Tuesday, January 11, 2011

Jeevan Darshan(जीवन दर्शन)

जब गौतम बुद्ध ने स्वयं की कड़ी परीक्षा ली
हेमंत ऋतु की संध्या थी। भगवान बुद्ध वैशाली के मार्ग पर जा रहे थे। उनके पीछे-पीछे कई भिक्षु चले आ रहे थे। किसी ने सिर पर, तो किसी ने बगल और कमर में चीवरों की गठरी लाद रखी थी। बुद्ध भिक्षुओं की इस संग्रह वृत्ति पर बड़े हैरान हुए और यह सोचकर चिंतित भी हुए कि कहां तो भिक्षुओं ने जनता के समक्ष उत्कट त्याग का आदर्श रखा और कहां थोड़े ही समय के बाद संग्रह की आसक्ति दिखा दी।
वैशाली पहुंचने पर भिक्षुसंघ ने गौतम बुद्ध के चेहरे पर उदासी देखी। रात होने पर सभी बुद्ध की चरण-वंदना कर अपने-अपने आसन पर चले गए। बुद्ध बार-बार यही विचार कर रहे थे कि किस प्रकार भिक्षुओं की संग्रह वृत्ति का निवारण हो? फिर उन्होंने स्वयं को कड़ी परीक्षा का माध्यम बनाना तय किया।
वे गौतम चैत्य (जहां बुद्ध ठहरे थे) के बाहर आकर जमीन पर लेट गए। साधारण ठंडक थी। एक चीवर लेकर शरीर ढंक लिया। ठंड बढ़ने पर दूसरे प्रहर में दूसरा चीवर ओढ़ लिया। तीसरे प्रहर में शीत और अधिक बढ़ गई तो बुद्ध ने तीसरा चीवर ओढ़ लिया।
सवेरा होने पर बुद्ध ने भिक्षु संघ को रात का अनुभव सुनाकर निर्देश दिया- प्रत्येक भिक्षु का काम केवल तीन चीवर से चल सकता है। अधिक के संग्रह से पाप की वृद्धि होगी। इस प्रकार बुद्ध ने अपने जीवन के त्यागमय अनुभव का दूसरों के हित में उपयोग करते हुए संघ की वैराज्य वृत्ति को कलंकित होने से बचा लिया। सार यह है कि दूसरों को उपदेश देने से पूर्व स्वयं उसी आचरण को अपनाकर देखना चाहिए। स्वयं का आचरण आदर्श रूप बना लेने के बाद ही दूसरों को सिखाने की पात्रता व अधिकार प्राप्त होता है।
देवदूत विधाता के लिए मिट्टी उपहार में लाया
एक बार विधाता ने अपने देवदूतों को बुलाकर धरती से एक-एक उपहार लाने का आदेश दिया। उन्होंने कहा- जिसका उपहार सर्वश्रेष्ठ होगा, उसी को प्रधान पद पर नियुक्त किया जाएगा। सभी अच्छे उपहार की तलाश में पृथ्वी की ओर दौड़ने लगे। एक से एक बहुमूल्य उपहार उन्होंने लाकर सामने रखे, पर ईश्वर के चेहरे पर कहीं प्रसन्नता और संतोष की रेखा तक न थी।
अभी एक देवदूत का आना शेष था। उसकी प्रतीक्षा बड़ी आतुरता से की जा रही थी। आखिर वह भी आ गया। वह कागज की एक पुड़िया ईश्वर को देकर नीचे डरते-डरते बैठ गया। वह सोच रहा था कि कहीं ऐसा न हो कि देर से आने के कारण डांट पड़े। उसकी पुड़िया को देखकर अन्य देवदूत मन ही मन उसकी मूर्खता पर प्रसन्न हो रहे थे।
ईश्वर ने पुड़िया खोली- अरे, यह क्या! इस पुड़िया में मिट्टी बांध लाए? ‘हां भगवन! मैंने पृथ्वी का चप्पा-चप्पा छान मारा। शायद ही कोई स्थान रह गया हो, जहां मैं नहीं गया। मैंने बड़ी कोशिश की कि ऐसा उपहार ले चलूं, जो आपको पसंद आ जाए, पर कुछ समझ ही नहीं पड़ा।
प्रभु है तो यह मिट्टी ही, पर किसी साधारण स्थान की नहीं, यह वह मिट्टी है, जहां के लोगों ने धर्म और मानवता की रक्षा के लिए खुशी-खुशी अपने प्राण न्योछावर कर दिए।’ देवदूत ने हाथ जोड़कर कहा।
विधाता ने वह मिट्टी बड़ी श्रद्धा से अपने मस्तक पर लगा ली और कहा- ‘जब तक पृथ्वी पर ऐसे संत और सज्जन पुरुष बने रहेंगे, धरती पर सुख-शांति की संभावनाएं भी कम न होंगी।’ सार यह है कि मानवता की रक्षा सबसे बड़ा धर्म है और मानवता के रक्षक जहां बसते हैं वहां की धरती भी वंदनीय है।

वे पांच रुपए भारतेंदुजी ने आजीवन याद रखे
भारतेंदु हरिश्चंद्र बहुत उदार थे। दूसरों की मदद के लिए वे सदा तत्पर रहते थे। नतीजा यह हुआ कि वे कंगाल हो गए। एक समय ऐसा आया कि उनके पास इतने भी पैसे नहीं होते थे कि आए हुए पत्रों का उत्तर भेज सकें। भारतेंदुजी के पास तो देशभर से पत्र आते थे।ऐसी दशा में वे पत्र पढ़ते, फिर उसका उत्तर लिखकर लिफाफे में बंद कर मेज पर रख देते थे। उन पर टिकट लगाने के पैसे न होने पर वे उन्हें भेज नहीं पाते थे। इस प्रकार धीरे-धीरे उनकी मेज पर पत्रों का ढेर इकट्ठा हो गया। एक दिन भारतेंदुजी के कोई मित्र उनसे मिलने आए।
बातों में उन्होंने पत्रों के उस ढेर के विषय में जिज्ञासा व्यक्त की। तब भारतेंदुजी ने अपनी आर्थिक असमर्थता जाहिर की। उनके मित्र ने उन्हें तत्काल पांच रुपए के टिकट लाकर दिए और तब वे पत्र डाक में डाले गए।जब भारतेंदुजी की स्थिति कुछ ठीक हुई, तब से वे मित्र उन्हें जब भी मिलते, भारतेंदुजी बलपूर्वक उनकी जेब में पांच रुपए डाल देते और कहते- ‘आपको स्मरण नहीं, आपके पांच रुपए मुझ पर ऋण हैं।’ तब मित्र ने कहा- ‘मुझे अब आपसे मिलना बंद करना पड़ेगा।’
तब भारतेंदुजी की आंखें भर आईं और वे बोले ‘भाई! तुमने ऐसे समय मुझे पांच रुपए दिए थे कि मैं प्रतिदिन तुम्हें पांच रुपए देता रहूं, तो भी तुम्हारे ऋण से नहीं छूट सकता।’ यह घटना कृतज्ञता का महान संदेश देती है। संकट के समय की गई छोटी-सी सहायता भी बड़ा महत्व रखती है इसलिए अच्छा समय आने पर उसे भुलाना नहीं चाहिए।

ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने सिखाया आतिथ्य भाव
ईश्वरचंद्र विद्यासागर को ढूंढ़ता हुआ एक व्यक्ति पहुंचा। उसने बताया कि वह कई दिनों से विद्यासागरजी को ढूंढ़ रहा है और कलकत्ता सहित कई स्थानों से भटकता हुआ यहां आया है। विद्यासागरजी ने उसकी बातें बहुत प्रेम से सुनीं, फिर बोले- ‘देखिए भोजन तैयार है। पहले आप भोजन कर लें, फिर बातें होंगी।’ वह व्यक्ति जहां-जहां गया, किसी ने उसे पानी तक को नहीं पूछा।
विद्यासागरजी जैसे बड़े आदमी का ऐसा विनम्र और उदार व्यवहार देख उस व्यक्ति का दिल भर आया और आंखों से आंसू निकल आए। विद्यासागरजी ने पूछा- आप रोते क्यों हैं? भोजन के लिए आपको मैंने कहा है, इसमें कुछ अनुचित हो, तो क्षमा करें। मेरे यहां आप भोजन न कर सकें, तो स्वयं भोजन बना लें।मैं अभी व्यवस्था कर देता हूं। उस व्यक्ति ने कहा- मुझे तो आपकी दयालुता ने रुला दिया। इधर मैं कितना भटका हूं, कई दिनों से कुछ खाने को नहीं मिला, किंतु किसी ने बैठने को भी नहीं कहा और आप.. किंतु विद्यासागरजी ने उसे बीच में ही रोक दिया क्योंकि वे अपनी प्रशंसा सुनने के आदी नहीं थे।
वे बोले- ‘भाई! इसमें क्या हो गया? घर आए अतिथि का सत्कार करना सभी का कर्तव्य है। आप झटपट चलकर भोजन कर लीजिए।’ भोजन के बाद विद्यासागरजी ने उससे पूछा कि वह किस काम से उनके पास आया है।विद्यासागरजी का सत्कार भाव हमें सिखाता है कि अतिथि को समुचित मान-सम्मान देना एक संस्कारगत नैतिकता है, जिसका पालन कर हम अपनी भारतीयता को सिद्ध करते हैं, जहां अतिथि को देवता का दर्जा दिया जाता है।

जब पुत्र ने पिता के बदले बंदी होने की इच्छा जताई
एक 12 वर्षीय बालक चित्तूर के जिला जज के पास आया। वह एक ऐसे किसान का पुत्र था जिसे समय पर मालगुजारी न अदा करने के कारण जेल की सजा दी गई थी। किसान ने कुछ सरकारी जमीन ली थी, किंतु उस वर्ष कोई फसल नहीं हुई और तत्कालीन कानून के अनुसार उसे जेल जाना पड़ा।
इधर, पिता जेल में ही था कि लड़के के दादाजी के वार्षिक श्राद्ध का समय आ गया। लड़के की मां रोने लगी क्योंकि उसके पति के बिना श्राद्ध कैसे संपन्न हो? मां का कष्ट और पिता की जरूरत को देखकर वह बालक जिला जज के पास आया।जज ने बालक की पूरी बात सुनने के बाद कहा- ‘मैं तुम्हारे पिता को बिना किसी जमानत के नहीं जाने दे सकता।’ लड़का निराशा और दुख के साथ बोला- ‘मेरे पास धन तो है नहीं, जो पिताजी की जमानत दे सकूं किंतु आप उन्हें कुछ समय के लिए छोड़ दीजिए, मैं उनके स्थान पर जेल में बंद रहूंगा।’ जज का हृदय लड़के की बात सुनकर पिघल गया।
उन्होंने उसके पिता के मुक्ति संबंधी कागजात पर हस्ताक्षर कर उसे छोड़ दिया। दोनों पिता-पुत्र उसी रात घर पहुंचे। उचित समय पर श्राद्ध-क्रिया संपन्न हो गई। यही बालक आगे चलकर पंद्रह भाषाओं में अच्छी तरह बोल और लिख लेने वाला प्रसिद्ध विद्वान रंगनाथ शास्त्री हुआ।
उक्त प्रसंग पितृभक्ति की अद्भुत मिसाल प्रस्तुत करता है। अपने जनक के प्रति समुचित श्रद्धा, सेवा और त्याग भाव रखना न केवल प्रत्येक व्यक्ति का दायित्व है बल्कि इसके सदैव सुपरिणाम भी प्राप्त होते हैं।

और शिवाजी बोल पड़े-‘गढ़ आला पण सिंह गेला’
एक दिन छत्रपति शिवाजी राजकीय कार्य करने के बाद अपनी माताजी से मिलने उनके कक्ष में गए। उन्होंने देखा कि माताजी कक्ष के झरोखे में से बाहर बड़े ध्यान से कुछ देख रही हैं। शिवाजी ने पूछा- माताजी, इतनी गंभीरता से क्या देख रही हैं? वे बोलीं- यही कि आसपास सभी जिलों पर तेरी विजय पताका फहरा रही है, फिर केवल इस कोंडणा दुर्ग पर ही क्यों मुगलों का आधिपत्य है? मैं यहां रहना चाहती हूं। शिवाजी ने आज्ञा स्वीकार की। उन्होंने तत्काल एक पत्र अपने विश्वसनीय सेनाप्रमुख तानाजी के नाम लिखा- माताजी की आज्ञा है कि कोंडणा दुर्ग अभी फतह किया जाए।
यह काम तुम ही कर सकते हो। तानाजी अपने पुत्र के विवाह की तैयारी में लगे थे। स्वामी का पत्र पाते ही उन्होंने बारातियों से कहा- ‘पहले कोंडणा दुर्ग से ब्याह, फिर मेरे बच्चे का ब्याह।’ तुरंत तानाजी सेना लेकर निकल पड़े। किले पर चढ़ने के लिए डाली गोह तीन बार गिरी किंतु तानाजी ने हार नहीं मानी और दुर्ग पर चढ़ गए। चौथी बार में गोह चिपक गई।
तानाजी दुर्ग पर चढ़ गए। नीचे डोर डालकर सेना को चढ़ाया। वहां जमकर युद्ध हुआ। मुट्ठीभर सैनिकों ने अपने अदम्य साहस से अजेय माना जाने वाला कोंडणा दुर्ग जीत लिया। लेकिन इस युद्ध में तानाजी वीरगति को प्राप्त हुए। शिवाजी को समाचार मिलते ही उनके मुंह से निकल पड़ा- ‘गढ़ आला, पण सिंह गेला।’ तब से उस दुर्ग का नाम सिंहगढ़ रखा गया। उक्त प्रसंग कर्तव्य-भावना का महत्व दर्शाता है। निजी कार्यो से ऊपर अपने कर्तव्य को प्रमुखता देने वाला व्यक्ति इतिहास में अमर हो जाता है।

जब हनुमान ने किया भीम का अहंकार चूर-चूर
भीम को अपनी शक्ति पर बड़ा घमंड था। एक बार वनवास काल में द्रौपदी को एक सहस्रदल कमल दिखाई दिया। उसने उसे ले लिया और भीम से उसी प्रकार का एक और कमल लाने को कहा। भीम कमल लेने चल पड़े। आगे जाने पर भीम को गंधमादन पर्वत की चोटी पर एक विशाल केले का वन मिला जिसमें वे घुस गए।
इसी वन में हनुमानजी रहते थे। उन्हें भीम के आने का पता लगा, तो उन्होंने सोचा कि अब आगे स्वर्ग के मार्ग में जाना भीम के लिए हानिकारक होगा। वे भीम के रास्ते में लेट गए। भीमसेन ने वहां पहुंचकर हनुमान से मार्ग देने के लिए कहा तो वे बोले- ‘यहां से आगे यह पर्वत मनुष्यों के लिए अगम्य है।
अत: यहीं से लौट जाओ’ भीम ने कहा- ‘मैं मरूं या बचूं, तुम्हें क्या? तुम जरा उठकर मुझे रास्ता दे दो।’ हनुमान बोले- रोग से पीड़ित होने के कारण उठ नहीं सकता, तुम मुझे लांघकर चले जाओ। भीम बोले- परमात्मा सभी प्राणियों की देह में है, किसी को लांघकर उसका अपमान नहीं करना चाहिए। तब हनुमान बोले- तो तुम मेरी पूंछ पकड़कर हटा दो और निकल जाओ।
भीम ने हनुमान की पूंछ पकड़कर जोरों से खींची, किंतु वह नहीं हिली। भीम का मुंह लज्जा से झुक गया। उन्होंने क्षमा मांगी और परिचय पूछा। तब हनुमान ने अपना परिचय दिया और वरदान दिया कि महाभारत युद्ध के समय मैं तुम लोगों की सहायता करूंगा। वस्तुत: विनम्रता ही शक्ति को पूजनीय बनाती है। इसलिए अपनी शक्ति पर अहंकार न कर उसका सत्कार्यो में उपयोग कर समाज में आदरणीय बनें।

दंड पाने के लिए वह बालक फिर लौटकर आया
स्कॉटलैंड के लोगों ने इंग्लैंड के राजा के विरुद्ध विद्रोह किया। विद्रोह के असफल होने पर विद्रोहियों को बड़ी निर्दयतापूर्वक दंडित किया गया। लोगों को कतार में खड़ाकर गोली से उड़ा दिया जाता। एक बार एक पंद्रह वर्षीय लड़का भी कतार में खड़ा था। सेनापति ने उसका मासूम चेहरा देखा, तो उसके कठोर हृदय में दया भाव उमड़ आए।
उसने लड़के को पास बुलाकर कहा- ‘बच्चे, यदि तुम क्षमा मांग लो, तो तुम मृत्युदंड से बच सकते हो।’ लड़के ने क्षमा मांगने से इंकार कर दिया। तब सेनापति ने लड़के से पूछा- ‘मैं तुम्हे चौबीस घंटे की छुट्टी देता हूं। तुम्हारा कोई प्रियजन हो, तो उससे मिल आओ।’ लड़का अपनी बीमार मां से मिलने घर चला आया।
उसने मां से कहा- ‘मां, मैं आ गया हूं।’ अपने इकलौते बेटे का मुंह देखकर और यह सोचकर कि बेटे की जान बच गई है, मां बहुत खुश हुई। उसने जी भर कर बेटे को प्यार किया। समय समाप्त होता देख लड़के ने जाने की तैयारी शुरू कर दी। मां के पूछने पर वह धीरे से बोला- ‘मां, मुझे चौबीस घंटे की छुट्टी मिली थी।
मृत्युदंड के लिए मुझे कैंप में जाना होगा। ईश्वर तुम्हारा रक्षक है।’ ऐसा कहकर वह घर से निकल गया और सेनापति के समक्ष पहुंच गया। सेनापति को उस लड़के के लौटने की कतई आशा नहीं थी। लड़के के वचन पालन ने सेनापति को इतना प्रभावित किया कि उसने तत्काल उसे मुक्त कर दिया।
यह प्रसंग वचन पालन की दृढ़ता को इंगित करता है। अपने वचन पर अडिग रहने से समाज में व्यक्ति विश्वसनीयता अर्जित करता है और यह उसे विकट परिस्थितियों से निकालने में मदद करता है।

बालक ने सत्य का पालन कर पोप का मन जीता
पोप पाइस नवम को एक दिन एक पत्र मिला। उसे रोम के एक गांव में रहने वाले बालक ने भेजा था और मृत्युशय्या पर पड़ी अपनी मां की दवा के लिए सहायता मांगी थी। उसे विश्वास था कि धर्मगुरु और ईश्वर के परम भक्त होने के नाते पोप अवश्य ही सहायता करेंगे। पोप ने उसे पत्रोत्तर में उनसे आकर मिलने का लिखा।
बालक जब उनके पास आया तो उन्होंने उसे एक स्वर्ण मुद्रा दी और कहा- ‘शीघ्र ही घर जाकर मां का इलाज करवाओ।’ बालक ने करुण स्वरों में याचना की - ‘पर यह तो केवल बीस लाइर (मध्यकालीन इटली का एक सिक्का)’ हैं। इतने से काम नहीं चलेगा।’ पोप ने उसे एक स्वर्ण मुद्रा और दी, तो बोला- ‘यह तो मेरी जरूरत से ज्यादा हैं।
कल सुबह शेष पैसे अवश्य लौटा दूंगा।’ बालक पोप को धन्यवाद देकर चला गया। दूसरे दिन सुबह बालक अपने वचन के अनुसार पोप के समक्ष उपस्थित हुआ। जब उसने शेष पैसे लौटाने चाहे, तो पोप ने उसकी सत्यवादिता की प्रशंसा की। दरअसल उन्होंने बालक के आने से पहले ही अपने विशेष सेवक भेजकर बालक और उसकी मां की स्थिति का पता लगा लिया था।
उन्होंने बालक से कहा- ‘तुम्हारी सत्यवादिता से मं बहुत प्रसन्न हूं।’ पोप की सहायता से बालक ने आगे चलकर अपने जीवन में काफी सफलता अर्जित की। उक्त घटना सत्य की शक्ति व महत्व से परिचित कराती है। सत्य पालन से व्यक्ति का चरित्र दृढ़ होता है और सत्य की शक्ति उसकी उन्नति के सभी द्वार खोल देती है।

अहंकारी ब्रमचारी को बुद्ध ने दिया ‘परम ज्ञान’
एक बौद्ध ब्रमचारी ने कई देशों में घूमकर विभिन्न कलाएं सीखीं। एक देश में उसने एक व्यक्ति से बाण बनाने की कला सीखी। कुछ दिनों बाद वह अन्य देश गया। वहां उसने नौ निर्माण कला सीखी क्योंकि वहां बहुतायत में जहाज बनाए जाते थे। फिर वह किसी तीसरे देश में गया, तो कई ऐसे व्यक्तियों के संपर्क में आया, जो गृह निर्माण करते थे। यहां उसने गृह निर्माण कला सीखी।
इस प्रकार वह सोलह देशों में गया और कई कलाओं का ज्ञाता होकर लौटा। जब वह अपने देश पहुंचा तो अहंकारग्रस्त हो लोगों से पूछता- ‘इस संपूर्ण पृथ्वी पर मुझ जैसा कोई चतुर व्यक्ति है?’ भगवान बुद्ध ने उस युवा ब्रrाचारी के घमंड की ऐसी अति देखकर उसे एक उच्चतर कला सिखानी चाही। वे एक वृद्ध भिखारी का वेश बनाकर हाथ में भिक्षापात्र लिए उसके सामने गए।
ब्रमाचारी ने बड़े अभिमान से पूछा- ‘कौन हो तुम?’ बुद्ध बोले- ‘मैं आत्मविजय का पथिक हूं।’ ब्रमचारी ने उनके कथन का अर्थ जानना चाहा तो वे बोले- ‘इषुकार बाण बना लेता है, नौ चालक जहाज पर नियंत्रण रख लेता है, गृह निर्माता घर भी बना लेता है, किंतु वह तो महाविद्वान ही होगा, जो अपने शरीर और मन पर विजय पा सके।
संसार की प्रशंसा व अपशब्द दोनों ही दशाओं में जिसका मन स्थिर रहे, वही साधक शांति व निर्वाण को प्राप्त करता है।’ गौतम बुद्ध की इन बातों को सुनकर ब्रमचारी को अपनी भूल का अहसास हुआ। वस्तुत: अहंकार का त्याग ही ईश उपलब्धि का द्वार है, इसलिए ईश्वर की प्राप्ति के इच्छुक भक्त को अहंकार से सर्वथा मुक्त रहना चाहिए।

पंच ने खुद अंगूठी बनवाकर झगड़ा शांत करवाया
कोलकाता में लक्ष्मीनारायण मुरोदिया नामक एक संत स्वभाव के व्यापारी थे। एक बार किन्हीं दो भाइयों में संपत्ति को लेकर आपस में झगड़ा हो गया और बंटवारे में एक अंगूठी पर बात अड़ गई। दोनों ही भाई उस अंगूठी को लेना चाहते थे। मुरोदियाजी पंच थे।
उन्होंने समझाया कि एक भाई अंगूठी ले ले और दूसरा भाई कीमत ले ले किंतु दोनों नहीं माने। तब मुरोदियाजी ने युक्ति सोची और ठीक वैसी ही अंगूठी अपने पास से बनवाई। फिर जिस भाई के पास अंगूठी थी, उससे कहा कि देखो मैं उसे समझा दूंगा, पर आप अंगूठी पहनना छोड़कर उसे घर में रख दीजिए ताकि उसे उसकी याद ही न आए। उसने बात मान ली। फिर मुरोदियाजी दूसरे भाई के पास जाकर उसे अपनी बनवाई अंगूठी देकर बोले - देखो मैंने तुम्हें अंगूठी ला दी है, किंतु यह बात किसी से कहना नहीं अन्यथा तुम्हारा भाई इसे अपनी हार समझकर दुखी होगा।
अंगूठी को घर में रख देना उसे पहनना ही मत। उसने प्रसन्न होकर अंगूठी ले ली और बात मान ली। दोनों भाइयों में झगड़े का निपटारा हो गया। दो-तीन साल बाद जब यह भेद खुला तो दोनों भाइयों को बड़ा अचरज हुआ और वे अंगूठी लौटाने गए किंतु मुरोदियाजी ने यह कहकर कि ‘मैं आप लोगों से बड़ा हूं और इसलिए मुझे अधिकार है कि मैं आपको कुछ उपहार दूं,’ अंगूठी नहीं ली।
कभी-कभी उचित न्याय के लिए न्यायाधीश के द्वारा भी त्याग अपेक्षित है। वस्तुत: न्याय की तुला सम पर रखना न्यायाधीश का कर्तव्य है और इसके लिए अवसर आने पर उसे कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार रहना चाहिए।

मूक प्राणी की आह से हुआ भंबाजी का घर स्वाहा
संत बहिणाबाई और उनके पति गंगाधर राव अपनी प्यारी गाय कपिला के साथ देहू में तुकाराम महाराज के दर्शनार्थ आए थे। रास्ते में एक दिन गंगाधर राव को तुकाराम से ईष्र्या रखने वाले वहीं के एक ब्राह्मण भंबाजी मिले। राव के आने का कारण जानकर भंबाजी गुस्से में आकर तुकाराम को भला-बुरा कहने लगे।
गंगाधर राव से रहा नहीं गया। वे बोले-महाराज, आप मेरी निंदा खुशी से कीजिए, किंतु भगवद्भक्त तुकोबा की निंदा कर व्यर्थ ही पाप की गठरी क्यों बांध रहे हैं? यह सुनकर भंबाजी, राव पर आगबबूला हो उठे और बदला लेने पर उतारू हो गए। एक दिन बहिणा और राव, तुकाराम के भजन में मग्न थे।
मौका पाकर भंबाजी उनकी कपिला को खोल ले गए और मारते हुए तहखाने में छिपा दिया। भजन के बाद कपिला को न पाकर दोनों पति-पत्नी ने उसे खूब ढूंढ़ा लेकिन वह नहीं मिली। बहिणा की गाय गुम होने का तुकाराम को भी दुख हुआ। दो दिन बाद तुकाराम को स्वप्न में कपिला रोती दिखी। उन्होंने गाय के लिए प्रभु से प्रार्थना की। भगवान ने भक्त की प्रार्थना सुनी। एकाएक भंबाजी के घर में आग लगी और गाय का करुण क्रंदन सभी को सुनाई दिया। लोगों ने तहखाना खोलकर गाय को मुक्त कराया।
भंबाजी का घर जलकर राख का ढेर बन गया। भंबाजी को अपनी करनी का फल मिल गया और बहिणा व राव को तुकाराम की कृपा से पुन: अपनी कपिला प्राप्त हो गई। वस्तुत: मूक प्राणियों पर अत्याचार घोर अपराध है। अत: व्यक्तिगत शत्रुता को निरीह जीवों से निकालने की बजाय सौमनस्य व बंधुत्व का भाव अपनाएं।

झूठ बोलकर भी बालाजी हुआ शिवाजी से पुरस्कृत
जंजीरे के दीवान आवजी हरि चित्रे के पुत्र बालाजी ने शिवाजी को पत्र लिखकर नौकरी की प्रार्थना की। शिवाजी ने उसे अपने यहां लेखक के स्थान पर रख लिया। महाराज उसके सुंदर अक्षरों पर मुग्ध थे। एक दिन शिवाजी ने बालाजी को बुलाकर पूछा - ‘कल हमने एक पत्र का उत्तर लिखने के लिए तुमसे कहा था, सो लिखा ही होगा।’
बालाजी के हां कहने पर महाराज ने दिखाने का आग्रह किया। तब उसने कहा- ‘अभी साफ नहीं किया, कल दरबार में साफ करके सुनाऊंगा।’ शिवाजी ने फिर भी पढ़ने का आग्रह किया तो बालाजी ने एक कागज पढ़ना शुरू किया। जिसे सुनकर शिवाजी बड़े प्रसन्न हुए।
बालाजी के जाने के बाद शिवाजी के सेवक रायबा ने कहा ‘बालाजी जो कागज पढ़ रहा था, उस पर कुछ भी नहीं लिखा था।’ शिवाजी के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। अगले दिन दरबार में शिवाजी ने बालाजी से ऐसा करने का कारण पूछा। वह विनम्रता से बोला - ‘क्षमा करें महाराज, व्यस्तता के कारण लिख नहीं पाया किंतु आपको नहीं कहने का साहस नहीं हुआ।’
शिवाजी ने प्रसन्न हो कहा- ‘आज से तुम दरबार के मंत्री नियुक्त किए गए। तुम्हारे अपराध का दंड यही है कि आज से तुम अपनी इस अद्भुत स्मरण शक्ति, अनोखे चातुर्य और मोती के समान अक्षरों का उपयोग स्वदेश हित को छोड़ किसी अन्य काम में नहीं करोगे।’ बालाजी ने जमीन पर सिर लगाकर शपथ ली। यह घटना समय-सूचकता व कार्य-सजगता का उत्कृष्ट उदाहरण है। ठीक समय पर अपने कार्य को पूर्ण करने वाला ही जीवन में सफल होता है।

प्रेमभरी मुस्कान से श्रीकृष्ण ने राक्षस को निस्तेज किया
एक बार बालक श्रीकृष्ण, बलराम और सात्यकी घने जंगल में भटक गए। अंधेरा हो गया। गोकुल पहुंचने का कोई मार्ग नहीं दिख रहा था। अत: उन्होंने जंगल में ही रात बिताना तय किया। उन्होंने योजना बनाई कि सभी बारी-बारी से पहरा देंगे। सबसे पहले सात्यकी पहरा देने लगा और बलराम व श्रीकृष्ण सूखी घास-फूस का बिछौना बनाकर उस पर सो गए। इसी बीच सात्यकी के सामने एक राक्षस आ गया और सात्यकी पर टूट पड़ा।
सात्यकी ने साहसपूर्वक उसका सामना किया। अंत में राक्षस सात्यकी की बुरी तरह पिटाई करके चला गया। किंतु सात्यकी प्रसन्न था। बलराम और श्रीकृष्ण सोते रहे। राक्षस और सात्यकी के बीच हुए संघर्ष के कारण उत्पन्न शोर का उन पर कोई प्रभाव नहीं हुआ। पहरे का समय खत्म होने पर सात्यकी ने बलराम को जगाया और स्वयं उसके स्थान पर सो गया। राक्षस लौटा और उसने बलराम को ललकारा।
बलराम ने संघर्ष कर राक्षस को पराजित किया। अपना पहरा समाप्त कर बलराम ने श्रीकृष्ण को जगाया और स्वयं जाकर सो गए। श्रीकृष्ण ने अपना पहरा संभाला। राक्षस फिर आया और श्रीकृष्ण की ओर क्रोध से आगे बढ़ा। श्रीकृष्ण ने अपना मधुर-मनोहर मुख उसकी ओर मोड़ा और उस पर अपनी प्रेमभरी मुस्कान उड़ेल दी। उस मुस्कान ने राक्षस को निस्तेज कर दिया। मुस्कान के प्रभाव से उसकी प्रति हिंसा और विषाक्तता क्षीण होती चली गई।
सार यह है कि क्रोध को क्रोध से नहीं जीता जा सकता। क्रोध को सहनशीलता से ही दबाया जा सकता है।

मिर्च लगाकर रोने वाले भक्त के सम्मान में झुके गदाधरजी
श्री गदाधर भट्टजी से श्रीमद् भागवत कथा सुनने के लिए बड़ी संख्या में भक्त एकत्रित होते थे। गदाधरजी इतनी भावपूर्ण कथा सुनाते थे कि श्रोताओं के नेत्रों से आंसू बह निकलते थे। श्रोताओं में एक महंतजी भी थे। उनके नेत्रों में आंसू आते ही नहीं थे। इसलिए उन्हें स्वयं पर
लज्जा आती थी। अत: उन्होंने एक उपाय निकाला। वे एक पोटली में लाल मिर्च का चूर्ण बांध लाते थे। कथा में ऐसा प्रसंग आता कि सभी श्रोताओं के नेत्रों से आंसू निकलते, तो महंतजी भी नेत्र पोंछने के बहाने लाल मिर्च की पोटली नेत्रों पर रगड़ लेते। इससे उनके नेत्रों से भी आंसू निकलने लगते। महंतजी के पास बैठे किसी श्रोता ने उनकी यह चतुराई जान ली।
वह भट्टजी के पास जाकर बोला - महाराज आपकी कथा में जो महंत आता है। वह बड़ा ढोंगी है उसमें भगवद भक्ति तो है ही नहीं, किंतु दूसरों को दिखाने के लिए आंखों में लाल मिर्च लगाकर आंसू बहाता है। भट्टजी बोले- वे महात्मा धन्य हैं। मैं अभी उनके दर्शन करने जाऊंगा।
भट्टजी महंतजी से मिलने गए और उन्हें दंडवत प्रणाम कर बोले- मैंने सुना है कि कथा में नेत्रों में स्वाभाविक आंसू न आने के कारण आप उनमें लाल मिर्च लगाते हैं। आप जैसे भगवद् भक्त का दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया।
भगवान की लीला को सुनकर भी जिन नेत्रों में जल न आएं, उन्हें दंड देना चाहिए किंतु आप धन्य हैं कि आपने उसे सकारात्मक रूप में बदल दिया। सार यह है कि नकारात्मक वस्तुओं में भी सकारात्मकता को खोज निकालना ही सच्ची साधुता है। इसी से समाज के कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है।

मार सहकर स्वयं को सच्चा शिष्य सिद्ध किया दयानंद ने
आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानंद सरस्वती को उचित गुरु की तलाश थी। बड़ी खोजबीन के बाद उन्हें विरजानंदजी जैसे परम वेदज्ञ महात्मा के दर्शन हुए। उनसे भेंट के बाद दयानंद को महसूस हुआ कि विरजानंद का शिष्यत्व स्वीकार करना उनके लिए हितकारी होगा।
विरजानंद ने दयानंद के आग्रह पर उन्हें अपना शिष्य बना लिया। विरजानंद नेत्रहीन थे। अत: स्वामी दयानंद उनका बहुत ध्यान रखते थे। उनकी सेवा में दयानंद कोई कमी नहीं रखते थे। विरजानंद का नियम था कि वे तीनों ऋतुओं में यमुना जल से स्नान करते थे। दयानंद सवेरे उठकर उनके लिए 12 घड़े यमुना जल लाते थे और उसके बाद निवास स्थान को झाड़ू से साफ किया करते थे।
एक दिन स्वामी दयानंद झाड़ू लगा रहे थे। संयोग से उसी दिन कहीं पर थोड़ा सा कूड़ा शेष रह गया और उस पर विरजानंद का पैर पड़ गया। वे नाराज होकर दयानंद को पीटने लगे, किंतु दयानंद ने उफ तक नहीं किया, बल्कि वे कहने लगे - गुरुदेव, आप मुझे और मत मारिए, दुख सहते-सहते मेरी पीठ तो पत्थर जैसी हो गई है।
इस पर प्रहार करते-करते आपके हाथों में पीड़ा होती होगी। यह कहकर वे गुरु के हाथ सहलाने लगे। यह देख स्वामी विरजानंद ने गदगद होकर उन्हें गले लगा लिया और उनकी प्रशंसा करते हुए उन्हें अपना सच्चा शिष्य मान लिया। यह गुरुभक्ति का श्रेष्ठतम उदाहरण है। विषम परिस्थिति में भी गुरु के प्रति निष्ठावान बने रहना जहां संबंधित को गुरु ज्ञान का सच्चा और पूर्ण उत्तराधिकारी बनाता है, वहीं गुरु ऋण से उऋण होने का भी यह उचित मार्ग है।

रायचंद की उदारता से अभिभूत हुए बापू
महात्मा गांधी ने अपने संस्मरण में लिखा है- मैंने गुरु नहीं बनाया, किंतु मुझे कोई गुरु मिले तो वे हैं रायचंद भाई। रायचंद भाई पहले बंबई में जवाहरात का व्यापार करते थे। उन्होंने एक व्यापारी से सौदा किया। यह निश्चित हो गया कि अमुक तिथि तक, अमुक भाव में इतना जवाहरात वह व्यापारी देगा। व्यापारी ने रायचंद भाई के साथ लिखा-पढ़ी कर ली।
यह संयोग की बात थी कि जवाहरात के मूल्य बढ़ने लगे और इतने अधिक बढ़ गए कि यदि रायचंद भाई को उनके जवाहरात वह व्यापारी दे तो उसे इतना घाटा होता कि उसका स्वयं का घर भी नीलाम हो जाता। जब रायचंदभाई को जवाहरात के वर्तमान बाजार भाव का पता लगा तो वे उस व्यापारी की दुकान पर पहुंचे।
उन्हें देखते ही व्यापारी बोला- मैं आपके सौदे के लिए स्वयं चिंतित हूं। रायचंद ने कहा - तुम्हें जब चिंता लग गई है तो मुझे भी चिंता होनी चाहिए। दोनों की चिंता का कारण यह लिखा-पढ़ी है। इसे समाप्त कर दें तो दोनों की चिंता खत्म हो जाएगी। रायचंद ने लिखा-पढ़ी के कागज को फाड़ते हुए कहा- इस लिखा-पढ़ी से तुम बंध गए थे।
बाजार भाव बढ़ने से मेरा चालीस-पचास हजार रुपया तुम पर लेना हो गया, किंतु मैं तुम्हारी परिस्थिति जानता हूं। रायचंद दूध पी सकता है, खून नहीं पी सकता। व्यापारी यह कहते हुए कि आप मनुष्य नहीं, देवता हैं रायचंद के चरणों में झुक गया। किसी भी तरह दूसरे की परिस्थिति से लाभ उठाने को आतुर आज के स्वार्थी समाज को ऐसे महापुरुषों से प्रेरणा लेनी चाहिए।

जब हेडगेवार ने अपना नियम नहीं तोड़ा
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मूल संस्थापक डॉ. केशवराय बलिराम हेडगेवार किसी कार्य से एक बार कुछ साथियों को लेकर पड़ोसी गांव गए थे। शनिवार का दिन था। वहां कार्य समाप्त होने में संध्या हो गई। यह गांव नागपुर से ३२ मील की दूरी पर था। रास्ता बहुत खराब था।
पक्की सड़क से 9-10 मील की दूरी पर इस गांव से डॉक्टर साहब निकल तो गए किंतु नागपुर कैसे पहुंचे, यह एक विकट समस्या थी। उनका नागपुर पहुंचना जरूरी भी था क्योंकि उनका नियम था कि प्रत्येक रविवार को प्रभात की परेड में वे नागपुर में अवश्य उपस्थित रहते थे। साथियों ने रात वहीं ठहरने का अनुरोध किया, किंतु डॉक्टर साहब अपना नियम नहीं तोड़ना चाहते थे। उन्होंने पैदल जाने का निश्चय किया। अंधेरी रात, रास्ते में कीचड़ और पैर में एक कांटा गहरा चुभा हुआ।
इतनी दूर की पैदल यात्रा डॉक्टर हेडगेवार ने साहस और अडिग निश्चय के साथ शुरू की। अन्य साथी भी साथ ही थे। उनके यात्रा आरंभ करते ही घनघोर वर्षा शुरू हो गई, किंतु वे चलते गए। आखिर कुछ मील पैदल चलने पर उसी रास्ते नागपुर जाने वाली गाड़ी लगभग ११ बजे रात को मिल गई।
ड्राइवर ने डॉक्टर साहब को पहचान कर गाड़ी खड़ी की और उन्हें साथियों सहित चढ़ा लिया। खचाखच भरी गाड़ी में पायदान पर खड़े होकर सभी ने सफर किया और अपने नियमानुसार अगले दिन रविवार को डॉ. हेडगेवार नागपुर में प्रभात परेड में उपस्थित हुए। निश्चय की दृढ़ता सफलता की कुंजी है। बाधाओं के बावजूद मजबूत संकल्प शक्ति के साथ आगे बढ़ें तो लक्ष्य प्राप्त हो ही जाता है।

भगवान के लिए भावों का अर्पण जरूरी
अकबर के दरबार में एक बहुत बड़े संगीतज्ञ थे। जिनका नाम था तानसेन। वे दिन-रात गाते थे और उनका संगीत सुमधुर था। लेकिन श्रेष्ठ होने के बावजूद उनके संगीत में भाव नहीं थे। एक दिन अकबर और तानसेन शहर में घूमने निकले। अकबर ने एक वृद्ध व्यक्ति को भगवान का भजन गुनगुनाते सुना।
अकबर ने अपने रथ को रोका और चुपचाप उसे बताए बिना उसका भजन सुनने लगे। सुनते-सुनते उनकी आंखों में अश्रुधारा बह चली। उनका हृदय द्रवित हो गया। वह थोड़ा आगे बढ़े और तानसेन से बोले-‘बहुत दिनों से मैं तुम्हारा गाना सुनता आ रहा हूं और मुझे तुम्हारा गाना सुनने में बड़ा मधुर भी लगता है, पर आज तक कभी उससे मेरा हृदय द्रवित नहीं हुआ, लेकिन आज इस भजन को सुनकर मेरा हृदय पिघल गया। मैं तुम्हारे संगीत और इस भक्त द्वारा गाए भजन में अंतर जानना चाहता हूं।’
तानसेन ने उत्तर दिया- ‘महाराज! मैं आपको प्रसन्न करने के लिए गाता हूं, पर यह भक्त ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए गा रहा है, बस यही अंतर है।’ इसीलिए किसी व्यक्ति को प्रसन्न करने के लिए जो गाया जाता है, उस संगीत से हृदय नहीं पिघलता।
जो संगीत ईश्वर को अर्पित किया जाता है, असर उसी से होता है। प्रभु जिससे प्रसन्न होते हों, केवल उसी से व्यक्ति का मन बदल सकता है। सार यह है कि संगीत में भाव प्रधान होना चाहिए। इसीलिए किसी व्यक्ति को प्रसन्न करने के लिए जो गाया जाता है, उससे हृदय नहीं पिघलता। जो ईश्वर को अर्पित होता है, असर उसी से होता है।

मृत्यु के बाद धनवान के साथ कोई नहीं आया
जब तालाब पानी से भरा होता है तो सैकड़ों मेंढक तालाब के किनारे चारों ओर टर्राते रहते हैं, किंतु जब पानी सूख जाता है तो एक भी मेंढक दिखाई नहीं देता। इसी प्रकार जब हमारे पास धन-संपत्ति प्रचुर मात्रा में होती है, तो सगे-संबंधी, भाई-बंधु हमें घेरे रहते हैं, किंतु जब भाग्य पलटता है और धन-संपत्ति नहीं रहती तो हम नितांत अकेले रह जाते हैं। कोई पूछता तक नहीं।
एक धनाढच्य व्यक्ति मृत्यु शैया पर पड़ा था। यमदूत उसे अपने साथ ले जाने के लिए आ गए। वे जैसे ही उसे ले जाने लगे, उसने थोड़ी दूर जाकर ही दूतों से प्रार्थना की कि मुझे कुछ थोड़ा-सा समय दो। मैं लौटकर फौरन आता हूं। दूतों ने उसे अनुमति दे दी। वह लौटकर गया, चारों ओर दृष्टि घुमाई और वापस यमदूतों के पास आकर बोला- चलिए। यमदूत उसे इस प्रकार अपने साथ चलने के लिए तैयार देखकर चकित रह गए और इसका कारण पूछा।
उसने कहा- मैंने पाप और अपराध करके अपार धन एकत्रित किया और लोगों को खूब खिलाया-पिलाया। मेरे मित्र और सगे-संबंधी, भाई-बंधु मुझे घेरे रहते थे। लेकिन अब जब मैंने पीछे मुड़कर देखा तो हैरान हुआ कि उनमें से कोई भी मेरे पीछे नहीं आ रहा था।
किसी को भी मेरी चिंता नहीं थी। इसलिए अब आप जहां भी ले चलोगे, चलने को तैयार हूं। कथा का सार यह है कि हम जो भी काम करेंगे, अच्छे या बुरे जैसे भी उनका परिणाम हमें ही भुगतना होगा। यदि अच्छा काम करेंगे तो यश के भागी बनेंगे, इसके विपरीत दंड के भागी बनेंगे।

जब साधक ने पाया साधना करने का उचित मार्ग
एक जिज्ञासु साधक को अपने लिए एक श्रेष्ठ गुरु की तलाश थी। उसके हृदय में कई प्रकार के प्रश्न उठते थे जिनका समाधान अब तक कोई नहीं कर पाया था। एक दिन वह इसी खोज में घूमता हुआ एक संत के आश्रम पहुंचा। संत का व्यक्तित्व सहज, सौम्य और तेज से भरा था।
साधक ने प्रभावित हो उनसे अपने प्रश्नों के उत्तर चाहे। संत ने उसे प्रश्न पूछने की आज्ञा दी। वह बोला - प्रभु! मैं कौन-सी साधना करूं? संत ने उत्तर दिया- तुम बड़े जोर से दौड़ो। दौड़ने से पहले यह निश्चित कर लो कि मैं भगवान के लिए दौड़ रहा हूं। बस यही तुम्हारे लिए साधना है। साधक ने पूछा - तो क्या बैठकर करने की कोई साधना नहीं है? संत बोले - है क्यों नहीं, बैठो और निश्चय करो कि तुम भगवान के लिए बैठे हो।
साधक ने पुन: प्रश्न किया - भगवन। कुछ जप नहीं करें? संत ने समझाया- किसी भी नाम का जप करो, तो सोचो भगवान के लिए सोच रहा हूं। साधक ने सवाल उठाया - तब क्या क्रिया का कोई महत्व नहीं। केवल भाव ही साधना है। संत ने समझाया - क्रिया की भी महत्ता है। क्रिया से भाव और भाव से ही क्रिया होती है। इसलिए दृष्टि लक्ष्य पर रहनी चाहिए।
फिर तुम जो कुछ करोगे, वही साधना होगी। भगवान पर यदि लक्ष्य रहे तो वे सभी को सर्वत्र सर्वदा मिल सकते हैं। सार यह है कि लक्ष्य यदि ठीक रखा जाए तो साधना स्वयमेव ठीक हो जाएगी। पवित्र साध्य की साधना भी पवित्र हो जाती है और उसका फल भी पवित्र और आत्मसंतुष्टि देने वाला होता है।

और किसान रोते हुए गांधीजी के चरणों में गिर पड़ा
महात्मा गांधी को एक दिन किसी कार्यवश चंपारन से बेतिया जाना था। उनके किसी सहयोगी ने ट्रेन के प्रथम श्रेणी के डिब्बे में उनका आरक्षण कराना चाहा, किंतु गांधीजी ने इंकार कर दिया। वे बिल्कुल आम व्यक्ति की तरह तीसरी श्रेणी में ही सफर करते थे। रात का समय था। ट्रेन प्राय: खाली ही थी।
गांधीजी चढ़े और एक सीट पर सो गए। उनके अन्य साथी भी दूसरी सीटों पर बैठ गए। आधी रात को किसी स्टेशन से एक किसान उस डिब्बे में चढ़ा। डिब्बे में घुसते ही उसने चारों ओर देखा। महात्मा गांधी को सोया देख वह उनकी ओर बढ़ा और उन्हें धक्का देकर उठाया- उठो, बैठो। तुम तो ऐसे पसरे पड़े हो जैसे गाड़ी तुम्हारे बाप की है।
महात्मा गांधी उठकर बैठ गए। उनके पास ही बैठकर वह किसान गाने लगा- धन्य, धन्य गांधीजी महाराज दुखी का दुख मिटाने वाले। वास्तव में किसान गांधीजी के दर्शन करने ही बेतिया जा रहा था। उसे नहीं पता था कि उसने जिन्हें धक्का दिया है, वे ही गांधीजी हैं। गांधीजी ने मुस्कराते हुए उसका गीत सुना। बेतिया स्टेशन पर हजारों व्यक्ति गांधीजी के स्वागत के लिए खड़े थे।
स्टेशन पर गांधीजी ट्रेन से बाहर निकले तो जय-जयकार से आकाश गूंज उठा। किसान को अपनी भूल का अहसास हुआ। वह गांधीजी के पैरों में गिर पड़ा। गांधीजी ने उसे हृदय से लगाकर क्षमा कर दिया। यहां गांधीजी ने सहनशीलता का महान संदेश दिया है। कई बार अपमानजनक अवसरों पर धर्य से काम लेने पर अपमान करने वाला आत्मसुधार की दिशा में प्रवृत्त होता है।

आज्ञा नहीं मानने पर भी श्रेष्ठ शिष्य साबित हुए रामानुज
गुरुदेव ने रामानुजाचार्य को अष्टाक्षर नारायण मंत्र का उपदेश देकर समझाया- वत्स! यह परम पावन मंत्र जिसके कानों में पड़ जाता है, वह समस्त पापों से छूट जाता है। मरने पर वह भगवान नारायण के दिव्य वैकुंठधाम में जाता है।
जन्म-मृत्यु के बंधन में वह फिर नहीं पड़ता। यह अत्यंत गुप्त मंत्र है, इसे किसी अयोग्य को मत सुनाना। श्रीरामानुजाचार्य ने उस समय तो गुरु की बात मान ली, किंतु उनके मन में उसी समय से द्वंद्व शुरू हो गया, जब इस मंत्र को एक बार सुनने से ही घोर पापी भी पापमुक्त होकर भगवद्धाम का अधिकारी हो जाता है, तब संसार के ये प्राणी क्यों मृत्युपाश में पड़े रहें।
क्यों न इन्हें यह परम पावन मंत्र सुनाया जाए लेकिन गुरु आज्ञा का उल्लंघन महापाप है। क्या करूं, जो दोनों ओर का निर्वाह हो जाए। हृदय में ऐसा संघर्ष चलने पर नींद भी नहीं आती। रात्रि में सभी के सो जाने पर भी रामानुज जाग रहे थे। वे धीरे से उठे और कुटिया के छप्पर पर चढ़कर पूरी शक्ति से चिल्लाने लगे - नमो नारायण, सभी लोग जाग गए। गुरुदेव ने उनसे पूछा- यह क्या कर रहा है।
रामानुज बोले, गुरुदेव आपकी आज्ञा भंग करने का महापाप करके मैं नर्क में जाऊंगा, इसका मुझे कोई दुख नहीं है किंतु खुशी है कि ये सभी प्राणी यह मंत्र सुनकर भगवद्धाम पहुंच जाएंगे। गुरुदेव ने उन्हें क्षमाकर गले लगाते हुए कहा- तू मेरा सच्च शिष्य है।
वस्तुत: प्राणियों के उद्धार की जिसे इतनी चिंता हो, वही भगवान का सच्च भक्त और स्वर्ग का अधिकारी है। जिसके हृदय में सर्वकल्याण का भाव हो, उसके द्वारा लोकहित में किया नियम विरुद्ध कार्य भी आदरणीय होता है।

जब काशी नरेश ने अपनी महारानी को दंडित किया
काशी की महारानी अपनी दासियों के साथ माघ का स्नान करने नदी पर गईं। नदी के पास बनी झोपड़ियों में रहने वाले लोगों को राजसेवकों ने पहले ही हटा दिया था। माघ का महीना होने से स्नान के बाद रानी को ठंड लगने लगी। उन्होंने एक दासी से कहा- यहां सूखी लकड़ियां नहीं हैं।
इन झोपड़ियों में से एक में आग लगा दे। मुझे सर्दी लग रही है, हाथ-पैर सेंकने हैं। दासी बोली- महारानी, इन झोपड़ियों में या तो साधु रहते हैं या गरीब। इस शीतकाल में झोपड़ी जल जाने पर वे बेचारे कहां जाएंगे, किंतु महारानी को अपने सुख के आगे गरीबों के कष्ट की क्या परवाह।
उन्होंने दूसरी दासी को कहकर एक झोपड़ी में आग लगवा दी किंतु हवा के वेग से आग फैल गई और सभी झोपड़ियां जल गईं। महारानी ने उसकी कोई चिंता न करते हुए आराम से हाथ-पैर सेंके। अगले दिन वे गरीब लोग राजा के पास पहुंचे, जिनकी झोपड़ियां आग में स्वाहा हो गई थीं। राजा को जब पता चला तो उन्हें बड़ा दुख हुआ।
उन्होंने रानी से इस अन्याय का कारण पूछा तो वे घमंड से बोली- आप उन घास के गंदे झोपड़ों को घर बता रहे हैं। वे तो फूंक देने के ही योग्य थे। तब महाराज ने कहा- उन गरीबों के लिए वे झोपड़े कितने मूल्यवान हैं, यह तुम अब समझोगी। राजा ने कहा- आपको राजभवन से निष्कासित किया जा रहा है।
आप भिक्षा मांगकर जब जली हुईं झोपड़ियां पुन: बनवा देंगी, तब राजभवन में आ सकेंगी। वस्तुत: अत्याचारी को जब वही अत्याचार सहने का दंड दिया जाता है, तभी वह दर्द को जान पाता है और बुरा न करने हेतु कृतसंकल्पित होता है।

मानवता कूट-कूटकर भरी थी वंद्योपाध्यायजी में
कोलकाता के एक शहर में कई बरस पहले एक सज्जन रहते थे। उनका नाम था स्व. शशिभूषण वंद्योपाध्याय। वे पेशे से सरकारी वकील थे। उनके हृदय में समाज के दीन-हीन व्यक्तियों के प्रति बड़ा दयाभाव था। वे स्वयं काफी संपन्न थे किंतु इसका लेशमात्र भी अहंकार उन्हें छू तक नहीं पाया। वे अपनी सहजता में सभी से स्नेहपूर्वक व्यवहार रखते थे।
एक दिन दोपहर के समय उन्हें किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के घर किसी आवश्यक कार्य से जाना था। गर्मी का मौसम था। बाहर लू बरस रही थी। फिर भी वंद्योपाध्यायजी एक किराए की गाड़ी में बैठकर उन सज्जन के घर पहुंचे। उन्होंने वंद्योपाध्यायजी का समुचित सत्कार कर पूछा - इस भीषण तपती दोपहरी में आपने आने का कष्ट क्यों किया।
आप अपने किसी नौकर के हाथ यह पत्र भेज देते तो भी यह काम हो जाता। तब वंद्योपाध्यायजी बोले- मैंने पहले नौकर को ही भेजने का विचार किया था और पत्र भी लिख लिया था किंतु बाहर की प्रचंड गर्मी और लू देखकर मैं किसी भी नौकर को भेजने का साहस नहीं कर सका। मैं तो गाड़ी से आया हूं किंतु उस बेचारे को तो पैदल आना पड़ता। उसमें भी तो वही आत्मा है जो मुझमें हैं।
सार यह है कि पर दुख को तारना मानवीयता का सच्च लक्षण है, जो एक मनुष्य को मनुष्यता की कसौटी पर खरा उतारता है। यदि हम दूसरों के दुख-दर्द को पूरी संवेदना के साथ महसूस कर उनके प्रति दयाभाव रखते हैं तो यही सच्ची मानवता है।

तिलक ने दिया स्थितप्रज्ञता का अनूठा परिचय
तेईस जुलाई वर्ष 1916 को लोकमान्य तिलक की ६क्वीं वर्षगांठ थी। दो वर्ष पूर्व ही वे मांडले में 6 वर्ष की सजा पूर्ण कर छूटे थे। उनका जन्मोत्सव उनके सभी स्नेहीजनों ने धूमधाम से मनाने का निश्चय किया। यह निर्णय सर्वसम्मति से लिया गया कि पूना में तिलक का सार्वजनिक अभिनंदन किया जाएगा और सम्मानस्वरूप उन्हें एक लाख रुपए की थली भेंट की जाएगी। अंतत: वह शुभ दिन आ ही गया। देश के कोने-कोने से कई राष्ट्रीय नेता और तिलक भक्त उनके अभिनंदन के लिए पूना पधारे। पूना के गायकवाड़े में आयोजन किया गया।
सब तरफ हंसी-खुशी का वातावरण था। भाषण चर्चा और बातचीत के बीच हास्य-विनोद की लहर भी चल रही थी। स्वयं तिलक पूर्ण उत्साह से कार्यक्रम में हिस्सा ले रहे थे। इसी बीच जिला पुलिस सुपरिंटेंडेंट आए और तिलक को एक नोटिस दिया।
नोटिस में लिखा था- आपके अहमदनगर और वेलगांव में दिए गए भाषण राजद्रोहात्मक हैं, इसलिए क्यों न एक वर्ष तक नेक चलनी का बीस हजार मुचलका और दस-दस हजार की दो जमानतें आपसे ली जाएं। तिलक ने शांतिपूर्वक इसे पढ़कर ले लिया और फिर सभा में आकर उसी तरह समरस हो गए। उनके चेहरे पर शिकन तक नहीं थी। उपस्थित जनसमुदाय को उन्होंने इस घटना का भान तक न होने दिया।
यह प्रसंग स्थितप्रज्ञता का उदाहरण है। सुख-दुख में निरपेक्ष भाव से रहते हुए अपनी सहजता को कायम रखना स्थितप्रज्ञता है जो विशेष रूप से विपत्ति के क्षणों में काम आती है। स्थितप्रज्ञता से विचलन नहीं होता, जो अशांति का जनक होता है।

एक अपरिचित ने जब संत इब्राहीम को दिया ज्ञान
संत इब्राहीम खवास किसी पर्वत पर जा रहे थे। पर्वत पर अनार के वृक्ष थे और उनमें फल लगे थे। अनार वास्तव में बड़े रस भरे थे और दिखने में भी अत्यंत सुंदर दिखाई दे रहे थे। इब्राहीम को उन्हें देखकर खाने की इच्छा हुई। उन्होंने एक अनार तोड़ा और उसे खाने लगे, किंतु वह खट्टा निकला।
अत: इब्राहीम ने उसे फेंक दिया और आगे बढ़ गए। कुछ आगे जाने पर उन्हें मार्ग पर एक आदमी लेटा हुआ मिला। उसे बहुत सारी मक्खियां काट रही थीं, किंतु वह उन्हें भगाता नहीं था। इब्राहीम ने उसे नमस्कार किया तो वह बोला - इब्राहीम, तुम अच्छे आए।
एक अपरिचित को अपना नाम लेते देख इब्राहीम को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा, आप मुझे कैसे पहचानते हैं? वह व्यक्ति बोला- एक ईश्वर भक्त व्यक्ति से कुछ छिपा नहीं रहता। इब्राहीम ने कहा - आपको भगवद्प्राप्ति हुई है तो भगवान से प्रार्थना क्यों नहीं करते कि इन मक्खियों को आपसे दूर कर दें?
तब वह मनुष्य बोला - इब्राहीम, तुम्हें भी तो भगवद्प्राप्ति हुई है। तुम क्यों प्रार्थना नहीं करते कि तुम्हारे मन में अनार खाने की कामना न हो। मक्खियां तो शरीर को ही कष्ट देती है, किंतु कामनाएं तो हृदय को पीड़ित करती हैं। यह सुनकर इब्राहीम की आंखें खुल गईं।
वस्तुत: कामनाओं का कोई अंत नहीं होता और वे सदा व्यक्ति को असंतुष्ट बनाए रखती हैं, जिससे उसे मानसिक शांति नहीं मिलती। अत: आत्म संयम का मार्ग अपनाकर उपलब्ध वस्तुओं में ही संतुष्ट रहना चाहिए।

क्रेसिन अपनी बुद्धिमानी व श्रम से जीता मुकदमा
इटली में क्रेसिन नाम का किसान रहता था। वह बुद्धिमान और परिश्रमी था। अपनी खेती में उन्नति के लिए वह सदैव प्रयत्नशील रहता था। एक बार उसने अपनी मेहनत के दम पर इतनी अच्छी पैदावार की कि लोग आश्चर्य के साथ ईष्र्या करने लगे। लोगों ने सोचा कि अवश्य ही क्रेसिन कोई जादू जानता है। उन्होंने इस बात को लेकर अदालत में अपील की।
न्यायाधीश ने पहले वादी का बयान सुना, जिसमें उसके द्वारा जादू करने तथा इसे नियम विरुद्ध बताकर उसे दंडित करने का आग्रह किया। न्यायाधीश ने क्रेसिन की ओर उन्मुख होकर पूछा - इस पर तुम्हारा क्या कहना है?
क्रेसिन ने अपनी एक हृष्ट-पुष्ट लड़की, अपने खेती के औजार, बैल आदि को अदालत के सामने खड़ा कर कहा- मैं खेत को भली-भांति जोतकर, खाद डालकर अच्छा तैयार करता हूं। मेरी लड़की बीज बोती है और पानी आदि देकर खेत की ठीक से देखरेख करती है।
इसी तरह मेरे औजार भी उत्तम हैं और मेरे बेल भी एकदम स्वस्थ व सबल हैं, क्योंकि मैं इन्हें खूब खिलाता-पिलाता हूं। मेरे खेत में काफी पैदावार होने पर ये लोग जिस जादू की बात करते हैं वह जादू इन सब में है, जो आपके सामने मैंने प्रस्तुत किए।
न्यायाधीश बोले- आज तक कई अपराधी मेरे सामने आए, किंतु इतने सबल प्रमाण किसी ने भी प्रस्तुत नहीं किए। मैं इन्हें मुक्त करता हूं। यह कहकर न्यायाधीश ने क्रेसिन को मुक्त कर दिया। वस्तुत: किसी भी कार्य में पूर्ण सफलता कठोर परिश्रम से ही प्राप्त होती है। साथ ही साधनों का उत्कृष्टतम उपयोग सफलता की गारंटी है

विद्वान सोलन की बातों से कारूं का घमंड हुआ चूर
एथेंस में सोलन नाम के एक बड़े विद्वान रहते थे। अपने ज्ञान व सादगीपूर्ण जीवन-शैली के कारण वे जनता के बीच काफी लोकप्रिय थे। सोलन को देशाटन का बेहद शौक था। वे अनेक स्थानों पर जाते और विभिन्न लोगों से चर्चा करते। एक बार सोलन अपने भ्रमण के दौरान लीडिया देश पहुंचे। वहां के राजा कारूं ने उन्हें अपने दरबार में आमंत्रित किया।
सोलन जब वहां पहुंचे, तो कारूं ने उन्हें अपनी अपार धनराशि के बारे में बताया, जिसे सुनकर सोलन मौन रहे। वास्तव में कारूं को अपनी अतुल संपत्ति का बड़ा अभिमान था। उसने धनराशि का प्रदर्शन कर यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि कारूं से बढ़कर संसार में कोई और सुखी नहीं है। किंतु ज्ञानी सोलन पर उसके वैभव का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन्होंने केवल यही कहा- संसार में सुखी केवल वही कहा जा सकता है, जिसका अंत सुखमय हो।
यह सुनकर कारूं ने बिना किसी विशेष सत्कार के सोलन को अपने यहां से विदा कर दिया। कुछ समय बाद कारूं ने पारस के राजा साइरस पर आक्रमण किया, किंतु वह हार गया और साइरस ने उसे पकड़कर जीवित जलाने की आज्ञा दी। तब कारूं को सोलन की बातें याद आ गईं। उसने तीन बार हाय सोलन, हाय सोलन कहकर पुकारा। जब साइरस ने इसका मतलब पूछा तो उसने सोलन की सारी बातें सुना दीं। इसका साइरस पर अच्छा प्रभाव पड़ा और उसने कारूं को मुक्त कर दिया।
सार यह है कि जीवन में धन से अधिक चित्त की समता व तदजनित शांति अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि धन प्रत्येक समस्या में काम नहीं आता। जबकि समत्व भाव को पा लेने पर समस्या का जन्म ही नहीं होता है।
जब अदालत ने राजपुत्र को कैद की सजा सुनाई
इंग्लैंड के राजा हेनरी चतुर्थ का बड़ा पुत्र आगे हेनरी पंचमके नाम से प्रसिद्ध हुआ। बचपन में वह अत्यंत उजड्ड और मुंहफट था। उसकी संगति भी बहुत अभद्र और दुष्ट लोगों के साथ थी। एक बार उसके एक मित्र को किसी अपराध पर मुख्य न्यायाधीश ने कैद की सजा सुनाई।
राजपुत्र अदालत में उपस्थित था। सजा सुनाते ही वह बिगड़ पड़ा और न्यायाधीश के साथ बेअदबी कर अपने मित्र को छोड़ने का हुक्म दिया। उसने कहा- मैं प्रिंस ऑफ वेल्स के नाते आपको आदेश देता हूं कि यह मेरा मित्र है, इसलिए रास्ते के साधारण चोर की तरह इसके साथ कभी बर्ताव न करें। न्यायाधीश ने उत्तर दिया- मैं यहां प्रिंस ऑफ वेल्स को बिल्कुल नहीं पहचानता।
न्याय के काम में पक्षपात नहीं करूंगा, यह मैंने शपथ ली है। इसलिए न्यायसंगत कार्य ही करूंगा। राजपुत्र ने गुस्से में आकर न्यायाधीश के गाल पर थप्पड़ मार दिया। तब न्यायाधीश ने राजपुत्र और उसके मित्र को तत्काल जेल भेजने का आदेश दिया। उन्होंने कहा- आगे आपको ही राज्यारूढ़ होना है।
यदि स्वयं आप अपने राज्य के कानून की इस तरह अवज्ञा करेंगे तो प्रजा आपका आदेश क्या मानेगी। यह बात सुनकर राजपुत्र लज्जित हुआ और न्यायाधीश को प्रणाम कर जेल की ओर चल पड़ा। राजा हेनरी को पता चला तो वे बोले- सचमुच मैं धन्य हूं, जिसके राज्य में निष्पक्ष न्याय करने वाला ऐसा न्यायाधीश है। सार यह कि न्याय की दृष्टि हमेशा सम होनी चाहिए। उसके लिए वर्ग विशेष को महत्व देना अन्याय कहलाता है। न्याय पक्षपात रहित और सत्य के पक्ष में हो।

जब मेजबान ने मेहमान से सीखे मेहमानी के गुर
किसी अरब नगर का एक नागरिक अतिथियों को अधिक परेशान करने के लिए विख्यात हो गया था। ऐसा कहा जाता था कि वह अभ्यागतों को स्वागत-सत्कार की पूछताछ और आवभगत में बहुत तंग कर देता था। यह सुनकर एक व्यक्ति ने उसकी सत्यता जाननी चाही। वह उस अरब नागरिक के घर गया।
अभिवादन के पश्चात गृहस्वामी ने उसे भीतर जाकर शैया पर विराजने की प्रार्थना की, जिसे उस व्यक्ति ने बिना विरोध किए स्वीकार कर लिया। इसके बाद गृहस्वामी ने उसे भोजन कराया और तत्पश्चात फुलवारे में टहलने का अनुरोध किया, जिसे उसने बिना विरोध किए मान लिया।
टहलते हुए अभ्यागत ने पूछा - मैने सुना है कि आप अतिथियों के सामने वह सब उपस्थित कर उन्हें परेशान करते हैं जो वे नहीं चाहते और जो चाहते हैं उसे ध्यान में भी नहीं लाते। तब गृहस्वामी बोला - जब मेरे घर कोई आता है तो मेरे द्वारा उत्तम आसन व शैया देने पर वह अस्वीकार कर देता है।
भोजन लाता हूं तो नहीं, धन्यवाद कहता है। ऐसी दशा में ठीक विरुद्ध बुद्धि के लोगों को कैसे प्रसन्न करें। प्रत्येक नागरिक को मेजबान के विचारों का ध्यान रख तदनुकूल व्यवहार करना चाहिए। तब आगंतुक ने समझाया - यही आपको समझना चाहिए।
रुचि की विभिन्नता जानकर उसके अनुरूप आचरण ही स्वागत को पूर्ण बनाता है। सार यह कि स्वागत सदैव मेहमान की रुचि व प्रकृति के अनुकूल होना चाहिए, क्योंकि तभी सत्कार का मूल उद्देश्य पूर्ण हो पाएगा।

अश्विनी कुमार ने अपना दंड स्वयं तय किया
अश्विनी कुमार दत्त जब हाईस्कूल में पढ़ते थे, उस समय कलकत्ता विश्वविद्यालय का नियम था कि सोलह वर्ष से कम उम्र के विद्यार्थी हाईस्कूल की परीक्षा में नहीं बैठ सकते। इस परीक्षा के समय अश्विनी कुमार की उम्र 14 वर्ष थी। किंतु जब उन्होंने देखा कि कई कम उम्र के विद्यार्थी सोलह वर्ष की उम्र लिखाकर परीक्षा में बैठ रहे हैं तो अश्विनी कुमार को भी यही करने की इच्छा हुई।
उन्होंने अपने आवेदन में सोलह वर्ष उम्र लिखी और परीक्षा दी। यही नहीं, इस प्रकार वे मैट्रिक पास हो गए। इसके ठीक एक वर्ष बाद जब अगली कक्षा की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए, तब उन्हें अपने असत्य आचरण पर बहुत खेद हुआ।
उन्होंने अपने कॉलेज के प्राचार्य से बात की और इस असत्य को सुधारने की प्रार्थना की। प्राचार्य ने उनकी सत्यनिष्ठा की बड़ी प्रशंसा की, किंतु इसे सुधारने में असमर्थता जाहिर की। अश्विनी कुमार का मन न माना, तो वे विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार से मिले, किंतु वहां से भी उन्हें यही जवाब मिला। अब कुछ नहीं किया जा सकता था।
किंतु सत्यप्रेमी अश्विनी कुमार को तो प्रायश्चित करना था। इसलिए उन्होंने दो वर्ष झूठी उम्र बढ़ाकर जो लाभ उठाया था, उसके लिए दो वर्ष पढ़ाई बंद रखी और स्वयं द्वारा की गई उस गलती का उन्होंने इस प्रकार प्रायश्चित किया। सार यह है कि सत्य का आचरण कर व्यक्ति नैतिक रूप से मजबूत होता है और नैतिक दृढ़ता न केवल उसे जीवन में सफल बनाती है बल्कि समाज के मध्य वह आदरणीय भी होता है।

मित्र द्वारा ली गई परीक्षा में खरे उतरे इमर्सन
इमर्सन अमेरिका के महान दार्शनिक और विचारक थे। उनका संपूर्ण जीवन परमात्मा के चरणों में समर्पित था। उनका विचार था कि इस विश्व में परमात्मा से ही संबंध रखना चाहिए, क्योंकि उनके चिंतन से जीवन अमृतमय हो उठता है। संसार की वस्तुएं तो नश्वर और क्षणभंगुर हैं।
इनसे अनुरक्ति कष्ट ही पहुंचाती है। एक दिन इमर्सन एकांत में बैठकर भगवान का चिंतन कर रहे थे कि उनके एक मित्र आए। मित्र उस दिन सोचकर आए थे कि इमर्सन की परीक्षा लेंगे। उन्होंने स्वयं को किसी विशिष्ट चिंता से परेशान प्रकट किया। इमर्सन ने पूछा - क्या बात है? मित्र बोले, भाई, कुछ मत पूछो। हम लोगों के भाग्य में ऐसा बुरा दिन देखना लिखा था।
क्या आप नहीं जानते कि आज रात को ही संपूर्ण संसार काल के गाल में समा जाएगा। प्रलय उपस्थित है। यह सुनते ही इमर्सन आनंद से झूम उठे। उन्होंने अत्यंत प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा, मित्र, यह तो आपने बड़ी अच्छी बात बताई। इससे बढ़कर दूसरा समाचार हो ही क्या सकता है।
इस संसार के बिना भी मनुष्य बड़े आराम और सुख से रह सकता है। ईश्वरीय राज्य आएगा और मनुष्य अपने क्षणभंगुर जीवन में सच्ची शांति और वास्तविक सत्य का अनुभव करेगा। इमर्सन की इस सात्विक प्रसन्नता को देख मित्र को उनके संतत्व का भान हो गया। वस्तुत: सच्च संत वही होता है जो भौतिक दुनिया से सरोकार न रखते हुए केवल ईश्वर के प्रति समर्पित हो क्योंकि उसका लक्ष्य आत्मिक संतुष्टि पाना होता है।

मेहनत से हासिल की लिंकन ने अपनी पसंदीदा पुस्तक
अब्राहम लिंकन का बचपन अभावों में बीता। कभी नाव चलाकर, तो कभी लकड़ी काटकर वे जीविका चलाते थे। उन्हें महापुरुषों के जीवन चरित्र पढ़ने में बड़ा आनंद आता था। किंतु पुस्तक खरीदकर पढ़ना उनके लिए कठिन था। वे अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति जॉर्ज वाशिंगटन के जीवन से बहुत प्रभावित थे।
एक बार उन्हें पता चला कि एक पड़ोसी के पास जॉर्ज वॉशिंगटन की जीवनी है। उन्हें हिचक हुई, किंतु पड़ोसी ने उनकी रुचि देखते हुए पुस्तक दे दी। लिंकन ने उसे जल्दी ही लौटाने का वादा किया। लिंकन ने पुस्तक पूरी पढ़ी भी नहीं थी कि एक दिन जोरों की बारिश हुई। चूंकि लिंकन झोपड़ी में रहते थे, इसलिए पुस्तक भीग गई।
लिंकन बड़े दुखी मन से पड़ोसी के पास जाकर बोले - मुझसे आपकी पुस्तक खराब हो जाने का बड़ा भारी अपराध हो गया है, किंतु मैं आपको खराब पुस्तक नहीं लौटाते हुए नई लाकर दूंगा। पड़ोसी ने उसकी गरीबी को देखते हुए प्रश्न किया। नई किस तरह से दोगे? लिंकन बोले- मुझे अपनी मेहनत पर विश्वास है।
मैं आपके खेत में मजदूरी कर पुस्तक के दोगुने दाम का काम कर दूंगा। पड़ोसी मान गया। लिंकन ने काम कर पुस्तक के दाम की भरपाई कर दी और वॉशिंगटन की जीवनी उन्हीं की संपत्ति हो गई। अपने श्रम से इस प्रकार लिंकन ने अपने पुस्तकालय की पहली पुस्तक प्राप्त की।
लिंकन के जीवन की यह घटना परिश्रम के द्वारा उपार्जन के महत्व को इंगित करती है। वस्तुत: स्वयं की मेहनत के बल पर प्राप्त उपलब्धि आत्मिक संतुष्टि तो देती ही है, साथ ही समाज की दृष्टि में भी प्रशंसनीय व अनुकरणीय होती है।

बीमार किसान को देखकर चांग-हो को पछतावा हुआ
कन्फ्यूशियस के विद्वान शिष्य चांग-हो विश्व भ्रमण पर थे। जब वे ताईवान पहुंचे तो वहां गांव में उन्होंने एक विशाल हरे-भरे बगीचे में किसान को कुएं से पानी खींचकर पौधों को सींचते देखा। कड़ी मेहनत के कारण उसके माथे से पसीना टपक रहा था। लेकिन वह प्रसन्नतापूर्वक अपना काम कर रहा था। चांग-हो को उस पर दया आ गई।
उन्होंने लकड़ी की घिरी लगाकर कुएं से पानी निकालने का एक यंत्र बनाकर उसे दिया। पानी पेड़ों तक पहुंचाने के लिए मोटे बांसों को काटकर उनकी नालियां बना दीं और किसान को बेहतर जीवन जीने का संदेश देकर आगे निकल गए। कुछ सालों बाद जब वे दोबारा वहां पहुंचे तो उन्हें उस किसान से मिलने की इच्छा हुई। वे वहां पहुंचे तो देखा कि बगीचा सूखा था और किसान कमजोर हालत में एक खटिया पर पड़ा था।
चांग-हो ने अचरज से किसान से कहा - भाई मैंने तो तुम्हारे लिए समय और मेहनत की बचत करने वाला यंत्र बनाकर दिया था, पर तुम्हारी क्या हालत हो गई है? क्या तुम्हें बराबर आराम नहीं मिला? किसान की पत्नी बोली - महाशय, जबसे आपने यह यंत्र बनाकर दिया है, तभी से इनकी ऐसी हालत हुई है, क्योंकि यंत्र लग जाने से मेहनत करना इन्होंने बिल्कुल छोड़ दिया और आलस्य से घिर गए। बैठे-बैठे बेकार की बातों में डूबे रहते हैं और बीमार रहते हैं। यह सुनकर चांग-हो को अपनी गलती का अहसास हुआ।
सार यह है कि तंदुरुस्ती और प्रसन्नता के लिए शारीरिक श्रम आवश्यक है और श्रम से मिलने वाले आनंद का कोई विकल्प नहीं है।

संपूर्णानंदजी ने आत्मसम्मान की रक्षा का संदेश दिया
प्रख्यात शिक्षाविद एवं स्वाधीनता सेनानी डॉ संपूर्णानंद की भारतीय जीवन मूल्यों में अगाध आस्था थी। वे चाहते थे कि स्वाधीन भारत राजनीतिक ही नहीं, सांस्कृतिक स्वतंत्रता भी प्राप्त करे और स्वाधीन भारत में भारतीय शिक्षा प्रणाली लागू हो।
देश स्वाधीन हुआ और डॉ संपूर्णानंद उत्तरप्रदेश के शिक्षामंत्री बने। उनके शिक्षामंत्रित्व काल में एक दिन किसी विश्वविद्यालय के कुलपति उनसे मिलने आए। संपूर्णानंदजी ने उनसे शिक्षा-प्रणाली में परिवर्तन पर बातचीत शुरू की। उनसे कहा कि अंग्रेजों द्वारा चलाई गई शिक्षा पद्धति तो भारत के नवयुवकों को पाश्चात्य संस्कृति की गुलामी ही सिखाती है।
कुलपति महोदय बोले - ‘सर, बात तो आपकी सही है। आप ऑर्डर दें कि क्या किया जाना चाहिए।’ बातचीत में जैसे ही उन महोदय ने दो-तीन बार ‘सर’ कहा कि संपूर्णानंदजी बिफर पड़े और बोले - ‘आप कई भाषाओं के विद्वान हैं। विश्वविद्यालय के कुलपति हैं।
लाखों छात्र-छात्राओं के भविष्य के निर्माण का दायित्व आपके कंधों पर है और आप सर-सर की रट लगाकर अंग्रेजियत का बोझ क्यों ढो रहे हैं? क्या आपको अपने आत्मसम्मान की तनिक भी चिंता नहीं।’ कुलपति महोदय सहम गए।
तब संपूर्णानंदजी ने उन्हें समझाया - अंग्रेजों की शिक्षा ने ही भारतीयों को अंग्रेजों के सामने ‘सर’ शब्द रटने की सीख दी थी। अब तो हम स्वतंत्र हैं। अब तो हमें अपनी संस्कृति के अनुरूप व्यवहार करना सीखना चाहिए। सार यह है कि केवल राजनीतिक रूप में ही नहीं, सांस्कृतिक स्वतंत्रता ही हमारी असली आजादी है।

गुस्सैल पति को जब अपनी गलती का अहसास हुआ
गांव में एक दंपती रहा करता था। पति थोड़े गर्म मिजाज के थे। गांव के बाहर संन्यासियों का अखाड़ा था। जब पति महोदय गुस्से में होते पत्नी से कह देते - अब मैं सबकुछ छोड़कर संन्यासी हो जाऊंगा। पति की बात सुन पत्नी डर जाती।
एक दिन अखाड़े के एक साधु भिक्षा मांगने उस दंपती के घर पहुंचे, तो महिला ने साधु से पूछा - महाराज, क्या कोई अपने घर-परिवार को यों ही छोड़ संन्यासी बन सकता है? संन्यासी बोले - माई, तुम यह प्रश्न क्यों पूछ रही हो? महिला ने रोते हुए उन्हें अपने पति की बात सुना दी।
संन्यासी ने कहा - माई, अब कभी तुम्हारे पति फिर घर छोड़ने की धमकी दें, तो उनसे कहना - आप जो मर्जी आए कर सकते हैं। फिर एक दिन समय पर भोजन नहीं मिला, तो पति ने आग-बबूला हो घर छोड़ने की धमकी दी। पत्नी ने कह दिया - आप जो मर्जी आए कर सकते हैं।
पति आनन-फानन में उठा और अखाड़े पर जा पहुंचा। संन्यासी ने उसकी आवभगत की। फिर उसे फटे-पुराने कपड़े दिए और एक भिक्षा पात्र सौंप अपने पीछे चलने को कहा। कई गांव घूमने के बाद कुछ बासी अन्न भिक्षा में प्राप्त हुआ। रोटियां कड़क थीं और दाल भी खराब।
ऐसा भोजन देख पति ने संन्यासी से पूछा - यह क्या है? उन्होंने कहा - जो मिले, उसे हम पकवान समझकर ग्रहण करते हैं। हमारी यही जीवनचर्या है। पति को अपनी भूल समझ में आइर्। उसने पत्नी से क्षमा मांगी। वस्तुत: जीवन के अनुभवों को गंभीरता से लेने और सहनशील मनोवृत्ति में ही सुखी जीवन का रहस्य छिपा है।

जब बोकबार ने राजा को अपना सेवक साबित किया
अफ्रीका में कमेराका हब्शी नामक एक अभिमानी राजा था। एक दिन वह अपनी राजसभा में बैठकर डींग हांक रहा था कि सब लोग मेरे सेवक हैं। उस समय एक वृद्ध ने जो बड़ा बुद्धिमान था, उसके कथन का विरोध किया। उसका नाम बोकबार था।
बोकबार ने कहा - प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे का सेवक है। राजा यह सुनकर नाराज हो गया। वह बोला - तुम मुझे अपनी सेवा करने पर विवश कर दो तो मैं तुम्हें सौ गायें दूंगा। यदि तुम शाम तक मुझे अपना सेवक सिद्ध न कर पाए तो मैं तुम्हें मार डालूंगा। बोकबार ने बात मान ली।
बोकबार के पास सहारे के लिए एक छड़ी थी। जैसे ही वह राजसभा से बाहर निकला, एक भिखारी आ पहुंचा। उसे देख बोकबार ने राजा से निवेदन किया - मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं इस भिखारी को कुछ खाने के लिए दूं।
राजा की स्वीकृति पाकर बोकबार ने दोनों हाथों में भोजन की सामग्री ली, किंतु भिखारी तक पहुंचने से पहले ही वह लड़खड़ाने लगा। छड़ी जमीन पर गिर गई और वह भी गिरने को हुआ। तब उसने राजा से छड़ी उठाने की प्रार्थना की। राजा ने बिना सोचे-समझे छड़ी उठा दी। तब बोकबार ने हंसते हुए कहा - आपने देखा कि सज्जन लोग एक-दूसरे के सेवक होते हैं।
मैंने भिखारी की सेवा की और आप मेरी सेवा कर रहे हैं। इस तरह बोकबार ने अपने मत की सत्यता प्रमाणित की और राजा ने प्रसन्न होकर उसे अपना मंत्री बना लिया। वस्तुत: व्यक्ति एक इकाई से अधिक समाज के सदस्य के रूप में अधिक बेहतर स्थिति में होता है। इसलिए परस्पर सहयोग भाव बनाए रखना चाहिए।

और बुजुर्ग व्यापारी युवक की जान बचाने कूद पड़ा
कई सालों पहले की बात है। एक फ्रैंच व्यापारी था। उसका नाम लबट था। एक बार वह अत्यधिक बीमार हो गया। उसने काफी उपचार कराया, लेकिन वह स्वस्थ नहीं हुआ। अंतत: चिकित्सक ने उसे किसी प्राकृतिक स्थान पर रहकर स्वास्थ्य लाभ पाने की बात कही, जिसे मानकर वह आडर नदी के तट पर एक सुंदर स्थान पर रहने लगा।
एक दिन सुबह उसने देखा कि नदी के दूसरे किनारे पर एक सवार अपने घोड़े से उलझ रहा था। वह कभी लगाम ढीली करता, तो कभी कड़ी। लगाम कड़ी करते ही घोड़ा आगे वाले पैरों को उठाकर खड़ा होने का प्रयत्न करता। सवार का जीवन खतरे में था। अचानक उसे घोड़े ने उछाल दिया और नदी की मध्यधारा में डूबने लगा।
बुजुर्ग व्यापारी से यह दृश्य देखा नहीं गया। डूबते नवयुवक की प्राण रक्षा के लिए वह नदी में कूद पड़ा। यह मानवता की पुकार थी जिसके सामने लबट ने किसी चीज की परवाह नहीं की। यद्यपि वह अच्छा तैराक था किंतु वह बुजुर्ग था और डूबने वाला हृष्ट-पुष्ट युवक।
फिर भी लबट को प्राणरक्षा की धुन सवार थी जिसके उत्साह ने उसे शक्ति दी और वह युवक को किनारे तक लाने में सफल हो गया। जब उसने यह देखा कि वह युवक तो उसी का पुत्र था तो वह धन्य भाव से कहने लगा पवित्र मानवता, मैं तुम्हारा कितना ऋणी हूं।
मैंने तुम्हारे नाम पर अपने ही पुत्र के प्राण बचा लिए। कथा का सार यह है कि मानवीय आचरण कल्याण को सही अर्थो में प्रतिफलित करता है जहां दूसरों के साथ-साथ व्यक्ति का स्वयं का भी भला हो जाता है।

जरूरी काम छोड़ मालवीयजी कुत्ते की सेवा में लग गए
स्वर्गीय श्री सीवाई चिंतामणि ने पं. मदनमोहन मालवीय के विषय में कहा था कि वे सिर से पैर तक हृदय ही हृदय हैं। उनके इस कथन की सत्यता के प्रमाणस्वरूप मालवीयजी के शिक्षाकाल की एक घटना है, जो जीवदया के महत्व पर केंद्रित है। एक दिन पं. मालवीय किसी जरूरी कार्यवश पैदल कहीं जा रहे थे। मार्ग में उन्हें एक कुत्ता छटपटाता दिखाई दिया।
उसके कान के पास एक घाव था और वह पीड़ा के मारे इधर-उधर भाग रहा था। उसकी कराह सुनकर मालवीयजी से रहा नहीं गया। उन्होंने अपने कार्य को छोड़ा और पशु चिकित्सालय दौड़ते हुए गए। वैद्यजी को कुत्ते की तकलीफ बताकर दवा मांगी। वैद्यजी ने दवा तो दे दी किंतु बोले- मदनमोहन, ऐसे कुत्ते प्राय: पागल हो जाते हैं। छूने पर काट लेते हैं।
तुम इस खतरे में न पड़ो तो अच्छा है, किंतु मालवीयजी न माने। उन्होंने दवा लेकर एक लंबे बांस में कपड़ा लपेटा और कुत्ते को ढूंढ़ने लगे। कुत्ता एक संकरी गली में बैठा था। मालवीयजी ने कपड़े पर दवा लगाकर कुत्ते को बांस की सहायता से दवा लगाना शुरू किया।
कुत्ता गुर्राता, दांत निकालता और झपटने की भी कोशिश करता रहा, किंतु मालवीयजी बिना डरे उसे दवा लगाते रहे। जब कुत्ते की पीड़ा कम हुई तो वह सो गया। तब मालवीयजी को शांति मिली और वे अपने कार्य के लिए रवाना हुए। यदि मूक व निरीह जीवों के कष्ट, इच्छा और आवश्यकताओं को समझकर हम सभी प्रकार से समर्थ इंसान उनके हित में कुछ कर सकें तो इससे बढ़कर दूसरा पुण्य नहीं होगा।

भूदेव ने दिया विद्वता के सम्मान का संदेश
कोलकाता में वर्षो पहले एक सज्जन रहते थे श्री भूदेव मुखोपाध्याय। उनके पिता श्री विश्वनाथ तर्कभूषण अपार संपत्ति के मालिक थे। उन्होंने मृत्यु से पूर्व अपनी समस्त संपत्ति पुत्र के नाम कर दी। चूंकि श्री भूदेव समाज हित में कुछ करना चाहते थे इसलिए उन्होंने अपनी एक लाख साठ हजार रुपए की संपत्ति दान करके अपने पिता की स्मृति में विश्वनाथ फंड स्थापित किया।
यह तय किया गया कि इस फंड से देश के सदाचारी, विद्वान ब्राrाणों को बिना मांगे प्रतिवर्ष तयशुदा राशि मनीऑर्डर से उनके घर भेज दी जाए। यह कार्य शीघ्र ही शुरू भी कर दिया गया। पंडितों को न तो सहायता पाने के लिए प्रार्थना करने की आवश्यकता थी और न फंड के कार्यालय में आने की। निश्चित समय पर सादर उन्हें यह राशि भेज दी जाती थी।
एक दिन फंड के प्रथम वर्ष की वृत्तियों का विवरण एजुकेशन गजट में देने के लिए एक कर्मचारी ने सूची बनाई। उसने सूची के आरंभ में लिखा - इस वर्ष में जिन-जिन अध्यापकों व विद्वानों को विश्वनाथ वृत्ति दी गई उनकी नामावली। श्री भूदेव ने जब वह सूची देखी तो नाराज होकर बोले - यह तुमने क्या लिख दिया?
इसे इस प्रकार लिखो- इस वर्ष जिन-जिन अध्यापकों और विद्वानों ने विश्वनाथ वृत्ति स्वीकार करने की कृपा की उनकी नामावली। उक्त घटना विद्वानों के समुचित आदर की शिक्षा देती है। एक शिक्षित और समझदार समाज का निर्माण विद्वज्जनों के ज्ञान व बौद्धिकता से ही संभव है। अत: उनका सदा सम्मान किया जाना चाहिए।

संयम से पाया नेपोलियन ने प्रधान सेनापति का पद
जब नेपोलियन बोनापार्ट विद्यार्थी थे, तब एक समय ऐसा था कि उन्हें अक्लोनी नामक स्थान पर एक व्यक्ति के घर रहना पड़ा। नेपोलियन का व्यक्तित्वअत्यंत आकर्षक था। लोग अनायास ही उनके पास खिंचे चले आते थे।
उनके इस मनोमुग्धकारी रूप पर मकान मालिक की पत्नी रीझ गई और अनेकानेक प्रयासों से नेपोलियन को अपनी ओर आकषिर्त करने का प्रयत्न करने लगी, किंतु नेपोलियन को तो अपनी पुस्तकों से फुर्सत ही नहीं थी। वह महिला जब भी उनसे हंसने-बोलने का प्रयत्न करती, तभी उन्हें किसी पुस्तक को पढ़ने में निमग्न पाती।
कुछ समय बाद नेपोलियन जब देश के प्रधान सेनापति चुने गए, तब एक बार फिर उस स्थान पर गए। मकान मालिक की पत्नी दुकान पर बैठी थी। नेपोलियन उसके सामने खड़े होकर बोले - तुम्हारे यहां बोनापार्ट नाम का एक युवक रहता था।
कुछ याद है तुम्हें उसकी? मकान मालिक की पत्नी चिढ़कर बोली - रहने भी दीजिए महोदय! ऐसे नीरस व्यक्ति की मैं चर्चा भी नहीं करना चाहती। उसे न गाना आता था, न नाचना। किसी से मीठी बातें करना भी उसने नहीं सीखा। वह तो बस किताबी कीड़ा था।
तब नेपोलियन हंसकर बोले - देवी! तुम ठीक ही कहती हो, किंतु नेपोलियन बोनापार्ट यदि तुम्हारी रसिकता में उलझ गया होता तो आज देश के प्रधान सेनापति के रूप में तुम्हारे सामने खड़ा नहीं होता। सार यह है कि संयम को अपनाने से मनुष्य बड़े लक्ष्यों को हासिल कर सकता है। संयम ही मनुष्य को महान बनाता है।

जब भगवान दत्तात्रेय ने राजा को सुधारा
महाराज जीमूतकेतु के पास अपार धन-संपत्ति थी। उन्होंने इंद्र की उपासना करके कल्पवृक्ष प्राप्त किया था। उनका राजभवन इतना भव्य था कि देवता भी उसे देखकर मुग्ध हो उठते थे। एक धार्मिक नरेश सांसारिक वैभव में ही लिप्त रहे और मनुष्य जीवन व्यर्थ व्यतीत कर दे यह उचित नहीं।
धर्म का सच्च फल तो भोगों से विरक्ति तथा मोक्ष की प्राप्ति है, ऐसा सोच भगवान दत्तात्रेय ने राजा जीमूतकेतु को सुधारने की ठानी। वे मलिन वस्त्र पहने, केश बिखेरे, धूल से भरे वेश में राजभवन आए और सीधे राजा के पलंग पर जा विराजे।
राजसेवक उन्हें हटाने का साहस नहीं कर सके क्योंकि एक तो पागल (सेवकों ने ऐसा समझा) और मुख पर इतना तेज कि सामने खड़े होना मुश्किल। राजा जीमूतकेतु को पता चला तो वे क्रोध में बोले - तू कौन है, यहां कैसे आया। दत्तात्रेय बोले - भाई, नाराज क्यों होते हो।
यह तो धर्मशाला है। तुम भी इसमें ठहरो। राजा ने कहा - यह धर्मशाला नहीं, मेरा राजभवन है, जाओ यहां से। दत्तात्रेय ने पूछा- तो इसमें सदा से तुम ही हो? राजा बोले - नहीं, मुझसे पहले इसमें मेरे पिता थे। दत्तात्रेय ने पूछा - वे कहां गए, कब लौटेंगे।
राजा ने उत्तर दिया- उनका देहांत हो गया है। वे कभी नहीं लौटेंगे। तब दत्तात्रेय ने समझाया - जहां मनुष्य आकर कुछ समय ठहरकर चला जाए, फिर न लौटे वह धर्मशाला ही तो है। राजा ने अपनी भूल समझ तत्काल विरक्त भाव अपना लिया। वस्तुत: भौतिक ऐश्वर्यो के बीच कीचड़ में कमलवत रहना चाहिए। तभी सांसारिक दायित्व पूर्ण होते हैं और आत्मशांति भी मिलती है।

विद्यासागर ने निस्वार्थ भाव से की सहायता
ईश्वरचंद्र विद्यासागर मार्ग में चलते समय भी देखते जाते थे कि किसी को उनकी सेवा की आवश्यकता तो नहीं है। एक दिन कलकत्ता में वे कहीं जा रहे थे। उनकी दृष्टि एक व्यक्ति पर पड़ी, जो सिर झुकाए, बहुत उदास चला जा रहा था।
विद्यासागरजी ने पूछा - आप इतने उदास क्यों हैं? एक अपरिचित को इस प्रकार पूछते देखकर उसने लंबी श्वास ली और बोला - विपत्ति का मारा हूं भाई। विद्यासागर ने फिर पूछा- आप कौन हैं, क्या विपत्ति है आप पर? उस व्यक्ति ने विद्यासागरजी के साधारण कपड़े देख उन्हें कोई असाधारण निर्धन मनुष्य समझकर कहा - आप सुनकर क्या करेंगे।
आप कोई सहायता नहीं कर सकते। फिर भी विद्यासागरजी द्वारा अधिक आग्रह किए जाने पर उसने अपनी विपत्ति बतलाई। वह एक गरीब ब्रामण था। अपनी पुत्री के विवाह में उसने कर्ज लिया था। अब महाजन ने अदालत में दावा ठोक दिया है, पर रुपए लौटाने की कोई व्यवस्था नहीं हो पा रही है।
विद्यासागरजी ने उसका नाम, पता, मुकदमा किस अदालत में है, आदि पूछकर ब्रामण के साथ सहानुभूति प्रकट की और चले गए। मुकदमे की तारीख पर ब्राrाण अदालत में आया, तो उसे पता लगा कि उसकी ओर से किसी ने रुपए जमा कर दिए हैं और मुकदमा समाप्त हो चुका है।
वह सोचने लगा कि किसी उदार पुरुष ने यह दया की, किंतु मार्ग में मिले उस साधारण मनुष्य की असाधारणता को वह नहीं पहचान पाया। सार यह है कि अपेक्षाविहीन दान लौकिक स्तर पर परम संतोष तो देता ही है और अलौकिक स्तर पर हजार-हजार पुण्य का सृजन करता है।

बालिका ने प्राण त्यागकर सिखाया अतिथि सत्कार
मेवाड़ के गौरव महाराणा प्रताप उन दिनों अरावली के वनों में भटक रहे थे। अकबर की सेना पीछे पड़ी थी। उनके साथ महारानी, छोटी सी राजकुमारी और अबोध राजकुमार भी थे। कभी गुफा में, कभी वन में तो कभी किसी नाले में रात काटनी पड़ती थी। वन में कंद-मूल तो दूर, घास के बीजों की रोटी भी कई-कई दिन पर मिल पाती थी।
बच्चे सूखकर कंकाल हो रहे थे। एक दिन बड़ी मुश्किल से मात्र एक ही घास की रोटी बनी। महाराणा और रानी ने तो जल पीकर ही संतोष कर लिया। आधी-आधी रोटी दोनों बच्चों को दे दी। राजकुमार ने अपना हिस्सा तत्काल खा लिया। किंतु राजकुमारी छोटी बच्ची होने के बावजूद परिस्थिति समझती थी।
छोटा भाई कुछ घंटे बाद भूख से रोएगा, यह सोचकर राजकुमारी ने अपनी आधी रोटी पत्थर के नीचे दबाकर सुरक्षित रख ली। संयोगवश थोड़ी देर बाद एक अतिथि महाराणा से मिलने आए। राणा ने उन्हें पत्ते बिछाकर बैठाया। पैर धोने को जल दिया। इतना करके वह इधर-उधर देखने लगे। मन में यह था कि अतिथि को क्या खाने को दें।
पुत्री ने पिता के भाव को समझ अपनी आधी रोटी पत्ते पर रखकर अतिथि को प्रस्तुत करते हुए बोली- देव, आप इसे ग्रहण करें। हमारे पास आपका सत्कार करने के लिए आज कुछ नहीं है। अतिथि ने रोटी खाई और जल पीकर विदाई ली। इस दौरान राजकुमारी मूर्छित होकर गिर गई। भूख से दुर्बल राजकुमारी ने अंतत: प्राण त्याग दिए। वस्तुत: अतिथि के सत्कार हेतु यह उत्सर्ग आज की मशीनी होते जा रहे समाज के लिए प्रेरणास्पद है।

ऋषियों के अपमान का दंड भोगा राजा नहुष ने
वृत्तासुर का वध करने पर देवराज इंद्र को ब्रम्ह हत्या लगी। इस पाप के भय से वे एक सरोवर में जाकर छिप गए। देवताओं द्वारा बहुत खोजने पर भी इंद्र का पता नहीं लगा। स्वर्ग का सिंहासन सूना था, ऐसे में त्रिलोक में सुव्यवस्था कैसे रह सकती थी। अंत में देवताओं ने देवगुरु बृहस्पति की सलाह से राजा नहुष को इंद्र के सिंहासन पर तब तक के लिए बैठाया, जब तक इंद्र का पता न लग जाए। किंतु नहुष इंद्रत्व पाते ही प्रभुता में मदांध हो गए। उन्होंने इंद्र की पत्नी शची को अपनी पत्नी बनाना चाहा। उन्होंने संदेश भिजवाया- ‘मैं इंद्र हो चुका हूं तो इंद्राणी को मुझे स्वीकार करना चाहिए’। पतिव्रता शची संकट में पड़ गईं। वे बृहस्पति की शरण में पहुंचीं।
उनकी युक्ति के अनुसार शची ने नहुष को संदेश भिजवाया - यदि राजा नहुष ऐसी पालकी पर बैठकर मेरे पास आएं, जिसे सप्तर्षि ढो रहे हों तो मुझे प्रस्ताव स्वीकार होगा। घमंड से ग्रस्त नहुष ने सप्तर्षियों को उनकी पालकी उठाने की आज्ञा दी। ऋषिगणों ने पालकी उठा ली, किंतु पैरों के नीचे किसी जीव के आने के भय से वे धीरे-धीरे चल रहे थे। उधर, कामातुर नहुष को शीघ्रता थी। ऋषियों को तेज चलने के लिए नहुष ने सर्प, सर्प कहकर पैर पटका, जो महर्षि भृगु को अपमानजनक लगा। वे क्रोध में बोले- पापी, अब तू स्वयं सर्प होकर गिरेगा। नहुष का तेज तत्काल नष्ट हुआ और वे सर्प होकर स्वर्ग से पृथ्वी पर गिर पड़े। वस्तुत: महापुरुषों के अपमान से व्यक्ति का पतन निश्चित है। जहां गुरुता का आदर नहीं होता, वहां सुख-शांति व सफलता के द्वार बंद हो जाते हैं।

विठू ने बरसों तक मराठा साम्राज्य की सेवा की
अरे ओ जोगड़े! खबरदार मेरी धोती को छुआ तो। - दस वर्ष के एक बालक ने जिससे ये शब्द कहे, वे शाहू महाराज थे। शाहू महाराज देर हो जाने से जल्दी-जल्दी लौट रहे थे। उन्होंने नदी में नहाते हुए बालक से कहा - नहीं बाबा, तुम्हारी धोती को नहीं छुऊंगा। उनके जाने के थोड़ी देर में दो सिपाही आए और बोले - तुम्हें बुलाया है। बालक डर गया।
शाहू महाराज के समक्ष लाए जाने पर उन्होंने मुस्कुराते हुए पूछा - तुम्हारा नाम क्या है, अकेले नदी पर क्यों आए। बालक बोला - मेरा नाम विठू, माहुली के कुलकर्णी का पुत्र। मां सुबह बहुत बिगड़ी- काम नहीं करता, निकल जा घर से। इसलिए निकल पड़ा। महाराज ने पूछा कि काम क्यों नहीं करते? बालक का जवाब था- मां के द्वारा बताया काम मेरे मन लायक नहीं है। मुझे घोड़े पर बठकर दूर दौड़ाना और शिकार करना पसंद है।
महाराज ने उसके भोजन की व्यवस्था कर दी और एक टट्टू घूमने के लिए दिया। एक दिन महाराज उसे शिकार पर ले गए। एक सूअर दिखते ही महाराज ने गोली दागी, किंतु निशाना चूक जाने से वह उन पर झपटा। विठू ने भाला फेंककर सूअर को घायल किया। शाहू महाराज बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने तत्काल उसके लिए १क्क् घुड़सवारों और बड़ी सी जागीर की व्यवस्था कर दी। यही विठू आगे चलकर विट्ठल शिवदेव विंचुरकर नाम से प्रसिद्ध हुए, जिन्होंने 50-60 साल तक मराठा साम्राज्य की निष्ठापूर्वक सेवा की।
वस्तुत: यदि बच्चों को उनकी रुचि का काम दिया जाए तो वे शत-प्रतिशत परिणाम देते हैं। इसलिए उन पर अपनी पसंद थोपना ठीक नहीं। उचित तो यह होगा कि जो वे चाहते हैं उन्हें वह करने दिया जाए।

जब ससुर ने अपनी बहू विशाखा से क्षमा मांगी
श्रावस्ती के नगरसेठ मिगार काफी संपन्न थे। घर में पुत्र और पुत्रवधू विशाखा थे। एक दिन मिगार भोजन कर रहे थे। विशाखा उन्हें पंखा झल रही थी। उसी समय एक बौद्ध भिक्षु भिक्षा मांगने आया।
विशाखा ने सोचा कि ससुर आज्ञा दें, तो वह उठकर भिक्षु के लिए कुछ लाए, किंतु मिगार ने भिक्षु की पुकार अनसुनी कर दी। वे चुपचाप भोजन करते रहे। भिक्षु ने जब फिर पुकारा तो विशाखा बोली - आर्य, मेरे ससुर बासी अन्न खा रहे हैं, अत: आप अन्यत्र पधारें। यह सुनते ही मिगार की आंखें क्रोध से लाल हो गई। वे तत्काल भोजन छोड़कर उठ खड़े हुए और विशाखा से बोले - तूने मेरा अपमान किया है। मेरे घर से अभी निकल जा।
विशाखा ने नम्र स्वर में कहा- मेरे विवाह के समय आपने मेरे पिता को वचन दिया था कि मुझसे कोई भूल हो जाने पर आप आठ सद्गृहस्थों से उसके विषय में निर्णय कराएंगे और तब मुझे दंड देंगे। नगरसेठ ने तत्काल आठ प्रतिष्ठित व्यक्तियों को बुलवाया। विशाखा ने उनके समक्ष पूरी बात बताकर कहा - मनुष्य को अपने पूर्वजन्म के पुण्यों के फल से ही संपत्ति मिलती है। मेरे श्वसुर को जो संपत्ति मिली है। वह भी उनके पहले के पुण्यों का फल है। इन्होंने अब नवीन पुण्य करना बंद कर दिया है। इसी कारण मैंने कहा कि ये बासी अन्न खा रहे हैं। यह सुनकर पंचों को निर्णय नहीं देना पड़ा। नगरसेठ ने ही लज्जित होकर विशाखा से क्षमा मांग ली।
सार यह है कि ‘स्व’ के साथ ‘पर’ की भी चिंता करना एक सच्चे सद्गृहस्थ का लक्षण है और यही परहित चिंतन हमें यश और पुण्य का भागी बनाता है।

और बुद्ध ने चमत्कार को नमस्कार नहीं किया
गौतम बुद्ध के समय की बात है। वे राजगृह में थे। वहां एक दिन किसी व्यक्ति ने बहुमूल्य चंदन के एक रत्नजड़ित प्याले में शराब भरकर उसे ऊंचे खंभे पर टांग दिया और उसके नीचे लिख दिया - जो कोई साधक, सिद्ध या योगी इस शराब को बिना किसी सीढ़ी या अंकुश के चमत्कारिक यंत्र या यौगिक शक्ति से उतार लेगा, मैं उसकी समस्त इच्छाएं पूर्ण करूंगा।
कुछ दिनों बाद उस स्थान पर कश्यप नाम का एक बौद्ध भिक्षु पहुंचा और अपनी मायावी शक्ति से उस ओर मात्र हाथ बढ़ाकर शराब का प्याला उतार लिया। यह चमत्कार देख वहां भीड़ इकट्ठी हो गई और कुछ देर बाद यह भीड़ भगवान बुद्ध के पास पहुंची। सभी एकत्रित लोगों ने बुद्ध की प्रशंसा करते हुए कहा- भगवन्, आप निस्संदेह महान हैं क्योंकि आपके शिष्यों में से एक कश्यप ने मात्र एक हाथ उठाकर ऊंचे खंभे पर टंगा शराब का प्याला उतार लिया। भगवान बुद्ध यह सुनते ही तत्काल उठे और विहार में कश्यप के पास पहुंचे।
उन्होंने उस रत्नजड़ित प्याले को तोड़ दिया और शिष्यों को संबोधित कर बोले - मैं तुम लोगों को इन चमत्कारों के प्रदर्शन के लिए बार-बार मना करता हूं। यदि तुम्हारे लिए आकर्षण और अन्य चमत्कारों से जनता का प्रलोभन ही इष्ट है तो मैं तुम्हें धर्म की कोई जानकारी नहीं दूंगा। यदि तुम अपना और दूसरों का कल्याण चाहते हो तो इन चमत्कारों से बचकर केवल सदाचार का अभ्यास करो।
वस्तुत: चमत्कार क्षणिक लाभ देता है जबकि सद्व्यवहार स्थायी लाभ देता है क्योंकि इससे समाज में प्रेम, सहयोग व बंधुत्व का प्रसार होता है।

अंतत: द्रोबीवे को भलाई का फल भी अच्छा मिला
तुर्क की लोककथा है। द्रोबीवे के पिता ने उसे काम करने का आदेश दिया। वह अपना जहाज लेकर चल दिया। जब उसका जहाज बीच समुद्र में पहुंचा तो उसे एक अन्य जहाज में से लोगों के चिल्लाने की आवाज सुनाई दी। उसने कप्तान से पूछा, तो वह बोला - ये कैदी हैं। हम इन्हें बेचने के लिए ले जा रहे हैं।
द्रोबीवे ने अपने व्यापारिक सामानों से लदे जहाज के बदले में कप्तान से उन गुलामों को खरीद लिया और एक लड़की व उसकी आया को छोड़कर सभी को उनके देश पहुंचा दिया। लड़की रूस के जार की बेटी थी और विदेश में ही रहकर रोजी-रोटी कमाना चाहती थी। द्रोबीवे के विवाह प्रस्ताव को भी उसने स्वीकार कर लिया। द्रोबीवे अपने पिता से जाकर बोला - मैंने आपके धन से इतने लोगों को कैद से छुड़ाया। किंतु पिता खुश नहीं हुए।
कुछ दिनों बाद उन्होंने द्रोबीवे को दूसरा व्यापारिक जहाज दिया। लेकिन इस बार उसने राज्य की ओर से लगाए गए कर को अदा न कर पाने के कारण कैद में रह रहे लोगों को अपने जहाज का सामान बेचकर छुड़वा लिया। पिता फिर नाराज हुए।
उन्होंने अंतिम मौका द्रोबीवे को दिया। इस बार उसकी भेंट रूस के जार के मंत्री से हुई। द्रोबीवे अपनी पत्नी व माता-पिता को लेकर रूस के लिए रवाना हुआ। मंत्री ने उसे समुद्र में धक्का देकर मारना चाहा। लेकिन एक मछुआरे ने उसे बचाकर रूस पहुंचाया। जार ने प्रसन्न हो अपना संपूर्ण राज्य उसे दे दिया।
सार यह है कि परोपकार का फल सदैव मीठा होता है। जो लोग दूसरों का भला चाहते हैं और करते हैं, ईश्वर उनका भला ही करता है।

प्रहलाद ने पाए माता के गर्भ में अच्छे संस्कार
हिरण्यकश्यप ने पुत्र प्रहलाद को शुक्राचार्य के पुत्र षंड तथा अमर्क के आश्रम में पढ़ने भेजा। जब समय मिलता, प्रहलाद अपने सहपाठियों को सदाचार, संयम व जीवदया का महत्व बताते। बालक चकित रहते थे कि प्रहलाद ज्ञान की बातें कैसे करते हैं।
प्रहलाद के पिता हिरण्यकश्यप ने उन्हें भगवद्भक्ति से विरक्त करने के लिए शुक्राचार्य के पुत्र षंड तथा अमर्क के आश्रम में पढ़ने के लिए भेज दिया और उन दोनों आचार्यो को प्रहलाद को दैत्योचित राजनीति, अर्थनीति व दंडनीति पढ़ाने का आदेश दिया। जब आचार्य प्रहलाद को ये सब पढ़ाते, तो वे उसे पढ़ तो लेते, किंतु उनका मन इनमें नहीं लगता था। इसलिए जब दोनों आचार्य आश्रम के अन्य कामों में लग जाते, तो प्रहलाद अपने सहपाठी दैत्य बालकों को बुलाकर उन्हें सदाचार, संयम, जीवदया का महत्व बताते। एक दिन बालकों ने पूछा - प्रहलाद, तुम्हें ये सब बातें कैसे ज्ञात हुईं, जबकि तुम भी हम लोगों के साथ ही राज भवन में रह रहे हों। तब प्रहलाद ने बताया - मेरे पिता अमरता प्राप्त करने के उद्देश्य से तपस्या करने मंदरांचल पर चले गए। उनकी अनुपस्थिति में देवताओं ने दैत्यपुरी पर आक्रमण किया। दैत्य पराजित हुए और इंद्र मेरी माता कयाधू को बंदी बनाकर अमरावती ले चले। मार्ग में देवर्षि नारद मिले। उन्होंने इंद्र को एक साध्वी नारी को पकड़ने के लिए डांटा, तो वे बोले- इसके पेट में दैत्यराज का बालक है। उसका जन्म होने पर मैं उसे मारकर दैत्यों का वंश नष्ट करना चाहता हूं। तब नारदजी बोले - इसके गर्भ में भगवान का महान भक्त है। इंद्र ने तत्काल मेरी माता की परिक्रमा कर उन्हें प्रणाम किया और मुक्त कर दिया।
वस्तुत: गर्भावस्था में यदि भले लोगों के संपर्क में रहकर सद्विचारों को ग्रहण किया जाए, तो गर्भस्थ शिशु में भी सुसंस्कारों का बीज पड़ जाता है, जो आगे चलकर उसे एक अच्छा इंसान बनाता है।

और महाराज एकनाथजी को क्रोध नहीं आया
महाराष्ट्र के सुविख्यात संत एकनाथजी के जीवन की यह घटना है। पैठण के कुछ शरारती युवकों ने तय किया कि जो कोई एकनाथजी को क्रोध दिला देगा, उसे दो सौ रुपए इनाम दिया जाएगा।
एक ब्राह्मण युवक ने यह कार्य करने की ठानी। वह दूसरे दिन प्रात:काल एकनाथजी के घर पहुंचा। उस समय वे पूजा कर रहे थे। वह युवक बिना हाथ-पैर धोए और बिना किसी से अनुमति लिए सीधा पूजाघर में पहुंचा और एकनाथजी की गोद में बैठ गया। उसने सोचा कि ऐसा करने पर वे क्रोधित हो उठेंगे, किंतु एकनाथजी ने हंसकर कहा - भैया, तुम्हें देखकर मुझे बड़ा आनंद हुआ। मिलते तो बहुत से लोग हैं, किंतु तुम्हारा प्रेम तो विलक्षण है। युवक चकित रह गया।
दो सौ रुपए के लोभ ने उसे दूसरी बार प्रयास करने को उकसाया। भोजन के समय उसका आसन एकनाथजी के पास ही लगाया। जब भोजन परोसने एकनाथजी की पत्नी गिरिजाबाई आईं, तो उनके झुकते ही युवक लपककर उनकी पीठ पर चढ़ गया। एकनाथजी ने पत्नी से कहा - देखना, ब्राह्मण कहीं गिर न पड़े। गिरजाबाई मुस्कराते हुए बोलीं - डरने की कोई बात नहीं है। मुझे हरि को पीठ पर लादकर काम करने का अभ्यास है। फिर इस बच्चे को मैं कैसे गिरने दूंगी। यह देख-सुनकर युवक की सारी शरारत जाती रही और वह लज्जित होकर एकनाथजी से क्षमा मांगने लगा। एकनाथजी ने उसे हृदय से लगाकर क्षमा कर दिया।
वस्तुत: जीवन में कई बार विपरीत परिस्थितियां आती हैं, जिनका धर्यपूर्वक सामना करने वाला ही जीवन में सुख, शांति व सफलता प्राप्त कर पाता है।

जब उधार लेने वाले से खुद छिपने लगे लाहिड़ी बाबू
समाज सुधारक रामतनु लाहिड़ी का व्यवहार अपनत्व से भरा था। एक दिन वे अपने मित्र अश्विनी कुमार के साथ सड़क पर कहीं जा रहे थे। तभी लाहिड़ी बाबू की नजर दूर से आते एक व्यक्ति पर पड़ी। उसे आते देख लाहिड़ी बाबू सड़क के दूसरी ओर चले गए।
कलकत्ता के सुप्रसिद्ध विद्वान थे श्री रामतनु लाहिड़ी। वे समाज सुधारक भी थे और एक सदाचारी व्यक्ति के रूप में भी उनकी प्रतिष्ठा थी। लाहिड़ी बाबू उन दिनों कृष्णनगर कालिजियट स्कूल के प्रधानाध्यापक थे। सहकर्मी शिक्षक और छात्र भी उनसे काफी प्रभावित थे क्योंकि वे अत्यंत सहजता से जीवनोपयोगी बातें समझा दिया करते थे। साथ ही उनका व्यवहार अत्यंत स्नेहिल और अपनत्व से भरा था। एक दिन वे अपने मित्र अश्विनी कुमार के साथ कहीं जा रहे थे। दोनों मित्र पैदल बातें करते हुए सड़क के एक ओर से चले जा रहे थे। बातें करते हुए लाहिड़ी बाबू की नजर कुछ दूर से आते एक व्यक्ति पर पड़ी। उसे देखते ही लाहिड़ी बाबू ने बात बंद कर दी और अचानक सड़क के दूसरी ओर चले गए ताकि वह व्यक्ति इन्हें न देख सके। अश्विनीकुमार को उनका यह व्यवहार अत्यंत अजीब लगा। जब वह व्यक्ति चला गया तो लाहिड़ी बाबू पुन: इस ओर लौटकर आए। अश्विनीकुमार ने उनसे ऐसा करने का कारण पूछा, तो वे बोले - उन सज्जन ने मुझसे कुछ रुपए उधार लिए थे। जब वे मुझसे मिलते हैं, तभी कोई न कोई तारीख बताकर कहते हैं कि उस तारीख को रुपए दे देंगे, किंतु दे नहीं पाते। उन्हें देखकर मैं उधर इसलिए चला गया कि मेरे कारण किसी को झूठ क्यों बोलना पड़े।
सार यह है कि अपनी वजह से दूसरों के द्वारा की जाने वाली अनीति को रोकना मनुष्यता की सच्ची पहचान है क्योंकि इससे समाज में कुप्रवृत्तियों पर रोक लगकर सद्वृत्तियों का प्रसार होता है।

बालक कुंग ने जब चोरों को दिखाई सही राह
प्रसिद्ध विद्वान फाह्यान के बचपन का नाम कुंग था। एक दिन कुंग अन्य बालकों के साथ धान की कटाई कर रहा था। पके धान देखकर चोर खेत में आ पहुंचे और बालकों को वहां से भगा दिया। बालक डरकर भाग गए, पर कुंग वहीं खड़ा रहा।
चीन के चांगनान राज्य में इतिहास प्रसिद्ध विद्वान फाह्यान ने जन्म लिया। उनका बचपन का नाम कुंग था। उनके माता-पिता ने उन्हें अपने ग्राम के बौद्ध विहार की देख-रेख में रख दिया था क्योंकि उनकी तीन संतानें मर चुकी थीं। इसलिए उन्होंने सोचा कि विहार को सौंप देने से कुंग जीवित रहेगा। विहार में रहने वाले धर्माचरण के साथ जीविका के लिए खेती भी करते थे। अधिकांश खेत विहार की सीमा में ही थे। विहार में रहने वाले बालकों के साथ दस वर्षीय कुंग भी कुछ न कुछ काम करता रहता था। एक दिन कुंग अन्य बालकों के साथ खेत में धान की कटाई कर रहा था। धान अच्छी तरह पक गए थे इसलिए चोरों की भी उन पर निगाह थी। जब चोरों ने विहार की ओर से खेत कटते देखे तो वे जबरदस्ती खेत में घुस आए और बालकों को भगा दिया। सभी बालक डर के मारे भाग गए किंतु कुंग वहीं खड़ा रहा। चोरों ने सोचा कि यह अकेला क्या कर लेगा? उन्होंने फसल काटकर उसके गट्ठर बनाए और चलने को हुए कि कुंग बोला - भाइयो! आप लोगों की आधी से भी अधिक उम्र ढल चुकी है। अब आप क्यों पाप कर्म करते हैं? पिछले जन्म में अशुभ कर्म करने के परिणामस्वरूप ही इस जन्म में आप दरिद्र पैदा हुए और गलत कार्य कर आप अगला जन्म भी दुखमय बना रहे हैं। कुंग की बातें चोरों के दिल में उतर गईं और उन्होंने भविष्य में कभी चोरी न करने की प्रतिज्ञा ली।
सार यह है कि सत्य को पूर्ण आत्मविश्वास के साथ कहने से वह असरकारी होता है और सदैव सकारात्मक परिणाम देता है। इसलिए भयरहित होकर सदा सत्य बोलना चाहिए।

जब जिज्ञासु को समझाया संत ने राम नाम का महत्व
एक जिज्ञासु ने किसी संत से पूछा - महाराज, राम नाम से कैसे प्रेम हो तथा कैसे भजन बने? संत बोले - भाई, राम नाम का मूल्य और उसका महत्व समझने से प्रेम होता है और तभी भजन होता है। जिज्ञासु ने कहा - महाराज, मूल्य और महत्व तो कुछ-कुछ समझ आता है किंतु भजन नहीं। संत बोले - यदि समझ में आया होता तो क्या प्रश्न शेष रह जाता? अभी तक तो तुम राम नाम की कौड़ियों से भी कम कीमत समझते हो। जिज्ञासु ने कहा - कौड़ियों के साथ राम नाम की तुलना कैसी। संत बोले - अच्छा बताओ कि तुम्हारी वार्षिक आय कितनी है। जिज्ञासु ने कहा - यही कोई पैंतालीस-पचास हजार रुपए। संत बोले - अच्छा तो इसका अर्थ हुआ मासिक लगभग चार हजार रुपए और दैनिक लगभग एक सौ चालीस रुपए। इस हिसाब से एक घंटे में लगभग पौने छह रुपए और एक मिनट में डेढ़ आना आमदनी होती है।
अब जरा सोचो, उसी एक मिनट में तुम कम से कम डेढ़ सौ रामनाम का बड़े आराम से उच्चरण कर सकते हो अर्थात जितनी देर में छह पैसे अर्जित होते हैं, उतनी देर में डेढ़ सौ राम नाम आते हैं। मतलब यह कि एक पैसे में पच्चीस राम नाम हुए। इतने पर भी रुपए के लिए तो खूब चेष्टा करते हो, राम नाम के लिए नहीं। अब बताओ तुमने राम नाम का महत्व और मूल्य कौड़ियों के बराबर भी कहां समझा। जिज्ञासु को भूल समझ में आ गई।
यदि ईश्वर में आस्था पूर्ण और सच्ची हो तो उसके भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही स्तरों पर सकारात्मक परिणाम मिलते हैं। इसलिए श्रद्धाभाव से भगवान का नाम जप करना चाहिए।

सहनशीलता का संदेश दिया जंगली पशु ने
एक वन में रहने वाला जंगली भैंसा शांत प्रवृत्ति का था। उसके सीधेपन का लाभ उठाकर एक बंदर उसे बहुत तंग किया करता था। कई बार तो बंदर दुष्टता पर उतर आता। पर भैंसा हमेशा शांत बना रहता। न तो वह बंदर को मारता और न ही कोई विरोध करता।
एक वन में अन्य पशुओं के साथ ही एक जंगली भैंसा भी रहता था। वह अत्यंत शांत प्रवृत्ति का था। उसके सीधेपन का लाभ उठाकर एक बंदर उसे बहुत तंग करता था। वह कभी उसकी पीठ पर चढ़कर कूदता तो कभी उसके सींगों को पकड़कर हिलाता और कभी उसकी पूंछ को जोरों से खींचता। कई बार तो बंदर दुष्टता पर उतर आता। कभी-कभी वह जोरों से भागते हुए आता और भैंसे की आंखों में अंगुली डाल देता। इससे उसे काफी तकलीफ होती और कई बार तो खून भी निकल आता। किंतु वह सदा शांत बना रहता। न तो वह बंदर को मारता और न ही किसी प्रकार का विरोध करता। यह देखकर एक दिन स्वयं देवतागण उस शांतचित्त भैंसे के सामने प्रकट होकर बोले - ओ शांतमूर्ति, इस दुष्ट बंदर को दंड देना चाहिए। इसने क्या तुम्हें खरीद लिया है, या तुम इससे डरते हों। भैंसे ने उत्तर दिया- देवगण, न इस बंदर ने मुझे खरीदा है और न मैं इससे डरता हूं। इसकी दुष्टता भी समझता हूं। मैं केवल सिर के एक झटके से अपनी सींग द्वारा इसे फाड़ डालने का बल भी रखता हूं। किंतु मैं इसके अपराध क्षमा करता हूं। कारण यह कि अपने से बलवान के अपराध तो सभी विवश होकर सहन करते हैं। सहनशीलता तो तब है जब अपने से निर्बल के अपराध सहन किए जाएं।
सार यह है कि प्रत्येक परिस्थिति में और प्रत्येक स्तर पर धर्य बनाए रखना ही सहनशीलता की सही परिभाषा है। सहनशीलता से व्यक्ति की आत्मशक्ति बढ़ती है और वह भीतर से मजबूत होता है।

ईसा ने बताया विश्वास की शक्ति का महत्व
भक्त साइमन ने ईसा मसीह को बड़े प्रेम से अपने घर आमंत्रित किया। जब ईसा उसके घर पहुंचे, तभी एक नगर वधू भी वहां आई। उसने ईसा के चरण धोकर उन पर तेल मलना शुरू किया। यह देख साइमन सोच में पड़ गया। तब ईसा ने साइमन की शंका निवृत्ति की।
साइमन नामक एक भक्त ने बड़े प्रेम से ईसा मसीह को अपने घर आमंत्रित किया। जब ईसा उसके घर पहुंचे तभी एक नगर वधू मैगडलन भी वहां आई। उसने ईसा के चरण पकड़ लिए और उन्हें धोकर उन पर तेल मलना शुरू किया। मैगडलन के दुश्चरित्र से सभी परिचित थे। साइमन सोचने लगा ईसा मसीह मैगडलन को पापी समझकर उसे अपने सामने से हटा देंगे। ईसा साइमन के मन का भाव ताड़ गए। उन्होंने साइमन से कहा - साइमन, एक प्रश्न का जवाब दो। एक महाजन से दो व्यक्तियों ने क्रमश: पांच सौ रुपए और पचास रुपए का ऋण लिया था। जब उनके पास ऋण भरने के लिए कुछ भी नहीं रह गया, तब महाजन ने दोनों को ऋण मुक्त कर दिया। बताओ उनमें से कौन व्यक्ति महाजन को अधिक चाहेगा।
साइमन ने जवाब दिया - जिस पर उसने अधिक कृपा की अर्थात पांच सौ रुपए वाला। तब ईसा ने साइमन की शंका निवृत्ति की। जब मैंने तुम्हारे घर में प्रवेश किया, तुमने मेरे चरणों को धोने के लिए पानी नहीं दिया, किंतु इस देवी ने अपने आंसुओं से मेरे चरण धोए और केशों से पोंछ दिए। तुमने मेरे सिर पर तेल तक नहीं रखा, इसने मेरे पैरों की तेल मालिश की। उसकी इस पवित्र निष्काम सेवा से इसके सभी पाप धुल गए। इसका यह विश्वास कि संत सेवा से इसके पाप नष्ट होंगे, सफल हुआ और इसीलिए मैंने उसे क्षमा किया। अब वह उतनी ही पवित्र है जितने तुम।
उक्त प्रसंग विश्वास की शक्ति को बताता है। यदि आराध्य में आराधक का विश्वास पूर्ण और शंकारहित हो तो उसकी सभी समस्याएं हल हो जाती हैं।

कैयरजी की निस्पृहता को प्रणाम किया नरेश ने
प्रकांड विद्वान कैयरजी नगर से दूर एक झोपड़ी में रहते थे। संध्या पूजन, अध्ययन व ग्रंथ लेखन यही उनकी दिनचर्या थी। वहां के राजा को जब यह पता चला कि उनके राज्य में एक महान विद्वान कष्टों में जीवन बिता रहा है, तो वे उनसे मिलने पहुंचे।
संस्कृत के एक प्रकांड विद्वान कैयरजी नगर से दूर एक झोपड़ी में निवास करते थे। उन्हें अपने संध्या पूजन, अध्ययन और ग्रंथ लेखन से इतना भी अवकाश नहीं था कि पत्नी से पूछ सकें कि घर में कुछ है भी या नहीं। ब्राह्मणी बेचारी जंगल से मूंज काटकर लाती और उसकी रस्सियां बनाबर बेचती और उससे जो कुछ मिलता, उससे घर चलाती। पति की सेवा, उनके और अपने भोजन की व्यवस्था तथा घर के सारे काम उसे करने होते थे और वह यह सब करके भी परम संतुष्ट थीं। वहां के राजा को काशी से आए हुए कुछ ब्राह्मणों ने बताया - एक महान विद्वान आपके राज्य में इतना कष्ट पाता है आप कुछ तो ध्यान दें। नरेश स्वयं कैयरजी की कुटिया पर आए और हाथ जोड़कर प्रार्थना की, भगवन्! आप विद्वान हैं। जिस राजा के राज्य में विद्वान ब्राह्मण कष्ट पाते हैं वह पाप का भागी होता है। अत: मुझ पर कृपा करें। कैयरजी ने कमंडल उठाया, चटाई समेटकर बगल में दबाई और पत्नी से बोले - अपने रहने से महाराज को पाप लगता है तो कहीं और चलते हैं। नरेश ने उनके पैरों पर गिरते हुए क्षमा मांगी और बोले - क्षमा कीजिए, मैं तो केवल यह चाहता था कि मुझे कुछ सेवा करने की आज्ञा प्राप्त हो। कैयरजी ने कहा - आप इतना भर करें कि फिर यहां न आएं और मुझे धन, संपत्ति आदि किसी भी चीज का प्रलोभन न दें। मेरे अध्ययन में विघ्न न पड़े यही मेरी सबसे बड़ी सेवा है।
वस्तुत: सभी प्रकार के सुख, ऐश्वर्य से दूर रहने वाला व्यक्ति ही निस्पृही होता है और वह समाज की दृष्टि में संत का दर्जा पाता है और सभी के लिए प्रेरणा पुरुष बन जाता है।

नए कलाकार के लिए टर्नर ने हटाया अपना चित्र
रॉयल एकेडमी की एक समिति द्वारा चयन के पश्चात चित्रों को हॉल में सजाना शुरू किया गया। दीवार पर अब जगह शेष नहीं थी। पर एक खूबसूरत चित्र अभी भी रह गया था। तब विख्यात चित्रकार टर्नर ने अपना चित्र हटाकर नए चित्रकार का चित्र वहां लगा दिया।
किसी समय की बात है इंग्लैंड की प्रसिद्ध संस्था रॉयल एकेडमी की चित्र सजाने वाली समिति की बैठक हो रही थी। देश के बड़े-बड़े चित्रकार इस समिति के सदस्य थे। एकेडमी हॉल में सजाने के लिए देश-विदेश के चित्रकारों द्वारा अपने श्रेष्ठतम चित्र भेजे गए थे। समिति के सदस्यगण सभी चित्रों का बारीकी से अवलोकन कर रहे थे और जो अत्यधिक श्रेष्ठ और दोषरहित चित्र थे, उनका चुनाव कर लिया गया। चयन के पश्चात चित्रों को एकेडमी हॉल में सजाना आरंभ किया गया। सभी तय स्थानों पर चित्र सजा दिए गए। दीवार पर अब एक भी चित्र लगाने को स्थान शेष नहीं बचा था, किंतु एक नवीन चित्रकार का चित्र दीवार पर लगने से अब भी रह गया था, जो अत्यंत सुंदर था। एक सदस्य ने कहा - चित्र तो उत्तम है, किंतु अब लगाया कहां जाए। स्थान तो है ही नहीं। इंग्लंड के विख्यात चित्रकार टर्नर भी उस समिति के सदस्य थे। वे बोले - माननीय सदस्यों को चित्र पसंद हो, तो उसे लगाने के स्थान का अभाव भी नहीं होगा। सदस्यों ने पूछा - आप इसे कहां लगाएंगे। टर्नर उठे और उन्होंने स्वयं अपना एक चित्र उतार कर नए चित्रकार का चित्र वहां लगा दिया। टर्नर का चित्र उस चित्र से बहुत उत्तम था, किंतु उन्होंने कहा नवीन कलाकार को प्रोत्साहन प्राप्त होना चाहिए।
सार यह है कि किसी भी विधा के नवोदित कलाकार की प्रगति के लिए प्रोत्साहन अनिवार्य है। प्रोत्साहन से ही कलाकार की कला अपने पूर्ण स्वरूप में निखरती है और देश व दुनिया को एक महान कलाकार प्राप्त होता है।

दूसरों को तृप्त देख खुद भी तृप्त हुए तर्कभूषणजी
विद्वान श्रीविश्वनाथ तर्कभूषण जब गंभीर रूप से बीमार हुए तो डॉक्टरों ने उन्हें एक बूंद भी जल नहीं पीने का आदेश दिया। एक दिन उन्हें तेज प्यास लगी। तब उन्होंने परिजनों से ब्राrाणों को बुलाकर पानी व शर्बत पिलाने की इच्छा जताई।
क लकत्ता के सुप्रसिद्ध विद्वान श्रीविश्वनाथ तर्कभूषण अत्यंत दयालु थे। दीन-दुखियों की मुक्त हस्त से सहायता करना और लोक कल्याण में जुटे रहना उनका स्वभाव था। इसी वजह से वे लोगों के बीच प्रसिद्ध थे। एक बार श्रीतर्कभूषण गंभीर रूप से बीमार हो गए। बड़े-बड़े चिकित्सक आए, किंतु तर्कभूषणजी को स्वस्थ नहीं कर पाए। फिर एक दिन विख्यात चिकित्सक को उनके परिजन किसी अन्य शहर से लेकर आए। उन्होंने तर्कभूषणजी की जांच की और दवा आदि का निर्धारण कर परिजनों को आदेश दिया कि रोगी को एक बूंद भी जल नहीं दें। जल देते ही उनकी हालत और खराब हो जाएगी। लंबे समय तक तर्कभूषणजी को पानी नहीं दिया गया। कुछ दिनों तक सब कुछ ठीक रहा, फिर एक दिन उन्हें तीव्र प्यास लगी। पानी दिया नहीं जा सकता था इसलिए वे घर के लोगों से बोले - मैंने ग्रंथों में पढ़ा है और स्वयं भी दूसरों को उपदेश दिया है कि समस्त प्राणियों में एक ही आत्मा है। आज मुझे इसका प्रत्यक्ष अनुभव करना है।ब्रह्मणों को यहां बुलाओ और उन्हें मेरे सामने शरबत, तरबूज का रस तथा हरे नारियल का पानी पिलाओ। घर के लोगों ने तत्काल यह व्यवस्था कर दी। जब ब्राह्मण शरबत और नारियल का पानी पी रहे थे, तब तर्कभूषणजी को यह अनुभव हुआ जैसे वे स्वयं पी रहे हों। वास्तव में तर्कभूषणजी की रोगजन्य प्यास इस अनुभव से शांत हो गई और वे स्वस्थ हो गए।
सार यह है कि दूसरों की खुशी में खुश और दुख में दुखी होने वाला देवत्व को हासिल कर लेता है, क्योंकि यह महामानवता का लक्षण है।

तोपची ने देश की खातिर दिया अपना बलिदान
रूसी सेना के दबाव के चलते जापानी सैनिकों को एक पर्वतीय टीला खाली करना पड़ा। सेना तो हट गई, पर एक विशाल तोप पीछे छूट गई। दुश्मनों द्वारा तोप के इस्तेमाल के डर से तोपची विचलित हो गया और वह तोप में छिपकर बैठ गया।
रूस और जापान का युद्ध चल रहा था। उसी दौरान एक बार ऐसा हुआ कि रूसी सेना के दबाव के कारण जापानी सैनिकों को एक पर्वतीय टीला खाली करके पीछे हटना पड़ा। दूसरी सब सामग्री तो हटा ली गई, लेकिन एक विशाल तोप पीछे छूट गई। सारी जापानी सेना सुरक्षित पीछे हट गई थी और इसलिए सैनिकों में निश्चिंतता थी, किंतु जापानी तोपची विचलित था। उसे चिंता हो रही थी कि कल मेरी ही तोप से शत्रु मेरे देश के सैनिकों को भूनेगा। चूंकि रूसी सैनिकों के पास बड़ी तोप नहीं थी, यह पहली ही बड़ी तोप उन्हें मिलने वाली थी, अत: उसका उपयोग वे निश्चित रूप से करेंगे। ऐसा सोचकर तोपची रात के अंधेरे में वृक्षों की आड़ लेता, पैरों के बल खिसकता पहाड़ी पर जा पहुंचा। तोप को तो अकेले ले नहीं जा सकता था, इसलिए वह नली के भीतर बैठ गया। बाहर बर्फ पड़ रही थी और तोपची उस ठंडी तोप में असहनीय कष्ट झेलता पूरी रात बैठा रहा। सवेरा होने पर रूसी सैनिकों ने तोप में गोला बारूद भरवाया। पलीता देते ही सामने का वृक्ष रक्त से लाल हो गया। नली में घुसे तोपची के चीथड़े उड़ चुके थे। अंधविश्वासी रूसी सैनिक चिल्लाए - धूर्त जापानी तोप पर कोई जादू कर गए हैं। इसमें शैतान बैठा गए हैं जो नली से खून उगल रहा है। तोप को वहीं छोड़कर रूसी सैनिक भाग खड़े हुए। जापानी सेना वहां पुन: लौटी। तोपची के सम्मान में वहां स्मारक बनाकर सलामी दी गई।
वस्तुत: देश के लिए आत्म बलिदान करना नागरिक के नैतिक दायित्वों में सर्वोपरि होता है और उसे हर क्षण पूर्ण करने को तत्पर रहने वाला ही सच्च देशभक्त कहलाता है।

गरीब को अपने पुण्यों से मिला अमीर के घर जन्म
राजा सातवाहन एक दिन आखेट के लिए निकले और वन में भटक गए। वन में भटकते भूखे-प्यासे राजा सातवाहन एक गरीब की झोपड़ी में पहुंचे। निर्धन व्यक्ति उन्हें पहचानता नहीं था, फिर भी अतिथि समझकर उसने उनका स्वागत किया। भोजन के नाम पर उसके पास सत्तू ही था। उसने बड़े प्रेम से राजा को वही सत्तू खिलाया।
रात होने पर राजा झोपड़ी में ही सो गए और वह स्वयं बाहर जाकर सो गया। शीतकाल की रात्रि थी। बाहर अत्यंत ठंड थी और साथ ही बारिश भी हो गई। भीषण ठंड के कारण उस गरीब की रात में ही मृत्यु हो गई। सुबह होने पर राजा के सैनिक उन्हें खोजते हुए पहुंचे। राजा ने बड़े सम्मान से उस गरीब का अंतिम संस्कार करवाया। पर फिर भी राजा को शांति नहीं मिली। वे सोचते रहते कि उस गरीब ने मुझे सत्तू खिलाया, मुझे झोपड़ी में सुलाकर स्वयं बाहर सोया और उसकी मृत्यु हो गई।
अगर दान और अतिथि सत्कार का ऐसा ही फल होता है तो कौन दान-पुण्य करेगा। एक दिन पंडित वररुचि महल आए। राजा की चिंता के विषय में जानकर वे राजा को लेकर नगरसेठ के घर गए। वहां पंडितजी के कहने पर नगरसेठ के नवजात पुत्र को लाया गया। उनके आदेश से छोटा बालक सहसा बोल उठा - राजन्, मैं आपका आभारी हूं। आपके अतिथि सत्कार के फलस्वरूप ही मैं नगरसेठ का पुत्र हुआ और उसी पुण्य के प्रभाव से पूर्व जन्म का स्मरण भी है।
सार यह है कि सच्चे हृदय से किया गया पुण्य और अतिथि सत्कार अवश्य ही फलता है। इसलिए घर आए अतिथि का सदा प्रेम से स्वागत करें।

गरीब वृद्धा की चारपाई ने बचाई लोगों की जान
एक वृद्धा अपनी बेटी से बोली - रेलगाड़ी के आने में केवल आधा घंटा रहा गया है। लकड़ी के पुल से गाड़ी गिर पड़ेगी और असंख्य यात्रियों के प्राण चले जाएंगे। वह अभी-अभी धड़ाके की आवाज सुनकर पुल देखने गई थी, जो भयंकर हिमपात से टूट गया था। वृद्धा रेलगाड़ी को दूर से ही रोकने का उपाय सोचने लगी।
वह पश्चिमी वर्जीनिया की एक निर्जन घाटी में झोपड़ी बनाकर रहती थी। वहां दूर-दूर तक और चारों ओर उजाड़ था। बस्ती उस स्थान से कोसों दूर थी। वृद्धा ने सोचा कि प्रकाश के द्वारा ड्राइवर को सूचना दी जा सकती है क्योंकि चिल्लाने पर तो चलती गाड़ी में ड्राइवर कुछ भी नहीं सुन सकेगा। प्रकाश देखकर वह गाड़ी रोक सकता है। गरीबी के कारण घर में कोई दूसरा सामान नहीं था, जिसे जलाकर प्रकाश करें और ड्राइवर को सावधान करें। अचानक वृद्धा की नजर चारपाई पर गई।
उसने जल्दी से अपनी बेटी की मदद से चारपाई को तोड़ डाला और रेलवे लाइन पर रख दिया। दियासलाई से आग लगाई कि रेलगाड़ी की सीटी सुनाई दी। ड्राइवर ने प्रकाश देखकर दूर से ही रेलगाड़ी को धीमा कर दिया। जब गाड़ी रुकी और ड्राइवर ने टूटा पुल देखा तो वह उस निर्धन वृद्धा के प्रति सम्मान में झुक गया। उसने अपने घर की एकमात्र चारपाई को तोड़कर सैकड़ों जाने बचा ली थीं।
वस्तुत: किसी भी अच्छे कार्य को करने के लिए साधनों की नहीं, बल्कि इच्छाशक्ति की जरूरत होती है। यदि मन में दूसरों के कल्याण की चाह हो तो राह अपने आप निकल आती है।

जब लालची पटेल ने खो दिए अपने दोनों बेटे
दो व्यापारी कहीं जा रहे थे। रास्ते में ही रात हो गई। रात बिताने के लिए वे पास के एक गांव में पहुंचे। वहां के पटेल के घर जाकर उन्होंने आश्रय मांगा। पटेल ने आश्रय दे दिया। दोनों व्यापारी थे और अपना माल बेचकर लौट रहे थे। उनके पास रुपए से भरी थैली थी, जिसे देखकर पटेल की नीयत बिगड़ गई। उसने यात्रियों का सत्कार कर उन्हें सोने के लिए पलंग दिया और अपने मकान के भीतर चला गया। वहां उसने दो बदमाशों को बुलाकर उनसे बात की कि मेरे दरवाजे पर दो आदमी सो रहे हैं, उन्हें रात में मार दो। तुम्हें तगड़ा इनाम दूंगा। बदमाश मान गए।
पटेल के दो पुत्र थे, जो रात्रि में खेत पर चले गए थे किंतु किसी कारणवश वे दोनों घर लौट आए। देर अधिक हो जाने से उन्होंने घर का दरवाजा खटखटाना उचित नहीं समझा। किंतु पलंग पर दो अपरिचितों को सोता देख उन्होंने उन्हें पशुशाला में जाकर सोने को कहा। व्यापारी उठकर पशुशाला में सो गए और पलंग पर पटेल के पुत्र लेट गए। रात्रि में बदमाश आए और पटेल के पुत्रों को व्यापारी समझकर मार दिया। सुबह दोनों व्यापारी उठे और पटेल से विदा लेने आए तो पुत्रों की लाश देखी। दोनों ने पटेल को जगाया। पटेल ने अपना सिर पीट लिया।
सार यह है कि दूसरों का बुरा सोचने वाला स्वयं भी अपनी गलत सोच का शिकार होता है क्योंकि बुरे कार्य का परिणाम भी बुरा ही होता है। अत: क्षुद्र निजी स्वार्थो को छोड़कर सभी के बारे में अच्छा सोचें। सभी के अच्छे में स्वयं का भला भी शामिल होता है।

संत की बात का निहितार्थ समझकर भक्त ने पल्ला छोड़ा
एक भगवद्भक्त पैदल किसी तीर्थ से लौट रहे थे। मार्ग में उन्होंने एक गांव में स्नान किया और मंदिर जाने के लिए निकले तो मार्ग में उन्हें किसी ने बताया गांव में कोई संत पधारे हैं। वे रोगियों को रोगमुक्तकर देते हैं। भक्तभी उनसे मिलने चल दिए।
एक भगवद्भक्त एक दिन पैदल किसी तीर्थ से लौट रहे थे। मार्ग में एक गांव आया। भक्त ने सोचा कि थोड़ी देर यहां ठहरकर विश्राम कर लूं। भक्त एक कुएं पर पहुंचे और स्नान कर, जल पीकर वहां पानी भर रही महिलाओं से मंदिर का पता पूछा। जब वे मंदिर जाने के लिए निकले तो मार्ग में बहुत सारे लोग एक ओर जाते मिले। उन्होंने एक को रोककर पूछा। उसने बताया कि गांव की सीमा पर स्थित पर्वत की एक गुफा में ऐसे संत रहते हैं, जो वर्ष में केवल एक दिन बाहर निकलते हैं। आज उनके बाहर निकलने का दिन है। रोगियों की भीड़ रोगमुक्त होने की आशा में संत के पास जा रही है। भगवद्भक्त भी भीड़ के साथ चलकर गुफा के सामने पहुंच गए। निश्चित समय पर संत गुफा से बाहर निकले। वास्तव में उन्होंने जिसे भी स्पर्श किया, वह तत्काल रोगमुक्त हो गया। जब सभी रोगी स्वस्थ होकर लौट रहे थे, तब भक्त ने संत की चादर का कोना पकड़कर कहा - आपने दूसरों के शारीरिक रोगों को दूर किया है, अब मेरे मन के रोगों को भी दूर कीजिए। संत छुड़ाते हुए बोले - छोड़ जल्दी मुझे। परमात्मा देख रहा है कि तूने उसका पल्ला छोड़कर दूसरे का पल्ला पकड़ा है। यह कहकर संत शीघ्रता से गुफा में चले गए और भक्त उनकी बात का अर्थ समझ मंदिर की ओर चल दिया।
यह प्रतीकात्मक कथा आस्था की अनन्यता को इंगित करती है। यदि ईश्वर के प्रति विश्वास सच्चा और एकनिष्ठ हो तो सत्कार्यो को संपन्न करने की दैवीय शक्ति स्वयमेव उत्पन्न हो जाती है।

जब एक मामूली आदमी ने दिखाई संत को राह
एक संत स्वयं को श्रेष्ठ मानते थे। एक दिन उन्होंने देखा कि एक प्रौढ़ मनुष्य एक किशोरी से हंस-हंसकर बातें कर रहा है। संत ने सोचा कि इस प्रकार निर्जन स्थान में हंसी-मजाक करने वाले ये लोग अवश्य कोई पाप चर्चा कर रहे होंगे।
एक संत स्वयं को श्रेष्ठ मानते थे। एक दिन वे नदी के किनारे पहुंचे। उस एकांत और सुंदर स्थान पर उन्होंने देखा कि एक प्रौढ़ मनुष्य अत्यंत प्रसन्नता से एक किशोरी से हंस-हंसकर बातें कर रहा है। किशोरी के हाथ में एक गिलास है। संत ने सोचा कि इस प्रकार निर्जन स्थान पर हंसी-मजाक करने वाले ये लोग अवश्य ही कोई पाप चर्चा करते होंगे और गिलास में शराब होगी। तभी नदी की लहरों में एक छोटी-सी नाव डूबने लगी। यात्री पानी में गिरकर प्राण बचाने की गुहार लगाने लगे। संत हाय-हाय पुकार उठे। इसी बीच उस प्रौढ़ मनुष्य ने बिजली की गति से उठकर नदी में छलांग लगा दी और तत्काल नौ व्यक्तियों को बचाकर ले आया। संत उसका साहस और सद्भाव देखकर चकित रह गए।
उसने संत से कहा - महात्माजी, नौ प्राणी तो बचा लिए, एक को आप बचाइए। संत तैरना नहीं जानते थे। तब वह व्यक्ति बोला - अपने को दूसरों से श्रेष्ठ मानना अपने में अभिमान उत्पन्न करता है। जिस दिन आप दूसरों को ऊंचा देख पाएंगे उसी दिन आप यथार्थ में ऊंचा मान भी रखेंगे। आपको बता दूं कि यह किशोरी मेरी बेटी है और गिलास में नदी का निर्मल जल भरा है। बहुत दिनों बाद यह ससुराल से आई थी, इसलिए हम दोनों पिता-पुत्री आनंद से बातें कर रहे थे। मैं तो भगवान की प्रेरणा से आपके भाव की परीक्षा के लिए यहां आया था। यह सुनकर संत का अभिमान नष्ट हो गया।
सभी को समान भाव से देखना ईश्वरीय सृष्टि का उचित सम्मान करना है और सदाचरण की दिशा में यह पहला कदम है।

जब सच्ची मित्रता ने मौत को भी मात दे दी
जब एक साल पूरा होने के बाद भी डेमन नहीं लौटा तो उसकी जगह उसके मित्र पीथियस को फांसी देने के लिए ले जाया गया। डेमन फांसी के स्थल पर पहुंचा और जोरों से चीखकर बोला, मेरे मित्र को फांसी मत दो। मैं आ गया हूं।
सिसली के सिराक्यूज नगर के राजा डयोनिसियस ने किसी सामान्य अपराध में डेमन नामक एक युवक को प्राणदंड की सजा सुना दी। डेमन ने प्रार्थना की कि मुझे एक वर्ष का समय दिया जाए तो मैं ग्रीस जाकर अपनी संपत्ति व परिवार का प्रबंध करके ठीक समय पर लौट आऊंगा। राजा ने शर्त रखी कि कोई तुम्हारी जमानत ले और वचन दे कि तुम न लौटे तो तुम्हारी जगह वह फांसी चढ़ेगा। राजा का निर्णय सुनकर डेमन का मित्र पीथियस आगे आया और उसने डेमन की जमानत ली। एक वर्ष पूरा होने पर भी डेमन नहीं लौटा। लोगों ने पीथियस को मूर्ख कहा, किंतु वह खुश था। वह सोच रहा था कि ईश्वर करे कि समुद्र में तूफान आ जाए और डेमन का जहाज मार्ग में भटक जाए।
जब पीथियस को मृत्युदंड स्थल पर पहुंचा दिया गया, तभी हांफता-दौड़ता डेमन वहां पहुंचा और चिल्लाया- मेरे मित्र को फांसी मत दो। मैं आ गया हूं। वास्तव में डेमन का जहाज समुद्री तूफान में फंस गया था। किसी तरह किनारे पहुंचकर डेमन को जो भी सवारी मिली, उसी से वह दौड़ा। उसका अंतिम घोड़ा अत्यधिक वेग से दौड़ने के कारण गिरकर मर गया। डेमन भूखा था और उसके पैरों में छाले पड़ गए थे। राजा दोनों मित्रों का प्रेम देखकर प्रभावित हुआ। उसने डेमन की सजा माफ कर दी और स्वयं भी उनका मित्र बन गया। इस तरह तीन सच्चे मित्र बन गए।
आज के युग में जहां मित्रता स्वार्थवश की जाती है और लाभ-हानि की संकीर्ण तुला पर तौली जाती है, वहां यह घटना प्रेरणादायक है।

गांधी के सुलझे हुए तर्को ने निरुत्तर किया युवक को
महात्मा गांधी से मिलने आया युवक उनसे ऐसे प्रश्न करता रहा, जिससे कोई भी व्यक्ति अपना संतुलन खो सकता था। लेकिन गांधी बड़े धर्य और शांति से उसके सभी प्रश्नों का जवाब देते रहे। आखिरकार ऐसा वक्त आया, जब युवक पूरी तरह निरुत्तर हो गया।
एक बार महात्मा गांधी के पास एक उद्धत युवक आया और उसने उनसे लगातार प्रश्नों की झड़ी लगा दी। अनेक बेसिर पैर के प्रश्न पूछने के बाद उसने व्यंग्य से पूछा, आपको जब कन्याकुमारी के मंदिर में लोगों ने प्रवेश करने से रोक दिया था, तब आप अंदर क्यों नहीं गए। आप तो संसार की दिव्य ज्योति हैं, फिर वे आपको रोकने वाले कौन होते थे। गांधीजी ने उसके सभी प्रश्नों का उत्तर बड़ी शांति से दिया था। इस प्रश्न पर वे थोड़ा मुस्कुराए और बोले, ‘या तो मैं संसार की ज्योति नहीं था और वे लोग मुझे बाहर रखकर न्याय करना चाहते थे और यदि मैं जगत की ज्योति था तो मेरा यह कत्र्तव्य नहीं था कि मैं बलपूर्वक घुसने की चेष्टा करता।’ युवक ने फिर पूछा, आपको मालूम होना चाहिए कि मौलाना मुहम्मद अली ने कहा है कि गांधीजी की अपेक्षा एक दुराचारी मुसलमान भी श्रेष्ठ है। फिर क्या इतने पर भी आप मुस्लिम एकता की आशा करते हैं। गांधीजी ने उत्तर दिया, ‘क्षमा करें, उन्होंने ऐसा बिलकुल नहीं कहा। अलबत्ता उन्होंने यह कहा था कि ऐसा मुसलमान केवल एक बात में बड़ा है और वह है अपने धर्म में और यह तो कहने का एक सुंदर ढंग मात्र था। किसी को अपने मजहब को सर्वोत्तम समझने का वैसे ही अधिकार है जैसे किसी पुरुष को अपनी स्त्री को सर्वश्रेष्ठ सुंदरी समझने का।’ यह सुनकर युवक निरुत्तर होकर चला गया।
लोगों के उकसावे या बहलावे से अप्रभावित रह धर्य व शांति से कार्य करने वाला ही सही अर्थो में विजयी होता है।

प्रार्थना की असीम शक्ति से मेघ भी बरसे झमाझम
संत स्कालस्टिका ने भाई से रुकने का निवेदन किया लेकिन उन्होंने अस्वीकार कर दिया। फिर उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना की और झमाझम मेघ बरसने लगे। ईश्वर ने सच्चे हृदय से की गई प्रार्थना सुन ली थी।
लगभग 1600 वर्ष पूर्व की घटना है। संत स्कालस्टिका प्रत्येक वर्ष अपने भाई संत बेनडिक्ट से मिलने जाया करती थीं। वे दिनभर आध्यात्मिक विषयों पर उनसे चर्चा करतीं और शाम को लौट आतीं। स्कालस्टिका का नियम था कि वे रात को अपने मठ में ही निवास करती थीं और बेनडिक्ट भी केसिनी की पहाड़ी पर स्थित अपने मठ में चले जाते थे। स्कालस्टिका को केसिनी मठ में जाने की आज्ञा नहीं थी। अत: वर्ष में किसी एक दिन बेनडिक्ट मठ से कुछ दूर आकर अपनी बहन से मिल लेते। एक साल स्कालस्टिका ने अपने भाई से निवेदन किया- मेरी बड़ी इच्छा है कि आज आप मठ में न जाएं। मैं सारी रात ज्ञान चर्चा करना चाहती हूं।
बेनडिक्ट बोले, बहन, मैं अपने नियम से विवश हूं। यह कहकर बेनडिक्ट ने अपने साथियों के साथ केसिनी मठ की ओर प्रस्थान करना चाहा, जो पांच मील दूर था। भाई के दृढ़ निश्चय से बहन का गला भर आया। वह मन में भगवान का ध्यान करने लगी। अचानक आकाश में बादल छा गए। बिजली चमकने लगी, पवन का वेग बढ़ गया और वर्षा होने लगी। संत बेनडिक्ट बोले, बहन, ईश्वर क्षमा करें। तुमने यह क्या कर डाला। स्कालस्टिका ने प्रसन्न होकर कहा - मैंने आपका दरवाजा खटखटाया पर आपने मेरी पुकार की उपेक्षा कर दी। तब मैंने भगवान से प्रार्थना की, उन्होंने अपनी कृपा से मुझे निहाल कर दिया। अब तो आप ज्ञान चर्चा करने के लिए मेरे मठ में रुकेंगे ही। सार यह है कि यदि सच्चे हृदय से प्रार्थना की जाए तो उस प्रार्थना में असीम शक्ति होती है।

हातिमताई लकड़हारे को खुद से श्रेष्ठ मानते थे
प्राचीन अरब में हातिमताई अपनी दानशीलता के लिए अत्यंत विख्यात थे। वे किसी को अपने दरवाजे से खाली हाथ नहीं जाने देते थे। एक दिन उनके कुछ मित्रों ने बातचीत के दौरान उनसे पूछा - हातिम क्या तुम किसी ऐसे व्यक्ति को जानते हो, जो तुमसे भी श्रेष्ठ हो। हातिम ने सहमति में सिर हिलाया। मित्रों ने जानना चाहा कि वह व्यक्ति कौन है।
हातिम ने उत्तर दिया - एक दिन मैंने बहुत बड़ा भोज दिया और उसमें हजारों लोगोंे को निमंत्रित किया। दिनभर भोजन चलता रहा और रात्रि में वह विशाल आयोजन समाप्त हुआ। उसी दिन शाम को मैं जंगल की ओर घूमने गया। वहां मैंने एक लकड़हारे को देखा, जिसने लकड़ी का एक भारी गट्ठर लाद रखा था। मैंने उससे पूछा - भाई, तुम आज हातिम के भोज में शामिल क्यों नहीं हुए? कम से कम आज इतनी मेहनत करने की क्या जरूरत थी?
उसने जवाब दिया - मुझे लगता है कि जो लोग अपने जीविकोपार्जन में स्वयं समर्थ हैं, उन्हें हातिम की दानशीलता या भोज की कोई जरूरत नहीं है। मित्रों मैं उस लकड़हारे को अपनी अपेक्षा श्रेष्ठ मानता हूं। मेरी दृष्टि में उन दानियों की अपेक्षा जो दूसरों का धन लेकर दान देते हैं या उन व्यक्तियों की अपेक्षा जो दूसरों के भोज के लिए सदा मुंह ताकते रहते हैं। स्वयं परिश्रम कर अपना पोषण करने वाला व्यक्ति ज्यादा श्रेष्ठ है।
सार यह है कि स्वावलंबन सदा प्रणम्य है। दूसरों से मदद की उम्मीद रखने के स्थान पर स्वयं की शक्ति व योग्यता का उपयोग कर जीने वाला मनुष्य श्रेष्ठतम कहलाता है।

जब मंत्री शाहचांग ने दिया सहनशीलता का संदेश
मंत्री शाहचांग को सवेरे बादशाह को महत्वपूर्ण रिपोर्ट सौंपनी थी। उसने सहायक की मदद से रिपोर्ट तैयार की। किंतु सहायक की असावधानी से लैंप गिर गया और सारे कागज जल गए, पर शाहचांग ने क्रोध न कर फिर से रिपोर्ट तैयार कर ली।
चीन के बादशाह का मंत्री शाहचांग बहुत थक गया था। उस दिन उसे सवेरे ही बादशाह के सामने एक महत्वपूर्ण रिपोर्ट रखनी थी। उसने अपने एक सहायक को बुलवाया और दोनों ने आधी रात तक जागकर वह रिपोर्ट तैयार की। शाहचांग बोलता रहा और सहायक लिखता रहा। रिपोर्ट पूरी होने पर शाहचांग ने चैन की सांस ली क्योंकि बादशाह सख्त था और उसके दिए गए कार्य समय पर पूर्ण न होने पर वह कठोर सजा देता था।
अब शाहचांग निश्चिंत था क्योंकि उसने ठीक समय पर कार्य पूर्ण कर लिया था। वह उठा और शयनकक्ष की ओर जाने लगा। सोचा कि थोड़ा आराम कर लें ताकि कुछ थकान दूर हो। उसी समय उसका सहायक भी उठा, किंतु सहायक की असावधानी से लैंप को धक्का लग गया, लैंप गिर पड़ा। सब कागज तेल में भीग गए और उसमें आग लग गई। सहायक को काटो तो खून नहीं। उसने सोचा कि अब भारी दंड भुगतना होगा। मंत्री शाहचांग ने यह सब देखा पर वह धीरे से बोला - यह संयोग की बात है, तुम्हारा कोई दोष नहीं है, बैठो हम दोनों फिर से उस रिपोर्ट को तैयार कर लेंगे। अपने आसन पर बैठ उन्होंने रिपोर्ट फिर लिखवानी आरंभ की और सहायक उनके प्रति श्रद्धावनत हो रिपोर्ट लिखने में जुट गया।
सार यह है कि अनजाने में की गई भूल क्षम्य होती है और बिना क्रोध किए उसे क्षमा कर देना ऐसा बड़प्पन है जो एक विवाद व तद्जनित रंजिश की संभावना को समाप्त करता है तथा संबंधित की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा में भी वृद्धि करता है।


पति की मृत्यु भी कर्तव्य पथ से डिगा न सकी
फ्रांस के एक प्रकाशगृह में लालटेन से जहाजों को रास्ता दिखाने वाला बीमार पड़ गया। तब उसकी पत्नी ने जिम्मेदारी संभाली। लालटेन में खराबी आने पर भी उसने मृत्युशैया पर पति को छोड़ अपना कत्र्तव्य पूरा किया।
फ्रांस की एक घटना है। वहां के एक प्रकाश गृह में लालटेन जलाकर जहाजों को रास्ता दिखाने वाला व्यक्ति अचानक बीमार पड़ गया। अब लालटेन जलाकर जहाजों की दिशा देने का कार्य कौन करे। अंधेरी रात थी। उसकी पत्नी ने अपने कर्तव्य की महत्ता समझ स्वयं लालटेन जला दी। लालटेन जलाकर वह लौटी ही थी कि उसने देखा कि पति मरणासन्न है। वह बड़ी चिंतित हो गई। इतने में उसके सात साल के बेटे और दस साल की बेटी ने आकर बताया कि लालटेन घूम नहीं रही है। लालटेन चारों ओर अपना प्रकाश फैलाती थी। यदि वह एक ही दिशा को प्रकाशित करती तो जहाजों के टकराने और डूबने की आशंका थी।
पत्नी पति को मृत्युशैया पर छोड़ बच्चों को साथ लेकर लालटेन ठीक करने चली गई। किंतु लालटेन ठीक नहीं हो सकी। उसने अपने बच्चों को वहीं बैठाते हुए कहा - तुम लोग रातभर इस लालटेन को घुमाते रहना। समुद्र में चारों ओर घना अंधकार छाया हुआ है, बड़े जोर का तूफान है। इसलिए लालटेन का घूमते रहना जरूरी है। बच्चों को ऐसा कहकर वह पति के पास चली आई। दोनों बच्चे रात नौ बजे से सुबह सात बजे तक लालटेन घुमाते रहे। इस प्रकार उन्होंने अनेक जहाजों को प्रकाश दिया और असंख्य प्राणों की रक्षा की, किंतु उनके पिता का प्राणांत हो गया। मां मृत पति के पास रो रही थी किंतु इस पवित्र बलिदान के लिए उसके मन में दुख नहीं था।
सार यह है कि किसी बड़े लक्ष्य की रक्षा के लिए निजी हितों को तिलांजलि देने वाला व्यक्ति मानवता के इतिहास में अमर हो जाता है।

सेरापियो ने गरीबों की सेवा के लिए सब कुछ बेचा
मिस्र में संत सेरापियो बहुत सादगी से अपना जीवन व्यतीत करते थे। वे इतने सेवाभावी थे कि कई बार तो जरूरत पड़ने पर स्वयं को भी एक निश्चित अवधि के लिए बेचकर उन पैसों से गरीबों की आर्थिक मदद किया करते थे।
मिस्र में सेरापियो नाम के एक संत थे। वे अत्यंत सेवाभावी थे और बहुत ही सादगी से रहते थे। उनके शरीर पर मोटे कपड़े का एक चोगा होता था। समय आने पर दीन-दुखियों की सहायता के लिए वे उसे भी बेच दिया करते थे। सेरापियो इतने सेवाभावी थे कि कई बार जरूरत पड़ने पर स्वयं को भी एक निश्चित अवधि के लिए बेचकर गरीबों को आर्थिक सहायता देते थे। एक बार उनकी अपने घनिष्ठ मित्र से भेंट हुई। उन्हें बिल्कुल फटेहाल देखकर वह चकित रह गया। उसने प्रश्न किया - भाई, आपको नंगा और भूखा रहने के लिए कौन विवश करता है?
संत ने उत्तर दिया - गरीब और असहाय लोगों की जरूरत देखकर मुझसे रहा नहीं जाता। मेरी धर्म पुस्तक का आदेश है कि दीन-दुखियों की सेवा के लिए अपनी सारी वस्तुएं बेच डालो। मैंने भगवान की आज्ञा के पालन को ही अपने जीवन का उद्देश्य बनाया है। मित्र ने पूछा - पर आपकी धर्म पुस्तक कहां है? संत बोले - मैंने असहायों की सहायता के लिए उसे भी बेच दिया है। जो पुस्तक परसेवा के लिए सारे सामान बेच देने का आदेश देती है, जरूरत पड़ने पर उसको भी बेचा जा सकता है। इसके दो लाभ हैं, पहला जिसके हाथों में ऐसी दिव्य पुस्तक पड़ेगी, उसकी त्याग-वृत्ति निखर उठेगी और दूसरा, पुस्तक के बदले जो पैसे मिलेंगे, उनसे जरूरतमंदों की सेवा भी हो सकेगी।
सार यह है कि सेवा और सहायता ऐसे मानवीय सद्गुण हैं, जो समाज में प्रेम, सहयोग और सौहार्द का प्रसार करते हैं क्योंकि ये मानवता की श्रेष्ठतम मिसाल हैं।

महात्मा ने राजा को बताया गृहस्थ-साधु का फर्क
एक राजा महात्मा की कुटिया में जाया करते थे। एक दिन राजा ने महात्मा को महल में आमंत्रित किया किंतु महात्मा बोले - मुझे महल में दुर्गंध आती है। कुछ समय बाद महात्मा ने राजा को साधु और गृहस्थ का फर्क समझाया।
पुराणों में एक कथा है। एक भक्त राजा किसी महात्मा की पर्णकुटी में जाया करते थे। उन्होंने एक बार महात्मा को अपने महल में पधारने के लिए कहा, किंतु महात्मा ने यह कहकर टाल दिया कि मुझे तुम्हारे महल में बड़ी दरुगध आती है। राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने सोचा कि महल में तो इतना इत्र छिड़का रहता है, वहां दरुगध तो लेशमात्र भी नहीं। फिर महात्माजी को कैसे दरुगध आती है? लेकिन राजा संकोचवश कुछ नहीं बोले। एक दिन महात्माजी राजा को साथ लेकर घूमने निकले। घूमते हुए वे एक ऐसी बस्ती में पहुंचे, जहां हर ओर चमड़े का काम हो रहा था।
दरुगध के मारे वहां राजा का सिर चकराने लगा। उन्होंने महात्मा से कहा, भगवन् दरुगध के मारे खड़ा नहीं रहा जाता, यहां से चलिए। महात्मा बोले - यहां के घरों में कितने स्त्री-पुरुष और बच्चे हैं। सभी कुछ न कुछ कर रहे हैं, हंस-खेल रहे हैं। इन्हें दरुगध नहीं आती, फिर तुम्हें क्यों आने लगी? राजा ने कहा, शायद इन्हें दरुगध के बीच रहने का अभ्यास हो गया है, पर मैं इसका अभ्यस्त नहीं हूं। जल्दी चलिए, यहां एक क्षण भी नहीं ठहरा जाता। तब महात्मा हंसकर बोले, यही हाल तुम्हारे महल का है। विषय भोगों के तुम अभ्यस्त हो गए हो, किंतु मुझे विषय-भोग की आदत नहीं है। इसी कारण मैं तुम्हारे महल में नहीं आता। राजा ने अपनी गलती समझकर क्षमा मांगी।
सार यह है कि विषयासक्ति नर्क का द्वार है। इसलिए गृहस्थों के लिए कीचड़ में कमलवत रहना ही श्रेयस्कर माना गया है। भोग करें, किंतु निरासक्त भाव से।

सैकड़ों मन सोना भी तुलसी के पत्ते से हल्का ही रहा
किसी धनी सेठ ने एक बार खूब दान किया और गरीबों को खूब सोना बांटा। उसी गांव में एक महात्मा रहते थे।
सेठ ने महात्मा को भी बुलाया और कहा, आज मैंने सोना बांटा है। आप भी कुछ लेंगे तो मुझे अच्छा लगेगा। महात्मा बोले, भाई तुमने अच्छा काम किया, किंतु मुझे सोने की आवश्यकता नहीं है। सेठ ने फिर भी जिद की। महात्मा समझ गए कि इसके मन में धन का अहंकार है। उन्होंने तुलसी के पत्ते पर राम-नाम लिखकर कहा, मैं कभी किसी से दान नहीं लेता। मेरा स्वामी मुझे इतना खाने-पहनने को देता है कि मुझे और किसी से लेने की जरूरत ही नहीं पड़ती। किंतु तुम इतना आग्रह करते हो तो इस पत्ते के बराबर सोना तौल दो।
सेठ ने इसे व्यंग्य समझा और कहा, आप मजाक क्यों कर रहे हैं। आपकी कृपा से मेरे घर में सोने का खजाना भरा है। मैं तो आपको गरीब जानकर ही देना चाहता हूं। महात्मा बोले, भाई देना हो तो तुलसी के पत्ते के बराबर सोना तौल दो। सेठ ने झुंझलाकर तराजू मंगवाई और उसके एक पलड़े पर पत्ता रखकर दूसरे पर सोना रखने लगा। सैकड़ों मन सोना चढ़ गया, किंतु पत्ते वाला पलड़ा नीचे ही रहा। अंतत: वह महात्मा के चरणों में पड़कर बोला, महाराज मेरे घमंड का नाश कर आपने बड़ी कृपा की। सच्चे धनी तो आप ही हैं। संत ने कहा, इसमें मेरा क्या है। यह तो नाम की महिमा है।
भगवान ने ही दया करके तुम्हें अपने नाम का महत्व दिखलाया। सार यह है कि ईश्वर ही किसी भक्त की सच्ची संपदा होती है।

जब मौन की शक्ति के आगे क्रोध भी बौना हो गया
एक लोककथा है, जो धर्य और मौन की महत्ता को बताती है। एक घर में दो ही लोग थे- पति और पत्नी। दोनों नित्य ही लड़ते और घर रणक्षेत्र बना रहता। एक दिन पत्नी इस सबसे तंग आकर अपनी पड़ोसन से बोली, बहन, मेरे पति का स्वभाव बहुत चिड़चिड़ा है। वे प्राय: छोटी-छोटी बातों पर लड़ते हैं और इस तरह हमारी बनी रसोई बेकार चली जाती है, क्योंकि झगड़े के बाद न उनकी भोजन में रुचि होती है, न मेरी। पड़ोसन ने कहा, इसमें कौन-सी बड़ी बात है। मेरे पास एक ऐसी अचूक दवा है कि जब तुम्हारे पति तुमसे लड़ें तो तुम दवा को अपने मुंह में रख लो, बस वे तत्काल चुप हो जाएंगे।
पड़ोसन ने शीशी भरकर दवा दे दी। उस महिला ने दो-तीन बार पति के क्रोध के समय दवा की परीक्षा की और उसे बड़ी सफलता मिली। तब उसने खुशी-खुशी जाकर पड़ोसन से कहा, बहन, तुम्हारी दवा में तो चमत्कार है। उसमें क्या-क्या चीजें पड़ती हैं, बता दो तो मैं भी बनाकर रखूं। हमारे झगड़े उससे बिलकुल बंद ही हो गए हैं। पड़ोसन ने हंसकर कहा, शीशी में साफ जल के सिवाय कुछ नहीं है। काम तो तुम्हारे मौन ने किया है। मुंह में पानी भरा होने से तुम बोल नहीं सकी और तुम्हें शांत पाकर उनका क्रोध भी जाता रहा। अनबन होने पर एक पक्ष के मौन हो जाने से विवाद बढ़ता नहीं है और उसकी सहनशीलता व गहराई देखकर दूसरा पक्ष लज्जित होकर स्वयं ही शांत हो जाता है। इससे दोनों के मध्य शांति स्थापित होती है और स्नेह भी बढ़ता है।

अपना जीवन सबको प्यारा और दूसरे का मोल नहीं
एक नरेश ने अपने दरबार में सामंतों से पूछा, मांस सस्ता है या महंगा। सामंतों ने उत्तर दिया, सस्ता है। यह सुनकर राजकुमार बोला, पिताजी, मांस महंगा है। नरेश बोले, तुम अभी बालक हो, सामंतगण अनुभवी हैं। राजकुमार ने कहा, यदि आप कुछ दिन राजसभा में न आएं तो मैं इस बात को सिद्ध कर दूंगा कि किसकी बात ठीक है। दो दिन बाद राजकुमार एक सामंत के घर पहुंचे और बोले, पिताजी बीमार हैं। राजवैद्य कहते हैं कि शूर सामंत के हृदय का मांस चाहिए। कृपा करके आप अपने हृदय का दो तोला मांस दे दें। जो भी मूल्य चाहें, आपको दिया जाएगा। सामंत ने राजकुमार को एक बड़ी रकम भेंट की और कहा, आप मुझ पर दया करें। किसी दूसरे सामंत के पास पधारें। राजकुमार क्रमश: सभी सामंतों के पास गए। सबने उन्हें भारी भेंट देकर दूसरे के यहां जाने को कहा।
राजकुमार ने भेंट में प्राप्त विशाल धनराशि लाकर पिता के सामने रख दी और सारी बातें बता दीं। दूसरे दिन राजसभा में राजा आए और सामंतों से फिर पूछा, मांस सस्ता है या महंगा। सामंतों ने बात समझकर नजरें झुका लीं। तब राजकुमार ने कहा, अपना मांस संसार में दुर्लभ है। कोई लाख रुपए में भी इसे देना नहीं चाहता, किंतु दूसरे के शरीर के मांस का उसकी दृष्टि में कोई मूल्य नहीं। इसलिए हर कोई दूसरे से उसे खरीदना चाहता है। किंतु उस दूसरे के लिए भी तो अपना शरीर सर्वाधिक प्रिय है। सार यह है कि किसी भी प्राणी के साथ हिंसा नहीं करनी चाहिए क्योंकि सभी को अपने प्राण प्रिय हैं।

संसार के मोह में फंसे पति को भक्ति की राह दिखाई
एक अत्यंत सुसंस्कृत और भली नारी थी। उसके माता-पिता भगवद्भक्त थे, इसलिए उन्होंने अपनी पुत्री को भी उत्तम शिक्षा दी। विवाह के बाद वह पति के घर आई और वहां आकर सोचा, स्त्री को पति की सेवा करनी चाहिए। सच्ची सेवा तो है जीवन को जीवन-मरण के चक्र से बचा देना। यह कार्य भगवान के भजन व चिंतन में लगकर ही संभव है। मुझे भी अपने पति को इस सन्मार्ग पर लाना चाहिए। यह सोचकर वह पति को समय-समय पर ईश-भजन करने को कहती थी। उसके पतिदेव थे घोर सांसारिक प्राणी। वे पत्नी की बात सुन कहते, अभी क्या जल्दी है। अभी तो बहुत दिन हैं। भजन-पूजन का एक समय होता है, जो अभी नहीं आया।
संसार के फलां-फलां कार्य तो कर लेने दो, फिर तो भजन ही करना है। एक दिन पति बीमार हो गए। वैद्यजी आए, नाड़ी देखी और दवा दी। पत्नी ने दवा लेकर रख दी। जब दवा लेने का समय हुआ तो पति ने पत्नी से दवा मांगी। स्त्री ने कहा, अभी क्या जल्दी है। अभी तो बहुत दिन पड़े हैं। दवा फिर ले लीजिएगा। पतिदेव नाराज होकर बोले, तब दवा क्या मरने के बाद खाने की है। पत्नी ने दवा देते हुए कहा, दवा तो अभी खाने की है, किंतु आपने संभवत: भगवत् भजन मरने के बाद करने की वस्तु माना है क्योंकि मृत्यु कब आएगी, किसी को पता नहीं। पति ने अपनी भूल समझकर पत्नी से क्षमा मांगी। जीवन की क्षणभंगुरता को समझते हुए भगवान को सुख में भी याद करना चाहिए ताकि दुख में भी उनकी कृपा बनी रहे।

राजकुमारी ने सत्य की रक्षा के लिए दिया बलिदान
जापान के सामंतराज सातोमी मुश्किल में थे। शत्रुसेना ने उनके दुर्ग को घेर रखा था। सातोमी ने घोषणा की कि जो शत्रु सेनापति का सिर काटकर लाएगा, उससे अपनी पुत्री का विवाह कर दूंगा। कुछ दिनों बाद सातोमी का प्रिय कुत्ता सुबूसा गायब हो गया। सातोमी को चिंता हुई। चार दिन बाद अचानक सुबूसा आया। उसके मुख में खून से लथपथ शत्रु सेनापति का सिर था। सातोमी के दुर्ग में खुशी की लहर दौड़ गई। उसके शत्रु सेना पर टूट पड़े।
सातोमी की जीत हुई, किंतु जिस कुत्ते के साहस से यह कार्य संभव हुआ, वह अब सातोमी की घृणा का पात्र बन गया, क्योंकि उनकी घोषणा के अनुसार उनकी पुत्री का विवाह उस कुत्ते से करना होगा। सातोमी अब उसे दुत्कारने लगे। सातोमी की पुत्री यह देख बहुत दुखी हुई। उसने सोचा कि मेरे मोह के कारण पिता इस उपकारी पशु के प्रति र्दुव्‍यवहार कर रहे हैं। ऐसे में मुझे उनके सत्य की रक्षार्थ इस कुत्ते का पालन करना चाहिए।
वह कुत्ते को लेकर वन में चली गई और एक गुफा में रहने लगी। वह अपना पूरा समय धर्मग्रंथ पढ़ने व उपासना में लगाती और सुबूसा उसकी रक्षा करता। एक दिन सातोमी के एक सैनिक ने सुबूसा को देख लिया और उसे गोली मार दी, जो कुत्ते को भेदती हुई राजकुमारी को जा लगी। दोनों मृत्यु को प्राप्त हुए। किंतु मृत्यु के समय राजकुमारी के मुख पर परम संतोष था। वस्तुत: वचन का पालन करने से आत्मा को दिव्य संतोष मिलता है, जो दुनिया के तमाम सुखों पर भारी होता है।

गांधीजी पर हमला कर भी मीर आलम ने पाई क्षमा
घटना उस समय की है जब ट्रांसवाल (दक्षिण अफ्रीका) में सत्याग्रह चल रहा था। कुछ लोगों ने गांधीजी के एक पुराने मुवक्किल मीर आलम को उनके खिलाफ भड़काया। एक दिन जब गांधीजी कहीं जा रहे थे, तो मीर आलम उनके पास आकर पूछने लगा - कहां जाते हो?
गांधीजी बोले - मैं दस उंगलियों की निशानी देकर रजिस्ट्री का सर्टिफिकेट लेने जा रहा हूं। यदि तुम चलो तो तुम्हें दस के बजाय दोनों अंगूठों की निशानी देने पर ही सर्टिफिकेट दिलवा दूंगा। गांधीजी बोल ही रहे थे कि मीर ने उनके सिर पर ताबड़तोड़ लाठियां बरसानी शुरू कर दीं। गांधीजी बेहोश होकर गिर पड़े। उनका ऊपर का ओंठ और ठुड्डी फट गए, एक दांत टूट गया। सिर पर भी भारी चोट आई। शोरगुल सुनकर वहां अंग्रेज आ गए और मीर को पकड़ लिया।
गांधीजी ने होश में आते ही सबसे पहले मीर के बारे में पूछा। जब उन्हें उसकी गिरफ्तारी की सूचना मिली, तो उन्होंने एटॉर्नी जनरल के नाम तार भेजकर लिखा कि मीर को मैं दोषी नहीं मानता। उन पर फौजदारी मुकदमा न चलाकर तत्काल छोड़ दिया जाए। किंतु नियमानुसार मीर को तीन माह की सख्त सजा दी गई।
जब मीर जेल से छूटा और एक सभा में उसने गांधीजी को देखा तो वह उनके पास आकर क्षमा मांगने लगा। तब गांधीजी ने स्नेह से कहा - तुम्हारा कोई अपराध था ही नहीं। तुम बिल्कुल निश्चिंत रहो। यह सुनकर मीर गांधीजी का भक्त हो गया। क्षमा बड़प्पन का लक्षण है और यह सदैव सुधार की राह प्रशस्त करती है।

किसान को सच्चे त्याग और परोपकार का फल मिला
जर्मनी की सेना के एक अधिकारी किसी युद्ध के समय अपने शिविर से कुछ सैनिकों के साथ घोड़ों के लिए घास एकत्र करने निकले। पास के एक गांव के किसान को उन्होंने पकड़कर कहा - चलकर बताओ कि इस गांव में किस खेत में अच्छी फसल है। किसान उन सैनिकों के साथ चल पड़ा। चारों ओर खेत लहलहा रहे थे।
सभी की फसल बहुत शानदार दिखाई दे रही थी। सैनिक चाहते थे कि उन खेतों में से ही किसी एक खेत की फसल काट लें, किंतु किसान बार-बार कहता जाता था - कुछ और आगे चलिए, बहुत उत्तम फसल आप लोगों को बताऊंगा। धीरे-धीरे सैनिकों को किसान लगभग गांव की सीमा पर स्थित खेतों पर ले गया। वहां उसने एक खेत बतलाया। सैनिकों ने उस खेत से फसल काटकर गट्ठर बांधे और घोड़ों पर रख लिए। सैनिक अधिकारी बड़ी ही नाराजी से किसान से बोले - तू हमें बेकार ही इतनी दूर क्यों ले आया?
ऐसी अच्छी फसल तो पास के खेतों में ही थी। किसान ने कहा - मैं जानता हूं कि आप लोग खेत के स्वामी को फसल का मूल्य तो देने वाले हैं नहीं। तो फिर किसी दूसरे किसान का नुकसान कैसे कराता। यह मेरा अपना खेत है और मेरे लिए तो इसी की फसल सबसे अच्छी है। यह सुन सैनिक अधिकारी ने लज्जित होकर किसान को फसल के मूल्य के साथ पुरस्कार देकर सम्मानित किया।
कहानी का सार यह है कि दूसरों के लिए त्याग करने वाला सच्चा परोपकारी होता है और उसे सदा अच्छा फल ही मिलता है।

कनकदास की भक्ति देख अन्य शिष्य लज्‍जित हुए
दक्षिण भारत के प्रतिष्ठित संत थे स्वामी वादिराजजी। उनके शिष्यों की संख्या भी अधिक थी। सभी शिष्यों को वे समान रूप से ज्ञान व सुसंस्कारों की शिक्षा देते थे, किंतु यह किसी से छिपा नहीं था कि वे शिष्य कनकदास पर अधिक स्नेह रखते थे। अन्य शिष्यों को यह बात बहुत खटकती थी और ईष्र्यापूर्वक वे कनकदास को बात-बेबात अपमानित करते रहते थे।
कनकदास उनका अपमान व उपेक्षा सहकर भी शांत रहता और अटल गुरुभक्ति का भाव हृदय में रख दिन-रात प्रभु स्मरण करता रहता। एक दिन स्वामी वादिराजजी ने अपने सभी शिष्यों को एक-एक केला देते हुए कहा - आज एकादशी है। लोगों के सामने फल खाने से आदर्श के प्रति समाज में अश्रद्धा बढ़ती है। इसलिए जहां कोई न देखे, ऐसे स्थान पर जाकर इसे खा लो। कुछ ही देर में सभी शिष्य केले खाकर गुरु के पास वापस आ गए।
केवल कनकदास वहीं का वहीं बैठा रहा और उसके हाथ में केला ज्यों का त्यों रखा रहा। गुरु ने पूछा, क्यों तुम्हें एकांत नहीं मिला। कनकदास ने हाथ जोड़कर उत्तर दिया - भगवन, वासुदेव तो सर्वत्र हैं, फिर एकांत कैसे मिलेगा? यह सुनकर अन्य शिष्यों के सिर लज्जा से झुक गए और उन्हें समझ आ गया कि कनकदास संत का सबसे प्रिय शिष्य क्यों है। वस्तुत: प्रत्येक समय व स्थान पर अपने आराध्य की उपस्थिति का अनुभव करते रहना ही सच्ची भक्ति का लक्षण है और यही भाव भक्त को ईश्वर से एकाकार कराता है।

मानवता के नाते नेपोलियन ने अपनी तोपें हटा लीं
एक युद्ध के बाद नेपोलियन ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना के पास पहुंचे। उन्होंने संधि का प्रस्ताव लेकर अपना एक दूत भेजा, किंतु नगर के लोगों ने उस दूत को मार डाला। इस समाचार को पाकर नेपोलियन क्रोध से आग बबूला हो गए। उनकी विशाल सेना ने चारों ओर से वियना को घेर लिया। फ्रांसीसी तोपें आग उगलने लगीं। नगर के भवन ध्वस्त होने लगे। चारों ओर तबाही के दृश्य उपस्थित हो गए।
एक दिन नगर का द्वार खुला और एक दूत संधि का झंडा लेकर निकला। नेपोलियन ने दूत का सम्मान किया। उस दूत ने कहा - आपकी तोपें नगर के केंद्र में जहां गोले बरसा रही हैं, वहां पास ही राजमहल में हमारे सम्राट की प्रिय पुत्री बीमार पड़ी है। यदि आपकी ओर से कुछ गोलाबारी और हुई तो सम्राट अपनी बीमार पुत्री को छोड़कर कहीं और जाने को मजबूर हो जाएंगे।
नेपोलियन के सेनापतियों ने बताया - हम शीघ्र ही विजयी होने वाले हैं। नगर के केंद्र में तोप से गोले बरसाना युद्धनीति की दृष्टि से इस समय अत्यंत आवश्यक है, किंतु मानवता कहती है कि एक बीमार व्यक्ति पर दया की जाए।
अपनी आसन्न विजय को संदिग्ध बनाने की आशंका लेकर भी नेपोलियन ने नगर के केंद्र में गोले बरसाने वाली तोपों को वहां से हटा लेने की आज्ञा दे दी। सार यह है कि मानवता प्रत्येक स्थान पर सर्वोपरि धर्म है और युद्ध क्षेत्र में इसका निर्वाह करने वाला नैतिक दृष्टि से सर्वोत्तम व्यक्ति सिद्ध होता है।

अपनी पदवी को भूल रॉबर्ट इन्नेस ने श्रम को अपनाया
स्कॉटलैंड के एक सरदार सर रॉबर्ट इन्नेस पर एक समय बड़ा आर्थिक संकट आया। लेकिन अन्य लोगों की तरह उसने न तो अपने मित्रों व परिजनों पर कोई बोझ डाला और न सरकार से मदद मांगी। दरअसल उसे अपने परिश्रम पर भरोसा था। फलत: उसने पलटन में सिपाहीगिरी का काम स्वीकार कर लिया। एक दिन वह छावनी पर निगरानी कर रहा था कि एक व्यक्ति जो उसे जानता था, यूं ही किसी काम के लिए पलटन के कर्नल के पास आया। कर्नल किसी अन्य से बातें कर रहा था, तब वह व्यक्ति रॉबर्ट से बातें करने लगा। कर्नल को लगा कि यह पहरेदार कोई असाधारण व्यक्ति नहीं है।
फिर उस व्यक्ति ने कर्नल से भेंट होने पर कहा - आप बड़े भाग्यवाले हैं। आपके यहां कितने ही राजा नौकरी करते होंगे। रॉबर्ट इन्नेस को देखिए कितना बड़ा सरदार है। बाद में कर्नल ने रॉबर्ट को बुलाकर कहा - क्या आप रॉबर्ट इन्नेस हैं। यदि हां, तो यह छोटा काम क्यों करते हैं? रॉबर्ट ने उत्तर दिया - आर्थिक संकट की वजह से मैंने सोचा कि दूसरे का अन्न खाने की अपेक्षा अपनी पदवी को दो दिन के लिए भूलकर अपनी मेहनत के बल पर जीना चाहिए। कर्नल प्रसन्न हो गए उन्होंने रॉबर्ट को साथ बैठाकर भोजन कराया और कुछ समय बाद उसे एक सम्मानजनक नौकरी देकर उसके साथ अपनी बेटी का विवाह भी कराया। वस्तुत: जब व्यक्ति अपने बाजुओं के दम पर कर्म क्षेत्र में सक्रिय होता है तो सफलता उसके कदम चूमती है और वह सभी के लिए आदर्श बन जाता है।

दिखावे की भावना से किया गया सद्कार्य पुण्य नहीं है
एक फकीर थे हाजी मोहम्मद। वे साठ बार हज कर आए थे और रोजाना पांचों वक्त की नमाज पढ़ते थे। एक दिन उन्होंने सपने में देखा कि स्वर्ग का दूत हाथों में बेंत लिए स्वर्ग और नर्क के बीच खड़ा है। जो भी आता है, उसके भले-बुरे कर्मो का परिचय जानकर वह किसी को स्वर्ग और किसी को नर्क भेज रहा है। हाजी मोहम्मद के सामने आने पर दूत ने पूछा - तुम किस सद्कार्य की वजह से स्वर्ग में जाना चाहते हो? हाजी साहब बोले - मैंने साठ बार हज किया है। तब दूत ने कहा - वह तो ठीक है, लेकिन जब कोई तुमसे नाम पूछता तो तुम गर्व के साथ बोलते हो - मैं हाजी मोहम्मद हूं। इस घमंड के कारण तुम्हारा साठ बार हज करने का पुण्य नष्ट हो गया। कोई पुण्य हो तो बताओ। हाजी साहब जो स्वयं को सहज ही स्वर्ग का अधिकारी मानते थे, उनका मुंह उतर गया।
उन्होंने कहा - मैंने 60 साल तक रोज नमाज पढ़ी है। दूत बोला - एक दिन बहुत सारे धर्मजिज्ञासु तुम्हारे पास आए थे। उस दिन तुमने उन लोगों को दिखाने के लिए दूसरे दिनों की अपेक्षा अधिक देर तक नमाज अदा की थी। इस दिखावे की भावना के कारण तुम्हारी साठ वर्ष की तपस्या नष्ट हो गई। दूत की बात सुनते ही हाजी साहब की नींद खुल गई। सपने में मिले ज्ञान ने उन्हें घमंड से दूर रहकर सहज, सरल जीवन जीने के लिए प्रेरित किया। इस प्रतीकात्मक कथा का संकेत यह है कि दिखावे की भावना से किया गया कोई भी सद्कार्य पुण्य की श्रेणी में नहीं आता। इसलिए जो भी कार्य करें, निर्मल भाव से करें।

सफलता के लिए सक्रिय के साथ चैतन्य रहना भी जरूरी
सफलता मिल जाने पर संघर्ष के प्रति विश्राम की मुद्रा आलस्य ही कहलाएगी। आलस्य एक तरह का अपराध है। इसलिए न सिर्फ सतत् सक्रिय रहें, बल्कि सतत् सचेत भी रहें। किसी कार्य का दायित्व हमारे ऊपर हो और उसे हम सफलतापूर्वक पूरा कर भी लें, लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होगी। सफलता और दायित्व के प्रति निरंतर सचेत नहीं रहे, तो सफलता कपूर की तरह उड़ जाएगी। कपूर का पदार्थ अदृश्य हो जाता है और सुगंध ही छोड़ जाता है। आज भी कई लोग अपनी सफलता खो जाने के बाद, उसकी सुगंध में ही जीते हैं। कभी हमारे भी दिन थे, सफलता के ये सुगंधित खयाल जिंदगी को कई खतरनाक मोड़ पर ले जाकर पटक देते हैं। अपनी सफलता और दायित्व के प्रति निरंतर सचेत रहने का अच्छा उदाहरण लक्ष्मण हैं।
वनवास जाते समय उन्होंने श्रीराम से कहा था- आपके साथ मैं भी चलूंगा। तब यह सवाल उठा था तुम क्यों चलोगे? इसका उत्तर लक्ष्मण को समझाते हुए उनकी माता सुमित्रा ने दिया था। लक्ष्मण, तुम्हारे ही भाग्य से राम-सीता वनवास जा रहे हैं। तुम उनकी सेवा, सहयोग और सुरक्षा करना। राम, बुराई पर अच्छाई की जीत के बड़े अभियान पर निकले हैं और तुम्हारी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका रहेगी। लक्ष्मण ने चौदह वर्ष के लिए निद्रा त्यागी थी और ब्रह्मचर्य का पालन किया था। ये दो बातें आज भी हमारे व्यावसायिक लक्ष्य की पूर्ति के लिए बड़ा इशारा हैं। ब्रह्मचर्य का अर्थ है हर कार्य को निष्ठा और परिश्रम से पूरा करना तथा निद्रा त्याग का मतलब सतत् सजग रहना। प्रबंधन में समझ लिया जाए कि गलत वक्त पर और ज्यादा समय के लिए पलक झपका ली, तो आंख खुलने पर सारा दृश्य बदला नजर आएगा, यहीं से शुरू हो जाएगी शिखर से शून्य की यात्रा। इसलिए परिश्रम और सजगता का मेल बनाए रखने, प्राणायाम और ध्यान करते रहना चाहिए।

चैतन्य ने मित्र के लिए अपना ग्रंथ गंगाजी में बहा दिया
श्री चैतन्य महाप्रभु उन दिनों नवद्वीप में निमाई के नाम से जाने जाते थे। उनकी उम्र उस समय केवल सोलह वर्ष थी। व्याकरण की शिक्षा समाप्त कर उन्होंने न्यायशास्त्र का गहन अध्ययन किया और उस पर एक ग्रंथ भी लिख रहे थे। उनके सहपाठी पं. श्री रघुनाथजी उन्हीं दिनों न्याय पर अपना ‘दीधिति’ नामक ग्रंथ लिख रहे थे, जो इस विषय का प्रख्यात ग्रंथ माना जाता है। जब पं. रघुनाथ को पता लगा कि निमाई भी न्याय पर कोई ग्रंथ लिख रहे हैं तो उन्होंने निमाई से उस ग्रंथ को देखने की इच्छा प्रकट की। दूसरे दिन निमाई अपना ग्रंथ साथ ले आए और पाठशाला के मार्ग में जब दोनों मित्र नौका पर बैठे तो निमाई अपना ग्रंथ सुनाने लगे। ग्रंथ अद्भुत था।
ग्रंथ सुनकर पं. रघुनाथ की आंखों से आंसू गिरने लगे। पढ़ते-पढ़ते निमाई ने बीच में सिर उठाया और रघुनाथ को रोते देखा तो आश्चर्य से बोले - भैया तुम रो क्यों रहे हो? रघुनाथ ने कहा - मैं इस आशा से एक ग्रंथ लिख रहा था कि वह न्यायशास्त्र का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ माना जाएगा, किंतु मेरी आशा नष्ट हो गई। तुम्हारे इस उत्कृष्ट ग्रंथ के सामने मेरे ग्रंथ को कोई नहीं पूछेगा।
निमाई बोले - बस इतनी सी बात। यह ग्रंथ बहुत बुरा है, जिसने मेरे मित्र को इतना कष्ट दिया। रघुनाथ कुछ समझे इससे पूर्व ही निमाई ने अपना ग्रंथ उठाकर गंगाजी में बहा दिया। रघुनाथ उनकी महानता देख उनके चरणों में गिरने को हुए, किंतु निमाई ने उन्हें गले से लगा लिया। वस्तुत: जहां दूसरे की इच्छा पूर्ण करने में अपनी खुशी ढूंढ़ ली जाए, वहीं सच्ची मित्रता होती है।

अतिथि सत्कार से मुद्गल ने जीता दुर्वासा का मन
कुरुक्षेत्र में मुद्गल नाम के ऋषि थे। ईष्र्या और क्रोध उनमें नाममात्र भी न था। जब किसान खेत से अन्न काट लेते और गिरा हुआ अन्न चुन लेते, तब उन खेतों में जो दाने बचे रह जाते उन्हें मुद्गल इकट्ठा कर अपना व परिवार का पालन-पोषण करते। महर्षि मुद्गल के दान की महिमा सुनकर दुर्वासा ऋषि ने उनकी परीक्षा लेने का निश्चय किया। वे पागलों जैसा वेश बनाए मुद्गलजी के आश्रम में पहुंचकर भोजन मांगने लगे। मुद्गल ने अपने पास रखा सारा अन्न दुर्वासा के सामने रख दिया। दुर्वासा ने सब खा लिया और वहां से चले गए। मुद्गल परिवार सहित भूखे रह गए। किंतु उनके चेहरे पर शिकन तक नहीं आई।
दुर्वासा ऋषि ने ऐसा लगातार छह बार किया। हर बार उन्होंने मुद्गल का सारा अन्न खा लिया। मुद्गल भी उन्हें भोजन कराकर फिर अन्न के दाने चुनने लग जाते थे। उन्हें जरा भी क्रोध नहीं आया। दुर्वासा के प्रति समान आदर-भाव भी बना रहा। अंत में दुर्वासा प्रसन्न होकर बोले - महर्षि इस संसार में आपके समान ईष्र्या व क्रोध रहित अतिथि सेवा नहीं है। क्षुधा इतनी बुरी होती है कि वह मनुष्य के धर्म, ज्ञान व धर्य को नष्ट कर देती है, किंतु आप पर उसका प्रभाव नहीं पड़ा। अत: आप स्वर्ग जाएं। पर मुद्गल ने इनकार कर दिया और कुछ समय पश्चात ही अपने त्यागमय जीवन तथा भगवद् भजन के प्रभाव से भगवतधाम प्राप्त किया। वस्तुत: आत्मत्याग की कीमत पर किया गया अतिथि सत्कार सर्वश्रेष्ठ होता है और इसे करने वाला इहलोक व परलोक दोनों में श्रेष्ठ माना जाता है।

जब गांधीजी ने गोवध का प्रस्ताव किया अमान्य
मद्रास में कांग्रेस का 26वां अधिवेशन चल रहा था। गांधीजी श्रीवास आयंगर के मकान में ठहरे थे। वे उन दिनों किसी कारणवश राजनीति से अलग रह रहे थे। शाम के समय गांधीजी आगंतुकों से सामान्य बातचीत कर रहे थे। तभी श्री आयंगर एक मसौदा उनके सामने लेकर आए, जिसमें हिंदू-मुस्लिम समझौते की बात थी। गांधीजी ने उसे सरसरी तौर पर देखते हुए कहा - भाई, इसे मुझे क्या दिखाना है? किसी भी शर्त पर हिंदू-मुस्लिम समझौता हो सके तो वह मुझे मंजूर ही होगा। श्री आयंगर मसौदा लेकर आगे की प्रक्रिया पूर्ण करने चले गए और गांधीजी शाम की प्रार्थना के बाद सो गए।
प्रात: उठते ही गांधीजी ने तत्काल महादेव देसाई और काका कालेलकर को जगाया और उनके आने पर बोले - मुझसे रात में बड़ी गलती हो गई। मैंने मसौदे पर बिना विचारे ही कह दिया कि ठीक है। उसमें मुस्लिमों को गोवध करने की आम इजाजत दी गई है। भला यह मुझसे कैसे बर्दाश्त होगा। मैं तो स्वराज्य के लिए भी गो रक्षा का आदर्श नहीं छोड़ सकता। अत: उन लोगों को जाकर तुरंत कह आओ कि यह प्रस्ताव मुझे मान्य नहीं है। परिणाम चाहे जो हो, पर मैं बेचारी गायों का जीवन संकट में नहीं डाल सकता। वह प्रस्ताव तत्काल अस्वीकृत कर दिया गया। गांधीजी की यह जीवदया उन लोगों के लिए अनुकरणीय है, जो अपने स्वार्थ के लिए निरीह जीवों के प्राण लेने में तनिक भी नहीं हिचकते। वस्तुत: मूक प्राणियों के प्रति संवेदना रख हम स्वयं को सच्चा मानव ही सिद्ध करते हैं।

त्याग में ही है दान की वास्तविक महत्ता
महाराज युधिष्ठिर कौरवों को पराजित कर सम्राट हुए। तब उन्होंने लगातार तीन अश्वमेघ यज्ञ किए और इतना दान किया कि उनकी दानशीलता की ख्याति देश-देशांतर में फैल गई। जब तीसरा यज्ञ पूर्ण हुआ, तभी एक नेवला यज्ञभूमि में आकर लोट लगाने लगा। उसके शरीर का आधा भाग सोने का था। लोट लगाने के बाद वह मनुष्य वाणी में बोला - पांडवो, तुम्हारा यह यज्ञ विधिपूर्वक हुआ, किंतु इसका पुण्यफल कुरुक्षेत्र के एक गरीब ब्राह्मण के एक सेर सत्तू दान के बराबर भी नहीं। पांडवों द्वारा इसका कारण पूछने पर वह एक कथा सुनाने लगा। कुछ वर्ष पूर्व कुरुक्षेत्र में एक धर्मात्मा ब्राह्मण रहते थे। वे खेतों में गिरे अन्न के दाने चुनकर परिवार का पालन-पोषण करते थे। एक बार घोर अकाल पड़ा। उन्हें परिवार सहित कई दिन भूखा रहना पड़ा।
एक दिन वे कहीं से जौ के दाने बड़ी मेहनत से चुनकर लाए और उनका सत्तू बनाया। भोजन करने बैठे ही थे कि एक भूखे ब्राह्मण का उनके घर आना हुआ। ब्राह्मण ने अपना सत्तू उन्हें दे दिया। किंतु अतिथि की भूख शांत न हुई। उनकी पत्नी ने भी अपना भाग दे दिया। तब अतिथि ने कहा - मैं धर्म हूं, आपकी परीक्षा लेने आया था। अब आप स्वर्ग चलिए। उनके स्वर्ग जाने के बाद मैं बिल से निकलकर जहां ब्राह्मण ने सत्तू खाकर हाथ धोए थे, उसमें लोटने लगा। मेरा आधा शरीर सोने का हो गया। शेष आधा शरीर भी सोने का करने के लिए मैं यज्ञस्थलों पर घूमता हूं। आपके यहां भी आया, किंतु कुछ न हुआ। ब्राह्मण के दान में त्याग था और दान की महत्ता त्याग में ही है।

राजकुमारी ने सिखाई पति को प्रभु के प्रति निष्ठा
करमान देश के राजा ईश्वर के बहुत बड़े भक्त थे। उनकी एक ईश्वरभक्त कन्या थी। राजा ने तय कर रखा था कि वे अपनी बेटी को उसी के हाथों में सौपेंगे, जो सच्च ईश्वरभक्त होगा। इस बीच लड़की बीस वर्ष की हो गई। एक दिन राजा को एक युवक मिला। उसके शरीर पर अत्यावश्यक वस्त्र ही थे और कोई वस्तु उसके पास नहीं थी। राजा ने उसे भगवान की मूर्ति के सामने ध्यान-मग्न देखा। मंदिर से निकलने पर राजा ने उससे पूछा, तुम्हारा घर कहां है? उसने कहा, प्रभु जहां रखें। राजा ने अगला प्रश्न किया - तुम्हारा काम कैसे चलता है? उसने उत्तर दिया, जैसे प्रभु चलाते हैं। राजा को उसके प्रभु विश्वासी होने का निश्चय हो गया। उन्होंने अपनी कन्या के साथ युवक को विवाह के लिए राजी कर लिया।
विवाह के बाद राजकन्या अपने पति के साथ जंगल में पहुंची। वहां उसने पेड़ की कोटर में सूखी रोटी का एक टुकड़ा रखा देखा। पूछने पर पति बोला, आज रात को खाने के लिए कल यह थोड़ी-सी रोटी बचा ली थी। यह सुन राजकन्या रोने लगी। तब पति बोला, मैं तो जानता था कि तू मुझ जैसे दरिद्र के साथ नहीं रह सकेगी। राजकन्या ने कहा, मैं दुखी इसलिए हूं कि आप में प्रभु के प्रति विश्वास की इतनी कमी है कि आपने कल की चिंता में रोटी का टुकड़ा बचाकर रखा। क्या आपको भगवान पर विश्वास नहीं। पत्नी की बात सुन लज्जित होकर युवक ने रोटी का टुकड़ा त्याग दिया। सार यह है कि ईश्वर में अटूट आस्था रखते हुए अपने पुरुषार्थ पर सदा विश्वास करना चाहिए।

नेपोलियन के साहस के आगे झुक गए सैनिक
नेपोलियन अपने कुछ सैनिकों के साथ कहीं जा रहे थे कि उन्हीं के एक सेनापति मरचेरा ने करीब छह हजार सैनिकों को लेकर उनका मार्ग रोका। वह नेपोलियन को खत्म कर देना चाहता था। नेपोलियन के पास इतनी सेना थी कि वे उस सेनापति का सामना कर सकते थे, किंतु उन्होंने कहा - मैं अपने ही देशवासियों का रक्त नहीं बहाना चाहता और नेपोलियन घोड़े पर चढ़कर अकेले शत्रु सेना की ओर चल पड़े। शत्रु सेना से एक हाथ दूर आकर घोड़ा भी छोड़ दिया और पैदल ही आगे बढ़े। इस बार वे शत्रु सेना से केवल एक हाथ दूर थे। मरचेरा ने नेपोलियन को लक्ष्य कर अपनी सेना को गोली चलाने की आज्ञा दी। एक अंगुली हिलती और फ्रांस का भाग्य बदल जाता, किंतु कोई अंगुली नहीं हिली।
मरचेरा की आज्ञा पर सैनिकों ने ध्यान नहीं दिया। नेपोलियन बोले - सैनिको! तुममें से कोई अपने सम्राट की हत्या करना चाहे तो अपनी इच्छा पूरी कर ले। मैं यहां अकेला खड़ा हूं। कोई कुछ नहीं बोला। सैनिकों ने बंदूकें पृथ्वी पर गिरा दीं और सम्राट नेपोलियन की जय जयकार करने लगे। नेपोलियन ने एक बूढ़े सैनिक से कहा - तुमने मुझे मारने के लिए बंदूक उठाई थी? सैनिक की आंखें भर आई। उसने अपनी बंदूक दिखा दी। बंदूक में गोली थी ही नहीं। पूरी सेना ने बंदूकों में केवल आवाज करने के लिए बारूद भर रखी थी। वस्तुत: जहां नेता साहसी और किसी भी संकट में सर्वप्रथम स्वयं आगे बढ़कर उसका सामना करे, तब उसके अनुयायी भी उनके प्रति पूर्ण निष्ठावान हो जाते हैं।

गुरु के विचारों को जीवन में उतारा पं. गुरुदत्त विद्यार्थी ने

आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती के भक्तों की संख्या अनगिनत थी। उनके निकट शिष्यों में एक थे पंजाब के पं. गुरुदत्त विद्यार्थी। पं. विद्यार्थी काफी लंबे समय तक स्वामी दयानंद के सान्निध्य में रहे और उनसे काफी कुछ ज्ञान भी ग्रहण किया। स्वामी दयानंद को वे निजी तौर पर काफी अच्छे से जानते थे। जब स्वामी दयानंद का देहावसान हुआ तो उसके कुछ समय बाद स्वामीजी के ही किसी दूसरे अनुयायी ने पं. विद्यार्थी से कहा - पंडितजी, स्वामीजी महायोगी थे। आपको उनके घनिष्ठ संपर्क में रहने का सुअवसर मिला है। इसलिए आपको उनके विषय में विस्तृत जानकारी है। आप स्वामीजी का एक जीवन चरित क्यों नहीं लिखते? पंडितजी बड़ी गंभीरता से बोले - स्वामीजी का जीवन चरित लिखने का मैं प्रयत्न कर रहा हूं। थोड़ा बहुत आरंभ भी कर चुका हूं। उस अनुयायी ने बड़ी उत्सुकता से पूछा - यह जीवन चरित कब संपूर्ण होगा? कब तक प्रकाशित हो जाएगा? पंडितजी बोले - आप यह मत सोचो कि मैं कागज पर स्वामी का जीवन चरित लिख रहा हूं। मेरे विचार से तो महापुरुषों का जीवन चरित मनुष्यों के स्वभाव में, आचरण में लिखा जाना चाहिए। मैं इसी प्रकार का प्रयास कर रहा हूं कि मेरा जीवन स्वामीजी के पदचिह्नें पर चले। वस्तुत: किसी महान हस्ती के विचारों को अपने आचरण में जीना ही उसके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होती है। यह अनुकरण संबंधित हस्ती के ज्ञान की ज्योति को अधिकाधिक लोगों में प्रसारित कर अनुयायियों के जीवन का परिष्कार करता है।

प्रभु पर विश्वास से काल को जीत लिया श्वेतमुनि ने
श्वेतमुनि भगवान शंकर के परम भक्त थे। उन्हें लगता था कि मृत्यु भी उनकी भक्ति के समक्ष टिक नहीं पाएगी। श्वेतमुनि एक दिन रुद्राध्याय का पाठ कर रहे थे कि सहसा चौंक पड़े। उन्होंने अपने सामने एक विकराल आकृति देखी। उसका संपूर्ण शरीर काला था और उसने काले वस्त्र धारण कर रखे थे। श्वेतमुनि ने ‘ओम नम: शिवाय’ मंत्र का उच्चरण करते हुए अत्यंत करुण भाव से शिवलिंग की ओर देखा। फिर शिवलिंग का स्पर्श कर बड़े विश्वास से बोले - तुमने हमारे आश्रम को अपवित्र करने का दुस्साहस कैसे किया? काल ने अपना परिचय देते हुए कहा - मैं काल हूं। आपको लेने आया हूं। आपकी धरती पर रहने की अवधि पूर्ण हुई। अब आपको यमलोक चलना है।
श्वेतमुनि ने शिवलिंग को अंक में भरकर कहा - तुमने शिव की भक्ति को चुनौती दी है। जानते नहीं, भगवान शंकर काल के भी काल, महाकाल हैं। काल ने मुनि को पाश में बांधते हुए कहा - शिवलिंग निश्चेतन है, शक्ति-शून्य है, पाषाण में सर्वेश्वर महादेव की कल्पना करना महान भूल है। श्वेतमुनि बोले - तुम्हें धिक्कार है जो कण-कण में व्याप्त भगवान उमापति की निंदा कर रहे हो। मुनि की बात खत्म होते ही भगवान शंकर प्रकट हो बोले - ठहरो काल। शिव ने मुनि की पीठ पर हाथ रखते हुए कहा - भक्तराज आपकी लिंगोपासना धन्य है। विश्वास की विजय होती ही है। नंदी के आग्रह पर काल को प्राणदान देकर भगवान शिव अंतर्धान हो गए। सभी प्रकार की शंकाओं से रहित विश्वास अंतत: फलता ही है।

महात्मा गांधी ने सिखाया छोटों का भी आदर करना
गांधीजी के अच्छे मित्रों में से एक थे डॉ प्राणजीवन मेहता। रेवाशंकर, जगजीवनदास इनके भाई थे। गांधीजी के प्रति रेवाशंकर के मन में भी अपार श्रद्धा थी। इसलिए गांधीजी जब बंबई जाते तो प्राय: रेवाशंकर के घर पर ठहरते थे। रेवाशंकर गांधीजी का बड़ा ही आत्मीय सत्कार करते थे। एक दिन गांधीजी बंबई आए तो उनके साथ आनंदस्वामी भी थे। रेवाशंकर ने दोनों का यथोचित स्वागत किया। वहीं आनंदस्वामी की रेवाशंकर के रसोइये के साथ कुछ अनबन हो गई। रसोइये ने तैश में आकर कुछ ऐसा बोल दिया, जो आनंदस्वामी को बहुत बुरा लगा।
उन्होंने क्रोध में आकर रसोइये को एक चांटा जड़ दिया। शिकायत गांधीजी तक पहुंची। उन्होंने आनंदस्वामी को बुलाकर समझाया, अगर बड़े लोगों से तुम्हारा ऐसा झगड़ा हो जाता तो उन्हें तो तुम थप्पड़ नहीं लगाते। वह नौकर है इसलिए तुमने उसके चांटा जड़ दिया। अभी जाकर उससे क्षमा मांगो। जब आनंदस्वामी ने आनाकानी की तो गांधीजी बोले - यदि तुम अन्याय का परिमार्जन नहीं कर सकते तो मेरे साथ नहीं रह सकते। यह सुनकर आनंदस्वामी ने तत्काल रसोइये के पास जाकर उससे क्षमा मांग ली। सार यह है कि स्वयं के द्वारा किए गए अपराध का प्रायश्चित तभी होता है, जबकि पीड़ित से सच्चे हृदय से क्षमा मांग ली जाए। क्षमा से न केवल किए गए अपराध का बोझ समाप्त होता है बल्कि आत्मपरिष्कार भी होता है।

कष्ट सहकर भी श्रम का महत्व बताया लेनिन ने

बात उस समय की है जब मास्को-कजान रेलवे कई जगह से टूटी पड़ी थी। रूसी मजदूरों ने उस वक्त अपनी शनिवार की छुट्टी को, जो कानूनन उन्हें मिलती थी, स्वेच्छापूर्वक राष्ट्र को समर्पित कर दिया था। उस दिन भी वे काम पर आते थे। लेनिन उनके अगुआ थे। वे कहते थे साम्यवादियों का श्रम समाज निर्माण के लिए होता है। वह किसी इनाम या पुरस्कार की इच्छा से नहीं, बल्कि ‘बहुजन हिताय’ अर्पित किया जाता है। उन दिनों लेनिन के गले में तकलीफ थी क्योंकि एक गुमराह साम्यवादी लड़की ने उन पर र्छे भरी पिस्तौल चला दी थी। कुछ र्छे तो निकाल दिए गए लेकिन कुछ गले में ही रह गए थे और जो बहुत कष्ट देते थे।
फिर भी लेनिन इस कष्ट की परवाह न करते हुए मजदूरों का साथ देने के लिए स्वयं अपने कंधों पर लट्ठे उठाकर सुबह से शाम तक काम में जुटे रहते थे। मजदूर मना करते और कहते कि आप कोई हल्का काम ले लें, किंतु लेनिन नहीं मानते। सालभर तक इसी प्रकार अपने अवकाश के दिनों को बिना किसी इनाम या मजदूरी के उन श्रमजीवियों ने व्यय किया और लेनिन ने भीषण शारीरिक कष्ट के बावजूद उनका साथ दिया। तब यह कार्य संपूर्ण हुआ और लेनिन ने कहा - मजदूरों का यह त्याग एक महत्वपूर्ण घटना है। श्रम की महिमा दर्शाता उक्त प्रसंग उन कर्मचारियों के लिए प्रेरणास्पद है, जो काम करने के लिए सप्ताह में पांच दिन ही तय करने की मांग करते हैं और उन पांच दिनों में से भी आधा दिन अपने निजी काम निपटाते रहते हैं।

जीभ को वश में रखने का लाभ बताया रानाडे ने
महादेव गोविंद रानाडे के घर एक दिन उनके किसी मित्र ने आम भेजे। श्री रानाडे की पत्नी रमाबाई ने आम धोकर रानाडे के सम्मुख खाने के लिए रखे। रानाडे ने आम के एक-दो टुकड़े खाकर उनके स्वाद की प्रशंसा की और कहा - इसे तुम भी खाकर देखो और सेवकों को भी दो। रमाबाई को आश्चर्य हुआ कि उनके पतिदेव ने आम के केवल एक-दो टुकड़े ही खाए। उन्होंने पूछा - आपका स्वास्थ्य तो ठीक है? रानाडे बोले - तुम सोच रही होंगी कि आम स्वादिष्ट हैं तो फिर मैंने ज्यादा क्यों नहीं खाए? दरअसल ये मुझे बहुत स्वादिष्ट लगे इसलिए मैं अधिक नहीं ले रहा। पति की यह अजीब बात रमाबाई को समझ नहीं आई।
तब रानाडे बोले - बचपन में मेरे पड़ोस में एक महिला रहती थी, वह पहले काफी संपन्न थी, किंतु दुर्भाग्य से उसकी सारी संपत्ति चली गई। किसी प्रकार अपना और पुत्र का पालन-पोषण हो सके, इतनी ही आय थी। वह कई बार जब अकेली होती, तब अपने आप से कहती - ‘मेरी जीभ बहुत चटोरी है। इसे बहुत समझाती हूं कि अब चार-छह साग मिलने के दिन गए। कई प्रकार की मिठाइयां अब दुर्लभ हैं। पकवानों को याद करने से कोई लाभ नहीं, फिर भी मेरी जीभ नहीं मानती, जबकि मेरा बेटा रूखी-सूखी खाकर पेट भर लेता है।’ उस महिला की बात सुनकर तभी से मैंने नियम बना लिया कि जीभ जिस वस्तु को पसंद करे, उसे थोड़ा ही खाना है। वस्तुत: अपनी जरूरतों को कम रखने से जहां सुख के दिनों में आनंद रहता है, वहीं दुख के दिनों में भी कष्ट नहीं होता।

शुभकर्मो और प्रेरणाओं से ही परमात्मा प्रसन्न होते हैं
मीनावती नाम की एक रानी थी। उसका दस वर्ष का एक पुत्र था गोपीचंद। एक बार दासियां उसे चौकी पर बैठाकर सुगंधित तेल से उसकी मालिश करते हुए उसे रसिकता की कहानियां सुना रही थीं। मीनावती ने यह सब देखा और सुना तो उसे बड़ा दुख हुआ। उसकी आंखों से आंसू टपकने लगे। वह उस स्थान पर पहुंची, जहां गोपीचंद को तेल-स्नान करवाया जा रहा था। मां की आंखों में आंसू देख गोपीचंद ने पूछा - मां, आप क्यों रो रही हो? बार-बार आग्रह करने पर मां ने कहा - पुत्र तुम्हारे परदादा, दादा और पिता भी, जिन्होंने सारे भौतिक सुखों का आनंद लिया था, नहीं रहे। उनकी जो चीज शेष रह गई है, वह है एक मुट्ठी राख।
कम से कम तुम्हें तो इतना समझदार होना चाहिए कि सांसारिक क्षणिक सुखों के पीछे न भागकर आत्मा के नित्य और अनंत आनंद को प्राप्त करने का प्रयत्न करो। सदा सच बोलने वाले राजा हरिश्चंद्र ने क्या देह नहीं त्यागी? क्या राजा नल, जिन्होंने सारी पृथ्वी पर राज किया, पृथ्वी का कुछ भाग भी मरते समय अपने साथ ले जा सके? कोई भी व्यक्ति संसार की कोई वस्तु, पदार्थ या खजाना अपने साथ नहीं ले गया है। ये सब तो नाशवान और अस्थायी हैं। हमें स्थायी, नित्य और अनंत सुख की, आत्मिक आनंद की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने चाहिए। हमें अपने शरीर से सुकृत्य करने चाहिए। वस्तुत: शुभकर्मो और प्रेरणाओं से ही परमात्मा प्रसन्न होते हैं और कृपा करते हैं।

संत की समझदारी से मिटी रानियों की आपसी कलह

एक राजा की चार पत्नियां थीं। राजा ने पहली रानी को दूध दुहने का, दूसरी को रसोई, तीसरी को बच्चे संभालने और चौथी को अपनी सेवा करने का काम सौंपा। कुछ दिन तो सब ठीक चला, फिर उनमें झगड़ा होने लगा। राजा परेशान रहने लगा। एक दिन उसके दरबार में एक संत आए। राजा ने उन्हें अपनी परेशानी बताई। संत ने पहली रानी से कहा - तुम पूर्वजन्म में गाय थीं। दिन भर जंगल में चरतीं और शाम को शिवालय में आ स्तनों की दुग्धधारा से शंकर भगवान का अभिषेक करतीं। उस पुण्य से तुम रानी बनीं। अब दूध दुहकर राजा को शंकर समझ उनकी सेवा करो। इसी में तुम्हारा कल्याण है। रानी संतुष्ट हो गई।
फिर दूसरी रानी के पास जाकर संत बोले - पूर्वजन्म में तुम गरीब ब्राहाण की पत्नी थीं। सोमवार को व्रत करतीं और भगवान शंकर को भोग लगातीं। उसी पुण्य से तुम रानी बनीं। अब रसोई पकाकर सबको तृप्त करो। दूसरी रानी भी संतुष्ट हो गई। तीसरी से संत ने कहा पूर्वजन्म में तुम वानरी थीं। अच्छे फल तोड़कर शंकरजी को चढ़ाती थीं। इसलिए अब रानी बनीं और बाल-बच्चे हुए। इन्हें संभालने में ही तुम्हारा कल्याण है। तीसरी भी खुश हो काम में लग गई। चौथी रानी को संत ने बताया - पूर्वजन्म में तुम चील थीं और जंगल के एक महादेव के सिर पर रोज छांव करती थीं। इसलिए तुम भी राजा को यहीं बैठकर सुख दो और उनकी सेवा करो। चौथी ने भी राजी-खुशी अपना काम स्वीकार कर लिया। काम कोई भी छोटा या बड़ा नहीं होता। अत: जो भी करें, मन लगाकर करें।

मोक्ष की प्राप्ति के लिए खुद करने होंगे प्रयास
एक बार श्रमण महावीरकुमार ग्राम से कुछ दूर संध्या वेला में ध्यानस्थ खड़े थे। तभी एक चरवाहा आया और बोला - रे श्रमण, जरा देखते रहना, मेरे बैल यहां चर रहे हैं, मैं अभी लौटकर आया। महावीर तो अपनी समाधि में थे। जब चरवाहा लौटकर आया तो देखा कि बैल वहां नहीं हैं।
बैल तो चरते-चरते दूर निकल गए थे। महावीर का कुछ उत्तर न पाकर वह गुस्से से बोला - पाखंडी, तू श्रमण नहीं चोर है। यह कहकर वह महावीर को मारने के लिए आगे बढ़ा। तभी देवराज इंद्र वहां आकर चरवाहे से बोले - तू जिसे चोर कह रहा है, वे राजा सिद्धार्थ के राजकुमार वर्धमान हैं। आत्म साधना के लिए इन्होंने कठोर श्रमणत्व को धारण किया है। चरवाहे ने क्षमा मांगी और चला गया। तब इंद्र महावीर से बोले - आपका साधनाकाल लंबा है। इस प्रकार के संकट और भी आ सकते हैं। अत: आपकी सेवा में मैं स्वयं आपके समीप रहने की प्रार्थना करता हूं।
महावीर ने उत्तर दिया - इंद्र, आत्म साधकों के आज तक के जीवन इतिहास में ऐसा न कभी हुआ है और न कभी होगा। मुक्ति या कैवल्य दूसरे के बल पर, दूसरों के श्रम या सहायता पर नहीं पाया जा सकता। आत्म साधक अपने बल, अपने श्रम और अपनी शक्ति पर ही अपने उद्देश्य की प्राप्ति करता है। वह स्वयं अपना रक्षक होता है और उसका कैवल्य उसके आत्म बल से प्रस्तुत होता है। महावीर का उत्तर सुनकर इंद्र नतमस्तक हो चले गए। साधना का लक्ष्य मोक्ष होता है, जो सर्वथा निजी होता है। इसलिए उसके लिए प्रयास भी व्यक्ति को स्वयं ही करने होते हैं।

व्यापारी को भुगतना पड़ा घमंड करने का नतीजा
एक शहर में किसी व्यापारी का बड़ा सुंदर मकान था। मकान के नीचे उसकी अनाज की दुकान थी। दुकान के सामने अनाज की ढेरी लगी थी। एक दिन एक बकरा आया और उसने ढेरी पर मुंह मारा। दुकान का मालिक एक युवा धनिक था, जिसके हाथ में नुकीली छड़ी थी। उसने जैसे ही बकरे को मुंह मारते देखा, बकरे के सिर पर जोर से छड़ी मारी। बकरा चिल्लाता हुआ वहां से भाग गया। यह घटना वहीं से गुजर रहे नारदजी तथा अंगिरा ऋषि ने देखी। नारदजी हंस पड़े। अंगिरा ने हंसने का कारण पूछा, तो नारद बोले - यह अनाज की दुकान पहले बहुत छोटी थी। इसके मालिक ने इसी दुकान से अपने व्यापार की वृद्धि की। वह करोड़पति हो गया। उसी ने इतनी बड़ी इमारत बनवाई। करोड़पति होने के बाद उसमें घमंड आ गया। वह किसी से सीधे मुंह बात तक नहीं करता था।
जब वह घमंडी मालिक मर गया तो उसका यह युवा बेटा दुकान पर बैठकर कारोबार संभालने लगा। मुझे हंसी इस बात पर आई कि दुकान का वह मालिक और इस युवा का पिता ही बकरे की योनि में पैदा हुआ है, जो एक समय इस दुकान, मकान और संपूर्ण व्यवसाय का मालिक था। आज एक मुट्ठी अनाज पर भी उसका अधिकार नहीं है। अनाज की ओर मुंह करते ही मार पड़ती है और जिस पुत्र को उसने बड़े प्यार से पाला-पोसा, वही मारता है। सार यह है कि समय बदलते देर नहीं लगती। इसलिए अच्छे समय में विनम्रता से रहो, ताकि उसके फलस्वरूप बुरा समय शांति से कट जाए।
क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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