Wednesday, January 12, 2011

Yoga(योग)

योग क्या है ?
भारत के वैदिक, बौद्ध और जैन मुख्य दर्शन हैं। ये तीनों आत्मा, पुण्य-पाप, परलोक और मोक्ष इन तत्वों को मानते है, इसलिये ये आस्तिक-दर्शन हैं। योग शब्द युज् धातु से बना है। संस्कृत में युज् धातु दो हैं। एक का अर्थ है जोड़ना और दुसरे का है समाधि । इनमें से जोड़ने के अर्थ वाले युज् धातु को योगार्थ में स्वीकार किया है।
अर्थात् जिन-जिन साधनों से आत्मा की शुद्धि और मोक्ष का योग होता है, उन सब साधनों को योग कह सकते हैं। पातंजलि-योगदर्शन में योग का लक्षण योगश्चित्तवृत्ति-निरोधः कहा है। मन, वचन, शरीर आदि को संयत करने वाला धर्म-व्यापार ही योग है, क्योंकि यही आत्मा को उसके साध्य मोक्ष के साथ जोड़ता है।

जिस समय मनुष्य सब चिन्ताओं का परित्याग कर देता है, उस समय, उसके मन की उस लय-अवस्था को लय-योग कहते हैं। अर्थात् चित्त की सभी वृत्तियों को रोकने का नाम योग है। वासना और कामना से लिप्त चित को वृत्ति कहा है। इस वृत्ति का प्रवाह जाग्रत , स्वप्न, सुषुप्ति-इन तीनों अवस्थाओं में मनुष्य के हृदय पर प्रवाहित होता रहता है। चित्त सदा-सर्वदा ही अपनी स्वाभाविक अवस्था को पुनः प्राप्त करने के लिये प्रयत्न करता रहता है, किन्तु इन्द्रियाँ उसे बाहर आकर्षित कर लेती हैं। उसको रोकना एवं उसकी बाहर निकलने की प्रवृत्ति को निवृत करके उसे पीछे घुमाकर चिद्-घन पुरूष के पास पहुँचने के पथ में ले जाने का नाम ही योग है। हम अपने हृदयस्थ चैतन्य-घन पुरूष को क्यों नहीं देख पाते? कारण यही है कि हमारा चित्त हिंसा आदि पापों से मैला और आशादि वृत्तियों से आन्दोलित हो रहा है। यम-नियम आदि की साधना से चित्त का मैल छुड़ाकर चित्त वृत्ति को रोकने का नाम योग है।

अष्टांग योग
योग के आठ अंग है। आठ अंगों वाले योग को शास्त्रों में अष्टांगयोग के नाम से जाना जाता है। साधक को उन्हीं आठ अंगों को साधना होता है। साधना का अर्थ है- अभ्यास। योग के आठ अंग इस प्रकार है-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। योग की साधना करना अर्थात् पूर्ण मनुष्य बनकर स्वरूप- ज्ञान प्राप्त करना हो तो योग के इन आठ अंगों की साधना यानि अभ्यास करना चाहिये।

योग में विशेष सावधानी
साधना में सबसे पहले निम्नलिखित कुछ बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिये- नित्य नियमित रूप से एक ही स्थान पर साधना करनी चाहिये। ऐसा करने से उस स्थान पर एक प्रकार की शक्ति पैदा हो जाती है। क्योंकि जब कभी भी मन चंचल होता है, तब उस स्थान पर पहुँचते ही मन शांत हो जाता है, तथा एक प्रकार की आनन्दावस्था अपने आप ही प्राप्त होती है। जिस स्थान पर साधना की जाये, वह स्थान विशेष हवादार, साफ-सुथरा और शुद्ध होना चाहिये। उस स्थान को नित्य अपने ही हाथों साफ करना चाहिये। दूसरे आदमी से सफाई आदि नहीं करानी चाहिये। क्योंकि इससे आपकी शक्ति का कुछ अंश चला जाता है, जिससे उस आदमी को तो कुछ फायदा मिलता है, मगर साधक उतने अंश में शक्ति हीन हो जाता है। जिस आसन (जैसे कम्बलासन, कुशासन, व्याघ्रासन आदि) पर बैठ कर स्वयं साधना की जाये, उस आसन को कोई दूसरा व्यक्ति इस्तेमाल ना करे। इस बात पर भी ध्यान रखना चाहिये कि जिन कपड़ों को साधक इस्तेमाल करे उन को ओर कोई प्रयोग ना करे। साधक को मिट्टी के तेल का दीपक, मोमबत्ती आदि का प्रयोग नहीं करना चाहिये। शुद्ध भाव से साधना करने पर कुछ महीने बाद ही साधक स्वयं महापुरुषों तथा देवी-देवताओं की अनुकम्पा का अनुभव करने लगेगा। साधना करने स पहले साधक को स्नान करके अथवा हाथ-पैर धोकर, साफ कपड़े पहनकर साधना करनी चाहिये। साधक को तामसिक भोजन का प्रयोग नहीं करना चाहिये।

Yam (यम)
अष्टांग योग का पहला चरण
यम- अष्टांग योग की आठ अवस्थाएं हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। पहली अवस्था है- यम। ईश्वर को प्राप्त करने का एक रास्ता योग है। इस मार्ग से ईश्वर तक पहुंचने वाले महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग सिद्धांत का पालन करते हैं। यह सिद्धांत बताता है कि हम योग की आठ अवस्थाओं से गुजर कर ही ईश्वर तक पहुंच सकते हैं। इसकी पहली अवस्था है- यम।यम का मतलब शांतियम का अर्थ है शांति। योग करने वाले के चारों तरफ अर्थात अंदर और बाहर शांति का वातावरण होना चाहिए। हमारे जीवन में शांति कैसे आए इसके लिए यम का पालन जरूरी है। यम के पालन में पांच बातों का ध्यान रखा जाता है। पंतजलि ने कहा है- अहिंसासत्यास्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा:। - योगसूत्र २/३०अर्थात-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह ही यम है। इन पांच बातों को जीवन में उतार कर ही हम योग की पहली सीढ़ी चढ़ते हैं।यम के पांच नियमअहिंसा- इसका अर्थ है हमारे मन, वचन या कर्म से किसी भी प्राणी को कोई कष्ट न हो। मन में किसी को दु:ख पहुंचाने का विचार तक नहीं आए। अपने आप पर भी कोई ज्यादती न करें। जो व्यक्ति अहिंसा का इस तरह पालन करता है, उसके विरोधी लोग भी विरोध नहीं कर पाते। अहिंसा का व्रत हमारे जीवन में बदलाव लाता है। समाज में हमें विशेष सम्मान दिलाता है। सत्य- इसका अर्थ है हम कपट से और धोखा देने की नीयत से कोई बात न कहें। जो बात जैसी है उसे उसी तरह कहना सत्य है। हम आत्मा को सत्य मानें और ईश्वर की खोज करें। जब यह सत्य हमारे जीवन में उतरता है तो उसके लाभ मिलते ही हैं।अस्तेय- अर्थात चोरी नहीं करना। हमें दूसरे का धन हड़पने का विचार भी नहीं करना चाहिए। चोरी, ठगी, धोखाधड़ी और अन्य किसी गलत तरीके से दूसरे के धन, वस्तु या अन्य किसी चीज को हथियाना अपराध है। हमें इस बुराई से बचना चाहिए। अस्तेय का पालन हमें सद्चरित्र बनाता है।ब्रह्मचर्य- इसका मतलब है इंद्रियों का संयम। हमारा भोजन, विचार, व्यवहार सभी कुछ युक्तियुक्त होना चाहिए। जो संयम से नहीं रहता वह बलहीन हो जाता है, उसमें आत्मविश्वास नहीं रहता। जो ब्रह्मïचर्य का पालन करते हैं उन्हें अक्षुण्ण बल की प्राप्ति होती है। स्वस्थ, निरोग और प्रसन्न व्यक्ति ही किसी भी कार्य को सफल करने के लिए योग्य होता है। अपरिग्रह- इसका अर्थ है हम बिना आवश्यकता के वस्तुओं का संग्रह न करें। जब हम वस्तुएं इकट्ठा करते हैं तो उनकी वृद्धि, रक्षा और दिखावे में हमारा मन लग जाता है। तब हम मन को एकाग्र नहीं कर पाते। मन की शांति के लिए वस्तुओं से अनावश्यक मोह न रखना, आलस्य, संशय, प्रमाद का त्याग जरूरी है। मन यदि इस बाहरी दिखावे से हट जाए तो फिर हम मनुष्य जन्म की सफलता के बारे में सोच सकते हैं।शांति से सफलताउक्त पांच तत्वों के संकल्प से हमारे जीवन में शांति का अनुभव होता है। शांति का मतलब खामोशी नहीं है। शांति का मतलब है सुख-संतुष्टि, मन में किसी प्रकार का कोई दु:ख, क्षोभ या तनाव नहीं रहना। जब हम अंदर से इस तरह शांत होते हैं तो हमारा वातावरण भी इसी में ढलने लगता है। यदि हम इस तरह शांत चित्त होकर कोई कार्य करते हैं तो उसकी सफलता की संभावना बहुत अधिक बढ़ जाती है। जब मन में और आस-पास के वातावरण में शांति हो तभी हम योग की साधना की पहली मंजिल यम पर पहुंचते हैं।

योग की पहली पायदान है यम
अष्टांग योग की आठ अवस्थाएं हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। पहली अवस्था है- यम। ईश्वर को प्राप्त करने का एक रास्ता योग है। इस मार्ग से ईश्वर तक पहुंचने वाले महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग सिद्धांत का पालन करते हैं। यह सिद्धांत बताता है कि हम योग की आठ अवस्थाओं से गुजर कर ही ईश्वर तक पहुंच सकते हैं। इसकी पहली अवस्था है- यम।

यम का मतलब शांति
यम का अर्थ है शांति। योग करने वाले के चारों तरफ अर्थात अंदर और बाहर शांति का वातावरण होना चाहिए। हमारे जीवन में शांति कैसे आए इसके लिए यम का पालन जरूरी है। यम के पालन में पांच बातों का ध्यान रखा जाता है। पंतजलि ने कहा है-

अहिंसासत्यास्तेय ब्रम्हचर्यापरिग्रहा यमा:। - योगसूत्र २/३क्

अर्थात-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रम्हचर्य , अपरिग्रह ही यम है। इन पांच बातों को जीवन में उतार कर ही हम योग की पहली सीढ़ी चढ़ते हैं।

यम के पांच नियम
अहिंसा- इसका अर्थ है हमारे मन, वचन या कर्म से किसी भी प्राणी को कोई कष्ट न हो। मन में किसी को दु:ख पहुंचाने का विचार तक नहीं आए। अपने आप पर भी कोई ज्यादती न करें। जो व्यक्ति अहिंसा का इस तरह पालन करता है, उसके विरोधी लोग भी विरोध नहीं कर पाते। अहिंसा का व्रत हमारे जीवन में बदलाव लाता है। समाज में हमें विशेष सम्मान दिलाता है।

सत्य का साथ दें
इसका अर्थ है हम कपट से और धोखा देने की नीयत से कोई बात न कहें। जो बात जैसी है उसे उसी तरह कहना सत्य है। हम आत्मा को सत्य मानें और ईश्वर की खोज करें। जब यह सत्य हमारे जीवन में उतरता है तो उसके लाभ मिलते ही हैं।
अस्तेय : भ्रष्टाचार से दूर रहें
अर्थात चोरी नहीं करना। हमें दूसरे का धन हड़पने का विचार भी नहीं करना चाहिए। चोरी, ठगी, धोखाधड़ी और अन्य किसी गलत तरीके से दूसरे के धन, वस्तु या अन्य किसी चीज को हथियाना अपराध है। हमें इस बुराई से बचना चाहिए। अस्तेय का पालन हमें सद्चरित्र बनाता है।
ब्रम्हचर्य : संयम से रहें
इसका मतलब है इंद्रियों का संयम। हमारा भोजन, विचार, व्यवहार सभी कुछ युक्तियुक्त होना चाहिए। जो संयम से नहीं रहता वह बलहीन हो जाता है, उसमें आत्मविश्वास नहीं रहता। जो ब्रम्हचर्य का पालन करते हैं उन्हें अक्षुण्ण बल की प्राप्ति होती है। स्वस्थ, निरोग और प्रसन्न व्यक्ति ही किसी भी कार्य को सफल करने के लिए योग्य होता है।
अपरिग्रह: संग्रह की प्रवृत्ति छोड़ें इसका अर्थ है हम बिना आवश्यकता के वस्तुओं का संग्रह न करें। जब हम वस्तुएं इकट्ठा करते हैं तो उनकी वृद्धि, रक्षा और दिखावे में हमारा मन लग जाता है। तब हम मन को एकाग्र नहीं कर पाते। मन की शांति के लिए वस्तुओं से अनावश्यक मोह न रखना, आलस्य, संशय, प्रमाद का त्याग जरूरी है। मन यदि इस बाहरी दिखावे से हट जाए तो फिर हम मनुष्य जन्म की सफलता के बारे में सोच सकते हैं।

शांति से सफलता
यम के पांच तत्वों के संकल्प से हमारे जीवन में शांति का अनुभव होता है। शांति का मतलब खामोशी नहीं है। शांति का मतलब है सुख-संतुष्टि, मन में किसी प्रकार का कोई दु:ख, क्षोभ या तनाव नहीं रहना। जब हम अंदर से इस तरह शांत होते हैं तो हमारा वातावरण भी इसी में ढलने लगता है। यदि हम इस तरह शांत चित्त होकर कोई कार्य करते हैं तो उसकी सफलता की संभावना बहुत अधिक बढ़ जाती है। जब मन में और आस-पास के वातावरण में शांति हो तभी हम योग की साधना की पहली मंजिल यम पर पहुंचते हैं।

क्या आप पूर्ण स्वस्थ हैं ?
पूर्ण स्वस्थ इंसान की पहचान क्या है? क्या शरीर से मोटा होना ही अच्छे स्वास्थ्य की पहचान है? कहा जाता है कि कलयुग में वही इंसान सुखी है जिसके पास ये तीन चीजें हैं:-
- पर्याप्त धन
- स्वस्थ शरीर
- आज्ञाकारी पत्नी व संतान
उपरोक्त कसौटियों से यह सिद्ध है कि उत्तम स्वास्थ्य का होना सुखी इंसान की अनिवार्य योग्यता है। अनुभव के आधार पर यह सभी जानते हैं कि स्वास्थ्य दवाओं पर नहीं बल्कि उचित आहार-विहार पर निर्भर होता है। तभी तो आज दुनिया भर में भारतीय योग विज्ञान और आयुर्वेद को आग्रह पूर्वक अपनाया जा रहा है। क्योंकि योग में है हजारों वर्षों के रिसर्च का निचोड़ । योग आपको उत्तम स्वास्थ्य का सुनिश्चित भरोसा दिलाता है, क्योंकि यह रोग के सिम्टम्स को नहीं बल्कि शरीर के सिस्टम को ही दुरुस्त करता है। आयुर्वेद और योग में स्वस्थ इंसान की पहचान करने के निम्र सूत्र दिये हैं। इन सूत्रों के आधार पर आप भी जान सकते हैं कि आपके स्वास्थ्य का स्तर क्या है? तो आइये जाने:-
- स्वस्थ इंसान को दोनों समय खुलकर भूख लगती है।
- स्वस्थ इंसान को बिस्तर पर जाते ही जल्दी और गहरी नींद आती है।
- स्वस्थ व्यक्ति सुबह जागने पर भरपूर ताजगी और स्फूर्ति का अनुभव करता है।
- स्वस्थ मनुष्य को प्रतिदिन सुबह बिना किसी प्रयास के खुलकर शौच होता है।
- स्वस्थ मनुष्य में गरमी और ठंड सहने की पर्याप्त क्षमता होती है।
- स्वस्थ इंसान शारीरिक श्रम करने पर अत्यधिक थकान महसूस नहीं करता है।
स्वस्थ इंसान की पहचान की इन कसौटियों पर यदि आप खरे नहीं उतरते हैं, तो योग को अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाएं। योग से स्वस्थ होने के लिये योग सम्बंधी लेखों को ध्यान से पढ़ें और अपनी दिनचर्या में योग को शामिल करें। योग सिग्मेंट में कल से आप पाएंगे प्रतिदिन किसी विशेष शारीरिक व मानिसिक समस्या का सटीक और सुनिश्चित योगिक उपाय।

मन अशांत हैं? यह करें...
ऐसा कहा जाता है कि हमारा दिमाग कभी आराम नहीं करता, हमेशा कार्य करता है। यहां तक कि जब हम सोते हैं तब भी हमारा दिमाग सतत सोचते रहता है। ऐसे में कार्य की अधिकता से दिमाग पर प्रेशर बना रहता है। ऐसी स्थिति के चलते कुछ समय बाद हमारा स्वभाव चिढ़चिढ़ा, गुस्सेवाला और अशांत हो जाता है।
योगासन के माध्यम से मन की अशांति दूर की जा सकती है। प्रतिदिन सुबह निम्नलिखित क्रिया करें। लाभ अवश्य प्राप्त होगा।
- किसी शांत और हवादार स्थान पर आसन बिछाकर बैठ जाएं।
- पद्मासन की अवस्था में आ जाएं।
- अब हाथ व अंगूलियों को ज्ञान मुद्रा की स्थिति में रखें।
- फिर पीठ को तान कर रीढ़ को एकदम सीधा करें।
- गर्दन को ढीला छोड़ दें।
- अब गर्दन को एक बार ऊपर-नीचे करें।
- इसके बाद गर्दन को दाएं-बाएं घुमाएं।
उक्त क्रिया को चारों तरफ कम से कम 5-5 बार करें। धीरे-धीरे कुछ दिनों इस क्रिया की अवधि बढ़ाना शुरू करें।
इस क्रिया से आप बहुत जल्द मानसिक तनाव से मुक्त हो जाएंगे। मन को शांति मिलेगी।
किसी को दुख ना देना ही अहिंसा है...
जीवन को सुखी और स्वस्थ बनाने वाले अष्टांग योग का पहला चरण है यम। योगशास्त्र में यम शब्द का अर्थ है समाज के प्रति हमारे कर्तव्य। जिस समाज में हम रहते हैं उसके प्रति हमारे कुछ कर्तव्य बताए गए हैं। इन्हीं कर्तव्यों को यम कहा जाता है।

यम पांच प्रकार के होते हैं-
- अहिंसा
- सत्य
- अस्तेय
- ब्रह्मचर्य
- अपरिग्रह
यम का पहला चरण है अहिंसा। सामन्यत: अहिंसा का मतलब होता है किसी प्रकार की हिंसा ना करना। योग शास्त्र के अनुसार अहिंसा का अर्थ है कि कभी भी किसी को दुख ना देना। जाने-अनजाने भी क्रूरता का मजे लेने के लिए किसी को सताना वर्जित किया गया है।
ऐसी क्रूरता हमें अशांत बनाती है, जिससे हमारा मन ध्यान की ओर नहीं लग पाता। अत: योगशास्त्र में किसी को दुखी ना करने की बात सबसे जरूरी बताई गई है।

अधिक बचत क्यों ना करें?
अष्टांग योग के आठ चरण बताए गए हैं। इन सभी चरणों को पूर्ण करने पर साधक की कुंडलिनी जागृत हो जाती है। इन चरणों में पहला है यम।
यम के भी पांच चरण बताए गए हैं। इसमें पंचम चरण है अपरिग्रह।
पांचवां यम अपरिग्रह है अर्थात् आवश्यकता से धन संग्रह नहीं करना चाहिए। योगशास्त्र के अनुसार सामान्य आवश्यकता से अधिक साधनों का संग्रह करना या धन की बचत करना चिंताओं को बढ़ाता है। साथ ही अधिक धन बचाने वाला व्यक्ति समाज में ईष्र्या का पात्र भी बनता है। इससे मानसिक शांति छीन जाती है और कई परिस्थितियों में लोगों से दुश्मनी भी हो जाती है।
अष्टांग योग के साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह आवश्यकता से अधिक धन न बचाए, जिससे उसका मन शांत रहे और वह योग साधना में ध्यान लगा सके। साथ ही कई लोग धन और सुविधाओं का त्याग करते हैं और उस त्याग को अपने मन में अहंकार के रूप में याद रखते हैं। यह मानसिक शांति दूर करने वाला होता है।
जबकि अष्टांग योग के साधक को नेकी कर दरिया में डाल कहावत को सार्थक करना चाहिए।

ब्रह्मचर्य पालन मतलब काम पर लगाम
अष्टांग योग की सिद्धियां प्राप्त करने के लिए यह अति आवश्यक है कि यम में बताए गए सभी चरणों का कड़ा पालन करें। यम का चतुर्थ चरण है ब्रह्मचर्य का पालन करना।
अष्टांग योग में यह चरण काफी महत्वपूर्ण है। क्योंकि जो व्यक्ति ब्रह्मचर्य व्रत का पालन नहीं कर पाता वह कुण्डलिनी जागरण की अवस्था तक कतई नहीं पहुंच सकता।
ब्रह्मचर्य का पालन करना सर्वाधिक कठिन माना गया है। काम भाव की उत्पत्ति के संबंध में विद्वानों का कहना है कि विपरित लिंग के आकर्षण की वजह से ही ब्रह्मचर्य व्रत का पालन नहीं हो पाता।
कुण्डलिनी जागरण की अवस्था प्राप्त करने के लिए यह अतिआवश्यक है कि हम हमारे मन में विपरिंग लिंग का स्मरण तक ना लाएं। क्योंकि यदि पुरुष किसी स्त्री का स्मरण काम की दृष्टि से करेगा या स्त्री किसी पुरुष का वैसा ही स्मरण करती है तो ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर पाना असंभव सा ही है।
अष्टांग योग में यह सबसे अहम चरण है इसका पालन करना अति आवश्यक है।

जैसा देखा-सुना है, उसे आगे बढ़ाओं
योग शास्त्र का प्रथम अंग यम है। यम में जीवन जीने के कुछ सूत्र बताए गए हैं। इन सूत्रों पर अमल करने से साधक का जीवन समाज के लिए आर्दश बन जाता है। यम का प्रथम चरण है अहिंसा और दूसरा चरण है सत्य। इसी तरह यम के पांच चरण बताए गए हैं।
यम के द्वितीय चरण सत्य के संबंध में बताया गया है कि जैसा देखा गया है, जिस प्रकार सुना गया है, जैसा हमें समझ आ रहा है, वैसा ही आगे बढ़ाना सत्य है, ठीक वैसा ही अन्य लोगों को बताना ही सत्य है। इसके विपरित किए आचरण को झूठ ही माना जाता है।
सत्य दूसरों के कल्याण की भावना सहित होना चाहिए। इसके अतिरिक्त किए गए कार्य झूठ की तरह ही हैं। साहित्य के अलंकार झूठ होकर भी यदि आधारभूत सत्य को सामने लेकर आए तो वह सत्य के समान ही है। जिस प्रकार पंचतंत्र की कहानियां जंगली जानवरों की बातचीत कल्पना मात्र ही है परंतु वह समाज कल्याण की सीमा में आती है अत: वह भी सत्य के समान ही मानना चाहिए।
जो सत्य घृणा और वैमनस्य फैलाते हैं वह सत्य होकर भी असत्य की तरह ही माने जाने चाहिए।

महाव्रत और सिद्धियां किसे कहते हैं?
योग शास्त्र में जीवन को सुखी बनाने के कई सूत्र बताए गए हैं। इन्हीं सूत्रों में कुछ महाव्रत और सिद्धियां बताई गई हैं।
यह इस प्रकार है-
- अहिंसा के पूर्णत: पालन से हमारा सभी से वैर भाव खत्म हो जाता है। सभी हमारे मित्र बन जाते हैं। शत्रु कोई नहीं रहता।
- सदैव सच बोलने वाले व्यक्ति को वाक् सिद्धि प्राप्त हो जाती है, फिर उसकी बोली हुई हर बात पूरी हो जाती है।
- कभी भी चोरी न करने वाले व्यक्ति को सभी रत्न आदि स्वत: ही प्राप्त हो जाती हैं। बस योगी के मन में कभी भी किसी भी प्रकार की चोरी का विचार तक नहीं आना चाहिए।
- जो साधक ब्रह्मचर्य का पूरा-पूरा पालन करता है वह शक्तिशाली और लंबे समय तक जवान बना रहता है।
- अपरिग्रह का पालन करने वाले साधक को कई जन्मों का ज्ञान हो जाता है।
अच्छे स्वास्थ्य और सुंदर शरीर के लिए टिप्स
फिट रहना कौन नहीं चाहता, सभी अच्छा स्वास्थ्य और सुंदर शरीर पाना चाहते हैं। जो लोग स्वास्थ्य को लेकर सावधान हैं वे कुछ न कुछ फंडे अवश्य अपनाते हैं जिससे उनका शरीर फीट रहता है। कुछ सामान्य टिप्स जिससे आप भी फिट फिगर प्राप्त कर सकते हैं-
- प्रतिदिन सुबह उठने के बाद ज्यादा से ज्यादा 2 घंटे नाश्ता अवश्य करें। नाश्ता में कुछ भी ले सकते हैं जो आपके स्वास्थ्य के ठीक है।
- खाने में रोटी और चावल अलग-अलग समय पर खाएं।
- प्रतिदिन एक केला, सेब और फ्रूट ज्यूस अवश्य लें। दिनभर थोड़ी-थोड़ी देर में फ्रूट आदि खाते रहें।
- ज्यादा मिठाई ना खाएं।
- लंच और डीनर प्रतिदिन समय पर लें।
- तली हुई चीजों से भी दूर रहें।
- प्रतिदिन सुबह उठकर हल्की एक्सरसाइज या व्यायाम अवश्य करें।
- कम से कम 15-20 मिनिट प्रतिदिन ध्यान लगाएं। आंख बंद करके शांत बैठें और मस्तिष्क को आराम दें।
- प्रतिदिन सुबह या शाम को लॉन्ग वॉक पर जाएं।
- चटपटे खाने और मैदे से बनी खाने की चीजों से दूर रहें।
- खाने पहले सलाद अवश्य खाएं।
- खाने के बाद छाछ पीएं।
- रात का खाना सोने से कम से कम 2 घंटे पहले खा लें।
- खाने के तुरंत बाद कभी न सोएं।
- कुछ ना कुछ शारीरिक कार्य अवश्य करते रहें। जैसे डांस, वॉक, एक्सरसाइज आदि।

सिद्धि चाहिए तो चोरी ना करना
अष्टांग योग के पहले भाग में यम को रखा गया है। यम का तीसरा चरण है अस्तेय अर्थात् चोरी ना करना।
सामान्यत: चोरी से तात्पर्य यही है कि किसी की नजर बचाकर कुछ चुरा लेना। यह चोरी का आंशिक अर्थ है। चोरी यानि वे सभी क्रियाएं जिनसे हम किसी वस्तु को उसके समाज में निर्धारित मूल्य चुकान बिना अपने पास रख ले। साथ ही जो मालिक अपने श्रमिक को सही पारिश्रमिक नहीं देता वह भी चोरी के समान ही है।
योग शास्त्र के अनुसार किसी भी तरह की चोरी करने वाला व्यक्ति अष्टांग योग में सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता। इसी वजह से मन से किसी भी प्रकार की चोरी का ख्याल निकाल देना चाहिए। जब ऐसा कोई विचार मन में नहीं होगा तो साधक अच्छे ध्यान लगा सकेगा और अष्टांग योग से प्राप्त होने वाली सिद्धियां उसे प्राप्त होती जाएंगी।

किसी को सताना भी है वर्जित
जीवन को सुखी और स्वस्थ बनाने वाले अष्टांग योग का पहला चरण है यम। योगशास्त्र में यम शब्द का अर्थ है समाज के प्रति हमारे कर्तव्य। जिस समाज में हम रहते हैं उसके प्रति हमारे कुछ कर्तव्य बताए गए हैं। इन्हीं कर्तव्यों को यम कहा जाता है।
यम पांच प्रकार के होते हैं-
- अहिंसा
- सत्य
- अस्तेय
- ब्रह्मचर्य
- अपरिग्रह
यम का पहला चरण है अहिंसा। सामन्यत: अहिंसा का मतलब होता है किसी प्रकार की हिंसा ना करना। योग शास्त्र के अनुसार अहिंसा का अर्थ है कि कभी भी किसी को दुख ना देना। जाने-अनजाने भी क्रूरता का मजे लेने के लिए किसी को सताना वर्जित किया गया है।
ऐसी क्रूरता हमें अशांत बनाती है, जिससे हमारा मन ध्यान की ओर नहीं लग पाता। अत: योगशास्त्र में किसी को दुखी ना करने की बात सबसे जरूरी बताई गई है।

Niyam(नियम)
अष्टांग योग का दूसरा चरण
महर्षि पतंजलि के योग सूत्र का दूसरा चरण नियम है। पहला चरण यम जहां मन को शांति देता है, वहीं दूसरा चरण नियम हमें पवित्र बताता है। योग मार्ग पर चलने के लिए आत्मशांति के साथ मन, कर्म, वचन की पवित्रता भी आवश्यक है। नियम के पालन से हमारे आचरण, विचार और व्यवहार पवित्र होते हैं।

नियम के पांच अंगमहर्षि पातंजलि के योग सूत्र में नियम के पांच अंग बताए गए हैं-शौचसन्तोषतप: स्वाध्यायेश्वर प्रमिधानानि नियमा:। (योगदर्शन- 2/३२)अर्थात- पवित्रता, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर की भक्ति यही नियम है।योग मार्ग की सिद्धि के लिए हमारे आचार-विचार पवित्र होना चाहिए। शरीर और विचारों की शुद्धि से संतोष का गुण आता है। तभी हम शास्त्रों के ज्ञान से ईश्वर की भक्ति की साधना में सफल हो सकते हैं। योग मार्ग से ईश्वर को प्राप्त करने की दिशा में नियम की यह अवस्था भी आवश्यक योग्यता है।पवित्रता- धर्म क्षेत्र में पवित्रता का मतलब सभी तरह की शुद्धता से है। जैसे शरीर की शुद्धता स्नान से, व्यवहार और आचरण की शुद्धता त्याग से, सही तरीके से कमाए धन से प्राप्त सात्विक भोजन से आहार की शुद्धता रहती है। इसी तरह दुर्गुणों से बचकर हम मन को शुद्ध रखते हैं। घमंड, ममता, राग-द्वेष, ईष्र्या, भय, काम-क्रोध आदि दुर्गुण हैं।संतोष- संतोष का अर्थ है हर स्थिति में प्रसन्न रहना। दु:ख हो या सुख, लाभ हो या हानि, मान हो या अपमान, कैसी भी परिस्थिति हो, हमें समान रूप से प्रसन्न रहना चाहिए।तप- तप का मतलब है लगन। अपने लक्ष्य को पाने के लिए संयमपूïर्वक जीना। व्रत-उपवास करना तप कहलाता है, जिनसे हमारे अंदर लगन पैदा होती है।स्वाध्याय- स्वाध्याय का अर्थ है हम शास्त्रों के अध्ययन से ज्ञान प्राप्त करें तथा जप, स्त्रोतपाठ आदि से ईश्वर का स्मरण करें।ईश्वर प्रणिधान- ईश्वर-प्रणिधान का मतलब है हम ईश्वर के अनुकूल ही कर्म करें। अर्थात हमारा प्रत्येक कार्य ईश्वर के लिए और ईश्वर के अनुकूल ही हो। ऊपर बताए गए नियम की इन पांच बातों को जीवन में उतारने से योग मार्ग की दूसरी अवस्था प्राप्त हो जाती है।

नियम से लाभनियम सिखाते हैं हम पवित्र रहें। यह पवित्रता सिर्फ तन की न हो, मन की भी हो। हम संतोष रखें अर्थात सुख-दु:ख में समान रहें। तप हमें संयम सिखाता है तो स्वाध्याय हमें अध्ययन की ओर प्रेरित करता है। जब हम अध्ययन करेंगे तो हमें ज्ञान होगा और अंत में ईश्वर के अनुकूल कार्य करने की प्रेरणा मिलेगी।

नियम : जीवन में पवित्रता
नियम का अर्थ है पवित्रता। महर्षि पतंजलि के योग सूत्र का दूसरा चरण नियम है। पहला चरण यम जहां मन को शांति देता है, वहीं दूसरा चरण नियम हमें पवित्र बताता है। योग मार्ग पर चलने के लिए आत्मशांति के साथ मन, कर्म, वचन की पवित्रता भी आवश्यक है। नियम के पालन से हमारे आचरण, विचार और व्यवहार पवित्र होते हैं।
ये हैं नियम के पांच अंग
महर्षि पातंजलि के योग सूत्र में नियम के पांच अंग बताए गए हैं-
शौचसन्तोषतप: स्वाध्यायेश्वर प्रमिधानानि नियमा:। (योगदर्शन- 2/३२)
अर्थात- पवित्रता, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर की भक्ति यही नियम है।
योग मार्ग की सिद्धि के लिए हमारे आचार-विचार पवित्र होना चाहिए। शरीर और विचारों की शुद्धि से संतोष का गुण आता है। तभी हम शास्त्रों के ज्ञान से ईश्वर की भक्ति की साधना में सफल हो सकते हैं। योग मार्ग से ईश्वर को प्राप्त करने की दिशा में नियम की यह अवस्था भी आवश्यक योग्यता है।
पवित्रता- धर्म क्षेत्र में पवित्रता का मतलब सभी तरह की शुद्धता से है। जैसे शरीर की शुद्धता स्नान से, व्यवहार और आचरण की शुद्धता त्याग से, सही तरीके से कमाए धन से प्राप्त सात्विक भोजन से आहार की शुद्धता रहती है। इसी तरह दुगरुणों से बचकर हम मन को शुद्ध रखते हैं। घमंड, ममता, राग-द्वेष, ईष्र्या, भय, काम-क्रोध आदि दुगरुण हैं।
संतोष- संतोष का अर्थ है हर स्थिति में प्रसन्न रहना। दु:ख हो या सुख, लाभ हो या हानि, मान हो या अपमान, कैसी भी परिस्थिति हो, हमें समान रूप से प्रसन्न रहना चाहिए।
तप- तप का मतलब है लगन। अपने लक्ष्य को पाने के लिए संयमपूर्वक जीना। व्रत-उपवास करना तप कहलाता है, जिनसे हमारे अंदर लगन पैदा होती है।
स्वाध्याय- स्वाध्याय का अर्थ है हम शास्त्रों के अध्ययन से ज्ञान प्राप्त करें तथा जप, स्त्रोतपाठ आदि से ईश्वर का स्मरण करें।
ईश्वर प्रणिधान- ईश्वर-प्रणिधान का मतलब है हम ईश्वर के अनुकूल ही कर्म करें। अर्थात हमारा प्रत्येक कार्य ईश्वर के लिए और ईश्वर के अनुकूल ही हो। ऊपर बताए गए नियम की इन पांच बातों को जीवन में उतारने से योग मार्ग की दूसरी अवस्था प्राप्त हो जाती है।

ये हैं नियम से लाभ
- नियम सिखाते हैं हम पवित्र रहें।
- यह पवित्रता सिर्फ तन की न हो, मन की भी हो।
- हम संतोष रखें अर्थात सुख-दु:ख में समान रहें।
- तप हमें संयम सिखाता है तो स्वाध्याय हमें अध्ययन की ओर प्रेरित करता है।
- जब हम अध्ययन करेंगे तो हमें ज्ञान होगा और अंत में ईश्वर के अनुकूल कार्य करने की प्रेरणा मिलेगी।

पांच नियम जिनसे मिलती है सफलता
अष्टांग योग की आठ अवस्थाएं हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। ईश्वर को पाने का एक रास्ता योग है हम योग की आठ अवस्थाओं से गुजर कर ईश्वर तक पहुंच सकते हैं। पंतजलि ने कहा है- अहिंसासत्यास्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा: अर्थात-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मïचर्य, अपरिग्रह इन पांच बातों को जीवन में उतार कर ही हम योग की पहली सीढ़ी चढ़ते हैं।अहिंसा- जो व्यक्ति अहिंसा का इस तरह पालन करता है, उसके विरोधी लोग भी विरोध नहीं कर पाते। अहिंसा का व्रत हमारे जीवन में बदलाव लाता है। समाज में हमें विशेष सम्मान दिलाता है। सत्य- इसका अर्थ है हम कपट से और धोखा देने की नीयत से कोई बात न कहें। जो बात जैसी है उसे उसी तरह कहना सत्य है। अस्तेय- अर्थात चोरी नहीं करना चोरी, ठगी, धोखाधड़ी और अन्य किसी गलत तरीके से दूसरे के धन, वस्तु या अन्य किसी चीज को हथियाना अपराध है।ब्रह्मïचर्य- इसका मतलब है इंद्रियों का संयम। हमारा भोजन, विचार, व्यवहार सभी कुछ युक्तियुक्त होना चाहिए। जो संयम से नहीं रहता वह बलहीन हो जाता है, उसमें आत्मविश्वास नहीं रहता। अपरिग्रह- इसका अर्थ है हम बिना जरूरत के चीजों का संग्रह न करें। मन यदि बाहरी दिखावे से हट जाए तो फिर हम मनुष्य जन्म की सफलता के बारे में कह सकते हैं। शांति का मतलब खामोशी नहीं है। शांति का मतलब है सुख-संतुष्टि, मन में किसी प्रकार का कोई दु:ख, क्षोभ या तनाव नहीं रहना। जब मन में और आस-पास के वातावरण में शांति हो तभी हम योग की साधना की पहली मंजिल यम पर पहुंचते हैं।

बढ़ता वजन कैसे करें कम...
हम प्रतिस्पर्धा के चलते अधिकतर समय अपने-अपने कार्यों को देते हैं और इसी वजह से हम स्वास्थ्य पर ध्यान नहीं दे पाते। आज अधिकांश लोगों को अधिक वजह यानि मोटापे की समस्या परेशान कर रही है। अंसतुलित खान-पान और सही समय पर खाना न खाना, इन कारणों से यह बीमारी और अधिक बढ़ जाती है। इससे निजात पाने के लिए निम्न उपाय अपनाएं-
- वजन कम करने के लिए योगासन से अच्छा कोई और विकल्प नहीं हैं।
- योगा से कम समय में ही शरीर को संतुलित किया जाता है अत: प्रतिदिन कुछ समय योगा अवश्य करें।
- अधिक कैलोरी वाले खाने का पूर्णत: त्याग करें। शरीर को कम कैलरी मिलेगी तो शरीर पहले से जमा कैलरी का इस्तेमाल करेगा।
- एक्सर्साइज और योगा करें। शारीरिक श्रम अधिक करें।
- सब्जियां अधिक से अधिक खाएं।
- फल या ज्यूस खाने में रोज लें।
- दिनभर में कम से कम 3 लीटर पानी पीएं।
- खाने में मीठा कम करें।

क्या हैं मन के शौच?
सामान्यत: सभी शौच शब्द का अर्थ मल-मूत्र से ही समझा जाता है परंतु योग शास्त्र में शौच शब्द का विस्तृत अर्थ बताया गया है। योगाचार्यों के अनुसार शौच में वे सभी क्रियाएं शामिल हैं जो हमारे तन का स्वच्छ रखने के लिए की जाती हैं।
योग शास्त्र के अनुसार शरीर और मन से सभी प्रकार की बुराई या कलुष दूर करना ही शौच है। योगाचार्यों के अनुसार मन की कुछ बुराई यानि कलुष बताए गए हैं-
- सभी सुखी होने की इच्छा रखते है किंतु सुख के साधन न होने पर मन को दुखी करना राग कलुष है।
- दूसरों की संपत्ति, गुण, यश से मन को दुखी करना ईष्र्या कलुष है।
- ईर्ष्या पात्र के अपकार करने की इच्छा अपकार कलुष है।
- ईर्ष्या पात्र का अनादर करना उसकी चुगली करना यह असूया कलुष है।
- किसी से बदला लेने की भावना मन में रखना अमर्ष कलुष है।
शौच नियम की सिद्धि होने पर न हमारा तन तो स्वस्थ होता ही है और साथ ही मन भी स्वस्थ और सुंदर हो जाता है। जब शौच के नियम से मन सिद्ध हो जाता है तो मन से घृणा, द्वेष, क्रोध आदि बुराइयां हमेशा के लिए दूर हो जाती हैं।

मन का संतोष क्या है?
सामान्यत: संतोष शब्द का यही अर्थ है कि सभी इच्छाओं को शांत करना और सुख की अनुभूति प्राप्त करना। आज के युग में संतोष को अच्छा नहीं माना जाता। ऐसा माना जाता है कि संतोष उन्नति के शिखर तक पहुंचने में बाधक है परंतु योग शास्त्र में संतोष ध्यान के अति आवश्यक है।
योग शास्त्र के अनुसार संतोष के बिना ध्यान नहीं लगाया जा सकता। संतोष का मतलब यही है कि मन की सारी तृष्णाओं या इच्छाओं को शांत कर लिया और फिर ध्यान लगाया जाए। संतोष के अभाव में ध्यान द्वारा प्राप्त होने वाला परम आनंद प्राप्त नहीं किया जा सकता। जिसका मन सुखी है वह सबसे सुखी व्यक्ति बन सकता है। इसी वजह से योग शास्त्र में संतोष को ही सबसे बड़ा सुख माना गया है।

योग से पहले...
योग हर परिस्थिति में हमारे शरीर को स्वास्थ्य लाभ प्रदान करता है लेकिन योग करने से पहले कुछ ध्यान देने योग्य बातें हैं। इन बातों को अपनाने से योग का अधिक फायदा प्राप्त होता है। कुछ आवश्यक सावधानियों पर ध्यान देना आवश्यक है-
- योग शौच क्रिया एवं स्नान से निवृत्त होने के बाद ही किया जाना चाहिए।
- योग के एक घंटे बाद स्नान करें।
- योग समतल भूमि पर आसन बिछाकर करना चाहिए।
- ढीले वस्त्र पहनना चाहिए।
- योग खुले एवं हवादार कमरे में करना चाहिए। ताकि आप सांस के साथ आप वायु ले सकें।
- योग घर के बाहर भी किया जा सकता है लेकिन वातावरण शुद्ध तथा मौसम अच्छा होना चाहिए।
- अनावश्यक जोर नहीं लगाना चाहिए।
- मासिक धर्म, गर्भावस्था, बुखार, गंभीर रोग आदि के दौरान आसन न करें या फिर किसी योग प्रशिक्षक से परामर्श अवश्य लें।
- प्रतिदिन संतुलित आहार लें और खाने का समय निर्धारित रखें।
- वज्रासन को छोड़कर सभी आसन खाली पेट करें।
- आसन के प्रारंभ और अंत में विश्राम करें। आसन विधिपूर्वक ही करें। प्रत्येक आसन दोनों ओर से करें एवं उसका पूरक अभ्यास करें।
- योग प्रारम्भ करने के पूर्व अंग-संचालन करना आवश्यक है। इससे अंगों की जकडऩ समाप्त होती है तथा आसनों के लिए शरीर तैयार होता है। अंग-संचालन कैसे किया जाए इसके लिए अंग संचालन देखें।
योग किसी योग्य योग प्रशिक्षक की देख-रेख में करें तो ज्यादा अच्छा होगा।

शांति के लिए पांच नियम है जरूरी
योग शास्त्र के अनुसार मन की शांति के लिए पांच नियम बताए गए हैं। यह नियम इस प्रकार है-
- शौच
- संतोष
- तप
- स्वाध्याय
- ईश्वर प्राणिधान
इन पांच नियमों की उपयोगिता योग शास्त्र में इसप्रकार बताई गई है-
शौच से अपने अंगों से घृणा होती है तथा दूसरों के संसर्ग घट जाता है। साथ चित्त की शुद्धि, मन की प्रसन्नता, एकाग्रता तथा आत्मदर्शन की योग्यता प्राप्त होती है।
संतोष से सर्वोत्तम सुख प्राप्त होता है।
तप से अशुद्धि का दूर होती है।
स्वाध्याय से इष्ट देवता की कृपा प्राप्त होती है।
ईश्वर प्राणिधान से समाधि क सिद्धि प्राप्त होती है।
सभी सूत्रों के लिए विद्वानों द्वारा अलग-अलग व्याख्या की गई है।

किस माह में क्या खाएं या क्या करें?
अच्छे स्वास्थ्य के लिए जरूरी है हमारा संतुलित खाना। योग शास्त्र के अनुसार 12 महीनों के लिए खाने के संबंध में अलग-अलग चीजे बताई गई हैं। नए साल में एक कैलेंडर खाने का भी बनाना चाहिए। जिससे हर माह में क्या खाना चाहिए यह ज्ञात हो सके। योग शास्त्र के अनुसार बताए गए नियम का पालन करने से हमारा शरीर पूरी तरह स्वस्थ और निरोगी रहेगा।
हमारा खान-पान ही हमारे शरीर को पूरी तरह तंदुस्त रखता है। अच्छे भोजन से हमारी कार्यक्षमता सही बनी रहती है, जल्दी थकान नहीं होती और साथ ही कई छोटी-छोटी बीमारियां हमेशा ही हमसे दूर रहती है।
पुराने समय में एक कहावत कही गई है- चैत चना, बैसाखे बेल, जैठे शयन, आषाढ़े खेल, सावन, हर्रे, भादो तिल।
कुवार मास गुड़ सेवै नित, कार्तिक मूल, अगहन तेल, पूस करे दूध से मेल।
माघ मास घी-खिचड़ी खाय, फागुन उठ नित प्रात नहाय।
किस माह में क्या खाएं या करें?
माह: क्या खाएं या करें
जनवरी-फरवरी: घी, खिचड़ी
फरवरी-मार्च: घी, खिचड़ी और सुबह जल्दी नहाना फायदेमंद है।
मार्च-अप्रैल: चना का सेवन करें।
अप्रैल-मई: बेल
मई-जून: इन माह में पर्याप्त नींद लेना अति आवश्यक है। अन्यथा इसका बुरा प्रभाव झेलना पड़ सकता है।
जून-जुलाई: अधिक से अधिक व्यायाम और खेलना-कूदना आदि क्रियाएं करें।
जुलाई-अगस्त: हरड़ का सेवन करें।
अगस्त-सितंबर: तिल खाएं।
सितंबर-अक्टूबर: गुड़ का सेवन करें, बहुत फायदेमंद रहेगा।
अक्टूबर-नवंबर: मूली
नवंबर: दिसंबर: तेल, तेल से बनी हुई चीजे अधिक खाएं।
दिसंबर-जनवरी: नियमित रूप से दूध अवश्य पीएं।साथ ही एक सेब प्रतिदिन अवश्य लें।

क्या न खाए?, क्या न करें?
जीने के लिए खाना जितना जरूरी है, उतना ही अच्छे स्वास्थ्य के लिए कुछ खाने की चीजों से दूरी बनाए रखना जरूरी है। साथ ही हमेशा निरोगी और स्वस्थ रहने के लिए प्रतिदिन योग का अभ्यास करना चाहिए। योग शास्त्र में 12 महीनों के लिए कुछ ऐसी खाने की चीजे बताई गई हैं, जिन्हें अलग-अलग माह में नहीं खाना चाहिए। हमारा खान-पान ही हमारे शरीर को पूरी तरह तंदुस्त रखता है। अच्छे भोजन से हमारी कार्यक्षमता सही बनी रहती है, जल्दी थकान नहीं होती और साथ ही कई छोटी-छोटी बीमारियां हमेशा ही हमसे दूर रहती है।
पुराने समय में एक कहावत कही गई है- चौते गुड़, वैशाखे तेल, जेठ के पंथ, अषाढ़े बेल।
सावन साग, भादो मही, क्वार करेला, कार्तिक दही।
अगहन जीरा, पूसै धना, माघै मिसरी, फागुन चना।
जो कोई इतने परिहरै, ता घर बैद पैर नहिं धरै।
किस माह में क्या न खाएं या क्या न करें?
माह: क्या न खाएं या क्या न करें
जनवरी-फरवरी: मिस्री
फरवरी-मार्च: चना
मार्च-अप्रैल: गुड़
अप्रैल-मई: तेल
मई-जून: इस माह में गर्मी का अत्यधिक प्रकोप रहता है अत: ज्यादा घुमना-फिरना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।
जून-जुलाई: हरी सब्जियों को अच्छे साफ करके खाएं।
जुलाई-अगस्त: सत्तू, हरी सब्जियां अच्छे साफ की हुई होना चाहिए।
अगस्त-सितंबर: छाछ, दही का कम से कम सेवन करें।
सितंबर-अक्टूबर: करेला
अक्टूबर-नवंबर: छाछ, दही
नवंबर: दिसंबर: जीरा
दिसंबर-जनवरी: धनिया

AAsan( आसन)
आसन से आसान होगी जिंदगी
अष्टांग योग का तीसरा चरण आसन है। पहले दो चरण यम और नियम से हम शांति व पवित्रता हासिल कर आसन के रूप में तीसरे चरण में प्रवेश करते हैं।
आसन का अर्थ शरीर संतुलन से है।अर्थात् योग के लिए हमें किस तरह बैठना चाहिए यह जानना जरूरी है। महषर्ि पंतजलि के योगसूत्र में आसन के बारे में जानकारी दी गई है। लंबे समय तक निश्चल होकर एक ही स्थिति में बैठना आसन है। आसन सिद्धि कम से कम तीन घंटे ३६ मिनट और अधिकतम चार घंटे ४८ मिनट बैठने से होती है।
योगदर्शन में कहा गया है शरीर की स्वाभाविक क्रियाएं शांत कर परमात्मा में मन को तन्मय करने से आसन की सिद्धि होती है।
योग के लिए आसन की सिद्धि मतलब एक ही स्थान पर सुविधापूर्वक तन्मय होकर बहुत समय तक बैठने का अभ्यास जरूरी है। बैठने की यह प्रक्रिया और स्थिति ही आसन है।

अष्टांग योग
आत्मा और परमात्मा का मिलन या जोड़ ही योग का लक्ष्य है। यह जोड़ एक और एक दो वाला जोड़ नहीं है। यह एक और एक पर एक होने वाला ही जोड़ है। आप हैरान होंगे यह क्या है। लेकिन योग में ऐसा ही है। शरीर और आत्मा जुड़ती है, होते दो हैं पर योग उन्हें एक कर देता है। और फिर एक ही रह जाता है वह परमात्मा का भाव है। परमात्मा से जुडऩे की पहली इबारत है :अष्टांग योग।आजकल योग को व्यायाम के संदर्भ में भी लिया जा रहा है लेकिन ऐसा नहीं है। व्यायाम का संबंध सिर्फ शरीर है लेकिन योग शरीर के माध्यम से आत्मा और फिर परमात्मा की यात्रा कराता है। पहली इबारत अष्टांग योग में ही वे सारे सूत्र समाए हुए हैं, जिनको अपनाकर हम सारे दु:ख और संतापों से मुक्ति पा सकते हैं। आइए, पहले अष्टांग योग को जानें।आचार्य पातंजलि- पातंजलि योग सूत्र के अनुसार योग के आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।1. यम- योग जीवन यात्रा है। यह यात्रा बाहर से अंदर, स्थूल से सूक्ष्म की ओर है। यह हमारे जीवन को नियमित करती है। बाहर से अंदर की ओर की इस यात्रा का पहला चरण पांच भागों में होता है जिन्हें यम कहते है:अ. अहिंसा- इसका अर्थ है हिंसा नहीं करना। हिंसा सिर्फ अस्त्र-शस्त्र से किसी को नुकसान पहुंचाना ही नहीं है। मन, कार्य, व्यवहार एवं वाणी द्वारा भी हिंसा होती है। इनसे बचें।ब. सत्य- जो जैसा है, उसे वैसा ही देखना, समझना और कहना सत्य है। सत्य पालन के लिए कम और तथ्यपरक बोलना चाहिए। अपनी भावनाओं को अपने शब्दों के साथ व्यक्त न करें। ये भावनाएं सत्य को दूषित करती हैं। स. अस्तेय- इसका अर्थ है चोरी न करना। इससे बचें। किसी के अधिकार या अमानत को हड़प लेना या इच्छा करना भी चोरी है।द. ब्रह्मचर्य- अर्थ है ब्रह्म जैसा व्यवहार। आखिर क्या है ब्रह्म का व्यवहार। उत्तर होगा- हर काम संतुलित तरीके से होना। यानी सैक्स में डूबो तो संतान उत्पत्ति के लिए, शरीर सुख के लिए नहीं। यदि ऐसे ही हर काम होगा तो फिर दु:ख गायब हो जाएगा।ई. अपरिग्रह- यानी वस्तुओं का संग्रह न करना। जब सभी कुछ इसी संसार में छूट जाना है तो फिर संग्रह क्यों।2 नियम- नियम बताते हैं हमारा खुद के प्रति व्यवहार कैसा है। ये पांच हैं:-अ. शौच- यानी पवित्रता। हमारा अंदर और बाह्य जीवन पवित्र हो, हमारा घर, परिवेश, वस्त्र, भोजन आदि स्वच्छ व सुंदर हो। मन और विचारों की पवित्रता भी परम आवश्यक है। ब. संतोष- जो पाया उस पर संतोष होना ही सुख है। क र्म पूरी लगन से किया जाए किन्तु फल की चिन्ता न रहे। स. तप- इसका अर्थ है जीवन के उतार-चढ़ावों में विचलित नहीं होना तथा जीवन में संघर्र्ष शील रहते हुए प्रगति के मार्ग पर बढऩा।द. स्वाध्याय- शास्त्रों का अध्ययन, जीवन के अनुभव व स्वयं का आत्म विश्लेषण करना स्वाध्याय है।ई. ईश्वर प्रणिधान- मन, कर्र्म, वचन से ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण ही ईश्वर प्रणिधान है। ३. आसन- योग का तीसरा अंग है आसन। जिस स्थिति में शरीर व मन स्थिर और सुखी हो, वही आसन है। आसनों की संख्या अनेक है। योग के क्षेत्र में ८४ आसन प्रसिद्ध हैं। ४. प्राणायाम- स्थिर आसन में श्वास की गति का नियमन प्राणायाम है। प्राणायाम में श्वास पर ध्यान किया जाता है, जो मन को विशेष स्थिरता देता है। यह श्वास छोडऩे और भरने की कला भी है। शरीर को स्वस्थ रखने में इसका उपयोग हो सकता है।5. प्रत्याहार-बाहर की ओर जाती इंद्रियों को अंदर की ओर मोडऩा । इसमें ध्यान द्वारा मन को इंद्रियों के भोग विलाश से हटाकर ईश्वर की ओर केन्द्रित किया जाता है। 6. धारणा-अर्थ है एकाग्रता। चित्त को किसी एक स्थान पर एकाग्र करना धारणा कहलाता है।7. ध्यान-एकाग्रता को किसी एक जगह स्थिर करना ध्यान है। लंबे समय तक ध्यान करने से मन का बाहर की ओर भटकाव रुक जाता है और वह एक जगह स्थिर हो जाता है। 8. समाधि-लंबे समय तक ध्यान में स्थित रहने से समाधि पद प्राप्त होता है। समाधिस्थ होने पर सारा उतार-चढ़ाव खत्म हो जाता है। बस बचती है तो एक चेतना जो परमात्मा की ओर ले जाती है। सच तो यह है कि योग केवल शरीर की क्रिया नहीं है। न ही योग का मतलब व्यायाम है। यह तो स्टेप बाय स्टेप एक आंतरिक प्रक्रिया है। जो शरीर के माध्यम से परमात्मा तक ले जाती है। अष्टांग योग की शुरुआती छह स्टेप के बाद सातवें पर ध्यान घटता है। जो छह स्टेप पार करने में सफल होता है वही सातवें तक पहुंचता है और जो ध्यान को भी पा लेता है, वह समाधि लगाने का पात्र बनता है। योग दुनिया को भारत की देन है। अफसोस यह है कि आज भारत में आम लोग इससे दूर हो गए हैं। यदि हर व्यक्ति निजी रूप से इसे अपने ऊपर लागू करे तो समाज, देश और दुनिया का भला होगा।पतंजलि कौन- ईसा पूर्व चौथी शताब्दी के ऋषि। उनके जमाने में योग आम लोगों में प्रचलित तो था, लेकिन सूत्रबद्ध नहीं। पांतजलि ने योग के प्रयोग किए और उन्हें सूत्रबद्ध किया। यही पांतजलि योग सूत्र कहलाता है।

योगिक और पूर्ण वैज्ञानिक व्यायाम
आसन-अष्टांग योग का तीसरा चरण आसन है। पहले दो चरण यम और नियम से हम शांति व पवित्रता हासिल कर आसन के रूप में तीसरे चरण में प्रवेश करते हैं। आसन का मतलब आसन का अर्थ शरीर संतुलन से है।यानि योग के लिए हमें किस तरह बैठना चाहिए यह जानना जरूरी है। महर्षि पंतजलि के योगसूत्र में आसन के बारे में जानकारी दी गई है। लंबे समय तक निश्चल होकर एक ही स्थिति में बैठना आसन है। आसन सिद्धि कम से कम तीन घंटे ३६ मिनट और अधिकतम चार घंटे ४८ मिनट बैठने से होती है।स्थिरसुखमासनम्। - योगदर्शन (२/४६) यानि बिना कष्ट के बहुत समय तक बैठना ही आसन है।योगदर्शन में कहा गया है शरीर की स्वाभाविक क्रियाएं शांत कर परमात्मा में मन को तन्मय करने से आसन की सिद्धि होती है।योग के लिए आसन की सिद्धि मतलब एक ही स्थान पर सुविधापूर्वक तन्मय होकर बहुत समय तक बैठने का अभ्यास जरूरी है। बैठने की यह प्रक्रिया और स्थिति ही आसन है।
आसन के प्रकार- आसन कई प्रकार से लगाया जा सकता है। योग में आत्मसंयम के लिए सिद्धासन, पद्मासन और स्वस्तिकासन अधिक फलदायी हैं। जिस आसन में बैठने में हमें सुविधा हो उसी को हमारे लिए उत्तम आसन मानना चाहिए।आसन में सिर, गर्दन और रीढ़ की हड्डी एक सीध में होनी चाहिए। हमारी दृष्टि नाक पर या भृकुटी की ओर रहना चाहिए। आसन में आंखें बंद कर बैठा जा सकता है।उत्तम स्वास्थ्यआसन लगाना योग की क्रिया होने से इससे हमारे स्वास्थ्य पर भी असर होता है। आसन लगाने से शरीर निरोग रहता है। हमारा शरीर संयत होता है जिससे तनाव घटता है। मन में शांति का अनुभव होता है।

सम्पूर्ण व्यायाम: योगासन
शरीर को स्वस्थ रखने के लिये व्यायाम की कई विधियां प्रचलित हैं। लेकिन योगासन से बेहतर कुछ भी नहीं। आसनशरीर और मन दोनों को स्वस्थ व संतुलित करता है। आसन शरीर को स्वस्थ रखने का एक वैज्ञानिक तरीका है। आचार्य पतंजलि ने अष्टांगयोग में योग के आठ अंगो का वर्णन किया है। आसन अष्टांग योग में तीसरे क्र म पर आता है। वेसे तो आसनों की संख्या सेकड़ों में हे किन्तु कुछ आसन अधिक महत्वपूर्ण एवं सभी के लिये लाभदायक हैं। क्योंकि आसन सूक्ष्म व्यायाम है इसलिये इसे करने के कुछ नियम भी हैं जिनका पालन करना आवश्यक है।
आसनों की शुरुआत से पूर्व की सावधानियां-आसनों को सीखना प्रारम्भ करने से पूर्व कुछ आवश्यक सावधानियों पर ध्यान देना आवश्यक है। आसन प्रभावकारी तथा लाभदायक तभी हो सकते हैं, जबकि उनको उचित रीति से किया जाए।1. योगासन शौच क्रिया एवं स्नान से निवृत्त होने के बाद ही किया जाना चाहिए। 2. योगासन समतल भूमि पर आसन बिछाकर करना चाहिए एवं मौसमानुसार ढीले वस्त्र पहनना चाहिए।3. योगासन खुले एवं हवादार कमरे में करना चाहिए, ताकि श्वास के साथ आप स्वतंत्र रूप से शुद्ध वायु ले सकें। अभ्यास आप बाहर भी कर सकते हैं, परन्तु आस-पास वातावरण शुद्ध तथा शांत हो।4. आसन करते समय अनावश्यक जोर न लगाएँ। यद्धपि प्रारम्भ में आप अपनी माँसपेशियों को कड़ी पाएँगे, लेकिन कुछ ही सप्ताह के नियमित अभ्यास से शरीर लचीला हो जाता है। आसनों को धैर्र्य के साथ करें। शरीर के साथ ज्यादती न करें।5. मासिक धर्म, गर्भावस्था, बुखार, गंभीर रोग आदि के दौरान आसन न करें।6. योगाभ्यासी को सम्यक आहार अर्थात भोजन प्राकृतिक और उतना ही लेना चाहिए जितना कि पचने में आसानी हो। वज्रासन को छोड़कर सभी आसन खाली पेट करें।7. आसन के प्रारंभ और अंत में विश्राम करें। आसन विधिपूर्वक ही करें। प्रत्येक आसन दोनों ओर से करें एवं उसका पूरक अभ्यास करें।8. यदि आसन को करने के दौरान किसी अंग में अत्यधिक पीड़ा होती है तो किसी योग चिकित्सक से सलाह लेकर ही आसन करें।9. यदि आतों में वायु, अत्यधिक उष्णता या रक्त अत्यधिक अशुद्ध हो तो सिर के बल किए जाने वाले आसन न किए जाएँ। विषैले तत्व मस्तिष्क में पहुँचकर उसे क्षति न पहुँचा सकें, इसके लिए सावधानी बहुत महत्वपूर्ण है।10. योग प्रारम्भ करने के पूर्व अंग-संचालन करना आवश्यक है। इससे अंगों की जकडऩ समाप्त होती है तथा आसनों के लिए शरीर तैयार होता है। अत: आसनों को किसी योग्य योग चिकित्सक की देख-रेख में करें तो ज्यादा अच्छा होगा।

योगासनों के गुण और लाभ
(1) योगासनों का सबसे बड़ा गुण यह हैं कि वे सहज साध्य और सर्वसुलभ हैं। योगासन ऐसी वेज्ञानिक एवं प्रामाणिक व्यायाम पद्धति है जिसमें न तो कुछ विशेष व्यय होता है और न इतनी साधन-सामग्री की आवश्यकता होती है।
(2) योगासन अमीर-गरीब, बूढ़े-जवान, सबल-निर्बल सभी स्त्री-पुरुष कर सकते हैं।
(3) आसनों में जहां मांसपेशियों को तानने, सिकोडऩे और ऐंठने वाली क्रियायें करनी पड़ती हैं, वहीं दूसरी ओर साथ-साथ तनाव-खिंचाव दूर करनेवाली क्रियायें भी होती रहती हैं, जिससे शरीर की थकान मिट जाती है और आसनों से व्यय शक्ति वापिस मिल जाती है। शरीर और मन को तरोताजा करने, उनकी खोई हुई शक्ति की पूर्ति कर देने और आध्यात्मिक लाभ की दृष्टि से भी योगासनों का अपना अलग महत्व है।
(4) योगासनों से भीतरी ग्रंथियां अपना काम अच्छी तरह कर सकती हैं और युवावस्था बनाए रखने एवं वीर्य रक्षा में सहायक होती है।
(5) योगासनों द्वारा पेट की भली-भांति सुचारु रूप से सफाई होती है और पाचन अंग पुष्ट होते हैं। पाचन-संस्थान में गड़बडिय़ां उत्पन्न नहीं होतीं।
(6) योगासन मेरुदण्ड-रीढ़ की हड्डी को लचीला बनाते हैं और व्यय हुई नाड़ी शक्ति की पूर्ति करते हैं।
(7) योगासन पेशियों को शक्ति प्रदान करते हैं। इससे मोटापा घटता है और दुर्बल-पतला व्यक्ति तंदरुस्त होता है।
(8) योगासन स्त्रियों की शरीर रचना के लिए विशेष अनुकूल हैं। वे उनमें सुन्दरता, सम्यक-विकास, सुघड़ता और गति, सौन्दर्य आदि के गुण उत्पन्न करते हैं।
(9) योगासनों से बुद्धि की वृद्धि होती है और धारणा शक्ति को नई स्फूर्ति एवं ताजगी मिलती है। ऊपर उठने वाली प्रवृत्तियां जागृत होती हैं और आत्म-सुधार के प्रयत्न बढ़ जाते हैं।
(10) योगासन स्त्रियों और पुरुषों को संयमी एवं आहार-विहार में मध्यम मार्ग का अनुकरण करने वाला बनाते हैं, मन और शरीर को स्थाई तथा सम्पूर्ण स्वास्थ्य, मिलता है।
(11) योगासन श्वास- क्रिया का नियमन करते हैं, हृदय और फेफड़ों को बल देते हैं, रक्त को शुद्ध करते हैं और मन में स्थिरता पैदा कर संकल्प शक्ति को बढ़ाते हैं।
(12) योगासन शारीरिक स्वास्थ्य के लिए वरदान स्वरूप हैं क्योंकि इनमें शरीर के समस्त भागों पर प्रभाव पड़ता है, और वह अपने कार्य सुचारु रूप से करते हैं।
(13) आसन रोग विकारों को नष्ट करते हैं, रोगों से रक्षा करते हैं, शरीर को निरोग, स्वस्थ एवं बलिष्ठ बनाए रखते हैं।
(14) आसनों से नेत्रों की ज्योति बढ़ती है। आसनों का निरन्तर अभ्यास करने वाले को चश्में की आवश्यकता समाप्त हो जाती है।
(15) योगासन से शरीर के प्रत्येक अंग का व्यायाम होता है, जिससे शरीर पुष्ट, स्वस्थ एवं सुदृढ़ बनता है। आसन शरीर के पांच मुख्यांगों, स्नायु तंत्र, रक्ताभिगमन तंत्र, श्वासोच्छवास तंत्र की क्रियाओं का व्यवस्थित रूप से संचालन करते हैं जिससे शरीर पूर्णत:स्वस्थ बना रहता है और कोई रोग नहीं होने पाता। शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक सभी क्षेत्रों के विकास में आसनों का अधिकार है। अन्य व्यायाम पद्धतियां केवल वाह्य शरीर को ही प्रभावित करने की क्षमता रखती हैं, जब कि योगसन मानव का चहुँमुखी विकास करते हैं।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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