Monday, June 18, 2012

Bhagwaan (भगवान)

भगवान को पाने के लिए कैसे की जाए भक्ति?
भगवान को पाने के लिए भक्ति करना पड़ती है। यह एक सामान्य विचार है। अधिकांश लोगों का मकसद भी यही होता है कि भगवान मिल जाए। संत-महात्माओं से कई लोग यही प्रश्र पूछते हैं क्या आपने कभी भगवान को देखा है?

कई लोग तो अपनी जिंदगी ऐसे व्यक्तियों की तलाश में गुजार देते हैं जिन्हें कभी भगवान मिला हो। दरअसल भगवान को पाना और भक्ति करना दो अलग-अलग बातें हैं। यदि किसी की दृष्टि चली जाए और वह अंधा हो जाए तब उसे प्रकाश की जगह आंख खोजना चाहिए। भक्ति एक तरह की आंख है जिससे भगवान देखा जा सकता है।

भक्ति करने का अर्थ है अपनी आंख को खोजना। जो अंधे लोग सीधे प्रकाश खोजने के चक्कर में रहेंगे उन्हें जीवनभर अंधकार ही हाथ लगेगा। पहले आंख खोजी जाए। देखा गया है कि जिन्होंने सीधे भगवान को खोजने की कोशिश की उन्होंने जीवनभर कर्मकाण्ड ही किया और इसमें निराशा हाथ लग जाती है। केवल कर्मकाण्ड का अर्थ है एक चौराहे पर ही चक्कर काटना।

इसीलिए केवल पूजा करने वाले लोग उदास और खिन्न भी पाए जाते हैं। अब पूजा को भक्ति में बदलना होगा। भक्ति जीवन में आते ही भीतर से रूपांतरण होना आरंभ हो जाता है। फिर भगवान दिखना और मिलना सुनिश्चित है। तो महत्वपूर्ण यह है कि जीवन में भक्ति को लाया जाए। कर्मकाण्ड इसका आरंभ हो सकता है। कर्मकाण्ड करते हुए अपने भीतर के प्रेम को धीरे-धीरे बढ़ाएं।

जितना प्रेम बढ़ेगा, कर्मकाण्ड के भक्ति में बदलने की संभावना भी उतनी ही बढ़ जाएगी। क्योंकि प्रेम की अधिकता में अहंकार को गलना पड़ता है। क्रिया निरहंकारी होते ही भक्ति बन जाती है और भक्ति की आंख से परमात्मा को दिखना ही पड़ता है।

हार या जीत, जानिए भगवान से किस परिस्थिति में क्या मांगा जाए...
हमें अपनी कार्यक्षमता पर भरोसा होना चाहिए और अपने लोगों पर भी विश्वास करना चाहिए। लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जीवन में जो भी घट रहा होता है, उसमें हमसे ऊपर एक परम शक्ति की बड़ी भूमिका रहती है। रामकथा में राम अवतार के पांच कारण बताए गए हैं।

उनमें से एक प्रसंग है कि शिवजी पार्वतीजी को कथा सुनाते हैं कि एक बार नारदजी ने विष्णुजी को शाप दिया। यह सुनकर भवानी चौंक उठीं। उन्होंने कहा - एक तो नारद विष्णुजी के भक्त हैं, उस पर ज्ञानी हैं, उन्होंने शाप क्यों दे दिया? यहां एक बहुत सुंदर पंक्ति आती है -

कारन कवन शाप मुनि दीन्हा, का अपराध रमापति कीन्हा।’  नारदजी पार्वतीजी के गुरु हैं। इसलिए उन्हें लग रहा है कि यदि कोई अपराध हुआ होगा तो वह विष्णु ने ही किया होगा, नारद नहीं कर सकते। शंकरजी ने बड़ा सुंदर उत्तर दिया। शंकरजी ने कहा -

बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोई,
जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ।

यह शंकरजी का अपना दर्शन है कि संसार में न कोई मूढ़ है, न ज्ञानी। परमात्मा जब डोरी घुमाता है तो आदमी कठपुतली की तरह डोलता है। वह ऊपर वाला ऐसा है कि न उसकी अंगुली दिखती है और न धागे, बस हम कठपुतलियों की तरह दिखते हैं। हमें अपनी क्षमता पर विश्वास होना चाहिए। ऊपर वाला जिंदगी की डोर अपने हाथ में रखता है, इसलिए सफल हों तो उसे धन्यवाद दें और असफल हों तो उससे ताकत मांगें।

भगवान को देखना हो तो बस इतना सा काम कर लें...
अधिक लाभ का लोभ स्थूल वस्तुओं में रस पैदा कर देता है। बेकार की वस्तुओं का संचय करने की आदत पड़ जाती है। बेशक यह काम इंद्रियों की चतुरता से होता है, लेकिन इंद्रियों की कामुकता भी बढ़ती जाती है। हमारे शरीर में शक्ति के कई बिंदु होते हैं।

भोग और विलास इन बिंदुओं पर प्रहार करके वहीं से शक्ति को सोखने लगते हैं। इसलिए कोशिश की जाए कि पहले तो शक्ति को समझें, फिर शक्ति के केंद्रों को जानें और वहां से शक्ति का क्षय न होने दें। आज व्यस्तता के दौर में थोड़ी विश्राम की चाहत हमें विलास से जोड़ देती है।

विश्राम और विलास अलग-अलग बातें हैं। विश्राम में शक्ति का पुन: निर्माण होना चाहिए और विलास तो हर हालत में शक्ति को ही भोग लेता है। इसलिए जिन साधनों से शक्ति का संचय हो, उन पर तो गहरी नजर रखनी ही होगी, लेकिन इस बात के लिए सावधान रहना पड़ेगा कि शक्ति व्यर्थ के कामों में खर्च न हो।

हमारे भीतर शक्ति या ऊर्जा ईश्वर का ही दूसरा रूप है। जैसे ईश्वर से मिलने के लिए भीतर उतरना होगा, वैसे ही शक्ति को बचाने के लिए थोड़ी अंतर्यात्रा की जाए। एक प्रयोग करिए, आंखें बंद करके अपनी नाभि में भीतर ही भीतर देखें। वहां हमें शक्ति की हल्की-सी अनुभूति होगी।

जैसे दूसरों की सामथ्र्य देखने के लिए आंखें खुली रखनी पड़ती है, वैसे ही अपनी शक्ति पर दृष्टि डालने के लिए आंखें बंद करनी पड़ेगी। खुली आंखें स्वयं को निहारने में बाधा बन जाएगी। बंद आंखों से ही हम अपनी शक्ति का गहन स्पर्श कर पाएंगे।

भगवान भी खुश नहीं होता है ऐसी सफलता से...
हर आदमी में कुछ भाव स्थायी होते हैं। सफलता पर खुशी, असफलता पर विषाद और कभी-कभी मन में ईष्र्या का भाव। अक्सर हम अपनी सफलता की राह पर खुद अपने मनोभावों के कारण ही रुकावटें खड़ी कर लेते हैं। होना यह चाहिए कि जब हम सफलता की राह पर तेजी से बढ़ रहे हों तो हर्ष, विषाद और ईष्र्या तीनों ही तरह के भावों को छोड़कर आगे बढ़ें। तभी जीवन का सच्चा
आनंद और सफलता का सुख भोग सकेंगे।

जब हम अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहे होते हैं तो हमारा प्रयास रहता है कि हमारी ऊर्जा पूरी तरह एकाग्र होकर सफलता अर्जित करने में लगी रहे, लेकिन तमाम सावधानियों के बाद भी ऊर्जा इधर-उधर चली जाती है। बहुत सारे ऐसे छिद्र हैं, जहां से ऊर्जा क्षरण की ओर चल देती है।

इनमें से एक छिद्र है निंदा की वृत्ति, ईष्र्या का भाव। स्वामी अवधेशानंदगिरिजी ईष्र्या के इस भाव पर बड़ी सुंदर टिप्पणी करते हैं।

हम अपने जीवन की सारी ऊर्जा समेटकर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं और क्षणिक जीवन में व्यक्ति दूसरे का मान, वैभव और प्रभाव देखकर ईष्र्या करता है। मनुष्य का स्वभाव है कि वह अपने अभाव में दुखी तो रहता ही है, उससे भी ज्यादा दूसरों के प्रभाव से पीड़ित होता है।

अपनी उन्नति से संतुष्ट नहीं होता, बल्कि दूसरे की अवनति से उसे प्रसन्नता होती है। वस्तुत: तुलनात्मक दृष्टि उन्नति के लिए होनी चाहिए कि दूसरे का उत्थान देखकर उन्नति करो और ईष्र्या-द्वेष आपके हृदय को दग्ध न करे।

लेकिन ईष्र्यालु व्यक्ति सोचता है कि कोई वस्तु मुझे मिले न मिले, परंतु दूसरे को न मिले तो बेहतर। इस तरह की अवधारणा मन में रखने वाले व्यक्ति से परमात्मा प्रसन्न नहीं होता। जीवन की पहली कसौटी यह है कि वाणी मधुर हो, व्यवहार में सौम्यता हो और मन में सद्भावना हो।

ईष्र्या एक अपराध है, जो इंसान बार-बार करता है। शायद गुनहगार इंसान यह सोचता है कि मैं तो अमर हूं, मुझे तो संसार में सदैव रहना है और बाकी सब यहां से चले जाएंगे। इसलिए हमारी सारी गतिविधि हमारे हित और दूसरे के अहित पर केंद्रित हो जाती है। ऊर्जा के ऐसे दुरुपयोग को हमें ही रोकना होगा।

हर बार एक सी सफलता चाहिए तो ये याद रखें...
कई लोगों को शिकायत होती है कि वे प्रयास हमेशा एक जैसा करते हैं लेकिन सफलता वैसी हर बार नहीं मिलती। कभी-कभी अपेक्षा से बहुत ज्यादा सफलता मिल जाती है तो कभी-कभी अनुमान से भी कम। सफलता हमेशा एक सी रहे, इसके लिए हमें बाहरी कारणों को छोड़ भीतरी कारणों पर टिकना होगा।

आखिर क्यों हम हर बार सफल नहीं हो पाते। किस चीज की कमी हमारे भीतर को खोखला करती है और कौन से कारण ऐसे हैं जिन्हें हम आज तक समझ ही नहीं पाए हैं।
सफलता का एक सिद्धांत यह है कि या तो आप हालात को अपने अनुकूल बना लें या परिस्थितियों के अनुकूल बन जाएं। दोनों ही स्थितियों में संघर्ष भले ही हो, लेकिन सफलता सरलता से मिल जाती है। श्रीहनुमानचालीसा की बत्तीसवीं चौपाई है -

राम रसायन तुम्हरे पासा। सदा रहो रघुपति के दासा।।

इसकी दूसरी पंक्ति में एक शब्द आया है- सदा। आइए इन शब्दों को जीवन से जोड़कर देखें। हनुमानचालीसा में जिस रसायन की चर्चा हुई है और जो हनुमानजी के पास है, इसका अर्थ है सभी परिस्थितियों के अनुकूल रहना।

इस रसायन का आध्यात्मिक संदेश यह है कि हमारा रहना इस प्रकार हो कि हम संसार में रहें, संसार हममें न रहे। सदा रहो रघुपति के दासा इसमें सदा शब्द महत्वपूर्ण है। श्रीराम ने हनुमानजी को उनकी उपयोगिता, उनके समर्पण और भक्ति के कारण सदा अपने पास रहने का गौरव दिया है।

श्रीराम का मानना है कि जाने कब, कौन-सी समस्या आ जाए। इसलिए समाधान हेतु श्री आंजनेय का साथ रहना ठीक है। प्रबंधन का सूत्र है कि यदि आप समाधान का हिस्सा नहीं हैं तो फिर आप स्वयं एक समस्या हैं।

हनुमानजी का यह समाधानकारी चरित्र हमें जीवन तत्वों का सही उपयोग करते हुए व्यक्तित्व विकास की प्रेरणा देता है। परमात्मा की निकटता बड़ी उपलब्धि है। यह सदा रहनी चाहिए। ऐसा न हो कि आज सफल हुए, लापरवाही के कारण कल वह सफलता जीवन से फिसल जाए।

भगवान को कैसे और कहां से उतारा जाए जीवन में...
भगवान के लिए सोने-चांदी के मंदिर या सिंहासन बनवाने वालों को एक बात समझनी जरूरी है कि परमात्मा किसी संसाधन का मोहताज नहीं है। उसे जीवन में उतारने के लिए साधन नहीं, संवेदनाओं की आवश्यकता है। भगवान को जीवन में उतारने के लिए सारे भौतिक संसाधनों से ऊपर उठना होगा।

परमात्मा को जीवन में उतारना हो तो सबसे सही स्थान है हृदय। इसकी साफ-सफाई करना होगी। श्री हनुमान चालीसा के अंतिम दोहे में तुलसीदासजी ने श्री आंजनेय को आमंत्रण दिया है कि वे पधारें, लेकिन साथ में श्रीरामजी, सीताजी और लखनजी को भी लाएं और आने के पश्चात वापस न जाएं, स्थाई रूप से निवास करें।

भगवान को रहने के लिए तुलसीदासजी ने जो स्थान प्रस्तावित किया है, वह है उनका हृदय।
'कीजै नाथ हृदय महँ डेरा' तथा अंतिम दोहे में कहा 'हृदय बसहु सुर भूप।'

हृदय में परमात्मा उतरते ही हम व्यवहार की जगह स्वभाव पर टिकना सीख जाते हैं। इससे स्वभाव सधेगा और ऐसे लोग सरल, सहज और सुव्यवस्थित होंगे। प्रबंधन की ऊंची उड़ानें इन्हीं तीनों से आरंभ होती हैं, परिश्रम की सारी ऊर्जा इन्हीं में समाहित है।

जो सरल होता है उसका सोच-सत्य और स्पष्ट होता है। जो सहज होता है उसके निर्णय परिपक्व और दूरगामी रहते हैं और जो सुव्यवस्थित है वह अथाह परिश्रम में भी थकता नहीं। दुनिया की सारी सफलताएं इन्हीं तीनों गुणों की दासी हैं और ये गुण श्री हनुमान चालीसा का प्रसाद है।

अब जब श्री हनुमान चालीसा का समापन हो, तब विचार करें कि गोस्वामीजी ने यह जो श्री हनुमान चालीसा लिखी है यह हमारे लिए कैसे उपयोगी बनी। तुलसीदासजी ने हनुमानचालीसा लिखकर यह बताया इसकी पंक्ति-पंक्ति में परिणाम तो वेद मंत्र का ही है, लेकिन यदि कोई दोष हो जाए तो गलती से दुष्परिणाम नहीं मिलेगा। इतनी बढिय़ा व्यवस्था कर दी। इसकी हर पंक्ति मंत्रों के समान प्रभावशाली और दिव्य बन गई।

भगवान को पाना है तो सबसे पहले हनुमान को समझें...
बड़े-बड़े सिद्ध लोगों की उम्र बीत जाती है और वे परमात्मा के स्वरूप को नहीं जान पाते। संतों से सबसे ज्यादा पूछा गया सवाल ही यह है कि क्या आपने भगवान को देखा है? क्या आपको परमात्मा कहीं मिले हैं? फकीरों ने अपने-अपने उत्तर भी दिए।

सर्वाधिक मान्य उत्तर है - परमात्मा आकार से अधिक अनुभूति का विषय है। यदि अनुभूति हो जाए तो अनेक रूपों में भगवान मिल जाता है। आज देश के कई हिस्सों में हनुमान जयंती मनाई जाती है।

क्या केवल इसलिए कि वे रामजी की सेना के छोटे-से सैनिक हैं या रामलीला के पात्र हैं या पत्थर पर लपेटी हुई सिंदूर की मूर्ति हैं। दरअसल, हनुमानजी की लोकप्रियता का एक बड़ा कारण उनका अनुपस्थित होकर भी उपस्थित रहना है। भगवान के लिए शास्त्रों में लिखा है - रसो वै स:।यानी भगवान रसरूप हैं। यह रस जब जीवन में उतरता है तो आनंद पैदा करता है।

प्रभुचरित सुनिबै को रसिया। राम लखन सीता मन बसिया।।

श्री हनुमानचालीसा में हनुमानजी को तुलसीदासजी ने रसिया लिखा है। सच तो यह है कि परमात्मा का रस हनुमानजी हैं। जिन्होंने हनुमानजी को चखा, उन्हें परमात्मा का स्वाद अपने आप आ जाएगा।

रस का शाब्दिक अर्थ है बहते रहना, जो गतिशील है। जैसे जल बहता है और स्वाद से अधिक तृप्ति देता है, वैसे ही हनुमानजी हैं। जल की निर्मलता जल को पूज्य बनाती है और हनुमानजी बहुत निर्मल हैं।

कल्पना कीजिए कोई निर्मल भी हो और सक्रिय भी रहे, कोई विनम्र भी हो और बलशाली भी बना रहे। उनकी यही अनुभूति हमें श्रेष्ठ मानव बनने के लिए प्रेरित करती है।

भगवान को देखने के लिए ये सहारा सबसे बेहतर है...
जीवन के प्रति एक विशेष दृष्टि और विश्वास जगाने के लिए कुछ विशेष परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है। ऐसी ही एक परिस्थिति का नाम होता है गुरु। हम चाहे किसी भी मार्ग के व्यक्ति हों, भौतिकता का पथ हो या भक्ति की राह, कुछ न कुछ संदेह, भ्रम और प्रश्न खड़े हो ही जाते हैं।

जिज्ञासु लोग उत्तर पाना चाहते हैं। यह चाहत ही गुरु पर जाकर पूरी होती है, लेकिन याद रखिए गुरु उत्तर दे या न दे, पर समझ को एक उत्तेजना प्रदान कर देता है। वही समझ होश बनकर साधक के काम आती है।

जैसे छात्र जीवन में सफलता के लिए दो बातें जरूरी हो जाती हैं- शिक्षक और पाठच्यक्रम। इनसे भी जुड़ाव समर्पण और परिश्रम से होता है। योग्य शिक्षक मिल जाए और उपयोगी पाठच्यक्रम का चयन कर लिया जाए तो सफलता मिलती है।

यही दृश्य भक्ति के मार्ग में भी रहेगा। गुरु अपने मंत्र से मन के विसर्जन, निष्क्रियता की तैयारी कराता है। गुरुमंत्र रटने का विषय नहीं, मन को निष्क्रिय करने का साधन है। जिनके पास गुरुमंत्र है उनके लिए ध्यान में उतरना सरल है।

भौतिक जगत में भी सफलता के साथ जिस शांति की जरूरत है, वह जिस होश से आती है, उसका स्रोत ध्यान होता है। तो सद्गुरु के प्रभाव को व्यक्ति से अधिक मंत्र में मानें।

गुरु के झरोखे से भगवान को झांका जा सकता है, पर झरोखे पर ही टिक गए तो यह गुरु का अपमान होगा। जिन कारणों से सद्गुरु हमारे जीवन में आते हैं, यदि वे ही पूरे न किए जाएं तो यह सद्गुरु का अपमान ही होगा।

भगवान हनुमान से सीखें, कैसे संभाला जाए शरीर को...
मानव के समूचे विकास और उपयोगिता में देह भी प्रमुख भूमिका रखती है। व्यावहारिक दृष्टिकोण से हम देखें कि इन दिनों बड़ी-बड़ी कंपनियों में फायनेंशियल इन्वेस्टमेंट, फिजीकल इन्वेस्टमेंट के साथ-साथ, बल्कि इनसे भी ज्यादा ह्यूमन इन्वेस्टमेंट पर जोर दिया जा रहा है।

इस मामले में हनुमानजी एक श्रेष्ठ उदाहरण हैं। मानव के रूप में उन्होंने स्वयं का खूब सद्पयोग होने दिया तथा दूसरों को प्रेरित करके उन्हें भी मौका दिया। हनुमानचालीसा की चौथी चौपाई में लिखा है-
कंचन बरन बिराज सुबेसा, कानन कुंडल कुंचित केसा।

आप सुनहरे रंग वाले सुन्दर वस्त्र धारण किए हुए और घुँघराले बालों वाले हैं। कानों में कुंडल पहने हैं। हनुमानजी के श्रृंगार के वर्णन के पीछे जीवन का एक बहुत बड़ा दर्शन छुपा है। यह सही है कि शरीर में आसक्ति न हो पर उसके महत्व को भी नकारा न जाए। शरीर पर टिकें ना, पर उसके सहारे को छोडें भी नहीं।

सम्पूर्ण मानव किसी भी कारपोरेट जगत् की सबसे बड़ी पूंजी है और मानव की सम्पूर्णता में देह खासी भूमिका रखती है। इन पंक्तियों में सुसज्जित देह को स्वीकृति दी गई है वह भी एक ब्रह्मचारी के वर्णन से। इन पंक्तियों में हनुमानजी का कितना सुंदर वर्णन कर रहे हैं गोस्वामीजी। हनुमानजी हमेशा पूरी तैयारी में रहते हैं। उनकी दृष्टि में ब्रह्मचारी होने का यह अर्थ नहीं कि औघड़ जैसे रहें।

भगवान कहां हैं, किस रूप में हैं और क्या करते हैं?
भगवान कहां हैं, किस रूप में हैं और क्या करते हैं? ये सवाल आज के किसी भी पढ़े-लिखे व्यक्ति के मन में आना स्वाभाविक हैं। जब सभी कुछ हमें करना है तो भगवान नाम की सत्ता को बीच में लाने का क्या अर्थ? पं. श्रीराम शर्मा आचार्य ने एक स्थान पर भगवान की सुंदर व्याख्या की है। उन्होंने कहा है कि आत्मा के सशक्त क्रिया रूप को भगवान कहते हैं।

आत्मा अनंत शक्तियों का पुंज है। यही शक्ति बलवान देवता के रूप में प्रकट होती है और कार्य करती है। हमने अपनी भक्ति को संगठित करके और उसके सात्विक भाव को क्रियाशील करके एक रूप बनाया है, जो भगवान है। सबने अपनी-अपनी शक्ल के अनुसार इसके रूप तैयार कर दिए। कुल मिलाकर हमारी ही शक्ति हमारे सामने नए रूप में आ गई है। मनुष्य का स्वभाव होता है - खुद पर अविश्वास करना, खुद को शक्तिहीन मानना और अपनी योग्यता को भूल जाना।

जब ऐसा जीवन में होता है, तब यह भगवान रूपी शक्ति हमारे काम आती है। रहा सवाल इसके दिखने और न दिखने का, तो सारा मामला एेसा है कि जब हम किसी वाहन में सफर करते हैं तो मार्ग सीधा हो, तब तो आने वाला दृश्य स्पष्ट रहता है, लेकिन यदि मोड़ हो तो दृश्य मोड़ने पर ही दिखता है और मुड़ने के बाद वो दृश्य नहीं दिखता, जो पहले दिख रहा था। जबकि होता सबकुछ वहीं है।

हवाई जहाज धरती से उड़ता है, कुछ देर तक जमीन दिखती है, फिर दिखना बंद हो जाती है और हम आसमान में होते हैं। जबकि आसमान और धरती अपनी-अपनी जगह होते ही हैं। इसी तरह परमात्मा होता ही है, हमारी स्थिति से उसका दिखना और नहीं दिखना बनता है।

अगर भगवान को पाना है तो कैसे की जाए भक्ति?
भगवान को पाने के लिए भक्ति करना पड़ती है। यह एक सामान्य विचार है। अधिकांश लोगों का मकसद भी यही होता है कि भगवान मिल जाए। संत-महात्माओं से कई लोग यही प्रश्र पूछते हैं क्या आपने कभी भगवान को देखा है?

कई लोग तो अपनी जिंदगी ऐसे व्यक्तियों की तलाश में गुजार देते हैं जिन्हें कभी भगवान मिला हो। दरअसल भगवान को पाना और भक्ति करना दो अलग-अलग बातें हैं। यदि किसी की दृष्टि चली जाए और वह अंधा हो जाए तब उसे प्रकाश की जगह आंख खोजना चाहिए। भक्ति एक तरह की आंख है जिससे भगवान देखा जा सकता है।

भक्ति करने का अर्थ है अपनी आंख को खोजना। जो अंधे लोग सीधे प्रकाश खोजने के चक्कर में रहेंगे उन्हें जीवनभर अंधकार ही हाथ लगेगा। पहले आंख खोजी जाए। देखा गया है कि जिन्होंने सीधे भगवान को खोजने की कोशिश की उन्होंने जीवनभर कर्मकाण्ड ही किया और इसमें निराशा हाथ लग जाती है। केवल कर्मकाण्ड का अर्थ है एक चौराहे पर ही चक्कर काटना।

इसीलिए केवल पूजा करने वाले लोग उदास और खिन्न भी पाए जाते हैं। अब पूजा को भक्ति में बदलना होगा। भक्ति जीवन में आते ही भीतर से रूपांतरण होना आरंभ हो जाता है। फिर भगवान दिखना और मिलना सुनिश्चित है। तो महत्वपूर्ण यह है कि जीवन में भक्ति को लाया जाए। कर्मकाण्ड इसका आरंभ हो सकता है। कर्मकाण्ड करते हुए अपने भीतर के प्रेम को धीरे-धीरे बढ़ाएं।

जितना प्रेम बढ़ेगा, कर्मकाण्ड के भक्ति में बदलने की संभावना भी उतनी ही बढ़ जाएगी। क्योंकि प्रेम की अधिकता में अहंकार को गलना पड़ता है। क्रिया निरहंकारी होते ही भक्ति बन जाती है और भक्ति की आंख से परमात्मा को दिखना ही पड़ता है।


सफलता के बाद भी चिंता हो तो ये करें..
इन दिनों सफलता प्राप्त करना नशे की तरह हो गया है। कोई भी असफल नहीं रहना चाहता। मजेदार बात यह है कि जो असफल हो जाते हैं वो तो परेशान नजर आते ही हैं पर ज्यादातर लोग सफल होने के बाद भी अशांत रहते हैं। 

अध्यात्म कहता है श्रद्धावान चित्त अशांत नहीं होगा। इसलिए हमें अपने काम के प्रति अत्यधिक श्रद्धा पैदा करना होगी। लगन और श्रद्धा में फर्क है। लगन जब बहुत गहरी उतर जाती है तब श्रद्धा होती है और श्रद्धा का अर्थ है हमने अपने अलावा एक ऐसे अस्तित्व को स्वीकार किया है जो हमारी सफलता और असफलता के परिणामों को लेकर हमारी मदद करेगा। 

दो दृष्टांत ध्यान में लाएं फिर बात सरलता से समझ में आएगी। राम अवतार में राम के दर्शन हो जाना किसी के लिए भी बड़ी सफलता थी। लेकिन दो पात्र ऐसे हुए जो राम के दर्शन के बाद भी अशांत हो गए। शिव की पहली पत्नी सती, जिन्होंने श्रीराम को देखा, परीक्षा लेने का विचार किया और सीता का रूप धरकर छल से परीक्षा ली थी। अंत में वे अशांत हुईं। 

इसी तरह शूर्पणखा ने भी श्रीराम के दर्शन किए थे और उसे भी नाक, कान कटवाना पड़े थे। राम दर्शन के बाद असफलता और अशांति क्यों? यह बड़े सूत्र की बात है। दरअसल इन दोनों का ही प्रयास था कि राम को हम अपने तरीके से मानेंगे और पाएंगे। वह तरीका अहंकार व वासना में डूबा हुआ था। हम भी जीवन में जब-जब अपने लक्ष्य के प्रति अहंकार और वासना रखेंगे परिणाम इसी प्रकार मिलेंगे। 

श्रद्धा वह तत्व है जो नीयत को शुद्ध करती है। श्रद्धा अपने साथ शुद्धता को लेकर ऐसे चलती है जैसे गर्भवती स्त्री अपने गर्भ को संभालकर चलती है और शुद्ध आचरण से किया हुआ कार्य सफलता तथा असफलता दोनों मे शांति अवश्य देता है।


प्रार्थना में हो ऐसा भाव तो भगवान पूरी करते हैं हर इच्छा...
भगवान और भक्त के बीच एक ऐसा रिश्ता होता है, जिसमें भगवान की ओर से लगातार कृपा बरसती रहती है। यदि भक्त की तरफ से भी प्रार्थना का सिलसिला जारी रहे तो फिर मिलन होकर रहता है। प्रार्थना में आप मांग बनाए रखें या न रखें, लेकिन दीन भाव जरूर बनाए रखें। दीन भाव एक तरह से प्रार्थना के प्राण हैं।
सुंदरकांड में हनुमानजी जब मां सीता से विदाई ले रहे थे, तब सीताजी ने अपनी और रामजी की स्थिति पर जो पंक्तियां कही थीं, वो भक्त और भगवान के रिश्तों पर प्रकाश डालती हैं।

कहेहु तात अस मोर प्रनामा। सब प्रकार प्रभु पूरनकामा।।
दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।।

जानकीजी ने कहा - हे तात! मेरा प्रणाम निवेदन करना और इस प्रकार कहना - प्रभु! यद्यपि आप सब प्रकार से पूर्णकाम हैं (आपको किसी प्रकार की कामना नहीं है), तथापि दीन-दुखियों पर दया करना आपका विरद है और मैं दीन हूं, अत: उस विरद को याद करके नाथ! मेरे भारी संकट को दूर कीजिए।

यहां सीताजी ने एक शब्द प्रयोग किया है पूरनकामा। भगवान को भक्त से कोई कामना नहीं है। वे इस तरह कृपा बरसाते हैं, जैसे जलता हुआ दीया रोशनी। दीए को यह फिक्र नहीं होती कि रोशनी किसे दें या न दें। परमात्मा की कृपा भी इसी प्रकार बरसती है।

साथ ही सीताजी ने हनुमानजी से कहा, मैं दीन हूं इसलिए आपका मेरा रिश्ता इस प्रकार रहेगा कि आपको मेरे संकट दूर करने होंगे। यह बात हनुमानजी से इसलिए कही गई कि हनुमानजी दूत बनकर आए थे। आज भी कोई संदेश हम उनके माध्यम से परमात्मा तक पहुंचा सकते हैं।

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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