Friday, January 7, 2011

Know what's Purana(जानिए, क्या है पुराण)

जानिए, क्या है विष्णु पुराण
हिन्दू धर्म में 18 महापुराण हैं। इन महापुराणों में विष्णु पुराण का स्थान भी महत्वपूर्ण है। भगवान विष्णु की लीलाओं और अवतारों की कथाएं इस पुराण में मिलती हैं। इसकी रचना महर्षि पाराशर ने की है। महर्षि पाराशर महाभारत के रचयिता महर्षि वेद व्यास के पिता हैं।

विष्णु महापुराण में भूगोल, ज्योतिष, कर्मकाण्ड, राजवंश और श्रीकृष्ण के चरित्र के साथ ही अन्य कई घटनाओं को बड़े ही सुन्दर तरीके से बताया गया है। यह पुराण पूरे तरीके से भगवान विष्णु को समर्पित है। यह महापुराण महाभारत काल के पूर्व लिखा माना गया है। इसमें पृथ्वी के भूगोल के साथ ही कई अन्य विद्याओं का उल्लेख भी मिलता है। काल गणना और सृष्टि की रचना का उल्लेख इसमें बहुत प्रामाणिक तौर पर मिलता है। मूलत: संस्कृत में लिखे गए इस ग्रंथ की काव्यात्मक शैली भी बहुत अद्भुत मानी गई है।
इस पुराण में कुल छह अध्याय हैं, जो सृष्टि की रचना से लेकर कलियुग में महाप्रलय तक की परिस्थितियों का वर्णन करते हैं। महापुराण श्रीमद् भागवत के समान ही इसमें भी पूरे भारतवर्ष के प्रमुख वंशों और शासकों का वर्णन मिलता है। इसमें ही विष्णु के 24 अवतारों की कथाएं भी हैं। श्रीकृष्ण इस पुराण के मुख्य पात्र हैं और सबसे ज्यादा उल्लेख उन्हीं का मिलता है। महर्षि पाराशर काल गणना और ज्योतिष के भी महान विद्वान माने जाते हैं, इसलिए उनके इस ग्रंथ में भी ज्योतिष की विद्याओं का वर्णन भी मिलता है।

विष्णु के 24 अवतार क्यों?
हिन्दू धर्म में भगवान विष्णु को सृष्टि का संचालक माना है ऐसा माना जाता है कि ब्रह्मा सृष्टि बनाने वाले विष्णु सृष्टि का पालन और शिव संहार करने वाले है। शास्त्रों में विष्णु के 24 अवतार बताए हैं ऐसा कहा जाता है कि जब जब पृथ्वी पर कोई संकट आता है तो भगवान अवतार लेकर उस संकट को दूर करते है।

पर सवाल ये है कि भगवान विष्णु के अवतारों की संख्या 24 ही क्यो है ज्यादा या कम क्यों नहीं। इसके पीछे जो कारण बताया जाता है वो मानव शरीर की रचना व उसके संचालन से जुड़ा है। कई विद्वानों और संतों का ऐसा मत है कि विष्णु के 24 अवतारों में मानव शरीर की रचना का रहस्य छुपा है। शास्त्रों ने मानव शरीर की रचना 24 तत्वों से जुड़ी बताई है। ये 24 तत्व ही 24 अवतारों के प्रतीक हैं।

क्या हैं ये 24 तत्व: माना जाता है कि सृष्टि का निर्माण 24 तत्वों से मिलकर हुआ है इनमें पांच ज्ञानेद्रियां(आंख,नाक, कान,जीभ,त्वचा) पांच कर्मेन्द्रियां(गुदा,लिंग,हाथ,पैर,वचन) तीन अंहकार(सत, रज, तम) पांच तन्मात्राएं (शब्द,रूप,स्पर्श,रस,गन्ध)पांच तत्व(धरती, आकाश,वायु, जल,तेज) और एक मन शमिल है इन्हीं चौबीस तत्वों से मिलकर ही पूरी सृष्टि और मनुष्य का निर्माण हुआ है।

कितना बड़ा होता है ब्रह्मा का एक दिन?
कितना बड़ा होता है ब्रह्मा का एक दिन?धरती पर हमने अपनी सुविधा के हिसाब से हर चीज तय की है। हमने काल गणना के भी अपने अपने तरीके इजात किए हैं 24घंटो में धरती पर एक रात और एक दिन का समय गुजर जाता है। नेकिन क्या आपने कभी कल्पना की है कि दुनिया को बनाने वाले ब्रह्मा का एक दिन कितना बड़ा होता है? जिन देवताओं की हम पूजा करते हैं उनका एक दिन कितना बड़ा होता है? हम आपको ऐसी ही रोचक जानकारी यहां दे रहे हैं। हमारे ग्रन्थों ने बहुत बारीकी से समय की गणना की है । विष्णु पुराण में भी इसी तरह की काल गणना का प्रमाण मिलता है। मर्हिषि पाराशर ने इसही बहुत प्रमाणिक गणना बताई है।
विष्णु पुराण के पहले अध्याय में इसका उल्लेख है कि धरती पर 30 मुहुर्त का एक दिन और एक रात होती है 30 दिन का एक महीना और छ: महीनों का एक अयन होता है। यह दो अयन उत्तरायण और दक्षिणायन देवताओं के दिन और रात होते है। उत्तरायण दिन कहा जाता है और दक्षिणायन रात कही जाती है। इस गणना के मुताबिक 48,000 साल का सतयुग 36,000 साल का त्रेतायुग 24,000 साल का द्वापर और 12,000 देव वर्ष का कलियुग माना गया है।पुराण कहता है कि चार युग मिल कर चर्तुयुग होता है और ऐसे एक हजार चर्तुयुग बीतने पर ब्रह्मा का एक दिन पूरा होता है।ब्रह्मा के एक दिन के भीतर ही हम एक हजार बार जन्म ले चुके होते हैं। और इतनी ही बार सृष्टि की रचना और विध्वंश भी हो जाता है।

क्यों कहते हैं विष्णु को नारायण?
हिंदू धर्म ग्रंथों में बताया गया है कि सृष्टि का निर्माण त्रिदेवों ने मिलकर किया है। भगवान विष्णु को सृष्टि का संचालनकर्ता माना गया है। कहते हैं कि जब भी धरती पर कोई मुसीबत आती है तो भगवान विभिन्न अवतार लेकर आते हैं और हमें उन मुसीबतों से बचाते हैं।
हिन्दू धर्म में भगवान के जितने रूप है उतने ही उनके नाम भी बताये गए है। भगवान विष्णु का ऐसा ही एक नाम है नारायण। लेकिन क्या कभी किसी ने सोचा कि भगवान को नारायण क्यों कहते हैं? भगवान विष्णु का नारायण नाम कैसे पड़ा?
विष्णु महापुराण में भगवान के नारायण नाम के पीछे एक रहस्य बताया गया है। इसमें कहा गया है कि जल की उत्पत्ति नर अर्थात भगवान के पैरों से हुई है इसलिए पानी को नीर या नार भी कहा जाता है। चूंकि भगवान का निवास स्थान (अयन) पानी यानी कि क्षीर सागर को माना गया है इसलिए जल में निवास करने के कारण ही भगवान को नारायण (नार+अयन) कहा जाता है।
हमारे शास्त्रों नें बताया है कि इस सृष्टि का निर्माण भी जल से हुआ है। और भगवान के पहले तीन अवतार भी जल से उत्पन्न हुए हैं इसलिए हिन्दू धर्म में जल को देव रूप मे पूजा जाता है।

कैसे बनी वर्ण व्यवस्था ?
पुराणों में बताया गया है कि सृष्टि के सफल संचालन के लिए हिन्दू धर्म में वर्ण व्यवस्था का निर्धारण किया गया लेकिन क्या कभी किसी ने यह सोचा कि यह वर्ण व्यवस्था कैसे बनी? किसने बनाई और क्यों बनाई?
इस बात की जानकारी विष्णु महापुराण में दी गई है विष्णु महापुराण में बताया गया है कि सृष्टि का निर्माण भगवान विष्णु ने किया है। और पृथ्वी की उत्पत्ति के बाद उसको नियमित रूप से चलाने के लिए विष्णु ने वर्ण व्यवस्था को बनाया भगवान ने मनुष्य को उत्पन्न किया और साथ ही साथ सबके कामों का निर्धारण भी किया।
ये चार वर्ण क्रमश: भगवान के मुंह वक्ष जांघ और पैरों से उत्पन्न हुए हैं विष्णु पुराण में बताया गया है कि भगवान विष्णु जगत की रचना के बारे में सोच कर ध्यामग्र हुए तभी उनके मुख से सत्वप्रधान प्रजा (ब्राह्मण)उत्पन्न
हुई उसके बाद उनके वक्ष स्थल से रजप्रधान(क्षत्रिय) तथा जंघाओं से रज और तम विशिष्ट प्रजा(वैश्य) का जन्म हुआ। भगवान विष्णु के पैरों से तम प्रधान मनुष्य(शूद्र) उत्पन्न हुए। ब्राह्मणों का काम यज्ञ करना क्षत्रियों का काम युद्ध और रक्षा करना वैश्यों का काम व्यापार करना तथा शूद्रों का काम सेवा करना था। इस प्रकार पृथ्वी पर वर्ण व्यवस्था स्थापित हुई।

क्यों रहती है लक्ष्मी विष्णु के साथ
हिन्दू देवी देवताओं में भगवान विष्णु और लक्ष्मी सबसे ज्यादा पूजे जाने वाले देवी देवताओं में से एक हैं भगवान विष्णु के सारे चित्रों या मंदिरों में लक्ष्मी का स्थान अवश्य होता है। मां लक्ष्मी को गणेश और सरस्वती के साथ तो पूजा ही जाता है साथ ही साथ उनकी पूजा अलग से भी की जाती है लेकिन भगवान विष्णु की पूजा अकेले नहीं की जाती विष्णु के साथ लक्ष्मी का होना जरूरी माना जाता है आखिर क्या कारण है कि भगवान विष्णु को लक्ष्मी के साथ ही पूजा जाता है?

हिन्दू धर्म में लगभग सभी देवी देवताओं का जो चरित्र चित्रण किया गया है वह उनकी खासियतों और उसके व्यवहारिक पक्ष को ध्यान में रखकर किया गया है। अधिकाशं विद्वानों का मत है कि हिन्दू धर्म में जितने देवी देवता हैं उनका इस सृष्टि के संचालन में कुछ न कुछ महत्व जरूर है ब्रह्मा को इस सृष्टि का रचनाकार विष्णु को संचालनकर्ता तथा शिव को संहारक माना है।
विद्वानों का मानना है क्यों कि भगवान विष्णु सृष्टि का पालन पोषण और संचालन करते हैं इसलिए उनका मूल स्वभाव कर्मप्रधान है। कहते है संसार में जीवित रहने के लिए कर्म करना बेहद जरूरी है और जो कर्म करते लक्ष्मी हमेशा उनके साथ ही रहती है इसलिए ही भगवान विष्णु के साथ लक्ष्मी का होना इस बात का प्रतीक है कि बिना कर्म किए हमें लक्ष्मी कभी प्राप्त नहीं होती।


शेषनाग पर क्यों सोते हैं भगवान विष्णु...?
हिन्दू धर्म में भगवान विष्णु को जगत का पालन करने वाले देवता माना जाता है। भगवान विष्णु का स्वरूप शांत, आनंदमयी, कोमल, सुंदर यानि सात्विक बताया गया है। वहीं दूसरी ओर भगवान विष्णु के भयानक और कालस्वरूप शेषनाग पर आनंद मुद्रा में शयन करते हुए भी दर्शन किए जा सकते हैं।भगवान विष्णु के इसी स्वरूप के लिए शास्त्रों में लिखा गया है -शान्ताकारं भुजगशयनं यानि शांतिस्वरूप और भुजंग यानि शेषनाग पर शयन करने वाले देवता भगवान विष्णु।

साधारण नजरिए से यह अनूठा देव स्वरूप अचंभित करता है कि काल के साये में रहकर भी देवता बिना किसी बैचेनी के शयन करते हैं। किंतु भगवान विष्णु के इस रूप में मानव जीवन से जुड़ा छुपा संदेश है - जिंदगी का हर पल कर्तव्य और जिम्मेदारियों से जुड़ा होता है। इनमें पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक दायित्व अहम होते हैं। किंतु इन दायित्वों को पूरा करने के साथ ही अनेक समस्याओं, परेशानियों, कष्ट, मुसीबतों का सिलसिला भी चलता रहता है, जो कालरूपी नाग की तरह भय, बेचैनी और चिन्ताएं पैदा करता है। जिनसे कईं मौकों पर व्यक्ति टूटकर बिखर भी जाता है।भगवान विष्णु का शांत स्वरूप यही कहता है कि ऐसे बुरे वक्त में संयम, धीरज के साथ मजबूत दिल और ठंडा दिमाग रखकर जिंदगी की तमाम मुश्किलों पर काबू पाया जा सकता है। तभी विपरीत समय भी आपके अनुकूल हो जाएगा। ऐसा व्यक्ति सही मायनों में पुरूषार्थी कहलाएगा।इस तरह विपरीत हालातों में भी शांत, स्थिर, निर्भय व निश्चिंत मन और मस्तिष्क के साथ अपने धर्म का पालन यानि जिम्मेदारियों को पूरा करना ही विष्णु के भुजंग या शेषनाग पर शयन का प्रतीक है।
क्या है समुद्र मंथन का राज
हिन्दु पुराणों में सृष्टि की शुरुआत में समुद्र मंथन का उल्लेख मिलता है। कथा है कि देवताओं ने अमृत प्राप्ति के लिए दैत्यों के साथ मिलकर समुद्र मंथन किया था जिसमें हलाहल विष के साथ साथ 14 रत्न निकले थे इस घटना को लेकर विद्वान अलग अलग मत रखते हैं कुछ विद्वान इसे सही घटना मानते हैं कुछ काल्पनिक और कुछ इससे प्रतीकात्मक रूप में देखते हैं समुद्र मंथन का प्रतीकात्मक रूप आज से भी गहरे जुड़ा है। विद्वानों ने समुद्र को मानव मन का प्रतीक माना है इसलिए समुद्र मंथन का एक अर्थ मनुष्य के मन के मंथन से भी जुड़ा है।

अपने भीतर छुपे गुणों शक्तियों अच्छे और बुरे भावों को निकालने के लिए और उन्हें मोक्ष का मार्ग बताने के लिए इंसान का आत्म मंथन जरूरी है। पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन में सबसे पहले विष निकला जिसे भागवान शिव ने अपने कंठ में धारण किया यह सब इस बात का प्रतीक है कि हम जब भी अपने मन में विचारों का मंथन करते हैं तो सबसे पहले बुरे विचार ही बाहर आते हैं क्यों कि मन के भीतर सबसे ज्यादा बुरे विचार ही पनपते हैं शिव का इस हलाहल विष का पीना इस बात का प्रतीक है कि जब मंथन से कोई बुराई निकले तो उसे समाज मेंन फैलने दिया जाए उसका हल कुछ ऐसा हो कि न हम पर कोई विपरीत असर पड़े और न ही समाज में कोई दुष्प्रभाव हो जैसे शिव ने विष तो पिया लेकिन उसे अपने गले में ही अटकाए रखा जिससे न तो

उन पर कोई दुष्प्रभाव पड़ा और न ही बाकी सब पर मंथन से निकले सारे रत्न भी ऐसे ही भवों का प्रतीक है। सबसे अंत में अमृत निकलता है जिसे हम आज के दौर में ब्रह्मज्ञान, परमज्ञान या परमानंद भी कहते हैं जो हमें मोक्ष के मार्ग पर ले जाता है।

इसलिए हुआ था समुद्र मंथन
पुराणों की जानकारी के अनुसार हम सब जानते हैं कि समुद्र मंथन हुआ लेकिन समुद्र मंथन क्यों हुआ उसके पीछे क्या वजह थी ये बात कम ही लोग जानते हैं। विष्णु महापुराण में समुद्र मंथन का रहस्य बताया गया है एक बार भगवान शंकर के अवतार दुर्वासा ऋषि ने देवराज इन्द्र को एक हार आर्शावाद के रूप में दिया लंकिन इन्द्र ने उसे स्वीकार न कर ऐरावत के ऊपर फेंक दिया तब दुर्वासा ऋषि के श्राप के कारण पृथ्वी छिन्न भिन्न होने लगी तपस्वियों ने जप तप करना छोड़ दिया पेड़ पौधे अपनी ताजगी खोने लगे लोगों का दान धर्म से मन हटने लगा दानवों ने देवलोक पर अपना अधिकार कर लिया जब धीरे धीरे सब नष्ट होने लगा तब सभी देव इकठ्ठे होकर ब्रह्मा जी के पास पहुंचे ब्रह्मा जी ने कहा कि भगवान विष्णु ही मदद कर सकते हैं
तब सारे देवगण ब्रह्माजी के साथ मिलकर भगवान विष्णु के पास पहुंचे और उनकी स्तुति कर भगवान विष्णु से रक्षा की गुहार करने लगे तब भगवान विष्णु ने बुराईका अन्त करने के लिए एक उपाय देवताओं को बताया भगवान विष्णु ने देवताओं से कहा कि अमृत बनाने के लिए तुम दैत्यों के साथ मिलकर औषिधियां लाओ और क्षीर सागर में डालो उसी अमृत से तुम बलशाली और अमर बनोगे। तभी सारे देव और दानवों ने मिलकर औषिधियां इकठ्ठी की और उन्हें क्षीर सागर में डाल दिया उसके बाद मन्दराचल पर्वत को मथानी और वासुकी को नेती बनाकर समुद्र मंथन शुरू किया। समुद्र मंथन में सबसे पहले कामधेनू गायवारूणी देवी, कल्पवृक्ष, अप्सराऐं, चन्द्रमा, विष और सबसे आखिरी में भगवान धनवन्तरी जी खुद अमृत कलश लेकर प्रकट हुए भगवान ने वही अमृत देवताओं को पिलाकर देवताओं को अपना आर्शीवाद दिया उसके बाद देवताओं ने दानवों को युद्ध में हराकर अपना देवलोक वापस ले लिया

क्यों मानते है धुव्र तारे को सबसे श्रेष्ठ...?
चन्द्रमा के पास दिखने वाले धुव्रतारे को खगोलशास्त्र में बहुत महत्व पूर्ण माना है। साथ ही साथ हमारे धर्म शास्त्रों में धुव्र तारे को सभी ग्रहों में सबसे ज्यादा पूजनीय माना है। हिन्दू धर्म में वैवाहिक कार्यक्रमों में भी धुव्र तारे को बेहद महत्व दिया जाता है कई समाजों में तो नव वधु को ग्रह प्रवेश से पहले धुव्र तारे के दर्शन कराए जाते हैं ।

लेकिन विज्ञान हो या धर्म शास्त्र धुव्र तारे को इतना महत्वपूर्ण स्थान क्यों दिया गया है विष्णु महापुराण में इस सवाल का जवाब दिया गया राजा हिरण्यकश्चपु की दो रानियां थी एक का नाम था सुनिती और दूसरी का सुरूचि एक बार राजसभा में सुरूचि ने सुनिती के पुत्र धुव्र को पिता की गोद में बैठने से मना कर दिया तब बालक धुव्र दुख प्रकट करते हुऐ अपनी मां सुनीती के पास पहुंचे और उनसे आर्शीवाद लेकर वन में तपस्या करने के लिए चले गए।

धुव्र ने भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए कड़ी तपस्या शुरू की बालक के निश्छल और निर्मल मन और उसकी कड़ी तपस्या को देख कर भगवान विष्णु ने उसे दर्शन देकर आर्शीवाद मांगने के लिए कहा तब अपनी मां की बातों से उपेक्षित बालक धुव्र ने भगवान से कहा कि मैं सदैव अपके समीप रहना चाहता हूं और संसार के उस सर्वोत्तम पद को पाना चाहता हूं जो पूरे विश्व का आधारभूत हो तब भगवान विष्णु ने धुव्र से कहा कि हे भक्त धुव्र तुम्हारी भक्ति सर्वोत्तम है मैं तुम्हें वह स्थान देता हूं जो सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति शुक्र और शनि आदि ग्रह सभी नक्षत्रों, सप्तऋषियों, देवगणों से भी ऊपर है और जो लोग अपने सच्चे मन से तेरा गुण और कीर्तन करेंगें। उन्हें महान पुण्य प्राप्त होगा। इसलिए आज भी हमारे यहां ध्रुव तारे को बड़ा महत्वपूर्ण माना गया है।

कितने प्रकार के होते हैं नर्क?
कहते है कि हर प्राणी के लिए उनके कर्मों के अनुसार कर्मफल निर्धारित किए गए हैं जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल मिलता है। अगर मनुष्य अच्छे कर्म करता है तो उसे स्वर्ग मिलता है और बुरे कर्म करनेवालों को नरक में जाना पड़ता है भगवान ने सभी के लिए पहले से ही यह सब कुछ तय कर रखा है।
लेकिन यह बहुत कम लोग जानते हैं कि ये स्वर्ग और नरक कितने प्रकार के होते हैं इस बात का जवाब विष्णु महापुराण में दिया गया है विष्णुपुराण में 28 प्रकार के नरक बताए गए हैं जो इस प्रकार हैं सबसे पहले नरक का नाम रौरव, सूकर, रोध, ताल, विशषन, महाज्वाल, तप्तकुभं, लवण, विलोहित, रूधिरम्भ, वैतरणी, कृमीश, कृमीभोजन, असिपत्रवन, कृष्ण, लालापक्ष, दारूण, पूयवह, वन्हिज्वाल, अन्धशिरा, पल्प, संन्दश, कालसूत्र, तमस, आवीचि, श्रभोजन, अप्रतिष्ठा, और अप्रति।
इस प्रकार मुख्य रूप से 28 नरक बताए गए हैं लेकिन विष्णु पुराण में इन नरकों के अलावा और भी सैंकड़ो नरक बताए गए हैं जो सभी यमराज के अधीन है

जानिए क्या है शिव महापुराण
भगवान शंकर हिंदुओं के प्रमुख देवता हैं। अनेक धर्म ग्रंथों में भगवान शंकर को अनादि व अजन्मा बताया गया है। भगवान शंकर, विष्णु व ब्रह्मा के भी आराध्य देव हैं। भगवान शंकर से संबंधित अनेक धर्मग्रंथ प्रचलित हैं लेकिन शिवमहापुराण उन सभी में सबसे अधिक प्रमाणिक माना गया है। अगर यह कहा जाए कि शिव महापुराण शैव संप्रदाय का सबसे पवित्र व पूज्यनीय ग्रंथ है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।
शिव महापुराण मुख्यत: सात संहिताओं में विभाजित है। इसमें चौबीस हजार श्लोक हैं। शिवमहापुराण में भगवान शिव के कल्याणकारी रूप का वर्णन किया गया है। साथ ही इसमें भगवान शंकर के विभिन्न अवतारों तथा लीलाओं का भी विस्तृत वर्णन है जो शिव के व्यापक रूप को प्रदर्शित करता है। विद्वानों के अनुसार जो भी मनुष्य सच्चे मन से शिव महापुराण का वाचन या श्रवण करता है वह संसार के सभी भोगों को भोगकर अंत में भगवान शिव के पद को प्राप्त कर लेता है।

मोक्ष प्रदान करता है शिव महापुराण
शिव महापुराण शैव संप्रदाय का प्रमुख ग्रंथ है। इसमें 24 हजार श्लोक हैं। शिव महापुराण का प्रारंभ तब होता है जब श्रीशौनकजी महाज्ञानी सूतजी से समस्त पुराणों के सारतत्व के रहस्य के बारे पुछते हैं।
शौनकजी सूतजी से कहते हैं कि इस संसार में ज्ञानी पुरुष किस प्रकार अपने काम, क्रोध आदि को छोड़कर भगवान की भक्ति पा सकता है। इसका क्या उपाय हो सकता है। तब सूतजी शौनकजी से कहते हैं कि भक्तिपूर्वक शिवमहापुराण को सुनने से मन शुद्ध होता है तथा अंत में मोक्ष प्राप्त होता है। शिव महापुराण कानों के लिए अमृत के समान है। शिव महापुराण के वाचन पूर्वकाल में भगवान शिव ने ही किया था। गुरुदेव व्यास ने सनत्कुमार मुनि का उपदेश पाकर बड़े ही आदर से संक्षेप में इस पुराण को लिखा है। शिव महापुराण का मुख्य उद्देश्य ही कलियुग में उत्पन्न होने वाले मनुष्यों को भक्ति का मार्ग दिखाना तथा उन्हें मोक्ष देना।
सूतजी आगे कहते हैं कि शिवमहापुराण को सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है तथा जीवन के सभी भोगों को भोग कर अंत में शिवलोक को प्राप्त करता है। जो मनुष्य प्रतिदिन विधि-विधानपूर्वक शिव महापुराण की पूजा करता है वह सदा सुखी रहता है। अत: सदैव प्रेम व भक्तिपूर्वक शिव महापुराण का पूजन व श्रवण करना चाहिए।

शिवपुराण सुनने से मोक्ष मिला देवराज को
शिव महापुराण का वाचन तथा श्रवण करने से सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है। यह बात हम पिछले अंक में पढ़ चुके हैं। इस तथ्य के संबंध में शिव महापुराण में एक कथा भी दी गई है, उसके अनुसार-
पहले के समय में कहीं किरातों के नगर में एक ब्राह्मण रहता था। उसका नाम देवराज था। वह न तो भगवान की पूजा किया करता था न ही अन्य धार्मिक कार्य। इसके विपरीत वह सभी बुरे कार्य करता था। उसने अपने परिवारजनों को मारकर उनका धन भी हड़प लिया और बुरे कामों में उड़ा दिया।
एक दिन वह घूमता हुआ प्रतिष्ठानपुर (झूसी-प्रयाग) जा पहुंचा। वहां उसने एक शिवालय देखा, जहां बहुत से साधु-महात्मा ठहरे हुए थे। देवराज भी वहीं ठहर गया लेकिन वहां उसकी तबियत खराब हो गई।
वहां एक ब्राह्मण शिव महापुराण की कथा सुना रहे थे। बीमार होने के कारण देवराज वहीं पड़ा रहा और शिव कथा सुनता रहा। कुछ समय बाद बीमारी के कारण उसकी मृत्यु हो गई। यमराज के दूत आए और उसे अपने साथ यमलोक ले गए। तभी वहां भगवान शंकर के पार्षद आ गए और देवराज को यमदूतों से छुड़ाकर अपने साथ ले जाने लगे। तभी वहां यमराज भी आ गए। उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से सारी बात जान ली और देवराज को ले जाने दिया।
इस प्रकार शिव महापुराण सुनने मात्र से ही पापी देवराज को शिवलोक में स्थान मिल गया।

चंचुला को कैसे मिली पापों से मुक्ति?
शिव महापुराण सुनने से जन्म-जन्मांतर के पाप नष्ट हो जाते हैं। इस तथ्य के संबंध एक कथा शिव महापुराण में वर्णित है। उसके अनुसार-
समुद्र के निकट वाष्कल नामक ग्राम था। वहां के लोग बहुत ही पापी थे। वहां बिन्दुग नाम का एक ब्राह्मण रहता था वह भी बहुत दुर्जन था। उसकी पत्नी का नाम चंचुला था वह बड़ी ही सुंदर व धर्म का पालन करने वाली थी। पति को सही मार्ग पर न आते देख कुछ समय बाद वह भी दुराचारी हो गई। कुछ समय बाद बिन्दुग का निधन हो गया। बहुत दिनों तक नरक के दु:ख भोगने के बाद वह भयंकर पिशाच बन गया।
एक दिन चंचुला अपने पुत्रों के साथ गोकर्ण क्षेत्र में गई। वहां एक ब्राह्मण भगवान शिव की कथा कर रहे थे। कथा में ब्राह्मण ने दुराचारियों को नरक में दी जाने वाली यातनाओं के बारे में भी बताया। यह सुनकर चंचुला को भय होने लगा। चंचुला उस ब्राह्मण के पास गई और पापों का प्रायश्चित कैसे किया जाए यह पूछा। उस ब्राह्मण ने चंचुला को शिव महापुराण सुनने के लिए कहा।
तब चंचुला वहीं रहकर प्रतिदिन शिव महापुराण की कथा सुनने लगी। इस प्रकार उसके सभी पाप नष्ट हो गए। समय आने पर चंचुला ने अपने प्राणों का त्याग किया तब शिवदूत विमान लेकर आए और उसे अपने साथ शिवलोक ले गए। इस प्रकार शिव महापुराण का नित्य श्रवण करने से चंचुला को शिवलोक में स्थान मिला।

पिशाच योनि से कैसे मुक्त हुआ बिन्दुग?
जब चंचुला शिवलोक में सुखपूर्वक रहने लगी तो एक दिन उसे अपने पति बिन्दुग की बहुत याद आई। चंचुला माता पार्वती के पास गई और बिन्दुग के बारे में पूछा। माता पार्वती ने बताया कि तुम्हारा पति बिन्दुग बहुत समय तक नरक में रहा और यातनाएं भोगी। वर्तमान में वह विंध्यांचल पर्वत पर पिशाच योनि में रह रहा है। यह सुनकर चंचुला को बहुत कष्ट हुआ। तब उसने माता पार्वती से उसके उद्धार का उपाय पूछा। माता ने कहा कि यदि वह शिव महापुराण का श्रवण करे तो पिशाच योनि से मुक्त हो सकता है।
चंचुला ने माता पार्वती से कहा कि कोई ऐसा उपाय कीजिए जिससे कि मेरे पति विंध्यांचल पर्वत पर रहते हुए ही शिव महापुराण सुन सकें। तब माता पार्वती ने भगवान शिव की कीर्ति का गान करने वाले गंर्धवराज तुम्बुरु को बुलाया और कहा कि तुम विंध्यांचल पर्वत पर जाकर शिव महापुराण कथा का वाचन करो जिससे वहां रहने वाले पिशाच को मुक्ति मिल सके। तुम्बुरु ने माता पार्वती की आज्ञानुसार वैसा ही किया। तुम्बुरु ने उस पिशाच को पाशों से बांधकर आसन पर बैठाया और हाथ में वीणा लेकर भगवान शंकर की कथा का वाचन किया।
कथा के समाप्त होते ही उस पिशाच ने अपने पैशाचिक शरीर को त्याग दिया और उसका रूप दिव्य हो गया। इस प्रकार बिन्दुग दिव्य शरीर पाकर अपनी पत्नी चंचुला के साथ भगवान शिव व माता पार्वती आराधना करने लगा।इस प्रकार बिन्दुग व चंचुला सुखपूर्वक भगवान शिव के धाम में रहने लगे।

शिव महापुराण: इन बातों का रखें ध्यान
शिव महापुराण की कथा सुनने से मनुष्य शिवलोक में स्थान पाता है। अनेक स्थानों पर शिव महापुराण कथा करवाई जाती है। शिव महापुराण में इस संबंध में स्पष्ट वर्णित है कि जब शिव महापुराण कथा करवाई जाए तो किन बातों का ध्यान रखना चाहिए। उसके अनुसार-
सबसे पहले किसी योग्य ज्योतिष को बुलाकर कथा प्रारंभ के लिए मुहूर्त निर्धारित करें तथा कथा वाचन के लिए विद्वान पंडित का चयन करें। तत्पश्चात अपने रिश्तेदारों व जान-पहचान वालों को कथा के संबंध में सूचित करें ताकि वे भी धर्म लाभ ले सकें। कथा वाचन के लिए उत्तम स्थान का चयन करें तथा वहां केले के खम्भों से सुशोभित एक ऊंचा कथा मंडप तैयार करवाएं। उसे सब ओर से फल-पुष्प आदि से सजाएं। भगवान शंकर के लिए दिव्य आसन का निर्माण करना चाहिए तथा एक ऐसा ही दिव्य आसन कथावाचक के लिए भी बनाना चाहिए। श्रोताओं के लिए भी बैठने के लिए उचित प्रबंध होना चाहिए।
सूर्योदय के आरंभ करके साढ़े तीन पहर तक कथावाचक को शिव महापुराण कथा सम्यक् रीति से बोलनी चाहिए। मध्याह्नकाल में दो घड़ी तक कथा बंद रखनी चाहिए ताकि श्रोता आवश्यक कार्य कर सकें। कथा में आनी वाली परेशानियों को समाप्त करने के लिए भगवान गणेश की पूजा करें तत्पश्चात भगवान शंकर व शिव महापुराण ग्रंथ का पूजन भी अवश्य करें। इस प्रकार मन शुद्ध कर शिव महापुराण कथा का प्रारंभ करना चाहिए।

ऐसे सुनें शिव महापुराण
शिव महापुराण में भगवान शंकर के अद्भुत स्वरूप का वर्णन किया गया है। यह पुराण भवसागर से तारने वाला है। जो भी नियमित रूप से शिव महापुराण की कथा सुनता है उस पर भगवान शंकर अति प्रसन्न होते हैं। शिवमहापुराण में कथा सुनने के संबंध में कुछ नियमों का वर्णन भी किया गया है जो इस प्रकार हैं-
1- कथा सुनने वाले को सर्वप्रथम वक्ता से दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए।
2- जो लोग नियम से कथा सुनें उन्हें ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए तथा भूमि पर सोना, पत्तल पर खाना और प्रतिदिन कथा समाप्त होने के बाद ही अन्न ग्रहण करना चाहिए।
3- दाल, जला हुआ अन्न, सेम, मसूर, बासी भोजन, प्याज, लहसुन, हींग, गाजर तथा मादक पदार्थों का सेवन करना भी मना है।
4- कथा का व्रत लेने वाले मनुष्य को काम, क्रोध, आदि छ: विकारों से बचना चाहिए। व्रती को ब्राह्मण व साधु- संतों की निंदा भी नहीं नहीं करनी चाहिए।
5- कथा का व्रत लेने वाले मनुष्य को प्रतिदिन एक ही बार हविष्यान्न का भोजन करना चाहिए।
6- जिसमें शक्ति हो वह पुराण की समाप्ति तक उपवास करके विधिपूर्वक इसका पारण करें।
व्रती को चाहिए कि इन नियमों का पालन कर ही शिवमहापुराण की कथा का श्रवण करे।

चौबीस हजार श्लोक हैं शिव महापुराण में
पुरातन समय की बात है। एक बार तीर्थराज प्रयाग में समस्त साधु-संत आकर ठहरे। उस समय वहां महर्षि वेदव्यास के शिष्य महामुनि सूतजी भी आए। सूतजी को देखकर साधु-संत आदि महात्मा अति प्रसन्न हुए। उन्होंने सूतजी से कहा कि घोर कलयुग आने पर मनुष्य पुण्यकर्म नहीं करेंगे तथा दुराचारी हो जाएंगे। धर्म का त्याग कर देंगे तथा अधर्म में ही मन लगाएंगे। उस स्थिति में उन्हें परलोक में उत्तम गति कैसे प्राप्त होगी? अत: ऐसा कुछ उपाय बताएं जिससे कि कलयुग के मानवों का पाप तत्काल नाश हो जाए।
तब सूतजी भगवान शंकर का स्मरण कर बोले कि भगवान शंकर की महिमा को बताने वाला जो शिव महापुराण है, वह सभी पुराणों में श्रेष्ठ है। कलियुग में जो भी शिव महापुराण का वाचन करेगा तथा धर्मपूर्वक इसका श्रवण करेगा वह सभी पापों से मुक्त हो जाएगा। इस शिव महापुराण की रचना स्वयं भगवान ने ही की है। इसमें बारह संहिताएं हैं। मूल शिव महापुराण की श्लोक संख्या एक लाख है परंतु व्यासजी ने इसे चौबीस हजार श्लोकों में संक्षिप्त कर दिया है।
पुराणों की क्रम संख्या के अनुसार शिव महापुराण का स्थान चौथा है। इसमें वेदांत, विज्ञानमय तथा निष्काम धर्म का उल्लेख है। साथ ही इस ग्रंथ में श्रेष्ठ मंत्र-समूहों का संकलन भी है। जो बड़े आदर से इसे पढ़ता और सुनता है, वह भगवान शिव का प्रिय होकर परम गति को प्राप्त करता है।

कलयुग में कैसे मिलेगी पापों से मुक्ति?
प्रयागराज तीर्थ पर जब संत व मुनियों का समागम हुआ तो उन्होंने सूतजी से कलयुग के पापों का निवारण का उपाय पूछा। सूतजी ने कहा कि शिव महापुराण सुनने से कलयुग में पापों से मुक्ति संभव है। यह सुनकर संतजन बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने सूतजी ने शिव महापुराण की कथा सुनाने के लिए आग्रह किया। तब सूतजी ने शिव महापुराण की कथा प्रारंभ की। सूतजी ने कहा कि वर्तमान कल्प में जब सृष्टि का आरंभ हुआ तो उन दिनों छ: कुलों के महर्षियों में इस बात पर विवाद हो गया है कि कौन सर्वश्रेष्ठ है अथवा कौन नहीं।
वे अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए भगवान ब्रह्मा के पास गए और उनसे इस विषय में पूछा। तब ब्रह्माजी ने उनसे कहा कि जिन्होंने ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र व इंद्र तथा संपूर्ण ब्रह्मांड की रचना की है वही भगवान शिव सर्वश्रेष्ठ हैं।
आगे सूतजी ने बताया कि एक बार महर्षि वेदव्यास सरस्वती नदी के तट पर तपस्या कर रहे थे। तभी वहां सनत्कुमारजी भी आ गए। व्यासजी ने उनका पूजन किया तब सनत्कुमारजी बोले कि इस संसार में भगवान शिव ही सत्य हैं। श्रवण, कीर्तन तथा मनन ये तीनों भगवान शंकर को पाने के मार्ग हैं। यह तीनों ही मुक्ति का उत्तम माध्यम हैं। तुम इन तीनों साधनों का ही अनुष्ठान करो। ऐसा कहकर सत्नकुमार ब्रह्मधाम को चले गए।

क्यों करें शिवलिंग व मूर्ति की पूजा?
सूतजी प्रयाग में एकत्रित हुए साधु-संतों को शिवमहापुराण की कथा सुना रहे हैं। सूतजी ने संतों को बताया कि भगवान शंकर का श्रवण, कीर्तन तथा मनन करने से वे अति प्रसन्न होते हैं। और जो इस प्रकार शिव आराधना करने में असमर्थ हो वह भगवान शिव के लिंग एवं मूर्ति की पूजा कर समस्त दोषों से मुक्ति पा सकता है।
सूतजी के अनुसार छल न करते हुए अपनी शक्ति के अनुसार धनराशि शिवलिंग अथवा शिव मूर्ति की सेवा में अर्पित करने तथा उनका निरंतर पूजन करने से भगवान शिव अति प्रसन्न होते हैं। भगवान को प्रसन्न करने के लिए शिवलिंग अथवा शिव मूर्ति के समक्ष वस्त्र, गंध, पुष्प, धूप, दीप तथा पूआ आदि व्यंजनों को भोग लगाएं। छत्र, ध्वजा आदि राजोपचार की भांति सब सामान शिवलिंग एवं मूर्ति को चढ़ाएं।
सूतजी कहते हैं कि प्रतिदिन शिव की प्रदक्षिणा, नमस्कार तथा यथाशक्ति जाप करें। शिव के आवाहन से लेकर विसर्जन तक सारा कार्य प्रतिदिन भक्तिभाव से करें। इस प्रकार शिवलिंग अथवा शिवमूर्ति में भगवान शंकर की पूजा करने वाला मनुष्य भगवान की प्रसन्नता से सिद्धि प्राप्त कर लेता है। पहले के बहुत से महात्मा लिंग तथा शिव मूर्ति की पूजा करने से भवबंधन से मुक्त हो चुके हैं।

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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