Monday, September 6, 2010

Tailang Swami(तैलङ्गस्वामी)


















श्री तैलङ्गस्वामी
(आविर्भाव-पौष शुक्ल ११, जनवरी १६०७,महाप्रयाण-पौष शुक्ल ११, जनवरी १८८७)
उड़ीसा प्रान्त के विजना जिले में स्थित होलिया नामक गाँव में जमींदार नृसिंहधर के घर में आपका जन्म हुआ। नृसिंहधर की पत्नी माता विद्यावती देवी एक दिन मन्दिर में पूजा करने गयीं तो मन्दिर के दरवाजे पर एक सरल स्वभाव बालक को देखकर पूछा- 'बेटा कहाँ रहते हो? यहाँ क्यों बैठे हो?' बालक ने कहा-'मुझे प्रसाद चाहिये मालकिन।' विद्यावती ने कहा-'ठीक है। पूजा कर लूँगी तब प्रसाद दूँगी। यहीं बैठे रहना। जाना मत।' पूजा समाप्त कर विद्यावती बाहर आयीं तो देखा कि बालक गायब है। इधर-उधर दूर तक दृष्टि दौड़ाने पर भी बालक का कहीं पता नहीं चला। दूसरे दिन नि:संतान विद्यावती स्वप्न में देखा कि एक सफेद हाथी उनके शरीर में प्रवेश कर गया। पति नृसिंहधर ने यह स्वप्न सुनकर कहा-'यह तो शुभ सङ्केत है। इस अनहोनी घटना के लिये हमें प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।' दो माह बाद विद्यावती ने गर्भ धारण किया। तब से उन्हें स्वप्न में प्राय: शंकर जी के दर्शन हुआ करते थे।

जन्म के छठें दिन अशौच स्नान के बाद विद्यावती नवजात शिशु को लेकर मन्दिर में आयीं और बाहर बरामदे में शिशु को लिटाकर अन्दर पूजा करने लगीं। पूजा के अन्त में उन्होंने देखा कि शिवलिङ्ग से एक ज्वाला निकलकर मन्दिर को चमत्कृत करती हुई बालक के अन्दर समाविष्ट हो गयी। यह दृश्य देखकर विद्यावती का कलेजा सूख गया। उन्होंने बच्चे को उठाकर गले लगा लिया और चूमने लगी। साँवले रंग और बड़ी-बड़ी आँखों वाला शिशु उन्हें दीर्घकाय दिखायी दिया। लगता था कि वह विद्यावती से कुछ गोपनीय बात कहने वाला हो। वंशपरम्परा को ध्यान में रखते हुए बालक का नाम शिवराम तैलङ्गधर रखा गया। शिवराम तैलङ्गधर ही आगे चलकर तैलंग स्वामी हुए। इनका एक सौतेला भाई श्रीधर भी था।

सन् १६४७में श्री नृसिंहधर का देहान्त हो गया और सन् १६५७ में माता विद्यावती भी चल बसी। माँ की चिता को अग्नि देने के बाद शिवराम वहीं श्मशान में बैठ गये और घर नहीं गये। श्रीधर वहीं श्मशान में फल फूल भोजन आदि लाकर शिवराम को देता। शिवराम श्मशान में कभी बैठे रहते कभी सो जाते। बरसात में श्रीधर ने शिवराम के लिये एक कुटिया बना दी। कालान्तर में शिवराम की कुटिया में भगीरथ स्वामी नाम के एक सन्यासी आये और एक महीने तक श्मशान में साथ-साथ रहने के बाद शिवराम भगीरथ स्वामी के साथ पुष्कर चले गये जहाँ कभी विश्वामित्र ऋषि ने तपस्या की थी। सन् १६८५ ई. में भगीरथ स्वामी ने शिवराम की दीक्षा कर उन्हें बीज मन्त्र का उपदेश दिया और परम्परानुसार उनका नया नाम गणपति स्वामी रख दिया। सन् १६९५ में भगीरथ स्वामी कहीं चले गये और सन् १६९७ में गणपति स्वामी रामेश्वरम् पहुँचे। यहाँ पर उन्होंने एक मृतव्यक्ति के ऊपर अपने कमण्डलु से जल छिड़क कर उसे पुनरुज्जीवित कर दिया। यह उनके जीवन की उनके द्वारा की गयी पहली चमत्कारिक घटना थी।

सन् १७०१ ई. में स्वामी जी हिमालय के क्षेत्र में प्रवेश करते हुए आगे बढ़ गये। एक जंगल में अपनी मनपसन्द जगह देखकर वे वहाँ समाधि में बैठ गये। यह स्थान नेपाल राज्य के अधीन था। वहाँ उस जंगल में एक गुफा थी। स्वामी जी कभी गुफा के बाहर रहते कभी अन्दर। एक बार नेपाल नरेश अपने सैनिकों और सेनापति के साथ शिकार खेलने निकले। सेनापति ने एक बाघ पर गोली चलायी। गोली लगते ही वह बाघ आगे भाग गया। बाघ का पीछा करते हुए सेनापति स्वामी जी की गुफा के पास आये तो देखा कि बाघ स्वामी जी के पैरों के पास लेटा है और स्वामी जी उसकी पीठ पर हाथ फेर रहे हैं। घायल बाघ स्वभावत: पागल होकर अत्यन्त क्रूर और हिंसक हो जाता है किन्तु सेनापति ने देखा कि वह स्वामी जी के पास भीगी बिल्ली की तरह सो रहा है।

सेनापति के साथ सभी लोग प्रणाम कर स्वामी जी के पास खड़े हो गये। स्वामी जी ने कहा -'हिंसा से प्रतिहिंसा जन्म लेती है। मैं हिंसक नहीं हूँ। इसलिये यह मेरे पास आ कर अहिंसक हो गया। जब तुम किसी को जीवन-दान नहीं दे सकते तो किसी का जीवन लेने का भी अधिकार तुम्हें नहीं है।' नेपाल नरेश ने जब गणपति स्वामी के बारे में सुना तो ढेर सारे हीरे जवाहरात लेकर स्वामी जी के दर्शन के लिए पहुँचे। स्वामी जी ने कहा-'मुझे इन सब की आवश्यकता नहीं है। इन्हें गरीबों में बाँट दो।' इसके बाद शंका समाधान सहित अनेक उपदेश देकर स्वामी जी ने राजा को सन्तुष्ट किया। अपना प्रचार बढ़ता देख स्वामी जी परेशान हो गये और एक दिन चुपचाप उत्तर की ओर बढ़ गये।

बिन्दुसर झील को पार कर वे एक ऐसी घाटी में पहँुचे जो तीन ओर से पहाड़ी से घिरी थी। उस घाटी की तलहटी में अनेक गोल पत्थर बिछे हुए थे। एक गुफा के द्वार पर खड़े एक संन्यासी ने गणपति स्वामी को पुकारा। उस संन्यासी के संकेत पर गुफा के अन्दर संन्यासी के पीछे-पीछे चलकर कुछ दूर जाने के बाद उन्होंने देखा कि दायीं ओर पत्थरों पर विशाल लम्बी जटावाली चार मूर्तियाँ बैठी हुई हैं। संन्यासी ने गणपति स्वामी को बतलाया कि वह वहाँ दो सौ वर्षों से रह कर उन महात्माओं की सेवा कर रहे हैं। 'ये तपस्वी यहाँ कितने दिनों से हैं?' - ऐसा पूछे जाने पर संन्यासी ने कहा- 'यह मैं नहीं जानता। शायद सहस्रों वर्षों से यहाँ हैं।' गणपति स्वामी ९ वर्षों तक वहाँ रहकर उन तपस्वियों की सेवा करते रहे और अन्त में एक दिन उनका आशीर्वाद प्राप्त कर मानसरोवर की ओर प्रस्थान कर गये। मानसरोवर में साधना करते हुए इनकी भेंट बंगाल के सिद्ध महात्मा लोकनाथ ब्रह्मचारी से हुई थी। साधना के बाद हिमालय से नीचे उतरते हुए एक दिन उन्होंने विधवा के एकमात्र मृतपुत्र को गुरुदेव भगीरथ स्वामी का स्मरण कर पुन: जीवन दान दिया। इसके बाद ११९ वर्ष की उम्र पूरी करने के समय सन् १७८६ में वे नर्मदा के किनारे मार्कण्डेय ऋषि के आश्रम में दिखायी दिये।

मार्कण्डेय आश्रम के गुरु खाकी बाबा थे। उस आश्रम में बहुत से सन्त थे जो गणपति स्वामी को साधारण साधु समझते थे। एक दिन की घटना का वर्णन करते हुए खाकी बाबा ने कहा- 'कल जब रात्रि के अन्तिम प्रहर में मैं स्नान और साधना करने के लिए नर्मदा के किनारे पहुँचा तो देखा कि दूध की नदी बह रही है। मुझे लगा कि मैं भ्रम में हूँ। पास जाने पर देखा कि नर्मदा का पूरा जल दूध बन गया है और गणपति स्वामी अंजली भर-भर कर दूध पी रहे हैं। मेरे नदी में हाथ डालते ही सारा दूध पानी हो गया। फिर देखा कि गणपति स्वामी नदी तट से ऊपर आ रहे हैं। समझते देर नहीं लगी कि तान्त्रिक प्रक्रिया के द्वारा उन्होंने ऐसा चमत्कार किया था। उच्चतम स्तर के योगी ही ऐसी विभूति का प्रदर्शन कर सकते हैं। इस घटना के सम्बन्ध में पूछने पर स्वामी जी हँस कर उत्तर देना टाल दिये। फिर स्वामी जी ने वहाँ के सन्तों को षट्चक्र साधना के विषय में विस्तार के साथ समझाया। चक्रों के नाम, उनमें रहने वाले कमलदलों की संख्या, उन चक्रों में 'अ' से लेकर 'क्ष' तक के ५० वर्णों की स्थिति समझायी। तत्पश्चात् बिन्दु, अर्धचन्द्र, रोधिनी, नाद आदि की विस्तृत व्याख्या उन्होंने की। एक दिन वहाँ से चुपचाप चलकर वे प्रयाग आ गये और एक निर्जन स्थान में आसीन होकर योगाभ्यास करने लगे। इसी क्रम में एक दिन स्वामी जी ने आँधी तूफान और भयंकर वर्षा के कारण डूबती हुई एक नौका को यात्रियों सहित बचा लिया।

अवधपतन के बाद इलाहाबाद में गृहयुद्ध शुरू हो गया और स्वामी जी काशी चले आये। यहाँ आकर गणपति स्वामी लोगों के बीच तैलङ्गस्वामी के नाम से प्रसिद्ध हुए। ये काशी में भदैनी के पास तुलसी वन में रहते थे। यहाँ उन्होंने लोलार्ककुण्ड में रहने वाले ब्रह्मासिंह नामक कुष्ठ रोगी को रोगमुक्त किया। हरिश्चन्द्र घाट पर एक नि:सन्तान विधवा ब्राह्मणी के मृतपति को जीवनदान दिया। अब स्वामी जी तुलसीवन से हटकर दशाश्वमेध घाट पर रहने लगे। यहाँ भी आर्त्त लोगों ने उन्हें तंग करना शुरू किया। एक क्रूर आदमी की इच्छा स्वामी जी ने जब पूरी नहीं की तब उसने स्वामी जी को तड़पा कर मारने के लिए एक हँड़िया चूना का घोल लेकर स्वामी जी के पास आया और कहा-'स्वामी जी मैं यह भैंस का गाढ़ा दूध ले आया हूँ इसे ग्रहण करें। उसके उद्देश्य को समझकर स्वामी जी पूरा घोल पी गये। वह आदमी घर जाकर छटपटाने लगा। इधर स्वामी जी ने थोड़ी देर बाद पेशाब की और सारा घोल अपने मूल रूप में बह गया। वह भागा-भागा स्वामी जी के पास आया और क्षमा माँगने लगा। करुणामय स्वामी जी ने उसे क्षमा कर दिया।

मुगलों का शासन समाप्त हो गया फलत: काशी का जिलाधीश एक अंग्रेज नियुक्त किया गया था। उसने स्वामी जी को नंगे न रहकर कपड़े पहनने को कहा। स्वामी जी ने उसकी बात अनसुनी कर दी तो उसने स्वामी जी को जेल में बन्द करने का आदेश दिया। पुलिस ज्यों ही स्वामी जी को पकड़ने के लिये आयी वे गायब हो गये। एक बंगाली सज्जन ने जिलाधीश को स्वामी जी की योगविभूति के विषय में बतलाया और जिलाधीश ने प्रत्यक्ष उनका ऐश्वर्य देखा तो उसने स्वामी जी पर प्रतिबन्ध न लगाने का आदेश जारी कर दिया।

सन् १७८८ में किसी रियासत के राजा दशाश्वमेध घाट पर स्नान के लिये आये। रानी और उनकी सेविकाओं के लिये घाट तक पर्दा की व्यवस्था हुई। जब स्नान कर राजा और रानी वापस आने लगे तो पर्दा से घिरे अपने मार्ग में एक नंगे आदमी को देखकर राजा बौखला गया। उसने सैनिकों से कहा-'इसे गिरफ्तार कर कोठी में ले आओ'। तैलङ्ग स्वामी की गिरफ्तारी सुनकर काशी का जनसमूह उमड़ पड़ा। भीड़ देखकर राजा ने कहा-'इस आदमी को कोठी से बाहर कर दो। यह फिर कोठी में न घुसने पाये।' उसी रात राजा जोर की चीख मारकर चारपायी से नीचे लुढ़क गया। उसके मुख से झाग निकलने लगा। उसने स्वप्न में शंकर जी को देखा और उनकी आज्ञा सुनी-'तैलङ्ग स्वामी से जाकर माँफी माँगो।' राजा स्वामी जी के पास पहुँच कर उनके पैरों पर गिर पड़ा और रोने लगा। स्वामी जी ने उसे क्षमा कर दिया।

सन् १८१० ई. में स्वामी जी दशाश्वमेध छोड़कर पञ्चगंगा घाट पर आ गये। स्वामी रामकृष्ण परमहंस से जब उनकी यहाँ भेंट हुई तो दोनों सन्त ऐसे लिपट गये जैसे राम और भरत। परमहंस जी ने शिष्यों से कहा-एक पूर्ण कालीभक्त के जितने लक्षण होते हैं मैंने तैलङ्गस्वामी के शरीर में उन सब लक्षणों को देखा है। पिछले ३०० वर्षों में ऐसा कोई महात्मा नहीं हुआ।

सन् १८८० में एक बार काशीनरेश के पास उज्जैननरेश आये। काशीनरेश ने उनसे स्वामी जी की चर्चा की। दर्शन के लिये दोनों राजा रामनगर से बजरा से चलकर बिन्दुमाधव के धरहरा के पास आकर रुके। काशीनरेश ने मल्लाहों को नाव किनारे लगाने को कहा और देखा कि तैलङ्ग स्वामी उड़ कर बजरे पर आ बैठे। स्वामी जी ने उज्जैननरेश से कहा-'कहिये राजन्! मुझसे क्या पूछना चाहते हैं?' उज्जैन नरेश ने अनेक प्रश्न किये। स्वामी जी ने सब प्रश्नों का सन्तोषप्रद उत्तर दिया। स्वामी जी जानते थे कि राजाओं की ज्ञानपिपासा श्मशानवैराग्य की तरह क्षणिक होती है। सहसा स्वामी जी ने काशीनरेश के हाथ से तलवार ले ली और उसे उलट पुलट कर देखने के बाद गंगा जी में फेंक दिया। इस पर दोनों राजा कुपित हो गये। काशीनरेश ने स्वामी जी से कहा--'जब तक तलवार नहीं मिलती आप यहीं बैठे रहिये।' काशीनरेश स्वामी जी को बन्दी बनाकर रामनगर ले जाना चाहते थे। स्वामी जी ने गंगा जी में हाथ डाला और एक जैसी दो तलवारें निकालकर राजा से कहा-'इनमें से जो तुम्हारी है वह ले लो।' दोनों राजा लज्जित और किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गये।स्वामी जी ने उनकी तलवार उनके हाथ में देते हुए कहा कि जब तुम अपनी वस्तु पहचान नहीं सकते तब यह कैसे कहते हो कि यह तुम्हारी है। इतना कह कर वे नदी में कूद गये। राजा ने शाम तक प्रतीक्षा की कि तैलङ्ग स्वामी ऊपर आयें तो उनसे क्षमा मांगे। अन्त में हार कर नदी के माध्यम से क्षमा माँगी और प्रणाम कर रामनगर चले गये।

काशी में ही तैलङ्ग स्वामी की भेंट योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी जी से हुई। स्वामी भास्करानन्द भी तैलङ्ग स्वामी के समकालीन तथा उच्चकोटि के साधक थे। स्वामी विद्यानन्द जी तैलङ्ग स्वामी को सचल शिव कहा करते थे। बंगाल के महासन्त अन्नदा ठाकुर भी तैलङ्ग स्वामी के सम्मान्य थे। तैलङ्ग स्वामी ने अपने काशीनिवास के समय ही सोनारपुरा में रहने वाले श्री रामकमल चटर्जी के एकमात्र पुत्र के असाध्य रोग को दूर किया था। एक बार स्वामी जी शिवाला की ओर गये तो क्रीं कुण्ड पर बाबा कीनाराम से उनकी भेंट हो गयी। यह सन् १८७० की घटना है। दोनों सन्त वहाँ शराब पीने लगे। कीनाराम जी ने स्वामी जी को खूब शराब पिलायी। जब तैलङ्ग स्वामी जाने लगे तो कीनाराम ने उनके पीछे अपने एक शिष्य को लगा दिया ताकि यदि स्वामी जी कहीं लड़खड़ायें तो वह उन्हें सँभाल ले। शिष्य ने बाहर निकल कर देखा तो स्वामी जी का कहीं पता नहीं था। लोगों से पूछने पर पता चला कि स्वामी जी गंगाजी की ओर अस्सी घाट पर गये हैं। शिष्य ने घाट पर जाकर देखा तो स्वामी जी बीच धारा में पद्मासन लगा कर बैठे हैं।

विजयकृष्ण गोस्वामी भी तैलङ्ग स्वामी के कृपापात्र एवं शिष्य जैसे थे। स्वामी जी के शिष्यों की संख्या २० के आस-पास थी। अधिकतर शिष्य बंगाली थे। सबसे प्रमुख शिष्य थे-उमाचरण मुखोपाध्याय। स्वामी जी ने कड़ी परीक्षा के बाद उन्हें शिष्य बनाया था। स्वामी जी की कृपा से उमाचरण जी को काली का प्रत्यक्ष दर्शन हुआ था। इसके अतिरिक्त स्वामी जी ने उन्हें अन्य बहुत सारे चमत्कार दिखाये थे।

समाधि लेने के पूर्व स्वामी जी ने शिष्यों को निर्देश दिया था-'मेरे नाप का एक बाक्स बनवा लेना ताकि मैं उसमें लेट सकूँ। बाक्स में मुझे लिटा कर उसे स्क्रू से कस देना और ताला लगा देना। पञ्चगंगाघाट के किनारे अमुक स्थान में मुझे गिरा देना।'

उनके निर्देशानुसार पौष शुक्ल ११ सन् १८८७ में उन्हें जलसमाधि दे दी गयी।

उनके मुख्य उपदेश निम्नलिखित हैं -
मनुष्य को चाहिये कि वह सन्तोष, जिह्वा का संयम, अनालस्य, सर्वधर्म का आदर, दरिद्र को दान, सत्संग, शास्त्रों का अध्ययन और उनके अनुसार अनुष्ठान करे।

अहिंसा, आत्मचिन्तन, अनभिमान, ममता का अभाव, मधुर भाषण, आत्मसंयम, उचित गुरु का चयन, उनके उपदेश का पालन और वाक् संयम मनुष्य को आध्यात्मिक उत्कर्ष पर ले जाते हैं।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....मनीष

12 comments:

  1. TAILANG SWAMI WAS NOT ONLY A YOGI. HE WAS AVATAR OF LORD SHIVA

    VIPUL

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    1. Telang swami and all other great saint yogis never died they transform himself some other spot .. way.. parkaya pravesh.. long tapsya .. diversified roale spot .. himself a king also. ..M S RATHOREprince of Bhamolao

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    2. राठौर जी हार्दिक धन्यवाद आपकी टिप्पणि बहुमूल्य हैं,अपने भाव प्रकट करने का बहुत बहुत आभार...

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  3. Telang swami is only disapear he is living legand he never died he only recive jal samadhi ..... . He never accept to funeral . . He appeare d in some other area this is his style .jai Tailang swami . ????? In1887. As of over 300 years date of birth 1529 year....M S RATHORE

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    1. प्रिय राठौर जी... मैंने आर्टिकल लिखा है लिखने के लिये इतिहास की जरूरत होती है ओर रहीं परमात्मा ओर भक्ति की बात तो परमात्मा शुद्ध चेतन तत्व है, और मन-बुद्धि की पहुँच से परे है क्योंकि मन व बुद्धि जङ है, तथा आत्मा की चेतना से सक्रिय होती है । अतः किसी जड़ तत्व की पहुँच चेतन तत्व तक नही हो सकती, उससे सम्बन्ध स्थापित होना तो दूर की बात है । जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है, और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....

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  4. ishawar hai iski paryay hamare uchhkoti ke sant prabhu ke awatar roop matahtma hai jo logo ko iska vishwas apne sansarik jivan ke madhyam se dilate hai lahadi ji ko pada yoganand ji ko pada aaj talang swami ji ko pada we awshya himalaya me kahihonge

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    1. आपकी टिप्पणि हमारे लिए बहुमूल्य हैं,अपने भाव प्रकट करने का बहुत बहुत आभार.

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  5. मैं एक साधक हूं। तैलंग स्वामी महाराज की आत्मकथा कहां से मिल सकती कृपया कोई बताने का कष्ट करें। मेरा फोन नम्बर है: 9892546789 मुंंबई.

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  6. Can anyone help me get Biography of great saint Tailang Swami and other great saints either in English or Hindi. I am passionate about reading biographies of our great self-realized Indian Saints.

    Janak Kaviratna
    Mumba
    MOB: 9892546789

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    1. जनक जी हार्दिक धन्यवाद आपकी टिप्पणि बहुमूल्य हैं,अपने भाव प्रकट करने का बहुत बहुत आभार...अभी हम व्यस्त है शीघ्र आपकी जिज्ञासा को शांत करने का प्रयास करेगे...

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