Thursday, June 14, 2012

Prarthna (प्रार्थना)

इस तरह करेंगे तो हर प्रार्थना स्वीकार करेंगे भगवान....
हर इंसान जीवन में कभी ना कभी भगवान से प्रार्थना जरूर करता है। प्रार्थना हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा होना चाहिए लेकिन अक्सर लोग तभी भगवान को याद करते हैं जब वे किसी बड़ी परेशानी से दो-चार होते हैं।

कई लोग ये भी कहते हैं कि वे प्रार्थना तो बहुत करते हैं लेकिन भगवान सुनता ही नहीं। दरअसल हम जब भी प्रार्थना करते हैं तो उसमें वो भाव नहीं होता जो भगवान को चाहिए। हम मिन्नतों में भी भगवान को वस्तुओं का लालच देते हैं। सिर्फ ये सोचने की बात है कि जिसने इस पूरे संसार की रचना की है वो क्या किसी साधारण लालच से पिघल जाएगा। प्रार्थना में सिर्फ आपकी भावनाएं ऐसी हों जो उसे छू सके।

भागवत में भक्त धु्रव की कथा आती है। धु्रव के पिता की दो पत्नियां थीं। पिता को अपनी दूसरी पत्नी से अधिक प्रेम था, जो कि ज्यादा सुंदर थी। उसी से पैदा हुए पुत्र से ज्यादा स्नेह भी था। एक दिन एक सभा के दौरान धु्रव अपने पिता की गोद में बैठने के लिए आगे बढ़ा तो सौतेली मां ने उसे रोक दिया।

पांच साल के अबोध धु्रव को रोना आ गया। सौतेली मां ने कहा जा जाकर भगवान की गोद में बैठ जा। धु्रव ने अपनी मां के पास जाकर पूछा मां भगवान कैसे मिलेंगे। मां ने जवाब दिया, उसके लिए तो जंगल में जाकर घोर तपस्या करनी पड़ेगी।

बालक धु्रव ने जिद पकड़ ली कि अब भगवान की गोद में ही बैठना है। जंगल की ओर निकल पड़ा। एक पेड़ के नीचे बैठकर ध्यान लगाया। लेकिन कोई मंत्र नहीं आता था। नारदजी उधर से गुजरे तो बालक धु्रव को गुरु मंत्र दे दिया। ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय नम:। बस अब बालक धु्रव मंत्र जपने लगा। कोई और इच्छा नहीं थी, सिर्फ एक भाव की भगवान की गोद में बैठना है।

मन से भगवान को पुकारने लगा। बच्चे का निर्दोष भाव देखकर भगवान भी पिघल गए। प्रकट हुए। वर मांगने को कहा। बालक धु्रव ने कहा मुझे अपनी गोद में बैठा लीजिए। भगवान ने इच्छा पूरी कर दी।

ना कोई प्रसाद, ना कोई चढ़ावा, सिर्फ भावों से ही भगवान को जीत लिया पांच साल के धु्रव ने। राज्य में बड़ा सम्मान हुआ। पिता ने सिंहासन भेंट कर दिया।

कभी भगवन की प्रार्थना से मुंह फेरने की गलती न करें...
दुःख में भगवान को याद करना चाहिए, लोग गलती यह करते हैं कि जब बहुत दुखी होते हैं तो भगवान् को भी भूल जाते हैं। दुख किसके जीवन में नहीं आता। बड़े से बड़ा और छोटे से छोटा व्यक्ति भी दुखी रहता है। पहुंचे हुए साधु से लेकर सामान्य व्यक्ति तक सभी के जीवन में दुख का समय आता ही है। कोई दुख से निपट लेता है और किसी को दुख निपटा देता है। दुख आए तो सांसारिक प्रयास जरूर करें, पर हनुमानजी एक शिक्षा देते हैं और वह है थोड़ा अकेले हो जाएं और परमात्मा के नाम का स्मरण करें।

सुंदरकांड में अशोक वाटिका में हनुमानजी ने सीताजी के सामने श्रीराम का गुणगान शुरू किया। वे अशोक वृक्ष पर बैठे थे और नीचे सीताजी उदास बैठीं हनुमानजी की पंक्तियों को सुन रही थीं। रामचंद्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा।।

वे श्रीरामचंद्रजी के गुणों का वर्णन करने लगे, जिन्हें सुनते ही सीताजी का दुख भाग गया। तब हनुमंत निकट चलि गयऊ। फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ।। तब हनुमानजी पास चले गए। उन्हें देखकर सीताजी मुख फेरकर बैठ गईं। हनुमानजी रामजी का गुणगान कर रहे थे। सुनते ही सीताजी का दुख भाग गया। दुख किसी के भी जीवन में आ सकता है।

जिंदगी में जब दुख आए तो संसार के सामने उसका रोना लेकर मत बैठ जाइए। परमात्मा का गुणगान सुनिए और करिए, बड़े से बड़ा दुख भाग जाएगा। आगे तुलसीदासजी ने लिखा है कि हनुमानजी को देखकर सीताजी मुंह फेरकर बैठ गईं। यह प्रतीकात्मक घटना बताती है कि हम भी कथाओं से मुंह फेरकर बैठ जाते हैं और यहीं से शब्द अपना प्रभाव बदल लेते हैं। शब्दों के सम्मुख होना पड़ेगा, शब्दों के भाव को उतारना पड़ेगा, तब परिणाम सही मिलेंगे। इसी को सत्संग कहते हैं।

जानिए, कैसे लाया जाए प्रार्थना में असर?
प्रार्थनाएं हर बार नहीं सुनी जातीं, लेकिन कई बार एक ही आवाज में भगवान दौड़े आते हैं। उन शब्दों में ऐसा कौन सा जादू होता है, जिससे भगवान पिघलते हैं। प्रार्थना कभी खाली ना जाए, इसमें ऐसा असर कैसे जगाया जाए।

कहते हैं प्रार्थना में शब्दों की जगह भाव होना चाहिए। कुछ नियम प्रार्थना के भी होते हैं। हम जब मांगने पर आते हैं तो यह भी नहीं देखते कि क्या हमारे लिए जरूरी है और क्या नहीं। बस मंदिर पहुंचते ही मांग रख देते हैं। मांगने की भी मर्यादाएं होती हैं। अनुचित और गैर-जरूरी चीजें मांगने से सिर्फ समय और प्रार्थना की बर्बादी होती है।

अपनी प्रार्थना में असर लाने के लिए भगवान से मांगने का भाव छोड़ दें। हम जितना मांगेंगे, उतना कम मिलेगा। सही तरीका यह है कि जीवन उसके भरोसे छोड़ दें और अपना कर्म करते चलें। फिर मांगने की जरूरत नहीं पड़ेगी। जो आवश्यकता होगी, वो अपनेआप मिल जाएगा।

गुजरात के प्रसिद्ध संत हुए हैं नरसिंह मेहता। नरसिंह मेहता बड़े नगर सेठ थे। उनकी एक ही बेटी थी। वे कृष्ण भक्ति में इतने लीन थे कि अपनी सारी दौलत गरीबों और जरूरतमंदों को दान कर दी। उनका अंदाज भी फकीराना हो गया। लोग समझाते कि कभी तुमको कोई जरूरत पड़ी तो क्या करोगे। फिर कहां से इना धन आएगा। मेहता कहते कि सब सांवरिया सेठ भगवान कृष्ण करेंगे।

बेटी के ससुराल में एक समारोह हुआ। नरसिंह मेहता को मायरे की भेंट देनी थी लेकिन पास में एक ढेला भी नहीं था। वो खाली हाथ ही चल दिए। भगवान का नाम जपते चल रहे थे। भगवान कृष्ण ने देखा कि ऐसे खाली हाथ जाएगा तो मेरे भक्त की इज्जत क्या रह जाएगी। भगवान खुद गाड़ीभर कर मायरे का सामान लेकर नरसिंह मेहता की बेटी के ससुराल पहुंच गए।

हमारी प्रार्थना में भाव समर्पण का होना चाहिए, इसके बाद तो भगवान बिना मांगे ही सब दे देगा।

फिर कोई भी परेशानी आपके लिए चिंता का कारण नहीं रहेगी...
कई बार हम संकट में भगवान को भूल जाते हैं, दिन-रात उस परेशानी से निकलने के लिए छटपटाते हैं लेकिन रास्ता नहीं मिलता।अक्सर देखा गया है कि ऐसे मुश्किल समय में हम भगवन को भूल जाते हैं. अगर प्रार्थना का क्रम जारी रहे तो फिर मुश्किलों से निकलने में कोई समस्या नहीं आएगी।रामचरित मानस के सुंदरकांड का एक प्रसंग यही बात सिखाता है।जिंदगी में संकट किसी भी रूप में आ जाता है। कभी-कभी तो हम थक जाते हैं कि आखिर हम इससे कैसे निपटें? कुछ लोगों ने महसूस किया होगा कि हमारा अनुभव भी ऐसे समय काम नहीं आता। हम कितनी ही ऊंची कक्षा के व्यक्ति हों, कुछ संकट ऐसे होते हैं, जो हमें विचलित कर ही जाते हैं। सुंदरकांड में सीताजी के साथ ऐसा ही हुआ था। वे परमज्ञानी विदेहराज जनक की बेटी थीं।

स्वयं बहुत सुलझी हुई स्त्री थीं और श्रीरामजी की धर्मपत्नी थीं। इसके बावजूद जब हनुमानजी उनसे पहली बार मिले तो वे अत्यधिक विचलित थीं। तुलसीदासजी ने लिखा है - कह कपि हृदयं धीर धरु माता। सुमिरु राम सेवक सुखदाता।। उर आनहु रघुपति प्रभुताई। सुनि मम बचन तजहु कदराई।। हनुमानजी ने कहा - हे माता! हृदय में धर्य धारण करो और सेवकों को सुख देने वाले श्रीरामजी का स्मरण करो।

उनकी प्रभुता को हृदय में लाओ और कायरता छोड़ दो। हनुमानजी के सामने दो जिम्मेदारियां थीं - पहली, श्रीराम का विरह संदेश देना और दूसरी सीताजी को सांत्वना देकर शोक से बाहर निकालना। तब हनुमानजी सीताजी को समझाते हैं - चार बातों को स्मरण रखें तो बड़े से बड़े संकट से पार हो जाएंगे।

पहली बात, धर्य न छोड़ें; दूसरी, भगवान का स्मरण करें। स्मरण धर्य का काम करता है। तीसरी बात, भगवान सर्वशक्तिमान हैं, उनकी ताकत को प्रभुता कहा है। उसे अपने हृदय में रखें। चौथी बात, कायरता छोड़ दें। ये दिन भी बीत जाएंगे, ऐसा भाव बनाए रखें। दुनिया का बड़े से बड़ा संकट आया है तो जाएगा भी।

भगवान को सबसे अच्छी लगती है ये प्रार्थना
मंत्र, पूजा-पाठ और हवन-पूजन अपनी जगह है लेकिन प्रार्थना का एक तरीका ऐसा भी है जिससे बिना कुछ किए भी भगवान तक पहुंचा जा सकता है। ये तरीका आपकी अपनी मुस्कुराहट। कहते हैं आदमी उसी चेहरे को देखना पसंद करता है जिसमें कोई आकर्षण हो।

मुस्कुराहट से बड़ा कोई आकर्षण नहीं है। भगवान राम हो या कृष्ण, गौतम हो या महावीर, सभी के चेहरों पर आकर्षण का प्रमुख कारण था उनकी निष्पाप मुस्कान। हम भी प्रयास करें कि चेहरे पर मुस्कान खिली रहे। इससे हमारा मन भी तनाव मुक्त होगा और हम अधिक सहज रह पाएंगे।

अध्यात्म का एक स्वरूप है आनन्द की खोज। जो लोग परमपिता परमेश्वर से जुडऩा चाहें उन्हें मुस्कुराना जरूर आना चाहिए। हर धर्म ने मुस्कुराहट को अपने-अपने तरीके से जरूरी ही माना है। मुस्कुराहट आनन्द की सतह है। जैसे समंदर में लहरें उठती हैं ऐसे ही आनन्द के समुद्र में मुस्कुराहट की लहर उठती है।

आजकल देखा गया लोग घर से निकलते हैं अपने धंधे-पानी, नौकरी-पेशा तक जाते-जाते जितने लोग मिलते हैं सबको देखकर मुस्कुराते हैं और घर आते ही एकदम सीरियस हो जाते हैं। घर में एक-दूसरे सदस्यों को देखकर कोई नहीं मुस्कुराता। हम घर में आपस में झगड़ते हैं और दूसरों को देखकर मुस्कुराते हैं। अपनों से मिलकर हंसिए।

जिस क्षण हम मुस्कुराते हैं परमात्मा मुड़कर हमारी ओर चलने लगता है। जो स्माईल जीने की चीज है वह लेने और देने की चीज बन गई है। हम मुस्कुराहट को भी शस्त्र की तरह इस्तेमाल करते हैं जबकि वह हमारी शान्ति का कारण हो सकती है। कई लोगों की हंसी भी बीमार हो गई है। कई लोगों ने स्माईल को भी बिजनेस पीस बना डाला है। अब तो देखा गया है द्विअर्थी संवाद या अश्लील चर्चा पर ही लोग हंसते हैं।

जिन्हें भक्ति करना हो, जो सद्गुण अपनाना चाहें, जो शान्ति की खोज में हों उन्हें सदैव अपनी हंसी को प्रेम और करुणामयी बनाए रखना चाहिए। फकीरों को हंसता हुआ देखिए। उनकी हंसी में चोट नहीं होती और हम किसी को गिरता हुआ देखकर भी हंसने लगते हैं। यह बहुमूल्य क्रिया है। इसे प्रेम के साथ प्रदर्शित करिए। इसलिए सुबह हो या शाम, अपनों से मिलें या गैरों से, घर के भीतर हों या बाहर, जब भी मौका मिले जरा मुस्कुराइए...परमात्मा यह प्रार्थना जरूर सुनता और देखता है।

जानिए, भगवान से प्रार्थना में क्या मांगा जाए...
हम मंदिर या किसी भी देव स्थान पर जब भी जाते हैं, हमारी मांगों की फेहरिस्त तैयार ही होती है। कभी बिना मांगे हम किसी दरवाजे से नहीं लौटते। परमात्मा से मांगने की भी एक सीमा और मर्यादा होती है। हमेशा भौतिक वस्तुओं या सांसारिक सुख की मांग ही ना की जाए। कभी-कभी कुछ ऐसा भी मांगें जो हमें भीतर से परमात्मा की ओर मोड़ दे। ईश्वर गुणों की खान होता है, उससे हम अपने लिए सद्गुण मांगें तो ज्यादा बेहतर होगा।

परमात्मा से जब भी की जाए गुण ग्रहण की ही प्रार्थना की जाए। प्रार्थना तो करें परन्तु उसे आचरण में भी लाएं। अन्यथा प्रार्थना फलीभूत नहीं हो पाएगी। गुण ग्रहण की प्रार्थना करने का अर्थ है कि हम सुबह उठकर एक अच्छा काम करने का संकल्प लें और रात सोने से पहले एक बुराई का त्याग करके सोएं।

जो ऐसा करते हैं वे गुणग्राही, जीवन को गुणों से सम्पन्न बना लेते हैं। धन से सम्पन्न होना तो सरल एवं सहज है लेकिन गुणों से सम्पन्न होना मुश्किल हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हम बुराइयों को छोडऩे और अच्छाइयों एवं गुणों को ग्रहण करने में अपने आपको कमजोर पाते हैं।

इस कमजोरी के कारण हम गुणों को देखने के स्थान पर दोष देखने लगते हैं। अपने व्यक्तित्व में सृजन का भाव लगातार विकसित करें। मानव जीवन को कल्पवृक्ष बनाने का श्रेय इन्हीं रचनात्मक विचारों का होता है।

इस तथ्य को भली प्रकार समझते हुए चिन्तन को मात्र रचनात्मक एवं उच्च स्तरीय विचारों में ही संलग्न करना चाहिए। विचार मानव के जीवन में महान शक्ति है। वही कर्म के रूप में परिणत होती और परिस्थिति बनकर सामने आती है। जैसा बीज होगा वैसा पेड़ बनेगा। जैन मुनि प्रज्ञा सागरजी ने अपनी पुस्तक मेरी किताब में इस विषय पर बहुत अच्छे विचार दिए हैं।

उनका कहना है- कुछ लोग दूसरे की कमी क्यों देखते हैं? अपनी कमी को छिपाने के लिए। जैसे लोमड़ी अंगूर तक नहीं पहुँच पाती तो स्वयं को दोष देने की बजाय अंगूरों को दोष देने लगती है। खाने की वासना तो है लेकिन अपनी असमर्थता छुपाने के लिए अंगूर को ही खट्टा बता दिया। ऐसे ही हम भी अपनी कमी छुपाते-छुपाते दूसरों की कमी देखने के आदी हो गए हैं।

ये हैं भगवान को पाने के लिए छः सबसे जरुरी बातें...
दुनिया और दुनिया बनाने वाले दोनों को यदि हम पाना चाहें तो जीवन में एक संतुलन बनाना पड़ेगा। यह संतुलन शक्ति से बनता है। हमारे भीतर छ: प्रकार की शक्तियाँ हैं जिन्हें हम ठीक से जान लें तो हमारे लिए भौतिकता और भक्ति समझना आसान हो जाएगा।
1. पराशक्ति - यह सब शक्तियों का मूल और आधार है।

2. ज्ञान शक्ति - यह मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार का रूप धारण कर, मनुष्य की क्रिया का कारण बन जाती है। इसके द्वारा दूरदृष्टि, अंतज्र्ञान और अंतदृष्टि जैसी सिद्धियां प्राप्त होती हैं।

3. इच्छाशक्ति - यह शरीर के स्नायु मण्डल में लहरें उत्पन्न करती हैं जिससे इन्द्रियां सक्रिय होती हैं और कार्य करने की तरफ संचालित होती हैं। जब यह शक्ति सत्गुण से जुड़ जाती है तो सुख और शान्ति की वृद्धि होती है।

4. क्रियाशक्ति - सात्विक इच्छा शक्ति इसी के द्वारा कार्यरूप में परिणित फल को पैदा करती है।

5. कुण्डलिनी शक्ति - यह एक तरह से जीवन शक्ति है। इसके दो रूप हैं समष्टि और व्यष्टि। समष्टि का अर्थ है पूरी श्रृष्टि में कई रूपों में विद्यमान रहना जैसे - पेड़-पौधों में प्राण, प्रकृति का जीवन तत्व। व्यष्टि रूप में मनुष्य के शरीर के भीतर तेजोमई शक्ति के रूप में रहती है। इसी शक्ति के द्वारा मन संचालित होता है। इसे परमात्मा की ओर मोड़ दें तो माया के बंधन से मुक्ति मिलती है। यह साधना से जागृत होती है।

6. मातृका शक्ति - यह अक्षर, बिजाक्षर, शब्द, वाक्य तथा गान विद्या की शक्ति है। मंत्रों में शब्दों को जो प्रभाव होता है वह इसी के कारण है। इसी शक्ति की सहायता से इच्छा शक्ति और क्रिया शक्ति अपना फल दे पाती है। इसके बिना कुण्डलिनी शक्ति नहीं जागती। अपनी इन शक्तियों को भीतर से पहचानें और इनका उपयोग सफलता प्राप्त करने में करें।

केवल इस ताकत से पाया जा सकता है भगवान को....
हर तरह से बलशाली बनने के इस समय में बाहुबल, धनबल, जनबल इन्हें भौतिक तौर-तरीकों से पाया जा सकता है। यह कोई बहुत कठिन काम नहीं होता। यह सब तो रावण के पास भी था, क्योंकि उसने अर्जित किया था। लेकिन आत्मबल की कमी उसमें भी थी और आज भी कई लोगों में रहती है।
 
लगातार प्रयास करते रहिए कि बाहर से सब तरह से सक्षम होने के साथ हम आत्मबली भी हों। इसकी शुरूआत आत्मज्ञान से होती है। आत्मज्ञान का अर्थ है स्वयं को जानना। अपने को जानने की पहली सीढ़ी है हम भीतर से क्या हैं? या यूं कहें हमारे भीतर हमारे अलावा और कौन रहता है?
 
जैसे ही इस सवाल के जवाब में हम थोड़ा गहरे उतरेंगे तभी हमें अनुभूति होगी हमारे भीतर परमात्मा रहता है और जितने उसके निकट जाएंगे उतना ही हम यह अधिक महसूस करेंगे कि हम ही परमात्मा हैं। हमारे भीतर रहकर ईश्वर ने हमें अपने जैसा बनाया है, लेकिन संभावना छोड़ दी है कि हम पहचानें या न पहचानें। हम भगवान की शानदार कृति हैं और वे हमारे भीतर बसे ही हैं।
 
इस अनुभव को बढ़ाने के लिए एक प्रयोग करें। जब भी हम कोई काम करें इस बात का दबाव स्वयं पर बनाएं कि हमारा हर कृत्य हमारी भगवत्ता को जरूर स्पर्श करे। यदि हम कुछ गलत कर रहे हैं तो हमारी भगवत्ता उससे अछूति नहीं है। फिर विचार करें परमात्मा अनुचित नहीं करता। चूंकि हम उससे कट गए हैं इसलिए जीवन में गलत शुरू हो गया है।
  
जैसे ही हम भीतर उससे जुड़ेंगे अनुचित अपने आप उचित में बदलने लगेगा। भीतर भगवान से जुडऩा ही आत्मबल है। कोई है जो हमसे सीधे-सीधे जुड़ा है। भीतर से उनका साथ होना बाहर हमारे व्यक्तित्व को ओज और तेजमय बना देगा।

भगवान की भक्ति का एक तरीका यह भी है...
जिन्हें भक्ति करना हो, जो जीवन में शान्ति चाहते हों, अपने व्यक्तित्व में मौलिकता रखना चाहते हों उन्हें प्रकृति के साथ कुछ प्रयोग करना चाहिए। शास्त्रों में लिखा है प्रकृति परमात्मा की पहली और सच्ची प्रतिनिधि है। परमात्मा का रूप मनुष्य ने अपनी रूचि, श्रद्धा और जाति के अनुसार बना लिया है और यदि ऐसे स्वरूप की प्राप्ति न हो रही हो तो प्रकृति से अवश्य जुड़ें।
  
प्रकृति अपने से जुड़ाव को व्यर्थ नहीं जाने देती। प्रकृति पर एक दिन सुबह से ही विचार कर लें कि आज आप प्रकृति के प्रत्येक हिस्से के प्रति पूर्ण समर्पित हो जाएंगे। पूरा दिन प्रकृति के लिए होगा। अपनी सामान्य गतिविधि करते रहें लेकिन प्रकृति के जितने हिस्से उस दिन आपको दिखें या उनके संपर्क में आए तो आप उनके प्रति अतिरिक्त रूप से संवेदनशील बन जाएं। जैसे किसी पेड़ को देखें, किसी पक्षी को देखें या पशु को स्पर्श करें तो पूरी तरह प्रेम से भर जाएं।
  
विचार करें कि हम उस देश में रहते हैं जहां नदी, पहाड़, वृक्ष, पशु-पक्षी पूजे गए हैं। इस तरह से हम सम्पूर्ण पूजा के भाव में डूब जाएंगे। दिनभर में किसी पत्ती को स्पर्श करके विचार करें जैसे आप अपने बच्चे के गाल को स्पर्श कर रहे हैं। कुल मिलाकर आज का दिन प्रकृति के नाम है। इस विचार और कल्पना को अपनी रूचि से जोड़ते और बढ़ाते जाएं। रात को सोते समय चिंतन करें क्या हम आज प्रकृति में समा पाए?

प्रार्थना में अगर ऐसा भाव हो तो फिर वो बेकार है...
भगवान के सामने प्रार्थना में भी लोग मोलभाव से नहीं चूकते। उसका नाम जुबान पर बाद में आता हैमन से अपनी मांग पहले निकल जाती है। यहीं से हमारी आस्था घायल होती है। भक्ति में व्यापार प्रवेश गया और प्रार्थना भगवान तक पहुंच ही नहीं पाई। जब हम परमात्मा के सामने खड़े हों तो मांगने की बजाय समर्पण का भाव मन से निकलना चाहिएतभी प्रार्थना उसके कानों तक पहुंचती है।

लेकिन आजकल इसका ठीक उलट हो रहा है। लोग ईश्वर को भी चढ़ावे का लालच देकर अपना काम निकलवाना चाहते हैं। इसके लिए एक बात समझनी होगी कि जिसने हमें ये सब दिया है क्या वो इन्हीं भौतिक साधनों के लालच में फंसेगा।

फकीरों ने कहा कि स्वयं को मिटाए बिना परमात्मा नहीं मिलता। यह संवाद भय पैदा करता है। स्वयं को मिटाने में डर लगता है लेकिन स्वयं को मिटाने का अर्थ है अपने अहंकार को गला देना। इसके लिए एक सरल प्रक्रिया है जप करना। जप कि यह विशेषता है कि नाम की बार-बार आवृत्ति होने पर रस बना रहता है। जप मेंप्रार्थना में दरअसल स्वयं को मिटाना होगा।

मिटे बिना न तो सही प्रार्थना हो सकती है और न जप हो सकता है। यदि प्रार्थना करते-करते हम पिघले नजप करते-करते हम स्वयं को न खो दें तो फिर ये प्रार्थनाहमारी अक्ल का हिसाब ही मानी जाएगा। फिर प्रार्थना एक गणित होगीएक धंधा होगी।

एक चर्च में एक पादरी प्रवचन दे रहे थे तो उन्हें बड़ी हैरानी हुई क्योंकि सामने एक बुढिय़ा बैठी थी और पादरी जब भी ईश्वर का नाम लेते वह आमीन-आमीन कहती। आमीनओम का ही रूपांतरण है। लेकिन जब पादरी शैतान का नाम लेते तब भी बुढिय़ा कहती-आमीन। पादरी को बड़ी हैरानी हुई। प्रवचन के बाद जब वे मंच से उतरे और बुढिय़ा के पास गएउस बुढिय़ा से कहा- समझ में नहीं आता कि ईश्वर का नाम लेते समय तो आमीन करते देखापर आप शैतान के नाम पर भी आमीन कह रही हैं।

बुढिय़ा ने कहा- यह मेरा मृत्यु का समय हैअंतिम समय हैकिसी से भी बुरा क्यों बनें। क्या मालूम संसार से जाने के बाद में किसके पास जाना पड़ेपता नहीं भगवान के हाथ लगें या शैतान के। इसे कहेंगे गणित। यह पूजा नहीं की जा रही है। दोनों को राजी रखना क्या ठीक हैदरअसल यह बुद्धि का हिसाब है। यह मिटना नहीं हैयह मोलभाव है। जप एवं साधना ऐसे नहीं हो सकतीइसमें मिटना ही पड़ेगा।


इस तरह प्रार्थना हमारे लिए लीडरशिप का काम करती है...
हमारे जीवन की हर व्यवस्था में एक शीर्ष पद होता है। कोई न कोई प्रमुख होता है, जिसके निर्देश पर अन्य को काम करना पड़ता है। परिवार में मुखिया, कार्यालयों में बॉस, सामाजिक जीवन में कर्णधार। ऐसी अनेक शक्लों में आदेश, प्रेरणा और निर्णय लेने वाले लोग होते हैं।

चलिए, आज इस बात पर चर्चा करें कि जीवन कितना आदेशों से और कितना प्रेरणा से चलता है। फिर इसे भी समझ लें कि किसका आदेश मानें और किससे प्रेरित हों।आप किसके प्रति आज्ञाकारी हैं, किनके निर्देशों से संचालित हैं, इससे जिंदगी की गति तय होती है। व्यावहारिक, पारिवारिक जीवन में शीर्ष व्यक्ति का चयन हमारे हाथों में नहीं होता। माता-पिता और बॉस के चयन की गुंजाइश कम ही लोगों को मिलेगी।

ये तय होते हैं, लेकिन हमारे निजी, आध्यात्मिक जीवन में आदेश और प्रेरणा के स्रोत हम स्वयं चुन सकते हैं। जैसे हमारा मन हमारी आत्मा की प्रेरणा से चलना चाहिए, पर वह हो जाता है स्वेच्छाचारी। यदि हम आत्मा तक न पहुंच पाएं, तो कम से कम मन, बुद्धि द्वारा तो प्रेरित रहें।
शीर्ष पर बुद्धि हो, निर्णय लेने के अधिकार बुद्धि के पास रहें, पर चूंकि मन ये अधिकार छीन लेता है तो हमें वो उन आकर्षणों की ओर ले जाता है, जो नुकसानदायक हैं। हमारे जीवन के शीर्ष पर आत्मा व बुद्धि होनी चाहिए, लेकिन प्रभावशाली हो जाता है मन।

इसलिए थोड़ी देर प्रार्थना से जरूर गुजरिए। प्रार्थना हमें वर्तमान पर टिकाकर परमशक्ति में डुबोने की क्रिया है। जैसे ही हम प्रार्थना में उतरे, मन निष्क्रिय हो जाएगा, क्योंकि प्रार्थना मांग नहीं है, सिर्फ जुड़ाव है और यहीं से हम सही नेतृत्व में जीवन को चलाने लगेंगे।

हमारे व्यक्तित्व को इस तरह संवारती है प्रार्थना...
प्रार्थना परत उतारने की प्रक्रिया है। हमने संसार में रहते हुए अपने चेहरे पर, अपने व्यक्तित्व पर कई परतें जमा कर ली हैं। प्रार्थना द्वार जैसी है परमात्मा तक जाने के लिए। उस दिव्य शक्ति के सामने छिपा हुआ चेहरा लेकर नहीं जा सकते। वहां तो जैसे हैं वैसा ही रहना होगा।

हम क्या हैं यह बताने की क्रिया जगत में अलग होती है और जगदीश के सामने अलग होती है। दुनिया में कई लोगों के सामने हम चिल्लाते हैं जानते नहीं मैं कौन हूं?

हमारा मनपसंद काम नहीं हुआ, अपमान हुआ, तो हम एक दम ब्लास्ट हो जाते हैं। अभी बताता हूं मैं क्या हूं। यह अकड़ का प्रदर्शन है, परिचय का नहीं, शब्दों की हिंसा है। अध्यात्म जगत थोड़ा उल्टा चलता है। यहां जब यह कहा जाए कि जानते नहीं मैं कौन हूं तो सबसे पहले मैं गिर जाएगा। क्योंकि जो जानता है उसका मैं गल ही जाएगा।

जानने में ही मैं का विसर्जन है। हमारा मैं दुनिया में तीन रूप में एपियर होता है। अकड़, हिंसा और अहंकार। जबकि ये तीनों पानी के बुलबुले जैसे, ताश के पत्तों के महल समान और कागज की नाव की औकात के होते हैं।

ढह जाएंगे एक दिन ये तीनों, पर नुकसान पहुंचा कर। प्रार्थना यदि सच्ची रहे तो परमात्मा के सामने हमारा वो चेहरा प्रकट होगा जो हमारे जन्म से पहले था और मृत्यु के बाद रहेगा। बीच में जीते जी जो भी दुर्गुणों से लिपापुता हमने अपना चेहरा बनाया वह असत्य लेपन था। प्रार्थना इसी की धुलाई है। प्रार्थना में जब हम अपने व्यक्तित्व को धोते हैं तब हम पवित्र होने लगते हैं और पवित्रता परमात्मा की पहली पसंद है।
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तीन चरण बना लें प्रार्थना के, पहला आरम्भ में भीतर से विचार शून्य हों, दूसरा मध्य में बाहर से समर्पण रखें और तीसरा समापन पर जरा मुस्कुराइए...।

इस तरह पुकारें तो आप तक दौड़े आएंगे भगवान...
भगवान ऐसी व्यवस्था का नाम है जिसमें भरोसा रखो तो उसे देख भी सकते हैं और अगर भरोसा नहीं हो तो लाख पुकारें वो नहीं आएंगा। भगवान किसी मंत्र या पूजा से कभी खुश नहीं हो सकता जब तक की उसमें भावनाओं का प्रसाद नहीं चढ़ाया गया हो। भगवान को पुकारना है तो दिल में ऐसी भावनाओं को जगाना पड़ेगा फिर पुकारिए, भगवान खींचे चले आएंगे।

जिनका शरीर, सांस और मन पर नियंत्रण है उनका ध्यान घटना है और यह ध्यान की अवस्था उन्हें सिद्ध योगी सा बना देती है। ऐसी दिव्य स्थिति में उनसे जो कृत्य होते हैं फिर वो चमत्कार की श्रेणी में आते हैं।अबुलहसन उच्च दर्जे के मुस्लिम फकीर हुए हैं। इनके मुंह से जो अलफाज निकलते थे वो सच हो जाते थे। जिनके जीवन में ध्यान सही रूप से उतर जाए तो उनकी वाणी सिद्ध हो जाती है।

एक बार हज यात्रियों को अपने ऊपर खतरा लगा। उन्होंने अबुल हसन के पास जाकर कहा कोई ऐसी दुआ बता दीजिए जिससे सफर में हमारे ऊपर कोई खतरा न रहे। फकीर ने जवाब दिया जब कोई मुसीबत हो तो अबुल हसन को याद कर लेना। कुछ को विश्वास आया कुछ ने बात हंसी में उड़ा दी। रास्ते में डाकू आ गए। एक धनवान को अबुल हसन की बात याद आ गई और उसने फकीर को याद किया। कहते हैं वह ओझल हो गया, डाकुओं को नजर नहीं आया। डाकुओं के जाने के बाद वह फिर नजर आ गया। उसका धन बच गया।

जब सबने पूछा तो उसने कहा मैंने फकीर अबुल हसन को याद कर लिया था। लोगों ने बाद में अबुल हसन से पूछा हमने खुदा को याद किया और इस धनवान ने आपको याद किया था। ये बच गया हम लुट गए ऐसा क्यों? फकीर ने जवाब दिया आप लोग खुदा को जुबान से याद करते हो और मैं दिल से बस उसी का फर्क था।दिल से इबादत ऐसे ही नहीं हो जाती है। उसके लिए शरीर, सांस और मन में एकसाथ शांति लाना पड़ती है। इसका नाम ध्यान होता है।

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK


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