Tuesday, April 16, 2013

Yoga (योग)



योग क्या है ?
भारत के वैदिक, बौद्ध और जैन मुख्य दर्शन हैं। ये तीनों आत्मा, पुण्य-पाप, परलोक और मोक्ष इन तत्वों को मानते है, इसलिये ये आस्तिक-दर्शन हैं। योग शब्द युज् धातु से बना है। संस्कृत में युज् धातु दो हैं। एक का अर्थ है जोड़ना और दुसरे का है समाधि । इनमें से जोड़ने के अर्थ वाले युज् धातु को योगार्थ में स्वीकार किया है।

अर्थात् जिन-जिन साधनों से आत्मा की शुद्धि और मोक्ष का योग होता है, उन सब साधनों को योग कह सकते हैं। पातंजलि-योगदर्शन में योग का लक्षण योगश्चित्तवृत्ति-निरोधः कहा है। मन, वचन, शरीर आदि को संयत करने वाला धर्म-व्यापार ही योग है, क्योंकि यही आत्मा को उसके साध्य मोक्ष के साथ जोड़ता है।

जिस समय मनुष्य सब चिन्ताओं का परित्याग कर देता है, उस समय, उसके मन की उस लय-अवस्था को लय-योग कहते हैं। अर्थात् चित्त की सभी वृत्तियों को रोकने का नाम योग है। वासना और कामना से लिप्त चित को वृत्ति कहा है। इस वृत्ति का प्रवाह जाग्रत , स्वप्न, सुषुप्ति- इन तीनों अवस्थाओं में मनुष्य के हृदय पर प्रवाहित होता रहता है। चित्त सदा-सर्वदा ही अपनी स्वाभाविक अवस्था को पुनः प्राप्त करने के लिये प्रयत्न करता रहता है, किन्तु इन्द्रियाँ उसे बाहर आकर्षित कर लेती हैं। उसको रोकना एवं उसकी बाहर निकलने की प्रवृत्ति को निवृत करके उसे पीछे घुमाकर चिद्-घन पुरूष के पास पहुँचने के पथ में ले जाने का नाम ही योग है। हम अपने हृदयस्थ चैतन्य-घन पुरूष को क्यों नहीं देख पाते? कारण यही है कि हमारा चित्त हिंसा आदि पापों से मैला और आशादि वृत्तियों से आन्दोलित हो रहा है। यम-नियम आदि की साधना से चित्त का मैल छुड़ाकर चित्त वृत्ति को रोकने का नाम योग है।

अष्टांग योग
आत्मा और परमात्मा का मिलन या जोड़ ही योग का लक्ष्य है। यह जोड़ एक और एक दो वाला जोड़ नहीं है। यह एक और एक पर एक होने वाला ही जोड़ है। आप हैरान होंगे यह क्या है। लेकिन योग में ऐसा ही है। शरीर और आत्मा जुड़ती है, होते दो हैं पर योग उन्हें एक कर देता है। और फिर एक ही रह जाता है वह परमात्मा का भाव है। परमात्मा से जुडऩे की पहली इबारत है :अष्टांग योग।

आजकल योग को व्यायाम के संदर्भ में भी लिया जा रहा है लेकिन ऐसा नहीं है। व्यायाम का संबंध सिर्फ शरीर है लेकिन योग शरीर के माध्यम से आत्मा और फिर परमात्मा की यात्रा कराता है। पहली इबारत अष्टांग योग में ही वे सारे सूत्र समाए हुए हैं, जिनको अपनाकर हम सारे दु:ख और संतापों से मुक्ति पा सकते हैं। आइए, पहले अष्टांग योग को जानें।आचार्य पातंजलि- पातंजलि योग सूत्र के अनुसार योग के आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।

1. यम- योग जीवन यात्रा है। यह यात्रा बाहर से अंदर, स्थूल से सूक्ष्म की ओर है। यह हमारे जीवन को नियमित करती है। बाहर से अंदर की ओर की इस यात्रा का पहला चरण पांच भागों में होता है जिन्हें यम कहते है:
अ. अहिंसा- इसका अर्थ है हिंसा नहीं करना। हिंसा सिर्फ अस्त्र-शस्त्र से किसी को नुकसान पहुंचाना ही नहीं है। मन, कार्य, व्यवहार एवं वाणी द्वारा भी हिंसा होती है। इनसे बचें।
ब. सत्य- जो जैसा है, उसे वैसा ही देखना, समझना और कहना सत्य है। सत्य पालन के लिए कम और तथ्यपरक बोलना चाहिए। अपनी भावनाओं को अपने शब्दों के साथ व्यक्त न करें। ये भावनाएं सत्य को दूषित करती हैं।
स. अस्तेय- इसका अर्थ है चोरी न करना। इससे बचें। किसी के अधिकार या अमानत को हड़प लेना या इच्छा करना भी चोरी है।
द. ब्रह्मचर्य- अर्थ है ब्रह्म जैसा व्यवहार। आखिर क्या है ब्रह्म का व्यवहार। उत्तर होगा- हर काम संतुलित तरीके से होना। यानी सैक्स में डूबो तो संतान उत्पत्ति के लिए, शरीर सुख के लिए नहीं। यदि ऐसे ही हर काम होगा तो फिर दु:ख गायब हो जाएगा।
ई. अपरिग्रह- यानी वस्तुओं का संग्रह न करना। जब सभी कुछ इसी संसार में छूट जाना है तो फिर संग्रह क्यों।

2 नियम- नियम बताते हैं हमारा खुद के प्रति व्यवहार कैसा है। ये पांच हैं:-
अ. शौच- यानी पवित्रता। हमारा अंदर और बाह्य जीवन पवित्र हो, हमारा घर, परिवेश, वस्त्र, भोजन आदि स्वच्छ व सुंदर हो। मन और विचारों की पवित्रता भी परम आवश्यक है।
ब. संतोष- जो पाया उस पर संतोष होना ही सुख है। कर्म पूरी लगन से किया जाए किन्तु फल की चिन्ता न रहे। 
स. तप- इसका अर्थ है जीवन के उतार-चढ़ावों में विचलित नहीं होना तथा जीवन में संघर्र्ष शील रहते हुए प्रगति के मार्ग पर बढऩा।
द. स्वाध्याय- शास्त्रों का अध्ययन, जीवन के अनुभव व स्वयं का आत्म विश्लेषण करना स्वाध्याय है।
ई. ईश्वर प्रणिधान- मन, कर्र्म, वचन से ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण ही ईश्वर प्रणिधान है।

३. आसन- योग का तीसरा अंग है आसन। जिस स्थिति में शरीर व मन स्थिर और सुखी हो, वही आसन है। आसनों की संख्या अनेक है। योग के क्षेत्र में ८४ आसन प्रसिद्ध हैं।

४. प्राणायाम- स्थिर आसन में श्वास की गति का नियमन प्राणायाम है। प्राणायाम में श्वास पर ध्यान किया जाता है, जो मन को विशेष स्थिरता देता है। यह श्वास छोडऩे और भरने की कला भी है। शरीर को स्वस्थ रखने में इसका उपयोग हो सकता है।

5. प्रत्याहार-बाहर की ओर जाती इंद्रियों को अंदर की ओर मोडऩा । इसमें ध्यान द्वारा मन को इंद्रियों के भोग विलाश से हटाकर ईश्वर की ओर केन्द्रित किया जाता है।

6. धारणा-अर्थ है एकाग्रता। चित्त को किसी एक स्थान पर एकाग्र करना धारणा कहलाता है।

7. ध्यान-एकाग्रता को किसी एक जगह स्थिर करना ध्यान है। लंबे समय तक ध्यान करने से मन का बाहर की ओर भटकाव रुक जाता है और वह एक जगह स्थिर हो जाता है।

8. समाधि-लंबे समय तक ध्यान में स्थित रहने से समाधि पद प्राप्त होता है। समाधिस्थ होने पर सारा उतार-चढ़ाव खत्म हो जाता है। बस बचती है तो एक चेतना जो परमात्मा की ओर ले जाती है।

सच तो यह है कि योग केवल शरीर की क्रिया नहीं है। न ही योग का मतलब व्यायाम है। यह तो स्टेप बाय स्टेप एक आंतरिक प्रक्रिया है। जो शरीर के माध्यम से परमात्मा तक ले जाती है। अष्टांग योग की शुरुआती छह स्टेप के बाद सातवें पर ध्यान घटता है। जो छह स्टेप पार करने में सफल होता है वही सातवें तक पहुंचता है और जो ध्यान को भी पा लेता है, वह समाधि लगाने का पात्र बनता है। योग दुनिया को भारत की देन है। अफसोस यह है कि आज भारत में आम लोग इससे दूर हो गए हैं। यदि हर व्यक्ति निजी रूप से इसे अपने ऊपर लागू करे तो समाज, देश और दुनिया का भला होगा।

पतंजलि ऋषि कौन- ईसा पूर्व चौथी शताब्दी के ऋषि। उनके जमाने में योग आम लोगों में प्रचलित तो था, लेकिन सूत्रबद्ध नहीं। पांतजलि ने योग के प्रयोग किए और उन्हें सूत्रबद्ध किया। यही पांतजलि योग सूत्र कहलाता है।

यम
अष्टांग योग की आठ अवस्थाएं हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। पहली अवस्था है- यम। ईश्वर को प्राप्त करने का एक रास्ता योग है। इस मार्ग से ईश्वर तक पहुंचने वाले महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग सिद्धांत का पालन करते हैं। यह सिद्धांत बताता है कि हम योग की आठ अवस्थाओं से गुजर कर ही ईश्वर तक पहुंच सकते हैं। इसकी पहली अवस्था है- यम।

यम का मतलब शांति
यम का अर्थ है शांति। योग करने वाले के चारों तरफ अर्थात अंदर और बाहर शांति का वातावरण होना चाहिए। हमारे जीवन में शांति कैसे आए इसके लिए यम का पालन जरूरी है। यम के पालन में पांच बातों का ध्यान रखा जाता है। पंतजलि ने कहा है-

अहिंसासत्यास्तेय ब्रम्हचर्यापरिग्रहा यमा:। - योगसूत्र २/३क्

अर्थात-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रम्हचर्य , अपरिग्रह ही यम है। इन पांच बातों को जीवन में उतार कर ही हम योग की पहली सीढ़ी चढ़ते हैं।

यम के पांच नियम
अहिंसा- इसका अर्थ है हमारे मन, वचन या कर्म से किसी भी प्राणी को कोई कष्ट न हो। मन में किसी को दु:ख पहुंचाने का विचार तक नहीं आए। अपने आप पर भी कोई ज्यादती न करें। जो व्यक्ति अहिंसा का इस तरह पालन करता है, उसके विरोधी लोग भी विरोध नहीं कर पाते। अहिंसा का व्रत हमारे जीवन में बदलाव लाता है। समाज में हमें विशेष सम्मान दिलाता है।

सत्य का साथ दें
इसका अर्थ है हम कपट से और धोखा देने की नीयत से कोई बात न कहें। जो बात जैसी है उसे उसी तरह कहना सत्य है। हम आत्मा को सत्य मानें और ईश्वर की खोज करें। जब यह सत्य हमारे जीवन में उतरता है तो उसके लाभ मिलते ही हैं।

अस्तेय : भ्रष्टाचार से दूर रहें
अर्थात चोरी नहीं करना। हमें दूसरे का धन हड़पने का विचार भी नहीं करना चाहिए। चोरी, ठगी, धोखाधड़ी और अन्य किसी गलत तरीके से दूसरे के धन, वस्तु या अन्य किसी चीज को हथियाना अपराध है। हमें इस बुराई से बचना चाहिए। अस्तेय का पालन हमें सद्चरित्र बनाता है।

ब्रम्हचर्य : संयम से रहें
इसका मतलब है इंद्रियों का संयम। हमारा भोजन, विचार, व्यवहार सभी कुछ युक्तियुक्त होना चाहिए। जो संयम से नहीं रहता वह बलहीन हो जाता है, उसमें आत्मविश्वास नहीं रहता। जो ब्रम्हचर्य का पालन करते हैं उन्हें अक्षुण्ण बल की प्राप्ति होती है। स्वस्थ, निरोग और प्रसन्न व्यक्ति ही किसी भी कार्य को सफल करने के लिए योग्य होता है।

अपरिग्रह: 
संग्रह की प्रवृत्ति छोड़ें इसका अर्थ है हम बिना आवश्यकता के वस्तुओं का संग्रह न करें। जब हम वस्तुएं इकट्ठा करते हैं तो उनकी वृद्धि, रक्षा और दिखावे में हमारा मन लग जाता है। तब हम मन को एकाग्र नहीं कर पाते। मन की शांति के लिए वस्तुओं से अनावश्यक मोह न रखना, आलस्य, संशय, प्रमाद का त्याग जरूरी है। मन यदि इस बाहरी दिखावे से हट जाए तो फिर हम मनुष्य जन्म की सफलता के बारे में सोच सकते हैं।

शांति से सफलता
यम के पांच तत्वों के संकल्प से हमारे जीवन में शांति का अनुभव होता है। शांति का मतलब खामोशी नहीं है। शांति का मतलब है सुख-संतुष्टि, मन में किसी प्रकार का कोई दु:ख, क्षोभ या तनाव नहीं रहना। जब हम अंदर से इस तरह शांत होते हैं तो हमारा वातावरण भी इसी में ढलने लगता है। यदि हम इस तरह शांत चित्त होकर कोई कार्य करते हैं तो उसकी सफलता की संभावना बहुत अधिक बढ़ जाती है। जब मन में और आस-पास के वातावरण में शांति हो तभी हम योग की साधना की पहली मंजिल यम पर पहुंचते हैं।

नियम
महर्षि पतंजलि के योग सूत्र का दूसरा चरण नियम है। पहला चरण यम जहां मन को शांति देता है, वहीं दूसरा चरण नियम हमें पवित्र बताता है। योग मार्ग पर चलने के लिए आत्मशांति के साथ मन, कर्म, वचन की पवित्रता भी आवश्यक है। नियम के पालन से हमारे आचरण, विचार और व्यवहार पवित्र होते हैं।

नियम के पांच अंग महर्षि पातंजलि के योग सूत्र में नियम के पांच अंग बताए गए हैं-शौचसन्तोषतप: स्वाध्यायेश्वर प्रमिधानानि नियमा:। (योगदर्शन- 2/३२)अर्थात- पवित्रता, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर की भक्ति यही नियम है।

योग मार्ग की सिद्धि के लिए हमारे आचार-विचार पवित्र होना चाहिए। शरीर और विचारों की शुद्धि से संतोष का गुण आता है। तभी हम शास्त्रों के ज्ञान से ईश्वर की भक्ति की साधना में सफल हो सकते हैं। योग मार्ग से ईश्वर को प्राप्त करने की दिशा में नियम की यह अवस्था भी आवश्यक योग्यता है।

पवित्रता- धर्म क्षेत्र में पवित्रता का मतलब सभी तरह की शुद्धता से है। जैसे शरीर की शुद्धता स्नान से, व्यवहार और आचरण की शुद्धता त्याग से, सही तरीके से कमाए धन से प्राप्त सात्विक भोजन से आहार की शुद्धता रहती है। इसी तरह दुर्गुणों से बचकर हम मन को शुद्ध रखते हैं। घमंड, ममता, राग-द्वेष, ईष्र्या, भय, काम-क्रोध आदि दुर्गुण हैं।

संतोष- संतोष का अर्थ है हर स्थिति में प्रसन्न रहना। दु:ख हो या सुख, लाभ हो या हानि, मान हो या अपमान, कैसी भी परिस्थिति हो, हमें समान रूप से प्रसन्न रहना चाहिए।

तप- तप का मतलब है लगन। अपने लक्ष्य को पाने के लिए संयमपूïर्वक जीना। व्रत-उपवास करना तप कहलाता है, जिनसे हमारे अंदर लगन पैदा होती है।

स्वाध्याय- स्वाध्याय का अर्थ है हम शास्त्रों के अध्ययन से ज्ञान प्राप्त करें तथा जप, स्त्रोतपाठ आदि से ईश्वर का स्मरण करें।

ईश्वर प्रणिधान- ईश्वर-प्रणिधान का मतलब है हम ईश्वर के अनुकूल ही कर्म करें। अर्थात हमारा प्रत्येक कार्य ईश्वर के लिए और ईश्वर के अनुकूल ही हो। ऊपर बताए गए नियम की इन पांच बातों को जीवन में उतारने से योग मार्ग की दूसरी अवस्था प्राप्त हो जाती है।

नियम से लाभ
नियम सिखाते हैं हम पवित्र रहें। यह पवित्रता सिर्फ तन की न हो, मन की भी हो। हम संतोष रखें अर्थात सुख-दु:ख में समान रहें। तप हमें संयम सिखाता है तो स्वाध्याय हमें अध्ययन की ओर प्रेरित करता है। जब हम अध्ययन करेंगे तो हमें ज्ञान होगा और अंत में ईश्वर के अनुकूल कार्य करने की प्रेरणा मिलेगी।

आसन
पहले दो चरण यम और नियम से हम शांति व पवित्रता हासिल कर आसन के रूप में तीसरे चरण में प्रवेश करते हैं। आसन का अर्थ शरीर संतुलन से है। अर्थात् योग के लिए हमें किस तरह बैठना चाहिए यह जानना जरूरी है। महर्षि पातंजलि के योगसूत्र में आसन के बारे में जानकारी दी गई है। लंबे समय तक निश्चल होकर एक ही स्थिति में बैठना आसन है। आसन सिद्धि कम से कम तीन घंटे ३६ मिनट और अधिकतम चार घंटे ४८ मिनट बैठने से होती है।

योगदर्शन में कहा गया है शरीर की स्वाभाविक क्रियाएं शांत कर परमात्मा में मन को तन्मय करने से आसन की सिद्धि होती है। योग के लिए आसन की सिद्धि मतलब एक ही स्थान पर सुविधापूर्वक तन्मय होकर बहुत समय तक बैठने का अभ्यास जरूरी है। बैठने की यह प्रक्रिया और स्थिति ही आसन है।

प्राणायाम
अष्टांग योग के पहले तीन चरणों यम, नियम, आसन के बाद चौथा चरण है प्राणायाम। प्राणायाम के माध्यम से चित्त की शुद्धि की जाती है। चित्त की शुद्धि का अर्थ है हमारे मन-मस्तिष्क में कोई बुरे विचार नहीं हों। आइए जानें प्राणायाम की क्रिया क्या है-

अष्टांग योग में प्राणायाम चौथा चरण है। प्राण मतलब श्वास और आयाम का मतलब है उसका नियंत्रण। अर्थात जिस क्रिया से हम श्वास लेने की प्रक्रिया को नियंत्रित करते हैं उसे प्राणायाम कहते हैं। प्राणायाम से मन-मस्तिष्क की सफाई की जाती है। हमारी इंद्रियों द्वारा उत्पन्न दोष प्राणायाम से दूर हो जाते हैं। कहने का मतलब यह है कि प्राणायाम करने से हमारे मन और मस्तिष्क में आने वाले बुरे विचार समाप्त हो जाते हैं और मन में शांति का अनुभव होता है। प्राणायाम से जब चित्त शुद्ध होता है तो योग की क्रियाएं आसान हो जाती हैं।

इस तरह करें प्राणायाम
तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेद: प्राणायाम:। योगदर्शन 2/४९
अर्थात् आसन के सिद्ध हो जाने पर श्वास और प्रश्वास की गति के नियंत्रित और संतुलित हो जाने का नाम प्राणायाम है। बाहरी वायु का भीतर प्रवेश करना श्वास कहलाता है और भीतर की वायु का बाहर निकालना प्रश्वास कहलाता है। इन दोनों के नियंत्रण का नाम प्राणायाम है।

प्राणायाम में हम पहले श्वास को अंदर खींचते हैं, जिसे पूरक कहते हैं। पूरक मतलब फेफड़ों में श्वास की पूर्ति करना। श्वास लेने के बाद कुछ देर के लिए श्वास को फेफड़ों में ही रोका जाता है, जिसे कुंभक कहते हैं। इसके बाद जब श्वास को बाहर छोड़ा जाता है तो उसे रेचक कहते हैं। इस तरह प्राणायाम की सामान्य विधि पूर्ण होती है।

ये हैं प्राणायाम के अंग
योगदर्शन में प्राणायाम के तीन अंग बताए गए हैं-
१. भीतर की श्वास को बाहर निकालकर बाहर ही रोके रखना बाह्यकुंभक कहलाता है।
२. श्वास को भीतर खींचकर भीतर रोकने रखने को आभ्यंतरकुंभक कहते हैं।
३. बाहर या भीतर कहीं भी सुखपूर्वक श्वासों को रोकने का नाम स्तंभवृत्ति प्राणायाम कहलाता है।

प्राणायाम को किसी जानकार योगी की देखरेख में ही सीखना चाहिए।
प्राणायाम का एक और प्रकार केवल कुंभक है। बाहरी और भीतर के विषयों के त्याग से केवल कुंभक होता है। शब्द, स्पर्श आदि इंद्रियों के बाहरी विषय हैं तथा संकल्प, विकल्प आदि आंतरिक विषय हैं। उनका त्याग करना चतुर्थ प्राणायाम कहलाता है।

कई तरह से होते हैं प्राणायाम के लाभ
-योग में प्राणायाम क्रिया सिद्ध होने पर पाप और अज्ञानता का नाश होता है।
-प्राणायाम की सिद्धि से मन स्थिर होकर योग के लिए समर्थ और सुपात्र हो जाता है।
-प्राणायाम के माध्यम से ही हम अष्टांग योग की प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और अंत में समाधि की अवस्था तक पहुंचते हैं।
-प्राणायाम से हमारे शरीर का संपूर्ण विकास होता है। फेफड़ों में अधिक मात्रा में शुद्ध हवा जाने से शरीर स्वस्थ रहता है।
-प्राणायाम से हमारा मानसिक विकास भी होता है। प्राणायाम करते हुए हम मन को एकाग्र करते हैं। इससे मन हमारे नियंत्रण में आ जाता है।
-प्राणायाम से श्वास संबंधी रोग तथा अन्य बीमारियां दूर हो जाती हैं।

प्रत्याहार
प्रत्याहार योग का पांचवां चरण है। पहले चार चरण यम, नियम, आसन और प्राणायाम हैं । योग मार्ग का साधक जब यम (मन के संयम), नियम (शारीरिक संयम) रखकर एक आसन में स्थिर बैठकर अपने वायु रूप प्राण पर नियंत्रण सीखता है, तब उसके विवेक को ढंकने वाले अज्ञान का अंत होता है। तब जाकर मन प्रत्याहार और धारणा के लिए तैयार होता है।

सूक्ष्म साधना का सोपान- प्रत्याहार चेतना, शरीर और मन से ऊपर उठकर अपने स्वरूप में रुक जाने की स्थिति है प्रत्याहार। प्राणायाम तक योग साधना आंखों से दृष्टिïगोचर होती है। प्रत्याहार से साधना का रूपांतरण होता है और साधना सूक्ष्मतर होकर मानसिक हो जाती है। प्रत्याहार का अर्थ है- एक और आहरण यानि खींचना। प्रश्न उठता है किसका खींचा जाना? मन का। योग दर्शन के अनुसार मन इंद्रियों के माध्यम से जगत के भोगों के पीछे दौड़ता है। बहिर्गति को रोक उसे इंद्रियों के अधीन से मुक्त करना, भीतर की ओर खींचना प्रत्याहार है।

मन का प्रशिक्षण मन क्या है? यह विचारों, कल्पनाओ, अनुभवों और इच्छाओं का समूह है। सामान्यत: हम अपना जीवन इसी स्तर पर जीते हैं। विचारों के परे अस्तित्व की हमें खबर भी नहीं होती। प्राणायाम से जब हम स्थिर होते हैं, तब स्थिर हुए चंचल मन को उसके रूप में स्थित करने का कार्य प्रत्याहार में होता है। अपने मूल स्वरूप को प्राप्त होने से मन का बाह्यï ज्ञान नहीं रह जाता। योग दर्शन में उल्लेख है-तत: परमा वश्यतेन्द्रियाणाम्। -2/55अर्थात् उस प्रत्याहार से इंद्रियां पूरी तरह से वश में हो जाती हैं।

स्वामी विवेकानंद ने प्रत्याहार की साधना का सरल मार्ग बताया है। वे कहते हैं मन को संयत करने के लिए-
-कुछ समय चुपचाप बैठें और मन को उसके अनुसार चलने दें।
-मन में विचारों की हलचल होगी, बुरी भावनाएं प्रकट होंगी। सोए संस्कार जाग्रत होंगे। उनसे विचलित न होकर उन्हें देखते रहें।
-धैर्यपूर्वक अपना अभ्यास करते रहें।
-धीरे-धीरे मन के विकार कम होंगे और एक दिन मन स्थिर हो जाएगा तथा उसका इंद्रियों से संबंध टूट जाएगा।

धारणा
धारणा अष्टांग योग का छठा चरण है। इससे पहले पांच चरण यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार हैं जो योग में बाहरी साधन माने गए हैं। इसके बाद सातवें चरण में ध्यान और आठवें में समाधि की अवस्था प्राप्त होती है। धारणा का अर्थधारणा शब्द 'धृ' धातु से बना है। इसका अर्थ होता है संभालना, थामना या सहारा देना। योग दर्शन के अनुसार-देशबन्धश्चित्तस्य धारणा। -3/1अर्थात- किसी स्थान (मन के भीतर या बाहर) विशेष पर चित्त को स्थिर करने का नाम धारणा है।आशय यह है कि यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार द्वारा इंद्रियों को उनके विषयों से हटाकर चित्त में स्थिर किया जाता है। स्थिर हुए चित्त को एक 'स्थान पर रोक लेना ही धारणा है।

कहां की जाती है धारणा
धारणा में चित्त को स्थिर होने के लिए एक स्थान दिया जाता है। योगी मुख्यत: हृदय के बीच में, मस्तिष्क में और सुषुम्ना नाड़ी के विभिन्न चक्रों पर मन की धारणा करता है।

हृदय में धारणा:- योगी अपने हृदय में एक उज्‍जवल आलोक की भावना कर चित्त को वहां स्थित करते हैं।

मस्तिष्क में धारणा:- कुछ योगी मस्तिष्क में सहस्र (हजार) दल के कमल पर धारणा करते हैं।

सुषुम्ना नाड़ी के विभिन्न चक्रों पर धारणा:- योग शास्त्र के अनुसार मेरुदंड के मूल में मूलाधार से मस्तिष्क के बीच में सहस्रार तक सुषुम्ना नाड़ी होती है। इसके भीतर स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा जैसे ऐसे चक्र होते हैं। योगी सुषुम्ना नाड़ी पर चक्र के देखते हुए चित्त को लगाता है।

अपने भीतर उतरने की क्रिया धारणा
धारणा अष्टांग योग का छठा चरण है। इससे पहले पांच चरण यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार हैं जो योग में बाहरी साधन माने गए हैं। इसके बाद सातवें चरण में ध्यान और आठवें में समाधि की अवस्था प्राप्त होती है।

धारणा का अर्थ :धारणा शब्द धृधातु से बना है। इसका अर्थ होता है संभालना, थामना या सहारा देना। योग दर्शन के अनुसार- देशबन्धश्चित्तस्य धारणा। -3/1

अर्थात- किसी स्थान (मन के भीतर या बाहर) विशेष पर चित्त को स्थिर करने का नाम धारणा है।
आशय यह है कि यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार द्वारा इंद्रियों को उनके विषयों से हटाकर चित्त में स्थिर किया जाता है। स्थिर हुए चित्त को एक स्थानपर रोक लेना ही धारणा है।

ध्यान
ध्यानयोग साधना का सातवां चरण है ध्यान। योगी प्रत्याहार से इंद्रियों को चित्त में स्थिर करता है और धारणा द्वारा उसे एक स्थान पर बांध लेता है। इसके बाद ध्यान की स्थिति आती है। धारणा की निरंतरता ही ध्यान है।
क्या है ध्यानध्यान की उपमा तेल की धारा से की गई है। जब वृत्ति समान रूप से अविच्छिन्न प्रवाहित हो यानि बीच में कोई दूसरी वृत्ति ना आए उस स्थिति को ध्यान कहते हैं। पांतजलि योग सूत्र द्वारा इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं-तत्र प्रत्ययैकतानसा ध्यानम्। - विभूति पाद-2अर्थात- चित्त (वस्तु विषयक ज्ञान) निरंतर रूप से प्रवाहित होते रहने पर उसे ध्यान कहते हैं।

समाधि की पूर्व स्थिति है ध्यान अष्टांग योग में ध्यान एक खास जीवन शैली का अंग है। आज के प्रचलित तरीकों से अलग यह ध्यान एक लंबी साधना पद्धति की चरम अनुभूति का अंग है। यह मन की सूक्ष्म स्थिति है, जहां जाग्रतिपूर्वक एक वृत्ति को प्रवाह में रहना होता है। धारण और ध्यान से प्राप्त एकाग्रता चेतना को अहंकार से मुक्त करती है। सर्वत्र चेतनता का पूर्ण बोध समाधि बन जाती है।

खुद के भीतर झांकने की क्रिया है ध्यान
एक विषय विशेष पर चित्त स्थिर करना ध्यान कहलाता है। पूजा पद्धति का यह एक अंग है। ध्यान में हम एक आसन पर बैठकर किसी स्वरूप का चिंतन करते है। पूजन के बाद या सवेरे जल्दी उठकर ध्यान करने का बड़ा महत्व है। मंदिर में दर्शन के बाद थोड़ी देर बैठने का जो नियम है वह ध्यान के लिए ही होता है।ध्यान अपनी-अपनी रुचि के अनुसार किसी का भी किया जा सकता है। जैसे दीपक की लौ, कोई बिंदू, ईश्वर के रूप आदि।
महत्व - सभी धर्मों की पूजा पद्धतियों और धर्म ग्रंथों में ध्यान को बहुत महत्व दिया गया है। ध्यान से मन, बुद्धि, चित्त, स्थिर होता है, तथा शरीर में ऊर्जा का निर्माण होता है। दिमाग की सारी शक्ति एक लक्ष्य पर केंद्रित हो जाती है, तथा दिनभर ध्यान करने वाला व्यक्ति अपने लक्ष्य से नहीं भटकता। योग साधना में भी ध्यान का सातवां स्थान है।

ध्यान का वैज्ञानिक महत्व - विचार शक्ति मनुष्य के पास एक अत्यंत महत्वपूर्ण शक्ति है। यदि मनुष्य अपने विचारों पर नियंत्रण कर सके तो वह असंभव को भी संभव में बदल सकता है। मनुष्य अपनी विचार शक्ति का अधिकांश भाग व्यर्थ की अनावश्यक कल्पनाओं में खर्च करता रहता है। यदि मनुष्य ध्यान के माध्यम से विचारों पर नियंत्रण कर उसे अपने सार्थक और निश्चित लक्ष्य पर लगाए तो उसका हर कार्य सुगमता पूर्वक संपन्न हो जाता है। अत: ध्यान एक ऐसी अद्भूत वैज्ञानिक विधा है। जो मनुष्य को विचार शक्ति का सदुपयोग करना एवं एकाग्रता सिखाता है।

खुद में शांति की तलाश का मार्ग : ध्यान
योग साधना का सातवां चरण है ध्यान। योगी प्रत्याहार से इंद्रियों को चित्त में स्थिर करता है और धारणा द्वारा उसे एक स्थान पर बांध लेता है। इसके बाद ध्यान की स्थिति आती है। धारणा की निरंतरता ही ध्यान है।
ध्यान की उपमा तेल की धारा से की गई है। जब वृत्ति समान रूप से अविच्छिन्न प्रवाहित हो यानि बीच में कोई दूसरी वृत्ति ना आए उस स्थिति को ध्यान कहते हैं। पांतजलि योग सूत्र द्वारा इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं-
तत्र प्रत्ययैकतानसा ध्यानम्। - विभूति पाद-2
अर्थात- चित्त (वस्तु विषयक ज्ञान) निरंतर रूप से प्रवाहित होते रहने पर उसे ध्यान कहते हैं |

कैसे करें ध्यान?
मन की शांति के लिए उन चीजों को मन से बाहर निकालना होगा जो दु:ख बन गई हैं। यह आसान नहीं है। उन चीजों को बाहर निकालें कैसे? दु:ख का कारण बनने वाली चीजों को बाहर निकालने की विधा ही ध्यान है। ध्यान कोई साधारण प्रक्रिया नहीं है किंतु यह इतनी साधारण भी है कि आम आदमी भी इसे सहज संकल्प के साथ अपने जीवन में उतार सकता है। सुख के लिए मन में शांति चाहिए। इसके लिए मन को एकाग्र करने की जरूरत होती है। मन की एकाग्रता से आने वाली शांति को पाने का मार्ग ही ध्यान है। यही ध्यान अष्टांग योग के अंतिम चरण में समाधि की अवस्था पा लेता है।

पहले अपने दु:ख के कारणों की सूची बना लें। फिर मन को एकाग्र कर उन्हें बाहर निकालने का प्रयत्न करें। इसके लिए जरूरी है कि यह प्रक्रिया निश्चित समय पर और नियमित हो। कुश या ऊन के आसन पर शुद्ध वातावरण में बैठकर अभ्यास करना चाहिए। प्रात:काल का समय इसके लिए सवरेत्तम है।

आसन पर बैठकर पहले कुछ देर प्राणायाम करें। इससे श्वास स्थिर होगी। फिर अपने इष्टदेव का ध्यान करें। इस दौरान मन स्थिर नहीं होगा। इधर-उधर की तमाम बातें मन में आएंगी किंतु प्रयास करें कि मन अपने इष्टदेव पर स्थिर हो। दूसरी बातें आएं तो उन्हें मन से बाहर निकालें। धीरे-धीरे अभ्यास करें। पहले कुछ क्षण मन एकाग्र होगा फिर कुछ अवधि बढ़ेगी। जिस दिन मन एक मिनट तक एकाग्र हो गया, समझ लो ध्यान का रास्ता खुल गया। आज के युग में दस मिनट का ध्यान लगा लेने वाला योगी कहलाने योग्य है। यदि पाप वासनाएं और कामनाएं सदा के लिए चली जाएं तो समझो आप परमयोगी हैं।

ध्यान साधना है। यह जीवनभर शिविरों में अभ्यास के बाद भी नहीं आ सकता और एक योग्य गुरु के मार्गदर्शन से क्षणभर में आ सकता है। ध्यान का जीवन में घटना हमारी इच्छाशक्ति पर निर्भर है। इसके लिए ऐसे योग्य गुरु का मार्गदर्शन जरूरी है, जो ध्यान का आनंद ले रहे हों। शिविरों और ऐसे ही दिखावटी आयोजनों में ध्यान का नाटक हो सकता है। ध्यान लगाया नहीं जा सकता। ध्यान लगाने वाले बार-बार समय देखते हैं। अपने मार्गदर्शक से समय सीमा पूछते हैं। सच तो यह है, जब जीवन में ध्यान घटता है तो समय की सीमा रह ही नहीं जाती। बीता समय क्षण मात्र लगता है। ध्यान असीम आनंद है।

समाधि 
अष्टांग योग अंतिम चरणसमाधिअष्टांग योग की उच्चतम सोपान समाधि है। यह चेतना का वह स्तर है, जहां मनुष्य पूर्ण मुक्ति का अनुभव करता है। क्या है समाधियोग शास्त्र के अनुसार ध्यान की सिद्धि होना ही समाधि है। पातंजलि योगसूत्र में कहा गया है-तदेवार्थमात्र निर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधि:। 3-3अर्थ- वह ध्यान ही समाधि है जब उसमें ध्येय अर्थमात्र से भासित होता है और ध्यान का स्वरूप शून्य जैसा हो जाता है।यानि ध्याता (योगी), ध्यान (प्रक्रिया) तथा ध्येय (ध्यान का लक्ष्य) इन तीनों में एकता-सी होती है। समाधि अनुभूति की अवस्था है वह शब्द, विचार व दर्शन सबसे परे है।

कैसी होती है समाधिसमाधि युक्ति-तर्क से परे एक अतिचेतन का अनुभव है। इस स्थिति में मन उन गूढ़ विषयों का भी ज्ञान प्राप्त कर लेता है, जो साधारण अवस्था में बुद्धि द्वारा प्राप्त नहीं होते। समाधि और नींद में हमें एक जैसी अवस्था प्रतीत होती है, दोनों में हमारा (बाह्य) स्वरूप सुप्त हो जाता है लेकिन स्वामी विवेकानंद स्पष्ट करते हैं 'जब कोई गहरी नींद में सोया रहता है, तब वह ज्ञान या चेतन की निम्न भूमि में चला जाता है। नींद से उठने पर वह पहले जैसे ही रहता है। उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। किंतु जब मनुष्य समाधिस्थ होता है तो समाधि प्राप्त करने के पहले यदि वह महामूर्ख रहा हो, अज्ञानी रहा हो तो समाधि से वह महाज्ञानी होकर व्युत्थित होता है।

परमसुख की प्राप्ति यानी समाधि
अष्टांग योग की उच्चतम सोपान समाधि है। यह चेतना का वह स्तर है, जहां मनुष्य पूर्ण मुक्ति का अनुभव करता है।योग शास्त्र के अनुसार ध्यान की सिद्धि होना ही समाधि है। पातंजलि योगसूत्र में कहा गया है-
तदेवार्थमात्र निर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधि:। 3-3

अर्थ- वह ध्यान ही समाधि है जब उसमें ध्येय अर्थमात्र से भासित होता है और ध्यान का स्वरूप शून्य जैसा हो जाता है। यानि ध्याता (योगी), ध्यान (प्रक्रिया) तथा ध्येय (ध्यान का लक्ष्य) इन तीनों में एकता-सी होती है। समाधि अनुभूति की अवस्था है वह शब्द, विचार व दर्शन सबसे परे है।

कैसी होती है समाधि
समाधि युक्ति-तर्क से परे एक अतिचेतन का अनुभव है। इस स्थिति में मन उन गूढ़ विषयों का भी ज्ञान प्राप्त कर लेता है, जो साधारण अवस्था में बुद्धि द्वारा प्राप्त नहीं होते। समाधि और नींद में हमें एक जैसी अवस्था प्रतीत होती है, दोनों में हमारा (बाह्य) स्वरूप सुप्त हो जाता है लेकिन स्वामी विवेकानंद स्पष्ट करते हैं जब कोई गहरी नींद में सोया रहता है, तब वह ज्ञान या चेतन की निम्न भूमि में चला जाता है। नींद से उठने पर वह पहले जैसे ही रहता है। उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। किंतु जब मनुष्य समाधिस्थ होता है तो समाधि प्राप्त करने के पहले यदि वह महामूर्ख रहा हो, अज्ञानी रहा हो तो समाधि से वह महाज्ञानी होकर व्युत्थित होता है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है..MMK

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