स्वयं को पवित्र करने के लिए ये नौ दिन हैं। हम बाहर से खुद को तरोताजा रखने
में सजग हैं, लेकिन इन नौ दिनों में हम खुद को भीतर से साफ-सुथरे रखने का तप कर सकते हैं।
हमारे शरीर में नौ द्वार बताए गए हैं। यदि इन्हें इन दिनों में साफ-सुथरा रख लिया
तो सालभर हमारे व्यक्तित्व से सुगंध आएगी। दो आंखें, दो कान, नाक के दो छिद्र, एक मुख और मल-मूत्र की
दो इंद्रियां। इन्हीं के जरिये शक्ति खर्च होती है और प्राप्त भी की जा सकती है।
इन नौ मार्गों को साधना है नवरात्र में। इसलिए इन दिनों बहुत सक्रिय रहें, जरा भी निष्क्रिय न
रहें। पुराणों में देवी उपासना के तीन मार्ग बताए गए हैं - ज्ञान योग, कर्म योग और भक्ति योग।
चित्त जब आत्मा से जुड़ जाए तो उसे ज्ञान योग कहते हैं। जीवन के प्रति नया
दृष्टिकोण तब ही मिलता है, जब हम आत्मा से जुड़ते हैं। अभी हम शरीर पर टिके हैं। इसमें
जिंदगी का नजरिया अलग रहता है।
जब हमारा चित्त बाहर की गतिविधियों में जुड़ता है, तब हम कर्म योग में रत रहते हैं
और भक्ति योग का अर्थ है उपासना करना। इसमें कर्म योग को बहुत महत्व दिया गया है,
क्योंकि विद्वानों
ने कहा है - कर्म से भक्ति, भक्ति से ज्ञान और ज्ञान से मुक्ति मिलती है। शक्ति पर्व के
ये दिन हमारे कर्म करने की वृत्ति में ऊर्जा और उत्साह भरेंगे। विज्ञान भी इस बात
को लेकर चकित है कि इन नौ दिनों की ऊर्जा ३६५ दिन तक कैसे बहती है। इसलिए खूब
प्रसन्न रहें, जमकर काम करें और लक्ष्य को पूरा किया जाए। यही नवरात्र का संदेश है।
अपने वक्त को सांसों से जोड़ें
किसी यात्रा के दौरान कभी शांति से अकेले बैठने को मिल जाए, तो आते-जाते लोग,
वाहनों को
देखिएगा। देखेंगे कि जिसे देखो वह जल्दी में है। समय बर्बाद हो रहा हो तो चिड़चिड़े
हो जाते हैं। लगता है थोड़े दिनों बाद हमारे देश में स्थानों की दूरी किलोमीटर से
नहीं, समय
से नापी जाएगी।
महानगरों में जब कोई किसी से स्थान की दूरी पूछता है, तो वह कहता है, किलोमीटर की बात छोड़ो,
पहले बताओ समय
कितना लगेगा? क्योंकि दूरी तय करने में तो वाहनों का जाम लग सकता है, सड़कें खराब हो सकती हैं,
ट्रेन लेट हो सकती
है, फ्लाइट
कैंसल हो सकती है। मैं वर्षों से व्यासपीठ पर बैठकर कथाएं करता हूं। मेरे सामने जब
खासतौर पर नई पीढ़ी के श्रोता बैठे होते हैं तो उनकी आंखों में आध्यात्मिक
जिज्ञासा कम होती है,आंखें मौन सवाल पूछ रही होती है, पंडितजी, व्याख्यान-प्रवचन खत्म कब होगा? कई युवा तो पूछ ही लेते
हैं, ‘कितने
समय में व्यासपीठ का पेकअप होगा। मैं जब व्याख्यान समय पर समाप्त करता हूं तो कुछ
लोग मुझे इस बात की बधाई कम देते हैं कि विषय की प्रस्तुति अच्छी थी, बल्कि ज्यादातर इस बात
की सराहना करते हैं कि आपने टाइम पर खत्म किया।
सबके प्राण समय में अटके हैं। हमारे ऋषि-मुनियों ने समय को काल और काल को
ईश्वर ही बताया है। होते तो चौबीस घंटे ही हैं, इसलिए समय का सदुपयोग करना हो तो
उसे सांसों से जोड़िए। इन चौबीस घंटों में आप जो सांस होश में ले रहे हैं वही
सदुपयोग है, बाकी वक्त तो मानकर चलिए कि जुर्माना ही भर रहे हैं। जिन्हें शांति की तलाश है
वे अपने वक्त को सांस से जोड़ लें। जैसे जिन्हें सफलता की तलाश होती है वे अपने
वक्त को परिणाम से जोड़कर चलते हैं। सफलता के साथ शांति भी एक परिणाम होना चाहिए।
भूलने, याद रखने की कुंजी ध्यान
कुछ बातें भुलाए नहीं भूलतीं और कुछ समय पर याद नहीं आतीं। इंसान के लिए दोनों
ही समस्या हैं। जैसे-जैसे विज्ञान ने प्रगति की, मनुष्य को याद रखने के लिए कुछ
सुविधाएं दीं और विज्ञान की ये सुविधाएं मनुष्य को मनोवैज्ञानिक रूप से परेशान भी
करती गईं। आजकल के बच्चों के पास तो मोबाइल और कंप्यूटर होने के कारण याद रखने के
तौर-तरीके बदल गए। अब दिमाग पर जोर नहीं डालना पड़ता। सबकुछ माचिस की डिब्बी की
तरह मोबाइल में बंद है। अब स्मृतियां तकनीक के माध्यम से उजागर होने लगी हैं। पहले
यह काम भावना और बुद्धि किया करती थी, इसीलिए क्या याद रखें और क्या भूलें, यह मनोवैज्ञानिक समस्या
बन गई। अगर इसे आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो हम पाएंगे स्मृतियां यदि अधिक हुईं
और मन से जुड़ीं तो अशांति पैदा करेंगी। मन के मामले में भूलना ही अच्छा है,
क्योंकि जितनी
बातें याद रखी जाएंगी और यदि मन से जुड़ गईं तो मन उनको बढ़ा-चढ़ाकर जीवन से
जोड़ेगा।
पुरानी स्मृतियों में मन दुख भरता है, उसमें संदेह डाल देता है, इसलिए स्मृतियां यदि मन से जुड़ी
हैं तो खरनाक हैं और यदि बुद्धि से जुड़ी हैं तो फायदेमंद हैं। भूलने की आदत मन के
मामले में अच्छी है और बुद्धि के मामले में खतरनाक। इसके लिए ध्यान की क्रिया बड़े
काम की है। मेडिटेशन करते हुए एक लाभ यह होता है कि किस समय क्या याद रखा जाए और
क्या भूला जाए यह कला मनुष्य को आ जाती है। ध्यान परमात्मा को पाने के लिए,
मोक्ष के लिए या
पाप-पुण्य से मुक्त या जुड़ने के लिए नहीं होता। ध्यान आपको इस बात के लिए सजग कर
देता है कि उन बातों को समय रहते भूल जाएं जो आपको अशांत बनाएंगी और उन बातों को
हमेशा याद रखें जो आपको शांत बना सकती हैं।
हनुमानजी हैं तो समस्या नहीं रहेगी
माता-पिता ने जिन बच्चों को देखा है उसमें उनका भोलापन, आज्ञाकारी होने जैसे गुणों या
जैसे भी वे उन दिनों होते हैं, उसके कारण बड़े प्यारे होते हैं। उम्र के साथ बच्चों का
व्यवहार भी बदलता है। जवान होते-होते बच्चे कुछ ऐसा व्यवहार करते हैं, जिसकी कल्पना मां-बाप कर
ही नहीं सकते और फिर परेशान होते हैं। अपने लोग और अपनापन क्या होता है, इसकी परवाह नई पीढ़ी कम
ही करती है। इन दिनों हम चर्चा कर रहे हैं किष्किंधा कांड की। श्रीराम ने क्रोधित
होकर लक्ष्मण को भेजा था।
लक्ष्मणजी ने किष्किंधा के द्वार पर धनुष-बाण की टंकार की। सब घबरा गए।
सुग्रीव कुछ समझ पाते इसके पहले अंगद लक्ष्मणजी के पास पहुंच गए। 'धनुष चढ़ाइ कहा तब जारि
करउं पुर छार। ब्याकुल नगर देखि तब आयउ बालिकुमार।।' तदनंतर लक्ष्मणजी ने धनुष चढ़ाकर
कहा कि नगर को जलाकर अभी राख कर दूंगा। तब नगरभर को व्याकुल देखकर बालि पुत्र अंगद
उनके पास आए। अंगद ने मन ही मन सोचा कि लक्ष्मणजी निश्चित ही सुग्रीव को अब नहीं
छोड़ेंगे।
चलकर लक्ष्मणजी को अपने पक्ष में कर ही लें और अंगद ने लक्ष्मणजी को प्रणाम
करके संतुष्ट कर लिया। इस दौर में सब अपनी-अपनी सुरक्षा चाहते हैं। सब मिलकर संकट
सह लेंगे, यह भावना अब समाप्त होती जा रही है। लक्ष्मणजी को भी लग रहा था कि सुग्रीव
अपनी गलती नहीं सुधार पाएंगे। इस सबके बीच हनुमानजी सबसे महत्वपूर्ण चरित्र थे।
हनुमानजी जानते थे कि अंगद और सुग्रीव में भी मतभेद है। सुग्रीव रामजी को नाराज कर
चुके हैं। एक तरह से किष्किंधा के हालात बहुत बिगड़े हुए थे। यह घर-घर की कहानी
है। सदस्यों में मतभेद हो जाना, तनाव आ जाना स्वाभाविक है परंतु यदि हनुमानजी हैं तो बातें
आसानी से सुलझ जाएंगी और ऐसा ही हो गया।
सफलता दिलाता है भरोसे का बल
यह ऐसा समय है कि जहां से भी शक्ति मिले, समेट लेना चाहिए। बल कई हैं-
आत्मबल, धनबल,
जनबल, यश-बल आदि। इन बलों को
बटोरने के लिए कुछ न कुछ योग्यता चाहिए। धनबल अर्जित करना हो तो पढ़ें-लिखें,
परिश्रम करें।
शारीरिक बल पाने के लिए स्वस्थ रहना पड़ता है। किंतु भरोसे का बल ऐसा हैजो बिना
योग्यता के भी अर्जित किया जा सकता है। अपने अलावा किसी न किसी पर भरोसा करना जरूर
सीखिए। यह भरोसा किसी ईश्वरीय शक्ति, प्रकृति, माता-पिता पर हो सकता है। भरोसा एक स्वभाव के रूप
में बल है। दुनिया में सब काम आप कर नहीं सकते और खूब काम करने के बाद भी दुनिया
आपको सब दे नहीं सकती। ऐसे समय भरोसे का बल बड़ा काम आता है।
जो लोग सिर्फ अपने भरोसे जीते हैं, वे एक दिन अशांत हो जाते हैं, लेकिन जो लोग अपने अलावा किसी और
के खासतौर पर परम शक्ति के भरोसे रहते हैं उनके जीवन में निराशा कम आएगी। भरोसा
बनाए रखने के लिए लगातार खोज करना पड़ती है, क्योंकि बिना ढूंढ़े आप किसके
भरोसे रहेंगे? किस पर भरोसा रखें इसकी खोज
जल्दी पूरी करें और उस भरोसे से जुड़ जाएं। मुझे ऐसा लगता है, जिन्हें अपने अलावा किसी
और शक्ति का भरोसा होता है; उनके काम आसानी से निपट जाते हैं, क्योंकि उनके आत्मबल में भरोसे
का बल मदद करता है। हमारे यहां तो कहा गया है कि भगवान भरोसे का दूसरा नाम है। यह
एक पंक्ति सफलता की इबारत लिखने के लिए काफी है। भरोसा और अंधविश्वास में अंतर है।
अंधविश्वास बिना खोजे, बिना जानकारी के किया जाता है और भरोसे में पहले आप खोज
लीजिए, पूरी
जानकारी निकालिए पर किसी न किसी पर भरोसा जरूर कीजिए।
योग्य का चयन यानी काम पूरा
किसी काम के लिए सही व्यक्ति का चयन हो जाए तो समझ लीजिए काम शुरू होने से
पहले ही पूरा हो गया। प्रबंधन की भाषा में यह अपने से अधिक योग्यता वालों को सदैव
टीम में रखने की बात है। योग्य लोगों से काम लें तो उद्देश्य बहुत साफ-सुथरे ढंग
से उन्हें बताएं। उनके मान-सम्मान में कमी न रखें, योग्यता इतना जरूर चाहती है। सुग्रीव
हनुमानजी से योग्यता में कम थे, लेकिन राजा थे। दृश्य चल रहा है किष्किंधा कांड का। क्रोधित
लक्ष्मण आए तो सुग्रीव समझ गए कि उन्हें केवल हनुमानजी ही समझा सकते हैं, लेकिन केवल इतने से काम
नहीं चलेगा, सहानुभूति भी होनी चाहिए, इसलिए हनुमानजी से कहा कि बाली की विधवा तारा को साथ ले
जाएं। उसके प्रति लक्ष्मणजी सहानुभूति रखेंगे। तुलसीदासजी ने लिखा, ‘सुनु हनुमंत संग लै
तारा। करि बिनती समुझाउ कुमारा।।’
हे हनुमान, तुम तारा को साथ ले जाकर राजकुमार को समझा-बुझाकर शांत करो। हनुमानजी जानते थे
कि तारा की उपस्थिति से सहानुभूति तो मिल जाएगी, लेकिन लक्ष्मणजी शांत नहीं
होंगे। दूसरे के स्वभाव और आचरण को जानने में हनुमानजी बड़े दक्ष थे। उन्हें मालूम
था कि लक्ष्मण को सबसे अधिक कुछ पसंद है तो वह है श्रीराम का यशगान सुनना। वे अपनी
प्रशंसा सुनना तो विष जैसा मानते हैं। अत: हनुमानजी पहुंचे और तुलसीदासजी ने लिखा,
‘तारा सहित जाइ
हनुमाना। चरन बंदि प्रभु सुजस बखाना।।’ हनुमानजी ने तारा सहित जाकर लक्ष्मणजी के चरणों की
वंदना की और प्रभु राम के सुंदर यश का बखान किया। श्रीराम का यश सुनकर लक्ष्मणजी
अतिप्रसन्न हो गए। फिर हनुमानजी जैसे वक्ता, जिनकी विषय प्रस्तुति इतनी सुंदर
थी कि सारे हालात उन के काबू में आ गए। हमें यही सीखना है- कैसे काम सौंपा जाए और
कैसे सौंपे हुए काम को पूरा किया जाए।
सिफारिश पर सतर्कता से निर्णय लें
सिफारिश आवश्यक बुराई है। जैसे प्रशंसा गलत रूप ले ले तो अहंकार नाम की बीमारी
चिपक सकती है और सही रूप में ली जाए तो प्रोत्साहन बन जाती है। सिफारिश से भी
योग्य व्यक्ति सही जगह पहुंच सकता है और इसी से भ्रष्टाचार भी जन्म ले सकता है।
लोग सिफारिशों से प्रवेश तो ले लेते हैं, लेकिन काम को अंजाम नहीं दे पाते। यदि सिफारिश किसी
प्रभावशाली व्यक्ति ने की हो तो संस्थान वाले लोग दबाव में उस व्यक्ति को नियुक्ति
दे देते हैं। ध्यान रखिए, किसी की मजबूरी को अपनी योग्यता न मान लें। किसी और के दबाव
में आपको काम दिया गया है। योग्यता को सही अवसर मिल जाए यहां तक तो ठीक है,
लेकिन आप अपनी
अयोग्यता को दूर करने की जगह सिफारिश के अधिकार से जोड़ लें तो यह खतरनाक है।
जिस दिन भी मौका लगेगा आप उस संस्थान से बाहर कर दिए जाएंगे। कई रिश्ते,
मिलने-जुलने वाले
रिश्तेदारों की सिफारिशों पर ही बनते हैं। विवाह के लिए समझदार परिवार वाले
पर्याप्त पूछताछ करते हैं। फिर कहते भी हैं कि फलां व्यक्ति ने सिफारिश की थी कि
रिश्ता अच्छा है और हमने उसे मान लिया। जब खटपट शुरू होती है तब सिफारिश एक बीमारी
बनकर सामने आती है। मुझे तो सिफारिश का यहां तक अनुभव है कि एक-दो बार जब हमारी
कथाएं तय हो गईं तो हमारे यजमान ने कहा आपकी कथा के लिए हमारे एक रिश्तेदार ने
सिफारिश की थी। इसलिए सिफारिश को केवल एक माध्यम भर बनाए रखिए। माध्यम और निर्णय
में फर्क है, बिल्कुल वैसा ही जैसे भोजन के कच्चे सामान और तैयार भोजन में। सिफारिश रॉ
मटेरियल है। इसे अस्वीकार भी न करें लेकिन ध्यान रखिए पूरा भोजन तैयार करने में आपकी
ही सावधानी काम आएगी, इसलिए उसे बनाए रखिए।
लाड़ व प्यार में फर्क समझना जरूरी
बच्चों के लालन-पालन में संतुलन का बड़ा महत्व है। जैसे लाड़-प्यार में संतुलन
खोया तो बच्चों के साथ-साथ उनके पालकों का भी नुकसान है। लाड़ और प्यार में बड़ा
बारीक फर्क है। लाड़ यदि सावधानी से न किया गया तो सामने वाला जिद्दी भी हो सकता
है। लाड़, प्रेम का अव्यवस्थित रूप है। लाड़ में लालच भी होता है। प्रेम लालच से दूर है।
इसमें देने का भाव होता है लेने का नहीं। प्रेम में एक पवित्रता होती है, लाड़ विकृत भी हो जाता
है। लाड़ भेद भी कर जाता है, प्रेम भेद नहीं करता, इसीलिए कई माता-पिता जाने-अनजाने
बच्चों में भेद भी कर जाते हैं, क्योंकि वहां लाड़ टिका होता है।
जैसे एक डॉक्टर अपने मरीज से प्रेम करता है, लेकिन वह जानता है कि मुझे इसके
शरीर से चीरफाड़ करते समय या इसका इलाज करते समय सख्ती रखना है, लेकिन माता-पिता लाड़ और
प्रेम में कभी-कभी भूल करते हुए संतान के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं।
इसी कारण कई माता-पिता बच्चों के लिए गलत काम कर जाते हैं, नियम तोड़ देते हैं, जब बच्चे इसका दुरुपयोग
करते हैं तो यह अपराध एक दिन लौटकर आपकी ओर आता है। फिर माता-पिता न्यायाधीश बनकर
फैसला करने जाते हैं, इसलिए समझदार माता-पिता डॉक्टर और जज दोनों का संतुलित व्यवहार करते हैं।
न्यायाधीश सदैव कायदों में बंधा होता है, जबकि माता-पिता को कायदों में लचीलापन लाना पड़ता है
और डॉक्टर प्रेम जैसा लचीला करने के बाद भी अपने पेशे में सख्त होता है। माता-पिता
को जहां सख्ती रखनी है, वहां डॉक्टर हो जाएं और जहां लचीला होना है वहां न्यायाधीश
जैसे सख्त न हो जाएं। इस पर लगातार चिंतन करते रहेंगे तो शायद बच्चों का लालन-पालन
उतना कठिन नहीं लगेगा जितना इन दिनों लग रहा है।
सफलता के लिए जागृति जरूरी
हनुमानजी जितना अच्छा सोचते थे, सोचे हुए को उतने ही अच्छे ढंग से कर लेते थे।
विद्वान से विद्वान व्यक्ति को भी हनुमानजी के काम के पीछे के उद्देश्य को पकड़ने
में बड़ी कठिनाई होती थी, क्योंकि बड़ी गहरी सोच के साथ काम करते हैं हनुमानजी।
किष्किंधा कांड में हनुमानजी ने श्रीराम का यश सुनाया तो लक्ष्मणजी शांत हो गए और
हनुमानजी से कहा, ‘जब पर्वत से चला तो रामजी ने मुझे टोक दिया था कि सुग्रीव के साथ ज्यादा
मारपीट मत करना। उन्होंने मेरे आवेश को नियंत्रित कर दिया था, अब आपने मेरे क्रोध को
उड़ा दिया। कहिए हनुमानजी, अब क्या करना है? इस पर तुलसीदासजी ने लिखा, ‘करि बिनती मंदिर लै आए। चरन
पखारि पलंग बैठाए।’ वे विनती करके उन्हें महल में ले आए तथा चरणों को धोकर उन्हें पलंग पर बैठाया।
यहां पलंग शब्द आया है।
किसी के घर कोई अतिथि आए तो उसे बैठक कक्ष में बैठाया जाता है। जहां पलंग हो
वहां शयन कक्ष है। अतिथि को सीधे बेडरूम में नहीं ले जाया जाता, लेकिन हनुमानजी
लक्ष्मणजी को सीधे सुग्रीव के शयन कक्ष में ले गए। लक्ष्मणजी ने संकोच में कहा,
‘हनुमानजी,
आप बिना विचार किए
कोई काम नहीं करते। मैंने ब्रह्मचर्य का व्रत ले रखा है, निद्रा त्याग रखी है और आपने
सुग्रीव जैसे गृहस्थ के पलंग पर बैठा दिया? इसका बड़ा ही सुंदर उत्तर दिया
हनुमानजी ने। बोले, ‘लक्ष्मणजी, इस पूरी किष्किंधा में आपके बैठने के लिए यही सबसे अच्छा स्थान है। आप शेषनाग
का अवतार हैं और पूरी किष्किंधा तमोमयी निद्रा में सोई हुई है। यदि किसी को पता लग
जाए कि उसके पलंग पर सांप है तो उसकी नींद उड़ जाए। इसी को कहते हैं जाग जाना। आप
आ गए हैं, किष्किंधा होश में आ गई है।’ हनुमानजी हमारे जीवन में भी यही करते हैं। होश और जागृति
सफलता के लिए आवश्यक है।
अपने केंद्र पर है आनंद की प्राप्ति
शास्त्रों में लिखा है कि मृत्यु अपने निमित्त का चयन करती है। श्रीकृष्ण की
मृत्यु जरा नामक शिकारी के तीर से हुई थी। मृत्यु ने उसका चयन किया था। जरा ने
रोते हुए श्रीकृष्ण से कहा, ‘मुझसे भूल हो गई। मैं आपका अपराधी हूं।’ श्रीकृष्ण ने कहा,
‘तुमने मेरी पसंद
का काम किया है। तुम तो निमित्त हो।’ हम मृत्यु के कारण को कोसने लगते हैं। मैं यहां यह
बात इसलिए लिख रहा हूं कि पिछले दिनों मैंने समाचार पढ़ा कि नाव पलटने से युवकों
की मृत्यु हो गई। कहा जा सकता है कि नाव निमित्त बनी, लेकिन यह सतही कारण है। सच तो यह
है कि उनकी मृत्यु का कारण शराब का नशा था। पिछले कुछ वर्षों में घटे अपराध देखें
तोे ज्यादातर शराब के नशे में किए गए हैं। कुछ अपराधी तो कहते हैं कि नशा करने के
बाद हमारी हिम्मत बढ़ जाती है।
कुल-मिलाकर शराब का नशा सेकंड थॉट को खा जाता है। एक वर्ग ऐसा है जो कहता है
शराब हम केवल अपनी मस्ती के लिए पीते हैं। सीमित मात्रा में शराब को फायदेमंद
बताने वाला वर्ग भी है। नशे का मतलब है अपने केंद्र से हटना। मनुष्य को परमात्मा
ने एक मूल स्वभाव दिया है और वह है आनंद। जितना आप आत्मा के निकट हैं उतना ही आनंद
में डूबे हैं। जो लोग इस आनंद को शरीर से ही प्राप्त करना चाहेंगे उनके लिए फिर
नशा काम आता है। आज के दौर में जब प्रदर्शन, वैभव इन सबका महत्व बढ़ रहा है
तब शराब मस्ती के लिए नहीं, मदहोश होने के लिए उपयोग की जाती है। उसमें एक क्षणिक
पागलपन हैं। नशा ही करना है तो ऐसा करिए, जिसमें जीवन का रस हो, इसलिए जिन्हें शराब से बचना हो
या शराब की लत से मुक्ति पानी हो उन्हें थोड़ी देर ध्यान जरूर करना चाहिए।
मेडिटेशन आपको आपके केंद्र पर ले जाएगा, जिसका नशा एक बार चढ़ जाए तो फिर नहीं उतरता।
नीयत साफ हो तो टिकती है दोस्ती
धन जीवन में आता है तो आदमी के तौर-तरीके बदल ही जाते हैं। फिर यदि धन लंबे
समय टिक जाए तो उठना-बैठना भी सिलेक्टिव हो जाता है। पैसे वाले पैसे वालों के साथ
ही बैठना पसंद करते हैं। मेरा संबंध अनेक धनाढ्य लोगों से है, जो मुझे अपने साथ बैठा
लेते हैं। इसका एक कारण है धर्म और अध्यात्म। मैं अकेला और धनवान लोग अधिक बैठे
हों तो उनकी बातचीत में चौंकाने वाले संवाद आ जाते हैं। ऐसे ही एक बैठक में बातचीत
चल रही थी मित्रता को लेकर। एक प्रतिष्ठित व्यक्ति ने कहा, ‘पैसे वालों में दोस्ती नहीं
होती। यारी तो कंगालों का मामला है।’ यह हम सबके लिए सोचने वाली बात है। दौलत जिन-जिन
बातों का नुकसान करती है उनमें से एक संबंध भी है। मित्रता संबंधों का एक महकता
हुआ रूप है।
एक से अधिक व्यक्ति किसी परिवार से न जुड़े हुए हों, उनका व्यावसायिक संबंध भी न रहे,
किसी एक स्थान पर
भी न रहते हों, एक जैसे उद्देश्य भी न हों और स्वार्थ भी न हो तब जो लोग संबंध निभाने को
तैयार रहें उसे दोस्ती कहेंगे। मित्रता के लिए समय और नीयत जरूरी है। आज हम इसी
मामले में कंगाल हो गए। हर आदमी इस गणित में है कि कैसे दूसरे का वक्त चुरा ले और
अपना काम निकाल ले। अगर हम लोग समय का बही-खाता तैयार करें तो आखिर में नुकसान ही
हाथ लगेगा। इसी तरह साफ नीयत के लोग मिलने मुश्किल हो गए। छल और षड्यंत्र योग्यता
बनते जा रहे हैं। किसी से मिलते ही संदेह पैदा हो जाता है कि यह जो बोल या कर रहा
है, क्या
इसकी नीयत साफ है। दोस्ती और दोस्त धीरे-धीरे पुरातत्व के मामले होते जाएंगे। उन
सज्जन की बात फिर दोहरा लें, पैसे वालों में दोस्ती नहीं होती, क्योंकि समय और नीयत साफ नहीं
होते। अगर ये दोनों बचा लिए जाएं तो फिर इनमें भी दोस्ती हो सकती है।
सदैव शीर्ष पर रहने की जिद न करें
हर व्यक्ति का अपना शीर्ष होता है। यानी सफलता का सफल समापन सभी के जीवन में
आता है। सभी लोग शीर्ष पर नहीं पहुंचते यह भी सही है। जो भी लोग शीर्ष पर पहुंचने
की तैयारी में हों या पहुंच चुके हों उन्हें एक बात ध्यान रखनी चाहिए कि अपनी
एग्ज़िट का दरवाजा सावधानी से खुला रखें। लौटना सभी को है। शीर्ष यानी किसी व्यवसाय,
समाज, परिवार में जब आप नंबर
वन होते हैं, कामयाब होते हैं और ख्यात होते हैं। कई लोगों को गलतफहमी हो जाती कि शीर्ष
सदैव बना रहेगा। वे यह भूल जाते हैं कि यहां आने के लिए कुछ और लोग भी तैयारी कर
रहे हैं। मामला केवल आपकी कमजोरी का नहीं है, उम्र भी सफलता के शीर्ष पर टिकने
में बाधा बन जाती है। यदि आयु हो गई है और ऊर्जा बची है तो शीर्ष का क्षेत्र बदलना
होगा, क्योंकि
वहां आने के लिए जवानी तूफान की तरह चल चुकी है।
बुढ़ापे को जवानी से कभी टकराना नहीं चाहिए। स्वयं आदर से हट जाएं और सम्मान से
आने दें। अपनी ऊर्जा के उपयोग के लिए नए क्षेत्र खोल लें, क्योेंकि आपने एग्जि़ट का दरवाजा
तैयार नहीं किया और धक्का लगा तो फिर लुढ़कना ही पड़ेगा। इस गिरने में निराशा,
उदासी, आर्थिक अभाव और अवसाद
यानी डिप्रेशन भी घेर सकता है। यह तो तय है जो शीर्ष पर पहुंचा होगा उसमें कुछ
अनूठा होगा। मूल स्वभाव का अनूठापन कभी खत्म नहीं होता। यह हर उम्र में बना रहता
है, बस
क्षेत्र बदलना होगा। परिवार में दादा-दादी, नाना-नानी बनकर यह किया जा सकता
है। अन्य क्षेत्रों में और कुछ सृजन किया जा सकता है, पर अपनी ऊर्जा को सदैव शीर्ष पर
देखने की जिद न करें। यह जिद कब अर्धांगिनी से सौत में बदल जाए, पता नहीं लगता, इसलिए शीर्ष पर पहुंचने
के इरादे कभी खत्म न करें और पहुंचने के बाद लौटने की तैयारी में लापरवाही न की
जाए।
अवसर के अनुसार ही बात करें
अपनी कमजोरी को जान लेना उससे मुक्ति पाने का सबसे अच्छा उपाय है। कितना ही
समझदार और समर्थ व्यक्ति हो, कुछ न कुछ दोष सभी में रहते हैं। अपनी कमजोरियों से मुक्ति
पाने के लिए आप जो भी उपाय कर रहे हों, सबसे पहले अच्छी तरह समझ लें कि कमजोरी है क्या व
हमारे भीतर उसका केंद्र क्या है? हनुमानजी के प्रयासों से लक्ष्मणजी लगभग शांत हो गए थे। तब
सुग्रीव ने प्रवेश करके जो कहा वह हमारे लिए सीखने लायक है। सबसे पहले सुग्रीव ने
अपनी कमजोरी स्वीकार की और लक्ष्मणजी से कहा, ‘नाथ बिषय सम मद कछु नाहीं,
मुनि मन मोह करइ
छन माहीं।’ सुनत बिनीत बचन सुख पावा, लछिमन तेहि बहुबिधि समझावा।।’ अर्थात विषय सबसे बड़ा मद है।
विषय का मतलब है भोग-विलास के साधन।
सुग्रीव ने कहा, ‘सत्ता पर बैठने के बाद भोग-विलास की संभावनाएं अधिक बढ़ जाती हैं, ऐसा ही मेरे साथ हुआ।
जब
विषय मद बन जाए तो और खतरनाक है, जो अहंकार का बिगड़ा रूप है। अहंकार में जब विलास जुड़ जाए
तो मद बन जाता है।’ अहंकारी व्यक्ति के सामने बड़ा अहंकारी आ जाए तो वह अपना अहंकार दबा लेगा,
लेकिन यदि उसका
अहंकार मद में बदल चुका है तो फिर वह विद्रोही, हिंसक हो जाता है। यहां सुग्रीव
कह रहे हैं कि मैं इतना विषय में डूब गया कि मद जाग गया और मैंने राम जैसी शक्ति
को भी नकार दिया। हमारे साथ भी ऐसा हो सकता है। अंत: ध्यान रखें जब कभी समर्थ हों,
भोग-विलास से
बचें। प्रसन्न होकर लक्ष्मण ने कई प्रकार से सुग्रीव को समझाया। इस घटना से यही
सीखना है कि गलती को समझकर स्वीकार कर लिया जाए और हनुमानजी से सीखें कि अवसर के
अनुसार काम की बात की जाए। लोग अपने विचार और बातों को व्यक्त करने में भूल जाते
हैं कि विषय क्या है और समय क्या है।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....मनीष
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