Sunday, January 2, 2011

Jigyasa(जिज्ञासा) Part 5

मन के हारे हार है
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। इस साधारण-सी कहावत का जन्म कई महत्वपूर्ण श्लोकों से गुजरकर हुआ है। सभी धर्मों ने अपने साधकों को घुमा-फिराकर मन पर ला टिकाया है। जो अपने मन से हारा वो चाहे बाहर दुनिया जीत ले फिर भी पराजित ही माना जाएगा और जिसने मन को जीत लिया वह विश्वजीत हो जाएगा।
हनुमानजी को जब लंका में पहली बार प्रवेश करना था तो वे जानते थे कि लंका भोग और विलास का केन्द्र है। यहां सबसे अधिक मन को नियंत्रण में रखना होगा। हनुमानजी का सिद्धांत था मन को नियंत्रण में रखने के दो तरीके हैं-पहला है अभ्यास और दूसरा है वैराग्य। महर्षि पतंजलि ने भी लिखा है 'अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोध:'। मन के लिए सबसे अच्छा अभ्यास है 'सतत् नाम जप'। 24 घंटे में कुछ समय निकाला जाए जब प्रत्येक सांस के साथ विचार न लेते हुए 'नाम जप' किया जाए। यह नाम गुरु मंत्र हो सकता है। ईश्वर की स्मृति के लिए कई शब्द हो सकते हैं लेकिन उस समय मन को विचारों से मुक्त रखा जाए। धीरे-धीरे जीवन के सभी कार्य करते हुए यह जप भीतर-भीतर चलने लगता है। इस अभ्यास से मन को नियंत्रित करने में सुविधा रहती है। दूसरा तरीका है वैराग्य। वैराग्य का यह अर्थ नहीं है कि दुनिया छोड़कर साधु बाबा बना जाए। अध्यात्म ने तो कहा है हर साधक की छ: सम्पत्तियां होती है-शम, दम, उपरति, तितिक्षा, समाधान, श्रद्धा। उपरति का अर्थ है वैराग्य। भोग और विलास के प्रति सजगता का दूसरा नाम वैराग्य है। वैराग्य आते ही कामनाएं और तृष्णाएं वश में होने लगती हैं। यहीं से भ्रम और द्वंद समाप्त होते हैं। उलझनें मिटने लगती हैं। यह स्पष्ट होने लग जाता है जो सही है वही करना है जो गलत है उसे करना तो दूर उसे चिंतन में भी नहीं लाना है। वैराग्य ऐसी स्पष्टता भी देता है। हनुमानजी ने लंका प्रवेश के पहले इन दोनों बातों को साध लिया था।

वाणी बता देती है आपका आचरण, मीठा बोलिए...
आपके मित्र, सहयोगी और हितैषी सदैव इसी प्रकार आपके हितकारी बने रहें इसके लिए मीठी वाणी की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका रहेगी। श्रीराम ने शबरी को चारू भाषिणी कहा था। शबरी वही पात्र थी जिसे श्रीराम ने भक्ति के नौ स्वरूप का उपदेश दिया था। आज भी कई लोग व्यक्तित्व परखने के लिए वाणी को माध्यम बनाते हैं।
किसी व्यक्ति से थोड़ी देर बातचीत करिए तो उसकी वाणी से पता लग सकता है कि वह किस आचरण का है। लेकिन ध्यान रखें इसी वाणी का लोगों ने दुरुपयोग भी किया है। यह आवरण ओढ़े जाने का समय है और लोगों ने वाणी का भी आवरण ओढ़ लिया है। कम योग्य व्यक्ति अच्छा बोलकर अपने दुर्गुण छुपा लेते हैं।
इसी तरह जिन्हें बोलने की कला नहीं आती ऐसे योग्य भी कभी-कभी प्रस्तुति के अभाव में अपनी योग्यता साबित नहीं कर पाते। अध्यात्म में इस बात का महत्व है कि आप जो हैं वे वैसे ही व्यक्त हो जाएँ। मीठी वाणी का अर्थ केवल बोल-बोल करते रहना ही नहीं है मौन भी इसमें शामिल है। बातचीत की कला न आने के कारण दुनिया की आधी से अधिक योग्यता सामने नहीं आ पाई है। आप अपनी योग्यता से परिश्रम करते हैं लेकिन यदि उस परिश्रम का लाभ नहीं उठा पाते तो यह आपकी गलती है और इसमें वाणी की भी भूमिका है। शब्दों का उपयोग करना न आए ऐसे व्यक्ति संकोची हो जाते हैं और संकोच को हमेशा शालीनता नहीं माना जा सकता। इसलिए कहा गया है एक समय था सोचकर बोलने का, फिर वक्त आया तौल-मोलकर बोलने का और अध्यात्म कहता है छानकर बोलिये। असंतुलित वाणी आनन्द के अवसरों को खो देती है। मीठी वाणी का एक रूप है जरा मुस्कुराइये.
कैसे बचाएं समय और ऊर्जा? हनुमानजी से सीखें..
समय और ऊर्जा का सद्पयोग करना केवल एक अनुशासन ही नहीं है, यह कामनसेंस भी है।
सुंदरकाण्ड में प्रसंग आता है हनुमानजी जैसे ही लंका के लिए चले सबसे पहले उड़ते हुए आंजनेय के सामने सुरसा नामक राक्षसी सामने आती है। इन्हें खाने के लिए उस राक्षसी ने अपना मुंह बड़ा करके खोला तो इन्होंने भी अपने रूप को बड़ा कर लिया। फिर छोटे बनकर उसके मुंह में प्रवेश किया और बाहर निकल गए। सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा। जैसे-जैसे सुरसा मुख का विस्तार बढ़ाती थी हनुमानजी इसका दुगुना रूप दिखलाते थे। उसने सो योजन (सौ कोस का) मुख किया। तब हनुमान ने बहुत ही छोटा रूप धारण कर लिया।
इस आचरण से उन्होंने बताया कि जीवन में किसी से बड़ा बनकर नहीं जीता जा सकता। लघुरूप होने का अर्थ है नम्रता! जो सदैव विजय दिलाएगी। इस प्रसंग में जीवन-प्रबंधन का एक और महत्वपूर्ण संकते है। हनुमानजी चाहते तो सुरसा से युद्ध कर सकते थे, लेकिन उन्होंने विचार किया मेरा लक्ष्य इससे युद्ध करना नहीं है, इसमें समय और ऊर्जा दोनों नष्ट होंगे, लक्ष्य है सीता शोध। इसे कहते हैं सहजबुद्धि (कॉमनसेंस)। समय और ऊर्जा बचाने का एक माध्यम शब्द भी हैं इसलिए जीवन में मौन भी साधा जाए। हनुमानजी सुरसा के सामने मौन हो गए थे। एक संत हैं रविशंकर महाराज रावतपुरा सरकार, वे कम बोलने के लिए जाने जाते हैं। पूरी तरह मौनी भी नहीं हैं पर छानकर बोलने की कला भी जानते हैं। कम शब्द की वाणी भीतरी सद्भाव से पूरे व्यक्तित्व को सुगंधित कर देती है और इसीलिए जाते-जाते सुरसा हनुमानजी को आशीर्वाद दे गई।
तो फिर आपके जीवन में दुख आना तय है....
दूसरे की निंदा और अपनी प्रशंसा बड़ी प्रिय लगती है। विज्ञान और टेक्नालॉजी के युग में एनालिसीस की आड़ में आलोचना और निंदा की आदत कब जन्म ले लेती है पता नहीं लगता। आलोचना और निंदा में बारीक सा फर्क है। निंदा का अर्थ है अपने अहंकार का दूसरे के अहंकार से टकराना। जबकि आलोचना का मकसद होता है कहीं न कहीं सत्य को ढूंढना। निंदा जीवन में प्रवेश करे तो समझिए कि जीवन में दुखों का आना भी तय हो गया है।
निंदा के पीछे शत्रुता छिपी है और आलोचना मैत्री को साथ लेकर चलती है। निंदा में मिटाने का भाव है, आलोचना में जगाने की इच्छा होती है। निंदा का नुकसान रानी कैकयी ने उठाया था। रामजी के राजतिलक के पूर्व एक ही रात में कैकयी के सामने मंथरा ने जो वार्तालाप आरंभ किया था उसका आरंभ निंदा स्तुति से ही हुआ था। अपनी निंदा वृत्ति को उसने कैकयी में भी प्रवेश करा दिया था। कैकयी के जीवन में निंदा आते ही राम दूर चले गए। निंदा की आदत भगवान को हमसे दूर कर देती है। निंदावृत्ति ने पूरे विश्व के धार्मिक दृश्य को आहत किया है।
अनेक धार्मिक गुरु और उनके असंख्य अनुयायी एक दूसरे के प्रति निंदा भाव रखने के कारण धर्मक्षेत्र को कुरुक्षेत्र बनाते गए। धर्म शास्त्र अपने शब्दों से पहचाने गए हैं, निंदा के खेल में शब्दों की बड़ी भूमिका होती है इसलिए कई बार तो धर्मों शास्त्रों के बीच निंदा हथियार बनकर सामने आई। लेकिन अध्यात्म थोड़ा धर्म से गहरा मामला है। यह शब्द से परे है। धर्म व्यक्त है, अध्यात्म अनुभूति है। लेकिन इस निंदा की वृत्ति ने आध्यात्मिक गुरुओं में भी खुद को ही ईश्वर बनाने की वृत्ति डाल दी। हम और हमारा धर्म श्रेष्ठ बाकी सब निकृष्ट है यह निंदावृत्ति की ही देन है। यदि हम चाहें कि हमारे भीतर की निंदावृत्ति विदा हो तो जरा मुस्कराइए...।

इसलिए हमारे सोचे काम कभी पूरे नहीं होते
हमारा सोचा हुआ काम जब नहीं होता है तो कुछ लोग केवल स्थितियों का विश्लेषण करते हैं। कुछ सारा दोष दूसरों पर डाल देते हैं। जो धर्म भीरू हैं वे लोग भगवान और भाग्य को भी बीच में ले आते हैं। बहुत कम लोग होते हैं जो अपनी असफलता, दु:ख और परेशानियों का कारण व निदान अपने भीतर ढूंढते हैं।
एक फकीर के पास आदमी ने जाकर कहा दुनिया में बहुत दु:ख हैं। जिधर देखो लोग परेशान हैं। कब हटेंगे दुनिया से दु:ख। उस फकीर ने कहा। दुनिया दु:खी नहीं है, तुम ही दु:ख हो। बात बड़ी गहरी है और सारे फकीर, संत-महात्मा यही कहते हैं। जिन्दगी दु:ख है, दुनिया नहीं। यह दु:ख और सुख का खेल मन में है पहले यहां से शुरू होता है और फिर इसका प्रतिबिम्ब दुनिया में नजर आता है।
फौजियों को परेड क्यों कराई जाती है? युद्ध में परेड काम नहीं आती लेकिन उनका शरीर लेफ्ट और राईट की ध्वनि के साथ अनुशासन में आ जाता है। और युद्ध में परेड नहीं अनुशासन काम आता है। ठीक ऐसे ही हमें जीवन के संघर्ष में विचारों का अनुशासन काम आएगा। इसी को कहा गया है दु:ख हम हैं, संसार नहीं। पहले दुकानों पर एक तख्ती लगी रहती थी जिस पर लिखा होता था आज नगद, कल उधार। इसमें कल शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है, क्योंकि कल कभी आता नहीं।
हर कल आज है, वर्तमान है। जिस दिन आप भूतकाल को छोड़ेंगे, वर्तमान से जोड़ेंगे और भविष्य को योजना के स्तर पर पकड़ेंगे उस दिन आपकी पकड़ अपने सुख-दु:ख पर अलग ढंग से होगी। इसलिए जब भी जीवन में दु:ख जैसा आए, उसके कारण में स्वयं को जरूर खोजिए और ऐसा करते हुए एक काम अवश्य करें जरा मुस्कुराइये...

फिर आपका हर काम फायदेमंद होगा
हर कोई चाहता है उसको कर्म के परिणाम मिले और वह भी लाभ की शक्ल में। हानि उठाने को कोई भी तैयार नहीं है। जो लोग कर्म और उसके परिणाम के प्रति बहुत आग्रहशील हैं उन्हें अपने तन और मन की गति को संतुलित और नियंत्रित करना पड़ेगा। फकीरों ने कहा है-
मन चलतां तन भी चलै, ताते मन को घेर।
तन मन दोऊ बसि करै, होय राई सुमेर।।
मन से ही तन प्रभावित होता है। जब मन किसी विषय से आकर्षित होकर सक्रिय होता है, तो यह तन भी चलायमान हो जाता है। इसलिए सदैव मन को वश में करना चाहिए। यदि तन और मन दोनों को वश में कर लिया जाए तो इस थोड़े से समय में होने वाले संयम-साधना का परिणाम-लाभ सुमेरु पर्वत के समान पाया जा सकता है। मन को साधने के लिए यूं तो अनेक तरीके हैं, लेकिन तीन तरीके थोड़े आसान हैं-पहला सत्संग किया जाए। इससे मन को शुभ समय मिलता है। दूसरा गुरु कृपा हो जाए। गुरु मंत्र की ताकत भी मन को नियंत्रित करने में मददगार होती है और तीसरा है थोड़ा योग किया जाए। मन के लिए कहा गया है-
पहिले यह मन काग था, करता जीवन घात।
अब तो मन हंसा भया, मोती चुनि-चुनि खात।।
पहले अज्ञान दशा में यह मन कौवे की भांति था। इसका खान-पान, बोल-चाल तथा रंग-ढंग आदि सब अशुभ था। यह हिंसक था, इसीलिए जीवों को घात करता था। परन्तु अब सत्संगति तथा सद्गुरु के ज्ञानोपदेश से मन हंस की भांति हो गया है। अत: सहज-सरल तथा विवेकी भाव से दुर्गुणों को छोड़कर सद्गुण-ज्ञान रूपी मोतियों को ही चुन-चुनकर खाता है। इसलिए मन पर काम किया जाए और मन का भोजन है सांस। जितनी गहरी सांस लेंगे और उसे अपनी चेतना से जोड़ेंगे उतना मन नियंत्रित होता जाएगा और संसार में मोतियों के परिणाम मिलेंगे।

क्या होते हैं अघोरी? कैसी होती है अघोर विद्या?
अघोरियों का नाम सुनते ही अमूमन लोगों के मन में डर बैठ जाता है। अघोरी की कल्पना की जाए तो शमशान में तंत्र क्रिया करने वाले किसी ऐसे साधू की तस्वीर जहन में उभरती है जिसकी वेशभूषा डरावनी होती है। लेकिन क्या वास्तव में अघोरी ऐसे ही होते हैं? इन्हें अघोरी क्यों कहा जाता है? अघोरी का अर्थ क्या है और अघोर विद्या किसे कहते हैं?
ऐसे कई सवाल आज भी लोगों के लिए अबूझ पहेली जैसे ही हैं। अघोर विद्या वास्तव में डरावनी नहीं है। उसका स्वरूप डरावना होता है। अघोर का अर्थ है अ+घोर यानी जो घोर नहीं हो, डरावना नहीं हो, जिसमें कोई भेदभाव नहीं हो। अघोर क्रिया व्यक्त को सहज बनाती है। मूलत: अघोरी उसे कहते हैं जिसके भीतर से अच्छे-बुरे, सुगंध-दुर्गंध, प्रेम-नफरत, ईष्र्या-मोह जैसे सारे भाव मिट जाए। जो किसी में फर्क न करे। जो शमशान जैसी डरावनी जगह पर भी उसी सहजता से रह ले जैसे लोग घरों में रहते हैं।
अघोर विद्या भी व्यक्ति को ऐसी शक्ति देती है जो उसे हर चीज के प्रति समान भाव रखने की शक्ति देती है। अघोरी तंत्र को बुरा समझने वाले शायद यह नहीं जानते हैं कि इस विद्या में लोक कल्याण की भावना है। अघोर विद्या व्यक्ति को ऐसा बनाती है जिसमें वह अपने-पराए का भाव भूलकर हर व्यक्ति को समान रूप से चाहता है, उसके भले के लिए अपनी विद्या का प्रयोग करता है।
अघोर विद्या या अघोरी डरने के पात्र नहीं होते हैं, उन्हें समझने की दृष्टि चाहिए। अघोर विद्या के जानकारों का मानना है कि जो असली अघोरी होते हैं वे कभी आम दुनिया में सक्रिय भूमिका नहीं रखते, वे केवल अपनी साधना में ही व्यस्त रहते हैं। हां, कई बार ऐसा होता है कि अघोरियों के वेश में कोई ढोंगी, आपको ठग सकता है। अघोरियों की पहचान ही यही है कि वे किसी से कुछ मांगते नहीं है।

सारे गलत काम इसी नशे में होते हैं
जब कोई सेहत से कमजोर नजर आता था तो बड़े-बूढ़े कहा करते थे थोड़ा अपने पर ध्यान दो। ये बात बड़ी गहरी थी। हम दिनभर जितने काम करते हैं स्वयं पर ध्यान रखे बिना ही कर जाते हैं। अपने भोजन और चलने की क्रिया पर ही सोचें। अधिकांशत: ये दोनों काम करते समय काम तो यह हो रहा होता है लेकिन हम कहीं और होते हैं, बिल्कुल दो अलग व्यक्तित्व की तरह। इसे ही अध्यात्म ने नींद का नशा कहा है।
एक नींद वो होती है जो ज्यादातर रात में या कभी कभी दिन में आंख बंद करके ली जाती है, जिसमें देह का भाव जाता रहता है। दूसरी नींद यह है जो जागते हुए ली जा रही है। इसे हम नींद का नशा कह लें और सारे गलत काम इसी नशे में होते हैं। काम, क्रोध, लोभ और अहंकार इसी नींद के नशे का परिणाम हैं। इसका ठीक उल्टा करें। यही बात हनुमानजी ने रावण को सिखाई थी। जो भी काम कर रहे हो उसमें स्वयं को उपस्थित करो यहीं से जीवन में होश आरंभ होगा। यदि आप होश में हैं तो क्रोध नहीं कर सकेंगे, अहंकार में नहीं डूबेंगे क्योंकि ये सब उसी नींद के नशे के खेल हैं। होश में गलत काम होता ही नहीं है। होश यानी स्वयं से जुड़े रहना।
हनुमानजी ने रावण से भरे दरबार में समझाते हुए कहा था
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाही।।
जिन नदियों के मूल में जलस्त्रोत नहीं है यानी जिन्हें केवल बरसात का ही सहारा है वे वर्षा बीत जाने पर तुरंत सूख जाती हैं। स्वयं से कट जाने का अर्थ है अपने मूल जलस्त्रोत से कट जाना। बरसाती नदी की तरह सूख जाना और सूखा व्यक्तित्व ही काम, क्रोध, अहंकार जैसे दुर्गुणों की क्रिया कर जाता है। ऐसा ही रावण कर रहा था। हनुमानजी ने समझाया था, स्वयं में स्थापित रहो हर काम करते समय, इसे ही होश कहा है। होश में रहने का एक सरल तरीका है जरा मुस्कुराइए....

प्रतिदिन क्या-क्या नए धार्मिक कर्म करें?
यदि आप सप्ताह में कुछ खास कार्य करने जा रहे हैं तो निम्न उपायों के साथ अपने दिन की शुरूआत करें। इन उपायों के प्रभावों से आपके कार्य की सफलता के योग और मजबूत होंगे।
सोमवार- आज के दिन सफलता प्राप्ति के लिए शिवलिंग पर कच्चा दूध चढ़ाएं। अगर यह संभव न हो तो कार्य के लिए घर से निकलने के पहिले दूध या पानी पी लें। साथ ही ऊँ श्रां श्रीं श्रौं स: सोमाय नम: मंत्र बोल कर प्रस्थान करें। सफेद रूमाल साथ रखें।
मंगलवार- आज हनुमान मंदिर जाएं। साथ ही हनुमानजी को बना हुआ पान और लाल फूल चढ़ाएं। घर से निकलने से पहले शहद का सेवन करें और ऊँ क्रां क्रीं क्रौं स: भौमाय नम: मंत्र बोल कर प्रस्थान करें। लाल वस्त्र पहनें या लाल कपड़ा साथ रखें।
बुधवार- गणेशजी को दूर्वा अर्पित करें। गणपतिजी को गुड़-धनिया का भोग लगाएं। घर से सौंफ खा कर निकलें। ब्रां ब्रीं ब्रौं स: बुधाय नम: मंत्र का जप करें। हरे रंग के वस्त्र पहनें या हरा रूमाल साथ रखें।
गुरुवार- भगवान विष्णु के मंदिर जाएं। श्रीहरि को पीले फू ल अर्पित करें। साथ ही ऊँ ग्रां ग्रीं ग्रों स: गुरुवे नम:मंत्र का जप करें। पीले रंग की कोई मिठाई खाकर घर से निकलें। पीले वस्त्र पहनें या पिला रूमाल साथ रखें।
शुक्रवार- सफलता के लिए लक्ष्मीजी को लाल फूल अर्पित करें। ऊँ द्रां द्रीं द्रौं स: शुक्राय नम: मंत्र का जप करें। घर से निकलने से पहले दही का सेवन करें। सफेद रंग की ड्रेस पहनें या सफेद रूमाल साथ रखें।
शनिवार- हनुमान मंदिर जाएं। हनुमानजी को बना हुआ पान और लाल फूल चढ़ाएं। ऊँ प्रां प्रीं प्रौं स: शनैश्चराय नम: मंत्र जप कर घर से निकलें। तिल का सेवन करें। नीले वस्त्र पहनें या नीला रूमाल साथ रखकर प्रस्थान करें।
रविवार- आज सूर्य देव को जल चढ़ाएं फिर लाल फूल चढ़ाएं। आज ऊँ ह्रां ह्रीं ह्रौ स: सूर्याय नम: मंत्र जप करें। गुड़ का सेवन करें। लाल रंग की ड्रेस पहनें या लाल रूमाल रखें।

किस्मत और जीवन संवारने के लिए जरूरी है यह मैनेजमेंट
जिंदगी में बेकार कुछ भी नहीं होता। हम अपने कारनामों से चीजों को व्यर्थ और काम की बनाते हैं वरना सच तो यह है जिसने यह दुनिया बनाई वह विराट हृदय का परमात्मा कोई भी चीज व्यर्थ क्यों बनाएगा। दरअसल परमात्मा स्वयं एक बहुत बड़ा प्रबंधक है और उन्होंने हमारे जीवन में हर मौके पर, हर वस्तु के साथ प्रबंधन की संभावना छोड़ रखी है।
हम प्रबंधन चूके और नुकसान हमारा हुआ तथा प्रबंधन यदि सही है तो हम हर बात का उपयोग कर लेंगे। जीवन का संयोजन जिस प्रबंधन से किया जाता है उसमें हर वस्तु उपयोग की है। कण-कण काम का है। भगवान ने हमारी जिन्दगी उपहार के रूप में दी है और भगवान अपने दिए हुए उपहार में खोट कैसे रखेगा। जिन्हें उपहार संभालना नहीं आता वे उसे कचरा बना ही देंगे। कलाकारों को देखकर बात समझी जा सकती है।
जिन्हें स्वरों की समझ न हो उनके लिए संगीत शोरगुल होगा लेकिन एक संगीतकार उन्हीं स्वरों से अद्भुत काम कर जाता है क्योंकि वह स्वरों का प्रबंधन जानता है। बिखरे रंग हमारे लिए कीचड़ से ज्यादा नहीं हैं लेकिन चित्रकार उन्हीं रंगों से गजब की चित्रकारी कर जाता है। किसे कैसे जमाना, उसका उपयोग करना इसी का नाम प्रबंधन है। जिस दिन हम अपने तत्वों का प्रबंधन समझ जाते हैं उस दिन हमारा लोभ दान में बदल जाता है। क्रोध दया में परिवर्तित हो जाता है। वासना शुद्ध होने लगती है। शत्रु और दोस्त का भेद खत्म हो जाता है। यदि जीवन का प्रबंधन सही है तो प्रकृति में से परमात्मा निकाल लिया जा सकता है। इसलिए जिंदगी में से कुछ भी मत फेंकिए जो भी है उसका ठीक से प्रबंधन कर लीजिए परमात्मा का झलक नजर आने लगेगी।

ये ही चीज हमें निडर बनाती है
बड़े-बड़े साधन होने के बाद भी आदमी भयभीत है। बड़ी सुरक्षा व्यवस्था है, बहुत धन है, बहुत बाहुबल है, बहुत लोग हैं साथ में उसके बाद भी आदमी भयभीत है। हमें निर्भय कोई नहीं कर सकता दुनिया में। भागवत कथा में एक प्रसंग है।
परीक्षित को शुकदेवजी कथा सुना रहे थे। जैसे ही कथा आरंभ हुई और भागवत के श्लोक आए तब देवताओं ने उन्हें सुने। उन्होंने विचार किया ये तो बहुत अद्भुत श्लोक हैं। ऐसे श्लोक तो हमारी पूंजी होना चाहिए। कथा चल रही थी, देवता दौड़कर नीचे आए। उन्होंने कहा- कृपया इन्हें आप हमें दे दीजिए, ये स्वर्ग की पूंजी हैं। शुकदेव बोले-परन्तु यजमान ये हैं, मैं इनको सुना रहा हूं।
देवताओं ने परीक्षित से कहा-तुम्हारी समस्या यह है कि सात दिन बाद तुम्हें तक्षक आकर डसेगा। तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी। इसी कारण तुम यह भागवत सुन रहे हो। एक काम करो, हम तुम्हें अमृत देते हैं। भागवत और उसके श्लोक हमें दे दो, अमृत तुम ले लो। तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी। परीक्षित ने बड़ा सुंदर उत्तर दिया। देवताओं! मैं अमृत लेकर क्या करूंगा? अधिक से अधिक अमर हो जाऊंगा, पर निर्भय नहीं हो सकता। निर्भय मुझे यह कथा ही करेगी। एक बार यदि मैंने भागवत का पान कर लिया तो फिर मैं निर्भय हो जाऊंगा।
परीक्षित का उत्तर सुन देवता निरूत्तर हो गए। ऐसा हुआ भी। जब मृत्यु आई, तक्षक आया, तब परीक्षित ने कहा था मैं खड़ा हूं, मैं स्वयं अपनी मृत्यु देखना चाहता हूं, क्योंकि देह और आत्मा का अंतर समाप्त हो गया अब। अब मुझे मालूम है जो कुछ भी होना है इस शरीर के साथ होना है। उस दिन पहली बार मृत्यु शरमा गई, थक गई, दूर खड़ी हो गई। मृत्यु ने कहा-अब किसे मारें? मृत्यु का तो सारा मजा ही भय में है। भय ही समाप्त हो गया। कथा आदमी को निर्भय करती है।

ऐसे मिलती है सफलता के साथ शांति
इन दिनों सफलता प्राप्त करना नशे की तरह हो गया है। कोई भी असफल नहीं रहना चाहता। मजेदार बात यह है कि जो असफल हो जाते हैं वो तो परेशान नजर आते ही हैं पर ज्यादातर लोग सफल होने के बाद भी अशांत रहते हैं। अध्यात्म कहता है श्रद्धावान चित्त अशांत नहीं होगा। इसलिए हमें अपने काम के प्रति अत्यधिक श्रद्धा पैदा करना होगी।
लगन और श्रद्धा में फर्क है। लगन जब बहुत गहरी उतर जाती है तब श्रद्धा होती है और श्रद्धा का अर्थ है हमने अपने अलावा एक ऐसे अस्तित्व को स्वीकार किया है जो हमारी सफलता और असफलता के परिणामों को लेकर हमारी मदद करेगा। दो दृष्टांत ध्यान में लाएं फिर बात सरलता से समझ में आएगी। राम अवतार में राम के दर्शन हो जाना किसी के लिए भी बड़ी सफलता थी। लेकिन दो पात्र ऐसे हुए जो राम के दर्शन के बाद भी अशांत हो गए। शिव की पहली पत्नी सती, जिन्होंने श्रीराम को देखा, परीक्षा लेने का विचार किया और सीता का रूप धरकर छल से परीक्षा ली थी। अंत में वे अशांत हुईं।
इसी तरह शूर्पणखा ने भी श्रीराम के दर्शन किए थे और उसे भी नाक, कान कटवाना पड़े थे। राम दर्शन के बाद असफलता और अशांति क्यों? यह बड़े सूत्र की बात है। दरअसल इन दोनों का ही प्रयास था कि राम को हम अपने तरीके से मानेंगे और पाएंगे। वह तरीका अहंकार व वासना में डूबा हुआ था। हम भी जीवन में जब-जब अपने लक्ष्य के प्रति अहंकार और वासना रखेंगे परिणाम इसी प्रकार मिलेंगे। श्रद्धा वह तत्व है जो नीयत को शुद्ध करती है। श्रद्धा अपने साथ शुद्धता को लेकर ऐसे चलती है जैसे गर्भवती स्त्री अपने गर्भ को संभालकर चलती है और शुद्ध आचरण से किया हुआ कार्य सफलता तथा असफलता दोनों में शांति अवश्य देता है।
इसी का नाम संयम है
आदमी जब पैदा होने पर पहली सांस लेता है और मरते समय जब अंतिम सांस छोड़ता है तब दोनों ही स्थिति में कुछ समय एक जैसा होता है। जन्म के समय जीवित हैं पर कुछ लम्हे सांस नहीं ले रहा, बिना सांस के भी जीवन है और मरने के बाद सांस चली गई पर ठीक कुछ घड़ी जीवन फिर भी बचा रहता है।
इन्हीं अद्भुत स्थितियों को योग ने पकड़ लिया। प्राणायाम में सांस के माध्यम से समाधि तक पहुंचना ऐसी ही क्रिया है। सीधी सी बात है सांस न हो तो जीवन बचाकर रखा जा सकता है। इसे ही बहुत साधारण भाषा में संयम कहा गया है। जो लोग भक्ति कर रहे होते हैं उन्हें एक समस्या बहुत घेरती है कि संयम नहीं रह पाता। बड़े-बड़े सिद्ध भी कभी-कभी संयम चूक जाते हैं। जैन धर्म में इस मामले में दो सुन्दर चरण बना दिए हैं।
जिसे कहेंगे स्टेप वाईज स्टेप। पहला चरण है श्रावक जीवन। यह स्वस्ति और मुक्ति की कामना से आरंभ होता है, लेकिन महावीर स्वामी ने कहा है श्रावक जीवन आरंभ होना चाहिए और श्रमण जीवन अंत होना चाहिए। एक पहला कदम है ओर दूसरा अंतिम पड़ाव। श्रावक से श्रमण तक की यात्रा का अद्भुत जीवन दर्शन जैनियों ने दिया है। संयम का अर्थ ही यह होगा कि जीवन केवल श्रावक अवस्था में न बीत जाए, श्रमणत्व का जागरण हो, उदय हो, परिवर्तन हो। श्रावक रूपी प्रयास श्रमण रूपी लक्ष्य पर पहुंचे ही, इसे संयम कहा गया है। श्रवण जीवन यानी मुनि जीवन, जो संयम का साकार रूप है। यही संयम का भाव सांसारिक जीवन में अनुशासन की शक्ल ले लेता है और जो अनुशासित है स्वयं शासित है वह लक्ष्य को जरूर प्राप्त करेगा, चाहे लक्ष्य भौतिक हो या आध्यात्मिक। संयम बढ़ाना चाहें तो एक प्रयोग है जरा मुस्कुराइए...

फिर मन से दूर भाग जाएगी अशांति
बाजार में हमेशा शोरगुल रहता ही है लेकिन हमें भीतर हमेशा खामोशी बनाए रखना चाहिए और इसके लिए योग से गुजरना बड़ा उपयोगी है। इंटरनेट के युग में लोगों की योग के प्रति जानकारी तो खूब बढ़ी पर समझ घटती गई। योग जानने से अधिक जीने का विषय है।
अधिकांश लोग शरीर के स्वास्थ्य को लेकर योग को व्यायाम मानते हुए आसन लगाकर बैठ गए हैं। यह योग का अर्धसत्य है, इसका पूर्ण सत्य है ध्यान (मेडिटेशन)। ध्यान के पीछे भी लोग बिना समझे बावरे हुए जा रहे हैं।
ध्यान करें यह तो बहुत ठीक है लेकिन उससे भी अधिक जरूरी है ध्यान रखें। चौबीस घंटे यूं ही बीत जाते हैं और पता ही नहीं चलता करना क्या था, करते क्या गए। सुख मिलने पर या नहीं मिलने पर भी जिस शांति की खोज में हम हैं उस शांति रूपी ताले की चाबी का नाम योग ही है। जिस योग से शांति प्राप्त हो सकती है उसमें बिना समझे उतरने के कारण ही और अशांति हाथ लग रही है। यह बहुत विस्तारित विषय है। संक्षेप में इतना जरूर समझ लें कि यह अष्टांग योग का मामला है।
आठ चरण हैं योग के यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। अब यदि कोई चाहे कि जीवन में सीधे ध्यान घट जाए तो यह कैसे संभव होगा। इसके पहले छ: चरणों से गुजरना होगा। इसीलिए पहले प्राणायाम साधा जाए फिर ध्यान सिद्ध होगा। जीवन में ध्यान उतरते ही अशांति को वैसे ही जाना होता है जैसे प्रकाश आने पर अंधकार का निर्गम तय है। हम रोज योग करें यह तो बहुत अच्छा है लेकिन यदि न कर सकें तो एक काम अवश्य करें यह भी योग का ही हिस्सा है- जरा मुस्कराइए...।

महिलाएं रुद्राक्ष पहने तो, रखें यह सावधानियां...
रुद्राक्ष... शिवजी का प्रतीक स्वरूप माना जाता है। रुद्राक्ष के संबंध में शिव पुराण के अनुसार रुद्राक्ष की उत्पत्ति शिवजी से हुई है। सामान्यत: रुद्राक्ष पुरुषों द्वारा ही धारण किया जाता है परंतु इसे महिलाएं भी धारण कर सकती है क्योंकि भगवान के लिए महिला और पुरुष दोनों ही समान है, दोनों पर परमात्मा समान रूप से ही प्रेम और कृपा बरसाते हैं। शिवजी के लिए स्त्री और पुरुष में कोई भेद नहीं है। अत: रुद्राक्ष महिलाएं भी धारण कर सकती हैं। महिलाओं के लिए गौरीशंकर रुद्राक्ष सफल वैवाहिक जीवन के लिए लाभकारी माना गया है। वहीं संतान प्राप्ति और संतान से सुख प्राप्त हो इस मनोकामना की पूर्ति के लिए महिलाओं को गौरी गणेश रुद्राक्ष धारण करना चाहिए। महिलाओं को रुद्राक्ष करने पर कुछ सावधानियां भी रखनी चाहिए: जैसे-
- सोते समय रुद्राक्ष उतारकर किसी पवित्र स्थान पर रख देना चाहिए।
- किसी अन्य व्यक्ति का रुद्राक्ष कतई धारण ना करें और अपना रुद्राक्ष किसी और का ना दें।
- रुद्राक्ष धारण करने के पश्चात् अधार्मिक कार्य करने से बचें।
- मासिकधर्म के दिनों में रुद्राक्ष पवित्रता की दृष्टि से धारण नहीं किया जाना चाहिए। उन दिनों में रुद्राक्ष धारण करने पर वह अपवित्र हो जाएगा।
- रुद्राक्ष धारण करने के पूर्व किसी विशेषज्ञ से सलाह अवश्य लें।

अगर सुख-दुःख की चिंता ज्यादा सताती हो....
जिन्हें सुख और दुख की चिंता बहुत सताती हो वे एक बात याद रखें कि दुनिया जड़ पदार्थों की बनी हुई है। उसमें अच्छाई और बुराई अलग से नहीं है। हर इन्सान अपनी अनुभूतियों के आधार पर सुख-दुख, अच्छा-बुरा इस कायनात में डाल देता है। परम शक्ति किसी न किसी मनुष्य के रूप में ही दुनिया में आती रही है।
हिन्दुओं ने अवतार कह दिया, कहीं ये ईशु कहलाए, कहीं नानक बनकर आए। ये हस्तियां अपने विशिष्ट आचरण से हमें गहरी शिक्षा दी गईं। जैसे हजरत मोहम्मद ने बड़ा काम यह किया कि उस परवरदिगार की कार्यप्रणाली को संसार के सामने लाए और अमल करके भी दिखाया ताकि लोग उन्हें देखकर उस सही मार्ग पर चल सकें। सीधी सी बात है उन्होंने अल्लाह के बंदों को अल्लाह का हिदायत नामा समझाया और लोगों को ठीक जिन्दगी जीने के लिए प्रेरित किया।
दो बातें मोहम्मद ने अपने चरित्र में विशेष रूप से दिखाई थीं। पहली वे बहुत नेक थे और दूसरा सहनशील थे। ये फकीरी के गहने हैं। हर धर्म में इन्हें अपनाया गया है। सच तो यह है दो ही लोगों में चेतना मानी गई है एक ईश्वर में और दूसरा उसके द्वारा बनाए गए मनुष्य में। मनुष्य की इन्द्रियां चूंकि सक्रिय होती हैं और उसके पास इस बोध की संभावना होती है कि वे इनका सदुपयोग कर सके। इसलिए मानव सत्ता को सुर-दुर्लभ कहा गया है। हम मनुष्यों को भटका हुआ देवता बताया जाता है। अत: हम सबसे पहला काम यह करें उन सारी संभावनाओं का दोहन करें जो हमें श्रेष्ठ बना सकती हैं। जिन्दगी को उस आइने में देखें जहां छवि ही नहीं व्यक्तित्व भी नजर आता है। बाहरी दर्पण में देखेंगे तो आकृति या छवि ही दिखेगी, लेकिन मन के दर्पण में प्रकृति और व्यक्तित्व दोनों नजर आएंगे।

परिवार के लिए सबसे जरूरी यह है...
परिवार में किया गया आचरण सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि इसमें पूरे परिवार का जीवन और बच्चों का भविष्य छिपा होता है। ऐसा कहते हैं मनुष्य की आदतें उसके परिवार में निर्वस्त्र रहती हैं। घर के बाहर तो ओढ़ी शराफत, ढोंग, छल, दिखावा यह सब करके वह अपने आचरण को बचा ले जाता है, लेकिन घर में आदमी अपने दुर्गुणों के साथ खुलकर खेल लेता है। इसलिए देखा जाता है कि घरों में दुर्गुणी सदस्य किसी बीमारी से कम नहीं होते। सारे परिवार को दुख देते हैं।
ऐसी बीमारियों का इलाज शुरुआत में ही करना ठीक रहता है। देर होने पर गुंजाइश भी खत्म हो जाती है। आचरण को अच्छा रखने के लिए सभी धर्मों ने एक सहारा शास्त्रों को भी बताया है। शास्त्र पढऩे से विचारों की अस्पष्टता खत्म होती है, भ्रम दूर होता है, सोच परिपक्व हो जाती है। लेकिन शास्त्रों के साथ एक खतरा यह है कि इन्हें अज्ञान और निज स्वार्थ से नहीं पढऩा चाहिए। तर्क और जिज्ञासा हो इसमें कोई दिक्कत नहीं है, क्योंकि कुछ शास्त्र तो लिखने वाले ने अपनी दिव्यता की स्थिति में पहुंचकर ही लिखे हैं। उनके शब्द शत्प्रतिशत निर्दोष रहते हैं। झंझट शुरु होती है हमारी व्याख्या से।
हर शास्त्र की हम अपनी व्याख्या अपने निज स्वार्थ को रखकर शुरु कर देते हैं और सबकुछ बिगड़ ही नहीं जाता बल्कि विकृत भी हो जाता है। चूंकि हमारी व्याख्या हमारी सुविधा से होती है और पहली सुविधा आदमी यह चाहता है शास्त्र पढ़कर ज्ञान मिल जाए आचरण में उतारना जरूरी नहीं है। इसलिए परिवारों में शास्त्र अध्ययन का परिणाम आचरण होना चाहिए, क्योंकि घरों में केवल वाणी से बच्चे नहीं सुधारे जा सकते। अपने आचरण को इतना दिव्य बनाना पड़ेगा जैसे दीपक से दीपक जल सके। पुरानी पीढ़ी जब ऐसी ही ज्योति नई पीढ़ी को दे पाएगी तब इसी का नाम सदाचरण होता है।

क्यों लगता है समय से ङर?

भविष्य में जो कुछ भी छुपा है वह तक तो ठीक है लेकिन एक बात अनूठी छुपी रहती है और वह है अज्ञात भय। योजनाएं बनाते समय अच्छे-अच्छे इस अज्ञात भय से परेशान हो जाते हैं। सामान्यत: भय दो कारणों से पैदा होता है। पहला जो हमारे पास है वह कहीं चला न जाए और जो हम चाहते हैं वह जरूर मिल जाए। यदि न मिले तो यहीं से भय शुरु हो जाता है।
भविष्य का संबंध समय से है। मनुष्य ने जिन-जिन लोगों से टक्कर ली है उसमें एक समय भी है। समय से आदमी भिड़ता रहा है। कईयों ने तो दावा किया है-हम वक्त बदल देते हैं। इस चक्कर में आदमियों ने समय को तीन टुकड़ों में बांट दिया। जबकि समय केवल एक ही होता है और वह होता है वर्तमान। भूतकाल और भविष्य जैसे समय के संबोधन मनुष्य के भयभीत मन ने पैदा किए हैं। समय का यह भेद डरे हुए मन की उपज है। घटना हमेशा वर्तमान में घटती है। उसे मन पकड़ता है और स्मृति बनाकर रिजर्व कर लेता है। इस पर भूतकाल की स्लिप चिपका दी जाती है।
बीता हुआ वर्तमान कभी-कभी वास्तविक वर्तमान से भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। यह सब मन का खेल है। इसीलिए लोग वर्तमान के महत्व को कम करके भूत और भविष्य में ही लोट लगाने लगते हैं। दुनिया का उसूल है जिंदा लोग पूछे नहीं गए और मरने के बाद जय-जयकार होती है। हमने भी यही किया। गुजरे वक्त को सीने से चिपकाया और जो चल रहा है उसके प्रति लापरवाह होते गए। संत लोग कहते हैं समय का सदुपयोग करो इससे डरो मत। जो वर्तमान में टिका वह अपना होना जान जाता है। हमारे पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है, क्योंकि हमारा होना हमसे कोई नहीं छीन सकता। इसलिए समय से निर्भय होना सीखें न कि वक्त को अपने लिए डरावना बनाएं।

शांति चाहिए तो यो तरीके अपनाएं
लोगों का समय भारी व्यस्तता में बीत रहा है। कुछ लोग कमाने में जुटे रहे तो कुछ कामाया हुआ ठिकाने लगाने में लगे रहे। अब जिनके पास खूब धन आ गया यदि वो भी अशांत होंगे और जिनका गया वो भी शांत नहीं होंगे तो बेकार रही सारी मारा-मारी। जरा इस पर ध्यान दीजिए बचाया क्या हमने? हमारी बचत सुख के साथ शांति होना चाहिए।
जब हमारे भीतर मानसिक असंतुलन और उत्तेजना आती है तो व्यक्तित्व में अधीरता आ जाती है। अधिक अधीरता हृदय को संकीर्ण करती है और कुछ लोगों को मानसिक बालपन आ जाता है। इसलिए इस समय खूब मेहनत के बाद थोड़ा थम जाएं, शांत हो जाएं। इसके लिए एक तरीका अपनाएं, जो होना था वह हो गया, अब जो हो रहा है वह भी होता रहेगा, बस खुद को बीच में से हटा लें। अपनी ही रुकावट को खुद ही खत्म कर दें। मैंने किया, मैं कर दूंगा यहीं से अशांति शुरू होती है। हमारा मैं ही हमसे भिड़ जाता है।
एक कुत्ता पानी में झांक रहा था। अपनी ही परछाई दिखी तो भोंकने लगा। जाहिर है परछाई भोंक रही थी और कुत्ता समझ रहा था सामने वाला मुझ पर भोंक रहा है। वह डरा भी और गुस्से में भी आया। पानी में अपनी ही परछाई पर कूद गया। बस, परछाई गायब हो गई। इसी तरह हम भी अपनी ही छाया से झगड़ रहे हैं। एक बार भीतर कूद जाएंगे तो परछाई मिट जाएगी और हम ही रह जाएंगे। परछाई शब्द पर यदि ध्यान दें तो ये हमारी छाया के लिए कहा जाता है। लेकिन इसमें पर शब्द आया है यानी दूसरे की छाया। होती हमारी ही छाया है पर नाम है परछाई। अपना ही शेडो दूसरे के होने का भान कराती है और हम उससे उलझ जाते हैं। खुद से लड़ते रहो, हाथ कुछ नहीं लगेगा। बीच में से खुद को हटा लो, शांत होना आसान हो जाएगा। दिवाली की धूम के बाद आइए इस शून्य का अभ्यास करें।

शरीर को कैसे साधें? सीखें हनुमान से...
मानव के समूचे विकास और उपयोगिता में देह भी प्रमुख भूमिका रखती है। व्यावहारिक दृष्टिकोण से हम देखें कि इन दिनों बड़ी-बड़ी कंपनियों में फायनेंशियल इन्वेस्टमेंट, फिजीकल इन्वेस्टमेंट के साथ-साथ, बल्कि इनसे भी ज्यादा ह्यूमन इन्वेस्टमेंट पर जोर दिया जा रहा है। इस मामले में हनुमानजी एक श्रेष्ठ उदाहरण हैं।
मानव के रूप में उन्होंने स्वयं का खूब सद्पयोग होने दिया तथा दूसरों को प्रेरित करके उन्हें भी मौका दिया। हनुमानचालीसा की चौथी चौपाई में लिखा है-
कंचन बरन बिराज सुबेसा, कानन कुंडल कुंचित केसा।
आप सुनहरे रंग वाले सुन्दर वस्त्र धारण किए हुए और घुँघराले बालों वाले हैं। कानों में कुंडल पहने हैं। हनुमानजी के श्रृंगार के वर्णन के पीछे जीवन का एक बहुत बड़ा दर्शन छुपा है। यह सही है कि शरीर में आसक्ति न हो पर उसके महत्व को भी नकारा न जाए। शरीर पर टिकें ना, पर उसके सहारे को छोडें भी नहीं। सम्पूर्ण मानव किसी भी कारपोरेट जगत् की सबसे बड़ी पूजी है और मानव की सम्पूर्णता में देह खासी भूमिका रखती है।
इन पंक्तियों में सुसज्जित देह को स्वीकृति दी गई है वह भी एक ब्रह्मचारी के वर्णन से। इन पंक्तियों में हनुमानजी का कितना सुंदर वर्णन कर रहे हैं गोस्वामीजी। हनुमानजी हमेशा पूरी तैयारी में रहते हैं। उनकी दृष्टि में ब्रह्मचारी होने का यह अर्थ नहीं कि औघड़ जैसे रहें। वे शरीर के सौंदर्य के प्रति जागरूक हैं। सुसज्जित रहने का स्वभाव भी एक गुण है। वे यह नहीं कहते कि जो ब्रह्मचर्य का पालन करे वह सौंदर्यबोध को ठुकरा दे। सुंदरता की अनुभूति भी परमात्मा तक पहुंचने में साधक बन जाती है।

प्रेम में भी श्रेष्ठ परिणाम देती है प्रार्थना
महापुरुषों के आसपास एक ऐसी तरंग चलती है कि उस घेरे में जो भी आएगा वह प्रेम में डूब जाएगा। एक सवाल पूछा जाता है। कई बार बुद्ध से भी पूछा गया-आखिर यह प्रेम आप लोगों के भीतर पैदा कैसे होता है। अधिकांश संतों का एक ही उत्तर है प्रार्थना के द्वारा।
बुद्ध, महावीर, रामकृष्ण परमहंस जैसे अनेक संत जब अपनी श्रेष्ठ अवस्था में पहुंचे तब वे पूरी तरह प्रार्थना में डूबे हुए थे। जिन्हें प्रेम करना हो उन्हें परमात्मा की प्रार्थना में डूबना आना चाहिए। प्रार्थना का अर्थ मांगना नहीं है। प्रार्थना का अर्थ है जिससे प्रार्थना की जा रही है उसके प्रति पूरा समर्पण और भरोसा। इसके लिए भीतर उतरना पड़ता है। सच्ची प्रार्थनाएं खुद के भीतर उतरकर ही की गई हैं। क्योंकि जैसे ही हम अपने भीतर उतरते हैं हमें पता चल जाता है कि दूसरा कोई होता ही नहीं है।
हम हैं और परमात्मा है। यहीं से प्रार्थना परिपक्व होने लगती है। प्रार्थना अपेक्षा के साथ नहीं विश्वास के साथ की जाए। बुद्ध से एक बार चार सवाल एकसाथ पूछे गए थे। सबसे अधिक लाभ क्या है?, परम धन किसे कहते हैं?, संबंधि किसे माना जाए? और परम सुख की क्या परिभाषा है? बुद्ध का क्रमश: उत्तर था- सबसे बड़ा लाभ है स्वास्थ्य। परम धन है संतोष, क्योंकि इसके मिलते ही दु:ख समाप्त हो जाते हैं। अपना सबसे बड़ा संबंधि है विश्वास और परम सुख है निर्वाण। यह सब प्राप्त होंगे जब हम प्रार्थना में डूबे हुए रहेंगे। आजकल प्रार्थना का अर्थ धार्मिक स्थान, उससे जुड़ा कर्मकाण्ड, शोरशराबा और शब्द उछालना ही रह गया है जबकि प्रार्थना एकांत का मामला है। भरोसा और विश्वास जितने गहरे हो जाएंगे प्रार्थना उतना ही अधिक परिणाम में प्रेम देगी।

पति-पत्नी के बीच अशांति इसलिए रहती है
अपेक्षा अशांति का कारण है। मजेदार बात यह है कि अपनों से की गई अपेक्षा तो और उपद्रव खड़े करती है। अपनों से अपेक्षा पूरी हो जाए तो शांति नहीं मिलती लेकिन यदि पूरी न हो तो अशांति जरूर ज्यादा हो जाती है। इसीलिए पति-पत्नी और रिश्तेदारों के बीच के संबंध हमेशा खटपट वाले बने रहते हैं क्योंकि हमने इनका आधार अपेक्षा बना लिया है।
वह हमारे लिए इतना करे तो हम उसके लिए कुछ कर पाएंगे। ये भावना अशांति का कारण बन जाती है। एक बार ऐसा प्रयोग करें कि दिनभर के लिए हम जो भी काम करेंगे उसके बदले में हमें कुछ नहीं चाहिए। छोटी सी भी घटना आज अपेक्षा के साथ नहीं होगी। बार-बार इस बात की कल्पना करें कि आज का दिन अपेक्षारहित दिन है। एक सूची बना लें अपेक्षाओं की, अपनी पसंद की और उस दिन इसे विसर्जित कर दें। यह भी प्रयोग कर सकते हैं कि जिन लोगों को आप पसंद नहीं करते, उस एक दिन उनसे बात करें।
कोई अपेक्षा नहीं कि वह आपको अच्छा समझेगा। आपको तो सिर्फ आपका काम करना है। एक और काम कर सकते हैं उस दिन किसी से भी मिलें, मन ही मन उसकी अच्छाइयों का चिंतन करें। इसके लिए प्रयास करें आज सिर्फ अच्छाई सोची जाएगी सामने वाले की। धीरे-धीरे आप अपेक्षारहित हो जाएंगे। अपेक्षा दु:ख का कारण बनती है। एक दिन का यह अभ्यास आपको दु:ख और अशांति से मुक्त कर सकता है। धीरे-धीरे इस प्रयोग को बढ़ाते जाएं। हम अपने भीतर पसंद, नापसंद का एक ऐसा आरक्षण कर लेते हैं कि जिसके कारण हम लोगों की अच्छाइयों से वंचित हो जाते हैं। हम जितना दूसरों की अच्छाइयों के निकट जाएंगे उतना ही अपने भीतर शांति पाएंगे। इसके लिए एक काम और किया जा सकता है जरा मुस्कुराइए...

इस रिश्ते ने कई घर बनाए, मिटाए हैं.....
श्रीरामजी को वनवास जाना था। वे चाहते थे सीताजी माँ कौशल्या के पास रुक जाएं। सीताजी उनके साथ जाना चाहती थीं। कौशल्याजी भी चाहती थीं सीता न जाए। सास, बहू और बेटा, ऐसा त्रिकोण यहां पैदा हो गया था। दुनिया में इस रिश्ते ने कई घर बना दिए और बिगाड़ दिए। लेकिन रामजी के धैर्य, सीताजी की समझ और कौशल्याजी की समझ ने रघुवंश का इतिहास बदल दिया।
हमारे अवतारों की यह घटनाएं हमें अपने जीवन की छोटी-छोटी बातों में बड़े-बड़े संदेश दे जाती हैं। हमारे परिवारों में सास-बहू पति-पत्नी के संबंधों में जो विच्छेदन आता है उसका बड़ा मनोवैज्ञानिक संकेत है। जब कोई किसी परिवार में किसी पर निर्भर होता है तो परिवार के सदस्य को लगता है कि हम उसकी जरूरत पूरी कर रहे हैं। माँ-बाप बच्चों को जब बड़ा करते हैं तो वे इसलिए प्रसन्न रहते हैं कि बच्चे उन पर निर्भर हैं। जैसे ही बच्चे बड़े हो जाते हैं तो वे अपना काम खुद करने लगते हैं।
उनका अपना संसार बस जाता है, अब वो माँ-बाप पर निर्भर नहीं हैं। तब एक मनोवैज्ञानिक भीतरी अन्त:विरोध शुरू होता है। सास-बहू के झगड़े का एक कारण यह भी होता है कि सास सोचती है कि इस बेटे को जो सदा से मेरे ऊपर निर्भर था, मुझे उसे बुद्धिमान बनाने में २५ साल लगे और इस नई औरत ने पांच मिनट में उसको बुद्धू बना दिया। जो बेटा सदा से मुझ पर निर्भर था वह आज इस पर निर्भर हो गया।
यही हाल पति-पत्नी के होते हैं। वह भी एक-दूसरे को एक-दूसरे पर निर्भर करना चाहते हैं। दाम्पत्य का आधार प्रेम होना चाहिए। हम पहले भी यह बात कर चुके हैं कि जिस परिवार के केन्द्र में प्रेम होगा वह परिवार फिर अहंकाररहित होगा उसमें बड़ा-छोटा, तेरा-मेरा नहीं होता और इसलिए विरोध की संभावना समाप्त हो जाती है।

भगवान श्रीराम ने भी उड़ाई थी पतंग।
मकर संक्रांति के अवसर पर पतंग महोत्सव भी मनाया जाता है। देशभर में इस मौके पर पतंग उड़ाकर मनोरंजन करने की परंपरा है। मकर संक्रांति पर पतंग उड़ान की परंपरा पर चलन में आई इसका कोई इतिहास तो नहीं है लेकिन श्री रामचरित मानस में वर्णित एक प्रसंग के अनुसार भगवान श्रीराम भी पतंग उड़ाई थी। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि पतंग उड़ानी की परंपरा काफी पुरानी है-
जब हनुमानजी बालरूप में थे तब वे प्रभु श्रीराम के दर्शन के लिए अयोध्या आए। उस दिन मकर संक्रांति थी। श्रीराम अपने भाइयों के साथ पतंग उड़ा रहे थे। प्रभु राम की पतंग उड़ते हुए देवलोक जा पहुंची।
राम इक दिन चंग उड़ाई।
इंद्रलोक में पहुंची जाई।।
उस पतंग को देखकर इंद्र के पुत्र जयंत की पत्नी बहुत आकर्षित हो गई और सोचने लगी कि जिसकी पतंग इतनी सुंदर है वह स्वयं कितना सुदंर होगा।
जासु संग अस सुंदरताई।
सो पुरुष जग में अधिकाई।।
यह सोचकर जयंत की पत्नी ने पतंग पकड़ ली। जब पतंग दिखाई नहीं दी तो श्रीराम ने हनुमान को पतंग का पता लगाने के लिए भेजा। तब हनुमान देवलोक जा पहुंचे। हनुमान को देखकर जयंत की पत्नी ने पूछा कि ये पतंग किसकी है? हनुमान ने बताया कि यह पतंग भगवान राम की है। तब जयंत की पत्नी ने उनके दर्शन करने की इच्छा प्रकट की। हनुमानजी ने यह बात आकर प्रभु राम को बताई। तब श्रीराम ने कहा कि वे चित्रकूट में अवश्य ही दर्शन देंगे। हनुमान ने यह बात जाकर जयंती की पत्नी को बताई तब उसने श्रीराम की पतंग छोड़ दी।
तिन सब सुनत तुरंत ही,
दीन्ही छोड़ पतंग।
खेंच लइ प्रभु बेग ही,
खेलत बालक संग।।

क्या होती हैं अपरा विद्याएं?
हमारे धर्म ग्रंथों में दो तरह की विद्याओं का उल्लेख किया गया है। परा और अपरा। इन विद्याओं के नाम आपने कई बार सुने होंगे लेकिन ये विद्याएं क्या हैं, यह बहुत कम ही लोग जानते हैं। ये विद्याएं जितनी रहस्यमयी हैं, उतनी ही रोचक भी हैं।
हमारे धर्म ग्रंथों में वेदों से लेकर पुराणों तक इन विद्याओं के बारे में बहुत विस्तार से बताया गया है। हम आपको आज इन विद्याओं के अर्थ और इनके उपयोग के बारे में बता रहे हैं। मुंडकोपनिषद में इन विद्याओं की ही चर्चा की गई है। इस उपनिषद में इन विद्याओं का जो अर्थ और महत्व बताया गया है वह बहुत सरल और जल्दी समझ में आने वाला है।
अभी तक हम अपरा शक्तियों या विद्याओं का अर्थ जादू-टोने से ही लगाते हैं लेकिन इसका अर्थ बहुत ही विस्तृत है। अपरा विद्या केवल जादू-टोने से जुड़ी नहीं है। इस उपनिषद में यह बताया गया है कि अपरा विद्या वह है जिसके द्वारा परलोक यानी स्वर्गादि लोकों के सुख, साधनों के बारे में जाना जा सकता है, इन्हीं विद्याओं के जरिए इन्हें पाने के मार्ग भी पता किए जाते हैं। ये सुख और साधन कैसे रचे जाते हैं? इन्हें कैसे इस लोक में पाया जा सकता है? इनका मानव जीवन में क्या महत्व है?
ऐसी सभी बाते पता चलती हैं। इसे ही अपरा विद्या कहते हैं। इसमें चारों वेद ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद भी शामिल हैं। इनके अलावा
1. वेदों का पाठ करने की विद्या को शिक्षा,
2. यज्ञ की विधियों की विद्या यानी कल्प,
3. शब्द प्रयोग और शब्द बोध की विद्या यानी व्याकरण,
4. वैदिक शब्द कोष के ज्ञान यानी कि निरुक्त,
5. वैदिक छंदों के भेद को बताने वाली विद्या छंद और
6. नक्षत्रों की स्थिति का ज्ञान कराने की विद्या ज्योतिष भी अपरा विद्या में शामिल हैं। इस तरह कुल 10 अपरा विद्याएं होती हैं।

स्वयं को जानना
स्वयं को जानना ही प्रभु को पाना है
रात्रि में घूमने निकला था। गाँव का ऊबड़-खाबड़ रास्ता था। साथ एक साधु थे। उन्होंने बहुत यात्रा की थी। शायद ही कोई ऐसा तीर्थ था, जहाँ वे नहीं हो आये थे। प्रभु को पाने के वे मार्ग खोज रहे थे।
उस रात्रि उन्होंने मुझ से भी पूछा था, 'प्रभु को पाने का मार्ग क्या है?'
यह प्रश्न उन्होंने औरों से भी पूछा था। मार्ग भी धीरे-धीरे उन्हें बहुत ज्ञात हो गए थे। पर प्रभु से जो दूरी थी, वह उतनी ही बनी थी। ऐसा भी नहीं था कि उन मार्गो पर वे चले नहीं थे। यथाशक्ति प्रयास भी किया था। पर हाथ आया था, केवल चलना ही। पहुंचना नहीं हुआ था। पर अभी मार्ग से ऊबे नहीं थे और नये की तलाश जारी थी।
जो मैं स्वयं हूँ, उसे पाने का कोई मार्ग नहीं है। मार्ग 'पर' को और 'दूर' को पाने के लिए होते हैं। जो निकट है; निकट ही नहीं, जो मैं ही हूँ- वह मार्ग से नहीं मिलता है। मार्ग के योग्य वहाँ अंतराल ही नहीं है।
फिर पाना उसे होता है, जिसे खोया हो। प्रभु को क्या खोया जा सकता है?
जो खोया जा सके वह स्वरूप नहीं हो सकता है। वह केवल विस्मृत है।
इसलिए कहीं जाना नहीं है। केवल स्मरण करना है। कुछ करना नहीं केवल जानना है।
और जानना ही पहुंचना है। जानना है कि यह मैं कौन हूँ? ओर यह ज्ञान ही प्रभु की उपलब्धि है।
एक दिन जब सारे प्रयास व्यर्थ हो जाते हैं और कोई भी मार्ग कहीं ले जाता प्रतीत नहीं होता है, तब दिखता है कि जो भी मैं कर सकता हूँ, वह सत्य तक नहीं ले जाएगा। कोई क्रिया 'मैं' के रहस्य को नहीं खोलेगी, क्योंकि क्रिया मात्र बाहर ले जाती है।
कोई क्रिया सत्ता तक नहीं ले लाती है। जहाँ क्रिया का अभाव है, वहाँ सत्ता प्रकट होती है।
कोई क्रिया उसे नहीं देगी, क्योंकि वह क्रियाओं के भी पूर्व है।
कोई मार्ग 'वहां' के लिए नहीं है, क्योंकि वह तो 'यहां' है।

हनुमान ही दे सकते हैं यश और लक्ष्मी
हम मनुष्यों की एक बड़ी मांग ऐश्वर्य प्राप्ति की रहती है। छह प्रकार के ऐश्वर्य बताए गए हैं-धर्म, अर्थ, ज्ञान, यश, श्री और वैराग्य। श्रीराम ने यश और लक्ष्मी दोनों हनुमानजी को दी है तथा हमको यश और लक्ष्मी हनुमानजी ही दे सकते हैं। श्री हनुमानचालीसा की तेरहवीं चौपाई में लिखा है-
सहस बदन तुम्हरो जस गावैं। अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं।
आपके यश का गान हजार मुख वाले शेषनाग भी सदैव करते रहेंगे। इस प्रकार करते हुए लक्ष्मीपति विष्णु स्वरूप श्रीराम ने उन्हें अपने गले से लगाया है। इसमें तुलसीदासजी कह रहे हैं कि आपका यश अनंतकाल तक असंख्य रूप में गाया जाएगा। यहां कहा गया है कि श्रीपति ने आपको कंठ से लगाया। श्रीपति का अर्थ है लक्ष्मीपति। गोस्वामीजी ने यहां सोच समझकर श्रीराम को श्रीपति संबोधित किया है। हमें एक बात ध्यान में रखना होगी। भक्तों पर कृपा करने की भगवान की अपनी एक व्यवस्था होती है। हमें गहराई में जाकर समझना होगा कि भगवान नियंता ही नहीं, एक नियम भी हैं।
जैसा धरती का एक नियम गुरुत्वाकर्षण का होता है। विज्ञान कहता है धरती का स्वभाव है कि वह वस्तु को अपनी ओर खींचती है। यह धरती का नियम है। असावधानी से चलते हुए यदि हम गिर जाएं और यह कहें कि धरती का स्वभाव है खींचना, इसीलिए हम गिर गए तो हम गलत हैं। हम अपनी ही गलती से गिरे हैं। इसी तरह परमात्मा का नियम अपनी जगह है। जैसे नदी का स्वभाव सागर में मिलना है, उसका मिलना तय है। अब वह चट्टान से टकराकर जाए, मुड़कर जाए, जिस प्रकार से भी जाए। नियम यह है कि उसे सागर में मिलना है। उस नियम का पालन हमें करना चाहिए। इसका पालन करने में श्री हनुमानचालीसा हमारी मार्गदर्शक और सहयोगी है।

क्यों कठिन लगता है दांपत्य?
जीवन में श्रेष्ठ क्या है इसकी सबकी अपनी-अपनी परिभाषा होती है। किसी धार्मिक आदमी से पूछो तो वह कहेगा श्रद्धा के बिना धर्म बेकार है। किसी आध्यात्मिक आदमी से पूछो तो वह प्रेम पर टिक जाएगा। कोई योद्धा हो और लम्बे समय से रणक्षेत्र में हो तो उसके लिए घर से बढ़कर और कुछ नहीं होगा। व्यापारी व्यवसाय को उत्तम बताएगा।
ऐसे जीवन के अनेक क्षेत्र हैं जिनमें सबकी अपनी-अपनी राय होगी। कल्पना करिए ये सब एक जगह मिल जाएं तो जीवन का दृश्य क्या हो? और इसका नाम है दृष्टि। दाम्पत्य एक तरह का कोलाज है। यहां धर्म, प्रेम, श्रद्धा, शान्ति, अशान्ति, लोभ सब एक साथ मिल जाएगा। जोगी, यति, तपस्वी, फकीर, महात्मा, सफल व्यवसायी, उच्च शिक्षाविद् सबकुछ इस एक छत के नीचे घट सकता है। इसलिए दाम्पत्य को संन्यास से भी कठिन माना है। इसमें धैर्य और दूसरे के लिए जीने की तमन्ना रखना पड़ती है। गृहस्थी से गुजरे हुए लोग स्वतंत्र जीवन जीने वाले लोगों के प्रति परिपक्व और गंभीर नजर आते हैं।
परमात्मा की खोज में निकलने वाले लोग केवल पहाड़ों, जंगलों से निकलेंगे ऐसा नहीं है, चूल्हा, चौका, शयनकक्ष और आंगन परमात्मा ने इन्हें भी अपना स्थान बनाया है। भगवान् ने अपने लिए एक नाम रखा है ब्रह्म। इसका अर्थ बड़ा सुन्दर है। इसका अर्थ है जो सदा विस्तार की ओर चले, हमेशा विराट होने की सम्भावना अपने अंदर रखे, जो अनन्त हो। और यह भाव गृहस्थी में बड़ा काम आता है क्योंकि भीतर से विशाल हुए बिना बाहर का विराट कैसे उपलब्ध होगा। गृहस्थी में आनन्द लाना चाहें और विराट की अनुभूति करना चाहें तो एक काम तो कर ही लें जरा मुस्कुराइए...

क्यों कहते हैं सारे तीर्थ बार बार गंगासागर एक बार
भारत के तीर्थों में एक महातीर्थ है जिसे हम गंगासागर के रूप में जानते हैं। गंगाजी इसी स्थान पर सागर में आकर मिली है। इसी स्थान पर राजा सगर के साठ हजार पुत्रों को मोक्ष प्राप्त हुआ था। यहां मकर संक्रान्ति पर बहुत बड़ा मेला लगता है जहां लाखों श्रद्धालु गंगा स्नान के लिए आते हैं। कहते हैं यहीं संक्रान्ति पर स्नान करने पर सौ अश्वमेघ यज्ञ और एक हजार गाऐं दान करने का फल मिलता है।

कथा: एक बार कपिल मुनि ने श्राप देकर राजा सगर के साठ हजार पुत्रों को भस्म कर दिया। तब अपने पूर्वजों के उद्धार के लिए राजा सगर के पड़पोते भागीरथ ने हिमालय पर जाकर कड़ी तपस्या की और गंगा को प्रथ्वी पर लाए। तब गंगा ने इसी स्थान पर सगर के साठ हजार पुत्रों को मोक्ष प्रदान किया। तभी से गंगा को भागीरथी कहा जाने लगा। इस जगह जहां मेला लगता है वहीं से गंगाजी समुद्र में मिलती हैं।

इस कारण संत बीमार नहीं होते
एक सवाल सामान्य लोग आपस में किया करते हैं और वह यह है कि क्या साधु-संत बीमार नहीं पड़ते। और यदि उन्हें भी वे सारी व्याधि सताती हैं जो अन्य मनुष्यों को परेशान करती हैं तो फिर संत और सामान्य में भेद कैसा। आइये आज साधु-संतों की बीमारी से परिचित हो लें।
देह उनके पास भी है, शरीर हमारे पास भी है। फर्क यह है कि उनके लिए शरीर धर्मशाला की तरह है और हमने स्थाई मुकाम बना लिया है। इब्राहिम के जीवन की एक घटना है। उनकी कुटिया एक ऐसे मोड़ पर थी जहां से बस्ती और मरघट दोनों के रास्ते निकलते थे। आने-जाने वाले राहगीर उनसे रास्ता पूछा करते थे। फकीरों की जुबां भी निराली होती है लेकिन होती है अर्थभरी। वे लोगों को बस्ती किधर है यह पूछने पर जिस रास्ते पर भेजते वह रास्ता मरघट का होता। और मरघट जाने वालों को रिहायशी इलाके में रवाना कर देते। बाद में लोग आकर इनसे झगड़ते।
इब्राहिम का जवाब होता था कि मेरी नजर में मरघट एक ऐसी बस्ती है जहां एक बार जो गया वह हमेशा के लिए बस गया। वहां कोई उजाड़ नहीं होता, लेकिन बस्ती वह जगह है जहां कोई स्थाई बस नहीं सकता। फकीरों की नजर में जिसको हम रहने की जगह कहते हैं उसको वह श्मशान कहेंगे। इसीलिए देह के प्रति उनकी नजर अस्थाई निवास की तरह होती है। मैं शरीर नहीं हूँ यह भाव यहीं से जन्मता है। इसीलिए जब बीमारी आती है तो संत, महात्मा, फकीर यह मानकर चलते हैं बीमारी का लेना-देना शरीर से है मुझसे नहीं है और वह दूर खड़े होकर शरीर और बीमारी दोनों को देखते हैं। इसी साक्षी भाव में बड़े से बड़ा भाव छुपा है।

पतंग और डोर सा सध जाए मन और जीवन तो ..
पर्व परंपरा सनातन संस्कृति का अहम अंग है। वैसे, पर्व का शाब्दिक मतलब होता है- गांठ या संधिकाल। वहीं पर्व का मूल भाव होता है - उत्साह, उमंग और जोश। धर्म और लोक परंपराओं को जोडऩे वाला ऐसा ही पर्व है - मकर संक्रांति। हिन्दू ज्योतिष के मुताबिक सूर्य साल भर मे बारह राशियों में भ्रमण करता है। इस तरह सूर्य का राशि परिवर्तन संक्राति कहलाता है और पूरे वर्ष में ऐसी बारह संक्राति होती हैं। संक्राति को भी पर्व माना जाता है। इसी कड़ी में मकर संक्रांति का धार्मिक दृष्टि से विशेष महत्व है।
काल परिवर्तन के साथ इस पर्व की परंपरा ने एक नया रुप लिया। आज की पीढ़ी इस पर्व पर स्नान, दान, यज्ञ के साथ ही उल्लास और उमंग के साथ पंतग उत्सव मनाती है । जो एक परंपरा का रुप ले चुकी है। जिससे यह पर्व अब पतंगोत्सव के रुप में जाना जाता है । धर्म और लौकिक परंपराओं के गठजोड़ वाला अनूठा पर्व भी मानव को धर्म पालन और व्यावहारिक जीवन के सूत्र सिखाता है -
मकर संक्राति के दिन सूर्य की गति और दिशा के साथ, मौसम भी बदलता है, हवा भी दिशाएं बदलती है। इन हवाओं के लहरों के बीच उड़ती पंतगे मनोहारी दृश्य रचती है। वहीं आसमान रंग-बिरंगी पतंगों से भर जाता है। कहा जाता है कि जैसा माहौल होता है, वैसा ही मन में भाव पैदा होते हैं। इसलिए पतंग उत्सव का रंग-बिरंगा मौसम मन को नई उत्साह, ऊर्जा से भर देता है। आसमान में लहराती पतंगें मन में आसमान को छूने के भाव पैदा करती है।
पतंग उत्सव में आसमान में उड़ती पतंगे, कटती पतंगे, उनकी कलाबाजी, उनमें होते पेंच यह सिखातें हैं कि जीवन रुपी आसमान में संघर्ष के समय किस तरह अपने वजूद को बनाएं रखकर कामयाबी के आसमान को छूएं, बल्कि वहां स्वयं को बनाएं भी रखें। संकेत यही होता है कि पतंग और डोर के गठजोड़ की तरह जीवन और मन को भी साधें। जीवन में थोडा भी भटकाव कटी पंतग की तरह जीवन का पतन कर सकती है।
इस प्रकार पर्व संदेश देता है कि कठित हालात में भी धैर्य और संयम रखा जाए तो प्रगति और उन्नति की सभी अड़चने दूर कर जिंदगी में नई बुलंदियों को पाया जा सकता है।

मन इतना बेचैन क्यों रहता है?
हर उम्र की जिज्ञासा हर बार अलग नतीजे देती है। जो जिज्ञासा बचपन में होती है जवानी में उसके अर्थ बदल जाते हैं। जैसे घड़ी का लटकता हुआ पेंडुलम इधर से उधर घूमता है वैसे ही मन मूवमेंट करता है और इसकी हर गतिविधि के साथ जिज्ञासा के दृष्टिकोण बदल जाते हैं।
जब घड़ी का पेंडुलम सीधे हाथ से उल्टे हाथ की ओर जाता है दरअसल इसी समय वह उल्टे हाथ से सीधे हाथ की ओर आने की तैयारी भी कर रहा होता है। यही हाल मन के हैं। इसलिए बच्चों के लालन-पालन में मन को एक अलग सावधानी से पकडऩा होगा। मन का भोजन विचार हैं, इसलिए बालपन में संस्कारित विचार देना मन को स्वस्थ रखने जैसा है। जैसे बहुत छोटा बच्चा केवल दूध पीता है, अधिक अन्न उसके लिए हानिकारक है। ठीक यही हाल मन का होता है।
सावधान माता-पिता अपने बच्चों के हर उम्र के विचारों को खण्ड-खण्ड करके चलते हैं। उदाहरण के तौर पर छोटे बच्चे सोते समय महापुरुषों की प्रेरणादायक कथाएं सुनना चाहते हैं। एक उम्र के बाद इसका टेस्ट बदल जाता है लेकिन बचपन में यह प्रेरक कथाएं मन का भोजन बन ही जाना चाहिए, तब जाकर जवानी में मन इनको भी कभी-कभी याद करता रहेगा। उदाहरण के तौर पर बचपन में टीवी, इंटरनेट और सिनेमा ये तीनों मनोरंजन की आड़ में बच्चों का मनोदृष्टिकोण ही बदल देते हैं। इससे बच्चों की बुद्धि भले ही तेज हो जाए लेकिन नैतिकता दम तोडऩे लगेगी। बच्चों को इस तरह से बुद्धिमान बनाया जाए कि वे नैतिक-अनैतिक का भेद ठीक से समझ लें। इसीलिए हर उम्र की जिज्ञासा हर उम्र में सही तरीके से पूरी की जाना चाहिए।

जीवन में तनाव यहीं से शुरू होता है....
दु:ख और आघात सभी की जिन्दगी में आते रहते हैं। कोशिश करिए ये अल्पकालीन रहें, जितनी जल्दी हो इन्हें विदा कर दीजिए। इनका टिकना खतरनाक है। क्योंकि ये दोनों स्थितियां जीवन का नकारात्मक पक्ष है। यहीं से तनाव का आरम्भ होता है।
तनाव यदि अल्पकालीन है तो उसमें से सृजन किया जा सकता है। रचनात्मक बदलाव के सारे मौके कम अवधि के तनाव में बने रहते हैं। लेकिन लम्बे समय तक रहने पर यह तनाव उदासी और उदासी आगे जाकर अवसाद यानी डिप्रेशन में बदल जाती है। कुछ लोग ऐसी स्थिति में ऊपरी तौर पर अपने आपको उत्साही बताते हैं, वे खुश रहने का मुखौटा ओढ़ लेते हैं और कुछ लोग इस कदर डिप्रेशन में डूब जाते हैं कि लोग उन्हें पागल करार कर देते हैं।
दार्शनिकों ने कहा है बदकिस्मती में भी गजब की मिठास होती है। इसलिए दु:ख, निराशा, उदासी के प्रति पहला काम यह किया जाए कि दृष्टिकोण बहुत बड़ा कर लिया जाए और जीवन को प्रसन्न रखने की जितनी भी सम्भावनाएं हैं उन्हें टटोला जाए। मसलन अकारण खुश रहने की आदत डाल लें। हम दु:खी हो जाते हैं इसकी कोई दिक्कत नहीं है पर लम्बे समय दु:खी रह जाएं समस्या इस बात की है। हमने जीवन की तमाम सम्भावनाओं को नकार दिया, इसलिए हम परेशान हैं। पैदा होने पर मान लेते हैं बस अब जिन्दगी कट जाएगी लेकिन जन्म और जीवन अलग-अलग मामला है।
जन्म एक घटना है और उसके साथ जो सम्भावना हमें मिली है उस सम्भावना के सृजन का नाम जीवन है। इसलिए केवल मनुष्य होना पर्याप्त नहीं है। इस जीवन के साथ होने वाले संघर्ष को सहर्ष स्वीकार करना पड़ेगा और इसी सहर्ष स्वीकृति में समाधान छुपा है। सत्संग, पूजा-पाठ, गुरु का सान्निध्य इससे बचने और उभरने के उपाय हैं। इसी के साथ ऐसी स्थिति में एक काम और करिए जरा मुस्कुराइए...

इसलिए मन हमेशा असंतुष्ट रहता है
असंतुष्ट रहना मन का स्वभाव है। इसी खिन्नता के चलते मन व्यक्तित्व के भीतर कुछ स्थाई असंतोष के भाव भर देता है और इसीलिए अनेक लोगों को यह लगने लगता है कि हमें जो कुछ भी उपलब्ध हुआ है वह हमारी योग्यता से कम है और दूसरों को देखकर स्वयं यह सोचने लगता है कि जो अयोग्य हैं वह हमसे आगे निकल गए।
अपना मूल्यांकन करते समय मनुष्य अपनी योग्यताओं की तरफ कम और न मिली उपलब्धियों की ओर ज्यादा झुक जाता है। यहीं से बेचैनी शुरू होती है। हमारा अहंकार इसमें और उछालें देने लगता है। मन जो असंतुष्ट था वह और चंचल हो जाता है। चंचल मन में परमात्मा की झलक नहीं दिखती और ऐसी स्थितियों में जितना अधिक हम परमात्मा को महसूस करेंगे उतना ही जल्दी हम शान्त हो जाएंगे।
मन विक्षिप्त होकर संसार की ओर अधिक भागता है और जितना शान्त है परमात्मा की ओर उतना अधिक चलेगा। यहां एक बात समझ लें परमात्मा को पाने का अर्थ यह नहीं है कि संसार को नकारा जाए। अध्यात्म तो कहता है परमात्मा और संसार दो अलग-अलग बातें नहीं हैं। संसार अपनी जगह है और उसे स्वीकार भी करना है लेकिन संसार में परमात्मा देखने की दृष्टि बनाए रखना है।
जैसे ही संसार में परमात्मा को अधिक देखने लगते हैं वैसे ही हम इस सोच के प्रति स्पष्ट हो जाते हैं कि जितनी हमारे भीतर कमजोरियां हैं उनके मुकाबले हमें कष्ट और दु:ख कम मिले हैं और जितने हम योग्य हैं उससे अधिक हम प्राप्त कर चुके हैं। अपने दुर्गुणों के मुकाबले मान और प्रतिष्ठा पर्याप्त मिल चुकी है। योग्यता से अधिक या तो छल से मिलेगा या प्रभु कृपा से। छल का परिणाम वापस कष्ट ही होगा और प्रभु कृपा से प्राप्त उपलब्धि में प्रसन्नता है।

धन, सौभाग्य, संतान और विजय मिलते हैं इससे...
इस समय खूब सत्संग और कथाएं हो रही हैं। हर कथा का व्यावहारिक पक्ष होता है कि इससे फल में सुख और मोक्ष दोनों मिलेंगे। हर कथा अपनी-अपनी अलग फलश्रुति की घोषणा करती है। सामान्यत: सत्संग का परिणाम बताया जाता है कि इससे दु:ख-शोक आदि का शमन, धन-धान्य की वृद्धि, सौभाग्य और संतान तथा सर्वत्र विजय प्रदान होती है।
हर कथा बंधु-बांधवों के साथ, धर्मरत होकर, समय को साधते हुए, प्रसाद को वितरित करते हुए, यथा संभव भगवान के स्वरूप का श्रृंगार करते हुए पूरी करें। इसका अर्थ है पारिवारिक एकता, सद्व्यवहार, समय का सद्पयोग, प्रसाद-वितरण यानी दानवृत्ति, समाजसेवा एवं राष्ट्र सेवा का भाव बना रहे। शास्त्रों में परमात्मा ने कहा है-नृत्यगीतादि कं चरेत। नृत्य-गीत का आयोजन भी करना चाहिए। सीधा संदेश है कि जीवन में उत्सव के क्षण बने रहना चाहिए। जो जीवन को उत्सव की तरह जीते हैं उदासी उनसे कोसों दूर रहती है।
जिसके जीवन में कथा और सत्संग का सत्य उतरेगा, उसका जीवन कलयुग में भी सुख-शान्ति से परिपूर्ण होगा। कथा, सत्संग केवल सुनने से काम नहीं चलेगा। प्रसंगों के पीछे का संदेश, उसमें व्यक्त महापुरुषों की जीवनशैली से शिक्षा ही उस कथा का सत्य होता है। इसलिए सुनते हुए सत्य को पकडऩा पड़ेगा और बाद में गुनते हुए जीवन में उतारना होगा। अन्यथा अच्छे से अच्छा सत्संग मात्र मनोरंजन होकर रह जाएगा।भूमि: कीर्तिर्यशो लक्ष्मी: पुरुषं प्रार्थयन्ति हि। सत्यं समनुवर्तन्त सत्यमेव भजेत्तत:।। भूमि, कीर्ति, यश और लक्ष्मी सत्यवादी पुरुष के पीछे चलते हैं। अत: सत्य का आचरण करने योग्य है। और सत्य संतों के शास्त्रों के शब्दों से मिल सकता है।

असली पुरुषार्थ तो यही है....
यह अत्यधिक बाहर रहने का युग है। सारी दौड़ बाहर की तरफ है। अपने भीतर मुडऩे को मनुष्य या तो समय की बर्बादी मानता है या मूर्खता। यदि समझदारी आ जाए तो भीतर की यात्रा भी सार्थक है और बाहर की दौड़ भी व्यर्थ नहीं है। बाहर के कुछ तयशुदा काम हैं नाम, दाम को पाना और बढ़ाते जाना।
इसके लिए हालात से लडऩा और अपने हक, हित में बदलना। इसे पुरुषार्थ का नाम दे दिया है। लेकिन कुछ ऐसा अज्ञात भी होता है जीवन में जो नहीं बदल पाता, इसे ही भाग्य कहा गया है। चाहने पर जो न मिले और न चाहते भी मिल जाए इन्हीं शब्दों में भाग्य की परिभाषा ढूंढी गई है। सारे बाहरी परिश्रम के बाद भी यह अज्ञात अपना काम कर जाता है और आदमी फिर तनावग्रस्त, निराश होता है। चलिए, इसी कारण भीतर की यात्रा का फायदा समझ लें। भीतर जाते ही हमारा वह अज्ञात, परमात्मा-परमशक्ति से जुड़ जाता है। प्रकृति के हर निर्णय पर हम उसके हस्ताक्षर देखने लगते हैं।
ईसाइयों ने जीसस के इस संवाद को सभी के लिए उपयोगी छोड़ा है। जब भी कोई पत्थर उठाओगे मुझे ही पा जाओगे, पेड़ की डाल तोड़कर देखो तो मैं ही छिपा मिल जाऊंगा। जीसस कह रहे हैं- मैं हूं ना और यहीं से भीतर वह आश्वासन मिल जाता है कि नाम-दाम कम हो या ज्यादा।
खूब आबाद हो जाएं या बर्बाद, जब तक तू है फिर क्या फिक्र इसके बाद मनुष्य समझ जाता है असली आनंद भीतर है। ऐसे लोगों को स्वर्ग में रखो या नर्क में वे मजा स्वर्ग का ही लेंगे। झोपड़ी में हो या महल में रहें, उनकी मस्ती कायम ही रहेगी। ऐसे लोग बाहर के हालात से भीतर प्रभावित नहीं होंगे। सुख-दु:ख की परिभाषा बदल जाएगी। भीतर जाने का एक सरल तरीका है जरा मुस्कराइए...

गृहस्थी को इस नजरिए से देखने की जरूरत है....
नर्सरी का कायदा है यहाँ पौधे उगते जरूर हैं परन्तु पनपते और बड़े कहीं और होते हैं। बीज के सदुपयोग का केन्द्र है नर्सरी। गृहस्थी एक नर्सरी की तरह है। यहाँ संतानों को तैयार किया जाता है फिर छोड़ दिया जाता है संसार में पनपने, फलने, फूलने के लिए।
भारतीय संस्कृति ने दाम्पत्य को इसीलिए बहुत महत्वपूर्ण मानकर तपस्थली कहा है। भारतीय गृहस्थी केवल स्त्री-पुरुष के मिलन की घटना नहीं है। यहाँ दुनिया की योग्य, सक्षम और श्रेष्ठ संतान तैयार करने की जिम्मेदारी भी है। संस्कारित माता-पिता अपने परिवार के दैनिक कार्य व्यवहार में या कहें गृहस्थी की नर्सरी में श्रम, प्रेम, मधुरता, सेवा, ईमानदारी, सद्गुण तथा लक्ष्य जैसे बीज पनपाते हैं। योग्य नर्सरी के पौधे जहाँ भी जाएंगे उस बगीचे को फल-फूल, महक और सौन्दर्य प्रदान करेंगे। हमारी संतानें संसार में ऐसा करें इससे बढ़कर गौरव और क्या होगा।
जैसे अच्छी नर्सरी में खाद, हवा, पानी का ख्याल किया जाता है वैसे ही परिवार में विवाह को वासना से मुक्त रखें, संतान से अति मोह न रहे, आय को लोभ से दूर रखें, पारिवारिक अधिकारों को अहंकार में न बदलें, एक-दूसरे के प्रति विश्वास को संवेदनशीलता से जोड़ें तब जाकर नर्सरी के पौधे हर बगिया की शान बनेंगे। आज परिवारों के वातावरण में अधिकांश सदस्यों को घुटन महसूस होती है। या तो जमकर आंसू बहाए जा रहे हैं या पी-पीकर, दम घोटा जा रहा है, जबकि परिवारों में संवेदना बची रहे तो एहसास बना रहे आंसू भी दिल की जुबान बन जाते हैं और गृहस्थी में कहने-सुनने से ज्यादा समझने का महत्व है।

जब मन बहुत अशांत हो तो ऐसे रहें....
जब कभी हम अशांत होते हैं उस समय तो सूझ ही नहीं पड़ता कि कैसी जीवनशैली अपनाएं। अशांत मन क्रोध को ही सहारा बना लेता है। भ्रम जैसी स्थितियां उसे मददगार लगने लगती हैं। फिर जब यह तूफान गुजर जाता है तब आदमी को लगता है यह ठीक नहीं था और वह शांति के लिए तड़पने लगता है।
शांति प्राप्त करने के लिए कुछ प्रयोग किए जा सकते हैं। अपने हृदय के निकट अधिक से अधिक रहना सीखें। हम ज्यादातर बुद्धि के निकट रहते हैं। बुद्धि के अपने तरीके होते हैं। हृदय के निकट आते ही हम स्थितियों से निपटने के नए दृष्टिकोण पाने लगते हैं। खासतौर पर जब हालात हमारी पसंद के न हों ऐसे समय हम या तो उनमें उलझ जाते हैं या प्रतिक्रिया करके अपनी ऊर्जा नष्ट करते हैं। एक और तरीका है उपेक्षा का भाव।
नापसंद चीजों और स्थितियों के प्रति उपेक्षा का भाव हमें शांत रहने में मदद करेगा और यह पैदा होता है क्षमा के स्वभाव से। क्षमा करना सीखिए। अशांत बनाने वाली स्थितियों से निपटने का एक आसान उपाय है क्षमा करना। क्षमा का भाव मनुष्य को व्यर्थ के गणितों से बचाता है।
क्षमा हृदय के निकट ले जाती है और यह निकटता तर्क तथा अहं के भाव को समाप्त करने में मदद करती है। बिना हृदय से जुड़े जो यात्रा केवल दिमाग से की जाएगी प्रतिस्पर्धा के युग में वह बदला लेने की भावना बन जाएगी और इसी में अशांति छिपी है इसलिए क्षमा करना सीखिए और हृदय के निकट जाइये। क्षमा का भाव स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को जन्म देता है। भौतिक युग में सफलता की ललक बनाए रखते हुए क्षमा करने का स्वभाव निश्चित ही शान्ति पहुँचाएगा।

यही जीवन की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि है...
इस दौर में एक बड़ी उपलब्धि होगी कि हम किसी के विश्वासनीय बन जाएं। विश्वसनीय व्यक्ति जब किसी को सलाह देगा तो सामने वाले का हित होना तय ही है। श्री हनुमानचालीसा की सत्रहवीं चौपाई में व्यक्त है कि-
तुम्हरो मंत्र विभीषण माना। लंकेश्वर भए सब जग जाना।।
आपके परामर्श से विभीषण लंका के राजा बन गए यह सारा संसार जानता है। गोस्वामीजी कहते हैं कि आपने सुग्रीव पर तो उपकार किया लेकिन विभीषण को मंत्र दिया और विभीषण ने मंत्र को माना भी तथा लंकेश्वर बन गए। मतलब हनुमानजी एकमात्र देवता हैं जो श्रीराम से भी मिलाते हैं और राज भी दिलाते हैं। यदि किसी को राज की आकांक्षा हो तो वह भी दिला देंगे और राम तो दिला ही देंगे।
विभीषण को जो मंत्र श्री आंजनेय ने दिया था वह मंत्र था क्या? प्रसंग आता है कि सीता शोध के समय हनुमानजी लंका में घूम रहे थे। थोड़े परेशान थे, क्योंकि लंका में तो सब जगह आडम्बर, छल-कपट था। वे बहुत सावधानी रख रहे थे तब उन्होंने देखा कि पूरी लंका में एक अलग ही भवन दिख रहा है। वहां भगवान का एक अलग मंदिर बना हुआ था। उन्होंने सोचा कि लंका में हरि का मंदिर कैसे हो सकता है?
विभीषण से मिलने पर हनुमानजी ने कहा-देखिए विभीषणजी। आप राम नाम तो ले रहे हैं, लेकिन आप राम काम नहीं कर रहे। राम नाम जप रहे हैं, तुलसी क्यारा लगा रखा है, हरि मंदिर बना रखा है लेकिन इसी स्थान पर रावण ने अपहृत सीताजी को बंदी बनाकर रखा है और आप कुछ नहीं कर रहे हैं? ऐसे राम नाम लेने से क्या फायदा? भक्ति कैद है और आप भक्त बने हुए हैं? क्या यह ठीक है? विभीषण जैसी भक्ति हम भी करते हैं। इसलिए हमें राम नाम और राम काम दोनों करना चाहिए। इसका एक तरीका है जरा मुस्कराइए...

भोजन के समय कैसा हो वातावरण?
अध्यात्म में भोजन का बड़ा महत्व है। यदि यह ठीक न हो तो सूक्ष्म शरीर बिगड़ जाता है। याद रखिए जो हम अन्न खाते हैं उसमें से एक चौथाई से मन बनता है, एक चौथाई से रक्त बनता है, एक चौथाई शुक्र में और एक चौथाई मल में जाता है। ऐसी चार प्रक्रिया घटती है। हमको मन, रक्त और शुक्र संभालकर रखना है और मल का परित्याग करना पड़ता है। देखिए हमारे शास्त्रों में कैसी-कैसी सूक्ष्म बातें भी बताई हैं।
भोजन और भजन के समय साधक का प्राणबल सतेज हो जाता है तो वातावरण के जो अणु होते हैं वह उनके पास खींचे चले आते हैं। यदि रजोगुण, तमोगुण की स्थिति होगी तो उसके कण, उसके अणु, साधक के प्राण में आने लगते हैं। इसलिए हमारे ऋषियों ने जो कहा है उस पर ध्यान दिया जाए कि भोजन करते समय वातावरण शुद्ध रहे। हर कहीं बैठकर भोजन न किया जाए। हमारे संतों ने थकावट दूर करने के उपाय भी शास्त्र में बताए हैं। शास्त्र के सिद्धांत हमें अनुभूति में उतारना चाहिए। इसका एक बड़ा मनोवैज्ञानिक कारण भी है। संतुलित भोजन आपको थकान से बचाएगा। यह भी ध्यान रखें कि न अधिक आहार लें और न कम आहार लें। गीता में कहा है कि बहुत तपस्या वाला व्यक्ति तथा बहुत कम खाने वाला व्यक्ति भी क्रोध बहुत करता है। यदि अधिक जागता है या अधिक सोता है, वह भी ठीक नहीं। अति से किया हुआ योग दु:ख देता है। इसलिए जीवन में आहार शुद्ध एवं संतुलित करें। जब गृहस्थी में आहार शुद्ध होगा तो विचार शुद्ध होंगे, व्यवहार शुद्ध होगा और जब ये दोनों शुद्ध होंगे तब प्रेम टिकेगा और प्रेम टिकेगा तो एक-दूसरे पर विश्वास टिकेगा और जब विश्वास जमता है तो गृहस्थी स्वर्ग हो जाती है।

आपके और भगवान के बीच यही दूरी है...
यह बिल्कुल तय है कि भक्त और भगवान के बीच अहंकार सबसे बड़ी बाधा है। लेकिन दुनियादारी में भी अहंकार उतना ही घातक है, जिनके जीवन में अभिमान है इसीलिए उनके जीवन में अच्छे लोगों की संगत नहीं हो पाती। आज वैसे भी भले लोगों का अभाव है।
उस पर अहंकार की बागड़ यदि बना ली जाए तो अच्छे लोगों के प्रवेश की उम्मीद और कम हो जाती है। भगवान महावीर स्वामी से जुड़ी एक घटना है। उनके सामने राजा-रंक, अमीर-गरीब सभी आया करते थे। एक राजा उनसे मिलने चला था। चूंकि राजा था इसलिए भेंट में कोई महंगी वस्तु देना चाहता था। हीरे जड़ा हार लेकर पहुंचा और जैसे ही महावीर को भेंट किया उन्होंने कहा- गिरा दे। बात तो राजा ने मान ली पर चौंक गया, इतनी महंगी चीज महावीर ने गिरवा दी।
दूसरे दिन बहुत ही महंगा गुलदस्ता लेकर गया। महावीर ने फिर कहा- कोने में पटक दो। राजा ने पटक तो दिया पर परेशान होता रहा। अपने मंत्री से सलाह ली कि यह क्या मामला है। मंत्री समझदार था। उसने कहा-आप अगली बार खाली हाथ जाना कुछ भी भेंट मत ले जाना। अगले दिन राजा महावीर के सामने था। सोच रहा था देखें आज महावीर क्या गिराने को कहते हैं। चूंकि राजा था तो झुकने का सवाल ही नहीं, तनकर खड़ा था। जैसे ही दोनों की निगाह मिली। महावीर ने कहा-आज स्वयं को गिरा दो।
चूंकि वाणी महावीर की थी तो राजा के कलेजे में सीधी उतर कर गहरे जाकर बैठ गई। उसे समझ में आ गया फकीर मनुष्य के खुदी को गिरवा देता है। जिस दिन हम संत या भगवंत के सामने खुद गिर गए उस दिन समझिए अहंकार गल गया। अहंकार को गिराने के जितने तरीके हैं उसमें से एक आसान तरीका यह भी है, जरा मुस्कराइए...

ऐसे रह सकती है गृहस्थी में शांति
हम गृहस्थी में रहकर भी वैराग साध सकते हैं। इसका यह अर्थ नहीं है कि गृहस्थी को ही त्याग दें, अपनी अलग कुटिया बाहर बना लें। समझ लें छोडऩा क्या है?
मद और पद यह दो बातें गृहस्थी में भी रहती हैं। मद दो अर्थ रखता है। जब किसी में बहुत तीव्रतम गौरव या अभिमान हो तो मद कहलाता है और दूसरी ओर शराब के लिए भी मद शब्द का प्रयोग होता है। मद और शराब व्यावहारिक अर्थों में एक-दूसरे से मिलते हैं। शराब पीने पर व्यक्ति अपने आपको भूल जाता है और नशा उतरने पर वास्तविकता का बोध होता है। मद केवल बाजार में मिलने वाली शराब में ही नहीं। मद अनेक वस्तुओं का होता है। विद्या, धन, बल, पद, राज इनको पाकर भी आदमी शराबी की तरह झूम जाता है। पद की वृत्ति गृहस्थी को कई तरीके से तकलीफ में डालती है।
यही मद फिर सास, बहन, पिता, पुत्र, पुत्रवधू के रूप में काम करता रहता है, क्योंकि यह सब पद हैं। मेरा अधिकार, मेरा क्षेत्र। अब देखिए पद और मद में कई साम्य है। पद लिखा हो और जरा सी घुंडी घुमा दीजिए तो पद का मद बन जाता है। जीवन में पद जरा सा अहम से जुड़ा कि मद में बदल जाता है। इसलिए परिवार में पद तथा मद से बचें। जब प्रेम सधता है तो पद और मद मरता है। गृहस्थी में एक और बात आवश्यक हो जाती है। मद और अहंकार हमें परमात्मा से दूर कर देते हैं। अहंकारी व्यक्ति हमेशा भयभीत रहता है और भय कैसा? मेरा मैं कहीं आहत न हो जाए। उसे भय बना रहता है कि मेरे सम्मान में, मेरे हिस्से में, मेरी वस्तु पर कोई अधिकार न कर ले। यदि सास का अहंकार है तो वह बहू से भयभीत है। यदि बहू का अहंकार है तो वह सास से परेशान है। निरहंकारिता से शान्ति आती है।

इस राह में दो खतरे होते हैं...
दो बड़े खतरे हैं जीवन में। ज्ञान का खतरा अहंकार और भक्ति का खतरा आलस्य। आज के विकास के युग में आलस्य अपराध है। घोर परिश्रम के दौर में आलस्य दुर्गुण बन कर लगातार हमारी परिश्रमी वृत्ति पर प्रहार करता है। भक्त होना एक योग्यता है। भक्ति को केवल क्रिया न मानें यह जीवन शैली है। फकीरों ने भक्ति को बीज बताते हुए कहा है, ऐसा बीज कभी भी निष्फल नहीं जाता।
युग बीत जाने पर भी इसके परिणाम में फर्क नहीं आएगा। भक्ति बीज पलटे नहीं, जो जुग जाय अनंत। कबीर एक जगह कह गए हैं कि इस सीढ़ी पर लगन और परिश्रम से चढऩा पड़ता है। जिन जिन मन आलस किया, जनम जनम पछिताय। साधना के मार्ग में आलस्य कभी-कभी सीधे प्रवेश नहीं करता, वह रूप बनाकर भी आता है। संदेह, नास्तिकता ये भी आलस्य की शक्ल होती हैं। भक्ति के मार्ग पर चलते हुए कई भक्तों को यह भी लगता है कि हम जिस राह पर हैं वह सही भी है या नहीं?
जीवन में सही गलत को पहचानना भी बड़ी चुनौती है। आस्तिकता का एक रास्ता है और नास्तिकता के दस। भरोसे की एक किरण हाथ लगती है तो संदेह का बड़ा अंधकार आ घेरता है। इसी चक्कर में लोग नास्तिक हो जाते हैं। हर धर्म के महात्माओं, फकीरों ने इस झंझट से बचने का एक सरल तरीका बताया है, वह है भरोसा। उस मालिक का करो और उससे पूछो, कहो कि जो मार्ग, जो जीवनशैली आप तय कर दें उसी पर हम चल देंगे। इस निर्णय से हम कहीं पहुंच भी जाएंगे। वरना जीवन भर भटकते रहेंगे।
भक्ति का दूसरा नाम भरोसा हो जाता है और हमारे भीतर निष्कामता आ जाती है। करने वाले हम होते हैं कराने वाला दूसरा। यहीं से आज के कर्म-युग में शान्ति प्राप्त हो जाएगी। भक्त अशान्त हो ऐसा संभव नहीं है। अत: एक बार भक्ति को भरोसे से जोड़ दें।

शार्टकट हो लेकिन कुछ इस तरह.
यह तत्काल का समय है। सभी को सबकुछ जल्दी चाहिए। इस चक्कर में कुछ लोग शार्टकट अपना लेते हैं। सफलता के मामले में शार्टकट कभी-कभी भ्रष्टाचार और अपराध की सुरंग से भी गुजार देता है। हनुमानजी सफलता का पर्याय हैं। इनके यशगान हनुमानचालीसा में प्रथम पंक्तियों में गुरु की शरण की बात लिखी गई है।
इस शरणागति का मतलब है मेरे पूर्ण पुरुषार्थ के बाद भी कोई शक्ति है जो मुझे असफलता से बचाएगी। इस शरणागति को मजबूत बनाने के लिए ही तुलसीदासजी ने हनुमानचालीसा के पहले दोहे में जो दायकु फलचारि लिखा है। यूं तो किसी भी ग्रंथ की फलश्रुति अंत में बताई जाती है पर यहाँ पहले ही लिख देने का कारण यही है कि सब लोग आज तुरंत फल चाहते हैं। ये चार फल हैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।
आज के समय में शीघ्र फल की आकांक्षा हो यह तो ठीक है लेकिन शीघ्र फल दे ऐसा परिश्रम भी किया जाए। यदि हमारे ऊपर कोई दायित्व हो तो शतप्रतिशत परिणाम के लिए प्रयास किए जाएं। यदि विवेक से काम लिया जाए तो शीघ्रता का अर्थ है आलस्य रहित सक्रियता। अकारण विलंब करना हमारी आदत न बन जाए, इसलिए हनुमानजी से हम सीख लें तत्काल का अर्थ है समयबद्ध आचरण।
ज्ञान का खतरा अहंकार में है और भक्ति का आलस्य में। इसलिए हनुमानचालीसा की पहली पंक्ति से सीखा जाए फल की आकांक्षा, आसक्ति भले ही न रखी जाए किन्तु परिणाम के प्रति तत्परता, सजगता जरूर रखी जाए। जब हम फल की उपलब्धि को समझ लेंगे तो प्रयासों के महत्त्व को भी जानकर ठीक से कार्य कर सकेंगे।

ऐसा होता है मौन का जादू
आप जितना कम बोलेंगे उतना अधिक सुने जाएंगे। बात अजीब लगती है। जब बोलेंगे नहीं तो सुनाई कैसे देंगे। अध्यात्म जगत में इसे एहसास के अल्फाज कहा जाता है। जिन लोगों का संपर्क एक संत, श्रीरविशंकर महाराज रावतपुरा सरकार से रहा होगा वे इसे आसानी से समझ लेंगे। वे बहुत कम बोलते हैं लेकिन उन्हें सुनने इतनी बड़ी संख्या में लोग जाते हैं जितने देखने के लिए व्यासगादी पर बैठे अच्छे-अच्छे वक्ता तरस जाते हैं।
इनका मौन इतना मुखर हुआ कि लोगों ने इनका मूल नाम और हनुमानजी के स्थान का नाम एक ही कर दिया। रावतपुरा सरकार भिंड जिले की लाहर तहसील में स्थित हनुमान के स्थान का नाम है। यह उदाहरण है कि सिद्ध मौन शब्दों को, व्यक्तियों को, धर्म को और स्थितियों को कैसे जोड़ देता है।फकीरी का यही मजा है कि मौन में शब्द और शब्दों में भी मौन घट जाता है। हजऱत मोहम्मद पर कुरान की आयतें उतरी तब वे गहरे मौन में थे। उस परवर दिगार की आवाज कान से नहीं, दिल से सुनी जाती है। एक बार जब आप उसकी सुनने लगते हो तो फिर करते भी वही हो जो वो चाहता हैं।
इसीलिए फकीरों, संतों को देख कई बार ऐसा लगता है ये कब क्या कर बैठे, भरोसा नहीं। दरअसल उनके इस बेभरोसे के आचरण में ही सबसे ज्यादा स्थायित्व है, क्योंकि वे ऊपर वाले का कहा और सोचा कर रहे होते हैं।

तो फिर पूरी होंगी आपकी सारी इच्छाएं
मूर्ति पूजा के दौरान अंध विश्वास और विवेक में संतुलन जरूरी है। देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के सामने मत्था टेकने से मनौति पूरी हो जाएगी, यह मान लेना अंधविश्वास है। लेकिन इसमें विवेक जुड़ते ही विश्वास नए रूप में सामने आएगा। महत्वपूर्ण यह कि मूर्ति में हम क्या देख रहे और उससे क्या ले रहे हैं।
हिन्दुओं ने मूर्ति में प्राणप्रतिष्ठा इसीलिए करवाई, बुद्ध तथा महावीर की मूर्तियां इसीलिए पूजी गई कि पाषाण में हम वो दर्शन कर लें जो हमारे व्यक्तित्व में अधूरा है। यदि विवेक दृष्टि सही है तो हमें जिस संबल की जरूरत है उसके दर्शन पत्थर की प्रतिमा में हो जाएंगे।जीसस कादस्त की बहुत की सुंदर मूर्ति बनाने वाले से किसी ने पूछा आप इतना सुंदर पत्थर कहां से लाए।
उस मूर्तिकार का जवाब था मैंने तो उस पत्थर को चुना जो चर्च बनाते समय रिजेक्ट कर दिया गया था। जिस पत्थर को फालतू समझकर नकारा गया उस बेकार को मैंने संवारा। क्योंकि जीसस की जो छवि उस मूर्तिकार के मन में थी वही उसने पत्थर में देखी। उसमें से बस आसपास का फालतू पत्थर हटाया तो प्रतिमा बाहर निकल आई। ऐसे ही जीवन में कई फालतू बातों को हम आसपास कर लेते हैं, उन्हें हटाया तो जो सार्थक है वह सामने आएगा। इसी भाव से मूर्ति पूजा की जाए तो प्रतिमाएं दिशा निर्देश, आत्मबल और आनंद का कारण बन जाएगी।

यह चीज हमें असफलता से बचाएगी
सीधी सी बात है यदि खड़े रहना चाहते हैं तो धरती पर थोड़ी सी जगह चाहिए और यदि चलना चाहते हैं तो मार्ग। ये दोनों बातें जीवन में होती रहे इसके लिए अध्यात्म ने एक शब्द दिया है श्रद्धा। श्रद्धा जीवन की निरूद्देश्यता पर प्रतिबंध लगाती है।
बुद्ध ने एक जगह कहा था हमारी एक ऐसी प्रकृति होती है जो हिरण की कल्पना जैसी रहती है। हिरण को प्यास के दबाव के कारण रेगिस्तान में वहां पानी दिखता है जहां होता नहीं है। इसे मृग-मरीचिका कहा गया है। जो है नहीं उसे मान लेना, देख लेना। हमने परमात्मा के साथ ऐसा ही किया। वह बैठा है भीतर हम ढूंढ रहे हैं बाहर। जहां नहीं है वहां ढूंढने पर एक नुकसान यह होता है कि जहां वह है वहां हम नहीं पहुंच पाते।
इस मामले में बुद्ध जैसे संत तो और गहरे निकल गए। वे कहते हैं जिसे तुमने खोया ही नहीं उसे क्या ढूंढना। उसका हमारे भीतर होना ही पर्याप्त है। खोजने की जगह महसूस करना ज्यादा महत्वपूर्ण है। ऊपर वाला जब भी किसी इन्सान को धरती पर भेजता है तो स्वयं को उसमें स्थापित करके ही भेजता है। मैन्यू फेक्चरिंग डिफेक्ट जैसा काम उसके यहां नहीं होता।
वह पहली पैदाईश से ही कम्पलीट उतारता है। संसार में आते ही अबोध होते में गड़बड़ हमारे लालन-पालन करने वाले और होश संभालते ही हम स्वयं शुरु करते हैं। अपने भीतर बेहतर जोडऩे से ज्यादा अच्छा घटाने का काम हम ही शुरु कर देते हैं। ऐसे में श्रद्धा वह तत्व है जो मृग मरीचिका की वृत्ति से हमें बचाएगी।

उन्नति करने के लिए जरूरत होती है आत्मबल की
संसार में उन्नति करने के लिए जिन बातों की जरूरत होती है उनमें से एक है आत्मबल। यदि मानसिक अस्थिरता है तो यह बल बिखर जाता है। इस कारण भीतरी व्यक्तित्व में एक कंपन सा आ जाता है। भीतर से कांपता हुआ मनुष्य बाहरी सफलता को फिर पचा नहीं पाता, या तो वह अहंकार में डूब जाता है या अवसाद में, दोनों ही स्थितियों में हाथ में अशांति ही लगती है। यह आत्मबल जिस ऊर्जा से बनता है वह ऊर्जा हमारे भीतर सही दिशा में बहना चाहिए। हमारे भीतर यह ऊर्जा या कहें शक्ति दो तरीके से बहती है। पहला विचारों के माध्यम से, दूसरा ध्यान यानी अटेंशन के जरिए। हम भीतर जिस दिशा में या विषय पर सोचेंगे यह ऊर्जा उधर बहने लगेगी और उसको बलशाली बना देगी। इसीलिए ध्यान रखें जब क्रोध आए तो सबसे पहला काम करें उस पर सोचना छोड़ दें। क्योंकि जैसे ही हम क्रोध पर सोचते हैं ऊर्जा उस ओर बहकर उसे और बलशाली बना देती है। गलत दिशा में ध्यान देने से ऊर्जा वहीं चली जाएगी। इसे सही दिशा में करना हो तो प्रेम जाग्रत करें। इस ऊर्जा को जितना भीतरी प्रेमपूर्ण स्थितियों पर बहाएंगे वही उसकी सही दिशा होगी। फिर यह ऊर्जा सृजन करेगी, विध्वंस नहीं। माता-पिता जब बच्चे को मारते हैं तब यहां क्रोध और हिंसा दोनों काम कर रहे हैं। बाहरी क्रिया में क्रोध-हिंसा है, परन्तु भीतर की ऊर्जा प्रेम की दिशा में बह रही होती है। माता-पिता यह क्रोध अपनी संतान के सृजन, उसे अच्छा बनाने के लिए कर रहे होते हैं। किसी दूसरे बच्चे को गलत करता देख वैसा क्रोध नहीं आता, क्योंकि भीतर जुड़ाव प्रेम का नहीं होता है। इसलिए ऊर्जा के बहाव को भीतर से चैक करते रहें उसकी दिशा सदैव सही रखें, तो बाहरी क्रिया जो भी हो भीतर की शांति भंग नहीं होगी।

मन खुद ही है एक रोग
आज कल मानसिक रोगों की खूब चर्चा होती है। थोड़ा गहरे में जाएं तो पता चलेगा मन के रोग नहीं रहते, मन खुद ही एक रोग होता है। मन जब हावी होता है तो मनुष्य का किसी एक काम में रूचि नहीं होती। संशय, निराशा और अकारण थकान से मन अपना प्रभाव जमाता है। ऐसे लोग जब कोई काम करते हैं तो आधे मन से करते हैं और तब आधा मन दूसरे काम की खोज में लग जाता है। इसे कहते हैं डावांडोली। यह हड़बड़ाहट मनुष्य को अकेलेपन का एहसास कराने लगती है। यह असंतुलन किसी को भी न तो भौतिक प्रगति करने देता है और न ही आध्यात्मिक उन्नति। ऐसे लोग कभी अधिक उत्तेजना में होंगे तो कभी घोर निराशा में। हमारे पास दुनिया में अलग-अलग दायित्व होते हैं। एक ही समय में कई काम हाथ में लेना पड़ते हैं। पहले का परिणाम आने को रहता है लेकिन तब तक दूसरा शुरू करना पड़ता है। इस चक्कर में कभी-कभी उत्साह और उतावलेपन का फर्क खत्म होने लगता है। परिणाम का विलंब बेचैन और अधीर बना देता है। इसलिए जब भी कोई काम करें सर्वप्रथम अपने मन पर नियंत्रण कर लें। कर्म को पकने में समय लगता ही है। इस दौर में मन काम दिखा देगा, इतनी उठापटक कर देगा कि हमें कर्म से ही भय और उचाट हो जाती है। फिर वर्तमान में तो सारा लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा, नौकरी-धंधा सबकुछ तेजी से सिखाए जाने पर जोर देता है। फटाफट और संक्षेप जैसे गुण भी कब अधीरता जैसे दुर्गुण का रूप ले लेंगे पता नहीं चलता। इसलिए मलूकदास नामक फकीर की बात याद रखें कोई भी काम शुरू करने के पहले मन में भाव लाएं-कह मलूक हम जबहिं ते लीन्ही हरि की ओट जब से परमात्मा की ओट, आड़, सुरक्षा लेने का निर्णय लिया है, बिना बेचैनी के सफलता मिलेगी और टिकेगी भी।


शांति के लिए यह संतुलन जरूरी है....
अति हमेशा नुकसान दायक है। यह नियम अच्छी और बुरी दोनों आदतों पर लागू होता है। ऋषि-मुनियों ने अति को वर्जित ही बताया है। बुद्ध ने एक शब्द दिया था मंझम मग्न यानी मध्यम मार्ग। जीवन का यह संतुलन उन्हें एक दिन वह सब दिला गया जिसके लिए उनकी पूरी तपस्या थी।
अपनी बोध प्राप्त की अवस्था में उनसे एक प्रश्न पूछा गया था जिसका उन्होंने बड़ा सुंदर उत्तर दिया था। किसी का प्रश्र था उनसे अब आपको क्या मिला? क्या वह प्राप्त हो गया जिसके लिए आपके सारे प्रयास थे? बुद्ध ने कहा- नया कुछ नहीं मिला, जो कुछ मेरे पास पहले से था, पाया ही हुआ था, पूर्व उपलब्ध था, उसका ज्ञान हो गया, पता चल गया उसका। वह दौलत अपने ही भीतर थी हम बाहर ढूंढ रहे थे।
जिसके कारण बाहर निकला, वो तो मेरे भीतर निकला। हम दो भूलें कर जाते हैं या तो बिल्कुल बाहर संसार पर टिक जाते हैं या एकदम भीतर उतर जाते हैं। ये अतियां हमारे लिए हमारे अध्यात्म की दुश्मन बन जाती हैं।
आचार्य श्रीराम शर्मा संसार में संतुलन से चलने के लिए एक अच्छा उदाहरण बताया करते थे। दुनिया में ऐसे चलो जैसे पानी में हाथी चलता है। हाथी जानता है पानी में जल्दबाजी करूंगा तो कीचड़ या गड्ढे में गिर सकता हूं। लिहाजा आगे और पीछे के पैर रखने में वह गजब का संतुलन बनाता है। बस, ऐसा ही संतुलन हमें बाहर और भीतर की यात्रा में रखना होगा।
जैसे ही हम संतुलन में आते हैं हमारी अंतर दृष्टि स्पष्ट हो जाती है और हम स्वयं को पहचान जाते हैं। स्वयं को जानते ही परमात्मा दिख जाता है। भगवान होना नहीं पड़ता, बस यह समझना पड़ता है कि हम हैं ही भगवान। जरा सा स्वयं का पता लगा और दुनिया बदली। इसीलिए संतुलन जरूरी है संयम की अति से।

किस दिन करें किस देव की पूजा?
हिन्दू धर्म शास्त्रों में मानव जीवन के सुखों, कामनाओं की पूर्ति या पीड़ा मुक्ति या ग्रह दोषों की शांति के लिए सप्ताह के हर दिन अलग-अलग देवी-देवताओं की आराधना का महत्व बताया गया है। इनमें खासतौर पर शिव पुराण में हर दिन अलग-अलग देवता की पूजा और उसका फल बताया गया है। जानते हैं किस दिन किस देवता की उपासना मनचाहे फल देती है -
रविवार - सूर्य पूजा, ब्राह्मणों को भोजन, शारीरिक रोगों से मुक्ति
सोमवार - लक्ष्मी की पूजा, ब्राह्मणों को पत्नी सहित घी से पका हुआ भोजन, धन लाभ
मंगलवार - काली पूजा, उड़द, मूंग और अरहर दाल या ब्राह्मण को अनाज से बना भोजन, रोगों से छुटकारा।
बुधवार - विष्णु पूजन, पुत्र सुख
गुरुवार - वस्त्र, यज्ञोपवीत और घी मिले खीर से देवताओं खासतौर पर गुरु का पूजन, लंबी आयु मिलती है।
शुक्रवार -देवताओं का पूजन खासतौर पर देवी या लक्ष्मी, ब्राह्मणों को अन्न दान, सभी तरह के भोगों की प्राप्ति।
शनिवार - रुद्र पूजा, तिल से हवन, दान, ब्राह्मणों को तिल मिला भोजन,अकाल मृत्यु से रक्षा कराने से अकाल मृत्यु नहीं होती।शिवपुराण के मुताबिक सातों दिन इस तरह देव आराधना से शिव पूजा का ही फल प्राप्त होता है।

सचमुच, औरतों के लिए अभी तक नहीं बदली सोच...
धर्म, शास्त्रों में व्यक्त अनेक प्रसंगों और परिभाषाओं में स्त्री-पुरुष का भेद बताया गया है लेकिन अध्यात्म तक आते-आते यह भेद समाप्त हो जाता है। बल्कि अध्यात्म में तो भक्ति के लिए स्त्रैण चित्त को श्रेष्ठ बताया है। परमात्मा को पाने के मामले में नारियां पुरुषों से आगे हैं। अध्यात्म की घोषणा है पुरुष के जीवन में भक्ति तभी उतरेगी जब उसका चित्त स्त्रैण चित्त जागेगा।
संसार भर में भक्ति, साहित्य, धर्म की व्याख्या भले ही पुरुषों द्वारा लिखा गया है लेकिन जीया स्त्रीयों ने ही है। भागवत में प्रसंग आया है कि जब मनु और शतरूपा को परमात्मा ने आशीर्वाद दिया कि वे मैथुनी सृष्टि से संतान पैदा करें तो उन्हें जो पहली जो पांच संतानें पैदा हुई उसमें से तीन कन्याएं थीं आकूती, देवहूती और प्रसूति। संतों का मत है कि संसार की तीन पहली संतानें कन्याएं हुईं, इसलिए स्त्रियों को दोयम दर्जा मानना किसी भी धर्म की दृष्टि से बुद्धिमानी नहीं है। ये लोक परंपराएं, जनसुविधाएं और अहंकार के परिणाम हैं।
हिन्दुओं में दो प्रमुख अवतार हुए हैं और दोनों ने ही नारियों को मान्यताएं दी हैं। दूसरे धर्मों में भी जो देवपुरुष हुए उन्होंने स्त्रियों की प्रतिष्ठा को प्रथम ही रखा है। श्रीराम ने अपनेअवतार काल में गिने-चुने अवसरों पर दार्शनिक व्याख्यान दिए हैं। राम मौन का जादू जानते थे इसलिए कम ही बोले लेकिन नौ प्रकार की भक्ति पर उन्होंने जो अपना दार्शनिक व्याख्यान दिया है उसके लिए एक नारी पात्र को चुना और वह थीं शबरी। इसी तरह वृंदावन में श्रीकृष्ण ने स्त्रियों को अत्यधिक मान दिया है। डॉ. लोहिया ने एक जगह लिखा है नारी यदि नर के समकक्ष हुई है तो व्रज में हुई है।
जब-जब हमारे जीवन में प्रेम है, तब तक अहंकार और वासनाओं से हम मुक्त हैं। हर धर्म यही कहता है और प्रेम के रहते हुए कोई दोयम कैसे हो सकता है फिर मातृशक्ति के लिए तो दोयम दर्जे का प्रश्न ही पैदा नहीं होना चाहिए।

यही है दाम्पत्य की सबसे श्रेष्ठ उपलब्धि...
हमारे दाम्पत्य में सबसे बड़ी उपलब्धि होती है श्रेष्ठ संतान होना। जिन लोगों ने ऐसी संतति उपलब्ध की है चलिए उनके जीवन में झाकें। कथा आती है मनु-शतरूपा ने तपस्या की थी तब भगवान उनके सामने प्रकट हुए थे। भगवान ने कहा था- मांगो!
दम्पत्ति बोले- अगले जन्म में हमारे यहां आपके जैसा बेटा हो।
भगवान बोले-तथास्तु! फिर कहा मैं तो एक ही हूं, मेरे जैसा बेटा कैसे हो सकता है। मुझे ही आना पड़ेगा और सूर्यवंश में आऊंगा।
हम यह देखें कि वह गृहस्थी दिव्य है जिसमें परमात्मा स्वयं जन्म लेने को आतुर हो जाएं। हम अपने परिवार में परमात्मा को उतार लें यह हमारे जीवन का उद्देश्य होना चाहिए। दाम्पत्य में जितना प्रेम बढ़ाएंगे परमात्मा के उतरने की संभावना उतनी ही बढ़ जाएगी। इसीलिए प्रयास हो कि परिवार में प्रत्येक सदस्य प्रेम की डोर से जुड़ा रहे।
एक राजपूत युवक विवाह करके लौट रहा था। नाव में बैठा था कि जोर से तूफान आया। उसकी नववधू कांपने लगी, डर गई। लेकिन राजपूत युवक निश्चिंत बैठा था।
पत्नी ने कहा-आप बड़े बेफिक्र बैठे हैं। तूफान ऐसा भयंकर है, नाव पलटने वाली है, आपको जरा सा भी डर नहीं लग रहा?
वह युवक कुछ बोला नहीं, उसने म्यान में से तलवार निकाली और अपनी पत्नी के गले के पास लगा दी, लगा कि अब गर्दन कटी। पत्नी हंसने लगी।
राजपूत ने पूछा कि तुझे डर नहीं लगा?
नववधु ने कहा कि जब तलवार तुम्हारे हाथ में है तो डर कैसा?
युवक ने कहा- यह तूफान भी हमारे भगवान के हाथ में है। यह तलवार गर्दन के बिल्कुल करीब है, लेकिन परमात्मा के हाथ में है तूफान तो फिर क्या डरना। जब प्रेम जाग जाए तो फिर कुछ डर नहीं लगता। परिवार में परमात्मा उतरने पर ऐसा ही बोध होता है।

सफलता के लिए ये शक्तियां जरूरी हैं
दुनिया और दुनिया बनाने वाले दोनों को यदि हम पाना चाहें तो जीवन में एक संतुलन बनाना पड़ेगा। यह संतुलन शक्ति से बनता है। हमारे भीतर छ: प्रकार की शक्तियाँ हैं जिन्हें हम ठीक से जान लें तो हमारे लिए भौतिकता और भक्ति समझना आसान हो जाएगा।
1. पराशक्ति - यह सब शक्तियों का मूल और आधार है।
2. ज्ञान शक्ति - यह मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार का रूप धारण कर, मनुष्य की क्रिया का कारण बन जाती है। इसके द्वारा दूरदृष्टि, अंतज्र्ञान और अंतदृष्टि जैसी सिद्धियां प्राप्त होती हैं।
3. इच्छाशक्ति - यह शरीर के स्नायु मण्डल में लहरें उत्पन्न करती हैं जिससे इन्द्रियां सक्रिय होती हैं और कार्य करने की तरफ संचालित होती हैं। जब यह शक्ति सत्गुण से जुड़ जाती है तो सुख और शान्ति की वृद्धि होती है।
4. क्रियाशक्ति - सात्विक इच्छा शक्ति इसी के द्वारा कार्यरूप में परिणित फल को पैदा करती है।
5. कुण्डलिनी शक्ति - यह एक तरह से जीवन शक्ति है। इसके दो रूप हैं समष्टि और व्यष्टि। समष्टि का अर्थ है पूरी श्रृष्टि में कई रूपों में विद्यमान रहना जैसे - पेड़-पौधों में प्राण, प्रकृति का जीवन तत्व। व्यष्टि रूप में मनुष्य के शरीर के भीतर तेजोमई शक्ति के रूप में रहती है। इसी शक्ति के द्वारा मन संचालित होता है। इसे परमात्मा की ओर मोड़ दें तो माया के बंधन से मुक्ति मिलती है। यह साधना से जागृत होती है।
6. मातृका शक्ति - यह अक्षर, बिजाक्षर, शब्द, वाक्य तथा गान विद्या की शक्ति है। मंत्रों में शब्दों को जो प्रभाव होता है वह इसी के कारण है। इसी शक्ति की सहायता से इच्छा शक्ति और क्रिया शक्ति अपना फल दे पाती है। इसके बिना कुण्डलिनी शक्ति नहीं जागती। अपनी इन शक्तियों को भीतर से पहचानें और इनका उपयोग सफलता प्राप्त करने में करें।

नहीं सताते बुरे सपने इस मंत्र के जप से...
कहते हैं बुरे स्वप्न को देखकर यदि व्यक्ति सो जाए अथवा रात्रि में ही किसी को कह दे तो बुरे स्वप्न का फल नष्ट हो जाता है। मंत्र विज्ञान के अनुसार कुछ मंत्र है जिनके जप से बुरे स्वप्र आना बंद हो जाते है।
- ऐसा ही एक मंत्र है श्री गणेश का ये नीचे लिखा मंत्र। जिसके जप से बुरे सपने आने बंद हो जाते हैं।
मंत्र- ऊं गं गणपतये नम:
- सुबह उठकर भगवान शंकर को नमस्कार कर स्वप्न फल निवृत्ति के लिए प्रार्थना करें।
- तुलसी के पौधे को जल देकर उसके सम्मुख स्वप्न कहे अथवा अपने गुरु का स्मरण करें। यह उपाय करने से अशुभ स्वप्न के फल नष्ट हो जाते हैं। - सोने से पहले भी इस ऊपर दिए हुए मंत्र का जप करें।

ये करें अगर लगी हो बुरी नजर
किसी भी अच्छी या सुन्दर चीज, छोटे बच्चों को तो कई बार अधिक उम्र के लोगों को या कभी-कभी घर दूकान या व्यवसाय पर भी बुरी नजर लग जाती है। ऐसे में बुरी नजर से मुक्ति पाने के लिए हमारे द्वारा टोन- टोटके ही अपनाएं जाते हैं। अगर आपके घर के किसी सदस्य या आप पर बुरी नजर का प्रभाव है तो नीचे लिखे टोटके अपनाकर बुरी नजर से मुक्ति पा सकते हैं।
- नारियल को काले कपड़े में बांधकर सिलकर घर से बाहर लटका दें तो उस घर पर बुरी नजर का प्रभाव नहीं पड़ता है।
- थोड़ी सी साबुत फिटकरी लेकर नजर लगी दूकान पर से 31 बार उसारें। फिर किसी चौराहे पर जाकर उसे उत्तर दिशा में फेंककर पीछे देखें बिना लौट जाएं। दूकान पर लगी नजर दूर हो जाएगी।
- थोड़ी सी राई, नमक, आटा और सात सुखी लाल मिर्च लेकर नजर दोष सक पिडि़त व्यक्ति के सिर पर से सात-बार घुमाकर आग में डाल दें। नजरदोष होने से मिर्च जलने पर गन्ध नहीं आएगी।
- घर के निकट वृक्ष की जड़ में शाम को थोड़ा सा कच्चा दूध डाल दें। फिर गुलाब की अगरबत्ती जलाएं। नजरदोष दूर हो जाएगा।
- मंगलवार को हनुमान मन्दिर जाकर हनुमान जी के कन्धे का सिंदूर लाकर लगाने से बुरी नजर का प्रभाव दूर हो जाता है।
- पुराने कपड़े की सात चिंदियों लेकर सिर पर से 21 बार उसारकर आग में जलाने से बच्चे को लगी नजर समाप्त हो जाती है।
- पीली कौड़ी में छेद करके बच्चे को पहनाने से उसे नजर नहीं लगती है।
- नए मकान की चौखट पर काले धागे द्वारा पीली कौड़ी बांधने से उस पर बुरी नजर नहीं लगती है।


उसे अपने करीब लाएं...
यदि आप किसी को पुरस्कार, प्रशंसा और मान देना चाहें तो एक तरीका है आप उसे अपना सान्निध्य दें। निकटता देना भी एक पुरस्कार है। ज्येष्ठ और श्रेष्ठ लोग जब किसी को अपना सान्निध्य देते हैं तो एक तरह से उसे पुरस्कृत ही करते हैं और पुरस्कृत व्यक्ति सान्निध्य-ऊर्जा से भर जाता है। इसे अंग्रेजी में एनर्जी ऑफ प्रॉक्सिमिटी कहा गया है।
श्री हनुमानचालीसा की बारहवीं चौपाई में तुलसीदासजी ने व्यक्त किया है-
रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई। तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।।
हे हनुमानजी! आपकी प्रशंसा स्वयं श्रीराम ने की है, उन्होंने आपको भरत के समान ही प्रिय बताया है। श्रीराम ने हनुमानजी को मान देते हुए उनकी तुलना अपने प्रियतम भाई भरत से की है। स्नेह और सम्मान देने की यह श्रीराम की मौलिक शैली है। किष्किंधा काण्ड में जब हनुमानजी से पहली बार श्रीराम मिले थे, तब उन्होंने हनुमानजी को देखकर कहा था-
तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना...
वहां लक्ष्मण से दुगुना कहा था और यहां कह रहे हैं भरत के समान प्रिय हो। इसलिए हनुमानजी को उन्होंने भरत के समान बताया है। यह उच्चतम सम्मान देने की भावना है। परमात्मा और संत जब किसी की प्रशंसा करते हैं तो एक तरह से उसके सौभाग्य में वृद्धि हो जाती है। श्रीराम, हनुमानजी की तुलना श्री भरत और श्री लक्ष्मण से करके उन्हें सौभाग्यशाली बना रहे हैं। नेपोलियन कहा करता था- मेरे सेनापति बहादुर हों यह तो अच्छा है ही लेकिन उससे ज्यादा अच्छा यह होगा कि वे भाग्यशाली जरूर हों। यह सत्य है कि अपने अधिनस्थ का सौभाग्य भी सफलता में सहायक और दुर्भाग्य भी बाधक होता है।

सोच-समझ्रकर करें अपनी ताकत का इस्तेमाल...
विज्ञान का कायदा है कि ऊपर चढऩे में अलग ताकत लगती है और नीचे उतरने में अलग। लेकिन फोर्स दोनों ही स्थिति में होता है। जब हम ऊपर चढ़ रहे होते हैं तो ताकत इस बात के लिए लगाना पड़ती है कि हर हालत में लक्ष्य पर पहुंच जाएं, थक न जाएं।
जब नीचे उतर रहे होते हैं तो ताकत तब भी लगाना पड़ती है लेकिन उस समय मामला होता है लडख़ड़ा न जाएं, जल्दबाजी न हो जाए, गिर जाने के मौके उतरते समय ज्यादा रहते हैं। ऊपर जाने में थकने का और नीचे आने में गिरने का खतरा बना रहता है। इसे जीवन की यात्रा से जोड़कर देखा जाए। ऊपर चढऩा ऐसा है जैसे संसार में ही जीना। भौतिकता की यात्रा में ऊपर जाने को ही महत्व माना जाता है। यहां जो जितना ऊपर है उसे उतना ही सफल घोषित किया जाता है।
इस शीर्ष पर अपनी अलग थकान होती है। ऊपर चढ़े हुए लोगों की थकान का दूसरा नाम अशांति भी है। इसी तरह ढलान की यात्रा अपने भीतर उतरने की आध्यात्मिक यात्रा जैसा है। इसमें जो ताकत लगती है वह साधना है। इस दौरान जब लडख़ड़ाएं तो भक्ति मार्ग में पतन समझ लें। उतरते समय फिर भी एक अजीब सी सुविधा लगती है यही आनंद है। संत-फकीरों को ढलान पर संभलकर उतरने की कला आती है।
उतार पर उनकी तैयारी और अधिक गहरे जाने की रहती है। ताकत दोनों में लगेगी लेकिन यह ताकत ऊपर और नीचे की यात्रा के संतुलन के लिए लगाई जाए। यात्रा दोनों प्रकार की करना है। बस विवेक रूपी ताकत से तय करते रहना है, कब कौन सी, कितनी यात्रा की जाए।

अशांति का एक कारण यह भी है...
हमारी अशान्ति का एक कारण यह भी होता है कि हम वार्तालाप में ईमानदार नहीं रहते। सत्य के साथ बोले और सुने गए शब्द मन को स्थिरता, चित्त को शुद्धता और पूरे व्यक्तित्व को शान्ति प्रदान करते हैं। एक प्रयोग कभी-कभी किया जा सकता है।
बातचीत में कोई एक दिन वार्तालाप को समर्पित कर दीजिए। सुबह से तय कर लीजिए कि आज आप जिससे भी बात करेंगे दिल से बात करेंगे। औपचारिक शब्दों को आज विदा कर दीजिए, विराम दे दीजिए। पहली बात तो यह कि जिस किसी से बात करें सिर्फ उसी के साथ रहें, उसी का चिंतन करें। यदि कोई आपसे कुछ कह रहा है तो उसी को सुनें। हमारी आदत होती है बाहर बोलते और सुनते समय हम भीतर व्यक्ति बदल लेते हैं।
बाहर वाले को लग रहा है हमको कहा जा रहा है, हमें सुना जा रहा है लेकिन उसी समय हमारे भीतर कुछ और चल रहा होता है। आज संकल्प ले ले ऐसा नहीं होगा। आज एक दिन हर शब्द दिल से निकलेगा। सिर्फ उसी के लिए निकलेगा जिससे बात की जा रही है। हर शब्द में पूरा दिल उढ़ेल दीजिए। हर शब्द संवेदना से डूबा हुआ हो। प्रत्येक शब्द पूरा सुनेंगे आज। इसे मजबूत करने के लिए एक प्रयोग और कर सकते हैं। जब आपको लगे कि आप दिल से बोल रहे हैं तो सामने वाले की आंख में आंख डालें, आप महसूस करेंगे आप कुछ दे रहे हैं उसे।
जब आप पूरी तरह अपने हृदय में हों, तब उस दिन किसी के कंधे पर हाथ रखकर अपनी बात पूरी करें। सुनते समय ऐसा कर सकते हैं। संवेदनाओं के स्थानांतरण का यह प्यारा तरीका है। किसी एक दिन बस इस बात के लिए जागरूक रहें, हर शब्द दिल से कहा जा रहा है और दिल तक ही पहुंचाया जाना है।

हम ही तय करते हैं काम और परिणाम
हम अपने ही कार्य और उसके परिणामों के ट्रस्टी हैं। जैसे किसी ट्रस्ट के सदस्य उस ट्रस्ट के उद्देश्य, कार्यों और परिणामों के प्रति जवाबदेह होते हैं उसी प्रकार हम अपने कार्यों के प्रति जब इस रूप में जुड़ेंगे तब जीवन में अकर्ता भाव आएगा। भगवान महावीर ने एक सूत्र में कहा है-
सेवंता वि ण सेवइ, असेवमाणो वि सेवगो होई।
पगरणचेट्ठा कस्स वि, ण य पावरणोत्ति सो होई।।
इसका अर्थ है कोई तो विषयों का सेवन करते हुए भी सेवन नहीं करता और कोई सेवन न करते हुए भी विषयों का सेवन करता है। जैसे विवाह समारोह में जब कोई व्यक्ति रिश्तेदार या व्यवस्थापक के रूप में बाहर से आता है और विवाहादि कार्य में लगा रहने पर भी उस कार्य का स्वामी न होने से कर्ता नहीं होता। वह जानता है न मैं दूल्हा हूं और न ही दुल्हन, न ही मेरा विवाह हो रहा है। मैं कर्म कर रहा हूं पर मुख्य परिणाम से मुझे लेना-देना नहीं है।
इस विचार के मूल में अकर्ता भाव है। यही भाषा गीता की है। गीता का आधार अनासक्ति योग है। विषयों का सेवन करते हुए भी सेवन नहीं करने का उदाहरण होते हैं कैशियर या कोषाध्यक्ष। वे हमेशा नोटों के ढेर के बीच बैठे रहते हैं। उन्हें गिनकर ठीक से जमा करते हैं। अब देखा जाए तो वे लाखों-करोड़ों के बीच बैठे हुए हैं लेकिन सच यह है कि यह लोग रुपयों के बीच रहकर भी उनसे निर्लिप्त है। वह एक ट्रस्टी की तरह कार्य कर रहे हैं और उन्हें प्रत्येक क्षण यह भान है कि रुपया उनका नहीं है। अकर्ताभाव का बोध सतत्, सजगता और जागरण से आता है। अच्छे-अच्छे कर्ता भी इतिहास का विषय बन जाते हैं। इसलिए अकर्ताभाव से सफलता, शान्ति के साथ मिलेगी।

खुश रहने का एक तरीका यह भी है...
वस्तु, विषय और व्यक्ति होने का भी दु:ख होता है। यह तीनों यदि न हों तो दु:ख होता ही है। मनुष्य के जीवन में इन तीनों के संयुक्त रूप को सम्पत्ति माना गया है। संतान और सम्पत्ति का पुराना रिश्ता है। इनका जोड़ ठीक बैठ जाए तो जीवन सुखी, वरना दु:खों का आरम्भ भी यहीं से होगा।
जिनके पास बहुत सम्पत्ति होती है वो भी दु:खी होते हैं। इसलिए पैसे को अधिक बढऩे तो दिया जाए लेकिन यदि बढ़े तो उसे सत्कर्मों में लगाया जाए। क्योंकि अर्थ का स्वभाव होता है कि वह अंत में अनर्थ ही पैदा करता है। धन अपने धरातल के नीचे क्लेश लेकर ही घरों में प्रवेश करता है। संतान के मामले में सम्पत्ति के प्रति सावधानी बरतना चाहिए। धन कमाने की होड़ ने जीवन में प्रेम का अभाव कर दिया है। आदमी अत्यधिक व्यावहारिक और व्यावसायिक हो गया है। माता-पिता बनने के पूर्व ध्यान रखें, बच्चे पैदा करने से कोई स्त्री मां नहीं बन जाती। उस प्रक्रिया में उसे अपने जीवनसाथी के प्रति प्रेम होना चाहिए। कोई स्त्री तभी सच्ची मां बनेगी, कोई पुरुष तभी सच्चा पिता बनेगा जब उन्होंने सच्चा प्रेम किया होगा। प्रेम की इस पारिवारिक यात्रा में हमें अपनी संतानों को भी साथ रखना होगा।
यह यात्रा बिना आत्मविश्वास के न आरम्भ होती है न पूर्णता पर पहुंचती है। इसलिए लगातार प्रयास करें कि बच्चों के भीतर अच्छाई के प्रति आत्मविश्वास जगाएं। सतत् प्रयास करें कि उनकी प्रेरणाएं अंदर से जागें। जो भीतर से प्राप्त हो उसे बोध कहते हैं और बाहर से उपलब्ध को उपदेश कहते हैं। इसलिए परिवार में प्रेम प्रारम्भ होना चाहिए और परमात्मा अन्त होना चाहिए। प्रेम का एक स्वरूप परिवार में प्रसन्नता भी है। इसलिए जब भी मौका आए जरा मुस्कुराइए...

इसी का नाम जिंदगी है....
दुनिया में आज भी अधिकांश माता-पिता ऐसे हैं जो संतान पैदा करने के मकसद से वाकिफ नहीं हैं। अगर शादी हुई है तो औलाद पैदा होना है। इसे जिन्दगी की तयशुदा घटना मान लिया जाता है। आचार्य श्रीराम शर्मा ने एक जगह सही टिप्पणी की है कि हमारे भारत में ज्यादातर लोग संतान पैदा करना और उसके पालन-पौषण के मामले में प्रकृति तथा संयोग पर ही निर्भर हैं। वे जिन्दगीभर नहीं समझ पाते कि किस भरोसे और किस अधिकार से संतान पर संतान पैदा कर रहे हैं।
यह मामला नैतिक है न कि शारीरिक। भविष्य के नागरिकों का चरित्र आज के लालन-पालन पर टिका रहेगा। इस समय के बच्चे सर्वाधिक चुनौतियों का वक्त देखेंगे। इसलिए औलाद मुकद्दर का खेल न मानी जाए, यह एक जीवन-योजना होना चाहिए। उन्हें प्रबुद्ध और सुयोग्य बनाना सबसे बड़ा दायित्व माना जाए। हर चीज एक-दूसरे से बंधी है। बच्चों के लालन-पालन में उन्हें शुरु से स्पष्ट किया जाए कि जीवन सुविधाओं से नहीं संघर्षों से चलता है।
कभी-कभी अच्छा करने पर भी परिणाम अच्छा न मिले तो अच्छाई को नकारा नहीं जाना चाहिए। धैर्य से आने वाले दृष्यों की प्रतीक्षा करें तब परिणाम के प्रति विचार बदल जाऐंगे। मोहम्मद ने अपने शिष्य अली को एक बहुत खूबसूरत उदाहरण दिया था। उन्होंने कहा था अपना एक पैर उठाओ, अली ने उठा दिया। मोहम्मद बोले अब दूसरा उठाओ। अली जानता था दूसरा पैर उठाते ही सारा मामला लडख़ड़ा जाएगा और अली को समझ में आ गया कि पहला पैर उठाना कर्म था।
पहले पैर उठाने के लिए वह आजाद था लेकिन दूसरा पैर किन्हीं और स्थितियों में बंध गया। इसी का नाम जिन्दगी है। एक फैसला दूसरे को प्रभावित करता है और इसी प्रकार बचपन के फैसले पूरी जिन्दगी को मुकाम देते हैं।

गीता को भगवद्गीता क्यों कहते हैं?
एक-दूसरे के प्राणों के प्यासे कौरवों और पांडवों के बीच महाभारत शुरू होने से पहले योगिराज भगवान श्रीकृष्ण ने अठारह अक्षौहिणी सेना के बीच मोह में फंसे और कर्म से विमुख अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को छंद रूप में यानी गाकर उपदेश दिया, इसलिए इसे गीता कहते हैं। चूंकि उपदेश देने वाले स्वयं भगवान थे, अत: इस ग्रंथ का नाम भगवद्गीता पड़ा।
भगवद्गीता में कई विद्याओं का उल्लेख आया है, जिनमें चार प्रमुख हैं - अभय विद्या, साम्य विद्या, ईश्वर विद्या और ब्रह्मा विद्या। माना गया है कि अभय विद्या मृत्यु के भय को दूर करती है। साम्य विद्या राग-द्वेष से छुटकारा दिलाकर जीव में समत्व भाव पैदा करती है। ईश्वर विद्या के प्रभाव से साधक अहं और गर्व के विकार से बचता है। ब्रह्मा विद्या से अंतरात्मा में ब्रह्मा भाव को जागता है। गीता माहात्म्य पर श्रीकृष्ण ने पद्म पुराण में कहा है कि भवबंधन से मुक्ति के लिए गीता अकेले ही पर्याप्त ग्रंथ है। गीता का उद्देश्य ईश्वर का ज्ञान होना माना गया है।


इसलिए गिर गया है शिक्षा का स्तर
गुरु और शिष्य की परम्परा आज की शिक्षा व्यवस्था में लगभग खत्म सी हो गई है। टीचर हो या काउन्सलर सारे रिश्ते लेन-देन के हो गए हैं। इसलिए आदमी नॉलेज और इन्फॉरमेशन तो ले लेता है लेकिन जीवन जीने की कला की जो सम्भावना गुरु में छिपी थी उससे शिष्य चूक जाता है। न वैसे गुरु मिलते हैं और न ही उस प्रकार के शिष्य बन पाते हैं।
दरअसल में शिष्य बनने की तैयारी बचपन से ही हो जाती है। चूंकि आज का बचपन इतना सख्त, रूखा और बेतरतीब सा होता जा रहा है कि इसमें आगे भविष्य में शिष्य बनने की गुंजाइश खत्म हो जाएगी। ऐसा कहा गया है जिनके भीतर बालपन होगा वे शिष्य बन सकेंगे। बच्चों की निगाह हर बात की स्वीकृति लिए हुए रहती है। वे प्रकृति को भी देखेंगे तो दृष्टि अलग होगी। ईसा मसीह कहा करते थे-मेरे प्रभु के राज्य के अधिकारी वही लोग हो सकेंगे जो बच्चों की तरह होंगे सहज, सरल और साफ-सुथरे।
शिष्य जब भी गुरु के सामने आएगा वह मानकर चलता है कि मैं सीखने आया हूं, मेरा अपना कोई निजी और पूर्व से ज्ञान नहीं है। मैं होश में जीने आया हूं न कि जानकारियां, ज्ञान और सूचनाएं लेने आया हूं। इसलिए जो विद्यार्थी बनेंगे वे अलग रास्ते पर जाएंगे और जो शिष्य बनेंगे वे इस रास्ते पर जाते हुए भी कुछ अन्य भी उपलब्ध कर लेंगे। हो सकता है विद्यार्थी के जीवन का स्वाद खत्म हो जाए पर शिष्य के जीवन में विद्यार्थी की भौतिक उपलब्धियां भी होंगी और किसी फकीर की आध्यात्मिक ऊँचाईयाँ भी रहेंगी। इसलिए अपने भीतर के बचपन को सरलता के नाम पर बचाए रखिए। ऊपर से उम्र भले ही बढ़ जाए, भीतर की सादगी बच्चों की तरह बनाए रखिए।

इस तरह कर सकते हैं ऊपर वाले से बात
दुनियाभर से बात करने वाले हम लोग यह भूल ही जाते हैं कि जिसने दुनिया बनाई है उससे बात करने का भी एक तरीका होता है। ऊपर वाले से संवाद करिए, जिन्दगी के कई सवालों का जवाब खुद-ब-खुद मिल जाएगा। राबिआ नामक महिला फकीर का खुदा से बात करने का अंदाज ही निराला था। वे एक हजार नमाज रोज पढ़ती थीं। उनके लिए इबादत परवरदिगार से सीधी बातचीत थी।
राबिआ के माँ-बाप का इन्तकाल होने के कारण उन्हें किसी ने गुलाम बना लिया था। गुलामी के दिनों में वे रात को सिज्दे में खुदा से आंसू भरी निगाहों के साथ बोलीं- ऐ मालिक आपने मुझे दूसरे की मिल्कियत बना दिया। सख्त खिदमत अपने मालिक की करना पड़ती है, उससे एतराज नहीं है लेकिन इसी कारण तेरे दरबार में आने का वक्त नहीं मिलता। काश मैं आजाद होती तो लम्हा-लम्हा आपकी ही इबादत में बिताती, जैसी आपकी मर्जी। राबिआ की यह बातचीत एक दिन इत्तेफाक से उस शख्स ने सुन ली जिसकी राबिआ गुलाम थी।
उसने देखा-सुना कि लड़की सिज्दे में है और खुदा से बड़े सलीके से बात कर रही है। उसे एहसास हुआ कि किसी पाक शख्सीयत को मैंने गुलाम बना डाला है, अगली सुबह उसने माफी भी मांगी और राबिआ को आजाद भी कर दिया। यह किस्सा इस बात का भरोसा दिलाता है कि ऊपर वाला सुनता है और अपने तरीके से उस सुनी हुई मांग, पुकार को पूरा भी करता है। बस, उससे बात करना आना चाहिए, उससे कह दो अपनी परेशानी, फिर सब्र करो उसकी मदद के अंदाज पर।

फिर नहीं रहेगा मौत का भी ङर
जीवन में एक अज्ञात भय ऐसा है जो ज्ञात भी है, परन्तु है सबसे बड़ा और वह है मृत्यु का भय। उम्र, मौत और जिन्दगी इन तीनों के मामले में संसारी और साधु का फर्क पकड़ें तो भयमुक्त हुआ जा सकता है। संत कितना जिए यह महत्वपूर्ण नहीं होता, कैसे जिए यह उपयोगी होता है। देह त्यागने के पूर्व बुद्ध ने जो अंतिम वाक्य कहे थे उसे समझा जाए।
हंद दानि भिक्खवे आमंत यामि वो, वह धम्मा संरवारा अप्पमादीन संपादे था इति
हर वस्तु नाशवान है, जीवन का संपादन अप्रमाद के साथ करो। आलस्य के साथ वासना का समावेश हो जाए तो प्रमाद शुरू होता है। बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को अपनी अंतिम क्रिया के लिए भी विस्तार से समझा दिया था। मौत को उन्होंने उत्सव बनाया। भौतिकता की आंधी में आज तो हम इतने भयभीत हैं कि सांप को तो मार देते हैं और रस्सी से डसा जाते हैं। हमारी मौत अवसाद और संतों की मृत्यु उपदेश हो जाती है।
इसे दिव्य बनाने का प्रयास उम्र के हर पल में और जिन्दगी के हर पड़ाव पर सतत करना होगा। कहते हैं जब बुद्ध संसार से गए तो उनकी उम्र अस्सी वर्ष थी लेकिन संत समाज मानता है वे चालीस साल के थे क्योंकि जब वे चालीस वर्ष के थे तब एक पीपल के वृक्ष के नीचे सात दिन सतत समाधि में रहे और तब ही उन्हें पूर्णिमा के दिन बुद्धत्व प्राप्त हुआ था।
इस ज्ञान प्राप्ति को संबोधि कहा गया है और उसके बाद वे चालीस वर्ष और जीवित रहे। अध्यात्म कहता है उम्र तो उसी को मानेंगे जब, जिन क्षणों में आप स्वयं को जान गए। इसलिए याद रखा जाए कितना जिए यह संसार का समीकरण है कैसा जिए यह अध्यात्म का गणित है।

मन की शांति चाहिए...तो खुद पर भी निगाह रखें
अपने कृत्य को करते हुए देख लेना एक कला है। दूसरे क्या कर रहे हैं इस पर हमारी पूरी नजर रहती है। हमारे लिए भी दूसरे कर दें ऐसी इच्छा जीवनभर बनी रहती है। इसीलिए सुख और दु:ख हम दूसरों में ढूंढते हैं। अध्यात्म कहता है जब भी ऐसी परिस्थितियां आएं अपने भीतर उतर कर गहराई में अपने च्च्मैंज्ज् को टटोलो। सारे जवाब मिल जाएंगे।
जैन संत चंद्रप्रभजी ने एक जगह सुंदर लिखा है कि आज मनुष्य यदि कांटों की चुभन महसूस कर रहा है तो इसका कारण यह है कि अतीत में उसने केक्टस बोए होंगे और सुंदर फुलवारी भी हमारे ही बीजों का परिणाम रहेगी। भगवान महावीर स्वामी का एक सूत्र है-
अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पिय सुप्पिओ।।
आत्मा ही सुख-दुख का कर्ता और भोक्ता है। सद्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना शत्रु है। इसका अर्थ है कुल मिलाकर सारी स्थितियों के जिम्मेदार हम खुद हैं। अपनी जवाबदेही हम स्वयं तय करें। अच्छी और बुरी स्थितियों के प्रबंधक अपने को जान लेने से कई समस्याएं हल हो जाती हैं।
आत्मा शब्द अलग-अलग धर्मों में अलग-अलग तरीकों से आया है लेकिन गहराई में सभी ने एक ही अर्थ बताया है आत्मा यानी हम स्वयं, अस्तित्व, हमारा मनुष्य होना। इसलिए अपनी आत्मा को अपना मित्र बनाओ तो शत्रुभाव अपने आप समाप्त हो जाएगा। गीता में लिखा है अपनी ही आत्मा से अपनी ही आत्मा में संतुष्ट होना। यहीं से जीवन रूपांतरित हो जाता है। कुल मिलाकर सुख के बीज हमारी ही मानसिकता में छिपे हुए हैं। जो लोग 24 घण्टे में थोड़ा भीतर उतरेंगे वे सही अर्थ को शान्ति और सुख को जी लेंगे।


काल के हर अर्थ को समझिए...
साहित्य में काल शब्द के दो अर्थ बताए गए हैं- एक है समय और दूसरा है मृत्यु। आध्यात्मिक अर्थ में थोड़ा गहरे उतरने पर यह दोनों एक दूसरे से मिले हुए नजर आएंगे। सिख सम्प्रदाय में लोग सत्श्रीअकाल का सम्बोधन करते हैं। यहां अकाल शब्द बहुत सुन्दर संदेश दे रहा है। इसका अर्थ है काल रहित। सत्श्रीअकाल का मतलब हुआ जो काल रहित है वही सत्य है।
चलिए देखें काल रहित कौन हो सकता है। जो भविष्य की व्यर्थ कल्पनाओं से मुक्त हो तथा बीते हुए समय के बेकार चिंतन से स्वयं को दूर रखे ऐसे व्यक्ति को वर्तमान में टिकने में आसानी रहेगी। जब किसी की मृत्यु देखी जाती है तो आदमी का चिंतन शुरु होता है कभी हम भी ऐसे ही मरेंगे। अपनी मृत्यु कोई नहीं देख पाता।
मृत्यु क्या होती है यह तो दूसरे को मरता देखकर ही पता लगता है। भूतकाल का यही चिंतन भविष्य काल से जुड़ जाता है। भविष्य में हम भी मरेंगे यह अज्ञात भय मृत्यु को लाए या न लाए अन्य चिंताओं को जरूर जीवन में ला देता है और फिर शुरु होता है सोचने का दौर। ऐसा हो जाएगा तो क्या होगा, ऐसा नहीं हुआ तब क्या होगा।
इसलिए भूत काल और भविष्य काल के वजन और आकर्षण से जैसे ही मुक्त होंगे हमारा वर्तमान काल कालातीत अवस्था बन जाएगा जिसे कहेंगे शून्य अवस्था और यहीं से वर्तमान को जीया जा सकता है। यदि वर्तमान पर टिके हैं तो एक बात समझ लें वर्तमान में कोई नहीं मरता, वर्तमान में सिर्फ जीवन है। आप जी रहे हैं यही वर्तमान है। भविष्य और भूत का चिंतन के चक्कर में समय बीतता चला जाता है। कई लोग सोचते ही रह जाते हैं और परमात्मा की बनाई दुनिया का आनन्द नहीं उठा पाते हैं।

तो थकान भी बन जाती है वरदान
थकान जरूरत भी है और बीमारी भी। यदि जीवन का संतुलन बिगड़ा और थकान आई तो समझ लीजिए बीमारी आई और यदि वापस ऊर्जा अर्जित करने के लिए विश्राम किया जा रहा है तो ऐसी थकान वरदान भी साबित हो सकती है। इन दिनों जिस तरह की हमारी जीवनशैली है इसमें असंतुलन बहुत अधिक है।
खान-पान, काम-काज, बोल-चाल, रहन-सहन यहां तक उठने-बैठने में भी असंतुलन है। सुबह उठने से लेकर रात सोने तक शरीर की कुछ नियमित क्रियाएं हैं। आदमी उसे भूल गया है। चलिए महापुरुषों की ओर चलते हैं। बुद्ध बहुत काम किया करते थे और कभी थकते नहीं थे। आज भी कई साधु-संत उतना ही परिश्रम कर रहे हैं जितना एक कॉर्पोरेट जगत का सफल व्यक्ति। फकीर जब रात को सोते हैं तो पूरी बेफिक्री के साथ सो जाते हैं। बुद्ध से उनके शिष्यों ने एक बार पूछा था-आप थकते नहीं। बुद्ध का उत्तर था जब मैं कुछ करता ही नहीं तो थकूंगा कैसे। बात सुनने में अजीब लगती है लेकिन है बड़ी गहरी। अध्यात्म ने इसे साक्षी भाव कहा है।
स्वयं को करते हुए देखना। यह वह स्थिति होती है जब तन सक्रिय होता है और मन विश्राम की मुद्रा में रहता है। आज ज्यादातर लोग असमय, अकारण थक जाते हैं, जिसका एक बड़ा कारण है असंतुलित जीवन। एक होता है थकान को महसूस करना और दूसरा है स्वाभाविक थकान। जिस समय आपकी रूचियों में, इच्छाओं में और मूल स्वभाव में धीमापन आने लगे, अकारण चिढ़चिढ़ाहट हो जाए, समझ लीजिए यह थकान बीमारी है। इसलिए प्रतिदिन थोड़ा योग, प्राणायाम, ध्यान करें। ये क्रियाएं अपनेआप में एक विश्राम है। करने वाला कोई और है हम तो कठपुतली हैं उसके हाथ की, यह मनोभाव भी थकान को मिटाएगा। क्या दिक्कत है ऐसा सोच लेने में।

हर काम में ये दोनों ही बातें बहुत महत्वपूर्ण होती हैं...
एक सामान्य-सी कहावत यह है कि आंखों देखी पर भरोसा करो, कानों सुनी पर नहीं। जो लोग शंकालु प्रकृति के होते हैं उनके लिए कहा भी जाता है कि वे कानों से देखते हैं। लेकिन सुनने के मामले में अध्यात्म के पास बड़ा गहरा चिंतन है। जैन धर्म में महावीर स्वामी ने सुंदर बात कही है-
'सोच्चा जाणई कल्लाणं, सोच्चा जाणई पावगं, उभयं पि जाणई सोच्चा, जं छेयं तं समाअरे
सुनकर कल्याण और पाप का मार्ग जाना जा सकता है और फिर जो ठीक हो, श्रेष्ठ हो उसका आचरण किया जाए। यहां श्रवण की महत्ता बताई गई है। सुन लेना भी एक कला है। महावीर तो यहां तक कह गए कि सुनना सदा सर्वांगीण होता है जबकि देखना नहीं। इस सम्यक् श्रवण के लिए भीतर उतरना होगा। हमारे अंदर एक अनुगूंज हो रही है। कानों से प्रवेश कर रहे शब्द और भीतर की ध्वनि का जब मेल हो तो इसे ही संतों ने राइट लिसनिंग कहा है।

इसे साधारण भाषा में संपूर्ण मनोयोग से सुनना माना गया है। यहां से देखने-सुनने का फर्क शुरू होता है। सरकारी दफ्तरों में हम देख-देख कर थक गए हैं कि काम करने वाले अधिकारी, कर्मचारी के पीछे दीवार पर टंगा है सत्य मेव जयते। जो दिख रहा है वह हो नहीं रहा। इसी आदर्श वाक्य के तले सारे घटिया कारनामे निपटा लिए जाते हैं। जब देख के दुख हो तो मनोयोगी श्रवण से सही को साधा जाए। अब हमारे देश में ज्यादातर दिख तो यही रहा है कि नेत्रहीन ही आंख वालों का नेतृत्व कर रहे हैं। जैन मुनि चन्द्रप्रभजी ने सरल सीढिय़ां बताई हैं। पहले सुनें, फिर मनन करें और फिर निदिध्यासन यानी स्वयं की आत्मस्मृति करें। यदि यह क्रम ठीक हो जाए तो सुनने की प्रक्रिया में हर शब्द मंत्र बन सकता है।

हर काम में सफलता के तीन सूत्र...
आज प्रबंधन सिखाता है हर काम संक्षेप में, तेजी से लेकिन पूर्णता के साथ किया जाए। अमेरिका जाने पर वहां लोग बताते हैं कि यहां की प्रगति के तीन कारण हैं। यहां हर काम लोग बहुत शॉर्ट, क्विक और परफेक्ट करते हैं।
हम भारतीय इसमें चूक जाते हैं। शॉर्ट में हमारी रुचि कम ही रहती है चीजों को बढ़ा-चढ़ाकर बताना हमारी शान में आ गया है। क्विक यानी तेजी से काम का परिणाम देने में हम इसलिए चूक जाते हैं कि च्च्करते हैं, क्या जल्दी हैज्ज् इसे भजन की तरह कई लोगों ने जीवन में उतार लिया है। धर्म की आड़ में पुनर्जन्म को मानकर हम जनम-जनम तक इन्तजार कर लेते हैं। कार्य में आलस्य इसी मानसिकता से पैदा होता है। परफेक्ट के मामले में भी हमारा सोचना रहता है च्च्काम हो गया, बस काफी हैज्ज् जबकि यह शतप्रतिशत सही परिणाम का जमाना है।
हम कई बातों को सतही ले लेते हैं जबकि अब गहराई में उतरकर समझने का वक्त है। भारतीय संस्कृति इस मामले में बहुत च्च्रिचज्ज् है कि उसके पास कई ऐसे शास्त्र, साहित्य हैं जो शॉर्ट, क्विक, परफेक्ट की पूर्ति करते हैं। इनमें से एक है तुलसीदासजी की लिखी श्रीहनुमानचालीसा। इसका प्रत्येक शब्द जीवन- प्रबंधन के हर आयाम को स्पर्श करता है।
इसमें हनुमानजी की योग्यता, दक्षता और समर्थता को बहुत ही शॉर्ट, क्विक और परफेक्ट के साथ तुलसीदासजी ने उतारा है। तीन मिनट में पूरी होने वाली ये पंक्तियां हर धर्म के संदेश की सुगंध लिए हैं। इसी स्तंभ में हर मंगलवार हम इसकी पंक्तियों से गुजर कर उस सुख को प्राप्त करने के सूत्र प्राप्त कर सकेंगे जो शंति भी दिलाएंगे। और सुख के साथ यदि शांति नहीं है तो सफलता अधूरी है।

आपके और भगवान के बीच यही दूरी है...
यह बिल्कुल तय है कि भक्त और भगवान के बीच अहंकार सबसे बड़ी बाधा है। लेकिन दुनियादारी में भी अहंकार उतना ही घातक है, जिनके जीवन में अभिमान है इसीलिए उनके जीवन में अच्छे लोगों की संगत नहीं हो पाती। आज वैसे भी भले लोगों का अभाव है।
उस पर अहंकार की बागड़ यदि बना ली जाए तो अच्छे लोगों के प्रवेश की उम्मीद और कम हो जाती है। भगवान महावीर स्वामी से जुड़ी एक घटना है। उनके सामने राजा-रंक, अमीर-गरीब सभी आया करते थे। एक राजा उनसे मिलने चला था। चूंकि राजा था इसलिए भेंट में कोई महंगी वस्तु देना चाहता था। हीरे जड़ा हार लेकर पहुंचा और जैसे ही महावीर को भेंट किया उन्होंने कहा- गिरा दे। बात तो राजा ने मान ली पर चौंक गया, इतनी महंगी चीज महावीर ने गिरवा दी।
दूसरे दिन बहुत ही महंगा गुलदस्ता लेकर गया। महावीर ने फिर कहा- कोने में पटक दो। राजा ने पटक तो दिया पर परेशान होता रहा। अपने मंत्री से सलाह ली कि यह क्या मामला है। मंत्री समझदार था। उसने कहा-आप अगली बार खाली हाथ जाना कुछ भी भेंट मत ले जाना। अगले दिन राजा महावीर के सामने था। सोच रहा था देखें आज महावीर क्या गिराने को कहते हैं। चूंकि राजा था तो झुकने का सवाल ही नहीं, तनकर खड़ा था। जैसे ही दोनों की निगाह मिली। महावीर ने कहा-आज स्वयं को गिरा दो।
चूंकि वाणी महावीर की थी तो राजा के कलेजे में सीधी उतर कर गहरे जाकर बैठ गई। उसे समझ में आ गया फकीर मनुष्य के खुदी को गिरवा देता है। जिस दिन हम संत या भगवंत के सामने खुद गिर गए उस दिन समझिए अहंकार गल गया। अहंकार को गिराने के जितने तरीके हैं उसमें से एक आसान तरीका यह भी है, जरा मुस्कराइए...

क्रमश:...

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