Saturday, June 30, 2012

Santaan (संतान)

सिर्फ सुविधाओं से नहीं आते बच्चों में संस्कार, ये भी जरूरी है...
गृहस्थी में जो काम सबसे मुश्किल होता है, वह है संतानों को संस्काररी बनाना। अक्सर लोग ये शिकायत करते हैं कि हम कितनी भी सुविधाएं और साधन जुटा दें, बच्चों पर कितना ही स्नेह लुटा दें लेकिन फिर भी कहीं न कहीं ये लगता है कि बच्चों में वे संस्कार नहीं हैं जो हम उन्हें देना चाहते थे।बच्चों ने हमारे लाड़-प्यार का ज्यादा फायदा उठाया।

वास्तव में चूक हम से होती है, दोषारोपण हम संतानों पर करते हैं। संतानें हमारे जीवन की पूंजी हैं, इन्हें कैसे बड़ा किया जाए ये हमारे हाथ में होता है। ये बात पूरी तरह गलत है कि बच्चों को संस्कारी और योग्य बनाने के लिए ज्यादा से ज्यादा संसाधनों और पूंजी की जरूरत होती है। अभाव में भी संतानों को योग्य बनाया जा सकता है। एक तरह से देखा जाए तो सिर्फ सुख ही नहीं, कभी-कभी हमें बच्चों को थोड़े अभाव में भी रखना चाहिए। तभी उन्हें जीवन के मूल्य का पता चलता है।

महाभारत में दो तरह की संतानें हैं। पहली कौरव जो पूरे जीवन राजमहलों में रहे, सुविधाएं भोगीं। दूसरी पांडव जिनका जन्म और लालन-पालन जंगल में हुआ। पांडव और माद्री के देह त्यागने के बाद कुंती ने पांडवों को जंगल में अकेले पाला। वो सारे संस्कार दिए जो कौरवों में राजकीय सुविधाओं के बावजूद नहीं थे।

दुर्योधन और उसके ९९ भाई, सभी धूर्त और कुसंस्कारी निकले। लेकिन युधिष्ठिर और उसके चारों भाई सभी धर्मात्मा थे। कुंती ने अकेले उनको वो संस्कार दिए जो कौरवों को महल में भीष्म सहित सारे कौरव परिजन मिलकर भी नहीं दे पाए।

अगर आप ये सोचते हैं कि सुविधाओं से बच्चों में संस्कार आते हैं तो यह गलत है। संस्कार हमारे विचारों से आते हैं। हम हमेशा सिर्फ सुविधाओं की ना सोचें, कभी-कभी उन्हें अभावों में भी रखने का प्रयास करें लेकिन अभावों में सुविधाओं के स्थान पर आपका प्यार और संस्कार साथ होने चाहिए। फिर कभी संतानें भटकेंगी नहीं।

जीवन तब सफल है जब संतानें ऐसी हों...
अक्सर परिवार में बड़े ही बच्चों के लिए त्याग करते हैं। सफल जीवन वह है जिसमें संतानें अपने माता-पिता के लिए त्याग करना सीख जाएं। वो लोग सौभाग्यशाली होते हैं, जिनकी संतानें उनके लिए त्याग करती हैं। लेकिन ऐसी संतान पाने की कीमत भी चुकानी पड़ती है। जो लोग अपनी संतानों के लिए त्याग करना सीख जाते हैं, उन्हें संस्कार और योग्यता पाने के लिए उनका मोह छोड़ देते हैं, वे ही संतान का ये सुख देख पाते हैं।

महाभारत में भीष्म के पिता शांतनु की कथा है। शांतनु को देव नदी गंगा से प्रेम हो गया। उन्होंने उससे विवाह कर लिया। अत्यंत सुंदर गंगा ने शांतनु के सामने ये शर्त रखी कि उसे अपने अनुसार काम करने की पूरी आजादी होनी चाहिए, जिस दिन शांतनु उन्हें किसी बात के लिए रोकेंगे, वो उन्हें छोड़कर चली जाएंगी।

शांतनु ने शर्त मान ली। जब भी गंगा किसी संतान को जन्म देती, उसे तुरंत नदी में बहा देती। शांतनु उन्हें रोक नहीं पाते क्योंकि वे गंगा को खोने से डरते थे। जब सातवी संतान को भी गंगा नदी में बहाने आई तो शांतनु से रहा नहीं गया। उन्होंने गंगा को रोक कर पूछा कि वो अपनी संतानों को इस तरह नदी में बहा क्यों देती है।

गंगा ने कहा आज आपने अपनी संतान के लिए मेरी शर्त को तोड़ दिया। अब ये संतान ही आपके पास रहेगी। शांतनु ने अपनी संतान को बचा लिया। लेकिन उसे अच्छी शिक्षा के लिए कुछ सालों के लिए गंगा के साथ ही छोड़ दिया। उस लड़के का नाम रखा गया देवव्रत।

कुछ वर्षों बाद गंगा उसे लौटाने आईं। तब तक वह एक महान योद्धा और धर्मज्ञ बन चुका था। पुत्र के लिए शांतनु ने गंगा जैसी देवी का त्याग स्वीकार किया, उसी पुत्र को शिक्षा के लिए कई साल अपने से दूर भी रखा। इसी देवव्रत ने शांतनु का विवाह सत्यवती से करवाने के लिए आजीवन अविवाहित रहने की भीषण प्रतिज्ञा की थी। जिसके बाद इसका नाम भीष्म पड़ा। भीष्म ने ही आखिरी तक अपने पिता के वंश की रक्षा की।

बच्चों को दिया गया ऐसा प्यार उनके लिए ही खतरा बनता है...
बच्चों के लाड़ प्यार में मां-बाप अक्सर भूल जाते हैं कि उनके बच्चों के लिए क्या सही है और क्या गलत। बच्चों को अच्छी परवरिश देना, उन्हें हर तरह की सहूलियतें देना ठीक है लेकिन इस पर भी विचार किया जाए कि उनके लिए क्या सही है और क्या गलत। अक्सर लाड़-प्यार में भविष्य की परेशानियों को अनदेखा कर दिया जाता है। जहां तक बच्चों की शिक्षा और संस्कार देने का सवाल है, इसमें सख्ती बरती जानी चाहिए।

शिक्षा में बरती गई थोड़ी सी लापरवाही भविष्य में संतान और माता-पिता दोनों के लिए परेशानी का कारण बन जाती है। महाभारत इसका सबसे श्रेष्ठ उदाहरण है। गुरु द्रौण और उनके पुत्र अश्वत्थामा का रिश्ता ऐसा ही था। द्रौण को अपने पुत्र से बहुत प्यार था। शिक्षा में भी अन्य छात्रों से भेदभाव करते थे। जब उन्हें सभी कौरव और पांडव राजकुमारों को चक्रव्यूह की रचना और उसे तोडऩे के तरीके सिखाने थे, उन्होंने शर्त रख दी कि जो राजकुमार नदी से घड़ा भरकर सबसे पहले पहुंचेगा, उसे ही चक्रव्यूह की रचना सिखाई जाएगी। सभी राजकुमारों को बड़े घड़े दिए जाते लेकिन अश्वत्थामा को छोटा घड़ा देते ताकि वो जल्दी से भरकर पहुंच सके। सिर्फ अर्जुन ही ये बात समझ पाया और अर्जुन भी जल्दी ही घड़ा भरकर पहुंच जाते।

जब ब्रह्मास्त्र का उपयोग करने की बारी आई तो भी द्रौणाचार्य के पास दो ही लोग पहुंचे। अर्जुन और अश्वत्थामा। अश्वत्थामा ने पूरे मन से इसकी विधि नहीं सीखी। ब्रह्मास्त्र चलाना तो सीख लिया लेकिन लौटाने की विधि नहीं सीखी। उसने सोचा गुरु तो मेरे पिता ही हैं। कभी भी सीख सकता हूं। द्रौणाचार्य ने भी इस पर ध्यान नहीं दिया। लेकिन इसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा। जब महाभारत युद्ध के बाद अर्जुन और अश्वत्थामा ने एक-दूसरे पर ब्रह्मास्त्र चलाया। वेद व्यास के कहने पर अर्जुन ने तो अपना अस्त्र लौटा लिया लेकिन अश्वत्थामा ने नहीं लौटाया क्योंकि उसे इसकी विधि नहीं पता थी। जिसके कारण उसे शाप मिला। उसकी मणि निकाल ली गई और कलयुग के अंत तक उसे धरती पर भटकने के लिए छोड़ दिया गया।

अगर द्रौणाचार्य अपने पुत्र मोह पर नियंत्रण रखकर उसे शिक्षा देते, उसके और अन्य राजकुमारों के बीच भेदभाव नहीं करते तो शायद अश्वत्थामा को कभी इस तरह सजा नहीं भुगतनी पड़ती।

अगर सुख चाहिए तो अपने बच्चों को ये जरूर सिखाएं...
परिवार का सुख और घर की शांति सबसे ज्यादा निर्भर करती है घर के बच्चों पर। अगर संतानें परिवार से जुड़ाव महसूस नहीं करती हैं तो वो परिवार कभी खुश हो ही नहीं सकता। बच्चे भविष्य की पूंजी होते हैं, इन्हें इसी तरह से रखा जाए जैसे हम हमारी सम्पति को निवेश करते हैं. सबसे पहले बच्चों को परिवार से जुड़ना सिखाएं। उनके मन में गहरी संवेदना हो अपनों के लिए, तभी वो घर स्वर्ग बन सकता है।

पढ़े-लिखे होने का अर्थ है, केवल एक क्षेत्र में अपनी भूमिका को केंद्रित न किया जाए। शिक्षा हमारे व्यक्तित्व को हर क्षेत्र में विस्तार दे, तब ही इसका कोई अर्थ होगा। आजकल पढ़े-लिखे व्यक्ति का पहला लक्ष्य धन कमाना हो गया है और इसीलिए वह इतना केंद्रित हो गया है कि अपने अन्य दायित्वों को भूल गया।

भारत में शिक्षा संस्थानों को इस बात पर विचार करना होगा कि शिक्षा अच्छे कॅरियर के साथ ही परिवार बचाने के सूत्र भी दे। बच्चों के पढ़ने की उम्र में उन्हें पारिवारिक दायित्व कम रहते हैं। जवानी की संवेदनाएं घर से ज्यादा बाहर बह रही होती हैं। घर उनके लिए महज छत होता है और माता-पिता कभी खलनायक, तो कभी पालन करने वाली मशीनें भर रह जाते हैं।

ऐसे में जब अधिकांश समय शिक्षा संस्थानों में बीत रहा हो, तब बच्चों को परिवार से जोड़ने की शिक्षा जरूर दी जानी चाहिए। वहां का वातावरण पारिवारिक हो, अन्यथा ये बच्चे इतनी दूर दौड़ जाएंगे कि परिवार की ओर मुड़ना ही भूल जाएंगे। ये घर बसाएंगे, पर गृहस्थी नहीं चला पाएंगे। पति-पत्नी के रूप में साथ जी लेंगे, लेकिन एक-दूसरे के लिए नहीं जिएंगे। आज की शिक्षा-व्यवस्था तीन तरह के बच्चे तैयार कर सकती है - पहले, पत्थर की तरह।

इनके भीतर आवेश है, कुछ करने का जज्बा है, लेकिन ये पाषाण जैसे हैं। अत: इनके व्यक्तित्व को पत्थर बनने से बचाना होगा। दूसरे, जल की तरह। कितने ही बड़े व्यक्ति हो जाएं इनके भीतर बच्चों की सरलता खत्म न हो। तीसरे, ये वायु की तरह गतिमान हों। आज की शिक्षा परिवार बचाएगी भी और बिगाड़ेगी भी। इसलिए जितनी हो सके, सावधानी जरूर रखी जाए।

परिवार में हर बच्चे को इस बात का अहसास दिलाया जाना चाहिए....
आधुनिक संसार में बच्चों का परिवार के प्रति लगाव लगातार घट रहा है। इसे माता-पिता की व्यस्तता का नाम दिया जा सकता है, या फिर संस्कारों की कमी का। बच्चे समझने की स्थिति में आते हैं, वे दोस्तों और बाहरी दुनिया में इतने रम जाते हैं कि परिवार से कट जाते हैं। हर संतान को शुरू से ही यह शिक्षा दी जानी चाहिए कि दुनिया में सबसे अनमोल रिश्ता माता-पिता का होता है। माता-पिता के रिश्ते से बढ़कर कोई रिश्ता नहीं होता। उनके आशीर्वाद से ही कई विपरित परिस्थितियां हमारे पक्ष में हो जाती हैं। मां का आशीर्वाद दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति होता है।

अपने प्रयासों को करते समय यदि अन्य कोई सहारा मिलने लगे तो थोड़ी राहत हो जाती है। करना हमें ही है, लेकिन कुछ बातें सहायक हो जाती हैं। हमारे यहां आशीर्वाद और वरदान की परंपरा है। रावण को खूब वरदान मिले, लेकिन अहंकार के कारण उसके सारे वरदान शाप में बदलते गए। एक दौर ऐसा भी आया कि रावण सिर्फ शाप का ही संग्रह कर रहा था।

सामान्यत: वरदान तप से या किसी सक्षम व्यक्ति को प्रसन्न करके पाया जाता है। श्रीराम ने वरदानों से अधिक आशीर्वाद को प्राथमिकता दी। बड़े-बड़े जब आशीर्वाद देते हैं तो वे किसी दबाव में नहीं होते। वरदान कई बार अपने तप से दूसरे पर दबाव डालकर लिया जाता है, जबकि आशीर्वाद स्वेच्छा के साथ दिया जाता है।

हनुमानजी के पास वरदान और आशीर्वाद दोनों भरपूर थे। सीताजी ने प्रसन्न होकर हनुमानजी को भरपूर आशीर्वाद दिया। तब हनुमानजी ने कहा -

बार बार नाएसि पद सीसा। बोला बचन जोरि कर कीसा।।
अब कृतकृत्य भयउं मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता।।

हनुमानजी ने बार-बार सीताजी के चरणों में सिर नवाया और फिर हाथ जोड़कर कहा - हे माता! अब मैं कृतार्थ हो गया। आपका आशीर्वाद अमोघ (अचूक) है, यह बात प्रसिद्ध है। आशीर्वाद को लेकर हनुमानजी ने कृतकृत्य शब्द का उपयोग किया है।

कृतकृत्य का अर्थ है इसके बाद करने के लिए, पाने के लिए कुछ भी शेष नहीं रह गया। मां का आशीर्वाद अपने आप में परिपूर्ण होता है और हनुमानजी ने घोषणा कर दी कि मां का आशीर्वाद अचूक, अतुलनीय और अद्भुत है। हर हालत में इसे अपने जीवन में बनाए रखना चाहिए।

अगर आप अपने बच्चे को सफल बनाना चाहते हैं तो ये जरूरी है...
हर मां-बाप चाहते हैं कि उनका बच्चा नाम कमाए। बच्चे के पैदा होते ही हम उसके भविष्य को संवारने में जुट जाते हैं। कई बार माता-पिता एक बात में चूक कर जाते हैं। वे अपनी संतानों को सुविधाएं देने में इतने डूब जाते हैं कि संस्कार देना भूल जाते हैं। बच्चों में अगर संस्कार अच्छे हों तो सुविधाएं वे खुद भी जुटा सकते हैं। हमें पहले संस्कारों पर ध्यान देना चाहिए, सुविधाएं हमारी प्राथमिकता ना हों।

भारतीय परिवारों में सोलह संस्कार की जो व्यवस्था रखी गई है, उसमें संतान को भी संस्कार से जोड़ा गया है। ऋषि-मुनियों ने यह व्यवस्था बड़े सोच-समझकर की है। गृहस्थी में बिना प्रेम के शांति नहीं हो सकती। परिवार में प्रेम लाने के लिए शारीरिकता से ऊपर उठना होगा।

रिश्तों में शरीर के भाव को कम करने के लिए संतान बहुत बड़ा अवसर होती है। जैसे ही संतान होती है, माता-पिता प्रेम और संवेदना के साथ संतान पर टिक जाते हैं। यहीं से पति-पत्नी के बीच शारीरिकता कम होती जाती है। परिवार में बच्चों की मौजूदगी झगड़े और तनाव को कम करती है।

स्त्रित्व मातृत्व में और पुरुषत्व पितृत्व में घुल-मिल जाता है। बच्चों के लिए जब माता-पिता त्याग करते हैं तो वे इसे बोझ न मानकर आनंद मानते हैं, जबकि ऐसा त्याग पति-पत्नी एक-दूसरे के लिए नहीं कर पाते। पहले के मुकाबले आज के बच्चे बाहर की स्थितियों से जल्दी व ज्यादा परिचित हो जाते हैं। ऐसे में संस्कारों को उनसे जोड़े रखना थोड़ा दबाव का काम हो जाता है।

लेकिन उनके व्यक्तित्व में संतुलन बनाने के लिए प्रेम से संस्कारों को उनके व्यक्तित्व में उतारा जाए, नहीं तो यह बच्चे घर और बाहर दोनों ही स्थिति में अशांत होकर अपने आप को दुख की स्थिति में पटक लेंगे।
इन्हें घर उपद्रव का अड्डा लगने लगेगा और बाहर नर्क नजर आएगा, जबकि नर्क हमारे जीने के तरीके का दूसरा नाम है। इसलिए परिवार जितना प्रेमपूर्ण होगा, संतानें उतनी ही यशस्वी हो सकेंगी।

बच्चों की परवरिश में हमेशा इस बात का ध्यान रखें...
माता-पिता बच्चों को निस्वार्थ प्रेम करते हैं। उन्हें सुख-सुविधाओं से रखने के लिए दिन-रात एक कर देते हैं। लेकिन वक्त के साथ जब बच्चे बड़े होते हैं, तो माता-पिता को उनसे प्यार की भीख मांगनी पड़ती है। अपने पैरों पर खड़े होते ही बच्चे बाहर भागने की कोशिश करने लगते हैं। आखिर हमारी संस्कृति और संस्कारों में ऐसा क्या परिवर्तन आया है कि माता-पिता को बच्चों से प्रेम की मांग करनी पड़ती है। बच्चे बड़े होते ही संवेदन शून्य हो जाते हैं।

माता-पिता का एक मनोविज्ञान होता है सभी माता-पिता एक समय बाद बच्चों से प्रेम मांगने लगते हैं। प्रेम कभी मांगकर नहीं मिलता है और जो प्रेम मांगकर मिले उसका कोई मूल्य नहीं होता।

एक बात और समझ लें कि यदि माता-पिता बच्चों से प्रेम करें तो वह बड़ा स्वाभाविक है, सहज है, बड़ा प्राकृतिक है, क्योंकि ऐसा होना चाहिए। नदी जैसे नीचे की ओर बहती है, ऐसा माता-पिता का प्रेम है। लेकिन बच्चे का प्रेम माता-पिता के प्रति बड़ी अस्वाभाविक घटना है। ये बिल्कुल ऐसा है जैसे पानी को ऊपर चढ़ाना। कई मां-बाप यह सोचते हैं कि हमने बच्चे को जीवनभर प्रेम दिया और जब अवसर आया तो वह हमें प्रेम नहीं दे रहा, वह लौटा नहीं रहा।

इसमें एक सवाल तो यह है कि क्या उन्होंने अपने मां-बाप को प्रेम दिया था? यदि आप अपने माता-पिता को प्रेम, स्नेह और सम्मान नहीं दे पाए तो आपके बच्चे आपको कैसे दे सकेंगे? इसलिए हमारे यहां सभी प्राचीन संस्कृतियां माता-पिता के लिए प्रेम की के स्थान पर आदर की स्थापना भी करती हैं। इसे सिखाना होता है, इसके संस्कार डालने होते हैं, इसके लिए एक पूरी संस्कृति का वातावरण बनाना होता है।

जब बच्चा पैदा होता है तो वह इतना निर्दोष होता है, इतना प्यारा होता है कि कोई भी उसको स्नेह करेगा, तो माता-पिता की तो बात ही अलग है। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होने लगता है, हमारा प्रेम सूखने लगता है। हम कठोर हो जाते हैं। बच्चा बड़ा होता है, अपने पैरों पर खड़ा होता है तब हमारे और बच्चे के बीच एक खाई बन जाती है। अब बच्चे का भी अहंकार बन चुका है वह भी संघर्ष करेगा, वह भी प्रतिकार करेगा, उसको भी जिद है, उसका भी हठ है। इसलिए प्रेम का सौदा न करें इसे सहज बहने दें।

अगर आप अपने बच्चों को बनाना चाहते हैं सफल और यशस्वी...
भारतीय परिवारों में सोलह संस्कार की जो व्यवस्था रखी गई है, उसमें संतान को भी संस्कार से जोड़ा गया है। ऋषि-मुनियों ने यह व्यवस्था बड़े सोच-समझकर की है। गृहस्थी में बिना प्रेम के शांति नहीं हो सकती। परिवार में प्रेम लाने के लिए शारीरिकता से ऊपर उठना होगा।

रिश्तों में शरीर के भाव को कम करने के लिए संतान बहुत बड़ा अवसर होती है। जैसे ही संतान होती है, माता-पिता प्रेम और संवेदना के साथ संतान पर टिक जाते हैं। यहीं से पति-पत्नी के बीच शारीरिकता कम होती जाती है। परिवार में बच्चों की मौजूदगी झगड़े और तनाव को कम करती है।

स्त्रित्व मातृत्व में और पुरुषत्व पितृत्व में घुल-मिल जाता है। बच्चों के लिए जब माता-पिता त्याग करते हैं तो वे इसे बोझ न मानकर आनंद मानते हैं, जबकि ऐसा त्याग पति-पत्नी एक-दूसरे के लिए नहीं कर पाते। पहले के मुकाबले आज के बच्चे बाहर की स्थितियों से जल्दी व ज्यादा परिचित हो जाते हैं। ऐसे में संस्कारों को उनसे जोड़े रखना थोड़ा दबाव का काम हो जाता है।

लेकिन उनके व्यक्तित्व में संतुलन बनाने के लिए प्रेम से संस्कारों को उनके व्यक्तित्व में उतारा जाए, नहीं तो यह बच्चे घर और बाहर दोनों ही स्थिति में अशांत होकर अपने आप को दुख की स्थिति में पटक लेंगे। इन्हें घर उपद्रव का अड्डा लगने लगेगा और बाहर नर्क नजर आएगा, जबकि नर्क हमारे जीने के तरीके का दूसरा नाम है। इसलिए परिवार जितना प्रेमपूर्ण होगा, संतानें उतनी ही यशस्वी हो सकेंगी।

बच्चों को यह चीज़ जरूर सिखाएं...
शिक्षा को इस समय सत्संग से जोड़ा जाना चाहिए। आधुनिक शिक्षा और परंपरागत सत्संग का मेल असंतुष्ट, अशांत और असंयमित व्यक्तित्व के लिए जरूरी हो गया है। इस समय बच्चे इंटरनेट पर टिक गए हैं। सारी पढ़ाई परदे से खींची जा रही है। लैपटॉप और कंप्यूटर कितनी शिक्षा उगल रहे हैं, यह तो नहीं मालूम, लेकिन बच्चे उसमें किस तरह से डूब रहे हैं, यह हमें मालूम कर लेना चाहिए।

एक अच्छा तरीका बुरे परिणाम दे रहा है। बच्चों को इसीलिए थोड़ा सत्संग से गुजारा जाना चाहिए। सत्संग के शब्दों में सुरक्षा है। सत्संग से गुजरने के बाद यह आत्मविश्वास प्रबल होता है कि संसार में जो यात्रा हम करेंगे, वह गलत नहीं होगी। हमारे देश में तो सत्संग के कई तरीके हैं। आदर्श वाक्यों के बैनर, दीवारों पर शुभ शब्द, पुस्तकों के स्लोगन, लेकिन अब इनमें धीरे-धीरे लोगों की रुचि कम हो रही है।

बोलती दीवारें, जगाती किताबें बच्चों की अंतिम प्राथमिकता हो गई हैं। इन्हें सबकुछ एक क्लिक में मिल रहा है। सत्संग में दो बातें महत्वपूर्ण हैं - एक गायन का हिस्सा, दूसरा प्रवचन का पक्ष। आजकल वक्ता यह मानकर चल रहा है कि जो हम कह रहे हैं, वही सही है या जो हमें अच्छा लग रहा है, वही दूसरों को भी लग रहा होगा। लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं है।

सभी अपनी यूटिलिटी देखते हैं, सत्संग में भी। यदि वह उनको नहीं मिले तो इसे समय खराब करना माना जाता है। इसलिए ऐसी पीढ़ी जिसे सबसे ज्यादा शांति की जरूरत है, इसकी पूर्ति कहीं और से करने लगती है। सत्संग का महत्व उसके जीवन प्रबंधन से जुड़ते ही एकदम बढ़ जाएगा। श्रोता और वक्ता दोनों पक्ष इसकी तैयारी रखें।

बचपन का एक फैसला भी बदल देता है जिंदगी...
दुनिया में आज भी अधिकांश माता-पिता ऐसे हैं जो संतान पैदा करने के मकसद से वाकिफ नहीं हैं। अगर शादी हुई है तो औलाद पैदा होना है। इसे जिन्दगी की तयशुदा घटना मान लिया जाता है। आचार्य श्रीराम शर्मा ने एक जगह सही टिप्पणी की है कि हमारे भारत में ज्यादातर लोग संतान पैदा करना और उसके पालन-पौषण के मामले में प्रकृति तथा संयोग पर ही निर्भर हैं। वे जिन्दगीभर नहीं समझ पाते कि किस भरोसे और किस अधिकार से संतान पर संतान पैदा कर रहे हैं।

यह मामला नैतिक है न कि शारीरिक। भविष्य के नागरिकों का चरित्र आज के लालन-पालन पर टिका रहेगा। इस समय के बच्चे सर्वाधिक चुनौतियों का वक्त देखेंगे। इसलिए औलाद मुकद्दर का खेल न मानी जाए, यह एक जीवन-योजना होना चाहिए। उन्हें प्रबुद्ध और सुयोग्य बनाना सबसे बड़ा दायित्व माना जाए। हर चीज एक-दूसरे से बंधी है। बच्चों के लालन-पालन में उन्हें शुरु से स्पष्ट किया जाए कि जीवन सुविधाओं से नहीं संघर्षों से चलता है।

कभी-कभी अच्छा करने पर भी परिणाम अच्छा न मिले तो अच्छाई को नकारा नहीं जाना चाहिए। धैर्य से आने वाले दृष्यों की प्रतीक्षा करें तब परिणाम के प्रति विचार बदल जाऐंगे। मोहम्मद ने अपने शिष्य अली को एक बहुत खूबसूरत उदाहरण दिया था। उन्होंने कहा था अपना एक पैर उठाओ, अली ने उठा दिया। मोहम्मद बोले अब दूसरा उठाओ। अली जानता था दूसरा पैर उठाते ही सारा मामला लडख़ड़ा जाएगा और अली को समझ में आ गया कि पहला पैर उठाना कर्म था। पहले पैर उठाने के लिए वह आजाद था लेकिन दूसरा पैर किन्हीं और स्थितियों में बंध गया। इसी का नाम जिन्दगी है। एक फैसला दूसरे को प्रभावित करता है और इसी प्रकार बचपन के फैसले पूरी जिन्दगी को मुकाम देते हैं।

संतान के सुखी और सफल भविष्य के लिए सबसे जरुरी है ये बात...
कोई भी वृक्ष कभी अपने बीज से बड़ा नहीं हो सकता। माता-पिता हमारे बीज, हमारी जड़ हैं। इसलिए जो जड़ से जुड़ा रहेगा, वह सूखेगा नहीं। माता-पिता में समूचे समाज की वृद्धावस्था विराजित है। समाज और राष्ट्र में बड़े-बूढ़ों का मान सबके सुखद भविष्य के लिए आवश्यक है।

तुलसीदासजी द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस के पंचम सोपान सुंदरकांड की पहली चौपाई का पहला शब्द जामवंत है। जामवंत श्रीराम की सेना के सबसे वरिष्ठ और वृद्ध सदस्य थे। सुंदरकांड की पहली पंक्ति अपने प्रथम शब्द के साथ समाज की वृद्धावस्था को समर्पित है -

जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए।

जामवंत के वचन हनुमानजी के हृदय को बहुत भाए। सुंदरकांड हनुमानजी की सफलता की यात्रा है।
हनुमानजी ने अपने लंका अभियान के आरंभ में समाज के वृद्ध जामवंत को प्रणाम किया और चल दिए। हनुमानजी संदेश दे रहे हैं कि जीवन में जब भी कोई कार्य करने जाएं, समाज के बड़े-बूढ़ों को प्रणाम करें। माता-पिता को मान दें। उनके अनुभव और आशीर्वाद हमारे अभियान को सफल करेंगे। आगे की पंक्ति में लिखा गया है -

यह कहि नाइ सबन्हि कहुं माथा। चलेउ हरषि हियं धरि रघुनाथा।

मुझे बहुत ही हर्ष हो रहा है सबको मस्तक नवाकर। हनुमानजी ने सबको प्रणाम किया तथा प्रसन्नचित्त होकर चल दिए। उन्होंने समझाया कि किसी भी अभियान में तीन बातें ध्यान में रखें - विनम्रता, परमात्मा का स्मरण व प्रसन्नता।

अपने बच्चों को इस रिश्ते का महत्व समझाएं...
आजकल दोस्त मिलना मुश्किल हो गया है और मित्रता भी एक धंधा बन गई है। जिस उम्र में मित्र बनते हैं, वह उम्र पढ़ाई-लिखाई और कॅरियर के इतने दबाव में है कि हर संबंध बस लेन-देन का जरिया हो गया है। एक प्रयोग करें, बाहर की दुनिया में अगर दोस्त नहीं बन पा रहे हों और जो पुराने थे, वे वक्त के बही-खाते में जमाखर्च हो गए हों या सब अपनी-अपनी दुनिया में उलझ गए हों तो अब दोस्ती घर में की जाए।

भारतीय परिवारों में रिश्तेदारी तो है, लेकिन दोस्ती नहीं है। हम नातेदारी को महत्व देते हैं, मित्रता को नहीं। इसीलिए पति-पत्नी एक नाता है, यह रिश्ता मित्रता नहीं बन पाता। दोनों एक-दूसरे के लिए जो भी कर रहे होते हैं, उसमें कुटुंब के संबंध रहते हैं, दोस्तों जैसी दोस्ती नहीं। यही हालत बाप-बेटे, मां-बेटी में भी चलती है।

इसी कारण लंबे समय चलते हुए रिश्ते बोझ बन जाते हैं। जबकि दोस्ती में हमेशा ताजगी रहती है। परिवार का आधार प्रेम होना चाहिए और परिवारों में प्रेम की शुरुआत मित्रता से की जाए, क्योंकि मित्रता में यह संभावना रहती है कि एक दिन वह प्रेम में बदल सकती है। और जैसे ही संबंधों में प्रेम जागा तो शुचिता व शांति अपने आप आ जाएगी।

अभी जब एक-दूसरे की मांग पूरी नहीं होती तो आवेश जागता है। लेकिन मैत्री और प्रेम आने के बाद एक-दूसरे के प्रति क्षमाभाव जागेगा। परिवारों में रिश्तों के बीच अपेक्षा ही प्रधान होती है। अपेक्षा अशांति का कारण है। प्रेम अपेक्षा के रूप को बदल देता है। अपेक्षा हटी कि एक-दूसरे पर दोषारोपण बंद हो जाएंगे, क्योंकि प्रेम बीच में आते ही हम हर रिश्ते में परमात्मा की झलक देखने लगेंगे। इसी को वैकुंठ कहते हैं।

कैसे करें अपने बच्चों के जीवन का लक्ष्य तय?
अक्सर हम बच्चों पर या तो अपेक्षाओं का बोझ लाद देते हैं या फिर उन्हें इतनी आजादी दे देते हैं कि वो नियंत्रण से बाहर हो जाते हैं। माता-पिता को चाहिए कि वो अपनी संतान के जीवन के दोनों पहलुओं आध्यात्मिक  व भौतिक जीवन का लक्ष्य तय कर दें। लक्ष्य तय करें फिर उसके अनुसार उनका लालन-पालन करें।

कई लोगों का जीवन बीत जाता है और वे तय नहीं कर पाते कि उनके जीवन का लक्ष्य क्या है। कई लोग लक्ष्य का दावा करते हैं, पर वो उनके अहंकार के कारण भ्रम ही होता है। लक्ष्य गढ़ने की कोई उम्र नहीं होती। अब तो समय आ गया है कि बचपन से ही माता-पिता अपनी संतानों के लक्ष्य तय कर दें, क्योंकि इस बात में समय लग जाता है कि लक्ष्य को समझा भी जाए। जिस दिन यह नारा हृदय में उतर जाए कि सफलता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, उस दिन लक्ष्य प्राप्ति के लिए एक तड़प भीतर पैदा हो जाती है।

बिना लक्ष्य के न तो भौतिकता का जीवन जिएं और न भक्ति का। लक्ष्यहीन भक्ति कोरा कर्मकांड बनकर रह जाती है। लक्ष्य यदि बचपन से तय हो जाए, तो युवावस्था आते-आते परिश्रम के अर्थ सही ज्ञात हो जाएंगे। वैसे आजकल इस मामले में नई पीढ़ी बहुत सक्रिय है कि वह अपने लक्ष्य तय करके चलती है।

गलत है कि सही, इस पर वह किसी का हस्तक्षेप भी नहीं चाहती। अब लक्ष्य के साथ दो काम जरूर करें। अपने लक्ष्य को पारिवारिक और सामाजिक उद्देश्यों से जरूर जोड़ें, अन्यथा हम तो लक्ष्य की पूर्णता की ओर चल देंगे, पर हमसे जुड़े परिवार और समाज के लोग पीछे छूट जाएंगे। यहीं से परिवार के लोगों को लगने लगता है कि मनुष्य स्वार्थी हो गया है।

बचपन की सीख के बाद भी इस कारण भटक जाते हैं लोग...
बचपन से हमें सिखाया जाता है कि सावधान रहना, जिंदगी की राहों में भटक मत जाना। साधारणतया भटकने का अर्थ है कि हम चरित्रहीन न हो जाएं। हमारी जीवन यात्रा में दो चीजें होती हैं, तब हम भटकते हैं। पहला, यदि कोई धक्का लगे तो चाल लड़खड़ाएगी और दूसरा, यदि कोई घसीट ले तो मार्ग से इधर-उधर हो जाएंगे।

लोभ, मोह, काम, क्रोध, मान, पद, प्रतिष्ठा इन सबके धक्के हमें गिरा देते हैं। घसीटने के मामले में इंद्रियां बहुत ताकतवर होती हैं। खींच-खींचकर विषयों की ओर ले जाकर पटक देती हैं। इनसे बचने के लिए अपने भीतर या तो अति आत्मविश्वास जगा लें या श्रद्धा का अंकुर पैदा कर लें।

श्रद्धावान व्यक्ति नसीहतों के प्रति गंभीर होता है। उसके लिए सीख आचरण से अधिक भरोसे का विषय होती है। माता-पिता और गुरुजन की सीख वह अनुशासन के रूप में नहीं, श्रद्धा के रूप में लेता है। झोंकों से गिरने वाले और इंद्रियों से घसीटे गए लोग भविष्य के अज्ञात भय से भी डरने लगते हैं कि अब क्या होगा?

यदि श्रद्धा जीवन में है तो भय को जाना ही पड़ेगा। एक बात और कि जीवन में जब भी भय आएगा, उसके मूल में अहंकार जरूर होगा। अहंकारी व्यक्ति का जीवन दूसरों द्वारा की गई प्रशंसा और आलोचना पर निर्भर होता है।उसे सदैव भय बना रहता है कि दूसरे उसके बारे में क्या कहेंगे और इसीलिए वह धक्के भी खाता है, लेकिन श्रद्धा आपको स्वयं पर टिकाएगी, निर्भय बनाएगी।

जानिए, कैसे पाला जाए संतानों को...
जरूरतों और इच्छाओं का संघर्ष हमेशा चला करता है। ईश्वर हमारी इच्छा होनी चाहिए, जरूरत नहीं। लेकिन सांसारिक चीजें हमारी जरूरत की श्रेणी में आनी चाहिए, इच्छाओं की नहीं। हम जितना इच्छाओं पर टिकेंगे, उतना स्वार्थी होंगे और जितना जरूरतों से जुड़े रहेंगे, उतने उदार हो जाएंगे। इच्छापूर्ति के लिए आदमी किसी भी हद तक जाता है।

इच्छा जब ईश्वर से जुड़ती है तो प्रत्येक कृत्य उपासना बन जाता है। परमात्मा के लिए हमारी इच्छा में जितनी तीव्रता होगी, परमात्मा की दृष्टि में हम उतने ही सुपात्र होंगे। अब इन्हीं बातों को संसार की दृष्टि से देखें। संसार में इच्छाओं को काटना चाहिए और आवश्यकताओं के अनुसार जीना चाहिए। आदमी की अनेक इच्छाओं में एक इच्छा होती है कि मैं लोकप्रिय हो जाऊं। अधिक लोकप्रिय व्यक्ति एक चलती-फिरती जेल होता है।

अपनी लोकप्रियता से वह खुद ही परेशान होने लगता है। फिर भी सब चाहते हैं नाम हो जाए। यह एक इच्छा है। गहराई में जाकर देखें तो इच्छा एक सपना है, इसमें यथार्थ कम रहता है। आवश्यकता सदैव यथार्थ पर टिकी है। इसीलिए आवश्यकता की पूर्ति में आप अशांत नहीं होंगे, लेकिन इच्छाओं के चक्कर में जरूर परेशान हो जाएंगे।

जिस दिन हम आवश्यकता और इच्छा का फर्क समझेंगे, उस दिन से हमारे परिवारों में बच्चों के लालन-पालन पर भी असर पड़ने लगेगा। जो बच्चे जरूरतों से पाले जाएंगे, वे बड़े होकर कुछ अलग मानसिकता के होंगे और जो इच्छाओं से पाले जाएंगे, वे अलग आचरण के होंगे।

बच्चों की परवरिश में सबसे जरूरी है यह बात...
इस समय सर्वाधिक चुनौतीपूर्ण काम है बच्चों का लालन-पालन करना। बड़े से बड़े पराक्रमी और सक्षम लोग भी इस मामले में चूक जाते हैं। इसके लिए बेहद जरूरी है कि पति-पत्नी अत्यधिक समझदार माता-पिता बनें।

संतानों ने जो कुछ भी सीखा, इसका 80 प्रतिशत भाग आनुवंशिक रूप से माता-पिता से आया और घर में देखकर सीखा गया। बच्चों के सर्वागीण विकास में परिवार की बड़ी भूमिका होती है। हर सदस्य बालमन को कुछ न कुछ सिखा जाता है। यदि घर दुखी है, असंतुष्ट है, कलह में डूबा हुआ है तो बच्चे संतोष और प्रसन्नता बाहर ढूंढ़ने लगते हैं।

माता-पिता के मन-मुटाव में वे स्वयं को असहज पाते हैं और सहजता की खोज में घर की देहरी पार करते ही गलत दिशा में निकल पड़ते हैं। घर में हो रहा कोहराम तथा सूनापन भी बालमन को विचलित करता है। उनका अपरिपक्व मस्तिष्क माता-पिता के असंतुष्ट प्रतिबिंब को अपने भीतर उतार लेता है और जो जन्मजात निर्दोष था, वो दोषपूर्ण आचरण के लिए तैयार होने लगता है।

उसकी निर्दोषता में हम अपनी भूमिका डाल देते हैं। जबकि उस समय हमें उनके भीतर चरित्र, शिक्षा के अलावा विवेक जगाना चाहिए वरना आने वाले दौर में स्त्री-पुरुष पति-पत्नी बनकर माता-पिता के रूप में संतुष्ट और प्रसन्न होने का दावा नहीं कर पाएंगे। लेकिन यदि बच्चों में विवेक जगाने में कामयाब हो गए तो बच्चे इन चीजों को ग्रहण करते समय क्या फेंकें, क्या रखेंकी अक्ल से काम लेंगे। वे शुभ और अशुभ का अंतर सीख जाएंगे, जो इस समय पारिवारिक जीवनशैली के लिए बहुत जरूरी है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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