Friday, April 5, 2013

Jeene Ki Rah (जीने की राह )



मन पर जमी धूल साफ करनी होगी
जब  हम तन की धुलाई कर रहे होते हैं, तब परोक्ष रूप से गंदगी के स्रोतों पर ध्यान रख रहे होते हैं। यह जानना समझदारी भी है कि वे कौन-कौन सी स्थितियां होती हैं, जहां से शरीर मलिन होता है। गंदगी कितनी और कैसी है इससे भी धुलाई के साधनों, प्रयासों की मात्रा तय होती है।

शरीर का गंदलापन दर्शनीय है, इसलिए निराकरण भी आसान है। लेकिन इसी समय गंदगी का एक रूप भीतर भी चलता रहता है। शरीर जितना चलता-फिरता है, उससे ज्यादा तो मन भागता फिरता है। मन की क्रियाशीलता में पूरे अस्तित्व का ईंधन जलता है। यहां जो ऊर्जा दहन होती है, उसके धुएं से भीतर कालिख जमती ही है। भीतर का धुआं बाहर नजर नहीं आता है। लेकिन प्रदूषण का प्रभाव काम करता रहता है।

हमारा मन सबसे अधिक गतिमान होता है अपनी प्रशंसा सुनने के लिए। और आलोचना से विचलित भी जल्दी ही हो जाता है। पूरे समय दूसरों से संचालित होने में इसे आनंद आता है। मनुष्य भूल ही जाता है कि दूसरे आपके मन को हथियार बनाकर आपको ही आहत कर रहे होते हैं। अत: जरूरी है कि अपनी अत्यधिक प्रशंसा सुनने से बचें और आलोचना से विचलित न हों।

ध्यान रखें कि लोग हमारे ही मन से उनकी ईष्र्या की तलवार रगड़कर धार तेज कर रहे होते हैं। मन की भाग-दौड़ से उठी धूल को साफ करने के लिए तन की नित्य सफाई जैसे ही क्रियाशील रहना होगा। परमात्मा के यशगान को भी जल माना गया है, इससे सबसे अच्छी धुलाई मन की हो सकती है।

प्रयास कभी व्यर्थ नहीं जाता
अस्तित्व का प्रतिनिधि आत्मा है। जब भी आत्मा के बारे में जानने का प्रयास करेंगे, जीवन और रहस्यमयी हो जाता है। हमारे जीवन में कई ऐसे प्रश्न होते हैं, जिनके उत्तर किससे प्राप्त करें यह प्रश्न भी खड़ा हो जाता है। गुरु मिल जाने पर थोड़ा-बहुत समाधान हो भी जाता है।

फिर भी परमात्मा क्या है, कैसे बात करेगा, इसकी निकटता कैसे मिले, ये सवाल बने ही रहते हैं। इसलिए कुछ धर्मो ने अवतार की बड़ी गजब ही पद्धति अपनाई हैं। कहीं परमशक्ति स्वयं अवतार लेकर आई, तो कहीं अपना बेटा, बंदा बनाकर भेज दिया। राम-कृष्ण के अवतार इसका बड़ा प्यारा उदाहरण हैं। इनसे गुजरकर हमारी सामान्य जिंदगी के सारे सवालों के जवाब मिल जाएंगे।

ये उन्हीं हालात से गुजरे हैं, जिनसे हमारा पाला रोज पड़ता है। इन्होंने वो सारी कठिनाइयां देखी हैं, जिनका सामना होने पर हम थक जाते हैं, निराश हो जाते हैं। बड़ी खूबसूरती से इन्होंने एक बात समझा दी कि सफलता परिश्रम, परिस्थिति और किस्मत तीनों का मेल है। लेकिन फिर भी परिश्रम हमें ही करना होगा। हमें अपना दायित्व परिणाम की चिंता किए बगैर निभाना होगा।

कभी-कभी जब पूरे प्रयास के बाद भी असफलता हाथ लगती है तो निराश न हों। प्रयास व्यर्थ कभी नहीं जाता। प्रयास के परिणाम में मिली असफलता का दृश्य अधूरा है। जीवन के किसी दूसरे हिस्से में किए हुए का परिणाम जन्म ले चुका होगा। अवतारों की व्यवस्था प्रयासों को पवित्रता और प्रोत्साहन देने में बड़ा सहारा है।

अज्ञात भय के अश्रुकण
अतीत से कटना वर्तमान जीवनशैली के आनंद के लिए इलाज की तरह है। मनुष्य की जैसे जैसे उम्र बढ़ती है वह या तो पूरी ताकत से अतीत से चिपक जाता है या भविष्य के अज्ञात भय से डरने लगता है। अतीत के अनुभव उसे सुखद प्रतीत होते हैं।

वर्तमान उनसे दूरी का कारण लगता है और भविष्य में खो देने का अज्ञात भय बना रहता है। लेकिन वृद्धावस्था में वर्तमान संवारना समझदारी होगी। बुढ़ापे में रिश्ते राहत देना बंद कर देते हैं। शारीरिक असमर्थता अपेक्षाओं को और बढ़ाने लगती है। जब रिश्ते पल-पल बदल रहे हों, तब जीवन के उत्तरार्ध में सारी निकटताएं परछाइयों की तरह हो जाती हैं।

इसलिए बुढ़ापे में मन बहुत डराता है। जीवनभर दृढ़ निष्ठावान, विद्वान और धार्मिक रहे लोग वृद्धावस्था में आंसू बहाते नजर आते हैं, क्योंकि उन्होंने जीवनभर बाहर-बाहर की तैयारी की है, अन्तर्यात्रा की सच्चाई को नहीं समझा। जैसे बचपन के पास आंसू गिराने के कोई ठोस कारण नहीं होते, वैसे ही अनेक बूढ़े लोग ऐसे हैं, जिनसे पूछो कि आजकल आप क्यों रो पड़ते हैं? तो उनके पास इस बात का कोई ठोस जवाब नहीं होगा। ये अज्ञात भय के अश्रुकण हैं। अतीत की स्मृतियों का तूफान आंसुओं के माध्यम से बहता है।

मेडिटेशन का अभ्यास बुढ़ापे को वर्तमान पर टिकाता है। जर्जर शरीर में निष्ठुर मन सुदृढ़ आत्मा से मिलने में बाधा खड़ी करता है। आत्मा को नया सफर करना है, शरीर की धर्मशाला से मुसाफिर को चलना ही है तो फिर उकताहट और उदासी कैसी।

संबंधों को समझदारीपूर्वक निभाएं
संसार के सारे रिश्ते या तो संयोग से बनते हैं या स्वार्थ से। जीवनभर मनुष्य इन्हें जानकर अनजाने में निभाता और ढोता भी है। लेकिन एक तीसरा तरीका मन द्वारा रिश्ता बनाने का भी होता है। मन को दूसरे से जुड़ने में बड़ी रुचि होती है।

भीड़ उसके लिए भोजन जैसी है। हमेशा दूसरे से भीतर ही भीतर चिपका रहता है। अप्राप्त स्थिति में सुख की कामना करना और उसकी खोज करते रहना ही उसका अविवेकपूर्ण स्वभाव होता है। और प्राप्त होते ही उसकी मांग और खोज के केंद्र बदल जाते हैं। अकेले रहने में उसे डर लगता है।

यही आदत बाहर भी काम करने लगती है। जरा मनुष्य बाहर अकेला हुआ तो डरेगा या फिर कई लोगों से घिरे रहने के बावजूद अकेला महसूस करेगा। हमें अपने रिश्तों को चार खानों में बांटकर जीने की कला अपनानी चाहिए। संबंधों का हमारा पहला स्तर बुद्धि का होगा, जिससे हमारी व्यावसायिक जिंदगी संचालित होगी। दूसरा स्तर संबंधों का हृदय से रखा जाए, इसका परिणाम प्रेम होगा।

निजी और पारिवारिक जीवन इसी से प्रभावित रहेगा। शरीर से तीसरे स्तर के संबंधों में भोग की जगह सेवा को प्राथमिकता दें। और मन से निर्मित संबंधों को योग से नियंत्रित करें। संबंधों को निभाने में या तो हम चतुराई रखते हैं या चालाकी से काम लेते हैं। इन चारों खानों में संबंधों को रखकर, समझकर निभाएं तो चालाकी और चतुराई का भी सही उपयोग कर सकेंगे। वरना आज के समय में संबंध भी सिर्फ सौदे बनकर रह जाएंगे।

मानव सेवा ही परमात्मा की सेवा है
जिसमें  अधिकार की लोलुपता नहीं होती, बल्कि कर्तव्य-परायणता होती है, उसे घर और बाहर दोनों जगह काम करने में कोई कठिनाई नहीं होती। यह मानकर काम कीजिए कि मैं जो कर रहा हूं, वह समाज का काम है और समाज का मालिक परमात्मा है।

यदि इस भाव से आप काम करेंगे तो कार्य के अंत में प्रियता का उदय होगा। संसार की वस्तु से संसार की सेवा करना ही परमात्मा को प्यार करना है। उसके बदले में न तो संसार से कुछ मांगिए और न ही परमात्मा से। संसार हमारी सभी चाह पूरी नहीं कर सकता और परमात्मा हमारी सभी चाह पूरी नहीं करते हैं क्योंकि वे हमारे परम हितैषी हैं।

हर हाल में खुश रहने की यह व्याख्या स्वामी अवधेशानंद गिरि जी करते हैं। जब आप पैदा हुए, तब कुछ करने के योग्य नहीं थे। जब आपको खुराक और शिक्षण मिला, तब आप कुछ करने लायक हुए। अब जब आप कुछ करने के लायक हुए तो परिवार और समाज के अधिकारों की रक्षा करने से अपने को बचाते हैं या उसका अभिमान करते हैं।

होना तो यह चाहिए कि आपको जो कुछ मिला है, उसे वापस करते रहो और प्रभु के होकर रहो। सुख का भोग मत करो और दुख का सदुपयोग करो, अभाव नहीं होगा। सुख और दुख दो अवस्थाएं हैं। दोनों ही साधन-सामग्री हैं। सुख आता है उदार बनने के लिए और दुख आता है विरक्त बनाने के लिए। लेकिन कठिनाई यह है कि आप वस्तु को अपना मानकर परिवार और समाज को देते हैं और उस पर अभिमान करते हैं। मिली हुई वस्तु, योग्यता एवं सामथ्र्य को अपना मत मानिए और उसका दुरुपयोग मत कीजिए। किसी को हानि न पहुंचाइए वरन दूसरे के काम आइए।

मानव को अंधकार में डालता है अहंकार
अहंकार योग्य से योग्य मनुष्य की मति को भ्रम में डाल देता है। जब मनुष्य हर बात में स्वयं को सही मानने लगता है, तब सही भी गलत रूप ले लेता है। अपने आप को समझदार समझने का हक सभी को है, लेकिन दूसरों को मूर्ख मान लेना बहुत बड़ी गलती है। रावण जैसे लोग इसी तरह की भूल कर जाते हैं। सोचिए, अहंकार मनुष्य को कितने अंधकार मे डाल देता है कि हनुमानजी जैसे समझाने वाले व्यक्तियों के सामने भी रावण कुतर्को की बौछार लगा देता है।

हनुमानजी जानते थे कि एक दिन विभीषण रावण को समझाएंगे, इसीलिए उन्होंने विभीषण को ठीक से समझाया था। वही बात विभीषण ने रावण के सामने दोहरा दी। बुध पुरान श्रुति संमत बानी। कही बिभीषन नीति बखानी।। सुनत दसानन  उठा रिसाई। खल तोहि निकट मृत्यु अब आई।। विभीषण ने पंडितों, पुराणों और वेदों द्वारा सम्मत, अनुमोदित वाणी से नीति बखान कर अपनी बात कही।

उसे सुनते ही रावण क्रोधित होकर बोला कि रे दुष्ट! अब मृत्यु तेरे निकट आ गई है! जिस तरह की अभद्र भाषा रावण विभीषण के सामने बोल रहा था वैसी ही भाषा वह हनुमानजी के सामने बोल चुका था। सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना। बेगि न हरहु मूढ़ कर प्राना।। हनुमानजी के वचन सुनकर वह बहुत ही कुपित हो गया और बोला- अरे! इस मूर्ख के प्राण शीघ्र ही क्यों नहीं हर लेते? जबकि हनुमानजी पूरी विनम्रता बरत रहे थे। अहंकार मनुष्य को वाणी से भी गिरा देता है। इसकी कीमत लंका वासियों को चुकानी पड़ी। अत: परिवार में यदि कोई अहम पाले तो उसे तत्काल दूर करें। वरना एक की गलती की कीमत अनेक को चुकानी पड़ेगी।

अनुभव से व्यापारी ने पाई सफलता
उसके पड़ोसी व्यापारी ने भी ऐसा करना तय किया। तब पहले व्यापारी ने उससे कहा- 'भाई! हम दोनों के साथ जाने से कठिनाई होगी। इसलिए तुम पहले जाओ या मैं जाऊं। दूसरे व्यापारी ने सोचा कि पहले जाने में लाभ है। बिना बिगाड़े रास्तों से जाऊंगा। मेरे बैलों को चारा मिलेगा। पानी मिलेगा। मनमाने दामों पर मैं सामान बेचूंगा।

उसने पहले व्यापारी को अपना निर्णय बता दिया, जिसे उसने यह सोचकर स्वीकार किया कि इस व्यापारी के काफिले से रास्ते समतल हो जाएंगे। इसके बैल कड़ी घास खा लेंगे, तो मेरे बैलों को कोमल घास मिलेगी। उनके द्वारा खोदे गए कुओं से हम पानी पीयेंगे और इसके द्वारा तय ऊंचे दामों पर मैं भी सौदा बेच सकूंगा। दूसरा व्यापारी पहले चल दिया। उसके आदमियों ने पानी भरे मटके बैलगाड़ियों पर लाद दिए।

मरूभूमि से गुजरते समय कुछ लोग रास्ते में काफी भीगे हुए मिले। उन्होंने बताया कि आगे तेज वर्षा हो रही है और मटके वहीं खाली कर लेने की सलाह दी, जिसे व्यापारी ने मान लिया। रात में उन्हीं लोगों ने काफिले को लूट लिया। व्यापारी भी मारा गया। एक माह बाद पहला व्यापारी उधर आया। उसे भी डाकुओं ने बरगलाने की कोशिश की, किंतु उसने पानी नहीं बहाया।

जब उसके आदमियों ने कारण पूछा, तो उसने कहा- किसी ने कभी यहां वर्षा होने की बात सुनी है?ञ्ज सभी ने स्वीकारा कि उसकी बात सही है। आगे चलकर जब दूसरे काफिले के लोगों की लाशें देखीं तो वे सारा माजरा समझ गए और डाकुओं से बचकर दूसरे प्रांत में पहुंच गए। वहां से काफी लाभ कमाकर लौट आए। वस्तुत: कुछ नया करने से पहले पूर्ववर्तियों के अनुभव से सीख ले लेनी चाहिए। 

तो जीवन दिव्य-पुष्प बन जाएगा 
विश्वास और अभ्यास के ऊपर सब कुछ आधारित है। कुएं में पानी निकालने की क्रिया में रस्सी पत्थर से लगातार रगड़ खाती है। रसरी आवत जात ते सिल पर पड़त निशान। रस्सी से जब पत्थर पर निशान बन सकते हैं, तो पत्थर से अधिक तो हम लोग जड़मति नहीं हैं। तय कर लें कि, बार-बार चिंतन करूंगा, अभ्यास करूंगा और निश्चित सब समझ में आ जाएगा। साधना का फल एक दिन में नहीं मिल सकेगा। नियमित रूप से दस मिनट भी साधना में बैठते रहें, तो निश्चित रूप से दस मिनट का महत्व मालूम हो जाएगा।

यह आश्वासन स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि देते हैं। वे समझाते हैं- अभ्यास से संतुलन हमारे भीतर आएगा। घटनाएं प्रभावित नहीं कर सकेंगी। व्यक्तियों से बातचीत करते समय आपको नारायण स्वरूप लगेगा और अमर्यादित व्यवहार नहीं होगा। जब हम इतने उदार होंगे, तो आपके आसपास रहने वाले परस्पर आत्मीयता के सूत्र में बंधेंगे। सिद्धांत है, महावाक्य है- सिया राम मय सब जग जानीसम्पूर्ण जगत सीता और राममय हो जाएगा। थोड़ा समय नियमित रूप से साधना के लिए अवश्य निकालें।

सब कुछ भगवान का है, परंतु हम एकाधिकारवादी हैं। जब नहीं था, तब परमात्मा से प्रार्थना करते थे और जब उन्होंने कृपा कर मानव तन दे दिया तो कहते हैं- मेरा है। परमात्मा को देने से वह लेता नहीं है, वैसे ही प्रसन्न हो जाता है। संसार के लोग तो देने के लिए छोड़ते नहीं। इसलिए भावात्मक समर्पण, क्रियात्मक भगवान का स्मरण और कुछ क्षणों तक उनसे ऐक्य स्थापित किया जाए,तो हमारा जीवन परमात्मा की बगिया का सौरभ प्रदान करने वाला दिव्य-पुष्प बन जाएगा। 

परिणाम जो भी हो आरंभ पवित्र हो 
भगवान  की इच्छा का क्या मतलब है? सीधा उत्तर है इच्छा भी भगवान ही है, इसे भगवान से अलग कैसे कर सकते हैं? ‘जिस-जिस भाव में जिस-जिस रूप में तुम मुझको भजोगे, मैं उसी रूप में तुम्हारे सामने मौजूद हो जाता हूं।परमात्मा ने यही कहा है, परमपिता से हमारे संबंधों की बड़ी सुंदर व्याख्या श्रीश्रीरविशंकर जी करते हैं- तुम बीज बोओगे तो मैं वृक्ष के रूप में आ जाता हूं। 

तुम घृणा करोगे, तो तुम्हारे सामने घृणा के रूप में उपस्थित हो जाता हूं। तुम ज्यादा खाओगे, तो पेट की बीमारी के रूप में मैं ही तो आता हूं। ज्यादा सोओगे तो आलस्य के रूप में फिर मैं ही आता हूं, भारीपन में मैं ही प्रकट हो रहा हूं।तो हर रूप में परमशक्ति ही प्रकट होती है। इच्छा करोगे, इच्छा के रूप में भी, इच्छा की पूर्ति के रूप में भी। इच्छा के प्रति जो ज्ञान है, वह भी तुम ही हो।

ज्ञान से ही तो इच्छा उठती है, बिना ज्ञान के कहां इच्छा उठेगी? जब आपने कभी किसी चीज को देखा ही नहीं तो उसके प्रति आपकी इच्छा कैसे हो सकती है? किसी सुंदर जगह को आपने देखा है, यदि देखा नहीं, केवल कल्पना ही की है, तो कल्पना भी एक तरह का ज्ञान है। चाहे कल्पित ज्ञान हो, मिथ्या ज्ञान हो, फिर भी ज्ञान के आधार से ही इच्छा उठती है। तो ज्ञान भी उसका ही स्वरूप है। ज्ञान भी भगवान है और इच्छा भी भगवान है तथा क्रिया भी। आप किसको अच्छा और किसको बुरा कहोगे? कर्म, कर्म है। एक समय में जो अच्छा है, वही किसी और समय बुरा सिद्ध हो सकता है। इसलिए कर्म की मूल विचारधारा पर ध्यान दें। उसका हेतु क्या है, यह सही होना चाहिए। परिणाम जो भी हो आरंभ पवित्र रहना चाहिए। 

मां, बहन और बेटी है ये धरती 
अहंकार   में वजन होता है। इतना भारीपन कि पृथ्वी भी सहन नहीं कर पाती। ताकतवर, आततायी लोग इस पृथ्वी पर चलते थे तो पृथ्वी उनके भय व भार से कांपती थी। लेकिन जैन संत तरुणसागरजी और गहरा वर्णन करते हैं- वे कहते हैं कि पृथ्वी कांपती नहीं, अपितु हंसती थी। पृथ्वी कहती है- ठीक है! मेरी ही मिट्टी के अंग होकर मुझ पर ही अकड़कर चलते हो, ठीक है। उछल लो, थोड़ी देर और उछल लो, थोड़ा और अकड़ लो, फिर तो कब्र में सो जाना है। 

मिट्टी को तो मिट्टी में खो जाना है। इसलिए पृथ्वी हंसती है। जब भी कोई पृथ्वी की छाती पर खड़े होकर उस पर अपना दावा करता है, तब धरती को बरबस हंसी आ जाती है। जिस जमीन पर आज आपका मकान है, वह आज आपके कब्जे में है, किंतु सौ-पचास साल पहले क्या वह आपके कब्जे में था? नहीं, वह किसी और के कब्जे में था।

क्या सौ साल बाद भी आपका कब्जा होगा? नहीं, उस पर किसी और का कब्जा हो जाएगा। जमीन तो वहीं की वहीं रहती है। लेकिन आप कहते हैं, धरती हमारी है। धरती हंसती है, क्योंकि आपके दादा-परदादा भी यही कहते चले गए। धरती को अपना कहने वाले कितने ही इसे छोड़कर चले गए, फिर क्यों न इस भ्रम को तोड़ा जाए।

धरती कभी किसी की नहीं हुई है। धरती का कोई स्वामी और पति नहीं है। वह तो सदा कुंवारी है। इसीलिए तो इस देश के एक छोर का नाम कन्याकुमारी कहलाता है। कन्याकुमारी बड़ा सार्थक नाम है। यह अहंकार का परिणाम है कि हम पृथ्वी के प्रति भी दुव्र्यवहार कर जाते हैं। धरती को मां, बहन और बेटी जैसा सम्मान देंगे तो प्रदूषण की समस्या भी सुलझ जाएगी।

हृदय को खटकने वाली कुछ बातें
सही बात गलत जगह स्थापित हो जाए और गलत चीज सही जगह स्थान ले ले, तो खटकने लगती है। संसार में कई बार ऐसा होता है। अयोग्य श्रेष्ठ स्थानों पर चले जाएं, योग्य संघर्ष करते रहें, जिसे मिलना चाहिए, उसे मिले नहीं, जिसके पास खूब हो उसे और मिलता रहे।

ऐसे अनेक उदाहरण दिल को कचोटते हैं। अवंतिका के विख्यात महाराज भर्तृहरि ने अपने नीति शतकग्रंथ में हृदय में खटकने वाली कुछ स्थितियों का बड़ा ही सुंदर वर्णन किया है। वे कहते हैं - कुछ कांटे दिल में चुभते, खटकते रहते हैं, जैसे- दिन के समय चंद्रमा प्रभावहीन हो जाता है। सौंदर्य प्रिय व्यक्तियों के हृदय में चंद्रमा का प्रभावहीन हो जाना बहुत खटकता है।

स्त्री का रूपवती न होना खटकता रहता है। जैसे तालाब की शोभा कमल के फूल से है, इसी प्रकार रूपवान मनुष्य का रूप भी हृदय में खटकता है, यदि वह निरक्षर व मूर्ख हो। दो चार बात करते ही उसकी मूर्खता प्रकट हो जाती है। धन-दौलत से संपन्न व्यक्ति की शोभा उसकी उदारता से होती है। धनी व्यक्ति का कंजूस होना सदैव कांटे की तरह चुभता है। धनवान कंजूस की अपेक्षा निर्धन उदार का मान अधिक होता है।

दुनिया में कांटे की तरह चुभने वाली बातों में एक यह भी है कि सज्जन व्यक्ति जीवन में बहुत कष्ट उठाते हैं। अपनी सज्जनता के कारण संसार के मायावी लोग उन्हें ठग लेते हैं। इसी तरह राजकीय संस्थाओं एवं शासन पदों पर स्वभाव से दुर्जन व्यक्तियों का होना भी बहुत खटकता है। किसी भी देश का यह सबसे बड़ा दुर्भाग्य होता है कि राज्य के पदाधिकारी स्वभाव से दुर्जन और स्वार्थपरायण हों। आज तो यही दृश्य सब ओर है।

हर स्थिति में धैर्य धारण करें
विनम्रता  के लिए धैर्य होना आवश्यक है, अन्यथा विनम्रता एक आवरण बन जाएगी। चूंकि आजकल विनम्रता भी शस्त्र के रूप में उपयोग की जाती है। लोग विनम्र होने का ढोंग करके अपने अहंकार को पोषित करते हैं। बलवान यदि विनम्र हो तो बात समझ में आती है। हनुमानजी से पहली मुलाकात में विभीषण को लग गया था कि हनुमानजी विनम्रता की मूर्ति हैं।

होना भी चाहिए, राम के दूत यदि विनम्र न हों, तो दूतकर्म दूषित हो जाएगा। हनुमानजी से धैर्य सीखकर विभीषण भरी सभा में अपने बड़े भाई रावण को समझा रहे थे। रावण लगातार उनका अपमान कर रहा था। अब तो वह हिंसा पर उतर आया था। अहंकारी रावण द्वारा किए गए तिरस्कार और दुव्र्यवहार से अप्रभावित रहकर विभीषण बड़े भाई रावण के प्रति विनम्रता का ही परिचय देते हैं।

अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा। अनुज गहे पद बारहिं बारा।। ऐसा कहकर रावण ने उन्हें लात मारी। परंतु छोटे भाई विभीषण ने मारने पर भी बार-बार उसके चरण ही पकड़े।।

उमा संत कइ इहइ बड़ाई। मंद करत जो करइ भलाई।। तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा। रामु भजें हित नाथ तुम्हारा।।

शिवजी कहते हैं- हे उमा, संत की यही महिमा है कि वे बुराई करने वाले की भलाई ही करते हैं। विभीषण ने कहा- आप मेरे पिता के समान हैं, मुझे मारा सो तो अच्छा ही किया, परंतु हे नाथ आपका भला श्रीरामजी को भजने में ही है।

हमारे परिवारों में यदि कोई सदस्य रावण की तरह अहंकारी हो जाए, तो हमें विभीषण की तरह अपना धैर्य नहीं छोडऩा चाहिए। विभीषण का श्रीराम की ओर जाना रावण के हित में उठाया हुआ कदम ही था।

बच्चों को दें सात्विक संस्कार
छोटी उम्र से ही बच्चों को मिल रही संगति के प्रति सावधान रहा जाए। हर शब्द, दृश्य, स्पर्श या दूसरी कोई घटना जिसका सामना बच्चों से होता है, उनके जीवन में संस्कार बनकर स्थायी छाप छोड़ जाते हैं। बच्चों को अपने घर-परिवार में मिल रहा वातावरण उनके व्यक्तित्व को गहराई से प्रभावित करता है।

पति-पत्नी या माता-पिता आपस में जितना प्रेममय, सौहार्दयुक्त और आपसी समझ के साथ रहेंगे, बच्चों के स्वभाव में उतनी ही शालीनता और समझदारी की झलक दिखेगी। गायत्री परिवार के संस्थापक आचार्य श्रीराम शर्मा बच्चों के प्रारंभिक विकास और व्यवहार पर बड़ा ही सुंदर निष्कर्ष देते हैं- जिन स्त्री-पुरुषों में पारस्परिक स्नेह, प्रेम और मैत्री की भावना नहीं, उनके बच्चे स्वभावतया उद्दंड और स्वेच्छाचारी ही बनते हैं।

अत: यह हमेशा ध्यान रहे कि हम कोई ऐसी चेष्टा तो नहीं कर रहे, जो बालक के कोमल मस्तिष्क पर बुरा असर डाले। पांच वर्ष की अवस्था आ जाने पर बालक की जिज्ञासाएं बढ़ने लगती हैं। वह अभी तक जिन वस्तुओं को मात्र खेल और तोड़-फोड़ की जरूरत समझता था, अब उनके प्रति उसका उत्सुकता का भाव बढ़ने लगता है। इस उम्र में बच्चों को चित्र, कथा, कहानियां बहुत पसंद आती हैं।

लोरियां व मधुर संगीत में भी उनकी रुचि जाग्रत होती है। इनके लिए वे कभी-कभी हठ भी करते हैं। इस समय बालकों को सुंदर-सुंदर चित्र जिसमें महापुरुषों के चित्र, प्राकृतिक दृश्य आदि हों, दिखाने चाहिए। करुणादायी, शांत और मनोरंजक लोरियों से बालकों का मन बहलाव भी होता है और उनके मनोजगत में सात्विक संस्कारों का आगमन होने लगता है।

श्रेष्ठता जहां से भी मिले उठा लें
आयु बढ़ने के साथ जीवन भले ही कम हो, लेकिन मूल्य आधारित जिसे कहें वेल्यू बेस्ड बातों की बढ़ोतरी होते रहनी चाहिए। वृद्धि केवल धन की न हो, सद्भाव और सद्संस्कारों की भी वृद्धि होते रहनी चाहिए। अच्छाइयां बढ़ाने के लिए कोई बाहरी धंधा नहीं करना पड़ता।

यह स्वयं से स्वयं का किया हुआ व्यापार है। श्रेष्ठता जहां से मिले, अपने लिए उठा लेनी चाहिए और दूसरों में बांटते रहना चाहिए। चौबीसवें जैन र्तीथकर भगवान महावीर का एक नाम वर्धमान बहुत लोकप्रिय हुआ। वर्धमान शब्द का गहरा अर्थ विनोबाजी ने विष्णु सहस्रनाम में बताया है। वे कहते हैं- वर्धमान यानी नित्य बढ़ने वाला, आज का कल नहीं, रोज का रोज विकसित होने वाला।

जिसके चित्त का विकास, गुणों का विकास रोज होता है, वह वर्धमान है। वैदिक परंपरा में आशीर्वाद दिया जाता है- शतं जीव शरदो वर्धमान:। चित्तवृत्तियां विकसित हो रही हैं, चिंतन-शक्ति बढ़ रही है, ऐसी हालत में सौ साल जीएं। वर्धमान शब्द जैनों ने उठाया। महावीर को वर्धमान नाम दिया। महावीर की ऐसी स्थिति थी। काल के साथ लड़कर वे वीरबने, फिर वीर से महावीर बने। इसलिए वर्धमान नाम उनको शोभा देता है।

शारीरिक आयु तो सबकी बढ़ती है, लेकिन उतने मात्र से सबको वर्धमान नहीं कह सकते। आत्मा का आयुष्य बढ़ानेवाला वर्धमान है। वर्धमान पुरुषों का क्षीण होना ही उनकी वृद्धि है और मृत्यु नवजीवन। वर्धमान पुरुष की मृत्यु होती है, तब वह एकदम ऊपर चढ़ता है। ऐसे पुरुष देह के बाहर रहकर भी ज्ञान दे सकते हैं और हम पाते हैं कि सभी महापुरुषों के भीतर का वर्धमान थोड़े से समर्पण से हमसे भी जुड़ सकता है।

ब्रह्मचर्य से बढ़ेगी दांपत्य की पवित्रता
ब्रह्मचर्य शब्द सामान्य रूप से अविवाहित अवस्था से जोड़कर देखा जाता है। लेकिन यदि यह समझ लिया जाए कि ब्रह्मचर्य अवस्था से अधिक जीवनशैली है, तो इसका उपयोग विवाहित जीवन में भी किया जा सकता है।

शादी के बाद अधिकांश संबंध शरीर से जोड़कर देखे जाते हैं। इसीलिए जब दंपती कुछ समय के लिए अलग-अलग रहते हैं तो पति-पत्नी के रूप में स्त्री-पुरुष में काम वेग बढ़ जाना स्वाभाविक होता है। दूरी का आकर्षण पास आने पर खत्म भी होता है।

इसीलिए भारतीय परंपरा में ऐसे कुछ अवसर निकाले गए थे, जिनमें पति-पत्नी थोड़ा दूर भी रहें। लेकिन वैवाहिक जीवन में ब्रह्मचर्य की उपस्थिति दांपत्य की पवित्रता को बढ़ाएगी। इसके लिए स्वामी जी ने एक प्रयोग बताया है। वे कहते हैं कि दांपत्य के चार केंद्र बनाए जा सकते हैं, बुद्धि, हृदय, नाभि और काम केंद्र। बुद्धि से वैवाहिक जीवन की शुरुआत की जानी चाहिए।

जीवनसाथी का चयन व्यावहारिक दृष्टि से करना ठीक है, लेकिन इसके बाद थोड़ा-सा आगे बढ़कर हृदय पर टिकना होगा, क्योंकि घर-गृहस्थी विचार से ही नहीं चलती, इसमें संवेदनाएं भी काम करती हैं। इसके बाद जब दांपत्य जीवन को और गहराई प्रदान की जाए, तब पति-पत्नी अपने नाभि के केंद्र पर टिकें। यह हमारे जीवन का केंद्र है। जब हम इस केंद्र पर टिकते हैं तो हमारे काम केंद्र अपनी गति और भाव बदल देते हैं । उनकी क्रियाएं तो वही रहेंगी, लेकिन उनकी उर्जा एक दिव्य रूप ले लेगी, इसी को कहेंगे, पति-पत्नी के बीच ब्रह्मचर्य घटना। ब्रह्मचर्य में काम केंद्र को निरस्त नहीं करना है, बल्कि वहां की ऊर्जा का सही उपयोग करना है।

विवेक पर लोभ की हावी होती वृत्ति
लोभ की वृत्ति ने मनुष्य को उचित-अनुचित के विवेक से दूर कर दिया है। कम परिश्रम में ज्यादा से ज्यादा पाने की इच्छा इंसान पर बुरी तरह से हावी हो गई है। लोभ की इसी ललक ने मनुष्य को हिंसा के कार्यों में भी अव्वल स्थान पर ला दिया है।

लोभ से पैदा हुई मनुष्य की इस हिंसावृत्ति का सूक्ष्म, वैज्ञानिक विश्लेषण स्वामी रामसुखदासजी ने किया था। वे कहते थे - विभिन्न क्षेत्रों में हिंसा बढ़ रही है। मनुष्यों की हत्याओं में भी वृद्धि हो रही है। खेतों में कीटनाशक के रूप में जहरीली दवाएं छिड़की जाती हैं, जिससे अनुपयोगी समझे जाने वाले जीवों के साथ-साथ उपयोगी जीव भी मर जाते हैं।

वास्तव में परमात्मा की सृष्टि में कोई जीव अनुपयोगी है ही नहीं। परंतु लोभ से अंधे हुए मनुष्य को दूसरे जीव की उपयोगिता दिखाई नहीं देती। जिस गति से हिंसा बढ़ रही है, ऐसे ही बढ़ती रही तो एक समय पशुधन नष्ट हो जाएगा और मांसाहारी मनुष्य मनुष्यों का ही भक्षण करने लगेंगे।

ऐसे मनुष्य ही राक्षस होते हैं। रामावतार के समय भी ऐसी दशा हुई थी कि राक्षसों ने मुनियों को खा-खाकर उनकी हड्डियों के ढेर लगा दिए थे। राक्षसों ने गृहस्थों को न खाकर मुनियों को ही क्यों खाया? ऐसा अनुमान होता है कि घास खाने वाले के मांस की अपेक्षा अन्न खाने वाले का मांस बढिय़ा होना चाहिए।

सिंह के मुख में भी मनुष्य का मांस लग जाए तो वह नरभक्षी बन जाता है। हिंसा की यह वृत्ति केवल खान-पान तक सीमित नहीं रहती, फिर व्यवहार में भी उतर आती है। लोग नेत्रों व वाणी से भी हिंसा करने लगते हैं। चारों ओर अशांति का एक कारण यह भी बन जाता है।

थोड़े समय ध्यान अवश्य किया जाए
चीजों को याद रखना सामान्य रूप से मस्तिष्क का काम है। लेकिन जब याद रखी जा रही बातें सुख और दुख से जुड़ जाएं, तब यह खोज करनी चाहिए कि इसका केंद्र मस्तिष्क की जगह मन भी हो सकता है। मन का स्वभाव है बातों को याद रखना। वह हर स्मरण को सुख और दुख से जोड़ देता है।

उदाहरण के तौर पर हम बचपन में किसी स्थान पर मौज-मस्ती के लिए जाते थे, अब हम बड़े हो गए। मस्तिष्क स्मरण के साथ इस पुरानी बात को याद करता है। मस्तिष्क के इस काम में कोई बुराई नहीं है। लेकिन जैसे ही मन का प्रवेश होता है, वह दुख और सुख साथ में लेकर आता है। और अब हमें वह पुरानी बात दुख के साथ याद आती है कि क्या दिन थे वो। फिर मन बीते हुए की तुलना वर्तमान से करने लगता है।

घटना बीत जाती है और उसकी यादों को मन सुख-दुख की सुरंगों में फेंक देता है। जैसे कुछ लोगों को दादागिरी करने की आदत होती है, वैसे ही मन को यादगिरी करने की आदत पड़ जाती है। फिर मन मालिक बनकर आदमी को उसी में उलझाता है। कभी-कभी तो लगता है निकलना मुश्किल है। जैसे ही हम स्मरण के मामले में मन से संचालित होते हैं, वैसे ही हमारा जीवन उधार का हो जाता है।

हमारी स्मृतियों में दूसरे लोग स्थान बनाने लगते हैं। यदि बारीकी से मुआयना करें तो पाएंगे कि अब जीवन की सारी गतिविधियां भीतर ही भीतर दूसरे लोग कर रहे होते हैं और यहीं से हमारा अपने ऊपर नियंत्रण समाप्त हो जाता है, मनुष्य अशांत रहने लगता है। इसीलिए मस्तिष्क के चिंतन को मन के स्मरण से दूर रखा जाए। ध्यान की क्रिया में इससे मुक्ति मिलती है। इसलिए थोड़े समय ध्यान अवश्य किया जाए।

गलत बातों को तुरंत छोड़ दें
मनुष्य को अपनी उम्र के बढ़ने के साथ जीवन के घटने का अंदाज होना चाहिएक्योंकि हर जन्मदिन उम्र का आंकड़ा लेकर आता है तो जीवन का हिस्सा लेकर जाता भी है।

यह बात मृत्यु तक लोग समझ नहीं पाते। रामकथा में विभीषण का उदाहरण देखें - वे अपनी अच्छाई से रावण और राक्षसों की बुराइयों को प्रश्रय दे रहे थे। हम भी ऐसा ही करते हैं। हमारी कुछ अच्छाइयां हमारे भीतर की बुराइयों की मदद करने लगती हैं। विभीषण रावण को भरी सभा में समझा रहे थे। वे निर्णय ले चुके थे कि अब राम के पक्ष में चलना ही है।

उन्होंने अपनी अंतिम घोषणा की- राम सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि। मैं रघुबीर सरन अब जाऊं देहु जनि खोरि।। श्रीरामजी सत्यसंकल्प हैं और हे रावण तुम्हारी सभा काल के वश में है। अत: मैं अब श्रीरघुबीर की शरण में जाता हूंमुझे दोष न देना। इसमें दो बातें विभीषण ने कही हैं- एक तो यह कि तुम लोग काल के वश में हो गए हो और दूसरामेरे इस प्रस्थान पर मुझे दोष मत देना।

विभीषण से हमें यह सीख लेनी चाहिए कि जीवन में जब जागृति आए तो गलत बातों को तुरंत छोड़ दें। अगली चौपाई में लिखा है-अस कहि चला विभीषनु जबहीं। आयुहीन भए सब तबहीं।। साधु अवग्या तुरत भवानी। कर कल्यान अखिल कै हानी।। ऐसा कहकर विभीषण ज्यों ही चलेसब राक्षस आयुहीन हो गए।

उनकी मृत्यु निश्चित हो गई। हे भवानी! साधु का अपमान संपूर्ण कल्याण की हानि कर देता है। मतलब यह कि जब तक विभीषण वहां थे राक्षसों को उम्र मिल रही थी। अच्छाई बुराई को मदद कर रही थी। थोड़ा हम सावधान हो जाएं।

आंखें खुली रखो और चीजों को देखो
जब भी किसी साहित्य को पढ़ें तो केवल शब्द न उठाएं। उन शब्दों के पीछे की समझ को भी उठाएं। शब्द आपको कुछ बातों का जवाब तो दे देंगे, लेकिन समझ यदि आ गई तो हमारी चेतना जाग्रत होगी। शब्द हमें जानकारियों के मामले में समर्थ बना देंगे। लेकिन समझ हमें प्रज्ञा दे जाएगी।

प्रज्ञा का अर्थ है बुद्धि का परिष्कृत रूप। उदाहरण के तौर पर समझें कि केवल शब्दों से प्राप्त की हुई जानकारी यदि शरीर के मामले में हो तो हमें यह तो पता लग जाएगा कि यह शरीर २क्६ हड्डियों से बना है, लेकिन यह समझ नहीं आ पाएगा कि किसी भी स्थिति में हड्डियों को कठोर नहीं होने देना है। हड्डी का लचीलापन ही उसका स्वास्थ्य है। जैसे ही यह कड़क हुई स्वास्थ्य गड़बड़ा जाएगा।

शब्द हमें जानकारी देते हैं कि मनुष्य के फेफड़ों को फैला लिया जाए तो एक टेनिस के मैदान जितना एरिया तैयार हो सकता है। तीन सौ अरब छोटी-छोटी रक्त वाहिनियों से बना फेफड़ा आश्चर्यचकित तो कर सकता है, लेकिन जीवन के स्तर पर कुछ नहीं दे पाएगा। फेफड़ों को जीवन से जोड़ना है तो ध्यान की समझ लानी पड़ेगी। शब्द कहते हैं जुड़े हुए हैं। पर समझ कहती है सांस और फेफड़े इस प्रकार जुड़े हैं कि भीतर एक आंख का जन्म हो जाए। शब्दों ने हमें समझाया है कि दो आंखें होती हैं और इनसे दुनिया देखी जाती है। यह सुगम रास्ता है। आंखें खुली रखो और चीजों को देखो। लेकिन जब सांस फेफड़ों से समझ के साथ जुड़ती है तो भीतर की आंख खुल जाती है। और कुछ ऐसा दिखता है, जो न बाहर की आंखों से नजर आता है और न ही शब्दों से समझा जा सकता है।

विचारों की धुलाई होती रहनी चाहिए
इस समय जिंदगी बहुत तेजी से बदल रही है। सामान्य रूप से कहा जाता है कि आज के मनुष्य ने सोचना कम कर दिया है और करने पर टिक गया है। लेकिन ऐसा है नहीं। आज आदमी के भीतर सबसे अधिक उथल-पुथल किसी चीज ने की है तो वह है विचार।

आचार्य महाप्रज्ञ ने विचारों को तीन श्रेणियों में बांटा है- अविचार, विचार और निर्विचार। जो विचार का संसार है, वहां विरोधाभास पलते हैं, वहां विसंगतियां पलती हैं और वहां समझदारी की ओट में मूर्खता पलती है। यह विचार का क्षेत्र है। अविचार में ऐसा नहीं होता। अविचार की स्थिति वह है, जिसमें व्यक्ति चिंतन करना जानता ही नहीं। छोटे प्राणी हैं, वे चिंतन करना नहीं जानते। यह विचार की अक्षमता ही अविचार है। दूसरी अवस्था है- विचार।

इस अवस्था में प्राणी चिंतन करता है, सोचता है। तीसरी अवस्था है-निर्विचार। यह है ध्यान की अवस्था। इस अवस्था में चले जाने पर विचार समाप्त हो जाते हैं। इस स्थिति में उस चेतना का जागरण होता है, जो चेतना इंद्रियों से, मन से, बुद्धि से और विवेक से परे है। सबसे परे की चेतना अतीन्द्रिय चेतना की अवस्था बन जाती है।

वहां केवल आत्मा का अनुभव शेष रहता है। इसलिए जैसे शरीर को धोते हैं, वैसे ही विचारों की भी धुलाई होती रहनी चाहिए। विचार, विचार से नहीं धुलते, विचार धुलते हैं निर्विचार होने से। निर्विचारिता की आग में विचारों को डाल दें तो उनकी सही सफाई होगी। और ऐसे विचार मनुष्य को सच्च पुरुषार्थी बनाते हैं। उसका अपने ऊपर नियंत्रण हो जाता है। पुरुषार्थी होने का अर्थ यही है कि सारे पुरुषार्थ स्वयं के नियंत्रण से किए जाएं।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK


2 comments:

  1. Manish Ji Aapke Lekh Aaj Ke Upnishad Hain. Bahut Kathin Anubhav Ki Parchchain Spashta Dikhai Deti Hai. Manav Seva Parmatma Ki Seva Hai Kintu Men Ne Jin Logon Ki bhi Seva Unke Mangne se Phile hi Kardi to Baad men Mujhe Hatya Ka Jaisa Phal Mila. Kisi ne bhi Paise Vapis Nahin Kiye aur na hi Kisi ne Achcha Kaha. Mere Pita Kahte the ki Kalyug Men Daya Hatya Ke Saman Hai Kya Yahi Theek Hai ?

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    1. आपकी टिप्पणि बहुमूल्य हैं,अपने भाव प्रकट करने का बहुत बहुत आभार

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