Monday, November 17, 2014

Jeene Ki Rah4 (जीने की राह)

"मै"’ को विसर्जित करें, शांति मिलेगी
क्या आप जानते हैं कि कुछ लोग आपको क्रोध में डुबो देने के प्रयास में लगे रहते हैं। यह घटना घर और बाहर दोनों में घटती है। आपके व्यावसायिक स्थल पर लोग आपको इर्रिटेट करें यह सामान्य बात है, लेकिन ऐसी घटनाएं घरों में भी होने लगती हैं। आपके पारिवार के सदस्य आपको गुस्सा करने के लिए उकसाते हैं।

सावधान रहिए, दूसरों के द्वारा संचालित और प्रेरित क्रोध अपने ऊपर न आने दीजिए, क्योंकि यह आपके व्यक्तित्व को असंतुलित कर जाता है। सामने वाले इसका फायदा उठाते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि जब तक आप मजबूत हैं आपको पराजित नहीं किया जा सकता, लेकिन जैसे ही आप गुस्से में आए कि आप उनको फायदा पहुंचाना शुरू कर रहे होते हैं। आपको लड़खड़ाता देखकर उनको आगे निकलने का मौका मिल जाएगा।

पहली बात तो यह है कि गुस्सा करिए ही मत और यदि क्रोध आ ही जाए, तो कोशिश करें कि उसे प्रत्यक्ष रूप से प्रकट न करें, हालांकि दबाने में नुकसान है। पर कभी-कभी दर्शाने में ज्यादा हानि होती है। लोग आपको उकसाने का काम करते ही रहेंगे और इसीलिए आज अधिकांश लोग अशांति के प्लेटफार्म से ही काम करते हैं। शांति से काम करने  वाले  कम लोग हैं। बाहर तो शोर होता ही है पर अशांति के कारण भीतर भी भारी उपद्रव चलने लगता है। क्रोध की शुरुआत होती है ‘मैं’ से। जब भी कोई काम करें ‘मैं’ को विसर्जित करें और किसी परमशक्ति से जुड़ जाएं। परमात्मा से कहें, ‘आप करा रहे हैं तो मैं कर रहा हूं।’ बस, यहीं से ‘मैं’ गिरेगा और आप क्रोध से बचते हुए पूर्ण शांति के साथ काम कर जाएंगे।

दिन में तीन बार ध्यान कीजिए
दुनिया में असंभव कुछ नहीं होता, लेकिन संभव बनाने के लिए संकल्प चाहिए और संकल्पों को कुछ सहारे चाहिए। केवल विचार करने से ही संकल्प पूरे नहीं होते। दुनिया में अनेक लोग हैं जिन्होंने खूब विचार किया, अच्छे से अच्छा सोचा, लेकिन कर नहीं पाए। जिन्हें संकल्पों के सहारे मिल गए वे उन्हें साकार कर गए।

सुंदरकांड के समापन में अंतिम छंद कहते हुए तुलसीदासजी तीसरी पंक्ति में एक संदेश दे रहे हैं, 'सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना।।' श्रीरघुनाथजी के गुण समूह सुख के धाम, संदेह का नाश करने वाले और विषाद का दमन करने वाले हैं। श्रीरामजी के गुणों का जो समूह है वो भक्तों को तीन परिणाम देता है। पहला, सुख के धाम। इन गुणों से जुड़कर खूब सुख मिलेगा। दूसरा, संदेह का नाश करने वाले। और तीसरी बात है श्रीराम के गुण विषाद का दमन करते हैं, यानी डिप्रेशन दूर करते हैं।

श्रीराम के भक्तों को सुंदरकांड से संदेश लेना चाहिए कि दिनभर में तीन समय छोटे-छोटे मेडिटेशन करें। पहला होना चाहिए सुबह उठते ही। जब जिंदगी जाग रही होती है और उसे मेडिटेशन का सहारा मिल जाए तो दिन तो खूबसूरत होना ही है। इसे कहेंगे सुख का धाम। फिर दिन ढले और शाम आने को हो तब थोड़ा ध्यान करिए। यहां से उदासी, डिप्रेशन यानी विषाद का दमन होगा और रात को सोते समय अपने अंतिम विचार को मेडिटेशन के माध्यम से निद्रा से जोड़ दें। सारे संदेहों का नाश करके सो जाएं। सुंदरकांड कहता है अगली सुबह तो सुंदर होनी ही है।

अहंकार रहित वाणी में होता है सत्य
किसी बात को प्रस्तुत करने में केवल शब्द शिल्प ही काम नहीं आता। आज का समय सुंदर प्रस्तुति का समय है। किसी व्यक्ति, स्थान, स्थिति का वर्णन करते समय अपनी पूरी कल्पनाशक्ति उसमें लगा दें। आपकी वाणी में उपन्यासकार और नाटककार दोनों उतरने चाहिए। ध्यान रखिए इस समय लोग अच्छा सुनने के लिए तरस रहे हैं। आपकी कल्पनाशीलता, वाणी की मिठास, विचारों की शृंखला, शब्दों का चयन आपके व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाएगा। यह अभ्यास इसलिए भी करिए कि जब कभी सत्य को, सही बात को व्यक्त करना है तो वह प्रभावशाली ढंग से स्थापित हो सके। आज बोलने में वे लोग ज्यादा पारंगत हैं जिनके पास झूठ है।

इसीलिए सत्य हमेशा प्रभावशाली वाणी की तलाश में रहता है। जो लोग दिल से बोलने वाले वक्ता बनना चाहें, उन्हें एक आध्यात्मिक प्रयोग से गुजरना होगा। जब भी हम कुछ कहते हैं हमारा अहंकार भीतर से उछाल मारकर उस बात में जुडऩे लगता है। 'मैं इतना हावी हो जाता है कि सत्य खो जाता है। और इस 'मैं के कारण ही लोग विषय को गलत ढंग से प्रस्तुत करते हैं। अहंकार की बाधा मिटी, मैं गला तो सत्य अपने आप निकलकर आएगा। आपकी वाणी से अहंकार हटेगा और सत्य जुड़ जाएगा और यहीं से आप जो कह रहे हैं उसे लोग स्वत: सुनेंगे। सच्ची बात अच्छे ढंग से बोलने वाले लोग धीरे-धीरे कम होते जा रहे हैं। गंदी बात खूब जमा-सजाकर बोलने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। सत्य की सेवा करनी है तो अपनी वाक्शक्ति को परिष्कृत करिए।

दिल की जरूरत है मानवीय रिश्ते
आजकल लोग मजा बहुत ढूंढ़ते हैं। कोई भी काम करते हैं तो सोचते हैं कि मजा आया कि नहीं आया। किसी भी काम की खुशी उस काम से ज्यादा आपके महसूस करने में है। आज मौज-मस्ती के लिए तरह-तरह के साधन व तरीके खोज लिए गए हैं। फिर भी उदासी के थप्पड़ पड़ते ही रहते हैं। एक बहुत सहज तरीका है मजे उड़ाने का।

आप किसी भी उम्र के हों, यदि आपके माता-पिता जीवित हैं तो उनके सामने बच्चे ही बने रहें। एक अलग तरीके का मजा आएगा। उम्र का बैरियर मिटा दें। जब तक वे मौजूद हैं, उनके बच्चे बने रहिए, लेकिन यह बहुत सरल नहीं है। इसमें नाटकीयता के लिए कोई जगह नहीं है, क्योंकि इसमें आपको उनकी देखभाल भी करनी है। पूरी सहनशक्ति से उनकी वृद्धावस्था को बर्दाश्त भी करना है। वे आपके लिए कई बार मुश्किल भी खड़ी कर सकते हैं। आपके घर में बड़े-बूढ़ों को उम्र की मजबूरी के कारण पूजा-पाठ करने में बाधा आने लगे तो उनके साथ बैठकर ध्यान करिए। उनसे कहिए वे आंख बंद करके गहरी सांस लें और छोड़ें। उन्हें उनके मस्तिष्क से काटिए और हृदय से जोड़ दीजिए।

जब आप और वे दोनों ही अपने-अपने हृदय से जुडेंग़े,आपको बच्चा बनने में सरलता होगी और उन्हें पुराने दिन याद आने पर एक अलग ही अनुभूति होगी। जीवन अनेक किस्म के प्रयोग मांगता है। आज के मशीनी युग ने सबसे अधिक प्रहार जीवन पर ही किया है। दिमाग की जरूरत मशीन है और दिल की जरूरत रिश्ते हैं। इस तरीके से भी इसे निभाया जा सकता है।

ईश्वर से संकेत लें, निर्णय सही होंगे
इस समय जब लोग आपस में मिलते हैं चाहे परिचित हों या अपरिचित; एक-दूसरे से मिलकर, सुनकर भीतर ही भीतर यह सवाल उठता है क्या सामने वाला सच बोल रहा है। मेलजोल में संदेह हवा की तरह उतर आया है। भीतर संदेह है और बाहर अपनापन दर्शाना पड़ता है। इसमें बड़ी ऊर्जा लगती है। इसी चक्कर में कभी-कभी आप धोखा भी खा जाते हैं। धोखा न खाएं इसके लिए हम अपनी सारी योग्यता झोंक देते हैं। जहां अक्ल न लगानी हो, वहां भी लगानी पड़ती है। नतीजे में हमारी सहजता खो जाती है।

जब कभी आप किसी से मिलें खासतौर पर व्यावसायिक जीवन में जब व्यक्तियों का परीक्षण करना पड़ता है तो एक अदृश्य व अघोषित इंटरव्यू शीट अपने भीतर तैयार कर लें और उस व्यक्ति का इस आधार पर आकलन करके सिलेक्ट और रिजेक्ट कर दें। हालांकि, यह अभ्यास से ही होगा। जब आप एकांत में हों तो इस बात पर जरूर विचार करिए कि मैं परमात्मा का अंश हूं और जितना मुझे जानना चाहिए उतना मुझे आता नहीं। जितना मुझे आता नहीं है, उतना ज्ञान मुझे परमशक्ति ही दे सकती है।

इसे मंत्र की तरह दोहराएं। परमात्मा प्रकृति के माध्यम से हमें संकेत देने के लिए तैयार हैं। मगर 'मैं जानता हूं, मैं अत्यधिक दक्ष हूं, मैं सब कर सकता हूं'  ऐसी सोच के कारण हम उन इशारों को पकड़ नहीं पाते हैं और हम गलत व्यक्तियों का चयन जीवन में कर लेते हैं। जितना इस अभ्यास को बढ़ाएंगे कि हमारे सीमित सामथ्र्य को परमात्मा के असीम संकेत मिल रहे हैं, उतना आप पाएंगे कि आपसे जो भी निर्णय होंगे वे सही होंगे।

जीवन के हर काम को डूबकर करें
हमारे दिमाग में एक ही समय में बहुत सारी चीजें चल रही होती हैं, इसलिए हम महत्वपूर्ण बातों को भी नजदीक जाकर ध्यान से नहीं देख पाते। छलांग मारते जाते हैं, क्योंकि बहुत जल्दी में हैं। मगर जीवन की राहें बड़ी अजीब है। यहां कहीं कूदना है, कभी तैरना है, कभी उडऩा है, कभी घिसटना है तो कभी बिल्कुल रुक जाना है। कोई एक चाल से जीवन को नहीं चल सकता। इसलिए जिस भी कदम पर हों, उतनी देर पूरे धैर्य से उस स्थिति को देखें, थोड़ा निकट जाएं, हालात या व्यक्ति जो भी हो उससे ठीक से परिचय करें।

भागम-भाग में हो सकता है आप गलत व्यक्ति को स्वीकार कर लें और अच्छा व्यक्ति हाथ से निकल जाए। इसलिए हर कदम पर जीवन को जिएं। अत्यधिक कूद-फांद न करें। अभी तो ऐसा लगता है कि जैसे जीवन से संबंध ही समाप्त हो गया है, बस जी रहे हैं। जीता जानवर है, लेकिन मनुष्य जीते हुए जीवन भी पकड़ सकता है। अगर केवल जी रहे हैं तो फिर समझ लीजिए सिर्फ मौत का इंतजार कर रहे हैं और इसीलिए कई लोगों के जीवन में उदासी, थकान, बेचैनी आ जाती है। जीवन बोझ लगने लगता है।

इसलिए जो काम करें, उसें तन्मयता से करें, डूब जाएं, रम जाएं, गहराई में उतर जाएं। भले ही वह एक क्षण के लिए हो। इसका समय से कोई लेना-देना नहीं हैं। पूरी चेतना के साथ आपको पता चलेगा कि जीवन में कितनी महत्वपूर्ण बातें बिखरी हुई हैं, लेकिन जल्दबाजी में आप उन्हें छोड़ते जा रहे हैं। इसलिए हर कदम जीवन के साथ उठाएं, मृत्यु की ओर तो वह उठ ही रहा है।

पति-पत्नी के रिश्ते को हृदय पर जीयें
माना जाता है कि पति-पत्नी के रिश्ते में सबसे ज्यादा नजदीकी होती है। जीवन इन दोनों को सर्वाधिक अंतरंग क्षण दिखाता है और सर्वाधिक तनाव भी इसी रिश्ते में पाया जाता है। यह एकमात्र रिश्ता है जो अपने एकांत में जोश, होश, विनोद और एक-दूसरे पर अधिकार के साथ पूरा होता है। चूंकि आज मनुष्य की जीवनशैली ऐसी हो गई है कि उसके लिए परिश्रम के मतलब बदल गए हैं। काम करते हुए शारीरिक और मानसिक थकान इतनी हो जाती है कि अंतरंग क्षणों के लिए ऊर्जा ही नहीं बचती। पति-पत्नी में तनाव का एक कारण यह भी है कि जिस एकांत में प्रेम, समर्पण, ईमानदारी, करुणा होनी चाहिए वहां थकान, अहंकार व अधिकारों का अतिक्रमण  होने लगता है।

यही एक ऐसा संबंध है जिसे शरीर से परे जाकर हृदय पर जीने का आनंद अलग ही है। मगर अधिकांश रिश्ते बाहर ही खत्म हो जाते हैं और इसीलिए दोनों को अपने-अपने हिस्से का तनाव मिलता है। दोनों एक-दूसरे पर आरोप लगाते हैं कि हम पर हक तो जताया जाता है पर हमारी परवाह नहीं की जाती। इस रिश्ते में भरोसे की जगह कब संदेह पसर जाता है पता नहीं लगता। दोनों के बीच का तनाव पूरे परिवार के माहौल को जहरीला बना देता है। एक आध्यात्मिक प्रयोग करते रहिए। इस रिश्ते में वासना एक आवश्यक बुराई है पर यह इस रिश्ते का जरूरी तत्व है। इसे करुणा, प्रेम, दया और शुद्धता में जितना बदला जाएगा, उतना ही रिश्ता मिठास देने लगेगा। लगातार एक-दूसरे के लिए जीने की तमन्ना का भाव जितना अधिक जागेगा, कामना उतना ही पवित्र रूप ले लेगी।

मन को ईश्वर पर केंद्रित कीजिए
संसार में रहते हुए हमें अनेक व्यक्तियों और स्थितियों पर भरोसा रखना पड़ता है। जिनसे उम्मीद नहीं होती वे भरोसे पर खरे उतर जाते हैं और भरोसे वाले  पीठ पर वार कर जाते हैं। विश्वास और विश्वासघात, जिंदगी ये दो सबक सिखाती ही रहती है। सुंदरकांड के समापन की पंक्तियों में तुलसीदासजी ने आशा और भरोसे को नई परिभाषा दी है। वे इशारा करते हैं कि जितना संसार पर टिकें उससे ज्यादा संसार बनाने वाले पर टिकें। सुंदरकांड में उन्होंने श्रीराम और हनुमानजी का चरित्र हमें पढ़वाया है।

इसलिए छंद की इस पंक्ति में वे लिखते हैं, तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना।' अरे मूर्ख मन! तू संसार की सब आशा-भरोसा त्यागकर निरंतर इन्हें गा और सुन। इस पंक्ति में वे मन से कह रहे हैं कि संसार के प्रति बहुत आशा और भरोसा मत रख। परमात्मा के चरित्र को निरंतर गा और सुन। वे दो बातें कह रहे हैं, ईश्वर का स्मरण गाना भी चाहिए और सुनना भी चाहिए। संसार की बदलती स्थितियों के साथ उम्मीद और भरोसे के हालात भी बदलते रहते हैं। जो आपका प्रिय है, कल वह दुश्मनों की कतार में नजर आ सकता है और अप्रिय आपकी बाहों में भी हो सकता है। इसलिए किसी ऐसी शक्ति पर टिकिए जो आपके शुभ और सत्य को मजबूत बनाए। सदैव आपका साथ दे। जीवन यहीं से सुंदर होना शुरू होता है। मन को समझाना होता है कि किस पर भरोसा किया जाए, क्योंकि वह जो मिले उस पर टिक जाता सही-गलत की परवाह नहीं करता। उसे भी तुलसीदासजी चेतावनी दे रहे हैं।

हृदय व मस्तिष्क को प्रार्थना से जोड़ें
थोपे हुए काम करते समय हम सहज नहीं रहेंगे। मजबूरी में किए कर्म अशांति देते ही हैं। इसलिए स्वीकार के स्तर पर प्रसन्नता बनाए रखिए। हम जब जागे हुए होते हैं  उस समय हमारी जीवनचर्या शरीर प्रधान होती है। काम को प्रसन्नता से करने के लिए यह ध्यान दें कि इस काम में रस कहां से मिल सकता है शरीर, हृदय या मस्तिष्क से। वैसे तो मस्तिष्क व हृदय शरीर का ही हिस्सा हैं, लेकिन थोड़ी समझदारी से इन्हें अलग समझा जा सकता है। जैसे ही हमने स्वयं को तीन भाग में बांटा हम प्रसन्नता को पकडऩे में कामयाब हो सकेंगे। आप ऑफिस, घर या यात्रा में हों, खुद को प्रसन्न रखना चाहें तो अपने व्यक्तित्व के इन तीन भागों को प्रार्थना से जोड़ दें।

जिस समय जिस स्थिति में हों उसका भाव महसूस करें। घर में आप हृदय पर केंद्रित हो जाएं, क्योंकि यहां आपकी प्रकृति भावुक रहेगी। यहां के अधिकांश संचालन हृदय से होंगे। अपने दफ्तर में मस्तिष्क को प्रधानता दें और शरीर इन दोनों में अपनी रिजर्व भूमिका निभाएगा। इसलिए जब, जहां हों, वैसी प्रार्थना करिए। प्रार्थना में शब्द, भाव और मांग तीन चीजें एकसाथ चलती हैं। आप कुछ मिनटों के लिए परमशक्ति से मानसिक चर्चा कर सकते हैं। यहीं से प्रार्थना की शुरुआत होगी। जब आप शरीर के तल पर हों, तब भाव शरीर से जोड़ दें। जब मस्तिष्क के काम कर रहे हों, तब भी थोड़ी देर के लिए भाव-प्रधान होकर मस्तिष्क से जुड़ें। यही हृदय के साथ करना है। दिनभर में बीच-बीच में ऐसी प्रार्थना करते रहें। फिर कितना ही परिश्रम कर लें, आपकी सहजता नहीं खोएगी।

जिह्वा के जरिये मन पर नियंत्रण संभव
भोजन करते समय स्वाद का मामला जीभ से जुड़ा है और हम यह मान लेते हैं कि खान-पान की वस्तुओं में ही जीभ का स्वाद है। इसीलिए जीभ की दूसरी उपयोगिता पर ध्यान ही नहीं देते। जीभ के दो स्वाद और हैं, जिनका अन्न से कोई लेना-देना नहीं है। उसका संबंध शब्दों से है, वाणी से है। जीभ को किसी बात में निंदा, शिकायत और बढ़ाचढ़ाकर बोलने में बड़ा स्वाद आता है। किसी की झूठी तारीफ करना हो तो भी जीभ तुरंत सहमति दे देती है। किसी के प्रति आभार जताने में, उसकी सच्ची तारीफ करने में कुछ लोगों की जीभ को भारी तकलीफ होती है।

इसलिए हमें अपनी जिह्वा को भी अभ्यास में डालना होगा। मन तो ऊटपटांग विचार करने में माहिर होता ही है। वह ऐसे निगेटिव विचार फेंकता ही रहता है। जीभ को इसमें स्वाद आता है तो वह तुरंत लपककर बाहर कर देती है। हमें जीभ पर लगाम कसनी होगी। इसके लिए दो काम करने पड़ेंगे- खूब सुनें और मौन रखें। जितना मौन रखेंगे, उतना जिह्वा को काबू में रखने की आदत होगी। किसी की बात सुनें तो पूरी तन्मयता से सुनें। सुनते कान हैं, पर जीभ भी कुछ सुन रही होती है। वरना जीभ को बोलने में ही रुचि है। इसीलिए लोग दूसरों की सुनते नहीं हैं। जब भी किसी को सुनें, भीतर से पूरी तरह वहीं रहें। मन के विचार जीभ पर आकर रुक जाएंगे। धीरे-धीरे मन को लगेगा मेरा भेजा सामान ब्लॉक हो रहा है, मुझे भी रुकना पड़ेगा। यहीं से आपके व्यक्तित्व में एक शांति उतरेगी। आपके पास बैठने वाले व्यक्ति को लगेगा कि वह आपसे कुछ लेकर जा रहा है। संभवत: वह उसके लिए शांति ही होगी।

मूलधारा की तरफ लौटना ही योग है
हमारी शिक्षा, रोजगार का तरीका और लोगों के बीच रहन-सहन का ढंग हमारी पहचान बनाता है। मेडिकल की शिक्षा ली है तो पहचान डॉक्टर हो जाती है। पुलिस की वर्दी पहनी हो तो पुलिस की पहचान मिल जाती है। हम खो ही जाते हैं। हमारे ऊपर हमारा काम, पद, प्रतिष्ठा ये सब हावी हो जाते हैं और लोग हमें इसी रूप में जानने लगते हैं। धर्मगुरुओं का भी यही हाल है। भीतर का मनुष्य बाहर की छवि की भेंट चढ़ जाता है। कई बार एकांत में सोचना पड़ता है कि क्या हम वही हैं जो लोग हमें समझ रहे हैं।

ऋषि-मुनियों ने परिवार इसीलिए बसाए कि जब आप दुनिया की नजर से अलग पहचान पाकर खो जाते हैं तब परिवार में लौटकर खुद को वापस पा सकते हैं। इसीलिए अपने वंश से जुड़े रहें। आपके पुरखे क्या थे इसकी पूरी जानकारी रखें। मुद्दा उनके अच्छे-बुरे, अमीर-गरीब, लोकप्रिय-गुमनाम होने का नहीं है। जरूरी बात यह है कि आपके भीतर जो आपके होने का तत्व है वो जिन पितृजनों से आया है, वो आपकी स्मृति में बने हुए हैं और यहीं से आप अपने मूल स्वरूप से जुड़ सकेंगे। जब हम ध्यान में उतरते हैं तो हमें आनंद की अनुभूति होती है, क्योंकि हम भीतर से कहीं खुद पर टिक गए होते हैं। ठीक ऐसा ही पूर्वजों से जुड़कर होता है। यह भी एक तरह का मेडिटेशन है। अपनी मूलधारा की तरफ लौटना योग है और उस धारा से जुडऩा मेडिटेशन है। दिनभर में कभी-कभी इस सुखद स्थिति को निर्मित करिए। आप किस वंश के हैं यह भाव जितना अधिक बना रहेगा, आपकी शांति में उतनी ही वृद्धि होगी।

फैसलों में बच्चों को भी शामिल करें
यह आम शिकायत है कि आज के बच्चे अपने परिवार से कम जुड़ रहे हैं। यदि उन्हें स्वतंत्रता मिले तो वे पहली फुर्सत में घर के बाहर का सान्निध्य ढूंढ़ते हैं। परिवार प्लेटफार्म की तरह हो गया है। खाया-पिया, अपनी गाड़ी आई और बैठकर चल दिए। परिवार के रिश्तों में उदासीनता इसीलिए आती है। बाहर भागने की इच्छा जिम्मेदारी का अहसास भी खत्म करती है।

बच्चों को परिवार से जोडऩे के लिए कोर्स चल रहे हैं, वर्कशॉप लगाई जा रही हैं, किताबें लिखी गई हैं। किंतु इस मसले को केवल मैनेजमेंट के हिसाब से न लिया जाए। कॉरपोरेट सेक्टर में कर्मचारियों को जोडऩे के लिए जो चोचले किए जाते हैं, मां-बाप वैसा ही बच्चों के साथ करने लग जाते हैं। यहां सबसे बड़ी भूमिका प्रेम, भावना और वंश परंपरा की है। परिवार में बच्चों को यह विश्वास दिलाना कि परिवार तुमसे है और तुम परिवार से हो, इस समय बड़ी चुनौती है। घरों में माता-पिता को कई निर्णय लेने पड़ते हैं।

अपने हर निर्णय में बच्चों को जरूर शामिल करें। इस सावधानी के साथ कि वे अपरिपक्व हैं, लेकिन उनका अस्तित्व है। उनकी अपरिपक्वता के प्रति सजग रहें, लेकिन उनके अस्तित्व के प्रति समर्पित रहें। अभी बच्चों को लगता है हमारे जीवन के सारे निर्णय हमसे बड़ों के हाथ में हैं। आप उन्हें इससे मुक्त भी नहीं कर सकते, लेकिन इसकी भरपाई उन्हें यह महसूस कराकर कर सकते हैं कि आपके यानी बड़े लोगों के, माता-पिता के निर्णयों में भी उनकी भागीदारी हो सकती है। इससे वे परिपक्व भी होंगे और आपसे जुड़ भी जाएंगे।

ईश्वर से संकेत लें, निर्णय सही होंगे
इस समय जब लोग आपस में मिलते हैं चाहे परिचित हों या अपरिचित; एक-दूसरे से मिलकर, सुनकर भीतर ही भीतर यह सवाल उठता है क्या सामने वाला सच बोल रहा है। मेलजोल में संदेह हवा की तरह उतर आया है। भीतर संदेह है और बाहर अपनापन दर्शाना पड़ता है। इसमें बड़ी ऊर्जा लगती है। इसी चक्कर में कभी-कभी आप धोखा भी खा जाते हैं। धोखा न खाएं इसके लिए हम अपनी सारी योग्यता झोंक देते हैं। जहां अक्ल न लगानी हो, वहां भी लगानी पड़ती है। नतीजे में हमारी सहजता खो जाती है।

जब कभी आप किसी से मिलें खासतौर पर व्यावसायिक जीवन में जब व्यक्तियों का परीक्षण करना पड़ता है तो एक अदृश्य व अघोषित इंटरव्यू शीट अपने भीतर तैयार कर लें और उस व्यक्ति का इस आधार पर आकलन करके सलैक्ट और रिजेक्ट कर दें। हालांकि, यह अभ्यास से ही होगा। जब आप एकांत में हों तो इस बात पर जरूर विचार करिए कि मैं परमात्मा का अंश हूं और जितना मुझे जानना चाहिए उतना मुझे आता नहीं। जितना मुझे आता नहीं है, उतना ज्ञान मुझे परमशक्ति ही दे सकती है।

इसे मंत्र की तरह दोहराएं। परमात्मा प्रकृति के माध्यम से हमें संकेत देने के लिए तैयार हैं। मगर 'मैं जानता हूं, मैं अत्यधिक दक्ष हूं, मैं सब कर सकता हूं' ऐसी सोच के कारण हम उन इशारों को पकड़ नहीं पाते हैं और हम गलत व्यक्तियों का चयन जीवन में कर लेते हैं। जितना इस अभ्यास को बढ़ाएंगे कि हमारे सीमित सामथ्र्य को परमात्मा के असीम संकेत मिल रहे हैं, उतना आप पाएंगे कि आपसे जो भी निर्णय होंगे वे सही होंगे।

संघर्ष के दौरान भीतर शांति बनाए रखें
जब संघर्ष लंबा हो तथा शत्रु अत्यधिक शक्तिशाली हो, तब हमें अपनी सीमाओं का ध्यान रखते हुए अपनी विशेषताओं का जबर्दस्त उपयोग करना पड़ेगा। रामचरित मानस का पांचवां सौपान खूब गाया गया, क्योंकि इसमें ऐसे ही संघर्ष के बाद सफलता की इबारत लिखी गई है। श्रीराम अपने लंबे संघर्ष में कई बार अकेले हो गए थे। सीताजी उनके साथ नहीं थीं। लक्ष्मण समुद्र से मार्ग मांगने के निर्णय के विरोधी थे। सुग्रीव भी थोड़े असहमत थे। विभीषण बिल्कुल नए-नए आए थे।

केवल हनुमान श्रीराम का सहारा बने थे। ऐसे समय श्रीराम ने बड़े धैर्य और शांति से निर्णय लिए थे इसीलिए सुंदरकांड से हमें संघर्ष के लिए ऊर्जा मिलती है। इसके समापन पर तुलसीदासजी ने लिखा, 'सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान। सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान।। श्री रघुनाथजी का गुणगान संपूर्ण सुंदर मंगलों का देने वाला है। जो इसे आदर सहित सुनेंगे, वे बिना किसी जहाज के ही भवसागर को तर जाएंगे। इसकी पहली पंक्ति में तुलसीदासजी ने सुमंगल शब्द लिया है। यानी श्रीराम का गुणगान सुंदर मंगलों को देने वाला है। सुख के साथ शांति आ जाए जीवन तभी सुंदर होता है। श्रीराम संघर्ष के समय भीतर  शांति बनाए रखने का संकेत देते हैं। इसलिए सुंदरकांड के पारायण के समय भले ही जोर-जोर से उच्चारण करें, पर समापन पर 5-10 मिनट का श्रीराम नाम के साथ मानसिक गुंजन करें, जिसे धीरे-धीरे ध्यान, मेडिटेशन में बदलने दें। फिर देखिए सुंदरकांड का सही अर्थ समझ में आ जाएगा।

आलस्य को परिश्रम में ऐसे बदलें
आप इस संसार में क्यों आए हैं इस सवाल का उत्तर लोग जीवनभर नहीं दे पाते। दूसरे आपसे यह सवाल करें तो फिर भी आप सांसारिक उत्तर दे सकते हैं। आपके पास उपलब्धियों की एक सूची होगी। हमने यह किया। यह संवाद बोलना आसान है, लेकिन खुद से ईमानदारी से पूछेंगे कि क्या हमने वह किया जिसके लिए भगवान ने हमें भेजा था, तो शायद जीवन के कुछ पहलू निरुत्तर ही रह जाएंगे। संसार को भ्रम और धोखे में रख सकते हैं, पर खुद को कब तक बहलाएंगे? अपने से अपना उत्तर पाने के लिए सबसे अच्छा दिन होता है आपका जन्मदिन। हो सकता है इस दिन आप पर बधाइयों की बौछार हो रही हो। या यह भी हो सकता है कि इस दिन आप भुला दिए गए हों। लेकिन हमें लगातार यह प्रयास करते रहना चाहिए कि क्या हम वह कर रहे हैं जिसके लिए परमशक्ति ने हमं  भेजा है।

भगवान ने आपको जन्म से ही विशेषताओं के साथ भेजा था, दोष तो हमने बाद में ओढ़े हैं। इसलिए अपनी विशेषताओं को ढूंढऩे के लिए सबसे सही तरीका है कुछ समय कमर सीधी रखकर अपनी ही भावना और विचारों के साथ स्पाइनल कॉर्ड में प्रवेश करें। रीढ़ की यह यात्रा आपको अचानक अहसास कराएगी कि आपके पास क्या-क्या खूबसूरत है और आप कैसा-कैसा बदसूरत कर रहे हैं। जो लोग थोड़ी देर भी रीढ़ पर टिकेंगे वे अपने क्रोध को तेजस्विता में बदल सकेंगे। आलस्य को परिश्रम में, बेचैनी को शांति में और सक्रियता को सेवा में लाने का यह एक आसान तरीका है। कभी-कभी इस रीढ़ की यात्रा पर भी निकलते रहें।

खुद से जुड़कर भीतर की खुशी हासिल करें
जब हम जल्दबाजी में होते हैं, तो चीजों को रखकर भूल जाने की गड़बड़ जरूर करते हैं। कई बार तो उस चीज को देख भी लेते हैं, लेकिन फिर भी वह हमें नहीं दिखती है। फिर हम उसे ढूंढ़ते हैं और जितना धैर्य से ढूंढ़ेंगे, चीज उतनी ही जल्दी मिल जाएगी। यह सबक भी मिल जाएगा कि अगली बार ऐसी गलती न करें। चलिए, जिंदगी में हम एक बहुत महत्वपूर्ण चीज रखकर भूल गए और उसका नाम है प्रसन्नता।

यह हमें जन्म से मिली है। जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं, इसे हम इधर-उधर रखकर भूल जाते हैं और मजेदार बात यह है कि जब हम इसे ढूंढ़ने निकलते हैं तो बाहर भटकते हैं। साफ समझ लें कि इसे हम अपने भीतर ही कहीं रखकर भूल गए हैं और ढूंढ़ बाहर रहे हैं। कभी गौर से बिजली और उसके करंट की व्यवस्था को देखिए। बल्ब, तार और बटन तीन अलग-अलग चीजें हैं। करंट बह रहा है, लेकिन इसका परिणाम बटन दबाने पर आता है। बटन दबाया और बल्ब जला।

ऐसे ही प्रसन्नता की लहर हमारे भीतर है, लेकिन हमें किसी न किसी बटन की जरूरत पड़ती है। वह कोई हमारा प्रियजन होता है, बाहर की कोई स्थिति होती है, भौतिक सुख-साधन होते हैं। ये सब बटन की तरह हैं। इनके मिलने पर ही हमें खुशी मिलती है, लेकिन दरअसल खुशी है भीतर और हमें लगता है ये लोग ही खुशी हैं। ये सिर्फ बटन मात्र हैं। आप चाहें तो बिना बटन दबाए उसी प्रसन्नता को अपने भीतर से पा सकते हैं। जो चीज हम जन्म से साथ लाए हैं, उसके लिए दूसरों पर क्यों आधारित रहें और अपने भीतर की खुशी को ढूंढ़ने के लिए कुछ समय अपने से जुड़िए। योग यह काम आपके जीवन में करेगा।

अभिमान रहित जीवन में ही सुगंध होती है
गलती करके माफी मांगना एक सामाजिक नियम है। ऐसा हम बच्चों को सिखाते हैं और खुद भी सीखते हैं। हमारी गलती न हो, फिर भी क्षमा मांग लेना उदारता के लक्षण हैं। माफी मांगने में तब झंझट शुरू होती है जब आप बड़े हों और माफी छोटों से मांगनी पड़े। बस, यहीं से अहंकार आ जाता है। परिवारों में ज्यादातर झगड़े इसी बात को लेकर होते हैं कि हम बड़े और वे छोटे। माता-पिता से बच्चे जिन कारणों से दूर जा रहे हैं, उनमें से एक कारण यह भी है। माता-पिता मानकर चलते हैं कि गलती बच्चे करेंगे और माफी उन्हें ही मांगनी है। धीरे-धीरे बच्चे ऐसा मान लेते हैं कि हमें माफी इसलिए मांगनी है कि हम छोटे हैं। वे भूल जाते हैं कि माफी गलती के लिए मांगी जा रही है और छोटे-बड़े का चक्कर शुरू हो जाता है।

अहंकार आपस में टकराने लगते हैं। परिवारों में माता-पिता को एक प्रयोग करते रहना चाहिए। यदि बड़े लोगों से भी कोई गलती हो जाए तो उन्हें बिना बेझिझक  अपने बच्चों से माफी मांग लेनी चाहिए। आपकी इस क्रिया की वे भविष्य में जरूर प्रतिक्रिया करेंगे। उनको यह संदेश मिल जाएगा कि क्षमा मांगना एक नैतिक दायित्व है। इसमें बड़े-छोटे का कोई झगड़ा नहीं है। बच्चे माता-पिता रूपी वृक्ष के फल-फूल हैं। जब माता-पिता अहंकार शून्य होते हैं, तो इसका मतलब यह है कि वे अपनी जड़ों की ओर लौटे हैं, जहां मूल रूप से वे निरहंकारी  हैं और जिसकी जड़ मजबूत है उस वृक्ष के परिणाम बड़े सुंदर होते हैं। इसलिए जड़ों से जुड़ने का मतलब है अपने अहम को छोड़ देना। अभिमान रहित जीवन में सुगंध होती ही है और इस महत्व को अपनी संतानों में उतरने दें।

क्रोध को दबाएं नहीं, उसे संकल्प शक्ति में बदलें
सर्वश्रेष्ठ सद्गुणी व्यक्ति में यदि दुर्गुण ढूंढ़ें तो हो सकता है आपको असफलता हाथ लगे। इसके बावजूद एक दुर्गुण मिलने की आशंका रहेगी। आज की जीवनशैली में सबसे ज्यादा दिक्कत इसी दुर्गुण के कारण है और वह है क्रोध। बच्चे से बूढ़े तक, अमीर से गरीब तक, आदमी हो या औरत सबको क्रोध ने अपनी चपेट में ले रखा है। यह जानते हुए भी कि क्रोध कई बीमारियों को जन्म देता है, लोग क्रोध करने से नहीं चूकते। क्रोध का पहला नुकसान तो मनुष्य स्वयं का करता है, फिर परिवार व समाज में, अपने व्यावसायिक क्षेत्र में संबंधों का करता है। इन सब जगह तो नुकसान की पूर्ति की जा सकती है, लेकिन जब माता-पिता और बच्चों के बीच क्रोध रिश्ते बिगाड़ता है, तो पूरा भविष्य दांव पर लग जाता है।

ताज्जुब नहीं कि क्रोधी माता-पिता के बच्चे आगे जाकर विकृत साबित हों। इसलिए जब आप माता-पिता बनें, सबसे पहले बाहर तथा भीतर क्रोध से मुक्ति पाएं। यदि आप बाहर से शांत हो जाएं, लेकिन भीतर से क्रोध में भरे हों, तो आपके बच्चे उस वाइब्रेशन को कैच कर लेंगे। यदि आपके बच्चे क्रोध से भरे हों, तो आप इसे दबाएं न, उनके क्रोध को संकल्प की शक्ति बना दें। जब बच्चे गुस्से में हों, आप माता-पिता के रूप में उन्हें अपने साथ बैठाएं। क्रोधी व्यक्ति यदि कमर सीधी करके बैठे तो ऊर्जा को रीढ़ से नीचे से ऊपर जाने में सुविधा होगी। यही शक्ति संकल्प में बदल जाएगी। क्रोध की अवस्था मं  इस प्रयोग को कोई भी कर सकता है। ऊर्जा को दबाएंगे तो किसी और रूप में नुकसान करेगी। सिर्फ कमर ही सीधी करनी है, आपकी शक्ति का आप ही सही उपयोग कर जाएंगे।

अपने भीतर के शून्य को भगवान से ऐसे भरें
हमारे पास कुछ ऐसा कम है, जिसे हमें दूसरे से भरना है। रिश्ते भी इसी फिलॉसफी पर टिके हैं। अपनी कमी को समझना। फिर उसकी पूर्ति दूसरे में ढूंढ़ लेना और फिर अपने से जोड़ लेना। संसार के रिश्तों में इसे परमात्मा से जोड़ें। हमारे भीतर कुछ ऐसा वैक्यूम है, जिसे भगवान से भरा जा सकता है। जब ऐसा होता है तो जीवन यात्रा बड़ी सरल हो जाती है।

सुंदरकांड के समापन की पंक्ति में तुलसीदासजी ने इसी भराव को एक नाम दिया है। ‘भव सिंधु बिना जल जान।’ बिना किसी जहाज के आप समुद्र पार हो जाएंगे। यह संसार भी सागर की तरह है। जल के पार जाने के लिए सेतू बना लें, तैर कर चले जाएं या नाव जैसा साधन हो, लेकिन तुलसी कहते हैं सुंदरकांड को जिन्होंने जीवन में उतार लिया उनको परमात्मा की शक्ति बिना साधन के ही पार लगा देगी। यानी आपकी शक्ति में परमशक्ति का जुड़ जाना। दुर्लभ और दुर्गम कार्यों में सुगमता आ जाना। अंतिम दोहा इस तरह व्यक्त हुआ है। सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान। सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान।। श्री रघुनाथजी का गुणगान संपूर्ण सुंदर मंगलों का देने वाला है। जो इसे आदर सहित सुनेंगे, वे बिना किसी जहाज के ही भवसागर को तर जाएंगे। जब कभी सुंदरकांड का समापन करें तो आरती के पश्चात वातावरण को बिल्कुल शोर-शून्य कर दें। सीधे खड़े हो जाएं, हाथ जोड़कर श्रीराम और हनुमानजी से प्रार्थना करें कि अगले कुछ क्षणों में आप मेरे भीतर उतर जाएं। एक ऐसी भावदशा का निर्माण करें कि जिसमें लगे कि वे उतर ही रहे हैं। रोम-रोम सुंदर हो चुका है और इसका मतलब यही है कि सुख के साथ शांति जीवन में आ गई।

भोजन व नींद को लेकर सतर्क व नियमित रहें
बहुत बार मनुष्य को ऐसा लगता है कि संसार में हमारी आखिर कीमत क्या है, लेकिन यह न भूल जाएं कि आप अपने लिए भले ही कीमती न हों, पर कुछ लोग होंगे जिनके लिए आप मूल्यवान हैं। आपको अपने आपको इसलिए बचाकर रखना है कि दूसरों के लिए आपका उपयोग हो। हो सकता है वे आपके बच्चे हों, आपके माता-पिता या आपका जीवनसाथी हो। आप दूसरों के लिए कीमती हैं और मूल्यवान चीजों की रक्षा की जानी चाहिए। इसलिए अपनी देखभाल अच्छे से करें। खासतौर पर शरीर के मामले में।

लोग इतने व्यस्त हो गए हैं कि उनकी मारामारी का परिणाम उनका शरीर भुगतता है। जब आप बीमार होंगे तो इसका मौल आपका परिवार चुकाएगा। भोगेंगे आप, पीड़ा दूसरे भी उठाएंगे। इसलिए दो चीजों के प्रति अत्यधिक सावधान और नियमित रहें और वह है भोजन तथा नींद। इस मामले में बड़े-बड़े अभी तक बच्चे ही हैं। बच्चे के खानपान और नींद पर अपना नियंत्रण नहीं होता है इसलिए बड़े लोग उनका लालन-पालन करते हैं, पर हममें से कई लोग ऐसे हैं जो ठीक से न खाते हैं और न सोते हैं। वे शरीर का जमकर दुरुपयोग कर रहे हैं और उनकी इस लापरवाही की कीमत उनके परिवार के लोग उठाएंगे।

भोजन और नींद से शरीर को साधने के लिए चौबीस घंटे में कुछ समय योग को अवश्य दें। योग ने शरीर को भीतर से जितना अच्छे से समझा है शायद मेडिकल साइंस भी इसमें चूक जाए। चिकित्सा जगत में जो शोध आज हो रहे हैं, हजारों साल पहले भारतीय ऋषि-मुनियों ने वो जिस आधार पर किए उसका नाम योग ही है। आपकी व्यस्तता को स्वास्थ्य से जोड़ने का काम योग करेगा। इसलिए योग आपकी नैतिक जिम्मेदारी होनी चाहिए।

हृदय पर ध्यान करें, अच्छाई लेने की क्षमता बढ़ेगी
आपके जीवन में जब भी कोई नया व्यक्ति आता है तो सबसे पहले वह आपकी स्वतंत्रता की परिभाषा को बदल देता है। यह व्यक्ति आपका जीवनसाथी, संतान, बहू दामाद या समधि परिवार कोई भी हो सकता है। जब हमारी स्वतंत्रता पर थोड़ा सा प्रभाव पड़ता है तब हमारा व्यक्तित्व गड़बड़ाने लगता है, क्योंकि हर नया सदस्य अपनी स्वतंत्रता की अपेक्षा लिए आपके जीवन में प्रवेश करता है। अपनी स्वतंत्रता के मामले में लोग दूसरे की परतंत्रता देखते हैं और यहीं से झंझट शुरू होती है। जहां नए संबंधों से जीवन में रस आना चाहिए, वहां जीवन विषमय हो जाता है। यदि आप सावधान नहीं रहे, तो दूसरे नए सदस्यों की बुराइयां आप पर हावी हो जाएंगी। अगर उसकी अच्छाइयां अधिक हैं तो वह हमारे लिए लाभ का सौदा है, लेकिन नए व्यक्ति के प्रवेश के समय हम गारंटी नहीं ले सकते या दे सकते कि उसमें बुराइयां नहीं होंगी।

जिससे आपका संबंध बना है यदि वह चिड़चिड़ा है और आपने परिपक्वता नहीं रखी तो यह इंफेक्शन आपके भीतर आने में देर नहीं करेगा। थोड़े दिनों में आप स्वयं को चिड़चिड़ा पाएंगे। समाज में रहना है तो संबंध निभाने भी हैं। इसलिए अपनी पूजा में आंख बंद करके थोड़ी देर सांस को हृदय चक्र पर टिकाएं, उस चक्र पर केंद्रित हो जाएं और परमात्मा से प्रार्थना करें कि जिन लोगों से मेरे संबंध हैं उनकी अच्छाइयां मैं ग्रहण करूं और वे मेरी अच्छाइयां बनकर वापस मेरे ही आसपास फैल जाएं। इस चक्र पर किया हुआ यह विचार आपकी सुरक्षा भी करेगा और आपके सान्निध्य में लोगों को सुख भी पहुंचाएगा।

आनंदपूर्ण जीवन के लिए गुरु जरूरी
दुनिया में कुछ बातें कुछ लोगों के साथ ही मिलती हैं। कितना ही धन खर्च कर लें, कितने ही लोगों की भीड़ में जुट जाएं पर यदि शांति, प्रेम, उत्साह, अध्यात्म, प्रसन्नता आदि चाहते हों, तो किसी ऐसे व्यक्ति के पास बैठिएगा जो आपको सहजता से यह दे सके। ऐसे व्यक्तित्व को भारतीय संस्कृति में गुरु कहा गया है। जीवन यात्रा में कुछ ऐसे लोग मिलेंगे जो आपको सकारात्मक ऊर्जा से भर देंगे, लेकिन ज्यादातर ऐसे मिलेंगे, जो आपको परेशान कर देंगे, निराशा में डुबो देंगे। इसलिए आनंदपूर्ण जीवन के लिए गुरु की उपस्थिति आवश्यक है।

गुरु और शिष्य का संबंध केवल देह का रिश्ता नहीं है। इनके बीच की महत्वपूर्ण कड़ी है मंत्र। जिनके जीवन में गुरु आ गए हैं वे सौभाग्यशाली हैं। गुरु मंत्र को अपने शरीर के सात चक्रों से जरूर गुजारिए। मंत्र का प्रत्येक शब्द आपकी आंतरिक ऊर्जा को आपके बाहरी शरीर के आस-पास बिखेर देगा। एक दिव्यता आपके व्यक्तित्व में उतरेगी। संघर्ष, संकट, परेशानियां कम हों या न हों, लेकिन इनसे जूझने की शक्ति प्राप्त होगी। आप लापरवाह नहीं, बेफिक्र हो जाएंगे। आपकी मस्ती आपकी सांस-सांस में उतर जाएगी।

गुरुपूर्णिमा का पर्व केवल व्यक्तियों को पूजने का पर्व नहीं है, यह एक दिव्य परंपरा के प्रति अपना आभार प्रकट करने का समय है। इसलिए आज के दिन तो हर सांस पर गुरु और उसका मंत्र जरूर लिख डालिए। जिनके पास गुरु न हों उनके लिए हनुमानजी गुरु और हनुमानचालीसा मंत्र के रूप में सदैव तैयार है

प्रेमपूर्ण होकर रिश्तों को देखिए।
भारतीय परिवारों की जीवनशैली में आया एक बड़ा परिवर्तन यह है कि परिवार के सदस्य परिवार के बाहर के लोगों से भी अधिक संबंध बनाने लगे हैं। कई बार तो विश्वास के मामले में भी परिवार के सदस्यों से ज्यादा गैरों पर भरोसा किया जा रहा है। पति-पत्नी में झगड़े हो जाते हैं कि दंपती के कुछ ऐसे मित्र बन गए हैं जिन पर पति या पत्नी को आपत्ति है। मां-बाप को भी कई बार बच्चों के दोस्त पसंद नहीं आते। कई बार तो बच्चों पर दबाव बनाना पड़ता है कि इसे छोड़ उससे दोस्ती करो।

यदि आपके परिवार का सदस्य जिससे मित्रता रख रहा हो, वह मित्र आपको पसंद न हो, तब सावधानी से इस मामले को निपटाएं। वरना हाथ में केवल कलह आएगा। पहली सावधानी तो यह रखें कि आप यह देखें कि कहीं आप उस मित्र या संबंध को लेकर पूर्वग्रह से ग्रसित तो नहीं हैं। यह भी सोचें कि आपके परिवार का सदस्य उस दूसरे मित्र या संबंध से ऐसा क्या प्राप्त कर रहा है, जो आप नहीं दे पा रहे हैं।

लिहाजा सबसे पहले उस वैक्यूम की भरपाई करें। सबसे पहले पूर्वग्रह से मुक्त हो जाएं और प्रेम से भर जाएं, क्योंकि प्रेम होगा तो दृष्टि निर्दोष होगी। अपने भीतर प्रेम बढ़ाने के लिए पूजा बहुत अच्छा माध्यम है। सभी घरों में सदस्य थोड़ा समय पूजा-पाठ में देते हैं। इसे केवल कर्मकांड की दृष्टि से न लें, बल्कि इसलिए करें कि हम प्रेम के मामले में रिचार्ज हो रहे हैं और जब प्रेमपूर्ण होकर अपने घर के सदस्यों के अन्य मित्रों और संबंधियों को देखेंगे, तो नुकसान की जगह फायदा ही उठाएंगे।

सफलता के साथ शांति भी जरूरी
सौंदर्य का जीवन में सदैव महत्व रहा है। सुंदरता सबको प्रिय है। श्रीरामचरित मानस का पांचवां सोपान सुंदरकांड तुलसीदासजी ने इसी दृष्टि से लिखा है। आज इस स्तंभ में हनुमानजी का चरित्र और सुंदरकांड विषय का हम समापन कर रहे हैं। हनुमानजी धर्म विशेष के न होकर ऐसे लोक-देवता हैं जिनके भीतर जीवन प्रबंधन के सारे सूत्र समाए हैं। हम पंचतत्व से बने हैं - पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश।

हनुमानजी सबसे महत्वपूर्ण वायु तत्व के प्रतिनिधि देवता हैं। ध्यान और प्रणायाम का संबंध वायु से होने के कारण हनुमानजी सर्वश्रेष्ठ योगी भी हैं। इसी दृष्टि से उनके चरित्र का चिंतन लगातार इस स्तंभ में इसी दिन किया जा रहा है। सुंदरकांड हनुमानजी की सफलता की कहानी है। आज सभी सफलता चाहते हैं। सारी सफलताएं अधूरी हैं यदि सुख के साथ शांति नहीं है। सुंदरकांड के आरंभ में जो श्लोक लिखा है उसका पहला शब्द शांतम्.... है। जीवन सुंदर ही तब है जब सुख के साथ शांति मिल जाए। जिन्हें सफलता में शांति की खोज करनी हो वे सुंदरकांड से अवश्य गुजरें। इसमें हनुमानजी की जो सफल छवि निर्मित हुई है उसकी तैयारी श्रीरामचरित मानस के चौथे सोपान किष्किंधाकांड में की गई है। ये कांड किसी धार्मिक साहित्य के पृष्ठ मात्र नहीं हैं, जीवन प्रबंधन के शब्द हैं।

बच्चों को जिम्मेदारी का अहसास कराएं
आजकल के बच्चों को यह बताना जरूरी है कि उनके पास सबसे महत्वपूर्ण चीज है जीवन। चूंकि उनका पूरा लालन-पालन और विकास भौतिक चीजों के आसपास होता है इसलिए वे यह भूल ही जाते हैं कि जीवन भी कुछ है। लगातार ऐसी स्थितियों में रहने के कारण अधिकांश बच्चे बड़े होने तक मशीन बना दिए जाते हैं। बच्चों के लालन-पालन में जब भी अवसर आए तो उन्हें यह अहसास दिलाएं कि यह जो मनुष्य शरीर उनके पास है यह जितना महत्वपूर्ण है उससे अधिक मूल्यवान है इसमें बसी आत्मा। वे शरीर के महत्व के साथ  उसके भ्रम को भी जानें, लेकिन आत्मा के सत्य से भी उनका परिचय कराएं।

बात थोड़ी गहरी लगती है, लेकिन जब बच्चों के जीवन से जोड़ेंगे तो सरल हो जाएगी। ध्यान दीजिएगा एक बात बच्चे बहुत जल्दी सीखते हैं, जो आप उन्हें नहीं सिखाते और वह है अपना हक मांगना। कई अधिक लाड़ली संतानें तो अमर्यादित वाणी में यह भी व्यक्त करती हैं कि आपने पैदा किया है तो हमें हमारा अधिकार देना आपकी जिम्मेदारी है। बस, इसी जिम्मेदारी को बुद्धिमानी से माता-पिता उनकी ओर मोड़ दें। जब-जब बच्चे उनके अधिकार की बात करें तो उन्हें यह समझाएं कि कुछ उनका भी दायित्व है। इसीलिए घर के छोटे-मोटे काम बच्चों से जरूर करवाए जाएं। भले ही आपके घर में हर काम के लिए कर्मचारी हों, लेकिन कुछ काम बच्चों से ही करवाएं। इससे उनके भीतर घर के लिए लगाव और अपनापन भी जागेगा। आज इसकी बहुत जरूरत है।

अज्ञान को जान लेना ज्ञान का आरंभ
न चाहते हुए भी आपको कई बार भीड़ से घिरे रहना पड़ सकता है। भीड़ को संख्या से न जोड़ें। कुछ लोग होते तो अकेले हैं, पर अपने आप में भीड़ से कम नहीं रहते। आपकी नीयति है ऐसे लोगों से घिरे रहना। चलिए कुछ प्रयोग करते हैं। जब आप नासमझों में घिरे हों, तो अपनी समझदारी का भरपूर उपयोग करें।

वरना उनकी मूर्खता की कीमत आप चुकाएंगे। पर जब आप समझदारों के बीच हों तो उनसे सीखने के लिए तुरंत नासमझ बन जाएं। वरना कई अच्छी बातें अपने जीवन में लाने से चूक जाएंगे। यह जान लेना कि आप अज्ञानी है, सबसे बड़ी समझदारी माना गया है।

अध्यात्म के क्षेत्र में तो अपने अज्ञान को जान लेने से ही ज्ञान आरंभ होता है, लेकिन इस अज्ञान का अलग-अलग स्थितियों में अलग-अलग ढंग से उपयोग करना चाहिए। जब हम लोगों के बीच में होते हैं तो विचारों का संक्रमण बिना चाहे चलता रहता है। आप न चाहें तो भी लोगों के विचारों की तरंगें आपके भीतर प्रवेश करेंगी और आपकी तरंगें भी उन तक पहुंचेंगी। अध्यात्म कहता है कि आत्मा की संपत्ति बांटने से बढ़ती है। आत्मा की संपत्ति का अर्थ है सद् विचार। इसलिए सदैव ऐसे लोगों के बीच में रहें जिनके विचार अच्छे हों, आचरण भला हो। गलत लोगों के बीच तुरंत लोप्रोफाइल होकर अपने आपको सुरक्षित कर लें और अच्छे लोगों के बीच भी लोप्रोफाइल होकर उनका श्रेष्ठ ग्रहण कर लें। भीड़ से तो बच नहीं सकेंगे, पर भीड़ के हानि-लाभ के प्रति सावधानी रखेंगे, तो नुकसान की जगह फायदा ही होगा।

बच्चों को पुरखों की स्मृति से जोड़ें
जब कभी आप परिवार के बीच बैठे हों और खासतौर पर आपके बच्चे साथ हों तो आज के दौर के घटनाक्रम पर तो चर्चा होती ही है। बच्चों के कॅरिअर और उनके आसपास के वातावरण पर खुलकर बात अनेक घरों में हो रही है। इस दौरान एक काम पूरे योजनाबद्ध तरीके से करिए। घर के बच्चे और बड़े एक साथ बैठ जाएं सौभाग्य के ऐसे क्षण भी बटोरना पड़ते हैं। ऐसे अवसरों को निर्मित करना पड़ता है। जब कभी ऐसा मौका मिले, तो अपने बच्चों को आपके वंश के गुजरे हुए बड़े-बूढ़ों के गुण अवश्य बताएं।

क्योंकि उनमें हमारे पूर्वजों के गुण-दोष अपने आप आते हैं। विज्ञान ने इसे आनुवांशिक माना है। हम आज जो भी हैं, जैसा भी करते हैं इसमें हमारे वंश के पुरखों का पूरा योगदान है। कहीं न कहीं हमारे भीतर उनके गुण-दोष काम कर रहे हैं, इसलिए बच्चों को उनके गुणों से जरूर जोड़ें। अच्छाई याद करने से और अच्छी हो जाती है। बुराई विस्मृत करने से कम हो जाती है, इसलिए बच्चों के कॅरिअर का जो मार्ग हम चुनें, उस पर  पुरखों को मील के पत्थर की तरह जरूर सजाएं। जीवन की हर राह मनुष्य अपने परिश्रम से बनाता है। बना बनाया रास्ता किसी को नहीं मिलता, खासतौर पर जीवन के मामले में। और यदि जिन्हें मिल गया वे चल नहीं पाए। अपने संकल्प और मेहनत से अपनी राह खुद बनाएं। इसमें पुरखों के गुण बड़े काम आते हैं, इसलिए जब भी समय मिले परिवार के बच्चों को स्मृतियों के माध्यम से बड़े-बूढ़ों से जोड़े रखें। इसीलिए कहते हैं कि पितर जाने के बाद भी देते रहते हैं।

सौजन्यता को दें आध्यात्मिक रूप
यदि आपने परिश्रम से कुछ साधन अर्जित कर लिए हैं, तो उनका एक हिस्सा सौजन्य के लिए जरूर निकाल लें। जैसे कमाई हुई आय पर हम टैक्स देते हैं, भले ही मजबूरी में दें, लेकिन देते जरूर हैं। ऐसे ही स्वैच्छा से एक सौजन्य कोटा निर्मित करें। इसे अपने मित्रों, रिश्तेदारों के बीच उपहार के रूप में भेंट करते रहें। इससे आपके मित्रों का दायरा बढ़ेगा और रिश्तेदारों की दृष्टि में सम्मान। कोशिश करें जब भी किसी के घर जाएं खाली हाथ न जाएं। हो सकता है सामने वाले के पास आपसे भी ज्यादा हो, लेकिन फिर भी अपना हाथ देने के मामले में हमेशा भरा रखें, क्योंकि उपहार की कीमत उसकी भावना में है, मूल्य में नहीं। तोहफे दिल को छूना चाहिए, न कि दिमाग से गुजरना चाहिए। यह शुद्ध सौजन्य हो, सौदा नहीं।

हमें यदि अपने लोगों तक पहुंचना है, तो चार चरण बनाने पड़ेंगे। सौजन्य व्यावहारिक गतिविधि है और ये चार चरण आध्यात्मिक क्रिया है। किसी तक पहुंचने की पहली सीढ़ी है शरीर। उसके बाद मस्तिष्क, हृदय और अंत में नाभि। इसलिए जब आप पूजा में बैठे हों, तो समापन के पूर्व अपने कुछ लोगों को इन चार चरणों के माध्यम से याद करें। सांस को केवल अपने शरीर में फैलाएं और उस व्यक्ति का स्मरण करें। फिर मस्तिष्क, फिर हृदय और फिर नाभि पर यही क्रिया करें। ध्यान रखिएगा, सारा मामला पवित्रता के साथ हो। बस यहीं से आपके संबंध दृढ़ होंगे और सामाजिक रूप से आपको एक संतोष मिलेगा। इसे ही सौजन्यता का आध्यात्मिक रूप कहेंगे।

मेडिटेशन से भीतर का खालीपन भरें
विज्ञान के इस युग में लगातार नई-नई चीजें इजाद हो रही हैं। हम आज एक चीज को भोगें और शायद अगली सांस में वह बासी हो जाए। हम फिर किसी नई चीज की तलाश में निकल जाएं। चारों तरफ भौतिक वस्तुओं का भराव है। ऐसे में भावनात्मक खालीपन और बढ़ जाता है। पति-पत्नी घंटों वाट्सअप पर संदेशों का आदान-प्रदान कर सकते हैं। साथ बैठकर टीवी देख सकते हैं, लेकिन इन तमान साधनों को छोड़कर एकांत में बात नहीं कर सकते।

यही हाल दूसरे रिश्तों का भी है। नहीं तो पहले लोग एक-दूसरे के साथ घंटों बिता देते थे। इसीलिए आज लोग भावनात्मक रूप से खाली होते जा रहे हैं। लंबे समय तक यह खालीपन रहे तो मनुष्य अपने व्यक्तित्व की पकड़ खो देता है। दूसरे कुटिल लोग इस खालीपन का लाभ उठाते हैं। कई रिश्ते इसीलिए टूट गए कि जीवनसाथी के खालीपन को किसी दूसरे स्त्री या पुरुष से भर लिया गया। भविष्य में यह खालीपन और बढ़ेगा, क्योंकि वस्तुओं पर टिकने का लोगों का नशा बढ़ता जा रहा है। इस खालीपन को आप स्वयं अपने से भर सकते हैं। इसी का नाम मेडिटेशन है। जैसे ही आप ध्यान में उतरेंगे तो लगेगा कोई व्यक्ति या स्थिति आपको ध्यान में जाने से रोक रही है, लेकिन यदि आपकी संकल्प शक्ति मजबूत है और आप यह तय कर लें कि कोई दूसरा आपको ध्यान में उतरने से नहीं रोक सकता तो अचानक खुद को एक दिन ध्यान में पाएंगे यानी खुद से खुद का खालीपन भर लेंगे। यह परमशांति की चरम सीमा होगी।

चार समस्याओं से गुजरता है जीवन
शायद ही कोई होगा, जिसके जीवन में समस्या नहीं होगी। किसी भी क्षेत्र में आपको चार तरह की समस्या से गुजरना है। निजी जीवन की समस्या, पारिवारिक जीवन की समस्या, सामाजिक जीवन की समस्या और फिर होती है हमारे व्यावसायिक जीवन की दिक्कतें। यह चार तरह का जीवन हरेक को जीना है। निजी जीवन की समस्या का संबंध मन से है। परिवार के जीवन की समस्या का संबंध तन से है, क्योंकि परिवार के सारे रिश्ते तन के होते हैं। सामाजिक जीवन की समस्या का संबंध जन से है, क्योंकि हमें जनसमुदाय के बीच में रहना होता है और व्यावसायिक जीवन की समस्या का संबंध धन से है। प्रोफेशनल लाइफ के सारे चक्कर धन-सम्पत्ति के आसपास ही चलते हैं।

श्रीरामचरित मानस के चौथे सोपान का नाम है किष्किंधा कांड। तुलसीदासजी मनोवैज्ञानिक ऋषि थे। किष्किंधा कांड समस्याओं के समाधान का कांड है। इस कांड की एक और विशेषता है कि इसमें श्रीराम कथा में हनुमानजी का पहली बार प्रवेश हुआ है, जो जीवन प्रबंधन के गुरु हैं। वे एक ऐसे लोक-देवता हैं, जो मनुष्य मात्र के जीवन के लिए लाभकारी हैं। किष्किंधा कांड का साहित्य आज भी हमारे जीवन के लिए बहुत उपयोगी है। संघर्ष कभी किसी का समाप्त ही नहीं होता। एक को निपटाओ तो दूसरी शक्ल में आ जाता है।

परिश्रम से परिणाम के तीन तरीके
किसी से कोई काम करवाना हो, तो बहुत ही समझदारी से काम लेना पड़ता है। हरेक के भीतर उसकी एक पकड़ होती है। अब तो अधिनस्थ कर्मचारियों से भी काम लेना आसान नहीं है। घर-परिवार में बड़ों के सामने भी बच्चों से काम लेना एक समस्या है। केवल भय, अनुशासन और नियम लादकर काम करवाने के दिन गए। अब काम लेना हो, तो प्रशंसा, प्रोत्साहन और प्रलोभन तीनों का मिलाजुला प्रयोग करना होगा। जब आप किसी की प्रशंसा करते हैं तो उसके अहंकार को संतुष्टि मिलती है, क्योंकि आदमी बहुत सारे काम तो अपने अहंकार को तृप्त करने के लिए ही करता है। कुछ तो भक्ति और सेवा भी इसी चक्कर में कर रहे हैं, इसलिए, प्रशंसा में कंजूसी न करें।

हालांकि, कई बार अहंकार भी किसी की प्रशंसा करने में कंजूसी कराता है। दूसरा प्रयोग है प्रोत्साहन। कई लोग मदद प्राप्त न हो तो आगे नहीं बढ़ पाते हैं। उनकी प्रतिभा प्रोत्साहन के बाद ही बाहर आती है। तीसरा व्यावहारिक तरीका है प्रलोभन। निज हित की कामना जन्म से ही अंगड़ाई लेने लगती है और मृत्यु तक साथ रहती है। कुल मिलाकर किसी के श्रम को इन तीन तरीकों से अंजाम दिया जा सकता है। दूसरे के श्रम का सम्मान करना हो तो समय-समय पर इन तीनों बातों का उपयोग करते रहना चाहिए। श्रम के मामले में भी आजकल लोग दूसरों पर अधिक आधारित हैं। कुछ लोगों को तो कुछ मामलों में श्रम करने में शर्म आती है। इसलिए परिश्रम को इन तीन तरीकों से अपने परिणाम तक पहुंचाइए।

किस्मत में जो है उसे कोई नहीं ले सकता
लेन देन की इस दुनिया में अब संबंध भी इसी आधार पर बनते हैं। आप यदि किसी से स्थायी और प्रेमपूर्ण संबंध रखना चाहते हों तो दो बातें याद रखें। यदि उधार दिया है तो दान समझ लें। यदि किसी से लिया है, तो संकल्प करें कि लौटाना ही है, क्योंकि दुनिया का हिसाब तो यहीं रह जाएगा, लेकिन परमात्मा की दुनिया का हिसाब साथ में जाएगा। लेन-देन में यदि आपने ऐसी भावना नहीं रखी तो संबंध बिगड़ने में देर नहीं लगेगी। यदि देने में उदार हैं, तो वापस नहीं लौटने की स्थिति में भी उदार बने रहें।

आधी उदारता संबंध जरूर खराब करेगी। खोने की आशंका को वैराग्य से जोड़ लें। एक बात तो तय है कि आपको किस्मत में जो मिला है उसे कोई ले नहीं सकता और ज्यादा आप पचा नहीं पाएंगे। हमें जितना चाहिए यदि उससे अधिक हमारे पास है तो हम सौभाग्यशाली हैं। इसलिए किसी को देना पड़े तो जरूर दीजिए और किसी से लिया है, तो ईमानदारी से लौटाने की भावना भी रखिए। जब भी आप पूजा करें अपने भीतर भक्ति का निर्माण लगातार करते रहें। यदि नहीं करेंगे तो पूजा कर्मकांड ही रह जाएगी और कर्मकांडी व्यक्ति लेन-देन को अलग दृष्टि से देखता है। वह अपना फायदा ही ज्यादा देखेगा, लेकिन भक्त हमेशा देने में उदार होगा और यदि वापस नहीं मिले, तो वैराग्य भाव से स्वीकार कर लेगा। भक्त यदि किसी से कुछ लेता है, तो लौटाने के लिए संकल्पवान रहता है, क्योंकि भक्त जानता है उसके हिस्से का उसे मिलकर रहेगा और दूसरे का हिस्सा लेने का उसे अधिकार नहीं है।

मदद करते समय जागरूकता जरूरी
संसार में रहते हुए हमें अनेक लोगों की मदद करनी होती है और करना भी चाहिए। यदि आप थोड़े से भी सक्षम हैं तो मदद करने में कभी पीछे नहीं हटें, लेकिन कभी-कभी सहायता करना महंगा पड़ जाता है। ध्यान रखिए इस समय सरल और कुटिल दोनों प्रकार के लोग सहायता प्राप्त करने के लिए तत्पर हैं।

कहीं सदाशयता में आप धोखा न खा जाएं। जिनकी आप सहायता कर रहे हैं उनके दुर्गुण और दुर्भाग्य दोनों पर पैनी नजर रखिएगा। आप किन लोगों की सहायता कर रहे हैं, इसका सीधा असर आप पर पड़ने वाला है। मदद को जोखिम न बना लें, क्योंकि गलत आदमी जब आपसे मदद लेता है तो उसे पलटने में देर नहीं लगती। हो सकता है कि वो अपने गलत कामों के परिणाम आपके माथे डाल दे, इसलिए सहायता करते समय अपनी जागृति न छोड़ें। सामान्यत: हम मदद करते वक्त भीतर से सेवाभाव में डूबे हुए होते हैं या हम भी कुछ प्राप्त करना चाहते हैं।

यदि आप भी कुछ प्राप्त करना चाह रहे हैं तो बहुत ही सावधान रहिए, क्योंकि आपकी यह अपेक्षा आपको महंगी पड़ जाएगी और यदि सेवाभाव में डूबे हैं और ऐसा लगता है कि लोग मदद का गलत फायदा उठाएंगे तो मदद करने का तरीका बदल दीजिए। किसी को मदद करने का सबसे सुरक्षित तरीका है उसके लिए परमात्मा से प्रार्थना करना। आंख बंद कीजिए, उस परमशक्ति से निवेदन कीजिए कि यदि यह व्यक्ति सही है, तो हे प्रभु, इस पर कृपा बनाएं, इसका शुभ कर दें। इससे मदद भी हो जाएगी और आप सुरक्षित भी रहेंगे।

बुद्धि को तीक्ष्ण बनाए सूर्य साधना
जीवन में कुछ क्षेत्र ऐसे होते हैं जहां बुद्धि का ही उपयोग करना पड़ता है। आप जब व्यावसायिक क्षेत्र में होते हैं तो वहां आपका पाला एक से एक बुद्धिमान लोगों से पड़ेगा। जब आप अपनी बुद्धि का उपयोग कर रहे हों तो अपने कुछ निर्णयों को गुप्त रखिए। इसके साथ वे अप्रत्याशित भी हों। कभी-कभी कुछ ऐसे फैसले लीजिए, जिन्हें लेकर लोगों को भरोसा ही न हो कि आप ऐसा भी कर सकते हैं, क्योंकि बुद्धि की एक विशेषता है कि वह समुद्र की तरह होती है। उसकी गहराई पाना बहुत मुश्किल है।

इसलिए अपनी गहराई तक कोई पहुंच न सके इसकी सावधानी रखें और दूसरों की बुद्धि के सागर में आप गोता लगा सकें, इतने सक्षम बनिए, लेकिन अधिकांश लोग अपनी बुद्धि का जीवनभर पूरा उपयोग नहीं कर पाते। मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति की गहराई में बुद्धि बसी रहती है और बुद्धिमान आदमी यदि अपनी बुद्धि का सही मंथन न करे तो वह मूर्खता ही कर रहा है। हमें प्रतिदिन इस बात का अभ्यास करना चाहिए कि हम अपनी बुद्धि के कपाट को खोलते रहें। इसके लिए बकायदा रियाज करनी पड़ती है। सूरज उगते समय खिलती हुई कली को देखना, वह बहुत बड़ा संदेश देती है कि सूरज इसी तरह हमारी बुद्धि के कपाट को भी खोल सकता है। सूरज के प्रकाश में यह विशेषता होती ही है। इसलिए प्रात:काल उगते सूरज की साधना करने का प्रयास करिए। बुद्धि के विकास के लिए यह बहुत अच्छी क्रिया है। इसके बिना अच्छे-अच्छे बुद्धिमान जीवनभर अपनी बुद्धि का भरपूर उपयोग नहीं कर पाते।

लक्ष्य तक पहुंचने के तीन मार्ग
इस दौर में बिना संघर्ष के कम ही लोगों को उपलब्धियां मिलेंगी और जिन्हें मिल जाएंगी वे उसे बहुत दिनों तक पचा नहीं सकेंगे। समस्या, परेशानी, संघर्ष को सहजता से लीजिए। अब इस स्तंभ में हम चर्चा कर रहे हैं श्रीरामचरित मानस के चौथे सोपान किष्किंधा कांड की। यह संघर्ष की कथा है। यहां न सिर्फ श्रीराम संघर्ष कर रहे हैं, बल्कि जितने पात्र आएंगे सब कहीं न कहीं किसी न किसी परेशानी का सामना कर रहे हैं। श्रीराम व हनुमान बताते हैं कि संघर्ष एक जीवनशैली है। इसे बोझ, प्रतिकूलता, तनाव और परेशानी का कारण न मानें। घर के भीतर व बाहर स्वाभाविक रूप से संघर्ष करिए।

किष्किंधा कांड में सारे पात्र संघर्ष की नई-नई परिभाषाएं देंगे। आपका कोई भी लक्ष्य हो, आप कहीं भी पहुंचना चाहें, घर में हों या बाहर। मार्ग तीन ही हैं- ज्ञान मार्ग, कर्म मार्ग और उपासना का मार्ग। व्यक्ति किसी एक मार्ग से नहीं चल सकता। इन तीनों मार्गों को कम या ज्यादा करके जीना पड़ता है। एक ही दिन हो सकता है हम प्रात:काल ज्ञान मार्ग में अधिक हों, दिन में कर्म में हों और शाम को उपासना में डूब जाएं। तीनों ही मार्ग में संघर्ष है। श्रीराम का संघर्ष यह था कि अपहरण के बाद सीताजी उन्हें मिल नहीं रही थीं। लक्ष्मण की परेशानी यह थी कि यह घटना उनकी लापरवाही के कारण हो गई। सुग्रीव इसलिए परेशान थे कि उनके भाई बाली उन्हें मारने के लिए ढूंढ़ रहे थे। अहंकार में डूबे हुए बाली की दिक्कत यह थी कि सुग्रीव नहीं मिल रहा था। सबकी समस्या का समाधान हनुमानजी ने निकाला था।

मंत्र की मदद से दूर करें अपराधबोध
परिणाम को लेकर कर्म में जब अत्यधिक दबाव बन जाता है तो मनुष्य के भीतर अपराध बोध पैदा होता है। सफलता की तारीफ मिलने से हमें भ्रम होना शुरू हो जाता है कि मैं जब भी करता हूं अच्छा ही करता हूं, लेकिन सफलता न मिले तो अपराधबोध पैदा हो जाता है। खासतौर पर संजीदा लोगों के साथ ऐसा होता है। उन्हें लगता है कि कहीं न कहीं वे गलती कर गए। अपराधबोध आते ही आप अपना और दूसरों का नुकसान करना शुरू कर देते हैं। जब आपके साथ ऐसा होने लगे तो समझ लीजिए आप अपराधबोध से ग्रसित हो रहे हैं। असफल होने पर क्या आप बातों को छुपा रहे हैं? भीतर ही भीतर घुट रहे हैं? दूसरों के प्रति आपकी निगेटिविटी बढ़ रही है।

हर घटना में अपने को फ्रेम करने की आदत बनती जा रही है और  क्या आप अच्छी बातें स्वीकार नहीं कर रहे? ये लक्षण अपराधबोध में डूबने के हैं। जब आप असफल हों और अपनी गलती स्पष्ट नजर आ रही है तो पश्चाताप की जगह प्रायश्चित को वजन दें।

पश्चाताप में केवल सिर पीटने जैसा होता है, लेकिन प्रायश्चित में भविष्य के प्रति एक संकल्प भी रहता है। अध्यात्म में संकल्प पूर्ति मंत्रों का बहुत अच्छा प्रयोग बताया गया है। मंत्र होते ही हैं संकल्प पूरे करने के लिए। आपके पास यदि कोई गुरुमंत्र हो तो उसका उपयोग करें अन्यथा किसी और मंत्र को अपने जीवन में उतारें, क्योंकि मंत्र सर्वाधिक प्रभाव मन पर करता है। अपराधबोध या प्रायश्चित के बीज की भूमि मन ही है। अत: मंत्र से मन पर काम करिए और असफलता को सफलता में बदल दीजिए।

अपनों की सराहना करना भी जरूरीजीवन में कुछ लोगों से कुछ घटनाओं पर बोलना भी पड़ता है और मौन भी रखना पड़ता है। इस मामले में अत्यधिक सावधान रहिए कि कब आपको बोलना है और कब चुप रहना है। यह सावधानी घर और बाहर दोनों समय रखनी चाहिए। चलिए, आज घर-परिवार की बात करें। हमें कई सदस्यों से यह शिकायत सुनने को मिल जाएगी कि हमने हमेशा अच्छे काम किए पर घर में किसी ने तारीफ नहीं की। शिकायत यहां तक होती है कि काम हमने अच्छे किए क्रेडिट दूसरा सदस्य ले गया और आप चुप रहे। वाणी की मुखरता और मौन दोनों यदि गलत समय पर हो तो कलह का कारण होते हैं। अपने परिजनों को लेकर कुछ क्षेत्र में जरूर बोलिए। जैसे खाना, पहनना, दिखना, खेल में, सफलता पर, शिक्षा में और कला में उन्हें प्रेरित और प्रोत्साहित करने के लिए जरूर बोलिए। इसमें आपकी चुप्पी महंगी पड़ सकती है और जब इन्हीं क्षेत्रों में आलोचना करनी हो या किसी कारण से आवेश आ रहा हो, तो मौन साधिए। अपनों की अच्छाई देखने में लोग अकारण कंजूस हो जाते हैं।

एक काम करते रहिए। हम दिल की किताब में उनके द्वारा किए गए हमारे नापसंद कामों की सूची तो रखते हैं, लेकिन उनके अच्छे कामों की लिस्ट भी अपनी डायरी में जरूर बनाएं। उस समय को अपने मानसिक पटल पर जरूर अंकित करें जब उन्होंने अच्छे काम किए हों। फिर इन स्मृतियों को शब्द दें और मुखर हो जाएं। तब उन्हें लगेगा कि आप तारीफ भी कर रहे हैं तो दिल से कर रहे हैं, क्योंकि आपने इसकी पूरी तैयारी की है। इससे आप स्वयं को भी शांत पाएंगे।

बिना नवीनता के सृजन व्यर्थ है
वक्त बहुत तेजी से बदल रहा है। यह अहसास होने के बाद भी लोग खुद को नहीं बदल पा रहे हैं। यदि आप रचनात्मक होना चाहें तो आपको नए से जुड़ना होगा। बिना नवीनता के सृजन व्यर्थ है। नयापन स्वीकार करने में संभव है आपका अहंकार आड़े आए, क्योंकि मनुष्य का हठिला स्वभाव उसे नया करने से रोकता है। जब भी कुछ नया करने जाएं तो यह मत सोचिए कि इसका संबंध आपसे है। सोच का दायरा बढ़ाकर विचार करें कि आपके परिवार, समाज और राष्ट्र को लगातार नए-नए की जरूरत है। यह नवीनता आप सबके लिए स्वीकार कर रहे हैं। प्रयास भले ही आपका व्यक्तिगत होगा, लेकिन परिणाम सार्वजनिक होना है। निजी प्रयासों को सार्वजनिक बनाने का एक अच्छा उदाहरण है गोस्वामी तुलसीदासजी का जीवन।
3 अगस्त को उनकी जयंती थीं। उनका लिखा श्रीरामचरित मानस भारतीय संस्कृति की आचार संहिता यूं ही नहीं बन गया। उन्होंने लोगों की अास्था को गहराई से समझकर श्रीराम कथा का सृजन किया था। जिस उदारता से उन्होंने दृश्य लिखे उसी के कारण श्रीराम कथा जनमानस में रच-बस गई है। आज मनुष्य लगातार योग्य होने की कोशिश कर रहा है और इसीलिए अहंकारी होता जा रहा है। इससे उसके व्यक्तित्व में कठोरता आ गई है, जो करुणा से ही समाप्त होगी। करुणा को समझना हो तो तुलसीदासजी की पंक्तियां बड़े काम की हैं। एक-एक शब्द को उन्होंने हृदय में डुबोकर लिखा है। वे पूरे समाज के उद्धार की करुणा लिए श्रीराम  कथा लिख रहे थे, इसीलिए वह नव-सृजन आज भी घर-घर में रच-बस गया।

दांपत्य में शांति के लिए भीतर उतरें
पति पत्नी में तनाव का एक बड़ा कारण होता है केवल काया पर टिका सतही रिश्ता। भले ही दोनों यह तर्क दें कि उनके तनाव का कारण दूसरे लोग हैं या खुद आपस में एक-दूसरे के अधिकार आदि हैं, लेकिन सच यही है कि ये सब मामले सतह पर टिके हुए हैं। पति-पत्नी का आपस में लड़ना-झगड़ना स्वाभाविक है। समझ से इस झगड़े को दाएं-बाएं किया जा सकता है, लेकिन दबाव बनाकर इसे खत्म किया जाए, तो विकृति नई शक्ल में आ जाएगी। देखना यह चाहिए कि लड़ाई-झगड़े का स्वरूप कैसा है। यदि विवाद का समापन रूठने-मनाने पर हो रहा है तो इसके भी फायदे वैवाहिक जीवन में नजर आएंगे, लेकिन यदि युद्ध की शक्ल देकर एक-दूसरे के जीवन की ही मांग कर ली जाए, फिर खतरे हैं।
वैवाहिक जीवन की बुनियादी मांग है पति-पत्नी के बीच थोड़े-बहुत मतभेद होते रहना। इन्हें सुलझाने का तरीका है, जब भी ऐसा हो शरीर से हटिए। पति-पत्नी में जब विवाद होता है, तो सामाजिक, पारिवारिक मर्यादा के कारण भले ही दोनों प्रत्यक्ष रूप से न लड़ें, किंतु भीतर ही भीतर विचारों के आक्रमण आरंभ हो जाते हैं। खयालों की भीड़ में जीने लगते हैं। शरीर के भीतर बैठा मन  मधुमक्खी का छत्ता बन जाता है और विचार पत्थर की तरह आकर लगता है। मक्खियां उड़-उड़कर चैन खा जाती हैं। आत्मा पर टिक जाएं। यानी विचार शून्य सांस लें। शरीर से हटें, भीतर उतरकर आत्म पर केंद्रित हो जाएं। आपके आस-पास शांति का चक्र बन जाएगा। आपको प्रसन्नता महसूस होगी और उस चक्र के भीतर आने पर आपके जीवनसाथी को भी।

हमारे चार जीवन और उनकी समस्याएं
जिस तेजी से इस दौर में सुविधाएं बढ़ी हैं, उससे भी अधिक गति से समस्याओं की वृद्धि हो गई। हम किसी भी क्षेत्र के व्यक्ति हों, हमारे चार तरह के जीवन होते हैं और उन चारों जीवन में अपने-अपने ढंग की समस्याएं भी रहती हैं। एक होता है हमारा निजी जीवन। इसकी समस्या का संबंध होता है मन से। फिर होता है पारिवारिक जीवन। इसकी समस्याएं शुरू होती हैं तन से, क्योंकि परिवार के सारे रिश्ते तन के होते हैं। जीवन का तीसरा भाग है सामाजिक जीवन। यहां जो समस्याएं आती हैं उनका संबंध है जन से। चौथा जीवन है व्यावसायिक जीवन। इसका संबंध धन से है। धन सबकुछ नहीं होता, लेकिन बहुत कुछ होता है और इस बहुत कुछ में ही आज के जीवन का प्रश्न समाया है। श्रीरामचरित मानस के चौथे सोपान किष्किंधा कांड में इन चारों समस्याओं का समाधान हनुमानजी ने बड़े व्यवस्थित ढंग से बताया है। किष्किंधा कांड का घटनाक्रम इस प्रकार है कि सीताजी का अपहरण हो चुका है। श्रीराम-लक्ष्मण ढूंढ रहे हैं। हनुमानजी से उनकी भेंट होती है। सुग्रीव से मैत्री की जाती है। सुग्रीव सीताजी की खोज में वानर भेजते हैं। समुद्रतट पर बंदरों को पता लगता है कि सीताजी लंका में हैं। तब जामवंत हनुमानजी से कहते हैं- आप ही को लंका जाना पड़ेगा और यहीं से सुंदरकांड आरंभ हो जाता है। श्रीरामचरित मानस को इस संसार में केवल धार्मिक ग्रंथ ही न मान लिया जाए। जीवन और उसकी समस्याओं के समाधान के अद्‌भुत सूत्र इसमें हैं। किष्किंधा कांड में हम जैसे-जैसे हनुमानजी के साथ आगे बढ़ेंगे, हर समस्या का समाधान मिलता जाएगा।

अपनों के संकट में समय अवश्य दें
कुछ लोग इन दिनों कहते हैं हम सब दे सकते हैं, पर समय नहीं दे सकते। आजकल समय के मामले में सभी कंगाल हैं। जैसे परिश्रम में हम अतिरिक्त कोशिश करते हैं, उसी तरह अपने लोगों के संकट-काल में समय निकालने के लिए अतिरिक्त प्रयास करें। अपने लोगों के लिए समय निकालते हुए कभी यह न सोचे कि उन्होंने तो हमें वक्त नहीं दिया था। हो सकता है सामने वाले ने आपको आपके हक का समय न दिया हो, लेकिन जब उसे जरूरत पड़े तो अपना वक्त उसे अवश्य दान करें। इस व्यापारिक जगत में आजकल लोग टाइम का भी इन्वेस्टमेंट करते हैं। कोई किसी के साथ जितना भी समय गुजारता है, यह मानकर चलता है कि इसका रिटर्न मिलना चाहिए, इसीलिए वह समय कहीं खो गया जिसमें अपनापन हुआ करता था, जिसमें जीवन का स्वाद बसता था। तोल-तोल कर लोग एक-एक क्षण एक-दूसरे को दे रहे हैं और उसका भी हिसाब-किताब रखा जा रहा है, अहसान जताया जाता है। इस समय दो चीजों का लोग खूब जमकर उपयोग और दुरुपयोग कर रहे हैं - एक है शरीर और दूसरा है समय। जब लोग शरीर का सदुपयोग कर रहे होते हैं तब जाने-अनजाने समय का दुरुपयोग हो जाता है और जब समय का सदुपयोग कर रहे होते हैं तो लोगों के शरीर का दुरुपयोग हो जाता है। एक के साथ की मित्रता, दूसरे के साथ की शत्रुता बन जाती है। जैसे वाद्य यंत्र का सदुपयोग हो तो संगीत ठीक से निकलता है, उसी तरह शरीर का सही उपयोग हो तो समय भी सही निकलना चाहिए। इन दोनों का तालमेल, जिसने सही ढंग से बैठा लिया, उसके जीवन के सुर सही हो जाएंगे।

बुजुर्गों के होने से रहती है शुभ-शक्ति
घर परिवार में बड़े-बूढ़ों के रहने से अदृश्य शुभ-शक्ति बनी रहती है। इस बात की अनुभूति अनेक लोगों को होती रही है। भारतीय संस्कृति के धर्म-ग्रंथों ने वृद्धजनों को देवतुल्य माना और उससे भी आगे ले जाकर परमात्मा  स्वरूप भी बना दिया। बड़े-बूढ़ों की सेवा पूजा का ही रूप है। ऐसा मानने वाले लोग भी कभी-कभी जब एक छत के नीचे उनके साथ रहते हैं तो एक अलग किस्म की परेशानी महसूस करते हैं। बुजुर्गों के अनुभवों का अहंकार आड़े आ ही जाता है। परिवार छोटे हो चले हैं और दिक्कतें बड़ी। घर में भी दृष्टिकोण व्यावसायिक हो रहा है। समय की कमी सबके पास है। ऐसे में दो पीढ़ियों के बीच समस्या की आशंका बढ़ जाती है। बुजुर्गों में भी कमजोरियां होती हैं। शरीर साथ नहीं देता तो गलतियां भी करते हैं। इधर, नई पीढ़ी को सिखाया जाता है, उन्हें देव तुल्य मानकर सेवा करें और उधर, गुजरती पीढ़ी के आचरण में भी दोष आना स्वाभाविक है। ऐसे में मध्य मार्ग निकालना ही पड़ेगा। घर में जो बुजुर्ग हैं, ठीक उनके बाद की जो नई पीढ़ी है वह तो फिर भी सेवा कर लेगी, लेकिन वर्तमान की यह पीढ़ी जब भविष्य में बूढ़ी होगी तो इनके बच्चे क्या इनकी सेवा कर पाएंगे? यह सवाल अभी से वर्तमान पीढ़ी के भीतर अंगड़ाई लेने लगा है। मां के आंचल और पिता के कर्मठ हाथों का जो साया उनके पास है, क्या वे ये आने वाली पीढ़ी के नए बच्चों को दे रहे हैं? यदि यह ट्रांसफर ठीक ढंग से हो गया तो भविष्य में बुजुर्गों का सेवाभाव बना रहेगा और इसीलिए हमने परमात्मा में माता और पिता का स्वरूप देखा है। उन्हें याद करके हमें जन्म देने वालों का इसी भाव से हम मान करें।

घर आने पर मूल स्वरूप में लौट आएं
घर के बाहर हम लोग बहुत कुछ होते हैं। दो पैसे कमाने के लिए तो कई बार अनेक वेश बदलने पड़ते हैं, इसीलिए बाहर के संसार में व्यक्तियों को पहचानना कठिन है। आपके साथ कोई जो छल कर रहा है वैसा ही षड्यंत्र हम उसके साथ कर रहे होते हैं। बाहर की दुनिया की सौदेबाजी तो फिर भी पकड़ी जा सकती है, पर जो भीतर चल रहा होता है उसे पकड़ने में अच्छे से अच्छा मैनेजमेंट भी फेल हो जाता है। जब बाहर की दुनिया से निपटकर अपने घर-संसार में लौटें तो सबसे पहले अपने मूल स्वरूप, अपने अस्तित्व पर लौट जाएं। यहां मुखौटे और दिखावे का खेल महंगा पड़ सकता है। घरों में अधिकांश मौकों पर कलह का कारण यही दोहरा व्यक्तित्व होता है। आदमी होता कुछ है और दिखाता कुछ है। जैसे ही आप स्वयं के अस्तित्व पर टिकते हैं आपके आस-पास प्रेम, उत्साह, शांति और सुख का वातावरण अपने आप सुगंध की तरह फैलता है। आप खुद भी रिचार्ज हो जाते हैं। आपकी यह मानसिक अवस्था आपके साथ वालों को भी सकारात्मक रूप से चार्ज करेगी। इसके लिए घर में प्रवेश करते समय खुद को अपने मस्तिष्क से काट लें और अपनी नाभि पर टिक जाएं। दिमाग को अशांत रहने में रुचि है, लेकिन नाभि सदैव शांत रही है। घर में प्रवेश करके हाथ-मुंह धोने के बाद सिर्फ पांच मिनट घर के देव स्थान या अन्य किसी जगह पर बैठकर विचार करें कि आप अपनी नाभि पर टिक गए हैं और फिर घर में अपनी दिनचर्या आरंभ करिएगा। यहीं से घर वैकुंठ लगने लगेगा।
\
परिवार को जोड़ता है प्रेमपूर्ण व्यक्तित्व
हर मनुष्य के भीतर अच्छी और बुरी बातों का सिलसिला चलता रहता है। भीतर के विचार मौका पाते ही बाहर क्रिया में बदलने लगते हैं। समझदार लोग बुरे विचारों को कर्म में परिवर्तित होने से रोक देते हैं और पूरी ताकत लगाते हैं कि अच्छे विचार कर्म में उतर जाएं। अच्छे विचार कर्म में उतारते समय जो अनुभूति होती है, रिश्तों को निभाने में उसकी जरूरत पड़ती है। परिवारों में रिश्ते यदि ठीक से नहीं निभाए गए तो परिवार टूटने में समय नहीं लगेगा। परिवार को एक सूत्र में जोड़ने के लिए श्री हनुमान चालीसा बहुत प्रभावशाली है, लेकिन इसे सांस से जोड़कर जीवन में उतारा जाए। इससे व्यक्तित्व प्रेमपूर्ण होगा और प्रेमपूर्ण व्यक्ति कभी परिवार को नहीं टूटने देगा। इससे जुड़कर हम अपने परिवार को तो बचाएंगे ही, आने वाली पीढ़ी को भी एक ऐसी दिव्य और शांत गृहस्थी सौपेंगे, जिसकी खोज में आने वाले वक्त में वे लोग बहुत परेशान रहने वाले हैं।

सफलता के बाद थोड़ा विराम जरूरी
जिंदगी में हारें या जीतें थोड़ी देर के लिए रुकने की आदत जरूर डालें। रुकने से मतलब है आंतरिक विश्राम। चूंकि आज बहुत दौड़-भाग करने के बाद सफलता मिलती है, नहीं मिलती है तो यही दौड़-भाग बोझ बन जाती है। एक ऐसी निराशा आस-पास फैल जाती है कि लगता है या तो दोबारा प्रयास मत करो या आप कभी सफल हो ही नहीं पाओगे। हालाकि, आज हम बात करते हैं कि सफलता के बाद क्या करेंगे। असफलता की चर्चा बाद में की जाएगी। सफलता के बाद तीन बातों के लिए जरूर रुकें। पहली बात, आपकी झूठी-सच्ची प्रशंसा होगी। कुछ चापलूसी कर रहे होंगे तो कुछ आपके अहंकार को बढ़ाने के लिए यशगान करेंगे। इसलिए थोड़ा-सा रुककर प्रशंसा को पचाएं। जैसे भोजन पचाने के लिए आंशिक विश्राम भी जरूरी है। दूसरी बात, दोबारा चलने के उत्साह को पैदा करने के लिए भी रुकना जरूरी है, क्योंकि सफलता की यात्रा कभी पूरी नहीं होती। एक सफलता का पड़ाव दूसरी का आरंभ बन ही जाता है। तीसरी बात करें कि सफलता पर टिके रहने के लिए मस्तिष्क की सजगता बहुत जरूरी है। आप जरा सा लापरवाह हुए तो दूसरों से पहले आप पहले खुद ही धक्का लगाएंगे। दुनिया में ज्यादातर लोग अपनी ही लापरवाही से गिरे हैं। दूसरों के धक्के तो कभी-कभी सफल होते हैं। सफलता अर्जित करने में श्रम के ये तीन भाग हैं। इसलिए मेहनत को ठीक से समझकर सफलता से जोड़ें। प्रशंसा, उत्साह और सजगता श्रम के ही भाग हैं। अपनी मेहनत को यूं व्यर्थ न गंवाएं।

जीवन में शुभ का घटना ही कल्याण
निज हित की कामना सभी को होती है, लेकिन अपने हित के साथ दूसरों का भी भला हो जाए ऐसा भाव आपको शांति प्रदान करेगा। हमारी संस्कृति में एक शब्द है कल्याण। अंग्रेजी में इसे वेलफेयर कहा जाता है, लेकिन कल्याण बड़ा व्यापक शब्द है। जब हम किसी को आशीर्वाद देते हुए कहते हैं - कल्याण हो, तो इसका मतलब होता है भविष्य में जो भी शुभ हो वही आपके जीवन में घटे। आप जो चाह रहे हैं वह हो या न हो, यह अलग बात है, क्योंकि मनुष्य की चाहत उसके माया-मोह से जुड़ी होती है और परमात्मा अपने ढंग से प्रदान करता है। कल्याण यानी भगवान ने जो भी आपके बारे में सोच रखा है वह हो जाए और उसे प्राप्त कर आप विचलित न हों। भगवान शंकर को कल्याण का देवता कहा गया है। किसी को संकट में देख शंकरजी सहायता करने के लिए उतावले हो जाते हैं। श्रीरामचरित मानस के चौथे सोपान किष्किंधा कांड के आरंभ में तुलसीदासजी ने जो सोरठा लिखा है उसमें शंकरजी को इस तरह से याद किया है - जरत सकल सुर बृंद बिषम गरल जेहिं पान किया। तेहि न भजसि मन मंद को कृपाल संकर सरिस।। जिस भीषण हलाहल विष से सब देवतागण जल रहे थे उसको जिन्होंने स्वयं पान कर लिया, रे मंद मन! तू उन शंकरजी को क्यों नहीं भजता। उनके समान कृपालु और कौन है। हनुमानजी शंकरजी का रुद्रावतार हैं और यही भाव हनुमानजी में बसा हुआ है कि दूसरों को समस्यामुक्त करना। किष्किंधा कांड में इसका आरंभ वे श्रीराम से करते हैं।

योग बनाता है दाम्पत्य को सफल
जुड़वां बच्चे और पति-पत्नी का जोड़, दोनों ही स्थिति में जुड़ाव का महत्व है। यह जरूरी नहीं होता कि जुड़वां बच्चे स्वभाव से एक जैसे हों, सूरत के मामले में उनमें समानता जरूर रहती है। मां के गर्भ में उन्होंने साथ समय बिताया होता है, इसलिए ट्विंस अलग दृष्टि से देखे जाते हैं। ठीक यही स्थिति पति-पत्नी के साथ है। विवाह के दिन दोनों का जोड़े के रूप में नया जन्म होता है। जुड़वां बच्चों की तरह कोई आगे-पीछे नहीं होता। पति-पत्नी के रूप में दोनों का जन्म एक ही समय होता है। भारतीय संस्कृति ने विवाह को संस्कार माना है और दोनों के दो से एक होने की घोषणा की है। इसके बावजूद दोनों न तो एक जैसा सोच पाते हैं और न ही रह पाते हैं। दोनों की ही अपनी रुचि अलग-अलग काम करती है। दो संसार मिलते हैं और फिर भी एक रहें ऐसी अपेक्षा की जाती है। समझदार जोड़ा इस स्थिति को मजबूत बनाने के लिए कुछ प्रयोग करता है। जैसे जब पति-पत्नी अलग-अलग हों तो अपनी-अपनी रुचियों के अनुसार अवश्य काम करें। न तो निराश हों और न ही बहुत अधिक स्वतंत्रता महसूस करें और जब साथ हों, न तो घुटन महसूस करें और न तो बंधन। अगर ऐसा नहीं करते हैं तो धीरे-धीरे यह रिश्ता बोझ बन जाता है। भारत के ऋषियों ने योग को दाम्पत्य जीवन से इसीलिए जोड़ा है, क्योंकि योग भीतर उतरने की कला है और जैसे ही पति-पत्नी योग के माध्यम से भीतर उतरते हैं तो एक होने का भाव जल्दी जाग जाता है। इसी में इस रिश्ते की सफलता का राज छिपा है।

युवा को सच्ची राह पर रखता है ध्यान
यौवन अपने साथ कुछ अवांछित चीजें लेकर आता है। युवावस्था और दुर्गुणों का संबंध गुड़ तथा मक्खी की तरह होता है। बचपन को तो माता-पिता बचा लेते हैं, बुढ़ापा भगवान के भरोसे काटना पड़ता है, लेकिन जवानी को बचाने के लिए खुद को ही कोशिश करनी पड़ेगी। युवा व्यक्ति को वही ठीक लगने लगता है जो वह सोच रहा होता है। दूसरों की सलाह मानना उनके लिए कठिन होता है। माता-पिता को समझना होगा कि युवावस्था यानी बच्चों का नया जन्म हो रहा है। आपके लालन-पालन के तौर-तरीके संतुलन और सावधानी के साथ बदलने होंगे। कुसंग लाल कालीन लिए उनका स्वागत करने को तैयार है। युवावस्था से जुड़े हॉर्मोन अपना प्रभाव दिखा रहे होते हैं। ऐसे में मां-बाप के सामने बच्चों को सही राह पर बनाए रखने की चुनौती होती है। इसकी तैयारी बचपन से करनी होती है। हम बचपन में बच्चों का लालन-पालन तो करते हैं, लेकिन उनके पूरे व्यक्तित्व का पोषण नहीं करते। एक संतान मां से नाभि से जुड़ी होती है और पिता से मूलाधार चक्र से। माता-पिता को बच्चों के साथ बैठकर मेडिटेशन करना चाहिए। ध्यान करते समय मां अपने बच्चे को अपनी नाभि पर स्मरण करें और पिता हैं तो मूलाधार चक्र पर उसे केंद्रित करें। आपके शरीर से निकलने वाले वाइब्रेशन आपकी संतान के लिए पॉजिटिव होंगे। वे संसार में कहीं भी रहें, आप गुंजन के रूप में उनके आस-पास उपस्थित रहेंगे और अनुपस्थित रहकर उपस्थित होने की यह क्रिया उन्हें कुसंग से बचाएगी।

आज श्रीकृष्ण जैसा जीवन आवश्यक
बाहर की दुनिया में हमारी किसी वस्तु की चोरी न हो जाए इस मामले में हम सावधान रहते हैं, लेकिन हमारे विचारों का अपहरण भी होता रहता है और हम जान ही नहीं पाते। यह काम हमारा मन करता है, इसीलिए हम भीतर ही भीतर एक भावना से दूसरी संवेदना तक भागते रहते हैं। अंदर इतनी भागमभाग मन मचा देता है कि आखिर हम थक जाते हैं। मन जब थकाता है तो हमारे भीतर उत्तेजना पैदा होती है, जो हमें उदासीनता के मार्ग पर ले जाती है या कुछ गलत करने के लिए उकसाती है। इस मन को नियंत्रित करने के लिए इसका संबंध किसी से जोड़ना पड़ेगा, इसीलिए हमारे यहां एक अवतार भी हुआ, जो मन के नियंत्रण का ही प्रतीक है। इन्हें संसार ने भगवान कृष्ण के नाम से जाना। श्रीकृष्ण एक ऐसा अवतार हैं, जिनमें सर्वाधिक आयाम हैं। संत-महात्माओं ने अपने-अपने ढंग से इस अवतार का विश्लेषण किया, क्योंकि कृष्ण ने सबको इसके अवसर खूब दिए। ओशो ने बहुत अच्छा कहा है, ‘भक्तों को इतनी स्वतंत्रता किसी ने नहीं दी, जितनी कृष्ण ने दी। कोई इन्हें लड्‌डू-गोपाल कहता है, कोई गोपियों के साथ नचवा देता है, कोई हाथ में शस्त्र थमा देगा, तो कोई मुंह से ऐसा ज्ञान निकलवा लेता है कि संसार कल्पना भी नहीं कर सकता एक व्यक्ति और उसकी ऐसी अनेक अनूठी भूमिकाएं। श्रीकृष्ण की किसी भी भूमिका को अपने भीतर उतारा जा सकता है, क्योंकि कृष्ण एक शृंखला हैं और आज ऐसे ही जीवन की आवश्यकता है।

आगे बढ़ने में ही समस्या का समाधान
कुछ समस्याएं स्वत: आती हैं और कुछ को हम स्वयं बुलाते हैं। अपनी बुलाई समस्याओं का निदान तो हमें खुद ढूंढ़ना ही चाहिए, लेकिन मनुष्य इस मामले में भी बहुत नादान साबित होता है। रामचरितमानस का चौथा सौपान किष्किंधा कांड समस्याओं के समाधान के सूत्र लेकर आता है। इसमें हनुमानजी बताते हैं कि समस्या तो आएगी ही तैयारी हमें करनी होगी। इसके लिए अपने भीतर दूसरों की मदद करने की भावना प्रबल होनी चाहिए। जिन लोगों में ऐसा होता है वे स्वयं अपनी भी मदद कर पाएंगे। जब कोई घटना घटे तो इस बात की फिक्र अधिक करें कि अब इसके लिए क्या हो सकता है। किष्किंधा कांड के आरंभ में पहली चौपाई में तुलसीदासजी ने एक मनोवैज्ञानिक तथ्य लिखा है- आगे चले बहुरि रघुराया। रिष्यमूक पर्बत निअराया।। श्री रघुनाथजी फिर आगे चले। ऋष्यमूक पर्वत निकट आ गया। इस कांड के आरंभ में ही आगे शब्द लिखा है। अब राम नए भविष्य की ओर बढ़ रहे थे। दोनों भाइयों के सामने भयंकर समस्या थी। रावण सीताजी का अपहरण कर चुका था। खोज कहां से आरंभ की जाए समझ में नहीं आ रहा था। राम विचार कर रहे थे कि समस्या बहुत बड़ी है। भविष्य की ओर चला जाए। आगे बढ़ने पर कोई न कोई मार्ग मिलेगा। आगे उन्हें हनुमानजी मिलते हैं। सबक यह है कि समस्या आए तो बिल्कुल न रुकें, वर्तमान पर अपनी पूरी योग्यता से नजर रखें और योजना को भविष्य से जोड़ दें। आगे बहुत कुछ ऐसा है जो समाधान लिए खड़ा होगा।

घातक है सर्वत्र धन की महत्ता
धन कमाने की चाहत यदि समय पर नियंत्रित न की जाए, तो मनुष्य को निर्दयी बना देती है, क्योंकि दौलत के राजपथ पर अनेक मोड़ ऐसे आते हैं जहां आपको कुटिल, निर्दयी और शैतानी वृत्ति का सहारा लेना पड़ सकता है। जैसे वाहन चलाते समय मोड़ पर हम गाड़ी के सभी यंत्रों का उपयोग बदल देते हैं। मसलन स्पीड, ब्रेक, गियर आदि, लेकिन बाद में फिर सामान्य हो जाते हैं। हालांकि, कुछ लोग धन कमाने के मामले में सदैव निर्दयी ही बने रहते हैं। धन की आसक्ति न सिर्फ निजी जीवन को, बल्कि हमारे अन्य जीवन को भी दुखी कर देती है। संत बाबाजी यूं तो कम बोलते हैं, पर बातचीत में वे इस पर विचार व्यक्त करते हुए कहते हैं, ‘जिस समाज या राष्ट्र में सर्वत्र धन की महत्ता स्थापित हो जाती है, वह राष्ट्र या समाज धीरे-धीरे अपना गौरव खो देता है। मूल्य तथा आदर्श अपने आप समाप्त होने लगते हैं। समाज में अपराध, अनैतिकता, कुंठा, निराशा, गरीबी, भेदभाव व अंतत: संपन्न वर्ग की मनमानी अपना घर बना लेती है।’  मालूम होता है कि कई सौ साल की चालाकी एवं गुलामी फिर से जिंदा हो रही है। लोग अपने से ऊंचे स्तर के व्यक्तियों को देखते हैं और उनमें किसी प्रकार का चारित्रिक उत्कर्ष, त्याग की भावना अथवा अन्य उच्चादर्श न पाकर स्वयं भी उस जीवन-शैली को अपनाने की ओर प्रेरित हो रहे हैं। समाज निरंतर अधोगति की ओर जा रहा है। ऐसे में हमारे लिए त्याग-वैराग्य की वृत्ति अब बहुत आवश्यक हो गई है।

पूर्ण कर्म ही ध्यान में जाने का मार्ग
बिना कर्म किए कोई भी नहीं रह सकता। जो लोग शांति की खोज में हैं उन्हें अपने कर्म के मूल और परिणाम दोनों पर सजगता बनाए रखनी होगी, क्योंकि शांति-अशांति के भ्रूण कर्म में बसे हुए हैं। श्री शंकरजी ने इस पर सुंदर विचार व्यक्त किया है। हर मनुष्य के हाथ कुछ न कुछ करना चाहते हैं। कर्म करने की जो एक तरंग, शक्ति, सामर्थ्य हमारे भीतर है, उसको दिशा देने की बात महत्वपूर्ण है। हमारी जो चेतना है, उसमें रजोगुण भी है, उसको जो दिशा देंगे तो वह उसी दिशा में बहने लगेगी। अगर सतोगुण या तमोगुण की ओर बहाएंगे तो कर्म की ऊर्जा का प्रवाह उस ओर जाने लगेगा। उदाहरण से समझें। जब बारिश होती है तो सारे पहाड़ों का पानी निकलकर सड़क पर बह जाता है। किसी को कोई फायदा नहीं, लेकिन, वहीं पर पास में एक नाला खोद दिया जाए, तब यही पानी नाले में जाएगा। खाली बैठकर सोचना भी तो एक कर्म है। बिना कर्म किए बैठने की बात तो बहुत ही अच्छी है। तब तो सिद्ध हो गए, समझ लो ध्यान लग गया। आंखें बंद करके बैठ जाओ, ऐसे बैठो, जिसमें जरा भी हिले-डुले नहीं, न ही मन में कोई विचार आए। इसे ध्यान कहेंगे, लेकिन ऐसी अवस्था जब तक नहीं आती, तब तक क्या करें? कर्म से भी वहां पहुंच सकते हैं। जो भी कर्म करें उसमें अपना सौ प्रतिशत मन लगाकर कर करें, वह कर्म अर्थपूर्ण हो जाएगा। कर्म की यही ऊर्जा हमें ध्यान की ओर ले जाएगी। ऐसे कर्म के बाद अशांति नहीं आएगी।

विचारों में है स्वर्ग-नर्क की उत्पत्ति
हरेक का स्वर्ग-नर्क परमात्मा ने लगभग उसी के हाथ में सौंप रखा है। इन लोकों की भौगोलिक स्थिति के शोध में जाएंगे तो उलझ जाएंगे। ये तो जीतेजी जीवन के दो हालात हैं। निवृत्त शंकराचार्य स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि ने कहा है, जो विषय का अनुरागी है, वही बंधन में है और विषयों से विरक्ति ही मुक्ति है। घोर नर्क किसे कहते हैं? अपने शरीर का दुरुपयोग ही घोर नर्क है। स्वर्ग-पद क्या है? तृष्णा का नाश। तृष्णा यानी चाहत की अति आसक्ति। तृष्णा के मिटने की स्थिति आ जाए और विवेक जाग्रत हो जाए, तो वह व्यक्ति जीते जी स्वर्ग का आनंद लेता है। नर्क उस स्थिति का नाम है जब मानव स्थिरता का अनुभव नहीं करता। वह निरंतर झूलता रहता है, भीतर से भी, बाहर से भी। जो व्यक्ति निरंतर वैचारिक झूले में ही झूलता रहे, एक क्षण भी स्थिरता की स्थिति में न हो, तो उम्र की दृष्टि से भले ही बूढ़ा हो जाए, परंतु चिंतन की दृष्टि से बालवत् ही जीवन व्यतीत करता है। वह व्यक्ति कभी शांत नहीं हो सकता। व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने जीवन में ही नारकीय विचारों से दूर रहे। कीचड़ में सने हुए व्यक्ति को देखकर घृणा उपजती है, परंतु अपने कुविचार के कीचड़ में हम ऐसे फंस जाते हैं कि खुद को भी नहीं देख पाते। अपना वह कीचड़ अपने भीतर पीड़ा उत्पन्न करे, हम तभी उससे बच सकते हैं। यदि उस गंदगी से लगाव हो गया, तो कई बार उस कीचड़ को ही हम अपना शृंगार मान लेते हैं और यहीं से अशांति की दुर्गंध हमारे व्यक्तित्व से फैलने लगती है।

जीवन के विविध रूपों की रक्षा करें
क्या हम जानते हैं कि मनुष्य होने पर हमारे उद्‌देश्य क्या हैं? अपने जीवन के लक्ष्य को न जानना बहुत बड़ी भूल है। जूनापीठाधीश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरिजी अपने शब्दों के लालित्य के साथ कहते हैं, ‘जीवन को सुधारने की शुरुआत मनुष्य किसी भी समय कर सकता है। भूतकाल में हमने कुछ गलतियां कीं, उनके दुष्परिणाम भी भुगत लिए, लेकिन अब यह तय करें कि इन गलतियों को नहीं दोहराएंगे और जीवन को बेहतर बनाएंगे।’ भूलों को सुधारने के मामले में हम व्यक्तिगत गलतियों तक ही सीमित रहते हैं। व्यापक सोच परिवार  और आस-पास के जीवन को अधिक उद्‌देश्यपूर्ण बनाने से जुड़ी है। यदि हम जीवन के व्यापक उद्‌देश्यों को तलाशें तो यह बुनियादी सवाल सामने आता है कि मनुष्य पृथ्वी पर क्यों है?

अपनी अतिरिक्त क्षमताओं का उपयोग मनुष्य को धरती के विभिन्न जीवन-रूपों की रक्षा के लिए करना चाहिए। इसके विपरीत आज मनुष्य अपनी मूल पहचान और उद्‌देश्य से भटक गया है। आपसी सहयोग और सद्‌भावना के आधार पर कार्य करने की जगह शोषण तथा अन्याय की व्यवस्था ने दुनियाभर में असंतोष एवं हिंसा पैदा की है। इस कारण बहुत से मनुष्य इतने अभावग्रस्त तथा असुरक्षित हैं कि वे जीवन के अन्य रूपों की रक्षा के मूल उद्‌देश्य के बारे में सोच भी नहीं पाते, इसलिए हम अपना दायरा व्यापक करें और कुछ ऐसे काम करें जो पृथ्वी पर अनेक लोगों के लिए हितकारी हों। आप इन्हें आसानी से चुन सकते हैं और प्रेम के साथ इन्हें कर सकते हैं।

दान में परहित को प्राथमिकता दें
धन के दुरुपयोग की लंबी शृंखला है, लेकिन हमारे शास्त्रों ने धन के सदुपयोग की भी सुंदर व्यवस्था बताई है। यह हो जाए तो दौलत कमाना भी पूजा बन जाएगा। गायत्री परिवार के पितृपुरुष आचार्य श्रीराम शर्मा कहा करते थे, ‘दान की परंपरा से करुणा और दया के आधार पर सच्चा साम्यवाद स्थापित किया जा सकता है।’ दान की प्रक्रिया में दाता और लेने वाले के मध्य सौहार्द बना रहता है, इसके विपरीत छीन-झपट कर दूसरे की संपत्ति अन्य को दिलवाने की चेष्टा से लाया हुआ साम्यवाद स्थायी नहीं रहता। उसका टिकाव हिंसा पर होता है। समाज में यदि कुछ लोग अमीर हो जाएं और शेष लोग गरीब ही रहें तो चोरी, डाकाजनी, हत्या आदि अपराध तो होंगे ही, बड़े-बड़े विद्रोह और क्रांतियों का होना भी अपरिहार्य है। फलस्वरूप समाज में सुख-शांति नहीं रह सकेगी। इस अवस्था को लाने के लिए धन-सम्पत्ति का चलायमान रहना बहुत आवश्यक है। सुख-दुख, संकट-विपत्ति जैसी समस्त अवस्थाओं में दान को व्यावहारिक रूप से महत्व दिया जाता है। हर्ष को प्रकट करने के लिए और दु:ख में संतोष धारण करने के लिए दान को आधार माना जाता रहा है, इसलिए दान देते समय पाप-पुण्य के चक्कर में अधिक न पड़ें। सामने वाले के हित और अपनी करुणा को प्राथमिकता दें। धन आपके पास अधिक है, इसमें आपकी योग्यता, भाग्य, पुश्तैनी प्रभाव यह सब हो सकता है, लेकिन इसे दान का रूप देने में सिर्फ आपकी नीयत काम आएगी और ईश्वर को अच्छी नीयत वाले लोग बहुत पसंद हैं।

मित्र को सलाह देने में सावधानी बरतें
भयभीत मनुष्य न सिर्फ सोचने-समझने की शक्ति खो देता है, बल्कि अपने आस-पास के वातावरण भी दूषित कर देता है। वह तो हिम्मत हारता ही है, साथ वालों की हिम्मत भी तोड़ देता है। तुलसीदासजी ने किष्किंधा कांड में श्रीराम और हनुमान की पहली मुलाकात के दृश्य के आरंभ में लिखा है, ‘तहं रह सचिव सहित सुग्रीवा। आवत देखि अतुल बल सींवा।। अति सभीत कह सुनु हनुमाना। पुरुष जुगल बल रूप निधाना।।’ वहां ऋष्यमूक पर्वत पर मंत्रियों सहित सुग्रीव रहते थे। अतुलनीय बल की सीमा श्रीरामचंद्रजी और लक्ष्मणजी को आते देखकर, सुग्रीव अत्यंत भयभीत होकर बोले, ‘हे हनुमान, सुनो। ये दोनों पुरुष बल और रूप के निधान हैं।’ सुग्रीव बड़े भाई के डर से ऋष्यमूक पर्वत पर रहते थे। दूर से उन्होंने श्रीराम और लक्ष्मण को आता देखा, तो उन्हें लगा कि यहां से भाग जाना चाहिए। फिर सोचा कि ये कौन हैं इसकी परीक्षा ली जाए। हनुमान उनके सचिव थे, मित्र थे।  सुग्रीव को उन पर बहुत भरोसा था। हनुमानजी भी सुग्रीव के मनोविज्ञान को जानते थे। सुग्रीव की रुचि हमेशा स्थितियों से भागने में रही है। हनुमानजी केवल सचिव होते तो उन्हें आदेश का पालनभर करना था, लेकिन वे जानते थे कि सुग्रीव उन पर मित्रवत भरोसा भी करते हैं। मित्र को सलाह देनी हो तो सावधानी भी रखनी पड़ती है, क्योंकि  सही बात भी कहनी है, सांत्वना भी देनी है और काम भी करना है। यहीं से हनुमानजी अपनी भूमिका अद्‌भुत तरीके से पूरी करने जा रहे हैं।

सेवाभाव जागने पर बढ़ जाती है ऊर्जा
जब भीतर सेवाभाव जागता है, तो हमारी ऊर्जा भीतर ही भीतर बढ़ जाती है और कई गुना अधिक परिणाम देने लगती है बल्कि यूं कहें कि ऊर्जा नया रूप लेने लगती है, इसलिए जब भी कोई सेवाभाव करें; केवल दिमाग से न करें। उस सेवाभाव को हृदय तक ले जाएं, क्योंकि जो बहुमूल्य होता है वह हृदय में बसता है। हृदय तक जाते ही सेवा अपने लक्ष्य बदल लेती है, फिर वहां अहंकार काम नहीं करता। परहित की भावना जबर्दस्त रूप से जाग्रत हो जाती है। मस्तिष्क अपने आप संतुलित होने लगता है और कर्म में दिव्यता आने लगती है। ऐसे लोग हुए हैं, जिन्होंने कर्म को अद्‌भुत दिव्यता प्रदान की है। मदर टेरेसा उन्हीं में से एक रही हैं। उनके बाहरी काम तो संसार याद करता है, लेकिन उनके भीतर जो घटा होगा वह जानना हमारे लिए बहुत जरूरी है। ईसा मसीह कहा करते थे, ‘जिनका हृदय पवित्र होगा, स्वर्ग का राज उन्हीं लोगों के हाथ में होगा।’ भीतर की पवित्रता ही बाहर सेवा बनकर निकलनी चाहिए। भीतर से हम पवित्र कैसे रहें इसके कई आध्यात्मिक अभ्यास हैं। प्रार्थना, पूजा, परमात्मा का स्मरण ये ऐसे ही अभ्यास हैं, लेकिन कभी-कभी इनसे परिणाम सही नहीं मिलते, इसलिए योग भीतर की पवित्रता के लिए सबसे अधिक प्रभावशाली है और यदि हम सब इतना न कर सकें तो ईसा मसीह की उस बात को याद करें, जिसमें वे कहते थे कि जो विनम्र हो जाएगा वह पवित्रता प्राप्त कर लेगा और विनम्र होना एक सरल अभ्यास है। इसे थोड़ी सी जागरूकता के साथ रोजमर्रा की जीवनशैली में शामिल किया जा सकता है।

निर्भय होकर जीने में ही आनंद है
अपने किए हुए के परिणाम को लेकर जागरुक रहें, लेकिन परेशान न हों। रिजल्ट आपके हित में आए इसकी इच्छा जरूर रखें, पर ऐसा न हो तो बहुत दुखी न हो। ये दुख कम हो सकता है इस भावना  से कि हमारे अलावा इस ब्रह्माण्ड में ऐसी शक्ति है, जिसकी इच्छा चलती है। जैन संत सुधासागरजी व्यक्त करते हैं, ‘जब कर्म उदय में आता है तो सुख की नींद नहीं सोने देता है।’ हम आज तो सुखी हैं, दूसरे क्षण वह सुख रहेगा कि नहीं इसकी कोई गारंटी नहीं है। एक क्षण पहले कहा जा रहा था कि अयोध्या का राज श्रीराम के चरणों में समर्पित होगा। सूर्य जब डूबा तो ये सोचकर डूबा होगा कि कल सुबह मैं आऊंगा तो अयोध्या में राजाराम मिलेंगे, लेकिन प्रकृति ने रातभर में क्या कमाल कर दिया। शाम को यह घोषणा है कि अयोध्या का कण-कण राजा राम के हाथों में होगा, पर रात में ही घोषणा हो गई कि सूर्य निकलने के पहले ही श्रीराम को अयोध्या की सीमा छोड़ना है। कहां रात में इतना बड़ा पुण्य पनपा था और इतना ही बड़ा पाप हो गया। इस प्रसंग को जानकर संसार के लोगों को भय लगता है कि जब इतने बड़े महारथियों का, महान पुण्यात्माओं का एक रात में सबकुछ बदल सकता है, तो हम संसारी लोग बहुत सामान्य हैं। सारे लोग भय से भर जाते हैं और यह भय हमारे वर्तमान के कर्म को भी बाधित करता है। भविष्य के परिणाम को लेकर भयमुक्त होना है तो अपने धर्म पर टिकें, जो कहता है भगवान के बनाए गए नियमों के अनुसार काम करो तो कभी डर नहीं लगेगा। निर्भय होकर जीने का आनंद ही अलग है।

जीवन में मौलिकता आवश्यक है
इन दिनों सबकुछ दो भागों में बंट चुका है। अमीरी-गरीबी, सही-गलत, आस्तिक-नास्तिक और बंटते-बंटते शिक्षा भी बंट गई। अमीरों की शिक्षा अलग। गरीबों का पढ़ना-लिखना कुछ और बात है। इसी विभाजन ने शिक्षकों को भी बांट दिया। एक वे शिक्षक हैं जो स्कूल-कॉलेज में किताबों का कोर्स पूरा करा रहे हैं, जहां सिर्फ मार्कशीट और डिग्री का उद्‌देश्य पूरा किया जा रहा है। दूसरी शिक्षा कोचिंग सेंटर्स पर फल-फूल गई। कुछ शहर तो इन्हीं के नामों से जाने जा रहे हैं। एक जगह डिग्री की बात है और दूसरी जगह है कॅरिअर। यहां के शिक्षक भी अलग-अलग हैं। कुछ शिक्षक अभी भी परंपरागत ढंग से पढ़ा रहे हैं। वे अभी भी प्रयास कर रहे हैं कि ज्ञान विद्यार्थियों में उतर जाए। फेकल्टिस का एक दूसरा वर्ग है, जो कॅरिअर और धन कमाने की तकनीक सिखा रहा है। इन दोनों के बीच भारत जैसी धरती पर भी गुरु गायब हो गए। गुरु की अनुपस्थिति इन बच्चों के भविष्य में दोष लाएगी ही, क्योंकि विद्यार्थियों में इसी कारण विभाजन हो गया है। प्रतिस्पर्धा के इस युग में सब समझ गए हैं कि आप जो भी अच्छा काम करेंगे, दूसरे तुरंत उसकी नकल कर लेंगे, इसलिए आपके भीतर उससे निपटने के लिए विशिष्टता होनी चाहिए। वरना आप फिर किसी नए की नकल कर रहे होंगे। इसके लिए आपमें मौलिकता होनी चाहिए, जिसके लिए गुरु की आवश्यकता है। गुरु मिलता है अध्यात्म से जुड़ने पर। अध्यात्म यानी आत्मा की ओर यात्रा, इसलिए कॅरिअर की यात्रा में बच्चों को यह सिखाया जाए कि वे अंतर-यात्रा करने की इच्छा खत्म न कर लें।

आध्यात्मिक साधना को भी समय दें
समय नहीं है इसका रोना सभी लोग रोते हैं। टाइम की कमी बताना फैशन सा हो गया है। चौबीस घंटे की अवधि में सामान्य रूप से हम 15-16 घंटे जागते हैं। इसी अवधि में हम सांसारिक काम सूचीबद्ध तरीके से करते हैं। इसी दौरान कुछ आध्यात्मिक कार्य भी पूरी योजना से किए जाएं। रूहानी मिशन के संत राजिंदरसिंहजी कहते हैं, ‘दिनभर में दो काम ऐसे भी किए जाएं और वे हैं- भजन और सुमिरन।’ ये केवल कर्मकांड नहीं हैं। ऐसा न मानें कि इनको करने से हमारे सांसारिक कार्यक्रम बाधित हो जाएंगे। इन दोनों के जरिये हम अपना ध्यान बाहर की दुनिया से खींचकर अंदर की ओर करते हैं। जिस समय हम अपना ध्यान अंतर में एकाग्र करते हैं, तो कोई भी विचार या बाधा हमारा ध्यान भंग करके हमें शुरू के स्थान पर पहुंचा सकती है। जैसे कि मकड़ी दीवार पर चढ़ती है, फिर गिरती है, फिर चढ़ती है, फिर गिरती है। हमारा  मेडिटेशन भी इसी तरह है। मान लीजिए हम पांच मिनट के लिए बैठे और सूरत हल्की सी सिमट गई। तब अगर कोई विचार आया तो ध्यान भंग हो जाता है। हम फिर शुरू के स्थान पर पहुंच जाते हैं, इसलिए भजन या सुमिरन अलग-अलग करें और जितनी अधिक देर तक कर सकें, उतने समय तक लगातार करें। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम कौन-सा अभ्यास पहले करते हैं और कौन-सा बाद में, लेकिन हम जो भी अभ्यास करें, उसे पूरी एकाग्रता से करें। धीरे-धीरे यह अभ्यास हमारे सांसारिक कर्मों में भी उतर जाएगा और फिर हम जो भी करेंगे उसमें सफल जरूर होंगे।

संतान से रिश्ते में आध्यात्मिकता जोड़ें
अब जीवन में दूर जाकर अलग रहने के अवसर बढ़ते जा रहे हैं। शिक्षा हो या व्यापार अपने दायरे से बाहर निकलना ही पड़ता है। इसमें परिवार सबसे ज्यादा परेशान होता है। खासतौर पर इन दिनों माता-पिता जो अकेलापन महसूस कर रहे हैं, बच्चों का दूर जाना इसकी वजह है। हालांकि, इसमें दोनों की ही सहमति है । बच्चों के लालन-पालन में अनेक मौके आते हैं जब माता-पिता को अपनी संताने देखकर लगता है कि हम ऐसे चिड़चिड़े, जिद्‌दी और स्वार्थी बच्चों के माता-पिता क्यों हो गए। खुद पर शर्म करने के अवसर भी आते हैं। कुछ बच्चे हैं जो माता-पिता को अतिरिक्त गर्व प्रदान कर देते हैं। दोनों ही प्रकार के बच्चे वयस्क होने पर घर से दूर निकलते ही हैं। कुछ बच्चे खुशी-खुशी भागते हैं कि चलो बंधन के जीवन से मुक्ति हुई और कुछ बच्चे घर से ठीक से कट भी नहीं पाते। अब समय आ गया है कि माता-पिता इस घड़ी के लिए भी पूरी तैयारी करें। जितने अच्छे ढंग से बच्चे घर से विदा होंगे, उतने ही सही तरीके से वापस लौटने की संभावना बनी रहेगी। यह जरूरी नहीं है कि कोई बच्चा स्थायी रूप से घर लौटे, लेकिन अस्थायी वापसी में भी प्रेम, समर्पण, अपनापन बना रहे इसकी तैयारी माता-पिता को ही करनी पड़ेगी। गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध के दौरान शरीर से आत्मा की यात्रा कराई थी। माता-पिता और बच्चों के रिश्ते शरीर के होते ही हैं, पर लालन-पालन यदि इसी पर टिका रहा तो दूर गए बच्चों का वापस आना कठिन है। थोड़ा-सा आत्मा पर टिकिए। ऐसे बच्चे लौटकर आएंगे, जो आज परिवारों की बड़ी जरूरत हैं।

प्रज्ञा से होते हैं सदैव सही काम
कठिन से कठिन काम स्वयं करना पड़े तो भी करना आसान है, लेकिन सरल से सरल काम भी यदि दूसरे से कराना पड़े तो कभी-कभी कठिन हो जाता है। यदि आप किसी व्यवस्था के प्रमुख हों और नीचे काम करने वालों को कोई आदेश दें तो चिंता बनी रहती है कि वे काम ठीक से करेंगे या नहीं। कुछ सीनियर लोग प्रोफेशनल लाइफ में यह कहते हुए पाए जाते हैं कि आजकल काम करवाना बहुत ही माथाफोड़ी का काम है। योग्य अधीनस्थ का मिल जाना सौभाग्य की बात है। सुग्रीव इस मामले में सौभाग्यशाली थे कि उनके पास हनुमानजी जैसे सचिव थे। हनुमानजी ने अपनी बुद्धि को प्रज्ञा में बदल दिया था। बुद्धि जब रिफाइंड हो जाए तो प्रज्ञा कहलाती है और प्रज्ञा से सदैव सही काम ही होता है। बुद्धि तो फिर भी भ्रम में पड़ जाती है। सुग्रीव ने हनुमानजी को सामने आ रहे राजकुमारों के बारे में पता लगाने को कहा था। तुलसीदासजी ने किष्किंधा कांड में लिखा है - धरि बटु रूप देखु तैं जाई। कहेसु जानि जियँ सयन बुझाई।। बिप्र रूप धरि कपि तहँ गयऊ। माथ नाई पूछत अस भयऊ।। सुग्रीव बोले, ‘तुम ब्रह्मचारी का रूप धारण करके जाकर देखो। उनकी यथार्थ बात जानकर मुझे इशारे से समझा देना। यह सुनकर हनुमानजी ब्राह्मण का रूप धरकर गए। सुग्रीव ने स्पष्ट कहा था कि आप ब्रह्मचारी बनकर जाएं, लेकिन हनुमानजी ने ब्राह्मण का वेष रख लिया तो क्या यह आदेश का उल्लंघन था या आदेश को और अच्छे ढंग से पूरा करने का तरीका। आगे हम देखेंगे कि हनुमानजी ने ऐसा क्यों किया।

व्यक्तित्व में गहराई के लिए सरल बनें
अपने व्यक्तित्व मे गहराई लाना चाहते हैं तो सरल बने रहने का प्रयास करते रहें और टफ लोगों के साथ भी जीवन जरूर बिताएं। कठिन लोगों के साथ रहने पर आपके व्यक्तित्व में और निखार आएगा। कठिन यानी ऐसे लोग, जिन्हें बात-बात पर क्रोध आता है, जो अत्यधिक अनुशासन पसंद हैं, जो जल्दी बुरा मान जाते हैं और जो अपनी ही बात मनवाने के लिए हावी होने की कोशिश करते हैं। इनके साथ बिना लड़े, भीतर से परेशान हुए बिना समय गुजारने का अभ्यास करते रहिए। यह काम होगा धैर्य से। जब भी वक्त आए ऐसे लोगों की मदद करें। शीघ्र क्रोधी व्यक्ति के मनोविज्ञान को समझ लें। यदि आप अपने व्यक्तित्व को गहरा बनाते हैं तो आप समझ जाएंगे कठिन लोग भीतर से बड़े कमजोर हैं, बल्कि बीमार की तरह हैं। हमें उनकी सेवा ही करना है। हमारी सदाशयता उनके लिए इलाज बन जाएगी। अपने आप को सरल बनाना भी आसान नहीं है। एकांत में रोज अभ्यास करना पड़ता है। खुद को करुणा से भरना होगा, जो केवल कृत्य में न उतरे, बल्कि पूरे व्यक्तित्व में फैल जाए। भीतर उतर रही करुणा की परीक्षा करना हो तो अपने नेत्रों के आंसुओं पर ध्यान देते रहिए। किसी भावुक स्थिति में यदि आंसू आएं तो उन्हें रोकिए मत, बहने दीजिए। न तो प्रयास करके लाएं और न अत्यधिक कोशिश करके रोकें। यदि सामाजिक कारणों से नेत्रों में आंसू न लाना चाहें, तो भीतर हृदय को द्रवित होने से न रोकें। इस तरह आप अधिक और अधिक सरल होते जाएंगे तथा कठिन लोगों के साथ जीवन बिताने में सक्षम भी होंगे।

जीवन का कीमती भाव है विश्वास
जैसे जैसे समय बदल रहा है जीवन की कई बातों के अर्थ भी बदल रहे हैं। जीवन की एक महत्वपूर्ण बात है, विश्वास। इसकी वृत्ति लगातार खंडित हो रही है। लोगों के क्रिया-कलाप ऐसे हो गए हैं कि समझ में नहीं आता कि किस पर कितना विश्वास करें। अब कोई किसी का विश्वास तोड़ता है तो चिंता भी नहीं पालता। पहले तो किसी का विश्वास तोड़ो तो मन भारी हो जाता था। अब तो लोग मन को हल्का करने के लिए विश्वास तोड़ने का खेल, खेल रहे हैं। यदि आपको अवसर मिले तो दो काम जरूर करिए। खुद की विश्वसनीयता लगातार बढ़ाएं और दूसरों पर विश्वास करते समय सावधान रहें। विश्वास जीवन के लिए बहुत कीमती भाव है। आज लोग कीमती चीजों को पसंद करते हैं। मुफ्त में या सस्ती मिली हुई चीज की कोई कीमत नहीं होती। अच्छे व्यापारियों का नियम होता है कि जितनी कीमत लें, उतने मूल्य की वस्तु जरूर दें। यदि हम विश्वसनीय व्यक्ति हैं तो हमारे पास विश्वास जैसी कीमती चीज है। यदि हम किसी को यह दे रहे हैं, तो मुफ्त में न दें। कुछ न कुछ कीमत जरूर वसूलें। आपकी विश्वसनीयता की यह कीमत तो हो ही सकती है कि सामने वाले को प्रेरित कर अच्छे विचारों का पालन करने का संकल्प करवाएं। लोगों को अच्छे मार्ग पर ले जाने का संकल्प करवाना और फिर  प्रेरित करना, इसे वसूलना पड़ता है। कोई आपको स्वयं को यूं ही नहीं सौंप देता। आपको विश्वसनीय बनना पड़ेगा, तब वह आपके साथ दो कदम चलेगा और उसके ये दो सही कदम आपकी विश्वसनीयता के बदले वसूल की गई कीमत होगी।

जो भीतर रहता हो वही है भक्त
भक्त की अनेक परिभाषाएं हैं। आजकल भक्ति का क्षेत्र  फैशन का बड़ा क्षेत्र बन गया है। कथाएं, तीर्थ यात्राएं, भक्ति संगीत के आयोजन ये सभी प्रदर्शन का केंद्र बन गए हैं, लेकिन भक्त का सीधा सा अर्थ है जो भीतर रहने वाला हो। यानी जीवन की भीतरी सतह  पर उतरकर आत्मा को जानना, इसलिए कभी-कभी उन पर यह आरोप लगाए जाते हैं कि वे खुद से इतने अधिक जुड़ गए हैं कि उन्हें संसार की चिंता नहीं है, लेकिन भक्त जो होता है उसके लिए भीतर उतरने का अर्थ है स्वयं को संयमित करना, दूसरों को सहयोग देना और संसार में रहते हुए भी संसार को अपने भीतर नहीं लाना, इसीलिए भक्त के जीवन में ध्यान यानी मेडिटेशन का बड़ा महत्व है। जैसे ही हम ध्यान से जुड़ते हैं, जीवन की बाहरी सतह से भीतर आने लगते हैं। हमारे जीवन की सतह के भीतर अलग ही दुनिया है। यहां वह सारा रस है, जिसकी खोज में हम बाहर भटकते रहते हैं। जीवन की सतह के बाहर स्वार्थ, भ्रम और बेचैनी रहती है। सतह के नीचे प्रेम, आनंद और परमात्मा की अनुभूति बसती है। एक अच्छा तैराक पानी में डुबकी लगाता है, फिर बाहर निकल आता है। वह पानी के भीतर और बाहर दोनों के स्वाद और महत्व को जानता है। ऐसे ही भक्त संसार और आत्मा दोनों के स्वाद को चखता रहता है। संसार के नियम मनुष्य को अत्यधिक दौड़ाते हैं। वहां भागम-भाग करने पर ही मिलता है, लेकिन मनुष्य के भीतर के नियम उसे थोड़ा रोक देते हैं, विश्राम की मुद्रा में ले आते हैं, क्योंकि रुकने पर ही आनंद प्राप्त होता है।

आत्मा से जुड़कर मिलता है स्वास्थ्य
जीवन में धन का जिन बातों से संबंध है आज उनमें से एक पर बात की जाए और वह है स्वास्थ्य। बीमारी कभी सीधे नहीं आती। वह बहुत धीरे-धीरे चलकर आती है और हम चाहें तो उसकी पदचाप सुन सकते हैं। बीमारी के मामले में धन को भी निर्धन होना पड़ता है। एक स्वास्थ्य ही ऐसा है जिस पर धन का वश नहीं चलता, इसलिए धन कमाते समय कुछ समय इस बात के लिए निकालें कि शांति से बैठकर बीमारी के कदमों की आहट सुनते रहें, क्योंकि धन के बीज में से अनेक अंकुरण हो सकते हैं, उन्हें वृक्ष भी बनाया जा सकता है, लेकिन स्वास्थ्य का अंकुरण आत्मा से होगा, जो स्वयं इतनी धनवान है कि उसे बाहर के धन की जरूरत नहीं पड़ती। स्वस्थ रहना हो, तो अति-विचार, अति-भोजन और अति-परिश्रम से बचकर रहना होगा। स्वास्थ्य को जो सबसे प्रिय है वह है नियमितता। कहते हैं बीमारियां मृत्यु के शस्त्र हैं। हालांकि, मृत्यु का कहना है, ‘मेरा आना तो तय है, मुझे हर बार इसके लिए बीमारियों की आवश्यकता नहीं पड़ती, लेकिन चूंकि मैं बहुत व्यस्त रहती हूं, इसलिए मुझे बीमारियों का सहारा लेना पड़ता है। वे मेरे लिए मददगार साबित होती हैं।’ हम बीमारियों से लड़ें इससे ज्यादा अच्छा है, अपने स्वास्थ्य से जुड़ें। शरीर पर काम करके बीमारियों से बचा जा सकता है, पर आत्मा से जुड़कर स्वास्थ्य को पैदा किया जा सकता है। बीमारी एक समझ है, स्वास्थ्य एक अनुभव है। जैसे रावण समझ का नाम था और श्रीराम अनुभव थे, इसलिए शरीर के साथ-साथ आत्मा को भी धन के मामले में जोड़े रखिए।

मन के नियंत्रण में ही है सहजता
जीवन में एक निरंतरता बनी रहती है। इसके प्रति जो लोग जागरूक रहते हैं वे इसका लाभ उठा लेते हैं और लापरवाह लोगों को हानि हो जाती है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है मनुष्य की उम्र। कोई चाहकर भी अपनी आयु की गति को रोक नहीं पाएगा, इसलिए जीवन की निरंतरता के प्रति सजग, सरल और सहज दृष्टिकोण अपनाया जाए। इसमें बाधा बनता है मन, क्योंकि मन भी बहुत गतिशील है। मन अपनी गति को जीवन की निरंतरता से टक्कर देता है और फिर दुख, पीड़ा जैसे अनुभवों की शुरुआत होती है। ध्यान रखिएगा कष्ट, संकट, पीड़ा ये सब भाव हैं, जिन्हें फिलिंग्स भी कहते हैं। जैसे ही ये भाव मन तक पहुंचते हैं मन उनको रूप देने लगता है। जो आकार मन देता है वैसा ही दुख हमारे सामने खड़ा हो जाता है, इसलिए जीवन की निरंतरता में मन की गति पर भी होश रखना होगा, क्योंकि मन आसक्ति में भटकता है और आसक्ति जीवन की निरंतरता के लिए बहुत बड़ा अवरोध है। मन तक पहुंचने के लिए सिवाय योग के और कोई माध्यम नहीं है। इसे ऐसे समझ सकते हैं कि हमारा मन हम तक 24 घंटे में अनेक बार पहुंच जाता है, क्योंकि वह मालिक है, स्वतंत्र है, लेकिन हम मन तक नहीं पहुंच पाते। हम गुलामी कर रहे हैं उसकी। जैसे ही हम उस तक पहुंचे, हमारा मन पर नियंत्रण आरंभ हुआ और नियंत्रित मन के साथ जीवन की निरंतरता का आनंद ही अलग है। बिल्कुल ऐसे जैसे जीवन की नदी में हम तैर नहीं रहे हैं, बह रहे हैं। एक सहज प्रवाह के साथ जीवन यात्रा।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....
मनीष

No comments:

Post a Comment