Thursday, September 2, 2010

blackness.(तिमिर)

तिमिर
सूर्य की रश्मियों से ही चन्द्रमा में प्रकाश है और वह प्रकाशवान दिखाई देता है| जबकि यह दृश्य प्रत्यक्षतः स्पष्ट दिखाई नहीं देता है, कि सूर्य का प्रकाश चन्द्रमा पर है और अन्य तारा मंडल पर पड़ रहा है और वे उसी से जगमगा रहे हैं| यह सब अदृश्य रूप से होता है और यह बात ध्रुव सत्य है| ठीक ऐसा ही शिष्य का जीवन होता है, उसके स्व के अन्दर कोई विशेषता नहीं होती, पर वह धीरे-धीरे प्रसिद्धि के शिखर की ओर उन्मुख होता ही जाता है, ज्यों-ज्यों उसके अन्दर गुरु के प्रति समर्पण, सेवा और भक्ति का चन्द्रमा जगमगता है ... उसका नाम, यश, समाज में चन्द्रमा की किरणों की भांति बिखरता ही जता है और शिष्य को यह भान भी नहीं होता कि यह सब कैसे हो रहा है| वह तो सोचता है, कि यह प्रतिभा उसकी स्वयं की है और एक क्षण ऐसा आता है, कि वह प्रसिद्धि के मद में आकर गुरु के सान्निध्य को त्याग देता है, अपने निज स्वार्थ की पूर्ती के लिये| और गुरु से अलग होते ही उसे वस्तु-स्थिति का भान हो जाता है, कि क्या सही है? समाज कि विषमताओं के बीच जाकर धीरे-धीरे वह अधोगामी होता जाता है|

इस सम्बन्ध में मुझे एक कथा स्मरण आ राहे है -पौष की कडकडाती ठंड में ऋषि गर्ग विचार मग्न बैठे हुए थे .. सांझ की बेला थी| ठंड कम करने के लिये कोयलों से भरा अलाव धधक रहा था| गर्ग का प्रिय शिष्य 'विश्रवानंद', जिसके ज्ञान की गरिमा कि चर्चा जनमानस में फैलती जा रही थी, इस बात से उसे धीरे-धीरे अभिमान हो गया और गुरु आश्रम त्यागने का निश्चय कर वह गुरु के पास गया ... ऋषि गर्ग उसकी मनोस्थिति को पढ़ रहे थे| पर फिर भी मौन थे, उन्हें अपने पर पूरा विश्वास था, कि मेरे द्वारा लगाया हुआ पौधा मुरझा नहीं सकता| विश्रवानंद ने गुरु से आज्ञा मांगी| ऋषि गर्ग मौन बैठे रहे, थोड़ी देर बाद उन्होनें धदकते अलाव से एक कोयले के तुकडे को, जो काफी तेजी से दहक रहा था ... बाहर निकाला ..कोयले का टुकड़ा कुछ देर तो जलता रहा ... पर धीरे-धीरे उसकी दहकता शांत हो गयी, उस पर राख की परत चढ़ती गयी, देखते-देखते उसकी आभा धूमिल हो गयी| विश्रवानंद खड़े-खड़े यह क्रिया देख रहे थे .. समझ लिया गुरु के मौन संकेत को ... और चुपचाप आश्रम के अन्दर जा कर साधनारत हो गए|

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

No comments:

Post a Comment