जनमजेय बहुत क्रोध में था और वह अपने प्रतापी पिता की असमय मौत से आहत भी था। देवताओं और नागों में लगातार हलचल मची हुई थी।<br />
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जनमजेय को कैसे रोका जाए, नागों का विध्वंस कैसे बंद हो, देवता एक-दूसरे से प्रश्र कर रहे थे। तक्षत इंद्र की शरण में था इसलिए बच रहा था लेकिन शेष नाग प्रजातियां खत्म हो रही थीं। नागों के राजा वासुकी भी परेशान थे। बहुत सर्पों के भस्म होने पर भी तक्षक न आया, यह देखकर परीक्षितनन्दन राजा जनमेजय ने ब्राह्मणों से कहा कि अब तक तक्षक भस्म क्यों नहीं हो रहा है? ब्राह्मणों ने कहा तक्षक इस समय इन्द्र की शरण में चला गया है और वे उसकी रक्षा कर रहे हैं। इंद्र के प्रभाव से तक्षक को मंत्र आकर्षित नहीं कर रहे हैं। शेष सारे नाग हवपकुंड में गिर कर जल रहे हैं।<br />
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<b>ये दो काम कभी ना करें क्योंकि इनसे बर्बादी होती है</b><br />
वर्तमान युग दिखावे का युग है। जो जैसा नहीं हो, वैसा दिखने का प्रयत्न करना, जो गुण नहीं हो अपने में वह गुण दिखाने का प्रयत्न करना, मन की बात मन में ही छुपाकर ऊपर से मीठी-मीठी बातें करना आदि सब दंभ के अंतर्गत है। इससे मिथ्या अभिमान को बल प्राप्त होता है। मन नहीं लग रहा हो, किन्तु लोगों को दिखाने के लिए, भक्त कहलाने की इच्छा से आंखें बंद करके बैठे रहना नम्र नहीं होते हुए भी नम्र दिखने का प्रयत्न करना सभी दंभ के अंतर्गत ही है। दंभ से चित्त चंचल होकर साधन भक्ति की निरन्तरता भंग हो जाती है।<br />
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जीवन प्रबंधन का तीसरा सूत्र है निंदा न करें। पर क्या करें निंदा में बड़ा रस आता है। निंदा नहीं की तो लोगों का पेट दुखने लगता है। फोकट की निंदा करने में और ज्यादा मजा आता है। निंदा तो दूर की बात समाज में कोई अपरिचित व्यक्ति हो, बाहर वाला हो तो समझ में आता है। हम तो देखते हैं अपने ही घर में कोई आयोजन हो, एक कमरे में 5-7 लोग बैठे हों और उसमें से दो गए तो शेष पांच पहला काम निंदा ही करेंगे। वह दो बाहर जाकर वही कर रहे होंगे, इसमें कोई नई बात नहीं है। सब लगे ही रहते हैं, निंदा में कितना स्वाद है। आत्मस्तुति और परनिंदा मनुष्य की दो बड़ी कमजोरियां हैं। निंदा जब जीवन में उतर जाती है तो स्वभाव बन जाती है, निंदा से बचिए।<br />
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निंदा आपको भीतर से चाटती है। आपके सत्य, प्रेम, निष्ठा, सृजन हर चीज को खत्म करती है। निंदा को जीवों में दीपक की तरह माना गया है। यह हमें भीतर से खोखला करती है। हम निंदा में रस की अनुभूति करते हैं लेकिन यह रस भीतर हमारे लिए विष का काम करता है। हमारी अच्छाइयों को गलाता है, जलाता है। निंदा की आदत से बचिए। बुरा देखने, सुनने और बोलने तीनों कामों में हमारे अच्छे कर्मों और अमूल्य समय का नाश होता है। इससे बेहतर है कि जो अच्छा है उससे कुछ सीखें। उसी में अपने आप को डूबो दें। बुराई करना और सुनना दोनों कई लोगों के लिए आनंददायक काम है लेकिन यह केवल हमारी शक्ति का हृास और समय की बर्बादी है।<br />
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<b>ऐसे जीएं जिंदगी तो कभी दुखी नहीं होंगे</b><br />
एकांत का मतलब है, अगर आप एकांत साधना चाहें जीवनसाथी के साथ तो एक काम करिएगा मोबाइल नाम की अपनी प्रियतमा को एकदम बंद करके उसे एक घंटे के लिए रख दीजिएगा। आपको विश्वास दिलाता हूं यदि आप परमात्मा का ध्यान रखकर कहते हैं तो आप मानकर चलिएगा दुनिया किसी के चले न चली है और न किसी के रूके रूकी है। यह चलती रहेगी, आप अपना एकांत साधिए। परिवार के लिए समय निकालिए, उनके साथ रहिए।संपर्क की वृत्ति को बनाए रखिएगा। संपर्क में दूसरी बात समय दीजिए बड़े-बूढ़ों को, बच्चों को। उस समय कोई चर्चा नहीं होगी, बस आपस में क्या चल रहा है, पूछिए स्वास्थ्य कैसा है, कैसा लगता है।<br />
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बूढ़े लोगों को उनकी पुरानी बातें करो तो उनको अच्छा लगता है। हम भी बूढ़े होंगे तब लोग आपसे पूछेंगे आपके समय में आप कैसा करते थे फिर आप उनको बताएंगे तो वो बहुत प्रसन्न होंगे। बुढ़ापे में उनको कुछ ऊर्जा प्रदान करिए, उनकी स्मृतियों को ताजा करिए।बूढ़े लोगों के पास क्यों नहीं बैठते लोग, एक तो बच्चों को यह रहता है कि दादा-दादी एक ही किस्सा 25 बार सुना चुके हैं और अब बैठाकर वही किस्सा सुनाएंगे। तो देखते ही भागते हैं लोग इधर-उधर, नहीं ऐसा मत करिए, समय दीजिए। आप अपने संपर्क से घर की वृद्धावस्था, बड़े लोगों को सुख प्रदान करें। घर में वृद्ध लोगों के चेहरे पर मुस्कुराहट हो इसका प्रयास करिएगा।आपने एक घटना सुनी होगी। एक घर में दादा-दादी बैठे हुए थे, पास में बच्चे बैठे हुए थे। बच्चे दादा-दादी से छिछोरापन कर रहे थे। बच्चों ने दादा-दादी से पूछा आप बताओ आपके समय और हमारे समय में कितना परिवर्तन आया। उन्होंने कहा- हां, बहुत बदल गया है वक्त, हम देख रहे हैं। बच्चे बोले- दादाजी आपकी दादीजी से शादी हुई तो आपने दादीजी को पहली बार कब देखा था। वे बोले भैया बहुत दिन तो पता नहीं लगा, वो काल ही अलग था। दादा बोलते हैं पहले बड़ी मुश्किल होती थी। दादा से बच्चों ने पूछा आप घर में रहते और आपको दादी को देखने की इच्छा होती तो आप क्या करते थे? दादा ने कहा भैया कुछ न कुछ तो करना ही पड़ता था। बच्चों ने बोला दादाजी आप क्या करते थे, बताओ तो सही। दादाजी बोले हमने एक घंटी रखी हुई थी। बाहर बैठते तो घंटी बजाते, दादी आ जाती और हम उसको देख लेते। पोतों ने बोला दादाजी आप तो बड़े स्मार्ट थे।<br />
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दादाजी आप तो पुरूष थे, पुरूषप्रधान युग था तो आपने घंटी रख ली और घंटी बजा ली तो दादी आई और आपने देख लिया पर जब कभी दादीजी को आपको देखने की इच्छा हो तो दादी क्या करती होंगी। दादाजी बोले- वह थोड़ी-थोड़ी देर में आकर पूछती घंटी तो नहीं बजाई।आनंद अगर आप मनाना चाहें तो बुढ़ापे में भी मना सकते हैं। वो लोग परमात्मा की पूजा कर रहे हैं जो लोग अपने घर के बड़े-बूढ़ों को हंसा रहे हैं। हंसाइए, हम इनके अंश हैं इन्होंने रातें जाग-जागकर जीवन दिया है हमको। कल हम भी उस स्थिति में आएंगे। आज जो आप करेंगे वो कल पलटकर आपके ऊपर आ जाएगा। इसलिए घर के बड़ों को स्नेह दीजिए। परिवार में प्रेम बनाए रखिए। यह जीवन प्रबंधन का महत्वपूर्ण सूत्र है।<br />
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<b>जानिए, क्या है सत्संग का सही अर्थ?</b><br />
भक्त को प्रथम धैर्य प्रभु प्राप्ति के लिए नहीं वरन् संत की कृपा प्राप्त करने के लिए करना होती है। यह कार्य प्रभु प्राप्ति से कम कठिन तथा महत्वपूर्ण नहीं है। यदि किसी संत की कृपा प्राप्त हो जाए तो समझो कि प्रभु प्राप्ति की आंतरिक यात्रा का प्रथम पड़ाव पूर्ण हो गया। संपर्क में तीन बातें हैं- समय दीजिएगा घर-परिवार में, सत्संग करिए।<br />
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सत्संग का अर्थ प्रतिदिन किसी विद्वान से मिलना नहीं है, कोई पुस्तक पढ़ लीजिए। आदत बना लीजिए एक पुस्तक आपके बगल में रहे, आपके बैग में रहे, आपके घर में रहे। सोने के पहले एक-आधा पन्ना पढ़ लें, दो लाइन पढ़ लें बस। कोई बात नहीं पांच साल में पुस्तक पूरी करिएगा। आपका एक अनुशासन बनना चाहिए कि आप कोई विचार उठा रहे हैं। कृष्ण ने उद्धव से जाते हुए कहा था कि उद्धव मुझे अफसोस है कि मुझे जीवन में अच्छे लोग नहीं मिले। जाते-जाते कह गए यदि कोई भूले से अच्छा आदमी आपके पास आए तो बाहों में भर लेना, दिल में उतार लेना। बड़ा मुश्किल है दुनिया में अच्छे आदमी को ढूंढऩा, नहीं मिलेंगे। आपको ऐसा लगता है कि आपने माता-पिता की सेवा कर ली, सत्संग भी कर लिया लेकिन चिंतन करके आपने जो भी कुछ किया है, रात को सोने से पहले स्वयं से एक बार पूछ लीजिएगा कि आज सबकुछ ठीक रहा।<br />
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ईमानदारी से पूछोगे तो एक थप्पड़ आपका जमीर आपको मारेगा, रोज थप्पड़ खाकर सोओगे। जरा खुद का थप्पड़ खाकर सोने का आनंद तो देखिए। आपका सद्चरित्र आपको लोरी गाकर, थपथपाकर सुलाएगा। यदि आपके जमीर ने, आपकी अंतरआत्मा ने कहा- हां आज तूने यह किया जो परमात्मा चाहता था। बस यह जीवन प्रबंधन के सात सूत्र हैं। अपने माता-पिता का आशीर्वाद प्राप्त करें। इस महाअनुष्ठान के समापन में प्रवेष कर रहे हैं। भागवत ने बार-बार यह मांग की है कि मैंने जो बताया है उसे स्मरण करते रहना।<br />
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<b>इसलिए लगा था कृष्ण के बाएं पैर में तीर.....</b><br />
अंतिम में तो भागवत ने यह कहा है कि भक्तों आप परमात्मा को याद करो तो जमकर करो, कृष्णजी ने जो भी किया जमकर किया। इसको कहते हैं शत-प्रतिशत। भक्ति को गुंजाइश में मत छोड़ दीजिएगा। भागवत का समापन करने जा रहे हैं। मैं आपसे निवेदन कर रहा हूं, भागवत बार-बार यह कह रही है कुछ छोड़ मत देना। एक दुर्गुण को अनुमति दी और युधिष्ठिर ने जुआ खेलने का निर्णय लिया और परिणाम आप जानते हैं।<br />
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कृष्णजी के जीवन की कथा आपको याद होगी। कोई कहता है दुर्वासा ऋ षि, कोई कहता है और ऋषि आए। ऋषि ने आकर यशोदा माँ से कहा तेरी गोद में यह गोपाल अच्छा लग रहा है। मेरे पास ऐसा मलहम है कि जो तू अपने बच्चे के शरीर पर लेप कर देगी तो इसको किसी शस्त्र और अस्त्र का प्रहार नहीं लगेगा। यशोदा माँ ने मलहम लेकर लगाया तो कहते हैं बाएं पैर की पगथली के आते-आते मलहम खत्म हो गया। माँ बाएं पैर की पगथली पर मलहम नहीं लगा पाई तो कृष्ण की सारी देह तो सुरक्षित हो गई केवल बाएं पैर की पगथली रह गई और इसी पर वह तीर लगा और कृष्ण चले गए। बस, इतना सा हिस्सा शरीर का छूट गया और जीवन का दांव लग जाएगा। कुछ छोडि़एगा मत। इतना सा छूटा और आप गए काम से। दुर्र्योधन को पांडव मारने के लिए दौड़ रहे थे, भीम ने शपथ ली थी कि इसकी जंघाओं को तोड़ दूंगा। गांधारी को पता लगा तो उसने कहा मेरे पुत्र को बुलाओ और उसको सूचना दो कि वह वस्त्र पहनकर नहीं आए। गांधारी को वरदान था कि जिस समय वह पट्टी खोलकर किसी को देखेगी उसकी देह लोहे की हो जाएगी, वज्र की हो जाएगी। अपने पुत्र को सूचना दी निर्वस्त्र आना।<br />
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दुर्योधन अपनी माँ के पास निर्वस्त्र जा रहा था। बीच में ही कृष्णजी मिल गए। उनको सब सूचनाएं थीं कि क्या हो रहा है। उन्होंने कहा- कहां जा रहे हो भाई इस तरह से। उसने कहा माँ ने बुलाया है। अरे! मां ने बुलाया ऐसे? माँ ने आदेश दिया है ऐसे आने का। कृष्ण ने कहा- माँ तो बुढ़ी है, तुझे तो अक्ल होना चाहिए। कोई जवान बेटा माँ के सामने ऐसा जाता है। कम से कम जंघाओं पर पत्ते लपेट ले। दुर्योधन ने कृष्ण को देखा कि यह सलाह दे रहे हैं या कुछ और बात है। कृष्ण बोले नहीं-नहीं सही बात कर रहा हूं, तेरे हित की बात कर रहा हूं, मर्यादा की बात कर रहा हूं। उसने जंघाओं पर केले के पत्ते लपेट लिए, माँ के सामने गया।<br />
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<b>कैसे हुआ पापी दुर्योधन के जीवन का अंत?</b><br />
कृष्ण ने कहा- माँ तो बुढ़ी है, तुझे तो अक्ल होना चाहिए। कोई जवान बेटा माँ के सामने ऐसा जाता है। कम से कम जंघाओं पर पत्ते लपेट ले। दुर्योधन ने कृष्ण को देखा कि यह सलाह दे रहे हैं या कुछ और बात है। कृष्ण बोले नहीं-नहीं सही बात कर रहा हूं, तेरे हित की बात कर रहा हूं, मर्यादा की बात कर रहा हूं। उसने जंघाओं पर केले के पत्ते लपेट लिए, माँ के सामने गया।<br />
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गांधारी ने पट्टी हटाई और जैसे ही दुर्योधन को देखा तो एकदम से चिल्लाई यह तूने क्या किया। मैंने तुझे आदेश दिया था कि निर्वस्त्र होकर आना और तू ऐसे आ गया। मैं पहली बार जिसे देखती वो वज्र का हो जाता। तू पूरा वज्र का हो गया पर वो हिस्सा तूने जंघाओं पर पत्ते लपेट लिए, तुझे यह सलाह किसने दी? वह बोला उनका आशीर्वाद है। गांधारी ने सिर पीट लिया। अब शाप नहीं दे, तो क्या करे बेचारी। जब दुर्योधन युद्ध कर रहा था, दुर्योधन को<br />
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कुछ नहीं हो रहा और भीम थक गया। चारों पांडव खड़े थे, अंतिम युद्ध हो रहा था। धूल में लोट लगा रहा था दुर्योधन और मारे जा रहा था भीम, पर दुर्योधन को कुछ हो ही नहीं रहा था। तब भगवान से सबने कहा भीम तो थक गया है और पलटकर एक भी गदा दुर्योधन ने लगा दी तो भीम यहीं समाप्त हो जाएगा। हम जीतकर भी हार जाएंगे। भगवान देखते रहे-देखते रहे, खूब पीट लिए भीम।<br />
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तब भगवान ने इशारा किया अर्जुन को कि जरा जंघाएं ठोंक दो। बस ऐसा इशारा किया और भीम को तो याद था जरासंध को जब मरवाया था भगवान ने। जैसे ही ईशारा हुआ, उसकी जंघाओं पर प्रहार हुआ और वह समाप्त हुआ। शरीर का इतना सा हिस्सा रह गया और जीवन का मोल चुकाना पड़ा। जीवन में कुछ छोडि़एगा मत। जब भी कोई काम करें, जमकर करें।<br />
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इतना सा छूटा सफलता संदिग्ध हो गई। इसलिए भक्ति पूर्णता मांगती है और निष्कामता से पूर्णता आएगी। यह ग्रंथ आपसे मांग कर रहा है पूर्णता में ही परमात्मा है। परमात्मा को अधूरे, अपूर्ण काम पसंद नहीं हैं। यहां एक बात समझ ली जाए। श्रीकृष्ण पाण्डवों के जीवन में गुरु के रूप में थे। हमें यही सीखना चाहिए कि गुरु का जीवन में बड़ा महत्व होता है।<br />
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<b>सफलता के लिए जरुरी है इन दो बातों को याद रखना</b><br />
गुरु बनाने के संबंध में एक लोकोक्ति प्रचलित है कि गुरु कीजै जान के, पानी पीजै छान के।। यह लोकोक्ति अपने आप में कोई स्पष्ट तात्पर्य नहीं बताती, क्योंकि गुरु बनाया नहीं जाता वे तो अनेकों पूर्व जन्मों के संस्कारवश मिल जाते हैं। निश्चित वार, तिथि, घड़ी में वे दीक्षा देकर साधक को कृतार्थ कर शिष्य बनाते हैं। शिष्य बनाते ही शिष्य के भार को वे वहन कर लेते हैं, गुरु शब्द में यह सार्थकता निहित है। अयोग्य शिष्य के पाप या पुण्य के भागीदारी गुरु भार वहन करते ही हो जाते हैं। माता-पिता के संस्कारों की भांति गुरु के संस्कार भी शिष्य में उतरते हैं। नित्य सतत् आध्यात्मिक साधना में लीन गुरु ही भार वहन करने में समर्थ होता है, क्योंकि वह अपने तथा शिष्य के कर्मों को ज्ञानाग्नि में नित्य दुग्ध करता जाता है।<br />
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इसी प्रकार गुरु के कर्मों का शिष्य भी भागीदार होता है। अतएव आवश्यक है कि गुरु शिष्य दोनों आध्यात्मिक पथ को नित्य साधन से आलोकित करते जाएं। आज के वातावरण में महापुरुषों पर विश्वास जमना कठिन है। भ्रम जाता नहीं, संस्कार जागते नहीं, साधन, पूजन, तप इत्यादि कर्म निष्काम होते नहीं, ऐसे में अध्यात्म पथ पर चला कैसे जाए, यह एक गंभीर और अहम सवाल है।<br />
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पूर्व में चले आ रहे महापुरुषों की गाथाएं व चरित्र हमारे सामने हैं। उनकी वाणियां हैं, उनके आचरण और वाणियों का प्रतिपालन करने के प्रयत्न से वासना नष्ट करने में सहायता मिलेगी। वासना के नष्ट होने से संत का सान्निध्य इस जन्म में या अगले जन्म में मिल सकता है। वर्तमान जन्म के अंतिम निमिष में अगले जन्मों का क्रम निश्चित हो जाता है।<br />
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गुरु साधन या अन्य आध्यात्मिक क्रियाओं की दीक्षा या शिक्षा देकर उस अभ्यास में पटुकर कर देते हैं कि अंतिम निमिष में मोझा की ओर बढ़ जाता है या अपनी अनन्त यात्रा में, उत्तरोत्तर आगे बढ़ता हुआ भगवान श्रीकृष्ण से प्राप्त प्रमाणिकता शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोअभिजायते योगभ्रष्ट पवित्रात्मा श्रीमांत के घर में जन्म लेता है और पूर्वाभ्यास के वशीभूत विरक्त हो योग संसिद्ध हो परमगति को प्राप्त करता है।<br />
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प्रत्येक साधन या उपासना पद्धतियों में गुरु का स्थान सर्वोपरि निरुपित किया गया है। न काटे जाने के कारण व्यावहारिक रूप में जिस व्यक्ति के माध्यम से ईश्वरीय शक्ति कार्य करती है उसे गुरु कहा जाता है। उसे ज्ञान होता है ईश्वर या परमात्मा सभी जगह व्याप्त है, महापुरुष उसे प्रगट में व्याप्त देखता है, इसी महात्मा से साधक आत्मसंतुष्ट रहने की शक्ति प्राप्त करता है।<br />
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यहां गुरु के संबंध में विश्वास को महाभारत में एकलव्य की कथा वर्णित है। विश्वास और अभ्यास से द्रौणाचार्य को गुरु मानकर एकलव्य नियमित शिष्यों की योग्यता से बहुत ऊपर उठ गया था। सफलता के लिए ये दोनों ही बातें याद रखना जरुरी है क्योंकि ये प्रवीणता प्रमाण है। गुरु ही वह परम शक्ति होती है जो शिष्य के लक्ष्य को स्पष्ट करती है। साधक आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ता हुआ अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ होता है।<br />
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<b>जानिए, क्यों सुनाई जाती है भागवत?</b><br />
महात्म्य- यहां एक बार फिर भागवत का महात्म्य बताया है। महात्म्य में वज्रनाभ और परीक्षित राजा की संक्षेप में कहानी आई है। परीक्षित कौरवों का अंतिम राजा था और वज्रनाभ यदुवंशियों का अंतिम राजा। दोनों एक-दूसरे के वंश की बात करते हैं। दोनों एक दूसरे की बात का समापन करते हैं। यहां धीरे-धीरे भागवत समाप्त हो रही है और भागवत के अंत में श्रोता और वक्ता के लक्षण बताते हुए दोनों को सावधान करते हुए समापन किया जा रहा है। भागवत कह रही है आप भागवत में उतरे हैं सावधान रहिएगा।<br />
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श्रोता और वक्ता यह ध्यान रखें जिस उद्देश्य के लिए आपने भागवत में प्रवेश किया उस उद्देश्य को छोडि़एगा नहीं। भगवान साक्षात रूप से तैयार हैं आपके जीवन में आने के लिए। भगवान ने भागवत में दो बातें मांगी हैं आरंभ में भी और अतं में भी। मुझे आपका चित्त चाहिए, भागवत में चित्त मांगा गया है। उसी भागवत में आगे भी लिखा है कि मुझे आपका वित्त भी चाहिए। ऐसा कहते हैं कि तन की शुद्धि स्नान से, मन की शुद्धि ध्यान से और धन की शुद्धि दान से। भागवत कहती है खूब दान करिएगा, लेकिन घबराइएगा नहीं।<br />
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भागवत आपसे जिस चित्त और वित्त की मांग कर रही है भागवत के समापन पर, चित्त तो आप दे रहे हैं, जो आपके भीतर है। लेकिन जो वित्त आपसे मांगा जा रहा है, हमारी सारी पूंजी क्या है आज आप इस भागवत समापन पर कम से कम इतना जरूर चढ़ाएं। भागवत आपसे मांग रही है कि आप अपनी अशांति चढ़ा दीजिएगा, आपका दुर्गुण चढ़ा दीजिए, आपका विषाद सौंप दीजिए इस पर, आपका दु:ख सौंप दीजिएगा, आपका काम, आपका क्रोध, आपका मद, आपका लोभ छोड़ दें इस पर। दुनिया गोल है, जीवन छोटा है पता नहीं कब और कहां मिलेंगे। भगवान कहते हैं एक हाथ से सौदा कर लो दुर्गुण का और एक हाथ से मुझे ले लो।<br />
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अब इससे सस्ता सौदा क्या हो सकता है? आपको कुछ भी नहीं देना भगवान के लिए। यह तो भ्रम है कि हजारों चढ़ाएं, लाखों चढ़ाएं तो भगवान मिलता है। आपका जो भी दुर्गुण है आप सौंप दीजिए भागवत तैयार है। आपके जीवन की अशांति दे दीजिए स्वीकार है।<br />
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वक्ता को भागवत ने आदेश दिया है कि श्रोताओं की अशांति, उसका विषाद, उसकी निराशा, उसकी थकान, उसकी बैचेनी, उसकी परेशानी और उसके जीवन का दु:ख लेकर जाना तब भागवत संपन्न होती है।<br />
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<b>कीचड़ उनके पास था मेरे हाथ गुलाल, जो भी जिसके पास था उसने दिया उछाल</b><br />
भागवत आपसे जिस चित्त और वित्त की मांग कर रही है भागवत के समापन पर, चित्त तो आप दे रहे हैं, जो आपके भीतर है। लेकिन जो वित्त आपसे मांगा जा रहा है, हमारी सारी पूंजी क्या है आज आप इस भागवत समापन पर कम से कम इतना जरूर चढ़ाएं। भागवत आपसे मांग रही है कि आप अपनी अशांति चढ़ा दीजिएगा, आपका दुर्गुण चढ़ा दीजिए, आपका विषाद सौंप दीजिए इस पर, आपका दु:ख सौंप दीजिएगा, आपका काम, आपका क्रोध, आपका मद, आपका लोभ छोड़ दें इस पर। दुनिया गोल है, जीवन छोटा है पता नहीं कब और कहां मिलेंगे। भगवान कहते हैं एक हाथ से सौदा कर लो दुर्गुण का और एक हाथ से मुझे ले लो। अब इससे सस्ता सौदा क्या हो सकता है? आपको कुछ भी नहीं देना भगवान के लिए।<br />
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यह तो भ्रम है कि हजारों चढ़ाएं, लाखों चढ़ाएं तो भगवान मिलता है। आपका जो भी दुर्गुण है आप सौंप दीजिए भागवत तैयार है। आपके जीवन की अशांति दे दीजिए स्वीकार है।वक्ता को भागवत ने आदेश दिया है कि श्रोताओं की अशांति, उसका विषाद, उसकी निराशा, उसकी थकान, उसकी बैचेनी, उसकी परेशानी और उसके जीवन का दु:ख लेकर जाना तब भागवत संपन्न होती है।भगवान से प्रार्थना करता हूं कि आपके जीवन में यश हो, मंगल हो। आपका निजी जीवन बहुत सुखी हो। आपके पारिवारिक जीवन में शांति हो, जो काम आप करते हों उसमें आपका विकास हो। जिस क्षेत्र में आप रहते हों उसकी प्रगति हो। आपको मनोवांछित की पूर्ति हो, आपका मंगल हो, यश हो।<br />
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आपको कीर्ति की प्राप्ति हो और सबसे बड़ी बात परमात्मा की प्राप्ति हो। यह संयोग से नहीं घटता, यह सौभाग्य से घटता है। भगवान से प्रार्थना करते हैं हम कि सचमुच जो वसुदेव का विश्वास हैं, देवकी की दौलत हैं, जो बलराम का बल हैं, कृपा के सिंधु है, सबके बंधु हैं, गोपियों के मनबसिया है, राधा के रसिया हैं, जो भीष्म का भरोसा हैं, अर्जुन की आस्था हैं, कंस का काल हैं, जो जरासंध का महाकाल हैं, जो देवकी की दौलत हैं, जो यशोदा का यश हैं, भारत का भाग्य हैं, नंद का आनंद हैं और पं. विजयशंकर का परमानंद है वो आपके जीवन में भी परमानंद बनकर उतरे। एक छोटी सी कथा को ध्यान में रखिएगा। एक गुरूजी अपने शिष्यों के साथ सत्संग कर रहे थे। रोज नाशपाती के बारे में जानकारी देते कि नाशपाती ऐसा फल है, नाशपाती को खाओ तो ऐसा स्वाद है।<br />
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दो तीन दिन तक लगातार प्रवचन दिए और एक दिन वो आए तो भक्तों ने देखा उनके हाथ में टोकरी थी जिसमें नाशपाती थी। उन्होंने नाशपाती सबको बांट दी और कहा खाओ मेरे सामने, सबने खा ली और उन्होंने सबसे पूछा- मैंने तीन दिन तक विस्तार से नाशपाती का वर्णन किया। यह नाशपाती तुमने खाई तो तुमको कैसा लगा। एक शिष्य ने खड़े होकर कहा महाराजजी यह तो खाने के बाद ही पता लगा कि आपने जो वर्णन किया यह तो उससे भी अच्छी नाशपाती थी। वर्णन से कुछ नहीं वो तो स्वाद से पता लगा। लेकिन एक और बात एक शिष्य ने खड़े होकर कही कि हमें यह जो नाशपाती इतनी अच्छी लगी यह बात हम आपसे कह रहे हैं इसके लिए हमारा आग्रह है कि आप भी नाशपाती खाकर देखिए गुरूजी तभी पता लगेगा कि हमें कितनी अच्छी लगी।<br />
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मेरा आपसे निवेदन है कि मैंने भागवत पर आपको इतना बताया पर जब तक आप अपने निजी जीवन में भागवत को चखेंगे नहीं आपको इसके स्वाद का पता नहीं लगेगा। जैसे ही चखा तो आप कहोगे अरे पंडितजी ने जो पढ़ाई थी उससे तो लाख दर्जा आनंद आया। उनको तो लिखना ही नहीं आई। इसमें जो है वह कमाल है। इसका स्वाद लीजिएगा, मैं ग्रंथ को समेटने जा रहा हूं। इसके पृष्ठ जब बंद कर रहा हूं आप अपने जीवन के पृष्ठ खोलिए उस पर भागवत लीखिए, पढि़ए और जीएं। भागवत से आप आज बहुत लेकर जाएं और एक बात तय कर लीजिए यदि भागवत से वो लेकर गए जो लेकर जाना था, संसार का कायदा है कीचड़ उनके पास था मेरे हाथ गुलाल, जो भी जिसके पास था, उसने दिया उछाल। आपके पास जो है उसको समाज में बांटिएगा, विदाई ले रहे हैं।<br />
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<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI"><b>इन दो लोगों की बात कभी नहीं टालना चाहिए....</b></span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">भागवत के अनुसार भगवान ने अपने गुरु ऋषि सांदीपनि के पुत्र को यमराज से मांगा था। वह भी उस पुत्र को जो बहुत पहले मारा जा चुका था</span>, <span lang="HI">दूसरी बार अपनी माता की आज्ञा से भाइयों को जीवित किया। सृष्टि के नियम बदल दिए। अगर हम भागवत को समझे तो ये घटना इन दो बातों की ओर संकेत करती है जो स्पष्ट है। पहला जीवन में गुरु और माता का महत्व। गुरु विद्यार्थी को माता की तरह संवारता है और माता बच्चे की पहली गुरु होती है। दोनों का पद समान है</span>, <span lang="HI">दोनों की महिमा भी एक सी है। दोनों का जीवन में समान महत्व है और दोनों के बिना ही जीवन अधूरा है। कृष्ण ने अपने जीवन में उन दोनों के महत्व को भलीभांति समझा है।</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">गुरु से शिक्षा ली</span>, <span lang="HI">शिक्षा अमूल्य थी सो उसका मूल्य भी ऐसा चुकाया जो इतिहास बन गया। गुरु के मृत पुत्र को सालों बाद यमराज से ले आए। फिर माता के उन पुत्रों को जीवित कर दिया जिन्हें कंस ने मार दिया था। माता ने कृष्ण के लिए लाखों कष्ट सहे। अपने सात पुत्रों को अपनी आंखों के सामने मरते देखा। अब कृष्ण की बारी थी</span>, <span lang="HI">अपनी माता के उस ऋण को चुकाने की। माता ने इच्छा की और कृष्ण ने उसे क्षण भर में पूरा कर दिया। माता-पिता और गुरु के लिए जीवन में अगर कुछ भी करना पड़े</span>, <span lang="HI">उसे कर दीजिए। उनके लिए किया गया कोई कार्य निष्फल नहीं जाता।</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b><span lang="HI">जानिए</span>, <span lang="HI">श्रीकृष्ण ने क्यों माना है मेडिटेशन को जरुरी</span>?</b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">भागवत में भगवान कृष्ण ने ध्यान यानी मेडिटेशन पर अपने गहरे विचार व्यक्त किए हैं। वैसे इन दिनों ध्यान फैशन का विषय हो गया है। वैष्णव लोगों ने कर्मकाण्ड पर खूब ध्यान दिया है लेकिन वे ध्यान को केवल योगियों का विषय मानते रहे। लेकिन भागवत में भगवान ने भक्तों के लिए ध्यान को भी महत्वपूर्ण बताया है।उद्धवजी ने प्रभु से पूछा- हे भगवन! आप यह बतलाइए कि आपका किस रूप से</span>, <span lang="HI">किस प्रकार और किस भाव से ध्यान करें हम लोग।</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">भगवान कृष्ण बोले- भाई उद्धव! पहले आसन पर शरीर को सीधा रखकर आराम से बैठ जाएं। हाथों को अपनी गोद में रख लें और दृष्टि अपनी नासिका के अग्र भाग पर जमावे। इसके बाद पूरक</span>, <span lang="HI">कुंभक और रेचक तथा रेचक</span>, <span lang="HI">कुंभक और पूरक- इन प्राणायामों के द्वारा नाडिय़ों का शोधन करे। प्रणायाम का अभ्यास धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिए और उसके साथ-साथ इन्द्रियों को जीतने का भी अभ्यास करना चाहिए।</span> </span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">हृदय में कमल नालगत पतले सूत के समान ऊँकार का चिंतन करे</span>, <span lang="HI">प्राण के द्वारा उसे ऊपर ले जाए। प्रतिदिन तीन समय दस-दस बार ऊँकार सहित प्राणायाम का अभ्यास करे। ऐसा करने से एक महीने के अंदर ही प्राणवायु वश में हो जाता है। मेरा ऐसा स्वरूप ध्यान के लिए बड़ा ही मंगलमय है। मेरे अवयवों की गठन बड़ी ही सुडोल है। रोम-रोम से शांति टपकती है। मुखकमल अत्यंत प्रफुल्लित और सुंदर है। घुटनों तक लम्बी मनोहर चार भुजाएं हैं। बड़ी ही सुंदर और मनोहर गर्दन है। मुख पर मंद-मंद मुसकान की अनोखी ही छटा है। दोनों ओर के कान बराबर हैं और उनमें मकराकृत कुण्डल झिलमिल-झिलमिल कर रहे हैं।</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">वर्षाकालीन मेघ के समान श्यामल शरीर पर तीताम्बर फहरा रहा है। श्रीवत्स एवं लक्ष्मीजी का चिन्ह वक्ष:स्थल पर दायें-बायें विराजमान है। हाथों में क्रमश: शंख</span>, <span lang="HI">चक्र</span>, <span lang="HI">गदा एवं पदम धारण किए हुए हैं। गले में कौस्तुभ मणि</span>, <span lang="HI">अपने-अपने स्थान पर चमचमाते हुए किरीट</span>, <span lang="HI">कंगन</span>, <span lang="HI">करधनी और बाजूबंद हैं। मेरा एक-एक अंग अत्यंत सुंदर एवं हृदयहारी है। मेरे इस रूप का ध्यान करना चाहिए और अपने मन को एक-एक अंग में लगाना चाहिए।इस चैतन्य अवस्था में साधक को शरीर और आत्मा के बीच भेदात्मक दृष्टि बनाए रखने में सहायता मिलती है।</span></span></div>
</div>
<br />
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI"><b>इसीलिए कहते हैं जैसी करनी वैसी भरनी</b></span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">भागवत के अनुसार कर्मों के फल भी निश्चित है। कर्म बीज है जो बोया गया तो वृक्ष बनेगा</span>, <span lang="HI">फूल व फल लगेंगे ही</span>, <span lang="HI">तब क्या</span>? <span lang="HI">फल भोगना है या उनका त्याग कर निद्र्वंद्व होना है। यह निश्चयात्मकता तब ही हो सकती है जब सद्कर्म किए जाएं।</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">अन्यथा कर्म बंधन के कारण हैं। उनके बंधन में न आना ही कुशलता है। पाप और पुण्य कर्म दोनों फल देते हैं जो दु:ख व सुख के रूप में प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं</span>, <span lang="HI">इसी जीवन में और अतिशेष भावी जन्मों में।व्यक्ति फल की इच्छा त्यागकर कर्म ईश्वर अर्पण करके करता है</span>, <span lang="HI">स्मरण रहे ईश्वर को सद्कर्म-सद्वस्तु या श्रेष्ठ कर्म या श्रेष्ठ वस्तु ही अर्पण की जाती है। जिसमें किसी को हानि नहीं</span>, <span lang="HI">किसी की हिंसा नहीं</span>, <span lang="HI">किसी से राग नहीं</span>, <span lang="HI">द्वेष नहीं होता है। ईश्वर-अर्पण में पूर्ण शुद्धता होती है। फल की कामना भी नहीं।</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">'<span lang="HI">कर्मव्येवाधिकारस्ते मा फलेशु कदाचन। मा कर्मफल हेतु र्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">तेरा अधिकार कर्म करने मात्र तक सीमित है</span>, <span lang="HI">फल के लिए कदापि नहीं। तू स्वयं कर्म के फल हेतु क्यों बनता है और कर्म छोड़कर अकर्मण्य होने की भी इच्छा मत कर। अकर्मण्य बनना नहीं है</span>, <span lang="HI">व्यक्ति बन भी नहीं सकता तो फिर सद्कर्म कर ईश्वर के ऊपर उसके फल छोडऩे के अतिरिक्त कोई अन्य बुद्धिमत्ता नहीं। व्यक्ति के जीवन में अकर्मण्यता जैसी कोई अवस्था नहीं होती है। क्योंकि वह कुछ न कुछ कर्म तो करेगा ही। अगर कर्म नहीं करेगा तो सांस कैसे लेगा</span>, <span lang="HI">जल कैसे पिएगा</span>, <span lang="HI">भोजन कैसे करेगा</span>? <span lang="HI">व्यक्ति जब तक जीवित रहता है तब तक कर्म जारी रहता है। भगवान कहते हैं कि जब कर्म करने ही हैं तो कुछ अच्छे ही करो।</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
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<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">सद्कर्मों से लाभ होगा</span>, <span lang="HI">धन-ऐश्वर्य</span>, <span lang="HI">सम्पन्नता और मेरा सान्निध्य भी मिलेगा। बिना सद्कर्म के कोई गति नहीं है। अच्छे काम करोगे तो आगे भी अच्छी गति पाओगे। किन्तु ऐसी बुद्धि आए कैसे</span>, <span lang="HI">बने कैसे</span>? <span lang="HI">यह बुद्धि बुद्धि-योग का विषय है</span>, <span lang="HI">बुद्धि सदैव तर्क करती है। बुद्धि ही वास्तव में मन की नियन्ता है। मोह इसे कलुशित करता है। विभिन्न अर्थवादों से अस्थिर बुद्धि जब स्थिर होगी तब समाहित अवस्था में बुद्धि आ सकेगी</span>, <span lang="HI">इस समाहित स्थिति में संकल्प-विकल्प रहित शान्त-मन वाला मनुष्य हो सकेगा।</span></span></div>
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<b>जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,<br />और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मनीष</span></b></div>
Jai Guru Geeta Gopalhttp://www.blogger.com/profile/01621836960274288942noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-6101091264294453966.post-54496478367286301282021-12-13T22:05:00.002-08:002021-12-13T22:05:57.401-08:00श्रीमद् भागवत Srimdbhagwat Part (9)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b>जिंदगी सुखी हो जाएगी अगर काम को करें इस तरह</b><br />
आज तो आदमी ही आदमी का विश्वास नहीं कर पा रहा है। परिवारों में भी हर रिश्ता संदेह और ईष्र्या पर टिका है तो समाज के संबंधों पर क्या कहा जाए।कर्म करने में अत्यधिक मेरा-तेरा होने के कारण निष्कामता तो जाती रहती है उसकी जगह ईष्र्या और राह वृत्ति ले लेती है।''हानि-लाभ जीवन-मरण, यश अपयश विधि एवं या जब कर्म के फल को ईश्वरीय शक्ति पर छोड़कर निर्लिप्त भाव से अपने कर्तव्य को निभाते जाया जाए तो न केवल सुख होता है बल्कि ऐसी वृत्ति बन जाती है कि खिन्नता, विक्षोभ या दु:ख का अनुभव नहीं होता। कार्य करते हुए कुछ प्राप्ति या फल आकांक्षा रही तो दु:ख है ही योगी के लक्षण अपने में उत्पन्न करने के लिए आवश्यक है-''सर्वारंभ-परित्यागी गुणातीत: स उच्यते।। किसी कार्य का संकल्परूपी आरम्भ नहीं करता अर्थात् व्यक्ति या साधक बस कर्म करता जाता है।<br />
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कोई आकांक्षा नहीं रखता। अपने सम-भव निर्मित करने में निन्दा स्तुति, मान-अपमान, मित्र-शत्रु के प्रति समान भाव रखने की स्थिति अपने को गुणातीत बनाने की है। यदि गुणातीत बनने का प्रयास किया नहीं जाता है, तो तीनों गुण, सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार न्यूनाधिकार होते हुए बन्धन के कारण होते हैं। गुणों के अनुसार कर्म होते जाते हैं। किन्तु, यदि भावना हो कि ''मैं करता हूं अहंकार भाव नहीं होना चाहिए तब ही कर्म सहज होते हैं। फिर वह कर्म भौतिक हो या अतिभौतिक (आध्यात्मिक) अहमन्यता आई कि मनुष्य लिप्त हुआ। लिप्तता ही तो बांधती है।<br />
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<b>इसलिए अच्छा नहीं है ज्यादा इकट्ठा करना</b><br />
श्रुति में कहा गया है - पुण्यो वै पुण्येन कर्मणा भवति पाप: पापेन।। अर्थात-निश्चय ही यह जीव पुण्य कर्म से पुण्यशील होता है-पुण्ययोनि में जन्म पाता है और पाप कर्म से पापषील होता-पाप योनि में जन्म ग्रहण करता है।<br />
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जीव, कर्म और जगत अनादि हैं। इनमें जीवात्मा नित्य, शाश्वत व पुरातन है। शरीर के नाश होने से इसका नाश नहीं होता। स्मृति में स्पष्ट उल्लेख है कि पुरुष (जीव समुदाय) और प्रकृति स्वभाव, जिसमें जीवों के कर्म भी संस्कार रूप में रहते हैं-दोनों ही अनादि हैं। इसलिए कर्मों के फल भोगने तक जन्म-जन्मांतर में सक्रिय होते रहते हैं। यह भी उल्लेख स्मृतियों में है कि जीव को अपने शुभाशुभ कर्म के अनुसार सुख-दु:ख की प्राप्ति होती है।गीता के इस श्लोक-''कर्मण: सुकृतस्याहु: सात्विकं निर्मलं फलम्। रजसस्तु फल दु:खमज्ञान तमस: फलम्।। 14।।16।।अच्छे पुण्य कर्मों का सात्विक निर्मल फल, रजोगुणी कर्म का फल दु:ख है और तमोगुणी कर्म का फल अज्ञान है। स्मरण रखना होगा कि अज्ञान दु:ख भोगने से भी अधिक कष्टप्रद होता है।<br />
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कर्म की गति बड़ी गहन है। महाभारतकार ने कर्म के स्वरूप को प्रज्वलित अग्नि के समान बताया है। उसकी रक्षा काल (समय) करता है। इस संदर्भ में जातक कथा (बौद्धधर्म) में दिए गए उदाहरण समुचित लगता है। कर्म जाज्ज्ल्यमान खम्बे की भांति है। इससे व्यक्ति जितना चिपकेगा उतना ही जलेगा किन्तु उससे अनजाने में चिपकेगा या संपर्क में आने पर पूरा ही झुलस सकता है। यह उदाहरण पाप कर्म के संबंध में अधिक ठीक बैठता है। अग्नि प्रकाश देती है। शुभकर्म वाला प्रकाशित हो जीवन के अंधेपथ में मार्ग (मुक्ति पथ) को पाया जा सकता है।<br />
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ग्यारहवें स्कंध में इसी चर्चा का अब नवां अध्याय आरम्भ होता है। अवधूत दत्तात्रेयजी और राजा यदु की बातचीत चल रही है। दत्तात्रेयजी अपने चौबीस गुरुओं का वर्णन कर रहे हैं।<br />
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अवधूत दत्तात्रेयजी बोले-राजा! मनुष्य को जो वस्तुएं अत्यंत प्रिय लगती हैं, उन्हें संग्रह करना ही उनके दु:ख का कारण है। बुद्धिमान पुरुष यह बात समझकर अकिंचन भाव से रहता है। शरीर की तो बात ही अलग, मन से भी किसी वस्तु का संग्रह नहीं करता। उसे परमात्मा की प्राप्ति होती है। एक कुरर पक्षी अपनी चोंच में मांस का टुकड़ा लिए हुए था। उस समय दूसरे बलवान पक्षी जिनके पास मांस नहीं था, उससे छीनने के लिए उसे घेरकर चोंचें मारने लगे। जब कुरर पक्षी ने अपनी चोंच से मांस का टुकड़ा फेंक दिया, तभी उसे सुख मिला। यहां संग्रह से मतलब है लोभ की अति। इसलिए ज्यादा संग्रह अच्छा नहीं होता।<br />
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<b>ऐसे लें निर्णय तो ही समझदारी है</b><br />
दतात्रेय जी आगे कहते हैं। एक बार किसी अविवाहित कन्या के घर उसके विवाह की वार्ता करने के लिए कई लोग आए हुए थे। उस दिन उसके घर के लोग बाहर गए हुए थे। इसलिए उसने स्वयं ही उनका सत्कार किया। राजन् सुनिए! उनको भोजन कराने के लिए वह घर के भीतर एकान्त में धान कूटने लगी। उस समय उसकी कलाई में शंख की चूडिय़ां जोर-जोर से बज रही थीं।<br />
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इस शब्द को निन्दित समझकर कुमारी को बड़ी लज्जा मालूम हुई और उसने एक-एक करके सब चूडिय़ां तोड़ डाली और दोनों हाथों में केवल दो-दो चूडिय़ां रहने दीं। क्योंकि उससे उसका स्वयं धान कूटना सूचित होता था, जो कि उसकी दरिद्रता का द्योतक बता रहा था। अब वह फिर धान कूटने लगी। परन्तु वे दो-दो चूडिय़ां भी बजने लगीं, तब उसने एक-एक चूड़ी और तोड़ दी। जब दोनों कलाइयों में केवल एक-एक चूड़ी रह गई, तब किसी प्रकार की आवाज नहीं हुई। उस समय लोगों का आचार-विचार निरखने-परखने के लिए इधर-उधर घूमता हुआ मैं भी वहां पहुंच गया था। मैंने उससे यह शिक्षा ग्रहण की कि जब बहुत लोग एकसाथ रहते हैं, तब कलह होता है और दो आदमी साथ रहते हैं तब भी बातचीत तो होती ही है।<br />
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इसलिए कुमारी कन्या की चूड़ी के समान अकेले ही विचरना चाहिए। यहां एकांत साधने की बात की गई है यानी थोड़ा भीतर से मौन साधा जाए। जब हम भीतर से बहुत बोल रहे होते हैं तब हम बाहर भी शब्दों की मार्यादा चूकते हैं।<br />
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शब्द के आक्रमण कलह को जन्म देते हैं। मौन एक यौगिक क्रिया है इसे साधा जाए। महात्माओं ने शक्ति या भक्ति-जागरण के कतिपय लक्षण बताए हैं, जिन्हें यौगिक भाषा में क्रियाएं और भक्ति में आनंदानुभूति कहा जाता है। नाचना, गाना, ईश्वरीय भावपूर्ण कविताएं करना, भजनों का गाना, ध्यान लगाना, समाधिस्थ करना आदि क्रियाएं अपने आप व्यक्ति में होने लगती हैं। ये लक्षण उत्साह बढ़ाने वाले होते हैं।<br />
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<b>ऐसे करें काम तो कुछ भी नहीं होगा नामुमकिन</b><br />
इन सबके लिए व्यक्ति को स्वयं ही चेष्टा करना है। कुछ नियम वह बनाए और उनका दृढ़तापूर्वक पालन करे ताकि वे नियम उसके लिए सहज हो जाएं। नियमों के सहज हो जाने से साधन भी सहज होने लगते हैं और व्यक्ति अपने लक्ष्य को सरलता से पा सकता है। अंतत: ईश्वर कृपा और महात्माओं के आशीर्वाद इसके लिए चाहिए। इसके लिए हमारे हाथ में प्रभु प्रार्थना अवश्य है।<br />
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इसके बाद शक्ति प्रकट हो हमें ऊध्र्व गमन करती हुई तब तक मार्गदर्र्शन कराती रहेगी जब तक मुक्त न हो जाए। यह साधन का अटल सिद्धांत है। अत: गृहस्थी में मौन का उपयोग मीठी के लिए किया जाए। एकाग्रता पर बड़ी सुंदर टिप्पणी की गई है भागवत में। बाण बनाने में एकाग्रता हो तो बाण चलाने में भी बाण परिणाम देगा यही जीवन में लागू होगा। निर्माण की योजना की एकाग्रता परिणाम में सहयोगी होगी। इसे आज के प्रबंधन की भाषा में टोटल इन्वाल्वमेंट कहा जाएगा।राजन मैंने बाण बनाने वाले से यह सीखा है कि आसन और श्वास को जीतकर वैराग्य और अभ्यास के द्वारा अपने मन को वश में कर ले और फिर बड़ी सावधानी के साथ उसे एक लक्ष्य में लगा दे। जब परमानन्द स्वरूप परमात्मा में मन स्थिर हो जाता है, तब वह धीरे-धीरे कर्मवासनाओं की धूल को धो देता है।<br />
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सत्वगुण की वृद्धि से रजोगुणी और तमोगुणी वृत्तियों का त्याग करके मन वैसे ही शान्त हो जाता है, जैसे ईंधन के बिना अग्नि। मैंने देखा था कि एक बाण बनाने वाला कारीगर बाण बनाने में इतना तन्मय हो रहा था कि उसके पास से ही दलबल के साथ राजा की सवारी निकल गई और उसे पता तक न चला। मैंने सांप से यह शिक्षा ग्रहण की है कि संन्यासी को सर्प की भांति अकेले ही विचरण करना चाहिए, उसे मण्डली नहीं बांधनी चाहिए।<br />
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मठ तो बनाना ही नहीं चाहिए। वह एक स्थान में न रहे, बाहरी आचारों से पहचाना न जाए।केवल वस्त्र संन्यास न हो, व्यवहार संन्यास हो। व्यवहार भी परमात्मा के साथ वाला। संत के जीवन की एक रूपता ही परमात्मा को प्रिय है। संसारी ड्अल लाईफ योग्यता मानते हैं पर ये साधुता के दोष हैं। किसी से सहायता न ले और बहुत कम बोले।<br />
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<b>अगर खुश रहना है तो याद रखे जिंदगी में कृष्ण के ये तीन फंडे</b><br />
यदि साधन भगवत प्राप्ति के उद्देश्य से भगवान की प्रीति के हेतु की जाए तो भगवान की कृपा विशेष रूप से प्राप्त होती है। साधन से भक्त की आस्था, श्रद्धा तथा भक्ति में उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। इससे शरणागति की प्राप्ति होती है।शरणागति प्राप्त होने पर कुछ शेष नहीं रहता। हमें यहां स्मरण रखना होगा कि शरणागति की स्थिति लाने के लिए श्रीशुकदेवजी-जैसा केवल जप नहीं, प्रत्युत ज्ञानपूर्वक जप करना होगा। इसमें निदाघ (ऋषि पुत्र) की भांति जल में कमल पत्र के तुल्य असमपृक्तता प्राप्त करनी होगी अर्थात् ज्ञान तथा वैराग्य के युगल स्वरूप के साथ भक्ति माता को हृदयंगम करना होगा।<br />
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किन्तु यह जितना सरल दिखता है, है नहीं। तप-त्याग के धरातल पर विराट गंगा को धारण करने के लिए जिस प्रकार भगवान शिव ने साधन किया वह करना होगा, तब कहीं भगवती शक्ति, कुण्डलिनी-स्वरूपा आल्हादिनी भक्ति सहस्रार में आकर समाहित होगी। उसका वह परम समावेश आनन्मयी मुक्ति का स्वरूप है। फिर, मैं भक्ति हूं, मैं उपासना हूं और मैं मुक्ति हूं यह सतत् चलता रहेगा। उस स्थिति में तो पता ही नहीं चलेगा कि कब प्रात: हुआ और कब संध्या हुई तथा कब दिन-रात हुए। ऋतुएं बीतीं और वर्ष के वर्ष बीत गए।<br />
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इस प्रकार की भक्ति एवं शरणागति के उस परम शिखर पर पदारूढ़ हो मनुष्य इहलीला समाप्त कर परम अविनाशी से मिलने के लिए प्रयास करेगा, क्योंकि जीव उसी का अंश है। फिर तो अंश की अंशी में मिलना ही चाहिए। यह अनुभूति गुरु करवाते हैं। इसलिए जीवन में गुरु का महत्व है। आगे भगवान उद्धव से कहते हैं- सदा परमार्थ के संबंध में ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा बनाए रखें। किसी के गुणों में दोष न निकालें और व्यर्थ की बात न करें। सचमुच हम जीवन का बड़ा हिस्सा व्यर्थ की बातों में निकाल देते हैं। इतना ज्यादा व्यर्थ हो जाता है कि जिन्दगी का सार्थक खो ही जाता है। कुल मिलाकर फालतू बातों से बचें।<br />
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भगवान अपने जीवन का निचोड़ उद्धव को बता रहे हैं। भगवान अपने जीवन में सदैव व्यर्थ से बचते रहे हैं। श्रीकृष्ण हमें जीवन में पल-पल का आनंद उठाने, कर्म में लगे रहने और जीवन में समय को व्यर्थ गवाने से बचने का संदेश देते हैं। कृष्ण से बड़ा कोई और कर्मयोगी नहीं हुआ है। कृष्ण कहते हैं हम जो समय व्यर्थ के क्रोध, अभिमान, झगड़े और वाद-विवाद में बिगाड़ते हैं उसे कर्म में लगाना चाहिए। विवाद, अभिमान, क्रोध ये सब क्षणिक आवेश होते हैं इस आवेग के गुजर जाने के बाद पछतावा ही होता है।<br />
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<b>हमारे धर्मग्रंथों में गंगा स्नान को जरूरी क्यों माना गया है?</b><br />
गुरु ज्ञान होता है और ज्ञान ही गुरु होता है। गुरु सब कर्म करता हुआ इस अहंकार से शून्य होता है कि ''मैं कर्म कर रहा हूं। वह यह भली प्रकार जानता है कि मैं जो कर रहा हूं उसका नियन्ता अथवा कराने वाला कोई और है जिसने इस देह को माध्यम बना दिया है। जिससे वह कोई नियति-विरुद्ध कार्य में संलग्न नहीं होता। महाराज जनक इसके प्रतीक थे। महाराज जनक ने ज्ञान की व्याख्या आरंभ की-परिपक्व ज्ञान से निर्वाण रूपी परम शान्ति प्राप्त होती है। वासनाओं का सम्पूर्ण त्याग ही श्रेष्ठ है, वहीं विशुद्ध अवस्था है और वही मोक्ष है। इस तत्व का ज्ञान जीवन्मुख बनाता है। उसके लक्षण हैं- सुखों तथा दु:खों से अनासक्त और हर्ष-क्रोध, काम एवं शोक आदि से अन्त:करण का मुक्त होना। दृष्टि का अनायास ही अन्तर्मुखी हो जाना। आकांक्षारहित तथा अपेक्षारहित मान-अभिमान सभी स्थितियों में एक समान न तो मैं का भाव होना और न ही पराया भाव। इन गुणों से युक्त तुम बाहर और अन्त:करण में उसे परब्रह्म को देखते हुए पूर्ण मुक्तावस्था में साक्षी भर रहते हो, तुम मुक्त हो।<br />
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तात्पर्य यह है कि स्व-स्वरूप को जानने वाला स्वयं का साक्षी होता है, किन्तु इस सोपान तक पहुंचने के लिए आधार हैं शम, आत्मचिंतन और सत्संग आदि। इन्द्रियों का दमन करना शम, आत्मचिंतन और सत्संग आदि। इन्द्रियों का दमन करना शम है। आत्मानुभव, सदग्रंथ (शास्त्र) तथा गुरु के वचनों में श्रद्धा और ऐक्यभाव से अभ्यास द्वारा आत्मचिंतन होता है। आत्मचिंतन में यह दृढ़ विश्वास होता है कि यह दृश्य-अदृश्य उस विराट की समग्र क्रिया है, चित्त की धड़कन उसका अंश मात्र है। यह आत्मदृष्टि है।<br />
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इसकी प्राप्ति गुरु कृपा या सत्संग से होती है। अन्त:करण की शुद्धि-सत्संग की गंगा में स्नान करने से ही होती है। वास्तव में गंगा स्नान का अर्थ है परमात्मा में डूबना, शरीर व मन को पवित्र करना। जब तन पवित्र होगा तो मन में पवित्र विचार आएंगे। जब मन में विचार अच्छे होंगे तो हमारे भीतर ज्ञान का उदय होगा। ज्ञान किसी भी व्यक्ति को कभी भी मिल सकता है। शर्त यह है कि हम इनके लिए तैयार रहें। अगर तैयार न रहें तो ज्ञान के कई अवसर हमारे हाथों से निकल जाएंगे। गंगा शिव के मस्तक से शुरू होकर सागर तक जाती है। वह निरंतर बहती है, कहीं ठहरी नहीं है। इसलिए उसका स्नान सबसे ज्यादा पुण्यकारी है। बहती नदी, प्रतीक है कि ज्ञान भी हमेशा प्रवाह मान होना चाहिए। अगर ज्ञान ठहर जाए तो हमारी तरक्की रुक जाती है। इसलिए परमात्मा चाहिए तो अपने भीतर ज्ञान का उदय करें, फिर उस ज्ञान को प्रवाह मान बनाएं।<br />
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<b>इसे पढऩे के बाद खत्म हो जाएगा मन से मौत का डर</b><br />
सही है उच्च कुल और कथित उच्च जाति का कोई सम्पन्न व्यक्ति व्यभिचार करें, चोरी करें, भ्रष्ट आचरण में लिप्त हो, मिथ्याचारी हो तो उसका कर्म अविहित कर्म ही होगा और कोई गरीब व्यक्ति किसी भी कथित जाति का हो, सत्यवादी हो, ईमानदार हो, अव्यभिचारी हो, चरित्रवान हो तो वह सत्व प्रधान व्यक्ति कहा जाएगा और ईश्वर को प्रिय होगा। उसके कर्म विहित कर्म होंगे। यदि कोई मनुष्य दुष्टों की संगति में पड़कर अधर्म परायण हो जाए, अपनी इन्द्रियों के वश में होकर मनमानी करने लगे, लोभवश दाने-दाने में कृपणता करने लगे, लम्पट हो जाए अथवा प्राणियों को सताने लगे और विधि-विरूद्ध पशुओं की बलि देकर भूत और प्रेतों की उपासना में लग जाए, तब वह पशुओं से भी गया-बीता हो जाता है। जितने भी सकाम और बहिर्मुख करने वाले कर्म हैं, उनका फल दु:ख ही है। ऐसी स्थिति में मृत्युधर्मा जीव को क्या सुख हो सकता है।<br />
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मृत्यु के बोध में ही उसका सुख है। थोड़ा समझ लें। मृत्यु एक ऐसा शब्द है जो भय उत्पन्न करता है लेकिन यह सबसे दृढ़ सत्य है जीवन का। जीवन के शेष सारे सत्य इसी के पीछे चलते हैं। मृत्यु तय है, इसे टाला नहीं जा सकता केवल इसकी गति को सुधारा जा सकता है। जीवन का एक-एक पल जो बीत रहा है यह हमारा मृत्यु की ओर बढ़ता कदम ही तो है। हम केवल इतना ही कर सकते हैं कि अपना कर्तव्य पूरी तरह से निभाएं फिर कोई भी स्थिति बने उससे डिगे नहीं। कर्तव्य स्वयं के प्रति हो, समाज के प्रति हो, परिवार के प्रति हो, राष्ट्र के प्रति हो या परमात्मा के प्रति, बस अपने कर्तव्य को निष्ठा और सत्य के साथ निभाते चलें। मृत्यु का भय दूर होता जाएगा। भागवत हमें यही सिखाती है।<br />
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जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु होती ही है। कोई दीर्घ आयु वाला है और कोई अल्प आयु वाला होता है। किसी की सुसमय मृत्यु होती है और किसी की अकाल मृत्यु। मृत्यु कैसे होगी, क्यों होगी, कहां होगी, कब होगी आदि प्रश्नों का उठना सहज है। मृत्यु का भय सब जीवों को होता है कारण यह कि मृत्यु सहज हो या असहज, यह होती बड़ी कष्टप्रद है। प्रत्येक जीव को इसका जन्म-जन्मात से कष्ट का अनुभव रहता आया है। इस पीड़ा को स्मरण कर भयातुर होना स्वाभाविक है।<br />
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जीव सनातन है, ईश्वर का अंश है किन्तु रूप, रस, गंध आदि के संसर्ग के कारण अपने अन्दर बसे प्राण तत्व से अनिभिज्ञ रहता है। प्राण तत्व से विलग हुआ जीव मृत्यु प्राप्त करता है। शरीर से अलग होता है। वह अपने किए हुए पुण्य अथवा पाप कर्मों से घिरा कर्मानुसार तीन स्थानों मृत्यु लोक, स्वर्ग लोक और नरक लोक में प्रवेश करता है।दिव्य प्रकाशयुक्त जो चन्द्रमण्डल, तारागण, सूर्य मण्डल है, वे पुण्य के स्थान हैं। लेकिन वहां भी संतोष नहीं होता। कारण यह कि अपने से अधिक तेज और ऐश्वर्य देखकर जीव भटकता है और वह आवागमन की लगी रहने वाली परम्परा में फिर जन्म ग्रहण करता है।<br />
<b><br />मोक्ष पाना है तो जरूरी है ये सीढिय़ां चढऩा</b><br />
ज्ञान और भक्ति दोनों ही मोक्ष की सीढिय़ां हैं। ज्ञान के बिना भक्ति और धर्म का लोप होता है। व्यक्ति को व्यावहारिक ज्ञान हो न हो, परम्तत्व के प्रति उसका ज्ञान होना चाहिए। तभी तो भक्ति जागृत होती है। इसलिए भगवान ज्ञान योग और भक्ति योग दोनों पर ही जोर दे रहे हैं। कई लोग यह मानते हैं कि अनपढ़ आदमी भी भक्ति करे तो उसे मोक्ष नहीं मिल सकता, तो यह बात सिरे से खारिज की जानी चाहिए कि जो अनपढ़ है और भक्ति कर रहा है तो वह अनपढ़ हो ही नहीं सकता क्योंकि वह तो ब्रम्हतत्व को जानता है। उस परमात्मा को मानता है, उसकी शक्ति से परिचित है। ऐसा आदमी भले ही अक्षर-ज्ञान का ज्ञाता न हो लेकिन उसे अनपढ़ कभी नहीं कहा जा सकता।<br />
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रामकथा के प्रसंगों से सीखें। भक्ति का अभ्युदय स्वत: ईश्वर की कृपा से, गुरुकृपा से, आत्म-अभ्यास से होता है। भक्तिमति शबरी इसका उदाहरण है। शबरी एक तो स्त्री, दूसरी वनवासिनी-संतों का संग से ईश्वरीय अनुभूति कर सकी और इस योग्य बन गई कि ईश उससे शक्ति का पता पूछते हैं ''जनक सुता कई सुधि भामिनी। जानहि कहु करिवर गामिनी और वह आगे का पथ बताती है। ''पंपा सरहि जाहु रघुराई। तहं होइहि सुग्रीव मिताई।। सो सब कहिहि देव रघुवीरा। जानत हूं पूछहु मति धीरा।। 16।।35 (अरण्य) यहां की भक्ति योग के पष्चात ज्ञान-योग में रामकथा के माध्यम से प्रवेश करने का प्रयास करते हैं। शबरी भक्ति योग और सुग्रीव के सचिव श्री हनुमत महाराज जो ''अतुलित बल धामं हेमशैलाम देहं, दनुजवन कृषानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्, सकल गुण निधानं वानराणामधीषं, रघुपति प्रिय भक्तं वातजात नमानि।।3।।अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत समान कान्ति युक्त देह वाले दैत्यरूपी वन के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, सम्पूर्ण गुणों के निधान वानरों के स्वामी श्री रघुनाथजी के प्रिय भक्त पवनपुत्र श्री हनुमानजी को मैं प्रणाम करता हूं।<br />
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ज्ञानियों में अग्रमान्य वही हो सकता है जो रघुनाथ के प्रिय भक्त हों। अर्थात् ज्ञान और भक्ति अनन्योन्यपरक है। एक-दूसरे के पूर्णरूपेण है तथा श्री हनुमत मिलन के पूर्व नारद मुनि ने अपने पूर्व इतिहास पर खेद प्रकाशित किया तो श्रीराम ने उत्पन्न मोह के अवगुणों का वर्णन करते हुए गुणों के घर संतों के लक्षण इस प्रकार प्रकाशित किए-संत काम, क्रोध, मोह, लोभ और मस्तर इन छ: विकारों को जीते हुए पाप रहित, कामना रहित, निष्चल, अकिंचन (सर्वत्यागी) बाहर भीतर से पवित्र, सुख के धाम, असीम ज्ञानवान, इच्छारहित, मिताहारी, योगी, सावधान, दूसरों को मान देने वाले, अभिमान रहित, धैर्यवान, धर्म व ज्ञान के आचरण में निपुण संसार के दु:खों से रहित, संदेहों से रहित, न देह से, न घर से मोह, वे अपने कानों से गुण सुनने में संकोच करते हैं।<br />
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<b>कबीर का ये फंडा अपनाकर जीएं तो जिंदगी का मजा हो जाएगा दोगुना</b><br />
संत कबीर का यह दोहा याद आता है कि यह सब जीवन्त अवस्था में पाना है, मरने पर किसने देखा है, विवेक स्थिति में-जेहि मरने से जग डरे, मेने मन आनंद। कब मरिहों कब पाइहौं, परम परमानंद।। साधक मृत्युसु भय से मुक्त परमानंद का अनुभव करता हुआ अपने हृदय में ईश्वरीय शक्ति के दर्शन बना अनुभव करता हुआ सदैव मगन रहता है। जगत की गति नहीं व्यापती-जेहि न व्यापे जगति गति....बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि मन के द्वारा इन्द्रियों को उनके विषयों से खींच ले और मन को बुद्धिरूप सारथी की सहायता से मुझमें ही लगा दे, चाहे मेरे किसी भी अंग में क्यों न लगे। जब सारे शरीर का ध्यान होने लगे, तब अपने चित्त को खींचकर एक स्थान में स्थिर करे और अन्य अंगों का चिंतन न करके केवल मन्द-मन्द मुसकान की छटा से युक्त मेरे मुख का ही ध्यान करे।<br />
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यहां भगवान ने ध्यान को मुस्कान से जोड़ा है। इसलिए जीवन में कैसा भी अवसर हो जरा मुस्कुराइए...। मुस्कुराना अपने आपमें योग है। जो साधक इस प्रकार तीव्र ध्यान योग के द्वारा मुझमें ही अपने चित्त का संयम करता है, उसके चित्त से वस्तु की अनेकता, तत्संबंधी ज्ञान और उनकी प्राप्ति के लिए होने वाले कर्मों का भ्रम शीघ्र ही निवृत्त हो जाता है।<br />
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महाभारत में ध्यान योग के संदर्भ में पितामह ने कुण्डलिनी शक्ति जागरण की विधि का वर्णन इस प्रकार किया-जापक ब्राम्हण और राजा इक्ष्वाकु दोनों ने एक ही साथ अपने मन को सब विषयों से हटा लिया। मूलाधार चक्र से कुण्डलिनी को उठाकर (जाग्रत कर) प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान- इन पांच वायुओं को हृदय चक्र (अनाहृत चक्र) में स्थापित किया। फिर मन को प्राण और अपान के साथ मिलाकर नासिका के अग्र भाग पर दृष्टि रखते हुए दोनों भौंहों के बीच आज्ञा चक्र में स्थापित किया। इस प्रकार मन को जीतकर दृष्टि को एकाग्र करके प्राण सहित मन को मूर्धा में स्थापित कर दिया और दोनों समाधि में स्थित हो गए। दोनों के ब्रम्हरन्ध्र से ज्योतिर्मय प्रकाश निकला और सीधा स्वर्ग की ओर चल दिया।<br />
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जब वह तेज ब्रम्हलोक में ब्रम्हाजी के पास पहुंचा तो ब्रम्हाजी ने कहा-ब्राम्हण देव योगियों को जो फल मिलता है वह जप करने वालों को भी मिलता है। बल्कि जप करने वालों को योगियों से भी उत्तम फल की प्राप्ति होती है।जप के महत्व को इसी से आंका जा सकता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने भगवत् गीता में कहा-यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि कि यज्ञों में, जप यज्ञ में मैं ही हूं। जप करते-करते जब एकाग्रता स्थापित होती है, तब ध्यान लगाने की प्रक्रिया स्वत: आरंभ हो जाती है, किंतु इस हेतु किसी महापुरुष या सद्गुरु की कृपा किवां अनुग्रह की आवश्यकता मार्गदर्शक के रूप में आवश्यक होती है।<br />
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<b>ये एक आदत इंसान को राक्षस बना देती है क्योंकि...</b>वरदान आते ही अभिमान जाग्रत होता है। अभिमान असुर बना देता है फिर कितना ही बड़ा साधक क्यों न हो। अभिमान मायिक हो महामाया (सीता) का अपहरण करता है। फिर उसके परिवार के जन प्रमाद (कुंभकर्ण), क्रोध (मेघनाद) सकोप बोला घननादा मोह आदि अपने आप पनप जाते हैं<br />
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साधक को इनके साथ युद्ध करना पड़ता है। यह संघर्ष ही अध्यात्म पथ में बाधक तत्व हैं, जिनके साथ जूझते हुए आगे बढ़ते जाने पर ही विजय संभव है।इस पथ में जरा सी चूक भी बहुत भारी पड़ जाती है। व्यक्ति कई बार अच्छे कर्म करते-करते भी मोह में फंस जाता है। भक्त होकर भी सांसारिक मोह में उलझ जाता है। ऐसा करते समय वो खुद को फि र संसार से बांध लेता है। संसार से फिर बंधना यानी फिर से जन्म-मरण के चक्र में उलझना। एक बार फिर उसी पथ पर, उसी संघर्ष के लिए निकल पडऩा। जो अभी हम कर रहे हैं। बस अध्यात्म के मार्ग में सबसे बड़ी रुकावट ही यही है। हम मोक्ष के मार्ग से हट जाते हैं एक जरा सी चूक से। और हम जब इस राह पर होते हैं तो समस्याएं ज्यादा होती हैं। किसी के साथ इम्तिहान ज्यादा हो जाते हैं। जैसे परीक्षा में एक चूक पूरे साल की मेहनत पर पानी फेर देती है। ऐसे ही अध्यात्म के मार्ग पर चूक हमारी जीवनभर की मेहनत पर पानी फेर देती है।<br />
रावण वध- मोह-मद का हनन है। आत्म तत्व के साथ शक्ति का जाग्रत हो मिलन होता है किंतु रामायण प्रसंग में सीता त्याग एक अद्भुत घटना है। आत्म तत्व एकमात्र रह जाता है। जीवनलीला समाप्त हो जाती है। क्या इससे कर्म पथ का लक्ष्य प्राप्त हो जाता है कहें या जन्म जन्मांतर तक पुनरादि जन्मम्, पुनरादि मरणम् का अनन्त क्रम चलता रहता है। यह एक ऐसा विषद एवं महत्वपूर्ण विचार मंथन का विषय है कि कर्मों बंधन से साधक कब और कैसे मुक्त हो।<br />
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कर्म करते हुए साधक भक्त हो सकता है। तनिक भी चूक हो जाने पर भक्त को भी बार-बार जन्म लेने को बाध्य होना पड़ सकता है। वर्तमान जन्म से श्रेष्ठ जन्म मिल सकता है।भारतीय मनीषियों ने भागवत के माध्यम से जीवन दर्शन कराया कि ईश्वरीय शक्ति से सम्पन्न मनुष्य को कर्म करना है और कर्म के अनुसार उसके अच्छे व बुरे फलों को भोगना है। मनुष्य जीवन ही कर्म काटने के लिए होता है।<br />
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इसमें कर्म कटते हैं, कर्म संग्रह होते है और नए-नए कर्म नित्य उत्पन्न होते हैं। गीता में श्रीकृष्ण ने कि कर्म की व्याख्या की है। अर्जुन ने पूछा था ''किं तद्ब्रम्ह कि मध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम। अर्थात हे पुरुषोत्तम! ब्रम्ह का स्वरूप क्या है? अध्यात्म क्या है और कर्म क्या है।विषय प्रतिपादन करना आसान नहीं अति दुष्कर है। अनुभव की सान पर चढ़े बिना व्यक्त नहीं किया जा सकता। कृपा साध्य विषय है।<br />
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<b>ये करते जाएं तो सबकुछ अपने आप मिलता जाएगा</b><br />
ब्रम्ह ने रावण का निर्माण किया, रावण से कर्म कराकर उसे शक्तिशाली बनाया। उसने शक्ति का गलत उपयोग किया, अभिमान युक्त हो उसने कर्म किए, फलत: निर्माता ब्रम्ह ने रावण का संहार करने के लिए राम का अवतार लिया। यह कर्म करने का ही प्रतिरूप है। जिसे भक्तों ने प्रभु की लीला कहा। विशाल दृष्टिकोण से देखा जाए तो राम भी वही, रावण भी वही, देव भी वही, दानव भी वही, मनुष्य भी वही, राक्षस भी वही किन्तु भेदात्मकता के आधार पर कर्म अलग-अलग हैं और उनकी फलाश्ऱुति भी एक नहीं होती है। यही सृष्टि के आधार पर कर्म अलग-अलग है और उनकी फलाश्रुति भी एक नहीं होती है। यही सृष्टि है, यही विश्व है-कर्म प्रधान विश्व करि रखा... कर्म प्रधान है। प्रधान के अनुसार सबकुछ निर्देशित होता है, क्रम चलता है।<br />
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कहा- नमो पार्थास्ति कर्मकां निशु लोकेशु किंचन। नानव्याप्तवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।।22।।13।।<br />
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अर्थात् - हे पार्थ! मुझे तीनों लोकों में कुछ भी करने को नहीं है। पाने योग्य कोई वस्तु पाई न हो ऐसी नहीं है तो भी मैं कर्म में लगा रहता हूं।<br />
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सूर्य, चंद्र, पृथ्वी इत्यादि की अविराम और अचूक गति ईश्वर के कर्म सूचित करती है। वे कर्म मानसिक नहीं किंतु शारीरिक गिने जा सकते हैं। ईश्वर निराकार होते हुए भी शारीरिक कर्म कैसे करता है, ऐसी शंका की गुंजाइश नहीं है, क्योंकि अशरीर होने पर भी शरीर की तरह ही आचरण करता हुआ दिखाई देता है। इसलिए वह कर्म करते हुए भी अकर्म और अलिप्त है।<br />
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मनुष्य को समझना तो यह है कि जैसे ईश्वर की प्रत्येक कृति यंत्रवत कार्य करती है, वैसे ही मनुष्य को भी बुद्धिपूर्वक किन्तु यंत्र की भांति ही नियम से काम करना चाहिए। मनुष्य की विशेषता इसमें नहीं कि वह यंत्र की गति का अनादर करके स्वेच्छाचारी हो जाए, उसे चाहिए कि सूझबूझ से उस गति का अनुसरण करे। अलिप्त और असंग रहकर यंत्र की तरह कार्य करने से घिसता नहीं। वह मरने तक ताजा रहता है। देह के नियम के अनुसार देह समय पर नष्ट होती है, परन्तु अंदर का आत्मा ज्यों का त्यों ही रहता है।<br />
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<b>इसीलिए कहते हैं ''संतोषी सदा सुखी''</b><br />
सम्पूर्ण वेद वांग्मय को 121 अध्यायों या उपखण्डों में विभाजित किया- इनमें राजा से लेकर दारिद्रय भोग रहे लोगों के लिए उपदेशों का संग्रह है। राजा प्रजा का प्राण रक्षक हो, उसकी आर्थिक उन्नति में सहायक हो, दुष्टों का दमन करे तथा मित्रों का संवर्धन करे।<br />
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यह राजधर्म की स्पष्ट व्याख्या है, जिसे वेद से ग्रहण करने का श्रीराम को संकेत चार बटुकों के साथ दान-पथ-गमन से लिया जाना युक्ति संगत लगता है।ग्रंथ में संकेत है-दरिद्रता कर्म-सा हिंसा, अदानी, लाक्षणिक रूप में लेकर समुद्र पार जाने को कहा गया है। ईष्र्या निरसन, क्रोध-शमन, जुआ के दुष्परिणाम, पाप युक्त लक्ष्मी का त्याग आदि पालनीय है। सकारात्मक पक्षों में आत्म रक्षा, दीर्घ आयु की कामना, प्राण-प्रशंसा में प्राणतत्व की स्तुति की गई है।<br />
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''नमस्ते अस्त्वायते नमो अस्तु परायते, नमस्ते प्राणतिष्ठत आसीनायोत ते नम:।। -अर्थवेद 11/4/7 राम चूंकि वनवासी बन अपने वंश की प्रतिज्ञा पूरी करने तथा आततायियों के मुक्ति दिलाने की ओर अग्रसर है - सहज ही प्रकृति विभिन्न अंगों की देववत उपासना करना है, यह श्रेष्ठ कर्म है। वेदों में वायु, सूर्य, वरूण आदि की स्तुति है, स्पष्ट किया गया है।<br />
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एक रहस्य प्रगट होता है कि जिसने यह जगत बनाया, वह भी इसे नहीं जानता। यह रहस्य आज तक विद्यमान है।प्रिय, अप्रिय, स्वप्न, सुपुष्टि, बाधा, थकान, आनंद, हर्ष ये बहुत प्रपंच यह उग्र पुरुष क्यों ढोते हैं? पीड़ा, दरिद्रता, रोग, कुबुद्धि मनुष्य में कहां से आते हैं? रिद्धि, समृद्धि, हीनता और उत्थान कहां से आते हैं। अथर्व वेद- 10/2/9 और 10/12/10<br />
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मृत्यु कहां से आती है? अमरता कहां है?-''क:अस्मिन् सत्यम् क: अमृतम् कुत: मृत्युकृत: अमृत''इसको शरीर रूपी वस्त्र पहनाए, इसकी आयु की कल्पना किसने की? इसका निर्धारण किसने किया? इसमें शक्ति की स्थापना किसने की और इसमें वेग किसने किया? आदि रहस्य हमारे सामने इस भरद्वाज के संकेत से स्पष्ट होते हैं।जगत में जो कुछ भी है, सब में ईश्वर बसाने योग्य है। जगत की वस्तुओं को त्यागपूर्वक उपयोग करो, लोभ न करो। यह धन (सम्पदा) किसका है।<br />
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''ईश्वरास्यमिदं सर्वंयत्किं च जगत्यां जगत। तेन त्यक्तेन भुन्जी था मा गृथ: कस्य सिद्धनम।। -यजुर्वेद-40 यह मंत्र उपनिषद के ऋषियों का भी मूल मंत्र है। इसे गांधीजी ने अपनी प्रार्थना में प्रथम स्थान दिया। वास्तव में जगत में जो कुछ भी है वह किसी का नहीं, सिर्फ है तो ईश्वर का। यह उदात्त भावना, विशालता हृदय और मस्तिष्क की है। जिसने अपने को इसमें रचा-बसा दिया, उसने परम सुख, संतोष पा लिया - कहा भी गया है ''संतोषी सदा सुखी''।<br />
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<b>जानिए, क्या है कृष्ण का मेडिटेशन फंडा?</b><br />
भक्ति को समझाने के बाद अब भगवान ध्यान यानी मेडिटेशन पर अपने गहरे विचार व्यक्त करते हैं। इन दिनों ध्यान फैशन का विषय हो गया है। वैष्णव लोगों ने कर्मकाण्ड पर खूब ध्यान दिया है लेकिन वे ध्यान को केवल योगियों का विषय मानते रहे। देखिए भगवान ध्यान को भी भक्तों के लिए महत्वपूर्ण बता रहे हैं।उद्धवजी ने प्रभु से पूछा- हे भगवन! आप यह बतलाइए कि आपका किस रूप से, किस प्रकार और किस भाव से ध्यान करें हम लोग।<br />
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भगवान कृष्ण बोले- भाई उद्धव! पहले आसन पर शरीर को सीधा रखकर आराम से बैठ जाएं। हाथों को अपनी गोद में रख ले और दृष्टि अपनी नासिका के अग्र भाग पर जमावे। इसके बाद पूरक, कुंभक और रेचक तथा रेचक, कुंभक और पूरक- इन प्राणायामों के द्वारा नाडिय़ों का शोधन करे। प्रणायाम का अभ्यास धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिए और उसके साथ-साथ इन्द्रियों को जीतने का भी अभ्यास करना चाहिए।<br />
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हृदय में कमल नालगत पतले सूत के समान ऊँकार का चिंतन करे, प्राण के द्वारा उसे ऊपर ले जाए। प्रतिदिन तीन समय दस-दस बार ऊँकार सहित प्राणायाम का अभ्यास करे। ऐसा करने से एक महीने के अंदर ही प्राणवायु वश में हो जाता है। मेरा ऐसा स्वरूप ध्यान के लिए बड़ा ही मंगलमय है। मेरे अवयवों की गठन बड़ी ही सुडोल है। रोम-रोम से शांति टपकती है। मुखकमल अत्यंत प्रफुल्लित और सुंदर है। घुटनों तक लम्बी मनोहर चार भुजाएं हैं। बड़ी ही सुंदर और मनोहर गर्दन है। मरकतमणि के समान सुन्न्ग्धि कपोल है। मुख पर मंद-मंद मुसकान की अनोखी ही छटा है। दोनों ओर के कान बराबर हैं और उनमें मकराकृत कुण्डल झिलमिल-झिलमिल कर रहे हैं।<br />
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वर्षाकालीन मेघ के समान श्यामल शरीर पर तीताम्बर फहरा रहा है। श्रीवत्स एवं लक्ष्मीजी का चिन्ह वक्ष:स्थल पर दायें-बायें विराजमान है। हाथों में क्रमश: शंख, चक्र, गदा एवं पंख धारण किए हुए हैं। गले में कौस्तुभ मणि, अपने-अपने स्थान पर चमचमाते हुए किरीट, कंगन, करधनी और बाजूबंद हैं। मेरा एक-एक अंग अत्यंत सुंदर एवं हृदयहारी है। मेरे इस रूप का ध्यान करना चाहिए और अपने मन को एक-एक अंग में लगाना चाहिए।इस चैतन्य अवस्था में साधक को शरीर और आत्मा के बीच भेदात्मक दृष्टि बनाए रखने में सहायता मिलती है। शरीर नष्ट होता है। आत्मा अमर है। वह चेतना बदलती रहती है। शरीर एक चोला है इसका वह जीवित अवस्था में अनुभव करता है।<br />
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<b>इसलिए कहते हैं जैसा देखोगे वैसा ही सोचोगे...</b><br />
शरीर को नौ द्वारों का पिंजरा कहा गया है। तामे पंछी मौन। जीव आत्मा उसमें पंछी है। प्रकाश दिखने से तात्पर्य है कि साधक की चेतनशक्ति क्रियाशील होती है। उस प्रकाष में वह जगत को ब्रम्हमय देखने लगता है। ज्ञान से तात्पर्य है ब्रम्ह विषयक ज्ञान। ब्रम्ह को जानना अत्यंत कठिन है। क्वचित ही कोई उसकी कृपा से उसको जानकर ज्ञानी बन पाता है। इस पथ पर चलने के लिए करुणामय ब्रम्ह या भगवान की अक्षुण्य कृपा चाहिए। वह अप्रकट है, दिखता नहीं, सुनाई नहीं देता किंतु प्रकृति-शक्ति के विभिन्न क्रिया कलापों के माध्यम से अपने को वह आभास करा देता है।<br />
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प्रकृति-शक्ति से वह कैसे आभासित हो? यह अनुभव सिद्ध महात्मा या संत गुरु रूप में जब अनुग्रह कर देते हैं तब संभव हो पाता है। जिससे साधक प्रकृति किंवा ईश्वरीय शक्ति का आभास करने में समर्थ हो सके।दूसरे, लोभ व चित्त की किसी विषय के लिए प्रवृत्ति, कर्मों का आरंभ, शांत न होने वाली तीव्र इच्छा- ये रजोगुण बढऩे के लक्षण हैं।। 12।।लोभ कई प्रकार का होता है। धन-सम्पत्ति, पद-वैभव, नाम-प्रशंसा आदि इसके ब्रह्य रूप हैं। इनके विषय में मन का चिंतन मनन भी परोक्ष लोभ है। कहा गया है-''लोभ पाप कर मूल...'' इस राजसिक वृत्ति को पाप से हटाना आवश्यक है, क्योंकि पाप करते हुए अध्यात्म पथ या ब्रम्ह मार्ग पर नहीं चला जा सकता।<br />
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वे कौन से कर्म हो सकते हैं कि लोभ सात्विकगुण में रूपांतरित हो जाए? संत तुलसीदासजी ने संकेत दिया है- कामहिं नारि पियारि जिमि, लोभी प्रिय जिमि दाम। तिमि रघुनाथ निरंतर हि: प्रिय लागहु मोहि राम।।अर्थात् भौतिक व सांसारिक लोभ को रामाभिमुख कर दिया जाए तो लोभ सात्विकता में परिणत हो जाएगा। दूसरे चित्त की विषय प्रवृत्ति मन द्वारा प्रेरित हो राग में प्रगट होने लगती है। जहां राग होता है वहा द्वेष अपने आप आ जाता है। चित्त को निर्विषय बनाना एक साधना है। निर्विषयी चित्त वालों का मन अभटकाव वाला हो जाता है, बुद्धि स्थिर हो जाती है। चित्त इन्द्रियों के माध्यम से विषयी होता है। इन्द्रियों के अपने विषय होते हैं।<br />
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आंखें अच्छा व सुंदर देखना चाहती हैं। वे कुत्सित दृश्य भी देखती हैं। तब तामसिक भाव मन में आता है। कान अच्छा-मधुर सुनना चाहते हैं किंतु उन्हें भी निंदा- स्तुति में आनंद आता है। कानों में हरिगुण, संत वचन यदि पहुंचे तो मन की वृत्ति में शुद्धता आ जाती है। मुख मधुर बोले, मधुर खान-पान करें, सात्विक उसका आहार हो तो वृत्ति को निर्विषयी बनाने में सहायता मिलती है। लेकिन रसना को संयम चाहिए, मुख से सत्य बोलना तप है। ''सांच बराबर तप नहीं... ''कहा गया है। हरि गुणगान भक्ति रूपी साधना है।<br />
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<b>ऐसे पता चलेगा, कौन सा रास्ता सही है और कौन सा गलत?</b><br />
ऋषि विश्वामित्र से संबंधित वर्णन श्रीराम के अठारहवीं पीढ़ी के पूर्वज सत्यवादी राजा हरीशचन्द्र ऐतिहासिक आख्यायिकों में भी मिलता है। उन्होंने श्रीराम व लक्ष्मण को अनेक प्रकार की विद्या दी।<br />
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विद्या ऐसी दी जिससे भूख-प्यास न लगे और शरीर में अतुलित बल और तेज का प्रकाश हो।चर्चाओं में ''कहते कथा इतिहास पुरानी... इतिहास के अनुभव से शिक्षा मिलती है कि भूलों को दोहराया न जावे और पालनीय कर्मों को करके आगे बढ़ा जावे। पूर्व अनुभवों की पुनरावृत्ति करने में समय न लगाया जाए, अगर उसमें उलझ गए तो आगे कैसे बढ़ा जावे।<br />
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तत्कालीन महान उद्देश्य था- अभिमानी असुरों को समाप्त करना। श्रीराम में इस दक्षता का अवलोकन किया गया। यह काम वृद्ध दशरथ व ज्ञानी जनक के बूते का नहीं था। फिर भी इन दोनों के बीच शक्ति-संचय के लिए सामंजस्य आवश्यक था। राम की भक्ति और विदेह कौशल जोड़कर महती कार्य संपादन की भूमिका तैयार की गई। सीता-राम विवाह करवाकर ऋषि विश्वामित्र ने बहुत बड़ा सामाजिक उपकार किया था।विद्या अध्ययन के दौरान राम के माध्यम से एक महत्वपूर्ण घटना घटित कराने में विश्वामित्र की बुद्धि-कौशल की जितनी सराहना की जाए उतनी कम है। गौतम ऋ षि वेद सूक्तों के दृष्टा थे। उन्होंने अपनी सती पत्नी अहिल्या को शाप देकर त्याग दिया था।<br />
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वे युगों से पत्थर मूर्ति हो उद्धार की प्रतीक्षा में साधना रत थीं। श्रीराम से चरण रज देकर ऋषि पत्नी के उद्धार की कामना की।'परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपकुंज सहीं।शोकनाश करने वाले चरणों का स्पर्श पाते ही सचमुच वह तपोमूर्ति अहिल्या प्रकट हो गई।''एहि भांति सिधारी गौतम नारी बार बार हरिचरन परी। जो अति मन भावा सो बरू पावा गै पति लोक आनंद भरी।। अर्थात्- बार-बार हरि चरणों में गिरकर वर को पाकर आनंद में भरी हुई पति लोक (गौतम के लोक) को चली गई।<br />
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श्रीराम का स्पर्ष अर्थात् सामाजिक मान्यता है कि बेकसूर नारी इन्द्र के छल के कारण क्यों प्रताडि़त होती रहे? पुन: पति द्वारा स्वीकार करने से बड़ा आनंददायक क्षण नारी के जीवन में दूसरा नहीं हो सकता। गौतम परम विद्वान ऋषि थे, किंतु सामाजिक स्वीकृति अर्थ-शून्य नहीं होती।इस प्रसंग में राम जितने महत्वपूर्ण हैं, विश्वामित्र भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं। विश्वामित्र ही राम को इस नारी हित के कार्य की प्रेरणा दे रहे हैं। राजा के लिए एक गुरु का होना बहुत ही आवश्यक होता है। ऐसा गुरु न केवल आपको मार्गदर्शन देगा बल्कि वह यह भी जानता है कि किस कार्य से आपकी कीर्ति फैलेगी। वह आपको ऐसे ही कार्य करने के लिए प्रेरित करेगा। यह कार्य गुरु ही कर सकते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि आपकी कीर्ति किस काम से फैलेगी।<br />
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<b>जानिए, हमारे सारे धर्मग्रंथ कहानियों के रूप में ही क्यों लिखे गए?</b><br />
तीन प्रकार की शंका- ईश्वर है कि नहीं, जबकि स्वयं ईश्वर का अंश जीव होता है। दूसरे गुरु प्रदत्त शक्ति हैं कि नहीं और तीसरे, साधन सफल हो रहा है कि नहीं- है और नहीं के बीच अटका साधक सिद्ध गुरुओं के रहने के बाद भी त्रिशंकु वाली स्थिति में बना रहता है। भारतीय दर्शन की खूबी है कि अध्यात्म के गूढ़ तत्वों की कथाओं के माध्यम से व्याख्या की जाती है।<br />
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कथाओं के माध्यम से तत्व दर्शन स्थाई भाव वाला हो जाता है। कभी पुराना नहीं पड़ता।भारतीय ऋ षियों और मनीषियों ने बहुत चिंतन के बाद हमारे साहित्य में यह रूप दिया है। कथाएं कभी अप्रासंगिक नहीं होती हैं। कथाएं हमारे मन में जल्दी उतरती हैं। कभी-कभी कथाएं ही सारी बातें कह देती हैं। जीवन में कथाएं बहुत महत्व रखती हैं। शिक्षा को सीधे याद रखना मुश्किल होता है, लेकिन अगर उसी शिक्षा के सार को किसी कथा में बदल दिया जाए तो ज्यादा सरल और उसकी याद रखने की अवधि बढ़ जाती है।<br />
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<b>इसलिए कहते हैं तब तक जीना तब तक सीना</b><br />
भगवान हर किसी वस्तु में उपस्थित हैं। भगवान ऐसा इसलिए भी कहते हैं कि इस सृष्टि की हर चीज में उसी का अंश है। हम हर चीज का सम्मान करें। उसका संरक्षण करें। अगर संरक्षण का भाव, सम्मान का भाव होगा तो हमारी प्रकृति भी सुरक्षित रहेगी। हमारे मन में भी संवेदना का भाव रहेगा।<br />
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हमारे दिल में जब संवेदना होगी तो हमारे भीतर भक्ति, प्रेम, दया, करुणा, स्नेह, ममता जैसे मानवीय भाव मौजूद रहेंगे। भगवान इसलिए कहते हैं कि हर जगह मैं मौजूद हूं। हर किसी में मेरा अंश मौजूद है। इस भाव से ही हम भगवान को हर किसी प्राणी में रखेंगे। हर जगह भगवान का दर्शन करेंगे, हर किसी को आदर देंगे।<br />
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ज्ञानी परमात्मा अंतर्गुरु दृष्टा है। संसार में पाप कर्म करते हुए पापाचारी और शुभ कार्यों युक्त शुभाचारी कहलाने वाला, कामनाओं द्वारा इन्द्रिय सुख में परायण (आहुति न देने वाला अर्थात् त्याग न करने वाला) कामाचारी और इन्द्रिय संयम में प्रवृत रहने वाला ब्रम्हचारी कहलाता है। जो व्रत और कर्मों का त्याग करके ब्रम्ह में स्थित है और ब्रम्ह स्वरूप हो संसार में विचरता है वही ब्रम्हचारी है। ब्रम्ह ही उसकी समिधा, ब्रम्ह ही अग्नि (ज्ञानाग्नि) ब्रम्हमय हो उसमें लीन होने तक यज्ञ करता रहता है, फिर उस यज्ञ की पूर्णाहुति इस जन्म में हो या अगले जन्मों में यह हृदय स्थित आचार्य जाने।<br />
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यह जीवन यज्ञ ही आत्म-यज्ञ है। जिसमें चिन्मय ज्योतियां, प्रकाशित होती है। उत्कृष्ट आनंद प्रदान करती है। यश, प्रभा, ऐश्वर्य, विजय, सिद्धियां, तेज आत्मारूपी सूर्य की रश्मियां बन जीवन आलोकित करती है। गुरु के पथ- में इन रश्मियां में साधक उलझता नहीं सूर्य की भांति जीवात्मा अपनी अनन्त यात्रा अनन्त के साथ करता जाता है कि परमात्मा (आचार्य) का काम परमात्मा जाने। उसे तो शम (मनोनिग्रह) के अनुशासन या विधान का जीवन यज्ञ में पालन करते जाना है, जिसमें बुद्धि स्थिर रहे, उनकी स्थित प्रज्ञता की स्थिति बनी रहे और वह विचलित न हो।<br />
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चिंतन चलता रहे- मैं स्वयं न तो गंध सूंघता हूं, न रसों का स्वाद लेता हूं, न रूप देखता हूं, न स्पर्श करता हूं, न नाना प्रकार के शब्दों को सुनता हूं और न किसी प्रकार के संकल्प ही करता हूं। मेरे मन में न तो कामनाओं के प्रति राग है और न दोशों के प्रति द्वेष। यह चिंतन मनोविज्ञान की दृष्टि से यदि बार-बार किया जाए तो साधक का मन या चित्त निर्वकार बन सकता है। इसे इन्द्रियों के कर्म यज्ञ की संकल्प संज्ञा दी जा सकती है। किंतु इस संसार में जब तक मनुष्य जिंदा रहता है, उसे कर्म करते जाना है।<br />
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कहावत प्रसिद्ध है- तब तक जीना तब तक सीना। वह पूर्वज जैसा सदा से करते आए हैं, वैसा करते जाना अधिक सुविधाजनक समझता है। क्वचित् ही कोई नेत्र खोल पथ पर चलता है। सामान्यत: जो पूर्वजों, आचार्यों, मनीषियों आदि के बने बनाए पथ पर अंधे (विवेकशून्यता) की भांति पैर रगड़-रगड़ कर चलता है, वह मोह से मुक्त नहीं हो पाता। वह कर्म करता है लेकिन जानता नहीं कि कर्म क्या है। वह ही नहीं ज्ञानवान् लोग भी इस विषय में मोहित हैं, भ्रम में पड़े हुए हैं।<br />
<b><br />जब आस्था डगमगा जाए तो समझ जाओ कि....</b><br />
हमारी आस्था जितनी गहरी होगी, मंत्रजप का फल भी उतना ही अधिक होगा। किसी भी परिस्थिति में हमारी आस्था को कोई हानि नहीं होनी चाहिए। अगर आस्था और विश्वास डगमगाने लगे तो फिर मंत्र का वो प्रभाव हम देख ही नहीं पाएंगे, न ही उसका कोई लाभ हमें नजर आएगा। इसलिए हमेशा सतर्क रहकर जप करें। किसी भी परिस्थिति से निपटने में मंत्र सहायक हो सकते हैं, लेकिन हमें इसके विश्वास को कायम रखना होगा। परमात्मा भी हमारी आस्था पर ही टिका है। जब तक आस्था है परमात्मा का अस्तित्व है, जिस दिन आस्था डगमगाई परमात्मा भी दिखाई देना, महसूस होना और उसका हमारे इर्द-गिर्द होने का आभास होना भी खत्म हो जाएगा। सारा संसार जड़वत, पत्थर हो जाएगा। भगवान इसलिए तंत्र जप केवल उच्चारण मात्र नहीं यह एक विशेष ज्ञानमय वैज्ञानिक है। मंत्रों में ऊँ को बीज स्वीकार किया जाता है। ''प्रवर्तन्ते विधानोक्ता: सततं ब्रम्हवारिनाम्।।<br />
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विधानोक्त सब क्रियाओं का सदा 'ऊँ कहकर ब्रम्हवादी आरंभ करते हैं। ऊँ तत्सत् कहकर ब्रम्हाजी ने वेद पुराण और ब्राम्हण ग्रंथ रचे। ऊँ से सब मंत्रों का आरंभ होता है, ब्रम्ह भावमय हो साधक उस सत् का मनन करते हुए मंत्र का मनन करे, चिंतन करे तब ही मंत्र पूर्णता को प्राप्त होता है।<br />
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महात्मा लोग सामान्यत: व्यक्त करते हैं कि मंत्र जितना छोटा हो उतना अधिक साधक के जपने में सरल होता है, यह एक व्यावहारिक तथ्य है। बड़े मंत्र में अर्थ की उलझन सामान्यत: हो जाया करती है और मन का भटकना गतिमान हो जाता है। मन को मंत्र बांधे रखे उतनी साधना उच्च स्तर की होती है। जप के लिए संभवत: ''माला''का विधान रचा गया है। माला के मन के मन में लगा रहे और यदि वह उड़े तो जहाज के पंछी के मानिन्द पुनि जहाज पर आ जावे।<br />
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<b>जो ऐसे काम करते हैं उन्हें दुखों का सामना करना पड़ता है</b><br />
शम, दम, तपस्या, पवित्रता, क्षमाशीलता, सीधापन, मेरी भक्ति, दया और सत्य ये ब्राम्हण वर्ण के स्वभाव हैं। तेज, बल, धैर्य, वीरता, सहनशीलता, उदारता, उद्योगशीलता, स्थिरता, ब्राम्हणभक्ति और ऐश्वर्य ये क्षत्रिय वर्ण के स्वभाव हैं। आस्तिकता दानशीलता, दम्भहीनता, ब्राम्हणों की सेवा करना और धनसंचय से संतुष्ट न होना ये वैश्य वर्ण के स्वभाव हैं।ब्राम्हण, गौ और देवताओं की निष्कपट भाव से सेवा करना और उसी से जो कुछ मिल जाए, उसमें संतुष्ट रहना ये शुद्र वर्ण के स्वभाव हैं।<br />
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अपवित्रता, झूठ बोलना, चोरी करना, ईश्वर और परलोक की परवा न करना, झूठमूठ झगडऩा और काम, क्रोध एवं तृष्णा के वश में रहना ये अन्त्यजों के स्वभाव हैं।उद्धवजी! चारों वर्णों और चारों आश्रमों के लिए साधारण धर्म यह है कि मन, वाणी और शरीर से किसी की हिंसा न करें, सत्य पर दृढ़ रहें, चोरी न करें, काम, क्रोध तथा लोभ से बचें और जिन कामों के करने से समस्त प्राणियों की प्रसन्नता और उनका भला हो, वही करें।यहां भगवान सभी वर्णों की पहचान उसे कर्म ही बता रहे हैं।योग दर्शन में भी कर्म को सूत्ररूप में वर्णित किया गया है - 'कर्माशुक्लाकृश्णं योगिनर-त्रिविधमितेशाम।। ''कैवल्यवाद-7<br />
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योगी के कर्म न शुक्ल होते हैं न ही कृष्ण जबकि अन्यों के तीन प्रकार के होते हैं। योगी की चित्त स्थिति अस्मिता में स्थित होती है। अस्मिता अहम् की शुद्धावस्था है जिसमें चित्त पर आत्म-प्रकाश स्पष्टतया प्रतिबिम्बित होता है।सभी कर्म केवल कर्म भावना से संपादित होते हैं। उनके संस्कार शुभ व अशुभ चित्त में संचित नहीं होते। यह सिद्ध अवस्था है- योगी जगत में रहते हुए भी सर्वबंधन मुक्त होता है। सामान्य संसारी जीवों की दशा इससे विपरीत होती है।<br />
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उनकी अस्मिता पहले अहंकार की सीमा तक नीचे उतर आती है तथा उसमें राग-द्वेष उत्पन्न हो जाता है। अस्मिता जब अभिमान का रूप ग्रहण करती है तब उसमें अशुभ, बुरे परहित विरोधी भाव उदय होते हैं। कभी शुभ, अच्छे तथा परहित, अनुकूल संकल्प उठते हैं तो कभी मिश्रित।कृष्ण कर्म- हिंसा, क्रोध, लोभादि से अभिभूत जितना अधिक कर्म करता जाता है उतना ही निम्न योनियों में जन्म ले दु:खों का अंबार ढोकर अनजान असीम स्थिति तक चलता रहता है। आजकल काले कारनामों की बड़ी महाभारत तैयार होती जा रही है। अशांति इसका फल है।<br />
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शुक्ल कर्म- अच्छे कर्मों की प्रवृत्ति से प्रेरित अहिंसा, परहित, जप-तप पुण्य कर्मों आदि का संचय करता है तथा उच्च योनियों में जन्म लेकर सुख भोगता है। किंतु आवागमन का चक्र नहीं टूटता क्योंकि अच्छे कर्म भी अभिमान और मोहयुक्त होते हैं।मिश्रित-कृष्ण-युक्त - कर्म कभी पुण्य कर्म कभी अशुभ कर्म करते व्यक्ति अपने कालक्रम को पूरा करता है। कभी सुख, कभी दु:ख जीवन का अंग बने रहते हैं।आगे व्याख्या में स्पष्ट किया गया है कि कर्मों के फल देने योग्य व्यवस्था के अनुसार ही, वैसी ही गुणवाली वासना उदय होती है।<br />
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<b>भगवान भी कहते हैं गृहस्थी बसाओ और मुझे पाओ</b><br />
यहां भागवत शिक्षा की व्यवस्था पर प्रकाश डाल रही है। गहराई से देखें तो शिक्षा और विद्या में यही फर्क है। आज शिक्षा बढ़ी है, विद्या नहीं। शिक्षक खूब मिल जाएंगे, गुरु नहीं मिलते।<br />
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मन, वाणी और शरीर का संयम- यह ब्रम्हचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी सभी के लिए एक सा नियम है।भाई उद्धव! यदि नैष्ठिक ब्रम्हचर्य ग्रहण करने की इच्छा न हो, गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहता हो तो विधिपूर्वक वेदाध्ययन समाप्त करके आचार्य को दक्षिणा देकर और उनकी अनुमति लेकर समावर्तन संस्कार करावे।<br />
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स्नातक बनकर ब्रम्हचर्याश्रम छोड़ दे। ब्रम्हचारी को चाहिए कि ब्रम्हचर्य आश्रम के बाद गृहस्थ अथवा वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करे। भगवान भी कहते हैं गृहस्थी बसाओ और मुझे पाओ।भगवान कहते हैं- प्रिय उद्धवजी! यदि ब्रम्हचर्याश्रम के बाद गृहस्थाश्रम स्वीकार करना हो तो ब्रम्हचारी को चाहिए कि अपने अनुरूप एवं शास्त्रोक्त लक्षणों से सम्पन्न कुलीन कन्या से विवाह करे। राजा पिता के समान सारी प्रजा का कष्ट से उद्धार करे, उन्हें बचावे, जैसे गजराज दूसरे गजों की रक्षा करता है और धीर होकर स्वयं अपने आप से अपना उद्धार करे।<br />
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यदि ब्राम्हण अध्यापन अथवा यज्ञ-यागादि से अपनी जीविका न चला सके तो वैश्यवृत्ति का आश्रय ले ले और जब तक विपत्ति दूर न हो जाए, जब तक करे। यदि बहुत बड़ी आपत्ति का सामना करना हो तो तलवार उठाकर क्षत्रियों की वृत्ति से भी अपना काम चला ले। इसी प्रकार यदि क्षत्रिय भी प्रजापालन आदि के द्वारा अपने जीवन का निर्वाह न कर सके तो वैश्यवृत्ति व्यापार आदि कर ले।<br />
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बहुत बड़ी आपत्ति हो तो शिकार के द्वारा अथवा विद्यार्थियों को पढ़ाकर अपनी आपत्ति के दिन काट दे। वैश्य भी आपत्ति के समय शूद्रों की वृत्ति सेवा से अपना जीवन निर्वाह कर ले। गृहस्थ पुरुष अनायास प्राप्त अथवा शास्त्रोक्त रीति से उपार्जित अपने शुद्ध धन से अपने भृत्य, आश्रित प्रजाजन को किसी प्रकार का कष्ट न पहुंचाते हुए न्याय और विधि के साथ ही यज्ञ करें।<br />
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<b>इस कहानी से समझे जीवन का सही अर्थ...</b><br />
प्रभु दर्शन की दृष्टि चाहिए। हम उसके अणु से छोटे अंश सूर्य को देख नहीं सकते तो फिर उसे कैसे देख सकते हैं। अर्जुन ने दर्शन करने चाहे, भगवान ने भी दर्शन देने की तैयारी की, लेकिन वह दर्शन नहीं कर सका, जब तक कि भगवान ने कृपा करके उसको अपनी दृष्टि नहीं दी। इसीलिए भक्त भगवान से कुछ नहीं मांगता, उसकी कृपा उसे वह अहेतु हितैषी अपने आप दे देता है। यह अपने आप मिलने वाली कृपा के लिए भक्त क्या करे, बस समर्पण कर दे। तन्मय हो जाए साधना में।<br />
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साधना किस प्रकार करें? नारद भक्ति सूत्र, शाण्डिल्य भक्ति सूत्र, रामायण में भगवान के द्वारा शबरी को दिए गए नवभक्ति सूत्र भागवतीय सूत्र हैं जो साधना का स्वरूप बताते हैं। ये अपने आप में विषद विषय है। कोई एक आधार ले लिया जाए और चल पड़ा जाए। इन सबमें सरलतम लगता है, नि निरंतर हरिनाम लेना राम नाम लेना। शिव नाम लेना। अपने प्रिय भगवान को सदैव याद करना और याद रखना भक्ति है। इसका फल ही भगवत् दर्शन है। प्रिय को जानने का और तरीका नहीं शास्त्रों की व्याख्या पण्डितों का काम है।<br />
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श्रद्धा और विश्वास का आधार लिए बिना भक्ति अवतरित नहीं होती। पार्वती और शंकर ही भक्ति सुरसरि धारा को धारण कर सकते हैं। जो भागीरथ तपस्या के बाद ही प्राप्त हो सकती है। जो परम ब्रम्ह की चरणामृत है।अर्थात् भक्ति प्राप्त करके भक्त बनने के लिए पहले श्रद्धा-विश्वास जगाएं। यही शक्ति जागरण है। कुण्डलिनी जागरण, फिर इन्द्रिय निग्रह यम नियम द्वारा तप करके निश्चल निर्विकार बने भक्ति अवतरित होगी और तब भक्त बन भगवान के प्रिय बन उसकी कृपा पाई जा सकेगी और दु:ख का सागर उस कल्याणमय की कृपा से सहज ही पार किया जा सकेगा।<br />
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भागवत गृहस्थी का ग्रंथ है। इसमें लगभग जीवन के हर पक्ष को स्पर्श किया गया है। भगवान उद्धव को गृहस्थी के साथ-साथ वानप्रस्थ और संन्यास के भी धर्म बता रहे हैं। इसी के साथ कथा ग्यारहवें स्कंध के 18वें अध्याय में प्रवेश कर रही है। इन चर्चाओं में भागवत का ही नहीं, जीवन का भी सार सामने आ रहा है।भगवान कहते हैं-उद्धव! यदि गृहस्थ मनुष्य वानप्रस्थ आश्रम में जाना चाहें तो अपनी पत्नी को पुत्रों के हाथ सौंप दे अथवा अपने साथ ही ले ले और फिर शांत चित्त से अपनी आयु का तीसरा भाग वन में ही रहकर व्यतीत करे।<br />
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भागवत में जो आचरण बताए हैं वे बहुत कठिन हैं, लेकिन देशकाल परिस्थिति के बदलाव के साथ एक बात समझ लें इसका सीधा अर्थ है संयम। वानप्रस्थ को चाहिए कि कौन सा पदार्थ कहां से लाना चाहिए, किस समय लाना चाहिए,कौन-कौन पदार्थ अपने अनुकूल हैं- इन बातों को जानकर अपने जीवन-निर्वाह के लिए स्वयं ही सब प्रकार के कन्दमूल फल आदि ले आवे। देशकाल आदि से अनभिज्ञ लोगों से लाएं हुए अथवा दूसरे समय के संचित पदार्थों को अपने काम में न ले। इसका अर्थ है भोजन संयम बनाए रखें।<br />
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<b>अगर सुखी रहना चाहते हैं तो इससे बचकर रहें</b><br />
उद्धव! आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक- इन तीन विकारों की समष्टिही शरीर है और वह सर्वथा तुम्हारे आश्रित है। यह पहले नहीं था और अन्त में नहीं रहेगा, केवल बीच में ही दिख रहा है। इसलिए इसे जादू के खेल के समान माया ही समझनी चाहिए। इसके जो जन्मना, रहना, बढऩा, बदलना, घटना और नष्ट होना ये छ: भावविकार हैं। इनसे तुम्हारा कोई सम्बंध नहीं है। यहीं नहीं, ये विकार उसके भी नहीं हैं, क्योंकि वह स्वयं असत् है। असत् वस्तु तो पहले नहीं थी, बाद में भी नहीं रहेगी, इसलिए बीच में भी उसका कोई अस्तित्व नहीं होता।<br />
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माया को समझना बहुत मुश्किल है। माया नित्य होकर भी न होने वाली वस्तु को कहते हैं। शरीर है भी और नहीं भी, जीवन है भी और नहीं भी। धन-सम्पत्ति है भी और नहीं भी। ऐसी हर वस्तु जो होकर भी नहीं है लेकिन उसके होने का एहसास हमें उससे जोड़ता है, उसके प्रति हमारा मोह बढ़ाता है और उसके न होने का एहसास हमें दुखी करता है, यही माया है। जिस व्यक्ति के मन पर किसी वस्तु के होने और न होने का कोई फर्क नहीं पड़ता वही माया से रहित और माया से मुक्त है।<br />
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भगवान को माया से रहित इसीलिए माना गया है कि वे न तो किसी के होने पर बहुत अधिक प्रसन्न होते हैं और कुछ न मिलने पर दुखी भी नहीं होते। हम हर तरफ से माया से घिरे हैं, घर, परिवार, बच्चे, बीवी, धन, सम्पत्ति, दुकानदारी, व्यवसाय। ये सब माया की तरह ही हैं, जो मौजूद भी हैं लेकिन नित्य नहीं है।माया बांधने का काम करती है। माया का अर्थ है माया, मा का अर्थ है नहीं है, या का अर्थ है यह। यानी माया का पूर्ण अर्थ हुआ यह नहीं है। माया में आदमी इस तरह बंध जाता है कि उसे कुछ भी भान नहीं रहता। बड़े-बड़े विद्वान और ऋ षि भी माया के जाल में फंस गए हैं। माया से बचकर रहने से ही जीवन सुखी रह सकता है।<br />
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<b>क्यों नहीं लेना चाहते थे शुकदेवजी जन्म, क्या हुआ उनके जन्म के बाद?</b><br />
महाभारत में कथा है कि भगवान वेद व्यास की पत्नी गर्भवती थी और शुकदेवजी ही उनके गर्भ में पल रहे थे। शुकदेवजी गर्भ से ही माया रहित थे, वे संसार के मोह में फंसना नहीं चाहते थे, सो बरसों तक गर्भ में पलते रहे। ऋषियों ने बहुत प्रयास किया कि वे संसार में आ जाएं लेकिन वे नहीं माने। उन्होंने कहा जब विष्णु अपनी माया को रोक दें तो ही वे संसार में आएंगे। एक पल से भी कम समय के लिए भगवान विष्णु ने अपनी माया को रोक लिया और शुकदेवजी गर्भ से निकलकर सीधे वन की ओर भागे। जैसे ही माया सक्रिय हुई, वेद व्यासजी पुत्र वियोग से व्यथित होकर उनके पीछे भागने लगे। वे ब्रह्मज्ञान के ज्ञाता होकर भी वे माया से मोहित होकर पुत्र के पीछे दौड़ पड़े।<br />
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दौड़ते-दौड़ते शुकदेवजी एक तालाब के किनारे से गुजरे, वहां कुछ युवतियां नहा रही थीं, शुकदेव को देखकर भी वे विचलित नहीं हुईं और नहाने में लगी रहीं। तभी थोड़ी देर बाद वहीं से वेद व्यास भी गुजरे, तो युवतियां अपने कपड़े संभालने लगीं। वेद व्यास ने आश्चर्य से पूछा कि तुम ये कैसा व्यवहार कर रही हो, एक युवक गुजरा तो तुम्हें कोई लाज महसूस नहीं हुई और मैं वृद्ध हूं, तुम्हारे पिता जैसा हूं, तुम मुझसे लाज कर रही हो, भाग रही हो।<br />
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युवतियों ने जवाब दिया महर्षि आपका पुत्र माया से मुक्त है, उसे संसार से कोई मोह नहीं है, हमें देखकर भी वो अनदेखा कर गया लेकिन आप उसके विपरित हैं, आपमें अभी भी मोह और माया है। आप अपने ब्रह्म तत्व के ज्ञाता पुत्र के पीछे भाग रहे हैं। आप खुद भी परमतत्व के ज्ञाता हैं। वेद व्यास को युवतियों की बात समझ में आ गई। उन्होंने शुकदेव का पीछा करना छोड़ दिया।कथा बताती है कि हम भले ही कितने ही धीर-गंभीर और ज्ञानी क्यों न हों, माया से कब घिर जाएंगे, पता नहीं चलेगा। सबसे पहले माया को समझना जरूरी है।<br />
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<b>जिंदगी को समझने के लिए प्रेम करना जरूरी है क्योंकि...</b><br />
भगवान ने अपनी माया से वृक्ष, रेंगने वाले जन्तु, पशु, पक्षी, डॉस और मछली आदि अनेक प्रकार की योनियों की रचना की, परंतु उनसे संतोष न हुआ, तब उन्होंने मनुष्य के शरीर की रचना की। उसमें ऐसी बुद्धि है कि वह ब्रम्ह साक्षात्कार कर सकता है। अन्य योनियों में यह संभव नहीं। यद्यपि मनुष्य शरीर है तो अनित्य ही, मृत्यु उसके पीछे लगी रहती है। परन्तु इससे परम पुरुषार्थ की प्राप्ति नहीं हो सकती। पुरुषार्थ चार प्रकार के हैं-अर्थ, धर्म, काम व मोक्ष। इनमें परम पुरुषार्थ मोक्ष है।<br />
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अत्यंत दुर्लभ मनुष्य शरीर पाकर बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि मृत्यु से पहले ही मोक्ष प्राप्ति का प्रयत्न कर ले। इस जीवन का मुख्य उद्देश्य मोक्ष ही है। अन्य पुरुषार्थ या योग तो अन्य योनियों में प्राप्त हो सकते हैं, किंतु मोक्ष नहीं।भगवान श्रीकृष्ण ने उद्धवजी को यह उपदेश तो दिया ही उसी के साथ उन्होंने साधक के परम कर्तव्य की पद्धति भी समझाई। ''निष्काम भाव से अपने वर्ण, आश्रम और कुल के अनुसार सदाचार का अनुष्ठान करे तात्पर्य यह है कि वर्ण, आश्रम और कुल मनुष्य को पूर्व जन्मों के कर्मों के फल के रूप में मिलते हैं। इनके अनुसार कर्म करते रहने में सद्कर्मों में सतत्ता बनी रहती है। पूर्व जन्म की साधना इससे चलाए रखने में सहायता मिलती है और साधक की साधना आगे बढ़ती रहती है।<br />
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स्वधर्मों का पालन करने से शुद्ध हुए चित्त में यह विचार करे कि जगत के विषयी प्राणी शब्द, स्पर्श रूप आदि विषयों को सत्य समझकर उनकी प्राप्ति के लिए जो प्रयत्न करते हैं, उनका उद्देश्य तो यह होता है कि सुख मिले परन्तु मिलता है दु:ख। इससे यह विचार करना चाहिए कि सब स्वप्नवत है। अपने जीवन की पूर्णता पर भगवान उद्धव को अनेक सुंदर बातें समझा रहे हैं। इसी के साथ हम ग्यारहवें स्कंध के उन्नीसवें अध्याय में प्रवेश कर रहे हैं।<br />
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श्रीकृष्ण कहते हैं- भाई उद्धव! ज्ञानी पुरुष का अभीष्ट पदार्थ मैं ही हूं। उसके साधन-साध्य, स्वर्ग और अपवर्ग भी मैं ही हूं। मेरे अतिरिक्त और किसी भी पदार्थ से वह प्रेम नहीं करता। भागवत का संदेश ही है प्रेम करो। जिसने प्रेम का सही अर्थ जान लिया वह वासनाओं से आसानी से मुक्त हो जाएगा। जो परमात्मा से प्रेम करने का सही अर्थ जान जाएगा वह फिर परिवार के सदस्यों से भी प्रेम करेगा और यहीं से परिवारों में शांति आएगी। आज परिवारों से प्रेम खत्म होने के कारण ही परिवार बिखर रहे हैं। इसलिए मेरे प्यारे उद्धव! तुम ज्ञान सहित अपने आत्मस्वरूप को जान लो और फिर ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न होकर भक्तिभाव से मेरा भजन करो।<br />
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<b>क्यों दे दिया नारद ने अपने ही भगवान को शाप?</b><br />
संसार सत्य भी है और असत्य भी। सत्य को हमें आध्यात्मिक दृष्टि से देखना होगा। सत्य क्या होता है। परिस्थितियों का वास्तविक दृश्य ही सत्य नहीं होता, हम जो देख रहे, सुन रहे, बोल रहे हैं वह सब सत्य है, ऐसा नहीं है। सत्य एक ऐसा पथ है जिस पर चलना न केवल मुश्किल है, बल्कि आम संसारी जीव के लिए तो कई बार नामुमकीन सा हो जाता है। केवल एक बार सत्य बोलने से कुछ नहीं होता, इसे दैनिक जीवन में उतारना पड़ता है।<br />
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जब बात संसार की हो तो यह तय करना और मुश्किल हो जाता है कि संसार सत्य है या असत्य। हमें यह सत्य दिखाई पड़ता है लेकिन अध्यात्म कहता है कि यह असत्य है।संसार माया है। इस माया में हम सब खोए हैं। जब तक इस संसार में रहेंगे, इस माया में बंधे रहेंगे, देह से संसार को देखेंगे। दैहिक नेत्रों पर विश्वास करेंगे तो संसार सत्य ही नजर आएगा। जब देह के नेत्र बंद होते हैं और आत्म के नेत्र खुलते हैं, अंतर्मन जागता है तो फिर संसार से बड़ा झूठ कोई भी नहीं लगता।रामायण की एक कथा संसार के सत्य और झूठ होने का सबसे बड़ा उदाहरण है। कथा है नारदऋषि ने कामदेव को हरा दिया तो उन्हें यह अभिमान हो गया कि मैंने हरि यानी विष्णुजी की माया को जीत लिया।<br />
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वे सारे लोगों में अपनी ही बढ़ाई करते फिर रहे थे। हकीकत यह थी कि विष्णुजी ने नारद के प्रेमवश उन्हें अपनी माया से दूर ही रखा था। नारद ने जब यह बात खुद विष्णु को बता दी। विष्णुजी को यह अनुभव हो गया कि नारद को अहंकार ने छू लिया है। उन्होंने थोड़ी देर के लिए नारद को भी अपनी माया में मोहित कर दिया। अब नारद की दशा बदल गई, जिस कामदेव को उन्होंने हरा दिया था, क्योंकि उस समय वे उसे अपनी ब्रम्हज्ञान वाले नेत्रों से देख रहे थे, आत्मा के नेत्रों से देख रहे थे।इसलिए उन्हें कामदेव के बाण भी मिथ्या लग रहे थे। अब उनके संसारी नेत्र खुले क्योंकि संसारी माया ने उन्हें अपने वश में कर लिया। एक नगर की राजकुमारी उन्हें भा गई।<br />
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ब्रम्हचारी ने गृहस्थी बसाने का निर्णय कर लिया। राजकुमारी को मोहित करने के लिए विष्णुजी से ही उनका स्वरूप भी मांग लिया। भगवान सिर्फ नारद का भ्रम दूर करना चाहते थे इसलिए वानर का वेष उन्हें दे दिया। नारद को राजकुमारी ने अस्वीकार कर दिया। नारद क्रोध से भर गए जिस नारायण को वे दिनरात जपते थे उसे ही शाप भी दे दिया। फिर विष्णु ने उन्हें अपनी माया से मुक्त किया तो उन्हें अपनी गलती का एहसास हो गया। जब व्यक्ति माया से, मोह से बंधा होता है तो वह संसार को ही सत्य मानता है। जब माया से छूटता है तो फिर परमात्मा के अलावा कोई भी सत्य नहीं लगता।<br />
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<b>रावण क्यों नहीं समझ पाया कि राम भगवान हैं?</b><br />
भगवान श्रीराम ने दोहरी लीला की। सीताजी को अग्नि में समाने को कहा- यदि ऐसा नहीं किया जाता तो रावण उन्हें छू भी नहीं सकता, पास आते ही भस्म हो जाता। रावण की मति को उसके अंतिम क्षण तक नहीं फेरा। वह किसी के समझाए नहीं समझा। अपने उद्देश्य भव तरऊँ तक लड़ा। तात्पर्य यह कि या तो भक्ति की शरण में सीधा जाया जाए, जैसे श्री हनुमानजी गए या रावण के समान छाया भक्ति को प्राप्त किया जाए। श्री हनुमानजी ने भी पहले पहल छाया भक्ति के ही दर्शन किए थे। शुद्ध निरामय भक्ति विरक्त जनकजी को प्राप्त हुई थी। हल चलाते हुए भूमि से प्रकट हो जानकी ने जनक को पिता रूप में वरण किया था। आध्यात्मिक दर्शन का यह बहुत ही सुंदर रूपक है।<br />
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निश्चल प्रेम स्वरूपा माँ की इससे महती कृपा क्या हो सकती है कि पिता रूप में स्वीकार करें। पिता पालन करते हैं और पति को सौंप देते हैं। यह विरक्त विदेह के द्वारा ही संभव है।सत्य (ब्रम्ह) प्रेम-अहिंसा का अद्भुत विवाह ही योग है। इसे अपने अंतर में साधक को अनुभव करते जाना है। इसे हम आनंद की संज्ञा दें तो साधक को सोपान पर चढऩे में सहायता मिलती जाती है। ऋषि पातंजल ने योग-सिद्धि के लिए यम-नियम का जो महत्व निरूपित किया, उसमें प्रथम युगल-'सत्य अहिंसा का ही है।<br />
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अहिंसक पद्धति से चलते हुए सत्य का अनुभव किया जा सकता है। अर्थात् ब्रम्ह-तत्व अनुभव किया जा सकता है। कुछ लोग प्रश्न करते हैं कि क्या ब्रम्ह-ईश्वर के दर्शन किए जा सकते हैं? एक सिद्ध महात्मा का चर्चा में कथन था कि कलियुग में ईश्वर सीधे दर्शन नहीं देते, अपनी शक्ति या अस्तित्व का निश्चित आभास करा देते हैं। भगवत् गीता में भी इसकी पुष्टि होती है। अर्जुन भगवतीय स्वरूप को नहीं देख पाया, जब तक कि भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी दृष्टि नहीं दी।<br />
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मीरा, सूर, तुलसी आदि भक्तों को प्रत्यक्ष ईश्वरीय शक्ति ने अपना आभास कराया। आज भी ऐसे महात्मा विद्यमान हैं किंतु जिन्हें खोज पाना कठिन है। हम कर्म-पथ पर चलते जाएं और मानते जाएं कि कभी तो दयामय की दया दृष्टि होगी।सियाराम मय संसार दिखे, तो वृत्ति परिवर्तन सहज और अवश्य है। इसका अनुभव ही क्रमश: आगे बढऩे का प्रमाण माना जा सकता है।<br />
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इन सब प्रक्रियाओं में दिशा-निर्देश का कार्य गुरु तत्व करता है। तत्व बाह्य हो या अंतर कोई फर्क नहीं पड़ता। सामान्यत: बाहरी गुरु तत्व का महत्व होता है, क्योंकि अंतर के गुरु तत्व का अनुभव एक बहुत ऊंची स्थिति है।गुरु निर्देश का एक दार्शनिक उदाहरण यहां लेना ठीक प्रतीत होता है। साधन तथा प्रसन्नचित्त सेवाकार्य करने के लिए चित्त की प्रसन्नता तथा संतुलित अवस्था आवश्यक है।<br />
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<b>पैसा आता है तो दो चीजों को साथ लाता है जिनसे बचना जरूरी है</b><br />
ईसा मसीह ने अपने पड़ौसी को प्यार करो का उपदेश करके और अपनी हत्या करने वालों को 'प्रभु इन्हें क्षमा करना, ये नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं।अपने निर्मल चित्त की छबि जगत के सामने रखी। श्रीराम की छबि तो हमारे सामने आदर्श रूप में है ही। श्रीराम ने सत्य-पथ पर चलकर पितृ-वचन का पालन करके राज्य-त्याग का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया, स्वेच्छा से त्याग और तपस्या स्वीकार की।<br />
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चौदह वर्षीय त्याग और तपस्या की अवधि के अनुभवों में निशाद, गुह, शबरी आदि वनवासियों से अद्भुत आत्मिक प्रेम, वनचर वानरों- सुग्रीव मित्रता करके हनुमानजी से प्रति। उपकार न करने पर कृतज्ञता ज्ञापन देते हुए रिच्छराज जामवंत के अनुभवों का लाभ उठाते हुए, आसुरी अत्याचार युक्त हिंसक प्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त की और रक्ष-श्रेष्ठ-सात्विक वृत्ति प्रधान विभीषण को लंका का राज्य प्रबंध सौंपा, स्वयं नहीं लिया।<br />
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श्रीराम के इस क्रियाकलाप से साधक को प्रेम, मैत्रीभाव, कृतज्ञता, अनुभव लाभ की प्रवृत्तियों को अपनाने की शिक्षा मिलती है।यही ऋषि भरद्वाज, वाल्मिकी, अत्री और अगस्त्य से ज्ञान प्राप्त करने से सीख मिलती है कि संत-संग की प्रक्रिया साथ-साथ चलती रहनी चाहिए, ताकि सत्य पथ पर सुचारू रूप से चला जा सके। पग-पग पर हम श्रीराम का त्याग पाते हैं। त्यागी ही सही अर्थ में योगी या साधक हो सकता है। श्रीमद्भगवत गीता में निषिद्ध कर्मों का त्याग तो बताया ही है।<br />
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(निषिद्ध कर्म होते हैं-चोरी, झूठ, छल-कपट, हिंसा, प्रमाद आदि) वहीं काम्य कर्म यथा यज्ञ, दान, तप उपासना आदि का सकाम भावना से न करने के त्यागने का निर्देश दिया गया है। प्रमादिक क्रियाकलापों का त्याग, अहं भावना का त्याग, वासना का त्याग आदि के लिए श्रीराम का जीवन चरित्र तथा उनसे जुड़े हुए पात्रों के चरित्रों में साधक अपने लिए उदाहरण स्थापित करते हुए व्यक्तिगत और सामूहिक रूप में अन्य साधकों सहित आत्मोन्नति के पथ पर अग्रसर हो सकता है।<br />
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एक और महत्वपूर्ण बात आज के युग के हिसाब से अर्थ का त्याग, इसके अभाव में भूल-दर-भूल होती जाती है। अर्थ कमाने में कई तरीके (सही या गलत दोनों) अपनाए जाते हैं। इससे दो परिवर्तन हुए हैं- मनुष्य संकुचित हो गया (लक्ष्मीपति विष्णु की विशालता मनुष्य में नहीं रही) दूसरे, मैं तथा मेरेपन का भाव गहरा घर कर गया है। सम्पन्नता आई नहीं कि प्रतिस्पर्धा, विरोध व शत्रुता का और प्रीत की रीत खो गई। संग्रह वृत्ति ने मेरेपन की मन:स्थिति को बहुत अधिक बलवान बनाकर लक्ष्य से भटकाने का उपक्रम किया है।<br />
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<b>अगर सोच ली ये एक बात तो समस्याएं कभी नहीं सुलझेंगी</b><br />
चंचलता का अर्थ है एकाग्रता का समय कम हो जाना। यह समय इतना कम हो जाता है कि हम उस एकाग्रता को एकाग्रता कहने में संकोच करने लगते हैं तथा चंचलता कहते हैं। वस्तुत: चंचलता में भी एकाग्रता तो होती ही है। हर वृत्ति किसी न किसी विषय पर एकाग्रता धारण करती है, किंतु वृत्ति बदल जाने पर, अगले ही क्षण उछल कर दूसरे विषय पर चली जाती है।मूलत: वृत्ति सत्वगुण प्रधान होने से स्वभावत: एकाग्रता है किंतु रजतम के आवरण से चंचल हो गई है, किंतु चंचलता में भी अपना स्वाभाविक एकाग्रता का स्वभाव का त्याग नहीं करती।<br />
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किसी न किसी विषय पर चाहे क्षण मात्र के लिए ही क्यों न हो, एकाग्र बनी ही रहती है। तो चंचलता का अर्थ है एकाग्रता का कम हो जाना। जैसे सर्दी क्या है? गर्मी का कम हो जाना। गर्मी तत्व है, ठण्डक तो कोई तत्व नहीं अथवा प्रकाश का न होना ही अंधकार है। जितना वृत्ति शीघ्रतापूर्वक विषय परिवर्तन करती है उतना ही वृत्ति अधिक चंचल गिनी जाती है।जैसे-जैसे हम भक्त उद्धवजी के साथ प्रश्न का उत्तर पाते-पाते परिपक्व हो रहे हैं वैसे-वैसे नए और गहरे प्रश्न सामने आते जा रहे हैं।<br />
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जीवन में प्रश्न और उनके उत्तर, समस्याएं और उनके समाधान होते रहना चाहिए।प्रश्न जिसे हम जिज्ञासा भी कहते हैं मानव जीवन से हमेशा ही जुड़ी रही है। हम प्रश्नों और समस्याओं से घिरे हैं। जो लोग जिज्ञासु हैं वे इनके समाधान खोजने में लगे रहते हैं। संसार की हर घटना में उन्हें जिज्ञासा महसूस होती है। वे जानना चाहते हैं, समाधान चाहते हैं। जिनके मन में हमेशा जिज्ञासाएं रहती हैं वे समाधान भी खोज ही लेते हैं। जैसे उद्धवजी भगवान की हर बात पर कोई जिज्ञासा खड़ी करते हैं और भगवान भी उनकी हर जिज्ञासा का समाधान भी करते हैं।<br />
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विद्वानों ने कहा है कि जिन लोगों के मन में जिज्ञासा का भाव नहीं है वे कभी ब्रम्हतत्व को नहीं समझ पाएंगे। संसार में रहेंगे और यहीं जन्म-मरण के बंधन में फंसे रहेंगे। अगर जिज्ञासा है तो ही ब्रम्हज्ञान और मोक्ष के मार्ग पर आगे बढ़ा जा सकता है।जिज्ञासा को शांत करके ही मोक्ष के मार्ग पर बढ़ा जा सकता है। समस्याएं हैं तो समाधान भी होंगे। कोई समस्या बिना समाधान की नहीं हो सकती। समस्याएं जब भी आपको घेर लें तो सबसे पहले उसके सकारात्मक पक्ष को देखिए समस्या का समाधान आपको वहीं से मिलेगा। अगर समस्या को लेकर बैठ गए, यह मान लिया कि इसका निदान मुश्किल है तो फिर समस्या कभी सुलझेगी भी नहीं।<br />
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<b>जानिए, जब न हो पूजा-पाठ के लिए टाइम तो क्या करें?</b><br />
उद्धव! जब पुरुष दोषदर्शन के कारण कर्मों से उद्विग्न और विरक्त हो जाए, तब जितेन्द्रिय होकर वह योग में स्थित हो जाए और अभ्यास- आत्मानुसंधान के द्वारा अपना मन मुझ परमात्मा में निश्चल रूप से धारण करे। जब स्थिर करते समय मन चंचल होकर इधर-उधर भटकने लगे, तब झटपट बड़ी सावधानी से उसे मनाकर, समझा-बुझाकर, फुसलाकर अपने वष में कर ले। जैसे सवार घोड़े को अपने वष में करते समय उसे अपने मनोभाव की पहचान कराना चाहता है और बार-बार फुसलाकर उसे अपने वष में कर लेता है, वैसे ही मन को फुसलाकर, उसे मीठी-मीठी बातें सुनाकर वष में कर लेना भी परम योग है। यह क्रम तब तक जारी रखना चाहिए, जब तक मन शान्त-स्थिर न हो जाए।<br />
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यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि आदि योग मार्गों से, वस्तुतत्व का निरीक्षण-परीक्षण करने वाली आत्मविद्या से तथा मेरी प्रतिमा की उपासना से अर्थात कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग से मन परमात्मा का चिन्तन करने लगता है और कोई उपाय नहीं है। मन पर तो भागवत खूब बोली है। मन पर काबू ध्यान से ही होगा। लोग मेडिटेशन को योगियों का काम मानते हैं, परन्तु भागवत तो ग्रंथ ही ध्यान-योग का है। इसे पढऩा, सुनना अपने आप में एक ध्यान शिविर है। इस प्रकार मेरे बतलाए भक्ति योग के द्वारा निरन्तर मेरा भजन करने से मैं उस साधक के हृदय में आकर बैठ जाता है और मेरे विराजमान होते ही उसके हृदय की सारी वासनाएं अपने संस्कारों के साथ नष्ट हो जाती हैं।<br />
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भगवान के इस संदेश में बड़ा गूढ़ संदेश छुपा है। जो आज की जीवनशैली में बड़ा काम आता है। भगवान कहते हैं मैं भक्त के हृदय में आ बैठता हूं। आज लोग अपने काम-काज में बहुत व्यस्त हैं, न मंदिर जाने का समय है, न कर्मकाण्ड का, परन्तु सारे काम करते हुए भी एक काम यह किया जा सकता है कि भगवान को हृदय में स्थान दें यह तो ऑफिस में, कामकाज पर, यात्रा करते हुए भी किया जा सकता है। संसार में रहते हुए संसार बनाने वाले से संबंध रखना इसी प्रकार संभव है। इसी का नाम जीवन प्रबंधन है।<br />
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<b>जानिए, धर्मग्रंथों के अनुसार क्या धर्म है और क्या अधर्म?</b><br />
उद्धवजी! इस प्रकार देश, काल, पदार्थ, कर्ता, मंत्र और कर्म- इन छहों के शुद्ध होने से धर्म और अशुद्ध होने से अधर्म होता है। क्या धर्म है क्या अधर्म, यह सवाल महाभारत युद्ध में कई बार उठा था। चलिए थोड़ा उस पर विचार करें। महाभारत का विकट विशाल युद्ध समाप्त हो चुका था। उस युद्ध में एक अरब, छियासठ करोड़ बीस हजार योद्धा (महाभारत स्त्री पर्व) मारे जा चुके थे और अनगिनत अज्ञात हो गए थे। महाराज ध्रतराष्ट्र दु:खियों में अति दु:खी थे। वृद्धावस्था में सौ पुत्रों को खोकर कौन धैर्य नहीं खो देगा।<br />
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महाभारत के पात्रों में महात्मा विदुर एक ऐसे पात्र थे जिनकी ज्ञान की गहराई को भगवान श्रीकृष्ण को छोड़कर कोई नहीं जान पाया था। धृतराष्ट्र को विपरीत मानसिक स्थिति में उन्होंने समझाते हुए कहा था- कुरुक्षेत्र! काल का न तो कोई प्रिय है और न अप्रिय और न उसका किसी के प्रति उदासीन भाव है। वह सभी को मृत्यु के पास खीचं कर ले जाता है। काल प्राणियों को बालक से युवा, युवा से बूढ़ा करता है। और वह ही उन्हें नष्ट कर देता है। जब सब जीव सो जाते हैं उस समय भी काल जागता रहता है।<br />
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यौवन, रूप, जीवन, धन, संग्रह, आरोग्य, प्रियजन का सहवास- ये सभी अनित्य हैं....।मनुष्य को चाहिए कि मानसिक दु:ख को विचार से और शारीरिक कष्ट को औषधियों से दूर करें। इसे ही विज्ञान बल कहते हैं...।मनुष्य का पूर्वकृत कर्म उसके सोने पर सो जाता है, उठने पर उठ बैठता है और भागने पर भी साथ लगा रहता है। वह जिस-जिस अवस्था में जैसा-जैसा शुभ या अशुभ कर्म करता है, उसी-उसी अवस्था में उसका फल भी पा लेता है। वह स्वयं अपना बंधु व अपना शत्रु है। अपने कर्म का साक्षी है। शुभ कर्म से सुख पाता है और पाप कर्म से दु:ख भोगता है।<br />
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किन्तु ज्ञानवान मनुष्य भी संस्कारवश तद्नुसार कर्म करता रहता है, वह दैव-वश, प्रारब्ध-वश, परिस्थितिवश और लुप्त-ज्ञान वश काल प्रवाह में सही व गलत कार्य करता हुआ स्वयं दु:खी होता है और अपने स्नेहियों को दु:खी करता है। महान दु:ख धृतराष्ट्र को दुर्याधन के कारण उठ पड़ा। दुर्योधन ज्ञानी था वह जानता था कि कर्म फल से वह भी मुक्त नहीं। उसने व्यक्त किया था-मैं धर्म को जानता हूं परन्तु धर्मानुकूल पवित्र जीवन व्यतीत करना मेरे लिए संभव नहीं। मैं अधर्म को पहचानता हूं, परन्तु मैं पाप छोड़ नहीं सकता। मेरे अन्दर कोई बैठा है, वही सब कराता है। तो प्रश्न यह है कि क्या अन्तर्यामी सही या गलत कर्म कराता है? इस प्रश्न का उत्तर हम इस उदाहरण से पा सकते हैं-प्रकाश का काम दिखाना है-बुद्धि का काम विवेक का अच्छे बुरे का निर्णय करना है, विपरीत बुद्धि हमें विनाश की ओर ले जाएगी, गलत कार्य कराएगी, अन्तर्यामी प्रकाशस्वरूप है।<br />
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अपनी बुद्धि अर्थात मति-सुमति हो या कुमति यह निर्भर करता है कि हमारा संग क्या है? संग यदि कुसंग है तो सुबुद्धि होगी और कुसंग है तो कुबुद्धि होगी, काली होगी, बुद्धि प्रकाश में भी श्यामल दिखेगी।दुर्योधन का संग शकुनि का था और ज्ञानी के होने के बाद भी वह दुर्बुद्धि हुआ और वह विनाश की ओर सदैव बढ़ता गया।ईष्र्या उसकी सदैव संगिनी रही। विषम उसका साथी रहा। हम दुर्योधन वाली स्थिति में न पहुंचें और युधिष्ठिर वाली स्थिति में संघर्ष करते हुए जीवन के उतार-चढ़ाव में विजय पाएं तो आवश्यक है कि प्रेम को साथी बनाएं, आनंद को मित्र बनाएं अर्थात् सात्विक गुणों का विकास अपने अन्दर करें- फिर अन्तर्यामी हमें सही, धार्मिक, सदकर्म ही कराएगा।<br />
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अब अन्तर्यामी को अनुकूल कैसे बनाएं? प्रश्न सरल नहीं है। भगवत गीता में ईश्वर में मन लगाने की ओर स्पष्ट संकेत हैं, जिसके लिए निरन्तर वैराग्यवान अभ्यास करना होगा।मन की शुद्धि ध्यान से होती है, ध्यानावस्था में पहुंचने के लिए सतत् नाम लेना होता है अर्थात् जप करना होता है- भगवान जप स्वरूप है। मन बिना शद्ध हुए अन्तर्यामी के प्रकाश को देखने नहीं देता और बुद्धि को भ्रमित बनाए रखता है। ''कबिरा मन निर्मल भया जैसा गंगा नीर। पाछे पाछे हरि फिरे कहत कबीर कबीर।।<br />
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<b>संगत ही तय करती है भविष्य क्योंकि....</b><br />
महान दु:ख धृतराष्ट्र को दुर्याधन के कारण उठ पड़ा। दुर्योधन ज्ञानी था वह जानता था कि कर्म फल से वह भी मुक्त नहीं। उसने व्यक्त किया था-मैं धर्म को जानता हूं परन्तु धर्मानुकूल पवित्र जीवन व्यतीत करना मेरे लिए संभव नहीं। मैं अधर्म को पहचानता हूं, परन्तु मैं पाप छोड़ नहीं सकता। मेरे अन्दर कोई बैठा है, वही सब कराता है।तो प्रश्न यह है कि क्या अन्तर्यामी सही या गलत कर्म कराता है? इस प्रश्न का उत्तर हम इस उदाहरण से पा सकते हैं-प्रकाश का काम दिखाना है-बुद्धि का काम विवेक का अच्छे बुरे का निर्णय करना है, विपरीत बुद्धि हमें विनाष की ओर ले जाएगी, गलत कार्य कराएगी, अन्तर्यामी प्रकाश स्वरूप है।<br />
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अपनी बुद्धि अर्थात मति-सुमति हो या कुमति यह निर्भर करता है कि हमारा संग क्या है? संग यदि कुसंग है तो सुबुद्धि होगी और कुसंग है तो कुबुद्धि होगी, काली होगी, बुद्धि प्रकाश में भी श्यामल दिखेगी। दुर्योधन का संग शकुनि का था और ज्ञानी के होने के बाद भी वह दुर्बुद्धि हुआ और वह विनाश की ओर सदैव बढ़ता गया। ईष्र्या उसकी सदैव संगिनी रही। विषम उसका साथी रहा।हम दुर्योधन वाली स्थिति में न पहुंचें और युधिष्ठिर वाली स्थिति में संघर्ष करते हुए जीवन के उतार-चढ़ाव में विजय पाएं तो आवश्यक है कि प्रेम को साथी बनाएं, आनंद को मित्र बनाएं अर्थात् सात्विक गुणों का विकास अपने अन्दर करें- फिर अन्तर्यामी हमें सही, धार्मिक, सदकर्म ही कराएगा।<br />
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अब अन्तर्यामी को अनुकूल कैसे बनाएं? प्रश्न सरल नहीं है।भगवत गीता में ईश्वर में मन लगाने की ओर स्पष्ट संकेत हैं, जिसके लिए निरन्तर वैराग्यवान अभ्यास करना होगा। मन की षुद्धि ध्यान से होती है, ध्यानावस्था में पहुंचने के लिए सतत् नाम लेना होता है अर्थात् जप करना होता है- भगवान जप स्वरूप है। मन बिना शुद्ध हुए अन्तर्यामी के प्रकाश को देखने नहीं देता और बुद्धि को भ्रमित बनाए रखता है।''कबिरा मन निर्मल भया जैसा गंगा नीर। पाछे पाछे हरि फिरे कहत कबीर कबीर।।''निर्मल मन को हमें कई चरणों से गुजारना पड़ेगा, निर्मल मन वह नहीं होता जो कभी बुरा न सोचे, इसके भी कई गुण होते हैं। ऐसा मन जिसमें समभाव हो। जो न कभी दु:खी होता हो और न किसी को दु:खी करता हो। जिसमें न कोई अपेक्षा और न ही कोई उपेक्षा हो। किसी भी बात पर भ्रमित न रहे, न किसी को भ्रमित करे।<br />
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जिस मन में चिंतन संसार का न हो, संसार बनाने वाले का हो। ऐसा मन जो अपने कुछ हो उसमें ही संतुष्ट रहे, न कि लोभ और मोह में पड़े। ऐसा मन जिसमें अपनों के प्रति सांसारिक जिम्मेदारियों का बोध हो लेकिन वह केवल उन सांसारिक कर्मों में ही लिप्त न रहे। ऐसा मन निर्मल कहलाता है, जब उसमें आठों पहर परमात्मा का चिंतन हो फिर भले ही परमात्मा की बजाय व संसारी कर्मों में लिप्त रहे, अपनी जिम्मेदारी निभाता रहे, भगवान उसके पीछे ही दौडेंगे। जीवन भौतिक जीवन से अलग करना कठिन होता है।<br />
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हम तन को स्वस्थ रखना चाहते हैं-धन को कमाना चाहते हैं। दैनिक जीवन की आवश्यकता पूरी करने के लिए पराक्रमी होना चाहते हैं, बन्धु-बान्धवों के साथ मानसिक शान्ति चाहते हैं मातृवत-बुद्धि चाहते हैं, संतान सुख के साथ-साथ विग्रह विहीन जीवन जीने की आनन्द की चाह रहती है, स्त्री लाभ की सुखद कामना रहती है। इन सबके लिए पर्याप्त आयु चाहिए, भाग्य के बिना आयु कैसी और बिना पुण्य कार्य के भाग्य नहीं, पिता तुल्य कर्म करना पड़ता है तब कर्म प्रधान होता है, सद्कर्म से सुलभ-सुलाभ से सुफल है , आनन्द, मोह आदि ये जीवन के बारह पक्ष हैं जो भौतिकता से अति भौतिक या आध्यात्मिकता की ओर ले जाते हैं।<br />
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<b>जब कोई आपके साथ बहुत बुरा व्यवहार करें तो....</b><br />
उद्धव! गर्भाधान, गर्भवृद्धि, जन्म, बाल्यावस्था, कुमारावस्था, जवानी, अधेड़ अवस्था, बुढ़ापा और मृत्यु ये नौ अवस्थाएं शरीर की ही हैं। जैसे जौ-गेहूं आदि की फसल बोने पर उग आती है और पक जाने पर काट दी जाती है, किन्तु जो पुरुष उनके उगने और काटने का जानने वाला साक्षी है, वह उनसे सर्वथा पृथक है, वैसे ही जो शरीर और उसकी अवस्थाओं का साक्षी है, वह शरीर से सर्वथा पृथक है। अज्ञानी पुरुष इस प्रकार प्रकृति और शरीर से आत्मा का विवेचन नहीं करते। वे उसे उनसे तत्वत: अलग अनुभव नहीं करते और विषय भोग में सच्चा सुख मानने लगते हैं तथा उसी में मोहित हो जाते हैं। इसी से उन्हें जन्म-मृत्युरूप संसार में भटकना पड़ता है।<br />
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जब मनष्य किसी को नाचते-गाते देखता है, तब वह स्वयं भी उसका अनुकरण करने- तान तोडऩे लगता है। वैसे ही जब जीव बुद्धि के गुणों को देखता है, तब स्वयं निष्क्रिय होने पर भी उसका अनुकरण करने के लिए बाध्य हो जाता है।भाई उद्धव! इसलिए इन दुष्ट (कभी तृप्त न होने वाली) इन्द्रियों से विषयों को मत भोगो। आत्मा के अज्ञान से प्रतीत होने वाला सांसारिक भेदभाव भ्रममूलक ही है, ऐसा समझो।<br />
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असाधु पुरुष गर्दन पकड़कर बाहर निकाल दें, वाणी द्वारा अपमान करें, उपहास करें, निन्दा करें, मारें-पीटें, बांधें, आजीविका छीन लें, ऊपर थूक दे, लघुशंका कर दें अथवा तरह-तरह से विचलित करें, निष्ठा से डिगाने की चेष्टा करें, उनके किसी भी उपद्रव से क्षुब्ध न होना चाहिए, क्योंकि वे तो बेचारे अज्ञानी हैं, उन्हें परमार्थ का तो पता ही नहीं है। अत: जो अपने कल्याण का इच्छुक है, उसे सभी कठिनाइयों से अपनी विवेकबुद्धि द्वारा ही किसी बाह्य साधन से नहीं, अपने को बचा लेना चाहिए। वस्तुत: आत्मदृष्टि ही समस्त विपत्तियों से बचने का एकमात्र साधन है।<br />
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यहां भगवान शरीर पर बड़ा सुंदर बोले हैं। आज शरीर पर टिकने का ही समय है। लोग देह से ही शुरू होते हैं और उसी पर अंत करते हैं। थोड़ा गहरा जाकर हम भी समझें।भगवान कृष्ण को 5085 वर्ष से अधिक वर्ष बीत गए। कौरव व पाण्डव कुरुक्षेत्र में युद्ध के लिए तत्पर थे। एक जाति और एक वंश के वैमनस्य का दुष्परिणाम सारा समाज भुगतने जा रहा है। ऐसे में अर्जुन को दिया गया ज्ञानोपदेश आज भी हमारे लिए वह दीप-स्तम्भ है, जिसके कारण में हम भटककर चट्टानों से अपने जीवन रूपी जहाज को टकराकर नष्ट होने से बचा सकते हैं।<br />
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<b>यही कारण है जल्दी परिवार और रिश्तों के बिखरने का?</b><br />
इन्हीं विभक्ति तत्वों से मनुष्य का यह बाहरी और भीतरी (स्थूल व सूक्ष्म) देह बना है। यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि गणित-शास्त्र की दृष्टि नौ का अंक पूर्ण होता है तथा आठ का अंक घटता जाता है।इसी प्रकार हमारे निर्माता आठ तत्व न स्वयं कालान्तर में महाकाल में विलीन हो जाएंगे, बल्कि हमारी काया को घटाते हुए उसी महाकाल को हमेशा-हमेशा के लिए सौंप देंगे। समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार है और सबसे बड़ी इकाई सरकार या राज्य। इस छोटी इकाई का प्रमुख वृद्ध होता है। सम्भवत: उसका महत्व ऊपरी तौर पर बढ़ता जाता है और प्रमुखता माँ या दादी के हिस्से परिस्थितिवश आ जाए तो पारिवारिक जटिलता भौतिक दृष्टिकोण के कारण पैदा हो जाती है। यह विवेचन का प्रश्न इसलिए पैदा हुआ कि आज हम कलि-प्रभाव में आध्यात्मिक आचार-विचार से दूर होते जा रहे हैं।<br />
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वैसे कलि-प्रभाव अभी प्रारंभिक अवस्था में है-कलियुग और द्वापरयुग की सन्धि अभी चल रही है, फिर भी जो पारिवारिक विघटन, विग्रह और विनिमय दिखाई दे रहा है यह हमारे जीवन को न केवल विशाक्त बना रहे हैं बल्कि हमें अपने सुख से तेजी से जा रहे हैं और हम स्वयं के शत्रु बन बैठे हैं-''आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:।। गीता 6/5जीवात्मा आप ही (तो) अपना मित्र है और आप ही आत्मा शत्रु है अर्थात् अन्य शत्रु या मित्र नहीं होता।<br />
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हम अपने व्यवहार से ऐसी स्थिति का निर्माण कर लेते हैं कि ''सियाराम मय सब जग के स्थान पर ''पराये मय सब जग बन जाता है और यदि पूछा जाए तो हमारा उत्तर होता है- 'हम क्या करें, हम तो हर प्रकार से झुकते हैं, समायोजन करते हैं, परन्तु सामने वाला इतना स्वार्थी है कि वह अपना ही अपना सोचता है और अपने ही अपने लिए कार्य करता है, जबकि हमने जीवनपर्यन्त उसके लिए या उनके लिए सर्वाधिक त्याग किया। यह उत्तर कई स्थितियों में सही होता है और यह स्थिति अनेक परिवारों में पाई जाती है, जिसमें वृद्ध या वृद्धा का महत्व या उपयोगिता शारीरिक, आर्थिक या स्वभावगत कारणों से क्षीण होता जा रहा है।<br />
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<b>पैसों का सही उपयोग नहीं करोगे तो यही होगा हाल</b><br />
जब लड़का किशोरावस्था में होता है तो माता-पिता की रोकटोक उसे बुरी लगती है। वह झल्ला जाता है। कई बच्चे तो घर तक छोड़ देते हैं। माता-पिता उसे दुश्मन लगते हैं। क्योंकि उसका मन आजाद पक्षी की तरह उडऩा चाहता है और मां-बाप की बातें उसे प्रतिबंध सी लगती हैं। वहीं बच्चा जब पालक की भूमिका में आता है तो खुद के बच्चे पर भी वही बातें लादता है जिसका कभी खुद उसी ने विरोध किया था। वाणी का यही प्रभाव होता है उसका असर एक सा होता है लेकिन मनोभाव बदलते ही वह मारक क्षमता वाला हो जाता है।<br />
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यहां भगवान ने उज्जैन को याद किया है। उज्जैन में प्रभु पढऩे भी गए थे। एक विवाह भी वहां की राजकुमारी से किया था। अब उदाहरण में भी उज्जैन को याद कर रहे हैं। भगवान भी कहते हैं कि अपने ससुराल को हमेशा याद करते रहना चाहिए। भागवत में गृहस्थी के अनेक सूत्र आते रहते हैं।<br />
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प्राचीन समय की बात है उज्जैन में एक ब्राह्मण रहता था। उस ब्राह्मण ने खेती-व्यापार आदि करके बहुत सी धन, सम्पत्ति इकट्ठी कर ली थी। वह बहुत ही कृपण, कामी और लोभी था। क्रोध तो उसे बात-बात में आ जाया करता था।<br />
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उसने अपने जाति-बन्धु और अतिथियों को कभी मीठी बात से भी प्रसन्न नहीं किया, खिलाने-पिलाने की तो बात ही क्या है। उसकी कृपणता और बुरे स्वभाव के कारण उसके बेटे-बेटी, भाईबन्धु, नौकर-चाकर और पत्नी आदि सभी दुखी रहते और मन ही मन उसका अनिष्ट चिंतन किया करते थे। कोई भी उसके मन को प्रिय लगने वाला काम नहीं करता था। अब तक धन टिका हुआ था- जाता रहा और जिसे उसने बड़े उद्योग और परिश्रम से इकट्ठा किया था, वह धन उसकी आंखों के सामने ही नष्ट-भ्रष्ट हो गया। उस नीच ब्राह्मण का कुछ धन तो उसके कुटुम्बियों ने ही छीन लिया, कुछ चोर चुरा ले गए।<br />
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<b>समझ लें इसे क्योंकि बस यही असली आध्यात्म है...</b><br />
एक क्षण ऐसा आता है जब सारे भार को कम करने ईश्वर स्वयं आ उपस्थित हो साधक को अपने में विलीन कर लेते हैं। यह स्थिति तब बनती है जब सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रजं वाली आज्ञा का सही अर्थ में साधक, भक्त, ज्ञानी या और कोई सतत् पालन करने का प्रयत्न करके अपने जीवन का गंतव्य समझ सोपान दर सोपान चढऩे लगता है। इसे ईश्वर प्रणिधान की संज्ञा ऋषि-मुनियों, योगियों, तत्वदर्शियों आदि ने दी है।भगवान श्रीकृष्ण अपने देवलोकगमन के पूर्व उद्धवजी को अद्भुत ज्ञान दे रहे हैं।<br />
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वे अब सांख्य योग पर चर्चा करते हैं। हमें अपने भीतर की स्थितियों का भी ज्ञान होना चाहिए। हमारा व्यक्तित्व जिन तत्व से संचालित होता है। उसको सूक्ष्म तरीके से समझाया है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-भाई उद्धव! अब तुम्हें सांख्य शास्त्र का निर्णय सुनाता हूं। इसमें संदेह नहीं कि ब्रम्ह में किसी प्रकार का विकल्प नहीं है, वह केवल अद्वितीय सत्य है, मन और वाणी की उसमें गति नहीं है।वह ब्रम्ह ही माया और उसमें प्रतिबिम्ब जीव के रूप में दृश्य और द्रष्टा के रूप में, दो भागों में विभक्त सा हो गया। उनमें से एक वस्तु को प्रकृति कहते हैं। उसी ने जगत् में कार्य और कारण का रूप धारण किया है। दूसरी वस्तु को, जो ज्ञानस्वरूप है, पुरुष कहते हैं। मैंने ही जीवों के शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार प्रकृति को क्षुब्ध किया। तब उससे सत्व, रज और तम - ये तीन गुण प्रकट हुए।<br />
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उनसे क्रिया-शक्तिप्रधान सूत्र और ज्ञानशक्ति प्रधान महत्तत्व प्रकट हुए। वे दोनों परस्पर मिले हुए ही हैं। महत्व में विकार होने पर अहंकार व्यक्त हुआ। यह अहंकार ही जीवों को मोह में डालने वाला है। वह तीन प्रकार का है-सात्विक, राजस और तामस। अहंकार पंचतन्मात्रा, इन्द्रिय और मन का कारण है, इसलिए वह जड़-चेतन-उभयात्मक है। अहंकार को केवल घमण्ड न मान लिया जाए। इसको सूक्ष्मता से समझना चाहिए।अहंकार का उद्घोश शब्द मैं प्रयुक्त हो सकता है। सोऽहं के उच्चारण को इस अक्षर मैं को यदि लिया जाए तो यह ब्रम्ह बोधक होगा, अक्षर ब्रम्ह ही है। जिसका क्षरण न हो व अक्षर, शेष सारे जीवन वैभव क्षर है। सृष्टि क्षर है। सृष्टि क्रम में अहंकार निहित है। इसकी रचना के पूर्व समस्त आत्माओं की आत्मा एक पूर्ण परमात्मा थे, तब न दृष्टा थे और दृश्य था। माया का प्रादुर्भाव हुआ।<br />
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माया की व्याख्या इस प्रकार है-मा नहीं या जो अर्थात् ब्रम्ह नहीं है अथवा जिसकी स्वत: कोई सत्ता नहीं है। यह अर्थ ठीक है कि जो ईश्वर से तो आई है, परंतु ईश्वर से भिन्न गुण वाली है, अर्थात् ईश्वर का ज्ञान बंधन मुक्त करता है और माया बंधन युक्त करती है। ईश्वर से अद्भुत उसकी माया चेतन प्रकाशमयी होनी चाहिए। तस्य भासा सर्वमिदं विभाती है - यह सबकुछ उस परमात्मा से प्रकाशित हो रहा है, परंतु वह अपने स्वामी के मुख पर पर्दा डाल देती है।माया का काल, कला, नियति, इनके ज्ञान और राग इन पंच विध सीमाओं से सिमित होकर अंशी जीव का रूप धारण कर लेता है। भगवान की यह माया उन्हीं के शब्दों में ''दैवी ह्येशा गुणमयी मम माया दुरत्यया। मामेव ये प्रपधन्ते मायामेतां तरन्ति ते।। 14/7<br />
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मेरी यह तीन गुणों वाली माया से तरना कठिन है पर जो मेरी ही शरण लेते हैं, वे इस माया को तर जाते हैं। सारी सृष्टि माया का रूप है, इसमें तरने के लिए शरणागति उपाय है। हम इसे अध्यात्म का सार कहें तो उपयुक्त होगा। इसी क्रम में गीताकार ने स्पष्ट किया है कि जो शरण में नहीं जाते या जा सकते हैं वे आसुरी भाव वाले मूढ़ हैं- भजन शरणागति का व्यावहारिक स्वरूप माना जाना ठीक लगता है। चार प्रकार के भजनार्थी श्रीकृष्ण भगवान ने बताए-दु:खी, जिज्ञासु, कुछ प्राप्त करने वाले (अर्थाथी) और ज्ञानी। इनमें समभाव से भजने वाले ज्ञानी श्रेष्ठ को माना गया है। ज्ञानी कई जन्मों के अंत में भगवान को पाता है, सब वासुदेवमय है, ऐसा जानने वाला ज्ञानी महात्मा सुदुर्लभ होता है।<br />
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<b>अगर ऐसे जिंदगी बिता रहे हैं तो आप भ्रम में हैं क्योंकि....</b><br />
संसार और माया, दोनों शब्द कभी एक-दूसरे से बिलकुल अलग तो कभी एक दूसरे के विकल्प नजर आते हैं। कुछ विद्वान इस संसार को ही माया कहते हैं, तो कुछ कहते हैं कि यह संसार पूरी तरह परमात्मा की माया से घिरा हुआ है। संसारी जीव के लिए यह तय करना कठिन है कि वह इस दुनिया को समझे कैसे। उसके लिए तो यही सत्य भी है, यही माया भी। संसार और माया के बीच बहुत बारिक सी लकीर है जो इन दोनों को पूरी तरह अलग भी करती है और अगर गौर से न देखा जाए तो दोनों को एक भी दिखाती है। इस लकीर का नाम है ज्ञान, विवेक। अगर हमारे भीतर ज्ञान और विवेक जागृत है तो फिर हम संसार और माया में फर्क भी कर सकते हैं और परमात्मा को पाने के जतन भी कर सकते हैं। जिनके भीतर ज्ञान का प्रकाश नहीं होता वे लोग अक्सर अपना जीवन भ्रम में ही गुजार देते हैं।<br />
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वास्तव में देखा जाए तो संसार भ्रम और माया भी है, संसार सत्य भी है। इसके अंतर को अच्छे से समझा जाए। जब हम संसार में जीते हैं, परिवार में रहते हैं, समाज में समय बिताते हैं तो ये सब सत्य लगता है। आदमी पारिवारिक और सामाजिक जीवन में इतना उलझ जाता है कि वह परमात्मा, परमशक्ति से दूर हो जाता है। जो लोग इस संसार को ही पूरी तरह अपना मान लेते हैं, उनके लिए संसार सारी उम्र सत्य जैसा ही लगता है लेकिन जब अंतिम समय पास आता है तो फिर यह संसार मिथ्या लगने लगता है। ऐसे समय कुछ लोग कुछ सवाल उठाते हैं कि क्या पारिवारिक जिम्मेदारियां न उठाई जाएं, समाज से दूर हो जाएं, काम करना बंद कर दें, कहीं जंगल में चले जाएं? ये सब विवेकशून्यता की निशानियां हैं, व्यक्ति अपने कर्तव्य को समझ ही नहीं पाया यह साफ हो जाता है।<br />
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जो ज्ञानी है, जिसके भीतर विवेक जागृत है वो कभी ऐसी बातें नहीं करता। उसके लिए संसार और माया का फर्क हमेशा रहता है। इसे कैसे समझें। सीधा तरीका है संसार में रहें, समाज में रहें, परिवार की जिम्मेदारियां भी उठाएं, सामाजिक भूमिका का निर्वाह भी करें लेकिन इसके केंद्र में संसार नहीं हो, इन सब कामों के केंद्र में भगवान हो, परमात्मा हो, तो फिर संसार कभी भी माया नहीं लगेगा। हर काम को यह सोचकर करें कि इसे परमात्मा की प्राप्ति के लिए कर रहे हैं। जो मिल रहा है, वह परमात्मा का दिया हुआ है, जो छिन रहा है वह भी परमात्मा ही वापस ले रहा है। लेकिन यह सब व्यवहार में लाना आसान नहीं है। इसके लिए बहुत कोशिशें लगती हैं। अभ्यास करना पड़ता है। तभी संसार और माया दोनों को समझा जा सकता है।<br />
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<b>बस ये एक बात समझ लें सफल जिंदगी का राज इसी में है...</b><br />
नानक देवजी की उक्ति के अनुसार सारे संसार में राम को रमते देख कर्म करते हुए जीवन यापन करना कर्म की कुशलता है। एक उदाहरण हमें इस दिशा मेंनिदेशन देता है-जाजालि एक ऋषि था। उसने समुद्र तट पर बड़ी तपस्या की। उसकी जटा में पक्षियों ने घोंसला बनाया। उसे सिद्धियां प्राप्त हुईं। वह वरदान देने तथा श्राप देने में समर्थ हो गया।<br />
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एक दिन एक चिडिय़ा ने उसके ऊपर कीट कर दी, उसे बड़ा क्रोध आया। उसने चिडिय़ा को देखा, चिडिय़ा जल गई। उसे प्रसन्नता हुई लेकिन आकाशवाणी अन्तर्मन की ध्वनि हुई मेरी तपस्या निरर्थक है। काशी निवासी तुलाधार का तप ही सच्चा तप है। उसके पास जा और उससे शिक्षा प्राप्त कर। जाजालि काशी पहुंचा। तुलाधार के घर गया। तुलाधार अपने व्यापारिक कार्य में लगा हुआ था। जाजालि को देखते ही परिचित की भांति बोला- आइए! पधारिए, जाजालि ऋषि आपका स्वागत है और जो कुछ जाजालि के साथ व्यतीत हुआ सम्पूर्ण वृतान्त ऐसे सुनाया मानो वह स्वयं उस घटना के समय उपस्थित हो।<br />
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ऋषि को अद्भुत लगा। बड़ा आश्चर्य हुआ कि सम्पूर्ण भौतिक कर्म करते हुए यह सर्वज्ञाता कैसे हो गया। जाजालि के भ्रम को दूर करने की दृष्टि से तुलाधार ने प्रेम से कहा-महात्मा! मैं केवल भगवान की प्रसन्नता के लिए अपने प्रभु-प्रदत्त कत्र्तव्य कर्म का पालन करता हूं, उनकी इच्छा में प्रसन्न रहता हूं। मैं तो उनका आज्ञाकारी माली बनकर उनके उपवन में काम करता हूं। मेरे जीवन का व्रत है सबका हित करना व चाहना। अपने कर्तव्य का निष्ठापूर्वक पालन करता हूं।<br />
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माता-पिता की भक्तिपूर्वक सेवा करता हूं। सदाचार, सद्विचार, संतोष व शांति ही मेरा जीवन है, यही मेरा तप है। इसलिए भगवान की कृपा है। तुलाधार के यहां एक पिंजरे में दो पक्षी के बच्चे थे, उनकी ओर संकेत करके वह बोले-महात्मन! ये वे ही पक्षी के बच्चे हैं जो आपकी जटा में समुद्र तट पैदा हुए थे। भगवत् कृपा से इन्हें ज्ञान हो गया है। पक्षी ऋषि जाजालि से प्रसन्न होकर कहने लगे-रागी-अज्ञानियों को वन में भी अनेक प्रकार के अहंकार, क्रोध आदि दोष उत्पन्न हो जाता है। परंतु गृह में रहता हुआ जो व्यक्ति विषयों के राग का निवारण कर इन्द्रियों का निग्रह करता है-इन्द्रियों को विषय की ओर नहीं जाने देता, यही उसका भारी तप है और जो भगवान की प्रसन्नता के लिए निमित्त हो कर्म करता है, उसके सभी कर्म पवित्र रहते हैं और उसका राग रहित घर ही तपोवन बन जाता है।<br />
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वनेपि दोशा: प्रभवन्ति रागिणां, गृहेपि पंचेन्द्रियनिग्रहस्तप:।<br />
अकुत्सिते कमर्णि य: प्रवर्तते, निवृत्त रागास्य गृहं तपोवनम्।।<br />
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इस सद्वृत्ति के लिए मन: स्थिति को महाकाल के आधीन करके आनन्दमय जीवन बिताना शक्य होता है। महाकाल और सदाशिव एक ही है। संसार के उतार-चढ़ाव में सम बुद्धि प्राप्ति का एकमात्र उपाय भवगत समर्पण है। यह समर्पण उसकी कृपा के बिना संभव नहीं, उसकी कृपा के लिए उसी को पुकारें।<br />
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<b>धर्म की नजर से: कैसा होना चाहिए परिवार का महौल?</b><br />
व्यावहारिक रूप में जिस व्यक्ति के माध्यम से शक्ति कार्य करती है, उसे गुरु कहा जाता है, किन्तु वास्तव में गुरु व्यक्ति नहीं ईश्वर है। या ईश्वर द्वारा प्रदत्त शक्ति सम्पन्न अवतार है। रामावतार में श्रीराम ने लक्ष्मण को, हनुमानजी को, शबरी को गुरु रूप में उपदेश दिया, वही शिव ने किया। कृष्णावतार में अर्जुन, उद्धव गुरु उपदेशों से लाभान्वित हुए। भगवान कृष्ण की स्तुति में 'कृष्णं वन्दे जगत् गुरुम कहकर उन्हें सम्बोधित किया ही जाता है। अत: गुरु रूप में व्यक्ति ईश्वरावतार कहा जा सकता है। साधक अपनी साधना तथा ईश्वर (गुरु) कृपा से नाम जपते-जपते उसके अर्थ तक गहरा उतर जाता है।<br />
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'तस्य वाचक प्रणव.... प्रणव है नाम जिसका तथा नाम है प्रणव जिसका। प्रणव के अलावा राम, कृष्ण, विष्णु, हरि, शिव, गॉड, अल्लाह या जो भी नाम संस्कारवश मिल जाए उसका जप सतत तेल धारावत् होने लगता है। प्राणशक्ति का चित्त से व मन से तादात्म्य त्यागकर आत्मा में लय हो जाता है। नाम जप व हरि स्मरण मुक्ति का माध्यम बन जाता है और साधक मुक्ति की सिद्धावस्था में स्थित हो आगे और आगे या ऊपर और ऊपर बढ़ता हुआ, उठता हुआ अपने अंतिम लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ होने लगता है। यह वर्तमान जन्म में या आगे के जन्मों में सम्भव होता है। निर्भर करता है कि साधना की गति कितनी तीव्र है। गृहस्थी में परिवार के सदस्यों को साधक वृत्ति रखना चाहिए।<br />
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परिवार के साथ भी परमात्मा में लीन रहा जा सकता है। परिवार भी एक तरह की तपोस्थली ही है। हमें केवल इसे व्यवहार में लाना होगा। परिवार के केंद्र में परमात्मा को रख लें, हर काम यह मानकर किया जाए कि परमात्मा का दिया काम है, परमात्मा की प्राप्ति के लिए किया जा रहा काम है। परिवार में बातचीत का आधार भी धन, सम्पत्ति या रिश्ते न होकर ज्ञान, गुण, वैराग्य और भक्ति होना चाहिए। रामायण में इसका एक सुंदर उदाहरण भी है, जब परिवार के सदस्य आपस में बातचीत करें तो उनका आधार क्या हो, उनके बीच बातचीत कैसी हो, किस विषय पर बात हो। राम, सीता और लक्ष्मण चित्रकूट में ऐसी ही बात कर रहे हैं। राम, सीता और लक्ष्मण को ज्ञान, भक्ति, गुण और वैराग्य का महत्व समझा रहे हैं। ऐसे माहौल में परिवार स्वत: परमात्मामय हो जाएगा। आपको कभी इसके लिए कोई अतिरिक्त प्रयास भी नहीं करना होंगे।<br />
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<b>बरबादी से बचना है तो ये एक बात हमेशा याद रखें</b><br />
अब भगवान और उद्धव का वार्तालाप ग्यारहवें स्कंध के छब्बीसवें अध्याय में प्रवेश कर रहा है। मनुष्य शरीर का महत्व और उद्देश्य बताते हुए भगवान प्रश्नों के उत्तरों का सिलसिला आरंभ करते हैं।भगवान कहते हैं- उद्धवजी! यह मनुष्य शरीर मेरे स्वरूप ज्ञान की प्राप्ति का मुख्य साधन है। इसे पाकर जो मनुष्य सच्चे प्रेम से मेरी भक्ति करता है, वह अन्त:करण में स्थित मुझ आनन्द स्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। सत्व-रज आदि गुण जो दिख रहे हैं वे वास्तविक नहीं हैं, मायामात्र हैं।<br />
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ज्ञान हो जाने के बाद पुरुष उनके बीच में रहने पर भी उनके द्वारा व्यवहार करने पर भी उनसे बंधता नहीं।इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जो लोग विषयों के सेवन और उदरपोषण में ही लगे हुए हैं, उन असत् पुरुषों का संग कभी न करें, क्योंकि उनका अनुगमन करने वाले पुरुष की वैसी ही दुर्दुशा होती है, जैसे अंधे के सहारे चलने वाले अंधे की। उसे तो घोर अंधकार में ही भटकना पड़ता है।इसलिए आज के जमाने में आप अपने संग को लेकर बहुत सावधान रहें। हम अपने पहनावे, खानपान को लेकर तो विचार करते हैं, पर हम किन लोगों के साथ उठ-बैठ रहे हैं इस पर ध्यान नहीं देते। जो लोग हमारे जीवन में हैं उनके आचरण का सीधा असर हम पर पड़ेगा ही। इसलिए अपने संग के प्रति अतिरिक्त रूप से जागरूक रहें।<br />
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आज प्रबंधन के युग में चौबीस घण्टे हमें अच्छे और बुरे लोगों से मिलना पड़ता है। कई लोग अपना स्वार्थ साधने के लिए हमसे संबंध बना लेते हैं। हो सकता है हम भी अपना स्वार्थ साधने के लिए उनसे संपर्क रखते हों। लेकिन भागवत का भक्त इस बात के लिए सचेत रहे कि व्यावहारिक और सांसारिक संपर्कों से कहीं कुसंग न हो जाए। यहां आकर भगवान उद्धवजी को एक दृष्टांत सुनाते हैं। राजा पुरूरवा उर्वशी पर मोहित हो गए थे। कुसंग मोह पैदा करता है और आदमी का पतन हो जाता है।<br />
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<b>इस मामले में विवेक से काम न लिया तो बचना है मुश्किल क्योंकि....</b><br />
उद्धवजी! पहले तो सम्राट पुरूरवा उर्वशी के विरह से अत्यंत बेसुध हो गया था। बाद में शोक हट जाने पर उसे बड़ा वैराग्य हुआ। उर्वशी ने उनका चित्त आकृष्ट कर लिया था। उन्हें तृप्ति नहीं हुई थी। वे क्षुद्र विषयों के सेवन में इतने डूब गए थे कि उन्हें वर्षों की रात्रियां न जाती मालूम पड़ीं और न तो आतीं।पुरूरवा ने बाद में पश्चाताप के साथ कहा मेरी मूढ़ता तो देखो, कामवासना ने मेरे चित्त को कितना कलुषित कर दिया। मैं प्रजा को मर्यादा में रखने वाला सम्राट हूं।<br />
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वह मुझे और मेरे राजपाट को तिनके की तरह छोड़कर जाने लगी और मैं पागल होकर रोता-बिलखता उस स्त्री के पीछे दौड़ पड़ा। स्त्री ने जिसका मन चुरा लिया, उसकी विद्या व्यर्थ है। उसे तपस्या, त्याग और शास्त्राभ्यास से भी कोई लाभ नहीं। भगवान को छोड़कर और ऐसा कौन है, जो मुझे उसके फंदे से निकाल सके।काम हमारे मन को ढंक लेता है। शरीर को वश में कर लेता है।<br />
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इसीलिए कहा जाता है कि काम का बाण सीधे हमारे मन को बेधता है। वह सीधे मन में उतरता है और मन को वश में करके, उससे शरीर पर शासन करता है। हम में से अधिकतर लोगों के साथ यही समस्या है कि हम मन के मत से चलते हैं। मन हमारी सवारी करता है, वो जिधर ले जाता है उधर ही हम चल पड़ते हैं। मन को समझाना, साधना बहुत मुश्किल हो जाता है। मन से सीधे वो बुद्धि पर प्रहार करता है। मन काम के वश में हो जाए तो फिर बुद्धि को वश में करना कोई बड़ी बात नहीं है।<br />
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इसीलिए कहा गया है कि कई बारबुद्धिमान, ज्ञानी, तत्वज्ञानी लोग भी काम के जाल में ऐसे उलझ जाते हैं कि अच्छे बुरे के सारे भेद की समझ ही मिट जाती है। सो, काम से बचने का एक ही तरीका है, वह है ध्यान। थोड़ा मेडिटेशन हमें मन के प्रभाव से बचाता है। हम मन के अधीन नहीं होते, मन हमारे अधीन हो जाता है। जब मन सध जाए तो बुद्धि कभी पराभाव में नहीं जाएगी। मन को नहीं साधा तो काम का बाण लगना तय है। इस बाण से कोई नहीं बच सकता।<br />
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इसलिए अपनी भलाई समझने वाले विवेकी मनुष्य को चाहिए कि विषय और इन्द्रियों के संयोग से ही मन में विकार होता है, अन्यथा विकार का कोई अवसर ही नहीं है। जो वस्तु कभी देखी या सुनी नहीं गई है, उसके लिए मन में विकार नहीं होता। जो लोग विषयों के साथ इन्द्रियों का संयोग नहीं होने देते, उनका मन अपनेआप निश्चल होकर शांत हो जाता है।<br />
<b><br />जब हो कोई भी शुभ काम तो इस एक बात का ध्यान जरुर रखें क्योंकि....</b><br />
कुसंग, व्यसन हमारे जीवन में अमंगल लाते हैं। यह प्रसंग सभी को सीखने के लिए है कि कभी मांगलिक कार्यों में व्यसनों का उपयोग मत कीजिए। कृष्ण के जीवन की यह एक महत्वपूर्ण घटना है, जिससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है।अनिरुद्ध के विवाहोत्सव में सम्मिलित होने के लिए भगवान् श्रीकृष्ण, बलरामजी, रुक्मिणीजी, प्रद्युम्न, साम्ब आदि द्वारकावासी भोजकट नगर में पधारे।<br />
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जब विवाहोत्सव निर्विघ्न समाप्त हो गया, तब कलिंग नरेश आदि घमंडी नरपतियों ने रुक्मी से कहा कि तुम बलरामजी को पासों के खेल में जीत लो। बलरामजी को पासे डालने तो आते नहीं, परन्तु उन्हें खेलने में बड़ी रूचि है। उन लोगों के बहकावे से रुक्मी ने बलरामजी को बुलवाया और वह उनके साथ चौसर खेलने लगा।बलरामजी खुद सज्जन थे लेकिन कुसंग में पड़ गए।<br />
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हम ध्यान रखें कि किसी के दुर्गुण हम पर हावी न हों। रुक्मी रिश्तेदार थे सो उनके लिहाज में बलराम जुआ खेलने बैठ गए। भोले थे सो जल्दी हार भी गए।बलरामजी की हंसी उड़ाते हुए रुक्मी ने कहा-बलरामजी! आखिर आप लोग वन-वन भटकने वाले ग्वाले ही तो ठहरे। आप पासा खेलना क्या जानें? पासों और बाणों से तो केवल राजा लोग ही खेला करते हैं, आप जैसे नहीं? रुक्मी के इस प्रकार आक्षेप और राजाओं के उपहास करने पर बलरामजी क्रोध से आगबबूला हो उठे।<br />
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उन्होंने एक मुद्गर उठाया और उस मांगलिक सभा में ही रुक्मी को मार डाला। इतनी बड़ी घटना घट गई। विवाह के मंगल मौके पर हत्या हो गई। भगवान असमंजस में पड़ गए, किसका साथ दें। मरने वाला उनकी पत्नी का भाई और मारने वाला उनका भाई। जब हम मांगलिक कार्यों में व्यसनों को खुद ही आमंत्रित करते हैं तो अब परमात्मा क्या कह सकते हैं। वे तो मौन ही रहेंगे। इसलिए ध्यान रखें जब भी मंगल उत्सव हों, व्यसनों को दूर रखें।<br />
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<b>कैसे पाएं किसी संत का आर्शीवाद?</b><br />
संत के पास जब उनके दर्शनार्थ जाया जाए तो अहंकार रहित नम्र बन कर जाना चाहिए। संत पुरुष इस बात को तोड़ जाते हैं कि यह नम्रता ओढ़ी हुई है अथवा स्वाभाविक। अत: नम्रता को स्वाभाविक बनाने का, साधक को प्रयत्न करते रहना चाहिए। यदि साधक विद्वान है तो विद्वत्ता का अभिमान नहीं होना चाहिए। पाण्डित्य का प्रदर्शन करने, संत की परीक्षा लेने संत के पास जाओगे तो रिक्तहस्त ही वापस आओगे।<br />
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अत्युत्तम तो यही है कि जीव में प्रभु-प्रेम की सच्ची लगन हो। बाकी सभी नम्रता, सौम्यता, निरहंकारता इत्यादि स्वाभाविक लक्षण अपनेआप प्रकट होते जाएंगे। ऐसे जीव को ही अधिकारी कहा गया है।ऐसे अधिकारी, भक्त-साधक के लिए संत अगम्य नहीं रहते। वह उनकी कृपा प्राप्त करने में, प्रभु कृपा से सफल होता है तथा परिणाम स्वरूप परम-प्रेम-रूपा भक्ति फल को प्राप्त करता है।<br />
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अब तनिक संतों की कृपा की अमोघता पर विचार करते हैं। जिस प्रकार सूर्य के सामने बैठने पर शरीर को गरमी मिलेगी, जल ग्रहण करने पर पिपासा निवृत्ति होगी ही, इसी प्रकार संत की कृपा का फल परम-प्रेम-रूपा भक्ति प्राप्त होगी ही, किन्तु रात को सोया हुआ व्यक्ति सूर्योदय हो जाने के उपरांत भी सोता ही रहे तो उसे सूर्योदय का ज्ञान ही नहीं होगा। इसी प्रकार जब तक मनुष्य को संत की कृपा तथा उससे प्राप्त होने वाले फल का ज्ञान नहीं होता, उसका पता नहीं चलता।<br />
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भक्ति-शक्ति का अन्तुर्मुखी जाग्रत होना तथा क्रियाशीलता, यह दोनों एक दूसरे से भिन्न बातें हैं। संत कृपा होने पर मनुष्य को तत्काल उसका फल प्राप्त हो जाता है, किन्तु किन्हीं अवस्थाओं में उसके क्रियाशील होने में कुछ देर लग जाती है। जाग्रति का ज्ञान, उसके क्रियाशील होने पर ही होता है। तब तक भक्त पूर्ववत् निद्रावस्था में ही रहता है। इसमें उसके प्रबल विपरीत संस्कार ही कारण होते हैं। शक्ति को प्रथम, इन संस्कारों को हटाकर, चित्त को क्रिया योग्य बनाना होता है। यह भी क्रिया ही होती है जिसे सूक्ष्म दृष्टि से देखा-समझा जा सकता है।<br />
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संतों और महापुरूषों के सान्निध्य के लिए सबसे बड़ा सूत्र यह है कि वे क्या कर रहे हैं इस पर ध्यान न दें, वो क्या कह रहे हैं अपना मन वहां लगाएं। आजकल लोग संतों का वैभव ही देखते रहते हैं उनके शब्दों पर ध्यान नहीं देते। शब्दों को समझेंगे तो ही ज्ञान आएगा। जो वैभव है, संत उसके बिना भी रह सकते हैं, लेकिन अगर हम वैभव पर टिक गए तो फिर इसी के मोह में उलझकर रह जाएंगे। हम माया में फंसकर इसी को सबकुछ मान बैठेंगे। संतों का साथ अमोघ तभी होगा जब हम उनके रहन-सहन की बजाय उनके उपदेशों पर ध्यान देंगे।<br />
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भाव यह है कि महापुरुषों की कृपा प्राप्ति का मार्ग कहीं अधिक सरल तथा निश्चित है, किन्तु इतना सरल भी नहीं कि कोई कैसा भी हो जब चाहे, जहां चाहे उसे प्राप्त कर सकता है। यदि यह कृपा कहीं एक बार प्राप्त हो जाए तो उसका फल निश्चित है, क्योंकि वह अमोघ है। इतने पर भी भक्त कभी निराश नहीं होता। उसे प्रभु पर विश्वास होता है कि वह एक न एक दिन उसे संत दर्शन भी अवश्य कराएंगे तथा उस पर कृपा भी करेंगे।<br />
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<b>कभी भी वक्त का इंतजार नहीं करना चाहिए क्योंकि....</b><br />
नारदजी कहते हैं कि उसे एक क्षण भी व्यर्थ नष्ट नहीं करना चाहिए। भक्त के जीवन में एक-एक क्षण का भी महत्व होता है। भक्त समय की कीमत जानता है। यह उसके भौतिक सुविधाओं की बहुमूल्य निधि है, जिसका उपयोग वह भक्ति के प्रति करता है। वह यह भी समझता है कि जो क्षण बीत गया, उसे कोई भी कीमत देकर भी वापस नहीं लाया जा सकता। इसलिए वह एक-एक क्षण का उपयोग भजन करने के प्रति ही करता है। यदि कोई भक्त ऐसा नहीं करता है तो उसे करना चाहिए, क्योंकि शुभ समय की केवल बाट ही देखते रहना, कुछ साधन नहीं करना यह कोई प्रतीक्षा नहीं है।<br />
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मनुष्य का जीवन अत्यंत अनिश्चित है, कितना समय उसके पास है, कहा नहीं जा सकता। अत: उसका एक-एक पल महत्वपूर्ण है। कार्य बहुत बड़ा है। इतना बड़ा कि अनेकों जन्मों की तपस्या एवं निरंतर साधना से भी पूर्ण हो पाएगा कि नहीं, कहा नहीं जा सकता। फिर भी यह सोचते रहना कि अमुक काम पूर्ण हो जाए, अमुक परिस्थिति आ जाए तो भजन करूंगा। अपने आप को धोखा देना तथा समय नष्ट करना है।<br />
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एक और महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि आज हम अच्छे सात्विक भगवद् भक्तों की संगत में हैं जिससे हमारे मन में भी प्रभु को प्राप्त करने के लिए परम-प्रेम-रूपा भक्ति जाग्रत करने की शुभ इच्छा जाग्रत है। किन्तु, यदि हम विचार ही करते रह गए, भजन कुछ किया नहीं, केवल अनुकूल समय का रास्ता ही देखा। जब अनुकूल समय प्राप्त हुआ तो हमारे मन का विचार ही बदल गया। इसलिए उत्तम यही है कि जो भी परिस्थितियां प्राप्त हों तथा जो भी समय उपलब्ध हो एवं जो कुछ आपके पास सुविधाएं हों, उनमें जैसा भी, जितना भी भजन सम्भव हो आरंभ कर दो। यह नियम जाग्रति से पूर्व एवं पश्चात दोनों अवस्थाओं में लागू होता है।<br />
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विशेषकर भजन का स्वभाव तथा भक्ति जाग्रति का उपर्युक्त समय युवावस्था ही होता है। बुढ़ापे में जब मन का स्वभाव पक जाता है, इन्द्रियों में शिथिलता आ जाती है, उठा-बैठा भी नहीं जाता, तब क्या साधन-भजन होगा। हां, यदि युवावस्था में ही ऐसा स्वभाव तथा परिस्थितियां बन जाएं तो बुढ़ापे में भी क्रम चलता रह सकता है। अत: आधा क्षण बिगाड़े बिना भी साधन में जुट जाओ। आयु तो देखते ही देखते निकली जा रही है। दिन पर दिन तथा रातों पर रातें व्यतीत होती जा रही हैं। सूर्य उदय होता है, सायं को ढल जाता है। यह क्रम घड़ीभर के लिए भी नहीं ठहरता। इसी के साथ व्यतीत हो जाता है मनुष्य का जीवन भी। सुविधा पूर्वक तथा अनुकूल समय का भजन जैसे महत्वपूर्ण कार्य के लिए प्रतीक्षा करना उचित नहीं।<br />
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<b>महाभारत के बाद, ऐसा क्या किया धृतराष्ट्र ने कि पांडव डर गए?</b><br />
भगवान को विचार आता है मुझे शाप मिला था। आज शाप को पूर्ण करने का अवसर आया है। जब महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया था और जब पांडव विजय हो गए थे, राजतिलक हुआ और हस्तिनापुर में प्रवेश कराने के लिए भगवान स्वयं गए। भगवान कृष्ण ने पांडवों से कहा- देखो, हम जीत तो गए हैं लेकिन कौरवों के माता-पिता धृतराष्ट्र और गांधारी अब अकेले हैं, सारा महल सुनसान हो चुका है। हम वहां चलकर उनको प्रणाम करें। पांडवों को लेकर भगवान हस्तिनापुर पहुंचे। महल जिसमें आदमी ही आदमी होते थे, सेवक-सेविकाएं होती थीं।<br />
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किसी माता-पिता के सौ बच्चे हों, क्या आनंद रहा होगा। सारा हस्तिनापुर सुनसान, सब लोग मारे गए युद्ध में। केवल विधवाओं की चित्कार सुनाई दे रही थी। बच्चे किलकारी मार रहे हैं, याद कर रहे हैं अपने लोगों को। भगवान जैसे ही पहुंचे हैं धृतराष्ट्र पूछ रहा था कहां हैं पांडव। जैसे ही उनके कक्ष में पहुंचे तो वहां भीम की एक लोहे की मूर्ति रखी हुई थी। दुर्योधन भीम को मारने के लिए उस मूर्ति पर गदा अभ्यास किया करता था, उस पर प्रहार करता था। इसलिए बहुत बलवान था। पांचों पांडव आए,<br />
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भगवान आगे थे। धृतराष्ट्र खड़े हैं। भगवान कहते हैं राजा धृतराष्ट्र को प्रणाम। युधिष्ठिर जैसे ही धृतराष्ट्र को प्रणाम करते हैं धृतराष्ट्र कहता है भीम कहां है, भीम कहां है। मुझे भीम को अपनी बाहों में भरना है, हृदय से लगाना है। भीम बांवरा था एकदम दौड़ा। भगवान ने भीम को रोका और लोहे की प्रतिमा को आगे कर दिया और जैसे ही लोहे की प्रतिमा धृतराष्ट्र की बाहों में आई उसने मूर्ति को इतनी जोर से दबाया कि वह चकनाचूर हो गई। पांडव घबरा गए, कांपने लगे।<br />
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इसलिए धृतराष्ट्र पूछ रहा था, आज भीम को बाहों में भर लूं और सब समाप्त कर दूं। भगवान बोलते हैं यह जीवन है सबकुछ लुट गया इस नेत्रहीन का, फिर भी इच्छा बची है कि भीम को मार डालूं। हमारा सबकुछ चला जाता है जीवन में सारी इंद्रियां शिथिल हो गईं, सारे राज चले गए। फिर आदमी को ऐसा लगता है कि संसार को बाहों में भर लूं एक बार।<br />
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<b>गांधारी ने भगवान कृष्ण को क्यों और क्या शाप दिया?</b><br />
कृष्णजी ने गांधारी के पैर को स्पर्श किया गांधारी बोलीं दूर हटो तुम्हारे कारण आज मेरा वंश समाप्त हो गया। कृष्ण मैं तुमसे बहुत क्रोधित हूं, मैं तुम्हें शाप देना चाहती हूं। मैं जानती हूं तुम्हारी प्रतिभा और प्रभाव को। तुम चाहते तो यह युद्ध रोक सकते थे। यह युद्ध तुमने करवाया। मेरे बेटों ने नहीं लड़ा, तुमने लड़वाया है। तुमने मेरा वंश नाश कर दिया। तुम चाहते तो अपने तर्क से, अपने ज्ञान से, अपनी समझाईश, अपनी प्रभाव से, अपने पौरूष से इस युद्ध को रोक सकते थे। तुमने अच्छा नहीं किया, एक मां से सौ बेटे छीने हैं। गांधारी रोते-रोते कहती है- कृष्ण सुनो! जैसा मेरा भरापूरा कुल समाप्त हो गया, ऐसे ही तुम्हारा वंश तुम्हारे ही सामने समाप्त होगाऔर तुम देखोगे इसे।<br />
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इसके बाद गांधारी यहीं नहीं रूकती, बड़े क्रोध और आवेश में बोलती है कि आज हम दोनों कितने अकेले हो गए हैं। देखो तो इस महल में कोई नहीं है। जिस महल में इंसान ही इंसान हुआ करते थे, मेरे बच्चे, मेरे परिवार के सदस्य मेरे पास थे कितने अकेले हो गए हैं आज हम। तुम्हारे जीवन का जब अंतकाल आएगा तुम संसार में सबसे अकेले पड़ जाओगे। तुम्हे मरता हुआ कोई देख भी नहीं पाएगा जो शाप है तुमको।भगवान तो भगवान हैं, प्रणाम किया और कहते हैं मां गांधारी मुझे आपसे इसी आशीर्वाद की प्रतीक्षा थी। मैं आपके शाप को ग्रहण करता हूं मस्तक पर।<br />
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आपका शुभ हो, आपने बड़ी दया की है। कृष्ण पलटे तब तक गांधारी को ग्लानि हुई। कृष्ण पलटे और पांडवों ने देखा कृष्णजी के चेहरे पर शापित होने का कोई भाव ही नहीं था। भगवान मुस्कुराए और पांडवों से कहा- चलो। बड़ा अजीब लगा। भगवान अर्जुन के कंधे पर हाथ रखकर कहते हैं अर्जुन लीला तो देखो मेरे यदुवंश को यह वरदान था कि उन्हें कोई दूसरा नहीं मार सकेगा, मरेंगे तो आपस में ही मरेंगे। देखो इस वृद्धा ने शाप दे दिया तो यह व्यवस्था भी हो गई।<br />
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<b>कृष्ण का है ये फंडा, जीना है तो जीओ ऐसे</b><br />
भगवान ने कहा अर्जुन मेरी मृत्यु के लिए जो कुछ भी उसने कहा है मुझे स्वीकार है। कोई तो माध्यम होगा और भगवान मुस्कुराते हुए पांडव से कहते है चलो आज वही भगवान अपने दाएं पैर को बाएं पैर पर रखकर अपनी गर्दन को वृक्ष से टिकाकर बैठे प्रतीक्षा कर रहे थे अपनी मृत्यु की।जिसने मृत्यु का इतना बड़ा महायज्ञ किया था महाभारत वह ऋषि देखते ही देखते इस संसार से चला गया। यूं चले जाएंगे ऐसा भरोसा नहीं था। एक महान अभियान का महानायक यूं छोड़कर चला गया कृष्ण एक बात कहा करते थे कि जब मैं संसार से जाऊं तो कोई रोना मत।<br />
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कृष्ण को रोना पसंद नही। कृष्ण कहते हैं रूदन मत करिए आंसू बड़ी कीमती चीज है। मुझे आंसू का अभिषेक तो अच्छा लगता है पर रोना हो तो मेरे लिए रोओ, मुझे पाने के लिए रोओ। मेरी देह पर मत रोओ, यह निष्प्राण देह पर भगवान ने कहा था कि मेरे अंतिम समय में रोना मत, क्योंकि कृष्ण का एक सिद्धांत था मैं जीवनभर खुश रहा हूं और मैंने जीवनभर लोगों को खुश रखा है। इसलिए रोना मत, दु:खी मत होना।<br />
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<b>कृष्ण तो भगवान थे, फिर गांधारी का शाप उन्हें क्यों लग गया?</b><br />
पीताम्बर वो था, जिसने अनेक लोगों की लज्जा बचाई, जिनसे इतने लोग सुरक्षित हुए, जो पीताम्बर द्रौपदी के ऊपर ओढ़ाया गया था, जिस पीताम्बर ने लोगों को ममता का आश्वासन दिया, जिस पीताम्बर में लोगों ने छिप-छिपकर पता नहीं क्या-क्या कर लिया था वह पीताम्बर आज रक्त रंजित हो गया था।<br />
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उसका रंग पहचान में नहीं आ रहा था। चारों ओर रक्त बिखरा पड़ा है। भगवान कहते हैं यहां का रक्त यहीं छोड़कर जा रहा हूं।भगवान ने अपने स्वधाम गमन से संदेश दिया कि जाना सभी को है। जिसका भी जन्म हुआ है उसकी मृत्यु होगी ही। जन्म और मृत्यु तय है। सारा खेल बीच का है। हम इस बात को समझ लें कि जिसकी मृत्यु दिव्य है समझ लो उसी ने जीवन का अर्थ समझा है।<br />
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शुकदेवजी परीक्षित को समझा रहे हैं और अब धीरे-धीरे कथा ग्यारहवें स्कंध के समापन की ओर जा रही है।शुकदेवजी कहते हैं-राजा परीक्षित्! दारुक के चले जाने पर ब्रह्माजी, शिव-पार्वती, इन्द्रादि लोकपाल, मरीचि आदि प्रजापति, बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, पितर-सिद्ध, गन्धर्व-विद्याधर, नाग-चारण, यक्ष-राक्षस, किन्नर-अप्सराएं तथा गरुडलोक के विभिन्न पक्षी अथवा मैत्रेय आदि ब्राह्मण भगवान श्रीकृष्ण के परमधाम प्रस्थान को देखने के लिए बड़ी उत्सुकता से वहां आए थे।<br />
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<b>ऐसे व्यक्ति से कभी मदद लेने की न सोचें क्योंकि....</b><br />
भगवान का श्रीविग्रह उपासकों के ध्यान और धारणा का मंगलमय आधार और समस्त लोकों के लिए परम रमणीय आश्रय है।इसलिए तय कर लें, आश्रय किसका रखें। प्रभु ने सृष्टि की संरचना बड़े सुन्दर ढंग से की है। उसने जीवन के दु:खों-क्लेशों की पृष्ठभूमि में आनन्द एवं प्रेम का अथाह एवं अनन्त समुद्र छुपा कर रखा है।<br />
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यह मनुष्य के ऊपर ही छोड़ दिया है कि चाहे तो वह जगत विषयों के पीछे लग कर, जीवन में दु:ख एवं अशांति को भोगता रहे तथा चाहे तो आनन्द समुद्र में गोते लगाकर परम शान्ति को प्राप्त करे। भक्ति जगत विषयों की गंदी नालियों से निकालकर, अन्दर में ही विद्यमान प्रेम एवं आनन्द समुद्र की ओर अग्रसर करने का मार्ग है।<br />
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आवश्यकता है केवल मनुष्य के चेत जाने की। पहले तो उसे इस बात का आभास होना चाहिए कि वह विषय के दलदल में फंसकर रह गया है, उसे इसमें से बाहर निकलना है। वह निकलने का प्रयत्न भी करता है, मन को नियंत्रित करने का यत्न करता है, जप तप करता है तथा शास्त्रों में शान्ति को खोजता है, परन्तु सफल हो पाना कठिन है। दलदल से निकलने के लिए ऐसे व्यक्ति की सहायता की आवश्यकता है जो स्वयं दलदल से बाहर खड़ा हो। दलदल में फंसा दूसरा व्यक्ति भी सहायता नहीं कर सकता, क्योंकि वह तो स्वयं धंसता चला जा रहा है। मुख्यस्तु महत्कृपैव महापुरुषों, महानुभावों की कृपा प्राप्त करो, क्योंकि वह स्वयं जगत में रहकर भी जगत के बाहर हैं।<br />
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परम-प्रेम के निरन्तर प्रवाह का नाम ही भक्ति है। कभी भक्ति की, कभी उधर से उदासीन होकर जगत व्यवहार में लग गए। यह तो भक्ति नहीं, जिस प्रकार नदी की स्वाभाविक जल धारा रात-दिन, प्रतिक्षण बहती रहती है, उसी प्रकार हृदय भी परम-प्रेम से हरदम ढका रहे। वासना, कामना तथा जगत विषयों को हृदय में प्रवेश का अवसर ही प्राप्त न हो। प्रियतम प्रभु हर दम अभिमुख बना रहे। उसकी रासलीला चौबीसों घण्टे चलती रहे तथा भक्त उसके आनन्द तथा मधुरता में ही डूबा रहे, यही परम-प्रेम-रूपा भक्ति का स्वरूप है।<br />
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क्रमश:...<br />
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<b>जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,<br />और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....</b><b style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">.मनीष</b></div>
Jai Guru Geeta Gopalhttp://www.blogger.com/profile/01621836960274288942noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-6101091264294453966.post-8514260433101513792021-11-22T23:39:00.002-08:002021-11-22T23:39:38.850-08:00श्रीमद् भागवत Srimdbhagwat Part (8)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b>इसीलिए कहते हैं, जो होता है अच्छे के लिए होता है</b><br />
यह मानव स्वभाव होता है कि जब हम पर कोई विपत्ति आती है तो हम पहले भगवान की ओर दौड़ते हैं। उसके समाधान की विनती करने लगते हैं। समस्या हल हो जाए तो भगवान को प्रसाद चढ़ाकर अपने कर्तव्य की इति श्री कर लेते हैं, लेकिन अगर समस्या हल नहीं हुई तो फिर हम परमात्मा को ही घेर लेते हैं, उसकी कृपाओं पर तो सवाल उठाते ही हैं साथ ही उस पर अनर्गल आरोप भी गढ़ देते हैं।यहां ब्राम्हण ने अपनी संतानों के न जीने का आरोप श्रीकृष्ण पर मढ़ दिया। भगवान ने जितने शुभ कर्म किए उन सभी को अषुभ बता दिया। भगवान के चरित्र को किसी, पापी राक्षस का चरित्र बता दिया, लेकिन भगवान मौन हैं। भगवान की यही शैली है कि जब मनुष्य खुद अपने से निर्मित परिस्थितियों के कारण दु:ख में फंसता है और फिर उस दु:ख का क्रोध भगवान पर मढ़ता है तो भगवान मौन धारण कर लेते हैं। वे उसका प्रत्युत्तर नहीं देते। श्रीकृष्ण भी यही कर रहे हैं। वे शांत हैं, ब्राह्मण के विरोध और कुप्रचार का उन पर कोई प्रभाव नहीं है।<br />
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ब्राह्मण की हर संतान एक के बाद एक जन्म लेते ही मर रही थी। ब्राम्हण का क्रोध हर संतान की मृत्यु के बाद और ज्यादा बढ़ जाता। वह और अधिक उग्रता से श्रीकृष्ण का विरोध करने निकल पड़ता। द्वारिका में तरह-तरह की चर्चाएं होने लगीं। लोग ब्राम्हण और कृष्ण के बारे में बातें करने लगे। लेकिन भगवान मौन हैं। उनका मौन भी लोगों के लिए आश्चर्य का विषय है।इसी प्रकार अपने दूसरे और तीसरे बालक के भी पैदा होते ही मर जाने पर वह ब्राह्यण लड़के की लाष राजमहल के दरवाजे पर डाल गया और वही बात कह गया। नवें बालक के मरने पर जब वह वहां आया, तब उस समय भगवान श्रीकृष्ण के पास अर्जुन भी बैठे हुए थे। अर्जुन ने देखा भगवान मौन हैं, ब्राम्हण अपने पुत्रों की असामयिक मृत्यु से विचलित है लेकिन कोई उसकी मदद नहीं कर रहा है। अर्जुन से रहा नहीं गया वह ब्राम्हण से बोल पड़ा। यह भगवान की लीला भी है। खुद भगवान कुछ नहीं कर रहे हैं लेकिन वे अर्जुन के निमित्त अपनी लीला दिखाएंगे। भगवान अर्जुन की बात पर भी अभी मौन हैं लेकिन अर्जुन ने जो प्रतिज्ञा कर ली है उसे भगवान पूरा करेंगे।<br />
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भगवान की यह कृपा है कि वे बुरा करने पर भी आपका भला ही करते हैं। वही कार्य करते हैं जिसके अंत में आपका भला हो जाए। इसलिए कहा जाता है कि आपका सोचा हो तो अच्छा, नहीं हो तो और अच्छा क्योंकि वह परमात्मा का सोचा होता है। भगवान जो भी करें उसे आप स्वीकार कर लें तो फिर जीवन में कोई परेशानी नहीं आएगी। एक दिन भगवान आपको उसका सुखद परिणाम देगा। सारी परिस्थितियां आपके अनुकूल होगी।उन्होंने ब्राह्यण की बात सुनकर उससे कहा-ब्रह्यन! आपके निवासस्थान द्वारका में कोई धनुषधारी क्षत्रिय नहीं है क्या? मालूम होता है कि ये यदुवंशी ब्राह्यण हैं और प्रजापालन का परित्याग करके किसी यज्ञ में बैठे हुए हैं! जिनके राज्य में धन, स्त्री अथवा पुत्रों से वियुक्त होकर ब्राह्यण दुखी होते हैं, वे क्षत्रिय नहीं हैं। उनका जीवन व्यर्थ है।मैं समझता हूं कि आप स्त्री-पुरुष अपने पुत्रों की मृत्यु से दीन हो रहे हैं। मैं आपकी सन्तान की रक्षा करूंगा। यदि मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी न कर सका तो आग में कूदकर जल मरूंगा और इस प्रकार मेरे पाप का प्रायश्चित हो जाएगा। अर्जुन ने प्रतिज्ञा कर ली। जल मरने की भीषण प्रतिज्ञा और पूरी सभा सन्न रह गई।<br />
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<b>अगर सब कुछ ठीक नहीं है तो कोई बात नहीं क्योंकि....</b><br />
कृष्ण ने एक और सबक दुनिया को सिखाया है कि आप जितने शक्तिशाली होते हैं, उतनी ही दुनिया के प्रति आपकी जवाबदेही होती है। शक्ति और सामथ्र्य से परिपूर्ण होने के बाद भी आप अधर्म, जुर्म का प्रतिकार न करें। केवल स्वहित में ही लगे रहे तो आपकी शक्ति व्यर्थ है।<br />
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द्वारिका में एक ऐसी ही घटना घट रही है जिसमें कृष्ण का सम्पूर्ण चरित्र संदेह के घेरे में आ गया है। एक दिन की बात है। द्वारकापुरी में किसी ब्राम्हण की पत्नी के गर्भ से एक पुत्र पैदा हुआ, परन्तु वह उसी समय मर गया, ब्राह्यण अपने पुत्र का मृत शरीर लेकर राजमहल के द्वार पर गया और वहां उसे रखकर दुखी मन से रोता हुआ कहने लगा- इसमें सन्देह नहीं कि ब्राह्यणद्रोही, धूर्त, कृपण और विषयी राजा के कर्मदोष से ही मेरे बालक की मृत्यु हुई है। जो राजा हिंसापरायण, दु:शील और अजितेन्द्रिय होता है, उसे राजा मानकर सेवा करने वाली प्रजा दरिद्र होकर दुख पर दुख भोगती रहती है और उसके सामने संकट पर संकट आते रहते हैं। यह मानव स्वभाव होता है कि जब हम पर कोई विपत्ति आती है तो हम पहले भगवान की ओर दौड़ते हैं। उसके समाधान की विनती करने लगते हैं। समस्या हल हो जाए तो भगवान को प्रसाद चढ़ाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं, लेकिन अगर समस्या हल नहीं हुई तो फिर हम परमात्मा को ही घेर लेते हैं, उसकी कृपाओं पर तो सवाल उठाते ही हैं साथ ही उस पर अनर्गल आरोप भी गढ़ देते हैं।<br />
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यहां ब्राह्यण ने अपनी संतानों के न जीने का आरोप श्रीकृष्ण पर मढ़ दिया। भगवान ने जितने शुभ कर्म किए उन सभी को अशुभ बता दिया। भगवान के चरित्र को किसी, पापी राक्षस का चरित्र बता दिया, लेकिन भगवान मौन हैं। भगवान की यही शैली है कि जब मनुष्य खुद अपने से निर्मित परिस्थितियों के कारण दु:ख में फंसता है और फिर उस दु:ख का क्रोध भगवान पर मढ़ता है तो भगवान मौन धारण कर लेते हैं। वे उसका प्रत्युत्तर नहीं देते। श्रीकृष्ण भी यही कर रहे हैं। वे शांत हैं, ब्राह्मण के विरोध और कुप्रचार का उन पर कोई प्रभाव नहीं है।<br />
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ब्राह्मण की हर संतान एक के बाद एक जन्म लेते ही मर रही थी। ब्राह्मण का क्रोध हर संतान की मृत्यु के बाद और ज्यादा बढ़ जाता। वह और अधिक उग्रता से कृश्ण का विरोध करने निकल पड़ता। द्वारिका में तरह-तरह की चर्चाएं होने लगीं। लोग ब्राह्मण और कृष्ण के बारे में बातें करने लगे। लेकिन भगवान मौन हैं। उनका मौन भी लोगों के लिए आश्चर्य का विषय है।<br />
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इसी प्रकार अपने दूसरे और तीसरे बालक के भी पैदा होते ही मर जाने पर वह ब्राह्यण लड़के की लाश राजमहल के दरवाजे पर डाल गया और वही बात कह गया। नवें बालक के मरने पर जब वह वहां आया, तब उस समय भगवान श्रीकृष्ण के पास अर्जुन भी बैठे हुए थे। अर्जुन ने देखा भगवान मौन हैं, ब्राह्मण अपने पुत्रों की असामयिक मृत्यु से विचलित है लेकिन कोई उसकी मदद नहीं कर रहा है। अर्जुन से रहा नहीं गया वह ब्राह्मण से बोल पड़ा। यह भगवान की लीला भी है। खुद भगवान कुछ नहीं कर रहे हैं लेकिन वे अर्जुन के निमित्त अपनी लीला दिखाएंगे। भगवान अर्जुन की बात पर भी अभी मौन हैं लेकिन अर्जुन ने जो प्रतिज्ञा कर ली है उसे भगवान पूरा करेंगे।भगवान की यह कृपा है कि वे बुरा करने पर भी आपका भला ही करते हैं। वही कार्य करते हैं जिसके अंत में आपका भला हो जाए।<br />
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<b>कृष्ण सिखाते हैं, जिंदगी जीएं तो कुछ इस तरह....</b><br />
महाभारत की कथा गति पकड़ रही है। इस कथा के केन्द्र में कृष्ण ही हैं। उनकी विभिन्न लीलाएं हैं। कृष्ण की शिक्षा, उनके उपदेश सभी हमारे काम आने वाले हैं। महाभारत की पूरी कथा अब कृष्ण के ईर्द-गिर्द ही घूमने वाली है, संचालित भी वही करते हैं और उसके केन्द्र में भी वही हैं। पाण्डवों के लिए सबसे बड़े हितैशी और कौरवों के लिए शत्रु।<br />
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सारी बातें या तो कृष्ण के लिए कही जा रही हैं या कृष्ण द्वारा कही जा रही हैं। कृष्ण के अलावा महाभारत का कोई पात्र नहीं है जो इस कथा को आगे बढ़ाता है। कृष्ण अपनी गृहस्थी में भी उतने ही रमे हैं जितने वे महाभारत यानी हस्तिनापुर के पात्रों को लेकर सोच रहे हैं। गृहस्थी और दुनियादारी में कैसे जीया जाए यह कृष्ण से सीखा जा सकता है।<br />
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कृष्ण ने दुनिया और दांम्पत्य के बीच में जो तालमेल बनाया है वह अद्भुत है।महाभारत में अब भगवान व्यस्त हो जाएंगे। बार-बार द्वारका से इन्द्रप्रस्थ और हस्तिनापुर जाना होगा। इसीलिए भागवत ग्रंथकार ने भगवान की द्वारकालीला का भी वर्णन दसवें स्कंध के अंतिम 90वें अध्याय में किया है।<br />
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द्वारकानगरी की छटा अद्भुत थी। जिधर देखिये, उधर ही हरे-भरे उपवन और उद्यान लहरा रहे हैं। वह नगरी सब प्रकार की सम्पत्तियों से भरपुर थी। भगवान श्रीकृष्ण सोलह हजार से अधिक पत्नियों के एकमात्र प्राणाधार थे। उन पत्नियों के अलग-अलग महल भी परम ऐश्वर्य से सम्पन्न थे। जितनी पत्नियां थीं, उतने ही अद्भुत रूप धारण करके वे उनके साथ विहार करते थे।<br />
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गृहस्थी चलाने का यह तरीका केवल कृष्ण के पास ही था। वे किसी भी पत्नी को नाराज नहीं करते। सबको बराबर स्नेह, प्रेम, आदर और समय दिया करते थे। कई ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी भी उनकी इस लीला को समझ नहीं पाए। जो छोटी बुद्धि के थे उन्होंने कृष्ण को कामी-विलासी की संज्ञा भी दी। आज भी कई लोग उनकी रासलीला, राधा प्रसंग और 16108 विवाहों को केवल दैहिक दृष्टि से ही देखते हैं। ऐसे लोगों के लिए कृष्ण न केवल दुर्लभ हैं बल्कि उन्हें कभी भी शांति नहीं मिल सकती।<br />
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कृष्ण तो तर्क से परे हैं। वे सभी तर्कों-कुतर्कों से ऊपर स्वयं एक सत्ता है। वे अविचल और परम धर्म के समतुल्य हैं। कृष्ण ने अपनी शक्ति के कई चमत्कार शिशुकाल से ही दिखाए। अब वे अपनी गृहस्थी की लीलाएं, अपने परिवार और कुटुम्ब के जरिए भी हमें जीवन के कई सूत्र दे रहे हैं। इन सूत्रों में ही मानव जीवन छिपा है।<br />
<b><br />इस जीवन का यही है रंग रूप क्योंकि...</b><br />
भगवान के हर एक रानी से दस पुत्र थे। भगवान के परम्पराक्रमी पुत्रों में अठारह तो महारथी थे, जिनका यश सारे जगत् में फैला हुआ था। प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, दीप्तिमान, भानु, साम्ब, मधु, बृहद्भानु, चित्रभानु, वृक, अरुण, पुष्कर, वेदबाहु, श्रुतदेव, सुनन्दन, चित्रबाहु, विरूप, कवि और न्यग्रोध। इन पुत्रों में भी सबसे श्रेष्ठ रुक्मिणी नन्दन प्रद्युम्नजी थे। यदुवंश के बालकों को शिक्षा देने के लिए तीन करोड़ अठ्ठासी लाख आचार्य थे।<br />
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जो लोग भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों की सेवा का अधिकार प्राप्त करना चाहे, उन्हें उनकी लीलाओं का ही श्रवण करना चाहिए। जब मनुष्य निरंतर श्रीकृष्ण की लीला-कथाओं का अधिकाधिक श्रवण, कीर्तन और चिन्तन करने लगता है, तब उसकी यही भक्ति उसे भगवान के परमधाम में पहुंचा देती है। यद्यपि काल की गति के परे पहुंच जाना बहुत ही कठिन है, परन्तु भगवान के धाम में काल की दाल नहीं गलती। वह वहां तक पहुंच ही नहीं पाता।<br />
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यहां दसवें स्कंध के समापन पर शुकदेवजी ने भक्ति के सामने काल को भी छोटा बताया। यही भागवत का प्रमुख संदेश है। भागवत मरने की कला सिखाती है। मृत्यु तो सबकी निश्चित है, परन्तु काल को किस कला से स्वीकार करें यही भागवत का संदेश है।जिसने भी देह धारण की है उसे जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त यात्रा करनी ही है। उसमें कई पड़ाव आते हैं, उनमें वह रुकता नहीं, बढ़ता जाता है। दैहिक पड़ाव है-गर्भ अवस्था, शिशु अवस्था, किशोर अवस्था, युवा अवस्था, वृद्धावस्था और जरा-अवस्था।<br />
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इन अवस्थाओं में सुख का भी अनुभव होता है और दु:ख का भी। सुख-दु:ख कर्मों के फल कहे जाते हैं।इस तथ्य को पितामह भीष्म ने युधिष्ठिर को उपदेश देते हुए उजागर किया-मनुष्य जो शुभ कर्म करता तथा दूसरों से कराता है-इन दोनों प्रकार के कर्म का अनुष्ठान करके प्रसन्न होना चाहिए, क्योंकि इनका फल सुख है और अशुभ कर्म हो जाने पर उससे अच्छे फल की आशा नहीं करनी चाहिए।<br />
यहां आकर दसवां स्कंध समाप्त होता है।<br />
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<b>पांडव क्यों मान लेते थे श्रीकृष्ण की हर बात?</b><br />
दसवें स्कंध समापन तक भगवान की विभिन्न लीलाओं का वर्णन हम पढ़ चुके हैं। भगवान की प्रत्येक लीला में एक संदेश छुपा है। धीरे-धीरे भगवान अपनी जीवन यात्रा को समेटेंगे। इसी के साथ भागवत में गहरे दर्शन के प्रसंग आएंगे। भगवान के भक्त अब तक परिपक्व हो चुके हैं, अब जिन पात्रों में आपस में वार्तालाप होगा उसका स्तर बड़ा ऊंचा और अर्थ बड़े गहरे होंगे। इक्कतीस अध्यायों का है एकादश स्कंध। इसके समापन पर भगवान स्वधाम गमन करेंगे। स्कंध का आरम्भ महाभारत की घटना की चर्चा से होगा। वसुदेव और नारदजी की चर्चा आएगी।<br />
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भागवत का दसवां स्कंध भगवान के बचपन और जवानी लिए हुए है। अब भगवान बड़े हो गए हैं। पूर्ण रूप से परिपक्व पुरुष हो गए हैं। दुनिया में उनका नाम और महिमा फैल चुकी है। अधिकांश राजवंश उनकी नीतियों पर पकड़, धर्म का ज्ञान और शक्ति का चमत्कार देख चुके हैं। अब भगवान उस लीला में प्रवेश कर रहे हैं जो दुनिया में आज भी हर जगह पढ़ी-सुनी और मानी जाती है। भगवान महाभारत के उस ऐतिहासिक युद्ध में निर्णायक भूमिका निभाने जा रहे हैं। यह भूमिका केवल कृष्ण ही निभा सकते हैं, बिना हथियार, बिना लड़े दुनिया के सबसे बड़े युद्ध के नायक, मार्गदर्शक और निर्णायक बनेंगे भगवान। यह युद्ध हमारे भीतर भी है और बाहर भी। महाभारत युद्ध अपनों का अपनों से ही कड़ा संग्राम है, लडऩे वाले कौरव-पाण्डव हैं लेकिन इसके केन्द्र में भगवान हैं। भगवान पाण्डवों के पक्ष में हैं।<br />
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भगवान वहां हैं जहां धर्म है और धर्म इस समय पाण्डवों के साथ है। पाण्डव जानते हैं कि उनके साथ षडयंत्र हो रहा है। फिर भी वे चुपचाप हर निर्णय मान रहे हैं, क्योंकि उन्हें भगवान के होने पर विश्वास है।अर्जुन भगवान का प्रिय पात्र है। पांचों पाण्डव, कुंती और द्रौपदी सभी भगवान के आसरे ही हैं। इसलिए भगवान उनके साथ प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों रूपों में विराजित हैं। उनके हर सुख-दु:ख में साथ हैं। हम भी पूरी तरह भगवान पर टिक जाएं हर चीज उनकी ओर कर दें तो फिर भगवान को आते देर नहीं लगेगी। आपको हर मुसीबत से बचाने के लिए भगवान तैयार हैं। शर्त है आप पहल करें, भगवान को पुकारें, उसकी आराधना करें। फिर भगवान क्या करते हैं यह आपको सोचना भी नहीं पड़ेगा।<br />
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<b>भगवान हर तरह की मुसीबत से बचाने को तैयार पर शर्त है!</b><br />
अर्जुन भगवान का प्रिय पात्र है। पांचों पाण्डव, कुंती और द्रौपदी सभी भगवान के आसरे ही हैं। इसलिए भगवान उनके साथ प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों रूपों में विराजित हैं। उनके हर सुख-दु:ख में साथ हैं। हम भी पूरी तरह भगवान पर टिक जाएं हर चीज उनकी ओर कर दें तो फिर भगवान को आते देर नहीं लगेगी। आपको हर मुसीबत से बचाने के लिए भगवान तैयार हैं। शर्त है आप पहल करें, भगवान को पुकारें, उसकी आराधना करें। फिर भगवान क्या करते हैं यह आपको सोचना भी नहीं पड़ेगा।<br />
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चलिए एकादश स्कंध में प्रवेश करते हैं। जीवन के अनेक उलझे प्रश्नों का उत्तर यहां मिलेगा। इसका आरम्भ महाभारत की चर्चा से होता है। ग्रंथकार ने महाभारत पर विस्तृत चर्चा नहीं की है संक्षेप में संकेत दिया है।भगवान श्रीकृष्ण ने बलरामजी तथा अन्य यदुवंशियों के साथ मिलकर बहुत से दैत्यों का संहार किया तथा कौरव और पाण्डवों में भी शीघ्र मारकाट मचाने वाला अत्यन्त प्रबल कलह उत्पन्न करके पृथ्वी का भार उतार दिया। कौरवों ने कपटपूर्ण जूए से, तरह-तरह के अपमानों से तथा द्रौपदी के केश खींचने आदि अत्याचारों से पाण्डवों को अत्यन्त क्रोधित कर दिया था। उन्हीं पाण्डवों को निमित्त बनाकर भगवान श्रीकृष्ण ने दोनों पक्षों में एकत्र हुए राजाओं को मरवा डाला और इस प्रकार पृथ्वी का भार हल्का कर दिया।<br />
<br />
भगवान हर संकट को पहले भांप लेते हैं। वे रहे कहीं भी उनका ध्यान हमेशा अपने प्रिय लोगों में लगा रहता है। वे पल-पल कई खबर रखते हैं, फिर जब भी जरूरत पड़े वे भक्त के पास तत्काल पहुंच जाते हैं। पाण्डवों के साथ भी यही हुआ है। भगवान द्वारका में हैं और कौरवों ने उनके साथ शडयंत्र रचा है। भगवान ने युधिष्ठिर को पहले ही संकेत भी किया था कि जुआ नहीं खेलना चाहिए, राजा में एक भी कुसंस्कार हो तो वह उससे राज छिनने का कारण बन जाता है। फिर भी युधिष्ठिर जुआ खेलने के लिए राजी हो गए। बस अब भगवान चुप हैं। बड़ा संकट आने वाला है, भगवान सब देख रहे हैं। वे अधर्मियों को भी धर्म के रास्ते पर आने का एक मौका देते हैं, फिर भी अगर लोग न सुधरें तो आगे निर्णय खुद भगवान करते हैं। कुछ लोग महाभारत के घटनाक्रम पर सवाल उठाते हैं कि कृष्ण को जब सब पता था तो उन्होंने सीधे राजसभा में पहुंच कर जुआ क्यों नहीं रुकवाया, क्यों द्रौपदी के चीरहरण को पहले ही नहीं रोक दिया। इसका जवाब है कि भगवान एक बार सबको मौका देते हैं, एक बार सबकी परीक्षा लेते हैं।<br />
<br />
<b>तो इसलिए तैयार हो गए युधिष्ठिर जुआ खेलने को</b><br />
अपने बाहुबल से सुरक्षित यदुवंशियों के द्वारा पृथ्वी के भार-राजा और उनकी सेना का विनाश करके, प्रमाणों के द्वारा ज्ञान के विषय न होने वाले भगवान श्रीकृष्ण ने विचार किया कि लोकदृष्टि से पृथ्वी का भार दूर हो जाने पर भी वस्तुत: मेरी दृष्टि से अभी तक दूर नहीं हुआ, क्योंकि जिस पर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता, वह यदुवंश अभी पृथ्वी पर विद्यमान है। यह यदुवंश मेरे आश्रित हैं और विशाल वैभव के कारण उच्छल हो रहा है। अन्य किसी देवता आदि से भी इसकी किसी प्रकार पराजय नहीं हो सकती। बांस के वन में परस्पर संघर्ष से उत्पन्न अग्नि के समान इस यदुवंश में भी परस्पर कलह खड़ा करके मैं शान्ति प्राप्त कर सकूंगा और इसके बाद अपने धाम में जाऊंगा।<br />
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चलिए थोड़ा महाभारत की कथा को जान लें। भगवान का नया रूप आने वाला है। जब भगवान की लीला चल रही थी तब पाण्डव इंद्रप्रस्थ में राजा बनकर अपना राज चला रहे थे। सबकुछ ठीक चल रहा था और एक दिन पाण्डव से बड़ी भूल हो गई। पाण्डवों का वैभव देखकर दुर्योधन विचलित था, उसने अपने मामा से कहा मैं आत्महत्या कर लूंगा। मामा ने कहा मेरे जीवित रहते आत्महत्या करने की आवश्यकता नहीं है। मैं पाण्डव का यह वैभव नहीं देख सकता। किसी भी तरह पाण्डव को पराजित करिये। हमारी हस्तिनापुर से ज्यादा अच्छी राजधानी इंद्रप्रस्थ। मैं मरना चाहता हूं। शकुनी समझाता है कि जब शस्त्र से न लड़ा जाए तो षडय़ंत्र से लडऩा चाहिए। एक काम करो मैं जानता हूं धर्मराज है युधिष्ठिर पर उसकी एक बहुत बड़ी कमजोरी है कि वो जुआ खेलने में मना नहीं करता। उसको द्युत का आमंत्रण दो और पिता से स्वीकृति लो। उस समय द्यूत राजक्रीड़ा मानी जाती थी।<br />
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सूचना मिली तो चारों भाई और द्रौपदी ने कहा कि आप यह आमंत्रण स्वीकार मत करिए। जुआ खेलना ठीक नहीं है लेकिन बस एक कमी थी युधिष्ठिर में और तर्क दिया युधिष्ठिर ने कि यदि राजा के पास यदि किसी दूसरे राजा का आमंत्रण आए तो उसको स्वीकार करना ही पड़ता है, यह राजधर्म है, नीति है इसलिए जाना ही पड़ेगा। राजमहल में अलग से द्यूतकक्ष बनाया गया। और जब पांचों पाण्डव सामने बैठे, कौरव बैठे सब लोग मौजूद थे तब यह सूचना दी गई कि आप तो युधिष्ठिर जुआ खेलना जानते हैं, दुर्योधन नहीं जानता तो दुर्योधन की ओर से शकुनी जुआं खेलेगा, पासे शकुनी फेंकेगा।<br />
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<b>ऐसी एक आदत आपकी जिदंगी बना या बिगाड़ सकती है</b><br />
कृष्ण ने मन ही मन कहा जब दाऊ ने कंधे पर हाथ रखकर पूछा तो कृष्ण कहते हैं कि ये पांच बच्चे जीवन में बिना मुझसे पूछे कोई काम नहीं करेंगे, पर उन्होंने ऐसा काम कर लिया मुझसे पूछा तो होता। मैं संभाल लेता स्थिति को। कृष्ण आंगीरस के आश्रम में चले गए। ये क्या किया पाण्डवों ने मैं इनके भरोसे इतना बड़ा अभियान कर रहा था।याद रखिए एक बुराई, कभी हमारे व्यक्तित्व में एक बुराई आ जाए तो हम सोचते हैं चलेगी एक बुराई तो पर एक बुराई थी धर्मराज युधिष्ठिर की और देखिए क्या स्थिति बन गई।<br />
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एक भी दुर्गुण हो तो अतिरिक्त रूप से सावधान हो जाइए। एक दुर्गुण पूरे जीवन की तपस्या को खंडित कर सकता है। भगवान को बहुत दुख हुआ। भगवान सोचते हैं पर याद तो पाण्डव ही आते हैं। मेरी आंखों को ये कौन बताने देगा ख्वाब जिसके हैं वो ही नींद न आने देगा। सब अंधरों से कोई वादा किए बैठे हैं कौन ऐसे में मुझको शमा जलाने देगा। भगवान कह रहे हैं जिस पर भरोसा था वो ही यह कर गया। पाण्डव वन में चले गए तब भगवान पाण्डवों से मिलने वन में जाते हैं। धीरे-धीरे भागवत हमें बताती और जब वनवास पूरा होता है, लौटकर आते हैं। कौरव उनको अपना अधिकार नहीं लौटाते तब भगवान एक बार फिर वहां दूत बनकर गए हैं।<br />
<br />
भागवत में प्रसंग आया है भगवान ने विचार किया मुझे अब महाभारत करते हुए इनका समापन करना है तो भागवत लिख रही है कथा। भगवान ने विचार किया कि अब मैं पाण्डवों को निमित्त बनाकर दोनों पक्षों के राजाओं को खत्म करूं, इनको समाप्त करूं। भगवान दूत बनकर गए हैं कौरवों की सभा में। भगवान की प्रतीक्षा की जा रही थी। भगवान ने पाण्डवों की ओर से पक्ष रखा। कभी आप महाभारत पढि़ए तो उसमें भाषण कला क्या होती है यह देखना हो तो कृष्णजी ने पाण्डवों की ओर से दूत बनकर कौरवों की सभा में अधिकार, राजनीति, नैतिकता, धर्म के ऊपर सुंदर व्याख्यान दिया और अंत में कहा पाण्डवों को उनका इंदप्रस्थ लौटा दीजिए तब दुर्योधन ने कहा सुनो ग्वाले सुई की नोंक से नाप ली जाए, पृथ्वी का इतना सा टुकड़ा भी नहीं दूंगा। या तो लड़कर ले लें या फिर जंगल में रहें। भगवान ने कहा दुर्योधन यह बात ठीक नहीं कह रहे हो।<br />
<br />
मैं नहीं चाहता युद्ध हो। जब भगवान ने कहा तो दुर्योधन ने कहा- पकड़ लो ग्वाले को और दुर्योधन के सैनिक दौड़े तो भगवान एकदम से खड़े हुए और उन्होंने एकदम गर्जिली वाणी में कहा कि पूरे कुरूवंश के सैनिक की श्रृंखला बना लाओ और मुझे पकड़ लो तो मैं यहीं युद्ध हार जाता हूं। देखता हूं कौन पकड़ता है। भगवान सामान्य रूप से रौद्र रूप में आते नहीं, पर उस दिन क्या गरजे हैं और जैसे ही भगवान गरजे तो पूरी राजसभा कांपी, दो लोग नहीं हिले एक स्वयं कृष्ण और दूसरे भीष्म। भीष्म आंख बंद करके बैठे थे। भीष्म जान रहे थे बहुत बड़ा अपराध दुर्योधन लगातार करता जा रहा है। भगवान बाहर निकले और जाने लगे। चलिए महाभारत युद्ध पूर्व भगवान के चिंतन को जान लें।<br />
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<b>जब समझ ना आए कौन सा रास्ता चुने तो...</b><br />
भगवान शान्ति के संवाहक हैं। वे हमेशा शान्ति ही चाहते हैं। भगवान ने महाभारत में हर युद्ध के पहले शान्ति की ही कोशिशें की। जरासंध से युद्ध हो या कंस के साथ, भगवान ने हर बार पहले युद्ध टालने का प्रयास किया। भगवान कहते हैं कि शान्ति किसी भी कीमत पर मिले वह सस्ती ही है। महाभारत युद्ध के आसार मंडरा रहे हैं। हर कोई अपने हथियारों को धार देने में लगा है। केवल एक ही है जो शान्ति के प्रयास में जुटे हैं, कैसे भी हो बस शन्ति मिले तो वह प्रयास किया जाए। भगवान शन्ति का कोई भी अवसर खोना नहीं चाहते। भगवान शन्ति के दूत हैं।<br />
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अगर देखा जाए तो इन्सान की जिन्दगी में दो ही चीजों का सबसे ज्यादा महत्व है, सुख और शान्ति। जीवन में जब दोनों का संतुलन हो तो आनन्द मिलता है। सुख तो हम अपने पुरुषार्थ से कमा लेते हैं लेकिन शान्ति ऐसे ही नहीं मिलती। षान्ति के लिए मन को, इच्छाओं को, अभिलाशाओं को, महत्वाकांक्षाओं को नियंत्रित करने, परम शक्ति के प्रतिपूर्ण समर्पण से ही शान्ति मिलती है। जीवन में शान्ति न हो तो सारे सुख बेकार हैं, वे सुख भी आनन्द नहीं देते। भगवान अपने भक्तों के जीवन में सुख और शान्ति दोनों के प्रयास करते हैं, पहले शान्ति देते हैं, फिर सुख। जीवन में शान्ति की अहमियत समझिए। अगर शान्ति मिल जाए तो सुख खुद आ जाता है। जीवन में पहले शन्ति का प्रयास करें। आसपास के वातावरण में, परिवार में, समाज में, देश में और स्वयं के भीतर, हर कहीं पहले शान्ति स्थापित की जाए। सुख स्वत: चला जाएगा।<br />
<br />
मेरा माना तो राग हुआ और दूसरे का माना तो द्वेष हुआ। राग-द्वेष वृत्तियां हैं। वृत्तियों की निर्माता परिस्थितियां होती हैं और मनुष्य भी अपने में निर्माण करता है। परिस्थिति को हम एक उदाहरण से ले सकते हैं। एक शिशु व्रत्तिविहीन होता है। न अच्छी और न बुरी वृत्ति वाला-परिवार में वह बड़ा होता है। परिवार के संस्कार उसमें वृत्तियों का निर्माण करते हैं। किशोरवय में उसे समाज का विद्यालय, माता-पिता सहित शिक्षकों का साथ मिलता है, अधिक वृत्तियां उसमें संचित होती हैं। विवाह होता है, बाल-बच्चे होते हैं- मोह जनित संस्कार उसमें उदय होते हैं-राग, द्वेष, ईष्र्या, सेवा, सद्भावना, सद्विचार वाली वृत्तियां उसके मानस पटल पर अंकित होती हैं। वह दु:खी और सुखी होता है। तदनुसार वह जगत में कार्य करने लगता है। इस बीच यदि श्रीकृष्ण जैसे महापुरुष, महात्मा, संत, ज्ञानी व दिव्य दृष्टि का साथ मिल जाए तो दिशा बदल जाती है।<br />
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यह दिशा हर किसी को नहीं मिलती। इसके लिए आपको श्रीकृष्ण जैसा सारथी चाहिए। श्रीकृष्ण आपके भी सारथी बन सकते हैं लेकिन इसके लिए आपको अर्जुन जैसा बनना पड़ेगा। जो नर है लेकिन जिसके हृदय में हमेशा नारायण बसते हैं। नारायण को अपने मन में बसाएं फिर वह खुद आपके जीवन रथ का सारथी बन जाएगा। नारायण का होने का मतलब है सबकुछ का समर्पण। अपने आपको उसके चरणों में लगा देना। जब आप नारायण के हो जाएंगे तो फिर किसी अन्य गुरु की आवश्यकता नहीं होगी। भगवान खुद ही आपको सारे रास्ते दिखाएंगे।<br />
<br />
<b>इसीलिए कहते है जैसा बोओगे वैसा ही काटोगे</b><br />
कर्मों के फल भी निश्चित है। कर्म बीज है जो बोया गया तो वृक्ष बनेगा, फूल व फल लगेंगे ही, तब क्या? फल भोगना है या उनका त्याग कर निद्र्वंद्व होना है। यह निश्चयात्मकता तब ही हो सकती है जब सद्कर्म किए जाएं।<br />
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अन्यथा कर्म बंधन के कारण हैं। उनके बंधन में न आना ही कुशलता है। पाप और पुण्य कर्म दोनों फल देते हैं जो दु:ख व सुख के रूप में प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, इसी जीवन में और अतिशेष भावी जन्मों में।व्यक्ति फल की इच्छा त्यागकर कर्म ईश्वर अर्पण करके करता है, स्मरण रहे ईश्वर को सद्कर्म-सद्वस्तु या श्रेष्ठ कर्म या श्रेष्ठ वस्तु ही अर्पण की जाती है। जिसमें किसी को हानि नहीं, किसी की हिंसा नहीं, किसी से राग नहीं, द्वेष नहीं होता है। ईश्वर-अर्पण में पूर्ण शुद्धता होती है। फल की कामना भी नहीं।<br />
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'कर्मव्येवाधिकारस्ते मा फलेशु कदाचन। मा कर्मफल हेतु र्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।<br />
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तेरा अधिकार कर्म करने मात्र तक सीमित है, फल के लिए कदापि नहीं। तू स्वयं कर्म के फल हेतु क्यों बनता है और कर्म छोड़कर अकर्मण्य होने की भी इच्छा मत कर। अकर्मण्य बनना नहीं है, व्यक्ति बन भी नहीं सकता तो फिर सद्कर्म कर ईश्वर के ऊपर उसके फल छोडऩे के अतिरिक्त कोई अन्य बुद्धिमत्ता नहीं। व्यक्ति के जीवन में अकर्मण्यता जैसी कोई अवस्था नहीं होती है। क्योंकि वह कुछ न कुछ कर्म तो करेगा ही। अगर कर्म नहीं करेगा तो सांस कैसे लेगा, जल कैसे पिएगा, भोजन कैसे करेगा? व्यक्ति जब तक जीवित रहता है तब तक कर्म जारी रहता है। भगवान कहते हैं कि जब कर्म करने ही हैं तो कुछ अच्छे ही करो।<br />
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सद्कर्मों से लाभ होगा, धन-ऐश्वर्य, सम्पन्नता और मेरा सान्निध्य भी मिलेगा। बिना सद्कर्म के कोई गति नहीं है। अच्छे काम करोगे तो आगे भी अच्छी गति पाओगे। किन्तु ऐसी बुद्धि आए कैसे, बने कैसे? यह बुद्धि बुद्धि-योग का विषय है, बुद्धि सदैव तर्क करती है। बुद्धि ही वास्तव में मन की नियन्ता है। मोह इसे कलुशित करता है। विभिन्न अर्थवादों से अस्थिर बुद्धि जब स्थिर होगी तब समाहित अवस्था में बुद्धि आ सकेगी, इस समाहित स्थिति में संकल्प-विकल्प रहित शान्त-मन वाला मनुष्य हो सकेगा।<br />
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<b>इसीलिए कहते हैं किस्मत का लिखा कोई नहीं मिटा सकता...</b><br />
हे शुकदेवजी यदुवंशी बड़े ब्राम्हण भक्त थे। उनमें बड़ी उदारता भी थी तो उनका चित्त भगवान श्रीकृष्ण में लगा रहता था, फिर उनसे ब्राम्हणों का अपराध कैसे बन गया? और क्यों ब्राम्हणों ने उन्हें षाप दिया? उनमें फूट कैसे हुई? यह सब आप कृपा करके मुझे बतलाइये। भगवान श्रीकृष्ण ने वह शरीर धारण कर द्वारकाधाम में रहकर क्रीडा करते रहे और उन्होंने अपनी उदार कीर्ति की स्थापना की।अन्त में श्रीहरि ने अपने कुल के संहार-उपसंहार की इच्छा की, क्योंकि अब पृथ्वी का भार उतरने में इतना ही कार्य रह गया था। भगवान श्रीकृष्ण ने ऐसे परम मंगलमय और पुण्य-प्रापक कर्म किए। अब भगवान श्रीकृष्ण महाराज उग्रसेन की राजधानी द्वारकापुरी में वसुदेवजी घर यादवों का संहार करने के लिए कालरूप से ही निवास कर रहे थे। उस समय उनके बिदा कर देने पर विश्वामित्र, असित, कण्व, दुर्वासा, भृगु, अंगिरा, कष्यप, वामदेव, अत्रि, वसिष्ठ और नारद आदि बड़े-बड़े ऋषि द्वारका के पास ही पिण्डारक क्षेत्र में जाकर निवास करने लगे थे।<br />
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एक दिन यदुवंश के कुछ उद्दण्ड कुमार खेलते-खेलते उनके पास जा निकले। उन्होंने बनावटी नम्रता से प्रणाम करके प्रश्न किया। वे जाम्बवतीनन्दन साम्ब को स्त्री के वेश में सजाकर ले गए और कहने लगे, ब्राम्हणों! यह गर्भवती है। यह आपसे एक बात पूछना चाहती है। आप लोगों का ज्ञान अमोघ है, आप सर्वज्ञ हैं। इसे पुत्र की बड़ी लालसा है और अब प्रसव का समय निकट आ गया है। आप लोग बताइये, यह कन्या जनेगी या पुत्र? जब उन कुमारों ने इस प्रकार उन ऋषि-मुनियों को धोखा देना चाहा, तब वे भगवत्प्रेरणा से क्रोधित हो उठे। उन्होंने कहा-मूर्खों! यह एक ऐसा मूसल पैदा करेगी, जो तुम्हारे कुल का नाश करने वाला होगा। मुनियों की यह बात सुनकर वे बालक बहुत ही डर गए।<br />
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उन्होंने तुरंत साम्ब का पेट खोलकर देखा तो सचमुच उसमें एक लोहे का मूसल मिला। अब तो वे पछताने लगे। इस प्रकार वे बहुत ही घबरा गए तथा मूसल लेकर अपने निवास स्थान में गए। उस समय उनके चेहरे के रंग फीके पड़ गए थे। उन्होंने भरी सभा में सब यादवों के सामने ले जाकर वह मूसल रख दिया और राजा उग्रसेन से सारी घटना कह सुनाई। राजन जब सब लोगों ने ब्राम्हणों के शाप की बात सुनी और अपनी आंखों से उस मूसल को देखा, तब सब के सब द्वारकावासी विस्मित और भयभीत हो गए, क्योंकि वे जानते थे कि ब्राम्हणों का शाप कभी झूठा नहीं होता।<br />
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यदुराज उग्रसेन ने उस मूसल को चूरा-चूरा करा डाला और उस चूरे तथा लोहे के बचे हुए छोटे टुकड़े को समुद्र में फेंकवा दिया। इसके संबंध में उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से कोई सलाह न ली। फिर भी भगवान सब जानते थे, कुछ भी उनसे छिपा नहीं था। वे मौन थे। सब कुछ जानकर भी अनजान थे। ऐसा दर्शा रहे थे मानो वे कुछ भी जानते ही नहीं। मूसल को समुद्र में फैंकने के बाद उन्होंने फिर ऐसे जीना शुरू कर दिया जैसे कुछ हुआ ही नहीं लेकिन नियति ने उनका भाग्य तय कर दिया था। यदुकुमारों को मन में चिंता सता रही थी, कृष्ण से कैसे कहें, ब्राम्हणों ने कैसा कोप दिखाया है। वे सामान्य रहने का प्रयास करने लगे। उस लोहे के टुकड़े को एक मछली निगल गई और चूरा किनारे आ लगा।<br />
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वह थोड़े दिनों में एरक के रूप में उग आया। मछली मारने वाले मछुओं ने समुद्र में दूसरी मछलियों के साथ उस मछली को भी पकड़ लिया। उसके पेट में जो लोहे का टुकड़ा था, उसको जरा नामक व्याध ने अपने बाण की नोक में लगा लिया। भगवान सबकुछ जानते थे। वे इस शाप को उल्टा भी सकते थे। फिर भी उन्होंने ऐसा करना उचित न समझा। कालरूपधारी प्रभु ने ब्राम्हणों के शाप का अनुमोदन ही किया। यह प्रसंग सिखा रहा है सबुद्धि खो देने का क्या दुष्परिणाम होता है।<br />
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<b>प्रेम गली अति सांकरी जामे दो न समाय</b><br />
अब भागवत के ग्यारहवें स्कंध के दूसरे अध्याय से एक नया प्रसंग आरम्भ हो रहा है। भागवत के समापन के पृष्ठों पर जीवन की फिलोसाफी पर बहुत अच्छा प्रकाश डाला है।देवर्षि नारद के मन में भगवान श्रीकृष्ण की सन्निधि में रहने की बड़ी लालसा थी। इसलिए वे श्रीकृष्ण के सुरक्षित द्वारका में जहां दक्ष आदि के शाप का कोई भय नहीं था, बिदा कर देने पर भी पुन: आकर प्राय: रहा करते थे।नारदजी को द्वारका में अच्छा लगता था। दक्ष का शाप था उन्हें, एक जगह स्थित नहीं रह सकेंगे। लेकिन द्वारका में वे रुकते थे। भगवान का सान्निध्य संतों को आनन्द ही देता है। जीवन में जब भी मौका लगे भगवान का सान्निध्य कर लेना चाहिए।<br />
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एक दिन की बात है नारदमुनि वसुदेवजी के यहां पधारे। यहां वसुदेवजी और नारदजी का एक महत्वपूर्ण वार्तालाप होता है। वसुदेवजी ने नारदजी से कहा-संसार में माता-पिता का आगमन पुत्रों के लिए और भगवान की ओर अग्रसर होने वाले साधु-संतों का पदार्पण प्रपन्च में उलझे हुए दीन-दुखियों के लिए बड़ा ही सुखकर और बड़ा ही मंगलमय होता है।<br />
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संत हमारे घर आते रहें यह हमारी गृहस्थी के लिए शुभ होगा। वसुदेव बोले पहले जन्म में मैंने मुक्ति देने वाले भगवान की आराधना तो की थी, परन्तु इसलिए नहीं कि मुझे मुक्ति मिले। मेरी आराधना का उद्देश्य था कि वे मुझे पुत्र रूप में प्राप्त हों। उस समय मैं भगवान की लीला से मुग्ध हो रहा था। अब आप मुझे ऐसा उपदेश दीजिए जिससे मैं इस जन्म-मृत्युरूप भयावह संसार से ही पार हो जाऊँ।<br />
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नारदजी ने कहा-आपने मुझसे जो प्रश्न किया है, इसके सम्बन्ध में संत पुरुष एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। वह इतिहास है ऋ षभ के पुत्र नौ योगीश्वरों और महात्मा विदेह का शुभ संवाद। स्वायम्भुव मनु के एक पुत्र थे प्रियव्रत। प्रियव्रत के आग्नीध्र। आग्नीध्र के नाभि और नाभि के पुत्र हुए ऋषभ। मोक्षधर्म का उपदेश करने के लिए उन्होंने अवतार ग्रहण किया था। उनके सौ पुत्र थे और सब के सब वेदों के पारदर्शी विद्वान थे। उनमें सबसे बड़े थे राजर्षि भरत। उभक्ति-स्वामी श्री रामदासजी के शब्दों में कहा जाए तो जो विभक्त नहीं, वही भक्त है। जिसके हृदय में विभाजन है वह जीव है। ईश्वर तथा जीव का विभाजन, पुरुष तथा प्रकृति का विभाजन, गुणों का विभाजन, अपने-पराए, मेरे-तेरे, अच्छे बुरे का विभाजन। भक्त को सब एक दिखाई देता है। विभिन्न नामों में एक ही प्रभु। विभिन्न सम्प्रदायों-सिद्धांतों में एक ही लक्ष्य। कोई झगड़ा नहीं मित्र, शत्रुभाव सब मन का विकार है। भक्त सभी से एक समान प्रेम करता है। परम प्रेम-रूपा भक्ति इस दिशा में, आन्तरिक यात्रा है।<br />
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''प्रेम गली अति सांकरी जामे दो न समाय अर्थात- ईश्वर और जगत दोनों नहीं समा सकते। ईश्वर के प्रति प्रेम भक्ति है और जगत के प्रति प्रेम मोह होता है। अमृत स्वरूपा च भक्ति अमृत स्वरूप है। जन्म-मरण के खेल से मुक्ति ही अमृतत्व कहा जा सकता है और ''मोह सब व्याधिन के मूला..मोह से सब व्याधियां आती है।<br />
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<b>उसके इशारे को समझे तो कुछ भी पाने में देर नहीं लगेगी</b><br />
वे दिगम्बर ही रहते थे और अधिकारियों को उपदेश किया करते थे। उनके नाम हैं कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्लायन, आविर्होत्र, दु्रमिल, चमस और करभाजन। वे पृथ्वी पर स्व'छंद विचरण करते थे।एक बार की बात है। इस अजनाभ (भारत) वर्ष में विदेहराज महात्मा निमि बड़े-बड़े ऋषियों के द्वारा एक महान यज्ञ करा रहे थे। ये नौ योगीश्वर उनके यज्ञ में जा पहुंचे। राजा निमि ने विनय से झुककर परम प्रेम के साथ उनसे प्रश्न किया।<br />
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राजा निमि ने कहा-हम आप लोगों से यह प्रश्न करते हैं कि परम कल्याण का स्वरूप क्या है? और उसका साधन क्या है? इस संसार में आधे क्षण का सत्संग भी मनुष्यों के लिए परम निधि है। आप कृपा करके भागवत धर्मों का उपदेश कीजिए।<br />
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देवर्षि नारद ने कहा-वसुदेवजी! जब राजा निमि ने उन भगवतप्रेमी संतों से यह प्रश्न किया। तब नौ योगीश्वरों में से कवि ने कहा-राजन! भक्तजनों के हृदय से कभी दूर न होने वाले अ'युत भगवान के चरणों की नित्य निरन्तर उपासना ही इस संसार में परम कल्याण है।<br />
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भगवान ने भोले-भाले अज्ञानी पुरुषों को भी सुगमता से साक्षात् अपनी प्राप्ति के लिए जो उपाय स्वयं श्रीमुख से बतलाए हैं-भागवत धर्म है। राजन इन भागवत धर्मों का अवलम्बन करके मनुष्य कभी विघ्नों से पीडित नहीं होता।ईश्वर से विमुख पुरुष को उनकी माया से अपने स्वरूप की विस्मृति हो जाती है और इस विस्मृति से ही मैं देवता हूं, मैं मनुष्य हूं, इस प्रकार का भ्रम-विपर्यय हो जाता है। इस देह आदि अन्य वस्तु में अभिनिवेश, तन्मयता होने के कारण ही बुढ़ापा, मृत्यु रोग आदि अनेकों भय होते हैं। इसलिए अपने गुरु को ही आराध्यदेव मानकर भक्ति के द्वारा उस ईश्वर का भजन करना चाहिए।<br />
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संसार में भगवान के जन्म की और लीला की बहुत सी मंगलमयी कथाएं प्रसिद्ध हैं। उनको सुनते रहना चाहिए। राजन इस प्रकार जो प्रतिक्षण एक-एक वृत्ति के द्वारा भगवान के चरणकमलों का ही भजन करता है, उसे भगवान के प्रति प्रेममयी भक्ति, संसार के प्रति वैराग्य। ये सब अवश्य ही प्राप्त होते हैं। तब वह स्वयं शान्ति का अनुभव करने लगता है।<br />
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यहां पहला प्रश्न और पहला उत्तर ब्रम्ह की अनुभूति के संदर्भ में है। इस पर गहरा चिंतन करना होगा।<br />
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यदि साधक ने इन्द्रिय यज्ञ की पूर्णाहुति ब्रम्ह की प्राप्ति की कामना से की, तो ब्रम्ह का मिलना तो दूर न तो उसका आभास होगा, न उनकी समीपता का अनुभव होगा। ऐसे अनेक भाव मन में साधक, पाठक या जिज्ञासु के उठ सकते हैं। जिस ब्रम्ह की धारण को ऋषि, मुनियों, देवदूतों (पैगम्बरों), योगियों, भक्तों आदि ने पुश्ट किया, क्या उन्हें ब्रम्हानुभूति हुई? इन प्रश्नों का उत्तर अन्तर्यामी के अतिरिक्त कोई नहीं दे सकता। पहली बात तो यह कि इस प्रश्न की योग्यता भी हासिल हुई है या यूं ही मनोविलास के लिए जिज्ञासा उत्पन्न कर ली गई। यदि योग्यता प्राप्त कर ली हो तो अन्तर्यामी से बढ़कर कोई गुरु नहीं है जो समाधान कर सके।<br />
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यहां हम परमात्मा की अनुभूति की चर्चा कर रहे हैं। परमात्मा को केवल महसूस किया जा सकता है, उसे देखा या छुआ जाना आम आदमी के वश में नहीं है। परमात्मा किसी भी रूप में आकर आपको संकेत कर सकता है, तैयारी आपकी होनी चाहिए उन संकेतों को समझने की। हम उसके संकेत ही नहीं समझ पाते हैं, बस इसीलिए अपनी साधना और परमात्मा दोनों को कौसते रहते हैं। परमात्मा के इशारे को समझने लगेंगे तो फिर उसे पाने में देर नहीं लगेगी।<br />
<b><br />भागवत हमें सीखाती है कि काम करना है जरूरी क्योंकि...</b><br />
भगवान श्रीकृष्ण ने स्थित प्रज्ञ की परिभाषा करते हुए स्पष्ट कहा कि मन में आने वाली सब कामनाओं का त्याग करके अपनी आत्मा में ही संतुष्ट रहने वाली स्थिति प्राप्त स्थित प्रज्ञ कहा जाता है।किसी भी कर्म में बिना स्थित प्रज्ञता के कुशलता नहीं आ सकती और न ही उस कर्म का सकारात्मक और नकारात्मक ही समझ में आ सकता। हम मानते हैं कि भगवत अर्पित क्रियाकलाप शुद्ध बुद्धि के प्रमाण हैं। कोई यदि विचारे और उस पथ पर चल दे कि कर्म किया न जावे तो सुफल या कुफल कहां और कैसे मिलेगी, जो जगत में रहता है फिर वह संन्यासी ही क्यों न हो, कौन सा कर्म करना हैऔर कौन सा त्यागना है उसकी प्रज्ञा निश्चित करेगी। निष्कर्मता हो ही नहीं सकती। मन, वाणी और शरीर से प्रकृति से उत्पन्न हुए गुण बलात् प्रत्येक मनुष्य से कर्म कराते हैं। इन्द्रियों से कर्म होते हैं। मन से चिन्तन होता है। इन्द्रियों को रोक लें और मन से संबंधित कर्म का चिन्तन किया जाए इसे मूर्खतापूर्ण कार्य भगवान श्रीकृष्ण ने मिथ्याचार यानी अखंड कहा।<br />
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वाणी से प्रशंसा की जाए और मन से गाली दी जाए। सामान्य जगत में यह होता है, बड़ा भारी मिथ्याचार है, इसका कुफल ही मिलता है। कुफल मिलने पर हम नियति, भाग्य को कोसते हैं। वाणी से प्रशंसा भी न करें लेकिन मन में हानि पहुंचाए तो भी सुफल प्राप्त नहीं होगा। मनसा, बाचा व कर्मणा शुद्धता आए बिना कर्म सुकर्म हो नहीं सकते। सुकर्म के सुफल और कुकर्म और कुफल यह शाश्वत नियम कहा जा सकता है।<br />
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मनुष्य की उत्पत्ति प्रकृति व पुरुष के संयोग से हुई स्वीकार करते हैं-प्रकृति तीन प्रकार की वर्णित है-सतोगुणि प्रकृति, रजोगुणी प्रकृति और तमोगुणी प्रकृति और 'प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वष:। अहंकार विमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।सब प्रकार के कर्म प्रकृति के सात्विक, राजसिक एवं तामसिक तीनों गुणों के कारण होते हैं। जिसे यह भान रहता है कि कार्य प्रकृति अनुसार हो रहे हैं तो वह कर्मानुष्ठान में आसक्ति छोड़कर कर्म करता है।<br />
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<b>तो इसलिए रावण और कुंभकर्ण तब भी थे और आज भी हैं</b><br />
कर्म भी रजोगुणी हो जाता है। इन्द्रियां, मन, बुद्धि-काम, क्रोध के निवास हैं। इन्हें गीतकार ने नित्य का महान शत्रु कहा है।तमोगुणी कर्म तो शुद्ध रूप से हिंसक, पापपूर्ण, सामाजिक व शास्त्रीय नियमों के विरुद्ध होते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर, प्रसाद प्रभुति प्रगट या अप्रगट रूप से इन्द्रियों, मन व बुद्धि तो विकृत किए ही रहते हैं। कंस, दुर्योधन, कृष्ण युग के तामसिक व्यक्ति थे। राम युग में रावण, कुंभकर्ण व राक्षस समुदाय इस श्रेणी के पुरुष थे। आधुनिक युग में तामसिक मनुष्यों की कमी नहीं है।<br />
मिश्रित गुणों वाले सामान्यत: दिखावे के साथ ही, ईश्वरानुरागी होते हैं। इस आशा पर कर्म करते रहते हैं कि कभी तो ईश्वरीय शक्ति की कृपा होगी और सत्वगुण का अंश बढ़ते हुए पूर्ण सात्विक जीवन हो जाएगा। प्रत्येक कर्म सात्विक ही होगा क्योंकि राजसिक का भी पुनर्जन्म निश्चित है। फिर चाहे वह श्रेष्ठ परिवार में ही क्यों न हो।<br />
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इन कार्य पद्धति में इन्द्रियों का बड़ा योगदान है। इनकी गति बड़ी सूक्ष्म व तार्किक है। आंखें देखती हैं - कान सुनते हैं, मुख बोलता है व खाता है किन्तु क्या देखती है, क्या सुना जाता है, क्या बोला और खाया जाता है- मन पीछे लगा रहता है। क्योंकि वह इन्द्रियों से सूक्ष्म है, बुद्धि जो मन से भी सूक्ष्म है, बुद्धि से सूक्ष्म आत्मा है इसलिए आत्मा के निर्देश पर बुद्धि चलाई जावे तात्पर्य यह कि इन्द्रियों को वश में रखा जावे तो काम, क्रोध आदि तामसिक वृत्तियों, शत्रुओं को जीतना सहज हो जाएगा।<br />
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सामान्यत: वृत्तियों के पीछे मन भागता है आंखों के माध्यम से सौन्दर्य को कुदृश्टि से देखता है, कानों से निन्दा सुनता है, वाणी से निन्दा करता है, झूठ बोलता है ये सब तामस क्रियाकलाप हैं। सब देह के द्वारा सम्पादित होते हैं। मनुष्य अपना कर्म हरि भजन को बिसार देता है। जिसकी कृपा से सद्कर्म हुए और बड़े भाग से नर-तन पाया। यह भगवान का परम उपकार है। प्रति-उपकार मनुष्य भजन करके ही कर सकता है, किन्तु तामस कर्म करके तामस देह जब बन जाता है, तब सहज ही रावण के द्वारा व्यक्त ये शब्द याद आते हैं ''होइहि भजनु न तामस शक्ति आराधना के लिए तामसी वृत्तियों से बचा जावे। आधुनिक समय में विष्व के लगभग अधिकांश लोगों की तामसिक वृत्तियां, तामसिक आचरण, तामसिक<br />
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खान-पान आदि अभिवृद्धि पर हैं, अशान्त वातावरण बना हुआ है लगता है मनुष्य, मनुष्य नहीं रहा, आसुरी वृत्तियों से सम्पन्न अहंकारी असुरों का समुदाय है। मिथ्याचारियों का जमघट हो गया लगता है। ज्ञान व बुद्धि लुप्तप्राय लगते हैं। भौतिक ज्ञान-ज्ञान नहीं, ईष्वरीय षक्ति का अनुभव ज्ञान होता है। बुद्धि तार्किक लगती है किन्तु स्वार्थमय चिन्तन करती है। इस अन्ध कुंए से निकलने का मार्ग क्रम से सात्विकता की ओर भगवत् स्मरण करते हुए बढ़ते रहना है। प्रथम कर्म कहें या कर्तव्य, ईश्वर आराधना या साधन है। इसी से 'तमसो मा ज्योर्तिगमय अंधकार में प्रकाश के दर्शन होंगे और आगे पथ सुगम होगा।नौ योगेश्वर संवाद-भगवान वसुदेव के दर्शनों और अभिलाषा से नारदजी अधिकांशत: द्वारकापुरी में ही में निवास किया करते थे। एक बार नारदजी भगवान के दर्शनों के लिए उनके भवन में पधारे।अब भागवत के ग्यारहवें स्कंध के दूसरे अध्याय से एक नया प्रसंग आरम्भ हो रहा है।<br />
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<b>इसीलिए जरूरी है मन की शांति</b><br />
माया को सहन कर पाना, उससे बच पाना और उसके भीतर रहकर भी दुनिया और परमात्मा के बीच समन्वय न बनाना बहुत कठिन है। परमात्मा को पकड़ेंगे तो माया छूटती दिखेगी और माया के पीछे दौड़ेंगे तो परमात्मा पीछे रह जाएगा। कुशल लोग वे होते हैं जो दोनों में समन्वय बनाकर चलते हैं। वे ही लोग असली मुमुक्षु होते हैं।<br />
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माया हमारी जिम्मेदारी, हमारी इच्छाएं, महत्वाकांक्षाएं, हमारी प्यास और भौतिकवादिता के प्रति हमारा आकर्षण है। यही माया है। इस माया के इर्द-गिर्द ही हमारी सारी दुनिया घूम रही है। इस माया के मोह में ही अधिकांश काम रुक जाता है। हमारी भक्ति थम जाती है, आध्यात्मिक पहुंच घट जाती है। माया का यही जाल तमाम उम्र हमारे आसपास बना रहता है। इसी माया से ही दुनिया चल रही है। माया भी जरूरी है और परमात्मा भी, अब इन दोनों में तालमेल कैसे बैठाएं। यह तालमेल ही हमें मोक्ष तक ले जाएगा।<br />
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बुद्धि की समत्व स्थिति चित्त को शुद्ध करती है। चित्त को चिंतन का केन्द्र मानकर चल रहे हैं क्योंकि चित्त सदा अपना ही चिंतन करता रहता है। इसलिए हम जो सदा अपना ही चिंतन करें वही चित्त है। चित्त को परिभाषित कर सकते हैं। चिंतन करना व्यक्ति का स्वभाव होता है। जागते व सोते व्यक्ति चिंतन करता है। कवि मैथिलीशरण गुप्त ने ठीक ही लिखा है-''एकाकी रहने पर भी जन-मन मौन नहीं रहता। अपनी-अपनी कहता है, अपनी-अपनी सुनता है वह। चिंतन में यह आवश्यक है कि चिंतन स्वस्थ हो, सार्थक हो, सकारात्मक हो क्योंकि चिंतन से वृत्तियों का निर्माण होता है। दसों इन्द्रियों, मन, बुद्धि और अहंकार की पृष्ठभूमि चित्त होता है। जल पर लहरों की भांति इन सबके व्यवहारों की प्रतिक्रिया चित्त पर होती रहती है। ये सब सूक्ष्म रूप से चित्त पर अंकित होते रहते हैं। उनका अंकन जब स्थाई भाव बन जाता है तब कार्य दैहिक और मानसिक दोनों चित्त द्वारा संस्कारों की परिणति हो जाते हैं।<br />
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चित्त वृत्ति का निरोध योग के रूप में महर्षि पातंजल ने वर्णन किया है चित्त वृत्ति निरोध: योग योग भगवत् मिलन या आत्मदर्शन के योग्य योगीजन संशयरहित हो आत्मस्थित हो पाते हैं। स्पष्ट है कि चित्त वृत्ति को रोकने से ही आत्मदर्शन होते हैं अन्यथा नहीं। जल में लहरों के शांत होने पर ही अपना मुख दर्पण मानिन्द देखा जा सकता है। इसलिए चित्तवृत्तियों को शांत करना आवश्यक है। मन बुद्धि के पश्चात चित्त का या चेतन शक्ति की क्रिया आरम्भ होती है। निर्मल मन, षुद्ध सम बुद्धि वृत्तियों को शांत बनाती है। जिनके मन में मल होता है वे सामान्य बेचैन पाए जाते हैं उनकी बुद्धि अस्थिर होती है, एक विषय या स्थान पर टिकती नहीं उनके द्वारा संपादित कार्य भी आधे-अधूरे रहते हैं।<br />
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<b>ऐसे आते हैं भगवान आपसे मिलने बस पहचानने की देर है</b><br />
यहां हम परमात्मा की अनुभूति की चर्चा कर रहे हैं। परमात्मा को केवल महसूस किया जा सकता है, उसे देखा या छुआ जाना आम आदमी के व में नहीं है। परमात्मा किसी भी रूप में आकर आपको संकेत कर सकता है, तैयारी आपकी होनी चाहिए उन संकेतों को समझने की। हम उसके संकेत ही नहीं समझ पाते हैं, बस इसीलिए अपनी साधना और परमात्मा दोनों को कौसते रहते हैं। परमात्मा के इशारे को समझने लगेंगे तो फिर उसे पाने में देर नहीं लगेगी। एक छोटी सी कथा है, इससे हम आसानी से समझ जाएंगे कि कैसे भगवान हमारी साधना से प्रसन्न होकर दर्शन देने आता है लेकिन हम उसे पहचान नहीं पाते।<br />
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एक ब्राम्हण था, कृष्ण के मंदिर में बड़ी सेवा किया करता था। उसकी पत्नी इस बात से हमेशा चिढ़ती थी कि हर बात में वह पहले भगवान को लाता। भोजन हो, वस्त्र हो या हर चीज पहले भगवान को समर्पित करता। एक दिन घर में लड्डू बने। ब्राम्हण ने लड्डू लिए और भोग लगाने चल दिया। पत्नी इससे नाराज हो गई, कहने लगी कोई पत्थर की मूर्ति जिंदा होकर तो खाएगी नहीं जो हर चीज लेकर मंदिर की तरफ दौड़ पड़ते हो। अबकी बार बिना खिलाए न लौटना, देखती हूं कैसे भगवान खाने आते हैं। बस ब्राम्हण ने भी पत्नी के ताने सुनकर ठान ली कि बिना भगवान को खिलाए आज मंदिर से लौटना नहीं है। मंदिर में जाकर धूनि लगा ली। भगवान के सामने लड्डू रखकर विनती करने लगा। एक घड़ी बीती। आधा दिन बीता, न तो भगवान आए न ब्राम्हण हटा। आसपास देखने वालों की भीड़ लग गई। सभी कौतुकवश देखने लगे कि आखिर होना क्या है।<br />
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मक्खियां भिनभिनाने लगी ब्राम्हण उन्हें उड़ाता रहा। मीठे की गंध से चीटियां भी लाईन लगाकर चली आईं। ब्राम्हण ने उन्हें भी हटाया, फिर मंदिर के बाहर खड़े आवारा कुत्ते भी ललचाकर आने लगे। ब्राम्हण ने उनको भी खदेड़ा। लड्डू पड़े देख मंदिर के बाहर बैठे भिखारी भी आए गए। एक तो चला सीधे लड्डू उठाने तो ब्राम्हण ने जोर से थप्पड़ रसीद कर दिया। दिन ढल गया, शाम हो गई। न भगवान आए, न ब्राम्हण उठा। शाम से रात हो गई। लोगों ने सोचा ब्राम्हण देवता पागल हो गए हैं, भगवान तो आने से रहे। धीरे-धीरे सब घर चले गए। ब्राम्हण को भी गुस्सा आ गया।लड्डू उठाकर बाहर फेंक दिए। भिखारी, कुत्ते, चीटी, मक्खी तो दिनभर से ही इस घड़ी का इंतजार कर रहे थे, सब टूट पड़े। उदास ब्राम्हण भगवान को कोसता हुआ घर लौटने लगा। इतने सालों की सेवा बेकार चली गई। कोई फल नहीं मिला। ब्राम्हण पत्नी के ताने सुनकर सो गया।<br />
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रात को सपने में भगवान आए। बोले-तेरे लड्डू खाए थे मैंने। बहुत बढिय़ा थे, लेकिन अगर सुबह ही खिला देता तो ज्यादा अच्छा होता। कितने रूप धरने पड़े तेरे लड्डू खाने के लिए। मक्खी, चीटी, कुत्ता, भिखारी। पर तुने हाथ नहीं धरने दिया। दिनभर इंतजार करना पड़ा। आखिर में लड्डू खाए लेकिन जमीन से उठाकर खाने में थोड़ी मिट््टी लग गई थी। अगली बार लाए तो अच्छे से खिलाना। भगवान चले गए। ब्राम्हण की नींद खुल गई। उसे एहसास हो गया। भगवान तो आए थे खाने लेकिन मैं ही उन्हें पहचान नहीं पाया।<br />
<br />
बस, ऐसे ही हम भी भगवान के संकेतों को समझ नहीं पाते हैं।<br />
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<b>सारे मंत्र ऊँ से ही क्यों शुरू होते हैं?</b><br />
बस, ऐसे ही हम भी भगवान के संकेतों को समझ नहीं पाते हैं।महाभारत के अश्वमेधिक पर्व में उल्लेख है कि ''हृदयस्थित परमात्मा ही गुर है दूसरा नहीं, उसी के अनुशासन में सब प्राणी कार्यरत हैं, एक ही बन्धु है, एक ही श्रोता है और एक ही देव है।'एक बार देवता, ऋषि, नाग और असुरों ने ब्रम्हाजी से पूछा-भगवन कल्याण का उपाय क्या है? ब्रम्हाजी ने एकाक्षर ऊँ का उच्चरण किया। उनका प्रणवनाद सुनकर सब अपनी अपनी-दिशाओं में चल दिए और विचार किया। सबसे पहले सर्पों के मन में दूसरों का डसने का भाव पैदा हुआ, असुरों में दम्भ का आविर्भाव हुआ, देवताओं ने दान को और महर्षियों ने दम को अपनाने का निश्चय किया।<br />
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सर्प उन प्राणियों के प्रतीक हैं जिनसे हानि की सम्भावना रहती ही है। असुर चाहे जो हों अभिमानी मनुष्य के प्रतीक हैं। देवता अर्थात् सात्विक वृत्ति के प्राणी, देते रहने में प्रवृत्त रहते हैं और महर्षि अर्थात् साधक अपनी इन्द्रियों के दमन में सुख का अनुभव करते हैं।<br />
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साधन, भजन, पूजन में सब मंत्र ऊँ से आरम्भ होते हैं गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है-''तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञ दान तप: क्रिया:। प्रवर्तन्ते विधानोक्ता: सततं ब्रम्हवादिना:।। 24/17।<br />
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ब्रम्हवादी जन यज्ञ, दान और तप की क्रियाओं का विधानोक्त रीति से सदा ऊँ का उच्चारण कर आरम्भ करते हैं।ऊँ ब्रम्ह का वाचक है तथा पूर्णता का प्रतीक है। परमात्मा चैतन्य स्वरूप है तथा जीवात्मा चैतन्य का अंश है 'ईश्वर अंश जीव अविनाशी....तुलसीदास ने रामायण में स्पष्ट किया है। इसे प्रथम तो जाने कैसे? कठोपनिषद् में-'इन्द्रियेभ्य: पराह्यर्था अर्थेभ्यश्व मन:। मनस्तु परा बुद्धि बुद्धित्मा महान परा:।।10 एश सर्वेषु भूतेषुगुढोऽउत्मा न प्रकाशते। दृश्य ते तव्ग्रयया बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभि:।।12।।<br />
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इन्द्रियों से परे (सूक्ष्म, अधिक बलवान) उनके विषय शब्दादि होते हैं और विषयों से परे मन होता है तथा मन से भी परे बुद्धि होती है, जो बुद्धि से प्रबल एवं सूक्ष्म है वह जीवात्मा होता है। जीवात्मा मूलरूप में (शुद्ध रूप में) परमात्मा ही है।<br />
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यह आत्मा (परमात्मा) सब प्राणियों में स्थित होता है, किन्तु गूढ़ (छिपा हुआ) रहता है और प्रत्यक्ष नहीं होता। सूक्ष्म दृष्टि वाले पुरुष सूक्ष्म बुद्धि से उसका अनुभव करते हैं।<br />
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यहां एक पौराणिक दृष्टान्त हमें मिलता है। जहां सूक्ष्म दृष्टि से अन्तर में ब्रम्ह अनुभव किया उसे प्रत्यक्ष नेत्र खोलने पर सामने पाया यह दृष्टान्त सुतीक्ष्णजी का है जिन्होंने हृदय में अनुभव किया। वे बेचैन हो गए और नेत्र खोलकर देखा तो ब्रम्ह राम उनके सम्मुख थे। तात्पर्य यह कि जब साधक ब्रम्ह को जगत् मय देखता है और उन्हें अन्तर में देखता है तब एकाकार हो जाता है-साधना की स्थिति के विषय में चिन्तन के लिए गीता में स्पष्ट निदेश है-''यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति, तस्याहं न प्रणश्यामि सच मे न प्रणश्यति।।30/6जो मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है वह मेरी दृष्टि से ओझल नहीं होता और मैं उसकी दृष्टि से ओझल नहीं होता।<br />
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<b>ये वो चीजें है जो इंसान को अंधा बना देती है...</b><br />
काम केवल एक स्त्री पुरुष संबंधी ही नहीं, वरन् सम्पूर्ण कामनाओं को प्रेरित करने वाला सक्रिय तत्व है जो मनोविकार का कारण है। इसी प्रकार क्रोध, ईष्र्या, द्वेष का कारण बनकर हिंसक बनाता है, इतना ही नहीं यह न मिटने वाले नाना प्रकार के दम्भ को जन्म देता है। समग्र रूप में ये सब मन को दायें-बायें घुमाते रहते हैं। घूमता हुआ मन अपनी चंचल प्रकृति के कारण शुद्ध बुद्धि को भी भ्रमित रखता हुआ उसे नष्ट करने का सारा उपक्रम जुटा लेता है। साधक मनुष्य विनष्यति की स्थिति में पहुंच जाता है और वह स्थित प्रज्ञ नहीं हो पाता। स्थित प्रज्ञ बने बिना काम बनता नहीं। सबकुछ विस्मृत हो जाता है। पूर्ण गीता का उपदेश सुनने के बाद और महाभारत का पूरा कर्म श्रीकृष्ण कहे अनुसार करने के पश्चात अर्जुन उपदेश भूल गया। वैसे तो वह भूला ही हुआ था, इसीलिए श्रीकृष्ण को कहना पड़ा था।''बहूनि में व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन। तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप।।हे अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म बीत चुके हैं। सबको मैं जानता हूं, हे परन्त तू नहीं जानता। काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि वृत्तियों से जन्म जन्मान्तर से चला आ रहा साथ छूटता नहीं। ये सब वृत्तियां अन्धा बनाए रखती हैं।<br />
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भूतकाल भुलाने में व्यतीत होता जाता है। मोह धृतराष्ट्र की भांति अंधा बनाए रखता है जो बुद्धि को न्यायोचित कार्य नहीं करने देता। महाभारत के पात्र भी किसी न किसी वृत्ति के प्रतीक के रूप में लिए जा सकते हैं किन्तु यह एक अलग विषय है। जन्म-जन्म की कौन जाने? साधारणत: एक ही वर्तमान जन्म की अनेक विस्मृतियां हमें घेरे रहती हैं। वैसे देखा जाए तो विस्मृति वरदान है, किन्तु दैवी शक्ति-परमात्मा की विस्मृति अभिशाप है, यह हमें अपने गन्तव्य से विमुख कर देती है और आवागमन का चक्र अनन्तकाल तक चलता रहता है।<br />
<b><br />मन के जीते जीत है मन के हारे हार</b><br />
इसीलिए विचारणीय धारणा है कि ब्रम्ह या परमात्मा को समझा जावे। वह अनन्त है। उसके द्वारा अत्यन्त विस्तृत अनन्त आकानिर्मित है-चिदाकाश, चित्ताकाश और भूताकाश। जो सर्वत्र परिपूर्ण जगत की उत्पत्ति-विनाश का ज्ञाता, साक्षी और समस्त चराचर भूत प्राणियों में व्यापक है, वही प्रथम चिदाकाश है। जो इन्द्रियां और महाभूतों से श्रेष्ठ है, काल की गणना करना जिसका स्वभाव है और जिसने अपने संकल्प के द्वारा इस सम्पूर्ण दृश्य प्रपन्च का विस्तार किया है, समस्त प्राणियों का हितकारी यह संकल्पात्मक मन ही चित्ताकाश कहा जाता है। दसों दिशाओं के विस्तार से जो भी सीमित नहीं होता और वायु, मेघ आदि का आश्रय है, वह असीम भूतात्मक आकाश ही भूताकाश कहलाता है। चित्ताकाश और भूताकाश दोनों चिदाकाश से ही उत्पन्न हुए हैं अत: उसी के रूपान्तर मात्र हैं।<br />
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विभिन्न तत्वों के विचार करने का कोई प्रयोजन नहीं, क्योंकि मन के विलय से संसार निवृत्तिरूप मोक्ष मिलता है। कहा गया है-मन के जीते जीत है, मन के हारे हार। मन जीता कि बुद्धि स्थिर हुई। इससे बम्हज्ञान के निकट पहुंचा जा सकता है।अब हम क्रम से चलें। पहले तो सद्कर्मों से, सद्विचारों से, महापुरुषों के आशीर्वाद से, प्रायश्चित से, पापों को नष्ट किया जाए। रजोगुण से उत्पन्न महापापी क्रोध, काम आदि है इन पर विजय पाई जाए।<br />
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तत्पश्चात शंकाओं को निवृत्त किया जाए। शंकाओं का निवारण सद्गुरु, महात्मा या जिन्होंने ब्रम्हज्ञान प्राप्त कर लिया हो के द्वारा ही हो सकता है। वे ज्ञान का अविर्भाव करें, शक्तिपात करें, कृपा करें और साधक उनके बताए पक्ष पर चले तो वही उत्तर मिलेंगे जो वसुदेवजी के नारदजी से प्राप्त हो रहे थे।<br />
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राजा निमि ने पूछा-योगीश्वर! अब आप कृपा करके भगवद्क्त का लक्षण वर्णन कीजिए। किन लक्षणों के कारण भगवान का प्यारा होता है। नौ योगीश्वररों में से दूसरे हरिजी बोले-राजन आत्मस्वरूप भगवान समस्त प्राणियों में आत्मारूप से स्थित हैं।<br />
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इस प्रकार का जिसका अनुभव है, ऐसी जिसकी सिद्ध दृष्टि है, उसे भगवान का परमप्रेमी उत्तम भागवत समझना चाहिए। जो भगवान से प्रेम, उनके भक्तों से मित्रता, दुखी और अज्ञानियों पर कृपा तथा भगवान से द्वेष करने वालों की उपेक्षा करता है, वह मध्यम कोटि का भक्त है। जो भगवान के मूर्ति आदि की<br />
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पूजा तो श्रद्धा से करता है, परन्तु भगवान के भक्तों या दूसरे लोगों की सेवा नहीं करता, वह साधारण श्रेणी का भक्त है। जो कान, आंख आदि इन्द्रियों के द्वारा विषयों का ग्रहण तो करता है, परन्तु अपनी इच्छा के प्रतिकूल विषयों से द्वेश नहीं करता और अनुकूल विषयों के मिलने पर प्रसन्न नहीं होता। उसकी यह सोच बनी रहती है कि यह सब हमारे भगवान की माया है। वह पुरुष उत्तम भक्त है। संसार के कर्म हैं-जन्म, मृत्यु, भूख-प्यास, श्रम-कष्ट, भय और तृष्णा। राजन! बड़े-बड़े देवता और ऋषि-मुनि भी अपने अन्त:करण को भगवन्मय बनाते हुए जिन्हें ढूंढते रहते हैं-भगवान के ऐसे चरणकमलों से आधे क्षण, आधे पल के लिए भी जो नहीं हटता, निरन्तर उन चरणों की सन्निधि और सेवा में ही संलग्न रहता है।<br />
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<b>बस एक बार ये अनुभव करके तो देखिए...</b><br />
यहां तक कि कोई स्वयं उसे त्रिभुवन की लक्ष्मी दे तो भी वह भगवत्स्मृति नहीं तोड़ता, उस लक्ष्मी की ओर ध्यान ही नहीं देता, वही पुरुष वास्तव में भगवद्क्त वैष्णवों में अंग्रगण्य है, सबसे श्रेष्ठ है।<br />
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इन्हीं प्रश्नोत्तरों में दूसरा अध्याय समाप्त होकर तीसरा अध्याय आरम्भ होता है। तीसरा प्रश्न राजा निमि ने तीसरे योगीश्वर अन्तरिक्ष से पूछा जो माया के संबंध में था। परन्तु उसके पूर्व माया के साथ चित्र को थोड़ा समझ लें। माया क्या है? माया भगवान का ही एक रूप है, एक अंश है। माया एक आवरण है। यह माया ही है जो हमारे आसपास है। जो जन्म से लेकर मृत्यु तक हमारे बीच में ही रहती है। माया का अर्थ है यह नहीं है। जो होकर भी हमारे बीच नहीं है। वह सब माया है। जो हमारे पास जीवनभर रहती है लेकिन दिखाई नहीं देती। माया ऐसी ही चीज है। माया जो साथ न जाए वह होती है।<br />
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इसलिए धन, दौलत, रिश्तेदार और इस दुनिया को माया कहा गया है। यह सब यहीं छूट जाएगा। साथ में केवल उन कर्मों का फल जाता है जो हमने किए हैं। लेकिन वे दिखाई नहीं देते। उन्हें सिर्फ अनुभव किया जा सकता है। इसी अनुभव में परमात्मा का वास है। बस आप अनुभव करके देखिए। आपको माया और भगवान में अन्तर नजर आ जाएगा।<br />
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<b>सुख के बदले हमेशा ही दुख मिले तो समझो...</b><br />
राजा निमि ने पूछा-भगवन विष्णु भगवान की माया बड़े-बड़े मायावियों को भी मोहित कर देती है, उसे कोई पहचान नहीं पाता। मैं उस माया का स्वरूप जानना चाहता हूं। संसार के तरह-तरह के तापों ने मुझे बहुत दिनों से तपा रखा है। आप लोग जो भगवत् कथा रूप अमृत का पान करा रहे हैं, वह उन तापों को मिटाने की एकमात्र औष है।<br />
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तीसरे योगीश्वर अन्तरिक्षजी ने कहा-राजन! भगवान की माया का स्वरूप शब्दों में नहीं बताया जा सकता। इसलिए उसके कार्यों द्वारा ही उसका निरूपण होता है। पंचमहाभूतों के द्वारा बने हुए प्राणि-शरीर में उन्होंने अन्तर्यामी रूप से प्रवेश किया और अपने को ही पहले एक मन के रूप में और इसके बाद पांच ज्ञानेन्द्रिय तथा पांच कर्मेन्द्रिय, इन दस रूपों में विभक्त कर दिया तथा उन्हीं के द्वारा विषयों का भोग कराने लगे। वह देहाभिमानी जीव अन्तर्यामी के द्वारा प्रकाशित इन्द्रियों के द्वारा विषयों का भोग करता है और इस पंचभूतों के द्वारा निर्मित शरीर को आत्मा अपना स्वरूप मानकर उसी में आसक्त हो जाता है।<br />
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यह भगवान की माया है। अब वह कमेन्द्रियों से सकाम कर्म करता है और उसके अनुसार शुभ कर्म का फल सुख और अषुभ कर्म का दु:ख भोग करने लगता है और शरीरधारी होकर इस संसार में भटकने लगता है। यह भगवान की माया है। यह सृष्टि, स्थिति और संहार करने वाली त्रिगुणमयी माया है। इसका हमने आपसे संहार करने वाली त्रिगुणमयी माया है। इसका हमने आपसे वर्णन किया। अब आप और क्या सुनना चाहते हैं? राजा निमि ने पूछा-इस भगवान् की माया को पार करना उन लोगों के लिए तो बहुत ही कठिन है, जो अपने मन को वश में नहीं कर पाए हैं। अब आप कृपा करके यह बताइये कि जो लोग षरीर आदि में आत्मबुद्धि रखते हैं तथा जिनकी समझ मोटी है, वे भी अनायास ही इसे कैसे पार कर सकते हैं?<br />
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अब चौथे योगीश्वर प्रबुद्धजी बोले-राजन स्त्री-पुरुष संबंध आदि बन्धनों में बंधे हुए संसारी मनुष्य सुख की प्राप्ति और दु:ख की निवृत्ति के लिए बड़े-बड़े कर्म करते रहते हैं। जो पुरुष माया के पार जाना चाहता है, उसको विचार करना चाहिए कि उनके कर्मों का फल किस प्रकार विपरीत होता जाता है। वे सुख के बदले दु:ख पाते हैं और दु:ख निवृत्ति के स्थान पर दिनोंदिन दु:ख बढ़ता ही जाता है।<br />
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<b>जब ये दुनिया आपको सपना लगने लगे तो समझो...</b><br />
इसलिए जो परम कल्याण का जिज्ञासु हो, उसे गुरुदेव को शरण लेनी चाहिए। गुरुदेव ऐसे हों, जो शब्दब्रम्ह-वेदों के पारदर्शी विद्वान हों, जिससे वे ठीक-ठीक समझा सकें और साथ ही परब्रम्ह में परिनिष्ठित तत्वज्ञानी भी हों, ताकि अपने अनुभव के द्वारा प्राप्त हुई रहस्य की बातों को बता सकें। उनका चित्त शान्त हो, व्यवहार के प्रपंच में विषेश प्रवृत्त न हो।राजन भगवन् की लीलाएं अद्भुत हैं। उनके जन्म, कर्म और गुण दिव्य हैं। उन्हीं का श्रवण, कीर्तन और ध्यान करना तथा शरीर से जितनी भी चेष्टाएं हों, सब भगवान के लिए करना सीखे।<br />
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यज्ञ, दान, तप अथवा जप, सदाचार का पालन और स्त्री, पुत्र, घर, अपना जीवन, प्राण तथा जो कुछ अपने को प्रिय लगता हो, सब का सब भगवान के चरणों में निवेदन करना, उन्हें सौंप देना सीखें। राजन जो इस प्रकार भागवत धर्मों की शिक्षा ग्रहण करता है, उसे उनके द्वारा प्रेमभक्ति की प्राप्ति हो जाती है और वह भगवान् नारायण के परायण होकर उस माया को अनायास ही पार कर जाता है, जिसके पंजे से निकलना बहुत ही कठिन है। माया से पार जाने के लिए साधन करना पड़ेगा यही सार है पूर्व में दिए गए उपदेशों का। चलिए थोड़ा साधना को समझलें।जाग्रत अवस्था में मन को एकाग्र करके बर्हिजगत से हटाकर, ध्यान द्वारा संकल्प विकल्पों को शान्त करता हुआ और ध्यानावस्थित चित्त को निद्रा से बचाता हुआ तीनों अवस्थाओं से ऊपर उठा ले जा तो समाधि की अवस्था आवेगी। उसका बार-बार होने वाला सहज अनुभव ही तुरीयावस्था है-ब्रम्ही सहजावस्था है तब यह जगत स्वप्नवत प्रतीत होने लगेगा।<br />
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इस साधन से प्रति नित्य दृढ़ निष्ठा और विश्वास के साथ साधक/भक्त या योगी को सतत तेल धारावत् अपने अभ्यास को जारी रखना एक सत्य प्रतीत होता है। जब जगत स्वप्नवत् लगने लगे तब ही वैराग्यवान पुरुष जो सत्य है अनुभव में आने लगता है। यह परम पुरु ष ही ईश्वर है। उसका सहज सतत चिन्तन ही ब्राम्ही सहजावस्था है। फिर अन्य चिन्तन में आवे ही नहीं, यह अभ्यास है। जगत के प्रति उदासीन भाव अर्थात सब कर्म करते हुए अनासक्त रहते हुए कर्म से प्राप्त हुए फल की कामना न रखना ही वैराग्य वृत्ति है, जगत में जगत के विभिन्न कार्य करते हुए उनमें रागानुभूति न होना ही वैराग्य है, वह सबकुछ करते हुए चिन्तन मनन में मस्त रहे कि वह स्वयं कुछ नहीं कर रहा है कोई शक्ति, कोई ईश्वर, कोई इष्ट, कोई गुरु करा रहा है जो सबमें विद्यमान है। यह गीता के इस श्लोक से स्पष्ट होता है।<br />
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''ईश्वर सर्वभूतानां ह्नद्दशेऽर्जुन तिष्ठति। भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढ़ानि मामया।।18।।<br />
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ईश्वर सब प्राणियों के हृदय देश में स्थित रहकर अपनी माया से सबको ऐसा भ्रम (करा) रहा है, जैसे मंत्र पर बैठकर घुमाया जाता है। दुनिया चक्र की भांति गोल है, घूम रही है अपनी धुरी पर, घुमाने वाली शक्ति ईश्वरीय शक्ति है, प्रत्येक जड़-चेतन में वह विद्यमान है, प्रत्येक में न्यूनाधिक रूप में उसकी अपनी सामथ्र्य के हिसाब से वह कार्यरत है, यही जीवनक्रम है जो घूम रहा है। यहां भूल ही उसे अहंकार के दलदल में धकेल देती है मन भटक जाता है। मन की एकाग्रता छिन्न-भिन्न हो जाती है और 'पुर्नरपि जननम् पुर्नरपि मरणम सतत अबाधगति से चलता रहता है यह गति तब ही टूटती है जब अनुभवजन्य किसी महापुरुष/सद्गुरु या ईश्वर की महती कृपा हो। भगवान श्रीकृष्ण अनुभवों के अक्षुण्ण भंडार थे।<br />
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<b>इंसान को दुख क्यों भोगना पड़ता है?</b><br />
बन्दीघर में जन्म! क्या जन्म किसी महल में नहीं हो सकता था! नन्द बाबा के घर में यशोदा की गोद में खेलकर अपनी तथा बाल अवस्था एक साधारण गोप बालक की भांति बिताई। गायें चराना वन विहार करना, गोपियों का नवनीत चुराना सब देखा जाए तो कथाकार द्वारा कहानी के रूप में अत्यन्त गूढ़ रूपक प्रस्तुत किया गया है। गायें चराना-इन्द्रियों को उनके शुुद्ध सात्विक भोजन देना अर्थात् नैत्र प्रभु के सौन्दर्य को देखें, कान प्रेम भरे सत्य वचन सुने, मुख से शुद्ध सात्विक नवनीत (मक्खन) ग्रहण किया जाए यानी सार-सार ही लिया जाए और व्यक्त किया जाए। गोपियां अर्थात् इन्द्रियों की वृत्तियों का प्रेम मक्खन चुराना, प्रेम वृत्तियों का नवनीत होता है। जहां प्रेम होता है वहां घृणा नहीं होती, हिंसा नहीं होती। भगवान कृष्ण ने प्रेमी की अद्भुत लीला की और उदाहरण आदि से अन्त तक प्रस्तुत किया कि प्रेम करना कोई भगवान श्रीकृष्ण से सीखें। प्रेम भी ऐसा कि उसमें तनिक भी असक्ति नहीं। ब्रज मण्डल छोड़ा कि वापस पलटकर नहीं देखा कि कहां रहे वे गोपगण व गोपियां वे भले कही-कहती रहीं निशि दिन बरसत नैन हमारे, जबते श्याम सिधारे...रासलीला भी रसिक को उलझा नहीं सकीं।<br />
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अवंतिका में ऋ षि सांदीपनि के यहां शिक्षा ग्रहण की, सखा सुदामाजी बने। सुदामाजी को उनके कर्मफल भोगने के लिए छोड़ दिया कि मित्र से थोड़ा भी छल दरिद्रता का दु:ख भोगने के लिए पर्याप्त होता है।नहीं कोई दु:ख दरिद्र समाना बाद में सुदामाजी पर कृपा की, लेकिन कर्मफल भुगत लेने के बाद। दया करके कर्मफल काट सकते थे किन्तु नहीं, कर्मफल भोग इसी में भविष्य ठीक रहता है अन्यथा सुफल और कुफल में परिणित हो सकता है, फिर कहीं अगले जन्म में भोगना पड़ता। गुरु सांदीपनि से वेद, उपनिषद, स्मृति, शास्त्र, तर्क विद्या, राजनीति, संधि विग्रह, यान, शासन, आश्रय-चौसठ कलाओं का ज्ञान प्राप्त किया- सर्वज्ञाता ने अज्ञाता बन सीख उदाहरण प्रस्तुत किया कि ज्ञान प्राप्ति के लिए अपने अहं को प्रगट न होने दिया जाए। मथुरा का त्याग एक उच्च कोटि की मन:स्थिति को प्रगट करती है, जो मधुर है व मथुरा है। संघर्ष अन्तहीन होता यदि से भिड़ते रहते-संघर्ष में सृजन नहीं किया जा सकता।<br />
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संघर्ष के दायरे: रासलीला एक अद्भुत आत्म प्रकाश है। इसमें सम्पूर्ण जीवन वृत्तियां अपने आराध्य के साथ आनन्दोत्सव मनाते हुए नाच-नाच कर अपने को एकाकार कर देती हैं। यह लीला श्रीकृष्ण के द्वारा मात्र 10 वर्ष की बाल-शिशु की संधि अवस्था में की गई। प्रत्येक लीला में गूढ़ तत्व निहित है। इस आनंद की अनुभूति करने के लिए योगी योग साधना करते हैं। तपस्वी तप करते हैं। वैश्णव कीर्तन करते हैं। कर्मयोगी निष्काम कर्म करते हैं।शास्त्रोक्त, पुराणोक्त इतिहास, रसापान, युद्धकला आदि सब अतिअल्प समय में ही सीख लिए-वेद, उपनिषद के अधिष्ठाता बन गए।<br />
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<b>जीवन में इसके विपरित सब कुछ शुन्य है...</b><br />
उन्होंने यंत्र रूढ़ानि यूं ही नहीं कहा। स्वयं अनुभव किया और लीला करके लोगों को अनुभव कराने के लिए उसके माध्यम से श्रीकृष्ण जैसे महान योगी की 16 हजार 108 रानियों वाली कथा अतिश्योक्ति युक्त अलंकार प्रतीत होती है। उनका विवाह लक्ष्मी अवतार रुक्मिणी के साथ सम्पन्न हुआ था, जिनके पुत्र प्रद्युम्न, पौत्र अनिरुद्ध, प्रपौत्र ब्रज और पड़पौत्र पद्नाभ थे। यह हो सकता है कि रुक्मिणी इतनी सुंदर हों कि उनके सामने 16 हजार 108 रानियों का सौंदर्य कुछ भी न हो, अर्थात् वे बहुत-बहुत सुंदर थीं, उनके सामने सुंदरता भी लज्जित होती थीं। देवर्र्षि नारद श्रीकृष्ण की दिनचर्या देखने के उद्देश्य से एक बार द्वारका गए। उन्होंने देखा कि यज्ञों के स्वामी यज्ञ कर रहे हैं।<br />
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ध्यान में आने वाले भगवान ध्यानस्थ हो आत्मदर्शन कर रहे हैं उन्हें विस्मय हुआ श्रीकृष्ण के वचन- ''ब्रम्हन धर्मस्य वत्माहं कर्ता तद्नुमोदिता। तच्छिक्षत्यं श्लोक मिममास्थित: पुत्र मा दिवद:।। देवर्षि नारद! मैं ही धर्म का, उपदेश का, पालन करने वाला और उसका अनुष्ठान करने वालों का अनुमोदनकर्ता भी हूं। इसलिए संसार को धर्म की शिक्षा देने के उद्देश्य से मैं इस प्रकार धर्म का आचरण करता हूं। मेरी यह योगमाया देख मोहित मत होना। अपने लौकिक जीवन में स्थित हो श्रीकृष्ण ने लोकरंजन का भारत के क्षत्रपों को सूत्र में पिरोने का कार्य हाथ में लिया। युधिष्ठिर के राजसूय-यज्ञ का सूत्रपात इसी उद्देश्य से कराया। भीष्म, द्रोण, व्यास आदि योग्य पुरुषों के होने के बाद भी भीष्मजी, व्यासजी की सम्मति से श्रीकृष्ण का अग्रपूजा के लिए चयन किया गया। शिशुपाल ने न केवल विरोध किया बल्कि अपशब्दों की बौछार लगा दी।<br />
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श्रीकृष्ण ने कष्टपूर्वक उसके जीवन की लीला समाप्त की। तो तत्कालीन राज्य व्यवस्था में आगे भी लोक संग्रह का वातावरण महाभारत से भी अधिक कठिन वीभत्सकारी हिंसक होता और असंगठित हिंसा बराबर चलती रहती। महाभारत युद्ध को संचालित करते हुए श्रीकृष्ण ने अहिंसा को ही दैवी गुण बताते हुए श्रेष्ठ बताया है। ''अमानित्वमदम्यित्व हिंसाक्षान्तिरार्जवम्। आचार्योपासन शौच स्थैम्मित्मविनिग्रह:।।7।।3 1. अमानित्व, 2. अदंमित्व, 3. अहिंसा, 4. भय, 5. सरलता, 6. आचार्य सेवा, 7. शुद्धता, 8. स्थिरता, 9. आत्म संयम...आगे इन्द्रियां विशयों में वैराग्य अहंकार रहितता-पुत्र, स्त्री, गृह आदि में मोह तथा ममता का अभाव ईश्वर में अनन्य एकनिष्ठ ध्यानपूर्वक भक्ति, एकान्त स्थान का सेवन, आध्यात्मिक ज्ञान की नित्यता का भान और आत्मदर्शन सब ज्ञान कहलाता है।<br />
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अहिंसा तक पहुंचने के लिए अमान, अदंभ सीढिय़ां हैं फिर अहिंसात्मक जीवन पद्धति में क्षमा, सरलता, सेवा, शुद्धता व आत्मसंयम आने से अहिंसा सिद्ध होती है। अहिंसा सिद्धता परम प्रेम में प्रगट होती है। तब कहीं आत्म दर्शन हो पाता है। इसे प्रेमानुभूति कह सकते हैं। प्रेमानुभूति होने पर हमारे कर्म द्वेष, घृणा, ईष्र्या से परे होंगे। इनसे परे होने पर कर्म सात्विक होंगे क्योंकि प्रेमी अपने प्रेमास्पदमय जगत देखता है फिर अहिंसा ही सहज गति है। इसके विपरीत सब कुछ शून्य है।<br />
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<b>तो इसलिए पिता ने दिया बेटे को मृत्यु का दान</b><br />
राजा निमि ने पूछा-महर्षियों! आप लोग परमात्मा का वास्तविक स्वरूप जानने वालों में हैं। मुझे यह बतलाइये कि जिस परमात्मा का नारायण नाम से वर्णन किया जाता है, उनका स्वरूप क्या है?यहां विदेहजी परमात्मा का स्वरूप पूछ रहे हैं योगीश्वरों से। स्वरूप से तात्पर्य है कि वह परमात्मा कैसा है? वह कैसा दिखता है? उसके क्या-क्या लक्षण हैं? वह क्या-क्या करता है?आदि-आदि। इस प्रश्न में बड़ी गहराई है।<br />
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यहां पर नारायण से तात्पर्य उस परब्रह्म परमात्मा से है। पांचवे योगीश्वर पिप्लायन ने कहा- राजन जो इस संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का निमित्त कारण और उपादान कारण दोनों ही है, बनने वाला भी है और बनाने वाला भी। जिसकी सत्ता से ही सत्तावान होकर शरीर, इन्द्रिय, प्राण और अनत:करण अपना-अपना काम करने में समर्थ होते हैं, उसी परम सत्य वस्तु को आप नारायण समझिये।<br />
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वास्तव में जितनी भी शक्तियां हैं चाहे वे इन्द्रियों के अधिष्ठातृ-देवताओं के रूप में हों, चाहे इन्द्रियों के, उनके विषयों के अथवा विषयों के प्रकाश के रूप में हों, सब-का-सब वह ब्रह्म ही है। क्योंकि ब्रह्म की शक्ति अनन्त है। कहां तक कहूं? जो कुछ दृश्य-अदृश्य, कार्य-कारण, सत्य और असत्य है सब कुछ ब्रह्म है। जब चित्त शुद्ध हो जाता है, तब आत्मतत्व का साक्षात्कार हो जाता है जैसे नेत्रों के निर्विकार हो जाने पर सूर्य के प्रकाश की प्रत्यक्ष अनुभूति होने लगती है।<br />
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जब राजा निमि ने पूछा- योगीश्वरो! अब आपलोग हमें कर्मयोग का उपदेश कीजिये, जिसके द्वारा शुद्ध होकर मनुष्य शीघ्रतिशीघ्र परम नैष्कम्र्य अर्थात कर्तत्व, कर्म और कर्मफल को निवृत्त करने वाला ज्ञान प्राप्त करता है। एक बार यही प्रश्न मैंने अपने पिता महाराज इक्ष्वाकु के सामने ब्रह्माजी के मानस पुत्र सनकादि ऋषियों से पूछा था, परन्तु उन्होंने मेरे प्रश्न का उत्तर न दिया। इसका क्या कारण था?<br />
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तब छठे योगीश्वर आविर्होत्रजी ने कहा- राजन कर्म (शास्त्रविहित), अकर्म (निषिद्ध) और विकर्म (विहित का उल्लंघन) - ये तीनों एकमात्र वेद के द्वारा जाने जाते हैं, इनकी व्यवस्था लौकिक रीति से नहीं होती। वेद अपौरुषेय हैं- ईश्वररूप हैं, इसलिए उनके तात्पर्य का निश्चय करना बहुत कठिन है। इसी से बड़े-बड़े विद्वान भी उनके अभिप्राय का निर्णय करने में भूल कर बैठते हैं। (इसी से तुम्हारे बचपन की ओर देखकर तुम्हें अनधिकारी समझकर सनकादि ऋषियों ने तुम्हारे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया)।कुछ ऐसी ही जिज्ञासा ऋषि उद्दालक के पुत्र बालक नचिकेता के मन में उठी थी। ऋ षि उद्दालक ने सर्वमेघ यज्ञ किया। इस यज्ञ में अपनी सारी सम्पत्ति दान करनी होती है। ऋषि ने ऐसा ही किया। सबकुछ दान हो चुकने पर बालक नचिकेता ने पिता से बार-बार आग्रह किया कि मैं भी आपकी सम्पत्ति हूं, मुझे भी किसी को दान करिए। पहले तो ऋषि ने उपेक्षा की किन्तु बालक की जिद से क्रोधित हो उनके मुख से निकल गया - ठीक है, जा तुझे मृत्यु (यम) को दान दिया।<br />
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<b>प्रेम करो पर ये बात हमेशा याद रखो...</b><br />
यमराज ने संभाषण समाप्त किया तो उसी सरलता के साथ नचिकेता ने जवाब दिया-देव, बहुत सुखोपभोग प्राप्त कर लेने पर भी क्या मेरा यह जीवन बना रहेगा? फि र भोगों से तृप्ति भी तो नहीं होती। इसलिए अपना धन, अपना ऐश्वर्य, राजसिंहासन तथा नाच-गान आप अपने ही पास रखें। मुझे पर यदि प्रसन्न हों, तो वही उपदेश दें, जिससे मेरा आत्म-कल्याण हो।<br />
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यमराज बालक की दृढ़ता और विनम्रता पर अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने नचिकेता को ब्रह्म के स्वरूप का ज्ञान कराया। राजा निमि ने भी यहां बड़ी विनम्रता से योगीश्वरों से नारायण नाम से प्रसिद्ध परम तत्व को जानने की जिज्ञासा प्रकट की है।योगीश्वर आर्विर्होत्रजी ने विदेहराज के प्रश्न के अंतिम भाग का उत्तर यहां पहले दिया। अब, वे आगे राजा को कर्मयोग के विषय में बताएंगे। आइये, इससे पहले हम योग को थोड़ा समझ लें। भागवत में यह चर्चा बड़ी गूढ़ है।<br />
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श्रीकृष्ण ने गीता में दिशा दी थी कि - ''मय्यासक्त मत: प्रार्थ योगं युंजन्मदाश्रय। असंषयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु य।17।। हे पार्थ! तू मेरे में आसक्तमना होकर योग का साधन करता हुआ मेरे आश्रय पर रहते हुए, जिस प्रकार संशय रहित अच्छी तरह पूर्ण रूप मुझे जानेगा, भगवान का जानना ही परम ज्ञान है। आसक्ति मनुष्य का स्वभाव है इस सहज स्वभाव को ईश्वर के प्रति प्रत्यावर्तित करना है। जगत की आसक्ति को भागवंतीय बनाने की आवश्यकता है। इसको तीन प्रकार से करना शक्य है- ''योग साधन युक्त, मन सदा भगवदच्चिन्तन में लगा रहे और अन्य साधनों से विमुख होकर एकमात्र भगवदाश्रय पर रहे।अनिश्वरवादी भी योगी हो सकता है। अपनी अंतरआत्मा को भगवान में लगाकर श्रद्धापूर्वक भजन करने वाला युक्ततम योगी ही भगवान को जान सकता है, अर्थात् ज्ञानी हो सकता है।<br />
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ज्ञानी संसार को क्षर समझता है, ईश्वर को अक्षर उसके प्रयत्न क्षर देह में आत्मा को अक्षर परमात्मा की ओर जगत से पलटा कर लाने का प्रयत्न करता है, यह प्रयत्न साधना है, जिसमें गुरुप्रदत्त शिक्षा-दीक्षा सुयोग प्रदान करती है। कृष्णलीला के दो उदाहरण हम अनासक्त मन:स्थिति के लें-गोपियों से-यशोदा मां से कृष्ण ने खूब प्यार किया, उनमें पूर्ण आसक्ति बनाई, मथुरा गए तो पलटकर नहीं देखा कि वंृदावन किधर है, कुरील कुंजे कहा है, यमुना तट कहां है, गोपियां रोती हैं, गाती हैं कोई ध्यान नहीं गया। प्रेम किया तो इतना कि उसकी कोई सीमा नहीं और छोड़ा तो मानों कभी प्रेम भी किया था?<br />
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बाललीला में संत विनोबा भावे का विश्लेशण उपयुक्त लगता है, हम बालकों का लालन-पालन जगत की दृष्टि से करते हैं-निन्दा और प्रशंसा का भाव मन में रहता है, कितना अच्छा है कि बालकृष्ण की सेवा कर रहे यह भाव लालन-पालन में रहे तो पालकों और बालकों दोनों का कल्याण है।<br />
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<b>जब भी कोई काम करें तो शुरुआत ऐसे करें....</b><br />
योगीश्वर आगे कहते हैं फल की अभिलाषा छोड़कर और विश्वात्मा भगवान को समर्पित कर जो वेदोक्त कर्म का ही अनुष्ठान करता है, उसे कर्मों की निवृत्ति से प्राप्त होने वाली ज्ञानरूप सिद्धि मिल जाती है। जो वेदों में स्वर्गादिरूप फल का वर्णन है, उसका तात्पर्य फल की सत्यता में नहीं है, वह तो कर्मों में रुचि उत्पन्न कराने के लिए है।<br />
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जो पुरुष चाहता है कि शीघ्र से शीघ्र मेरे ब्रह्मस्वरूप आत्मा की हृदय ग्रन्थि-मैं और मेरे की कल्पित गांठ खुल जाए, उसे चाहिए कि वह वैदिक और तान्त्रिक दोनों ही पद्धतियों से भगवान की आराधना करे। पहले सेवा आदि के द्वारा गुरुदेव की दीक्षा प्राप्त करे, फिर उनके द्वारा अनुष्ठान की विधि सीखे, अपने को भगवान की जो मूर्ति प्रिय लगे, अभीष्ट जान पड़े, उसी के द्वारा पुरुषोत्तम भगवान की पूजा करे। पहले स्नानादि से शरीर और संतोष आदि से अन्त:करण को शुद्ध करे, इसके बाद भगवान की मूर्ति के सामने बैठकर प्राणायाम आदि के द्वारा भूत-शुद्धि, नाड़ी-शोधन करे, तत्पश्चात विधिपूर्वक मन्त्र, देवता आदि के न्यास से अंगरक्षा करके भगवान की पूजा करे। पूजा सामग्री से प्रतिमा आदि में अथवा हृदय में भगवान की पूजा करे। इस प्रकार जो पुरुष अग्नि, सूर्य, जल, अतिथि और अपने हृदय में आत्मरूप श्रीहरि की पूजा करता है, वह शीघ्र ही मुक्त हो जाता है।<br />
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यह कर्मयोग में भक्ति का मार्ग है। यह परम प्रेम गोपियों से पूछा जाए। गोपी बन नहीं सकते, किन्तु परम भागवत देवर्षि नारद के सूत्र हमारे समक्ष हैं। भगवान श्रीकृष्ण के परमधाम जो लीला संवरण के पश्चात परम प्रेम भक्ति को अपने में अवतरित करने की क्रिया आधार माने जा सकते हैं। अर्थात् भगवान का सतत स्मरण चाहे गाकर किया जाए, कीर्तन करके किया जाए, जप करते हुए किया जाए, यज्ञ कर्म करते हुए किया जाए या जगत के कर्म करते हुए कर्म भगवान के मानते हुए किए जाएं, समय पर ध्यान करके किया जाए, यहां तक कि सोने के पश्चात स्वप्न में भी स्मरण होता रहे यह तेलधारावत् प्रत्येक सांस के साथ स्थिति बनी रहे फिर सांगोपांग पूजन ही क्यों न हो, इन सबमें भाव प्रधान हैं कि किस भाव से क्रिया हो रही है। जगतीय भाव यदि नि:स्वार्थ है, कामना है और सबकुछ किया-कराया शून्य होता है। वर्णित क्रियाएं जब स्वभाव में कामना रहित हो जाती हैं तब गुरुकृपा या प्रभुकृपा से साधक - परम प्रेमरूपा भक्ति का अधिकारी हो जाएगा।<br />
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भक्ति की ऐसी स्थिति आ जाती है कि भक्ति उसे करनी नहीं पड़ती, स्वाभाविक, अनायास प्रकट होने लगती है। तो समझो कि परम प्रेम रूप भक्ति उदय हो गई है। जब ईश्वर कल्पना का अथवा बौद्धिक विलास का विषय मात्र नहीं रहकर, प्रत्यक्ष निश्चित अनुभवगम्य हो जाता है। जब भक्ति में किसी भी प्रकार का अभ्यास करने की आवश्यकता नहीं रहे, स्वत: ही स्वभाव तथा संस्कारों के अनुसार, भक्ति के भाव, यौगिक क्रियाएं तथा ज्ञानात्मक भाव अंतर से ही उदय होने लगे, तो समझो परम प्रेम रूपा भक्ति जाग्रत हो गई है।<br />
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<b>परमात्मा कैसे होते हैं?</b><br />
राजा निमि ने पूछा-महर्षियों! आप लोग परमात्मा का वास्तविक स्वरूप जानने वालों में हैं। मुझे यह बतलाइये कि जिस परमात्मा का नारायण नाम से वर्णन किया जाता है, उनका स्वरूप क्या है? यहां विदेहजी परमात्मा का स्वरूप पूछ रहे हैं योगीश्वरों से। स्वरूप से तात्पर्य है कि वह परमात्मा कैसा है? वह कैसा दिखता है? उसके क्या-क्या लक्षण हैं? वह क्या-क्या करता है? आदि-आदि। इस प्रश्न में बड़ी गहराई है।<br />
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यहां पर नारायण से तात्पर्य उस परब्रह्म परमात्मा से है। पांचवे योगीश्वर पिप्लायन ने कहा- राजन जो इस संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का निमित्त कारण और उपादान कारण दोनों ही है, बनने वाला भी है और बनाने वाला भी। जिसकी सत्ता से ही सत्तावान होकर शरीर, इन्द्रिय, प्राण और अनत:करण अपना-अपना काम करने में समर्थ होते हैं, उसी परम सत्य वस्तु को आप नारायण समझिये।<br />
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वास्तव में जितनी भी शक्तियां हैं चाहे वे इन्द्रियों के अधिष्ठातृ-देवताओं के रूप में हों, चाहे इन्द्रियों के, उनके विषयों के अथवा विषयों के प्रकाश के रूप में हों, सब-का-सब वह ब्रह्म ही है। क्योंकि ब्रह्म की शक्ति अनन्त है। कहां तक कहूं? जो कुछ दृश्य-अदृश्य, कार्य-कारण, सत्य और असत्य है सब कुछ ब्रह्म है। जब चित्त शुद्ध हो जाता है, तब आत्मतत्व का साक्षात्कार हो जाता है जैसे नेत्रों के निर्विकार हो जाने पर सूर्य के प्रकाश की प्रत्यक्ष अनुभूति होने लगती है।जब राजा निमि ने पूछा- योगीश्वरो! अब आपलोग हमें कर्मयोग का उपदेश कीजिये, जिसके द्वारा शुद्ध होकर मनुष्य शीघ्रतिशीघ्र परम नैषकम्र्य अर्थात कर्तत्व, कर्म और कर्मफल को निवृत्त करने वाला ज्ञान प्राप्त करता है। एक बार यही प्रश्न मैंने अपने पिता महाराज इक्ष्वाकु के सामने ब्रह्माजी के मानस पुत्र सनकादि ऋषियों से पूछा था, परन्तु उन्होंने मेरे प्रश्न का उत्तर न दिया। इसका क्या कारण था?<br />
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<b>भगवान को पाना है तो ये करें</b><br />
योगीश्वर आगे कहते हैं फल की अभिलाषा छोड़कर और विश्वात्मा भगवान को समर्पित कर जो वेदोक्त कर्म का ही अनुष्ठान करता है, उसे कर्मों की निवृत्ति से प्राप्त होने वाली ज्ञानरूप सिद्धि मिल जाती है। जो वेदों में स्वर्गादिरूप फल का वर्णन है, उसका तात्पर्य फल की सत्यता में नहीं है, वह तो कर्मों में रुचि उत्पन्न कराने के लिए है।<br />
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जो पुरुष चाहता है कि शीघ्र से शीघ्र मेरे ब्रह्मस्वरूप आत्मा की हृदय ग्रन्थि-मैं और मेरे की कल्पित गांठ खुल जाए, उसे चाहिए कि वह वैदिक और तान्त्रिक दोनों ही पद्धतियों से भगवान की आराधना करे। पहले सेवा आदि के द्वारा गुरुदेव की दीक्षा प्राप्त करे, फिर उनके द्वारा अनुष्ठान की विधि सीखे, अपने को भगवान की जो मूर्ति प्रिय लगे, अभीष्ट जान पड़े, उसी के द्वारा पुरुषोत्तम भगवान की पूजा करे। पहले स्नानादि से शरीर और संतोष आदि से अन्त:करण को शुद्ध करे, इसके बाद भगवान की मूर्ति के सामने बैठकर प्राणायाम आदि के द्वारा भूत-शुद्धि, नाड़ी-शोधन करे, तत्पश्चात विधिपूर्वक मन्त्र, देवता आदि के न्यास से अंगरक्षा करके भगवान की पूजा करे। पूजा सामग्री से प्रतिमा आदि में अथवा हृदय में भगवान की पूजा करे। इस प्रकार जो पुरुष अग्नि, सूर्य, जल, अतिथि और अपने हृदय में आत्मरूप श्रीहरि की पूजा करता है, वह शीघ्र ही मुक्त हो जाता है।<br />
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<b>यह कर्मयोग में भक्ति का मार्ग है।</b><br />
यह परम प्रेम गोपियों से पूछा जाए। गोपी बन नहीं सकते, किन्तु परम भागवत देवर्षि नारद के सूत्र हमारे समक्ष हैं। भगवान श्रीकृष्ण के परमधाम जो लीला संवरण के पश्चात परम प्रेम भक्ति को अपने में अवतरित करने की क्रिया आधार माने जा सकते हैं। अर्थात् भगवान का सतत स्मरण चाहे गाकर किया जाए, कीर्तन करके किया जाए, जप करते हुए किया जाए, यज्ञ कर्म करते हुए किया जाए या जगत के कर्म करते हुए कर्म भगवान के मानते हुए किए जाएं, समय पर ध्यान करके किया जाए, यहां तक कि सोने के पश्चात स्वप्न में भी स्मरण होता रहे यह तेलधारावत् प्रत्येक सांस के साथ स्थिति बनी रहे फिर सांगोपांग पूजन ही क्यों न हो, इन सबमें भाव प्रधान हैं कि किस भाव से क्रिया हो रही है।<br />
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जगतीय भाव यदि नि:स्वार्थ है, कामना है और सबकुछ किया-कराया शून्य होता है। वर्णित क्रियाएं जब स्वभाव में कामना रहित हो जाती हैं तब गुरुकृपा या प्रभुकृपा से साधक - परम प्रेमरूपा भक्ति का अधिकारी हो जाएगा। भक्ति की ऐसी स्थिति आ जाती है कि भक्ति उसे करनी नहीं पड़ती, स्वाभाविक, अनायास प्रकट होने लगती है। तो समझो कि परम प्रेम रूप भक्ति उदय हो गई है। जब ईश्वर कल्पना का अथवा बौद्धिक विलास का विशय मात्र नहीं रहकर, प्रत्यक्ष निष्चित अनुभवगम्य हो जाता है। जब भक्ति में किसी भी प्रकार का अभ्यास करने की आवश्यकता नहीं रहे, स्वत: ही स्वभाव तथा संस्कारों के अनुसार, भक्ति के भाव, यौगिक क्रियाएं तथा ज्ञानात्मक भाव अंतर से ही उदय होने लगे, तो समझो परम प्रेम रूपा भक्ति जाग्रत हो गई है।<br />
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<b>भगवान की भक्ति कैसे करें?</b><br />
प्रार्थना करने के पश्चात गुरु प्रदत्त मंत्र या इष्ट मंत्र का जप करें। जप के लिए माला का सहारा लें। प्रारंभ में माला से गणना ठीक रहती है। नियत ले लें कि माला नित्य पूरी करें। वैसे नियम यह है कि मंत्र में जितने अक्षर हों उतनी माला कम से कम नित्य पूरी की जावे। जप करते समय सुखासन ठीक रहता है। जप के पश्चात अपने इष्ट भगवान का ध्यान करें। आंख बंद करके चिंतन करें, अपने प्रिय भगवत् स्वरूप का। वह स्वरूप विष्णु, शिव, देवी, राम, कृष्ण या अन्य किसी देव का हो सकता है। कोशिश करें कि ध्यान केन्द्रित हो।<br />
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मन भटके तो उसे बार-बार अपने ध्येय तक लावें। चिंतन करें कि ये आराध्य पास ही खड़े हैं। इस प्रकार प्रारंभिक अवस्था में अभ्यास करना ठीक रहता है। अभ्यास करते-करते ध्यान सहज होने लगता है और यदि भगवत् कृपा से सन्त या गुरु मिल जावें तो यह कार्य अतिशीघ्र होने लगता है। अनेक जन्मों के पड़े संस्कार क्षीण हुए बिना भगवान में ध्यान लगाना कठिन होता है। ध्यान की उच्चतम स्थिति ही समाधि होती है। गुरु कृपा से ही सहज तथा नित अभ्यास से यह स्थिति आ जाती है।<br />
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ध्यान के उपरांत भगवान या अपने इष्ट को धन्यवाद देवें कि उसने उसका स्मरण कराया। जो निराकार ब्रह्म के उपासक हैं वे ऊँ का जप करके स्वच्छ धवल प्रकाश को अपने अन्तर में देखें। भगवत् स्वरूप को अपने अन्तर में प्रकट होता हुआ देखने से एकाकार होने में मदद मिलती है। त्रुटि के लिए क्षमा याचना करें।<br />
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सुबह शाम या जैसा समय हो गीता, रामायण, भागवत, गुरु ग्रंथ या अन्य किसी ग्रंथ का निर्धारित पाठ करें। इस स्वाध्याय से भगवान के कथा-प्रसंग में रुचि बढ़ती है। अपने आवास के आसपास नगर या गांव में कोई महात्मा का प्रवचन चलता हो तो समय निकाल कर वहां जाएं। किन्तु सावधान रहें कि मतमतान्तर के चक्कर में न आवें। उनके प्रवचन को सावधानी पूर्वक सुनें। अपने विश्वास को दृढ़ करने वाली बात स्वीकार करें, शेष को वहां छोड़ आवें। निरर्थक वाद-विवाद को टालें। सार-सार ग्रहण करके आगे बढ़ें।<br />
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सांगोपांग पूजन-अर्चन, भजन का अपना महत्व है। इसमें हम भगवान की सेवा में अपने शरीर के विग्रह को स्नान करावें। वस्त्र धारण करावें, चन्दन लगावें, पुष्प चढ़ावें, नैवेद्य लगावें, आरती करें, पत्र, पुश्प, फल तोयं की भावना से भगवान का पूजन-अर्चन करें। संध्या करें सूक्ष्म से लेकर जितनी हो सके, जप करें इत्यादि।<br />
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सायंकाल समय हो तो स्वाध्याय को समय दें। तत्पश्चात प्रार्थना, जो भी उपलब्ध व रुचिकर हो करें, आरती करें। रात्रि में सोते समय पुन: हरि स्मरण करें। दिनभर के कृत्यों पर संक्षेप में विचार करके विपरीत कर्मों के लिए भगवान से क्षमा मांगें और आगे न करने का संकल्प करें।<br />
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<b>भगवान ने दस अवतारों में से कौन सा अवतार क्यों लिया?</b><br />
परम प्रेम में न कामना, न लौकिक कर्मों का त्याग सहज भाव से शुद्ध सात्विक जीवन यापन, निराभिमानी मन:स्थिति और दृढ़मति तब कहीं बुद्धि से भगवान को जानना शक्य होगा और साधन से उनका अनुभव किया जा सकता है। साधन में कीर्तन, ध्यान, जप जो बिन प्रयास स्वत: हो आते हैं।इतना जो अत्यन्त दुष्कर और सरल है हो जाए तो कर्म-कर्तव्य पथ सिद्ध हो गया माना जा सकता है किन्तु अन्त: चाहिए भगवतीय शक्ति कृपा किंवा गुरु कृपा। चलना तो कर्म पथ पर पथिक को अर्थात् साधक को ही है। चलिए वहां चलें जहां राजा निमि ने अगला प्रश्न पूछा था योगीश्वरों से। राजा निमि ने पूछा- योगीश्वरों! भगवान स्वतंत्रता से अपने भक्तों की भक्ति के वश होकर अनेकों प्रकार के अवतार ग्रहण करते हैं और अनेकों लीलाएं करते हैं। कृपा करके भगवान की उन लीलाओं का वर्णन कीजिए। सातवें योगीश्वर द्रुमिलजी बोलते हैं- भगवान अनन्त हैं। उनके गुण भी अनन्त हैं। भगवान ने ही पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश इन पांच भूतों की अपने आपसे, आपने आपमें सृष्टि की है। जब वे इनके द्वारा विराट शरीर, ब्रह्माण्ड का निर्माण करके उसमें लीला से अपने अंश अन्तर्यामीरूप से प्रवेश करते हैं।<br />
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दक्ष प्रजापति की एक कन्या का नाम था मूर्ति। वह धर्म की पत्नी थी। उसके गर्भ से भगवान ने ऋषिश्रेष्ठ शान्तात्मा नर और नारायण के रूप में अवतार लिया था। भगवान विष्णु ने अपने स्वरूप में एकरस स्थित रहते हुए भी सम्पूर्ण जगत के कल्याण के लिए बहुत से कलावतार ग्रहण किए हैं। विदेहराज! हंस, दत्तात्रेय, सनक-सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार और हमारे पिता ऋ षभ के रूप में अवतीर्ण होकर उन्होंने आत्मसाक्षात्कार के साधनों का उपदेश किया है। उन्होंने ही सुग्रीव अवतार लेकर मधु-कैटभ नामक असुरों का संहार करके उन लोगों द्वारा चुराये हुए वेदों का उद्धार किया है। प्रलय के समय मत्स्यावतार लेकर उन्होंने भावी मनु सत्यव्रत, पृथ्वी और औषधियों की, धान्यादि की रक्षा की और वराहावतार ग्रहण करके पृथ्वी का रसातल से उद्धार करते समय हिरण्याक्ष का संहार किया।<br />
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कूर्मावतार ग्रहण करके उन्हीं भगवान ने अमृत-मन्थन का कार्य सम्पन्न करने के लिए अपनी पीठ पर मन्दराचल धारण किया और उन्हीं भगवान विष्णु ने अपने शरणागत एवं आर्त भक्त गजेन्द्र को ग्राह से छुड़ाया। भगवान ने नृसिंहावतार ग्रहण किया और हिरण्यकशिपु को मार डाला। फिर वामन अवतार ग्रहण करके उन्होंने याचना के बहाने इस पृथ्वी को दैत्यराज बलि से छीन लिया और अदितिनन्दन देवताओं को दे दिया।परशुराम अवतार ग्रहण करके उन्होंने ही पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियहीन किया। उन्हीं भगवान ने रामावतार में समुद्र पर पुल बांधा एवं रावण और उसकी राजधानी लंका को समाप्त कर दिया। अजन्मा होने पर भी पृथ्वी का भार उतारने के लिए वे ही भगवान यदुवंश में जन्म लेंगे और ऐसे-ऐसे कर्म करेंगे, जिन्हें बड़े-बड़े देवता भी नहीं कर सकते। फिर आगे चलकर भगवान ही बुद्ध के रूप में प्रकट होंगे और यज्ञ के अनधिकारियों को यज्ञ करते देखकर अनेक प्रकार के तर्क-वितर्कों से मोहित कर लेंगे और कलियुग के अन्त में कल्कि-अवतार लेकर वे ही शुद्र राजाओं का वध करेंगे।<br />
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<b>छ: बातें ऐसी जो सभी के जीवन को सुखी बना सकती है</b><br />
अवतार हमें जीवन के प्रति नई दृष्टि देते हैं। हम मनुष्यों को जिन संकटों का सामना करना पड़ता है, वे सब अवतार में भगवान के सामने भी आते हैं और तब वे अपने आचरण से हमें शिक्षा देते हैं।अवतार एक तरह से आध्यात्मिक उपचार है। जीवन में कई दु:ख हैं। उनका निदान आध्यात्मिक तरीके से किया जाए। हम सुख-दु:ख की कल्पना करते हैं। वस्तुत: यह मन की अवस्था के प्रतीक हैं। महाभारत के उद्योग पर्व में महात्मा विदुर ने इस लोक में छ: प्रकार के सुख गिनाए हैं।''अर्थगमो नित्यमरोगिता च। वश्यश्च पुत्रोऽर्थकरी च विद्या शड जीवलोकस्य सुखानि राजन।।धन की आय, नित्य निरोग, स्त्री का अनुकूल तथा प्रियवादिनी, पुत्र का आज्ञाकारी और धन पैदा करने विद्या का ज्ञान- ये छ: बातें इस लोक में मनुष्य को सुख देती हैं। हम यहां इन छहों का विवेचन करते हुए नित्य निरोग का विषय लेते हैं। लोकोक्ति है-प्रथम सुख निरोगी काया, दूसरा सुख हाथ में माया आदि।<br />
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नित्य निरोगी कैसे रहें? आज के विशाक्त वातावरण में एक बड़ा प्रश्न है। कोई न कोई रोग हम पर आक्रमण करते रहते हैं और हम डॉक्टर, वैद्य, हकीम आदि के पास जाकर अपनी आय का एक बड़ा भाग व्यय करते हैं। रोगी दु:खी होता और आय का रोग पर व्यय उसके दु:ख को और बढ़ा देता है। भगवान बुद्ध ने कहा था कि दु:ख है, दु:ख होगा और दु:ख अटूट है। हमारे महापुरुषों ने यह संसार दु:खमय माना है।<br />
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पूर्व इसके कि हम रोगों के उपचार की ओर ध्यान दें, यह आवश्यक हो जाता है कि हम रोगों को उत्पन्न करने वाले कारणों को संक्षेप में जानने का प्रयास करें। प्रकटत कारण - 1. असंयम-आहार व विहार, 2. दूषित वातावरण-आवास, जलवायु, 3. वंशानुगत स्थिति, 4. छूतग्रस्त, 5. स्वास्थ्य के प्रति अनभिज्ञता और उदासीनता-अनियमित जीवन यापन आदि।<br />
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अप्रकटत: कारण - 1. दैवी प्रकाप या ग्रह स्थिति, 2. प्रारब्ध योग या प्रारब्ध जनित रोग, 3. निसर्ग या प्रकृति की कार्यरतता।<br />
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इनमें प्रथम पांच पर मनुष्य अपने क्रियाकलाप से काबू पा सकता है किन्तु उसे प्रकृति को अनुकूल बनाकर चलना होगा।अत: हम प्राकृतिक उपचार या चिकित्सा की ओर अपना लक्ष्य बनाकर कुछ विचार करें।मनुष्य प्रकृति जन्य है। उसकी अवस्थाएं हैं। उसकी रुचियां होती हैं-स्वजनित और परिवारजनित। उसके विपरीत क्रियाकलाप उसे रोग के निकट ले आते हैं, चाहे वे जाने हों या अनजाने।<br />
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<b>इन बातों को ध्यान रखें तो संभव है बीमारियों का बिना दवाई इलाज</b><br />
हम प्राकृतिक जीवन पद्धति अपनाकर या तो रोग को आने से रोक सकते हैं या रोग यदि किसी कारण से आ जाए तो उससे लड़ सकते हैं। लडऩे के लिए चाहिए आत्मबल, साहस और प्रतिरोधात्मक शक्ति।इसलिए हम इन दोनों पक्षों को (प्राकृतिक और आध्यात्मिक) को लेते हैं। विषय विषद है। प्राकृतिक जीवन पद्धति के निम्न सोपान हो सकते हैं- खुली हवा में रहना सूर्यप्रकाश की पूरी व्यवस्था सहित, अल्प आहार यथासंभव पौष्टिक व सादा सात्विक दूध युक्त, व्यसन मुक्त जीवन, शराब, तम्बाकू, नशा देने वाली वस्तुओं का त्याग, नित्य नियमित शरीर का त्याग की अवस्थानुसार व्यायाम या यौगिक क्रियाएं, शारीरिक स्वच्छता-स्नान और सफाई, कार्यरत बने रहना-योग्यता एवं क्षमता के अनुसार, विश्राम यथा आवश्यकतानुसार और स्वच्छ जल पान तथा पाचन प्रणाली...रक्त परिभ्रमण प्रणाली....तथा श्वसन प्रणाली को प्रयासों से ठीक बनाए रखना।<br />
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अधिकांश रोग इनके विपरीत कार्य करने से होते हैं। इन तीनों का संबंध सम्यक आहार एवं विहार है। सम्यक आहार के निर्देश हमें समय-समय सद साहित्य से मिलते रहते हैं। अस्तु आधुनिक रोग जैसे उच्च रक्त चाप, मधुमेह, हृदयरोग, मानसिक दुर्बलता आदि प्राणलेवा हैं का संबंध जहां असंतुलित आहार आदि प्राण लेवा हैं का संबंध जहां आहार तथा अनियमित जीवन है वहीं इनका संबंध मनोदौर्बल्य से भी है। चिंता दुर्बल मन का प्रतीक है, तनाव दुर्बल मन की क्रिया है, चिंता व तनाव का संयुक्त प्रतिफल इन रोगों के रूप में प्रकट होता है।<br />
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मन की दुर्बलता का इलाज नींद की गोलियों में नहीं, न ही चिकित्सा के अनान्य उपायों में है बल्कि यह आध्त्मिकता के माध्यम से किया जा सकता है। आध्यात्मिक उपायों से आत्मबल बढ़ता है और मन रोग से संघर्श करने योग्य हो जाता है तथा उपचार कारगर साबित होने लगते हैं।आध्यात्मिक उपाय या उपचार क्या हो सकते हैं, इसका हम अत्यंत संक्षेप में विश्लेषण करने का प्रयास यहां कर रहे हैं।अध्यात्म का सार है मन को भगवान में लगाना। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है ''मन्मना भव मग्दक्तों....18/65<br />
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मन को मुझ में लगा दो औरमामेकं शरणं ब्रज मेरी शरण में आ जाओ। 'अहं त्वा सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:।। 18/66 मैं तुम्हें पापों से छुड़ा दूंगा। चिंता मत करो। अर्थात् पाप हमारे चिंता के कारण हैं। पाप मुक्ति ही हमारे मन को चिंता मुक्त कर सकती है। हमें विष्वास करना होगा कि वासनायुक्त मन ही पाप का जनक और अस्थिर बुद्धि उसकी जननी है। पाप की पहचान हम कैसे करें?वासनायुक्त मन बार-बार दु:खी करता है और दु:ख पाप का परिणाम है। हम आत्म चिंतन करें तो पायेंगे कि हमारा किया हुआ पाप या पाप करने की हमारी इच्छा या वृत्ति हमें दु:ख के सागर में धकेल रही है और जब हम या कोई बार-बार दु:खी होते हैं तो निश्चित बात है कि भूतकाल या पूर्व जन्म में जो पाप कर्म हमसे हो गए हैं और जो प्रारब्ध बनकर हमारे दु:खों के कारण हैं- चाहे वे गरीबी के रूप में हों या शारीरिक दृष्टि से रोग के रूप में हो या बौद्धिक दृष्टि से अविद्या के रूप में हों।<br />
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इसका स्थाई उपचार आध्यात्मिक चिकित्सा प्रणाली में है जो वर्तमान में आत्मबल, मनोबल या मन शक्ति से बढ़ाकर दु:ख विषेशत: रोग रूपी दु:ख से लडऩे में सहायक हो सकती है। दु:ख वहन करने की एक बार शक्ति आ जाती है तो बड़े से बड़ा दु:ख बहुत छोटा हो जाता है।<br />
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आध्यात्मिक चिकित्सा प्रणाली के तिपय आयाम इस प्रकार हम ले सकते हैं।<br />
<b><br />मौत से करो मोहब्बत जिंदगी का सच यही है</b><br />
1. यौगिक दृष्टि से यम-नियम का पालन। 2. भक्ति योग की दृष्टि से समर्पण युक्त भगवत् आराधना-नियमित प्रार्थना छलकपट विहीन जीवन, क्योंकि कपट मनुष्य ईश्वराभिमुख नहीं हो सकता। बिना भक्ति के पाप नहीं कट सकते और बिना पाप कटे मन की स्थिरता नहीं। मन को स्थिर बनाने के लिए प्रज्ञा (बुद्धि) को प्रतिष्ठित करना होगा और बुद्धि की प्रतिष्ठा इन्द्रिय निग्रह से ही संभव है। 3. कर्मकाण्ड संबंधी उपचार-इन्द्रिय निग्रह का बाहरी रूप है जप यज्ञ करना। गीता में भगवान ने कहा है कि यज्ञों में मैं जप यज्ञ हूं। नित्य जप करने वाले भूतभावन भगवान शंकर महाकाल और महामृत्युंजय हैं। जिनके मंत्र का जप उस रोगी के लिये बनाया जाता है जिसका रोग चिकित्सक की क्षमता से बाहर हो जाता है। अत: उस स्थिति के आने के पूर्व ही जप क्यों न किया जाए, ताकि मन: स्थिति यह बन जाए।<br />
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मनुष्य का आयुष्य उसके जन्म के साथ निश्चित हुआ करता है। उसमें कोई हेर-फेर नहीं कर सकता। मरण<br />
तो मोक्ष का द्वार है। मूर्ख मनुष्य मौत को पहचानते नहीं, इसलिए डरते हैं। मौत से मोहब्बत संसार का सार है। और साधना की स्थिति यहां पहुंच जाए कि बुद्धि तथा बुद्धि का चिंतन, मन तथा मन के संकल्प और क्रिया ये तीनों - ईश्वर अर्पण कर दिए जाएं। भगवान करते हैं 'सत्यम कि मामे वैश्यति मुझे ही प्राप्त करोगे। यही भौतिक एवं भवरोगों का सही आध्यात्मिक उपचार है। अत: हम प्राकृतिकस्थ हो अध्यात्म जीवन पद्धति स्वीकार करें तो कल्याण है और सुख है।<br />
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<b>भगवान से हमेशा ऐसे मांगना भी तो ठीक नहीं</b><br />
इस संबंध में पुराणों में एक कथा आती है। देवर्षि नारदजी को ही यह अधिकार था कि वे भगवान श्रीकृष्ण के अन्त:पुर तक जा सकते थे। उन्हें टोकने का किसी को साहस ही न होता था।एक बार ऐसे ही वे जब द्वारकापुरी पहुंचे तो भगवान श्रीकृष्ण कहीं दिखाई नहीं दिए, नारदजी सीधे रुक्मिणीजी के पास पहुंचे और पूछा- आज यजमान के दर्शन नहीं हो रहे हैं, कहां हैं वे?रुक्मिणीजी ने पूजागृह की ओर इशारा करते हुए कहा- वहां बैठे जप कर रहे हैं।<br />
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नारदजी को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे पूजागृह में पहुंचे तो देखा भगवान श्रीकृष्ण सचमुच ध्यान लगाए बैठे हैं। भगवान जो सर्वज्ञ हैं। नारदजी की आहट पाते ही उन्होंने आंखें खोल दी और हंसकर उनका स्वागत किया।<br />
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नारदमुनि ने आश्चर्य से पूछा - हे भगवन! सारी दुनिया आपका स्मरण करती है, आपका ध्यान करती है, आपके भजन गाती है परंतु आप किसका ध्यान करते हैं?भगवान श्रीकृष्ण ने गम्भीर होकर उत्तर दिया- मुनिवर! जो मेरा ध्यान करते हैं, मेरा स्मरण करते हैं, मुझे भी उनका स्मरण-ध्यान करना पड़ता है।तो निश्चित है कि जब हम भगवान का स्मरण करेंगे तब वे भी हमारा ध्यान जरूर रखेंगे।<br />
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इसलिए जब समय मिले, जितना समय मिले, प्रभु का स्मरण आवश्य करें।एक बात और समझ लें कि भगवान को अपनी कामनाओं की पूर्ति का साधन न समझ लें। आज हमारे मन में अनेक और बड़ी-बड़ी इच्छाएं उठती रहती हैं और जब हम भगवान का स्मरण करते हैं, उनका ध्यान करते हैं या उनके दर्शन के लिए मंदिर जाते हैं तो अपनी इच्छाओं की एक गठरी भी उनके सामने खोलकर रख देते हैं।<br />
<b><br />तो इसलिए सबको नहीं मिलते भगवान</b><br />
भक्त भगवान को अत्यन्त प्रिय होता है। उसका स्वभाव सम हो जाता है। वह ''सम दृष्टवा समे कृत्वा लाभो लाऽभे जयाऽजये। वह लाभ, हानि, जय-अविजय में सम रहता है। भगवान पर सब छोड़कर भगवान की शरण में जाता है।अब सवाल यह उठता है कि हम भक्ति प्राप्ति हेतु प्रारम्भ कैसे करें?<br />
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कुछ नियम बनावें। उनका पालन दृढ़ता से करें। प्रात: उठें, नित्य कर्म से निपटकर, एकान्त स्थान में बैठें और गुरु स्मरण करें। यदि गुरु न किया हो तो चिन्ता की कोई बात नहीं। पांच देवों गणेश, शिव, विष्णु, दुर्गा तथा सूर्य में से किसी का स्मरण करके भगवान से उसकी रुचि की प्रार्थना करें। प्रार्थना भाव यह रहे कि भगवान की अनन्त कृपा की वृष्टि हो रही है और हम अखण्ड आनन्द में डूबे हुए हैं। भगवान हमारे समस्त कष्टों को दूर कर रहे हें। हमारी मनोकामनाएं पूरी करने में वे सदैव तत्पर हैं। वे हमें शुद्ध बुद्ध बना रहे हैं। सबको सुखी करने वाले प्रभु सबका भला कर रहे हैं। सबके भले में ही हमारा भला है। भगवान समष्टि प्रार्थना प्रिय होती है। हम कोई भी संतों द्वारा प्रतिपादित प्रार्थना को ले सकते हैं।<br />
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प्रार्थना करने के पश्चात गुरु प्रदत्त मंत्र या इष्ट मंत्र का जप करें। जप के लिए माला का सहारा लें। प्रारंभ में माला से गणना ठीक रहती है। नियत ले लें कि माला नित्य पूरी करें। वैसे नियम यह है कि मंत्र में जितने अक्षर हों उतनी माला कम से कम नित्य पूरी की जावे। जप करते समय सुखासन ठीक रहता है। जप के पश्चात अपने इष्ट भगवान का ध्यान करें। आंख बंद करके चिंतन करें, अपने प्रिय भगवत् स्वरूप का। वह स्वरूप विष्णु, शिव, देवी, राम, कृष्ण या अन्य किसी देव का हो सकता है। कोशिश करें कि ध्यान केन्द्रित हो। मन भटके तो उसे बार-बार अपने ध्येय तक लावें। चिंतन करें कि ये आराध्य पास ही खड़े हैं। इस प्रकार प्रारंभिक अवस्था में अभ्यास करना ठीक रहता है। अभ्यास करते-करते ध्यान सहज होने लगता है और यदि भगवत् कृपा से सन्त या गुरु मिल जावें तो यह कार्य अतिशीघ्र होने लगता है। अनेक जन्मों के पड़े संस्कार क्षीण हुए बिना भगवान में ध्यान लगाना कठिन होता है। ध्यान की उच्चतम स्थिति ही समाधि होती है। गुरु कृपा से ही सहज तथा नित अभ्यास से यह स्थिति आ जाती है।ध्यान के उपरांत भगवान या अपने इष्ट को धन्यवाद देवें कि उसने उसका स्मरण कराया। जो निराकार ब्रह्म के उपासक हैं वे ऊँ का जप करके स्वच्छ धवल प्रकाश को अपने अन्तर में देखें। भगवत् स्वरूप को अपने अन्तर में प्रकट होता हुआ देखने से एकाकार होने में मदद मिलती है। त्रुटि के लिए क्षमा याचना करें।<br />
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सुबह शाम या जैसा समय हो गीता, रामायण, भागवत, गुरु ग्रंथ या अन्य किसी ग्रंथ का निर्धारित पाठ करें। इस स्वाध्याय से भगवान के कथा-प्रसंग में रुचि बढ़ती है। अपने आवास के आसपास नगर या गांव में कोई महात्मा का प्रवचन चलता हो तो समय निकाल कर वहां जाएं। किन्तु सावधान रहें कि मतमतान्तर के चक्कर में न आवें। उनके प्रवचन को सावधानी पूर्वक सुनें। अपने विश्वास को दृढ़ करने वाली बात स्वीकार करें, शेष को वहां छोड़ आवें। निरर्थक वाद-विवाद को टालें। सार-सार ग्रहण करके आगे बढ़ें। सांसारिक कर्मों को भगवान की सेवा मानकर सम्पादित करें। कार्य करते समय सावधान रहें कि इसमें किसी की हानि तो नहीं होती है।भक्ति मार्ग या भगवान को पाने के लिए चलना इतना ही आसान होता तो सबके सब चल पड़ते। तलवार की धार पर चलना होता है वह भी दुधारी तलवार।<br />
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<b>पाप से बचना है तो ये है सबसे सरल तरीका</b><br />
जीवन में सत्संग का बड़ा महत्व है। परिवार में रहकर तो सत्संग करना ही चाहिए। हम भागवत में चर्चा कर रहे हैं नौ योगीश्वर और जनकराज के संवादों की। यह संवाद श्रीकृष्ण के पिता वसुदेवजी को नारद सुना रहे हैं।नारदजी वसुदेवजी के महल में पधारे थे। संतों का हमारे घर में आवागमन होते रहना चाहिए। संत से संसारी चर्चा न कर आध्यात्मिक संवाद करना चाहिए। नारदजी, वसुदेवजी को अब नवें योगीश्वर का संवाद सुना रहे हैं। इन वार्तालापों से हमें एक नया जीवन-दर्शन प्राप्त होगा।<br />
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चलिए राजा नीमि और योगीश्वर कर भाजनजी के पास चलते हैं।राजा निमि ने पूछा-आप लोग कृपा करके यह बतलाइए कि भगवान किस समय किस रंग का, कौन सा आकार स्वीकार करते हैं और मनुष्य द्वारा कौन से नामों और विधियों से उनकी उपासना की जाती है। नवें योगीश्वर कर भाजनजी ने कहा- युग चार हैं-सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि। इन युगों में भगवान के अनेकों रंग, नाम और आकृतियां होती हैं तथा अलग-अलग विधियों से उनकी पूजा की जाती है। सत्ययुग में भगवान के विग्रह का रंग श्वेत होता है, चार भुजाएं और सिर पर जटा होती है तथा वे वल्कल का वस्त्र पहनते हैं।<br />
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सत्ययुग के मनुष्य बड़े शान्त, सबके हितैषी और समदर्शी होते हैं। लोग इन्द्रियों और मन को वश में रखकर ध्यानरूप तपस्या के द्वारा सबके प्रकाशक परमात्मा की आराधना करते हैं। त्रेता युग में भगवान के विग्रह का रंग होता है लाल। चार भुजाएं होती हैं और कटिभाग में वे तीन मेखला धारण करते हैं।<br />
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द्वापर युग में भगवान के विग्रह का रंग सांवला होता है। वे पीताम्बर तथा शंख, चक्र, गदा आदि अपने आयुध धारण करते हैं। लोग इस प्रकार भगवान की स्तुति करते हैं-हे ज्ञानस्वरूप भगवान वसुदेव एवं क्रियाशक्ति रूप संकर्षण! हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं। द्वापर युग में इस प्रकार लोग जगदीश्वर भगवान की स्तुति करते हैं। कलियुग में भगवान का विग्रह होता है काले रंग का। इस युग में श्रेष्ठ बुद्धि सम्पन्न पुरुष यज्ञों के द्वारा उनकी आराधना करते हैं, जिनमें नाम, गुण, लीला आदि के कीर्तन की प्रधानता रहती है।विभिन्न युगों के लोग अपने-अपने युग के अनुरूप नाम-रूपों द्वारा विभिन्न प्रकार से भगवान की आराधना करते हैं। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सभी पुरुषार्थों के एकमात्र स्वामी भगवान श्रीहरि ही हैं। कलियुग में केवल संकीर्तन से ही सारे स्वार्थ और परमार्थ बन जाते हैं। संकीर्तन का एक और अर्थ है उस परमात्मा की शरण में जाना। चलिए इस बात को गीता के प्रसंग से समझें।<br />
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''सर्वधर्मान्परित्य मामेकं शरणं व्रज। अहंत्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिश्यामि मा शुच:।। (गीता 18-66)<br />
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सब धर्मों का त्याग करके एक मेरी ही शरण ले। मैं तुझे सब पापों से मुक्त करूंगा। शोक मत कर। भगवान श्रीकृष्ण का यह अत्यंत महत्वपूर्ण आश्वासन है। यहां यह स्पष्ट होना आवश्यक है कि जो भगवान की शरण ले लेता है, उससे पाप होता ही नहीं। पाप सामान्यत: तब होता है जब भगवत् शरणागति में कहीं कोई चूक हो जाती है। शरणागति साधक, भक्त या योगी की एक ऐसी जाग्रत अवस्था है जिसमें उसकी चेतन शक्ति उसे न केवल चैतन्य रखती है वरन् उसे न तो स्थित प्रज्ञ से विमुख होने देती है और न ही वृत्तियों की द्वन्दात्मक स्थिति में पुन: उलझाती है। वैसे स्थित प्रज्ञ निद्र्वन्द होता है। उसका विवेक सोते, जागते या अन्यान्य क्रिया-कलाप करते समय विस्मृत नहीं होने देता है, यह परम श्रेष्ठ गुरु भगवान का अर्जुन को मिला हुआ महती कृपा रूपात्मक महाप्रसाद था।<br />
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<b>जब लक्ष्य हो कुछ पाने का तो ....</b><br />
यह स्थिति कैसे बनी रहे यह गीता प्रदत्त उपदेश व निदेश जिन्हें शक्ति जागरण की संज्ञा दी जा सकती है, में मिलती है। जीव की प्रज्ञा के अभ्यास या साधन करने के लिए जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण के अनुगीता में दिए गए उपदेश माननीय हैं।महाभारत में शत्रुओं का नाश हो चुका था। जीवन संघर्ष में साधनत साधक के शत्रु-काम, क्रोध, मोह, मद, मत्सर आदि का नाश हो जाता है। वह निश्चन्त हो अपने आत्म तत्व गुरु से पुन: विचार मंथन करता है। यह मंथन सामान्यत: जीवन के उत्तराद्र्ध में होता है।<br />
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आध्यात्मिक उपलब्धियों की कुछ-कुछ विस्मृति होती है, ज्ञान विलुप्त सा प्रतीत होता है। यह मोह के पुन: उभरने का उपक्रम कहा जा सकता है। अपनापन बढ़ता हुआ नजर आने लगता है और आत्मा देह त्यागने में कष्ट पाने लगती है। देह जर्जन किले के मानिन्द टूट-टूट कर गिरने की अवस्था में पहुंचने लगता है। गीता में वर्णित मोहजनित विशाद को भगवान ने भंग किया। अर्जुन जैसे ज्ञानी को इसका विस्मरण होना, जीव का यथार्थ चित्रण उत्तराद्र्ध में देखने को मिलता है।<br />
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आश्वमेधिक पर्व में वर्णन आया है कि भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन अपने परिजनों से घिरे सभा मण्डप में आए। आनन्दित अवस्था थी। आनन्द अवस्था में अर्जुन का प्रश्न सहज था-केशव! आपने स्नेहवश पहले युद्ध भूमि में मुझे ज्ञान का उपदेश दिया था, वह इस समय बुद्धि दोष से भूल गया हूं। उन विषयों को सुनने की बारम्बार मेरे मन में उत्कण्ठा होती है, अत: वह सब विषय मुझे सुना दीजिए।<br />
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अबुद्धिमत्ता पूर्ण प्रश्न पर किस योग्य गुरु को विस्मय नहीं होगा, फिर श्रीकृष्ण तो योग्यतम गुरु थे। उनका उत्तर निश्चित रूप से साधक, भक्त, योगी का मार्गदर्शक है। गुरु के समीप प्रथम दृष्टया ही चेतन होकर ज्ञान ग्रहण करना ठीक रहता है, क्योंकि पुन: दिया गया उपदेश वही नहीं होता, या तो वह पहले से श्रेष्ठ होता है या पहले से इतर होता है। भगवान श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया- अर्जुन! उस समय मैंने तुम्हें अत्यन्त गोपनीय विषय को सुनाया था, अपने स्वरूप भूत धर्म-सनातन पुरुषोत्तम तत्व का परिचय कराया था और नित्य लोकों का वर्णन किया था, किन्तु तुमने जो अपनी नासमझी से उस उपदेश को याद नहीं रखा, यह जानकर मुझे अत्यंत खेद हुआ है। उन बातों का अब पूरा-पूरा स्मरण होना सम्भव जान नहीं पड़ता। हे पाण्डुनन्दन निश्चय ही तुम बड़े श्रद्धाहीन हो, तुम्हारी बुद्धि अच्छी जान नहीं पड़ती। श्रद्धा के अभाव में विस्मृति संभव है। बुद्धि का लक्ष्य यदि कुछ प्राप्ति का है, जैसे अर्जुन युद्ध जीतने और राज्य पाने में अपनी बुद्धि को लगाए हुए था, तो सुनकर वह याद रख नहीं पाया।<br />
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इसी प्रकार गुरु के उपदेश चित्त-बुद्धि को एकाकार बनाकर नहीं सुने जाएं तो श्रेष्ठ से श्रेष्ठ उपदेश भी उड़ जाता है, वह निष्कर्ष श्रीकृष्ण अर्जुन संवाद से निकाला जा सकता है। यदि ऐसी स्थिति बन जाए जो स्वाभाविक है, तो अपने गुरु से नि:संकोच चर्चा करके अपनी बुद्धि का परिमार्जन करने में कोई आपत्ति नहीं है।<br />
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अर्जुन के प्रश्न करने पर भगवान ने अपने चरित्र की एक घटना उदाहरणार्थ सुनाई। एक समय एक दुद्र्धर्श ब्राम्हण ब्रम्हलोक से श्रीकृष्ण के पास आए। श्रीकृष्ण ने उनसे मोक्ष-धर्म संबंधी प्रश्न किया। ब्राम्हण ने कश्यप नामक एक धर्मात्मा और तपस्वी तथा सिद्ध ब्रम्हर्षि के बीच हुई चर्चा का वर्णन करते हुए भगवान श्रीकृष्ण के प्रश्न का उत्तर दिया।नाना प्रकार के शुभकर्मों के अनुष्ठान करके केवल पुण्य के संयोग से इस लोक में उत्तम फल और देवलोक में स्थान प्राप्त करते हैं। ऊंचे-ऊंचे तपस्या के द्वारा प्राप्त किए स्थान से बार-बार नीचे आना पड़ता है।<br />
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क्षीणे पुण्ये मत्र्य लोके... बार-बार जन्म लेने से शुभ व अशुभ गतियों से गुजरना होता है। मृत्यु का क्लेश भी बार-बार भोगना पड़ता है। अनेक जन्मों (विविध प्रकार के मनुष्य, पशु, कीट-पतंग आदि) में उनके स्तनों का दूध पिया। बहुत से पिता और बहुत सी माताएं देखी हैं। विचित्र सुख-दु:ख का अनुभव किया। दु:ख सुख का आभास होता रहा। बुढ़ापा, रोग, राग, द्वेश में उलझा जीव भटकता है। सिद्ध आगे कहते हैं: दु:खों से घबराकर परमात्मा की शरण ली, समस्त लोक व्यवहार त्याग दिया।<br />
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<b>जो भी इस कहानी को सुनता है वो करने लगता है मौत का इंतजार</b><br />
तात्पर्य यह है कि साधक या भक्त मनुष्य शरणागति और भगवत कृपा से साधन करते-करते उस स्थिति में पहुंच सकता है जहां वह सम्पूर्ण जगत व्यवहार में एक तटस्थ दृष्टा भाव लिए मृत्यु की प्रतीक्षा करता है। ऐसी स्थिति में मोह के बंधन कट जाते हैं। मोह बंधन कटने से जन्म-मरण की प्रक्रिया विलुप्त हो जाती है। अवलोकन से भी लगाव नहीं रहता। इसी शरणागति को यौगिक भाशा में ईष्वर प्रणिधान की संज्ञा दी गई है।<br />
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नवम योगीश्वर यही बात समझा रहे थे। सत्ययुग, त्रेता और द्वापर की प्रजा चाहती है कि हमारा जन्म कलियुग में हो, क्योंकि कलियुग में कहीं-कहीं भगवान नारायण के शरणागत उन्हीं के आश्रय में रहने वाले बहुत से भक्त उत्पन्न होंगे। अब कथा वापस नारदजी पर आती है।<br />
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नारदजी कहते हैं-वसुदेवजी! मिथिलानरेश राजा निमि नौ योगीश्वर से इस प्रकार भागवत धर्मों का वर्णन सुनकर बहुत ही आनन्दित हुए। इसके बाद सब लोगों के सामने ही वे सिद्ध अन्तर्धान हो गए। विदेहराज निमि ने भी उनसे सुने हुए भागवत धर्मों का आचरण किया और परमगति प्राप्त की। वसुदेवजी! मैंने आपको जिन भागवतधर्मों का वर्णन किया है यदि श्रद्धा के साथ आप भी इनका आचरण करेंगे तो अन्त में सब आसक्तियों से छूटकर भगवान का परमपद प्राप्त कर लोगे।<br />
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नारदजी कहते हैं-वसुदेवजी! आप श्रीकृष्ण को अपना पुत्र ही न समझें। वे अविनाशी हैं। उन्होंने लीला के लिए मनुष्य रूप प्रकट करके अपना ऐश्वर्य छिपा रखा है। वे जीवों पर परमशान्ति और मुक्ति देने के लिए ही अवतीर्ण हुए हैं और इसी के लिए जगत् में उनकी कीर्ति भी गाई जाती है। नारदजी की बात सुनकर वसुदेव और देवकीजी को बड़ा विस्मय हुआ। उनमें जो कुछ माया-मोह था, उसे उन्होंने छोड़ दिया। जो वसुदेवजी और देवकीजी के जीवन में हुआ वह साधन की यह उच्चतम स्थिति है। कहा गया है-''सीय राम मय सब जग जानी। करऊं प्रणाम जोरि युग पानी।।<br />
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सब जग में प्राणिमात्र जड़ चेतन सबकुछ आ जाता है। उनमें सिया अर्थात शक्ति, भवानी, जगदंबिका, माया पृभति हैं और ब्रम्ह, परमात्मा, , भगवान जो भी नाम दें, हैं। राममय सब जग (पूरा ब्रम्हाण्ड) है और राम में सब है और सब में राम हैं। गीता में इस चिन्तन का स्पष्ट संकेत है। ''योमां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति। तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यचि।। 16-30।।<br />
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जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मारूप मुझ वसुदेव को ही देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वसुदेव के अंतर्गत देखता है। उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता हूं और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता है।<br />
<b><br />जो बुद्धिमान होता है वो कभी इस पचड़े में नहीं पड़ता</b><br />
इष्ट को पता है कि साधक का कल्याण किसमें है। यदि सकाम जप या अनुष्ठान से उपलब्धि नहीं होती है तो जपकर्ता मिथ्या दोष लगाकर अविश्वासी बनकर नास्तिकता के पथ पर चल पड़ता है। इस प्रकार के उदाहरण देखने में आते हैं ''श्रद्धावान लभते ज्ञानं...ज्ञानी इस पचड़े में नहीं पड़ता है, ज्ञान उसे श्रद्धा से प्राप्त होता है। वह जपकर्ता है, इष्ट के लिए निष्काम किया गया जप कालान्तर में साधक का वह मंत्र सिद्ध मंत्र बन जाता है और जब वही मंत्र संस्कारों के उदय होने पर गुरु प्रदत्त हो जाता है तो साधक की आध्यात्मिक जीवन यात्रा सुलभ, उद्देश्यपूर्ण और तीव्र हो जाती है। मंत्र चैतन्य की स्थिति निर्मित हो जाती है।किन्तु इसके लिए गुरु कृपा चाहिए। सद् और समर्थ गुरु द्वारा प्रदत्त मंत्र चैतन्य और सिद्धमंत्र होता है।<br />
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इससे आदिशक्ति, कुण्डलिनी शक्ति जागृत होती है। मन-प्राण का लय साधित होता है, तन्मयता आती है। साधक हो समाधि लग जाती है। आत्मा परमात्मा का एकत्व होता है। अत: मंत्र की शक्ति को साधारण नहीं समझना चाहिए। दैवी शक्ति सम्पन्न मंत्र होते हैं। परम्परानुसार इनका स्वरूप व गठन भिन्न होता है। आवश्यकता है कि मंत्र का अर्थ समझते हुए जप किया जाए। श्रद्धा विश्वास और भक्ति इसके त्रिपादी आधार हैं। इनके सिद्धावस्था में निराकारी साकार होते पाए जाते हैं। उच्च स्थिति में साकार-निराकार का भेद शेष नहीं रहता। अन्तत: भजन, पूजन, जप, तप, प्रार्थना आदि में परमात्मा में विलय ही एकमात्र लक्ष्य रहता है।उद्धव को वह लक्ष्य अब प्राप्त होगा। शुकदेवजी राजा परीक्षित को आगे की कथा सुना रहे हैं।जब देवर्षि नारदजी वसुदेवजी को उपदेश करके चले गए, तब अपने पुत्र सनकादिकों, देवताओं और प्रजापतियों के साथ ब्रम्हाजी, शंकरजी, इन्द्र द्वारकानगरी में आए। साथ ही सभी अन्य देवता भी थे। सभी ने उनकी स्तुति की।<br />
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देवताओं ने प्रार्थना की-स्वामी! कर्मों के विकट फंदों से छूटने की इच्छावाले मुमुक्षुजन भक्तिभाव से अपने हृदय में जिसका चिन्तन करते रहते हैं, आपके उसी चरणकमल को हम लोगों ने अपनी बुद्धि, इन्द्रिय, प्राण, मन और वाणी से साक्षात् नमस्कार किया है। माया के द्वारा अपने आपमें ही रचना करते हैं, पालन करते और संहार करते हैं। यह सब करते हुए भी इन कर्मों से आप लिप्त नहीं होते हैं, क्योंकि आप राग-द्वेश आदि दोशों से सर्वथा मुक्त हैं। इस स्तुति का उद्देश्य यह है कि भगवान अपनी माया की जानकारी हमें दे रहे हैं। माया की समझ ही माया का हटना है। देवतागण भगवान की जो स्तुति कर रहे थे वही रूप तो गीता में हमने देखा था। भागवत के श्रीकृष्ण हमें ऐसे ही आचरण से शिक्षा देते हैं। चलिए, देवताओं की बात पूरी हो इसके पहले एकबार गीता का चिंतन कर लें।<br />
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<b>मन को शांति तब तक नहीं मिल सकती जब तक....</b><br />
योगीश्वर कवि ने और स्पष्ट किया- सांसारिक कर्मों के संबंध में संकल्प-विकल्प करने वाले मन को रोक दें, ऐसा करते ही अभय-पद की (परमात्मा की) प्राप्ति हो जाएगी। निष्चय ही मन के संकल्प-विकल्प साधक को उलझाए रखते हैं। वस्तुत: देखा जाए तो ये मूर्त लेकर भी नष्ट हो जाते हैं और कालान्तर में स्वप्नवत लगने लगते हैं।<br />
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आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, ग्रह-नक्षत्र, प्राणी, दिशाएं, वृक्ष, वनस्पति, नदी आदि सबके-सब भगवान के अंग हैं। सभी रूपों में भगवान प्रकट हैं। यह समझकर साधक अनन्य भाव से भगवद्भाव से प्रणाम करता है। (करऊं प्रणाम जोरि युग पानी...) फिर जैसे भोजन करने से तुष्टि (तृप्ति अथवा सुख), पुष्टि (जीवन शक्ति का संचार) और क्षुधा-निवृत्ति होती है, उसी प्रकार भगवान के शरणागति हो भजन करने से उनके प्रति प्रेम, प्रेमास्पद प्रभु के स्वरूप का अनुभव और उनके अतिरिक्त अन्य वस्तुओं के प्रति वैराग्य तीनों की प्राप्ति एक साथ होती है। साधक परम भागवत हो स्वयं परम शान्ति का अनुभव करने लगता है।<br />
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भगवत भक्त के लक्षण राजा निमि ने जानना चाहे, तब दूसरे योगीश्वर हरि ने स्पष्ट किया कि भगवान को समस्त प्राणियों के परिपूर्ण भगवत्सत्ता साधक भक्त देखता है। उसकी दृष्टि सिद्ध होती है अर्थात भगवान से प्रेम, भक्तों से मित्रता, दु:खी व अज्ञानियों पर कृपा जो श्रोत-नेत्र आदि इन्द्रियों द्वारा शब्द रूप विषयों को ग्रहण तो करता है, परन्तु इच्छा के प्रतिकूल विशयों से द्वेश नहीं करता और विषयों के मिलने पर हर्र्षित नहीं होता, उसकी समदृष्टि बनी रहती है। मोहित नहीं होता, पराभूत नहीं होता, धन-सम्पत्ति में अपना-पराये का भेद नहीं रखता आदि-आदि। ये वैष्णव के लक्षण गीता में विषद रूप में वर्णित हैं।<br />
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''सम दृष्टवा समें कृत्वा लाभो लाभ: जया जयै...हानि-लाभ, सुख-दु:ख में सम रहता हुआ साधक आगे बढ़ता जाता है। भगवान श्रीराम मनुष्य रूप में इसके सर्वोत्तम उदाहरण हैं, राजतिलक होता है तो क्या? वन जाने का आदेश हुआ तो क्या? उनके चित्त पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। समभाव लिए मानसी लीला भगवान राम के रूप में करके प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत किया जो आए उसका सामना परम पुरुषार्थ के साथ किया जाए। साधारण मनुष्य की भांति मरीच के पीछे जाना, सीता की खोज करना, सुग्रीव से मित्रता करना, सेतु निर्माण करना, रावण का वध करके सीता हरण का प्रतिकार चुकाना और इन सबके बाद भी न सुख, न दु:ख की भावना। तात्पर्य यह कि साधक पुरुषार्थ करने में पीछे नहीं रहता है।<br />
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तीसरे योगीश्वर अन्तरिक्ष ने मन को सात्विक कर्मों की ओर प्रेरित करने का उपदेश दिया। मन अपना कार्य करता है वह अहंकार रहित हो कुमार्गगामी न बनें, उसको कर्म में लगाने का उपाय है कि वह सात्विक-कर्मों में लगाया जाए। इससे वृत्तियां शुद्ध बनी रहती है। शुद्ध-वृत्ति, सात्विक-कर्म माया को विच्छिन्न कर भगवान के निकट लाते हैं। भगवान राम ने भक्त सेवक लक्ष्मण के सन्मुख ज्ञान का अक्षुण्ण भण्डार लाकर उपस्थित कर दिया।''तात तीनि अति प्रबल खल काम, क्रोध अरूं लोभ। मुनि विग्यान धाम मन करहिं निमिश महुँ छोय, लोभ के इच्छा दंभ बल कामके केवल नारि, क्रोध के पुरुष वचन मुनिवर कहहिं विचारि<br />
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<b>क्यों हर व्यक्ति की किस्मत नहीं चमकती?</b><br />
क्यों हर व्यक्ति की किस्मत नहीं चमकती? क्यों हर व्यक्ति अच्छा नहीं हो सकता या सभी अपराधी क्यों नहीं होते? ऐसे सभी सवालों का उत्तर यदि हम अध्यात्मि दृष्टि से सोचें तो सिर्फ एक है। उसके प्रारब्ध जैसा किसी का प्रारब्ध होता है। उसी के अनुसार वंशागुत स्वभाव व संस्कार मनुष्य में अवतरित होते हैं। यही कारण है कि सबकी किस्मत एक जैसी नहीं होती है। निमि वंश की सीता, उर्मिला, माण्डवी, श्रुति-कीर्ति थीं। राजा जनक इन संस्कारों से ओतप्रोत थे। उनकी उपस्थिति मात्र से चित्रकूट का सारा वातावरण द्वंद्वमुक्त हो गया था। श्रीराम यह कहने की स्थिति में आ गए कि विद्यमान आपुनि मिथिलेसु, मोर कहब सब भांति भदेसु।<br />
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''राउर राम रजायसु होई, राउरि सपथ सही<br />
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सिर सोई।। 4/296/3<br />
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आपके और जनकजी के विद्यमान रहते, मेरा सबकुछ कहना भद्दा है। आपकी ओर महाराज की जो आज्ञा होगी, मैं आपकी शपथ करके कहता हूं वह सत्य ही सबको शिरोधार्य होगी।<br />
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यहां श्रीराम ने सत्य को पूर्ण दृढ़ता के साथ स्थापित किया।<br />
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''राज काज सब लाज पति धरम धरनि धन धाम। गुरु प्रभावु पालिहि सबहि भल होइहि परिनाम।। 505<br />
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राज्य सब कार्य, लज्जा, प्रतिष्ठा, धर्म, पृथ्वी, धन सबका पालन गुरुजी का सामथ्र्य करेगा, परिणाम शुभ होगा। गुरु की निष्ठा का यह सूत्र न केवल रामकालिक है बल्कि सर्वकालिक और सबके लिए है। गुरु तत्व की सामथ्र्य का अनुभव जिन्हें होता है वे धन्य हैं।<br />
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अब हम उन प्रसंगों की ओर चलेंगे जहां श्रीकृष्ण गुरु रूप लेकर उद्धव की शंकाओं का निवारण करेंगे। वे स्वधाम पूर्व एक नई भूमिका में नजर आएंगे। अभी हम पढ़ रहे थे वसुदेवजी को नारदजी द्वारा दिया गया उपदेश। इसमें जीवन का गहरा दर्शन छिपा था। अब कथा भगवान की ओर जा रही है। अब हम भगवान के श्रीमुख से जीवन-दर्शन जानेंगे। भगवान अब गुरु की भूमिका में होंगे और शिष्य के रूप में रहेंगे उद्धव। इन दोनों के बीच हर संवाद एक मंत्र बन गया है।<br />
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गुरु-प्रदत्त मंत्र या पंथानुसार होते हैं या समर्थ गुरु शिष्य की योग्यतानुसार शक्ति सम्पन्न हो मंत्र प्रदान करते हैं। इससे शिष्य के लिए प्रदत्त मंत्र शक्ति सम्पन्न हो जाता है, जिसे जागृत या सिद्धमंत्र की संज्ञा दी गई है। ऐसे मंत्र के जप से शिष्य या साधक की कल्याणकारी (आध्यात्मिक) मनोकामना पूरी होती है। उसमें ज्ञान की गंगा प्रस्फुटित हो जाती है तब वह मंत्र का उपयोग अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नहीं करता। उसकी मान्यता दृढ़ हो जाती है कि उसकी सांसारिक आवश्यकताएं प्रारब्धानुसार पूरी होगी ही, उसके इष्ट जानते हैं कि उसका कल्याण किसमें है।<br />
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किन्तु, जिन्हें ज्ञान प्राप्त में देरी संस्कार वश लगती है वे साधक मंत्र-सिद्धि के उपाय करते हैं। शास्त्रकारों ने मंत्र सिद्धि के उपाय कहीं स्पष्ट तथा कहीं संकेत रूप में बताए हैं।<br />
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<b>मैं और मेरा, तू और तेरा क्या यही जिंदगी है?</b><br />
काम एश क्रोध एश रजो गुण समुत्र्व: महाशनो महापाप्मा वित्र्यिनमिह वैरिणम। -37/3 रजोगुण से उत्पन्न हुआ काम ही क्रोध है, भोगों से कभी न अघाने वाला पापी है, इसे बैरी जान। वैसे यह प्रसंग हम पूर्व में पढ़ चुके हैं, लेकिन इस अद्भुत वार्तालाप को नई दृष्टि से भी जान लें।काम, क्रोध, मोह आदि रजोगुणी या तमोगुणी वृत्तियों पर विजित हुए बिना साधक आगे नहीं बढ़ सकता। इस साधना के मनुष्य रूपी राम और लक्ष्मण के उदाहरण हैं। श्रीराम कथा इस परम पुरुषार्थ का आदि सत्य है। श्रीराम ने अपना ईश्वरत्व अनुज लक्ष्मण के समक्ष तब प्रकट किया जब लक्ष्मण ने स्वयं कहा-सुर नर मुनि सचराचर स्वामी। मैं पूछऊँ निज प्रभु की नाईं।। यहां भी स्पष्ट है, सब तजि करौ। चरण रज सेवा...सेवा, पूजा, उपासना, साधन आदि ईश्वर निमित्त किया जाए तो भजन ही होता है। श्रीराम ने लक्ष्मण के पूछने पर वैदिक, उपनिषदिक, शास्त्र-समंत, मुक्ति-प्रदाता ज्ञान दिया। जिसका वर्णन रामचरित मानस में संत तुलसीदासजी ने अत्यंत सरल शब्दों में किया, सारांश इस प्रकार है।<br />
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मैं और मेरा, तू और तेरा यही माया है। जिसने सब जीवों को वश में कर रखा है।<br />
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इन्द्रियों के विषयों को और जहां तक मन जाता है, सबको माया जाना जाए। इसके दो भेद विद्या और अविद्या है। विद्या में गुण हैं, जगत की रचना करती है, ईश्वर से प्रेरित है और अविद्या, दोषयुक्त और अत्यंत दु:ख रूप है जिसके वष होकर जीवन संसार रूपी कुंए में पड़ा हुआ है। ज्ञान, वह है, जिसमें मान आदि एक भी दोष नहीं है और जो समान रूप से सबमें ब्रम्ह देखता है। जो कर्मानुसार बन्धन और मोक्ष देने वाला है, सबसे परे और माया का प्रेरक है- वह ईश्वर है, धर्म से वैराग्य और योग से ज्ञान होता है, ज्ञान मोक्ष प्रदाता है। जिसमें ईश्वर शीघ्र प्रसन्न होता है। वह भक्ति है। भक्ति के लिए ज्ञान-विज्ञान के सहारे की आवश्यकता नहीं, वह स्वतंत्र है। यह तब ही प्राप्त होती है, जब गुरु प्रसन्न हों। भक्ति मार्ग<br />
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अत्यंत सुगम है-ब्राम्हण के चरणों में प्रीति, वेदाक्त शास्त्रोक्त आचरण पालते हुए अपने-अपने कर्मों में लगे रहने से वैराग्य होगा तब भागवत धर्म में प्रेम उत्पन्न होगा तथा नौ प्रकार की भक्ति दृढ़ होगी। गुरु के चरणों में प्रेम, मन, वचन और कर्म से भजन साधन का दृढ़ नियम हो और ईश्वर को ही गुरु, माता, पिता, भाई, पति और देवता सब कुछ जाने।<br />
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गुण गाते समय शरीर पुलकित हो जाए, वाणी गद्गद हो जाए और नेत्रों से जल बहने लगे (साधक-साधन में ये विभिन्न क्रियाओं के विषेश लक्षण, प्रगट होते हैं) और जगत व्यवहार में काम, मद, क्रोध, दंभ आदि विलोपित हो जाए। फिर कर्म, वचन और मन से ईश्वर में ही गति हो जाए, तब सदा भगवान, ईश्वर, इष्ट साधक भक्त के हृदय कमल में विश्राम करते हैं। मन मंदिर हो जाता है।<br />
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<b>कभी दुखी नहीं होना चाहते तो ये एक बात हमेशा याद रखें</b><br />
भगवत भक्त के लक्षण राजा निमि ने जानना चाहे, तब दूसरे योगीश्वर हरी ने स्पष्ट किया कि भगवान को समस्त प्राणियों के परिपूर्ण भगवत्सत्ता साधक भक्त देखता है। उसकी दृष्टि सिद्ध होती है अर्थात भगवान से प्रेम, भक्तों से मित्रता, दु:खी व अज्ञानियों पर कृपा जो श्रोत-नेत्र आदि इन्द्रियों द्वारा शब्द रूप विषयों को ग्रहण तो करता है, परन्तु इच्छा के प्रतिकूल विषयों से द्वेष नहीं करता और विषयों के मिलने पर हर्षित नहीं होता, उसकी समदृष्टि बनी रहती है। मोहित नहीं होता, पराभूत नहीं होता, उसमें वासनाओं का उदय नहीं होता, धन-सम्पत्ति में अपना-पराये का भेद नहीं रखता आदि-आदि। ये वैष्णव के लक्षण गीता में विषद रूप में वर्णित हैं।<br />
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''सम दृष्टवा समें कृत्वा लाभो लाभ: जया जयै... हानि-लाभ, सुख-दु:ख में सम रहता हुआ साधक आगे बढ़ता जाता है। भगवान श्रीराम मनुष्य रूप में इसके सर्वोत्तम उदाहरण हैं, राजतिलक होता है तो क्या? वन जाने का आदेश हुआ तो क्या? उनके चित्त पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। समभाव लिए मानसी लीला भगवान राम के रूप में करके प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत किया जो आए उसका सामना परम पुरुषार्थ के साथ किया जाए। साधारण मनुष्य की भांति मरीच के पीछे जाना, सीता की खोज करना, सुग्रीव से मित्रता करना, सेतु निर्माण करना, रावण का वध करके सीता हरण का प्रतिकार चुकाना और इन सबके बाद भी न सुख, न दु:ख की भावना। तात्पर्य यह कि साधक पुरुषार्थ करने में पीछे नहीं रहता है।<br />
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तीसरे योगीश्वर अन्तरिक्ष ने मन को सात्विक कर्मों की ओर प्रेरित करने का उपदेश दिया। मन अपना कार्य करता है वह अहंकार रहित हो कुमार्गगामी न बनें, उसको कर्म में लगाने का उपाय है कि वह सात्विक-कर्मों में लगाया जाए। इससे वृत्तियां शुद्ध बनी रहती है। शुद्ध-वृत्ति, सात्विक-कर्म माया को विच्छिन्न कर भगवान के निकट लाते हैं। भगवान राम ने भक्त सेवक लक्ष्मण के सन्मुख ज्ञान का अक्षुण्ण भण्डार लाकर उपस्थित कर दिया।<br />
<b><br />ये तीन कारण थे जिनके कारण कृष्ण ने बचाई थी द्रोपदी की लाज</b><br />
परम मोह त्यागी श्रीकृष्ण आत्मा है जो शरीरस्थ होते हुए भी असंग है। मन, अर्जुन है जो शरीर रथ में रथी है। हम द्रौपदी को मन द्वारा विजित चित्त वृत्ति मानते हुए भगवान श्रीकृष्ण के प्रति पूर्ण समर्पित तत्व मानते हुए महाभारत की सूत्रधार मान लें। द्रौपदी को दुर्योधन, कर्ण, शल्य आदि राजा जीतना चाहते थे। उनकी असफलता, विद्वेष ने पग-पग पर द्रौपदी को लज्जित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।<br />
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धु्रपद तथा उनके चचेरे भाइयों की पांच पुत्रियों का जिनके पृथक-पृथक नाम थे तथा जिन सभी को द्रौपदी भी कहा जाता था, पांचों पाण्डवों के साथ विवाह हुआ था, जैसे-राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के साथ जनक और उनके भाइयों की पुत्रियों सीता, उर्मिला, मांडवी और श्रतुकीर्ति का विवाह हुआ था किन्तु अर्जुन के साथ विवाहित भव्या को ही प्रमुख द्रौपदी कहा जाता था।<br />
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अन्य कन्याएं महत्वपूर्ण भूमिका न होने के कारण चर्चित न हो सकी। संत परंपरा के अनुसार उनके नाम इस प्रकार हैं-भौम्या, मणिका, भव्या, सुललिता, सुरम्या च ता:, द्रौपदीपदाख्यात: पंचैत: हि सुकन्य कां।<br />
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कुन्ती विवेकपूर्ण थीं तथा धर्म के तत्व को जानती थीं। बहुपतिवाद सभ्य समाज में प्रचलित नहीं था। द्रौपदी का पंचपति का होना न व्यावहारिक है और न उसके तथा पाण्डवों के अनुरूप ही। वाममार्गियों द्वारा प्रक्षिप्त धर्म प्रतिकुल अंशों को स्वीकार करने के बजाए परवर्ती विद्वानों ने महाभारत तथा पुराणों में वरदानों, शापों पर आधारित पुनर्जन्म की कथाओं को जोड़कर उनको समाधान करने का विफल प्रयास किया। संत परम्परा का आदर करते हुए भगवान श्रीकृष्ण को धर्म संस्थापना के लिए अवतार ग्रहण करना पड़ा। महाभारत युग में धर्म-कर्म रूप विकृत हो चुका था।<br />
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महाभारत की कथा में द्रौपदी को जुंए में हारना, उसका वस्त्र हरण करके लज्जित करना, पांचों पाण्डवों को कील्व की भांति निहारते रहना, युद्ध भूमि के पूर्व वचनबद्धता, जुंए के कारण 12 वर्ष वन-वन भटकना, एक वर्ष अज्ञात रहना, कथा को अत्यंत रोचक बनाने की दृष्टि से ग्रंथकार महर्षि वेदव्यास ने सम्पूर्ण दर्शन (पुराण, उपनिषद, वेद) को एक सूत्र में गूंथ दिया। प्रकरण में भीम की प्रतिज्ञा, दु:शासन की भुजा उखाडऩा, उसके हृदय को चीर रक्त से द्रौपदी के केश धोना, दुर्योधन की जंघा (गदा युद्ध के विरुद्ध), रात्रि में सोते हुए अस्वत्थामा के द्वारा पाण्डवों के पांचों पुत्रों को पाण्डव समझकर मारना। अर्जुन-अस्वत्थामा के युद्ध में ब्रम्हास्त्र का प्रयोग कर अभिमन्यु के पुत्र को गर्भ में मारने का प्रयास और श्रीकृष्ण का अपने योग/आध्यात्मिक ईश्वरीय शक्ति का प्रयोग कर परीक्षित की रक्षा करना-कथा के मार्मिक व रोचक प्रसंग हैं। रोचक तथा शिक्षाप्रद प्रसंगों में कर्म-योग की धारा प्रवाहित करके महर्षि वेदव्यास ने एक अद्वितीय ग्रंथ मानव समाज को आशीर्वाद स्वरूप प्रदान किया है।कथा प्रसंग में दुर्योधन तथा उसके साथियों का द्वेषपूर्ण अभद्र व्यवहार जिसमें छल भी था।<br />
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द्रौपदी की करूण पुकार-हे गोविंद! हे द्वारकावासी! हे सच्चिदानंद स्वरूप प्रेमघन! हे गोपी वल्लभ! हे सर्वशक्तिमान प्रभो! कौरव मुझे अपमानित कर रहे हैं, क्या यह बात आपको मालूम नहीं है। हे नाथ! हे रमानाथ! हे व्रजनाथ! हे अर्तिनाषन जनार्दन! मैं कौरवों के समुद्र में डूब रही हूं, मेरी रक्षा कीजिए। हे श्रीकृष्ण! आप सच्चिदानंद स्वरूप महायोगी हैं। आप सर्वस्वरूप एवं सबके जीवनदाता हैं। हे गोविंद! मैं कौरवों से घिरकर बड़े संकट में पड़ गई हूं। आपकी शरण में हूं। आप मेरी रक्षा कीजिए। इस पुकार में पूर्ण समर्पण है।<br />
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गोपीजन वल्लभ अर्थात् इन्द्रियों को जीतने वाले योगियों के प्रिय हैं। द्रौपदी ने पाण्डवों की वनवास अवधि में श्रीकृष्ण को रक्षा के लिए कारण गिनाए। एक तो तुम मेरे संबंधी हो, दूसरे अग्निकुंड से उत्पन्न होने के कारण गौरवशाली हूं, तीसरे तुम्हारी सच्ची प्रेमिका हूं और तुम मेरी रक्षा करने में समर्थ हो। जीव की पुकार प्रतीत होती है।<br />
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<b>वही लोग समझदार होते हैं जो इस राज को जानते हैं!</b><br />
महाभारत के सम्पूर्ण पात्रों में केवल अर्जुन ही निकटतम और प्रिय सखा हैं, उन्हें दिए गए उपदेश सर्वदेशीय, सर्वकालीन और सर्वजनीय अद्वितीय हैं। इनका अवलोकन ही कर्मपथ में दिशा बोध कराता है। इसे समर्पण युक्त प्रेम मार्ग की संज्ञा देना उचित प्रतीत होता है। सम्पूर्ण कर्मों का समर्पण या कर्म फलों का समर्पण और अपने ईश्वर के प्रति अनन्य भाव पथ के दोनों छोर हैं, जिनके बीच जीवन का रथ चलता हुआ अबाध गति से अपने गंतव्य (मोक्ष या भगवत् प्राप्ति) तक पहुंचे, वे ही कर्म करते जाएं। इन कर्मों को करते हुए ही महात्मा, महर्र्षि, भक्त, योगी प्रभृति पार लगते गए। सवाल है क्या करें-''किं कर्म किम कर्मेति क्वयोऽव्यय मोहित:, तत्ते कर्म प्रवस्यामि यंज्ञात्वा मोक्षसेऽषुमात।।<br />
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कर्म क्या है? अकर्म क्या है? श्रीकृष्ण बताते हैं इस विषय को समझने में समझदार लोग भी मोह में पड़े हैं। कर्म निषिद्ध कर्म और अकर्म का भेद जानना चाहिए। कर्म की गति गूढ़ है। कर्म में जो अकर्म देखता है और अकर्म में जो कर्म देखता है, वह लोगों में बुद्धिमान गिना जाता है। वह योगी है, सम्पूर्ण कर्म करने वाला है। महात्मा गांधी ने अनासक्ति योग में इस प्रसंग की व्याख्या इस प्रकार की है-कर्म करते हुए भी कर्ता का अभिमान नहीं रखता उसका कर्म अकर्म है और जो बाहर से कर्म का त्याग करते हुए मन के महल बनाता रहता है उसका अकर्म कर्म है। जिसे लकवा हो गया है, वह जब इरादा करके अभिमानपूर्वक बेकार हुए अंग को हिलाता है तब वह गुण अकर्ता का है जो मोहग्रस्त होकर अपने को कर्ता मानता है। उस आत्मा को माने लकवा हो गया है और वह अभिमानी होकर कर्म करता है।<br />
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इस भांति जो कर्म की गति को जानता है वह बुद्धिमान योगी, कर्तव्य परायण गिना जाता है। मैं करता हूं मानने वाला कर्म-विकर्म का भेद भूल जाता है और साधन के भले बुरे का विचार नहीं करता। आत्मा की स्वाभाविक गति उदर्व है। इसलिए जब मनुष्य नीति मार्ग से हटता है तब उसमें अहंकार अवश्य है, कहा जा सकता है। अभिमान रहित मनुष्य के कर्म स्वभाव से सात्विक होते हैं। विहित कर्म अर्थात करने योग्य कर्म का निर्णय अभिमान रहित होकर किया जा सकता है। फल की इच्छा छोड़कर कर्म किया जाता है तो कर्म अकर्म हो जाता है। निशिद्ध कर्म (असत्य, कपट, हिंसा या अनुचित कर्म विकर्म) है। भगवान श्रीकृष्ण का स्पष्ट मत रहा कि कर्म का स्वरूपत: छोडऩा नहीं है। गीता-315 संतश्री विनोबाभावे ने गीता प्रवचन में कहा है कि हमारा खाना, पीना, सोना ये कर्म ही हैं, परन्तु गीता का कर्म स्वधर्माचरण है। कर्म, विकर्म और अकर्म तीनों शब्द महत्व के हैं। कर्म का अर्थ है स्वधर्माचरण बाहरी स्थूल क्रिया- इस बाहरी क्रिया में चित्त को लगाना विकर्म है। यहां परमार्थ की दृष्टि से कर्म जग-प्रपंच के कर्म तथा अकर्म का अर्थ ब्रम्ह अथवा आत्मतत्व भी किया जाना शक्य है। कोई कर्म किया जाए आसक्ति रहित यदि नहीं है तो प्रत्येक कर्म कर्मण बध्यते जन्तु: कर्म से मनुष्य बंधन में पड़ जाता है।<br />
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<b>हर काम में आपकी जीत तभी संभव है जब....</b><br />
पाण्डव व उनके पक्ष के लोग अर्जुन के पीछे थे। सब लोगों में परम योगी भगवान श्रीकृष्ण ही एकमात्र ऐसे परमपुरुष थे जिनकी मन:स्थिति एकदम सम्यक थी। साम्य मन:स्थिति में ही मनुष्य व स्वस्थ चिन्तन की धारा गीत बनकर प्रवाहित होती है।<br />
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गीता-अर्थात गाई गई, भगवान ने तन्मय हो तत्वदर्षन को गाकर अर्जुन को सुनाया-नरदेह में अर्जुन मन संयुक्त चित्त है, आत्मा परमपिता परमात्मा श्रीकृष्ण हैं। जीवन प्राणवायु प्रदत्त रथ है, जिस पर पवनपुत्र विराजमान हैं। नित्य प्रतिफल दैवी और आसुरी वृत्तियां आमने-सामने हो युद्धरत हैं। दैवी वृत्तियों को विजयी होना है। कर्मपथ का अंतिम लक्ष्य है मुक्त होना। ऐसे रथ का वर्णन रामायण में भगवान श्रीराम ने किया।<br />
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रामरथ के वर्णन में सम्पूर्ण गीता के उपदेश समाये दिखते हैं। विवेचन करें-साधक का मन बुद्धि, चित्त स्थिर होना चाहिए। उसकी स्थिति स्थित: प्रज्ञ ही हो, फिर शक्ति कर्म करती है और स्वयं भगवान कृष्ण ईश-भजन के रूप में विराजमान हैं यम-नियमों को पालकर साधक शुद्ध हो गुरुपूजन ज्ञानाग्नि में संचित कर्मों को भस्म करते हुए नए कर्मों के संस्कार न निर्मित होने दे तब ही विजय सफलतापूर्वक प्राप्त की जा सकती है।<br />
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आगे देवता कहते हैं। वामनावतार में दैत्यराज बलि की दी हुई पृथ्वी को नापने के लिए जब आपने अपना पग उठाया था और वह सत्यलोक में पहुंच गया था, तब यह ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई बहुत बड़ा विजयध्वज हो। ब्रम्हाजी के पखारने के बाद उससे गिरती हुई। गंगाजी के जल की तीन धाराएं ऐसी जान पड़ती थीं मानो उसमें लगी हुई तीन पताकाएं फहरा रही हों। उसे देखकर असुरों की सेना भयभीत हो गई थी और देवसेना निर्भय।<br />
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आप इस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के परम कारण हैं। क्योंकि शास्त्रों ने ऐसा कहा है कि आप प्रकृति, पुरुष और महत्त्त्व के भी नियंत्रण करने वाले काल हैं। पुरुष आपसे शक्ति प्राप्त करके अमोघवीर्य हो जाता है और फिर माया के साथ संयुक्त होकर विश्व के महत्तत्वरूप गर्भ का स्थापन करता है। इसके बाद वह महत्त्त्व त्रिगुणमयी माया का अनुसरण करके पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, अहंकार और मनरूप सात आवरणों वाले इस सुवर्णवर्ण ब्रम्हाण्ड की रचना करता है।ब्रम्हाजी ने कहा- हे प्रभो! पहले हम लोगों ने आपसे अवतार लेकर पृथ्वी का भार उतारने के लिए प्रार्थना की थी। वह काम आपने हमारी प्रार्थना के अनुसार पूरा कर दिया। आपने स्थापना भी कर दी और दसों दिशाओं में कीर्ति फैला दी।<br />
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<b>बस ये बात समझ लें तो जिंदगी में सबकुछ अपने आप ठीक हो जाएगा<br /><b></b></b>जब भगवान ने इस प्रकार आज्ञा दी, तब यदुवंशियों ने एक मत से प्रभास जाने का निष्चय कर लिया। उद्धवजी भगवान श्रीकृष्ण के बड़े प्रेमी और सेवक थे। उन्होंने जब यदुवंशियों को यात्रा की तैयारी करते देखा, भगवान की आज्ञा सुनी और अत्यंत घोर अपशकुन देखे, तब वे भगवान श्रीकृष्ण के पास गए, प्रणाम किया और हाथ जोड़कर उनसे प्रार्थना करने लगे।<br />
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सज्जनों और देवियों भागवत का यह प्रसंग पढ़कर हम इतना समझ लें कि हर बात की अपनी उम्र होती है। वंश और कुल की आयु रहती है। श्रीकृष्ण ने लालन-पालन में क्या कमी रखी थी, फिर भी उनकी संतानें आचरण से चूक गई। हर नई पीढ़ी में उत्थान और पतन की संभावना बनी ही रहती है, जिसका सामना सबको करना पड़ता है।<br />
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उद्धवजी भगवान के बहुत निकट थे। जबसे श्रीकृष्ण मथुरा आए थे तब से उद्धव उनके साथ थे। भगवान भी उन पर बहुत भरोसा रखते थे। हर सुख-दु:ख में दोनों एक-दूसरे के साथ रहे थे।<br />
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उद्धवजी ने कहा- हे भगवन! आप देवाधिदेवों के प्रमुख हैं। आप सर्वशक्तिमान परमेष्वर हैं। आप चाहते तो ब्राम्हणों के शाप को मिटा सकते थे, परन्तु आपने वैसा किया नहीं। इससे मैं यह समझ गया कि अब आप यदुवंश का संहार करके, इसे समेट कर अवश्य ही इस लोक का परित्याग कर देंगे। परन्तु मैं आधे क्षण के लिए भी आपके त्याग की बात सोच भी नहीं सकता। आप मुझे भी अपने धाम में ले चलिए। हम तो उठते-बैठते, सोते-जागते, घूमते-फिरते आपके साथ रहे हैं, हमने आपके साथ स्नान किया, खेल खेले, भोजन किया, कहां तक गिनावें। हमारी एक-एक चेष्टा आपके साथ होती रही।<br />
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हमने आपकी धारण की हुई माला पहनी, आपके लगाए हुए चन्दन लगाए, आपके उतारे हुए वस्त्र पहने और आपके धारण किए हुए गहनों से अपने-आपको सजाते रहे। हम आपकी जूठन खाने वाले सेवक हैं। आप हमें छोडिय़े नहीं, साथ ले चलिये।परीक्षित से शुकदेव बोले तब भगवान श्रीकष्ण ने कहा- उद्धव! तुमने मुझसे जो कुछ कहा है, मैं वही करना चाहता हूं। पृथ्वी पर देवताओं का जितना काम करना था, उसे मैं पूरा कर चुका। अब यह यदुवंश जो ब्राम्हणों के शाप से भस्म हो चुका है, पारस्परिक फूट और युद्ध से नष्ट हो जाएगा।<br />
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<b>उस परिवार में नहीं होता कलह जहां....</b><br />
गुरु शिष्य के लक्षणों के वर्णन से अनेक ग्रन्थ भरे पड़े हैं। इन लक्षणों को हम यहां सार रूप में लेने का प्रयत्न करते हैं ताकि परस्पर साधन से शक्ति सम्पन्न हो निर्लिप्तता की ओर बढ़ा जा सके। लिप्त स्थिति में तुलसीदासजी की यह चौपाई स्मरण हो आती है- ''भूमि परत भा डाबर पानी, जिमि जीवहिं माया लपटानी।भूमि पर पानी गिरता है-मिट्टी मिश्रित हो एममेक हो जाता है। मिट्टी कैसे छनकर नीचे बैठ जाए और स्वच्छ जल पीने योग्य हो जाए? हम निर्लिप्त स्थिति इसे ही कह सकते हैं। यह व्यक्ति के आध्यात्मिक व्यक्तित्व का परिछालन माना जा सकता है।<br />
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शिष्य यम, नियम को पालन करने वाले हों। शुद्ध मन वाले अर्थात् निष्कपट हों, श्रद्धा-भक्ति युक्त हों। विचारपूर्वक कर्म करने वाला, उदारचित्त गंभीर हों। अल्प भोजन करने वाला मिताहारी हो। दक्ष, निराभिमानी तथा निष्काम सेवा करने वाला। कृतज्ञ, पापकर्मों से भय मानने वाला, सबका हित साधन करने वाला तथा अपने क्रियाकलापों में प्रमाद रहित संलग्न हो। आनन्द प्रद सत्य भाशण करने वाला, सुसंतुष्ट, रोग रहित, संशय मुक्त, गुरु कार्य में प्रसन्नतापूर्वक रत, ईश-शक्ति परायण हो और जो जप, तप, ध्यान में लगा रहता हो, शिष्य बनने या बनाए जाने के योग्य होता है।<br />
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इसके विपरीत दीक्षा गुरु और शिष्य दोनों के लिए फलहीन होती है।यदि गुरु को बाधाओं से गुजरना पड़ता है तो बनाया गया या बने हुए शिष्य को भी अपने कर्मों का पाप लगता है। सावधानीपूर्वक श्ष्यि को भीतर-बाहर से पवित्र रहते हुए दीक्षा या शिष्यत्व स्वीकार करने की कामना करना चाहिए।<br />
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उद्धव समझ गए कि आज अवसर है उपदेश को आत्मसात करने का। भगवान कह रहे हैं-उद्धव! तुम पहले अपनी समस्त इन्द्रियों को अपने वश में कर लो, उनकी बागडोर अपने हाथ में ले लो और केवल इन्द्रियों को ही नहीं, चित्त की समस्त वृत्तियों को भी रोक लो और फिर ऐसा अनुभव करो कि यह सारा जगत् अपनी आत्मा में ही फैला हुआ है और आत्मा मुझ सर्वात्मा इन्द्रियातीत ब्रम्ह से एक है, अभिन्न है।<br />
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भगवान की बातें सुनकर उद्धवजी तत्वज्ञान के प्रष्न पूछने को तत्पर हो गए। यूं तो हमेशा इन लोगों में गहरी चर्चाएं होती रहती थीं, परन्तु आज अवसर अलग ही था।हम इस प्रसंग से एक बात सीखें। परिवार में आपस में वार्तालाप आध्यात्मिक स्तर पर होते रहने चाहिए। हम लोग परिवार के सदस्य ज्यादातर मौकों पर सांसारिक चर्चा करते हैं। इसी कारण आपस में क्लेश, निंदा के अवसर ज्यादा हो जाते हैं।<br />
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<b>सिर्फ इस छोटे से बदलाव से बदल जाएगा भविष्य</b><br />
हमें प्रसंगों से ही शिक्षा लेनी चाहिए। कई छोटे-छोटे प्रसंग जीवन भर के लिए अमूल्य शिक्षा दे देते हैं। प्रसंगों से सीख लेने के लिए कई लोग महापुरुषों के जीवन ग्रंथ खंगाल डालते हैं लेकिन उन्हें वह नहीं मिलता। जीवन के प्रति सजग-सतर्क रहिए। दैनंदिनी की घटनाएं ही हमको कई बातें सिखा देती हैं। जर्मनी की एक कथा बहुत मशहूर है जो जीवन की छोटी घटनाओं के सबक के लिए आज भी याद की जाती है। ऐसा कहते हैं कि जर्मनी के कुछ दर्शक पहले तक चोरी करना बहुत बड़ा अपराध था और छोटी सी चोरी को भी बहुत बड़ी सजा मिलती थी। एक बेघर भूखे बच्चे ने डबल रोटी का एक टूकड़ा चुरा लिया। दुर्भाग्य से वह चोरी करते पकड़ा गया और पुलिस ने उसे जेल में डाल दिया। कुछ सालों बाद जब वह जेल से छूटा तो बदल चुका था लेकिन पुलिस उस पर हमेशा निगाह रखती थी। नौकरी नहीं मिली, भूखे मरने की नौबत आ गई तो युवक ने फिर अपराध की राह पकड़ ली। एक चर्च में चोरी की, बुरी किस्मत थी सो फिर पकड़ा गया लेकिन इस बार एक पादरी ने उसे यह कह कर बचा लिया कि जो मूर्तियां इसके पास हैं वे मैंने इसे भेंट की हैं, इसने चुराई नहीं। पुलिस पादरी की बात को मानते हुए युवक को छोड़ देती है। लेकिन एक पुलिस इंस्पेक्टर उस पर फिर भी शक ही करता रहा। लगातार पीछा करता। युवक उससे कहता था कि मैं चोर नहीं हूं लेकिन इंस्पेक्टर मानने को तैयार नहीं था। युवक ने वह शहर ही छोड़ दिया। दूसरे शहर जाकर्र मानदारी से काम करने लगा।<br />
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कई साल बीत गए। वो इंस्पेक्टर फिर भी उस युवक को खोजता रहा। एक दिन आखिरकार उसने उसे ढूंढ ही लिया। युवक अब शहर का एक नामी व्यापारी था। कई अस्पताल, धर्मशालाएं और अनाथाश्रम चलाता था। उस दिन उसी युवक का सम्मान समारोह था, इंस्पेक्टर ने सोचा यही बढिय़ा मौका है इस युवक का राज खोलने का। उसे भरे समारोह में बेनकाब करने का। इंस्पेक्टर उस जगह पहुंचा जहां उस युवक का सम्मान हो रहा था। जाते ही उसने युवक को पकड़ा और कहा- चोर आखिर मैंने तुम्हें पकड़ ही लिया। इंस्पेक्टर ने इतना ही कहा कि लोगों ने इंस्पेक्टर को घेर लिया। कहने लगे ये चोर नहीं है। यह तो शहर का सबसे बड़ा धर्मात्मा है। कई लोगों की जिंदगी इसी से पल रही है। इंस्पेक्टर चुप था।<br />
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लोगों का विरोध हुआ तो वह उसे छोड़कर चला गया। लेकिन अब भी वह मानने को तैयार नहीं था कि वह युवक चोर नहीं है।अकेले में बैठे-बैठे उसे अचानक ख्याल आया कि जो युवक कुछ सालों पहले तक एक मामूली चोर था अब वह एक धर्मात्मा माना जाने वाला इन्सान हो गया है। इतने सालों में उसने कितना बड़ा परिवर्तन खुद के भीतर कर लिया लेकिन मैं अब भी वैसा ही हूं। मैंने कभी खुद को नहीं बदला, ना मेरी सोच ही बदली। मैं पहले भी उसे चोर समझता था और अब भी उसे चोर ही समझता हूं। बस यह बात उसके दिल में घर कर गई। अपनी ही जिंदगी को उसने जब टटोल कर देखा तो उसे कई कमियां नजर आईं। उसे खुद से ग्लानि होने लगी। वह आदमी सभी चीजों से विरक्त हो गया। साधु जैसा जीवन जीने लगा। यह कहानी हमें बताती है कि अपनी ही जिंदगी से हम कितना कुछ सीख सकते हैं।<br />
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<b>इस आइने को साफ कर लें सब अपने आप ठीक हो जाएगा</b><br />
पहले आइना साफ करना होगा, मन निर्मल बनाना होगा। ''कबिरा मन निर्मल भया जैसे गंगा नीर। पीछे-पीछे हरि फिरे कहत कबीर-कबीर।। तब शान्ताकारं की छवि दिखाई देगी। मन की निर्मलता के लिए योग- तात्पर्य यह है कि वृत्तियों को दिषा-भ्रम से रोकें, अभ्यास करें और इसी क्षण से श्रीगणेश करें, क्योंकि दूसरे क्षण का कुछ पता नहीं।<br />
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आपने मेरे परम कल्याण के लिए उस संन्यास रूप त्याग का उपदेश किया है। परन्तु अनन्त! जो लोग विषयों के चिंतन और सेवन में घुलमिल गए हैं, विषयात्मा हो गए हैं, उनके लिए विशय भोगों और कामनाओं का त्याग अत्यंत कठिन है। यह मैं हूं, यह मेरा है, इस भाव से मैं आपकी माया के खेल, देह और देह के संबंधी स्त्री, पुत्र, धन आदि में डूब रहा हूं। अत: भगवन! आपने जिस संन्यास का उपदेष किया है, उसका तत्व मुझ सेवक को इस प्रकार समझाइये कि मैं सुगमतापूर्वक उसका साधन कर सकूं। इसलिए आप मुझे उपदेश दीजिए।<br />
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भगवान ने कहा- उद्धव! संसार में जो मनुष्य 'यह जगत क्या है? इसमें क्या हो रहा है? इत्यादि बातों का विचार करने में निपुण है, वे चित्त में भरी हुई अशुभ वासनाओं से अपने आपको स्वयं अपनी विवेक शक्ति से ही प्राय: बचा लेते हैं।<br />
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मैंने एक पैर वाले, दो पैर वाले, तीन पैर वाले, चार पैर वाले, चार से अधिक पैर वाले और बिना पैर के इत्यादि अनेक प्रकार के शरीरों का निर्माण किया है। उनमें मुझे सबसे अधिक प्रिय मनुष्य का ही शरीर है। इस विशय में महात्मा लोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। वह इतिहास परम तेजस्वी अवधूत दत्तात्रेय और राजा यदु के संवाद के रूप में है।<br />
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राजा यदु ने अवधूतजी से पूछा- ब्रम्हन! आप कर्म तो करते नहीं, फिर आपको यह अत्यंत निपुण बुद्धि कहां से प्राप्त हुई? संसार के अधिकांश लोग काम और लोभ के दावानल से जल रहे हैं। परन्तु आपको देखकर ऐसा मालूम होता है कि आप मुक्त हैं, आप तक उसकी आंच भी नहीं पहुंच पाती।<br />
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हम आपसे यह पूछना चाहते हैं कि आपको अपने आत्मा में ही ऐसे अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव कैसे होता है? आप कृपा करके अवश्य बतलाइए। भगवान श्रीकृष्ण ने उद्धव से कहा-हमारे पूर्वज महाराज यदु की बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदय में ब्राम्हण भक्ति थी। उन्होंने परम भाग्यवान दत्तात्रेयजी का अत्यंत सत्कार करके यह प्रश्न पूछा था।राजा यदु और दत्तात्रेय का संवाद भागवत का चर्चित प्रसंग है। अपने गुरुओं पर अलग ही ढंग से व्याख्या की है। आइये पहले 24 गुरुओं को संक्षेप में जान लें, फिर विस्तार से समझेंगे। दत्तात्रेय के जीवन से सीखें कि हमें गुरु कभी भी, कहीं भी मिल सकते हैं। बस हमारा नजरिया होना चाहिए।<br />
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<b>कृष्ण की द्वारका में भी होने लगे बड़े-बड़े अपशकुन जब...</b><br />
पाण्डव व उनके पक्ष के लोग अर्जुन के पीछे थे। सब लोगों में परम योगी भगवान श्रीकृष्ण ही एकमात्र ऐसे परमपुरुष थे जिनकी मन:स्थिति एकदम सम्यक थी। साम्य मन:स्थिति में ही मनुष्य व स्वस्थ चिन्तन की धारा गीत बनकर प्रवाहित होती है।<br />
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गीता अर्थात गाई गईए भगवान ने तन्मय हो तत्वदर्शन को गाकर अर्जुन को सुनाया। नरदेह में अर्जुन मन संयुक्त चित्त है, आत्मा परमपिता परमात्मा श्रीकृष्ण हैं। जीवन प्राणवायु प्रदत्त रथ है, जिस पर पवनपुत्र विराजमान हैं। नित्य प्रतिफल दैवी और आसुरी वृत्तियां आमने-सामने हो युद्धरत हैं। दैवी वृत्तियों को विजयी होना है। कर्मपथ का अंतिम लक्ष्य है मुक्त होना। ऐसे रथ का वर्णन रामायण में भगवान श्रीराम ने किया।<br />
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रामरथ के वर्णन में सम्पूर्ण गीता के उपदेश समाए दिखते हैं। विवेचन करें।साधक का मन बुद्धि। चित्त स्थिर होना चाहिए। उसकी स्थिति स्थित: प्रज्ञ ही हो। फिर शक्ति कर्म करती है और स्वयं भगवान कृष्ण ईश भजन के रूप में विराजमान हैं यम-नियमों को पालकर साधक शुद्ध हो गुरुपूजन ज्ञानाग्नि में संचित कर्मों को भस्म करते हुए नए कर्मों के संस्कार न निर्मित होने दे तब ही विजय सफलतापूर्वक प्राप्त की जा सकती है।<br />
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आगे देवता कहते हैं। वामनावतार में दैत्यराज बलि की दी हुई पृथ्वी को नापने के लिए जब आपने अपना पग उठाया था और वह सत्यलोक में पहुंच गया था, तब यह ऐसा जान पड़ता थाए मानो कोई बहुत बड़ा विजयध्वज हो। ब्रम्हाजी के पखारने के बाद उससे गिरती के जल की तीन धाराएं ऐसी जान पड़ती थीं मानो उसमें लगी हुई तीन पताकाएं फहरा रही हों। उसे देखकर असुरों की सेना भयभीत हो गई थी और देवसेना निर्भय।<br />
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आप इस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के परम कारण हैं। क्योंकि शास्त्रों ने ऐसा कहा है कि आप प्रकृति, पुरुष और महत्व के भी नियंत्रण करने वाले काल हैं। पुरुष आपसे शक्ति प्राप्त करके अमोघवीर्य हो जाता है और फिर माया के साथ संयुक्त होकर विश्व के महत्तत्वरूप गर्भ का स्थापन करता है। इसके बाद वह महत्तत्व त्रिगुणमयी माया का अनुसरण करके पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, अहंकार और मनरूप सात आवरणों वाले इस सुवर्णवर्ण ब्रम्हाण्ड की रचना करता है।<br />
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ब्रम्हाजी ने कहा। हे प्रभो! पहले हम लोगों ने आपसे अवतार लेकर पृथ्वी का भार उतारने के लिए प्रार्थना की थी। वह काम आपने हमारी प्रार्थना के अनुसार पूरा कर दिया। आपने स्थापना भी कर दी और दसों दिशाओं में कीर्ति फैला दी।<br />
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आपको यदुवंश में अवतार ग्रहण किए एक सौ पच्चीस वर्ष बीत गए हैं। ऐसा कोई काम नहीं है जिसे पूर्ण करने के लिए आपको यहां रहने की आवश्यकता हो। ब्राम्हणों के शाप के कारण आपका यह यदुकुल भी एक प्रकार से नष्ट हो ही चुका है। इसलिए अपने परमधाम में पधारिए।<br />
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<b>भगवान अब यहां भी लीला बता रहे हैं।</b><br />
श्रीकृष्ण बोले ब्रम्हाजी! आप जैसा कहते हैं, मैं पहले से ही वैसा निष्चय कर चुका हूं। मैंने आप लोगों का सब काम पूरा करके पृथ्वी का भार उतार दिया। परन्तु अभी एक काम बाकी है वह यह कि यदुवंशी बल। विक्रम, वीरता, शूरता और धन-सम्पत्ति से उन्मत्त हो रहे हैं। ये सारी पृथ्वी को निगलने पर तुले हुए हैं। यदि मैं उच्छल यदुवंशियों का यह विशाल वंश नष्ट किए बिना ही चला जाऊंगा तो ये सब मर्यादा का उल्लंघन करके सारे लोकों का संहार कर डालेंगे।जब श्रीकृष्ण ने इस प्रकार कहा, तब ब्रम्हाजी ने उन्हें प्रणाम किया और देवताओं के साथ वे अपने धाम को चले गए। उनके जाते ही द्वारकापुरी में बड़े-बड़े अपशकुन बड़े उत्पात उठ खड़े हुए। यदुवंश के वृद्धजन श्रीकृष्ण के पास आए।<br />
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<b>हमेशा सुखी रहना चाहते है तो ये बात जरूर याद रखें</b><br />
जब भगवान ने इस प्रकार आज्ञा दी, तब यदुवंशियों ने एक मत से प्रभास जाने का निश्चय कर लिया। उद्धवजी भगवान श्रीकृष्ण के बड़े प्रेमी और सेवक थे। उन्होंने जब यदुवंशियों को यात्रा की तैयारी करते देखा, भगवान की आज्ञा सुनी और अत्यंत घोर अपशकुन देखे, तब वे भगवान श्रीकृष्ण के पास गए, प्रणाम किया और हाथ जोड़कर उनसे प्रार्थना करने लगे।<br />
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सज्जनों और देवियों भागवत का यह प्रसंग पढ़कर हम इतना समझ लें कि हर बात की अपनी उम्र होती है। वंश और कुल की आयु रहती है। श्रीकृष्ण ने लालन-पालन में क्या कमी रखी थी, फिर भी उनकी संतानें आचरण से चूक गई। हर नई पीढ़ी में उत्थान और पतन की संभावना बनी ही रहती है, जिसका सामना सबको करना पड़ता है। सुख और दुख उतार-चढ़ाव ये सभी के जीवन में आते हैं और जो ये बात याद रखता है वह जीवन में हमेशा सुखी रहता है।<br />
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उद्धवजी भगवान के बहुत निकट थे। जब से श्रीकृष्ण मथुरा आए थे तब से उद्धव उनके साथ थे। भगवान भी उन पर बहुत भरोसा रखते थे। हर सुख-दु:ख में दोनों एक-दूसरे के साथ रहे थे।उद्धवजी ने कहा- हे भगवन! आप देवाधिदेवों के प्रमुख हैं। आप सर्वशक्तिमान परमेश्वर हैं। आप चाहते तो ब्राम्हणों के शाप को मिटा सकते थे, परन्तु आपने वैसा किया नहीं। इससे मैं यह समझ गया कि अब आप यदुवंश का संहार करके, इसे समेट कर अवश्य ही इस लोक का परित्याग कर देंगे। परन्तु मैं आधे क्षण के लिए भी आपके त्याग की बात सोच भी नहीं सकता। आप मुझे भी अपने धाम में ले चलिए। हम तो उठते-बैठते, सोते-जागते, घूमते-फिरते आपके साथ रहे हैं, हमने आपके साथ स्नान किया, खेल खेले, भोजन किया, कहां तक गिनावें। हमारी एक-एक चेष्टा आपके साथ होती रही।<br />
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हमने आपकी धारण की हुई माला पहनी, आपके लगाए हुए चन्दन लगाए, आपके उतारे हुए वस्त्र पहने और आपके धारण किए हुए गहनों से अपने-आपको सजाते रहे। हम आपक<br />
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जूठन खाने वाले सेवक हैं। आप हमें छोडिय़े नहीं, साथ ले चलिये। परीक्षित से शुकदेव बोले तब भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- उद्धव! तुमने मुझसे जो कुछ कहा है, मैं वही करना चाहता हूं। पृथ्वी पर देवताओं का जितना काम करना था, उसे मैं पूरा कर चुका। अब यह यदुवंश जो ब्राम्हणों के शाप से भस्म हो चुका है, पारस्परिक फूट और युद्ध से नष्ट हो जाएगा। आज से सातवें दिन समुद्र इस पुरी-द्वारका को डुबो देगा। प्रिय उद्धव! थोड़े ही दिनों में पृथ्वी पर कलियुग का बोलबाला हो जाएगा। जब मैं इस पृथ्वी का त्याग कर दूं, तब तुम इस पर मत रहना। अब तुम अपने आत्मीय स्वजन और बन्धु-बान्धवों का स्नेह-संबंध छोड़ दो और अनन्य प्रेम से मुझमें अपना मन लगाकर समदृष्टि से पृथ्वी में स्वच्छंद विचरण करो।<br />
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<b>तो इसलिए साधु ने बना लिया वैश्या को गुरु</b><br />
कई बार हमारे स्तर से छोटे भी हमारे गुरु बन जाते हैं। एक बड़े पहुंचे सिद्ध संत थे। दूर-दूर तक उनकी ख्याति फैली हुई थी। लोग उन्हें गुरु बनाने, ज्ञान लेने दूर-दूर से आते थे। एक बार, एक वेश्या भी आई। उसने संत से अकेले में मिलने की प्रार्थना की तो संत ने लोकापवाद के डर से मना कर दिया। वेश्या को खाली हाथ लौटना पड़ा। वह फिर गई, संत ने दूसरी बार, फिर तीसरी बार, चौथी बार, इस तरह उसे बार-बार लौटाते रहे। वेष्या ने भी आना बंद नहीं किया। वह नित्य नियम से आती और अकेले में मिलने की प्रार्थना करती। बहुत दिनों तक यह क्रम चलता रहा। एक दिन संत झल्ला गए। गुस्से में आकर उन्होंने वेष्या से कह दिया कि तू अधर्म का कार्य करने वाली तू क्या जाने धर्म क्या होता है? तू वेश्या है, मैं तुझसे अकेले में मिलूंगा तो लोग मेरे ही पास आना बंद कर देंगे। वेश्या बोली मैं तो आपको गुरु बनाना चाहती हूं, इसलिए आपके पास आना चाहती हूं। संत ने कहा- मैं एक वेश्या को अपनी शिष्य नहीं बना सकता। वेश्या ने कहा कोई बात नहीं, आप न बनाएं। मैं तो आपको अकेले में इसलिए बुला रही थी कि शिष्या बनने पर मुझे आपको गुरुदक्षिणा देनी होगी। मेरी पाप की कमाई तो आप लेंगे नहीं लेकिन मेरे पिताजी एक मजदूर थे और मैं भी उनके साथ मजदूरी करने जाती थी। वहां हमारे मालिक ने मेरी मेहनत से खुष होकर मुझे एक रुपया दिया था।<br />
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एक बार, एक वैश्या भी आई। उसने संत से अकेले में मिलने की प्रार्थना की तो संत ने लोकापवाद के डर से मना कर दिया। वेश्या को खाली हाथ लौटना पड़ा। वह फिर गई, संत ने दूसरी बार, फिर तीसरी बार, चौथी बार, इस तरह उसे बार-बार लौटाते रहे। वेश्या ने भी आना बंद नहीं किया। वह नित्य नियम से आती और अकेले में मिलने की प्रार्थना करती। बहुत दिनों तक यह क्रम चलता रहा। एक दिन संत झल्ला गए। गुस्से में आकर उन्होंने वेश्या से कह दिया कि तू अधर्म का कार्य करने वाली तू क्या जाने धर्म क्या होता है? तू वेश्या है, मैं तुझसे अकेले में मिलूंगा तो लोग मेरे ही पास आना बंद कर देंगे। वेश्या बोली मैं तो आपको गुरु बनाना चाहती हूं, इसलिए आपके पास आना चाहती हूं। संत ने कहा- मैं एक वेश्या को अपनी शिष्य नहीं बना सकता। वेश्या ने कहा कोई बात नहीं, आप न बनाएं। मैं तो आपको अकेले में इसलिए बुला रही थी कि शिष्या बनने पर मुझे आपको गुरुदक्षिणा देनी होगी। मेरी पाप की कमाई तो आप लेंगे नहीं लेकिन मेरे पिताजी एक मजदूर थे और मैं भी उनके साथ मजदूरी करने जाती थी। वहां हमारे मालिक ने मेरी मेहनत से खुश होकर मुझे एक रुपया दिया था। यह मेरी खरी कमाई है।<br />
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बस, यही एक रुपया आपको अर्पण करने आई थी। आपके कई भक्त लाखों का दान कर रहे हैं, उस बीच यह एक रुपया देने में मुझे लज्जा आ रही थी। वेश्या की बात सुन वह संत अवाक रह गया। वेश्या का धैर्य और धर्म के प्रति उसका सम्मान देखकर वे दंग रह गए। वेश्या उन्हें गुरु बनाने आई थी लेकिन संत ने उसे अपना गुरु बना लिया। संत ने कहा- तेरा धैर्य सबसे श्रेष्ठ है। मैं तुझे लौटाते-लौटाते थक गया, गुस्सा हो गया लेकिन तेरा धैर्य नहीं टूटा।<br />
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<b>सूर्य पूजा दे सकती है आपको इतने रोगों से मुक्ति</b><br />
अग्नि में तप का संदेश है। तपस्वी भक्त साधन करते-करते ज्ञानी हो जाता है। भगवतीय शक्ति उस आराधक को सद्पथ पर ले जाती है और उसमें अभिमान का अभाव, दम्भ का अभाव, अहिंसक वृत्ति, क्षमा करने की वृत्ति, सरलता, गुरु का सम्मान आदि, उपासन, शौच अर्थात् बाह्माभ्यन्तर (अन्दर और बाहर भी) पवित्रता, चित्त की स्थिरता, आत्मसंयम, इन्द्रियों के विषयों से वैराग्य, जरा-व्याधि, जन्म-मृत्यु में दु:ख रूपी जीवन के दोष न देखना, आसक्ति न होना, संग दोष मुक्ति, इष्ट व अनिष्ट में चित्त का संतुलन, एकान्त सेवन भगवान में एकात्म अव्यभिचारिणी भक्ति आदि के लक्षण प्रकट हो जाते हैं।<br />
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आगे चन्द्रमा से यह शिक्षा ग्रहण की है कि यद्यपि जिसकी गति नहीं जानी जा सकती, उस काल के प्रभाव से चन्द्रमा की कलाएं घटती-बढ़ती रहती हैं, तथापि चन्द्रमा तो चन्द्रमा ही है, वह न घटता है और न बढ़ता ही है, वैसे ही जन्म से लेकर मृम्युपर्यन्त जितनी भी अवस्थाएं हैं सब शरीर की हैं, आत्मा से उनका कोई भी संबंध नहीं है। राजन मैंने सूर्य से यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वे अपनी किरणों से पृथ्वी का जल खींचते और समय पर उसे बरसा देते हैं, वैसे ही योगी पुरुष इन्द्रियों के द्वारा समय पर विषयों का ग्रहण करता है और समय आने पर उनका त्याग-उनका दान भी कर देता है। किसी भी समय उसे इन्द्रिय के किसी भी विषय में आसक्ति नहीं होती।<br />
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संसार एक युद्धभूमि है। प्रतिक्षण युद्ध (संघर्ष) मन, आत्मा, चित्त का होता रहता है। सूर्य, प्रकाश, पुंज, शक्ति जाग्रत अवस्था में शत्रुओं (काम, क्रोध, त्याग, मोह, मत्सर आदि) पर विजयी प्राप्त करने के लिए अन्दर का तिमिर दूर करना होता है। गुरुकृपा से ज्ञान का सूर्य उदय होता है, मोह निशा का तिमिर दूर होता है। यह रहस्य इस स्त्रोत में निहित है, सूर्य के समान साधक को समभाव विकसित करने पर प्रकाश दिखाई देता है। थोड़ा भी पक्षभाव अंधकार की ओर खींचता है। सोना-मिट्टी में समभाव, शत्रु-मित्र में समभाव, हानि-लाभ में समभाव के लक्षण हैं जिसमें रवि के समान दृष्टि मिलती है।<br />
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श्रीमद्भागवत में भगवान भास्कर को कालरूपी कहा है। लोगों के व्यवहार को ठीक चलाने के लिए समय चक्र के अनुसार बारह मास (गणों) के साथ भ्रमण किया करते हैं। सूर्य के नामों का ज्योतिष और उपासना हेतु महत्व है। अप्सरा और सर्प बाधक सूचक लिए जा सकते हैं। ऋ षि, संत, गुरु रूप में माने जा सकते हैं। सूर्य नामानुसार संबंधित मास में अपना प्रभाव सात्विक, राजसिक और तामसिक रूप दिखाते हैं। ऋ षिरक्षा करते हैं, कामिनी कामनाएं उत्पन्न करती हैं। सर्प-स्वयं कालरूप ही है। सूर्य कालरूप है। वे प्रतिदिन, क्षतिपथ और प्रतिमास आयुक्षीण करते जाते हैं।सनातन धर्म में पंच महादेवों का वर्णन है-श्री गणेश, श्री सूर्य, श्री विष्णु, श्री शिवशंकर और श्री मां अम्बा। इनमें सूर्य प्रत्यक्ष महादेव है। इनकी आराधना सनातन धर्म में गायत्री मंत्र से भी की जाती है।<br />
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सूर्य देव का अगतस्य ऋषि द्वारा श्रीराम को दीक्षा में दिए मंत्र की चर्चा ऊपर की जा चुकी है। पुराणों में सूर्य उपासना से अतिकष्टप्रद, कुष्ठ रोग, भय रोग के दूर होने का वर्णन पाया जाता है। पौराणिक कथा में ही सूर्यदेव रुद्र अवतार श्री हनुमानजी के गुरु स्वीकार किए गए हैं। हनुमानजी वायु पुत्र हैं। सूर्य गुरु, पवन पुत्र-शिष्य, सूर्यवंशी राम-हनुमानजी के स्वामी, चिन्तन की पर्याप्त विषय वस्तु प्रदान करते हैं। सूर्योपासना से तेज, बुद्धि, बल, सम्पत्ति तो मिलती है और अज्ञान के अंधकार को दूर कर मोक्षदायक ज्ञानियों में श्रेष्ठता भी मिलती है।<br />
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<b>ऐसा प्रेम हो सकता है खतरनाक जब....</b><br />
दत्तात्रेयजी कहते हैं स्नेह और आसक्ति की अति भी बुरी है। इसे समझाने के लिए उन्होंने एक कहानी सुनाई। जंगल में एक कबूतर रहता था, उसने एक पेड़ पर अपना घोंसला बना रखा था। अपनी मादा कबूतरी के साथ वह उसी घोंसले में रहता था। कबूतरी पर कबूतर का इतना प्रेम था कि वह जो कुछ चाहती, कबूतर बड़े से बड़ा कष्ट उठाकर उसकी कामना पूर्ण करता। वह कबूतरी भी अपने कामुक पति की कामनाएं पूर्ण करती। समय आने पर उसने घोसले में अण्डे दिए। अब उन कबूतर-कबूतरी की आंखें अपने बच्चों पर लग गई। वे बड़े प्रेम और आनन्द से अपने बच्चों का लालन-पालन, लाड़-प्यार करते।<br />
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सच दखेंगे तो वे कबूतर-कबूतरी भगवान की माया से मोहित हो रहे थे। एक दिन दोनों नर-मादा अपने बच्चों के लिए चारा लेने जंगल में गए हुए थे। एक शिकारी घूमता-घूमता उनके घोंसले की ओर आ निकला। उसने जाल फैलाकर बच्चों को पकड़ लिया। कबूतरी ने देखा कि उसके नन्हे-नन्हे बच्चे, उनके हृदय के टुकड़े जाल में फंसे हुए हैं और दु:ख से चें-चें कर रहे हैं। उन्हें ऐसी स्थिति में देखकर कबूतरी के दु:ख की सीमा न रही। वह रोती-चिल्लाती उनके पास गई। स्वयं ही जाकर जाल में फंस गई। कबूतर ने देखा कि मेरे प्राणों से भी प्यारे बच्चे जाल में फंस गए और मेरी प्राणप्रिया पत्नी भी उसी दशा में पहुंच गई। तब वह अत्यंत दु:खी होकर रोने लगा।<br />
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दत्तात्रेय बोले- कबूतर के बच्चे जाल में फंसकर तडफ़ड़ा रहे थे। स्पष्ट दिख रहा था कि वे मौत के पंजे में हैं, परन्तु वह कबूतर यह सब देखते हुए भी इतना दीन हो रहा था कि स्वयं जान बूझकर जाल में कूद पड़ा। राजन! वह शिकारी बहुत कू्रर था। गृहस्थाश्रमी कबूतर-कबूतरी और उनके बच्चों के मिल जाने से उसे बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने समझा मेरा काम बन गया और वह उन्हें लेकर चलता बना। जो कुटुम्बी है, विषयों और लोगों के संग-साथ में ही जिसे सुख मिलता है एवं अपने कुटुम्ब के भरण-पोषण में ही जो सारी सुध-बुध खो बैठा है, उसे कभी शान्ति नहीं मिल सकती। वह उसी कबूतर के समान अपने कुटुम्ब के साथ कष्ट पाता है। यह मनुष्य शरीर मुक्ति का खुला हुआ द्वार है। मनुष्य को संसार में रहना बुरा नहीं है, पर संसार मनुष्य में रहे यह खतरनाक है। आसक्ति मिटाने या उससे बचने के कुछ साधन भी हैं।<br />
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<b>जीवन जीएं तो अजगर की तरह क्योंकि....</b><br />
भागवत अपने समापन की ओर जाते-जाते खूब दार्शनिक होती जाएगी। हम श्रीकृष्ण और उद्धव के बीच चर्चा को जान रहे हैं। ग्यारहवें स्कंध के सातवें अध्याय में कृष्णजी ने उद्धव को राजा यदु और अवधूत दत्तात्रेय की बातचीत सुनाई। अवधूत दत्तात्रेयजी ने अपने चौबीस गुरुओं की चर्चा सुनाई। हर गुरु के चरित्र पर ध्यान दें तो हम भी बहुत कुछ सीख सकते हैं।दत्तात्रेयजी कहते हैं-राजन! सुख और दु:ख का रहस्य जानने वाले बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि इनके लिए इच्छा अथवा किसी प्रकार का प्रयत्न न करे। बिना मांगे, बिना इच्छा किए स्वयं ही अनायास जो कुछ मिल जाए वह चाहे रूखा-सूखा हो, चाहे बहुत मधुर और स्वादिष्ट, अधिक हो या थोड़ा बुद्धिमान पुरु ष अजगर के समान उसे ही खाकर जीवन निर्वाह कर ले और उदासीन रहे।निद्रारहित होने पर भी सोया हुआ सा रहे और कर्मेन्द्रियों के होने पर भी उनसे कोई चेष्टा न करे। राजा! मैंने अजगर से यही शिक्षा ग्रहण की है।<br />
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अजगर का अर्थ आलसी न लिया जाए। फकीर मलूक कह गए थे ''अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम, दास मलूका कह गए सबके दाता राम इसे भरोसा माना जाए। निष्कामता यहीं से जन्म लेती है। काम हो रहा है पर कर्ता हम नहीं हैं। करने-कराने वाला वह ऊपर बैठा है। हम कठपुतली हैं। अध्यात्म की भाषा में कहें तो निमित्त है।<br />
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निष्कामता का बोध आते ही आत्मा समझना आसान हो जाता है। श्रीराम का उदाहरण लेकर समझें।<br />
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स्मरण रखना होगा कि आत्मा न जीता है, न मरता है। वह ईश्वर की भांति अविनाशी है। जीना-मरना या भोगना तो पापात्मा-जीव का क्रिया क्षेत्र है, जो मनुष्य के कर्मानुसार निर्मित होता है। आत्म तत्व को जानना, समझना और इसकी निरन्तर खोज विज्ञान है, तब ही विशेष ज्ञान हो सकता है। विषेश ज्ञान के बिना ईश्वरानुभूति नहीं हो सकती। विज्ञान और अध्यात्म का अटूट संबंध है।विज्ञान सत्य की खोज है। सत्य ईश्वर है। सत्य प्रगट होता है। राम का प्राकट्य हुआ।<br />
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राजा हरीशचन्द्र, राजा शिवि, श्रीराम के पिता दशरथ जिनके विषय में कहा गया - रघुकुल रीति सदा चली आई। प्राण जाय पर वचन न जाई।। भगवान श्रीराम ने सत्य की खोज ही नहीं की बल्कि सत्य पथ पर चलकर उदाहरण प्रस्तुत किया कि साधक को योग साधन में सत्यानुगामी होना ही चाहिए। इसके अभाव में उन्नति न केवल क्षीण होती है, उल्टी रसातल में जाने की स्थिति बन जाती है। सारी साधना शून्य हो जाती है।<br />
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साधना में ऋषि पांतन्जल ने अपने योग सूत्रों में यम-नियम की अनिवार्यता प्रतिपादित की है। यम 12 हैं- 1. अहिंसा, 2. सत्य, 3. अस्तेय, 4. असंगता, 5. लज्जा, 6. असंग्रह, 7. आस्तिकता, 8. ब्रम्हचर्य, 9. मौन, 10. स्थिरता, 11. क्षमा और 12. अभय। नियम भी 12 हैं - 1. शौच, 2. जप, 3. तप, 4. हवन, 5. श्रद्धा, 6. अतिथि सेवा, 7. देवपूजा, 8. तीर्थ यात्रा, 9. परोपकार, 10. संतोष, 11. गुरुसेवा और 12. ईश्वर प्रणिधान।<br />
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इनमें दस प्रमुखता से लिए जाते हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रम्हचर्य, अपरिग्रह (असंग्रह), तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान। अहिंसा के प्रतिष्ठित हो जाने पर बैर त्याग होता है। साधक के मन, हृदय और मस्तिष्क में प्रेम लबालब भर जाता है।<br />
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<b>ऐसा होने पर बन जाएंगे आपके सपने ही आपके दुश्मन</b><br />
यहां साधु के भोजन और अध्ययन दोनों पर टिप्पणी की गई है। माया इन दोनों में रहकर साधु को भी भ्रष्ट कर देती है। भोजन का संबंध केवल स्वाद से ही नहीं है बल्कि शुद्धता से है। जैसा खाएं अन्न वैसा होगा मन। शास्त्रों से सार का तात्पर्य है। अच्छा जहां से भी स्वीकार करें। मैंने मधुमक्खी से यह शिक्षा ग्रहण की है कि संन्यासी को सायंकाल अथवा दूसरे दिन के लिए भिक्षा का संग्रह नहीं करना चाहिए। उसके पास भिक्षा लेने के लिए कोई पात्र हो तो केवल हाथ और रखने के लिए कोई बर्तन हो तो पेट। वह कहीं संग्रह न कर बैठे।<br />
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अति संग्रह की वृत्ति लोभ को जन्म दे देती है। आजकल लोभ को लोग महत्वाकांक्षा से जोड़ देते हैं। घूम फि र कर बात निष्कामता पर आ जाती है। भागवत का प्रमुख विषय ही यही है। सपने देखना अच्छी बात है। लक्ष्य बनाना भी लेकिन सपने या महत्वकांक्षा के लिए अधिक दिवानापन किसी का भी दुश्मन बन सकता है। कहा जाता है लालच बुरी बला है। अति महत्वकांक्षा और लालच की दोस्ती एकदम गहरी और एक के आने पर दूसरे के आने की संभावना प्रबल हो जाती है।<br />
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पतंगा, मधुमक्खी तो उदाहरण मात्र हैं।निष्काम कर्म का उपदेश श्रीमद् भगवत में भी भगवान श्रीकृष्ण ने दिया। यहां चित्त शुद्धि और अन्तर्मुखी होने का संकेत बड़े महत्व का है।साधन करते-करते दोनों की प्राप्ति होती है किन्तु इसमें पूर्ण निष्ठा और सातत्य चाहिए। उपासना मार्गों में साधन की अलग-अलग पद्धतियों भक्ति मार्ग, ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग व्यापक रूप में लिए जा सकते हैं। इन्हें भक्ति योग, ज्ञान योग और कर्म योग की संज्ञा ऋषि-मुनियों ने दी है। तीनों में किसी को छोटा-बड़ा नहीं समझना है। भक्ति में मेरा मनन कर, मेरे निमित्त यज्ञ कर (भगवान ने जप यज्ञ को यज्ञों में श्रेश्ठा कहा है....) मुझे नमस्कार कर कीर्तन, भजन, पूजन आदि करने से चित्त शुद्ध होता है।<br />
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गीता में यह भक्ति पद्धति दो स्थान पर विशेषत: कही गई है। इसका महत्व इसी से सिद्ध होता है।<br />
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ज्ञान मार्ग की बात भक्ति मार्ग से पृथक नहीं। व्यवहार भेद तनिक लगता है-''अथचित्तं समाधातुं न शक्नोशि मयि स्थिरमअभ्यास योगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनन्जय।। 9।12 अर्थात- मेरे में ही अपना चंचल मन स्थिर कर और बुद्धि को मेरे चिन्तन व ध्यान में एकाग्र रख तो तेरा निवास मेरे में हो जाएगा। यदि तू इस प्रकार अपना चित्त मेरे में समाहित न कर सके तो अपने मन में योगाभ्यास द्वारा मुझे प्राप्त करने की इच्छा जगा।कर्म मनुष्य करता है उसका फल ईश्वर अर्पण करना आसान नहीं। कर्म करने वाला चाहे पारोपकार्थ ही क्यों न करे कर्म करने के अभिमान से युक्त होता है। कर्म का श्रेय लेने का स्वभाव सहज है। बस यहीं से फल भोग आरम्भ हो जाता है। ईश्वर अर्पण में दो पक्ष हैं-ईश्वर जाने और उसका काम जाने अर्थात् पूर्ण समर्पण, दूसरे कर्म फल का भोग नहीं हो पाता।<br />
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<b>क्यों बनाई गई मंदिर जाने और तीर्थ यात्रा करने की परंपरा?</b><br />
अवधूत दत्तात्रेय सुनाते हैं। राजा! प्राचीन काल की बात है। मिथिला में एक वेश्या रहती थी। उसका नाम था पिंगला। मैंने उससे कुछ शिक्षा ग्रहण की। वेश्या को केवल देह से न जोड़ा जाए। यह तो एक वृत्ति है। वेश्या शब्द के आसपास है यह शब्द। वेश्या वह जो व्यवसाय करे। देह को भी व्यापार साधन बनाने के कारण यह शब्द दिया गया। आज के समय में देह का कई तरह से व्यापारिक उपयोग हो रहा है। इस स्त्री के माध्यम से संदेश यह दिया जा रहा है कि शरीर के और भी अच्छे उपयोग हो सकते हैं। चलिए कुछ जानते हैं।<br />
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उसे पुरुष की नहीं, धन की कामना थी और उसके मन में यह कामना इतनी दृढ़मूल हो गई कि वह किसी भी पुरुष को उधर से आते-जाते देखकर यही सोचती कि यह कोई धनी है और मुझे धन देकर उपभोग करने के लिए ही आ रहा है। राजन! सचमुच आशा और सो भी धन की, बहुत बुरी है। धनी की बाट जोहते-जोहते उसका मुंह सूख गया, चित्त व्याकुल हो गया। अब उसे इस वृत्ति से बड़ा वैराग्य हुआ। जब पिंगला के चित्त में इस प्रकार वैराग्य की भावना जाग्रत हुई, तब उसने एक गीत गाया। वह मैं तुम्हें सुनाता हूं। पिंगला ने गाया था- मैं इन्द्रियों के अधीन हो गई। भला! मेरे मोह का विस्तार तो देखो, मैं इन दुष्ट पुरुषों से, जिनका कोई अस्तित्व ही नहीं है, विषय सुख की लालसा करती हूं। मैं मूर्ख हूं। देखो तो सही, मेरे निकट से निकट हृदय में ही मेरे सच्चे स्वामी भगवान विराजमान हैं। वे वास्तविक प्रेम सुख और परमार्थ का सच्चा धन भी देने वाले हैं।<br />
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शरीर परमात्मा से जुड़ जाए तो आत्मा तक पहुंचना सरल हो जाएगा। हिन्दुओं ने मूर्ति पूजा तथा अन्य कर्मकाण्ड इसीलिए रखे हैं कि देह का सद्पयोग होता रहे। शरीर को एक पड़ाव मानें, कुछ लोग पड़ाव को ही मंजिल मान लेते हैं।शरीर क्या है? शरीर एक साधन हो सकता है। यह कभी साध्य नहीं हो सकता। जो लोग देह पर टिक जाते हैं वे परमात्मा तक पहुंच नहीं पाते और जो देह से परे हैं वे ही परमात्मा तक पहुंच पाते हैं। राजा भृतहरि की कथा इसमें सबसे अच्छा उदाहरण हो सकती है। जब तक वे पत्नी की देह और रूप में आसक्त रहे तब तक परमात्मा दूर रहा। जब आसक्ति टूटी तो परम योगी हो गए। देह आपको थोड़ी देर बांधे रख सकती है लेकिन यह आपके लिए मंजिल नहीं हो सकती। मंजिल तो देह से परे आत्मा है।इस देह को पवित्र कामों में लगाना ही श्रेयस्कर होता है। अगर केवल भोग-विलास में ही रमे रहे तो बाद में पछताना भी पड़ सकता है। हिंदू संस्कृति में इस बात को बहुत गंभीरता से लिया और उन्होंने ऐसे नियम, परम्पराएं बनाई जो व्यक्ति की देह को अच्छे कामों में लगा सके। ये मंदिर, मूर्तियां और तीर्थ इसीलिए बनाए गए हैं कि जब व्यक्ति इनमें प्रवेश करे, पूजा शुरू करे तो उसे देह की पवित्रता का एहसास होता रहे।<br />
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यह एहसास ही हमारे अंतर्मन को अच्छे कामों के लिए, परमात्मा की प्राप्ति के लिए प्रेरित करता है। जब देह परमात्मा की तलाश में निकल पड़े तो मन और आत्मा खुद उसका साथ देने लगते हैं। इसलिए ध्यान रखें कि मन और आत्मा भी तब तक शुद्ध नहीं हो सकते तब तक शुद्ध नहीं हो सकते हैं जब तक देह पवित्र न हो। देह को भी संभालें, यह परमात्मा का सबसे सुंदर उपहार है। षरीर परमात्मा से जुड़ जाए तो आत्मा तक पहुंचना सरल हो जाएगा। हिन्दुओं ने मूर्ति पूजा तथा अन्य कर्मकाण्ड इसीलिए रखे हैं कि देह का सद्पयोग होता रहे। शरीर को एक पड़ाव मानें, कुछ लोग पड़ाव को ही मंजिल मान लेते हैं।<br />
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क्रमश:...<br />
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<b>जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,<br />और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......</b><b><span style="font-family: "times new roman";">मनीष</span></b></div>
Jai Guru Geeta Gopalhttp://www.blogger.com/profile/01621836960274288942noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6101091264294453966.post-40467325571698704292021-10-09T18:50:00.001-07:002021-10-09T18:50:30.070-07:00श्रीमद् भागवत Srimdbhagwat Part (7)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b>बुरी नजर ना डालें क्योंकि...</b><br />
राजा नृग के चले जाने पर श्रीकृष्ण ने अपने कुटुम्ब के लोगों से कहा-जो लोग अग्नि के समान तेजस्वी हैं, वे भी ब्राह्मणों का थोड़े से थोड़ा धन हड़पकर नहीं पचा सकते। फिर जो अभिमानवश झूठमूठ अपने को लोगों का स्वामी समझते हैं वे राजा तो क्या पचा सकते हैं? मैं हलाहल विष को नहीं मानता, क्योंकि उसकी चिकित्सा होती है। वस्तुत: ब्राह्मणों का धन ही परम विष है, उसको पचा लेने के लिए पृथ्वी में कोई औषध, कोई उपाय नहीं है।<br />
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ब्राह्मण के धन का अर्थ किसी जाति विशेष की सम्पत्ति ही न समझी जाए। जिस किसी का ईमानदारी से कमाया धन है उस पर बुरी नजर न डाली जाए। श्रीकृष्ण ने जो उपदेश यहां दिया उसके आध्यात्मिक अर्थ भी हैं। यह शरीर, इन्द्रियां और प्राण तत्व जाने अनजाने भूल कर जाते हैं। इनका उपयोग साधक को करना आना चाहिए।<br />
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ज्ञानेन्द्रिय में कान को लिया जाए उसका विषय है शब्द, देवता, उसके दिशा हैं और उनका तत्व आकाश है। त्वचा का विषय शब्द देवता वायु, तत्व वायु है। नेत्र का विषय रूप, देवता सूर्य और तत्व अग्नि है। जीभ का विषय रस, देवता वरुण, तत्व आकाश है। नाक विषय गंध, देवता अश्वनीकुमार व तत्व पृथ्वी हैं। ये पाचों इन्द्रियां तमोगुण वाली हैं।<br />
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कमेन्द्रिय में वाणी, पांव, गुदा व उपस्थ है-जिनके विशय क्रमश: बोलना, ग्रहण करना, चलना, मलत्याग, मूत्र त्याग हैं और इनके देवता भी क्रमश: अग्नि, इन्द्र, विष्णु, मृत्यु व प्रजापति है। इनके तत्व आकाश, वायु, अग्नि, पृथ्वी व जल, क्रमानुसार माने गए हैं।<br />
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इन्द्रिय लक्षणों की बनावट पांच तत्वों से हुई-यथा आकाष से शब्द, श्रवणेन्द्रियभव व इन्द्रियों के छिद्र उत्पन्न हुए। वायु से स्पर्श, चेष्टा व चर्म उत्पन्न हुए। अग्नि से रूप, नेत्र और ज्योति उत्पन्न हुई। जल से रस, जिव्हा, स्नेह व शीतलता उत्पन्न हुए, पृथ्वी से गंध, घ्राणेन्द्रिय और शरीर के केश, अस्थि, हाथ, पैर, सिर, कमर, गर्दन आदि सब बने।<br />
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<b>बस थोड़ा वक्त अपनों के लिए</b><br />
मायायुक्त संसार और दूसरा मायामुक्त परमात्मा। मायायुक्त संसार में तो वह लगा ही रहता है यह उसका एक नैसर्गिक कार्य है, उसकी यह स्वभावसंगत लाचारी है जो सहज स्वभावगत स्थिति है, उससे विमुख होना आसान नहीं होता है। उसके अभ्यास से दूसरे बिन्दु परमात्मा की ओर मोड़ा जा सकता है। अभ्यास आसान नहीं है। इसलिए भागवत स्मरण बनाए रखें। भागवत केवल ग्रंथ नहीं एक पूरी आचार संहिता है।<br />
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अब भगवान के परिवार में संवेदनाओं के प्रसंग आएंगे। श्रीकृष्ण अपने परिवार के हर सदस्य की योग्यता के अनुसार उपयोग करना जानते थे। बलरामजी से अब परिवार में भावनाओं को जोड़ रहे हैं। बलरामजी व्रज में जाएं यह भगवान की ही इच्छा थी। वे एक तरह से भगवान के प्रतिनिधि बन कर ही गए थे। यदि हम अधिक व्यस्त हों अपने कामकाज में तो परिवार के अन्य सदस्यों की भूमिका, सुनिश्चित करें। रिक्त सदस्य अकारण तनाव में स्वयं भी डूबेगा तथा पूरे परिवार को भी परेशानी में डालेगा। इसीलिए यहां भागवत संदेश दे रही है कि आप चाहे कितने व्यस्त हों लेकिन कुछ समय अपनों के लिए जरूर निकाले।<br />
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बलरामजी के मन में व्रज के नन्दबाबा आदि सम्बन्धियों से मिलने की बड़ी इच्छा थी। वे द्वारिका से नन्दबाबा के व्रज में आए। उन्हें अपने बीच में पाकर सबने बड़े प्रेम से गले लगाया। किसी से हाथ मिलाया, किसी को खूब हंस-हंस कर गले लगाया। अब गोपियों के भाव-नेत्रों के सामने भगवान् श्रीकृष्ण की हंसी, प्रेमभरी बातें, चारु चितवन, अनूठी चाल और प्रेमालिंगन आदि मूर्तिमान होकर नाचने लगे। वे उन बातों की मधुर स्मृति में तन्मय होकर रोने लगीं। बलरामजी ने वसंत के दो महीने चैत्र और वैशाख वहीं बिताए। जीवन में समय निकालकर अपने लोगों से मेल मिलाप करते रहना चाहिए।बलरामजी की व्रज क्रीड़ा में आत्म शासन का संदेश छिपा है। गोपियों के साथ विचरणे का सही अर्थ समझा जाए।<br />
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मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार में प्रथम तीन अदृश्य किंतु व्यवहार में अनुभूति प्राप्त करते हैं, अहंकार सृष्टि तथा स्वयं के देह में पंचतत्वीय स्वरूप में प्रत्यक्ष दिखाई देता है। मन की निर्मलता, बुद्धि की शुद्धता, चित्त की संस्कार मुक्त और अहंकार की निराभिमानिता प्रभु पथ के एक साथ चलने वाले चार आगम हैं। चारों के एक वर्णीय बने बिना प्रभु वर्ण में विलीनता का पथ प्रशस्त नहीं होता। भागवत स्वरूप प्राप्त करने के लिए इन चारों तत्वों का पवित्रनाम् और शुद्धतम होना आवश्यक है क्योंकि प्रभुतत्व निर्विकार, पवित्रतम और शुद्धतम होता है।<br />
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<b>बस मन लगाकर कीजिए अपना काम</b><br />
जब भगवान बलरामजी नन्दबाबा के व्रज में गए हुए थे, तब पीछे से कुरू देश के राजा पौण्ड्रक ने भगवान् श्रीकृष्ण के पास एक दूत भेजकर यह कहलाया कि भगवान वासुदेव मैं हूं। मूर्ख लोग उसे बहकाया करते थे कि आप ही भगवान वासुदेव हैं और जगत् की रक्षा के लिए पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए हैं। इसका फल यह हुआ कि वह मूर्ख अपने को ही भगवान मान बैठा। पौण्ड्रक का दूत द्वारिका आया और राजसभा में बैठे हुए कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण को उसने अपने राजा का संदेश कह सुनाया। यदुवंशी! तुमने मुर्खतावश मेरे चिन्ह धारण कर रखे हैं। उन्हें छोड़कर मेरी शरण में आओ और यदि मेरी बात तुम्हें स्वीकार न हो तो मुझे से युद्ध करो।<br />
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भगवान श्रीकृष्ण ने रथ पर सवार होकर काशी पर चढ़ाई कर दी, क्योंकि वह करुश का राजा उन दिनों वहीं अपने मित्र काशिराज के पास रहता था। काशी का राजा पौण्ड्रक का मित्र था। अत: वह भी उसकी सहायता करने के लिए तीन अक्षैहिणी सेना के साथ उसके पीछे-पीछे आया। यह प्रसंग बताता है जीवन में कई लोग ऐसी भूल कर बैठते हैं। स्वयं को भगवान मान लेना यानी अहंकार को आमंत्रण देना। अहंकार बाधा है प्रभु मिलन में। अहं भाव निष्कामता से ही दूर होगा। इसे समझा जाए। इस सूत्र में विपाक का उल्लेख भी विचारणीय है। कर्म जब परिपक्व हो प्रारब्ध बन जाते हैं और वे फल देने योग्य बन जाते हैं उस प्रक्रिया को विपाक की संज्ञा दी गई। अभ्यासरत साधक या भक्त के लिए आवश्यक है कि सारा आध्यात्म पथ पर चलने के दौरान बन्धनों से मुक्त होते हुए प्रारब्ध संचित न होने दें। पूर्व संस्कार सरल हों और नए न निर्मित हों साधन या भक्ति का लक्ष्य होता है। जब शून्य अवस्था को वह प्राप्त कर पाता है, तब ही मन या चित्त स्थिर और निर्मल हो पाता है। कठिनाई यह है कि कर्म किए बिना नहीं रहा जा सकता, कर्म फल न मिले इसके लिए गीता में युक्त स्पष्ट उल्लेखित है। ''अभ्यासेऽप्य समर्थोऽसि कत्कर्मरयो भव। भदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्ति द्विमवाम्यसि।।<br />
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यदि ऐसे अभ्यास में भी तू असमर्थ है तो जो कर्म करे, मेरे निमित्त कर, उनका फल मेरे अर्पण करता जा अर्थात् ईश्वर प्रीत्यर्थ सब कार्य कर। मेरे निमित्त सब कर्म करते रहने से भी तू उपरोक्त सिद्धि प्राप्त कर लेगा, वर्णित है मन मेरे में लगने लगेगा और बुद्धि भगवत्मयी हो जाएगी। इसे ब्रम्हभाव में स्थित जीव की स्थिति कहा जा सकता है। जब कर्म ईश्वर अर्पण हो जाते हैं, तब सबकुछ ''ईश्वर प्रणिधान के अंतर्गत आकर उच्चतम् स्थिति को प्राप्त साधक या भक्त आध्यात्मिकता की उस भूमिका में आ जाता है जहां से फिर वापसी नहीं होती है।<br />
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<b>उन लोगों को देखकर भगवान भी हंसता है</b><br />
जब भगवान बलरामजी नन्दबाबा के व्रज में गए हुए थे, तब पीछे से करूश देश के राजा पौण्ड्रक ने भगवान् श्रीकृष्ण के पास एक दूत भेजकर यह कहलाया कि भगवान वासुदेव मैं हूं। मूर्ख लोग उसे बहकाया करते थे कि आप ही भगवान वासुदेव हैं और जगत् की रक्षा के लिए पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए हैं। इसका फल यह हुआ कि वह मूर्ख अपने को ही भगवान मान बैठा।<br />
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उसका यह सारा का सारा वेष बनावटी था, मानो कोई अभिनेता रंगमंच पर अभिनय करने के लिए आया हो।<br />
उसकी वेष-भूषा अपने समान देखकर भगवान् श्रीकृष्ण खिलखिलाकर हंसने लगे।यह प्रसंग हमें बताता है कि जब हम अहंकार में डूबते हैं तो ऊपर बैठा भगवान भी हमें देखकर हंसता है। इसलिए हमेशा अहंकार का त्याग ही करें। अहंकार आपको न केवल हंसी का पात्र बना देगा बल्कि आपको परमात्मा से, अपनों से, सबसे दूर कर देगा। इसलिए अहंकार को हमेशा दूर रखें। ध्यान रहे कि भगवान हमें देख रहा है।<br />
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भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने तीखे बाणों से उसके रथ को तोडफ़ोड़ डाला और चक्र से उसका सिर उतार लिया। फिर भगवान् ने अपने बाणों से काशी नरेश का सिर भी धड़ से ऊपर उड़ाकर काशीपुरी में गिरा दिया। इसी प्रसंग में अहंकार की एक और कथा है। काशी नरेश का पुत्र भी वही भूल कर बैठा जो उसके पिता ने की। परमात्मा को मारना चाहा। इस कथा के सार को समझना बहुत आवश्यक है, यह हम सभी के जीवन से जुड़ी है।<br />
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<b>इसलिए अपनी जिम्मेदारी के लिए जागरूक रहना जरूरी है </b><br />
बलराम के जीवन से जुड़ी एक कथा है। द्विविद नाम का एक वानर था, जो भौमासुर का सखा, सुग्रीव का मंत्री और मैन्द का शक्तिशाली भाई था। जब उसने सुना कि श्रीकृष्ण ने भौमासुर को मार डाला, तब वह अपने मित्र की मित्रता के ऋण से उऋण होने के लिए राष्ट्र-विप्लव करने पर उतारू हो गया। वह वानर बड़े-बड़े नगरों, गांवों, खानों और अहीरों की बस्तियों में आग लगाकर उन्हें जलाने लगा।<br />
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वानर तो भगवान् राम के सखा और सेवक थे लेकिन अत्यधिक बल और मद में वे इसे ही भूल गए। भौमासुर जैसे राक्षस की मृत्यु का बदला लेने निकल पड़े। श्रीकृष्ण तो उन्हें मिले नहीं लेकिन बलराम से भेंट हो गई।एक दिन वह वानर बलवान् और मदोन्मत्त द्विविद बलरामजी को नीचा दिखाने तथा उनका घोर तिरस्कार करने लगा, तब उन्होंने उसकी ढिठाई देखकर और उसके द्वारा सताए हुए देशों की दुर्दशा पर विचार करके उस शत्रु को मार डालने की इच्छा से क्रोधपूर्वक अपना हल-मूसल उठाया। द्विविद भी बड़ा बलवान था। उसने अपने एक ही हाथ से शाल का पेड़ उखाड़ दिया और बड़े वेग से दौड़कर बलरामजी के सिर पर उसे दे मारा।<br />
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अब यदुवंश शिरोमणि बलरामजी ने हल और मूसल अलग रख दिए तथा क्रुद्ध होकर दोनों हाथों से उसके जत्रुस्थान (हंसली) पर प्रहार किया। इससे वह वानर खून उगलता हुआ धरती पर गिर पड़ा। द्विविद ने जगत् में बड़ा उपद्रव मचा रखा था, अत: भगवान् बलरामजी ने उसे इस प्रकार मार डाला और फिर वे द्वारिकापुरी में लौट आए।यही द्विविद जो राम अवतार में अच्छे कार्य करता रहा, श्रीकृष्णावतार में भटक गया, बहक गया।<br />
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अपनी भूमिकाओं के प्रति सदैव सजग रहा जाए। इसलिए परमात्मा का सतत् स्मरण और आचरण में संयम बनाए रखना चाहिए।मन एकाग्र करने के लिए यह दृढ़ भावना होना आवश्यक है कि कर्म किए बिना रहा नहीं जा सकता तो प्रथम तो निष्काम कर्म किया जाए और उन्हें ईश्वर अर्पण करके किया जाए क्योंकि ईश्वर ने ही दायित्व सौंपा है वह करना है।<br />
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<b>इसलिए गुजरे कल को भुला देना ही ठीक है...</b><br />
आइए अब हम एक ऐसे प्रसंग से गुजरें जो बता रहा है कि नई पीढ़ी के सदस्य कुछ ऐसे निर्णय और कार्य कर लेते हैं जो पूरे परिवार को दुविधा और संघर्ष में डाल देते हैं। युवावस्था स्वयं को मुक्त मानती है। मुक्त का आध्यात्मिक अर्थ समझकर प्रवेश करें प्रसंग में।अध्यात्म मनुष्य को मुक्त पुरुष बनाता है।निरहंकारी साधक कामनाओं से मुक्त होता है। कामनाओं का बन्धन जटिल और गांठ पर गांठ लगाने वाला होता है। कामनाओं की आपूर्ति में भय और संशय घर कर जाते हैं। ईश्वरीय सत्ता में अविश्वास होने लगता है। यह एक प्रकार से घड़ी की सुई पीछे हटाने जैसा होता है।<br />
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एक यात्री यात्रा करता है तो वह सोचता है कि 100 मील की यात्रा में 70 मील चल दिए बस 30 मील शेष रहे, यात्री के रूप में वह 30 मील का विचार करता है, न कि बीते 70 मील की, इसी प्रकार बीते सुख-दुख का चिंतन अर्थहीन होता है। ईश्वरीय कृपा से शेष 30 मील भी पूरे हो जाएंगे यह मान्यता की आशंका से बचाती है। मन शांत रहता है। मुक्त अवस्था में पूर्वजन्म जिससे कुछ लेना नहीं उसी प्रकार आगामी जन्म का विवाद अर्थहीन होता है। कामना रहित सुखमय जीवन आसक्ति से बचाता है। आसक्ति और कामना मोह के जाल में उलझा देती है। मोह हुआ और आवागमन का चक्र चला।अनासक्त, कामना रहित, मोह ममता से परे, आस्थावान पुरुष का जीवन समग्रता लिए रहता है।<br />
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ये गुण उसकी सहज वृत्तियां बन जाती हैं। आध्यात्मिक जीवन जीने की कला आने पर ही ये वृत्तियां सहज बन जाती हैं। सहजता आने पर आत्मभिमुखता या अन्र्तदर्शिता की स्थिति का निर्माण होता है, तब मन शांत, संतुलित और सम रहता है।शांत मन आत्मा की ओर अभिमुख हो पाता है। ऐसी स्थिति में अन्त:करण (बुद्धि, चित्त और अहंकार) में ईश्वर का अनुभव करते हुए साधक में अनुभवगम्यता का विकास होता है। ध्यान जमने लगता है।<br />
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<b>जब हो नाजुक घड़ी तो...</b><br />
जब महारथी साम्ब ने देखा कि धृतराष्ट्र के पुत्र मेरा पीछा कर रहे हैं तब वे एक सुंदर धनुष चढ़ाकर सिंह के समान अकेले ही रणभूमि में डट गए। इधर कर्ण को मुखिया बनाकर कौरव वीर धनुष चढ़ाए हुए साम्ब के पास आ पहुंचे।कौरवों ने युद्ध में बड़ी कठिनाई और कष्ट से साम्ब को रथहीन करके बांध लिया। इसके बाद वे उन्हें तथा अपनी कन्या लक्ष्मणा को लेकर जय मनाते हुएहस्तिनापुर लौट आए। द्वारिकावासियों को इसकी सूचना नहीं थी, नहीं भगवान को। नारद ने आकर यह संदेश सुनाया। द्वारिका में कोहराम मच गया।<br />
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द्वारिकाधीश के पुत्र को कौरवों ने बंदी बना लिया।नारदजी से यह समाचार सुनकर यदुवंशियों को बड़ा क्रोध आया। वे महाराज उग्रसेन की आज्ञा से कौरवों पर चढ़ाई करने की तैयारी करने लगे। बलरामजी कलहप्रधान कलियुग के सारे पाप-ताप को मिटाने वाले हैं। उन्होंने कुरुवंशियों और यदुवंशियों के लड़ाई-झगड़े को ठीक न समझा। यद्यपि यदुवंशी अपनी तैयारी पूरी कर चुके थे, फिर भी उन्होंने उन्हें शांत कर दिया और स्वयं सूर्य के समान तेजस्वी रथ पर सवार होकर हस्तिनापुर गए।<br />
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उनके साथ कुछ ब्राम्हण और यदुवंश के बड़े-बूढ़े भी गए। जब नाजुक घड़ी हो तो बड़े-बूढ़े साथ में होना चाहिए।बलरामजी ने हमें सुंदर संकेत दिया है। जब विवाह जैसी स्थिति हो, सुलह करना हो, शांति की स्थापना करनी हो तो बुजुर्गों को आगे करना चाहिए। उनका अनुभव इसमें कारगर साबित होता है।<br />
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बलरामजी ने कौरवों की दुष्टता-अशिष्टता देखी और उनके दुर्वचन भी सुने। उस समय उनकी ओर देखा तक नहीं जाता था। वे बार-बार जोर-जोर से हंस कर कहने लगे-सच है, जिन दुष्टों को अपनी कुलीनता बलपौरुष और धन का घमंड हो जाता है वे शांति नहीं चाहते। मैं आपको समझा-बुझाकर शांत करने के लिए, सुलह करने के लिए यहां आया हूं। फिर भी ये ऐसी दुष्टता कर रहे हैं, बार-बार मेरा तिरस्कार कर रहे हैं।<br />
<br />
<b>जरूरी है निभाना अपनी जिम्मेदारी क्योंकि...</b><br />
राजा जनक का महाभारत में एक ब्राह्मण से हुए संवाद का वर्णन इस प्रकार किया गया है। ब्राह्मण ने पूछा - राज्य के प्रति किस प्रकार ममता को त्याग दिया? किस प्रकार राज्य को अपना समझते हैं और किस प्रकार नहीं समझते? राजा जनक का उत्तर था - इस संसार में कर्मों के अनुसार प्राप्त होने वाली सभी अवस्थाओं का एक न एक दिन अंत हो जाता है, यह बात मुझे अच्छी तरह मालूम है। वेद भी कहता है यहकिसकी वस्तु है, यह किसका धन है (अर्थात् किसी का नहीं है) इसलिए अपनी बुद्धि से विचार करता हूं तो कोई भी वस्तु ऐसी नहीं जान पड़ती जिसे अपनी कह सकें।<br />
<br />
इसी विचार से मैंने मिथिला के राज्य से अपना ममत्व हटा लिया। अब जिस बुद्धि का आश्रय ले सर्वत्र अपना राज्य समझता हूं वह सूनो। मैं अपनी नासिका में पहुंची हुई सुगन्ध सुख के लिए ग्रहण नहीं करता। मुख में पड़े हुए रसों का भी मैं तृप्ति के लिए आस्वादन नहीं करना चाहता। इसलिए जल तत्व पर भी विजय पा चुका हूं।तराजा जनक के मंत्री को शंका हुई और उन्होंने राजा ब्राह्मण ने जनक से पूछा - लोग आपको विदेह करते हैं, यह झूठा नहीं है क्या? आप राज्य चलाते हैं, गृहस्थी पालन करते हुए अच्छे व्यंजन खाते हैं, मखमली गद्दों पर सोते हैं। फिर आप विदेह कैसे।<br />
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राजा जनक ने कहा - आप कल शाम को 8 बजे हमारे साथ भोजन कीजिए, भोजन पर उत्तर दूंगा। उन्होंने दूसरे ही क्षण मंत्री के जाने के पश्चात सेनापति को बुलाया और मंत्री महोदय को रात्रि 9 बजे मृत्यु दण्ड देने की 'राज आज्ञा जारी कर भेजा। मंत्री को महान् आश्चर्य हुआ, वे विचार में पड़ गए, राजा से मिलना चाहा, राजा ने कहलवा दिया कि कल शाम को 8 बजे मिलेंगे। मंत्री को नींद नहीं आई, दिन में किसी काम में चित्त नहीं लगा, भोजन भी न कर सके, क्योंकि वे मृत्यु को सिर पर देख रहे थे। राज आज्ञा जो ठहरी। सोचते विचारते चिन्ता मग्न हो मंत्री ने 24 घण्टे बिताए। रात्रि 8 बजे भोजन पर राजा ने अच्छे-अच्छे पकवानों को स्वयं परोसा। राजा ने खाने के लिए कहा-मंत्री खाना आरम्भ नहीं कर सके। वे पूछ भी नहीं पा रहे थे कि मृत्यु दण्ड क्यों दिया। राजा पूछने लगे रसगुल्ले का स्वाद कैसा है? लड्डू कितने स्वादिष्ट हैं, आदि-आदि।<br />
<br />
मंत्री झुंझला उठे क्या स्वाद। एक घंटे बाद तो मरना है? राजा जनक ने शांत भाव से कहा-अभी तो आपके पास एक घण्टा है-भोज्य पदार्थों में रस लीजिए न, मंत्री बोले-रस नहीं आ सकता महाराज जब मृत्यु सिर पर हो। राजा जनक ने गंभीर होकर कहा-बस मंत्रीजी। आपके विदेह संबंधी प्रश्न का उत्तर मैंने दे दिया। मंत्री ने पूछा वह कैसे? जब एक घण्टे की अवधि में आप रस नहीं ले सके। मैं तो निश्चित मानकर प्रत्येक कार्य करता हूं कि निमिश मात्र का अंतर भी जीवन और मृत्यु में नहीं है। बस कार्य करता रहता हूं। प्रभु प्रदत्त दायित्व निभाता हूं। जगत् का शासक एक ही है दूसरा कोई नहीं।<br />
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<b>कैसी होनी चाहिए गृहस्थी?</b><br />
एक बार रानियों के बीच नारदजी रूक्मिणीजी के महल में पहुंचे। वे सोचने लगे- यह कितने आश्चर्य की बात है कि भगवान् श्रीकृष्ण ने एक ही शरीर से एक ही समय सोलह हजार महलों में अलग-अलग सोलह हजार राजकुमारियों का पाणिग्रहण किया। देवर्षि नारद इस उत्सुकता से प्रेरित होकर भगवान् की लीला देखने के लिए द्वारिका आ पहुंचे। वहां के उपवन और उद्यान खिले हुए रंग-बिरंगे पुष्पों से लदे वृक्षों से परिपूर्ण थे।<br />
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यह प्रसंग बहुत महत्वपूर्ण है, जो लोग संसारी जीवन को दूभर मानते हैं उन्हें इससे सीख लेनी चाहिए। गृहस्थी किस तरह से चलाई जाती है भगवान् कृष्ण से सीखा जाए। 16 हजार रानियों के साथ भगवान् खुशी-खुशी रह रहे हैं, किसी की कोई शिकायत नहीं, ना ही कोई झगड़ा। सब प्रसन्न हैं। भगवान सभी को खुष रखे हुए हैं।<br />
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उसके राज-पथ (बड़ी-बड़ी सड़कें), गलियां, चौराहे और बाजार बहुत ही सुन्दर-सुन्दर थे। घुड़साल आदि पशुओं के रहने के स्थान, सभा-भवन और देव-मंदिरों के कारण उसका सौंदर्य और भी चमक उठा था। उसकी सड़कों चौक, गली और दरवाजों पर छिड़काव किया गया था। छोटी-छोटी झंडियां और बड़े-बड़े झण्डे जगह-जगह फहरा रहे थे, जिनके कारण रास्तों पर धूप नहीं आ पाती थी। उसी द्वारिका नगरी में भगवान् श्रीकृष्ण का बहुत ही सुन्दर अन्त:पुर था। उस अन्त:पुर (निवास) में भगवान् की रानियों के सोलह हजार से अधिक महल शोभायमान थे, उनमें से एक बड़े भवन में देवर्षि नारदजी ने प्रवेश किया।<br />
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देवर्षि नारदजी ने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण उस महल की स्वामिनी रुक्मिणीजी के साथ बैठे हुए हैं और वे अपने हाथों भगवान् को सोने की डांडी वाले चंवर से हवा कर रही हैं।भगवान् श्रीकृष्ण रुक्मिणीजी के पलंग से सहसा उठ खड़े हुए। उन्होंने देवर्षि नारद के युगलचरणों में मुकुटयुक्त सिर से प्रणाम किया और हाथ जोड़कर उन्हें अपने आसन पर बैठाया। शास्त्रोक्त विधि से देवर्र्षि शिरोमणि नारद की पूजा की।भगवान् भी नारद के मन की बात ताड़ गए। उन्होंने नारदजी को बिल्कुल भी भान नहीं होने दिया। पूरा स्वागत सत्कार किया। जैसा कि ब्राह्मण या ऋषि का होना चाहिए।<br />
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इसके बाद देवर्षि नारदजी श्रीकृष्ण की योगमाया का रहस्य जानने के लिए उनकी दूसरी पत्नी के महल में गए।<br />
वहां उन्होंने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण अपनी प्राणप्रिय और उद्धवजी के साथ चौसर खेल रहे हैं। वहां भी भगवान् ने खड़े होकर उनका स्वागत किया, आसन पर बैठाया और विविध सामग्रियों द्वारा बड़ी भक्ति से उनकी अर्चना-पूजा की। अब नारदजी का सिर चकराने लगा। भगवान के चेहरे पर ऐसा कोई भाव नहीं था कि अभी रुक्मिणी के महल में ही आपसे भेंट हुई। नारदजी भगवान की योगमाया को समझने आए थे। खुद ही माया में उलझ कर रह गए। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वे क्या करें। अब तो बस एक महल से दूसरे महल में घूमने लगे। भगवान हर जगह अलग-अलग रूप में दिख रहे थे। उस महल में भी देवर्षि नारद ने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण अपने नन्हे-नन्हे बच्चों को दुलार रहे हैं।<br />
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<b>तो ऐसी थी कृष्ण की गृहस्थी</b><br />
वहां से फिर दूसरे महल में गए तो क्या देखते हैं कि भगवान् श्रीकृष्ण स्नान की तैयारी कर रहे हैं। इसी प्रकार देवर्षि नारद ने विभिन्न महलों में भगवान् को भिन्न-भिन्न कार्य करते देखा। कहीं वे यज्ञकुण्डों में हवन कर रहे हैं तो कहीं पंचमहायज्ञों से देवता आदि की आराधना कर रहे हैं। कहीं ब्राम्हणों को भोजन करा रहे हैं तो कहीं यज्ञ का अवशेष स्वयं भोजन कर रहे हैं। कहीं संध्या कर रहे हैं तो कहीं मौन होकर गायत्री का जप कर रहे हैं। कहीं हाथों में ढाल-तलवार लेकर उनको चलाने के पैंतरे बदल रहे हैं। कहीं घोड़े, हाथी अथवा रथ पर सवार होकर श्रीकृष्ण विचरण कर रहे हैं। कहीं पलंग पर सो रहे हैं तो कहीं वंदीजन उनकी स्तुति कर रहे हैं। किसी महल में उद्धव आदि मंत्रियों के साथ किसी गंभीर विषय पर परामर्श कर रहे हैं और कहीं प्रजा में तथा अन्त:पुर के महलों में वेष बदलकर छिपे रूप से सबका अभिप्राय जानने के लिए विचरण कर रहे हैं।<br />
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भगवान् श्रीकृष्ण की शक्ति अनन्त है। उनकी योगमाया का परम ऐश्वर्य बार-बार देखकर देवर्षि नारद के विस्मय और कौतूहल की सीमा न रही। द्वारिका में भगवान् श्रीकृष्ण गृहस्थ की भांति ऐसा आचरण करते थे, मानो धर्म, अर्थ और कामरूप पुरूषार्थों में उनकी बड़ी श्रद्धा हो। उन्होंने देवर्षि नारद का बहुत सम्मान किया।<br />
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नारदजी ने उनको प्रणाम किया और कहा भगवान् मैं आपकी माया से हार गया। सचमुच आप कुछ अलग ही लीला कर रहे हैं। भगवान् ने कहा-नारद एक बात ध्यान रखना, तुम संत हो और सन्त का काम है गृहस्थों के परिवार में प्रवेश करना, उनकी रक्षा करना, पर तांक-झांक करना ठीक नहीं है। आज से कसम खा लेना। ताक-झांक मत करना। नारद ने भी अपनी भूल स्वीकार की। नारद ने कहा-मैं जा रहा हूं आप मुझे आज्ञा दीजिए। नारदजी को समझ में आ गया। वे सबके अन्तरात्मा हैं। जो उनका साक्षात्कार कर लेते हैं उन्हें ही शांति है, अन्य को नहीं मिलती। अपनी अन्तरात्मा में स्थित ब्रम्ह का सतत् तेल धारावत् चिन्तन, ममन, ध्यान, स्मरण, नाम, जप इत्यादि, उसकी आराधना, उपासना साधन या कोई नाम दें, एक ही बात है कि वह हमसे भुलाए न भूले। होना चाहिए सत्य का अनुसंधान, सत्य का वास्तविक प्रयोग। सत्य-स्वरूप केवल-केवल सत्य से ही जाना जा सकता है।<br />
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<b>जरूरी है दायरे से बाहर निकलना क्योंकि...</b><br />
यहीं से भगवान् के जीवन का तीसरा चरण आरंभ हो रहा है। अभी भगवान द्वारिका से निकलकर राष्ट्र में फैल रहे हैं। बाहर जा रहे हैं अब उनको सत्ताओं को यह समझाना है कि धर्म के साथ सत्ता की जाए। भगवान् पूरी योजना बनाते हैं भाई के साथ, सेना के साथ। अब भगवान् बोलते हैं कि लम्बी यात्रा, लम्बे लक्ष्य, लम्बे आयाम पर निकलने की तैयारी करो।<br />
<br />
देखिए आप गोकुल से चले मथुरा आए, वृन्दावन आए, द्वारिका आए और अब लम्बी यात्रा की तैयारी कर रहे हैं। भगवान् ने विचार किया कि मुझे धर्म की संस्थापना करना है तो अपने इस दायरे से बाहर निकलना ही पड़ेगा जिसे आजकल प्रबन्धन की भाषा बोलते हैं कंफर्ट जोन से बाहर निकलना।भगवान् ने कहा-अब बाहर निकलना बहुत आवश्यक है।<br />
<br />
आइए भगवान के नए स्वरूप में हम प्रवेश करें। भगवान् की लीला हमने देखी। कैसी-कैसी लीला दिखाने के बाद अब एक नया कृष्ण आ रहा है। एकदम विचारशील, चिंतनशील योद्धा। तत्काल निर्णय लेने वाला। हमने बंसी बजाते देखा, माखन खाते देखा, ग्वालों के साथ देखा।<br />
<br />
अब बाहर से लीला दिखाएंगे श्रीकृष्ण। थोड़ा उन्हें भीतर से जान लें हम। इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण नियत कर्म करने अर्थात् मन, इन्द्रिय व बुद्धि को नियंत्रण में रखकर संगरहित होकर परोपकारी, ईश्वरार्थ कर्म करने का निर्देष देते हैं। यज्ञ याने त्याग के साथ किए स्वभाविक कर्म में आसक्ति नहीं होती। ऐसी अनासक्ति अभ्यास और ईश्वर कृपा से ही प्राप्त होती है।<br />
<br />
आसक्तिरहित जीवन जीने के लिए व्यष्टि से आरंभ कर समष्टि तक अभ्यास फैलाना होता है। व्यक्ति अपने व्यवहार शुद्धि का प्रयत्न करे। अपने में देवीगुणों का विकास करे, देवी गुण हैं-अभय, बुद्धि की शुद्धि (स्थिर बुद्धि जो चंचल न हो) ज्ञान योग में श्रद्धा, इन्द्रिय दमन, यज्ञ स्वाध्याय, भगवन्नाम जप, जप, सरल स्वभाव, अहिंसा, सत्य, क्रोध न करना, त्याग, चुगली (निन्दा) न करना, दया, विशय सेवन में अनासक्ति, मृदुता, लज्जा, चपलता का अभाव, तेज, क्षमा, धैर्य, सौच (पवित्रता-बाह्य और अभ्यान्तर) नाभिमानिता (अभिमान न होना), किसी से द्रोह न होना। इन गुणों का विकास शनै: शनै: किया जाना संभव है।<br />
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<b>कैसी थी कृष्ण की दिनचर्या?</b><br />
वे विधिपूर्वक निर्मल और पवित्र जल में स्नान करते। फिर शुद्ध धोती पहनकर, दुपट्टा ओढ़कर यथाविधि नित्यकर्म संध्या-वन्दन आदि करते। इसके बाद हवन करते और मौन होकर गायत्री का जप करते। क्यों न हो, वे सत्पुरुषों के पात्र आदर्ष जो हैं। इसके बाद सूर्योदय होने के समय सूर्योपस्थान करते और अपने कालास्वरूप देवता, ऋषि तथा पितरों का तर्पण करते। फिल कुल के बड़े-बूढ़ों और ब्राम्हणों की विधि पूर्वक पूजा करते। इसके बाद परम मनस्वी श्रीकृष्ण दुधार, पहले-पहल ब्याही हुई, बछड़ों वाली, सीधी-शांत गौओं का दान करते। भगवान् के योग और ध्यान पर प्रकाश डाला गया है। नियमित प्राणायाम करते थे भगवान्। षक्ति का संचरण कैसे करना, प्राण से अपने जीवन को कैसे ऊंचा उठाना, बकायदा पूरी क्रिया करने के बाद भगवान् मार्निंग वॉक पर जाते थे। लोग उनसे पूछते कि आपको घूमने की जरुरत क्या है! भगवान् कहते हैं कि द्वारका की व्यवस्था देखने हेतु घूमना आवष्यक है। भगवान् लौटकर आते, उसके बाद भगवान् का स्नान, ध्यान, पूजन के बाद भगवान् का दान का सत्र शुरू होता। प्रतिदिन दान का एक सत्र हुआ करता था उस सत्र में वो सबको वांछित दान दिया करते। उसी समय लोग अपनी छोटी-मोटी समस्याएं भगवान् को बता देते फिर भगवान् जलपान करने आते थे।यह भगवान का इन्द्रिय यज्ञ था। कर्म सम्पादन में सुनना, छूना, देखना, रस लेना, सूंघना, पांचों इन्द्रियों (कर्ण, त्वचा, आंखें, रसना और नासिका) की संयम रूपी अग्नि में आहुति देते हैं अर्थात् इन्द्रिय-संयम वर्तते हैं। यह वर्तना राग-द्वेश से रहित इन्द्रियों द्वारा प्रतिपादित भोग भोगते हुए जीवन यज्ञ पूरा करते हैं। ऐसे जीवन में कर्म गलत हो ही नहीं सकते।<br />
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भगवान् श्रीकृष्ण ने इन्द्रिय यज्ञ की संज्ञा इन्द्रियों के संयमित जीवन को दी है। महाभारत में अर्जुन को ब्राम्हण और उसकी पत्नी के साथ संवाद के रूप में इस तत्व की गूढ़ व्याख्या श्रीकृष्ण ने की है। संक्षेप में मन इन्द्रियों के माध्यम से विषयों को भोगता है, कर्म करता है। कर्म के विषय में वर्णन किया गया है।संसार में जो ग्रहण करने योग्य दीक्षा और व्रत आदि हैं तथा आंखों से दिखाई देने वाले स्थूल कर्म हैं उन्हें ही कर्म माना जाता है। कर्मठ लोग ऐसे ही कर्म को कर्म के नाम से पुकारते हैं और जो अकर्मठ जिन्हें ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई है वे लोग कर्म के द्वारा मोह का ही नियंत्रण करते हैं।<br />
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<b>प्लानिंग जरूरी है क्योंकि...</b><br />
यहीं से भगवान् के जीवन का तीसरा चरण आरंभ हो रहा है। अभी भगवान द्वारिका से निकलकर राष्ट्र में फैल रहे हैं। बाहर जा रहे हैं अब उनको सत्ताओं को यह समझाना है कि धर्म के साथ सत्ता की जाए। भगवान् पूरी योजना बनाते हैं भाई के साथ, सेना के साथ। अब भगवान् बोलते हैं कि लम्बी यात्रा, लम्बे लक्ष्य, लम्बे आयाम पर निकलने की तैयारी करो। देखिए आप गोकुल से चले मथुरा आए, वृन्दावन आए, द्वारिका आए और अब लम्बी यात्रा की तैयारी कर रहे हैं। भगवान् ने विचार किया कि मुझे धर्म की संस्थापना करना है तो अपने इस दायरे से बाहर निकलना ही पड़ेगा जिसे आजकल प्रबन्धन की भाषा बोलते हैं कंफर्ट जोन से बाहर निकलना।<br />
<br />
भगवान् ने कहा-अब बाहर निकलना बहुत आवश्यक है। आइए भगवान के नए स्वरूप में हम प्रवेश करें। भगवान् की लीला हमने देखी। कैसी-कैसी लीला दिखाने के बाद अब एक नया कृष्ण आ रहा है। एकदम विचारशील, चिंतनशील योद्धा। तत्काल निर्णय लेने वाला। हमने बंसी बजाते देखा, माखन खाते देखा, ग्वालों के साथ देखा। अब बाहर से लीला दिखाएंगे श्रीकृष्ण। थोड़ा उन्हें भीतर से जान लें हम।<br />
<br />
इसलिए भगवान् श्रीकृष्ण नियत कर्म करने अर्थात् मन, इन्द्रिय व बुद्धि को नियंत्रण में रखकर संगरहित होकर परोपकारी, ईष्वरार्थ कर्म करने का निर्देश देते हैं। यज्ञ याने त्याग के साथ किए स्वभाविक कर्म में आसक्ति नहीं होती। ऐसी अनासक्ति अभ्यास और ईश्वर कृपा से ही प्राप्त होती है। आसक्तिरहित जीवन जीने के लिए व्यष्टि से आरंभ कर समष्टि तक अभ्यास फैलाना होता है।<br />
<br />
व्यक्ति अपने व्यवहार शुद्धि का प्रयत्न करे। अपने में देवीगुणों का विकास करे, देवी गुण हैं-अभय, बुद्धि की शुद्धि (स्थिर बुद्धि जो चंचल न हो) ज्ञान योग में श्रद्धा, इन्द्रिय दमन, यज्ञ स्वाध्याय, भगवन्नाम जप, जप, सरल स्वभाव, अहिंसा, सत्य, क्रोध न करना, त्याग, षान्ति, चुगली (निन्दा) न करना, दया, विशय सेवन में अनासक्ति, मृदुता, लज्जा, चपलता का अभाव, तेज, क्षमा, धैर्य, शौच (पवित्रता-बाह्य और अभ्यान्तर) नाभिमानिता (अभिमान न होना), किसी से द्रोह न होना। इन गुणों का विकास शनै: शनै: किया जाना संभव है। माना कि सब गुण न तो मनुष्य में एक साथ आ सकते हैं न अल्पकाल में ये उसमें समाहित हो सकते हैं। किन्तु आत्मा को बचाने के लिए काम, क्रोध, लोभ को त्यागना चाहिए, क्योंकि इनके रहते दैवी सम्पद या गुण केवल कल्पना जैसे लगते हैं।<br />
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<b>जीवन में मिठास के लिए जरूरी है...</b><br />
कर्मयोगी के कई उदाहरण हैं। वैसे तो महात्मा अनेक हैं किन्तु एतिहासिक संतों में कबीर, तुकाराम, नरसी मेहता, तिरुवल्लस्वामी को हम उदाहरण के रूप में ले सकते हैं जिन्होंने कर्म किए किन्तु बंधन में नहीं पड़े। दूसरी ओर उन संन्यासियों का समूह है जिन्होंने ईश्वर के प्रति सम्पूर्ण समर्पण से संसार का त्याग किया, किन्तु उन्हें भी शरीर धर्म निभाने और लोक-कल्याणार्थ कर्म करना पड़ता है और प्रारब्धवशात या तप की न्यूनता के कारण उन्हें मन से कर्मरत होना पड़ता है। इसके लिए भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा - ऐसा मूढ़ात्मा मिथ्याचारी कहलाता है। उसका संन्यास बड़े बन्धन का कारण बन जाता है, किन्तु उसके प्रयास भी निष्फल नहीं जाते हैं, वह योग भ्रष्टोभिजायते वाली स्थिति में पहुंच नव जन्म में आगे बढ़ता है, उसकी यात्रा चलती रहती है।<br />
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अब भगवान् अपनी पूरी मधुरता के साथ पराक्रम दिखाएंगे और इसी का नाम जीवन का संतुलन है कि कुछ भी करें कितना ही बल, पौरूष दिखाना हो, आक्रमण दिखाना हो लेकिन जीवन का माधुर्य नहीं खोना चाहिए। आपके व्यक्तित्व की मधुरता नहीं जाना चाहिए। आपकी पहचान होना चाहिए और मधुरता को प्रकट करने का सबसे आसान तरीका कौन सा है जरा मुस्कुराइए। मधुरता अगर बनाए रखना है तो मुस्कान बहुत सरल माध्यम है। आप मुस्कुराइए आप भीतर से मधुर हो जाएंगे। आप मुस्कुराइए, आप भीतर से मीठे हो जाएंगे। आपको कोई मिश्री नहीं लेना, बस मुस्कान आपके जीवन की मधुरता बनाए रखेगी। भगवान् अपनी मुस्कान, अपनी मधुरता के साथ प्रस्थान कर रहे हैं।<br />
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एक दिन की बात है द्वारिकापुरी में राजसभा के द्वार पर एक नया मनुष्य आया। उसने श्रीकृष्ण को हाथ जोड़कर नमस्कार किया और उन राजाओं का जिन्होंने जरासन्ध को दिग्विजय के समय उसके सामने सिर नहीं झुकाया था और बलपूर्वक कैद कर लिए गए थे, जिनकी संख्या बीस हजार थी, जरासन्ध के बन्दी बनने का दुख श्रीकृष्ण के सामने निवेदन किया।<br />
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आप स्वयं जगदीश्वर हैं और आपने जगत् में अपने ज्ञान, बल आदि कलाओं के साथ इसलिए अवतार ग्रहण किया है कि संतों की रक्षा करें और दुष्टों को दण्ड दें। ऐसी अवस्था में प्रभो! जरासन्ध आदि कोई दूसरे राजा आपकी इच्छा और आज्ञा के विपरित हमें कैसे कष्ट दे रहे हैं, यह बात हमारी समझ में नहीं आती।<br />
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<b>सहायता और प्रार्थना का यह नियम है....</b><br />
आप स्वयं जगदीश्वर हैं और आपने जगत् में अपने ज्ञान, बल आदि कलाओं के साथ इसलिए अवतार ग्रहण किया है कि संतों की रक्षा करें और दुष्टों को दण्ड दें। ऐसी अवस्था में प्रभो! जरासन्ध आदि कोई दूसरे राजा आपकी इच्छा और आज्ञा के विपरित हमें कैसे कष्ट दे रहे हैं, यह बात हमारी समझ में नहीं आती।<br />
<br />
आपने 18 बार जरासन्ध से युद्ध किया और सत्रह बार उसका मान मर्दन करके उसे छोड़ दिया, परन्तु एक-बार उसने आपको जीत लिया। हम जानते हैं कि आपकी शक्ति, आपका बल-पौरुष अनन्त है। मनुष्यों का सा आचरण करते हुए आपने हारने का अभिनय किया, परन्तु इसी से उसका घमंड बढ़ गया है। हे अजित! अब वह यह जानकर हम लोगों को और भी सताता है कि हम आपके भक्त हैं, आपकी प्रजा हैं।<br />
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अब आपकी जैसी इच्छा हो वैसा कीजिए।<br />
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यह सहायता और प्रार्थना का नियम है, जिससे आप सहायता मांग रहे हैं, उसके सामथ्र्य की भी थाह आपको होनी चाहिए। परमात्मा असीम शक्तिशाली हैं, हम उनसे सहायता मांगते हैं तो यह भाव भी होना चाहिए कि हम आपकी शक्ति जानते हैं, आप हमें इस संकट से बचा सकते हैं।दूत ने कहा - भगवन जरासन्ध के बंदी नरपतियों ने इस प्रकार आपसे प्रार्थना की है। वे आपके चरणकमलों की शरण में हैं और आपका दर्शन चाहते हैं। आप कृपा करके उन दीनों का कल्याण कीजिए।<br />
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<b>पाण्डवों को कृष्ण क्यों पसंद करते थे?</b><br />
उद्धवजी ने कहा-भगवन देवर्षि नारदजी ने आपको यह सलाह दी है कि फुफेरे भाई पाण्डवों के राजसूय यज्ञ में सम्मिलित होकर उनकी सहायता करनी चाहिए। उनका यह कथन ठीक ही है और साथ ही यह भी ठीक है कि शरणागतों की रक्षा अवश्यकर्तव्य है। पाण्डवों के यज्ञ और शरणागतों की रक्षा दोनों कामों के लिए जरासन्ध को जीतना आवश्यक है।<br />
<br />
प्रभो! जरासन्ध का वध स्वयं ही बहुत से प्रयोजन सिद्ध कर देगा। बंदी नरपतियों के पुण्य परिणाम से अथवा जरासन्ध के पाप-परिणाम से सच्चिदानंद स्वरूप श्रीकृष्ण! आप भी तो इस समय राजसूय यज्ञ का होना ही पसंद करते हैं। इसलिए पहले आप वहीं पधारिए।<br />
<br />
उद्धवजी की यह सलाह सब प्रकार से हितकर और निर्दोष थी। देवर्षि नारद, यदुवंश के बड़े-बूढ़े और स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने भी उनकी बात का समर्थन किया। अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण ने वसुदेव आदि गुरुजनों से अनुमति लेकर दारुक, जैत्र आदि सेवकों को इन्द्रप्रस्थ जाने की तैयारी करने के लिए आज्ञा दी।<br />
<br />
हस्तिनापुर जाना -भगवान् को सूचना मिली और भगवान बहुत दुखी हो गए। सूचना यह थी कि कौरवों ने छल से पाण्डवों को लाक्ष्यागृह में भेजा और पांडव और कुंती जलकर मर गए। यह सूचना जब कृष्णजी को मिली तो कृष्णजी बहुत चिंतित हो गए, लेकिन उनको विश्वास नहीं हुआ। कुछ उदास भी हुए। पाण्डव भगवान् को क्यों पसंद थे समझ लें। कर्म करने से अनुभव होता है। पवित्र कर्म से धर्ममय अनुभव होते हैं।<br />
<br />
श्रीकृष्ण संकेत देते हैं कि अध्यात्म शक्ति की जागृति, प्रत्यक् चेतना छिगम् अर्थात् अन्तर्गुरु ईश्वर की चेतन सत्ता का प्रत्यक्ष अनुभव। साधन (कर्म) के तीन स्तर होते हैं। प्रथम स्तर पर साधक अपने कत्र्तत्याभिमान से युक्त रहता है। (मैं साधन कर रहा हूं, कर्म कर रहा हूं, सेवा कर रहा हूं आदि) दूसरे स्तर पर ईश्वर की शरण में रहता है और अपनी प्रगति को ईश्वर की अनुकम्पा के अधीन अनुभव करता है। तीसरे स्तर पर ब्रम्हभाव में रत रहता हुआ जीवन सफल करता है।<br />
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<b>सवाल है भक्ति कैसे की जाए?</b><br />
ईश्वर सब दूर हैं, अणु-अणु में हैं और अणु-अणु उसमें हैं। वह सृजन या विनाश करते हुए बंधन मुक्त है, क्योंकि वह सब कर्मों में उदासीन की तरह अनासक्त भाव से अपने आप होता हुआ दृष्टा बना देखता है और उनकी मुश्किलों को हल करता है। इस क्रिया को राजविद्या अर्थात् सब विद्याओं का राजा कहा गया है और आगे ''पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामह:, वेद्यं पविभमोंकार ऋवक्साम यजुरदेव च।जगत् का पिता, माता, विधाता, जानने योग्य पवित्र ऊँकार ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद मैं ही हूं। अर्थात् ईश्वर है, श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश महानतम योगी ईश्वर के रूप में दिया।<br />
<br />
माता-पिता, विधाता के रूप में ही साधक का भक्त को जो उन पर निर्भर रहते हैं का योगक्षेम वहाम्यहम् नित्य युक्त उपासना करने वाले का योगक्षेम वहन करते हैं।योग अर्थात् प्राप्त करना (साधक को उच्चतम भक्ति भावना का निर्माण) क्षेम अर्थात् प्राप्त को संभालकर रखना। इसका अर्थ जगत की विभीषिकाओं से रक्षा करने से भी लिया जाता है। अर्जुन की पग-पग पर रक्षा की। भक्त प्रहलाद को अनुभव नहीं होने दिया कि विपत्ति या कष्ट क्या होता है? देवर्षि नारद ने भक्ति के संदर्भ में उदाहरण दिया है।<br />
<br />
तुलसीदासजी ने शबरी के सम्मुख श्रीराम के मुख से कहलवाया-<br />
''कह रघुपति सुन भामिनि बाता। मानो एक भक्ति कर नाता।।<br />
सवाल है भक्ति कैसे की जाए -<br />
भगवान श्रीकृष्ण इस सवाल का सटीक उत्तर देते हैं-<br />
<br />
''मन्मना भव मद्भक्तों मद्याजी मां नमस्कुरु! मामेवैश्यसि युक्तवैवामात्मनं मत्परायण:।। 34।।<br />
<br />
परमात्मा में अनन्य मन वाला हो, मुझ (परमात्मा) में मन लगा, मेरा भक्त बन (अनन्य का नहीं), मेरे निमित्त यज्ञ (सद्कर्म) कर मुझे नमस्कार कर (सियाराम मय सब जग जानि कर, प्रणाम जोरि युग पानी) मुझमें परायण होकर आत्मा को मेरे साथ युक्त (जोड़) कर मुझे प्राप्त कर लेगा। भगवान् की सत्य प्रतिज्ञा है।भगवान् के साथ जोडऩा योग है।<br />
<br />
कर्म को जोडऩा कर्म योग, कर्मफलों को ईश्वर अर्पण करना राजयोग, जो कहता है-कर्मफलों को छोड़ मत, बल्कि ईश्वर अर्पण कर दो, ये वे फूल हैं आगे जो जाने के साधन हैं, उसे भगवत-भाव मूर्ति पर चढ़ाओ। कर्म किए हैं तो फल तो निर्मित होगा ही स्वयं फलों का उपयोग करना, भोगना है, दूसरे उपभोग करें यह सेवा रूप में है और ईश्वर अर्पण में फल-त्याग ही सच्चा योग है। प्रेमी को सर्वस्व अर्पित कर दिया जाता है।<br />
<br />
<b>द्रोपदी के स्वयंवर की बस यही शर्त थी कि...</b><br />
बलरामजी कृष्णजी को देखने लग गए कि अब और बचा है क्या स्वयंवर में। कृष्ण बोलते हैं-दाऊ अब द्रौपदी अपने जीवन में आएगी। हम यह घोषणा कर रहे हैं कि यदुवंशी इस स्वयंवर में शामिल नहीं होंगे, दर्शक रूप में जा रहे हैं। सबको लगा यह ठीक है। द्रौपदी के स्वयंवर में पहुंचते हैं भगवान दु्रपद देश की द्रौपदी उस समय संसार की सबसे सुन्दर स्त्री मानी जाती थी। याज्ञसेनी नाम था उसका। उसके पिता दु्रपद ने यज्ञ से उसको प्राप्त किया था और परमात्मा ने उसको अतिरिक्त सौंदर्य दिया था।<br />
<br />
द्रौपदी के बारे में ऐसा कहते थे कि उसको पाने के लिए उस समय आर्यावर्त का प्रत्येक राजा उत्सुक था। द्रौपदी की देह से स्थायी सुगंध निकलने का वरदान था। हजारों फुलवारियां अगर खिल जाएं और सुगन्ध फैलाएं। ऐसी सुगन्ध 24 घण्टे द्रौपदी की देह से आएगी यह उसको वरदान था। द्रौपदी को पाने के लिए सारे राजा आए हुए थे। शर्त यह थी कि एक लकड़ी का यंत्र था, उसमें मछली लगी थी, उस मछली को नीचे तेल में देखकर उसकी चलित आंख का निशाना लगाना था और निशाना लग जाए तो द्रौपदी उसको वरेगी। भगवान् भी पहुंच गए स्वयंवर में बलरामजी के साथ।<br />
<br />
दुर्योधन आया था कर्ण को लेकर। सभी आए थे कोई नहीं चूका। दुर्योधन को तो पता था कि जीतेगा कर्ण और फिर द्रौपदी को मुझे भेंट करेगा। आप सोचिए दुर्योधन किस स्तर पर मित्रता कर रहा था और कर्ण किस स्तर पर मित्रता कर रहा था। कर्ण आया ही इसीलिए था कि मित्र यह विजित है मुझसे और फिर मैं आपको भेंट कर दूंगा। मित्रता में इतने निम्न स्तर पर नहीं जाना चाहिए। कर्ण जैसा योग्य और ज्ञानी लेकिन उलझा हुआ था दुर्योधन में।<br />
<br />
<b>छल को छल से नहीं जीता जा सकता</b><br />
कर्ण जैसा योग्य और ज्ञानी लेकिन उलझा हुआ था दुर्योधन में। सब लोग बैठे हैं, तैयारी की। घोषणा की गई, द्रौपदी आई। सबसे कहा पराक्रम दिखाएं। कोई नहीं दिखा पाया। जैसे ही कर्ण खड़ा हुआ सभी जानते थे कि कर्ण निशाना लगा देगा। यह बिल्कुल तय था।<br />
<br />
द्रौपदी ने एकदम से घोषणा की कि इनको रोकिए यह इस स्वंयवर के योग्य नहीं हैं। मैं इनको अनुमति नहीं देती और नहीं मैं इनको वरूंगी क्योंकि यह सूत पुत्र है, क्षत्रिय नहीं हैं। कर्ण बड़ा अपमानित हुआ। कर्ण को लगा यह तो मेरा सीधा-सीधा अपमान है। बैठ गया। दुर्योधन तमतमा गया और फिर बारी आई एक ब्राह्मण की। ब्राह्मण युवक गठीला, अर्जुन।<br />
<br />
पाण्डव वेष बदलकर स्वयंवर में आए थे क्योंकि कौरव पहचान लेंगे तो फिर आक्रमण करेंगे, छिपते फिर रहे थे। मां डरी हुई थी कि बेटा तुम में से एक चला जाएगा। तो अपना प्रकाशन मत करो। इनको यही समझने दो कि हम मर गए। बाद में हम नीति बनाएंगे, यह तो छल पर उतर आए हैं। एक बात याद रखिए छल का कोई इलाज नहीं है। छल का इलाज छल है तो आप भी छली हो जाएंगे। छल का इलाज सिर्फ भगवान हैं। छल को छल से नहीं जीता जा सकता और प्रयास भी मत करिएगा।<br />
<br />
<b>और अर्जुन ने जीत लिया स्वयंवर</b><br />
पाण्डव बहुत नाराज होते, उन लोगों ने हमको जलाने की कोशिश की, आज आदेश करें, तो कुन्ती बोलती हैं कि न तो हमारे पास सेना है, न समर्थन है। पांच तुम हो और ये कौरव, पितामह भीष्म और गुरूदेव द्रोण उनके साथ हैं उन्होंने हमें जलाकर मारने की कोशिश की थी। कुंती को तो आशा थी कि आएगा एक दिन कभी, मां के कहने थे। पांचों पाण्डव पहुंच गए।<br />
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अर्जुन ने धनुष उठाया एक तीर साधा और सीधा निशाने पर। जय-जयकार हो गई। द्रौपदी चली माला पहनाने, तो राजा लोग खड़े हो गए। दुर्योधन, कर्ण, जरासंध, शिशुपाल ने कहा यह कैसे हो सकता है। पहले तो इसका परिचय दो और दूसरा क्षत्रियों के स्वयंवर में ब्राह्मण को अनुमति नहीं मिल सकती। मार डालो इस ब्राह्मण को और लोग मारने के लिए चले। बलराम भी खड़े हो गए।<br />
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बलराम को यह नहीं पता कि किस ओर से लडऩा है पर कहीं भी लड़ाई होती तो वे एकदम से उत्साह में आ जाते थे। बलराम एकदम से खड़े हुए तो कृष्ण ने कहा-दाऊ बैठ जाओ। दाऊ ने कहा- यहां हाहाकार हो रहा है। कृष्ण ने कहा-पांडव जीवित हैं मैं बहुत प्रसन्न हूं। वो अर्जुन है सब निपटा लेगा चुपचाप बैठो दाऊ। कृष्ण मन ही मन प्रसन्न थे कि इस मछली को विश्व में दो ही लोग भेद सकते थे या तो कर्ण या अर्जुन। कर्ण बाहर हो चुका है तो यह शत-प्रतिशत अर्जुन है।अर्जुन आज एक युद्ध लडऩे जा रहे थे, कृष्ण सामने थे दोनों का वही वार्तालाप मन ही मन हो चुका था जो भविष्य में गीता के रूप में आएगा।<br />
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<b>स्थिति कैसी भी हो आप उसे बदल सकते हैं....</b><br />
काम सारे पांडवों से कराए कृष्ण ने कभी ये नहीं कहा कि मैं पीठ पर हूं तुम जाकर सो जाओ। करना तुम्हें है लेकिन अब मैं तुम्हारी योजना में शामिल हूं, तुम्हारे विचार में, तुम्हारे लक्ष्य में और तुम्हारी सफलता में हिस्सेदारी अब मेरी होगी चलो आगे चलते हैं। यहां से भगवान् के जीवन में पाण्डव युग का आरम्भ हो रहा है। भगवान् को चलते समय सूचना दी गई थी कि जरासन्ध बहुत अत्याचार कर रहा है, बहुत परेशान कर रहा है।<br />
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भगवान् अब पाण्डवों के जीवन में आ गए हैं। वो पाण्डवों के लिए कौरवों से बात करते हैं, उन्हें अलग राज्य दिलवाते हैं। भगवान् अब भक्त के लिए हर वह काम करेंगे जो एक दूत करता है। एक गुरु करता है, एक स्वामी करता है, सखा करता है और एक सेवक जो भूमिका निभाता है। भगवान् वे सारे काम पाण्डवों के लिए करेंगे।भगवान् ने कहा-हमें तो लम्बी यात्रा करना है चिंता छोड़ो, आओ। आप लोग यहीं रहो, आपकी ओर से मैं जा रहा हूं कौरवों से बात करने।<br />
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भगवान पहुंचे हैं कुरूवंश के राजदरबार में। भीष्म ने सबको सूचना दी कि कृष्ण आ रहे हैं बड़ी-लंबी चौड़ी चर्चा है महाभारत में, लेकिन हम हमारे काम की बात कर लें। भगवान् ने कहा-उनको उनका हिस्सा दे दीजिए। सारी राज सत्ता दुर्योधन के कहने में थी, दुर्योधन ने कहा यहां तो नहीं देंगे। उसने कहा हस्तिनापुर से बाहर एक खाण्डव वन है, उजाड़ वन, वो दे देते हैं इनको जो करना है वो करें।<br />
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सबको लगा कि यह तो कोई बात ही नहीं होती है, लेकिन वो तो कृष्ण थे। कृष्ण ने कहा-चलेगा खाण्डव वन दे दो। सबको बड़ा आश्चर्य हुआ कि कृष्ण खाण्डव वन लेकर आए। लेना तो आधा राज्य था या फिर युधिष्ठिर को राजकुमार बनाने की बात थी, लेकिन जब कृष्ण लौटे तो कुन्ती से बोले-मैं खाण्डव वन लेकर आ गया हूं। पांचों भाई चौंक गए, लेकिन पांचों भाई एक बात जानते थे कि कृष्ण जो करेंगे वो हमारे हित में ही करेंगे।<br />
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कृष्ण ने पांचों भाइयों से कहा कि जीवन में कभी न कभी नई शुरूआत करना ही पड़ती है। लम्बे चलने के बाद भी कभी वो स्थिति आ जाती है कि हमें एक से पुन: गिनती गिननी पड़ती है। आओ खाण्डव वन को कुछ नया करें, पांचों भिड़ जाते हैं और अन्य राजाओं से मदद लेते हैं। श्रीकृष्ण ने कहा-मैं द्वारिका से धन दूंगा, द्वारिका से भवन बनाने के लिए विशेषज्ञ बुलवाऊंगा। चलो इस खाण्डव वन को इन्द्रप्रस्थ बनाते हैं और देखते ही देखते कृष्ण के नेतृत्व में इन्द्रप्रस्थ की स्थापना हो गई। ऐसा सुंदर भवन, ऐसी सुंदर राजधानी बना दी इन लोगों ने और कृष्ण ने हमको यह शिक्षा दी है कि कैसी भी स्थिति हो आप उसको बदल सकते हैं।<br />
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<b>जो कुछ बोलें सोचकर बोलें</b><br />
पूर्व में भगवान् श्रीकृष्ण ने स्पष्ट ही कहा कि प्रसन्नता राग-द्वेष से मुक्त होने पर चित्त में समाहित होती है और प्रसन्नचित्त से बुद्धि स्थिर होती-तरंगें प्रवाह में नहीं उठतीं वैसे ही जैसे जल स्थिर हो जाए तो उसमें प्रतिबिंब देखा जा सकता है। बुद्धि रूपी सरोवर में साधक फिर अपने आराध्य के दर्शन कर सकता है।<br />
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विश्वरूप दर्शन के पश्चात जब श्री अर्जुन एक न्यायाधीश के मानिन्द होकर विधि के विधान को समझ सका तब उसको किसी भी अन्य साधन से न देख सकने वाले नारायण स्वरूप को चतुर्भुज रूप में देखने में समर्थ हुआ। यह नर-नारायण के दो आइने सामने आ गए और अर्जुन अनन्त को अनन्त में देख गीतामृत के माध्यम से लोक कल्याण कर सके।चलिए पाण्डवों के दाम्पत्य की ओर चलें।<br />
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श्रीकृष्ण ने कहा दाऊ आप बैठो, वह सब संभाल लेगा और ऐसा हुआ भी। पांचों भाइयों ने मिलकर उन राजाओं को जो दण्ड दिया है कि त्राहि-त्राहि मच गई। फिर बड़े लोग बीच में आए। क्यों झगड़ रहे हो भैया! लड़की तैयार है, ये तैयार है अपने-अपने घर जाओ। उस दिन अंदाजा लग गया कि यह अर्जुन ही है। कर्ण ने उस दिन शपथ ली कि मैं इस द्रौपदी से अपने अपमान का बदला लूंगा।<br />
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भरी राजसभा में इस द्रौपदी ने मुझको सूतपुत्र कहकर नीचा दिखाया है। एक दिन भरी राजसभा में मैं अपने अपमान का बदला लूंगा। इसलिए सार्वजनिक रूप से किसी पर टिप्पणी करें तो सावधान रहें। द्रौपदी इनकार भी कर सकती थी पर उसने भरी सभा में कहा-नहीं ये तो सूतपुत्र है। अपनी टिप्पणियों से द्रौपदी ने दो बार स्वयं विपत्ति आमन्त्रित की। जब भी कुछ बोलें तो आगे-पीछे का सोचकर बोलें। द्रौपदी ने अपने लिए अनजाने में ही एक शत्रु खड़ा कर लिया। हम भी अपने जीवन में ऐसे ही न जाने कितने शत्रु बना लेते हैं। याद रखें, हमारे बोले गए शब्द इस ब्रम्हाण्ड में घूमते हुए एक दिन फिर हमारे पास ही किसी अन्य रूप में पहुंचते हैं।<br />
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<b>लक्ष्य को पाना है तो...</b><br />
पाण्डव तो भगवान के रिश्तेदार ही हैं लेकिन भगवान ने सिर्फ उनका साथ निभाया लक्ष्य प्राप्ति का प्रयास उन्होंने ने ही किया इसीलिए उन्हें लक्ष्य प्राप्त हुआ। कृष्ण ने पाण्डवों को भी कभी नहीं कहा कि तुम कुछ मत करो मैं सब ठीक कर दूंगा। इसीलिए कर्म तो जरूरी है। कथा आती है कि पाण्डव घर आए तो दाऊजी से कृष्ण ने कहा इनके पीछे चुपचाप चलो।<br />
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दाऊ ने कहा-यह तुम क्या करते हो और सोचते हो पीछे चलने की क्या आवश्यकता है? कृष्ण ने कहा-ये पांडव हैं। जैसे ही पाण्डव जंगल में अपनी कुटिया में पहुंचे अचानक कृष्ण का प्रवेश हुआ। कुन्ती ने देखा, वह एकदम दौड़ी। कृष्ण ने पहचान लिया, कृष्ण ने बुआ कहकर प्रणाम किया तो कुन्ती कृष्ण के कंधे पर सिर रखकर रोने लग गई।<br />
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कुन्ती रोते हुए कहती हैं कि कृष्ण तुम कहां चले गए थे। तुम देखो इन बच्चों की तरफ, मैंने कैसे पाला है इनको। राजा पाण्डु के जाने के बाद मैंने जंगल में इनको तैयार किया, इनको हर तरह की शिक्षा दी। हम भी कुरूवंश की संतान हैं, राजा तो पाण्डु ही थे वो तो चले गए, इसलिए अन्धे धृतराष्ट्र को बैठाया। हम कुछ नहीं चाहते पर हमें जीवन तो दे दो। हमें राज्य नहीं चाहिए। युधिष्ठिर ने तय कर लिया मुझे राजकुमार नहीं बनना, कहीं भी रहेंगे। हमारा कौन सहारा है। इन पांच बच्चों को देखो तुम।<br />
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कुन्ती का कृष्ण से बहुत गहरा स्नेह था। कुन्ती कृष्ण की बुआ थीं लेकिन उसने कृष्ण को परमात्मा के रूप में ही भेजा। यह कुन्ती का ही प्रताप था जो कृष्ण पाण्डवों के साथ हर दम खड़े रहे। विश्व की सर्वशक्तिमान हस्ती जिनके लिए हमने बचपन, यौवन तैयार किया वो आज सामने उपस्थित है, देख रहे हैं उनको। भगवान् से पूछते हैं क्या करें हम इस जंगल में कब तक पड़े रहें।<br />
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भगवान् बोलते हैं नहीं-नहीं अब तो आकाश की यात्रा आरम्भ करना है। आओ कुछ योजना बनाते हैं, विचार करते है। कुछ पुरूषार्थ करते हैं। एक बार भगवान हमारे जीवन में आए तो आप मानकर चलिए कि सारी कमियां पूरी हो जाएंगी। भगवान यह कहते हैं कि मैं साथ हूं करना तुम्हें है। काम सारे पांडवों से कराए कृष्ण ने कभी ये नही कहा कि मैं पीठ पर हूं तुम जाकर सो जाओ।<br />
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करना तुम्हें है लेकिन अब मैं तुम्हारी योजना में शामिल हूं, तुम्हारे विचार में, तुम्हारे लक्ष्य में और तुम्हारी सफलता में हिस्सेदारी अब मेरी होगी चलो आगे चलते हैं। यहां से भगवान् के जीवन में पाण्डव युग का आरम्भ हो रहा है। भगवान् को चलते समय सूचना दी गई थी कि जरासन्ध बहुत अत्याचार कर रहा है, बहुत परेशान कर रहा है।<br />
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<b>भगवान तो बस भक्तों के बस में है क्योंकि...</b><br />
भगवान् तो बस भक्तों के बस में हैं। युधिष्ठिर ने इच्छा जताई तो तुरंत हां कर दी। इसी बहाने वे अपनी कुछ और लीलाएं दिखाएंगे। इस राजसूय यज्ञ में दुनियाभर के राजा आएंगे।भगवान् ने कहा-आपका निश्चय बहुत ही उत्तम है। राजसूय यज्ञ करने से समस्त लोकों में आपकी मंगलमयी कीर्ति का विस्तार होगा। पृथ्वी के समस्त नरपतियों को जीतकर, सारी पृथ्वी को अपने वश में करके और यज्ञोचित सम्पूर्ण सामग्री एकत्रित करके फिर इस महायज्ञ का अनुष्ठान कीजिए। आपके चारों भाई वायु, इन्द्र आदि लोकपालों के अंश से पैदा हुए हैं।<br />
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वे सब के सब बड़े वीर हैं। आप तो परम मनस्वी और संयमी हैं ही। आप लोगों ने अपने सद्गुणों से मुझे अपने वश में कर लिया है। जिन लोगों ने अपनी इन्द्रियों और मन को वश में नहीं किया है, वे मुझे अपने वश में नहीं कर सकते। संसार में कोई बड़े से बड़ा देवता भी तेज, यश, लक्ष्मी, सौन्दर्य और ऐश्वर्य आदि के द्वारा मेरे भक्त का तिरस्कार नहीं कर सकता फिर कोई राजा उसका तिरस्कार कर दे, इसकी तो संभावना ही क्या है?<br />
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युधिष्ठिर को गुरु मंत्र मिल गया। भगवान् ने उसे जाने-अनजाने ही पृथ्वी पति होने का आशीर्वाद भी दे दिया लेकिन ये पाण्डवों की भी मर्यादा थी कि उन्होंने इसका तनिक भी अभिमान नहीं किया, बल्कि इसे भगवान् का ही आशीर्वाद और प्रताप समझा। पाण्डव राजसूय की तैयारी में लग गए, मार्गदर्शक थे स्वयं भगवान् कृष्ण।जीवन में गुरुमंत्र सद्ग्रुण के लिए बहुत उपयोगी और प्रभावशाली रहता है। गुरु मंत्र प्राप्त करते समय जो शक्तिपात होता है वह ही सद्गुणों को जीवन में उतरने में सहयोगी होता है।<br />
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<b>अगर आप हैं मुश्किलों से परेशान</b><br />
गुरु मंत्र प्राप्त करते समय जो शक्तिपात होता है वह ही सद्गुणों को जीवन में उतरने में सहयोगी होता है। जब भगवान को आप अपने को समर्पित कर देते हैं सारी समस्याएं अपने आप ही सुलझने लगती है। सब कुछ बदलने लगता है। इसीलिए जब आप भी जीवन की समस्याओं से परेशान हों तो सब कुछ भगवान पर छोड़ दीजिए और देखिए सारी समस्याएं अपने आप सुलझ जाएगी। कुछ ऐसा ही संदेश दे रहा है हमें भगवान का पांडवो के जीवन में प्रवेश और हर कार्य में उनकी मदद करना।कृष्ण ऐसी ही कृपा पाण्डवों पर कर रहे थे। राजसूय की तैयारी पुरजोर चल पड़ी। हर और दूत दौड़ा दिए गए। महाराज युधिष्ठिर का राजसूय है। वे चक्रवर्ती सम्राट बन रहे हैं।<br />
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मंत्र का सभी सम्प्रदायों एवं साधन-प्राप्तियों में महत्व को स्वीकार किया गया है। साधन की दृष्टि से मंत्र-जप का उद्देश्य शक्ति को अपने अंतर में जागृत करना है तथा उसका अनुभव करना है। वास्तव में मंत्र, गुरु, शक्ति तथा इष्ट से एक ही तत्व के विभिन्न स्वरूप तथा स्तर हैं जो विभिन्न रूपों में कार्य करते हुए साधक को अध्यात्म पथ पर अग्रसर करते हैं। मंत्र-जप के साधक के स्तर भेद एवं अधिकार भेद से कई श्रेणियों में बांटा जा सकता है, जिनमें सबसे उत्तम है मंत्र शक्ति का प्रत्यक्ष होकर जप का विलीन हो जाना। साधन की आवश्यकता तभी तक है जब तक प्राप्तव्य नहीं हुआ। गंतव्य पर पहुंच कर यात्रा समाप्त हो जाती है।<br />
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प्रयत्नपूर्वक जप आणवोपाय के अंतर्गत है एवं स्वाभाविक जप शक्ति की क्रिया अथवा शाक्तोपाय है। मन निर्मल हो जाने पर शक्ति अपनी क्रियाएं समेट लेती हैं क्योंकि क्रियाएं चित्त के आधार पर ही शक्ति की क्रियाशीलता हैं। संस्कार क्षय के पश्चात् क्रियाओं की आवश्यकता एवं उनका आधार दोनों समाप्त हो जाते हैं। क्रियाओं में मंत्र-जप के कई स्वरूप तथा विभिन्न स्तर स्वयंमेव प्रकट होते रहते हैं। अन्य क्रियाओं के साथ भी जप क्रिया प्रकट हो सकती है तथा केवल जप क्रिया भी। देखा जाए तो अन्य क्रियाएं भी मंत्र शक्ति का स्वरूप है।<br />
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पाण्डवों को भगवान् की शक्ति सामथ्र्य और ज्ञान पर पूरा भरोसा था। उन्होंने खुद को भगवान् को ही समर्पित कर दिया था। अब तो बस भगवान् सब करवा रहे थे, पाण्डव कर रहे थे। पाण्डवों का डंका अब सब ओर गूंज रहा था। जब तक पुरुषार्थ के आधार पर जप चलता है जब तक मंत्र अचेतन है। कई प्रकार के अनुष्ठान पराशचरण इत्यादि अचेतन मंत्र को चेतन करने के लिए<br />
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किए जाते हैं। भगवान् की बात सुनकर महाराज युधिष्ठिर का हृदय आनन्द से भर गया। उनका मुखकमल प्रफुल्लित हो गया। अब उन्होंने अपने भाइयों को दिग्विजय करने का आदेश दिया। भगवान् श्रीकृष्ण ने पाण्डवों में अपनी शक्ति का संचार करके उनको अत्यन्त प्रभावशाली बना दिया। धर्मराज युधिष्ठिर ने संचयवंशी वीरों के साथ सहदेव को दक्षिण दिशा में दिग्विजय करने के लिए भेजा।<br />
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नकुल को मत्स्यदेशीय वीरों के साथ पश्चिम में, अर्जुन को केकयदेशीय वीरों के साथ उत्तर में और भीमसेन को भद्रदेषीय वीरों के साथ पूर्व दिषा में दिग्विजय करने का आदेश दिया। सब भाइयों ने राजा की आज्ञा ली और निकल पड़े। भगवान् भी उनके साथ गए। भक्ति का सबसे बड़ा सुख यह है कि भक्त के आगे भगवान् चलते हैं और उनके पीछे भगवान् का सारा वैभव। पाण्डव दिग्विजय को निकल पड़े हैं।<br />
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<b>कोई भी कार्य शुरू करें तो ये जरूर ध्यान रखें...</b><br />
हमारे यहां हर कार्य को शुरू करने के पहले भगवान को याद किया जाता है। कहा जाता है कि भगवान को याद करके यदि कोई काम शुरू किया जाए तो उस काम में किसी तरह की कोई रूकावट नहीं आती। यहां भागवत में जो प्रसंग चल रहा है उसमें भगवान कृष्ण की पूजा सर्वप्रथम की गई। धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण की अनुमति से यज्ञ के योग्य समय आने पर यज्ञ के कर्मों में निपुण वेदवादी ब्राह्मणों को ऋत्विज, आचार्य आदि के रूप में वरण किया।<br />
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पाण्डवों ने द्रोणाचार्य, भीष्मपितामह, कृपाचार्य, धृतराष्ट्र और उनके दुर्योधन आदि पुत्रों और विदुर आदि को भी बुलवाया। राजसूय यज्ञ का दर्शन करने के लिए देश के सब राजा, उनके मन्त्री तथा कर्मचारी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र सब के सब वहां आए।राजा युधिष्ठिर का प्रताप चारों ओर फैल गया। उन्हें चक्रवर्ती सम्राट मान लिया गया। भगवान की ऐसी कृपा रही कि कहीं कोई विरोध भी नहीं कर सका। भगवान को आगे करके जब कोई कार्य किया जाए उसमें कोई समस्या नहीं आती, जो आती है उसे भगवान खुद निपटा देते हैं।<br />
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अब सब लोग इस विषय पर विचार करने लगे कि सदस्यों में सबसे पहले किसकी पूजा अग्रपूजा होनी चाहिए। जितनी मति, उतने मत। इसलिए सर्वसम्मति से कोई निर्णय न हो सका। ऐसी स्थिति में सहदेव ने कहा-यदुवंश शिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण ही सदस्यों में सर्वश्रेष्ठ और अग्रपूजा के पात्र हैं।<br />
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उस समय धर्मराज युधिष्ठिर की यज्ञसभा में जितने सत्पुरुष उपस्थित थे सब ने एक स्वर से बहुत ठीक-बहुत ठीक, कहकर सहदेव की बात का समर्थन किया।यह विचार पांचों पाण्डवों के मन में था लेकिन अपने बड़े-बूढ़ों के प्रभाव को भी वे कम नहीं करना चाहते थे। ऐसे में सबसे छोटे भाई की सलाह काम आई। सलाह हमेशा लेते रहना चाहिए। कभी-कभी छोटों की सलाह मानकर काम करना भी श्रेष्ठ होता है। जैसे ही सहदेव ने श्रीकृष्ण का नाम लिया लोग हर्षित हो उठे।<br />
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<b>श्रीकृष्ण ने क्यों काटा शिशुपाल का सिर?</b><br />
जैसे ही सहदेव ने श्रीकृष्ण का नाम लिया लोग हर्षित हो उठे। यह कलकलंक ग्वाला भला अग्रपूजा का अधिकारी कैस हो सकता है? क्या कौआ कभी यज्ञ के पुरोडाश का अधिकारी हो सकता है?अर्जुन, भीम, भीश्म जैसे वीरों से शिशुपाल की यह बातें सही नहीं गईं। वे शिशुपाल को मारने के लिए उत्तेजित हो उठे लेकिन श्रीकृष्ण मौन होकर सुन रहे थे। उन्होंने सबको शांत किया। शिशुपाल श्रीकृष्ण की बुआ का लड़का ही था लेकिन जरासंध के प्रभाव के कारण वह श्रीकृष्ण से बैर रखता था।शिशुपाल का सारा शुभ नष्ट हो चुका था। इसी से उसने और भी बहुत सी कड़वी बातें भगवान् को सुनाईं। भगवान् श्रीकृष्ण चुप रहे, उन्होंने उसकी बातों का कुछ भी उत्तर नहीं दिया।<br />
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अब शिशुपाल को मार डालने के लिए पाण्डव, मत्स्य, केकय और सृचयवर्षा नरपति क्रोधित होकर हाथों में हथियार ले उठ खड़े हुए। परन्तु शिशुपाल को इससे कोई घबराहट न हुई। उसने बिना किसी प्रकार का आगा-पीछा सोचे अपनी ढाल-तलवार उठा ली और वह भरी सभा में श्रीकृष्ण के पक्षपाती राजाओं को ललकारने लगा। उन लोगों को लड़ते-झगड़ते देख श्रीकृष्ण खड़े हुए। उन्होंने अपने पक्षपाती राजाओं को शांत किया और स्वयं क्रोध करके अपने ऊपर झपटते हुए शिशुपाल का सिर तीखी धार वाले चक्र से काट लिया। शिशुपाल के शरीर से एक ज्योति निकलकर भगवान् श्रीकृष्ण में समा गई। यह दृश्य देखकर शिशुपाल के अन्य मित्र राजा और श्रीकृष्ण से बैर रखने वाले डरकर शान्त बैठे रहे।<br />
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शिशुपाल को चार जन्मों के बाद अब मुक्ति मिली। शिशुपाल और जरासंध पहले जन्म में जय-विजय नाम के द्वारपाल थे जो विष्णुधाम के पहरेदार थे। सनकादिक ऋशियों के श्राप से उन्हें राक्षस कुल में जन्म मिला। पहले हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु फिर रावण-कुंभकर्ण और फिर जरासंध-शिशुपाल। अब माहौल शांत हुआ। श्रीकृष्ण की फिर जय-जयकार हुई। उनकी अग्रपूजा करके युधिष्ठिर ने यज्ञ शुरू किया।<br />
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<b>ऐसे लोग कभी सच्चे प्रेम को नहीं समझ पाते</b><br />
इस प्रकार भगवान् ने युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ पूर्ण किया और अपने सगे-संबंधियों की प्रार्थना से कुछ महीनों तक वहीं रहे। इसके बाद राजा युधिष्ठिर की इच्छा न होने पर भी भगवान् ने उनसे अनुमति ले ली और अपनी रानियों तथा मंत्रियों के साथ इन्द्रप्रस्थ से द्वारिकापुरी की यात्रा की। सब तो सुखी हुए, परन्तु दुर्योधन से पाण्डवों की यह उज्जवल राज्यलक्ष्मी का उत्कर्ष सहन न हुआ। क्योंकि वह स्वभाव से ही पापी, कलहप्रेमी और कुरुकुल का नाश करने के लिए एक महान रोग था।<br />
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जो मन से कपटी होते हैं वे सच्चे प्रेम को नहीं समझ पाते हैं। युधिष्ठिर के मन में दुर्योधन के लिए कोई मैल न था लेकिन दुर्योधन इन्द्रप्रस्थ जैसा राज्य देखकर दंग रह गया। उसके मन में इस राज्य को पाने की लालसा हो उठी। इसका वैभव उसके सिर चढ़ गया। कपटी, पापी और कामी लोग हमेशा दूसरों के वैभव, दूसरों की सम्पत्ति और दूसरों की स्त्री पर ही निगाह रखते हैं। दुर्योधन इन्हीं तीन दुर्गुणों का प्रतीक है। वह कैसे भी पाण्डवों की सुख-शान्ति में खलल डालना चाहता था।<br />
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पाण्डवों की लोगों में प्रतिष्ठा बनने लग गई। लोग जानने लग गए कि यह कोई नई शक्ति आई है। कुरूवंश का हिस्सा आया है जिसके पास धर्म है, यह उजला पक्ष है कुरूवंश का। एक पक्ष दुर्योधन के साथ रह गया। राजसूय यज्ञ हुआ जीत लिया, विश्व विजेता बन गए। अब राजसूय यज्ञ के बाद तिलक होना है। बढिय़ा यज्ञ किया गया। सारे राजाओं को आमन्त्रित किया गया। शिशुपाल और दुर्योधन, सब लोग आए। युधिष्ठिर का राजतिलक होना है।<br />
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<b>उसे ही थोड़े में सुख का अनुभव होता है जो...</b><br />
ईश्वर सब प्राणियों के हृदय में स्थित रहकर अपनी माया से सबको ऐसे घुमा रहा है, जैसे यंत्र संचालित किया जाता है।गृहस्थ जीवन वस्तुत: मायिक यंत्र मय जीवन है, जिसमें सामान्यत: सुबह होती है, शाम होती है और 'जिन्दगी यूं ही तमाम होती है।<br />
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इस चक्र के निर्वाह में मन, बुद्धि का योग स्थापित करने से यंत्र की गति या तो थम जाती है और गुर अनुग्रह हो जाने पर यंत्र सीधे घूमता हुआ पार लगा देता है। बुद्धि द्वारा वह मान लेता है कि यह विशेष जीवन ईश्वर और ईश्वरी कार्य के लिए हैं।वानप्रस्थ में मन, बुद्धि, त्यागमय तपस्वी जीवन, संयम से वैराग्य दृढ़ होगा। त्याग अपने आप होने लगे, ममता मोह अतीत की बात हो जाए तो माना जाए कि मन, बुद्धि सन्यस्थ स्थिति में पहुंच गए हैं।<br />
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क्षमा, धैर्य, अहिंसा, सत्य, सरलता, ज्ञान, त्याग आदि सात्विक वर्ताव सहज हो जाए तो काम बन गया समझा जाए कि प्रभु प्राप्ति समीप आ रही है। प्राप्त होना तो उस प्रभु पर निर्भर करता है कि कितनी कृपा करता है और साधक भक्त किस प्रकार कितनी ग्रहण करता है, प्रभु तो अनन्त और असीम कृपा की सदैव वर्षा करते रहते हैं।<br />
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हर स्थिति में स्थिर बुद्धि को बनाए रखकर उसका सद्उपयोग करते जाना ही मनुष्य/साधक का धर्म है। जिसकी बुद्धि अच्छी नहीं होती है उसे लाख उपाय करने पर भी उसे ज्ञान नहीं होता। जो ज्ञानी होता है वह अल्प प्रयास से सुख का अनुभव करता है। कर्म-शुभ करने से जीवन पथ बिना क्लेश के पार हो जाता है। कहां जाना है, क्यों जाना है, स्पश्ट हुए बिना जहां अल्प पथ थका देने वाला होता है, तो अनन्त पथ की बात ही क्या?<br />
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बुद्धिमान् पथिक रथ का सहारा लेना है, नाव का सहारा लेता है, यान का सहारा लेता है। ये सहारे महापुरुष, गुरु और अन्तर्भगवान् हैं। साधनों की ममता भी छोडऩा होती है। उसी समय वह दुर्घटना हुई। दुर्योधन कुण्ड समझकर गिर गया। द्रौपदी हंस दी तो दुर्योधन ने कहा-मैं इसका प्रतिकार करूंगा, इसका प्रतिषोध करूंगा। अब भगवान् इनको स्थापित करके पुन: द्वारिका लौट आए। चलिए हम भी द्वारिका चलते हैं। पाण्डवों को स्थापित कर दिया और हमें इस पूरी कथा से एक संकेत दिया।<br />
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वह सबसे बड़ा संकेत यह दिया है हमको कि मेरे भरोसे रहोगे तो कभी भी दुखी नहीं रहोगे, असफल नहीं रहोगे। पाण्डवों की सफलता की यात्रा आरम्भ हो रही है। आप कुछ गड़बड़ कर दो तो बात अलग है वरना भगवान तो आपको दुनिया का राजा और इन्द्रप्रस्थ का राजा बनाकर चले गए।<br />
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<b>मंजिल को पाना है तो...</b><br />
भगवान हर भक्त पर समान रूप से अपनी कृपा रखते हैं। परमात्मा के लिए उनका हर बच्चा समान है वे देते समय ये नहीं देखते कि लेने वाला चोर है या साहूकार है वे सिर्फ ये देखते हैं कि इसकी आस्था कितनी दृढ़ और सच्ची है। भागवत के इस प्रसंग के अनुसार शाल्व के मन में संकल्प चाहे जैसा भी था लेकिन उसके संकल्प के प्रति उसकी दृढ़ता व आस्था के कारण ही उस पर शिवजी प्रसन्न हुए।<br />
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अब भागवत में एक नया प्रसंग आता है।<br />
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शाल्व शिशुपाल का सखा था और रुक्मिणी के विवाह के अवसर पर बारात में शिशुपाल की ओर से आया हुआ था। उस समय यदुवंशियों ने युद्ध में जरासन्ध आदि के साथ-साथ शाल्व को भी जीत लिया था। उस दिन सब राजाओं के सामने शाल्व ने यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं पृथ्वी से यदुवंशियों को मिटाकर छोड़ूंगा, सब लोग मेरा बल-पौरुष देखना। मूढ़ शाल्व ने इस प्रकार प्रतिज्ञा करके देवाधिदेव भगवान् पशुपति की आराधना प्रारम्भ की। मन में संकल्प बुरा था लेकिन तपस्या कठोर थी और फिर तप भी किया भोलेभाले शिव के लिए। शिव तो बस शिव ठहरे। शाल्य का भयंकर संकल्प जानकर भी वे प्रसन्न हो गए।<br />
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भगवान् शंकर आशुतोष हैं, औढर दानी हैं, फिर भी वे शाल्व का घोर संकल्प जानकर एक वर्ष के बाद प्रसन्न हुए। शाल्व ने यह वर मांगा कि मुझे आप एक ऐसा विमान् दीजिए जो देवता, असुर, मनुष्य, गन्धर्व, नाग और राक्षसों से तोड़ा न जा सके, जहां इच्छा हो, वहीं चला जाए और यदुवंशियों के लिए अत्यंत भयंकर हो। भगवान् शंकर ने कहा दिया तथास्तु। शाल्व ने वह विमान प्राप्त करके द्वारिका पर चढ़ाई कर दी। शाल्व के विमान ने द्वारिकापुरी को अत्यंत पीडि़त कर दिया।<br />
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<b>किसी भी परिस्थिति में ना छोड़े इस रास्ते क्योंकि...</b><br />
भगवान् के पुत्र प्रद्युम्न ने देखा हमारी प्रजा को बड़ा कष्ट हो रहा है, तब उन्होंने रथ पर सवार होकर सबको ढांढस बंधाया और कहा कि डरो मत। उनके पीछे-पीछे सात्यकि, चारुदेष्ण, साम्ब, भाइयों के साथ अक्रूर, कृतवर्मा, भानुविन्द, गद, शुक, सारण आदि बहुत से वीर बड़े-बड़े धनुष धारण करके निकले। ये सब के सब महारथी थे। शाल्व के सैनिकों और यदुवंशियों का युद्ध होने लगा।<br />
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शाल्व के मंत्री का नाम था द्युमान जिसे पहले प्रद्युम्नजी ने पच्चीस बाण मारे थे। वह बहुत बली था। उसने झपटकर प्रद्युम्न पर अपनी फौलादी गदा से बड़े जोर से प्रहार किया और मार लिया, मार लिया कहकर गरजने लगा। गदा की चोट से शत्रुदमन प्रद्युम्नजी का वक्षस्थल फट सा गया। दारुक का पुत्र उनका रथ हांक रहा था। वह सारथि धर्म के अनुसार उन्हें रणभूमि से हटा ले गया।<br />
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प्रद्युम्नजी की जब मूर्छा टूटी तब उन्होंने सारथी से कहा-तूने यह बहुत बुरा किया। अब मैं अपने ताऊ बलरामजी और पिता श्रीकृष्ण के सामने जाकर क्या कहूंगा? अब तो सब लोग यही कहेंगे न कि मैं युद्ध से भाग गया? मेरी भाभियां हंसती हुई मुझसे साफ-साफ पूछेंगी कि कहो, वीर! तुम नपुंसक कैसे हो गए? अवश्य ही तुमने मुझे रणभूमि से भगाकर अक्षम्य अपराध किया है।<br />
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यह प्रसंग हमें हमारा कर्तव्य बताता है। किस परिस्थिति में धर्म का पालन कैसे हो हमें यही विचार करना चाहिए। धर्म का पथ न छोड़ें। प्रद्युम्न के सारथी ने जो उत्तर दिया वह इसका ही उदाहरण है।सारथी ने कहा-मैंने जो भी किया है, सारथी का धर्म समझकर ही किया है। शत्रु ने आप पर गदा का प्रहार किया था, जिससे आप मूर्छित हो गए थे, बड़े संकट में थे इसी से मुझे ऐसा करना पड़ा।<br />
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<b>बस यही हमारा सुख और दुख तय करता है....</b><br />
यदुवंशियों तथा शाल्व की सेना के लोगों ने युद्धभूमि में प्रवेश करते ही भगवान् को पहचान लिया। घोर युद्ध हुआ।तब एक मनुष्य ने भगवान् के पास पहुंच कर उनको सिर झुकाकर प्रणाम किया और वह रोता हुआ बोला-मुझे आपकी माता देवकीजी ने भेजा है।<br />
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उन्होंने कहा है कि अपने पिता के प्रति अत्यंत प्रेम रखने वाले महाबाहु श्रीकृष्ण! शाल्व तुम्हारे पिता को बांध कर ले गया है। यह समाचार सुनकर भगवान् कृष्ण मनुष्य से बन गए।<br />
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उनके मुंह पर कुछ उदासी छा गई। वे साधारण पुरुष के समान अत्यंत करुणा और स्नेह से कहने लगे-मेरे भाई बलरामजी को तो देवता अथवा असुर कोई नहीं जीत सका। वे सदा-सर्वदा सावधान रहते हैं। शाल्व का बल-पौरुष तो अत्यंत अल्प है। फिर भी इसने उन्हें कैसे जीत लिया और कैसे मेरे पिताजी को बांधकर ले गया? सचमुच प्रारब्ध बहुत बलवान है।<br />
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प्रारब्ध ही हमारे सुख-दुख तय करता है। भगवान ने भी माना और इस मान्यता को स्थापित भी किया। वे भले ही अवतार थे लेकिन मनुष्य का अवतार लिया था सो प्रारब्ध के साथ तो चलना ही था।प्रारब्ध पर भगवान का भी मत है। इसे तो भोग कर ही पूरा करना पड़ता है। प्रारब्ध को साधन के द्वारा भोगा जाना चाहिए।<br />
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<b>सच क्या है ऐसे ही पता चलेगा?</b><br />
दन्तवक्त्र के भाई का नाम था विदूरथ। वह अपने भाई की मृत्यु से अत्यन्त शोकाकुल हो गया। तलवार लेकर भगवान् श्रीकृष्ण को मार डालने की इच्छा से आया। भगवान् श्रीकृष्ण ने शाल्व, उसके विमान सौभ, दन्तवक्त्र और विदूरथ को, जिन्हें मारना दूसरों के लिए अशक्य था, मारकर द्वारिकापुरी में प्रवेश किया।<br />
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एक बार बलरामजी ने सुना कि दुर्योधन आदि कौरव पाण्डवों के साथ युद्ध करने की तैयारी कर रहे हैं। वे मध्यस्थ थे, उन्हें किसी का पक्ष लेकर लडऩा पसंद नहीं था। इसलिए वे तीर्थों में स्नान करने के बहाने द्वारिका से चले गए।<br />
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भगवान् इस पूरे युद्ध के सूत्रधार की तरह हैं, जबकि बलराम ने अहिंसा का पक्ष लिया और तीर्थ यात्रा पर निकल गए। कृष्ण का कहना था कि जब धर्म और अधर्म के बीच लड़ाई हो रही हो तो सबसे बड़ा तीर्थ रणभूमि ही हो सकती है। बलराम को दुर्योधन से भी स्नेह था, वह उनका शिष्य भी था और इधर पाण्डव उनकी बुआ के लड़के थे। इसलिए बलराम ने तीर्थ पर जाना ही ज्यादा ठीक समझा।<br />
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तीर्थयात्रा के कई उद्देश्य होते हैं। यह एक अभ्यास है जिससे वैराग्य वृत्ति जगाने में सहायता मिलती है। पापों का क्षरण भी तीर्थयात्रा से होता है। यहां यह तथ्य विचारणीय है पापात्मा अशांत रहता है, अशांत कैसे परमात्मा के निकट जाने की कल्पना भी कर सकता है। मन का शांत व अचंचल (स्थिर) होना आवश्यक है। तीनों गुणों के आवरण भी साथ-साथ हटाने का अभ्यास करना होगा। निष्काम कर्म, प्रतीक या निराकार उपासना, बहिरंग योग साधन या ध्यान योग अतरंग साधन जो की जावे फलस्वरूप पराभक्ति उदय होगी, यौगिक शब्दों में शक्ति जाग्रत होगी, सच का ज्ञान ऐसे ही होगा।<br />
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<b>कुछ ऐसा था दुर्योधन व भीम का युद्ध?</b><br />
भगवान् खुद भी शांति के ही पक्षधर हैं। कौरवों ने खासतौर पर दुर्योधन और कर्ण जैसे योद्धाओं ने युद्ध का अभ्यास भी शुरु कर दिया है।अभ्यास और वैराग्य क्रम में साधन का उच्च स्थान है। सतत् साधन करते मन निग्रह का अभ्यास होता है और वैराग्यीय वृत्ति बन जाती है।पवित्र नदी के पट पर ही माहिष्मतीपुरी है। बलरामजी वहां मनुतीर्थ में स्नान करके वे फिर प्रभास क्षेत्र में चले आए। वहीं उन्होंने ब्राह्मणों से सुना कि कौरव और पाण्डवों के युद्ध में अधिकांश क्षत्रियों का संहार हो गया। उन्होंने ऐसा अनुभव किया कि अब पृथ्वी का बहुत सा भार उतर गया। जिस दिन रणभूमि में भीमसेन और दुर्योधन गदायुद्ध कर रहे थे उसी दिन बलरामजी उन्हें रोकने के लिए कुरुक्षेत्र जा पहुंचे।<br />
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भयंकर युद्ध हो रहा था। लाखों की संख्या में लोग लड़े और मारे गए। धरती पर तीन ही तरह के इन्सान जीवित रह गए, बच्चे बूढ़े और विधवाएं। दोनों कुलों की दुर्दशा देखकर वे दुखी भी थे और धरती से पाप का भार कम होने से प्रसन्न भी।<br />
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महाराज युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव, भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन ने बलरामजी को देखकर प्रणाम किया तथा चुप हो रहे। वे डरते हुए मन ही मन सोचने लगे कि ये न जाने क्या कहने के लिए यहां पधारे हैं? उस समय भीमसेन और दुर्योधन दोनों ही हाथ में गदा लेकर एक-दूसरे को जीतने के लिए क्रोध से भरकर भांति-भांति से पैंतरे बदल रहे थे।<br />
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कोई किसी से जीतता या हारता नजर नहीं आ रहा था। भारी युद्ध और गर्जना से माहौल भी रोमांचकारी हो गया था। बलरामजी से रहा नहीं गया और उन्होंने इस युद्ध को रोकने का प्रयास किया।बलरामजी ने कहा-राजा दुर्योधन और भीमसेन। तुम दोनों वीर हो। तुम दोनों में बल-पौरुष भी समान है। मैं ऐसा समझता हूं कि भीमसेन में बल अधिक है और दुर्योधन ने गदायुद्ध में शिक्षा अधिक पाई है।<br />
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इसलिए तुम लोगों जैसे समान बलशालियों में किसी एक की जय या पराजय होती नहीं दिखती। अत: तुम लोग व्यर्थ का युद्ध मत करो, अब इसे बंद कर दो। बलरामजी की बात दोनों के लिए हितकर थी, परन्तु उन दोनों का वैरभाव इतना दृढ़मूल हो गया था कि उन्होंने बलरामजी की बात न मानी। वे एक दूसरे की कटुवाणी और दुव्र्यवहारों का स्मरण करके उन्मत्त से हो रहे थे।<br />
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भगवान् बलराम ने निश्चय किया कि इनका प्रारब्ध ऐसा ही है, इसलिए उसके संबंध में विशेष आग्रह न करके वे द्वारिका लौट गए। द्वारिका में उग्रसेन आदि गुरुजनों तथा अन्य सम्बन्धियों ने बड़े प्रेम से आगे आकर उनका स्वागत किया। वहां से बलरामजी फिर नैमिशारण्य क्षेत्र में गए। वहां ऋषियों ने विरोधभाव से युद्धादि से निवृत्त बलरामजी के द्वारा बड़े प्रेम से सब प्रकार के यज्ञ कराए।<br />
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<b>उन लोगों को बिना मांगे ही मिल जाता है सबकुछ जो...</b><br />
यहां से सुदामा का प्रसंग शुरू होता है।एक दिन भगवान् को द्वारिका में एक सूचना दी गई कि द्वार पर फटेहाल ब्राह्मण आया है और आपसे मिलने का आग्रह कर रहा है और यह मिलने का समय नहीं है। भगवान् रानियों से सेवा करा रहे थे। कोई रानी पंखा कर रही है, कोई चरण स्पर्श कर रही हैं। आठों पटरानियां आसपास हैं। इस समय भगवान् किसी से नहीं मिलते। द्वारपाल आकर बोला- वह बड़ा हठीला है, रोने लगा और इतना दीन-हीन है कि जब वह कहने लगा कि मिला दो, मिला दो, तो हमें उस पर दया आ गई। आपसे मिलना चाहता है<br />
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भगवान् ने कहा-इस समय कौन है, क्या समस्या आ गई। द्वारपाल ने कहा- वह अपना नाम सुदामा बताता है। इतना सुनकर एकदम कूदे भगवान् पलंग से। रानियों को लगा, यह क्या हो गया। एकदम से कूदे, सुदामा मेरा बालसखा है यह कहकर एकदम दौड़े भगवान्। यह देख द्वारपाल घबरा गए कि क्या हुआ स्वास्थ ठीक नहीं है, रानियां भी चौंक गईं। तब तक तो द्वार पर पहुंच गए। सुदामा भगवान् का बालसखा था, सांदीपनि आश्रम में पढ़ता था। उसकी पत्नी का नाम सुशीला था। कुछ कमा-धमा नहीं पाया बहुत ही दीन-हीन था।<br />
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एक दिन तो खाने के लाले पड़ गए तो उसकी पत्नी ने कहा-तुम रोज घर में तो घटनाएं सुनाते हो हमको कि तुम कृष्ण के साथ पढ़े हो, द्वारिकाधीष के साथ पढ़े हो। घर में कई लोग यही किस्सा सुनाते हैं, किसी बड़े आदमी के साथ पढ़े हो तो जीवनभर याद करता है उसको। अपने बच्चों को सुनाता है कि वो हमारे साथ पढ़ते थे। हमारे साथ रहते थे, हमारे मोहल्ले में रहते थे। पुराने जो आगे बढ़ जाते हैं उनके किस्से तो चलते ही हैं। बच्चों को यही सिखाता, यही सुनाता है कि कृष्ण मेरे साथ पढ़े हैं। एक दिन उसकी पत्नी ने बोला-इतनी तारीफ करते हो कुछ मांग लो बच्चे भूखे मर रहे हैं। आटा घोलकर पिलाती हूं दूध की जगह, जाओ अपने मित्र के पास।<br />
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इस प्रकार सुदामाजी की पत्नी ने उनसे कई बार बड़ी नम्रता से प्रार्थना की, तब उन्होंने सोचा कि धन की तो कोई बात नहीं है, परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण का दर्शन हो जाएगा, यह तो जीवन का बहुत बड़ा लाभ है। ज्ञानी पुरुषों की विशेषता ही यह होती है कि वे हर बात में अध्यात्म और भक्ति का समावेश कर लेते हैं। सुदामा की पत्नी बच्चों की चिंता में थी, गरीबी और भुखमरी से ग्रस्त थी लेकिन सुदामा इसमें भी श्रीकृष्ण के दर्शनों का लाभ देख रहे हैं। मन में जब ऐसी घटनाएं आ जाएं तो फिर परमात्मा से कुछ मांगने की आवश्यकता नहीं पड़ती। बिना मांगे ही भण्डार भर जाता है।<br />
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<b>दोस्ती निभाएं तो कुछ इस तरह ...</b><br />
जीवन में एक सिद्धांत बनाइए, हम जिनकी कृपा पाना चाहते हैं उसके पास कभी खाली हाथ न जाएं। श्रीकृष्ण को क्या कमी थी और सुदामा के थोड़े से चावलों से उन्हें मिलता भी क्या लेकिन यह मामला वस्तु के मूल्य या महत्व का नहीं, भाव का है। विद्वानों और संतों का ऐसा मानना है कि राजा, ब्राह्मण, गुरु और बालक के पास कभी खाली हाथ नहीं जाना चाहिए। छोटा ही सही एक उपहार अवश्य ले जाएं, इससे वे प्रसन्न होते हैं।<br />
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आइये देखें सुदामा के दाम्पत्य का आधार भगवान् थे, रामायण के प्रसंग से समझें। मनुष्य साधक भौतिक, दैहिक व दैविक त्रि-तापों से नित्य प्रति तनु होता जाता है। सतोगुण, रजोगुण व तमोगुण के बीच से गुजरना सहज गति है। कभी इसमें परस्पर मिश्रण हो जाता है, तदनुसार होते जाते हैं। त्रि-चक्रम में उलझा साधक जप, तप व योग बल से अनुसूया साध्वी का संग करने अर्थात् बुद्धि शुद्ध करके चले तो ब्रम्हा, विष्णु व शंकर को शिशुवत अपने आश्रम (मन मंदिर) में लीला कराके असीम दैवी आनंद प्राप्त कर सकता है।<br />
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इस दैवी दम्पत्ति त्यागमूर्ति के सम्पर्क में भरतजी के जाने के पश्चात राम आए। चित्रकूट का त्याग किया अर्थात् जगत-जन्य विकार (गन्दगी) त्याग दी तब कहीं त्यागमूर्ति युगल के सम्पर्क का लाभ मिल सका। तात्पर्य यह कि सतसंग के लिए अविकार अवस्था (तन-मन की) होना आवश्यक है। परिवार में प्रेम का प्रसंग देखें।<br />
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वाल्मिकी रामायण में वर्णन है कि भरत के साथ सैन्य, हाथी, नागरिक आदि आए थे-राम के चित्रकूट में रहने के कारण लोगों का आवागमन भी बढ़ गया था, ऋषि-मुनियों के जप-तप में विघ्न पड़ता था, वे चित्रकूट से दूर कहीं घने वन में चले गए थे और भरतजी के सैन्य से गंदगी फैल गई थी इसलिए श्रीराम ने चित्रकूट भी छोड़ दिया। अर्थ है चित्त में अपनों के प्रति जग राग हो तो विकार आता है - उस राग को भी चित्त से हटाना है क्योंकि जहां राग होगा वहां द्वेश भी होगा।<br />
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इन राग द्वेश के रहते न तो जप हो पाता है और न ही तप और न ही योग इनसे परे ही साधक साधन कर सकता है।सुदामा का श्रीकृष्ण के चरणों में राग है, वे उसे धन-सम्पदा से नहीं जोड़ते, कृष्ण राजा हैं और सुदामा एक ब्राम्हण भिक्षु की तरह लेकिन फिर भी रिश्ता एकदम आत्मीय है। सुदामा ने कभी कृष्ण से कोई अपेक्षा नहीं रखी और श्रीकृष्ण ने भी ऐसा नहीं दर्शाया कि वे अपने मित्र की दरिद्रता को दूर करना चाहते हैं, कृपा कर रहे हैं। उन्होंने कुछ दिया ही नहीं प्रत्यक्ष रूप से।<br />
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<b>पत्नी कैसी होनी चाहिए?</b><br />
सुदामा के दाम्पत्य का आधार भगवान् थे, रामायण के प्रसंग से समझें। वाल्मिकी रामायण में वर्णन है कि भरत के साथ सैन्य, हाथी, नागरिक आदि आए थे-राम के चित्रकूट में रहने के कारण लोगों का आवागमन भी बढ़ गया था, ऋषि-मुनियों के जप-तप में विघ्न पड़ता था, वे चित्रकूट से दूर कहीं घने वन में चले गए थे और भरतजी के सैन्य से गंदगी फैल गई थी इसलिए श्रीराम ने चित्रकूट भी छोड़ दिया। अर्थ है चित्त में अपनों के प्रति जग राग हो तो विकार आता है - उस राग को भी चित्त से हटाना है क्योंकि जहां राग होगा वहां द्वेष भी होगा। इन राग द्वेष के रहते न तो जप हो पाता है और न ही तप और न ही योग इनसे परे ही साधक साधन कर सकता है। सीताजी को सती अनुसूयाजी अनेक दिव्य वस्त्र एवं अलंकार प्रदान कर महत्वपूर्ण उपदेश देती हैं। नारी के धर्म (कर्म) की प्रस्तुति अनुसूयाजी से अधिक तत्कालीन कोई अन्य नारी नहीं कर सकती थीं।<br />
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''मातु पिता भ्राता हितकारी। मितप्रद सब सुन राजकुमारी।<br />
अमित दानि भर्ता बय देही। अधम सो नारि जो सेव न ते ही।।<br />
धीरज धर्म मित्र अरू नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी।<br />
बुद्ध रोग बस जड़ धन हीना। अंध बघिर क्रोधी अति दीना।।<br />
ऐस हु पति कर किए अपमाना। नारि पाव जमपुर दुख नाना।<br />
एकइ धर्म एक व्रत नेमा। कायं वचन मन पति पद प्रेमा।। -( रामायण अरण्य काण्ड दोहा 4 से)<br />
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और भी पतिव्रता के चार प्रकार बताते हुए उत्तम सपने में भी पर पुरुष का न दर्शन करने वाली मध्यम पुरुष को पिता, भाई, पुत्र सम देखने वाली - धर्म के अनुसार भय में रहने वाली तीसरे प्रकार की पतिव्रता और अवसर अनुसार व्यवहार करने वाली, मौका मिलने पर कदाचरण करने वाली अधम नारी नरक में वास करती है और भावी जन्म में विधवा होती है। पति की सेवा से जन्म से अपावन नारी शुभ गति प्राप्त कर लेती है। पतिव्रता नारियां संसार का हित करती हैं अर्थात संभ्रान्त, कुलीन सम्य चरित्रवान नागरिकों को जन्म देने से बढ़कर अन्य कोई सांसारिक और सामाजिक हित नहीं हो सकता।<br />
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<b>ऐसी थी कृष्ण सुदामा की दोस्ती</b><br />
उसने कहा खाली हाथ नहीं जाएंगे तो चिवड़ा रख लिया और आ गए। अब उसने पहली बार देखे राजमहल और द्वारपाल तो उसने सोचा कि राजा है तो पता नहीं अंदर बुलाए या नहीं बुलाए, प्रतीक्षा करनी पड़े लेकिन कृष्ण को दौड़ता हुआ आता देखकर सुदामा को कुछ समझ में नहीं आया और जब तक कि सुदामा की आंख खुलती तब तक भगवान् ने सुदामा को बाहों में भर लिया। सुदामा मूच्र्छि्रत हो गए। जो भगवान् की बाहों में जाता है फिर उसको होश नहीं रहता है। भगवान् ने सुदामा से कहा-अरे मित्र अचानक, कोई खबर नहीं चलिए अन्दर आइए। अन्दर लाए, सुदामा डरते-डरते वैभव देखते आ रहे हैं। राजसभा में ले गए। तब तक तो लोग इकट्ठे हो गए। रानियां आ गईं। सबने सोचा चलो कोई अतिथि आया है और सुदामा से बोलते हैं यहां बैठ जाओ। सुदामा बेचारा क्या जाने क्या है यह बैठ गया, राजगादी थी वह। जिस राजगादी पर कृष्ण बैठते थे उस राजगादी पर सुदामा बैठ गए। रानियों को आश्चर्य हुआ जिस राजगादी के आसपास से हवा को भी निकलने के लिए कृष्ण से इजाजत लेनी पड़ती हो उस पर सुदामा को बैठा दिया भगवान ने। बैठ गया दोस्त। तत्काल रूक्मिणीजी ने सेवादारों को बोला, इस पर यह बैठ गए हैं तो भगवान् कहां बैठेंगे, एक और राजगादी लाओ।<br />
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पहरेदार लाए इससे पहले तो भगवान् सुदामा के पैरों में बैठ गए। उसकी जंघाओं पर हाथ रखा। इतने दिन बाद आए हो मित्र। सुदामा कहने लगे नीचे मत बैठो, मैं भी नीचे बैठ जाता हूं। कृष्ण ने कहा-आज तुझे वहीं बैठना है। अब तक तो लोगों को समझ में आ गया। रानियों को लगा कि बालसखा आया है। रानियों से कहा इसके स्वागत की तैयारी करो। मेरा मित्र आया है भोजन के थाल लाओ। उन्होंने कहा-बहुत दूर से चलकर आया है इसके पैर में कांटे लगे हैं, रक्त है।<br />
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पहले पाद प्रक्षालन किया जाएगा। भगवान् ने अपने दोस्त के पैर धोए। भगवान् क्यों पैर धो रहे हैं, क्योंकि सुदामा सच्चा ब्राह्मण और बड़ा भक्त था। भगवान् भक्त के चरण प्रक्षालन में कोई भी देर नहीं करते। सुदामा की आंख से आंसू निकल रहे हैं। भगवान् भी रो रहे हैं अब तो पता ही नहीं लग रहा है कौन जल है और कौन आंसू। भगवान् ने अपने मित्र को बड़ा सम्मान दिया। उसके बाद थोड़ा समय बीता तो भगवान् ने कहा नए वस्त्र लेकर आओ हमारे मित्र को पहनाओ, तैयार करो। सुदामाजी को तैयार किया गया।<br />
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<b>यही उस तक पहुंचने का सबसे सरल रास्ता है....</b><br />
भगवान् कहते हैं सुदामा गुरु दक्षिणा देकर जब आप गुरुकुल से लौट आए, तब आपने अपने अनुरूप स्त्री से विवाह किया या नहीं? मैं जानता हूं कि आपका चित्त गृहस्थी में रहने पर भी प्राय: विषय भोगों में आसक्त नहीं है। विद्वन्यह भी मुझे मालूम है कि धन आदि में भी आपकी कोई प्रीति नहीं है। जगत् में बिरले ही लोग ऐसे होते हैं, जो भगवान् की माया से निर्मित विषय संबंधी वासनाओं का त्याग कर देते हैं और चित्त में विषयों की तनिक भी वासना न रहने पर भी मेरे समान केवल लोकशिक्षा के लिए कर्म करते रहते हैं।<br />
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भगवान् को सुदामा के पूरे जीवन के बारे में जानकारी थी, लेकिन वे उसके गुणों का बखान खुद अपने मुख से कर रहे थे। भक्ति जब अपने चरम पर आ जाए तो भगवान् से ऊपर उठ जाती है और भगवान् अपने भक्त के पैरों में आ जाते हैं। उसके सारे कष्ट अपने हाथों से चुन-चुनकर अलग कर देते हैं। भक्ति के मार्ग में आए अपार कष्ट दो क्षण में ही अपने स्पर्श से दूर कर देते हैं।<br />
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हमको भक्ति में कुछ नहीं करना है, न कठोर तप, न कोई बड़ा यज्ञ, न पूजन विधान। ये मार्ग तो दैहिक है, भौतिक है। परमात्मा को पाना है तो पहले खुद के भीतर उतरें। अपना मन सुधारें, साधें और उसमें परमात्मा को स्थापित करें। मन निर्मल हो जाए, अहंकार का विसर्जन हो जाए, बुद्धि को परमात्मा के चरणों से बांध दें फिर परमात्मा मिलने में देरी नहीं होगी। कबीरदास ने बहुत खूब लिखा है-''कबीरा मन निर्मल भय, जैसे गंगा नीर। पीछे-पीछे हरि फिर, कहत कबीर-कबीर। निष्काम पुरुषों को परमधाम देने वाले पदों का भजन करते हैं। निष्काम कर्म करने वाले परमधाम पाते हैं, यह स्पष्ट होता है।<br />
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कबीर ने भक्ति का परमात्मा को पाने का सबसे सरल मार्ग बताया है, आप अपना मन साफ कर लो। अहंकार, व्यसन, सारे दुर्गुणों का विसर्जन कर दो फिर आपको भगवान् के पीछे भागना नहीं पड़ेगा। भगवान् खुद आपके पीछे दौड़ा आएगा आपका नाम पुकारते हुए। सुदामा के साथ भी ऐसा ही हुआ। अब भगवान् उसके पैरों में बैठे उससे कह रहे हैं....क्या आपको उस समय की बात याद है, जब हम दोनों एक साथ गुरुकुल में निवास करते थे।<br />
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<b>समय की कीमत समझिए</b><br />
भगवान् ने सुदामा को जीवन का उपदेश दिया है। हम मित्रों से जब भी मिलें तो परिवार, समाज, देश और धर्म पर सार्थक चर्चाएं होनी चाहिए। निरर्थक बातों से समय की बर्बादी होती है। किसी भी विषय को गंभीरता से नहीं लिया जाए तो बाद में परिणाम गंभीर हो जाते हैं। सुदामा ज्ञानी थे लेकिन श्रीकृष्ण परम ज्ञानी थे।<br />
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उन्होंने सुदामा को जीवन की चारों दशाओं के बारे में सम्यक ज्ञान दिया। वे जीवन के व्यापक दृष्टिकोण पर बात कर रहे हैं। हम अपने जीवन में उतरें। सोचिए, क्या जब कभी आप अपने पुराने मित्रों से मिलते हैं तो ऐसी कोई चर्चा होती है। क्या आप अपने भीतर, अपने मित्रों के भीतर अध्यात्म की ऐसी चेतना का प्रवाह कर पाते हैं, अगर नहीं तो फिर आप खुद और अपने मित्र दोनों का समय बर्बाद कर रहे हैं। समय की कीमत को समझिए। इस ज्ञान की धारा में अवरुद्ध न करें।<br />
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आपके बीच जब भी कोई चर्चा हो तो उसका कोई सार हो। वो फिजुल न हो। हम कई बार मित्रों के साथ केवल गप्पे लड़ाया करते हैं, बेमतलब की बातों पर घंटों बहस किया करते हैं। उसे रोकिए। समय, ज्ञान और परमात्मा बार-बार नहीं मिलता। इसके लिए तप किया जाता है। समय परमात्मा का सबसे बड़ा उपहार है, फिर ज्ञान और फिर स्वयं भगवान समय के लिए हमें सबसे ज्यादा तप करना चाहिए।<br />
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उसे बरबाद न करें। कृश्ण कहते हैं जीवन का हर क्षण जो हम बिता रहे हैं वह साद्देष्य होना चाहिए। निरुद्देश्य समय की बरबादी बेकार है। समय को साधिए। समय जिसने साध लिया परमात्मा उसके लिए आसान हो जाएगा। इस समय को ज्ञान की प्राप्ति में खर्च करें। जब मित्रों से मिलें कुछ ज्ञान की बातें भी हों। कृ ष्ण ने सुदामा से पहले हालचाल पूछा फिर ज्ञान की बात की और अब वे बचपन को याद कर रहे हैं लेकिन वह भी साद्देश्य ही है।<br />
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<b>शांति तभी मिलती है जब....</b><br />
सुदामा जिस समय हम लोग गुरुकुल में निवास कर रहे थे उस समय की वह बात आपको याद है क्या, जब हम दोनों को एक दिन हमारी गुरुपत्नी ने ईंधन लाने के लिए जंगल में भेजा था। उस समय हम लोग एक घोर जंगल में गए हुए थे और बिना ऋतु के ही बड़ा भयंकर आंधी-पानी आ गया। आकाश में बिजली कड़कने लगी थी। अब सूर्यास्त हो गया, चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा फैल गया।<br />
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धरती पर इस प्रकार पानी ही पानी हो गया कि कहां गड्ढा है, कहां किनारा, इसका पता ही न चलता था। वह वर्षा क्या थी, एक छोटा-मोटा प्रलय ही था। आंधी के झटकों और वर्षा की बोछारों से हम लोगों को बड़ी पीड़ा हुई, दिशा का ज्ञान न रहा। हम लोग अत्यंत आतुर हो गए और एक-दूसरे का हाथ पकड़कर जंगल में इधर-उधर भटकते रहे। जब हमारे गुरुदेव सान्दीपनि मुनि को इस बात का पता चला, तब वे सूर्योदय होने पर हम लोगों को ढूंढते हुए जंगल में पहुंचे और उन्होंने देखा कि हम अत्यंत आतुर हो रहे हैं।<br />
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वे कहने लगे आश्चर्य है, आश्चर्य है! पुत्रों! तुम लोगों ने हमारे लिए अत्यंत कष्ट उठाया। सभी प्राणियों को अपना शरीर सबसे अधिक प्रिय होता है, परन्तु तुम दोनों उसकी भी परवाह न करके हमारी सेवा में ही संलग्न रहे। गुरु के ऋण से मुक्त होने के लिए सत् शिष्यों का इतना ही कर्तव्य है कि वे विशुद्ध भाव से अपना सब कुछ और शरीर भी गुरुदेव की सेवा में समर्पित कर दें। द्विज-शिरोमणियों! मैं तुम लोगों से अत्यंत प्रसन्न हूं। तुम्हारे सारे मनोरथ, सारी अभिलाषाएं पूर्ण हों और तुम लोगों ने हमसे जो वेदाध्ययन किया है, वह तुम्हें सर्वदा कण्ठस्थ रहे तथा इस लोक एवं परलोक में कहीं भी निष्फल न हो।<br />
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प्रिय मित्र! जिस समय हम लोग गुरुकुल में निवास कर रहे थे, हमारे जीवन में ऐसी-ऐसी अनेकों घटनाएं घटित हुई थीं। इसमें सन्देह नहीं कि गुरुदेव की कृपा से ही मनुष्य शान्ति का अधिकारी होता और पूर्णता को प्राप्त करता है।<br />
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श्रीकृष्ण स्वयं जगद्गुरु थे लेकिन उन्होंने जीवन में गुरु के महत्व को सर्वोच्च माना। अगर हमारे पास एक अच्छा गुरु हो तो फिर हमें खुद को उसी में समर्पित कर देना चाहिए। कृष्ण ने गुरु का स्मरण किया है, वे गुरु सान्दीपनि के प्रति समर्पित रहे हैं, महर्षि सान्दीपनि स्वयं भी जानते थे कि उनके आश्रम में पढऩे स्वयं जगत्पिता परमेश्वर आए हैं, जो सारे ज्ञान का केन्द्र बिन्दू हैं।<br />
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सारी विद्या, सारे वेद-शास्त्र जिनसे उत्पन्न हुए हैं वे श्रीकृष्ण ही हैं, फिर भी गुरु-शिष्य की मर्यादा कभी भंग नहीं हुई। श्रीकृष्ण ने कभी सांदीपनि ऋषि को गुरु-पिता तुल्य से कम नहीं माना और सारी उम्र वे गुरु के प्रेम से परिपूर्ण रहे। सुदामा बोले! देवताओं के आराध्य श्रीकृष्ण! भला अब हमें क्या करना बाकी है? क्योंकि आपके साथ जो सत्यसंकल्प परमात्मा हैं, हमें गुरुकुल में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।<br />
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<b>तब बोले बगैर भी वो सारी बातें समझ जाएगा</b><br />
इस समय यह अपनी पतिव्रता पत्नी को प्रसन्न करने के लिए उसी के आग्रह से यहां आया है। अब मैं इसे ऐसी सम्पत्ति दूंगा जो देवताओं के लिए भी अत्यंत दुर्लभ है।भगवान् श्रीकृष्ण ने ऐसा विचार करके उनके वस्त्र में से एक पोटली में बंधा हुआ चिउड़ा ''यह क्या है'' ऐसा कहकर स्वयं ही छीन लिया और बड़े आदर से कहने लगे-मित्र! यह तो तुम मेरे लिए अत्यंत प्रिय भेंट ले आए हो। ये चिउड़े न केवल मुझे, बल्कि सारे संसार को तृप्त करने के लिए पर्याप्त हैं ऐसा कहकर वे उसमें से एक मुट्ठी चिउड़ा खा गए और दूसरी मुट्ठी ज्यों ही भरी, त्यों ही रुक्मिणी के रूप में स्वयं भगवती लक्ष्मीजी ने भगवान् श्रीकृष्ण का हाथ पकड़ लिया, क्योंकि वे तो एकमात्र भगवान् के परायण हैं, उन्हें छोड़कर और कहीं जा नहीं सकतीं।<br />
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रुक्मिणीजी ने कहा-विश्वात्मन बस, बस! मनुष्य को इस लोक में तथा मरने के बाद परलोक में भी समस्त सम्पत्तियों की समृद्धि प्राप्त करने के लिए यह एक मुट्ठी चिउड़ा ही बहुत है, क्योंकि आपके लिए इतना ही प्रसन्नता का हेतु बन जाता है।<br />
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भगवान् ने अपने हाथों से चिवड़ा खाया, उधर सुदामा का घर महल हो गया। भगवान् ने उसे सारा राजपाठ दे दिया। एक तरह से त्रिलोक का स्वामी घोषित कर दिया। ब्राम्हण को राजा बना दिया, लेकिन सुदामा को तनिक भी पता नहीं लगने दिया। पूरी सेवा की, तरह-तरह के भोग खिलाए। आराम दिया। सुदामा मन ही मन सोच रहे थे कि कृष्ण से अपने बच्चों और परिवार के लिए थोड़ा सा धन कैसे मांगू। लज्जा आ रही है। संकोच हो रहा है लेकिन भक्ति में यह सबसे बड़ा फायदा है कि आपको भगवान् से कुछ मांगना नहीं पड़ता, वो तो बिना मांगे ही सबकुछ दे देता है।<br />
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आप अपना मन उसके चरणों से बांध दो, बस फिर आपके बोले बगैर भी वो सारी बातें समझ जाएगा। आपकी सारी इच्छा पूरी कर देगा। भगवान ने सुदामा की पोटली में रखा चिवड़ा खा लिया। धन्य हो गया ब्रह्मांड उस दिन। एक फांक लगाई ब्रह्मांड ने कहा यह भगवान् हैं, सुदामा का चिवड़ा खाया। रानियां कहने लगीं हम एक से एक भोग बनाते हैं कृृष्ण स्पर्श करके चले जाते हैं। आज तो मुट्ठी भर चिवड़ा खा गए।<br />
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श्रीकृष्ण ने सुदामा को विदा कर दिया। सुदामा सोच रहे हैं उन्होंने उस पलंग पर सुलाया जिस पर उनकी प्राणप्रिय रुक्मिणीजी शयन करती थीं। मानों मैं उनका सगा भाई हूं! कहां तक कहूं? मैं थका हुआ था, इस लिए स्वयं उनकी पटरानी रुक्मिणीजी ने अपने हाथों चंवर डुलाकर मेरी सेवा की।<br />
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ओह, देवताओं के आराध्यदेव होकर भी ब्राम्हणों को अपना इष्टदेव मानने वाले प्रभु ने पांव दबाकर, अपने हाथों खिला-पिला कर सुदामाजी की अत्यंत सेवा-शुरूषा की और देवता के समान पूजा की। स्वर्ग, मोक्ष, पृथ्वी और रसातल की सम्पत्ति तथा समस्त योगसिद्धियों की प्राप्ति का मूल उनके चरणों की पूजा ही है। सुदामाजी वापस घर लौटते समय सोचते हैं परमदयालु श्रीकृष्ण ने मुझे थोड़ा सा भी धन नहीं दिया कि कहीं यह दरिद्र धन पाकर बिल्कुल मतवाला न हो जाए और मुझे न भूल बैठे।<br />
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<b>मामला सिर्फ भरोसे का है इसलिए...</b><br />
इस प्रकार मन ही मन विचार करते-करते वे अपने घर के पास पहुंचे। वहां क्या देखते हैं कि सब का सब स्थान सूर्य, अग्नि और चन्द्रमा के समान तेजस्वी रत्ननिर्मित महलों से घिरा हुआ है। ठौर-ठौर, चित्र-विचित्र, उपवन और उद्यान बने हुए हैं तथा उनमें झुंड के झुंड रंग-बिरंगे पक्षी कलरव कर रहे हैं।<br />
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सरोवरों में कुमुदिनी तथा श्वेत, नील और सौगन्धिक भांति-भांति के कमल खिले हुए हैं, स्त्री-पुरुषा बन-ठनकर इधर-उधर विचर रहे हैं। उस स्थान को देखकर वे सोचने लगे-मैं यह क्या देख रहा हूं? यह किसका स्थान है? यदि यह वही स्थान है, जहां मैं रहता था, तो यह ऐसा कैसे हो गया।<br />
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सुदामा ने अपनी पत्नी के साथ बड़े प्रेम से अपने महल में प्रवेश किया। उनका महल क्या था, मानो देवराज इन्द्र का निवासस्थान।इस प्रकार समस्त सम्पत्तियों की समृद्धि देखकर और उसका कोई प्रत्यक्ष कारण न पाकर, बड़ी गंभीरता से सुदामा विचार करने लगे कि मेरे पास इतनी सम्पत्ति कहां से आ गई। वे मन ही मन कहने लगे मैं जन्म से ही भाग्यहीन और दरिद्र था। फिर मेरी इस सम्पत्ति-समृद्धि का कारण क्या है? अवश्य ही परमऐश्वर्यशाली यदुवंश शिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण के कृपाकटाक्ष के अतिरिक्त और कोई कारण नहीं हो सकता। यह सब कुछ उनकी करुणा की ही देन है।<br />
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श्रीकृष्ण सम्पत्ति आदि के दोष जानते हैं। वे देखते हैं कि बड़े-बड़े धनियों का धन और ऐश्वर्य के मद से पतन हो जाता है। इसलिए वे अपने अदूरदर्शी भक्त को उसके मांगते रहने पर भी तरह-तरह की सम्पत्ति, राज्य और ऐश्वर्य आदि नहीं देते यह उनकी बड़ी कृपा है। अपनी बुद्धि से इस प्रकार निष्चय करके वे ब्राम्हण देवता त्याग पूर्वक अनासक्त भाव से अपनी पत्नी के साथ भगवतप्रसाद स्वरूप विषयों को ग्रहण करने लगे और दिनोंदिन उनकी प्रेमभक्ति बढऩे लगी।<br />
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भगवान् ऐसी लीला करता है। वह किसी को देता है तो उसके देने का तरीका भी बड़ा मौलिक है और किसी से लेता है तो लेने का तरीका भी बड़ा मौलिक है। मामला सिर्फ भरोसे का है, भरोसा रखिएगा। सुदामा को देखकर भगवान् ने कहा संपत्ति तो मैं यहां भी दे सकता था पर प्रतीक्षा कर। कभी कभी सुदामा भाव अपने भीतर भी जाग्रत करिए परमात्मा के लिए और यह मानकर चलिए परमात्मा आपके पैर धोएगा।<br />
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<b>यही उस तक पहुंचने का सबसे सरल रास्ता है...</b><br />
भगवान् कहते हैं सुदामा गुरु दक्षिणा देकर जब आप गुरुकुल से लौट आए, तब आपने अपने अनुरूप स्त्री से विवाह किया या नहीं? मैं जानता हूं कि आपका चित्त गृहस्थी में रहने पर भी प्राय: विषय भोगों में आसक्त नहीं है। विद्वन्यह भी मुझे मालूम है कि धन आदि में भी आपकी कोई प्रीति नहीं है। जगत् में बिरले ही लोग ऐसे होते हैं, जो भगवान् की माया से निर्मित विषय संबंधी वासनाओं का त्याग कर देते हैं और चित्त में विषयों की तनिक भी वासना न रहने पर भी मेरे समान केवल लोकशिक्षा के लिए कर्म करते रहते हैं।<br />
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भगवान् को सुदामा के पूरे जीवन के बारे में जानकारी थी, लेकिन वे उसके गुणों का बखान खुद अपने मुख से कर रहे थे। भक्ति जब अपने चरम पर आ जाए तो भगवान् से ऊपर उठ जाती है और भगवान् अपने भक्त के पैरों में आ जाते हैं। उसके सारे कष्ट अपने हाथों से चुन-चुनकर अलग कर देते हैं। भक्ति के मार्ग में आए अपार कष्ट दो क्षण में ही अपने स्पर्श से दूर कर देते हैं।<br />
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हमको भक्ति में कुछ नहीं करना है, न कठोर तप, न कोई बड़ा यज्ञ, न पूजन विधान। ये मार्ग तो दैहिक है, भौतिक है। परमात्मा को पाना है तो पहले खुद के भीतर उतरें। अपना मन सुधारें, साधें और उसमें परमात्मा को स्थापित करें। मन निर्मल हो जाए, अहंकार का विसर्जन हो जाए, बुद्धि को परमात्मा के चरणों से बांध दें फिर परमात्मा मिलने में देरी नहीं होगी। कबीरदास ने बहुत खूब लिखा है-''कबीरा मन निर्मल भय, जैसे गंगा नीर। पीछे-पीछे हरि फिर, कहत कबीर-कबीर।।<br />
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कबीर ने भक्ति का परमात्मा को पाने का सबसे सरल मार्ग बताया है, आप अपना मन साफ कर लो। अहंकार, व्यसन, सारे दुर्गुणों का विसर्जन कर दो फिर आपको भगवान् के पीछे भागना नहीं पड़ेगा। भगवान् खुद आपके पीछे दौड़ा आएगा आपका नाम पुकारते हुए। सुदामा के साथ भी ऐसा ही हुआ। अब भगवान् उसके पैरों में बैठे उससे कह रहे हैं....क्या आपको उस समय की बात याद है, जब हम दोनों एक साथ गुरुकुल में निवास करते थे।<br />
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<b>कृष्ण भी अपने आंसुओं को नहीं रोक पाए क्योंकि....</b><br />
भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी द्वारिका में निवास कर रहे थे। मनुष्यों को ज्योतिषियों के द्वारा उस ग्रहण का पता पहले से ही चल गया था, इसलिए सब लोग अपने-अपने कल्याण के उद्देश्य से पुण्य आदि उपार्जन करने के लिए समन्तपंचक तीर्थ कुरुक्षेत्र में आए। समन्तपंचक क्षेत्र वह है, जहां शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ परशुरामजी ने सारी पृथ्वी को क्षत्रियहीन करके राजाओं की रुधिरधारा से पांच बड़े-बड़े कुण्ड बना दिए थे।<br />
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इस महान् तीर्थयात्रा के अवसर पर भारत वर्ष के सभी प्रान्तों की जनता कुरुक्षेत्र आई थी। यदुवंशियों ने कुरुक्षेत्र में पहुंचकर एकाग्रचित्त से संयमपूर्वक स्नान किया और ग्रहण के उपलक्ष्य में निश्चित काल तक उपवास किया। अनेक देशों के, अपने पक्ष के तथा शत्रुपक्ष के सैकड़ों नरपति आए हुए थे। इनके अतिरिक्त यदुवंशियों के परम हितैशी बन्धु नन्द आदि गोप तथा भगवान् के दर्शन के लिए चिरकाल से उत्कण्ठित गोपियां भी वहां आई हुई थीं। यादवों ने इन सबको देखा। एक-दूसरे के दर्शन, मिलन और वार्तालाप से सभी को बड़ा आनन्द हुआ।<br />
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बरसों बाद भक्त और भगवान का मिलन हुआ। गोप-गोपियां श्रीकृष्ण को देखकर भाव-विभोर हो गए। भक्त फिर भगवान में खो गए। कुन्ती और वसुदेव जो रिश्ते से भाई-बहन थे, मिले और कुन्ती अभी तक के दुखों को याद करके रो पड़ीं। वसुदेव से शिकायत करने लगी। दोनों भाई-बहनों का प्यार देखकर यदुवंशियों की आंखें भी भर आई। दोनों को एक-दूसरे के दुखों की खबर थी लेकिन नारी हृदय कुन्ती शिकायतें कर बैठीं।<br />
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कुन्ती वसुदेव आदि अपने भाइयों, बहिनों, उनके पुत्रों, माता-पिता, भाभियों और भगवान् श्रीकृष्ण को देखकर तथा उनसे बातचीत करके अपना सारा दु:ख भूल गईं। कुन्ती ने वसुदेवजी से कहा-भैया! मैं सचमुच बड़ी अभागिन हूं। मेरी एक भी साध पूरी न हुई। आप जैसे साधु-स्वभाव सज्जन भाई आपत्ति के समय मेरी सुधि भी न लें, इससे बढ़कर दुख की बात क्या होगी? भैया! विधाता जिसके बांए हो जाता है, उसे स्वजन-सम्बंधी, पुत्र और माता-पिता भी भूल जाते हैं। इसमें आप लोगों का कोई दोष नहीं।<br />
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वसुदेवजी ने कहा-बहिन! उलाहना मत दो। हमसे बिलग न मानो। सभी मनुष्य दैव के खिलौने हैं। यह सम्पूर्ण लोक ईश्वर के वश में रहकर कर्म करता है और उसका फल भोगता है। बहिन, कंस से सताए जाकर हम लोग इधर-उधर अनेक दिशाओं में भागे हुए थे। अभी कुछ ही दिन हुए ईश्वर कृपा से हम सब पुन: स्थान प्राप्त कर सके हैं।इधर सभी यदुवंशियों के कुरूक्षेत्र में जमा होने की सूचना वृंदावन में नन्दबाबा को लगी।<br />
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वे अपने बाकी संगी-साथियों को लेकर कुरूक्षेत्र आ पहुंचे। फिर तो भावनाओं का ऐसा सागर उमड़ा कि सब उसमें ही डूब गए। बलराम और श्रीकृष्ण को देखने के लिए बरसों से तरस रहे माता-पिता व्याकुल हो गए। माता यषोदा तो अधीर ही हो उठीं। बरसों बाद माता का स्पर्श पाकर खुद श्रीकृष्ण भी अपने आंसुओं को नहीं रोक पाए, गला रूंध गया। कुछ शब्द भी न निकलने थे बस माता कृष्ण को और कृष्ण माता को निहार रहे थे।<br />
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<b>जीवन का असली रहस्य यही है...</b><br />
महाभाग्यवती यशोदाजी और नन्दबाबा ने दोनों पुत्रों को अपनी गोद में बैठा लिया और भुजाओं से उनका गाढ़ आलिंगन किया। उनके हृदय में चिरकाल तक न मिलने का जो दुख था, वह सब मिट गया। रोहिणी और देवकीजी ने व्रजेष्वरी यशोदा को अपनी अंकवार में भर लिया। यशोदाजी ने उन लोगों के साथ मित्रता का जो व्यवहार किया था, उसका स्मरण करके दोनों का गला भर आया। वे यशोदाजी से कहने लगीं-यशोदारानी! आपने और व्रजेश्वर नन्दजी ने हम लोगों के साथ जो मित्रता का व्यवहार किया है, वह कभी मिटने वाला नहीं है,<br />
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उसका बदला इन्द्र का ऐश्वर्य पाकर भी हम किसी प्रकार नहीं चुका सकतीं। नन्दरानीजी! भला ऐसा कौन कृतघ्न है, जो आपके उस उपकार को भूल सके? जिस समय बलराम और श्रीकृष्ण ने अपने माता-पिता को देखा तक न था और इनके पिता ने धरोहर के रूप में इन्हें आप दोनों के पास रख छोड़ा था, उस समय आपने इन दोनों की इस प्रकार रक्षा की, जैसे पलकें पुतलियों की रक्षा करती हैं तथा आप लोगों ने ही इन्हें खिलाया-पिलाया, दुलार किया और रिझाया, इनके मंगल के लिए अनेकों प्रकार के उत्सव मनाए।<br />
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सच पूछिए तो इनके मां-बाप आप ही लोग हैं। आप लोगों की देख-रेख में इन्हें किसी प्रकार की आंच तक न लगी, ये सर्वथा निर्भय रहे, ऐसा करना आप लोगों के अनुरूप ही था, क्योंकि सत्पुरुषों की दृष्टि में अपने-पराये का भेदभाव नहीं रहता। नन्दरानीजी! सचमुच आप लोग परम संत हैं।वृंदावन के ग्वालों की स्थिति भी कुछ ऐसी ही थी। कृष्ण की सखियां, गोपियां अपने आराध्य को निहार रही थीं। प्रेमभाव से परिपूर्ण गोपियां कृष्ण की भक्ति में आकंठ डूबी नजर आ रही थीं। कृश्ण ने उन्हें उस दिव्य ज्ञान से परिचित कराया जिसके लिए बड़े-बड़े संत महात्मा भी तरसते हैं। कृष्ण ने जैसे उन्हें अपने भीतर ही उतार लिया।<br />
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भगवान् श्रीकृष्ण ने यहां गोपियों को अध्यात्मज्ञान की शिक्षा से शिक्षित किया। उसी उपदेश के बार-बार स्मरण से गोपियों का जीवकोश शरीर नष्ट हो गया और वे भगवान् से एक हो गईं।यह दृश्य अध्यात्म ज्ञान प्राप्त होने की घटना है। संतों ने कहा है-जब ज्ञान होगा तब तुझे भी दिखेगा कि सारा विश्व तेरे में हैं, मैं भी तेरे में हूं और सारा विश्व मेरे में है। यह भी समझा जा सकता है कि प्रत्येक मनुष्य में भगवान् हैं और भगवान् में सारा विश्व, इस प्रकार का ज्ञान अनुभवगम्य है।<br />
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<b>कैसे किया था कृष्ण ने अपनी पत्नियों से विवाह?</b><br />
जिस समय दूसरे लोग इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति कर रहे थे, उसी समय यादव और कौरव-कुल की स्त्रियां एकत्र होकर आपस में भगवान् की त्रिभुवन विख्यात लीलाओं का वर्णन कर रही थीं।कृष्ण की सोलह हजार पत्नियों के साथ द्रौपदी बात कर रही थीं। कृष्ण की प्रिय सखी सबसे कृष्ण से विवाह संबंधी सवाल कर रही थीं।<br />
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द्रौपदी ने पूछा- हे श्रीकृष्णपत्नियों! तुम लोग हमें यह तो बताओ कि स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी माया से लोगों का अनुकरण करते हुए तुम लोगों का किस प्रकार पाणिग्रहण किया?<br />
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रुक्मिणीजी ने कहा-द्रौपदीजी! जरासन्ध आदि सभी राजा चाहते थे कि मेरा विवाह शिशुपाल के साथ हो, इसके लिए सभी शस्त्रास्त्र से सुसज्जित होकर युद्ध के लिए तैयार थे। परन्तु भगवान् मुझे वैसे ही हर लाए, जैसे सिंह बकरी और भेड़ों के झुंड में से अपना भाग छीन ले जाए। क्यों न हो जगत् में जितने भी अजेय वीर हैं, उनके मुकुटों पर इन्हीं की चरणधूली शोभायमान होती है। द्रौपदीजी! मेरी तो यही अभिलाषा है कि भगवान् के समस्त सम्पत्ति और सौन्दर्यों के आश्रय चरणकमल जन्म-जन्म मुझे आराधना करने के लिए प्राप्त होते रहें, मैं उन्हीं की सेवा में लगी रहूं।<br />
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सत्यभामा ने कहा-द्रौपदीजी! मेरे पिताजी अपने भाई प्रसेन की मृत्यु से बहुत दुखी हो रहे थे, अत: उन्होंने उनके वध का कलंक भगवान् पर ही लगाया। उस कलंक को दूर करने के लिए भगवान् ने ऋक्षराज जाम्बवान् पर विजय प्राप्त की और वह रत्न लाकर मेरे पिता को दे दिया। अब तो मेरे पिताजी मिथ्या कलंक लगाने के कारण डर गए। अत: यद्यपि वे दूसरे को मेरा<br />
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वाग्दान कर चुके थे, फिर भी उन्होंने मुझे स्यमन्तक मणि के साथ भगवान् के चरणों में ही समर्पित कर दिया।जाम्बवती ने कहा-द्रौपतीजी! मेरे पिता ऋक्षराज जाम्बवान् को इस बात का पता न था कि यही मेरे स्वामी भगवान् सीतापति हैं। इसलिए वे इनसे सत्ताईस दिन तक लड़ते रहे। परन्तु जब परीक्षा पूरी हुई, उन्होंने जान लिया कि ये भगवान् राम ही हैं, तब इनके चरणकमल पकड़कर स्यमन्तक मणि के साथ उपहार के रूप में मुझे समर्पित कर दिया। मैं यही चाहती हूं कि जन्म-जन्म इन्हीं की दासी बनी रहूं।<br />
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कालिन्दी ने कहा-द्रौपतीजी! जब भगवान् को यह मालूम हुआ कि मैं उनके चरणों का स्पर्श करने की आशा-अभिलाषा से तपस्या कर रही हूं, तब वे अपने सखा अर्जुन के साथ यमुना तट पर आए और मुझे स्वीकार कर लिया। मैं उनका घर बुहारने वाली उनकी दासी हूं।इस तरह हर रानी ने अपनी कथा कह सुनाई। सबको कृष्ण कैसे खुश करते होंगे। यहां कृष्ण गृहस्थी का संदेश दे रहे हैं।<br />
<br />
<b>कृष्ण सभी को कैसे खुश रखते थे?</b><br />
इस तरह हर रानी ने अपनी कथा कह सुनाई। सबको कृष्ण कैसे खुश करते होंगे। यहां कृष्ण गृहस्थी का संदेश दे रहे हैं। इस तरह हर रानी ने अपनी कथा कह सुनाई। सबको कृष्ण कैसे खुश करते होंगे। यहां कृष्ण गृहस्थी का संदेश दे रहे हैं। भगवान् अपने प्रत्येक विवाह से गृहस्थी में आध्यात्मिक जीवनशैली का संदेश दे रहे हैं। निवृत्ति मार्ग और प्रवृत्ति मार्ग में प्रथम को त्याग के माध्यम से प्राप्त किया जाता है और दूसरा संस्कारों से युक्त बलात मनुष्य या साधक द्वारा अपना लिया जाता है, यह उसे कालान्तर में सहज लगने लगता है। प्रवृत्ति मार्ग की दिशा बदलने का प्रयत्न योग शक्ति में निहित है।<br />
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यह योग ज्ञानयोग हो, कर्मयोग हो या भक्तियोग, कोई अन्तर नहीं पडऩा चाहिए श्रद्धा विश्वास और निष्ठा में। ज्ञान और कर्म अर्थात् निष्काम कर्म दोनों श्रेष्ठ हैं, किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा-''सन्यास: कर्म योगश्च नि: श्रेयसकरावुभौ। तयोस्तु कर्म सन्यासात्कर्मयोगो विषिश्यते।। 2।। 5।। गीताकर्मों का त्याग और योग दोनों मोक्ष देने वाले हैं। उनमें भी कर्म-संन्यास से कर्मयोग श्रेयस्कर है। यहां स्पष्ट होना आवश्यक है कि वस्त्र त्याग या चोला बदलना यानी भगवा, पीले या सफेद वस्त्र धारण करने को संन्यास नहीं कहा जा सकता। वस्तुत: जो मनुष्य द्वेष और इच्छा से मुक्त है उसे नित्य संन्यासी जानना चाहिए।<br />
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इस पर गांधीजी की टिप्पणी विचारणीय है-''संन्यास का खास लक्षण कर्म का त्याग नहीं है, वरन् द्वन्दातीत होना ही है। एक मनुष्य कर्म करते हुए भी संन्यासी हो सकता है। ब्रम्हलीन स्वामी श्री विष्णुतीर्थजी महाराज ने गीतातत्वामृत में इसकी व्याख्या करके विषय को अधिक सरल और स्पष्ट कर दिया है। उनकी व्याख्या इस प्रकार है।......जिसकी पूर्व आश्रमों में श्रेय के मार्ग पर योगारूढ़ होने की तैयारी नहीं हुई है वह संन्यासी होकर भी नाम-मात्र का संन्यासी है और जिसकी कर्मकाण्ड में रहकर तैयारी हो गई है, वह संन्यास न लेने पर भी संन्यासी तुल्य ही है।<br />
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जो गृहस्थ भी कर्मों का फल न चाहकर और अन्त:करण शुद्धि को साधन समझकर नियतकर्म करता है वह आरुरुक्ष (संकल्पों विकल्पों का त्यागी, स्थिरचित्त, मनो निग्रही) की श्रेणी में आ जाता है। जब तक अन्त:करण की शुद्धि नहीं होती, मनुष्य जितेन्द्रिय नहीं होता, मन पर उसका वश नहीं होता, उसे ज्ञान की उपलब्धि नहीं हो सकती।<br />
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<b>कैसे भगवान भक्तों को अपना बना लेते हैं?</b><br />
द्रौपदी उनकी बातें सुनकर थकती न थीं। वह कृष्ण की लीलाओं का रस ले रही थीं। कैसे भगवान अपने भक्तों को अपना बना लेते हैं, उन पर किसी प्रकार की विपत्ति नहीं आने देते। मित्रविन्दा ने कहा-द्रौपदीजी! मेरा स्वयंवर हो रहा था। वहां आकर भगवान् ने सब राजाओं को जीत लिया और जैसे सिंह झुंड के झुंड कुत्तों में से अपना भाग ले जाए, वैसे ही मुझे अपनी शोभामयी द्वारिकापुरी में ले आए।<br />
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मेरे भाइयों ने भी मुझे भगवान् से छुड़ाकर मेरा अपकार करना चाहा, परन्तु उन्होंने उन्हें भी नीचा दिखा दिया। मैं ऐसा चाहती हूं कि मुझे जन्म-जन्म उनके पांव पखारने का सौभाग्य प्राप्त होता रहे।सत्या ने कहा-द्रौपदीजी! मेरे पिताजी ने मेरे स्वयंवर में आए हुए राजाओं के बल-पौरुष की परीक्षा के लिए बड़े बलवान् और पराक्रमी, तीखे सींगवाले सात बैल रख छोड़े थे। उन बैलों ने बड़े-बड़े वीरों का घमंड चूर-चूर कर दिया था।<br />
उन्हें भगवान् ने खेल-खेल में ही झपटकर पकड़ लिया, नाथ लिया और बांध दिया, ठीक वैसे ही, जैसे छोटे-छोटे बच्चे बकरी के बच्चों को पकड़ लेते हैं। इस प्रकार भगवान् बल-पौरुष के द्वारा मुझे प्राप्त कर चतुरंगिणी सेना और दासियों के साथ द्वारिका ले आए। मार्ग में जिन क्षत्रियों ने विघ्न डाला, उन्हें जीत भी लिया। मेरी यही अभिलाषा है कि मुझे इनकी सेवा का अवसर सदा-सर्वदा प्राप्त होता रहे।<br />
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भद्रा ने कहा-द्रौपदीजी! भगवान् मेरे मामा के पुत्र हैं। मेरा चित्त इन्हीं के चरणों में अनुरक्त हो गया था। जब मेरे पिताजी को यह बात मालूम हुई, तब उन्होंने स्वयं ही भगवान् को बुलाकर अक्षौहिणी सेना और बहुत सी दासियों के साथ इन्हीं के चरणों में समर्पित कर दिया। मैं अपना परम कल्याण इसी में समझती हूं कि कर्म के अनुसार मुझे जहां-जहां जन्म लेना पड़े, सर्वत्र इन्हीं के चरणकमलों का संस्पर्श प्राप्त होता रहे।<br />
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<b>देवकी की आंखों से यह दृश्य देखकर आंसु बहने लगे....</b><br />
उस समय वहां सर्व देवमयी देवकीजी भी बैठी हुई थीं। वे बहुत पहले से ही यह सुनकर अत्यंत विस्मित थीं कि श्रीकृष्ण और बलरामजी ने अपने मरे हुए गुरुपुत्र को यमलोक से वापस ला दिया। अब उन्हें अपने उन पुत्रों की याद आ गई जिन्हें कंस ने मार डाला था। उनके स्मरण से देवकीजी का हृदय आतुर हो गया, नेत्रों से आंसू बहने लगे। उन्होंने श्रीकृष्ण और बलरामजी को सम्बोधित करते हुए कहा-भूमि के भारभूत उन राजाओं का नाश करने के लिए ही तुम दोनों मेरे गर्भ से अवतीर्ण हुए हो।<br />
<br />
मैंने सुना है कि तुम्हारे गुरु सान्दीपनिजी के पुत्र को मरे बहुत दिन हो गए थे। उनको गुरुदक्षिणा देने के लिए उनकी आज्ञा तथा काल की प्रेरणा से तुम दोनों ने उनके पुत्र को युमपुरी से वापस ला दिया था। तुम दोनों योगीश्वरों के भी ईश्वर हो। इसलिए आज मेरी भी अभिलाषा पूर्ण करो। मैं चाहती हूं कि तुम दोनों मेरे उन पुत्रों को, जिन्हें कंस ने मार डाला था, लो दो और उन्हें मैं भर आंख देख लूं।<br />
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माता देवकी की यह बात सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी दोनों ने योगश किया। जब दैत्यराज बलि ने देखा कि भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी सुतल लोक में पधारे हैं। उन्होंने भगवान् के चरणों में प्रणाम किया।भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा-दैत्यराज! स्वायम्भुव मन्वन्तर में प्रजापति मरीचिका की पत्नी ऊर्णा के गर्भ से छ: पुत्र उत्पन्न हुए थे। वे सभी देवता थे। वे यह देखकर कि ब्रम्हाजी अपनी पुत्री से समागम करने के लिए उद्यत हैं, हंसने लगे। इस परिहास रूप अपराध के कारण उन्हें ब्रम्हाजी ने शाप दे दिया और वे असुर योनि में हिरण्यकशिपु के पुत्र रूप से उत्पन्न हुए।<br />
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अब योगमाया ने उन्हें वहां से लाकर देवकी के गर्भ में रख दिया और उनके उत्पन्न होते ही कंस ने मार डाला। दैत्यराज! माता देवकीजी उन पुत्रों के लिए अत्यंत शोकातुर हो रही हैं और वे तुम्हारे पास हैं। अत: हम अपनी माता का शोक दूर करने के लिए इन्हें यहां से ले जाएंगे। इसके बाद ये शाप से मुक्त हो जाएंगे और आनन्दपूर्वक अपने लोक में चले जाएंगे। इनके छ: नाम हैं-स्मर, उद्गीथ, परिश्वंग, पतंग, क्षुद्रभृत और घृणि। इन्हें मेरी कृपा से पुन: सद्गति प्राप्त होगी। इतना कहकर भगवान् श्रीकृष्ण चुप हो गए।<br />
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दैत्यराज बलि ने उनकी पूजा की, इसके बाद श्रीकृष्ण और बलरामजी बालकों को लेकर फिर द्वारिका लौट आए तथा माता देवकी को उनके पुत्र सौंप दिए।इसके बाद उन लोगों ने भगवान् श्रीकृष्ण, माता देवकी, पिता वसुदेव और बलरामजी को नमस्कार किया। तदन्तर सबके सामने ही वे देवलोक में चले गए। देवकी यह देखकर अत्यंत विस्मित हो गईं कि मरे हुए बालक लौट आए और फिर चले भी गए। उन्होंने ऐसा निश्चय किया कि यह श्रीकृष्ण की ही कोई लीला-कौशल है।<br />
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<b>उपासना का मतलब क्या है?</b><br />
देवकीजी द्वारा श्रीकृष्ण की जो उपासना की गई थी यह प्रसंग उसका परिणाम है। उपासना क्या है, इस पर संतों ने कहा है कि उपासना का अर्थ है परमेश्वर के पास बैठना। बड़ों के पास बैठने का अर्थ है तद्रूप बनना। परमेश्वर अर्थात सत्य। अतएव सत्य रूप बनना उपासना है। सत्य रूप बनने की तीव्र इच्छा करना, उसके लिए भगवान् से विनती करना प्रार्थना है।<br />
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महात्मा गांधी की यह दृष्टि एकदम व्यावहारिक है। हमारे लगभग सब आध्यात्मिक ग्रंथ गांधीजी की इस दृष्टि को पुष्ट करते हैं। सत्यरूप आचरण शुद्धि के लिए स्पष्ट संकेत हैं। बिना आचरण शुद्धि के निर्विकार स्थिति नहीं आती। गांधीजी आगे स्पष्ट करते हैं कि निर्विकार बनने के लिए विकारी विचार भी न उठने देना। मन कभी खाली नहीं रहता। वह विकारी विचारों को अपने में समेटे रहेगा या सत्य (परमेश्वर) के प्रति बढ़ेगा। राम, कृष्ण, विष्णु, अल्लाह, प्रभु, ग्रंथ-साहिब, महावीर स्वामी, बुद्ध या अन्य कोई प्रतीक वस्तुत: सत्य के मूर्तिरूप हैं। उनका स्मरण करना नाम-स्मरण है। यह स्मरण हृदयगत जब होता है तब तद्रूपता की संभावना बलवती हो जाती है। हमें स्मरण रखना होगा कि उपासना बुद्धि का नहीं, श्रद्धा का और विश्वास का विषय है। उपासना करते-करते निर्मलता या शुद्धता आती है। नित्य उपासना-प्रार्थना करते रहने से आत्मा पुष्ट होती है। आत्मा की शुद्धता (निर्मलता) और पुष्टता में ही ईश्वरीय तत्व की झलक मिलना शक्य होता है। उपासना एकाकी या सामुहिक या दोनों हो सकती है।<br />
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पंथानुसार उपासना के स्वरूप अलग-अलग होते हैं। वैष्णव, शैव, शाक्त, बौद्ध, जैन, इस्लामी, ईसाई या अन्य उपासना पद्धति ईश्वरीय स्वरूप और निज स्वरूप को एकाकार करने के लिए होती है। यह एकाकारिता बिना तीव्र, श्रद्धाविश्वास के संयुक्त प्रवाह के संभव नहीं यह शक्ति और शिव की परम कल्याणमयी अभिव्यक्ति कही जा सकती है।प्राय: पाया जाता है और साधकों या उपासकों का अनुभव भी बतलाता है कि श्रद्धा और विश्वास होने के बाद भी मन नाना प्रकार के सात्विक, राजसिक, विचारों में मगन रहता है।<br />
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<b>इन दोनों के बिना ही जीवन अधूरा है...</b><br />
अर्जुन को भगवान् ने दृष्टि दी तब ही वह परम् तेजोमय के दर्शन कर सका (11वां अध्याय)। यह कृपा उन्होंने महापुरुष कृष्ण रूप में अवतार ग्रहण करके की थी। जब कोई महापुरुष प्रभु शक्ति सम्पन्न हो कृपा पाता है तब ही सम्भव होता है, किन्तु इस निमित्त धरातल दैवी गुणों से पुष्ट होना आवश्यक है, इसे हम अभ्यास की कोटि में रचाना उपयुक्त समझते हैं। सतत् अभ्यास अटूट साधन के माध्यम से होता है। भजन, प्रार्थना, ध्यान, स्वाध्याय, पूजा इत्यादि साधन के साध्य अंग हैं। यत्न साध्यों की सहज, परिणिति हेतु जो अभ्यास किया जाता है उसमें महापुरुष या गुरु के मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है।<br />
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देवकीजी भगवान से कहती हैं कि मेरे सात पुत्रों को कंस ने मारा तू ले आ। भगवान उन सातों पुत्रों को लाकर मिलाते हैं। भगवान ने यमराज को आदेश दिया कि मेरे सारे मृत भाइयों को लौटा लाओ, मेरी माता की आज्ञा है, यह मेरा निर्देश है कि इनके कोई कर्म-प्रारब्ध या किसी दोष का ध्यान न रखा जाए। यमराज ने ऐसा ही किया। ये दूसरी बार था जब भगवान ने अपने किसी के लिए सृष्टि के नियम भी बदल दिए। उनको जीवित कर दिया जिन्हें मरे को सालों बीत गए थे। यहां भगवान ने दो बातों का संकेत दिया है।<br />
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इसे समझना बहुत जरूरी है। पहली बार भगवान ने अपने गुरु ऋषि सांदीपनि के पुत्र को यमराज से मांगा था। वह भी बहुत पहले मारा जा चुका था, दूसरी बार अपने भाइयों को जीवित किया। सृष्टि के नियम बदल दिए। यहां जो दो संकेत हैं वे भी स्पष्ट हैं। पहला जीवन में गुरु और माता का महत्व। गुरु विद्यार्थी को माता की तरह संवारता है और माता बच्चे की पहली गुरु होती है। दोनों का पद समान है, दोनों की महिमा भी एक सी है। दोनों का जीवन में समान महत्व है और दोनों के बिना ही जीवन अधूरा है।<br />
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<b>जीना इसी का नाम है...</b><br />
कृष्ण ने अपने जीवन में उन दोनों के महत्व को भलीभांति समझा है। गुरु से शिक्षा ली, शिक्षा अमूल्य थी सो उसका मूल्य भी ऐसा चुकाया जो इतिहास बन गया। गुरु के मृत पुत्र को सालों बाद यमराज से ले आए। फिर माता के उन पुत्रों को जीवित कर दिया जिन्हें कंस ने मार दिया था। माता ने कृष्ण के लिए लाखों कष्ट सहे। अपने सात पुत्रों को अपनी आंखों के सामने मरते देखा। अब कृष्ण की बारी थी, अपनी माता के उस ऋण को चुकाने की। माता ने इच्छा की और कृष्ण ने उसे क्षण भर में पूरा कर दिया। माता-पिता और गुरु के लिए जीवन में अगर कुछ भी करना पड़े, उसे कर दीजिए। उनके लिए किया गया कोई कार्य निष्फल नहीं जाता। कृष्ण ने इस घटना में जो संदेष दिया वह भी बहुत अद्भुत है। कई जन्मों की तपस्या के बाद देवकी ने कृष्ण को पुत्र रूप में पाया था। वह विष्णु की अनन्य भक्त थीं।<br />
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वसुदेव भी उसके साथ तपस्या में लीन थे। दोनों की एक ही इच्छा थी भगवान को पुत्र रूप में प्राप्त करने की। भगवान को ही उन्होंने अपना सर्वस्व दे दिया। हर जन्म विष्णु भक्ति के लिए ही था। सो अब भगवान उनके घर प्रकट हुए। यह संकेत है कि अगर हम भगवान की भक्ति में खो जाते हैं तो भगवान भी फिर हमारे लिए किसी नियम या सिद्धांत में बंधकर नहीं रहता। वह अपने भक्त के लिए हर सीमा से ऊपर चला जाता है। सृष्टि का नियम भी बदलना पड़े तो, बदलता है। कृष्ण ने देवकी और वसुदेव को इसी भक्ति का फल दिया है।<br />
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सांदीपनि ने भी बरसों तक तप कर शिव को प्रसन्न किया। महाकाल शिव जब आए तो उन्होंने वरदान दिया कि खुद नारायण उनके शिष्य बनेंगे। अवंतिका की पावन भूमि पर कृष्ण षिक्षा ग्रहण करने आएंगे। दूसरा वरदान दिया कि अवंति क्षेत्र में कभी सूखा नहीं पड़ेगा, अकाल नहीं पड़ेगा। सांदीपनि ने कृष्ण को शिष्य स्वीकार किया। वे जानते थे कि जगत् गुरु नारायण ही उनके शिष्य हैं। उन्होंने कृष्ण की क्षमता देख कर ही उनसे अपना मृत पुत्र वापस मांगा था।कथा आगे गति पकड़ रही है। कृश्ण ने जीवन की गति की शिक्षा दी है, उन्होंने बताया है कि जीवन में हर दिन एक नई चुनौती आपके सामने आएगी और हर दिन आपको संघर्षकरना है। जीवन में आराम नहीं है। आराम तो केवल भक्ति में है।<br />
<b><br />भगवान कृष्ण ने अपनी बहन का ही हरण क्यों करवा दिया?</b><br />
भागवत कथा आगे गति पकड़ रही है। कृष्ण ने जीवन की गति की शिक्षा दी है, उन्होंने बताया है कि जीवन में लोगों के मन में यह प्रश्न उठता है कि भगवान ने अपनी ही बहिन का अपहरण क्यों करवाया? सुभद्रा हरण का प्रसंग व्यक्ति की निजी स्तंत्रता से जुड़ा है। भगवान कहते हैं सबको अपने स्वतंत्र निर्णय लेने का अधिकार होना चाहिए। सुभद्रा पर बलरामजी ने दुर्योधन से विवाह का दबाव बनाया था<br />
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बलराम बहुत सीधे थे, दुर्योधन ने उन्हें अपना गुरु बना लिया, गदा युद्ध सीखा। बलराम दुर्योधन की इस चाल को समझ नहीं पाए। वे समझते थे कि दुर्योधन सहज ही मुझ पर स्नेह रखता है। वह योद्धा भी था और राजपुत्र भी, सो उन्होंने सुभद्रा का विवाह दुर्योधन से करने का मन बना लिया।<br />
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कृष्ण दुर्योधन का भविश्य जानते थे, वे ये भी जानते थे कि सुभद्रा अर्जुन को पसंद करती है।<br />
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सुभद्रा लेकिन बलरामजी का विरोध करना भी नहीं चाहती थीं और दुर्योधन से विवाह भी नहीं करना था, ऐसे में केवल कृष्ण ही थे जिससे वह अपने मन की बात कह सकती थीं। कृष्ण सुभद्रा की मनोदशा को समझ गए। कथा आगे बढ़ती है-परीक्षित ने प्रश्न पूछा शुकदेवजी से मेरे दादा अर्जुन ने यह विवाह किस प्रकार किया था।एक बार अर्जुन तीर्थयात्रा के लिए प्रभासक्षेत्र पहुंचे। वहां उन्होंने यह सुना कि बलरामजी सुभद्रा का विवाह दुर्योधन के साथ करना चाहते हैं और वसुदेव, श्रीकृष्ण आदि उनसे इस विषय में सहमत नहीं हैं।<br />
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अब अर्जुन के मन में सुभद्रा को पाने की इच्छा जग आई। वे त्रिदण्डी वैष्णव का वेष धारण करके द्वारका पहुंचे। वे वहां वर्षाकाल में चार महीने तक रहे। द्वारका वालों और बलरामजी को यह पता न चला कि ये अर्जुन हैं। एक दिन बलरामजी ने आतिथ्य के लिए उन्हें निमंत्रित किया और उनको वे अपने घर ले आए। अर्जुन ने भोजन के समय वहां विवाह योग्य सुभद्रा को देखा।<br />
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उन्होंने उसे पत्नी बनाने का निश्चय कर लिया। सुभद्रा ने भी मन में उन्हीं को पति बनाने का निश्चय किया। कृष्ण की सहमति पहले ही थी सो कोई डर भी नहीं था। कृष्ण ने देवकी और वसुदेव को भी समझाया कि अर्जुन का भविष्य धर्ममय है, दुर्योधन अधर्मी है और एक दिन उसका अंत बहुत बुरा ही होगा। वे भी सहमत हो गए।<br />
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<b>इस कहानी में छुपे हैं जिंदगी के सारे राज क्योंकि....</b><br />
सुभद्रा और अर्जुन का विवाह हो गया। भगवान ने फिर इस सुंदर प्रसंग के जरिए हमें जीवन का सार सिखाया। कृष्ण के जीवन प्रसंग महज सुनने के लिए नहीं हैं, उन्हें जीवन में उतारिए। उसे गौर से देखिए, समझिए उसमें हमारे जीवन के लिए क्या संदेश, संकेत छिपे हैं। उन्हें पकडऩे का प्रयास कीजिए। अवतारों का उद्देश्य भी यही होता है। वे केवल अधर्म या धर्म की लड़ाई के लिए धरती पर नहीं आते।<br />
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उनके आने के बड़े उद्देश्य होते हैं। सबसे बड़ा उद्देश्य मानवों को प्रेरणा देना होता है। राम हो या कृष्ण सभी अवतारों ने जीवन में बहुत संघर्ष किया। कृष्ण का अवतार मानव में देवत्व जगाने का प्रयास है। कृष्ण ने पूर्ण अवतार होने के बाद भी साधारण मनुष्यों की तरह ही सारे कर्म किए लेकिन उसके पीछे उद्देश्य था मानवों में देवत्व कैसे जगाया जाए, हम कैसे अपने कर्मों से महान बन सकते हैं, किस तरह अपनी इन्द्रियों को संचालित किया जाए कि सारे कार्य हमारे अनुकूल हों। सुभद्रा-अर्जुन प्रसंग से कृष्ण ने कई संकेत किए हैं।<br />
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यह संकेत वे हैं जो आज हमारे बड़े उपयोग के हैं। इन्हीं को साधकर भी हम अपने लिए जिन्दगी की राहें आसान कर सकते हैं। समझिए कृष्ण ने अपने बड़े भाई की इच्छा के विरूद्ध बहन का विवाह अर्जुन से करवा दिया। आखिर क्यों? इसके कारणों में झाकेंगे तो बड़ी सुन्दर नीतियां मिलेंगी। मानवीय रिश्तों की ऐसी मिसाल जो हमारे जीवन में हमेशा ही उपयोगी होगी। बलराम सुभद्रा के लिए दुर्योधन को पसंद कर चुके थे। लगभग निर्णय ही ले लिया था सुभद्रा की इच्छा के विरूद्ध। हमारे देश की रूढिय़ों में यह कुप्रथा सदियों से है, अपनी बेटियों का विवाह आज भी कई लोग बिना उसकी इच्छा के अपने अनुसार तय कर देते हैं।<br />
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बेटी हमारी जिम्मेदारी है लेकिन ध्यान रखें कि वह भावी मां और संस्कृति को विस्तार करने वाली भी है। उसे अपनी मर्जी से किसी को न सौपें। उसका जीवन साथी कैसा हो, यह तय करने का अधिकार भी उसे दें। उससे पूछें। बलराम ने यह नहीं किया, सीधा निर्णय ही सुना दिया। कई लोग आज भी यही कर रहे हैं। बलराम ने दुर्योधन में केवल दो बातें ही देखी, एक उसका योद्धा होना और दूसरा उसका राजपुत्र होना।<br />
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<b>रिश्ता बनाएं तो क्या ध्यान रखें?</b><br />
शारीरिक बल या आर्थिक स्थिति रिश्तों को कायम करते समय देखा जाना चाहिए लेकिन केवल हम दो पात्रताओं को ध्यान में रखकर ही कोई रिश्ता न बनाएं। शारीरिक बल या सुंदरता और आर्थिक स्थिति भक्ति के चारित्रिक प्रमाण पत्र नहीं होते हैं। कई लोग आज भी लड़कियों का रिश्ता तय करते समय बस इन्हीं दो बातों को ध्यान रखते हैं। एक वह शारीरिक रूप से सक्षम हो और दूसरा आर्थिक रूप से। इसके अलावा सारी बातें गौण हो जाती हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं -हमें चरित्र देखना चाहिए, व्यवहार देखना चाहिए, अपने कुटुम्ब और मित्रों में उसके रिश्ते कैसे हैं यह देखना चाहिए। इसी से उसकी योग्यताओं का अनुमान लगाया जा सकता है। अगर इन मापदण्डों पर वह खरा उतरे तो फिर रिश्ते के लिए आगे सोचना चाहिए। हम यह देखें कि उसकी महत्वाकांक्षाएं क्या हैं, उसके भीतर धर्म कितना गहरा उतरा हुआ है। धर्म के लिए उसका नजरिया कैसा है। फिर रिष्श्ता तय करें। अगर वह इन परिमाणों पर खरा है तो फिर बात आगे बढ़ाई जाए।<br />
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तीसरी बात जो कृष्ण ने कही है वह भी बहुत गौर करने वाली है। कृष्ण कहते हैं हम जब रिश्ते तय करते हैं तो यह देखें कि उस युवक का भविष्य क्या है। कृष्ण दुर्योधन का भविष्य जानते थे सो दुर्योधन के खिलाफ थे। उन्हें अर्जुन के भविष्य को लेकर निश्चिंतता थी, सो वे अर्जुन के पक्ष में थे। हम इन बातों पर विचार कर अगर बेटियों के रिश्ते तय करेंगे तो हमें कभी भी अपने निर्णयों पर लज्जित या दुखी नहीं होना पड़ेगा। कृष्ण से सीखें रिश्ते कैसे जोड़े जाते हैं।<br />
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<b>आपका भविष्य तय करती है आपकी संगत</b><br />
एक सुंदर कथा है। संतों की संगत का असर हम पर कैसे पड़ता है।कथा है एक नगर के बाहर जंगल में कोई साधु आकर ठहरा। संत की ख्याति नगर में फैली तो लोग आकर मिलने लगे। प्रवचनों का दौर शुरू हो गया।<br />
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संत की ख्याति दिन रात दूर-दूर तक फैलने लगी। लोग दिनभर संत को घेरे रहते थे। एक चोर भी दूर से छिपकर उनको सुनता था। रात को चोरी करता और दिन में लोगों से छिपने के लिए जंगल में आ जाता। वह रोज सुनता कि संत लोगों से कहते हैं कि सत्य बोलिए। सत्य बोलने से जिंदगी सहज हो जाती है। एक दिन चोर से रहा नहीं गया, लोगों के जाने के बाद उसने अकेले में साधु से पूछा-आप रोजाना कहते हो कि सत्य बोलना चाहिए, उससे लाभ होता है लेकिन मैं कैसे सत्य बोल सकता हूं।संत ने पूछा-तुम कौन हो भाई?चोर ने कहा-मैं एक चोर हूं।संत बोले तो क्या हुआ। सत्य का लाभ सबको मिलता है। तुम भी आजमा कर देख लो।<br />
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चोर ने निर्णय लिया कि आज चोरी करते समय सभी से सच बोलूंगा। देखता हूं क्या फायदा मिलता है। उस रात चोर राजमहल में चोरी करने पहुंचा। महल के मुख्य दरवाजे पर पहुंचते ही उसने देखा दो प्रहरी खड़े हैं। प्रहरियों ने उसे रोका-ऐ किधर जा रहा है, कौन है तूं।<br />
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चोर ने निडरता से कहा-चोर हूं, चोरी करने जा रहा हूं। प्रहरियों ने सोचा कोई चोर ऐसा नहीं बोल सकता। यह राज दरबार का कोई खास मंत्री हो सकता है, जो रोकने पर नाराज होकर ऐसा कह रहा है। प्रहरियों ने उसे बिना और पूछताछ किए भीतर जाने दिया।<br />
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चोर का आत्म विश्वास और बढ़ गया। महल में पहुंच गया। महल में दास-दासियों ने भी रोका। चोर फिर सत्य बोला कि मैं चोर हूं, चोरी करने आया हूं। दास-दासियों ने भी उसे वही सोचकर जाने दिया जो प्रहरियों ने सोचा। राजा का कोई खास दरबारी होगा।अब तो चोर का विश्वास सातवें आसमान पर पहुंच गया, जिससे मिलता उससे ही कहता कि मैं चोर हूं। बस पहुंच गया महल के भीतर।<br />
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कुछ कीमती सामान उठाया। सोने के आभूषण, पात्र आदि और बाहर की ओर चल दिया। जाते समय रानी ने देख लिया। राजा के आभूषण लेकर कोई आदमी जा रहा है। उसने पूछा-ऐ कौन हो तुम, राजा के आभूषण लेकर कहां जा रहे हो।चोर फिर सच बोला-चोर हूं, चोरी करके ले जा रहा हूं। रानी सोच में पड़ गई, भला कोई चोर ऐसा कैसे बोल सकता है, उसके चेहरे पर तो भय भी नहीं है। जरूर महाराज ने ही इसे ये आभूषण कुछ अच्छा काम करने पर भेंट स्वरूप पुरस्कार के रूप में दिए होंगे। रानी ने भी चोर को जाने दिया। जाते-जाते राजा से भी सामना हो गया। राजा ने पूछा-मेरे आभूषण लेकर कहां जा रहे हो, कौन हो तुम?<br />
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चोर फिर बोला- मैं चोर हूं, चोरी करने आया हूं। राजा ने सोचा इसे रानी ने भेंट दी होगी। राजा ने उससे कुछ नहीं कहा, बल्कि एक सेवक को उसके साथ कर दिया। सेवक सामान उठाकर उसे आदर सहित महल के बाहर तक छोड़ गया।<br />
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अब तो चोर के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उसने सोचा झूठ बोल-बोलकर मैंने जीवन के कितने दिन चोरी करने में बरबाद कर दिए। अगर चोरी करके सच बोलने पर परमात्मा इतना साथ देता है तो फिर अच्छे कर्म करने पर तो जीवन कितना आनंद से भर जाएगा।चोर दौड़ा-दौड़ा संत के पास आया और पैरों में गिर पड़ा। चोरी करना छोड़ दिया और उसी संत को अपना गुरू बनाकर उन्हीं के साथ हो गया।संत की संगत ने चोर को बदल दिया। कथा का सार यही है कि जो सच्चा संत होता है वह हर जगह अपना प्रभाव छोड़ता ही है।<br />
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<b>जरूरी है जिम्मेदारियों को निभाना क्योंकि....</b><br />
गृहस्थ का उद्देश्य परमात्मा के निकट जाने का नहीं उसे अपने निकट बुलाने का है। यह एक तरह का वशीकरण है। संन्यास में संन्यासी भगवान के निकट पहुंचकर उसे अपने वश में करने का प्रयास करता है, गृहस्थ का वशीकरण इससे विपरीत खुद भगवान के प्रति समर्पित होने का है। उसके रचे संसार का पालन कर, कर्तव्यों का निर्वहन कर वह भगवान को समर्पित हो जाता है। फिर भगवान खुद उसके वश में होकर उसे ढूंढने निकल पड़ते हैं। एक कथा है कि एक संन्यासी किसी गांव में पहुंचा। वहां मंदिर में एक पुजारी रहता था, जो बहुत धार्मिक स्वभाव का था, उसके पत्नी और बच्चे भी आज्ञाकारी थे। पुजारी भगवान की सेवा तो करता था लेकिन उसका मन फिर भी बेचैन रहता था कि भगवान को पाना है। साधु गांव में पहुंचे तो उसकी इच्छा और अधिक बलवती हो गई।<br />
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पुजारी ने संन्यास लेने की ठान ली और परिवार को रोता-बिलखता छोड़ साधु के साथ चला गया। गांववालों ने बहुत समझाया, पत्नी और पुत्र ने पैर पकड़ लिए लेकिन वह नहीं माना। उसकी पत्नी भी काफी समझदार और धार्मिक थी, सो नियति का खेल समझकर इसे स्वीकार कर लिया। पुत्र की जिम्मेदारी, मंदिर की सेवा और खेती भी उसके जिम्मे आ गई।<br />
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वह सारी बातें भूलकर अपनी जिम्मेदारी निभाने लगी। पुत्र को गुरु के पास भेज दिया अच्छी शिक्षा के लिए। मंदिर में सुबह-शाम पूजा का सिलसिला भी बंद नहीं होने दिया और खेती भी मुरझाने नहीं दी। वह जब भी भगवान की पूजा करती तो एक ही बात दोहराती कि मेरे पति को भगवान आपकी प्राप्ति जल्दी हो, जिसके लिए उन्होंने अपना सबकुछ त्याग दिया है।<br />
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उधर पुजारी साधु के साथ वन-वन भटकने लगा। एक दिन उसे भगवान नारायण गुजरते दिखाई दिए। उसने पैर पकड़ लिए, भगवान आपके दर्शन हो गए। भगवान ने उससे कहा-हट जा मैं अभी तेरे लिए नहीं आया हूं। मुझे कहीं और जाना है। कोई मेरा इंतजार कर रहा है। पुजारी ने पूछा मैं भी तो आपके लिए सबकुछ छोड़कर भटक रहा हूं। आपका इंतजार कर रहा हूं। मेरे लिए कब आएंगे।<br />
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नारायण ने कहा-अभी तुम्हें बहुत समय लगेगा। तुमने मेरी तलाश तो की लेकिन मैंने तुम्हें जो काम सौंपा था वह नहीं किया।<br />
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पुजारी बोला-कौन सा काम भगवन, मैं तो दिन-रात आपकी ही सेवा कर रहा हूं। इसके सिवा तो मेरी जिंदगी में कुछ और रह ही नहीं गया है।भगवान बोले- मैंने अपनी एक भक्त और उसके पुत्र की जिम्मेदारी तुम्हें सौंपी थी लेकिन तुम उस जिम्मेदारी से मुंह छिपाकर भाग आए। पुजारी को समझते देर नहीं लगी कि वह अपनी पत्नी और बच्चे को छोड़कर आया है। बस उसकी आंखें खुल गई। फिर गांव की ओर लौट पड़ा।<br />
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गांव में आया तो देखा उसकी पत्नी की चारों ओर जय-जयकार हो रही है। कच्चे मकान की जगह महल खड़ा है। पुत्र राजकुमारों जैसे कपड़े पहने था। घर में नौकर-चाकरों की कतार लगी थी।मंदिर में गया तो खुद नारायण बैठे, उसकी पत्नी का बनाया भोग खा रहे हैं। पत्नी की सेवा और जिम्मेदारियों के पालन से भगवान प्रसन्न हो गए। पुजारी ने अपनी पत्नी से क्षमा मांगी। नारायण ने उसे आशीर्वाद दिया। कहा-तुझे तेरे तप के कारण नहीं, तेरी पत्नी के सेवाभाव और तुम्हारे प्रति उसकी श्रद्धा के कारण दे रहा हूं।कथा का सारांश यह है कि भगवान ने आपको जो जिम्मेदारियां दी हैं सबसे पहले उसका पालन करें।<br />
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<b>वो हमें गिरने नहीं देते, सभांल लेते हैं...</b><br />
अर्जुन को यह अनुभव होता था कि वह अकेला ही श्रीकृष्ण का बड़ा भक्त है लेकिन कृष्ण ने उसे उस ब्राह्मण से मिलाकर यह भ्रम दूर कर दिया। भगवान की यह विशेषता है कि अगर उनका भक्त अभिमान के वशीभूत होने लगे, किसी बुराई के समीप जाने लगे तो भगवान उसे गिरने नहीं देते, उसे संभाल लेते हैं। भक्त को अहसास भी नहीं होने देते हैं और उसके सारे कष्ट, अभिमान, कुराइयां हर लेते हैं। अगर भक्त लायक है तो स्वत: ही समझ जाता है। भगवान ऐसी ही लीलाएं दिखा रहे हैं, अर्जुन का अभिमान अब जाता रहा। भक्ति निष्काम हो गई। अर्जुन श्रीकृष्ण के और नजदीक हो गए। अभी सर्वस्व समर्पित नहीं किया था अब वह भी कर दिया। भक्त और भगवान एक हो गए हैं।<br />
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वैसे भी माना जाता है कि अर्जुन श्रीकृष्ण एक ही हैं, नर और नारायण के अवतार हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं सभी में मेरा अंश है। हम भी उन्हीं नारायण के अंश हैं।<br />
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एक कथा है - एक गांव में कोई ग्वाला था, भगवान को बहुत मानता था। गांवों में जात-पात की परम्परा बहुत थी उन दिनों। ब्राम्हण और क्षत्रियों का दबदबा था। अछूतों का कोई दर्जा नहीं था उनके बीच। गांव में सबसे अलग उनका स्थान था।<br />
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एक दिन गांव में कोई संत पहुंचे। वे जात-पात नहीं मानते थे सो हर किसी को उनके दर्शन करने की, उपदेश सुनने की आजादी थी। फिर भी श्रेष्ठी वर्ग का दबदबा था सो छोटी जात वालों को दर्शन के लिए बाद में बुलाया जाता।संत से यह सुब देखा न गया। उन्होंने समझाया कि सब समान हैं, सभी भगवान का अंश हैं। उस ग्वाले ने संत की बात सुनी, वह बात उसके दिल में बैठ गई। वह भी सबसे कहने लगा कि हम भी भगवान के ही बनाए हैं, उसके ही अंश हैं। यह सुन ऊंचे समाज वालों से नहीं रहा गया। गरीबों पर अत्याचार और बढ़ गए। संत से यह अमानवीयता देखी न गई। वे गांव छोड़कर चले गए।<br />
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<b>रावण क्यों मारा गया, उसका सारा वैभव क्यों नष्ट हो गया?</b><br />
कहने का आशय यह है कि हम भले ही मूर्ति पूजा करें लेकिन चित्त को उसमें स्थिर करके करें। बस उसी में खुद को पूरी तरह टिका दें। भगवान उस प्रतिमा, उस पत्थर से भी प्रकट हो जाएगा।ऐसी ही भक्ति के हमारे शास्त्रों में दो उदाहरण हैं। एक भक्त प्रहलाद का जिसे उसके पिता ने खम्भे से भगवान को बुलाने की चुनौती दी और खम्भा तोड़कर खुद नारायण नृसिंह के रूप में प्रकट हो गए। दूसरा उदाहरण मीराबाई का है, जिन्होंने कृष्ण की प्रतिमा को ही अपना पति मान लिया। जिन्दगीभर उसी प्रतिमा को लेकर भक्ति की। जब जहर दिया गया तो गोविन्द का नाम लेकर हंसकर पी गई। मीराबाई को कुछ नहीं हुआ, उधर प्रतिमा नीली पड़ गई।<br />
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मिथिला के राजा का नाम था बहुलाष्व। उनमें अहंकार का लेश भी न था। श्रुतदेव और बहुलाष्व दोनों ही भगवान श्रीकृष्ण के प्यारे भक्त थे। एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने उन दोनों पर प्रसन्न होकर दारुक से रथ मंगवाया और उस पर सवार होकर द्वारका से विदेह देश की ओर प्रस्थान किया। भगवान के साथ नारद, वामदेव, अत्रि, वेदव्यास, परशुराम, असित, आरुणि, शुकदेव, बृहस्पति, कण्व, मैत्रेय, च्यवन आदि ऋषि भी थे। वे जहां-जहां पहुंचते, वहां-वहां के नागरिक और ग्रामवासी प्रजा पूजा की सामग्री लेकर उपस्थित होती।<br />
भगवान अपने साथ अनेक ऋषिमुनियों को लेकर चलते हैं। वैसे भी श्रीकृष्ण अकेले कम ही रहे। उनका उद्देश्य रहता है भक्तों को साधु-संत और विद्वान पुरुषों की निकटता प्राप्त हो। कृष्ण का हमेशा यही प्रयास रहा कि पूजनीय संत, विद्वान उनके आसपास रहें। किसी भी समय वे अकेले न रहें। हर परेशानी के समय विद्वान और संत उनके पास रहें।<br />
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दरअसल श्रीकृष्ण ने मानवजाति को यह संदेश दिया है कि आप स्वयं कितने ही विद्वान क्यों न हो जाएं। कितने ही सक्षम क्यों न हों फिर भी आपके साथ विद्वानों का होना जरूरी है। हमेशा संतों की छत्रछाया में रहें। आप पर आती मुश्किलें स्वत: लौट जाएंगी। यह बात विचारणीय है कृष्ण के जीवन के हर पल में मानव जाति के लिए कई संकेत छिपे हैं। संतों का, विद्वानों का साथ क्यों जरूरी है, वो भी श्रीकृष्ण जैसे सर्वसमर्थ पूर्णावतार को। यह जिन्दगी के लिए एक संकेत है। हम अपने मद में संत-विद्वानों का अपमान कर देते हैं। इससे हमारी सिद्धि नष्ट हो जाती है।<br />
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रावण क्यों मारा गया, सारा वैभव क्यों नष्ट हो गया उसका। रावण ने तमाम जिन्दगी संतों, विद्वानों का विरोध किया, तपस्वियों को मरवा डाला। उसकी लंका में भी एक ही साधु पुरुष था विभीषण। रावण अगर सुरक्षित था तो वह केवल लंका में विभीषण की उपस्थिति के कारण। याद रखिए आप तब तक सुरक्षित रहेंगे जब तक एक भी सज्जन आपके साथ है, जैसे ही संत पुरुष आपका साथ छोड़ दें समझ लें कि अब अंत नजदीक है। विभीषण को छोडऩे के बाद रावण खुद कितने दिन जी पाया।इसलिए श्रीकृष्ण कहते हैं कि संतों का साथ हमेशा चाहिए। अगर जीवन में कोई पुण्य काम न आए तो आपको एक यही पुण्य बचा सकता है।<br />
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<b>बस यही सबसे बड़ी जीत है...</b><br />
संत, ऋषि, मुनि, साधु ये सब उसी को कहते हैं जिसने विषयों को जीत लिया, मन को नियंत्रित कर लिया। सब उसी के नाम हैं। यह जरूरी नहीं है कि वह संन्यास ले, भगवा वस्त्र पहने या जंगलों में रहे। मन को जीतना ही सबसे बड़ा काम है, जिसने इसे कर लिया वह स्वत: संत हो जाएगा। फिर चाहे संसार में रहे या जंगल में।<br />
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मन को जीतने के लिए विषयों पर विजय पाना आवश्यक है। विषय हमारे लिए रुकावट पैदा करते हैं। विषयों को जीतना हमारे लिए सबसे बड़ी जंग है। विषयों को जीतने की प्रक्रिया बहुत लम्बी है। बुराइयां हर मनुष्य में होती हैं इन्हें मिटाने के लिए मन पर नियंत्रण होना चाहिए। बुराइयों से निपटने के लिए वैराग्य जगाना पड़ता है। वैराग्य जगाने के लिए परमात्मा में मन लगाना जरूरी है।<br />
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विषयों से वैराग्य तब ही होगा जब निर्विषयी मन बनेगा। मन को निर्विषयी बनाना उसका पथान्तर करना है, इसकी सहज वृत्ति जगतमुखी है, इसे परमात्मा मुखी बनाने का अभ्यास करना आवश्यक है। महापुरुषों के वचनों सद्ग्रन्थों के स्वाध्याय, सत्संग, भजन, एकान्तवास, कीर्तन, गायन (भक्ति गीत) आदि ऐसी आध्यात्मिक साधन युक्त परिस्थितियां उत्पन्न करते हैं जिससे मन एकाग्रता के अनुकूल बनता है। इन्हें ध्यान का अंग भी कहा जा सकता है।<br />
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फिर वही सवाल उठता है कि महापापी-वैरी पुन: पुन: उपद्रव करे, बाधाएं डाले तब साधक के सामने शरणागति के अलावा कोई मार्ग नहीं रहता। वह अपने इष्ट से, अपनी अंतरात्मा से, अपनी अंतरशक्ति से निरन्तर प्रार्थना करता रहे। दुर्गासप्तसती में ऐसी ही प्रार्थना की गई है-''सर्वबाधा प्रशमनं त्रेलोक्यस्याखिलेश्वरी। एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरि विनाशनम।<br />
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सर्वेश्वरी-तुम इसी प्रकार तीनों लोकों की बाधाओं को शान्त करो और हमारे शत्रुओं का नाश करो।राजसिक- प्रमाद, अनियमितता, तन-अ-रक्षण आदि बाधाएं हैं और शत्रु है-काम, क्रोध, लोभ, मोह इत्यादि। यह हमें याद रखना है। माँ के भौतिक रूप में कोई शत्रु नहीं सब उसकी सन्तान हैं।<br />
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बाधाएं और शत्रु जब समाप्त हो जाते हैं, तब मन में उठती तरंगें शान्त हो उसे निर्मल, निर्विकारी जल की मानिन्द स्तब्ध या स्थिर कर देती है। तब परमात्मा को जानने या उसके दर्शन करने की स्थिति बनती है। उसका प्रतिबिम्ब जो अन्तर आत्मा में है दृश्य होता है।<br />
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<b>संबंधों को निभाएं तो कुछ इस तरह...</b><br />
भागवत में ही भगवान के चौथे अवतार वामनदेव की कथा है। असुरों के राजा बलि जो भगवान के अनन्य भक्त प्रहलाद का पौत्र था ने यज्ञ का आयोजन किया। देवताओं के हित को देखकर भगवान ने वामन रूप अवतार लिया लिया और राजा बलि के यज्ञ में चले गए। दान मांगा, राजा बलि ने संकल्प लिया, गुरु शुक्राचार्य ने रोका फिर भी नहीं माने वामन को तीन पग भूमि दान दी। वामन देव ने दो ही पग में धरती और आकाश नाप लिया, तीसरा पग कहां रखूं वामन ने पूछा।<br />
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राजा बलि जो जानते थे कि देवताओं ने उनका यज्ञ रुकवाने के लिए छल किया है, फिर भी अपने संकल्प से नहीं हटे। भगवान उसे जीतने आए थे, उसने भगवान को जीत लिया। वामन ने जब बलि से पूछा कि तीसरा पैर कहा रखूं तो राजा बलि ने नि:संकोच खुद को आगे कर दिया। भगवान के पैरों के नीचे अपना सिर धर दिया। भगवान के भार से वह पाताल में चला गया लेकिन उसके सत्यव्रत और भक्तिभाव से विष्णु प्रसन्न हो गए तो वर मांगने को कहा।<br />
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बलि ने विष्णु को अपने राज्य का द्वारपाल बना लिया। भगवान भक्त के नगर की पहरेदारी करने लग गए। यह होता है समर्पण। अपना सबकुछ उसे सौंप दो फिर आपसे दूर कुछ भी नहीं रहेगा। इसी यात्रा में भगवान राजा के साथ-साथ ब्राह्मण के घर भी जाते हैं और साथ में मुनियों को भी ले जाते हैं। एक तो भगवान बताना चाहते हैं कि मेरा समानता में विश्वास है और दूसरे भगवान सतत् सक्रियता का संदेश देते हैं। मेलजोल बनाए रखो। आज जिस जीवन में जी रहे हैं मनुष्य अपनों से ही कटता जा रहा है। भगवान श्रीकृष्ण से सीखें संबंधों का निर्वहन कैसे करें।<br />
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<b>जरूरी है अपने अंदर की शक्ति को जगाना क्योंकि...</b><br />
इस विषय में मैं तुम्हे एक पुरानी कथा बताता हूं। यह नारद और ऋषि श्रेष्ठ नारायण का संवाद है। एक समय की बात है नारदजी विभिन्न लोकों में विचरण करने के लिए बदरिकाश्रम गए। वे कलापग्रामवासी सिद्ध ऋषियों के बीच में बैठे हुए थे। उस समय नारदजी ने उन्हें प्रणाम करके बड़ी नम्रता से यही प्रश्न पूछा, जो तुम मुझसे पूछ रहे हो। भगवान नारायण ने ऋषियों की उस भरी सभा में नारदजी को उनके प्रश्न का उत्तर दिया और वह कथा सुनाई जो पूर्वकालीन जनलोकनिवासियों में परस्पर वेदों के तात्पर्य और ब्रम्ह के स्वरूप के सम्बन्ध में विचार करते समय कही गई थी।<br />
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भगवान नारायण ने कहा-नारदजी! पुराने समय की बात है। एक बार जनलोक में वहां रहने वाले ब्रम्हा के मानस पुत्र नैष्ठिक ब्रम्हचारी सनक, सनन्दन, सनातन आदि परमर्षियों का ब्रम्हसत्र यानी प्रवचन हुआ था। उस समय तुम मेरी श्वेत द्वीपाधिपति अनिरूद्ध-मूर्तिका दर्शन करने के लिए श्वेतद्वीप चले गए थे। उस समय वहां उस ब्रम्ह के सम्बन्ध में बड़ी ही सुन्दर चर्चा हुई थी।सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार-ये चारों भाई शास्त्रीय ज्ञान, तपस्या और शील-स्वभाव में समान हैं। उन्होंने अपने में से सनन्दन को तो वक्ता बना लिया और शेष भाई श्रोता बनकर बैठ गए। अद्भुत सत्संग हुआ था वह।<br />
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सनन्दनजी ने कहा-जिस प्रकार प्रात:काल होने पर सोते हुए सम्राट को जगाने के लिए वंदीजन उसके पास आते हैं और सम्राट के पराक्रम तथा सुयश का गान करके उसे जगाते हैं, वैसे ही जब परमात्मा अपने बनाए हुए सम्पूर्ण जगत को अपने में लीन करके अपनी शक्तियों के सहित सोये रहते हैं तब प्रलय के अन्त में श्रुतियां उनका प्रतिपादन करने वाले वचनों से उन्हें इस प्रकार जगाती हैं।अब आगे भागवत में दार्शनिक प्रसंग आया है। परीक्षित ने श्रुतियों के सम्बन्ध में प्रश्न पूछा है। श्रुतियों में (यानी वेद के शब्दों में) भगवान के स्वरूप का वर्णन किस प्रकार किया जाता है। शुकदेवजी द्वारा जो उत्तर दिया गया उसे भागवत में संतों ने वेद स्तुति का नाम दिया है। यह प्रसंग एक गहरा वार्तालाप है।श्रुतियां परमात्मा को जगा रही हैं यह प्रतिकात्मक घटना है। हम भी अपने भीतर रह रहे परमात्मा को ऐसे ही उठाएं। भक्त अपनी इन्द्रियों से श्रुतियों का काम लेता है। इस उदाहरण में एक कथन स्मरण करने योग्य है।<br />
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<b>ये दो बातें मुश्किलों से बचा सकती हैं...</b><br />
दो चीजों को भूलमत जो चाहे कल्याण। अयंभावी मृत्यु इक और दूजे श्री भगवान। इन दो की स्मृति साधक को अनेक दुविधाओं, कदाचरणों, ममता जनित क्लेश और विघ्न-बाधाओं से बचा सकती है। इससे ज्ञानोदय होने में सहायता मिलती है। महात्मा या सद्गुरु शक्तिपात करके विराट पुरुष के दर्शन से मिलने वाले आनन्द का अनुभव तब ही करा सकते हैं जब निष्काम कर्म द्वारा चित्त शुद्ध कर लिया गया हो, निष्ठा को अपने में प्रतिष्ठित कर लिया गया हो अपने अन्तर को कपट रहित निर्मल कर लिया हो और सब प्राणी जिसमें आश्रित हो उस परमात्मा को जानो। अन्य सबकुछ तुच्छ समझकर छोड़ दो। यह अमृत का सेतु है।<br />
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परमात्मा सत्य है। उसे सत्य निष्ठ ही जान सकता है, अन्य नहीं। सत्य का आचरण कल्याणकारी होता है। सत्य की प्रतिष्ठा से क्रिया सफल हो जाती है। सत्य से ही ब्रम्ह का अनुभव किया जा सकता है। इससे चित्त दर्पण स्वच्छ, निर्मल होता है फिर वह प्रतिबिम्ब रूप में स्पष्टत: भासित होता है। यह उसका दर्शन है। वस्तुत: वह मन, बुद्धि से परे तथा इन्द्रियातीत है। अनुभवगम्य ब्रम्ह बखानने का विषय नहीं है। फिर यह अनुभव ध्यान में हो या प्रतीक-पूजन में। नियमित पूजन-भजन और ध्यान साधन करने वाला साधक चिन्ता, भय, विषाद, शोक आदि से सर्वथा मुक्त होकर शान्ति में प्रतिष्ठित हो जाता है। उसके सान्निध्य में अन्य भी शान्ति रूपी सुगन्ध का अनुभव कर लेते हैं।<br />
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यह पूर्ण या आंशिक ब्रम्हानुभूति का प्रभाव कहा जा सकता है। वैसे पूर्ण ब्रम्हानुभूति अत्यन्त दुष्कर है लेकिन आंशिक प्राप्ति भी बिना सत्याचरण के सम्भव नहीं। सत्याचरण इसलिए आवश्यक है कि ब्रम्ह सत्य है। उस परम सत्य को जगत-सत्य में खोजने के लिए तीर्थाटन, सत्संग, महात्माओं के दर्शन, प्रतीक दर्शन आदि किए जाते हैं। भौतिक जगत और आध्यात्मिक क्षेत्र की रचना परम सत्य के द्वारा ही की गई है, इसलिए उसे झूठा कैसे कहें, हालांकि दार्शनिक शंकर चिन्तन में ब्रम्ह सत्य जगत मिध्या स्वीकारा गया है। उसको चुनौती नहीं दी जा सकती है। नित्य-अनित्य व अक्षर-क्षर का भेद तो करना ही होगा। ब्रम्ह अक्षर अनन्त और तेजरूप चिन्मय है, जबकि जगत और जगत का सम्पूर्ण व्यवहार और स्वरूप अन्तवान है। अनन्त और अन्त में मूलभूत अन्तर तो है ही।<br />
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दूसरे ब्रम्हानुभूति चिर आनन्द का विषय हैं। जगतानुभूति चाहे प्रारम्भ में मोहवशात ब्राम्ह और क्षणिक आनन्द दे दे किन्तु वह अल्पकाल या कालान्तर में दु:खदायी होती है। पुत्र, विवाह या व्यवसाय सुख दे किन्तु विछोह महा कष्टप्रद होता है। भगवतीय विछोह या तो होता नहीं है और यदि प्रारब्धवशात् हो गया तो भी आनन्दानुभूति उसी प्रकार होती है जैसी कि महारासलीला के मध्य गोपियों को हुई थी।<br />
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तीसरे महारास लीला उस ब्रम्ह की अत्यन्त सुन्दरतम प्रेम-प्रदर्शन की लीला कही जा सकती है, जिससे प्रेम किया जाता है। उसमें सुन्दरतम देखने की दृष्टि हमेशा रहती है। वह सुन्दर दिखाई भी देता है। ब्रम्ह ने सुन्दर सुष्टि का निर्माण किया, उससे सुन्दर कोई हो नहीं सकता, क्योंकि सुन्दर ही सुन्दर का निर्माण करता है।<br />
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<b>यह बात सिर्फ बुद्धिमान लोग ही समझते हैं...</b><br />
ब्रम्ह सत्य है, ब्रम्ह आनन्द प्रदायक है और वह मोहक श्रेष्ठतम सुन्दर है। इसीलिए उसे सत्यम, शिवम् एवं सुन्दरम् कहा जाता है। भगवत् गीता में-''परम ब्रम्ह अक्षर है, उसका स्वभाव अध्यात्म कहलाता है-भूतों के भाव को उत्पन्न करने वाला भूत-भाव और सृष्टि एवं संहार कर्म है। और यही ब्रम्ह ''तपसा चीयते ब्रम्ह, तस्य ज्ञान मयं तप: मुण्डकोपनिशद 1, 1, 4-9 अर्थात् ब्रम्ह तप द्वारा निर्गुण से सगुण हो गया। चीयते का अर्थ फलना-फूलना है। यह अध्यात्म भाव है। यह आत्मज्ञान प्राधान है।<br />
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आइये जानते हैं भागवत में भगवान को उठाने के लिए श्रुतियां क्या कहती हैं। श्रुतियां कहती हैं-भगवान! आप ही सर्वश्रेष्ठ हैं, आप पर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता। आपकी जय हो, जय हो। प्रभो! आप स्वभाव से ही समस्त ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं, इसलिए चराचर प्राणियों को फंसाने वाली माया का नाश कर दीजिए। जगत में जितनी भी साधना, ज्ञान, क्रिया आदि शक्तियां हैं उन सबको जगाने वाले आप ही हैं। इसलिए आपके बिना यह माया मिट नहीं सकती।<br />
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जिस समय यह सारा जगत् नहीं रहता, उस समय भी बाप बचे रहते हैं। जैसे घट, मिट्टी का प्याला, कसोरा आदि सभी विकार मिट्टी से ही उत्पन्न और उसी में लीन होते हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति और प्रलय आप में ही होती है।मनुष्य अपना पैर चाहे कहीं भी रखे-ईंट, पत्थर या काठ पर, होगा वह पृथ्वी पर ही, क्योंकि वे सब पृथ्वी स्वरूप ही हैं। इसलिए हम चाहे जिस नाम या जिस रूप का वर्णन करें, वह आपका ही नाम, आपका ही रूप है।<br />
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लोग सत्व, रज, तम-इन तीन गुणों की माया से बने हुए अच्छे-बुरे भावों या अच्छी-बुरी क्रियाओं में उलझ जाया करते हैं, परन्तु आप तो उस माया नदी के स्वामी, उसके नचाने वाले हैं।भगवन प्राणधारियों के जीवन की सफलता इसी में है कि वे आपका भजन-सेवन करें, आपकी आज्ञा का पालन करें, यदि वे ऐसा नहीं करते तो उनका जीवन व्यर्थ है और उनके शरीर में श्वास का चलना ठीक वैसा ही है, जैसा लुहार की धौंकनी में हवा का आना-जाना।<br />
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भगवन आप अनादि और अनन्त हैं। जिसका जन्म और मृत्यु काल से सीमित है, वह भला, आपको कैसे जान सकता है। जो लोग यह समझते हैं कि आप समस्त प्राणियों और पदार्थों के अधिष्ठान हैं, सबके आधार हैं और सर्वात्मभाव से आपका भजन-सेवन करते हैं, वे मृत्यु को तुच्छ समझकर उसके सिर पर लात मारते हैं अर्थात् उस पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। जो लोग आपसे विमुख हैं, वे चाहे जितने बड़े विद्वान् हों, उन्हें आप कर्मों का प्रतिपादन करने वाली श्रुतियों से पशुओं के समान बांध लेते हैं।<br />
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इसके विपरीत जिन्होंने आपके साथ प्रेम का बन्धन जोड़ रखा है, वे न केवल अपने को बल्कि दूसरों को भी पवित्र कर देते हैं, जगत् के बन्धन से छुड़ा देते हैं। ऐसा सौभाग्य भला, आपसे विमुख लोगों को कैसे प्राप्त हो सकता है।श्रुतियां कह रही हैं-भगवन सभी जीव आपकी माया से भ्रम में भटक रहे हैं, अपने को आपसे पृथक मानकर जन्म-मृत्यु का चक्कर काट रहे हैं, परन्तु बुद्धिमान् पुरुष इस भ्रम को समझ लेते हैं और सम्पूर्ण भक्तिभाव से आपकी शरण ग्रहण करते हैं, क्योंकि आप जन्म-मृत्यु के चक्कर से छुड़ाने वाले हैं।<br />
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<b>ये है जिंदगी जीने का सही तरीका...</b>भगवान सीधी-सीधी बात यह समझा रहे हैं कि धन के मद में लोग मर्यादा भूल जाते हैं। मनुष्य अपने को इतना चालाक समझता है कि वह भगवान को भी ठगने लगता है। इसी बात को समझाने के लिए आगे शुकदेवजी वृकासुर की कथा सुनाते हैं।इसके पहले हम भगवान की बात से समझलें कि वे कर्मों का फल देते हैं। कर्मगति न्यारी होती है। पहले यह समझ लें फिर वृकासुर की कथा में प्रवेश करेंगे।<br />
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भगवान श्रीकृष्ण ने बहुआयामी लीला करके सिद्ध किया कि अपने विकास के लिए स्वयं को कुटुम्ब में बांध, विभिन्न अनुभव किए-कुटुम्बी बनकर उसमें वे जकड़कर बंध गए और फलस्वरूप वंश विनाश लीला का अवलोकन करना पड़ा। कुटुम्ब में रहना माता-पिता की देखभाल, पत्नी, पुत्रों का रक्षण धर्मरूप है किन्तु बंधनकारी हो, आसक्ति में बांधने वाला हो यह कर्म अधर्मकारी हो जाता है। अधर्म को आपत धर्म के रूप में स्वीकार कर उन्होंने (श्रीकृष्ण) अपना स्वभाववत धर्म जगत्गुरु का नहीं छोड़ा और लोकसंग्रह के रूप में कल्याण कार्य पूर्ण किया। भगवान बता रहे हैं कि कैसे संसार में रहकर भी इससे अलग रहा जा सकता है। संसार के नियमों, रिवाजों, बंधनों और रिश्ते-नातों में पड़कर भी कैसे इससे विमुक्त रहा जा सकता है। भगवान हमें जीवन में वैराग्य उतारने की शिक्षा भी देते हैं।<br />
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कई बार इन्सान संन्यासी बनकर भी वैराग्य नहीं पा पाता, भगवान ने सिद्ध किया है कि इच्छाशक्ति हो, ज्ञानेंद्री सक्रिय हो और भीतर से अध्यात्म को, भक्ति को जगाया जाए तो संसार में रहकर भी वैराग्य धारण किया जा सकता है। भगवान ने अपने पूरे जीवन में इस बात को साबित भी किया है। वे न तो कभी स्थान के मोह में फंसे, न कभी इन्सान के रिश्तों के मोह में फंसे, न कभी दुनियादारी में उलझे। कृष्ण सबमें होकर भी सबसे अलग रहे। केवल एक ही बंधन उन्हें बांध सका वह था भक्ति और प्रेम का बंधन। जिसने कृष्ण पर यह पासा फेंका कृष्ण उसके अधीन हो गए।<br />
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<b>जब ना मिले अपने ही सवालों का जवाब तो....</b><br />
आज की जटिल दुनिया में जो बहुत छोटी हो गई है कर्म व देश परिवर्तनशील हो गए हैं। काल अपना विनाशक तथा सृजनात्मक कर्म करता जा रहा है। मनुष्य के सामने स्वयं निर्मित मकडज़ाल है, जिसमें वह फंसा हुआ है, उस जाल को काटे बिना निकलना असंभव है, स्वयं ही काटना है।<br />
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इन्सान जब जन्म लेता है तो उसके साथ ही यह मकडज़ाल शुरु हो जाता है। पल-पल बढ़ती देह उसके सामने चुनौतियां भी बढ़ा देती हैं। इन चुनौतियों को पूरा करते-करते जीवन बीत जाता है। हम खुद को एक जाल में बुना पाते हैं। बचपन में पढऩे-लिखने की जिम्मेदारी, फिर नौकरी-व्यापार की फिर घर-परिवार, बच्चों की जिम्मेदारी और उसके बाद वृद्धावस्था में स्वयं की ही चिंता रहती है।<br />
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अब सवाल यह है कि इस मकडज़ाल से कैसे मुक्ति पाई जाए। हम जीवनभर इस सवाल का जवाब दुनियाभर में खोजते रहते हैं लेकिन जवाब नहीं मिलता दुनिया में उसका जवाब मिलेगा भी नहीं। कई बार जवाब हमारे पास ही होता है। जब जवाब की तलाश हो तो खुद के भीतर झांकिए। कृष्ण के चरित्र से सीखिए।<br />
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हम इस उलझन से, इन चुनौतियों से आसानी से बाहर आ सकते हैं। शर्त यह है कि हमारे मन में इसकी इच्छाशक्ति हो। संसार से भागना, जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़कर भगवान की शरण में जाना या संन्यास लेना इसका जवाब नहीं है। हम संसार में रहकर भी अपने भीतर अध्यात्म को जगा सकते हैं। जैसे ही हमारे मन में अध्यात्म जागेगा, बस समझो भंवर से निकलने का रास्ता मिल गया। अब एक और सवाल उठता है कि अपने भीतर वैराग्य को कैसे जगाया जाए। अध्यात्म का संचार कैसे शुरु हो, मन में भक्ति कैसे जागे। मन अनियंत्रित होता है सो पहले उसे नियंत्रित करने की कोशिश करनी होगी। मन के नियंत्रण में आने के बाद ही जीवन के सूत्र आपके हाथ में आएंगे।<br />
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अभी अधिकांश लोगों के जीवन के सूत्र या तो परिजन, प्रियजन के हाथों में होते हैं या फिर मन के हाथों में। हम अपने जीवन की डोर को खुद पकड़ें। अपने विवेक से, बुद्धि से, ज्ञान से। जब यह सूत्र हमारे हाथ में होगा तो फिर जीवन को अपने हिसाब से गति दे सकेंगे।मन नियंत्रण में हो, जीवन के सूत्र अपने हाथ में हो तो फिर बात टिकती है कर्म पर। कर्म ही सारे मार्ग खोलता है। जीवन में अध्यात्म का मार्ग अवरूद्ध भी कर्म से होता है और खुलता भी कर्म से है।<br />
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कर्म हमारे जीवन की दिषा तय करते हैं। प्रारब्ध बताते हैं। हम क्या हैं और आगे क्या होंगे यह भी तय करता है कर्म। कर्म संस्कारों का निर्माण करते हैं। संस्कार ही मकडज़ाल हैं। संस्कारों को काटने के तीन तरीके लिए जा सकते हैं कर्म को काटना, ज्ञान से कर्म जनित संस्कारों को काटना और भक्ति के कर्मों से निर्मित संस्कारों का उत्छेदन करना।<br />
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<b>क्या है जो आपको भगवान से दूर कर सकता है?</b><br />
सात्विक कर्म वे होते हैं जिसके केन्द्र में परमात्मा होता है। ऐसे कर्म जो भगवान को ध्यान में रखकर किए जाते हैं, जिनके पीछे उद्देश्य भी पवित्र होता है और उसका तरीका भी। सात्विक कर्म हमें कर्तव्य सिखाते हैं। यहां कर्तव्य का अर्थ समझना आवश्यक है। कर्तव्य केवल वह नहीं है जो हमें केवल कर्म से जोड़ता है। कर्म और कर्तव्य अलग-अलग हैं। कर्तव्य, जिम्मेदारी को भी नहीं कहते हैं। कई लोग जिम्मेदारियों को ही कर्तव्य मान बैठते हैं। जिम्मेदारियों के बहाने ही जाने-अनजाने कई गलतियां, पाप कर बैठते हैं और फिर यह कहते हैं कि फलां जिम्मेदारी निभाने के लिए ऐसा किया। यह तो मेरा कर्तव्य था। दरअसल जिम्मेदारी कर्तव्यों का एक अंग हो सकती है, पूर्ण रूप से कर्तव्य नहीं हो सकतीं।<br />
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कर्तव्य का अर्थ तो सबसे अलग है। हमारे विद्वानों ने कर्तव्यों की सही व्याख्या की है। कर्तव्य का अर्थ है ऐसा कर्म जो वास्तव में करने योग्य है, धर्म से युक्त है, ऐसा कर्म जिसके करने से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किसी ऐसे व्यक्ति को हानि नहीं होती जो धर्म के मार्ग पर चल रहा है। कर्तव्य उसे कहते हैं जिसके किए जाने से किसी अन्य का कर्तव्य प्रभावित नहीं होता। इसीलिए कहा गया है कि कर्तव्य का रास्ता बहुत कठिन है। राजसिक कर्म कहते हैं उसे जिसके केन्द्र में संसार हो। राजसिक कर्म को जिम्मेदारियों से जोड़ा जा सकता है लेकिन कर्तव्य से नहीं। संसारिक निर्वहन के लिए किए गए कर्म राजसिक होते हैं, ऐसे कर्म हमें कई बार परमात्मा तक ले जाते हैं तो कई बार उससे दूर भी कर देते हैं। राजसी कर्म भी परमात्मा को पाने का जरिया हो सकता है लेकिन ऐसे कर्मों का मार्ग सात्विक की ओर जाने वाला होना चाहिए। इससे भी कोई हानि नहीं है।<br />
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तीसरा होता है तामसिक कर्म। यह पूरी तरह भगवान से दूर करने वाला होता है। इन कार्मों के केन्द्र में न तो संसार होता है और नहीं परमात्मा। ये कर्म आत्म केन्द्रित होते हैं। केवल खुद के सुख के लिए किए जाते हैं। ये कर्म मनुष्य के पतन का कारण होते हैं। इसमें न तो कर्तव्य का भाव होता है और न ही जिम्मेदारी का।<br />
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व्यापक रूप से अच्छे कर्म हितकारी-स्व व लोक के लिए तथा बुरे कर्म (विनाशकारी) लिए जा सकते हैं। अपने कर्तव्य कर्म स्वधर्मी कर्म होते हैं, जिनको करना श्रेष्ठ है। जन्मजात व्यवस्था क्वचित ही षेश है। ऐसे में अच्छे तथा बुरे का भेद सात्विक, राजसिक और तामसिक लेना ही ठीक है। ''सात्विक कर्म-लोक हितकारी, राजस कर्म-निज हितकारी, तामसिक कर्म-विनाषकारी "<br />
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कर्मफल त्याग, आसक्ति रहित मन:स्थिति, मन की स्थिरता, निश्कामना प्राप्त कर कर्मयोगी, ज्ञानी या भक्त परमसिद्ध स्थिति प्राप्त कर ज्ञान की पराकाश्ठा पाता है। कर्म, ज्ञान व भक्ति मूलरूप में तथा अंत में एक ही स्वरूप प्राप्त कर लेते हैं। तीनों का उद्गम तथा विसर्जन एक ही है। किसी भी मार्ग से गतिमान हुए योगी (भगवान से युक्त) की बुद्धि षुद्ध (स्थित प्रज्ञ) दृढ़तापूर्वक मन-इन्द्रियों को वष में करते हुए शब्दादि विषय त्याग राग द्वेश को जीत अल्प आहार (जिव्हा संयम) वाचा, काया और मन को अंकुश में रखकर ध्यान में रहते हुए, वैराग्य का आश्रय ले, ममात रहित शान्त हो ब्रह्यभाव की योग्यता प्राप्त करता है। गीता 18 अ श्लोक 51, 52, 53 ब्रह्यभाव को प्राप्त स्थिति-''ब्रह्यभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न काड्क्षति। सम: सर्वेशु भूतेशु भद्भक्तिं लभते पराम।।<br />
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ब्रह्यभाव युक्त मनुष्य सदा प्रसन्न करता है। न शोक करता है न किसी की कामना करता है, सब प्राणियों में समभाव रखता है तब उसे पराभक्ति प्राप्त होती है।पराभक्त भगवान को तत्व से जानता है। वह सगुण-निर्गुण दोनों भावों को समझ सकता है। तत्व से जानकर भक्त भगवान में लीन हो जाता है। पुनर्जन्म का झंझट मिट जाता है।<br />
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किन्तु इस स्थिति को पाने के लिए पूर्ण समर्पण की आवश्यकता अर्जुन और उद्धव दोनों को श्रीकृष्ण (भगवान भाव में) बताते हैं। समर्पण भी एक अतिशुद्ध अन्त:करणीय कर्म है जिसमें मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार समाहित है।<br />
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<b>भगवान शिव ने वृकासुर को मारा क्यों नहीं?</b><br />
ब्रह्या, विष्णु और महादेव-ये तीनों शाप और वरदान देनें में समर्थ हैं, परन्तु इनमें महादेव और ब्रह्या शीघ्र ही प्रसन्न या रुष्ट होकर वरदान अथवा शाप दे देते हैं, परन्तु विष्णु भगवान वैसे नहीं हैं। इस विषय में एक प्राचीन घटना है। शंकरजी एकबार वृकासुर को वर देकर संकट में पड़ गए थे। वृकासुर शकुनि का पुत्र था। उसकी बुद्धि बहुत बिगड़ी हुई थी। एक दिन कहीं जाते समय उसने देवर्षि नारद को देख लिया और उनसे पूछा कि तीनों देवताओं में झटपट प्रसन्न होने वाला कौन है? देवर्षि नारद ने कहा-तुम भगवान शंकर की आराधना करो। नारद ने वृकासुर को जल्दी प्रसन्न हो जाने वाले शिव के बारे में बता दिया। शिव भोलेनाथ हैं उन्हें कोई भी प्रसन्न कर सकता है। शिव ऐसे देवता हैं जो थोड़े से प्रयास से खुश होकर मुंह मांगा वरदान दे देते हैं। अधिकांश असुर शिव के ही कृपा पात्र थे। विष्णु मायापति हैं, इसलिए उन्हें प्रसन्न करना मुश्किल है। लेकिन शिव सहज हैं। उनके पास कोई माया नहीं है। वे बस ऐसे ही प्रसन्न हो सकते हैं। उतने ही सहजता में वे क्रोधित भी हो जाते हैं। विष्णु न तो जल्दी क्रोधित होते हैं और नहीं प्रसन्न।<br />
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नारदजी के उपदेश पाकर वृकासुर केदार क्षेत्र में गया और अग्नि को भगवान शंकर का मुख मानकर अपने शरीर का मांस काट-काटकर उसमें हवन करने लगा। भगवान शंकर ने प्रकट होकर वृकासुर से कहा-प्यारे वृकासुर! बस करो, बस करो! बहुत हो गया। मैं तुम्हें वर देना चाहता हूं। तुम मुंह मांगा वर मांग लो। अरे भाई मैं तो अपने शरणागत भक्तों पर केवल जल चढ़ाने से ही सन्तुष्ट हो जाया करता हूं। वृकासुर ने वर मांगा कि मैं जिसके सिर पर हाथ रख दूं, वही मर जाए। उसकी यह याचना सुनकर भगवान रुद्र पहले तो कुछ अनमने से हो गए फिर हंसकर कह दिया-अच्छा ऐसा ही हो।<br />
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शिव ने भोलेपन में, अपने सहज स्वभाव से ही उसे मनचाहा वरदान दे दिया। वे इतने सीधे देवता हैं कि एकबार अपनी शरण में आए भक्त का विरोधी हो जाने पर भी बुरा नहीं करते। वृकासुर के मन में पाप था, वह व्याभिचारी भी था सो वरदान पाते ही उसके मन में पाप जाग गया।<br />
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भगवान शंकर के इस प्रकार कह देने पर वृकासुर के मन में यह लालसा हो आई कि मैं पार्वतीजी को ही हर लूं। वह असुर शंकरजी के वर की परीक्षा के लिए उन्हीं के सिर पर हाथ रखने का प्रयास करने लगा। अब तो शंकरजी अपने दिए हुए वरदान से ही भयभीत हो गए। वह उनका पीछा करने लगा और वे उससे डरकर भागने लगे। वे पृथ्वी, स्वर्ग और दिशाओं के अंत तक दौड़ते गए, परन्तु फिर भी उसे पीछा करते देखकर उत्तर की ओर बढ़े।<br />
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कई लोग यह सवाल उठाते हैं कि भगवान शिव ने सर्वसमर्थ होते हुए भी वृकासुर को मारा क्यों नहीं, वे उससे भाग क्यों रहे हैं। इसका जवाब है कि शिव ने वृकासुर को अपना शरणागत मान लिया था, वृकासुर भले ही अपने धर्म से हट गया, जिससे वरदान लिया उसी को मारने चला था लेकिन शिव अपना धर्म कैसे छोड़ सकते थे। शरणागत को अभयदान के बाद मारना उन्हें अपने धर्म के विरूद्ध लगा सो लोकोपवाद का डर किए बगैर वे वृकासुर से डरकर भाग रहे हैं। शिव को मारना तो असंभव है क्योंकि वे स्वयं ही काल के अधिपति महाकाल हैं लेकिन उनको मारने के प्रयास में वृकासुर स्वयं ही मर जाता, जिससे शिव के धर्म का विलोप हो सकता था। शरणागत को मारने से उन्हें लोकोपवाद सहन करना पड़ता। सो शिव वृकासुर से भाग रहे हैं। इससे उनकी भी रक्षा हो रही है और धर्म की भी।<br />
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<b>फैसला लेने से पहले जरूरी है...</b><br />
नारद ने वृकासुर को शिव के बारे में बता दिया। शिव भोलेनाथ हैं उन्हें कोई भी प्रसन्न कर सकता है। शिव ऐसे देवता हैं जो थोड़े से प्रयास से खुश होकर मुंह मांगा वरदान दे देते हैं। अधिकांश असुर शिव के ही कृपा पात्र थे। विष्णु मायापति हैं, इसलिए उन्हें प्रसन्न करना मुश्किल है। लेकिन शिव सहज हैं। उनके पास कोई माया नहीं है। वे बस ऐसे ही प्रसन्न हो सकते हैं। उतने ही सहजता में वे क्रोधित भी हो जाते हैं। विष्णु न तो जल्दी क्रोधित होते हैं और नहीं प्रसन्न।<br />
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नारदजी के उपदेश पाकर वृकासुर केदार क्षेत्र में गया और अग्नि को भगवान शंकर का मुख मानकर अपने शरीर का मांस काट-काटकर उसमें हवन करने लगा।<br />
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भगवान शंकर ने प्रकट होकर वृकासुर से कहा-प्यारे वृकासुर! बस करो, बस करो! बहुत हो गया। मैं तुम्हें वर देना चाहता हूं। तुम मुंह मांगा वर मांग लो। अरे भाई मैं तो अपने शरणागत भक्तों पर केवल जल चढ़ाने से ही सन्तुष्ट हो जाया करता हूं। वृकासुर ने वर मांगा कि मैं जिसके सिर पर हाथ रख दूं, वही मर जाए। उसकी यह याचना सुनकर भगवान रुद्र पहले तो कुछ अनमने से हो गए फिर हंसकर कह दिया-अच्छा ऐसा ही हो।<br />
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शिव ने भोलेपन में, अपने सहज स्वभाव से ही उसे मनचाहा वरदान दे दिया। वे इतने सीधे देवता हैं कि एकबार अपनी शरण में आए भक्त का विरोधी हो जाने पर भी बुरा नहीं करते। वृकासुर के मन में पाप था, वह व्याभिचारी भी था सो वरदान पाते ही उसके मन में पाप जाग गया।<br />
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भगवान शंकर के इस प्रकार कह देने पर वृकासुर के मन में यह लालसा हो आई कि मैं पार्वतीजी को ही हर लूं। वह असुर शंकरजी के वर की परीक्षा के लिए उन्हीं के सिर पर हाथ रखने का प्रयास करने लगा। अब तो शंकरजी अपने दिए हुए वरदान से ही भयभीत हो गए। वह उनका पीछा करने लगा और वे उससे डरकर भागने लगे। वे पृथ्वी, स्वर्ग और दिशाओं के अंत तक दौड़ते गए, परन्तु फिर भी उसे पीछा करते देखकर उत्तर की ओर बढ़े।<br />
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कई लोग यह सवाल उठाते हैं कि भगवान शिव ने सर्वसमर्थ होते हुए भी वृकासुर को मारा क्यों नहीं, वे उससे भाग क्यों रहे हैं। इसका जवाब है कि शिव ने वृकासुर को अपना शरणागत मान लिया था, वृकासुर भले ही अपने धर्म से हट गया, जिससे वरदान लिया उसी को मारने चला था।<br />
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लेकिन शिव अपना धर्म कैसे छोड़ सकते थे। शरणागत को अभयदान के बाद मारना उन्हें अपने धर्म के विरूद्ध लगा सो लोकोपवाद का डर किए बगैर वे वृकासुर से डरकर भाग रहे हैं। शिव को मारना तो असंभव है क्योंकि वे स्वयं ही काल के अधिपति महाकाल हैं लेकिन उनको मारने के प्रयास में वृकासुर स्वयं ही मर जाता, जिससे शिव के धर्म का विलोप हो सकता था। शरणागत को मारने से उन्हें लोकोपवाद सहन करना पड़ता। सो शिव वृकासुर से भाग रहे हैं। इससे उनकी भी रक्षा हो रही है और धर्म की भी।<br />
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बड़े-बड़े देवता इस संकट को टालने का कोई उपाय न देखकर चुप रह गए। अन्त में वे प्राकृतिक अंधकार से परे परम प्रकाशमय वैकुण्ठलोक में गए। वैकुण्ठ में स्वयं भगवान नारायण निवास करते हैं।भगवान ने कहा- हम इस बात पर विश्वास नहीं करते। आप नहीं जानते हैं क्या? शंकर दक्ष प्रजापति के शाप से पिशाचभाव को प्राप्त हो गए हैं। भगवान ने ऐसी मोहित करने वाली अद्भुत और मीठी वाणी कही कि उसकी विवेक बुद्धि जाती रही। उसने भूलकर अपने ही सिर पर हाथ रख लिया। बस, उसी क्षण उसका सिर फट गया और वह वहीं धरती पर गिर पड़ा।<br />
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विष्णु ने वृकासुर को बिना श्रम के ही, उसके हाथों ही मरवा दिया। इससे शिव के प्राणों और धर्म पर आए संकट से छुटकारा तो मिला ही, साथ ही देवताओं और अन्य लोकों पर वृकासुर के वरदान से आने वाले संकट का भी निराकरण हो गया। सभी देवताओं ने विष्णु की स्तुति की। उन्हें धन्यवाद दिया।<br />
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भगवान शंकर उस विकट संकट से मुक्त हो गए। अब भगवान पुरुषोत्तम ने भयमुक्त शंकरजी से कहा कि देवाधिदेव! बड़े हर्ष की बात है कि इस दुष्ट को इसके पापों ने ही नष्ट कर दिया। ऐसा कौन प्राणी है जो महापुरुषों का अपराध करके कुशल से रह सके।<br />
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इस कथा में कई शिक्षाएं छुपी हैं, जिसे हम अपने जीवन में उतार सकते हैं। पहली किसी भी समय, बिना गहराई से विचार करे कोई निर्णय न लें, दूसरी, शक्ति हमेशा सदाचारी को सौंपी जाए। बिना सोचे दी गई शक्ति का दुरुपयोग स्वयं आपके खिलाफ भी हो सकता है। तीसरी, प्राणों पर संकट भी आए तो भी अपने धर्म को नहीं छोडऩा चाहिए।<br />
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<b>भगवान विष्णु को देवताओं में सबसे श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि...</b><br />
श्रीकृष्ण विष्णु के पूर्ण अवतार हैं, सभी संतों ने उन्हें श्रेष्ठ देव घोषित किया है। विष्णु गृहस्थी के देवता हैं, वे परिवार बचाते हैं, परिवार का ही कल्याण करते हैं। वे जितने सहनशील हैं, उतना कोई देवता नहीं, जितना धैर्य उनमें है उतना किसी भी देवता में नहीं है। इसकी एक कथा भी है।<br />
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एक बार सभी ऋषि-मुनियों में चर्चा चली कि सबसे विनम्र देवता कौन से हैं। तीनों प्रमुख देवों के कृपापात्र और उनके भक्त अपने-अपने तथ्य रखने लगे। शिव भक्तों ने कहा भोलेनाथ सबसे विनम्र और दयालु हैं, वे स्वभाव से ही भोले हैं, ब्रम्ह भक्तों ने कहा-ब्रम्हाजी ने सृष्टि की रचना की लेकिन अपने हाथ में कुछ नहीं रखा। संचालन विष्णु के हाथ में सौंप दिया। उन्हें कभी इस बात का घमण्ड भी नहीं हुआ कि इतनी सुंदर सृष्टि की रचना उन्होंने की है।<br />
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विष्णु भक्तों ने भी अवतारों का तर्क दिया कि जब भी किसी जीव पर संकट आता है तो विष्णु अवतार लेकर उनकी रक्षा करते हैं। सब तर्क दे रहे थे लेकिन फिर भी तय नहीं हो पा रहा था कि सबसे विनम्र कौन है?<br />
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संतों ने तय किया कि तीनों देवों के व्यवहार की परीक्षा ली जाए, लेकिन परीक्षा कौन ले? इतना सक्षम कौन है? तब ब्रम्हा के मानसपुत्र भृगु ऋषि उठे और उन्होंने कहा-मैं जाऊंगा तीनों देवताओं के पास।<br />
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भृगु प्रतापी थे उन्हें सभी लोकों में सशरीर जाने की अनुमति थी। वे सबसे पहले अपने पिता ब्रम्हाजी की सभा में गए। भृगु ने पिता को बिना प्रणाम किए ही अपना आसन ले लिया। ब्रम्हा को यह अनुशासनहीनता लगी, उन्होंने भृगु से कहा-हे भृगु तुम कदाचीत अपनी विद्या और ज्ञान के दंभ में सारा लोकाचार भुल गए हो। क्या तुम्हें इतना भी ध्यान नहीं है कि पिता की सभा में आकर पहले उन्हें प्रणाम करना चाहिए। भृगु ने खड़े होकर क्षमा मांगी और उठकर चले गए। ब्रम्हा को एक बार प्रणाम न करने पर इतना बुरा लगा तो वे विनम्र कैसे हो सकते हैं।<br />
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फिर भृगु कैलाश पर्वत पर गए। वहां शिव अपने गणों के साथ बैठे थे। भृगु गए और सीधे एक आसन पर जाकर बैठ गए। शिव ने इसे सहज लिया लेकिन शिवगणों को यह बात नागवार गुजरी। उन्होंने भृगु से कहा- हे ऋषिवर आप महाकाल की सभा में आए और आपने उन्हें प्रणाम तक नहीं किया। यह तो शिव का अपमान है। गणों के ऐसा कहने पर भी शिव कुछ नहीं बोले। फिर गणों ने कहा है ऋषिश्रेष्ठ आप अगर लोकाचार का पालन नहीं करेंगे तो कैसा प्रभाव पड़ेगा। शिव ने भी इसमें अपनी सहमति दी। भृगु शिवसभा से उठकर चल दिए।<br />
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अब बचे थे श्री विष्णु। भृगु सीधे क्षीरसागर पहुंचे। वे गए तो द्वारपालों ने रोक लिया। वैकुण्ठनाथ अभी निद्रा में हैं, विश्राम कर रहे हैं। भृगु नहीं ठहरे। द्वारपालों ने भी शाप के डर से उन्हें नहीं रोका। भृगु विष्णु के पास पहुंचे तो वे शेष शैय्या पर सो रहे थे। लक्ष्मी चरण दबा रहीं थीं। भृगु ने क्रोध में विष्णु के सीने पर एक लात जमा दी।कहने लगे कि यह तो एक ब्राम्हण का अपमान है, ब्राम्हण ऋषि द्वार पर आए और तुम सो रहे हो। जगतपाल बनते हो, इतना भी ध्यान नहीं। विष्णु के सीने पर लात लगी तो सारे देवता कांप गए। भृगु को यह क्या हो गया। स्वयं नारायण की छाती पर लात मार दी। नारायण क्रोधित हो गए तो सुदर्शन चक्र चल जाएगा। भृगु के तो आज प्राण ही गए, समझो।<br />
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<b>भगवान हमारी परीक्षा क्यों लेते है?</b><br />
विष्णु ने अपने नेत्र खोले, भृगु खड़े दिखाई दिए तो तुरंत पैर पकड़कर क्षमा मांगी-ऋषिवर मेरी छाती वज्र की है, कहीं आपके पैर में चोट तो नहीं लगी। तनिक ठहरिए मैं औषधी मंगवाता हूं। आप कैसे पधारे मुझे सेवक को आदेश देते मैं स्वयं आपकी सेवा में उपस्थित हो जाता। भृगु ने अपने व्यवहार के लिए विष्णु से क्षमा मांगी, फिर सारे संतों ने घोषित किया कि सबसे विनम्र देवता विष्णु ही हैं। महात्मा विदुर अपने भाई से खिन्न, दुर्योधन से अपमानित हो तीर्थाटन पर निकल गए। तीर्थाटन की अवधि में महाभारत का युद्ध, समाप्त हो चुका था। युधिष्ठिर राजपद पर आसीन हो चुके थे। महाभागवत् उद्धवजी से सब कुछ सुन परम ज्ञानी मुनि मैत्रेय के दर्शनार्थ हरिद्वार पहुंचे। मैत्रेय मुनि ने विदुरजी को आत्माओं के आत्मापूर्ण परमात्मा का विवेचन सुनाया, आत्मशक्ति ज्ञान और क्रिया से सम्पन्न विश्वात्मा का दिग्दर्शन कराते हुए मैत्रीय मुनि ने विदुरजी को मायापति की माया, जिसकी चाल चक्कर में डालने वाली अनन्त है, समझाई महाभाग विदुरजी के मन का मोह दूर हुआ।अब हम भागवत के दसवें स्कंध के नवासी (89वें) अध्याय में प्रवेश कर रहे हैं।<br />
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दशम स्कंध में कुल 90 अध्याय हैं। भक्तों की परीक्षा तो भगवान लेते ही रहते हैं। नियति सभी की परीक्षा लेती है। एक बार नहीं बार-बार लेती है। भले ही खुद भगवान ने मनुश्य रूप में अवतार क्यों न लिया हो। मानव देह धरी है तो संसार की सभी चीजें, आरोप, प्रत्यारोप, मान-अपमान, सभी कुछ सहन करना पड़ता है। लेकिन यह परीक्षा हमारी न होकर हमारे धर्म की होती है। हम अपने धर्म पर कितने टिके रह सकते हैं। हमारे मन पर हमारा कितना नियंत्रण है, उन सब बातों की परीक्षा होती है। कई लोग परीक्षा की घड़ी में बौखला जाते हैं, अपने धर्म से डिग जाते हैं और यहीं से उनका पतन शुरू हो जाता है।<br />
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भागवत में श्रीकृष्ण भी लगातार परीक्षा दे रहे हैं। कभी ब्रम्हा, कभी शिव, कभी जरासंध तो अब उनके ही नगरवासी, कृष्ण के ही अनुगामी उन पर आरोप लगा रहे हैं। कृष्ण ने हर परीक्षा में बड़े ही धैर्य से काम लिया है। उन्होंने कभी धर्म का मार्ग नहीं छोड़ा। वे जितने शक्तिशाली थे उतने ही सहज और व्यवहारिक भी। हर बात का गहन चिंतन कृष्ण के सहज व्यवहार में ही था। वे कभी आरोपों का हिंसात्मक दमन नहीं करते थे, ना ही कभी अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करते थे। वे हर बात का उत्तर तलाशने, हर आरोप के निराकरण में ही विश्वास रखते थे।<br />
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क्रमश:...<br />
<b><br />जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,<br />और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....</b><b style="font-family: 'Times New Roman';">मनीष</b></div>
Jai Guru Geeta Gopalhttp://www.blogger.com/profile/01621836960274288942noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6101091264294453966.post-89700760056428930312021-09-03T23:31:00.003-07:002021-09-03T23:33:19.488-07:00श्रीमद् भागवत Srimdbhagwat Part (6)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b>ब्रह्माजी ने कैसे ली श्रीकृष्ण की परीक्षा?</b><br />
भागवत में अभी तक हमने पढ़ा कि भगवान श्रीकृष्ण ने वृंदावन में बकासुर, वत्सासुर व अघासुर का वध कर दिया। भगवान की लीलाओं को देखकर ब्रह्माजी ने उनकी परीक्षा लेने का मन बनाया। एक दिन जब श्रीकृष्ण अपने साथी बाल-ग्वालों के साथ वन में गायों को चराने गए तो ब्रह्माजी भी वहां आ गए और बालकृष्ण की परीक्षा लेने का उपाय सोचने लगे। गायों को चराते-चराते कृष्ण आदि बाल-ग्वाल जब यमुना के पुलिन पर आए तो कृष्ण ने उनसे कहा कि यमुनाजी का यह पुलिन अत्यंत रमणीय है। अब हम लोगों को यहां भोजन कर लेना चाहिए क्योंकि दिन बहुत चढ़ आया है और हम लोग भूख से पीडि़त हो रहे हैं। बछड़े पानी पीकर समीप ही धीरे-धीरे हरी-हरी घास चरते रहें। सभी ने कृष्ण की बात मान ली।<br />
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उसी समय उनकी गाए व बछड़े हरी-हरी घास के लालच में घोर जंगल में बड़ी दूर निकल गए। जब ग्वालबालों का ध्यान उस ओर गया, तब वे भयभीत हो गए। तब कृष्ण उन सभी को वहीं छोड़कर स्वयं गायों व बछड़ों को लेने वन में चले गए। कृष्ण के वन में जाते ही ब्रह्माजी ने अपनी लीला दिखा दी व गौधन को अदृश्य कर दिया। बहुत ढूंढने पर भी जब गाएं आदि नहीं मिले तो कृष्ण वापस लौट आए। यहां आकर उन्होंने देखा कि उनके साथी ग्वाल-बाल भी अपने स्थान पर नहीं है।<br />
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तब उन्होंने वन में घूम-घूमकर चारों ओर उन्हें ढूंढा। परन्तु जब ग्वालबाल और बछड़े उन्हें कहीं न मिले, तब वे तुरंत जान गए कि यह सब ब्रह्माजी की ही माया है। तब भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं बछड़ों तथा उन बाल-ग्वालों का रूप बना लिया और वृंदावन चले गए। किसी को इस बात का पता नहीं चला।<br />
<b><br />ब्रह्माजी ने की श्रीकृष्ण की स्तुति</b><br />
हमने पढ़ा कि ब्रह्माजी ने श्रीकृष्ण की परीक्षा लेने के लिए बछड़ों तथा उनके साथी बाल-ग्वालों को हर लिया। तब श्रीकृष्ण ने स्वयं उनका रूप धरा और वृंदावन चले गए। भगवान इस लीला में वही बात बता रहे हैं, जो बाद में महाभारत युद्ध के दौरान उन्होंने अर्जुन को बताई। सभी प्राणी उनका ही अंश हैं। सब में वे ही विराजित हैं। कोई आपकी देह यानी स्थूल रूप को तो हर कर ले जा सकता है लेकिन उसमें विराजित सूक्ष्म रूप को चुराया नहीं जा सकता।<br />
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इस तरह एक वर्ष का समय बीत गया तब एक दिन भगवान श्रीकृष्ण बलरामजी के साथ बछड़ों को चराते हुए वन में गए। तब उसी समय ब्रह्माजी बह्मलोक से वृंदावन में लौट आए। उनके कालमान से अब तक केवल एक त्रुटि (क्षण) समय व्यतीत हुआ था। यहां आकर उन्होंने देखा कि जिन बछड़ों तथा बाल-ग्वालों को मैंने हर लिया है वे सब तो यहां उपस्थित हैं। तब ब्रह्माजी ने अपनी दिव्य दृष्टि से देखा तो पता चला कि सभी बछड़ों तथा बाल-ग्वालों में तो स्वयं कृष्ण विराजमान हैं।<br />
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यह दृश्य देखकर ब्रह्माजी चकित रह गए। वे भगवान के तेज से निस्तेज होकर मौन हो गए। ब्रह्माजी के इस मोह और असमर्थता को जानकर बिना किसी प्रयास के तुरंत अपनी माया का परदा हटा दिया। वे श्रीकृष्ण के पास गए और उनकी स्तुति करने लगे। तब भगवान श्रीकृष्ण ने भी उन्हें प्रणाम किया। श्रीकृष्ण के कहने पर ब्रह्माजी ने उन बछड़ों तथा बाल-ग्वालों को छोड़ दिया। भगवान की माया से किसी को इस बात का आभास नहीं हुआ।<br />
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<b>धेनुकासुर राक्षस का वध क्यों किया बलराम ने?</b><br />
वृंदावन में रहते हुए अब बलराम और श्रीकृष्ण ने पौगण्ड-अवस्था में अर्थात छठे वर्ष में प्रवेश किया। बलरामजी और श्रीकृष्ण के सखाओं में एक प्रधान गोपबालक थे श्रीदामा। एक दिन उन्होंने बड़े प्रेम से बलराम और श्रीकृष्ण से बोला कि - हम लोगों को सर्वदा सुख पहुंचाने वाले बलरामजी। आपके बाहुबल की तो कोई थाह ही नहीं है। हमारे मनमोहन श्रीकृष्ण। दुष्टों को नष्ट कर डालना तो तुम्हारा स्वभाव ही है।<br />
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यहां से थोड़ी ही दूर पर एक बड़ा भारी वन है। उसमें बहुत सारे ताड़ के वृक्ष हैं। वे सदा फलों से लदे रहते हैं। वहां धेनुक नाम का दुष्ट दैत्य भी रहता है। उसने उन फलों पर रोक लगा रखी है। वह दैत्य गधे के रूप में रहता है। श्रीकृष्ण। हमें उन फलों को खाने की बड़ी इच्छा है।<br />
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अपने सखा ग्वालबालों की यह बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी दोनों हंसे और फिर उन्हें प्रसन्न करने के लिए उनके साथ तालवन के लिए चल पड़े। उस वन में पहुंचकर बलरामजी ने अपनी बांहों से उन ताड़ के पेड़ों को पकड़ लिया और बड़े जोर से हिलाकर बहुत से फल नीचे गिरा दिए। जब गधे के रूप में रहने वाले दैत्य ने फलों के गिरने का शब्द सुना, तब वह बलराम की ओर दौड़ा।<br />
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बलरामजी ने अपने एक ही हाथ से उसके दोनों पैर पकड़ लिए और उसे आकाश में घुमाकर एक ताड़ के पेड़ पर दे मारा। घुमाते समय ही उस गधे के प्राणपखेरू उड़ गए। धेनुकासुर को जिस तरह मारा, ग्वालबाल बलराम के बल की प्रशंसा करते नहीं थकते। धेनुकासुर वह है जो भक्तों को भक्ति के वन में भी आनंद के मीठे फल नहीं खाने देता। बलराम बल और शौर्य के प्रतीक हैं, जब कृष्ण हृदय में हो तो बलराम के बिना अधूरे हैं। बलराम ही भक्ति के आनंद को बढ़ाने वाले हैं। ग्वालबाल अब मीठे फल भी खा रहे हैं।<br />
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<b>जब ग्वालों ने पी लिया विषैला जल</b><br />
भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार वृन्दावन में कई तरह की लीलाएं करते। एक दिन श्री कृष्ण अपने सभी सखा यानी दोस्त ग्वालों को यमुना के तट पर लेकर गए। उस दिन बलराम जी कृष्णा के साथ नहीं थे। आषाढ़ की चिलचिलाती धुप में ग्वाले गर्मी से बेहाल थे। प्यास से उनका कण्ठ सुख रहा था। इसलिए उन्होने यमुना जी का विषैला जल पी लिया। उन्हे प्यास के कारण इस बात का ध्यान नहीं रहा था। इसलिए सभी गौएं और ग्वाले प्राणहीन होकर यमुना के तट पर गिर पड़े। उन्हे ऐसी हालत में देखकर श्री कृष्ण ने उन्हें अपनी अपनी अमृत बरसाने वाली दृष्टी से जीवित कर दिया। उनके स्वामी और सर्वस्व तो एकमात्र श्री कृष्ण थे। चेतना आने पर वे सब यमुनाजी के तट पर उठ खड़े हुए और आश्चर्यचकित होकर एक-दूसरे की ओर देखने लगे। अन्त में उन्होंने यही निष्चय किया कि हम लोग विषैला जल पी लेने के कारण मर चुके थे, परन्तु हमारे श्रीकृष्ण ने अपनी अनुग्रह भरी दृष्टि से देखकर हमें फिर से जीवित कर दिया है। यह भक्ति का वह रूप है जब भक्त अज्ञानवष कोई भयंकर भूल कर बैठता है और जीवन का सारा नियंत्रण खो देता है। तब ऐसे में भगवान ही अपने भक्तों पर इतना अनुग्रह रखते हैं कि उन्हें साक्षात् राम के बंधन से छुड़ा दें। बस, चित्त में कान्हा ही रहे।<br />
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<b>जब कूद पड़े कान्हा विषैले जल में</b><br />
यमुनाजी में कालिया नाग का एक कुण्ड था। उसका जल विष की गर्मी से खौलता रहता था। यहां तक कि उसके ऊपर उडऩे वाले पक्षी भी झुलसकर उसमें गिर जाया करते थे। उसके विषैले जल की उत्ताल तरंगों का स्पर्श करके तथा उसकी छोटी-छोटी बूंदें लेकर जब वायु बाहर आती और तट के घास-पात, वृक्ष, पशु-पक्षी आदि का स्पर्श करती, तब वे उसी समय पर जाते थे।<br />
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भगवान् का अवतार तो दुष्टों का दमन करने के लिए ही होता है। जब उन्होंने देखा कि उस सांप के विष का वेग बड़ा प्रचण्ड है और वह भयानक विष ही उसका महान् बल है तथा उसके कारण मेरे विहार का स्थान यमुनाजी भी दूषित हो गई हैं, तब भगवान् श्रीकृष्ण अपनी कमर कसकर एक बहुत ऊंचे कदम्ब के वृक्ष पर चढ़ गए और वहां से ताल ठोंककर उस विषैले जल में कूद पड़े। यमुनाजी का जल सांप के विश के कारण पहले से ही खौल रहा था। उसकी तरंगें लाल-पीली और अत्यन्त भयंकर उठ रही थीं। पुरुशोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के कूद पडऩे से उसका जल और भी उछलने लगा। उस समय तो कालियदह का जल इधर-उधर उछलकर चार सौ हाथ तक फैल गया। तट पर खड़े ग्वालबाल चिल्लाने लगे। कान्हा, ये क्या किया, भयंकर विष भरे जल में कूद गए। ग्वालबालों की दशा ऐसी हो गई जैसे दोबारा किसी ने उनके प्राण छीन लिए हों।<br />
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भगवान् श्रीकृष्ण कालियदह में कूदकर अतुल बलशाली मतवाले गजराज के समान जल उछालने लगे। आंख से ही सुनने वाले कालिया नाग ने वह आवाज सुनी और देखा कि कोई मेरे निवास स्थान का तिरस्कार कर रहा है। उसे यह सहन न हुआ। वह चिढ़कर भगवान् श्रीकृष्ण के सामने आ गया। उसने देखा कि सामने एक सांवला-सलोना बालक है।<br />
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उसने श्री कृ्ष्ण को मर्मस्थानों में डंसकर अपने शरीर के बन्धन से उन्हें जकड़ लिया। भगवान् श्रीकृष्ण नागपाश में बंधकर बेहोश हो गए। यह देखकर उनके प्यारे सखा ग्वालबाल बहुत ही पीडि़त हुए और उसी समय दु:ख, पश्चाताप और भय से मूच्र्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। क्योंकि उन्होंने अपने शरीर, सुहृद्, धन-सम्पत्ति, स्त्री, पुत्र, भोग और कामनाएं सब कुछ भगवान् श्रीकृष्ण को ही समर्पित कर रखा था। गाय, बैल, बछिया और बछड़े बड़े दु:ख से डकराने लगे। श्रीकृष्ण की ओर ही उनकी टकटकी बंध रही थी। वे डरकर इस प्रकार खड़े हो गए, मानो रो रहे हों। उस समय उनका शरीर हिलता-डोलता तक न था।<br />
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कुछ तट पर खड़े रहे, कुछ ग्वालबाल गांव की ओर दौड़ पड़े। नंदबाबा को बुलाओ, बलराम को बुलाओ पुकार मचने लगी। समाचार मिलते ही व्रजवासी भी यमुना तट पर दौड़ आए। कान्हा को कालिया नाग के चंगुल में देख उनके प्राण सूख गए।<br />
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<b>बस सोचिए तो, हर काम आसान हो जाएगा</b><br />
जगत के सब कार्य करते हुए उनके प्रति अनासक्त हुए बिना वैराग्य में दृढ़ता नहीं आती। वैराग्य और अभ्यास के समानान्तर पथ पर चलकर ही जीवन आध्यात्म की मंजिल, मोक्ष, ईश्वर प्राप्ति, परमानन्द प्राप्त कर सकता है। यह अत्यन्त कठिन और अत्यन्त सरल है। कठिनता और सरलता इसके प्रति दृष्टिकोण पर निर्भर करती है।<br />
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सतत् अभ्यास से सहजता आती है और सहजता सरल बनाती है। इसके विपरित कठिनता है। सब भावना का खेल है। यदि भावना हो कि मेरे प्रियतम परमात्मा मेरे अन्दर हैं और मैं सर्वव्यापी परमात्मा के अन्दर मैं हूं, बस काम आसान हो जाता है। इस भावना को आत्मबोध की संज्ञा दी जा सकती है और जब यह निरन्तर बनी रहती है तब इसे आत्मदर्शन कहा जा सकता है। इसमें दृढ़ता व अनन्यता आने पर जो अभ्यास से आती है, आत्म प्रबोधिक साधक अपने मानव जीवन के अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है, इसे जीवनमुक्त अवस्था की भी संज्ञा दी जाती है।<br />
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जीवन मुक्त में अटूट आत्मबल होता है। आत्मबली का मन निश्चल, निर्मल, स्थिर और षक्ति सम्पन्न होता है।यह प्रसंग अग्नि के माध्यम से हमको समझा रहा है कि जीवन में अनासक्ति, वैराग्य का क्या महत्व है।<br />
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अब तक भागवत में आपने पड़ा कि कृष्णा कालीया नाग के आतंक से ब्रजवासियों को मुक्त करवाने के लिए यमुना में कूद पड़ते हैं और कालीया नाग का मर्दन करते है अब आगे की कथा इस प्रकार है..व्रजवासी और गौएं सब बहुत ही थक गए थे। ऊपर से भूख-प्यास भी लग रही थी। इसलिए उस रात वे व्रज में नहीं गए, वही यमुनाजी के तट पर सो रहे। गर्मी के दिन थे, उधर का वन सूख गया था। आधी रात के समय उसमें आग लग गई। उस आग ने सोये हुए व्रजवासियों को चारों ओर से घेर लिया और वह उन्हें जलाने लगी। आग की आंच लगने पर व्रजवासी घडबड़ाकर उठ खड़े हुए और लीला- मनुष्य भगवान् श्रीकृष्ण की शरण में गए।<br />
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उन्होंने कहा-प्यारे श्रीकृष्ण! श्यामसुन्दर! महाभाग्यवान् बलराम! तुम दोनों का बल विक्रम अनन्त है। देखा, देखो यह भयंकर आग तुम्हारे सगे सम्बन्धी हम स्वजनों को जलाना ही चाहती है। तुम में सब सामथ्र्य है। हम तुम्हारे सुहृद् हैं, इसलिए इस प्रलय की अपार आग से हमें बचाओ। प्रभो! हम मृत्यु से नहीं डरते, परन्तु तुम्हारे अकुतोभय चरण कमल छोडऩे में हम असमर्थ हैं। भगवान् अनन्त हैं, वे अनन्त शक्तियों को धारण करते हैं, उन जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने जब देखा कि मेरे स्वजन इस प्रकार व्याकुल हो रहे हैं तब वे उस भयंकर आग को पी गए।<br />
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<b>मित्रता के सूत्र सीखें कृष्ण से</b><br />
प्रलंबासुर वध-कंस का भेजा गया प्रलंबासुर नामक राक्षस गोप ग्वालों के मध्य आ गया। कृष्ण ने पहचाना अपने बड़े भाई को संकेत समझा दिया और खेल में जब घोड़ा बनने की बारी आई तो बलराम उसकी पीठ पर बैठ गए वो बलराम को लेकर दूर भागा। अपने वास्तविक रूप में जब आया तो बलराम ने उसकी भलीभांति पिटाई की और वही उसका प्रणान्त हो गया।<br />
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राम और श्याम वृन्दावन की नदी, पर्वत, घाटी, कुन्ज, वन और सरोवरों में वे सभी खेल खेलते, जो साधारण बच्चे संसार में खेला करते है। एक दिन जब बलराम और श्रीकृश्ण ग्वालबालों के साथ उस वन में गौएं चरा रहे थे, तब ग्वाल के वेश में प्रलम्ब नाम का एक असुर आया। उसकी इच्छा थी कि मैं श्रीकृष्णऔर बलराम को हर ले जाऊँ।<br />
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भगवान् श्रीकृष्ण सर्वज्ञ हैं। वे उसे देखते ही पहचान गए। फिर भी उन्होंने उसका मित्रता का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। जब भी जीवन में बुराइयां प्रवेश करती है तो यह आवश्यक नहीं कि वे शत्रु बनकर ही आएं। कुछ बुराइयां मित्र भी होती हैं। भगवान ही उनको पहचान सकते हैं। वे इसे समझ जाते हैं और जब मित्र के रूप में आया संकट अपना रूप दिखाता है तो भगवान इसे तत्काल खत्म कर देते हैं।<br />
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<b>तप क्या है?</b><br />
तप- तप का उद्देश्य पूर्व संचित संस्कारों को रोकना और भविष्य के संस्कारों को संचित न होने देना है। तप स्वाध्याय जप तथा सद्ग्रंथों का पठन-पाठन और ईश्वर प्रणिधान तीनों मिलकर भोग कहे जाते हैं। शरीर, इन्द्रियों व मन का संयम तप शारीरिक वाचिक तथा मानसिक तीन प्रकार का होता है। व्रत, उपवास रखना, भक्ष्य अभक्ष्य का ध्यान रखना, तीर्थाटन करना, गर्मी, सर्दी सहन करना आदि सात्विक श्रेणी के कार्य करना-यथा शक्ति सहन करना। मानसिकता में मान, अपमान में समता। वाचिक रूप में सत्य बोलना, कम बोलना (आवश्यक बोलना) मौन का अर्थ हृदयगत विचार शून्यता कही जा सकती है। यहां इस घटना में अग्रि को तप से जोड़ा गया है। भक्त का तपस्वी होना ही उसका गहना है।<br />
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एक बार जब ग्वालबाल खेल कूद में लग गए, तब उनकी गौएं बेरोकटोक चरती हुई बहुत दूर निकल गईं और हरी-हरी घास के लोभ से एक गहन वन में घुस गईं। उनकी बकरियां, गायें और भैंसे एक वन से दूसरे वन में होती हुई आगे बढ़ गईं तथा गर्मी के ताप से व्याकुल हो गईं।<br />
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जब श्रीकृष्ण, बलराम आदि ग्वालबालों ने देखा कि हमारे पशुओं का तो कहीं पता ठिकाना नहीं है, तब उन्हें अपने खेल-कूद पर बड़ा पछतावा हुआ और वे बहुत कुछ खोज बीन करने पर भी अपनी गौओं का पता न लगा सके। इस प्रकार भगवान् उन गायों को पुकार ही रहे थे कि उस वन में सब ओर अकस्मात् दावाग्रि लग गई जो वनवासी जीवों का काल ही होती है। इससे सब ओर फैली हुई वह प्रचण्ड अग्नि अपनी भयंकर लपटों से समस्त चराचर जीवों को जलाने करने लगी। जब ग्वालों और गौओं ने देखा कि दावानल चारों ओर से हमारी ही ओर बढ़ता आ रहा है, तब वे अत्यन्त भयभीत हो गए और मृत्यु के भय से डरे हुए जीव जिस प्रकार भगवान् की शरण में आते हैं, वैसे ही वे श्रीकृष्ण और बलरामजी की शरण में आते हैं, वैसे ही वे श्रीकृष्ण और बलरामजी के शरणापन्न होकर उन्हें पुकारते हुए बोले-महावीर श्रीकृष्ण! परम बलशाली बलराम! हम तुम्हारे शरणागत हैं।<br />
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देखो, इस समय हम दावानल से जलना नही चाहते हैं। तुम दोनों हमें बचाओ।श्रीकृष्ण ने कहा-डरो मत, तुम अपनी आंखें बंद कर लो। भगवान् की आज्ञा सुनकर उन ग्वालबालों ने कहा बहुत अच्छा और अपनी आंखें मूंद ली। तब योगेष्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने उस भयंकर आग को अपने मुंह से पी लिया और इस प्रकार उन्हें घोर संकट से छुड़ा दिया।<br />
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<b>खो जाइए संगीत में कृष्ण अपने आप मिल जाएंगे</b><br />
भक्ति का एक अंग संगीत है, जो हमेशा भगवत ध्यान में लीन रहते हैं लेकिन भगवान के स्वरूप में लीन नहीं हो पाते, हमेशा भगवान को चेतन-अवचेतन रूप में अपने भीतर और खुद को भगवान में खो देना चाहते हैं, संगीत उनके लिए श्रेष्ठ उपाय है। भजन का यही मतलब है, आप संगीत की स्वर लहरियों में खुद को भिगो लीजिए और अपने आपको भगवान में रमा दीजिए।<br />
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वेणू गीत जैसे प्रसंग बताते हैं कि यहां आकर बुद्धि को विश्राम देना होगा। बुद्धि का अपना महत्व है। वेणुगीत-ब्रज की कुमारियां कृष्ण को ही पति के रूप में प्राप्त करने के अगहन मास में कात्यायिनी का व्रत किया करती थीं। वे नित्य की भांति तट पर स्नान करने गईं, रास लीला में जाना है कि सभी दुर्गुणों का पहले नाश करिए। दुर्गुण रहित होने पर ही जीव कृष्ण लीला में स्थान पा सकता है।<br />
कन्हैया की बांसुरी सुनकर उसकी मधुर तान का जो वर्णन किया गया है, वही वेणु गीत कहलाता है।<br />
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वेणुगीत यानी अब भक्ति में भजन का प्रवेश हो रहा है। कृष्ण तो सम्पूर्ण कलाओं के अवतार हैं। बंसी की मधुर तान गोपियों और कृष्ण प्रेम में डुबे ब्रजवासियों को भक्ति रस में भिगो रही है।<br />
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शरद् ऋतु के कारण वह वन बड़ा सुन्दर हो रहा था। जल निर्मल था और जलाषयों में खिले हुए कमलों की सुगन्ध से सनकर वायु मन्द-मन्द चल रही थी। भगवान् श्रीकृ्रष्ण ने गौओं और ग्वालबालों के साथ उस वन में प्रवेष किया।मधुपति श्रीकृष्ण ने बलरामजी और ग्वालबालों के साथ उसके भीतर घुसकर गौओं को चराते हुए अपनी बांसुरी पर बड़ी मधुर तान छेड़ी। श्रीकृष्ण की वह वंशी कीध्वनि भगवान् के प्रति प्रेमभाव को, उनके मिलन की आकांक्षा को जगाने वाली थी (उसे सुनकर गोपियों का हृदय प्रेम से परिपूर्ण हो गया) वे एकान्त में अपनी सखियों से उनके रूप, गुण और वंशीध्वनि के प्रभाव का वर्णन करने लगीं।<br />
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अरी सखी! यह वृन्दावन वैकुण्ठलोक तक पृथ्वी की कीर्ति का विस्तार कर रहा है। क्योंकि यशोदानन्दन श्रीकृष्ण के चरणकमलों के चिन्हों से यह चिन्हित हो रहा है! सखि! जब श्रीकृष्ण अपनी मुनिजन मोहिनी मुरली बजाते हैं, तब मोर मतवाले होकर उसकी ताल पर नाचने लगते हैं।<br />
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वृन्दावनविहारी श्रीकृष्ण की ऐसी-ऐसी एक नहीं, अनेक लीलाएं हैं। गोपियां प्रतिदिन आपस में उनका वर्णन करतीं और तन्मय हो जातीं। भगवान् की लीलाएं उनके हृदय में स्फुरित होने लगतीं।<br />
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<b><br />मन की चुप्पी ही मौन है</b><br />
बांसुरी का एक गुण यह भी है कि जब वह अकेली होती है तब मौन ही रहती है। हम भी ईश्वर के ध्यान में एकांत के समय मौन का पालन करें। कई लोग शरीर से तो सावधान रहते हैं, मुंह बन्द रखते हैं किन्तु मन से चलते-फिरते बोलते रहते हैं। मौन का अर्थ है मन से भी कुछ न बोला जाए। मन का मौन ही सर्वोत्तम मौन है। बांसुरी वादन तो नाद ब्रह्म की उपासना है। बांसुरी को लेकर गोपियां चर्चा करती हैं कि अरी सखी यह कन्हैया बंसी बजा रहा है।<br />
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दूसरी गोपी कहती है ये बंसी नहीं कृष्ण की पटरानी है। मैंने सुना है कि जब वह भोजन करने बैठता है तब बांसुरी को कमर की फेंट में ही रखता है और जब सोता है तो उसे अपने साथ सेज पर रखता हैं, आंखें दासियां हैं, पलकें पंखे हैं, नथनी छत्र है। इस बांसुरी का परमात्मा के साथ विवाह हुआ है। अत: इसे नित्य संयोग प्राप्त हुआ। इस वेणु ने अपने पूर्व जन्म में न जाने कौन सी तपस्चर्या की कि उसे कृष्ण के अधरामृत का नित्यपान करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।एक गोपी ने बांसुरी से पूछा-अरी सखी! तूने ऐसा कौन सा पुण्य कमाया था, कि तुझे प्रभु ने अपना लिया। बांसुरी बोली-मैंने बड़ी तपस्चर्या की। मेरा पेट खाली है, मैं अपने पेट में कुछ भी नहीं रखती। बांसुरी अपने पेट में कुछ भी नहीं रखती। जो बांसुरी जैसा बन जाता है, वह भगवान् को भाता है।<br />
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<b>जब कृष्ण ने हर लिए गोपियों के वस्त्र</b><br />
श्रीकृष्ण तो सर्वव्यापी हैं वे जल में भी हैं। तो गोपियों से मिले हुए ही थे। किन्तु गोपियां अज्ञान और वासना से आवृत्त होने के कारण श्रीकृष्ण का अनुभव नहीं कर पाती थीं। सो उनके बुद्धिगत अज्ञान और वासना रूपी वस्त्रों को भगवान् उठाकर ले गए। वैसा प्रभु तब करते हैं जबकि जीव उनका हो जाता है।देह से ऊपर उठना होगा तब यह प्रसंग समझ में आएगा। हम अपने शरीर को समझें। गोपियां नित्य की भांति स्नान करने के लिए वस्त्र उतारकर नदी में प्रवेश कर गईं।<br />
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कृष्ण भगवान् भी अपने मित्रों के सहित उस ओर गए। उन्होंने गोपियों को इस प्रकार वरूणदेव का अनादर करते देखा तो वे उन्हें पाठ पढ़ाने के लिए वे उनके वस्त्र लेकर कदम के वृक्ष पर चढ़ गए। गोपियां इससे त्रस्त हो गईं। बहुत अनुनय-विनय करने के बाद उन्होंने वस्त्र लौटाए। गोपियां इससे रूष्ट नहीं हुईं, उन्हें कृष्ण का हर आचरण प्रिय था।इस चीर हरण की लीला में भी एक रहस्य है। कुमारियों के मन में ऐसी भावना थी कि वे नारी हैं ऐसा भाव अहंकार का द्योतक है। उनका वह अहमभाव दूर करने के लिए श्रीकृष्ण ने वैसा व्यवहार किया।<br />
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क्योंकि अब रास लीला आने वाली है और रासलीला के गहन अर्थ को जो समझेगा, वही इस चीरहरण के अर्थ को समझेगा। भगवान उन्हीं को रासलीला में ले जाएंगे जिन्हें देह का भान नहीं होगा। उनका वह अहम्भाव दूर करने के लिए श्रीकृष्ण ने उस प्रकार का व्यवहार किया। इस लीला में अहंकार का पर्दा हटाकर प्रभु को सर्वस्व अर्पण करने का उद्देष्य है। द्वेष का आवरण दूर करोगे, तो रास में प्रवेष मिलेगा, भगवान् मिलेगा।<br />
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वासना वृत्तियों के आवरण का नष्ट होना ही चीरहरण लीला है। आवरण नाश के पश्चात् जीव के आत्मा का प्रभु से मिलन रासलीला है। इसी कारण से रासलीला चीरहरण के बाद आती है। भगवान् कभी लौकिक वस्त्रों की चोरी नहीं करते।<br />
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वे तो बुद्धिगत अज्ञान कामवासना की चोरी करते हैं। सोचिए, क्या कन्हैया गोपियों का नग्न अवस्था में देखना चाहते है? नहीं। श्रीकृष्ण तो सर्वव्यापी हैं वे जल मेंभी हैं। तो गोपियों से मिले हुए ही थे। किन्तु गोपियां अज्ञान और वासना से आवृत्त होने के कारण श्रीकृष्ण का अनुभव नहीं कर पाती थीं। सो उनके बुद्धिगत अज्ञान और वासना रूपी वस्त्रों को भगवान् उठाकर ले गए। वैसा प्रभु तब करते हैं जबकि जीव उनका हो जाता है।देह से ऊपर उठना होगा तब यह प्रसंग समझ में आएगा।<br />
<b><br />खोलें अपने मन की आंखें</b><br />
तो भगवान को पहचानना मुश्किल हो जाता अधिक ज्ञान हो तो बुद्धि और मन पर हावी हो जाता है। जिस परमात्मा को पाने के लिए यज्ञ कर रहे थे, उसी परमपिता के सखाओं की बात वे टाल गए। मन भक्ति में लीन था लेकिन बुद्धि ने उस पर अंकुश लगा दिया। भक्ति में भी होशोहवास जरूरी है, कब किस रूप में भगवान आपके सामने आ गए जाएं, यह कोई चेतन बुद्धि वाला ही समझ सकता है। मन की आंखें अगर बुद्धि ने बंद कर दी हो तो भगवान को पहचानना मुश्किल होता है, क्योंकि बुद्धि अपने सामने आई हर वस्तु को अपनी कसौटी पर परखती है। मन सीधे अपनाना है। ब्राम्हण लोग अभी जागे हुए नहीं थे। साधना में होश जरूरी है। इसे ही आत्मानुशासन कहा गया है।<br />
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ब्राह्मणियों का भोग-एक बार ग्वालों को वन में मधुर फल खाने के साथ मिष्ठान्न खाने की भी इच्छा हुई। कृष्ण को ध्यान आया कि ब्राह्मणियां मिष्ठान्न तैयार कर रही हैं। श्रीकृष्ण ने ग्वाबालों को उनके पास भेजा। जब उन्होंने श्रीकृष्ण का नाम लिया तो ब्राह्मणियां स्वयं मिष्ठान्न लेकर उपस्थित हो गईं। आईये इस प्रसंग का आनन्द लें।ग्वालबालों ने कहा-नयनाभिराम बलराम! तुम बड़े पराक्रमी हो। हमारे चित्तचोर श्यामसुन्दर! तुमने बड़े-बड़े दुष्टों का संहार किया है। उन्हीं दुष्टों के समान यह भूख भी हमें सता रही है। अत: तुम दोनों इसे भी बुझाने का कोई उपाय करो।<br />
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श्रीकृष्ण बोले-यहां से थोड़ी दूर पर वेदवादी ब्राम्हण स्वर्ग की कामना से आंगरस नामक यज्ञ कर रहे हैं। तुम उनकी यज्ञशाला में जाओ। मेरे भेजने सेवहां जाकर तुम लोग मेरे बड़े भाई भगवान् बलरामजी का और मेरा नाम लेकर कुछ थोड़ा-सा भात-भोजन की सामग्री मांग लाओ। जब भगवान् ने ऐसी आज्ञा दी, तब ग्वालबाल उन ब्राम्हणों की यज्ञशाला में गए और उनसे भगवान् की आज्ञा के अनुसार ही अन्न मांगा।<br />
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भगवान् बलराम और श्रीकृष्ण गौएं चराते हुए यहां से थोड़े ही दूर पर आए हुए हैं। उन्हें इस समय भूख लगी है और वे चाहते हैं कि आप लोग उन्हें थोड़ा सा भात दे दें। ब्राम्हणों! आप धर्म का मर्म जानते है। यदि आपकी श्रद्धा हो तो उन भोजनार्थियों के लिए कुछ भात दे दीजिए।<br />
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परीक्षित! इस प्रकार भगवान् के अन्न मांगने की बात सुनकर भी उन ब्राम्हणों ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया। वे चाहते थे स्वर्गादि तुच्छ फल और उनके लिए बड़े-बड़े कर्मों में उलझे हुए थे। सच पूछो तो वे ब्राम्हण ज्ञान की दृष्टि से थे बालक ही, परन्तु अपने को बड़ा ज्ञानवृद्ध मानते थे।<br />
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<b>प्रभु मिलन के लिए जरूरी है प्रेम</b><br />
जब भगवान के प्रति प्रेम जागृत हो जाए तो सबसे कठिन होता है उसे प्रकट करना। प्रेम है तो फिर कोई भय नहीं होना चाहिए। परमात्मा के प्रति प्रेम होने के बाद भी अगर मन में कोई भय, शंका हो तो समझिए प्रेम अभी पूर्णत: जागृत नहीं हुआ क्योंकि परमात्मा के प्रति प्रेम से तो स्वयं मृत्यु का भय भी चला जाता है। गृहस्थी में परमात्मा के मिलने की संभावना रहती है, यह प्रसंग, यही बात बता रहा है। इसमें वैराग्य की बड़ी भूमिका है।<br />
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ब्राम्हण चूक गए और उनकी पत्नियों में वैराग्य जागा था। थोड़ा वैराग्य और गृहस्थाश्रम को समझ लें। इधर जब ब्राम्हणों को यह मालूम हुआ कि श्रीकृण तो स्वयं भगवान् हैं, तब उन्हें बड़ा पछतावा हुआ। वे सोचने लगे कि जगदीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम की आज्ञा का उल्लंघन करके हमने बड़ा भारी अपराध किया है। वे तो मनुष्य की सी लीला करते हुए भी रामेश्वर ही हैं। जब उन्होंने देखा कि हमारी पत्नियों के हृदय में तो भगवान् का अलौकिक प्रेम है और हम लोग उससे बिलकुल रीते हैं, तब वे पछता-पछताकर अपनी निन्दा करने लगे। कितने आश्चर्य की बात है! देखो तो सही-यद्यपि ये स्त्रियां हैं, तथापि जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण में इनका कितना अगाध प्रेम है, अखण्ड अनुराग है। उसी से इन्होंने गृहस्थी की वह बहुत बड़ी फांसी भी काट डाली, जो मृत्यु के साथ भी नहीं कटती। उपवास, परमात्मा की प्राप्ति के ये कठिन मार्ग हैं। इन मार्गों की बाधा दूर करने का सबसे आसान रास्ता है प्रेम।<br />
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<b>परंपरा के नाम पर ना करें अंधविश्वास</b><br />
कृष्ण समझा रहे हैं कि भगवान तो हमारे मध्य ही हैं। ये नदियां, वन, पर्वत जो हमारी रक्षा भी करते हैं और पालन भी। हमें प्रकृति के प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए, प्राकृतिक संसाधनों के प्रति सावधान भी रहना चाहिए। हमें जीवित रखने के लिए ये उपयोगी चीजें देते हैं और मौसम को भी हमारे अनुकूल रखते हैं। कृष्ण के इस संदेश में उनका पर्यावरण प्रेम भी छुपा हुआ है।कृष्ण यह संदेश भी दे रहे हैं कि हर जो घटना हमारे सामने घट रही है, उसे ऐसे ही न हो जाने दें। परम्परा के नाम पर जो गलत हो रहा, धर्म सम्मत नहीं है उसका विरोध भी आवश्यक है। धर्म के नाम पर केवल अनिष्ट के भय से, देवताओं के डर से हम कोई कृत्य न करें। भगवान् अब श्रीकृष्ण बलरामजी के साथ वृन्दावन में रहकर अनेकों प्रकार की लीलाएं कर रहे थे। उन्होंने एक दिन देखा कि वहां के सब गोप इन्द्र यज्ञ करने की तैयारी कर रहे हैं। कृष्ण ने कहा-यह संसारी मनुष्य समझे-बेसमझे अनेकों प्रकार के कर्मों का अनुष्ठान करता है। उनमें से समझ-बूझकर करने वाले पुरुषों के कर्म जैसे सफल होते हैं, वैसे बेसमझ के नहीं। अत: इस समय आप लोग जो क्रियायोग करने जा रहे हैं वह सुहृदों के साथ विचारित शस्त्र सम्मत है अथवा लौकिक ही है। मैं यह सब जानना चाहता हूं आप कृपा करके स्पष्ट रूप से बतलाइये।<br />
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नन्दबाबा ने कहा-बेटा! भगवान् इन्द्र वर्षा करने वाले मेघों के स्वामी हैं। ये मेघ उन्हीं के अपने रूप हैं। वे समस्त प्राणियों को तृप्त करने वाला एवं जीवनदान करने वाला जल बरसाते हैं। मेरे प्यारे पुत्र! हम और दूसरे लोग भी उन्हीं मेघपति भगवान् इन्द्र की यज्ञों के द्वारा पूजा किया करते हैं।<br />
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श्रीकृष्ण ने कहा-पिताजी! प्राणी अपने कर्म के अनुसार ही पैदा होता और कर्म से ही मर जाता है। उसे उसके कर्म के अनुसार ही सुख-दुख, भय और मंगल के निमित्तों की प्राप्ति होती है। जब सभी प्राणी अपने-अपने कर्मों का ही फल भोग रहे हैं, तब हमें इन्द्र की क्या आवश्यकता है? पिताजी! इसलिए मनुष्य को चाहिए कि पूर्व संस्कारों के अनुसार अपने वर्ण तथा आश्रम के अनुकूल धर्मों का पालन करता हुआ कर्म का ही आदर करे जिसके द्वारा मनुष्य की जीविका सुगमता से चलती है, वही उसका इष्टदेव होता है।<br />
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बालक कृष्ण की ऐसी बातें सुनकर व्रजवासी आश्चर्य में पड़ गए। कृष्ण ने गोर्वधन की पूजा कराई। उसको भोग ग्रहण कराया। गिरिराज महिमा का गान किया। इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण की प्रेरणा से नन्दबाबा आदि बड़े-बूढ़े गोपों ने गिरिराज, गौ और ब्राह्मणों का विधिपूर्वक पूजन किया तथा फिर श्रीकृष्ण के साथ सब व्रज में लौट आए।जब इन्द्र को विदित हुआ तो वह रूष्ट हो गया। उसने ब्रज क्षेत्र में वृष्टि का प्रलय मचा दिया।<br />
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<b>तब भगवान ने गोवर्धन पर्वत को अपने हाथ में उठा लिया</b><br />
इन्द्र को अपने पद का बड़ा घमण्ड था, वे समझते थे कि मैं ही त्रिलोकी का ईश्वर हूं। उन्होंने क्रोध से तिलमिलाकर प्रलय करने की आज्ञा दी और कहा- जाकर इनके धन के घमण्ड और हेकड़ी को धूल में मिला दो तथा उनके पशुओं का संहार कर डालो। मैं भी तुम्हारे पीछे-पीछे ऐरावत हाथी पर चढ़कर नन्द के व्रज का नाश करने के लिए महापराक्रमी मरुद्रणों के साथ आता हूं। इन्द्र ने इस प्रकार प्रलय के मेघों को आज्ञा दी और उनके बन्धन खोल दिए। अब वे बड़े वेग से नन्दबाबा के व्रज पर चढ़ आए और मूसलधार पानी बरसाकर सारे व्रज को पीडि़त करने लगे। चारों ओर बिजलियां चमकने लगीं, बादल आपस में टकराकर कड़कने लगे और प्रचण्ड आंधी की प्रेरणा से बड़े-बड़े ओले बरसाने लगे। शरण में आए। भगवान् ने देखा कि वर्षा और ओलों की मार से पीडि़त होकर सब बेहोश हो रहे हैं। वे समझ गए कि यह सारी करतूत इन्द्र की है। उन्होंने ही क्रोधवश ऐसा किया है।<br />
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वे मन ही मन कहने लगे-हमने इन्द्र का यज्ञ भंग कर दिया है, इसी से वे व्रज का नाश करने के लिए बिना ऋतु के ही यह प्रचण्ड वायु और ओलों के साथ घनघोर वर्षा कर रहे हैं। अच्छा, मैं अपनी योगमाया से इसका भलीभांति जवाब दूंगा। ये मूर्खतावश अपने को लोकपाल मानते हैं, इनके ऐश्वर्य और धन का घमण्ड तथा अज्ञान मैं चूर-चूर कर दूंगा। देवता लोग तो सत्वप्रधान होते हैं। इनमें अपने ऐश्वर्य और पद का अभिमान न होना चाहिए। अत: यह उचित ही है कि इन सत्वगुण से च्युत दुष्ट देवताओं का मैं मान-भंग कर दूं। इससे अन्त में उन्हें शान्ति ही मिलेगी। यह सारा व्रज मेरे आश्रित है, मेरे द्वारा स्वीकृत है और एकमात्र मैं ही इसका रक्षक हूं। अत: मैं अपनी योगमाया से इसकी रक्षा करूंगा। संतों की रक्षा करना तो मेरा व्रत ही है। अब उसके पालन का अवसर आ पहुंचा है।भगवान ने इन्द्र पर क्रोध नहीं किया बल्कि वे तो इन्द्र को अहंकार से दूर कर रहे रहे थे। उन्होंने ग्वाल-ग्वालिनों से गोवर्धन पर्वत की पूजा करवाई, उसे ही देवता बनाया तो अब उसका महत्व भी सिद्ध करना था। भगवान ने गोवर्धन को ही इन्द्र के मान-मर्दन का निमित्त बनाया। उसे अपने हाथ में धारण करने का निष्चय किया ताकि व्रजवासियों को भी यह यकीन हो जाए कि गोवर्धन उनकी रक्षा करने में समर्थ है। इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण ने खेल-खेल में एक ही हाथ से गिरिराज गोवर्धन को उखाड़ लिया और जैसे छोटे-छोटे बालक बरसाती छत्ते के पुष्प को उखाड़कर हाथ में रख लेते हैं, वैसे ही उन्होंने उस पर्वत को धारण कर लिया।<br />
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इसके बाद भगवान् ने गोपों से कहा-माताजी, पिताजी और व्रजवासियों! तुम लोग अपनी गौओं और सब सामग्रियों के साथ इस पर्वत के गड्ढे में आकर आराम से बैठ जाओ। भगवान् श्रीकृष्ण ने सब व्रजवासियों के देखते-देखते भूख-प्यास की पीड़ा, आराम-विश्राम की आवश्यकता आदि सब कुछ भुलाकर सात दिन तक लगातार उस पर्वत को उठाए रखा। वे एक डग भी वहां से इधर-उधर नहीं हुए। श्रीकृष्ण की योगमाया का यह प्रभाव देखकर देखकर इन्द्र के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। अपना संकल्प पूरा न होने के कारण उनकी सारी हेकड़ी बंद हो गई, वे भौचक्के से रह गए। आकाश से बादल छंट गए और सूर्य दिखने लगे, तब उन्होंने गोपों से कहा-मेरे प्यारे गोपों! अब तुम लोग निडर हो जाओ और अपनी स्त्रियों, गोधन तथा बच्चों के साथ बाहर निकल आओ। देखो, अब आंधी-पानी बंद हो गया तथा नदियों का पानी भी उतर गया।<br />
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<b>यशोदा ने कन्हैया से पूछा, क्यों रे तू किसका बेटा है?</b><br />
यशोदारानी, रोहिणीजी, नन्दबाबा और बलवानों में श्रेष्ठ बलरामजी ने स्नेहातुर होकर श्रीकृष्ण को हृदय से लगा लिया तथा आशीर्वाद दिए। इन्द्र नीचे आया। भगवान् से कहा आप लीला कर रहे हो पर मेरी व्यवस्था क्यों उठा रहे हो। कृष्ण ने कहा तुम गलत काम कर रहे हो। पानी के नाम पर लोगों से सौदा मत करो। तुम्हारा काम है वर्षा करना, तो वर्षा करनी पड़ेगी। जो लोग अपने कर्तव्यों के निर्वहन के लिए यह उम्मीद करते हैं कि लोग उनकी पूजा करें वह गलत है। आपको आपका कर्तव्य निभाना है। अकारण पूजित होने का प्रयास मत करो। इन्द्र चला गया।<br />
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कृष्ण ने सम्पूर्ण सृष्टि को इस प्रसंग से शिक्षा दी कि प्रकृति, मानव जाति और समाज के प्रति हमारा जो कर्तव्य है उसे हम सेवा मानकर करें। मन में यह अहंकार नहीं आए कि हम किसी पर कृपा कर रहे हैं। कोई हमारे कर्तव्य पालन के लिए हमें पूजे या उपहार दे। हमारा जो कर्तव्य है उसे हम नि:स्वार्थ भाव से पूरा करें, किसी से भेदभाव किए बिना करें। भगवान होने की आशंका (काला क्यों)-गोवर्धन लीला के बाद कुछ लोगों का आशंका हुई कि यह कन्हैया शायद ईश्वर है, तो एक सभा-सी हुई और चर्चा चल पड़ी कि ये सात बरस का लड़का और कहां ये भारी भरकम गोवर्धन पर्वत? यह नन्दजी का ही पुत्र है या कहीं से उठाकर लाया गया है? नंदजी से पूछते हैं कि यह लड़का किसका है। नन्दबाबा ने कहा मेरा पुत्र है। गर्गाचार्य ने बताया था कि कन्हैया में नारायण जैसे गुण हैं। यशोदा ने चर्चा सुनी तो कन्हैया से पूछा कि क्यों रे तू किसका बेटा है। कन्हैया ने कहा तेरा ही तो हूं मैं।<br />
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यशोदा बोली-लोगों का कहना है कि मैं और तेरे पिताजी गोरे हैं फिर भी तू काला क्यों है। कन्हैया बोला मां जन्म के समय तो मैं गोरा था किन्तु तेरी भूल के कारण मैं काला हो गया। मेरा जब जन्म हुआ था तब बड़ा अंधेरा छाया हुआ था और सभी नींद में डूबे हुए थे। मैं अधेरे में सारी रात करवटें बदलता रहा, सो अंधेरा मुझसे चिपक गया और मैं काला बन गया। भोली यशोदा ने कन्हैया की बात सच्ची मानी। हां सचमुच 12 बजे तक मैं जाग रही थी और उसके बाद न जाने क्या हुआ। मेरी ही भूल के कारण कन्हैया काला हो गया। भक्ति और प्रेम दोनों ऐसे होते हैं, जो हमारा इष्ट कह दे वही सत्य मान लिया जाता है। भक्ति और प्रेम दोनों ही तर्क और बुद्धि से परे हैं। कृष्ण के प्रेम और भक्ति में आकंठ डूबे नंद-यशेदा को कान्हा की बात एकदम ठीक लगी, बालक होने पर भी उन्होंने कृष्ण से कोई तर्क नहीं किया।<br />
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शेष लोगों ने अपने हिसाब से ही कृष्ण के काले रंग के कारण को खुद का प्रेम समझ लिया। एकनाथजी महाराज एक नया कारण बताते हैं। मनुष्य का रंग काला है क्योंकि उसमें पहले काम रहता है।श्रीकृष्ण कीर्तन, ध्यान, धारणा, स्मरण चिन्तन करने वाले की कालिमा कन्हैया खींच लेता है। वैष्णवों के हृदय को उज्जवल करते-करते कन्हैया काला हो गया था। गोपियों का कहना है हम आंखों में काजल लगाती हैं। कन्हैया हमारी आंखों में बसा रहता है सो काजल से काला हो गया। राधा ने एक बार प्यार से पूछा-नाथ वैसे तो तुम सुन्दर हो किन्तु श्याम क्यों हो? कृष्ण बोले वैसे तो मैं गौरा ही था किन्तु राधे आपकी शोभा को वृद्धिगत करने के लिए श्याम हो गया हूं। आपका सौंदर्य बढ़ेगा तो लोग आपकी प्रशंसा करेंगे। यदि हम दोनों ही गोरे होते तो आपकी प्रशंसा कौन करता। ऐसी अनेक लीलाएं भगवान् ने की हैं।<br />
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<b>रासलीला कामलीला नहीं, कामविजय लीला है</b><br />
रास-कार्तिक मास की पूर्णिमा की रात्रि में रासलीला के कार्यक्रम निश्चय अनुसार श्रीकृष्ण निर्धारित स्थान और समय पर वहां पहुंच कर बांसुरी बजाने लगे। रासलीला को समझ लीजिए। रासलीला के तीन सिद्धान्त हैं। इसमें गोपी के शरीर के साथ कुछ लेना-देना नहीं है। इसमें लौकिक काम भी नहीं है और तीसरी बात यह साधारण स्त्री पुरूष का नहीं, जीव और ईश्वर का मिलन है। शुद्ध जीव का ब्रह्म के साथ विलास ही रास है। शुद्ध जीव का अर्थ है माया के आवरण से रहित जीव। ऐसे जीव का ब्रम्ह से मिलन होता है। शुकदेवजी कहते हैं कि इस लीला का चिन्तन करना है अनुकरण नहीं। शरद पूर्णिमा की रात्रि आई। रासलीला कामलीला नहीं है यह तो काम विजय लीला है। ब्रह्मादि देवों की पराजय हुई तो कन्दर्प कामदेव का अभिमान जाग उठा कि अब तो मैं ही सबसे बड़ा देव हूं। उसने कृष्ण के पास आकर मल्लयुद्ध का प्रस्ताव रखा।<br />
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श्रीकृष्ण-काम-ऐसी कथा आती है कि काम का एक नाम मार भी है। उसे सभी मारते हैं कृष्ण ने कामदेव से पूछा कि शिवजी ने तुझे भस्मीभूत कर दिया था, वह क्या भूल गया तू ? कामदेव बोला हां वह तो ठीक है मुझसे जरा गड़बड़ हो गई थी। कृष्ण ने कहा कि रामावतार में भी तू हार गया। काम ने कहा आपने उस अवतार में मर्यादा का अतिशय पालन करके मुझे हराया। उस अवतार में आप एक पत्नी व्रत का पालन करते थे, तो मैं हार गया।<br />
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अब तेरी क्या इच्छा है? कृष्ण ने पूछा। कामदेव बोला-अब आप इस कृष्णावतार में तो किसी मर्यादा का पालन करते नहीं और वृन्दावन की युवतियों के साथ विहार किया करते हैं। मैं चाहता हूं कि आप पर तीर चलाऊं, यदि आप निर्विकारी रहेंगे तो विजय आपकी होगी और आप कामाधीन होंगे तो विजय मेरी होगी। आप निर्विकारी रहेंगे तो आपको ईश्वर मानुंगा और कामधीन हो गए तो मैं ईश्वर बन जाऊंगा।<br />
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श्रीकृष्ण ने अनगिनत सुंदरियों के साथ रहकर काम का पराभव किया।काम ने धनुष-बाण फेंक दिए और श्रीकृष्ण की शरण ले ली। श्रीकृष्ण का नाम मदनमोहन हैं। श्रीकृष्ण तो योग योगेश्वर हैं। काम ने प्राय: सभी को हरा दिया था। सो उसका गर्विष्ठ होना सहज था। रासलीला से भगवान् ने उसके गर्व का नाश कर दिया। काम विशेषत: रात्रि के दूसरे पहर में अधिक आता है। सो उस समय स्नान आदि करके पवित्र होकर रासलीला का चिन्तन करोगे तो काम नहीं सताएगा। पुन: स्मरण कर लें कि रासलीला अनुकरणीय नहीं, चिन्तनीय है। उसका चिन्तन कामनाशी है। प्रभु ने सोचा कि इन गोपियों का प्रेम सच्चा है। यदि मैं आज इन्हें दूर हटाऊंगा तो ये प्राण त्याग कर देंगी। प्रभु को विश्वास हो गया कि जीव शुद्ध भाव से मुझे मिलने आया है तो उन्होंने अपना लिया। प्रभु ने साथ ही अनेक स्वरूप भी धारण किए। जितनी गोपियां थीं उतने स्वरूप बना लिए और प्रत्येक गोपी के साथ एक-एक स्वरूप रखकर रास आरम्भ किया।<br />
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<b>जहां प्रेम होता है वहां अभिमान नहीं होता</b><br />
जिन्दगी का असली आनन्द प्रेम है। प्रेम का कोई स्वरूप नहीं है। जहां प्रेम होता है वहां अभिमान नहीं होता है। जहां अभिमान होता है वहां प्रेम हो ही नहीं सकता है क्योंकि परमात्मा से मिलन के लिए आपको अपने चित्त को सारे आवरणों से मुक्त करना होगा। गोपियां कृष्णमय, भगवानमय हो गईं। सभी हाथों से हाथ मिलाकर नाचने लगीं। यह तो ब्रह्म से जीव का मिलन हुआ है। रास में साहित्य, संगीत और नृत्य का समन्वय होता है। इस लीला में काम का अंश मात्र भी नहीं।<br />
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श्रीकृष्ण और ब्रह्मा-रास लीला को निहारते -निहारते ब्रह्माजी सोचने लगे कि कृष्ण और गोपियां तो निष्काम हैं तो फिर भी देहाभिमान भूलकर इस प्रकार पराई नारी से लीला करना शास्त्र मर्यादा का भंग ही है। कृष्णावतार धर्म मर्यादा के पालन के लिए है, स्वेच्छाचार करने के लिए नहीं। ब्रह्माजी रजोगुण के प्रतिष्ठाता देव हैं। उनकी आंखों में रजोगुण है, वे हर कहीं वैसा ही देखते हैं। ब्रह्मा सशंंकित हुए। कृष्णजी सोच रहे हैं कि ब्रह्माजी को धर्म मैंने ही तो सिखाया है और आज वे मुझे ही सिखाने जा रहे हैं। ब्रह्मा यह नहीं जानते कि यह रासलीला धर्म नहीं धर्म का फल है। प्रभु ने एक और खेल रचा। सभी गोपियों को अपना स्वरूप दे दिया। अब तो सब ओर कृष्ण ही दिखाई दे रहे हैं। ब्रह्माजी ने मान लिया कि यह स्त्री पुरूष का मिलन नहीं है ये कृष्ण ही गोपी रूप हो गए हैं। ब्रह्माजी ने कृष्णजी को प्रणाम किया।<br />
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रासलीला नारद-नारदी-नारदजी अफसोस करने लगे कि वे पुरूष रूप में आने के बदले स्त्री रूप में आए होते तो उन्हें रास रस की प्राप्ति हो जाती । नारदजी क्या जानें कि पुरूष तो एक पुरूषोत्तम और सब ब्रजनारी हैं। इतने में राधाजी ने नारदजी को दुखी को देखा। वृंदावन की ईश्वरी राधिका यह नहीं चाहती थी कि वृंदावन के किसी भी अतिथि को किसी भी प्रकार का कष्ट या दु:ख हो। उन्होंने नारदजी से कारण पूछा। नारजी बोले-मुझे श्रीकृष्ण के साथ रास खेलकर गोपियों-सा आनन्द पाना है। तो राधा बोलीं कि आप राधा कुंड में स्नान करेंगे तो रासलीला में प्रवेश मिलेगा। नारजी राधा कुण्ड में स्नान करते हैं तो वे नारी बन गए। उन्होंने सोच लिया था कि यदि परमात्मा मिलते हों तो नारी बनने में क्या आपत्ति है। आज तक पुरूषत्व के अभिमान से ही तो मुझे प्रभु से इतना दूर रखा है। आज तक मैं इसी अभिमान में डूबा रहा कि मैं पुरूष हूं बड़ा कीर्तनकार हूं। गोपियों ने अपना अस्तित्व छोड़ दिया और नारदजी ने अपना पुरूषत्व छोड़ दिया। ऐसा देहभान छोड़े बिना जीव ईश्वर के निकट नहीं जा सकता है।<br />
<b><br />सुन्दरता के घमंड में किसी का मजाक ना बनाए</b><br />
शरीर और आत्मा दोनों ही परमात्मा की ही देन है। कई बार हम चित्त पर इतने आवरणों को धारण कर लेते हैं कि हमें अपनी नश्वर काया पर अभिमान होने लगता है। कई बार हम जाने अनजाने घमंड में किसी के दिल को चुभने वाली बात बोल जाते हैं जो उसके दुख का कारण बन जाती है।<br />
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एक बार नन्दबाबा आदि गोपों ने शिवरात्रि के अवसर पर बड़ी उत्सुकता, कौतूहल और आनन्द से भरकर बैलों से जुती हुई गाडिय़ों पर सवार होकर अम्बिका वन की यात्रा की। वहां उन लोगों ने सरस्वती नदी में स्नान किया। उस अम्बिका वन में एक बड़ा भारी अजगर रहता था। उस दिन वह भूखा भी बहुत था। दैववश वह उधर ही आ निकला और उसने सोये हुए नन्दजी को पकड़ लिया। अजगर के पकड़ लेने पर नन्दरायजी चिल्लाने लगे-बेटा कष्ण! कृष्ण! दौड़ो-दौड़ो। देखा बेटा! यह अजगर मुझे निगल रहा है। मैं तुम्हारी शरण में हूं। जल्दी मुझे इस संकट से बचाओ। नन्दबाबा का चिल्लाना सुनकर सब के सब गोप एकाएक उठा खड़े हुए और उन्हें अजगर के मुंह में देखकर घबरा गए।<br />
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अब वे लकडिय़ों से उस अजगर को मारने लगे किन्तु लुकाठियों से मारे जाने और जलने पर भी अजगर ने नन्दबाबा को छोड़ा नहीं। इतने में ही भक्तवत्सल भगवान् श्रीकृष्ण ने वहां पहुंचकर अपने चरणों से उस अजगर को छू दिया।भगवान के श्रीचरणों का स्पर्श होते ही अजगर के सारे अशुभ भस्म हो गए और वह उसी क्षण अजगर का शरीर छोड़कर रूपवान बन गया। उस पुरुष के शरीर से दिव्य ज्योति निकल रही थी। वह सोने के हार पहने हुए था। जब वह प्रणाम करने के बाद हाथ जोड़कर भगवान् के सामने खड़ा हो गया, तब उन्होंने उससे पूछा- तुम कौन हो?अजगर के शरीर से निकला पुरुष बोला- भगवन मैं पहले एक विद्याधर था। मेरा नाम सुदर्शन था। मेरे पास सौन्दर्य तो था ही, लक्ष्मी भी बहुत थी। इससे मैं विमान पर चढ़कर यहां से वहां घूमता रहता था। एक दिन मैंने अंगिरा गोत्र के कुरूप ऋषियों को देखा। अपने सौन्दर्य के घमंड से मैंने उनकी हंसी उड़ायी। मेरे इस अपराध से कुपित होकर उन लोगों ने मुझे अजगर योनि में जाने का शाप दे दिया। यह मेरे पापों का ही फल था।<br />
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<b>तो जीवन की हर परेशानी अपने आप मिट जाएगी</b><br />
जीवन में जब भक्ति का आनंद और परमात्मा आता है तो हमारे उस ध्यान को, हमारी उस अवस्था को भंग करने के लिए अलग-अलग रूपों में समस्याएं, परेशानियां भी आती हैं। मोहग्रस्त लोग ऐसे समय में परमात्मा को भूल पीड़ा से व्याकुल हो जाते हैं लेकिन ज्ञानी लोग प्रभु प्रेम नहीं छोड़ते। वे अपनी परेशानियां भी अपने जीवन की तरह ही परमात्मा को सौंप देते हैं। भक्त जब भगवान में लीन रहे तो सारी समस्याएं भगवान खुद ही दूर कर देते हैं। व्रज पूरा कृष्णमय है, इसलिए व्रज मण्डल पर आने वाली हर विपदा भगवान खुद निपटा रहे हैं।<br />
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एक दिन की बात है, अलौकिक कर्म करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी रात्रि के समय वन में गोपियों के साथ विहार कर रहे थे। भगवान् श्रीकृष्ण निर्मल पीताम्बर और बलरामजी नीलाम्बर धारण किए हुए थे। उसी समय वहां शंखचूड नाम का एक यक्ष आया। वह कुबेर का अनुचर था। दोनों भाइयों के देखते-देखते वह उन गोपियों को लेकर बेखट के उत्तर की ओर भाग चला। जिनके एकमात्र स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं, वे गोपियां उस समय रो-रोकर चिल्लाने लगीं। ''डरो मत, डरो मत'' इस प्रकार अभयवाणी कहते हुए श्रीकृष्ण बलराम हाथ में शाल का वृक्ष लेकर बड़े वेग से क्षणभर में ही उस नीच यक्ष के पास पहुंच गए। यक्ष ने देखा कि काल और मृत्यु के समान ये दोनों भाई मेरे पास आ पहुंचे। तब वह मूढ़ घबड़ा गया। उसने गोपियों को तो वहीं छोड़ दिया, स्वयं प्राण बचाने के लिए भागा। तब स्त्रियों की रक्षा करने के लिए बलरामजी तो वहीं खड़े रह गए, परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण जहां-जहां वह भाग कर गया, उसके पीछे-पीछे दौड़ते गए।<br />
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वे चाहते थे कि उसके सिर की चूडामणि निकाल लें। कुछ ही दूर जाने पर भगवान् ने उसे पकड़ लिया और उस दुष्ट के सिर पर कसकर एक घूंसा जमाया और चूडामणि के साथ उसका सिर भी धड़ से अलग कर लिया। जिस समय भगवान श्रीकृष्ण व्रज में प्रवेश कर रहे थे और वहां आनन्दोत्सव की धूम मची हुई थी, उसी समय अरिश्टासुर नाम का एक दैत्य बैल का रूप धारण करके आया। उस तीखे सींग वाले बैल को देखकर गोपियां और गोप सभी भयभीत हो गए। पशु तो इतने डर गए कि अपने रहने का स्थान छोड़कर भाग ही गए। भगवान् ने देखा कि हमारा गोकुल अत्यन्त भयातुर हो रहा है। उन्होंने वृशासुर को ललकारा।<br />
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भगवान् श्रीकृष्ण की इस चुनौती से वह क्रोध के मारे तिलमिला उठा और अपने खुरों से बड़े जोर से धरती खोदता हुआ श्रीकृष्ण की ओर झपटा। उस समय उसकी उठायी हुई पूंछ के धक्के से आकाश के बादल तितर-बितर होने लगे। भगवान् ने उसके सींग पकड़ लिए और उसे लात मारकर जमीन पर गिरा दिया और फिर पैरों से दबाकर उसका कचूमर निकाल दिया। जब भगवान् श्रीकृष्ण ने इस प्रकार बैल के रूप में आने वाले अरिश्टासुर को मार डाला, तब सभी गोप उनकी प्रशंसा करने लगे। उन्होंने बलरामजी के साथ गोश्ठ में प्रवेश किया और उन्हें देख-देखकर गोपियों के नयन मन आनन्द से भर गए। जब राधा ने यह देखा तो उसने कृष्ण की गौ जाति की हत्या के अपराध से निवृत्ति के लिए सब तीर्थ में स्थान का परामर्श दिया।श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर एक कुण्ड खुदवाया उसमें सभी तीर्थों का आह्वान किया और फिर उसमें स्नान कर पाप से मुक्ति पाई। उस कुण्ड का नाम राधा कुण्ड है।<br />
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<b>जब कंस ने की कृष्ण को मारने की साजिश</b><br />
जब कंस को यह मालूम हो गया कि वसुदेव के लड़के ही मेरी मृत्यु के कारण हैं, तब उसने देवकी और वसुदेव को हथकड़ी और बेड़ी से जकड़कर फिर जेल में डाल दिया। जब देवर्शि नारद चले गए, तब कंस ने केशी को बुलाया और कहा-तुम व्रज में जाकर बलराम और कृष्ण को मार डालो। वह चला गया। इसके बाद कंस ने मुष्टिक, चाणूर, शल, तोषल आदि पहलवानों, मन्त्रियों और महावतों को बुलाकर कहा-वीरवर चाणूर और मुश्टिक! तुम लोग ध्यानपूर्वक मेरी बात सुनो। वसुदेव के दो पुत्र बलराम और कृष्ण नन्द के व्रज में रहते हैं। उन्हीं के हाथ से मेरी मृत्यु बतलाई जाती है।<br />
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अत: जब वे यहां आवें, तब तुम लोग उन्हें कुश्ती लडऩे-लड़ाने के बहाने मार डालना। अब तुम लोग भांति भांति के मंच बनाओ और उन्हें अखाड़े के चारों ओर गोल-गोल सजा दो। उन पर बैठकर नगरवासी और देश की दूसरी प्रजा इस स्वच्छन्द दंगल को देखें। महावत! तुम बड़े चतुर हो।देखो भाई! तुम दंगल के घेरे के फाटक पर ही अपने कुवलयापीड हाथी को रखना और जब मेरे शत्रु उधर से निकलें, तब उसी के द्वारा उन्हें मरवा डालना। इसी चतुर्दशी को विधि-पूर्वक धनुशयज्ञ प्रारंभ कर दो और उसकी सफलता के लिए वरदानी भूतनाथ भैरवे को बहुत से पवित्र पशुुओं की बलि चढ़ाओ।कंस का काल अब निकट आ गया था। उसके दैत्य मित्रों में से लगभग सभी का उद्धार भगवान ने कर दिया। कैशी और व्योमासुर के अलावा व्रज में जाकर कान्हा वध का प्रयास करने की शक्ति और किसी में नहीं थी। कंस ने सोचा कि अपनी शक्ति को व्रज में नष्ट करने के बजाय अब कृष्ण को ही मथुरा बुला लिया जाए। अपनी आंखों के सामने ही उसे खत्म कर दिया जाय। कंस तो केवल स्वार्थ साधन का सिद्धान्त जानता था।<br />
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इसलिए उसने मन्त्री, पहलवान और महावत को इस प्रकार आज्ञा देकर श्रेष्ठ यदुवंशी अक्रूर को बुलवाया।अक्रूरजी दुष्ट बुद्धि के नहीं हैं, उनका मन कृष्ण में रमा हुआ था। कंस राजा भी था और मित्र भी, इसलिए उसकी बात टाली नहीं जा सकती थी। अक्रूरजी शुद्ध चित्त और धर्म में प्रवत्त थे। कंस भगवान को बुलवाना चाहता था और भगवान कंस की दुष्ट बुद्धि के आमंत्रण को स्वीकार नहीं करते। भगवान को स्वच्छ चरित्र, शुद्ध बुद्धि और भक्ति से ही बुलाया जा सकता है। अत: कृष्ण को बुलवाने के लिए कंस ने अक्रूरजी का सहारा लिया। उनका हाथ अपने हाथ में लेकर बोला-अक्रूरजी! आप तो बड़े उदार दानी हैं। सब तरह से मेरे आदरणीय हैं।<br />
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आज आप मेरा एक मित्रोचित काम कर दीजिए, क्योंकि भोजवंषी और वृश्णिवंषी यादवों में आपसे बढ़कर मेरी भलाई करने वाला दूसरा कोई नहीं है। यह काम बहुत बड़ा है, इसलिए मेरे मित्र! मैंने आपका आश्रय लिया है। ठीक वैसे ही, जैसे इन्द्र, समर्थ होने पर भी विश्णु का आश्रय लेकर अपना स्वार्थ साधता रहता है। आप नन्दराय के व्रज में जाइये। वहां वसुदेवजी के दो पुत्र हैं। उन्हें इसी रथ पर चढ़ाकर यहां ले आइये। बस अब इस काम में देरी नहीं होनी चाहिए। सुनते हैं, विष्णु के भरोसे जीने वाले देवताओं ने उन दोनों को मेरी मृत्यु का कारण निश्चित किया है। इसलिए आप उन दोनों को तो ले ही आइये, साथ ही नन्द आदि गोपों को भी बड़ी-बड़ी भेंटों के साथ ले आइये। यहां आने पर मैं उन्हें अपने काल के समान कुवलयापीड हाथी से मरवा डालूंगा। यदि वे कदाचित् उस हाथी से बच गए, तो मैं अपने व्रज के समान मजबूत और फुर्तीले पहलवान मुष्टिक-चाणूर आदि से उन्हें मरवा डालूंगा। उनके मारे जाने पर वसुदेव आदि वृष्णि, भोज और दशार्हवंषी उनके भाई बन्धु शोकाकुल हो जाएंगे। फिर उन्हें मैं अपने हाथों मार डालूंगा। मेरा पिता उग्रसेन यों तो बूढ़ा हो गया है, परन्तु अभी उसको राज्य का लोभ बना हुआ है। यह सब कर चुकने के बाद मैं उसको उसके भाई देवक को और दूसरे भी जो-जो मुझसे द्वेश करने वाले उन सबको तलवार के घाट उतार दूंगा। मित्र अक्रूरजी। फिर तो मैं होऊंगा और आप होंगे, तथा होगा इस पृथ्वी का अकण्टक राज्य। जरासन्ध हमारे बड़े-बढ़े ससुर हैं और वानरराज द्विविद मेरे प्यारे सखा हैं। शम्बरासुर, नकासुर और बाणासुर ये तो मुझसे मित्रता करते ही हैं, मेरा मुंह देखते रहते हैं, इन सबकी सहायता से मैं देवताओं के पक्षपाती नरपतियों को मारकर पृथ्वी का अकण्टक राज्य भोगूंगा। यह सब अपनी गुप्त बातें मैंने आपको बतला दी।<br />
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<b>अच्छा सहायक कैसा हो?</b>नारद भक्ति हैं, भगवान ने उनकी बातें सुन मन-ही-मन कह दिया तथास्तु। नारद स्वयं त्रिकालदर्षी भी हैं और भगवान के टाइमकीपर भी। भगवान की व्रजलीलाएं पूर्व हो रही हैं, सो वे भगवान को यह याद दिलाने आए हैं कि अब मथुरा, हस्तिनापुर, कुरूक्षेत्र और द्वारिका की लीलाओं का समय आ रहा है। एक अच्छे सहायक का यह कर्तव्य भी है कि स्वामी के सावधान रहने पर भी उन्हें समय-समय पर सारे कामों की याद दिलाता रहे। नारद यही करते हैं। आप जल्द से जल्द बलराम और कृष्ण को यहां ले आइये। अभी तो वे बच्चे ही हैं। उनको मार डालने में क्या लगता है? उनसे केवल इतनी ही बात कहियेगा कि वे लोग धनुष यज्ञ के दर्शन और यदुवंशियों की राजधानी मथुरा की शोभा देखने के लिए यहां जाएं। केशी-व्योमासुर वध-केशी दैत्य के द्वारा हत्या की योजना बनाई। कैशी अश्व के रूप में वृंदावन पहुंचा, लेकिन कृष्ण ने उसको पहचान लिया। उसके गले में अपना लोह सदृश हाथ डालकर उसके प्राण ही खेंच लिए। केशी के वध का समाचार कंस ने जब सुना, तो व्योमासुर को वृन्दावन भेजा। वृन्दावन में व्योमासुर का भी प्राणान्त कर दिया। कंस ने जिस केशी नामक दैत्य को भेजा था, वह बड़े भारी घोड़े के रूप में मन के समान वेग से दौड़ता हुआ व्रज में आया। भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि उसकी हिनहिनाहट से उनके आश्रित रहने वाला गोकुल भयभीत हो रहा है।<br />
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उन्होंने अपने दोनों हाथों से उसके दोनों पिछले पैर पकड़ लिए और जैसे गरुड़ सांप को पकड़कर झटक देते हैं, उसी प्रकाश क्रोध से उसे घुमाकर बड़े अपमान के साथ चार सौ हाथ की दूरी पर फेंक दिया और स्वयं अकड़कर खड़े हो गए। इसके बाद वह क्रोध से तिलमिलाकर और मुंह फाड़कर बड़े वेग से भगवान् की ओर झपटा। उसको दौड़ते देख भगवान् मुसकराने लगे। उन्होंने अपना बांया हाथ उसके मुंह में इस प्रकार डाल दिया जैसे सर्प बिना किसी आशंका के अपने बिल में घुस जाता है।थोड़ी ही देर में उसका शरीर निष्चेश्ट होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा तथा उसके प्राण पखेरू उड़ गए। देवर्षि नारदजी भगवान् के परम प्रेमी और समस्त जीवों के सच्चे हितैशी हैं।<br />
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कंस के यहां से लौटकर वे अनायास ही अद्भुत कर्म करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण के पास आए और एकांत में उनसे कहने लगे-यह बड़े आनन्द की बात है कि आपने खेल ही खेल में घोड़े के रूप में रहने वाले इस केशी दैत्य को मार डाला। प्रभो! अब परसों मैं आपके हाथों चाणूर, मुश्टिक, दूसरे पहलवान, कुवलयापीड हाथी और स्वयं कंस को भी मरते देखूंगा। उसके बाद शंखासुर, काल-यवन, मुर और नरकासुर का वध देखूंगा। आप स्वर्ग से कल्पवृक्ष उखाड़ लायेंगे और इन्द्र के चीं-चपड़ करने पर उनको उसका मजा चखायेंगे। आप अपनी कृपा, वीरता, सौन्दर्य आदि का शुल्क देकर वीर-कन्याओं से विवाह करेंगे और जगदीश्वर!<br />
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आप द्वारका में रहते हुए नृग को पाप से छुड़ायेंगे। आप जाम्बवती के साथ स्यमन्तक मणि को जाम्बवान् से ले आएंगे और अपने धाम से ब्राह्मण के मरे हुए पुत्रों को ला देंगे। इसके पश्चात आप पौण्ड्रक मिथ्यावासुदेव का वध करेंगे। काशीपुरी को जला देंगे। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में चेदिराज शिशुपाल को और वहां से लौटते समय उसके मौसेरे भाई दन्तवक्त्र को नष्ट करेंगे। प्रभो! द्वारका में निवास करते समय आप और भी बहुत से पराक्रम प्रकट करेंगे, जिन्हें पृथ्वी के बड़े-बड़े ज्ञानी और प्रतिभाशील पुरुष आगे चलकर गाएंगे। मैं वह सब देखूंगा।<br />
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इसके बाद आप पृथ्वी का भार उतारने के लिए कालरूप से अर्जुन के सारथि बनेंगे और अनेक अक्षौहिणी सेना का संहार करेंगे। यह सब मैं अपनी आंखों से देखूंगा। इस समय आपने अपनी लीला प्रकट करने के लिए मनुष्य का सा श्रीविग्रह प्रकट किया है। और आप यदु, वृश्णि तथा सात्वतवंषियों के शिरोमणि बने हैं। प्रभो! मैं आपको नमस्कार करता हूं। भगवान् के दर्शनों के आहाद से नारदजी का रोम रोम खिल उठा। तदन्तर उनकी आज्ञा प्राप्त करके वे चले गए। इधर भगवान् श्रीकृष्णा कोषी को लड़ाई में मारकर फिर अपने प्रेमी एवं प्रसन्न चित्त ग्वालबालों के साथ पूर्ववत् पशुपालन के काम में लग गए।<br />
<b><br />क्या हुआ जब व्यामासुर खेलने लगा कृष्ण के साथ?</b><br />
एक समय वे सब ग्वालबाल पहाड़ की चोटियों पर गाय आदि पशुओं को चरा रहे थे तथा कुछ चोर और कुछ रक्षक बनकर छिपने-छिपाने का लुका-लुकी का खेल खेल रहे थे। उसी समय ग्वाल का वेष धारण करके व्योमासुर वहां आया। वह मायावियों के आचार्य मयासुर का पुत्र था और स्वयं भी बड़ा मायावी था। वह खेल में बहुधा चोर ही बनता और भेड़ बने हुए बहुत से बालकों को चुराकर छिपा आता। वह महान् असुर बार-बार उन्हें ले जाकर एक पहाड़ की गुफा में ढक देता। इस प्रकार ग्वालबालों में केवल चार-पांच बालक ही बच रहे। भक्तवत्सल भगवान् उसकी यह करतूत जान गए। जिस समय वह ग्वालबालों को लिए जा रहा था, उसी समय उन्होंने जैसे सिंह भेडिय़े को दबोच ले, उसी प्रकार उसे धर दबाया। व्योमासुर बड़ा बली था। उसने पहाड़ के समान अपना असली रूप प्रकट कर दिया और चाहा कि अपने को छुड़ा लूं। परन्तु भगवान् ने उसको इस प्रकार अपने शिकंजे में फांस लिया था कि वह अपने को छुड़ा न सका। तब भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने दानों हाथों से जकड़ कर उसे भूमि पर गिरा दिया और पषु की भांति गला घोंटकर मार डाला। देवता लोग विमानों पर चढ़कर उनकी यह लीला देख रहे थे। अब भगवान् श्रीकृष्ण ने गुफा के द्वार पर लगे हुए संकटपूर्ण स्थान से निकाल लिया।<br />
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यहां भगवान की बाल लीलाओं पर विराम लग रहा है। व्रज की आनंद लीला समापन की ओर है। अब भगवान मथुरा जाएंगे। कंस का बुलावा आ रहा है, अक्रूरजी कृश्ण की छवि मन में बसाए, नंद को कंस का निमंत्रण देने आ रहे हैं। अक्रूर आगमन-अक्रूरजी भगवान को लेने आए हैं। रास्तें में सोचते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण तो पतितपावन हैं। वे मुझे अवश्य अपना लेंगे। यदि मुझे पापी को नहीं अपनाएंगे, तो फिर उनको पतितपावन कौन कहेगा। हे नाथ! मैं पतित हूं और आप पतितपावन हैं मुझे अपना लीजिएगा। विचार करना ही है तो पवित्र विचार करो। बुरे विचार मन को विकृत कर देते हैं। अक्रूरजी भगवान को लेने के लिए निकले हैं।<br />
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आदिनारायण का चिन्तन उनके मन में हो रहा है। उन्होंने मार्ग में श्रीकृष्ण के चरणचिह्न देखे। कमल ध्वजा और अंकुशयुक्त चरण तो मेरे श्रीकृष्ण के ही हो सकते हैं। ऐसा अक्रूरजी ने सोचा। इसी मार्ग से कन्हैया अवश्य गया होगा। इसी मार्ग से वह खुले पांव ही गायों का चराता फिरता होगा। ऐसा चिन्तन करते-करते अक्रुरजी ने सोचा कि यदि मेरे प्रभु खुले पांव पैदल घूमते हैं तो मैं तो उनका सेवक हूं। मैं रथ में कैसे बैठ सकता हूं। मैं सेवा करने योग्य नहीं हूं अधर्मी हूं, पापी हूं। मैं तो श्रीकृष्ण की शरण में जा रहा हूं। मुझे रथ पर सवार होने का क्या अधिकार? ऐसा सोचकर अक्रुरजी पैदल चलने लगे।<br />
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गोकुल पहुंचकर वहां की रज उन्होंने सारे शरीर पर लपेट ली। वृजरज की बड़ी महिमा है, क्योंकि वह प्रभु के चरणों से पवित्र हुई है। अक्रुरजी वन्दना भक्ति के आचार्य हैं। अक्रुरजी भगवान के पास पहुंचे। प्रणाम किया, अक्रुरजी के मस्तक पर अपना वरदहस्त रखते हुए श्रीकृष्ण ने उनको खड़ा किया।<br />
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अक्रुरजी ने सोचा कि जब कन्हैया उन्हें चाचा कहकर पुकारेगा तभी वे खड़े होंगे। लेकिन अक्रुरजी सोचते हैं कि मुझ पापी को भला वे काका क्यों कहेंगे। भगवान ने अक्रुरजी का मनोभाव जान लिया। अक्रुरजी चाहते थे कि कृष्ण काका कहकर पुकारें। श्रीकृष्ण ने उनके मस्तक पर हाथ धरते हुए कहा कि काका अब उठिए भी। उनको उठाकर आलिंगन किया। जीव जब षरण में आता है तो भगवान् उसको अपनी बांहों में भर लेते हैं। आज अक्रुरजी को वही अनुभुति हो रही हैं जो कभी निषात को हुई थी, तब श्रीराम ने उन्हें हृदय से लगाया था। जो कभी प्रहलाद को हुई थी जब नरसिंह अवतार ने प्रहलाद को हृदय से लगाया था।अक्रुरजी अपना भाव भुल बैठे। अक्रुरजी बोले-नन्दजी! मैं तो आप सबको राजा कंस की ओर से आमन्त्रण देने आया हूं। मथुरा में धनुष यज्ञ किया जा रहा है। आपको दर्शनार्थ बुलाया गया है। आप चहे गाड़ी से आएं किन्तु बलराम और श्रीकृष्ण के लिए सुवर्ण रथ लेकर आया हूं। कंस ने सुवर्ण रथ भेजा है। गांव के बालकों ने जब ये बात जानी तो वे भी साथ चलने को तैयार हो गए। नन्दबाबा ने सभी बच्चों को साथ चलने की अनुमति दे दी।<br />
<b><br />यह खबर सुनकर यशोदा दुखी हो गई</b><br />
मथुरा प्रस्ताव से यशोदा दुखी-यह सारी बात जब यशोदा तक पहुंची, तो उनका दिल बैठ गया। यह अकू्रर नहीं क्रूर है। मेरे लला को मत जाने दो। वह चला जाएगा, तो गोकुल उजड़ जाएगा और यदि ले जाना ही है तो बलराम को ले जाओ। कन्हैया को मत ले जाओ। सुना है मथुरा की नारियां बहुत जादूगरनी होती हैं। कुछ ऐसा टोना कर देंगी कि मेरा कन्हैया वापस नहीं आ सकेगा। यशोदा नन्दजी से विनती करती हैं। यदि तुम्हें मथुरा जाना है तो चले जाओ। किन्तु लला को न ले जाओ। वहां उसकी देखभाल कौन करेगा। वह बड़ा शर्मीला है भूखा होने पर मांगता नहीं। उसको मनाकर कौन खिलायेगा। दो तीन दिन पहले ही मैंने बुरा सपना देखा था। मेरा लला मुझे छोड़कर हमेशा के लिए मथुरा जा रहा है। नन्दबाबा ने यशोदा को ढांढस बंधाते हुए समझाया। कन्हैया 11 बरस का तो हुआ है अब कितने दिनों तक तू उसे अपने घर में रखेगी। उसे बाहर का जगत भी देखना चाहिए। मैं अब उसे गोकुल के राजा बनने योग्य बनाना चाहता हूं। हम दो-चार दिन में मथुरा घूम-फिरकर वापस लौट आएंगे। तू चिन्ता मत कर। मैं इस वृद्धावस्था में कन्हैया के लिए तो जी रही थी। यही तो आधार है मेरा। रात आई, सब सो गए। किन्तु यशोदा की आंखों से नींद दूर चली गई थी। न जाने कल क्या होगा। कन्हैया चला जाएगा। मैं अकेले कैसे जी पाऊंगी।<br />
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बार-बार आंगन में आकर सिसकियां भरने लगीं। कन्हैया की आंखें अचानक खुल गईं तो देखा कि सेज पर माता नहीं थी। वह उसे इधर-उधर ढूंढने लगा। माता के गले में हाथ डालकर उसके आंसू पोंछते हुए रोने का कारण पूछने लगा। तू क्यों रोती है मां। तू रोती है तो मुझे बड़ा दुख होता है। कन्हैया की बात सुनकर माता को कुछ तसल्ली हुई। वह कहने लगी वैसे तो कोई विशेष बात नहीं है। तू कल जा रहा है सो मेरी आंखें बरस रही हैं। मुझे छोड़कर तू कहीं भी न जाना। मैं तेरे ही सहारे जी रही हूं। कन्हैया माता को आश्वासन देते हैं तू क्यों चिन्ता करती है मां, मैं जरूर वापस आऊंगा। यद्यपि लला ने यह नहीं बताया कि वह कब लौटेगा माता ने भी नहीं पूछा। वह तो लला के वापस आने की बात सुनकर प्रसन्न हो गई। वह अवष्य लौटेगा, वापस आने की बात सुनकर वह आनन्द में इतनी मग्न हो गई कि यह पूछना ही भूल गई कि वह लौटेगा तो कब लौटेगा। यशोदा ने लला से कहा कि चल अब हम सो जाएं। मां और बेटे दोनों एक ही सेज पर सो गए।<br />
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आज श्रीकृष्ण ने यशोदा के हृदय में प्रवेश किया। अब कन्हैया बाहर नहीं भीतर ही दिखाई देगा। गोकुल से विदाई-प्रात:काल हुआ, मंगलस्नान समाप्त हुआ, तो माता कन्हैया का श्रृंगार करने लगी। तेरा मनोहर रूप अब मैं कब देख पाऊंगी कन्हैया। कन्हैया ने वापस आने का पुन: वचन दिया। यषोदाजी का मन आज अधीर हो उठा। उन्होंने स्वयं भोजन बनाया और कन्हैया को खिलाया। अक्रुरजी रथ लेकर आंगन में आए। जब गोपियों को समाचार मिला तो वे दौड़ती हुई आ पहुंची। उनमें राधिकाजी भी थीं। उनके मुख पर दिव्य तेज फैला हुआ था और साध्वी जैसा उनका श्रृंगार था। आज तक कभी वियोग हुआ नहीं था। सो आज वियोग का प्रसंग उपस्थित हुआ तो राधिकाजी अचेत-सी हो गईं। वे अचेतावस्था में ही कहने लगीं कि हे प्यारे कृष्ण! मेरा त्याग मत करो, हमें छोड़कर मत जाओ।<br />
<b><br />गोपियां रो रही हैं क्योंकि....</b><br />
देखो सखी! यह अक्रूर कितना निठुर, कितना हृदयहीन है। इधर तो हम गोपियां इतनी दुखित हो रही हैं और यह हमारे परम प्रियतम नन्ददुलारे श्यामसुन्दर को हमारी आंखों से ओझल करके बहुत दूर ले जाना चाहता है और दो बात कहकर हमें धीरज भी नहीं बंधाता, आश्वासन भी नहीं देता। सचमुच ऐसे अत्यन्त क्रूर पुरुष का अक्रूर नाम नहीं होना चाहिए था। सखी हमारे ये श्यामसुन्दर भी तो कम निठुर नहीं हैं। देखो-देखो, वे भी रथपर बैठ गए और मतवाले गोपगण छकड़ों द्वारा उनके साथ जाने के लिए कितनी जल्दी मचा रहे हैं। सचमुच ये मूर्ख हैं और हमारे बड़े-बूढ़े! उन्होंने तो इन लोगों की जल्दबाजी देखकर उपेक्षा कर दी है कि जाओ जो मन में आवे करो। अब हम क्या करें? आज विधाता सर्वथा हमारे प्रतिकूल चेश्टा कर रहा है।<br />
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गोपियां परमात्मा से अलग होने का जिम्मेदार भी विधाता को ही ठहरा रही हैं। यह भक्ति और प्रेम की पराकाष्ठा है। कन्हैया उनके लिए अभी भी एक माखन चोर, रास रचाने वाला, उन्हें अपनी लीलाओं से हंसाने और आनंदित करने वाला एक ग्वाल-बाल ही था, वो परम योगेश्वर को अपना सखा, अपने बीच का ही मानती थीं, न कि कोई अवतार। असल में भगवान मिलते भी तभी हैं जब हम उसे अपना, अपने जैसा अपने बीच का मानें, चाहे पिता, भाई, रखा या पति, तभी वह हमारे जीवन में उतरता है। गोपियां वाणी से तो इस प्रकार कह रही थीं, परन्तु उनका एक-एक मनोभाव भगवान् श्रीकृष्ण का स्पर्श कर रहा था। वे विरह की सम्भावना से अत्यन्त व्याकुल हो गईं और लाज छोड़कर 'हे गोविन्द! हे दामोदर! हे माधव! इस प्रकार ऊंची आवाज से पुकार-पुकार कर रोने लगीं।<br />
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अक्रूरजी को सूझ ही नहीं रहा कि इन गोपियों को कैसे समझाएं। कृष्ण ने गोपियों से कहा मैं तुम सबको प्रसन्न रखने के लिए बांसुरी बजाता था और खेल रचाता था लेकिन अब मुझे जाना ही होगा।कृष्ण ने मूर्छित राधा को देखा। उनके पास जाकर कान में बोले- राधे! पृथ्वी पर असुर बहुत बढ़ गए हैं। उन पापी राक्षसों का नाष करके पृथ्वी का बोझ हल्का करना है। आज तक तेरे साथ प्रेम से नाचता खेलता रहा। अब जगत् को नचाने जा रहा हूं। मैं तुम सबके साथ भी नाच सकता हूं औरों के साथ भी। सखियों मैं तो जा रहा हूं, किन्तु मेरे प्राण तो यहां तुम्हारे पास ही रहेंगे। मैं अपने प्राण तुम्हारे हृदय में रखकर जा रहा हूं। मेरे प्राणों की रक्षा के लिए तुम अपने प्राणों की रक्षा करना। राधे, मैं आज तक तो तेरे समीप ही था, अब कुछ दूर जा रहा हूं किन्तु हम तो अभिन्न हैं। लीला के हेतु ही हमन अलग-अलग शरीर धारण किए हैं। मुझे अपने प्राणों से भी यह बांसुरी अधिक प्यारी है। तू जब यह बांसुरी बजाएगी तो मैं दौड़ा चला आऊंगा। बाहर के पानी से नहीं आज आंखों से बरसते हुए प्रेमाश्रु से ही मन धोया जा रहा है।<br />
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गोपियां रो रही हैं कृष्ण उन्हें धीरज बंधा रहे हैं। मेरे मंगलमय प्रस्थान के समय रोने से अपशकुन होंगे। श्रीकृष्ण रथ पर चढ़े। रथ चलने लगा। गोपियां भी पीछे-पीछे चलने लगीं। कन्हैया के मना करने पर आंसू रुक तो गए, किन्तु फिर बह निकले। न जाने कन्हैया कब लौटेगा, न जाने कब दर्शन होंगे, फिर रथ के चलने पर बड़े जोरों से रोने लगीं। हे गोविन्द, हे माधव, इस गोकुल को मत उजाड़ो, नाथ इस! गोकुल को अनाथ न करो। हमको भूल न जाना। एक गोपी कह रही है कि तुम्हारे दर्शन के बिना नाथ पानी तक पीने का मेरा नियम कैसे पूरा होगा। यहां कुछ क्षणों के लिए आते रहना, नहीं तो मैं जल ग्रहण नहीं कर पाऊंगी।सारा गांव रो रहा था और अक्रूरजी भी द्रवित हो गए। ग्रामजनों का कृष्ण प्रेम और कृष्ण विरह का दुख देखकर अक्रूरजी की आंखों से भी आंसू बहने लगे।<br />
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<b>समय प्रबंधन सीखें कृष्ण से ...</b><br />
कृष्ण का चरित्र हमें यह बताता है कि समय कैसे साधा जाए जीवन में प्रोफेसर अगर दस मिनट व्यर्थ खर्च करें, तो विधार्थी के दस घंटे, समाज दस महीने और देश दस वर्ष पिछड़ जाता है।विदेशी समय को रत्न कणों की तरह चुनते हैं और हम धूल की तरह उड़ा देते हैं। गांधीजी कहा करते थे कि पैसे का नहीं, समय का हिसाब रखो। डायरी रखो, खाता रोकड़ बनाओ। समय को नापो। समाज को समय का हिसाब दो। समय काल देवता पर तन मन धन न्यौछावर कर दो। समय का मूल्य समझा जाए। वर्तमान् का क्षण ही तुम्हारे जीव का सम्बल है। इसे बचाकर रखिए। एक दिन शबरी अस्पृश्य थी बहिष्कृत कर दी गई थी। और एक दिन वही षबरी देखते ही देखते राम की उपस्थिति के कारण स्वर्ग चली गई। समय बड़ा बलवान होता है। रावण ने नवग्रह और यम तक की सीढिय़ां बना दी और एक दिन उसी रावण के कटे मस्तक धूल में लुढ़कते पड़े थे। समय को पहचानिए।<br />
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गायें भी रो रही थीं। कोई गोपी रथ के पीछे दोड़ रह थी, तो कोई मूर्छित होकर गिर गई। श्रीकृष्ण ने अक्रूरजी से कहा-ये प्रेम के छलकते हुए हृदय वाले ग्रामजन मुझे आगे बढऩे ही नहीं देंगे। सो रथ जरा जल्दी चलाओ काका। अधीरता से यशोदा रथ के पीछे दौडऩे लगीं। प्रभु ने दौड़ती हुई अपनी माता का देखा, तो रथ रूकवाया। माता ने पुत्र की नजर उतारी, आरती की, बेटे तेरे जाने से मुझे बड़ा दुख हो रहा है। मैं तो चाहती थी कि मेरी आंखों से कभी दूर न होने पाए किन्तु मैंने केवल अपने ही लिए तुझे प्यार नहीं किया। मैं प्रार्थना करती हूं कि जहां भी रहे, सुखी रहे। कन्हैया, मथुरा में तू यह भूल जाना कि मैंने तुझे कभी मूसल से बांधा था। कन्हैया बोलते हैं मां सब कुछ भूल सकता हूं किन्तु तेरे बंधनों को कैसे भूल जाऊं। रथ आगे बढऩे लगा। गोपियां पीछे दौडऩे लगीं। उन्होंने कन्हैया की आरती उतारना चाही तो रथ फिर से रोका गया।<br />
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श्रीकृष्ण गोपियों से कहने लगे-दुष्टों की हत्या, दैत्यों का संहार तो मेरे जन्म का गौण प्रयोजन है। मेरे अवतार का मुख्य प्रयोजन है- गोकुल में प्रेमलीला करना। मेरा एक स्वरूप यहां तुम्हारे पास रहेगा और दूसरा स्वरूप वहां मथुरा में। पहले मात्र यशोदा के घर ही एक कन्हैया था। अब हर गोपी के घर में एक-एक कृष्ण है। कृष्ण ने सभी गोपियों के हृदय मे प्रवेश किया। यह अंतरंग का संयोग है और बहिरंग का वियोग है। प्रत्येक गोपी अनुभव कर रही है कि श्रीकृष्ण उनके पास ही बसे हुए हैं मथुरा नहीं गए। श्रीकृष्ण को लेकर रथ चला गया और गोपियां चित्र लिखित-सी खड़ी-खड़ी देखती रहीं।<br />
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कन्हैया ने गोकुल का त्याग नहीं किया है वह तो हरेक गोपी के हृदय में बसा हुआ है।भगवान् ने वचन दिया था कि वियोग के बिना तन्मयता नहीं आ सकती। बिना वियोग के ध्यान में एकाग्रता नहीं आ पाती और साक्षात्कार नहीं होता। ये कृष्ण हैं, अद्भुत हैं। कृष्ण की लीला अद्भुत है, वे जानते थे कि वृन्दावन का समय हो गया है। अब लीला मथुरा में करना है, लीला को मथुरा ले जाना है, सो एक क्षण भी उन्होंने बर्बाद नहीं किया और वृन्दावन छोड़कर मथुरा की ओर चले गए।इधर भगवान् श्रीकृष्ण भी बलरामजी और अक्रूरजी के साथ वायु के समान वेग वाले रथ पर सवार होकर पापनाषिनी यमुनाजी के किनारे जा पहुंचे। वहां उन लोगों ने हाथ-मुंह धोकर यमुनाजी का मरकतमणि के समान नीला और अमृत के समान मीठा जल पिया। इसके बाद बलरामजी के साथ भगवान् वृक्षों के झुरमुट में खड़े रथ पर सवार हो गए।<br />
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<b>अक्रूर के मन में संशय था इसलिए कृष्ण ने....</b><br />
अक्रूर भक्त थे लेकिन उनके मन में संशय था। वे भगवान के विराट स्वरूप की तलाश में थे, सो बाल कृष्ण को भगवान मानने में मन थोड़ा हिचक रहा था। वे बार-बार कृष्ण से बालकोचिन व्यवहार ही करते, बात-बात पर समझाते। कृष्ण ने अक्रूरजी की मनोदशा को ताड़ लिया। अक्रूरजी का संशय दूर करने के लिए उन्होंने यमुना के किनारे भी एक छोटी सी लीला की।<br />
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अक्रूरजी ने दोनों भाइयों को रथ पर बैठाकर उनसे आज्ञा ली और यमुनाजी के कुण्ड पर आकर वे विधिपूर्वक स्नान करने के बाद वे जल में डुबकी लगाकर गायत्री का जप करने लगे। उसी समय जल के भीतर अक्रूरजी ने देखा कि श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई एक साथ ही बैठे हुए हैं। अब उनके मन में यह शंका हुई कि वसुदेवजी के पुत्रों को तो मैं रथ पर बैठा आया हूं, अब वे यहां जल में कैसे आ गए? जब यहां हैं तो शायद रथ पर नहीं होंगे। ऐसा सोचकर उन्होंने सिर बाहर निकालकर देखा। वे उस रथ पर भी पूर्ववत् बैठे हुए थे। उन्होंने यह सोचकर कि मैंने उन्हें जो जल में देखा था, वह भ्रम ही रहा होगा, फिर डुबकी लगाई। परन्तु फिर उन्होंने वहां भी देखा कि साक्षात् अनन्त देव श्री शेष नाग जी पर विराजमान हैं और सिद्ध, चारण, गन्धर्व एवं असुर अपने-अपने सिर झुकाकर उनकी स्तुति कर रहे हैं।<br />
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भगवान् की यह झांकी निरखकर अक्रूरजी का हृदय परमानन्द से लबालब भर गया। उन्हें परम भक्ति प्राप्त हो गई। सारा शरीर हर्शावेश से पुलकित हो गया। प्रेमभाव का उद्रेक होने से उनके नेत्र आंसू से भर गए। अब अकू्ररजी ने अपना साहस बटोरकर भगवान् के चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया और वे उसके बाद हाथ जोड़कर बड़ी सावधानी से धीरे-धीरे गद्गद हो भगवान् की स्तुति करने लगे। अब सारी शंका, सारा संशय दूर हो गया। भगवान की लीला देख ली। बालकों के रूप में साक्षात् नारायण के दर्शन हो गए। बस भगवान की शरण ले ली। भगवान ने भी अक्रूरजी को भक्ति का प्रसाद दिया। अक्रूरजी के साथ श्रीकृष्ण जब मथुरा नगरी पहुंचे, तो नगरवासी भी उनके दर्शन कर कृत-कृत्य हो गए।<br />
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भगवान श्रीकृष्ण ने विनीतभाव से खड़े अक्रूरजी का हाथ अपने हाथ में लेकर मुसकाते हुए कहा-चाचाजी! आप रथ लेकर पहले मथुरापुरी में प्रवेश कीजिए और अपने घर जाइये। हम लोग पहले यहां उतरकर फिर नगर देखने के लिए आएंगे। अक्रूरजी ने कहा-प्रभो! आप दोनों के बिना मैं मथुरा में नहीं जा सकता। स्वामी! मैं आपका भक्त हूं। भक्तवत्सल प्रभो! आप मुझे मत छोडि़ए। श्री भगवान् ने कहा-चाचाजी! मैं दाऊ भैया के साथ आपके घर आऊंगा और पहले इस यदुवंशियों के द्रोही कंस को मारकर तब अपने सभी सुहृत्-स्वजनों का प्रिय करूंगा।<br />
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<b>बुरे लोगों का यही अंत होता है..</b><br />
दुष्टों का यही अंत होता है। जो जिंदगी भर निरपराध और कमजोरों को सताते हैं, वे अपनी मृत्यु को सामने देख ऐसे ही घबराते हैं। कंस मृत्यु के भय से ही जीवनभर पाप करता रहा। कई बेगुनाहों के प्राण लिए। कई घरों के चिराग बुझ दिए। अब मृत्यु स्वयं उसके दरवाजे पर खड़ी है। भगवान नगर घूम रहे हैं। हर भक्त से मिल रहे हैं, उनका उद्धार कर रहे हैं। मथुरा के जिस रास्ते से कान्हा गुजरे वहां उनका स्वागत करने, आरती उतारने वालों की कतारें लग गई। भक्तवत्सल ने किसी को निराश नहीं किया। हर एक से मिले। अब कंस की अंतिम घड़ी आ गई सो उसकी यज्ञशाला की ओर चल पड़े।<br />
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भगवान् श्रीकृष्ण पुरवासियों से धनुष यज्ञ का स्थान पूछते हुए रंगशाला में पहुंचे और वहां उन्होंने इन्द्र धनुष के समान एक अद्भुत धनुष देखा। उस धनुश में बहुत सा धन लगाया गया था, अनेक बहुमूल्य अलंकारों से उसे सजाया गया था। उसकी खूब पूजा की गई थी और बहुत से सैनिक उसकी रक्षा कर रहे थे। भगवान् श्रीकृष्ण ने रक्षकों के रोकने पर भी उस धनुष को उठा लिया। उन्होंने सबके देखते-देखते उस धनुष को बायें हाथ से उठाया, उस पर डोरी चढ़ायी और एक क्षण में खींचकर बीचोंबीच से उसी प्रकार उसके दो टुकड़े कर डाले जैसे बहुत बलवान मतवाला हाथी खेल ही खेल में ईख को तोड़ डालता है। जब धनुष टूटा तब उसके शब्द से आकाश, पृथ्वी और दिशाएं भर गईं, उसे सुनकर कंस भी भयभीत हो गया। अब धनुष के रक्षक आततायी असुर अपने सहायकों के साथ बहुत ही बिगड़े। वे भगवान् श्रीकृष्ण को घेरकर खड़े हो गए और उन्हें पकड़ लेने की इच्छा से चिल्लाने लगे-पकड़ लो, बांध लो, जाने न पावे। उनका दुष्ट अभिप्राय जानकर बलरामजी और श्रीकृष्ण भी तनिक क्रोधित हो गए और उस धनुष के टुकड़ों को उठाकर उन्हीं से उनका काम तमाम कर दिया।उन्हीं धनुष खण्डों से उन्होंने उन असुरों की सहायता के लिए कंस की भेजी हुई सेना का भी संहार कर डाला। इसके बाद वे यज्ञ के प्रधान द्वार से होकर बाहर निकल आए और बड़े आनन्द से मथुरापुरी की शोभा देखते हुए विचरने लगे।<br />
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<b>सत्ता उसी को मिलना चाहिए जो अधिकारी हो...</b><br />
उग्रसेन को राजा बनाकर कृष्ण ने बड़ा महत्वपूर्ण संदेश दिया। युद्ध आपका व्यक्तिगत हो या धर्म के लिए, जीत के बाद राज उसी को मिलना चाहिए जो वास्तविक अधिकारी हैं, जिसने पहले भी नि:स्वार्थ रूप से प्रजा का पालन किया है। जो आयु और अनुभव दोनों ही में श्रेष्ठ है। उग्रसेन को राज देकर उन्होंने यह भी जता दिया कि वे केवल दुष्टों को मारने और धर्म की रक्षा के लिए आए हैं, राजपाठ में उनका मोह नहीं है, न ही वे कहीं अपनी सत्ता स्थापित करना चाहते हैं क्योंकि वे तो यूं भी सर्वव्यापी हैं।<br />
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भगवान् श्रीकृष्ण ही सारे संसार के जीवनदाता हैं। उन्होंने रानियों को ढांढस बंधाया, सान्त्वना दी। फिर लोकरीति के अनुसार मरने वालों का जैसा क्रिया कर्म होता है, वह सब कराया। तदन्तर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी ने जेल में जाकर अपने माता-पिता को बन्धन से छुड़ाया और सिर से स्पर्श करके उनके चरणों की वन्दना की, किन्तु अपने पुत्रों के प्रणाम करने पर भी देवकी और वसुदेव ने उन्हें जगदीश्वर समझकर अपने हृदय से नहीं लगाया। उन्हें शंका हो गई कि हम जगदीश्वर को पुत्र कैसे समझें। कंस के परिजनों को सांत्वना दी। कंस के वध का समाचार फैला। जो राजा अपने राजपाट छोड़कर इधर-उधर लुप्त हो गए थे वे भगवान कृष्ण के आश्वासन पर पुन: लौट आए लेकिन कंस को मारकर श्रीकृष्ण न तो स्वयं राज सिंहासन पर बैठे और न ही अपने भाई को बैठाया और न ही अपने पिता को बैठाया। अपितु कंस के पिता उग्रसेन को ही सिंहासन वापस बैठा दिया।अब देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी दोनों ही नन्दबाबा के पास आए और गले लगने के बाद उनसे कहने लगे-पिताजी! आपने और मां यशोदा ने बड़े स्नेह और दुलार से हमारा लालन-पालन किया है।<br />
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इसमें कोई संदेह नहीं कि माता-पिता सन्तान पर अपने शरीर से भी अधिक स्नेह करते हैं। जिन्हें पालन-पोषण न कर सकने के कारण स्वजन-संबंधियों ने त्याग दिया है, उन बालकों को जो लोग अपने पुत्र के समान लाड़-प्यार से पालते हैं, वे ही वास्तव में उनके मां-बाप हैं। पिताजी! अब आप लोग व्रज में जाइएं। इसमें सन्देह नहीं कि हमारे बिना वात्सल्य स्नेह के कारण आप लोगों को बहुत दुख होगा। यहां के सुहृद-संबंधियों को सुखी करके हम आप लोगों से मिलने के लिए आएंगे।<br />
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<b>कृष्ण ने चौसठ दिन में ही पूरी कर ली पढ़ाई!</b><br />
देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी दोनों ही नन्दबाबा के पास आए और गले लगने के बाद उनसे कहने लगे-पिताजी! आपने और मां यशोदा ने बड़े स्नेह और दुलार से हमारा लालन-पालन किया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि माता-पिता सन्तान पर अपने शरीर से भी अधिक स्नेह करते हैं। जिन्हें पालन-पोषण न कर सकने के कारण स्वजन-संबंधियों ने त्याग दिया है, उन बालकों को जो लोग अपने पुत्र के समान लाड़-प्यार से पालते हैं, वे ही वास्तव में उनके मां-बाप हैं। पिताजी! अब आप लोग व्रज में जाइए।<br />
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इसमें सन्देह नहीं कि हमारे बिना वात्सल्य स्नेह के कारण आप लोगों को बहुत दुख होगा। यहां के सुहृद-सम्बन्धियों को सुखी करके हम आप लोगों से मिलने के लिए आएंगे। भगवान् श्रीकृष्ण ने नन्दबाबा और दूसरे व्रजवासियों को इस प्रकार समझा बुझाकर बड़े आदर के साथ वस्त्र, आभूषण और अनेक धातुओं के बने बरतन आदि देकर उनका सत्कार किया। भगवान् की बात सुनकर नन्दबाबा ने प्रेम से अधीर होकर दोनों भाईयों को गले लगा लिया और फिर नेत्रों में आंसू भरकर गोपों के साथ व्रज के लिए प्रस्थान किया।वाणी और वर्तन एक हुए बिना वाणी शक्तिशाली नहीं हो पाती। ज्ञान को क्रियात्मक रूप देना है यह कृष्ण ने बताया।<br />
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बंगले में रहकर विलासी जीवन जीने वाला व्यक्ति वेदान्त की चर्चा किस अधिकार से कर सकता है। अधिक पढऩे की अपेक्षा जीवन में सिद्धान्त को उतारने की आवश्यकता अधिक है। श्रीकृष्ण ने अपना उपदेश जीवन में उतारा। उन्होंने गीता में निष्काम कर्म का उपदेश दिया।इसके बाद वसुदेवजी ने अपने पुरोहित गर्गाचार्य तथा दूसरे ब्राह्मणों से दोनों पुत्रों का विधिपूर्वक द्विजाति-समुचित यज्ञोपवीत संस्कार करवाया।इस प्रकार यदुवंश के आचार्य गर्गजी से संस्कार कराकर बलरामजी और भगवान् श्रीकृष्ण द्विजत्व को प्राप्त हुए।<br />
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उनका ब्रह्मचर्यव्रत अखण्ड तो था ही, अब उन्होंने गायत्रीपूर्वक अध्ययन करने के लिए उसे नियमत: स्वीकार किया।अब श्रीकृष्ण अपनी लीला से जीवन में शिक्षा का महत्व बताते हैं।कृष्ण जो सर्वज्ञ हैं, वे भी शिक्षा ग्रहण करने गुरू के पास आए हैं। हर व्यक्ति के जीवन में गुरू का महत्व है। हम कितने भी ज्ञानी क्यों न हों, उस ज्ञान को जब तक कोई सही दिशा देने वाला न हो वह बेकार है। गुरू हमारा मार्गदर्शक होता है जो जीवन के व्यवहारिक और सैद्धांतिक दोनों पक्षों में हमें सही दिशा बताता है। यहां से कथा नया मोड़ लेने जा रही है, कृष्ण अब अपने गुरू की सेवा में हैं।<br />
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यहां वे सारी कलाएं सीखेंगे। अब वे दोनों गुरुकुल में निवास करने की इच्छा से काश्यपगोत्री सान्दीपनि मुनि के पास गए जो अवन्तीपुर (उज्जैन) में रहते थे।वे दोनों भाई विधिपूर्वक गुरुजी के पास रहने लगे। उस समय वे बड़े ही सुख, संयत, अपनी चेष्टाओं को सर्वथा नियमित रक्खे हुए थे। गुरुजी तो उनका आदर करते ही थे, भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी भी गुरु की उत्तम सेवा कैसे करनी चाहिए, इसका आदर्श लोगों के सामने रखते हुए बड़ी भक्ति से इष्टदेव के समान उनकी सेवा करने लगे।<br />
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गुरुवर सान्दीपनिजी उनकी शुद्धभाव से युक्त सेवा से बहुत प्रसन्न हुए।उन्होंने दोनों भाइयों को छहों अंक और उपनिषदों के सहित सम्पूर्ण वेदों की शिक्षा दी। इनके सिवा मन्त्र और देवताओं के ज्ञान के साथ धनुर्वेद, मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्र, मीमांसा आदि वेदों का तात्पर्य बतलाने वाले शास्त्र, तर्कविद्या (न्यायशास्त्र) आदि की भी शिक्षा दी।<br />
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साथ ही सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैघ और आश्रय-इन छ: भेदों से युक्त राजनीति का भी अध्ययन कराया। भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम सारी विद्याओं के प्रवर्तक हैं। इस समय केवल श्रेष्ठ मनुष्य का सा व्यवहार करते हुए ही वे अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने गुरुजी के केवल एक बार कहने मात्र से सारी विद्याएं सीख लीं। केवल चौसठ दिन-रात में ही संयमी शिरोमणि दोनों भाइयों ने चौसठ कलाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया।<br />
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<b>तभी जिंदगी का असली आनंद महसूस होगा</b><br />
कहते हैं कि यदि आपसे कोई कुछ मांगता है तो परामात्मा उसे तभी आपके पास भेजता है जब आपके पास उसे देने का सामथ्र्य होता है। वेदों में भी कहा गया है कि सौ हाथों से कमाये और हजार हाथों से खर्च करें तभी आप जिंदगी का असली आनंद महसुस करेंगे। इसलिए अब जब भी कोई कुछ मांगे तो यह सोचें कि आप उसे अपने सामथ्र्य के अनुसार क्या दे सकते हैं? कृष्ण का अध्ययन समाप्त होने पर उन्होंने सान्दीपनि मुनि से प्रार्थना की कि आपकी जो इच्छा हो, गुरु दक्षिणा मांग लें। महाराज! सान्दीपनि मुनि ने अपनी पत्नी से सलाह करके यह गुरुदक्षिणा मांगी कि प्रभास क्षेत्र में हमारा बालक समुद्र में डूबकर मर गया था, उसे तुम लोग ला दो।<br />
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यह गुरू की महिमा है और मर्यादा भी। गुरू दक्षिणा मांगते समय अपने मांगने की मर्यादा और शिष्य के देने का सामथ्र्य दोनों नाप लें। सांदीपनि महाराज कृष्ण की अनन्त शक्ति और उनके परमात्मा स्वरूप दोनों को जानते थे, इसलिए ऐसी ही चीज मांगी जिसे देने का सामथ्र्य केवल कृष्ण में ही था। बलरामजी और श्रीकृष्ण का पराक्रम अनन्त था। दोनों ही महारथी थे। उन्होंने 'बहुत अच्छा कहकर गुरुजी की आज्ञा स्वीकार की और रथ पर सवार होकर प्रभास क्षेत्र में गए। वे समुद्रतट पर जाकर क्षणभर बैठे रहे। उस समय यह जानकर कि ये साक्षात् परमेश्वर हैं, अनेक प्रकार की पूजा-सामग्री लेकर समुद्र उनके सामने उपस्थित हुआ।<br />
<b><br />जब कृष्ण पहुंच गए यमराज के पास तो...</b><br />
हमारे धर्म शास्त्रों मै आरूणी और एकलव्य जैसे उदाहरण हैं। जिन्होंने अपने गुरु की आज्ञा को ही हर हाल में सर्वोपरी माना। श्रीकृष्ण तो स्वयं परमेश्वर हैं लेकिन उन्होंने भी गुरु की आज्ञा को सबसे ऊपर माना इसीलिए वे यमराज के घर से भी उनके पुत्र को वापस ले आए।<br />
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शिक्षा के लिए श्रीकृष्ण और बलराम का सान्दीपनि मुनि के आश्रम आना। मात्र चौसठ दिनों में अपनी शिक्षा पूर्ण करना और गुरु दक्षिणा में सान्दीपनि मुनि द्वारा अपना खोया पुत्र मांगना अब आगे... भगवान् ने समुद्र से कहा-समुद्र! तुम यहां अपनी बड़ी-बड़ी तरंगों से हमारे जिस गुरु के पुत्र को बहा ले गए थे, उसे लाकर शीघ्र हमें दो।<br />
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मनुष्य वेशधारी समुद्र ने कहा-देवाधिदेव श्रीकृष्ण! मैंने उस बालक को नहीं लिया है। मेरे जल में पश्चजन नाम का एक बड़ा भारी दैत्य जाति का असुर शंख के रूप में रहता है। अवश्य ही उसी ने वह बालक चुरा लिया होगा। समुद्र की बात सुनकर भगवान् तुरंत ही जल में जा घुसे और शंखासुर को मार डाला। परन्तु वह बालक उसके पेट में नहीं मिला। तब उसके शरीर का शंख लेकर भगवान् रथ पर चले आए। वहां से बलरामजी के साथ श्रीकृष्ण ने यमराज की प्रिय पुरी संयमनी में जाकर अपना शंख बजाया। शंख का शब्द सुनकर सारी प्रजा का शासन करने वाले यमराज ने उनका स्वागत किया और भक्तिभाव से भरकर विधिपूर्वक उनकी बहुत बड़ी पूजा की। उन्होंने नम्रता से झुककर समस्त प्राणियों के हृदय में विराजमान सच्चिदानंद स्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा-लीला से ही मनुष्य बने हुए सर्वव्यापक परमेश्वर! मैं आप दोनों की क्या सेवा करूं?श्री भगवान् ने कहा-यमराज! यहां अपने कर्म बन्धन के अनुसार मेरा गुरुपुत्र लाया गया है। तुम मेरी आज्ञा स्वीकार करो और उसके कर्म पर ध्यान न देकर उसे मेरे पास ले आओ। यमराज ने जो आज्ञा कहकर भगवान् का आदेश स्वीकार किया और उनका गुरुपुत्र ला दिया। तब यदुवंश शिरोमणि भगवान् श्रीकृ्रष्ण और बलरामजी उस बालक को लेकर उज्जैन लौट आए और उसे अपने गुरुदेव को सौंप दिया।<br />
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<b>भक्ति के बिना ज्ञान घमंडी बनाता है</b><br />
भगवान पुन: पढ़कर लौटे हैं। मथुरावासियों ने उनका स्वागत किया। राजा उग्र्रसेन स्वयं स्वागत करने आए। कुछ काल मथुरा में रहे, फिर कृष्ण को वृन्दावन की याद आई और उन्होंने उद्धवजी को वृंदावनवासियों की सुधि लेने के लिए भेजा था।उद्धव की कथा वक्ता के लिए एक आव्हान है। दक्षिण के महात्माओं का ऐसा मत है कि इस प्रसंग में ज्ञान और भक्ति का मधुर कलह है। इसमें ज्ञान और भक्ति का समन्वय भी है और उद्धवजी निर्गुण ज्ञान के पक्षधर हैं तो गोपियां शुद्ध प्रेम लक्षणा सगुण भक्ति की।<br />
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जीवन संतुलन का नाम है यह इस प्रसंग में दिखेगा।वैसे तो भक्ति और ज्ञान में कोई अन्तर नहीं, भक्ति ही परिणति है ज्ञान। उद्धव ज्ञानी तो थे, किन्तु उनके ज्ञान को भक्ति का साथ नहीं था। भक्ति रहित ज्ञान अभिमानी बनाता है। भक्ति ज्ञान को नम्र बनाती है। भक्ति का साथ न हो, तो ज्ञान अभिमान के द्वारा जीव को उद्धण्ड बना देता है। श्रीकृष्ण अब मथुरानाथ हो गए हैं। यहां ऐश्वर्य का प्राधान्य है। गोकुल के गोपाल अब मथुरा के अधिपति हैं। गायें चराने वाले कन्हैया की<br />
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अब कई दास-दासियां सेवा कर रही हैं। उद्धवजी भी श्री अंग सेवा करते हैं। सभी प्रकार का सुख और ऐश्वर्य चरणों में स्थित है। जीव ऐश्वर्यमय हो गया किन्तु भगवान ने ब्रजवासियों के प्रेम को भुलाया नहीं। राजप्रासाद की अटारी में बैठकर वे गोकुल की झांकी याद करते रहते हैं। वे बार-बार यशोदाजी को याद करते हैं, वे मेरी प्रतीक्षा में रोती रहती होंगी।<br />
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भोली माता मेरे वचन को याद करके राह निहारती होंगी। मेरी प्यारी गायें और उनके बछड़े क्या करते होंगे। मथुरा की ओर मुंह करके मुझे पुकारते होंगे। मेरे बाबा भी मुझे याद करते होंगे। इस प्रकार वे बार-बार सभी को याद करते थे और आंसू बहाते थे।मथुरा में ऐश्वर्य तो था, किन्तु प्रेम नहीं था। प्रभु को तो उनसे प्रेम करने वाले जीव की आवश्यकता है, उनके ऐश्वर्य के प्रेमी की नहीं।<br />
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<b>शांति के लिए त्याग जरूरी है</b><br />
श्रीकृष्ण बार-बार ब्रजवासियों को याद करके रोते रहते थे, माता-पिता गोपियां याद आ जातीं और वे रो लेते। प्रेमी की विरह में बहने वाले अश्रु सुखदायी से लगते हैं। विरह में आंसू ही साथ देते हैं जीव का ईश्वर स्मरण तो साधारण भक्ति है किन्तु जिस जीव का स्वयं भगवान् स्मरण करें, वह तो असाधारण है। कौन है यह राधा जो हृदय सिंहासन पर आसन जमाकर आपको सताती रहती है।<br />
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आपका दु:ख मुझसे देखा नहीं जाता। यहां उद्धव-कृष्णजी की भक्ति में समर्पण विषय पर सुंदर चर्चा आई है। गोपियों की स्थिति तक पहुंचने की क्रिया में ईश्वर प्रणिधान के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। संतों ने प्रणिधान की व्याख्या में स्पष्ट कर दिया कि निश्चयपूर्वक ईश्वरीय भावना को धारण किया जाए जिससे वृत्तियों का निरोध हो। वृत्तियों का निरोध क्रम से शनै: शनै: या तीव्र गति से अकर्मक स्थिति का निर्माण कर देता है। ईश्वर को ध्यान एक नाम जप द्वारा तथा उसकी शरण में रहकर, सब कर्मों के फल ईश्वर को समर्पित कर धारण किया जाता है।<br />
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इसी संदर्भ में गीता के बारहवें अध्याय के श्लोक नौ, दस, ग्यारह व बारह की विवेचना की जाय तो समझना आसान हो जाता है-प्रबल इच्छा की जाय कि भगवत् दर्शन हों, ध्यान किया जाय, इसमें असमर्थता हो तो ईश्वर निमित्त कर्म किए जायें, इसमें असमर्थता का अनुभव हो तो कर्मों के फलों को ईश्वर अर्पण करके त्याग किया जाए, निश्चित है कि त्याग से परम शान्ति मिलती है।<br />
<b><br />इतना कहते ही श्रीकृष्ण की आंखों में आंसू आ गए</b><br />
कृष्णजी बोले-उद्धवजी पूरी मथुरा में मेरा दु:ख पूछने वाले एक तुम ही निकले। क्या-क्या बताऊं मैं तुम्हें, मेरे सच्चे माता-पिता तो देवकी व वसुदेव हैं किन्तु गोकुल में रहकर यशोदा नन्दजी भी तो मेरे माता-पिता हैं। मेरी माता मुझे कितने दुलार से खिलाती-पिलाती थी। मुझे अपनी सखियां, अपने मित्र और अपनी गायें बहुत याद आती हैं।<br />
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सभी ग्वाल बाल मुझे अपने घरों से लाई हुई खाद्य सामग्री खिलाते थे। कोमल पत्तों से सेज बनाकर सुलाते थे और मेरी गायों की रखवाली करते थे।मैं अपने माता-पिता, मित्रों, सखियों को कैसे भुला दूं।मेरी सखियां, गाय सभी मुझे याद करके रोते होंगे। मैं ब्रज को नहीं भुला पाता।उद्धव कहने लगे, बचपन में गोप बालकों के साथ खेलते रहने की बात तो ठीक है।<br />
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किन्तु अब आप मथुरा के राजा हैं और राजा को गोपाल बालक वे कहते हैं-महाराज वहां जाने में मुझे कोई आपत्ति तो नहीं है, किन्तु गांव की अनपढ़ गोपियां कैसे समझेंगी ? मेरे तत्व ज्ञान का उपदेश बड़ा गहन है।सो मेरा जाना वहां निरर्थक ही है।श्रीकृष्ण गोपियों की बुराई सह न सके, उन्होंने उद्धव से कहा उद्धवजी! मेरी गोपियां अनपढ़ नहीं, ज्ञान से परे हैं। वे पढ़ी-लिखी तो अधिक नहीं हैं, किन्तु शुद्ध प्रेम की ज्ञाता हैं।<br />
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इसी कारण से तो वे मुझे प्राप्त कर सकी हैं और क्या कहूं।उद्धव गोकुल रवाना-उद्धवजी की तो इच्छा नहीं थी, फिर भी श्रीकृष्ण के कारण वे ब्रज जाने को तैयार हुए। आपका आदेष है तो मैं जाता हूं। मैं वहां नन्दजी, यशोदाजी और गोपालों को उपदेश दे आऊं। मैं जाता हूं।उद्धवजी का रथ चलने लगा, तो श्रीकृष्ण ने उद्धवजी से कहा-मेरे माता-पिता को मेरा प्रणाम कहना और उन्हें आश्वासन देना कि उनका कन्हैया अवश्य आएगा। इतना कहते-कहते ही श्रीकृष्ण को रोना आ गया।<br />
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<b>यशोदा की दशा क्या हुई, जब कृष्ण चले गए मथुरा?</b><br />
ब्रज का यह दृश्य देखकर उद्धवजी का ज्ञानी मन भी थोड़ा विचलित हो रहा था, ज्ञान को भक्ति और प्रेम का साथ मिलने वाला था, सो थोड़ी बेचैनी भी थी। उद्धवजी ने अपने को थोड़ा संभाला। मन को विचलित होने से भी रोकने की चेष्टा की, सोचा मैं तो इन्हें उपदेश देने जा रहा हूं, सो मेरा विकल होना ठीक नहीं।गोपों के घरों में अग्नि, सूर्य, अतिथि, गौ, ब्राह्मण और देवता-पितरों की पूजा की हुई थी।<br />
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धूप की सुगन्ध चारों ओर फैल रही थी और दीपक जगमगा रहे थे। उन घरों को पुष्पों से सजाया गया था। ऐसे मनोहर गृहों से सारा व्रज और भी मनोरम हो रहा था। चारों ओर वन पंक्तियां फूलों से लद रही थीं। पक्षी चहक रहे थे और भौंरे गुंजार कर रहे थे। वहां जल और स्थल दोनों ही कमलों के वन से शोभायमान थे और हंस, बत्तख आदि पक्षी वन में विहार कर रहे थे।जब से कन्हैया मथुरा गया, यशोदा नन्दजी ने अन्न का एक दाना मुंह में नहीं रखा। जब तक वह नहीं लौटेगा हम नहीं खाएंगे। न रात को नींद आती है न दिन को चैन।<br />
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कृष्ण विरह में जीव अकुलाएगा, छपटाएगा और आंखें बरसने लगेंगी तो मन की मलिनता धुल जाएगी। बाहर का जल शरीर को धोता है विरहाश्रु हृदय की मलिनता को धोते हैं। विरहाश्रु हृदय को शुद्ध और पवित्र करते हैं।यशोदाजी सोचती रहती थीं कि अपना कन्हैया जब लौटैगा, तो मैं उसे अपने गले लगा लूंगी और गोद में बैठाकर भोजन कराऊंगी। उसे खिलाकर ही मैं खाऊंगी। घर की हर वस्तु कन्हैया की याद दिलाती थी। इस पात्र में लला माखन-मिश्री खाता था। उस सेज पर आराम करता था। नन्द-यशोदा इस प्रकार लला की याद में डूबे रहते। आंसू बहाते रहते और परस्पर आश्वासन देते-लेते रहते।यशोदाजी आंगन में बैठे हुए नन्दजी को उल्हाना दे रही थीं।<br />
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आप ही के कारण लाला ब्रज छोड़ गया। व्रज से जाते समय उसने वापस आने का वचन दिया था। मेरे आंसू वह देख नहीं पाता था। जब भी मैं रोती वह मुझे मनाने लगता था। आज वह ऐसा निष्ठुर क्यों हो गया। यशोदा रोने लगती हैं। एक दिन वे दोनों आंगन में बैठकर कृष्ण लीलाओं की याद में खोए हुए थे। तभी एक कौआ आकर कांव-कांव करने लगा। कौए की बोली शगुनमय मानी जाती है। कौए को सुना, तो यशोदा ने सोचा कि आज मथुरा से शायद कोई आएगा।<br />
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<b>कृष्ण को न देखा तो नन्दजी मूर्छित हो गए...</b><br />
वह कृष्ण के वचन को याद करते हुए कौए से कहने लगी-मेरा कन्हैया यदि आ जाए तो तेरी चोंच मैं सोने से मढ़वाऊंगी, तुझे मिष्ठान्न खिलाऊंगी। हे काग! तू बता, मेरा लला कब आ रहा है।श्रीदामा, मधुमंगल आदि सब ग्वालवाल रास्ते पर बैठे हुए लाला की प्रतीक्षा कर रहे थे कि दूर से एक रथ आता दिखाई दिया। बालकों ने सोचा लाला ही आया होगा। वे दौड़ते हुए रथ के पास पहुंचे।किन्तु रथ में जो बैठा था वह नीचे नहीं उतरा। यदि कन्हैया होता तो कूदकर नीचे आकर गले लग जाता। उद्धवजी, बालकों को देखकर भी रथ में बैठे रहे।<br />
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बच्चों से कहने लगे मैं श्रीकृष्ण का सन्देशा लेकर आया हूं, वह आने वाला है। मैं उद्धव हूं। बालक कहने लगे-उद्धवजी! हम कन्हैया को सुखी करने के लिए उसकी सेवा करते थे, कभी हमने ऐसा तो सोचा ही नहीं था, कि वह ऐसा निष्ठुर हो जाएगा। कन्हैया के बिना यहां सब सूना-सूना लगता है।<br />
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वंशीवट, यमुना तट, वृन्दावन सब कुछ सूना और उदास है।बालक उद्धवजी को नन्दबाबा के घर का रास्ता दिखलाते हुए कहने लगे-अच्छा हुआ तुम आ गए। हमें भी कन्हैया को संदेशा भेजना है, किन्तु तुम पहले नन्द-यशोदा के पास जाकर सन्त्वना दो। वे रात-दिन लला की प्रतीक्षा में रोते हैं। हम फिर मिलने आएंगे।नंद-यशोदा-उद्धव- इधर यशोदा कौए से बात कर रही हैं और उधर रथ आंगन मे आ पहुंचा। नन्द-यशोदा ने माना कि कन्हैया ही आया है। दोनों की जान में जान आ गई। दोनों रथ की ओर दौड़ पड़े। दोनों पुकार उठे कन्हैया आया। लाला आया। वे दोनों दौड़ते हुए रथ के पास पहुंचे। किन्तु उसमें कन्हैया नहीं, कोई और ही था। कृष्ण को न देखा तो कृष्ण को पुकारते हुए नन्दजी मूर्छित हो गए।उद्धवजी की तो कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि ये लोग कृष्ण का नाम लेकर क्यों रो रहे हैं। यशोदाजी धीरज धरकर एक दासी से कहने लगीं-यह कोई बड़े व्यक्ति लगते हैं<br />
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इनका स्वागत करो। नन्दजी को प्रणाम करते हुए उद्धवजी ने कहा-मैं आपके कन्हैया का मित्र हूं और उसका सन्देश लाया हूं। नन्दजी ने भी कुशलमंगल पूछा। उन्होंने सोचा कि कन्हैया स्वयं नहीं आ सका होगा। सो अपने मित्र को भेजा होगा। उद्धवजी आप आए स्वागत है। कंस की मृत्यु के बाद यादव सुखी हुए होंगे। उद्धवजी एक बात सच-सच बतलाना क्या कन्हैया कभी हमको याद करता है? उद्धवजी कन्हैया से कहना कि यह गिरिराज, यह यमुना उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। यह उसकी गंगी गाय तो वन में घूमती फिरती है। मुझे रोज-रोज उसकी बांसुरी की मधुर तान सुनाई देती रहती है। उद्धवजी कई बार मुझे लगता है कि वह मेरी गोद में बैठा हुआ खेल रहा है। यमुना में स्नान करने के लिए जाता हूं तो मेरे पीछे-पीछे चला आ रहा है। उद्धवजी मेरा कन्हैया कब लौटेगा ? नन्द पूछ रहे हैं।<br />
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<b>क्या संदेश लेकर आए उद्धव गोकुलवासियों के लिए?</b><br />
उद्धवजी, वसुदेवजी से कहना कि कन्हैया उन्हीं का पुत्र है मैं तो उनका दास हूं। लाला से कहना कि उसकी माता सारा दिन रोती रहती हैं। वह जब यहां था, तो माता को मना लेता था। पर अब कौन मनाए। नन्द इतना बोलते-बोलते व्याकुल हो गए। उद्धवजी उलझन में पड़ गए। मैं इन्हें क्या उपदेश दूं, इन्हें तो हर कहीं कृष्ण ही कृष्ण दिखाई देते हैं। पलने में, घर में, आंगन में, वन में, यमुना किनारे, कदम की डाली पर, कृष्ण ही कृष्ण के दर्शन करते हैं ये नन्दजी।ब्रह्म की सर्वव्यापकता का उपदेशक होकर मैं वैसा अनुभव आज तक नहीं कर पाया। मैं ऐसी ब्रह्म दृष्टि वाले नन्दजी को क्या उपदेश दूं।उन्होंने नन्दजी से कहा-बाबा आप धन्य हैं।<br />
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आपका जीवन सफल हो गया। आप कृष्णमय हो चुके हैं। इतने में वहां यशोदाजी आ पहुंची। उद्धवजी का धैर्य टूट गया उन्हें देखकर। यशोदाजी बोलीं-उद्धवजी, सच-सच बताओ, मेरा लाला कुशल से तो है। वह खाने के समय बड़ा हठ करता था, वह कहीं दुबला तो नहीं हो गया है। कभी मुझे याद भी करता है। वहां कौन मनाता होगा उसे। गोकुल में था तब तो वह मेरे आंसू देख नहीं सकता था और मुझे मना लेता था। मैंने एक बार मूसल से बांधा था उसे। कहीं इसीलिए तो वह नहीं रूठा है।वह मुझे याद भी करता है क्या। मैं उसकी माता तो हूं नहीं।<br />
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उसकी माता तो देवकी हैं, देवकी से कहना कि सेविका की आवश्यकता हो तो मुझे बुला लें। कृष्ण विरह में हम मरे जा रहे हैं। वह जहां हो वहां हमें ले चलो उद्धवजी। हमें वहां ले चलोगे तो भगवान् तुम्हारा कल्याण कर देंगे।यशोदा प्रेम देखा उद्वव ने-मैं नारायण से प्रार्थना करती हूं कि कन्हैया चाहे यहां न आए किन्तु जहां भी रहे, सुखी रहे। उद्धवजी बोले-माताजी! कृष्ण तुम सबको बार-बार याद करते हैं। वे स्वयं यहां आने वाले थे, किन्तु मथुरा का शासन उन्होंने संभाला है सो उन्हें अवकाश नहीं मिलता। मुझसे कहा है कि मथुरा में आकर इस कारोबार में डूब गया हूं, माता को मेरा कुशल मंगल दे आ। नन्द-यशोदा का कृष्ण प्रेम देखकर उद्धवजी का आधा अभिमान तो हवा हो गया। जो व्यक्ति पलने में, घर में, आंगन में, वृक्षों पर, वन में, हर कहीं कृष्ण को ही देख रहा हो, उसे ब्रह्म के सर्वव्यापी रूप का अनुभव कराना व्यर्थ है। वह तो पहले से ही उसका आनन्द ले रहा है।<br />
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<b>जब गोपियों ने उद्धव को देखा तो उन्हें लगा...</b><br />
जब भगवान् भुवनभास्कर का उदय हुआ, तब व्रजांगनाओं ने देखा कि नन्दबाबा के दरवाजे पर एक सोने का रथ खड़ा है। वे एक-दूसरे से पूछने लगीं यह किसका रथ है? किसी गोपी ने कहा कंस का प्रयोजन सिद्ध करने वाला अक्रूर ही तो कहीं फिर नहीं आ गया है? जो कमलनयन प्यारे श्यामसुंदर को यहां से मथुरा ले गया था। किसी दूसरी गोपी ने कहा- क्या अब वह हमें ले जाकर अपने मरे हुए स्वामी कंस का पिण्डदान करेगा ? अब यहां उसके आने का और क्या प्रयोजन हो सकता है? व्रजवासिनी स्त्रियां इसी प्रकार आपस में बातचीत कर रही थीं कि उसी समय नित्यकर्म से निवृत्त होकर उद्धवजी आ पहुंचे।गोपी प्रेम देखा-उद्धवजी यशोदा की आज्ञा से यमुना स्नान को चले। सखियों को भी कन्हैया का सन्देश देना था।<br />
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गोपियों का कृष्ण कीर्तन सुना, तो उन्होंने सोचा कि जिनके कण्ठ इतने मधुर हैं, वे कैसी अद्भुतस्वरूपा होंगी। उन्होंने अब तक किसी भी गोपी का दर्शन पाया नहीं था।ब्रह्म मुहूर्त में कृष्ण कीर्तन करने वाले ये गोप धन्य हैं। कृष्ण के स्मरण मात्र से इनके हृदय द्रवित होते हैं। उद्धवजी का ज्ञानमार्ग धीरे-धीरे मिट रहा था। उद्धव भये सुद्धव। उद्धव का ज्ञान भक्ति रहित था, सो कृष्ण ने उनको ब्रज भेजा। उद्धवजी नन्द-यशोदा की प्रेम मूर्ति को देखकर आनन्दित हो गए।नन्द के आंगन में गोपियां प्रणाम करने आईं। गोपियों ने देखा कि वहां रथ खड़ा है। उनको अक्रूर प्रसंग याद आ गया। हमारे कन्हैया को ले जाने वाला अक्रूर लगता है फिर आया, क्यों आया होगा ?<br />
ललिता नाम की सखी कहने लगी-मैं कृष्ण को ज्यों-ज्यों भूलने का प्रयत्न करती हूं वे उतने ही याद आते हैं। कल मैं कुंए पर जल भरने गई थी तो बांसुरी का स्वर सुनाई दिया। एक गोपी कहती है लोग चाहे कुछ भी कहें किन्तु मुझे तो कृष्ण यहीं दिखाई देता है मथुरा गया ही नहीं।उद्धवजी ने गोपियों को अपना परिचय देते हुए कहा-मैं तुम्हारे मथुरावासी श्रीकृष्ण का अन्तरंग सखा उद्धव हूं और आपके लिए उनका सन्देश लाया हूं। गोपियां बोलीं-तुम थोथे पण्डित ही हो। क्या श्रीकृष्ण केवल मथुरा में ही बसते हैं। वे तो सर्वत्र हैं, तुम्हें मात्र मथुरा में ही भगवान दिखाई देते हैं और हमको तो यहां कण-कण में उनका दर्शन हो रहा है<br />
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<b>उद्धव मथुरा पहुंचकर गोपियों की प्रशंसा करने लगे क्योंकि....</b><br />
हमारी वाणी नित्य-निरन्तर उन्हीं के नामों का उच्चारण करती रहे और शरीर उन्हीं को प्रणाम करने, उन्हीं के आज्ञा-पालन और सेवा में लगा रहे। उद्धवजी! हम सच कहते हैं, हमें मोक्ष की इच्छा बिल्कुल नहीं है। हम भगवान् की इच्छा से अपने कर्मों के अनुसार चाहे जिस योनि में जन्म लें वहां शुभ आचरण करें, दान करें और उसका फल यही पावें कि हमारे अपने ईश्वर श्रीकृष्ण में हमारी प्रीति उत्तरोत्तर बढ़ती है। प्रिय परीक्षित नन्दबाबा आदि गोपों ने इस प्रकार श्रीकृष्ण भक्ति के द्वारा उद्धवजी का सम्मान किया।अब वे भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित मथुरा में लौटे आए। वहां पहुंचकर उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण को प्रणाम किया और उन्हें व्रजवासियों की प्रेममयी भक्ति का उद्रेक, जैसा उन्होंने देखा था, कह सुनाया।मथुरा लौटै-उद्धवजी कृष्ण के पास आए। अन्तरयामी श्रीकृष्ण जानते हैं कि उद्धवजी क्या कहने जा रहे हैं। सो वे कहने लगे-उद्धव जब तुम इधर थे, तो मेरी प्रशंसा करते थे।<br />
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अब गोकुल हो आए हो, तो गोपियों की प्रशंसा करने लगे हो। मैं निष्ठुर नहीं हूं। उद्धव का गोकुलागमन प्रसंग ज्ञान और भक्ति के मधुर कलह का चित्रण है।यूं कहा जा सकता है कि गोकुल से लौटकर उद्धवजी की कुण्डलिनी जाग्रत हो गई थी। गोपी भाव योगी भाव एक जैसे हैं एक स्थिति में जाकर।आत्म स्वरूपा शक्ति कुण्डलिनी ब्रम्हा ही है। पंच महाभूतों के माध्यम से यह जब व्यक्त होती है तो जड़ कहलाती है और इन्द्रिय मन, बुद्धि, चित्त अहंकार के माध्यम से व्यक्त होती है, तब चेतन कहलाती है। इसका शक्तिपात में रूपांतरण होता है। चेतनता का गुरु शक्तिपात द्वारा जाग्रत करते हैं।<br />
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<b>तब उद्धव हस्तिनापुर के लिए निकल पड़े क्योंकि...</b><br />
अक्रूरजी का हस्तीनापुर जाना-भगवान् ने अक्रूरजी के घर जाकर उनसे निवेदन किया कि वे एक बार हस्तीनापुर जाकर पांडवों की सुध लें। अब भगवान का उस कथा में प्रवेश हो रहा है जो हमें उनके विराट रूप, अद्भूत ज्ञान और धर्म स्वरूप के दर्शन कराएगी। भगवान हस्तिनापुर जाने वाले हैं जहां धर्म का दमन हो रहा है, उनके अभिन्न सखा अर्जुन से मिलने वाले हैं, दुनिया को गीता का उपदेश मिलने वाला है। हमने ऐसा सुना है कि राजा पाण्डु के मर जाने पर अपनी माता कुन्ती के साथ युधिष्ठिर आदि पाण्डव बड़े दुख में पड़ गए थे। अब राजा धृतराष्ट्र उन्हें अपनी राजधानी हस्तिनापुर में ले आए हैं और वे वहीं रहते हैं। आप जानते ही हैं कि राजा धृतराष्ट्र एक तो अंधे हैं और दूसरे उनमें मनोबल की भी कमी है। उनका पुत्र दुर्योधन बहुत दुष्ट है और उसके अधीन होने के कारण वे पाण्डवों के साथ अपने पुत्रों जैसा समान व्यवहार नहीं कर पाते। इसलिए आप वहां जाइये और मालूम कीजिए कि उनकी स्थिति अच्छी है या बुरी। आपके द्वारा उनका समाचार जानकर मैं ऐसा उपाय करूंगा, जिससे उन सुहृदों को सुख मिले। भगवान् का आदेश पाकर अक्रूरजी हस्तिनापुर गए। वहां उन्होंने पाण्डवों की दशा देखी। यहां से श्रीकृष्ण के जीवन में महाभारत युग का आरंभ हो रहा है।<br />
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भगवान् के आज्ञानुसार अक्रूरजी हस्तिनापुर गए। वहां की एक-एक वस्तु पर पुरुवंशी नरपतियों की अमर कीर्ति की छाप लग रही है। वे वहां पहले धृतराष्ट्र, भीष्म, विदुर, कुन्ती, बाम्हीक और उनके पुत्र सोमदत्त, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, दुर्योधन, द्रोणपुत्र अश्वत्थामा, युधिष्ठिर आदि पांचों पाण्डव तथा अन्यान्य इष्ट मित्रों से मिले। जब गान्दिनीनन्दन अकू्ररजी सब इष्ट मित्रों और संबंधियों से भलीभांति मिल चुके, तब उनसे उन लोगों ने अपने मथुरावासी स्वजन, संबंधियों की कुशल क्षेम पूछी। उनका उत्तर देकर अक्रूरजी ने भी हस्तिनापुरवासियों के कुशल मंगल के संबंध में पूछताछ की। अक्रूरजी यह जानने के लिए कि धृतराष्ट्र पाण्डवों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, कुछ महीनों तक वहीं रहे।<br />
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<b>यह कहानी आपको जीवन के भीतर चल रही महाभारत दिखाएगी</b><br />
सच पूछो तो धृतराष्ट्र में अपने दुष्ट पुत्रों की इच्छा के विपरीत कुछ भी करने का साहस न था। वे शकुनि आदि दुष्टों की सलाह के अनुसार ही काम करते थे। अक्रूरजी को कुन्ती और विदुर ने यह बतलाया कि धृतराष्ट्र के लड़के दुर्योधन आदि पाण्डवों के प्रभाव, शस्त्रकौशल, बल, वीरता तथा विनय आदि सद्गुण देख-देखकर उनसे जलते रहते हैं। जब वे यह देखते हैं कि प्रजा पाण्डवों से ही विशेष प्रेम रखती है, तब तो वे और भी चिढ़ जाते हैं और पाण्डवों का अनिष्ट करने पर उतारू हो जाते हैं। अब तक दुर्योधन आदि धृतराष्ट्र के पुत्रों ने पाण्डवों पर कई बार विषदान आदि बहुत से अत्याचार किए हैं और आगे भी बहुत कुछ करना चाहते हैं।<br />
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यह कथा हमें हमारे जीवन के भीतर चल रही महाभारत को दिखाएगी। हमारा मन भी एक कुरुक्षेत्र है, जिसमें हर समय विचारों, भावनाओं और न जाने कितने सवालों का युद्ध चलता रहता है। यह कथा हमें इसी द्वंद्व में जीना और जीतना सिखाएगी। जब अक्रूरजी कुन्ती के घर आए, तब वह अपने भाई के पास जो बैठी। अक्रूरजी को देखकर कुन्ती के मन में अपने मायके की स्मृति जग गई और नेत्रों में आंसू भर आए।<br />
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उन्होंने कहा - प्यारे भाई! क्या कभी मेरे मां-बाप, भाई-बहिन, भतीजे, कुल की स्त्रियां और सखी-सहेलियां मेरी याद करती हैं? मैंने सुना है कि हमारे भतीजे भगवान् श्रीकृष्ण और कमलनयन बलराम बड़े ही भक्तवत्सल और शरणागत-रक्षक हैं। क्या वे कभी अपने इन फुफेरे भाइयों को भी याद करते हैं? मैं शत्रु के बीच घिरकर शोकाकुल हो रही हूं। मेरे बच्चे बिना बाप के हो गए हैं। क्या हमारे श्रीकृष्ण कभी यहां आकर मुझको और इन अनाथ बालकों को सांत्वना देंगे? अपने बच्चों के साथ दुख पर दुख भोग रही हूं। तुम्हारी शरण में आई हूं। मेरी रक्षा करो। मेरे बच्चों को बचाओ। श्रीकृष्ण को स्मरण करके अत्यंत दुखित हो गई और रोने लगी।<br />
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<b>क्या कहा अक्रूरजी ने धृतराष्ट्र से?</b><br />
अक्रूरजी जब मथुरा जाने लगे, तब राजा धृतराष्ट्र के पास आए। अब तक यह स्पष्ट हो गया था कि राजा अपने पुत्रों का पक्षपात करते हैं और भतीजों के साथ अपने पुत्रों का-सा बर्ताव नहीं करते! अब अक्रूरजी ने कौरवों की भरी सभा में श्रीकृष्ण और बलरामजी आदि का हितैशिता से भरा संदेश कह सुनाया। अक्रूरजी ने कहा-महाराज धृतराष्ट्रजी! आप कुरुवंशियों की उज्जवल कीर्ति को और भी बढ़ाइये।<br />
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यदि आप विपरीत आचरण करेंगे तो इस लोक में आपकी निन्दा होगी। इसलिए अपने पुत्रों और पाण्डवों के साथ समानता का बर्ताव कीजिए। इसलिए महाराज! यह बात समझ लीजिए कि यह दुनिया चार दिन की चांदनी है, सपने का खिलवाड़ है, जादू का तमाशा है और है मनोराज्य मात्र! आप अपने प्रयत्न से, अपनी शक्ति से चित्त को रोकिये, ममतावश पक्षपात न कीजिए। आप समर्थ हैं, समत्व में स्थित हो जाइये और इस संसार की ओर से उपराम शांत हो आइये। श्लोक पर बैठकर स्नान का कुछ ही क्षणों राजा धृतराष्ट्र ने कहा आप मेरे कल्याण भले की बात कह रहे हैं जैसे मरने वाले को अमृत मिल जाए तो वह उससे तृप्त नहीं हो सकता वैसे ही मैं भी आपकी इन बातों से तृप्त नहीं हो रहा हूं।<br />
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फिर भी हमारे हितैशी अक्रूरजी! मेरे चंचल चित्त में आपकी यह प्रिय शिक्षा तनिक भी नहीं ठहर रही है क्योंकि मेरा हृदय पुत्रों की ममता के कारण अत्यन्त विषम हो गया है। जैसे स्फटिक पर्वत के शिखर पर एक बार बिजली कौंधती है और दूसरे ही क्षण अन्र्तध्यान हो जाती है। वही दशा आपके उपदेशों की है। अक्रूरजी! सुना है भगवान् पृथ्वी का भार उतारने के लिए यदुकुल में अवतीर्ण हुए हैं। ऐसा कौन पुरुष है। जो उनके विधान में उलट फेर कर सके उनकी जैसी इच्छा होगी वही होगा।इस प्रकार अक्रूरजी महाराज धृतराष्ट्र का अभिप्राय जानकर और कुरुवंशी स्वजन संबंधियों से प्रेम पूर्वक अनुमति लेकर मथुरा लौट आए।<br />
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<b>उसी का नाम अभिमान है</b><br />
भागवत का दसवां स्कंध दो भागों में है। पूर्वाद्र्ध में 49 अध्याय हैं। उत्तरार्ध में 50वें अध्याय से लेकर 90 अध्याय तक प्रसंग हैं। यदि भागवत कथा सात दिन के अनुसार रहे तो इस समय पांचवे दिवस की कथा चल रही है। पांचवे दिन की कथा दसवें स्कंध के 54वें अध्याय में समाप्त होती है जहां भगवान श्रीकृष्ण का रुक्मिणीजी के साथ विवाह होता है।कृष्ण के वैवाहिक जीवन में प्रवेश करने से पहले कंस और उसके जीवन को समझना आवश्यक है। कंस हिंसा का प्रतीक है। हिंसा अभिमान और अधर्म के पक्ष से हो तो वह कंस को ही जन्म देगी। कंस की दो पत्नियां हैं, यहां से हम अधर्म और हिंसा को बेहतर समझ सकते हैं। कंस अधर्म और हिंसा का प्रतीक था सो उसकी जीवन संगिनियां भी वैसी ही थीं, जो उसके इस अवगुण को बढ़ावा दे।<br />
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कंस की अस्ति और प्राप्ति नामक दो पत्नियां थीं। कंस यानी अभिमान होता है। हिंसक: एव कंस: इति उच्यते-जो हिंसा करे, उसका नाम कंस है। वह हिंसा ऐसे करता है कि किसी वस्तु को देश, काल से परिच्छिन्न करके मैं बना लेता है। उसी का नाम अभिमान है। 'अभि तो मान: परिणाम:- जिसके चारों ओर मान हो, परिमाण अलग-थलग कर देता है। अपने चारों ओर चहारदीवारी बनाकर कहता है-अहं ब्राह्मण:, क्षत्रियो न भवामिमैं ब्राह्मण हूं क्षत्रिय नहीं हूं,-त्वं क्षत्रिय:, मत्तो भिन्न:-तू क्षत्रिय है, मुझसे भिन्न है आदि। अभिमान केवल जाति का ही नहीं कुल का, कर्म का, विद्या का, बुद्धि का-अनेक प्रकार का होता है और परिच्छेदन ही इसका नाम है। यह अभिमान बड़ा भारी हिंसक होता है। अब कंस की अस्ति और प्राप्ति नामक दोनों पत्नियों का स्वरूप देखो। अस्ति यानी इतना तो हमारे पास है, इतने के हम मालिक हैं और प्राप्ति यानी आगे इतना और प्राप्त करेंगे।<br />
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इसी में अभिमानी लगा रहता है।यहां से दशम स्कंध का उत्तरार्ध आरम्भ होता है। कंस को यमलोक पहुंचा देने के बाद ब्रजवासी सुखी हो गए। उस पर राजा उग्रसेन के राज्य में सब भांति सुख था, किन्तु कंस की पत्नियां दुखी थीं। उन्होंने अपने पिता जरासंध को जाकर ये सारी बातें कहीं। जरासंध को सहन नहीं हुआ। उसने अपने हितचितन्कों को सूचना दी, राजाओं को एकत्रित किया और मथुरा पर आक्रमण कर दिया।उसने यह निश्चय करके कि मैं पृथ्वी पर एक भी यदुवंशी नहीं रहने दूंगा, युद्ध की बहुत बड़ी तैयारी की और तेईस अक्षौहिणी सेना के साथ यदुवंशियों की राजधानी मथुरा को चारों ओर से घेर लिया।<br />
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<b>शांति चाहिए तो.....</b><br />
भगवान श्रीकृष्ण ने देखा-जरासन्ध की सेना क्या है, उमड़ता हुआ समुद्र है। उन्होंने यह भी देखा कि उसने चारों ओर से हमारी राजधानी घेर ली है और हमारे स्वजन तथा पुरवासी भयभीत हो रहे हैं। भगवान ने विचार किया कि अभी मगधराज जरासन्ध को नहीं मारना चाहिए, क्योंकि वह जीवित रहेगा तो फिर से असुरों की बहुत सी सेना लाएगा। मेरे अवतार का यही प्रयोजन है कि मैं पृथ्वी का बोझ हल्का कर दूं, साधु-सज्जनों की रक्षा करूं और दुष्ट-दुर्जनों का संहार। समय-समय पर धर्मरक्षा के लिए और बढ़ते हुए अधर्म को रोकने के लिए मैं और भी अनेकों शरीर ग्रहण करता हूं।कृ्ष्ण दिग्दृष्टा थे वे दूर की सोचते थे। क्षणिक आवेश उनका स्वभाव ही नहीं था। उन्होंने अपने पूरे जीवनकाल में शांति को सबसे ज्यादा महत्व दिया। शांति किसी भी मोल मिले, सस्ती ही है। हम जीवनभर जिस सुख की तलाश में भटकते हैं, वह खोज अंतत: शांति पर ही आकर टिकती है।<br />
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हर युद्ध के पहले कृष्ण ने किसी न किसी तरह से शांति का महत्व बताया है। शांति तभी मिलती है जब सारे विकार मिट जाएं। भगवान सारे विकारों को मिटाने के लिए जरासंध को हर बार जिन्दा छोड़ देते हैं, ताकि ये फिर अपने बचे-खुचे साथियों को जोड़कर लाए।उस समय दोनों भाई अपने-अपने आयुध लिए हुए थे और छोटी सी सेना उनके साथ-साथ चल रही थी। श्रीकृष्ण का रथ हांक रहा था दारुक। पुरी से बाहर निकलकर उन्होंने अपना पांच्यजन्य शंख बजाया। उनके शंख की भयंकर ध्वनि सुनकर शत्रुपक्ष की सेना के वीरों के हृदय डर के मारे थर्रा उठे।<br />
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<b>इस तरह काल को भी जीता जा सकता है</b><br />
पचास वर्ष पूर्ण होने पर जरासंध आता है। जीव का पूर्वाद्र्ध समाप्त हुआ और अब उत्तरार्ध आया है वृद्धावस्था। वृद्धावस्था शुरू हो गई है। जरासंध के आने पर मथुरा का गढ़ टूटने लगता है। आंखों की, कानों की, हाथ पैरों की शक्ति क्षीण होती जाती है। चालीसवां वर्ष शुरू होते ही प्रवृत्ति में कटौती करनी शुरू करनी चाहिए। प्रभु की सेवा का समय बढ़ा देना चाहिए।जब जरासंध वृद्धावस्था अपने साथ काल को भी ले आता है तब बचना और कठिन है।<br />
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जरासंध और कालयवन एक साथ आ धमके तो श्रीकृष्ण को मथुरा छोड़ द्वारिका आना पड़ा।कालयवन का आगमन का समाचार सुनकर श्रीकृष्ण ने उसको कंस के समान ही समझा और यादवों की रक्षा के लिए एक नए दुर्ग का निर्माण किया। सभी यादवों को उस जगह भेजकर सुरक्षित कर दिया। स्वयं दुर्ग से बाहर निकल आए। जब कालयवन भगवान् श्रीकृष्ण की ओर दौड़ा, तब वे दूसरी ओर मुंह करके रणभूमि से भाग चले और उन योगिदुर्लभ प्रभु को पकडऩे के लिए कालयवन उनके पीछे-पीछे दौडऩे लगा। रणछोड़ भगवान् लीला करते हुए भाग रहे थे, कालयवन पग-पग पर यही समझता था कि अब पकड़ा, तब पकड़ा। इस प्रकार भगवान् बहुत दूर एक पहाड़ की गुफा में घुस गए। उनके पीछे कालयवन भी घुसा। वहां उसने एक दूसरे ही मनुष्य को सोते हुए देखा। उसे देखकर कालयवन ने सोचा ''देखो तो सही, यह मुझे इस प्रकार इतनी दूर ले आया और अब इस तरह-मानो इसे कुछ पता ही न हो, साधु बाबा बनकर सो रहा है।<br />
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यह सोचकर उस मूढ़ ने उसे कसकर एक लात मारी। वह पुरुषबहुत दिनों से वहां सोया हुआ था। पैर की ठोकर लगने से वह उठ पड़ा और धीरे-धीरे उसने अपनी आंखें खोलीं। इधर-उधर देखने पर पास ही कालयवन खड़ा हुआ दिखाई दिया। वह पुरुष इस प्रकार ठोकर मारकर जगाए जाने से कुछ रुष्ट हो गया था। उसकी दृष्टि पड़ते ही कालयवन के शरीर में आग पैदा हो गई और वह क्षणभर में जलकर राख का ढेर हो गया।यह काल को जीतने का तरीका है, जब हम पर काल का हमला हो तो डरे नहीं, परमात्मा को उसके आगे कर दें। परमात्मा को आगे कर देने से लाभ यह होगा कि काल आपको सताएगा नहीं। परमात्मा जब आगे हो जाएगा तो फिर सद्गुरु, सद्पुरुषों और सत्संग की इच्छा जागेगी। जीवन में सत्संग घटने लगेगा तो काल और उससे भयंकर उसका भय दोनों स्वत: ही समाप्त हो जाएंगे। कालयवन को जो पुरुष गुफा में सोए मिले.....।<br />
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वे इक्ष्वाकुवंषी महाराजा मान्धाता के पुत्र राजा मुचुकुन्द थे। वे ब्राह्मणों के परम भक्त, सत्यप्रतिज्ञ, संग्राम विजयी और महापुरुष थे। एक बार इन्द्रादि देवता असुरों से अत्यन्त भयभीत हो गए थे। उन्होंने अपनी रक्षा के लिए राजा मुचुकुन्द से प्रार्थना की और उन्होंने बहुत दिनों तक उनकी रक्षा की।<br />
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<b>कृष्ण को रणछोड़ क्यों कहते हैं?</b><br />
उस समय देवताओं ने कह दिया था कि सोते समय यदि आपको कोई मूर्ख बीच में ही जगा देगा, तो वह आपकी दृष्टि पड़ते ही उसी क्षण भस्म हो जाएगा।कालयवन के भस्म होते ही भगवान श्रीकृष्ण मुचुकुंद के समक्ष प्रकट हुए मुचुकुंद ने उनको प्रणाम किया। भगवान् ने उसे बद्रिकाश्रम जाने के लिए कहा। दोनों भाई वापस मथुरा लौट आए। इधर भगवान् श्रीकृष्ण मथुरापुरी में लौट आए। अब तक कालयवन की सेना ने उसे घेर रखा था।<br />
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अब उन्होंने म्लेच्छों की सेना का संहार किया और उसका सारा धन छीनकर द्वारका को ले चले। जिस समय भगवान् श्रीकृष्ण के आज्ञानुसार मनुष्यों और बैलों पर वह धन ले जाया जाने लगा, उसी समय मगधराज जरासन्ध फिर (अठारहवीं बार) तेईस अक्षौहिणी सेना लेकर आ धमका। शत्रु-सेना का प्रबल वेग देख कर भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम मनुष्यों की सी लीला करते हुए उसके सामने से बड़ी फुर्ती के साथ भाग निकले।<br />
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उनके मन में तनिक भी भय न था। फिर भी मानो अत्यन्त भयभीत हो गए हों इस प्रकार का नाट्य करते हुए, वह सब का सब धन वहीं छोड़कर अनेक योजनों तक वे अपने कमलदल के समान सुकोमल चरणों से ही पैदल भागते चले गए। जीवन में शांति के महत्व पर भगवान की यह सबसे अद्भुत लीला थी। जिनका एक केश मात्र ही पूरी पृथ्वी का भार कम करने में सक्षम है वे श्रीकृष्ण नंगे पैर भागे। कृष्ण, कंस के अत्याचार झेल चुके मथुरावासियों के जीवन में अब पूर्ण शांति चाहते थे।<br />
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<b>जरूरत है तो सिर्फ तरीका बदलने की</b><br />
जीवन जीने के लिए काम करना जरूरी है आप अपने काम के तरीके से ही अपने जीवन को स्वर्ग और नर्क बना सकते हैं। सोचिए कि परमात्मा ने मनुष्य को अन्य जीवों से श्रेष्ठ क्यों बनाया? क्योंकि वो चाहता है कि आप अपना जीवन श्रेष्ठ तरीके से जीएं। भगवान ने हर मनुष्य को समान योग्यताएं दी हैं। बस जरूरत है तो उसे उपयोग करने की। यहां कथा के माध्यम से कृष्ण भी कुछ ऐसा ही संदेश दे रहे हैं।<br />
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जब महाबली मगधराज जरासन्ध ने देखा कि श्रीकृष्ण और बलराम तो भाग रहे हैं, तब वह हंसने लगा। उसे भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी के ऐश्वर्य, प्रभाव आदि का ज्ञान न था। बहुत दूर तक दौडऩे के कारण दोनों भाई कुछ थक से गए। अब वे बहुत ऊंचे प्रवर्शण पर्वत पर चढ़ गए। उस पर्वत का प्रवर्षण नाम इसलिए पड़ा था कि वहां सदा ही मेघ वर्षा किया करते थे। जब जरासन्ध ने देखा कि वे दोनों पहाड़ में छिप गए और बहुत ढूंढने पर भी पता न चला, तब उसने ईंधन से भरे हुए प्रवर्शण पर्वत के चारों ओर आग लगवा कर उसे जला दिया। जब भगवान् ने देखा कि पर्वत के छोर जलने लगे हैं, तब दोनों भाई जरासन्ध की सेना के घेरे को लांघते हुए बड़े वेग से उस ग्यारह योजन (44 कोस) ऊंचे पर्वत से एकदम नीचे धरती पर कूद आए। उन्हें जरासन्ध ने अथवा उसके किसी सैनिक ने देखा नहीं और वे दोनों भाई वहां से चलकर फिर अपनी समुद्र से घिरी हुई द्वारकापुरी में चले आए।<br />
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जरासन्ध ने ऐसा मान लिया कि श्रीकृष्ण और बलराम तो जल गए और फिर वह अपनी बहुत बड़ी सेना लौटाकर मगध देश को चला गया। इस बात की बड़ी चर्चा होती है कि भगवान युद्ध से भागे थे। आईए इस फिलॉसाफी पर चर्चा करें....। गीता में भगवान ने कहा-हे पार्थ! मुझे तीनों लोकों में कुछ भी करने को नहीं है। पाने योग्य कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो पाई न हो। तो भी मैं कार्य में लगा रहता हूं। भगवान के कार्य सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, पवन इत्यादि को अविराम और अचूक गति से चलने में दिखाई देते हैं। भगवान् वह ईश्वर ही तो ''सब कारणों का एक मात्र अधिष्ठाता है, इस जगत् के रूप में व्यक्त हो रहा है।ईश्वर प्रकृति रूप में जब अबाधगति से कर्मरत है तो व्यक्ति क्यों कर्म विमुख हो? कर्म समाप्त नहीं होते।<br />
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<b>अगर चाहिए सुख तो जीएं कुछ इस तरह</b><br />
अब सवाल है, कर्म कैसे हों और किस प्रकार उन्हें सम्पादित किया जाए जिससे कि व्यक्ति साधक की श्रेणी में आ जाए और महर्शियों की सनातन परम्परा चलती रहे ताकि परम-सुख का जीवित रहते अनुभव होता रहे? मृत्यु-उपरांत जन्म-मरण का चक्र टूट भी जाए तो भी अचेतन अवस्था में चक्र चलते ही रहते हैं। भगवान् बुद्ध का कथन था-दुख था, दुख है व दुख होगा। माना कि यह निराशा का द्योतक है, किन्तु गहराई से देखें तो सुख में भी दुख ही छुपा रहता है। अनित्य कभी स्थाई सुख नहीं दे सकता। सुख रूप में प्रतीत होने वाला यह सब कुछ दुख है, ऐसा मानने वाला घोर एवं दुस्तर संसार से पार हो जाता है। इस दर्शन या कथन को हम इस रूप में लें दुख प्रतीत होने वाले से आसक्ति नहीं होती और अनासक्ति की प्रकृति बनती जाती है। किन्तु यह सब भौतिक सुख के विषय में ही लेना ठीक है। आध्यात्मिक सुख-परम सुख तो संसार से पार करने में बाधक नहीं वरन् सहायक ही है।सुख या दुख की अनुभूति कर्म करते हुए प्रत्येक व्यक्ति को होती है।<br />
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लौकिक या भौतिक ज्ञान-विज्ञान (ब्राह्म कर्म) राज्यावस्था, (क्षात्र कर्म) भूमि- उत्पाद से संबंधित कार्य (वैश्य कर्म) तथा अन्य सेवा कार्य के रूप में विभाजित हैं। कभी इनमें, विशेष भारत में, कड़ी सीमा रेखाएं थीं अब श्रम कार्य- विभाजन (डिवीजन ऑफ लेबर) के रूप में स्वीकारा जाता है। कार्य परिवर्तन पहले जड़ था फिर उनमें शिथिलता आई। द्रोणाचार्य, आचार्य कृप आदि ने ब्राह्मण होते हुए युद्ध किया था। विश्वामित्र ब्राह्मण हुए, रावण राजा बना था आदि आदि। इन लौकिक कर्मों का समाज चलाते रखने में महत्व है।<br />
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आजीविका के लिए अपनी अपनी योग्यता, देश, काल, परिस्थिति के अनुसार आवश्यक है। इन लौकिक कार्यों के करते सफलता या असफलता, लाभ या हानि, यश या अपयश या कुछ नहीं पल्ले पड़ता है और मन-स्थिति को साम्य बनाए रखने में कर्म के प्रति अनासक्ति बड़ा योगदान देती है। यह तब संभव हो जाता है जब ईश्वरीय शक्ति में विश्वास हो, शुद्ध अटूट आसक्ति हो।कार्य करते हुए कुछ प्राप्ति या फल आकांक्षा रही तो दुख है ही योगी के लक्षण अपने में उत्पन्न करने के लिए आवश्यक है।<br />
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<b>प्रेम ऐसा हो तो उसे ढूंढना नहीं पड़ता</b><br />
रुक्मिणी, भक्ति और प्रेम का सामंजस्य है। वह भगवान की जितनी भक्त हैं, उतनी ही प्रेमी भी। बिना देखे, बिना मिले, कृष्ण के गुणों से, स्वरूप से प्रेम हो गया। भगवान को देखा नहीं, लेकिन उनके अलावा कुछ दिखता भी नहीं। मन से अपना सबकुछ मान लिया। अपना सर्वस्व अर्पित भी कर दिया।जब प्रेम ऐसा हो जाए तो फिर परमात्मा को खोजने के लिए भटकना नहीं पड़ता। वह तो खुद ही हमें ढूंढता चला आता है।<br />
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रुक्मिणीजी ने मन में भगवान को सर्वोच्च स्थान दिया, अब उसके जीवन में भगवान खुद प्रवेश करने वाले हैं। खुद आएंगे और उसे सदा के लिए अपनी शरण में ले जाएंगे।जब रुक्मिणीजी को यह मालूम हुआ कि मेरा बड़ा भाई रुक्मी शिशुपाल के साथ मेरा विवाह करना चाहता है, तब वे बहुत उदास हो गईं। उन्होंने बहुत कुछ सोच-विचारकर एक विश्वासपात्र ब्राह्मण को तुरंत श्रीकृष्ण के पास भेजा। जब वे ब्राह्मण देवता द्वारकापुरी में पहुंचे, तब द्वारपाल उन्हें राजमहल के भीतर ले गए।ध्यान रखें, जब संदेश भगवान को भेजना हो तो किसी श्रेष्ठ को ही चुनिए।<br />
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ऐसे व्यक्ति के हाथों भगवान को संदेश भेजें जो खुद भगवान और उस संदेश के महत्व को समझता हो। जीवन में यह कार्य आपका गुरु करता है। अगर पथभ्रष्ट या अज्ञानी को गुरु बनाया तो वह आपकी तपस्या पर पानी भी फेर सकता है।ब्राह्मणशिरोमणे! आपका चित्त तो सदा-सर्वदा सन्तुष्ट रहता है न? आपको अपने पूर्व पुरुषों द्वारा स्वीकृत धर्म का पालन करने में कोई कठिनाई तो नहीं होती। ब्राह्मण यदि जो कुछ मिल जाए, उसी में सन्तुष्ट रहे और अपने धर्म का पालन करे, उससे च्युत न हो, तो वह संतोष ही उसकी सारी कामनाएं पूर्ण कर देता है।<br />
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जिनका स्वभाव बड़ा ही मधुर है और जो समस्त प्राणियों के परम हितैशी, अहंकार रहित और शांत हैं उन ब्राह्मणों को मैं सदा सिर झुकाकर नमस्कार करता हूं। श्रीकृष्ण ने जब इस प्रकार ब्राह्मण देवता से पूछा, तब उन्होंने सारी बात कह सुनाई। इसके बाद वे भगवान् से रुक्मिणीजी का संदेश कहने लगे। मैंने आपको पति रूप से वरण किया है। मैं आपको आत्मसमर्पण कर चुकी हूं। आप यहां पधारकर मुझे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कीजिए। वे मुझ पर प्रसन्न हों, तो भगवान् श्रीकृष्ण आकर मेरा पाणिग्रहण करें।<br />
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<b>ताकि रिश्ते में कोई कड़वाहट ना रहे</b><br />
ब्राह्मण ने कहा-यदुवंशशिरोमणे! यही रुक्मिणीजी के अत्यंत गोपनीय संदेश हैं, जिन्हें लेकर मैं आपके पास आया हूं।श्रीकृष्ण ने यह जानकर कि रुक्मिणी के विवाह की लग्न परसों रात्रि में ही है, सारथी को आज्ञा दी कि 'दारुक ! तनिक भी विलम्ब न करके रथ जोत लाओ। दारुक भगवान् के रथ में शैव्य, सुग्रीव, मेघपुश्प और बलाहक नाम के चार घोड़े जोतकर उसे ले आया और हाथ जोड़कर भगवान् के सामने खड़ा हो गया।<br />
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शूरनन्दन श्रीकृष्ण ब्राह्मण देवता को पहले रथ पर चढ़ाकर फिर आप भी सवार हुए और उन शीघ्रगामी घोड़ों के द्वारा एक ही रात में आनर्त देश से विदर्भ देश में जा पहुंचे।कुण्डिन नरेश महाराज भीष्मक अपने बड़े लड़के रुक्मी के स्नेहवष अपनी कन्या शिशुपाल को देने के लिए विवाहोत्सव की तैयारी करा रहे थे। चेदिनरेश राजा दमघोश ने भी अपने पुत्र शिशुपाल के लिए मन्त्रज्ञ ब्राह्मणों से अपने पुत्र के विवाह संबंधी मंगलकृत्य कराए। उस बारात में शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्त्र, विदूरथ और पौण्डक आदि शिशुपाल के सहस्त्रों मित्र नरपति आए थे।<br />
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वे सब राजा श्रीकृष्ण और बलरामजी के विरोधी थे और राजकुमारी रुक्मिणी शिशुपाल को ही मिले, इस विचार से आए थे। उन्होंने अपने-अपने मन में यह पहले से ही निश्चय कर रखा था कि यदि श्रीकृष्ण-बलराम आदि यदुवंशियों के साथ आकर कन्या को हरने की चेष्टा करेगा तो हम सब मिलकर उससे लड़ेंगे। यही कारण था कि उन राजाओं ने अपनी-अपनी पूरी सेना और रथ, घोड़े, हाथी आदि भी अपने साथ ले लिए थे। शिशुपाल की सेना ने श्रीकृष्ण का पीछा किया किन्तु यादव सेना ने उनका मार्ग अवरुद्ध कर दिया। सब लौट आए किन्तु रुकमणि के भाई रूक्मी ने प्रतिज्ञा की कि जब तक वह श्रीकृष्ण से प्रतिशोध नहीं ले लेगा, तब तक वह अपनी नगरी कुंडनपुर में प्रवेश नहीं करेगा। श्रीकृष्ण का पीछा किया। श्रीकृष्ण पर प्रहार किया। श्रीकृष्ण ने निषस्त्र और नि:सैन्य कर दिया किन्तु उसने पराजय स्वीकार नहीं की। अन्त में श्रीकृष्ण उसका संहार करने लगे कि रूक्मी की बहन रुकमणि ने श्रीकृष्ण को रोक दिया। आप परम् बलवान् हैं। परन्तु कल्याण स्वरूप भी तो हैं। प्रभो! मेरे भैया को मारना आपके योग्य काम नहीं है। तब भगवान् श्रीकृश्ण ने उसको उसी के दुपट्टे से बांध दिया और उसकी दाढ़ी-मूंछ तथा केश कई जगह से मूंड कर उसे कुरूप बना दिया।<br />
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शक्तिमान् भगवान् बलरामजी को बड़ी दया आई और उन्होंने उसके बंधन खोलकर उसे छोड़ दिया तथा श्रीकृष्ण ने कहा-कृष्ण तुमने यह अच्छा नहीं किया। यह निन्दित कार्य हम लोगों के योग्य नहीं है। अपने संबंधी की दाढ़ी-मूंछ मूंडकर उसे कुरूप कर देना, यह तो एक प्रकार का वध ही है। इसके बाद बलरामजी ने रुक्मिणी को संबोधन करके कहा-साध्वी! तुम्हारे भाई का रूप विकृत कर दिया गया है, यह सोचकर हम लोगों से बुरा न मानना, क्योंकि जीव को सुख-दुख देने वाला कोई दूसरा नहीं है।<br />
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उसे तो अपने ही कर्म का फल भोगना पड़ता है। बलरामजी ने परिवार में आने वाली नई बहू के प्रति सावधानी और संवेदना रखी। सद्पुरुषों का स्वभाव ऐसा ही होता है, बलराम ने परिस्थिति को संभाल लिया और रुक्मिणी के मन में भविष्य में उत्पन्न होने वाले दुराग्रह को पहले ही मिटा दिया। गृहस्थी में यह आवश्यक है अगर रिश्ते की शुरुआत में ही मन में कोई मैल हो तो रिश्ता ज्यादा मधुर नहीं रह सकता। कई बार ऐसे रिष्ते जल्दी ही टूट भी जाते हैं। अत: अगर आप गृहस्थी में हैं तो अपने जीवन साथी के प्रति कोई मैल या दुराग्रह न रखें।<br />
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<b>जरूरत है तो सिर्फ सच्ची भावना की</b><br />
भक्ति और प्रेम के सामने यह सबसे बड़ी कठिनाई है। जब मन भगवान में लीन होना चाहता है तो अन्य इन्द्रियां इसे विकारों में भटकाने की कोशिश करती हैं। मन तटस्थ हो तो विकार हावी नहीं होते लेकिन अगर मन ही डगमगा जाए तो भगवान दूर भी हो सकते हैं। रुक्मिणीजी मन हैं। वे परमात्मा में लीन रहना चाहती हैंए लेकिन इन्द्रियां उन्हें विकारों की ओर ले जा रही हैं। परमात्मा अकेला है और शिशुपाल आदि विकार पूरी सेना हैं। लेकिन मन यानी रुक्मिणी केवल भगवान में लगी हैं। सो परमात्मा स्वयं उसके द्वार पर खड़े हो गए हैं।विपक्षी राजाओं की इस तैयारी का पता भगवान् बलरामजी को लग गया और जब उन्होंने यह सुनाकि भैया श्रीकृष्ण अकेले ही राजकुमारी का हरण करने के लिए चले गए हैं।<br />
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तब उन्हें वहां लड़ाई-झगड़े की बड़ी आशंका हुई। यद्यपि वे श्रीकृष्ण का बलविक्रम जानते थे फिर भी भ्रातृ स्नेह से उनका हृदय भर आयाए वे तुरंत ही हाथी घोड़े रथ और पैदलों की बड़ी भारी चतुरंगिणी सेना साथ लेकर कुण्डिनपुर के लिए चल पड़े।इधर परम्सुंदरी रुक्मिणीजी भगवान् श्रीकृष्ण के शुभागमन की प्रतीक्षा कर रही थीं। उन्होंने देखा कि श्रीकृष्ण की तो कौन कहे अभी ब्राह्मण देवता भी नहीं लौटे वे बड़ी चिंता में पड़ गईं।<br />
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रुक्मिणीजी भगवान नाम को मंत्र बनाकर जपने लगी थीं। थोड़ा मंत्र को समझें।मंत्रों की संख्या असंख्य है। मंत्रों का अपना विज्ञान है। किसी ग्रंथ में पढ़कर या किसी से सुनकर मंत्र का जप करना उचित नहीं इससे वांछित लाभ के स्थान पर हानि की पूरी संभावना रहती हैए वैसे भगवान का नाम सदैव मंगलकारी होता है। वही नाम यदि मंत्र रूप में स्वीकार किया जाए तो जपकर्ता के नामए राशि के अनुसार तिथिवार नक्षत्र योगवरन् लाभ और सिद्धिदायक होता है। समर्थ गुरु के न मिलने तक क्या जप न किया जाए यह प्रश्न सहज की मानस में उठता है।<br />
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शुद्ध भावना के साथ निष्काम भाव से प्रभु का नाम फिर जो हो सतत् लेने से आत्मदर्शन हो जाता है और वह समय भी आ जाता है जब गुरु स्वयं शिष्य को खोजकर आ जाते हैं। यहां मंत्र सिद्धि के झमेले में न पड़कर सीधे ईश्वर अर्पण की भावना से जप करें तो कोई भी नाम उतना ही काम करेगा जितना की कोई महामंत्र।<br />
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<b>हर कोई जो करता है ''मैं'' के लिए करता है</b><br />
यह चोरी उस दिन मिटती है जब तेरे-मेरे का भाव मिट जाता है। मेरे का भाव तिरोहित करना पड़ेगा।समस्त परिग्रह चोरी है। हमारे इस मेरे भाव से ही मैं को गति मिलती है। जितना मेरे का विस्तार करेंगे, मैं मजबूत होता जाएगा। यह सारी धन-दौलत प्रतिष्ठा, मैं के पोषण के लिए होती है। उपनिषदों में बड़ी सुन्दर बात आती है। कोई धन के लिए धन को प्रेम नहीं करता, मैं के लिए करता है। मैं के लिए धन को प्रेम किया जाता है। कोई पत्नियों के प्रति पत्नियों को प्रेम नहीं करता। मैं के लिए पत्नियों को प्रेम करता है। त्याग का अर्थ है उन सब सहारों को अलग कर देना जो इस मैं को मजबूत करते हैं लेकिन यह मैं बड़ा कुशल है। यह त्याग को भी अपनी बैसाखी बना लेता है। मैं इतना, मैंने इतना त्याग किया। मैं इतना त्यागी हूं, ये भी मैं को सहारा देने लगते हैं।<br />
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यहूदियों की एक अच्छी कहावत है कि मैं कहने का अधिकार सिर्फ ईश्वर को है। इस कारण हम भगवान से क्षमा मांगें कि हम मैं और मेरा कहकर अपराध कर रहे हैं हम चोरे बन रहे हैं, दरअसल मैं हमारा कुछ है नहीं, सब परमात्मा का है तो लक्ष्मी के मामले में बहुत सावधान रहिए। लक्ष्मी के तीन भेद बताए गए हैं शास्त्रों में। लक्ष्मी, महालक्ष्मी और अलक्ष्मी। नीति और अनीति दोनों तरह से प्राप्त धन साधारण लक्ष्मी है। जिसका कुछ सदुपयोग भी होगा, कुछ दुरूपयोग भी। दूसरी है महालक्ष्मी। धर्मानुसार प्राप्त धन महालक्ष्मी है। श्रम की मात्रा से अधिक लाभ उठाना मुनाफा लेना पाप और चोरी है। जीव में धन नहीं धर्म मुख्य है। धर्म ही मृत्यु के पश्चात साथ जाता है। धर्मानुसार श्रमपूर्वक नीति से प्राप्त धन महालक्ष्मी है। ऐसा धन हमेशा शुभ कार्यो में खर्च होगा। अलक्ष्मी: पापाचरण अनीति से प्राप्त धन अलक्ष्मी है। ऐसा धन विलासिता में ही रह जाएगा। जीवन को शांति के बदले रुलाता जाएगा। शिशु के लालन-पालन में जिसका धन और समय लगा रहता है वह पुरूष ही शिशुपाल है। जो हमेशा सांसारिक ओर भौतिक सुखों के पीछे भागता है वही शिशुपाल है। ये शिशुपाल रुकमणीजी से विवाह करना चाहता था। भगवान् ने मथुरा में एक भी विवाह नहीं किया उन्होंने सभी विवाह द्वारिका में किए।<br />
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<b>जो काम करो जमकर करो क्योंकि...</b><br />
अब हम भगवान श्रीकृष्ण की कथा के उस भाग में प्रवेश कर रहे हैं, जहां भगवान एक साथ कई शिक्षा दे रहे हैं। भगवान की गृहस्थी, सामाजिक जीवन और उनके उपदेश सभी आएंगे। यहां से कथा का छठा दिन भी शुरु हो रहा है। हरि कथा अब चरम की ओर बढ़ रही है, जीवन परमानंद की ओर।<br />
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कृष्ण के जीवन में हर वह चीज दो या उससे अधिक संख्या में है जो आम संसारी के जीवन में एक ही होती है। भगवान श्रीकृष्ण यहां हमें संतुलन सिखाते हैं। हमारे जीवन में वस्तु, रिश्ते, परिवार, समाज और राष्ट्र के बीच संतुलन कैसा हो, यह कृष्ण के जीवन से सीखा जा सकता है। द्वापर के कृष्ण ऐसे देव हैं जो निरंतर मनुष्य बनने की कोशिश करते रहे। यहां राम और कृष्ण की तुलना आलोचना या कोई समीक्षा नहीं है, यह तो भाव है भक्तों का। जमकर-कृष्ण जो भी करते जमकर करते, खाते तो जमकर, प्यार करते तो जमकर, रक्षा भी करते तो जमकर करते थे।<br />
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पूर्ण भोग, पूर्ण प्यार, पूर्ण रक्षा, कृष्ण की सभी क्रियाएं उसकी शक्ति के पूरे इस्तेमाल से ओत-प्रोत रहती थी। शक्ति का कोई अंश बचाकर नहीं रखते थे। कृष्ण कंजूस बिलकुल नहीं थे। ऐसे दिलफेंक, ऐसे शरीर फेंक, ऐसा मनुष्यों में संभव न हो लेकिन मनुष्य ही हो सकता है। जो काम करो जमकर करो, अपना पूरा मन और शरीर उसमें फेंक दो। देवता बनने की कोशिश में मनुष्य कुछ कृपण हो गया। पूर्ण आत्मर्पण में सब कुछ भूल-सा गया। जरूरी नही है कि वह अपने आप को किसी दूसरे को समर्पण करे। अपने ही कामों में पूरा आत्मसमर्पण करें, यही कृष्ण की बात है।<br />
<b><br />जीवन के हर क्षेत्र में कैसे करें उन्नति?</b><br />
इसके अंदर वेदों की ऋचाएं हैं, वेदों के संदेश है, यह पुराणों का तिलक है। ज्ञानियों का चिंतन है, संतों का मनन है, भक्तों का वंदन है, भारत की धड़कन है। यह ऐसा समन्वयकारी साहित्य है जो हमारे मनभेद और मतभेद दोनों मिटा देता है। इसके पद-पद में, पंक्ति-पंक्ति, शब्द-शब्द में रस घुला हुआ है।<br />
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यह ऐसा साहित्य है जिसमें भगवान बार-बार कह रहे हैं कि मैं कौन हूं, तू कौन है यह जान ले। इस साहित्य को ऐसे रचा गया है कि इसमें बीते कल की स्मृति है, आज का शोध है और भविष्य की योजना है। इस अद्भुत साहित्य में हम प्रवेश कर रहे हैं। पूर्व में हम कथा सुन चुके थे भगवान पहुंच गए हैं मथुरा। भगवान की लीला नए रूप में आरंभ होने वाली है। भगवान गोकुल और ब्रज में सबको छोड़कर मथुरा आ गए।<br />
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मथुरा में भगवान का जीवन आरंभ हुआ और भगवान ने अपना विवाह रचाया। भगवान का दाम्पत्य आरंभ हो रहा है। मैं आपको पुन: दोहरा दूं हम बार-बार यह स्मरण करते आए हैं कि श्रीमद्भागवत परमात्मा का वाङमय स्वरूप है। इसमें शास्त्रों का सार है और जीवन का व्यवहार है।<br />
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<b>भागवत हमें मरना सिखा रही है, महाभारत हमें रहना सिखा रही है, रामायण जीना सिखा रही है और गीता करना।</b><br />
हमने अपने जीवन की चार शैली है जिसमें से सामाजिक जीवन में पारदॢशता, हमारे व्यवसायिक जीवन का परिश्रम और हमारे परिवार का प्रेम और निजी जीवन का पावित्र इसके लगातार प्रसंग देख रहे हैं। अब निजी जीवन के पवित्रता वाले भाग में प्रवेश कर रहे हैं। निजी जीवन कैसे पवित्र हो हमारे भगवान श्रीकृष्ण से हम देखते चलेंगे और चूंकि अब हम अंत समय की ओर बढ़ रहे हैं जीवन का वो काल जिसका एक दिन सबको मुकाबला करना है, भगवान हमको वहां लेकर चल रहे हैं। हमने सात दिन में दाम्पत्य के सात सूत्र देखे थे।<br />
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आज हमारा सूत्र है कैसे हम सक्षम बनें। भगवान कहते हैं सक्षम होने का अर्थ उन्नयन करें, प्रगति करें, आगे बढ़ें और हर तरह से तन, मन और धन से सक्षम होना दाम्पत्य की उपलब्धि है। भगवान कहते हैं कि क्या हम करते हैं यह महत्वपूर्ण नहीं है महत्वपूर्ण यह है कि क्या हम होते हैं। आखिर अपने आपको पहचानना पड़ेगा। हम लोगों ने कई चीजों में उलझकर अपना जीवन इतना उथला और धुंधला कर लिया है कि हम पहचान नहीं पा रहे हैं और अब अपने ही केंद्र पर विस्फोट करने का समय आ गया है।<br />
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अब भीतर हमको एक जाग्रति लानी ही पड़ेगी। भगवान अपने चरित्र से यह घोषणा कर रहे हैं कि बहुत चीजों में उलझकर आराम का जीवन, अपनी सुविधा का जीवन, अपनी निजी पंसद का जीवन बहुत जी लिया अब थोड़ा संघर्ष का जीवन आया है। अब व्यापक दृष्टिकोण रखना पड़ेगा। भगवान कहते हैं कि आपकी समस्याओं का निदान सिर्फ आप ही हो सकते हैं दूसरों से उधार मत लीजिएगा। भगवान हमको सिखा रहे हैं भगवान हमको कह रहे हैं उधार का जीवन, उधार के विचार, उधार की शैली बहुत लंबे नही ले जाएगी।<br />
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<b>जीवन की हर उलझन का है, ये जवाब...</b><br />
भगवान हमको सिखा रहे हैं भगवान हमको कह रहे हैं उधार का जीवन, उधार के विचार, उधार की शैली बहुत लंबे नही ले जाएगी।बलरामजी आए थे बलरामजी और भगवान मथुरा में अपना जीवन आरंभ कर रहे हैं। द्वारिका में जब भगवान का विवाह हुआ तो भगवान के दाम्पत्य का आरंभ हुआ तो भगवान ने कुछ नियम बना लिए और यहीं से हम दसवें स्कंध के उतरार्ध को आरंभ कर रहे हैं। भागवत का यह सबसे बड़ा स्कंध है, दसवां स्कंध। इसके दो भाग थे तो हम इसके उतरार्ध में प्रवेश कर रहे हैं।अब श्रीकृष्ण की जो लीलाएं आएंगी उनमें हमें कई दार्शनिक विचार मिलेंगे। कामदेव उनके पुत्र बनकर आएंगे।<br />
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काम और मन का बड़ा संबंध है।आध्यात्मिक पुरुष कट्टरवाद से बहुत दूर हैं। मन का कोई सम्प्रदाय नहीं, कोई जाति अथवा देश नहीं। मन इन सभी सीमाओं से अतीत है। मन ही मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र भी है तथा शत्रु भी। मन ही जीवन है। मन ही व्यक्तित्व है। मन ही वर्तमान भविष्य है। मन ही कर्म का आधार है। जीवन का भी केन्द्र बिन्दु है। मन ही शान्ति तथा युद्ध का कारण है, शुभ तथा अशुभ कर्म मन की ही गतिविधियां हैं। शास्त्रों ने कहा, मन ही बंध एवं मोक्ष का कारण है। जो मन हमें भासित होता है, अनुभव होता है, वह शुद्ध मन नहीं हैं उसका प्रतिबिम्ब मात्र है। उस मूल मन पर आवरण हैं-प्रकृति के, हमारे कर्मों के। जो कुछ समय में आता है, असल में उससे बहुत भिन्न है।<br />
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इस भिन्नता के कारण ही हम जीवन की उलझनों से बाहर नहीं निकल पाते, सुख का अनुभव नहीं कर पाते। जीवन भर थपेड़े खा कर भी शान्ति का अनुभव नहीं कर पाते। इस यथार्थ मन तथा प्रतिबिम्बत मन को ही बहिर्मन तथा अन्तर्मन कहा गया है। इसी को जगदाभिमुखी मन तथा आत्माभिमुखी मन भी कहा जाता है। अन्तर्मन में ही संस्कारों का भण्डार, वृत्तियों का उदयाहत, वासनाओं का समूह एवं इच्छाओं, कामनाओं की निरंतर गतिशीलता विद्यमान है। मनुष्य का वास्तविक व्यक्तित्व उसके अंतर्मन में निहित है। बहिर्मन यदि जगत के समीप है तो अन्तर्मन आत्मा से सटा हुआ है।<br />
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<b>मन जल्दी से हार मानने वाला नहीं है,क्योंकि...</b>इस प्रसंग के माध्यम से हम मन की स्थिति पर एक बार फिर चिंतन कर लें। मन की तीन अवस्थाएं हैं- अभियंत्रित अर्थात असंयमित, नियंत्रित अर्थात् संयमित तथा स्वाभाविक। अनियंत्रित अवस्था से नियंत्रित अवस्था की ओर आने के लिए अपने आपको संभालना पड़ता है, संयम का प्रयास करना पड़ता है, भागते मन के पीछे भागकर उसे पकडऩा पड़ता है, बार-बार उसके प्रवाह को मोडऩे का प्रयास करना पड़ता है। यह समय साधक के लिए काफी संघर्शमय होता है। किसी अन्य से नहीं, अपनेआप से संघर्ष मन की वासनाओं, कुविचारों तथा कुप्रवाहों से संघर्ष, मन की चंचलताओं एवं उपद्रवों से संघर्ष। इस अवस्था में अंतर की वासनाएं उदय होकर बाहर भयंकर तूफान के रूप में प्रकट होती है तथा मनुष्य को तिनके की भांति, संसार के प्रलोभनों, आकर्षणों तथा उत्तेजनाओं के अनंत आकाश के लिए उड़ती है। संयम के सहारे साधक, अपने पांव जमाए रखने का प्रयत्न करता है। यदि कभी, तूफान के आवेग में उसके पांव उखडऩे लगते हैं तो जमाने का प्रयास करता है, ईश्वर को पुकारता है।<br />
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मन जल्दी हार मानने वाला नहीं है। जन्म-जन्मांतर के अर्जित तथा स्थापित साम्राज्य को इतनी आसानी से हाथ से जाने भी कैसे दिया जा सकता है? वह साम, दाम, दण्ड का सहारा लेकर किसी भी प्रकार साधक को रणक्षेत्र से खदेडऩे का प्रयत्न करता है। वास्तव में यह युद्ध अंतर में लड़ा जाता है। बाहर उसके केवल प्रतिछाया होती है। अंतर में अस्त्रों-शास्त्रों का प्रयोग होता है एवं अंतर में ही घात-प्रतिघात। अंतर में ही चेतना का विकास होता है तथा अंतर में ही लहुलुहान होता है। यदि साधक को व्यवहार-शुद्धि का युद्ध जीतना है तो उसे आंतरिक शक्ति का विकास करना होगा, मन का बिखराव रोकना होगा, उसे नियंत्रित एवं अनुशासित करना होगा।<br />
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<b>और कृष्ण पर लगा हत्यारे होने का कलंक</b><br />
वहां द्वारिका में कृष्णजी के यदुवंश में एक बहुत प्रतिष्ठित व्यक्ति थे सत्राजीत। सत्राजीत सूर्य देवता के उपासक थे। सूर्य देवता ने प्रसन्न होकर सत्राजीत को एक मणि दी। मणि का नाम था स्यमन्तक मणि। कथा इस प्रकार है। सत्राजीत भगवान् सूर्य का बहुत बड़ा भक्त था। वे उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसके बहुत बड़े मित्र बन गए थे। सूर्य भगवान् ने ही प्रसन्न होकर बड़े प्रेम से उसे स्यमन्तक मणि दी थी।<br />
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सत्राजीत उस मणि को गले में धारणकर ऐसा चमकने लगा, मानो स्वयं सूर्य ही हो।जब सत्राजीत द्वारिका में आया, तब अत्यंत तेजस्विता के कारण लोग उसे पहचान न सके। दूर से ही उसे देखकर लोगों की आंखें उसके तेज से चौंधिया गईं। लोगों ने समझा कि कदाचित् स्वयं भगवान् सूर्य आ रहे हैं। उन लोगों ने भगवान् के पास आकर उन्हें इस बात की सूचना दी। उस समय भगवान् श्रीकृष्ण चौसर खेल रहे थे।<br />
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यह बात सुनकर श्रीकृष्ण हंसने लगे। उन्होंने कहा - अरे, ये सूर्यदेव नहीं हैं। यह तो सत्राजीत है, जो मणि के कारण इतना चमक रहा है। इसके बाद सत्राजीत अपने समृद्ध घर में चला गया। घर पर उसके शुभागमन के उपलक्ष्य में मंगल उत्सव मनाया जा रहा था। उसने ब्राह्मणों के द्वारा स्यमन्तक मणि को एक देव मंदिर में स्थापित करा दिया। भगवान के लिए लोक हित, राष्ट्रहित सर्वोपरि है।<br />
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वे व्यक्तिगत उपलब्धियों को महत्व नहीं देते, वे लोक नायक हैं जब तक किसी उपलब्धि से राष्ट्र का हित न हो, वे उसे उपलब्धि नहीं मानते। सत्राजीत ने सूर्य से मणि प्राप्त की लेकिन इसे व्यक्तिगत उन्नति और सम्पन्नता में लगा दिया।वह मणि प्रतिदिन आठ भार सोना दिया करती थी और जहां वह पूजित होकर रहती थी। उसने भगवान की आज्ञा को अस्वीकार कर दिया।<br />
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एक दिन सत्राजीत के भाई प्रसेन ने उस परम प्रकाशमयी मणि को अपने गले में धारण कर लिया और फिर वह घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलने वन में चला गया। वहां एक सिंह ने घोड़े सहित प्रसेन को मार डाला और उस मणि को छीन लिया। वह अभी पर्वत की गुफा में प्रवेष कर ही रहा था कि मणि के लिए ऋक्षराज जाम्बवान् ने उसे मार डाला। उन्होंने वह मणि अपनी गुफा में ले जाकर बच्चे को खेलने के लिए दे दी। अपने भाई प्रसेन के न लौटने से सत्राजीत को बड़ा दुख हुआ। इधर सत्राजीत ने देखा कि मणि भी नहीं है और मेरा भाई भी नहीं है तो सत्राजीत लोगों से कहता है कि मुझे यह संदेह होता है कि श्रीकृष्ण ने मेरे भाई को मार डाला और मणि ले ली क्योंकि श्रीकृष्ण कह रहे थे कि मणि हमें दे दो और मैंने मना कर दिया। बात खुसुर-फुसर फैल गई और सारी द्वारिका में यह चर्चा होने लगी कि कृष्ण ने मणि ले ली और कृष्ण हत्यारे हैं। कृष्ण पर कलंक लगना आरम्भ हुआ।<br />
<b><br />तब कृष्ण को पत्नी के रूप में मिली सत्यभामा</b><br />
भगवान उसको लेकर वापस आते हैं और जब वो मणि सत्राजीत को दी गई तो सत्राजीत को बड़ा दुख हुआ, ग्लानि भी हुई, लज्जा भी आई कि मैंने कृष्णजी पर आरोप लगाया हत्या व चोरी का। उसने क्षमा मांगी और उसने कृष्णजी से कहा मैं अपनी ग्लानि को मिटाना चाहता हूं तो मेरी पुत्री है सत्यभामा आपको मैं सौंपता हूं। आप उसे स्वीकार करिए और उसने कहा यह मणि भी आप रखिए दहेज में। कृष्ण ने कहा-यह मणि तो आफत का काम है और दो-दो मणि मिल गई एक मणि के चक्कर में। मैं इन्हीं को संभालता हूं। आप यह मणि रखो अपने पास।<br />
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सत्यभामा, जामवती, रुक्मिणी कृष्णजी के जीवन में आ गईं। मणि उन्होंने सत्राजीत को वापस कर दी। ऐसा कहते हैं कि उस मणि ने इतनी आफत पैदा कर दी कि जब भगवान् को सूचना मिली कि लाक्ष्यागृह में पाण्डव जल गए हैं तो भगवान् कुछ दिन के लिए हस्तिनापुर चले गए। भगवान श्रीकृष्ण के हस्तिनापुर चले जाने से द्वारिका में अक्रूर और कृतवर्मा को अवसर मिल गया।<br />
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उन लोगों ने शतधन्वा से आकर कहा-तुम सत्राजीत से मणि क्यों नहीं छीन लेते? सत्राजीत ने अपनी श्रेष्ठ कन्या सत्यभामा का विवाह हमसे करने का वचन दिया था और अब उसने हम लोगों का तिरस्कार करके उसे श्रीकृश्ण के साथ ब्याह दिया है। अब सत्राजीत भी अपने भाई प्रसेन की तरह क्यों न यमपुरी में जाए? शतधन्वा पापी था और अब तो उसकी मृत्यु भी उसके सिर नाच रही थी। अक्रूर और कृतवर्मा के इस प्रकार बहकाने पर शतधन्वा उनकी बातों में आ गया और उस महादुष्ट ने लोभवश सोये हुए सत्राजीत को मार डाला और मणि लेकर वहां से चंपत हो गया। सत्यभामा को यह देखकर कि मेरे पिता मार डाले गए हैं बड़ा शोक हुआ। वह हस्तिनापुर को गईं।<br />
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<b>सफलता चूमने लगती है कदम जब...</b><br />
कहते है संकल्प से बड़ी कोई शक्ति नहीं है। जिसकी संकल्प शक्ति प्रबल होती सफलता उसके कदम अपने आप चूमने लगती है। हर मुश्किल हर बाधा उसके सामने सिर झूकाती है। कुछ लोग इसे यूं सोचते हैं कि व्यक्ति के संकल्प से परमात्मा निकट आता है। आज गोकुल का दृश्य देखिए आप अब उद्धवजी वहां पहुंचे। वहां स्वयं के समर्पण से निकट आया है। वृन्दावन में जब समर्पित हो गए तो ईश्वर इतना निकट पहुंच गया कि सबके घर-घर में, शरीर में, मन में बस गया। संकल्पवान परमात्मा को खोजें और फिर झुकें और समर्पण से भरा व्यक्ति सिर झुकाता है और जो सिर झुकाता है वही उसके चरण आ जाते हैं। कभी-कभी तो संकल्प से चलने वाले लोगों ने भी अंत में नहीं कहा है कि चले संकल्प से और पहुंचे समर्पण से।भक्त कहता है असहाय होना ही उसके पाने का उपाय है तो अपने स्वभाव को संकल्प और समर्पण में तय कर लें। सोलह हजार से विवाह-59वें अध्याय में कहा गया है कि प्रभु ने सोलह हजार युवतियों के साथ विवाह किया। भामासुर ने कन्याओं को बंदी बनाकर रखा था। ये सोलह हजार कन्याएं तो वेदों की ऋचाएं हैं। वेद के तीन कांड हैं और लाख मंत्र हैं। कर्मकांड में इसके अस्सी हजार मंत्र हैं जो ब्रह्मचारियों के लिए हैं और ज्ञानकांड में इसके चार हजार मंत्र हैं जो वानप्रस्थ के लिए हैं। वेदांत का ज्ञान विरक्त के लिए है विलासी के लिए नहीं।<br />
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विलासी उपनिशद का तत्व ज्ञान नहीं समझ पाता, किन्तु भागवत सभी के लिए है। अब भगवान् की लीला आगे बढ़ रही है। चलो लगे-लगे भगवान् के अन्य विवाहों की भी चर्चा कर लें। पहला विवाह भगवान् का रुक्मिणीजी से, दूसरा जामवंतीजी से, तीसरा सत्यभामा से हो गया और अब आओ भगवान् के आगे के विवाह की चर्चा कर लें। बताते हैं कि एक बार हस्तिनापुर की यात्रा में जब कृष्णजी थे तो कृष्ण और अर्जुन शिकार पर निकले।<br />
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कालिंदी नदी के तट पर बैठकर एक स्त्री पूजा कर रही थी। कृष्णजी ने अर्जुन से कहा जरा पता लगाओ यह स्त्री कौन है। अर्जुन उसके पास गए बोले देवी आप कौन हैं वो बोली मैंने विष्णु को अपना पति वर लिया मानसिक रूप से। मैं पूजा कर रही हूं और तब तक पूजा करूंगी जब तक विष्णु मेरे जीवन में पति के रूप में नहीं आ जाते। कृष्ण ने अर्जुन से कहा सूचना करो, हम आ गए हैं। ऐसे चौथा विवाह उनका कालिंदीजी से हो गया। कृष्णजी जितने भी विवाह करते थे उनमें से एक भी विवाह द्वारिका में नहीं हुआ। जब वो कहीं चले जाते थे काम पर जैसे कालिंदी मिल गई। ऐसे ही कहीं न कहीं, एक-एक मिलती गईं। वो उसको साथ में नहीं रखते थे अपने सैनिकों और सचिवों से कहते इसको घर ले जाओ द्वारिका और रुक्मिणीजी के हवाले कर दो। रुक्मिणीजी पटरानी थीं। उनका एक ही काम था आने वाली रानियों को संभालो और उनकी व्यवस्था करो।<br />
<b><br />अपने भी पराए हो जाते हैं जब...</b><br />
भयभीत होकर द्वारिका में भाग खड़े हुए। भगवान ने दूत को भेजकर अक्रूरजी को ढुंढवाया और आने पर उनसे बातचीत की। भगवान् ने उनका खूब स्वागत सत्कार किया और मीठी-मीठी प्रेम की बातें कहकर उनसे संभाशण किया। भगवान् सबके चित्त का एक-एक संकल्प देखते रहते हैं। इस लिए उन्होंने मुसकराते हुए अक्रूर से कहा- चाचाजी! आप दान-धर्म के पालक हैं। हमें यह बात पहले से ही मालूम है कि शतधन्वा आपके पास वह स्यमन्तक मणि छोड़ गया है, जो बड़ी ही प्रकाशमान और धन देने वाली है।<br />
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आप जानते ही हैं कि सत्राजीत के कोई पुत्र नहीं है। इसलिए उनकी लड़की के लड़के यानी उनके नाती ही उन्हें तिलांजलि और पिण्डदान करेंगे, उनका ऋण चुकाऐंगे और जो कुछ बचेगा उसके उत्तराधिकारी होंगे।इस प्रकार शास्त्रीय दृष्टि से यद्यपि स्यमन्तक मणि हमारे पुत्रों को ही मिलनी चाहिए, तथापि वह मणि आपके ही पास रहे, क्योंकि आप बड़े व्रतनिष्ठ और पवित्रात्मा हैं तथा दूसरों के लिए उस मणि को रखना अत्यन्त कठिन भी है।<br />
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परन्तु हमारे सामने एक बहुत बड़ी कठिनाई यह आ गई है कि हमारे बड़े भाई बलरामजी मणि के संबंध में मेरी बात का पूरा विश्वास नहीं करते। इसलिए महाभाग्यवान् अक्रूरजी!आप वह मणि दिखाकर हमारे इष्टमित्र बलरामजी, सत्यभामा और जाम्बवती का सन्देह दूर कर दीजिए।जब भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार सान्त्वना देकर उन्हें समझाया-बुझाया, तब अक्रूरजी ने वस्त्र में लपेटी हुई सूर्य के समान प्रकाशमान वह मणि निकाली और भगवान श्रीकृष्ण को दे दी।<br />
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भगवान् श्रीकृष्ण ने वह स्यमन्तक मणि अपने जाति भाइयों को दिखाकर अपना कलंक दूर किया और उसे अपने पास रखने में समर्थ होने पर भी पुन: अक्रूरजी को लौटा दिया।धन का मोह ऐसा ही होता है। एक स्यमन्तक मणि ने ऐसी माया फैलाई कि खुद भगवान पर उनके ही परिजन शक करने लगे। एक ज्ञानी पुरुष सद्मार्ग से भटक गया, तप से पाई मणि को खुद की सम्पदा समझने वाला सत्राजीत अपने प्राण खो बैठा। आपके पास जो सम्पत्ति है उसे केवल अपना समझकर न रखें।<br />
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भगवान कहते हैं यह समाज और राष्ट्रहित में लगा दें। तप को सम्पत्ति की सम्पत्ति का इससे बेहतर और कोई सदुपयोग नहीं है।सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापक भगवान श्रीकृष्ण के पराक्रमों से परिपूर्ण यह आख्यान समस्त पापों, अपराधों और कलंकों का मार्जन करने वाला तथा परम मंगलमय है।जो इसे पढ़ता, सुनता अथवा स्मरण करता है, वह सब प्रकार की अपकीर्ति और पापों से छूटकर शान्ति का अनुभव करता है।देखिए सम्पत्ति जो है कलह का कारण बन जाएगी। यदि द्वेष भाव है, षडय़न्त्र है, एक दूसरे पर सन्देह है तो भगवान् ने सबको समझाया कि इतनी बढिय़ा मणि द्वारिका में है और हम लोग इसके लिए लड़ रहे हैं यह प्रतिदिन सोना देती है।<br />
<b><br />तब कृष्ण ने 16000 स्त्रियों की रक्षा का वचन दिया...</b><br />
उनकी आठवी पत्नी लक्ष्मणा बनी। भगवान् अपनी रानियों के साथ बैठे हुए विचार कर रहे थे और उसी समय उनको सूचना दी गई कि कुछ लोग आपसे मिलना चाहते हैं। विशेष रूप से कुछ स्त्रियां हैं और उनके साथ कुछ पुरूष हैं और वो बहुत परेशान हैं। भगवान् ने कहा-ठीक है। भगवान् की सभा का नाम था सुधर्मा सभा। भगवान् ने कहा उनको भेजा जाए। वो लोग आए। उन्होंने भगवान् को प्रणाम किया। उन स्त्रियों ने भगवान् से कहा आपका उदय हो गया है। हमने सुना है आप सबके रखवाले हैं, आपने कंस का वध किया है। आप बार-बार घोषणा करते हैं कि आप स्त्री शक्ति, मातृ शक्ति के रक्षक हैं। क्या आप जानते हैं कि आज प्राज्ञज्योतिपुर नाम के नगर में एक राजा है नरकासुर। उसने सोलह हजार स्त्रियों को अपनी कैद में कर रखा है। उन सारी स्त्रियों को वो उठा लाया जो किसी की मां हैं, बहन हैं, पत्नी हैं, बेटी हैं और उसने अपने कारावास में उनको बन्दी बना लिया है। उस कारावास में बन्दियों की क्षमता पांच हजार है। उस पांच हजार की क्षमता वाले कारावास में उसने सोलह हजार स्त्रियों को बन्दी करके रखा है। पशु की भांति जीवन बिता रही हैं वो सब। नरकासुर जिस दिन चाहता है कारावास का दरवाजा खोलकर स्त्रियों को उठाकर ले जाता है। उसके वे मंत्री इतने कुटिल, अत्याचारी व कामी हैं कि हमारा कोई रक्षण नहीं है। आज हम आपके पास आए हैं। नरकासुर को कोई जीत नहीं सकता। आज की राजनीति, आज की राज सत्ताएं आपके आसपास हैं। हम कब तक कैद में रहेंगे? यह सुनकर भगवान् के चेहरे पर बल पड़ गए। भगवान् ने कहा-मैं आपकी रक्षा का वचन देता हूँ।<br />
<b><br />इसी का नाम जिंदगी है...</b><br />
द्वारिकाधीश ने नरकासुर को दण्ड दे दिया, वो मारा गया। आप जहां से आई हैं, जिस घर से आई हैं, जिस रिश्तेदारी से आई हैं वहां जा सकती हैं। आप स्वतंत्र हैं। वहां से चलकर एक स्थान पर भगवान विश्राम कर रहे थे। कुछ लोग भगवान से मिलने आए। उद्धव ने कहा-कुछ स्त्रियां आपसे मिलना चाहती हैं। भगवान ने कहा-भेजो। उनमें से कुछ स्त्रियों ने कहा आपने हमें मुक्त तो करा दिया है। यदि अब हम अपने घर जाएंगी तो हमारे घर वाले हमको स्वीकार नहीं करेंगे, क्योंकि हम किसी राजा के कारावास में बंदी रहे हैं। हमें वो पवित्र नहीं मानते। स्त्री यदि एक रात के लिए बिना बताए घर से बाहर चली जाए, सारा घर उसको प्रष्नों के घेरे में खड़ा कर देगा। पुरूष से कोई नहीं पूछता।स्त्री आज भी यदि एक रात कारावास या जेल में चली जाए, सारा समाज उसको हीन दृष्टि से देखता है। भगवान श्रीकृष्ण ने सोचा कहां जाएंगी ये सब। उद्धव, दारूप द्वारिका के सारे लोग कृष्ण की ओर देखने लगे। क्या कृष्ण अब एक-एक को घर छोडऩे जाएंगे।<br />
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अब कृष्ण किस-किस को समझाएंगे कि सम्मान दो। तब कृष्ण ने उन स्त्रियों से कहा मैं जानता हूं पर मैं आज आपको आश्वस्त करता हूँ। वसुदेव का पुत्र द्वारिका का यह कृष्ण आपको आश्वस्त कर रहा है कि मैं आपको समाज में वो दर्जा दूंगा जो किसी भी स्त्री को प्रतिष्ठित पुरुष से विवाह करने के बाद प्राप्त होता है। मैं आज से आपको अपनी धर्मपत्नी स्वीकार करता हूं और मैं इस पूरी समूची स्त्रीशक्ति को आश्वस्त करता हूं कि आपकी प्रतिष्ठा पर कोई आंच नहीं आएगी। भगवान् ने सारी स्त्रियों से विवाह किया। तब जो लोग प्रश्न करते हैं न कि कृष्ण सोलह हजार विवाह रचाने की क्या जरूरत थी, किसी की ताकत है जो स्त्रियों को इतना सम्मान दिला सके। पर ये कृष्ण ने किया है।<br />
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कृष्ण ने कहा-आज से आप मेरी भार्या हैं। द्वारिका में आप ससम्मान निवास करेंगी।यह कृष्ण का चरित्र है। जिस व्यक्ति की बांसुरी की एक तान पर संसारभर की स्त्रियां मोहित हो जाती हैं, जिसकी एक झलक पाने के लिए संसार का सारा सौंदर्य बेताब हो, जिसके पास रहने के लिए, जिसको जीवन में उतारने के लिए गोप, गोपियां, रानियां, राजकुमारियां बावली हुआ करती थीं। जिसके आसपास स्त्रियों का जमघट घूमता होगा उस कृष्ण का एक भी विवाह शान्ति से नहीं हुआ। आप सोचिए एक भी स्त्री को वो चैन से नहीं ला पाए। जो हुआ उसमें कोई न कोई उपद्रव हुआ पर कृष्ण ने कहा इसी का नाम जीवन है। सबको स्वीकार किया।<br />
<b><br />मन क्यों भटकता है?</b><br />
इन्द्रियों की भोग विलासी प्रवृत्तियों, चित्त का प्रवृत्ति मार्ग पर चलते रहने की इच्छा, यत्न, मन का नाना प्रकार के भौतिक व सांसारिक प्रवृत्तियों में आर्किषत होते रहने की वृत्तियों में उलझे रहने की सहजता पर जब निवृत्त होने की अवस्था आ जाए तब उसे वैराग्य की कोटि में रखा जा सकता है।<br />
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सामान्यत: संन्यासी व योगी वैराग्यवान माना जाता है, लेकिन भगवान श्रीकृष्ण द्वारा योगी के लक्षण इस प्रकार बताए गए हैं-मन पर विजय प्राप्त करने वाला, प्रसन्न एवं शांत चित्त वाला, सर्दी-गर्मी, सुख-दुख और मान-अपमान में सम, ज्ञान विज्ञान में तृप्त, अचल, जितेन्द्रिय-स्वर्ण व मिट्टी में सम बुद्धि लक्षणों वाला योगी, साधक, भक्त परमात्मा के निकट होता है। गीतामृत के उपक्रम (भूमिका) में स्वामी श्रीविष्णुतीर्थजी महाराज ने वैराग्य के लिए संसार की लिप्सा, मोह और आसक्ति का त्याग आवश्यक बताया।<br />
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ब्रह्मलीन चोला बदलना वैराग्य नहीं। गृहस्थ भी वैराग्यवान हो सकता है। स्वामी श्री शिवोम्तीर्थजी महाराज ने पातंजल योग दर्शन की भूमिका में वैराग्य की विषद व्याख्या की है। वह इस प्रकार है-वैराग्य के बिना योग-साधना अथवा किसी भी प्रकार के आध्यात्मिक उपाय का कोई अर्थ नहीं। जीव की जगत के विभिन्न पक्षों और क्रियाकलापों में इतनी आसक्ति रहती है कि उसका मन संसार में ही भटकता रहता है, यहां तक कि स्वप्न में भी संसार नजर आता है, यह जीवन पर्यन्त चलता रहता है।<br />
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इस आसक्ति का पूर्ण अभाव को वैराग्य की संज्ञा दी जा सकती है। मन पर काबू पाने का वैराग्य जहां उपाय है वहीं मन को संसार से हटाने का अभ्यास ईश्वर प्रणिप्रधान है।वैराग्य एक सोपान है जिसे प्रथम स्थान दिया जा सकता है, जब तक संसार से मन हटे नहीं ईश्वर के प्रति लग नहीं सकता। मन तो एक ही है, यह सत्य है कि बिना मन की स्थिति हुए साधन, भजन, पूजन, पाठ, जपादि आधे-अधूरे ही रहते हैं।<br />
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मन ईश्वराभिमुख हो इसलिए उसको ईश्वराधन में इस प्रकार युक्त किया जाए कि वह उसमें न केवल तल्लीन हो जाए बल्कि अखंड आनंदाभूति करता रहे।भगवान के दाम्पत्य में अब आगे अनिरूद्ध का विवाह ऊषा से बताते हैं।बहुत आनन्द से भगवान् का दाम्पत्य चल रहा था।<br />
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<b>प्यार एक ऐसी पूंजी है जो कभी खत्म नहीं होती...</b><br />
मेरे पास और तो कुछ है नहीं। एक पूंजी मेरे पास है जो कभी खत्म नहीं होती और मैं जितना बांटता हूं बढ़ती जाती है। मेरे पास अगर कुछ है तो प्रेम है। अब रूक्मिणीजी को लगा कि यह तो टिप्पणी मेरे ऊपर कर दी इन्होंने। फिर भगवान् ने कहा आप जानती हैं मेरा उदासीन व्रत है। अब इतने सब दुर्गुण हैं तो भी आपकी कृपा है जो आपने विवाह कर लिया। अब रूक्मिणीजी पानी-पानी हो गईं, उन्होंने माफी मांगी।भगवान को जो नहीं भाता वह है अहंकार। दंभ या गर्व होने पर भगवान खुद ही उसे दूर करने को तैयार हो जाते हैं।<br />
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जो भगवान के जितना ज्यादा निकट है भगवान उसे उतने प्रेम से सिखाते हैं। फिर रुक्मिणीजी तो उनकी अर्धांगिनी थीं सो भगवान ने हंसी-ठिठौली में ही उनका अहंकार दूर कर दिया। भगवान समझा रहे हैं कि दाम्पत्य ऐसा रिश्ता है जिसमें कभी अहंकार को स्थान नहीं मिलना चाहिए। जहां अहंकार आया रिश्ते में खटास भर जाती है। इसलिए भगवान कह रहे हैं कि पति-पत्नी के बीच हंसी-मजाक के हल्के-फुल्के क्षण भी होने चाहिए, ताकि रिश्ते की मधुरता बनी रहे।जब रुक्मिणीजी ने अपने परम प्रियतम पति त्रिलोकेश्वर भगवान् की यह अप्रिय वाणी सुनी जो पहले कभी नहीं सुनी थी, तब वे अत्यंत भयभीत हो गईं, उनका हृदय धड़कने लगा, वे रोते-रोते चिन्ता के अगाध समुद्र में डूबने-उतरने लगीं।<br />
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भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरी प्रेयसी रुक्मिणी हास्य विनोद की गंभीरता नहीं समझ रही हैं और प्रेमपाश की दृढ़ता के कारण उनकी यह दशा हो रही है। स्वभाव से ही कारुणिक भगवान् श्रीकृष्ण का हृदय उनके प्रति करुणा से भर गया। भगवान् श्रीकृष्ण समझाने-बुझाने में बड़े कुशल और अपने प्रेमी भक्तों के एकमात्र आश्रय हैं। जब उन्होंने देखा कि हास्य की गंभीरता के कारण रुक्मिणीजी की बुद्धि चक्कर में पड़ गई है और वे अत्यंत दीन हो रही हैं तब उन्होंने इस अवस्था के अयोग्य अपनी प्रेयसी रुक्मिणी को समझाते हुए कहा-परमप्रिये! घर के काम-धंधों में रात-दिन लगे रहने वाले गृहस्थों के लिए घर गृहस्थी में इतना ही तो परम लाभ है कि अपनी प्रिय अद्र्धांगिनी के साथ हास-परिहास करते हुए कुछ घडिय़ां सुख से बिता ली जाती हैं।<br />
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<b>मांगलिक कार्यों में इस बात का ध्यान जरूर रखें</b><br />
कथा में यहां जो प्रसंग आ रहा है वह बड़ा गंभीर है और सामयिक भी। कैसे कुसंग, व्यसन हमारे जीवन में अमंगल लाते हैं। यह प्रसंग सभी को सीखने के लिए है कि कभी मांगलिक कार्यों में व्यसनों का उपयोग मत कीजिए। कृष्ण के जीवन की यह एक महत्वपूर्ण घटना है, जिससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। अनिरुद्ध के विवाहोत्सव में सम्मिलित होने के लिए भगवान् श्रीकृष्ण, बलरामजी, रुक्मिणीजी, प्रद्युम्न, साम्ब आदि द्वारकावासी भोजकट नगर में पधारे। जब विवाहोत्सव निर्विघ्न समाप्त हो गया, तब कलिंग नरेश आदि घमंडी नरपतियों ने रुक्मी से कहा कि तुम बलरामजी को पासों के खेल में जीत लो। बलरामजी को पासे डालने तो आते नहीं, परन्तु उन्हें खेलने में बड़ी रूचि है। उन लोगों के बहकावे से रुक्मी ने बलरामजी को बुलवाया और वह उनके साथ चौसर खेलने लगा।<br />
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बलरामजी खुद सज्जन थे लेकिन कुसंग में पड़ गए। हम ध्यान रखें कि किसी के दुर्गुण हम पर हावी न हों। रुक्मी रिश्तेदार थे सो उनके लिहाज में बलराम जुआ खेलने बैठ गए। भोले थे सो जल्दी हार भी गए।बलरामजी की हंसी उड़ाते हुए रुक्मी ने कहा-बलरामजी! आखिर आप लोग वन-वन भटकने वाले ग्वाले ही तो ठहरे। आप पासा खेलना क्या जानें? पासों और बाणों से तो केवल राजा लोग ही खेला करते हैं, आप जैसे नहीं? रुक्मी के इस प्रकार आक्षेप और राजाओं के उपहास करने पर बलरामजी क्रोध से आगबबूला हो उठे। उन्होंने एक मुद्गर उठाया और उस मांगलिक सभा में ही रुक्मी को मार डाला। इतनी बड़ी घटना घट गई। विवाह के मंगल मौके पर हत्या हो गई। भगवान असमंजस में पड़ गए, किसका साथ दें। मरने वाला उनकी पत्नी का भाई और मारने वाला उनका भाई। जब हम मांगलिक कार्यों में व्यसनों को खुद ही आमंत्रित करते हैं तो अब परमात्मा क्या कह सकते हैं। वे तो मौन ही रहेंगे। इसलिए ध्यान रखें जब भी मंगल उत्सव हों, व्यसनों को दूर रखें<br />
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<b>जीवनसाथी चुने तो क्या ध्यान रखें?</b><br />
भगवान् श्रीकृष्ण ने यह सोचकर कि बलरामजी का समर्थन करने से रुक्मिणीजी अप्रसन्न होंगी और रुक्मी के वध को बुरा बतलाने से बलरामजी रुष्ट होंगे। अपने साले रुक्मी की मृत्यु पर भला-बुरा कुछ भी न कहा। इसके बाद अनिरुद्धजी का विवाह और शत्रु का वध दोनों प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर भगवान् ने आश्रित बलरामजी आदि यदुवंशी नवविवाहिता दुल्हन रोचना के साथ अनिरुद्धजी को श्रेष्ठ रथ पर चढ़ाकर भोजकट नगर से द्वारिकापुरी को चले आए।<br />
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भगवान के जीवन के कुछ और प्रसंगों में चलते हैं। ये प्रसंग जीवन से जुड़े हैं। इनमें आज के जीवन की मर्यादाएं हैं। सामाजिक, राजनीतिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत जीवन कैसा हो, इन कथाओं के जरिए हम समझ सकते हैं।अब ऊषा-अनिरुद्ध के प्रसंग आते हैं। भगवान के परिवार के प्रसंगों में भी संदेश है। दैत्यराज बलिका और पुत्र बाणासुर भगवान शिव की भक्ति में सदा रत रहता था। बाणासुर की एक कन्या थी, उसका नाम था ऊषा अभी वह कुमारी ही थी कि एक दिन स्वप्न में उसने देखा कि परम सुन्दर अनिरुद्धजी के साथ मेरा विवाह हो रहा है। बाणासुर के मंत्री का नाम था कुम्भाण्ड। उसकी एक पुत्री थी जिसका नाम था चित्रलेखा। ऊषा और चित्रलेखा एक-दूसरे की सहेलियां थीं। चित्रलेखा ने ऊषा से पूछा-राजकुमारी! अभी तक किसी ने तुम्हारा पाणिग्रहण भी नहीं किया है फिर तुम किसे ढूंढ रही हो।<br />
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ऊषा ने कहा- मैंने स्वप्न में एक बहुत ही सुन्दर नवयुवक को देखा है। उसके शरीर का रंग सांवला-सांवला सा है। मैं उसी को ढूंढ रही हूं। चित्रलेखा ने बहुत से देवता, गन्धर्व, सिद्ध, चारण, पन्नग, दैत्य, विद्याधर, यक्ष और मनुष्यों के चित्र बना दिए। मनुष्यों में उसने वसुदेवजी, बलरामजी और भगवान् श्रीकृष्ण आदि के चित्र बनाए। जब ऊषा ने अनिरुद्ध का चित्र देखा तब तो लज्जा के मारे उसका सिर नीचा हो गया, फिर मंद-मंद मुसकाते हुए कहा-मेरा वह प्राणवल्लभ यही हैं।<br />
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यहां एक संदेश है जब जीवन साथी चुनें तो केवल उसका आधार देह ही न हो। चित्रलेखा ने माया रची। अनिरुद्ध को जगाया, मोहित किया और अपने साथ ले चली। ऊशा ने अमर्यादित व्यवहार किया।चित्रलेखा योगिनी थीं। वह आकाश मार्ग से रात्रि में ही भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित द्वारिकापुरी में पहुंची। वहां अनिरुद्ध बहुत ही सुंदर पलंग पर सो रहे थे। चित्रलेखा योगसिद्धि के प्रभाव से उन्हें उठाकर शोणितपुर ले आईं और अपनी सखी ऊषा को उसके प्रियतम का दर्र्शन करा दिया।<br />
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अनिरुद्धजी उस कन्या के अन्त:पुर में छिपे रहकर अपने-आपको भूल गए। उन्हें इस बात का भी पता न चला कि मुझे यहां आए कितने दिन बीत गए। ये घटनाएं ये बता रही हैं कि जीवनसाथी चुनने का अधिकार सबको है पर आचरण मर्यादित होना चाहिए। ये मर्यादा ही यह बताती है कि हमारा निजत्व कितना पवित्र है। अगर हमारे निजी जीवन में पवित्रता नहीं है तो फिर हम भगवान के ही रिश्तेदार क्यों न थे इसका दुष्परिणाम भुगतना ही पड़ता है।<br />
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<b>यही होता है चोरी-छूपे काम करने का नतीजा...</b><br />
चित्रलेखा योगिनी थीं। वह आकाश मार्ग से रात्रि में ही भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित द्वारिकापुरी में पहुंची। वहां अनिरुद्ध बहुत ही सुंदर पलंग पर सो रहे थे। चित्रलेखा योगसिद्धि के प्रभाव से उन्हें उठाकर शोणितपुर ले आईं और अपनी सखी ऊषा को उसके प्रियतम का दर्शन करा दिया।अनिरुद्धजी उस कन्या के अन्त:पुर में छूपे रहकर अपने-आपको भूल गए।<br />
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उन्हें इस बात का भी पता न चला कि मुझे यहां आए कितने दिन बीत गए। ये घटनाएं ये बता रही हैं कि जीवनसाथी चुनने का अधिकार सबको है पर आचरण मर्यादित होना चाहिए। ये मर्यादा ही यह बताती है कि हमारा निजत्व कितना पवित्र है। अगर हमारे निजी जीवन में पवित्रता नहीं है तो फिर वो भगवान के रिश्तेदार ही क्यों ना हो इसका दुष्परिणाम भुगतना ही पड़ता है।<br />
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यदुकुमार अनिरुद्धजी के सहवास से ऊषा का कुआंरपन नष्ट हो चुका था। उसके शरीर पर ऐसे चिन्ह प्रकट हो गए, जो स्पष्ट इस बात की सूचना दे रहे थे और जिन्हें किसी प्रकार छूपाया नहीं जा सकता था। ऊषा बहुत प्रसन्न भी रहने लगी। पहरेदारों ने समझ लिया कि इसका किसी न किसी पुरुष से संबंध अवश्य हो गया है। उन्होंने जाकर बाणासुर से निवेदन किया हम लोग आपकी अविवाहिता राजकुमारी का जैसा रंग-ढंग देख रहे हैं, वह आपके कुल पर बट्टा लगाने वाला है। प्रभो! इसमें सन्देह नहीं कि हम लोग बिना क्रम टूटे, रात-दिन महल का पहरा देते रहते हैं। आपकी कन्या को बाहर के मनुष्य देख भी नहीं सकते। फिर भी वह कलंकित कैसे हो गई? इसका कारण हमारी समझ में नहीं आ रहा है।<br />
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हमारी निजता यानी व्यक्तिगत जीवन में पवित्रता हो यह जरूरी है। कोई भी संबंध परिवार या हमारे ईष्टों की जानकारी के बिना बनाए गए हों तो चाहे उनके पीछे भावना कोई भी रही हो, उसका परिणाम गलत आता है। जब किसी से प्रेम करें, मित्रता करें या कोई और संबंध हों। सदैव याद रखें कि उसमें परिवार और इष्टों की सहमति अवश्य लें। अगर हम चोरी-छूपे कोई काम करते हैं तो उसका परिणाम दुखदायी ही होता है।<br />
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<b>क्या हुआ जब बाणासुर ने राजधानी को चारों ओर से घेर लिया?</b><br />
जब अनिरुद्धजी ने देखा कि बाणासुर बहुत से आक्रमणकारी शस्त्रास्त्र से सुसज्जित वीर सैनिकों के साथ महल में घुस आया है, तब वे उन्हें धराशायी कर देने के लिए लोहे का एक भयंकर परिघ लेकर डट गए।बाणासुर ने देखा कि यह तो मेरी सारी सेना का संहार कर रहा है, तब वह क्रोध से तिलमिला उठा और उसने नागपाश से उन्हें बांध लिया। ऊषा ने जब सुना कि उसके प्रियतम को बांध लिया गया है, तब वह अत्यंत शोक और विषाद से विहृल हो गईं। उसके नेत्रों से आंसू की धारा बहने लगी, वह रोने लगी।उसे अपने किए पर पछतावा भी था, बाणासुर राजा बलि का पुत्र और भगवान विष्णु के अनन्य भक्त प्रहलाद का पौत्र था। उसने कठिन तप कर बल तो अर्जित किया ही साथ ही भगवान शिव की कृपा भी प्राप्त की थी।<br />
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भगवान शिव उस पर बड़ा स्नेह रखते थे। इधर बरसात के चार महीने बीत गए, परन्तु अनिरुद्धजी का कहीं पता न चला। उनके घर के लोग, इस घटना से बहुत ही शोकाकुल हो रहे थे। एक दिन नारदजी ने आकर अनिरुद्ध का शोणितपुर जाना, वहां बाणासुर के सैनिकों को हराना और फिर नागपाश में बांधा जाना-यह सारा समाचार सुनाया। तब श्रीकृष्ण को ही अपना आराध्यदेव मानने वाले यदुवंशियों ने शोणितपुर चढ़ाई कर दी।श्रीकृष्ण और बलरामजी के साथ उनके अनुयायी सभी यदुवंशी-प्रद्युम्न, सात्यकि, गद, साम्ब, सारण, नन्द, उपनन्द और भद्र आदि ने बारह अक्षौहिणी सेना के साथ व्यूह बनाकर चारों ओर से बाणासुर की राजधानी को घेर लिया। बाणासुर की ओर से साक्षात् भगवान शंकर वृषभराज नन्दी पर सवार होकर अपने पुत्र कार्तिकेय और गणों के साथ रण भूमि में पधारे और उन्होंने भगवान् श्रीकृष्ण तथा बलरामजी से युद्ध किया।<br />
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<b>क्योंकि भरोसा ही सबकुछ है</b><br />
अर्जुन भगवान के चले जाने के बाद रथ की प्रतिक्षा कर रहे थे। थोड़ी ही देर में इन्द्र का सारथि मातलि दिव्य रथ की प्रतीक्षा कर रहे थे। थोड़ी ही देर में इन्द्र का सारथि सातलि दिव्य रथ लेकर वहां उपस्थित हुआ। उस रथ की उज्जवल क्रांति से आकाश में अंधेरा मिट गया। बादल तितर बितर हो रहे थे।<br />
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भीषण ध्वनि से दिशाएं प्रतिध्वनित हो रही थी। उसकी कांति दिव्य थी। रथ में तलवार, शक्ति, गदाएं, तेजस्वी, भाले, वज्र पहियोंवाली, तोपें आदि दस हजार हवा की रफ्तार से चलने वाले घोड़े थे। उस दिव्य रथ की चमक से आंखे चौंधिया जाती थी। भीषण युद्ध हुआ। शिव और कृष्ण को आमने-सामने देखकर देवताओं में हलचल मच गई। कृष्ण ने अपने चक्र से बाणासुर की दोनों भुजाएं काट दी। बाणासुर की सेना में कोहराम मच गया। बाणासुर बहुभुज था, दो भुजाएं कटने के बाद भी उसके शरीर पर चार और भुजाएं थीं। युद्ध में कोई कम नहीं था। तब भगवान शिव ने बाणासुर की प्राण रक्षा का उपाय किया।<br />
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जब भगवान् शंकर ने देखा कि बाणासुर की भुजाएं कट रही हैं तब वे चक्रधारी भगवान् श्रीकृष्ण के पास आए और स्तुति करने लगे।शंकरजी ने कहा-भगवान आप वेदमन्त्रों में तात्पर्य रूप से छिपे हुए परमज्योति स्वरूप परब्रम्ह हैं। शुद्ध हृदय महात्मागण आपके आकाश के समान सर्वव्यापक और निर्विकार स्वरूप का साक्षात्कार करते हैं।भगवान आपकी माया से मोहित होकर लोग स्त्री-पुरुष, देह-गेह आदि में आसक्त हो जाते हैं और फिर दुख के अपार सागर में डूबने-उतरने लगते हैं।<br />
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हे प्रभो! हम सब संसार से मुक्त होने के लिए आपका भजन करते हैं। देव! यह बाणासुर मेरा परमप्रिय, कृपापात्र और सेवक है। मैंने इसे अभयदान दिया है। प्रभो! जिस प्रकार इसके परदादा दैत्यराज प्रहलाद पर आपका कृपा प्रसाद है, वैसा ही आप इस पर भी करें।श्रीकृष्ण ने कहा-भगवान आपकी बात मानकर जैसा आप चाहते हैं मैं इसे निर्भय किए देता हूं। आपने पहले इसके संबंध में जैसा निश्चय किया था मैंने इसकी भुजाएं काटकर उसी का अनुमोदन किया है। मैं जानता हूं कि बाणासुर दैत्यराज बलि का पुत्र है।<br />
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इसलिए मैं भी इसका वध नहीं कर सकता, क्योंकि मैंने प्रहलाद को वर दे दिया है कि मैं तुम्हारे वंश में पैदा होने वाले किसी भी दैत्य का वध नहीं करूंगा। इसका घमंड चूर करने के लिए ही मैंने इसकी भुजाएं काट दी हैं। अब इसकी चार भुजाएं बच रही हैं। ये अजर, अमर बनी रहेंगी। यह बाणासुर आपके पार्षदों में मुख्य होगा। अब इसको किसी से किसी प्रकार का भय नहीं हैभगवान कई पीढिय़ों तक अपने भक्तों का भला करते हैं। परमात्मा भविष्य के प्रति एक बड़ा आश्वासन होते हैं। भरोसा ही भक्त की पूंजी है।<br />
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<b>यह शरीर सिर्फ एक बंधन है क्योंकि..</b><br />
वह (आत्मा) अजन्मा है, नित्य है, शाश्वत है, पुरातन है-शरीर के नाश होने से इसका नाश होता है। इस व्याख्या के अनुसार ईश्वर (परमात्मा) और आत्मा में अद्भुत साम्यता दिखाई देती है। साम्यता होने के साथ-साथ आत्मा सगुण रूप होकर माया रूप, उपाधि सहित, चेतन अशुद्ध बन वे ईश्वर सगुण ब्रम्ह बन अवतरित होते हैं। अवतारवाद इस तथ्य की पुष्टिकरता है कि सगुण रूप ने परात्पर राम, जगद्गुरु कृष्ण,महाबुद्ध,पैगम्बर, देवदूत या महात्मा बन लीला करने के लिए प्रकट होते हैं। महत्त्व से युक्त होकर वे सगुण आदि देव ब्रम्हा, विष्णु, महेश आदि बनते हैं और अणु बुद्धि से युक्त होकर जीवात्मा बनते हैं। विस्मयकारक चिंतन तो यह है कि एक ही समय में भिन्न-भिन्न कार्य करते हैं। यहां कपितय अवधारणाओं की संक्षिप्त व्याख्या ली जा रही है।<br />
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जीवात्मा-देह, इन्द्रियां, अंत:करण, प्राण, अविद्यांश(बुद्धि) इनमें मैं, अपने की भावना करने वाला आत्मा ही जीव कहलाता है। वास्तव में जीव नाम का कोई आत्मा से अलग है ही नहीं। मैं देहादि नहीं शुद्धात्मा हूं, सत्य स्वरूप, परमानंद स्वरूप व ज्ञान स्वरूप हूं। यह भावना सिद्ध करने से जीव के बंधन से कटकर आत्मा अपने मुक्त स्वरूप से एक रूप हो सकेगी जो कि पिंड में व्याप्त वह जीव और जो ब्रम्हाण्ड में व्याप्त वह परब्रम्ह या शिव कहलाता है।<br />
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माया-बन्धन ही माया है। सर्वथा मुक्त आत्मा बंधन में न होने पर भी जीव रूप से अज्ञानवश अपने को बंधन में समझता है। देहाभिमानी जीव ही देह धर्म के मिथ्या धर्मों से बंधा हुआ अनुभव करता है। यह अनुभव चाहे मिथ्या ही सही मोह का जनक होता है। माया के बंधन में जगत के नाना प्रकार के सुख और दुख अनुभव करता हुआ जीव अपने को अपने अंष परब्रम्ह से पृथक मानकर द्वैत भावना से युक्त कम्पित रहता है।<br />
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<b>कैसे हम अनजाने में ही पाप कर बैठते हैं?</b><br />
श्रीकृष्ण कुएं पर आए। उन्होंने बाएं हाथ से उसको बाहर निकाल लिया। भगवान् श्रीकृष्ण के करकमलों का स्पर्श होते ही उसका गिरगिट रूप जाता रहा और वह एक देवता के रूप में परिणत हो गया। अब उसके शरीर का रंग तपाये हुए सोने के समान चमक रहा था और उसके शरीर पर अद्भुत वस्त्र, आभूषण और पुपों के हार शोभा पा रहे थे। यद्यपि भगवान् श्रीकृष्ण जानते थे कि इस दिव्य पुरुष को गिरगिट योनि क्यों मिली थी, फिर भी वह कारण सर्वसाधारण को मालूम हो जाए इसलिए उन्होंने दिव्य पुरुष से पूछा-महाभाग! तुम्हारा रूप तो बहुत ही सुन्दर है। तुम हो कौन? मैं तो ऐसा समझता हूं कि तुम आवश्य ही कोई श्रेष्ठ देवता हो।<br />
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किस कर्म के फल से तुम्हें इस योनि में आना पड़ा था? वास्तव में तुम इसके योग्य नहीं हो। हम लोग तुम्हारा वृतांत जानना चाहते हैं। यदि तुम हम लोगों को वह बतलाना उचित समझो तो अपना परिचय अवश्य दो।<br />
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उस पुरुष ने जो कथा बताई वह हमारे जीवन में बड़ी उपयोगी है। कैसे हम पुण्य में भी अनजाने ही कोई पाप कर बैठते हैं। जब भी पुण्य कर रहे हों तो सजग रहें कहीं आपका किया पुण्य किसी का अहित तो नहीं कर रहा है।उसने कहा-मैं महाराज इक्ष्वाकु का पुत्र राजा नृग हूं। जब कभी किसी ने आपके सामने दानियों की गिनती की होगी, तब उसमें मेरा नाम भी अवश्य ही आपके कानों में पड़ा होगा।पृथ्वी में जितने धूलिकण हैं, आकाश में जितने तारे हैं और वर्र्षा में जितनी जल की धाराएं गिरती हैं, मैंने उतनी ही गौएं दान की थीं।<br />
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एक दिन किसी दान न लेने वाले, तपस्वी ब्राह्मण की एक गाय बिछुड़कर मेरी गौओं में आ मिली। मुझे इस बात का बिल्कुल पता न चला। इसलिए मैंने अनजान में उसे किसी दूसरे ब्राह्मण को दान कर दिया। जब उस गाय को वे ब्राह्मण ले चले, तब उस गाय के असली स्वामी ने कहा-यह गौ मेरी है। दान ले जाने वाले ब्राह्मण ने कहा यह तो मेरी है, क्योंकि राजा नृग ने मुझे इसका दान किया है।<br />
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वे दोनों ब्राह्मण आपस में झगड़ते हुए अपनी-अपनी बात कायम करने के लिए मेरे पास आए। एक ने कहा-यह गाय अभी-अभी आपने मुझे दी है और दूसरे ने कहा कि यदि ऐसी बात है तो तुमने मेरी गाय चुरा ली है। उन दोनों ब्राह्मणों की बात सुनकर मेरा चित्त भ्रमित हो गया। मैंने धर्म-संकट में पड़कर उन दोनों से बड़ी अनुनय विनय की और कहा कि मैं बदले में एक लाख उत्तम गौएं दूंगा। आप लोग मुझे यह गाय दे दीजिए। मैं आप लोगों का सेवक हूं। मुझसे अनजान में यह अपराध बन गया है। मुझ पर आप लोग कृपा कीजिए और मुझे इस घोर कष्ट से तथा घोर नरक में गिरने से बचा लीजिए।<br />
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क्रमश:...<br />
<b><br />जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,<br />और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....</b><b>मनीष</b></div>
Jai Guru Geeta Gopalhttp://www.blogger.com/profile/01621836960274288942noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6101091264294453966.post-86786406053117098882021-08-18T01:13:00.004-07:002021-08-18T01:18:24.945-07:00श्रीमद् भागवत Srimdbhagwat Part (5)<p> <b>लक्ष्मी को पाना है तो परिश्रमी बनिएं</b></p>हमने पढ़ा कि समुद्र मंथन के दौरान जो विष निकला उसे भगवान शंकर ने पी लिया। रात को शिवजी की तबीयत खराब हो गई। गरमी चढ़ी तो शिवजी ने पार्वतजी से कहा पार्वती कुछ बेचैनी सी हो रही है। पार्वती ने बोला सब थे तब बोलना था अब रात को किसको बुलाऊंगी? एक काम करो मेरे ऊपर धतूरा चढ़ा दो, शंकरजी ने कहा- भांग का लेपन कर दो और मेरा जलाभिषेक कर दो, मैं शांत हो जाऊंगा। पार्वती ने वैसे ही किया। यही वजह है कि आज भी धतूरे, भांग एवं शीतल जल से शंकरजी की पूजा की जाती है।<br /><br />याद रखिए कि जब मस्तिष्क का मंथन करेंगे तो सबसे पहले विष ही निकलेगा। विषपान की आदत डालिए, नीलकंठ बनिए। समुद्र मंथन के दौरान आठवें नंबर पर निकली लक्ष्मीजी। जैसे ही लक्ष्मीजी निकलीं तो देवता और दैत्य चौंक गए। सबके सब देखने लग गए लक्ष्मी आई हैं। सबकी इच्छा थी कि हमें मिल जाए। लक्ष्मीजी से कहा गया आपको स्वतंत्रता है आप इनमें से जिसे चाहें वरण कर लें। लक्ष्मी चलीं किसको वरण करूं। सबसे पहले उन्होंने निगाह डाली तो साधु-संत बैठे हुए थे वो खड़े हुए। हाथ जोड़कर बोले हमारे पास आ जाओ। लक्ष्मी बोलीं- देखो तुम हो तो भले लोग, लेकिन तुमको सात्विक अहंकार होता है कि हम दुनिया से थोड़े ऊपर उठे हैं, भगवान के अधिक निकट हैं तो तुम्हारे पास तो नहीं आऊंगी। अहंकारी मुझे बिल्कुल पसंद नहीं हैं।<br /><br />साधु-संतों को छोड़कर आगे चली तो ब्रह्माजी नजर आ गए उन्होंने कहा-बाबा! आप तो बाप बराबर हो और मैं आपकी बेटी हूं। आगे चली गईं। देवता खड़े हो गए, इंद्र के नेतृत्व में हमारी हो जाओ, उन्होंने कहा-तुम्हारी तो नहीं होऊंगी। बोले क्यों? तुम देवता बनते हो पुण्य से और पुण्य से कभी लक्ष्मी नहीं मिला करती। लक्ष्मी की एक ही पसंद है पुरुषार्थ और परिश्रम।<br /><br /><b>जब रावण ने वरदान में पार्वती को ही मांग लिया<br /><b></b></b>हमने पढ़ा कि समुद्रमंथन के दौरान जब लक्ष्मी निकली तो सभी उन्हें पाने के लिए लालायित हो उठे। शंकरजी ने कहा सभी इसको मांग रहे हैं तो हम भी लाइन में लग जाएं। लक्ष्मीजी ने शंकरजी को देखा बोलीं आपकी तो नहीं होऊंगी मैं! चाहे जिसको चाहे जब टिका देते हो तो पता नहीं मुझे किसके पल्ले बांध दो? क्योंकि शिवजी का इतिहास तो आप भी जानते होंगे कि रावण ने जब शिवजी की स्तुति की तो शिवजी इतने प्रसन्न हुए कि रावण को अपना भक्त बनाकर जो भी मांगा वो सब दे दिया और जैसे ही प्रणाम करके रावण उठा तो दुष्ट रावण ने देखा कि शिवजी के पास पार्वती खड़ी थी और सुंदर थी पार्वती।<br /><br />सौंदर्य रावण की सबसे बड़ी कमजोरी थी। रावण ने कहा आपने सब दे तो दिया भोलेनाथ एक चीज और चाहिए। उन्होंने कहा मांग-मांग क्या मांगता है। रावण ने पार्वती मांग ली। अच्छा मांग ली, तो वो भी ठीक है ले जा। ऐसा कहते हैं कि रावण पार्वतीजी को लेकर चल भी दिया। अब भोलेनाथ बड़े परेशान कि मैंने क्या कर दिया। इतने में नारदजी आए। नारदजी ने मार्ग में रावण को रोका और बोले इन्हें कहां ले जा रहा हो? रावण ने कहा-वरदान में भोलेनाथ ने दिया है।<br /><br />नारद ने कहा तुझे पता है ये पार्वती नहीं है। ये तो पार्वती की प्रतिछाया है । पार्वती को तो पहले ही शिवजी ने पाताल में मय दानव के यहां छिपा रखा है। असली पार्वती चाहता है तो वहां जा।रावण भागा पाताल में और वहां ढूंढऩे लगा। एक सुंदर स्त्री आती हुई दिखी तो रावण वहीं रूक गया। रावण बोला-आपका परिचय, तो वो बोली मैं मंदोदरी हूं मय दानव की बेटी। रावण ने कहा चल तू ही चलेगी। पार्वती को भूलकर मंदोदरी से ही विवाह कर लिया। इसका नाम रावण है जो सिर्फ स्त्रियों पर टिकता है रिश्तों पर नहीं टिकता।<br /><br /><b>इसलिए विष्णु का वरण किया लक्ष्मी ने</b><br />हमने पढ़ा कि समुद्र मंथन के दौरान लक्ष्मी निकली तो उन्हें कहा गया कि आप जिसे चाहें उसका वरण कर सकती हैं। लक्ष्मी बोलीं कि मैं उसके पास नहीं जाती जो मेरा निवेश करना नहीं जानता। मैं उसके पास जाती हूं जो मेरा निवेश करना जानता हो। जिसको इनवेस्टमेंट का ज्ञान हो। मेरी सुरक्षा करना जानता हो। फिर लक्ष्मीजी ने इधर-उधर देखा तो एक ऐसा भी है जो मेरी तरफ देख ही नहीं रहा है बाकी सब लाइन लगाकर खड़े हैं तो उनके पास गई।<br /><br />लक्ष्मी ने जाकर देखा तो मुंह ओढ़कर लेटे हुए थे भगवान विष्णु। लक्ष्मी ने पैर पकड़े, चरण हिलाए। विष्णु बोले क्या बात है? वह बोलीं मैं आपको वरना चाहती हूं। विष्णु ने कहा-स्वागत है। लक्ष्मी जानती थीं कि यही मेरी रक्षा करेंगे। तब से लक्ष्मी-नारायण एक हो गए। लक्ष्मी आती है तो छाती पर लात मारती है तो आदमी अहंकार में चौड़ा हो जाता है और जाती हैं तो एक लात पीठ पर मारती करती हैं तो आदमी औंधा हो जाता है। लक्ष्मी की रक्षा कीजिए। उसके सम्मान की रक्षा कीजिए। वो आपके लिए सतत उपलब्ध है।<br />अब नवें नंबर पर वारूणी निकली। मदिरा जैसे ही निकली तो दैत्य लाइन में लग गए। भगवान ने कहा-ले जाओ। देवताओं को तो लेना भी नहीं था। इसके बाद और मंथन किया तो पारिजात निकला। पारिजात को अपनी जगह भेज दिया। चंद्रमा निकले तो चंद्रमा को अपनी जगह भेज दिया। 12वें नंबर पर सारंगधनु निकला, विष्णुजी सारंगपाणि हैं, अपने धनुष को लेकर चले गए। अब सबसे अंत में निकला अमृत। इतनी देर बाद जीवन में अमृत मिलता है। तेरह सीढ़ी पार करेंगे तब मिलता है ऐसे ही नहीं मिल जाता।<br /><br />लोग कहते हैं यह 14 का आंकड़ा क्या है? ये है पांच कमेन्द्रियां, पांच जनेन्द्रियां तथा अन्य चार हैं- मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। ये चौदह पार करने के बाद ही परमात्मा प्राप्त होते हैं।<br /><br /><b>भगवान विष्णु ने क्यों लिया मोहिनी अवतार?<br /><b></b></b>समुद्र मंथन के दौरान सबसे अंत में धन्वन्तरि अमृत कलश लेकर निकले। जैसे ही अमृत मिला अनुशासन भंग हुआ। देवताओं ने कहा हम ले लें, दैत्यों ने कहा हम ले लें। इसी खींचातानी में इंद्र का पुत्र जयंत अमृत कुंभ लेकर भाग गया। सारे दैत्य व देवता भी उसके पीछे भागे। असुरों व देवताओं में भयंकर मार-काट मच गई। इस दौरान अमृत कुंभ में से कुछ बूंदें पृथ्वी पर भी झलकीं। जिन चार स्थानों पर अमृत की बूंदे गिरी वहां प्रत्येक 12 वर्ष बाद कुंभ का मेला लगता है।<br /><br />इधर देवता परेशान होकर भगवान विष्णु के पास गए। भगवान ने कहा-मैं कुछ करता हूं। तब भगवान ने मोहिनी अवतार लिया। देवता व असुर उसे ही देखने लगे। दैत्यों की वृत्ति स्त्रियों को देखकर बदल जाती है। सभी उसके पास आसपास घूमने लगे। भगवान ने मोहिनी रूप में उन सबको मोहित किया। मोहिनी ने देवता व असुर की बात सुनी और कहा कि यह अमृत कलश मुझे दे दीजिए तो मैं बारी-बारी से देवता व असुर को अमृत का पान करा दूंगी। दोनों मान गए। देवता एक तरफ तथा असुर दूसरी तरफ बैठ गए। स्त्री अपने मोह में, रूप में क्या नहीं करा सकती पुरूष से।<br /><br />फिर मोहिनी रूप धरे भगवान विष्णु ने मधुर गान गाते हुए तथा नृत्य करते हुए देवता व असुरों को अमृत पान कराना प्रारंभ किया । वास्तविकता में मोहिनी अमृत पान तो सिर्फ देवताओं को ही करा रही थी जबकि असुर समझ रहे थे कि वे भी अमृत पी रहे हैं। एक राक्षस था राहू, उसको लगा कि कुछ गडग़ड़ चल रही है। वो मोहिनी की माया को समझ गया और चुपके से बैठ गया सूर्य और चंद्र के बीच में। देवताओं के साथ-साथ राहू ने भी अमृत पी लिया। और इस तरह राहू भी अमर हो गया।<br /><br /><b>राहू-केतु क्यों हैं सूर्य-चंद्र के दुश्मन?</b><br />हमने पढ़ा कि भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप लेकर छलपूर्वक देवताओं को अमृत पीला दिया। यह बात राहू नामक दैत्य ने जान ली और वह रूप बदलकर देवताओं के बीच जा बैठा। जैसे ही राहु ने अमृत पीया वैसे ही सूर्य और चंद्र ने भगवान से कहा यह तो राक्षस है। तत्काल भगवान ने सुदर्शन चक्र निकाला और उसका वध किया। राहू के दो टुकड़े हो गए। एक बना राहू दूसरा बना केतु। लेकिन उसने दुश्मनी पाल ली चंद्र और सूर्य से। इसीलिए ग्रहण लगता है। इस तरह भगवान ने देवताओं को अमर कर दिया और दैत्य अपनी ही मूर्खता से ठगा गए। यहां समुंद्र मंथन की कथा पूरी हुई।<br /><br />अब हम वामन अवतार में प्रवेश करते हैं। वामन अवतार में भगवान ने बिना युद्ध के ही सारा काम कर लिया। भगवान वामन छोटे से बालक, बड़े सुन्दर से अदिति और कश्यप के यहां पैदा हुए। उस समय दैत्यों का राजा बलि हुआ करता था। बलि बड़ा पराक्रमी राजा था। उसने तीनों लोकों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। उसकी शक्ति के घबराकर सभी देवता भगवान वामन के पास पहुंचे । सभी की बात सुनकर भगवान वामन बलि के सामने गए। उस समय बलि यज्ञ कर रहा था। बलि से उन्होंने कहा राजा मुझे दान दीजिए। बलि ने कहा-मांग लीजिए। वामन ने कहा तीन पग मुझे आपसे धरती चाहिए। दैत्यगुरु भगवान की महिमा जान गए। उन्होंने बलि को दान का संकल्प लेने से मना कर दिया।<br /><br />लेकिन बलि ने कहा - गुरुजी ये क्या बात कर रहे हैं आप। यदि ये भगवान हैं तो भी मैं इन्हें खाली हाथ नहीं जाने दे सकता। बलि ने संकल्प ले लिया। भगवान वामन ने अपने विराट स्वरूप से एक पग में बलि का राज्य नाप लिया, एक पैर से स्वर्ग का राज नाप लिया। बलि के पास कुछ भी नहीं बचा। तब भगवान ने कहा तीसरा पग कहां रखूं। बलि ने कहा- -मेरे मस्तक पर रख दीजिए। जैसे ही भगवान ने उसके ऊपर पग धरा राजा बलि पाताल में चले गए। भगवान ने बलि को पाताल का राजा बना दिया।<br /><br /><b>जब भगवान विष्णु राजा बलि के द्वारपाल बने</b><br />हमने पढ़ा कि भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर दो पग में धरती और आकाश नाप लिए। इसके बाद तीसरा पग उन्होंने बलि के सिर पर रखा जिसके कारण बलि पाताल में चला गया। भगवान ने बलि से प्रसन्न होकर उसे पाताल का राजा बना दिया। बलि भी बहुत समझदार था। उसने कहा- भगवान आप मुझसे अगर प्रसन्न है तो मुझे एक वर दीजिए। भगवान ने कहा-मांग, क्या मांगता है। बलि ने कहा आप मेरे यहां द्वारपाल बनकर रहिए। बलि के द्वार पर विष्णु पहरेदार बनकर खड़े हैं और बलि पाताल पर राज कर रहा है।<br /><br />कई दिन हो गए भगवान वैकुण्ठ नहीं पहुंचे। लक्ष्मीजी ने नारदजी को याद किया। कहा-प्रभु आए ही नहीं हैं बहुत दिन हो गए। नारदजी ने कहा- वहां खड़े हैं डंडा लेकर, चलो बताता हूं। पहरेदार की नौकरी कर रहे हैं। पाताल में लेकर आए देखो ये खड़े हैं। लक्ष्मीजी ने कहा ये पहरेदार कहां से बन गये। देखिए, भगवान् की लीला भी कैसी विचित्र है? लक्ष्मीजी ने विचार किया, मैं बलि से इनको मांग लूं। वो बलि के पास गईं। भगवान पहरेदार थे तो सीधे-सीधे मांग भी नहीं सकती थीं। लक्ष्मीजी गईं बलि के पास और कहा राजा बलि मुझे अपनी बहन बना लो। बलि ने यह प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया। कुछ दिन बाद राखी का त्योहार आया। लक्ष्मी ने कहा लाओ मैं आपको राखी बांध दूं।<br /><br />बलि ने कहा-बांध दो। जैसे ही लक्ष्मीजी ने बलि के हाथ में राखी बांधी, बलिराज ने कहा-बोल बहन मैं तुझे क्या दे सकता हूं? तुरंत लक्ष्मीजी ने कहा- ये द्वारपाल मुझे दे दो। बलि ने कहा ये कैसी बहन है? द्वारपाल ले जाकर क्या करेगी? क्या बात है, आप कौन हैं, बलि ने पूछा। तब उन्होंने बताया- मैं लक्ष्मी हूं। बलि ने कहा मैं तो धन्य हो गया। पहले बाप मांगने आया आज मां मांग रही है। वाह क्या मेरा भाग्य है। आप इन्हें ले जाओ मां। इस तरह लक्ष्मी भगवान को बलि की पहरेदारी से छुड़ाकर लाईं।<br /><br /><b>भगवान विष्णु ने क्यों लिया मत्स्यावतार ?</b><br />भागवत में अब मत्स्यावतार की कथा आ रही है। राजा सत्यव्रत था। राजा सत्यव्रत एक दिन जलांजलि दे रहा था नदी में। अचानक उसकी अंजलि में एक छोटी सी मछली आई। उसने देखा तो सोचा वापस सागर में डाल दूं लेकिन उस मछली ने बोला-आप मुझे सागर में मत डालिए अन्यथा बड़ी मछलियां मुझे खा जाएंगी। तो उसने अपने कमंडल में रखा। मछली और बड़ी हो गई तो उसने अपने सरोवर में रखा, तब मछली और बड़ी हो गई। राजा को समझ आ गया कि यह कोई साधारण जीव नहीं है। राजा ने मछली से वास्तविक स्वरूप में आने की प्रार्थना की।<br /><br />साक्षात चारभुजाधारी भगवान विष्णु प्रकट हो गए और कहा कि ये मेरा मत्स्यावतार है। भगवान ने सत्यव्रत से कहा-सुनो राजा सत्यव्रत! आज से सात दिन बाद प्रलय होगी। तुम एक नाव में सप्त ऋषि के साथ बैठ जाना, वासुकी नाग को रस्सी बना लेना और मैं तुम्हें उस समय ज्ञान दूंगा। ऐसा कहते हैं कि उसको मत्स्यसंहिता का नाम दिया गया। यहां आकर आठवां स्कंध समाप्त हो रहा है।आठवें स्कन्ध में भगवान की लीला देखी, समुद्र मंथन देखा, वामन अवतार देखा, मत्स्यावतार देखा और अब नवम स्कंध में प्रवेश कर रहे हैं।<br /><br />यह स्कंध भगवान का स्कंध है। नवां स्कंध रामायण का स्कंध है। रामायण सीखाती है जीना। राजा परीक्षित की बुद्धि को स्थिर करने के लिए, शुद्ध करने के लिए नवें स्कंध में सूर्यवंशी और चंद्रवंशी राजाओं की कथा कही गई है। सूर्य हैं बुद्धि के स्वामी और चंद्र हैं मन के स्वामी। बुद्धि की शुद्धि के लिए सूर्यवंशी रामचन्द्रजी का चरित्र कहा गया और मन की शुद्धि के लिए चन्द्रवंशी श्रीकृष्ण का चरित्र कहा गया। रामचन्द्रजी मर्यादा का पालन करेंगे तो हमारे मन का रावण मरेगा। हमारे मन का काम मरेगा तो परमात्मा कृष्ण पधारेंगे।<br /><br /><b>भगवान को पाना है तो मर्यादा व प्रेम को जीवन में उतारें</b><br />भागवत में अब श्रीराम व श्रीकृष्ण की कथा आएगी। सूर्यवंश में श्री रघुनाथजी और चंद्रवंश में श्रीकृष्ण अवतरित हुए। वासना के विनाश हेतु सन्त धर्म बताने पर भी शुकदेवजी को लगा कि परीक्षित के मन में अब भी सूक्ष्म वासना बाकी रह गई है। जब तक बुद्धि में काम वासना है श्रीकृष्ण के दर्शन उसे नहीं होंगे। अत: राजा के मन में शेष रही काम-वासना का पूर्णत: नाश करने के लिए शुकदेवजी ने सूर्यवंश और चन्द्रवंश की कथा सुनाई।<br /><br />यदि रामजी को मन में बसाओगे, मर्यादा पुरूषोत्तम रामचन्द्र का अनुकरण करोगे तो भगवान मिलेंगे। उनकी लीला का अनुकरण नहीं कर सकते। श्रवण करना चाहिए। उनका चरित्र चिंतनीय है। श्रीकृष्ण की लीला चिंतन करने के लिए और चिंतन करके तन्मय होने के लिए साधक का बर्ताव कैसा होना चाहिए? वह रामचन्द्रजी ने बताया। सिद्ध पुरूष का बर्ताव श्रीकृष्ण जैसा होना चाहिए। रामचन्द्र की लीला सरल है जबकि श्रीकृष्ण की सारी लीला गहन है।<br /><br />राम दिन के 12 बजे आए और कृष्ण रात्रि को 12 बजे आए। एक मध्यान्ह में आए दूसरे मध्यरात्रि में आए। एक तो राजा दशरथ के भव्य राजप्रसाद में अवतरित हुए और दूसरे कंस के कारागृह में। रामचन्द्र मर्यादा में हैं तो श्रीकृष्ण प्रेम में हैं। मर्यादा और प्रेम को जीवन में उतारेंगे तो सुखी हो जाएंगे। नृसिंह अवतार की कथा में क्रोध नाश की, वामन अवतार की कथा में लोभ के नाश की बात कही गई है। काम का जब नाश होता है तब श्रीकृष्ण प्रकट होते हैं। राम और कृष्ण हमारे जीवन का हिस्सा हैं। हमारी सांस-सांस में बसते हैं। राम सीधा-सीधा शब्द है। राम शब्द में ही कोई तोडफ़ोड़ नहीं है। र, आ और म। श्रीकृष्ण नाम में ही बांके हैं।<br /><br /><b>इंद्र ने क्यों बाधा डाली राजा मरूत के यज्ञ में?</b><br />राजा परीक्षित ने शुकदेवजी से कहा कि मुझे सत्यव्रत मनु के वंश की कथा सुनाइये। शुकदेवजी ने वर्णन करते हुए बताया कि इस कल्प में राजेश्वरी श्री सत्यव्रत वैवस्वत मनु बने। मनु वैवस्वत सूर्यवंश के आदि प्रवर्तक हैं और उनका विवाह श्रद्धा नामक स्त्री से हुआ। उनके वंश में अनेक सन्तानें हुईं। दिष्टी के वंश में मरूत नाम के चक्रवर्ती राजा हुए और मरूत के गुरु थे बृहस्पति और यही बृहस्पति इन्द्र के भी गुरु थे। मरूत राजा को यज्ञ कराना था और बृहस्पति ने मना कर दिया क्योंकि उन्हें इन्द्र के यहां उसी समय यज्ञ कराने जाना था।<br /><br />मरूत को नारदजी मार्ग में मिल गए। उन्होंने अपनी कठिनाई बताया तो नारदजी ने कहा कि बृहस्पति के छोटे भाई सम्वर्त को बुला लीजिए। वे भी गुरु समान हैं। तब मरुत ने सम्वर्त से संपर्क किया। सम्वर्त ने कहा - मैं यज्ञ तो करा दूं किन्तु मेरा ऐश्वर्य देखकर बृहस्पति तुम्हें कहेंगे कि वे तुम्हारा यज्ञ कराने को तैयार है और फिर तुम्हारे गुरु बनना चाहेंगे। यदि वैसा समय आया और तुमने मेरा त्याग किया तो मैं तुम्हें भस्म कर दूंगा।राजा मरूत ने सम्वर्त की शर्त को स्वीकार कर लिया। सम्वर्त ने राजा को मन्त्र दीक्षा दी, यज्ञ आरंभ होने लगा।<br /><br />यज्ञ के सभी पात्र स्वर्ण के थे। राजा के वैभव और यज्ञ की भव्य तैयारी को देखकर बृहस्पतिजी लालयित हो गए और उन्होंने इन्द्र से कहा। इन्द्र ने अग्नि के द्वारा सन्देश भेजा कि इस यज्ञ में बृहस्पति को ही गुरु बनाया जाए। यदि ऐसा नहीं हुआ तो इंद्र इस यज्ञ में बाधा डालेंगे। बृहस्पति और सम्वर्त में इस बात को लेकर विवाद हो गया। गुरु-गुरु में युद्ध हो गया। जिस देव को सम्वर्त योगी आज्ञा करते वह वहां उपस्थित होता और वह देव प्रत्यक्ष अहिरभात यज्ञ का ग्रहण करता। यज्ञ चल रहा है। मरूत के इस यज्ञ का वर्णन ऋग्वेद में भी है। भागवत में तो यह संक्षिप्त में ही वर्णित है।<br /><br /><b>कपिल मुनि ने राजा सगर के पुत्रों को भस्म किया</b><br />श्रीशुकदेवजी ने कहा कि- हे राजा परीक्षित। राजा अम्बरीष के कुल में आगे पुरंजय नाम का शक्तिशाली राजा हुआ। पूर्वकाल में दैत्यों और देवताओं का युद्ध हुआ। देवता पराजित होकर पुरंजय के पास सहायता के लिए आए। पुरंजय ने कहा कि इंद्र मेरा वाहन बनें तो मैं सहायता करूंगा। इन्द्र को स्वीकार करना पड़ा। इंद्र ने बैल का रूप धारण किया। राजा पुरंजय शस्त्र सज्जित होकर उस पर आरूढ़ हुए और देवताओं को विजय दिलाई। चूंकि दैत्यों का पुर जीतकर इन्द्र को दिया था, इसीलिए उनका नाम पुरंजय पड़ा। इन्द्र को वाहन बनाया, इसलिए उनका नाम इंद्रवाह पड़ा और बैल के कंधे पर बैठकर युद्ध किया, इसलिए नाम काकोस्थ पड़ा।<br /><br />राजा पुरंजय के आगे जाकर पुत्र हुए उसमें सत्यव्रत भी हुआ। यही सत्यव्रत बाद में त्रिशंकु कहलाया। सत्यव्रत के यहां पुत्र हुआ हरिशचन्द्र। हरिशचन्द्र की संतान का नाम सगर पड़ा। सगर ने एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया। उस यज्ञ के अश्व को इन्द्र ने चुराया और कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया। सगर के पुत्रों ने घोड़े की खोज में पाताल तक खोद डाला। कपिल मुनि के आश्रम में वो घोड़ा दिखा। उन्होंने कपिल मुनि को ढ़ोंगी समझा और ज्यों ही कपिलमुनि ने नेत्र खोला सगर के पुत्र वहीं भस्म हो गए । जब पुत्र नहीं लौटे तो उन्होंने अपनी दूसरी पत्नी से उत्पन्न अंशुमान को खोज के लिए भेजा।<br /><br />अंशुमान ने वहां पहुंच कर कपिल मुनि को तपस्यारत देखा। उन्होंने मुनि की प्रशंसा की, तब मुनि ने उनको सारी घटना बताई। घोड़ा देते हुए कहा कि वे इससे अपने पिता का यज्ञ सम्पन्न करें और मृत पितरों का गंगाजल से उद्धार करें। गंगाजल के बिना मृत पितरों का उद्धार संभव नहीं है। अंशुमान घोड़ा लेकर वन में प्रस्थान कर गया।<br /><br /><b>इसलिए गंगा को भागीरथी भी कहते हैं</b><br />हमने पढ़ा कि सूर्यवंशी राजा सगर ने अश्यमेध यज्ञ किया उस यज्ञ का घोड़ा इंद्र ने चुराकर कपिलमुनि के आश्रम में बांध दिया। जब सगर के पुत्रों ने यज्ञ का अश्व कपिल मुनि के आश्रम में देखा तो उन्होंने मुनि का अपमान किया। मुनि की आंख खोलते ही सगर के सभी पुत्र भस्म हो गए। बाद में सगर ने अपने दूसरे पुत्र अंशुमन को अश्व की खोज में भेजा तो उसे कपिल मुनि मिले और उन्होंने कहा यदि इनकी मुक्ति चाहते हो तो गंगाजल से इनका तर्पण करना होगा। सगर के बाद अंशुमन राजा बना। राजा बनने के बाद अंशुमान ने बहुत यत्न किए लेकिन वह गंगा को धरती पर नहीं ला पाए।<br /><br />अपने पुत्र दिलीप को राज सौंपकर वह भी वन में चले गए। दिलीप ने भी बहुत यत्न किए लेकिन वह भी गंगा को नहीं ला सके। किन्तु दिलीप के पुत्र भगीरथ की तपस्या से गंगाजी प्रसन्न हुईं और उनको दर्शन दिए। गंगा ने कहा कि मैं पृथ्वी पर आ तो जाऊंगी पर मेरे वेग को कोई न रोक सका तो मैं सीधे पाताल में चली जाऊंगी, फिर मेरा लौटना सम्भव नहीं है। तब भगीरथ ने भगवान शंकर की स्तुति की, उनसे निवेदन किया कि वे अपनी जटा में गंगा को धारण करें। गंगाजी का अवतरण हुआ और सगर पुत्रों को मुक्ति मिली। इसीलिए गंगा को भागीरथी भी कहते हैं।<br /><br />भगीरथ के कुल में सवदास नाम का राजा हुआ, जिसे श्राप रहा और वह नि:संतान रह गया। वशिष्ठ जी ने स्थिति देखी और उनकी पत्नी को अपने तेज से गर्भवती बना दिया। जब उसके यहां संतान पैदा हुई तो उनका नाम अषमग रखा गया। आगे चलकर इसी वंश में खटवांग नामक राजा हुआ। खटवांग के बाद दीर्घबाहु राजा हुआ उसके बाद रघु हुए। उन्हीं के नाम से सूर्यवंश का नाम रघुवंश हुआ। रघु राजा ने कई यज्ञ किए और रघु के घर अज का जन्म हुआ और अज के घर दशरथ का जन्म हुआ और राजा दशरथ के यहां भगवान राम का अवतरण हुआ।<br /><br /><b>जन्म-मरण के बंधनों से मुक्ति दिलाती है रामकथा</b><br />भागवत में हम सूर्यवंश की कथा सुन रहे हैं। भागवत में राम जन्म की चर्चा नहीं आई है पर आज हम इस गौरव की अनुभूति को ले लें कि कृष्ण जन्म तो हम कर ही रहे हैं साथ ही संक्षेप में रामकथा का श्रवण भी करते चलें। रामकथा जन्म-मरण के बंधनों से मुक्ति दिलाती है। सूर्यवंशी राजा दशरथ के यहां चार पुत्र हुए । सबसे बड़े थे राम, फिर भरत, लक्ष्मण और सबसे छोटे थे शत्रुघ्न। चारों राजकुमार बड़े हुए, लेकिन रामजी को देखकर दशरथजी को एक दिन चिन्ता हुई। रामजी जैसे-जैसे बड़े होने लगे, आचरण में वैराग्य दिखने लगा।<br /><br />भजन-पूजन करते, अच्छी-अच्छी बातें करते तो दशरथजी को चिन्ता हुई कि मेरे बेटे को ये वैराग्य कैसे पैदा हो रहा है जबकि मैं तो राजा हूं। वे गुरु के पास गए। ऐसा कहते हैं कि वशिष्ठजी ने भगवान को योग वशिष्ठ सीखाया। उन्होंने कहा कि वैराग्य होना बहुत अच्छी बात है पर आप राजकुल के सदस्य हैं। आपके दायित्व क्या होने चाहिए, अपने कर्तव्यों को पहचानें और भगवान फिर उस मार्ग पर चलें। चारों राजकुमार बड़े हो गए। एक दिन अचानक ऋषि विश्वामित्रजी आए। विश्वामित्रजी ने दशरथजी से कहा-हम बहुत परेशान हैं, राक्षस यज्ञ नहीं करने देते। आप ये दोनों राजकुमार राम और लक्ष्मण हमें दे दें।<br /><br />दशरथजी यह सुनकर संशय में पड़ गए। कहा- इतने सुकोमल राजकुमार राक्षसों से कैसे लड़ेंगे? आप इन छोटे-छोटे बच्चों को राक्षसों से लड़ाने ले जा रहे हैं, मना करने लग गए विश्वामित्रजी को। विश्वामित्रजी ने वशिष्ठजी की ओर देखा। वशिष्ठजी ने दशरथजी से कहा कि तुम्हारे बच्चे यज्ञ से पैदा हुए हैं और यज्ञ के लिए मांगे जा रहे हैं, दे दो। ये कुछ सीखकर ही आएंगे। सैद्धांतिक ज्ञान श्रीराम ने वशिष्ठ से प्राप्त किया। अब व्यावहारिक ज्ञान विश्वामित्रजी से प्राप्त करने जा रहे हैं। दोनों राजकुमारों को विश्वामित्र ले गए। दोनों राजकुमारों ने दैत्यों से यज्ञ की रक्षा की और यज्ञ संपन्न हुआ।<br /><br /><b>जब भगवान राम ने सीता का वरण किया</b><br />हमने पढ़ा कि ऋषि विश्वामित्र राम व लक्ष्मण को अपने साथ ले गए और राम-लक्ष्मण ने कई राक्षसों का वध कर यज्ञ संपन्न करवाया। यहां से विश्वामित्र राम व लक्ष्मण को जनकपुर ले गए। जनकपुर में धनुष यज्ञ हुआ। राम ने भगवान शंकर का धनुष खेल ही खेल उठा लिया और जैसे ही उस पर प्रत्यंचा चढ़ाने लगे वह टूट गया। सीताजी को भगवान ने वरण किया, विवाह हुआ। भगवान का विवाह हो रहा है। इधर जनकपुर की स्त्रियां बैठी हुई हैं और इधर भगवान की बारात बैठी है।<br /><br />ऐसा कहते हैं कि मिथिला की स्त्रियां टिप्पणियां करने में बड़ी चतुर थीं। सीताजी की सखियों ने रामजी को देखा और कहा-देखो ये दशरथ के बेटे हैं । अयोध्या के राजकुमार यज्ञ से पैदा हुए हैं, खुद नहीं हुए। लक्ष्मणजी को तो ये सब बर्दाश्त था ही नहीं। उन्होंने कहा हम तो फिर भी यज्ञ में से पैदा हुए हैं पर हम जिसको ले जा रहे हैं वो तो जमीन में से निकली है फिर भी ले जा रहे हैं। अयोध्या में तो यज्ञ से होते हैं पर जनकपुरी में जमीन में से निकालते हैं। हास्य, विनोद के प्रसंग से भगवान का विनोद हो रहा है। देखिए जीवन में जब हम परिवार में मिले, जब कोई उत्सव हो तो मनोविनोद की प्रवृत्ति बनाए रखिए, गाम्भीर्य को थोड़ी देर बाहर कर देना चाहिए।<br /><br />उम्र परिवार में बाधा नहीं होना चाहिए। परिवार में उम्र नहीं होती, परिवार में रिश्ता होता है। तो भगवान अपने उत्सव में आनन्द मना रहे हैं। विवाह हो गया। बारात घर लौटकर आई। यहां बालकाण्ड पूरा हुआ। इसके बाद राजा दशरथजी विचार कर रहे हैं। निर्णय लेते हैं कि कल राम को राजा बना दिया जाए, फैसला हो गया। घोषण कर दी गई। अयोध्या में उत्साह हो गया। सब प्रसन्न हो गए।<br /><br /><b>जब भगवान राम को मिला वनवास</b><br />हमने पढ़ा भगवान राम का विवाह हुआ और दशरथ से सोचा कि राम को राजा भी बना दूं। यह बात मंथरा को पता लग गई। मंथरा नीचे आई और सीधे कैकयी के भवन में चली गई और कैकयी को बुद्धि फेर दी और कहा देखो आपको राजा से दो वरदान लेना हैं। एक काम करो, कोपभवन में चली जाओ और राजा आए तो मांग लेना। राजा जब रात को काम निपटाकर आए तो कैकयी के महल में गए। जैसे ही द्वार पर गए तो मंथरा मिल गई, मंथरे कहां है रानी। मंथरा ने कहा-कोप भवन में, राजा घबराए।<br /><br />दशरथ अन्दर गए तो देखा कैकयी नीचे बैठी जमीन पर बाल बिखरे हुए, लम्बी-लम्बी सांसे ले रही हैं। दशरथजी कैकयी से कह रहे हैं हे मृदुवचनी, हे गजगामिनी, हे कोमलनयनी। यहां कोप भवन में क्यों बैठी हो? कैकयी ने कहा-आपने मुझे दो वरदान मांगने के लिए कहा था। वह आज मैं मांगती हूं कि भरत को राजगद्दी दो और राम को वनवास। यह सुनकर दशरथजी अचेत हो गए, होश में आने पर बोले-ये वरदान वापस ले ले। मैं तेरे पैर पड़ता हूं। कैकयी लाख समझाने पर भी नहीं मानी। भगवान राम को सूचना मिली कि आपका राजतिलक निरस्त हो रहा है। आपको वन जाना है।<br /><br />भगवान ने कहा स्वीकार है। भगवान जब वन को जाने लगे तब सीताजी ने कहा मैं भी चलूं, लक्ष्मणजी बोले मैं भी चलूं। भगवान ने कहा-नहीं, तुम्हें यहां रहना है। जब रामजी ने बिल्कुल मना कर दिया तो लक्ष्मण ने कहा आप जाओगे और जैसे ही सरयू नदी पार करोगे मैं सरयू में कूदकर जान दे दूंगा। राम जानते थे कि ये जो कह रहा है वह कर देगा। तो राम, सीता और लक्ष्मण तीनों वन जाने के लिए निकले।<br /><br /><b>पुत्र वियोग में प्राण त्यागे राजा दशरथ ने</b><br />भागवत में हम रामकथा का श्रवण कर रहे हैं। हालांकि भागवत में रामकथा नहीं है लेकिन कृष्णकथा के साथ रामकथा का आनंद भी लेते चलें। रामकथा में हम वनवास के प्रसंग पर है। राम, लक्ष्मण व सीता जब वन जाने के लिए चले तो अयोध्या के लोगों ने कहा-हम भी चलेंगे। भगवान ने कहा-चलो। सभी साथ चले और तमसा नदी के तट पर जब पहली रात आई और भगवान ने कहा चलो सोते हैं तो सब सो गए। जैसे ही सब सो गए भगवान ने लक्ष्मण व सीता से कहा सुनो-सुनो उठो जल्दी और चल दो यहां से।<br />भगवान चले गए और सुबह नींद खुली अयोध्यावासियों की तो उन्होंने कहा अरे भगवान कहां गए। भगवान चले गए हो-हल्ला होने लगा। इसके बाद भगवान केवट से, गुहराज से मिलते हैं। भारद्वाज ऋषि के आश्रम में गए, वाल्मीकि के आश्रम गए। आखिर में चित्रकूट गए और वहीं ठहर गए। इधर अयोध्या का दृश्य आता है। सुमन्त अयोध्या पहुंचे। दशरथ ने कहा-कहां हैं मेरे बच्चे? सुमन्त ने कहा वो तो चले गए। दशरथ दहाड़े मारकर रो रहे हैं। राम के वियोग में दशरथजी ने प्राण छोड़ दिए।<br /><br />इधर भरतजी को सूचना मिली, भरतजी जैसे ही आए सारी अयोध्या ने कहा-इसमें इसका षडय़ंत्र था। भरतजी आते हैं और सीधे कैकयी के महल में जाते हैं तो लोग कहते हैं कि षडय़ंत्र बिल्कुल पक्का हो गया। लेकिन भरत कैकयी के महल में इसलिए जाते थे क्योंकि वे जानते थे कि राम कैकयी के महल में ही मिलेंगे। उनको तो सूचना थी ही नहीं कि क्या दुर्घटना हो गई। जैसे ही पहुंचे, कैकयी और मंथरा ने बताया। भरत ने कहा-अरे मां ये तूने क्या किया। भरत फैसला लेते हैं कि मैं श्रीराम को लेने जाऊंगा, मैं श्रीराम को वापस लेकर आऊंगा।<br /><br /><b>जब लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक काटी</b><br />हमने पढ़ा कि भरत को जब पता चला कि राम को वनवास दे दिया गया है तो वे बोले- मैं भैया को पुन: लेकर आऊंगा। सब लोग बोलते हैं कि हम भी आपके साथ चलेंगे। भरतजी के साथ, गुरुदेव के साथ सब लोग चित्रकूट पहुंचते हैं। भगवान से भरत का मिलन होता है। भगवान से भरतजी कह रहे हैं कि आप चलिए ये राज्य आप ले लीजिए। भगवान बोलते हैं, नहीं भरत अब तुम इसको स्वीकार करो। एक भाई छोडऩे को तैयार है दूसरा भाई वापस उसको दे रहा है। यह संवेदनशीलता की पराकाष्ठा है।<br /><br />राम बोलते हैं ये पादुका लेकर तू चला जा। पादुका लेने का अर्थ है कि भगवान ने अपना दायित्व तुझको दिया। चित्रकूट से सब लोग रवाना होते हैं। अरण्यकाण्ड में प्रवेश करते हैं। चित्रकूट छोड़कर भगवान् अत्रि-अनुसूइया के आश्रम में आए। फिर अगस्त्य ऋषि के आश्रम में आते हैं और फिर दंडक वन में पहुंचते हैं। पंचवटी में शूर्पणखा आ जाती है। शूर्पणखा लक्ष्मण पर मोहित हो जाती है और बोलती है तुम मुझसे विवाह करो। लक्ष्मण मना कर देते हैं। शूर्पणखा सीता को खाने के लिए लपकती है तो लक्ष्मणजी शूर्पणखा के नाक-कान काट देते हैं। शूर्पणखा रावण के पास पहुंचती है। रावण को भड़काती है कि मैं तेरे लिए सुंदर-सी स्त्री ला रही थी, पर दो राजकुमार अड़ गए।<br /><br />वो जानती थी कि सुंदर स्त्रियां मेरे भाई की कमजोरी है। बदला खुद का लेना था, भाई को दूसरे तरीके से भड़का रही है। भाई भी भड़क गया, उसने कहा-ठीक है । अभी जाते हैं और रावण लंका से निकलता है। एक दिन भगवान ने एकांत में सीताजी से कहा कि सीते! अब लीला का अवसर आ गया है। तुम और मैं अकेले हैं लक्ष्मण बाहर गया है तुम एक काम करो तुम अग्नि में प्रवेश कर जाओ और अपनी प्रतिछाया यहां छोड़ दो। रावण तुम्हारा अपहरण करेगा। जाओ तुम अग्नि में निवास कर लो। सीताजी अपनी प्रतिछाया वहां छोड़ती हैं और अग्नि में निवास कर जाती हैं।<br /><br /><b>साधु के वेश में किया रावण ने सीता का हरण</b><br />रामकथा में सीताहरण का प्रसंग हम पढ़ रहे हैं।हमने पढ़ा लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक काट दी और रावण ने सीता के अपहरण की योजना बनाई। योजनानुरूप रावण का मामा मारीच स्वर्ण मृग के रूप में आश्रम के पास से निकलता है, सीता मृग को देखकर रामजी से कहती हैं कि मुझे यह स्वर्ण मृग चाहिए। जिद पर अड़ गईं सीताजी। भगवान ने भी धनुष बाण उठाया और उसके पीछे चल दिए।<br /><br />जाते-जाते लक्ष्मण से कह गए कि सावधान रहना, ये आश्रम मत छोडऩा। ये वीरान है, बियाबान है कुछ हो न जाए। लक्ष्मण ने कहा-ठीक है। इधर मारीच को जैसे ही बाण लगा, उसने श्रीराम की आवाज में लक्ष्मण चिल्लाया। सीताजी ने सुना तो उन्होंने लक्ष्मणजी से कहा-यह तुम्हारे भैया की आवाज है, कहा-दौड़ो। लक्ष्मण बोल रहे हैं आपको कहां सुनाई दे रही है मुझे तो सुनाई ही नहीं दे रही। लक्ष्मण ने मना कर दिया क्योंकि राम ने आश्रम छोडऩे से मना किया था। सीताजी ने लक्ष्मणजी से कहा-नहीं आपको जाना पड़ेगा। लक्ष्मणजी ने कहा- ठीक है मां। लक्ष्मण रेखा खींचकर जाने लगे, तो बोले इसके बाहर मत आइएगा।<br /><br />इधर लक्ष्मणजी गए उधर रावण आया और रावण ने जैसे ही पैर उठाया अग्नि जली। बोला- ये तो लक्ष्मण रेखा है। रावण ने साधु का भेष धरा और कहा भिक्षां देहिं। सीताजी ने कहा आ कर ले जाओ। रावण ने कहा-नहीं मैं भीतर नहीं आ सकता, यदि आप देना चाहें तो बाहर आइए। रावण को जल जाने का डर था। जैसे ही सीताजी बाहर निकलीं और रावण ने उनका अपहरण कर लिया। लंका ले जाते समय रावण का जटायु से युद्ध हुआ। जटायु को घायल करके रावण सीताजी को ले जाता है। इधर भगवान राम, लक्ष्मण को देखते ही बोले- तुम यहां क्यों आए? लक्ष्मण ने पूरी बात बताई। दोनों दौड़ कर आश्रम आए लेकिन तब तक रावण सीता माता का अपहरण कर चुका था।<br /><br /><b>जब जामवंत ने हनुमान को उनकी शक्ति याद दिलाई</b><br />हमने पढ़ा कि रावण साधु का वेश धर कर माता सीता का हरण कर लेता है। राम काफी प्रयास करते हैं लेकिन फिर भी सीता का कोई पता नहीं चलता। सीता को ढूंढते हुए भगवान किष्किंधा आते हैं। यहां से किष्किंधा कांड प्रारंभ होता है। यहां रामकथा में पहली बार हनुमानजी का प्रवेश होता है। रामजी के जीवन में पहली बार हनुमानजी आए हैं। रामकथा में हनुमानजी का प्रवेश हुआ है। हनुमानजी का परिचय होता है और हनुमानजी श्रीराम से कहते हैं कि आईए-आईए आप सुग्रीव से मैत्री करिए। चलिए मेरे साथ। भगवान बोलते हैं-ठीक है।<br /><br />हनुमान ने सुग्रीव से मैत्री करवाई। राम बाली का वध करते हैं और सुग्रीव को किष्किंधा का राजा बना देते हैं। राजकाज मिलने पर सुग्रीव भगवान का काम भूल जाता है। आदमी को राजकाज मिल जाए तो रामकाज पहली फुर्सत में भूल जाता है। सुग्रीव भी भूल गए, पर लक्ष्मण ने याद दिलाई। सुग्रीव ने वानरों से कहा कि सीताजी की सूचना लेकर आओ। वानर विचार कर रहे हैं कि कैसे समुद्र लांघा जाए? सबकी हिम्मत जवाब दे गई। तब जामवंत तथा वानरों ने हनुमानजी को उनकी शक्ति का स्मरण करवाया। शक्ति का स्मरण होते ही हनुमानजी लंका जाने हेतु तैयार होते हैं।<br /><br />तब हनुमानजी चले हैं और फिर हनुमानजी को एक-एक करके सुरसा, सिंहिका, लंकिनी जो भी मिला सबको पराजित करते हुए विभीषण को प्रभु राम के पक्ष में आने का न्योता देते हैं। इसके बाद हनुमानजी अशोक वाटिका जाते हैं और माता सीता को प्रभु राम का संदेश सुनाते हैं । भूख लगने पर अशोक वाटिका के फल खाते हैं साथ ही वाटिका उजाड़ भी देते हैं। रावण का पुत्र अक्षयकुमार जब हनुमानजी को पकडऩे आता है तो वध कर देते हैं। इसके बाद मेघनाद आता है वह ब्रह्मास्त्र छोड़ता है। हनुमानजी ब्रह्माजी का मान रखने के लिए उस अस्त्र के बंधनों से बंध जाते हैं।<br /><br /><b>रावण का वधकर श्रीराम सीता के साथ अयोध्या आए</b><br />मेघनाद हनुमानजी को ब्रह्मास्त्र से बांधकर रावण के दरबार में लेकर आता है। रावण देखता है इस वानर की इतनी हिम्मत। मेरे पुत्र को मारा और अशोक वाटिका भी उजाड़ दी। इतना उपद्रव किया है इसने। रावण ने आज्ञा दे दी इसकी पूंछ जला दो। हनुमानजी की पूँछ तो नहीं जलती वे पूरी लंका में आग लगा देते हैं। लंका दहन करके लौटकर हनुमान सीताजी को प्रणाम करते हैं। सीताजी से चूड़ामणी लेकर रामजी के पास आते हैं। रामजी ने मुद्रिका दी थी। सीताजी ने चूड़ामणी दी। वापस लौटकर हनुमानजी भगवान को प्रणाम करते है तथा पूरी घटना का वर्णन सुनाते हैं।<br /><br />हनुमानजी की बहुत प्रशंसा होती है। इधर रावण द्वारा भगाए जाने पर विभीषण श्रीराम की शरण में आ जाता है। पूरी बात जानकर भगवान लंका जाने के लिए कूच करते हैं। रास्ते में समुद्र आ जाता है। वानरों की सेना लेकर कैसे जाएं समुद्र पार। यह प्रश्न उठता है। यहां भगवान विभीषण से पूछ रहे हैं यह समुद्र कैसे लांघा जाए। जैसे ही भगवान श्रीराम ने विभीषण की सलाह पर समुद्र से निवेदन किया लक्ष्मणजी क्रोधित हो गए। लक्ष्मणजी ये सब काम पसंद ही नहीं करते, राम और निवेदन और वो भी समुद्र से। भगवान से लक्ष्मणजी कहते हैं हे प्रभु आप इस सागर को सुखा दीजिए। भगवान चुपचाप हैं। रामजी कहते हैं लक्ष्मण थोड़ा धैर्य रखो।<br /><br />राम जानते थे कि मैं वरिष्ठ हूं। मुझे नेतृत्व देना है। तीन दिन बाद भगवान ने समुद्र को डांटा तो समुद्र ने रास्ता सुझाया। समुद्र पर बांध बनाकर भगवान सेना सहित लंका में पहुंच गए। अंगद को भेजा। अंगद ने संदेश दिया। युद्ध हुआ। रावण को भगवान मारते हैं, सीताजी को लेकर आते हैं। अवध प्रस्थान करते हैं। उत्तरकाण्ड के आरम्भ में हनुमानजी और भरत मिलते हैं। राम का राज्याभिषेक होता है। यहां आकर रामकथा समाप्त होती है। भागवत में संक्षेप में है।<br /><br /><b>जब पृथ्वी राजविहीन हो गई तब देवताओं ने क्या किया?</b><br />रामकथा के बाद शुकदेवजी अब कथा को आगे बढ़ाते हैं। उन्होंने परीक्षित को बताया कि एक बार इक्षवाकु के पुत्र निमी ने अपने मन में यज्ञ करने का निश्चय किया और महर्षि वसिष्ठ से ऋत्विज बनने की प्रार्थना की। वसिष्ठजी ने बताया कि पूर्व से ही उनको इन्द्र ने यज्ञ के लिए निवेदन किया है तो यज्ञ पूर्ण होने पर ही वे निमी के यज्ञ में आ पाएंगे। निमी को लगा कि न मालूम कब जीवन समाप्त हो जाए, विलम्ब नहीं करना चाहिए, इसलिए उन्होंने दूसरे ऋषियों बुलाकर यज्ञ आरम्भ कर दिया।<br /><br />इधर इन्द्र के यज्ञ से जब वसिष्ठ लौटे और निमी को जब यज्ञ करते देखा तो उन्हें क्रोध आ गया। उन्होंने निमी को शाप दिया। निमी ने भी वसिष्ठ को लोभी होने का शाप दे दिया और दोनों का अंत हो गया। कालान्तर में वसिष्ठ की तो उत्पत्ति वरूण से हुई किन्तु निमी ने तो पुन: देह धारण की इच्छा ही नहीं की थी। तब पृथ्वी राजा विहीन हो गई तो देवताओं ने निमी के शरीर को मथकर उससे पुत्र उत्पन्न किया। देह सम्बन्ध के बिना उत्पन्न होने से उसका नाम विदेह पड़ा। इस वंश का भावी उत्पादक होने से उसको जनक कहा गया।<br /><br />शुकदेवजी ने कहा- राजा जनक की वंशावली विस्तार में सुनिए। जिस वंश से पुरुरवा आदि राजा हुए वे सोमवंशी कहलाए। नारायण की नाभि से निकले हुए कमल से ब्रह्माजी और ब्रह्माजी से उनके गुण, कर्म, स्वभाव के अनुकूल ही अत्रि नामक पुत्र का जन्म हुआ। अत्रि के नेत्रों से आनन्दमय अश्रुओं से अमृतमय चन्द्रमा उत्पन्न हुआ। चन्द्रमा ने अपने गुरु बृहस्पति की पत्नी तारा को छीन लिया। बृहस्पति ने तारा को वापस करने के लिए बार-बार कहा, किन्तु चन्द्रमा नहीं माना, फलस्वरूप संग्राम छिड़ गया।<br /><br />ब्रह्माजी ने चन्द्र को डांटा और तारा वापस दिलाई। इस अवधि में तारा गर्भवती हो गई। उसके गर्भ से बुध ने जन्म लिया। उस बालक पर बृहस्पति और चन्द्र दोनों अपना अधिकार जताने लगे। तब ब्रह्माजी ने तारा के वास्तविक पिता के विषय में जानकर उसे चन्द्र को दिलवा दिया।<br /><br /><b>परशुराम ने क्यों किया था क्षत्रियों का विनाश?</b><br />हमने पढ़ा कि चंद्र ने अपने गुरु बृहस्पति की पत्नी तारा का हरण कर लिया तब ब्रह्मा ने तारा को पुन: बृहस्पति को दिलाया। उसी दौरान तारा ने बुध को जन्म दिया। तब ब्रह्माजी ने उसके पिता के बारे में जानकर उसे चंद्र को दे दिया। बुध ने ईला से विवाह कर पुरुरवा को जन्म दिया। पुरुरवा सौन्दर्य से परिपूर्ण था। स्वर्ग की अप्सरा उर्वषी पुरुरवा की ओर आकर्षित हो गई। पुरुरवा और उर्वषी से छ: पुत्र उत्पन्न हुए थे। जिसमें गाधि राजा बाद में हुए।<br /><br />गाधि की सत्यवती कन्या का विवाह ऋचिक ऋषि से हुआ। एक समय सत्यवती और उसकी माता को संतान की इच्छा हुई। ऋषि ने पत्नी के लिए ब्राह्मण मन्त्रों से और सास के लिए क्षत्रिय मन्त्रों से अभिमन्त्रित चरू मंगवाया और जब वे स्नान को गई तो मां बेटी ने चरू बदल लिए। फलस्वरूप यह हुआ कि सत्यवती के गर्भ से तो जमदग्नि और उनकी माता के गर्भ से विश्वामित्र उत्पन्न हुए। जमदग्नि ने रेणुका से विवाह करके उसके गर्भ से अंशुमान आदि अनेक तेजस्वी पुत्रों को जन्म दिया, जिनमें सबसे कनिष्ठ पुत्र परशुराम थे।<br /><br />परशुराम को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। कार्तवीर्य अर्जुन के पुत्रों द्वारा जमदग्नि ऋषि की हत्या करने से क्रोधित होकर उन्होंने इक्कीस बार धरती से क्षत्रियों का नाश कर दिया था। गाधि पुत्र परम तेजस्वी विश्वामित्र ने अपने तप बल से क्षत्रिय धर्म को छोड़कर ब्रह्म ऋषि का पद प्राप्त किया। उनके भी 100 पुत्र थे। पुरुरवा के पुत्र आयु के नहूष हुए और उनके कुल में आगे जाकर ययाति ने शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और राक्षसराज वृषपर्वा की कन्या शर्मिष्ठा से विवाह किया।<br /><br /><b>शुक्राचार्य के श्राप से जवानी में ही बूढे हो गए ययाति</b><br />भागवत में शुकदेवजी पुरुरवा के वंश का वर्णन कर रहे हैं। शुकदेवजी ने राजा परीक्षित को बताया कि एक बार दानवराज वृषपर्वा की कन्या शर्मिष्ठा व शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी अन्य सखियों सहित एक वन में भ्रमण करने के लिए गईं। सभी वस्त्र उतारकर सरोवर में जल विहार करने लगीं तभी शंकर भगवान उधर से निकले। उनको आता देखकर सभी सखियों ने सरोवर से जल्दी-जल्दी निकलकर वस्त्र पहने और भूल से देवयानी ने शर्मिष्ठा के वस्त्र पहन लिए। अपने वस्त्र देवयानी को पहने देख शर्मिष्ठा ने देवयानी को कुएं में डाल दिया।<br /><br />थोड़ी देर बाद पुरुवंशी राजा ययाति आखेट के लिए वहां से निकले। कुएं में से आवाज आने पर वे उसके समीप गए। कुएं में देवयानी दिखाई दी, उसे निकाला। आपस में परिचय हुआ और दोनों ने विवाह कर लिया। शुक्राचार्य की भी स्वीकृति हो गई। देवयानी अपने घर लौट आई। तब देवयानी ने शर्मिष्ठा के व्यवहार के बारे में अपने पिता शुक्राचार्य को बताया। शुक्राचार्य वृषपर्वा के घर गए। वृषपर्वा ने क्षमा मांगी और निर्णय देवयानी पर छोड़ दिया गया। देवयानी ने शर्त रखी कि शर्मिष्ठा उसके विवाहित पति की दासी बनकर रहना स्वीकार करे, किन्तु यह भी शर्त थी कि वह ययाति के साथ सम्बन्ध नहीं रखेगी।<br /><br />किन्तु एक दिन शर्मिष्ठा पुत्रवती होने की ललक में राजा ययाति के पास पहुंची और राजा ने उसकी इच्छा को पूर्ण किया। यह बात जानकर देवयानी अपने पिता के घर चली गई। पिता ने जब यह बात सुनी तो ययाति को वृद्ध होने का श्राप दिया। लेकिन फिर कहा कि यदि तुम्हारा कोई पुत्र अपना यौवन दे दे तो तुम पुन: युवा हो सकते हो। ययाति नगर लौटे, उन्होंने पुत्रों से यह बात कही, किन्तु किसी ने अपना यौवन देना स्वीकार नहीं किया। तब उनके छोटे पुत्र पूरु ने अपना यौवन देना स्वीकार किया। अन्त में जब ययाति को बोध हुआ तो उन्होंने पूरु को यौवन लौटा दिया और परमधाम चले गए।<br /><br /><b>जब शुकदेवजी ने ली परीक्षित की परीक्षा</b><br />शुकदेवजी ने परीक्षित को बताया कि पहले मैंने सूर्यवंश की कथा सुनाई अब चंद्रवंश की सुनाता हूं। इक्षवाकु हुआ, निली हुआ। निली के बाद जनक के वंश के विषय में सुनाया। जनकराज के बाद चंद्रवंश की चर्चा करते हैं। कहते हैं अत्रि हुआ, अत्रि से चन्द्रमा फिर बुध, शांबी, गादी राजा की सत्यव्रती पुत्री हुई। उसके वंश में आगे जाकर विश्वामित्र हुए, परशुराम हुए फिर ययाति की कथा सुनाते हैं। ययाति के वंश में पुरुरवा पैदा हुआ और उसके बाद नहुष हुए।<br /><br />इनकी 12वीं पीढ़ी में दुष्यंत पैदा हुआ और दुष्यंत के यहां भरत पैदा हुआ। शांतनु इस पीढ़ी में पैदा हुए। कुरु राजा थे उनके नाम पर कुरुवंश पड़ा। शांतनु की संतान थे भीष्म और यहां से कुरुवंश की चर्चा करते-करते शुकदेवजी बताते हैं। हे परीक्षित! इस वंश में फिर तुम पैदा हुए और तुम्हारे पुत्र जन्मेजय, सूतसेन हुए, भीमसेन हुए, उग्रसेन हुए और तुम्हारे वंश का अंतिम राजा क्षेमक हुआ। इसके बाद तुम्हारा वंश समाप्त हो गया। सारी वंशावली बता दी।अब भागवत में श्रीकृष्ण का प्रवेश हो रहा है। भागवत का फल है दशम स्कंध।<br /><br />दशम स्कंध के आरंभ में शुकदेवजी ने राजा परीक्षित की परीक्षा ली। कहा- पांच दिनों से एक आसन से बैठे हो, कुछ जलपान करना हो, भोजन आदि करना हो तो कर सकते हो। परीक्षित ने कहा कि भगवन अन्न तो क्या मैंने तो जल भी त्याग दिया है। भूख-प्यास मुझे अब बिल्कुल सता नहीं पाती। राजा के वचन सुनकर शुकदेवजी को बड़ी प्रसन्नता हुई, राजा सुपात्र और जिज्ञासु भी हैं। दशम स्कंध तो भगवान श्रीकृष्ण का हृदय है। वे रस स्वरूप हैं अत: जीव भी रस स्वरूप है। श्रीकृष्ण कथा सभी प्रकार के जीवों को आकर्षित करती हैं।<br /><br /><b>कंस ने क्यों बंदी बनाया देवकी व वसुदेव को?</b><br />भागवत में हम दसवां स्कंध आरंभ कर रहे हैं। इसमें भगवान श्रीकृष्ण की कथा है। शुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि- हे पाण्डुनन्दन। परीक्षित! राक्षसों के अत्याचार से पीडि़त और त्रस्त पृथ्वी गाय का रूप धारण कर ब्रह्माजी की शरण में गई। ब्रह्माजी उसको शंकरजी के समीप ले गए। शिवजी उस समय भगवान विष्णु की आराधना कर रहे थे। तदनानुसार ब्रह्माजी ने पृथ्वी को आश्वस्त करते हुए कहा कि भगवान विष्णु शीघ्र ही यदुकुल में वसुदेव की पत्नी देवकी के गर्भ से श्रीकृष्ण के रूप में जन्म लेकर अवतार धारण करेंगे।<br /><br />हे राजन। यदुवंशियों में भजमान राजा के वंश में विदुरत के पुत्र राजा शूरसेन बड़े तेजस्वी थे। उनके दस पुत्र और पांच कन्याएं हुई। उनके ज्येष्ठ पुत्र का नाम वसुदेव था। वसुदेव का विवाह देवक की पुत्री देवकी से हुआ। शूरसेन ने मथुरा को अपनी राजधानी बनाया। देवकी के आठवें गर्भ से भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। कंस देवकी का चचेरा भाई था। देवकी के विवाह के समय कंस को आकाशवाणी सुनाई दी कि देवकी की आठवीं संतान उसका काल सिद्ध होगी। यह सुनकर कंस ने देवकी और उसके पति को बंदी बनाकर कारागृह में डाल दिया।<br /><br />कंस शुरु से ही अत्याचारी था। आठ वर्ष की आयु में इसने जरासंघ को पराजित कर दिया था। कंस ने अपने पिता को बंदी बना लिया तथा स्वयं सिंहासन पर आरूढ़ हो गया। राज्य सम्भालते ही अपने राज्य में पूजापाठ, जप-तप आदि कर्म बंद करवा दिए। उसने कई राजाओं को जब जीत लिया तो फिर इंद्र को भी जीतने की लालसा हुई। इंद्र को जब विदित हुआ तो वह लुप्त हो गया था और इस प्रकार निरन्तर कंस का अत्याचार बढऩे लगा।<br /><br /><b>जब कंस को सताने लगा मृत्यु का भय</b><br />हमने पढ़ा कि आकाशवाणी से डरकर कंस ने देवकी व वसुदेव की बंदी बना लिया। श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित। वसुदेवजी ने प्रशंसा आदि सामनीति और भय आदि भेदनीति से कंस को बहुत समझाया परन्तु वह क्रूर तो राक्षसों का अनुयायी हो रहा था। उसे देवताओं से मारे जाने का भय हो रहा था इसलिए वसुदेवजी के समझाने पर भी वह नहीं माना।<br /><br />वसुदेवजी ने कंस का विकट हठ देखकर यह विचार किया कि किसी प्रकार यह समय तो टाल ही देना चाहिये। इस मृत्युरूप कंस को अपने पुत्र दे देने की प्रतिज्ञा करके मैं इस दीन देवकी को बचा लूं। वसुदेवजी ने कहा- कंस! आपको देवकी से तो कोई भय है नहीं, जैसा कि आकाशवाणी ने कहा है। भय है पुत्रों से सो इसके पुत्र मैं आपको लाकर सौंप दूंगा। कंस मान गया।समय आने पर देवकी ने पहले पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम था कीर्तिमान। वसुदेवजी ने उसे लाकर कंस को दे दिया। ऐसा करते समय उन्हें कष्ट तो अवश्य हुआ, परन्तु उससे भी बड़ा कष्ट उन्हें इस बात का था कि कहीं मेरे वचन झूठे न हो जाएं।<br /><br />जब कंस ने देखा कि वसुदेवजी का अपने पुत्र के जीवन और मृत्यु में समान भाव है एवं वे सत्य में पूर्ण निष्ठावान भी हैं, तब वह बहुत प्रसन्न हुआ और उनसे हंसकर बोला-वसुदेवजी! आप इस नन्हें से सुकुमार बालक को ले जाइये। इससे मुझे कोई भय नहीं है, क्योंकि आकाशवाणी ने तो ऐसा कहा था कि देवकी के आठवें गर्भ से उत्पन्न सन्तान के द्वारा मेरी मृत्यु होगी। वसुदेवजी ने कहा-ठीक है और उस बालक को लेकर वे लौट आए।<br /><br /><b>जब भगवान शेषनाग देवकी के गर्भ में आए</b><br />जब कंस ने देवकी के पहले पुत्र को जीवित छोड़ दिया तो भगवान नारद कंस के पास आए और उससे बोले- व्रज में रहने वाले नन्द आदि गोप, उनकी स्त्रियां, वसुदेव आदि वृष्णिवंशी यादव, देवकी आदि यदुवंश की स्त्रियां और नन्द, वसुदेव दोनों के सजातीय बंधु-बांधव और सगे-संबंधी सब के सब देवता हैं। उन्होंने कंस को यह भी बताया कि दैत्यों के कारण पृथ्वी का भार बढ़ गया है, इसलिए देवताओं की ओर से अब उनके वध की तैयारी की जा रही है।<br /><br />जब देवर्षि नारद इतना कहकर चले गए तो कंस को विश्वास हो गया कि देवकी के गर्भ से विष्णु भगवान ही मुझे मारने के लिए पैदा होने वाले हैं। यह सोचकर उसने देवकी और वसुदेव को हथकड़ी-बेड़ी से जकड़कर कैद में डाल दिया । उसने यदुवंशियों से घोर विरोध ठान लिया। देवकी और वसुदेव ने भी यह मान लिया कि शायद ईश्वर की यही मर्जी है। यह तो भगवान की कृपा ही है कि उनका नाम स्मरण करने के लिए एकांतवास तो मिला। समय बीतता गया और देवकी ने छ: संतानों को जन्म दिया। उन सभी की कंस ने हत्या कर दी।<br /><br />इधर जब भगवान के अवतरण का समय आने लगा तो धरती का भार अपने फन पर उठाने वाले भगवान शेष भगवान विष्णु के पास गए और कहा- हे परमात्मा। राम जन्म में आप मेरे बड़े भाई बने, तब मैं अनुज होने के कारण आपको वन जाने से नहीं रोक पाया। इसलिए हे कृपानिधान। आपके कृष्णावतार लेने पर मैं आपका अग्रज बनना चाहता हूं ताकि इस रूप में भी आपकी सेवा कर सकूं। तब भगवान ने इसकी सहर्ष स्वीकृति दे दी और भगवान शेष देवकी के सातवें गर्भ में आ गए।<br />जैसे ही भगवान देवकी के गर्भ में आए देवकी के शरीर से प्रकाश पूरी कोठरी में फैल गया। यह देख कंस और डर गया।<br /><br /><b>इसलिए बलराम को संकर्षण भी कहते हैं</b><br />हमने पढ़ा कि देवकी के सातवें गर्भ में भगवान शेष आ गए। जब भगवान शेष के जन्म का समय आया तो उसके पहले ही भगवान के कहने पर योगमाया का आगमन हुआ। भगवान ने योगमाया को आदेश दिया कि देवी तुम ब्रज में जाओ। वहां नन्दबाबा के गोकुल में वसुदेव की पत्नी रोहिणी भी निवास करती हैं । इस समय मेरा वह अंश जिसे शेष कहते हैं देवकी के गर्भ में स्थित है उसे वहां से निकालकर तुम रोहिणी के गर्भ में रख दो। कल्याणी, अपने समस्त ज्ञान, बल आदि अंशों के साथ मैं देवकी का पुत्र बनूंगा और तुम नन्दबाबा की पत्नी यशोदा के गर्भ से जन्म लेना।<br /><br />तुम लोगों को मुंह मांगे वरदान देने में समर्थ हो। मनुष्य तुम्हें अपनी समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाली जानकर धूप, दीप, नैवेद्य एवं अन्य प्रकार की सामग्रियों से तुम्हारी पूजा करेंगे। देवकी के गर्भ में से खीचें जाने के कारण शेषजी को लोग संसार में संकर्षण और बलभद्र भी कहेंगे।भगवान् ने जब इस प्रकार का आदेश दिया तो योगमाया ने कहा कि जो आज्ञा उनकी बात शिरोधार्य की। जैसा भगवान ने कहा उन्होंने वैसा ही किया।<br /><br />योगमाया ने देवकी का गर्भ ले जाकर रोहिणी के उदर में रख दिया। समय आने पर भगवान शेष का जन्म हुआ। दाऊजी ने आंखें खोली ही नहीं, जब तक मेरा कन्हैया नहीं आएगा मैं आंखें नहीं खोलूंगा। यशोदा पूर्णमासी से बलरामजी की नजर उतारने की विनती करती हैं। पूर्णमासी कहती हैं कि यह तो किसी का ध्यान कर रहा है। इस बालक के कारण तेरे घर में बालकृष्ण पधारेंगे।<br /><br /><b>कंस ने क्यों वध नहीं किया देवकी का</b><br />जब लोगों को यह मालूम हुआ कि देवकी का सातवां गर्भ गिर गया तो उन्हें बड़ा दु:ख हुआ। देवकी और वसुदेव ने भी इसे भगवान की लीला ही समझी। और जब देवकी ने आठवां गर्भधारण किया तो कंस ने सेवकों को सावधान कर दिया कि मेरा काल आ रहा है इसलिए तुम सचेत रहना। भगवान के गर्भ में आते ही देवकी का शरीर तेजोमय हो गया। ऐसा लगने लगा मानों कई सूर्य देवकी के भीतर ही समा गए हों। इतना प्रकाश की कोई देवकी को देखने में भी समर्थ नहीं था। जैसे पूर्व दिशा चन्द्रदेव को धारण करती है। वैसे ही शुद्ध सत्व से सम्पन्न देवकी ने विशुद्ध मन से सर्वात्मा एवं आत्म स्वरूप भगवान को धारण किया।<br /><br />भगवान सारे जगत में निवास रखते हैं। देवकी उनका ही निवास स्थान बन गई। देवकी के गर्भ में भगवान विराजमान हो गए थे।<br />जब कंस ने देखा तब वह मन ही मन कहने लगा कि अब की बार मेरे प्राणों के दुश्मन विष्णु अवश्य ही देवकी के गर्भ में आ गया है। पहले उसने सोचा कि देवकी की हत्या कर दूं पर बाद में उसने विचार किया कि देवकी को मारना तो ठीक न होगा क्योंकि वीर पुरूष स्वार्थवश अपने पराक्रम को कलंकित नहीं करते। एक तो यह स्त्री है, दूसरी बहन है और तीसरी गर्भवती है। इसको मारने से तो तत्काल ही मेरी कीर्ति, लक्ष्मी और आयु नष्ट हो जाएगी। यह सोचकर उसने देवकी को नहीं मारा।<br /><br /><b>जब कंस के कैदखाने में आए भगवान शंकर व ब्रह्मा</b><br />हमने पढ़ा कि देवकी के आठवें गर्भ में भगवान विष्णु आए इसका परिणाम यह हुआ कि कंस को उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते और चलते-फिरते भगवान विष्णु का भय सताने लगा। उस पर मृत्यु का भय इतना हावी हो गया कि उसे चहुंओर भगवान विष्णु ही नजर आने लगा।<br /><br />शुकदेवजी कहते हैं-हे परीक्षित। जब भगवान के अवतरण का समय आया तो भगवान शंकर और ब्रह्माजी कंस के कैदखाने में आए उनके साथ अपने अनुचरों समस्त देवता और नारदादि ऋषि भी पधार गए। ब्रह्मा, शंकर, नारद आदि सभी देवताओं ने भगवान श्रीहरि की स्तुति की। उस समय आकाश के सभी नक्षत्र, ग्रह और तारे शान्त सौम्य हो रहे थे। दिशाएं स्वच्छ प्रसन्न थीं, निर्मल आकाश में तारे जगमगा रहे थे।<br /><br />ब्राह्मणों के अग्निहोत्र की कभी न बुझने वाली अग्नियां जो कंस के अत्याचार से बुझ गई थीं। वे इस समय अपने आप जल उठीं। पृथ्वी भी मंगलमय हो गई। भगवान का जन्म वर्णन-सन्त पुरूष पहले से ही चाहते थे कि असुरों की बढ़ती न होने पाए, अब उनका मन सहसा प्रसन्नता से भर गया। जिस समय भगवान के आविर्भाव का अवसर आया। स्वर्ग में देवताओं की डुगडुगियां अपने आप बज उठीं। किन्नर और गन्धर्व मधुर स्वर में गाने लगे तथा सिद्ध और चारण भगवान के मंगलमय गुणों की स्तुति करने लगे। बड़े-बड़े देवता और ऋषि-मुनि आनन्द से भरकर पुष्प की वर्षा करने लगे। जन्म और मृत्यु के चक्र से छुड़ाने वाले जनार्दन के अवतार का समय था।<br /><br /><b>कंस के कारागर में हुआ भगवान श्रीकृष्ण का अवतार</b><br />भादौ मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को जब चंद्रमा रोहिणी नक्षत्र में था उसी समय परमपिता परमेश्वर भगवान विष्णु देवकी के गर्भ से प्रकट हुए। स्वर्ग में देवताओं की डुगडुगियां अपने आप बज उठीं। किन्नर और गन्धर्व मधुर स्वर में गाने लगे तथा सिद्ध और चारण भगवान के मंगलमय गुणों की स्तुति करने लगे।<br /><br />वसुदेव ने देखा कि उनके सामने चार हाथों में शंख, चक्र, गदा, कमल लिए साक्षात परब्रह्म खड़े हैं। वे बहुमूल्य वैदूर्यमणी के किरीट और कुण्डल की कांति से युक्त सुंदर घुंघराले बाल, सूर्य की किरणों के समान चमक रहे हैं। गले में कौस्तुभ मणि झिलमिला रही है। वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह है। वर्षाकालीन मेघ के समान श्यामल शरीर पर मनोहर पीताम्बर लहरा रहा है। और वसुदेव के देखते ही देखते चारभुजाधारी भगवान विष्णु छोटे बालक के समान दिखने लगे। उस बालक के अंग-अंग से अनोखी छटा छिटक रही है। जब वसुदेवजी ने देखा कि मेरे पुत्र के रूप में तो स्वयं भगवान आए हैं। तो पहले तो उन्हें असीम आश्चर्य हुआ।<br /><br />फिर आनन्द से उनकी आंखें खिल उठीं। उनका रोम-रोम परमानन्द में मग्न हो गया। भगवान् श्रीकृष्ण अपने अंग कान्ति से सूतिका ग्रह को जगमगा रहे थे। श्री शुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित। इधर देवकी ने देखा कि मेरे पुत्र में तो पुरुषोत्तम भगवान् के सभी लक्षण मौजूद हैं। तो उसे परम आनंद की अनुभूति हुई और कंस का भय भी ह्रदय से जाता रहा। फिर वसुदेव व देवकी ने बड़े पवित्र भाव से भगवान विष्णु की स्तुति की।<br /><br /><b>देवकी व वसुदेव कौन थे पूर्वजन्म में</b><br />हमने पढ़ा कि भगवान विष्णु ने धरती पर श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया और उनके अदुभुत स्वरूप को देखकर वसुदेव और देवकी ने उनकी स्तुति की। तब भगवान विष्णु देवकी से कहते हैं - देवी। स्वायम्भू मन्वन्तर में जब तुम्हारा पहला जन्म हुआ था, उस समय तुम्हारा नाम था पृश्नि और ये वसुदेव सुतपा नाम के प्रजापति थे। तुम दोनों के हृदय बड़े ही शुद्ध थे।तुम दोनों ने वर्षा, वायु, शीत, उष्ण आदि को सहन किया और प्राणायाम के द्वारा अपने मन के मल धो डाले। तुम्हारे तप से प्रसन्न होकर मैंने तुम्हें वरदान दिया था कि मैं तुम्हारे गर्भ से पुत्र रूप में जन्म लूंगा। अपने उसी वरदान के अनुसार तुम्हारे उस जन्म में मैं तुम्हारा पुत्र हुआ।<br /><br />उस जन्म में मेरा नाम पृश्निगर्भ था। दूसरे जन्म में तुम अदिति और वसुदेव ने कश्यप के रूप में जन्म लिया। तब भी मैं तुम्हारा पुत्र हुआ। उस समय मेरा नाम उपेंद्र था। शरीर छोटा होने के कारण मुझे वामन भी कहा गया। सती देवकी। तुम्हारे इस तीसरे जन्म में भी मैं उसी रूप से फिर तुम्हारा पुत्र हुआ हूं। मेरी वाणी सर्वदा सत्य होती है। इतना कहकर भगवान चुप हो गए और एक साधारण शिशु का रूप धारण कर लिया।<br /><br />भगवान की लीला से ही वसुदेव और देवकी को भी भगवान के रूप का स्मरण नहीं रहा। तब वसुदेवजी ने भगवान् की प्रेरणा से अपने पुत्र को लेकर बंदीगृह से बाहर निकलने की इच्छा की। उसी समय नन्द पत्नी यशोदा के गर्भ से उस योगमाया का जन्म हुआ, जो भगवान् की शक्ति होने के कारण उनके समान ही जन्म रहित है।<br /><br /><b>जब कंस के कारागार के सभी बंधन टूट गए</b><br />जब कंस के कारागार में भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ तब वसुदेवजी ने भगवान् की प्रेरणा से ही अपने पुत्र को लेकर बंदीगृह से बाहर निकलने की इच्छा की। किंतु बाहर कैसे निकला जाए क्योंकि बाहर तो सैनिकों का पहरा था। तब भगवान की लीला से वसुदेव ने जैसे ही बालक रूपी भगवान को टोकरी में लिटाया वैसे ही सारे बंधन टूट गए। जेल के ताले स्वयं खुल गए। पहरेदार भी उस समय निन्द्रामग्न हो गए। भगवान की लीला के अनुसार वसुदेवजी ने उस बालक को उठाया गोकुल जाने लगे तो बीच में यमुना नदी पड़ी।<br />वसुदेवजी नदी में उतर गए तभी तेज बारिश होने लगी। भगवान भीगे नहीं इसके लिए शेषनाग ने उनके ऊपर छत कर दी। तब वसुदेवजी ने उस बालक को गोकुल में नन्दजी के घर लेजाकर यशोदा के पास लेटा दिया तथा वहां लेटी नवजात बालिका को उठाकर बंदीगृह में लौट आए। जेल में पहुंचकर वसुदेवजी ने उस कन्या को देवकी की शय्या पर सुला दिया और अपने पैरों में बेडिय़ां डाल लीं तथा पहले की तरह वे बंदीगृह में बंद हो गए। भगवान की लीला से देवकी, वसुदेव और यशोदा किसी को भी इस पूरी घटना के बारे में पता ही नहीं चला यहां तक की देवकी व यशोदा को प्रसव पीड़ा का ज्ञान ही नहीं रहा।<br /><br />उधर थोड़ी देर बात जब यशोदा को चेत हुआ तो उसने देखा कि उसके पास एक सुंदर सा बालक शय्या पर सो रहा है। उसने नन्दजी और वसुदेवजी की दूसरी पत्नी रोहिणी को बताया तो उन्हें भी बड़ा आश्चर्य हुआ कि बिना प्रसव पीड़ा के संतान उत्पन्न हो गई। सबने इसे भगवान का चमत्कार माना। सुबह होते ही शोर मच गया कि नंदजी के घर बालक का जन्म हुआ है। पूरा गांव आनन्द में डूब गया, उत्सव मनाया जाने लगा। नाच-गाना होने लगा। यशोदा और नंदजी की खुशियों का भी ठीकाना नहीं रहा।<br /><br /><b>भागवत का सार छिपा है दसवें स्कंध में</b><br />भागवत में हम दशम स्कंध पढ़ रहे हैं। एक बार पुन: कुछ बातें याद करते चलें। इस ग्रंथ में हम विचार कर चुके हैं कि इसमें भगवान् का वाङमय स्वरूप है, शास्त्रों का सार है और जीवन का व्यवहार है। दशम स्कंध इस पूरे शास्त्र का प्राण है। हमने तीन अध्याय तक दशम स्कंध की कथा पढ़ी। भगवान् का जन्म हो गया। ऐसा कहते हैं कि दसवां स्कंध बोलते-बोलते शुकदेवजी खिल गए क्योंकि अब कथा शुकदेवजी नहीं, उनके भीतर बैठकर स्वयं श्रीकृष्ण कर रहे हैं।<br /><br />इसलिए जिन प्रसंगों में हम प्रवेश कर रहे हैं वह हमारे ह्रदय को स्पर्श करेंगे। हमने सात दिन में दाम्पत्य के सात सूत्र जीवन में उतारने का संकल्प लिया है। हमने पहले दिन स्पष्ट विचार किया कि संयम का क्या महत्व है। दूसरे दिन संतुष्टि का महत्व जाना। तीसरे दिन संतान और चौथे दिन संवेदनशीलता और अब संकल्प का दिन है। आगे हम सक्षम होना और समर्पण को जान लेंगे।<br />दाम्पत्य यदि संकल्पित है तो बड़ा दूरगामी परिणाम देगा। दाम्पत्य में कुछ संकल्प लेने ही पड़ेंगे और जिनका दाम्पत्य बिना संकल्प के है वो लगभग उसको नष्ट ही कर रहे हैं। पहले स्कंध में हमने महाभारत से रहना सीखा। दूसरे स्कंध से आठवें स्कंध तक गीता से कर्म करना सीखा। नवें स्कंध में हमने रामायण से जीना सीखा और अब दस, ग्यारह और बारहवें स्कंध के माध्यम से हम भागवत में मरने की कला सीखेंगे। हमारे सामाजिक जीवन में पारदर्शिता, व्यावसायिक जीवन में परिश्रम, पारिवारिक जीवन में प्रेम और निजी जीवन में पवित्रता बनी रहे, इसके प्रसंग हम लगातार देख रहे हैं।<br /><br /><b>जब कंस ने देवकी व वसुदेव से क्षमा मांगी</b><br />हमने पढ़ा कि वसुदेव भगवान श्रीकृष्ण को गोकुल छोड़ आए और योगमाया को अपने साथ कारागार में ले आए। किसी को इसका भान तक नहीं हुआ। जब कारागार में से शिशु के रोने की आवाज आई तो द्वारपालों की नींद टूट गई और वे तुरंत कंस के पास गए और देवकी की आठवीं संतान के जन्म की बात बताई। यह सुनकर कंस बड़ा डर गया क्योंकि उसे पता था कि देवकी की आठवीं संतान ही मेरा वध करेगी। फिर भी वह गिरते-पड़ते कारागार तक पहुंचा।<br /><br />जब उसे मालूम हुआ कि देवकी की आठवीं संतान तो कन्या है तब उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने उस कन्या को उठाया और जैसे ही पत्थर पर पटकने लगा वह कन्या हवा में उड़ गई और उसने अष्टभुजा देवी का रूप धारण कर लिया। उसके हाथों में धनुष, त्रिशूल, बाण, ढाल, तलवार, शंख, चक्र और गदा थे। देवी योगमाया ने कंस को बताया कि तेरा काल कहीं ओर जन्म ले चुका है। इतना कहकर वह अन्तर्धान हो गई। देवी की यह बात सुनकर कंस ने देवकी और वसुदेव को कैद से छोड़ दिया और अपने किए पर पश्चाताप करने लगा। कंस ने अपनी बहिन देवकी और वसुदेवजी के चरण पकड़ लिए और वह तरह-तरह से उनके प्रति अपना प्रेम प्रकट करने लगा।<br /><br />जब देवकी ने देखा कि भाई कंस को पश्चाताप हो रहा है तब उन्होंने उसे क्षमा कर दिया। जिनके गर्भ में भगवान ने निवास किया व जिन्हें भगवान के दर्शन हुए। उन देवकी व वसुदेव के दर्शन का ही फल था कि कंस के ह्रदय में सद्गुणों का उदय हो गया। जब तक कंस देवकी व वसुदेव के सामने रहा तब तक ये सद्गुण रहे। दुष्ट मंत्रियों के बीच जाते ही वह फिर पहले जैसा दुष्ट हो गया।<br /><br /><b>जब कंस ने नवजात शिशुओं को मारने का आदेश दिया</b><br />शुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित! जब वसुदेव और देवकी ने इस प्रकार प्रसन्न होकर निष्कपट भाव से कंस के साथ बातचीत की, तब उनसे अनुमति लेकर कंस अपने महल में चला गया। वह रात्रि बीत जाने पर कंस ने अपने मंत्रियों को बुलाया और योगमाया ने जो कुछ कहा था वह सब उन्हें सुनाया। कंस के मंत्री पूर्णतया नीतिनिपुण नहीं थे।<br /><br />दैत्य होने के कारण स्वभाव से ही वे देवताओं के प्रति शत्रुता का भाव रखते थे। अपने स्वामी कंस की बात सुनकर वे देवताओं पर और भी चिढ़ गए और कंस से कहने लगे-भोजराज! यदि ऐसी बात है तो हम आज ही बड़े-बड़े नगरों में, छोटे-छोटे गांवों में, अहीरों की बस्तियों में और दूसरे स्थानों में जितने बच्चे हुए हैं वे चाहे दस दिन से अधिक के हों या कम के, सबको कोई उपाय कर जल्दी ही मार डालेंगे। इस प्रकार उन बालकों क साथ देवकी की आठवी संतान भी नष्ट हो जाएगी और आपको कोई भय भी नहीं रहेगा।कंस ने भी इसके लिए हामी भर दी।<br /><br />इधर बालक के जन्म की खुशी में नंदग्राम में उत्सव मनाया जा रहा था। पूरा गोकुल आनंद मना रहा था। आसपास के गांव की सभी स्त्रियां नंदबाबा के घर बालक को आशीर्वाद देने पहुंची। साथ-साथ वे मंगलगान भी गाती जाती थीं। नंदबाबा ने भी विशाल ह्रदय से दान दिया। उस दिन से नंदबाबा के व्रज में सब प्रकार की रिद्धि-सिद्धि अठखेलियां करने लगीं और भगवान श्रीकृष्ण के निवास तथा अपने स्वभाविक गुणों के कारण वह लक्ष्मीजी का क्रीडास्थल बन गया।<br /><br /><b>"कन्हैया तो काल का काल है"</b><br />जब पूरा ब्रज भगवान श्रीकृष्ण के जन्म का उत्सव मना रहा था तो भगवान शंकर के मन में भी विष्णु के बालस्वरूप के दर्शन करने की इच्छा हुई। भादौ शुक्ल द्वादशी के दिन भगवान शंकर गोकुल में आए। शिवजी के पास एक दासी आई और कहने लगी कि यशोदाजी ने ये भिक्षा भेजी है इसे स्वीकार कर लें और लाला को आशीर्वाद दे दें। शिव बोले मैं भिक्षा नहीं लूंगा, मुझे किसी भी वस्तु की अपेक्षा नहीं है मुझे तो बालकृष्ण के दर्शन करना है। दासी ने यह समाचार यशोदाजी को पहुंचा दिया। यशोदाजी ने खिड़की में से बाहर देखकर कह दिया कि लाला को बाहर नहीं लाऊंगी, तुम्हारे गले में सर्प है जिसे देखकर मेरा लाला डर जाएगा। शिवजी बोले कि माता तेरा कन्हैया तो काल का काल है, ब्रह्म का ब्रह्म है। वह किसी से नहीं डर सकता, उसे किसी की भी कुदृष्टि नहीं लग सकती और वह तो मुझे पहचानता है।<br /><br />यशोदाजी बोलीं-कैसी बातें कर रहे हो आप? मेरा लाला तो नन्हा सा है आप हठ न करें। शिवजी ने कहा- तेरे लाला के दर्शन किए बिना मैं यहां से नहीं हटूंगा। इधर बाल कन्हैया ने जाना कि शिवजी पधारे हैं और माता वहां ले नहीं जाएंगी, तो उन्होंने जोर से रोना शुरु किया। शिवजी की बहुत विनय करने के बाद यशोदाजी बालकृष्ण को बाहर लेकर आई। शिवजी ने सोचा कि अब कन्हैया मेरे पास आएंगे, शिवजी ने दर्शन करके प्रणाम किया किन्तु इतने से तृप्ति नहीं हुई। वे अपनी गोद में लेना चाहते थे। शिवजी यशोदाजी से बोले कि तुम बालक के भविष्य के बारे में पूछती हो, यदि इसे मेरी गोद में दिया जाए तो मैं इसकी हाथों की रेखा अच्छी तरह से देख लूंगा। यशोदा ने बालकृष्ण को शिवजी की गोद में रख दिया। शिवजी समाधि में डूब गए। जब हरि और हर एक हो गए तो वहां कौन क्या बोलेगा।<br /><br /><b>श्रीकृष्ण का अर्थ ही आनंद है</b><br />हमने पढ़ा कि भगवान शंकर भगवान श्रीकृष्ण के बाल रूप के दर्शन करने आए। यशोदाजी बालकृष्ण को शिवजी को देती हैं। शिवजी कहते हैं-यशोदा तेरा पुत्र तो सम्राट होने वाला है। शिवजी अति आनन्द की अवस्था में नाचने लगे। बालकृष्ण को हृदय में बसाकर शिवजी कैलाश लौटे।अब बांके बिहारीजी की लीला आरम्भ हो रही है और हमने देखा कि जब कृष्ण का जन्म होता है और हम आनन्द मनाते हैं तो कहा जाता है नन्द घर आनन्द भयो, नन्द घर कृष्ण भयो, यह नहीं कहा जाता। क्योंकि कृष्ण आनन्द का पर्याय है। कृष्ण का जन्म हुआ इसका मतलब आनन्द का जन्म हुआ। अब आनन्द ही आनन्द है। आनन्द मनाने की तैयारी गोकुल के लोग कर रहे हैं।<br /><br />कृष्ण जन्म के कुछ दिन बाद नन्द बाबा कंस को कर देने के लिए मथुरा पहुंचे। उन्होंने कंस को स्वर्णथाल तथा पंचरत्न भेंट किए। यह समाचार भी दिया कि उनके घर पुत्र का जन्म हुआ है। कंस क्या जाने कि कन्हैया उसका ही काल है। उसने बालक को आशीर्वाद दिया और कह दिया कि वह भी बड़ा होकर राजा बने। कंस ने अनजाने में ही कृष्ण को आशीष दे दिया। शत्रु भी जिसे आशीर्वाद दे और वंदन करे, वो है श्रीकृष्ण।इधर जब कंस को योगमाया द्वारा कही गई बात का स्मरण हुआ तो वह घबरा गया। उसने पूतना नामक राक्षसी को बुलाया और उससे कहा कि आस-पास के गांवों में जितने भी नवजात शिशु हैं उनका वध कर दे।<br /><br />पूतना भादौ कृष्ण चतुर्दशी की सुबह गोकुल आई। पूत का अर्थ है पवित्र। जो पूत नहीं है वह है पूतना। पूतना चतुर्दशी के दिन क्यों आई क्योंकि उसने चौदह ठिकानों पर वास किया। अविद्या, वासना आदि चौदह स्थानों में बसती है। पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच कर्मेंद्रियां, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार यह चौदह स्थान हैं वासना व अविद्या रूपी पूतना के बसने के।<br /><br /><b>पूतना कौन थी पिछले जन्म में?</b><br />कंस के कहने पर पूतना गोकुल आई। उसने एक सुंदर स्त्री का रूप धरा। उसको किसी ने रोका नहीं और वह सीधे नंद बाबा के घर में घुस गई। भागवत में पूतना के पूर्वजन्म का वर्णन भी है। उसी के अनुसार-राजा बलि और रानी विंध्याचल की पुत्री का नाम रत्नमाला था। जब वामन अवतार में बलि राजा से भगवान यज्ञ में भिक्षा मांगने आए थे, तब उनके स्वरूप को देखकर रत्नमाला के हृदय में स्नेह उमड़ आया और उसके मन में आया कि कितना अच्छा होता, अगर मैं इस बालक को पुत्र के रूप में पा सकती । मैं उसे पयपान कराकर उसका लालन-पालन करके धन्य हो जाती।<br /><br />वामन के तेजस्वी स्वरूप को देखकर रत्नमाला के हृदय में पुत्र स्नेह उमड़ आया था। किंतु जब रत्नमाला ने देखा कि भगवान वामन ने भिक्षा के रूप में उसके पिता की सारी संपत्ति छीन ली है तो यह देखकर उसके मन में शत्रु भाव भी उमड़ आया और उसके मन में इच्छा हुई कि इस बालक को दूध में विष मिलाकर पीला दूं। भगवान वामन ने रत्नमाला की दोनों इच्छाओं को मन ही मन जान लिया और स्वीकार भी कर लिया।यही रत्नमाला दूसरे जन्म में पूतना के रूप में जन्मी। पूतना बालकृष्ण को मारने के लिए गोकुल पहुंच गई। पूतना ने जैसे ही कृष्ण को गोद में लेकर दूध पिलाने के लिए सीने से लगाया।<br /><br />उसे भयंकर पीड़ा होने लगी। दर्द से छटपटाई, अपने असली रूप में आ गई। दर्द जब और असहनीय हो गया तो कृष्ण को लेकर आकाश में उडऩे लगी। कृष्ण ने दूध के साथ ही उसके प्राण भी शरीर से खींच लिए। बेहाल पूतना का शरीर धरती पर गिर गया और उसके प्राण पखेरु उड़ गए।<br /><br /><b>इतना भयानक रूप था पूतना का </b><br />पूतना जब मरी तो उसके शरीर ने गिरते-गिरते भी छ: कोस के भीतर के वृक्षों को कुचल डाला। यह बड़ी ही अद्भुत घटना हुई। पूतना का शरीर बड़ा भयानक था, उसका मुंह हल के समान तीखी और भयंकर दाढ़ों से युक्त था। उसके नथुने पहाड़ की गुफा के समान गहरे थे। लाल-लाल बाल चारों ओर बिखरे हुए थे। आंखें अंधे कुएं के समान गहरी, भयंकर भुजाएं, जांघें और पैर नदी के पुल के समान तथा पेट सूखे हुए सरोवर की भांति जान पड़ता था। पूतना के उस शरीर को देखकर सब के सब ग्वाल और गोपी डर गए।<br /><br />जब गोपियों ने देखा कि बालक श्रीकृष्ण उसकी छाती पर निर्भय होकर खेल रहे हैं तब वे बड़ी घबराहट और उतावली के साथ झटपट वहां पहुंच गईं तथा श्रीकृष्ण को उठा लिया।बृजवासी यह चमत्कार देखकर आश्चर्यचकित भी थे और आशंकित भी। यह चमत्कार और बालकृष्ण की लीला उन्हें समझ नहीं आई। इस भारी विपत्ति में बालक कृष्ण का सकुशल रहना, परमात्मा की कृपा मान रहे थे, लेकिन परमात्मा तो स्वयं अब मां यशोदा की गोद में खेल रहे थे।बृजवासियों ने कुल्हाड़ी से पूतना के शरीर को टुकड़े-टुकड़े कर डाला और गोकुल से दूर ले जाकर लकडिय़ों पर रखकर जला दिया।<br /><br />जब उसका शरीर जलने लगा, तब उसमें से ऐसा धुंआ निकला जिसमें से अगर (एक सुगंधित वनस्पति) की सी सुगंध आ रही थी। क्यों न हो, भगवान ने जो उसका दूध पी लिया था जिससे उसके सारे पाप तत्काल ही नष्ट हो गए थे। पूतना एक राक्षसी थी। लोगों के बच्चों को मार डालना और उनका खून पी जाना यही उसका काम था। भगवान् को भी उसने मार डालने की इच्छा से ही अपना दूध पिलाया था। फिर भी उसे वह परमगति मिली, जो सत्पुरुषों को मिलती है।<br /><br /><b>जब श्रीकृष्ण ने किया उत्कच का उद्धार</b><br />श्री शुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित! गोकुल में एक बार भगवान श्रीकृष्ण के करवट बदलने का अभिषेक उत्सव मनाया जा रहा था। उसी दिन उनका जन्म नक्षत्र भी था। घर में बहुत सी स्त्रियों की भीड़ लगी हुई थी। गाना-बजाना हो रहा था। उन्हीं स्त्रियों के बीच में खड़ी हुई यशोदाजी ने अपने पुत्र का अभिषेक किया। उस समय ब्राह्मण मंत्र पढ़कर आशीर्वाद दे रहे थे।<br /><br />शिशु श्रीकृष्ण एक छकड़े के नीचे सोए हुए थे। उनके पांव अभी लाल-लाल कोंपलों के समान बड़े ही कोमल और नन्हे-नन्हे थे। परन्तु वह नन्हा सा पांव लगते ही विषाल छकड़ा उलट गया। उस छकड़े पर दूध-दही आदि अनेक रसों से भरी हुई मटकियां और दूसरे बर्तन रखे हुए थे। वे सब के सब फूट गए और छकड़े के पहिये तथा धुरे अस्त-व्यस्त हो गए, उसका जूआ फट गया।इस छकड़े में हिरण्याक्ष का पुत्र उत्कच था। जिसे लोगश ऋषि ने आश्रम के वृक्ष उखाडऩे के अपराध में शाप दिया था। कृष्ण का पैर छकड़े से लगा, छकड़ा उलटा और उसमें बैठे उत्कच को परमगति मिल गई। वह शाप से मुक्त हो गया।<br /><br />कोई उत्कच को देख नहीं पाया लेकिन नंदलाल ने उसका उद्धार कर दिया।करवट बदलने के उत्सव में जितनी भी स्त्रियां आई हुई थीं, वे सब और यशोदा, रोहिणी, नन्दबाबा और गोपगण इस विचित्र घटना को देखकर व्याकुल हो गए। वे आपस में कहने लगे-अरे, यह क्या हो गया? वह छकड़ा अपने आप कैसे उलट गया?यशोदाजी ने समझा यह किसी राक्षस आदि का उत्पात है। उन्होंने अपने रोते हुए लाड़ले लाल को गोद में लेकर ब्राह्मणों से वेदमन्त्रों के द्वारा शान्तिपाठ कराया।<br /><br /><b>जब तृणावर्त का वध किया श्रीकृष्ण ने</b><br />हमने पढ़ा कि श्रीकृष्ण ने पूतना और उत्कच का खेल ही खेल ही वध कर दिया। लेकिन श्रीकृष्ण पर जो विपत्तियां या बलाएं आ रही थीं वे अभी और आने वाली थीं। स्वयं श्रीकृष्ण भी उनका इंतजार कर रहे थे। एक दिन की बात है यशोदाजी अपने प्यारे लल्ला को गोद में लेकर दुलार रही थीं। सहसा श्रीकृष्ण चट्टान के समान भारी बन गए। वे उनका भार न सह सकीं। उन्होंने भार से पीडि़त होकर श्रीकृष्ण को पृथ्वी पर बैठा दिया।<br /><br />तृणावर्त नाम का एक दैत्य था। वह कंस का निजी सेवक था। कंस की प्रेरणा से ही बवंडर के रूप में वह गोकुल में आया और बैठे हुए श्रीकृष्ण को उड़ाकर आकाश में ले गया। यशोदा ने जब यह देखा तो वह बेसुध हो गई। इधर तृणावर्त बवंडर रूप से जब भगवान श्रीकृष्ण को आकाश में उठा ले गया, तब उनके भारी बोझ को न संभाल सकने के कारण उसका वेग शांत हो गया। वह अधिक चल न सका।<br /><br />तृणावर्त अपने से भी भारी होने के कारण श्रीकृष्ण को नीलगिरी की चट्टान समझने लगा। भगवान ने इतने जोर से उसका गला पकड़ा कि वह असुर वहीं ढेर हो गया। उसकी आंखें बाहर निकल आईं। बोलती बंद हो गयी। उसके प्राण-पखेरू उड़ गए और बालक श्रीकृष्ण के साथ वह व्रज में गिर पड़ा। भगवान् श्रीकृष्ण उसके वक्ष:स्थल पर लटक रहे थे। यह देखकर गोपियां विस्मित हो गईं। उन्होंने झटपट वहां जाकर श्रीकृष्ण को गोद में ले लिया और लाकर उन्हें माता को दे दिया।<br /><br /><b>जब श्रीकृष्ण के मुख में यशोदा को ब्रह्माण्ड दिखा</b><br />एक दिन की बात है, यशोदाजी अपने प्यारे शिशु को अपनी गोद में लेकर बड़े प्रेम से स्तनपान करा रही थीं। वे वात्सल्य-स्नेह से इस प्रकार सराबोर हो रही थीं कि उनके स्तनों से अपने आप ही दूध झरता जा रहा था। जब वे प्राय: दूध पी चुके और माता यशोदा उनके मुस्कान से युक्त मुख को चुम रही थीं उसी समय श्रीकृष्ण को जंभाई आ गई और माता ने उनके मुख में यह देखा। उसमें आकाश, अंतरिक्ष, ज्योतिर्मण्डल, दिशाएं, सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, वायु, समुद्र, द्वीप, पर्वत, नदियां, वन और समस्त चराचर प्राणी स्थित हैं। परीक्षित! अपने पुत्र के मुंह में इस प्रकार सहसा सारा जगत देखकर यशोदाजी का शरीर कांप उठा। उन्होंने अपनी बड़ी-बड़ी आंखें बन्द कर ली। वे अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गईं।<br /><br />श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित! यदुवंशियों के कुलपुरोहित थे श्री गर्गाचार्यजी। वे बड़े तपस्वी थे। वसुदेवजी की प्रेरणा से वे एक दिन नन्दबाबा के गोकुल में आए। गर्गाचार्य ने कहा कि यदि नामकरण ठीक तरह से करना है तो आधा दिन लग जाएगा और नन्दबाबा तुम तो सारे गांव को बुलाओगे। वे सब यहां इकट्ठे होंगे और मुझे जल्दी करने को कहेंगे तो विधि ठीक ढंग से नहीं हो पाएगी। नन्दजी ने कहा कि धार्मिक विधि तो ठीक से ही होनी चाहिए, यदि आप चाहे तो मैं किसी को नहीं बुलाऊंगा। इसको संकेत रूप में समझें। एकान्त में नाम जप हो सकता है। एकान्त का भावार्थ है एक मात्र ईश्वर में ही सभी प्रवृत्तियों का लय होना। मन को पूर्णत: एकाग्र करके ही नाम जप किया जाए। जब नाम पर पूरा मन लगा दिया जाएगा, तब मन हट जाएगा और नाम रह जाएगा।<br /><br /><b>जब मुनि गर्गाचार्य ने किया यशोदानंदन का नामकरण</b><br />हमने पढ़ा यादवों के कुलगुरु श्रीगर्गाचार्य गोकुल में आए। नंदबाबा ने उनसे बालकों के नामकरण की इच्छा प्रकट की। तब यह बात तय हुई कि नामकरण बिना किसी उत्सव से चुपचाप किया जाएगा। नंदबाबा ने हां कह दिया।सबसे पहले गर्गाचार्यजी ने देवी रोहिणी के पुत्र का नामकरण किया और नंदबाबा से कहा- यह रोहिणी का पुत्र है इसलिए इसका नाम होगा रौहिणेय। यह अपने सगे-सम्बन्धी और मित्रों को अपने गुणों से अत्यन्त आनन्दित करेगा। इसलिए इसका नाम होगा राम। इसके बल की कोई सीमा नहीं है, अत: इसका एक नाम बलराम भी है। संकर्षण के माध्यम से यह देवकी के गर्भ से रोहिणी के गर्भ में आया है इसलिए इसका एक नाम संकर्षण भी होगा।<br /><br />इसके बाद गर्गाचार्यजी ने यशोदानंदन का नामकरण किया-नंदलाल को देखते ही गर्गाचार्यजी का चेहरा खुशी से खिल उठा। उन्होंने कहा- यशोदा यह जो सांवले रंग का तुम्हारा पुत्र है। यह प्रत्येक युग में शरीर ग्रहण करता है। पिछले युगों में इसने क्रमश: श्वेत, रक्त और पीत-ये तीन रंग स्वीकार किए थे। अब की यह कृष्णवर्ण हुआ है। इसलिए इसका नाम कृष्ण होगा। नन्दजी! यह तुम्हारा पुत्र पहले कभी वसुदेवजी के घर भी पैदा हुआ था इसलिए इस रहस्य को जानने वाले लोग इसे वसुदेव भी कहेंगे।<br />तुम्हारे पुत्र के और भी बहुत से नाम हैं तथा रूप भी अनेक हैं। इसके जितने गुण हैं और जितने कर्म, उन सबके अनुसार अलग-अलग नाम पड़ जाते हैं। मैं तो उन नामों को जानता हूं, परन्तु संसार के साधारण लोग नहीं जानते। यह अपनी लीलाओं से सबको आनंदित करेगा और दुष्टों का सर्वनाश करेगा।<br /><br /><b>जब सारा जगत श्रीकृष्ण के मुख में समा गया</b><br />शुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित। कुछ ही दिनों में बलराम और श्याम घुटनों और हाथों के बल चल-चलकर गोकुल में खेलने लगे। कान्हा की लीलाओं को देखकर गोपियों का मन अस्थिर होकर लीलाओं में ही तन्मय हो जाता था। एक दिन बलराम आदि ग्वालबाल श्रीकृष्ण के साथ खेल रहे थे। उन लोगों ने मां यशोदा के पास आकर कहा मां। कन्हैया ने मिट्टी खायी है। माता यशोदा ने श्रीकृष्ण का हाथ पकड़ लिया। यशोदा मैया ने डांटकर कहा-क्यों रे नटखट। तू बहुत ढीठ हो गया है। तूने मिट्टी क्यों खाई? देख तो तेरे दल के तेरे सखा क्या कह रहे हैं। तेरे बड़े भैया बलदाऊ भी तो उन्हीं की ओर से गवाही दे रहे हैं।<br /><br />श्रीकृष्ण ने कहा-मां। मैंने मिट्टी नहीं खाई। ये सब झूठ बोल रहे हैं। यदि तुम इन्हीं की बात सच मानती हो तो मुंह तुम्हारे सामने ही है, तुम अपनी आंखों से देख लो। यशोदाजी ने कहा अच्छी बात। यदि ऐसा है तो मुंह खोल। माता के ऐसा कहने पर भगवान श्रीकृष्ण ने अपना मुंह खोल दिया। परीक्षित। यशोदाजी ने देखा कि कृष्ण के मुंह में चर-अचर सम्पूर्ण जगत विद्यमान है । सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड कृष्ण के श्रीमुख में समाया हुआ है। सभी देवता, सभी लोक, सम्पूर्ण ज्योर्तिमण्डल, सारे गृह-नक्षत्र लाला के छोटे से मुख में दिखाई दे रहे थे।<br /><br />माता हैरान थीं, उनके मन में कई शंका-कुशंकाएं जन्म ले रही थीं। वे सोचने लगीं कि यह कोई स्वप्न है या भगवान की माया? तब भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी वैष्णवी योगमाया का उनके हृदय में संचार कर दिया। माता यशोदाजी तुरंत वह घटना भूल गईं। माया का प्रभाव ऐसा चला कि क्षण भर पहले की घटना भी याद नहीं रही। उन्होंने पुन: अपने लल्ला को गोद में उठा लिया और स्नेह करने लगीं।<br /><br /><b>नंद व यशोदा कौन थे पूर्व जन्म में?</b><br />राजा परीक्षित ने शुकदेवजी महाराज से पूछा- हे भगवन। सारे वेद, उपनिषद, सांख्य योग और भक्तजन जिनके माहात्म्य का गीत गाते नहीं थकते, उन्हीं भगवान ने यशोदाजी को पुत्र सुख प्रदान किया। नन्दबाबा तथा यशोदाजी ने ऐसी कौन सी तपस्या की थी, जिसके कारण स्वयं भगवान ने उन्हें पुत्र रूप में सुख प्रदान किया।<br /><br />शुकदेवजी ने बताया- नन्दबाबा पूर्वजन्म में एक श्रेष्ठ वसु थे। उनका नाम था द्रोण और उनकी पत्नी का नाम था धरा।उन्होंने ब्रह्माजी के आदेशों का पालन करने की इच्छा से उनसे कहा-भगवन। जब हम पृथ्वी पर जन्म लें, तब जगदीश्वर भगवान श्रीविष्णु हमारे घर में पुत्र रूप में आनन्द बिखेंरे तथा हमारा जीवन सार्थक करें। ब्रह्माजी ने कहा ऐसा ही होगा। वे ही परमयशस्वी द्रोण ब्रज में पैदा हुए और उनका नाम हुआ नन्द और वे ही धरा इस जन्म में यशोदा के नाम से उनकी पत्नी हुई।<br /><br />परीक्षित। अब इस जन्म में जन्म-मृत्यु के चक्र से छुड़ाने वाले भगवान उनके पुत्र हुए और समस्त गोप-गोपियों की अपेक्षा इन पति-पत्नी नन्द और यशोदाजी का उनके प्रति अत्यन्त प्रेम हुआ। ब्रह्माजी की बात सत्य करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण बलरामजी के साथ ब्रज में रहकर समस्त ब्रजवासियों को अपनी बाल-लीला से आनन्दित करने लगे।भगवान की ऐसी लीलाएं ब्रज भूमि पर हुईं कि गोप-गोपियां बने देवताओं की प्रसन्नता व आनन्द की कोई सीमा ही नहीं रही। जो आनन्द स्वर्ग में नहीं मिला, वो ब्रज भूमि पर नित्य सुलभ हो रहा था। सारे गोप-गोपियां, देवता, सारे गण कृष्ण भक्ति में रम गए। भक्ति जीवन में आ जाए तो मुक्ति का रास्ता भी खुल जाता है।<br /><br /><b>राजा जनक के पास क्यों गए शुकदेवजी?</b><br />हमारे पुराण पुरुष श्री शुकदेवजी ने अपने पिता परम ज्ञानी श्री वेदव्यासजी से एक दिन प्रश्न किया कि मैं कौन हूं? उन्होंने उत्तर दिया-जो ब्रह्म आनन्द और विज्ञान-स्वरूप है, चित्त के द्वारा सारे संकल्पों को देना ही मानों उसे ग्रहण कर लेना है, जिसके संकोच से जगत का विनाश और विकास से निर्माण होता है, वही सच्चिदानंद स्वरूप ब्रह्म मैं हूं, दूसरा नहीं। इस उत्तर से श्री शुकदेवजी संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने सोचा यह तो मैं पहले ही जानता था। इसमें इन्होंने कौन सी नई बात बता दी। श्री शुकदेवजी को यह भ्रम होना स्वाभाविक था, क्योंकि निकटतम व्यक्ति द्वारा दिया गया ज्ञान मोहजनित होने के कारण अज्ञान के आवरण से ढंका रहता है। श्री व्यासजी शुकदेजी के मन की बात जान गए, उन्होंने राजा जनक के पास उन्हें मिथिलापुरी भेजा और कहा कि राजा विदेह के पास जाओ और ज्ञानार्जन करो।<br /><br />पिता के निर्देश पर श्री शुकदेवजी विदेह नगर पहुंचे। श्री शुकदेवजी ने राजप्रसाद के द्वारपाल के माध्यम से महाराज जनक के पास अपने आगमन का संदेश पहुंचाया। संदेश सुनकर राजा जनक ने उन्हें वहीं द्वार पर ठहरने के लिए कहलवाया। साधारण जनों के मध्य की बात होती तो राजा जनक के इस व्यवहार पर कुछ आपत्ति ज्ञानियों के मध्य की बात थी। अत: इस व्यवहार से न द्वारपाल चकित थे और न ही श्रीशुकदेवजी, यह प्रथम परीक्षा थी। सात दिन तक द्वार पर ही रहकर उन्हें प्रतीक्षा करनी पड़ी। ज्ञानार्जन हेतु धैर्य परीक्षण का यह पहला सोपान कहा जा सकता है।<br /><br /><b>माखन की नहीं मन की चोरी करते हैं श्रीकृष्ण</b><br />हमने पढ़ा कि महर्षि वेदव्यास ने शुकदेवजी को ज्ञान प्राप्त करने के लिए राजा जनक के पास भेजा। जनक ने सात दिनों तक शुकदेवजी को महल के द्वार पर ही खड़ा रखा। फिर प्रांगण में उन्हें ठहरने के लिए कहा गया। प्रांगण में राजा का वैभव देखकर भी शुकदेवजी भ्रमित नहीं हुए। प्रांगण से चारों ओर देखना सहज सम्भव था। मतिभ्रम की स्थिति से परे बुद्धि इस बात का प्रतीक है कि ज्ञान प्राप्ति हेतु बुद्धि बिलकुल निर्मूल हैं, स्वच्छंद है और धुंध रहित है।<br /><br />इस प्रकार एक सप्ताह और बीता, तत्पश्चात उन्हें अन्त:पुर में लाया गया, जहां राजप्रसाद की युवतियां उनकी सेवा में लगी थी। नाना प्रकार भोज्य तथा भोग-सामग्री से उनका सत्कार किया गया। श्री शुकदेवजी इससे तनिक भी विचलित नहीं हुए। उनकी समभाव-स्थिति बनी रही। जब राजा जनक ने श्री शुकदेवजी की इस परमोच्च स्थिति को जान लिया, तब उन्होंने उनसे भेंट की और उनका सत्कार किया। इस कथा से स्पष्ट होता है कि स्व-स्वरूप जानने के लिए मोह-त्याग, धैर्य-धारण, निर्मल मन-बुद्धि तथा समभाव के सोपानों से गुजरकर जनक जैसे गुरुके समक्ष पहुंचना होगा। मन प्रभु को देना पड़ेगा, तो प्रभु हमारे हो जाएंगे।<br /><br />माखन चोरी की लीला का यही रहस्य है। मन माखन है। मन की चोरी ही तो माखन चोरी है। कृष्ण औरों के चित चोर लेते हैं फिर भी पकड़े नहीं जाते। हमारी तैयारी होना चाहिए मन देने की।<br /><br /><b>माखन क्यों चुराते थे श्रीकृष्ण?</b><br />जब बालकृष्ण थोड़े बड़े हुए तो अपने साथियों के साथ ब्रज धाम में लीलाएं करने लगे। अपने गरीब बालग्वालों को माखन खिलाने के लिए माखन चुराने लगे। इससे गोपियों को भी आनंद आने लगा। गोपियों ने प्यार से श्रीकृष्ण का नाम माखनचोर रख दिया। जब यह बात यशोदा को पता चली तो वे श्रीकृष्ण पर गुस्सा करने लगीं। वे अपने लाला से आग्रह करने लगीं कि बाहर का नहीं घर का माखन ही अच्छा है।<br /><br />फिर यशोदाजी ने सोचा-घर का कामकाज नौकर संभालते हैं इसीलिए शायद लाला को घर का माखन पसंद नहीं है और माखन की चोरी करता फिरता है। आज मैं स्वयं ही मन्थन करके माखन बनाकर उसे खिलाऊंगी और तृप्त करूंगी।प्रात:काल में स्नानादि कार्यों से निवृत्त होकर पीला वस्त्र पहनकर यशोदाजी दही मंथन के काम में लग गईं। यशोदाजी कन्हैयाजी को याद कर रही थीं सो इस काम में भक्ति भी मिली हुई थी। हमें व्यवहार को भक्तिमय बनाना है हमारा प्रत्येक व्यवहार ऐसा हो कि वह भक्तिमय बन जाए तो ही सार्थकता है।<br /><br />यह काम भक्त ही कर सकता है। भक्त और साधक का अंतर गोकुल में नजर आता है। आज भक्ति की साक्षात प्रतिमा बनकर भक्त के रूप में यशोदाजी बैठी हैं।माता यशोदा पुष्टि भक्ति का स्वरूप हैं। उनके दर्शन पाएंगे तो कृष्ण के दर्शन हो सकेंगे। यशोदा साधक हैं दही मंथन साधन है, श्रीकृष्ण साध्य हैं। साधना ऐसी करो कि साध्य अपने आप आए। साधना तन्मय हो तो साधक को साध्य स्वयं आकर जगाता है। यशोदा की भक्ति देखकर कृष्ण ने पीछे से आंचल पकड़ लिया। तुम भी सेवा साधना में ऐसे डूब जाओ कि साध्य स्वयं तुम्हारे द्वार पर आ जाए और यही पुष्टि भक्ति है।<br /><br /><b>श्रीकृष्ण ने क्यों फोड़ी दही की मटकी?</b><br />हमने पढ़ा कि यशोदा ने बालकृष्ण को खिलाने के लिए अपने हाथों से माखन बनाया। उस समय बालकृष्ण सो रहे थे। जब बालकृष्ण जागे तो माता को ढूंढते हुआ उधर आ पहुंचे जहां माता यशोदा माखन बना रही थीं। उन्होंने पीछे से माता का आंचल खींचा। यशोदा तो काम में ऐसी लीन थी कि उन्हें खबर तक नहीं हुई, कन्हैया माता से कहने लगा-मां मुझे भूख लगी है, पहले दूध पिला दो।<br /><br />उसी समय भगवान श्रीकृष्ण दूध पीने के लिए दही मथती हुई अपनी माता के पास आए। उन्होंने अपनी माता के हृदय में प्रेम और आनन्द को और भी बढ़ाते हुए दही की मथानी पकड़ ली तथा उन्हें मथने से रोक दिया। श्रीकृष्ण माता यशोदा की गोद में चढ़ गए। वात्सल्य स्नेह की अधिकता से माता यशोदा के स्तनों से दूध तो स्वयं झर ही रहा था। वे उन्हें पिलाने लगीं और मन्द-मन्द मुसकान से युक्त उनका मुख देखने लगीं। इतने में ही दूसरी ओर अंगीठी पर रखे हुए दूध में उफान आया। उसे देखकर यशोदाजी उन्हें अतृप्त ही छोड़कर जल्दी से दूध उतारने के लिए चली गईं। इससे श्रीकृष्ण को कुछ क्रोध आ गया। तब श्रीकृष्ण ने पास ही रखा हुआ दही का मटका फोड़ डाला, बनावटी आंसू आंखों में भर लिए और दूसरे घर में जाकर अकेले में बासी माखन खाने लगे।<br /><br />इस घटना से अभिप्राय है कि जब मन भगवान में लीन हो तो भक्त को संसार का मोह छोडऩा पड़ता है, अगर मन फिर संसार में भटके तो परमात्मा नाराज होगा ही। यशोदा ने लाला को छोड़कर रसोई के दूध की चिन्ता में पड़ गईं तो कृष्ण नाराज हो गए। मन में भक्ति स्थिर हो तो नाराज परमात्मा को भी मनाया जा सकता है।<br /><br /><b>माता यशोदा ने क्यों बांधा बालकृष्ण को ?</b><br />हमने पढ़ा कि माता यशोदा दूध उफनता देख बालकृष्ण को अतृप्त छोड़कर दूध उतारने चली जाती हैं। गुस्से में बालकृष्ण दही की मटकी फोड़ देते हैं। यशोदाजी जब वापस आती हैं तो देखती हैं कि दही का मटका फूटा पड़ा है। वे समझ गईं कि यह सब मेरे लाला की करतूत है। इधर-उधर ढूंढने पर पता चला कि श्रीकृष्ण एक उलटे हुए ऊखल पर खड़े हैं और छीके पर का माखन ले-लेकर बंदरों को खूब लुटा रहे हैं।<br /><br />उन्हें यह भी डर है कि कहीं मेरी चोरी खुल न जाए इसलिए चौकन्ने होकर चारों ओर ताकते जाते हैं। यह देखकर यशोदारानी पीछे से धीरे-धीरे उनके पास जा पहुंची। जब श्रीकृष्ण ने देखा कि मां हाथ में छड़ी लिए मेरी ही ओर आ रही है, तब झट से ओखली पर से कूद पड़े और डरकर भागने लगे। उन्हें पकडऩे के लिए यशोदाजी भी दौड़ीं। श्रीकृष्ण का हाथ पकड़कर वे उन्हें डराने लगीं। तब माता यशोद ने श्रीकृष्ण को ओखल से बांधने का निश्चय किया। बांधने के लिए वे जिस भी रस्सी को उठाती, वही छोटी पडऩे लगती।<br /><br />काफी प्रयास करने के बाद भी जब यशोदा कृष्ण को नहीं बांध पाई तो परेशान हो गई। इस घटना का अभिप्राय है कि भगवान को तो केवल भावों से बांधा जा सकता है, क्रोध और अहंकार से भगवान बंधने वाले नहीं। माता ने सारे प्रयास कर डाले लेकिन कृष्ण बंध नहीं पाए। दो अंगुल रस्सी कम पड़ गई, एक अंगुल भक्ति की और दूसरी भावना की। भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि माता बहुत थक गई हैं तब कृपा करके वे स्वयं ही बंधन में बंध गए। इस प्रकार भगवान ने स्वयं बंधन स्वीकार कर लिया।<br /><br /><b>जब श्रीकृष्ण ने मुक्ति दी कुबेरपुत्रों को</b><br />जब माता यशोदा ने बालकृष्ण को ओखल से बांध दिया तब कृष्ण वृक्ष रूप में शापित जीवन बिताने वाले कुबेर के पुत्र नलकुबेर और मणिग्रीव के उद्धार करने के विचार से मूसल खींचकर वृक्षों के समीप ले गए और दोनों के मध्य से स्वयं निकलकर ज्यों ही जोर लगाया कि दोनों वृक्ष उखड़ गए और इन दोनों का उद्धार हो गया।<br /><br />शुकदेवजी ने कहा-परीक्षित। नलकुबेर और मणिग्रीव। ये दोनों धनाध्यक्ष कुबेर के लाड़ले लड़के थे और इनकी गिनती रुद्र भगवान के अनुचरों में भी होती थी। इससे उनका घमंड बढ़ गया। एक दिन वे दोनों मंदाकिनी के तट पर कैलाश के रमणीय उपवन में वारुणी मदिरा पीकर मदोन्मत हो गए थे। बहुत सी स्त्रियां उनके साथ गा-बजा रहीं थीं और वे पुष्पों से लदे हुए वन में उनके साथ विहार कर रहे थे। वे स्त्रियों के साथ जल के भीतर घुस गए और जल क्रीडा करने लगे। संयोगवश उधर से देवर्षि नारदजी आ निकले। उन्होंने यक्षपुत्रों को देखा और समझ लिया कि ये इस समय मतवाले हो रहे हैं।<br /><br />इसलिए ये दोनों अब वृक्षयोनि में जाने के योग्य हैं। ऐसा होने से इन्हें फिर इस प्रकार का अभिमान न होगा। वृक्षयोनि में जाने पर भी मेरी कृपा से इन्हें भगवान की स्मृति बनी रहेगी और मेरे अनुग्रह से देवताओं के सौ वर्ष बीतने पर इन्हें भगवान श्रीकृष्ण का सान्निध्य प्राप्त होगा और फिर भगवान के चरणों में परम प्रेम प्राप्त करके ये अपने लोक में चले आएंगे। तभी से वे वृक्षयोनि में अपने उद्धार की प्रतीक्षा कर रहे थे।<br /><br /><b>फल बेचने वाली का उद्धार किया श्रीकृष्ण ने</b><br />हमने पढ़ा कि बालकृष्ण ने वृक्षरूपी कुबेर के पुत्रों को मुक्ति दिलाई। वृक्षों के गिरने से जो भयंकर आवाज हुई। उसे सुन नन्दबाबा आदि गोप आवाज की दिशा में दौड़े। उन्होंने देखा कि दो वृक्ष गिरे हुए हैं और पास ही बालकृष्ण ओखल से बंधे हुए खेल रहे हैं। किसी को कुछ समझ नहीं आया कि वृक्ष कैसे गिरे?<br /><br />वहां कुछ बालक खेल रहे थे। नंदबाबा से उनसे पूछा तो उन्होंने बताया कि कृष्ण इन दोनों वृक्षों के बीच में से होकर निकल रहा था। ऊखल तिरछा हो जाने पर दूसरी ओर से इसने उसे खींचा और वृक्ष गिर पड़े। हमने तो इनमें से निकलते हुए दो पुरुष भी देखे हैं। इस बात को किसी ने नहीं माना। तब नन्दबाबा ने कृष्ण के बंधन खोलकर उसे गोद में उठा लिया और आश्चर्य से देखने लगे।<br /><br />एक दिन कान्हा के घर के सामने से एक फल बेचने वाली निकली। वह आवाज लगाती जाती- ताजे मीठे फल ले लो। यह सुनकर कृष्ण भी अंजुलि में अनाज लेकर फल लेने के लिए दौड़े। अनाज तो रास्ते में ही बिखर गया, पर फल बेचने वाली ने बालकृष्ण की मोहिनी सूरत देखकर उनके हाथ फल से भर दिए। भगवान ने उसके इस प्रेम के बदले में उसकी फल रखने वाली टोकरी रत्नों से भर दी।<br /><br />वास्तव में वह फल भगवान के प्रति प्रेम व आस्था का प्रतीक हैं और वह रत्न भगवान द्वारा दिया गया उपहार। इस घटना से अभिप्राय है कि यदि हम प्रेम व आस्था से भगवान की भक्ति करेंगे तो भगवान भी अपने भक्त की हर मनोकामना पूरी करेंगे।<br /><br /><b>ब्रज छोड़कर वृंदावन आकर क्यों बसे ब्रजवासी?</b><br />जब नंदबाबा आदि बड़े-बूढ़े गोपों ने देखा कि ब्रज में तो बड़े-बड़े उत्पात होने लगे हैं। तब उन्होंने मिलकर यह विचार किया कि ब्रजवासियों को कहीं दूसरे स्थान पर जाकर रहना चाहिए। ब्रज के एक गोप का नाम था उपनन्द। उन्हें इस बात का पता था कि किस समय किस स्थान पर रहना उचित होगा। उन्होंने कहा-भाइयों। अब यहां ऐसे बड़े-बड़े उत्पात होने लगे हैं, जो बच्चों के लिए तो बहुत ही अनिष्टकारी हैं। इसलिए हमें यहां से अपना घरबार समेट कर अन्यत्र चलना चाहिए। देखो यह सामने बैठा हुआ नंदराय का लाड़ला श्रीकृष्ण है, सबसे पहले यह हत्यारी पूतना के चंगुल से छूटा। इसके बाद भगवान की दूसरी कृपा से इसके ऊपर इतना बड़ा छकड़ा गिरते-गिरते बचा। बवंडर रूपधारी दैत्य तो इसे आकाश में ले गया था लेकिन वह भी इसका कुछ नहीं बिगाड़ सका। तब भी भगवान ने ही इस बालक की रक्षा की। यमलार्जुन वृक्षों के गिरने के समय उनके बीच में आकर भी इसे कुछ नहीं हुआ। यह भी ईश्वरीय चमत्कार था।<br /><br />इससे पहले कि अब कोई और खतरा यहां आए हमें अपने बच्चों को लेकर अनुचरों के साथ यहां से अन्यत्र चले जाना चाहिए। यहां से कुछ दूर वृन्दावन नाम का एक वन है। वह पूर्णत: हरियाली से आच्छादित है। हमारे पशुओं के लिए तो वह बहुत ही हितकारी है। गोप, गोपी और गायों के लिए वह केवल सुविधा का ही नहीं, सेवन करने योग्य स्थान भी है। सो यदि तुम सब लोगों को यह बात जंचती हो तो आज ही हम लोग वहां के लिए कूच कर दें। उपनन्द की बात सुनकर सभी ने हां कह दी और सभी आवश्यक वस्तुएं व अपना गौधन लेकर वृंदावन में आकर बस गए।<br /><br /><b>श्रीकृष्ण की कर्मस्थली है वृंदावन</b><br />हमने पढ़ा कि नंदबाबा आदि सभी गोप-गोपियां अपना गौधन आदि संपत्ति लेकर वृंदावन में आकर बस गए। वृन्दा का अर्थ है भक्ति। सो भक्ति का वन है वृन्दावन। बालक के पांच वर्ष पूर्ण होने पर उसे गोकुल से वृन्दावन ले जाया जाए अर्थात लाड़ प्यार की प्राथमिक अवस्था में से अब उसे भक्ति के वन में लाया जाना चाहिए। बच्चों का हृदय बड़ा कोमल होता है अत: उसे दिए गए संस्कार उसके मन में अच्छी तरह जम जाते हैं। उसे बचपन में अच्छें संस्कार देंगे, तो उसका यौवन भ्रष्ट नहीं होगा और वह जीवनभर संस्कारी बना रहेगा।<br /><br />अब भगवान गोकुल छोड़ चुके हैं। नई जगह आए हैं वृन्दावन और वृन्दावन के बारे में ऐसा कहते हैं कि वृन्दावन में राजा नहीं हुआ, वृन्दावन में रानी हुई है राधा। यह राधा का क्षेत्र है। वृन्दावन के पास में एक गांव था बरसाना और बरसाना के मुखिया थे वृषभानु और उनकी बेटी थी राधा। भगवान की जन्मस्थली थी गोकुल और कर्मस्थली वृन्दावन। भागवत कथा में यहां से राधाजी का प्रवेश हो रहा है।<br /><br />यदि भागवत को बारीकी से पढ़ें, तो भागवत में श्री या तो शुकदेवजी के लिए एक बार लगा है या कृष्णजी के लिए एक बार लगा है। बाकी किसी भी पात्र के लिए भागवतजी में श्री नहीं लगाया जाता। लोगों ने पूछा ऐसा क्यों, तो व्यासजी ने बताया ये भागवत में श्री शब्द का अर्थ है राधा। जैसे श्रीमद्भागवत यहां भागवत की शुरुआत में ही राधाजी का स्मरण किया गया है। चूंकि उनके बिना भागवत हो ही नहीं सकती।<br /><br /><b>वत्सासुर व बकासुर का वध किया श्रीकृष्ण ने</b><br />वृंदावन में रहते हुए श्रीकृष्ण अपने बड़े भाई के साथ गाय-बछड़ों को चराने के लिए जाने लगे। कंस ने वत्सासुर राक्षस को वहां भेजा। एक दिन कृष्ण ने देखा कि बछड़े व्याकुल होने लगे, तो उन्होंने स्थिति समझकर वत्सासुर को टांगों से पकड़ा और उसका प्राणान्त कर दिया।एक दिन की बात है, सब ग्वालबाल अपने बछड़ों को पानी पिलाने के लिए जलाशय के तट पर ले गए। उन्होंने पहले बछड़ों को जल पिलाया और फिर स्वयं भी पिया। ग्वालबालों ने देखा कि वहां एक बहुत बड़ा जीव बैठा हुआ है। वह ऐसा मालूम पड़ता था, मानो इन्द्र के वज्र से कटकर कोई पहाड़ का टुकड़ा गिरा हो।<br /><br />ग्वालबाल उसे देखकर डर गए। वह बक नाम का एक बड़ा भारी असुर था जो बगुले का रूप धर के वहां आया था। उसकी चोंच बड़ी तीखी थी और वह स्वयं बड़ा बलवान था। उसने झपटकर श्रीकृष्ण को निगल लिया। जब कृष्ण बगुले के तालु के नीचे पहुंचे, तब वे आग के समान उसका तालु जलाने लगे। बकासुर ने तुरंत ही कृष्ण को उगल दिया और फिर बड़े क्रोध से अपनी कठोर चोंच से उन पर चोट करने लगा। तब भगवान श्रीकृष्ण ने उसकी चोंच पकड़कर दो टुकड़े कर दिए। ऐसी वीरता देखकर ग्वालबाल आश्चर्यचकित हो गए।<br /><br />जब बलराम आदि बालकों ने देखा कि श्रीकृष्ण बगुले के मुंह से निकल कर हमारे पास आ गए हैं, तो बड़ा आनन्द हुआ। सबने कृष्ण को गले लगाया। इसके बाद अपने-अपने बछड़े हांककर सब वृंदावन में आए और वहां उन्होंने घर के लोगों को सारी घटना कह सुनाई।<br /><br /><b>अजगर बने अघासुर का वध किया श्रीकृष्ण ने</b><br />भागवत में हम श्रीकृष्ण द्वारा वृंदावन मे की गई लीलाओं को पढ़ रहे हैं। एक दिन भगवान श्रीकृष्ण ग्वाल-बालों के साथ गायों को चराने वन में गए। उसी समय वहां अघासुर नाम का भयंकर दैत्य भी आ गया । वह पूतना और बकासुर का छोटा भाई तथा कंस का भेजा हुआ था।वह इतना भयंकर था कि देवता भी उससे भयभीत रहते थे और इस बात की बाट देखते थे कि किसी प्रकार से इसकी मृत्यु का अवसर आ जाए।<br /><br />कृष्ण को मारने के लिए अघासुर ने अजगर का रूप धारण कर लिया और मार्ग में लेट गया। उसका वह अजगर शरीर एक योजन लम्बे बड़े पर्वत के समान विशाल एवं मोटा था।अघासुर का यह रूप देखकर बालकों ने समझा कि यह भी वृंदावन की कोई शोभा है। उसका मुंह किसी गुफा की तरह दिखता था। बाल-ग्वाल उसे समझ न सके और कौतुकवश उसे देखने लगे। देखते-देखते वे अजगर के मुंह में ही घुस गए। लेकिन श्रीकृष्ण अघासुर की माया को समझ गए।<br /><br />अघासुर बछड़ों और ग्वालबालों के सहित भगवान श्रीकृष्ण को अपनी डाढ़ों से चबाकर चूर-चूर कर डालना चाहता था। परन्तु उसी समय श्रीकृष्ण ने अपने शरीर को बड़ी फुर्ती से बढ़ा लिया कि अजगररुपी अघासुर का गला ही फट गया। आंखें उलट गईं। सांस रुककर सारे शरीर में भर गई और उसके प्राण निकल गए। इस प्रकार सारे बाल-ग्वाल और गौधन भी सकुशल ही अजगर के मुंह से बाहर निकल आए। कान्हा ने फिर सबको बचा लिया। सब मिलकर कान्हा की जय-जयकार करने लगे।<br /><br />क्रमश:.<br /><br /><b>जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,<br />और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....</b><b>मनीष</b>Jai Guru Geeta Gopalhttp://www.blogger.com/profile/01621836960274288942noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6101091264294453966.post-16671633429762324032021-07-10T06:45:00.005-07:002021-07-10T07:15:28.662-07:00श्रीमद् भागवत Srimdbhagwat Part(4)<p> <b>दिव्य होता है संतों का जीवन</b></p>वरदान देकर जैसे ही भगवान गए तो ध्रुव को याद आया अरे ये मैंने क्या किया। भगवान मुझको मिले और मैंने ये मांग लिया और वो दे भी गए मुझे तो मांगना था आप मिलो। मुझे नहीं चाहिए धन-दौलत ये वैभव-संपत्ति, राज-राजतिलक, दास-दासी ये तो बहुत थे मेरे पास और ज्यादा दे गए। मुझे ये चाहिए ही नहीं। फिर ध्रुव ने सोचा जो मिला वही प्रसाद सही।<br /><br />जैसे ही ध्रुव लौटे और ध्रुव के माता-पिता को सूचना मिली, नारदजी ने उन्हें बताया कि ध्रुव को परमात्मा प्राप्त हो गए हैं। आपका बेटा चैतन्य हो गया है तो पिता उत्तानपाद मां सुनीति, मां सुरुचि सब के सब दौड़ पड़े कि हमारे बेटे को भगवान मिल गए। बहुत दिव्यता आ गई। जिसके जीवन में परमात्मा उतर आएं फिर उसके जीवन में दिव्यता आ जाती है। लोग दौड़ते हैं ध्रुव के पीछे। छ: महीने पहले जिसको राजसिंहासन पर नहीं चढऩे दे रहे थे, जिसको पिता की गोद में बैठने से वंचित कर दिया गया। छह महीने बाद वो लौटा तो सारा राजनगर, सारा राजमहल, सारे रिश्तेदार आगे-पीछे घूम रहे हैं।<br /><br />इसलिए तो आपने देखा होगा इस देश में हमारे अध्यात्म, धर्म, संस्कृति में लोग साधु-संतों के पीछे बहुत पागल हैं। बावरी हो जाती है लोगों की श्रद्धा और आस्था। कोई साधु आ जाए, कोई संन्यासी आ जाए दौड़ता फिरता है जमाना। ध्रुव के पीछे भी भागने लगे लोग। ध्रुव से कहा आओ सिंहासन पर बैठो। सब ने बड़ा सम्मान दिया। ध्रुव सोच रहे हैं कल तक मुझे कोई पूछता नहीं था आज सारा संसार आ गया। सब के सब आए ध्रुव बैठे और यहां ध्रुव प्रसंग की समाप्ति करते हुए शुकदेवजी परीक्षित से कह रहे हैं बहुत काल तक ध्रुव ने राज्य किया। ध्रुव के राज्य में अच्छा शासन रहा, सबकुछ अच्छा था।<br /><br /><b>सफलता परिश्रम से ही मिलती है</b><br />अब हम धर्म व अर्थ के बाद काम में प्रवेश कर रहे हैं यानि पुरुषार्थ में प्रवेश कर रहे हैं। ग्रंथ में आगे ध्रुव की संतानों का वर्णन किया गया है। ध्रुव का पहला बेटा था उत्कल, दूसरा बेटा था वत्सल। उसके बाद वेन पैदा हुआ और वेन के बाद उसके यहां पृथु नाम का राजा पैदा हुआ। ये संक्षेप में वंशावली है। पृथु अवतार हैं। पृथु ध्रुव के वंश में पैदा हुए, चार-पांच पीढ़ी बाद। पृथु का पृथ्वी से बड़ा संबंध रहा। आपने कथा सुनी होगी कि जब पृथु राजा बने तो उनके राज में अकाल पड़ा। पृथ्वी ने धन-धान्य, संपत्ति और औषधि देने से मना कर दिया तो त्राही-त्राही मच गई। जनता अपने राजा के पास पहुंची कि पृथ्वी हमें धन-धान्य आदि कुछ दे नहीं रही है आप कुछ करिए।<br /><br />पृथु को बड़ा क्रोध आया कि पृथ्वी अपनी संपदा क्यों नहीं दे रही? राजा तीर कमान लेकर पृथ्वी के पीछे दौड़े, पृथ्वी गाय बनकर भागी। पृथ्वी भागते-भागते थक गई तो वापस पृथु की शरण में आई और कहा आप मुझे क्षमा कर दीजिए। आप मुझे क्यों मारना चाहते हैं, पृथु ने कहा तुमने सारी संपत्ति, सारी प्रकृति, सारी औषधियां, सारी वस्तुएं अपने गर्भ में छुपा रखी है। प्रजा को कुछ भी नहीं दे रही इसलिए मैं तेरा वध करूंगा। पृथ्वी ने कहा मैं देने को तैयार हूं। आप ले लीजिए लेकिन दुहना पड़ेगा मुझे।<br /><br />पृथ्वी कहती है मुझे दुहे बिना, उद्यम किए बिना, मेरा मंथन किए बिना कुछ प्राप्त नहीं कर पाओगे।कहते हैं पृथु राजा ने पृथ्वी का दोहन किया और ये सारी संपत्ति फिर निकलकर आई। जब ये सब हो गया तो एक दिन पृथ्वी ने पृथु से पूछा राजा आप मेरे पीछे धनुष लेकर दौड़े मुझे मारने के लिए, मैं एक प्रश्न आपसे पुछूं। पृथ्वी ने जो प्रश्न पृथु से पूछा वो आज भी हमसे पूछा जा रहा है। पृथ्वी पृथु से पूछ रही है ''आपने मुझे मारने की तैयारी कर ली, मुझ पर आरोप लगाया कि मैंने गर्भ में सब वस्तु छिपा ली, कभी पूछा मैं ऐसा क्यों कर रही हूं? आप तो राजा हैं आप तो प्रजा का हाल जानते हैं मैं आपकी प्रजा हूं और प्रजा संतान समान होती है।<br /><br /><b>पृथु ने दिया पृथ्वी को रक्षा का वचन</b><br />पृथ्वी की बात सुनकर पृथु ने प्रसन्न होकर पृथ्वी को पुत्री बना लिया। पृथ्वी पूछ रही है- आपने जानने की कोशिश नहीं की मैंने ये सब क्यों किया? मेरे ऊपर अत्याचार बढ़ गए, दुराचार बढ़ गए, मेरा दुरुपयोग किया जा रहा है। लोग मेरे प्राण काट रहे हैं, वृक्ष को छिन्न-भिन्न कर दिया। नदियां सुखा दी गईं। और मुझसे कह रहे हैं तुमने सभी संपदा छुपा ली। आप राजा है पृथ्वी सुरक्षित रहेगी तो पृथ्वी देती रहेगी।<br /><br />पृथु को ये बात ठीक लगी। पृथु ने कहा पृथ्वीदेवी मैं सचमुच इस कृत्य के लिए क्षमा मांगता हूं, इसलिए आज से आप मुझसे रक्षित हैं। पृथ्वी को रक्षा का आश्वासन दिया गया । शुकदेवजी कह रहे हैं परीक्षित से। राजा पृथु ने पृथ्वी को मथा। राजा पृथु के पहाड़ समतल किए, जमीन बनाई, जल के स्थान पर जल लाया , नदी के स्थान पर नदी प्रवाहित की और पृथु राजा ने पृथ्वी को व्यवस्थित करके भवन बनाने की परंपरा आरंभ की। पृथु ने पृथ्वी से कहा कि आज से तू सुरक्षित है। ये पृथु और पृथ्वी की कथा है। इसी के बाद इसी वंश में प्रचेता आए, पुरंजन आए।<br /><br />अब चौथा भाग मोक्ष आरंभ हो रहा है। हमने राजा पृथु का पुरुषार्थ देखा और अब मोक्ष की ओर बढ़ रहे हैं। ये हमारा चौथा पुरुषार्थ है ये प्रकृति हमें मोक्ष का प्रतीक बताएगी। इस प्रकृति को देखकर आप समझ लीजिए ये भगवान की है ये भगवान में ही लीन होना है। कोई इससे बाहर नहीं है तो मोक्ष की कामना का अर्थ मरना परम आनंद है। मोक्ष का अर्थ है बस उससे मिल जाना, उससे जुड़ाव हो जाना हमारा। बस यहीं परम आनंद घट जाएगा।<br /><br /><b>हमें अपना चरित्र स्वयं बनाना पड़ेगा</b><br />हमने पृथु का प्रकृति प्रेम पढ़ा। प्रकृति प्रेम भी एक पूजा है, उपासना है। आपको एक कथा याद होगी। एक बार एक बिल्ली चूहे के पीछे दौड़ रही थी। चूहा सरपट भागा, बिल्ली भी भागी। चूहा और भागा, बिल्ली और भागी। जब बिल्ली थक गई तो बैठ गई तभी पीछे से कुत्ता आया और उसने बिल्ली को देखकर जैसे ही भौंका और झपटा तो बिल्ली तुरंत भागी। एक सेकंड पहले जिसको लग रहा था मर जाऊंगी लेकिन अपने प्राण दाव पर लगे तो एकदम भागी सब भूल गई।<br /><br />प्राण दाव पर लगे तो आदमी की गति तेज हो जाती है। भक्ति की गति तभी बनी रहेगी जब प्राणों का सौदा भगवान से करेंगे। ये याद रखिए बिना प्राण का सौदा किए भगवान नहीं मिलेंगे। जैसे पृथ्वी को पृथु ने तराशा वैसे ही हमें हमें अपने व्यक्तित्व को तराशना पड़ेगा। पृथु के जीवन से यही सीखिए, कैसे उसने पृथ्वी को इस योग्य बना दिया बस ऐसे ही हमें अपने व्यक्तित्व को, अपने चरित्र को गढऩा पड़ेगा, तैयार करना पड़ेगा।ये पृथु के प्रसंग से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के माध्यम से हमने सीखा। जिन भगवान श्रीकृष्ण की कथा में हम पढ़ रहे हैं। उनसे एक बात सीख लीजिए। यहां संकेत आता है भागवत में कि श्रीकृष्ण ने अपने व्यक्तित्व को तैयार करके समर्पित कर दिया था।<br /><br />इसीलिए श्रीकृष्ण अपने व्यक्तित्व की मौलिकता बनाए रखने के लिए कभी राजा नहीं बने। आपको ये जानकारी होनी चाहिए कि श्रीकृष्ण ने कभी कोई राजगादी स्वीकार नहीं की। बिना सत्ता के भी लोग कृष्ण को द्वारकाधीश कहते हैं। श्रीकृष्ण ने कहा पीछे रहकर, लोप्रोफाइल में रहकर बहुत सारे काम किए जा सकते हैं। इसीलिए श्रीराम भी 14 वर्ष तक राजा नहीं बने और बिना राजा बने वो दुनिया के राजा बन गए।<br /><br /><b>चरित्र तराशने की कला है अध्यात्म</b><br />अध्यात्म व्यक्तित्व को तराशने की कला है, यह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से हमने सीखा। चतुर्थ स्कंध में जो चार कथाएं आई हैं धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की इसे अपने जीवन में संभालकर रखिए। धर्म बचाकर रखें, अर्थ के तरीके बचे रहें, काम पुरुषार्थ बचा रहे और मोक्ष की कामना को समझ लें ये चौथा स्कंध है।लेकिन हमारे जीवन से एक-एक करके सबसे पहले धर्म जाता है फिर अर्थ गलत तरीके से आने लगता है। अत: अर्थ जाता है तो हम कब इन चीजों को छोड़ देते हैं हमें खुद ही ध्यान नहीं रहता।<br />आइए पांचवें स्कंध में प्रवेश करते हैं। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष कैसे हमसे छूट जाते हैं, कहां चले जाते हैं जरा विचार तो करिए। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को बचाना पड़ेगा। हमारी भागवत बताती है कि हमारे जीवन के चार व्यवहार हैं। उस व्यवहार को बचाने के लिए ही ये चार भाग कहे गए हैं। हम चौथे और पांचवें स्कंध की कथा पढ़ रहे हैं ये हमारे जीवन को बचाने के लिए, चार हिस्सों को बचाने के लिए कही गई कथा है।<br /><br />इसीलिए सामाजिक जीवन में पारदर्शिता बनाए रखिएगा। आपके व्यवसायिक जीवन में परिश्रम बनाए रखिएगा। आपके पारिवारिक जीवन में प्रेम बनाए रखिएगा और आपके निजी जीवन में पवित्रता बनाए रखिएगा बस यहीं से मोक्ष घट जाएगा।धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार जीवन को पूरा कर देंगे इसलिए निजी जीवन में पवित्रता का बड़ा महत्व है।<br /><br /><b>भगवान को पाना है तो दुर्गुण छोडऩा होंगे</b><br />अब हम पांचवें स्कंध में प्रवेश करने जा रहे हैं। शुकदेवजी कह रहे हैं परीक्षित ध्यान से सुनिएगा। जो-जो प्रश्न आप करते जा रहे हैं मैं आपको उत्तर देता जा रहा हूं। पांचवां स्कंध स्थितिलीला का स्कंध हैं। इसमें भूगोल का विस्तार से वर्णन किया है। शुकदेवजी ने राजा को बार-बार परिचित कराया है कि परीक्षित प्रकृति का सम्मान करो। ज्ञान और भक्ति जीवन में आ जाए तो जीवन में स्थायी कैसे रहेगी, पंचम स्कंध के माध्यम से भागवत बताने जा रही है कि ये स्थायी कैसे रहेगी ।<br /><br />भगवान को पाना पड़ता है। भगवान को रोकना पड़ता है, भगवान को बुलाना पड़ता है। ऐसे आसान काम नहीं होगा। इसे स्थायी बनाना है तो कीमत चुकाना पड़ेगी। परमात्मा आपसे कुछ और नहीं बस आपके दुर्गुण मांग रहे हैं, इतना बढिय़ा सौदा। एक तराजू में अपने दुर्गुण रख लीजिए और भगवान को तौलकर ले जाइए घर पर। ये सिर्फ भगवान करते हैं दुनिया में और कोई नहीं कर सकता। भगवान मांग कर रहे हैं मैं आने को तैयार हूं और देखिए एक बात याद रखिए जिस-जिस के जीवन में भगवान आए। उसको ऊंची कीमत चुकानी पड़ी।<br /><br />भगवान जिसकी संतान बनें वो दशरथ और वो यशोदा-नंद भगवान को अपने पास में नहीं रख पाए। तो आइए भगवान को बुलाते हैं अपने जीवन में। हम प्रवेश कर रहे हैं मनु और शतरूपा के छोटे पुत्र प्रियव्रत के जीवन में। परीक्षितजी ने शुकदेवजी से एक प्रश्न पूछा कि ये प्रियव्रत नाम का राजा जिसकी हम चर्चा कर रहे हैं सुना है ये अपनी गृहस्थी में बहुत सुखी रहता था। आदमी गृहस्थी में भक्त भी रहे, राजकाज भी चलाए इतना व्यस्त राजा और फिर भी गृहस्थी चलाता था तो मेरा आपसे प्रश्न है प्रियव्रत इतना प्रिय कैसे हो गया?<br /><br /><b>काम को ईश्वर की भक्ति मानकर करें</b><br />मनु महाराज का छोटा पुत्र प्रियव्रत वो राजा था जिसने सूर्य के साथ अपने रथ पर बैठकर सात परिक्रमाएं की थीं। शुकदेवजी परीक्षित से बोले प्रियवत अपने नाम के अनुसार था तथा सदैव आनंद से रहता था। एक कथा के अनुसार एक मंदिर का निर्माण हो रहा था। निमार्ण में तीन मजदूर बाहर काम कर रहे थे। एक व्यक्ति आया और उसने जो महात्मा मंदिर का निर्माण करा रहे थे उनसे पूछा ''महात्माजी एक बात बताओ ये अध्यात्म क्या होता है और ये हमारे जीवन में क्या प्रभाव डालता है।<br /><br />महात्माजी बोले पहले तू ये तीन मजदूर बाहर बैठे हैं इनसे पूछकर आ कि तुम क्या कर रहे हो? बस तेरी बात का उत्तर मिल जाएगा। वह आदमी गया और उसने पहले मजदूर से पूछा जो पत्थर तोड़ रहा था कि भैया तुम क्या कर रहे हो तो उसने गुस्से में बोला दिखता नहीं पत्थर तोड़ रहा हूं। दूसरे से पूछा, उसने कहा भैया नौकरी कर रहा हूं । पापी पेट के लिए, बच्चों को पालने के लिए काम करना ही पड़ता है। तीसरे से जाकर पूछा तो उसने बड़ा सुंदर उत्तर दिया ''पूजा कर रहा हूं, आनंद मना रहा हूं। ये पत्थर मंदिर में लगेंगे यह जानकर मुझे बड़ी मस्ती आ रही है।<br /><br />तीनों का उत्तर लेकर वो उस महात्मा के पास गया। महात्मा ने कहा जीवन का यही फर्क है। तुम अपनी गृहस्थी, अपना कामकाज उस पहले मजदूर की तरह बना सकते हो, चिढ़चिढ़ करके, गुस्से में आकर या तुम उस आदमी की तरह कर सकते हो जो मजबूर होकर पापी पेट के लिए या तुम उस व्यक्ति की तरह कर सकते हो जो मजा ले रहा है, आनंद लेकर पत्थर तोड़ रहा है। बस जीवन के पत्थर को ऐसे ही तराशिए। मजा आएगा। शुकदेवजी समझाते हैं प्रियव्रत की सारी जीवनशैली ऐसी थी, इसलिए प्रियव्रत आनंद में रहा।<br /><br /><b>भगवान विष्णु के अवतार हैं ऋषभदेव</b><br />प्रियव्रत के आगे के राजाओं का वर्णन पढ़ते हैं। प्रियव्रत के बेटे का नाम था आगनिंद्र, आगनिंद्र के बेटे का नाम था नाभि और नाभि के बेटे का नाम हुआ ऋषभदेव। ऋषभदेव भी अवतार माने गए हैं। ऋषभदेव वे अवतार थे जो वैरागी और फकीरी में रहते थे। उनके पिता नाभि राजा थे और ये राजकुमार। यहां अब दो राजाओं की कथा आएगी। ऋषभदेव और भरत की और विधान के अनुसार दूसरे दिन का प्रसंग समाप्त होता है।<br /><br />पांचवां स्कंध इन्हीं के साथ समाप्त होगा। तो ऋषभदेव और भरत से क्या गड़बड़ हो गई कि वो चूक गए। अभी हम आगे के प्रसंग में पढ़ेंगे।प्रियव्रत का दाम्पत्य क्या था? ऋषभदेव ने जीवन को कैसे मोड़ दिया और भरत के साथ क्या घटना घटी? ये परीक्षित ने प्रश्न पूछा। आइए ऋषभदेव की चर्चा कर रहे हैं हम। ऋषभदेव ने विचार किया कि मेरे पिता नाभि के राज में जलवृष्टि नहीं हो रही है। उन्होंने शपथ ली फिर उन्होंने कहा मैं अपने संकल्प से बारिश कराऊंगा और वर्षा करा दी। यह बात इंद्र को पता लगी तो इंद्र ने कहा मेरे अधिकार का काम कोई दूसरा कैसे कर सकता है?<br /><br />बड़ा क्रोध आया ऋषभदेव पर, लेकिन जब ऋषभदेव के बारे में जाना, देखा कि ऋषभ तो बहुत तपस्वी हैं। इन्द्र ने अपनी पुत्री जयंती का विवाह ऋषभदेव से करा दिया। ऋषभदेव इंद्र के दामाद हो गए। बाद में ऋषभदेव अपने पुत्रों को सबकुछ सौंपकर चले गए वन में। ऐसा कहते हैं कि ये वे ही ऋषभदेव हैं जिनसे जैन धर्म का आरंभ हुआ। ऋषभदेव जंगल में चले गए।<br />उन्होंने अपने जीवन को नई दिशा दी और वहीं से जैन धर्म का आरंभ हुआ। ऋषभदेव ने अपने पुत्र भरत को राजपाठ सौंप दिया। भरत बड़े पराक्रमी थे। भरत ने अपने पराक्रम, पुरूषार्थ, भक्ति और निष्ठा से राज किया। यह वही भरत हैं जिनके नाम से भारतवर्ष जाना जाता है।<br /><br /><b>भागवत बताती है माया का रहस्य</b><br />ऋषभदेव अपने पुत्र भरत को राज-पाट सौंपकर वन को चले गए। भरत के नाम से ही इस देश का नाम भारत वर्ष पड़ा। भरत ने इसको इतना व्यवस्थित किया और सोने की चिडिय़ा बनाया। किसी राष्ट्र के विकास के लिए जो कुछ भी किया जा सकता था वो भरत ने किया। वे हमें ये सीखा गए कि देश को कैसे योग्य बनाएं।<br /><br />भरत ने एक बड़ा संदेश यह दिया कि मैं सुपात्र था तो मैंने अजनाभ वर्ष(भारत वर्ष का पूर्व नाम) ऐसा बना दिया कि ये आगे तक भारतवर्ष जाना जाएगा। इसीलिए हम उस भरत राजा को प्रणाम करते हैं जिन्होंने भारतवर्ष हमको सौंपा। हमारी तैयारी भी ऐसी ही हो कि आज से 50-100 साल बाद कोई दिव्य भारतवर्ष आने वाली पीढ़ी को सौंपकर जाएं। नहीं तो यह पीढ़ी कभी हमें क्षमा नहीं करेगी, लोग कहेंगे ऐसा देश छोड़ा? एक बार और हम सबको स्वर्णिम भारत बनना है। ये भागवत की मांग है।इसलिए भागवत में शुकदेवजी परीक्षित से कह रहे हैं भरत से सीखो। कैसे अपने देश को, अपने राष्ट्र को योग्य बनाया कि आज वो भारतवर्ष के नाम से जाना जाता है।<br /><br />इसलिए मौलिकता व्यक्तित्व की बनाए रखिएगा।आइए हम भागवत कथा के विधान में दूसरे दिन के समापन की ओर प्रवेश करें। भरतजी के जीवन में जो गड़बड़ अब होने वाली है बस उसको पढ़कर दूसरे दिन की कथा का समापन होता है। भरतजी राजपाठ सब छोड़कर वन में जाकर अपना भजन-पूजन करने लग गए लेकिन भरतजी की माया छुटी नहीं। उनकी माया का मोह छुटा नहीं और राज छोड़कर आ गए वन में।देखिए एक बात का ध्यान रखिए छह जगह से माया का प्रवेश होता है। माया भोजन से, द्रव्य से मतलब दौलत से, वस्त्र से, स्त्री से, घर से और पुस्तक से आती है।<br /><br />पुस्तक से भी माया का जन्म होता है। माया इतनी जगह से आएगी तो लोग पूछते हैं ये माया क्या है? भगवान जब सृष्टि का निर्माण करते हैं तो जिस शक्ति का उपयोग करते हैं उसका नाम है माया। वो माया से इसको रचते हैं। माया को साधारण भाषा में कहते हैं जादू। सबसे बड़ा जादूगर वो दुनिया का परमात्मा है। वो माया हमारे साथ करता है।<br /><br /><b>मोक्ष चाहिए तो माया को छोडऩा होगा</b><br />हमने पढ़ा भरतजी राजपाठ छोड़कर वन की ओर चल दिए। वन में पहुंचने के बाद भी उनकी माया छूटी नहीं। एक दिन भरत ध्यान लगा रहे थे। गंडकी नदी के सामने उनका आश्रम था। एक हिरणी आई, गर्भवती थी। पानी पीने आई और उसी समय शेर ने दहाड़ मारी तो डर के मारे नदी में कूद गई, गर्भपात हो गया। छोटा हिरण का बच्चा नदी में डूबने लगा। भरत ने देखा, कूद गए। बच्चे को निकाल लाए। देखा इसकी मां तो मर गई, बह गई। बड़ा प्यारा बच्चा, उनको मोह जाग गया। उससे मोह जाग गया तो बच्चे का लालन-पालन करने लगे।<br /><br />एक मृगबाल में माया जाकर टिक गई तो भक्तिभाव छूट गया। एक दिन मृगबाल बड़ा हुआ, झुण्ड जा रहा था हिरणों का तो उस झुंड में चला गया। मृगबाल चला गया तो भरतजी बहुत दु:खी हुए। वह कहां चला गया रोने लग गए और रोते-रोते मर गए। अंतिम समय में उस मृग को याद कर रहे थे तो पुनर्जन्म भरत का मृग के रूप में हुआ। पर उन्हें अपनी पूर्व स्मृति थी। उन्होंने विचार किया मैंने मृग का ध्यान किया तो मैं मृग बन गया। चलते-चलते एक दिन मृगस्यी भरतजी अपने उसी आश्रम में आ गए जहां पहले रहते थे और विचार करने लग गए कि मुझे अब देह त्याग देना चाहिए।<br /><br />अगले जीवन में मैं जो कुछ भी बनूं सावधान रहूं। मैंने मोह पाला तो मेरी ये स्थिति हो गई और यहीं भरतजी सोचते हैं कि मैं अपनी देह त्यागता हूं। इस देह को छोड़ देता हूं और यही आकर पांचवें स्कंध का समापन हो रहा है<br /><br /><b>जीवन में अनुशासन होना आवश्यक है</b><br />एक बात आप ध्यान में रखें कि हम सात दिन में सात सूत्र दाम्पत्य के देख रहे हैं। हमने पहले दिन संयम देखा। दूसरे दिन संतुष्टि देखी। अब हम अपने दाम्पत्य के प्रमुख सूत्र संतान से परिचित होंगे। फिर हम आगे बढ़ेंगे। आइए अब हम प्रवेश कर रहे हैं भागवत के साथ तीसरे दिन के प्रसंगों में। भागवत तीसरे दिन के प्रसंगों में बताएगी कि जो भी करना होश में करना। याद रखिए ये दाम्पत्य के तीसरे सूत्र संतान का दिन है और सबसे पहला काम करना संतान पैदा करना तो होश में करना। जिनकी संतानें उनकी बेहोशी में पैदा हुईं जीवनभर पछताएंगे ।<br /><br />आइए आपको छोटा सा उदाहरण दे दूं, होश में कैसे जिया जाता है। अगर आपके पास ये पात्र हो तो आप इनसे समझ सकते हैं कि कुंती पांडवों की मां थी जीवनभर होश में रही। कुंती के जीवन में इतना विपरीत समय आया कि उनके पति का देहांत हो गया। पांच छोटे-छोटे बच्चे उनके हवाले थे। तीन उनके युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन और दो पांडु की सहपत्नी माद्री के नकुल और सहदेव। जब पांडु का निधन हुआ तब प्रश्न उठा कि पांडु के साथ किसको सती होना है। कुंती ने कहा मैं ही हो जाती हूं सती, तो माद्री ने कहा -कुंती बहन। सती तो होना है किसी को, तो मैं होऊंगी। मेरे दो बच्चे हैं और आपके तीन। मैं जीवित रही तो आपके बच्चों को वैसे नहीं पाल पाऊंगी जैसे आप मेरे दो बच्चों को पालेंगी, मैं आपको जानती हूं। इसलिए आप ही रहिए। मेरे बच्चे पल जाएंगे।<br /><br />कुंती ने जंगल में उन छोटे-छोटे बच्चों को पाला और वो बच्चे पांडव बने। जंगल में, सारे अभाव में, उनके पास कुछ नहीं था। जबकि राजमहल में सारी सुविधाएं थीं कौरवों के पास और फिर भी कौरव, कौरव रह गए तो सुविधा का लालन-पालन से कोई लेना-देना नहीं है। लालन-पालन का सीधा संबंध अनुशासन से है। आत्मानुशासन, परिवार का अनुशासन, समाज का अनुशासन और विद्या का अनुशासन।<br /><br /><b>जो भी काम करें, होश में करें</b><br />सुविधाएं होना बहुत अच्छी बात है, लेकिन सुविधाओं पर टिक कर काम नहीं चलेगा। पांडवों को पांडव बनाया क्योंकि होश में थीं माता कुंती।अब भागवत में तीसरे दिन के प्रसंगों में प्रवेश करें जो प्रसंग इसमें आएंगे वो प्रसंग बार-बार हमसे कह रहे हैं कि जो भी काम करना, होश में करना। आइए अब हम प्रवेश कर रहे हैं पांचवें स्कंध में। हमने पढ़ा था कि भरतजी की माया टिकी रही, भरतजी जंगल में गए, भरतजी को मृगबाल से मोह हुआ। भरतजी मृग बने और मृगयोनी को भी उन्होंने त्यागा और वो एक ब्राह्मण के घर में जड़भरत के रूप में जन्में।<br /><br />भरतजी को अपना पूर्व जन्म याद था तो उन्होंने सोचा कि पिछले जन्म में मैं एक हिरण में उलझ गया, तो मुझे हिरण बनना पड़ा। इस जन्म में मैं इतना सावधान रहूंगा कि मनुष्यों में भी नहीं उलझूंगा तो पूरा ही वैराग्य लेकर पैदा हो गए और जिस घर में पैदा हुए उसमें भाइयों में सबसे छोटे थे। पिता ने बहुत प्रयास किया कि ये बच्चा पढ़ जाए पर वो कुछ नहीं करते, बैठे रहते। भरतजी कुछ भी काम इच्छा से नहीं करते इसलिए उनका नाम पड़ा जड़भरत। उन्हें काम न करते देख उनके भाइयों ने कहा या तो आप काम करिए या हमारे घर से विदा हो जाइए।<br /><br />जड़भरत तो इतने निर्लिप्त हो गए कि उन्होंने कहा कि यहां रह ही कौन रहा है। वह चल दिए और जाकर एक मंदिर के बाहर बैठ गए। उसी समय वहां एक भील राजा के यहां संतान नहीं हो रही थी। उसको नरबलि देना था तो उन्होंने अपने लोगों से कहा कि पकड़कर लाओ किसी को। वो लोग निकले, जड़भरत से उन्होंने कहा चलते हो। जड़भरत ने कहा चलते हैं। उन्होंने कहा नरबलि देना है। उन्होंने कहा चल चलेंगे। आश्चर्य हुआ सैनिकों को। किसी से बोलो नरबलि देना है तो उल्टा भाग जाए और ये कह रहा है चलो। जड़भरत चले गए भीलों के साथ।<br /><br /><b>भगवान अपने भक्तों का ध्यान रखते हैं</b><br />हमने पढ़ा जड़भरत को भील नरबलि देने ले गए। जड़भरत भीलों के साथ चले और जैसे ही भीलों के राजा ने जड़भरत की बलि देने की कोशिश की तो वहां भद्रकाली प्रकट हुई और भद्रकाली ने उन लोगों का वध किया। यह प्रसंग हमको बता रहा है कि जिसका कोई नहीं होता उसका भगवान होता ही है। इस घटना के बाद भी जड़भरत वैसे के वैसे ही रहे।<br /><br />एक बार सौवीर देश का राजा रघुगण पालकी में बैठकर कपिल मुनि के यहां आत्मज्ञान प्राप्त करने जा रहा था। कहार उसकी पालकी उठाए हुए थे। एक कहार कुछ डगमगा रहा था, कमजोर था तो जो कहारों का प्रमुख था उसने विचार किया कि कोई अच्छा सा कहार मिल जाए। जड़भरत दिख गए बैठे हुए थे। इसको जोत लेते हैं। इनको कहा भई पालकी उठाओगे तो ये पालकी उठाने लगे।राजा को मालूम नहीं था कि आदमी बदल गया है और जड़भरत बार-बार ये सोच रहे थे कि मेरे पैर के नीचे छोटा कोई जंतु या जानवर दब न जाए। यदि कोई चींटी दिखती तो जड़भरत छलांग लगा लेते।<br /><br />कभी एक पैर इधर रखते, कभी एक पैर उधर रखते। उस चक्कर में पालकी हिलने लगी और पालकी हिली तो राजा को लगा ये कैसी पालकी चल रही है। राजा ने वहीं से डांट लगाई कौन है ये? ठीक से चल भई कहार, नहीं तो दंड दूंगा।जड़भरत तो वैसे ही चलते रहे और राजा बहुत क्रोधित हुआ। पालकी रुकवाई, नीचे उतरकर आए कहा कौन मूर्ख है ये? इसको कहां से लाए, तो बताया गया कोई आदमी नहीं था, यह बैठा था जोत लिया। राजा ने उस जड़भरत को डांट लगाई। तू जानता नहीं मैं राजा हूं और तुझे इतनी अक्ल नहीं पालकी ऐसे चलाते हैं कूद-फांदकर। जड़भरत ने उत्तर दिया कि पालकी चलाना देह का काम है मेरी आत्मा को इससे कोई लेना-देना नहीं है कि आप राजा हो या कोई और।<br /><br /><b>ज्ञान प्राप्ति के पहले उसके योग्य बनना पड़ता है</b><br />अब तक आपने पढ़ा कि जड़भरत राजा रघुगण की पालकी कहार बनकर उठाते हैं और राजा उनसे सवाल करता है। तो जड़भरत उत्तर देते हैं कि देह अपना काम कर रही है, आत्मा अपना काम कर रही है। ये उत्तर सुनकर राजा सोच में पड़ गए। एक कहार ऐसी बात कर रहा है। राजा ने कहा अच्छा इतने मन की बात करता है तो तू जानता है मन क्या है। जड़भरत बोले मन, मन तो भगवान ने दिया है भीतर है। झांककर देखो और मन को सुला दो परमात्मा सामने होगा।<br /><br />अब राजा चौंक गए कि मैं जिससे बात कर रहा हूं ये कुछ विचित्र सा आदमी है। उन्होंने पूछा तू जानता है मैं कौन हूं? तो जड़भरत पूछते हैं कि आप कौन हो ये तो मुझे नहीं मालूम पर आप जानते हैं मैं कौन हूं? न मैं जानता हूं, न तुम जानते हो, हम दोनों कौन हैं? अगर यह जान जाओगे तो एक-दूसरे से पूछोगे ही नहीं कि तू कौन, मैं कौन? अब राजा समझ गया। जड़भरत के पैरों में प्रणाम किया। कहा या तो आप कपिल मुनि हैं जिनके पास मैं जा रहा हूं या आप भगवान हैं। आप कौन हैं?<br /><br />जड़भरत को तो तब भी कुछ लेना-देना नहीं था उन्होंने कहा कि तुम वेदांत का ज्ञान लेने जा रहे हो तो जरा विचार तो करो, इसके योग्य तो बनो। संकेत यह था कि राजा पालकी में सज-धजकर, सेना के साथ, कहारों के साथ सत्संग सुनने जाओगे तो फिर कभी कुछ हाथ नहीं लगेगा। राजा बनकर कभी सत्संग में नहीं जाया जा सकता। सत्संग तो समानता से हो सकता है। रघुगण को बात समझ में आई। जड़भरत ने हमें ये बताया कि हम कितने ही बुद्धिमान हो जाएं जड़भरत बने रहना। जड़ का मतलब मूर्ख होना नहीं है। जड़ का मतलब है निष्कामता। भागवत में चर्चा करते-करते निष्कामता, मन, भक्ति, भगवान ये कुछ शब्द आते ही रहेंगे।<br /><br /><b>स्वर्ग -नर्क का भेद बताती है भागवत</b><br />परीक्षितजी ने शुकदेव भगवान से प्रश्न पूछा कि आप मुझे बताइए कि स्वर्ग-नर्क क्या होता है? पृथ्वी का खगोल-भूगोल क्या होता है? ये सब आप मुझे बताइए। अचानक उन्होंने ये प्रश्न पूछा। उसके पीछे भी एक तर्क था परीक्षित का। मैंने मनुष्य के मन को, मनोविज्ञान को कई पात्रों से सुना आगे भी सुनूंगा पर अब मैं प्रकृति और मनुष्य को जोडऩा चाहता हूं।हम लोग हिल स्टेशन क्यों जाते हैं अच्छा दृश्य दिखे। प्रकृति हमारी मनोवृत्ति को क्यों बदल देती है क्योंकि ये शरीर पंचतत्व से बना है जिससे प्रकृति बनी है।<br /><br />हमारी देह में पांच तत्व हैं और वही तत्व बाहर हैं और उसका और हमारा संतुलन बना रहा तब तक हम स्वस्थ भी हैं और शांत भी हैं और उसका और हमारा संतुलन बिगड़ा कि हम गए काम से।शुकदेवजी परीक्षित को बता रहे हैं और यहीं से शुकदेवजी छठवें स्कंध में प्रवेश कर रहे हैं। पांचवां स्कंध यहां आकर समाप्त होता है।आइए यहीं से छठे स्कंध में ले चल रहे हैं। शुकदेवजी ने परीक्षित से कहा कि नर्क से कैसे बचें? ये बड़ा ज्वलंत प्रश्न है। नर्क देखा किसी ने नहीं है, पर नर्क का नाम सुनकर आदमी को बड़ा कष्ट होता है। अगर किसी को ये आस्था है कि मरने के बाद स्वर्ग और नर्क मिलता है और नर्क में मनुष्य को दंड मिलता है तो हम भारतीय लोग तो मानकर ही चलते हैं कि भैया अच्छे काम करो नहीं तो नर्क में जाओगे बोलते हैं ऐसा। कभी-कभी उपद्रव हो जाए तो बोलते हैं क्या नर्क बना दिया है।<br /><br />नर्क का मतलब है नकरात्मक स्थितियां। वो जो स्वर्ग है ऊपर है और नर्क नीचे है। आपको तो ज्ञात ही होगा कि स्वर्ग की भौगोलिक स्थिति ऊपर है और नर्क नीचे है पाताल में। ये तो भौगोलिक स्थिति है भागवत कह रही है, शास्त्र कह रहे हैं, पुराण कह रहे हैं। पर समझने की बात यह है कि जब-जब भी आप ऐसा काम करें कि आप नीचे गिर जाएं, समझ लीजिए कि आप नर्क में हैं और कहीं ऊपर उठ जाएं तो समझ लीजिए कि स्वर्ग में है बस यही स्वर्ग-नर्क है।<br /><br /><b>ऐसे बचें नर्क जाने से</b><br />शुकदेवजी राजा परीक्षित को स्वर्ग-नर्क का भेद बता रहे हैं। उन्होंने कहा- यदि आप पतित हो गए आचरण से तो आप नर्क में टपक गए और उठ गए सदाचरण से ऊपर तो यही स्वर्ग है। परीक्षित ने पूछा शुकदेवजी से- आप तो इस बात का उत्तर दो कि नर्क जाने से कैसे बचें ? उन्होंने बताया कि नर्क जाने से बचना हो तो तीन काम करो ध्यान करो, अर्चन करो और नाम लो। ये तीन काम करिए। थोड़ा सा ध्यान लगाइएगा, ध्यान लगाते ही आपकी ऊर्जा उपर उठने लगती है। ऊर्जा ऊपर उठी तो आपका चरित्र ऊपर उठेगा। यदि आप नाम, स्मरण, ध्यान ठीक से नहीं कर रहे हैं तो आप नीचे जा रहे हैं। आचरण से, क्रोध कर रहे हैं, काम कर रहे हैं, छल कर रहे हैं लोगों से तो आप नर्क में जा रहे हैं।<br /><br />अब शुकदेवजी अजामिल की कथा सुना रहे हैं। अजामिल नाम का एक ब्राह्मण था, 80 वर्ष का। उसने अपना जीवन कैसे जिया अब ये बता रहे हैं।परीक्षित ने पूछा शुकदेवजी आपने साधक पुरूषों की मुक्ति और निवृत्ति का मार्ग मुझे बताया जिससे स्वर्ग मिलता है। स्वर्ग पाने पर फिर जन्म मरणमय संसार में आना पड़ता है। अब मुझे वे साधन बताइये कि जिससे मनुष्य नर्क जाने से बच जाए।शुकदेवजी बोले- हे राजन। जो पुरूष मन, वाणी और कर्म से किए इस जन्म में मनु आदि शास्त्रों में कहे अनुसार प्रायश्चित नहीं करेगा वह तो नर्क में जाएगा।<br /><br />इसलिए मानव को चाहिए कि वह इस जन्म में किए पापों का प्रायश्चित इसी जन्म में कर ले।प्रायश्चित का अभिप्राय है पथ्य विचार। जिस प्रकार पथ्य करने वाले को रोग नहीं घेर पाता उसी प्रकार धर्मज्ञ, श्रद्धावान, धीर पुरुष अपनी तपस्या, ब्रह्मचर्य, इन्द्रिय दमन, मन की स्थिरता, दान, सत्य, भीतर-बाहर की पवित्रता तथा यम, नियम इन नौ साधनों से मन, वाणी और शरीर द्वारा किए गए बड़े से बड़े पापों को भी नष्ट कर देते हैं।<br /><br /><b>नेत्रों से प्रवेश करता है काम</b><br />भागवत के छठे स्कंध में तीन प्रकरण हैं। पहला है ध्यान प्रकरण, यह 14 अध्यायों में वर्णित है। 5 कर्ममेंद्रियां, 5 ज्ञानेंद्रियां, मन, बुद्धि चित्त और अहंकार। दूसरा प्रकरण है अर्चन प्रकरण। दो अध्यायों में सूक्ष्म, अर्चन, स्थूल अर्चन का वर्णन किया गया है। तीसरा प्रकरण है नाम। गुण संकीर्तन और नाम संकीर्तन का तीन अध्यायों में वर्णन किया गया है।<br /><br />भागवत में शुकदेवजी अब अजामिल की कथा सुना रहे हैं। एक ब्राह्मण था अजामिल नाम का। जाति का ब्राह्मण पर कर्मों से दुष्ट था। लूटपाट करता, साधु-संतों को लूट लेता। एक दिन घूमने गया वो। एक जंगल में जाकर देखा कि एक कुंड में एक व्यक्ति, एक वैश्या के साथ जलक्रीड़ा कर रहा था। इसने उस वैश्या को भीगा हुआ देखा तो इसकी आंख में काम आ गया और कामांध हो गया। उसने सोचा ये वैश्या मुझे प्राप्त हो जाए और उसने उसको प्राप्त कर लिया और घर ले आया। फिर उससे उसकी संतानें हुईं और जो सबसे छोटी संतान थी उसका नाम उसने नारायण रखा।<br /><br />देखिए हमें समझने की यह बात है कि अजामिल वन में गया उसने किसी को नहाते देखा और उसको काम जाग गया। काम जीवन में जब भी आएगा नेत्रों से आएगा। काम नेत्रों से प्रवेश करता है। इसलिए क्या देखा जाए ये जीवन में बड़ा महत्वपूर्ण है। क्या देखा जाए, कितना देखा, कब देखा जाए और कैसे देखा जाए आदमी इस मामले को लेकर बिल्कुल ध्यान ही नहीं देता।<br />जो भक्त हैं, जो साधक हैं वो इस बात को साधना के रूप में लें कि क्या देखा जाए? कितना देखा जाए? क्योंकि दृष्टि से जब दृश्य का प्रवेश होता है तो वो दृश्य अपना प्रभाव लेकर आता ही है आप उससे वंचित नहीं हो सकते हैं।<br /><br /><b>जो भी देखें सोच-समझ कर देखें</b><br />हमारे यहां एक कथावाचक हुए हैं डोंगरे महाराजजी। बड़े सिद्ध संत थे। जब वे भागवत कहा करते थे तो आंखे बंद रखते थे। लोग उनसे पूछते कि आप आंख बंद करके क्यों बोलते हैं तो वह कहते थे कि जब मैं भागवत बोलता हूं तो मैं परमात्मा के साथ, भागवत के प्रसंगों के साथ जीता हूं। डोंगरेजी कहते हैं मैं तो देख नहीं पाता। बालकृष्ण का जन्म हुआ मुझे लगता है मैं वहीं था। तुलसीदास ने रामकथा ऐसे ही लिखी थी। सामने दृश्य घट रहा है और लिख ली।<br /><br />हमें ये समझना चाहिए कि क्या देखना है और कितना। दृष्टि को विश्राम दीजिए अकारण न देखें। पहले भारत में संयुक्त परिवार हुआ करते थे तो बच्चे लालन-पालन में माता-पिता के अलावा दादा-दादी, नाना-नानी के साथ सोते थे। बूढ़े नाना-नानी, दादा-दादी अपने नाती-पोतों को महाभारत की कोई रामायण की कहानी सुनाते और बच्चे सो जाते। अब हो गए छोटे-छोटे परिवार तो बच्चों को कौन कहानी सुनाए। इसलिए सावधान रहिए। क्या देख रहे हैं और क्या दिखा रहे हैं। यह दृश्य कहीं न कहीं आपके मानस पटल पर प्रभाव डालेंगे। इसीलिए तो कहते थे बच्चों को हिंसात्मक फिल्म न दिखाएं क्यों, क्योंकि वह कहीं न कहीं मानस पटल पर आकर क्रिया में आ जाती है।<br /><br />इसलिए सावधान रहिए क्या देखा जाए?अजामिल की कथा हमको ये समझा रही है कि क्या देखें? कितना देखें और जरूरत नही है तो न देखें। हमने पिछले अंक में पढ़ा कि अजामिल नाम का एक ब्राह्मण था जो अत्यंत दुष्ट प्रवृत्ति का था। उसने एक वैश्या के साथ संबंध बनाए और जो संतान उत्पन्न हुई उनमें से सबसे छोटे पुत्र का नाम नारायण रखा।<br /><br /><b>भवसागर से पार करता है भगवान का नाम</b><br />भागवत में हम अजामिल की कथा सुन रहे हैं। अजामिल ने वैश्या से संबंध रखे, बच्चे पैदा किए। एक दिन अजामिल बाहर बैठा था। उसके गांव में साधु-संत आए। गांव के युवकों से पूछा भैया हमें भोजन प्राप्त करना है। तो कोई भला घर है उसके घर जाकर हम अन्न प्राप्त कर लें।जो लड़के थे उन्होंने सोचा मजाक करते हैं साधु से, अजामिल के भी मजे ले लेंगे इस बहाने। उन्होंने कहा एक बहुत अच्छा ब्राह्मण है, बड़ा शुद्ध है, बड़ा आचरणशील है। आप लोग उसके घर चले जाइए वो भोजन करा देगा।<br /><br />अजामिल तो अव्वल दर्जे का भ्रष्ट था लेकिन लड़कों ने साधुओं को उसके घर भेज दिया। साधु-संत गए और साधु-संत ने अजामिल से बोला- आपके घर से भोजन चाहते हैं। अजामिल ने कहा भोजन तो मिल जाएगा पर मैं तो अव्वल दर्जे का भ्रष्ट हूं। उन्होंने कहा हम बना लेंगे, तुम सामग्री दे दो बस। उसने भोजन बनाने की सामग्री दी।उन्होंने भोजन बनाया और उनको लगा जाते-जाते कुछ भला कर जाएं इसका। उन्होंने कहा तुम्हारी पत्नी गर्भवती है तो तुम्हारे यहां अब जो संतान हो उसका नाम तुम नारायण रख देना। साधु उनको बोल गए। अजामिल को कोई लेना-देना ही नहीं था उसने कहा कुछ तो नाम रखना ही है, चिंकू-पींकू तो नारायण ही रख देंगे।<br /><br />नारायण नाम रख दिया। सबसे छोटा पुत्र था तो अजामिल को बड़ा प्यार था उससे। 24 घंटे उसको बुलाए नारायण-नारायण। नारायण पानी ला, नारायण ये कर नारायण-नारायण। 80 साल की उम्र हो गई अजामिल की। मृत्यु का दिन आया। यमदूत लेने आए।<br />अजामिल को लगा कोई लेने आए हैं। उसने सोचा क्या करूं-क्या करूं तो चिल्लाया नारायण-नारायण। आवाज लगा रहा है अपने बेटे को। नारायण जल्दी आ, अब नारायण-नारायण चिल्लाया तो भगवान विष्णु के देवदूत दौड़े आए।<br /><br /><b>जीवन में नाम का बड़ा महत्व है</b><br />भागवत कह रही है कि संतान का लालन-पालन करें तो होश में करें। होश में रहने की जो बात यहां कही जा रही है, वो यही है कि बच्चों कों कहीं न कहीं परमात्मा से जोड़े रखिए। भक्त बनाएइ। भक्त में सारे गुण होते हैं। भक्त एक आचरण है संपूर्ण आचरण। कंप्लीट केरेक्टर का नाम भक्त है। परमात्मा पूरा भक्त चाहता है। नाम का बड़ा महत्व है इसलिए नाम लेते रहिए।<br /><br />आपको यह घटना याद होगी कि हनुमानजी जब भगवान राम के पास से विरह संदेश लेकर मां सीता के पास पहुंचे और उन्होंने मां सीता को सारा संदेश दिया तो सीता मां ने मुंह मोड़ लिया। सोचा ये भी कोई रावण की माया है। हनुमानजी बहुत दु:खी हो गए। अब कैसे मनाएं? कथा सुनाई और रामजी की अंगुठी भी डाल दी फिर भी सीताजी विश्वास नहीं कर रही हैं। तब हनुमानजी को याद आया कि भगवान ने मुझे एक बात कही थी कि यदि सीता न पहचाने और कोई परेशानी खड़ी हो जाए तो मैं तुम्हें कान में एक बात कह रहा हूं यह है कोडवर्ड मेरे और सीता के बीच का। हनुमानजी को याद आया कि भगवान ने कह रखा है वह बोल दो।<br /><br />उन्होंने तत्काल कहा- रामदूत मैं मातु जानकी और रामजी और सीताजी जब एक-दूसरे से बात करते थे, एकांत में तो सीताजी भगवान को करूणानिधान कहती थीं। यह बात सीताजी को मालूम थी, रामजी को मालूम थी और जैसे ही हनुमानजी ने बोला सत्य शपथ करूणानिधान की। सीताजी ने कहा ये कोई निकट का व्यक्ति है। एकदम पलटीं, बेटे को स्वीकार किया। नाम का ऐसा महत्व है। करूणानिधान नाम था प्रभु राम का। इसलिए नाम को जीवन में बनाए रखिए ये नाम आपको परमात्मा तक पहुंचा देगा।<br /><br /><b>जब चंद्रमा ने वनस्पतियों को भस्म होने से बचाया</b><br />परीक्षितजी ने शुकदेव महाराज से कहा- हे महामुनि। मुझे परमपुरूष परमात्मा द्वारा देवता, मनुष्य, नाग और पक्षी आदि की सृष्टि का विवरण विस्तार से समझने की कृपा कीजिए। तब शुकदेवजी कहने लगे कि राजा प्राचीनबर्हि के दस पुत्र जिनका नाम प्रचेता था, समुद्र में तपस्या करके बाहर निकले। उन्होंने देखा कि सारी पृथ्वी लता, वृक्ष आदि से हरी-भरी हो गई है। उनके लिए उस धरा पर कहीं स्थान ही शेष नहीं है। इससे उनको बड़ा क्रोध आया और उन्होंने उस वृक्षावली को अपने क्रोध से भस्म कर देना चाहा।<br /><br />चंद्रमा वनस्पतियों के स्वामी हैं। जब चंद्रमा को यह विदित हुआ तोवे प्रचेताओं को वनस्पति का लाभ समझाकर उन्हें कुमार्ग से विरक्त करने का प्रयास करने लगा और वह उसमें सफल भी रहे। चंद्रमा ने वृक्षों के अधिपति की कन्या को प्रचेताओं की पत्नी के रूप में दिलवा दिया। प्रचेतागण शांत हो गए। उससे उन्होंने दक्ष को उत्पन्न किया। दक्ष क्योंकि प्रचेताओं से उत्पन्न थे इस कारण उनका नाम प्राचेतस हुआ और उन्हीं की संतान से ये सारा संसार भर गया। दक्ष ने मानसी सृष्टि उत्पन्न की उसमें देव, दानव, मानव सभी थे। किंतु इस सृष्टि में बल का अभाव था और इसी कारण वह पनप नहीं सकी।<br /><br />प्रजापति दक्ष निराश हुए और घोर तप किया। भगवान प्रकट हुए और उन्होंने कहा कि तुम प्रजापति पंचजन की पुत्री आसिन्की से विवाह कर लो । उसी से सृष्टि की वृद्धि होगी। ऐसा कहकर भगवान अंतध्र्यान हो गए। आदेश के अनुसार दक्ष ने आसिन्की से विवाह किया। उनके यहां दस हजार पुत्र उत्पन्न हुए। उन्हें सृष्टि की वृद्धि का आदेश दिया। पिता का आदेश मानकर दक्ष पुत्र तपस्या के लिए निकल गए।<br /><br /><b>जब दक्ष ने श्राप दिया नारदजी को</b><br />हमने पढ़ा भगवान के आदेशानुसार दक्ष ने आसिन्की से विवाह किया और उनसे दस हजार पुत्र उत्पन्न हुए। दक्ष ने उन्हें सृष्टि की वृद्धि का आदेश दिया। पिता का आदेश मानकर दक्ष पुत्र तपस्या के लिए निकल गए।जब नारदजी को यह विदित हुआ तो उन्होंने उन पुत्रों से कहा कि बिना पृथ्वी का अंत देखे वो लोग किस प्रकार सृष्टि कर पाएंगे। ये सुनकर दक्ष पुत्र सोच में पड़ गए और उन्होंने सृष्टि की उत्पत्ति का विचार त्याग दिया और वे आत्मकल्याणर्थ मोक्ष प्राप्ति के लिए तप करने लगे। जब यह दक्ष को विदित हुआ तो उन्हें बहुत दु:ख हुआ।<br /><br />दक्ष ने पुन: पुत्र उत्पन्न किए और आज्ञा दी कि वे सृष्टि का सृजन करें। नारदजी को फिर विदित हुआ तो उन्होंने उनको फिर वही ज्ञान दिया और फिर वो पुत्र अपने पूर्वजों के अनुसार वापस तपरत हो गए और स्वर्गलोक में चले गए। यह समाचार दक्ष को मिला तो इससे उनका नारदजी के प्रति क्रोध बढ़ गया। दक्ष ने क्रोध में नारदजी को अपनी वंश परंपरा उच्छेद के अपराध में लोकलोकांतर में निरंतर भ्रमण करते रहने का शाप दे दिया। नारदजी को यह श्राप मिला और नारदजी ने ऐसा क्यों किया?<br /><br />यह कथा बड़े संकेत की है। हम मनुष्य को दो प्रकार में बांट सकते हैं एक तो वे जो समाधि चाहते हैं, समाधान चाहते हैं और दूसरे वे जो सम्मान चाहते हैं समादर चाहते हैं।जो समाधि चाहता है, उसे भीतर की यात्रा पर जाना पड़ेगा और जो सम्मान और समादर चाहते हैं उसे दूसरों की आंखों के इशारों को समझना होगा। जो व्यक्ति चाहता है कि मेरे भीतर एक अपूर्व शांति हो, आनंद की वर्षा हो वह व्यक्ति यात्रा करता है समाधि, समाधान की। ऐसा व्यक्ति धार्मिक होता है। नारदजी का संतत्व ऐसा ही है। हम इसको अच्छी तरह समझ लें। नारदजी किसी से कोई सम्मान कोई समादर नहीं चाहते। उनकी यात्रा भीतर की थी।<br /><br /><b>नारदजी के चरित्र को जीवन में उतारें</b><br />शुकदेवजी राजा परीक्षित से बोले- हे राजन। दक्ष की दशा पर चिंतित होकर ब्रह्माजी ने उसको बहुत समझाया और कहा कि वह पुन: सृष्टि की उत्पत्ति करे। इस बार आसिन्की से दक्ष की साठ कन्याएं उत्पन्न हुई। उसने दस धर्मराज को, तेरह कश्यप को, 27 चंद्रमा को, दो भूत को, दो अंगिरा को, दो कृषाश्व को और शेष बची ताक्ष्र्यनाम धारी कश्यप को ब्याह दी। इन कन्याओं की इतनी संतति हुई की उनसे सारी त्रिलोकी भर गई।<br /><br />आइए एक बार पुन: नारदजी को याद कर लें। शाप लगा तो नारदजी का अपना कोई घर ही नहीं रहा। जब जो जैसी भी स्थिति हो परमात्मा का प्रसाद मानकर ऐसा काम करिए कि उसमें भी आदर्श स्थापित हो जाए। नारद चल दिए और नारद सबको समझाते रहे, सुनाते रहे। नारदजी यही काम करते थे। नारदजी का काम यही था तो नारदजी के पास संभावना थी। उन्होंने अपने जीवन को श्रेष्ठ बनाया। हम भी नारदजी से ये सीखें कि उनके पास भगवान की कृपा थी।<br /><br />नारदजी तीन काम करते हैं कंधे पर रखते हैं वीणा, बजाते रहते हैं। मुंह से बोलते हैं नारायण-नारायण। वीणा के तार यदि ठीक से न कसे हुए हों तो उसमें से स्वर नहीं निकलेगा और हमारा ये शरीर वीणा है। ढीला छोड़ देंगे तो भी सुर नहीं निकलेगा और ज्यादा कस देंगे तो भी सुर बिगड़ जाएगा। संतुलन बनाए रखिए फिर देखिए क्या बढिय़ा संगीत आएगा अपनी देह से। तो नारदजी तीन काम कर रहे हैं पहला वीणा बजा रहे हैं संयम के साथ, दूसरा नारायण-नारायण बोल रहे हैं और तीसरा नारद वो काम करते हैं जो हमें हमेशा करते रहना चाहिए। जरा मुस्कुराइए।<br /><br /><b>गुरु ही जीवन को सफल बनाता है</b><br />अब आगे राजा परीक्षित ने प्रश्न किया कि देवताओं के किस अपराध के कारण बृहस्पति ने अपना पुरोहित पद छोड़ा। तब शुकदेवजी ने बताया कि त्रिलोक की संपदा प्राप्त कर इंद्र को प्रमाद हो गया था। एक बार इंद्र अपनी सभा में इंद्राणी के साथ उच्चासन पर विराजमान थे। उनका यशोगान हो रहा था और उसी समय देवगुरु बृहस्पतिजी सभा में पधारे।किंतु इंद्र ने उनका उचित आदर-सत्कार नहीं किया। बृहस्पतिजी ने इस अपमान का अनुभव किया और वे चुपचाप वहां से चले गए।<br /><br />इंद्र को जब अपनी भूल का ज्ञान हुआ तो वे बृहस्पतिजी से क्षमायाचना की योजना बनाने लगे लेकिन बृहस्पति अपने स्थान से विलुप्त हो गए। दैत्यों को जब यह सूचना मिली कि देवगुरु बृहस्पति अपने स्थान से विलुप्त हो गए हैं तो उन्होंने तुरंत अपने गुरु शुक्राचार्य की अनुमति से देवताओं पर आक्रमण कर दिया और उन्हें पराजित कर दिया। इंद्र ने बृहस्पति का अपमान किया यह तो अनुचित हुआ लेकिन बृहस्पति उस बात को हृदय में रखकर अपना स्थान छोड़ गए, विलुप्त हो गए। उनके जाने से देवताओं पर आक्रमण हो गया। क्या बृहस्पति जी ने यह उचित किया ?<br /><br />बृहस्पतिजी का यह सोचना कि इंद्र ने मुझे प्रणाम नहीं किया। इंद्र और देवता मुझे गुरु मानते हैं, तो उन्होंने अपने सम्मान की अपनी स्थिति की जैसी तुलना की ऐसी हम न कर बैठें। वो युग देवताओं का था। वह तो दुनिया उनकी निराली है लेकिन उनकी कथा से हम अपने लिए कुछ समझ हासिल कर सकते हैं। इंद्र की दृष्टि से बृहस्पति ने अपने को देखा। बृहस्पति गुरू हैं वो लीला कर रहे हैं, लेकिन कम से कम हम को यह संकेत मिले। सभी देवगण इंद्र के नेतृत्व में ब्रह्माजी के पास पहुंचे क्योंकि बृहस्पतिजी लुप्त हो गए थे और दैत्यों ने आक्रमण कर दिया था। तब ब्रह्माजी ने समझाया कि गुरु का अपमान किया है तो फल तो भुगतना होगा।<br /><br /><b>जब देवताओं ने विश्वरूप को बनाया गुरु</b><br />हमने पढ़ा इंद्र द्वारा अपमान करने पर बृहस्पतिजी अपने स्थान से विलुप्त हो गए। तब सभी देवता ब्रह्माजी के पास पहुंचे। ब्रह्माजी ने उन्हें एक उपाय बताया कि त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप के पास जाकर उसको गुरु बनाने का निवेदन किया जाए। देवतागण विश्वरूप के पास गए। विश्वरूप ने कहा कि वह तो उनसे आयु में बहुत छोटा है देवताओं का गुरु किस प्रकार बन सकता है। तब इंद्र ने समझाया बड़प्पन केवल आयु से नहीं होता आप देवज्ञ हैं अत: पुरोहित बनकर हमारा मार्गदर्शन कीजिए।<br /><br />जब विश्वरूप ने देवताओं का पुरोहित बनना स्वीकार किया तो उसने अपनी वैष्णवी विद्या के बल पर असुरों से नारायण कवच आदि छीनकर इंद्र को प्रदान कर दिया। इंद्र ने असुरों पर विजय प्राप्त कर ली। यहां एक कथा और आती है। ये जो विश्वरूप है इसके तीन मुख थे एक मुख से वह सोमपान करता था, दूसरे से सुरापान व तीसरे से भोजन करता था। देवता उसके पिता के पक्ष के थे और दैत्य माता के पक्ष के थे। इसीलिए देवता विश्वरूप में विश्वास थोड़ा कम करते थे। सतर्क रहते थे।यहां एक बात और विचारणीय है वह यह कि जीवन में गुरु का बड़ा महत्व है। देवताओं के जीवन से गुरु लुप्त हो गए तो देवताओं की पराजय हो गई। जिसके जीवन में गुरु आ जाए वो सौभाग्यशाली है।<br /><br />जब भी अवसर आए गुरु बना लीजिएगा ये अवसर जीवन में दोबारा नहीं आते। आपके जीवन में कब, कौन आएगा आपको मालूम नहीं पड़ेगा। अचानक आएंगे गुरु, आएंगे जरूर। गुरु आपको तीन बात देते हैं मंत्र देंगे, माला देंगे और मन देंगे। गुरु का मंत्र जिस क्षण आपके जीवन में उतरता है, जिस क्षण आप दीक्षित होते हैं। जिस क्षण आप पर शक्तिपात किया जाता है गुरु द्वारा। आप उस क्षण दिव्य हो जाते हैं। कई लोग ऐसे हैं कि जीवन में एक बार दीक्षा के समय गुरु से मिले और जीवनभर नहीं मिले क्योंकि उसके बाद आपकी पूंजी गुरु नहीं है वो तो गुरु मंत्र ही पूंजी है। जो उस मंत्र पर टिक गया वो गुरु होने का आनंद उठा लेगा।<br /><br /><b><br />जब इंद्र ने अपने गुरु विश्वरूप का सिर काटा</b><br />हमने पढ़ा देवगुरु बृहस्पति के विलुप्त होने पर विश्वरूप को देवताओं ने अपना गुरु बनाया। विश्वरूप के तीन सिर थे। एक बार कोई ऐसा अवसर आया कि इंद्र में और विश्वरूप में विवाद हो गया। इंद्र उस पर क्रुद्ध हो गए और उसका सिर काट डाला। तब जो सोमरस पीने वाला उसका सिर था वह पपीहा, सुरा पीने वाला गोरैया और अन्न खाने वाला तीतर हो गया।इंद्र को ब्रह्महत्या का दोष लग गया। उसने कुछ समय तक तो इस दोष को स्वीकार किया किंतु संवत्सर के अंत में उसने पृथ्वी पर वृक्ष और स्त्रियों, जल में इस ब्रह्म दोष को बांट दिया।<br /><br />भूमि ने यह मांग की, उसके ऊपर के गड्ढे स्वयं भर जाएं। हत्या का चतुर्थ अंश उसने अपने ऊपर ले लिया । यही कारण है कि ऊसर भूमि पर पूजा आदि निषेध है। काटने पर फिर अंकुर निकल आए यह वर मांगकर वृक्षों ने हत्या का दूसरा भाग अपने सिर ले लिया। वह हत्या उनमें गोंद के रूप में विद्यमान है। इसलिए गोंद खाना निषेध बताया गया है। गर्भ की पीड़ा न हो और प्रसूतिकाल के पश्चात भी स्त्री-पुरूष मिलन कामना बनी रहे। यह वर मांगा स्त्रियों ने और इसी के साथ हत्या का तीसरा भाग उन्होंने लिया। वह स्त्रियों में मासिक धर्म के रूप में आज भी विद्यमान है। दूध आदि में जल को मिलाने पर भी उन पदार्थों की वृद्धि हो यह मांगकर जल ने शेष दोष स्वीकार कर लिया जो बुलबुले के रूप में है इसीलिए बुलबुले वाले जल में स्थान करना वर्जित बताया गया है।<br /><br />तब शुकदेव बोलते हैं- देखो उस इंद्र को इतने बड़े सिंहासन पर बैठने के बाद भी दुर्गुण छोडऩे की इच्छा नहीं होती, इसलिए परीक्षित मैं बार-बार तुम्हारी प्रशंसा भी कर रहा हूं। तुम बहुत अच्छे व्यक्ति हो। राजगादी पर, राजमद से तुमसे यदि भूल हुई तो तुमने भगवान का नाम लेने का प्रयास किया। अब तुम अपने भीतर बैठे परमात्मा को पहचानते हो। यही परमात्मा तुम्हारा उद्धार करेंगे। यहां छटा स्कंद समाप्त होता है। अब भागवत का सातवां स्कंध प्रारंभ करेंगे।<br /><b><br />क्या भगवान भी पक्षपात करते हैं?</b><br />अब सातवां स्कंध आरंभ होता है। छठवें स्कंध में हमने भगवान की पुष्टि लीला देखी। पुष्टि मतलब दया कृपा। अब सातवां स्कंध जब आरंभ हो रहा है तो इसमें तीन तरह की वासनाएं बताई गई हैं। परीक्षित प्रश्न पूछ रहे हैं - शुकदेवजी एक बात बताइए भगवान पक्षपात क्यों करते हैं? किसी को बहुत ऊंचा खड़ा कर देते हैं और किसी को नीचे गिरा देते हैं। किसी को मुक्त कर देते हैं, किसी को नर्क, किसी को स्वर्ग तो भगवान ऐसा पक्षपात क्यों करते हैं?<br /><br />शिशुपाल को तो मुक्त कर दिया और वेन नाम के राजा को नर्क में पटक दिया। (वेन की कथा हम पहले पढ़ चुके हैं)। शिशुपाल ने भगवान को इतनी गालियां दी कि भगवान ने उसको सुदर्शन से मारा और मुक्त कर दिया। उसको मुक्ति प्रदान की जो भगवान को गाली दे रहा है। अब शुकदेवजी परीक्षितजी को कह रहे हैं कि परीक्षित आपने जो प्रश्न पूछा ऐसा ही एक प्रश्न युधिष्ठिर ने नारदजी से भी पूछा था। शुकदेवजी समझा रहे हैं। देखो एक बात समझ लो भगवान सिर्फ भाव के भूखे हैं। भगवान से यदि संबंध रखना है तो जिस भाव से आप रख रहे हैं उस भाव से आपको परिणाम मिलेगा। शिशुपाल ने शत्रु भाव रखा लेकिन वेन ने भगवान के प्रति कोई भाव ही नहीं रखा तो फिर भगवान ने कहा मैं इसे कैसे मुक्त करूं?<br /><br />ये बहुत महत्वपूर्ण है किस भाव से भगवान को पूज रहे हैं। अब प्रह्लाद प्रसंग आ रहा है। हिरण्यकषिपु अहंकार का रूप है। और दूसरे जन्म में ये ही हिरण्यकष्यपु तथा असुर हिरण्याक्ष, विश्रवा पत्नी के उदर से रावण और कुंभकरण के रूप में उत्पन्न हुए और तृतीय जन्म में शिशुपाल और दंतवक्र बने। इस प्रकार इनके ये तीन जन्म थे और भगवान ने इनका वध किया। युधिष्ठिर ने पूछा कि हिरण्यकषिपु ने अपने पुत्र प्रह्लाद से द्वेष क्यों किया और राक्षस कुल में उत्पन्न होने पर भी प्रह्लाद का मन भगवान में किस प्रकार लग गया?<br /><br /><b>ब्रह्माजी ने हिरण्यकषिपु को दिया अमरता का वरदान</b><br />भक्त प्रह्लाद की कथा पढ़ेंगे। भगवान नारायण ने देवताओं का पक्ष लेकर वाराह रूप धारण करके हिरण्याक्ष को मार डाला। हिरण्यकषिपु क्रोध से आग बबूला हो गया। भगवान विष्णु से बदला लेने का सोचने लगा। नारदजी ने कहा कि युधिष्ठिर हिरण्यकषिपु के मन में यह आया कि मैं ऐसी तपस्या करूं कि अजर अमर हो जाऊं। मदरांचल पर्वत पर चला गया, कठोर तप किया। 'विष्णु हैं बलवान तो मुझे क्या करना चाहिए? उसने सोचा मैं तप से विष्णु से बदला लूंगा। तप करूंगा। तप किया जाता है भगवान को पाने के लिए और ये तप कर रहा है भगवान को पराजित करने के लिए ।<br /><br />ब्रह्माजी प्रसन्न हुए तो हिरण्यकषिपु ने ब्रह्मा को देखकर कहा कि आपके द्वारा रचित प्राणियों द्वारा मेरी मृत्यु न हो। मैं न भवन के बाहर मरूं और न भीतर मरूं । न पृथ्वी पर, न आकाश में। मानव, दानव व देवता, पशु, पक्षी, सर्प आदि मुझे कोई न मार सके। युद्ध में मैं अजय बनूं और संसार का ऐश्वर्य मुझे प्राप्त हो। तप के पूर्व क्षेपक कथा संत सुनाते हैं। हिरण्यकषिपु के बारे में कहते हैं बड़ा अहंकारी व्यक्ति था। उसे अपनी प्रशंसा सुनना प्रिय लगता था। उसने अपनी पत्नी कयाधु से कहा कि मैं तप करने जा रहा हूं और कब आऊंगा मुझे नहीं मालूम। पर कुछ ऐसा हांसिल करके आऊंगा कि विष्णु का नामो-निशान मिटा दूंगा।<br /><br />जैसे ही तप करने गया तो देवता को पता लगा कि हिरण्यकषिपु तप कर लेगा तो उन्होंने अपने गुरु बृहस्पति से कहा गुरुदेव कोई तरीका निकालिए इसके तप में विघ्न डालिए। तो बृहस्पति उस पेड़ के नीचे जहां हिरण्यकषिपु बैठा था, के ऊपर बैठ गए और जैसे ही इसने ध्यान लगाया और आंख बंद की और तोता बोला नारायण-नारायण। हिरण्युकषिपु का ध्यान भंग हुआ कि ये नारायण-नारायण कौन बोल रहा है ? उसने इधर-उधर देखा फिर आंख बंद करके शुरू हुआ और जैसे ही उसने मंत्रोच्चार किया तो तोता बोला नारायण-नारायण। हिरण्यकषिपु को लगा ये तोता तप करने नहीं देगा। जिस शब्द से मुझे इतनी घृणा है ये बार-बार बोल रहा है तो संध्या को घर लौट आया।<br /><br /><b>प्रह्लाद क्यों बना भगवान का भक्त?</b><br />हमने पढ़ा कि हिरण्यकषिपु तप करने मदरांचल पर्वत पर गया। वहां देवगुरु बृहस्पति ने तोता बनकर उसकी तपस्या भंग कर दी। तब हिरण्यकषिपु घर लौटा तो पत्नी ने देखा कि ये तो तप करने गए थे, लौट क्यों आए? उसने पूछा आप आ गए। हो गई तपस्या। तो हिरण्यकषिपु ने पूरी बात बताई- तप कर तो रहा था मैं, पर एक परेशानी आ गई। ''क्या हुआ'' कयाधु ने पूछा। हिरण्यकषिपु बोला जैसे ही तप के लिए आंख बंद की तो पेड़ के ऊपर तोता बैठा था वह कहने लगा नारायण-नारायण।<br /><br />कयाधु ने सोचा ये तो कमाल हो गया। इनके मुंह से नारायण-नारायण दो बार निकला। कयाधु बोली अरे ये क्या बोल रहे हैं आप?उसने बोला नारायण-नारायण? कयाधु ने बोला 108 बार यदि इनके मुंह से नारायण कहलवा दूं तो ये पवित्र हो जाएंगे। तो बार-बार कयाधु उससे पूछ रही है क्यों जी वो आप क्या बता रहे थे? हिरण्यकषिपु ने पुन: बोला। बता तो दिया नारायण-नारायण कर रहा था। रात को कयाधु ने सोचा कि पूरे 108 पाठ करा ही लूंगी। उसने पूछा सोने के पहले एक बात तो बताओ आपको मैंने इतना विचलित नहीं देखा आखिर वो था क्या जिसने आपको इतना विचलित कर दिया। बोला नारायण था।<br /><br />परेशान हो गया नारायण से नारायण, नारायण 108 बार उसने नारायण बुलवाया और कयाधु ने कहा अब मेरा काम हुआ और उस रात को प्रह्लाद की गर्भ में स्थापना हो गई। नारायण बोलते ही प्रह्लाद गर्भ में आए। बीजारोपण करते समय भगवान का स्मरण करने से ही प्रह्लाद भगवान नारायण का भक्त हुआ। ये कथा सिर्फ ये संकेत दे रही है कि प्रसूता स्त्री के भीतर जो भी चलेगा उसका सीधा प्रभाव संतान पर पड़ता है। संतान का बीजारोपण जब करने जाएं तो देशकाल, परिस्थिति, चिंतन, मनन, आचरण, चरित्र, परंपरा, कुल, वंश, सिद्धांत और अपने पितरों को याद किए बिना कभी भी संतान का बीजारोपण मत करिए।<br /><br /><b>भक्ति करें तो प्रह्लाद की तरह</b><br />हमने पढ़ा जब हिरण्यकषिपु भगवान नारायण का नाम ले रहा था तभी प्रह्लाद कयाधु के गर्भ में आए। प्रह्लाद का जन्म हुआ। प्रह्लाद जब आए सारा वातावरण दिव्य हो गया। प्रह्लाद पांच साल के हो गए। एक दिन हिरण्यकषिपु ने प्रह्लाद से पूछा कि तू क्या बनना चाहता है ? प्रह्लाद ने कहा मैं भगवान नारायण का भक्त बनना चाहता हूं। यह सुनकर एकदम हिल गया हिरण्यकषिपु। दैत्यों के गुरु थे शुक्राचार्य। उन्होंने हिरण्यकषिपु से कहा भेजिए प्रह्लाद को हम सब संभाल लेंगे।<br /><br />गुरु शुक्राचार्य के दो पुत्र थे षड और अमर्क उनको पीछे लगा दिया प्रह्लाद के। वे पढ़ाने लगे प्रह्लाद को। लेकिन फिर भी प्रह्लाद की भगवान के प्रति भक्ति कम नहीं हुई। एक दिन शुक्राचार्य के दोनों पुत्रों ने प्रह्लाद को नारायण-नारायण का जाप करते सुन लिया तो उन्होंने सोचा कि अगर इसके पिता को सूचना मिल गई कि ये आश्रम में भी नारायण-नारायण बोलता है तो हमारी भी नौकरी जाएगी इसका जो होगा सो होगा। उन्होंने बोला तू नारायण-नारायण मत बोलना बाकी सब करना। प्रह्लाद ने कहा मन में बोलने लग जाऊंगा और क्या। एक दिन हिरण्यकषिपु ने कहा प्रह्लाद से कितना पढ़ा हैं। मैं जानना चाहता हूं। पिता ने गोद में बैठाया राजसिंहासन पर और प्रह्लाद से एक प्रश्न पूछा - बेटा, तूने क्या सीखा।<br /><br />प्रह्लाद ने बोला जो मुझे गुरुजी ने सिखाया वो मैंने सीखा। उन्होंने बोला शस्त्र संचालन, हां। राजनीति, हां। शासन, हां। मंत्रियों का नियंत्रण वो भी सीखा। इधर गुरु ने कहा मैंने तो इसे इन सबके बारे में कुछ बताया ही नहीं तो इसने कहां से सीखा?प्रह्लाद ने बोला- भगवान नारायण ने सीखाया। हिरण्यकषिपु को गुस्सा आ गया। फिर भी प्यार से समझाया प्रह्लाद को कि तुझे ये नारायण का नाम लेना बंद करना पड़ेगा अन्यथा दंड मिलेगा। काफी समझाने के बाद भी जब प्रह्लाद भगवान का स्मरण करता रहा तो हिरण्यकषिपु के क्रोध की ज्वाला भड़क उठी। प्रहलाद को दंड देने की घोषणा की गई।<br /><br /><b>नृसिंह रूप में हिरण्यकषिपु का वध किया भगवान ने</b><br />हमने पढ़ा कि हिरण्यकषिपु द्वारा मना करने पर भी प्रह्लाद भगवान की भक्ति करता रहा। क्रोधित होकर हिरण्यकषिपु ने प्रह्लाद को मृत्युदंड दे दिया। हाथी के पैर के नीचे ले गए प्रह्लाद को। पहाड़ से पटका, अग्नि में जलाया लेकिन प्रह्लाद को प्रभु की भक्ति कर रहा था इसलिए उसे कुछ भी नहीं हुआ।<br /><br />एक दिन हिरण्यकषिपु ने प्रह्लाद से कहा कि तेरा कोई भगवान है तो इस खंबे में क्यों नहीं दिखाई पड़ता? प्रह्लाद ने दृढ़ता से कहा कि खंबे में भी भगवान हैं। तब हिरण्यकषिपु ने कहा कि यदि इस खंबे से भगवान न निकला तो इसी समय मैं अपनी तलवार से तेरा सिर धड़ से अलग कर दूंगा। इतना कहकर उसने ज्यों ही खंबे पर हाथ मारा। तभी भयंकर गर्जना हुई। ऐसा लगा मानो प्रलय आने वाली है। हिरण्यकषिपु ने तलवार उठाई और अपने पुत्र का सिर काटने लगा तभी खंबे को फाड़कर भगवान नृसिंह प्रकट हो गए। हिरण्यकषिपु ने नृसिंह भगवान पर प्रहार करना चाहा जैसे ही वह नृसिंह की ओर बढ़ा उन्होंने उसे पकड़ लिया। भगवान नृसिंह वहां से कूदे हिरण्यकषिपु के सिंहासन पर जाकर विराजमान हो गए। और वहां बैठकर उन्होंने हिरण्यकषिपु को अपनी जंघा पर लेटाया और अपने तीव्र नाखूनों से उसको चीर दिया।<br /><br />इतना विकराल रूप था भगवान का कि किसी को उनकी ओर देखने का साहस नहीं हुआ। हिरण्यकषिपु के वध का समाचार चारों ओर तीव्रगति से फैल गया। देवताओं ने सुना तो वे हर्ष निनाद करने लगे। अपने भक्त प्रह्लाद के वचनों को कृतार्थ करने और अपनी सर्वव्यापकता सिद्ध करने हेतु नृसिंह के स्वरूप में वैशाख शुक्ल चतुर्दशी के दिन खंबे में से प्रकट हुए। भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार लेकर हिरण्यकषिपु का वध कर दिया। उसके बाद प्रह्लाद ने भगवान से कहा-प्रभु मैं आपके मांगलिक सद्गुणों का वर्णन कैसे करूं? आपकी लीला अपरमपार है। आप शांत हो जाइए। आपके इस भंयकर स्वरूप को देखकर देवों को डर लग रहा है, मुझे तो कोई भय नहीं भगवान।<br /><br />भगवान ने प्रह्लाद को अपने हाथों से उठाया। भगवान ने प्रह्लाद से वर मांगने को कहा। प्रह्लाद ने कहा कोई इच्छा नहीं है आप प्रसन्न हो गए बस इतना बहुत है मेरे लिए। लेकिन भगवान ने प्रह्लाद को वरदान दिया कि भक्ति भावना के साथ अनासक्त भाव में रहते हुए वह ऐश्वर्य का उपभोग करेंगा। जीवन के अंत में वह भगवान को प्राप्त होगा और भक्ति के फलस्वरूप प्रह्लाद की इक्कीस पीढिय़ों का उद्धार होगा।अनन्य भक्ति के यह साधन हैं- 1. प्रार्थना 2. सेवा-पूजा, 3. स्तुति 4. स्वीर्हन वंदन और 5. श्रवण हस्याण। व्यवहारिक कामकाज करते हुए प्रभु का स्मरण और कथा श्रवण इन साधनों से परमहंस गति मिलती है। जो इन साधनों को क्रियांवित करता है उसे परमात्मा के चरणों में अनन्य भक्ति प्राप्त होती है।<br /><br />भागवत में नारदजी-युधिष्ठिर वार्ता का प्रसंग चल रहा है। तब नारदजी बोले कि- हे युधिष्ठिर। इस प्रकार जय-विजय नामक विष्णु के दो पार्षद ब्रह्मशाप से दैत्य हुए और भगवान ने वराह व नृसिंह अवतार में उनका वध किया। द्वितीय जन्म में यही रावण और कुंभकरण बने। रामजी ने उनका उद्धार किया। तृतीय जन्म में यही शिशुपाल और दंतवक्र बने। कृष्णजी ने उनका वध किया।<br /><br /><b>जय-विजय का उद्धार किया भगवान विष्णु ने</b><br />भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार लेकर हिरण्यकषिपु का वध कर दिया। उसके बाद प्रह्लाद ने भगवान से कहा- प्रभु मैं आपके मांगलिक सद्गुणों का वर्णन कैसे करूं? आपकी लीला अपरमपार है। आप शांत हो जाइए। आपके इस भंयकर स्वरूप को देखकर देवों को डर लग रहा है, मुझे तो कोई भय नहीं भगवान।<br /><br />भगवान ने प्रह्लाद को अपने हाथों से उठाया। भगवान ने प्रह्लाद से वर मांगने को कहा। प्रह्लाद ने कहा कोई इच्छा नहीं है आप प्रसन्न हो गए बस इतना बहुत है मेरे लिए। लेकिन भगवान ने प्रह्लाद को वरदान दिया कि भक्ति भावना के साथ अनासक्त भाव में रहते हुए वह ऐश्वर्य का उपभोग करेंगा। जीवन के अंत में वह भगवान को प्राप्त होगा और भक्ति के फलस्वरूप प्रह्लाद की इक्कीस पीढिय़ों का उद्धार होगा।अनन्य भक्ति के यह साधन हैं- 1. प्रार्थना 2. सेवा-पूजा, 3. स्तुति 4. स्वीर्हन वंदन और 5. श्रवण हस्याण। व्यवहारिक कामकाज करते हुए प्रभु का स्मरण और कथा श्रवण इन साधनों से परमहंस गति मिलती है। जो इन साधनों को क्रियांवित करता है उसे परमात्मा के चरणों में अनन्य भक्ति प्राप्त होती है।<br /><br />भागवत में नारदजी-युधिष्ठिर वार्ता का प्रसंग चल रहा है। तब नारदजी बोले कि- हे युधिष्ठिर। इस प्रकार जय-विजय नामक विष्णु के दो पार्षद ब्रह्मशाप से दैत्य हुए और भगवान ने वराह व नृसिंह अवतार में उनका वध किया। द्वितीय जन्म में यही रावण और कुंभकरण बने। रामजी ने उनका उद्धार किया। तृतीय जन्म में यही शिशुपाल और दंतवक्र बने। कृष्णजी ने उनका वध किया।<br /><br /><b>दैत्यों को कैसे पुनर्जीवित किया मायासुर ने?</b><br />भागवत में अभी नारद-युधिष्ठिर प्रसंग चल रहा है। युधिष्ठिर ने नारदजी से राक्षस मायासुर की कथा पूछी। नारदजी ने सारी कथा बताई कि किस प्रकार देवताओं से पराजित होकर असुरगण मायासुर के पास गए और मायासुर ने लोहे, चांदी और सोने की नगरी बनाई। दैत्यों को मुक्त निवास मिला। उन्होंने पुन: देवताओं पर हमला किया। देवताओं को सताया तो शंकर भगवान ने पशुपास्त्र अस्त्र से मायापुरी को नष्ट किया। जितने राक्षस थे सब नष्ट हो गए उस मायापुरी में। जब मायासुर को विदित हुआ तो उसने सब दैत्यों को उठाकर अमृत कुंड में डाल दिया। वह पुन: जीवित हो गए। शिवजी को बड़ा विषाद हुआ।<br /><br />भगवान विष्णु को देवों पर दया आई। ब्रह्मा को बछड़ा बनाकर व स्वयं गाय बनकर उस अमृत कुंड के पास गए और उस अमृत को पीने लगे। दैत्यों ने गाय व बछड़ा समझकर पीने दिया और देखते ही देखते सारा अमृत उन्होंने समाप्त कर दिया। फिर युद्ध हुआ। अंत में देवताओं ने असुरों पर विजय प्राप्त की।तब युधिष्ठिर ने नारदजी से प्रश्न किया कि धर्माचरण से मानव को ज्ञान और भक्ति मिलती है। इसका कारण वर्ण और आश्रम के पवित्र आचरणों से युक्त सनातन धर्म को सुनने की मेरी प्रबल आकांक्षा है। कृपया सुनाइए। सातवें स्कंध के 11-15 अध्याय में मिश्रवासना के प्रसंग हैं।<br /><br />नारदजी ने कहा कि श्रद्धा और प्रीति के अतिरिक्त धर्म के जो 30 लक्षण हैं। प्रथम सत्य और अंतिम आत्म समर्पण वे इस प्रकार हैं।- 1. सत्य, 2. दया, 4. तप, 3. शोच, योग्य-अयोग्य, विचार, चित्त, वशीकरण, इंद्रिय, निग्रह, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, दान, वेदाध्ययन, सरलता, संतोष, समदर्शिता, विरक्ति, मौन, सब जीवों को दान, सबमें देवदृष्टि, कथा श्रवण, कथावाचन, स्मरण, पूजन, सेवा, आराधना, अर्चना और नमस्कार, दास्य सख्याभाव, आत्मनिवेदन और समर्पण। ऊपर लिखित तीस धर्मों को ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को अवश्य पालन करना चहिए।<br /><br /><b>ऐसा होना चाहिए संन्यासी का जीवन</b><br />हम यहां जान लें कि शुकदेवजी महाराज राजा परीक्षित को भागवत की कथा सुना रहे हैं और उसी के अंतर्गत नारद-युधिष्ठिर का प्रसंग चल रहा है। भक्त प्रहलाद और अजगरमुनि के बीच संन्यास जीवन से संबंधित जो संवाद हुआ था उसे भी नारदजी ने युधिष्ठिर को सुनाया।<br /><br />एक बार प्रह्लाद अपने मंत्रियों सहित कावेरी नदी के तट पर पहुंचे। वहां उन्होंने एक अजगर वृत्तिधारी धूल धुसरित मुनि को देखा। प्रणाम किया और पूछा कि आप ऐसे क्यों पड़े हैं? तो मुनि ने कहा कि नाना योनियों में विचरण करने के उपरांत कर्म के फलस्वरूप मुझे यह मनुष्य जन्म प्राप्त हुआ है। मैं अब सभी प्रकार के कर्मों से विलग हो गया हूं। आत्मा तो आनंद स्वरूप है यदि इच्छाएं न रहे तो आनंद स्वमेह ही प्राप्त हो जाता है।<br /><br />मुनि कहने लगे कि- हे दानवराज प्रह्लाद। संसार में मधुमक्खी और अजगर ये दोनों ही मेरे गुरु हैं। जिस प्रकार मधुमक्खी द्वारा संचित मधु को कोई अन्य भी ले जा सकता है उसी प्रकार किसी व्यक्ति द्वारा संचित धन-सम्पत्ति को भी उसके बंधु-बांधव भोगते हैं और इसीलिए मैंने संचय वृत्ति का त्याग कर दिया। उसी प्रकार अजगर बिना किसी अपेक्षा के एक स्थान पर पड़ा रहा रहता है तथा जो आसानी से मिल जाता है उसी से संतोष कर लेता है। उसी से मैंने धैर्य धारण करना सीखा है। संक्षेप में उन्होंनें सार की बात कह दी। प्रह्लाद ने उनकी पूजा की और अपने गंतव्य को चले गए।<br /><br /><b>गृहस्थी के केंद्र में भगवान को रखें</b><br />भागवत में हम युधिष्ठिर-नारद का संवाद पढ़ रहे हैं। नारद मुनि युधिष्ठिर के प्रश्नों का उत्तर दे रहे हैं। धर्मराज युधिष्ठिर नारद मुनि से पूछ रहे हैं- जिसका मन गृहस्थी में लगा हुआ हो, ऐसे पुरूष को सहज ही वैराग्य की प्राप्ति कैसे हो सकती है? कृपया ये बताइये? तब नारदजी ने कहा कि गृहस्थ को चाहिए वह भगवान श्रीकृष्ण की उपासना में तल्लीन रहे। उसे अपने सब कार्य श्रीकृष्ण को अर्पण कर देना चाहिए।<br /><br />गृहस्थ में रहने पर भी उसको चाहिए कि स्त्री, पुत्र, धन, संपत्ति आदि का अधिक मोह न रखें।गृहस्थी चले कैसे, गृहस्थी बसे कैसे, गृहस्थी दिव्य कैसे हो? ये छोटी-मोटी परेशानियों में कैसे भगवान की भक्ति बची रहे। अब युधिष्ठिर प्रश्न पूछ रहे हैं। उत्तर मिला- पहले भरोसा रखें। गृहस्थी भगवान के भरोसे चलेगी। भगवान को केंद्र में रखो गृहस्थी में कोई परेशानी नहीं आएगी।प्रश्न पूछा तो युधिष्ठिर को उत्तर दे रहे हैं नारद- देखो गृहस्थी को चलाना है तो चार तरह के आश्रम होते हैं ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और उसके बाद संन्यास आश्रम । प्रयास करना कि इस आश्रम में भगवान हमारे घर आएं।<br /><br />याद रखिएगा भगवान को बुलाना पड़ता है, भगवान को याद करिए जैसे भी करिए।ये बात नारदजी ने युधिष्ठिर को समझाई। शुकदेवजी बोले हे- राजा परीक्षित। इस प्रकार महर्षि नारद से धर्म का रहस्य श्रवण करके महाराज युधिष्ठिर अत्यंत प्रसन्न हुए तदं्तर उन्होंनें बड़ी श्रद्धा भक्ति से भगवान श्रीकृष्ण की पूजा की और फिर नारदजी महाराज की भी पूजा अर्चन कर उनके प्रति आभार व्यक्त करते हुए विदा किया।<br /><br /><b>भागवत को सुनें ही नहीं, जीवन में भी उतारें</b><br />नारदजी व युधिष्ठिर का प्रसंग सुनाने के बाद शुकदेवजी महाराज ने परीक्षित से कहा कि- हे राजा परीक्षित। देवता, असुर और मनुष्य आदि समस्त प्राणी जिन दक्षकन्याओं के वंश में उत्पन्न हुए, उनकी वंशावली मैंने आपको सुनाई। वर्णाश्रम धर्म का विवरण भी मैंने आपको सुनाया। इसका सुनना, सुनाना और पढऩा, पढ़ाना। सबको सुख शांति देने वाला है और इसी के साथ सातवां स्कंध समाप्त होता है।इस प्रकार विधान के अनुसार तीसरा दिन समाप्त होने जा रहा है। हम आज से भागवत पारायण के विश्राम स्थल के अनुसार चौथे दिन में प्रवेश कर रहे हैं। तो भगवान को साथ जोड़ते हुए प्रवेश करते हैं।<br /><br />आज भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण का प्रवेश होने वाला है। ये मणिकांचन योग है। भगवान हमारी कथा में नहीं आ रहे हैं, बल्कि हमारे जीवन में आ रहे हैं। किसी का सौभाग्य होता है कि वसुदेव और देवकी बनते हैं और भगवान उनके घर जन्म लेते हैं। बड़ा परम सौभाग्य है कि कोई दशरथ बने, कौशल्या बने और भगवान जन्म लें। आज भगवान हमारे आंगन में जन्म ले रहे हैं। हमारे जो पुण्य रहे हैं, हमारे पितरों की कृपा रही है कि आज हमें ये दिन देखने को मिला है। इस आनंद का भरपूर लाभ उठाएं। भगवान अब पृष्ठ से निकलकर हमको पालने में नजर आएंगे तो तैयार रहिएगा।<br /><br /><b>परिश्रम व पुरुषार्थ के प्रतीक हैं श्रीराम व श्रीकृष्ण</b><br />जीवन को सार्थक बनाने के लिए चार बातों का ध्यान रखना अतिआवश्यक है। यह लिखा है भागवत में। सबसे प्रमुख है पारदर्शिता। महाभारत की एक छोटी सी घटना यदि आप याद करें कि कुंती ने इस बात को छिपाया था कि कर्ण मेरा सबसे बड़ा बेटा है। कुंती ने बात छिपाई और कुंती ने कीमत चुकाई और कर्ण ने भी चुकाई। तो पारदर्शिता बनाए रखिए जीवन में। दूसरा हमारा जो व्यावसायिक जीवन होता है उसमें परिश्रम के बिना कुछ प्राप्त नहीं किया जा सकता है।<br /><br />भगवान विष्णु के 24 अवतार हुए हैं जिनमें दो पूर्णावतार हैं-श्रीराम और श्रीकृष्ण। यदि आप इन दोनों अवतारों को देखें तो इन्होंने संदेश दिया है कि जीवन में परिश्रम बनाए रखिएगा। श्रीराम की कथा में और श्रीकृष्ण की कथा में जब आप इनके जीवन को टटोलेंगे तो आपको आश्चर्य होगा के कोई इतना भी परिश्रम कर सकता है और जो परिश्रमी होंगे, जो पुरुषार्थी होंगे, जो अपने परिश्रम से अर्जित यश, कीर्ति, धन को अपने घर में लाएंगे वो शांत भी होंगे। तीसरी बात है हमारे परिवार में प्रेम बना रहे। परिवार प्रेम से चलता है और राम और कृष्ण प्रेम के देवता हैं। चौथी बात हमारे निजी जीवन में पवित्रता बनाए रखिएगा। हमारे निजी जीवन में पवित्रता है तो परमात्मा बहुत जल्दी उतरकर आएंगे।<br /><br />अब तक के सात स्कंधों में हमने प्रतीक रूप से क्या पाया? प्रथम स्कंध में शिष्यों का अधिकार बताया गया था। अधिकार के बिना ज्ञान शोभा नहीं देता। अनाधिकारी मनुष्य ज्ञान का दुरुपयोग करता है। दूसरे स्कंध में ज्ञान का उपदेश दिया है। तृतीय स्कंध में ज्ञान को जीवन में किस प्रकार उतारना है यह कथा सुनाई गई है। चौथे स्कन्ध में चार पुरुषार्थ की कथा बताई गई है। पांचवें स्कन्ध में ज्ञानी परमहंसों के और भागवत परमहंसों के लक्षण बताए गए हैं। इसके बाद छठे स्कंध में पुष्टि की कथा आई है। सातवें स्कंध में वासना की कथा सुनाई है और बताया कि प्रह्लाद की सद्वासना है, मनुष्य की मिश्र वासना है और हिरण्यकष्यपु की असत् वासना है। अष्टम स्कंध में मन्वन्तर लीला का वर्णन है।<br /><br /><b>ऐसे बचें वासनाओं के जाल से</b><br />हम भागवत के आठवें स्कंध में प्रवेश कर रहे हैं। वासना के विनाश के क्या मार्ग हो सकते हैं? ये प्रश्न परीक्षित शुकदेवजी महाराज से पूछ रहे हैं। शुकदेवजी कहते हैं- चार काम करिए वासनाओं से बच जाएंगे। पहला काम सतत स्मरण करिए, दूसरा काम है ईश्वर का ध्यान करें। तीसरी बात कि स्ववचन का पालन करें। आपने जो भी कहा है वो किया जाए। इसका गूढ़ अर्थ है कि मन, वचन और कर्म में एकरूपता हो और चौथी बात कि वासना से बचना चाहें तो शरणागति भगवान की करें। ये चार तरीके वासना से बचने के बताए।<br /><br />शुकदेवजी ने कहा कि परीक्षित मै आपको मनु की कथा सुनाने जा रहा हूं। पांचवें मनु तामस के सहोदर रेवत की कथा सुन लीजिए। इस मनवंतर में शुभ ऋषि की पत्नी त्रुकुण्टा के गर्भ से भगवान ने वैकुण्ठ अवतार धारण किया और उन्होंने वैकुण्ठ लोक की रचना की। चक्षु के पुत्र से चाक्षुस छठें मनु हुए। इस मनवंतर ने वराज की भार्या के गर्भ से भगवान ने अजिति नाम का अवतार धारण किया जिसने क्षीरसागर का मंथन कर देवताओं को अमृतपान कराया। आठवें स्कंध का एक प्रसंग आरम्भ होता है। हाथियों का राजा गजेंद्र था। बड़ा मदमस्त रहता था। एक दिन अपने परिवार के साथ सरोवर में स्नान करने गया। तभी पानी के भीतर बैठे मगर ने उसका पैर पकड़ लिया। उसके बाद गजेंद्र का क्या हुआ? तथा गजेंद्र के पूर्व जन्म की कथा हम पढ़ेंगे।<br /><br /><b>जब भगवान हरि ने बचाए गजेंद्र के प्राण</b><br />हमने पढ़ा कि हाथियों का राजा गजेंद्र एक दिन परिवार के साथ सरोवर में स्नान के लिए गया जहां मगर ने उसका पैर पकड़ लिया। ये जो गजेंद्र था ये पूर्व जन्म में इन्द्रद्युम्न नाम का राजा था। मगर ने जैसे ही उसका पैर पकड़ा तो उसने पैर छुड़ाने की कोशिश की और वो जो मगर था वो हूहू नाम का एक गंधर्व था। इन दोनों को शाप मिला था तो इस योनि में आए थे। मगर ने पैर पकड़ लिया तो घबराया हाथी और चिल्लाया, उसकी पत्नियां थीं हथनियां और रिश्तेदारों ने उसको हाथ पकड़कर खींचना शुरू किया। मगर उसको और भीतर ले जा रहा था।<br /><br />सबने बोला कि हमने इतनी ताकत लगाई पर तुम अंदर ही जा रहे हो, हम तुम्हारे साथ अंदर नहीं जाएंगे। हाथी ने देखा मेरी पत्नियां, मेरे बच्चे, वो मेरे मित्र जो मेरे साथ नहा रहे थे सब खड़े होकर तमाशा देखने लग गए। तो उसकी समझ में जो आया वो हम भी समझ जाएं। ये गजेंद्र हम हैं, हमारी मस्ती, हमारा मद है। हम संसार में ऐसे ही कूद-फान मचाते हैं। अचानक काल नीचे से आकर पकड़ लेता है और जैसे ही आपका काल आएगा आपको अकेले ही जाना है। थोड़ी बहुत खींचातानी सब कर लेंगे, पर जाना आपको अकेले ही है। तो गजेंद्र को समझ में आया। उसने भगवान की स्तुति की। एक कमल का फूल भगवान को अर्पित किया। हरि अवतार में भगवान आए सुदर्शन चक्र से मगर का वध किया। उसको मुक्त कराया। ये गजेंद्र मोक्ष की कथा है।<br /><br /><b>इसलिए भगवान शंकर कहलाते हैं नीलकंठ</b><br />भागवत में आगे समुद्रमंथन की कथा आ रही है। एक बार ऐसा हुआ कि दैत्यों ने देवताओं को हराकर स्वर्ग पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया। देवता परेशान होकर भगवान के पास गए। भगवान ने कहा -ऐसा करो कि समुद्र को मथो। जब उसे मथोगे तो उसमें से अमृत निकलेगा और वो अमृत तुम पी लेना तो तुम अमर हो जाओगे उसके बाद लड़ते रहना दैत्यों से। पर इसमें दैत्यों की भी जरूरत पड़ेगी। दैत्यों के पास जाकर प्रस्ताव रखा। दैत्यराज बलि को भी प्रस्ताव ठीक लगा।<br /><br />मंदराचल पर्वत की मथनी बनाई वासुकीनाग की रस्सी बनाई और चले सब मथने के लिए। जैसे ही मंथना आरंभ किया और 14 रत्न निकलना शुरू हुए तो सबसे पहले निकला कालकूट नाम का विष। सब देवता और दैत्य भागे कि इसका क्या करेंगे, त्राहि-त्राहि मच गई, देवताओं ने भगवान विष्णु से कहा-ये आपने क्या कर दिया। आपने तो कहा था कि मथेंगे तो अमृत निकलेगा, अमृत का तो पता नहीं ये तो विष निकल आया। भगवान ने कहा अमृत पाने के लिए विषपान करना पड़ता है। अमृत यदि आप जीवन में पाना चाहें, चरम पाना चाहें तो कुछ न कुछ प्रतिकूलता से गुजरना पड़ेगा, संघर्ष करना पड़ेगा।<br /><br />सब देवता शंकरजी के पास पहुंचे। देवताओं ने उन्हें प्रणाम किया और कहा कि मंथन में विष निकल आया है। आप पान कर लें इसका। भगवान शंकर ने अपने चुल्लू में विष लिया और जैसे ही चुल्लू में लेकर विष पीना आरंभ किया तो उन्होंने विचार किया कि बाहर निकला तो दुनिया परेशान और भीतर गया तो मेरा स्वास्थ्य बिगड़ जाएगा अत: उसको कण्ठ में रोक लिया, तब से वह नीलकंठ कहलाए<br /><br />क्रमश:...<br /><b><br />जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,<br />और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....मनीष</b>Jai Guru Geeta Gopalhttp://www.blogger.com/profile/01621836960274288942noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6101091264294453966.post-61040970903511733712021-06-05T23:44:00.002-07:002021-06-05T23:44:24.246-07:00श्रीमद् भागवत Srimdbhagwat Part(3)<p> <b>घटनाओं का जोड़ है मनुष्य</b></p>भगवान श्रीकृष्ण युधिष्ठिर को लेकर भीष्म के पास पहुंच गए हैं,भीष्म शरशैया पर हैं। भगवान ने कहा- मैंने आपको वचन दिया था कि मैं आपके अंतिम समय में आऊंगा, मैं आ गया। मेरा आपसे एक निवेदन है कि युधिष्ठिर राजा बनने वाले हैं आप इनको राजधर्म का ज्ञान दीजिए। जैसे ही भीष्म राजधर्म पर बोलना शुरु करते हैं एक अठ्ठहास सुनाई देता है।<br /><br />देखा वहां द्रौपदी हंस रही थीं। द्रौपदी ने कहा-पितामह आप किस राजधर्म की बात कर रहे हैं? यह राजधर्म और धर्म उस समय कहां चला गया था जब भरी सभा में मुझे खींचकर लाया गया और दुर्योधन के आदेश से मेरा अपमान किया गया था। द्रौपदी के शब्द सुन भीष्म मौन हो गए। तब श्रीकृष्ण बोले- द्रौपदी, मैं जानता हूं तेरे साथ दुनिया का वो अपमान हुआ है जो सबसे घिनौना है। इतिहास सदैव इस पर आंख नीची करेगा। लेकिन पांचाली एक बात याद रखना, किसी एक घटना से किसी व्यक्ति का मूल्यांकन मत करना।<br /><br />व्यक्ति घटनाओं का जोड़ होता है। जिन भीष्म पर तुम आरोप लगा रही हो वे भीष्म कुछ और ऊंचाइयों पर भी जीते हैं। किसी एक स्थिति में पतित व्यक्ति दूसरी स्थिति में बहुत पुण्यात्मा हो सकता है। किसी एक स्थिति में बहुत बढिय़ा काम करने वाला व्यक्ति कहीं गिर भी सकता है। पहचानों पांचाली ये भीष्म हैं। पांचाली श्रीकृष्ण की बात सुनकर चुप हो गई। तब भीष्म ने कहा- श्रीकृष्ण, मैं राजधर्म की शिक्षा तो दूंगा पर मेरा एक प्रश्न है आपसे। कृष्ण बोले पूछिए और भीष्म ने बड़ा सुंदर प्रश्न पूछा और श्रीकृष्ण ने जो उत्तर दिया वो हमारे बड़े काम का है।<br /><br /><b>सबके पापों का हिसाब रखते हैं भगवान</b><br />भीष्म ने श्रीकृष्ण से पूछा- मेरा जीवन ब्रह्मचारी के रूप में, योद्धा के रूप में, राजपुरूष के रूप में निष्कलंक रहा। मैंने कभी कोई पाप नहीं किया लेकिन मुझे आज ये दिन क्यों देखना पड़ रहा है। श्रीकृष्ण बोले- भीष्म। आप भूल गए आपने एक पाप किया था। भीष्म बोले- मैंने कभी कोई पाप नहीं किया।<br /><br />श्रीकृष्ण ने कहा-लोगों के पाप का हिसाब रखना ही भगवान का काम है, मैं रखता हूं। मैं बताता हूं आपने कौन सा पाप किया था। जिस दिन द्रौपदी को राजसभा में लाया गया, ये आदेश करके कि यह जीत ली गई है। तब द्रौपदी ने एक बड़ा मौलिक प्रश्न किया था उस सभा में। द्रौपदी ने कहा था कि पांडव हार गए हैं, ये अपना राज्य हार गए उसके बाद इन्होंने अंत में मुझे दाव पर लगाया। तो जो राजा, जो पति स्वयं हार चुका हो तो वो दूसरे को कैसे दाव पर लगा सकता है । ये द्रोपदी का प्रश्न था।<br /><br />राजसभा में दो मत हो गए थे। विदुर ने कहा था द्रौपदी ठीक बोल रही है। उस समय द्रौपदी ने आपसे भी यही प्रश्न पूछा था। आपने आंख नीची कर ली थी। आपने कहा था कि दुर्योधन राजा है इसलिए मैं इसके विपरीत नहीं बोल सकता। आपने कहा था मेरी शपथ है कि मैं हस्तिनापुर की राजगादी को सुरक्षित रखूंगा मेरी निष्ठा कुरूवंश से जुड़ी है और आपने गर्दन नीची कर ली थी। यही एक पाप था जो आपके जीवन को यहां ले आया।<br /><br />भीष्म ने कहा- ये आप क्या कह रहे हैं भगवन मैंने तो संबंधों का निर्वाह किया था। मैंने तो शपथ ली थी प्रतिज्ञा का पालन करना तो राजपुरूष का कर्तव्य है। श्रीकृष्ण ने जो उत्तर दिया भागवत का संदेश यहीं से आरंभ हो रहा है।<br /><br /><b>समय के अनुसार बदल दें परपराएं</b><br />श्रीकृष्ण भीष्म से कह रहे हैं -भीष्म याद रखिए जीवन में अपनी शपथ, अपने संकल्प, अपने निर्णय व अपनी परंपरा का पुनर्मूल्यांकन करते रहना चाहिए। जब आपने हस्तिनापुर की राजगादी की रक्षा की शपथ ली थी तब चित्रांगद और विचित्रवीर्य बैठे थे राजगादी पर। और जब द्रोपदी का अपमान किया गया उस समय दुर्योधन जैसा दुष्ट बैठा था राजगादी पर।<br /><br />श्रीकृष्ण का यह संवाद हमारे लिए संकेत है। वर्षों पुरानी हमारे घर की कोई परंपरा हो, हमारी जीवन की परंपरा व्यवस्थाओं की परंपराएं हो तो समय- समय पर उनका पुनर्मूल्यांकन करते रहिए। पांडव अपने सारे निर्णयों की पुष्टि भगवान से करवाते थे और भीष्म यहीं पर चूक गए थे। श्रीकृष्ण ने कहा-जीवन संतुलन का नाम है। जो लोग जीवन को अति से जिएंगे वे एक दिन परेशान हो जाएंगे।<br /><br />यह सुनकर भीष्म ने कहा इतना बड़ा कुरुवंश था मैं कैसे संबंध निभाता था? मैं ही जानता था। श्रीकृष्ण मुस्कुराए और बोले- आपने हस्तिनापुर की राजगादी को सुरक्षित रखा लेकिन आसपास के वातावरण को रूपांतरित नहीं किया ये आपकी बड़ी भूल थी। दुर्योधन भ्रष्ट बन गया, ये आपकी भूल है। भीष्म ने नजर नीची की। भगवान ने भीष्म को जो संदेश दिया हमारे भी काम आएगा। भीष्म ने कहा मैं प्रणाम करता हूं और भीष्म ने आभार व्यक्त किया।उन्होनें फिर धर्मराज को उपदेश दिया। और फिर परमधर्म बताया, विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करना ही परमधर्म है। अब भीष्म प्राण त्यागने की तैयारी में हैं।<br /><br /><b>भक्तों को दिया वचन निभाते हैं भगवान</b><br />महाभारत के युद्ध के दौरान भीष्म ने श्रीकृष्ण से निवेदन किया था कि जिस दिन मेरी मृत्यु हो, आप अवश्य उपस्थित रहना। श्रीकृष्ण ने अपना वचन निभाया। जब महात्मा भीष्म ने प्राणों का उत्सर्ग किया तो भगवान भी भावुक हो गए। सोचिए क्या दिव्य मृत्यु रही होगी कि जिसकी मृत्यु पर भगवान आंसू बहाने लगे। ऐसी भीष्म की मृत्यु हुई। प्रथम स्कंध में भीष्म का चरित्र भागवत के ग्रंथकार सुना रहे हैं। भीष्म का गमन हुआ। भीष्म को भगवान ने विदा किया। भगवान श्रीकृष्ण महाभारत को समाप्त करके जा रहे हैं।<br /><br />भगवान ने कहा मेरा समय हुआ, मुझे द्वारिका जाना है। भगवान द्वारिका जाने लगे और पांडवों से कहा कि- देखो अब तुम लोग अपना जीवन आरंभ करना। युधिष्ठिर का राजतिलक करके श्रीकृष्ण द्वारिका गए। वहां की जनता ने उनकी रथ यात्रा का दर्शन किया। यह वर्ण प्रथम स्कंध के 10 तथा 11वें अध्याय में आता है। बाहरवें अध्याय में परीक्षित के जन्म की कथा है। उत्तरा ने बालक को जन्म दिया और वह बालक जन्म लेते से ही उस चतुर्भुज रूप को खोजने लगा जिसे उसने अपनी माता के गर्भ में देखा था।<br /><br />परीक्षित भाग्यशाली था कि उसको माता के गर्भ में ही भगवान के दर्शन हुए। यही कारण है कि वह उत्तम श्रोता है। युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों से पूछा कि यह बालक कैसा होगा? ब्राह्मणों ने कहा कि वैसे तो सभी ग्रह दिव्य हैं किंतु मृत्यु स्थान में कुछ त्रुटी है। इसकी मृत्यु सर्प दंश से होगी। यह सुनकर धर्मराज को दु:ख हुआ कि मेरे वंश का पुत्र सर्पदंश से मरेगा। पर ब्राह्मणों ने युधिष्ठिर को आश्वस्त किया कि जो कुछ भी होगा उसी से इस बालक को सदगति मिलेगी।<br /><br /><b>क्यों हारे अर्जुन लुटेरों से ?</b><br />हम प्रथम स्कंध में चल रहे हैं। इसके सोलहवें अध्याय से परीक्षित का चरित्र आरंभ होता है। विदुरजी तीर्थयात्रा करते हुए प्रभास क्षेत्र में पहुंचे। विदुरजी महाभारत युद्ध के समय हस्तीनापुर छोड़ चुके थे। उन्हें खबर हुई कि सभी कौरवों का विनाश हो चुका है और धर्मराज युधिष्ठिर राजसिंहासन पर बैठै हैं। मध्यरात्रि के समय विदुरजी धृतराष्ट्र और गांधारी को लेकर वन में सप्त स्त्रोत तीर्थ चले गए।<br /><br />यदुवंश की कथा आगे विस्तार से जानेंगे। अभी सिर्फ इतना कि भगवान ने जाते-जाते अर्जुन को अपने यदुवंश की स्त्रियां और संपत्ति सौंप दी और कहा कि तुम इनको लेकर हस्तिनापुर चले जाओ क्योंकि अब राक्षस लोग आक्रमण करेंगे, द्वारिका डूब जाएगी। अर्जुन उनको लेकर आ रहे थे कि रास्ते में लुटेरों ने हमला किया, अर्जुन हार गए। अर्जुन पराजित होकर आए। युधिष्ठिर ने देखा और पूछा अर्जुन तुम तो द्वारिका गए थे। भगवान श्रीकृष्ण व उनके परिवार के सदस्यों को लेने। क्या हुआ, तेरा चेहरा ऐसा डूबा हुआ क्यों है?<br /><br />चेहरे का तेज कहां चला गया, वो ओज कहा चला गया जिसके लिए अर्जुन जाना जाता था? तू रोता-रोता सा क्यों दिखता है। अर्जुन ने कहा- भैया हम लूट गए। भगवान चले गए। वे स्वधाम जा चुके हैं। जब मैं कुछ स्त्रियों को लेकर आ रहा था लुटेरों ने मुझे लूट लिया। मैं गांडीव उठाता था तो मेरा शस्त्र नहीं उठता। मैं साधारण लुटेरों से हार गया। वो स्त्रियां ले गए, धन ले गए। मैं लुटापिटा आपके पास आया हूं ।<br /><br /><b>भगवान की उपस्थिति में ही बल है</b><br />लुटे-पिटे अर्जुन को देखकर युधिष्ठिर ने कहा-आज हमें समझ में आ गया हम पांडवों के पास कोई ताकत नहीं थी। ताकत तो सिर्फ श्रीकृष्ण की थी। अरे तू जिस गांडीव से बड़े-बड़े योद्धाओं को पराजित करता था। वो लूटेरों से हार गया। तेरे गांडीव में ताकत नहीं थी। ताकत तो सिर्फ श्रीकृष्ण की मौजूदगी में थी। जीवन में परमात्मा की मौजूदगी की ही ताकत है। उसके जाते ही हम बेकार हो जाएंगे इसलिए निर्भय बने रहिए उसका बल हमारे साथ है। यह बहुत सूत्र की बात है। भगवान को सदा अपने जीवन के केंद्र में रखिए।<br /><br />अब पांडवों ने विचार किया चलो हम भी संसार त्यागते हैं। ऐसा कहते हैं कि पांडवों में सिर्फ ही युधिष्ठिर सशरीर स्वर्ग में गए थे। युधिष्ठिर अपने भाइयों व पत्नी द्रोपदी को साथ लेकर चले। स्वर्गारोहण के समय सबसे पहले द्रौपदी गिर गई। प्रश्न पूछा ये क्यों गिर गई? उत्तर मिला पांच पतियों में सबसे अधिक अर्जुन को प्रेम करती थी, भेदभाव रखती थी इसलिए इनका पतन सबसे पहले हुआ। उसके बाद सहदेव का पतन हुआ क्योंकि उनको ज्ञान का अभिमान था। नकुल का पतन हुआ क्योंकि उन्हें अपने रूप का अभिमान था। अर्जुन जब गिरे तो युधिष्ठिर ने कहा अर्जुन को अपने बल पर अभिमान था इसलिए अर्जुन भी स्वर्ग में सशरीर नहीं जा पाए।<br /><br />अब बचे भीम और युधिष्ठिर। तो पहले भीम गिर गए। उसने पूछा मैं क्यों गिर गया भैया? तो उन्होंने कहा तू इसलिए गिर गया कि तू खाता बहुत था। अधिक खाना भी पाप है। भीम अधिक खाता था और अधिक सोता था। ये दो काम न करें ये पाप की श्रेणी में आते हैं। उसके बाद युधिष्ठिर स्वर्ग में गए। उन्होंने वहां भाइयों और पत्नी को देखा और सबको मुक्ति दिलाई। आगे भागवत के प्रमुख पात्र परीक्षित की कथा आएगी।<br /><br /><b>धर्म के चार चरण होते हैं</b><br />पाण्डवों के स्वर्गारोहण के बाद अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित राज करने लगे। उन्होंने धर्म के आधार पर प्रजापालन किया। तीन अश्वमेध यज्ञ किए। सब प्रसन्न थे उनके राज में। जन्म के समय ज्योतिषियों ने जिन गुणों का वर्णन किया वे सब उनमें प्रकट होने लगे थे। यथासमय उन्होंने उत्तर की कन्या दरावति से विवाह किया। जिससे जनमेजय आदि चार पुत्र उत्पन्न हुए।<br /><br />एक बार जब वे कहीं जा रहे थे तभी उन्हें एक लंगड़ा दुर्बल बैल और दुर्बल गाय दिखाई दी। वास्तव में वह बैल धर्म था और गाय के रूप में पृथ्वी थी। परीक्षित ने देखा की राजा का वेष धारण किए हुए एक शुद्र उन दोनों पर निरंतर चाबुक का प्रहार कर रहा है। वह राजा वेष धारण किए हुए और कोई नहीं साक्षात कलियुग था। राजा से अन्याय नहीं सहा गया। उन्होंने कलियुग का हाथ पकड़ लिया। पूछा कि इन निर्बलों को क्यों प्रताडि़त कर रहा है? परीक्षित को तब तक उनके रूप का ज्ञान नहीं था। तब बैल ने अपना परिचय दिया, गौ ने अपना परिचय दिया।<br /><br />बैल रूपी धर्म का केवल एक ही पैर था शेष तीन पैर टूट चुके थे। धर्म के चार चरण होते हैं-सत्य, तप, पवित्रता, और दान। सतयुग में तो धर्म के चार चरण थे। फिर त्रेता में सत्य चला गया द्वापर में सत्य ओर तप न रहे और कलयुग में सत्य और तप के साथ पवित्रता भी चली गई। कलयुग में केवल दान और दया के सहारे धर्म रह गया। गाय रूपी पृथ्वी का शरीर जर्जर, केवल अस्थिपंजर रह गया था। तब राजा ने उनकी ये दुर्दशा देखी और प्रण किया कि आप लोग निश्चित रहिए मैं इस आततायी कलयुग का सर्वनाश करके रहूंगा।<br /><br /><b>कलयुग को अभयदान दिया परीक्षित ने</b><br />राजा परीक्षित की प्रतिज्ञा को जब कलयुग ने सुना तो वह भय से कांप उठा। वह राजा की शरण में आ गया। परीक्षित ने उसे अभय दान दे दिया। तब कलयुग ने कहा कि पद्धति के क्रम से मेरा भी समय आ गया है। आप मुझे रहने के लिए उचित स्थान दीजिए। तब परीक्षित ने कलयुग को मदिरा, जुआ, व्याभिचार और हिंसा इन चार स्थानों पर रहने की अनुमति दे दी। कलयुग ने फिर अनुनय विनय किया कि उसको एक और पंचवां स्थान दिया जाए। और वह पांचवां स्थान स्वर्ण था। राजा ने स्वीकृत कर लिया।<br /><br />समय बीता और एक दिन ऐसा हुआ कि परीक्षित को जिज्ञासा हुई कि देखूं तो सही कि मेरे दादा ने मेरे घर में क्या-क्या रख छोड़ा है ? एक पेटी में स्वर्ण मुकुट मिला। बिना कुछ सोचे ही राजा परीक्षित ने मुकुट पहन लिया। यह मुकुट जरासंघ का था। पाण्डवों ने जब जरासंघ का वध किया था तब वे इसे ले आए थे। यह धन अनीति का था, छीना-छपटी का था। अनीति का धन उसके कमाने वाले को और वारिस को भी दु:ख देता है, इसलिए उस मुकुट को पेटी में बंद करके रखा गया था। आज परीक्षित ने देखा तो पहन लिया।<br /><br />अधार्मिक व्यक्ति का वह मुकुट अधर्म से ही लाया गया था। इसलिए उसके द्वारा कलयुग ने परीक्षित की बुद्धि में प्रवेश कर लिया। जिस कलयुग को राजा परीक्षित अपने देश में भी नहीं रहने देना चाहते थे उस कलयुग को राजा के मुकुट में ही स्थान मिल गया।<br /><br /><b>जब ऋषि ने परीक्षित को दिया श्राप</b><br />एक दिन राजा परीक्षित शिकार खेलने गए। मृग का पीछा करते-करते वे बहुत थक गए। प्यास लगी तो वे शमीक ऋषि के आश्रम में गए। शमीक ऋषि ध्यान लगाकर बैठे थे। परीक्षित ने सोचा कि ये मेरी बात नहीं सुन रहे। भूख प्यास के मारे राजा अपना विवेक खो बैठा। और उसने एक छड़ी से एक मृत सर्प को शमीक ऋषि के गले में डाल दिया। और राजा चला गया। शमीक ऋषि की समाधि फिर भी भंग नहीं हुई। शमीक ऋषि का पुत्र श्रृंगी वहां पहुंचा। उसने देखा कि किसी ने मृत सर्प पिता के गले में डाल दिया है। तो उन्हें बड़ा क्रोध आया।<br /><br />उन्होंने क्रोध में आकर श्राप दे दिया कि जिस किसी ने मेरे पिताजी के गले में मृत सर्प डाला है आज से ठीक सातवे दिन सर्पराज तक्षक उसको डंस लेंगे।जब ऋषि शमीक की तपस्या पूर्ण हुई तब उन्हें पूरी बात श्रृंगी ने बताई।ऋषि ने ध्यान लगाया। वे समझ गए कि राजा परीक्षित ने कलयुग के प्रभाव में आकर यह किया है। अनजाने में उनसे भूल हो गई। मेरे पुत्र ने छोटी सी भूल का उन्हें इतना बड़ा दंड दे दिया। यह तो अच्छा नहीं हुआ। अगर राजा परीक्षित न रहें तो पृथ्वी पर अराजकता व्याप्त हो जाएगी। यह सोच ऋषि चिंतित हो गए।<br /><br />इधर राजा परीक्षित ने जब मुकुट उतारा तो उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ। राजा परीक्षित को जब शाप के बारे में ज्ञान हुआ तो उन्होंने इसे प्रभु आज्ञा मानकर शिरोधार्य किया और तुरंत राजपाट छोड़ दिया। उन्होंने निश्चय किया कि अब जो भी थोड़े दिन बचे हैं, उन दिनों में वे भगवान की भक्ति करेंगे। ऐसा विचार कर परीक्षित राजमहल छोड़कर गंगा के तट पर आकर विराज गए और संकल्प लिया कि मरणकाल तक वे निराहार रहकर तपस्या करेंगे।<br /><br /><b>संकट आने पर धैर्य रखें</b><br />ऋषि-मुनियों को जब यह पता चला कि राजा परीक्षित श्रापित हो चुके हैं तो वे राजा के समीप उनके आश्रम पहुंचे। उनमें मुख्य थे अत्री, वशिष्ठ, च्यवन अरिष्ठनेमी, अंगीरा, पाराशर, विश्वामित्र, परशुराम, भृगु, भारद्वाज, गौतम, पिप्पलाद, मैत्रेय, अगस्त्य, और वेदव्यास। नारदजी भी वहां पहुंच गए। राजा ने सबको प्रणाम किया और सारी बात बता दी व कहा कि अब मैं इसी प्रकार से अपना शेष जीवन-यापन करूंगा। तब सभी ऋषि-मुनियों ने विचार किया कि जब तक आप जीवित हैं तब तक वे सब लोग यहीं विराजेंगे और धर्मोपदेष करेंगे।<br /><br />ऋषियों ने राजा को भांति-भांति का उपदेष देना आरंभ किया और संयोग से शुकदेवजी वहां उपस्थित हो गए। सभी ने उनका स्वागत किया, सत्कार किया उनको उचित आसन पर बैठाया। राजा ने अपनी कथा संक्षेप में शुकदेवजी महाराज को सुनाई और अपने कल्याण की कामना की। राजा ने कहा कि वो ऐसा उपाय बताएं जिससे मेरा उद्धार हो। प्रश्न सुन शुकदेवजी ने मौन होकर राजा की भावनाओं को पहचाना और परीक्षित को उपदेश देना आरंभ किया। उस वातावरण को देखकर परीक्षित ने अपने को धन्य माना।<br /><br />शुकदेवजी ने कहा जो समय बीत गया उसका स्मरण मत करो, भविष्य का विचार भी मत करो। केवल वर्तमान को सुधारो। सात दिन बाकी रहे हैं। भगवान नारायण को स्मरण करो। तुम्हारा जीवन अवश्य धन्य हो जाएगा और इस प्रकार व्यासजी प्रथम स्कंध को समाप्त करते है। परीक्षित से सीखा जाए कि संकट आने पर कैसे संयम रख जीवन बिताएं। संयम को बल देना हो तो एक काम और किया जा सकता है, जरा मुस्कुराइए...<br /><br /><b>जगत नहीं जगदीश की उपासना करें</b><br />परीक्षित श्रापित हो चुके हैं। परीक्षितजी ने अपना पाप बता दिया, उनसे भूल हुई, गंगा के तट पर बैठ गए। साधु-संतों से कहा जीवन के अंतिम समय में क्या किया जाए कि आदमी को मोक्ष मिले। कोई मुझे सिखाए। साधु-संतों ने कहा हम ये नहीं कर सकते। तभी किसी ने कहा शुकदेवजी यह कर सकते हैं। तभी शुकदेवजी पधारे। शुकदेवजी से परीक्षित ने पूछा- शुकदेवजी आप ज्ञान दीजिए हमें क्या करना चाहिए, हम अपने जीवन को कैसे सिद्ध कर सकें? शुकदेवजी ने कहा मैं आपको सात दिन तक कथा सुनाऊंगा। परीक्षितजी ध्यान से बैठ गए। यहां भागवत का प्रथम स्कंध समाप्त होने जा रहा है।<br /><br />शुकदेवजी कह रहे हैं- यह संसार आपको कुछ अधिक नहीं देगा, दुनिया पर टिकोगे कुछ नहीं मिलेगा, दुनिया बनाने वाले पर टिकोगे तो बहुत मिलेगा। शुकदेवजी ने कथा सुनाई- चंचला नाम की बहुत सुंदर स्त्री थी। सारे गांव के युवक उससे विवाह करना चाहते थे पर चंचला ऐसी नखराली कि सबको मना कर गई। एक दिन उसके गांव के पागलखाने में राजनेता निरीक्षण करने आए वहां उन्होंने देखा कोठरी में एक सुंदर युवक बाल नोच रहा था। उन्होंने पूछा ये कैसे पागल हो गया? किसी ने बताया हमारे गांव में चंचला नाम की स्त्री है। ये उससे विवाह करना चाहता था। उसने मना कर दिया तो यह पागल हो गया। अगली कोठरी में गए तो एक युवक खुद को थप्पड़ मार रहा था। उन्होंने कहा ये कैसे पागल हो गया? फिर किसी ने कहा चंचला ने इससे शादी कर ली इसलिए ये पागल हो गया।<br /><br />चंचला जिसको मिली वो भी पागल हो गया और जिसको नहीं मिली वो भी गया। ये संसार चंचला है। दुनिया जिसे मिली उसको भी कुछ नहीं मिला और जिसकी चली गई वो भी दु:खी हो गया। शुकदेवजी राजा परीक्षित को द्वितीय स्कंध की ओर ले जा रहे हैं। यहां दूसरे स्कंध से लेकर आठवें स्कंध तक गीता हमें जीवन में निष्काम कर्म करना सीखाएगी तथा व्यवसायिक जीवन में परिश्रम की चर्चा आएगी।<br /><br /><b>श्रोता में कौन से गुण होने चाहिए</b><br />भागवत के प्रथम स्कंध में अधिकार निरूपण किया गया है। श्रोता कैसा होना चाहिए, और वक्ता कैसा होना चाहिए। यह दूसरा स्कंध साधन प्रधान स्कंध है। दस अध्याय हैं, जिनमें परमात्मा की प्राप्ति के साधन बताए हैं। मुख्य रूप से श्रवण को ही परमात्मा प्राप्ति का साधन बताया है। इस स्कंध के दस अध्याय में से पहले दो में ध्यान की चर्चा है। बाद के दो अध्याय में वक्ता, श्रोता की श्रद्धा का वर्णन है। शेष छ: अध्याय में मनन का वर्णन है। इन साधनों के द्वारा मनुष्य भगवान को प्राप्त कर लेता है।<br /><br />आगे के स्कंधों में सर्ग-विसर्ग का वर्णन आएगा इसलिए शुकदेवजी ने अधिकार और साधन को पहले बता दिया है। यह भागवत की विशिष्ट भाषा है। द्वितीय स्कंध आरंभ होता है। शुकदेवजी को राजा परीक्षित के प्रश्न सुनकर बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने कहा कि राजा के प्रश्न बड़े ही महत्व के हैं। आत्म तत्व को न जानने के कारण प्राणी प्रपंच में ही लीन रहता है जबकि मानव जीवन का लक्ष्य भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का श्रवण एवं कीर्तन होना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण की अद्भूत लीला का वर्णन श्रीमद्भागवत में उल्लेखित है। यह श्रीमद्भागवत पुराण वेद के समान पठनीय और मननीय है। शुकदेवजी ने राजा को कहा कि उनके कल्याण और जनहित की दृष्टि से वे इस कथा को सुनाएंगे।<br /><br />परीक्षित अधिकारी थे अत: उनको शुकदेव जैसे सदगुरू मिले। परीक्षित में पांच प्रकार की शुद्धियां हैं- मातृ शुद्धि, पितृ शुद्धि, द्रव्य शुद्धि, अन्न शुद्धि, और आत्म शुद्धि। शुकदेवजी ने परीक्षित से कहा- हे राजन, तुम यह न समझना कि तुम्हारी आयु अल्प रह गई है। दो घड़ी के सद्विचार से ही मनुष्य अपना हित साध सकता है।<br /><br /><b>मृत्यु ज्ञात हो जाने पर क्या करें?</b><br />अब आरंभ हो रहा है दूसरा स्कंध। इस स्कंध से आठवें स्कंध तक गीता हमें बताएगी जीवन में कर्म कैसे किए जाएं। गीता महाभारत का एक छोटा सा साहित्य है। महाभारत के बीच में छोटे से दीए के रूप में पूरी महाभारत को प्रकाशित करने वाले का नाम गीता है। शुकदेवजी राजा परीक्षित को बताते हैं। किस तरह से खट्वांग राजा को जब यह पता लगा इंद्र के द्वारा उसकी मृत्यु में दो चार घड़ी शेष हैं तो खट्वांग राजा तुरंत स्वर्ग से उतरकर अयोध्या आए, दान दक्षिणा दी, वैराग्य लिया, सरयू तट पर तप किया और योग क्रिया द्वारा अपने शरीर को मुक्त कर दिया। शुकदेवजी ने बताया कि मृत्यु निकट जानकर मनुष्य को चाहिए कि वह माया मोह का त्याग कर औंकार मंत्र का जाप करे। इस प्रकार राजा परीक्षित को मृत्युकाल में क्या करना उचित है, शुकदेवजी इसका उपदेश देकर कहते हैं कि अलग-अलग देवताओं की उपासना का फल सुनिए। जो ब्रह्म तेज चाहते हैं वे मनुष्य ब्रह्मा की, उत्तम इंद्रियों को चाहने वाले इंद्र की, संतान चाहने वाले दक्ष प्रजापति की, संपत्ति की कामना वाले देवी दुर्गा की, तेज चाहने वाले अग्नि की, धन चाहने वाले वरूण की, विद्या चाहने वाले शंकर की, पति-पत्नी में प्रेम चाहने वाले पार्वती की, धर्म चाहने वाले विष्णु की, कुल को चाहने वाला पितरों की तथा विघ्नों से रक्षा चाहने वाला यज्ञ उपासना करें। फिर शुकदेवजी ने बताया निष्काम कर्म के लिए साधक को इन देवी-देवताओं की उपेक्षा करते हुए श्रीनारायण की ही आराधना करनी चाहिए।<br /><br />सूतजी कहने लगे कि मुने, शुकदेवजी के वचन सुनकर राजा परीक्षित ने अपना तन-मन श्रीकृष्ण भक्ति में लीन कर दिया। राजा ने जब देखा कि उनका मृत्यु काल समीप आ गया है तो उन्होंने नित्य नैमित्तिक कर्मोंको छोड़कर भगवान श्रीकृष्ण में ही ध्यान लगाया। राजा ने शुकदेवजी से कहा कि प्रभु इस जगत को अपनी माया से किस भांति उत्पन्न करते हैं ? किस भांति इसका पालन करते हैं? और किस भांति इसका संहार करते हैं? कृपया बताइए?<br /><br /><b>नारायण ही परब्रह्म हैं</b><br />हम पुन: ध्यान में ले आएं कि कथा शुकदेवजी परीक्षित को सुना रहे हैं तथा शौनकादी ऋषियों को सूतजी कथा सुना रहे हैं।भागवत में अब ब्रह्मा, विष्णु वार्ता की चर्चा आएगी। आदिदेव अपने जन्मस्थान कमल पर बैठकर सृष्टि रचना की इच्छा से सोच में डूबे हुए थे। तभी ब्रह्माजी ने आकाशवाणी सुनी- तप, तप। ब्रह्माजी ने समझा कि मुझे तप करने का आदेश मिला है। ब्रह्माजी ने सौ वर्ष तक तप किया और चतुर्भुज नारायण के दर्शन हुए। नारायणजी ने ब्रह्माजी को चतुश्लोकी भागवत का उपदेश दिया।<br /><br />द्वितीय स्कंध के नवें अध्याय के 32वें से 35 वें श्लोक तक चतुश्लोकी की भागवत है। शुकदेवजी ने परीक्षितजी को समझाया कि भगवान की सृष्टि का विषद वर्णन करने के उद्देश्य से ब्रह्माजी ने नारदजी को समझाया कि एक से अनेक होने की इच्छा भगवान विष्णु ने की। भगवान ने ब्रह्माण्ड की रचना की और हजारों वर्ष तक उसको जल में रखा। फिर उसको बाहर निकालकर चैतन्य किया और उसे फोड़कर उससे सहस्त्रोचरण नेत्र भुजा मस्तक वाले विराट पुरूष की उत्पत्ति की। वही नारायण ब्रह्मा रूप से संसार की सृष्टि करते हैं, रौद्र रूप से लय करते हैं, विष्णु रूप में इसका रक्षण पालन पोषण करते हैं तथा सृष्टि करते हैं।<br /><br />उसके पश्चात नारदजी को ब्रह्माजी ने चौबीस अवतार की संक्षिप्त कथा कही। ब्रह्माजी ने अपने पुत्र नारद से कहा कि वे इस विषय में जितना जानते थे उतना उन्होंने बता दिया है। जो कथा मैंने तुम्हें सुनाई है उस कथा अर्थात श्रीमद्भागवत पुराण का जन-जन में प्रचार तुम करो।<br /><br /><b>कर्ता और कर्म में अंतर बताती है भागवत</b><br />अवतार की बात हम लोग अच्छी तरह से समझ लें। जब भगवान के अवतार की चर्चा आती है तो यह प्रश्न सहज है कि भगवान अवतार क्यों लेते हैं? भगवान जानते थे कि मैं भक्तों को कहता हूं कि तुम ऐसा जीवन जियो तो भक्त एक दिन मुझसे कहेंगे कि भगवान एक तो हमको मनुष्य बना दिया और ऊपर से बहुत से नियम लाद दिए। आपको क्या मालूम की धरती पर कितना कष्ट है। तो भगवान ने कहा कि मैं स्वयं भी मनुष्य बनकर आऊंगा और तुम्हें बताऊंगा कि कैसे जीवन जिया जाए।<br /><br />श्रीकृष्ण और श्रीराम के जीवन में कुछ नया नहीं था। जैसा हमारा जीवन है वैसा ही उनका जीवन था। लेकिन अवतार लेकर भगवान अपने आचरण से बता रहे हैं कि कर्ता का अर्थ क्या होता है ? अवतारों के प्रति पूजा और प्रार्थना क्या हैं? यह हम गोपियों के जीवन से समझ सकते हैं। गोपियों जैसी पूजा विधि-विधान से नहीं हो सकती। अगर हम बाहर से इस बात को जाचेंगे तो समझ में नहीं आएगी। बात थोड़ी भीतर की है। करने वाले में कर्ता का भाव यदि न हो तो उसके हाथ से जो भी होगा वह परमात्मा से हो रहा होगा।<br /><br />करने वाले में कर्ता का भाव हो तो जो भी होगा वह अहंकार से घटित होगा। हमने ही सब किया है यही भाव बना रहेगा और कर्म में निष्कामता नहीं आएगी।जब हम अवतारों की चर्चा कर रहे हैं तब कर्ता और कर्म की बात को आसानी से समझा जा सकता है।इस कर्ता और कर्म के भाव को दास मलूका के दोहे से बहुत अच्छी तरह समझा जा सकता है। ''अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम, दास मलूका कह गए सबके दाता राम। इसका अर्थ यह न लगाया जाए कि काम न करें। न करने का मतलब आलस्य बिलकुल नहीं है। यहीं बस थोड़ा का फर्क है।<br /><br /><b>कर्ता का भाव मन से मिटा दें</b><br />जब हम दास मलूक का यह दोहा अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम, दास मलूका कह गए सबके दाता राम, पढ़ते हैं तो सोचते हैं कि मलूक कर्म छोडऩे की बात कह रहे हैं । लेकिन सच यह है कि मलूक कर्ता छोडऩे की बात कह रहे हैं। मलूक कह रहे हैं कर्ता भाव छोड़ दो। पक्षी काम नहीं करते। लेकिन वे किसी नौकरी पर नहीं जाते। फिर भी देखिए कि पक्षी घोंसला बना रहे हैं, घास-पात ला रहे हैं, भोजन जुटा रहे हैं। काम तो चल रहा है लेकिन उनके अंदर का कर्ता भाव नहीं है।<br /><br />अजगर चाकरी नहीं कर रहा है अपने भोजन की तलाश तो फिर भी करता है। हिलता-डुलता है, चलता-फिरता है लेकिन कर्ता का भाव वहां नहीं है। तो मलूक इतना ही कह गए हैं कि प्रकृति बिना कर्ता भाव से चल रही है। परमात्मा उसे चलाता है। अवतारों से हम एक संकेत यह लें कि किस तरह से अकर्ता भाव से कर्म होता है।ब्रह्माण्ड के सात आवरणों का वर्णन करते हुए वेदान्त-प्रक्रिया में ऐसा माना है कि-पृथ्वी से दस गुना जल है, जल से दस गुना अग्नि, अग्नि से दस गुना वायु, वायु से दस गुना आकाश, आकाश से दस गुना अहंकार, अहंकार से दस गुना महत्व और महत्व से दस गुनी मूल प्रकृति है। वह प्रकृति भगवान के केवल एक पाद में है। इस प्रकार भगवान की महत्ता प्रकट की गई है।<br /><br />अगले स्कंध में विदुर के गृह त्याग का प्रसंग तथा तीर्थयात्रा में महर्षि मैत्रेय से हुए उनके सत्संग का वृत्तांत जो राजा परीक्षित को शुकदेवजी ने सुनाया और जो सूतजी ऋषियों को सुना रहे हैं, वह आएगा। इसी के साथ द्वितीय स्कंध समाप्त होता है।<br /><br /><b>वनवास के बाद ही सुख मिलता है</b><br />अब धीरे-धीरे हम कथा में प्रवेश कर रहे हैं। इसमें सर्ग और विसर्ग का वर्णन है। सर्ग अर्थात सृजन, सृष्टि। यहां से श्रीमद्भागवत में परमात्मा को समझने के लिए प्रसंग आए हैं। तृतीय स्कंध के आरंभ में शुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि- हे राजन, तुमने मुझसे जो प्रश्न किया है यही प्रश्न विदुरजी ने मैत्रेय मुनि महाराज से किया था। तब राजा परीक्षित ने कहा कि विदुरजी और मैत्रेय महाराज में यह वार्तालाप कहां पर हुआ? कृपया मुझे बताइए।<br /><br />शुकदेवजी महाराज ने बताया कि जब पांडव अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करके वनवास बिताकर धृतराष्ट्र के समक्ष आए और अपना राज वापस मांगा तो धृतराष्ट्र ने इस अनुरोध को अस्वीकार कर दिया। भगवान श्रीकृष्ण पांडवों के दूत के रूप में गए। धृतराष्ट्र ने तब भी नहीं स्वीकारा। विदुर धृतराष्ट्र को समझाने गए लेकिन धृतराष्ट्र ने विदुरजी की सलाह नहीं मानी।जब विदुर धृतराष्ट्र को समझा रहे थे तो शकुनी और दुष्शासन वहां आ गए उन्होंने विदुरजी का बहुत अपमान किया। इस कारण विदुरजी दु:खी हो गए। दुष्शासन ने तो यहां तक कहा कि विदुर को देश निष्कासन का दंड दिया जाए।<br /><br />विदुरजी ने इस घटना को प्रभुलीला के रूप में ग्रहण किया और कौरवों का प्रदेश छोड़कर तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़े। बहुत वर्षों तक इधर-उधर घूमने के उपरांत विदुरजी यमुना तट पर पहुंचे और संयोग से वहां उनकी भेंट उद्धवजी से हो गई।याद रखिए वनवास के बिना जीवन में सुवास नहीं आ सकता इसलिए पांडवों ने और भगवान रामचंद्रजी ने वनवास बिताया था लेकिन कलयुग में वनवास का यह अर्थ नहीं कि गृह छोड़कर जंगल की ओर जाया जाए। घर में भी रहकर वनवास के नियमों का पालन किया जा सकता है।<br /><br /><b>संतों का सदैव सम्मान करें</b><br />विदुरजी ने सोचा कि अब कौरव मेरी निंदा कर रहे हैं तो वनवास की ओर निकल पड़े । महापुरूष निंदा और विपरीत परिस्थितियों में भी सार्थकता खोजते हैं। अच्छी वस्तुओं में अच्छाई देखे ऐसे लक्षण साधारण वैष्णव के होते हैं लेकिन बुरी वस्तुओं में अच्छाई देखी जाए ये उत्तम वैष्णव के लक्षण होंगे।भगवान ने सोचा कि यदि कौरवों के साथ विदुरजी रहेंगे तो कौरवों का विनाश न हो सकेगा इसीलिए विदुरजी को वह स्थान छोडऩे की प्रेरणा प्रभु ने दी।<br /><br />रामायण में रावण ने विभीषण का और महाभारत में दुर्योधन ने विदुरजी का अपमान किया था। इस प्रकार संतों का अपमान करने के कारण उनका विनाश हुआ। भगवान भी जानते थे जब तक विभीषण लंका में है रावण नहीं मरेगा। तो उसको ज्ञान बांटा और कहा तू बाहर निकल और जैसे ही विभीषण बाहर गया सभी लंकावासी आयुहीन हो गए। पांडु, धृतराष्ट्र और विदुर ये तीन भाई थे। विदुर बहुत संत प्रवृत्ति के थे ।<br /><br />विदुर ने धृतराष्ट्र को कई बार समझाया कि तुम्हारे गलत आचरण से दुर्योधन का स्वभाव बिगड़ता जा रहा है। इस प्रकार की बात करने के बाद भी जब धृतराष्ट्र ने ध्यान नहीं दिया तो विदुर चले गए तीर्थयात्रा पर और उधर विदुर को उद्धव मिल गए। उद्धव वो पात्र है जो कृष्ण के सखा भी है और रिश्तेदार भी हैं। कृष्ण जैसे ही हैं उद्धव।<br /><br /><b>कैसे हुआ सृष्टि का निर्माण</b><br />यह उस समय की बात है जब महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया था। कौरव पराजित तथा श्रीकृष्ण परम तत्व में विलिन हो चुके थे। उनके वियोग में उद्धव महाराज तीर्थाटन के लिए निकल पड़े और उस समय विदुरजी और उद्धवजी की भेंट हो गई। उद्धवजी ने विदुरजी को सारी जानकारी दी। कैसे कौरवों व पांडवों का युद्ध हुआ? कैसे भगवान ने देह त्यागी? दोनों एक-दूसरे की बात सुनकर दु:खी हो गए। उद्धवजी तो श्रीकृष्ण के परम सखा थे। उन्होंने सारी बात विदुरजी को बताई।<br /><br />उद्धव ने बताया कि भगवान से बिछुड़ जाने पर वे दु:खी हैं और अब वे यहां से बद्रीकाश्रम के लिए प्रस्थान करेंगे। उनकी बात सुनकर विदुर चिंतित हो गए। विदुर ने कहा जो आत्मबोध कृष्णजी ने आपको सुनाया वह मैं भी सुनाना चाहूंगा। तब उद्धवजी ने कहा कि आप मैत्रेय मुनि की सेवा में चले जाइए क्योंकि जिस समय भगवान ने मुझे उपदेश दिया उस समय महामुनि मैत्रेय वहीं उपस्थित थे। महात्मा विदुर भागीरथ के तट पर स्थित मैत्रेय मुनि के आश्रम के लिए प्रस्थान कर गए। विदुर मैत्रेय मुनि के पास पहुंचे। उनसे निवेदन किया श्रीकृष्ण की लीलाओं का मर्म समझाएं।<br /><br />मैत्रेयजी ने विदुर को बताया कि महाप्रलय के समय भगवान श्रीकृष्ण अपनी योगमाया को समेट कर सुषुप्त अवस्था में रहते हैं। यद्यपि उस अवस्था में भी चैतन्य और पुन:रचना के लिए अवसर की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं। भगवान देवों की प्रार्थना स्वीकार कर 23 तत्वों को संकलित करते हैं और फिर उसमें प्रविष्ट हो जाते हैं।<br /><br /><b>क्या है सृष्टि का क्रम</b><br />मैत्रेय मुनि विदुरजी को सृष्टि की उत्पत्ति के बारे में बता रहे हैं। उसके अनुसार भगवान सृष्टि की उत्पत्ति के लिए एक विराट पुरूष की रचना करते हैं। विराट पुरूष प्राण, अपान, समान, और उदान, व्यान इन पांच वायु सहित नाग, कुर्म, कलकल, दह, धनंजय आदि तत्वों को प्रकट करता है। अपने कठिन तप के कारण भगवान इन प्राणियों की जीविका के लिए इनकी मुख, जिव्हा, नासिका, त्वचा, नेत्र, कर्ण, लिंग, गुदा, हस्तुपाद, अनुभूति और चित्त और इनके विषय क्रमश: वाणी, स्वाद, ध्यान, स्पर्श, दर्शन, श्रवण, वीर्य, मल त्याग, कर्मशक्ति, चिंतन, अनुभूति चेतना और फिर इनके देवता अग्नि, वरूण, अश्विनी कुमार, आदित्य, पवन, प्रजापति इंद्र लोकेश्वर आदि को उत्पन्न करते हैं।<br /><br />विदुरजी ने मैत्रेयजी से कुछ प्रश्न किए। मैत्रेयजी ने उनसे कहा कि आपने जो प्रश्न पूछा है उनके उत्तर आगे आने वाली कथाओ में निहित है। मैत्रेयजी कहते हैं अब सृष्टि का क्रम सुनिए विदुरजी। ब्रह्माजी सर्वप्रथम तप, मोह आदि तामसिक वृत्तियों के उत्पन्न होने पर खिन्न हो गए। तब ब्रह्माजी ने विष्णुजी का ध्यान किया और दूसरी सृष्टि की रचना करने लगे। उनमें सनकादि आदि वीतराग ऋषि उत्पन्न हुए। ब्रह्माजी की भौंह से नील और लोहित वर्ण का एक बालक उत्पन्न हुआ। वह अपने जन्म के साथ ही निवास स्थान और नाम के लिए रोने लगा। उसके रूदन के कारण ही ब्रह्माजी ने उसका नाम रूद्र रख दिया। उसको उन्होंने प्रजा उत्पन्न करने का आदेश दिया। नील लोहित की जो संतती उत्पन्न हुई वह इतनी उग्र और भयंकर थी कि स्वयं ब्रह्माजी भयभीत रहने लगे। नील लोहित वन में चला गया।<br /><br /><b>ब्रह्मा के शरीर से उत्पन्न हुए ऋषि</b><br />नील लोहित के जाने पर ब्रह्माजी ने अपने दस अंगों से दस पुत्र उत्पन्न किए। उनकी गोद से प्रजापति, अंगुष्ट से दक्ष, प्राण से वशिष्ठ, त्वचा से भृगु, हस्थ से ऋतु, नाभि से पुलक, कर्णों से पुलस्त्य मुख से अंगिरा, नेत्रों से अत्रि, मन से मरीची और इसके अतिरिक्त भी ब्रह्माजी के हृदय से काम, भोहों से क्रोध, अदरोष्ठ से लोभ, वाक से सरस्वती, लिंग से समुद्र, गुदा से निरूक्ति, छाया से कर्दम, दक्षिण स्तन से धर्म ओर वाम स्तन से अधर्म उत्पन्न हुए।<br /><br />जब मरीची आदि से भी प्रजा बढ़ी तो ब्रह्माजी ने पुन: भगवान का स्मरण किया। भगवान का ध्यान करते ही ब्रह्माजी के शरीर के दो भाग हो गए। एक भाग पुरूष बना और दूसरा भाग स्त्री। जो पुरूष बना वही स्वयंभू मनु और जो स्त्री बनीं वे शतरूपा नाम की रानी बनी। मनु व शतरूपा से दो पुत्र व तीन कन्याएं उत्पन्न हुईं। पुत्रों के नाम प्रियव्रत और उत्तानपाद व कन्याओं के नाम हैं आकूति, देवहूति, और प्रसूति थे। इन्हीं तीन कन्याओं का क्रमश: रूचि, कर्दम और दक्ष प्रजापति के साथ विवाह किया। फिर इन तीन दंपत्तियों से ही आगे की समस्त सृष्टि का विस्तार हुआ।<br /><br />जब हिरण्याक्ष को इस बात का ज्ञान हुआ तो उसने संपूर्ण पृथ्वी को पानी में छुपा दिया। तब ब्रह्मा की नासिकाओं से वराह भगवान प्रकट हुए। उन्होंने पृथ्वी को पानी से बाहर निकाला। हिरण्याक्ष को मारा। और पृथ्वी का शासन मनु के हाथों सौंपकर भगवान स्वधाम लौट गए।<br /><br /><b>कन्या को ईश्वर का वरदान समझें</b><br />विदुरजी को मैत्रेयजी बता रहे हैं ऐसे ब्रह्मांड की रचना की गई। जब ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की और इतने सारे मानस पुत्र पैदा हो गए। तब भगवान ने ब्रह्माजी से कहा- आपको मनुष्यों की सृष्टि पैदा करनी पड़ेगी जैसे ही भगवान ने संकेत दिया ब्रह्माजी के शरीर के दो भाग हुए। एक भाग स्त्री के रूप में तथा दूसरा पुरूष के रूप में पैदा हुआ। पुरूष मनु तथा स्त्री शतरूपा रूप में जानी गईं। ब्रह्मा ने उन्हें संतानोपत्ति की आज्ञा दी। उनको तीन बेटियां पैदा हुईं आकुति, देवहुति और प्रसूति तथा दो पुत्र पैदा हुए उत्तानपाद और प्रियव्रत।<br /><br />संत कहते हैं कि पहले तीन कन्याएं हुईं और बाद में हुए पुत्र। भगवान भी ये घोषणा करते हैं कि मुझे जब अवसर मिलता है तो मैं पहले कन्या देना पसंद करता हूं। जिन लोगों के घर में कन्या पैदा हो और वे दु:ख मनाए तो यह भगवान के निर्णय के प्रति पाप है। यहां से वे बताते हैं कि जब मनुष्य पैदा हुए तो मनु शतरूपा ने कहा कि ये हमारे बेटे-बेटी सब पैदा हुए हैं तो इनको हम कहां रखेंगे। पृथ्वी तो रसातल में जा चुकी है और हिरण्याक्ष नाम का राक्षस उसको बाहर नहीं लाने दे रहा है। तब भगवान ने वराह अवतार लिया और जब पृथ्वी को बाहर लाए तथा हिरण्याक्ष को मारा। तब एक प्रश्न खड़ा हुआ कि हिरण्याक्ष और हिरण्यकषिपु कहां से आए।<br /><br />परीक्षित ने शुकदेव से पूछा, विदुर ने मैत्रेयजी से पूछा। उन्होंने कहा एक ऋषि थे कश्यप। उनकी पत्नी थीं दिति। वे एक दिन संध्या को कामांध होकर अपने पति के पास पहुंचीं। उन्होंने कहा मुझे आपसे इसी समय एक पुत्र चाहिए। ऋषि ने कहा दाम्पत्य में पति-पत्नी के बीच भोग का भी एक अनुशासन होना चाहिए। आप गलत समय संतान की मांग कर रही हैं लेकिन वो हठ पर अड़ गई । ऋषि ने उनकी इच्छा पूरी की और उनके गर्भ में दो पुत्र आए हिरण्याक्ष और हिरण्यकषिपु।<br /><br /><b>ज्ञानी पुरुषों का पतन क्रोध से होता है</b><br />जब दिति ने जाना कि उसके गर्भ से राक्षस उत्पन्न होंगे तो वह घबरा गई। तब कश्यप ने कहा कि उनका संहार करने के लिए भगवान नारायण स्वयं आएंगे। जब वे दोनों राक्षस दिति के गर्भ में आए तो उसने विचार किया कि यदि मैं इनको पैदा करूंगी तो ये देवताओं का नाश करेंगे अत: दोनों को 100 वर्ष तक दिति ने गर्भ में रखा। ब्रह्माजी ने दिति के गर्भ में जो दो राक्षस थे उनकी कथा देवताओं को सुनाई।<br /><br />ब्रह्माजी बोले एक बार मेरे चार मानस पुत्र सनकादि ऋषि बैकुण्ठ लोक गए। सनदकुमार बैकुण्ठ के छ: द्वार पार कर सप्तम द्वार में जब पहुंचे तो वहां द्वारपाल जय-विजय खड़े थे। सनदकुमार भगवान के प्रासाद में प्रवेश कर ही रहे थे कि भगवान के द्वारपाल जय-विजय ने उन्हें रोका। द्वारपालों ने सनदकुमार से कहा कि अंदर से आज्ञा मिलने पर ही हम आपको प्रवेश करने देंगे तब तक आप यहीं रूकिए। सनदकुमार यह सुनकर क्रोधित हुए। ज्ञानी पुरूष का पतन क्रोध के द्वारा होता है। सनदकुमार क्रोधित हुए अत: उनका पतन हुआ। प्रभु के द्वार पर पहुंचकर उन्हें वापस लौटना पड़ा।<br /><br />तब सनदकुमारों ने क्रोधित होकर जय-विजय को शाप दिया कि राक्षसों में विषमता होती है, तुम दोनों के मन में विषमता है अत: तुम राक्षस हो जाओगे। सनकादि ऋषियों के शाप के कारण जय-विजय को दैत्य रूप में तीन बार जन्म लेना पड़ा। सनकादि ऋषियों ने बैकुण्ठ के द्वार पर क्रोध किया था। अत: उन्हें बैकुण्ठ में प्रवेश नहीं मिला, भगवान बाहर ही आ गए थे दर्शन देने।<br /><br /><b>लोभ ही सभी पापों की जड़ है</b><br />हिरण्याक्ष और हिरण्यकषिपु प्रतिदिन चार-चार हाथ बढ़ते थे। लाभ से लोभ और लोभ से पाप बढ़ता है। हिरण्याक्ष का अर्थ है संग्रह वृत्ति और हिरण्यकषिपु का अर्थ है भोगवृत्ति। भगवान श्रीराम ने क्रोध यानि रावण को मारने के लिए तथा शिशुपाल के वध के लिए श्रीकृष्ण ने एक ही अवतार लिया था। किंतु लोभ को मारने के लिए भगवान को दो अवतार लेना पड़े हिरण्याक्ष के लिए वाराह और हिरण्यकषिपु के लिए नृसिंह अवतार।<br /><br />हिरण्याक्ष की इच्छा हुई कि स्वर्ग में से सम्पत्ति ले आऊं। दिन-प्रतिदिन उसका लोभ बढ़ता गया। एक बार वह पाताल में गया। वहां उसने वरूण से लडऩा चाहा। वरूण ने कहा युद्ध करना है तो वाराह नारायण से युद्ध करो। हिरण्याक्ष ने वाराह भगवान को युद्ध के लिए ललकारा। मुष्ठि प्रहार करके भगवान ने हिरण्याक्ष का संहार किया और पृथ्वी का राज मनु महाराज को सौंप दिया।<br /><br />मनु से उन्होंने कहा कि धर्म से पालन करना और वे बद्रीनारायण के स्वरूप में लीन हो गए। तृतीय स्कंध में दो प्रकरण हैं पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा। हम पढ़ चुके हैं स्वयंभू मनु की रानी का नाम शतरूपा था। मनु महाराज के दो पुत्र थे प्रियव्रत और उत्तानपाद। उनकी तीन कन्याएं थी आकुति, देवहूति और प्रसूति। आकुति का रूचि से, देवहूति का कर्दम से और प्रसूति का दक्ष से विवाह हुआ था। कर्दम ऋषि और देवहूति के घर कपिल भगवान आए थे।<br /><br /><b>ज्ञान के प्रतीक हैं कपिल मुनि</b><br />पूर्व मीमांसा के बाद इस उत्तर मींमासा का आरंभ किया गया है। उत्तर मीमांसा में ज्ञान प्रकरण है। मैत्रेयजी कहते हैं कपिल ब्रह्मज्ञान के स्वरूप हैं। कर्दम अर्थात इंद्रियों का दमन करने वाला, अर्थात जितेंद्रीय। उनके तप से भगवान प्रसन्न हुए और भगवान ऋषि के घर पधारे।भगवान ने कर्दम ऋषि से कहा- दो दिन बाद मनु महाराज तुम्हारे पास आएंगे, अपनी पुत्री देवहुति तुम्हें देंगें। भगवान ने कहा कि मैं पुत्र रूप में तुम्हारे यहां आऊंगा। जगत को सांख्य शास्त्र का उपदेश करना है। ऐसा कहकर श्रीहरि वहां से विदा हुए।<br /><br />मनु-शतरूपा अपनी पुत्री देवहुति को लेकर आए कर्दम से कहा विवाह कर लो। कर्दम ने विवाह स्वीकार किया। मनु महाराज ने विधि पूर्वक कन्यादान किया और देवहूति तथा कर्दम ऋषि का विवाह हो गया। पूर्व मीमांसा में वाराह नारायण की कथा कही गई है और उत्तर मीमांसा में कपिल नारायण का चरित्र है।हर माता-पिता को चिंता होती है कि अपनी पुत्री का विवाह करना है। तो मनु-शतरूपा को भी लगा कि हमारी तीन बेटियां हैं और तीनों को ठीक घर में दें। उनको मालूम था आकुति हर किसी से मिल जाती है तो आकुति का विवाह रूचि से कर दिया।<br /><br />अब बचीं देवहुति। हुति मतलब बुद्धि, जिसकी बुद्धि देव भगवान में लगी हो तो उन्होंने उसे कर्दम को सौंप दिया। तीसरी बेटी थीं प्रसूति जो सती की मां थीं। प्रसूति को माता-पिता जानते थे कि इसका विवाह ऐसे घर में करना पड़ेगा जो युवक इसे प्रसन्न रख सके। माता-पिता सोच रहे हैं कि प्रसूति का विवाह किससे करें तो उन्होंने दक्ष से विवाह कर दिया। दक्ष मतलब जो बहुत ही टेलेंटेड हो, दक्ष मतलब सक्षम हो, वह संभाल लेगा हमारी बेटी को।<br /><br /><b>दाम्पत्य जीवन में संयम रखें</b><br />भागवत महापुराण की जब सात दिवसीय कथा की जाती है तो सप्ताह पारायण के सात विश्राम स्थल होते हैं। पहला विश्राम तीसरे स्कंध के 22वें अध्याय तक रहता है। हम कल वहां तक पढ़ चुके थे जहां मनु और शतरूपा के वंश की चर्चा आई है। कर्दम का विवाह मनु महाराज की पुत्री देवहुति से हुआ। अब इसके बाद भगवान कपिल का जन्म होगा। यहां कथा 22वें अध्याय पर आकर खत्म हो रही है।<br /><br />हमने तृतीय स्कंध में पढ़ा था इसके दो भाग थे पूर्वनिमांसा, उत्तरनिमांसा। आगे भगवान कपिल का वर्णन होगा। अपनी स्मृति में दो-तीन बातें बनाए राखिएगा कि पहले दिन संयम की कथा की जाएगी। संयम चूक गए दिति और कश्यप और उनके घर हिरण्याक्ष और हिरण्यकषिपु का जन्म हुआ। संयम बना हुआ था तो कर्दम और देवहुति के जीवन में तो कपिल भगवान का जन्म हुआ। आइए विश्राम स्थलों के अनुसार भागवतजी के इस अनुष्ठान के दूसरे दिन में प्रवेश करते हैं। आप लोग पुन: स्मरण कर लें सूतजी शौनकादि ऋषियों को कथा सुना रहे हैं। कथा सुना रहे हैं शुकदेवजी, परीक्षितजी को। पिछले प्रसंगों में मैत्रेयजी विदुरजी को कथा सुना रहे थे।<br /><br />तो एक श्रोता एक वक्ता, एक श्रोता एक वक्ता। बहुत सारी कथा फ्लैशबैक में चल रही हैं लेकिन हमें स्मरण रखना है कि इसके मुख्य वक्ता शुकदेवजी हैं और मुख्य श्रोता राजा परीक्षित हैं। अब हम गीता से निश्कामता को जानते हुए प्रसंगों को पढ़ेंगे। दूसरी बात इसमें भगवान का वाड्मय स्वरूप है। भगवान अपने स्वरूप के साथ स्थापित हुए हैं। इसलिए इसका महत्व है। दूसरे स्कंध से आठवें स्कंध तक की जो कथा अब आएगी इसमें गीता कर्म करना सीखाती है।<br /><br /><b>जीवन में जरुरी है पारदर्शिता</b><br />हम जिस तरह का जीवन जीते हैं इसमें चार तरह का व्यवहार होता है। हमारा पहला जीवन होता है सामाजिक जीवन, दूसरा व्यावसायिक , तीसरा पारिवारिक और चौथा हमारा निजी जीवन। हमारा सामाजिक जीवन पारदर्शिता पर टिका है। व्यावसायिक जीवन परिश्रम पर, पारिवारिक जीवन प्रेम पर तथा निजी जीवन पवित्रता पर टिका है। हमारे जीवन के ये चार हिस्से भागवत के प्रसंगों में बार-बार झलकते मिलेंगे।<br /><br />हमारे सामाजिक जीवन में पारदर्शिता बहुत जरुरी है। महाभारत में जितने भी पात्र आए उनके जीवन की पारदर्शिता खंडित हो चुकी थी। भागवत में भी चर्चा आती है कि दुर्योधन, दुर्योधन क्यों बन गया। दुर्योधन, दुर्योधन इसलिए बन गया क्योंकि दुर्योधन जब पैदा हुआ तो उसके मन में जितने प्रश्न थे उसके उत्तर उसको नहीं दिए गए। जब उसने होश संभाला तो सबसे पहले उसने ये पूछा कि मेरी मां इस तरह से अंधी क्यों है। राजमहल में कोई जवाब नहीं देता था क्योंकि सब जानते थे कि गांधारी ने अपने स्वसुर भीष्म के कारण पट्टी बांधी थी।<br /><br />भीष्म ने दबाव में गांधारी का विवाह धृतराष्ट्र से करवाया था। भीष्म ने सोचा योग्य युवती अंधे के साथ बांधेंगे तो गृहस्थी, राज, सिंहासन अच्छा चलेगा। जैसे ही गांधारी को पता लगा कि मेरा पति अंधा है और मुझे इसलिए लाया गया तो उसने भी आजीवन स्वैच्छिक अंधतत्व स्वीकार कर लिया। ये प्रश्न हमेशा दुर्योधन के मन में खड़ा होता था कि मेरी मां ने ये मूर्खता क्यों की? तो महाभारत ने कहा गया है कि पारदर्शिता रखिए अपने सामाजिक जीवन में।<br /><br /><b>प्रेम पर टिका है पारिवारिक जीवन</b><br />हमारे पारिवारिक जीवन में प्रेम होना चाहिए। परिवार जब भी टिकेगा प्रेम पर टिकेगा। समझौतों पर टिका हुआ दाम्पत्य बड़े दुष्परिणाम लाता है। एक काल की घटना है जिस समय हस्तिनापुर में दाम्पत्य घट रहे थे लोगों के। उसी समय द्वारिका में कृष्णजी का भी दाम्पत्य घट रहा था पर कितना अंतर है कोई ये नहीं कह सकता कि इतने सारे परिवार में सदस्य थे इसलिए हस्तिनापुर में कौरव-पांडव लड़ मरे। जितने कौरव थे उससे चार गुना तो श्रीकृष्ण की संतानें थीं लेकिन कृष्ण के दाम्पत्य में कभी आप अशांति नहीं पाएंगे क्योंकि कृष्ण ने एक सूत्र दिया ?<br /><br />आपके पास ध्यान योग हो, आपके पास ज्ञान योग हो, आपके पास कर्मयोग हो, आपके पास भक्तियोग हो तो कृष्ण बोलते हैं कि यह सब बेकार है यदि आपके पास प्रेमयोग नहीं है। अंतिम बात आपका निजी जीवन पवित्रता पर टिकेगा। पवित्रता परमात्मा की पहली पसंद है। परमात्मा हमारे जीवन में तभी उतरेगा जब हमारा निजी जीवन पवित्र होगा । भागवत में प्रवेश से पहले अपने चार जीवन को टटोलते रहिएगा। पवित्रता बनाई रखिए, पवित्रता का बड़ा महत्व है। जिसके जीवन से पवित्रता चली गई वह बहुत कष्ट उठाएगा।<br />इसलिए आज हम जिन प्रसंगों में प्रवेश कर रहे हैं धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के प्रसंग हैं तो जीवन के ये चार व्यवहार को समझिए और आइए हम प्रवेश करें इसके पहले मैं आपको पुन: दोहरा दूं हमने शास्त्रों का सार देख लिया, भगवान का वांड्मय रूप देख लिया। जीवन के चार व्यवहार हमने देख लिए और दाम्पत्य के सात सूत्र हम आगे पढ़ते चलेंगे।<br /><br /><b>सुखी जीवन के सात सूत्र हैं</b><br />पहले हमने दाम्पत्य का पहला सूत्र देखा था संयम। अब हम देखेंगे दाम्पत्य का दूसरा सूत्र संतुष्टि। संतोष दाम्पत्य में बहुत आवश्यक है। देखिए कौशल्या की संतुष्टि के कारण अवध का कुल टूटा नहीं, कुंती की संतुष्टि के कारण पांडव एक बने रहे। अब दाम्पत्य का दूसरा सूत्र संतुष्टि पर विचार करेंगे। फिर आगे आएगा दाम्पत्य का तीसरा सूत्र संतान फिर संवेदनशीलता, फिर संकल्प, फिर सक्षम और अंतिम सूत्र है समर्पण। ध्यान रखिए अब दूसरे विश्राम स्थल यानि कथा आयोजन का जो दूसरा दिन होता है उसमें संतुष्टि के साथ हम प्रवेश करने जा रहे हैं।<br /><br />तो भगवान कपिल का जन्म अब होने जा रहा है। इसी के साथ तीसरे स्कंध का 23वां अध्याय आरंभ हो रहा है। 22वें अध्याय में कर्दम और देवहुति का विवाह हुआ। कर्दम ऋषि ने कहा देखो देवी मुझसे विवाह तो कर रही हो। मैं तो संत हूं, तपस्वी हूं। संतान पैदा होने के बाद मैं तुम्हें यहीं छोड़कर अकेला जंगल में चला जाऊंगा। देवहुति क्या करतीं, उन्होंने कहा ठीक है। इनके संतानें हुईं, नौ पुत्रियां और उसके बाद भगवान कपिल का जन्म हुआ।<br /><br />कर्दम जा ही रहे थे, लेकिन देवहुति ने बोला नौ कन्याएं हैं इनकी व्यवस्था तो कर जाओ आप। मैं अकेली कहां तक वर ढूंढ़ती रहूंगी तो कर्दम ने उन कन्याओं का विवाह किया। संतान के रूप में कपिल दिए और चले गए वन को। अब देवहुति अकेली, एक दिन बैठकर विचार कर रही थीं मेरे पति चले गए। मेरे घर कपिल का जन्म हुआ है। उन्होंने कपिल भगवान से कहा -तू गुरु बन जा, तू गुरु की श्रेणी में आ जा, तू ज्ञान का अवतार है। आज तू मुझे जीवन के कुछ प्रश्नों का उत्तर दे।<br /><br /><b>भक्तियोग का महत्व बताती है भागवत</b><br />भगवान मनु की पुत्री देवहुति अपने पुत्र से बात कर रही है। देवहुति ने जो प्रश्न पूछे अपने बेटे से, वो एक मां ने भी पूछे हैं और एक स्त्री ने भी। एक मां अपने बेटे से प्रश्न पूछ रही है और एक स्त्री पुरूष से प्रश्न पूछ रही है कि यह कैसा जीवन है हमारा। जब मैं पुत्री थी तो मेरे माता-पिता के अधीन थी। उन्होंने एक दिन लाकर कर्दम को सौंप दी तो मैं कर्दम की पत्नी बन गई। उसके बाद मेरे पति ने निर्णय लिया और वो चले गए तथा मुझे बेटे को सौंप गए।<br /><br />कपिलजी ने उत्तर दिए अपनी मां को। मां अब सुनिए मैं आपको उत्तर दे रहा हूं, आध्यात्मिक, व्यावहारिक और सामाजिक पक्ष पर देवहुति अपने पुत्र से सत्संग कर रही है। उन्होंने प्रश्न पूछा कौन सी भक्ति की जाए। मन को कैसे नियंत्रित किया जाए? कपिल मुझे तुम बताओ । वे बता रहे हैं अपनी मां को। मां सुनिए दुनिया में यदि सबसे श्रेष्ठ कोई है तो भक्तियोग है। मां आप ज्यादा झंझट में न पड़ें। आप अपने जीवन में सबसे पहले भक्ति को आरंभ करें और उन्होंने बताया कि नवधा भक्ति को जीवन में उतारें। नौ तरह की भक्ति होती है श्रवण भक्ति, कीर्तन भक्ति, स्मरण भक्ति, पाद सेवन भक्ति , अर्चन, वंदन, सख्य, दास व आत्मनिवेदन। आप इतनी में से कोई एक भक्ति कर लो।<br /><br />फिर मां ने पूछा कि तू ये सब बता तो रहा है पर मुझे यह समझ में नहीं आता कि भगवान का रूप क्या है? उन्होंने कहा भगवान तो बहुत विराट है मां। पूरी प्रकृति उसकी है। आप क्या सोच रही हैं मां। पृथ्वी से दस गुना जल, जल से दस गुना अग्नि, अग्नि से दस गुना आकाश, आकाश से दस गुना वायु, वायु से भी दस गुना प्राकृत तत्व और उसके बाद महत्व तत्व और वो सब मिलाकर भगवान का एक पैर है। इतना बड़ा भगवान का विराट स्वरुप है तो मां आप इस प्रकृति तत्व की अनुभूति करिए।<br /><br /><b>भक्ति के लिए मन को बांधना पड़ता है</b><br />भगवान का स्वरूप तथा भक्ति के विषय में जब भगवान कपिल ने अपनी माता को बताया तो उन्होंने कहा- यह बात तो ठीक है कि भक्ति करना चाहिए लेकिन जब भक्ति करने बैठूं तो मन नहीं लगता। कपिलजी ने बोला मां बिल्कुल ठीक कह रही हो, बिना मन के नियंत्रण में भक्ति नहीं उतरती। मन को बांधना ही पड़ेगा।<br /><br />देवहुति ने अगला प्रश्न पूछा कि बेटा तू यह तो बता कि मन कैसे लगेगा ? अब कपिल देव समझा रहे हैं, मां वह भी बताता हूं। आपका मन अष्टांग योग से लगेगा। अब कपिलजी अष्टांग योग की चर्चा कर रहे हैं। भागवत में वे कह रहे हैं आठ प्रकार के योग हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि।<br /><br />समाधि अंतिम अवस्था है। ध्यान उसके पहले की अवस्था है। पहले ध्यान रखो आप, फिर उसके बाद ध्यान करो। तो प्राणायाम की पूरी प्रक्रिया कपिलजी ने बतलाई। पूरी क्रिया भागवत में लिखी कि आप प्राणायाम कैसे करें? कपिल देव बताते हैं मां, ऐसे सांस का नियंत्रण करिए और सांस के नियंत्रण करते ही आपकी देह, आपकी आत्मा का ध्यान जाग जाएगा और मन गौण हो जाएगा। यह श्वास का नियंत्रण है। इस प्रकार कपिलजी ने प्रणायाम के तरीके बताए। मां, आप अष्टांग योग करिए। आपको अष्टांग योग से बहुत आनंद प्राप्त होगा। अष्टांग योग का विस्तार से वर्णन करते हुए योग के बारे में लिखा है कि योग करने से तीन बातें होती हैं आत्मा की शुद्धि, तन की शक्ति और मन की प्रसन्नता बढ़ जाती है। उन्होंने कहा आप योग करिए जैसे ही आप योग करेंगे आप स्वत: ही प्रसन्न हो जाएंगे और यदि कुछ न कर पाएं तो एक काम तो कर ही सकते हैं जरा मुस्कुराइए.....<br /><br /><b>भक्ति के तीन रूप होते हैं</b><br />कपिलजी अपनी मां देवहुति को योग की चर्चा सुना रहे हैं। फिर मां ने उनसे एक प्रश्न पूछा क्या भक्ति के रूप भी होते हैं? तो कपिलजी ने कहा- हां भक्ति के तीन रूप होते हैं। नौ तरह की भक्ति और तीन तरह के रूप । कौन-कौन से रूप होते हैं तो उन्होंने कहा एक तो सतरूप होता है, एक रजरूप होता है और एक तमरूप होता है इसको सतोगुण, तमोगुण और रजोगुण बोलते हैं।<br /><br />कपिल भगवान मां से कह रहे हैं कि मां आप सतोगुणी भक्ति कर सकती हैं, आप रजोगुणी भक्ति कर सकती हैं और तमोगुणी भक्ति कर सकती हैं। परिणाम भी ऐसे ही मिलेंगे। अब मां ने एक प्रश्न पूछा कि चलो मुझे सब समझ में आ गया लेकिन तू तो ज्ञान का अवतार है तूने मुझे सब समझा दिया पर मैं आज तुझसे एक प्रश्न पूछना चाहती हूं कपिल। गृहस्थी में रहकर भक्ति कैसे की जाए? एक भक्त की गृहस्थी कैसी होना चाहिए।<br /><br />देखिए एक स्त्री का प्रश्न एक पुरूष से। अभी मां के भीतर की नारी जाग गई। यदि गृहस्थी में कोई उल्टी-सीधी घटना घटे तो गृहस्थ अपनी भक्ति को कैसे बचाए? मां पूछ रही हैं।गृहस्थी में सदैव इच्छाओं की पूर्ति नहीं होती। कुछ न कुछ उल्टा-सीधा चलता रहता है। उस समय भक्ति कैसे बचाएं कितना मौलिक प्रश्न पूछ रही है देवहुति अपने बेटे से।<br /><br /><b>गृहस्थी के केंद्र में परमात्मा को रखें</b><br />देवहुति अपने बेटे कपिल से प्रश्न कर रही है- बेटे तू ये बता गृहस्थी कैसे चलाएं। गृहस्थी को कैसे बचाएं, गृहस्थी को कैसे हम केंद्र में रखकर भगवान की स्तुति कैसे करें? गृहस्थी के बारे में उन्होंने मां को बड़े विस्तार से वर्णन किया और मां से कहा- मां गृहस्थी बचाने के बहुत सारे सूत्र हैं पर चलो मैं आपको एक सूत्र बता देता हूं और बड़ी सुंदर बात बता रहे हैं भगवान कपिल । यह बात हमारे भी बड़े काम की है। बात वहीं से शुरू हुई जहां से भागवत लिखी गई थी।<br /><br />महाभारत लिखने के बाद वेदव्यास दु:खी थे तो नारदजी ने उनसे कहा था केंद्र में परमात्मा को रखें और फिर कोई ग्रंथ लिखें। तो व्यासजी ने लिखी भागवत, जिसके केन्द्र में भगवान हैं। कपिल देव अपनी मां से कह रहे हैं मां, अपनी गृहस्थी के केंद्र में कौन है? यह बात गृहस्थी की शांति और अशांति को तय करेगी। यदि बहुत अधिक संसार है तो बहुत परेशानी है। परमात्मा को गृहस्थी के केंद्र में रखिएगा। यदि परमात्मा नहीं है केंद्र में संसार ही संसार है तो मां इस दु:ख का कोई अंत नहीं है।<br /><br />जिन लोगों की गृहस्थी के केंद्र में परमात्मा नहीं होता उनकी गृहस्थी कैसी होती है? कपिल देव अपनी मां को बोल रहे हैं कि कितना ही बड़ा दु:ख हो जाए दाम्पत्य परमात्मा का प्रसाद है। कपिल देव ने अपनी से मां से कहा मां गृहस्थी को उदासी से मत लो। ये परमात्मा का प्रसाद है ये आपके जीवन में उतरा है।तो आज एक बेटे ने अपनी मां को ज्ञान दिया है। तीसरे स्कंध का यहां समापन कर रहे हैं ग्रंथकार।<br /><br /><b>जीवन में धर्म का महत्व</b><br />अब आगे चतुर्थ स्कंध आएगा जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों का वर्णन करता है। जीवन में धर्म का क्या महत्व है, यह चतुर्थ स्कंध बताएगा। धर्म शुद्धि से प्राप्त होता है। धर्म प्राप्ति के लिए शुद्धि चाहिए। देश की शुद्धि, काल की शुद्धि, मन की शुद्धि, देह की शुद्धि, विचार की शुद्धि, इंद्रियों की शुद्धि और द्रव्य की शुद्धि। सात तरह की शुद्धि हो तब जीवन में धर्म का अवतरण होता है।<br /><br />तो पहला बताया धर्म। फिर बताया अर्थ। अब भागवत बता रही है अर्थ की प्राप्ति पांच प्रकार से होती है। पहली होती है माता-पिता के आशीर्वाद से, दूसरी गुरु की कृपा से, तीसरी अपने उद्यम से, चौथी अपने प्रारब्ध से और पांचवीं होती है प्रभु कृपा से। काम का अर्थ है पुरूषार्थ। मोक्ष की कैसे प्राप्ति है इसकी चर्चा अब ग्रंथकार करने जा रहे हैं। यहां से ग्रंथकार हमको एक घटना पढ़ाने जा रहे हैं।अब ग्रंथकार चौथे स्कंध के आरंभ में अत्री और अनुसूइया की चर्चा कर रहे हैं। अनुसूइया कपिल की बहिन और कर्दम-देवहुति की बेटी थीं। अनुसूइया के पति का नाम था अत्री।<br /><br />अत्री और अनुसूइया का दाम्पत्य बड़ा दिव्य था। अत्री का अर्थ होता है अ, त्री जिसमें तीन न हो, त्री का भाव न हो। तीन कौन से? सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण इन तीनों का अभाव होने पर आदमी अत्री बन जाता है। उनकी पत्नी थीं अनुसूइया। अनुसूइया का अर्थ है जिसमें असूइया प्रवृत्ति का अभाव हो। असूइया को ईष्या कहते हैं। तो पत्नी में ईष्र्या का अभाव तथा पति निर्गुणी थे इसलिए उनका दाम्पत्य इतना दिव्य था। नारदजी इनके दाम्पत्य को देखकर बड़े प्रसन्न होते थे। कितना दिव्य दाम्पत्य है इनका।<br /><br /><b>जब त्रिदेव ने ली अनुसूइया की परीक्षा<br /><b></b></b>घूमते-घूमते नारदजी एक दिन कैलाश पर पहुंचे। कैलाश पर पहुंचे तो शंकर जी ध्यानमग्न थे। पार्वती ने कहा मैं ही आपकी सेवा-पूजा करती हूं। पार्वतीजी ने लड्डू बनाया और नारदजी को दिया कि प्रसाद पाओ। नारदजी तो नारदजी हैं उन्होंने लड्डू मुंह में रखा और उसके बाद बोले वैसा स्वाद नहीं है। पार्वतीजी ने बोला कौन सा स्वाद नहीं है? बोले वो वाला स्वाद है ही नहीं जो उस आश्रम में है, अत्री और अनुसूइया के आश्रम में। क्या लड्डू बनाती हैं मां अनुसूइया। पार्वतीजी ने बोला ये कौन है? नारद ने कहा बहुत ही पतिव्रता स्त्री हैं, उनके पतिव्रत को सब प्रणाम करते हैं।<br /><br />नारदजी अपना काम करके चले गए। पार्वतीजी ने सोचा मुझसे बड़ी पतिव्रता कौन होगी? उन्होंने शंकरजी को पूरा वृत्तांत सुनाया और बोला उसके पतिव्रत में सचमुच इतनी ऊंचाई है कि हमसे भी अधिक पतिव्रता है तो आप उसकी परीक्षा लीजिए। शंकरजी ने बोला दूसरों के चक्कर में आप न पड़ें देवी। परंतु पार्वतीजी ने कहा नहीं आप ही को जानना पड़ेगा। शंकरजी कैलाश से नीचे उतरे, उनको मिल गए विष्णुजी। कहां जा रहे हैं शंकरजी ने पूछा, विष्णुजी से। बोले, वहीं अत्री आश्रम। आपका क्या हुआ, शंकरजी ने पूछा।<br />विष्णुजी बोले नारद आया था लक्ष्मी को बोल गया कि वैकुण्ठ में वैभव और वो आनंद है ही नहीं जो अत्री के आश्रम में है। लक्ष्मी अड़ गई कि जरा पता तो लगाओ कि कौन पतिव्रता है। मैं भी शंकरजी अब आपके साथ हूं। दोनों को रास्ते में मिल गए ब्रह्माजी। दोनों ने ब्रह्माजी से पूछा क्या हुआ? अधिक पूछने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। नारद ब्रह्माणी को भी समझा गए थे। लक्ष्मीजी, पार्वतीजी और ब्रह्माणी जी ने कहा उसके पतिव्रत का परीक्षण करके आप आइए।<br /><br /><b>जब त्रिदेव बन गए बच्चे</b><br />ब्रह्मा, विष्णु व शिव तीनों देव अत्री के आश्रम में आए और तीनों ने विचार किया कि इनकी क्या परीक्षा ली जाए? त्रिदेव वेश बदलकर गए और भिक्षा मांगी। उन्होंने कहा हम आपसे भिक्षा तो लेंगे पर आपको निर्वस्त्र होकर भिक्षा देनी पड़ेगी। अनुसूइया ने बोला ऐसे तो मेरा पतिव्रत भंग हो जाएगा। ये कैसी मांग कर रहे हैं साधु लोग। उन्होंने कहा ठीक है, मेरे द्वार पर आए हो और आपकी वाणी से ऐसा निकला है तो मैं आपको ऐसे ही भिक्षा दूंगी जैसे आप चाहते हैं। उन्होंने हाथ में जल लिया, संकल्प लिया कि ये तीनों छोटे-छोटे बच्चे बन जाएं, छह-छह महीने के। बस तीनों ब्रह्मा, विष्णु, महेश छोटे-छोटे बच्चे बन गए। उठाकर अंदर ले आई और भिक्षा करा दी।<br /><br />तीनों भगवान छोटे-छोटे हो गए। पहुंचे ही नहीं वापस, न कैलाश में, न वैकुण्ठ में, न ब्रह्मलोक में। तो माताएं परेशान हो गईं। दौड़ी चली आईं तीनों आश्रम में। यहां आकर देखा तो उनके पति बच्चे बने पड़े हैं। तब नारदजी आए तो तीनों देवियों ने कहा नारदजी,हमारे पति तो बच्चे बन गए।<br /><br />नारदजी ने बोला ये तो बनने ही थे। पतिव्रता का प्रताप देख लिया आपने। तीनों बोलीं हमने तो देख लिया। अब इनको वापस तो बड़ा कराओ आप। नारदजी ने कहा आप अनुसूइया से ही मांग लीजिए। तीनों देवियों ने कहा क्या बात कर रहे हैं, यदि अनुसूइया को ये बता दिया कि ये त्रिदेव हैं और हम तीनों आईं हैं तो ये तो जीवनभर कभी इनको हमें नहीं देंगी और अपराध भी क्षमा नहीं करेंगी। तब नारद ने कहा इनका नाम अनुसूइया है। ये असूइया वृत्ति से निवृत्त हैं। आप मांगिए तो सही, ये क्षमा कर देंगी। तीनों माताओं ने अपना परिचय दिया। तब तक तो अत्री आ गए। अत्री ने पूछा, देवी ये तीन संतानें? उन्होंने अत्रीजी से सारी बात कही। अत्री ने कहा अनुसूइयाजी ये तो त्रिदेव हैं, भगवान हैं इनको मुक्त करिए।<br /><br /><b>ऐसे होता है जीवन में धर्म का प्रवेश</b><br />अत्री मुनि के कहने पर माता अनुसूइया ने त्रिदेव को पुन: वास्तविक स्वरूप प्रदान कर दिया। त्रिदेव ने अनुसूइयाजी से कहा हम आपकी भक्ति, आपके तप से बहुत प्रसन्न हैं। हमारे तीनों के अंश से आपके घर तीन पुत्र जन्म लेंगे। तब ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, शिव के अंश से ऋषि दुर्वासा तथा विष्णु के अंश से भगवान दत्तात्रेय का जन्म हुआ। ये भगवान का एक और अवतार हुआ। हमने कर्दम और देवहुति की पुत्री की कथा भी सुन ली। अब आइए प्रसूति के घर में चलते हैं।<br /><br />मनु-शतरूपा की तीसरी पुत्री है प्रसूति। उनका विवाह किया गया दक्ष से। इनके यहां सोलह कन्याओं का जन्म हुआ। दक्ष ने अपनी तेरह कन्याओं का विवाह कर दिया धर्म से। अपनी चौदह व पंद्रह कन्या में एक अग्नि को दी एक पितरों को प्रदान करी और सोलहवीं कन्या सती का विवाह भगवान शंकर से करवा दिया।इस तरह दक्ष ने अपनी तेरह बेटी धर्म को सौंप दी। श्रद्धा, दया, मैत्री, शांति, पुष्टि, क्रिया, उन्नति ये पत्नियों के नाम हैं धर्म के। बुद्धि, मेधा, स्मृति, तितिक्षा, धृति और मूर्ति ये तेरह, धर्म की तेरह पत्नियां हैं। यानि धर्म को जीवन में लाना है तो ये तेरह काम करने पड़ेंगे और इसमें अंतिम पत्नी का नाम है मूर्ति। विचार करिए मूर्ति धर्म की पत्नी है। कितनी सुंदर बात भागवत में आ रही है।<br /><br />हम मूर्तिपूजक हैं क्योंकि धर्म की पत्नी हैं मूर्ति। तो मूर्ति माता हैं और धर्म पिता हैं। इस अंतर को समझ लीजिए बड़ी बारीक बात है। मंदिरों में मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा कराते हैं तो मूर्ति धर्म की तेरहवीं पत्नी हैं। वो मां के रूप में हैं और धर्म पिता के रूप में हैं। माताएं घर को साधती हैं ऐसे ही मूर्ति मंदिर में रखी जाती हैं और धर्म की चारों तरफ जय-जयकार होती है। पिता जो होता है वो बाहर की सारी व्यवस्था जुटाता है। ये एक आदर्श व्यवस्था है। धर्म की पत्नी मूर्ति। तो आप देखिए जब-जब धर्म की प्रतिष्ठा जीवन में करने जाएं तो जयजयकार करिए धर्म की और मूर्ति के साथ प्राण-प्रतिष्ठा रखिए।<br /><br /><b>ऐसे करें भगवान के दर्शन</b><br />अभी मनु और शतरूपा की संतानों की कथा चल रही है। जब मनु और शतरूपा ने भगवान के पहली बार दर्शन किए तो भगवान के दर्शन को लेकर मनु और शतरूपा ने जो भाव प्रकट किया वो हमारे भीतर हमें रखना चाहिए। जैसे ही भगवान प्रकट हुए, मनु-शतरूपा ने देखा तो ऐसा लिखा है-<br /><br />छबि समुद्र हरि रूप बिलोकी, एकटक रहे नयन पट रोकी। चितवहीं सादर रूप अनूपा, तृप्ति न मानही मनु-शतरूपा।छबि समुद्र हरि रूप बिलोकी<br /><br />अर्थात भगवान के रूप को देखकर ऐसा लगे कि ये छवि का समुद्र है, सौंदर्य का सागर है । पहला भाव ये होना चाहिए। एकटक रहे नयन पट रोकी अर्थात एकटक हो जाइए, अचंभित हो जाइए जैसे बहुत समय बाद हमारा परिचित मिले हम उसको देखकर चौंक जाते हैं, ऐसे ही भगवान को देखकर एकदम अचंभित होने का भाव लाइए। नयनपट रोकी, पलकों को झुकाना बंद कर दीजिए। पलक तो दुनिया के सामने झुकाई जाती है भगवान को देखें तो एकटक देखते रहें। तीसरा काम नैनो को रोक दीजिए आंख खुली रखकर देखते जाइए-देखते जाइए।<br /><br />चितवहीं सादर रूप अनूपा, चौथी बात प्रतिमा को देखें तो सादर, आदर का भाव रखें। मूर्ति के प्रति सम्मान का भाव रखें, गरिमा से खड़े रहें। चितवहीं सादर रूप अनूपा, एक शब्द आया अनूपा, भगवान के रूप को देखें तो प्रतिपल अनूप लगना चाहिए, नया-नया लगना चाहिए। छठी सबसे महत्वपूर्ण बात तृप्ति न मानहीं मनु-शतरूपा। दर्शन करने के बाद मनु-शतरूपा को तृप्ति नहीं हुई। अतृप्त भाव बना रहे। भगवान के दर्शन करने के बाद तृप्ति का भाव न बना रहे। इन छह तरीकों से भगवान के दर्शन किए जाते हैं।<br /><br /><b>दिव्य है शंकर-पार्वती का दाम्पत्य</b><br />मनु-शतरूपा ने अपनी पुत्री प्रसूति दक्षराज को सौंपी और प्रसूति तथा दक्ष की सौलह कन्याएं हुईं उसमें सौलहवीं सबसे छोटी कन्या थीं सती। सतीजी का विवाह किया गया शंकरजी से। अब आप सती और शंकर का दाम्पत्य देखिए। सती के साथ शंकरजी का दाम्पत्य आरंभ हो रहा है। ग्रंथकार अब हमको आगे ले जा रहे हैं। दक्ष की कथा बताई।<br /><br />सबसे पहले जब दक्ष को सम्मान मिला तो दक्ष को आया अहंकार। एक बार साधु-संतों का कार्यक्रम था, अनुष्ठान था उसमें सब देवता साधु-महात्मा बैठे हुए और उसमें दक्ष सबसे बाद में आए। उन्होंने इधर-उधर देखा कि मैं आया तो सब खड़े हो गए पर शंकर भगवान खड़े नहीं हुए, ध्यान लगाए बैठे थे। बस यहीं से श्वसुर और दामाद में बैर-भाव आरंभ हो गया। दोनों में मतभेद हो गए। उस सभा में बात ऐसी हुई कि दक्ष के जो सचिव थे उन्होंने शंकरजी को कुछ कह दिया। तो शंकरजी के जो गण थे उन्होंने उनको भी अपशब्द कह दिए। सती को भी ये मालूम हो गया कि मेरे पिता से मेरे पति का मतभेद हो गया है।<br /><br />एक बार शंकरजी की रामकथा सुनने की इच्छा हुई तो उन्होंने सती से कहा चलो कुंभज ऋषि के आश्रम में चलते हैं। कुंभज ऋषि के आश्रम में पति-पत्नी पहुंचे। उन्होंने कहा मैं आपसे रामकथा सुनना चाहता हूं। शंकरजी आए तो कुंभज ऋषि खड़े हो गए उन्होंने शंकरजी को प्रणाम किया और बोले बैठिए मैं सुनाता हूं। सतीदेवी ने सोचा ये क्या बात हुई जो वक्ता हैं वो श्रोता को प्रणाम कर रहा है। श्रोता वक्ता को करता है ये तो समझ में आता है। तो जो खुद ही प्रणाम कर रहा है वो क्या रामकथा सुनाएगा। सती ने सोचा शंकरजी तो ऐसे ही भोलेनाथ हैं किसी के भी साथ बैठ जाते हैं। यहां से सती के दिमाग में विचारों का क्रम तर्कों के साथ चालू हो गया। ऋषि ने इतनी सुंदर रामकथा सुनाई कि शंकरजी को आनंद हो गया। हम संक्षेप में चर्चा करते चल रहे हैं। शंकरजी ने कथा सुनी, अपनी पत्नी को देखा कि वे कथा नहीं सुन रही थीं।<br /><br /><b>जब माता सती ने ली श्रीराम की परीक्षा</b><br />सतीजी कथा नहीं सुन रही थीं। वे इधर-उधर देख रही थीं। शंकरजी ने बोला आपकी इच्छा आप सुनो या न सुनो। जब दोनों पति-पत्नी लौट रहे थे तब भगवान श्रीरामचंद्र की विरह लीला चल रही थी। सीताजी का अपहरण हो चुका था। भगवान सीताजी को ढूंढ रहे थे। सामान्य राजकुमार से रो रहे थे। यह देखकर शंकरजी ने कहा जिनकी कथा सुनकर हम आ रहे हैं उनकी लीला चल रही है। शंकरजी ने उन्हें दूर से ही प्रणाम किया, जय सच्चिदानंद।<br /><br />और जैसे ही उनको प्रणाम किया तो सतीजी का माथा और ठनक गया कि ये पहले तो कथा सुनकर आए एक ऐसे ऋषि से जो वक्ता होकर श्रोता को प्रणाम कर रहे थे और अब ये मेरे पतिदेव इनको प्रणाम कर रहे हैं रोते हुए राजकुमार को। शंकरजी ने बोला ''सतीदेवी आप समझ नहीं रही हैं ये श्रीराम हैं जिनकी कथा हम सुनकर आए उनका अवतार हो चुका है और ये लीला चल रही है मैं प्रणाम कर रहा हूं आप भी करिए''। सतीजी ने बोला मैं तो नहीं कर सकती प्रणाम। सतीजी ने कहा ये ब्रह्म हैं मैं कैसे मान लूं मैं तो परीक्षा लूंगी। शंकरजी ने कहा ले लीजिए लेकिन मर्यादा का ध्यान रखना देवी तथा एक पत्थर पर बैठ गए।<br /><br />सतीजी गईं हठ करके परीक्षा लेने। लिखा है ''होई है वही जो राम रचि राखा, को करि तर्क बढ़ावै साखा। अस कहि लगे जपन हरिनामा, गईं सती जहां प्रभु सुखधामा।'' शंकरजी कह रहे हैं अब जो होगा भगवान की इच्छा। कई लोग इन पंक्तियों का अर्थ आलस्य से करते हैं। ''होई है वही जो राम रचि राखा, को करि तर्क बढ़ावै साखा।'' तर्क की शाखा बढ़ाने से क्या फायदा, होगा वही जो भगवान चाहेंगे। इसलिए कुछ मत करो ऐसा समझना बिल्कुल गलत बात है। शंकरजी ने पूरा पुरूषार्थ किया, कथा सुनाने ले गए , कथा सुनाते समय समझाया, वापस समझाया अपना पूरा पुरूषार्थ करने के बाद परिणाम के लिए भगवान पर छोड़ दिया।<br /><br /><b>दाम्पत्य में झूठ नहीं होना चाहिए</b><br />भगवान श्रीराम की परीक्षा लेने के लिए सतीदेवी गईं । विचार किया इनकी परीक्षा लूं तो सीता का वेश धर लिया और सोचा ये तो राजकुमार हैं सीता-सीता चिल्ला रहे हैं मुझे पहचान नहीं पाएंगे। सीता बनकर गईं और रामजी ने देखा तो दूर से प्रणाम किया। श्रीराम बोले आपको नमन है माताजी, पिताजी कहां हैं। ओह! सतीजी समझ गईं कि मैं पकड़ी गईं। ये तो मुझे पहचान गए। भागी वहां से, लौटकर आई और अपने पति के पास आकर बैठ गईं।<br /><br />शंकरजी ने पूछा देवी परीक्षा ले ली? कुछ उत्तर नहीं दिया, झूठ बोल दिया। ''कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं, कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं।'' इतना झूठ बोला कि मैंने कोई परीक्षा नहीं ली मैंने तो आप ही की तरह प्रणाम किया।झूठ बोल गईं अपने पति से। भगवान शंकर ने ध्यान लगाकर देखा कि घटना तो कुछ और हुई है और ये कुछ और बता रही हैं। इन्होनें सबसे बड़ी गलती यह की कि ये सीता बन गई, मेरी मां का रूप धर लिया तो अब मेरा इनसे दाम्पत्य नहीं चलेगा। मैं इनका मानसिक त्याग करता हूं। दोनों लौटकर कैलाश आए भगवान ध्यान में बैठ गए।<br /><br />थोड़े दिन तो सती सोचती रहीं कि ये तो रूठ गए, लंबे रूठ गए, दो-तीन दिन तो रूठते थे पहले भी, तो मना लेती थी पर इस बार तो स्थायी हो गया । तब चिंता होने लगी। ये तो सुन ही नहीं रहे हैं, ध्यान में चले गए। उसी समय देखा ऊपर से विमान उड़कर जा रहे थे। मालूम हुआ कि पिता दक्ष ने बड़ा भारी यज्ञ किया है, ये सारे देवता उसी में भाग लेने जा रहे हैं। बेटी को चिंता हुई, पिता के घर इतना बड़ा काम और मुझे आमंत्रित नहीं किया। तब उनको ध्यान आया कि श्वसुर-दामाद का बैर चल का रहा है। सती ने कहा- हमको बुलाया नहीं गया लेकिन मैं जाऊंगी।<br /><br /><b>अहंकार ही पतन का कारण है</b><br />पिता दक्ष के यहां यज्ञ की बात सुनकर सतीजी अपने पति शंकरजी से बोलती हैं पिता के घर यज्ञ हो रहा है आप मुझे जाने दीजिए। शंकरजी कह रहे हैं देवी बात समझो, बिना आमंत्रण के नहीं जाना चाहिए। दक्षराज के मन में मेरे प्रति ईश्र्या है, आप मत जाइए। लेकिन सती बोलीं नहीं मैं तो जाऊंगी। शंकरजी ने कहा आप जाएं साथ में ये दो गण भी ले जाएं। ये आपकी रक्षा करेंगे।<br /><br />वे गईं और जैसे ही वहां पहुंची तो देखा दक्षराज का बड़ा भारी यज्ञ चल रहा था। दक्षराज ने देखा मेरी बेटी आई है तो ध्यान ही नहीं दिया अपनी बेटी पर। माता प्रसूति ने देखा तो बेटी से बोला आ तू बैठ। सतीजी ने कहा मां तू तो लाड़ करती हैं पर यह सब क्या, मेरे पति शंकरजी का आसन नहीं है। उनका स्थान नहीं इस यज्ञ में, यह तो बड़ा भारी अपमान है। तब बड़ा क्रोध आया सतीजी को और क्रोधाग्नि में उन्होंने अपनी देह को भस्म कर दिया। जैसे ही उनकी देह भस्म हुई शंकरजी के गणों ने उपद्रव शुरू कर दिया। दक्ष के सैनिकों ने उनकी पिटाई कर दी। कुटे-पिटे गण आए शंकरजी के पास कैलाश पर। पूरा वृत्तांत सुनाया। शंकरजी को क्रोध आया, जटाएं हिलाईं। वीरभद्र नाम का एक गण पैदा किया, और कहा जाओ ध्वंस कर दो दक्ष के यज्ञ को।<br /><br />शिवजी तांडव की मुद्रा में आ गए। वीरभद्र ने सारा यज्ञ ध्वंस कर दिया। सारे देवता दौड़ते-भागते ब्रह्मा और विष्णुजी के पास गए। भगवान ने कहा तुमने शिव के प्रति अपराध किया तो यह तो भुगतना ही है। सबने जाकर भगवान शंकरजी से प्रार्थना की कि आप शांत हो जाएं इनको क्षमा कर दें, उन्होंने क्षमा भी किया। इसीलिए उनका एक नाम आशुतोष पड़ा। इस तरह यह कथा हमको यह बता रही है कि दक्ष का अहंकार दक्ष को ले डूबा। सती को जाते-जाते ये बड़ा दु:ख था कि मैं अपने पति का अपमान नहीं देख सकती इसलिए मैं जा रही हूं लेकिन मैं जन्म-जन्म तक इन्हें ही पति चाहती हूं।<br /><br /><b>पार्वती श्रद्धा व भगवान शंकर विश्वास हैं</b><br />जब माता ने सती ने देह त्याग किया तो ऐसा कहते हैं कि अगले जन्म में वो पार्वती कहलाईं। इस जन्म में वे हिमाचल के यहां बेटी बनीं। मनुष्य के अंतिम समय में जो उसकी अंतिम इच्छा होती है वह अगले जन्म का कारण बन जाती है। पार्वती बनकर नया दाम्पत्य शंकरजी का आरंभ हुआ। शंकर और पार्वती का दिव्य दाम्पत्य था तभी तो उनके यहां कार्तिकेय व गणेश जैसी संतानें पैदा हुईं। ''भवानीशंकरोवंदे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ'' अर्थात पार्वती श्रद्धा हैं शंकर विश्वास हैं। जीवन में श्रद्धा और विश्वास का जब मिलन होता है तब कार्तिकेय व गणेश पैदा होते हैं।<br /><br />सूतजी शौनकादि से कह रहे हैं, परीक्षित को समझा रहे हैं शुकदेवजी। अपने दाम्पत्य को ऐसे बचाकर रखो। मां देवहुति ने भी अपने पुत्र कपिल से यही प्रश्न पूछा था कि गृहस्थी में भक्ति कैसी हो। यहां भी यही प्रश्न आया। तो सती और पार्वती के माध्यम से हम ये सीख सकते हैं कि अपने दाम्पत्य को आपसी समझ व गइराई से कैसे चलाया जाए।आइए हम अगले दृश्य में प्रवेश करते हैं। ग्रंथकार बहुत सुंदर दृश्य बताते हैं। भगवान शंकर और पार्वती का विवाह हुआ और अभी-अभी दोनों कैलाश पर पहुंचे हैं। दोनों बैठे हैं पति-पत्नी और बैठकर बात कर रहे हैं।<br /><br />पार्वतीजी, शंकरजी से पूछ रही है कि आप मुझे रामकथा सुनाइए जो मैं चूक गई सती जन्म में।तो शंकरजी उनको रामकथा सुना रहे हैं। अब देखिए पति-पत्नी अकेले में बैठे हों तो कामकथा फूटती है पर यहां रामकथा फूट रही है। दिव्यता का महत्व है जीवन में। परमात्मा उतरेगा तो शुद्धता को पसंद करके उतरता है। दोनों पति-पत्नी बैठकर बातचीत कर रहे हैं।<br /><br /><b>जीवन साथी का आदर करें</b><br />एक दृश्य में जब पार्वतीजी आती हैं तो शंकरजी कह रहे हैं ''जानी प्रिया आदर अति किन्हा जानी प्रिय'' दो शब्द आए हैं प्रिया और आदर। अपनी पत्नी पार्वतीजी को प्रिया प्रेम दिया। केवल प्रेम देने से काम नहीं चलता। शंकरजी कहते हैं आदर भी जरूरी है। ''जानी प्रिया आदर अति किन्हा'' ये दाम्पत्य का सूत्र है। शंकरजी यहीं नहीं रुकते ''जानी प्रिया आदर अति किन्हा, बाम भाग आसन हर दीन्हा''। पार्वतीजी को अपने बाएं भाग में समान बैठाया। पहली बात है हम प्रेम दें, आदर करें। अपने जीवनसाथी के साथ समानता का व्यवहार करें। बाम, भाग, आसन हर दिन्हा, अपने पास में बैठाया।<br /><br />शंकरजी दाम्पत्य का छोटा सा सूत्र बताते हैं, हमें यह समझना चाहिए। अब ग्रंथकार हमें आगे ले जा रहे हैं। ये धर्म का प्रसंग था। धर्म का प्रसंग हमने पढ़ा, धर्म कैसे बच सकता है। चाहे वह गृहस्थ धर्म हो। अब हम चतुर्थ स्कंध के उस प्रकरण में प्रवेश कर रहे हैं जिसे अर्थ प्रकरण कहा है और अर्थ प्रकरण में धु्रव भगवान का जन्म होने वाला है। मनु-शतरूपा के वंश की चर्चा चल रही थी। हमने तीनों पुत्रियों का जीवन, दाम्पत्य देख लिया। अब पुत्रों की बारी आ रही है। तो उत्तानपाद और प्रियव्रत, उनके दो पुत्र थे।<br /><br />उत्तानपाद की कहानी अब ग्रंथकार कह रहे हैं। सूतजी कह रहे हैं कि शौनकजी सावधान होकर सुनिएगा। उत्तानपाद बड़े धार्मिक राजा थे और उनकी दो पत्नियां थीं। एक का नाम सुनीति और दूसरी का नाम सुरुचि था। इन दो पत्नियों के साथ उनका जीवन चल रहा था। एक बार सिंहासन पर बैठे थे उत्तानपाद। वे छोटी पत्नी सुरुचि को बहुत प्यार करते थे। वह पास में बैठी थी। सुरुचि के पुत्र का नाम था उत्तम और सुनीति के पुत्र का नाम था धु्रव। पांच साल का बालक ध्रुव अपने पिता के पास आया। उसने देखा पिता की गोद में उत्तम भी बैठा है पास में सौतेली मां सुरुचि बैठी हुई है।<br /><br /><b>कर्कश वाणी सभी दु:खों का कारण है</b><br />मनु महाराज के पुत्र उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव ने जब अपने पिता को सिंहासन पर बैठा देखा तो वह भी राजसिंहासन पर चढऩे का प्रयास करने लगा। पांच साल के बालक ने कोशिश की कि अपने पिता की गोद में बैठ जाए। उत्तानपाद ने सोचा इसको गोदी में बैठा लेता हूं लेकिन जैसे ही प्रयास करने लगे, उनकी दूसरी पत्नी सुरुचि अड़ गई। सुरुचि ने कहा ध्रुव तू पिता की गोद में नहीं बैठ सकता। उसने कहा- क्यों मां? वह बोली यदि तुझे पिता की गोद में बैठना है तो तुझे सुरुचि के गर्भ से जन्म लेना पड़ेगा, नहीं तो भगवान की पूजा कर फिर वही देखेंगे।<br /><br />सौतेली मां ने ऐसी कर्कश वाणी बोली जिसे सुन ध्रुव परेशान हो गया। रोने लगा और चूंकि राजा उत्तानपाद सुरुचि के प्रभाव में थे तो पत्नी को मना भी नहीं कर सके, क्योंकि वो जानते थे कि अगर मैंने ध्रुव को गोदी में उठाया तो ये सारा घर माथे पर उठा लेगी। वह सुरुचि का स्वभाव जानते थे। ध्रुव रोते-रोते अपनी मां सुनीति के पास चला गया। उसने कहा मां से- मैं आज पिताजी की गोद में बैठने गया तो मां ने मुझे बैठने नहीं दिया और ऐसा कहा है कि जा तू भगवान को पा ले तो तू अधिकारी बनेगा। मां भगवान कहां मिलते हैं।<br /><br />सुनीति ने कहा ध्रुव तू सौभाग्यशाली है कि तेरी सौतेली मां ने तुझसे यह कहा कि जा भगवान को प्राप्त कर। तेरा बहुत सौभाग्य है। तू भगवान को प्राप्त कर। वो यह सीखा रही है। पांच साल का बच्चा जंगल में चल दिया। ऐसा कहते हैं जब वो जंगल की ओर जा रहा था उसके मन में विचार आ रहा था कि भगवान कैसे मिलते हैं, भगवान कहां मिलेंगे, कैसे प्राप्त होंगे और चल दिया।<br /><br />यहां एक बात ग्रंथकार कह रहे हैं घर-परिवार में सुरुचि ने कर्कश वाणी बोली और ध्रुव का दिल टूट गया। समाज में, परिवार में, निजी संबंधों में कर्कश वाणी का उपयोग न करें। ये बहुत घातक है । शब्दों का नियंत्रण रखिए। जीवन में कभी भी कर्कष वाणी न बोलिए। भक्त की वाणी हमेशा निर्मल होती है इसलिए ध्रुव चला जा रहा है और भगवान को ढूंढ़ रहा है। उसे मार्ग में नारदजी मिल गए।<br /><br /><b>कठिन तप से मिलते हैं भगवान</b><br />अब तक की कथा में आपने पढ़ा कि भगवान की खोज में निकले ध्रुव को मार्ग में नारदजी मिले। नारदजी ने ध्रुव को रोका और कहा बालक इस जंगल में कहां जा रहा है। नारदजी को देखकर ध्रुव कहते हैं कि मैं भगवान को प्राप्त करने जा रहा हूं। नारदजी हंसे, तू जानता नहीं है भगवान क्या होता है। बड़ा कठिन है जंगल में तप करना। ऐसे ही भगवान नहीं मिलते। नारदजी ध्रुव को डरा रहे हैं। ध्रुव ने कहा कि देखिए मुझे डराइए नहीं, अगर आप भगवान को प्राप्त करने का कोई रास्ता बता सकते हैं तो अच्छी बात है मुझे भयभीत क्यों कर रहे हैं।<br /><br />जो भी स्थिति होगी मैं भगवान को प्राप्त करुंगा। बस मैंने सोच लिया है, मेरा हठ है। नारदजी बोले वाह, ठीक है क्या चाहता है? ध्रुव बोले आप मेरे गुरु बन जाओ। नारदजी को गुरु बना लिया। नारदजी ने उसे मंत्र दिया ऊं नमो भगवते वासुदेवाय, जा तू इसका जप करना, जितनी देर तू इसका जाप करेगा और अगर सिद्ध हो गया तो परमात्मा तेरे जीवन में उतर आएंगे। ध्रुव बैठ गए और ध्यान किया। उन्होंने ''ऊं नमो भगवते वासुदेवाय'' का जप शुरू कर दिया। छह महीने तक करते रहे। भगवान सिद्ध हो गए, सिंहासन डोल गया, भगवान को लगा कोई भक्त मुझे याद कर रहा है। अब मुझे जाना पड़ेगा।<br /><br />भगवान प्रकट हुए और जैसे ही भगवान प्रकट हुए तो देखा कि ध्रुव तो बस ध्यान लगाए बैठा है। अपने हाथों से ध्रुव के गाल को स्पर्श किया। आंख खोली तो भगवान सामने खड़े हुए थे। ध्रुव ने भगवान को प्रणाम किया, धन्य हो गए। भगवान ने कहा बोल क्या चाहता है? बच्चा था ज्यादा बातचीत करना तो आती नहीं थी, पांच साल के बच्चे ने कह दिया बस जो आप दे दो। भगवान बहुत समझदार हैं उन्होंने कहा ठीक है तू वर्षों तक राज करेगा, तेरी अनेक पीढिय़ां सिद्ध हो जाएंगी। तेरे पुण्य प्रताप से वे धन्य हो जाएंगे, तेरा राज्य अद्भुत माना जाएगा। तुझे मनोवांछित की पूर्ति होगी जो तू चाहता है वो मिलेगा, तथास्तु कह कर भगवान चले गए।<br /><br />क्रमशः...<br /><br /><b>जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,<br />और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....</b><b>मनीष</b>Jai Guru Geeta Gopalhttp://www.blogger.com/profile/01621836960274288942noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6101091264294453966.post-19654117438810559012021-05-08T09:33:00.002-07:002021-05-08T09:33:37.077-07:00श्रीमद् भागवत Srimdbhagwat Part (2)<p> <b>खुद से परिचित होने का ग्रंथ है भागवत</b></p><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">आज से हम एक ऐसे ग्रंथ में प्रवेश कर रहे हैं जो वैष्णवों का परम धन है, पुराणों का तिलक है, ज्ञानियों का चिंतन, संतों का मनन, भक्तों का वंदन तथा भारत की धड़कन है। किसी का सौभाग्य सर्वोच्च शिखर पर होता है तब उसे श्रीमद्भागवत पुराण कहना, सुनना और पढऩा मिलता है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">भागवत महापुराण वह शास्त्र हैं जिसमें बीते कल की स्मृति, आज का बोध और भविष्य की योजना है। तो आज भागवत में प्रवेश करने से पहले थोड़ा भीतर उतरने की तैयारी करिए। यह स्वयं मूल से परिचित कराने का ग्रंथ है। भगवान ने भागवत की पंक्ति-पंक्ति में ऐसा रस भरा है कि वे स्वयं लिखते हैं-</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">पिबत भागवतं रसमालयं मुहुरवो रसिका भुवि भावुका:।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">हमारे भीतर जो रहस्य भरा हुआ है उसको उजागर करने के लिए भागवत एक अध्यात्म दीप है जैसे हम भोजन करते हैं तो हमको संतुष्टि मिलती है उसी प्रकार भागवत मन का भोजन है। जब मन को ऐसा शुद्ध भोजन मिलेगा तो मन संतुष्ट होगा, पुष्ट होगा और तृप्त होगा और जिसका मन तृप्त है उसके जीवन में शांति है। भागवत में प्रवेश करें तो कुछ बातें स्पष्ट करते चलें। हम जिस रूप में इस सद्साहित्य को पढ़ते चलेंगे, हमारे तीन आधार हैं। संत और महात्माओं का यह कहना है और शोध से ज्ञात भी हुआ है। पहली बात है भगवान ने अपना स्वरूप भागवत में रखा तो भागवत भगवान का स्वरूप है। दूसरी बात इसमें ग्रंथों का सार है और तीसरी बात हमारे जीवन का व्यवहार है। ये तीन बातें भागवत में हैं।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><b>भगवान बसे हैं भागवत में</b><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">भागवत में 12 स्कंध हैं (12 चेप्टर)। उन 12 स्कंधों में 335 छोटे-छोटे अध्याय हैं जिन्हें सेक्शन कह लें और 18 हजार श्लोक हैं। जो 12 स्कंध हैं उसमें भगवान का स्वरूप बताया है। पहला और दूसरा अध्याय भगवान के चरण , तीसरा और चौथा स्कंध भगवान की जंघाएं, पांचवां स्कंध भगवान की नाभि , छठा वक्षस्थल, सात और आठ बाहू , नौ कंठ, दस मुख, ग्यारह में ललाट और बारह में मूर्धा है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">भगवान का वाड्.मय स्वरूप भागवत के स्कंधों में बंटा हुआ है तो भागवत में बसे हुए हैं भगवान। भागवत का एक और अर्थ है भाग मत। बहुत सी ऐसी स्थिति आती है हमारे जीवन में, या तो आदमी बाहर भागता है या भीतर भागने लगता है। भाग मत भागवत कहती है रुकिए, देखिए और फिर चलिए। एक और अर्थ है भागवत का। चार शब्द है भ, ग, व, त। जिनका अर्थ है भ से भक्ति, ग से ज्ञान, व से वैराग्य और त से त्याग।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">दूसरी बात इसमें ग्रंथों का सार है। हमारे यहां चार प्रमुख ग्रंथ हैं और चारों ग्रंथ भागवत में समाविष्ट हैं। इतनी सुंदर रचना वेदव्यासजी ने की है। महाभारत हमें रहना सिखाती है आर्ट ऑफ लिविंग जिसे कहते हैं। कैसे रहें, जीवन की क्या परंपराएं हैं, क्या आचारसंहिता, क्या सूत्र हैं, संबंधों का निर्वहन कैसे किया जाता है यह सब महाभारत से सीखा जा सकता है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">जीवन का दूसरा साहित्य है गीता। गीता हमें सिखाती है करना कैसे है आर्ट ऑफ डुईंग। भागवत महापुराण के दो से आठ स्कंध तक हम गीता में करना कैसे ये देखेंगे। रामायण हमें जीना सिखाती है भागवत में नवें स्कंध में श्रीरामकथा आई है। रामायण हमें सिखाएगी आर्ट ऑफ लिविंग। अंतिम चरण में भागवत कहती है मरना कैसे है। यह इस ग्रंथ का मूल विचार है, 'आर्ट ऑफ डाइंग। भागवत के दसवें, ग्यारहवें और बारहवें स्कंध में भगवान की लीला आएगी। यह चार ग्रंथ इस भागवत में समाए हुए हैं और इसी रूप में चर्चा करते चलेंगे तो आप इसे स्मरण में रखिए। ..</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><b>गृहस्थी का ग्रंथ है भागवत</b><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">हम सब गृहस्थ लोग हैं, दाम्पत्य में रहते हैं। भागवत की घोषणा है कि मैं दाम्पत्य में आसानी से प्रवेश कर जाती हूं। हमारे दाम्पत्य के सात सूत्र हैं- संयम, संतुष्टि, संतान, संवेदनशीलता, संकल्प, सक्षम और समर्पण। इन सात सूत्रों को हम प्रतिदिन भागवत में स्पष्ट करते चलेंगे।हमने भागवत में भगवान का स्वरूप देख लिया। ग्रंथों का सार देख लिया और जीवन का व्यवहार भी देख लिया।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">लोगों के मन में प्रश्न उठता है भागवत किसने कही, किसने सुनी? वेदव्यासजी ने ऐसा ग्रंथ रचा कि जिसमें बहुत सारे स्तर पर बहुत सारी कथाएं चलती हैं। इस कारण भागवत पढऩे वाले भ्रम में आ जाते हैं कि अभी तो ये बोल रहे थे, अभी तो इनकी कथा चल रही थी, अचानक दूसरी कथा आ जाती है तो लोग भ्रम में पड़ जाते हैं। भ्रम न पालें, सबसे पहले हम ये जान लें कि भागवत लिखने की नौबत क्यों आई? वैसे तो इसका उत्तर भागवत के प्रथम स्कंध के चौथे अध्याय में आता है पर मैं आपको यहीं बता रहा हूं। भागवत का आरंभ उसके महात्म्य से होता है। जिसे सामान्य भाषा में संदेश(प्रोमो) कहते हैं। क्या बात हुई जो भागवत लिखनी पड़ी? महर्षि वेदव्यास जिनका नाम कृष्णद्वेपायन है। ब्रह्माजी ने जब वेद रचे तो उनको सौंप दिए। व्यासजी ने वेदों का संपादन किया।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">चार वेद उन्होंने बनाए ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्वेद और सामवेद। फिर व्यासजी ने 18 पुराण लिखे। फिर व्यासजी ने महाभारत की रचना की, जिसको कहते हैं पंचम वेद। ऐसी अद्भुत रचना की कि महाभारत को पढऩे के बाद सारे संसार ने ये तय कर लिया कि जो कुछ भी इस महाभारत में है वो सारा संसार में है और जो इसमें नहीं है वह संसार में नहीं है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><b>भागवत के नायक हैं श्रीकृष्ण</b><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">महाभारत जैसा महान ग्रंथ लिखने के बाद व्यासजी एक दिन बैठे तो उनके भीतर उदासी जाग गई। उसी समय नारदजी आए। उन्होंने पूछा व्यासजी क्या बात है इतना बड़ा सृजन करने के बाद आपके चेहरे पर उदासी क्यों है?सृजन के बाद तो आनंद होना चाहिए। व्यासजी ने नारदजी से बोला मेरा भी यही प्रश्न है आपसे।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">मैंने महाभारत जैसा महान ग्रंथ लिखा, मैं थका हुआ क्यों हूं, उदास क्यों हूं। नारदजी ने बड़ा सुंदर उत्तर दिया और वह हमारे बड़ा काम का है। नारदजी ने कहा व्यासजी ये तो होना ही था क्योंकि आपने जो रचना की है उसके नायक पांडव हैं और खलनायक कौरव हैं।आपकी रचना के केंद्र में मनुष्य है, विवाद है, षडयंत्र हैं।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">आप कोई ऐसा साहित्य रचिए जिसके केंद्र में भगवान हों। तब आपको शांति मिलेगी। हमें समझने की बात ये है कि जीवन की जिस भी गतिविधि के केंद्र में भगवान नहीं होगा, वहां अशांति होगी। इसीलिए भगवान को केंद्र में रखिए और सारे काम करिए। बात व्यासजी को समझ में आ गई। तब उन्होंने भागवत की रचना की जिसके नायक भगवान श्रीकृष्ण हैं। तब जाकर उनको शांति मिली।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">इसीलिए भागवत का पाठ किया जाता है जिसे सुनने के बाद मनुष्य को शांति मिलती है। लोग कहते हैं महाभारत घर में नहीं रखना चाहिए।महाभारत नहीं रखते। क्योंकि उपद्रव होता है। लोग रामायण रखते हैं घर में, लेकिन रामायण जैसा आचरण नहीं करते। अगर आप महाभारत पढऩा चाहें तो अवश्य पढि़ए, घर में रखिए यह वही ग्रंथ है जो व्यासजी ने लिखा है। व्यासजी ने बड़ी सुंदर रचना भागवत के रूप में की है। केंद्र में भगवान को रखा और केंद्र में भगवान को रखने के बाद महात्म्य का आरंभ कर रहे हैं। केन्द्र में भगवान हों और व्यक्तित्व में प्रसन्नता हो इसलिए हमेशा मुस्कुराइए....</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><b>आनंद चाहिए तो सच्चिदानंद का ध्यान करें</b><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">भागवत माहात्म्य में श्लोक वर्णित है- सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्त्यादिहेतवे। तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुम:।।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">अर्थात जो जगत की उत्पत्ति और विनाश के लिए है तथा जो तीनों प्रकार के ताप के नाशकर्ता हैं ऐसे सच्चिदानंद स्वरूप भगवान कृष्ण को हम सब वंदन करते हैं। सत यानी सत्य, परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग है। चित्त, जो स्वयं प्रकाश है। आनंद-आत्मबोध। शास्त्रों में परमात्मा के तीन स्वरूप कहे गए हैं सत, चित और आनंद। सत प्रकट रूप से सर्वत्र है। जड़ वस्तुओं में सत तथा चित है किंतु आनंद नहीं।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">जीव में सत और चित प्रकटता है पर आनंद अप्रकट रहता है अर्थात अप्रकट रूप से विराजमान अवश्य है। वह अव्यक्त रूप से है। वैसे आनंद अपने अन्दर ही है। फिर भी मनुष्य आनंद को बाहर खोजता है। इस आनंद को जीवन में किस प्रकार प्रकट करें यही भागवत शास्त्र हमें बताता है। आनंद के अनेक प्रकार तैतरीय उपनिषद् में बताए गए हैं परंतु इनमें से दो मुख्य हैं पहला साधनजन्य आनंद और दूसरा है स्वयंसिद्ध आनंद।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">जिसका ज्ञान नित्य टिकता है उसे ही आनंद मिलता है वही आनंदमय होता है। जीव को यदि आनंद रूप होना हो तो उसे सच्चिदानंद के आश्रय होना पड़ेगा । भागवत कहती है मेरे लिए कुछ भी नहीं छोडऩा है। वेद, त्याग का उपदेश करते हैं, शास्त्र कहते हैं काम छोड़ो, क्रोध छोड़ो, परंतु मनुष्य कुछ नहीं छोड़ सकता । संसार में फंसे जीव उपनिषदों के ज्ञान को पचा नहीं सकते । इन सब बातों का विचार करके भगवान व्यासजी ने श्रीमद्भागवत शास्त्र की रचना की है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><b>भगवान का पहला स्वरूप है सत्य</b><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">भागवत महात्म्य के आरंभ में सबसे पहले लिखा है-सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्त्यादिहेतवे। तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुम:।।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">ये पहला श्लोक है भागवत का। प्रथम श्लोक का प्रथम शब्द है सच्चिदानंदरूपाय। भागवत आरंभ हो रहा है और भागवत ने घोषणा की सत, चित और आनंद। भगवान के तीन रूप हैं सच्चिदानंद रूपाय सत, चित और आनंद। भगवान के रूप को प्रकट किया। भगवान तक पहुंचने के तीन मार्ग है सत, चित और आनंद। इन तीन रास्तों से आप भगवान तक पहुंच सकते हैं।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">आप देखना चाहें भगवान का स्वरूप क्या है तो भगवान चतुर्भुज रूप में प्रकट नहीं होंगे। भगवान का पहला स्वरूप है सत्य। जिस दिन आपके जीवन में सत्य घटने लगे आप समझ लीजिए आपकी परमात्मा से निकटता हो गई। सत भगवान का पहला स्वरूप है फिर कहते हैं चित स्वयं के भीतर के प्रकाश को आत्मप्रबोध को प्राप्त करिए। फिर है आनंद। देखिए सत और चित तो सब में होता है पर आपमें जो है उसे प्रकट होना पड़ता है। वैसे तो आनंद हमारा मूल स्वभाव है पर हमको आनंद निकालना पड़ता है मनुष्य का मूल स्वभाव है आनंद फिर भी इसके लिए प्रयास करना पड़ता है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">सत, चित, आनंद के माध्यम से भागवत में प्रवेश करें। यहां भागवत एक और सुंदर बात कहती है भागवत की एक बड़ी प्यारी शर्त है कि मुझे पाने के लिए, मुझ तक पहुंचने के लिए या मुझे अपने जीवन में उतारने के लिए कुछ भी छोडऩा आवश्यक नहीं है। ये भागवत की बड़ी मौलिक घोषणा है। इसीलिए ये ग्रंथ बड़ा महान है। भागवत कहती है मेरे लिए कुछ छोडऩा मत आप। संसार छोडऩे की जरूरत नहीं है। कई लोग घरबार छोड़कर, दुनियादारी छोड़कर पहाड़ पर चले गए, तीर्थ पर चले गए, एकांत में चले गए तो भागवत कहती है उससे कुछ होना नहीं है। मामला प्रवृत्ति का है। प्रवृत्ति अगर भीतर बैठी हुई है तो भीतर रहे या जंगल में रहें बराबर परिणाम मिलना है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><b>सबका उद्धार करती है भागवत</b><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">भागवत कहती है कि योगियों को जो आनंद समाधि में मिलता है, गृहस्थों को वही आनंद घर में बैठकर भागवत से मिल सकता है। ये भागवत की मौलिक घोषणा है।भागवत ने बोला आपसे घर नहीं छूटता तो कोई बड़ा भारी काम करने की आवश्यकता नहीं। घर में रहें, संसार में रहें। घर में रहना कोई बुरा नहीं है। हां हमारे भीतर घर रहने लगे वहां से झंझट चालू होती है। भागवत इस अंतर को बताएगी कि क्या फर्क है संसार में रहने में और संसार अपने भीतर रहने में। इसलिए भागवत ने कहा है कुछ छोडऩे की आवश्यकता नहीं, मेरे साथ रहो। ऐसे कई प्रसंग आएंगे कि भागवत ये साबित कर देगी कि यहीं स्वर्ग है और यहीं नर्क है। ये तो हम ही लोग हैं जो इसको नर्क बनाए जा रहे हैं।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">इस भागवत शास्त्र की रचना कलयुग के जीवों के उद्धार के लिए की गई है। श्रीमद्भागवत में एक नवीन मार्गदर्शन कराया गया है। घर में रहकर भी आप भगवान को प्रसन्न कर सकते हैं, प्राप्त कर सकते हैं परंतु आपका प्रत्येक व्यवहार भक्तिमय हो जाना चाहिए। गोपियों का प्रत्येक व्यवहार भक्तिमय बन गया था। भागवत में कहा है घर में रहो, अपने स्वभाव में रहो और संसार में फिर परमात्मा को प्राप्त कर सकते है। घर में रहें या बाहर अपनों से मिलें या परायों से। लेकिन जरा मुस्कुराइए...</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><b>निष्काम भक्ति सीखाती है भागवत</b><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">आज इस बात की चर्चा की जाए कि भागवत का मूल विषय क्या है? भागवत का मूल है निष्काम भक्ति। भागवत में बार-बार आपको यह शब्द मिलता रहेगा। भागवत ने कहा है मेरा मूल विषय है निष्काम भक्ति। निष्काम भक्ति का अर्थ है आप कर रहे हैं फिर भी आप नहीं कर रहे हैं। जिसको अंग्रेजी में कहते हैं डूइंग है डूअर नहीं है। निष्कामता वहीं घटती है जिसमें आपके कर्म में से मैं चला जाए। आपके काम में से जिस दिन कर्ता बोध का अभाव हो जाए उस दिन निष्कामता घटती है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">बहुत लोगों को समझ में नहीं आता निष्कामता होती क्या है? मैं आपको एक छोटा सा उदाहरण देता हूं। जिन लोगों ने बेटियां पैदा की हैं, बेटियां बड़ी की हैं, पाली हैं और विदा किया है। वो लोग जान सकते हैं निष्कामता क्या होती है। जब कोई अपनी बेटी को पालता है तो बेटे की तरह ही पालता है। लेकिन एक दिन वह बेटी बड़ी होती है और आदमी उसको विदा कर देता है। एक दिन उस बेटी का विवाह हो जाता है। उसका नाम, वंश, कुल, परंपरा सब एक क्षण में बदल जाता है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">ये भारतीय संस्कृति का ऐसा गौरव है कि जब स्त्री का विवाह होता है तो एक क्षण में उसका सबकुछ बदल जाता है। देहरी पार जाकर उसकी पहचान, उसका वंश, उसका कुल, उसके रिश्ते और सोलह श्रृंगार। आदमी जानता है मैं इस बेटी को बड़ा कर रहा हूं। एक दिन मेरा इस पर कोई अधिकार नहीं रहेगा। जिस दिन आपके कर्म में, कर्म के फल के प्रति बेटी के विदा करने जैसा भाव जाग जाए बस वहीं से निष्कामता का जन्म होता है। भागवत का मूल विषय यही है कि निष्काम भक्ति योग।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><b>तीनों दुखों का नाश करते हैं श्रीकृष्ण</b><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">तीन तरह के ताप का विनाश करने वाले है श्रीकृष्ण। भागवत के पहले श्लोक में ये बताया गया है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्त्यादिहेतवे। तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुम:।।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">तापत्रय अर्थात आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक तीन तरह के दु:ख होते हैं इंसान को। भागवत कितना सावधान ग्रंथ है। पापत्रयविनाशाये नहीं लिखा तापत्रयविनाशाय लिखा। पाप आता है चला जाता है। यदि आदमी पश्चाताप कर ले। लेकिन पाप का परिणाम क्या है ताप। पाप अपने पीछे ताप छोड़कर जाता है। आदमी को पता नहीं लगता इसी को संताप कहते हैं। लिखा है आध्यात्मिक आदिदैविक, अदिभौतिक तीनों प्रकार के पापों को नाश करने वाले भगवान श्रीकृष्ण की हम वंदना करते हैं। अनेक लोगों को मन में यह प्रश्न उठता है कि वंदना करने से क्या लाभ है? वंदना करने से पाप जलते हैं। श्रीराधा व कृष्ण की वंदना करेंगे तो हमारे सारे पाप नष्ट होंगे। परंतु वंदना केवल शरीर से नहीं मन से भी करना पड़ेगी। अत: ईश्वर वंदनीय है। वंदना करने का अर्थ है अपनी क्रियाशक्ति को और बुद्धि शक्ति को श्रीभगवान को अर्पित करना।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">वंदन करने से अभिमान का बोझ कम होता है। श्रीभागवत का आरंभ ही वंदना से किया गया है। और वंदना से समाप्ति की गई है। संत महात्मा कहते हैं कि ये जो 'श्रीकृष्ण' शब्द लिखा है इसमें जो ये 'श्री' है यह राधाजी का प्रतीक है। राधाजी को 'श्री' भी कहा गया है। विद्वानों का प्रश्न है और शोध का विषय भी है बड़ी चर्चा होती है इसकी लोग हमसे भी प्रश्न पूछते हैं कि भागवत में राधाजी की चर्चा नहीं आती? पूरे भागवत में राधाजी का नाम ही नहीं है। नायक कृष्ण और राधा का नाम नहीं। लोगों को बड़ा आश्चर्य होता है कि वेदव्यासजी ने क्या सोचकर राधाजी का नाम नहीं लिखा। जबकि राधा के बिना कुछ नहीं हो सकता।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><b>कृष्ण देह तो राधा आत्मा हैं</b><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">विद्वान और पंडित लोग कहते हैं जिस समाधि भाषा में भागवत लिखी गई और जब राधाजी का प्रवेश हुआ तो व्यासजी इतने डूब गए कि राधा चरित लिख ही नहीं सके। सच तो यह है कि ये जो पहले श्लोक में वंदना की गई इसमें श्रीकृष्णाय में श्री का अर्थ है कि राधाजी को नमन किया गया।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">बात ये है कि जब राधाजी से कृष्णजी ने पूछा कि इस साहित्य में तुम्हारी क्या भूमिका होगी। तो राधाजी ने कहा मुझे कोई भूमिका नहीं चाहिए मैं तो आपके पीछे हूं। इसलिए कहा गया कि कृष्ण देह हैं तो राधा आत्मा हैं। कृष्ण शब्द हैं तो राधा अर्थ हैं, कृष्ण गीत हैं तो राधा संगीत हैं, कृष्ण बंशी हैं तो राधा स्वर हैं, कृष्ण समुद्र है तो राधा तरंग हैं और कृष्ण फूल हैं तो राधा उसकी सुगंध हैं।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">इसलिए राधाजी इसमें अदृश्य रही हैं। राधा कहीं दिखती नही है इसलिए राधाजी को इस रूप में नमन किया।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">जब हम दसवें, ग्यारहवें स्कंध में पहुंचेंगे, पांचवें, छठे, सातवें दिन तब हम राधाजी को याद करेंगे। पर एक बार बड़े भाव से स्मरण करें राधे-राधे। ऐसा बार-बार बोलते रहिएगा। राधा-राधा आप बोलें और अगर आप उल्टा भी बोलें तो वह धारा हो जाता है और धारा को अंग्रेजी में बोलते हैं करंट। भागवत का करंट ही राधा है। आपके भीतर संचार भाव जाग जाए वह राधा है। जिस दिन आंख बंद करके आप अपने चित्त को शांत कर लें उस शांत स्थिति का नाम राधा है। यदि आप बहुत अशांत हो अपने जीवन में तो मन में राधे-राधे..... बोलिए मेरा आश्वासन है, मेरा आपसे वादा है और नमन है आप पंद्रह मिनट में शांत हो जाएंगे क्योंकि राधा नाम में वह शक्ति है। भगवान ने अपनी सारी संचारी शक्ति राधा नाम में डाल दी। इसलिए भागवत में राधा शब्द हो या न हो राधाजी अवश्य विराजी हुई हैं।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><b>इसीलिए प्रथम पूज्य हैं श्री गणेश</b><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">आज हम भागवत के महात्म्य में प्रवेश करते हैं। व्यासजी ने भागवत की रचना की। अब व्यासजी के सामने एक समस्या आई कि इतना बड़ा ग्रंथ लिखेगा कौन? तब नारदजी ने सलाह दी कि गणेशजी से लिखवा लो, गणेशजी से अच्छा कोई नहीं लिख सकता। गणेशजी को याद किया, गणेशजी आ गए। गणेशजी से व्यासजी ने कहा मैंने एक साहित्य रचा है। आप इसके लेखक बन जाइए।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">उन्होंने कहा लिख तो दूंगा पर मेरी एक शर्त है जब आप बोलो तो एक पल के लिए भी रूकना मत। तो मैं लिख दूंगा। व्यासजी मान गए। व्यासजी भी व्यासजी थे। वे हर सौ श्लोक के बाद ऐसा कोई गंभीर श्लोक बोल देते थे कि गणेशजी उसका अर्थ सोचने लग जाते क्योंकि व्यासजी ने भी शर्त रखी थी कि मैं तो बिना रूके बोलूंगा पर आप बिना अर्थ समझे एक भी पंक्ति मत लिखना। व्यासजी एक श्लोक ऐसा बोलते कि गणेशजी उसका अर्थ सोचते तब तक व्यासजी अपना सब काम निपटाकर दूसरा श्लोक रच देते।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">18 हजार श्लोक का साहित्य भागवत गणेशजी ने लिख दिया। इसीलिए प्रत्येक कार्य के प्रारंभ में गणपतिजी की पूजा की जाती है। गणपतिजी विघ्नहर्ता हैं। गणपतिजी के पूजन करने का अर्थ है जितेंद्रीय होना। विघ्न न आए इसलिए व्यासजी सर्वप्रथम श्रीगणेशाय नम: कहकर गणपति महाराज की वंदना करते हैं। इसके पश्चात सरस्वतीजी की वंदना करते हैं। सरस्वती की कृपा से मनुष्य में समझ और सोचने की शक्ति आती है। फिर सद्गुरु की वंदना की गई है तथा भागवत के प्रधान देव श्रीकृष्ण की वंदना हुई है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><b>भगवान शिव का रूप हैं शुकदेव</b><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">भागवत लिखने के बाद व्यासजी के सामने एक और समस्या आ गई कि इस ग्रंथ का प्रचार कौन करेगा ? उनको चिंता हो गई अब यह शास्त्र किसको दूं ? श्रीभागवत शास्त्र मैंने मानव समाज के कल्याण के लिए रचा है। अब यह किसको सौंपूं ? जिससे जगत का कल्याण हो ऐसे किसी योग्य पुरूष को यह ज्ञान दिया जाए।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">इस विचार के साथ वृद्धावस्था में भी व्यासजी को पुत्रेष्णा जागी। उन्होंने आह्वान किया। भगवान शंकर वैराग्य के रूप में मेरे यहां पुत्र बनकर आएं। उन्होंने भगवान शिव से प्रार्थना की। शिवजी प्रसन्न हुए। व्यासजी ने मांगा -समाधि में जो आनंद आप पाते हैं वही आनंद जगत को देने के लिए आप मेरे घर में पुत्र के रूप में पधारिए। शुकदेवजी भगवान शिव का ही अवतार हैं। वाल्मीकि रामायण के बाद श्रीरामचरितमानस रचा गया। रामकथा के वक्ता शंकरजी थे। महाभारत के बाद भागवत रची गई। हम भी भागवत को इस स्तंभ में नई शैली में प्रस्तुति कर रहे हैं।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">व्यासजी के पुत्र शुकदेवजी सोलह वर्ष माता के गर्भ में रहे और वहीं उन्होंने परमात्मा का ध्यान किया। व्यासजी ने गर्भ में ही अपने पुत्र से पूछा- तुम बाहर क्यों नहीं आते। शुकदेवजी ने उत्तर दिया- मैं संसार के भय से बाहर नहीं आता हूं। मुझे माया का भय लगता है। इस पर श्रीकृष्ण ने आश्वासन दिया कि मेरी माया तुझे नहीं लग सकेगी। तब शुकदेवजी माता के गर्भ से बाहर आए। जन्म होते ही शुकदेवजी वन की ओर जाने लगे।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">माता ने प्रार्थना की कि मेरा पुत्र निर्विकार ब्रह्म रूप है किंतु यह मेरे पास से दूर न जाए इसे रोंके। व्यासजी अपनी धर्मपत्नी से बोले जो हमें अतिप्रिय लगता हो वही परमात्मा को अर्पण करना चाहिए। वह तो जगत का कल्याण करने जा रहा है। किंतु व्यासजी भी व्यथित हो गए । व्यासजी ज्ञानी थे, फिर भी जाते हुए पुत्र के पीछे दौड़े।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><b>जीव का संबंध तो परमात्मा से है</b><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">व्यासजी अपने पुत्र शुकदेव को बुलाते हैं- पुत्र लौट आओ। तुम्हें विवाह आदि के लिए आग्रह नहीं करेंगे। बस हमें छोड़कर मत जाओ। शुकदेवजी वृक्षों द्वारा उत्तर देते हैं। मुनिराज आपको पुत्र के वियोग से पीड़ा हो रही है परंतु हमको तो जो पत्थर भी मारता है तो हम उसे फल देते हैं। वृक्षों के पुत्र उनके फल हैं। पत्थर मारने वाले को भी फल दे वही सज्जन है। आपका बेटा तो जगत कल्याण करने चला है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">शुकदेवजी ने कहा- पिताजी। मेरे और आपके अनेक जन्म हुए हैं। यह तो अच्छा है पूर्व जन्म याद नहीं रहते। न तो आप मेरे पिता हैं और न ही मैं आपका पुत्र हूं। आपके और मेरे सच्चे पिता तो श्रीनारायण हैं। जीव का सच्चा संबंध तो परमात्मा के साथ ही है। मेरे पीछे न पड़ो श्रीभगवान के पीछे पड़ो। इतना कहकर शुकदेवजी नर्मदा तट पर आ गए। शुकदेवजी ने कहा मैं नर्मदा के इस किनारे पर बैठता हूं और सामने के किनारे पर आप विराजिए। पिताजी, अब मेरा ध्यान न करें। ध्यान तो परमात्मा का ही करें।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">इस प्रकार यह भागवत का वंदना क्रम था। शुकदेवजी को प्रणाम करके इस कथा का आरंभ किया गया है। एक बार नैमिशारण्य में शौनकजी ने सूतजी से कहा कि आज तक कथाएं तो बहुत सुनी हैं। अब कथा का सार तत्व सुनने की इच्छा है। ऐसी कथा सुनाइए की हमारी भगवान श्रीकृष्ण में भक्ति दृढ़ हो। अनेक ऋषि-मुनि वहां गंगा के किनारे बैठे थे। परंतु कथा कहने को तैयार नहीं हुआ।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">तब भगवान ने श्रीशुकदेवजी को प्रेरणा दी कि तुम वहां जाओ। भागवत पांचवा पुरुषार्थ प्रेम का शास्त्र है। पूर्व जन्मों के पुण्य कर्मों का उदय होता है तब इस पवित्र कथा को पढऩे-सुनने का योग बनता है। कलयुग में प्राणियों को काल रूपी सर्प से छुड़ाने के लिए शुकदेवजी ने यह भागवत की कथा कही थी।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><b>निर्भय कर देती है भागवत</b><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">भागवत के महात्म्य में एक और चर्चा है। जब परीक्षित को शुकदेवजी कथा सुना रहे थे। उसी समय भागवत के श्लोक को सुनकर स्वर्ग से देवता नीचे उतर आए। देवता शुकदेवजी से बोले- इतने दिव्य श्लोक और भूलोक में बोले जाएं, ये तो देवताओं की संपत्ति है। यह तो स्वर्ग में जाना चाहिए। आप इसे हमें दे दें। शुकदेवजी बोले- मैं तो वक्ता हूं । यजमान हैं राजा परीक्षित। आप परीक्षित से पूछ लीजिए अगर ये देते हैं तो ले जाइए कथा को।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">देवताओं ने परीक्षित से पूछा और परीक्षित ने उत्तर दिया। आप मुझे क्या देंगे इसके बदले में? देवताओं ने कहा- इस कथा के बदले हम आपको अमृत दे देंगे। सात दिन बाद आपको तक्षक डसने वाला है आपकी मृत्यु होने वाली है। हम आपको स्वर्ग का अमृत देते हैं। आप अमृत ले लो कथा हमको दे दो। परीक्षित ने बड़ा सुंदर उत्तर दिया-आप मुझे अमृत तो दोगे। हो सकता है मैं अमर भी हो जाऊं पर निर्भय नहीं हो पाऊंगा।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">बड़ा फर्क है अमर और निर्भय होने में। देवताओं आप तो रोज डरते हो, जब कोई दैत्य पीछे लग जाए आप भागते फिरते हो, आप अमर हो पर निर्भय नहीं हो। ये भागवत मुझे निर्भय कर देगी मुझे अमर नहीं होना। शुकदेवजी कहते हैं धन्य हैं आप राजा परीक्षित। आपने बहुत अच्छा निर्णय लिया। शुकदेवजी मुस्कुरा दिए। शुकदेवजी मुस्कुरा रहे हैं और शुकदेवजी ने घोषणा कि भागवत को सुनते समय जीवन में भी उतारें । आलस्य की प्रतिनिधि क्रिया नींद है और आनंद की प्रतिनिधि क्रिया है मुस्कान।आप मुस्कुराएंगे तो आपके भीतर आनंद का जन्म होगा। इसीलिए जरा मुस्कुराइए।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><b>भक्ति के पुत्र हैं ज्ञान व वैराग्य</b><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">भागवत कथा का महात्म्य एक बार सनदकुमारों ने नारदजी को सुनाया था। महात्म्य में ऐसा लिखा है कि बड़े-बड़े ऋषि और देवता ब्रह्म लोक छोड़कर विशाला क्षेत्र में इस कथा को सुनने के लिए आए थे। विशालापुरी में जहां सनदकुमार विराजते थे वहां एक दिन नारदजी घूमते हुए आ गए। वहां सनकादि ऋषियों के साथ नारदजी का मिलन हुआ।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">नारदजी का मुख उदास देखकर सनकादि ने उनकी उदासीनता का कारण पूछा कि आप चिंता में क्यों हैं? नारदजी ने कहा-मैंने अनेकों स्थानों का परिभ्रमण किया किंतु मुझे शांति नहीं मिली। कलयुग के दोष देखता हुआ घूमता फिरता मैं वृंदावन आया तो वहां एक विचित्र बात देखी। वहां एक महिला अपने दो सुप्तप्राय: अचेतन से पुत्रों के साथ बैठी विलाप कर रही थी। मैं उसके समीप गया और विलाप का कारण पूछा। उस स्त्री ने बताया कि वह भक्ति है। उसके पास अचेतन से पड़े ये दो प्राणी उसके पुत्र हैं। एक का नाम ज्ञान है और दूसरे का वैराग्य है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">स्त्री का कहना था कि कलयुग ने इन दोनों को मृतक समान बना दिया है। और कहा कि मैं द्रविड़ देश में उत्पन्न हुई कर्नाटक में पली, महाराष्ट में मेरा यौवन निखरा और गुजरात में पहुंचते-पहुंचते ही मैं वृद्धा हो गई। भक्ति ने कहा जबसे मैं वृंदावन आई हूं। तब से मेरा यौवन लौट आया है। किंतु मेरे पुत्रों की दशा दयनीय हो गई है। वे यहां पहुंचते-पहुंचते अचेतन से हो गए हैं।कर्नाटक में आज भी आचार की शुद्धि देखने में आती है। भगवान व्यासजी को कर्नाटक के प्रति कोई पक्षपात नहीं था। जो सच था भक्ति के बारे में उन्होंने व्यक्त किया। भक्ति कहती है गुजरात मे जीर्ण हो गई। देवलोकवासी डोंगरे महाराज कहा करते थे। धन का दास प्रभु का दास नहीं हो सकता। गुजरात कांचन का लोभी हो गया है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><b>धर्म का प्रचार करने पर मिलता है मोक्ष</b><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">नौ अंग होते हैं भक्ति के। इसमें प्रथम है श्रवण। कीर्तन भक्ति दूसरी है। तीसरी है वंदन भक्ति और चौथी है अर्चन भक्ति। विस्तार से हम आगे पढ़ेंगे। भक्ति के दो बालक हैं ज्ञान और वैराग्य। ज्ञान और वैराग्य जब मूर्छित होते हैं तो भक्ति रोती है। कलयुग में ज्ञान और वैराग्य क्षीण होते हैं बढ़ते नहीं। नारदजी ने ज्ञान व वैराग्य को जगाने के अनेक प्रयत्न किए, तो भी उनकी मूर्छा नहीं गई। उपनिषदों के पठन से अपने हृदय में ज्ञान और वैराग्य जागता है परंतु वे फिर से मूर्छित हो जाते हैं। नारदजी चिंता में फंसे हैं कि ज्ञान और वैराग्य की मूर्छा उतरती नहीं है। उसी समय आकाशवाणी हुई कि आपका प्रयास उत्तम है। ज्ञान और वैराग्य के साथ भक्ति का प्रचार करने के लिए आप कुछ सद्कर्म कीजिए। नारदजी कहते हैं मैंने जिस देश में जन्म लिया है उस देश के लिए यदि उपयोगी बन सकूं तो मेरा जीवन धन्य हैं।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">आप बताईए मैं क्या सदकर्म करूं ? नारद ने पूछा। तब सनकादि मुनि ने कहा परदु:ख से यदि आप दु:खी हंै तो आपकी भावना दिव्य है। यही संत का चरित्र है। भक्ति का प्रचार करने की आपकी इच्छा है तो आप भागवत यज्ञ का पारायण कीजिए। आपकी इच्छा पूर्ण होगी। आप भागवत ज्ञान यज्ञ करें और भागवत का प्रचार करें। आप ही ने तो व्यासजी के दु:ख दूर करते हुए भागवत रचने का उपदेश दिया था। अत: आप श्रीमद्भागवत का प्रचार कर अपना कर्तव्य पूरा करें। कलयुग में भक्ति प्रचार का एक तरीका यह भी है प्रभु का स्मरण करते हुए सदैव मुस्कुराइए।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><b>भक्ति से मिलते हैं भगवान</b><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">हरिद्वार के पास श्रीभागवत कथा का अमृतपान करने के लिए सनकादि ऋषि, नारद मुनि आदि सभी ऋषि मुनि आए। जो नहीं आए थे उन सभी के घर भृगु ऋषि जाते हैं। विनती करते हैं उनको कथा में लाते हैं। नारदजी श्रोता बनकर बैठै हैं और सनकादि आसन पर विराजमान हैं। उसी समय भागवत महिमा सुन भक्ति प्रकट हुई, बोली- मैं कहां रहूं ? मेरा स्थान बताएं। सनकादि बोले- आप भक्तों के हृदय में रहें। फिर भगवान भी आ गए। वे निर्मल चित्त वालों में बैठ गए। इसी प्रकार भक्ति और भगवान का स्थान तय हो गया।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">श्रीमद्भागवत के दर्शन से, श्रवण से, पूजन से पापों का नाश होता है। कथा श्रवण का लाभ आत्मदेव ब्राह्मण का चरित्र कहकर बताया गया है। एक आत्मदेव नाम का ब्राह्मण था। उसकी पत्नी का नाम था धुन्धुली, जो कर्कशा व क्रोधी स्वभाव की थी। आत्मदेव की संतान नहीं थी इसलिए वह बड़ा दु:खी था। एक बार जंगल में उसे एक महात्मा मिले। आत्मदेव ने उनसे संतान का वरदान मांगा। महात्मा ने आत्मदेव को एक फल दिया। कहा अपनी पत्नी को खिला देना।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">आत्मदेव ने वह फल अपनी पत्नी को दिया। धुन्धुली उल्टा सीधा बहुत सोचती थी। उसने सोचा यदि ये फल मैंने खाया तो मैं गर्भवती हो जाऊंगी और मेरा पेट बढ़ जाएगा। घर में डाकू आ जाएंगे तो भाग नहीं पाऊंगी और मैं बीमार होने लगूंगी तो घर का काम कौन करेगा। यदि गर्भ टेढ़ा हुआ तो मेरी मृत्यु हो जाएगी। भागवत रिश्तों के ऊपर प्रकाश डालने वाला ग्रंथ है। यहां भागवतकार ने एक श्लोक लिखा है कि धुन्धुली सोच रही है मेरी ननद मेरा सामान ले जाएगी। अब बोलिए ये भी कोई बात हुई। श्लोक लिखा है कि भाभी को चिंता हो रही है कि ननद के कारण झंझट न खड़ी हो जाए। इस तरह एक-एक संबंध पर भागवत प्रकाश डालेगी।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><b>मन की नहीं बुद्धि की बात मानें</b><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">अपनी उल्टी सोच के कारण आत्मदेव की पत्नी धुंधुली फल खाने को लेकर संशय में पड़ गई। धुंधुली की एक बहन थी। उसने वह फल बहन को खाने को दिया। बहन ने कहा मैं तो हूं गर्भवती और किसी को फल खिला देते हैं। मेरा जो बच्चा होगा वो तू रख लेना, पति को झूठ बोल देना। दोनों ने वह फल गाय को खिला दिया। बहन के यहां जो संतान हुई वह उसने धुन्धुली को दे दी।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">जब गाय ने फल खाया तो गाय को एक ऐसे पुत्र का जन्म हुआ जिसके कान गाय की तरह थे। उसका नाम गोकर्ण रखा। जो बहन का बेटा था इसका नाम धुंधुकारी रखा। धुंधुकारी बहुत ही अत्याचारी, अपवित्र आचरण का व्यक्ति था। माता-पिता को मारता, घर की सारी दौलत ठिकाने लगा दी। दु:खी होकर एक दिन पिता तो जंगल में चले गए और मां मर गई। पांच वैश्याओं को अपने घर ले आया। पांच वैश्याओं ने कहा और धन लाओ तो धुंधुकारी ने राजा का धन चुरा लिया। वैश्याओं ने सोचा राजा का मामला है। हम पकड़े जाएंगे तो वैश्याओं ने धुंधुकारी को मार डाला और गाढ़ दिया। वैश्याएं चली गईं। धुंधुकारी प्रेत बन गया ।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">कथा का सार है कि आत्मदेव हम हैं यानि मनुष्य और आत्मदेव की पत्नी का नाम धुन्धुली था जो कि बुद्धि है। उसकी बहन थी मन। मन का कहना बुद्धि ने माना और उल्टा काम हो गया। हमारी बुद्धि जब मन का कहना मानेगी तो जीवन बिगड़ जाएगा। सारा खेल मन का है। जब मन बुद्धि को नियंत्रित करने लगे तो गए काम से। होना ये चाहिए कि बुद्धि से मन नियंत्रित हो। मन तो गलत काम सिखाता ही है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">इस तरह आत्मदेव व धुंधली का सारा जीवन बिखर गया। जबकि गोकर्ण बड़ा संत प्रवृत्ति का व्यक्ति था। अपने भाई को प्रेत बना जब देखा तब उसने अपने भाई को भागवत सुनाई तो धुंधुकारी मुक्त हो गया।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><b>भवसागर से मुक्त करती है भागवत</b><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">ऐसी कथा आती है कि जब गोकर्णजी भागवत सुना रहे थे तो एक बांस के खंभे में धुंधुकारी उतर गया और उसमें सात गठान थी। उस बांस के खंभे में एक-एक दिन कर सात गठान टूटती गई और धुंधुकारी मुक्त हो गया। भागवत सुनने की भावना जो धुंधुकारी के मन में थी वैसी भावना आप भी रखेंगे तो आप भी मुक्त हो जाएंगे। मुक्त होने का मतलब जीवन से मुक्त नहीं होना दुनियादारी से मुक्त होना है। जीवन में सात गठानें होती हैं काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, मत्सर और अविद्या। एक-एक दिन एक-एक टूटती चली जाएंगी।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">इस कथा के आगे एक प्रसंग बहुत सुंदर आ रहा है जैसे ही यह कथा पूरी हुई, सबको बड़ा आनंद हुआ। कथा पूरी होते-होते अचानक शुकदेवजी पधार गए। शुकदेवजी बहुत प्रसन्न हुए। शुकदेवजी को ऊंचे आसन पर बैठाया। जब सारे साधु-संत बैठ गए तो अचानक भगवान प्रकट हुए। भगवान श्रीहरि के साथ अर्जुन प्रकट हुए, प्रहलाद प्रकट हुए और सारे संत प्रकट हो गए। सबने मिलकर भागवत में कीर्तन किया। इसलिए भागवत में कीर्तन का महत्व है। भागवत में महात्म्य समाप्त होने जा रहा है और भागवत के महात्म्य को समाप्त करते-करते ग्रंथकार ने वक्ता और श्रोता के लक्षण बताए हैं। पहला लक्षण है विरक्त भाव। प्रत्येक नर-नारी को भागवत भाव से देखा जाए।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">उपदेशकर्ता ब्राह्मण अर्थात ब्रह्मज्ञ होना चाहिए। वह धीर गंभीर और दृष्टांत कुशल होना चाहिए। वक्ता में धन-कीर्ति का मोह न हो। कथा सुनते समय कथा का ही चिंतन करें चिंताएं त्याग दें। भागवत की कथा का श्रवण जो प्रेम से करता है उसका संबंध भगवान से जुड़ जाता है। आगे सनकादि ने सप्ताह विधि बताई। सूतजी-शौनकजी को बता रहे हैं। नारद ने तब सनकादि का आभार व्यक्त किया। सनकादि ने एक सप्ताह तक कथा कहीं थी। कथा सुन भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, तरूण व स्वस्थ हो गए।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><b>सभी वेदों का सार है भागवत</b><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">ऋग्वेदी शौनक ने पूछा- सूतजी बताएं शुकदेवजी ने परीक्षित को, गोकर्ण ने धुंधकारी को, सनकादि ने नारद को कथा किस-किस समय सुनाई ? समयकाल बताएं।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">सूतजी बोले- भगवान के स्वधामगमन के बाद कलयुग के 30 वर्ष से कुछ अधिक बीतने पर भ्राद्रपद शुक्ल नवमी को शुकदेवजी ने कथा आरंभ की थी, परीक्षित के लिए। राजा परीक्षित के सुनने के बाद कलयुग के 200 वर्ष बीत जाने के बाद आषाढ़ शुक्ला नवमी से गोकर्ण ने धुंधुकारी को भागवत सुनाई थी। फिर कलयुग के 30 वर्ष और बीतने पर कार्तिक शुक्ल नवमी से सनकादि ने कथा आरंभ की थी।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">सूतजी ने जो कथा शौनकादि को सुनाई वह हम सुन रहे हैं व पढ़ रहे हैं। जब शुकदेवजी परीक्षित को सुना रहे थे तब सूतजी वहां बैठे थे तथा कथा सुन रहे थे। भागवत के विषय में प्रसिद्ध है कि यह वेद उपनिषदों के मंथन से निकला सार रूप ऐसा नवनीत है जो कि वेद और उपनिषद से भी अधिक उपयोगी है। यह भक्ति, ज्ञान और वैराग्य का पोषक तत्व है। इसकी कथा से न केवल जीवन का उद्धार होता है अपितु इससे मोक्ष भी प्राप्त होता है। जो कोई भी विधिपूर्वक इस कथा को श्रद्धा से श्रवण करते हैं उन्हें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार फलों की प्राप्ति होती है। कलयुग में तो श्रीमद्भागवत महापुराण का बड़ा महत्व माना गया है। इसी के साथ ग्रंथकार ने भागवत का महात्म्य का समापन किया है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><b>सत्य ही परमात्मा है</b><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">आज से भागवतजी का प्रथम स्कंध आरंभ हो रहा है। इसमें 19 अध्याय हैं। प्रवेश के पूर्व एक बार पिछले दिनों पढ़े गए महात्म्य का संक्षेप में चिंतन कर लें ताकि स्मृति बनी रहे। नैमिशारण्य में शौनकादि ने सूतजी को सम्मान देकर कथा वाचन का आग्रह किया । सूतजी ने सर्वप्रथम शुकदेव, नारदजी, सरस्वती, व्यासजी को प्रणाम किया।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">व्यासजी ने मंगलाचरण से प्रथम स्कंध आरंभ किया है। कथा में बैठने से पहले मंगलाचरण करना चाहिए। वंदन करने से, स्मरण करने से मंगलाचरण होता है। क्रिया में अमंगलता काम के कारण आती है। मनुष्य जब तक सकाम है तब तक उसका मंगल नहीं होता। भागवत में तीन मंगलाचरण हैं। प्रथम स्कंध में व्यासदेवजी का। द्वितीय स्कंध में शुकदेवजी का और समाप्ति पर सूतजी का। प्रभात के समय, मध्यान्ह के समय और रात को सोने से पहले भी मंगलाचरण करना चाहिए चूंकि इन तीनों समय देह को ऊर्जा चाहिए।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">व्यासजी ने ध्यान की चर्चा करते हुए कहा कि एक ही स्वरूप का बार-बार चिंतन करो। मन को प्रभू के स्वरूप में स्थिर किया जाए। एक ही स्वरूप का बार-बार चिंतन करने से मन एकाग्र होता है। ध्यान का एक अर्थ है मानस दर्शन। ध्यान में पहले तो संसार के विषय उभरते हैं। वे मन में न आएं ऐसा करने के लिए ध्यान करते समय परमात्मा के नाम का बारंबार चिंतन करो। जिससे मन स्थिर हो सके इसके लिए सांस पर भी नियंत्रण किया जाए। उच्च स्वर से कीर्तन भी किया जा सकता है। कीर्तन से संसार का विस्मरण होता है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">केवल दान या स्नान से मन शुद्ध नहीं होता। ध्यान की परिपक्व दशा समाधि है। भगवान के प्रति ध्यान नहीं होगा तो संसार का ध्यान होता रहेगा। मंगलाचरण में व्यासजी लिखते हैं -सत्यंपरंधिमहि। अर्थात सत्य स्वरूप परमात्मा का हम ध्यान करते हैं। सत्य ही परमात्मा है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><b>भक्ति से मिलते हैं भगवान</b><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">जिस धर्म में कोई कपट नहीं है ऐसी निष्कपट चर्चा ही भागवत का मुख्य विषय है। भागवत का मुख्य विषय है निष्काम भक्ति। जहां भोगेच्छा है वहां भक्ति नहीं होती। भगवान के लिए भक्ति करें। भक्ति का फल भगवान होना चाहिए, संसार सुख नहीं। मांगने से प्रेम की धारा टूट जाती है। इसीलिए कृष्ण कह गए हैं कि जो आनंद मुझे गोकुल में गोपियों से मिला है वह द्वारका में नहीं मिला क्योंकि गोपियों का प्रेम निष्काम है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">शौनकजी ने पूछा- व्यासजी ने भागवत की रचना क्यों की तथा इसका प्रचार कैसे किया, हमें सुनाएं। सूतजी ने कहा- व्यासजी ने यह कथा शुकदेवजी को सुनाई थी। शुकदेवजी सुपात्र हैं। शुकदेवजी केवल ब्रहमज्ञानी नहीं है, ब्रहमदृष्टि भी रखते हैं।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">एक प्रसंग आता है। जनक राजा के दरबार में एक समय शुकदेवजी और नारदजी पधारे। दोनों महापुरूष हैं मगर दोनों में श्रेष्ठ कौन ? जनक राजा समाधान नहीं कर सके। परीक्षा किए बिना कैसे फैसला हो। तो जनकजी की रानी सुनयना ने निश्चय किया कि मैं इन दोनों की परीक्षा लूंगी। सुनयनाजी ने दोनों को अपने घर बुलाया और एक ही झूले पर बैठा दिया। फिर सुनयनाजी ने श्रृंगार किया, सजधजकर आईं और उन दोनों के मध्य में उस झूले पर बैठ गईं। नारदजी को कुछ संकोच हुआ, मैं बालब्रह्मचारी हूं । स्त्री का स्पर्श हो रहा है मेरे मन में विकार न आ जाए, यह सोचते हुए वे दूर हट गए।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">लेकिन शुकदेवजी जैसे बैठै थे वैसे ही बैठे रहे। उनको भान तक नहीं हुआ कि कोई आकर बैठ गया है। उन्हें स्त्री और पुरूष का भान है ही नहीं। वे दूर भी नहीं हटते । बस सुनयना रानी ने निर्णय दे दिया कि इन दोनों में श्रेष्ठ शुकदेवजी ही हैं।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><b>कलयुग में मुक्ति दिलाती है कृष्ण भक्ति</b><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">शुकदेवजी भिक्षावृत्ति के लिए बाहर निकलते हैं तो भी गो दोहनकाल से अर्थात छ: मिनट से अधिक कहीं नहीं रूकते । फिर भी सात दिन तक बैठकर यह कथा उन्होंने राजा परीक्षित को कैसे सुनाई ? शौनकादि सूतजी से पूछ रहे हैं।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">सूतजी ने कहा- एक समय की बात है कि नैमिशारण्य तीर्थ में 88 हजार ऋषि-मुनि एकत्रित हुए। मुझे भी उस सभा में आमंत्रित किया गया था। उस सभा में विचार हो रहा था कि कलयुग में न केवल मनुष्य की आयु अल्प होगी अपितु वह रोग, शोक आदि व्याधि से ग्रस्त रहने के कारण आलसी और मंदबुद्धि भी हो जाएंगे। उनसे वेदशास्त्रों का अध्ययन और यज्ञ कर्मों की आशा भी नहीं की जा सकती। तो उसका उद्धार कैसे होगा ? सभी का मत था कि कलयुगी जीव के उद्धार के लिए श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान ही एक मात्र उपाय है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">सूतजी महाराज से आग्रह किया गया कि वे भगवान के अवतारों का वर्णन करें। आग्रह को उन्होंने स्वीकार किया और श्रीमद्भागवत पुराण की कथा कहना आरंभ की । ऋषियों ने सूतजी से छ: प्रश्न भी किए। 1- शास्त्रों का तत्व क्या है ? 2- नारायण होकर श्रीकृष्ण देवकी के पुत्र किस प्रकार हैं ? 3- भगवान के क्या-क्या गुण हैं ? 4- भगवान के अवतार और लीलाओं की कथा क्या है? 5- नर रूप धारण कर श्रीकृष्ण और बलराम का चरित्र कैसा था और 6- जब भगवान श्रीकृष्ण स्वर्ग सिधारे तो उस समय धर्म किसकी शरण में था ?</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">सूतजी ऋषियों के प्रश्न सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। उनको शास्त्रों के तत्वों से अवगत कराया। भगवान अपने भक्तों को सुख देने के लिए अनेक लीलाएं भी करते हैं और उनके अवतार में रूप धारण भी करते हैं। कल अवतारों की चर्चा होगी। अवतार जीवन में उतरे इसके पहले जरा मुस्कुराइए....</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><b>धर्म स्थापना के लिए अवतार लेते हैं भगवान</b><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">सूतजी ने भगवान विष्णु के विराट रूप से संसार की सृष्टि तथा उनके चौबीस अवतारों का विस्तृत विवरण किया है। लोक सृष्टि की इच्छा से भगवान विष्णु ने सर्वप्रथम महत् तत्व और अहंकार आदि से उत्पन्न सोलह कलाओं से परिपूर्ण पुरूष में अवतार धारण किया।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">सृष्टि की रचना पर विचार करने के लिए वे क्षीरसागर में जाकर योगनिद्रा में सो गए। तब उनकी नाभि से प्रजापति ब्रह्माजी उत्पन्न हुए और फिर उन्होंने वृहत विश्व की रचना कर डाली। आगे परमात्मा के चौबीस अवतारों की कथा है। धर्म की स्थापना करने और जीव का उद्धार करने हेतु परमात्मा अवतार धारण करते हैं। भागवत में मुख्यत: श्रीकृष्ण कथा करनी है परंतु यह कथा अंत के स्कंधों में आती है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">पहला अवतार सनदकुमारों का है सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार। ये चारों ब्रह्मचर्य का प्रतीक हैं। सब धर्मों में ब्रह्मचर्य पहले आता है। ब्रह्मचर्य से ही मन स्थिर रहेगा। दूसरा अवतार वराह का है। वराह अर्थात श्रेष्ठ दिवस। सत्कर्म में लोभ विघ्न करने आता है। लोभ को संतोष से मारें। वराह का अवतार संतोष का अवतार है। रसातल में गई पृथ्वी को लाने के लिए यह अवतार हुआ था। तीसरा अवतार है नारदजी का। यह भक्ति का अवतार है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">ब्रह्मचर्र्य का पालन करें और प्राप्त स्थिति में संतोष मानें उससे नारद अर्थात भक्ति मिलेगी। चौथा अवतार नर नारायण का है। ऋषि बनकर इस अवतार में तपस्या की। भक्ति मिले तो उसे भगवान का साक्षात्कार होता है। भक्ति द्वारा भगवान मिलते हैं। परंतु भक्ति ज्ञान और वैराग्य बिना न हो। पांचवां अवतार कपिल देव का है। ज्ञान, वैराग्य का अवतार है यह । इन्हें जीवन में उतारो तो ज्ञान और वैराग्य के साथ भक्ति आएगी। छठा अवतार है दत्तात्रेयजी का। ऊपर बताए हुए पांच गुण ब्रह्मचर्य, संतोष, ज्ञान भक्ति और वैराग्य हमारे भीतर आएंगे तो हम गुणातीत होंगे। ऊपर के छ: अवतार ब्राह्मण के लिए हैं।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>धर्माचरण करने से मिलेंगे श्रीकृष्ण</b>सातवां अवतार यज्ञ का है। प्रजापति रूचि तथ आकूति के पुत्र स्वायंभू मनवन्तर की रक्षा की। अमृत लेकर समुद्र से प्रकटे। आठवां अवतार ऋषभदेव का। नवां अवतार है पृथु राजा का। दसवां अवतार है मत्यनारायण का। जब पृथ्वी डूब रही थी, चाक्षुष मनवन्तर में तब पृथ्वी रूपी नौका पर बैठकर अगले मनवन्तर के अधिपती वैवस्त मनु की रक्षा की।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">ये चार अवतार क्षत्रियों के लिए हैं।धर्म का आदर्श बताने के लिए ग्यारहवां अवतार कुर्म का है। बारहवां अवतार धन्वन्तरी का है। तेहरवां अवतार मोहिनी का। इस अवतार में भगवान ने दैत्यों को मोहित कर देवताओं को अमृत पान कराया। यह अवतार वैश्यों के लिए है। चौदहवां अवतार नृसिंह स्वामी का है। नृसिंह अवतार पुष्टि का अवतार है। पंद्रहवां अवतार वामन का है जो पूर्ण निष्काम है। जिसके ऊपर भक्ति का नीति का छत्र है जिसने धर्म का कवच पहना है जिसे भगवान भी नहीं मार सके हैं ऐसे बलि राजा के लिए यह वामन अवतार है । सोलहवां अवतार परशुराम का है। यह अवतार आवेश का अवतार है। इक्कीस बार क्षत्रियों का संहार किया।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">सत्रहवां व्यास नारायण का ज्ञान का अवतार है। अठाहरवां रामजी का अवतार है। यह मर्यादा पुरूषोत्तम का अवतार है। इससे हमारा काम मिटेगा अर्थात हमंे कन्हैया मिलेगा, क्योंकि उन्नीसवां अवतार श्रीकृष्ण का है। रामजी की मर्यादा का पालन करो तो श्रीकृष्ण कृपा करेंगे। ये दोनों साक्षात पूर्ण पुरूषोत्तम के अवतार हैं। बाकि सब अंशावतार हैं। भागवत में कथा तो करनी है कन्हैया की। परंतु क्रम-क्रम से दूसरे अवतारों की कथा भी सुनी जाएगी। बीसवां अवतार बलराम का था।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><b>नारदजी से सीखें प्रसन्न रहना</b><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">भगवान विष्णु का इक्कीसवां अवतार बुद्ध का था। बाईसंवा हरि का अवतार था, जिन्होंने गजेंद्र को गृह से मुक्त कराया था। तेईसवां अवतार हयग्रीव का था। चौबीसवां अवतार कार्तिक अवतार हुआ। इस प्रकार के चौबीस अवतार हैं। अवतारों की संख्या और क्रम में विद्वानों के अपने-अपने मत हैं। अब व्यासजी के दु:खी होने का प्रसंग कथा में आता है जो हम महात्म्य में पढ़ चुके हैं।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">नारदजी ने जब अनुभव किया कि अभी भी व्यासजी के मन में उनकी बात बैठ नहीं पाई है तो भक्ति महिमा और उपयोगिता के प्रमाण स्वरूप उन्होंने अपने पूर्व जन्म का वृतांत व्यासजी को सुनाया। नारदजी पूर्व जन्म में एक दासी के पुत्र थे। ऋषि-मुनियों से भगवान के चरित्र को सुनकर उनके मन में इतना अनुराग उत्पन्न हुआ कि उनको किसी प्रकार का देह बोध ही नहीं रहा। वे भक्त थे किंतु माता के प्रति मोह को वे त्याग नहीं पाए थे।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">नारदजी बताते हैं कि भगवान की कुछ ऐसी कृपा हुई, क्योंकि माता को एक रात सर्प ने दंश मारा और वे चल बसीं। इस प्रकार वे सहज ही बंधन मुक्त हो गए। नारदजी घर से निकलकर गहन वन में समाधि में लीन हो गए। उसी अवस्था में भगवान विष्णु के उन्हें दर्शन हुए। आंख से आंसू बहने लगे। भगवान जब अन्तध्र्यान हुए तो नारदजी विचलित हो उठे।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">तब भगवान ने उन्हें निरंतर साधु सेवा करने का उपदेश दिया और आशा दिलाई कि अगले जन्म में वे सिद्ध योगी होंगे। सहसा एक दिन बिजली गिरी और भौतिक शरीर नष्ट हो गया। अंतिम सांस के साथ ही नारदजी की आत्मा भगवान में प्रविष्ट हो गई। सहस्त्रों युगों के बाद वे मरीची आदि ऋषियों के साथ उत्पन्न हुए । भगवान विष्णु की कृपा से नारदजी अखंड ब्रह्मचर्य धारण करने वाले और तीनों लोक में स्वच्छंद विचरण करने के अधिकारी बन गए। निरंतन वीणा लेकर हरि गुणगान करते हैं नारदजी। वे सदैव प्रसन्न रहते हैं। उनके चरित्र से सीखा जाए-जरा मुस्कुराइए...</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><b>सत्संग का महत्व बताती है भागवत</b><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">भागवत में संत की महिमा का गुणगान किया गया है। पारसमणि लोहे को सोना बनाती है और किन्तु लोहे को अपने जैसा नहीं बनाती। परंतु संत अपने संसर्ग में आए हुए को अपने जैसा बना देते हैं। संत करे आपु समाना। मनुष्य देव होने के लिए बनाया गया है। मनुष्य को देव होने के लिए चार गुणों की आवश्यकता है- संयम, सदाचार, स्नेह, और सेवा । ये चार गुण सत्संग बिना नहीं आते। प्रथम स्कंध अधिकार लीला का है। श्रीमद्भागवत का ज्ञान देने का अधिकारी कौन है यह प्रथम स्कंध में बताया गया है। पहले स्कंध में तीन प्रकरण हैं- उत्तमाधिकारी, मध्याधिकारी व कनिष्ठाधिकारी। शुकदेव और परीक्षितजी उत्तम वक्ता व श्रोता हैं। नारदजी और व्यासजी मध्यम श्रोता व वक्ता हैं और सूतजी, शौनकजी कनिष्ठ वक्ता तथा श्रोता हैं।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">शुकदेवजी जन्म से ही निर्विकारी हैं। वे घर छोड़कर वन चले गए । तब व्यासजी ने विचार किया कि इन्हें भागवत कथा कैसे सुनाई जाए। जब इन्हें कथा सुनाऊंगा तभी तो ये प्रचार करेंगे। तब व्यासजी ने अपने शिष्यों से कहा कि शुकदेवजी जिस वन में समाधि में बैठे हों आप वहां जाइए। वे सुनें, इस प्रकार इन दो श्लोक का उच्चारण कीजिए। शिष्य वन में पहुंचे शुकदेवजी को वे दो श्लोक सुनाए। श्लोक सुन शुकदेवजी ने पूछा कि ये श्लोक कौन बोल रहा है ? व्यासजी के शिष्यों का दर्शन हुआ। शुकदेवजी ने पूछा आप कौन हैं? ये श्लोक कहां से आए ?</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">शिष्यों ने बताया ऐसे तो बहुत सारे श्लोक भागवत पुराण में हैं जो आपके पिताजी ने रची है। अठारह हजार श्लोक हैं। शुकदेवजी सोचने लगे व्यासजी मेरे पिता हैं । मैं उनका उत्तराधिकारी हूं। मैं पिता के पास जाकर यह पुराण सुनूंगा। अब शुकदेवजी को भागवत शास्त्र पढऩे की इच्छा हुई । सूतजी वर्णन करते हैं इसके बाद यह कथा शुकदेवजी ने राजा परीक्षित को सुनाई। अब मैं आपको सुना रहा हूं। व्यासजी ने शुकदेवजी को सुनाई। शुकदेवजी ने राजा परीक्षितजी को सुनाई, और सूतजी ये कथा शौनकादि ऋषि को सुना रहे हैं।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><b>महाभारत सीखाती है, रहना कैसे है</b><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">अब मैं आप लोगों को राजा परीक्षित के जन्म कर्म और मोक्ष की कथा तथा पाण्डवों के स्वर्गारोहण की कथा सुनाता हूं। पांच प्रकार की शुद्धि बताने के लिए पंचाध्यायी कथा शुरू करता हूं। पितृशुद्धि, मातृशुद्धि, वंशशुद्धि, अन्नशुद्धि, और आत्मशुद्धि । जिनके ये पांच शुद्ध होते हैं उन्हीं में प्रभु दर्शन की आतुरता जागती है। राजा परीक्षित में ये पांच शुद्धियां मौजूद थीं। और यही बात दिखाने के लिए आगे की कथा कही जा रही है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">अब भागवत के प्रथम स्कंध में महाभारत आरंभ हो रही है। महाभारत हमको बताएगी रहना कैसे है। महाभारत भागवत में प्रवेश कर रही है। अद्भुत ग्रंथ है महाभारत। महाभारत से शुरू होगी और कृष्ण के स्वधाम गमन पर भागवत समाप्त होगी। बहुत सावधानी से भागवत के आरंभ में महाभारत सुनाई गई। इसलिए सुनाई गई कि हम जान लें महाभारत से, कि जीवन में क्या भूल होने पर क्या परिणाम मिलते हैं। अश्वत्थामा का प्रसंग सुनें सबसे पहले। महाभारत समाप्त हो चुकी है। कौरव पराजित हो गए पांडव जीत गए।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">महाभारत समाप्त हुई तो आठ लोग बचे थे पांच पांडव और तीन कौरव पक्ष के, कृतवर्मा, कृपाचार्य और अश्वत्थामा। दुर्योधन युद्ध छोड़कर एक सरोवर में छिप गया। पांडव उसे मारने के लिए ढूंढ़ रहे थे। भीम ने प्रतिज्ञा ली थी कि मैं इसकी जंघाएं तोड़ दूंगा। दुर्योधन की जंघाएं तोड़ दीं, दुर्योधन मरने जैसा हो गया। जो दुर्योधन कभी हस्तिनापुर का राजा था। वह दुर्योधन अपने अंतिम समय में कीचड़ से भरे एक सरोवर में पड़ा हुआ था। गिद्ध और श्वान उसकी मज्जा को नोंच रहे थे। ये जीवन का अंत है। महाभारत कहती है याद रखिए ये इंद्रियां जब समाप्त होंगी तो ये शरीर कुरूक्षेत्र की तरह समाप्त हो जाएगा।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><b>अश्वत्थामा की मणि निकाली श्रीकृष्ण ने</b><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">अश्वत्थामा गुरु द्रोणाचार्य का पुत्र था। दुर्योधन का परम मित्र था। दुर्योधन के अंत समय में उसने दुर्योधन से पूछा- मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूं, मित्र। तो दुर्योधन ने कहा -मैं तुम्हें आज अंतिम दिन का सेनापति बनाता हूं। पांडवों को मार डालो। ऐसा कहकर दुर्योधन ने प्राण त्याग दिए। अश्वत्थामा ने पांडवों के सर्वनाश की शपथ ली और रात के अंधेरे में वह पांडवों के शिविर में गया। शिविर में पांडवों के द्रोपदी से उत्पन्न पांचों पुत्र सो रहे थे। अश्वत्थामा ने पांडव समझकर द्रोपदी के पांचों पुत्रों को छल से मार दिया।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">सुबह जब सबको यह ज्ञात हुआ तो हाहाकार मच गया, पांडव रोने लगे। हमारे पुत्र मारे गए। द्रौपदी बहुत दु:खी हुई। पांडव अश्वत्थामा को पकडऩे के लिए दौड़े। श्रीकृष्ण की कृपा से उन्होंने अश्वत्थामा को बंदी बना लिया तथा द्रोपदी के सामने लेकर आए। अर्जुन और भीम ने कहा द्रौपदी आज्ञा दो इसका क्या करें। अभी तुम्हारे सामने इस पापी का हम वध करते हैं। इसने हमारे पांच पुत्र मार डाले छल से। तब द्रौपदी ने कहा-ये मेरी गुरु माता का बेटा है। मैं जानती हूं जिसका बेटा चला जाए, उसकी मां को कितना दर्द होता है। इसको मार डालेंगे तो जो दु:ख मुझे हो रहा है वही दु:ख मेरी गुरु माता को होगा। इसलिए इसको छोड़ दो। द्रोपदी की यह बात सुनकर सभी सोच में पड़ गए।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">श्रीकृष्ण द्रौपदी को बहुत अच्छे से जानते थे, उनकी सखा थी, बहिन थी। श्रीकृष्ण ने कहा यह स्त्री बहुत महान है। ये आज में नहीं देखती ये कल में देखती है। पर अश्वत्थामा को दंड तो दिया जाएगा। उसकी मणि निकाल ली। किंतु जाते-जाते अश्वत्थामा ब्रह्मास्त्र छोड़ गया और ब्रह्मास्त्र उसने उत्तरा के गर्भ पर छोड़ा।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><b>परीक्षित की रक्षा की श्रीकृष्ण ने</b><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">अब हम भागवत में महाभारत के प्रसंगों की चर्चा कर रहे हैं। उत्तरा अभिमन्यु की पत्नी थी। श्रीकृष्ण उत्तरा के मामा ससुर थे। उत्तरा गर्भवती थी और उसके गर्भ पर अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र छोड़ा। इधर श्रीकृष्ण द्वारका जा रहे थे। श्रीकृष्ण जैसे ही जाने लगे, उन्होंने देखा उत्तरा दौड़ती हुई आई, उसने कहा-आप कहां जा रहे हैं? अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया है मेरे गर्भ पर। मेरी संतान समाप्त हो जाएगी, मेरी रक्षा करिए।महाभारत में प्रसंग आता है कि उत्तरा को मृत पुत्र हुआ था तो श्रीकृष्ण को बुलाया गया और श्रीकृष्ण ने कहा कि यदि जीवन में मैंने कोई शुभ कार्य किए हों, कोई पुण्य किए हों तो यह संतान जीवित हो जाए और वह बच्चा जीवित हो गया।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">लेकिन भागवत थोड़ा हटकर बात करती है। भागवत कहती है श्रीकृष्ण ने उत्तरा से कहा- तू चिंता मत कर और श्रीकृष्ण उत्तरा के गर्भ में प्रवेश कर गए। वहां जाकर ब्रह्मास्त्र को शांत किया तथा बच्चे की रक्षा की। इसलिए जब ये बच्चा पैदा हुआ तो इस बच्चे ने कहा गर्भ में मैंने किसी चतुर्भुज रूप को देखा था। वह प्रत्येक व्यक्ति का परीक्षण करने लगा इसलिए उसका नाम परीक्षित पड़ा। भगवान उर में यानी हृदय में भी आते हैं और भगवान भक्त की रक्षा के लिए उदर में भी आते हैं। देवकी के पेट में प्रभु नहीं थे। देवकी को भ्रांति कराई थी कि पेट में आ गए हैं। किंतु जब भक्त पर संकट आया तो परमात्मा उत्तरा के गर्भ में चले गए।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">इसके बाद जब भगवान द्वारका जा रहे थे। तब उनकी बुआ कुंती ने उनका रथ पकड़ लिया। श्रीकृष्ण उतरे, नियम था रोज वे कुंती बुआ को प्रणाम करते थे। लेकिन जैसे ही आज श्रीकृष्ण उतरे, कुंती ने उन्हें प्रणाम किया। कृष्ण बोले- बुआ, ये आप क्या कर रही हैं। मैं आपका भतीजा हूं। कुंती ने कहा- मैं तो तुझे तब से जानती हूं जब तू माखन चुराया करता था, बंसी बजाया करता था, गाय चराता था। फिर तुने कंस को मारा। अब सुन, बहुत हो गया ये रिश्ता। तू भगवान है और हम भक्त।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><b>रिश्तों का महत्व बताती है भागवत</b><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">कुंती ने श्रीकृष्ण से जो बातचीत की बड़ी प्यारी बातचीत है। बुआ और भतीजे का रिश्ता बड़ा अद्भुत बताया है भागवत में। भागवत परिवार का ग्रंथ है एक-एक रिश्ते पर भागवत प्रकाश डालता चलता है। बुआ को जब भतीजा या भतीजी देखते हैं तो बुआ में पिताजी का आधा रूप दिखता है। बुआ लाड़ भी है और वात्सल्य भी है, ममता भी और पिता का भय भी है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">कुंती श्रीकृष्ण से बोलती हैं- तू आज भगवान है, तू आज मुझे वरदान देकर जा। कुंती ने श्रीकृष्ण से जो वरदान मांगा दुनिया में कभी किसी ने ऐसा वरदान नहीं मांगा। कुंती कहती है-मैंने सुना है आदमी सुख में भगवान को भूल जाता है तो कृष्ण, एक काम कर जीवनभर के लिए दु:ख दे जा। दु:ख में तू बहुत याद आता है। जब हम बहुत सुखी रहेंगे, हमको सबकुछ मिलता रहेगा तो हम तुझे भूल जाएंगे। तो तू ऐसा कर कि जीवन में ऐसा लगे कुछ काम अनुकूल नहीं है यदि अनुकूल हो जाए तो आलस्य आ जाएगा। थोड़ा दु:ख देकर जा मुझको। श्रीकृष्ण ने कहा क्या बात करती हैं बुआ। कुंती बोली हां मुझे दु:ख देकर जा। इतना दु:ख देना कि हमेशा तेरी याद आती रहे। महत्वपूर्ण तू याद आना है बाकी सुख दु:ख तो भूल जाएंगे। पर तुझे याद करते रहेंगे। ऐसे सुख पर सिला पड़े, जो हरि नाम भूलाए। बलिहारी रहूं दु:ख की जो हरि का नाम रटाए।कुंती बार-बार श्रीकृष्ण से दु:ख मांग रही हैं।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">श्रीकृष्ण को आश्चर्य हुआ और उन्होंने कहा -आज आपकी ईच्छा पूरी करता हूं। कुंती बोली एक दिन और रूक जा। कृष्ण ने सोचा चलो रूक जाते हैं एक दिन और। जैसे ही श्रीकृष्ण हस्तिनापुर के राजभवन में लौटे सबको लगा हमारे कारण रूके हैं। उत्तरा कह रही है मेरे कारण रूके, अर्जुन कह रहा है मेरी वजह से रूके हुए हैं, कुंती कह रही है मैंने रोक लिया।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><b>भगवान भी रखते हैं भक्तों का ध्यान</b><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">कुंती बुआ के कहने पर श्रीकृष्ण हस्तिनापुर रुक गए। सबको लग रहा था हमने रोक लिया श्रीकृष्ण को पर भगवान सोच रहे हैं मैं जिसकी वजह से रूका हूं ये कोई नहीं जानता। भगवान आंख बंद करके अपने कक्ष में बैठे हैं। उसी समय युधिष्ठिर आए। युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण को प्रणाम किया। पूछा-भगवान सारी दुनिया आपका ध्यान करती है। आप किसका ध्यान कर रहे हैं?</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">भगवान ने कहा- सारी दुनिया मेरा ध्यान करती है परन्तु मैं हमेशा भक्त का ध्यान करता हूं। मुझे भीष्म याद आ रहे हैं। तुम राजगादी पर बैठने वाले हो युधिष्ठिर, तो आओ चलो भीष्म के पास चलते हैं, भीष्म देह त्यागने वाले हैं। शरशैया पर पड़े हुए हैं। भीष्म को इच्छा मृत्यु का वरदान था इसलिए महाभारत के समाप्त होने पर भीष्म ने निर्णय लिया कि मैं देह बाद में त्यागूंगा। श्रीकृष्ण बोले- चलो उनके पास चलते हैं। मुझे वहां जाना है तुम भी साथ चलो। उनसे राजधर्म की शिक्षा ग्रहण करो। भीष्म के पास उनको लेकर आए हैं।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">भीष्म शरशैया पर पड़े हुए हैं। जो कभी हस्तिनापुर का रक्षक था, परम ब्रह्मचारी, ब्रह्मांड कांपता था जिससे, एक-एक राजा जिनके इशारे पर चलता था वो महान पराक्रमी शरशैया पर पड़ा हुआ है। भगवान को देख भीष्म हाथ भी नहीं उठा सके क्योंकि हाथों में भी तीर लगे हुए थे। गर्दन भी नहीं झुका सके। भीष्म बोले -वासुदेव आप आ गए मैं आपकी ही प्रतीक्षा कर रहा था। उन्होंने कहा-वासुदेव, मैं आज आपको नमन भी नहीं कर सकता। कितना लाचार हो जाता है व्यक्ति अपने अंतिम समय में। जो कभी बड़े-बड़े शस्त्र उठाता था वो हाथ भी हिला नहीं सकता। यह बूढ़ापा है, यह जीवन का अंतिम काल है, सभी को इससे गुजरना है एक दिन।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">क्रमश:..</span><br /><br /><b>जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,<br />और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....मनीष</b>Jai Guru Geeta Gopalhttp://www.blogger.com/profile/01621836960274288942noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6101091264294453966.post-40968629734452478842021-04-09T00:28:00.003-07:002021-04-09T00:28:56.935-07:00श्रीमद् भागवत Srimdbhagwat Part (1)<p> <b>सृष्टि के आरंभ से कलियुग तक की कथा है भागवत</b></p><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">श्रीमद् भागवत पुराण वैष्णव संप्रदाय सहित अन्य संप्रदायों के लिए सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है। इसमें भगवान विष्णु के विभिन्न प्रमुख 24 अवतारों का वर्णन है, किंतु श्री कृष्ण चरित्र इसमें प्रधान माना जाता है।श्रीमद्भागवत की रचना महर्षि कृष्णद्वैपायन व्यास (वेद व्यास) ने ब्रह्मर्षि नारद की प्रेरणा से की।क्यों लिखी - कथा प्रचलित है कि महाभारत जैसे महाग्रंथ की रचना के बाद भी वेद व्यास संतुष्ट और प्रसन्न नहीं थे, उनके मन में एक खिन्नता का भाव था। तब श्री नारद ने वेद व्यास को प्रेरणा दी कि वे एक ऐसे ग्रंथ ही रचना करें जिसके केंद्र में भगवान विष्णु हों। इसके बाद वेद व्यास ने इस ग्रंथ की रचना की। श्रीमद् भागवत के 12 स्कंध हैं तथा 18 हजार श्लोक हैं। भारतीय पुराण साहित्य में श्रीमद् भागवत को समस्त श्रुतियों का सार, महाभारत का तात्पर्य निर्णायक तथा ब्रह्म सूत्रों का भाष्य कहा जाता है।इसमें सृष्टि की रचना से लेकर कलियुग यानी सृष्टि के विनाश तक की कहानी है। इसमें भगवान के अवतारों की कथाओं के जरिए जीवन में कर्म और अन्य शिक्षाओं को पिरोया गया है। भागवत व्यवहारिक और गृहस्थ्य जीवन का ग्रंथ है। इसमें आम जीवन में उपयोगी कई बातों को गूढ़ कथाओं में समझाया गया है। श्री वेद व्यास के पुत्र शुकदेव को इस कथा श्रेष्ठ कथाकार माना गया है। वे इस कथा का संपूर्ण मर्म जानते थे। उन्होंने ही इसे आमजनों में प्रचारित किया।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /><b>क्या है भागवत के 12 स्कंधों में</b></span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">भागवत 12 स्कंधों में बंटी है, इन स्कंधों में कई अध्याय है। ग्रंथ का प्रारंभ भागवत माहात्म से होता है। जिसमें देवर्षि नारद की भक्ति से भेंट होती है, भक्ति के दोनों पुत्र ज्ञान और वैराग्य वृद्धावस्था और कमजोरी की हालत में होते हैं। नारद उन्हें इसका उपचार बताते हैं। इसके बाद गोकर्ण और धुंधुकारी की कथा है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /><b>प्रथम स्कंध कथा</b></span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">इसमें अवतार वर्णन, महाभारत युद्ध के पश्चात की कथा, परीक्षित श्राप व शुकदेव आगमन है। भगवान की सभी लीलाओं का संक्षिप्त वर्णन, अश्वत्थामा द्वारा द्रोपदी के पांच पुत्रों को मारना, अर्जुन और अश्वत्थामा का युद्ध, उत्तरा के गर्भ की रक्षा, भीष्म का प्राण त्याग, कृष्ण के महाप्रयाण के बाद अर्जुन का लौटना और पांडवों का स्वर्गारोहण। पात्र : श्रीकृष्ण, सूतजी, शौनकादि ऋषि, अश्वत्थामा, पांडव, द्रोपदी, विदूर आदि।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /><b>द्वितीय स्कंध कथा</b> </span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">इसमें शुकदेव द्वारा कथारंभ है, जिसमें सृष्टि आरंभ का वर्णन है। भगवान के स्थूल और सूक्ष्म रूपों का वर्णन, भगवान के विराट स्वरूप की कथा, भागवत के दस लक्षण। पात्र : शुकदेव, विदूर, मैत्रेयी, परीक्षित आदि।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /><b>तृतीय स्कंध कथा</b></span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">सृष्टि विस्तार, सांख्य तत्व उत्पत्ति, योग विषयक, उद्धव और विदूर की वार्ता, विराट शरीर की उत्पत्ति, ब्रह्माजी की उत्पत्ति, वाराह अवतार कथा, दिति का गर्भधारण, जय-विजय को सनकादिक ऋषि का शाप, हिरण्यकक्षिपु और हिरण्याक्ष का जन्म, दिग्विजय, वध, देवहुति और कर्दम ऋषि का विवाह आदि प्रसंग। पात्र - विदूर, उद्धव, मैत्रेयी, जय-विजय, भगवान विष्णु, ब्रह्मा, हिरयणकक्षिपु, हिरण्याक्ष आदि।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /><b>चतुर्थ स्कंध कथा</b></span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">शिव कथा, स्वायम्भुव मनु की पुत्रियों का वंश वर्णन, ध्रुव की कथा, राजा वेन और पृथु की कथा, पृथ्वी का दोहन, राजा पुरंजय की कथा, प्रचेता कथा। पात्र : भगवान शिव, सति, प्रजापति दक्ष, धु्रव, राजा वेन, पृथु, पृथ्वी, पुरंजय, प्रचेता आदि।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /><b>पंचम स्कंधकथा</b> </span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">ऋषभदेव चरित्र, भरत चरित्र, भुवनकोश का वर्णन, गंगा का वर्णन, शिशुमारचक्र का वर्ण, राहु आदि का वर्णन, अन्यान्य लोको का वर्णन। पात्र : राजा प्रियव्रत, आग्रिध, नाभि, ऋषभदेव, भरत, जड़भरत, रहूगण, शिव, संकर्षण और राहु।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /><b>षष्ठ स्कंधकथा</b></span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">प्रजापति वंश वर्णन, इंद्र ब्रह्म हत्या, अजामिल की कथा, दक्षपुत्रों की कथा, विश्वरूप का वर्णन, वृत्रासुर का वध, चित्रकेतु का वैराग्य, अदिति और दिति की संतानों का वर्णन। पात्र : दक्ष, नारद, विष्णु, चित्रकेतु, अजामिल, वृत्रासुर, कश्यप, अदिति-दिति आदि।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /><b>सप्तम स्कंधकथा</b></span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">प्रह्लाद चरित्र, नरसिंह अवतार, हिरण्यकशिपु का वध, मानव, राजधम और स्त्रीधर्म का निरुपण, गृहस्थों के लिए मोक्षधर्म का वर्णन। पात्र - नारद, युधिष्ठिर, जय-विजय, हिरण्यकशिपु, नरसिंह, आदि।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /><b>अष्टम स्कंध कथा</b></span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">प्रमुख रूप से देवासुर संग्राम कथा, मनवंतरों का वर्णन, समुद्रमंथन, मोहिनी अवतार की कथा, राजा बलि की स्वर्ग पर विजय, वामन अवतार की कथा। पात्र : ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इंद्र, बलि, बृहस्पति, मनु, कश्यप, अदिति आदि।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /><b>नवम् स्कंध कथा</b></span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">मनुवंश की कथा, सूर्यवंश, श्रीराम लीला, भगीरथ का तप से गंगा को पृथ्वी पर लाना, परशुराम द्वारा क्षत्रियों का संहार, ययाति चरित्र आदि। पात्र : वैवस्तव मनु, नाभाग, अंबरीष, भगीरथ, सगर, निमि, ऋचिक, जमदग्रि, परशुराम, दशरथ, श्रीराम आदि।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /><b>दशम स्कंध कथा</b></span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">वसुदेव देवकी का विवाह, कंस द्वारा बंदी बनाया जाना, श्रीकृष्ण जन्म, ब्रज में श्रीकृष्ण की बाललीलाएं, असुरों का वध, कंस वध, श्रीकृष्ण की शिक्षा, विवाह, पांडवों की कथा, पांडवों को वनवास, कौरवों की हठ, महाभारत युद्ध, गीता उपदेश। पात्र : श्रीकृष्ण, वसुदेव, देवकी, बलराम, नंद, यशोदा, कंस, अक्रूर, उद्धव, गोप-गोपियां, पांडव, कौरव आदि।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /><b>एकादश स्कंधकथा</b></span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">अवधूत उपाख्यान, सांख्य क्रिया योग, विभिन्न आश्रमों पर उपदेश हैं।पात्र : राजा जनक, नारद, वसुदेव, श्रीकृष्ण आदि।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /><b>द्वादश स्कंधकथा</b></span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">कलियुग धर्म, वंशावली व भागवत माहात्म का वर्णन है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /><b>यह सीखें भागवत से</b></span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">श्रीमद् भागवत से प्राप्त भक्ति, ज्ञान और वैराग्य जीवन में बदलाव लाते हैं। मनुष्य अधर्म अर्थात गलत कार्यों को छोड़कर धर्म के अर्थात अच्छाई के मार्ग पर चलता है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br />- जब मनुष्य प्रत्येक वस्तु या प्राणी में ईश्वर को देखता है तो अन्याय, अनीति, अत्याचार और अपमान करने से बचता है। उसमें दया और सद्भाव के गुण आते हैं।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br />- माया-मोह, लोभ, मद और वासना जैसी बुराइयों से मुक्त हो जाता है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br />- आज जब सारे संसार में आपसी द्वेष और स्वार्थ का युद्ध छिड़ा हुआ है, ऐसे में श्रीमद् भागवत ही संपूर्ण विश्व को मानवता, सद्भाव और संवेदनशीलता का संदेश दे सकती है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br />- श्रीमद् भागवत केवल मानव-मानव के बीच ही नहीं प्राणीमात्र के प्रति हमें सहिष्णु बनाती है, वहीं प्रकृति और मनुष्य के बीच भी समन्वय स्थापित करती है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br />- आवश्यकता इस बात की है कि हम श्रीमद् भागवत को आज के संदर्भ में समझें और जन-जन को इसके संदेश से परिचित कराएं।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /><b>युवाओं का ग्रंथ है श्रीमद्भागवत..!</b></span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">युवाओं की यह सोच है कि धर्म ग्रंथ बुढ़ापे में पढ़ने के लिए होते हैं। श्रीमद्भागवत जैसे ग्रंथ को भी युवा नहीं पढ़ते हैं, इसे भी वृद्धावस्था में समय काटने का साधन मानते हैं लेकिन सच यह है कि यह ग्रंथ केवल युवाओं के लिए है। यह युवा अवस्था की ही कहानी है और इसमें जीवन प्रबंधन के जो फंडे हैं वे भी युवाओं के लिए हैं, जीवन के उपयोगी सूत्र हैं। आप जानते हैं महात्मा गांधी ने अपनी युवा अवस्था में इस ग्रंथ को पढ़ा था और उसके बाद ही उनके जीवन में वह बदलाव आया, जिसने उन्हें बेरिस्टर मोहनदास गांधी से महात्मा गांधी बना दिया। इसमें जीवन प्रबंधन के गूढ़ रहस्य हैं, जिन्हें कई लेखक प्रेरित होकर जीवन प्रबंधन की अपनी किताबों में शामिल कर रहे हैं। आइए जानते हैं ऐसा क्या है श्रीमद्भागवत में..।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br />वास्तव में भागवत पुराण भगवान विष्णु के अवतारों की कहानी है। भगवान के चौबीस अवतारों का वर्णन है, जिसमें भगवान ने जीवन में सफलता के सूत्र स्थापित किए हैं। महर्षि वेद व्यास ने इसकी रचना करते समय युवाओं को ही ध्यान में रखा, इसलिए इस पूरे ग्रंथ के सूत्रधार दो युवा ही हैं। पहले हैं राजा परीक्षित जिन्होंने यह कथा सुनी और दूसरे हैं वेद व्यास के 16 वर्षीय पुत्र शुकदेव जिन्होंने राजा परीक्षित को यह कथा सुनाई। इस ग्रंथ की विशेषता यह है कि इसमें जितनी भी कहानियां हैं, अधिकांश युवाओं की है जिन्होंने अपने युवा जीवन में अद्भुत कर्म किए। इसमें वृद्धावस्था का वर्णन बहुत थोड़ा है, सारे युवा राजाओं, भगवान के अवतारों की ही कथा है। जिनके जरिए यह संदेश दिया गया है कि अगर मनुष्य अपने लक्ष्य को जल्द ही पहचान ले तो वह बहुत कम समय में कैसे अधिक सफलता हासिल कर सकता है और जीवन के सारे सुख भोग सकता है। यह ग्रंथ युवा अवस्था के ऐसे डर को दूर करता है जो अमूमन हर व्यक्ति के जीवन में होते हैं। अगर आपके जीवन में भी ऐसे कोई डर हों, सही रास्ता नहीं सूझता हो, मन में अशांति रहती हो तो श्रीमद्भागवत का पाठ करें और इसमें छिपे सफलता के सूत्रों को समझने का प्रयास करें, आपको खुद के भीतर ही परिवर्तन महसूस होने लगेगा</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /><b>यहां से शुरू होती है भागवत</b></span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">श्रीमद्भागवत महापुराण की शुरुआत महात्म्य से होती है। ऐसी मान्यता है कि हर ग्रंथ के पाठ से पहले उसके महात्म्य की बात की जाती है। महात्म्य का अर्थ होता है महत्व, कुछ विद्वान इसका अर्थ महानता से भी लेते हैं। श्रीमद् भागवत में महात्म्य के छह अध्यान हैं। इसमें मुख्य पात्र सूतजी, शौनक आदि ऋषि, व्यास, नारद, शुकदेव, धुंधकारी व गोकर्ण है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br />भागवत में कुल 12 स्कंध हैं। माहात्म्य इनके अतिरिक्त है। माहात्म्य सबसे पहले बताया गया है। छह छोटे अध्यायों में बंटे माहात्म्य की कथा नारद की भक्ति से भेंट के साथ शुरू होती है। नारद पृथ्वी पर आते हैं और कलियुग में पृथ्वी की दुर्दशा देखकर दु:खी होते हैं। तब यमुना के तट पर उन्हें एक स्त्री दिखाई देती है। पूछने पर पता चलता है वह भक्ति है। उसके साथ दो पुत्र भी मिलते हैं जो थके हुए हैं। एक ज्ञान है दूसरा वैराग्य। भक्ति के निवेदन पर नारद दोनों पुत्रों को नींद से जगाते हैं और उनकी थकान दूर करते हैं। कलियुग में धर्म की स्थापना के लिए भक्ति, ज्ञान और वैराग्य को भागवत का माहात्म्य बताया जाता है और तीनों संतुष्ट होते हैं। </span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">इसी के साथ माहात्म्य की कथा आगे बढ़ती है। इसी में आत्मदेव का प्रसंग है। आत्मदेव एक ब्राह्मण था। उसकी पत्नी धुंधुलि झगड़ालु थी। दोनों नि:संतान थे। एक दिन संतान न होने पर द़ु:खी आत्मदेव को एक संन्यासी मिला। संन्यासी ने आत्मदेव को एक फल दिया और कहा कि इसे पत्नी को खिलाना, तब पुत्र की प्राप्ति होगी। आत्मदेव ने फल अपनी पत्नी धुंधुलि को दिया लेकिन धुंधुलि ने फल खुद न खाते हुए अपनी बहन को दे दिया। बहिन पहले से गर्भवती थी। उसने वह फल गाय को खिला दिया। कुछ समय बाद बहिन को पुत्र हुआ और उसने वह पुत्र अपनी बहिन धुंधुलि को दे दिया। आत्मदेव और धुंधुलि के इस पुत्र का नाम धुंधुकारी रखा गया। इधर जिस गाय को संन्यासी का दिया फल खिलाया गया था उसने भी मनुष्य रूप में एक शिशु को जन्म दिया। इसका नाम गोकर्ण रखा गया।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br />दोनों बालक धुंधुकारी और गोकर्ण साथ पले-बढ़े। गोकर्ण ज्ञानी हुआ तो धुंधुकारी दुष्ट निकला। धुंधुकारी ने बुरी संगत में पड़कर पिता की सारी संपत्ति नष्ट कर दी। उसके ऐसे आचरण से दु:खी पिता आत्मदेव को दूसरे पुत्र गोकर्ण ने समझाइश दी और आत्मदेव मोह त्यागकर वन में चले गए। इधर धुंधुकारी ने अपनी मां को पीटना शुरू किया। वह पांच वेश्याओं के चक्कर में पड़ गया। वेश्याओं ने उससे धन व आभूषण मांगे और नहीं देने पर उसकी हत्या कर दी। धुंधुकारी प्रेत बना। कुछ समय बाद गोकर्ण की अपने प्रेत बने भाई से मुलाकात हुई। तब गोकर्ण ने अपने प्रेत भाई धुंधुकारी को भागवत की कथा सुनाई और उसकी मुक्ति हुई। इस तरह भागवत के इस माहात्म्य के स्कंध में गोकर्ण और धुंधुकारी की कथा के माध्यम से भागवत सुनने के फायदे बताए गए हैं। धुंधुकारी जिन पांच वेश्याओं के चक्कर में थे वे प्रतीक रूप में इंद्रियां हैं। इंद्रियों के वश में पड़े धुंधुकारी का नाश हुआ और वह अकाल मृत्यु मर कर प्रेत बना। उसी का भाई गोकर्ण ज्ञानी हुआ और भागवत सुनाकर उसने अपने प्रेत भाई को मुक्त किया।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /><b>कौन हैं सूतजी और वेद व्यास</b></span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">सूतजी- पुराणों में सूतजी को परम ज्ञानी ऋषि कहा गया है। वे भागवत की कथा सुनाते हैं। कथा सुनने वालों में शौनक सहित 84 हजार ऋषि शामिल हैं। शौनक- ये भी ऋषि हैं। जिज्ञासु और भागवत कथा के रसिक हैं। वे सूतजी से कथा सुनते हैं। वेद व्यास- ये विष्णु के अंशावतार माने गए हैं। उन्होंने ब्रह्मासूत्र, महाभारत के अलावा भागवत सहित 18 पुराण लिखे। इन्होंने ही वेदों का विभाजन किया। इसलिए इन्हें वेद व्यास कहा जाता है |</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /><b>जवान मां के बूढ़े बच्चे हैं ये</b></span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">यह सुनने में अजीब लगता है लेकिन सत्य है। श्रीमद् भागवत महापुराण की कथा यहीं से शुरू होती है। ये कथा भागवत का महात्म्य है। हर ग्रंथ के शुरुआत में उसका महात्म्य होता है। भागवत के इसी महात्म्य में यह कथा है, जब नारद मृत्युलोक यानी पृथ्वी पर भ्रमण करते हैं और उन्हें एक युवती रोती दिखाई देती है। उसकी गोद में सिर रख दो बूढ़े पुरुष सो रहे हैं, दोनों बहुत कमजोर और बीमार दिखाई दे रहे हैं। जब नारद उस युवती से पूछते हैं तो वह बताती है कि दोनों बूढ़े पुरुष उसके पुत्र हैं। यह सुनकर नारद को बड़ा आश्चर्य होता है, एक जवान स्त्री के बच्चे इतने बूढ़े कैसे हो सकते हैं।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br />तब वह युवती बताती है कि वह भक्ति है और उसके दोनों बूढ़े पुत्र पहले स्वस्थ्य और जवान थे लेकिन कलियुग में उनकी यह दुर्दशा हो गई है। दोनों पुत्रों के नाम थे ज्ञान और वैराग्य। तब नारद भक्ति को श्रीमद् भागवत का श्रवण करने का उपाय बताते हैं, जिससे उसके बूढ़े बच्चे ज्ञान और वैराग्य फिर स्वस्थ्य और जवान हो गए। कथा यह बताती है कि कलियुग यानी आधुनिक युग में लोगों में भक्ति तो होगी लेकिन ज्ञान और वैराग्य का अभाव होगा। ज्ञान इसलिए नहीं होगा क्योंकि लोग धर्म शास्त्रों का अध्ययन करना छोड़ देंगे। ज्ञान नहीं होगा तो मन में वैराग्य का भाव नहीं आएगा। भक्ति अधूरी ही रहेगी, ज्ञान और वैराग्य के बिना। परम ज्ञान के लिए भागवत का अध्ययन सबसे श्रेष्ठ उपाय है। इससे हमें सारी सृष्टि का ज्ञान होता है और जीवन को नई दृष्टि मिलती है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>लक्ष्मी ने मांगा विष्णु को</b></span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">भागवत में भगवान विष्णु के अवतार वामन और राजा बलि का प्रसंग आता है। दैत्यराज बलि दानवीर था। वह किसी को खाली हाथ नहीं जाने देता था। भगवान वामन ने राजा बलि से तीन पग जमीन मांगी। दानी बलि वामनदेव को तीन पग जमीन देने के लिए मान गए।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br />वामनदेव ने एक पग में स्वर्ग और दूसरे पग में पृथ्वी को नाप लिया। जब भगवान वामन ने दो ही पग में स्वर्ग और पृथ्वी नाप ली तो तीसरा पैर कहां रखे? इस बात को लेकर बलि के सामने संकट उत्पन्न हो गया। वचन के पक्के बलि अपना सिर भगवान के सामने कर दिया और कहा हे देव तीसरा पग आप मेंरे सिर पर रख दीजिए। भगवान वामन ने वैसा ही किया और पैर रखते ही बलि सुतल लोक में पहुंच गया।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br />बलि की उदारता से भगवान बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उसे सुतल लोक का राजा बना दिया और वर मांगने के लिए कहा। बलि ने वर मांगा कि भगवान विष्णु आप मेरे द्वारपाल बनकर रहें। विष्णु ने उसे यह वर प्रदान किया और वे बलि के द्वारपाल बनकर रहने लगे। इससे विष्णुप्रिया लक्ष्मीजी चिंता में पड़ गईं कि अगर स्वामी सुतल लोक में द्वारपाल बन कर रहेंगे तब बैकुंठ लोक का क्या होगा? देवी लक्ष्मी ऐसा विचार कर ही रही थी कि देवर्षि नारद वहां आ गए। देवर्षि को देख लक्ष्मीजी ने उन्हें अपनी समस्या कह सुनाई। नारदजी ने कहा कि आप राजा बलि को अपना भाई बना लीजिए। लक्ष्मीजी ने वैसा ही करा और राजा बलि को रक्षासूत्र बांधकर भाई बना लिया। तब बलि ने बहन लक्ष्मी से वर मांगने के लिए कहा। लक्ष्मीजी ने तुरंत ही अपने स्वामी भगवान विष्णु को वर में मांग लिया। इस तरह देवी लक्ष्मी को भगवान विष्णु पुन: मिल गए।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /><b>श्रीहरि ने बचाए गजेंद्र के प्राण</b></span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">भागवत के अनुसार तामस मन्वंतर में हरिमेधा ऋषि की पत्नी हरिणि के गर्भ से श्रीहरि के रूप में भगवान विष्णु ने अवतार लिया। इसी अवतार में उन्होंने मगरमच्छ से गजेन्द्र हाथी की रक्षा की।गजेंद्र एक हाथी था। गजेंद्र पूर्व जन्म में द्रविड़ देश का इन्द्रद्युम्र नाम का राजा था। जो कि भगवान का अनन्य भक्त था। भक्ति के वश होकर राजा ने सबकुछ छोड़कर पर एक पर्वत पर मौनव्रत धारण कर रहने लगा। पर्वत पर वह कठोर तप में लीन हो गया। एक दिन उनके पास महर्षि अगस्त्य आए परंतु इंद्रद्युम्र भगवान की भक्ति में इतने खोए थे कि उन्हें पता ही नहीं चला कि महर्षि अगस्त आए हैं। इसी कारण इन्द्रद्युम्र ने अगस्त मुनि की न आवभगत की और न ही उनके चरण-स्पर्श किए। तब अगस्त्य मुनि ने उनको हाथी बनने का शाप दे दिया था। इसी शाप के प्रभाव से इन्द्रद्युम्र अगले जन्म में गजेंद्र नाम का हाथी बना।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br />गजेंद्र हाथी अन्य हाथियों के साथ एक सरोवर में पानी पीने के लिए गया लेकिन पानी पीने के बाद वह सरोवर में साथी हाथियों के साथ जलक्रीड़ा करने लगा। इसी दौरान सरोवर में एक मगरमच्छ ने गजेंद्र का एक पैर पकड़ लिया। हाथी ने पहले तो खुद को बचाने के बहुत प्रयास किए परंतु उसके सारे प्रयास असफल हो गए। अब गंजेंद्र ने मृत्यु निश्चित मानकर भगवान का स्मरण आरंभ कर खुद को भगवान की शरण में छोड़ दिया। गजेंद्र को अपने पूर्वजन्म में की गई भगवान की आराधना का स्मरण था। उस समय गजेंद्र ने परमात्मा की जो प्रार्थना की वह गजेंद्र मोक्ष त के नाम से प्रसिद्ध हुई। गजेंद्र की प्रार्थना सुन कर भगवान विष्णु वहां आए और गजेंद्र को उस मगर से बचाया। विष्णु का यह अवतार श्रीहरि अवतार कहा गया है। भगवान श्रीहरि ने गजेंद्र के प्राणों की रक्षा की तथा मोक्ष प्रदान कर अपना पार्षद बनाया।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /><b>भक्ति सिखाती है भागवत</b></span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">श्रीमद् भागवत कथा भक्ति, ज्ञान और वैराग्य को स्थापित करती है। नारदजी कहते हैं अनेक जन्मों के पुण्य इकट्ठे होते हैं तो सत्संग मिलता है जिससे मनुष्य का मोह-मद का अंधकार हट जाता है तथा विवेक का उदय होता है। भागवत में धुंधुकारी प्रसंग बताता है कि किस तरह मनुष्य वेश्यारूपी पांच इंद्रियों की इच्छाएं पूरी करने में जीवन नष्ट कर देता है और अंत में वह प्रेत बन जाता है, जिसे भागवत कथा सुनने के बाद मुक्ति मिलती है। भागवत के पहले स्कंध में प्रमुख रूप से कलियुग से प्रभावित राजा परीक्षित की मुक्ति का प्रसंग हमें संदेश देता है कि जीवन का मुख्य लक्ष्य जीवन-मरण के चक्कर से मुक्ति पाना है। जीवन का जो समय बचा है उसे इस दिशा में ले जाएं।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br />भागवत में स्कंध-दर-स्कंध आगे बढ़ती कथा के विभिन्न प्रसंगों के माध्यम से यही समझाया गया है कि इस संसार के पहले भी एकमात्र ईश्वर था और इस दिखाई देने वाले सारे संसार में वही ईश्वर है। जब यह संसार खत्म होगा तो यही ईश्वर शेष रह जाएगा। प्राणियों के शरीर के रूप में पंचभूत (आकाश, पृथ्वी, वायु, जल और अग्नि) ईश्वर हैं तो आत्मा के रूप में ईश्वर है। कहने का तात्पर्य यही है कि संपूर्ण संसार में एकमात्र ईश्वर ही है। ईश्वर ही वास्तविकता है। इसलिए हमें सभी में ईश्वर को ही देखना चाहिए। श्रीमद् भागवत हमें ईश्वर को समझने के लिए पहले भक्ति सिखाती है, फिर इसका ज्ञान देती है। भक्ति और ज्ञान से जब हम ईश्वर की सत्ता को समझ लेते हैं तो मन वैराग्य की ओर मुड़ जाता है। इस स्थिति में श्रीमद् भागवत हमें वास्तविक वैराग्य से परिचित कराती है।</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br />क्रमश:...</span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /><b>जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,<br />और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....</b><b>.</b><b>मनीष</b></span>Jai Guru Geeta Gopalhttp://www.blogger.com/profile/01621836960274288942noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6101091264294453966.post-28189835366666632332020-11-05T23:22:00.002-08:002020-11-05T23:22:55.272-08:00जीवन जीने की राह (Jeevan Jeene Ki Rah11)<p> <b>अपना भला करें पर दूसरों का बुरा न हो....</b></p><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">निज हित की कामना सभी के भीतर होती है। कोई भी काम करना हो, अपना भला जरूर हो ऐसी भावना सभी रखते हैं। लोग अपने भले के लिए ही कार्य आरंभ करते हैं। बहुत कम लोग होते हैं जो अपना भी अच्छा हो जाए और दूसरे का बुरा भी न हो ऐसी वृत्ति रखते हों। ऐसी वृत्ति हो तो अपनी भलाई सोचना स्वार्थ नहीं होगा। हमें स्वार्थ छोड़कर ऐसे काम जरूर करने चाहिए, जिनसे दूसरों का भला हो। कैसे अपना भला हो जाए, दूसरे का बुरा न हो यह श्रीराम से सीखा जा सकता है। लंका कांड में भगवान राम अंतिम समय तक प्रयास करते रहे कि रावण के भीतर की बुराई मिट जाए। जामवंत के प्रस्ताव पर अंगद को दूत बनाकर भेजना तय हुआ। अंगद रामजी की सेना का सबसे युवा सदस्य था। नई पीढ़ी को समय रहते अधिकार और जिम्मेदारियां सौंप देनी चाहिए। अंगद जाने लगे तो श्रीराम ने उन्हें बड़ी अद्भुत शिक्षा दी। तुलसीदासजी ने लिखा, ‘बहुत बुझाइ तुम्हहि का कहऊॅ। परम चतुर मैं जानत अहऊॅ।।</span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif" lang="EN-US">’ </span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">काजु हमार तासु हित होई। रिपु सन करेहु बतकही सोई।। रामजी कहते हैं, ‘अंगद, मैं जानता हूं तुम परम चतुर हो परंतु रावण से बात करते समय पूरी तरह से सावधान रहना। वैसी ही बात करना, जिससे हमारा काम भी हो जाए और उसका भी कल्याण हो। यह कहने के लिए बड़ी ताकत चाहिए। राम जैसे लोग ही ऐेसे संवाद बोल सकते हैं। जब हम भक्ति कर रहे हों, उसमें अपना भला जरूर सोचिए पर दूसरे का बुरा न हो जाए, इसे लेकर भी सावधान रहिए।</span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>काम में तत्परता के साथ सहजता भी हो...</b></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">अब आलस्यअपराध है। तय करने के तुरंत बाद ही काम निपटाना पड़ेगा। इसे तत्परता कहते हैं, जो धीरे-धीरे योग्यता बन जाती है। टीवी पर जो ‘करोड़पति</span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif" lang="EN-US">’ </span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">कार्यक्रम देखा जा रहा था, उसमें आपके पास कितना ही ज्ञान हो पर चयन तत्परता से होता था कि किसने सीमित समय में कितनी जल्दी उस काम को निपटाया। कई लोग जल्दी से काम निपटाते भी हैं।</span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">धीरे-धीरे तत्परता आदत बन जाती है और आदत बनते ही वह हड़बड़ाहट में बदल जाती है। खूबी ही कमजोरी बन जाती है, क्योंकि तत्परता और हड़बड़ाहट के बीच सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है सहजता। अपनी सहजता कभी खोएं। कितनी ही जल्दी परफार्मेंस देना हो, सहज बनें रहें। वरना हड़बड़ा जाएंगे। खास तौर पर जब चुनौती सामने खड़ी हो तो हड़बड़ाहट बिल्कुल करें। मनुष्य के जीवन की समस्याएं उसके शरीर के दो अंगों की तरह होती हैं। बाल और नाखून। इन्हें काटते समय हम बहुत सावधान रहते हैं। यदि जल्दबाजी कर भी रहे हों तो हड़बड़ाहट नहीं करते, क्योंकि हम जानते हैं इनका जरा-सा गलत कटना नुकसान दे सकता है। इन्हे जड़ से उखाड़ने की गलती भी करें। इसी तरह जब समस्याएं-चुनौतियां सामने हों, तत्परता बनाए रखें, सहजता खोएं तो आप हड़बड़ाहट में नहीं उतरेंगे। परत-दर-परत जब आप समस्याओं को खोलेंगे तो सबसे नीचे समाधान छुपा हुआ पाएंगे। सहज होकर खोलेंगे तो उस अंतिम बिंदु पर पहुंच जाएंगे जहां समाधान हैं। इसलिए तत्पर रहें, सहज रहें, हड़बड़ाहट से बचें।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>ईश्वर को पूजते हैं, तो उनके गुण भी अपनाएं..</b><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">सबसे शानदार इंसान वह है, जो दूसरों को खुशी बांट सके। दूसरों की झोली में जितनी अधिक प्रसन्नता, मस्ती और आनंद डालेंगे, ऊपर वाला इन्हीं चीजों से आपकी झोली भर देगा। लेकिन इसके लिए देने की तैयारी करनी होगी। जब भी कुछ देने जाएंगे तो मन समझाएगा कि क्यों बेकार का लेन-देन कर रहे हो? इस मामले में मन कंजूस है। इसके लिए भीतर वृत्ति पैदा करनी पड़ेगी तब बिना किसी समीकरण के दूसरों को कुछ दे पाएंगे। इस वृत्ति का नाम है दया। जैसे ही यह वृत्ति भीतर उतरती है, हम दूसरों की मदद करने की इच्छा रखने लगते हैं। किसी के कठिन समय में उसका सहारा बन जाते हैं। उसके साथ रहकर अपने जीवन का कुछ रस उसे दे देते हैं। लेकिन, यदि हमारे भीतर दया नहीं है तो यह काम नहीं कर पाएंगे और करेंगे भी तो जमानेभर के समीकरण बैठाएंगे। आपका संबंध किसी भी धर्म से हो, घर में कहीं कहीं परमात्मा की कोई छवि, मूर्ति या स्थान जरूर होगा। जो दूसरों का दुख दूर करने की भावना रखे उसे दयावान कहा गया है। ऐसा व्यक्ति बड़ा कीमती होता है। शास्त्रों में ईश्वर के रूप को दयामय माना है। इसीलिए रहीम और रहमान जैसे शब्द निकलकर आए। क्षमा, करुणा, दया ये दिव्य गुण परमात्मा में होते हैं और इसीलिए वह पूजनीय है। ऐसी शक्ति को यदि आप पूज रहे हैं तो उसके कुछ गुण हमारे भीतर भी उतरने चाहिए। जब बिना किसी समीकरण के दूसरों का हित करते हैं, ऊपर वाला हमारे लिए खुशियों की बारिश करने लगता है।</span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>देह के साथ संयम रखेंगे तो प्रदर्शन से बचेंगे...<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">बहुत कमलोग ऐसे हैं, जो अकेले में अपनी देह के साथ मनुष्य जैसा व्यवहार करते हों। चाहे खान-पान का हो या भोग विलास, अकेले में मनुष्य अधिकांश मौकों पर जानवर जैसा हो जाता है। भोग-विलास में संयम रखना तो बड़े-बड़ों के बस की बात नहीं रही। एकांत में जिसने देह के साथ मनुष्य जैसा व्यवहार किया, वे समझ जाएंगे तप क्या होता है, एकांत की दिव्यता क्या होती है शरीर का सदुपयोग क्या होता है? कई बार हम एकांत में अपने शरीर के साथ ऐसा कर चुके होते हैं कि याद आने पर शर्मिंदगी महसूस होती है। यदि एकांत में मनुष्य देह को संयमित कर मनुष्य जैसा आचरण किया तो इसका लाभ आपके व्यावसायिक, सार्वजनिक जीवन में भी मिलेगा। वरना जब हम छुप-छुपकर बिना लोगों की जानकारी के देह के साथ जो खिलवाड़ कर चुके हैं उसी देह की हमारी आदत हो जाती है और हम सबके सामने जो भी काम करते हैं उसमें शरीर को प्राथमिक रखते हैं। इसीलिए कोई भी काम कर रहे हों, इरादा होता है लोग मुझे पहचानें, मुझे ख्याति मिले। लोग तो शरीर को लाइट हाउस बना देते हैं। जैसे जहाज को उतरने के लिए प्रकाश स्तंभ की आवश्यकता होती है, बस ऐसे ही लोगों ने शरीर को ऐसा इस्तेमाल किया कि सब हमें देखें, हमारा प्रदर्शन हो। यहां से अहंकार जन्म लेता है। अकेले में अपनी देह को मनुष्य समझें, फिर सबके सामने प्रदर्शन से बचेंगे। काम तो अपना ही कर रहे होंगे लेकिन, नाम और ख्याति की भावना नहीं आएगी।</span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>सफलता मिलने पर अहंकार नहीं करें...<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">करना तो सब हमें ही है लेकिन, करा कोई और रहा है। वो ‘और</span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif" lang="EN-US">’ </span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">ऐसी परमशक्ति है जिसे सभी धर्मों ने अपने-अपने हिसाब से नाम दिया है। जिस दिन ये समझ और भाव हमारे भीतर उतर आता है, उस दिन से हम सारे काम करते हुए भी शांत रह सकते हैं। हमारी जिंदगी ऊपर वाले की लिखी पटकथा है। इसे भाग्य से न जोड़ें। पटकथा लिखने के बाद भी अभिनेता को अभिनय में हुनर दिखाना होता है। बहुत सारी चीजें पटकथा को सफल बनाती हैं। यह हमें अंगद समझा रहे हैं। जैसे ही तय हुआ कि वे श्रीराम के दूत बनकर रावण के पास जाएंगे, अंगद ने रामजी को प्रणाम करते हुए टिप्पणी की कि जिस पर आप कृपा कर दें, वह गुणों का सागर हो जाता है। अपने ऊपर किसी परमशक्ति को मानते हुए काम करना भी एक गुण है। यहां तुलसीदासजी ने लिखा,‘स्वयंसिद्ध सब काज नाथ मोहि आदरु दियउ। अस बिचारी जुबराज तन पुलकित हरषित हियउ।। स्वामी के सब काम अपने आप सिद्ध हैं। यह तो प्रभु ने मुझे आदर दिया है। ऐसा विचार कर अंगद का हृदय और शरीर पुलकित हो गया। ऊपर वाले के पास इतनी ताकत है कि वह सारे काम कर सकता है लेकिन, कराता हमसे है। हमें लगने लगता है हमने किया। हम तो निमित्त हैं, किसी भी घटना और स्थिति के कारणभर हैं। यह भाव जागने के बाद हमें आलसी नहीं होना है और न ही भाग्य पर टिकना है, बल्कि यह मानना है कि सारे काम हम करेंगे। परिणाम यदि सफलता के रूप में आया तो अहंकार नहीं करेंगे, असफल रहे तो उदास नहीं होंगे।</span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>शब्दों के पीछे के इरादे पर भी नज़र रखें...</b></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">शतरंज के खिलाड़ी इस बात के लिए तैयार रहते हैं कि आगे कौन-सी चाल हम चलेंगे और कौन-सी सामने वाला चलेगा। आगे की सोच के कारण शतरंज के अधिकतर खिलाड़ी विक्षिप्त-से हो जाते हैं। ऐसे में उन्हें एक तैयारी यह भी रखनी है कि खेल तो खेलना है पर पागल नहीं होना है। जैसे मोहरे चाल चलते हैं, ऐसे ही ज़िंदगी में एक शतरंज चलती रहती है और वह है शब्दचाल की शतरंज। जब भी किसी के शब्द सुनें, कोई आपसे बात कर रहा हो तो केवल सुनिएगा नहीं। शतरंज के खिलाड़ी की तरह उन शब्दों के पीछे बोलने वाला व्यक्तित्व उस समय कैसा है, किस नीयत से बोल रहा है, उसके क्या इरादे हो सकते हैं इस पर भी नज़र रखें। व्यक्ति जैसा होता है, कभी-कभी उससे हटकर बोलता है। एक उदाहरण है कि कैकयी मंथरा के शब्दों को ठीक से पकड़ नहीं पाई थी। मंथरा बोल रही थी मैं तुम्हारी सबसे बड़ी हितैषी हूं। कैकयी समझ नहीं पाई कि इन शब्दों के पीछे मंथरा का मतलब क्या है। आज हमारी व्यावसायिक दुनिया में मंथराओं की कमी नहीं है। मंथरा वृत्ति है, जो अच्छे-अच्छे समझदारों को निपटा देती है। मंथराएं सत्ता, पावर की निकटता बनाने में माहिर होती हैं। मंथरा जैसे लोग अपनी कमजोरी छिपाने के लिए चापलूसी भरे शब्द, हितैषी बनने के दावे करके समझदारों की बुद्धि हर लेते हैं। इसलिए खासतौर पर बाहर की दुनिया में शब्द सुनते समय सावधान रहिए, क्योंकि बोलने वाले की नीयत सुनाई नहीं देती, उसके पीछे के भाव दिखाई नहीं देते।</span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>संतान के साथ गुरु-शिष्य का रिश्ता रखें</b></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">कई माता-पिता को तो यह पता ही नहीं होता कि वे माता-पिता बन क्यों गए? एक वर्ग इसको विवाह का परिणाम मानता है तो एक वर्ग कहता है बच्चे तो पैदा होते रहे हैं इसलिए हमने भी किए। संतानों को सुख दें, साधन उपलब्ध कराएं इसमें कोई बुराई नहीं है लेकिन, ऐसा करते-करते जब हम अति पर टिक जाते हैं तो हमसे ज्यादा कीमत हमारी संतान चुकाती है। आजकल के बच्चे माता-पिता से जो मिलता है उसे अपना हक मानते हैं। इसमें कोई दिक्कत भी नहीं है लेकिन, खतरा तब शुरू होता है जब वे इसे माता-पिता की ड्यूटी मान लेते हैं। उनका अनिवार्य कर्तव्य मानने लगते हैं। कई घरों में बहस करते हुए बच्चे कहते हैं हमारा अधिकार है कि हमको जरूरत की हर चीज मिले, क्योंकि आप ही हमें धरती पर लाए हैं। हमें सुविधाएं नहीं दे सकते थे तो फिर पैदा क्यों किया? कई बच्चों द्वारा माता-पिता पर इस प्रकार के प्रहार किए जाने लगे हैं। यहां माता-पिता एक प्रयोग कर सकते हैं कि बच्चों से एक रिश्ता और जोड़ें- गुरु-शिष्य का। अध्यात्म की दुनिया में जब कोई अपने गुरु से रिश्ता बनाता है तो अधिकतर शिष्य गुरु के प्रति आधी श्रद्धा रखते हैं और आधे संदेह में जीते हैं। बच्चे भी ऐसे ही होते हैं। उनमें माता-पिता के प्रति जो संदेह है उससे उनको लड़ने दें लेकिन, श्रद्धा के मामले में प्रयास करें कि उनकी श्रद्धा गतिमान हो। एक दिन जब बच्चे परिपक्व होंगे तो संदेह दूर हो जाएगा और उस समय श्रद्धा काम आएगी। इसलिए बच्चों से गुरु-शिष्य का संबंध भी रखें। ऐसा तब कर पाएंगे जब आपके जीवन में भी कोई गुरु हो। कोई और न मिले तो हनुमानजी को ही गुरु बनाया जा सकता है। इस तरह अध्यात्म परिवार की बुनियाद बनेगा।</span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>सुबह उठना यानी प्रकृति से श्रेष्ठतम लेना<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">आजकल जितने भी काम कठिन माने जाते हैं उनमें से एक है सुबह जल्दी उठना। आने वाले 10-15 साल बाद तो शायद देश के घरों में जल्दी उठने वाली पीढ़ी ही खत्म हो जाएगी। जल्दी उठने का महत्व तब समझेगा जब प्रात:काल का मतलब समझ में आएगा। प्रात:काल यानी सूर्योदय की घड़ी। चूंकि उस समय सूरज प्रकट होता है, इसलिए ध्यानमय, ज्ञानमय और पराक्रममय ऊर्जा बिल्कुल ताजी-ताजी प्रकट होती है। इस समय सारे देवता अपनी शक्ति के साथ हवा के रूप में आते हैं। शास्त्रकारों ने तो कालपुरुष को एक घोड़े की उपमा देते हुए कहा है कि उषाकाल यानी प्रात:काल उस घोड़े का सिर है। जिसने यह समय गंवाया, समझो उसने कालपुरुष का सिर ही काट दिया। इसलिए सुबह उठना केवल बिस्तर छोड़ना नहीं, उससे भी ज्यादा प्रकृति से कुछ पकड़ना है। सुबह जल्दी उठना एक अनुशासन है। फिर दिनभर हमें परिश्रम करना है। जिसे अनुशासन का स्पर्श मिल जाए वह कम श्रम में भी ज्यादा परिणाम पा लेगा। एक पहलवान दूसरे पहलवान को गिराकर उसकी छाती पर चढ़ जाए तो ऊपर वाले को ज्यादा ताकत लगती है, क्योंकि उसे फिक्र रहती है कि नीचे वाला पहलवान खिसक न जाए। परिश्रम नीचे वाले पहलवान की तरह है। हमने ऊपर वाले के रूप में उस पर अनुशासन लाद दिया है। अनुशासन को दबाव न बनाएं। सुबह उठने का मतलब यूं समझें कि प्रकृति जो अपना श्रेष्ठ दे रही है, हमें वह लेना है।</span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>अशांति से काम करेंगे तो कामयाबी अधूरी...</b></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">इसमें बुराई नहीं है कि हमारा कोई आदर्श हो। जिन्हें हम रोल मॉडल मानते हैं, उन्होंने जैसे काम किए हैं यदि वैसे हम करें तो भी कोई दिक्कत नहीं। हमारी मौलिकता और जिन्हें हम श्रेष्ठ या अपना आदर्श मानते हैं उनकी अच्छी बातें यदि जुड़ जाएं तो परिणाम अच्छे ही आएंगे। इसे एक उदाहरण से समझें। अंगद हनुमानजी को रोल मॉडल मानते थे।</span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">हनुमानजी की कार्य शैली पर बारीक नज़र रखते थे। इसीलिए जब हनुमानजी पहली बार लंका गए उस समय जो दृश्य उन्होंने निर्मित किया वही अंगद ने भी किया। लंका जाते समय हनुमानजी ने सभी वानर साथियों को प्रणाम किया, श्रीराम को हृदय में धरा, चेहरे पर प्रसन्नता रखी और रवाना हो गए। उसके बाद जब अंगद को दूत बनकर रावण के पास जाने का अवसर आया तो उन्होंने भी ऐसा ही किया। तुलसीदासजी ने लिखा, ‘बंदि चरन उर धरि प्रभुताई। अंगद चलेउ सबहिं सिरु नाई।।</span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif" lang="EN-US">’</span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">श्रीराम के चरणों की वंदना कर, उनकी प्रभुता को हृदय में धरकर अंगद सबको प्रणाम करते हुए चल दिए। मनुष्य जब ईश्वर को हृदय में रख लेता है, काम में मस्ती रखता है तो उसके इरादे जरूर पूरे होते हैं। ऐसे लोगों को अवश्य आदर्श बनाएं, जिन्होंने जीवन में संघर्ष के समय धैर्य नहीं छोड़ते हुए पूरी शांति से काम किया। अशांत रहकर काम करेंगे तो कामयाबी अधूरी होगी। प्रसन्नता के साथ कठिन काम भी किया जाए तो सफलता अशांति नहीं लाती। किसी को आदर्श बनाते हुए उसके जैसी ही कार्यशैली अपनाई जाए तो राह आसान हो जाती है।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>बदलाव भीतर से हो तो आसान होता है...</b></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">बदलाव मनुष्य का मूल स्वभाव है। कुछ न कुछ बदलते रहना उसकी तासीर में है। बदलाव शब्द को अगर ठीक से न समझा जाए तो यह हथियार भी बन जाता है। देश के नेता कहते हैं हम बदलाव की तैयारी में हैं। व्यवस्था बदल देंगे। लेकिन क्या करें जनता नहीं बदलती। लोग कहते हैं हम कैसे बदलें? नेता ही नहीं बदल रहे। चूंकि दोनों बदलाव का अर्थ नहीं समझते, इसलिए परिवर्तन के उन प्रयासों के अच्छे परिणाम नहीं निकल पाते।</span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">हिंदू धर्म में अवतार की परम्परा बदलाव की कहानी है। राम ने चरित्र में बदलाव लाकर कृष्ण बन गए। देश-काल-परिस्थिति के अनुसार बदलाव जरूरी हो जाता है। लेकिन, याद रखें परिवर्तन दो तरह से होता है। एक बाहर की व्यवस्था में बदलाव जैसे हमारी जीवनशैली, कामकाजी दुनिया आदि में परिवर्तन। इसके लिए नियम, अनुशासन ये सब लादने पड़ते हैं। लेकिन इस समय यदि भीतर चैंज नहीं किया गया तो बाहर का बदलाव औपचारिकता, मजबूरी और दिखावा मात्र बन जाएगा।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">मनुष्य जब भीतर से बदलने को तैयार होता है तब अपने संस्कारों पर काम करता है। वहां उसे बाहर कोई ढोंग या अभिनय नहीं करना होता। देश जब बदलेगा, तब बदलेगा परंतु कम से कम हम तो स्वच्छता, ईमानदारी, सेवा आदि को समझते हुए भीतर उतारें। भीतर का ऐसा बदलाव हमारे शरीर से निकलने वाली तरंगों को पॉजिटीव करता है और तब बाहर परिवर्तन लाना आसान हो जाता है।</span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>मूर्ति को प्राण के भाव से पूजें, परिणाम मिलेंगे<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">शास्त्रों में लिखा है मूर्ति पूजा आदमी को ईमानदार बनाती है। लेकिन, मूर्ति के मामले में पूजा का अर्थ अलग ढंग से समझना होगा। कोई मूर्ति तब पूजने योग्य होती है, जब उसकी प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। यानी मनुष्य की तरह पत्थर में प्राण डालना। जब किसी ऐसी मूर्ति की पूजा करते हैं, उसमें तो प्राण देखना ही है, आपके साथ जो जीवंत लोग रहते हैं उनके भीतर के प्राणों का भी मोल समझना है। लोग मूर्ति को तो पूजते हैं पर आसपास रहने वालों के प्रति तो संवेदनशील होते हैं, प्रेमपूर्ण। जिस दिन घर में बच्चों के, पति-पत्नी, माता-पिता या किसी सदस्य के भीतर प्राण देख लेंगे, आपका पूरा व्यवहार बदल जाएगा। हम मूर्ति के सामने माथा झुका रहे हैं और अपने लोगों से झगड़ रहे हैं यह कहां तक ठीक है? सही है कि प्राण प्रतिष्ठित मूर्ति आपको देख रही होती है लेकिन जब कोई गलत काम करते हैं तो मूर्ति यह नहीं पूछती कि ये तुमने क्या किया? बल्कि यह बताती है कि तुम कुछ श्रेष्ठ कर सकते थे, जो नहीं किया। वे सजग करती हैं कि अपने आचरण को ऐसे उठाओ। जिन धर्मस्थलों पर प्राण प्रतिष्ठित मूर्तियां हों वहां इसीलिए जाना चाहिए कि उस जगह मंत्रोच्चार हो चुका होता है, कई लोग वहां श्रद्धा अर्पित करते हैं। जीवन के लिए ऊर्जा, मार्गदर्शन और प्रेरणा प्राप्त होती है। मूर्ति को प्राण के भाव से पूजा जाए तब तो परिणाम मिलेंगे, वरना आप केवल पत्थर पूजकर रहे हैं, जो मात्र औपचारिकता है, जिसका कोई सदपरिणाम प्राप्त नहीं होगा।</span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>तीन पंखों की उड़ान पहुंचाती है ऊंचाई पर...</b></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">केवल लंबी छलांग से जीवन में सफलता नहीं मिलती। उसके लिए एक उड़ान भी जरूरी है। उड़ान का मतलब परिंदों से अच्छा और कौन समझ सकता है। लेकिन बहुत ऊंची उड़ान भरने वाले परिंदे भी यह नहीं जान पाते हैं कि उड़ान के लिए दो पंखों की जरूरत होती है। पक्षी तो केवल उड़ना जानते हैं। उनके लिए वह जीवन की एक ऐसी क्रिया है, जो पुरखे उन्हें सिखा गए। लेकिन, मनुष्य उड़ान को ठीक से समझ सकता है। उड़ान का मतलब समझ लें तो यह पता चल जाएगा कि पक्षी भले ही दो पंख से उड़ लें पर मनुष्य को उड़ने के लिए तीन पंख लगेंगे और ये हैं- ज्ञान, कर्म और उपासना के। जब उड़ान ले रहे होते हैं तो सबसे बड़ी बाधा हमारे दुर्गुण ही बनते हैं। इन्हीं दुर्गुणों से निपटने के लिए पंख गति के भी काम आते हैं और हथियार बनकर सुरक्षा के भी। जटायु ने अपने पंखों को शस्त्र बनाते हुए ही रावण से टक्कर ली थी। जीवन की कुछ यात्राएं ऐसी हैं, जहां किसी एक पंख के सहारे नहीं जाया जा सकता। हमारे पास ज्ञान, कर्म और उपासना रूपी पंख हैं और ज़िंदगी की उड़ान में इन तीनों की जरूरत पड़ेगी। जो केवल ज्ञान मार्ग से चलेंगे वे बाकी दो चीजें यानी कर्म और उपासना का मतलब नहीं समझ पाएंगे और उनका ज्ञान अधूरा रह जाएगा। न तो केवल कर्म से और न केवल उपासना से जीवन की यात्रा पूरी हो सकती है। ज्ञान, कर्म और उपासना के तीनों पंखों से भरी उड़ान उस ऊंचाई पर पहुंचा देगी, जिसे आप छूना चाहते हैं।</span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>सीखे हुए को कर दिखाने में ही उसका महत्व...</b></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">चुनौती बड़ी हो तो प्रयास छोटे नहीं होने चाहिए। कोई बेजोड़ काम किया जाए, जिसे देखकर सब चौंक उठे तो वह लोगों की नज़र में आता है और हमें भी प्रोत्साहित करता है। अंगद हनुमानजी से प्रेरित थे और वे लंका में क्या करके आए थे, यह जान चुके थे। अंगद ने सुन रखा था कि हनुमानजी ने रावण के बेटे अक्षयकुमार को मार डाला था। एक बार हनुमानजी से पूछा भी था कि लंका में जाकर राजा के बेटे को ही मार दिया। ऐसा आपने क्या सोचकर किया? तब हनुमानजी ने कहा, ‘जब प्रहार ही करना हो तो सीधे उस स्थान पर किया जाए कि परिणाम हमारी सफलता में मददगार हो।</span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif" lang="EN-US">’</span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">अंगद को यह बात याद थी। तुलसीदासजी ने लिखा, ‘पुर पैठत रावन कर बेटा। खेलत रहा सो होइ गै भेटा।। तेहिं अंगद कहुं लात उठाई। गहि पद पटकेउ भूमि भंवाई।।</span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif" lang="EN-US">’ </span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">लंका में प्रवेश करते ही अंगद की भेंट रावण के बेटे से हो गई, जो वहां खेल रहा था। उसने लात उठाई, तभी अंगद ने उसे पैर पकड़कर जमीन पर दे मारा। हनुमानजी ने तो अक्षयकुमार को इसलिए मारा था कि वह आक्रमण कर उन्हें रोकना चाहता था। उन्हें तो रावण तक पहुंचना था। लेकिन अंगद तो रावण तक सीधे पहुंच सकते थे क्योंकि वे दूत बनकर गए थे। फिर उन्होंने ऐसा क्यों किया? युवा वर्ग जोश में कभी-कभी होश खो देता है। अंगद ने भी वही किया पर हमें शिक्षा दे गए कि जीवन में जब बहादुरी दिखाने का अवसर आए तो फिर चूकना नहीं चाहिए। सीखा हुआ सही समय पर, सही ढंग से कर किया जाए तब ही सीखे का महत्व है।</span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>उत्सवों के माध्यम से भीतरी बदलाव लाएं...</b></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">शरीर काहर अंग स्वार्थी है। वैसे यह सही है कि शरीर मन की तुलना में ईमानदार है। मन की बेईमानी के तो हर पल नए-नए किस्से हैं। लेकिन, यही मन जब शरीर पर आक्रमण करता है तो हर अंग को बेईमान, स्वार्थी, लुटेरा और विलासी बना देता है। कान को प्रशंसा सुनना पसंद है। आंखें वो सारे दृश्य देखना चाहती हैं जो उन्हें नहीं देखना चाहिए। इसी तरह बाकी अंगों से भी मन वो सारे काम करवाना चाहता है, जो मर्यादा में उन अंगों को नहीं करना चाहिए। कुल मिलाकर आज मनुष्य का जीवन मन से संचालित हो रहा है और इसका परिणाम अपराध के रूप में सामने आता है। शरीर से होने वाले और शरीर के प्रति किए जाने वाले अपराधों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। खासकर महिलाओं के प्रति जो अपराध हो रहे हैं उनमें उम्र की सीमा ही नहीं रही। स्त्री देह के साथ पुरुष के अपराध मन ने ऐसी मर्यादा तोड़ी कि अब ढाई साल की बच्ची से लेकर 80 बरस की स्त्री पर भी शारीरिक आक्रमण होने लगे हैं। जब सबकुछ शरीर पर केंद्रित हो जाए तो ऐसे दिन तो आने ही थे। हमारे देश में जितने उत्सव और त्योहार मनाए जाते हैं, सबके पीछे संदेश होता है नैतिक जीवनशैली। अब सामूहिक रूप से प्रयास करने होंगे कि हर उत्सव-त्योहार पर उस पीढ़ी को यह संदेश दिया जाए कि शरीर के साथ अनैतिक काम करें। अपने, दूसरे के। मनुष्य को भीतर से बदलने के लिए जो-जो भी प्रयास किए जाएं उनमें उत्सव और त्योहारों को जोड़ते हुए इनके संदेश को योजनाबद्ध तरीके से भारतीय मन तक पहुंचाया जाए।</span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>ऊर्जा बचाने, प्रेमपूर्ण होने की साधना है मौन...</b></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">थकान औरविवाद इस समय ये दोनों ही बातें गलत जगह पर होने लगी हैं। कई लोग जरा-सी मेहनत करते हैं और थक जाते हैं। जो खूब परिश्रम करते हैं वो थकते तो देर से हैं पर गलत जगह थक जाते हैं। जैसे कोई घर आकर तब थकता है, जब बाकी सदस्य उसके साथ होते हैं। दिनभर खूब मेहनत की और जिनके लिए की उनके सामने आकर थक गए। ऐसे ही हाल विवाद के हैं। हम उस जगह विवाद करते हैं जहां प्रेमपूर्ण रहना चाहिए। और जहां विरोध करना चाहिए वहां बचते हैं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं थकान और विवाद जिन-जिन बातों से जुड़े हैं उनमें से एक है बोलना। शब्द और वाणी का परिणाम बोलना कहा जा सकता है। यदि आप बोलते समय सावधान नहीं हैं और शब्दों को शरीर से निकालने में बेहिसाब हैं तो थकेंगे भी और विवाद में भी पड़ेंगे। अब सवाल यह उठता हैं कि शब्दों को संतुलित कैसे किया जाए? ज्यादातर लोग जानते हैं कि चाहते हुए कुछ ऐसा बोलने में जाता है, जो विवाद का कारण बन जाता है। कई लोग तो यह जानते ही नहीं कि शब्द हमारी बहुत ऊर्जा खा जाते हैं। इसीलिए हम तब थक जाते हैं जब नहीं थकना चाहिए। शब्दों को इसलिए बचाइए कि उनका परिणाम दूसरी जगह दे सकें या ले सकें और अनावश्यक विवाद से भी बचे रहें। इसका एक तरीका है मौन। जब तक मौन नहीं साधेंगे, आप सिर्फ शब्दों का वहन करेंगे। जिन्होंने थोड़ी देर भी मौन साध लिया, वो शब्द से ऊर्जा भी बचा लेंगे और विवाद से बचे रहने के कारण और प्रेमपूर्ण हो जाएंगे।</span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>सब कुछ ईश्वर पर छोड़ दें, अशांत नहीं होंगे...</b></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">हम कुली क्यों करते हैं? इसलिए कि हमारे पास जितना बोझ होता है उसे उठा नहीं पाते और किसी की आवश्यकता लगती है, जो उस वजन को उठा सके। यात्रा में कुली लगता है, यह तो सबको समझ में आता है पर जीवन की यात्रा में कुछ बोझ ऐसे होते हैं, जिन्हें उठाना नहीं चाहिए और हम उठा लेते हैं। ऐसे ही कुछ वजन स्मृतियों के, स्वार्थ के होते हैं। धीरे-धीरे ये इतने भारी हो जाते हैं कि हमारी चाल लड़खड़ा जाती है। शास्त्रों में एक शब्द आया है- रिक्त हो जाएं तो ईश्वर जल्दी मिल जाता है। रिक्त होने का अर्थ है थोड़ा खाली या निर्भार हो जाएं। अभी हम बहुत भारी हैं। अपने भीतर अहंकार का, हिंसा का, तनाव का इतना भार पैदा कर लिया है कि दबे ही जा रहे हैं। निर्भार होते ही भीतर शांति जागती है, आप प्रेमपूर्ण हो जाते हैं, जीवन में परमात्मा उतर आता है। परमात्मा के आते ही हम कहने लगते हैं- बस, अब जीवन की गाड़ी आप ही चलाइए। एक बार राजस्थान में यात्रा के समय टैक्सी ड्राइवर ने मुझे बार-बार हुकम, हुकम कहा। मैने पूछा- आप हमें हुकम क्यों कहते हैं? इसका मतलब तो आदेश होता है। तब उसने कहा- मैं जानता हूं हुकम का मतलब आदेश है पर मैं इसलिए कह रहा हूं कि आप ही हमारे आदेश हैं। नानकजी ने भी एक जगह ईश्वर के लिए लिखा था-‘हुजूर का हुकूम</span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif" lang="EN-US">’</span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">। जिस दिन हम परमात्मा को हुकूम या आदेश मान लेते हैं, उस दिन निर्भार हो जाते हैं। फिर कैसा भी काम करें, अशांत नहीं होंगे, क्योंकि आप जानते हैं हुक्म कोई और दे रहा है, हुकम कोई और है।</span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>खुद के साथ रहने से मिलती है ऊर्जा...</b></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">चाहें या ना चाहें, सभी को दो तरह से जीना पड़ता है। या कहें कि जीने के लिए दो प्रकार के अवसर मिलते हैं। पहला, जब हम दूसरों के साथ जीवन बीता रहे होते हैं और दूसरा मौका स्वयं के साथ जीने का होता है। इन स्थितियों से कोई नहीं बचेगा। जब दूसरों के साथ जीते है,ं जो कि जरूरी भी है, उस समय हमारी तैयारी अपने साथ जीने की भी होनी चाहिए। यदि स्वयं के साथ जीने की तैयारी नहीं है तो तनाव में पड़ेंगे, अशांत रहेंगे। जब दूसरों के साथ रहते हैं तो उसमें अहंकार, स्वार्थ, झूठ, छल ये सब अपना काम करते ही हैं। खासकर मेरे-तेरे का खेल होना स्वाभाविक है। सामने वाले की अपनी सोच, आपकी अपनी मर्जी दोनों टकराएंगी ही। यदि आप सिर्फ दूसरों के साथ जीते हैं तो जरूर अशांत रहेंगे। इसलिए खुद के साथ जीने का ढंग भी आना चाहिए और यह संभव हो सकता है योग से। जब स्वयं के साथ जीते हैं तो हमारी और ईश्वर की मर्जी जुड़ जाती हैं। योग सिखाता है कि हमारे ऊपर भी एक परमशक्ति है। तो आपकी इच्छा को उस परमशक्ति की इच्छा से जोड़ दीजिए। बस, यहां से टकराहट बंद और आप शांत होना शुरू हो जाएंगे। हम मनुष्य बिना मांगे रह नहीं सकते। इसलिए ऊपर वाले से भी यह मांग करें कि मेरी मर्जी में तेरी मर्जी जुड़ जाए। फिर देखिए, आप व्यक्ति कोई और होने लगेंगे। अपने साथ रहने के बाद जो ऊर्जा प्राप्त होगी वही ऊर्जा दूसरों के साथ रहते हुए भी शांत रहने में मदद करेगी। कुछ समय अपने साथ जरूर रहिए, फिर संसार के साथ रहने में दिक्कत नहीं आएगी।</span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>ज्ञान, कर्म और उपासना का संतुलन हो</b></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">हमारे कृत्य हमारी छाप बन जाते हैं। कुछ न कुछ तो सभी को करना है और लोग कर भी रहे हैं। लेकिन, जो अच्छा या बुरा करके जाएंगे उसे लोग याद रखेंगे और उनके मन में वैसी ही हमारी छाप बनती है। कई तो ज़िंदगी में ऐसे काम कर जाते हैं कि दुनिया छोड़कर जाने के बाद लोग उन्हेें उन कामों से याद रखते हैं। इसीलिए कृत्य ऐसे हों जो छवि भी अच्छी बनाएं। हमारे यहां ज्ञान, कर्म और उपासना, ये तीन शब्द अपने आप में जीवनशैली का संदेश हैं। केवल कर्म से जुड़ेंगे तो हो सकता है ज्ञान और उपासना का लाभ नहीं उठा सकें। कुल मिलाकर किसी एक पर आधारित जीवन नहीं चल सकता। इन तीनों का संतुलन चाहिए।</span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">हनुमानजी तीनों का संतुलन रखकर परिणाम देने में अद्भुत थे और इसीलिए लंका कांड में एक घटना घटती है कि जब अंगद रामदूत बनकर लंका गए तो राक्षसों ने उनको देखा और जिस प्रकार से प्रतिक्रिया की उस पर तुलसीदासजी ने लिखा- ‘भयउ कोलाहल नगर मझारी। आवा कपि लंका जेहिं जारी।। भय के मारे लंका के राक्षसों में कोलाहल मच गया कि जिसने लंका जलाई थी, वही वानर फिर आ गया है।</span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">ये पंक्तियां बता रही हैं कि राक्षसों को हनुमानजी और उनका पराक्रम याद था। हमारे लिए समझने की बात यह है कि जिस प्रकार हनुमानजी उनको याद थे, हम भी ऐसे ही कर्म रखते हुए वे सदपरिणाम दें जो कि लोगों के मन में उतर जाएं और वर्षों बाद भी हमें इस बात के लिए याद रखें कि यह अच्छा काम उनके द्वारा किया गया था।</span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>आंखों के इस प्रयोग से बढ़ाएं सकारात्मकता</b></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">हम आंख वाले अंधे हैं। दुनिया में बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो देख सकते हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो नहीं देख पा रहे हैं। ज्यादातर लोग जो देख सकते हैं, उन्हें यह बात समझ लेनी चाहिए कि कहीं न कहीं हम भी अंधे हैं। देखने में दृष्टि महत्वपूर्ण होती है, दृश्य नहीं। हम लोग देखने का अर्थ सिर्फ दृश्य से ल़ेते हैं। कुछ न कुछ दिख रहा है और मान लेते हैं कि हम देख रहे हैं। पर इस सब के पीछे काम कर रही होती है दृष्टि। तीन बातें हमें अंधा बनाती हैं- अहंकार, अशिक्षा और स्वार्थ।</span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">ध्यान रखिएगा, यदि अहंकार बलवान होता जा रहा है, स्वार्थ में डूब रहे हैं और पढ़े-लिखे नहीं हैं तो आप आंख होते हुए भी अंधे ही हैं। इसीलिए योग में आंख का भी प्रयोग है। आंख का बंद होना, खुलना और अधखुली आंख इन तीन बातों की कला जब समझ में आती है तो उसे दृष्टि कहा जाता है। कुछ लोग जन्मांध होते हैं, कुछ किसी दुर्घटना या उम्र के प्रभाव के कारण देख नहीं पाते।</span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">ऐसे लोगों को एक प्रयोग करना चाहिए। पलकों को बहुत धीरे-धीरे खोलिए और वैसे ही धीरे-धीरे बंद कीजिए। चूंकि किसी भी कारण से संसार को नहीं देख पा रहे इसलिए आपके भीतर एक बेचैनी है, अवसाद होता है। मन उस स्थिति को और बल दे रहा होता है पर पलकों को धीरे-धीरे खोलने और बंद करने से मन की पॉजिटीविटी बढ़ती है और हमारे भीतर आ चुका दोष और निराश नहीं कर पाता। सबकुछ देख सकने वाले भी यह प्रयोग करें तो ‘आंख होकर भी अंधे की स्थिति से बच पाएंगे।</span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>बच्चों के विकास को गांवों से जोड़िए..</b></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif" lang="EN-US">‘</span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">भारत में जो भी प्रगति और विकास हो, भारतीयता उससे विलग नहीं होना चाहिए</span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif" lang="EN-US">’</span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">। इस आदर्श वाक्य को यदि जीवंत करना हो हर आदमी कुछ काम आसानी से कर सकता है। प्रवचन-कथाओं के लिए मुझे पूरे देश-दुनिया में प्रवास करना पड़ता है। इसी सिलसिले में एक बार किसी घर में ठहरा तो बड़ा चौंकाने वाला संवाद सुना। सुबह जब दूध वाला आया तो सात साल का बच्चा मां से पूछ रहा था यह आदमी दूध कहां से लाता है? प्रश्न छोटा था पर मेरे मन में सवाल कौंध गया। यदि बच्चों को यह नहीं मालूम कि दूध कहां से आता है तो हमें सोचना चाहिए कि यह शहरी गति किसी दिन इनको और अशांत कर देगी। आज भी भारत की पहचान गांवों से है। वहां बहुत कुछ ऐसा है जो हमें शांति प्रदान कर सकता है।</span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">हमारे बच्चों को कहीं न कहीं गांव से जोड़ने के लिए कुछ प्रकल्प करते रहना चाहिए। गांव से सीधे आने वाले सामान से बच्चों को जरूर जोड़ें। गांवों के विकास के लिए सरकारी योजनाएं बना दी गईं, शहरी विकास के लिए मल्टी नेशनल बाजार व्यवस्था तैयार हो गई लेकिन, इन दोनों के बीच भारतीय मनुष्य का क्या होगा? इसलिए कम से कम अपने निजी विकास को गांव से जोड़े रखिए। आपका गांव से जुड़ना जीवन में कुछ ऐसा देगा जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। उस सुगंध से अपने व्यक्तित्व को महकाने के लिए कोई अवसर मत छोड़िए। हम गांव का मतलब गंदगी, अशिक्षा मान लेते हैं। लेकिन, इस अशिक्षा-गंदगी के पीछे एक बहुत बड़ी तालीम छुपी है। पकड़ सकें तो जरूर पकड़िएगा।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>बुद्धि का उचित प्रयोग कर विलक्षण बनें</b></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">जीवन में सफल होने के लिए केवल बुद्धिमान होने से काम नहीं चलेगा। हमें विलक्षण भी होना पड़ेगा। क्या फर्क है इन दोनों में? बुद्धिमान होना परिश्रम है, एक व्यवस्थित प्रक्रिया है और इसमें शिक्षा सहयोग करती है। बुद्धि हम सबके भीतर होती है, क्योंकि शरीर का अंग मस्तिष्क है और मस्तिष्क में बुद्धि दी गई है। किसी के पास कम होगी, किसी के पास ज्यादा हो सकती है। यह एक इंस्ट्रुमेंट है, जो भगवान ने हमें दिया है। इसका थोड़ा-सा उपयोग कर लें तो बुद्धिमान हो जाएंगे। लेकिन, बुद्धि जब सार्वजनिक रूप से, निजी, पारिवारिक और व्यावसायिक रूप से सदुपयोग में आ जाए और अच्छे परिणाम दे दे उसे विलक्षणता कहते हैं। आपने कारोबार में कामयाबी हासिल कर ली और परिवार में कलह चल रहा है। परिवार संभाल लिया, धंधा ठीक चल रहा है पर निजी रूप से परेशान हैं। यदि सबकुछ ठीक हो और समाज या राष्ट्र के प्रति जिम्मेदार नहीं हैं तो समझ लीजिए बुद्धि का आधा ही उपयोग हो पा रहा है और आप विलक्षण होने से चूक रहे हैं। बुद्धि विलक्षण तब होती है या बुद्धिमान व्यक्ति अपने आपको विलक्षण तब मानें जब वह उक्त चारों क्षेत्र में पूरी तरह से सकारात्मक परिणाम दे सके। यदि इन चारों के प्रति जागरूक नहीं हैं तो एक न एक दिन आपका मन बुद्धि से वह काम करवा लेगा, जिसके सामने आने पर छवि खराब हो सकती है, प्रतिष्ठा गिर सकती है। आप अपराधी भी बन सकते हैं। बुद्धि का वैसा उपयोग कीजिए, जिसके लिए ईश्वर ने यह दी है। फिर आपको विलक्षण होने से कोई नहीं रोक सकता।</span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>पुण्य भी गोपनीय रखकर ही करने चाहिए</b></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">पुण्य भी पाप की तरह गोपनीय बनाकर करना चाहिए। हम लोग जब कोई गलत काम करते हैं तो उसे छिपाने का प्रयास करते हैं और अच्छे काम को बहुत प्रचारित करने लगते हैं। जबकि सच तो यह है कि धर्म यानी सदकार्य गोपनीय हो और अधर्म (दुष्कर्मों) का प्रदर्शन करना चाहिए। जब अधर्म प्रदर्शित करेंगे तो स्वयं अपने आप नियंत्रित होने लग जाएंगे। लेकिन कभी-कभी पुण्य को इसलिए प्रकट करना पड़ता है कि पाप का नाश हो। यदि उद्देश्य ऐसा हो तो धर्म को, पुण्य को, अच्छी बात को प्रचारित करने में बुराई नहीं है।</span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">अंगद ने लंका में ऐसा ही किया था। जब रामदूत बनकर पहुंचे तो उन्हें देख सारे राक्षस डर गए। लंका के राक्षस यानी दुर्गुण। क्या दृश्य लिखा है यहां तुलसीदासजी ने, ‘अब धौं कहा करिहि करतारा। अति सभीत सब करहिं बिचारा।। बिनु पूछें मगु देहिं दिखाई। जेहि बिलोक सोइ जाइ सुखाई।।</span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif" lang="EN-US">’ </span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">मतलब राक्षसरूपी दुर्गुण भयभीत होकर विचार करने लगे कि अब पता नहीं विधाता क्या करेगा? वे बिना पूछे ही अंगद को रास्ता दे रहे थे। जिस पर भी अंगद की दृष्टि पड़ती, वह डर के मारे सूख जाता था। जब हम सदमार्ग पर चलते हैं तो बाधा पहुंचाते हैं हमारे ही दुर्गुण। यहां दुर्गुण अंगद की मदद कर रहे थे कि आप मंजिल तक पहुंच जाएं, क्योंकि रामदूत होने का पुण्य अंगद के साथ था। तो हमारे पुण्य तब जरूर प्रकट कीजिए जब पाप का विनाश करना हो। वरना अधिक प्रचारित सदकार्य भी अहंकार का कारण बन जाएंगे।</span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,</b></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.... मनीष</b></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....</b></span></div><div><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b><br /></b></span></div>Jai Guru Geeta Gopalhttp://www.blogger.com/profile/01621836960274288942noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6101091264294453966.post-91308791321255343492020-09-20T20:16:00.002-07:002020-09-20T20:16:20.819-07:00जीवन जीने की राह (Jeevan Jeene Ki Rah9)<p> <b>नवीनता की खोज में मूल्य न छूट जाएं...</b></p><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">जवानी को अनदेखे को देखने में, अथाह की थाह पाने में बड़ा मजा आता है। जवानी अज्ञात कुछ भी नहीं रखना चाहती। इसीलिए कई बार जीवन की कई ढंकी चीजों पर भी टूट पड़ती है। शास्त्रों में तो लिखा है कि युवा पीढ़ी को वैसा ब्रह्म बहुत अच्छा लगता है, जिसका चिंतन कभी किसी ने न किया हो। जिसका चिंतन हो चुका हो, उसका आकर्षण समाप्त हो जाता है। इसीलिए जवान लोग नया-नया ढूंढ़ने में लग जाते हैं। आज का धर्म है मैक इन इंडिया। यह भी एक खोज है। कहते हैं ब्रह्म को जानना हो तो नई दृष्टि विज्ञान की चाहिए और उसको जीना हो तो नई दृष्टि संस्कार की चाहिए। युवा पीढ़ी जब खोजने निकलेगी तो सहारा विज्ञान का लेना पड़ेगा लेकिन, जिसे खोजने निकले हैं उसके भीतर कुछ ऐसा है, जिसके लिए विज्ञान के साथ संस्कार और संस्कृति की भी जरूरत पड़ेगी। उमंग और उत्साह जवानी के लक्षण हैं लेकिन, इसे बनाए रखने के लिए जवानी भटककर गलत रास्ते पर चली जाती है। उमंग के लिए जीवन को विलास में न बदला जाए। युवा यदि संस्कार से जुड़ते हैं तो एक बात बहुत अच्छे से समझ में आएगी कि वे युवा हैं इसलिए एक पीढ़ी बाद आए हैं। तो जो पीढ़ी गुजरी उससे कुछ नया करके जाएं और जो नई पीढ़ी आएगी उसके लिए और कुछ नया छोड़कर जाएं लेकिन, मूल्य न छूट जाएं। नए को खोजिए, नवीनता सांस में उतारिए लेकिन, ऐसा न हो कि वह भोग-विलास लेकर आ जाए। ऐसा हुआ तो वह नया बहुत महंगा पड़ जाएगा।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>संसार में रहकर भी हम ईश्वर के अंश...</b><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘बिस्वरूप रघुबंसमनि करहुं वचन बिस्वासु। लोक कल्पना बेद कर अंग अंग प्रति जासु।। पति-पत्नी केबीच झगड़े के जितने कारण हैं उनमें एक है हस्तक्षेप। दोनों में सबसे अधिक निकटता होती है और इतनी नज़दीकी वाले लोग भी यदि हस्तक्षेप पर आपत्ति ले तो कलह होना ही है। इसलिए जब भी हस्तक्षेप जैसी स्थिति बने, दोनों को ही सबसे पहले यह देखना चाहिए कि हस्तक्षेप के पीछे अहंकार है या हित की भावना। केवल हठ है या प्रेम भी बोल रहा है। मंदोदरी जब पति रावण को समझाने का प्रयास कर रही थी और वह समझ नहीं रहा था तो प्रभाव बनाने के लिए राम के व्यक्तित्व पर टिप्पणी की। तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘बिस्वरूप रघुबंसमनि करहुं वचन बिस्वासु। लोक कल्पना बेद कर अंग अंग प्रति जासु।।<span lang="EN-US">’ </span>यहां मंदोदरी ने श्रीराम को विश्वरूप कहा है। यानी सारा संसार उन्हीं का रूप है। परमात्मा प्रकृति के कण-कण में बसा है। हमारे भीतर भी वह उसी प्रमाण में है। यदि उसका सदुपयोग कर लें तो सही मार्ग पर जाएंगे और उसके विपरीत चलना ही गलत रास्ता है, जो रावण कर रहा था। परमात्मा विश्वरूप है इसलिए विशाल है और हम लोग ओस की बूंद की तरह बहुत छोटे हैं। पर ओस की बूंद की एक खूबी होती है कि वह जिस पत्ते पर होती है उसका रंग उसी में उतरता है। लगता है बूंद का रंग वही है जो पत्ते का है। पर ऐसा है नहीं। ओस की बूंद पत्ते से बिल्कुल अलग है। हम संसार में रहें, उस संसार की झलक हममें दिखे पर अलग हटते ही वापस परमात्मा का अंश बन जाएंगे। रावण इसे भले ही नहीं समझा हो पर हमारे लिए अभी समझने की संभावनाएं बनी हुई हैं।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>अपनी दृष्टि को भीतर की ओर मोडि़ए....</b><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">दूसरों की गलतियां देखना बहुत आसान है लेकिन, अपनी भूल देखने के लिए निगाह दूसरी चाहिए। जिन नेत्रों से हम बाहर की दुनिया देखते हैं, जिनके माध्यम से कई दृश्य जीवन में उतार लेते हैं वे आंखें स्वयं की भूल देखने के काम नहीं आतीं। दूसरों की गलतियां देखना बहुत आसान है लेकिन, अपनी भूल देखने के लिए निगाह दूसरी चाहिए। इन्हीं आंखों को थोड़ा-सा भीतर मोड़ दें तब अपनी भूल नज़र आ सकती है। चूंकि नेत्रों का शारीरिक गठन बाहर खुलता है इसलिए लोग इतने आदी हो जाते हैं कि भूल ही जाते हैं कि इन्हें भीतर भी मोड़ा जा सकता है। पलकें तो आदमी या तो नींद में बंद करता है या जितनी स्वत: झपकती है उतनी ही बंद होंगीं। यदि किसी से पांच-दस मिनट पलकें बंद कर बैठने को कहें तो उसके भीतर तूफान शुरू हो जाता है। लेकिन, जिन्होंने लंबे समय पलक बंद करने का अभ्यास कर लिया उनके नेत्र भीतर की ओर अपने आप मुड़ने लगेंगे और अपनी भूलें भी दिखने लगेंगीं। भीतर नेत्र मुड़ते ही आपका दृष्टिकोण बदल जाएगा और आसपास जितने रिश्ते, जितने व्यक्ति हैं, उनकी समझ के मामले में आप परिपक्व हो जाएंगे। फिर जो आपको नापसंद हों, उन्हें लेकर भी सोचने लगेंगे कि इसके पीछे का कारण मैं ही तो नहीं? खुशी और गम इसी दृष्टिकोण से उत्पन्न होने लगेंगे। मनोवैज्ञानिकों ने तो कहा है सुख-दुख साइकोलॉजिकल स्थितियां हैं। यदि स्वयं को देखने में योग्य हो गए तो दूसरे जिन बातों से दुखी हैं उन्हीं में सुख ढूंढ़ लेंगे। वरना खुशी की बातें या स्थितियां भी गम दे जाएंगीं। जब भी समय मिले, पलकों को अपनी ओर से बंद करिए।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>परिवार भीतर के संसार का पहला दरवाजा...</b><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">ईश्वर मात्रा से नहीं, गुण से प्रगट होता है। इसे थोड़ा सरल बनाकर समझा जाए। सबसे पहले तो यह तय कर लें कि ऊपर वाला प्रकट कहां होता है। यानी किन-किन चीजों में उसको देखा जा सकता है? हमारे पास दो तरह के संसार हैं। एक बड़ा जो बाहर है, जिसमें हमारा व्यावसायिक, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन चलता है। एक छोटा संसार है जो भीतर का है। इसमें निजी जीवन संचालित होता है। परिवार का जीवन बाहर और भीतर के बीच का होता है। परिवार में कुछ गतिविधियां बड़े संसार जैसी होती हैं। धन-दौलत, अपना-पराया ये बाहर का संसार है, जो परिवार में भी होता है। इन दोनों में ही परमात्मा का अंश होता है लेकिन, बाहर के संसार में यदि परमात्मा को खोजें तो वह बड़ा जरूर है यानी मात्रा में अधिक हो सकता है पर गुण में छोटा ही होगा। जब अपने भीतर के छोटे संसार में उतरेंगे तो परमात्मा मात्रा में भी छोटा मिलेगा और गुण में एक स्वाद देता जाएगा। ईश्वर की खोज बाहर कठिन हो सकती है। ईश्वर खोजने से ज्यादा जीने का विषय है और जिंदगी जीने के मौके परिवार व निजी जीवन में ज्यादा हैं। बाहर के संसार में जब जीवन जीने जाते हैं तो कई बाधाएं होती हैं। वहां एक खींचतान है इसलिए आप जीवन को लेकर थोड़ा असहज महसूस करेंगे। अत: रोज थोड़ी देर भीतर के छोटे और निजी संसार में जरूर जाया करें, जिसका पहला दरवाजा परिवार होता है। इसका माध्यम है योग। प्रयोग करके देखिए, परिवार के मतलब भी बदल जाएंगे और परमात्मा का स्वाद भी।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>समर्पण से जीवनसाथी के अस्तित्व को जानें...</b><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">समझदार पति-पत्नी एक-दूसरे का व्यक्तित्व तो बचा लेते हैं लेकिन, अस्तित्व नहीं बचा पाते। उसके लिए समझ से ज्यादा समर्पण जरूरी होता है। चूंकि उम्र का एक लंबा समय दोनों ने अलग-अलग बिताया होता है और पति-पत्नी बनने के बाद इनकी पहली मुलाकात व्यक्तित्व से ही होती है, इसलिए सारी समझ इसी को बचाने में लगा दी जाती है। जीवनसाथी का अस्तित्व टटोलने के लिए केवल निकटता काम नहीं आती। समर्पण भाव भी पैदा करना पड़ता है, जिसकेे लिए अहंकार छोड़ना जरूरी है। व्यक्तित्व गतिशील भी होता है और परिवर्तनशील भी। जैसे-जैसे किसी विवाहित जोड़े की उम्र बढ़ती है, उनके व्यक्तित्व में भी परिवर्तन आने लगता है। बहुत से लोग जो पहले गंभीर थे, अब मस्ताने हो गए और वैवाहिक जीवन की शुरुआत मस्ती से करने वाले थक गए, उदास हो गए। अस्तित्व भी गतिशील होता है लेकिन, परिवर्तनशील नहीं होता। इसलिए जीवनसाथी के अस्तित्व को टटोलना हो तो थोड़ा रुकना पड़ेगा। यहां रुकने से मतलब है उसके शरीर से आगे बढ़कर उसकी आत्मा को स्पर्श करना। आज भी अधिकतर जोड़े जीवन की यात्रा शरीर से शुरू कर शरीर पर ही खत्म कर देते हैं। शरीर झलकता है व्यक्तित्व से और आत्मा के दर्शन होंगे अस्तित्व में। जिन क्षणों में जरा भी जीवनसाथी की आत्मा महसूस की जाती है, वो दांपत्य के दिव्य क्षण होते हैं। इन्हें पाने के लिए शुरुआत समर्पण से ही करनी पड़ेगी।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>प्रार्थना में करुणा से भक्ति पैदा होती है...</b><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">विज्ञान ने भौतिकता को तो आसान बना दिया है लेकिन, आत्मिक बातें कठिन होती जा रही हैं। इन दिनों हमारे जीवन में एक विषय है जनसंपर्क। मोबाइल ने इसे इतना सरल कर दिया कि सारी दुनिया मुट्ठी तो दूर, उंगली की छोटी-सी नोक पर आ गई है पर प्रेमपूर्ण संबंधों के मतलब ही बदल गए। प्रेम पर वासना की ऐसी परत जमी कि लोग भूल ही गए प्रेम होता क्या है। ऐसे में प्रेमपूर्ण होना कठिन हो गया है। यदि हमें दूसरों को प्रेम का मतलब समझाना हो या खुद प्रेम में उतारना हो तो एक आध्यात्मिक तरीका है- करुणामय हो जाना। करुणा प्रेम का ऐसा विकल्प है, जिसमें थोड़ी बहुत सुगंध और स्वाद रह सकता है। करुणा की विशेषता यह है कि वह अलग-अलग क्रिया में भिन्न परिणाम देती है। करुणा को सहयोग से जोड़ दें तो प्रेम की झलक मिलेगी। करुणा वाणी से जुड़ जाए तो भरोसा पैदा होता है। चिंतन में यदि करुणा का समावेश हो जाए तो परिपक्वता आ जाती है। क्रिया से जुड़ जाए तो परोपकार बनने लगता है। क्रोध में उतर आए तो हितकारी दृष्टि, स्नेह और ममता जाग जाती है। मांग में करुणा आने पर प्रार्थना पैदा होती है और प्रार्थना में यदि करुणा उतर जाए तो फिर भक्ति पैदा हो जाती है। जब भी भीतर करुणा उतरे, पहला काम यह किया जाए कि इसे दूसरों से जोड़ें। अपनी करुणा को खुद पर खर्च करने में कंजूसी न करें। यदि प्रेमपूर्ण होना कठिन हो तो कम से कम करुणामय तो हो ही जाएं। करुणामय व्यक्ति विज्ञान का भी दुरुपयोग नहीं करेगा।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>दक्षता बढ़ाने के लिए भीतर पंचतत्व उतारें....</b><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">संगठन पंचतत्वकी तरह व्यक्त होता है। आजकल परिवार हो या व्यापार, संगठन का महत्व बढ़ रहा है। राष्ट्र की तो ताकत ही संगठन है। यदि कुछ लोग एक छत के नीचे, एक साथ रह रहे हों तो उस रहन-सहन को संगठन में बदल लेना चाहिए। किसी संस्थान में यदि संगठन ठीक से उतर आए तो अधिकारियों और कर्मचारियों की योग्यता, निष्ठा, ईमानदारी और परिश्रम के मतलब ही बदल जाएंगे। हम अपने संस्थान या संगठन में किसी से उम्मीद करते हैं कि वह किसी एक क्षेत्र में परिपक्व, कामयाब हो तो दूसरे क्षेत्र में भी वैसा ही प्रदर्शन करे। प्रबंधन की भाषा में कहें तो यदि कोई मार्केटिंग में दक्ष है तो वह एचआर विभाग में कमजोर पड़ जाता है। पर यदि संगठन को पंचतत्व से जोड़ें तो सभी लोग सभी कामों में दक्ष हो सकेंगे। पंचतत्व में सबसे पहले पृथ्वी को समझें। इसमें पहाड़ भी होते हैं, वृक्ष भी हैं। दूसरा तत्व है जल जिसमें नदी, तालाब, समुद्र हैं। तीसरा है अग्रि। इसमें राख, अग्नि और धुंआ है। वायु में वेग, सुगंध और आंधी है तथा अंतिम तत्व यानी आकाश विशाल है, ध्वनि लिए हुए है और बादल का परदा उस पर है। ये पांचों तत्व एक साथ मिलकर पूरी सृष्टि चलाते हैं। हमारे भीतर ये पंचतत्व हैं और यदि ये संगठित हो जाएं, तो वह व्यक्ति जिस भी संगठन में होगा, उसे ऊंचाइयां देगा। प्रयास करें कि इस पूरी प्रकृति में जो पंचतत्व हैं वे हमारे भीतर उतरें और हम जिस भी संगठन से जुड़ें, हर क्षेत्र में दक्ष होकर उसके लिए खूब योगदान दे सकें।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>सोच-समझकर किसी की जय जयकार करें...</b><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">परमात्मा की जय की जाए यह तो समझ में आता है पर दो कोड़ी के लोगों की भी जय करने लगते हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि जब किसी की जय कर रहे होते हैं तो उसके गुण-दुर्गुण आपके भीतर उतरने लगते हैं। अब तो उन लोगों की भी जय-जयकार होती है, जिनमें गुण ढूंढ़े नहीं मिलते और दुर्गुण रोम-रोम में होते हैं। लिहाजा जय का नारा भी एक-दूसरे के भीतर दुर्गुण स्थानांतरित करने का जरिया बन जाता है। बहुत सारी चीजों की जय करें तब इस जय के नारे को गृहस्थी से भी जोड़ें। जय गृहस्थी, जय परिवार, जय ऐसा कहने में बुराई नहीं है। परिवार में सब लोग अपना यशदान करते हैं। एक की खूबी दूसरे में उतरे, जिनमें योग्यता है वो उसका परिणाम परिवार में देना चाहें तो दिनभर में एक बार ‘जय गृहस्थी<span lang="EN-US">’ </span>जरूर बोला जाए। जिस घर में हम रहते हैं, जिस परिवार के सदस्य हैं उससे हमें बहुत कुछ मिला होता है। जयकारे का मतलब है अब वह लौटाया जाए। परिवार भी एक संस्था है और हमारा कारोबार भी एक संस्था है। संसार नाम की संस्था में इंद्रियां फैलती हैं, परिवार नामक संस्था में इंद्रियां मुड़ती हैं। इसलिए जब इंद्रियों का उपयोग संसार में कर चुके हों और घर लौट रहे हों तो इंद्रियों द्वारा संग्रहित वस्तुओं को थोड़ा छानकर घर में लाएं। जय शब्द के अर्थ ठीक से समझें। जय का मतलब यदि परिवार में ठीक से उतार सकें तो आज परिवार टूटने के जो खतरे हमारे सामने मंडरा रहे हैं वो दूर हो जाएंगे।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>अहंकार को काबू कर पुरुष परिवार बचाएं...</b><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">नारी की उपस्थिति से ही मकान घर बनता है। वरना वह ईंट-सीमेंट के ढांचे से ज्यादा कुछ नहीं होता। पुरुष अपने स्वभाव के कारण मकान को घर बना ही नहीं सकता। यह काम महिलाएं ही करती हैं। किसी भी घर का आधार आपसी समझ और प्रेम होता है। रावण के पास बहुत बड़ा महल था। पत्नी मंदोदरी बार-बार उस महल को घर बनाने का प्रयास करती पर जिद्दी और अहंकारी रावण ऐसा होने नहीं दे रहा था। मंदोदरी जब समझा रही थी तो रावण ने न सिर्फ पत्नी का मजाक उड़ाया बल्कि समूची नारी जाति पर व्यक्तिगत टिप्पणी कर दी। रावण विद्वान था लेकिन, अहंकार जितने भेद पैदा करता है उनमें से एक स्त्री और पुरुष का भी कर देता है। अहंकार से भरी रावण की उस वाणी पर तुलसीदासजी ने लिखा, ‘साहस अनृत चपलता माया। भय अबिबेक असौच अदाया।। रिपु कर रूप सकल तैं गावा। अति बिसाल भय मोहि सुनावा।।<span lang="EN-US">’ </span>रावण मंदादरी से कहता है- साहस, झूठ, चंचलता, छल, भय, अविवेक, अपवित्रता और निर्दयता.. तूने शत्रु का समग्र रूप गाकर मुझे बड़ा भारी भय सुनाया? यहां वह स्त्रियों के आठ अवगुण गिना रहा है। हमारे समाज में, परिवार में जब पुरुष के भीतर का रावण अंगड़ाई लेता है तो मातृशक्ति पर इसी तरह के आरोप जड़ देता है, आलोचना करने लगता है और इसी भेद के कारण घर टूट जाते हैं। घर-परिवार में रहते हुए अपने भीतर के रावण को नियंत्रित रखिएगा। वरना भारत की सबसे बड़ी पूंजी परिवार है और हम अपने ही भीतर के रावण के कारण उसे तोड़ बैठेंगे।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">रिश्तों को मन से बचाएं, हृदय से निभाएं...<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">रिश्ते भी फसल की तरह होते हैं। इनके बीज बड़ी सावधानी से बोना पड़ते हैं और उससे भी ज्यादा सावधानी देख-रेख में बरतनी पड़ती है। फसल के लिए सबसे नुकसानदायक होती है खरपतवार। ये वो छोटे-छोटे पौधे होते हैं जो मूल फसल के पौधे के आसपास उगकर उसका शोषण करते हैं। किसान समय-समय पर खरपतवार को नष्ट करता रहता है। रिश्तों की फसल बचाना है तो मस्तिष्क, मन, हृदय और आत्मा को समझना होगा। मस्तिष्क के रिश्ते व्यावहारिक होते हैं। व्यापार की दुनिया में मस्तिष्क काम आता है। हृदय में घर-परिवार के रिश्ते बसाए जाते हैं। आत्मा से रिश्ते निभाना थोड़ा ऊंचा मामला है। रिश्तों की फसल में सबसे खतरनाक खरपतवार मन के रूप में होती है। यहां-वहां फैली गाजरघास या किसी नदी में उगी जलकुंभी को देखेंगे तो मन की भूमिका समझ जाएंगे। मन रिश्तों के मामले में ऐसा ही करता है। इसलिए रिश्ते निभाइए हृदय से। उन्हें पालना हो तो आत्मा का उपयोग कीजिए। मस्तिष्क से रिश्ते निभाने पड़ते हैं यह जीवन का व्यावहारिक पक्ष है लेकिन, रिश्तों को मन से पूरी तरह बचाइएगा। रिश्तों की फसल के लिए सबसे अच्छी खाद होती है समय, समझ और समर्पण की। यह खाद ठीक ढंग से दी जाए तो फसल बहुत अच्छे से फूलेगी-फलेगी, अन्यथा मन भेद को जन्म देता है। भेद का अर्थ है संदेह, ईर्ष्या, झूठ, कपट। यहीं से रिश्ते एक-दूसरे का शोषण करने पर उतर आते हैं। रिश्तों की फसल बहुत सावधानी से बोइए, उगाइए, बचाइए और फल के परिणाम तक ले जाइए।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>नाम-दाम कमाएं पर त्याग की वृत्ति रखें...</b><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">एक दिन ऊपर जाने का मौका आएगा ही और कहीं ऐसा न हो कि तब हमारा उत्साह खत्म हो जाए। सीढ़ियों के सहारे आप ऊपर से नीचे उतर सकते हैं और नीचे से ऊपर चढ़ भी सकते हैं। परमात्मा जब अवतार लेता है तो ऊपर से नीचे धरती पर उतरता है। अपनी लीला से यह संदेश देता है कि मैं ईश्वर हूं पर ऊपर से नीचे उतरकर मनुष्य बन गया हूं। अगर ऊपर से नीचे उतरा जा सकता है तो नीचे से ऊपर क्यों नहीं चढ़ सकते? यह प्रश्न हर अवतार ने अपने समय के मनुष्यों से किया है और आज भी कर रहा है। हम चाहें तो ऊपर चढ़ सकते हैं। इसमें मदद करेंगे हमारे धर्म ग्रंथ। आपका संबंध किसी भी धर्म से हो, सभी के पास अपने ग्रंथ हैं और उनके प्रसंग या संदेश ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ी हैं। सीढ़ी चढ़ने या उतरने में जरा-सी लापरवाही हुई तो गिर भी सकते हैं। सीढ़ी चढ़ते हुए जब सबसे ऊपर के पायदान पर पहुंचते हैं तो वहां भगवान को नहीं पाएंगे। आपको लगेगा स्वयं ही भगवान जैसे हो गए। सबसे ऊंची पायदान पर आप और भगवान में कोई फर्क नहीं है। लेकिन, ऊपर चढ़ने में हमें संसार की आसक्ति रोकती है। संसार नीचे की ओर खींचता है, इसलिए जब ऊपर चढ़ना हो तो उत्साह बनाए रखना पड़ेगा, जिसमें त्याग, आकांक्षा दोनों जुड़े रहेंगे। आकांक्षा से हम संसार में उतरते हैं और यदि त्याग की वृत्ति आ जाए तो संसार छोड़कर सीढ़ी चढ़ने में दिक्कत नहीं होगी। संसार में खूब नाम-दाम कमाइए पर त्याग की वृत्ति रखिए। एक दिन ऊपर जाने का मौका आएगा ही और कहीं ऐसा न हो कि तब हमारा उत्साह खत्म हो जाए।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>मन कुटिल हो तो गुण भी दोष दिखते हैं...</b><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">माया को छल बताकर कहता है स्त्री छली होती है, जबकि स्त्री को अपनी देह के कारण माया माना गया है। स्त्री का चरित्र भावनाओं की लहर की तरह होता है, जिसकी कोई व्याख्या नहीं की जा सकती, अनुभूति जरूर की जा सकती है। पुरुष का चरित्र आक्रामक होकर शोषण की वृत्ति रखता है। स्त्री के चरित्र की कूटनीतिक चालों की तरह व्याख्या रावण जैसे लोग ही कर सकते हैं। लंका कांड में मंदोदरी जब पति रावण को समझा रही थी तो चूंकि वह उस समय राजनीतिक भाषा बोल रहा था, चरित्र में कुटिलता उतर आई तो स्त्रियों की आठ खूबियों को दोष बता दिया। पहले कहा- साहस। स्त्री का सबसे बड़ा साहस होता है कि वह मां बनने की क्षमता रखती है। जबकि प्रसव मृत्यु को आमंत्रण भी हो सकता है। अनृत, यानी झूठ। रावण कहता है स्त्रियां झूठ बहुत बोलती हैं। तो क्या पुरुष इसमें कम पड़ता है? स्त्री की चंचलता को वह दोष बताता है, जबकि चंचलता उसका खुलापन है। माया को छल बताकर कहता है स्त्री छली होती है, जबकि स्त्री को अपनी देह के कारण माया माना गया है। उसे डरपोक कहता है। जो परिवार के लिए कुछ भी करने को तैयार हो वह डरपोक कैसे हो सकती है? उसके बाद अविवेक का दोष बताता है। जबकि स्त्री का विवेक पुरुष के मुकाबले अधिक जागा हुआ होता है। इसी प्रकार अपवित्रता और निर्दयता को भी उसने स्त्रियों के साथ दोष के रूप में जोड़ा है। रावण जैसे लोग समाज में स्त्रियों के प्रति इस प्रकार की टिप्पणियां कर समूची मानवता के विरोधी बन जाते हैं। राम ऐसे ही रावण को मिटाने के लिए धरती पर आए थे।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>प्रेम पति-पत्नी के रिश्ते का प्राण है...</b><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">खतरा तब और बढ़ता है जब स्त्री-पुरुष एक-दूसरे पर सत्ता जमाने लगते हैं। सत्ता स्वभाव से ही स्वभक्षी होती है। इसकी कामना रखने वाला तैयार रहे कि यह एक दिन उसे भी कुतर-कुतरकर खा जाएगी। खतरा तब और बढ़ता है जब स्त्री-पुरुष एक-दूसरे पर सत्ता जमाने लगते हैं। उनमें जेंडर कॉन्शसनेस की समस्या आ ही जाती है। मैं स्त्री हूं, मैं पुरुष हूं ऐसे झगड़े नौकरी-व्यापार में दिखना आम है, लेकिन जब पति-पत्नी एक-दूसरे पर सत्ता बनाना चाहते हैं तो कीमत बच्चे चुकाते हैं। आजकल पढ़े-लिखे स्त्री-पुरुषों के लिए प्रेम एक काम हो गया है। प्रेम इस रिश्ते का प्राण है लेकिन, व्यस्तताओं के बीच प्रेम काम की तरह निपटाया जा रहा है। यह फर्क जरूर है कि पुरुष के पास स्त्री के मुकाबले काम अधिक होते हैं, इसलिए प्रेम उसके लिए अंतिम प्राथमिकता है। स्त्रियां भी बहुत काम करती हैं, उनके लिए भी प्रेम एक काम है। इसीलिए दोनों के बीच रूखापन उतर आया है। स्त्रियों के मन में यह भाव गहरा रहा है कि वे पुरुषों से पीछे न रह जाएं। स्त्री के पास उसका स्वधर्म इतना मजबूत है कि जहां खड़ी हो, वहीं ऊंचाई पा सकती है। उसे ऊंचा होने के लिए पुरुष का प्लेटफॉर्म चाहिए भी नहीं। लेकिन दोनों के बीच अजीब-सा मुकाबला है और उसमें प्रेम दम तोड़ता जा रहा है। जैसे ही पति-पत्नी के बीच का प्रेम टूटता है, उनकी उदासी बच्चों में उतर आती है। आजकल ज्यादातर बच्चे चिड़चिड़े और जिद्दी इसलिए भी पाए जाते हैं कि उनके प्रेम का स्रोत समाप्त हो गया है। प्रेम को प्रेम ही रहने दीजिए। तब ही रिश्ते सुरक्षित रह पाएंगे।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>समय के महत्व को ठीक से समझें...</b><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">सबको सभी बातों का ज्ञान हो जाए, जरूरी नहीं है। जब हम अज्ञान की स्थिति में होते हैं तो कुछ वस्तुओं, व्यक्तियों को लेकर भ्रम हो जाता है। पर दुनिया का सबसे बड़ा भ्रम है स्वयं के बारे में गलतफहमी। रावण ऐसे ही भ्रम में जी रहा था। पत्नी मंदोदरी के समझाने पर पहले तो उसने मंदोदरी की आलोचना की। फिर अपनी प्रशंसा के बीच बड़ी सफाई से उसकी भी तारीफ करने लगा। कहता है, ‘सारा संसार मेरे वश में है यह बात तेरी कृपा से अब मेरी समझ में आई है। मैं तेरी चतुराई समझ गया हूं। तू समझाने के बहाने मेरी प्रभुता का बखान कर रही है।<span lang="EN-US">’</span><o:p></o:p></span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">इस संवाद पर तुलसीदासजी ने लिखा, ‘तव बतकही गूढ़ मृगलोचनि। समुझत सुखद सुनत भय मोचनि।। मंदोदरि मन महुं अस ठयऊ। पियहि काल बस मति भ्रम भयऊ।।<span lang="EN-US">’ </span>रावण कहता है, ‘हे मृगनयनी, तेरी बातें बड़ी रहस्यभरी हैं। समझने पर सुख देने वाली और सुनने से भय मुक्त करने वाली हैं।<span lang="EN-US">’ </span>तब मंदोदरी सोचने लगी कि काल के वश में होने के कारण पति को मति-भ्रम हो गया है।<o:p></o:p></span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">हमें यह समझना है कि समय इंसान की बुद्धि को बदल देता है। इसलिए समय का सम्मान करें, उसके महत्व को ठीक से समझें। यदि अपने ही समय को पढ़ना नहीं आया तो एक दिन वह बुद्धि को पलटकर ऐसा आचरण करा सकता है कि आप सोच भी नहीं सकते। सच है, काल पर किसी का वश नहीं होता लेकिन, कम से कम अपने ऊपर तो वश है कि काल को समझ सकें और रावण जैसी गलती न करें।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>मिलकर निर्णय लें, मिलकर जीना सीखें....</b><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">परिवार में बड़े-बूढ़े कई आदर्श वाक्य सुनाते रहते हैं। ऋषि-मुनियों ने तो गृहस्थ जीवन पर बहुत कुछ कहा है लेकिन, आज के दौर में परिवार जिन हालात से गुजर रहे हैं उसमें शंकराचार्यजी ये शब्द बहुत काम काम हैं,‘न नेयो न नेता<span lang="EN-US">’</span>। यानी आने वाले समय में न कोई नेता होगा और न ही कोई उनका अनुयायी। सबको मिलकर चलना होगा। आज परिवारों में यह इसलिए लागू है, क्योंकि यहां सबको मिलकर चलना ही पड़ेगा वरना परिवार तेजी से टूटते जाएंगे।<o:p></o:p></span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">शिक्षा से प्राप्त योग्यता और धन से प्राप्त जीवनशैली ने परिवारों में शक्ति के कई केंद्र बना दिए। सब नेतृत्व चाहते हैं। बड़े तो इस झंझट में उलझे ही हैं, छोटे से बच्चे को भी लगता है कि मेरा कहा माना जाए। लेकिन अब मिल-जुलकर ही चलना पड़ेगा। काल प्रवाह से परिवार भी नहीं बचे। बहुत तेजी से पुराना गुजरता जा रहा है और नित नया परिवारों में प्रवेश कर रहा है। ऐसे में मिल-जुलकर, एक-दूसरे की बात का मान रखकर ही परिवार चलाने पड़ेंगे। सबसे पहले अहंकार विलीन करना होगा।<o:p></o:p></span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">किसी एक को नहीं, परिवार के प्रत्येक सदस्य को अपनी योग्यता को परिवार का हिस्सा मानना पड़ेगा। अपनी शिक्षा को परिवार की देन समझना होगा। वरना परिवार बंट जाएंगे। लेकिन इस बंटवारे में तन भले ही बंट जाएं पर मन न बंटे। छत बंट जाए पर रिश्ते नहीं टूट जाएं। इसलिए शंकराचार्यजी की इस बात को याद रखते हुए सब मिलकर ही निर्णय लें, मिलकर ही जीना सीखें।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>मूल्यों पर चलकर होश में रहना आसान...</b><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">होश, बेहोश और जोश ये स्थितियां सभी के जीवन में घटती हैं। कुछ लोग जानते हैं कि कब होश में रहना, कैसे बेहोशी से बचना कैसे इन दोनों के बीच जोश बनाए रखना है। होश का मतलब है जब ज़िंदगी की राह में गिरें तो गिरे ही नहीं रहना है, उठना भी है। जोश यानी आगे बढ़ना और बेहोशी का मतलब है रुक जाना। प्रगति करना हो तो बदलाव पर नज़र रखिए। एक तो स्वयं में हो रहे बदलाव पर पकड़ होनी चाहिए, दूसरा आपके आसपास के वातावरण में हो रहे बदलाव की भी पूरी समझ होनी चाहिए। पहले जीने के लिए परम्परा आधारित जीवन पर्याप्त था लेकिन, वक्त बदला तो परम्पराएं भी तेजी से बदलीं। इसलिए अब परम्परा आधारित जीवन नुकसान पहुंचा सकता है। जैसे पिछले दिनों गुरु परम्परा प्रश्नों के घेरे में गई। अब लोग लंबे समय तक गुरुओं से दूरी बना सकते हैं या गुरु बनाने में संकोच करेंगे। जब परम्परा आधारित जीवन से हटें तो मूल्य आधारित जीवन पर जाएं। मूल्य कभी नहीं बदलेंगे। सत्य, अहिंसा, प्रेम, करुणा ये मूल्य हैं। मूल्यों पर चलने वालों के लिए होश बनाए रखना आसान होगा। ज़िंदगी की राह में ठोकरें लगेंगी, आप गिर भी जाएंगे पर यदि होश कायम है तो खुद को उठा भी लेंगे। यदि खुद को नहीं बदला, परम्पराओं पर टिके रहे तो यह भी बेहोशी होगी, जो इनसान के कदम लड़खड़ा देती है, उसे रोक देती है। होश और बेहोशी के बीच जरूरत पड़ती है जोश की। यह जोश ही आपको आगे ले जाएगा।<o:p></o:p></span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">अपनी योग्यता को अहंकार से न जोड़ें...<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">राजसत्ता पर बैठे व्यक्ति की जब कमर टूट जाती है तो वह न किसी की गर्दन मरोड़ सकता है और न ही खुद उसकी गर्दन मरोड़ने की जरूरत रह जाती है। युद्ध शुरू होने से पहले ही रावण का आचरण बता रहा था कि उसकी कमर टूट चुकी है। घर, सेना और मैदान में सभी दूर हालात विपरीत हो रहे थे। पत्नी मंदोदरी ने समझाया तो पहले तो उसका परिहास किया, फिर शब्दों में उसकी प्रशंसा ढूंढ़ने लगा। यहां तुलसीदास ने व्यंग्य करते हुए लिखा है, ‘एहि बिधि करत बिनोद बहु प्रात प्रगट दसकंध। सहज असंक लंकपति सभॉ गयउ मद अंध।<span lang="EN-US">’ </span>यानी इस प्रकार अज्ञानवश विनोद (हास-परिहास) करते हुए रावण को सुबह हो गई। तब स्वभाव से निडर और अहंकार में अंधा लंकापति सभा में पहुंचा। पति-पत्नी एकांत में रहें, विनोद करें तो ये अच्छे लक्षण हैं। लेकिन, रावण तब विनोद कर रहा था, जब उसे बहुत गंभीर होना था।<o:p></o:p></span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">तुलसीदासजी ने उसे निडर बताने के साथ अंधा भी लिखा। दु:साहसी व्यक्ति की यदि दृष्टि चली जाए तो उसके लिए खतरा बढ़ जाता है। फिर उसका हर कदम गलत होता है। रावण के माध्यम से हमें यही समझना चाहिए कि जब आप अपनी योग्यता को अहंकार से जोड़ते हैं, शिक्षा को भोग-विलास में उतार लेते हैं तो फिर सही निर्णय ले पाने की संभावना समाप्त हो जाती है। शिक्षित व्यक्ति को दुर्गुण नहीं पालना चाहिए, योग्य को आलसी नहीं होना चाहिए। वरना जो आचरण रावण कर रहा था वैसा ही हम भी जीवन में कहीं न कहीं करते रहेंगे।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>करुणा से मिलती है संकल्प को ताकत...</b><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">संकल्प लेकर उसे तोड़ना इंसान की फितरत हो गई है। बड़े संकल्प की तो बात दूर है, छोटा-मोटा संकल्प भी पूरा नहीं कर पाते। बहुत से लोग हैं, जो रात को संकल्प लेते हैं कि सुबह जल्दी उठेंगे और सुबह होने पर रात का संकल्प धरा रह जाता है। भोजन के नियंत्रण का संकल्प खाना दिखते ही टूट जाता है। क्यों हमारे संकल्प पूरे नहीं हो पाते? संकल्प पूरा करने के लिए संयम आवश्यक है और संयम में भगवान की उपस्थिति बहुत जरूरी है। यदि आप संयम में यह मानकर चलेंगे कि परमात्मा अनुपस्थित होकर भी मुझे देख रहा है तो संयम को ठीक से पाल सकेंगे। परमात्मा सदैव साथ है, यह भाव उतरते ही आपके भीतर जो सबसे बड़ा गुण आता है वह है करुणा। जब आप करुणामय होते हैं तो न तो अपने प्रति अपराध करेंगे, न दूसरे के प्रति कुछ गलत कर पाएंगे।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">करुणामय व्यक्ति का संयम भी बहुत तगड़ा होता है, क्योंकि उसे परमात्मा का सहारा मिल जाता है। वेद में कहा गया है-’श्रत्ते दधामि प्रथमाय मन्यवे<span lang="EN-US">’</span>। इसमें ऋषि ने परमात्मा से कहा है कि आपका जो पहला संकल्प होगा उसमें मेरी पूरी श्रद्धा है और वह संकल्प है सबके लिए करुणा। इसलिए जब कोई संकल्प लें, उसे पूरा करने के लिए जिस संयम की आवश्यकता हो उसमें सदैव यह ध्यान रखें कि आप अकेले उसे पूरा नहीं कर पाएंगे। इसमें एक और परमशक्ति की ताकत लगेगी। जैसे ही करुणामय हुए, अपने संयम को ताकत दे सकेंगे और फिर संकल्प कभी नहीं टूटेंगे।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>जीवन की जडे़ं ढूंढ़ने के लिए मंदिर जाएं..<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">किस मंदिर में जाकर माथा टेंकें, किस मूर्ति को मान्यता दें? आजकल लोग यह सवाल बहुत पूछते हैं। धर्म के प्रति आधुनिक दृष्टि रखने में बुराई नहीं है पर आधुनिक होते-होते लोग आलोचनात्मक हो जाते हैं। आसान है यह कहना कि मंदिरों में सिवाय लूट के और क्या है। लोग भीख मांगने जाते हैं भगवान से। बाबाओं ने मंदिरों को लूट का केंद्र बना रखा है, पुजारी अपनी दुकान चलाता है। ऐसी बातें आसानी से कह दी जाती हैं। मुझसे लोग पूछते हैं कि आखिर मंदिर जाएं क्यों? इसका उत्तर है यदि आप किसी बात को ठीक से नहीं देख-समझ पाएंगे तो उसका सही अर्थ नहीं पकड़ पाएंगे। यह सही है कि मंदिर लूट, अंधविश्वास, मारामारी के केंद्र बन गए हैं लेकिन, हर बात का सतह के नीचे का पहलू होता है। भले ही सब भीख मांगने जा रहे हों, कोई लूट रहा हो, आप वहां से बहुत कुछ प्राप्त कर सकते हैं। आप जीवन की जड़ें ढूंढ़ने मंदिर में जाएं। जीवन सदैव मौन या एकांत में मिलता है। अभ्यास कीजिए उस देवस्थान पर कितना भी शोर हो पर आपके भीतर शांति घट जाए। </span><br /><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><br /></span><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">दूसरे क्या कर रहे हैं यह छोड़ प्रार्थना कीजिए, अपना रोम-रोम धैर्य से भर लीजिए। पूजा-पाठ, कर्मकांड, हल्ला-गुल्ला ये अपनी-अपनी रुचि का विषय हैं और काफी हद तक मनुष्य की मानसिकता पर टिका है। कोई टिप्पणी या आलोचना करने की जगह उस वरदान से न चूकें जो मंदिर की उस चारदीवारी में बड़ी आसानी से मिल सकता है। जो श्रेष्ठ है, मिल सकता है, उसे लपक लीजिए।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b>नियति व्यवस्था है पर निर्णय हमें लेना है....<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif">जब सब कुछ भगवान की इच्छा से हो रहा है, हर परिणाम में भाग्य काम कर रहा है, हर बात का कोई निमित्त है तो फिर गलत को गलत क्यों ठहराया जाता है? इस तरह के प्रश्न आजकल पढ़े-लिखे समाज में खूब उछाले जाते हैं। केवल सैद्धांतिक पंक्तियों को पकड़ेंगे तो आरोप सही लगेंगे लेकिन, यह अच्छे से समझना होगा कि भगवान जितना नियंता है, उतनी ही नियति है। नियंता का अर्थ है व्यवस्था चलाने वाला और नियति का मतलब है उसने एक ऐसी नीति बना दी है, जो कंप्यूटर के सॉफ्टवेयर की तरह है। आप जैसा करेंगे, वैसा परिणाम मिल जाएगा। नियंता के रूप में भगवान ने नियम बनाया कि पृथ्वी गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण हर चीज को खींचती है। अब यदि गिर जाएं तो यह नहीं कह सकते कि भगवान की इच्छा थी, पृथ्वी ने खींच लिया तो गिर गए। नियंता ने नियम बनाया लेकिन, गिरना आपकी नियति थी। आप ठीक से संभल नहीं पाए तो पृथ्वी खींच रही है। भगवान कृष्ण ने महाभारत युद्ध से पहले कहा था, ‘एक तरफ मैं अकेला हूं, वह भी बिना शस्त्र उठाए तथा दूसरी ओर मेरी सेना होगी। आपको जो लेना हो, ले लो। कौरवों ने सेना चुनी, पांडवों ने निहत्थे कृष्ण को चुन लिया। कुल मिलाकर निर्णय हमारे ऊपर है, भगवान अपनी व्यवस्था कर चुके हैं। इसलिए ऐसे प्रश्नों का कोई मतलब नहीं है। आपको संभावना और चयन ऊपर से दिया गया है और उसी के दायरे में अपना जीवन चलाइए।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /><div class="MsoNormal"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b><span lang="HI">जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है</span>,</b></span></div><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b><span lang="HI">और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है... </span></b></span><b style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span lang="HI"><span face=""arial" , "helvetica" , sans-serif"><b><span style="line-height: 18.4px;">मनीष</span></b></span></span></b><span style="font-family: "mangal" , "serif";"></span><br /><div class="MsoNormal"><b style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span lang="HI">ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....</span></b></div><div><b style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span lang="HI"><br /></span></b></div></div>Jai Guru Geeta Gopalhttp://www.blogger.com/profile/01621836960274288942noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6101091264294453966.post-7002588159055308692020-08-15T23:31:00.001-07:002020-08-15T23:31:05.989-07:00जीवन जीने की राह (Jeevan Jeene Ki Rah8)<p> <b style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">पानी के तीन रूपों जैसे पति-पत्नी के रिश्ते</b></p><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">हमारे यहां दृष्टांत से सिद्धांत समझाने की पुरानी परम्परा है। दृष्टांत और उदाहरण में छोटा-सा फर्क है। बहुत से लोग हर बात को समझाने में कुछ उदाहरण दिया करते हैं। जैसे व्यापार की दुनिया में खेल का उदाहरण दे देते हैं। खिलाड़ियों को व्यापार का उदाहरण देकर समझाते हैं।<o:p></o:p></span><br /><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">हमारे यहां दृष्टांत से सिद्धांत समझाने की पुरानी परम्परा है। दृष्टांत और उदाहरण में छोटा-सा फर्क है। बहुत से लोग हर बात को समझाने में कुछ उदाहरण दिया करते हैं। जैसे व्यापार की दुनिया में खेल का उदाहरण दे देते हैं। खिलाड़ियों को व्यापार का उदाहरण देकर समझाते हैं। व्यापार की दुनिया में खेल का, खेल की दुनिया में व्यापार का और परिवार में इन दोनों का उदाहरण देना, ऐसे प्रयोग बहुत लोग करते हैं। यदि आप कर रहे हों तो थोड़ा सावधान हो जाएं। किसी एक जगह का उदाहरण जरूरी नहीं कि दूसरी जगह उपयोगी रहे और सही साबित हो।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">उदाहरण के तौर पर यदि आप अपने व्यवसाय में खेल का उदाहरण दें कि खेल में कोई एक जीतता है, दूसरे को हारना ही पड़ता है..। लेकिन याद रखिएगा, व्यापार में हार-जीत से जरूरी है ग्राहक को जीतना। अब यह नियम खेल में लागू नहीं होता। वहां कोई ग्राहक नहीं होता। आपके सामने आपका प्रतिद्वंद्वी है और आपको या तो जीतना है या हारना है। ये दोनों उदाहरण घर में बिल्कुल नहीं चल सकते। परिवार में न तो कोई हारता है न किसी की जीत होती है, क्योंकि परिवार न तो व्यापार की तरह चलता है, न खेल की तरह। वहां सभी जीतते हैं और हारते भी सभी हैं। एक रिश्ता पति-पत्नी का ऐसा होता है, जिसके आगे न तो किसी खेल का उदाहरण चलेगा, न व्यवसाय का। इसे समझाने का अच्छा उदाहरण हो सकता है पानी। पानी की तीन स्थिति होती है। जमी हुई स्थिति बर्फ है। कुछ दंपती बर्फ की तरह जड़ हो जाते हैं। पिघला तो तरल होकर सबमें मिल जाता है यह दूसरी स्थिति है। तीसरी स्थिति होती है भाप। जिस दिन ये दोनों भाप बनकर एक-दूसरे में घुल जाते हैं, उस दिन से इनके साथ-साथ पूरे परिवार के लिए शुभ की शुरुआत होगी।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>अर्जित ज्ञान समय रहते दूसरों तक पहुंचाएं<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">जीवन में विपरीत का अनुभव होना ही चाहिए। इसके लिए प्रयोग करते रहें। यदि आप अमीर हैं तो इसका विपरीत यानी गरीबी जरूर देखिए। प्रसिद्धि कमाई है तो गुमनामी क्या होती है इसे भी चखिए। हर स्थिति का एक विपरीत है और जीवन में परिपक्वता लाने के लिए उसका अनुभव, उसका स्वाद होना ही चाहिए।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">जीवन में विपरीत का अनुभव होना ही चाहिए। इसके लिए प्रयोग करते रहें। यदि आप अमीर हैं तो इसका विपरीत यानी गरीबी जरूर देखिए। प्रसिद्धि कमाई है तो गुमनामी क्या होती है इसे भी चखिए। हर स्थिति का एक विपरीत है और जीवन में परिपक्वता लाने के लिए उसका अनुभव, उसका स्वाद होना ही चाहिए। लेकिन विपरीत का अनुभव करना आसान नहीं है। उसके लिए तप करना पड़ता है।</span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">हिंदू शास्त्रों में जब यह प्रश्र उठाया जाता है कि सबसे बड़ा तप कौन-सा? तो उपनिषद में इसका उत्तर है स्वाध्यायी। इसका शाब्दिक अर्थ तो है स्वयं का अध्ययन। लेकिन इसके तीन चरण होते हैं तब स्वाध्यायी होता है। यदि आपकी रुचि तप में है तो फिर सबसे बड़ा तप ही कीजिए। तीन स्तर से स्वाध्यायी पूरा होता है।</span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">पहला, ज्ञान को सही जगह से प्राप्त करें। वह स्थान शास्त्र या गुरु हो सकते हैं। जब सही जगह से ज्ञान प्राप्त हो जाए तो उसे बहुत अच्छे तरह से जीवन में उतारें। स्वाध्यायी का दूसरा स्तर है दोहरा जीवन न जीएं और तीसरा चरण है जो कुछ आपने पाया उसे आगे बढ़ाएं। लोगों में बांटे, खासकर नई पीढ़ी तक जरूर पहुंचाएं। अर्जित ज्ञान को समय रहते दूसरों तक नहीं पहुंचाया तो तप एक तरह से खंडित ही माना जाएगा। तपस्वी व्यक्ति केवल धार्मिक कार्य करे यह जरूरी नहीं है।</span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">एक तपस्वी जब दुनियादारी में उतरता है तो उसका तप उसे सिखाता है कि तुम अपना पेट भर सके ऐसा काम तो करो ही लेकिन, हमारे काम के कारण कई लोगों का पेट पल जाए ऐसा जरूर किया जाए। आज के दौर में जब चारों ओर वासनाओं की आंधियां चल रही हों, गलत रास्ते से लक्ष्य प्राप्त करने के तरीके सिखाए जा रहे हों, मनुष्य अधीर और अधीर होता जा रहा है ऐसे समय जीवन में तप का बड़ा महत्व है।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>लक्ष्य बड़े हों तो दिल भी बड़ा होना चाहिए<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">बड़े सपने देखे जाएं, विशाल अभियान हाथ में लिए जाएं, लक्ष्य छोटे न हों। ऐसी बातें आजकल युवा पीढ़ी को सिखाई जाती हैं। उन्हें दक्ष किया जाता है कि छोटा मत सोचो, बड़ा ही बनना है। आसमान के तारे से नीचे की बात न करो।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">बड़े सपने देखे जाएं, विशाल अभियान हाथ में लिए जाएं, लक्ष्य छोटे न हों। ऐसी बातें आजकल युवा पीढ़ी को सिखाई जाती हैं। उन्हें दक्ष किया जाता है कि छोटा मत सोचो, बड़ा ही बनना है। आसमान के तारे से नीचे की बात न करो। तारे तोड़ने का इरादा रखोगे तो भले ही हाथ कुछ न लगे, कम से कम कीचड़ में सनने से तो बच जाएंगे। उड़ान ऐसी हो कि आसमान भेद दो। कम से कम धरती की धूल गंदा तो नहीं कर पाएगी। ऐसे सारे सूत्र आधुनिक प्रबंधन में सिखाए जाते हैं। ये सब बहुत अच्छा है। ऐसा होना भी चाहिए लेकिन, इसे थोड़ा आध्यात्मिक दृष्टि से भी देखा जाए। अध्यात्म कहता है लक्ष्य बड़े हों तो हृदय भी बड़ा होना चाहिए। दिल बड़ा हो तो बड़े लक्ष्य प्राप्त करने में दिक्कत नहीं होती, क्योंकि बड़े दिल में चारों दुर्गुण (काम, क्रोध, अहंकार और लोभ) अपने अच्छे और बुरे दोनों रूप में रहते हैं। काम अपने आपमें एक ऊर्जा है और विलास भी। जिसका हृदय बड़ा होता है वह ऊर्जा के सदुपयोग और भोग-विलास की मस्ती दोनों का संतुलन बैठा लेता है। क्रोध की उत्तेजना स्वयं को और दूसरों को अनुशासन सिखा सकती है और इसकी कमी आपको कमजोर प्रशासक बना सकती है। बड़े दिल वाला संतुलन करके चलता है। अहंकार से आप प्रभावशाली भी हो सकते हैं और इसके कारण अकेले भी हो सकते हैं। बड़े दिल वाला अहंकार को नियंत्रित करके चलता है। चौथा दुर्गुण है लोभ। आपकी इस वृत्ति में अनेक लोग समा जाएं तो सबका भला हो जाएगा, वरना यह वृत्ति आपको मृत्यु तक ले जाएगी। दुर्गुण सभी में होते हैं पर उनमें से सदगुण निकाल लेना और सदगुण को दुर्गुणों से बचा लेना बड़े दिल वालों की विशेषता होती है, इसलिए जिनके लक्ष्य बड़े हों वे हृदय जरूर बड़ा रखें।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>गलत काम करके सही लक्ष्य नहीं मिलते<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">भोग-विलास की वृत्ति वे सारे आईने तोड़ देती है, जिनमें आदमी अपना विकृत चेहरा देख सके। विलासी व्यक्ति के विचार भी एकतरफा हो जाते हैं। उसका हर इरादा दूसरे को भोगने का होता है। फिर इसके लिए वह झूठ भी बोलता है, हिंसा भी करता है। इसका बहुत बड़ा उदाहरण था रावण। लंकाकांड के आरंभ में श्रीराम सेना के साथ लंका में डेरा डाल चुके थे। बेटे प्रहस्त द्वारा समझाने के बाद रावण अपने महल में चला गया जहां हर दिन नाच-गाने की महफिल चलती थी। अप्सराएं नृत्य कर रही थीं, रावण विलास में डूबा अट्टहास किए जा रहा था। इस दृश्य पर तुलसीदासजी ने एक दोहा लिखा, ‘सुनासीर सत सरिस सो संतत करइ बिलास। परम प्रबल रिपु सीस पर तद्यपि सोच न त्रास।।<span lang="">’ </span>अर्थात राम के रूप में मौत माथे पर नाच रही थी फिर भी विलासी रावण को न चिंता थी न कोई डर। भय नहीं होने का यह मतलब नहीं कि रावण निर्भय था। न ही यह मान सकते हैं कि वह बहुत आत्मविश्वास से भरा था इसलिए चिंतित नहीं था। दरअसल नशे में डूबा आदमी इन दोनों (डर व चिंता) के प्रति लापरवाह हो जाता है। भूल ही जाता है कि ऐसा करते हुए वह स्वयं के अहित के साथ और भी कई लोगों को परेशानी में डाल रहा है। आज के समय में हम रावण से यह शिक्षा ले सकते हैं कि जब किसी बड़े अभियान की तैयारी कर रहे हों तो भोग-विलास से बचकर रहें। भोग-विलास आलस्य और लापरवाही के रूप में भी जीवन में उतरता है। जब सामने चुनौती खड़ी हो और आप लापरवाह या आलसी हो जाएं तो समझो रावण वाली गलती कर रहे हैं। प्रतिस्पर्धा के इस दौर में जबकि जीवन में हर पल कोई चुनौती है, गलत काम करते हुए सही लक्ष्य प्राप्त नहीं किए जा सकते।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>भरोसा हो तो भरपूर बरसती है ईश-कृपा<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">मनुष्य कई घटनाओं का जोड़ है। हमारे आसपास प्रतिपल कुछ घटता है, हमें स्पर्श कर जाता है। कुछ घटनाएं धक्का दे जाती हैं, कुछ दाएं-बाएं से निकल जाती हैं। गौर करें तो हमारा व्यक्तित्व कई घटनाओं के जोड़ से बना है।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">मनुष्य कई घटनाओं का जोड़ है। हमारे आसपास प्रतिपल कुछ घटता है, हमें स्पर्श कर जाता है। कुछ घटनाएं धक्का दे जाती हैं, कुछ दाएं-बाएं से निकल जाती हैं। गौर करें तो हमारा व्यक्तित्व कई घटनाओं के जोड़ से बना है। चूंकि हमारे पास समय नहीं रहता तो हम उनका मूल्यांकन नहीं करते लेकिन, कुछ घटनाएं ऐसी हैं जो संकेत करती हैं कि अब आगे कष्ट होना है, हानि उठानी पड़ेगी, हम चिंता में डूबने वाले हैं। ऐसी घटना को साहित्य में विपत्ति कहा गया है। जब किसी मनुष्य के जीवन में विपत्ति आती है तो वह उससे निपटने के कई तरीके अपनाता है। तुलसीदासजी रामभक्त तो थे ही, बहुत बड़े समाजसेवक भी थे। वे चाहते थे कि भक्त को उदास नहीं होना चाहिए। इसलिए उन्होंने एक बहुत अच्छी पंक्ति लिखी है, ‘तुलसी साथी विपत्ति के विद्या विनय विवेक। साहस सुक्रति सुसत्यव्रत रामभरोसे एक।। तुलसी ने सात बातें बताई हैं, जो विपत्ति के समय हमारी मदद करेंगी। शुरुआत की है विद्या से। जब विपत्ति आती है तो शिक्षा मनुष्य का सबसे बड़ा सहारा है। इसलिए पढ़ाई-लिखाई के इस युग में बच्चों को जरूर पढ़ाएं। फिर कहते हैं पढ़ा-लिखा आदमी विनम्र होना चाहिए। तीसरे में कहा है शिक्षा का उपयोग विवेक से करें। साहस न छोड़ें, अच्छे काम करें, सत्य पर टिके रहें। इन छह के अलावा सबसे बड़ा सहारा है भरोसा भगवान का, जिसे उन्होंने रामभरोसा कहा है। भरोसा एक तरह का पात्र है। उस परमशक्ति की कृपा लगातार बरस रही है। यदि अपने पात्र को खुला रखा तो लबालब हो जाएगा। भगवान समान रूप से कृपा बरसाते हैं। जिसके पास भरोसे का पात्र है, उसका भर जाता है और फिर विपत्ति के समय यह भरोसा ही उसकी सबसे बड़ी ताकत बन जाता है।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>अपने शरीर में अच्छे अतिथि बनकर रहें<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">यदि संभाला नहीं तो शरीर भी स्वभक्षी हो जाता है। यानी यह शरीर जिसे हम खिलाते-पिलाते हैं, एक दिन हमें ही खा जाता है। यदि संभाला नहीं तो शरीर भी स्वभक्षी हो जाता है। यानी यह शरीर जिसे हम खिलाते-पिलाते हैं, एक दिन हमें ही खा जाता है। बात बड़ी गहरी है पर इसे ठीक से समझना पड़ेगा। आज ज्यादातर लोग शरीर का मतलब नाम, धर्म, पद-प्रतिष्ठा की एक पहचान मान लेते हैं और समझते हैं यही शरीर है। यह भोग-विलास का माध्यम, खाने-पीने का रास्ता है। तो क्या सचमुच शरीर केवल इतना है? इन दिनों लगातार काम करने की ललक नशा बनकर जिन-जिन चीजों का नुकसान कर रही है उनमें एक है शरीर। समाजसेवा के क्षेत्र में एक शब्द चलता है मित्र। कोई वृक्ष मित्र बन जाता है, कोई इको फ्रेंडली हो जाता है। कंप्यूटर के जानकारों के लिए कहा जाता है यह कंप्यूटर फ्रेंडली है। आप बेशक कई चीजों के मित्र बनें लेकिन प्रयास कीजिए शरीर मित्र भी बनें। यदि शरीर से मित्रता निभाई तो शायद वृद्धावस्था में यह भी आपसे दोस्ती निभाएगा। वरना बुढ़ापे में तो अपना ही शरीर अपना दुश्मन हो जाता है। इस शरीर को थोड़ा जीतना पड़ता है। जैसे घुड़सवार कमजोर हो तो घोड़े का क्या दोष? शरीर इंद्रियों से बना है और इंद्रियों पर चढ़कर काम करना पड़ता है, वरना ये आपको पटक देंगी। असल में हम शरीर हैं ही नहीं। हम आत्मा हैं जो शरीर में अतिथि के रूप में है। जब आप किसी के अतिथि होते हैं तो इस बात के लिए सावधान रहते हैं कि यहां की वस्तु का उपयोग तो कर सकता हूं पर इस पर मेरा अधिकार नहीं है। अच्छे अतिथि जहां जाते हैं, बड़े कानून-कायदे से रहते हैं। आप भी अपने शरीर में अतिथि बनकर रहें। उसे साफ-सुथरा रखें, उसका मान करें। जो शरीर मित्र बनेगा वह स्वयं को जीत लेगा और जो खुद से जीता, फिर दूसरों के लिए उसे हराना मुश्किल हो जाता है।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>हमारा चरित्र व भीतर की गंभीरता बची रहे<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">गलती करके उसे स्वीकार नहीं करना और बड़ी गलती है। कुछ लोग गलत बात या काम करने के बाद पता ही नहीं लगा पाते कि इसमें गलती हो गई और कुछ ऐसे भी होते हैं, जिन्हें मालूम होता है कि गलती हो गई पर स्वीकार नहीं करते।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">गलती करके उसे स्वीकार नहीं करना और बड़ी गलती है। कुछ लोग गलत बात या काम करने के बाद पता ही नहीं लगा पाते कि इसमें गलती हो गई और कुछ ऐसे भी होते हैं, जिन्हें मालूम होता है कि गलती हो गई पर स्वीकार नहीं करते। स्वीकार कर लेने से गलती हल्की या दूर हो जाती है। लेकिन, हम लोग अड़ जाते हैं और उस गलती का कारण स्वयं में न देखते हुए दूसरों में ढूंढ़ने लगते हैं। इस दौर में ऐसा ज्यादा होने लगा है। कोई अपनी गलती मानने को तैयार ही नहीं। इसका एक बड़ा कारण है कि लोग गंभीरता से कट गए। हर बात को हल्के में लेने लगे। पहले ‘गंभीरता<span lang="">’</span><span lang=""> </span>शब्द का उपयोग समझाने के लिए किया जाता था। जैसे- परीक्षाएं आ रही </span><br /><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">हैं, थोड़ा गंभीर हो जाओ, सामने बहुत बड़ी चुनौती है, इसे गंभीरता से लो..<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">इसका मतलब होता था आगे भविष्य में गलती न हो। आज आदमी अपनी जीवनशैली में गंभीरता नहीं रख पाता। व्यक्तित्व में अजीब-सा उथलापन दिखने लगा है। ध्यान रखिए, गंभीर होने का मतलब यह नहीं है कि मुंह थोड़ा चढ़ा हुआ हो, जरूरत पड़ने पर भी बात न करें, एक चुप्पी ओढ़ ली जाए। गंभीर बनने या दिखने के लिए व्यक्तित्व में तीन बातें उतारनी होती हैं। एक, परिश्रम। गंभीर व्यक्ति आलसी नहीं हो सकता। दो, परमार्थ। गंभीरता इसी में है कि सदकार्य करते हुए दूसरों का भला करें। तीसरी महत्वपूर्ण बात है चरित्र। गंभीर व्यक्ति चरित्र पर टिकता है। आज तो बड़े से बड़ा अपराध करने के बाद भी लोग गंभीर नहीं हैं। जिसे जो समझ में आता है, बोल रहा है, कर रहा है। लेकिन, यदि सच्चे भारतीय हैं तो हमारा चरित्र और हमारे भीतर की गंभीरता बची रहनी चाहिए। इसके लिए परिश्रम, परमार्थ और चरित्र इन तीन चीजों पर काम करते रहिए।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>चातुर्मास में जीवन सद्गुण संकल्प से जोड़ें</b><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">नींद एक ऐसी जरूरत है, जिसके बिना कोई रह नहीं सकता। हिंदू धर्म में नींद को बहुत सुंदर दर्शन से जोड़ा गया है। नींद एक ऐसी जरूरत है, जिसके बिना कोई रह नहीं सकता। हिंदू धर्म में नींद को बहुत सुंदर दर्शन से जोड़ा गया है। आज की तिथि हरिशयनी एकादशी कहलाती है। आज से विष्णुजी चार महीनों के लिए निद्रा में जाएंगे। विष्णु सात्विक भाव के प्रतीक हैं और जब सत्वभावचार मास निद्रा में है तो हमारी जिम्मेदारी और बढ़ जाएगी। इन चार महीनों में कोई ऐसा संकल्प लीजिए जो भीतर के सात्विक भाव को बनाए रखे। जब विष्णु सोते हैं तो वेद हमारे मार्गदर्शक बन जाते हैं। जो वेद न पढ़ सके वह ऐसे शास्त्र पढ़ें, जिनमें वेद का निचोड़ हो। </span><br /><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">ऐसा ही शास्त्र है रामचरित मानस। इन चार महीनों में रामचरित मानस से संदेश लिया जा सकता है कि कैसे परमपिता अपने आपको विश्राम में लेकर संदेश देता है कि विश्राम का अर्थ है ऊर्जा का पुनर्संचरण। लंका कांड में रावण भोग-विलास में डूबा हुआ था और रामजी सेना लेकर लंका पहुंच चुके थे। तब तुलसीदासजी ने लिखा, ‘तहं तरू किसलय सुमन सुहाए। लछिमन रचि निज हाथ डसाए।। ता पर रुचिर मृदुल मृगछाला। तेहिं आसन आसीन कृपाला।।<span lang="">’</span><span lang=""> </span>अर्थात लक्ष्मणजी ने वृक्षों के कोमल पत्ते और सुंदर फूलों पर अपने हाथों से कोमल मृगछाल बिछा दी जिस पर कृपालु श्रीराम विराजमान थे। यहां रामजी किस तरह से बैठे हैं, बताया गया है। यह वही दृश्य है कि विष्णु सोकर भी होश में हैं। हम लोग नींद का मतलब इतना समझते हैं कि जागने के समापन को नींद कहते हैं। असल में होना यह चाहिए कि नींद भी आए और होश भी रहें। राम उस समय पूरे होश में थे और रावण जागते हुए भी सोया हुआ था। यही स्थिति उसके पतन का कारण बनी थी। हम भी चातुर्मास से संदेश लें कि इन चार महीनों में अपने भीतर के सदगुण, संकल्प बहुत अच्छे से जीवन से जोड़ेंगे।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>संस्थान व कर्मचारी परस्पर मददगार बनें<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">हर हाल में हम किसी सूक्ष्म नेत्र के परीक्षण में होते हैं। वह ईश्वर हो सकता है, आपका जमीर हो सकता है। आप स्वयं को जरूर देख रहे होंगे। इस बात को कभी न भूलें कि आपको कोई देख रहा है। अकेले में कुछ करते हुए मान लें कि जो भी कर रहे हैं उसे कोई नहीं देख रहा है तो यह आपकी बहुत बड़ी गलतफहमी होगी। हर हाल में हम किसी सूक्ष्म नेत्र के परीक्षण में होते हैं। वह ईश्वर हो सकता है, आपका जमीर हो सकता है। आप स्वयं को जरूर देख रहे होंगे। कुछ संस्थानों में जो एचआर विभाग होता है, उसमें इस बात पर बहस होती है कि हमारे यहां काम करने वालों के व्यक्तिगत जीवन में संस्थान कितना हस्तक्षेप करेगा। कई बार काम करने वाले कुछ लोग कहते हैं हमारे निजी जीवन में संस्थान को कोई रुचि नहीं होनी चाहिए। उन्हें परिणाम चाहिए, जो हम परिश्रम से दे रहे हैं। वैधानिक दृष्टि से बात सही है लेकिन, नैतिक दृष्टि से देखेंगे तो अर्थ बदल जाएंगे। निजी जीवन के क्रियाकलाप सार्वजनिक जीवन पर प्रभाव डालेंगे ही। यदि आप अपने एकांत या निजी जीवन में परेशान हैं तो इसका असर कामकाज पर पड़ेगा। शास्त्रों में कहा गया है कि जल में स्नेह और अनुराग स्वत: होता है, इसीलिए वह नीचे की तरफ दौड़ता है। किसी में भी घुल-मिल जाना पानी का लक्षण या स्वभाव है। इसे करुणा की वृत्ति कहते हैं। संस्थान अपने काम करने वालों में निजी रूप से रुचि रखे यह पानी जैसी वृत्ति है। वह हस्तक्षेप नहीं, सहानुभूति है। ये ही भाव काम करने वालों को भी रखना चाहिए। उन्हें लगना चाहिए कि हमारा निजी जीवन इतना भी निजी नहीं है कि उसे संस्थान से पूरी तरह ही काट लिया जाए। दोनों ही एक-दूसरे में पानी की तरह भाव रखें। एक-दूसरे को जानें और निजी व सार्वजनिक जीवन में इतनी रुचि जरूर लें कि एक-दूसरे की परेशानी को कम करने में मददगार बन सकें।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span><br /><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>ख्याति मिलने पर अहंकार में डूबें<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">मशहूर लोगों को उन्हीं की ख्याति का खंजर जरूर चुभता है। जब उससे घायल होते हैं तो कई बार तो घाव लाइलाज हो जाते हैं। मशहूर लोगों को उन्हीं की ख्याति का खंजर जरूर चुभता है। जब उससे घायल होते हैं तो कई बार तो घाव लाइलाज हो जाते हैं। लोकप्रिय होने की चाह मनुष्य स्वभाव में है। नाम, मान, पहचान सभी चाहते हैं। ध्यान रखिएगा, लोकप्रिय बने रहने की आदत है तो थोड़ी सावधानी बरतें।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">ख्याति बहुत तरल होती है। लोकप्रिय लोग कल्पना में बहने लगते हैं। पहचान की स्वीकृति की चाहत मनुष्य को बेचैन कर देती है। जब वह थोड़ा ख्यात हो जाता है तो यह मान लेता है कि मेरे बारे में जो मैं सोच रहा हूं वह सब सही है और दूसरे भी ऐसा ही सोचें। ऐसे लोग इसके लिए बाहर की स्थितियों, व्यक्तियों पर दबाव बनाते हैं लेकिन, स्थितियां सदैव एक जैसी नहीं रहतीं। संसार नाम ही सरकने का है। स्थितियां बदल जाती हैं, लोग हट जाते हैं पर ख्यात लोग उसी दुनिया में उलझे रहते हैं। बड़े-बड़े बादशाह दफन हो गए। जिनके सिक्के चलते थे उन्हें कोई पूछने वाला नहीं रहा। ऐसे ही एक दिन सभी की लोकप्रियता दिशा मोड़ेगी। यदि आप जरा भी लोकप्रिय हैं तो इस बात का ध्यान रखिएगा कि ख्याति अनियंत्रित, अनियमित, सशर्त, अस्थायी होकर अहंकार के साथ आती है। उसके साथ एक अनोखा डर जुड़ा होता है। ख्यात लोग इस बात को लेकर भयभीत रहते हैं कि यह मान, पहचान किसी भी तरह बना रहे, कहीं चला जाए। ऐसे में आप दयनीय स्थिति में जाते हैं। इसलिए जब भी ख्यात होने की स्थिति बने, पहले तो उसे सावधानी से अर्जित करें और मानकर चलें कि यह अस्थायी है। आज हमारे पास है, कल किसी और के पास हो सकती है। यदि लोकप्रियता चली भी जाए तो आप वही रहेंगे जो थे। ख्याति मिल जाने पर अहंकार पालें और चली जाने पर अवसाद में डूबें।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>हठ को मन से नहीं, बुद्धि से जोड़ना होगा..<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">हठ करो-हासिल करो, इस तरह के आदर्श वाक्य से लोगों को प्रोत्साहित और प्रेरित किया जाता है। कहते हैं यदि ज़िद ठान लें तो संसार में जो चाहें, पा सकते हैं। हठ करो-हासिल करो, इस तरह के आदर्श वाक्य से लोगों को प्रोत्साहित और प्रेरित किया जाता है। हठ करना बुरी बात नहीं है। हठ यदि शुभ संकल्प में बदल जाए तब तो बात ही अलग होगी। दार्शनिक लोग कहते हैं दुनिया में तीन लोगों का हठ बड़ा चर्चित है- राजहठ, बालहठ और त्रियाहठ। राजा जिद पर आ जाए, बच्चा मचल जाए और स्त्री अपनी बात मनवाने पर अड़ जाए तो परिणाम लोग अलग-अलग ढंग से भुगतते हैं। शास्त्रों में एक बात बड़े अच्छे ढंग से कही गई है कि संसार में केश (बाल) और नाखून का हठ भी बड़ा मशहूर है क्योंकि दोनों को काटो और फिर उग आते हैं। इसके अलावा एक और हठ बताया गया है- मन का। हमारा मन बड़ा हठी होता है। कितना ही काबू में करने की कोशिश कर लें, वह अपना काम दिखा ही देता है। मन दो तरह के हैं- मंकी माइंड और काउ माइंड। मंकी माइंड का मतलब है किसी बंदर की तरह उछलकूद करने वाला। काउ माइंड वह जो गाय की तरह शांत हो और जिसमें से पॉजीटिव वाइब्रेशन्स निकल रहे हों। विचार करें हमारा मन कैसा है और प्रयास कीजिएगा काउ माइंड हो। मन हर एक पर अपने वांछित व्यवहार का दबाव बनाता है। जैसा मैं चाहता हूं वैसा ही हो जाए यह मन का अति आग्रह या हठ है। चूंकि बाहर उसका हठ पूरा नहीं हो पाता इसलिए भीतर दृश्य निर्मित करता है और भीतर के ये ही दृश्य आपको तनाव में पटक देते हैं। छलावा, षड्यंत्र ये सब मन के हठ के परिणाम हैं। याद रखिएगा, हठ यदि मन से जुड़ा है तो आप नुकसान में हैं और यदि बुद्धि से जुड़ा है तो सफलता के मतलब बदल जाएंगे।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>गुरु न मिले तो हनुमानजी को गुरु मान लें<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">कोई बच्चा माता-पिता या परिवार के बड़े-बुजुर्गों की अंगुली पकड़कर ही दुनियादारी देखने और उसे समझने की शुरुआत करता है। कहा जाता है मानव जीवन की पहली पाठशाला परिवार होती है। सच भी है, कोई बच्चा माता-पिता या परिवार के बड़े-बुजुर्गों की अंगुली पकड़कर ही दुनियादारी देखने और उसे समझने की शुरुआत करता है। लेकिन, इस तथ्य को भी नहीं भुला सकते कि माता-पिता या परिवार से प्राप्त शिक्षा सफलता की सीढ़ियां तो दिखा सकती हैं परंतु लक्ष्य तक पहुंचने के लिए कुछ और भी चाहिए। बिना सही मार्गदर्शन के केवल ज्ञान या जानकारी के बूते कामयाबी के शीर्ष तक नहीं पहुंचा जा सकता। यह मार्गदर्शन सिर्फ गुरु ही दे सकते हैं। बात महान दार्शनिक अरस्तू की हो या स्वामी विवेकानंद की, इनके समग्र दर्शन और व्यक्तित्व के पीछे गुरु कृपा का आलोक ही काम कर रहा था। स्वामी विवेकानंद ने तो स्वयं ही स्वीकार किया था कि यदि गुरु रूप में रामकृष्ण परमहंसजी नहीं मिले होते तो मैं साधारण नरेंद्र से ज्यादा कुछ नहीं होता। हर माता-पिता की चाहत होती है उनकी संतान श्रेष्ठ होकर शीर्ष तक पहुंचे। समय रहते बच्चों के लिए कोई योग्य गुरु ढूंढ़ दीजिए। वे वहीं पहुंच जाएंगे, जिस मुकाम पर आप उन्हें देखना चाहते हैं। हालांकि श्रेष्ठ गुरु मिल जाना भी इस दौर की बड़ी चुनौती है। तुलसीदासजी ने श्री हनुमान चालीसा की सैंतीसवीं चौपाई, ‘जै जै जै हनुमान गोसाई कृपा करहुं गुरुदेव की नाई<span lang="">’</span><span lang=""> </span>लिखकर इस चुनौती को बहुत आसान कर दिया है। कोई अच्छा गुरु नहीं मिले तो हनुमानजी को ही गुरु और हनुमान चालीसा को मंत्र मान लीजिए। सफल कैसे हुआ जाए और सफलता मिल जाने के बाद क्या किया जाए यह हनुमानजी से अच्छा कोई नहीं सिखा सकता। गुरु रूप में उनकी जो कृपा बरसेगी वह आपका जीवन बदल देगी। कल गुरुपूर्णिमा है, क्यों न शुरुआत इसी शुभ दिन से की जाए..<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>राम से सीखें एक साथ कई भूमिकाएं निभाना<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">दो हाथ से चार गेंद उछालना और किसी एक को भी गिरने नहीं देना, यह काम या तो जादूगर कर सकता है या कोई बड़ा कलाबाज। दो हाथ से चार गेंद उछालना और किसी एक को भी गिरने नहीं देना, यह काम या तो जादूगर कर सकता है या कोई बड़ा कलाबाज। लेकिन कुछ लोग वास्तविक जिंदगी में भी अपने कामों, अपनी परिस्थितियों को ऐसे ही उछालते हैं। एक बार में अनेक काम साध लेते हैं और सफल भी हो जाते हैं। प्राणियों में सिर्फ इंसान है, जिसे मानव कहा गया है और वह इसलिए कि उसके भीतर मानस होता है। मानस सक्रिय होता है तो मस्तिष्क बनकर कई काम एक साथ करने की क्षमता रखता है। लंकाकांड के एक अनूठे दृश्य पर तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘प्रभु कृत सीस कपीस उछंगा। बाम दहिन दिसि चाप निसंगा।। दुहुं कर कमल सुधारत बाना। कह लंकेस मंत्र लगि काना।। बड़भागी अंगद हनुमाना। चरन कमल चापत बिधि नाना।। प्रभु पाछें लछिमन बीरासन। कटि निषंग कर बान सरासन।।<span lang="">’</span><span lang=""> </span>यहां बताया गया है कि किस प्रकार राम विश्राम की मुद्रा में लेटे हैं और सुग्रीव, विभीषण, हनुमान, अंगद आदि उनके आसपास बैठे सेवा में लगे हैं। श्रीराम विश्राम भी कर रहे हैं और सक्रिय भी हैं। स्वयं काम कर रहे हैं और अपने सभी साथियों को भी काम पर लगा रखा है। जब मनुष्य का मस्तिष्क सक्रिय होता है तो चार रंगों से गुजरता है। इन्हें शास्त्रों ने वर्ण कहा है। पहला होता है शूद्र। इसे आज की भाषा में स्वामी भक्ति कह सकते हैं। दूसरा वैश्य। यानी चौकसी के साथ अपने हानि-लाभ के लिए सक्रिय रहना। क्षत्रिय वर्ण में नेतृत्व क्षमता आ जाती है और ब्राह्मण वर्ण यानी ज्ञान का सदुपयोग करना। इस तरह एक मस्तिष्क आपको कई अवसरों से गुजार सकता है। जब एक साथ कई भूमिकाएं चल रही हों तो श्रीराम से सीखा जाए कैसे दो हाथों में चार गेंद उछालें और गिरने भी न दें। यही कलाबाजी आपकी योग्यता बन जाएगी।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>संतान के भीतर सद्विचारों की तरंगें उतारें<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">अच्छी-अच्छी बातों-सूक्तियों को तोड़-मरोड़कर रुचिकर बनाते हुए नारों की शक्ल में उछाल देने की कला वॉट्सएप ने सबको सिखा दी आदर्श वाक्यों, अच्छी-अच्छी बातों-सूक्तियों को तोड़-मरोड़कर रुचिकर बनाते हुए नारों की शक्ल में उछाल देने की कला वॉट्सएप ने सबको सिखा दी है। जिसे देखो वह मोबाइल के माध्यम से ज्ञान बांट रहा है। फिर उस ज्ञान को हम नेत्रों से पढ़ते तो हैं लेकिन, बात हृदय तक नहीं पहुंचती। कुल-मिलाकर चारों ओर ज्ञान की वर्षा हो रही है पर आचरण में उतारने को कोई तैयार नहीं। जैसे भिखारी भीख मांगता है और लोग कह देते हैं आगे बढ़ो, बस उसी तरह ज्ञानवर्धक संदेश तुरंत आगे बढ़ाए जा रहे हैं। किसी इंसान को तैयार करना हो तो सबसे पहले उसके आचरण पर काम करना पड़ता है। माता-पिता संतान को सिर्फ जन्म ही नहीं देते, उन्हें तैयार भी करते हैं। बायो टेक्नोलॉजी के इस युग में लगातार प्रयोग हो रहे हैं, जिनमें कुछ चौंकाने वाले हैं। एक ही पेड़ पर हर डाली अलग-अलग आकार और स्वाद के फल दे सकती है। ऐसे सफल प्रयोग हो चुके हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार मनुष्य को सिर्फ एक प्रतिशत दूसरी बातें प्रभावित करती हैं, बाकी निन्यानबे प्रतिशत वह प्रकृति द्वारा संचालित होता है। जब फलों पर इतना काम हो रहा हो तो संतानरूपी फसल पर भी गंभीरता से काम करना पड़ेगा। इसकी शुरुआत उनके आचरण से कीजिए। अन्न का मन पर पूरा असर पड़ता है। बायो टेक्नोलॉजी के युग में खान-पान की चीजों पर बहुत काम हो रहा है परंतु ध्यान रखिए, एक अन्न विचारों का भी होता है। माता-पिता के शरीर और मस्तिष्क से निकली तरंगें भी अन्न की तरह प्रभावी होकर बच्चों के लिए बहुत उपयोगी होती हैं। सद्विचारों की ये तरंगें उनके भीतर उतारिए। कहीं ऐसा न हो कि हम उन्हें मौखिक निर्देश, आदर्श वाक्य और सूत्र बांटते रहें और वो सब ऊपर से निकलकर उनका आचरण कोरा रह जाए।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>अपने अंदर अध्यात्म का स्वराज्य लाएं<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">भारत में जो भी किया जाए, भारतीयता उससे विलग नहीं होनी चाहिए। राज्य और स्वराज्य दो अलग चीजें हैं। हमारे देश का जो राज्य, जो शासन है वह लगातार ऐसे प्रयोग कर रहा है कि एक भारतीय की संवैधानिक स्थिति में कुछ अनुकूल और कुछ प्रतिकूल परिवर्तन आ रहे हैं। कई इनके समर्थन हैं तो कुछ विरोध भी कर रहे हैं। सामान्यजन के पास सिवाय प्रतीक्षा करने के और कुछ नहीं है। ऐसे समय जब नए-नए नियम आ रहे हों, कर के रूप बदल रहे हों, देश विकास के मार्ग पर गति पकड़ रहा हो, उपलब्धि होने और नहीं होने- दोनों ही स्थितियों में अध्यात्म की बहुत जरूरत पड़ेगी। भारत में जो भी किया जाए, भारतीयता उससे विलग नहीं होनी चाहिए। कुछ मामलों में अध्यात्म और भारतीयता एक ही है। राज्य वह होता है, जिसे कुछ लोग चलाते हैं। जैसे हमारे यहां लोकतंत्र है। लेकिन स्वराज्य का मामला थोड़ा आत्मा से जुड़ा है। आप जितना स्वराज्य पर टिक जाएंगे, राज्य से होने वाली तकलीफों की पीड़ा कम होगी और उपलब्धियों का सदुपयोग कर सकेंगे। स्वराज्य की सीधी-सी परिभाषा है स्वयं द्वारा स्वयं पर शासन। यहां स्वयं का मतलब आत्मा से है। जितना आत्मा को जानेंगे उतना ही स्वराज्य का आनंद ले पाएंगे। स्वयं मर्यादा में रहना सीख गए तो दूसरों को भी यही सहूलियत देंगे और खुद भी हर स्थिति का आनंद ले सकेंगे। स्वराज्य पाने के लिए चौबीस घंटे में कुछ समय योग करिए। तब स्वयं पर शासन करते हुए बाहर की परिस्थितियों से उतने प्रभावित नहीं होंगे, जितने आज होकर परेशानी उठा रहे हैं। बाहर की दुनिया तो ऐसे ही चलती है। जो राजा आएगा, अपना सिक्का चलाएगा। उसका सिक्का आपके लिए कोड़ा और घोषणाएं पीड़ा न बन जाए, इसलिए अध्यात्म की दृष्टि से एक स्वराज्य अपने भीतर जरूर ले आइए।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>अहिंसक भाव हो तो व्यक्तित्व सुखदायक..<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">एक चौंकाने वाला आंकड़ा सामने आया है कि मनुष्यों के बीच सामूहिक हिंसा कम होकर व्यक्तिगत हिंसा बढ़ गई है। एक चौंकाने वाला आंकड़ा सामने आया है कि मनुष्यों के बीच सामूहिक हिंसा कम होकर व्यक्तिगत हिंसा बढ़ गई है। सामूहिक हिंसा की जो भी घटनाएं हो रहीं हैं वे आतंकियों द्वारा की जा रही है। हिंसा का अर्थ किसी का रक्त बहाना या किसी की जान लेना ही नहीं है। गहराई से विचार करें तो आपके द्वारा किसी को आहत करना भी हिंसा ही है।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">मनोवैज्ञानिकों का मानना है इन दिनों जीवनशैली ऐसी हो गई कि व्यक्तिगत रूप से मनुष्य बहुत हिंसक होकर साथ रहने वालों को लगातार आहत कर रहा है, उनके प्रति हिंसा कर रहा है। एक-दूसरे के साथ रहने के बाद भी लोग असुरक्षित महसूस करते हुए असहिष्णु होते जा रहे हैं। व्यक्तिगत हिंसा कम करना हो तो पहले अपने व्यक्तित्व में दो बातें देखिए- क्या आप मनभावन हैं या सुखदायक व्यक्तित्व के धनी हैं? मनभावन व्यक्तित्व वाले लोग अच्छे तो लग सकते हैं पर भीतर से वो क्या कर रहे हैं, कौन-सी नेगेटिव एनर्जी फैला रहे हैं, यह आप नहीं जान पाएंगे। सुखदायक प्रवृत्ति वाले साथ वालों को हमेशा पॉजिटिव वायब्रेशन्स ही देेंगे। हमारे भीतर विचार सूचना और ऊर्जा दोनों लेकर आते हैं। जब ये किसी निर्णय या इरादे से जुड़ते हैं तब तरंगें बनती हैं। यदि आप भीतर से अहिंसक हैं तो ये ही तरंगे पॉजिटिव और हिंसक हैं तो निगेटिव हो जाएंगी। आज व्यक्तिगत हिंसा के लक्षण परिवार में रिश्तों के बीच उतर आए हैं। बच्चे ऐसा-ऐसा बोल जाते हैं कि माता-पिता आहत हो जाते हैं। माता-पिता की वाजिब डांट भी बच्चों को हिंसा-सी लगती है। पति-पत्नी के बीच आक्रमण के दृश्य तो गजब के ही होते हैं। इन नकारात्मक स्थितियों से स्वयं और परिवार को दूर रखना हो तो भीतर अहिंसक भाव पैदा करते हुए व्यक्तित्व को सुखदायक बनाइए।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>ऊर्जा पाने के लिए ईश्वर पर ध्यान लगाएं<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">जीवन में असफल रहना कोई नहीं चाहता लेकिन, कुछ अवरोध ऐसे जाते हैं जिनसे निपटना ही पड़ता है। असफलता यदिभयानक है तो अवरोध डरावना होता है। जीवन में असफल रहना कोई नहीं चाहता लेकिन, कुछ अवरोध ऐसे जाते हैं जिनसे निपटना ही पड़ता है। इसके लिए आंतरिक शक्ति, अतिरिक्त ऊर्जा प्राप्त करनी होगी। जब हम किसी बड़ी यात्रा पर चलते हैं तो कुछ रुकावटें कुदरत दे देती है और कुछ हम स्वयं पैदा कर लेते हैं। दुनिया में कई महान लोगों को कुदरती रुकावटों का सामना करना पड़ा है। सूरदासजी दृष्टिहीन थे, तुलसीदासजी को जीवन के अंतिम दौर में कैंसर हो गया था। चर्चिल हकलाते थे, सुकरात का पारिवारिक जीवन तनावपूर्ण था और आचार्य नरेंद्रदेव दमा से पीड़ित थे। लेकिन, ये सब तमाम रुकावटों से पार पाते हुए अपने लक्ष्य तक पहुंचे। हमारे जो भी भौतिक लक्ष्य हों पर एक बड़ा लक्ष्य होना चाहिए दुर्गुणों का सामना कर उन्हें खत्म करना। रावण दुर्गुणों का जीता-जागता स्वरूप था। लंका कांड में राम उससे टक्कर लेने जा रहे थे और इस पर तुलसीदासजी ने दोहा लिखा- ‘एहि बिधि कृपा रूप गुन धाम रामु आसीन। धन्य ते नर एहिं ध्यान जे रहत सदा लयलीन।।<span lang="">’</span><span lang=""> </span>यहां कृपा, रूप और गुण तीन बातें रामजी से जोड़ते हुए कहा गया है कि जो लोग इसमें ध्यान लगाएंगे उन्हें अतिरिक्त ऊर्जा मिलेगी। प्रकृति और परमपिता की कृपा, उनका रूप गुण हमारे लिए एक शक्ति है। ऐसा तुलसीदासजी ने इसलिए लिखा कि अब रावण से टकराने का अवसर रहा था। राम तो एक बार टकराए थे पर हमें तो हर दिन अपने ही भीतर के रावण से टकराना है। इसीलिए जो आंतरिक शक्ति ऊर्जा प्राप्त करनी है उसमें परमशक्ति की कृपा, रूप और गुण का ध्यान लगाइए। बाधाएं-रुकावटें अपने आप दूर हो जाएंगी। वरना ये अवरोध असफलता के बड़े कारण बन जाएंगे।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>परिवार में अन्य सदस्यों के लिए उपयोगी बनें<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">हम दूसरों का उपयोग कर लें लेकिन, जब दूसरा हमारा उपयोग करे तो कई तरह के समीकरण बैठाने लगते हैं। अपना थोड़ा-बहुत उपयोग दूसरों के लिए भी होने दें, इसमें कोई बुराई नहीं है। हम लोग इस मामले में बड़े सावधान रहते हुए खुद को बचाकर चलते हैं। हम दूसरों का उपयोग कर लें लेकिन, जब दूसरा हमारा उपयोग करे तो कई तरह के समीकरण बैठाने लगते हैं। बाहर की दुनिया में ऐसा चल सकता है पर आजकल लोग घर में भी ऐसा ही करने लगे हैं। परिवार छोटे होते जा रहे हैं लेकिन, यदि अपनापन नहीं बचा तो छोटे परिवार बनाने से भी क्या मतलब?..<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">मजबूरीवश कभी-कभी परिवार छोटे करना पड़ते हैं। अब बहुत सारे लोग एक साथ नहीं रह सकते। काम-धंधे के कारण घर से बाहर निकलना पड़ता है। यदि किसी परिवार में तीन या चार सदस्य हैं और लगे कि हमारा परिवार छोटा है तो वो एक प्रयोग कर सकते हैं। हर सदस्य तय कर ले कि ये बचे हुए तीन मेरा जमकर उपयोग करें। गणित कुछ ऐसा बैठेगा कि चार लोगों का परिवार सोलह जैसा सुख देने लगेगा। अपना उपयोग दूसरे करें ऐसा स्वभाव बनाने के लिए एक आध्यात्मिक प्रयोग करिए। हमारे शरीर के सात चक्रों में कोई एक केंद्रीय चक्र होता है जहां से हमारा स्वभाव नियंत्रित होता है। उस चक्र का जो स्वभाव होगा, हम वैसा ही करते हैं।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">इसीलिए बहुत नज़दीकी संबंध होने के बाद भी लोगों के स्वभाव अलग-अलग होते हैं। एक ही माता-पिता के बच्चों की आदतें, क्रिया-कलाप में अंतर होता है। यदि लगातार गहरी सांस के साथ प्रत्येक चक्र पर चिंतन करें तो कुछ दिनों में अंदाज हो जाएगा कि आपका केंद्रीय चक्र क्या है? उस पर टिककर अपने स्वभाव को परिपक्व कीजिए, अपने आप प्रसन्नता के साथ अपना उपयोग दूसरों को करने देंगे। यहीं से छोटे परिवार का एकाकीपन दूर होकर आप कम लोगों में भी ज्यादा का आनंद उठा पाएंगे।</span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,</span><br /><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है... मनीष </span><br /><span face="" style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-weight: bold;">ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....</span></div></div>Jai Guru Geeta Gopalhttp://www.blogger.com/profile/01621836960274288942noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6101091264294453966.post-63255006073322470372020-07-02T00:02:00.001-07:002020-07-02T00:02:51.447-07:00जीवन जीने की राह (Jeevan Jeene Ki Rah7)<div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>पानी के तीन रूपों जैसे पति-पत्नी के रिश्ते<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">हमारे यहां दृष्टांत से सिद्धांत समझाने की पुरानी परम्परा है। दृष्टांत और उदाहरण में छोटा-सा फर्क है। बहुत से लोग हर बात को समझाने में कुछ उदाहरण दिया करते हैं। जैसे व्यापार की दुनिया में खेल का उदाहरण दे देते हैं। खिलाड़ियों को व्यापार का उदाहरण देकर समझाते हैं।<o:p></o:p></span><br /><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">हमारे यहां दृष्टांत से सिद्धांत समझाने की पुरानी परम्परा है। दृष्टांत और उदाहरण में छोटा-सा फर्क है। बहुत से लोग हर बात को समझाने में कुछ उदाहरण दिया करते हैं। जैसे व्यापार की दुनिया में खेल का उदाहरण दे देते हैं। खिलाड़ियों को व्यापार का उदाहरण देकर समझाते हैं। व्यापार की दुनिया में खेल का, खेल की दुनिया में व्यापार का और परिवार में इन दोनों का उदाहरण देना, ऐसे प्रयोग बहुत लोग करते हैं। यदि आप कर रहे हों तो थोड़ा सावधान हो जाएं। किसी एक जगह का उदाहरण जरूरी नहीं कि दूसरी जगह उपयोगी रहे और सही साबित हो।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">उदाहरण के तौर पर यदि आप अपने व्यवसाय में खेल का उदाहरण दें कि खेल में कोई एक जीतता है, दूसरे को हारना ही पड़ता है..। लेकिन याद रखिएगा, व्यापार में हार-जीत से जरूरी है ग्राहक को जीतना। अब यह नियम खेल में लागू नहीं होता। वहां कोई ग्राहक नहीं होता। आपके सामने आपका प्रतिद्वंद्वी है और आपको या तो जीतना है या हारना है। ये दोनों उदाहरण घर में बिल्कुल नहीं चल सकते। परिवार में न तो कोई हारता है न किसी की जीत होती है, क्योंकि परिवार न तो व्यापार की तरह चलता है, न खेल की तरह। वहां सभी जीतते हैं और हारते भी सभी हैं। एक रिश्ता पति-पत्नी का ऐसा होता है, जिसके आगे न तो किसी खेल का उदाहरण चलेगा, न व्यवसाय का। इसे समझाने का अच्छा उदाहरण हो सकता है पानी। पानी की तीन स्थिति होती है। जमी हुई स्थिति बर्फ है। कुछ दंपती बर्फ की तरह जड़ हो जाते हैं। पिघला तो तरल होकर सबमें मिल जाता है यह दूसरी स्थिति है। तीसरी स्थिति होती है भाप। जिस दिन ये दोनों भाप बनकर एक-दूसरे में घुल जाते हैं, उस दिन से इनके साथ-साथ पूरे परिवार के लिए शुभ की शुरुआत होगी।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>अर्जित ज्ञान समय रहते दूसरों तक पहुंचाएं<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">जीवन में विपरीत का अनुभव होना ही चाहिए। इसके लिए प्रयोग करते रहें। यदि आप अमीर हैं तो इसका विपरीत यानी गरीबी जरूर देखिए। प्रसिद्धि कमाई है तो गुमनामी क्या होती है इसे भी चखिए। हर स्थिति का एक विपरीत है और जीवन में परिपक्वता लाने के लिए उसका अनुभव, उसका स्वाद होना ही चाहिए।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">जीवन में विपरीत का अनुभव होना ही चाहिए। इसके लिए प्रयोग करते रहें। यदि आप अमीर हैं तो इसका विपरीत यानी गरीबी जरूर देखिए। प्रसिद्धि कमाई है तो गुमनामी क्या होती है इसे भी चखिए। हर स्थिति का एक विपरीत है और जीवन में परिपक्वता लाने के लिए उसका अनुभव, उसका स्वाद होना ही चाहिए। लेकिन विपरीत का अनुभव करना आसान नहीं है। उसके लिए तप करना पड़ता है।</span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">हिंदू शास्त्रों में जब यह प्रश्र उठाया जाता है कि सबसे बड़ा तप कौन-सा? तो उपनिषद में इसका उत्तर है स्वाध्यायी। इसका शाब्दिक अर्थ तो है स्वयं का अध्ययन। लेकिन इसके तीन चरण होते हैं तब स्वाध्यायी होता है। यदि आपकी रुचि तप में है तो फिर सबसे बड़ा तप ही कीजिए। तीन स्तर से स्वाध्यायी पूरा होता है।</span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">पहला, ज्ञान को सही जगह से प्राप्त करें। वह स्थान शास्त्र या गुरु हो सकते हैं। जब सही जगह से ज्ञान प्राप्त हो जाए तो उसे बहुत अच्छे तरह से जीवन में उतारें। स्वाध्यायी का दूसरा स्तर है दोहरा जीवन न जीएं और तीसरा चरण है जो कुछ आपने पाया उसे आगे बढ़ाएं। लोगों में बांटे, खासकर नई पीढ़ी तक जरूर पहुंचाएं। अर्जित ज्ञान को समय रहते दूसरों तक नहीं पहुंचाया तो तप एक तरह से खंडित ही माना जाएगा। तपस्वी व्यक्ति केवल धार्मिक कार्य करे यह जरूरी नहीं है।</span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">एक तपस्वी जब दुनियादारी में उतरता है तो उसका तप उसे सिखाता है कि तुम अपना पेट भर सके ऐसा काम तो करो ही लेकिन, हमारे काम के कारण कई लोगों का पेट पल जाए ऐसा जरूर किया जाए। आज के दौर में जब चारों ओर वासनाओं की आंधियां चल रही हों, गलत रास्ते से लक्ष्य प्राप्त करने के तरीके सिखाए जा रहे हों, मनुष्य अधीर और अधीर होता जा रहा है ऐसे समय जीवन में तप का बड़ा महत्व है।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>लक्ष्य बड़े हों तो दिल भी बड़ा होना चाहिए<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">बड़े सपने देखे जाएं, विशाल अभियान हाथ में लिए जाएं, लक्ष्य छोटे न हों। ऐसी बातें आजकल युवा पीढ़ी को सिखाई जाती हैं। उन्हें दक्ष किया जाता है कि छोटा मत सोचो, बड़ा ही बनना है। आसमान के तारे से नीचे की बात न करो।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">बड़े सपने देखे जाएं, विशाल अभियान हाथ में लिए जाएं, लक्ष्य छोटे न हों। ऐसी बातें आजकल युवा पीढ़ी को सिखाई जाती हैं। उन्हें दक्ष किया जाता है कि छोटा मत सोचो, बड़ा ही बनना है। आसमान के तारे से नीचे की बात न करो। तारे तोड़ने का इरादा रखोगे तो भले ही हाथ कुछ न लगे, कम से कम कीचड़ में सनने से तो बच जाएंगे। उड़ान ऐसी हो कि आसमान भेद दो। कम से कम धरती की धूल गंदा तो नहीं कर पाएगी। ऐसे सारे सूत्र आधुनिक प्रबंधन में सिखाए जाते हैं। ये सब बहुत अच्छा है। ऐसा होना भी चाहिए लेकिन, इसे थोड़ा आध्यात्मिक दृष्टि से भी देखा जाए। अध्यात्म कहता है लक्ष्य बड़े हों तो हृदय भी बड़ा होना चाहिए। दिल बड़ा हो तो बड़े लक्ष्य प्राप्त करने में दिक्कत नहीं होती, क्योंकि बड़े दिल में चारों दुर्गुण (काम, क्रोध, अहंकार और लोभ) अपने अच्छे और बुरे दोनों रूप में रहते हैं। काम अपने आपमें एक ऊर्जा है और विलास भी। जिसका हृदय बड़ा होता है वह ऊर्जा के सदुपयोग और भोग-विलास की मस्ती दोनों का संतुलन बैठा लेता है। क्रोध की उत्तेजना स्वयं को और दूसरों को अनुशासन सिखा सकती है और इसकी कमी आपको कमजोर प्रशासक बना सकती है। बड़े दिल वाला संतुलन करके चलता है। अहंकार से आप प्रभावशाली भी हो सकते हैं और इसके कारण अकेले भी हो सकते हैं। बड़े दिल वाला अहंकार को नियंत्रित करके चलता है। चौथा दुर्गुण है लोभ। आपकी इस वृत्ति में अनेक लोग समा जाएं तो सबका भला हो जाएगा, वरना यह वृत्ति आपको मृत्यु तक ले जाएगी। दुर्गुण सभी में होते हैं पर उनमें से सदगुण निकाल लेना और सदगुण को दुर्गुणों से बचा लेना बड़े दिल वालों की विशेषता होती है, इसलिए जिनके लक्ष्य बड़े हों वे हृदय जरूर बड़ा रखें।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>गलत काम करके सही लक्ष्य नहीं मिलते<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">भोग-विलास की वृत्ति वे सारे आईने तोड़ देती है, जिनमें आदमी अपना विकृत चेहरा देख सके। विलासी व्यक्ति के विचार भी एकतरफा हो जाते हैं। उसका हर इरादा दूसरे को भोगने का होता है। फिर इसके लिए वह झूठ भी बोलता है, हिंसा भी करता है। इसका बहुत बड़ा उदाहरण था रावण। लंकाकांड के आरंभ में श्रीराम सेना के साथ लंका में डेरा डाल चुके थे। बेटे प्रहस्त द्वारा समझाने के बाद रावण अपने महल में चला गया जहां हर दिन नाच-गाने की महफिल चलती थी। अप्सराएं नृत्य कर रही थीं, रावण विलास में डूबा अट्टहास किए जा रहा था। इस दृश्य पर तुलसीदासजी ने एक दोहा लिखा, ‘सुनासीर सत सरिस सो संतत करइ बिलास। परम प्रबल रिपु सीस पर तद्यपि सोच न त्रास।।<span lang="">’ </span>अर्थात राम के रूप में मौत माथे पर नाच रही थी फिर भी विलासी रावण को न चिंता थी न कोई डर। भय नहीं होने का यह मतलब नहीं कि रावण निर्भय था। न ही यह मान सकते हैं कि वह बहुत आत्मविश्वास से भरा था इसलिए चिंतित नहीं था। दरअसल नशे में डूबा आदमी इन दोनों (डर व चिंता) के प्रति लापरवाह हो जाता है। भूल ही जाता है कि ऐसा करते हुए वह स्वयं के अहित के साथ और भी कई लोगों को परेशानी में डाल रहा है। आज के समय में हम रावण से यह शिक्षा ले सकते हैं कि जब किसी बड़े अभियान की तैयारी कर रहे हों तो भोग-विलास से बचकर रहें। भोग-विलास आलस्य और लापरवाही के रूप में भी जीवन में उतरता है। जब सामने चुनौती खड़ी हो और आप लापरवाह या आलसी हो जाएं तो समझो रावण वाली गलती कर रहे हैं। प्रतिस्पर्धा के इस दौर में जबकि जीवन में हर पल कोई चुनौती है, गलत काम करते हुए सही लक्ष्य प्राप्त नहीं किए जा सकते।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>भरोसा हो तो भरपूर बरसती है ईश-कृपा<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">मनुष्य कई घटनाओं का जोड़ है। हमारे आसपास प्रतिपल कुछ घटता है, हमें स्पर्श कर जाता है। कुछ घटनाएं धक्का दे जाती हैं, कुछ दाएं-बाएं से निकल जाती हैं। गौर करें तो हमारा व्यक्तित्व कई घटनाओं के जोड़ से बना है।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">मनुष्य कई घटनाओं का जोड़ है। हमारे आसपास प्रतिपल कुछ घटता है, हमें स्पर्श कर जाता है। कुछ घटनाएं धक्का दे जाती हैं, कुछ दाएं-बाएं से निकल जाती हैं। गौर करें तो हमारा व्यक्तित्व कई घटनाओं के जोड़ से बना है। चूंकि हमारे पास समय नहीं रहता तो हम उनका मूल्यांकन नहीं करते लेकिन, कुछ घटनाएं ऐसी हैं जो संकेत करती हैं कि अब आगे कष्ट होना है, हानि उठानी पड़ेगी, हम चिंता में डूबने वाले हैं। ऐसी घटना को साहित्य में विपत्ति कहा गया है। जब किसी मनुष्य के जीवन में विपत्ति आती है तो वह उससे निपटने के कई तरीके अपनाता है। तुलसीदासजी रामभक्त तो थे ही, बहुत बड़े समाजसेवक भी थे। वे चाहते थे कि भक्त को उदास नहीं होना चाहिए। इसलिए उन्होंने एक बहुत अच्छी पंक्ति लिखी है, ‘तुलसी साथी विपत्ति के विद्या विनय विवेक। साहस सुक्रति सुसत्यव्रत रामभरोसे एक।। तुलसी ने सात बातें बताई हैं, जो विपत्ति के समय हमारी मदद करेंगी। शुरुआत की है विद्या से। जब विपत्ति आती है तो शिक्षा मनुष्य का सबसे बड़ा सहारा है। इसलिए पढ़ाई-लिखाई के इस युग में बच्चों को जरूर पढ़ाएं। फिर कहते हैं पढ़ा-लिखा आदमी विनम्र होना चाहिए। तीसरे में कहा है शिक्षा का उपयोग विवेक से करें। साहस न छोड़ें, अच्छे काम करें, सत्य पर टिके रहें। इन छह के अलावा सबसे बड़ा सहारा है भरोसा भगवान का, जिसे उन्होंने रामभरोसा कहा है। भरोसा एक तरह का पात्र है। उस परमशक्ति की कृपा लगातार बरस रही है। यदि अपने पात्र को खुला रखा तो लबालब हो जाएगा। भगवान समान रूप से कृपा बरसाते हैं। जिसके पास भरोसे का पात्र है, उसका भर जाता है और फिर विपत्ति के समय यह भरोसा ही उसकी सबसे बड़ी ताकत बन जाता है।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>अपने शरीर में अच्छे अतिथि बनकर रहें<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">यदि संभाला नहीं तो शरीर भी स्वभक्षी हो जाता है। यानी यह शरीर जिसे हम खिलाते-पिलाते हैं, एक दिन हमें ही खा जाता है। यदि संभाला नहीं तो शरीर भी स्वभक्षी हो जाता है। यानी यह शरीर जिसे हम खिलाते-पिलाते हैं, एक दिन हमें ही खा जाता है। बात बड़ी गहरी है पर इसे ठीक से समझना पड़ेगा। आज ज्यादातर लोग शरीर का मतलब नाम, धर्म, पद-प्रतिष्ठा की एक पहचान मान लेते हैं और समझते हैं यही शरीर है। यह भोग-विलास का माध्यम, खाने-पीने का रास्ता है। तो क्या सचमुच शरीर केवल इतना है? इन दिनों लगातार काम करने की ललक नशा बनकर जिन-जिन चीजों का नुकसान कर रही है उनमें एक है शरीर। समाजसेवा के क्षेत्र में एक शब्द चलता है मित्र। कोई वृक्ष मित्र बन जाता है, कोई इको फ्रेंडली हो जाता है। कंप्यूटर के जानकारों के लिए कहा जाता है यह कंप्यूटर फ्रेंडली है। आप बेशक कई चीजों के मित्र बनें लेकिन प्रयास कीजिए शरीर मित्र भी बनें। यदि शरीर से मित्रता निभाई तो शायद वृद्धावस्था में यह भी आपसे दोस्ती निभाएगा। वरना बुढ़ापे में तो अपना ही शरीर अपना दुश्मन हो जाता है। इस शरीर को थोड़ा जीतना पड़ता है। जैसे घुड़सवार कमजोर हो तो घोड़े का क्या दोष? शरीर इंद्रियों से बना है और इंद्रियों पर चढ़कर काम करना पड़ता है, वरना ये आपको पटक देंगी। असल में हम शरीर हैं ही नहीं। हम आत्मा हैं जो शरीर में अतिथि के रूप में है। जब आप किसी के अतिथि होते हैं तो इस बात के लिए सावधान रहते हैं कि यहां की वस्तु का उपयोग तो कर सकता हूं पर इस पर मेरा अधिकार नहीं है। अच्छे अतिथि जहां जाते हैं, बड़े कानून-कायदे से रहते हैं। आप भी अपने शरीर में अतिथि बनकर रहें। उसे साफ-सुथरा रखें, उसका मान करें। जो शरीर मित्र बनेगा वह स्वयं को जीत लेगा और जो खुद से जीता, फिर दूसरों के लिए उसे हराना मुश्किल हो जाता है।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>हमारा चरित्र व भीतर की गंभीरता बची रहे<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">गलती करके उसे स्वीकार नहीं करना और बड़ी गलती है। कुछ लोग गलत बात या काम करने के बाद पता ही नहीं लगा पाते कि इसमें गलती हो गई और कुछ ऐसे भी होते हैं, जिन्हें मालूम होता है कि गलती हो गई पर स्वीकार नहीं करते।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">गलती करके उसे स्वीकार नहीं करना और बड़ी गलती है। कुछ लोग गलत बात या काम करने के बाद पता ही नहीं लगा पाते कि इसमें गलती हो गई और कुछ ऐसे भी होते हैं, जिन्हें मालूम होता है कि गलती हो गई पर स्वीकार नहीं करते। स्वीकार कर लेने से गलती हल्की या दूर हो जाती है। लेकिन, हम लोग अड़ जाते हैं और उस गलती का कारण स्वयं में न देखते हुए दूसरों में ढूंढ़ने लगते हैं। इस दौर में ऐसा ज्यादा होने लगा है। कोई अपनी गलती मानने को तैयार ही नहीं। इसका एक बड़ा कारण है कि लोग गंभीरता से कट गए। हर बात को हल्के में लेने लगे। पहले ‘गंभीरता<span lang="">’</span><span lang=""> </span>शब्द का उपयोग समझाने के लिए किया जाता था। जैसे- परीक्षाएं आ रही </span><br /><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">हैं, थोड़ा गंभीर हो जाओ, सामने बहुत बड़ी चुनौती है, इसे गंभीरता से लो..<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">इसका मतलब होता था आगे भविष्य में गलती न हो। आज आदमी अपनी जीवनशैली में गंभीरता नहीं रख पाता। व्यक्तित्व में अजीब-सा उथलापन दिखने लगा है। ध्यान रखिए, गंभीर होने का मतलब यह नहीं है कि मुंह थोड़ा चढ़ा हुआ हो, जरूरत पड़ने पर भी बात न करें, एक चुप्पी ओढ़ ली जाए। गंभीर बनने या दिखने के लिए व्यक्तित्व में तीन बातें उतारनी होती हैं। एक, परिश्रम। गंभीर व्यक्ति आलसी नहीं हो सकता। दो, परमार्थ। गंभीरता इसी में है कि सदकार्य करते हुए दूसरों का भला करें। तीसरी महत्वपूर्ण बात है चरित्र। गंभीर व्यक्ति चरित्र पर टिकता है। आज तो बड़े से बड़ा अपराध करने के बाद भी लोग गंभीर नहीं हैं। जिसे जो समझ में आता है, बोल रहा है, कर रहा है। लेकिन, यदि सच्चे भारतीय हैं तो हमारा चरित्र और हमारे भीतर की गंभीरता बची रहनी चाहिए। इसके लिए परिश्रम, परमार्थ और चरित्र इन तीन चीजों पर काम करते रहिए।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>चातुर्मास में जीवन सद्गुण संकल्प से जोड़ें</b><o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">नींद एक ऐसी जरूरत है, जिसके बिना कोई रह नहीं सकता। हिंदू धर्म में नींद को बहुत सुंदर दर्शन से जोड़ा गया है। नींद एक ऐसी जरूरत है, जिसके बिना कोई रह नहीं सकता। हिंदू धर्म में नींद को बहुत सुंदर दर्शन से जोड़ा गया है। आज की तिथि हरिशयनी एकादशी कहलाती है। आज से विष्णुजी चार महीनों के लिए निद्रा में जाएंगे। विष्णु सात्विक भाव के प्रतीक हैं और जब सत्वभावचार मास निद्रा में है तो हमारी जिम्मेदारी और बढ़ जाएगी। इन चार महीनों में कोई ऐसा संकल्प लीजिए जो भीतर के सात्विक भाव को बनाए रखे। जब विष्णु सोते हैं तो वेद हमारे मार्गदर्शक बन जाते हैं। जो वेद न पढ़ सके वह ऐसे शास्त्र पढ़ें, जिनमें वेद का निचोड़ हो। </span><br /><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">ऐसा ही शास्त्र है रामचरित मानस। इन चार महीनों में रामचरित मानस से संदेश लिया जा सकता है कि कैसे परमपिता अपने आपको विश्राम में लेकर संदेश देता है कि विश्राम का अर्थ है ऊर्जा का पुनर्संचरण। लंका कांड में रावण भोग-विलास में डूबा हुआ था और रामजी सेना लेकर लंका पहुंच चुके थे। तब तुलसीदासजी ने लिखा, ‘तहं तरू किसलय सुमन सुहाए। लछिमन रचि निज हाथ डसाए।। ता पर रुचिर मृदुल मृगछाला। तेहिं आसन आसीन कृपाला।।<span lang="">’</span><span lang=""> </span>अर्थात लक्ष्मणजी ने वृक्षों के कोमल पत्ते और सुंदर फूलों पर अपने हाथों से कोमल मृगछाल बिछा दी जिस पर कृपालु श्रीराम विराजमान थे। यहां रामजी किस तरह से बैठे हैं, बताया गया है। यह वही दृश्य है कि विष्णु सोकर भी होश में हैं। हम लोग नींद का मतलब इतना समझते हैं कि जागने के समापन को नींद कहते हैं। असल में होना यह चाहिए कि नींद भी आए और होश भी रहें। राम उस समय पूरे होश में थे और रावण जागते हुए भी सोया हुआ था। यही स्थिति उसके पतन का कारण बनी थी। हम भी चातुर्मास से संदेश लें कि इन चार महीनों में अपने भीतर के सदगुण, संकल्प बहुत अच्छे से जीवन से जोड़ेंगे।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>संस्थान व कर्मचारी परस्पर मददगार बनें<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">हर हाल में हम किसी सूक्ष्म नेत्र के परीक्षण में होते हैं। वह ईश्वर हो सकता है, आपका जमीर हो सकता है। आप स्वयं को जरूर देख रहे होंगे। इस बात को कभी न भूलें कि आपको कोई देख रहा है। अकेले में कुछ करते हुए मान लें कि जो भी कर रहे हैं उसे कोई नहीं देख रहा है तो यह आपकी बहुत बड़ी गलतफहमी होगी। हर हाल में हम किसी सूक्ष्म नेत्र के परीक्षण में होते हैं। वह ईश्वर हो सकता है, आपका जमीर हो सकता है। आप स्वयं को जरूर देख रहे होंगे। कुछ संस्थानों में जो एचआर विभाग होता है, उसमें इस बात पर बहस होती है कि हमारे यहां काम करने वालों के व्यक्तिगत जीवन में संस्थान कितना हस्तक्षेप करेगा। कई बार काम करने वाले कुछ लोग कहते हैं हमारे निजी जीवन में संस्थान को कोई रुचि नहीं होनी चाहिए। उन्हें परिणाम चाहिए, जो हम परिश्रम से दे रहे हैं। वैधानिक दृष्टि से बात सही है लेकिन, नैतिक दृष्टि से देखेंगे तो अर्थ बदल जाएंगे। निजी जीवन के क्रियाकलाप सार्वजनिक जीवन पर प्रभाव डालेंगे ही। यदि आप अपने एकांत या निजी जीवन में परेशान हैं तो इसका असर कामकाज पर पड़ेगा। शास्त्रों में कहा गया है कि जल में स्नेह और अनुराग स्वत: होता है, इसीलिए वह नीचे की तरफ दौड़ता है। किसी में भी घुल-मिल जाना पानी का लक्षण या स्वभाव है। इसे करुणा की वृत्ति कहते हैं। संस्थान अपने काम करने वालों में निजी रूप से रुचि रखे यह पानी जैसी वृत्ति है। वह हस्तक्षेप नहीं, सहानुभूति है। ये ही भाव काम करने वालों को भी रखना चाहिए। उन्हें लगना चाहिए कि हमारा निजी जीवन इतना भी निजी नहीं है कि उसे संस्थान से पूरी तरह ही काट लिया जाए। दोनों ही एक-दूसरे में पानी की तरह भाव रखें। एक-दूसरे को जानें और निजी व सार्वजनिक जीवन में इतनी रुचि जरूर लें कि एक-दूसरे की परेशानी को कम करने में मददगार बन सकें।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span><br /><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>ख्याति मिलने पर अहंकार में डूबें<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">मशहूर लोगों को उन्हीं की ख्याति का खंजर जरूर चुभता है। जब उससे घायल होते हैं तो कई बार तो घाव लाइलाज हो जाते हैं। मशहूर लोगों को उन्हीं की ख्याति का खंजर जरूर चुभता है। जब उससे घायल होते हैं तो कई बार तो घाव लाइलाज हो जाते हैं। लोकप्रिय होने की चाह मनुष्य स्वभाव में है। नाम, मान, पहचान सभी चाहते हैं। ध्यान रखिएगा, लोकप्रिय बने रहने की आदत है तो थोड़ी सावधानी बरतें।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">ख्याति बहुत तरल होती है। लोकप्रिय लोग कल्पना में बहने लगते हैं। पहचान की स्वीकृति की चाहत मनुष्य को बेचैन कर देती है। जब वह थोड़ा ख्यात हो जाता है तो यह मान लेता है कि मेरे बारे में जो मैं सोच रहा हूं वह सब सही है और दूसरे भी ऐसा ही सोचें। ऐसे लोग इसके लिए बाहर की स्थितियों, व्यक्तियों पर दबाव बनाते हैं लेकिन, स्थितियां सदैव एक जैसी नहीं रहतीं। संसार नाम ही सरकने का है। स्थितियां बदल जाती हैं, लोग हट जाते हैं पर ख्यात लोग उसी दुनिया में उलझे रहते हैं। बड़े-बड़े बादशाह दफन हो गए। जिनके सिक्के चलते थे उन्हें कोई पूछने वाला नहीं रहा। ऐसे ही एक दिन सभी की लोकप्रियता दिशा मोड़ेगी। यदि आप जरा भी लोकप्रिय हैं तो इस बात का ध्यान रखिएगा कि ख्याति अनियंत्रित, अनियमित, सशर्त, अस्थायी होकर अहंकार के साथ आती है। उसके साथ एक अनोखा डर जुड़ा होता है। ख्यात लोग इस बात को लेकर भयभीत रहते हैं कि यह मान, पहचान किसी भी तरह बना रहे, कहीं चला जाए। ऐसे में आप दयनीय स्थिति में जाते हैं। इसलिए जब भी ख्यात होने की स्थिति बने, पहले तो उसे सावधानी से अर्जित करें और मानकर चलें कि यह अस्थायी है। आज हमारे पास है, कल किसी और के पास हो सकती है। यदि लोकप्रियता चली भी जाए तो आप वही रहेंगे जो थे। ख्याति मिल जाने पर अहंकार पालें और चली जाने पर अवसाद में डूबें।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>हठ को मन से नहीं, बुद्धि से जोड़ना होगा..<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">हठ करो-हासिल करो, इस तरह के आदर्श वाक्य से लोगों को प्रोत्साहित और प्रेरित किया जाता है। कहते हैं यदि ज़िद ठान लें तो संसार में जो चाहें, पा सकते हैं। हठ करो-हासिल करो, इस तरह के आदर्श वाक्य से लोगों को प्रोत्साहित और प्रेरित किया जाता है। हठ करना बुरी बात नहीं है। हठ यदि शुभ संकल्प में बदल जाए तब तो बात ही अलग होगी। दार्शनिक लोग कहते हैं दुनिया में तीन लोगों का हठ बड़ा चर्चित है- राजहठ, बालहठ और त्रियाहठ। राजा जिद पर आ जाए, बच्चा मचल जाए और स्त्री अपनी बात मनवाने पर अड़ जाए तो परिणाम लोग अलग-अलग ढंग से भुगतते हैं। शास्त्रों में एक बात बड़े अच्छे ढंग से कही गई है कि संसार में केश (बाल) और नाखून का हठ भी बड़ा मशहूर है क्योंकि दोनों को काटो और फिर उग आते हैं। इसके अलावा एक और हठ बताया गया है- मन का। हमारा मन बड़ा हठी होता है। कितना ही काबू में करने की कोशिश कर लें, वह अपना काम दिखा ही देता है। मन दो तरह के हैं- मंकी माइंड और काउ माइंड। मंकी माइंड का मतलब है किसी बंदर की तरह उछलकूद करने वाला। काउ माइंड वह जो गाय की तरह शांत हो और जिसमें से पॉजीटिव वाइब्रेशन्स निकल रहे हों। विचार करें हमारा मन कैसा है और प्रयास कीजिएगा काउ माइंड हो। मन हर एक पर अपने वांछित व्यवहार का दबाव बनाता है। जैसा मैं चाहता हूं वैसा ही हो जाए यह मन का अति आग्रह या हठ है। चूंकि बाहर उसका हठ पूरा नहीं हो पाता इसलिए भीतर दृश्य निर्मित करता है और भीतर के ये ही दृश्य आपको तनाव में पटक देते हैं। छलावा, षड्यंत्र ये सब मन के हठ के परिणाम हैं। याद रखिएगा, हठ यदि मन से जुड़ा है तो आप नुकसान में हैं और यदि बुद्धि से जुड़ा है तो सफलता के मतलब बदल जाएंगे।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>गुरु न मिले तो हनुमानजी को गुरु मान लें<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">कोई बच्चा माता-पिता या परिवार के बड़े-बुजुर्गों की अंगुली पकड़कर ही दुनियादारी देखने और उसे समझने की शुरुआत करता है। कहा जाता है मानव जीवन की पहली पाठशाला परिवार होती है। सच भी है, कोई बच्चा माता-पिता या परिवार के बड़े-बुजुर्गों की अंगुली पकड़कर ही दुनियादारी देखने और उसे समझने की शुरुआत करता है। लेकिन, इस तथ्य को भी नहीं भुला सकते कि माता-पिता या परिवार से प्राप्त शिक्षा सफलता की सीढ़ियां तो दिखा सकती हैं परंतु लक्ष्य तक पहुंचने के लिए कुछ और भी चाहिए। बिना सही मार्गदर्शन के केवल ज्ञान या जानकारी के बूते कामयाबी के शीर्ष तक नहीं पहुंचा जा सकता। यह मार्गदर्शन सिर्फ गुरु ही दे सकते हैं। बात महान दार्शनिक अरस्तू की हो या स्वामी विवेकानंद की, इनके समग्र दर्शन और व्यक्तित्व के पीछे गुरु कृपा का आलोक ही काम कर रहा था। स्वामी विवेकानंद ने तो स्वयं ही स्वीकार किया था कि यदि गुरु रूप में रामकृष्ण परमहंसजी नहीं मिले होते तो मैं साधारण नरेंद्र से ज्यादा कुछ नहीं होता। हर माता-पिता की चाहत होती है उनकी संतान श्रेष्ठ होकर शीर्ष तक पहुंचे। समय रहते बच्चों के लिए कोई योग्य गुरु ढूंढ़ दीजिए। वे वहीं पहुंच जाएंगे, जिस मुकाम पर आप उन्हें देखना चाहते हैं। हालांकि श्रेष्ठ गुरु मिल जाना भी इस दौर की बड़ी चुनौती है। तुलसीदासजी ने श्री हनुमान चालीसा की सैंतीसवीं चौपाई, ‘जै जै जै हनुमान गोसाई कृपा करहुं गुरुदेव की नाई<span lang="">’</span><span lang=""> </span>लिखकर इस चुनौती को बहुत आसान कर दिया है। कोई अच्छा गुरु नहीं मिले तो हनुमानजी को ही गुरु और हनुमान चालीसा को मंत्र मान लीजिए। सफल कैसे हुआ जाए और सफलता मिल जाने के बाद क्या किया जाए यह हनुमानजी से अच्छा कोई नहीं सिखा सकता। गुरु रूप में उनकी जो कृपा बरसेगी वह आपका जीवन बदल देगी। कल गुरुपूर्णिमा है, क्यों न शुरुआत इसी शुभ दिन से की जाए..<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>राम से सीखें एक साथ कई भूमिकाएं निभाना<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">दो हाथ से चार गेंद उछालना और किसी एक को भी गिरने नहीं देना, यह काम या तो जादूगर कर सकता है या कोई बड़ा कलाबाज। दो हाथ से चार गेंद उछालना और किसी एक को भी गिरने नहीं देना, यह काम या तो जादूगर कर सकता है या कोई बड़ा कलाबाज। लेकिन कुछ लोग वास्तविक जिंदगी में भी अपने कामों, अपनी परिस्थितियों को ऐसे ही उछालते हैं। एक बार में अनेक काम साध लेते हैं और सफल भी हो जाते हैं। प्राणियों में सिर्फ इंसान है, जिसे मानव कहा गया है और वह इसलिए कि उसके भीतर मानस होता है। मानस सक्रिय होता है तो मस्तिष्क बनकर कई काम एक साथ करने की क्षमता रखता है। लंकाकांड के एक अनूठे दृश्य पर तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘प्रभु कृत सीस कपीस उछंगा। बाम दहिन दिसि चाप निसंगा।। दुहुं कर कमल सुधारत बाना। कह लंकेस मंत्र लगि काना।। बड़भागी अंगद हनुमाना। चरन कमल चापत बिधि नाना।। प्रभु पाछें लछिमन बीरासन। कटि निषंग कर बान सरासन।।<span lang="">’</span><span lang=""> </span>यहां बताया गया है कि किस प्रकार राम विश्राम की मुद्रा में लेटे हैं और सुग्रीव, विभीषण, हनुमान, अंगद आदि उनके आसपास बैठे सेवा में लगे हैं। श्रीराम विश्राम भी कर रहे हैं और सक्रिय भी हैं। स्वयं काम कर रहे हैं और अपने सभी साथियों को भी काम पर लगा रखा है। जब मनुष्य का मस्तिष्क सक्रिय होता है तो चार रंगों से गुजरता है। इन्हें शास्त्रों ने वर्ण कहा है। पहला होता है शूद्र। इसे आज की भाषा में स्वामी भक्ति कह सकते हैं। दूसरा वैश्य। यानी चौकसी के साथ अपने हानि-लाभ के लिए सक्रिय रहना। क्षत्रिय वर्ण में नेतृत्व क्षमता आ जाती है और ब्राह्मण वर्ण यानी ज्ञान का सदुपयोग करना। इस तरह एक मस्तिष्क आपको कई अवसरों से गुजार सकता है। जब एक साथ कई भूमिकाएं चल रही हों तो श्रीराम से सीखा जाए कैसे दो हाथों में चार गेंद उछालें और गिरने भी न दें। यही कलाबाजी आपकी योग्यता बन जाएगी।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>संतान के भीतर सद्विचारों की तरंगें उतारें<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">अच्छी-अच्छी बातों-सूक्तियों को तोड़-मरोड़कर रुचिकर बनाते हुए नारों की शक्ल में उछाल देने की कला वॉट्सएप ने सबको सिखा दी आदर्श वाक्यों, अच्छी-अच्छी बातों-सूक्तियों को तोड़-मरोड़कर रुचिकर बनाते हुए नारों की शक्ल में उछाल देने की कला वॉट्सएप ने सबको सिखा दी है। जिसे देखो वह मोबाइल के माध्यम से ज्ञान बांट रहा है। फिर उस ज्ञान को हम नेत्रों से पढ़ते तो हैं लेकिन, बात हृदय तक नहीं पहुंचती। कुल-मिलाकर चारों ओर ज्ञान की वर्षा हो रही है पर आचरण में उतारने को कोई तैयार नहीं। जैसे भिखारी भीख मांगता है और लोग कह देते हैं आगे बढ़ो, बस उसी तरह ज्ञानवर्धक संदेश तुरंत आगे बढ़ाए जा रहे हैं। किसी इंसान को तैयार करना हो तो सबसे पहले उसके आचरण पर काम करना पड़ता है। माता-पिता संतान को सिर्फ जन्म ही नहीं देते, उन्हें तैयार भी करते हैं। बायो टेक्नोलॉजी के इस युग में लगातार प्रयोग हो रहे हैं, जिनमें कुछ चौंकाने वाले हैं। एक ही पेड़ पर हर डाली अलग-अलग आकार और स्वाद के फल दे सकती है। ऐसे सफल प्रयोग हो चुके हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार मनुष्य को सिर्फ एक प्रतिशत दूसरी बातें प्रभावित करती हैं, बाकी निन्यानबे प्रतिशत वह प्रकृति द्वारा संचालित होता है। जब फलों पर इतना काम हो रहा हो तो संतानरूपी फसल पर भी गंभीरता से काम करना पड़ेगा। इसकी शुरुआत उनके आचरण से कीजिए। अन्न का मन पर पूरा असर पड़ता है। बायो टेक्नोलॉजी के युग में खान-पान की चीजों पर बहुत काम हो रहा है परंतु ध्यान रखिए, एक अन्न विचारों का भी होता है। माता-पिता के शरीर और मस्तिष्क से निकली तरंगें भी अन्न की तरह प्रभावी होकर बच्चों के लिए बहुत उपयोगी होती हैं। सद्विचारों की ये तरंगें उनके भीतर उतारिए। कहीं ऐसा न हो कि हम उन्हें मौखिक निर्देश, आदर्श वाक्य और सूत्र बांटते रहें और वो सब ऊपर से निकलकर उनका आचरण कोरा रह जाए।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>अपने अंदर अध्यात्म का स्वराज्य लाएं<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">भारत में जो भी किया जाए, भारतीयता उससे विलग नहीं होनी चाहिए। राज्य और स्वराज्य दो अलग चीजें हैं। हमारे देश का जो राज्य, जो शासन है वह लगातार ऐसे प्रयोग कर रहा है कि एक भारतीय की संवैधानिक स्थिति में कुछ अनुकूल और कुछ प्रतिकूल परिवर्तन आ रहे हैं। कई इनके समर्थन हैं तो कुछ विरोध भी कर रहे हैं। सामान्यजन के पास सिवाय प्रतीक्षा करने के और कुछ नहीं है। ऐसे समय जब नए-नए नियम आ रहे हों, कर के रूप बदल रहे हों, देश विकास के मार्ग पर गति पकड़ रहा हो, उपलब्धि होने और नहीं होने- दोनों ही स्थितियों में अध्यात्म की बहुत जरूरत पड़ेगी। भारत में जो भी किया जाए, भारतीयता उससे विलग नहीं होनी चाहिए। कुछ मामलों में अध्यात्म और भारतीयता एक ही है। राज्य वह होता है, जिसे कुछ लोग चलाते हैं। जैसे हमारे यहां लोकतंत्र है। लेकिन स्वराज्य का मामला थोड़ा आत्मा से जुड़ा है। आप जितना स्वराज्य पर टिक जाएंगे, राज्य से होने वाली तकलीफों की पीड़ा कम होगी और उपलब्धियों का सदुपयोग कर सकेंगे। स्वराज्य की सीधी-सी परिभाषा है स्वयं द्वारा स्वयं पर शासन। यहां स्वयं का मतलब आत्मा से है। जितना आत्मा को जानेंगे उतना ही स्वराज्य का आनंद ले पाएंगे। स्वयं मर्यादा में रहना सीख गए तो दूसरों को भी यही सहूलियत देंगे और खुद भी हर स्थिति का आनंद ले सकेंगे। स्वराज्य पाने के लिए चौबीस घंटे में कुछ समय योग करिए। तब स्वयं पर शासन करते हुए बाहर की परिस्थितियों से उतने प्रभावित नहीं होंगे, जितने आज होकर परेशानी उठा रहे हैं। बाहर की दुनिया तो ऐसे ही चलती है। जो राजा आएगा, अपना सिक्का चलाएगा। उसका सिक्का आपके लिए कोड़ा और घोषणाएं पीड़ा न बन जाए, इसलिए अध्यात्म की दृष्टि से एक स्वराज्य अपने भीतर जरूर ले आइए।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>अहिंसक भाव हो तो व्यक्तित्व सुखदायक..<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">एक चौंकाने वाला आंकड़ा सामने आया है कि मनुष्यों के बीच सामूहिक हिंसा कम होकर व्यक्तिगत हिंसा बढ़ गई है। एक चौंकाने वाला आंकड़ा सामने आया है कि मनुष्यों के बीच सामूहिक हिंसा कम होकर व्यक्तिगत हिंसा बढ़ गई है। सामूहिक हिंसा की जो भी घटनाएं हो रहीं हैं वे आतंकियों द्वारा की जा रही है। हिंसा का अर्थ किसी का रक्त बहाना या किसी की जान लेना ही नहीं है। गहराई से विचार करें तो आपके द्वारा किसी को आहत करना भी हिंसा ही है।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">मनोवैज्ञानिकों का मानना है इन दिनों जीवनशैली ऐसी हो गई कि व्यक्तिगत रूप से मनुष्य बहुत हिंसक होकर साथ रहने वालों को लगातार आहत कर रहा है, उनके प्रति हिंसा कर रहा है। एक-दूसरे के साथ रहने के बाद भी लोग असुरक्षित महसूस करते हुए असहिष्णु होते जा रहे हैं। व्यक्तिगत हिंसा कम करना हो तो पहले अपने व्यक्तित्व में दो बातें देखिए- क्या आप मनभावन हैं या सुखदायक व्यक्तित्व के धनी हैं? मनभावन व्यक्तित्व वाले लोग अच्छे तो लग सकते हैं पर भीतर से वो क्या कर रहे हैं, कौन-सी नेगेटिव एनर्जी फैला रहे हैं, यह आप नहीं जान पाएंगे। सुखदायक प्रवृत्ति वाले साथ वालों को हमेशा पॉजिटिव वायब्रेशन्स ही देेंगे। हमारे भीतर विचार सूचना और ऊर्जा दोनों लेकर आते हैं। जब ये किसी निर्णय या इरादे से जुड़ते हैं तब तरंगें बनती हैं। यदि आप भीतर से अहिंसक हैं तो ये ही तरंगे पॉजिटिव और हिंसक हैं तो निगेटिव हो जाएंगी। आज व्यक्तिगत हिंसा के लक्षण परिवार में रिश्तों के बीच उतर आए हैं। बच्चे ऐसा-ऐसा बोल जाते हैं कि माता-पिता आहत हो जाते हैं। माता-पिता की वाजिब डांट भी बच्चों को हिंसा-सी लगती है। पति-पत्नी के बीच आक्रमण के दृश्य तो गजब के ही होते हैं। इन नकारात्मक स्थितियों से स्वयं और परिवार को दूर रखना हो तो भीतर अहिंसक भाव पैदा करते हुए व्यक्तित्व को सुखदायक बनाइए।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>ऊर्जा पाने के लिए ईश्वर पर ध्यान लगाएं<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">जीवन में असफल रहना कोई नहीं चाहता लेकिन, कुछ अवरोध ऐसे जाते हैं जिनसे निपटना ही पड़ता है। असफलता यदिभयानक है तो अवरोध डरावना होता है। जीवन में असफल रहना कोई नहीं चाहता लेकिन, कुछ अवरोध ऐसे जाते हैं जिनसे निपटना ही पड़ता है। इसके लिए आंतरिक शक्ति, अतिरिक्त ऊर्जा प्राप्त करनी होगी। जब हम किसी बड़ी यात्रा पर चलते हैं तो कुछ रुकावटें कुदरत दे देती है और कुछ हम स्वयं पैदा कर लेते हैं। दुनिया में कई महान लोगों को कुदरती रुकावटों का सामना करना पड़ा है। सूरदासजी दृष्टिहीन थे, तुलसीदासजी को जीवन के अंतिम दौर में कैंसर हो गया था। चर्चिल हकलाते थे, सुकरात का पारिवारिक जीवन तनावपूर्ण था और आचार्य नरेंद्रदेव दमा से पीड़ित थे। लेकिन, ये सब तमाम रुकावटों से पार पाते हुए अपने लक्ष्य तक पहुंचे। हमारे जो भी भौतिक लक्ष्य हों पर एक बड़ा लक्ष्य होना चाहिए दुर्गुणों का सामना कर उन्हें खत्म करना। रावण दुर्गुणों का जीता-जागता स्वरूप था। लंका कांड में राम उससे टक्कर लेने जा रहे थे और इस पर तुलसीदासजी ने दोहा लिखा- ‘एहि बिधि कृपा रूप गुन धाम रामु आसीन। धन्य ते नर एहिं ध्यान जे रहत सदा लयलीन।।<span lang="">’</span><span lang=""> </span>यहां कृपा, रूप और गुण तीन बातें रामजी से जोड़ते हुए कहा गया है कि जो लोग इसमें ध्यान लगाएंगे उन्हें अतिरिक्त ऊर्जा मिलेगी। प्रकृति और परमपिता की कृपा, उनका रूप गुण हमारे लिए एक शक्ति है। ऐसा तुलसीदासजी ने इसलिए लिखा कि अब रावण से टकराने का अवसर रहा था। राम तो एक बार टकराए थे पर हमें तो हर दिन अपने ही भीतर के रावण से टकराना है। इसीलिए जो आंतरिक शक्ति ऊर्जा प्राप्त करनी है उसमें परमशक्ति की कृपा, रूप और गुण का ध्यान लगाइए। बाधाएं-रुकावटें अपने आप दूर हो जाएंगी। वरना ये अवरोध असफलता के बड़े कारण बन जाएंगे।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><b>परिवार में अन्य सदस्यों के लिए उपयोगी बनें<o:p></o:p></b></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">हम दूसरों का उपयोग कर लें लेकिन, जब दूसरा हमारा उपयोग करे तो कई तरह के समीकरण बैठाने लगते हैं। अपना थोड़ा-बहुत उपयोग दूसरों के लिए भी होने दें, इसमें कोई बुराई नहीं है। हम लोग इस मामले में बड़े सावधान रहते हुए खुद को बचाकर चलते हैं। हम दूसरों का उपयोग कर लें लेकिन, जब दूसरा हमारा उपयोग करे तो कई तरह के समीकरण बैठाने लगते हैं। बाहर की दुनिया में ऐसा चल सकता है पर आजकल लोग घर में भी ऐसा ही करने लगे हैं। परिवार छोटे होते जा रहे हैं लेकिन, यदि अपनापन नहीं बचा तो छोटे परिवार बनाने से भी क्या मतलब?..<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">मजबूरीवश कभी-कभी परिवार छोटे करना पड़ते हैं। अब बहुत सारे लोग एक साथ नहीं रह सकते। काम-धंधे के कारण घर से बाहर निकलना पड़ता है। यदि किसी परिवार में तीन या चार सदस्य हैं और लगे कि हमारा परिवार छोटा है तो वो एक प्रयोग कर सकते हैं। हर सदस्य तय कर ले कि ये बचे हुए तीन मेरा जमकर उपयोग करें। गणित कुछ ऐसा बैठेगा कि चार लोगों का परिवार सोलह जैसा सुख देने लगेगा। अपना उपयोग दूसरे करें ऐसा स्वभाव बनाने के लिए एक आध्यात्मिक प्रयोग करिए। हमारे शरीर के सात चक्रों में कोई एक केंद्रीय चक्र होता है जहां से हमारा स्वभाव नियंत्रित होता है। उस चक्र का जो स्वभाव होगा, हम वैसा ही करते हैं।<o:p></o:p></span></div><div class="MsoNormal"></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">इसीलिए बहुत नज़दीकी संबंध होने के बाद भी लोगों के स्वभाव अलग-अलग होते हैं। एक ही माता-पिता के बच्चों की आदतें, क्रिया-कलाप में अंतर होता है। यदि लगातार गहरी सांस के साथ प्रत्येक चक्र पर चिंतन करें तो कुछ दिनों में अंदाज हो जाएगा कि आपका केंद्रीय चक्र क्या है? उस पर टिककर अपने स्वभाव को परिपक्व कीजिए, अपने आप प्रसन्नता के साथ अपना उपयोग दूसरों को करने देंगे। यहीं से छोटे परिवार का एकाकीपन दूर होकर आप कम लोगों में भी ज्यादा का आनंद उठा पाएंगे।</span></div><div class="MsoNormal"><br /></div><div class="MsoNormal"><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,</span><br /><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है... मनीष </span><br /><span style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; font-weight: bold;">ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....</span></div></div>Jai Guru Geeta Gopalhttp://www.blogger.com/profile/01621836960274288942noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6101091264294453966.post-33581991120847793472020-06-02T21:59:00.000-07:002020-06-02T21:59:26.770-07:00जीवन जीने की राह (Jeevan Jeene Ki Rah6)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>बुढ़ापे में स्मृतिदोष से बचाए ॐ का उच्चारण<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सबको सबकुछ याद नहीं रहता और रखना भी नहीं चाहिए। कुछ बातों को भुला देने में ही शांति है, स्वास्थ्य है। बुढ़ापा आने पर उसका आक्रमण शरीर के जिन हिस्सों या स्थिति पर होता है उनमें से एक है याददाश्त। इस अवस्था में अच्छे-अच्छों को स्मृति दोष हो जाता है। चिकित्सा विज्ञान इसे अलग-अलग बीमारी का नाम देता है। पार्किंसन्स ऐसी ही बीमारी है। जिसे भी लगती है, पूरे घर के लोग परेशान हो जाते हैं। इससे मुकाबले के लिए मेडिकल साइंस में बहुत शोध हो रहा है। बुढ़ापा सभी को आना है। इससे कोई नहीं बच सकता, इसलिए जब वृद्धावस्था की दस्तक होने लगे तो विचारशून्य होने की आदत डालिए। इस दौर में जब स्मृति दोष की बीमारी लगती है उस समय विचार उलझ जाते हैं और आप भूलने लगते हैं। यहां विचारशून्यता का अर्थ भी भूलना है, पर वह भूलना उलझने के बाद है और यह भूलना सुलझने के बाद। विदेशों में इस बात पर शोध चल रहा है कि जिनको पार्किंसन्स या ऐसी कोई बीमारी हो जाती है उनके मस्तिष्क में बाहर से कोई यंत्र लगा दिया जाए। मस्तिष्क में कुछ ऐसी तरंगें पैदा कर दी जाएं, जिनसे स्मृति दोष दूर हो सके। हमारे ऋषि-मुनियों ने ऐसी तरंगें पैदा करने के लिए ॐ का उच्चारण बताया है। आज भी विदेशों में कई वैज्ञानिक ॐ के उच्चारण को लेकर शोध कर रहे हैं। ॐ में तीन वर्ण हैं- अ, उ और म। वेदों का सार है इसमें और इसके उच्चारण से मस्तिष्क में फिर वही प्रवाह पैदा हो सकता है जो आज चिकित्सा वैज्ञानिक किसी यंत्र द्वारा पैदा करना चाह रहे हैं। योजनाबद्ध ढंग से वृद्धों से आग्रह किया जाए कि समय का एक बड़ा हिस्सा ॐ की ध्वनि के साथ बिताएं। यह प्रयोग वृद्धावस्था के स्मृति दोष से छुटकारा देने में बड़ा मददगार होगा।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>कंठ पर ध्यान करके सहनशीलता बढ़ाएं<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपनी शक्ति को सहनशक्ति में बदलना एक कला है। यह है तो बड़ा कठिन काम पर जिसने सावधानी से कर दिया वे जीवन का भरपूर आनंद उठा सकते हैं। हम समाज में, परिवार में सदैव स्वतंत्र व स्वछंद नहीं रह सकते। परिवार में रिश्तों के कारण और कामकाज की जगह अपने व्यावसायिक लक्ष्य के कारण बहुत कुछ सहन करना पड़ता है। हो सकता है आप आफिस में बॉस को सहन कर रहे हों, अधीनस्थ कर्मचारियों को बर्दाश्त कर रहे हों। ऐसे ही हालात घर में भी बन जाते हैं। पति को लगता है पत्नी को सहन कर रहा हूं, पत्नी समझती है मैंने बहुत सहन किया इसीलिए गृहस्थी चल पा रही है। ये ही दृश्य दूसरे रिश्तों में भी हो जाते हैं। ध्यान रखिए, सहन करना बहुत अच्छी बात है। लेकिन यदि ठीक से सहन करने की कला न आई तो आप दो नुकसान उठाएंगे- संबंधों का और स्वास्थ्य का। सहनशीलता अपने भीतर उतारने के लिए थोड़ा दमन करना पड़ता है। यहां दमन का अर्थ दबाना नहीं, बल्कि अपने मन को मोड़ना है। योग में इसकी बहुत अच्छी विधि बताई गई है। हमारे शरीर में सात चक्र हैं। हर चक्र का अपना स्वभाव, प्रभाव, रंग, फूल व तत्व है। कंठ वाला चक्र है विशुद्ध, जिसका स्वभाव सहनशीलता, फूल मोगरा और तत्व आकाश है। जैसे ही ध्यान कंठ में लगाकर कल्पना करेंगे कि मैं इस समय विशुद्ध चक्र पर टिका हूं और आपका जो भी मंत्र हो, कोई और न हो तो हनुमान चालीसा का जप कर लीजिए। इसकी प्रत्येक पंक्ति मंत्र है। हर चौपाई जब मंत्र के रूप में विशुद्ध चक्र पर जुड़ेगी तो पाएंगे धीरे-धीरे आपकी सहनशीलता बढ़ती जाएगी। ऐसी सहनशीलता जो संबंधों को दबाव में नहीं लाएगी और खुद दबाव में आकर अपना स्वास्थ्य नहीं बिगाड़ेंगे। सहन करना सीखिए, अच्छा समय आपकी प्रतीक्षा कर रहा है।<o:p></o:p></span></div>
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<b style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">धन-यश पाने के बाद मौन को साधें</b></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिनके पास बहुत अधिक समृद्धि होती है, उनके पास समस्याएं भी उतनी ही ज्यादा होंगी। परेशानियां मनुष्य का पीछा नहीं छोड़तीं, अशांति अंगद की तरह पैर जमाए खड़ी रहती है। आज जिसे देखो वह सफलता और शांति के पीछे दौड़ रहा है। दौड़ना भी चाहिए। कुछ न कुछ सभी को पाना है। भौतिक जगत में सबकुछ कमाने के लिए जो परिश्रम किया और बहुत कुछ मिल जाने के बाद भी परेशान हैं तो एक प्रयोग करिएगा। शांति से बैठकर सोचिएगा कि एक दिन आपके पास वह नहीं था जो आज है।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इस बात को धन-दौलत से न जोड़ें। जोर इस बात पर दीजिए कि तब आपकी पहचान नहीं थी। कोई आपको नहीं जानता था। धीरे-धीरे पहचान बनी और आपने बहुत कुछ पा लिया। अब, जब बहुत कुछ पा लिया है तो पुन: उस शून्य में जाएं जहां कुछ नहीं था। बहुत कम लोग आपको जानते थे, माता-पिता के साये में सुरक्षित थे। थोड़ी देर सोचिए कि जब कुछ नहीं था तब भी आप थे और आज सबकुछ है तब भी आप हैं, लेकिन कहीं खो गए हैं। पहले अपने को ढूंढ़िए। यह काम दो चरण में करें।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पहला अपने उस होने को पकड़ें जो आप वर्षों पहले थे। वहां एक शून्य पाएंगे। दूसरी बात, जो आपने अभी पाया है उसका ठीक से अनुभव करें। इन दो चरणों के लिए मौन बहुत जरूरी है। योग का एक चरण मौन है। किसी ने बिल्कुल ठीक कहा है कि भगवान को सबसे ज्यादा भक्त का मौन सुनाई देता है। चौबीस घंटे में कुछ समय मौन साधें, अपने पुराने शून्य को ढूंढ़े और आज जो उपलब्ध है उसमें कुछ ऐसा है जिस पर आपकी नज़र नहीं जा रही हो उसे प्राप्त कर लें। फिर देखिए, जितनी दौलत, समृद्धि, नाम-प्रतिष्ठा कमाई है वह आपको अशांत नहीं कर पाएगी। यदि आप अशांत हैं तो ये सब किसी काम के नहीं होंगे।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>संबंधों में विश्वसनीयता पर ध्यान दें<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">संबंध बनाते समय ध्यान रखिएगा कि कुछ को उजागर रखना है और कुछ को गोपनीय। नेटवर्किंग के इस जमाने में ऐसा माना जाता है कि जिसकी नेटवर्किंग तगड़ी है वह जल्दी सफल होगा। संबंधों के माध्यम से सफलता अर्जित करना हो तो एक शब्द ध्यान में रखें- ‘सार्थकता<span lang="EN-US">’</span>। हर संबंध आपसे कुछ लेता भी है और देता भी। इसकी तुलना समझदारी से कीजिए। जिससे भी संबंध बनाएं तो ध्यान रखिएगा वह आपकी अनुपस्थिति में आपको क्या लाभ दिला सकता है। मौजूदगी में तो वह लिहाज अथवा दबाव में आकर फायदा पहुंचाने का प्रयास करेगा ही। संबंधों की सही कसौटी यह होगी कि जब आप न हो तब वह आपके बारे में सकारात्मक सोचे, बोले, आपकी प्रशंसा करे, आपका हित चाहे। दूसरों के सामने आपके प्रति एक ऐसा नज़रिया पेश करे कि लोग आपको लाभ पहुंचाने को आतुर हो जाएं। इस मामले में शरीर से सीखिए। ऊपर वाले ने शरीर तंत्र कुछ ऐसा बनाया है कि एक अंग दूसरे को फायदा पहुंचाता है और फायदा लेता भी है। अंगों का आपस में तालमेल नहीं बैठे तो बीमारी आना ही है। अध्यात्म सिखाता है, जिस प्रकार आप शरीर के प्रति जागरूक हैं, हर अंग का उपयोग क्या और कैसे करना यह जानते हैं, ऐसा ही मनुष्यों के साथ कीजिए। अच्छी नेटवर्किंग का यानी आपकी अनुपस्थिति में आपके लिए हितकारी व्यक्ति से संबंध। संबंध बनाते समय अपनी छवि को मांजते रहें। जब आप संबंध बना रहे हैं तब दूसरा भी आपसे यही कर रहा होता है। आपके संबंधों को लेकर उसके पास कोई मापदंड है और वहां आपकी छवि बड़ा काम करेगी। यहां दो बातें और महत्व रखती हैं- आपका व्यवहार व विश्वसनीयता। संबंध बनाते वक्त छवि के साथ व्यवहार और विश्वसनीयता पर भी जरूर काम कीजिए।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>प्रेम बेटी जैसा दें पर दर्जा बहू का ही हो...<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीवन अपने आपमें एक यात्रा है। इसमें कई छोटी-छोटी यात्राएं और चलती रहती हैं। पुरुष और स्त्री की इस यात्रा में एक जगह भेद आ जाता है। स्त्री एक ऐसी यात्रा करती है, जो पुरुषों को नहीं करनी पड़ती। वह है मायके से ससुराल की। चूंकि स्त्री एक लंबी यात्रा करके आती है, इसलिए उसके सामने खुद को एक नए माहौल में ढालने की चुनौती होती है। मेरे संपर्क में कई परिवार हैं, जो कहते हैं हम अपनी बहू को बेटी की तरह रखते हैं। सोचने की बात यह है कि उन्हें ऐसा कहने की जरूरत क्यों पड़ती है? बहू को बहू रहने दीजिए। उसके बेटी होने का स्थान और समय अलग है। वह माता-पिता के साथ बेटी के रूप में तैयार हुई और बहू बनकर आपके घर आई इसमें जमीन-आसमान का फर्क है। बहू को बेटी क्यों बनाया जाए? उसे बहू की तरह ही प्रेम और मान दें। किसी भी स्त्री के जीवन में बेटी होते समय पुरुष या तो पिता या भाई के रूप में होता है। विवाह के बाद जीवनसाथी के रूप में एक और पुरुष जुड़ जाता है और यहीं से सारे दृश्य बदल जाते हैं। एक बेटी के रूप में उसने पिता का घर देखा था, जो पूरा ही उसका था। लेकिन बहू बनते ही ससुराल में दो महत्वपूर्ण कक्ष जीवन में आते हैं- रसोईघर और शयनकक्ष। किचन और बैडरूम के इस तूफान से निपटने की तैयारी बेटी बनकर नहीं हो सकती। उसका सामना बहू बनकर ही किया जा सकता है, इसलिए बहू को प्रेम तो उतना ही दिया जाए जितना बेटी को दिया जाता है लेकिन, दर्जा बहू के रूप में ही हो। भारत की पूंजी यहां के परिवार है और परिवारों के टूटने का एक कारण इस यात्रा की थकान भी है। ध्यान रखिए, इस यात्रा के बाद स्त्री का सम्मान और उसे दिया जाने वाला प्रेम घटना नहीं चाहिए। तब ही परिवार बच सकेंगे।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>अपनों से साझा करें अशांति का कारण<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अशांति भी एक आदत बन जाती है। कई लोग पूरा जीवन अशांति में ही निकाल देते हैं। विचार कीजिए, हमारे पास जिंदगी में कुछ बातें या चीजें नहीं होती हैं। उन चीजों या स्थितियों की तलाश में निकलते हैं, उन्हें पाने के लिए घोर परिश्रम करते हैं। चूंकि कोई वस्तु, पद या धन पाना है तो बेचैनी स्वाभाविक है। खूब श्रम करने के बाद अशांत हो जाएं तो कोई बात नहीं लेकिन चौंकाने वाली स्थिति तो वह है कि बहुत दौड़-भाग के बाद वांछित वस्तु प्राप्त हो जाए तब भी हम शांत नहीं हों। अभाव में अशांति थी, उसके बाद प्राप्ति में भी अशांति है। इसका मतलब है अशांत रहना हमारी आदत हो गई है। जब अशांत होते हैं तो उस अशांति का कारण बाहर ढूंढ़ते हैं। कभी भीतर उतरकर देखिए। पाएंगे, आपकी अशांति का कारण आपका ही मन है। मन से चाहत की तरंगें लगातार निकलती रहती हैं। मन सत्य के प्रति संदेह रखने में बड़ा माहिर होता है और ऐसा करते-करते धीरे-धीरे हमारी अशांति का कारण बन जाता है। कारण हमारे भीतर है, इलाज बाहर ढूंढ़ रहे हैं। यहां से अशांति और बढ़ती जाती है और धीरे-धीरे आदत ही बन जाती है। घर-परिवार में खुशी का कोई मौका हो लेकिन, मन अपनी हरकतों से अशांत कर देगा। आसपास के लोग प्रसन्न होंगे और आप अशांत..। जब भी लगे कि आप अशांत हैं तो एक प्रयोग जरूर कीजिएगा। आस-पास जो भी आपके अपने, विश्वसनीय लोग हैं उनमें अपनी अशांति का कारण जरूर बांटिए। मन तो यहां भी रोकने का प्रयास करेगा परंतु कोई न कोई ऐसा होना ही चाहिए, जिसे आप अपनी अशांति का कारण बता सकें। ऐसा नहीं हुआ तो मन अशांति का संग्रह कर हो सकता है आपको कोई ऐसी बीमारी दे दे जिसका आपके पास कोई इलाज ही न हो।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>समय व स्वास्थ्य में संतुलन है कम्फर्ट जोन...<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आधुनिक प्रबंधन में कहा जाता है कि संघर्ष करने वाले को अपने कम्फर्ट जोन से बाहर निकलकर सफलता अर्जित करना चाहिए। कम्फर्ट जोन उसे कहा जाता है जहां मनुष्य अपनी सुविधा में रहता है। जिं़दगी का एक ऐसा ताना-बाना बुन लेता है, जिससे बाहर निकलने पर परेशानी होती है। कोई अपने परिवार को कम्फर्ट जोन मान लेता है, कोई किसी नगर या स्थान को तो किसी के लिए मकान छोड़ना मुश्किल हो जाता है। कुल-मिलाकर आलस का एक नाम कम्फर्ट जोन है। हम जो भी करेंगे, अपनी सुविधा से करेंगे। ऐसे लोग संघर्ष को दुर्भाग्य मान लेते हैं और इसीलिए सफलता पाने के लिए सीमाएं तोड़कर परिश्रम करते हैं। अपनी योग्यता को ऐसा मथ देते हैं जैसे अमृत पाने को समुद्र मंथन किया जा रहा हो। जिस समय आप ऐसा कर रहे होते हैं उस समय आधे से ज्यादा संसार यही कर रहा होता है। इसलिए भी संघर्ष बढ़ जाता है। धन के लक्ष्य पर यदि कुछ लोग चल रहे हों तब तो उन्हें सुविधा है पर सभी दौड़ रहे हों तो प्रतिस्पर्धा बन जाती है। ऐसे समय कम्फर्ट जोन से निकलना साहस का काम तो है लेकिन, यदि ठीक से समझा न जाए तो वह दु:साहस बन जाता है और दु:साहस परेशानी में पटक देता है। इसीलिए आज बहुत दौड़-भाग करने वाले लोग भी परेशान हैं। कम्फर्ट जोन का मतलब यह नहीं होता कि जीवन को केवल सुविधा में रखें। इसी प्रकार इससे बाहर निकलने का अर्थ यह भी नहीं कि अनाप-शनाप परिश्रम करने लगें। समय और स्वास्थ्य इन दोनों को ठीक से साध लेना अध्यात्म की दृष्टि में कम्फर्ट जोन है। परमात्मा ने प्रकृति को चौबीस घंटों में इतने अच्छे ढंग से बांटा है कि इनको ठीक से समझ लें तो आपका समय प्रबंधन भी ठीक होगा और स्वस्थ भी रहेंगे।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>खान-पान की समझ से बनाएं बुढ़ापा सुखद<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">माता-पिता को अपने बच्चों से अपेक्षाएं रखनी ही पड़ती हैं। भले ही वे कहें कि हम बच्चों का लालन-पालन अपने प्रेम व कर्तव्य के कारण कर रहे हैं। इन्हें बड़ा कर पैरों पर खड़ा कर दें उसके बाद हम अपना स्वतंत्र जीवन जिएंगे। खासतौर पर आजकल माता-पिता तैयारी भी ऐसी करते हैं। आर्थिक रूप से ऐसा ताना-बाना बुन लेते हैं और कहते भी हैं कि बच्चों के भरोसे बुढ़ापा न बिताना पड़े ऐसी कोशिश करेंगे। यही बात बुढ़ापे में उनके लिए अशांति का कारण बन जाती है। आप बच्चों से अपेक्षाएं रखें भी तो इसमें दिक्कत क्या है? बुढ़ापे में बच्चों पर आधारित जीवन जीने में कौन-सा पाप है? प्रकृति के इस विधान में क्यों छेड़छाड़ की जाए? अपेक्षाओं की समझ का नाम जनरेशन गैप है। आज की गुजरती पीढ़ी के लोग इसे लेकर बड़े परेशान हैं, जबकि यह तो हर दौर में रहा है। अपेक्षा तो रखना है पर उसके चार चरण होने चाहिए। आइए, खान-पान की दिनचर्या से इन चार चरणों को ठीक से समझ लिया जाए। वृद्ध लोगों को यह जानकारी होनी चाहिए कि कौन-सा भोजन आपके लिए उपयोगी है और उसी अपेक्षा को बच्चों में स्थापित कीजिए। दूसरा अपनी डाइट से आपका बहुत अच्छा परिचय होना चाहिए। जवानी में जो भी पसंद रहा हो, खाया-पीया हो, जरूरी नहीं कि बुढ़ापें में भी उसी पर अड़ जाएं। तीसरी बात अन्न के प्रति ज्ञान है तो आप अपनी भोजन-व्यवस्था को लेकर किसी पर दबाव न बनाते हुए सामने वाले के लिए सुविधाजनक हो जाएंगे। चौथा चरण है भोजन का बोध। मतलब अब अन्न से अधिक सांस का भोजन लेना है। जो बूढ़े माता-पिता जनरेशन गैप से परेशान होना नहीं चाहते उनकी अपनी हर अपेक्षाओं के प्रति तैयारी इन चार चरणों में होनी चाहिए। शायद जनरेशन गैप जीवन के अंतिम चरण को और आनंदमय बना दे।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>अपनी ऊर्जा लोगों को मनाने में भी लगाएं..<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परमात्मा ने मनुष्य का शरीर बनाकर सबसे बड़ा चमत्कार यही किया है कि इसमें ऊर्जा की असीम संभावनाएं छोड़ी हैं। उस ऊर्जा का सदुपयोग करना है या दुरुपयोग, यह हमारे ऊपर है। इन दिनों हमने दिनचर्या ऐसी बना ली है कि शरीर झोंक दिया गया है और इस बात का बिल्कुल हिसाब नहीं रखा जाता कि अपनी ऊर्जा के साथ क्या कर रहे हैं। यूं तो ऊर्जा के बहुत सदुपयोग हैं, लंबी सूची है। परंतु एक उपयोग जरूर करिएगा कि उसका एक बड़ा हिस्सा दूसरों को मनाने में जरूर लगाएं। आपके जीवन में बहुत से ऐसे लोग होंगे जो किसी न किसी कारण से आपसे रूठ गए होंगे और यदि रूठने का अधिकार न हो तो उदास होंगे। कोशिश कीजिए कभी उनको मनाएं। खासकर परिवार में यदि कोई सदस्य रूठा हुआ हो तो पूरी ऊर्जा लगाकर उसे मनाएं। हम दो कारणों से लोगों को नहीं मनाते। एक तो अहंकार कि हमें क्या करना है किसी को मनाकर और दूसरा उसका अहित चाहते हुए ऊर्जा की दिशा मोड़ लेते हैं। किसी ने आपका बुरा किया हो या वह इस लायक न हो तो भी कम से कम घर-परिवार में यदि कोई रूठा है, उदास है तो उसे जरूर मनाइए। ऐसा नहीं करके हम एक ऐसा बीज बो रहे होते हैं जिसमें दूसरे के प्रति लापरवाही हैं, कुंठा है, ईर्ष्या और क्रोध रखे हुए हैं। ऐसा करके अपना ही नुकसान करते हैं। बीज तो आपने दूसरे के लिए बोया लेकिन, जमीन आपकी थी। उगा तो वह आप ही की धरती पर। दूसरों को फायदा तो नहीं पहुंचा पाए पर अपना नुकसान जरूर कर गए। भले ही आप दूसरों के प्रति लापरवाह हो गए हों, अहंकार में डूबे हों पर जो बीज बोया है उसकी जड़ आप ही के भीतर उतरी है। इसलिए कभी-कभी अपनी ऊर्जा दूसरों के हित के लिए भी जरूर खर्च करें।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>नीति विरुद्ध काम की कीमत चुकानी होगी<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नीति के विरुद्ध जब भी कोई काम करेंगे, उसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। कायदे जब भी तोड़े जाएंगे, खुद का भी नुकसान करेंगे और दूसरों को भी हानि पहुंचाएंगे। उदाहरण के लिए यदि कोई ट्रैफिक नियम तोड़ा तो हो सकता है एक्सिडेंट हो जाए। उसमें आपका भी नुकसान हो सकता है और आप बच गए तो हो सकता है सामने वाले को हानि उठानी पड़ जाए। जीवन में भी ऐसा ही चलता है। रावण को उसके मंत्री लगातार गलतफहमी में रख रहे थे कि आप तो अजेय हैं, आपको कौन जीत सकता है? अहंकारी व्यक्ति प्रशंसा सुनकर और बावला हो जाता है। पत्नी मंदोदरी समझा चुकी थी, बाद में बेटा प्रहस्त समझा रहा था। इस दृश्य पर तुलसीदासजी लिखते हैं- ‘सबके बचन श्रवन सुनि कह प्रहस्त कर जोरि। नीति बिरोध न करिअ प्रभु मंत्रिन्ह मति अति थोरि।। सबकी बात सुनकर प्रहस्त हाथ जोड़ते हुए रावण से कहता है- मंत्रियों की बातों में आकर नीति के विरुद्ध मत जाइए। इनकी तो मति बहुत छोटी है। यहां रावण के बेटे ने हनुमानजी को याद किया था। बोला- यह मत भूलो कि एक वानर आया था और जो कुछ कर गया उसे आज तक हम याद कर रहे हैं। रावण के माध्यम से प्रहस्त हमें भी समझा रहा है कि जीवन में जब भी नीति पालने या समझने में दिक्कत हो तो हनुमानजी से जुड़े रहिए। आगे लिखते हैं, ‘सुनत नीक आगंे दुख पावा। सचिवन अस मत प्रभुहि सुनावा।।<span lang="EN-US">’ </span>अर्थात मंत्रियों ने आपको जो भी सम्मति सुनाई है वह सुनने में तो अच्छी है पर आगे जाकर दुख ही देगी। प्रहस्त यदि हनुमान का उदाहरण दे रहे हैं तो आज हनुमानजी हमारे बड़े काम के हैं। नीति कभी न तोड़ें और जब कोई अच्छी बात बताई जा रही हो, आज भले ही कड़वी लगे लेकिन, भविष्य में आपके बड़े काम की हो सकती है। यह समझदारी जरूर रखें।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>चार मौकों पर याद करके ईश्वर से जुड़ें<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भक्तों के लिए मार्ग और मंजिल का फर्क समाप्त हो जाता है। जिनका संबंध परमात्मा से बन गया है वे कृत्य और परिणाम दोनों को अलग करके नहीं चलते। भक्ति का महत्व हर धर्म में है। शरीर पर कुछ विशेष वस्त्र-वस्तुएं धारण कर लेना, शृंगार कर लेना या किसी धर्मस्थल पर जाकर कर्मकांड कर लेना ही भक्ति नहीं है। दरअसल, भक्ति का संबंध भरोसे से है। भक्त बनते ही यह भरोसा हो जाता है कि मैंने जो मार्ग चुना है वही मेरी मंजिल है। जो काम आरंभ किया जा रहा है इसी में परिणाम है, क्योंकि इन दोनों में परमात्मा बसे हैं। आपने मार्ग चुना, भगवान मंजिल लिए खड़ा है। यह भरोसा बनाना आसान काम नहीं है। इसके लिए जीवन में चार समय खास सावधानी रखिएगा- घर से निकलने से पहले, घर आने के बाद, रात को सोने से पहले और सुबह उठने के बाद। ये चार समय ऐसे हैं, जिनमें पहले दो का संबंध सार्वजनिक है और बाद के दो का संबंध निजी। निजी में हम परमात्मा से आसानी से जुड़ जाते हैं। सोने से पहले थोड़ा भगवान को याद कीजिए और उठने के बाद भी परमात्मा के भरोसे दिन की शुरुआत करें। ये काम निजी हैं लेकिन, भरोसे को बढ़ाएंगे। घर से निकलकर संसार में जाते समय अत्यधिक शांत रहते हुए भरोसा रखिए कि घर से जो कदम आप बाहर निकाल रहे हैं उस समय आप अकेले नहीं हैं। कई सांसारिक लोग साथ हैं और सबसे बड़ा साथ है भगवान का। दिनभर के सारे काम निपटाकर शाम को जब घर आएं तो पहला कदम ऐसा रखें जैसे वैकुंठ में रख रहे हों। भगवान ही आपको सुरक्षित वापस लाया है। इस क्रिया में भगवान का भरोसा बड़ा काम आएगा और ये चार अवसर जीवन को आनंदित कर देंगे, प्रसन्नता से भर देंगे।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>ज्ञान, कर्म व उपासना से भोलापन बचाएं<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बेईमानी का अभाव भोलापन नहीं है। कई बार हम यह समझ लेते हैं कि ईमानदार लोग बड़े भोले होते हैं। भोलापन एक ऐसी आंतरिक व्यवस्था है, जिसमें निज और परहित दोनों संतुलन के साथ होते हैं। कोई बेईमान आदमी भी भोला हो सकता है और ईमानदार कुटिल हो सकता है, इसलिए भोलापन एक मौलिकता है। जीवन में जब किसी नीति और नेतृत्व के साथ समय गुजार रहे हों, इन दोनों में भोलापन बचाइएगा। इस दौर में तो यह गलतफहमी फैली हुई है कि जो भोला है उसे कोई भी ठग सकता है। ऐसा हो भी सकता है। यदि आप ठगा रहे हैं इसका मतलब है दूसरे आपके भोलेपन का दुरुपयोग कर रहे हैं। लेकिन, यदि मूल रूप से अपने भोलेपन पर टिके हैं तो फिर भोले का भगवान होता है, यह भरोसा भी मत छोड़िए। चाहें कि भीतर भोलापन बचा रहे तो ज्ञान, कर्म और उपासना के सिद्धांत को समझिए। इन तीन से आपका संबंध जरूर होता है और सभी धर्मों ने इसे अपने-अपने ढंग से व्यक्त किया है। कोई न कोई काम आप करेंगे ही। यह कर्म है। पढ़े-लिखे हैं तो ज्ञान है और किसी धर्म की पूजा-पाठ से जुड़े हैं यह है उपासना। लेकिन जब भोलेपन का संबंध आएगा तो ज्ञान का मतलब होगा सदैव लेते रहें। यह कभी न समझें कि आपने जो जान लिया वही पूर्ण है। जहां से जो भी ज्ञान मिले, सदैव ग्रहण करते रहें। आपका कर्म नशा न बन जाए, यहां से भी भोलापन बचता है। उपासना का अर्थ होता है अपना शत-प्रतिशत झोंक देना। हंड्रेड परसेंट कमिटमेंट। जो भी करें, डूबकर करें, जमकर करें। यहीं से ज्ञान, कर्म और उपासना आपके भीतर के भोलेपन को बचाएगी। भोलेपन को तराशा, बचाया तो इसका एक अच्छा परिणाम होगा आप कभी अशांत नहीं रहेंगे, क्योंकि ऊपर वाले की ताकत आपके लिए शांति बनकर उतरेगी।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>घर के बुजुर्गों को पुरानी यादों में ले जाएं<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उम्र और जीने की तमन्ना का तालमेल जिंदगीभर ठीक से नहीं बैठ पाता। ज्यादातर लोगों के साथ ऐसा ही होता है कि जब जीने की बहुत इच्छा होती है तो उम्र साथ नहीं देती और खासकर बुढ़ापे में जब जीने की इच्छा नहीं रहती तो उम्र साथ नहीं छोड़ती। इस विचार को खास तौर पर अपने परिवार में जरूर अपनाइए। घर के बड़े-बूढ़ों को ध्यान से देखते हुए समझने की कोशिश करें कि एक उम्र के बाद वे जिंदा नहीं रह पाते, उन्हें जिंदा रखना पड़ता है। बड़े-बूढ़ों की सेवा का यही मतलब नहीं है कि उनके शरीर को संभाल लें, उनके खाने-पीने का ध्यान रख लें या उनके दैनिक कामों में मदद कर दें। शरीर जब वृद्धावस्था की घोषणा कर देता है तो जीने की इच्छा समाप्त होने लगती है। ऐसे समय ध्यान रखिएगा, उन्हें जिंदा रखने के लिए कुछ ऐसी गतिविधि करते रहें, जिनसे उन्हें कुछ पुरानी बातें याद आ सकें। जो उम्र धीरे-धीरे मृत्यु की ओर बढ़ रही है वह पीछे गुजरे जीवन पर टिक सके। इसलिए बड़े-बुढ़ों को समय दीजिए। खास तौर पर उनसे बात कीजिए। यदि वे चुप हैं तो इसलिए नहीं कि बोल नहीं पा रहे हैं, बल्कि इसलिए कि उनकी बात करने की इच्छा खत्म हो गई होती है। उस इच्छा को जगाइए। ऊपर से वो जिंदा दिख रहे होते हैं पर भीतर ही भीतर खत्म चुके होते हैं। उनके साथ वह वक्त बिताइए जो कभी उन्होंने आपके साथ बिताया होगा। आज के इस दौर में तो बुढ़ापे में शरीर जीने की इच्छा को और खत्म कर देता है। इस उम्र में शरीर से जो पीड़ा उन्हें उठाना है वह तो वे ही उठाएंगे। उसमें शायद आप कुछ न कर सकें लेकिन, जीवन को लेकर जो निराशा उनके भीतर आ गई होती है उसे समझदारी से दूर करने का प्रयास जरूर करें, क्योंकि एक दिन हम सभी को भी ऐसा दौर देखना ही है।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>शांति चाहिए तो शरीर से अलग होना सीखें</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीवन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कुछ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">क्षण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिंदगी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रफ्तार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">थाम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">या</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रोक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सांसारिक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दृष्टि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">स्थिति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मौत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होगी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आध्यात्मिक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दृष्टि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ध्यान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कहेंगे।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लोगों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिंदगी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बहुत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तेजी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दौड़</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रुकना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चाहें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रुक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सकते।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेकिन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">क्षणों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बनाए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रखिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जहां</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">थोड़ी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीवन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रुकता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीवन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रुकता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मृतवत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यानी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मरे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जैसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मरे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जैसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बड़ा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">फर्क</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जैसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कुछ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">क्षण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिंदगी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रुकती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आपको</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">महसूस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होगा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शरीर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रूप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पहचाने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कहने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सकते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मेरा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शरीर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परंतु</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जैसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मानते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अलग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शरीर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अलग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यहां</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आकर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">थोड़ी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिंदगी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रुक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दुनिया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सबसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शांत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">व्यक्ति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दौड़ती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिंदगी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यदि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">थोड़ी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शांत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चाहें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शरीर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शाकाहार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नियमित</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बनाइए।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शरीर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शुद्धि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शाकाहार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जरूरी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मांसाहार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मनुष्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मनुष्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शरीर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तैयार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तरह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हुआ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शाकाहार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करे।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शाकाहार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">संबंध</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किसी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">धर्म</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">या</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आचरण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बल्कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शरीर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शुद्धि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शरीर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शुद्ध</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अलग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सुविधा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शुद्ध</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शरीर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वाले</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लोग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अलग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आसान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेंगे।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तटस्थ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आसान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होगा।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जैसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शरीर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">थोड़ा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अलग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिंदगी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रुकती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एकदम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शांत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बड़ी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">महंगी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चीज</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यदि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तैयारी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">साथ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बहुत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सस्ते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मिल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सकती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तैयारी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ठीक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आपके</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पास</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कितनी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दौलत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शांति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जैसी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चीज</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कभी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सकेंगे।</span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>सलाह को बुद्धि की पूरी एकाग्रता से सुनें<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब किसी बड़े अभियान की तैयारी में हों तो सलाह लेना भी चाहिए और कभी-कभी बिना मांगे भी मिलेगी। नीति के वचन मुश्किल से मिलते हैं और यह कतई जरूरी नहीं है कि नीति अथवा सही बात आपको कोई विनम्रता या सही ढंग से कह दे। कभी-कभी कठोर रूप में भी अच्छे वचन सामने आएंगे लेकिन, यदि आपने मान लिया कि ये मुझे पसंद नहीं है तो नुकसान उठाएंगे। ऐसा ही नुकसान रावण उठा रहा था। भरी सभा में बेटा प्रहस्त मंत्रियों की चापलूसी पर टिप्पणी कर पिता को समझाता है। पिता-पुत्र की वार्ता पर तुलसीदासजी लिखते हैं, ‘बचन परम हित सुनत कठोरे। सुनहिं जे कहहिं ते नर प्रभु थोरे।। ‘प्रथम बसीठ पठउ सुनु नीति। सीता देइ करहुं पुनि प्रीती।।<span lang="EN-US">’ </span>यहां प्रहस्त ने तीन बातें कही। पहली- वाणी सुनने में कठोर है पर हितकारी है। दूसरी- ऐसे वचन बोलने और सुनने वाले लोग अब कम रह गए हैं और तीसरी बात कही नीति से सुनते हुए सीता को लौटाकर श्रीराम से प्रीति यानी मैत्री कर लीजिए। हमारे जीवन में जब कोई ऐसा प्रसंग आए और कोई सही सलाह दे तो उसे बुद्धि, हृदय और आत्मा तीनों स्तरों पर सुनें। ध्यान रखिए, हृदय और आत्मा के स्तर पर किसी बात को सुनने के लिए बड़ी साधना करनी पड़ती है, जो सबके लिए संभव नहीं। लेकिन, कम से कम बुद्धि के स्तर पर तो अच्छी बात सुनें, जिसके लिए बुद्धि के चार स्तर होते हैं- पहला, पूरी एकाग्रता से एक-एक शब्द सुनिए। दूसरा, सुनी गई बात पर विचार करें पर मूल्यांकन के साथ। तीसरा, जो बात आपने सुनी वह आपके किस काम की है इस पर गौर करें और चौथा, यदि बात अच्छी है तो उसे लागू करने में देर न करें। सही बात के लिए विलंब खतरा बन जाता है। जीवन में शुभ को कभी न टालें।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>बच्चों से उम्मीदों का स्वरूप बदलना पड़ेगा<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपने बच्चों की जीवनशैली हमने खुद बदली है। माता-पिता के रूप में उन्हें एक ऐसे दौर से गुजारा है, जहां शरीर पूरी तरह झोंक दिया जाता है। कार्य आरंभ करने से पहले ही परिणाम का ताना-बाना बून लिया जाता है। इसमें कोई बुराई नहीं है। यदि ऐसी तैयारी नहीं करेंगे तो बच्चे निश्चित रूप से पिछड़ जाएंगे। प्रतिस्पर्धा के इस युग में कौन शिखर पर जाना नहीं चाहता? पर चूंकि हमने बच्चों की जीवनशैली बदल दी है, इसलिए भविष्य में उनसे उम्मीदों का स्वरूप भी बदलना पड़ेगा। आज माता-पिता यदि सोचें कि उन्होंने अपने माता-पिता को जैसा समय, मान और अपनापन दिया वैसा ही सब हमारे बच्चे भी हमें लौटाएंगे तो यह मुश्किल है। हमने उनके व्यक्त्वि का गठन इस प्रकार से कर दिया है, जिसमें अपनों के लिए जगह कम है, अपनेपन का भाव लगभग समाप्त होता जा रहा है। ऐसे में आज के माता-पिता को बच्चों से उम्मीद की शक्ल बदलना पड़ेगी। संतोष रखिए, जो मिल जाए उसी को पर्याप्त मान लीजिए। क्योंकि इस दौर में तो लोगों ने जमीनें इतनी बांट दी हैं कि अब बांटने के लिए उसके टुकड़े भी नहीं बचे। ऐसे लोगों की नज़र अब आसमान पर है और जो जमीन तथा आसमान बांटने की तैयारी कर चुके हों, जायदाद का बंटवारा करते समय मां-बाप को गौण रखेंगे, दूर रखेंगे, महत्वहीन कर देंगे। हर परिवार में बंटवारा होता है। एक समय था जब बड़े-बूढ़े निर्णय करते थे और छोटे उसे मान लेते थे। अब वह दौर नहीं रहा। अब तो बंटवारा खुद किया जाएगा और हो सकता है बड़े-बूढ़ों की भावना, मंशा और उपस्थिति को मान न देते हुए विवाद और मतभेद के साथ किया जाए। ऐसा हो तो बेचैन न हों। जिस दौर के बच्चे आपने तैयार किए हैं, वे जिस भी ढंग से काम करें, सावधानी से उनका लाभ उठा लें।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>गुणों के संग्रह से सफलता को जीत में बदलें<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सफलता और जीत में फर्क है। सफलता सतही मामला है और जीत का संबंध गहराई से है। बुरे लोग भी सफल हो सकते हैं लेकिन, वे जीत गए ऐसा नहीं कहा जा सकता। बुराई व बुरे लोग सदैव रहे हैं और सफल भी होते रहे हैं। किसी भी धर्म के शास्त्र उठाएं तो पाएंगे शैतान, दैत्य जीतते रहे हैं लेकिन, यह उनकी जीत नहीं मानी जा सकती। वे विजयी नहीं, सफल हुए हैं। रावण ने, कंस ने लंबे समय राज किया। जीवन के हर क्षेत्र में सफलता अर्जित की लेकिन, वास्तविक जीत उन्हें कभी हासिल नहीं हुई। हम अपने भीतर कितनी अच्छाई बचाते हैं, कितने सदगुण संग्रहित कर पाते हैं, कितना परहित करते हैं, नीति और परम्परा पर कितने टिके हुए हैं इससे हमारी विजय तय होती है। सफलता का इनसे कोई लेना-देना नहीं है। लोग गलत साधन अपनाकर भी सफल हो जाते हैं। चूंकि बचपन से पाठ पढ़ाया जाता है कि सफल होना ही है। साधन भले ही अनुचित हों, परिणाम सफलता ही होना चाहिए। यह एक सिद्धांत बन गया है और इसीलिए सफल लोग अशांत व बेचैन पाए जाते हैं। सफलता को जीत में बदलना हो तो अपने भीतर सद्गुणों का संग्रह करना पड़ेगा। सच का साथ देना पड़ेगा, आंतरिक रूप से स्वयं को पवित्र रखना होगा। पवित्र व्यक्ति ही विजयी हो सकता है। सफलता अर्जित करने में कोई बुराई नहीं है लेकिन, उस सफलता के साथ-साथ विजय की वृत्ति भी जीवित रखें। किसी को पराजित करके आप जीत नहीं सकते। असली जीत स्वयं को जीतने पर होती है और स्वयं को जीतने का मतलब होता है अपने दुर्गुणों का विनाश करना। अपनी सफलता को विजय में बदलने के लिए सांसारिक प्रयोग काम नहीं आएंगे। इसके लिए कुछ आध्यात्मिक प्रयोग करते रहिए। उनमें एक शुभ कार्य है नियमित योग।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>परिवार को ऐसा नेतृत्व दें कि वह प्रसन्न रहे..</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परिवार मेंएक-दूसरे के प्रति गैर-जिम्मेदार रहना भी एक तरह का आतंक है। ग्लोबल दृष्टि से देखें तो इस समय दुनिया के सारे देश जिन-जिन समस्याओं से जूझ रहे हैं उनमें से एक बड़ी है परिवार के ढांचे का ध्वस्त होते जाना। सामाजिक स्थिति तो लगभग सभी देशों में विकृत रूप ले चुकी है। दुनिया में साढ़े छह करोड़ लोग विस्थापित हो गए हैं। यह एक पारिवारिक पीड़ा है। लोग अपने ही घर में सदस्यों को ढूंढ़ रहे हैं। दुनिया की इस भीड़ में अपने लोग कब खो गए, पता ही नहीं चला। भारत के घरों की भी ऐसी ही स्थिति है। बच्चों को पढ़ा-लिखाकर उन्हें इतनी योग्यता दी कि उन्होंने सबसे पहली छलांग घर से बाहर ही लगाई। छलांग भी इतनी लंबी कि कई लोगों के तो लौटकर आने की संभावना ही खत्म हो गई। यह उनका गमन हुआ, उत्थान हुआ परंतु लगा जैसे वे पलायन कर गए। आज भी कई परिवार उदास हैं। कई माता-पिता बच्चों से दूर होने का दुख व्यक्त भी नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि वे जानते हैं, इसमें उनकी भी भूमिका है। जब घर के सदस्य बिखर गए तो एक आतंकी संगठन घर में भी प्रवेश कर गया जिसका नाम है अकेलापन। इस समय दुनिया में कई आतंकी संगठन अपने-अपने ढंग से हिंसा कर रहे हैं, गलत काम कर रहे हैं पर हमारे घरों में अकेलापन एक ऐसे ही अनुचित संगठन के रूप में प्रवेश कर गया है। पांच-दस लोगों के बीच में रहने के बाद भी लोगों को अकेलापन लगता है। जिनके हाथों में परिवार का नेतृत्व है वे परिवार को आर्थिक दृढ़ता देते हैं, सामाजिक पहचान देते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में उच्चता देते हैं लेकिन यह भी ध्यान रखें कि आप जिस भी पद से नेतृत्व कर रहे हों, परिवार की उदासी जरूर मिटाएं। बाकी सदस्यों को प्रसन्नता और शांति जरूर दें।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>नेतृत्व वह जो हवा का रुख जल्दी पहचानें<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समझदार नेतृत्व का एक लक्षण यह होता है कि वह हवा का रुख जल्दी और सावधानी से पहचान लेता है। नेतृत्व कर रहा कोई राजा हो या राजनेता, वह जानता है कि इतने प्रभावशाली हो जाओ ताकि प्रजा या जनता पीछे चलने लगे। समय रहते हवा का रुख नहीं पहचाना तो नेतृत्व पर सवाल खड़े हो जाएंगे। आज के नेता इस कला में माहिर हैं। लंका कांड के प्रसंगों में रावण राजा और नेता दोनों था। राजा इसलिए कि लंका की गद्दी पर बैठा था और नेता इसलिए कि विद्वान और विश्वविजेता होने के कारण राक्षसों की भारी भीड़ का नेतृत्व कर रहा था। हवा का रुख नहीं पहचान पाने पर क्या नुकसान उठाने पड़ सकते हैं यह रावण से सीखिए। बेटा प्रहस्त लगातार समझा रहा था पर वह समझने को तैयार नहीं था, अहंकार की वाणी बोले जा रहा था। यहां तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘अबहीं ते उर संसय होई। बेनुमूल सुत भयहु घमोई।। सुनि पितु गिरा परुष अति घोरा। चला भवन कहि बचन कठोरा।।<span lang="EN-US">’ </span>अर्थात रावण ने उल्टा प्रहस्त पर ही प्रहार कर दिया। कोसते हुए कह रहा था, ‘तेरे हृदय में अभी से संशय हो रहा है? तू बांस की जड़ में घमोई की तरह हमारे वंश के लायक नहीं।<span lang="EN-US">’ </span>पिता की अहंकार से भरी वाणी सुन प्रहस्त कठोर बातें कहता हुआ भवन में चला गया। आगे लिखा- ‘हित मत तोहि न लागत कैसें। काल बिबस कहुं भेषज जैसें।।<span lang="EN-US">’ </span>जैसे मृत्यु के वश में हुए रोगी को दवा असर नहीं करती, ऐसे ही अहंकारी को हित की बातें अच्छी नहीं लगतीं। जिसके जीवन में दुर्गुणों की अति हो जाए, समझ लीजिए वह दुनिया का सबसे खतरनाक रोग पाले हुए है, जिसका कोई इलाज भी नहीं। जीवन में छोटे-मोटे अभियान पर निकलें तो अच्छी सलाह जरूर स्वीकार करें और अमल में भी लाएं।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b><span lang="HI">जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है</span>,</b></span></div>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b><span lang="HI">और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है... </span></b></span><b style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span lang="HI"><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b><span style="line-height: 18.4px;">मनीष</span></b></span></span></b><span style="font-family: "mangal" , "serif";"></span><br />
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<b style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span lang="HI">ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....</span></b><br />
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<b style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span lang="HI"><br /></span></b></div>
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Jai Guru Geeta Gopalhttp://www.blogger.com/profile/01621836960274288942noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6101091264294453966.post-4397800926208152082020-03-03T23:14:00.000-08:002020-03-03T23:14:06.127-08:00धर्म ज्ञान (Dharm Gyan )<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b>क्यों ॐ कहलाता है प्रणव मंत्र?</b><br />
सनातन धर्म और ईश्वर में आस्था रखने वाला हर व्यक्ति देव उपासना के दौरान शास्त्रों, ग्रंथों में या भजन और कीर्तन के दौरान ॐ महामंत्र को अनेक बार पढ़ता, सुनता या बोलता है। धर्मशास्त्रों में यही ॐ प्रणव नाम से भी पुकारा गया है। असल में इस नाम से जुड़े गहरे अर्थ हैं, जो अलग-अलग पुराणों और शास्त्रों में तरह से बताए गए हैं। यहां हम जानते शिव पुराण में बताए ॐ के प्रणव नाम से जुड़े भाव और महत्व को -<br />
<br />
शिव पुराण में प्रणव के अलग-अलग शाब्दिक अर्थ और भाव बताए गए हैं। जिनके मुताबिक -<br />
- प्र यानी प्रपंच, न यानी नहीं और व: यानी तुम लोगों के लिए। सार यही है कि प्रणव मंत्र सांसारिक जीवन में प्रपंच यानी कलह और दु:ख दूर कर जीवन के अहम लक्ष्य यानी मोक्ष तक पहुंचा देता है। यही कारण है ॐ को प्रणव नाम से जाना जाता है।<br />
- दूसरे अर्थों में प्रनव को प्र यानी यानी प्रकृति से बने संसार रूपी सागर को पार कराने वाली नव यानी नाव बताया गया है।<br />
- इसी तरह ऋषि-मुनियों की दृष्टि से प्र - प्रकर्षेण, न - नयेत् और व: युष्मान् मोक्षम् इति वा प्रणव: बताया गया है। जिसका सरल शब्दों में मतलब है हर भक्त को शक्ति देकर जनम-मरण के बंधन से मुक्त करने वाला होने से यह प्रणव है।<br />
- धार्मिक दृष्टि से परब्रह्म या महेश्वर स्वरूप भी नव या नया और पवित्र माना जाता है। प्रणव मंत्र से उपासक नया ज्ञान और शिव स्वरूप पा लेता है। इसलिए भी यह प्रणव कहा गया है।<br />
<br />
<b>यह मौत में भी देता है साथ!</b><br />
यह सभी जानते हैं कि जन्म के समय हर व्यक्ति खाली हाथ आता है और मौत होने पर खाली हाथ चला जाता है। यहां तक कि माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी, पुत्र, पुत्री सहित अनेक संबंधी भी मृत शरीर का साथ छोड़ देते हैं। किंतु धर्म शास्त्रों में लिखी बातों पर गौर करें तो व्यक्ति अकेला नहीं जाता है, बल्कि उसके साथ जाने वाला भी कोई होता है। कौन है वह जो हर व्यक्ति के साथ जीवन ही नहीं मृत्यु में भी साथ निभाता है? जानते हैं -<br />
<br />
धर्म शास्त्रों में यह बात गहराई से समझकर व्यवहार में अपनाई जाए तो संभवत: व्यक्ति ही नहीं हमारे आसपास फैले अशांत और कलह भरे माहौल को खुशहाल बना सकती है। क्योंकि यह बात जीवन से जुड़ी सच्चाई ही उजागर नहीं करती बल्कि व्यावहारिक संदेश भी देती है।<br />
<br />
शास्त्र लिखते हैं कि -<br />
मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्टलोष्टसमं जना:।<br />
मुहूर्तमिव रोदित्वा ततोयान्ति पराङ्मुखा:।।<br />
तैस्तच्छरीमुत्सृष्टं धर्म एकोनुगच्छति।<br />
तस्माद्धर्म: सहायश्च सेवितव्य: सदा नृभि:।।<br />
<br />
इसका सरल और व्यावहारिक अर्थ यही है कि मृत्यु होने पर व्यक्ति के सगे-संबंधी भी उसकी मृत देह से कुछ समय में ही मोह या भावना छोड़ देते हैं और अंतिम संस्कार कर चले जाते हैं। किंतु इस समय भी मात्र धर्म ही ऐसा साथी होता है, जो उसके साथ जाता है।<br />
<br />
इस बात में संकेत यही है कि धर्म पालन यानि व्यक्ति द्वारा जीवन में किए गए अच्छे काम ही उसकी पहचान, व्यक्तित्व और चरित्र बनाते हैं। यह तभी संभव है जब व्यक्ति ने जीवन में स्वभाव, व्यवहार और बोल में प्रेम, सच, दया, भलाई जैसी बातों को अपनाया हो। इसलिए माना गया है कि ऐसा व्यक्ति मृत्यु के बाद भी लोगों की यादों में हमेशा जीवित रहता है।<br />
<br />
धर्म के नजरिए से यही भाव व्यक्ति की मृत्यु होने पर धर्म के साथ जाने से जुड़ा है। इसलिए जहां तक संभव हो जिंदग़ी में अच्छा और ऊंचा उठने का संकल्प रखें। ताकि जीवन में ही नहीं मौत के पहले भी मन अशांत और बेचैन न रहे।<br />
<br />
<b>इन 6 बुराईयों को दूर कर बने सफल व धनवान</b><br />
धन-संपत्ति या सुख-सुविधाओं की चमक किसी न किसी रूप में अपना असर दूसरों पर भी छोड़ती है। इनका प्रभाव या आकर्षण किसी के भी मन में वैसे ही सुखों को पाने की चाहत पैदा करता है। गुणी व्यक्ति में यह चाहत प्रेरणा के रूप दिखाई देती है, तो गलत व्यक्ति किसी छोटे रास्ते इनको पाने के लिए गलत कामों को चुनते हैं। वहीं धर्म की नजरिए से सुख पाने का सबसे अच्छा उपाय है- कर्म।<br />
<br />
धर्म शास्त्रों में ऐश्वर्य और ऊंचाई पाने के लिए कर्म से ही जुड़े कुछ व्यावहारिक दोषों को दूर करना भी अहम माना है। जिसके बिना कोई भी व्यक्ति दु:ख और पतन की खाई में गिर सकता है। खासतौर पर सफलता के लिए बेताब आज की युवा पीढ़ी के लिए यह छ: दोष दूर करना बहुत जरूरी है।<br />
<br />
हिन्दू धर्म शास्त्र महाभारत में लिखा है कि -<br />
षड् दोषा: पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता।<br />
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता।।<br />
<br />
यहां बताए ये छ: दोष या दुर्गुणों का व्यावहारिक अर्थ कुछ ऐसा है -<br />
<br />
नींद - अधिक सोना समय को खोना माना जाता है, साथ ही यह दरिद्रता का कारण बनता है, इसलिए नींद भी संयमित, नियमित और वक्त के मुताबिक हो।<br />
तन्द्रा - तन्द्रा यानि ऊँघना निष्क्रियता की पहचान है। यह कर्म और कामयाबी में सबसे बड़ी बाधा है।<br />
डर - भय व्यक्ति के आत्मविश्वास को कम करता है। जिसके बिना सफलता संभव नहीं।<br />
क्रोध - क्रोध व्यक्ति के स्वभाव, गुणों और चरित्र पर बुरा असर डालता है।<br />
आलस्य - आलस्य लक्ष्य को पाने में सबसे बड़ी कमजोरी है। संकल्पों को पूरा करने के लिए जरूरी है आलस्य को दूर ही रखें।<br />
दीर्घसूत्रता - इसका सीधा मतलब है जल्दी हो जाने वाले काम में अधिक देर नहीं होना चाहिए।<br />
<br />
<b>स्त्री की कामयाबी तय करते हैं ये सूत्र</b><br />
आज महिलाएं हर क्षेत्र में अपने गुण, योग्यता और ताकत का लोहा मनवा रही है। जिससे वे सारी दकियानूसी सोच और परंपराएं पीछे छूटती चली जा रही हैं, जिससे घर की दहलीज के अंदर स्त्री की जिंदगी तमाम हो जाती है। इस बात का मतलब यह नहीं है कि आज कामकाजी स्त्रियां बेहतर और गृहस्थ महिला कमतर है। बल्कि यही बताना है कि स्त्रियां दोनों ही रूपों में समान रूप और जज्बे से जिम्मेदारियों को पूरा करती है।<br />
<br />
धर्म शास्त्रों में भी ऐसी ही अनेक गृहस्थ और पतिव्रता स्त्रियों के बारे में लिखा गया है, जो आज भी हर नारी के लिए आदर्श और प्रेरणा है। भारतीय संस्कृति में ही ऐसे ही गुणों के लिए शक्ति रूपा माता सीता को याद किया जाता है। अनेक लोगों माता सीता के जीवन को संघर्ष से भरा भी मानते हैं, लेकिन असल में उनके ऐसे ही जीवन में हर कामकाजी या गृहस्थ स्त्री के लिए बेहतर और संतुलित जीवन के अनमोल सूत्र छुपे हैं। जानते हैं ये संदेश -<br />
<br />
- माता सीता ने असाधारण पातिव्रत धर्म का पालन किया। वनवास श्रीराम को मिला, किंतु सीता ने महल के सारे सुख ओर दौलत के ऊपर पति का साथ सही माना।<br />
- वनवास के दौरान रावण द्वारा अपहरण और अशोक वाटिका में रहने के दौरान शील, सहनशीलता, साहस और धर्म का पालन करने से नहीं चूकीं। उन्होंने रावण की ताकत और वैभव के आगे अपने पति श्रीराम और शक्ति के प्रति पूरा विश्वास ही नहीं रखा बल्कि अपने शील और साहस के बल पर रावण को भी झुकने को मजबूर किया।<br />
- श्रीराम के द्वारा त्याग करने पर भी उस फैसले को कुल के सम्मान के लिए बिना किसी को दोषी ठहराए सीता ने पूरी सहनशीलता के साथ स्वीकार कर धर्म का पालन किया।<br />
इन बातों का निचोड़ यही है कि आज की स्त्री भी सीता के पावन चरित्र की तरह ही सेवा, संयम, त्याग, शालीनता, अच्छे व्यवहार, हिम्मत, शांति, निर्भयता, क्षमा और शांति को जीवन में स्थान देकर कामकाजी और दाम्पत्य जीवन के बीच संतुलन के साथ सफलता और सम्मान भी पा सकती है।<br />
<br />
<b>ऐसे लोग हमेशा रहते हैं दु:खी</b><br />
सुख के पीछे कहीं न कहीं पाने का भाव जुड़ा है तो दु:ख के पीछे खोने को। जहां व्यक्ति कोशिशों के जरिए ही कुछ पा सकता है, वहीं व्यक्ति के अपने दोष या खामियां ही उसके दु:ख का कारण बन जाती है। किंतु साधारण इंसान दु:खों में खुद के दोष ढूंढने के बजाय दूसरों को कारण मानकर विचार व व्यवहार करता है।<br />
<br />
हिन्दू धर्म शास्त्रों में इंसान के विचार और व्यवहार को सही और संतुलित करने के लिए अनेक सूत्र बताते हैं। जिनसे हर व्यक्ति अपने दु:ख के कारण जानकर सुखी जीवन बीता सकता है।<br />
<br />
धर्म ग्रंथ महाभारत में स्वभाव से जुड़ी कुछ ऐसी बातें बताई गई हैं, जिनके कारण कोई व्यक्ति हमेशा ही दु:खी रहता है। इन दोषों<br />
को दूर कर हर व्यक्ति व्यावहारिक जीवन में बेहतर बदलाव ला सकता है।<br />
<br />
महाभारत में लिखा है -<br />
ईर्ष्या घृणो न संतुष्ट: क्रोधनो नित्यशङ्कित:।<br />
परभाग्योपजीवी च षडेते नित्यदु:खिता:।।<br />
<br />
सरल शब्दों में मतलब है कि जिन लोगों के स्वभाव में ऐसे दोष होते हैं, वह सदा संताप और कष्टों से घिर होते हैं -<br />
- ईर्ष्या यानी जलन रखने वाला<br />
- घृणा यानी नफरत करने वाला<br />
- असंतोषी<br />
- क्रोधी यानी गुस्सैल व्यक्ति<br />
- हमेशा शंका करने वाला<br />
- दूसरे के भाग्य पर जीवन जीने वाला यानी दूसरों पर पर आश्रित या सुखों पर जीवन बिताना।<br />
<br />
<b>तब नहीं होती श्री गणेश की पहली पूजा</b><br />
हिन्दू धर्म में पंचदेवों को एक ही ईश्वर का अलग-अलग रूप और शक्तियां माना जाता है। यही कारण है कि जो व्यक्ति किसी भी कामना सिद्धि या हर काम में सफलता चाहता है, शास्त्रों के मुताबिक उसे एक नहीं बल्कि अनेक देवताओं की पूजा करना चाहिए। जिसके लिये श्री गणेश के संग सूर्यदेव, दुर्गा, शिव और श्री विष्णु की पूजा जरूरी बताई गई है।<br />
<br />
ऐसी स्थिति में जबकि किसी भक्त की पंचदेवों में ही गहरी आस्था हो तो सबसे पहले किस देवता की पूजा करे? क्योंकि सामान्यत: श्री गणेश को पहले पूजने की परंपरा है। इस संबंध में शास्त्रों में बताया गया है कि समान भक्ति भाव होने पर भक्त को सबसे पहले गणेश नहीं बल्कि सूर्य देव की पूजा करनी चाहिए। जानते हैं इससे जुड़ी शास्त्रों में लिखी यह बात -<br />
<br />
शास्त्र कहते हैं -<br />
रविर्विनायकश्चण्डी ईशो विष्णुस्तथैव च।<br />
अनुक्रमेण पूज्यन्ते व्युत्क्रमे तु महद् भयम्।।<br />
<br />
इसका अर्थ है उपासक को पंचदेवों में सबसे पहले भगवान सूर्य उनके बाद श्री गणेश, मां दुर्गा, भगवान शंकर और भगवान विष्णु को पूजना चाहिए।<br />
<b><br />इन 10 लोगों को न दें सीख</b><br />
शास्त्रों की सीख पर गौर करें तो धर्म जीवन को सुखी, शांत, अनुशासित और संयम से जीने की राह बताता है। किंतु व्यावहारिक सच यह भी है कि अनेक लोग दूसरों से अच्छी बात या अच्छे व्यवहार की अपेक्षा रखते हैं, किंतु दूसरों की ऐसी ही अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाते।<br />
<br />
ऐसे लोग दूसरों को धर्म की बातें जैसे प्रेम, सत्य, परोपकार, दान, अच्छे आचरण की सीखे देने में पीछे नहीं रहता, किंतु सीखने या सुनने में रुचि नहीं लेते। कुछ लोग विवशता या स्वार्थ के कारण भी सही बातों को नजरअंदाज करते हैं। सीधे शब्दों में कहें तो ऐसे लोगों से धर्म की बात करना कलह, विवाद या अशांति का कारण बन सकता है।<br />
<br />
धर्मग्रंथ महाभारत में किसी न किसी कारण से ऐसे ही धर्म विरोधी लोगों से दूर रहने की सीख दी गई है। जानते हैं कौन है वह दस लोग -<br />
- नशेड़ी<br />
- पागल<br />
- क्रोधी<br />
- लापरवाह<br />
- भूखा<br />
- कामी<br />
- भयभीत<br />
- थका हुआ<br />
- जल्दबाजी करने वाला<br />
- लालची या लोभी<br />
व्यावहारिक रूप से भी ऐसे लोग मजबूरी, स्वार्थ या स्वाभाविक दोषों के कारण अच्छाई को नकारते हैं।<br />
<b><br />अगर चाहें रफ्तारभरी ज़िंदगी तो...</b><br />
धर्मशास्त्रों से लेकर इंसानी जीवन पर गौर करें तो पता चलता है कि देव, दानव हो या मानव तीनों में ही एक बुराई दु:ख का कारण बनी। वह है - अहं। घमण्ड, दंभ, शेखी, हेकड़ी, नकचढ़ापन भी इसके ही अलग-अलग रूप है। आखिऱ ऐसा क्यों होता है कि नासमझ ही नहीं विद्वानों पर भी अहं हावी हो जाता है? यहां जानते हैं धार्मिक और व्यावहारिक नजरिया -<br />
<br />
धर्म के नजरिए से इंसानी देह पांच तत्वों से बनी है। जिसमें मन और बुद्धि के साथ अहंकार भी स्वाभाविक रूप से बसता है। सरल शब्दों में अहंकार का मतलब किसी भी काम या कर्तव्य को पूरा करते यह भाव आ जाना कि सिर्फ मैं ही इस कार्य को करने के काबिल या समर्थ हूं।<br />
<br />
व्यावहारिक जीवन के नजरिए से समझें तो बीता समय और यादें भी किसी भी व्यक्ति की सोच मे बदलाव लाकर अहं का कारण बन जाती है। यह सच जानते हुए भी कि समय और उसकी गति पर किसी का काबू नहीं होता या बीते समय में जाना असंभव है। फिर भी अनेक अवसरों पर व्यक्ति बुरे अनुभवों और यादों को मन में रखकर जीवन गुजारता है। जिसके चलते अच्छी हालात या समय आने पर वह भी दूसरें लोगों से बुरा व्यवहार या बातें भी करता है, जो अहं का ही रूप होता है।<br />
<br />
अहं का कारण हमेशा बुरा अनुभव ही नहीं होता, बल्कि सफलता भी सिर चढऩे पर अहं का कारण बन सकती है। क्योंकि अनेक मौकों पर इंसान कामयाबी की खुशियों और यादों में इतना डूब जाता है कि दूसरों को कमतर समझ उपेक्षा या अपमान भी कर देता है, जो असल में अहं ही होता है।<br />
<br />
इस तरह बीते समय का दु:ख, सफलता का नशा और उससे बनी काल्पनिक सोच व माहौल भी अहंकार को पालता-पोषता है। किंतु दोनों ही हालात में अहं व्यावहारिक जीवन पर होने वाले बुरे असर से ज़िंदगी थम सी जाती है। जिससे बचने का एक ही सटीक उपाय है कि आज को सच मानकर और अपनाकर तनावरहित, शांत किंतु रफ्तारभरी जिंदगी बिताई जाए।<br />
<b><br />बुराइयों पर कहर ढाता है शनि का ऐसा रंग-रूप</b><br />
हिन्दू धर्म में सूर्य पुत्र शनिदेव को पृथ्वी का न्यायदाता माना जाता है। जिसका अर्थ है वह ऐसे देवता हैं, जो अच्छे-बुरे कर्मों के हिसाब से जगत के प्राणियों को दण्ड देते हैं। दण्डाधिकारी होने से उनका स्वभाव क्रूर भी माना गया है। इसलिए शनि भक्ति के पीछे संदेश यही है कि व्यक्ति अच्छे कर्म, विचारों और संयम के साथ जीवन गुजारे।<br />
<br />
असल में शास्त्रों में लिखी बातों पर गौर करें तो शनि की दशा हमेशा दु:ख देने वाली नहीं होती है। क्योंकि शनि देव के प्रसन्न होने पर अपार धन, सुख-संपदा मिलती है। किंतु रुष्ट होने पर व्यक्ति को गहरे दु:ख पाने के साथ सम्मान भी खो देता है। यह स्थिति तभी बनती है, जब व्यक्ति की सोच, व्यवहार या आचरण अपवित्र होते हैं।<br />
<br />
शास्त्रों में राजा दशरथ द्वारा की गई शनि स्तुति में शनि का ऐसा अद्वितीय स्वरूप बताया गया है, जो बुराईयों और दुष्ट प्रवृत्तियों पर कहर बनकर टूटता है। जानते हैं कैसा है शनि का वह रूप?<br />
- शनि का रंग कृष्ण या नीला भगवान शंकर की तरह है।<br />
- उनकी दाढ़ी, मूंछ ओर जटा बढ़ी हुई और शरीर मांसहीन यानी कंकाल जैसा है।<br />
- उनकी बड़ी-बड़ी गहरी और धंसी हुई आंखे हैं।<br />
- पेट का आकार भयानक है, घोर तप से पेट पीठ से सटा हुआ है।<br />
- उनका शरीर लंबा-चौड़ा किंतु रुखा है।<br />
- उनकी दाढ़ें काल का साक्षात रूप मानी जाती हैं।<br />
- इस भयानक रूप के साथ वह धीरे-धीरे चलते हैं।<br />
<b><br />यह धन कभी चोरी नहीं होता!</b><br />
क्या ऐसा संभव है कि व्यक्ति हमेशा धनवान बना रहे और उसके धन की न हानि हो, न चोरी? चूंकि इंसानी जीवन में धन की अहमियत मात्र शारीरिक सुख और सुविधाओं को पाने तक ही नहीं बल्कि यह विचार और व्यवहार को भी नियत करने वाला होता है। इसलिए धन हानि इच्छापूर्ति, रोग या चोरी के रूप में हो ही जाती है। किंतु शास्त्रों में ऐसा ही धन बताया गया है, जिससे व्यक्ति हमेशा अमीर बना रहता है। जानते हैं कौन-सा है वह धन -<br />
<br />
शास्त्रों में विद्या को ऐसा धन बताया गया है जो गुप्त भी होता है और सुरक्षित भी। विद्या या ज्ञान इंसान के चरित्र, आचरण और व्यक्तित्व को उजला बनाने वाली होती है। शास्त्रों में लिखी यह बात साफतौर पर जीवन में विद्या के महत्व को उजागर करती है-<br />
लिखा है कि -<br />
<br />
विद्या नाम कुरूपरूपमधिकं विद्यापति गुप्तं धनं।<br />
विद्या साधुकरी जनप्रियकरी विद्या गुरूणां गुरु:।।<br />
<br />
विद्या बन्धुजनार्तिनाशनकरी विद्या परं दैवतं।<br />
विद्या राजसु पूजिता हि मनुजो विद्याविहीन: पशु:।।<br />
<br />
सरल शब्दों में जानें तो विद्या बदसूरत व्यक्ति को भी खूबसूरत बना देती है। यही नहीं यह व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार को पावन कर लोकप्रिय व भरोसेमंद भी बनाती है। यह व्यक्ति की ही नहीं बल्कि परिवार को भी संकट से बचाती है। विद्वान के आगे ऊंचे पद पर बैठा व्यक्ति भी झुक जाता है।<br />
<br />
इस तरह विद्या से दूर इंसान पशु के समान माना गया है। किंतु विद्या या विद्वानता ऐसा धन है, जिसे कोई दूसरा किसी भी तरह से चुरा नहीं सकता।<br />
<b><br />यह था श्रीराम के पुत्र लव-कुश का वंश</b><br />
हिन्दू धर्म में भगवान श्रीराम विष्णु अवतार माने जाते हैं। श्रीराम ने धर्म, नीति, चरित्र और आचरण से ऐसे आदर्श स्थापित किए कि वह मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम से पूजनीय हैं। पुराणों के मुताबिक भगवान राम सूर्यवंशी राजा दशरथ के पुत्र थे।<br />
सामान्यत: धर्मावलंबी भगवान राम के वंश और कुल के साथ उनके दो पुत्रों लव-कुश के बारे में तो जानते हैं, लेकिन अनेक लोग उनके भाई लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के पुत्र और कुश के पुत्र-पौत्र की जानकारी नहीं रखते। इसलिए जानते हैं इससे ही जुड़ी रोचक बातें -<br />
<br />
- भगवान श्री राम के भाई भरत के दो पुत्रों का नाम तार्क्ष और पुष्कर।<br />
- लक्ष्मण का पुत्र चित्रांगद और चन्द्रकेतु<br />
- शत्रुघ्न के पुत्र सुबाहु और शूरसेन<br />
<br />
इसी तरह राम पुत्र कुश का वंश इस तरह आगे बढ़ा -<br />
कुश - अतिथि - निषध - नल - नभ - पुण्डरीक - क्षेमन्धवा - देवानीक - अहीनक - रुरु - पारियात्र - दल - छल - उक्थ - वज्रनाभ - गण - उषिताश्व - विश्वसह - हिरण्यनाभ - पुष्पक - ध्रुवसन्धि - सुदर्शन - अग्रिवर्ण - पद्मवर्ण - शीघ्र - मरु - सुश्रुत - उदावसु - नन्दिवर्धन - सकेतु - देवरात - बृहदुक्थ - महावीर्य - सुधृति - धृष्टकेतु - हर्यव - मरु - प्रतीन्धक - कुतिरथ - देवमीढ़ - विबुध - महाधृति - कीर्तिरात - महारोमा - स्वर्णरोमा - ह्रस्वरोमा - सीरध्वज<br />
कुश वंश के राजा सीरध्वज को सीता नाम की एक पुत्री हुई। सूर्यवंश इसके आगे भी बढ़ा, जिसमें कृति नामक राजा का पुत्र जनक हुआ, जिसने योगमार्ग का रास्ता अपनाया था।<br />
<br />
<b>गृहस्थी पर संकट का संकेत हैं ये 6 बातें</b><br />
हिन्दू धर्मशास्त्रों की दृष्टि से गृहस्थ जीवन चार पुरुषार्थों को पाने का अहम चरण है। सुखी, शांत और लंबे गृहस्थ जीवन के लिए आपसी विश्वास, सहयोग, संतोष, मन और विचारों में तालमेल जैसी बातें जरूरी होती है। चूंकि काल पर किसी का काबू नहीं होता, इसलिए अच्छा या बुरा समय भी गृहस्थ जीवन में आता है। जिसके लिए हर व्यक्ति को पूरी तरह से तैयार रहना चाहिए। शास्त्रों में कुछ ऐसी ही बातें लिखी हैं जो व्यक्ति को परिवार पर आने वाले संकट के संकेत देती हैं। जिनको पहचान कर समय रहते गृहस्थी को कलह से बचाया जा सकता है।<br />
<br />
जानते हैं वह 6 बातें जिनसे गृहस्थ जीवन में उथल-पुथल मच सकती हैं -<br />
<br />
बुद्धिहीन पुत्र - ऐसे पुत्र के गलत कामों, खराब आचरण और गंदे चरित्र से परिवार भी लज्जित और संकट में पड़ जाता है।<br />
<br />
कलहप्रिय स्त्री - अशांत स्वभाव की स्त्री से घर में कलह पैदा होता है। आपसी कटुता से गृहस्थी की गाड़ी डगमगा जाती है।<br />
<br />
रोग - बार-बार बीमारी का प्रकोप परिवार के हर सदस्य पर मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से बुरा असर डालता है।<br />
<br />
दारिद्रय - घर या परिवार के सदस्यों में किसी भी रूप में अपवित्रता दरिद्रता के संकेत है, जिससे परिवार विपत्तियों में पड़ सकता है।<br />
<br />
कुअन्न का भोजन - आहार शुद्धि ही तन, मन, व्यवहार और विचार को पवित्र बनाती है। किंतु घर में अशुद्ध या मांसाहार भोजन के रूप में अपवित्रता परेशानियों का कारण बन सकती है।<br />
<br />
कलंक - परिवार और व्यक्ति की प्रतिष्ठा व मान-सम्मान एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। इसलिए किसी भी व्यक्ति के गलत आचरण, चरित्र से लगा कलंक परिवार में बिखराव ला सकता है।<br />
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धर्म उपदेशों में बताई इन बातों को अगर आप भी गृहस्थ जीवन में घटता देखें तो सावधान होकर इनको सुलझाने की हर संभव कोशिश करें। तभी तनाव, कलहमुक्त जीवन का लुत्फ संभव होगा।<br />
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<b>यह है असफलता से बचने का अहम सूत्र</b><br />
सफलता इंसान को ऊर्जावान बनाती है। कामयाबी इंसान को शरीर, मन और विचारों के स्तर पर पूरे विश्वास और उत्साह से भर देती है। तब असंभव बातें भी संभव लगती है। कामयाबी से साधारण व्यक्ति भी असाधारण बनकर दूसरों की नजरों में प्रेरणा बन जाता है। अनेक लोग मात्र धन, सुविधा या अनुकूल हालात को ही ऐसी सफलता का कारण मानते हैं। जबकि धर्मशास्त्रों के मुताबिक कामयाबी के लिए इन बातों के अलावा भी एक गुण अहम है, जो हर इंसान में होना जरूरी है। जानते हैं यह खूबी -<br />
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असल में जीवन में काम ही इंसान को पहचान और सम्मान देता है। हिन्दू धर्म शास्त्रों में भी कर्म को ही सुख और सफलता का मंत्र बताया गया है। यह कर्म तभी संभव है जब इंसान में उद्यम यानी मेहनत और परिश्रम का भाव संकल्प की तरह मौजूद रहे। यही कारण है कि शास्त्र लिखते हैं कि -<br />
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आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महिरिपु:।<br />
नास्त्युद्यमसमो बन्धु: कुर्वाणो नावसीदति।।<br />
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संदेश है कि परिश्रम की भाव ही हर इंसान का सबसे अच्छा मित्र है। जिसके रहते कोई भी व्यक्ति कभी भी नाकामी या पतन का सामना नहीं करता है। जबकि इसके विपरीत आलस्य यानी काम को टालने या बचने की मानसिकता इंसान के लिये दुश्मन बनकर बार-बार नाकामयाबी का मुंह देखने को मजबूर करती है।<br />
<b><br />गुणों की अनदेखी से आती हैं ये 3 आफतें</b><br />
धर्मशास्त्रों की शिक्षाओं से यह संदेश मिलता है कि धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य का संघर्ष युगों से चलता आ रहा है और आगे भी जारी रहेगा। किंतु आख़िरकार किसी न किसी रूप से बाजी धर्म के पक्ष में ही झुकती है। फिर चाहे ऊपरी तौर पर अधर्म या बुराई ही ज्यादा दु:ख देने वाली दिखाई दे।<br />
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व्यावहारिक रूप से भी समझें तो परिवार, समाज या कार्यक्षेत्र में पद, पैसा या सुखों की चाहत में इंसान पर श्रेष्ठता का अहं, स्वार्थ या हित की भावना इतनी हावी हो जाती है कि तब वह सही या गलत का फर्क समझें बगैर क्षणिक लाभ के लिये योग्यता या गुणी व्यक्तियों की उपेक्षा, अनदेखी या अहित करने को भी सही ठहराता है। लेकिन वह भूल जाता है लंबे वक्त के लिये यह सोच या नीति अनचाहे दु:ख और संकट का कारण बन सकती है।<br />
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हिन्दू धर्मग्रंथ शिव पुराण में प्रजापति दक्ष द्वारा श्रेष्ठता के दंभ में भगवान शिव के अपमान के बाद आया संकट इस बात का ही संदेश देते हैं। इस प्रसंग में साफतौर पर सीख दी गई है कि जब पूजनीय लोगों के स्थान पर अपूज्यनीय लोगों को पूजा जाता है। वहां दरिद्रता, मृत्यु या भय इन तीन मुसीबतों का सामना जरूर करना पड़ता है।<br />
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संकेत यही है कि जीवन में बड़े सुखों की चाहत में क्षण भर के लिए भी विवेक (सही और गलत का फर्क) का साथ न छोड़ स्वयं के साथ दूसरों की काबिलियत और सम्मान को अहमियत दें। इससे मिली सफलता तमाम संकटों से रक्षा कर चैन के साथ सहयोग और प्रेम भी लाएगी।<br />
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<b>देवी-देवता भी पूजते हैं ऐसे अद्भुत शिवलिंग</b><br />
हिन्दू धर्म व शैव शास्त्रों में पंचदेवों में भगवान शिव को परब्रह्म माना गया है। ब्रह्मरूप होने के कारण शिव को निष्कल यानि निराकार भी माना गया है। शिव का निराकार रूप शिवलिंग के रूप में पूजित है। धार्मिक मान्यताओं में शिवलिंग पूजा सभी तरह के संताप को दूर कर कल्याणकारी मानी गई है। शास्त्रों के मुताबिक आशुतोष शिव की प्रसन्नता के लिए देवता, ऋषि-मुनियों यहां तक कि दैत्यों ने भी शिवलिंग पूजा से शक्ति और कामनाओं की पूर्ति की। शिवपुराण में अलग-अलग देवी-देवताओं द्वारा भी अलग-अलग पदार्थो, धातु व रत्नों से बने शिवलिंग की पूजा करना बताया गया है। शिवपुराण में लिखा है कि भगवान विष्णु ने पूरे जगत के सुख और कामनाओं की पूर्ति के लिए भगवान विश्वकर्मा को अलग-अलग तरह के शिवलिंग बनाकर देवताओं को देने की आज्ञा दी। यहां जानते हैं विश्वकर्मा द्वारा किस-किस तरह के शिवलिंग देवताओं को दिए गए?<br />
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इन्द्र - पद्मराग<br />
मणि कुबेर - सोना<br />
धर्म - पुखराज<br />
वरुण - श्याम या काले रंग<br />
विष्णु - इन्द्रनील<br />
ब्रह्मा - चमकीला सोने<br />
विश्वेदेव - चांदी<br />
वसुगण - पीतल<br />
अश्विनी कुमार - पार्थिव लिंग<br />
लक्ष्मी - स्फटिक<br />
आदित्यगण - तांबे<br />
सोम - मोती<br />
अग्रिदेव - हीरे<br />
ब्राह्मण - मिट्टी<br />
मयासुर - चन्दन<br />
नाग - मूंगा<br />
देवी - मक्खन<br />
योगी - भस्म<br />
यक्ष - दही<br />
ब्रह्मपत्नी - रत्न<br />
बाणासुर - पारद या पार्थिव<br />
<b><br />यह है सुख के साथ संपत्ति पाने का सूत्र</b><br />
धर्मशास्त्रों के मुताबिक कर्म ही व्यक्ति के सुख और दु:ख नियत करते हैं। फिर चाहे वह पूर्वजन्मों के हो या वर्तमान जीवन के। व्यावहारिक जीवन में भी देखा जाता है कि यही सुख और संपत्ति पाने के लिए हर इंसान तरह-तरह से कोशिशें करता है। वहीं दु:ख व संकट से बचने के लिए भी हरसंभव तरीके अपनाता है। किंतु सुख और दु:ख कब और कितना मिलेगा, यह जानना मुश्किल है। क्या कोई ऐसा उपाय है, जो हमेशा व्यक्ति को सुख पाने और दु:ख से दूर रहने की राह बता सके?<br />
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हिन्दू धर्मग्रंथ तुलसीकृत रामचरितमानस न केवल धार्मिक और आध्यात्मिक लाभ देता है, बल्कि इसमें लिखें धर्म उपदेश व्यावहारिक जीवन को साधने के सूत्र भी बताते हैं। यहां जानते हैं रामचरितमानस में लिखी वह चौपाई, जो खुशी को पाने और दु:खों से बचने के साफ और सीधे तरीके बताती है -<br />
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जहां सुमति तहं संपत्ति नाना। जहां कुमति तहं बिपत्ति निदाना।।<br />
इस चौपाई का व्यावहारिक अर्थ यही है कि अच्छी सोच, आचरण और संगति से बना स्वभाव और व्यवहार मनचाहे सुख देने वाला होता है। जिसके लिए व्यक्ति शिक्षा, कुशल और परिश्रम को जीवन में स्थान दे। धर्म के नजरिए से इस बात का अर्थ है कि सद्बुद्धि व्यक्ति को बुरे कामों से दूर रख अनेक तरह के सुखों से जोड़ती है।<br />
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इसके विपरीत बुरे विचार, कर्म और साथ व्यक्ति के लिए दु:ख यानी विपत्ति का कारण बनते हैं। जिसे यहां कुमति बताया गया है। धर्म दर्शन भी यही है कि पाप कर्मों से बुद्धिदोष पैदा होता है और बुरी सोच गलत कामों से अलग नहीं होने देती, जो आखिरकार व्यक्ति के गहरे संकट का कारण बन जाती है।<br />
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<b>मृत्यु को बुलावा है ऐसे काम</b><br />
इंसानी स्वभाव होता है कि उसे दूसरों के दोष जल्दी नजर आ जाते हैं। लेकिन अपनी कमियों को पहचानने में चूक करता है। इस कमजोरी की वजह से इंसान अनेक परेशानियों का सामना करता है। फिर भी हर व्यक्ति स्वयं को र्निदोष या निष्पाप मानकर अपने आस-पास होने वाले दोष व अपराधों को देखता-सुनता तो है, पर अपने बारे में यह विचार करना नहीं चाहता कि वह भी किसी न किसी तरह से पाप से जुड़ा है।<br />
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दरअसल धर्म के नजरिए से कोई भी व्यक्ति पाप से अछूता नहीं। क्योंकि जीवन में हर व्यक्ति मन, वचन, कर्म से कोई न कोई पाप जरूर करता है। कुछ लोगों को पाप उजागर होता है, वहीं कुछ का पाप दबा रहता है। किंतु उसके भी बुरे नतीजे जरूर मिलते हैं। धर्म शास्त्र महाभारत में व्यावहारिक जीवन से जुड़े ऐसे ही पाप कर्म बताए गए हैं। जिनको करने से व्यक्ति पाप का भागी बनता है और ऐसे पापों का बढऩा ही अंत का कारण बनता है।<br />
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- घर में आग लगाना या कलह करवाना<br />
- चुगली करना<br />
- मित्र के साथ विश्वासघात<br />
- परायी स्त्री को बुरी नजर से देखना, बुरा व्यवहार या संबंध बनाना<br />
- गर्भ हत्या करने वाला<br />
- ब्राह्मण होकर शराब पीना<br />
- क्रूर स्वभाव वाला<br />
- धर्म या ईश्वर का विरोध<br />
- वेद की बुराई करना<br />
- शराब बेचना<br />
- हथियार वनाना या बेचना<br />
- वाचालता या बकवास करना<br />
- जहर देना<br />
- गुरु की स्त्री से संबंध<br />
- शक्तिशाली होते हुए किसी के द्वारा रक्षा की मांग करने पर भी उसके साथ हिंसा करना।<br />
<b><br /></b><b>ये हैं धन पाने और बचाने के 4 तरीके</b><br />
धन व्यक्ति के शरीर, मन और व्यवहार में असाधारण ऊर्जा और विश्वास भर देता है। वहीं धन के अभाव से बलवान व्यक्ति का जोश, उत्साह और मानसिक बल भी डांवाडोल हो जाता है। यही कारण है कि सांसारिक जीवन में सुख बंटोरने की चाहत से व्यक्ति धन कमाने ही नहीं, बल्कि उसे बचाने के लिए भी भरपूर कोशिश करता है।<br />
इंसान की धन की इसी जरूरत को ही ध्यान में रखकर विचारे करें तो क्या कोई ऐसा उपाय है? जिससे कोई भी व्यक्ति धन कमा और बचा सकता है। धन की इसी अहमियत को समझाते हुए हिन्दू धर्मग्रंथ महाभारत में लक्ष्मी को पाने और उसकी प्रसन्नता बनाए रखने के कुछ अहम सूत्र बताए गए हैं। जानते हैं ऐसे ही चार तरीके -<br />
कहा गया है कि -<br />
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श्रीर्मङ्गलात् प्रभवति प्रागल्भात् सम्प्रवर्धते।<br />
दाक्ष्यात्तु कुरुते मूलं संयमात् प्रतितिष्ठत्ति।।<br />
इस श्लोक में साफ तौर पर चार सूत्र बताए गए हैं। समझते है इनका शाब्दिक व व्यावहारिक मतलब -<br />
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- पहला अच्छे कर्म से लक्ष्मी आती है। व्यावहारिक नजरिए से परिश्रम या मेहनत और ईमानदारी से किए गए कामों से धन की आवक होती है।<br />
- दूसरा प्रगल्भता सरल शब्दों में धन का सही प्रबंधन यानी बचत से वह लगातार बढ़ता है।<br />
- तीसरा चतुरता यानी अगर धन का सोच-समझकर उपयोग, आय-व्यय का ध्यान रखा जाए तो अधिक धन का संतुलन बना रहता है।<br />
- चौथा और अंतिम सूत्र संयम यानी मानसिक, शारीरिक और वैचारिक संयम रखने से धन की रक्षा होती है। सरल शब्दों में कहें तो सुख पाने और शौक पूरा करने की चाहत में धन का दुरुपयोग न करें।<br />
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<b>यह चार संदेश देती हैं श्री गणेश की चार भुजाएं</b><br />
हिन्दू धर्मशास्त्रों के मुताबिक कलियुग में भगवान गणेश के धूम्रकेतु रूप की पूजा की जाती है। जिनकी दो भुजाएं होती है। किंतु भगवान गणेश का चार भुजाधारी स्वरूप भी पूजनीय है। जिनमें से एक हाथ में अंकुश, दूसरे हाथ में पाश, तीसरे हाथ में मोदक व चौथे में आशीर्वाद है। श्री गणेश के चार हाथ प्रतीक रूप में जीवन से जुड़े कुछ संदेश देते हैं -<br />
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पहले हाथ में अंकुश इस बात का सूचक है कि कामनाओं यानी वासना व विकारों पर संयम जरूरी है।<br />
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पाश नियंत्रण, सयंम और दण्ड का प्रतीक है। हर व्यक्ति को स्वयं के आचरण और व्यवहार में इतना संयम और नियंत्रण रखना जरूरी है, जिससे जीवन का संतुलन बना रहे।<br />
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मोदक यानि जो मोद (आनन्द) देता है, जिससे आनन्द प्राप्त हो, संतोष हो, इसका गहरा अर्थ यह है कि तन का आहार हो या मन के विचार वह सात्विक और शुद्ध होना जरूरी है। तभी आप जीवन का वास्तविक आनंद पा सकते हैं।<br />
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मोदक ज्ञान का प्रतीक है। जैसे मोदक को थोड़ा-थोड़ा और धीरे-धीरे खाने पर उसका स्वाद और मिठास अधिक आनंद देती है और अंत में मोदक खत्म होने पर आप तृप्त हो जाते हैं, उसी तरह वैसे ही ऊपरी और बाहरी ज्ञान व्यक्ति को आनंद नही देता परंतु ज्ञान की गहराई में सुख और सफलता की मिठास छुपी होती है।<br />
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इस प्रकार जो अपने कर्म के फलरूपी मोदक भगवान के हाथ में रख देता है, उसे प्रभु आशीर्वाद देते हैं। यही चौथे हाथ का संदेश है।<br />
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<b>काम भारी और मुश्किल लगता है, क्योंकि..</b><br />
साधारण व्यक्ति के लिए धर्म पर बात करना तो सरल है, लेकिन धर्म को जीवन में उतारना या व्यवहार में अपनाना उतना ही मुश्किल। मानवीय स्वभाव भी होता है कि वह आसानी, सुविधा और अच्छा व्यवहार चाहता है और बुरे समय या बातों से दूर रहना पसंद करता है। किंतु मुश्किल काम या हालात को आसान और अनुकूल बनाना तभी संभव है जब व्यवहार, विचार और स्वभाव में कुछ जरूरी बदलाव लाए जाए।<br />
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धर्मशास्त्रों में बताए कुछ सूत्र हर व्यक्ति को धर्म से जोड़कर व्यावहारिक जीवन को भी सुखी और शांत बनाते हैं। जानते हैं क्या कहते हैं ये सूत्र? लिखा गया है कि -<br />
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असता धर्मकामेन विशुद्धं कर्म दुष्करम्।<br />
सता तु धर्मकामेन सुकरं कर्म दुष्करम्।।<br />
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शाब्दिक अर्थ है धर्म की कामना करने वाले इंसान का आचरण अगर बुरा है तो उसके लिए पवित्र काम करना कठिन है। किंतु अगर उसका आचरण पवित्र है तो उसके लिए मुश्किल काम भी आसान हो जाते हैं।<br />
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व्यावहारिक मतलब यही है कि जो व्यक्ति अपनी खुशियों और कामयाबी के साथ दूसरों से भी प्रेम, सहयोग और सम्मान चाहता है तो पहले वह स्वयं अपने बोल, व्यवहार व सोच में सुधार लाए। वह कटु बोल, दूसरों के अपमान या उपेक्षा, ईर्ष्या जैसे बुरे भावों को छोड़ दे। इन बदलावों से दूसरों का भरपूर प्रेम, सम्मान, मदद और भरोसा व्यक्ति को मिलेगा।<br />
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यह बात परिवार, कार्यक्षेत्र और पूरे जीवन पर लागू होती है। ऐसा होने पर आप कहीं भी हो, वहां हर पल और काम आसान बन जाएगा।<br />
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<b>सुख-शांति के लिए इन 9 बातों को गुप्त रखें</b><br />
इंसान के स्वभाव में एक रोचक बात होती है कि दूसरों की जिन बातों में वह फायदा देखता है, उसे तुरंत जानना चाहता है। किंतु जिन बातों से वह स्वयं लाभ कमाता है, वह यथासंभव उजागर नहीं करना चाहता। ऐसी सोच इंसान के कर्म, व्यवहार और स्वभाव को भी नियत करती है। इसलिए हर व्यक्ति को कोशिश जरूर करना चाहिए कि ऐसी सोच जीवन और रिश्तों में नकारात्मक नतीजे न लाए। शास्त्रों में भी ऐसी ही कुछ बातों को गुप्त रखने की सीख दी गई है, जिनसे कोई भी इंसान अनचाहे कलह से बच सकता है।<br />
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शास्त्रों के मुताबिक नीचे लिखी नौ बातें किसी भी व्यक्ति को अनचाही परेशानी से बचा सकती है -<br />
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<b>वित्त यानी धन</b> - धन किसी भी व्यक्ति की ताकत का पैमाना होता है। यह दूसरों का आपके प्रति व्यवहार नियत ही नहीं करता, बल्कि इसके उजाग़र होने पर शत्रु द्वारा या मित्र के मन भी लोभ आने पर किसी न किसी रूप में हानि पहुंचाई जा सकती है।<br />
<b><br />गृहछिद्र यानी घर की फूट</b> - घर या परिवार का आपसी कलह उजागर होना परिवार के साथ हर सदस्य को व्यक्तिगत, व्यावहारिक और सामाजिक स्तर पर नुकसान का कारण बनता है।<br />
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<b>मंत्र</b> - शास्त्रों के मुताबिक गुरु हो या इष्ट मंत्र, इनको गुप्त रखने पर ही इनकी शक्तियों का लाभ मिलता है।<br />
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<b>औषध</b> - शास्त्रोक्त मान्यता है कि औषधी के शुभ प्रभाव गुप्त रखने पर ही होते हैं।<br />
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<b>मैथुन</b> - शास्त्रों में इंसान के लिए काम यानी मैथुन क्रिया की मर्यादा नियत की गई है। जिनका भंग होना या इसका उजाग़र होना चरित्र हनन का कारण बनता है।<br />
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<b>दान</b> - धार्मिक दृष्टि से गुप्त दान बहुत ही पुण्य देने वाला होता है, जबकि दान देकर बताना अपयश का कारण बनता है।<br />
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<b>मान</b> - अपनी मान-प्रतिष्ठा का बखान भी अहं पैदा करता है, जिससे अनेक स्वाभाविक दोष पैदा होते हैं।<br />
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<b>अपमान</b> - अनेक मौकों पर अपमान को छुपा लेना या पचा लेना व्यक्ति के लिए हितकारी होता है। बार-बार स्वयं के अपमान को उजागर करना व्यक्ति की कमजोरी बताने के साथ ही स्वयं के मानसिक कष्टों का कारण भी बनता है।<br />
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<b>आयु</b> - व्यावहारिक रूप से आयु को गुप्त रखना मुश्किल होता है। किंतु अनेक अवसरों पर उम्र छुपाना भी हानि से बचा सकता है। इसमें दर्शन देखें तो व्यक्ति द्वारा आयु को औरों की तुलना में स्वयं से छिपाना सार्थक है यानी उम्र का ख्याल दिमाग पर हावी न रख कर्म के संकल्प के साथ जीवन जीना चाहिए।<br />
<b><br />चिंता और निराशा दूर करते हैं ये सूत्र</b><br />
हर इंसान के जीवन में ऐसे अनेक अवसर आते हैं, जब वह हालात से जूझता हुआ दिखाई देता है। कुछ लोग अपनी हिम्मत और जज्बे से समय को बदलकर अपना बना लेते हैं, तो कुछ टूटकर बिखर भी जाते हैं। किंतु जीवन के प्रति सही और सकारात्मक सोच रखी जाए तो हर मुश्किलों से पार पाना संभव है। शास्त्रों में ऐसे ही अनमोल सूत्रों को बताया गया है, जिनसे किसी भी अशांत स्थिति में इंसान अपना संतुलन बनाए रख सकता है।<br />
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ऋग्वेद का एक बेहतरीन सूत्र है -<br />
विश्वाउत त्वया वयं धारा उदन्या इव। अति गाहे महि द्विष:।।<br />
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जिसका सरल शब्दों में यही संदेश है कि जीवन में अनेक परेशानियां, मुसीबतें, जिम्मेदारियां या शत्रु रुकावटे पैदा करते हैं। किंतु ईश्वर व खुद पर भरोसे के दम पर इन पर काबू पाया जा सकता है। ठीक उसी तरह जैसे नाव से नदी पार की जाती है।<br />
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यहां दो सूत्र साफ हो जाते है हैं कि संकट और मुसीबतों से बाहर आने के लिए खुद पर विश्वास और भगवान के प्रति आस्था व श्रद्धा सबसे बड़ी ताकत है। यह शक्ति तभी संभव है जब इंसान शांत चित्त रहने का अभ्यास करें। क्योंकि अशांत मन से पैदा हुए तरह-तरह के दोषों, चिंता और घबराहट से इंसान डगमगा जाता है। इसके उल्टे शांत दिमाग से सोच, ऊर्जा और एकाग्रता के संतुलन द्वारा बुरे वक्त को भी आसानी से बदला जा सकता है।<br />
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<b>इन बातों को अपनाएं, हमेशा रहेंगे खुश</b><br />
जीवन में अपेक्षा दु:खों के अनेक कारणों में एक होती है। इसी तरह इच्छाओं का भी कोई अंत न होने से मृत्यु के पहले या बाद भी इंसान की अंतिम इच्छा के बारे में विचार किया जाता है। इन बातों का अर्थ यह नहीं है कि अपेक्षा या इच्छाओं को कष्टों का कारण मानकर कोई व्यक्ति कर्तव्यों या जिम्मेदारियों से मुंह मोड ले बल्कि ज्यादा अपेक्षा न रखते हुए नि:स्वार्थ भाव से काम और दायित्वों को पूरा करे।<br />
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यह सब जानते हुए भी अनेक लोग उम्मीदों और इच्छाओं पर काबू न होने से जीवन को उलझन बना लेते हैं। जिससे वे अपने साथ ही दूसरों का जीवन भी अशांत कर देते हैं। इस अशांति से बचने के लिए ही हिन्दू धर्म शास्त्र गीता, वेद, उपनिषद आदि में जियो और जीने दो का संदेश देते हैं।<br />
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लिखा गया है -<br />
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सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वेसन्तु निरामया:।<br />
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:ख भाग्भवेत्।।<br />
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इस सूत्र में सभी के सुखी होने और दु:ख से बचने की कामना की गई है। व्यावहारिक जीवन के लिए शास्त्रों में बताए ऐसे ही उपदेशों का ही सरल शब्दों में निचोड़ बताया जा रहा है कि इंसान अपना काम, सोच और व्यवहार कैसा रखे? जिससे उसकी इच्छाएं और अपेक्षा दायरे में रहे और वह भी दूसरों की उम्मीदों पर खरा उतर सके -<br />
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- किसी को किसी भी रूप में दु:ख न दें बल्कि सुख देने की कोशिश करें।<br />
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- सभी के साथ प्रेम रखें यानी बोल, व्यवहार और स्वभाव में प्रेम को स्थान दे।<br />
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- हमेशा मेहनत को ही सफलता का सूत्र बनाए और आलस्य से दूर रहें।<br />
<br />
- लाभ के लिये मर्यादा और मूल्यों को कभी न भूलें।<br />
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- ऐसे कामों से बचें जो अपमान का कारण बने या चरित्र पर दाग लगे।<br />
<br />
- बुरे समय या हालात में गहरे दु:ख या शोक में न डूबें। सुख-दु:ख में समान रहने का अभ्यास करें।<br />
<br />
- बच्चों की तरह साफ मन और स्वभाव रखें, जो पल में ही कटुता भूल जाए।<br />
<br />
- हिम्मत और साहस रखें।<br />
<br />
- हमेशा ईश्वर पर आस्था और विश्वास रखें।<br />
<br />
- मृत्यु को न भूलें और संसार को अस्थायी ठिकाना मानें। इससे अहंकार नहीं आएगा।<br />
<br />
<b>सही है या गलत, समझ नहीं आता, क्योंकि..</b><br />
जीवन को सफल और सुखी बनाने के लिए अहम होता है - निर्णय। किंतु फैसला करने के लिए जरूरी है सही और गलत की समझ, जिसे विवेक कहते हैं। विवेक के अभाव में अच्छे या बुरे की पहचान करना मुश्किल हो जाता है। जिसके नतीजे में मिली असफलता जीवन में कलह और अशांति ला सकती है। क्या आप जानते हैं कि वक्त आने पर सही फैसला न ले पाने की कमजोरी आपके स्वभाव में मौजूद होती है। जानते हैं वह दोष और उससे बचने का उपाय-<br />
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यह ऐसी कमजोरी है जो धर्म के नजरिए से दोष भी मानी गई है। यह दोष है - क्रोध यानी गुस्सा। जी हां, क्रोध वह कारण है, जिससे विवेक खो जाता है। हिन्दू धर्म ग्रंथ गीता में क्रोध को दोष मानकर लिखा गया है -<br />
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क्रोधाद्भवति सम्मोह:।<br />
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जिसका सरल शब्दों में मतलब है क्रोध से विवेक यानी बुरे या भले को समझने वाली बुद्धि खत्म हो जाती है। जिससे अंत में नुकसान ही हाथ लगता है। यहां सवाल ये उठता है, कि क्रोध से कैसे बचें? जवाब है अगर क्रोध से बचना है तो इंसान इन दो उपायो को अपनाएं -<br />
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शास्त्रों के मुताबिक गुस्सा पैदा होने का कारण ज्ञान की कमी होती है। वहीं इसके बढऩे का कारण अभिमान होता है। इसलिए अगर जीवन में लगातार तरक्की और सुखों की चाहत है तो हर इंसान को हर तरह के ज्ञान को पाने की भरसक कोशिश करना चाहिए। साथ ही घमंड से बचकर भी रहे। इन दो उपायों से क्रोध भी काबू में रहेगा और सही क्या? गलत क्या? की समझ भी बनी रहेगी।<br />
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<b>जबर्दस्त शक्ति व ऊर्जा देता है गायत्री मंत्र</b><br />
गायत्री वेदमाता मानी गई है। वह ज्ञान या चेतना शक्ति मानी जाती है। ज्ञान शक्ति रूप चारों वेदों की उत्पत्ति भी गायत्री से ही मानी गई है। यही कारण है कि इस शक्ति का साकार रूप माता गायत्री के रूप में पूजनीय है।<br />
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शास्त्रों के मुताबिक गायत्री उसे कहा जाता है जो इस शक्ति का गायन, ध्यान, स्मरण या जप करने वाले की त्राण यानी रक्षा करे। गायत्री की इसी महाशक्ति की उपासना के लिए गायत्री मंत्र का महत्व बताया गया है। गायत्री मंत्र को महामंत्र और सर्वश्रेष्ठ मंत्र बताया गया है। यह मंत्र है -<br />
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ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्॥<br />
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यहां जानते हैं गायत्री साधना व मंत्र जप के धार्मिक, व्यावहारिक व वैज्ञानिक लाभ -<br />
धार्मिक दृष्टि से गायत्री महामंत्र के 24 अक्षर 24 देव शक्तियों का रूप है। जिनके स्मरण से तन, मन और विचारों के दोष दूर होकर जीवन में प्रेम, शांति, विवेक, आत्म बल आता है।<br />
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गायत्री के 24 अक्षरों का संबंध 24 तत्वों पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, गंध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द, वाक्य, पैर, मल, मूत्रेंद्रिय, त्वचा, आंख, कान, जीभ, नाक, मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त और ज्ञान से माना गया है।<br />
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वैज्ञानिक नजरिए से इनका संबंध मानव शरीर की 24 ग्रंथियों से है। यही कारण है कि जब गायत्री मंत्र बोला जाता है, तब उसकी शब्द शक्ति और ऊर्जा शरीर के रग-रग में प्राणशक्ति का संचार करती है। जिससे शारीरिक अंग और कियाएं सही ढंग से काम करती है और खून शुद्ध होता है। जिससे गायत्री उपासक निरोग और ऊर्जावान बना रहता है।<br />
<b><br />भक्ति और रिश्तों के लिए जरूरी ऐसा प्रेम</b><br />
आज के दौर में रिश्ते हो या भक्ति, दोनों में सच्चे प्रेम के स्थान पर स्वार्थ या दिखावा अधिक दिखाई देता है। जबकि धर्मशास्त्रों में प्रेम धर्म पालन का अहम अंग बताया गया है। सरल शब्दों में कहें तो बोल, व्यवहार और आचरण में अगर प्रेम का भाव नहीं उतरता तो सुखों की आशा करना व्यर्थ है। आखिर एक साधारण इंसान सच्चे प्रेम को कैसे जाने और अपनाएं? शास्त्रों में लिखी कुछ बातों से इस सवाल का जवाब बेहतर तरीके से समझा जा सकता है।<br />
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हिन्दू धर्म शास्त्र नारद भक्ति सूत्र में लिखा है - अनिर्वचनीयं प्रेम स्वरूपम्।<br />
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इसका आसान शब्दों में मतलब है कि प्रेम महसूस किया जा सकता है, लेकिन बोलकर बताया नहीं जा सकता। प्रेम का भाव अनुभव योग्य, अटूट, अदृश्य, इच्छाओं और अपेक्षाओं से परे होता है।<br />
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इस तरह कहा जा सकता है कि स्वार्थ, गुणों या इच्छा के वशीभूत होने पर पैदा भाव प्रेम नहीं होता, बल्कि आकर्षण होता है। इसके विपरीत नि:स्वार्थ प्रेम कभी कम नहीं होता, वह अमर और अंतहीन होता है। ऐसा प्रेम ही सांसारिक जीवन में किसी चाहने वाले को दिलो-दिमाग और व्यवहार में करीब रखता है। वहीं भक्ति में ऐसे प्रेम से भक्त का मन भगवान के ही चिंतन और मनन में डूब जाता और उसे दूसरों में भी भगवान के अलावा कोई नजर नहीं आता।<br />
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<b>देवी लक्ष्मी के बताए इन 3 उपायों से मिलता है धन</b><br />
हिन्दू धर्म ग्रंथों में देवी लक्ष्मी को सुख, ऐश्वर्य और धन की देवी माना गया है। दरअसल, प्राचीन ऋषि-मुनियों ने ज्ञान और अनुभव के द्वारा सांसारिक जीवन में धन का महत्व जानकर ही इसे न केवल धर्म, काम और मोक्ष के साथ इंसानी जीवन के चार पुरुषार्थों में शामिल किया बल्कि इसे शक्ति और पवित्रता के साथ भी जोड़ा गया है।<br />
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शक्ति का यही रूप महालक्ष्मी के रूप में पूजनीय है, वहीं इसे पाने के लिए पवित्रता को अपनाने पर जोर दिया गया है। जिसके लिए दरिद्रता यानी मन, वचन, कर्म में बुराईयों से दूर रहकर पवित्र आचरण, विचार और परिश्रम के द्वारा धन कमाया जाए। ऐसा धन ही यश, सम्मान और निरोगी जीवन देने वाला माना गया है।<br />
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व्यावहारिक जीवन में धन पाने और बढ़ाने के लिए इंसान अनेक तरीकों के बारे में विचार करता है, कुछ अपनाता भी है। जिनमें वह कभी सफल होता है तो कभी असफल भी। लेकिन शास्त्रों में धन पाने के कुछ ऐसे उपाय बताए गए हैं, जो धन के साथ-साथ हमेशा सुख, शांति और प्रतिष्ठा भी बढ़ाते हैं।<br />
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शास्त्रों के मुताबिक धन कमाने और बढ़ाने के ये उपाय स्वयं देवी लक्ष्मी द्वारा बताए गए हैं। इन उपायों को आधुनिक संदर्भ में सोच-विचार किया जाए तो यह बहुत ही खुशहाल बनाने वाले हैं। लिखा गया है कि -<br />
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धनमस्तीति वाणिज्यं किंचिस्तीति कर्षणम्।<br />
सेवा न किंचिदस्तीति भिक्षा नैव च नैव च।।<br />
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सरल शब्दों में इसका अर्थ यह है कि अगर धन हो तो व्यवसाय करें। कम पैसा हो तो कृषि कार्य करें। अगर धन न हो तो कोई नौकरी करना ही बेहतर है। किंतु किसी भी हालात में धन पाने के लिए किसी के सामने भिक्षा न मांगे।<br />
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व्यावहारिक रूप से इन बातों का संकेत यही है कि हर इंसान को मेहनत और समर्पण के साथ धन कमाने और बढ़ाने की हरसंभव कोशिश करना चाहिए।<br />
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<b>यह है अशांति से बचने का बेहतर तरीका</b><br />
अशांति आज की जीवनशैली का अभिन्न हिस्सा बन चुका है। अनेक लोग अशांत जीवन का कारण बाहर या दूसरों में तलाशते रहते हैं। जबकि सुकून और शांति को पाने का उपाय हर इंसान के पास मौजूद होता है, किंतु वह उसको न अपनाने के कारण बेचैन रहता है। क्या है यह कारण जानते हैं?-<br />
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दरअसल, सच का दायरा बोल तक खत्म नहीं होता, बल्कि उसकी अहमियत तभी है, जब बोल को कर्म में उतार दिया जाए। अगर हम झूठ के सहारे चलते हैं तो कभी भी भीतर से शांत नहीं रह सकते। शांति के लिए सत्य जरूरी है।<br />
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हम परिवार, दोस्तों और सहकर्मियों के साथ होने पर कई बार यह सुनते और कहते हैं कि कथनी और करनी में अंतर नहीं होना चाहिए। इस बात का व्यावहारिक पक्ष देखने पर यह पाते हैं कि अक्सर यह बात हर व्यक्ति दूसरे से चाहता है, किंतु स्वयं का मौका आने पर वह ऐसा करने में चूक जाता है। वास्तव में इस बात में भी सत्य यानि सच का महत्व साफ दिखाई देता है।<br />
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सरल शब्दों में आप जब आप अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक या सामाजिक कार्यों के लक्ष्यों को बनाते समय जो बातें करें, तो उन बातों को सच्ची लगन और ईमानदारी से पूरा करने की हरसंभव कोशिश करें। ऐसी सच्चाई से मिली सफलता औरों की नजर में भरोसेमंद बनाएगी।<br />
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सार यह है कि असफलता से विचलित होकर मान-सम्मान कायम रखने की सोच में दिखावटी या बनावटी बातें की जा सकती है। लेकिन उससे आप सफल नहीं हो सकते। आप खुद से भाग नहीं सकते। बल्कि खुद के प्रति सच्चे और ईमानदार बनने पर ही आप सुख, सफलता और भरोसा पा सकते हैं।<br />
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बात साफ है कि जब-जब आप सच के साथ चलेंगे तब सच भी जीवन में सुख, सफलता और शांति लाकर आपका साथ निभाएगा।<br />
<b><br />इन 4 शक्तियों से मिलती है मनचाही सफलता</b><br />
शक्ति के बिना जीवन का कोई भी मकसद पूरा करना असंभव है। यही कारण है कि इंसान शक्ति का संचय किसी न किसी रूप में करता है और अलग-अलग तरह की गुण और शक्तियों के द्वारा कामयाबी की ऊँचाईयों को छूता भी है। लेकिन शास्त्रों में शक्ति के ऐसे चार रूप बताए गए हैं, जो हर इंसान के सुखी, शांत और कामयाब जीवन के लिए बहुत जरूरी है।<br />
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जानते हैं शक्ति यानी बल के ऐसे ही चार रूप जिसको पाना, बढ़ाना या बनाए रखना हर इंसान का लक्ष्य होना ही चाहिए -<br />
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<b>देह बल</b> - निरोग, ऊर्जावान, तेजस्वी देह यानी शरीर को सफल जीवन की पहली जरूरत है। यह खान-पान, रहन-सहन के संयम और अनुशासन के द्वारा ही संभव है। वहीं धार्मिक और आध्यात्मिक उपायों में हनुमान उपासना बहुत ही कारगर मानी गई है।<br />
<b>धन बल</b> - शास्त्रों में सुखी जीवन के लिए धन को भी अहम माना गया है। जहां धन का अभाव व्यक्ति के तन, मन और विचारों से कमजोर बनाता है। वहीं धन संपन्नता व्यक्ति के आत्मविश्वास और सोच को मजबूत बनाती है। धन और ऐश्वर्य के लिए शास्त्रों में देवी लक्ष्मी की उपासना का महत्व बताया गया है।<br />
<b>बुद्धि बल</b> - सफल, सुखी और शांत जीवन के लिए सबसे बड़ी ताकत बन जाता है- बुद्धि बल। क्योंकि बुद्धि की ताकत ही शरीर और धन बल को भी काबू कर करती है। बुद्धि के अभाव में शरीर से बलवान और धनवान भी दुर्बल हो जाता है। इसलिए बुद्धिबल के बिना शरीर और धन बल को भी बेमानी माना गया है। धार्मिक दृष्टि से भगवान श्री गणेश और सरस्वती की उपासना बुद्धि बल को बढ़ाने वाली होती है।<br />
<b>देव बल</b> - ईश्वर का स्मरण एक ऐसी शक्ति है, जो अदृश्य रूप में भी शक्ति, ऊर्जा, एकाग्रता और आत्मविश्वास को बढ़ाने वाला होता है। शास्त्रों में भगवान के मात्र नाम का ध्यान भी देवकृपा करने वाला माना गया है। यही कारण है कि जागते और सोते वक्त देव स्मरण व इष्ट की उपासना का धार्मिक परंपराओं में महत्व बताया गया है।<br />
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<b>आगे बढ़ना है तो अपनाएं श्री हनुमान के ये सूत्र</b><br />
आज अनेक युवाओं के संघर्ष भरे जीवन का एक बड़ा कारण लक्ष्य का अभाव भी है। जिससे तमाम कोशिशों के बाद भी अनेक अवसरों पर वह असफलता का सामना करते हैं। हालांकि लक्ष्य न साधने या एकाग्रता भंग होने का कारण कभी-कभी विपरीत हालात भी होते हैं। लेकिन ऐसे ही बुरे वक्त के थपेड़ों से जूझकर जो मकसद को पा ले, ऐसा चरित्र ही दुनिया में प्रेरणा बन जाता है।<br />
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हिन्दू धर्म शास्त्रों में रुद्रावतार श्री हनुमान का चरित्र शक्ति, ऊर्जा, बल के सही उपयोग और मजबूत इरादों से लक्ष्य भेदने के सूत्र सिखाता है। यहां जानते हैं रामायण में श्री हनुमान से जुड़े प्रसंगों के माध्यम से कुछ ऐसे ही अहम सूत्र -<br />
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रावण द्वारा सीताहरण के बाद श्री हनुमान ने माता सीता की खोज में लंका तक पहुंचते तक अनेक मुश्किलों का सामना किया। लेकिन इस दौरान अपने लक्ष्य के प्रति वह इतने दृढ़ थे कि उसको पाने के लिए उन्होंने बुद्धि, बल और साहस से सारी मुसीबतों को मात दी। यहां जानते हैं क्या सिखाते हैं श्री हनुमान -<br />
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<b>मैनाक पर्वत</b> - दरअसल, मैनाक पर्वत कर्मशील को विश्राम के लालच का प्रतीक है, ऐसा भाव लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए कहीं न कहीं आता है। श्री हनुमान द्वारा इसे ठुकराकर कर आगे बढऩा यही संदेश देता है कि लक्ष्य को पाना है तो हमेशा गतिशील रहें।<br />
<b>सुरसाराक्षसी</b> - सुरसा उन बाधाओं और उतार-चढ़ाव का प्रतीक है, जो लक्ष्य में रुकावटे डालते हैं। किंतु श्री हनुमान ने अपने आकार को बढ़ा-छोटा कर यही संदेश दिया कि हालात के मुताबिक ढल कर लक्ष्य से ध्यान न हटाएं।<br />
<b>सिंहिका</b> - मकसद को पाने के लिए ऐसा वक्त भी आता जब इंसान के मन में दूसरों की सफलता से द्वेष या ईर्ष्या के भाव पैदा होते हैं, जिससे लक्ष्य पाना मुश्किल हो सकता है। सिंहिका ऐसे ही बुरे भावों की प्रतीक है। जिसे मारकर श्री हनुमान ने यही संदेश दिया कि लक्ष्य को पाने के लिए ऐसी सोच से दूर हो जाना चाहिए।<br />
<b>लंका और लंकिनी</b> - लंका और उसकी रक्षक लंकिनी असल में खूबसूरती, मोह और आसक्ति का रूप है। जिसके कारण कोई भी संत और तपस्वी भी लक्ष्य से भटक सकता है। किंतु श्री हनुमान लंकिनी को मारकर और लंका के सौंदर्य से प्रभावित हुए बगैर सीता की खोज कर लंका में आग लगाकर यही संकेत करते हैं कि लक्ष्य को पाने के लिए प्रलोभन, मोह, आकर्षण से दूर रहना ही हितकर होता है।<br />
<b><br />श्री हनुमान की अलग-अलग मूर्तियां पूरी करे एक विशेष कामना</b><br />
श्री हनुमान भक्ति धर्म, गुण, आचरण, विचार, मर्यादा, बल और संस्कार से जोड़ देती है। श्री हनुमान के इस दिव्य चरित्र के कारण भी चिरंजीवी और कालजयी है। यही कारण है कि हर युग और काल में श्री हनुमान का स्मरण सुखदायी और संकटनाशक माना गया है। श्री हनुमान के प्रति ऐसी आस्था और विश्वास के साथ उनके अलग-अलग रूप पूजनीय है।<br />
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हनुमान जयंती के पुण्य अवसर पर हम यहां बता रहें हैं श्री हनुमान की कुछ विशेष मूर्तियों की उपासना से कौन-सी कामनाओं की पूर्ति और शक्तियां प्राप्त होती है?<br />
<b>वीर हनुमान</b> - वीर हनुमान की प्रतिमा की पूजा साहस, बल, पराक्रम, आत्मविश्वास देकर कार्य की बाधाओं को दूर करती है।<br />
<b>भक्त हनुमान </b>- राम भक्ति में लीन भक्त हनुमान की उपासना जीवन के लक्ष्य को पाने में आ रहीं अड़चनों को दूर करती है। साथ ही भक्ति की तरह वह मकसद पाने के लिए जरूरी एकाग्रता, लगन देने वाली होती है।<br />
<b>दास हनुमान </b>- दास हनुमान की उपासना सेवा और समर्पण के भाव से जोड़ती है। धर्म, कार्य और रिश्तों के प्रति समर्पण और सेवा की कामना से दास हनुमान को पूजें।<br />
<b>सूर्यमुखी हनुमान</b> - शास्त्रों के मुताबिक सूर्यदेव श्री हनुमान के गुरु हैं। सूर्य पूर्व दिशा से उदय होकर जगत को प्रकाशित करता है। सूर्य व प्रकाश क्रमश: गति और ज्ञान के भी प्रतीक हैं। इस तरह सूर्यमुखी हनुमान की उपासना ज्ञान, विद्या, ख्याति, उन्नति और सम्मान की कामना पूरी करती है।<br />
<b>दक्षिणामुखी हनुमान</b> - दक्षिण दिशा काल की दिशा मानी जाती है। वहीं श्री हनुमान रुद्र अवतार माने जाते हैं, जो काल के नियंत्रक है। इसलिए दक्षिणामुखी हनुमान की साधना काल, भय, संकट और चिंता का नाश करने वाली होती है।<br />
<b>उत्तरामुखी हनुमान </b>- उत्तर दिशा देवताओं की मानी जाती है। यही कारण है कि शुभ और मंगल की कामना उत्तरामुखी हनुमान की उपासना से पूरी होती है।<br />
<b><br />यह रोचक बात है श्री हनुमान जन्म और लंकादहन का कारण</b><br />
श्री हनुमान रामायण रूपी माला के रत्न पुकारे गए हैं, क्योंकि श्री हनुमान की लीला और किए गए कार्य अतुलनीय और कल्याणकारी रहे। श्री हनुमान ने जहां राम और माता सीता की सेवा कर भक्ति के आदर्श स्थापित किए, वहीं राक्षसों का मर्दन किया, लक्ष्मण के प्राणदाता बने, देवताओं के भी संकटमोचक बने और भक्तों के लिए कल्याणकारी बने। रामायण में आए श्री हनुमान से जुड़ें ऐसे ही अद्भुत संकटमोचन करने वाले प्रसंगों में लंकादहन भी प्रसिद्ध है।<br />
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सामान्यत: लंकादहन के संबंध में यही माना जाता है कि सीता की खोज करते हुए लंका पहुंचे और रावण के पुत्र सहित अनेक राक्षसों का अंत कर दिया। तब रावण के पुत्र मेघनाद ने श्री हनुमान को ब्रह्मास्त्र छोड़कर काबू किया और रावण ने श्री हनुमान की पूंछ में आग लगाने का दण्ड दिया। तब उसी जलती पूंछ से श्री हनुमान ने लंका में आग लगा रावण का दंभ चूर किया। किंतु पुराणों में लंकादहन के पीछे भी एक ओर रोचक बात जुड़ी है, जिसके कारण श्री हनुमान ने पूंछ से लंका में आग लगाई। जानते हैं वह रोचक बात -<br />
दरअसल, श्री हनुमान शिव अवतार है। शिव से ही जुड़ा है यह रोचक प्रसंग। एक बार माता पार्वती की इच्छा पर शिव ने कुबेर से सोने का सुंदर महल का निर्माण करवाया। किंतु रावण इस महल की सुंदरता पर मोहित हो गया। वह ब्राह्मण का वेश रखकर शिव के पास गया। उसने महल में प्रवेश के लिए शिव-पार्वती से पूजा कराकर दक्षिणा के रूप में वह महल ही मांग लिया। भक्त को पहचान शिव ने प्रसन्न होकर वह महल दान दे दिया।<br />
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दान में महल प्राप्त करने के बाद रावण के मन में विचार आया कि यह महल असल में माता पार्वती के कहने पर बनाया गया। इसलिए उनकी सहमति के बिना यह शुभ नहीं होगा। तब उसने शिवजी से माता पार्वती को भी मांग लिया और भोलेभंडारी शिव ने इसे भी स्वीकार कर लिया। जब रावण उस सोने के महल सहित मां पार्वती को ले जाना लगा। तब अचंभित और दु:खी माता पार्वती ने विष्णु को स्मरण किया और उन्होंने आकर माता की रक्षा की।<br />
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जब माता पार्वती अप्रसन्न हो गई तो शिव ने अपनी गलती को मानते हुए मां पार्वती को वचन दिया कि त्रेतायुग में मैं वानर रूप हनुमान का अवतार लूंगा उस समय तुम मेरी पूंछ बन जाना। जब मैं माता सीता की खोज में इसी सोने के महल यानी लंका जाऊंगा तो तुम पूंछ के रूप में लंका को आग लगाकर रावण को दण्डित करना।<br />
यही प्रसंग भी शिव के श्री हनुमान अवतार और लंकादहन का एक कारण माना जाता है।<br />
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<b>है शांति और खुशियों की चाहत तो अपनाएं यह कारगर फार्मूला</b><br />
संसार का हर प्राणी चाहे वह पशु-पक्षी हो या इंसान शांति और सुकून पसंद करता है। खासतौर पर इंसानी जिंदगी की बात करें तो अशांति का असर तन, मन और व्यवहार पर देखा जा सकता है। किंतु इंसान देखने, सुनने और महसूस करने के बाद भी बाहरी बातों या कारणों को बेचैनी का जिम्मेदार मानता है। जबकि शांति पाने का बेहतर उपाय हर इंसान के स्वभाव और प्रवृत्ति में छुपा होता है।<br />
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आज की तेज रफ्तारभरी जिंदगी में शांत और प्रसन्न रहने के लिए प्रभु यीशु द्वारा बताया यह सूत्र बहुत कारगर साबित हो सकता है। ईसा मसीह द्वारा बताया शांति का यह उपाय है - क्षमा या माफ करना। हालांकि हर इंसान के लिए इस गुण को अपना लेना इतना आसान नहीं है, किंतु असंभव भी नहीं।<br />
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ईसा मसीह ने यही सिखाया कि मन के हालात की मानवीय संबंधों में अहम भूमिका होती है। इसलिए जीवन में जो लोग अपने मन पर काबू कर उसे अपनी इच्छानुसार चलाना चाहते है, उनके लिये बहुत जरूरी है कि वे अपने मन से दूसरों के लिए द्वेष, दुर्भावना, ईर्ष्या, कटुता को निकाल फेंके, जो क्षमाभाव द्वारा ही संभव है।<br />
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क्षमा भाव से ही विनम्रता, करुणा, दया की भावना पैदा होती है, जो स्वभाव को सहज, सरल बनाती है और मन को स्वस्थ्य रखती है। वहीं मन में घृणा, कटुता विरोध और संशय की भावना मन को बीमार रखेगी और कलह, अशांति का कारण बनेगी। इसलिए क्षमा करना सीखें, जिससे शांत मन और एकाग्रता जीवन के नियत लक्ष्यों तक पहुंचने में मददगार होगें।<br />
<b><br />किससे और कैसा करें प्रेम?</b><br />
प्रेम के अनेक रूप और रंग है। स्नेह, वात्सल्य, भक्ति के रूप में प्रेम के बगैर इंसान ही नहीं भगवान से भी जुडऩा संभव नहीं। प्रेम छोटे-बड़े, ऊंच-नीच या अमीरी-गरीबी का भेद खत्म कर देता है। यही कारण है कि हर धर्म प्रेम को सभी भावनाओं में श्रेष्ठ मानता है। इसी कड़ी में ईसाई धर्म में प्रभु यीशु के जीवन और उपदेशों में प्रेम के द्वारा ही सुकूनभरा जीवन जीने के सूत्र मिलते हैं।<br />
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ईसा मसीह ने शत्रुओं द्वारा सूली पर लटकाने के बाद भी ईश्वर से उनको माफ करने की प्रार्थना की। ईसा के इस क्षमामूर्ति रूप में भी उस प्रेम के दर्शन होते हैं, जो समर्पण, त्याग के भावों के साथ उम्मीदों से परे होता है। प्रभु यीशु के प्रेम के इस अनूठे रूप ने संसार को यही दृष्टि दी कि दुर्जनों को अपना बनाने के लिए भलाई और प्रेम का मार्ग बेहतर है।<br />
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प्रभु यीशु का पूरा जीवन और आचरण प्रेम, सत्य और ईमानदारी से भरा था। जिसका प्रमाण यीशु की यह बात है जिसके मुताबिक अपने पड़ोसी से सदा प्यार करो, पड़ोसी से प्यार करोगे तो संसार आप से प्यार करेगा, जो प्रेम के साथ आज भी समाज को अच्छाई और भलाई के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।<br />
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प्रभु यीशु ने प्रेम को ही व्यावहारिक और मानसिक द्वंद से बचने का सही तरीका माना। उन्होनें बताया कि प्रेम के साथ शांति, दया, अहिंसा, क्षमा जीवन में आते हैं। इसलिए स्वयं के दुर्गुणों के अंत के लिए भी प्रेम को अपनाना जरूरी है। इस तरह गुड फ्रायडे यही संदेश देता है कि बुराई पर अच्छाई से, हिंसा पर अहिंसा से और नफरत पर प्रेम से ही जीत पाई जा सकती है।<br />
<b><br /></b><b>इन पर गिरती है शनि की गाज</b><br />
हिन्दू धर्म शास्त्रों के मुताबिक शनि सूर्य पुत्र हैं। शनि दण्डाधिकारी या न्याय के देवता भी कहलाते हैं। उनका स्वभाव और दृष्टि क्रूर बताई गई है। ज्योतिष शास्त्रों के अनुसार इनका असर शनि दशा, साढ़े साती या कुण्डली में शनि के बुरे योग में माना जाता है, जो सबल व्यक्ति को भी बेहाल कर सकता है।<br />
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शनि के स्वभाव, क्रूर दृष्टि और दण्डाधिकारी होने से जुड़ी पौराणिक कथा है। जिसके मुताबिक शनि-सूर्य पिता-पुत्र होने पर भी उनके बीच शत्रुभाव है। जिसका कारण यह बताया गया है कि शनि सूर्य की पत्नी छाया की संतान थे। किंतु शनि के जन्म के समय उनका रंग-रूप देखकर सूर्य ने अपना पुत्र मानने से इंकार किया और छाया की उपेक्षा और अपमान किया।<br />
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माता का अपमान सहन न कर शनि ने घोर तप कर भगवान शिव को प्रसन्न किया और सूर्य से भी अधिक बलवान बनने का वर मांगा। भोलेनाथ ने भी शनि को इस वर के साथ ही नवग्रहों में सबसे ऊंचा स्थान और इंसान ही नहीं देवताओं को भी शनि की शक्ति के आगे नतमस्तक होने का वर दिया। इसके अलावा बुरे कर्मों के लिए जगत के हर प्राणी को दण्ड देने का अधिकार भी दिया।<br />
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यही कारण है कि धार्मिक मान्यताओं में शनि की तिरछी नजर सबल, सक्षम को भी पस्त करने वाली मानी गई है। शनि की ऐसी ही क्रूर दृष्टि से कौन-कौन बदहाल हो सकता है? इसका जवाब भी शास्त्रों में लिखा गया है कि -<br />
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देवासुरमनुष्याश्च सिद्धविद्याधरोरगा:।<br />
तव्या विलोकिता: सर्वे नाशं यान्ति समूलत:।।<br />
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जिसका अर्थ है - देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और नाग इन सभी का शनि की टेढ़ी नजर समूल नाश कर सकती है।<br />
<b><br />इन 10 रिश्तों से रखें सही तालमेल, हमेशा रहेंगे सुखी</b><br />
आज इंसान पर भौतिक सुखों की चाहत इतनी हावी दिखाई देती है कि वह सही और गलत का फर्क समझकर भी नजरअंदाज कर देता है। यही विवेकहीनता भविष्य में जीवन में अशांति घोल देती है। जबकि सुखी और सफल जीवन बनाने में मात्र धन या सुविधाएं ही अहम नहीं होती, बल्कि वह सारे रिश्ते, भावनाएं व अदृश्य देव कृपा भी महत्व रखती हैं, जिनके बीच या साथ कोई व्यक्ति पनपता और जुड़ा रहता है।<br />
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हिन्दू धर्म ग्रंथ रामचरितमानस भी व्यावहारिक जीवन से जुड़े संदेश देता है। सुन्दरकाण्ड में लिखी चौपाई में इंसानी जीवन में रिश्तों के सही प्रबंधन के ऐसे सूत्र बताए गए हैं, जिनको समझ और अपनाकर भौतिक सुखों के साथ आध्यात्मिक सुख भी पाए जा सकते हैं। जानते हैं वह चौपाई और उसका अर्थ, जो श्रीराम और शरणागत विभीषण से संवाद के दौरान आई है -<br />
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जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुह्रद परिवारा।।<br />
सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बॉंध बरि डोरी।।<br />
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शाब्दिक सरल अर्थ जानें तो इस चौपाई में श्रीराम ने स्वयं बताया है कि उनको वह प्रिय है जो माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार के ममताभरे धागों को एक सूत्र में बांधकर उनके साथ मन को मेरे चरणों में बांध देता है।<br />
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संकेत यही है कि हर इंसान के जीवन में यहां बताए 10 रिश्तें अहम है। जिनके बिना जीवन संपूर्ण नहीं माना जाता। इनसे सही तालमेल और संतुलन होने पर ही हर इंसान चिंता, डर और दु:खों से दूर होता है। किंतु इनके साथ थोड़ा भी असंतुलन अशांति लाता है। इसलिए इन सुखों को स्थायी बनाने के लिए इन रिश्तों और खुशियों के साथ रहकर ईश्वर का स्मरण और भक्ति की जाए तो इंसान सुख-दु:ख में समान रहना सीख हर तरह से मजबूत भी बना रहता है। सार यही है कि गृहस्थ जीवन में सही संतुलन बनाने पर आध्यात्मिक जीवन और देव कृपा भी संभव है।<br />
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<b>शत्रु को चारों खाने चित्त कर देता है यह तरीका</b><br />
इंसान सामाजिक प्राणी माना गया है। यही कारण है कि धर्म शास्त्रों में भी इंसान को अनुशासन और संयम से जीवन गुजारने के लिए आचरण और व्यवहार की मर्यादाएं नियत है। किंतु हर इंसान इनका पालन नहीं करता। बस, यही कारण आपसी टकराव, संघर्ष और कलह को पैदा करता है, जिससे मनचाहे लक्ष्य को पाना मुश्किल हो जाता है।<br />
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यह स्थिति परिवार, समाज, कार्यक्षेत्र में बड़े या छोटे स्तर पर देखी जाती है। ऐसी हालात से निबटने के लिए ही हिन्दू धर्म शास्त्रों में बताए कुछ सूत्र कारगर साबित हो सकते हैं। अगर आप भी आज की चकाचौंधभरी जिंदगी की इस दौड़ में बने रहने या कामयाबी के ऊंचे मुकाम छूने की चाहत रखते हैं तो यहां बताया जा रहा है वह तरीका, जिसके आगे विरोधी भी नतमस्तक हो सकते हैं -<br />
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हिन्दू धर्म ग्रंथ महाभारत में लिखा है कि -<br />
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प्राप्यापदं न व्यथते कदाचि- दुद्योगमन्विच्दति चाप्रमत्त:।<br />
दु:खं च काले सहते महात्मा धुरन्धरस्तस्य जिता: सपत्ना:।।<br />
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सरल शब्दों में अर्थ है कि विपरीत हालात या मुसीबतों के वक्त जो इंसान दु:खी होने के स्थान पर संयम और सावधानी के साथ पुरुषार्थ, मेहनत या परिश्रम को अपनाए और सहनशीलता के साथ कष्टों का सामना करे, तो उससे शत्रु या विरोधी भी हार जाते हैं।<br />
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इस बात में संकेत यही है कि अगर जीवन में तमाम विरोध और मुश्किलों में भी मानसिक संतुलन और धैर्य न खोते हुए हमेशा सकारात्मक सोच के साथ आगे बढऩे का मजबूत इरादा रखें तो राह में आने वाले हर विरोध या रुकावट का अंत हो जाता है।<br />
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<b>श्री हनुमान की ऐसी शक्ति के आगे शनि भी होते हैं नतमस्तक</b><br />
रुद्राक्ष शिव का अंश माना गया है। धार्मिक मान्यताओं में इसकी उत्पत्ति भी शिव के आंसुओं से मानी गई है। रुद्र और अक्ष यानी आंसु शब्द को मिलाकर इसे रुद्राक्ष पुकारा जाता है। शिव का अंश होने से ही यह सांसारिक पीड़ाओं को दूर करने वाला तो माना ही गया है। साथ ही धर्म और आध्यात्मिक रूप से भी रुद्राक्ष का प्रभाव धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष देने वाला होता है।<br />
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पुराणों में अलग-अलग रूपों और आकार के रुद्राक्ष जगत के लिए संकटमोचक, सुख-सौभाग्य देने वाले और मनोरथ पूरे करने वाले बताए गए हैं। रुद्राक्ष की पहचान उस पर बनी धारियों से होती है। इन धारियों को रुद्राक्ष का मुख मानकर शास्त्रों में एकमुखी से इक्कीस मुखी रुद्राक्ष का महत्व बताया गया है।<br />
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इन सभी रुद्राक्ष में अलग-अलग देव शक्तियों का रूप और वास माना गया है। जिनमें बहुत से दुर्लभ हैं। जिनमें चौदह मुखी रुद्राक्ष श्री हनुमान का रूप माना गया है। जिसकी पूजा या धारण करने से श्री हनुमान की शक्तियों का प्रभाव विपत्तियों से बचाने वाला माना गया है।<br />
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श्री हनुमान भी रुद्रावतार है और रुद्राक्ष भी शिव का वरदान माना गया है। वहीं पौराणिक मान्यताओं में शनि ने शिव कृपा से ही शक्ति और ऊंचे पद को पाया। इसलिए माना गया है कि शिव और हनुमान की शक्तियों के आगे शनि भी नतमस्तक रहते हैं।<br />
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यही कारण है कि शनि साढ़े साती, महादशा या शनि पीड़ा के दौरान चौदह मुखी रुद्राक्ष को पहनना या उसकी उपासना शनि दशा में अनिष्ठ से रक्षा ही नहीं करती, बल्कि सुख-सौभाग्य लाने वाली होती है।<br />
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चौदहमुखी रुद्राक्ष श्री हनुमान कृपा से उपासक को निडर, ऊर्जावान, निरोगी बनाता है। यह संतान व भूतबाधा दूर करता है। धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक इसके गुण व शुभ प्रभाव अनंत है। यह स्वर्ग के सुख के साथ ही शनि पीड़ा जैसे क्रूर देवीय प्रकोप से भी बचाता है।<br />
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<b>बुद्धि फेर देती हैं ये बातें..! इनसे बचकर रहें</b><br />
हर धर्म में अच्छी और बुरी ताकतों के बीच संघर्ष में अच्छाई की जीत और उसे अपनाने को ही जीवन में अपने साथ दूसरों के सुखों का सूत्र बताया गया है। हर इंसान जीवन में व्यक्तिगत रूप से भी व्यावहारिक जीवन में हर रोज अच्छे-बुरे को चुनने की मानसिक जद्दोजहद में लगा रहता है।<br />
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सुख की चाहत में इंसान की यह कवायद उसके मन को अस्थिर और अशांत भी करती है। मन की शांति और स्थायी सुख पाने के लिये ही हिन्दू धर्मग्रंथ श्रीमद्भावतगीता में एक छोटा-सा सूत्र बताया गया है।<br />
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लिखा गया है कि -<br />
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'मन: स्वबुद्ध्यामलय नियम्य'<br />
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जिसका अर्थ है कि अपनी पवित्र बुद्धि से ही मन को साधें। इसमें बुद्धि की पावनता द्वारा कर्म, वचन और व्यवहार में बुराई से बचने का संकेत है। यह तभी संभव है जब यहां बताए जा रहे कुछ बुरे काम और भावों से इंसान बचकर रहे। जानते हैं शास्त्रों में बताई ये बुरी बातें -<br />
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अहं, कर्महीनता, नफरत यानी घृणा, बुरे संस्कार और आचरण, मान-सम्मान की लालसा, राग, मोह, आसक्ति, ईष्र्या, द्वेष, स्त्री प्रसंग, स्वार्थ भाव के कारण मन व ह्दय से उदार न होना, दुराग्रह, झूठा दंभ।<br />
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स्वभाव, व्यवहार से जुड़ी ये सारी बातें इंसान के बुद्धि और विवेक पर सीधे ही बुरा असर डालती है, जिससे जीवन में आए बुरे बदलाव दु:ख और पीड़ा का कारण बन सकते हैं। इसलिए संयम और समझ के साथ इन बुरी बातों से बचने की यथासंभव कोशिश करें।<br />
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<b>जादुई खूबी! जिससे पाएं लगातार सफलता</b><br />
हर इंसान की जिंदगी का काफी समय और बल सफलता पाने या सफलता को कायम रखने में लग जाता है। वहीं दूसरी ओर सच यह भी है कि वक्त के उतार-चढ़ाव से सफलता या असफलता का दौर स्थायी नहीं होता। नाकामी और कामयाबी के दौर में मिले अच्छे-बुरे अनुभव इंसान को कभी सुख देते हैं तो कभी कसक भी छोड़ देते हैं।<br />
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इंसान के मन को ऐसे छुपे दु:खों से दूर रखने के लिये शास्त्रों व संत-महात्माओं ने कुछ ऐसी व्यावहारिक बातें बताई हैं, जो सफलता या असफलता दोनों ही हालात में हर इंसान की ताकत और खुशियों का कारण बन सकती है। इस बात को इंसान को व्यवहार में उतारना ही चाहिए।<br />
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सफलता और सुख का ऐसा ही एक सूत्र है - मीठी वाणी या बोल। जी हां, शब्द और बोल में कटुता जहां भारी दु:खों का कारण बन सकते हैं, वहीं मीठे और कोमल शब्द और वाणी इंसान को गहरी मुसीबतों से बाहर निकाल सकती है।<br />
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धार्मिक दृष्टि से भी वाणी में मां सरस्वती का वास माना गया है। इसलिए मीठे वचन मां सरस्वती की उपासना ही हैं। महान ग्रंथ रामचरितमानस रचने वाले संत गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा भी है कि -<br />
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तुलसी मीठे वचन ते सुख उपजत चहुं ओर।<br />
बसीकरन यह मंत्र है परिहरु बचन कठोर।।<br />
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साफ है कि मीठे बोल अपार सुख का कारण बनते हैं। इसलिए वाणी में पहले कोमलता लाने की कोशिश करें। शब्द और आवाज से कर्कशता या कड़े शब्दों को निकालें। इसके साथ ही मानसिक अभ्यास से दूसरों की प्रतिकूल बातों को सुनकर आवेशित होने की आदत पर काबू पाएं, जिससे वचन कठोर हो जाते हैं।<br />
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मीठी वाणी और मन के संतुलन और अभ्यास से हर इंसान अच्छी-बुरी स्थितियों में भी दूसरों को अपना बनाकर सहयोग, प्रेम और विश्वास पाता है, जो कामयाबी की राह बेहद आसान बना देते हैं। सरल शब्दों में कहें <span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो मीठे शब्दों के जादू से सारी दुनिया को मुट्ठी में करना संभव हो सकता है।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
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<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b><span lang="HI">दूसरों का भला कीजिए</span>, <span lang="HI">आपका कल्याण स्वयं हो जाएगा</span></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">राजा रंतिदेव को अकाल के कारण कई दिन भूखे-प्यासे रहना पड़ा। मुश्किल से एक दिन उन्हें भोजन और पानी प्राप्त हुआ</span>, <span lang="HI">इतने में एक ब्राह्मण अतिथि के रूप में आ गया। उन्होंने बड़ी श्रद्धा से ब्राह्मण को भोजन कराया।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">उसके बाद एक शूद्र अतिथि आया और बोलाः </span>‘‘<span lang="HI">मैं कई दिनों से भूखा हूँ</span>, <span lang="HI">अकालग्रस्त हूँ।</span>’’ <span lang="HI">बचे भोजन का आधा हिस्सा उसको दे दिया। फिर रंतिदेव भगवान को भोग लगाएं</span>, <span lang="HI">इतने में कुत्ते को लेकर एक और आदमी आया।</span></span></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">बचा हुआ भोजन उसको दे दिया। इतने में एक चाण्डाल आया</span>, <span lang="HI">बोला: </span>‘‘<span lang="HI">प्राण अटक रहे हैं</span>, <span lang="HI">भगवान के नाम पर पानी पिला दो।</span>’’ <span lang="HI">अब राजा रंतिदेव के पास जो थोड़ा पानी बचा था</span>, <span lang="HI">वह उन्होंने उस चाण्डाल और कुत्ते को दे दिया। इतने कष्ट के बाद रंतिदेव को मुश्किल से रूखा-सूखा भोजन और थोड़ा पानी मिला था</span>, <span lang="HI">वह सब उन्होंने दूसरों को दे दिया।</span></span></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">बाहर से तो शरीर को कष्ट हुआ लेकिन दूसरों का कष्ट मिटाने का जो आनंद आया</span>, <span lang="HI">उससे रंतिदेव बहुत प्रसन्न हुए तो वह प्रसन्नस्वरूप</span>, <span lang="HI">सत्-चित्-आनंदस्वरूप परमात्मा जो अंतरात्मा होकर बैठा है साकार होकर नारायण के रूप में प्रकट हो गया</span>, <span lang="HI">बोला: </span>‘‘<span lang="HI">रंतिदेव! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ</span>, <span lang="HI">क्या चाहिए </span>?’’</span></div>
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<br /></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">रंतिदेव बोले :</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">‘‘<span lang="HI">न कामयेऽहं गतिमीश्वरात् परा मष्टर्ध्दियुक्तामपुनर्भवं वा ।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">आर्तिं प्रपद्येऽखिलदेहभाजा मन्तःस्थितो येन भवन्त्यदुःखाः ॥</span></span></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">‘<span lang="HI">मैं भगवान से आठों सिद्धियों से युक्त परम गति नहीं चाहता। और तो क्या</span>, <span lang="HI">मैं मोक्ष की भी कामना नहीं करता। मैं चाहता हूँ तो केवल यही कि मैं संपूर्ण प्राणियों के हृदय में स्थित हो जाऊँ और उनका सारा दुःख मैं ही सहन करूँ</span>, <span lang="HI">जिससे और किसी भी प्राणी को दुःख न हो ।</span>’</span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">(<span lang="HI">श्रीमद्भागवत : </span>9.21.12)</span></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">प्रभु ! मुझे दुनिया के दुःख मिटाने में बहुत शांति मिलती है</span>, <span lang="HI">बहुत आनंद मिलता है। बस</span>, <span lang="HI">आप ऐसा करो कि लोग पुण्य का फल सुख तो स्वयं भोगें लेकिन उनके भाग्य का जो दुःख है</span>, <span lang="HI">वह मैं उनके हृदय में भोगूँ ।</span>’’</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">भगवान ने कहा: </span>‘‘<span lang="HI">रंतिदेव! उनके हृदय में तो मैं रहता हूँ</span>, <span lang="HI">तुम कैसे प्रवेश करोगे </span>?’’ <span lang="HI">बोले: </span>‘‘<span lang="HI">महाराज! आप रहते तो हो लेकिन करते कुछ नहीं हो। आप तो टकुर-टकुर देखते रहते हो</span>, <span lang="HI">सत्ता देते हो</span>, <span lang="HI">चेतना देते हो और जो जैसा करे ऐसा फल पाये... मैं रहूँगा तो अच्छा करे तो उसका फल वह पाये और मंदा करे तो उसका फल मैं पा लूं।</span></span></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">दूसरे का दुःख हरने में बड़ा सुख मिलता है महाराज! मुझे उनके हृदय में बैठा दो।</span>’’ <span lang="HI">जयदयाल गोयंदकाजी कहते थे: </span>‘‘<span lang="HI">भगवान मुझे बोलेंगे: तुझे क्या चाहिए</span>? <span lang="HI">तो मैं बोलूँगा: महाराज! सबका उद्धार कर दो।</span>’’</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">तो दूसरे संत ने कहा कि </span>‘‘<span lang="HI">अगर भगवान सबका उद्धार कर देंगे तो फिर भगवान निकम्मे रह जायेंगे</span>, <span lang="HI">फिर क्या करेंगे</span>?</span></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">उन्होंने कहा कि </span>‘‘<span lang="HI">भगवान निकम्मे हो जायें इसलिए मैं नहीं माँगता हूँ और सबका उद्धार हो जाय यह संभव भी नहीं</span>, <span lang="HI">यह भी मैं जानता हूँ। लेकिन सबका उद्धार होने की भावना से मेरे हृदय का तो उद्धार हो जाता है न!</span>’’</span></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">जैसे किसीका बुरा सोचने से उसका बुरा नहीं होता लेकिन अपना हृदय बुरा हो जाता है</span>, <span lang="HI">ऐसे ही दूसरों की भलाई सोचने से</span>, <span lang="HI">भला करने से अपना हृदय भला हो जाता है।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b><span lang="HI">भीड़ और चमत्कार से प्रभावित नहीं होना</span></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">किसी के चमत्कार</span>, <span lang="HI">किसी के बहुत बड़े विज्ञापन</span>, <span lang="HI">किसी के नाटक से प्रभावित मत होइए। आपकी आत्मा और आपका हृदय जब गवाही दे तभी स्वीकार करना। इसलिए भी प्रभावित नहीं होना कि किसी के पास में बहुत भीड़ आ रही है।</span></span></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">इतने सारे लोग जा रहे हैं तो जरूर कोई बात होगी</span>, <span lang="HI">यह बात मत सोचना कभी भी</span>, <span lang="HI">क्योंकि आज का युग विज्ञापन का युग है</span>, <span lang="HI">लोग नाटक और ड्रामा बहुत करते हैं।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">अगर आप यह मानते हैं कि अपना कल्याण आपको करना है</span>, <span lang="HI">तो किसी तरह के विज्ञापन</span>, <span lang="HI">किसी तरह के चमत्कार</span>, <span lang="HI">किसी तरह के ड्रामे और किसी तरह के वे लोग जिनको पहले से ही यह सिखाया जाता है कि खड़े होकर यह कहो हमें यह चमत्कार हो गया</span>, <span lang="HI">हमें यह लाभ हो गया।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">बीस-बीस आदमी एक साथ खड़े होकर घोषणा करते हैं</span>, <span lang="HI">अमुक जगह चमत्कार हो गया और वही बीस आदमी हर जगह जाएंगे</span>, <span lang="HI">चमत्कार की घोषणा करने के लिए। भोली जनता कभी नहीं समझ पाती। इसलिए सबसे पहले यह बात ध्यान रखना कि धर्म के नाम पर कोई भी किसी तरह का ड्रामा करता हो उसको देखकर प्रभावित नहीं होना।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">सबसे पहले यह निश्चय करना कि जो कहा जा रहा है</span>, <span lang="HI">वह आपके हृदय के अनुकूल है। दूसरी बात व्यवहारिक जगत् में</span>, <span lang="HI">व्यवहार के पक्ष में वे बातें ठीक हैं। तीसरी बात सोचना शास्त्र सम्मत है</span>, <span lang="HI">चौथी बात सोचना विज्ञान सम्मत है या नहीं</span>, <span lang="HI">यह केवल अन्धविश्वास तो नहीं है।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">सारी बातों का निश्चय करने के बाद एकान्त में बैठकर चिन्तन करना और जब लगे आपको कि कहीं सही जगह आप आ गए हैं</span>, <span lang="HI">तो फिर हिलने नहीं देना अपने मन को। अगर आपको यह एहसास हो जाए कि आप सही जगह पहुंच गए हैं तो फिर एक ही स्थान पर खोदते चले जाना पानी जरूर मिल जाएगा।</span></span></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">अगर दस जगह आपने गड्ढा खोदना शुरू कर दिया तो पानी भी मिलने वाला नहीं है और शक्ति भी व्यर्थ हो जाएगी। अपने मन को एक जगह जरूर टिका लेना लेकिन यह बात ध्यान रखना कि सत्य तक पहुंचने के लिए शुरूआत में थोड़ा-सा परिश्रम करना पड़ेगा।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI"><br /></span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b><span lang="HI">जानिए</span>, <span lang="HI">अच्छाई और बुराई में वास्तविक अंतर क्या है</span></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">सुमति कुमति सब कें उर रहहीं।</span> </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI"><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">(<span lang="HI">श्री रामचरित. सुं.कां.: </span>39.3)</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">अच्छाई-बुराई सबके अंदर छुपी है। अच्छाई को बढ़ाते जाओ तो बुराई भाग जायेगी। बुराई को बढ़ाते जाओ तो अच्छाई भागेगी नहीं</span>, <span lang="HI">अच्छाई दबी रहेगी क्योंकि परमात्मारूपी तुम्हारा मूल स्वरूप अच्छाई से भरा है। जीव कितना भी पापी</span>, <span lang="HI">पामर हो जाय फिर भी उसके अंदर से अच्छाई नष्ट नहीं होती। बुराई मिथ्या है</span>, <span lang="HI">अच्छाई वास्तविकता है। कितना भी बुरा आदमी हो उसमें कुछ-न-कुछ अच्छाई रहेगी ही</span>, <span lang="HI">अच्छाई को नष्ट नहीं कर सकता कोई। अच्छाई ईश्वरत्व है और बुराई विकार है।</span></span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI"><br /></span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">विकार की जिंदगी लम्बी नहीं है। भगवान शाश्वत हैं</span>, <span lang="HI">विकार शाश्वत नहीं हैं। आप सतत दो-चार घंटे क्रोधी होकर दिखाओ</span>, <span lang="HI">चलो एक घंटा ही क्रोधी होकर दिखाओ</span>, <span lang="HI">नहीं हो सकता। दो घंटे आप सतत कामी होकर दिखाओ</span>, <span lang="HI">नहीं हो सकता।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI"><br /></span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">कामविकार के समय में दो घंटे आप उसी भाव में नहीं रह सकते</span>, <span lang="HI">क्रोध में दो घंटे नहीं रह सकते लेकिन शांति में आप वर्षों तक रह सकते हैं</span>, <span lang="HI">आनंद में वर्षों तक रह सकते हैं। आनंद तुम्हारी असलियत है</span>, <span lang="HI">अमरता तुम्हारी असलियत है</span>, <span lang="HI">सज्जनता तुम्हारी असलियत है</span>, <span lang="HI">पवित्रता तुम्हारी असलियत है क्योंकि तुम परमात्मा के वंशज हो</span>, <span lang="HI">विकारों के वंशज नहीं हो बिल्कुल पक्की बात है। विकार धोखा है</span>, <span lang="HI">आने-जानेवाला है। काम आया तुम कामी हो गये</span>, <span lang="HI">काम चला गया तुम शांत। क्रोध आया तुम क्रोधी हो गये</span>, <span lang="HI">क्रोध चला गया तुम वही-के-वही</span>, <span lang="HI">मोह आया तुम मोहित हुए फिर तुम वही-के-वही</span>, <span lang="HI">चिंता आयी तुम चिंतित हो गये फिर तुम वही-के-वही। तुम शाश्वत हो ये आने-जानेवाले हैं</span>, <span lang="HI">इनका गुलाम क्यों मानते हो अपने को</span>? </span><span lang="HI" style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपनी असलियत को जान लो कि आप वास्तव में कौन हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span lang="HI" style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आपका वास्तविक स्वरूप क्या है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span lang="HI" style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आप कितने महिमावान हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span lang="HI" style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आप कितने धनवान हो। आप अपनी महिमा को नहीं जानते इसीलिए परेशान रहते हो। सात्त्विक साधना और अपने दिव्य आत्मस्वभाव के प्रभाव को आप नहीं जानते।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI"><br /></span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">यह जानते हुए भी कि परिस्थितियाँ सदा एक जैसी नहीं रहती हैं</span>, <span lang="HI">आप परिस्थितियों के गुलाम हो जाते हो।</span></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI"><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मानव तुझे नहीं याद क्या तू ब्रह्म का ही अंश है।</span></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">कुल-गोत्र तेरा ब्रह्म है</span>, <span lang="HI">सद्ब्रह्म का तू वंश है॥</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">संसार तेरा घर नहीं</span>, <span lang="HI">दो चार दिन रहना यहाँ।</span></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">कर याद अपने राज्य की</span>, <span lang="HI">स्वराज्य निष्कंटक जहाँ॥</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI"><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b><span lang="HI">जानिए</span>, <span lang="HI">सारी परेशानियों की असली जड़ क्या होती है</span>?</b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">मोह माने क्या</span>? <span lang="HI">उलटा ज्ञान - जो हम नहीं हैं उसको हम मैं मानते हैं और जो हम हैं उसका पता नहीं। रावण क्या है</span>? <span lang="HI">मोह का स्वरूप है और विष्णु क्या हैं</span>? <span lang="HI">जो सबमें बस रहे हैं और सबका हित चाहनेवाले</span>, <span lang="HI">अकारण दया</span>, <span lang="HI">करुणा-वरुणा बरसानेवाले हैं</span>, <span lang="HI">वे हैं भगवान नारायण</span>, <span lang="HI">भगवान विष्णु</span>; <span lang="HI">जो कि सृष्टिकर्ता</span>, <span lang="HI">भर्ता</span>, <span lang="HI">भोक्ता हैं।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">अकारण दया बरसानेवाले</span>, <span lang="HI">दीनदयालु होते हुए भी उनको सृष्टि करनी है। अब सब पर दया करते रहेंगे तो सृष्टि कैसे चलेगी</span>? <span lang="HI">इसीलिए एक संविधान बनाया कि जो उनकी दया की आकांक्षा करते हैं</span>, <span lang="HI">उनकी प्रार्थना-पूजा करते हैं उनको तो वे अंतर्प्रेरणा दें अथवा बाहर से अवतरित होकर उनकी मदद करें और बाकी जो अपने मोह</span>, <span lang="HI">अहंकार</span>, <span lang="HI">काम-क्रोध से भिड़ते हैं</span>, <span lang="HI">वे भिड़ते-भिड़ते थक जाते हैं। फिर दूसरी-तीसरी योनियों में आते-आते देर-सवेर उनको समझ आती है कि अंतरात्मा में</span>, <span lang="HI">आत्मा-परमात्मा में गोता मारे बिना सुख नहीं मिलता।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">लोग बोलते हैं कि वस्तुओं के आश्रय बिना सुख नहीं मिलता परंतु सच्चाई तो यह है कि परमात्मा के आश्रय बिना सुख नहीं मिलता। रात को सब कुछ छोड़कर एक परमात्म-आश्रय में जीव डूब जाता है तो नींद का सुख मिलता है। परमात्मा और आपके बीच अज्ञान होता है किंतु सत्संग</span>, <span lang="HI">दीक्षा-</span><span lang="HI">शिक्षा और जप के द्वारा अज्ञान ज्यों-ज्यों क्षीण होता जायेगा</span>, <span lang="HI">त्यों-त्यों परमात्म-प्रेरणा जीवन में प्रकट होती जायेगी</span>, <span lang="HI">परमात्म-प्राप्ति निकट हो जायेगी।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI"><br /></span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यंति जन्तवः। (गीता : </span>5.15)</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI"><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अज्ञान से ज्ञान आवृत्त हो गया है। </span></span><span lang="HI" style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देवताओं ने भगवान नारायण से प्रार्थना की : </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">‘‘</span><span lang="HI" style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रभु! रावण और राक्षस बड़ा दुःख दे रहे हैं। उन्होंने बड़ा तहलका मचा दिया है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’’</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">भगवान नारायण ने कहा : </span>‘‘<span lang="HI">कोई बात नहीं</span>, <span lang="HI">तुम लोग निश्चिंत हो जाओ। रावण आदि का वध मैं करूँगा।</span>’’ <span lang="HI">फिर वही देवाधिदेव परमेश्वर सत्ता दशरथनंदन होकर रामजी के रूप में आयी।</span></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI"><br /></span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">‘<span lang="HI">वाल्मीकि रामायण</span>’ <span lang="HI">में श्रीरामजी को भगवान के रूप में नहीं बल्कि नर रूप में दर्शाया गया है</span>, <span lang="HI">क्योंकि श्रीरामजी नर तन में थे और नर-मर्यादा में जी रहे थे। सीताजी को रावण ले गया तो </span>‘<span lang="HI">हाय सीते! सीते-सीते!!...</span>’ <span lang="HI">कहकर रुदन करने लगे। परात्पर भगवान नारायण एक स्त्री के लिए क्यों रोयेंगे</span>?</span></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">रामचंद्रजी नरलीला कर रहे थे। नारायण के अवतार हैं</span>, <span lang="HI">लेकिन नर रूप में एक-दूसरे के प्रति अपना कर्तव्य</span>, <span lang="HI">स्नेह व सहानुभूति कैसी होनी चाहिए - इसकी मंगलमय प्रेरणा देनेवाला अवतार है। भगवान राम का श्रीविग्रह तो अभी नहीं है परंतु उनके आचरण</span>, <span lang="HI">गुणगान और उनकी तन्मात्राएँ अभी भी विश्व में व्याप रही हैं। लोगों में सज्जनता</span>, <span lang="HI">स्नेह</span>, <span lang="HI">धर्मपालन तथा दुःखियों के प्रति आर्तभाव</span>, <span lang="HI">दयालुता और सुखियों के प्रति प्रसन्नता - इस प्रकार के श्रीरामजी की तन्मात्राओं के सद्गुण अभी भी फैले हुए हैं।</span></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI"><br /></span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">भगवान राम की स्मृति</span>, <span lang="HI">भगवान राम के नाम का जप बड़ा पुण्यदायी है और भगवान राम की कार्यकुशलता</span>, <span lang="HI">अहा! ... रामजी करने योग्य कार्यों को तत्परता से करते और जो नहीं करना है उसको मन से हटा देते</span>, <span lang="HI">व्यर्थ का चिंतन नहीं करते थे</span>, <span lang="HI">सारगर्भित बोलते थे। दूसरे को मान देते व आप अमानी हो के उसका मंगल हो ऐसा बोलते थे। आप भी अपने नाते-रिश्तेदार का</span>, <span lang="HI">किसीका भी अमंगल न चाहो तो आपका हृदय भी मंगलभवन</span>, <span lang="HI">अमंगलहारी होने लगेगा। यह आप कर सकते हो। आप भगवान राम की नाईं धनुष धारण नहीं कर सकते लेकिन रामजी के गुण तो अपने हृदय में धारण कर सकते हो।</span></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">रामजी हीन शरणागति नहीं लेते थे। कैकेयी ने हीन शरणागति ली तो कितनी बदनाम और दुःख पैदा करनेवाली हुई। भगवान राम छोटे आदमी की बातों में</span>, <span lang="HI">खुशामदखोरों की बातों में नहीं आते थे। उन लोगों को यथायोग्य प्रसन्न कर देते पर उनकी बातों में नहीं आते थे। अपने विवेक से निर्णय करते</span>, <span lang="HI">रोम-रोम में रमे हुए राम में समाधिस्थ होते</span>, <span lang="HI">शांतात्मा होते और कभी-कभी गुरु वसिष्ठजी का मार्गदर्शन लेते थे।</span></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI"><br /></span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">दशरथनंदन श्रीराम बड़ों का आदर करते</span>, <span lang="HI">अपने जैसों से स्नेह से व्यवहार करते और छोटों से दयापूर्ण व्यवहार करते। कोई सौ-सौ गलतियाँ कर लेता किंतु रामजी उसके लिए मन में गाँठ नहीं बाँधते और कोई उनकी भलाई या सहयोग करता तो उसका उपकार नहीं भूलते थे - ऐसे थे मर्यादा पुरुषोत्तम रामजी। रात्रि को सोते समय तथा प्रातःकाल उठकर बिस्तर पर ही आत्मशांति का सुमिरन करते थे</span>, ‘<span lang="HI">सुख-दुःख देनेवाली परिस्थितियाँ</span>, <span lang="HI">व्यवहार बदलनेवाला है पर मेरा आत्मा एकरस</span>, <span lang="HI">अबदल है। मैं उसीके ध्यान में पुष्ट हो रहा हूँ।</span>’ <span lang="HI">आप भी यह कर सकते हैं।</span></span></div>
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<br /></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">आप रात्रि को शयनखंड में जाने पर और सुबह उठते समय ऐसा चिंतन करेंगे तो आपके जीवन में रोज रामनवमी होने लगेगी अर्थात् आपके हृदय में रामजी का प्राकट्य होने लगेगा।</span></span></div>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<br />
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI"><b>दृष्टि बदलकर देखिए मंदिर मस्जिद में फर्क नहीं</b></span></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">जैसे आकाश ने सबको घेरा हुआ है</span>, <span lang="HI">जैसे जीवन की ऊर्जा सभी में व्याप्त है</span>, <span lang="HI">वैसे ही कण- कण</span>, <span lang="HI">चाहे पदार्थ का हो</span>, <span lang="HI">चाहे चेतना का</span>, <span lang="HI">परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है। कृष्ण इस सूत्र में अर्जुन से कह रह हैं कि मेरे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।</span></span></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">पहले इस मौलिक धारणा को समझ लें</span>, <span lang="HI">फिर हम सूत्र को समझें। जैसा हम देखते हैं</span>, <span lang="HI">तो सभी चीजें अलग-अलग मालूम पडती हैं। कोई एक ऐसा तत्व दिखाई नहीं पड़ता</span>, <span lang="HI">जो सभी को जोड़ता हो। जब हम देखते हैं</span>, <span lang="HI">तो माला के गुरिए ही दिखाई पड़ते हैं। वह माला के भीतर जो पिरोया हुआ सूत का धागा है</span>, <span lang="HI">जो उन सबकी एकता है</span>, <span lang="HI">वह हमारी आंखों से ओझल रह जाता है।</span></span></div>
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<br /></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">जब भी हम देखते हैं</span>, <span lang="HI">तो हमें खंड दिखाई पड़ते हैं</span>, <span lang="HI">लेकिन अखंड का कोई अनुभव नहीं होता। यह अखंड का जब तक अनुभव न हो</span>, <span lang="HI">तब तक परमात्मा की कोई प्रतीति भी नहीं है। इसीलिए हम कहते हैं कि परमात्मा को मानते हैं</span>, <span lang="HI">मंदिर में श्रद्धा के फूल भी चढ़ाते हैं</span>, <span lang="HI">मस्जिद में उसका स्मरण भी करते हैं</span>, <span lang="HI">गिरजाघर में उसकी स्तुति भी गाते हैं। लेकिन फिर भी वह परमात्मा</span>, <span lang="HI">जिसके चरणों में हम सिर झुकाते हैं</span>, <span lang="HI">हमारे हृदय के भीतर प्रवेश नहीं कर पाता है।</span></span></div>
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<br /></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">आश्चर्य की बात कि हम जिस अखंड की खोज में मंदिर और मस्जिद और गुरुद्वारे में जाते हैं</span>, <span lang="HI">हमारा मंदिर</span>, <span lang="HI">हमारा मस्जिद</span>, <span lang="HI">हमारा गुरुद्वारा भी हमें खंड-खंड करने में सहयोगी होते हैं। हम मंदिर और मस्जिद के बीच भी एक को नहीं देख पाते हैं। हिंदू और मुसलमान और ईसाई के पूजागृहों में भी हमें फासले की दीवारें और शत्रुता की आड़े दिखाई पड़ती हैं। मंदिर भी अलग-अलग हैं</span>, <span lang="HI">तो यह पूरा जीवन तो कैसे एक होगा</span>?</span></div>
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<br /></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">मंदिर अलग नहीं हैं</span>, <span lang="HI">लेकिन हमारे देखने का ढंग केवल खंड को ही देख पाता है</span>, <span lang="HI">अखंड को नहीं देख पाता है। तो हम जहां भी अपनी दृष्टि ले जाते हैं</span>, <span lang="HI">वहां ही हमें टुकड़े दिखाई पड़ते हैं। वह समग्र</span>, <span lang="HI">जो सभी को घेरे हुए है</span>, <span lang="HI">हमें दिखाई नहीं पड़ता है। अर्जुन की भी तकलीफ वही है।</span></span></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">उसे भी अखंड का कोई अनुभव नहीं हो रहा है। उसे दिखाई पड़ता है</span>, <span lang="HI">मैं हूं। उसे दिखाई पड़ता है</span>, <span lang="HI">मेरे मित्र हैं</span>, <span lang="HI">प्रियजन हैं शत्रु हैं। उसे दिखाई पड़ता है</span>; <span lang="HI">सिर्फ एक</span>, <span lang="HI">जो सभी के भीतर छिपा हुआ है</span>, <span lang="HI">वह भर दिखाई नहीं पड़ता है। इसलिए कृष्ण और अर्जुन के बीच जो चर्चा है</span>, <span lang="HI">वह दो दृष्टियों के बीच है।</span></span></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">अर्जुन खंडित दृष्टि का प्रतीक है और कृष्ण अखंडित दृष्टि के। कृष्ण समग्र की (दि होल) वह जो पूरा है</span>, <span lang="HI">उसकी बात कर रहे हैं और अर्जुन टुकड़ों की बात कर रहा है। शायद इसीलिए दोनों के बीच बात तो हो रही है</span>, <span lang="HI">लेकिन कोई हल नहीं हो पा रहा है। उन दोनों का जीवन को देखने का ढंग ही भिन्न है।</span></span></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">इस सूत्र में कृष्ण अर्जुन को एक-एक बात गिना रहे हैं कि मैं कहां- कहां हूं। इतना ही कहना काफी होता कि मैं सब जगह हूं। इतना ही कहना काफी होता कि सभी कुछ मैं ही हूं। लेकिन यह बात अर्जुन को स्पष्ट न हो पाएगी। अर्जुन को खंड-खंड में ही गिनाना पड़ेगा कि कहां-कहां मैं हूं। शायद उसे खंड-खंड में उस एक की झलक मिल जाए</span>, <span lang="HI">तो खंड खो जाएं और अखंड की प्रतीति हो सके।</span></span></div>
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<br /></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">इसलिए कृष्ण कहते हैं</span>, <span lang="HI">हे अर्जुन</span>, <span lang="HI">निश्चय करने की शक्ति एवं तत्वज्ञान और अमूढ़ता.....।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">ये तीन शब्द बहुत कीमती हैं। निश्चय करने की शक्ति! जैसा हमारे पास मन है</span>, <span lang="HI">अगर हम ठीक से समझें</span>, <span lang="HI">तो हम कह सकते हैं</span>, <span lang="HI">मन है अनिश्चय करने की शक्ति। मन का सारा काम ही यह है कि वह हमें निश्चित न होने दे। मन जो भी करता है</span>, <span lang="HI">अनिश्चय में ही करता है। कोई भी कदम उठाता है</span>, <span lang="HI">तो भी पूरा मन कभी कोई कदम नहीं उठाता। एक हिस्सा मन का विरोध करता ही रहता है।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI"><b>अपनी दृष्टि ज्ञानमय बनाएं</b></span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">जगत कैसा है</span>? <span lang="HI">पहले देखो</span>, <span lang="HI">आपके मन का भाव कैसा है</span>? <span lang="HI">जैसा आपका भाव होता है</span>, <span lang="HI">जगत वैसा ही भासित होता है। सुर (देवत्व का) भाव होता है तो आप सज्जनता का</span>, <span lang="HI">सद्गुण का नजरिया ले लेते हैं और आसुरी भाव होता है तो आप दोषारोपण का नजरिया ले लेते हैं। जिस एंगल से फोटो लो वैसा दिखता है। जगत में न सुख है न दुःख है</span>, <span lang="HI">न अपना है न पराया है। आप राग से लेते हैं</span>, <span lang="HI">द्वेष से लेते हैं कि तटस्थता से लेते हैं। आप जैसा लेते हैं ऐसा ही जगत दिखने लगता है।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">कोई भी जगत का व्यवहार किया जाता है तो उसे सच्चा समझकर चित्त को उससे विह्वल न करो</span>, <span lang="HI">नहीं तो आसुरी वृत्ति हो जायेगी</span>, <span lang="HI">शोक हो जायेगा</span>, <span lang="HI">दुःख हो जायेगा। अच्छा होता है तो उसका अहंकार न करो। हो-होके बदलनेवाला जगत है</span>, <span lang="HI">यह द्वैतमात्र है- या तो सुख या तो दुःख। इन दोनों के बीच का तीसरा नेत्र खोलो ज्ञान का। आध्यात्मिकता की पराकाष्ठा है ज्ञानमयी दृष्टि करना- सुख में भी न उलझना</span>, <span lang="HI">दुःख में भी न उलझना।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">न खुशी अच्छी है</span>, <span lang="HI">न मलाल अच्छा है।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">यार तू अपने-आपको दिखा दे</span>, <span lang="HI">बस वो हाल अच्छा है॥</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">प्रभु! तू अपनी चेतनता</span>, <span lang="HI">अपनी सत्यता</span>, <span lang="HI">अपनी मधुरता दे।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">दायां-बायां पैर पगडण्डी पर</span>, <span lang="HI">सीढ़ियों पर रखते-रखते देव के मंदिर में पहुंचते हैं</span>, <span lang="HI">ऐसे ही सुख-दुःख</span>, <span lang="HI">लाभ-हानि</span>, <span lang="HI">जीवन-मृत्यु इनको पैरों तले कुचलते-कुचलते जीवनदाता के स्वरूप का ज्ञान पाना चाहिए</span>, <span lang="HI">उसी में विश्रांति पानी चाहिए</span>, <span lang="HI">उसी में प्रीति होनी चाहिए।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">हम अच्छे बुरे या हां ना में उत्तर देते हैं। यह सब ज्ञान के कारण होता है। यह है इन्द्रियों का ज्ञान। इन्द्रियों की गहराई में मन का ज्ञान। मन की गहराई में बुद्धि का ज्ञान। लेकिन इन्द्रियां</span>, <span lang="HI">मन और बुद्धि में ज्ञान कहां से आता है</span>? ‘<span lang="HI">मैं</span>’ <span lang="HI">से। </span>‘<span lang="HI">मैं</span>’ <span lang="HI">माना वही चैतन्य</span>, <span lang="HI">जहां से </span>‘<span lang="HI">मैं</span>’ <span lang="HI">स्फुरित होता है। सबको </span>‘<span lang="HI">मैं</span>’ <span lang="HI">चाहिए। जहां से </span>‘<span lang="HI">मैं</span>’ <span lang="HI">उठता है उस चैतन्य का सुख चाहिए। है न! कोई बोलता है: </span>‘‘<span lang="HI">मैं हूँ</span>, <span lang="HI">तुम नहीं हो।</span>’’ <span lang="HI">तो क्या आप मानोगे</span>?</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">आप बोलोगे: </span>‘‘<span lang="HI">मैं भी हूँ। मैं कैसे नहीं हूं</span>? <span lang="HI">मैं हूं तभी तुम हो। मैं हूं तभी तुम दिखते हो।</span>’’ ‘<span lang="HI">मैं</span>’ <span lang="HI">ही मेरे में तृप्त है। </span>‘<span lang="HI">मैं</span>, <span lang="HI">मैं</span>, <span lang="HI">मैं</span>, <span lang="HI">मैं...</span>’ <span lang="HI">ये आकृतियाँ अनेक हैं</span>, <span lang="HI">अंतःकरण अनेक हैं लेकिन </span>‘<span lang="HI">मैं</span>’ <span lang="HI">की सत्ता एक है। उसी </span>‘<span lang="HI">मैं</span>’ <span lang="HI">में आराम पाओ। गहरी नींद में आप अपने </span>‘<span lang="HI">मैं</span>’ <span lang="HI">में ही तो जाते हो</span>, <span lang="HI">और क्या है</span>?</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">उस मूल ज्ञान को </span>‘<span lang="HI">मैं</span>’ <span lang="HI">के रूप में जान लिया तो आपका तो काम हो गया</span>, <span lang="HI">देवत्व प्रकट हो गया लेकिन आपकी वाणी सुननेवाले को भी महापुण्य होगा।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">एक घड़ी आधी घड़ी</span>, <span lang="HI">आधी में पुनि आध।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">तुलसी संगत साध की</span>, <span lang="HI">हरे कोटि अपराध॥</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">सुख देवें दुःख को हरें</span>, <span lang="HI">करें पाप का अंत।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">कह कबीर वे कब मिलें</span>, <span lang="HI">परम सनेही संत॥</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI"><b>उन्नति और मन की शुद्घता की शुरूआत करें भोजन से</b></span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI"><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भोजन सिर्फ पेट भरने और शरीर को पालने के लिए नहीं करना चाहिए। भोजन का उद्देश्य भी सिर्फ इतना ही नहीं है कि आप अपने उदर की ज्वाल को शांत करें और तृष्ण की पूर्ति करें। भोजन करते समय अगर आप कुछ बातों का ध्यान रखेंगे तो स्वास्थ्य उत्तम रहेगा। मन में उठने वाले बुरे विचारों में कमी आएगी और आत्म उन्नति का रास्ता सरल होगा।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">उन्नति सिर्फ बड़ी-बड़ी नौकरी पाना या बड़ा बिजनेसमैन बन जाना नहीं है। उसली उन्नति व्यवहार और आत्मा की सद्गति है। इसकी शुरूआत आप भोजन के दौरान कर सकते हैं। इसके लिए सबसे पहले जरूरी है कि आपका भोजन शुद्घ हो। गीता में भी कहा गया है कि उत्तम मुनष्य को बासी</span>, <span lang="HI">दूषित और मन को विचलित करने वाले आहार से बचना चाहिए। इसलिए पवित्र भोजन ग्रहण करें।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI"><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब भोजन करने बैठें तो अपने भोजन का कुछ भाग अलग निकालकर रख लीजिए। वैसे तो नियम है कि अग्नि में आहुति देकर गउ ग्रास निकाल लें। आस-पास में अगर कोई भूखा व्यक्ति बैठा है तो उसका भी ध्यान रखें। भोजन करते समय उसकी तरफ देखते हुए यह सोचें कि यह मेरे भगवान का प्रसाद है। प्रसाद हमेशा मिलजुल कर ग्रहण करना चाहिए।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI"><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मेरे परमात्मा ने जो कृपापूर्वक आज मुझे अन्न दिया है मैं उसका ध्न्यवाद करूं। भोजन करते समय कभी किसी प्रकार की शिकायत नहीं कीजिए। भोजन करने के दौरान मन पर किसी प्रकार का बोझ न लादें। प्रसन्न रहें। भगवान का आभार प्रकट करते हुए भोजन ग्रहण करें।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">भोजन करते समय एक बात का ख्याल अवश्य रखें कि आप जो भोजन कर रहे हैं वह कैसे प्राप्त हुआ है। आप यह भी सोचें कि मेरी कमाई पवित्र है या चालाकी की।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI"><b>अपने शरीर को जानिए और स्वस्थ रहिए</b></span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">आप ऐसा न समझें कि उच्च-रक्तदाब सिर्फ बूढ़ों की ही बीमारी है। यह तो एक अजीब सी अज्ञानता है। आज के समय में यह बीमारी सब से ज़्यादा </span>20<span lang="HI"> से </span>40<span lang="HI"> साल के व्यक्तियों को हो रही है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि </span>100<span lang="HI"> में से </span>90<span lang="HI"> प्रतिशत मामलों में ब्लडप्रेशर का कोई लक्षण भी नहीं दिखता है।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">होता क्या है कि</span>, <span lang="HI">कभी किसी दिन ब्लड प्रेशर नापा जाए और वह सामान्य से ज़्यादा हो और संजोग से उस दिन आपका सिर भी दुःख रहा हो</span>, <span lang="HI">तो आप उसका कनेक्शन ब्लडप्रेशर के साथ बना लेते हो कि</span>, <span lang="HI">इसी कारण मेरा सिर दुःख रहा है।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">जबकि सिर दुखने के कोई और कारण भी हो सकते हैं। जैसे माइग्रेन होने से या रात को ठीक से नींद न आने से और सब से बड़ा कारण है चिंता। किसी ने तुम्हारे अहंकार को चोट पहुँचायी</span>, <span lang="HI">तो तुम अंदर ही अंदर कुलबुला जाते हो। इस कुलबुलाहट का नतीजा है सिर दुखना।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">क्या आप यह जानते हैं कि अगर आपको कब्ज़ हो</span>, <span lang="HI">तब भी सिर-दर्द होता है</span>? <span lang="HI">अब तुम कहोगे कि भला सिर-दर्द का कब्ज़ से क्या लेना-देना</span>? <span lang="HI">जबकि कब्ज का इससे बड़ा गहरा लेना-देना है। अगर आपकी आंतों में मल फंसा हुआ है तो... जैसे तुम्हारी किचन के कूड़ेदान में तुम कूड़ा डालते जाओ और उसे बाहर नहीं फेंको</span>, <span lang="HI">तो गरमी की वजह से अगले दिन उसमें से सड़ांध उठनी शुरू हो जाती है।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">अब आप ज़रा सोचिए! सड़ांध आ रही हो और फिर भी आप कूड़ा बाहर न फेंको</span>, <span lang="HI">तो बदबू बढ़ जाने से बंदा बेहोश हो कर गिर भी सकता है। तुमने सुना होगा कि म्युनिसिपालिटी के कुछ-एक कर्मचारियों ने सीवरेज का ढक्कन खोला और खोलते ही उसमें से निकल रही भयंकर गैस के कारण वे कर्मचारी मर गये। सीवरेज-लाइन में मनुष्यों की विष्ठा के कारण ऐसी ज़हरीली गैसें बनती जाती हैं</span>, <span lang="HI">जिससे आदमी मर सकता है।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">यही काम हमारे शरीर में भी होता है। मल जब आंतों में पड़ा-पड़ा सड़ जाता है</span>, <span lang="HI">तो अंदर से सड़ांध उठती है। इसी सड़ांध से सिर दुःखता है</span>, <span lang="HI">जी घबराता है</span>, <span lang="HI">दिल कच्चा होता है</span>, <span lang="HI">वमन की भावना होने लगती है। मैंने ऐसे भी कई लोग देखे हैं</span>, <span lang="HI">जिनको शौच न लगे</span>, <span lang="HI">तो भी कोई फिक्र नहीं लगती। दो दिन नहीं होगी</span>, <span lang="HI">तो भी कहते </span>‘<span lang="HI">कोई बात नहीं</span>, <span lang="HI">चलता है।</span>’ <span lang="HI">तीसरे दिन भी न हो</span>, <span lang="HI">तो कहते </span>‘<span lang="HI">चलो</span>, <span lang="HI">अब कुछ ले ही लें।</span>’ <span lang="HI">जो खाया-पीया है</span>, <span lang="HI">वही अभी बाहर नहीं निकला</span>, <span lang="HI">ऊपर से और खाते जाते हैं।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">उनका खाने का प्रोग्राम तो चलता ही रहता है</span>, <span lang="HI">वह तो बंद होता नहीं। हर </span>4<span lang="HI"> घण्टे में भूख लग जाती है। हर </span>6<span lang="HI"> घण्टे में चाय-कॉफी चाहिये। अगर आपके शरीर का सिस्टम ठीक नहीं है</span>, <span lang="HI">तो चाय आपको और भी कब्ज़ कर देगी। माने तुम कब्ज़ को और पक्का कर रहे होते हो। चाय पीकर तुम उस पर सीमेंट लगा लेते हो कि </span>‘<span lang="HI">बाहर आना ही मत</span>, <span lang="HI">अंदर ही बैठे रहना!</span>’ <span lang="HI">जो मल तुम्हारी आंतों में फंसा रहता है</span>, <span lang="HI">वह जितना सड़ता जाता है</span>, <span lang="HI">उतनी पेट में ज़हरीली गैस बनती जाती है।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">इसी गैस के कारण पूरा पाचन तंत्र ख़राब हो जाता है। डकारें आने लगती हैं</span>, <span lang="HI">सिर दुखने लगता है। बहुत बार इसी को तुम कहते हो कि मुझे ज़रूर ब्लडप्रेशर है। ब्लडप्रेशर का और सिर दुखने का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। ब्लडप्रेशर से सिर तो चकरा सकता है</span>, <span lang="HI">पर सिर दुख नहीं सकता। सिर चकराने के भी और दस कारण हो सकते हैं। लेकिन ब्लडप्रेशर के उतार-चढ़ाव के अपने कोई विशेष लक्षण नहीं होते हैं।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">इसलिए ब्लडप्रेशर की जांच तो होती रहनी चाहिए</span>, <span lang="HI">हालांकि सुबह-शाम ब्लडप्रेशर नापने की मशीन लेकर बैठना भी उचित नहीं है। अपने शरीर के सिस्टम को समझना यह आपकी मुख्य जि़म्मेदारी होनी चाहिये। आपके शरीर में जो कुछ दिक्कतें आ रही हो</span>, <span lang="HI">उन दिक्कतों को आप ख़ुद ही कैसे ठीक कर सकते हैं इसका ज्ञान होना भी ज़रूरी है।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span lang="HI"><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI"><b>कितना महत्वपूर्ण है हमारे शरीर में मौजूद प्राण</b></span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">प्राण-ऊर्जा पाँच प्रकार की होती है: अपान</span>, <span lang="HI">व्यान</span>, <span lang="HI">उदान</span>, <span lang="HI">समान और प्राण। मनुष्य के पूरे शरीर का संचालन इसी प्राण-उर्जा से हो रहा है। इस प्राण-ऊर्जा के सम्बन्ध में एक पुरातन वैदिक कथा कई उपनिषदों में आयी है। मन</span>, <span lang="HI">श्वास</span>, <span lang="HI">प्राण</span>, <span lang="HI">वाणी</span>, <span lang="HI">श्रोत्रा और नेत्र ये पाँच इन्द्रियाँ और प्राण एक बार आपस में बहस करने लगे कि उनमें से कौन सर्वश्रेष्ठ और सब से महत्त्वपूर्ण है।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">इस झगड़े से निवृत्त होने के लिये उन्होंने निर्णय लिया कि एक-एक करके हर शक्ति शरीर को छोड़े और यह देखा जाये कि किसकी अनुपस्थिति सब से ज़्यादा महसूस होती है। सब से पहले वाणी ने शरीर का साथ छोड़ा</span>, <span lang="HI">परन्तु मौन हो जाने पर भी शरीर तो चलता ही रहा।</span></span></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">फिर इसके बाद दृष्टि यानी देखने की शक्ति ने शरीर का साथ छोड़ दिया। लेकिन अन्धा होने के बावजूद भी शरीर का कार्य बंद नहीं हुआ। इसके पश्चात् श्रवण शक्ति के साथ छोड़ने पर शरीर बहरा तो हो गया</span>, <span lang="HI">परन्तु उसका कार्य तो फिर भी चलता रहा। मन के साथ छोड़ने पर शरीर तो अचेत हुआ</span>, <span lang="HI">परन्तु वह अभी भी बना रहा।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">आखि़र में जैसे ही प्राण-ऊर्जा ने साथ छोड़ना शुरू किया</span>, <span lang="HI">तब शरीर मरने लगा और उसकी अन्य सभी इन्द्रियाँ भी अपनी शक्ति खोने लगी। तब वह सभी शक्तियाँ प्राण-ऊर्जा के पास दौड़ीं और उसे शरीर में रहने के लिये उन्होंने मना लिया और उसके सर्वश्रेष्ठ होने की घोषणा की।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">प्राण ही देह और इन्द्रियों की सभी क्षमताओं को शक्ति देता है। इसके बिना वे क्षमताएँ कार्यान्वित नहीं हो सकतीं। प्राण-उर्जा के बिना हम कुछ नहीं कर सकते। इस कहानी का तात्पर्य यह है कि अपनी अन्य क्षमताओं पर नियंत्रण पाने के लिये हमारा </span>‘<span lang="HI">प्राण</span>’ <span lang="HI">पर प्रभुत्व पाना अत्यंत आवश्यक है।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">प्राण कई स्तरों पर कार्य करता है और श्वास से लेकर स्वयं चैतन्य-शक्ति तक सभी आयामों में यह संलग्न रहता है। प्राण केवल आधरभूत जीवन-शक्ति ही नहीं है</span>, <span lang="HI">बल्कि मन और शरीर के तल पर कार्य करने वाली उर्जा का भी यह मौलिक स्वरूप है। असल में मौलिक सर्जन-शक्ति से निर्मित यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड इस प्राण की ही अभिव्यक्ति है। यहाँ तक कि चेतना को परिवर्तित करने वाली कुण्डलिनी या आत्मिक शक्ति भी इसी जागृत प्राण से विकसित होती है।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">वैश्विक तल पर प्राण के दो मौलिक स्वरूप हैं। पहला प्राण का वह अप्रकट़ रूप है</span>, <span lang="HI">जो सम्पूर्ण सृष्टि से बढ़कर शुद्घ चैतन्य की शक्ति है</span>, <span lang="HI">जो सर्व उत्पन्न जगत् से परे है। प्राण का दूसरा या प्रकट रूप स्वयं सृजनात्मकता का स्रोत है। प्रकृति की क्रियात्मक प्रवृत्ति से माने रजोगुण से प्राण उत्पन्न होता है।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">प्रकृति तीन गुणों से मिल कर बनी है। एक है </span>‘<span lang="HI">सत्त्वगुण</span>’ <span lang="HI">या समन्वय की वृत्ति</span>, <span lang="HI">जिससे हमारा मन बना। दूसरा है </span>‘<span lang="HI">रजोगुण</span>’ <span lang="HI">या क्रियाशीलता</span>, <span lang="HI">जिससे प्राण उत्पन्न हुआ। और तीसरा है </span>‘<span lang="HI">तमोगुण</span>’ <span lang="HI">या जड़ता</span>, <span lang="HI">निष्क्रियता</span>, <span lang="HI">जिससे यह स्थूल शरीर बना है।</span></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">निश्चय ही यह तर्क दिया जा सकता है कि मुख्यतः प्रकृति प्राणमय या रजोगुणात्मक होती है। प्रकृति शक्ति है</span>, <span lang="HI">उर्जा है। जब यह ऊर्जा उच्च आत्मिक या शुद्घ चैतन्य की ओर</span>, <span lang="HI">माने परम पुरुष की ओर आकर्षित होती है</span>, <span lang="HI">तब यही ऊर्जा सात्त्विक हो जाती है। अज्ञान की जड़ता के कारण यही ऊर्जा तामसिक हो जाती है।</span></span></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI">हमारे स्थूल अस्तित्व से संबंधित जो प्राण या मौलिक उर्जा है</span>, <span lang="HI">यह वायु तत्त्व का ही परिवर्तित रूप है</span>, <span lang="HI">मुख्यतः श्वसन द्वारा जिसे हम भीतर लेते हैं</span>, <span lang="HI">वह ऑक्सीजन ही हमें जीवित रखता है। जैसे वायु आकाश या अवकाश में उत्पन्न् होती है</span>, <span lang="HI">प्राण भी अवकाश में ही उदित होता है और उससे बहुत नजदीकी से जुड़ा रहता है। जहाँ भी हम अवकाश उत्पन्न करते हैं</span>, <span lang="HI">वहीं पर यह प्राण या उर्जा स्वयं ही पैदा हो जाती है।</span> </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"></span></div>
<b><br /></b>
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<div class="_53" id="<1409913310010:1256482340-4066663112@mail.projektitan.com>">
<div class="_3hi clearfix">
<div class="_38 direction_ltr">
<span class="null"><b>आखिर मनुष्य के लिए धर्म की जरूरत क्यों है?</b><br />सबसे पहले यह सवाल उठता है कि धर्म क्या है। क्योंकि धर्म को जाने बिना हम उसकी जरुरत को नहीं समझ सकते। तो चलिए सबसे पहले धर्म को ही ढूंढते हैं। ढूंढना इसलिए पड़ रहा है क्योंकि अब धर्म के ऊपर संप्रदाय के इतने आवरण चढ़ा दिए गए हैं कि धर्म भी खुद को नहीं पहचान पा रहा है कि वह कौन है और उसका वास्तविक स्वरूप क्या है।<br /><br />अब चुकि हम धर्म का अर्थ ढूंढने निकले हैं तो सबसे पहले महाभारत युद्ध समाप्त होने के बाद की वह घटना याद आती है जब युधिष्ठिर भीष्म से ज्ञान लेने आते हैं और पूछते हैं कि, धर्म क्या है? भीष्म साफ शब्दों में समझते हैं: धारणात् धर्म इत्याहुः धर्मों धारयति प्रजाः। यः स्यात् धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः।। यानी जो धारण करता है, एकत्र करता है, अलगाव को दूर करता है, वह ‘‘धर्म’’ हैं।<br /><br />इसे साफ अर्थो में जानें तो जो मानव को, मानवता को, समाज को और राष्ट्र को आपस में जोड़े वही धर्म है। जो मनुष्य को अधोगति में जाने से बचाए वही धर्म। इसके विपरीत जो भी है वह धर्म नही है यानी जो एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से लड़ाए वह अधर्म है। महर्षि व्यास ने पुराणों का सार बताते हुए नारद से कहा है 'परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम्।' यानी दूसरों की सहायता करना पुण्य है, धर्म है और किसी भी प्राणी को सताना, कष्ट पहुंचाना पाप यानी अधर्म है।<br /><br />लेकिन धर्म को इन परिभाषाओं में बांधकर नहीं रखा जा सकता है। वास्तव में धर्म इससे कहीं व्यापक है। धर्म एक मार्गदर्शक है, गुरू है, अंधे की आंख, कमजोर की लाठी, ताकवर का डर और ज्ञानियों का ज्ञान है जो उन्हें सही राह पर चलना सीखता है। जिस मनुष्य को सही राह पर चलना आ गया है वास्तव में उनके लिए तो किसी धर्म की जरूरत ही नहीं है। लेकिन मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक अहंकार, लोभ, अभिमान और मोह के बंधन में बंधा रहता है। इसलिए मनुष्य में मनुष्यता को बनाए रखने के लिए धर्म की आवशयकता है। धर्म के नहीं होने पर मनुष्य आसमान में भटकते दिशाहीन बादलो की तरह नष्ट हो जाएगा। मनुष्य को नष्ट होने से बचाने के लिए ही धर्म की आवशयकता है।<br /><br />भीष्म ने धर्म को धारण करने वाला बताया है इस एक शब्द से भी मुनष्य के लिए धर्म की आवश्यकता को समझा जा सकता है। धारण करने से अर्थ है अपने में समेट लेना जैसे आप वस्त्र धारण करते हैं तो उसे अपने ऊपर समेट लेते हैं, आप उस वस्त्र के हो जाते हैं और वस्त्र आपका हो जाता है। यह आपके शरीर की खामियों को छुपा लेता है।<br /><br />धर्म भी उसी प्रकार है आपके मन के अंदर कई तरह की खामियां हैं, कितने ही दूषित विकार हैं धर्म उन सभी को ढंक कर आपके वयक्तित्व और चरित्र को उभारने की प्रेरणा देता है। जब आपको लगने लगे कि आपके अंदर की खामियां आप पर हावी होने लगी हैं तो समझ लीजिए आप धर्म से दूर जा रहे हैं और उस वक्त आपको धर्म के बारे में सोचना चाहिए और अपने धर्म को पहचान कर अपनी दिशा बदल लेनी चाहिए ताकि आप अपने धर्म को जी सकें।</span></div>
<div class="_1yr">
<span class="_2oy"></span></div>
</div>
</div>
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<b>जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,<br />और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....</b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><span lang="HI" style="line-height: 18.4px;"> </span><b><span style="line-height: 18.4px;">मनीष</span></b></span></div>
Jai Guru Geeta Gopalhttp://www.blogger.com/profile/01621836960274288942noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6101091264294453966.post-36963655074177513942020-01-21T23:53:00.000-08:002020-01-21T23:53:53.851-08:00जीवन जीने की राह (Jeevan Jeene Ki Rah1)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>श्रेष्ठता एकांत में ही जन्म लेती है</b></span><br />
<div class="MsoNormal" style="color: black; font-style: normal; letter-spacing: normal; text-align: left; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<div class="MsoNormal">
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब भी कोई मनुष्य अपने भीतरीपन को समझ लेता है, अपने एकांत से ठीक से गुजर जाता है तब उसके जीवन में श्रेष्ठ जन्म ले लेता है। हनुमानजी के साथ ऐसा ही हुआ था। वे आंखें बंद करके बैठे थे, चूंकि वानरों ने तय कर लिया था कि लंका अब सिर्फ हनुमान ही जा सकते हैं और इसीलिए जामवंत हनुमानजी को समझाते हैं- ‘पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।। कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं।। हनुमानजी को बल, बुद्धि, विवेक से जोड़ते हुए कहा गया है कि संसार का ऐसा कोई काम नहीं, जो वे नहीं कर सकते।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सबसे चौंकाने वाली बात यह कि हनुमानजी के लिए विज्ञानी लिखा है। उनका काम करने का तरीका बहुत वैज्ञानिक था। आज के समय में विज्ञान और धर्म पीठ करके खड़े हो जाएं यह ठीक नहीं है। धर्म को भी विज्ञान की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी विज्ञान को धर्म की होनी चाहिए। दोनों कुछ मामलों में असहमत भी हैं और बहुत कम मामलों में सहमत हैं, लेकिन एक-दूसरे के बिना दोनों का काम भी नहीं चलता। अगर विज्ञान का महत्व धर्म में समझना हो तो हनुमानजी की जीवनशैली से समझा जा सकता है। एकांत धर्म का मामला है, सार्वजनिक गतिविधियां विज्ञान से जुड़ी हैं। वैज्ञानिक शोध सबको परिणाम मिले इसलिए होते हैं।</span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">धर्म और अध्यात्म कहता है पहले एकांत से स्वयं को साधो, सक्षम बनो, फिर संसार में उतरो। श्रेष्ठता जब भी जन्मेगी, एकांत में ही जन्मेगी और इसके लिए एकांत साधना पड़ेगा। एकांत साध चुके हनुमानजी को जामवंत ने कहा कि आपने भीतर जो अध्यात्म पाया है अब उसका उपयोग बाहर ऐसे करिए जैसे विज्ञान का किया जाता है। इस संतुलन को हम भी जीवन में बनाए रखें तो हमारी सफलता शांति देकर जाएगी।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>बाल मन व ममता से काबू होते हैं दुर्गुण<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शेर को कुश्ती लड़कर न तो काबू में किया जा सकता है, न मारा जा सकता है। इसलिए यदि हिंसक जानवरों, कुछ हिंसक परिस्थितियों को जीतना हो तो ऐसी शैली अपनानी पड़ेगी जो दिखेगी तो गलत पर होगी सही। जब शेर का शिकार किया जाता है तो बहुत काम छुपकर होता है। मानवीय दृष्टिकोण से यह धोखा है, लेकिन व्यावहारिक बात यह है कि ऐसा किए बिना कोई व्यवस्था चलाई भी नहीं जा सकती। इसको अपने जीवन से जोड़कर देखें तो दुर्गुण हिंसक पशु की तरह हैं, जो कभी भी हम पर आक्रमण कर सकते हैं।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कुछ दुर्गुण ऐसे हैं, जिनके लिए हमें अभयारण्य बनाना पड़ेगा। अहंकार एक ऐसा दुर्गुण है जिसे मारा न जाए, क्योंकि इसमें जोश भी भरा है। क्रोध भी ऊर्जा का काम है। पर ये दुर्गुण जब आप पर आक्रमण करें और आप सोचे कि इनसे सीधे-सीधे निपट लें तो बिल्कुल शेर से कुश्ती लड़ने वाली बात होगी। कोशिश यह की जाए कि इन्हें एक जगह सुरक्षित रख दें, देखें, आनंद लें। इसके लिए थोड़ा छल करना पड़ेगा। हिंदू संस्कृति में भगवान विष्णु पालनकर्ता माने गए हैं। जब भी उन्होंने देखा कि सामने स्थितियां बहुत बिगड़ी हुई हैं खासकर दैत्यों के सामने तो उन्होंने छल से कई रूप रखे। स्त्री और बच्चे बनने में तो विष्णुजी ने कई कथाएं रच दीं। उनका यह चरित्र समझाता है कि दुर्गुणों का सामना करने के लिए हमें स्त्रैण चित्त और बालमन की जरूरत पड़ती है।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बालमन शुद्ध होता है और स्त्रैण चित्त में ममता होती है। ये दोनों दुर्गुणों को रोकने में बड़े काम आएंगे। इसके लिए कोई बड़ा आंदोलन नहीं चलाना है, बस भीतर की तैयारी ऐसी करें और समय के अनुसार उन विधियों को अपनाएं, इसलिए बहुत ही समझदारी, सावधानी और जरूरत पड़े तो छल के साथ दुर्गुणों के आक्रमण को रोकना ही होगा।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>विचारशून्यता में किया कार्य सुंदर होगा<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारे किए गए कार्यों का महत्व इसमें भी है कि कार्य संपन्न होने पर उसका अच्छापन सामने आए, उसकी निर्दोषिता दिखे और लोग प्रशंसा करें। इसी में उस कर्म की स्वीकृति है। इसके लिए अपनी क्रियाशक्ति में ओज और तेज भरना होगा। हर काम को बड़े अच्छे ढंग से पूरा कीजिए। अध्यात्म में सुंदर शब्द है- गौरव की कसौटी पर कसकर हर कृत्य को पूरा करें। इसमें जो सर्वश्रेष्ठ है उसे परखा जाएगा।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सीधी भाषा में कहें तो रोज परीक्षा देनी है इस भाव से काम कीजिए। पूरी तन्मयता लानी पड़ेगी तब काम पूरा होगा। अपना प्रत्येक कार्य परिपक्व और प्रशंसा के योग्य चाहते हैं तो कामों की प्राथमिकता तय करें। जिस काम को विशेष आवश्यकता की श्रेणी में लेना है उसे सुबह से ही ले लें और जुट जाएं। ध्यान रखिए, हमने जो तय किया है उसमें लोगों, परिस्थितियों, वक्त की और कई प्रकार की अन्य अड़चनें आ सकती हैं। एक बाधा और आती है वह है हमारी निजी स्वस्ति। हमारे भीतर कोई एक चीज है, जो हमें गड़बड़ा देगी। इस पर नियंत्रण पाते हुए काम में जुट जाएं। यदि एक प्रयोग करेंगे तो आपका प्रत्येक कार्य प्रशंसनीय हो जाएगा। दिनभर में एक-दो घंटे या इससे ज्यादा ऐसा समय निकालिए, जो थॉटलेस टाइम यानी विचारशून्य अवधि होगी। उस दौरान पूरी तरह विचारशून्य हो जाएं।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तय कर लीजिए कि दो घंटे विचारशून्य रहेंगे, केवल कृत्य करेंगे। मान लें कि हम मशीन हैं किसी के हाथ की, कोई परमशक्ति हमसे कृत्य करा रही है। बस, यह विचारशून्यता आपके कृत्य को इतना सुंदर बना देगी कि फिर उसको प्रशंसा मिलनी ही है। धीरे-धीरे यह अभ्यास बढ़ाते रहिए। विचारशून्य होने का मतलब है काम के प्रति लापरवाह नहीं होना, बिना चिंतन के कुछ नहीं करना। विचारों को रोककर जब कोई कृत्य किया जाता है तो परिणाम शुभ मिलते ही हैं।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>भीतरी शक्ति का संग्रहण व उपयोग सीखें<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परमात्मा ने जन्म से ही हमारे भीतर शक्ति डाली है। हम उसका कैसा उपयोग करते हैं इस पर हमारा जीवन टिका है। बचपन में इस शक्ति को बचाने और बढ़ाने का काम वे लोग करते हैं, जिन्होंने हमारा लालन-पालन किया हो। दुर्भाग्य से कुछ लोगों को ऐसे अवसर नहीं मिल पाते तो बचपन में उनकी ऊर्जा का उपयोग नहीं हो पाता। किंतु जिनको ठीक से लालन-पालन मिला हो वो जब युवा हो जाएं, तब तरुणाई से ही इस शक्ति का सदुपयोग सीख जाएं।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अवसर न मिले हों, दरिद्रता घेर चुकी हो तब तो वह शक्ति विचलित हो ही जाएगी, लेकिन जिन्हें सारे अवसर, सुख-सुविधाएं मिली हों वे भी शक्ति न बचाएं तो यह मूर्खता होगी। पहचानिए, मानिए और विश्वास कीजिए कि अपने भीतर शक्ति है, जिसे एकाग्रता से और तीव्र बनाना है। तो पहला काम हुआ एकाग्रता, दूसरा उसे ठीक से संग्रहित करना और तीसरा है उपयोग करना। जरा-सी भाप को यदि ठीक से एकाग्र कर लें, तो इंजन चलने लगता है। बंदूक की गोली बहुत छोटी होती हैं, लेकिन ये तीनों क्रियाएं उससे जुड़ी हैं। चिंगारी का स्पर्श मिलते ही चुटकीभर बारूद क्या गजब ढा सकता है।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारे भीतर हमारी शक्ति ऐसी ही बारूद की तरह है। उपयोग करना आना चाहिए। इस शक्ति का संग्रहण मस्तिष्क में कीजिए, क्योंकि मस्तिष्क खुद बहुत बड़ा बिजलीघर है। इसको एकाग्र करना हो तो मन से गुजारिए फिर शरीर से इसका उपयोग, इसका विस्तार कीजिए। इसमें काम आएगा गुरुमंत्र। गुरु एक मंत्र देगा और उस मंत्र को जैसे ही सांस से जोड़ेंगे, आप संग्रहित भी ठीक से करेंगे, एकाग्र भी अच्छे से होंगे और उपयोग तो श्रेष्ठ कर ही पाएंगे। जीवन में कोई गुरु नहीं मिले तो हनुमानजी को गुरु व हनुमान चालीसा को मंत्र बना लीजिए और अपनी शक्ति का अधिकतम सदुपयोग कीजिए।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>अच्छे श्रोता बनने के लिए मेडिटेशन करें<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब सब एक-दूसरे को जीतने में लगे हों, तो लोग इस बात को लेकर बहुत परेशान हो जाते हैं कि कौन से रास्ते अपनाएं? अध्यात्म में बहुत सरल रास्ता है, जिससे जीत-हार का सवाल तो नहीं उठता, लेकिन आप अजातशत्रु यानी जिसका कोई शत्रु न हो, बन जाएंगे। फकीरों ने कहा है, शास्त्रों में लिखा है कि अच्छे श्रोता बन जाइए। यदि गहराई से किसी को सुना जाए तो आप मेडिटेशन से भी गुजर सकते हैं। इस तरह सुनने का व्यावहारिक लाभ यह है कि बोलने वाले के मन में आपके प्रति आदर का भाव जागता है, जो दोनों में निकटता बढ़ाता है और आप उसे अच्छे से जान पाते हैं। हर आदमी वह सबकुछ बोलना चाहता है जो मन में चल रहा होता है।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यदि आप उसे सुन लेते हैं तो उसे बड़ा संतोष मिलता है। ठीक से सुनकर आप उसकी परिस्थिति, उसके व्यक्तित्व पर ठीक से चिंतन कर पाएंगे। आजकल आधुनिक प्रबंधन में जब कोई व्यक्ति संस्थान छोड़कर जाता है तो उसका एग्जिट इंटरव्यू लिया जाता है, ताकि उसे ठीक से सुना जा सके कि वह क्यों जा रहा है और उसमें संस्थान के अनुकूल जो बातें पता चलें, उन्हें लागू किया जा सके। आप भी हर व्यक्ति को एग्जिट इंटरव्यू की तरह सुनें, क्योंकि वह आपके भीतर एंट्री ले रहा होता है। किसी के जाने पर यदि आप गंभीर हैं तो किसी के आने पर भी सावधान रहिए। इसी को नैतिक चर्चा कहेंगे। मतलब यह नहीं है कि सिद्धांत और नीतियों पर ही बात हो।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सामने वाले को ठीक से सुन लेना भी नैतिक चर्चा है। जिस समय आप नैतिकता, गहराई, शांति से सुनते हैं, बोलने वाले को तो प्रसन्नता होती ही है, आपको भी लाभ होगा। अच्छे श्रोता बनने के लिए भीतर से विचारशून्य होना पड़ता है और इसके लिए ध्यान यानी मेडिटेशन जरूर कीजिए।<o:p></o:p></span></div>
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<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>मैं गिरते ही मिल जाते हैं भगवान<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ईश्वर है या नहीं, यह संदेह और बहस का पुराना विषय है। जो मानते हैं कि भगवान होते हैं फिर उनका अगला चरण होता है उन्हें ढूंढ़ा जाए। जिसे कभी देखा न हो, उसे ढूंढ़ना और भी मुश्किल होता है। आइए, समझते हैं कि भगवान को ढूंढ़ने के कौन-कौन से तरीके हो सकते हैं। इसमें हनुमानजी बहुत दक्ष हैं। वे हमारे और भगवान के बीच की कड़ी हैं। उन्हें वे सारे तरीके और सूत्र आते हैं, जिनसे ईश्वर तक पहुंचा जा सकता है।<o:p></o:p></span></div>
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<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किष्किंधा कांड में तुलसीदासजी ने लिखा है,‘राम काज लगि तव अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्वताकारा।<span lang="EN-US">’ </span>जामवंत ने कहा और हनुमानजी पर्वत के आकार के हो गए। पर्वताकार हो जाने का मतलब है हनुमानजी यह जान चुके थे कि मेरा जो कुछ भी लक्ष्य है, रूप है वह परमात्मा को पाने के लिए है। यहां हनुमानजी सिखाते हैं कि जब हम अपने ‘मैं<span lang="EN-US">’ </span>को ठीक से ढूंढ़ लेंगे तो पता चलेगा दरअसल ‘मैं था ही नहीं। वह एक भ्रम था। तो हनुमानजी ने सारी कोशिश अपने ‘मैं को ढूंढ़ने में लगाई। जामवंत ने कुछ कहा तो पर्वताकार हो गए।<o:p></o:p></span></div>
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<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हनुमानजी को समझ में आ गया कि मैं भगवान को ढूंढ़ने के लिए इस संसार में आया हूं। मेरे होने का मतलब ही यह है कि परमात्मा को प्राप्त कर लूं। अगर हम भी प्रतिदिन कुछ समय अपने ‘मैं को ढूंढ़ने में लगाएं तो जैसे ही उसे प्राप्त करेंगे, पाएंगे कि जिसे हम ढूंढ़ रहे थे दरअसल वह तो था ही नहीं। जैसे ही यह समझ हुई कि ‘मैं कुछ होता ही नहीं, यहीं से परमात्मा आरंभ हो जाता है। ‘मैं गिरते ही ‘तू दिखने लगता है। यह कला हमें हनुमानजी ने ही सिखाई। ‘मैं गिराने के लिए सबसे अच्छा साधन होता है योग-ध्यान करना। ‘मैं का निवास मन में होता है और मन तक सही तरीके से पहुंचने का ध्यान से अच्छा और कोई तरीका नहीं हो सकता।<o:p></o:p></span></div>
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<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>मौलिक सोच वालों से ही सलाह लें<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दुनिया में जो चीजें मुफ्त मिलती हैं उनमें से एक है सलाह। यदि आप कोई व्यवसाय या नौकरी कर रहे हों तो कार्यस्थल पर कुछ ऐसे लोग जरूर होंगे जो बिना मांगे सलाह देंगे। तेजी से बदलते वातावरण में हर बात का ज्ञान नहीं हो सकता। ऐसे में कुछ लोग तो चाहिए जो सलाह दें। जैसे खूब पढ़े-लिखे दक्ष लोग पद, धन कम और प्रतिष्ठा कमा लें तो अशांत हो जाएंगे। इसके लिए उन्हेें सलाह लेनी ही पड़ेगी।<o:p></o:p></span></div>
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<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सलाह लेने में कोई बुराई नहीं है पर किसी गलत व्यक्ति से सलाह न लें। दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं। पहले कुएं की तरह और दूसरे टंकी या हौज की तरह। जब आप हौज वाले लोगों से मिलेंगे तो वे नकारात्मक बातें करेंगे। उनकी प्रतिक्रियाएं कुंठा से भरी होंगी, क्योंकि हौज या टंकी में पानी बाहर से लाकर भरा जाता है।<o:p></o:p></span></div>
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<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उपयोग किया जा रहा है संग्रहण के लिए और आप समझ रहे हैं आपने निर्माण किया। कुएं का पानी किसी नदी से चलकर, किसी सागर से बहकर आया होता है, जिसे सामान्य भाषा में झरण कहते हैं। इसमें पृथ्वी के सारे तत्वों ने भूमिका निभाई होगी। जो लोग कुएं की तरह हैं उनके पास एक विचार होगा, गहराई होगी।<o:p></o:p></span></div>
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<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वे जानते हैं कि जो पानी मेरे पास है वह कहीं और से आया है। ऐसे लोगों का ‘मै<span lang="EN-US">’ </span>गिरा हुआ होगा और वे जो सलाह देंगे वह सदैव सकारात्मक और जीवन की गहराई लिए होगी। इसलिए हमेशा उन लोगों का साथ रखिए जो कुएं की तरह गहरे हों, जिनकी झरण खुली हुई हो, जिनमें हमेशा पानी आता हो। कुआं छोटा हो, हौज बड़ा भी हो सकता है इसलिए बात यह नहीं है कि सलाह देने वाला व्यक्ति बड़ा है या छोटा। बात यह है कि वह भीतर से कैसा है। यदि कुटिल है तो नकारात्मक बात कहेगा, यदि सहज-सरल है तो कोई ऐसी बात कह जाएगा जो आपके लिए जीवनभर उपयोगी होगी।<o:p></o:p></span></div>
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<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>अकेलापन नहीं, एकांत देता है भरोसा<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पागल को देखकर मन में सवाल उठता है कि यह पागल हो क्यों गया? ईश्वर न करे आपको पागलखाने जाने का अवसर मिले पर यदि जाएं तो वहां लगे बोर्ड पर कुछ लक्षणों के अंत में यह भी लिखा होता है कि यदि ऐसा है तो आपको अपना मानसिक इलाज कराना चाहिए। हर व्यक्ति पाएगा कि इसमें से 80 प्रतिशत लक्षण उसमें हैं तो क्या वह पागल हो गया? हम कितने पागल हैं यह आपको अकेले में पता लगेगा। अकेले में इतने विचार हमारे भीतर आते हैं कि हम खुद से ही बातें करने लगते हैं।<o:p></o:p></span></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बड़े से बड़ा समझदार व्यक्ति भी स्वयं से बात करता है और सारी सीमाएं लांघ जाता है। अकेले में जो भी बात की हो, जो भी विचार आपके भीतर प्रवेश किए हों, यदि उन्हें सिलसिलेवार कागज पर लिख लें और पढ़ें तो पता चल जाएगा कि आप किस किस्म के पागल हैं। अकेले में हमारी जीवन शक्ति खिसककर मन पर टिक जाती है।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मन को अकेलापन बहुत पसंद है। वह जानता है मेरा मालिक अकेला है और मैं इसे कहीं भी ले जाकर पटक सकता हूं। मन अपना काम शुरू कर देता है और फिर अकेलेपन में हम वो सब हो जाते हैं, जो बाहर नहीं हो पाए। धीरे-धीरे मन का खिलौना बन जाते हैं। लेकिन, जिस मन को अकेलेपन में अच्छा लगता है वही एकांत में डर जाता है। अकेलेपन को एकांत में बदलने के लिए योग करना पड़ता है, अपने भीतर परिपक्वता लानी पड़ती है।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एकांत में यह भरोसा होता है कि आपके अलावा एक परम शक्ति आपके साथ है। अकेलेपन में हम सारा संसार हमारे साथ है, ऐसा मान लेते हैं और अकेलापन पागल कर देता है, इसलिए जितने लोग, जितने विचार आएं, या तो उनको हटा दें या उनसे स्वयं हट जाएं। धीरे-धीरे अकेलापन एकांत में बदलने लगेगा और आप अपने ही पागलपन को पहचान जाएंगे।<o:p></o:p></span></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>सहज स्वीकारें विवाह बाद का बदलाव<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सभी के जीवन में कभी न कभी ऐसा अवसर आता है जब लगने लगता है कि हमारी निजता कहीं खो गई है, मूल स्वभाव खंडित हो गया है। ऐसा अधिकतर लोगों के साथ विवाह के बाद होता है। मुझे कई युगल मिलते हैं, जो अलग-अलग अपनी पीड़ा व्यक्त करते हैं। वह पीड़ा पुरुषों में कम होती है, क्योंकि विवाह के बाद पुरुषों की परिस्थिति तो बदलती है, रहन-सहन बदल जाता है परंतु प्लेटफॉर्म नहीं बदलता। जिस परिवार में वे बड़े हुए हैं, उन्हें उसी परिवार में रहना है।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">विवाह के बाद स्त्रियों के जीवन में चुनौतियां अधिक आती हैं, क्योंकि उन्हें नए परिवेश, नए परिवार के अनुसार ढलना पड़ता है। मायके में रहकर जैसा जीवन गुजारा है वह ससुराल में आकर या तो आहत होता है या अदृश्य हो जाता है। पिछले दिनों एक बहू ने शिकायत की कि इन दिनों जिस प्रकार का पारिवारिक जीवन है, कभी-कभी तो लगता है मेरा मूल स्वभाव ही खो गया है। देखिए, स्थितियों में कोई बदलाव नहीं हो सकता। ऐसे समय सबसे अच्छा तरीका है सबसे पहले स्थिति को अपने रोम-रोम में धन्यवाद भाव से स्वीकार करें। उस स्थिति को अभिशाप न मानते हुए परमात्मा शायद आपकी परीक्षा ले रहा है, ऐसा सोचकर उससे गुजरें। दुख बढ़ाने वाली बातों को सोचना, दोहराना छोड़, अपनी समूची चेतना और स्वभाव को परमात्मा से जोड़िए।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीवन के प्रत्येक पल को प्रसन्नता की कसौटी पर कसें। जब भी कोई विपरीत परिस्थिति आए, सबसे पहले उसे सरल बनाएं, फिर उसमें अपने व्यक्तित्व का सहयोग दें, उसके बाद एक समझ तैयार होगी और फिर पूरी तरह सहज हो जाएंगे। सहज होकर ही इन हालात से निपटा जा सकता है। कष्ट को बार-बार याद करने से वह घटेगा नहीं, उल्टा बढ़ेगा ही।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>बोलने में प्रस्तुति व समय का ध्यान रखें<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बातचीत एक कला है। व्यक्ति और वस्तुओं की पहचान के साथ बच्चे का बोलना शुरू हो जाता है। झंझट शुरू होती है बाद में। जो लोग अधिक बोलते हैं उनके मुंह से कब कोई अप्रिय बात निकल जाए, पता नहीं लगता। ज्यादा बोलने के दो नुकसान हैं। एक तो सामने वाले पर आपकी अच्छी छवि नहीं बनती। दूसरा, हमारी ही मानसिक शक्ति खर्च हो जाती है और कई नुकसान उठाने पड़ सकते हैं। बोलते समय विषय, उसकी प्रस्तुति का क्रम और समय का निश्चित होना बहुत जरूरी है। चलिए, हनुमानजी से सीखते हैं यह कला।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हनुमानजी बड़बोले नहीं हैं, लेकिन वे जानते थे कि वानर निराशा में डूबे हुए हैं। इनके उत्साह को जगाने के लिए ऐसी वाणी बोलनी पड़ेगी, जिसमें बड़बोलापन दिखेगा। कहा, मैं खेल-खेल में इस समुद्र को लांघ सकता हूं। रावण को मारकर त्रिकूट पर्वत उखाड़कर ला सकता हूं। सुनने में अतिशयोक्ति लगती है, लेकिन हनुमानजी इस कला में माहिर थे कि शब्दों का कैसे उपयोग किया जाए। इसके तुरंत बाद उन्होंने जामवंत से विनम्रतापूर्वक प्रश्न पूछा और तुलसीदासजी ने लिखा,‘जामवंत मैं पूंछउं तोही। उचित सिखावनु दीजहु मोही।। हे जांबवान, मैं तुमसे पूछता हूं। मुझे उचित सीख देना कि मुझे क्या करना चाहिए। चूंकि जामवंत श्रीराम की सेना के सबसे वृद्ध सदस्य थे।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हनुमानजी उनके अनुभव का लाभ लेना चाहते थे। लेकिन इसी पंक्ति में हनुमानजी ने ‘उचित<span lang="EN-US">’ </span>भी बोल दिया। उचित शब्द आया है तो लगता है कि क्या जामवंत अनुचित भी बोल सकते थे। हनुमानजी जानते थे कि जामवंत वृद्ध हैं। बातचीत करते हुए बूढ़े लोग कुछ भूल जाते हैं, विषय से भटक जाते हैं। बुढ़ापा सबको आना है। ऐसे लोगों के लिए यह बातचीत शिक्षा है। हम इसकी चर्चा करते चलेंगे।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>योग्य पालक बनना है तो प्राणायाम करें<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कुछ खेल ऐसे होते हैं, जिनमें प्रदर्शन खुलकर करना पड़ता है और कुछ ऐसे होते हैं; जिनमें छुपाना ही उसकी खूबी है। ताश का खेल ऐसा ही होता है। आपकी गोपनीयता आपकी चाल को मजबूत बनाएगी। बच्चों के लालन-पालन में माता-पिता को कभी-कभी ताश के खेल की तरह निर्णय लेने पड़ते हैं।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वर्षों पहले लालन-पालन में संतानों के प्रति माता-पिता आंख बंद करके भरोसा कर सकते थे। चूंकि आज के बच्चे भी चाल चलने में माहिर हैं, तो लालन-पालन अंधेरी गुफा से गुजरने जैसा है। पता नहीं गुफा का मुहाना कब मिले। इस अंधकार को ऐसे प्रकाश से मिटाना होगा, जिसे अध्यात्म में आत्म-प्रकाश कहा है। माता-पिता को सबसे पहले एक प्रयोग खुद पर करना होगा। पिता या माता की भूमिका में अपना पति-पत्नी होना या पुरुष-स्त्री होना बिलकुल अलग रखें, क्योंकि इससे आपके वाइब्रेशन में फर्क आएगा। पुरुष या पति, स्त्री या पत्नी के रूप में तनाव, बेचैनी, निराशा, आवेश और उदासी काम कर रही होती है। ऐसे में जब आप माता-पिता होते हैं और यदि अपने पुरुष या स्त्री, पति या पत्नी होने की स्थिति को नहीं भूलेंगे तो आपके निगेटिव वाइब्रेशन बच्चे लेंगे। अपने आप को इस स्थिति से काटने के लिए उस आत्म-प्रकाश को जगाना पड़ेगा, जिससे लालन-पालन की सुरंग में रोशनी आ जाए, आप अपनी संतानों को ठीक से देख सकें तथा बच्चे भी आपको ठीक से पहचान सकें।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्राणायाम मनुष्य को उसकी काया से काटता है। जब आप देह से हटते हैं तब पुरुष या पति, स्त्री या पत्नी की भूमिका से हटना आसान हो जाता है और आप पिता या माता की भूमिका में आसानी से आ जाते हैं। एक ऐसी भूमिका जो भीतर से प्रसन्नचित्त, आशान्वित और सहज होगी।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>बच्चों के खेल को मस्ती में न बदलने दें<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">राइट और रियलिटी में फर्क देखना हो तो छोटे बच्चों में झांकिए। बचपन में सही और वस्तुस्थिति की समझ नहीं होती। मसलन, यह सही है कि बच्चों के पास बहुत धन है। वे धनाढ्य परिवार में हैं, लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि वह धन का उपयोग वैसा नहीं कर सकते जैसा बड़े लोग कर रहे होंगे। अधिकतर बच्चे सनकी और जिद्दी इसीलिए हो जाते हैं। हर बच्चा अपने साथ मूल स्वभाव लेकर आता है।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पुनर्जन्म मानने वाली हिंदू संस्कृति तो कहती है कि हर जन्म में पूर्व जन्म के संस्कार भी आते हैं। जो इसे नहीं मानते वे भी सहमत हैं कि जन्म-पूर्व समय में माता-पिता का आचरण भी बच्चों का स्वभाव बन जाता है। उस मूल स्वभाव को मिटाया नहीं जा सकता। उसके भीतर छुपी अच्छी-बुरी आदतें अपने समय में बाहर निकलेंगी जरूर। किंतु जन्म के बाद उस बच्चे में जो जोड़ना है उसे लेकर सावधान रहें। आजकल आम शिकायत है कि बच्चे जिद्दी बहुत हैं। ध्यान रखिए, कोई भी बच्चा जि़द पकड़ने के पहले चार चरणों से गुजरता है। एक, खेल। हर बच्चा खेलता है। यदि खिलौना नहीं मिले तो खुद से खेलने लगता है। परमात्मा ने बचपन को नैसर्गिक ऊर्जा दी है, वह खेल में निकलती है। दो, खेल मस्ती में बदल जाता है। बस, यहीं से सावधान होना पड़ेगा। खेल एक अनुशासित शारीरिक क्रिया होती है, लेकिन बच्चा नियम भंग करता है तो उसे मस्ती कहेंगे।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मस्ती पर नियंत्रण नहीं पाया गया तो अगला चरण है धमाल और यदि धमाल को नियंत्रित नहीं किया तो अगला चरण होगी शैतानी अौर फिर शुरू हो जाती है जिद। बच्चे की जिद को लेकर परेशान होने के पहले समय रहते तैयारी की जा सकती है। बालदेह अपने साथ भगवान की पहली ऊर्जा लेकर आई है। इसमें जोड़-घटाव हमें ही करना है।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>ससुराल में अध्यात्म की दुनिया बसाएं<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">स्त्रियां अपने जीवन में पुरुषों के मुकाबले कुछ अलग ही हालात से गुजरती हैं। खासतौर पर जब मैं कथा कर रहा होता हूं तब ऐसी अनेक स्त्रियां मिलती हैं, जो बताती हैं कि विवाह के पश्चात हमारा वैवाहिक जीवन वैसा नहीं है, जैसा सोचा था और इसके कारण वे खुश नहीं हैं या डिप्रेशन में आ गईं हैं। इसका निदान दूसरे किसी व्यक्ति से नहीं मिल सकता, क्योंकि स्त्रियों को जीवन में एक बार प्लेटफॉर्म बदलना पड़ता है, जिससे पुरुष मुक्त हैं।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मायके से ससुराल तक की यात्रा हर स्त्री के लिए बड़ी कठिन और चुनौतीपूर्ण है। पीहर अतीत है, जहां लालन-पालन में लाड़-प्यार के कारण उसकी कमजोरियों को दबा दिया गया। समझदार माता-पिता ने यदि समझाया भी है तो रिजर्वेशन के साथ। वे भूल जाते हैं कि भविष्य में बेटी को इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है। ससुराल के जीवन में उसे आक्रामकता, स्पष्टता, परायापन और शोषण दिखने लगता है, क्योंकि वहां जो भी समझाएगा उसका लेवल वह नहीं होगा, जो मायके में माता-पिता का रहा होगा। उस युवती को लगता है कि ससुराल के लोग प्रेम नहीं, दिखावा कर रहे हैं। ऐसा हो भी सकता है और नहीं भी। लोग लाख चिल्ला लें कि सास-ससुर माता-पिता बनें, बहू को बेटी समझें, लेकिन होगा वही जो यथार्थ है।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मायके और ससुराल के बीच की यात्रा सुखमय बनानी है तो नई दुनिया बसानी पड़ेगी जो है अध्यात्म की दुनिया। घर चलाते हुए किसी भी स्त्री के लिए योग का बड़ा परिणाम होगा आत्मबल और आंतरिक प्रसन्नता। यह ताकत उसे स्वयं ही अर्जित करनी होगी। आपके लिए कोई नहीं बदलेगा, लेकिन यदि आप बदल गईं तो फिर उस योग के दायरे में आकर दूसरे भी शायद ऐसे हो जाएंगे जैसा आप चाहती हैं।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>बच्चों को गहरे रिश्तों का उपहार दें<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जन्मदिन और उपहार परम्परा है। बच्चों के जन्मदिन पर हम ढूंढ़-ढूंढ़कर उपहार देते हैं। इसे उल्टा करके बोलिए। उपहार ऐसा दें कि उससे नया जन्म हो जाए। दार्शनिक कहते हैं- हम प्रतिदिन मरते हैं। जिस दिन मृत्यु आती है उस दिन पल-पल मरने का काम पूरा हो जाता है। ऐसे ही हम प्रतिदिन जन्म भी लेते हैं। यदि इस बात को समझें तो उपहार के मतलब बदल जाएंगे। बच्चों को आप जो सबसे अच्छा उपहार दे सकते हैं वह है गहरा रिश्ता।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कुछ ऐसे रिश्ते हैं कि यदि सही ढंग से जीवन में आ जाएं तो इससे अच्छा कोई उपहार नहीं। यह कठिन चुनौती का दौर है। कभी संसार परेशान करेगा, कभी संपत्ति उलझा देगी, कभी संबंधों से पीड़ा होगी, कोई स्वास्थ्य के कारण टूट जाएगा और कभी संतान से दिक्कत पैदा होगी। ऐसे समय गहरे रिश्ते ही काम आएंगे। बच्चों को कुछ ऐसे गहरे रिश्ते जरूर सौंप दीजिए। मैं ऐसे अनेक परिवारों को जानता हूं, जो सात समंदर पार रहने के बाद भी मुसीबत में एक-दूसरे के लिए दौड़ पड़ते हैं। यह रिश्ते की गहराई है कि वे एक-दूसरे का दर्द नहीं देख सकते। <o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बच्चों को लालन-पालन के समय ही आपस में शिकायत करने वाले चित्त को विराम देना सिखाएं। उनमें सहयोग की भावना डालें और उसके बाद सहायता क्यों और कैसे की जाती है इसे कूट-कूटकर भर दें।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कभी-कभी माता-पिता पाते हैं कि बच्चे आपस में मिलकर उनकी आलोचना कर रहे होते हैं। उनके लालन-पालन के ढंग पर असहमति व्यक्त हो रही होती है। ऐसे समय आवेश में न आएं, बल्कि यह मानें कि ये आपस में इस विषय पर खुल रहे हैं और उनका यही खुलना उन्हें एक बना देगा, इसलिए पारिवारिक जीवन जीने वाले लोगों के लिए किसी को देने के लिए सबसे बड़ा उपहार है एक ऐसा गहरा रिश्ता, जो विपरीत समय में आपके साथ खड़ा हो जाए।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>बुजुर्गों के अनुभवों का लाभ लीजिए<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पुरानी कहावत है, हर अच्छी चीज की सीमा होती है। अच्छा बहुत अधिक नहीं हो सकता पर एक अच्छी बात है, जो बहुत अधिक भी हो सकती है और वह है प्रशंसा। किंतु ध्यान रखें, तारीफ यदि सीमा लांघ जाए तो चापलूसी के घेरे में आ जाएगी या लोग संदेह करेंगे। प्रशंसा सदैव उपलब्धि के अनुपात में होनी चाहिए। जामवंत हनुमानजी की पर्याप्त प्रशंसा कर चुके थे।<o:p></o:p></span></div>
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<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हनुमानजी जानते थे, इस प्रशंसा के पीछे प्रोत्साहन है, प्रेरणा है। प्रशंसा मिले तो विनम्र हो जाएं। यह हनुमानजी की विनम्रता ही थी कि उन्होंने जामवंत से पूछा और तुलसीदासजी ने लिखा, ‘जामवंत मैं पूंछउं तोही। उचित सिखावनु दीजहु मोही।।<span lang="EN-US">’ </span>जामवंतजी, उचित सीख दीजिए कि अब मुझे क्या करना चाहिए। यहां उचित शब्द का अर्थ है हनुमानजी जानते थे कि जामवंत वृद्ध हो गए हैं। किसी वृद्ध व्यक्ति से बात करें तो वह दो लेवल पर चलता है- अपने समय की पुरानी बात करेगा या एक ही विषय में दो-चार अन्य विषय डालकर सारी बातें एक साथ करने लग जाएगा। हनुमानजी गुजरती पीढ़ी को संदेश देना चाहते हैं कि आप बातचीत करते समय जागरूक रहें। आपका शरीर थका है, इन्द्रियां शिथिल हुई हैं, लेकिन होश बचाए रखिए। वे युवा पीढ़ी को भी संदेश देते हैं कि उन्हें बुजुर्गों की वाणी का सम्मान करना चाहिए, अनुभवों का लाभ लेना चाहिए।<o:p></o:p></span></div>
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<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जामवंत भी समझ गए थे कि उचित क्यों कहा गया है, इसलिए बहुत ही सारगर्भित ढंग से हनुमानजी से कहा,‘एतना करहु तात तुम्ह जाई। सीतहि देखि कहहु सुधि आई।।<span lang="EN-US">’ </span>हे हनुमान, तुम इतना ही करो कि सीताजी को देखकर लौट आओ और उनकी खबर कह दो।<span lang="EN-US">’ </span>हनुमानजी मन ही मन मुस्कुराए। जामवंतजी ने लिमिट बना दी है, लंका में जाकर सीमा में रहकर काम को अंजाम देना है और उन्होंने ऐसा ही किया भी।<o:p></o:p></span></div>
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<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>न्याय से प्राप्त दुख सहना यानी तितिक्षा<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारे शास्त्रों में धन पर बहुत लिखा गया है। लक्ष्मी न हो तो दुख, हो तो भी दुख। विशेषज्ञ जो भी विश्लेषण करें, पर आज भारतीय जीवन उथल-पुथल से गुजर रहा है। इसे आध्यात्मिक ढंग से देखें तो बाहर की दिक्कत पर तो कोई नियंत्रण नहीं किया जा सकता, लेकिन यह परेशानी भीतर अलग ढंग से स्वीकार की जा सकती है।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इस समय लोग त्रस्त, चिंतित और भयभीत हैं। इन तीनों स्थितियों का एकसाथ इलाज केवल अध्यात्म के पास है। भागवत के 11वें स्कंध के 19वें अध्याय में श्रीकृष्ण जीवन से जुड़े कुछ शब्दों की व्याख्या कर उद्धव को समझा रहे थे। उस समय एक शब्द आया ‘तितिक्षा<span lang="EN-US">’</span>। ‘तितिक्षा दु:खसंमर्षो जिह्वोपस्थजयो धृति:’ न्याय से प्राप्त दुख के सहने का नाम तितिक्षा है। जिह्वा और जननेंद्रियों पर विजय प्राप्त करना धैर्य है। श्रीकृष्ण ने बहुत अच्छे ढंग से समझाया जो आज हमारे बहुत काम का है। इस समय हमें जो दुख हो रहा है वह न्याय के कारण है। इसे अन्याय नहीं कह सकते, यह तितिक्षा है। आगे कृष्ण समझाते हैं- अपनी जीभ और खासकर भोग-विलास से जुड़ी इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने को धैर्य कहेंगे। जिन बड़े नोटों को मोक्ष प्रदान किया गया है उनके उत्तरकर्म में ऐसे दृश्य आने ही थे, क्योंकि लक्ष्मी की ये दो बड़ी संतानें लोगों के भोग-विलास और अनुचित आचरण में काम आने लगी थीं। यदि कृष्णजी की मानें तो आने वाले समय में धैर्य बहुत काम आएगा।<o:p></o:p></span></div>
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<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अधीरता अशांति को ही आमंत्रण देना है, इसलिए सत्संग कर लें, शास्त्र पढ़ लें और खासतौर पर योग कर लें। योग मनुष्य को वर्तमान से जोड़ता है। अभी की घटना हमें या तो अतीत में या भविष्य में फेंक रही है। हनुमान चालीसा से योग तो इस वक्त और कारगर होगा। वर्तमान पर टिकें, इसे समझें तो अतीत व भविष्य दोनों का सही ढंग से लाभ मिल जाएगा।<o:p></o:p></span></div>
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<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>लापरवाही से बचें, बेपरवाही अपनाएं<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिम्मेदारी का अहसास खुद एक तपस्या है। गैर-जिम्मेदार लोग खुद के और दूसरों के लिए भी हानिकारक हैं। लापरवाहों से सदैव बचिए। बाहर का निपटारा तो कायदे-कानून लागू करके किया जा सकता है, लेकिन घर-आंगन में अपने ही लोगों की लापरवाही खुलेआम नाचती है।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बच्चों के लालन-पालन में माता-पिता को जिन बातों में ज्यादा दिक्कत आती है उसमें एक है लापरवाही। समय रहते यदि बच्चों की लापरवाही पर नियंत्रण नहीं पाया तो उसका अगला कदम आलस्य हो जाता है। आलस्य वक्त आने पर प्रमाद में बदल जाता है और प्रमादी व्यक्ति के द्वार पर सफलता कभी नहीं फटकती। अच्छे से अच्छे तपस्वी, समझदार और योग्य व्यक्ति के भीतर भी लापरवाही का थोड़ा अंश जरूर रहता है। ऋषि-मुनियों ने एक शब्द दिया है- बेपरवाही। गुरुनानक देव इस पर बहुत अच्छा बोले हैं। ओशो ने अपने ढंग से व्याख्या की और राम व कृष्ण तो इसे आचरण में उतारकर बता गए। हर धर्म के शीर्ष लोगों ने इसे अनूठे ढंग से जीया है। लापरवाही कृत्य से जुड़ी है। बेपरवाही परिणाम से जुड़ी है। बेपरवाह व्यक्ति कोई भी काम करना छोड़ता नहीं है, लेकिन परिणाम जो भी मिले वह परमशक्ति पर डाल देता है। जैसे ही ईश्वर पर भरोसा बढ़ाते हैं, वह आपकी बेपरवाही देखकर ही लापरवाही से बचा लेता है।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बच्चों को बारीकी से बेपरवाही का अर्थ बताया जाए। संतान ने आपके मुकाबले दुनिया कम देखी है। आपकी चाहत उसकी समझ बन जाना आसान नहीं है। बच्चे तो यह भी नहीं जानते कि वे लापरवाही कर रहे हैं। उन्हें लापरवाही की जगह बेपरवाही समझाएं, महान हस्तियों की कथा से जोड़ें। यदि वे बेपरवाही समझ गए तो लापरवाही जाती रहेगी।<o:p></o:p></span></div>
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<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>टारगेट के तनाव से निकलने का सूत्र<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इन दिनों प्रबंधन से जुड़े लोगों से यदि पूछें कि आपको सबसे ज्यादा तनाव किस बात का है? तो जवाब होगा टारगेट का। पुराणों में वर्णित एक राक्षस को वरदान था कि उसकी रक्त की बूंदें धरती पर गिरेंगी तो और बड़ी मात्रा में रक्त बढ़ जाएगा, इसीलिए देवी ने संहार करते समय उसके रक्त को पी लिया।<o:p></o:p></span></div>
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<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आजकल टारगेट इसी तरह हैं। सभी कहते हैं एक लक्ष्य पूरा करो तो अगली बार उसमें और अधिक जुड़ जाता है। कुछ तो इतने दबाव में आ गए हैं कि डिप्रेशन में चले गए अथवा दूसरी बीमारियां लग गईं। यह तय है कि लक्ष्य में बढ़ोतरी खत्म नहीं होगी। जो किया जा सकता है, कम से कम वह तो करें। वह है अपनी सुरक्षा। बढ़ते हुए लक्ष्य तक पहुंचना है, लेकिन खुद का नुकसान न हो जाए यह सावधानी भी रखनी होगी। नियम बना लें कि सुबह उठने, घर से निकलने, वापस घर आने पर और रात को सोते समय कुछ सकारात्मक शब्दों का प्रयोग करते रहेंगे। ऐसे शब्द जिनमें आशा, आनंद, विजय की कामना, जीत की जि़द जैसे भाव हों। कुछ लोग तो घर से निकलते समय काम के दबाव के कारण कहते हैं- आज फिर मरेंगे। ऐसे ही जब थके-मांदे घर आते हैं तो कहते हैं- आज भी निपट गए।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
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<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">धीरे-धीरे ये शब्द सोच बन जाते हैं, जिससे परेशानियां बढ़ जाती हैं। हमारे यहां बहुत से ऐसे मंत्र, चौपाइयां, महापुरुषों-फकीरों के आदर्श वाक्य हैं, जिन्हें इन चार समय पर दोहराया जा सकता है। आप पाएंगे आपकी मानसिकता मे परिवर्तन आया और सोचने लगेंगे कि ‘क्या हुआ है?’ इसे छोड़ें और ‘ऐसा भी कुछ हो सकता है<span lang="EN-US">’ </span>इस पर सोचें। भगवान ने मनुष्य बनाकर आप पर भरोसा किया है। आप उस पर भरोसा करके देखिए, आपका श्रेष्ठ आपको निराश नहीं होने देगा।<o:p></o:p></span></div>
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<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>ध्यान, योग से मस्तिष्क रचनात्मक बनाएं<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इस दौर में हर कोई ‘दोगुना<span lang="EN-US">’ </span>के चक्कर में है। ईश्वर जानता था कि जब मनुष्य को संसार में भेजूंगा तो वह दोगुने के चक्कर में जरूर पड़ेगा, इसलिए हमारी पहले ही मदद कर दी। सारी इन्द्रियां दो कर दीं। आंख, नाक, कान, हाथ, पैर आदि। ये सब अंग तो दिखते हैं, लेकिन जो नहीं दिखता वह है हमारा मस्तिष्क।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">फकीरों ने इसके भी दो भाग बताए हैं। विज्ञान इस पर काफी हद तक सहमत है। योग विज्ञान कहता है इसका बायां हिस्सा चंद्र और दायां सूर्य है। चंद्र स्वर स्त्रीभाव है और सूर्य स्वर पुरुषभाव। यह एक पूरा दर्शन है। काम की बात यह है कि जब भी हम किसी चुनौती के सामने होते हैं, हमारा मस्तिष्क दो तरह से काम करने लगता है।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक रचनात्मक विचार और दूसरा परम्परागत सोच। जब आप रचनात्मक पक्ष से विचार कर रहे होते हैं तो परिवर्तन सहर्ष स्वीकार करते हैं। टेलीफोन, टीवी और कंप्यूटर पर वर्षों पहले जो बात कही गईं, कुछ लोगों ने उनकी खिल्ली उड़ाई, उसे स्वीकार नहीं किया, लेकिन रचनात्मक विचार वाले इससे उसी समय जुड़ गए और लाभ भी उठाया। आज भी यदि कहा जाए कि बैंक 24 घंटे खुले रहने चाहिए, रेल व्यवस्था सरकार से लेकर निजी हाथों में दे दी जाए, सरकारी अस्पताल बंद हो जाएं तो सुनकर जो लोग कहें कि यह खतरनाक है, वे पारम्परिक सोच वाले होंगे। यह सही है या गलत, हमें इसमें नहीं जाना है।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
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<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बात यह है कि ऐसी अविश्वसनीय बातें स्वीकार किस ढंग से करते हैं, यहां से रचनात्मक विचार हमारे काम आते हैं। यदि हमारे भीतर कुछ नया करने की ललक बनी रही, परिवर्तन से जुड़ने की इच्छा तीव्र होती गई तो कम परिश्रम में अधिक सफलता अर्जित कर लेंगे, इसलिए अपनी इन्द्रियों का उपयोग तो करते ही हैं, मस्तिष्क को भी रोज ध्यान-योग से गुजारते हुए रचनात्मक बनाइए।<o:p></o:p></span></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>सफलता के साथ दिलाए, वही नेतृत्व<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सभी को कभी न कभी किसी न किसी नेतृत्व की जरूरत होती है। विज्ञान और तकनीक के इस युग में अब लोगों को सबकुछ खास तौर पर ज्ञान और जानकारी इतनी आसानी से मिल जाते हैं कि उन्हें इसके लिए नेतृत्व की जरूरत नहीं होती।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पहले यह काम नेता किया करते थे, लेकिन अब न ऐसे नेता रहे और न नेतृत्व ग्रहण करने वाले लोग। इसलिए इस युग में लोग किसी का नेतृत्व स्वीकार करने की बजाय बहस ज्यादा करते हैं। ऐसे समय में सामूहिक प्रयास खासकर अध्यात्म के क्षेत्र में इस स्थिति को और अच्छा बना सकता है, क्योंकि ज्ञान-विज्ञान ने जो अशांति दी है उसे अध्यात्म ही मिटा सकता है। अध्यात्म कहता है एकांत में खुद को शांत करें, परिपक्व करें और फिर यही प्रयोग सामूहिक रूप से भी करें। किष्किंधा कांड के अंतिम चरण में जामवंत हनुमानजी को समझा रहे हैं, ‘सीताजी को देखो, लौटकर आओ और उनकी खबर सुनाओ<span lang="EN-US">’</span>, यह स्पष्ट काम उन्होंने हनुमानजी को सौंपकर जो कहा और तुलसीदासजी ने लिखा वह हमारे बड़े काम का है। ‘तब निज भुज बल राजिव नैना। कौतुक लागि संग कपि सेना।।<span lang="EN-US">’ </span>कमल नयन श्रीराम बाहुबल से राक्षसों का संहार कर सीताजी को ले आएंगे। खेल के लिए ही वे वानरों की सेना साथ लेंगे।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जामवंत ने हनुमानजी को समझाने के तुरंत बाद रामजी को याद करते हुए उनके पराक्रम का बखान किया। जीवन में जब भी कोई काम करने जाएं, यह न भूलें कि हमसे बड़ी एक शक्ति है और यदि वह हमारे साथ है तो जो भी काम करेंगे, उसमें सफलता तो सुनिश्चित होगी ही, बाद में शांत और प्रसन्नचित्त भी रहेंगे। ज्ञान-विज्ञान के इस युग में अब कोई ऐसा नेतृत्व चाहिए जो सफलता के साथ शांति भी दिलाए और वह नेतृत्व परमपिता परमेश्वर हो सकते हैं।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>अपने वर्तमान को उत्साह से जोड़िए<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आप चाहें या न चाहें, कुछ न कुछ काम तो करना ही पड़ेगा। कुछ लोग बहुत ज्यादा काम करते हैं, कुछ सामान्य रूप से काम करते हैं, लेकिन शायद ही कोई ऐसा होगा जो कुछ भी नहीं कर रहा हो। जिसको हम ‘कुछ भी नहीं कर रहा<span lang="EN-US">’ </span>कहते हैं, दरअसल या तो वह दिशा भटकना है या आलस्य है। लेकिन, आलस्य भी दिशाहीन सूक्ष्म क्रिया है। केवल मुर्दा ही होता है जो कुछ नहीं करता।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमें तो हर समय कुछ न कुछ करना ही है तो फिर जो भी करें, पूरे उत्साह से करें। चार स्तरों पर उत्साह रखा जा सकता है। एक, शरीर से उत्साह बनाए रखिए, दो, दिल से उत्साह होना चाहिए, तीन, दिमाग से भी उत्साह रखिएगा और चार, कभी-कभी मजबूरी में भी उत्साह बनाए रखना पड़ता है। जैसे बहुत थके हुए आए हों और घर में प्रवेश करते ही बच्चा जिद करे कि मेरे साथ खेलो। उस समय भले ही आप दिल-दिमाग और शरीर से थके हुए हों पर बच्चे के साथ उत्साह से खेलना पड़ता है। यह मजबूरी का उत्साह होता है। कई बार लोग इस उत्साह को जीवनसाथी के साथ भी प्रयोग में ले आते हैं लेकिन, इतना तो तय कर लीजिए कि बिना उत्साह के कोई काम नहीं करेंगे। उत्साह बना रहे इसके लिए शास्त्रों में एक वचन आया है, ‘नवो नवो भवति जाय मानव<span lang="EN-US">’</span>।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रोज-रोज नया जन्म होता है। जो मनुष्य आपको कल मिला था वह आज वैसा नहीं है और स्वयं आप भी वह नहीं हैं, जो कल थे। पुराने कपड़े की तरह पुराना दिन फटकर चला जाता है और एक नया आपके सामने होता है। जब जीवन प्रवाह में रहता है, बहता हुआ रहता है तो स्वच्छ भी रहता है और शांत भी। इसलिए बीते हुए पर बहुत अधिक मत टिकिए, आने वाले कल को लेकर बहुत अधिक चिंतन न करें। बस, वर्तमान को उत्साह से जोड़िए। यहीं शांति बसी है।<o:p></o:p></span></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>पारिवारिक जीवन में गीता को उतारें<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">महाभारत में यूं तो बहुत से दृश्य ऐसे हैं जो बहुत बड़ा संदेश देते हैं, लेकिन कुरुक्षेत्र में युद्ध के पहले अनूठी घटनाएं घटी हैं जिनमें से एक है गीता का जन्म। युद्ध से ठीक पहले के दृश्य की विशेषता यह रही कि एक ही परिवार एक साथ भी खड़ा था और आमने-सामने भी खड़ा था। थोड़ी देर बाद कौरव-पांडवों के बीच युद्ध आरंभ होने वाला था। उसी समय अर्जुन की निराशा का समापन करने के लिए श्रीकृष्ण बोलने लगे।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गीता हिंसा के वातावरण में बोले गए प्रेम के अद्भुत बोल हैं। जब चारों ओर इतनी नकारात्मकता फैली हो, तब भगवान कृष्ण संसार के सबसे अद्भुत वक्तव्य जारी कर रहे थे। गीता की विशेषता यह है कि रोमांच के साथ रोमांस किया जा रहा था। रोमांस का अर्थ होता है प्रेम की अनुभूति। कृष्ण जैसे परत दर परत जीवन खोल रहे थे। उनके शब्द प्रेम से घुले हुए थे। हमारे परिवारों में भी कई बार कुरुक्षेत्र जैसे अवसर आ जाते हैं। अपने अपनों के सामने होते हैं। चाहे वे पिता-पुत्र, भाई-भाई या पति-पत्नी हों। ऐसे समय गीता बहुत बड़ा आश्वासन है। हमारे रिश्तों के बीच गीता अवश्य घटते रहनी चाहिए, क्योंकि अर्जुन का विरोध था कि मैं वह नहीं करूंगा जो आप कह रहे हैं।<o:p></o:p></span></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कृष्ण चाहते थे जो मैं कह रहा हूं उसे तुम समझ लो और उसके बाद वह करो, जो तुम्हे ठीक लगे। आज परिवारों की भाषा ऐसी ही होनी चाहिए। अब परिवारों में नेतृत्व बंट चुका है। पहले एक दादा, पिता या बड़ा भाई जो कह देता था उसे सब मान लेते थे। अब परिवारों में शक्ति के छोटे-छोटे केंद्र बन गए हैं। ऐसे समय सदस्यों को एक-दूसरे के साथ जीने, समझने और करने के लिए जिस भाषा की जरूरत है वह गीता में बसी है। इसलिए प्रत्येक घर में न सिर्फ गीता रखी जाए बल्कि जरूरत पड़ने पर उसे पढ़ा भी जाए और जीवन में उतारा जाए।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>मन काबू में तो व्यक्तित्व प्रभावशाली<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यदि आप प्रभावशाली बनना चाहते हैं तो केवल धन, पद और प्रतिष्ठा से काम नहीं चलेगा। ये सब तो अस्थायी होते हैं। आज हैं, कल नहीं रहेंगे। फिर भी मनुष्य को प्रभावशाली होना चाहिए। आपसे कोई मिले, आपके पास बैठे तो उसे लगना चाहिए कि किसी ऐसे व्यक्ति के पास बैठे हैं, जिसके पास से जीवन की तरंगें महसूस हो रही हैं। यह तब होगा जब मन नियंत्रण में हो, आप भीतर से शाांत हों। जैसे ही मन नियंत्रित हुआ, हम प्रभावशाली हो जाते हैं, क्योंकि हमारे शरीर से पॉजिटीव रेज़ निकलने लगती हैं। इसलिए जिन्हें प्रभावशाली होना है उन्हें मन पर काम करते रहना चाहिए।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मन उत्सुक होता है और उसकी उत्सुकता तुरंत भोग में बदल जाती है। समय से पूर्व मनचाहा मिल जाए, सीमा से अधिक प्राप्त हो ये मन की मांग हैं। यदि चिकित्सा विज्ञान का कोई छात्र पढ़ते समय ऑपरेशन करने की सोचे तो यह ठीक नहीं होगा। किंतु मन खुद को आगामी भूमिकाओं में तुरंत पटक देता है। उसके अहंकार के शोर में शांति की गूंज दब जाती है। हमारे समूचे चिंतन पर जब मन प्रभावशाली होता है तो इसमें दूसरों का प्रवेश हो जाता है। याद रखिए, हमारे भीतर इतने दूसरे लोग प्रवेश कर जाते हैं कि हम उनसे छूट ही नहीं पाते। इसलिए ध्यान रखिए, अगर प्रभावशाली होना है तो मन जो आपाधापी मचाता है, अनेक व्यक्तियों को हमारे भीतर एक साथ प्रवेश करा देता है, इन सबसे बचना होगा।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसलिए मन को नियंत्रत कीजिए और इसके लिए जब भी समय मिले, योग जरूर कीजिए। हनुमान चालीसा से मेडिटेशन मन को नियंत्रित करने का सरलतम तरीका है। जैसे ही मन नियंत्रित हुआ, आपके पास कोई सांसारिक पद न हो, धन न हो पर आपके रोम-रोम से प्रभाव बहेगा और दूसरे उसका दिल से सम्मान करेंगे।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>भक्त बनकर जीवन में शांति उतारें<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दुुनियादारी के सारे काम करते हुए यदि कोई खुश रहना चाहे तो वह जितने प्रयास करे वे सारे अधूरे हो सकते हैं। किंतु यदि कोई खुद को भक्त बना ले तो वह शांत जरूर हो सकेगा। आज के समय में भक्त बनने की बात कम जमती है। खास तौर पर नई पीढ़ी के बच्चे तो सवाल उछाल देते हैं कि आखिर भक्ति करें क्यों? किसी भी धर्म से हों, यदि भक्ति करते हैं तो आप अपने से ऊपर एक शक्ति पर विश्वास करने लगते हैं। ईश्वर से यह रिश्ता रस बनकर अापके जीवन में उतरता है। मनुष्य भीतर से जितना नीरस होगा उतना अशांत होगा और जितना रसभोर होगा उतनी जल्दी शांत हो जाएगा।<o:p></o:p></span></div>
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<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भक्ति को केवल पूजा या कर्मकांड न मानें। यह किसी परमशक्ति से अदभुत रिश्ते की शुरुआत है, जिसमें सबकुछ अनुभूति पर आधारित है। भक्ति में पांच रस हैं- शांत, दास्य, सख्य, वात्सल्य और मधुर। हमें सबसे अधिक जरूरत है शांत रस की। विज्ञान के इस युग में प्रत्यक्ष अनुभव हावी हो गया है। अध्यात्म कहता है बहुत कुछ शांति अनुभूति पर आधारित है।<o:p></o:p></span></div>
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<div class="MsoNormal" style="font-weight: normal;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भक्ति में भी शांत रस का जन्म अनुभूति से होता है। हम सब शांति की तलाश में हैं। यदि भक्त बनते हैं तो दुनिया का कोई काम छोड़ना नहीं है लेकिन, हमारे भीतर शांत रस उतरेगा ही उतरेगा। फिर यही अनुभूति रस बनती है और यही रस आपको शांत करता है। रस दुनिया में भी होता है, लेकिन दुनिया की वस्तु में जो रस आता है वह अस्थायी होकर जल्दी अशांत करता है। परमात्मा से जुड़ने में जो रस आता है वह स्थायी होकर शांति को जन्म देता है। शांति जिस भी कीमत पर मिले, हासिल कर लीजिए। वरना आने वाले समय में तो इसे ढूंढ़ते रह जाएंगे। जीवन में सबकुछ मिलेगा, बस शांति का ही पता नहीं होगा।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....मनीष<o:p></o:p></b></span></div>
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<b style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....</b><b style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">जय </b><b style="font-family: arial, helvetica, sans-serif;">शुक्रताल धाम... </b></div>
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Jai Guru Geeta Gopalhttp://www.blogger.com/profile/01621836960274288942noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6101091264294453966.post-28498014774640216012019-12-19T00:27:00.002-08:002019-12-19T00:27:16.556-08:00प्राचीन विधि-विधान (Prachin Vidhi Vidhan )<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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अनादि काल से एक ही परिपाटी चली आ रही थी, जिसमें की साधक और गुरू, चाहे वशिष्ठ हो या राम, कृष्ण हो या सांदीपन, दोनो ही गायत्री मंत्र युक्त संध्या व हवन करते थे एवं ॐकार के द्वारा ध्यान करते थे। इस तरह गायत्री संध्या से उस आदिशक्ति की उपासना पूर्ण होती थी और ॐकार के ध्यान के द्वारा परब्रहम् की उपासना सम्पूर्ण होती थी। प्राचीन महर्षियों ने पुरूष और प्रकृति की उपासना का यह विधान इतना श्रेष्ठ बनाया था, की इस विधान के करने वाले साधक को भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में सम्पूर्ण सफलता मिलती थी। वह सम्पूर्ण शक्तियों का मालिक बनते हुऐ, उस परमात्मा में लीन रहता था। सम्पूर्ण सुख-समृद्धि का भोग करते हुऐ मोक्ष को प्राप्त करता था। किन्तु समय का पहिया गतिशील है। प्रकृति में समय-समय पर बदलाव होते रहे हैं, उसी के अनुसार साधक की मन और बुद्धि भी बदलती है।<br />
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कालान्तर में गायत्री-संध्या के साथ-साथ अनेकों ही महापुरूषों ने तान्त्रिक-संध्या का विधान बनाया। जहाँ गायत्री-संध्या में गायत्री-मंत्र की ही उपासना होती थी एवं गायत्री ही सबकी अधिष्ठात्री होती थी। वहीं पर तान्त्रिक-संध्या में नये-नये देवता और मंत्र जुड़ने लगे। सर्वप्रथम जहाँ पर गायत्री को इष्ट माना जाता था, वहीं पर साधकों ने बाद में अपने अलग-अलग इष्ट बनाने प्रारम्भ कर दिये। जो साधक शिव को अपना इष्ट मानने लगा, वह शिव मंत्र के द्वारा ही संध्या करने लगा। यह शिव की तान्त्रिक-संध्या कहलाई। इस सम्प्रदाय को मानने वाले साधकों ने जो अपना मत बनाया वह शैव-मत कहलाया। भगवान शिव के उपासकों में घन्टाकर्ण नाम का एक ऐसा उपासक भी हुआ, जिसने अपने कानों में घन्टे लटका लिये। अगर उसके सामने कोई भी व्यक्ति या साधक भगवान शिव के नाम के अलावा, किसी भी दूसरे देव का नाम लेता था, तो वह अपने सिर को हिलाने लगता था। जिससे कि उसके कानों में बंधे हुऐ घन्टे बजने लगते थे और किसी दूसरे देव का नाम उसे सुनाई नहीं पड़ता था।<br />
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इसी तरह शैव-मत के बाद वैष्णव-मत सामने आया, जिसमें कि राम, कृष्ण और विष्णु की मुर्ति-रूप में सुन्दर प्रतीक बनाये जाने लगे और विष्णु के मंत्रो के द्वारा ही संध्या की जाने लगी। उसके कुछ समय बाद दस महा-विद्या सामने आई और इन महा-विद्याओं के मंत्रों के द्वारा तान्त्रिक-संध्या करने वाले साधक शाक्त कहलाये, यहीं से कलियुग का प्रारम्भ हुआ और धीरे-धीरे यह तीनों ही मत फलने-फूलने लगे। जिस तरह गायत्री-संध्या के बाद तान्त्रिक-संध्या आई, उसी तरह शक्ति मत के भी दो मत हो गये। शक्ति-मत में दस महा-विद्याओं की तान्त्रिक-संध्या करने वाले व्यक्ति दो कुलों में विभाजित हो गये। एक श्रीकुल कहलाया एवं दूसरा कालीकुल । यहाँ तक दोनों कुलों की उपासना करने वाले, तन्त्र के साथ-साथ ब्रहम् को भी मानने वाले थे। धीरे-धीरे ये दोनों कुल भी दो भागों में बँट गये। एक दक्षिण-मार्गी और दूसरा वाम-मार्गी। दक्षिण-मार्गी उन को कहा गया, जो कि काली-कुल के अन्तर्गत आने वाली शक्तियों की उपासना सात्विक रूप से करते थे। प्रारम्भ में दोनों कुलों के उपासक सात्विक ही थे, किन्तु बाद में जब इसके दो भेद हो गये, तो दक्षिण-मार्गी सात्विक कहलाऐ एवं वाम मार्गी तामसिक। सात्विक मार्ग में अनादि काल से ले कर आज तक बहुत कम बदलाव आया जो थोड़ा बहुत बदलाव आया, तो वह यह था कि अपने इष्ट के सामने प्रतीक रूप में घी की बजाय तेल का दिया जलाना। आज भी कुछ साधक शक्ति मार्ग में घी का दीपक जलाते है, तो कुछ सरसों के तेल का और कुछ तिलों के तेल का। दुसरा जो बदलाव आया वह वस्त्र का था।<br />
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सात्विक शक्ति उपासक अपनी इच्छा के अनुसार सफेद या लाल कपड़े का इस्तेमाल करने लगे। जबकि तामसिक साधक अधिकतर काले कपड़ो का इस्तेमाल करने लगे।कोई काली को बड़ा मानता तो कोई तारा को और कोई श्रीविद्या को। अनेकों ही शक्ति की साधना-उपासना करने वालों ने अपने-अपने ग्रन्थ लिखे और अपने-अपने इष्ट को सम्पूर्ण बताया। छोटे-बड़े का मत भेद बढ़ता चला गया। किन्तु अन्तः करण से सभी उस अनादि शक्ति को ही अपने इष्ट-रूप में मानते थे। सभी साधक यही कहते थे कि सभी महा-विद्याऐं उस आदिशक्ति का ही अंश रूप है। किन्तु अंश रूप में भी सभी भेद रखते थे। जिस प्रकार वैष्ण्व मत में राम को 14 कला अवतार एवं कृष्ण को 16 कला अवतार माना जाता है। उसी प्रकार शाक्त मत में भी यही भेद था, किन्तु धीरे-धीरे इनके अधिकार क्षेत्र बांट दिये गये। हर महाविद्या को एक सीमित क्षेत्र में सीमित कर दिया गया। जब की वह महाविद्या अपने आप में सम्पूर्ण थी। जहाँ दुष्टों के नाश का अधिकार क्षेत्र बगलामुखी को दिया गया, वहीं धन का अधिकार क्षेत्र कमला-महाविद्या को दिया गया। काली को जो अधिकार क्षेत्र दिया गया वह शक्ति का था और तारा का अधिकार क्षेत्र ज्ञान की वृद्धि के लिये था। भुवनेश्वरी का अधिकार क्षेत्र आकस्मिक धन प्राप्ति के लिऐ होता था। वहीं मातगीं का अधिकार क्षेत्र वशीकरण, आकर्षण एवं विद्या क्षेत्र था। जहाँ शरीर के ताप को मिटाने का और तान्त्रिक द्वारा अभिचार कर्म को काटने का अधिकार क्षेत्र धूमावती के पास था। वहीं साधक की इच्छाओं की पूर्ती का अधिकार क्षेत्र छिन्नमस्ता के पास है। जहाँ मन, इच्छा अनुसार स्त्री या पुरूष की प्राप्ति का अधिकार क्षेत्र त्रिपुर-भैरवी के पास है। यह साधकों के अन्दर भय का नाश करती है। वहीं सम्पूर्ण सुख-समृद्धि एवं ऐश्वर्य प्राप्ति का अधिकार क्षेत्र श्रीविद्या राज-राजेशवरी त्रिपुर-सुन्दरी के पास है।<br />
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शक्ति उपासकों का जो दुसरा वाम मार्गी मत था, उसमें शराब को जगह दी गई। उसके बाद बलि प्रथा आई और माँस का सेवन होने लगा। इसी प्रकार इसके भी दो हिस्से हो गये, जो शराब और माँस क सेवन करते थे, उन्हे साधारण-तान्त्रिक कहा जाने लगा। लेकिन जिन्होने माँस और मदिरा के साथ-साथ मीन(मछली), मुद्रा(विशेष क्रियाँऐं), मैथुन(स्त्री का संग) आदि पाँच मकारों का सेवन करने वालों को सिद्ध-तान्त्रिक कहाँ जाने लगा। आम व्यक्ति इन सिद्ध-तान्त्रिकों से डरने लगा। किन्तु आरम्भ में चाहे वह साधारण-तान्त्रिक हो या सिद्ध-तान्त्रिक, दोनों ही अपनी-अपनी साधनाओं के द्वारा उस ब्रहम् को पाने की कोशिश करते थे। जहाँ आरम्भ में पाँच मकारों के द्वारा ज्यादा से ज्यादा ऊर्जा बनाई जाती थी और उस ऊर्जा को कुन्डलिनी जागरण में प्रयोग किया जाता था, ताकि कुन्डलिनी जागरण करके सहस्त्र-दल का भेदन किया जा सके और दसवें द्वार को खोल कर सृष्टि के रहस्यों को समझा जा सके। किन्तु धीरे-धीरे पाँच मकारों का दुर-उपयोग होने लगा और यह पाँच मकार सिर्फ स्वार्थ सिद्धि, नशा और काम वासना की पुर्ति के साधन मात्र ही रह गये।<br />
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कोई माने या न माने लेकिन यदि काम भाव का सही इस्तेमाल किया जा सके तो इससे ब्रहम् की प्राप्ति सम्भव है।इसी वक्त एक और मत सामने आया जिसमें की भैरवी साधना या भैरवी चक्र को प्राथमिकता दी गई। इस मत के साधक वैसे तो पाँचो मकारों को मानते थे, किन्तु उनका मुख्य ध्येय काम के द्वारा ब्रहम् की प्राप्ति था इसी समय में शैव-मत में से एक मत अलग हो कर बाहर आया जिसे अघोर-मत कहा जाने लगा। आघोर-मत को मानने वाले साधक नशे के रुप में गाँजे का सेवन करते थे एंव श्मशान में बैठ कर तामसिक शिव या भैरव मंत्रों का जाप करते थे। प्रारम्भ में जहाँ नशा करके चेतन मन को शान्त कर दिया जाता था और अवचेतन मन के द्वारा परमात्मा के नाम का जाप किया जाता था। वहीं बाद में परमात्मा के ‘ॐ’ नाम को छोड़ कर विभिन्न मंत्रों का जाप होने लगा। धीरे-धीरे यह साधक पर-ब्रहम् को भूल कर आम व्यक्तियों को चमत्कार दिखाने की खातिर शव-साधना करने लगे। ऐसे मंत्रों का निर्माण हुआ जिन के द्वारा तुच्छ सिद्धियाँ प्राप्त करके आम जनता को चमत्कार दिखाया जा सके। आज वाम मार्गीयों का सबसे वीभत्स रूप हमारे सामने है। आज के समय में साधारण-तान्त्रिक, सिद्ध-तान्त्रिक, भैरवी-मत को मानने वाले या अघोर आदि अधिकतर साधक उस परमात्मा को भूल ही गये है। अगर ऐसा नहीं होता तो आज जो तान्त्रिकों का विभत्स रूप हमारे सामने है, वह नहीं होता।<br />
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ब्रहम् को मानने वाला तान्त्रिक अपनी शक्तियों का कभी दुर-उपयोग नहीं करेगा।लेकिन आज अधिकतर तान्त्रिक अपनी सिद्धियों का दुर-उपयोग के अलावा और कहीं इस्तेमाल नहीं करते। प्रारम्भ का तान्त्रिक जहाँ ब्रहम् का उपासक होता था, वहीं आज का तान्त्रिक पैसे का उपासक बन गया है। कुछ सौ वर्षों पहले एक नई विद्या प्रकाश में आई। इसको मानने वाले भी अपने आप को तान्त्रिक, ओझा या गुणी कहते थे। अगर इस विद्या का सही इस्तेमाल किया जाऐ तो, आम व्यक्ति को काफी हद तक फायदा हो सकता है। किन्तु इससे ब्रहम् की प्राप्ति सम्भव नहीं है। इस विद्या को मानने वाले साबर-मंत्रों का प्रयोग करते है। इस विद्या का अपना कोई नाम नहीं है। किन्तु साबर-मंत्रों का इस्तेमाल करने वालों को ओझा या गुणी ही कहा जाता है। नाथ समप्रदाय में ‘बाबा मछन्दर नाथ’ के शिष्य ‘गुरू गोरक्ष नाथ जी’ थे। गुरू गोरक्ष नाथ जी ने साबर-मंत्रों की रचना साधारण व्यक्तियों के लिये की। जिससे की वे साबर-मंत्रों का प्रयोग करके सुख-समृद्धि को प्राप्त कर सके। आज के समय में साबर-मंत्रों के उपर अनेकों ग्रन्थ देखने में आते है, पर इन ग्रथों के अन्दर न तो सही विधि-विधान लिखा हुआ है और न ही सम्पूर्ण मंत्र लिखें हुऐ हैं। साबर-मंत्रों में जो सिद्ध मंत्र है, वह आज भी गुरू परम्परा के अनुसार चले आ रहे हैं । अगर कोई साधक गुरू से प्राप्त साबर-मंत्र का जाप करता है, तो उसे सभी भौतिक सुखों की प्राप्ति होती है। साथ ही इन मंत्रों के द्वारा लोक-देवताओं की सिद्धि भी सम्भव है। गोरक्ष नाथ जी द्वारा रचित साबर-मंत्रों में काली, भैरव, हनुमान की सिद्धि, वीर सिद्धि, मन इच्छा अनुसार खाद्य-पदार्थ सामग्री को प्राप्त करने हेतु वेताल सिद्धि आदि है। किन्तु आज के समय में साबर-मंत्रों का भी दुर-उपयोग होने लगा है।<br />
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प्रारम्भ का तान्त्रिक केवल 10 महा विद्याओं को मानता था, किन्तु जैसे-जैसे समय बदलता चला गया वैसे-वैसे साधक 10 महा विद्याओं की कठिन साधना से बचने लगे और जो दुसरा तान्त्रिक पड़ाव आया उस में 10 महाविद्याओं कि जगह, 9 दुर्गाओं ने ली। कहने का तात्पर्य यह है कि आम व्यक्ति दस महा विद्याओं की कठिन साधनाओं को छोड़ कर नौ दुर्गाओं की साधना करने लगा और इस प्रकार नवरात्रों का प्रारम्भ हुआ। कहने को तो यह 9 दुर्गायें आदिशक्ति माता पार्वती का ही रूप है। किन्तु इनकी शक्तियाँ एवं कार्य क्षेत्र अगल-अगल है। इन्ही नौ दुर्गाओं के आधार पर नवरात्रे शुरू हुऐ, जिसमें कि तान्त्रिक साधक आदिशक्ति के नाम पर उपवास रखतें है और अपनी इच्छा अनुसार दुर्गा के किसी एक रूप की साधना करते है। आज भी अनेकों साधक इसी नियम को मानते हुऐ साधना करते आ रहे है। किन्तु इन साधकों में भी दो मत बन गये- एक सात्विक दुसरा तामसिक। सात्विक साधक साधना पूर्ण होने पर खीर-हलवे आदि का भोग लगाते है। किन्तु तामसिक साधक साधना पूर्ण होने पर मदिरा और बकरे आदि कि बलि लगाते है। सिद्धियाँ दोनों ही साधकों को प्राप्त होती है और दोनों ही साधक अपनी इच्छा अनुसार अपनी सिद्धियों का उपयोग करते है। किन्तु जो साधक लोक-कल्याण में अपनी सिद्धि का उपयोग करता है, वह सद्गति को प्राप्त होता है। और जो साधक अपनी सिद्धि का दुर-उपयोग करता है, वह दुर्गति को प्राप्त होता है।<br />
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शैव-सम्प्रदाय को मानने वाले तान्त्रिक शिव के साथ-साथ धीरे-धीरे भैरव की उपासना करने लगे। भैरव-साधना को स्थापित करने के पीछे जो मूल कारण था, वह यह था कि साधक का तामसिक होना। क्योंकि भगवान शिव कि साधना सात्विक है। इसलिऐ शिव-संप्रदाय में जो तामसिक साधक पैदा हुऐ, उन्होंने भैरव-साधना प्रारम्भ कि और साथ ही माँस-मदिरा का सेवन प्रारम्भ कर दिया। यहीं से तान्त्रिकों में व्यभिचार उत्पन्न हो गया। क्योंकि जो साधक सात्विक से तामसिक बन गया हो, तो उस कि तामसिकता का अन्त सहज नहीं होता। धीरे-धीरे भैरव-उपासकों ने एवं नौ दुर्गा उपासकों ने अपने आप को नीचे कि तरफ गिराना प्रारम्भ कर दिया। धीरे-धीरे मूल साधनाऐं और सात्विक साधनाऐं समाप्त होने लगी और सभी जगह तामसिकता ने स्थान ग्रहण कर लिया। नौ दुर्गाओं का स्थान 64 योगनियों ने ले लिया और साथ-ही-साथ डाकनी, शाकनी की पूजा, नवदुर्गा के सात्विक और तामसिक साधकों ने प्रारम्भ कर दी। दुसरी तरफ भैरव-साधना करने वाले साधक भूत, प्रेत की सिद्धि करने लगे। इन साधकों का मुख्य ध्येय यही था कि आम व्यक्तियों को अपनी सिद्धि का चमत्कार दिखाया जा सके और चमत्कार के द्वारा अपना स्वार्थ सिद्ध किया जा सके। तान्त्रिकों का व्यभिचार बढ़ता चला गया।<br />
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तन्त्र के इस वीभत्स रूप को देख कर आम व्यक्ति सामने आया, जो शास्त्रों कि बड़ी-बड़ी सिद्धियों को तो नहीं कर सकता था। अपितु वह परमात्मा के लिये श्रद्धा और भावना से भरा हुआ था। इन आम व्यक्तियों ने छोटे-छोटे मंत्र जिनकों कि यह असानी से याद कर सकते थे, उनका जाप प्रारम्भ कर दिया। इन मंत्रो में अधिकतर साबर मंत्र थे, क्योंकि साबर मंत्र आम बोल-चाल कि भाषा में होते थे और इन्हे याद करना भी आसान होता था। कहते हैं कि श्रद्धा में शक्ति होती है और इन आम व्यक्तियों कि श्रद्धा रंग लाई और ओझा-गुणीयों का मत प्रारम्भ हो गया। ये ओझा-गुणी-साधक न तो कोई लम्बा चौड़ा विधान जानते थे और न ही कोई विशेष कर्म-कांड करते थे। यह साधक तो श्रद्धा और भावना से भरे हुऐ थे। धीरे-धीरे तन्त्र-सम्प्रदाय मिटने लगा और ओझा-गुणीयों का समप्रदाय फलने-फुलने लगा। आम व्यक्ति या जन-मानस को अत्यधिक फायदा होने लगा। अधिकतर हर छोटी-बड़ी समस्याओं का ईलाज, इन साधकों के पास होता था और ये साधक नि-स्वार्थ भाव से जन-सेवा करते थे। एक समय ऐसा भी आया जब तान्त्रिकों और इन साधकों में टकराव उत्पन्न हुआ। जिस में तान्त्रिकों कि हार हुई और इन श्रद्धा से भरे हुऐ साधकों कि जीत हुई। इस जीत से भी इस सम्प्रदाय को बल मिला और धीरे-धीरे यह सम्प्रदाय, एक छोटे से गाँव से ले कर शहरों तक फैलता चला गया।<br />
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इस सम्प्रदाय कि मुख्य पहँचान यही थी कि यह साधक सात्विक होते हुऐ भी श्रद्धा और भावना से भरे हुऐ थे। मंत्रो के नाम पर सिर्फ अपने देवता का नाम लेते थे और हर समस्या का समाधान करते थे। यह साधक लोक-देवताओं को प्रधान मानते हुऐ, निष्कपट भाव से उनकी सेवा करते थे। जहाँ तान्त्रिक अनुष्ठान करके सिद्धि को प्राप्त करते थे, वहीं यह साधक अपने लोक-देवता को स्नान आदि करा कर या सिर्फ अपने घर में ही एक अलग स्थान बना कर, अपने देवता के नाम का एक अलग दीपक(चिराग) जलाते थे। इतना भर करने से ही उन्हें उस देवता कि कृपा प्राप्त होती थी। जो साधक मन, क्रम, वचन से अधिक पवित्र होता था, उसे उतनी ही जल्दी उस देवता कि कृपा प्राप्त होती थी। इन साधकों ने अपने लोक-देवताओं में जिनको मुख्य स्थान दिया- उन में हनुमान जी, भैरव जी, क्षेत्रपाल, कुल देवता (अपने कुल की परम्परा में जिस देवता की पूजा होती थी), ग्राम देवता(गाँव में जो प्रधान देवता होता है), नगर देवता(सम्पूर्ण नगर का श्रेष्ठ देवता, जैसे कि दिल्ली में कालका जी)। सिर्फ इतना ही नहीं, इन साधकों ने हिन्दु और मुस्लिमों का भेद भाव त्याग कर सयैद, पीर, परी आदि कि साधना भी प्रारम्भ की। प्रत्येक साधक अपनी गुरू परम्परा के अनुसार या अपनी इच्छा अनुसार देवताओं की पूजा करने लगा। इन्हीं साधकों ने कुछ समय बाद सात-माताओं की पूजा पर बल दिया और हर गाँव या नगर में, एक छोटे से मन्दिर के रूप में इन सात माताओं कि स्थापना होने लगी। साधकों के साथ-साथ आम व्यक्ति भी इन माताओं की पूजा करते लगा। आज भी होली से ठीक सात दिन बाद जो शीतला माता की पूजा होती है, वह वास्तव में सात माताओं कि पूजा होती है।<br />
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सात माताओं कि सहज पूजा के मूल में दस महाविद्याओं में से सात महाविद्याओं का रहस्य छिपा हुआ है। दस महाविद्याओं कि साधना कठिन होने कि वजह से इन्हें सात-माताओं का सुक्ष्म रूप दिया गया। दस में से सात को स्थान देने के पीछे जो रहस्य था, वह यही था कि दस महाविद्याओं में से सात महाविद्याऐं सात्विक और तामसिक दोनों है। इसलिऐ एक नई परिपाटी प्रारम्भ की ताकि सात्विक और तामसिक दोनों ही साधक अपनी इच्छा अनुसार पूजा कर सके। क्योंकि ओझा-गुणीयों में भी धीरे-धीरे तामसिकता आने लगी थी। आज भी इन सात-माताओं की पूजा सात्विक और तामसिक दोनों साधक अपने-अपने ढंग से करते है एवं हिन्दु धर्म की लगभग सभी जातियाँ इनकी पूजा करती है, चाहे वह क्षत्रिय हो या ब्राह्मण, वैश्य हो या शुद्र। इससे जो सबसे बड़ा फायदा हुआ, वह यह था कि दोनों ही तरह के साधक एक ही जगह बन्ध कर रह गये। जहाँ पुरानी परिपाटी में सात्विक-सात्विक था और तामसिक-तामसिक, वहीं इस नई परिपाटी में दोनों एक हो गये और जन-मानस को फायदा होने लगा। सात-माताओं कि स्थापना गाँव कि सीमा पर की जाती थी। इससे साधकों को दुसरा जो सबसे बड़ा फायदा था, वह यह था कि यह सात-माताऐं उस गाँव को प्रत्येक अला-बला और बिमारियों से सुरक्षा प्रदान करती थी।<br />
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इन सात-माताओं के साधकों में से कुछ साधक व्यभिचार होकर श्मशान की साधनाओं की तरफ बढ़ने लगे। श्मशान की तरफ बढ़ने वाले ये साधक, भैरव-साधकों की तरह भूत, प्रेत या शव-साधना नहीं करते थे। बल्कि ये मसान और कलवों की पूजा करने लगे। इस पूजा में यह लोग मरे हुऐ छोटे बच्चों के शव को बाहर निकालतें और उस कि सिद्धि करते, जिसे कलवा सिद्धि या मसान सिद्धि कहाँ जाता है। इन साधकों कि यह सिद्धि प्रारम्भ में लोक-कल्याण कारक थी, किन्तु कुछ समय बाद इसका भी वीभत्स रूप आम व्यक्ति को देखने को मिला। मसान आदि की सिद्धि करने वाले साधक धीरे-धीरे लोभ में फँसने लगे और जहाँ ये साधक प्रारम्भ में जन सेवा करते थे या दुष्टों का मूठ या घात चला कर नाश करते थे। वहीं बाद में ये साधक पैसा ले कर किसी के उपर भी मूठ या घात चलाने लगे जिससे कि आम जन-मानस परेशान हो उठा। ऐसे दुष्ट-साधकों से बदला लेने के लिये वीर-सिद्धि के साधक सामने आये। इसमें पाँच-वीरों की साधना को प्रधानता दी गई। इन पाँच-वीरों को एक चिराग या पाँच चिराग जला कर और सफेद रंग का कोई भी प्रसाद लगा कर सिद्ध किया जाता था। इन पाँच-वीरों में जो मुख्य स्थान मिला वह गुगाजी(जाहर वीर) को था। गुगाजी को जाहर वीर भी कहा जाता है। जाहर वीर के झन्ड़े तले पाँच वीरों की स्थापना हुई और 52 वीरों का जन्जीरा बना। कुछ साधक 52 वीरों के जन्जीरे को, 52 डोर के नाम से भी जाना जाता है। पाँच वीरों में जाहार वीर, हनुमन्त वीर, नाहरसिहं वीर, अंघोरी वीर, भैरव वीर मुख्य थे। 52 वीरों के जन्जीरे के पाँच मालिक हैं। सात्विक और तामसिक देवताओं का यह अनुठा गठबन्धन था। इन वीरों में जहाँ जाहर वीर और हनुमन्त वीर सात्विक है, वहीं नारसिहं, भैरव वीर और अंघोरी वीर तामसिक है। इस की जो स्थापना की गई, उसमें सात्विक और तामसिक दोनों ही पूजा विधान रखे गये। इस साधना में भी श्रद्धा और भावना को प्रधान माना गया। किन्तु पाँच वीरों की साधना करने वाला साधक, अपनी इच्छा अनुसार अपनी सिद्धि का इस्तेमाल नहीं कर सकते थे।<br />
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यहाँ पर साधक या आम व्यक्ति केवल अर्जी लगा कर (प्रार्थना करके) छोड़ देता है। उस अर्जी का फैसला उन पाँच वीरों के हाथ में होता है। ये पाँच वीर साधक की अर्जी को सुनकर, उसके भाग्य, कर्म, श्रद्धा और भक्ति को देख कर ही फैसला करते है। हिन्दुओं की इस नई व्यवस्था को देख कर ही, मुस्लिम सम्प्रदाय में भी पाँच पीरों की स्थापना हुई। इन पाँच पीरों को कुछ साधक पाँच-बली भी कहते है। अस्त बली, शेरजंग, मोहम्मद वीर, मीरा साहब और कमाल-खाँ-सैयद जैसी व्यवस्था पाँच पीरों-वीरों की साधना में थी। वैसी ही परम्परा और व्यवस्था पाँच पीरों में थी जैसी कि पाँच वीरों में थी। दोनों ही मतों में श्रद्धा और भावना प्रदान थी। आज के समय में इस परम्परा का रूप अनेकों ही जगह देखा जा सकता है। धीरे-धीरे पाँच हिन्दू वीर और पाँचों मुस्लमानी पीर इकठ्ठे पूजे जाने लगे। अधिकतर हिन्दू पाँच वीरों के साथ-साथ पाँच पीरों को भी मानने लगे। जहाँ पाँच वीर साधक और आम व्यक्ति को सुरक्षा प्रदान करते हुऐ, दुष्टों का विनाश करते थे, वहीं पाँचों पीर सुख और समृद्धि प्रदान करते थे। इसी प्रकार सिख धर्म में भी पंच प्यारे हैं।<br />
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धीरे-धीरे आवेश का प्रचलन प्रारम्भ हुआ जो साधक बदन को हिलाते अर्थात झुमते हुऐ लोगों कि समस्याओं का समाधान करने थे। ऐसे साधकों के बारे में कहा जाता है कि इस साधक के अन्दर देवता की आत्मा ने प्रवेश किया हुआ है। साधक के शरीर में किसी भी देवी या देवता की आत्मा का प्रवेश करना आवेश कहलाता है। ऐसे साधक जोर-जोर से हिलने लगते है और अपने पास आये हुऐ आम व्यक्तियों का ईलाज करते है। इस व्यवस्था में आम व्यक्ति और देवता के बीच कोई माध्यम नहीं होता अपितु आप व्यक्ति सीधे ही देवता से बात करके अपनी समस्या का समाधान पाता है।<br />
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साधना का यह प्रयोग भी आम व्यक्तियों के बीच में काफी प्रचलित है। किन्तु सही मायने में यह क्रिया तभी फलीभूत है, जब साधक गुरू के सान्निध्य में इस साधना को बार-बार करे। क्योंकि ऐसा न करने वाले साधक को अनेकों ही परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। मान लीजिऐ किसी साधक के अन्दर देवता के आवेश की बजाऐ किसी भूत या प्रेत का आवेश आ गया और उसे देवता का आवेश मान कर वह साधक जन-कल्याण करने लगा तो सम्भव है, कि आम व्यक्ति की समस्याऐं तो दूर होने लगेगीं, किन्तु साधक और उसके परिवार को अनेकों ही परेशानियों का सामना करना पड़ेगा। आज अनेकों ही ऐसे साधक हैं, जिन में देवता का नहीं बल्कि भूत-प्रेतों का आवेश आता है।<br />
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जिसके द्वारा वह जन कल्याण करते हैं। किन्तु साधक व उसका परिवार अनेकों ही परेशनियों से घिरा रहता है। अगर कोई उनसे कहे कि आप तो साधक हो देवता कि आप के ऊपर असीम कृपा है। फिर आप या आपके परिवार में परेशानी क्यों है। तो ऐसे साधक हँसकर यही जवाब देते हैं, कि जैसी देवता की इच्छा। अगर अधिक जोर देकर उनसे पूछा जाऐ तो वह, यह कहते है, कि जिस प्रकार एक डॉक्टर अपना ईलाज़ स्वयं नहीं कर सकता उसी तरह हम स्वयं अपनी समस्या का समाधान नहीं कर सकते। जो साधक ऐसा कहते है, यह पूर्णतः मिथ्या प्रचार है। अगर आप मन, कर्म, वचन से पवित्र हैं और पूर्णतः देवता का ही आवेश है, तो आपके घर परिवार में किसी भी प्रकार की कोई भी परेशानी नहीं होगी। जिन साधकों के घरों में यह परेशानियाँ है, वह साधक मन, कर्म, वचन से पवित्र नहीं है अथवा देवता के आवेश के स्थान पर भूत या प्रेत का आवेश है। आज का जो समय है, इसमें सबसे ज्यादा जो देखने को तन्त्र मिलता है, वह ओझा, गुणी या आवेश वाले तान्त्रिकों का अधिक है। सिद्ध तान्त्रिक तो बहुत ही कम देखने को मिलते है। अघोर-विद्या के जो भी सिद्ध तान्त्रिक थे, वह भी धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे है। भैरवी-साधना का तो बड़ी मुश्किल से ही कोई नाम लेवा बचा है। कोई माने या न माने किन्तु सभी साधनाऐं धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है।<br />
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इसके मूल में जो कारण है, वह यही है कि तान्त्रिकों का व्यभिचारी होना एवं शिष्यों की आस्था का न होना। जब तक गुरू और शिष्य दोनों के ही अन्दर श्रद्धा भाव नहीं होगा और दोनों ही ब्रहम् के प्रति समर्पित नहीं होगे, तब तक तन्त्र का उत्थान सम्भव नहीं है। प्राचीन काल में जो भी साधना की जाती थी, उसके मूल में गुरू और शिष्य का एक ही उद्देश्य होता था कि अधिक से अधिक ऊर्जा का इकट्ठा करना एव कुन्डलिनी-शक्ति को जाग्रत करते हुऐ, उस के द्वारा ब्रहम् को प्राप्त करना। ऊर्जा शक्ति को इकट्ठा करने हेतु, फिर चाहे सात्विक साधना करनी पड़े या तामसिक। साधना कोई भी क्यों न हो सभी साधनाऐं हमें ऊर्जा प्रदान करती है। अगर इस ऊर्जा का हम सही इस्तेमाल करें, तो हम पूर्ण ब्रहम् को प्राप्त कर सकते हैं। अगर हमारा उद्देश्य पवित्र है, तो फिर कोई भी शक्ति हमें उस परमात्मा से मिलने से रोक नहीं सकती।<br />
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हम सभी का कर्तव्य है कि एक बार फिर से एक नये युग की रचना हो और जितनी भी साधनाऐं लुप्त होती जा रही है, उन सबको पुनः स्थापित करें।अगर हमने समय रहते अपने आपको जागरूक नहीं बनाया तो एक दिन ऐसा आयेगा, जब हमारी सभी प्राचीन धरोहर समाप्त हो जायेगी। अगर हम ध्यान-पूर्वक अध्ययन करें तो कुछ वक्त पहले वेदों का अध्ययन सभी करते थे, किन्तु आज के समय में अधिकतर व्यक्तियों को तो चार वेदों के नाम तक भी मालूम नहीं है। कैसी विड़म्बना है कि जिन चार वेदों से यह सम्पूर्ण सृष्टि बनी है हमें उन का नाम तक याद नहीं। अगर यही हाल रहा तो एक समय ऐसा भी आयेगा, जब हम धीरे-धीरे करके सब कुछ खो चुके होगें। किन्तु कहते है कि ‘फिर पछतायेत होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत’ इसलिये हम आवाहन करते है, उन साधकों का जो सही मायने में हिन्दु धर्म कि सभ्यता को और हिन्दु धर्म के मूल तत्त्व श्रद्धा और भावना को बचाना चाहते है।<br />
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अगर हमने समय के रहते अपने आप को नहीं संभाला तो एक समय ऐसा भी आऐगा, जब हमारी हालत पश्चिमी सभ्यता से भी बुरी हो जाऐगी। पश्चिम के देशों की नकल करके हम अपने आप को महान समझ रहे है। ध्यान-पूर्वक अध्ययन करने पर पता चलता है कि आज वही पश्चिमी देश वेद-मंत्रों और गीता के ऊपर अनुसंधान (रिसर्च) कर रहे है। आर्य सभ्यता में 21 वीं सदी के अन्दर धीरे-धीरे जहाँ यह कहा जाने लगा है कि वेदों में क्या रखा है। वही पश्चिमी देशों ने वेदों का अध्ययन करके अपनी ध्यान-योग की शक्ति को इतना अधिक बढ़ा लिया है, कि जिसके बारे में हिन्दुस्तान का आम व्यक्ति सोच भी नही सकता। हिन्दुस्तान का आम व्यक्ति पश्चिमी सभ्यता की देन रेकी, लामाफैरा, क्रिश्टल-हीलिंग, फैंग-शूई, टच-थेरेपी आदि की तरफ भाग रहा है। वही पश्चिम का आम व्यक्ति हिन्दुस्तान के प्राचीन ग्रन्थों का अनुसंधान करने में लगा हुआ है। इसे हम अपना दुर्भाग्य ही कहगें कि आर्यों के पास सब कुछ होते हुऐ भी, वह पश्चिम के देशों की नकल कर रहा है। इसलिऐ हम सबको फिर से जागना होगा और जगाना होगा आम व्यक्ति को, ताकि लुप्त होती जा रही आर्य सभ्यता को समय के रहते बचाया जा सके।<br />
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<b>जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,<br />और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...</b><b style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; line-height: 18.4px;">मनीष</b><br />
<b style="font-family: arial, helvetica, sans-serif; line-height: 18.4px;">ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....</b></div>
Jai Guru Geeta Gopalhttp://www.blogger.com/profile/01621836960274288942noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6101091264294453966.post-69710213178547556022019-12-05T21:29:00.000-08:002019-12-05T21:29:11.376-08:00जीवन जीने की राह (Jeevan Jeene Ki Rah12)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<div class="MsoNormal">
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भला</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दूसरों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बुरा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">न</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">....</span></b></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">निज</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हित</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कामना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सभी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भीतर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कोई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भला</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जरूर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भावना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सभी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रखते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लोग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भले</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कार्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आरंभ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बहुत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लोग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अच्छा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दूसरे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बुरा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">न</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वृत्ति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रखते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हों।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वृत्ति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपनी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भलाई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सोचना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">स्वार्थ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होगा।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">स्वार्थ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">छोड़कर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जरूर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चाहिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिनसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दूसरों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भला</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कैसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भला</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दूसरे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बुरा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">न</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">श्रीराम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सीखा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सकता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लंका</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कांड</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भगवान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">राम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अंतिम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रयास</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रावण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भीतर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बुराई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मिट</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाए।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जामवंत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रस्ताव</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अंगद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दूत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बनाकर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भेजना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हुआ।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अंगद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रामजी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सेना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सबसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">युवा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सदस्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">था।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पीढ़ी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अधिकार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिम्मेदारियां</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सौंप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देनी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चाहिए।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अंगद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">श्रीराम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उन्हें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बड़ी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अद्भुत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शिक्षा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दी।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तुलसीदासजी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिखा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, ‘</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बहुत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बुझाइ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तुम्हहि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कहऊॅ।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चतुर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जानत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अहऊॅ।।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’ </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काजु</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तासु</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हित</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होई।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रिपु</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करेहु</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बतकही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सोई।।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रामजी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कहते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, ‘</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अंगद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जानता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हूं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तुम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चतुर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परंतु</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रावण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बात</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पूरी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तरह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सावधान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहना।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वैसी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बात</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिससे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसका</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कल्याण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कहने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बड़ी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ताकत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चाहिए।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">राम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जैसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लोग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐेसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">संवाद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बोल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सकते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भक्ति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसमें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भला</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जरूर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सोचिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दूसरे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बुरा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">न</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेकर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सावधान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहिए।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<b style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><br /></b></div>
<div class="MsoNormal">
<b style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">काम में तत्परता
के साथ सहजता
भी हो...</b></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आलस्यअपराध</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तुरंत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बाद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">निपटाना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पड़ेगा।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तत्परता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कहते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">धीरे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">धीरे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">योग्यता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">टीवी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
‘</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करोड़पति</span><span lang="EN-US" style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’ </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कार्यक्रम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देखा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">था</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसमें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आपके</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पास</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कितना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ज्ञान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चयन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तत्परता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">था</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किसने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सीमित</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कितनी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जल्दी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">निपटाया।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लोग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जल्दी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">निपटाते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">धीरे-धीरे तत्परता
आदत बन जाती
है और आदत
बनते ही वह
हड़बड़ाहट में बदल
जाती है। खूबी
ही कमजोरी बन
जाती है, क्योंकि
तत्परता और हड़बड़ाहट
के बीच सबसे
महत्वपूर्ण बिंदु है सहजता।
अपनी सहजता कभी
खोएं। कितनी ही
जल्दी परफार्मेंस देना
हो, सहज बनें
रहें। वरना हड़बड़ा
जाएंगे। खास तौर
पर जब चुनौती
सामने खड़ी हो
तो हड़बड़ाहट बिल्कुल
करें। मनुष्य के
जीवन की समस्याएं
उसके शरीर के
दो अंगों की
तरह होती हैं।
बाल और नाखून।
इन्हें काटते समय हम
बहुत सावधान रहते
हैं। यदि जल्दबाजी
कर भी रहे
हों तो हड़बड़ाहट
नहीं करते, क्योंकि
हम जानते हैं
इनका जरा-सा
गलत कटना नुकसान
दे सकता है।
इन्हे जड़ से
उखाड़ने की गलती
भी करें। इसी
तरह जब समस्याएं-चुनौतियां सामने हों,
तत्परता बनाए रखें,
सहजता खोएं तो
आप हड़बड़ाहट में
नहीं उतरेंगे। परत-दर-परत
जब आप समस्याओं
को खोलेंगे तो
सबसे नीचे समाधान
छुपा हुआ पाएंगे।
सहज होकर खोलेंगे
तो उस अंतिम
बिंदु पर पहुंच
जाएंगे जहां समाधान
हैं। इसलिए तत्पर
रहें, सहज रहें,
हड़बड़ाहट से बचें।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<b style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><br /></b></div>
<div class="MsoNormal">
<b style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">ईश्वर को पूजते
हैं, तो उनके
गुण भी अपनाएं..</b></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सबसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शानदार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इंसान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दूसरों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">खुशी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बांट</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सके।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दूसरों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">झोली</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जितनी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अधिक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रसन्नता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मस्ती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आनंद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">डालेंगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऊपर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वाला</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इन्हीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चीजों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आपकी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">झोली</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देगा।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेकिन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसके</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तैयारी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करनी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होगी।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कुछ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाएंगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समझाएगा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">क्यों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बेकार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">? </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मामले</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कंजूस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसके</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भीतर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वृत्ति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पैदा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करनी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पड़ेगी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बिना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किसी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समीकरण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दूसरों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कुछ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पाएंगे।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वृत्ति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नाम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दया।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जैसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वृत्ति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भीतर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उतरती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दूसरों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मदद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इच्छा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रखने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लगते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किसी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कठिन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसका</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सहारा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसके</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">साथ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहकर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीवन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कुछ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेकिन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यदि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भीतर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पाएंगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करेंगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जमानेभर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समीकरण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बैठाएंगे।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आपका</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">संबंध</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किसी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">धर्म</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">घर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परमात्मा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कोई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">छवि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मूर्ति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">या</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">स्थान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जरूर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होगा।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दूसरों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दुख</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दूर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भावना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रखे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दयावान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कहा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">व्यक्ति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बड़ा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कीमती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शास्त्रों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ईश्वर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रूप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दयामय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">माना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसीलिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहीम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहमान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जैसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शब्द</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">निकलकर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आए।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">क्षमा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करुणा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ये</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दिव्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गुण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परमात्मा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसीलिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पूजनीय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शक्ति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यदि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पूज</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसके</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कुछ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गुण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भीतर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उतरने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चाहिए।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बिना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किसी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समीकरण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दूसरों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हित</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऊपर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वाला</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">खुशियों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बारिश</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लगता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<b style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><br /></b></div>
<div class="MsoNormal">
<b style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">देह के साथ
संयम रखेंगे तो
प्रदर्शन से बचेंगे...</b></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बहुत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कमलोग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अकेले</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपनी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">साथ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मनुष्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जैसा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">व्यवहार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हों।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चाहे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">खान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">या</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भोग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">विलास</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अकेले</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मनुष्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अधिकांश</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मौकों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जानवर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जैसा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भोग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">विलास</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">संयम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रखना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बड़े</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बड़ों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बात</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रही।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एकांत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिसने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">साथ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मनुष्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जैसा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">व्यवहार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समझ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाएंगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">क्या</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एकांत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दिव्यता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">क्या</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शरीर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सदुपयोग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">क्या</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">? </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एकांत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शरीर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">साथ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चुके</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">याद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शर्मिंदगी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">महसूस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यदि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एकांत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मनुष्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">संयमित</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मनुष्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जैसा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आचरण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसका</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लाभ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आपके</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">व्यावसायिक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सार्वजनिक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीवन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मिलेगा।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वरना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">छुप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">छुपकर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बिना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लोगों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जानकारी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">साथ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">खिलवाड़</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चुके</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आदत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सबके</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सामने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसमें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शरीर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्राथमिक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रखते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसीलिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कोई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इरादा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लोग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मुझे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पहचानें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मुझे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ख्याति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मिले।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लोग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शरीर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लाइट</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हाउस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जैसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जहाज</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उतरने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रकाश</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">स्तंभ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आवश्यकता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लोगों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शरीर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इस्तेमाल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देखें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रदर्शन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यहां</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अहंकार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जन्म</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अकेले</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपनी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मनुष्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समझें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">फिर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सबके</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सामने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रदर्शन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बचेंगे।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होंगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेकिन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नाम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ख्याति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भावना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आएगी।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>सफलता मिलने पर अहंकार
नहीं करें...<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेकिन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कोई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> ‘</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span lang="EN-US" style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’ </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परमशक्ति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सभी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">धर्मों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हिसाब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नाम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दिया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दिन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ये</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समझ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भाव</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भीतर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उतर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दिन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सारे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हुए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शांत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सकते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिंदगी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऊपर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वाले</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिखी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पटकथा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भाग्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">न</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जोड़ें।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पटकथा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिखने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बाद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अभिनेता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अभिनय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हुनर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दिखाना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बहुत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सारी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चीजें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पटकथा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सफल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बनाती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अंगद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समझा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जैसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हुआ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">श्रीराम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दूत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बनकर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रावण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पास</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाएंगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अंगद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रामजी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रणाम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हुए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">टिप्पणी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कृपा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गुणों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सागर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऊपर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किसी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परमशक्ति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मानते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हुए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गुण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यहां</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तुलसीदासजी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिखा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,‘</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">स्वयंसिद्ध</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काज</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नाथ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मोहि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आदरु</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दियउ।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बिचारी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जुबराज</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पुलकित</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हरषित</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हियउ।।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">स्वामी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सिद्ध</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रभु</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मुझे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आदर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दिया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">विचार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अंगद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हृदय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शरीर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पुलकित</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गया।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऊपर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वाले</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पास</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इतनी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ताकत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सारे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सकता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेकिन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कराता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लगने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लगता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किया।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">निमित्त</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किसी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">घटना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">स्थिति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कारणभर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भाव</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जागने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बाद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आलसी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">न</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भाग्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">टिकना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बल्कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मानना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सारे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करेंगे।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परिणाम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यदि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सफलता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रूप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अहंकार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करेंगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">असफल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उदास</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होंगे।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>शब्दों के पीछे
के इरादे पर
भी नज़र रखें...<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शतरंज</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">खिलाड़ी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बात</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तैयार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कौन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चाल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चलेंगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कौन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सामने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वाला</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चलेगा।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सोच</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कारण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शतरंज</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अधिकतर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">खिलाड़ी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">विक्षिप्त</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उन्हें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तैयारी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रखनी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">खेल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">खेलना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पागल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जैसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मोहरे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चाल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चलते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ज़िंदगी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शतरंज</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चलती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शब्दचाल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शतरंज।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किसी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शब्द</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सुनें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कोई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आपसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बात</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">केवल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सुनिएगा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शतरंज</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">खिलाड़ी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तरह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शब्दों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पीछे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बोलने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वाला</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">व्यक्तित्व</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कैसा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नीयत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बोल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसके</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">क्या</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इरादे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सकते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नज़र</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रखें।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">व्यक्ति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जैसा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कभी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कभी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उससे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हटकर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बोलता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उदाहरण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कैकयी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मंथरा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शब्दों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ठीक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पकड़</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पाई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">थी।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मंथरा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बोल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">थी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तुम्हारी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सबसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बड़ी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हितैषी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हूं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कैकयी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समझ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पाई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शब्दों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पीछे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मंथरा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मतलब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">क्या</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आज</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">व्यावसायिक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दुनिया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मंथराओं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कमी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मंथरा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वृत्ति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अच्छे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अच्छे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समझदारों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">निपटा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मंथराएं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सत्ता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पावर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">निकटता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बनाने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">माहिर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मंथरा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जैसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लोग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपनी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कमजोरी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">छिपाने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चापलूसी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भरे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शब्द</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हितैषी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बनने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दावे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करके</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समझदारों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बुद्धि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसलिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">खासतौर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बाहर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दुनिया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शब्द</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सुनते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सावधान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">क्योंकि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बोलने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वाले</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नीयत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सुनाई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसके</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पीछे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भाव</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दिखाई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देते।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>संतान के साथ
गुरु-शिष्य का
रिश्ता रखें<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">माता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पिता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">माता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पिता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">क्यों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">? </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वर्ग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसको</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">विवाह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परिणाम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मानता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वर्ग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कहता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बच्चे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पैदा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसलिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किए।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">संतानों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सुख</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">साधन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उपलब्ध</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कराएं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसमें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कोई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बुराई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेकिन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">टिक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ज्यादा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कीमत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">संतान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चुकाती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आजकल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बच्चे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">माता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पिता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मिलता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मानते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसमें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कोई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दिक्कत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेकिन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">खतरा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शुरू</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">माता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पिता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ड्यूटी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उनका</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अनिवार्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कर्तव्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मानने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लगते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">घरों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बहस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हुए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बच्चे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कहते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अधिकार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमको</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जरूरत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चीज</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मिले</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">क्योंकि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">धरती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लाए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सुविधाएं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सकते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">थे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">फिर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पैदा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">क्यों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">? </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बच्चों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">द्वारा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">माता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पिता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रकार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रहार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यहां</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">माता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पिता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रयोग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सकते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बच्चों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रिश्ता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जोड़ें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गुरु</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शिष्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अध्यात्म</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दुनिया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कोई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गुरु</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रिश्ता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बनाता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अधिकतर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शिष्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गुरु</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आधी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">श्रद्धा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रखते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आधे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">संदेह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बच्चे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उनमें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">माता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पिता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">संदेह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उससे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उनको</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लड़ने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेकिन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">श्रद्धा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मामले</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रयास</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उनकी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">श्रद्धा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गतिमान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दिन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बच्चे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परिपक्व</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होंगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">संदेह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दूर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाएगा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">श्रद्धा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आएगी।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसलिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बच्चों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गुरु</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शिष्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">संबंध</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रखें।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पाएंगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आपके</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीवन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कोई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गुरु</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कोई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">न</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मिले</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हनुमानजी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गुरु</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बनाया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सकता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तरह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अध्यात्म</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परिवार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बुनियाद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बनेगा।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>सुबह उठना यानी
प्रकृति से श्रेष्ठतम
लेना<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आजकल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जितने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कठिन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">माने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उनमें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सुबह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जल्दी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उठना।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वाले</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> 10-15 </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">साल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बाद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शायद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देश</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">घरों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जल्दी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उठने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वाली</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पीढ़ी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">खत्म</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाएगी।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जल्दी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उठने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">महत्व</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समझेगा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रात</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">:</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मतलब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समझ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आएगा।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रात</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">:</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यानी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सूर्योदय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">घड़ी।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चूंकि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सूरज</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रकट</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसलिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ध्यानमय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ज्ञानमय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पराक्रममय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऊर्जा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बिल्कुल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ताजी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ताजी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रकट</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सारे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देवता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपनी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शक्ति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">साथ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हवा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रूप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शास्त्रकारों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कालपुरुष</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">घोड़े</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उपमा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हुए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कहा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उषाकाल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यानी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रात</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">:</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">घोड़े</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सिर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिसने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गंवाया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समझो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कालपुरुष</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सिर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काट</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दिया।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसलिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सुबह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उठना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">केवल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बिस्तर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">छोड़ना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उससे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ज्यादा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रकृति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कुछ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पकड़ना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सुबह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जल्दी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उठना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अनुशासन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">फिर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दिनभर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परिश्रम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अनुशासन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">स्पर्श</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मिल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">श्रम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ज्यादा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परिणाम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेगा।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पहलवान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दूसरे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पहलवान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गिराकर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसकी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">छाती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चढ़</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऊपर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वाले</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ज्यादा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ताकत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लगती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">क्योंकि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">फिक्र</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नीचे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वाला</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पहलवान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">खिसक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">न</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाए।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परिश्रम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नीचे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वाले</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पहलवान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तरह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऊपर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वाले</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रूप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अनुशासन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लाद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दिया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अनुशासन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दबाव</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">न</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बनाएं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सुबह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उठने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मतलब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यूं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समझें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रकृति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">श्रेष्ठ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>अशांति से काम
करेंगे तो कामयाबी
अधूरी...</b><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसमें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बुराई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कोई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आदर्श</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिन्हें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रोल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मॉडल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मानते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उन्होंने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जैसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यदि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वैसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कोई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दिक्कत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मौलिकता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिन्हें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">श्रेष्ठ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">या</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आदर्श</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मानते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उनकी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अच्छी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बातें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यदि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जुड़</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाएं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परिणाम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अच्छे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आएंगे।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उदाहरण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समझें।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अंगद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हनुमानजी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रोल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मॉडल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मानते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">थे।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हनुमानजी की कार्यशैली
पर बारीक नज़र
रखते थे। इसीलिए
जब हनुमानजी पहली
बार लंका गए
उस समय जो
दृश्य उन्होंने निर्मित
किया वही अंगद
ने भी किया।
लंका जाते समय
हनुमानजी ने सभी
वानर साथियों को
प्रणाम किया, श्रीराम को
हृदय में धरा,
चेहरे पर प्रसन्नता
रखी और रवाना
हो गए। उसके
बाद जब अंगद
को दूत बनकर
रावण के पास
जाने का अवसर
आया तो उन्होंने
भी ऐसा ही
किया। तुलसीदासजी ने
लिखा.., </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">‘बंदि चरन
उर धरि प्रभुताई। </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अंगद चलेउ सबहिं
सिरु नाई।।<span lang="EN-US">’</span><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">श्रीराम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चरणों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वंदना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उनकी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रभुता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हृदय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">धरकर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अंगद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सबको</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रणाम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हुए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दिए।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मनुष्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ईश्वर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हृदय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रख</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मस्ती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रखता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसके</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इरादे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जरूर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पूरे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लोगों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अवश्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आदर्श</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बनाएं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिन्होंने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीवन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">संघर्ष</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">धैर्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">छोड़ते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हुए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पूरी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शांति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किया।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अशांत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहकर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करेंगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कामयाबी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अधूरी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होगी।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रसन्नता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">साथ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कठिन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सफलता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अशांति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लाती।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किसी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आदर्श</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बनाते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हुए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसके</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जैसी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कार्यशैली</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपनाई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">राह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आसान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>बदलाव भीतर से
हो तो आसान
होता है...<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बदलाव</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मनुष्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मूल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">स्वभाव</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कुछ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">न</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कुछ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बदलते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसकी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तासीर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बदलाव</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शब्द</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अगर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ठीक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">न</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समझा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हथियार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देश</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नेता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कहते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बदलाव</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तैयारी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">व्यवस्था</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बदल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देंगे।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेकिन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">क्या</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जनता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बदलती।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लोग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कहते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कैसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बदलें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">? </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नेता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बदल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहे।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चूंकि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दोनों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बदलाव</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अर्थ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समझते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसलिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परिवर्तन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रयासों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अच्छे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परिणाम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">निकल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पाते।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हिंदू धर्म में
अवतार की परम्परा
बदलाव की कहानी
है। राम ने
चरित्र में बदलाव
लाकर कृष्ण बन
गए। देश-काल-परिस्थिति के अनुसार
बदलाव जरूरी हो
जाता है। लेकिन,
याद रखें परिवर्तन
दो तरह से
होता है। एक
बाहर की व्यवस्था
में बदलाव जैसे
हमारी जीवनशैली, कामकाजी
दुनिया आदि में
परिवर्तन। इसके लिए
नियम, अनुशासन ये
सब लादने पड़ते
हैं। लेकिन इस
समय यदि भीतर
चैंज नहीं किया
गया तो बाहर
का बदलाव औपचारिकता,
मजबूरी और दिखावा
मात्र बन जाएगा।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मनुष्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भीतर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बदलने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तैयार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">संस्कारों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वहां</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बाहर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कोई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ढोंग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">या</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अभिनय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होता।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देश</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बदलेगा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बदलेगा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परंतु</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">स्वच्छता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ईमानदारी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सेवा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आदि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समझते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हुए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भीतर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उतारें।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भीतर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बदलाव</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शरीर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">निकलने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वाली</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तरंगों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पॉजिटीव</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बाहर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परिवर्तन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लाना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आसान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>मूर्ति को प्राण
के भाव से
पूजें, परिणाम मिलेंगे<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शास्त्रों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिखा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मूर्ति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पूजा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आदमी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ईमानदार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बनाती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेकिन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मूर्ति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मामले</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पूजा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अर्थ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अलग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ढंग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समझना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होगा।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कोई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मूर्ति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पूजने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">योग्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसकी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्राण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रतिष्ठा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यानी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मनुष्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तरह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पत्थर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्राण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">डालना।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किसी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मूर्ति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पूजा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसमें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्राण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देखना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आपके</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">साथ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीवंत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लोग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उनके</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भीतर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्राणों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मोल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समझना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लोग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मूर्ति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पूजते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आसपास</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वालों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">संवेदनशील</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रेमपूर्ण।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दिन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">घर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बच्चों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पत्नी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">माता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पिता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">या</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किसी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सदस्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भीतर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्राण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देख</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेंगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आपका</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पूरा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">व्यवहार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बदल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाएगा।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मूर्ति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सामने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">माथा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">झुका</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लोगों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">झगड़</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कहां</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ठीक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">? </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्राण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रतिष्ठित</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मूर्ति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आपको</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देख</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेकिन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कोई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गलत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मूर्ति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पूछती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ये</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तुमने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">क्या</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">? </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बल्कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बताती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तुम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कुछ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">श्रेष्ठ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सकते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">थे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किया।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सजग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आचरण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उठाओ।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">धर्मस्थलों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्राण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रतिष्ठित</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मूर्तियां</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वहां</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसीलिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चाहिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जगह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मंत्रोच्चार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चुका</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लोग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वहां</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">श्रद्धा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अर्पित</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीवन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऊर्जा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मार्गदर्शन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रेरणा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्राप्त</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मूर्ति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्राण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भाव</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पूजा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परिणाम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मिलेंगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वरना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">केवल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पत्थर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पूजकर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मात्र</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">औपचारिकता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिसका</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कोई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सदपरिणाम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्राप्त</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होगा।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<b style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><br /></b></div>
<div class="MsoNormal">
<b style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">तीन पंखों की उड़ान
पहुंचाती है ऊंचाई
पर...</b></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">केवल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लंबी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">छलांग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीवन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सफलता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मिलती।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसके</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उड़ान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जरूरी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उड़ान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मतलब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परिंदों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अच्छा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कौन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समझ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सकता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेकिन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बहुत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऊंची</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उड़ान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भरने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वाले</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परिंदे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पाते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उड़ान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पंखों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जरूरत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पक्षी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">केवल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उड़ना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जानते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उनके</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीवन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">क्रिया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पुरखे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उन्हें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सिखा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गए।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेकिन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मनुष्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उड़ान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ठीक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समझ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सकता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उड़ान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मतलब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समझ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाएगा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पक्षी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भले</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पंख</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उड़</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मनुष्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उड़ने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तीन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पंख</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लगेंगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ये</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">- </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ज्ञान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कर्म</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उपासना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उड़ान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ले</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सबसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बड़ी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बाधा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दुर्गुण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बनते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इन्हीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दुर्गुणों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">निपटने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पंख</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हथियार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बनकर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सुरक्षा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जटायु</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पंखों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शस्त्र</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बनाते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हुए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रावण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">टक्कर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ली</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">थी।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीवन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कुछ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यात्राएं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जहां</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किसी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पंख</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सहारे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सकता।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पास</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ज्ञान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कर्म</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उपासना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रूपी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पंख</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ज़िंदगी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उड़ान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तीनों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जरूरत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पड़ेगी।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">केवल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ज्ञान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मार्ग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चलेंगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बाकी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चीजें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यानी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कर्म</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उपासना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मतलब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समझ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पाएंगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उनका</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ज्ञान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अधूरा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाएगा।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">न</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">केवल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कर्म</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">न</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">केवल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उपासना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीवन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यात्रा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पूरी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सकती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ज्ञान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कर्म</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उपासना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तीनों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पंखों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भरी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उड़ान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऊंचाई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पहुंचा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देगी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">छूना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चाहते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>सीखे हुए को
कर दिखाने में
ही उसका महत्व...<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चुनौती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बड़ी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रयास</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">छोटे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चाहिए।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कोई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बेजोड़</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देखकर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चौंक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उठे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लोगों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नज़र</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रोत्साहित</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अंगद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हनुमानजी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रेरित</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">थे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लंका</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">क्या</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करके</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">थे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चुके</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">थे।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अंगद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सुन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रखा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">था</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हनुमानजी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रावण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बेटे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अक्षयकुमार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">डाला</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">था।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हनुमानजी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पूछा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">था</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लंका</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाकर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">राजा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बेटे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दिया।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आपने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">क्या</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सोचकर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">? </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हनुमानजी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कहा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
‘</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रहार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सीधे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">स्थान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परिणाम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सफलता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मददगार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अंगद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बात</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">याद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">थी।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तुलसीदासजी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिखा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, ‘</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पुर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पैठत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रावन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बेटा।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">खेलत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होइ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गै</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भेटा।।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तेहिं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अंगद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कहुं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लात</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उठाई।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गहि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पटकेउ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भूमि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भंवाई।।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’ </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लंका</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रवेश</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अंगद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भेंट</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रावण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बेटे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वहां</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">खेल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">था।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लात</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उठाई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तभी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अंगद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पैर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पकड़कर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जमीन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मारा।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हनुमानजी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अक्षयकुमार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसलिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मारा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">था</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आक्रमण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उन्हें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रोकना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चाहता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">था।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उन्हें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रावण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पहुंचना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">था।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेकिन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अंगद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रावण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सीधे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पहुंच</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सकते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">थे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">क्योंकि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दूत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बनकर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">थे।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">फिर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उन्होंने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">क्यों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">? </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">युवा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वर्ग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जोश</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कभी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कभी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होश</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">खो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अंगद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शिक्षा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीवन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बहादुरी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दिखाने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अवसर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">फिर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चूकना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चाहिए।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सीखा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हुआ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ढंग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सीखे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">महत्व</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<b style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><br /></b></div>
<div class="MsoNormal">
<b style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">उत्सवों के माध्यम
से भीतरी बदलाव
लाएं...</b></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शरीर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काहर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अंग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">स्वार्थी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वैसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शरीर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तुलना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ईमानदार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बेईमानी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किस्से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेकिन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शरीर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आक्रमण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अंग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बेईमान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">स्वार्थी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लुटेरा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">विलासी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रशंसा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सुनना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पसंद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आंखें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सारे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दृश्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देखना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चाहती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उन्हें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देखना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चाहिए।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तरह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बाकी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अंगों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सारे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करवाना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चाहता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मर्यादा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अंगों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चाहिए।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कुल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मिलाकर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आज</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मनुष्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीवन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">संचालित</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसका</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परिणाम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपराध</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रूप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सामने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शरीर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वाले</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शरीर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वाले</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपराधों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">संख्या</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दिन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दिन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बढ़ती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">खासकर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">महिलाओं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपराध</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उनमें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उम्र</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सीमा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रही।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">स्त्री</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">साथ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पुरुष</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपराध</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मर्यादा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तोड़ी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ढाई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">साल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बच्ची</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेकर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
80 </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बरस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">स्त्री</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शारीरिक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आक्रमण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सबकुछ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शरीर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">केंद्रित</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दिन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">थे।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देश</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जितने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उत्सव</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">त्योहार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मनाए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सबके</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पीछे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">संदेश</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नैतिक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीवनशैली।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सामूहिक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रूप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रयास</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होंगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उत्सव</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">त्योहार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पीढ़ी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">संदेश</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दिया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शरीर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">साथ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अनैतिक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करें।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दूसरे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मनुष्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भीतर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बदलने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रयास</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाएं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उनमें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उत्सव</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">त्योहारों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जोड़ते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हुए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इनके</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">संदेश</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">योजनाबद्ध</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तरीके</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भारतीय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पहुंचाया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाए।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<b style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><br /></b></div>
<div class="MsoNormal">
<b style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">ऊर्जा बचाने, प्रेमपूर्ण होने
की साधना है
मौन...</b></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">थकान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">औरविवाद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ये</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दोनों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बातें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गलत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जगह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लगी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लोग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जरा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मेहनत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">थक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">खूब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परिश्रम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">थकते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गलत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जगह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">थक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जैसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कोई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">घर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आकर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">थकता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बाकी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सदस्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसके</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">साथ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दिनभर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">खूब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मेहनत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिनके</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उनके</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सामने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आकर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">थक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गए।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हाल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">विवाद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जगह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">विवाद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जहां</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रेमपूर्ण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चाहिए।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जहां</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">विरोध</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चाहिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वहां</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बचते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मनोवैज्ञानिक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कहते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">थकान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">विवाद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बातों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जुड़े</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उनमें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बोलना।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शब्द</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वाणी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परिणाम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बोलना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कहा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सकता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यदि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बोलते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सावधान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शब्दों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शरीर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">निकालने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बेहिसाब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">थकेंगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">विवाद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पड़ेंगे।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सवाल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उठता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शब्दों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">संतुलित</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कैसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">? </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ज्यादातर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लोग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जानते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चाहते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हुए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कुछ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बोलने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">विवाद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कारण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लोग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जानते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शब्द</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बहुत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऊर्जा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">खा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसीलिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">थक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">थकना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चाहिए।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शब्दों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसलिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बचाइए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उनका</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परिणाम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दूसरी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जगह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सकें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">या</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ले</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सकें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अनावश्यक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">विवाद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बचे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहें।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसका</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तरीका</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मौन।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मौन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">साधेंगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सिर्फ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शब्दों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वहन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करेंगे।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिन्होंने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">थोड़ी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मौन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">साध</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शब्द</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऊर्जा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बचा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेंगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">विवाद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बचे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कारण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रेमपूर्ण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाएंगे।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>सब कुछ ईश्वर
पर छोड़ दें,
अशांत नहीं होंगे...<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कुली</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">क्यों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">? </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसलिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पास</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जितना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बोझ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उठा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पाते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किसी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आवश्यकता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लगती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वजन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उठा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सके।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यात्रा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कुली</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लगता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सबको</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समझ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीवन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यात्रा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कुछ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बोझ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिन्हें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उठाना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चाहिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उठा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कुछ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वजन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">स्मृतियों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">स्वार्थ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">धीरे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">धीरे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ये</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इतने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भारी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चाल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लड़खड़ा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शास्त्रों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शब्द</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">- </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रिक्त</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाएं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ईश्वर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जल्दी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मिल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रिक्त</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अर्थ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">थोड़ा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">खाली</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">या</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">निर्भार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाएं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अभी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बहुत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भारी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भीतर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अहंकार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हिंसा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तनाव</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इतना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पैदा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दबे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">निर्भार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भीतर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शांति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जागती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रेमपूर्ण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीवन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परमात्मा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उतर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परमात्मा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कहने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लगते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">- </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीवन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गाड़ी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चलाइए।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">राजस्थान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यात्रा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">टैक्सी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ड्राइवर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मुझे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हुकम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हुकम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कहा।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मैने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पूछा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">- </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हुकम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">क्यों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कहते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">? </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसका</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मतलब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आदेश</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कहा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">- </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जानता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हूं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हुकम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मतलब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आदेश</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसलिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हूं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आदेश</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नानकजी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जगह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ईश्वर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिखा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">था</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-‘</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हुजूर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हुकूम</span><span lang="EN-US" style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जिस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दिन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परमात्मा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हुकूम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">या</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आदेश</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दिन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">निर्भार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">फिर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कैसा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अशांत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होंगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">क्योंकि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जानते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हुक्म</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कोई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हुकम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कोई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>खुद के साथ
रहने से मिलती
है ऊर्जा...<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चाहें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">या</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चाहें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सभी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तरह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पड़ता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">या</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कहें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रकार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अवसर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मिलते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पहला</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दूसरों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">साथ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीवन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बीता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दूसरा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मौका</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">स्वयं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">साथ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">स्थितियों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कोई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बचेगा।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दूसरों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">साथ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जरूरी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तैयारी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">साथ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होनी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चाहिए।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यदि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">स्वयं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">साथ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तैयारी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तनाव</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पड़ेंगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अशांत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहेंगे।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दूसरों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">साथ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसमें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अहंकार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">स्वार्थ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">झूठ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">छल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ये</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">खासकर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मेरे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">-</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तेरे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">खेल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">स्वाभाविक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सामने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वाले</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपनी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सोच</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आपकी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपनी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मर्जी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दोनों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">टकराएंगी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यदि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सिर्फ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दूसरों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">साथ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जरूर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अशांत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहेंगे।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसलिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">खुद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">साथ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ढंग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चाहिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">संभव</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सकता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">योग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">स्वयं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">साथ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ईश्वर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मर्जी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जुड़</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">योग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सिखाता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऊपर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परमशक्ति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आपकी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इच्छा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परमशक्ति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इच्छा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जोड़</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दीजिए।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यहां</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">टकराहट</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बंद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शांत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शुरू</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाएंगे।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मनुष्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बिना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मांगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सकते।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसलिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऊपर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वाले</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मांग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मेरी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मर्जी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तेरी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मर्जी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जुड़</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाए।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">फिर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देखिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">व्यक्ति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कोई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लगेंगे।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">साथ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बाद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऊर्जा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्राप्त</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होगी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऊर्जा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दूसरों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">साथ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हुए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शांत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मदद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करेगी।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कुछ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">साथ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जरूर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">फिर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">संसार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">साथ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दिक्कत</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आएगी।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>ज्ञान, कर्म और
उपासना का संतुलन
हो<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कृत्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">छाप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कुछ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">न</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कुछ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सभी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लोग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेकिन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अच्छा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">या</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बुरा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करके</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाएंगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लोग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">याद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रखेंगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उनके</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वैसी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">छाप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बनती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ज़िंदगी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दुनिया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">छोड़कर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बाद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लोग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उन्हेें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कामों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">याद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रखते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसीलिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कृत्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">छवि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अच्छी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बनाएं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यहां</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ज्ञान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कर्म</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उपासना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ये</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तीन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शब्द</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आप</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीवनशैली</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">संदेश</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">केवल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कर्म</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जुड़ेंगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सकता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ज्ञान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उपासना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लाभ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उठा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सकें।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कुल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मिलाकर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किसी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आधारित</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीवन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सकता।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तीनों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">संतुलन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चाहिए।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हनुमानजी तीनों का संतुलन
रखकर परिणाम देने
में अद्भुत
थे और इसीलिए
लंका कांड में
एक घटना घटती
है कि जब
अंगद रामदूत बनकर
लंका गए तो
राक्षसों ने उनको
देखा और जिस
प्रकार से प्रतिक्रिया
की उस पर
तुलसीदासजी ने लिखा-
‘भयउ कोलाहल नगर
मझारी। आवा कपि
लंका जेहिं जारी।।
भय के मारे
लंका के राक्षसों
में कोलाहल मच
गया कि जिसने
लंका जलाई थी,
वही वानर फिर
आ गया है।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ये पंक्तियां बता रही
हैं कि राक्षसों
को हनुमानजी और
उनका पराक्रम याद
था। हमारे लिए
समझने की बात
यह है कि
जिस प्रकार हनुमानजी
उनको याद थे,
हम भी ऐसे
ही कर्म रखते
हुए वे सदपरिणाम
दें जो कि
लोगों के मन
में उतर जाएं
और वर्षों बाद
भी हमें इस
बात के लिए
याद रखें कि
यह अच्छा काम
उनके द्वारा किया
गया था।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<b style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;">आंखों के इस
प्रयोग से बढ़ाएं
सकारात्मकता</b></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आंख</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वाले</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अंधे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दुनिया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बड़ी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">संख्या</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लोगों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देख</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सकते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कुछ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देख</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ज्यादातर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लोग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देख</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सकते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उन्हें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बात</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समझ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेनी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चाहिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">न</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कहीं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अंधे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देखने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दृष्टि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">महत्वपूर्ण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दृश्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नहीं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लोग</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देखने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अर्थ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सिर्फ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दृश्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ल़ेते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कुछ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">न</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कुछ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दिख</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लेते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देख</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रहे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इस</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सब</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पीछे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दृष्टि।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तीन</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बातें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अंधा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बनाती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">- </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अहंकार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">,
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अशिक्षा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">स्वार्थ।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<o:p><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span></o:p><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ध्यान रखिएगा, यदि अहंकार
बलवान होता जा
रहा है, स्वार्थ
में डूब रहे
हैं और पढ़े-लिखे नहीं
हैं तो आप
आंख होते हुए
भी अंधे ही
हैं। इसीलिए योग
में आंख का
भी प्रयोग है।
आंख का बंद
होना, खुलना और
अधखुली आंख इन
तीन बातों की
कला जब समझ
में आती है
तो उसे दृष्टि
कहा जाता है।
कुछ लोग जन्मांध
होते हैं, कुछ
किसी दुर्घटना या
उम्र के प्रभाव
के कारण देख
नहीं पाते।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<o:p><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span></o:p><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसे लोगों को एक
प्रयोग करना चाहिए।
पलकों को बहुत
धीरे-धीरे खोलिए
और वैसे ही
धीरे-धीरे बंद
कीजिए। चूंकि किसी भी
कारण से संसार
को नहीं देख
पा रहे इसलिए
आपके भीतर एक
बेचैनी है, अवसाद
होता है। मन
उस स्थिति को
और बल दे
रहा होता है
पर पलकों को
धीरे-धीरे खोलने
और बंद करने
से मन की
पॉजिटीविटी बढ़ती है और
हमारे भीतर आ
चुका दोष और
निराश नहीं कर
पाता। सबकुछ देख
सकने वाले भी
यह प्रयोग करें
तो ‘आंख होकर
भी अंधे की
स्थिति से बच
पाएंगे।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>जो भी इसमें
अच्छा लगे वो
मेरे गुरू का
प्रसाद है,<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बुरा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लगे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मेरी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">न्यूनता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">....
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मनीष</span></b></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ॐ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शिव</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हरि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">....</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गुरुदेव</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">..</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गुरुदेव</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">
</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कल्याणदेव</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">....</span></b></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<br /></div>
Jai Guru Geeta Gopalhttp://www.blogger.com/profile/01621836960274288942noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6101091264294453966.post-57471850355650652262019-11-05T20:59:00.000-08:002019-11-05T20:59:00.621-08:00जीवन जीने की राह (Jeevan Jeene Ki Rah11)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>अपना भला करें पर दूसरों का बुरा न हो....</b></span><br />
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">निज हित की कामना सभी के भीतर होती है। कोई भी काम करना हो, अपना भला जरूर हो ऐसी भावना सभी रखते हैं। लोग अपने भले के लिए ही कार्य आरंभ करते हैं। बहुत कम लोग होते हैं जो अपना भी अच्छा हो जाए और दूसरे का बुरा भी न हो ऐसी वृत्ति रखते हों। ऐसी वृत्ति हो तो अपनी भलाई सोचना स्वार्थ नहीं होगा। हमें स्वार्थ छोड़कर ऐसे काम जरूर करने चाहिए, जिनसे दूसरों का भला हो। कैसे अपना भला हो जाए, दूसरे का बुरा न हो यह श्रीराम से सीखा जा सकता है। लंका कांड में भगवान राम अंतिम समय तक प्रयास करते रहे कि रावण के भीतर की बुराई मिट जाए। जामवंत के प्रस्ताव पर अंगद को दूत बनाकर भेजना तय हुआ। अंगद रामजी की सेना का सबसे युवा सदस्य था। नई पीढ़ी को समय रहते अधिकार और जिम्मेदारियां सौंप देनी चाहिए। अंगद जाने लगे तो श्रीराम ने उन्हें बड़ी अद्भुत शिक्षा दी। तुलसीदासजी ने लिखा, ‘बहुत बुझाइ तुम्हहि का कहऊॅ। परम चतुर मैं जानत अहऊॅ।।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’ </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">काजु हमार तासु हित होई। रिपु सन करेहु बतकही सोई।। रामजी कहते हैं, ‘अंगद, मैं जानता हूं तुम परम चतुर हो परंतु रावण से बात करते समय पूरी तरह से सावधान रहना। वैसी ही बात करना, जिससे हमारा काम भी हो जाए और उसका भी कल्याण हो। यह कहने के लिए बड़ी ताकत चाहिए। राम जैसे लोग ही ऐेसे संवाद बोल सकते हैं। जब हम भक्ति कर रहे हों, उसमें अपना भला जरूर सोचिए पर दूसरे का बुरा न हो जाए, इसे लेकर भी सावधान रहिए।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>काम में तत्परता के साथ सहजता भी हो...</b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अब आलस्यअपराध है। तय करने के तुरंत बाद ही काम निपटाना पड़ेगा। इसे तत्परता कहते हैं, जो धीरे-धीरे योग्यता बन जाती है। टीवी पर जो ‘करोड़पति</span><span lang="EN-US" style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’ </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कार्यक्रम देखा जा रहा था, उसमें आपके पास कितना ही ज्ञान हो पर चयन तत्परता से होता था कि किसने सीमित समय में कितनी जल्दी उस काम को निपटाया। कई लोग जल्दी से काम निपटाते भी हैं।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">धीरे-धीरे तत्परता आदत बन जाती है और आदत बनते ही वह हड़बड़ाहट में बदल जाती है। खूबी ही कमजोरी बन जाती है, क्योंकि तत्परता और हड़बड़ाहट के बीच सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है सहजता। अपनी सहजता कभी खोएं। कितनी ही जल्दी परफार्मेंस देना हो, सहज बनें रहें। वरना हड़बड़ा जाएंगे। खास तौर पर जब चुनौती सामने खड़ी हो तो हड़बड़ाहट बिल्कुल करें। मनुष्य के जीवन की समस्याएं उसके शरीर के दो अंगों की तरह होती हैं। बाल और नाखून। इन्हें काटते समय हम बहुत सावधान रहते हैं। यदि जल्दबाजी कर भी रहे हों तो हड़बड़ाहट नहीं करते, क्योंकि हम जानते हैं इनका जरा-सा गलत कटना नुकसान दे सकता है। इन्हे जड़ से उखाड़ने की गलती भी करें। इसी तरह जब समस्याएं-चुनौतियां सामने हों, तत्परता बनाए रखें, सहजता खोएं तो आप हड़बड़ाहट में नहीं उतरेंगे। परत-दर-परत जब आप समस्याओं को खोलेंगे तो सबसे नीचे समाधान छुपा हुआ पाएंगे। सहज होकर खोलेंगे तो उस अंतिम बिंदु पर पहुंच जाएंगे जहां समाधान हैं। इसलिए तत्पर रहें, सहज रहें, हड़बड़ाहट से बचें।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>ईश्वर को पूजते हैं, तो उनके गुण भी अपनाएं..</b><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सबसे शानदार इंसान वह है, जो दूसरों को खुशी बांट सके। दूसरों की झोली में जितनी अधिक प्रसन्नता, मस्ती और आनंद डालेंगे, ऊपर वाला इन्हीं चीजों से आपकी झोली भर देगा। लेकिन इसके लिए देने की तैयारी करनी होगी। जब भी कुछ देने जाएंगे तो मन समझाएगा कि क्यों बेकार का लेन-देन कर रहे हो? इस मामले में मन कंजूस है। इसके लिए भीतर वृत्ति पैदा करनी पड़ेगी तब बिना किसी समीकरण के दूसरों को कुछ दे पाएंगे। इस वृत्ति का नाम है दया। जैसे ही यह वृत्ति भीतर उतरती है, हम दूसरों की मदद करने की इच्छा रखने लगते हैं। किसी के कठिन समय में उसका सहारा बन जाते हैं। उसके साथ रहकर अपने जीवन का कुछ रस उसे दे देते हैं। लेकिन, यदि हमारे भीतर दया नहीं है तो यह काम नहीं कर पाएंगे और करेंगे भी तो जमानेभर के समीकरण बैठाएंगे। आपका संबंध किसी भी धर्म से हो, घर में कहीं कहीं परमात्मा की कोई छवि, मूर्ति या स्थान जरूर होगा। जो दूसरों का दुख दूर करने की भावना रखे उसे दयावान कहा गया है। ऐसा व्यक्ति बड़ा कीमती होता है। शास्त्रों में ईश्वर के रूप को दयामय माना है। इसीलिए रहीम और रहमान जैसे शब्द निकलकर आए। क्षमा, करुणा, दया ये दिव्य गुण परमात्मा में होते हैं और इसीलिए वह पूजनीय है। ऐसी शक्ति को यदि आप पूज रहे हैं तो उसके कुछ गुण हमारे भीतर भी उतरने चाहिए। जब बिना किसी समीकरण के दूसरों का हित करते हैं, ऊपर वाला हमारे लिए खुशियों की बारिश करने लगता है।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>देह के साथ संयम रखेंगे तो प्रदर्शन से बचेंगे...<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बहुत कमलोग ऐसे हैं, जो अकेले में अपनी देह के साथ मनुष्य जैसा व्यवहार करते हों। चाहे खान-पान का हो या भोग विलास, अकेले में मनुष्य अधिकांश मौकों पर जानवर जैसा हो जाता है। भोग-विलास में संयम रखना तो बड़े-बड़ों के बस की बात नहीं रही। एकांत में जिसने देह के साथ मनुष्य जैसा व्यवहार किया, वे समझ जाएंगे तप क्या होता है, एकांत की दिव्यता क्या होती है शरीर का सदुपयोग क्या होता है? कई बार हम एकांत में अपने शरीर के साथ ऐसा कर चुके होते हैं कि याद आने पर शर्मिंदगी महसूस होती है। यदि एकांत में मनुष्य देह को संयमित कर मनुष्य जैसा आचरण किया तो इसका लाभ आपके व्यावसायिक, सार्वजनिक जीवन में भी मिलेगा। वरना जब हम छुप-छुपकर बिना लोगों की जानकारी के देह के साथ जो खिलवाड़ कर चुके हैं उसी देह की हमारी आदत हो जाती है और हम सबके सामने जो भी काम करते हैं उसमें शरीर को प्राथमिक रखते हैं। इसीलिए कोई भी काम कर रहे हों, इरादा होता है लोग मुझे पहचानें, मुझे ख्याति मिले। लोग तो शरीर को लाइट हाउस बना देते हैं। जैसे जहाज को उतरने के लिए प्रकाश स्तंभ की आवश्यकता होती है, बस ऐसे ही लोगों ने शरीर को ऐसा इस्तेमाल किया कि सब हमें देखें, हमारा प्रदर्शन हो। यहां से अहंकार जन्म लेता है। अकेले में अपनी देह को मनुष्य समझें, फिर सबके सामने प्रदर्शन से बचेंगे। काम तो अपना ही कर रहे होंगे लेकिन, नाम और ख्याति की भावना नहीं आएगी।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>सफलता मिलने पर अहंकार नहीं करें...<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करना तो सब हमें ही है लेकिन, करा कोई और रहा है। वो ‘और</span><span lang="EN-US" style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’ </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसी परमशक्ति है जिसे सभी धर्मों ने अपने-अपने हिसाब से नाम दिया है। जिस दिन ये समझ और भाव हमारे भीतर उतर आता है, उस दिन से हम सारे काम करते हुए भी शांत रह सकते हैं। हमारी जिंदगी ऊपर वाले की लिखी पटकथा है। इसे भाग्य से न जोड़ें। पटकथा लिखने के बाद भी अभिनेता को अभिनय में हुनर दिखाना होता है। बहुत सारी चीजें पटकथा को सफल बनाती हैं। यह हमें अंगद समझा रहे हैं। जैसे ही तय हुआ कि वे श्रीराम के दूत बनकर रावण के पास जाएंगे, अंगद ने रामजी को प्रणाम करते हुए टिप्पणी की कि जिस पर आप कृपा कर दें, वह गुणों का सागर हो जाता है। अपने ऊपर किसी परमशक्ति को मानते हुए काम करना भी एक गुण है। यहां तुलसीदासजी ने लिखा,‘स्वयंसिद्ध सब काज नाथ मोहि आदरु दियउ। अस बिचारी जुबराज तन पुलकित हरषित हियउ।। स्वामी के सब काम अपने आप सिद्ध हैं। यह तो प्रभु ने मुझे आदर दिया है। ऐसा विचार कर अंगद का हृदय और शरीर पुलकित हो गया। ऊपर वाले के पास इतनी ताकत है कि वह सारे काम कर सकता है लेकिन, कराता हमसे है। हमें लगने लगता है हमने किया। हम तो निमित्त हैं, किसी भी घटना और स्थिति के कारणभर हैं। यह भाव जागने के बाद हमें आलसी नहीं होना है और न ही भाग्य पर टिकना है, बल्कि यह मानना है कि सारे काम हम करेंगे। परिणाम यदि सफलता के रूप में आया तो अहंकार नहीं करेंगे, असफल रहे तो उदास नहीं होंगे।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>शब्दों के पीछे के इरादे पर भी नज़र रखें...</b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शतरंज के खिलाड़ी इस बात के लिए तैयार रहते हैं कि आगे कौन-सी चाल हम चलेंगे और कौन-सी सामने वाला चलेगा। आगे की सोच के कारण शतरंज के अधिकतर खिलाड़ी विक्षिप्त-से हो जाते हैं। ऐसे में उन्हें एक तैयारी यह भी रखनी है कि खेल तो खेलना है पर पागल नहीं होना है। जैसे मोहरे चाल चलते हैं, ऐसे ही ज़िंदगी में एक शतरंज चलती रहती है और वह है शब्दचाल की शतरंज। जब भी किसी के शब्द सुनें, कोई आपसे बात कर रहा हो तो केवल सुनिएगा नहीं। शतरंज के खिलाड़ी की तरह उन शब्दों के पीछे बोलने वाला व्यक्तित्व उस समय कैसा है, किस नीयत से बोल रहा है, उसके क्या इरादे हो सकते हैं इस पर भी नज़र रखें। व्यक्ति जैसा होता है, कभी-कभी उससे हटकर बोलता है। एक उदाहरण है कि कैकयी मंथरा के शब्दों को ठीक से पकड़ नहीं पाई थी। मंथरा बोल रही थी मैं तुम्हारी सबसे बड़ी हितैषी हूं। कैकयी समझ नहीं पाई कि इन शब्दों के पीछे मंथरा का मतलब क्या है। आज हमारी व्यावसायिक दुनिया में मंथराओं की कमी नहीं है। मंथरा वृत्ति है, जो अच्छे-अच्छे समझदारों को निपटा देती है। मंथराएं सत्ता, पावर की निकटता बनाने में माहिर होती हैं। मंथरा जैसे लोग अपनी कमजोरी छिपाने के लिए चापलूसी भरे शब्द, हितैषी बनने के दावे करके समझदारों की बुद्धि हर लेते हैं। इसलिए खासतौर पर बाहर की दुनिया में शब्द सुनते समय सावधान रहिए, क्योंकि बोलने वाले की नीयत सुनाई नहीं देती, उसके पीछे के भाव दिखाई नहीं देते।</span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>संतान के साथ गुरु-शिष्य का रिश्ता रखें</b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कई माता-पिता को तो यह पता ही नहीं होता कि वे माता-पिता बन क्यों गए? एक वर्ग इसको विवाह का परिणाम मानता है तो एक वर्ग कहता है बच्चे तो पैदा होते रहे हैं इसलिए हमने भी किए। संतानों को सुख दें, साधन उपलब्ध कराएं इसमें कोई बुराई नहीं है लेकिन, ऐसा करते-करते जब हम अति पर टिक जाते हैं तो हमसे ज्यादा कीमत हमारी संतान चुकाती है। आजकल के बच्चे माता-पिता से जो मिलता है उसे अपना हक मानते हैं। इसमें कोई दिक्कत भी नहीं है लेकिन, खतरा तब शुरू होता है जब वे इसे माता-पिता की ड्यूटी मान लेते हैं। उनका अनिवार्य कर्तव्य मानने लगते हैं। कई घरों में बहस करते हुए बच्चे कहते हैं हमारा अधिकार है कि हमको जरूरत की हर चीज मिले, क्योंकि आप ही हमें धरती पर लाए हैं। हमें सुविधाएं नहीं दे सकते थे तो फिर पैदा क्यों किया? कई बच्चों द्वारा माता-पिता पर इस प्रकार के प्रहार किए जाने लगे हैं। यहां माता-पिता एक प्रयोग कर सकते हैं कि बच्चों से एक रिश्ता और जोड़ें- गुरु-शिष्य का। अध्यात्म की दुनिया में जब कोई अपने गुरु से रिश्ता बनाता है तो अधिकतर शिष्य गुरु के प्रति आधी श्रद्धा रखते हैं और आधे संदेह में जीते हैं। बच्चे भी ऐसे ही होते हैं। उनमें माता-पिता के प्रति जो संदेह है उससे उनको लड़ने दें लेकिन, श्रद्धा के मामले में प्रयास करें कि उनकी श्रद्धा गतिमान हो। एक दिन जब बच्चे परिपक्व होंगे तो संदेह दूर हो जाएगा और उस समय श्रद्धा काम आएगी। इसलिए बच्चों से गुरु-शिष्य का संबंध भी रखें। ऐसा तब कर पाएंगे जब आपके जीवन में भी कोई गुरु हो। कोई और न मिले तो हनुमानजी को ही गुरु बनाया जा सकता है। इस तरह अध्यात्म परिवार की बुनियाद बनेगा।</span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>सुबह उठना यानी प्रकृति से श्रेष्ठतम लेना<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आजकल जितने भी काम कठिन माने जाते हैं उनमें से एक है सुबह जल्दी उठना। आने वाले 10-15 साल बाद तो शायद देश के घरों में जल्दी उठने वाली पीढ़ी ही खत्म हो जाएगी। जल्दी उठने का महत्व तब समझेगा जब प्रात:काल का मतलब समझ में आएगा। प्रात:काल यानी सूर्योदय की घड़ी। चूंकि उस समय सूरज प्रकट होता है, इसलिए ध्यानमय, ज्ञानमय और पराक्रममय ऊर्जा बिल्कुल ताजी-ताजी प्रकट होती है। इस समय सारे देवता अपनी शक्ति के साथ हवा के रूप में आते हैं। शास्त्रकारों ने तो कालपुरुष को एक घोड़े की उपमा देते हुए कहा है कि उषाकाल यानी प्रात:काल उस घोड़े का सिर है। जिसने यह समय गंवाया, समझो उसने कालपुरुष का सिर ही काट दिया। इसलिए सुबह उठना केवल बिस्तर छोड़ना नहीं, उससे भी ज्यादा प्रकृति से कुछ पकड़ना है। सुबह जल्दी उठना एक अनुशासन है। फिर दिनभर हमें परिश्रम करना है। जिसे अनुशासन का स्पर्श मिल जाए वह कम श्रम में भी ज्यादा परिणाम पा लेगा। एक पहलवान दूसरे पहलवान को गिराकर उसकी छाती पर चढ़ जाए तो ऊपर वाले को ज्यादा ताकत लगती है, क्योंकि उसे फिक्र रहती है कि नीचे वाला पहलवान खिसक न जाए। परिश्रम नीचे वाले पहलवान की तरह है। हमने ऊपर वाले के रूप में उस पर अनुशासन लाद दिया है। अनुशासन को दबाव न बनाएं। सुबह उठने का मतलब यूं समझें कि प्रकृति जो अपना श्रेष्ठ दे रही है, हमें वह लेना है।</span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>अशांति से काम करेंगे तो कामयाबी अधूरी...</b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसमें बुराई नहीं है कि हमारा कोई आदर्श हो। जिन्हें हम रोल मॉडल मानते हैं, उन्होंने जैसे काम किए हैं यदि वैसे हम करें तो भी कोई दिक्कत नहीं। हमारी मौलिकता और जिन्हें हम श्रेष्ठ या अपना आदर्श मानते हैं उनकी अच्छी बातें यदि जुड़ जाएं तो परिणाम अच्छे ही आएंगे। इसे एक उदाहरण से समझें। अंगद हनुमानजी को रोल मॉडल मानते थे।</span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हनुमानजी की कार्य शैली पर बारीक नज़र रखते थे। इसीलिए जब हनुमानजी पहली बार लंका गए उस समय जो दृश्य उन्होंने निर्मित किया वही अंगद ने भी किया। लंका जाते समय हनुमानजी ने सभी वानर साथियों को प्रणाम किया, श्रीराम को हृदय में धरा, चेहरे पर प्रसन्नता रखी और रवाना हो गए। उसके बाद जब अंगद को दूत बनकर रावण के पास जाने का अवसर आया तो उन्होंने भी ऐसा ही किया। तुलसीदासजी ने लिखा, ‘बंदि चरन उर धरि प्रभुताई। अंगद चलेउ सबहिं सिरु नाई।।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’</span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">श्रीराम के चरणों की वंदना कर, उनकी प्रभुता को हृदय में धरकर अंगद सबको प्रणाम करते हुए चल दिए। मनुष्य जब ईश्वर को हृदय में रख लेता है, काम में मस्ती रखता है तो उसके इरादे जरूर पूरे होते हैं। ऐसे लोगों को अवश्य आदर्श बनाएं, जिन्होंने जीवन में संघर्ष के समय धैर्य नहीं छोड़ते हुए पूरी शांति से काम किया। अशांत रहकर काम करेंगे तो कामयाबी अधूरी होगी। प्रसन्नता के साथ कठिन काम भी किया जाए तो सफलता अशांति नहीं लाती। किसी को आदर्श बनाते हुए उसके जैसी ही कार्यशैली अपनाई जाए तो राह आसान हो जाती है।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>बदलाव भीतर से हो तो आसान होता है...</b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बदलाव मनुष्य का मूल स्वभाव है। कुछ न कुछ बदलते रहना उसकी तासीर में है। बदलाव शब्द को अगर ठीक से न समझा जाए तो यह हथियार भी बन जाता है। देश के नेता कहते हैं हम बदलाव की तैयारी में हैं। व्यवस्था बदल देंगे। लेकिन क्या करें जनता नहीं बदलती। लोग कहते हैं हम कैसे बदलें? नेता ही नहीं बदल रहे। चूंकि दोनों बदलाव का अर्थ नहीं समझते, इसलिए परिवर्तन के उन प्रयासों के अच्छे परिणाम नहीं निकल पाते।</span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हिंदू धर्म में अवतार की परम्परा बदलाव की कहानी है। राम ने चरित्र में बदलाव लाकर कृष्ण बन गए। देश-काल-परिस्थिति के अनुसार बदलाव जरूरी हो जाता है। लेकिन, याद रखें परिवर्तन दो तरह से होता है। एक बाहर की व्यवस्था में बदलाव जैसे हमारी जीवनशैली, कामकाजी दुनिया आदि में परिवर्तन। इसके लिए नियम, अनुशासन ये सब लादने पड़ते हैं। लेकिन इस समय यदि भीतर चैंज नहीं किया गया तो बाहर का बदलाव औपचारिकता, मजबूरी और दिखावा मात्र बन जाएगा।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मनुष्य जब भीतर से बदलने को तैयार होता है तब अपने संस्कारों पर काम करता है। वहां उसे बाहर कोई ढोंग या अभिनय नहीं करना होता। देश जब बदलेगा, तब बदलेगा परंतु कम से कम हम तो स्वच्छता, ईमानदारी, सेवा आदि को समझते हुए भीतर उतारें। भीतर का ऐसा बदलाव हमारे शरीर से निकलने वाली तरंगों को पॉजिटीव करता है और तब बाहर परिवर्तन लाना आसान हो जाता है।</span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>मूर्ति को प्राण के भाव से पूजें, परिणाम मिलेंगे<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शास्त्रों में लिखा है मूर्ति पूजा आदमी को ईमानदार बनाती है। लेकिन, मूर्ति के मामले में पूजा का अर्थ अलग ढंग से समझना होगा। कोई मूर्ति तब पूजने योग्य होती है, जब उसकी प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। यानी मनुष्य की तरह पत्थर में प्राण डालना। जब किसी ऐसी मूर्ति की पूजा करते हैं, उसमें तो प्राण देखना ही है, आपके साथ जो जीवंत लोग रहते हैं उनके भीतर के प्राणों का भी मोल समझना है। लोग मूर्ति को तो पूजते हैं पर आसपास रहने वालों के प्रति तो संवेदनशील होते हैं, प्रेमपूर्ण। जिस दिन घर में बच्चों के, पति-पत्नी, माता-पिता या किसी सदस्य के भीतर प्राण देख लेंगे, आपका पूरा व्यवहार बदल जाएगा। हम मूर्ति के सामने माथा झुका रहे हैं और अपने लोगों से झगड़ रहे हैं यह कहां तक ठीक है? सही है कि प्राण प्रतिष्ठित मूर्ति आपको देख रही होती है लेकिन जब कोई गलत काम करते हैं तो मूर्ति यह नहीं पूछती कि ये तुमने क्या किया? बल्कि यह बताती है कि तुम कुछ श्रेष्ठ कर सकते थे, जो नहीं किया। वे सजग करती हैं कि अपने आचरण को ऐसे उठाओ। जिन धर्मस्थलों पर प्राण प्रतिष्ठित मूर्तियां हों वहां इसीलिए जाना चाहिए कि उस जगह मंत्रोच्चार हो चुका होता है, कई लोग वहां श्रद्धा अर्पित करते हैं। जीवन के लिए ऊर्जा, मार्गदर्शन और प्रेरणा प्राप्त होती है। मूर्ति को प्राण के भाव से पूजा जाए तब तो परिणाम मिलेंगे, वरना आप केवल पत्थर पूजकर रहे हैं, जो मात्र औपचारिकता है, जिसका कोई सदपरिणाम प्राप्त नहीं होगा।</span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>तीन पंखों की उड़ान पहुंचाती है ऊंचाई पर...</b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">केवल लंबी छलांग से जीवन में सफलता नहीं मिलती। उसके लिए एक उड़ान भी जरूरी है। उड़ान का मतलब परिंदों से अच्छा और कौन समझ सकता है। लेकिन बहुत ऊंची उड़ान भरने वाले परिंदे भी यह नहीं जान पाते हैं कि उड़ान के लिए दो पंखों की जरूरत होती है। पक्षी तो केवल उड़ना जानते हैं। उनके लिए वह जीवन की एक ऐसी क्रिया है, जो पुरखे उन्हें सिखा गए। लेकिन, मनुष्य उड़ान को ठीक से समझ सकता है। उड़ान का मतलब समझ लें तो यह पता चल जाएगा कि पक्षी भले ही दो पंख से उड़ लें पर मनुष्य को उड़ने के लिए तीन पंख लगेंगे और ये हैं- ज्ञान, कर्म और उपासना के। जब उड़ान ले रहे होते हैं तो सबसे बड़ी बाधा हमारे दुर्गुण ही बनते हैं। इन्हीं दुर्गुणों से निपटने के लिए पंख गति के भी काम आते हैं और हथियार बनकर सुरक्षा के भी। जटायु ने अपने पंखों को शस्त्र बनाते हुए ही रावण से टक्कर ली थी। जीवन की कुछ यात्राएं ऐसी हैं, जहां किसी एक पंख के सहारे नहीं जाया जा सकता। हमारे पास ज्ञान, कर्म और उपासना रूपी पंख हैं और ज़िंदगी की उड़ान में इन तीनों की जरूरत पड़ेगी। जो केवल ज्ञान मार्ग से चलेंगे वे बाकी दो चीजें यानी कर्म और उपासना का मतलब नहीं समझ पाएंगे और उनका ज्ञान अधूरा रह जाएगा। न तो केवल कर्म से और न केवल उपासना से जीवन की यात्रा पूरी हो सकती है। ज्ञान, कर्म और उपासना के तीनों पंखों से भरी उड़ान उस ऊंचाई पर पहुंचा देगी, जिसे आप छूना चाहते हैं।</span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>सीखे हुए को कर दिखाने में ही उसका महत्व...</b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चुनौती बड़ी हो तो प्रयास छोटे नहीं होने चाहिए। कोई बेजोड़ काम किया जाए, जिसे देखकर सब चौंक उठे तो वह लोगों की नज़र में आता है और हमें भी प्रोत्साहित करता है। अंगद हनुमानजी से प्रेरित थे और वे लंका में क्या करके आए थे, यह जान चुके थे। अंगद ने सुन रखा था कि हनुमानजी ने रावण के बेटे अक्षयकुमार को मार डाला था। एक बार हनुमानजी से पूछा भी था कि लंका में जाकर राजा के बेटे को ही मार दिया। ऐसा आपने क्या सोचकर किया? तब हनुमानजी ने कहा, ‘जब प्रहार ही करना हो तो सीधे उस स्थान पर किया जाए कि परिणाम हमारी सफलता में मददगार हो।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अंगद को यह बात याद थी। तुलसीदासजी ने लिखा, ‘पुर पैठत रावन कर बेटा। खेलत रहा सो होइ गै भेटा।। तेहिं अंगद कहुं लात उठाई। गहि पद पटकेउ भूमि भंवाई।।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’ </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लंका में प्रवेश करते ही अंगद की भेंट रावण के बेटे से हो गई, जो वहां खेल रहा था। उसने लात उठाई, तभी अंगद ने उसे पैर पकड़कर जमीन पर दे मारा। हनुमानजी ने तो अक्षयकुमार को इसलिए मारा था कि वह आक्रमण कर उन्हें रोकना चाहता था। उन्हें तो रावण तक पहुंचना था। लेकिन अंगद तो रावण तक सीधे पहुंच सकते थे क्योंकि वे दूत बनकर गए थे। फिर उन्होंने ऐसा क्यों किया? युवा वर्ग जोश में कभी-कभी होश खो देता है। अंगद ने भी वही किया पर हमें शिक्षा दे गए कि जीवन में जब बहादुरी दिखाने का अवसर आए तो फिर चूकना नहीं चाहिए। सीखा हुआ सही समय पर, सही ढंग से कर किया जाए तब ही सीखे का महत्व है।</span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>उत्सवों के माध्यम से भीतरी बदलाव लाएं...</b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शरीर काहर अंग स्वार्थी है। वैसे यह सही है कि शरीर मन की तुलना में ईमानदार है। मन की बेईमानी के तो हर पल नए-नए किस्से हैं। लेकिन, यही मन जब शरीर पर आक्रमण करता है तो हर अंग को बेईमान, स्वार्थी, लुटेरा और विलासी बना देता है। कान को प्रशंसा सुनना पसंद है। आंखें वो सारे दृश्य देखना चाहती हैं जो उन्हें नहीं देखना चाहिए। इसी तरह बाकी अंगों से भी मन वो सारे काम करवाना चाहता है, जो मर्यादा में उन अंगों को नहीं करना चाहिए। कुल मिलाकर आज मनुष्य का जीवन मन से संचालित हो रहा है और इसका परिणाम अपराध के रूप में सामने आता है। शरीर से होने वाले और शरीर के प्रति किए जाने वाले अपराधों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। खासकर महिलाओं के प्रति जो अपराध हो रहे हैं उनमें उम्र की सीमा ही नहीं रही। स्त्री देह के साथ पुरुष के अपराध मन ने ऐसी मर्यादा तोड़ी कि अब ढाई साल की बच्ची से लेकर 80 बरस की स्त्री पर भी शारीरिक आक्रमण होने लगे हैं। जब सबकुछ शरीर पर केंद्रित हो जाए तो ऐसे दिन तो आने ही थे। हमारे देश में जितने उत्सव और त्योहार मनाए जाते हैं, सबके पीछे संदेश होता है नैतिक जीवनशैली। अब सामूहिक रूप से प्रयास करने होंगे कि हर उत्सव-त्योहार पर उस पीढ़ी को यह संदेश दिया जाए कि शरीर के साथ अनैतिक काम करें। अपने, दूसरे के। मनुष्य को भीतर से बदलने के लिए जो-जो भी प्रयास किए जाएं उनमें उत्सव और त्योहारों को जोड़ते हुए इनके संदेश को योजनाबद्ध तरीके से भारतीय मन तक पहुंचाया जाए।</span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>ऊर्जा बचाने, प्रेमपूर्ण होने की साधना है मौन...</b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">थकान औरविवाद इस समय ये दोनों ही बातें गलत जगह पर होने लगी हैं। कई लोग जरा-सी मेहनत करते हैं और थक जाते हैं। जो खूब परिश्रम करते हैं वो थकते तो देर से हैं पर गलत जगह थक जाते हैं। जैसे कोई घर आकर तब थकता है, जब बाकी सदस्य उसके साथ होते हैं। दिनभर खूब मेहनत की और जिनके लिए की उनके सामने आकर थक गए। ऐसे ही हाल विवाद के हैं। हम उस जगह विवाद करते हैं जहां प्रेमपूर्ण रहना चाहिए। और जहां विरोध करना चाहिए वहां बचते हैं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं थकान और विवाद जिन-जिन बातों से जुड़े हैं उनमें से एक है बोलना। शब्द और वाणी का परिणाम बोलना कहा जा सकता है। यदि आप बोलते समय सावधान नहीं हैं और शब्दों को शरीर से निकालने में बेहिसाब हैं तो थकेंगे भी और विवाद में भी पड़ेंगे। अब सवाल यह उठता हैं कि शब्दों को संतुलित कैसे किया जाए? ज्यादातर लोग जानते हैं कि चाहते हुए कुछ ऐसा बोलने में जाता है, जो विवाद का कारण बन जाता है। कई लोग तो यह जानते ही नहीं कि शब्द हमारी बहुत ऊर्जा खा जाते हैं। इसीलिए हम तब थक जाते हैं जब नहीं थकना चाहिए। शब्दों को इसलिए बचाइए कि उनका परिणाम दूसरी जगह दे सकें या ले सकें और अनावश्यक विवाद से भी बचे रहें। इसका एक तरीका है मौन। जब तक मौन नहीं साधेंगे, आप सिर्फ शब्दों का वहन करेंगे। जिन्होंने थोड़ी देर भी मौन साध लिया, वो शब्द से ऊर्जा भी बचा लेंगे और विवाद से बचे रहने के कारण और प्रेमपूर्ण हो जाएंगे।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>सब कुछ ईश्वर पर छोड़ दें, अशांत नहीं होंगे...</b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम कुली क्यों करते हैं? इसलिए कि हमारे पास जितना बोझ होता है उसे उठा नहीं पाते और किसी की आवश्यकता लगती है, जो उस वजन को उठा सके। यात्रा में कुली लगता है, यह तो सबको समझ में आता है पर जीवन की यात्रा में कुछ बोझ ऐसे होते हैं, जिन्हें उठाना नहीं चाहिए और हम उठा लेते हैं। ऐसे ही कुछ वजन स्मृतियों के, स्वार्थ के होते हैं। धीरे-धीरे ये इतने भारी हो जाते हैं कि हमारी चाल लड़खड़ा जाती है। शास्त्रों में एक शब्द आया है- रिक्त हो जाएं तो ईश्वर जल्दी मिल जाता है। रिक्त होने का अर्थ है थोड़ा खाली या निर्भार हो जाएं। अभी हम बहुत भारी हैं। अपने भीतर अहंकार का, हिंसा का, तनाव का इतना भार पैदा कर लिया है कि दबे ही जा रहे हैं। निर्भार होते ही भीतर शांति जागती है, आप प्रेमपूर्ण हो जाते हैं, जीवन में परमात्मा उतर आता है। परमात्मा के आते ही हम कहने लगते हैं- बस, अब जीवन की गाड़ी आप ही चलाइए। एक बार राजस्थान में यात्रा के समय टैक्सी ड्राइवर ने मुझे बार-बार हुकम, हुकम कहा। मैने पूछा- आप हमें हुकम क्यों कहते हैं? इसका मतलब तो आदेश होता है। तब उसने कहा- मैं जानता हूं हुकम का मतलब आदेश है पर मैं इसलिए कह रहा हूं कि आप ही हमारे आदेश हैं। नानकजी ने भी एक जगह ईश्वर के लिए लिखा था-‘हुजूर का हुकूम</span><span lang="EN-US" style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">। जिस दिन हम परमात्मा को हुकूम या आदेश मान लेते हैं, उस दिन निर्भार हो जाते हैं। फिर कैसा भी काम करें, अशांत नहीं होंगे, क्योंकि आप जानते हैं हुक्म कोई और दे रहा है, हुकम कोई और है।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>खुद के साथ रहने से मिलती है ऊर्जा...</b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चाहें या ना चाहें, सभी को दो तरह से जीना पड़ता है। या कहें कि जीने के लिए दो प्रकार के अवसर मिलते हैं। पहला, जब हम दूसरों के साथ जीवन बीता रहे होते हैं और दूसरा मौका स्वयं के साथ जीने का होता है। इन स्थितियों से कोई नहीं बचेगा। जब दूसरों के साथ जीते है,ं जो कि जरूरी भी है, उस समय हमारी तैयारी अपने साथ जीने की भी होनी चाहिए। यदि स्वयं के साथ जीने की तैयारी नहीं है तो तनाव में पड़ेंगे, अशांत रहेंगे। जब दूसरों के साथ रहते हैं तो उसमें अहंकार, स्वार्थ, झूठ, छल ये सब अपना काम करते ही हैं। खासकर मेरे-तेरे का खेल होना स्वाभाविक है। सामने वाले की अपनी सोच, आपकी अपनी मर्जी दोनों टकराएंगी ही। यदि आप सिर्फ दूसरों के साथ जीते हैं तो जरूर अशांत रहेंगे। इसलिए खुद के साथ जीने का ढंग भी आना चाहिए और यह संभव हो सकता है योग से। जब स्वयं के साथ जीते हैं तो हमारी और ईश्वर की मर्जी जुड़ जाती हैं। योग सिखाता है कि हमारे ऊपर भी एक परमशक्ति है। तो आपकी इच्छा को उस परमशक्ति की इच्छा से जोड़ दीजिए। बस, यहां से टकराहट बंद और आप शांत होना शुरू हो जाएंगे। हम मनुष्य बिना मांगे रह नहीं सकते। इसलिए ऊपर वाले से भी यह मांग करें कि मेरी मर्जी में तेरी मर्जी जुड़ जाए। फिर देखिए, आप व्यक्ति कोई और होने लगेंगे। अपने साथ रहने के बाद जो ऊर्जा प्राप्त होगी वही ऊर्जा दूसरों के साथ रहते हुए भी शांत रहने में मदद करेगी। कुछ समय अपने साथ जरूर रहिए, फिर संसार के साथ रहने में दिक्कत नहीं आएगी।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>ज्ञान, कर्म और उपासना का संतुलन हो</b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारे कृत्य हमारी छाप बन जाते हैं। कुछ न कुछ तो सभी को करना है और लोग कर भी रहे हैं। लेकिन, जो अच्छा या बुरा करके जाएंगे उसे लोग याद रखेंगे और उनके मन में वैसी ही हमारी छाप बनती है। कई तो ज़िंदगी में ऐसे काम कर जाते हैं कि दुनिया छोड़कर जाने के बाद लोग उन्हेें उन कामों से याद रखते हैं। इसीलिए कृत्य ऐसे हों जो छवि भी अच्छी बनाएं। हमारे यहां ज्ञान, कर्म और उपासना, ये तीन शब्द अपने आप में जीवनशैली का संदेश हैं। केवल कर्म से जुड़ेंगे तो हो सकता है ज्ञान और उपासना का लाभ नहीं उठा सकें। कुल मिलाकर किसी एक पर आधारित जीवन नहीं चल सकता। इन तीनों का संतुलन चाहिए।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हनुमानजी तीनों का संतुलन रखकर परिणाम देने में अद्भुत थे और इसीलिए लंका कांड में एक घटना घटती है कि जब अंगद रामदूत बनकर लंका गए तो राक्षसों ने उनको देखा और जिस प्रकार से प्रतिक्रिया की उस पर तुलसीदासजी ने लिखा- ‘भयउ कोलाहल नगर मझारी। आवा कपि लंका जेहिं जारी।। भय के मारे लंका के राक्षसों में कोलाहल मच गया कि जिसने लंका जलाई थी, वही वानर फिर आ गया है।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ये पंक्तियां बता रही हैं कि राक्षसों को हनुमानजी और उनका पराक्रम याद था। हमारे लिए समझने की बात यह है कि जिस प्रकार हनुमानजी उनको याद थे, हम भी ऐसे ही कर्म रखते हुए वे सदपरिणाम दें जो कि लोगों के मन में उतर जाएं और वर्षों बाद भी हमें इस बात के लिए याद रखें कि यह अच्छा काम उनके द्वारा किया गया था।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>आंखों के इस प्रयोग से बढ़ाएं सकारात्मकता</b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम आंख वाले अंधे हैं। दुनिया में बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो देख सकते हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो नहीं देख पा रहे हैं। ज्यादातर लोग जो देख सकते हैं, उन्हें यह बात समझ लेनी चाहिए कि कहीं न कहीं हम भी अंधे हैं। देखने में दृष्टि महत्वपूर्ण होती है, दृश्य नहीं। हम लोग देखने का अर्थ सिर्फ दृश्य से ल़ेते हैं। कुछ न कुछ दिख रहा है और मान लेते हैं कि हम देख रहे हैं। पर इस सब के पीछे काम कर रही होती है दृष्टि। तीन बातें हमें अंधा बनाती हैं- अहंकार, अशिक्षा और स्वार्थ।</span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ध्यान रखिएगा, यदि अहंकार बलवान होता जा रहा है, स्वार्थ में डूब रहे हैं और पढ़े-लिखे नहीं हैं तो आप आंख होते हुए भी अंधे ही हैं। इसीलिए योग में आंख का भी प्रयोग है। आंख का बंद होना, खुलना और अधखुली आंख इन तीन बातों की कला जब समझ में आती है तो उसे दृष्टि कहा जाता है। कुछ लोग जन्मांध होते हैं, कुछ किसी दुर्घटना या उम्र के प्रभाव के कारण देख नहीं पाते।</span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसे लोगों को एक प्रयोग करना चाहिए। पलकों को बहुत धीरे-धीरे खोलिए और वैसे ही धीरे-धीरे बंद कीजिए। चूंकि किसी भी कारण से संसार को नहीं देख पा रहे इसलिए आपके भीतर एक बेचैनी है, अवसाद होता है। मन उस स्थिति को और बल दे रहा होता है पर पलकों को धीरे-धीरे खोलने और बंद करने से मन की पॉजिटीविटी बढ़ती है और हमारे भीतर आ चुका दोष और निराश नहीं कर पाता। सबकुछ देख सकने वाले भी यह प्रयोग करें तो ‘आंख होकर भी अंधे की स्थिति से बच पाएंगे।</span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>बच्चों के विकास को गांवों से जोड़िए..</b></span></div>
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<span lang="EN-US" style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">‘</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भारत में जो भी प्रगति और विकास हो, भारतीयता उससे विलग नहीं होना चाहिए</span><span lang="EN-US" style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">। इस आदर्श वाक्य को यदि जीवंत करना हो हर आदमी कुछ काम आसानी से कर सकता है। प्रवचन-कथाओं के लिए मुझे पूरे देश-दुनिया में प्रवास करना पड़ता है। इसी सिलसिले में एक बार किसी घर में ठहरा तो बड़ा चौंकाने वाला संवाद सुना। सुबह जब दूध वाला आया तो सात साल का बच्चा मां से पूछ रहा था यह आदमी दूध कहां से लाता है? प्रश्न छोटा था पर मेरे मन में सवाल कौंध गया। यदि बच्चों को यह नहीं मालूम कि दूध कहां से आता है तो हमें सोचना चाहिए कि यह शहरी गति किसी दिन इनको और अशांत कर देगी। आज भी भारत की पहचान गांवों से है। वहां बहुत कुछ ऐसा है जो हमें शांति प्रदान कर सकता है।</span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारे बच्चों को कहीं न कहीं गांव से जोड़ने के लिए कुछ प्रकल्प करते रहना चाहिए। गांव से सीधे आने वाले सामान से बच्चों को जरूर जोड़ें। गांवों के विकास के लिए सरकारी योजनाएं बना दी गईं, शहरी विकास के लिए मल्टी नेशनल बाजार व्यवस्था तैयार हो गई लेकिन, इन दोनों के बीच भारतीय मनुष्य का क्या होगा? इसलिए कम से कम अपने निजी विकास को गांव से जोड़े रखिए। आपका गांव से जुड़ना जीवन में कुछ ऐसा देगा जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। उस सुगंध से अपने व्यक्तित्व को महकाने के लिए कोई अवसर मत छोड़िए। हम गांव का मतलब गंदगी, अशिक्षा मान लेते हैं। लेकिन, इस अशिक्षा-गंदगी के पीछे एक बहुत बड़ी तालीम छुपी है। पकड़ सकें तो जरूर पकड़िएगा।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>बुद्धि का उचित प्रयोग कर विलक्षण बनें</b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीवन में सफल होने के लिए केवल बुद्धिमान होने से काम नहीं चलेगा। हमें विलक्षण भी होना पड़ेगा। क्या फर्क है इन दोनों में? बुद्धिमान होना परिश्रम है, एक व्यवस्थित प्रक्रिया है और इसमें शिक्षा सहयोग करती है। बुद्धि हम सबके भीतर होती है, क्योंकि शरीर का अंग मस्तिष्क है और मस्तिष्क में बुद्धि दी गई है। किसी के पास कम होगी, किसी के पास ज्यादा हो सकती है। यह एक इंस्ट्रुमेंट है, जो भगवान ने हमें दिया है। इसका थोड़ा-सा उपयोग कर लें तो बुद्धिमान हो जाएंगे। लेकिन, बुद्धि जब सार्वजनिक रूप से, निजी, पारिवारिक और व्यावसायिक रूप से सदुपयोग में आ जाए और अच्छे परिणाम दे दे उसे विलक्षणता कहते हैं। आपने कारोबार में कामयाबी हासिल कर ली और परिवार में कलह चल रहा है। परिवार संभाल लिया, धंधा ठीक चल रहा है पर निजी रूप से परेशान हैं। यदि सबकुछ ठीक हो और समाज या राष्ट्र के प्रति जिम्मेदार नहीं हैं तो समझ लीजिए बुद्धि का आधा ही उपयोग हो पा रहा है और आप विलक्षण होने से चूक रहे हैं। बुद्धि विलक्षण तब होती है या बुद्धिमान व्यक्ति अपने आपको विलक्षण तब मानें जब वह उक्त चारों क्षेत्र में पूरी तरह से सकारात्मक परिणाम दे सके। यदि इन चारों के प्रति जागरूक नहीं हैं तो एक न एक दिन आपका मन बुद्धि से वह काम करवा लेगा, जिसके सामने आने पर छवि खराब हो सकती है, प्रतिष्ठा गिर सकती है। आप अपराधी भी बन सकते हैं। बुद्धि का वैसा उपयोग कीजिए, जिसके लिए ईश्वर ने यह दी है। फिर आपको विलक्षण होने से कोई नहीं रोक सकता।</span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>पुण्य भी गोपनीय रखकर ही करने चाहिए</b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पुण्य भी पाप की तरह गोपनीय बनाकर करना चाहिए। हम लोग जब कोई गलत काम करते हैं तो उसे छिपाने का प्रयास करते हैं और अच्छे काम को बहुत प्रचारित करने लगते हैं। जबकि सच तो यह है कि धर्म यानी सदकार्य गोपनीय हो और अधर्म (दुष्कर्मों) का प्रदर्शन करना चाहिए। जब अधर्म प्रदर्शित करेंगे तो स्वयं अपने आप नियंत्रित होने लग जाएंगे। लेकिन कभी-कभी पुण्य को इसलिए प्रकट करना पड़ता है कि पाप का नाश हो। यदि उद्देश्य ऐसा हो तो धर्म को, पुण्य को, अच्छी बात को प्रचारित करने में बुराई नहीं है।</span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अंगद ने लंका में ऐसा ही किया था। जब रामदूत बनकर पहुंचे तो उन्हें देख सारे राक्षस डर गए। लंका के राक्षस यानी दुर्गुण। क्या दृश्य लिखा है यहां तुलसीदासजी ने, ‘अब धौं कहा करिहि करतारा। अति सभीत सब करहिं बिचारा।। बिनु पूछें मगु देहिं दिखाई। जेहि बिलोक सोइ जाइ सुखाई।।</span><span lang="EN-US" style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">’ </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मतलब राक्षसरूपी दुर्गुण भयभीत होकर विचार करने लगे कि अब पता नहीं विधाता क्या करेगा? वे बिना पूछे ही अंगद को रास्ता दे रहे थे। जिस पर भी अंगद की दृष्टि पड़ती, वह डर के मारे सूख जाता था। जब हम सदमार्ग पर चलते हैं तो बाधा पहुंचाते हैं हमारे ही दुर्गुण। यहां दुर्गुण अंगद की मदद कर रहे थे कि आप मंजिल तक पहुंच जाएं, क्योंकि रामदूत होने का पुण्य अंगद के साथ था। तो हमारे पुण्य तब जरूर प्रकट कीजिए जब पाप का विनाश करना हो। वरना अधिक प्रचारित सदकार्य भी अहंकार का कारण बन जाएंगे।</span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,</b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.... मनीष</b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....</b></span></div>
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Jai Guru Geeta Gopalhttp://www.blogger.com/profile/01621836960274288942noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6101091264294453966.post-64898258731349272632019-10-22T03:03:00.000-07:002019-10-22T03:03:42.898-07:00जीवन जीने की राह (Jeevan Jeene Ki Rah10)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>नवीनता की खोज में मूल्य न छूट जाएं...</b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जवानी को अनदेखे को देखने में, अथाह की थाह पाने में बड़ा मजा आता है। जवानी अज्ञात कुछ भी नहीं रखना चाहती। इसीलिए कई बार जीवन की कई ढंकी चीजों पर भी टूट पड़ती है। शास्त्रों में तो लिखा है कि युवा पीढ़ी को वैसा ब्रह्म बहुत अच्छा लगता है, जिसका चिंतन कभी किसी ने न किया हो। जिसका चिंतन हो चुका हो, उसका आकर्षण समाप्त हो जाता है। इसीलिए जवान लोग नया-नया ढूंढ़ने में लग जाते हैं। आज का धर्म है मैक इन इंडिया। यह भी एक खोज है। कहते हैं ब्रह्म को जानना हो तो नई दृष्टि विज्ञान की चाहिए और उसको जीना हो तो नई दृष्टि संस्कार की चाहिए। युवा पीढ़ी जब खोजने निकलेगी तो सहारा विज्ञान का लेना पड़ेगा लेकिन, जिसे खोजने निकले हैं उसके भीतर कुछ ऐसा है, जिसके लिए विज्ञान के साथ संस्कार और संस्कृति की भी जरूरत पड़ेगी। उमंग और उत्साह जवानी के लक्षण हैं लेकिन, इसे बनाए रखने के लिए जवानी भटककर गलत रास्ते पर चली जाती है। उमंग के लिए जीवन को विलास में न बदला जाए। युवा यदि संस्कार से जुड़ते हैं तो एक बात बहुत अच्छे से समझ में आएगी कि वे युवा हैं इसलिए एक पीढ़ी बाद आए हैं। तो जो पीढ़ी गुजरी उससे कुछ नया करके जाएं और जो नई पीढ़ी आएगी उसके लिए और कुछ नया छोड़कर जाएं लेकिन, मूल्य न छूट जाएं। नए को खोजिए, नवीनता सांस में उतारिए लेकिन, ऐसा न हो कि वह भोग-विलास लेकर आ जाए। ऐसा हुआ तो वह नया बहुत महंगा पड़ जाएगा।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>संसार में रहकर भी हम ईश्वर के अंश...</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘बिस्वरूप रघुबंसमनि करहुं वचन बिस्वासु। लोक कल्पना बेद कर अंग अंग प्रति जासु।। पति-पत्नी केबीच झगड़े के जितने कारण हैं उनमें एक है हस्तक्षेप। दोनों में सबसे अधिक निकटता होती है और इतनी नज़दीकी वाले लोग भी यदि हस्तक्षेप पर आपत्ति ले तो कलह होना ही है। इसलिए जब भी हस्तक्षेप जैसी स्थिति बने, दोनों को ही सबसे पहले यह देखना चाहिए कि हस्तक्षेप के पीछे अहंकार है या हित की भावना। केवल हठ है या प्रेम भी बोल रहा है। मंदोदरी जब पति रावण को समझाने का प्रयास कर रही थी और वह समझ नहीं रहा था तो प्रभाव बनाने के लिए राम के व्यक्तित्व पर टिप्पणी की। तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘बिस्वरूप रघुबंसमनि करहुं वचन बिस्वासु। लोक कल्पना बेद कर अंग अंग प्रति जासु।।<span lang="EN-US">’ </span>यहां मंदोदरी ने श्रीराम को विश्वरूप कहा है। यानी सारा संसार उन्हीं का रूप है। परमात्मा प्रकृति के कण-कण में बसा है। हमारे भीतर भी वह उसी प्रमाण में है। यदि उसका सदुपयोग कर लें तो सही मार्ग पर जाएंगे और उसके विपरीत चलना ही गलत रास्ता है, जो रावण कर रहा था। परमात्मा विश्वरूप है इसलिए विशाल है और हम लोग ओस की बूंद की तरह बहुत छोटे हैं। पर ओस की बूंद की एक खूबी होती है कि वह जिस पत्ते पर होती है उसका रंग उसी में उतरता है। लगता है बूंद का रंग वही है जो पत्ते का है। पर ऐसा है नहीं। ओस की बूंद पत्ते से बिल्कुल अलग है। हम संसार में रहें, उस संसार की झलक हममें दिखे पर अलग हटते ही वापस परमात्मा का अंश बन जाएंगे। रावण इसे भले ही नहीं समझा हो पर हमारे लिए अभी समझने की संभावनाएं बनी हुई हैं।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>अपनी दृष्टि को भीतर की ओर मोडि़ए....</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दूसरों की गलतियां देखना बहुत आसान है लेकिन, अपनी भूल देखने के लिए निगाह दूसरी चाहिए। जिन नेत्रों से हम बाहर की दुनिया देखते हैं, जिनके माध्यम से कई दृश्य जीवन में उतार लेते हैं वे आंखें स्वयं की भूल देखने के काम नहीं आतीं। दूसरों की गलतियां देखना बहुत आसान है लेकिन, अपनी भूल देखने के लिए निगाह दूसरी चाहिए। इन्हीं आंखों को थोड़ा-सा भीतर मोड़ दें तब अपनी भूल नज़र आ सकती है। चूंकि नेत्रों का शारीरिक गठन बाहर खुलता है इसलिए लोग इतने आदी हो जाते हैं कि भूल ही जाते हैं कि इन्हें भीतर भी मोड़ा जा सकता है। पलकें तो आदमी या तो नींद में बंद करता है या जितनी स्वत: झपकती है उतनी ही बंद होंगीं। यदि किसी से पांच-दस मिनट पलकें बंद कर बैठने को कहें तो उसके भीतर तूफान शुरू हो जाता है। लेकिन, जिन्होंने लंबे समय पलक बंद करने का अभ्यास कर लिया उनके नेत्र भीतर की ओर अपने आप मुड़ने लगेंगे और अपनी भूलें भी दिखने लगेंगीं। भीतर नेत्र मुड़ते ही आपका दृष्टिकोण बदल जाएगा और आसपास जितने रिश्ते, जितने व्यक्ति हैं, उनकी समझ के मामले में आप परिपक्व हो जाएंगे। फिर जो आपको नापसंद हों, उन्हें लेकर भी सोचने लगेंगे कि इसके पीछे का कारण मैं ही तो नहीं? खुशी और गम इसी दृष्टिकोण से उत्पन्न होने लगेंगे। मनोवैज्ञानिकों ने तो कहा है सुख-दुख साइकोलॉजिकल स्थितियां हैं। यदि स्वयं को देखने में योग्य हो गए तो दूसरे जिन बातों से दुखी हैं उन्हीं में सुख ढूंढ़ लेंगे। वरना खुशी की बातें या स्थितियां भी गम दे जाएंगीं। जब भी समय मिले, पलकों को अपनी ओर से बंद करिए।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>परिवार भीतर के संसार का पहला दरवाजा...</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ईश्वर मात्रा से नहीं, गुण से प्रगट होता है। इसे थोड़ा सरल बनाकर समझा जाए। सबसे पहले तो यह तय कर लें कि ऊपर वाला प्रकट कहां होता है। यानी किन-किन चीजों में उसको देखा जा सकता है? हमारे पास दो तरह के संसार हैं। एक बड़ा जो बाहर है, जिसमें हमारा व्यावसायिक, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन चलता है। एक छोटा संसार है जो भीतर का है। इसमें निजी जीवन संचालित होता है। परिवार का जीवन बाहर और भीतर के बीच का होता है। परिवार में कुछ गतिविधियां बड़े संसार जैसी होती हैं। धन-दौलत, अपना-पराया ये बाहर का संसार है, जो परिवार में भी होता है। इन दोनों में ही परमात्मा का अंश होता है लेकिन, बाहर के संसार में यदि परमात्मा को खोजें तो वह बड़ा जरूर है यानी मात्रा में अधिक हो सकता है पर गुण में छोटा ही होगा। जब अपने भीतर के छोटे संसार में उतरेंगे तो परमात्मा मात्रा में भी छोटा मिलेगा और गुण में एक स्वाद देता जाएगा। ईश्वर की खोज बाहर कठिन हो सकती है। ईश्वर खोजने से ज्यादा जीने का विषय है और जिंदगी जीने के मौके परिवार व निजी जीवन में ज्यादा हैं। बाहर के संसार में जब जीवन जीने जाते हैं तो कई बाधाएं होती हैं। वहां एक खींचतान है इसलिए आप जीवन को लेकर थोड़ा असहज महसूस करेंगे। अत: रोज थोड़ी देर भीतर के छोटे और निजी संसार में जरूर जाया करें, जिसका पहला दरवाजा परिवार होता है। इसका माध्यम है योग। प्रयोग करके देखिए, परिवार के मतलब भी बदल जाएंगे और परमात्मा का स्वाद भी।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>समर्पण से जीवनसाथी के अस्तित्व को जानें...</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समझदार पति-पत्नी एक-दूसरे का व्यक्तित्व तो बचा लेते हैं लेकिन, अस्तित्व नहीं बचा पाते। उसके लिए समझ से ज्यादा समर्पण जरूरी होता है। चूंकि उम्र का एक लंबा समय दोनों ने अलग-अलग बिताया होता है और पति-पत्नी बनने के बाद इनकी पहली मुलाकात व्यक्तित्व से ही होती है, इसलिए सारी समझ इसी को बचाने में लगा दी जाती है। जीवनसाथी का अस्तित्व टटोलने के लिए केवल निकटता काम नहीं आती। समर्पण भाव भी पैदा करना पड़ता है, जिसकेे लिए अहंकार छोड़ना जरूरी है। व्यक्तित्व गतिशील भी होता है और परिवर्तनशील भी। जैसे-जैसे किसी विवाहित जोड़े की उम्र बढ़ती है, उनके व्यक्तित्व में भी परिवर्तन आने लगता है। बहुत से लोग जो पहले गंभीर थे, अब मस्ताने हो गए और वैवाहिक जीवन की शुरुआत मस्ती से करने वाले थक गए, उदास हो गए। अस्तित्व भी गतिशील होता है लेकिन, परिवर्तनशील नहीं होता। इसलिए जीवनसाथी के अस्तित्व को टटोलना हो तो थोड़ा रुकना पड़ेगा। यहां रुकने से मतलब है उसके शरीर से आगे बढ़कर उसकी आत्मा को स्पर्श करना। आज भी अधिकतर जोड़े जीवन की यात्रा शरीर से शुरू कर शरीर पर ही खत्म कर देते हैं। शरीर झलकता है व्यक्तित्व से और आत्मा के दर्शन होंगे अस्तित्व में। जिन क्षणों में जरा भी जीवनसाथी की आत्मा महसूस की जाती है, वो दांपत्य के दिव्य क्षण होते हैं। इन्हें पाने के लिए शुरुआत समर्पण से ही करनी पड़ेगी।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>प्रार्थना में करुणा से भक्ति पैदा होती है...</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">विज्ञान ने भौतिकता को तो आसान बना दिया है लेकिन, आत्मिक बातें कठिन होती जा रही हैं। इन दिनों हमारे जीवन में एक विषय है जनसंपर्क। मोबाइल ने इसे इतना सरल कर दिया कि सारी दुनिया मुट्ठी तो दूर, उंगली की छोटी-सी नोक पर आ गई है पर प्रेमपूर्ण संबंधों के मतलब ही बदल गए। प्रेम पर वासना की ऐसी परत जमी कि लोग भूल ही गए प्रेम होता क्या है। ऐसे में प्रेमपूर्ण होना कठिन हो गया है। यदि हमें दूसरों को प्रेम का मतलब समझाना हो या खुद प्रेम में उतारना हो तो एक आध्यात्मिक तरीका है- करुणामय हो जाना। करुणा प्रेम का ऐसा विकल्प है, जिसमें थोड़ी बहुत सुगंध और स्वाद रह सकता है। करुणा की विशेषता यह है कि वह अलग-अलग क्रिया में भिन्न परिणाम देती है। करुणा को सहयोग से जोड़ दें तो प्रेम की झलक मिलेगी। करुणा वाणी से जुड़ जाए तो भरोसा पैदा होता है। चिंतन में यदि करुणा का समावेश हो जाए तो परिपक्वता आ जाती है। क्रिया से जुड़ जाए तो परोपकार बनने लगता है। क्रोध में उतर आए तो हितकारी दृष्टि, स्नेह और ममता जाग जाती है। मांग में करुणा आने पर प्रार्थना पैदा होती है और प्रार्थना में यदि करुणा उतर जाए तो फिर भक्ति पैदा हो जाती है। जब भी भीतर करुणा उतरे, पहला काम यह किया जाए कि इसे दूसरों से जोड़ें। अपनी करुणा को खुद पर खर्च करने में कंजूसी न करें। यदि प्रेमपूर्ण होना कठिन हो तो कम से कम करुणामय तो हो ही जाएं। करुणामय व्यक्ति विज्ञान का भी दुरुपयोग नहीं करेगा।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>दक्षता बढ़ाने के लिए भीतर पंचतत्व उतारें....</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">संगठन पंचतत्वकी तरह व्यक्त होता है। आजकल परिवार हो या व्यापार, संगठन का महत्व बढ़ रहा है। राष्ट्र की तो ताकत ही संगठन है। यदि कुछ लोग एक छत के नीचे, एक साथ रह रहे हों तो उस रहन-सहन को संगठन में बदल लेना चाहिए। किसी संस्थान में यदि संगठन ठीक से उतर आए तो अधिकारियों और कर्मचारियों की योग्यता, निष्ठा, ईमानदारी और परिश्रम के मतलब ही बदल जाएंगे। हम अपने संस्थान या संगठन में किसी से उम्मीद करते हैं कि वह किसी एक क्षेत्र में परिपक्व, कामयाब हो तो दूसरे क्षेत्र में भी वैसा ही प्रदर्शन करे। प्रबंधन की भाषा में कहें तो यदि कोई मार्केटिंग में दक्ष है तो वह एचआर विभाग में कमजोर पड़ जाता है। पर यदि संगठन को पंचतत्व से जोड़ें तो सभी लोग सभी कामों में दक्ष हो सकेंगे। पंचतत्व में सबसे पहले पृथ्वी को समझें। इसमें पहाड़ भी होते हैं, वृक्ष भी हैं। दूसरा तत्व है जल जिसमें नदी, तालाब, समुद्र हैं। तीसरा है अग्रि। इसमें राख, अग्नि और धुंआ है। वायु में वेग, सुगंध और आंधी है तथा अंतिम तत्व यानी आकाश विशाल है, ध्वनि लिए हुए है और बादल का परदा उस पर है। ये पांचों तत्व एक साथ मिलकर पूरी सृष्टि चलाते हैं। हमारे भीतर ये पंचतत्व हैं और यदि ये संगठित हो जाएं, तो वह व्यक्ति जिस भी संगठन में होगा, उसे ऊंचाइयां देगा। प्रयास करें कि इस पूरी प्रकृति में जो पंचतत्व हैं वे हमारे भीतर उतरें और हम जिस भी संगठन से जुड़ें, हर क्षेत्र में दक्ष होकर उसके लिए खूब योगदान दे सकें।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>सोच-समझकर किसी की जय जयकार करें...</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परमात्मा की जय की जाए यह तो समझ में आता है पर दो कोड़ी के लोगों की भी जय करने लगते हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि जब किसी की जय कर रहे होते हैं तो उसके गुण-दुर्गुण आपके भीतर उतरने लगते हैं। अब तो उन लोगों की भी जय-जयकार होती है, जिनमें गुण ढूंढ़े नहीं मिलते और दुर्गुण रोम-रोम में होते हैं। लिहाजा जय का नारा भी एक-दूसरे के भीतर दुर्गुण स्थानांतरित करने का जरिया बन जाता है। बहुत सारी चीजों की जय करें तब इस जय के नारे को गृहस्थी से भी जोड़ें। जय गृहस्थी, जय परिवार, जय ऐसा कहने में बुराई नहीं है। परिवार में सब लोग अपना यशदान करते हैं। एक की खूबी दूसरे में उतरे, जिनमें योग्यता है वो उसका परिणाम परिवार में देना चाहें तो दिनभर में एक बार ‘जय गृहस्थी<span lang="EN-US">’ </span>जरूर बोला जाए। जिस घर में हम रहते हैं, जिस परिवार के सदस्य हैं उससे हमें बहुत कुछ मिला होता है। जयकारे का मतलब है अब वह लौटाया जाए। परिवार भी एक संस्था है और हमारा कारोबार भी एक संस्था है। संसार नाम की संस्था में इंद्रियां फैलती हैं, परिवार नामक संस्था में इंद्रियां मुड़ती हैं। इसलिए जब इंद्रियों का उपयोग संसार में कर चुके हों और घर लौट रहे हों तो इंद्रियों द्वारा संग्रहित वस्तुओं को थोड़ा छानकर घर में लाएं। जय शब्द के अर्थ ठीक से समझें। जय का मतलब यदि परिवार में ठीक से उतार सकें तो आज परिवार टूटने के जो खतरे हमारे सामने मंडरा रहे हैं वो दूर हो जाएंगे।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>अहंकार को काबू कर पुरुष परिवार बचाएं...</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नारी की उपस्थिति से ही मकान घर बनता है। वरना वह ईंट-सीमेंट के ढांचे से ज्यादा कुछ नहीं होता। पुरुष अपने स्वभाव के कारण मकान को घर बना ही नहीं सकता। यह काम महिलाएं ही करती हैं। किसी भी घर का आधार आपसी समझ और प्रेम होता है। रावण के पास बहुत बड़ा महल था। पत्नी मंदोदरी बार-बार उस महल को घर बनाने का प्रयास करती पर जिद्दी और अहंकारी रावण ऐसा होने नहीं दे रहा था। मंदोदरी जब समझा रही थी तो रावण ने न सिर्फ पत्नी का मजाक उड़ाया बल्कि समूची नारी जाति पर व्यक्तिगत टिप्पणी कर दी। रावण विद्वान था लेकिन, अहंकार जितने भेद पैदा करता है उनमें से एक स्त्री और पुरुष का भी कर देता है। अहंकार से भरी रावण की उस वाणी पर तुलसीदासजी ने लिखा, ‘साहस अनृत चपलता माया। भय अबिबेक असौच अदाया।। रिपु कर रूप सकल तैं गावा। अति बिसाल भय मोहि सुनावा।।<span lang="EN-US">’ </span>रावण मंदादरी से कहता है- साहस, झूठ, चंचलता, छल, भय, अविवेक, अपवित्रता और निर्दयता.. तूने शत्रु का समग्र रूप गाकर मुझे बड़ा भारी भय सुनाया? यहां वह स्त्रियों के आठ अवगुण गिना रहा है। हमारे समाज में, परिवार में जब पुरुष के भीतर का रावण अंगड़ाई लेता है तो मातृशक्ति पर इसी तरह के आरोप जड़ देता है, आलोचना करने लगता है और इसी भेद के कारण घर टूट जाते हैं। घर-परिवार में रहते हुए अपने भीतर के रावण को नियंत्रित रखिएगा। वरना भारत की सबसे बड़ी पूंजी परिवार है और हम अपने ही भीतर के रावण के कारण उसे तोड़ बैठेंगे।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रिश्तों को मन से बचाएं, हृदय से निभाएं...<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रिश्ते भी फसल की तरह होते हैं। इनके बीज बड़ी सावधानी से बोना पड़ते हैं और उससे भी ज्यादा सावधानी देख-रेख में बरतनी पड़ती है। फसल के लिए सबसे नुकसानदायक होती है खरपतवार। ये वो छोटे-छोटे पौधे होते हैं जो मूल फसल के पौधे के आसपास उगकर उसका शोषण करते हैं। किसान समय-समय पर खरपतवार को नष्ट करता रहता है। रिश्तों की फसल बचाना है तो मस्तिष्क, मन, हृदय और आत्मा को समझना होगा। मस्तिष्क के रिश्ते व्यावहारिक होते हैं। व्यापार की दुनिया में मस्तिष्क काम आता है। हृदय में घर-परिवार के रिश्ते बसाए जाते हैं। आत्मा से रिश्ते निभाना थोड़ा ऊंचा मामला है। रिश्तों की फसल में सबसे खतरनाक खरपतवार मन के रूप में होती है। यहां-वहां फैली गाजरघास या किसी नदी में उगी जलकुंभी को देखेंगे तो मन की भूमिका समझ जाएंगे। मन रिश्तों के मामले में ऐसा ही करता है। इसलिए रिश्ते निभाइए हृदय से। उन्हें पालना हो तो आत्मा का उपयोग कीजिए। मस्तिष्क से रिश्ते निभाने पड़ते हैं यह जीवन का व्यावहारिक पक्ष है लेकिन, रिश्तों को मन से पूरी तरह बचाइएगा। रिश्तों की फसल के लिए सबसे अच्छी खाद होती है समय, समझ और समर्पण की। यह खाद ठीक ढंग से दी जाए तो फसल बहुत अच्छे से फूलेगी-फलेगी, अन्यथा मन भेद को जन्म देता है। भेद का अर्थ है संदेह, ईर्ष्या, झूठ, कपट। यहीं से रिश्ते एक-दूसरे का शोषण करने पर उतर आते हैं। रिश्तों की फसल बहुत सावधानी से बोइए, उगाइए, बचाइए और फल के परिणाम तक ले जाइए।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>नाम-दाम कमाएं पर त्याग की वृत्ति रखें...</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक दिन ऊपर जाने का मौका आएगा ही और कहीं ऐसा न हो कि तब हमारा उत्साह खत्म हो जाए। सीढ़ियों के सहारे आप ऊपर से नीचे उतर सकते हैं और नीचे से ऊपर चढ़ भी सकते हैं। परमात्मा जब अवतार लेता है तो ऊपर से नीचे धरती पर उतरता है। अपनी लीला से यह संदेश देता है कि मैं ईश्वर हूं पर ऊपर से नीचे उतरकर मनुष्य बन गया हूं। अगर ऊपर से नीचे उतरा जा सकता है तो नीचे से ऊपर क्यों नहीं चढ़ सकते? यह प्रश्न हर अवतार ने अपने समय के मनुष्यों से किया है और आज भी कर रहा है। हम चाहें तो ऊपर चढ़ सकते हैं। इसमें मदद करेंगे हमारे धर्म ग्रंथ। आपका संबंध किसी भी धर्म से हो, सभी के पास अपने ग्रंथ हैं और उनके प्रसंग या संदेश ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ी हैं। सीढ़ी चढ़ने या उतरने में जरा-सी लापरवाही हुई तो गिर भी सकते हैं। सीढ़ी चढ़ते हुए जब सबसे ऊपर के पायदान पर पहुंचते हैं तो वहां भगवान को नहीं पाएंगे। आपको लगेगा स्वयं ही भगवान जैसे हो गए। सबसे ऊंची पायदान पर आप और भगवान में कोई फर्क नहीं है। लेकिन, ऊपर चढ़ने में हमें संसार की आसक्ति रोकती है। संसार नीचे की ओर खींचता है, इसलिए जब ऊपर चढ़ना हो तो उत्साह बनाए रखना पड़ेगा, जिसमें त्याग, आकांक्षा दोनों जुड़े रहेंगे। आकांक्षा से हम संसार में उतरते हैं और यदि त्याग की वृत्ति आ जाए तो संसार छोड़कर सीढ़ी चढ़ने में दिक्कत नहीं होगी। संसार में खूब नाम-दाम कमाइए पर त्याग की वृत्ति रखिए। एक दिन ऊपर जाने का मौका आएगा ही और कहीं ऐसा न हो कि तब हमारा उत्साह खत्म हो जाए।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>मन कुटिल हो तो गुण भी दोष दिखते हैं...</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">माया को छल बताकर कहता है स्त्री छली होती है, जबकि स्त्री को अपनी देह के कारण माया माना गया है। स्त्री का चरित्र भावनाओं की लहर की तरह होता है, जिसकी कोई व्याख्या नहीं की जा सकती, अनुभूति जरूर की जा सकती है। पुरुष का चरित्र आक्रामक होकर शोषण की वृत्ति रखता है। स्त्री के चरित्र की कूटनीतिक चालों की तरह व्याख्या रावण जैसे लोग ही कर सकते हैं। लंका कांड में मंदोदरी जब पति रावण को समझा रही थी तो चूंकि वह उस समय राजनीतिक भाषा बोल रहा था, चरित्र में कुटिलता उतर आई तो स्त्रियों की आठ खूबियों को दोष बता दिया। पहले कहा- साहस। स्त्री का सबसे बड़ा साहस होता है कि वह मां बनने की क्षमता रखती है। जबकि प्रसव मृत्यु को आमंत्रण भी हो सकता है। अनृत, यानी झूठ। रावण कहता है स्त्रियां झूठ बहुत बोलती हैं। तो क्या पुरुष इसमें कम पड़ता है? स्त्री की चंचलता को वह दोष बताता है, जबकि चंचलता उसका खुलापन है। माया को छल बताकर कहता है स्त्री छली होती है, जबकि स्त्री को अपनी देह के कारण माया माना गया है। उसे डरपोक कहता है। जो परिवार के लिए कुछ भी करने को तैयार हो वह डरपोक कैसे हो सकती है? उसके बाद अविवेक का दोष बताता है। जबकि स्त्री का विवेक पुरुष के मुकाबले अधिक जागा हुआ होता है। इसी प्रकार अपवित्रता और निर्दयता को भी उसने स्त्रियों के साथ दोष के रूप में जोड़ा है। रावण जैसे लोग समाज में स्त्रियों के प्रति इस प्रकार की टिप्पणियां कर समूची मानवता के विरोधी बन जाते हैं। राम ऐसे ही रावण को मिटाने के लिए धरती पर आए थे।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>प्रेम पति-पत्नी के रिश्ते का प्राण है...</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">खतरा तब और बढ़ता है जब स्त्री-पुरुष एक-दूसरे पर सत्ता जमाने लगते हैं। सत्ता स्वभाव से ही स्वभक्षी होती है। इसकी कामना रखने वाला तैयार रहे कि यह एक दिन उसे भी कुतर-कुतरकर खा जाएगी। खतरा तब और बढ़ता है जब स्त्री-पुरुष एक-दूसरे पर सत्ता जमाने लगते हैं। उनमें जेंडर कॉन्शसनेस की समस्या आ ही जाती है। मैं स्त्री हूं, मैं पुरुष हूं ऐसे झगड़े नौकरी-व्यापार में दिखना आम है, लेकिन जब पति-पत्नी एक-दूसरे पर सत्ता बनाना चाहते हैं तो कीमत बच्चे चुकाते हैं। आजकल पढ़े-लिखे स्त्री-पुरुषों के लिए प्रेम एक काम हो गया है। प्रेम इस रिश्ते का प्राण है लेकिन, व्यस्तताओं के बीच प्रेम काम की तरह निपटाया जा रहा है। यह फर्क जरूर है कि पुरुष के पास स्त्री के मुकाबले काम अधिक होते हैं, इसलिए प्रेम उसके लिए अंतिम प्राथमिकता है। स्त्रियां भी बहुत काम करती हैं, उनके लिए भी प्रेम एक काम है। इसीलिए दोनों के बीच रूखापन उतर आया है। स्त्रियों के मन में यह भाव गहरा रहा है कि वे पुरुषों से पीछे न रह जाएं। स्त्री के पास उसका स्वधर्म इतना मजबूत है कि जहां खड़ी हो, वहीं ऊंचाई पा सकती है। उसे ऊंचा होने के लिए पुरुष का प्लेटफॉर्म चाहिए भी नहीं। लेकिन दोनों के बीच अजीब-सा मुकाबला है और उसमें प्रेम दम तोड़ता जा रहा है। जैसे ही पति-पत्नी के बीच का प्रेम टूटता है, उनकी उदासी बच्चों में उतर आती है। आजकल ज्यादातर बच्चे चिड़चिड़े और जिद्दी इसलिए भी पाए जाते हैं कि उनके प्रेम का स्रोत समाप्त हो गया है। प्रेम को प्रेम ही रहने दीजिए। तब ही रिश्ते सुरक्षित रह पाएंगे।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>समय के महत्व को ठीक से समझें...</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सबको सभी बातों का ज्ञान हो जाए, जरूरी नहीं है। जब हम अज्ञान की स्थिति में होते हैं तो कुछ वस्तुओं, व्यक्तियों को लेकर भ्रम हो जाता है। पर दुनिया का सबसे बड़ा भ्रम है स्वयं के बारे में गलतफहमी। रावण ऐसे ही भ्रम में जी रहा था। पत्नी मंदोदरी के समझाने पर पहले तो उसने मंदोदरी की आलोचना की। फिर अपनी प्रशंसा के बीच बड़ी सफाई से उसकी भी तारीफ करने लगा। कहता है, ‘सारा संसार मेरे वश में है यह बात तेरी कृपा से अब मेरी समझ में आई है। मैं तेरी चतुराई समझ गया हूं। तू समझाने के बहाने मेरी प्रभुता का बखान कर रही है।<span lang="EN-US">’</span><o:p></o:p></span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इस संवाद पर तुलसीदासजी ने लिखा, ‘तव बतकही गूढ़ मृगलोचनि। समुझत सुखद सुनत भय मोचनि।। मंदोदरि मन महुं अस ठयऊ। पियहि काल बस मति भ्रम भयऊ।।<span lang="EN-US">’ </span>रावण कहता है, ‘हे मृगनयनी, तेरी बातें बड़ी रहस्यभरी हैं। समझने पर सुख देने वाली और सुनने से भय मुक्त करने वाली हैं।<span lang="EN-US">’ </span>तब मंदोदरी सोचने लगी कि काल के वश में होने के कारण पति को मति-भ्रम हो गया है।<o:p></o:p></span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमें यह समझना है कि समय इंसान की बुद्धि को बदल देता है। इसलिए समय का सम्मान करें, उसके महत्व को ठीक से समझें। यदि अपने ही समय को पढ़ना नहीं आया तो एक दिन वह बुद्धि को पलटकर ऐसा आचरण करा सकता है कि आप सोच भी नहीं सकते। सच है, काल पर किसी का वश नहीं होता लेकिन, कम से कम अपने ऊपर तो वश है कि काल को समझ सकें और रावण जैसी गलती न करें।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>मिलकर निर्णय लें, मिलकर जीना सीखें....</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परिवार में बड़े-बूढ़े कई आदर्श वाक्य सुनाते रहते हैं। ऋषि-मुनियों ने तो गृहस्थ जीवन पर बहुत कुछ कहा है लेकिन, आज के दौर में परिवार जिन हालात से गुजर रहे हैं उसमें शंकराचार्यजी ये शब्द बहुत काम काम हैं,‘न नेयो न नेता<span lang="EN-US">’</span>। यानी आने वाले समय में न कोई नेता होगा और न ही कोई उनका अनुयायी। सबको मिलकर चलना होगा। आज परिवारों में यह इसलिए लागू है, क्योंकि यहां सबको मिलकर चलना ही पड़ेगा वरना परिवार तेजी से टूटते जाएंगे।<o:p></o:p></span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शिक्षा से प्राप्त योग्यता और धन से प्राप्त जीवनशैली ने परिवारों में शक्ति के कई केंद्र बना दिए। सब नेतृत्व चाहते हैं। बड़े तो इस झंझट में उलझे ही हैं, छोटे से बच्चे को भी लगता है कि मेरा कहा माना जाए। लेकिन अब मिल-जुलकर ही चलना पड़ेगा। काल प्रवाह से परिवार भी नहीं बचे। बहुत तेजी से पुराना गुजरता जा रहा है और नित नया परिवारों में प्रवेश कर रहा है। ऐसे में मिल-जुलकर, एक-दूसरे की बात का मान रखकर ही परिवार चलाने पड़ेंगे। सबसे पहले अहंकार विलीन करना होगा।<o:p></o:p></span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किसी एक को नहीं, परिवार के प्रत्येक सदस्य को अपनी योग्यता को परिवार का हिस्सा मानना पड़ेगा। अपनी शिक्षा को परिवार की देन समझना होगा। वरना परिवार बंट जाएंगे। लेकिन इस बंटवारे में तन भले ही बंट जाएं पर मन न बंटे। छत बंट जाए पर रिश्ते नहीं टूट जाएं। इसलिए शंकराचार्यजी की इस बात को याद रखते हुए सब मिलकर ही निर्णय लें, मिलकर ही जीना सीखें।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>मूल्यों पर चलकर होश में रहना आसान...</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होश, बेहोश और जोश ये स्थितियां सभी के जीवन में घटती हैं। कुछ लोग जानते हैं कि कब होश में रहना, कैसे बेहोशी से बचना कैसे इन दोनों के बीच जोश बनाए रखना है। होश का मतलब है जब ज़िंदगी की राह में गिरें तो गिरे ही नहीं रहना है, उठना भी है। जोश यानी आगे बढ़ना और बेहोशी का मतलब है रुक जाना। प्रगति करना हो तो बदलाव पर नज़र रखिए। एक तो स्वयं में हो रहे बदलाव पर पकड़ होनी चाहिए, दूसरा आपके आसपास के वातावरण में हो रहे बदलाव की भी पूरी समझ होनी चाहिए। पहले जीने के लिए परम्परा आधारित जीवन पर्याप्त था लेकिन, वक्त बदला तो परम्पराएं भी तेजी से बदलीं। इसलिए अब परम्परा आधारित जीवन नुकसान पहुंचा सकता है। जैसे पिछले दिनों गुरु परम्परा प्रश्नों के घेरे में गई। अब लोग लंबे समय तक गुरुओं से दूरी बना सकते हैं या गुरु बनाने में संकोच करेंगे। जब परम्परा आधारित जीवन से हटें तो मूल्य आधारित जीवन पर जाएं। मूल्य कभी नहीं बदलेंगे। सत्य, अहिंसा, प्रेम, करुणा ये मूल्य हैं। मूल्यों पर चलने वालों के लिए होश बनाए रखना आसान होगा। ज़िंदगी की राह में ठोकरें लगेंगी, आप गिर भी जाएंगे पर यदि होश कायम है तो खुद को उठा भी लेंगे। यदि खुद को नहीं बदला, परम्पराओं पर टिके रहे तो यह भी बेहोशी होगी, जो इनसान के कदम लड़खड़ा देती है, उसे रोक देती है। होश और बेहोशी के बीच जरूरत पड़ती है जोश की। यह जोश ही आपको आगे ले जाएगा।<o:p></o:p></span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपनी योग्यता को अहंकार से न जोड़ें...<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">राजसत्ता पर बैठे व्यक्ति की जब कमर टूट जाती है तो वह न किसी की गर्दन मरोड़ सकता है और न ही खुद उसकी गर्दन मरोड़ने की जरूरत रह जाती है। युद्ध शुरू होने से पहले ही रावण का आचरण बता रहा था कि उसकी कमर टूट चुकी है। घर, सेना और मैदान में सभी दूर हालात विपरीत हो रहे थे। पत्नी मंदोदरी ने समझाया तो पहले तो उसका परिहास किया, फिर शब्दों में उसकी प्रशंसा ढूंढ़ने लगा। यहां तुलसीदास ने व्यंग्य करते हुए लिखा है, ‘एहि बिधि करत बिनोद बहु प्रात प्रगट दसकंध। सहज असंक लंकपति सभॉ गयउ मद अंध।<span lang="EN-US">’ </span>यानी इस प्रकार अज्ञानवश विनोद (हास-परिहास) करते हुए रावण को सुबह हो गई। तब स्वभाव से निडर और अहंकार में अंधा लंकापति सभा में पहुंचा। पति-पत्नी एकांत में रहें, विनोद करें तो ये अच्छे लक्षण हैं। लेकिन, रावण तब विनोद कर रहा था, जब उसे बहुत गंभीर होना था।<o:p></o:p></span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तुलसीदासजी ने उसे निडर बताने के साथ अंधा भी लिखा। दु:साहसी व्यक्ति की यदि दृष्टि चली जाए तो उसके लिए खतरा बढ़ जाता है। फिर उसका हर कदम गलत होता है। रावण के माध्यम से हमें यही समझना चाहिए कि जब आप अपनी योग्यता को अहंकार से जोड़ते हैं, शिक्षा को भोग-विलास में उतार लेते हैं तो फिर सही निर्णय ले पाने की संभावना समाप्त हो जाती है। शिक्षित व्यक्ति को दुर्गुण नहीं पालना चाहिए, योग्य को आलसी नहीं होना चाहिए। वरना जो आचरण रावण कर रहा था वैसा ही हम भी जीवन में कहीं न कहीं करते रहेंगे।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>करुणा से मिलती है संकल्प को ताकत...</b><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">संकल्प लेकर उसे तोड़ना इंसान की फितरत हो गई है। बड़े संकल्प की तो बात दूर है, छोटा-मोटा संकल्प भी पूरा नहीं कर पाते। बहुत से लोग हैं, जो रात को संकल्प लेते हैं कि सुबह जल्दी उठेंगे और सुबह होने पर रात का संकल्प धरा रह जाता है। भोजन के नियंत्रण का संकल्प खाना दिखते ही टूट जाता है। क्यों हमारे संकल्प पूरे नहीं हो पाते? संकल्प पूरा करने के लिए संयम आवश्यक है और संयम में भगवान की उपस्थिति बहुत जरूरी है। यदि आप संयम में यह मानकर चलेंगे कि परमात्मा अनुपस्थित होकर भी मुझे देख रहा है तो संयम को ठीक से पाल सकेंगे। परमात्मा सदैव साथ है, यह भाव उतरते ही आपके भीतर जो सबसे बड़ा गुण आता है वह है करुणा। जब आप करुणामय होते हैं तो न तो अपने प्रति अपराध करेंगे, न दूसरे के प्रति कुछ गलत कर पाएंगे।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करुणामय व्यक्ति का संयम भी बहुत तगड़ा होता है, क्योंकि उसे परमात्मा का सहारा मिल जाता है। वेद में कहा गया है-’श्रत्ते दधामि प्रथमाय मन्यवे<span lang="EN-US">’</span>। इसमें ऋषि ने परमात्मा से कहा है कि आपका जो पहला संकल्प होगा उसमें मेरी पूरी श्रद्धा है और वह संकल्प है सबके लिए करुणा। इसलिए जब कोई संकल्प लें, उसे पूरा करने के लिए जिस संयम की आवश्यकता हो उसमें सदैव यह ध्यान रखें कि आप अकेले उसे पूरा नहीं कर पाएंगे। इसमें एक और परमशक्ति की ताकत लगेगी। जैसे ही करुणामय हुए, अपने संयम को ताकत दे सकेंगे और फिर संकल्प कभी नहीं टूटेंगे।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>जीवन की जडे़ं ढूंढ़ने के लिए मंदिर जाएं..<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किस मंदिर में जाकर माथा टेंकें, किस मूर्ति को मान्यता दें? आजकल लोग यह सवाल बहुत पूछते हैं। धर्म के प्रति आधुनिक दृष्टि रखने में बुराई नहीं है पर आधुनिक होते-होते लोग आलोचनात्मक हो जाते हैं। आसान है यह कहना कि मंदिरों में सिवाय लूट के और क्या है। लोग भीख मांगने जाते हैं भगवान से। बाबाओं ने मंदिरों को लूट का केंद्र बना रखा है, पुजारी अपनी दुकान चलाता है। ऐसी बातें आसानी से कह दी जाती हैं। मुझसे लोग पूछते हैं कि आखिर मंदिर जाएं क्यों? इसका उत्तर है यदि आप किसी बात को ठीक से नहीं देख-समझ पाएंगे तो उसका सही अर्थ नहीं पकड़ पाएंगे। यह सही है कि मंदिर लूट, अंधविश्वास, मारामारी के केंद्र बन गए हैं लेकिन, हर बात का सतह के नीचे का पहलू होता है। भले ही सब भीख मांगने जा रहे हों, कोई लूट रहा हो, आप वहां से बहुत कुछ प्राप्त कर सकते हैं। आप जीवन की जड़ें ढूंढ़ने मंदिर में जाएं। जीवन सदैव मौन या एकांत में मिलता है। अभ्यास कीजिए उस देवस्थान पर कितना भी शोर हो पर आपके भीतर शांति घट जाए। </span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दूसरे क्या कर रहे हैं यह छोड़ प्रार्थना कीजिए, अपना रोम-रोम धैर्य से भर लीजिए। पूजा-पाठ, कर्मकांड, हल्ला-गुल्ला ये अपनी-अपनी रुचि का विषय हैं और काफी हद तक मनुष्य की मानसिकता पर टिका है। कोई टिप्पणी या आलोचना करने की जगह उस वरदान से न चूकें जो मंदिर की उस चारदीवारी में बड़ी आसानी से मिल सकता है। जो श्रेष्ठ है, मिल सकता है, उसे लपक लीजिए।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
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<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>नियति व्यवस्था है पर निर्णय हमें लेना है....<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब सब कुछ भगवान की इच्छा से हो रहा है, हर परिणाम में भाग्य काम कर रहा है, हर बात का कोई निमित्त है तो फिर गलत को गलत क्यों ठहराया जाता है? इस तरह के प्रश्न आजकल पढ़े-लिखे समाज में खूब उछाले जाते हैं। केवल सैद्धांतिक पंक्तियों को पकड़ेंगे तो आरोप सही लगेंगे लेकिन, यह अच्छे से समझना होगा कि भगवान जितना नियंता है, उतनी ही नियति है। नियंता का अर्थ है व्यवस्था चलाने वाला और नियति का मतलब है उसने एक ऐसी नीति बना दी है, जो कंप्यूटर के सॉफ्टवेयर की तरह है। आप जैसा करेंगे, वैसा परिणाम मिल जाएगा। नियंता के रूप में भगवान ने नियम बनाया कि पृथ्वी गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण हर चीज को खींचती है। अब यदि गिर जाएं तो यह नहीं कह सकते कि भगवान की इच्छा थी, पृथ्वी ने खींच लिया तो गिर गए। नियंता ने नियम बनाया लेकिन, गिरना आपकी नियति थी। आप ठीक से संभल नहीं पाए तो पृथ्वी खींच रही है। भगवान कृष्ण ने महाभारत युद्ध से पहले कहा था, ‘एक तरफ मैं अकेला हूं, वह भी बिना शस्त्र उठाए तथा दूसरी ओर मेरी सेना होगी। आपको जो लेना हो, ले लो। कौरवों ने सेना चुनी, पांडवों ने निहत्थे कृष्ण को चुन लिया। कुल मिलाकर निर्णय हमारे ऊपर है, भगवान अपनी व्यवस्था कर चुके हैं। इसलिए ऐसे प्रश्नों का कोई मतलब नहीं है। आपको संभावना और चयन ऊपर से दिया गया है और उसी के दायरे में अपना जीवन चलाइए।<o:p></o:p></span></div>
<br />
<div class="MsoNormal">
</div>
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<div class="MsoNormal" style="font-family: "times new roman";">
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<div class="MsoNormal">
<div style="margin: 0px;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b><span lang="HI">जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है</span>,</b></span></div>
</div>
<div style="margin: 0px;">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b><span lang="HI">और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है... </span></b></span><b style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span lang="HI"><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b><span style="line-height: 18.4px;">मनीष</span></b></span></span></b><span style="font-family: "mangal" , "serif";"></span></div>
<div class="MsoNormal">
<div style="margin: 0px;">
<b style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span lang="HI">ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....</span></b></div>
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Jai Guru Geeta Gopalhttp://www.blogger.com/profile/01621836960274288942noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6101091264294453966.post-63720280782048332102019-09-12T19:17:00.000-07:002020-09-20T20:12:46.246-07:00जीवन जीने की राह (Jeevan Jeene Ki Rah9)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>नवीनता की खोज में मूल्य न छूट जाएं...</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जवानी को अनदेखे को देखने में, अथाह की थाह पाने में बड़ा मजा आता है। जवानी अज्ञात कुछ भी नहीं रखना चाहती। इसीलिए कई बार जीवन की कई ढंकी चीजों पर भी टूट पड़ती है। शास्त्रों में तो लिखा है कि युवा पीढ़ी को वैसा ब्रह्म बहुत अच्छा लगता है, जिसका चिंतन कभी किसी ने न किया हो। जिसका चिंतन हो चुका हो, उसका आकर्षण समाप्त हो जाता है। इसीलिए जवान लोग नया-नया ढूंढ़ने में लग जाते हैं। आज का धर्म है मैक इन इंडिया। यह भी एक खोज है। कहते हैं ब्रह्म को जानना हो तो नई दृष्टि विज्ञान की चाहिए और उसको जीना हो तो नई दृष्टि संस्कार की चाहिए। युवा पीढ़ी जब खोजने निकलेगी तो सहारा विज्ञान का लेना पड़ेगा लेकिन, जिसे खोजने निकले हैं उसके भीतर कुछ ऐसा है, जिसके लिए विज्ञान के साथ संस्कार और संस्कृति की भी जरूरत पड़ेगी। उमंग और उत्साह जवानी के लक्षण हैं लेकिन, इसे बनाए रखने के लिए जवानी भटककर गलत रास्ते पर चली जाती है। उमंग के लिए जीवन को विलास में न बदला जाए। युवा यदि संस्कार से जुड़ते हैं तो एक बात बहुत अच्छे से समझ में आएगी कि वे युवा हैं इसलिए एक पीढ़ी बाद आए हैं। तो जो पीढ़ी गुजरी उससे कुछ नया करके जाएं और जो नई पीढ़ी आएगी उसके लिए और कुछ नया छोड़कर जाएं लेकिन, मूल्य न छूट जाएं। नए को खोजिए, नवीनता सांस में उतारिए लेकिन, ऐसा न हो कि वह भोग-विलास लेकर आ जाए। ऐसा हुआ तो वह नया बहुत महंगा पड़ जाएगा।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>संसार में रहकर भी हम ईश्वर के अंश...</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘बिस्वरूप रघुबंसमनि करहुं वचन बिस्वासु। लोक कल्पना बेद कर अंग अंग प्रति जासु।। पति-पत्नी केबीच झगड़े के जितने कारण हैं उनमें एक है हस्तक्षेप। दोनों में सबसे अधिक निकटता होती है और इतनी नज़दीकी वाले लोग भी यदि हस्तक्षेप पर आपत्ति ले तो कलह होना ही है। इसलिए जब भी हस्तक्षेप जैसी स्थिति बने, दोनों को ही सबसे पहले यह देखना चाहिए कि हस्तक्षेप के पीछे अहंकार है या हित की भावना। केवल हठ है या प्रेम भी बोल रहा है। मंदोदरी जब पति रावण को समझाने का प्रयास कर रही थी और वह समझ नहीं रहा था तो प्रभाव बनाने के लिए राम के व्यक्तित्व पर टिप्पणी की। तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘बिस्वरूप रघुबंसमनि करहुं वचन बिस्वासु। लोक कल्पना बेद कर अंग अंग प्रति जासु।।<span lang="EN-US">’ </span>यहां मंदोदरी ने श्रीराम को विश्वरूप कहा है। यानी सारा संसार उन्हीं का रूप है। परमात्मा प्रकृति के कण-कण में बसा है। हमारे भीतर भी वह उसी प्रमाण में है। यदि उसका सदुपयोग कर लें तो सही मार्ग पर जाएंगे और उसके विपरीत चलना ही गलत रास्ता है, जो रावण कर रहा था। परमात्मा विश्वरूप है इसलिए विशाल है और हम लोग ओस की बूंद की तरह बहुत छोटे हैं। पर ओस की बूंद की एक खूबी होती है कि वह जिस पत्ते पर होती है उसका रंग उसी में उतरता है। लगता है बूंद का रंग वही है जो पत्ते का है। पर ऐसा है नहीं। ओस की बूंद पत्ते से बिल्कुल अलग है। हम संसार में रहें, उस संसार की झलक हममें दिखे पर अलग हटते ही वापस परमात्मा का अंश बन जाएंगे। रावण इसे भले ही नहीं समझा हो पर हमारे लिए अभी समझने की संभावनाएं बनी हुई हैं।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>अपनी दृष्टि को भीतर की ओर मोडि़ए....</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दूसरों की गलतियां देखना बहुत आसान है लेकिन, अपनी भूल देखने के लिए निगाह दूसरी चाहिए। जिन नेत्रों से हम बाहर की दुनिया देखते हैं, जिनके माध्यम से कई दृश्य जीवन में उतार लेते हैं वे आंखें स्वयं की भूल देखने के काम नहीं आतीं। दूसरों की गलतियां देखना बहुत आसान है लेकिन, अपनी भूल देखने के लिए निगाह दूसरी चाहिए। इन्हीं आंखों को थोड़ा-सा भीतर मोड़ दें तब अपनी भूल नज़र आ सकती है। चूंकि नेत्रों का शारीरिक गठन बाहर खुलता है इसलिए लोग इतने आदी हो जाते हैं कि भूल ही जाते हैं कि इन्हें भीतर भी मोड़ा जा सकता है। पलकें तो आदमी या तो नींद में बंद करता है या जितनी स्वत: झपकती है उतनी ही बंद होंगीं। यदि किसी से पांच-दस मिनट पलकें बंद कर बैठने को कहें तो उसके भीतर तूफान शुरू हो जाता है। लेकिन, जिन्होंने लंबे समय पलक बंद करने का अभ्यास कर लिया उनके नेत्र भीतर की ओर अपने आप मुड़ने लगेंगे और अपनी भूलें भी दिखने लगेंगीं। भीतर नेत्र मुड़ते ही आपका दृष्टिकोण बदल जाएगा और आसपास जितने रिश्ते, जितने व्यक्ति हैं, उनकी समझ के मामले में आप परिपक्व हो जाएंगे। फिर जो आपको नापसंद हों, उन्हें लेकर भी सोचने लगेंगे कि इसके पीछे का कारण मैं ही तो नहीं? खुशी और गम इसी दृष्टिकोण से उत्पन्न होने लगेंगे। मनोवैज्ञानिकों ने तो कहा है सुख-दुख साइकोलॉजिकल स्थितियां हैं। यदि स्वयं को देखने में योग्य हो गए तो दूसरे जिन बातों से दुखी हैं उन्हीं में सुख ढूंढ़ लेंगे। वरना खुशी की बातें या स्थितियां भी गम दे जाएंगीं। जब भी समय मिले, पलकों को अपनी ओर से बंद करिए।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>परिवार भीतर के संसार का पहला दरवाजा...</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ईश्वर मात्रा से नहीं, गुण से प्रगट होता है। इसे थोड़ा सरल बनाकर समझा जाए। सबसे पहले तो यह तय कर लें कि ऊपर वाला प्रकट कहां होता है। यानी किन-किन चीजों में उसको देखा जा सकता है? हमारे पास दो तरह के संसार हैं। एक बड़ा जो बाहर है, जिसमें हमारा व्यावसायिक, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन चलता है। एक छोटा संसार है जो भीतर का है। इसमें निजी जीवन संचालित होता है। परिवार का जीवन बाहर और भीतर के बीच का होता है। परिवार में कुछ गतिविधियां बड़े संसार जैसी होती हैं। धन-दौलत, अपना-पराया ये बाहर का संसार है, जो परिवार में भी होता है। इन दोनों में ही परमात्मा का अंश होता है लेकिन, बाहर के संसार में यदि परमात्मा को खोजें तो वह बड़ा जरूर है यानी मात्रा में अधिक हो सकता है पर गुण में छोटा ही होगा। जब अपने भीतर के छोटे संसार में उतरेंगे तो परमात्मा मात्रा में भी छोटा मिलेगा और गुण में एक स्वाद देता जाएगा। ईश्वर की खोज बाहर कठिन हो सकती है। ईश्वर खोजने से ज्यादा जीने का विषय है और जिंदगी जीने के मौके परिवार व निजी जीवन में ज्यादा हैं। बाहर के संसार में जब जीवन जीने जाते हैं तो कई बाधाएं होती हैं। वहां एक खींचतान है इसलिए आप जीवन को लेकर थोड़ा असहज महसूस करेंगे। अत: रोज थोड़ी देर भीतर के छोटे और निजी संसार में जरूर जाया करें, जिसका पहला दरवाजा परिवार होता है। इसका माध्यम है योग। प्रयोग करके देखिए, परिवार के मतलब भी बदल जाएंगे और परमात्मा का स्वाद भी।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>समर्पण से जीवनसाथी के अस्तित्व को जानें...</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समझदार पति-पत्नी एक-दूसरे का व्यक्तित्व तो बचा लेते हैं लेकिन, अस्तित्व नहीं बचा पाते। उसके लिए समझ से ज्यादा समर्पण जरूरी होता है। चूंकि उम्र का एक लंबा समय दोनों ने अलग-अलग बिताया होता है और पति-पत्नी बनने के बाद इनकी पहली मुलाकात व्यक्तित्व से ही होती है, इसलिए सारी समझ इसी को बचाने में लगा दी जाती है। जीवनसाथी का अस्तित्व टटोलने के लिए केवल निकटता काम नहीं आती। समर्पण भाव भी पैदा करना पड़ता है, जिसकेे लिए अहंकार छोड़ना जरूरी है। व्यक्तित्व गतिशील भी होता है और परिवर्तनशील भी। जैसे-जैसे किसी विवाहित जोड़े की उम्र बढ़ती है, उनके व्यक्तित्व में भी परिवर्तन आने लगता है। बहुत से लोग जो पहले गंभीर थे, अब मस्ताने हो गए और वैवाहिक जीवन की शुरुआत मस्ती से करने वाले थक गए, उदास हो गए। अस्तित्व भी गतिशील होता है लेकिन, परिवर्तनशील नहीं होता। इसलिए जीवनसाथी के अस्तित्व को टटोलना हो तो थोड़ा रुकना पड़ेगा। यहां रुकने से मतलब है उसके शरीर से आगे बढ़कर उसकी आत्मा को स्पर्श करना। आज भी अधिकतर जोड़े जीवन की यात्रा शरीर से शुरू कर शरीर पर ही खत्म कर देते हैं। शरीर झलकता है व्यक्तित्व से और आत्मा के दर्शन होंगे अस्तित्व में। जिन क्षणों में जरा भी जीवनसाथी की आत्मा महसूस की जाती है, वो दांपत्य के दिव्य क्षण होते हैं। इन्हें पाने के लिए शुरुआत समर्पण से ही करनी पड़ेगी।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>प्रार्थना में करुणा से भक्ति पैदा होती है...</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">विज्ञान ने भौतिकता को तो आसान बना दिया है लेकिन, आत्मिक बातें कठिन होती जा रही हैं। इन दिनों हमारे जीवन में एक विषय है जनसंपर्क। मोबाइल ने इसे इतना सरल कर दिया कि सारी दुनिया मुट्ठी तो दूर, उंगली की छोटी-सी नोक पर आ गई है पर प्रेमपूर्ण संबंधों के मतलब ही बदल गए। प्रेम पर वासना की ऐसी परत जमी कि लोग भूल ही गए प्रेम होता क्या है। ऐसे में प्रेमपूर्ण होना कठिन हो गया है। यदि हमें दूसरों को प्रेम का मतलब समझाना हो या खुद प्रेम में उतारना हो तो एक आध्यात्मिक तरीका है- करुणामय हो जाना। करुणा प्रेम का ऐसा विकल्प है, जिसमें थोड़ी बहुत सुगंध और स्वाद रह सकता है। करुणा की विशेषता यह है कि वह अलग-अलग क्रिया में भिन्न परिणाम देती है। करुणा को सहयोग से जोड़ दें तो प्रेम की झलक मिलेगी। करुणा वाणी से जुड़ जाए तो भरोसा पैदा होता है। चिंतन में यदि करुणा का समावेश हो जाए तो परिपक्वता आ जाती है। क्रिया से जुड़ जाए तो परोपकार बनने लगता है। क्रोध में उतर आए तो हितकारी दृष्टि, स्नेह और ममता जाग जाती है। मांग में करुणा आने पर प्रार्थना पैदा होती है और प्रार्थना में यदि करुणा उतर जाए तो फिर भक्ति पैदा हो जाती है। जब भी भीतर करुणा उतरे, पहला काम यह किया जाए कि इसे दूसरों से जोड़ें। अपनी करुणा को खुद पर खर्च करने में कंजूसी न करें। यदि प्रेमपूर्ण होना कठिन हो तो कम से कम करुणामय तो हो ही जाएं। करुणामय व्यक्ति विज्ञान का भी दुरुपयोग नहीं करेगा।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>दक्षता बढ़ाने के लिए भीतर पंचतत्व उतारें....</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">संगठन पंचतत्वकी तरह व्यक्त होता है। आजकल परिवार हो या व्यापार, संगठन का महत्व बढ़ रहा है। राष्ट्र की तो ताकत ही संगठन है। यदि कुछ लोग एक छत के नीचे, एक साथ रह रहे हों तो उस रहन-सहन को संगठन में बदल लेना चाहिए। किसी संस्थान में यदि संगठन ठीक से उतर आए तो अधिकारियों और कर्मचारियों की योग्यता, निष्ठा, ईमानदारी और परिश्रम के मतलब ही बदल जाएंगे। हम अपने संस्थान या संगठन में किसी से उम्मीद करते हैं कि वह किसी एक क्षेत्र में परिपक्व, कामयाब हो तो दूसरे क्षेत्र में भी वैसा ही प्रदर्शन करे। प्रबंधन की भाषा में कहें तो यदि कोई मार्केटिंग में दक्ष है तो वह एचआर विभाग में कमजोर पड़ जाता है। पर यदि संगठन को पंचतत्व से जोड़ें तो सभी लोग सभी कामों में दक्ष हो सकेंगे। पंचतत्व में सबसे पहले पृथ्वी को समझें। इसमें पहाड़ भी होते हैं, वृक्ष भी हैं। दूसरा तत्व है जल जिसमें नदी, तालाब, समुद्र हैं। तीसरा है अग्रि। इसमें राख, अग्नि और धुंआ है। वायु में वेग, सुगंध और आंधी है तथा अंतिम तत्व यानी आकाश विशाल है, ध्वनि लिए हुए है और बादल का परदा उस पर है। ये पांचों तत्व एक साथ मिलकर पूरी सृष्टि चलाते हैं। हमारे भीतर ये पंचतत्व हैं और यदि ये संगठित हो जाएं, तो वह व्यक्ति जिस भी संगठन में होगा, उसे ऊंचाइयां देगा। प्रयास करें कि इस पूरी प्रकृति में जो पंचतत्व हैं वे हमारे भीतर उतरें और हम जिस भी संगठन से जुड़ें, हर क्षेत्र में दक्ष होकर उसके लिए खूब योगदान दे सकें।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>सोच-समझकर किसी की जय जयकार करें...</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परमात्मा की जय की जाए यह तो समझ में आता है पर दो कोड़ी के लोगों की भी जय करने लगते हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि जब किसी की जय कर रहे होते हैं तो उसके गुण-दुर्गुण आपके भीतर उतरने लगते हैं। अब तो उन लोगों की भी जय-जयकार होती है, जिनमें गुण ढूंढ़े नहीं मिलते और दुर्गुण रोम-रोम में होते हैं। लिहाजा जय का नारा भी एक-दूसरे के भीतर दुर्गुण स्थानांतरित करने का जरिया बन जाता है। बहुत सारी चीजों की जय करें तब इस जय के नारे को गृहस्थी से भी जोड़ें। जय गृहस्थी, जय परिवार, जय ऐसा कहने में बुराई नहीं है। परिवार में सब लोग अपना यशदान करते हैं। एक की खूबी दूसरे में उतरे, जिनमें योग्यता है वो उसका परिणाम परिवार में देना चाहें तो दिनभर में एक बार ‘जय गृहस्थी<span lang="EN-US">’ </span>जरूर बोला जाए। जिस घर में हम रहते हैं, जिस परिवार के सदस्य हैं उससे हमें बहुत कुछ मिला होता है। जयकारे का मतलब है अब वह लौटाया जाए। परिवार भी एक संस्था है और हमारा कारोबार भी एक संस्था है। संसार नाम की संस्था में इंद्रियां फैलती हैं, परिवार नामक संस्था में इंद्रियां मुड़ती हैं। इसलिए जब इंद्रियों का उपयोग संसार में कर चुके हों और घर लौट रहे हों तो इंद्रियों द्वारा संग्रहित वस्तुओं को थोड़ा छानकर घर में लाएं। जय शब्द के अर्थ ठीक से समझें। जय का मतलब यदि परिवार में ठीक से उतार सकें तो आज परिवार टूटने के जो खतरे हमारे सामने मंडरा रहे हैं वो दूर हो जाएंगे।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>अहंकार को काबू कर पुरुष परिवार बचाएं...</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नारी की उपस्थिति से ही मकान घर बनता है। वरना वह ईंट-सीमेंट के ढांचे से ज्यादा कुछ नहीं होता। पुरुष अपने स्वभाव के कारण मकान को घर बना ही नहीं सकता। यह काम महिलाएं ही करती हैं। किसी भी घर का आधार आपसी समझ और प्रेम होता है। रावण के पास बहुत बड़ा महल था। पत्नी मंदोदरी बार-बार उस महल को घर बनाने का प्रयास करती पर जिद्दी और अहंकारी रावण ऐसा होने नहीं दे रहा था। मंदोदरी जब समझा रही थी तो रावण ने न सिर्फ पत्नी का मजाक उड़ाया बल्कि समूची नारी जाति पर व्यक्तिगत टिप्पणी कर दी। रावण विद्वान था लेकिन, अहंकार जितने भेद पैदा करता है उनमें से एक स्त्री और पुरुष का भी कर देता है। अहंकार से भरी रावण की उस वाणी पर तुलसीदासजी ने लिखा, ‘साहस अनृत चपलता माया। भय अबिबेक असौच अदाया।। रिपु कर रूप सकल तैं गावा। अति बिसाल भय मोहि सुनावा।।<span lang="EN-US">’ </span>रावण मंदादरी से कहता है- साहस, झूठ, चंचलता, छल, भय, अविवेक, अपवित्रता और निर्दयता.. तूने शत्रु का समग्र रूप गाकर मुझे बड़ा भारी भय सुनाया? यहां वह स्त्रियों के आठ अवगुण गिना रहा है। हमारे समाज में, परिवार में जब पुरुष के भीतर का रावण अंगड़ाई लेता है तो मातृशक्ति पर इसी तरह के आरोप जड़ देता है, आलोचना करने लगता है और इसी भेद के कारण घर टूट जाते हैं। घर-परिवार में रहते हुए अपने भीतर के रावण को नियंत्रित रखिएगा। वरना भारत की सबसे बड़ी पूंजी परिवार है और हम अपने ही भीतर के रावण के कारण उसे तोड़ बैठेंगे।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रिश्तों को मन से बचाएं, हृदय से निभाएं...<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रिश्ते भी फसल की तरह होते हैं। इनके बीज बड़ी सावधानी से बोना पड़ते हैं और उससे भी ज्यादा सावधानी देख-रेख में बरतनी पड़ती है। फसल के लिए सबसे नुकसानदायक होती है खरपतवार। ये वो छोटे-छोटे पौधे होते हैं जो मूल फसल के पौधे के आसपास उगकर उसका शोषण करते हैं। किसान समय-समय पर खरपतवार को नष्ट करता रहता है। रिश्तों की फसल बचाना है तो मस्तिष्क, मन, हृदय और आत्मा को समझना होगा। मस्तिष्क के रिश्ते व्यावहारिक होते हैं। व्यापार की दुनिया में मस्तिष्क काम आता है। हृदय में घर-परिवार के रिश्ते बसाए जाते हैं। आत्मा से रिश्ते निभाना थोड़ा ऊंचा मामला है। रिश्तों की फसल में सबसे खतरनाक खरपतवार मन के रूप में होती है। यहां-वहां फैली गाजरघास या किसी नदी में उगी जलकुंभी को देखेंगे तो मन की भूमिका समझ जाएंगे। मन रिश्तों के मामले में ऐसा ही करता है। इसलिए रिश्ते निभाइए हृदय से। उन्हें पालना हो तो आत्मा का उपयोग कीजिए। मस्तिष्क से रिश्ते निभाने पड़ते हैं यह जीवन का व्यावहारिक पक्ष है लेकिन, रिश्तों को मन से पूरी तरह बचाइएगा। रिश्तों की फसल के लिए सबसे अच्छी खाद होती है समय, समझ और समर्पण की। यह खाद ठीक ढंग से दी जाए तो फसल बहुत अच्छे से फूलेगी-फलेगी, अन्यथा मन भेद को जन्म देता है। भेद का अर्थ है संदेह, ईर्ष्या, झूठ, कपट। यहीं से रिश्ते एक-दूसरे का शोषण करने पर उतर आते हैं। रिश्तों की फसल बहुत सावधानी से बोइए, उगाइए, बचाइए और फल के परिणाम तक ले जाइए।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>नाम-दाम कमाएं पर त्याग की वृत्ति रखें...</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक दिन ऊपर जाने का मौका आएगा ही और कहीं ऐसा न हो कि तब हमारा उत्साह खत्म हो जाए। सीढ़ियों के सहारे आप ऊपर से नीचे उतर सकते हैं और नीचे से ऊपर चढ़ भी सकते हैं। परमात्मा जब अवतार लेता है तो ऊपर से नीचे धरती पर उतरता है। अपनी लीला से यह संदेश देता है कि मैं ईश्वर हूं पर ऊपर से नीचे उतरकर मनुष्य बन गया हूं। अगर ऊपर से नीचे उतरा जा सकता है तो नीचे से ऊपर क्यों नहीं चढ़ सकते? यह प्रश्न हर अवतार ने अपने समय के मनुष्यों से किया है और आज भी कर रहा है। हम चाहें तो ऊपर चढ़ सकते हैं। इसमें मदद करेंगे हमारे धर्म ग्रंथ। आपका संबंध किसी भी धर्म से हो, सभी के पास अपने ग्रंथ हैं और उनके प्रसंग या संदेश ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ी हैं। सीढ़ी चढ़ने या उतरने में जरा-सी लापरवाही हुई तो गिर भी सकते हैं। सीढ़ी चढ़ते हुए जब सबसे ऊपर के पायदान पर पहुंचते हैं तो वहां भगवान को नहीं पाएंगे। आपको लगेगा स्वयं ही भगवान जैसे हो गए। सबसे ऊंची पायदान पर आप और भगवान में कोई फर्क नहीं है। लेकिन, ऊपर चढ़ने में हमें संसार की आसक्ति रोकती है। संसार नीचे की ओर खींचता है, इसलिए जब ऊपर चढ़ना हो तो उत्साह बनाए रखना पड़ेगा, जिसमें त्याग, आकांक्षा दोनों जुड़े रहेंगे। आकांक्षा से हम संसार में उतरते हैं और यदि त्याग की वृत्ति आ जाए तो संसार छोड़कर सीढ़ी चढ़ने में दिक्कत नहीं होगी। संसार में खूब नाम-दाम कमाइए पर त्याग की वृत्ति रखिए। एक दिन ऊपर जाने का मौका आएगा ही और कहीं ऐसा न हो कि तब हमारा उत्साह खत्म हो जाए।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>मन कुटिल हो तो गुण भी दोष दिखते हैं...</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">माया को छल बताकर कहता है स्त्री छली होती है, जबकि स्त्री को अपनी देह के कारण माया माना गया है। स्त्री का चरित्र भावनाओं की लहर की तरह होता है, जिसकी कोई व्याख्या नहीं की जा सकती, अनुभूति जरूर की जा सकती है। पुरुष का चरित्र आक्रामक होकर शोषण की वृत्ति रखता है। स्त्री के चरित्र की कूटनीतिक चालों की तरह व्याख्या रावण जैसे लोग ही कर सकते हैं। लंका कांड में मंदोदरी जब पति रावण को समझा रही थी तो चूंकि वह उस समय राजनीतिक भाषा बोल रहा था, चरित्र में कुटिलता उतर आई तो स्त्रियों की आठ खूबियों को दोष बता दिया। पहले कहा- साहस। स्त्री का सबसे बड़ा साहस होता है कि वह मां बनने की क्षमता रखती है। जबकि प्रसव मृत्यु को आमंत्रण भी हो सकता है। अनृत, यानी झूठ। रावण कहता है स्त्रियां झूठ बहुत बोलती हैं। तो क्या पुरुष इसमें कम पड़ता है? स्त्री की चंचलता को वह दोष बताता है, जबकि चंचलता उसका खुलापन है। माया को छल बताकर कहता है स्त्री छली होती है, जबकि स्त्री को अपनी देह के कारण माया माना गया है। उसे डरपोक कहता है। जो परिवार के लिए कुछ भी करने को तैयार हो वह डरपोक कैसे हो सकती है? उसके बाद अविवेक का दोष बताता है। जबकि स्त्री का विवेक पुरुष के मुकाबले अधिक जागा हुआ होता है। इसी प्रकार अपवित्रता और निर्दयता को भी उसने स्त्रियों के साथ दोष के रूप में जोड़ा है। रावण जैसे लोग समाज में स्त्रियों के प्रति इस प्रकार की टिप्पणियां कर समूची मानवता के विरोधी बन जाते हैं। राम ऐसे ही रावण को मिटाने के लिए धरती पर आए थे।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>प्रेम पति-पत्नी के रिश्ते का प्राण है...</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">खतरा तब और बढ़ता है जब स्त्री-पुरुष एक-दूसरे पर सत्ता जमाने लगते हैं। सत्ता स्वभाव से ही स्वभक्षी होती है। इसकी कामना रखने वाला तैयार रहे कि यह एक दिन उसे भी कुतर-कुतरकर खा जाएगी। खतरा तब और बढ़ता है जब स्त्री-पुरुष एक-दूसरे पर सत्ता जमाने लगते हैं। उनमें जेंडर कॉन्शसनेस की समस्या आ ही जाती है। मैं स्त्री हूं, मैं पुरुष हूं ऐसे झगड़े नौकरी-व्यापार में दिखना आम है, लेकिन जब पति-पत्नी एक-दूसरे पर सत्ता बनाना चाहते हैं तो कीमत बच्चे चुकाते हैं। आजकल पढ़े-लिखे स्त्री-पुरुषों के लिए प्रेम एक काम हो गया है। प्रेम इस रिश्ते का प्राण है लेकिन, व्यस्तताओं के बीच प्रेम काम की तरह निपटाया जा रहा है। यह फर्क जरूर है कि पुरुष के पास स्त्री के मुकाबले काम अधिक होते हैं, इसलिए प्रेम उसके लिए अंतिम प्राथमिकता है। स्त्रियां भी बहुत काम करती हैं, उनके लिए भी प्रेम एक काम है। इसीलिए दोनों के बीच रूखापन उतर आया है। स्त्रियों के मन में यह भाव गहरा रहा है कि वे पुरुषों से पीछे न रह जाएं। स्त्री के पास उसका स्वधर्म इतना मजबूत है कि जहां खड़ी हो, वहीं ऊंचाई पा सकती है। उसे ऊंचा होने के लिए पुरुष का प्लेटफॉर्म चाहिए भी नहीं। लेकिन दोनों के बीच अजीब-सा मुकाबला है और उसमें प्रेम दम तोड़ता जा रहा है। जैसे ही पति-पत्नी के बीच का प्रेम टूटता है, उनकी उदासी बच्चों में उतर आती है। आजकल ज्यादातर बच्चे चिड़चिड़े और जिद्दी इसलिए भी पाए जाते हैं कि उनके प्रेम का स्रोत समाप्त हो गया है। प्रेम को प्रेम ही रहने दीजिए। तब ही रिश्ते सुरक्षित रह पाएंगे।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>समय के महत्व को ठीक से समझें...</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सबको सभी बातों का ज्ञान हो जाए, जरूरी नहीं है। जब हम अज्ञान की स्थिति में होते हैं तो कुछ वस्तुओं, व्यक्तियों को लेकर भ्रम हो जाता है। पर दुनिया का सबसे बड़ा भ्रम है स्वयं के बारे में गलतफहमी। रावण ऐसे ही भ्रम में जी रहा था। पत्नी मंदोदरी के समझाने पर पहले तो उसने मंदोदरी की आलोचना की। फिर अपनी प्रशंसा के बीच बड़ी सफाई से उसकी भी तारीफ करने लगा। कहता है, ‘सारा संसार मेरे वश में है यह बात तेरी कृपा से अब मेरी समझ में आई है। मैं तेरी चतुराई समझ गया हूं। तू समझाने के बहाने मेरी प्रभुता का बखान कर रही है।<span lang="EN-US">’</span><o:p></o:p></span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इस संवाद पर तुलसीदासजी ने लिखा, ‘तव बतकही गूढ़ मृगलोचनि। समुझत सुखद सुनत भय मोचनि।। मंदोदरि मन महुं अस ठयऊ। पियहि काल बस मति भ्रम भयऊ।।<span lang="EN-US">’ </span>रावण कहता है, ‘हे मृगनयनी, तेरी बातें बड़ी रहस्यभरी हैं। समझने पर सुख देने वाली और सुनने से भय मुक्त करने वाली हैं।<span lang="EN-US">’ </span>तब मंदोदरी सोचने लगी कि काल के वश में होने के कारण पति को मति-भ्रम हो गया है।<o:p></o:p></span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमें यह समझना है कि समय इंसान की बुद्धि को बदल देता है। इसलिए समय का सम्मान करें, उसके महत्व को ठीक से समझें। यदि अपने ही समय को पढ़ना नहीं आया तो एक दिन वह बुद्धि को पलटकर ऐसा आचरण करा सकता है कि आप सोच भी नहीं सकते। सच है, काल पर किसी का वश नहीं होता लेकिन, कम से कम अपने ऊपर तो वश है कि काल को समझ सकें और रावण जैसी गलती न करें।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>मिलकर निर्णय लें, मिलकर जीना सीखें....</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">परिवार में बड़े-बूढ़े कई आदर्श वाक्य सुनाते रहते हैं। ऋषि-मुनियों ने तो गृहस्थ जीवन पर बहुत कुछ कहा है लेकिन, आज के दौर में परिवार जिन हालात से गुजर रहे हैं उसमें शंकराचार्यजी ये शब्द बहुत काम काम हैं,‘न नेयो न नेता<span lang="EN-US">’</span>। यानी आने वाले समय में न कोई नेता होगा और न ही कोई उनका अनुयायी। सबको मिलकर चलना होगा। आज परिवारों में यह इसलिए लागू है, क्योंकि यहां सबको मिलकर चलना ही पड़ेगा वरना परिवार तेजी से टूटते जाएंगे।<o:p></o:p></span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शिक्षा से प्राप्त योग्यता और धन से प्राप्त जीवनशैली ने परिवारों में शक्ति के कई केंद्र बना दिए। सब नेतृत्व चाहते हैं। बड़े तो इस झंझट में उलझे ही हैं, छोटे से बच्चे को भी लगता है कि मेरा कहा माना जाए। लेकिन अब मिल-जुलकर ही चलना पड़ेगा। काल प्रवाह से परिवार भी नहीं बचे। बहुत तेजी से पुराना गुजरता जा रहा है और नित नया परिवारों में प्रवेश कर रहा है। ऐसे में मिल-जुलकर, एक-दूसरे की बात का मान रखकर ही परिवार चलाने पड़ेंगे। सबसे पहले अहंकार विलीन करना होगा।<o:p></o:p></span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किसी एक को नहीं, परिवार के प्रत्येक सदस्य को अपनी योग्यता को परिवार का हिस्सा मानना पड़ेगा। अपनी शिक्षा को परिवार की देन समझना होगा। वरना परिवार बंट जाएंगे। लेकिन इस बंटवारे में तन भले ही बंट जाएं पर मन न बंटे। छत बंट जाए पर रिश्ते नहीं टूट जाएं। इसलिए शंकराचार्यजी की इस बात को याद रखते हुए सब मिलकर ही निर्णय लें, मिलकर ही जीना सीखें।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>मूल्यों पर चलकर होश में रहना आसान...</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होश, बेहोश और जोश ये स्थितियां सभी के जीवन में घटती हैं। कुछ लोग जानते हैं कि कब होश में रहना, कैसे बेहोशी से बचना कैसे इन दोनों के बीच जोश बनाए रखना है। होश का मतलब है जब ज़िंदगी की राह में गिरें तो गिरे ही नहीं रहना है, उठना भी है। जोश यानी आगे बढ़ना और बेहोशी का मतलब है रुक जाना। प्रगति करना हो तो बदलाव पर नज़र रखिए। एक तो स्वयं में हो रहे बदलाव पर पकड़ होनी चाहिए, दूसरा आपके आसपास के वातावरण में हो रहे बदलाव की भी पूरी समझ होनी चाहिए। पहले जीने के लिए परम्परा आधारित जीवन पर्याप्त था लेकिन, वक्त बदला तो परम्पराएं भी तेजी से बदलीं। इसलिए अब परम्परा आधारित जीवन नुकसान पहुंचा सकता है। जैसे पिछले दिनों गुरु परम्परा प्रश्नों के घेरे में गई। अब लोग लंबे समय तक गुरुओं से दूरी बना सकते हैं या गुरु बनाने में संकोच करेंगे। जब परम्परा आधारित जीवन से हटें तो मूल्य आधारित जीवन पर जाएं। मूल्य कभी नहीं बदलेंगे। सत्य, अहिंसा, प्रेम, करुणा ये मूल्य हैं। मूल्यों पर चलने वालों के लिए होश बनाए रखना आसान होगा। ज़िंदगी की राह में ठोकरें लगेंगी, आप गिर भी जाएंगे पर यदि होश कायम है तो खुद को उठा भी लेंगे। यदि खुद को नहीं बदला, परम्पराओं पर टिके रहे तो यह भी बेहोशी होगी, जो इनसान के कदम लड़खड़ा देती है, उसे रोक देती है। होश और बेहोशी के बीच जरूरत पड़ती है जोश की। यह जोश ही आपको आगे ले जाएगा।<o:p></o:p></span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपनी योग्यता को अहंकार से न जोड़ें...<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">राजसत्ता पर बैठे व्यक्ति की जब कमर टूट जाती है तो वह न किसी की गर्दन मरोड़ सकता है और न ही खुद उसकी गर्दन मरोड़ने की जरूरत रह जाती है। युद्ध शुरू होने से पहले ही रावण का आचरण बता रहा था कि उसकी कमर टूट चुकी है। घर, सेना और मैदान में सभी दूर हालात विपरीत हो रहे थे। पत्नी मंदोदरी ने समझाया तो पहले तो उसका परिहास किया, फिर शब्दों में उसकी प्रशंसा ढूंढ़ने लगा। यहां तुलसीदास ने व्यंग्य करते हुए लिखा है, ‘एहि बिधि करत बिनोद बहु प्रात प्रगट दसकंध। सहज असंक लंकपति सभॉ गयउ मद अंध।<span lang="EN-US">’ </span>यानी इस प्रकार अज्ञानवश विनोद (हास-परिहास) करते हुए रावण को सुबह हो गई। तब स्वभाव से निडर और अहंकार में अंधा लंकापति सभा में पहुंचा। पति-पत्नी एकांत में रहें, विनोद करें तो ये अच्छे लक्षण हैं। लेकिन, रावण तब विनोद कर रहा था, जब उसे बहुत गंभीर होना था।<o:p></o:p></span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तुलसीदासजी ने उसे निडर बताने के साथ अंधा भी लिखा। दु:साहसी व्यक्ति की यदि दृष्टि चली जाए तो उसके लिए खतरा बढ़ जाता है। फिर उसका हर कदम गलत होता है। रावण के माध्यम से हमें यही समझना चाहिए कि जब आप अपनी योग्यता को अहंकार से जोड़ते हैं, शिक्षा को भोग-विलास में उतार लेते हैं तो फिर सही निर्णय ले पाने की संभावना समाप्त हो जाती है। शिक्षित व्यक्ति को दुर्गुण नहीं पालना चाहिए, योग्य को आलसी नहीं होना चाहिए। वरना जो आचरण रावण कर रहा था वैसा ही हम भी जीवन में कहीं न कहीं करते रहेंगे।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>करुणा से मिलती है संकल्प को ताकत...</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">संकल्प लेकर उसे तोड़ना इंसान की फितरत हो गई है। बड़े संकल्प की तो बात दूर है, छोटा-मोटा संकल्प भी पूरा नहीं कर पाते। बहुत से लोग हैं, जो रात को संकल्प लेते हैं कि सुबह जल्दी उठेंगे और सुबह होने पर रात का संकल्प धरा रह जाता है। भोजन के नियंत्रण का संकल्प खाना दिखते ही टूट जाता है। क्यों हमारे संकल्प पूरे नहीं हो पाते? संकल्प पूरा करने के लिए संयम आवश्यक है और संयम में भगवान की उपस्थिति बहुत जरूरी है। यदि आप संयम में यह मानकर चलेंगे कि परमात्मा अनुपस्थित होकर भी मुझे देख रहा है तो संयम को ठीक से पाल सकेंगे। परमात्मा सदैव साथ है, यह भाव उतरते ही आपके भीतर जो सबसे बड़ा गुण आता है वह है करुणा। जब आप करुणामय होते हैं तो न तो अपने प्रति अपराध करेंगे, न दूसरे के प्रति कुछ गलत कर पाएंगे।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करुणामय व्यक्ति का संयम भी बहुत तगड़ा होता है, क्योंकि उसे परमात्मा का सहारा मिल जाता है। वेद में कहा गया है-’श्रत्ते दधामि प्रथमाय मन्यवे<span lang="EN-US">’</span>। इसमें ऋषि ने परमात्मा से कहा है कि आपका जो पहला संकल्प होगा उसमें मेरी पूरी श्रद्धा है और वह संकल्प है सबके लिए करुणा। इसलिए जब कोई संकल्प लें, उसे पूरा करने के लिए जिस संयम की आवश्यकता हो उसमें सदैव यह ध्यान रखें कि आप अकेले उसे पूरा नहीं कर पाएंगे। इसमें एक और परमशक्ति की ताकत लगेगी। जैसे ही करुणामय हुए, अपने संयम को ताकत दे सकेंगे और फिर संकल्प कभी नहीं टूटेंगे।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>जीवन की जडे़ं ढूंढ़ने के लिए मंदिर जाएं..<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किस मंदिर में जाकर माथा टेंकें, किस मूर्ति को मान्यता दें? आजकल लोग यह सवाल बहुत पूछते हैं। धर्म के प्रति आधुनिक दृष्टि रखने में बुराई नहीं है पर आधुनिक होते-होते लोग आलोचनात्मक हो जाते हैं। आसान है यह कहना कि मंदिरों में सिवाय लूट के और क्या है। लोग भीख मांगने जाते हैं भगवान से। बाबाओं ने मंदिरों को लूट का केंद्र बना रखा है, पुजारी अपनी दुकान चलाता है। ऐसी बातें आसानी से कह दी जाती हैं। मुझसे लोग पूछते हैं कि आखिर मंदिर जाएं क्यों? इसका उत्तर है यदि आप किसी बात को ठीक से नहीं देख-समझ पाएंगे तो उसका सही अर्थ नहीं पकड़ पाएंगे। यह सही है कि मंदिर लूट, अंधविश्वास, मारामारी के केंद्र बन गए हैं लेकिन, हर बात का सतह के नीचे का पहलू होता है। भले ही सब भीख मांगने जा रहे हों, कोई लूट रहा हो, आप वहां से बहुत कुछ प्राप्त कर सकते हैं। आप जीवन की जड़ें ढूंढ़ने मंदिर में जाएं। जीवन सदैव मौन या एकांत में मिलता है। अभ्यास कीजिए उस देवस्थान पर कितना भी शोर हो पर आपके भीतर शांति घट जाए। </span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दूसरे क्या कर रहे हैं यह छोड़ प्रार्थना कीजिए, अपना रोम-रोम धैर्य से भर लीजिए। पूजा-पाठ, कर्मकांड, हल्ला-गुल्ला ये अपनी-अपनी रुचि का विषय हैं और काफी हद तक मनुष्य की मानसिकता पर टिका है। कोई टिप्पणी या आलोचना करने की जगह उस वरदान से न चूकें जो मंदिर की उस चारदीवारी में बड़ी आसानी से मिल सकता है। जो श्रेष्ठ है, मिल सकता है, उसे लपक लीजिए।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>नियति व्यवस्था है पर निर्णय हमें लेना है....<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जब सब कुछ भगवान की इच्छा से हो रहा है, हर परिणाम में भाग्य काम कर रहा है, हर बात का कोई निमित्त है तो फिर गलत को गलत क्यों ठहराया जाता है? इस तरह के प्रश्न आजकल पढ़े-लिखे समाज में खूब उछाले जाते हैं। केवल सैद्धांतिक पंक्तियों को पकड़ेंगे तो आरोप सही लगेंगे लेकिन, यह अच्छे से समझना होगा कि भगवान जितना नियंता है, उतनी ही नियति है। नियंता का अर्थ है व्यवस्था चलाने वाला और नियति का मतलब है उसने एक ऐसी नीति बना दी है, जो कंप्यूटर के सॉफ्टवेयर की तरह है। आप जैसा करेंगे, वैसा परिणाम मिल जाएगा। नियंता के रूप में भगवान ने नियम बनाया कि पृथ्वी गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण हर चीज को खींचती है। अब यदि गिर जाएं तो यह नहीं कह सकते कि भगवान की इच्छा थी, पृथ्वी ने खींच लिया तो गिर गए। नियंता ने नियम बनाया लेकिन, गिरना आपकी नियति थी। आप ठीक से संभल नहीं पाए तो पृथ्वी खींच रही है। भगवान कृष्ण ने महाभारत युद्ध से पहले कहा था, ‘एक तरफ मैं अकेला हूं, वह भी बिना शस्त्र उठाए तथा दूसरी ओर मेरी सेना होगी। आपको जो लेना हो, ले लो। कौरवों ने सेना चुनी, पांडवों ने निहत्थे कृष्ण को चुन लिया। कुल मिलाकर निर्णय हमारे ऊपर है, भगवान अपनी व्यवस्था कर चुके हैं। इसलिए ऐसे प्रश्नों का कोई मतलब नहीं है। आपको संभावना और चयन ऊपर से दिया गया है और उसी के दायरे में अपना जीवन चलाइए।<o:p></o:p></span></div>
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<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b><span lang="HI">जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है</span>,</b></span></div>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b><span lang="HI">और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है... </span></b></span><b style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span lang="HI"><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b><span style="line-height: 18.4px;">मनीष</span></b></span></span></b><span style="font-family: "mangal" , "serif";"></span><br />
<div class="MsoNormal">
<b style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><span lang="HI">ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....</span></b></div>
</div>
<div class="MsoNormal">
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</div>
Jai Guru Geeta Gopalhttp://www.blogger.com/profile/01621836960274288942noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6101091264294453966.post-88805385058193656452019-08-27T21:36:00.000-07:002019-08-27T21:36:04.281-07:00गुरु गोरखनाथ जी (Guru Gorakhnath ji)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgllhyphenhyphenk4i9LsQmge4WBEPiG0wLtVtze3dIIHjzRfh6TpO9g96ONa0Hmgtia6KY3bHu90f2j3UvSfs_DW2G1XHqN4zrknm3R4kxIYWe7009Aj39QyySqiZ04i9pedM3l70zWXWoFs42XB3M/s1600/37805063_1894377177285896_3351627765802598400_n.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="546" data-original-width="960" height="182" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgllhyphenhyphenk4i9LsQmge4WBEPiG0wLtVtze3dIIHjzRfh6TpO9g96ONa0Hmgtia6KY3bHu90f2j3UvSfs_DW2G1XHqN4zrknm3R4kxIYWe7009Aj39QyySqiZ04i9pedM3l70zWXWoFs42XB3M/s320/37805063_1894377177285896_3351627765802598400_n.jpg" width="320" /></a></div>
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<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>महायोगी गुरु गोरखनाथजीजी</b><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">महायोगी गोरखनाथजी मध्ययुग के एक विशिष्ट महापुरुष है। गोरखनाथजी के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ जी (मछंदरनाथ) थे। इन दोनों ने नाथ सम्प्रदाय को सुव्यवस्थित कर इसका विस्तार किया। इस सम्प्रदाय के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है।</span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गुरु गोरखनाथजी हठयोग के आचार्य थे। कहा जाता है कि एक बार गोरखनाथजी समाधि में लीन थे। इन्हें गहन समाधि में देखकर माँ पार्वती ने भगवान शिव से उनके बारे में पूछा। शिवजी बोले, लोगों को योग शिक्षा देने के लिए ही उन्होंने गोरखनाथजी के रूप में अवतार लिया है। इसलिए गोरखनाथजी को शिव का अवतार भी माना जाता है। इन्हें चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। इनके उपदेशों में योग और शैव तंत्रों का सामंजस्य है। ये नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखनाथजी की लिखी गद्य-पद्य की चालीस रचनाओं का परिचय प्राप्त है।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इनकी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात् तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान को अधिक महत्व दिया है। गोरखनाथजी का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात् समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है।<o:p></o:p></span></div>
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<br /></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गोरखनाथजी के जीवन से सम्बंधित एक रोचक कथा इस प्रकार है- एक राजा की प्रिय रानी का स्वर्गवास हो गया। शोक के मारे राजा का बुरा हाल था। जीने की उसकी इच्छा ही समाप्त हो गई। वह भी रानी की चिता में जलने की तैयारी करने लगा। लोग समझा-बुझाकर थक गए पर वह किसी की बात सुनने को तैयार नहीं था। इतने में वहां गुरु गोरखनाथजी आए। आते ही उन्होंने अपनी हांडी नीचे पटक दी और जोर-जोर से रोने लग गए। राजा को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने सोचा कि वह तो अपनी रानी के लिए रो रहा है, पर गोरखनाथजी जी क्यों रो रहे हैं। उसने गोरखनाथजी के पास आकर पूछा, 'महाराज, आप क्यों रो रहे हैं?' गोरखनाथजी ने उसी तरह रोते हुए कहा, 'क्या करूं? मेरा सर्वनाश हो गया। मेरी हांडी टूट गई है। मैं इसी में भिक्षा मांगकर खाता था। हांडी रे हांडी।' इस पर राजा ने कहा, 'हांडी टूट गई तो इसमें रोने की क्या बात है? ये तो मिट्टी के बर्तन हैं। साधु होकर आप इसकी इतनी चिंता करते हैं।' गोरखनाथजी बोले, 'तुम मुझे समझा रहे हो। मैं तो रोकर काम चला रहा हूं तुम तो मरने के लिए तैयार बैठे हो।' गोरखनाथजी की बात का आशय समझकर राजा ने जान देने का विचार त्याग दिया।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कहा जाता है कि राजकुमार बप्पा रावल जब किशोर अवस्था में अपने साथियों के साथ राजस्थान के जंगलों में शिकार करने के लिए गए थे, तब उन्होंने जंगल में संत गुरू गोरखनाथजी को ध्यान में बैठे हुए पाया। बप्पा रावल ने संत के नजदीक ही रहना शुरू कर दिया और उनकी सेवा करते रहे। गोरखनाथजी जी जब ध्यान से जागे तो बप्पा की सेवा से खुश होकर उन्हें एक तलवार दी जिसके बल पर ही चित्तौड़ राज्य की स्थापना हुई।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गोरखनाथजी जी ने नेपाल और पाकिस्तान में भी योग साधना की। पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में स्थित गोरख पर्वत का विकास एक पर्यटन स्थल के रूप में किया जा रहा है। इसके निकट ही झेलम नदी के किनारे राँझा ने गोरखनाथजी से योग दीक्षा ली थी। नेपाल में भी गोरखनाथजी से सम्बंधित कई तीर्थ स्थल हैं। उत्तरप्रदेश के गोरखपुर शहर का नाम गोरखनाथजी जी के नाम पर ही पड़ा है। यहाँ पर स्थित गोरखनाथजी जी का मंदिर दर्शनीय है।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गोरखनाथजी जी से सम्बंधित एक कथा राजस्थान में बहुत प्रचलित है। राजस्थान के महापुरूष गोगाजी का जन्म गुरू गोरखनाथजी के वरदान से हुआ था। गोगाजी की माँ बाछल देवी निःसंतान थी। संतान प्राप्ति के सभी यत्न करने के बाद भी संतान सुख नहीं मिला। गुरू गोरखनाथजी 'गोगामेडी' के टीले पर तपस्या कर रहे थे। बाछल देवी उनकी शरण मे गईं तथा गुरू गोरखनाथजी ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया और एक गुगल नामक फल प्रसाद के रूप में दिया। प्रसाद खाकर बाछल देवी गर्भवती हो गई और तदुपरांत गोगाजी का जन्म हुआ।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गुगल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">फल</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नाम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">से</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इनका</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नाम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गोगाजी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पड़ा।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गोगाजी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वीर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ख्याति</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्राप्त</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">राजा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बने।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गोगामेडी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गोगाजी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मंदिर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऊंचे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">टीले</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मस्जिदनुमा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हुआ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">, </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसकी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मीनारें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मुस्लिम</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">स्थापत्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कला</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बोध</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कराती</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कहा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">फिरोजशाह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तुगलक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सिंध</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रदेश</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">विजयी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जाते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गोगामेडी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ठहरे</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">थे।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रात</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बादशाह</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तुगलक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">व</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उसकी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सेना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चमत्कारी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दृश्य</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देखा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मशालें</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लिए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">घोड़ों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सेना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रही</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तुगलक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सेना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हाहाकार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मच</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गया।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तुगलक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">की</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सेना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">साथ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आए</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">धार्मिक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">विद्वानों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बताया</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कि</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यहां</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कोई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">महान</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सिद्ध</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रकट</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">होना</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">चाहता</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">है।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">फिरोज</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तुगलक</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ने</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लड़ाई</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बाद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">आते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">समय</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गोगामेडी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मस्जिदनुमा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मंदिर</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">निर्माण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">करवाया।</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यहाँ</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सभी</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">धर्मो</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भक्तगण</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गोगा</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मजार</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दर्शनों</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हेतु</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भादौं</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> (</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भाद्रपद</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">) </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मास</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">में</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उमड़</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पडते</span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं।</span></div>
<div class="MsoNormal">
<o:p><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span></o:p><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"> </span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है... मनीष</b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span style="font-family: "mangal" , "serif";">ॐ</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">शिव</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हरि</span>....<span style="font-family: "mangal" , "serif";">जय</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गुरुदेव</span>..<span style="font-family: "mangal" , "serif";">जय</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गुरुदेव</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">कल्याणदेव</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जी</span>....</b></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
</div>
</div>
Jai Guru Geeta Gopalhttp://www.blogger.com/profile/01621836960274288942noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6101091264294453966.post-64585469371700951782019-08-27T21:35:00.002-07:002020-08-15T23:30:35.812-07:00जीवन जीने की राह (Jeevan Jeene Ki Rah8)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>पानी के तीन रूपों जैसे पति-पत्नी के रिश्ते<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारे यहां दृष्टांत से सिद्धांत समझाने की पुरानी परम्परा है। दृष्टांत और उदाहरण में छोटा-सा फर्क है। बहुत से लोग हर बात को समझाने में कुछ उदाहरण दिया करते हैं। जैसे व्यापार की दुनिया में खेल का उदाहरण दे देते हैं। खिलाड़ियों को व्यापार का उदाहरण देकर समझाते हैं।<o:p></o:p></span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हमारे यहां दृष्टांत से सिद्धांत समझाने की पुरानी परम्परा है। दृष्टांत और उदाहरण में छोटा-सा फर्क है। बहुत से लोग हर बात को समझाने में कुछ उदाहरण दिया करते हैं। जैसे व्यापार की दुनिया में खेल का उदाहरण दे देते हैं। खिलाड़ियों को व्यापार का उदाहरण देकर समझाते हैं। व्यापार की दुनिया में खेल का, खेल की दुनिया में व्यापार का और परिवार में इन दोनों का उदाहरण देना, ऐसे प्रयोग बहुत लोग करते हैं। यदि आप कर रहे हों तो थोड़ा सावधान हो जाएं। किसी एक जगह का उदाहरण जरूरी नहीं कि दूसरी जगह उपयोगी रहे और सही साबित हो।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उदाहरण के तौर पर यदि आप अपने व्यवसाय में खेल का उदाहरण दें कि खेल में कोई एक जीतता है, दूसरे को हारना ही पड़ता है..। लेकिन याद रखिएगा, व्यापार में हार-जीत से जरूरी है ग्राहक को जीतना। अब यह नियम खेल में लागू नहीं होता। वहां कोई ग्राहक नहीं होता। आपके सामने आपका प्रतिद्वंद्वी है और आपको या तो जीतना है या हारना है। ये दोनों उदाहरण घर में बिल्कुल नहीं चल सकते। परिवार में न तो कोई हारता है न किसी की जीत होती है, क्योंकि परिवार न तो व्यापार की तरह चलता है, न खेल की तरह। वहां सभी जीतते हैं और हारते भी सभी हैं। एक रिश्ता पति-पत्नी का ऐसा होता है, जिसके आगे न तो किसी खेल का उदाहरण चलेगा, न व्यवसाय का। इसे समझाने का अच्छा उदाहरण हो सकता है पानी। पानी की तीन स्थिति होती है। जमी हुई स्थिति बर्फ है। कुछ दंपती बर्फ की तरह जड़ हो जाते हैं। पिघला तो तरल होकर सबमें मिल जाता है यह दूसरी स्थिति है। तीसरी स्थिति होती है भाप। जिस दिन ये दोनों भाप बनकर एक-दूसरे में घुल जाते हैं, उस दिन से इनके साथ-साथ पूरे परिवार के लिए शुभ की शुरुआत होगी।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>अर्जित ज्ञान समय रहते दूसरों तक पहुंचाएं<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीवन में विपरीत का अनुभव होना ही चाहिए। इसके लिए प्रयोग करते रहें। यदि आप अमीर हैं तो इसका विपरीत यानी गरीबी जरूर देखिए। प्रसिद्धि कमाई है तो गुमनामी क्या होती है इसे भी चखिए। हर स्थिति का एक विपरीत है और जीवन में परिपक्वता लाने के लिए उसका अनुभव, उसका स्वाद होना ही चाहिए।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीवन में विपरीत का अनुभव होना ही चाहिए। इसके लिए प्रयोग करते रहें। यदि आप अमीर हैं तो इसका विपरीत यानी गरीबी जरूर देखिए। प्रसिद्धि कमाई है तो गुमनामी क्या होती है इसे भी चखिए। हर स्थिति का एक विपरीत है और जीवन में परिपक्वता लाने के लिए उसका अनुभव, उसका स्वाद होना ही चाहिए। लेकिन विपरीत का अनुभव करना आसान नहीं है। उसके लिए तप करना पड़ता है।</span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हिंदू शास्त्रों में जब यह प्रश्र उठाया जाता है कि सबसे बड़ा तप कौन-सा? तो उपनिषद में इसका उत्तर है स्वाध्यायी। इसका शाब्दिक अर्थ तो है स्वयं का अध्ययन। लेकिन इसके तीन चरण होते हैं तब स्वाध्यायी होता है। यदि आपकी रुचि तप में है तो फिर सबसे बड़ा तप ही कीजिए। तीन स्तर से स्वाध्यायी पूरा होता है।</span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पहला, ज्ञान को सही जगह से प्राप्त करें। वह स्थान शास्त्र या गुरु हो सकते हैं। जब सही जगह से ज्ञान प्राप्त हो जाए तो उसे बहुत अच्छे तरह से जीवन में उतारें। स्वाध्यायी का दूसरा स्तर है दोहरा जीवन न जीएं और तीसरा चरण है जो कुछ आपने पाया उसे आगे बढ़ाएं। लोगों में बांटे, खासकर नई पीढ़ी तक जरूर पहुंचाएं। अर्जित ज्ञान को समय रहते दूसरों तक नहीं पहुंचाया तो तप एक तरह से खंडित ही माना जाएगा। तपस्वी व्यक्ति केवल धार्मिक कार्य करे यह जरूरी नहीं है।</span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक तपस्वी जब दुनियादारी में उतरता है तो उसका तप उसे सिखाता है कि तुम अपना पेट भर सके ऐसा काम तो करो ही लेकिन, हमारे काम के कारण कई लोगों का पेट पल जाए ऐसा जरूर किया जाए। आज के दौर में जब चारों ओर वासनाओं की आंधियां चल रही हों, गलत रास्ते से लक्ष्य प्राप्त करने के तरीके सिखाए जा रहे हों, मनुष्य अधीर और अधीर होता जा रहा है ऐसे समय जीवन में तप का बड़ा महत्व है।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>लक्ष्य बड़े हों तो दिल भी बड़ा होना चाहिए<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बड़े सपने देखे जाएं, विशाल अभियान हाथ में लिए जाएं, लक्ष्य छोटे न हों। ऐसी बातें आजकल युवा पीढ़ी को सिखाई जाती हैं। उन्हें दक्ष किया जाता है कि छोटा मत सोचो, बड़ा ही बनना है। आसमान के तारे से नीचे की बात न करो।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बड़े सपने देखे जाएं, विशाल अभियान हाथ में लिए जाएं, लक्ष्य छोटे न हों। ऐसी बातें आजकल युवा पीढ़ी को सिखाई जाती हैं। उन्हें दक्ष किया जाता है कि छोटा मत सोचो, बड़ा ही बनना है। आसमान के तारे से नीचे की बात न करो। तारे तोड़ने का इरादा रखोगे तो भले ही हाथ कुछ न लगे, कम से कम कीचड़ में सनने से तो बच जाएंगे। उड़ान ऐसी हो कि आसमान भेद दो। कम से कम धरती की धूल गंदा तो नहीं कर पाएगी। ऐसे सारे सूत्र आधुनिक प्रबंधन में सिखाए जाते हैं। ये सब बहुत अच्छा है। ऐसा होना भी चाहिए लेकिन, इसे थोड़ा आध्यात्मिक दृष्टि से भी देखा जाए। अध्यात्म कहता है लक्ष्य बड़े हों तो हृदय भी बड़ा होना चाहिए। दिल बड़ा हो तो बड़े लक्ष्य प्राप्त करने में दिक्कत नहीं होती, क्योंकि बड़े दिल में चारों दुर्गुण (काम, क्रोध, अहंकार और लोभ) अपने अच्छे और बुरे दोनों रूप में रहते हैं। काम अपने आपमें एक ऊर्जा है और विलास भी। जिसका हृदय बड़ा होता है वह ऊर्जा के सदुपयोग और भोग-विलास की मस्ती दोनों का संतुलन बैठा लेता है। क्रोध की उत्तेजना स्वयं को और दूसरों को अनुशासन सिखा सकती है और इसकी कमी आपको कमजोर प्रशासक बना सकती है। बड़े दिल वाला संतुलन करके चलता है। अहंकार से आप प्रभावशाली भी हो सकते हैं और इसके कारण अकेले भी हो सकते हैं। बड़े दिल वाला अहंकार को नियंत्रित करके चलता है। चौथा दुर्गुण है लोभ। आपकी इस वृत्ति में अनेक लोग समा जाएं तो सबका भला हो जाएगा, वरना यह वृत्ति आपको मृत्यु तक ले जाएगी। दुर्गुण सभी में होते हैं पर उनमें से सदगुण निकाल लेना और सदगुण को दुर्गुणों से बचा लेना बड़े दिल वालों की विशेषता होती है, इसलिए जिनके लक्ष्य बड़े हों वे हृदय जरूर बड़ा रखें।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>गलत काम करके सही लक्ष्य नहीं मिलते<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भोग-विलास की वृत्ति वे सारे आईने तोड़ देती है, जिनमें आदमी अपना विकृत चेहरा देख सके। विलासी व्यक्ति के विचार भी एकतरफा हो जाते हैं। उसका हर इरादा दूसरे को भोगने का होता है। फिर इसके लिए वह झूठ भी बोलता है, हिंसा भी करता है। इसका बहुत बड़ा उदाहरण था रावण। लंकाकांड के आरंभ में श्रीराम सेना के साथ लंका में डेरा डाल चुके थे। बेटे प्रहस्त द्वारा समझाने के बाद रावण अपने महल में चला गया जहां हर दिन नाच-गाने की महफिल चलती थी। अप्सराएं नृत्य कर रही थीं, रावण विलास में डूबा अट्टहास किए जा रहा था। इस दृश्य पर तुलसीदासजी ने एक दोहा लिखा, ‘सुनासीर सत सरिस सो संतत करइ बिलास। परम प्रबल रिपु सीस पर तद्यपि सोच न त्रास।।<span lang="EN-US">’ </span>अर्थात राम के रूप में मौत माथे पर नाच रही थी फिर भी विलासी रावण को न चिंता थी न कोई डर। भय नहीं होने का यह मतलब नहीं कि रावण निर्भय था। न ही यह मान सकते हैं कि वह बहुत आत्मविश्वास से भरा था इसलिए चिंतित नहीं था। दरअसल नशे में डूबा आदमी इन दोनों (डर व चिंता) के प्रति लापरवाह हो जाता है। भूल ही जाता है कि ऐसा करते हुए वह स्वयं के अहित के साथ और भी कई लोगों को परेशानी में डाल रहा है। आज के समय में हम रावण से यह शिक्षा ले सकते हैं कि जब किसी बड़े अभियान की तैयारी कर रहे हों तो भोग-विलास से बचकर रहें। भोग-विलास आलस्य और लापरवाही के रूप में भी जीवन में उतरता है। जब सामने चुनौती खड़ी हो और आप लापरवाह या आलसी हो जाएं तो समझो रावण वाली गलती कर रहे हैं। प्रतिस्पर्धा के इस दौर में जबकि जीवन में हर पल कोई चुनौती है, गलत काम करते हुए सही लक्ष्य प्राप्त नहीं किए जा सकते।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>भरोसा हो तो भरपूर बरसती है ईश-कृपा<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मनुष्य कई घटनाओं का जोड़ है। हमारे आसपास प्रतिपल कुछ घटता है, हमें स्पर्श कर जाता है। कुछ घटनाएं धक्का दे जाती हैं, कुछ दाएं-बाएं से निकल जाती हैं। गौर करें तो हमारा व्यक्तित्व कई घटनाओं के जोड़ से बना है।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मनुष्य कई घटनाओं का जोड़ है। हमारे आसपास प्रतिपल कुछ घटता है, हमें स्पर्श कर जाता है। कुछ घटनाएं धक्का दे जाती हैं, कुछ दाएं-बाएं से निकल जाती हैं। गौर करें तो हमारा व्यक्तित्व कई घटनाओं के जोड़ से बना है। चूंकि हमारे पास समय नहीं रहता तो हम उनका मूल्यांकन नहीं करते लेकिन, कुछ घटनाएं ऐसी हैं जो संकेत करती हैं कि अब आगे कष्ट होना है, हानि उठानी पड़ेगी, हम चिंता में डूबने वाले हैं। ऐसी घटना को साहित्य में विपत्ति कहा गया है। जब किसी मनुष्य के जीवन में विपत्ति आती है तो वह उससे निपटने के कई तरीके अपनाता है। तुलसीदासजी रामभक्त तो थे ही, बहुत बड़े समाजसेवक भी थे। वे चाहते थे कि भक्त को उदास नहीं होना चाहिए। इसलिए उन्होंने एक बहुत अच्छी पंक्ति लिखी है, ‘तुलसी साथी विपत्ति के विद्या विनय विवेक। साहस सुक्रति सुसत्यव्रत रामभरोसे एक।। तुलसी ने सात बातें बताई हैं, जो विपत्ति के समय हमारी मदद करेंगी। शुरुआत की है विद्या से। जब विपत्ति आती है तो शिक्षा मनुष्य का सबसे बड़ा सहारा है। इसलिए पढ़ाई-लिखाई के इस युग में बच्चों को जरूर पढ़ाएं। फिर कहते हैं पढ़ा-लिखा आदमी विनम्र होना चाहिए। तीसरे में कहा है शिक्षा का उपयोग विवेक से करें। साहस न छोड़ें, अच्छे काम करें, सत्य पर टिके रहें। इन छह के अलावा सबसे बड़ा सहारा है भरोसा भगवान का, जिसे उन्होंने रामभरोसा कहा है। भरोसा एक तरह का पात्र है। उस परमशक्ति की कृपा लगातार बरस रही है। यदि अपने पात्र को खुला रखा तो लबालब हो जाएगा। भगवान समान रूप से कृपा बरसाते हैं। जिसके पास भरोसे का पात्र है, उसका भर जाता है और फिर विपत्ति के समय यह भरोसा ही उसकी सबसे बड़ी ताकत बन जाता है।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>अपने शरीर में अच्छे अतिथि बनकर रहें<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यदि संभाला नहीं तो शरीर भी स्वभक्षी हो जाता है। यानी यह शरीर जिसे हम खिलाते-पिलाते हैं, एक दिन हमें ही खा जाता है। यदि संभाला नहीं तो शरीर भी स्वभक्षी हो जाता है। यानी यह शरीर जिसे हम खिलाते-पिलाते हैं, एक दिन हमें ही खा जाता है। बात बड़ी गहरी है पर इसे ठीक से समझना पड़ेगा। आज ज्यादातर लोग शरीर का मतलब नाम, धर्म, पद-प्रतिष्ठा की एक पहचान मान लेते हैं और समझते हैं यही शरीर है। यह भोग-विलास का माध्यम, खाने-पीने का रास्ता है। तो क्या सचमुच शरीर केवल इतना है? इन दिनों लगातार काम करने की ललक नशा बनकर जिन-जिन चीजों का नुकसान कर रही है उनमें एक है शरीर। समाजसेवा के क्षेत्र में एक शब्द चलता है मित्र। कोई वृक्ष मित्र बन जाता है, कोई इको फ्रेंडली हो जाता है। कंप्यूटर के जानकारों के लिए कहा जाता है यह कंप्यूटर फ्रेंडली है। आप बेशक कई चीजों के मित्र बनें लेकिन प्रयास कीजिए शरीर मित्र भी बनें। यदि शरीर से मित्रता निभाई तो शायद वृद्धावस्था में यह भी आपसे दोस्ती निभाएगा। वरना बुढ़ापे में तो अपना ही शरीर अपना दुश्मन हो जाता है। इस शरीर को थोड़ा जीतना पड़ता है। जैसे घुड़सवार कमजोर हो तो घोड़े का क्या दोष? शरीर इंद्रियों से बना है और इंद्रियों पर चढ़कर काम करना पड़ता है, वरना ये आपको पटक देंगी। असल में हम शरीर हैं ही नहीं। हम आत्मा हैं जो शरीर में अतिथि के रूप में है। जब आप किसी के अतिथि होते हैं तो इस बात के लिए सावधान रहते हैं कि यहां की वस्तु का उपयोग तो कर सकता हूं पर इस पर मेरा अधिकार नहीं है। अच्छे अतिथि जहां जाते हैं, बड़े कानून-कायदे से रहते हैं। आप भी अपने शरीर में अतिथि बनकर रहें। उसे साफ-सुथरा रखें, उसका मान करें। जो शरीर मित्र बनेगा वह स्वयं को जीत लेगा और जो खुद से जीता, फिर दूसरों के लिए उसे हराना मुश्किल हो जाता है।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>हमारा चरित्र व भीतर की गंभीरता बची रहे<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गलती करके उसे स्वीकार नहीं करना और बड़ी गलती है। कुछ लोग गलत बात या काम करने के बाद पता ही नहीं लगा पाते कि इसमें गलती हो गई और कुछ ऐसे भी होते हैं, जिन्हें मालूम होता है कि गलती हो गई पर स्वीकार नहीं करते।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गलती करके उसे स्वीकार नहीं करना और बड़ी गलती है। कुछ लोग गलत बात या काम करने के बाद पता ही नहीं लगा पाते कि इसमें गलती हो गई और कुछ ऐसे भी होते हैं, जिन्हें मालूम होता है कि गलती हो गई पर स्वीकार नहीं करते। स्वीकार कर लेने से गलती हल्की या दूर हो जाती है। लेकिन, हम लोग अड़ जाते हैं और उस गलती का कारण स्वयं में न देखते हुए दूसरों में ढूंढ़ने लगते हैं। इस दौर में ऐसा ज्यादा होने लगा है। कोई अपनी गलती मानने को तैयार ही नहीं। इसका एक बड़ा कारण है कि लोग गंभीरता से कट गए। हर बात को हल्के में लेने लगे। पहले ‘गंभीरता<span lang="EN-US">’</span><span lang="EN-US"> </span>शब्द का उपयोग समझाने के लिए किया जाता था। जैसे- परीक्षाएं आ रही </span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हैं, थोड़ा गंभीर हो जाओ, सामने बहुत बड़ी चुनौती है, इसे गंभीरता से लो..<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसका मतलब होता था आगे भविष्य में गलती न हो। आज आदमी अपनी जीवनशैली में गंभीरता नहीं रख पाता। व्यक्तित्व में अजीब-सा उथलापन दिखने लगा है। ध्यान रखिए, गंभीर होने का मतलब यह नहीं है कि मुंह थोड़ा चढ़ा हुआ हो, जरूरत पड़ने पर भी बात न करें, एक चुप्पी ओढ़ ली जाए। गंभीर बनने या दिखने के लिए व्यक्तित्व में तीन बातें उतारनी होती हैं। एक, परिश्रम। गंभीर व्यक्ति आलसी नहीं हो सकता। दो, परमार्थ। गंभीरता इसी में है कि सदकार्य करते हुए दूसरों का भला करें। तीसरी महत्वपूर्ण बात है चरित्र। गंभीर व्यक्ति चरित्र पर टिकता है। आज तो बड़े से बड़ा अपराध करने के बाद भी लोग गंभीर नहीं हैं। जिसे जो समझ में आता है, बोल रहा है, कर रहा है। लेकिन, यदि सच्चे भारतीय हैं तो हमारा चरित्र और हमारे भीतर की गंभीरता बची रहनी चाहिए। इसके लिए परिश्रम, परमार्थ और चरित्र इन तीन चीजों पर काम करते रहिए।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>चातुर्मास में जीवन सद्गुण संकल्प से जोड़ें</b><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नींद एक ऐसी जरूरत है, जिसके बिना कोई रह नहीं सकता। हिंदू धर्म में नींद को बहुत सुंदर दर्शन से जोड़ा गया है। नींद एक ऐसी जरूरत है, जिसके बिना कोई रह नहीं सकता। हिंदू धर्म में नींद को बहुत सुंदर दर्शन से जोड़ा गया है। आज की तिथि हरिशयनी एकादशी कहलाती है। आज से विष्णुजी चार महीनों के लिए निद्रा में जाएंगे। विष्णु सात्विक भाव के प्रतीक हैं और जब सत्वभावचार मास निद्रा में है तो हमारी जिम्मेदारी और बढ़ जाएगी। इन चार महीनों में कोई ऐसा संकल्प लीजिए जो भीतर के सात्विक भाव को बनाए रखे। जब विष्णु सोते हैं तो वेद हमारे मार्गदर्शक बन जाते हैं। जो वेद न पढ़ सके वह ऐसे शास्त्र पढ़ें, जिनमें वेद का निचोड़ हो। </span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ऐसा ही शास्त्र है रामचरित मानस। इन चार महीनों में रामचरित मानस से संदेश लिया जा सकता है कि कैसे परमपिता अपने आपको विश्राम में लेकर संदेश देता है कि विश्राम का अर्थ है ऊर्जा का पुनर्संचरण। लंका कांड में रावण भोग-विलास में डूबा हुआ था और रामजी सेना लेकर लंका पहुंच चुके थे। तब तुलसीदासजी ने लिखा, ‘तहं तरू किसलय सुमन सुहाए। लछिमन रचि निज हाथ डसाए।। ता पर रुचिर मृदुल मृगछाला। तेहिं आसन आसीन कृपाला।।<span lang="EN-US">’</span><span lang="EN-US"> </span>अर्थात लक्ष्मणजी ने वृक्षों के कोमल पत्ते और सुंदर फूलों पर अपने हाथों से कोमल मृगछाल बिछा दी जिस पर कृपालु श्रीराम विराजमान थे। यहां रामजी किस तरह से बैठे हैं, बताया गया है। यह वही दृश्य है कि विष्णु सोकर भी होश में हैं। हम लोग नींद का मतलब इतना समझते हैं कि जागने के समापन को नींद कहते हैं। असल में होना यह चाहिए कि नींद भी आए और होश भी रहें। राम उस समय पूरे होश में थे और रावण जागते हुए भी सोया हुआ था। यही स्थिति उसके पतन का कारण बनी थी। हम भी चातुर्मास से संदेश लें कि इन चार महीनों में अपने भीतर के सदगुण, संकल्प बहुत अच्छे से जीवन से जोड़ेंगे।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>संस्थान व कर्मचारी परस्पर मददगार बनें<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हर हाल में हम किसी सूक्ष्म नेत्र के परीक्षण में होते हैं। वह ईश्वर हो सकता है, आपका जमीर हो सकता है। आप स्वयं को जरूर देख रहे होंगे। इस बात को कभी न भूलें कि आपको कोई देख रहा है। अकेले में कुछ करते हुए मान लें कि जो भी कर रहे हैं उसे कोई नहीं देख रहा है तो यह आपकी बहुत बड़ी गलतफहमी होगी। हर हाल में हम किसी सूक्ष्म नेत्र के परीक्षण में होते हैं। वह ईश्वर हो सकता है, आपका जमीर हो सकता है। आप स्वयं को जरूर देख रहे होंगे। कुछ संस्थानों में जो एचआर विभाग होता है, उसमें इस बात पर बहस होती है कि हमारे यहां काम करने वालों के व्यक्तिगत जीवन में संस्थान कितना हस्तक्षेप करेगा। कई बार काम करने वाले कुछ लोग कहते हैं हमारे निजी जीवन में संस्थान को कोई रुचि नहीं होनी चाहिए। उन्हें परिणाम चाहिए, जो हम परिश्रम से दे रहे हैं। वैधानिक दृष्टि से बात सही है लेकिन, नैतिक दृष्टि से देखेंगे तो अर्थ बदल जाएंगे। निजी जीवन के क्रियाकलाप सार्वजनिक जीवन पर प्रभाव डालेंगे ही। यदि आप अपने एकांत या निजी जीवन में परेशान हैं तो इसका असर कामकाज पर पड़ेगा। शास्त्रों में कहा गया है कि जल में स्नेह और अनुराग स्वत: होता है, इसीलिए वह नीचे की तरफ दौड़ता है। किसी में भी घुल-मिल जाना पानी का लक्षण या स्वभाव है। इसे करुणा की वृत्ति कहते हैं। संस्थान अपने काम करने वालों में निजी रूप से रुचि रखे यह पानी जैसी वृत्ति है। वह हस्तक्षेप नहीं, सहानुभूति है। ये ही भाव काम करने वालों को भी रखना चाहिए। उन्हें लगना चाहिए कि हमारा निजी जीवन इतना भी निजी नहीं है कि उसे संस्थान से पूरी तरह ही काट लिया जाए। दोनों ही एक-दूसरे में पानी की तरह भाव रखें। एक-दूसरे को जानें और निजी व सार्वजनिक जीवन में इतनी रुचि जरूर लें कि एक-दूसरे की परेशानी को कम करने में मददगार बन सकें।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<br />
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>ख्याति मिलने पर अहंकार में डूबें<o:p></o:p></b></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मशहूर लोगों को उन्हीं की ख्याति का खंजर जरूर चुभता है। जब उससे घायल होते हैं तो कई बार तो घाव लाइलाज हो जाते हैं। मशहूर लोगों को उन्हीं की ख्याति का खंजर जरूर चुभता है। जब उससे घायल होते हैं तो कई बार तो घाव लाइलाज हो जाते हैं। लोकप्रिय होने की चाह मनुष्य स्वभाव में है। नाम, मान, पहचान सभी चाहते हैं। ध्यान रखिएगा, लोकप्रिय बने रहने की आदत है तो थोड़ी सावधानी बरतें।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ख्याति बहुत तरल होती है। लोकप्रिय लोग कल्पना में बहने लगते हैं। पहचान की स्वीकृति की चाहत मनुष्य को बेचैन कर देती है। जब वह थोड़ा ख्यात हो जाता है तो यह मान लेता है कि मेरे बारे में जो मैं सोच रहा हूं वह सब सही है और दूसरे भी ऐसा ही सोचें। ऐसे लोग इसके लिए बाहर की स्थितियों, व्यक्तियों पर दबाव बनाते हैं लेकिन, स्थितियां सदैव एक जैसी नहीं रहतीं। संसार नाम ही सरकने का है। स्थितियां बदल जाती हैं, लोग हट जाते हैं पर ख्यात लोग उसी दुनिया में उलझे रहते हैं। बड़े-बड़े बादशाह दफन हो गए। जिनके सिक्के चलते थे उन्हें कोई पूछने वाला नहीं रहा। ऐसे ही एक दिन सभी की लोकप्रियता दिशा मोड़ेगी। यदि आप जरा भी लोकप्रिय हैं तो इस बात का ध्यान रखिएगा कि ख्याति अनियंत्रित, अनियमित, सशर्त, अस्थायी होकर अहंकार के साथ आती है। उसके साथ एक अनोखा डर जुड़ा होता है। ख्यात लोग इस बात को लेकर भयभीत रहते हैं कि यह मान, पहचान किसी भी तरह बना रहे, कहीं चला जाए। ऐसे में आप दयनीय स्थिति में जाते हैं। इसलिए जब भी ख्यात होने की स्थिति बने, पहले तो उसे सावधानी से अर्जित करें और मानकर चलें कि यह अस्थायी है। आज हमारे पास है, कल किसी और के पास हो सकती है। यदि लोकप्रियता चली भी जाए तो आप वही रहेंगे जो थे। ख्याति मिल जाने पर अहंकार पालें और चली जाने पर अवसाद में डूबें।<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>हठ को मन से नहीं, बुद्धि से जोड़ना होगा..<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हठ करो-हासिल करो, इस तरह के आदर्श वाक्य से लोगों को प्रोत्साहित और प्रेरित किया जाता है। कहते हैं यदि ज़िद ठान लें तो संसार में जो चाहें, पा सकते हैं। हठ करो-हासिल करो, इस तरह के आदर्श वाक्य से लोगों को प्रोत्साहित और प्रेरित किया जाता है। हठ करना बुरी बात नहीं है। हठ यदि शुभ संकल्प में बदल जाए तब तो बात ही अलग होगी। दार्शनिक लोग कहते हैं दुनिया में तीन लोगों का हठ बड़ा चर्चित है- राजहठ, बालहठ और त्रियाहठ। राजा जिद पर आ जाए, बच्चा मचल जाए और स्त्री अपनी बात मनवाने पर अड़ जाए तो परिणाम लोग अलग-अलग ढंग से भुगतते हैं। शास्त्रों में एक बात बड़े अच्छे ढंग से कही गई है कि संसार में केश (बाल) और नाखून का हठ भी बड़ा मशहूर है क्योंकि दोनों को काटो और फिर उग आते हैं। इसके अलावा एक और हठ बताया गया है- मन का। हमारा मन बड़ा हठी होता है। कितना ही काबू में करने की कोशिश कर लें, वह अपना काम दिखा ही देता है। मन दो तरह के हैं- मंकी माइंड और काउ माइंड। मंकी माइंड का मतलब है किसी बंदर की तरह उछलकूद करने वाला। काउ माइंड वह जो गाय की तरह शांत हो और जिसमें से पॉजीटिव वाइब्रेशन्स निकल रहे हों। विचार करें हमारा मन कैसा है और प्रयास कीजिएगा काउ माइंड हो। मन हर एक पर अपने वांछित व्यवहार का दबाव बनाता है। जैसा मैं चाहता हूं वैसा ही हो जाए यह मन का अति आग्रह या हठ है। चूंकि बाहर उसका हठ पूरा नहीं हो पाता इसलिए भीतर दृश्य निर्मित करता है और भीतर के ये ही दृश्य आपको तनाव में पटक देते हैं। छलावा, षड्यंत्र ये सब मन के हठ के परिणाम हैं। याद रखिएगा, हठ यदि मन से जुड़ा है तो आप नुकसान में हैं और यदि बुद्धि से जुड़ा है तो सफलता के मतलब बदल जाएंगे।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>गुरु न मिले तो हनुमानजी को गुरु मान लें<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कोई बच्चा माता-पिता या परिवार के बड़े-बुजुर्गों की अंगुली पकड़कर ही दुनियादारी देखने और उसे समझने की शुरुआत करता है। कहा जाता है मानव जीवन की पहली पाठशाला परिवार होती है। सच भी है, कोई बच्चा माता-पिता या परिवार के बड़े-बुजुर्गों की अंगुली पकड़कर ही दुनियादारी देखने और उसे समझने की शुरुआत करता है। लेकिन, इस तथ्य को भी नहीं भुला सकते कि माता-पिता या परिवार से प्राप्त शिक्षा सफलता की सीढ़ियां तो दिखा सकती हैं परंतु लक्ष्य तक पहुंचने के लिए कुछ और भी चाहिए। बिना सही मार्गदर्शन के केवल ज्ञान या जानकारी के बूते कामयाबी के शीर्ष तक नहीं पहुंचा जा सकता। यह मार्गदर्शन सिर्फ गुरु ही दे सकते हैं। बात महान दार्शनिक अरस्तू की हो या स्वामी विवेकानंद की, इनके समग्र दर्शन और व्यक्तित्व के पीछे गुरु कृपा का आलोक ही काम कर रहा था। स्वामी विवेकानंद ने तो स्वयं ही स्वीकार किया था कि यदि गुरु रूप में रामकृष्ण परमहंसजी नहीं मिले होते तो मैं साधारण नरेंद्र से ज्यादा कुछ नहीं होता। हर माता-पिता की चाहत होती है उनकी संतान श्रेष्ठ होकर शीर्ष तक पहुंचे। समय रहते बच्चों के लिए कोई योग्य गुरु ढूंढ़ दीजिए। वे वहीं पहुंच जाएंगे, जिस मुकाम पर आप उन्हें देखना चाहते हैं। हालांकि श्रेष्ठ गुरु मिल जाना भी इस दौर की बड़ी चुनौती है। तुलसीदासजी ने श्री हनुमान चालीसा की सैंतीसवीं चौपाई, ‘जै जै जै हनुमान गोसाई कृपा करहुं गुरुदेव की नाई<span lang="EN-US">’</span><span lang="EN-US"> </span>लिखकर इस चुनौती को बहुत आसान कर दिया है। कोई अच्छा गुरु नहीं मिले तो हनुमानजी को ही गुरु और हनुमान चालीसा को मंत्र मान लीजिए। सफल कैसे हुआ जाए और सफलता मिल जाने के बाद क्या किया जाए यह हनुमानजी से अच्छा कोई नहीं सिखा सकता। गुरु रूप में उनकी जो कृपा बरसेगी वह आपका जीवन बदल देगी। कल गुरुपूर्णिमा है, क्यों न शुरुआत इसी शुभ दिन से की जाए..<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>राम से सीखें एक साथ कई भूमिकाएं निभाना<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दो हाथ से चार गेंद उछालना और किसी एक को भी गिरने नहीं देना, यह काम या तो जादूगर कर सकता है या कोई बड़ा कलाबाज। दो हाथ से चार गेंद उछालना और किसी एक को भी गिरने नहीं देना, यह काम या तो जादूगर कर सकता है या कोई बड़ा कलाबाज। लेकिन कुछ लोग वास्तविक जिंदगी में भी अपने कामों, अपनी परिस्थितियों को ऐसे ही उछालते हैं। एक बार में अनेक काम साध लेते हैं और सफल भी हो जाते हैं। प्राणियों में सिर्फ इंसान है, जिसे मानव कहा गया है और वह इसलिए कि उसके भीतर मानस होता है। मानस सक्रिय होता है तो मस्तिष्क बनकर कई काम एक साथ करने की क्षमता रखता है। लंकाकांड के एक अनूठे दृश्य पर तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘प्रभु कृत सीस कपीस उछंगा। बाम दहिन दिसि चाप निसंगा।। दुहुं कर कमल सुधारत बाना। कह लंकेस मंत्र लगि काना।। बड़भागी अंगद हनुमाना। चरन कमल चापत बिधि नाना।। प्रभु पाछें लछिमन बीरासन। कटि निषंग कर बान सरासन।।<span lang="EN-US">’</span><span lang="EN-US"> </span>यहां बताया गया है कि किस प्रकार राम विश्राम की मुद्रा में लेटे हैं और सुग्रीव, विभीषण, हनुमान, अंगद आदि उनके आसपास बैठे सेवा में लगे हैं। श्रीराम विश्राम भी कर रहे हैं और सक्रिय भी हैं। स्वयं काम कर रहे हैं और अपने सभी साथियों को भी काम पर लगा रखा है। जब मनुष्य का मस्तिष्क सक्रिय होता है तो चार रंगों से गुजरता है। इन्हें शास्त्रों ने वर्ण कहा है। पहला होता है शूद्र। इसे आज की भाषा में स्वामी भक्ति कह सकते हैं। दूसरा वैश्य। यानी चौकसी के साथ अपने हानि-लाभ के लिए सक्रिय रहना। क्षत्रिय वर्ण में नेतृत्व क्षमता आ जाती है और ब्राह्मण वर्ण यानी ज्ञान का सदुपयोग करना। इस तरह एक मस्तिष्क आपको कई अवसरों से गुजार सकता है। जब एक साथ कई भूमिकाएं चल रही हों तो श्रीराम से सीखा जाए कैसे दो हाथों में चार गेंद उछालें और गिरने भी न दें। यही कलाबाजी आपकी योग्यता बन जाएगी।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>संतान के भीतर सद्विचारों की तरंगें उतारें<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अच्छी-अच्छी बातों-सूक्तियों को तोड़-मरोड़कर रुचिकर बनाते हुए नारों की शक्ल में उछाल देने की कला वॉट्सएप ने सबको सिखा दी आदर्श वाक्यों, अच्छी-अच्छी बातों-सूक्तियों को तोड़-मरोड़कर रुचिकर बनाते हुए नारों की शक्ल में उछाल देने की कला वॉट्सएप ने सबको सिखा दी है। जिसे देखो वह मोबाइल के माध्यम से ज्ञान बांट रहा है। फिर उस ज्ञान को हम नेत्रों से पढ़ते तो हैं लेकिन, बात हृदय तक नहीं पहुंचती। कुल-मिलाकर चारों ओर ज्ञान की वर्षा हो रही है पर आचरण में उतारने को कोई तैयार नहीं। जैसे भिखारी भीख मांगता है और लोग कह देते हैं आगे बढ़ो, बस उसी तरह ज्ञानवर्धक संदेश तुरंत आगे बढ़ाए जा रहे हैं। किसी इंसान को तैयार करना हो तो सबसे पहले उसके आचरण पर काम करना पड़ता है। माता-पिता संतान को सिर्फ जन्म ही नहीं देते, उन्हें तैयार भी करते हैं। बायो टेक्नोलॉजी के इस युग में लगातार प्रयोग हो रहे हैं, जिनमें कुछ चौंकाने वाले हैं। एक ही पेड़ पर हर डाली अलग-अलग आकार और स्वाद के फल दे सकती है। ऐसे सफल प्रयोग हो चुके हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार मनुष्य को सिर्फ एक प्रतिशत दूसरी बातें प्रभावित करती हैं, बाकी निन्यानबे प्रतिशत वह प्रकृति द्वारा संचालित होता है। जब फलों पर इतना काम हो रहा हो तो संतानरूपी फसल पर भी गंभीरता से काम करना पड़ेगा। इसकी शुरुआत उनके आचरण से कीजिए। अन्न का मन पर पूरा असर पड़ता है। बायो टेक्नोलॉजी के युग में खान-पान की चीजों पर बहुत काम हो रहा है परंतु ध्यान रखिए, एक अन्न विचारों का भी होता है। माता-पिता के शरीर और मस्तिष्क से निकली तरंगें भी अन्न की तरह प्रभावी होकर बच्चों के लिए बहुत उपयोगी होती हैं। सद्विचारों की ये तरंगें उनके भीतर उतारिए। कहीं ऐसा न हो कि हम उन्हें मौखिक निर्देश, आदर्श वाक्य और सूत्र बांटते रहें और वो सब ऊपर से निकलकर उनका आचरण कोरा रह जाए।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>अपने अंदर अध्यात्म का स्वराज्य लाएं<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">भारत में जो भी किया जाए, भारतीयता उससे विलग नहीं होनी चाहिए। राज्य और स्वराज्य दो अलग चीजें हैं। हमारे देश का जो राज्य, जो शासन है वह लगातार ऐसे प्रयोग कर रहा है कि एक भारतीय की संवैधानिक स्थिति में कुछ अनुकूल और कुछ प्रतिकूल परिवर्तन आ रहे हैं। कई इनके समर्थन हैं तो कुछ विरोध भी कर रहे हैं। सामान्यजन के पास सिवाय प्रतीक्षा करने के और कुछ नहीं है। ऐसे समय जब नए-नए नियम आ रहे हों, कर के रूप बदल रहे हों, देश विकास के मार्ग पर गति पकड़ रहा हो, उपलब्धि होने और नहीं होने- दोनों ही स्थितियों में अध्यात्म की बहुत जरूरत पड़ेगी। भारत में जो भी किया जाए, भारतीयता उससे विलग नहीं होनी चाहिए। कुछ मामलों में अध्यात्म और भारतीयता एक ही है। राज्य वह होता है, जिसे कुछ लोग चलाते हैं। जैसे हमारे यहां लोकतंत्र है। लेकिन स्वराज्य का मामला थोड़ा आत्मा से जुड़ा है। आप जितना स्वराज्य पर टिक जाएंगे, राज्य से होने वाली तकलीफों की पीड़ा कम होगी और उपलब्धियों का सदुपयोग कर सकेंगे। स्वराज्य की सीधी-सी परिभाषा है स्वयं द्वारा स्वयं पर शासन। यहां स्वयं का मतलब आत्मा से है। जितना आत्मा को जानेंगे उतना ही स्वराज्य का आनंद ले पाएंगे। स्वयं मर्यादा में रहना सीख गए तो दूसरों को भी यही सहूलियत देंगे और खुद भी हर स्थिति का आनंद ले सकेंगे। स्वराज्य पाने के लिए चौबीस घंटे में कुछ समय योग करिए। तब स्वयं पर शासन करते हुए बाहर की परिस्थितियों से उतने प्रभावित नहीं होंगे, जितने आज होकर परेशानी उठा रहे हैं। बाहर की दुनिया तो ऐसे ही चलती है। जो राजा आएगा, अपना सिक्का चलाएगा। उसका सिक्का आपके लिए कोड़ा और घोषणाएं पीड़ा न बन जाए, इसलिए अध्यात्म की दृष्टि से एक स्वराज्य अपने भीतर जरूर ले आइए।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>अहिंसक भाव हो तो व्यक्तित्व सुखदायक..<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">एक चौंकाने वाला आंकड़ा सामने आया है कि मनुष्यों के बीच सामूहिक हिंसा कम होकर व्यक्तिगत हिंसा बढ़ गई है। एक चौंकाने वाला आंकड़ा सामने आया है कि मनुष्यों के बीच सामूहिक हिंसा कम होकर व्यक्तिगत हिंसा बढ़ गई है। सामूहिक हिंसा की जो भी घटनाएं हो रहीं हैं वे आतंकियों द्वारा की जा रही है। हिंसा का अर्थ किसी का रक्त बहाना या किसी की जान लेना ही नहीं है। गहराई से विचार करें तो आपके द्वारा किसी को आहत करना भी हिंसा ही है।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मनोवैज्ञानिकों का मानना है इन दिनों जीवनशैली ऐसी हो गई कि व्यक्तिगत रूप से मनुष्य बहुत हिंसक होकर साथ रहने वालों को लगातार आहत कर रहा है, उनके प्रति हिंसा कर रहा है। एक-दूसरे के साथ रहने के बाद भी लोग असुरक्षित महसूस करते हुए असहिष्णु होते जा रहे हैं। व्यक्तिगत हिंसा कम करना हो तो पहले अपने व्यक्तित्व में दो बातें देखिए- क्या आप मनभावन हैं या सुखदायक व्यक्तित्व के धनी हैं? मनभावन व्यक्तित्व वाले लोग अच्छे तो लग सकते हैं पर भीतर से वो क्या कर रहे हैं, कौन-सी नेगेटिव एनर्जी फैला रहे हैं, यह आप नहीं जान पाएंगे। सुखदायक प्रवृत्ति वाले साथ वालों को हमेशा पॉजिटिव वायब्रेशन्स ही देेंगे। हमारे भीतर विचार सूचना और ऊर्जा दोनों लेकर आते हैं। जब ये किसी निर्णय या इरादे से जुड़ते हैं तब तरंगें बनती हैं। यदि आप भीतर से अहिंसक हैं तो ये ही तरंगे पॉजिटिव और हिंसक हैं तो निगेटिव हो जाएंगी। आज व्यक्तिगत हिंसा के लक्षण परिवार में रिश्तों के बीच उतर आए हैं। बच्चे ऐसा-ऐसा बोल जाते हैं कि माता-पिता आहत हो जाते हैं। माता-पिता की वाजिब डांट भी बच्चों को हिंसा-सी लगती है। पति-पत्नी के बीच आक्रमण के दृश्य तो गजब के ही होते हैं। इन नकारात्मक स्थितियों से स्वयं और परिवार को दूर रखना हो तो भीतर अहिंसक भाव पैदा करते हुए व्यक्तित्व को सुखदायक बनाइए।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>ऊर्जा पाने के लिए ईश्वर पर ध्यान लगाएं<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीवन में असफल रहना कोई नहीं चाहता लेकिन, कुछ अवरोध ऐसे जाते हैं जिनसे निपटना ही पड़ता है। असफलता यदिभयानक है तो अवरोध डरावना होता है। जीवन में असफल रहना कोई नहीं चाहता लेकिन, कुछ अवरोध ऐसे जाते हैं जिनसे निपटना ही पड़ता है। इसके लिए आंतरिक शक्ति, अतिरिक्त ऊर्जा प्राप्त करनी होगी। जब हम किसी बड़ी यात्रा पर चलते हैं तो कुछ रुकावटें कुदरत दे देती है और कुछ हम स्वयं पैदा कर लेते हैं। दुनिया में कई महान लोगों को कुदरती रुकावटों का सामना करना पड़ा है। सूरदासजी दृष्टिहीन थे, तुलसीदासजी को जीवन के अंतिम दौर में कैंसर हो गया था। चर्चिल हकलाते थे, सुकरात का पारिवारिक जीवन तनावपूर्ण था और आचार्य नरेंद्रदेव दमा से पीड़ित थे। लेकिन, ये सब तमाम रुकावटों से पार पाते हुए अपने लक्ष्य तक पहुंचे। हमारे जो भी भौतिक लक्ष्य हों पर एक बड़ा लक्ष्य होना चाहिए दुर्गुणों का सामना कर उन्हें खत्म करना। रावण दुर्गुणों का जीता-जागता स्वरूप था। लंका कांड में राम उससे टक्कर लेने जा रहे थे और इस पर तुलसीदासजी ने दोहा लिखा- ‘एहि बिधि कृपा रूप गुन धाम रामु आसीन। धन्य ते नर एहिं ध्यान जे रहत सदा लयलीन।।<span lang="EN-US">’</span><span lang="EN-US"> </span>यहां कृपा, रूप और गुण तीन बातें रामजी से जोड़ते हुए कहा गया है कि जो लोग इसमें ध्यान लगाएंगे उन्हें अतिरिक्त ऊर्जा मिलेगी। प्रकृति और परमपिता की कृपा, उनका रूप गुण हमारे लिए एक शक्ति है। ऐसा तुलसीदासजी ने इसलिए लिखा कि अब रावण से टकराने का अवसर रहा था। राम तो एक बार टकराए थे पर हमें तो हर दिन अपने ही भीतर के रावण से टकराना है। इसीलिए जो आंतरिक शक्ति ऊर्जा प्राप्त करनी है उसमें परमशक्ति की कृपा, रूप और गुण का ध्यान लगाइए। बाधाएं-रुकावटें अपने आप दूर हो जाएंगी। वरना ये अवरोध असफलता के बड़े कारण बन जाएंगे।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b>परिवार में अन्य सदस्यों के लिए उपयोगी बनें<o:p></o:p></b></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हम दूसरों का उपयोग कर लें लेकिन, जब दूसरा हमारा उपयोग करे तो कई तरह के समीकरण बैठाने लगते हैं। अपना थोड़ा-बहुत उपयोग दूसरों के लिए भी होने दें, इसमें कोई बुराई नहीं है। हम लोग इस मामले में बड़े सावधान रहते हुए खुद को बचाकर चलते हैं। हम दूसरों का उपयोग कर लें लेकिन, जब दूसरा हमारा उपयोग करे तो कई तरह के समीकरण बैठाने लगते हैं। बाहर की दुनिया में ऐसा चल सकता है पर आजकल लोग घर में भी ऐसा ही करने लगे हैं। परिवार छोटे होते जा रहे हैं लेकिन, यदि अपनापन नहीं बचा तो छोटे परिवार बनाने से भी क्या मतलब?..<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मजबूरीवश कभी-कभी परिवार छोटे करना पड़ते हैं। अब बहुत सारे लोग एक साथ नहीं रह सकते। काम-धंधे के कारण घर से बाहर निकलना पड़ता है। यदि किसी परिवार में तीन या चार सदस्य हैं और लगे कि हमारा परिवार छोटा है तो वो एक प्रयोग कर सकते हैं। हर सदस्य तय कर ले कि ये बचे हुए तीन मेरा जमकर उपयोग करें। गणित कुछ ऐसा बैठेगा कि चार लोगों का परिवार सोलह जैसा सुख देने लगेगा। अपना उपयोग दूसरे करें ऐसा स्वभाव बनाने के लिए एक आध्यात्मिक प्रयोग करिए। हमारे शरीर के सात चक्रों में कोई एक केंद्रीय चक्र होता है जहां से हमारा स्वभाव नियंत्रित होता है। उस चक्र का जो स्वभाव होगा, हम वैसा ही करते हैं।<o:p></o:p></span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">इसीलिए बहुत नज़दीकी संबंध होने के बाद भी लोगों के स्वभाव अलग-अलग होते हैं। एक ही माता-पिता के बच्चों की आदतें, क्रिया-कलाप में अंतर होता है। यदि लगातार गहरी सांस के साथ प्रत्येक चक्र पर चिंतन करें तो कुछ दिनों में अंदाज हो जाएगा कि आपका केंद्रीय चक्र क्या है? उस पर टिककर अपने स्वभाव को परिपक्व कीजिए, अपने आप प्रसन्नता के साथ अपना उपयोग दूसरों को करने देंगे। यहीं से छोटे परिवार का एकाकीपन दूर होकर आप कम लोगों में भी ज्यादा का आनंद उठा पाएंगे।</span></div>
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<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है... मनीष </span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif; font-weight: bold;">ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....</span></div>
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Jai Guru Geeta Gopalhttp://www.blogger.com/profile/01621836960274288942noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-6101091264294453966.post-90281315021124564322019-08-27T21:35:00.001-07:002019-08-27T21:35:52.064-07:00(जाहरवीर गोगाजी जी (Jahar Veer Goga ji)<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgnN-25zcZeWQ4SE6ZJ3U0GPN1uy1xx-h1-n9gawLa5VHqsrXByKbI63b-mHqHdwtk9VqWeUDbQkT3z7Eq0LLFcejasyp2HFPt00B0Zf2-vrWg8r83T2RKHz_oVp0lCI0XO6ZCoKEsHYVI/s1600/37858588_2063241197258661_4824868884827865088_n.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="702" data-original-width="752" height="298" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgnN-25zcZeWQ4SE6ZJ3U0GPN1uy1xx-h1-n9gawLa5VHqsrXByKbI63b-mHqHdwtk9VqWeUDbQkT3z7Eq0LLFcejasyp2HFPt00B0Zf2-vrWg8r83T2RKHz_oVp0lCI0XO6ZCoKEsHYVI/s320/37858588_2063241197258661_4824868884827865088_n.jpg" width="320" /></a></div>
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<b><span style="font-family: "mangal" , serif;"><br /></span></b></div>
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<b><span style="font-family: "mangal" , serif;">जय </span><span style="font-family: "mangal" , serif;">गुरु</span> <span style="font-family: "mangal" , serif;">गोरक्षनाथ </span></b><b><span style="font-family: "mangal" , serif;">जी</span></b><b> <span style="font-family: "mangal" , serif;">व</span> <span style="font-family: "mangal" , serif;">उनके</span> <span style="font-family: "mangal" , serif;">शिष्य</span> <span style="font-family: "mangal" , serif;">जाहरवीर</span> <span style="font-family: "mangal" , serif;">गोगाजी</span> </b><b><span style="font-family: "mangal" , serif;">जी </span></b><b><span style="font-family: "mangal" , serif;">की.</span></b><b><span style="font-family: "mangal" , serif;"> </span></b></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "mangal" , "serif";">राजस्थान</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सिद्धों</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सम्बन्ध</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">एक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">चर्चित</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">दोहा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span> : ‘‘<span style="font-family: "mangal" , "serif";">पाबू</span>, <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हडबू</span>, <span style="font-family: "mangal" , "serif";">रामदे</span>, <span style="font-family: "mangal" , "serif";">माँगलिया</span>, <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मेहा।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पाँचू</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पीर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पधारज्यों</span>,<span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगाजी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जेहा</span>'' <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सिद्ध</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">वीर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगादेव</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">राजस्थान</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">लोक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">देवता</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हैं</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जिन्हे</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाहरवीर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगाजी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">नाम</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">से</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">भी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाना</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाता</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">राजस्थान</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हनुमानगढ़</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जिले</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">का</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">एक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">शहर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगामेड़ी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">यहां</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">भादव</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">शुक्लपक्ष</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">नवमी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">को</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगाजी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">देवता</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">का</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मेला</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">भरता</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">इन्हे</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हिन्दु</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">और</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मुस्लिम</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">दोनो</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पूजते</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">।</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "mangal" , "serif";">वीर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगाजी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गुरुगोरखनाथ</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">परमशिस्य</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">थे।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">चौहान</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">वीर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगाजी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">का</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जन्म</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">विक्रम</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">संवत</span> 1003 <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">चुरू</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जिले</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">ददरेवा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गाँव</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हुआ</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">था</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सिद्ध</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">वीर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगादेव</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जन्मस्थान</span>, <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जो</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">राजस्थान</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">चुरू</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जिले</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">दत्तखेड़ा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">ददरेवा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">स्थित</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जहाँ</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सभी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">धर्म</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">और</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सम्प्रदाय</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">लोग</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मत्था</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">टेकने</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">लिए</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">दूर</span>-<span style="font-family: "mangal" , "serif";">दूर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">से</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">आते</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हैं।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">कायम</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">खानी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मुस्लिम</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">समाज</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">उनको</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाहर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पीर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">नाम</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">से</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पुकारते</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हैं</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">तथा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">उक्त</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">स्थान</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मत्था</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">टेकने</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">और</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मन्नत</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">माँगने</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">आते</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हैं।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">इस</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">तरह</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">यह</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">स्थान</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हिंदू</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">और</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मुस्लिम</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">एकता</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">का</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">प्रतीक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है।</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोरखनाथ</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">से</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सम्बंधित</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">एक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">कथा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">राजस्थान</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">बहुत</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">प्रचलित</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">राजस्थान</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">महापुरूष</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगाजी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">का</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जन्म</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गुरू</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोरखनाथ</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">वरदान</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">से</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हुआ</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">था।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगाजी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">माँ</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">बाछल</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">देवी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">निःसंतान</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">थी।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">संतान</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">प्राप्ति</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सभी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">यत्न</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">करने</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">बाद</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">भी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">संतान</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सुख</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">नहीं</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मिला।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गुरू</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोरखनाथ</span> ‘<span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगामेडी</span><span lang="EN-US">’ </span><span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">टीले</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">तपस्या</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">कर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">रहे</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">थे।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">बाछल</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">देवी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">उनकी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">शरण</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मे</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गईं</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">तथा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गुरू</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोरखनाथ</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">ने</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">उन्हें</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पुत्र</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">प्राप्ति</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">का</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">वरदान</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">दिया</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">और</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">एक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गुगल</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">नामक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">फल</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">प्रसाद</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">रूप</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">दिया।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">प्रसाद</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">खाकर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">बाछल</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">देवी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गर्भवती</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हो</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गई</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">और</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">तदुपरांत</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगाजी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">का</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जन्म</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हुआ।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गुगल</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">फल</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">नाम</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">से</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">इनका</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">नाम</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगाजी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पड़ा।</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "mangal" , "serif";">मध्यकालीन</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">महापुरुष</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगाजी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हिंदू</span>, <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मुस्लिम</span>, <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सिख</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">संप्रदायों</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">श्रद्घा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">अर्जित</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">कर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">एक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">धर्मनिरपेक्ष</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">लोकदेवता</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">नाम</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">से</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पीर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">रूप</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">प्रसिद्ध</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हुए।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">विक्रम</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">संवत</span> 1003 <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाहरवीर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">का</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जन्म</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">राजस्थान</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">ददरेवा</span> (<span style="font-family: "mangal" , "serif";">चुरू</span>) <span style="font-family: "mangal" , "serif";">चौहान</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">वंश</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">राजपूत</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">शासक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जैबर</span> (<span style="font-family: "mangal" , "serif";">जेवरसिंह</span>) <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पत्नी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">बाछल</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गर्भ</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">से</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गुरु</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोरखनाथ</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">वरदान</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">से</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">भादो</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सुदी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">नवमी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">को</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हुआ</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">था।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जिस</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">समय</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगाजी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">का</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जन्म</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हुआ</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">उसी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">समय</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">एक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">ब्राह्मण</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">घर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">नाहरसिंह</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">वीर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">का</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जन्म</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हुआ।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">ठीक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">उसी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">समय</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">एक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हरिजन</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">घर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">भज्जू</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">कोतवाल</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">का</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जन्म</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हुआ</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">और</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">एक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">वाल्मीकि</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">घर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">रत्ना</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">का</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जन्म</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हुआ।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">यह</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सभी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गुरु</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोरखनाथ</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">शिष्य</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हुए।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगाजी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">का</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">नाम</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">भी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गुरु</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोरखनाथ</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">नाम</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पहले</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">अक्षर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">से</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">ही</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">रखा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गया।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">यानी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गुरु</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">का</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गु</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">और</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोरख</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">का</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गो</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">यानी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गुगो</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जिसे</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">बाद</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">कहा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाने</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">लगा।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">ने</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गूरू</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोरख</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">नाथ</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">से</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">तंत्र</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">शिक्षा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">भी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">प्राप्त</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">थी।</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "mangal" , "serif";">चौहान</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">वंश</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">राजा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पृथ्वीराज</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">चौहान</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">बाद</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगाजी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">वीर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">और</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">ख्याति</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">प्राप्त</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">राजा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">थे।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगाजी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">का</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">राज्य</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सतलुज</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सें</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हांसी</span> (<span style="font-family: "mangal" , "serif";">हरियाणा</span>) <span style="font-family: "mangal" , "serif";">तक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">था।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जयपुर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">से</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">लगभग</span> 250 <span style="font-family: "mangal" , "serif";">किमी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">दूर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">स्थित</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सादलपुर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पास</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">दत्तखेड़ा</span> (<span style="font-family: "mangal" , "serif";">ददरेवा</span>) <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगादेवजी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">का</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जन्म</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">स्थान</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">दत्तखेड़ा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">चुरू</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">अंतर्गत</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">आता</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगादेव</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जन्मभूमि</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">आज</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">भी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">उनके</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">घोड़े</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">का</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">अस्तबल</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">और</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सैकड़ों</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">वर्ष</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">बीत</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गए</span>, <span style="font-family: "mangal" , "serif";">लेकिन</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">उनके</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">घोड़े</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">रकाब</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">अभी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">भी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">वहीं</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">विद्यमान</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">उक्त</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जन्म</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">स्थान</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गुरु</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोरक्षनाथ</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">का</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">आश्रम</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">भी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">और</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">वहीं</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगादेव</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">घोड़े</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सवार</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मूर्ति।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">भक्तजन</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">इस</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">स्थान</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">कीर्तन</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">करते</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हुए</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">आते</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हैं</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">और</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जन्म</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">स्थान</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">बने</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मंदिर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मत्था</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">टेककर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मन्नत</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">माँगते</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हैं।</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "mangal" , "serif";">आज</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">भी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सर्पदंश</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">से</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मुक्ति</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">लिए</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगाजी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पूजा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाती</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span>. <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगाजी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">प्रतीक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">रूप</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पत्थर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">या</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">लकडी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सर्प</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मूर्ती</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">उत्कीर्ण</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाती</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span>. <span style="font-family: "mangal" , "serif";">लोक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">धारणा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">कि</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सर्प</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">दंश</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">से</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">प्रभावित</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">व्यक्ति</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">को</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">यदि</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगाजी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मेडी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">तक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">लाया</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाये</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">तो</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">वह</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">व्यक्ति</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सर्प</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">विष</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">से</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मुक्त</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हो</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाता</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span>. <span style="font-family: "mangal" , "serif";">भादवा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">माह</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">शुक्ल</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पक्ष</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">तथा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">कृष्ण</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पक्ष</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">नवमियों</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">को</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगाजी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">स्मृति</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मेला</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">लगता</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span>. <span style="font-family: "mangal" , "serif";">उत्तर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">प्रदेश</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">इन्हें</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाहर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पीर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">तथा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मुसलमान</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">इन्हें</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पीर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">कहते</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हैं।</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "mangal" , "serif";">हनुमानगढ़</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जिले</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">नोहर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">उपखंड</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">स्थित</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगाजी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पावन</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">धाम</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगामेड़ी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">स्थित</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगाजी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">का</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">समाधि</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">स्थल</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जन्म</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">स्थान</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">से</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">लगभग</span> 80 <span style="font-family: "mangal" , "serif";">किमी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">दूरी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">स्थित</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span>, <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जो</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">साम्प्रदायिक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सद्भाव</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">का</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">अनूठा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">प्रतीक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span>, <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जहाँ</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">एक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हिन्दू</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">व</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">एक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मुस्लिम</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पुजारी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">खड़े</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">रहते</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हैं।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">श्रावण</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">शुक्ल</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पूर्णिमा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">से</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">लेकर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">भाद्रपद</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">शुक्ल</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पूर्णिमा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">तक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मेड़ी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मेले</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">वीर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगाजी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">समाधि</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">तथा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पीर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">व</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाहिर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">वीर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जयकारों</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">साथ</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगाजी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">तथा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गुरु</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोरक्षनाथ</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">प्रति</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">भक्ति</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">अविरल</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">धारा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">बहती</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">भक्तजन</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गुरु</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोरक्षनाथ</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">टीले</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाकर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">शीश</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">नवाते</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हैं</span>, <span style="font-family: "mangal" , "serif";">फिर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगाजी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">समाधि</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">आकर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">ढोक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">देते</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हैं।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">प्रतिवर्ष</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">लाखों</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">लोग</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मंदिर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मत्था</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">टेक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">तथा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">छड़ियों</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">विशेष</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पूजा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">करते</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हैं।</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाहरवीर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">छड़ी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">का</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">बहुत</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">महत्त्व</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">होता</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">और</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जो</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">साधक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">छड़ी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">साधना</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">नहीं</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">करता</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">उसकी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">साधना</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">अधूरी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">ही</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मानी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाती</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">क्योंकि</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मान्यता</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">अनुसार</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाहरवीर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">वीर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">छड़ी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">निवास</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">करते</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सिद्ध</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">छड़ी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">नाहरसिंह</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">वीर</span> , <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सावल</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सिंह</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">वीर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">आदि</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">अनेकों</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">वीरों</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">का</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पहरा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">रहता</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">छड़ी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">लोहे</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सांकले</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">होती</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जिसपर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">एक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मुठा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">लगा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">होता</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जब</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">तक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाहरवीर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">माड़ी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">अथवा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">उनके</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जागरण</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">छड़ी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">नहीं</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">होती</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">तब</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">तक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">वीर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हाजिर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">नहीं</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">होते</span> , <span style="font-family: "mangal" , "serif";">ऐसी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">प्राचीन</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मान्यता</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">ठीक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">इसी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">प्रकार</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जब</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">तक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाहरवीर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">माड़ी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">अथवा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जागरण</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">चिमटा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">नहीं</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">होता</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">तब</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">तक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गुरु</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोरखनाथ</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सहित</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">नवनाथ</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हाजिर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">नहीं</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">होते।</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "mangal" , "serif";">छड़ी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">अक्सर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">घर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">ही</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">रखी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाती</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">और</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">उसकी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पूजा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाती</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">केवल</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सावन</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">और</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">भादो</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">महीने</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">छड़ी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">निकाली</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाती</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">और</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">छड़ी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">को</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">नगर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">फेरी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">लगवाई</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाती</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span> , <span style="font-family: "mangal" , "serif";">इससे</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">नगर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">आने</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">वाले</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सभी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">संकट</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">शांत</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हो</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाते</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाहरवीर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">भक्त</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">दाहिने</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">कन्धे</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">छड़ी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">रखकर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">फेरी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">लगवाते</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">छड़ी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">को</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">अक्सर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">लाल</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">अथवा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">भगवे</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">रंग</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">वस्त्र</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">रखा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाता</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है।</span><o:p></o:p></div>
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<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "mangal" , "serif";">यदि</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">किसी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">भूत</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">प्रेत</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">आदि</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">बाधा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हो</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">तो</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">छड़ी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">को</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पीड़ित</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">शरीर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">को</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">छुवाकर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">उसे</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">एक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">बार</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">ही</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">ठीक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">कर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">दिया</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाता</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span> ! <span style="font-family: "mangal" , "serif";">भादो</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">महीने</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जब</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">भक्त</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाहर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">बाबा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">दर्शनों</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">लिए</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाते</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">तो</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">छड़ी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">को</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">भी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">साथ</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">लेकर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाते</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">और</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोरख</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गंगा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">स्नान</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">करवाकर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाहर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">बाबा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">समाधी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">से</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">छुआते</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">ऐसा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">करने</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">से</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">छड़ी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">शक्ति</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">कायम</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">रहती</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">।</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "mangal" , "serif";">प्रदेश</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">लोक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">संस्कृति</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगाजी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">प्रति</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">अपार</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">आदर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">भाव</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">देखते</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हुए</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">कहा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गया</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">कि</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गाँव</span>-<span style="font-family: "mangal" , "serif";">गाँव</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">खेजड़ी</span>, <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गाँव</span>-<span style="font-family: "mangal" , "serif";">गाँव</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">वीर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगाजी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">का</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">आदर्श</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">व्यक्तित्व</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">भक्तजनों</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">लिए</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सदैव</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">आकर्षण</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">का</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">केन्द्र</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">रहा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है।गोरखटीला</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">स्थित</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गुरु</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोरक्षनाथ</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">धूने</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">शीश</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">नवाकर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">भक्तजन</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मनौतियाँ</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">माँगते</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हैं।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">विद्वानों</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">व</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">इतिहासकारों</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">ने</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">उनके</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जीवन</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">को</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">शौर्य</span>, <span style="font-family: "mangal" , "serif";">धर्म</span>, <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पराक्रम</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">व</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">उच्च</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जीवन</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">आदर्शों</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">का</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">प्रतीक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">माना</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है।</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "mangal" , "serif";">जातरु</span> (<span style="font-family: "mangal" , "serif";">जात</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">लगाने</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">वाले</span>) <span style="font-family: "mangal" , "serif";">ददरेवा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">आकर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">न</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">केवल</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">धोक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">आदि</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">लगाते</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हैं</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">बल्कि</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">वहां</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">समूह</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">बैठकर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गुरु</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोरक्षनाथ</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">व</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">उनके</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">शिष्य</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाहरवीर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगाजी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जीवनी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">किस्से</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">अपनी</span>-<span style="font-family: "mangal" , "serif";">अपनी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">भाषा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गाकर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सुनाते</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हैं।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">प्रसंगानुसार</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जीवनी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सुनाते</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">समय</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">वाद्ययंत्रों</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">डैरूं</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">व</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">कांसी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">का</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">कचौला</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">विशेष</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">रूप</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">से</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">बजाया</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाता</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">इस</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">दौरान</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">अखाड़े</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">के</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जातरुओं</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">में</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">से</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">एक</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जातरू</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">अपने</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सिर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">व</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">शरीर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पूरे</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जोर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">से</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">लोहे</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">सांकले</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मारता</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है।</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मान्यता</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">कि</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गोगाजी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">की</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">संकलाई</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">आने</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">पर</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">ऐसा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">किया</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जाता</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है।</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<br /></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "mangal" , "serif";">जो</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">भी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">इसमें</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">अच्छा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">लगे</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">वो</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मेरे</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गुरू</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">का</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">प्रसाद</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span>,<o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<span style="font-family: "mangal" , "serif";">और</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जो</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">भी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">बुरा</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">लगे</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">वो</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मेरी</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">न्यूनता</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">है</span>... <span style="font-family: "mangal" , "serif";">मनीष</span><o:p></o:p></div>
<div class="MsoNormal">
<b><span style="font-family: "mangal" , "serif";">ॐ</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">शिव</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">हरि</span>....<span style="font-family: "mangal" , "serif";">जय</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गुरुदेव</span>..<span style="font-family: "mangal" , "serif";">जय</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">गुरुदेव</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">कल्याणदेव</span> <span style="font-family: "mangal" , "serif";">जी</span>....</b></div>
<br /></div>
Jai Guru Geeta Gopalhttp://www.blogger.com/profile/01621836960274288942noreply@blogger.com0