Thursday, September 2, 2010

Divine wisdom.(ब्रह्म ज्ञान)

ब्रह्म ज्ञान

एक अत्यन्त ही अधिक सम्पन्न व्यक्ति था (दुर्भाग्य से उसका नाम और पता अज्ञात है)। वह बहुत धनवान था। उसके पास अटूट धन-सम्पत्ति, कई घर, खेत, जमीन-जायदाद और बहुत से नौकर-चाकर थे। उसे किसी बात की कमी नहीं थी। जब साईं बाबा का यश उसके कानों तक पहुँचा तब एक दिन उसने अपने एक मित्र से कहा, "मुझे किसी बात की कमी नहीं है। इसलिये मैं शिरडी जाउंगा और साईं बाबा से ब्रह्म ज्ञान मांगूंगा। अगर मुझे ब्रह्म ज्ञान मिल जाता है तो मैं अवश्य ही अधिक सुखी हो जाउँगा।" उसके मित्र ने उसे समझाया कि 'ब्रह्म' को जानना सरल नहीं है और विशेष रूप से तुम जैसे लालची के लिये जो हमेशा धन, पत्नी और बच्चों में लिप्त रहता है। ब्रह्म ज्ञान की खोज में कौन तुम्हें सन्तुष्ट करेगा। तुम दान में एक पैसा भी तो नहीं देते हो।
अपने मित्र की सलाह पर ध्यान न देते हुये उस धनी व्यक्ति ने आने-जाने का (दोनों ओर का) किराया तय कर एक तांगे से शिरडी पहुँचा। वह मस्जिद में गया, साईं बाबा को साष्टांग दण्डवत् प्रणाम किया और बोला, "बाबा, यह सुन कर कि जो लोग यहाँ आते हैं उन सबको आप ही ब्रह्म का दर्शन करा देते हैँ, मैं भी अपने दूर के निवास स्थान से आया हूँ। मैं यात्रा से बहुत थक गया हूँ। यदि आपके पास से मुझे ब्रह्म ज्ञान मिल जाता है तो मेरा कष्ट सफल हो जावेगा।"
साईं बाबा ने कहा, "मेरे प्यारे मित्र, उतावला मत होवो। मैं तुमको तुरन्त ब्रह्म दिखा दूंगा। मेरे सभी काम नकद होत हैं, उधारी नहीं। कई लोग मेरे पास आते हैं और मुझसे धन, स्वास्थ्य, सम्मान, ऊँचा पद, बीमारी से छुटकारा और दूसरे सांसारिक पदार्थ मांगते हैं। क्वचित व्यक्ति मेरे पास ब्रह्म ज्ञान मांगने के लिये आता है। उन आदमियों की कमी नहीं है जो सांसारिक वस्तुएँ मांगते हैं पर मैं उस क्षण को भाग्यशाली और शुभ मानता हूँ जब तुम्हारे समान व्यक्ति आते और मुझसे ब्रह्म ज्ञान देने का आग्रह करते हैं। इसलिये मैं तुम्हें ब्रह्म के सभी उपकरणों और उलझनों के साथ 'ब्रह्म' दिखाउंगा।
यह कह कर बाबा ने उसे ब्रह्म दिखाना प्रारम्भ किया। उन्होंने उसको वहाँ बैठाया और दूसरी बातों तथा विषयों में लगा दिया। इस तरह से उन्होंने उसे थोड़े समय के लिये अपने मूल प्रश्न को भूलने में लगा दिया। फिर उन्होंने एक लड़के को बुलाया और उसे नन्दू मारवाड़ी के पास जा कर उससे पाँच रुपये उधारी मांग कर लाने को कहा। लड़का बाहर गया और कुछ ही देर बाद वापस आ कर बोला, "नन्दू नहीं है। उसके घर में ताला लगा हुआ है।" तब बाबा ने उसको बाला जी किराने वाले के पास से उधार मांग कर लाने को कहा। इस बार भी लड़का असफल रहा। यह प्रयोग दो या तीन बार दुहराया गया पर सफलता नहीं मिली।
साईं बाबा तो स्वयं ब्रह्म के सगुण अवतार थे। तब कोई यह पूछ सकता है कि पाँच रुपये की एकदम तुच्छ राशि क्यों चाह रहे थे और उसके लिये इतनी उठा-पटक क्यों कर रहे थे? सचमुच में बाबा को उस नगण्य राशि की कोई आवश्यकता नहीं थी। वे अवश्य ही यह भी जानते थे कि नन्दू और बाला जी नहीं मिलेंगे। ऐसा मालूम पड़ता है कि उन्होंने ब्रह्म पाने के लिये आये हुये उन व्यक्ति की परीक्षा लेने के लिये यह तरीका अपनाया। उस सज्जन की जेब में उस समय नोटों का पुलिन्दा था। यदि उसकी सचमुच ही ब्रह्म देखने की हार्दिक इच्छा होती तो जिस समय बाबा पाँच रुपये उधार लेने के लिये प्रयत्न कर रहे थे उस समय वह चुपचाप मूक दर्शक बने नहीं बैठा रहता और अपने पास से रुपये निकाल कर दे दिया होता। उसे मालूम था कि बाबा अपने वचन का पालन अवश्य करेंगे और उधार ली हुई रकम वापस कर देंगे। तो भी वह निश्चय नहीं कर सका और उसने उधार नहीं दिया। ऐसा आदमी बाबा से संसार की सबसे बड़ी वस्तु 'ब्रह्म ज्ञान' लेना चाहता था।
कोई भी दूसरा आदमी जिसके हृदय में साईं बाबा के प्रति प्रेम और भक्ति होती तो वह केवल देखता नहीं रहता किन्तु वह पाँच रुपये निकाल कर दे दिया होता। उसने न तो पैसा ही दिया और न चुप ही बैठा रहा किन्तु अधीर हो गया क्योंकि वह वापस जाने की जल्दी में था। उसने कहा, "मुझे जल्दी ब्रह्म दिखाइये।" साईं बाबा ने जवाब दिया, "मेरे मित्र, इस स्थान पर बैठ कर तुम्हें ब्रह्म दिखाने के लिये जो काम मैंने किया उसे तुमने नहीं समझा। थोड़े में वह यह है कि ब्रह्म देखने के लिये पाँच चीजें समर्पित करनी पड़ती हैं - (1) पंच प्राण (प्राण, अपान, सपान, उदान और व्यान), (2) पंच ज्ञानेन्द्रियाँ, (3) मन, (4) बुद्धि और (5) अहंकार। ब्रह्म ज्ञान अथवा आत्म ज्ञान का मार्ग इतना कठिन है जितना तलवार की धार पर चलना।
जय श्री सांई राम



सांई ब्रह्म ज्ञान

तब साईं बाबा ने ब्रह्म ज्ञान विषय पर लम्बा प्रचन दिया जो संक्षेप में इस प्रकार है - ब्रह्म ज्ञान या आत्म ज्ञान के लिये योग्यताएँ चाहिये। अपने जीवन काल में सभी लोग ब्राह्म ज्ञान का अनुभव नहीं करते। इसके लिये कुछ गुण पूरी तरह से जरूरी हैं:-

(1) मुमुक्षत्व:- मुमुक्ष या मुक्त होने की तीव्रतम इच्छा रखने वाले ही ब्रह्म ज्ञान पा सकते हैं। जो यह सोचते हैं कि मैं माया-जाल में फँसा हूँ - मुझे अवश्य ही माया के बन्धन से छूटना ही चाहिये, जो अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेने के लिये किसी की परवाह न करते हुये दृढ़तापूर्वक तपस्या और साधना करता है वही आध्यात्मिक जीवन के योग्य होता है।

(2) विरक्ति या वैराग्य:- जो इस संसार की और दूसरी दुनिया की वस्तुओं और सुखों की इच्छा नहीं रखता वही ब्रह्म ज्ञान का अधिकारी होता है। जब तक किसी के मन में लौकिक और पारलौकिक सुखों के प्रति लगाव है तब तक कोई भी ब्रह्म ज्ञान पाने का अधिकारी हो ही नहीं सकता।

(3) अन्तर्मुखता:- ईश्वर के द्वारा हमारी इन्द्रियों की रचना इस प्रकार की गई है कि उनकी प्रकृति और प्रवृति बाहर जाने और घूमने की है। इसलिये आदमी हमेशा बाहर ही देखता है - अन्तर्मुखी नहीं होता। जो आत्मज्ञान और अमरत्व चाहता है उसे अवश्य ही अन्तर्दृष्टि करके अपनी आत्मा को ही देखना ही होगा।

(4) निष्पाप मन:- जब तक कोई व्यक्ति दुष्टता नहीं छोड़ता, गलत काम करने से नहीं रुकता और पूरी तरह सा अपने आपको शान्त नहीं रखता तब तक वह ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद भी उस ज्ञान के द्वारा आत्म ज्ञान नहीं पा सकता।

(5) सही आचरण:- जब तक कोई व्यकति सचाई का जीवन नहीं बिताता तब तक वह ईश्वर का दर्शन नहीं कर सकता।

(6) प्रेयस की अपेक्षा श्रेयस को स्वीकार करना:- स्थितियाँ दो प्रकार की होती हैं - प्रेयस और श्रेयस। प्रेयस का अर्थ है सांसारिक सुख का जीवन और श्रेयस का अर्थ है 'अच्छाई'। श्रेयस अध्यात्म की ओर ले जाता है और प्रेयस संसार की ओरढकेलता है। ये दोनों अपने आपको स्वीकार कराने के लिये आदमी के मन में आते हैं। उस मनुष्य को दोनों में से एक को ग्रहण करने के लिये सोचना पड़ता है। बुद्धिमान मनुष्य सांसारिक सुख की अपेक्षा अच्छाई और अध्यात्म (श्रेयस) को अधिक पसन्द करता है परन्तु जो व्यक्ति बुद्धिमान नहीं है वह मनुष्य लोभ और मोह के कारण प्रेयस अथवा क्षणिक सांसारिक सुख को चुन लेता है।

(7) मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण:- शरीर रथ है और आत्मान उसका स्वामी है। बुद्धि सारथी है। मन लगाम है। इन्द्रियों से शरीर रूपी रथ में जुते हुये घोड़े हैं और इन्द्रयों के द्वारा ग्रहण की जाने वाली वस्तुएँ मार्ग हैं जिनको समझ नहीं है, जिनका मन सीमित नहीं है और जिनकी इन्द्रियाँ रथ में जुते हुये खराब घोड़ों के समान वश में नहीं है और अनियंत्रित हैं वे गन्तव्य स्थान तक नहीं पहुँचते अर्थात् ब्रह्म ज्ञान नहीं पाते किन्तु जन्म-मरण के चक्र में घूमते रहते हैं। इसके विपरीत जिसको समझ है, जिसका मन नियंत्रित है और जिसका मन रथ में जुते हुये अच्छे घोड़े के समान नियंत्रित है वह अपने गन्तव्य ब्रह्म ज्ञान या आत्म साक्षात्कार तक पहुँचता है अर्थात् ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करता है और जन्म-मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जाता है। फिर उसका पुनर्जन्म नहीं होता। ऐसा ज्ञानी विष्णु लोक में पहुँच जाता है।

(8) मन की शुद्धता:- जब तक कोई व्यक्ति निर्लिप्त रह कर, सन्तोषजनक और निष्काम रूप से अपने जीवन काल में निर्धारित अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करता है तब तक उसका मन शुद्ध नहीं होता और जब तक मन शुद्ध नहीं होता तब तक वह ब्रह्म ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। केवल शुद्ध मन में ही विवेक और वैराग्य जागृत होता है और उसे आत्म ज्ञान तक ले जाता है। जब तक अहंकार का नाश नहीं हो जाता, लोभ से छुटकारा नहीं मिल जाता और मन इच्छा-रहित नहीं हो जाता तब तक ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करना असम्भव है। यह विचार कि - "मैं शरीर हूँ - बहुत बड़ी माया और इन्द्रजाल तथा जन्म-मरण के बन्धन का कारण है। इसलिये यदि तुम आत्म ज्ञन पाना चाहते हो तो इस विचार और मोह को एकदम छोड़ दो।

(9) गुरु की आवश्यकता:- आत्म ज्ञान इतना सूक्ष्म और रहस्यमय है कि कोई भी व्यक्ति कभी भी अपने स्वयं के व्यक्तिगत प्रयास से ब्रह्म ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिये जिस गुरु ने स्वयं आत्म ज्ञान प्राप्त कर लिया है उस गुरु की सहायता नितान्त आवश्यक और अनिवार्य है। जो ज्ञान कठिन परिश्रम और प्रयास करके भी दूसरे नहीं दे सकते उसे सद्गुरु की कृपा और सहायता से प्राप्त कर लेना सरल हो जाता है क्योंकि सद्गुरु जिस मार्ग से चल कर आत्म ज्ञान तक स्वयं पहुँचा है उसी मार्ग से अपने शिष्य को ले जा सकता है।

(10) ईश्वर की कृपा:- अन्त में ईश्वर की कृपा सबसे अधिक आवश्यक है। जब परमात्मा किसी पर प्रसन्न हो जाता है तब वह उसे विवेक और वैराग्य दे देता है।

इस बातचीत के बाद साईं बाबा उस सज्जन की ओर मुड़े जो ब्रह्म देखने आया था और बोले, "महाशय जी, आपकी जेब में दस दस रुपये के रूप में 250) हैं। साईं बाबा की सर्वज्ञता देख कर वह व्यक्ति बहुत प्रभावित हुआ और बाबा के चरणों पर गिर कर क्षमा और आशीर्वाद मांगा। तब बाबा ने उससे कहा, "अपने ब्रह्म अर्थात् नोटों के पुलिन्दे को ठीक से मोड़ कर अपने जेब में छिपा लो। जब तक तुम अपने लोभ से छुटकारा नहीं पावोगे तब तक तुम वास्तविक ब्रह्म को नहीं पावोगे। जब तक किसी का मन धन-सम्पत्ति, सन्तान और अपनी सांसारिक प्रगति में लिप्त है तब तक वह ब्रह्म ज्ञान पाने की आशा कैसे कर सकता है? धन का मोह भ्रम जाल से भरे हुये अहंकार के रूप में मगरमच्छ से भरा हुआ गहरा भँवर है। जो इच्छारहित है केवल वही अकेले अहंकार और लोभ के उस भँवर को पार कर सकता है। लोभ और ब्रह्म दो अलग अलग स्तम्भ हैं। वे दोनों अनादि काल से नित्य एक दूसरे के विपरीत हैं। जहाँ लोभ है वहाँ विचार और ब्रह्म का ध्यान करने के लिये कोई गुंजाइश नहीं है। मेरा खजाना भरा हुआ है और मैं किसी को भी वह दे सकता हूँ। किन्तु मुझे देखना पड़ता है कि जो मैं देता हूँ, उसे पाने के लिये वह योग्य पात्र है या नहीं। अगर तुम मेरी बात सावधानी से सुनते हो तो तुम्हें अवश्य ही लाभ होगा। इस मस्जिद में बैठ कर मैं कभी कोई झूठ नहीं बोलता।

साईं बाबा ने अपने उपदेश समाप्त किया। उस समय दूसरे भक्त भी वहाँ बैठे थे। जैसे किसी अतिथि के आने पर उसे जो उत्तम भोजन कराया जाता है वही भोजन उस समय घर के लोगों को भी खिलाया जाता है वैसे ही उस धनवान व्यक्ति को साईं बाबा ने जो आध्यात्मिक भोजन कराया उसका आस्वादन उन सब लोगों ने भी किया जो उस समय मस्जिद में उपस्थित थे। साईं बाबा का आशीर्वाद पाने के बाद उस धनवान व्यक्ति के सहित सभी सन्तुष्ट को कर चले गये।

जय श्री सांई राम
साई दास कौशल

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

No comments:

Post a Comment