Friday, April 1, 2011

Aisha-Kyun (ऐसा क्यूँ)

शिवजी के सिर पर चन्द्र क्यों?
भगवान शिव के सिर पर चन्द्र उनके योगी स्वरूप की शोभा बढ़ाता है। इनका एक नाम शशिधर भी है। शिवजी अपने सिर पर चंद्र को धारण किया है इसी वजह से इन्हें शशिधर के नाम से भी जाना जाता है। भोलेनाथ ने मस्तक पर चंद्र को क्यों धारण कर रखा है? इस संबंध में शिव पुराण में उल्लेख है कि जब देवताओं और असुरों द्वारा समुद्र मंथन किया गया, तब 14 रत्नों के मंथन से प्रकट हुए। इस मंथन में सबसे विष निकला।
विष इतना भयंकर था कि इसका प्रभाव पूरी सृष्टि पर फैलता जा रहा था परंतु इसे रोक पाना किसी भी देवी-देवता या असुर के बस में नहीं था। इस समय सृष्टि को बचाने के उद्देश्य से शिव ने वह अति जहरीला विष पी लिया। इसके बाद शिवजी का शरीर विष प्रभाव से अत्यधिक गर्म होने लगा। शिवजी के शरीर को शीतलता मिले इस वजह से उन्होंने चंद्र को धारण किया।
शिवजी को अति क्रोधित स्वभाव का बताया गया है। कहते हैं कि जब शिवजी अति क्रोधित होते हैं तो उनका तीसरा नेत्र खुल जाता हैं तो पूरी सृष्टि पर इसका बुरा प्रभाव पड़ता है। साथ ही विषपान के बाद शिवजी का शरीर और अधिक गर्म हो गया जिसे शीतल करने के लिए उन्होंने चंद्र आदि को धारण किया। चंद्र को धारण करके शिवजी यही संदेश देते हैं कि आपका मन हमेशा शांत रहना चाहिए। आपका स्वभाव चाहे जितना क्रोधित हो परंतु आपका मन हमेशा ही चंद्र की तरह ठंडक देने वाला रहना चाहिए। जिस तरह चांद सूर्य से उष्मा लेकर भी हमें शीतलता ही प्रदान करता है उसी तरह हमें भी हमारा स्वभाव बनाना चाहिए।

क्यों करते हैं रुद्राभिषेक?
शिवरात्रि पर शिवजी की आराधना करने से उनकी कृपा प्राप्त होती है।अधिकांश शिव भक्त इस दिन शिवजी का अभिषेक करते हैं। लेकिन बहुत कम ऐसे लोग है जो जानते हैं कि शिव का अभिषेक क्यों करते हैं?
अभिषेक शब्द का अर्थ है स्नान करना या कराना। यह स्नान भगवान मृत्युंजय शिव को कराया जाता है। अभिषेक को आजकल रुद्राभिषेक के रुप में ही ज्यादातर पहचाना जाता है। अभिषेक के कई प्रकार तथा रुप होते हैं। किंतु आजकल विशेष रूप से रुद्राभिषेक ही कराया जाता है।रुद्राभिषेक का मतलब है भगवान रुद्र का अभिषेक यानि कि शिवलिंग पर रुद्रमंत्रों के द्वारा अभिषेक करना।
रुद्राभिषेक करना शिव आराधना का सर्वश्रेष्ठ तरीका माना गया है। शास्त्रों में भगवान शिव को जलधाराप्रिय:, माना जाता है। भगवान रुद्र से सम्बंधित मंत्रों का वर्णन बहुत ही पुराने समय से मिलता है। रुद्रमंत्रों का विधान ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद में दिये गए मंत्रों से किया जाता है। रुद्राष्टाध्यायी में अन्य मंत्रों के साथ इस मंत्र का भी उल्लेख मिलता है।
अभिषेक में उपयोगी वस्तुएं: अभिषेक साधारण रूप से तो जल से ही होता है। विशेष अवसर पर या सोमवार, प्रदोष और शिवरात्रि आदि पर्व के दिनों में गोदुग्ध या अन्य दूध मिला कर अथवा केवल दूध से भी अभिषेक किया जाता है। विशेष पूजा में दूध, दही, घृत, शहद और चीनी से अलग-अलग अथवा सब को मिला कर पंचामृत से भी अभिषेक किया जाता है। तंत्रों में रोग निवारण हेतु अन्य विभिन्न वस्तुओं से भी अभिषेक करने का विधान है।

केवल शिव का पूजन ही लिंग रूप में क्यों?
हिन्दू धर्म में मूर्ति पूजन की प्रथा काफी प्राचीन समय से चली आ रही है। सभी देवताओं को मूर्ति रूप में पूजा जाता है। लेकिन शिव ही एकमात्र ऐसे देवता हैं, जो लिंग यानी निराकार रूप में पूजे जाते हैं क्योंकि भगवान शिव ब्रह्मरूप होने के कारण निष्कल अर्थात निराकार कहे गए। रूपवान होने के कारण सकल कहलाए। ऐसी मान्यता है कि सृष्टी की उत्पति का दिन ही शिवरात्रि है।
इसीलिए उन्हें प्रथम पुरुष भी कहा जाता है। शिव ही वे देवता हैं जिन्होंने कभी कोई अवतार नहीं लिया। शिव कालों के काल है यानी साक्षात महाकाल हैं। वे जीवन और मृत्यु के चक्र से परे हैं इसीलिए समस्त देवताओं में एकमात्र वे परब्रम्ह है इसलिए केवल वे ही निराकार लिंग के रूप में पूजे जाते हैं। इस रूप में समस्त ब्रम्हाण्ड का पूजन हो जाता है क्योंकि वे ही समस्त जगत के मूल कारण है। शिव का पूजन लिगं रूप में ही ज्यादा फलदायक माना गया है। शिव का मूर्तिपूजन भी श्रेष्ठ है किंतु लिंग पूजन सर्वश्रेष्ठ है।

टूटने के बाद भी शिवलिंग कभी खंडित नहीं होता, क्योंकि...
शिव ही एक मात्र ऐसे भगवान हैं जिनका पूजन शिवलिंग रूप में किया जाता है। शिवजी का पूजन लिगं रूप में ही सबसे ज्यादा फलदायक माना गया है। महादेव का मूर्तिपूजन भी श्रेष्ठ है लेकिन लिंग पूजन सर्वश्रेष्ठ है। सामान्यत: सभी देवी-देवताओं की मूर्तियां कहीं से टूट जाने पर उनकी प्रतिमाओं को खंडित माना जाता है लेकिन शिवलिंग किसी भी परिस्थिति में खंडित नहीं माना जाता है।
शास्त्रों के अनुसार शिवजी का प्रतीक शिवलिंग कहीं से टूट जाने पर भी खंडित नहीं माना जाता।
जबकि अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमा खंडित होने पर उनका पूजन निषेध किया गया है। जबकि शिवलिंगकहीं से टूट जाने पर भी पवित्र और पूजनीय माना गया है। ऐसा इसलिए है कि भगवान शिव ब्रह्मरूप होने के कारण निष्कल अर्थात निराकार कहे गए हैं। भोलेनाथ का कोई रूप नहीं है उनका कोई आकार नहीं है वे निराकार हैं। महादेव का ना तो आदि है और ना ही अंत। लिंग को शिवजी का निराकार रूप ही माना जाता है। केवल शिव ही निराकार लिंग के रूप में पूजे जाते है। इस रूप में समस्त ब्रह्मांड का पूजन हो जाता है क्योंकि वे ही समस्त जगत के मूल कारण माने गए हैं।
शिवलिंग बहुत ज्यादा टूट जाने पर भी पूजनीय है। अत: हर परिस्थिति में शिवलिंग का पूजन सभी मनोकामनाओं को पूरा करने वाला जाता है। शास्त्रों के अनुसार शिवलिंग का पूजन किसी भी दिशा से किया जा सकता है लेकिन पूजन करते वक्त भक्त का मुंह उत्तर दिशा की ओर हो तो वह सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

शिवजी अर्द्ध नारीश्वर रूप में पूजे जाते हैं क्योंकि...
शिवजी को अर्द्ध नारीश्वर भी कहा जाता है। ऐसा माना जाता है किभगवान शिव का आधा शरीर स्त्री का तथा आधा पुरुष का है। शिव के अलावा और कोई देवी-देवता इस रूप में नहीं दर्शाए गए है। शिव ही क्यों भगवान के इस अर्द्ध नारीश्वर के रूप के पीछे वैज्ञानिक कारण भी है।
विज्ञान कहता है कि मनुष्य में 46 गुणसूत्र पाए जाते हैं। गर्भाधान के समय पुरुषों के आधे क्रोमोजोम्स (23) तथा स्त्रियों के आधे क्रोमोजोम्स (23) मिलकर संतान की उत्पत्ति करते हैं। इन 23-23 क्रोमोजोम्स के संयोग से संतान उत्पन्न होती है। जो बात विज्ञान आज कह रहा है। अध्यात्म ने उसे हजारों साल पहले ही ज्ञात करके कह दी थी कि पुरुष में आधा शरीर स्त्री का तथा
स्त्री में आधा शरीर पुरुष का होता है। इसी कारण हिंदू धर्म में भगवान शंकर को अद्र्ध नारीश्वर रूप में दिखाया गया है।
सृष्टि रचना में भी पुरुष एवं स्त्री के सहयोग की बात कही गई है। दोनों मिलकर ही पूर्ण होते हैं इसलिए हिंदुओं के अधिकांश देवताओं को स्त्रियों के साथ दिखाया जाता है। हिंदू धर्म में कोई भी शुभ कार्य स्त्री के बिना पूर्ण नहीं माना जाता क्योंकि वह उसका आधा अंग है। अकेला पुरुष अकेला है। इसी कारण पत्नी को अद्र्धांगिनी भी कहा जाता है।

क्यों करते हैं गोदभराई की रस्म?
हिंदू धर्म में गर्भवती स्त्री की सातवें महीने में गोदभराई की रस्म की जाती है। उसके बाद डिलेवरी के लिए उसे अपने मायके भेज दिया जाता है। कभी आपने सोचा है कि गोदभराई की रस्म क्यों कि जाती है? दरअसल गोद भराई की पूरी रस्म होने वाले बच्चे के स्वास्थ्य के लिए की जाती है। उस समय विशेष पूजा से गर्भ के दोषों का निवारण तो किया ही जाता है साथ ही गर्भ में पल रहे बच्चे के स्वास्थ्य के लिए यह पूरी प्रक्रिया की जाती है।गोद भराई के रस्म में उसे बढ़े-बूढ़ो का आर्शीवाद तो मिलता ही है।
साथ ही इस रस्म में गर्भवती स्त्री की गोद फल और सुखे मेवे से भरी जाती है।फल और सूखे मेवे पौष्टिक होते हैं। गर्भवती महिला को ये फल और मेवे इसीलिए दिए जाते हैं कि वो इन्हें खाए, जिससे गर्भ में बच्चे की सेहत अच्छी रहेगी। फल और सूखे मेवों से शरीर में शक्ति तो आती ही है साथ ही इनके तेलीय गुणों के कारण इसमें चिकनाई भी आ जाती है। जिससे प्रसव के समय महिला को कम से पीड़ा होती है और शिशु भी स्वस्थ्य रहता है। दूसरा कारण यह है कि इस रस्म के बाद गर्भवती स्त्री को उसके मायके भेज दिया जाता है ताकि वह अपने शरीर को पूरा आराम दे पाए और जच्चा-बच्चा दोनों स्वस्थ्य रहे।

चतुर्दशी को पीपल पर दूध चढ़ाया जाता है,जानते है क्यों?
भारतीय परंपरा में पीपल के पेड़ को पूज्यनीय माना जाता है। वेदों में भी पीपल के पेड़ को पूज्य माना गया है। पीपल की छाया तप, साधना के लिए ऋषियों का प्रिय स्थल माना जाता था।महात्मा बुद्ध का बोधक्तनिर्वाण पीपल की घनी छाया से जुड़ा हुआ है। शास्त्रों के अनुसार पीपल में भगवान विष्णु का निवास माना गया है और विष्णु को पितृ के देवता माना गया है क्योंकि प्रसिद्ध ग्रन्थ व्रतराज की अश्वत्थोपासना में पीपल वृक्ष की महिमा का उल्लेख है।
इसमें अर्थवणऋषि पिप्पलादमुनि को बताते हैं कि प्राचीन काल में दैत्यों के अत्याचारों से पीडि़त समस्त देवता जब विष्णु के पास गए और उनसे कष्ट मुक्ति का उपाय पूछा, तब प्रभु ने उत्तर दिया-मैं अश्वत्थ के रूप में भूतल पर प्रत्यक्ष रूप से विद्यमान हूं। इसलिए यह मान्यता हैं विष्णु भगवान के स्वरूप पीपल को पितृ निमित्त जो भी चढ़ाया जाता है। उससे हमारे पूर्वजों को तृप्ति मिलती है। चौदस और अमावस्या पितृ के दिन माने जाते है इसलिए इस दिन पूर्वजों की तृप्ति के लिए पीपल को दूध और जल चढ़ाया जाता है।

क्यों और क्या नहीं करें अमावस्या को?
हमारा भारत मान्यताओं का देश है हमारे यहां हर दिन की अलग-अलग मान्यताएं हैं जैसे गुरुवार के दिन नाखून नहीं काटना, शनिवार के दिन घर में लोहे के सामान ना लाना, शनिवार के दिन किसी नए कार्य की शुरूआत नहीं करना आदि। ऐसी ही एक मान्यता है कि अमावस्या के दिन यात्रा नहीं करनी चाहिए। अमावस्या में अमा का अर्थ है करीब तथा वस्य का अर्थ है,रहना यानी करीब रहना।इस दिन चंद्र दिखाई नहीं देता तथा तिथियों में इस तिथि के स्वामी पितृ होते हैं।इसलिए इस तिथि को भी शुभ कर्म करना निषेध है।
यहां तक की मजदूरवर्ग भी इस दिन काम बंद रखता है और इस दिन यात्रा भी नहीं करना चाहिए क्योंकि चंद्रमा की शक्ति प्राप्त नही होने के कारण शरीर में एक महत्वपूर्ण तत्व जल का संतुलन ठीक नही रहता जिससे निर्णय सही नही हो पाते और गलतियां अधिक होती है। दुर्घटनाओं के होने का भय रहता है। साथ ही यदि यात्रा व्यापारिक हो तो सही फैसले नहीं होते जिससे व्यापार में नुकसान भी हो सकता है। इसलिए अगर आप किसी महत्वपूर्ण कार्य के लिए जा रहे हों तो अमावस्या के दिन को टालना चाहिए और यात्रा नहीं करना चाहिए।

शवयात्रा से आने के बाद नहाना है जरूरी क्योंकि...

किसी भी शवयात्रा में जाना और मृत शरीर को कंधा देना लगभग सभी धर्मों में बड़े ही पुण्य कार्य माना गया है। धर्म शास्त्रों का कहना है कि शवयात्रा में शामिल होने और अंतिम संस्कार के मौके पर उपस्थित रहने से, इंसान को कुछ देर के लिए ही सही लेकिन जिंदगी की सच्चाई की आभास होता है और मन में वैराग्य होता है। जब शमशान जाने के आध्यात्मिक लाभ हैं, तो वहां से आकर तुरंत नहाने की जरूरत क्या है?
नहाया तो जब जाता है जब हम अशुद्ध हो जाते हैं। फिर पुण्य का कार्य करके तुरंत नहाने की क्या आवश्यकता है? दरअसल इसका कारण यह है कि शव का अंतिम संस्कार होने से पूर्व ही वह वातावरण में उपस्थित सूक्ष्म एवं संक्रामक कीटाणुओं से ग्रसित हो जाता है। इसके अतिरिक्त स्वयं मृत व्यक्ति भी किसी संक्रामक रोग से ग्रसित हो सकता है। अत: वहां पर उपस्थित इंसानों पर किसी संक्रामक रोग का असर होने की संभावना रहती है। जबकि पानी से नहा लेने से संक्रामक कीटाणु आदि पानी के साथ ही बह जाते हैं।
इसके साथ ही एक अन्य कारण भी तंत्र-शास्त्रों में बताया जाता है। शमशान भूमि पर लगातार ऐसा ही कार्य होते रहने से एक प्रकार की नकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह बन जाता है जो कमजोर मनोबल के इंसान को हानि पहुंचा सकता है। क्योंकि स्त्रियां अपेक्षाकृत पुरुषों के, कमजोर ह्रदय की होती हैं, इसलिये उन्हैं शमशान भूमि जाने से रोका जाता है। दाह संस्कार के पश्चात भी मृतआत्मा का सूक्ष्म शरीर कुछ समय तक वहां उपस्थित होता है, जो अपनी प्रकृति के अनुसार कोई हानिकारक प्रभाव भी डाल सकता है।

दुल्हन के लिए लाल रंग ही खास क्यों?

हिन्दू शादियों में दूल्हा-दुल्हन को काले कपड़े नहीं पहनने दिया जाते हैं क्योंकि हमारे यहां यह मान्यता है कि काला रंग अशुभ होता है। दुल्हन की हर चीज में लाल रंग को अधिक महत्व दिया जाता है। अधिकतर लोग इसे अंधविश्वास मानकर इस बात को नहीं मानते हैं क्योंकि आजकल अनेक रंगो के वेडिंग ड्रेस फैशन में है इसलिए आजकल शादी में दूल्हा- दुल्हन भी और उनके रिश्तेदार भी इस बात को अंधविश्वास मानकर टाल देते हैं।
लेकिन ज्योतिष के अनुसार भी शुभ कार्य शादी में लाल, पीले और गुलाबी रंगों को अधिक मान्यता दी जाती है क्योंकि लाल रंग सौभाग्य का प्रतीक माना गया है। इसके पीछे वैज्ञानिक तथ्य यह है कि लाल रंग ऊर्जा का स्तोत्र है। साथ ही लाल रंग सकारात्मक ऊर्जा का भी प्रतीक है। इसके विपरीत जब नीले, भूरे और काले रंगों की मनाही करते हैं क्योंकि ये रंग नैराश्य का प्रतीक है और ऐसी भावनाओं को शुभ कार्यो में नहीं आने देना चाहिए। जब पहले ही कोई नकारात्मक विचार मन में जन्म ले लेंगे तो रिश्ते का आधार मजबूत नहीं हो सकता। इसलिए शादी में दुल्हन के लिए लाल रंग खास माना गया है।

क्यों और क्या करें घर को बुरी नजर से बचाने के लिए?

कहते हैं बुरी नजर किसी भी व्यक्ति के जीवन को बुरी तरीके से प्रभावित करती है। इसीलिए लोग अपने घर को या अपने आप को बुरी नजर से बचाने के लिए कई उपाय करते हैं। वैसे तो सभी को अपना घर सुंदर और अच्छा लगता हैं परंतु कई बार दूसरों के घर भी ज्यादा सुंदर और आकर्षक लगते हैं। ऐसे में अधिकांश घरों पर काली मटकी लगी दिखाई देती है। यह मटकी क्यों लगाई जाती है?
काली मटकी लगाने के संबंध में ऐसी मान्यता है कि इसे लगाने से किसी की बुरी नजर आपके घर पर नहीं लगेगी। घर पर बुरी नजर लगने का मतलब घर में कुछ अमंगल हो सकता है, घर के किसी सदस्य के साथ कुछ अनहोनी हो सकती है। वहीं बुरी संभावनाओं से बचने के लिए घरों के बाहर काली मटकी लगाई जाती है।
बुरी नजर या ईष्र्या की भावना के साथ जब कोई आपके घर की ओर देखता है तो उस वक्त यह मटकी उस नजर को, उसके बुरे प्रभाव को अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। जिससे आपके घर पर होने वाला बुरा प्रभाव वहीं समाप्त हो जाता है।
क्यों नहीं करते राहुकाल में कोई शुभ काम?

धार्मिक कार्यों में कुश का उपयोग क्यों?

हिंदू धर्म में किए जाने वाले धार्मिक कर्म-कांडों में विशेष अवसरों पर कुश ( एक विशेष प्रकार की घास) का उपयोग किया जाता है। इसके अलावा कोई भी जप कुश के आसन पर बैठकर करने का ही विधान है। धार्मिक कर्म-कांड़ों में घास का उपयोग आखिर क्यों किया जाता है? इसके पीछे का कारण सिर्फ धार्मिक ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक भी है।
वैज्ञानिक शोधों से यह पता चला है कि कुश ऊर्जा का कुचालक है। जब कोई साधक कुश का आसन पर बैठकर जप करता है तो उस साधना से मिलने वाली ऊर्जा पृथ्वी में नहीं जा पाती क्योंकि कुश का आसन उसे पृथ्वी में जाने से रोक लेता है। यानि इस समय कुश अपने नैसर्गिक गुणों के कारण ऊर्जा के कुचालक की तरह व्यवहार करता है। यही सिद्धांत पूजा-पाठ व धार्मिक कर्म-कांड़ों में भी लागू होता है।
कुश के इसी गुण के कारण सूर्य व चंद्रग्रहण के समय इसे भोजन तथा पानी में डाल दिया जाता है जिससे ग्रहण के समय पृथ्वी पर आने वाली किरणें कुश से टकराकर परावर्तित हो जाती हैं तथा भोजन व पानी पर उन किरणों का विपरीत असर नहीं पड़ता।

क्यों नहीं करते राहुकाल में कोई शुभ काम?

भारतीय ज्योतिष में हर कार्य के लिए एक विशेष मुहूर्त निकाला जाता है। ऐसा मानते हैं कि शुभ मुहूर्त में किया गया कार्य सफल व शुभ होता है। लेकिन भारतीय ज्योतिष के अनुसार दिन में एक समय ऐसा भी आता है जब कोई शुभ कार्य नहीं किया जाता। वह समय होता है राहुकाल।
राहुकाल के बारे में ऐसा कहते हैं कि इस दौरान यदि कोई शुभ कार्य, लेन-देन, यात्रा या कोई नया काम शुरू किया जाए तो वह अशुभ फल देता है। यह बात पुरातन काल से ज्योतिषाचार्य हमें बता रहे हैं। लेकिन राहुकाल में ऐसा क्या होता है कि इसमें किए गए कार्य अशुभ या असफल होते हैं?
इसका पीछे का तर्क यह है कि ज्योतिष के अनुसार राहु को पाप ग्रह माना गया है। दिन में एक समय ऐसा आता है जब राहु का प्रभाव काफी बढ़ जाता है और उस दौरान यदि कोई भी शुभ कार्य किया जाए तो उस पर राहु का प्रभाव पड़ता है, जिसके कारण या तो वह कार्य अशुभ हो जाता है या उसमें असफलता हाथ लगती है। यही समय राहुकाल कहलाता है।

कब-कब होता है राहुकाल?
प्रत्येक दिन एक निश्चित समय राहुकाल होता है। यह डेढ़ घंटे का होता है। वारों के हिसाब से इसका समय इस प्रकार है-

सोमवार सुबह 7:30 से 9:00
मंगलवार दोपहर 3:00 से 4:30
बुधवार दोपहर 12:00 से 1:30
गुरुवार दोपहर 1:30 से 3:00
शुक्रवार सुबह 10:30 से 12:00
शनिवार सुबह 9:00 से 10:30
रविवार शाम 4:30 से 6:00

कहीं-कहीं दुर्योधन को पूजने की है अनोखी पंरपरा...
सामान्यत: देवी-देवताओं, अच्छाइयों के प्रतीक महान व्यक्तियों, गुरु, माता-पिता की पूजा-अर्चना की जाती हैं। इसके अतिरिक्त यदि किसी बुराई के प्रतीक की पूजा की जाए तब यह बात अवश्य ही आश्चर्यजनक है। क्या आप जानते हैं बुराई के प्रतीक महाभारत काल के मुख्य खलनायक धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन की आज भी पूजा की जाती है।
यह बात सुनने में जरूर अजीब है लेकिन यह सच है कि आज भी कुछ स्थानों पर हिंदू धर्म के सभी देवी-देवताओं की पूजा से पहले दुर्योधन को पूजा जाता है। महाभारत काल, एक ऐसा समय था जब धर्म और अधर्म का महासंग्राम हुआ। इस महायुद्ध में असंख्य लोगों ने अपने प्राणों की आहूति दी। दुर्योधन को कुरुक्षेत्र में हुए इस भीषण नरसंहार जिम्मेदार माना जाता है। दुर्योधन ने पूरे जीवन में कई ऐसे कृत्य किए जिन्हें अधर्म की श्रेणी में रखा जाता है। श्रीकृष्ण सहित सभी धर्म के ज्ञाता महात्माओं ने दुर्योधन को धर्म के पथ पर चलने की नीतियां समझाई लेकिन वह सभी असफल रहीं।
उस समय दुर्योधन धर्म के मार्ग पर चलने वाले सभी लोगों की घृणा का पात्र था। सभी उसके कृत्यों के कारण उसे आज भी बुराई का प्रतीक माना जाता है। इन्हीं कारणों से दुर्योधन को पूजनीय नहीं माना जाता लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनकी आस्था का केंद्र है दुर्योधन।
भारत के उत्तराखंड में स्थित है एक क्षेत्र, जहां दुर्योधन को पूजा जाता है। इस क्षेत्र को हर की दून के नाम से जाना जाता है। उत्तराखंड के गढ़वाल के टौन्स, यमुना, भागीरथी, बलंगाना एवं भीलंगान की ऊपरी घाटियों में दुर्योधन की पूजा की जाती है।
यहां के लोग दुर्योधन को भगवान मानते हैं। यहां मान्यता है कि दुर्योधन ही उनके जीवन की सभी परेशानियों को दूर करते हैं और मनोकामनाओं को पूर्ण करते हैं। इस क्षेत्र में पांडवों का नाम तक लेना पाप समझा जाता है। इसके अतिरिक्त केरल के एक जिले कोल्लम में भी दुर्योधन के भक्त हैं। यहां भी सभी देवताओं की पूजा से पहले दुर्योधन की पूजा करते हैं। उसके बाद वहां श्रीगणेश आदि देवताओं को पूजा जाता है।

प्रेम में पड़कर स्त्री सुन्दर क्यों हो जाती है?
यदि हम प्रेम में पड़ गये हो तो हमारा देखने का नजरीया बिलकुल बदल जायेगा और प्रेम में नहीं हो तो उस तरह से बिलकुल नहीं देख पाते है। एक साधारण स्त्री प्रेम के कारण अति सुन्दर हो जाती है। और वहीं व्यक्ति कुरूप् भी हो सकता है यदि हम धृणा से भरे हो। इंद्रिया भरोसे के योग्य नहीं होती है वे तो केवल एक उपकरण मात्र है।
फिर प्रत्यक्ष बोध क्या है? प्रत्यक्ष बोध केवल तब हो सकता है, जब कोई भी मधस्थ नही होता है। इन्द्रीयाँ भी नहीं होती है। महर्षि पतंजली कहते है तब वह सम्यक ज्ञान (प्रत्यक्ष बोध) होता है। यही बुनियादी श्रोत है सम्यक ज्ञान का। हम जब बिना किसी पर निर्भर हुए जो कुछ सीधे-सीधे जानते है वहीं प्रत्यक्ष बोध होता है। गहरे ध्यान में ही हम इन्द्रीयो का अतिक्रमण कर पाते है। तब प्रत्यक्ष बोध संभव हो पाता है।
जब बुद्ध अपने अंतरतम अस्तित्व को जानते है, वही अंतरतम सत्ता प्रत्यक्ष है। वही प्रत्यक्ष बोध है। उसमें इन्द्रिया भागीदार नहीं है। ज्ञाता और ज्ञात आमने-सामने हो जाते है। पहला सम्यक ज्ञान आंतरिक सत्ता का होता हैं। हम सारे संसार को जान सकत है लेकिन बिना स्वयं को जाने सब असंगत है।

प्रेम हसीन, तो घ्रणा कुरूप बनाती है
प्रेमी से नजर मिलते ही जाने क्या कुछ हो जाता है। प्रेम में पड़े प्रेमी और प्रेमिका दोनों में बड़ी ही तेजी से बहुत कुछ बदलने लगता है। देखते ही देखते चेहरे की चमक, चाल, बोलने का अंदाज और आंखों में जादुई असर तैरने लगता है।
प्रेम की भावना में पूरी तरह से बड़ी गहराई से डूबे होने से इंसान का नजरिया इस कदर बदल जाता है कि उसका असर उसके शरीर पर भी साफ-साफ दिखने लगता है। यह सब मन का खेल है। जैसे ही प्रेमी या प्रेमिका का नजरिया सकारात्मक होकर प्रेम की कोमल तथा समर्पण की भावनाओं से भरने लगता है वैसे ही उसका पूरा का पूरा व्यक्तित्व ही बदलने लगता है। सच्चे प्यार में डूबा हुआ व्यक्ति कई तरह से बदलने लगता है। देखने में पहले से ज्यादा सुंदर होने के साथ ही वह मिलनसार, मददगाद और व्यवहार कुशल भी होने लगता है।
प्रेम में पड़े व्यक्ति के बदलने के पीछे सबसे बड़ा कारण उसका बदला हुआ नजरिया ही होता है। यदि हम प्रेम में पड़ गये हो तो हमारा देखने का नजरिया बिलकुल बदल जायेगा और प्रेम में नहीं हो तो उस तरह से बिलकुल नहीं देख पाते है। एक साधारण स्त्री प्रेम के कारण अति सुन्दर हो जाती है। और वहीं व्यक्ति कुरूप् भी हो सकता है यदि हम घृणा से भरे हो।

क्यों किया जाता है फेरे लेने से पहले गठबंधन?
हिन्दू शादी में अनेक रिवाज निभाए जाते हैं। शादी में सबसे महत्वपूर्ण रस्म है अग्रि के सामने सात फेरे लेने की और उससे पहले दूल्हा-दुल्हन के गठबंधन की। दरअसल गठबंधन की रस्म के पीछे हमारे बड़े-बूढों की बहुत गहरी सोच छुपी है।विवाह संस्कार का प्रतीक गठबंधन है। विवाह के समय सात फेरे लेते समय दूल्हे के कंधे पर सफेद टुपट्टा रखकर दुल्हन के साड़ी के पल्लू से बांधा जाता है। यही गठबंधन है।
जिसका अर्थ यह है कि अब दोनों एक दूसरे से जीवन भर के लिए बंध गए। गठबंधन के समय वर के पल्ले में सिक्का, हल्दी, पुष्प, दुर्वा और चावल रखकर गांठ बांधी जाती है।जिसका अर्थ यह है कि धन पर किसी एक का पूर्ण अधिकार नहीं होगा बल्कि खर्च करने में दोनों की सहमति आवश्यक है। पुष्प फूल का अर्थ है कि दूल्हा-दुल्हन जीवन भर एक दूसरे को देखकर प्रसन्न रहें। हल्दी आरोग्यता का प्रतीक है। दुर्वा का अर्थ यह जानना चाहिए कि नव दम्पति जीवन भर कभी न मुरझाये बल्कि दुर्वा की तरह सदैव हरे भरे रहें और चावल का मतलब अन्न यह संदेश देता है कि परिवार और समाज के प्रति सेवाभाव रखें। घर में अन्न का भंडार भरा रहे और कभी कोई भुखा ना रहे।

क्या होता है पूजा में दीपक लगाने से?
हिन्दू धर्म के अनुसार हम जब भी पूजा करते हैं तो दीपक जरूर जलाते हैं। क्योंकि दीपक ज्ञान और रोशनी का प्रतीक है। पूजा में दीपक का विशेष महत्व है। आमतौर पर विषम संख्या में दीप प्रज्जवलित करने की परंपरा चली आ रही है। दरअसल दीपक जलाने का कारण यह है कि हम अज्ञान का अंधकार मिटाकर अपने जीवन में ज्ञान के प्रकाश के लिए पुरुषार्थ करें।
प्राय: दीपक एक, तीन, पांच और सात की विषम संख्या में ही जलाए जाते हैं ऐसा मानना है। विषम संख्या में दीपों से वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न होती है। दीपक जलाने से वातावरण शुद्ध होता है। दीपक में गाय के दुध से बना घी प्रयोग हो तो अच्छा अथवा अन्य घी या तेल का प्रयोग भी किया जा सकता है।
गाय के घी में रोगाणुओं को भगाने की क्षमता होती है। यह घी जब दीपक में अग्नि के संपर्क से वातावरण को पवित्र बना देता है। प्रदूषण दूर होता है। दीपक जलाने से पूरे घर को फायदा मिलता है। चाहे वह पूजा में सम्मिलित हो अथवा नहीं। दीप प्रज्जवलन घर को प्रदूषण मुक्त बनाने का एक क्रम है। दीपक में अग्नि का वास होता है। जो पृथ्वी पर सूरज का रूप है।

भगवान को प्रसाद क्यों चढ़ाते हैं?
हमारे हिन्दू धर्म में भगवान को प्रसाद चढ़ाने की यानी भोग लगाने की परंपरा है। अधिकांश लोग रोजाना विधि-विधान से भगवान की पूजा भले ना करें परंतु अपने घर में भगवान को प्रसाद जरूर चढ़ाते है। दरअसल इसके पीछे कारण यह है कि श्रीमद् भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो कोई भक्त प्रेमपूर्वक मुझे फूल, फल, अन्न, जल आदि अर्पण करता है। उसे मैं सगुण प्रकट होकर ग्रहण करता हूं।
भगवान की कृपा से जो जल और अन्न हमें प्राप्त होता है। उसे भगवान को अर्पित करना चाहिए और उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए ही भगवान को भोग लगाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि भोग लगाने के बाद ग्रहण किया गया अन्न दिव्य अन्न हो जाता है क्योंकि उसमें तुलसी दल होता है। भगवान को प्रसाद चढ़े और तुलसी दल न हो तो भोग अधूरा ही माना जाता है। तुलसी को परंपरा से भोग में रखा जाता है।
इसका एक कारण तुलसी दल का औषधीय गुण है। एकमात्र तुलसी में यह खूबी है कि इसका पत्ता रोगप्रतिरोधक होता है। यानि कि एंटीबायोटिक है। इस तरह तुलसी स्वास्थ्य देने वाली है। तुलसी का पौधा मलेरिया के कीटाणु नष्ट करता है। तुलसी के स्पर्श से भी रोग दूर होते हैं।
तुलसी पर किए गए प्रयोगों से सिद्ध हुआ है कि रक्तचाप और पाचनतंत्र के नियमन में तथा मानसिक रोगों में यह लाभकारी है। इसलिए भगवान को भोग लगाने के साथ ही उसमें तुलसी डालकर प्रसाद ग्रहण करने से भोजन अमृत रूप में शरीर तक पहुंचता है और ऐसी भी मान्यता है कि भगवान को प्रसाद चढ़ाने से घर में अन्न के भंडार हमेशा भरे रहते हैं और घर में कोई कमी नहीं आती है।

लड़कियां नोज पिन क्यों पहनती हैं?
आजकल नोज पिन या छोटी नथनी फैशन में है। वर्तमान पीढ़ी भले ही नाक छेदन परंपरा के कारण नहीं बल्कि फैशन के कारण करवाती हो।लेकिन नोजपिन या नथनी ट्रेडिशनल टच के साथ मार्डन लुक देकर खूबसूरत लड़कियों की सुन्दरता को और बढ़ा देती हैं।नाक की नथ उनकी सुंदरता की पूर्णता प्रदान करती है। सामान्यत: इन्हें सुंदरता की दृष्टि से ही देखा जाता है।
नाक छेदन हमारे शास्त्रों के अनुसार एक अनिवार्य परंपरा है। ऐसा उनकी शारीरिक संचरना को ध्यान में रखकर परंपरा से जोड़ा गया है। स्त्रियां शारीरिक रूप से काफी संवेदनशील होती हैं उन पर मौसम के छोटे-छोटे परिवर्तन का भी गहरा प्रभाव पड़ता है।
नाक की नथ उन्हें नासिका संबंधी रोगों से बचाती है, कफ, सर्दी-जुकाम आदि रोगों से लडऩे की शक्ति प्रदान करती है। नाक की नथ नाक की नसों के लिए एक्युपंक्चर का काम करती है और इससे शरीर में कई अन्य रोगों से लडऩे की शक्ति का संचार होता है।इसलिए लड़कियों के नाक छेदन को परंपरा बनाई गई है।

घोड़ी पर ही क्यों बैठाते है दूल्हे को?
दूल्हे को घोड़ी पर ही क्यों बैठाते हैं किसी और सवारी पर क्यों नहीं? पुराने समय में कई बार शादियों के समय लड़ाइयां लड़ी जाती थी... लड़ाई दुल्हन के लिए और दूल्हे द्वारा अपनी वीरता दिखाने के लिए। ग्रंथों में ऐसे कई प्रसंग आते हैं जब दूल्हे को दुल्हन के लिए रणभूमि में युद्ध करना पड़ा। श्रीराम और सीता के स्वयंवर के समय भी ऐसा प्रसंग हुआ था।
जब श्रीराम के गले में वरमाला डालने सीता जा रही थी तो वहां मौजूद सभी विरोधी राजाओं ने अपनी-अपनी तलवार निकाल ली थी और श्रीराम से युद्ध करने की तैयारी कर ली थी। परंतु परशुराम के आने के बाद सभी को ज्ञात हो गया कि श्रीराम से युद्ध साक्षात् मृत्यु से युद्ध होगा और वहां युद्ध टल गया। वहीं श्रीकृष्ण और रुकमणि के विवाह के समय भी युद्ध हुआ था। ऐसे कई प्रसंग हैं।
इन्हीं कारणों से दूल्हे को घोड़े पर बैठाने की परंपरा शुरू की गई। वैसे उस समय हाथी की सवारी भी चलन में थी परंतु घोड़ा वीरता और शौर्य का प्रतिक माना जाता है और युद्ध के मैदान में घोड़े की ही अहम भूमिका होती है। दूल्हे का रूप भी किसी रणवीर के समान रहता है उसकी भी यही वजह है। आधुनिक युग में जब स्वयंवर और लड़ाइयों से जैसी परंपरा बंद हो गई तब दूल्हे को बतौर शगुन घोड़ी पर बैठाना शुरू कर दिया।

सुबह उठते ही सबसे पहले क्या और क्यों करें?
हमारी हिन्दू संस्कृति कई मायनों में सभी से अलग है। पर कुछ अनुकरणीय बातें इसमें ऐसी भी हैं कि जो सभी धर्मों में समान रूप से मानी जाती हैं। ऐसी ही एक आदत है- सुबह सोकर उठते ही धरती को प्रणाम करना। क्यों किया जाता है ऐसा, वो भी धरती के लिए?दरअसल सभी धर्मों में धरती को मां समान पूजा जाता है।
इसके पीछे यह धारणा होती है कि जो धरती अन्न पैदा कर पूरे जीवन भर हमारा लालन-पोषण करती है, उसके प्रति हमारे दिल में श्रद्धा-भाव हमेशा बना रहे। धरती को भगवान का रूप माना जाता है। इसलिए भी वह हमारे लिए पूजनीय है। रात भर सोने से मनुष्य के शरीर में नकारात्मक शक्तियां हावी हो जाती हैं। जब सुबह हम धरती को प्रणाम करने के लिए झुकते हैं तो सारी नकारात्मक ऊर्जा धरती में समा जाती है।
वहीं शरीर में सकारात्मकता का संचार होता है। यह सकारात्मक ऊर्जा दिनभर शरीर को आलस्य से दूर रखती है और मन-मस्तिष्क को कर्म करने की प्रेरणा देती है। सुबह-सुबह उठते ही धरती को प्रणाम करना हमारी सांस्कृतिक विरासत की अग्रणी परंपरा है। इन्हीं सब कारणों से सुबह उठते ही धरती को प्रणाम किया जाता है।

शनिवार को पीपल की पूजा क्यों करनी चाहिए?
भारतीय संस्कृति में पीपल को देववृक्ष माना गया है, पीपल के पेड़ प्राचीन काल से ही भारतीय जनमानस में विशेष रूप से पूजनीय रहा है। कहते हैं कि पीपल के दर्शन-पूजन से दीर्घायु तथा समृद्धि प्राप्त होती है लेकिन क्या आप जानते हैं कि शनिवार को पीपल की पूजा का शास्त्रों में विशेष महत्व क्यों माना गया है?
दरअसल ऐसा माना गया है कि प्रत्येक शनिवार पीपल की सेवा करने से शनिदेव प्रसन्न होते हैं। शनिवार को पीपल वृक्ष के पूजन और सात परिक्रमा करने से तथा काले तिल डालकर सरसो तेल का दीपक को जलाकर छायादान से शनि की पीड़ा का शमन होता है। अथर्ववेदके उपवेद आयुर्वेद में पीपल के औषधीय गुणों का अनेक असाध्य रोगों में उपयोग बताया गया है।
शनिवार की अमावस्या में पीपल के पूजन से शनि के अशुभ प्रभाव सेमुक्ति प्राप्त होती है।श्रावण मास में अमावस्या की समाप्ति पर पीपल वृक्ष के नीचे शनिवार के दिन हनुमान की पूजा करने से बडे संकट से मुक्ति मिल जाती है। पीपल का वृक्ष ब्रह्मस्थानहै। इससे सात्विकता बढ़ती है। इसलिए पीपल के पेड़ की शनिवार के दिन पूजा करने से शनिदोष दूर होता है।

आपको पता है, नहाने से पहले खाना क्यों नहीं खाना चाहिए!
आपने अक्सर अपने घर के बुजुर्गों को यह कहते हुए सुना होगा कि नहाने से पहले खाना नहीं खाना चाहिए। हालांकि वर्तमान समय में इन बातों पर गौर नहीं किया जाता लेकिन इस तथ्य के पीछे न सिर्फ धार्मिक बल्कि वैज्ञानिक कारण भी हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार स्नान से शरीर के प्रत्येक भाग को नया जीवन प्राप्त होता है।
शरीर में पिछले दिन का एकत्र सभी प्रकार का मैल स्नान व मंजन से साफ हो जाता है तथा शरीर में एक नई ताजगी व स्फूर्ति आ जाती है, जिससे स्वाभाविक रूप से भूख लगती है। उस समय किए गए भोजन का रस हमारे शरीर के लिए पुष्टिवर्धक होता है।जबकि स्नान के पूर्व कुछ भी खाने से हमारी जठराग्नि उसे पचाने में लग जाती है।
स्नान करने पर शरीर शीतल हो जाता है जिससे पेट की पाचन शक्ति मंद हो जाती है। इसके कारण हमारा आंत्रशोध कमजोर होता है, कब्ज की शिकायत रहती है तथा अन्य कई प्रकार के रोग हो जाते हैं। इसलिए स्नान से पूर्व भोजन करना वर्जित माना गया है।आवश्यक हो तो गन्ने का रस, पानी, दूध, फल व औषधि स्नान से पूर्व ली जा सकती है क्योंकि इनमें जल की मात्रा अधिक होती है जिससे यह जल्दी पच जाते हैं।

बिल्ली रास्ता काट ले तो वापस क्यों लौट जाना चाहिए?
शकुन और अपशकुन की मान्यता हमारे यहां काफी पुराने समय से है। दैनिक जीवन में घटने वाली कुछ घटनाएं जैसे सुबह घर से ही निकलते गाय को देखना , किसी काम से जाने से पहले छींक हो जाना या बिल्लियों का रास्ता काट जाना, आदि ये कुछ घटनाएं है जिनका होना अपशकुन या शकुन माना जाता है। लेकिन बिल्ली का रास्ता काटना अपशकुन क्यों माना जाता है? ये बहुत कम लोग जानते है।
यदि दो बिल्लियां लड़ रही हों तो माना जाता है कि घर में कलह उत्पन्न होने वाला है। बिल्लियों का रोना घर में किसी के मरने की पूर्व सूचना देता है। साथ ही राहु की सवारी बिल्ला है। राहु एक अशुभ ग्रह है, जो सामान्यत: अच्छा प्रभाव नहीं देता है। राहु अगर किसी की कुंडली में ठीक नहीं हो तो उसे अक्सर चोट लगने का डर रहता है और वो व्यक्ति हमेशा परेशानियों से घिरा रहता है। इस कारण ऐसा माना जाता है कि अगर बिल्ली रास्ता काट जाए तो आपको सफर में चोट लगने या कुछ नुकसान होने की आशंका रहती है।
इसका मतलब यह है कि बिल्ली पूर्णत: अशुभ का सूचक है। इसके पीछे कारण यह भी माना जाता है कि बिल्ली को पूर्वाभास शक्ति होती है। इसलिए बिल्लियों को किसी भी अशुभ घटना का पहले ही आभास हो जाता है और वह उसके प्रति सचेत करने के लिए ही रास्ता काटती है। इसलिए अब जब भी बिल्ली आपका रास्ता काटे तो ये सोचकर कुछ देर जरूर रूक जाएं की बिल्ली का रास्ता काटकर आपको किसी अपशकुन के होने की सूचना दे रही है।

सुबह देर तक नहीं सोना चाहिए क्योंकि...
कहते हैं कि अच्छी नींद नसीबवालों को ही आती है। अच्छी नींद लेना अच्छी सेहत के लिए अति आवश्यक है, फिर चाहे वो पुरूष हो या महिला। लेकिन आजकल की भागदौड भरी जिंदगी में अच्छी नींद के मायने भी बदल गये हैं। क्योंकि आजकल अधिकतर लोग सुबह देर से उठते हैं और रात को देरी से सोते हैं।लेकिन यह हमारी परंपरा नहीं है। हमारे देश में पुराने समय से ही सुबह जल्दी उठने की परंपरा है। ऋषि मुनि और विद्वानों के अनुसार ब्रह्म मुहूर्त में उठने का विशेष महत्व बताया गया है। रात्रि के अंतिम प्रहर को ब्रह्म मुहूर्त कहते हैं।
उनके अनुसार यह समय नींद से उठने के लिए सर्वश्रेष्ठ है। ऐसा माना जाता है जल्दी उठने से सौंदर्य, बल, विद्या, बुद्धि और स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है।जल्दी उठने पीछे धार्मिक और वैज्ञानिक दोनों लाभ प्राप्त होते हैं। सुबह-सुबह का वातावरण हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक होता है। दिन में वाहनों से निकलने वाला धुआं वातावरण को प्रदूषित कर देता है जबकि सुबह यह वायु प्रदूषण भी नहीं होता और न ही ध्वनि प्रदूषण। यह हमारे शरीर और मन दोनों को फायदा पहुंचाने वाला है।
आयुर्वेद के अनुसार ब्रह्म मुहूर्त में उठकर टहलने से शरीर में अद्भूत शक्ति का संचार होता है। यही कारण है कि इस समय बहने वाली वायु अमृत के समान माना गया है। इसके अलावा यह समय अध्ययन के लिए भी सर्वोत्तम बताया गया है क्योंकि रात को आराम करने के बाद सुबह जब हम उठते हैं तो शरीर तथा मस्तिष्क में भी स्फूर्ति व ताजगी बनी रहती है। सभी धार्मिक कार्य ब्रह्म मुहूर्त में करने पर विशेष धर्म लाभ प्राप्त होता है।24 घंटे का एक दिन और इस एक दिन में हम कई कार्य करते हैं। पूरे दिन के कार्य के बाद रात तक सभी थकान महसूस करते हैं। इस थकान का हमारे स्वास्थ्य पर सीधा प्रभाव पड़ता है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए सही समय पर सोना और सही पर उठना बहुत जरूरी है। नींद से भी अधिक स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है। इसके विपरित सुबह लेट उठने से कब्ज की समस्या होती है। साथ ही तन व मन में स्फूर्ति नहीं रहती है और स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। मन व मस्तिष्क एकाग्र नहीं रहता है। चेहरा पर ताजगी नहीं रहती है। इसलिए सुबह लेट नहीं उठना चाहिए।

घर में सुगंधित धुआं क्यों करना चाहिए?
हमारे शास्त्रों में पूजन-अर्चन के लिए विभिन्न विधियां बताई गई हैं। इन्हीं विधियों का एक महत्वपूर्ण अंग है भगवान को अगरबत्ती लगाना या घर में लोबान,या गुगल जलाकर सुगंधित धुआं करना। भगवान को अगरबती लगाना या गुगल की धूप देना भी एक सामान्य व कम समय की पूजा ही है।
घर में सुगंधित धुंआ करने का धार्मिक महत्व यही है कि ईश्वर को याद करना और उनकी आराधना करना परंतु इसका कुछ और महत्व भी है। अगरबत्ती का सुगंधित धुआं घर के वातावरण को भी महका देता है।
पुराने समय में अगरबत्ती कई औषधियां को मिलाकर बनाई जाती थी।
साथ ही गुगल और लोबान में भी औषधीय गुण होते हैं। अगरबत्ती जलाने पर जो धुआं होता है, जिससे घर में फैले सूक्ष्म कीटाणु धुएं के प्रभाव से नष्ट हो जाए या घर से बाहर निकल जाए, ताकि वे कीटाणु हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित ना कर सके। साथ ही ऐसी भी मान्यता है कि घर में सुगंधित धुंआ करने से घर की नकारात्मक ऊर्जा खत्म होती है और घर सकारात्मक ऊर्जा से भर जाता है।

खड़े होकर खाना क्यों नहीं खाना चाहिए!
भोजन से ही हमारे शरीर को कार्य करने की ऊर्जा मिलती है। हमारे देश में हर छोटे से छोटे या बड़े से बड़े कार्य से जुड़ी कुछ परंपराए बनाई गई हैं।
वैसे ही भोजन करने से जुड़ी हुई भी कुछ मान्यताएं हैं। भोजन हमारे जीवन की सबसे आवश्यक जरुरतों में से एक है। खाना ही हमारे शरीर को जीने की शक्ति प्रदान करता है।हमारे पूर्वजो ने जो भी परंपरा बनाई थी उसके पीछे कोई गहरी सोच थी।
ऐसी ही एक परंपरा है खड़े होकर या कुर्सी पर बैठकर भोजन ना करने की क्योंकि ऐसा माना जाता है कि खड़े होकर भोजन करने से कब्ज की समस्या होती है। इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि जब हम खड़े होकर भोजन करते हैं तो उस समय हमारी आंते सिकुड़ जाती हैं। और भोजन ठीक से नहीं पच पाता है।
इसीलिए जमीन पर सुखासन में बैठकर खाना खाने की परंपरा बनाई गई। हम जमीन पर सुखासन अवस्था में बैठकर खाने से कई स्वास्थ्य संबंधी लाभ प्राप्त कर शरीर को ऊर्जावान और स्फूर्तिवान बना सकते हैं।
जमीन पर बैठकर खाना खाते समय हम एक विशेष योगासन की अवस्था में बैठते हैं, जिसे सुखासन कहा जाता है। सुखासन पद्मासन का एक रूप है। सुखासन से स्वास्थ्य संबंधी वे सभी लाभ प्राप्त होते हैं जो पद्मासन से प्राप्त होते हैं।बैठकर खाना खाने से हम अच्छे से खाना खा सकते हैं। इस आसन से मन की एकाग्रता बढ़ती है। जबकि इसके विपरित खड़े होकर भोजन करने से तो मन एकाग्र नहीं रहता है।इस तरह खाना खाने से मोटापा, अपच, कब्ज, एसीडीटी आदि पेट संबंधी बीमारियों होती हैं।

रामचरितमानस का पाठ क्यों किया जाता है?
रामचरितमानस को सामान्यत: तुलसी रामायण या तुलसी कृत रामायण भी कहा जाता है।सभी विद्वानों द्वारा श्रीराम की जीवनगाथा श्रीरामचरित मानस पढऩे की सलाह दी जाती है। श्रीरामचरित मानस में जीवन प्रबंधन से जुड़े अमूल्य सूत्र हैं। राम का जीवन इस बात की प्रेरणा देता है कि आप समाज में कैसे रहें?श्रीराम का संपूर्ण जीवन हमें आदर्श जीवन जीने के सूत्र ही बताता है।श्रीराम के चरित्र की कुछ ही बातों को जीवन में उतार लिया जाए तो कोई भी सामान्य व्यक्ति भी महान बन सकता है।
रामायण में वह सभी बातों का समावेश हैं जो हमें परिवार में रहना सिखाती हैं, समाज में रहना सिखाती है। रामायण का सरल रूप है गोस्वामी तुसलीदास द्वारा रचित श्रीरामचरित मानस।तुलसीदासजी ने श्रीरामचरित मानस को इतना सरल रूप में लिखा है कि आसानी से सभी को समझ आ जाती है। आज के युग में सभी को उच्च जीवन जीने के लिए सही मार्गदर्शन की आवश्यकता है।
बस यही मार्गदर्शन श्रीराम के जीवन से प्राप्त किया जा सकता है।जिस प्रकार श्रीराम पुत्र का कर्तव्य निभाते हैं ठीक उसी तरह आज सभी संतानों को अपने-अपने माता-पिता की हर बात को मानना चाहिए। जिस प्रकार उन्होंने पत्नी सीता के साथ जीवन बिताया वह इस बात की प्रेरणा देता है कि आज के युग में पति-पत्नी को किस प्रकार रहना चाहिए?
किसी भी विषम परिस्थिति में पति-पत्नी को एक-दूसरे का साथ बिल्कुल नहीं छोडऩा चाहिए तभी हर समस्या का हल आसानी से निकाला जा सकता है।वहीं श्रीरामचरित मानस में भाइयों में कैसा प्रेम रहना चाहिए भी बताया गया है। मित्रता के संबंध में रामायण में कई प्रसंग दिए गए है जो आदर्श मित्रता की मिसाल है। ऐसे ही हमारे जीवन से जुड़े हर रिश्ते की मर्यादा, अधिकार और कर्तव्य आदि सभी बातों की जानकारी के लिए हमें श्रीरामचरित मानस पढऩे की सलाह दी जाती है।

घर के मुख्यद्वार पर क्यों लगाते हैं शुभ चिन्ह?
किसी भी धार्मिक कार्यक्रम में या सामान्यत: किसी भी पूजा-अर्चना में घर के मुख्यद्वार पर या बाहर की दीवार स्वस्तिक का निशान बनाकर स्वस्ति वाचन करते हैं। स्वस्तिक श्रीगणेश का ही प्रतीक स्वरूप है। किसी भी पूजन कार्य का शुभारंभ बिना स्वस्तिक के नहीं किया जा सकता। चूंकि शास्त्रों के अनुसार श्री गणेश प्रथम पूजनीय हैं, अत: स्वस्तिक का पूजन करने का अर्थ यही है कि हम श्रीगणेश का पूजन कर उनसे विनती करते हैं कि हमारा पूजन कार्य सफल हो।
वास्तु शास्त्र के अनुसार घर के मुख्य द्वार पर श्रीगणेश का चित्र या स्वस्तिक बनाने से घर में हमेशा सुख-समृद्धि बनी रहती है। ऐसे घर में हमेशा गणेशजी कृपा रहती है और धन-धान्य की कमी नहीं होती। साथ ही स्वस्तिक धनात्मक ऊर्जा का भी प्रतीक है, इसे बनाने से हमारे आसपास से नकारात्मक ऊर्जा दूर हो जाती है। स्वस्तिक का चिन्ह वास्तु के अनुसार भी कार्य करता है, इसे घर के बाहर भी बनाया जाता है जिससे स्वस्तिक के प्रभाव से हमारे घर पर किसी की बुरी नजर नहीं लगती और घर में सकारात्मक वातावरण बना रहता है। इसी वजह से घर के मुख्य द्वार पर श्रीगणेश का छोटा चित्र लगाएं या स्वस्तिक या अपने धर्म के अनुसार कोई शुभ या मंगल चिन्ह लगाएं।

मरने की बाद अस्थियों को नदी में ही प्रवाहित करें, ऐसा क्यों?
हिंदू शास्त्रों के अनुसार जन्म-मृत्यु एक ऐसा चक्र है जो हमेशा चलता रहता है। जीवन है तो मृत्यु आएगी ही। जन्म से मृत्यु तक हमें कई कार्य करने होते हैं। प्राचीन समय से ही ऋषि-मुनियों और विद्वानों ने कई परंपराएं बनाई गई हैं जिनका पालन करना काफी हद तक अनिवार्य बताया गया है। हमारे जीवन के साथ-साथ मृत्यु के बाद की भी हमसे जुड़ी कुछ परंपराएं होती हैं जिनका पालन हमारे परिवार वालों को करना पड़ता है।
ऐसी ही एक परंपरा है मरे हुए व्यक्ति की अस्थियां नदी में प्रवाहित करने की क्योंकि हमारे हिन्दू धर्म में मरने के बाद व्यक्ति का अंतिमसंस्कार अग्रि में किया जाता है। उसके बाद अस्थियों को नदी में प्रवाहित किया जाता है। इसका धार्मिक कारण तो यह है कि हमारे शास्त्रों में माना गया है कि अस्थियों को जल में प्रवाहित करने से मरने वाले व्यक्ति की आत्मा को शांति मिलती है क्योंकि हमारा यह शरीर पंच तत्वों से बना माना गया है और अग्रि में दाह संस्कार होने के बाद बाकि चार तत्व में तो हमारा शरीर परिवर्तित हो ही जाता है साथ ही पांचवे तत्व जल मेंअस्थियां प्रवाहित करने के बाद शरीर पंच तत्व में विलीन हो जाता है।
जबकि पुराने समय में यह परंपरा अपनाए जाने का वैज्ञानिक कारण यह था कि अस्थियों में फास्फोरस बहुत ज्यादा मात्रा में होता है।जो खाद के रूप में भूमि को उपजाऊ बनाने में सहायक है। साथ ही नदियों को हमारे देश में बहुत पवित्र माना जाता है और हमारे देश का एक बड़ा भू-भाग नदी के रूप में है और अधिकांश भागों में नदी के जल से ही सिंचाई होती है। इसलिए जल में अस्थियां प्रवाहित करने से कृषि में फायदा होगा इसी दृष्टिकोण से इस परंपरा की शुरूआत की गई।

क्या आप जानते हैं, मृतक का सिर दक्षिण दिशा की ओर ही क्यों रखना चाहिए!
कहते हैं कि सोते समय सिर दक्षिण में और पैर उत्तर दिशा की ओर होने चाहिए क्योंकि साधारण चुंबक शरीर से बांधने पर वह हमारे शरीर के ऊत्तकों पर विपरीत प्रभाव डालता है । इसी सिद्धांत पर यह निष्कर्ष भी निकाला गया कि अगर साधारण चुंबक हमारे शरीर पर विपरीत प्रभाव डाल सकता है तो उत्तरी पोल पर प्राकृतिक चुम्बक भी हमारे मन, मस्तिष्क व संपूर्ण शरीर पर विपरीत असर डालता है लेकिन मृतक का सिर हमेशा उत्तर दिशा की ओर रखा जाता है।
हमारे यहां मृत्यु से जुड़ी अनेक परंपराए हैं।इन्हीं परंपराओं में से एक परंपरा है मौत के बाद मृतक का सिर उत्तर दिशा की ओर रखने की।इस परंपरा को निभाते तो अधिकांश लोग हैं लेकिन बहुत कम लोग ये जानते हैं कि मृतक का सिर उत्तर दिशा की ओर ही क्यों रखना चाहिए? दरअसल आत्मा नश्वर है और शरीर नष्ट होने वाला है। जिस प्रकार हम कपड़े बदलते हैं उसी प्रकार आत्मा शरीर बदलती है।
शरीर का अंत मृत्यु के साथ ही हो जाता है। मृतक का सिर उत्तर की ओर करके इसलिए रखते हैं कि प्राणों का उत्सर्ग दशम द्वार से हो। चुम्बकीय विद्युत प्रवाह की दिशा दक्षिण से उत्तर की ओर होती है। कहते हैं मरने के बाद भी कुछ क्षणों तक प्राण मस्तिष्क में रहते हैं। अत: उत्तर दिशा में सिर करने से ध्रुवाकर्षण के कारण प्राण शीघ्र निकल जाते हैं। जीव के प्राण शीघ्र ही मुक्त हो जाते हैं। इसलिए मृतक को हमेशा उत्तर दिशा की ओर होना चाहिए।

फेरों में दुल्हन को दूल्हे की बांयी तरफ ही क्यों बैठाते हैं!
हमारे यहां शादी से जुड़ी कई मान्यताएं व रिति- रिवाज हैं ऐसा ही एक रिवाज है फेरों में दुल्हन को दूल्हे की बांयी ओर बैठाने का। इसलिए दुल्हन को दुल्हे की वामांगी भी कहा जाता है। कहते हैं पत्नी, पति का आधा अंग होती है यानी अर्धांगिनी होती है।
दोनों में कोई भेद नहीं होता। पर जहां तक धार्मिक अनुष्ठानों का सवाल है, पत्नी को हमेशा पति के बायीं ओर ही बैठाया जाता है।दरअसल इसके पीछे कारण यह है कि शरीर विज्ञान और ज्योतिष ने पुरुष के दाएं और महिलाओं के बाएं हिस्से को शुभ माना है।
हस्त ज्योतिष में भी महिलाओं का बायां हाथ ही देखा जाता है। मनुष्य के शरीर का बायां हिस्सा खास तौर पर मस्तिष्क रचनात्मकता का प्रतीक माना जाता है। दायां हिस्सा कर्म प्रधान होता है।
हमारा मस्तिष्क भी दो हिस्सों में बंटा होता है दायां हिस्सा कर्म प्रधान और बायां कला प्रधान। महिलाओं को पुरुषों के बायीं ओर बैठाने के पीछे भी यही कारण है।
स्त्री का स्वभाव सामान्यत: वात्सल्य का होता है और किसी भी कार्य में रचनात्मकता तभी आ सकती है जब उसमें स्नेह का भाव हो। दायीं ओर पुरुष होता है जो किसी शुभ कर्म या पूजा में कर्म के प्रति दृढ़ता के लिए होता है, बायीं ओर पत्नी होती है जो रचनात्मकता देती है, स्नेह लाती है। जब कोई कर्म दृढ़ता और रचनात्मकता के साथ किया जाए तो उसमें सफलता मिलनी तय है। यही कारण है कि फेरों की रस्म में दुल्हन को दूल्हे की बांयी ओर बैठाया जाता है।

बच्चों के मुंडन की परंपरा क्यों बनाई गई?
जन्म से लेकर मृत्यु तक के सोलह संस्कार हमारे हिन्दू धर्म में अनिवार्य माने गए हैं। सोलह संस्कारों में से ही एक है मुंडन। हिंदू धर्म पद्धतियों में मुंडन संस्कार एक महत्वपूर्ण परंपरा है। बच्चों का मुंडन, किसी रिश्तेदार की मृत्यु के समय मुंडन। आखिर मुंडन कराने से क्या लाभ होता है। क्यों इन्हें संस्कारों में शामिल किया गया है। वास्तव में मुंडन संस्कार सीधे हमारे स्वास्थ्य से जुड़ा है।
इसके लिए इस परंपरा के पीछे छिपे विज्ञान को समझना होगा। जन्म के बाद बच्चे का मुंडन किया जाता है, इसके पीछे मुख्य कारण है जब बच्च मां के गर्भ में होता है तो उसके सिर के बालों में बहुत से कीटाणु, बैक्टिरिया और जीवाणु लगे होते हैं जो साधारण तरह से धोने से नहीं निकल सकते। इसके लिए एक बार बच्चे का मुंडन जरूरी होता है। इसलिए जन्म के एक साल के भीतर बच्चे का मुंडन कराया जाता है।
कुछ ऐसा ही कारण मृत्यु के समय मुंडन का भी होता है। जब पार्थिव देह को जलाया जाता है तो उसमें से भी कुछ ऐसे ही जीवाणु हमारे शरीर पर चिपक जाते हैं। नदी में स्नान और धूप में बैठने का भी इसीलिए महत्व है। सिर में चिपके इन जीवाणुओं को पूरी तरह निकालने के लिए ही मुंडन कराया जाता है।

जलती होली में क्यों डालना चाहिए धान!
होली यानी रंगों का त्यौहार हमारे देश की सबसे अनोखी परंपराओं में से एक है। जिन्दगी को रंगों से भर देने वाले इस त्यौहार का हमारे देश में धार्मिक महत्व भी बहुत अधिक है। इस दिन से जुड़ी हमारे यहां अनेक लोक परंपराएं है। ऐसी ही एक परंपरा है होलिका का पूजन कर जलती होली में अन्न या धान डालने की।
दरअसल इस परंपरा का कारण हमारे देश का कृषि प्रधान होना है। होलिका के समय खेतों में गेहूं और चने की फसल आती है। ऐसा माना जाता है कि इस फसल के धान के कुछ भाग को होलिका में अर्पित करने पर यह धान सीधा नैवैद्य के रूप में भगवान तक पहुंचता है। होलिका में भगवान को याद करके डाली गई हर एक आहूति को हवन में अर्पित की गई आहूति के समान माना जाता है।
साथ ही ऐसी मान्यता है कि इस तरह से नई फसल के धान को भगवान को नैवैद्य रूप में चढ़ा कर और फिर उसे घर में लाने से घर हमेशा धन-धान्य से भरा रहता है। इसलिए होलिका में धान डालने की परंपरा बनाई गई। आज भी हमारे देश के कई क्षेत्रों में इस परंपरा का अनिवार्य रूप से निर्वाह किया जाता है।

होलिका जलाने का वैज्ञानिक महत्व क्या है?

होली का पर्व यानी उल्लास, उमंग और रंगों का त्यौहार लेकिन रंगों से होली खेलने से एक दिन पहले हमारे यहां होलिका दहन की परंपरा भी है। होलिका दहन की परंपरा कोई अंधविश्वास नहीं है बल्कि इसका वैज्ञानिक कारण भी है।होलिका दहन पर्व पूर्ण रूप से वैज्ञानिकता पर आधारित है। ठंड का मौसम खत्म होता है। गर्मी के मौसम की शुरूआत होती है।
मौसम बदलने के कारण अनेक प्रकार के संक्रामक रोगों का शरीर पर आक्रमण होता है। इन संक्रामक रोगों को वायुमंडल में ही भस्म कर देने का यह सामूहिक अभियान होलिका दहन है। पूरे देश में रात्रि काल में एक ही दिन होली जलाने से वायुमण्डलीय कीटाणु जलकर भस्म हो जाते हैं। यदि एक जगह से ये उड़कर कीटाणु दूसरी जगह जाना भी चाहे तो उन्हें स्थान नहीं मिलेगा।
आग की गर्मी से कीटाणु भस्म हो जाएंगे। साथ ही जलती होलिका के चारो और परिक्रमा करने से एक सौ चालीस फेरेनहाइट गर्मी शरीर में प्रवेश कर जाती है। उसके बाद यदि रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणु हम पर आक्रमण करते हैं तो उनका प्रभाव हम पर नहीं होता बल्कि हमारे अंदर आ चुकी उष्णता से वे स्वयं नष्ट हो जाते है।

किचन में चप्पल नहीं पहनना चाहिए क्योंकि...

प्राचीन काल से ही ऋषि-मुनियों और विद्वानों द्वारा किचन में चरण पादुकाएं अर्थात् जूते-चप्पल नहीं पहनने की बात कही गई है। किचन में जूते-चप्पल नहीं पहनना चाहिए इसकी वजह यह है कि जब हम कहीं बाहर से घर आते हैं तब जूते-चप्पल के साथ गंदगी में आती है।
ऐसे में यदि हम वही जूते-चप्पल घर में लेकर जाते हैं तो वह गंदगी किचन में फैलती है। जो कि परिवार के सदस्यों के लिए भी स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक होती है। इस गंदगी में कई प्रकार के बीमारियां फैलाने वाले कीटाणु रहते हैं।
इस वजह से भी घर में जूते-चप्पल पहनना उचित नहीं है।साथ ही इस बात के पीछे धार्मिक कारण भी है। किचन में खाना बनता है जिसका नैवैद्य भगवान को लगता है। कहते हैं किचन में अन्नपूर्णा देवी भी निवास करती हैं। ऐसे में यदि हम जूते-चप्पल पहनकर किचन में घुमते हैं तो भगवान का भी अपमान होता है। वैसे तो आजकल सभी अपने-अपने घरों में परमात्मा के लिए अलग कक्ष बनवाते हैं।
इसलिए किचन में नंगे पैर ही रहना चाहिए इससे घर की पवित्रता बनी रहती है और ऐसे परिवार में देवी-देवता भी स्थाई रूप से निवास करते हैं। भगवान की कृपा से उस घर में किसी भी प्रकार धन, सुख-समृद्धि की कोई कमी नहीं रहती। इन कारणों से किचन में जूते-चप्पल नहीं पहनना चाहिए।

पूजा में पीले रंग के कपड़े क्यों पहनना चाहिए?
हमारे यहां हर धार्मिक कार्य से जुड़ी अनेक मान्यताएं है। किसी भी धार्मिक कार्य का शुभारंभ करने से पहले हमारे देश में उससे जुड़ी परंपराओं का विशेष ध्यान रखा जाता है। भगवान की पूजा-आराधना में हिन्दू धर्म में पीले या केसरिया कपड़े पहनना शुभ माना जाता हैं।सामान्यत: यह बात सभी जानते हैं कि पूजा में काले कपड़े नहीं पहनना चाहिए। यदि पीले या केसरिया कपड़े पहने जाएं तो उसे बहुत शुभ माना जाता है। परंतु ऐसी मान्यता क्यों है,और इसकी क्या वजह है?
दरअसल अगर ज्योतिष के दृष्टिकोण से देखा जाए तो पीले रंग को गुरु का रंग माना जाता है। ज्योतिष के अनुसार गुरु ग्रह आध्यात्मिक और धर्म का कारक ग्रह है। ऐसा माना जाता है कि पूजा में पीले रंग के कपड़े पहनने से मन स्थिर रहता है और मन में अच्छे विचार आते हैं।
साथ ही पीले व केसरिया रंग को अग्रि का प्रतीक माना जाता है। अग्रि को हमारे धर्म ग्रंथों में बहुत पवित्र माना गया है। इसलिए ऐसी मान्यता है कि पीला रंग पहनने से मन में पवित्र विचार आते हैं। काले रंग को देखकर मन में नकारात्मक भावनाएं आती हैं। इसके विपरीत पीले रंग को देखकर मन में सकारात्मक भाव आते हैं। इसलिए पूजा में पीले कपड़े पहनना चाहिए।

दोपहर के समय पूजा नहीं करना चाहिए क्योंकि....
कहते हैं सुबह जल्दी भगवान की पूजा करने से मन को शांति मिलती है। जबकि देर से उठने पर दिनभर आलस्य बना रहता है। सुबह जल्दी जागना, स्नान, पूजन आदि का सनातन धर्म में बहुत महत्व है। ऐसा माना जाता है कि दिन के पहले प्रहर में उठकर साधना करना श्रेष्ठ होता है, ऐसी प्राचीन मान्यता है। ब्रह्म मुहूर्त यानी सुबह 3 से 4 के बीच का समय। यह दिन की शुरुआत होती है।
हमारे ऋषि-मुनियों ने इस मुहूर्त में ही जागने की परंपरा स्थापित की है। यह हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक है और आध्यात्मिक शांति के लिए भी। सूर्योदय के पूर्व का और रात का अंतिम समय होने से ठंडक भी होती है। नींद से जागने पर ताजगी रहती है और मन एकाग्र करने में अधिक प्रयास नहीं करने पड़ते।
इसके विपरीत दोपहर में पूजा इसलिए नहीं करनी चाहिए क्योंकि हमारे यहां ऐसी मान्यता है कि दोपहर का समय भगवान के विश्राम का समय होता है। इसलिए उस समय मंदिर के पट बंद हो जाते हैं। साथ ही सुबह बारह बजे के बाद पूजन का पूरा फल प्राप्त नहीं होता है क्योंकि दोपहर के समय पूजा में मन पूरी तरह एकाग्र नहीं होता है। इसलिए सुबह की गई पूजा का ज्यादा महत्व माना गया है।

घर से निकलने से पहले दही क्यों खाते हैं?
कहा जाता है कि किसी भी कार्य को करने से पहले मुंह मीठा करना चाहिए, कोई मिठाई या दही, शकर खाना चाहिए। यह परंपरा पुराने समय से ही चली आ रही है। आज भी कई लोग घर से निकलने के पूर्व थोड़ा सा दही खाते हैं। हिन्दू धर्म में दही को पांच अमृत में से एक माना गया है। ऐसी मान्यता है कि यदि हमारा मन किसी दुखी करने वाली बात में उलझा हुआ है और हम दही खा लेते हैं तो तुरंत ही मन प्रसन्न हो जाता है। दही खाने के बाद हम किसी भी कार्य को ज्यादा अच्छे से कर सकते हैं।
ज्योतिष के अनुसार सफेद रंग को चंद्र का कारक माना जाता है और चन्द्र को मन का कारक माना जाता है। ज्योतिषीय मान्यता के अनुसार कोई भी सफेद चीज खाकर घर से बाहर किसी काम के लिए जाने पर मन एकाग्रता से उस कार्य में लगता है। साथ ही घर से निकलते समय दही खाने से हमारे सभी नकारात्मक विचार समाप्त हो जाते हैं और हमारे अंदर सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।
कुछ लोग दही और शकर खाकर किसी भी शुभ कार्य की शुरूआत करते हैं। दही में खटास होती है और शकर में मिठास। इस खट्टे-मीठे स्वाद से हमारा मन तुरंत ही दूसरे सभी बुरे विचारों से हट जाता है। मीठा खाने से रक्त संचार बढ़ जाता है। एनर्जी मिलती है। इसलिए शुभ कार्य के पहले दही और शक्कर खाना चाहिए ।

सुबह ध्यान क्यों करना चाहिए?
किसी भी व्यक्ति से मिलते समय आपका व्यक्तित्व ही सामने वाले व्यक्ति पर अच्छा-बुरा प्रभाव डालता है। इसी वजह से आज सभी आकर्षक व्यक्तित्व बनाने के लिए कई प्रकार के प्रयत्न करते हैं। अष्टांग योग के विद्वानों के अनुसार ध्यान से हम खुद को निखार सकते हैं। सुबह के समय हमारा शरीर और मन दोनों स्फूर्ति भरे होते हैं। ताजगी का एहसास होता है और दिमाग में किसी प्रकार का दबाव नहीं होता। सुबह ध्यान करने से किसी तरह की बातें और विचार हमारे दिमाग में दिनभर नहीं चलते हैं, जिससे हमारे स्वास्थ्य और व्यवहार दोनों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
पूजन के बाद या सवेरे जल्दी उठकर ध्यान करने का बड़ा महत्व है। मंदिर में दर्शन के बाद थोड़ी देर बैठने का जो नियम है वह ध्यान के लिए ही होता है।ध्यान अपनी-अपनी रुचि के अनुसार किसी का भी किया जा सकता है। जैसे दीपक की लौ, कोई बिंदू, ईश्वर के रूप आदि। महत्व - सभी धर्मों की पूजा पद्धतियों और धर्म ग्रंथों में ध्यान को बहुत महत्व दिया गया है। ध्यान से मन, बुद्धि, चित्त, स्थिर होता है, तथा शरीर में ऊर्जा का निर्माण होता है। दिमाग की सारी शक्ति एक लक्ष्य पर केंद्रित हो जाती है, तथा दिनभर ध्यान करने वाला व्यक्ति अपने लक्ष्य से नहीं भटकता। योग साधना में भी ध्यान का सातवां स्थान है। ध्यान का वैज्ञानिक महत्व - विचार शक्ति मनुष्य के पास एक अत्यंत महत्वपूर्ण शक्ति है। यदि मनुष्य अपने विचारों पर नियंत्रण कर सके तो वह असंभव को भी संभव में बदल सकता है। मनुष्य अपनी विचार शक्ति का अधिकांश भाग व्यर्थ की अनावश्यक कल्पनाओं में खर्च करता रहता है।
यदि मनुष्य ध्यान के माध्यम से विचारों पर नियंत्रण कर उसे अपने सार्थक और निश्चित लक्ष्य पर लगाए तो उसका हर कार्य सुगमता पूर्वक संपन्न हो जाता है। अत: ध्यान एक ऐसी अद्भूत वैज्ञानिक विधा है। जो मनुष्य को विचार शक्ति का सदुपयोग करना एवं एकाग्रता सिखाता है। वहीं अगर हम दिन या शाम के वक्त ध्यान करते हैं तो वैसा प्रभाव नहीं बना पाती, इसका मुख्य कारण है कि दिन में हम कामकाज में व्यस्त रहते हैं और इसी चिंता और कई तरह की बातें हमारे दिमाग में चलती रहती हैं, इस कारण ध्यान का हमको वैसा लाभ नहीं मिल पाता जितना मिलना चाहिए।

घर के पूर्वजों की पूजा भगवान के साथ नहीं करना चाहिए क्योंकि....
हमारे हिन्दू धर्म में मृत पूर्वजों को पितृ माना जाता है। पितृ को पूज्यनीय माना जाता है। यहां पितृ की तिथि पर उनके आत्मा की शांति के लिए विभिन्न तरह का दान करते हैं। लेकिन ऐसा माना जाता है कि आपके घर के मंदिर में भगवान की ही मूर्तियां और तस्वीरें हों, उनके साथ किसी मृतात्मा का चित्र न लगाया जाए। साथ ही भगवान के साथ पितृ की पूजा नहीं करना चाहिए।
इसके पीछे कारण है सकारात्मक-नकारात्मक ऊर्जा और अध्यात्म में हमारी एकाग्रता का। मृतात्माओं से हम भावनात्मक रूप से जुड़े होते हैं। उनके चले जाने से हमें एक खालीपन का एहसास होता है। मंदिर में इनकी तस्वीर होने से हमारी एकाग्रता भंग हो सकती है और भगवान की पूजा के समय यह भी संभव है कि हमारा सारा ध्यान उन्हीं मृत रिश्तेदारों की ओर हो। इस बात का घर के वातावरण पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
हम पूजा में बैठते समय पूरी एकाग्रता लाने की कोशिश करते हैं ताकि पूजा का अधिकतम प्रभाव हो। ऐसे में मृतात्माओं की ओर ध्यान जाने से हम उस दु:खद घड़ी में खो जाते हैं जिसमें हमने अपने प्रियजनों को खोया था। हमारी मन:स्थिति नकारात्मक भावों से भर जाती है।

गणेशजी को मोदक का भोग क्यों लगाना चाहिए?
श्रीगणेशजी को मोदकप्रिय कहा जाता है। वे अपने एक हाथ में मोदक पूर्ण पात्र रखते है। मोदक को महाबुद्धि का प्रतीक बताया गया है। शास्त्रों के अनुसार पार्वती देवी को देवताओं ने अमृत से तैयार किया हुआ एक दिव्य मोदक दिया।
मोदक देखकर दोनों बालक (स्कन्द तथा गणेश) माता से माँगने लगे। तब माता ने मोदक के प्रभावों का वर्णन कर कहा कि तुममें से जो धर्माचरण के द्वारा श्रेष्ठता प्राप्त करके आयेगा, उसी को मैं यह मोदक दूँगी।
माता की ऐसी बात सुनकर स्कन्द मयूर पर पर बैठकर कुछ ही क्षणों में सब तीर्थों का स्नान कर लिया। इधर लम्बोदरधारी गणेशजी माता-पिता की परिक्रमा करके पिताजी के सम्मुख खड़े हो गये। तब पार्वतीजी ने कहा- समस्त तीर्थों में किया हुआ स्नान, सम्पूर्ण देवताओं को किया हुआ नमस्कार, सब यज्ञों का अनुष्ठान तथा सब प्रकार के व्रत, मन्त्र, योग और संयम का पालन- ये सभी साधन माता-पिता के पूजन के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं हो सकते।
इसलिये यह गणेश सैकड़ों पुत्रों और सैकड़ों गणों से भी बढ़कर है। अत: देवताओं का बनाया हुआ यह मोदक मैं गणेश को ही अर्पण करती हूँ। माता-पिता की भक्ति के कारण ही इसकी प्रत्येक यज्ञ में सबसे पहले पूजा होगी। तत्पश्चात् महादेवजी बोले- इस गणेश के ही अग्रपूजन से सम्पूर्ण देवता प्रसन्न हों।
गणपत्यथर्वशीर्ष के अनुसार यो दूर्वाकुंरैर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति। यो लाजैर्यजति स यशोवान् भवति, स मेधावान् भवति। यो मोदकसहस्त्रेण यजति स वांछितफलमवाप्नोति।
मतलब जो गणेश जी को दूर्वा चढ़ाता है, वह कुबेर के समान हो जाता है। जो धान अर्पित करता है, वह यशस्वी होता है, मेधावान् होता है। जो मोदकों द्वारा उनकी उपासना करता है, वह मनोवांछित फल प्राप्त करता है। श्री गणपति के अर्थवशीर्ष के इस श्लोक से गणेश जी की मोदकप्रियता की पुष्टि होती है।गणेशजी को मोदक यानी लड्डू बहुत प्रिय हैं। इनके बिना गणेशजी की पूजा अधूरी ही मानी जाती है।

शादी के पहले गुण मिलान क्यों करना चाहिए?
कहते है शादी वह बंधन है जिसके माध्यम से सिर्फ दो दिलों का मिलन नहीं होता है बल्कि दो परिवारों का मिलन होता है। इस रस्म के बाद वर-वधू सहित दोनों के परिवारों का जीवन पूरी तरह बदल जाता है। इसलिए विवाह के संबंध में कई महत्वपूर्ण सावधानियां रखना जरूरी है। विवाह के बाद वर-वधू का जीवन सुखी और खुशियोंभरा हो यही कामना की जाती है।
वर-वधू का जीवन सुखी बना रहे इसके लिए विवाह पूर्व लड़के और लड़की की गुणों का मिलान कराया जाता है। किसी विशेषज्ञ ज्योतिषी द्वारा भावी दंपत्ति की कुंडलियों से दोनों के गुण और दोष मिलाए जाते हैं। गुण मिलान करते समय वर-वधु के छत्तीस गुण होते हैं। छत्तीस में से कम से कम अठारह गुणों का मिलना जरू री होता है। ये गुण क्रमश: वर्ण, वश्य, तारा, योनी, गृहमैत्री, गण, भृकुट, नाड़ी है।
इनमें से वर्ण से दोनों के बीच का अहम भाव, वश्य से दोनों के बीच का आकर्षण, तारा से स्वास्थ्य, योनी से संतुष्टि, गृह मैत्री से आध्यात्मिता व बौद्धिक स्तर, गण स्वभाव, भृकुट से पारिवारिक मेलजोल और नाड़ी स्वास्थ्य देखा जाता है। साथ ही दोनों की पत्रिका में ग्रहों की स्थिति को देखते हुए इनका वैवाहिक जीवन कैसा रहेगा? यह भी सटिक अंदाजा लगाया जाता है। यदि दोनों की कुंडलियां के आधार इनका जीवन सुखी प्रतीत होता है तभी ज्योतिषी विवाह करने की बात कहता है।
ज्योतिषी मान्यता है यदि दोनों में से किसी की भी कुंडली में कोई दोष हो या गुण मिलान नहीं हो तो इस वजह से इनका जीवन सुख-शांति वाला नहीं रहेगा, ऐसा प्रतीत होता है तो ऐसा विवाह नहीं कराया जाना चाहिए।
गुण के सही अध्ययन से किसी भी व्यक्ति के सभी गुण-दोष जाने जा सकते हैं। कुंडली में स्थित ग्रहों के आधार पर ही हमारा व्यवहार, आचार-विचार आदि निर्मित होते हैं। उनके भविष्य से जुड़ी बातों की जानकारी प्राप्त की जाती है। कुंडली से ही पता लगाया जाता है कि वर-वधू दोनों भविष्य में एक-दूसरे की सफलता के लिए सहयोगी सिद्ध या नहीं।

आप जानते हैं कब और क्यों नहीं कटवाना चाहिए बाल!
हमारे यहां रोजमर्रा के कार्यो से जुड़ी भी अनेक परंपराएं हैं। जैसे स्नान के बाद ही पूजा करना, खाने के पहले नहाना, ग्यारस को चावल नहीं खाना, मंगलवार, गुरुवार और शनिवार को बाल नहीं कटवाना आदि ऐसी ही एक बेहद महत्वपूर्ण और अनिवार्य परंपराओं व नियमों में बाल कटवाने के विषय में भी स्पष्ट संकेत प्राप्त होते हैं।
आज भी हम घर के बड़े और बुजुर्गों को यह कहते हुए सुनते हैं कि, शनिवार, मंगलवार और गुरुवार के दिन बाल नहीं काटवाना चाहिए। पर आखिर ऐसा क्यों? जब हम अंतरिक्ष विज्ञान और ज्योतिष की प्राचीन और प्रामाणिक पुस्तकों का अध्ययन करें तो इन प्रश्रों का बड़ा ही स्पष्ट वैज्ञानिक समाधान प्राप्त होता है।
विज्ञान के अनुसार सप्ताह में कुछ ऐसे दिन बताए गए हैं जब ग्रहों से ऐसी किरणें निकलती है जो हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। शनिवार, मंगलवार और गुरुवार को निकलने वाली इन किरणों का सीधा प्रभाव हमारे सिर पर पड़ता है। हमारे शरीर का सबसे महत्वपूर्ण भाग मस्तिष्क ही है, सिर का मध्य भाग अति संवेदनशील और बहुत ही कोमल होता है। जिसकी सुरक्षा बालों से होती है। इसी वजह से इन दिनों में बालों को नहीं कटवाना चाहिए।
शास्त्रों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि मंगलवार को बाल कटाने से हमारी आयु आठ माह कम हो जाती है। गुरुवार देवी लक्ष्मी का दिन माना जाता है अत: इस दिन बाल कटवाने से धन की कमी होने की संभावनाएं रहती हैं। शनिवार को बाल कटवाने से आयु में सात माह की कमी हो जाती है।
ज्योतिष के अनुसार मंगलवार का दिन मंगल ग्रह का दिन होता है। शरीर में मंगल का निवास हमारे रक्त में रहता है और रक्त से बालों की उत्पत्ति होती है। इसी तरह शनिवार शनि ग्रह का दिन हैं और शनि का संबंध हमारी त्वचा से होता है। अत: मंगलवार और शनिवार को बाल कटवाने से मंगल तथा शनि ग्रह संबंधी अशुभ प्रभाव झेलने पड़ सकते हैं। इनसे बचने के लिए ही इन दिनों में बाल ना कटवाने की बात कही जाती है।
यद्यपि आजकल इन बातों को केवल अंधविश्वास ही माना जाता है लेकिन प्राचीन काल में ऋषि-मुनियों ने जो परंपराएं बनाई हैं इनका अवश्य ही हमारे जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है।

आप जानते हैं एकादशी के दिन चावल क्यों नहीं खाना चाहिए!
एकादशी को चावल नहीं खाना चाहिए क्योंकि हमारे ग्रंथों में जो धान जमीन को बिना जोते ही उत्पन्न होते हैं, वे ही व्रत और उपवास में ग्रहण के योग्य माने जाते है। यदि ऐसे पदार्थ न उपलब्ध हों तो फलों का आहार करना चाहिए। एकादशी को चावल खाना शास्त्रों के अनुसार निषिद्ध माना गया है। चावल की खेती शुरु से लेकर अन्त तक पानी में ही की जाती है।
चावल की बुआई से लेकर कटाई तक पानी में ही होती है। साथ ही खाना बनाते समय जब चावल को पकाया जाता है तब भी पानी का ही उपयोग किया जाता है। इसका वैज्ञानिक पहलु यह माना गया है कि चन्द्रमा जल राशि का ग्रह है। यह पानी को अपनी ओर आकर्षित करता है। अष्टमी तिथि से ही चन्द्र का जल से आकर्षण बढऩे लगता है। मतलब एकादशी की तिथि से यह पानी को खींचने का प्रयास करता है।
पूर्णिमा को इसकी आकर्षण क्षमता बहुत अधिक होती है। इसीलिए समुद्र में ज्वार भाटा आता है। चन्द्र को जल का कारक ग्रह माना गया है। ऐसी मान्यता है कि चावल के रूप में जो जल हमारे शरीर में जाता है उसे चन्द्र अपनी तरफ आकर्षित करता है। इसके फलस्वरूप एकादशी के दिन चावल खाने से अपच, बदहजमी, और पेट से जुड़ी अन्य समस्याएं होती हैं। साथ ही ऐसा भी माना जाता है चावल खाने से आलस्य की अधिकता होती है। इसलिए एकादशी को चावल नहीं खाना चाहिए।

शीतला सप्तमी या अष्टमी को ठंडा खाना क्यों खाते हैं?
त्यौहार हमारे जीवन को हर्ष और उल्लास से भर देते हैं। अभी होली की उमंग सबके मन को रंगो से सराबोर किए हुए है कि शील सप्तमी की पूजा का दिन आ गया क्योंकि हमारा देश परंपरओं का देश है। हमारे देश के हर क्षेत्र की अलग-अलग परंपराएं है उन्हीं में से एक परंपरा है फाल्गुन के महीने में होली के बाद आने वाली सप्तमी को शीतला सप्तमी या शील सप्तमी या अष्टमी के रूप में मनाने की। यह त्यौहार हमारे देश की अधिकांश क्षेत्रों विशेषकर मालवा, निमाड़ व राजस्थान में मनाया जाता है।
शीतला सप्तमी से जुड़े कई लोक गीत है। उसी में से एक है - सीली सीतला ओ माँय, सरवर पूजती घर आय, ठँडा भुजिया चढाय, सरवर पूजती घर आय - इसी प्रकार सभी व्यंजनों के नाम लिए जाते जो माता रानी की भोग के लिए बनाये जाते है। इस दिन ठंडा भोजन खाए जाने का रिवाज है इसका धार्मिक कारण तो यह है कि शीतला मतलब जिन्हे ठंडा अतिप्रिय है। इसीलिए शीतला देवी को प्रसन्न करने के लिए उन्हें ठंडी चीजों का भोग लगाया जाता है। दरअसल शीतला माता के रूप में पँथवारी माता को पूजा जाता है। पथवारी यानी रास्ते के पत्थर को देवी मानकर उसकी पूजा करना। उनकी पूजा से तात्पर्य यह है - कि रास्ता जिससे हम कही भी जाते हैँ, उसकी देवी ।
वह देवी हमेशा रास्ते में हमें सुरक्षित रखे और हम कभी अपने रास्ते से ना भटके इस भावना से शीतला के रूप में पथवारी का पूजन किया जाता है। अष्टमी के दिन बासी पदार्थ ही देवी को नैवेद्य के रूप में समर्पित किया जाता है, और भक्तों के बीच प्रसाद के रूप में वितरित किया जाता है। इस कारण से ही संपूर्ण उत्तर भारत में शीतलाष्टमी त्यौहार, बसौड़ा के नाम से विख्यात है।ऐसी मान्यता है कि इस दिन के बाद से बासी खाना खाना बंद कर दिया जाता है।ये ऋतु का अंतिम दिन होता है जब बासी खाना खा सकते हैं।इस व्रत को करनेसे शीतला देवी प्रसन्‍न होती हैं और व्रती के कुल में दाहज्वर, पीतज्वर, विस्फोटक, दुर्गन्धयुक्त फोडे, नेत्रों के समस्त रोग, शीतलाकी फुंसियोंके चिन्ह तथा शीतला जनित दोष दूर हो जाते हैंशीतला की उपासना से स्वच्छता और पर्यावरण को सुरक्षित रखने की प्रेरणा मिलती है।इसीलिए शीतला सप्तमी के दिन ठंडा भोजन माता शीतला को चढ़ाया जाता है और ठंडा ही भोजन ग्रहण किया जाता है।

तुलसी को जल चढ़ाने के बाद परिक्रमा क्यों करना चाहिए?

भगवान की पूजा-आराधना के बाद हम उनकी परिक्रमा करते हैं। सामान्यत: यह बात सभी जानते हैं कि आरती आदि के होने के बाद देवी-देवताओं की परिक्रमा की जाती है तुलसी को हमारे शास्त्रों के अनुसार देवी माना गया है। तुलसी को जल चढ़ाकर भी उसकी परिक्रमा कि जाती है। परंतु यह क्यों की जाती है और इसकी क्या वजह है?घर के आंगन में तुलसी का पौधा सिर्फ एक पौधा भर नहीं होता है। यह सुख, संपत्ति, ज्ञान, विवेक और स्वास्थ्य का उत्तम खजाना है। कहते हैं, जिस घर के आंगन में तुलसी निवास करती है, वहां सुख और स्वास्थ्य स्वत: ही चले आते हैं, आनंद और पुण्यफल की वर्षा होती है।
तुलसी को जल चढ़ाना भी स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है। तुलसी का सामीप्य पाने हेतु उसके करीब जाना होता है तुलसी एक गुणकारी औषधीय पौधा है। उसकी पत्तियां अपने अंदर अनेक औषधीय गुणो को समेटे हुए है। जल चढ़ाने जब हम उसके करीब जाते हैं शास्त्रों के अनुसार तुलसी के पौधे के आसपास बहुत सारी सकारात्मक ऊर्जा अथवा दैवीय शक्ति आसपास सबसे अधिक एकत्र होती है। इसलिए तुलसी को जल चढ़ाने के बाद उसकी परिक्रमा की परंपरा बनाई गई है। जिससे भक्तों की सोच भी सकारात्मक बने और बुरे विचारों से वह मुक्त हो जाए। तुलसी की परिक्रमा करने से हमारे मन को अचानक ही शांति मिलती है और उन क्षणों में हमारे मन को भटकाने वाली सोच समाप्त हो जाती है, भगवान में मन लगता है।इसीलिए तुलसी को जल चढ़ाने कर परिक्रमा लगाने की परंपरा बनाई गई।

पूजा की बाद ब्राह्मण को दक्षिणा क्यों देना चाहिए?

पूजन की महिमा को भारतीय सभ्यता में बड़े ही धार्मिक रूप में स्वीकार किया गया है। दान को मुक्ति और स्वर्ग की प्राप्ति का एक माध्यम माना गया है। पूजन के बाद दक्षिणा की देना हमारे धर्म में आवश्यक माना गया है।। दान के विषय में शास्त्र कहते हैं कि सद्पात्र को दिया गया दान ही फलदायी होता है। प्राचीन काल में ब्राह्मण को ही दान का सद्पात्र माना जाता था क्योंकि ब्राह्मण संपूर्ण समाज को शिक्षित करता था तथा धर्ममय आचरण करता था। ऐसी स्थिति में उनके जीवनव्यापन का भार समाज के ऊपर हुआ करता था।
सद्पात्र को दान के रूप में कुछ प्रदान कर समाज स्वयं को सम्मानित हुआ मानता था।घर में किसी भी तरह के पूजन के बाद यदि आपके समर्पण का आदर करते हुए किसी ने आपके द्वारा दिया गया दान स्वीकार कर लिया जाए तो आपको उसे धन्यवाद तो देना ही चाहिए। पूजन के बाद दी जाने वाली दक्षिणा, दान की स्वीकृति का धन्यवाद है। इसीलिए पूजन के बाद दी जाने वाली दक्षिणा का विशेष महत्व बताया गया है। इसका मनोवैज्ञानिक पक्ष है कि दान देने वाले व्यक्ति की इच्छाओं का दान लेने वाले व्यक्ति ने आदर किया है। इसीलिए वह धन्यवाद और कृतज्ञता ज्ञापित करने का पात्र भी है।

शनि को मनाने के लिए काले रंग की वस्तुओं का दान ही क्यों करते हैं?

शनि एक ऐसा ग्रह या देवता है जिसके कुप्रभाव से सभी भली भांति परिचित हैं। शनि देव को प्रसन्न करने के लिए सामान्यत: सभी कई प्रकार के प्रयत्न करते हैं। ऐसा माना जाता है शनिवार के लिए शनिदेव को तेल चढ़ाने से वे प्रसन्न होते हैं। इसके अलावा ज्योतिष में कई और उपाय भी बताए गए हैं शनि को मनाने के।
शनि को प्रसन्न करने के लिए काले कपड़ों का दान भी किया जाता है। ज्योतिष के अनुसार शनि को श्यामवर्ण माना गया है। काला रंग आलस्य का प्रतीक होता है। शनि को भी धीमे चलने वालाअशुभ शनि को शुभ बनाने के लिए लोहे व काली चीजों के दान का ज्योतिष के अनुसार विशेष महत्व है।
दरअसल इसका कारण यह है कि ज्योतिष में हर ग्रह के अशुभ प्रभाव को कम करने के लिए उस ग्रह की रंग, प्रकृति और स्वभाव के अनुसार चीजों का दान किया जाता है। जिसके दान से उस ग्रह का दोष कम हो जाता है। इसीलिए अशुभ शनि को शुभ बनाने के लिए काली चीजों का दान अच्छा माना गया है।

पति-पत्नी को तीर्थ यात्रा पर साथ ही क्यों जाना चाहिए?

पति-पत्नी के मुख्य कर्तव्य में से एक है कि सभी पूजन कार्य दोनों एक साथ ही करेंगे। पति या पत्नी अकेले पूजा-अर्चना करते हैं तो उसका अधिक महत्व नहीं माना गया है। शास्त्रों के अनुसार पति-पत्नी एक साथ पूजादि कर्म करते हैं तो उसका पुण्य कई जन्मों तक साथ रहता है और पुराने पापों का नाश होता है।
इसलिए हमारे यहां ऐसी मान्यता है कि पति-पत्नी को तीर्थ दर्शन या मंदिर एक साथ ही जाना चाहिए क्योंकि विवाह के बाद पति-पत्नी को एक-दूसरे का पूरक माना गया है। सभी धार्मिक कार्यों में दोनों का एक साथ होना अनिवार्य है। पत्नी के बिना पति को अधूरा ही माना जाता है। दोनों को एक साथ ही भगवान के निमित्त सभी कार्य करने चाहिए।
पत्नी को पति अद्र्धांगिनी कहा जाता है, इसका मतलब यही है कि पत्नी के बिना पति अधूरा है। पति के हर कार्य में पत्नी हिस्सेदार होती है। शास्त्रों में इसी वजह सभी पूजा कर्म दोनों के लिए एक साथ करने का नियम बनाया गया है।दोनों एक साथ तीर्थ यात्रा करते हैं तो इससे पति-पत्नी को पुण्य तो मिलता है साथ ही परस्पर प्रेम भी बढ़ता है। स्त्री को पुरुष की शक्ति माना जाता है इसी वजह से सभी देवी-देवताओं के नाम के पहले उनकी शक्ति का नाम लिया जाता है जैसे सीताराम, राधाकृष्ण। इसी वजह से पत्नी के बिना पति का कोई भी धार्मिक कर्म अधूरा ही माना जाता है। इसीलिए पति-पत्नी को तीर्थ यात्रा साथ ही करना चाहिए।

साधु-संत खड़ाऊ क्यों पहनते हैं?
पुरातन समय में साधु-संत खड़ाऊ (लकड़ी की चप्पल) पहनते थे। पैरों में लकड़ी के खड़ाऊ पहनने के पीछे भी हमारे साधु-संतों की सोच पूर्णत: वैज्ञानिक थी। गुरुत्वाकर्षण का जो सिद्धांत वैज्ञानिकों ने बाद में प्रतिपादित किया उसे हमारे ऋषि-मुनियों ने काफी पहले ही समझ लिया था।
उस सिद्धांत के अनुसार शरीर में प्रवाहित हो रही विद्युत तरंगे गुरुत्वाकर्षण के कारण पृथ्वी द्वारा अवशोषित कर ली जाती हैं । यह प्रक्रिया अगर निरंतर चले तो शरीर की जैविक शक्ति(वाइटल्टी फोर्स) समाप्त हो जाती है। इसी जैविक शक्ति को बचाने के लिए साधु-संतों ने पैरों में खड़ाऊ पहनने की प्रथा प्रारंभ की ताकि शरीर की विद्युत तंरगों का पृथ्वी की अवशोषण शक्ति के साथ संपर्क न हो सके।
पुरातन समय चमड़े का जूता कई धार्मिक, सामाजिक कारणों से समाज के एक बड़े वर्ग को मान्य न था और कपड़े के जूते का प्रयोग हर कहीं सफल नहीं हो पाया। जबकि लकड़ी के खड़ाऊ पहनने से किसी धर्म व समाज के लोगों के आपत्ति नहीं थी इसीलिए यह अधिक प्रचलन में आए। कालांतर में यही खड़ाऊ ऋषि-मुनियों के स्वरूप के साथ जुड़ गए ।

भगवान की आरती क्यों करते हैं?
आरती प्रभु आराधना का एक अनन्य भाव है। हम भगवान को अभिषेक, पूजन और नेवैद्य से मनाते है, अंत में अपनी श्रद्धा, भक्ति और प्रभुप्रेम की अभिव्यक्ति के लिए आर्त भाव यानी भावविभोर होकर और व्याकुलता से जो पूजा करते हैं, उसे आरती कहते हैं। आरती, आर्त भाव से ही होती है। इसमें संगीत की स्वरलहरियां और पवित्र वाद्यों के नाद से भगवान की आराधना की जाती है। मूलत: आरती शब्दों और गीत से नहीं, भावों से की जाने वाली पूजा है। पूजा के बाद आरती करने का महत्व इसलिए भी है कि यह भगवान के उस उपकार के प्रति आभार है जो उसने हमारी पूजा स्वीकार कर किया और उन गलतियों के लिए क्षमा आराधना भी है जो हमसे पूजा के दौरान हुई हों।
आरती से हम भगवान का आभार तो मानते ही हैं साथ ही उन सभी जानी-अनजानी भूलों के लिए क्षमा प्रार्थना भी करते हैं। इसलिए आरती का भाव आर्त माना गया है। आरती भावनाओं की अभिव्यक्ति तो है ही साथ ही इसमें संपूर्ण सृष्टि का सार और विज्ञान भी है।
आरती के प्रारंभ में शंखनाद, फिर चंवर डुलाना, कर्पूर और धूप से भगवान की आरती करना, जल से उसे शीतल करना और फिर विभिन्न मुद्राओं से आरती ग्रहण करना, यह सब परमात्मा द्वारा रची गई सृष्टि के प्रति अपने आभार और उसके वैभव का प्रतीक है। इस विज्ञान को हम समझें तो यह सृष्टि पंचतत्वों से मिलकर बनी है। आकाश, वायु, अग्रि, जल और पृथ्वी। इन पंचतत्वों से हम भगवान को पूजते हैं, इस सृष्टि को रचने, उसमें सब सुख-संपदा देने और हमें मानव जीवन देकर इसे भोगने के उपकार के प्रति हम भगवान का धन्यवाद करते हैं और उसके (भगवान के) निकट रहने, उसकी कृपा में रहने के लिए आर्त भाव से प्रार्थना करते हैं। शंख, आकाश का प्रतीक है। शुभ कार्यों के लिए शंख का नाद आवश्यक है और जब बात अपने आराध्य की पूजा की हो तो शंखनाद और ज्यादा आवश्यक हो जाता है। शंख नाद से माहौल भक्तिमय तो होता ही है साथ ही वातावरण में एक सकारात्मक ऊर्जा का भी संचार होता है।
शंख नाद से आकाश तत्व के प्रति आभार व्यक्त किया जाता है। वायु तत्व की अभिव्यक्ति के लिए हम भगवान को चंवर डुलाते हैं। जिस शीतल प्राणवायु से हमारे शरीर में जीवन का संचार है, उसके लिए भगवान को चंवर डुला कर इसका धन्यवाद प्रेषित किया जाता है। इसे भगवान की सुश्रुषा करना भी कहते हैं और हम भगवान को स्वामी मानकर उसके सेवक रूप में स्वयं को प्रस्तुत करते हैं। जब हम भगवान की सेवा सेवक भाव से करते हैं तो इससे हमारे अहंकार का भी नाश होता है और मन निर्मल होता जाता है। प्रतिमाओं की सेवा हमें प्राणी सेवा के लिए भी प्रेरित करती है और हमारे मन में स्वत: मानव सेवा का भाव आने लगता है। कर्पूर और धूप, साक्षात अग्रि के रूप हैं। अग्रि पवित्रता, प्रकाश का प्रतीक भी है और संहार का भी।
हम अपने दुर्गुणों को जलाकर सद्गुणों से भगवान को भजते हैं। उससे यह प्रार्थना भी करते हैं कि हमारा जीवन सदैव अंधेरे से प्रकाश की ओर आगे बढ़े। हमारे दुर्गुणों और अहंकार का सदैव क्षरण हो, सद्भाव और सदाचार के पथ पर हमेशा, भगवान की कृपा रूपी रोशनी मिलती रहे। अग्रि बुरी आदतों, अभिमान और दुव्र्यसनों को तो जलाती ही है, बुरी नजर भी जला देती है। एक सच्चा सेवक अपने स्वामी को बुरी नजर से बचाने के लिए भी अग्रि से उसकी नजर उतारता है। वैसे ही हम भगवान के इस सौम्य रूप को कुदृष्टि से बचाने के लिए उसकी आरती उतारते हैं। अग्रि का ताप बढ़े और प्रभु के सौम्य रूप को उससे कष्ट हो तो इसके लिए हम अग्रि को शीतल जल से शांत करते हैं।

नए वाहन की पूजा करना जरूरी क्यों?
हमारे देश में हर कार्य से जुड़ी अनेकों परंपराएं हैं ऐसी ही एक परंपरा है। घर में नए वाहन को लाने पर उसकी पूजा करने की। कुछ लोगों के वाहन, बाइक, कार या कोई हैवी व्हीकल हमेशा खराब रहता है। वे उसे बार बार ठीक करवाते हैं, उस पर पैसे खर्च करते हैं फिर भी उनका वाहन आपका साथ नहीं देता। ज्योतिष के नजरिए से देखें तो निश्चित ही कुंडली में शनि और मंगल अशुभ प्रभाव दे रहे हैं। शनि और मंगल के अशुभ प्रभाव से ही आपका वाहन हमेशा खराब रहता है।
इसीलिए अशुभ ग्रह भी शुभ प्रभाव देने लगे इस भावना के साथ घर में वाहन लेकर आते वक्त मुहूर्त का ध्यान तो रखा ही जाता है। साथ ही उसका विधि-विधान से पूजन कर मिठाई भी बांटी जाती है। लेकिन बहुत ही कम लोग जानते हैं कि इसके पीछे कारण क्या है? दरअसल हमारे शास्त्रों के अनुसार वाहन को भगवान गरूड़ का स्वरूप माना जाता है। गरूड़ का रूप मानकर जब शुभ मुहूर्त में कोई वाहन घर में लाया जाता है और विधि से उसका पूजन किया जाता है तो ऐसा माना जाता है कि वाहन से किसी तरह की कोई दुर्घटना नहीं होती और वाहन सुरक्षित रहता है। इसीलिए हमारे यहां घर में लाए जाने वाले नए वाहन का पूजन किया जाता है।

आप जानते हैं क्यों और कब नहीं लेना चाहिए लोन!
कर्ज से अधिकतर लोग आजकल परेशान रहते हैं। लोन लेना इस महंगाई के जमाने में सभी वर्ग के लोगों के लिए एक जरूरत बन गया है। आज लोग लोन लेकर अपनी आवश्यकताओं को पूरा कर रहे हैं।
अधिक से अधिक सुख-सुविधाओं को जुटाने के लिए दूसरों से कर्जा लेते हैं, बैंक से लोन लेते हैं। लोन तो आसानी से मिल जाता है परंतु कई बार इसे चुकाने में कई परेशानियां से जुझना पड़ता है। इन्हीं परेशानियां से बचने के लिए हमारे धर्म शास्त्रों और ज्योतिष द्वारा कुछ नियम बनाए गए हैं।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार मंगल देव को कर्ज का कारक ग्रह माना गया है। कोई भी व्यक्ति कर्ज लेता है तो यह मंगल ग्रह का ही प्रभाव होता है। मंगल का ग्रहों का सेनापति माना गया है। मंगल को क्रूर ग्रह माना जाता है यह अधिकांश स्थितियों में बुरा ही देने वाला है। इसी वजह से शास्त्रों द्वारा मंगल के दिन मंगलवार को कर्ज लेना वर्जित किया गया है। इस दिन लोन पर बहुत कम परिस्थितियों में कोई व्यक्ति इसे चुका पाता है।
मंगलवार को लोन लेने से यह चुका पाना बहुत मुश्किल होता है। ऐसा कहा जाता है कि इस दिन कर्ज लेने पर व्यक्ति के बच्चों तक को इस लोन से मुसीबतें उठाना पड़ती हैं। मंगलवार को लोन लेने वाले व्यक्ति पर मंगल की कुदृष्टि रहती है। इसी वजह से ज्योतिष शास्त्र द्वारा मंगलवार के दिन लोन लेना वर्जित किया गया है।

पूजा में तांबे के बर्तन ही क्यों उपयोग में लाना चाहिए!
भारतीय पूजा पद्धति में धातुओं के बर्तन का बड़ा महत्व है। हर तरह की धातु अलग फल देती है और उसका अलग वैज्ञानिक कारण भी है।
सोना, चांदी, तांबा इन तीनों धातुओं को पवित्र माना गया है। हिन्दू धर्म में ऐसा माना गया है कि ये धातुएं कभी अपवित्र नहीं होती है। पूजा में इन्ही धातुओं के यंत्र भी उपयोग में लाए जाते हैं क्योंकि इन से यंत्र को सिद्धि प्राप्त होती है।
लेकिन सोना, चांदी धातुएं महंगी है जबकि तांबा इन दोनों की तुलना में सस्ता होने के साथ ही मंगल की धातु मानी गई। माना जाता है कि तांबे के बर्तन का पानी पीने से खून साफ होता है।
इसलिए जब पूजा में आचमन किया जाता है तो अचमनी तांबे की ही रखी जानी चाहिए क्योंकि पूजा के पहले पवित्र क्रिया के अंर्तगत हम जब तीन बार आचमन करते हैं तो उस जल से कई तरह के रोग दूर होते हैं और रक्त प्रवाह बढ़ता है। इससे पूजा में मन लगता है और एकाग्रता बढ़ती है।
क्योंकि लोहा, स्टील और एल्यूमीनियम को अपवित्र धातु माना गया है तथा पूजा और धार्मिक क्रियाकलापों में इन धातुओं के बर्तनों के उपयोग की मनाही की गई है। इन धातुओं की मूर्तियां भी नहीं बनाई जाती। लोहे में हवा पानी से जंग लगता है।
एल्यूमीनियम से भी कालिख निकलती है। इसलिए इन्हें अपवित्र कहा गया है। जंग आदि शरीर में जाने पर घातक बीमारियों को जन्म देते हैं। इसलिए लोहा, एल्युमीनियम और स्टील को पूजा में निषेध माना गया है। पूजा में सोने, चांदी, पीतल, तांबे के बर्तनों का उपयोग करना चाहिए।

पहली चपाती किसे और क्यों दे?
दान को हमारे धर्म का एक महत्वपूर्ण अंग माना गया है। शास्त्रों के अनुसार हमारे यहां गौसेवा को धर्म के साथ ही जोड़ा गया है। गौसेवा भी धर्म का ही अंग है। गाय को हमारी माता बताया गया है। ऐसा माना जाता है कि गाय में हमारे सभी देवी-देवता निवास करते हैं। इसी वजह से मात्र गाय की सेवा से ही भगवान प्रसन्न हो जाते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण के साथ ही गौमाता की भी पूजा की जाती है। भागवत में श्रीकृष्ण ने भी इंद्र पूजा बंद करवाकर गौमाता की पूजा प्रारंभ करवाई है। इसी बात से स्पष्ट होता है कि गाय की सेवा कितना पुण्य का अर्जित करवाती है। गाय के धार्मिक महत्व को ध्यान में रखते हुए कई घरों में यह परंपरा होती है कि जब भी खाना बनता है पहली रोटी गाय को खिलाई जाती है। यह पुण्य कर्म बिल्कुल वैसा ही जैसे भगवान को भोग लगाना। गाय को पहली रोटी खिला देने से सभी देवी-देवताओं को भोग लग जाता है।
सभी जीवों के भोजन का ध्यान रखना भी हमारा ही कर्तव्य बताया गया है। इसी वजह से यह परंपरा शुरू की गई है। पुराने समय में गाय को घास खिलाई जाती थी लेकिन आज परिस्थितियां बदल चुकी है। जंगलों कटाई करके वहां हमारे रहने के लिए शहर बसा दिए गए हैं। जिससे गौमाता के लिए घास आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाती है और आम आदमी के लिए गाय के लिए हरी घास लेकर आना काफी मुश्किल कार्य हो गया है। इसी कारण के चलते गाय को रोटी खिलाई जाने लगी है।

नए मकान की नींव डालते समय पूजा जरूरी होती है क्योंकि...
बढ़ती हुई आबादी और कम पड़ती हुई जमीन के कारण आजकल लोग प्लाट लेकर मकान कम ही बना पाते हैं लेकिन पुराने जमाने में बड़े - बूढ़े कहा करते थे कि यदि प्लाट लेकर नया मकान बनाए तो नींव डालते समय पूजा जरूर करें। मकान के निर्माण से पहले वास्तु के अनुसार प्लाट में दोष नहीं होना चाहिए इसीलिए किसी भी प्लाट पर नया मकान बनाने से पहले हमारे यहां नींव के पूजन की परंपरा बनाई गई है। ऐसी मान्यता है कि यदि नींव पूजन नहीं करते हैं तो उस घर में रहने वाले लोगों को हमेशा परेशानियों का सामना करना पड़ता है।
नये मकान की नींव डालते समय पूजन इसलिए करवाई जाती है। यदि किसी प्रकार की अशुद्धता जैसे वास्तुदोष, साथ ही जमीन में किसी तरह का काई बुरा प्रभाव हो तो जमीन का वह भाग पूरी तरह शुद्ध होकर निवास योग्य हो जाता है। पुराने समय में इसे वास्तुदोष तो नहीं कहते थे। लेकिन इसका कारण अप्रत्यक्ष रूप से वास्तुदोष दूर करना ही था।ऐसा माना जाता है कि भूमि पूजन के समय देवताओं के आवाह्न के कारण उस स्थान से नकारात्मक ऊर्जा खत्म होती है। साथ ही नींव के पूजन के बाद गृह प्रवेश भी विधिवत ढंग से करवाया जाए तो घर में हमेशा सुख-शांति बनी रहती है।

रास्ते पर पड़े नींबु- मिर्च पर पैर नहीं रखना चाहिए क्योंकि...
माना जाता है कि नींबू, तरबूज, सफेद कद्दू और मिर्च का तंत्र और टोटकों में विशेष उपयोग किया जाता है। नींबू का उपयोग अमूमन बुरी नजर से संबंधित मामलों में ही किया जाता है। इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण है इनका स्वाद। नींबू खट्टा और मिर्च तीखी होती है, दोनों का यह गुण व्यक्ति की एकाग्रता और ध्यान को तोडऩे में सहायक हैं।अक्सर लोग अपने घर, ऑफिस या दुकान को बुरी नजर से बचाने के लिए नींबू-मिर्च बांधते है। जब वह खराब हो जाती है तो उसे सड़क पर फेंक देते हैं।
आप ने अधिकतर बड़े बुजुर्गो को कहते हुए सुना होगा कि सड़क पर यदि नींबू मिर्च पड़े हों तो उस पर पैर नही रखना चाहिए। इसके पीछे कोई अंधविश्वास नहीं है। इसका एक बहुत बड़ा कारण है। जब कोई भी बुरी नजर से बचने के लिए नींबू मिर्च बांधता है तो उस घर या व्यापार स्थल की तरफ जो भी नकारात्मक सोच के साथ उस दुकान की तरफ देखता है तो वह नकारात्मक उर्जा उस नींबू के द्वारा ग्रहण कर ली जाती है। जब उस नींबू मिर्च को उस स्थान से हटाकर सड़क पर फेंका ही इसलिए जाता है ताकि लोगों के पैर उस पर पड़े। इससे उस व्यक्ति का तो फायदा होता है क्योंकि जितना ज्यादा वो नींबु मिर्च कुचले जाते है उतना ही नकारात्मक सोच व बुरी नजर का प्रभाव कम होता है, और उसकी दुकान या व्यापारिक स्थल पर उसका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। लेकिन जो लोग उस पर पैर रखते है उस नकारात्मक ऊर्जा या बुरी नजर का प्रभाव उनके जीवन पर पडऩे लगता है और उनकी तरक्की व अच्छे कार्यो में बाधा आने लगती है क्योंकि व नकारात्मक उर्जा जीवन को प्रभावित करती है। इसलिए सड़क पर पड़े नींबू मिर्च पर पैर रखने से बचना चाहिए।

पूजा से पहले गाय के गोबर से पूजन के स्थान को पवित्र क्यों करना चाहिए?
हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार गाय में 33 करोड़ देवताओं का वास माना गया है। गाय के पूरे शरीर को ही पवित्र माना गया है लेकिन गाय का गोबर सर्वाधिक पवित्र माना जाता है। क्योंकि शास्त्रों के अनुसार गाय के मुख वाले भाग को अशुद्ध और पीछे वाले भाग को शुद्ध माना जाता है।साथ ही गोबर में लक्ष्मी का निवास माना गया है। इसीलिए जब भी कोई पूजन कार्य किया जाता है या हवन जैसा कोई बड़ा धार्मिक कार्य किया जाता है तो उस जगह को गाय के गोबर से लिपा जाता है।
ऐसा क्यों होता है?
जिस चीज को अपवित्र कहा जाता हो वही गोबर जब गाय का होता है तो उसे पवित्र मान लिया जाता है। क्या इसके पीछे भी कोई कारण है? गोबर भयानक रोगों को भी ठीक करने में सहायक है। दरअसल गोबर से कई बीमारियों से मुक्ति मिलती है इसलिए पुराने जमाने में जब भोजन गोबर के उपले और लकडिय़ों से बनता था तो कई तरह की बीमारियां नहीं होती थी। जो आज हमें देखने को मिलती है।इसके बैक्टिरिया अन्य कई जटिल रोगों में भी फायदेमंद होते हैं। गोबर का धुआं अपने आस-पास के वातावरण को भी शुद्ध रखता है। इसके धुएं से घर की सकारात्मक ऊर्जा में वृद्धि होती है।

आपको पता है, मंदिर में चप्पल पहनकर क्यों नहीं जाते हैं?
हमारे यहां हर धर्म के देवस्थलों पर नंगे पांव प्रवेश करने का रिवाज है। चाहे मंदिर हो या मस्जिद गुरुद्वारा हो या जैनालय आदि सभी धर्मों के देवस्थलों के अंदर सभी श्रद्धालु जूते-चप्पल बाहर उतारकर ही प्रवेश करते हैं। मंदिरों में नंगे पैर प्रवेश करने के पीछे कई कारण हैं। देवस्थानों का निर्माण कुछ इस प्रकार से किया जाता है कि उस स्थान पर काफी सकारात्मक ऊर्जा एकत्रित होती रहती है।
नंगे पैर जाने से वह ऊर्जा पैरों के माध्यम से हमारे शरीर में प्रवेश कर जाती है। जो कि हमारे स्वास्थ्य के लिए भी बहुत लाभदायक रहती है। साथ ही नंगे पैर चलना एक्यूप्रेशर थैरेपी ही है और एक्यूप्रेशर के फायदे सभी जानते हैं लेकिन आजकल अधिकांश लोग घर में भी हर समय चप्पल पहनें रहते हैं इसीलिए हम देवस्थानों में जाने से पूर्व कुछ देर ही सही पर जूते-चप्पल रूपी भौतिक सुविधा का त्याग करते हैं। इस त्याग को तपस्या के रूप में भी देखा जाता है। जूते-चप्पल में लगी गंदगी से मंदिर की पवित्रता भंग ना हो, इस वजह से हम उन्हें बाहर ही उतारकर देवस्थानों में नंगे पैर जाते हैं।

पत्नी को पति के पैर क्यों छूना चाहिए?
हमारी भारतीय परंपरा के अनुसार सामान्यत: सभी लोगों के घर में बड़े-बुजूर्ग, संत-महात्मा, वृद्ध आदि के पैर अवश्य छूते हैं। पैर छूने की परंपरा काफी पुराने समय से चली आ रही है। इस परंपरा के पीछे कई कारण मौजूद हैं। शास्त्रों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि बड़े लोगों के पैर छूने से हमारे पुण्य में बढ़ोतरी होती है। साथ ही उनके आशीर्वाद स्वरूप हमारा दुर्भाग्य दूर होता है और मन को शांति मिलती है लेकिन हमारे यहां बड़े- बजूर्गो का आर्शीवाद लेने के साथ ही पति के पैर छूने की भी परंपरा बनाई गई है।
वैसे आजकल अधिकांश लोग इसे दकियानुसी सोच मानते हैं लेकिन ऐसा माना जाता है कि सुबह उठकर सबसे पहले पति के पैर छूने चाहिए क्योंकि इससे पति-पत्नी में प्रेम बढ़ता है। कहते हैं पति के पैर छूना यानी उसके प्रति समर्पण भाव जगाना, जब मन में समर्पण का भाव आता है तो अहंकार स्वत: ही खत्म होता है। इसलिए पति के चरण स्पर्श की परंपरा बनाई गई ताकि पत्नी के मन में हमेशा पति के लिए सम्मान की भावना रहे और पति के मन में अपनी पत्नी के प्रति जिम्मेदारी का एहसास बना रहे। दोनों के रिश्ते में प्रगाड़ता बनी रहे इसलिए प्रणाम करने की परंपरा को नियम और संस्कार का रूप दे दिया गया।

किन्नर को दान क्यों देना चाहिए?
किन्नर एक ऐसा वर्ग है जो सभी के लिए अक्सर जिज्ञासा और आश्चर्य का विषय होता है। इनके जीवन का एक मात्र सहारा क्षेत्रीय नाच-गान ही है। हमारे यहां कोई भी तीज-त्यौहार या शादी ब्याह होता है तो किन्नरों को दान दिया जाता है। साथ ही कहा जाता है कि किन्नरों को दान देना चाहिए क्योंकि इन्हें दान देने से आर्थिक तरक्की होती है। कहते हैं यह अगर बुधवार के दिन किसी जातक को आशीर्वाद दे दें तो उसकी किस्मत खुल जाती है। शास्त्रों के अनुसार संचित,प्रारब्ध और वर्तमान मनुष्य के जीवन का कालचक्र है।
संचित कर्मों का नाश प्रायश्चित और औषधि आदि से होता है। आगामी कर्मों का निवारण तपस्या से होता है किन्तु प्रारब्ध कर्मों का फल वर्तमान में भोगने के सिवा अन्य कोई उपाय नहीं है। कर्मों के अनुसार स्त्री-पुरुष या नपुंसक योनि में जन्म लेना पड़ता है। ज्योतिष के अनुसार बुध को नपुंसक ग्रह माना गया है। माना जाता है कि किन्नरों पर बुध का विशेष प्रभाव होता है। इसीलिए किन्नरों को दान देने से बुध प्रसन्न होते हैं। बुध को धन, बुद्धि तर्क व कर्म का कारक ग्रह माना गया है। ऐसी मान्यता है कि बुध से संबंधित दान करने से संचित कर्मों का नाश होता है और अगले जन्म में किन्नर के रूप में जन्म नहीं लेना पड़ता है। इसीलिए किन्नरों को दान करने को विशेष महत्व दिया गया है।

पूजा में कुमकुम का ही तिलक लगाने का रिवाज क्यों?
हमारे हिन्दू धर्म में पूजा-पाठ से जुड़ी अनेक परंपराएं हैं जैसे पूजा के समय कलाई पर पूजा का धागा बांधना, फल चढ़ाना, तिलक लगाना आदि। बिना तिलक धारण किए कोई भी पूजा-प्रार्थना शुरू नहीं होती है। मान्यताओं के अनुसार, सूने मस्तक को शुभ नहीं माना जाता।पूजन के समय माथे पर अधिकतर कुमकुम का तिलक लगाया जाता है। तिलक ललाट पर या छोटी सी बिंदी के रूप में दोनों भौहों के मध्य लगाया जाता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से तिलक लगाने से दिमाग में शांति, तरावट एवं शीतलता बनी रहती है। मस्तिष्क में सेराटोनिन व बीटाएंडोरफिन नामक रसायनों का संतुलन होता है। मेघाशक्ति बढ़ती है तथा मानसिक थकावट विकार नहीं होता।
लेकिन पूजा में अधिकतर कुमकुम का तिलक ही लगाया जाता है। इसके पीछे कारण यह है कि कुमकुम हल्दी का चूर्ण होता है। जिसमें नींबु का रस मिलाने से लाल रंग का हो जाता है। आयुर्वेद के अनुसार कुमकुम त्वचा के शोधन के लिए सबसे बढिय़ा औषघी है। इसका तिलक लगाने से मस्तिष्क तन्तुओं में क्षीणता नहीं आता है। इसीलिए पूजा में कुमकुम का तिलक लगाया जाता है।

रोज मंदिर क्यों जाना चाहिए?

आपने अक्सर हमारे बड़े-बुजूर्गो को कहते हुए सुना होगा कि रोज मंदिर जाना चाहिए। दरअसल मंदिर जाने की परंपरा किसी एक कारण से नहीं बनाई गई नहीं बल्कि इसके पीछे कई कारण है। सबसे पहला कारण है भगवान, हम इस मनोभाव से भगवान की शरण में जाते हैं कि हमारी सारी समस्याएं खत्म हो जाएंगी, जो बातें हम दुनिया से छिपाते हैं वो भगवान के आगे बता देते हैं, इससे भी मन को शांति मिलती है, बेचैनी खत्म होती है। दूसरा कारण है वास्तु, मंदिरों का निर्माण वास्तु को ध्यान में रखकर किया जाता है।
हर एक चीज वास्तु के अनुरूप ही बनाई जाती है, इसलिए वहां सकारात्मक ऊर्जा ज्यादा मात्रा में होती है। तीसरा कारण है वहां जो भी लोग जाते हैं वे सकारात्मक और विश्वास भरे भावों से जाते हैं सो वहां सकारात्मक ऊर्जा ही अधिक मात्रा में होती है। चौथा कारण है मंदिर में होने वाले नाद यानी शंख और घंटियों की आवाजें, ये आवाजें वातावरण को शुद्ध करती हैं। पांचवां कारण है वहां लगाए जाने वाले धूप-बत्ती जिनकी सुगंध वातावरण को शुद्ध बनाती है। इस तरह मंदिर में लगभग सभी ऐसी चीजें होती हैं जो वातावरण की सकारात्मक ऊर्जा को संग्रहित करती हैं। हम जब मंदिर में जाते हैं तो इसी सकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव हम पर पड़ता है और हमें भीतर तक शांति का अहसास होता है। इसीलिए रोज मंदिर जाना चाहिए।

आपको पता है, शनि की नजर बुरी क्यों मानी जाती है?
कहा जाता है कि शनि की दृष्टि अशुभ होती है। ब्रह्मवैवर्तपुराण में इस के पीछे एक कथा है। बताया जाता है कि शनि लगातार साधना में लीन रहने के कारण ही अपनी पत्नी की उपेक्षा कर बैठे और उसके परिणामस्वरूप उन्हें उस सती के कोप का भांजन बनना पड़ा। उनकी पत्नी ने गुस्से में आकर शनि देव को शाप दे दिया कि पत्नी होने पर भी आपने मुझे कभी प्रेम दृष्टि से नहीं देखा अब आप जिसे भी देखेंगे उसका कुछ न कुछ बुरा हो जायेगा। इसी कारण शनि की दृष्टि में दोष माना गया है लेकिन शनि की नजर हमेशा ही बुरी नही होती कुंडली के कुछ स्थान हैं ऐसे जिस पर शनि की नजर शुभ फल देने वाली होती है।
ज्योतिष शास्त्र में शनि की तीन तरह की दृष्टि बताई गई हैं। जो कि अपने स्थान से 3, 7 और 10 वें घर पर पड़ती है। इन तीनों दृष्टियों के अलग अलग प्रभाव बताए गए हैं। शास्त्रों के अनुसार इसकी एक और कहानी भी है वो यह कि गणेशजी के जन्म के बाद जब सभी देवी-देवता उनके दर्शन के लिए कैलाश पहुंचे। तब शनि देव भी वहां पहुंचे लेकिन आंखों पर पट्टी बांधकर लेकिन उनका इस तरह आंखों पर पट्टी बांधकर आना पार्वतीजी को अच्छा नहीं लग रहा था। इसलिए पार्वतीजी के बार-बार अनुरोध करने पर शनिदेव ने गणेशजी को देखा और कहा जाता है गणेशजी पर शनिदेव की दृष्टी पढऩे के कारण ही शिवजी ने गणेशजी की गर्दन उनके धड़ से अलग कर दी। इसलिए शनि की दृष्टी को बुरा माना जाता है।

मुख्यद्वार पर शुभ-लाभ क्यों लिखते हैं?
किसी भी पूजन कार्य का शुभारंभ बिना स्वस्तिक के नहीं किया जा सकता। हमारे यहां मुख्यद्वार पर स्वस्तिक के आसपास शुभ-लाभ लिखने की परंपरा है क्योंकि शास्त्रों के अनुसार श्री गणेश प्रथम पूजनीय हैं और शुभ व लाभ यानी शुभ व क्षेम को उनके पुत्र माना गया है। कहते हैं जहां शुभ होता है वहां हर काम में फायदा यानी लाभ अपने आप होने लगता है या जहां हर कार्य में लाभ होता है वहां सबकुछ अपने आप शुभ होने लगता है।
इसीलिए वास्तुशास्त्र के अनुसार ऐसी मान्यता है कि घर के मुख्य द्वार पर स्वस्तिक बनाकर शुभ-लाभ लिखने से घर में हमेशा सुख-समृद्धि बनी रहती है। ऐसे घर में हमेशा गणेशजी कृपा रहती है और धन-धान्य की कमी नहीं होती।
साथ ही स्वस्तिक के साथ ही शुभ-लाभ का चिन्ह भी धनात्मक ऊर्जा का प्रतीक है, इसे बनाने से हमारे आसपास से नकारात्मक ऊर्जा दूर हो जाती है। इसलिए स्वस्तिक के चिन्ह के साथ ही हर-त्यौहार पर घर के मुख्यद्वार पर सिन्दूर से शुभ-लाभ लिखा जाता है। जिससे घर पर किसी की बुरी नजर नहीं लगती और घर में सकारात्मक वातावरण बना रहता है। इसी वजह से मुख्यद्वार पर स्वस्तिक बनाने व शुभ-लाभ लिखने की परंपरा बनाई गई।

ब्रह्म मुहूर्त में उठने की परंपरा क्यों?

हिंदू धर्म में अनेक परंपराएं प्रचलित हैं। इन परंपराओं के पीछे सिर्फ धार्मिक कारण ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक कारण भी है। हिंदू धर्म में ब्रह्म मुहूर्त में उठने की परंपरा काफी पुरानी है। इसका कारण इस प्रकार है-
रात्रि के अंतिम प्रहर को ब्रह्म मुहूर्त कहते हैं। हमारे ऋषि मुनियों ने इस मुहूर्त का विशेष महत्व बताया है। उनके अनुसार यह समय निद्रा त्याग के लिए सर्वोत्तम है। ब्रह्म मुहूर्त में उठने से सौंदर्य, बल, विद्या, बुद्धि और स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है।
ब्रह्म मुहूर्त का विशेष महत्व बताने के पीछे हमारे विद्वानों की वैज्ञानिक सोच निहित थी। वैज्ञानिक शोधों से ज्ञात हुआ है कि ब्रह्म मुहूर्त में वायु मंडल प्रदूषण रहित होता है। इसी समय वायु मंडल में ऑक्सीजन (प्राण वायु) की मात्रा सबसे अधिक(41 प्रतिशत) होती है, जो फेफड़ों की शुद्धि के लिए महत्वपूर्ण होती है। शुद्ध वायु मिलने से मन, मस्तिष्क भी स्वस्थ रहता है। आयुर्वेद के अनुसार ब्रह्म मुहूर्त में उठकर टहलने से शरीर में संजीवनी शक्ति का संचार होता है। यही कारण है कि इस समय बहने वाली वायु को अमृततुल्य (अमृत के समान) कहा गया है।
इसके अलावा यह समय अध्ययन के लिए भी सर्वोत्तम बताया गया है क्योंकि रात को आराम करने के बाद सुबह जब हम उठते हैं तो शरीर तथा मस्तिष्क में भी स्फूर्ति व ताजगी बनी रहती है। प्रमुख मंदिरों के पट भी ब्रह्म मुहूर्त में खोल दिए जाते हैं तथा भगवान का श्रृंगार व पूजन भी ब्रह्म मुहूर्त में किए जाने का विधान है।

भगवान को ताजे फूल ही क्यों चढ़ाए जाते हैं?
हिन्दू धर्म में पूजा-पाठ से जुड़ी अनेक परंपराएं हैं। उन्ही में से एक परंपरा है भगवान को ताजे फूल अर्पित करने की लेकिन भगवान को रोज ताजे फूल ही क्यों चढ़ाए जाते है? ये बहुत ही कम लोग जानते हैं कि सुखे फूलों को या मुरझाए फूलों को भगवान के समक्ष रखना शुभ नहीं माना जाता है। ताजे फूलों को पूजा में हमेशा रखा जाता है क्योंकि फूल की खुश्बू और सुन्दरता पूजन करने वाले के मन को सुन्दरता और शांति का एहसास दिलावाती है। ऐसा माना जाता है कि जब पूजा में इनका उपयोग किया जाता है, तो फूल अद्भुत ऊर्जा का सृजन पूरे घर में करते है और इससे घर में खुशियों का आगमन होता है।
ताजे फूल घर में सजाए जाना वास्तु के दृष्टीकोण से भी सौभाग्य का सूचक माना गया है। जब भगवान के सामने रखे फूल सूखने या मुरझाने लगे, तो इन्हें तुरंत हटा देना चाहिए और इनकी जगह ताजे फूल रख देना चाहिए क्योंकि ताजे फूल जीवन के प्रतीक है । जबकि सूखे फूल मृत्यु के सुचक है। जो वस्तु मृत्यु का प्रतीक है उसे घर में नहीं रखना चाहिए इसलिए कितना भी बड़ा पूजन घर में किया गया हो या किसी बड़े तीर्थस्थल से आप फूल अपने घर में लाएं हो 48 घंटे बाद उसका असर नहीं होता है। फूल का सुप्रभाव खत्म हो जाता है इसलिए भगवान को हमेशा ताजे फूल ही चढ़ाए जाते हैं।

पूर्व दिशा की ओर मुंह करके ही पूजा क्यों करनी चाहिए?
हमारे यहां जब भी कोई बड़ा पूजन पाठ करवाया जाता है तो कहा जाता है कि पूर्व की ओर मुंह करके बैठना चाहिए। लेकिन केवल विशेष पूजा-पाठ के समय ही नहीं बल्कि हमेशा पूजा करते समय पूर्व दिशा की ओर ही मुंह रखना चाहिए क्योंकि किसी भी घर के वास्तु में ईशान्य कोण यानी उत्तर-पूर्व या पूर्व दिशा का बड़ा महत्व है।
वास्तु के अनुसार ईशान कोण स्वर्ग दरवाजा कहलाता है। ऐसा माना जाता है कि ईशान कोण में बैठकर पूर्व दिशा की और मुंह करके पूजन करने से स्वर्ग में स्थान मिलता है क्योंकि उसी दिशा से सारी ऊर्जाएं घर में बरसती है। ईशान्य सात्विक ऊर्जाओं का प्रमुख स्त्रोत है। किसी भी भवन में ईशान्य कोण सबसे ठंडा क्षेत्र है। वास्तु पुरुष का सिर ईशान्य में होता है। जिस घर में ईशान्य कोण में दोष होगा उसके निवासियों को दुर्भाग्य का सामना करना पड़ता है।
साथ ही पूर्व दिशा को गुरु की दिशा माना जाता है। ज्योतिष के अनुसार गुरु को धर्म व आध्यात्म का कारक माना जाता है। ईशान्य कोण का अधिपति शिव को माना गया है। मान्यता है कि इस दिशा की ओर मुंह करके पूजा करने से घर में सकारात्मक ऊर्जा का निवास होता है बाद में ये ऊर्जाएं पूरे घर में फैल जाती हैं। पूर्व दिशा में बैठकर सुबह सूर्य की किरणों का सेवन करने से कई रोगों से मुक्ति मिल जाती है।

नवरात्र में कुलदेवी का पूजन क्यों करते हैं?
चैत्र में आने वाले नवरात्र में अपने कुल देवी-देवताओं की पूजा का विशेष प्रावधान माना गया है। वैसे दोनों ही नवरात्र मनाए जाते हैं। फिर भी इस नवरात्र को कुल देवी-देवताओं के पूजन की दृष्टि से विशेष मानते है क्योंकि यह नवरात्र हिन्दू कैलेण्डर के प्रथम दिन से शुरू होती है। इसलिए इस नवरात्र को बड़े नवरात्र भी कहा जाता है। नवरात्र के नौ दिनों में माता के पूजन का विशेष महत्व माना गया है।दूर्गा सप्तशती के अनुसार माता ने ऐसा आर्र्शीवाद दिया था कि जो भी अष्टमी और नवमी पर मेरी महापूजा करेगा।
उसके कुल में हमेशा धनधान्य रहेगा और मैं उसके कुल की स्वयं रक्षा करूंगी। ऐसी मान्यता है कि हर कुल की एक देवी होती हैं और कहा जाता है कि कुल देवी पूरे कुल की रक्षा करती है। नवरात्र के नौ दिनों में अष्टमी और नवमी को माता के पूजन का विशेष महत्व है। इसलिए कुल देवी का पूजन भी इन दो तिथियों को ही किया जाता है। कहते हैं कि चैत्र नवरात्र में कुलदेवी का पूजन इसीलिए किया जाता है ताकि पूरे साल कुल में हर्षोउल्लास और खुशी का माहौल रहे और कुल में जिस भी बच्चे का जन्म हो वह अपने कुल का नाम रोशन करे। इसीलिए हिन्दू समाज की लगभग हर जाति में नवरात्र में अधिकांशत: कुलदेवी का विशेष मन्त्र जप व अनुष्ठान किया जाता है।

नवरात्रै में नौ दिन ही क्यों?
ऋतुविज्ञान के अनुसार ये दोनों महीनें (चैत्र व आश्विन) गर्मी और सर्दी की संधि के महत्वपूर्ण महीनें हैं। ठंड की शुरूआत आश्विन से हो जाती है और ग्रीष्म चैत्र से गर्मी की। वसंत ऋतु चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के प्रारंभिक नौ दिन चैत्र नवरात्र नाम से प्रसिद्ध हैं।नव शब्द नवीन अर्थक और नौ संख्या का प्रतीक है। अत: नव संवत्सर के प्रारंभिक दिन होने के कारण उक्त दिनों को नव कहना ठीक है तथा दुर्गा मां के अवतारों की संख्या भी नौ होने से नौ दिन तक उपासना होती है।
कृषि प्रधान देश भारत में फसलों की दृष्टि से भी आश्विन और चैत्र मास का विशेष महत्व है। चैत्र में आषाढ़ी फसल मतलब गेहूं, जौं आदि और आश्विन में श्रावणी फसल धान तैयार होकर घरों में आने लगते हैं। अत: इन दोनों अवसरों पर नौ दिनों तक माता की आराधना की जाती है। वैसे तो एक वर्ष में चार नवरात्र होते हैं उनमें से दो को गुप्तनवरात्र कहा जाता है और दो नवरात्र में से भी चैत्र नवरात्र को बड़ा माना जाता है। नवरात्रि का त्योहार नौ दिनों तक चलता है क्योंकि मुलत: देवी के तीन स्वरूप होते हैं।
इन नौ दिनों में तीन देवियों पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के नौ स्वरुपों की पूजा की जाती है। पहले तीन दिन पार्वती के तीन स्वरुपों (कुमार, पार्वती और काली), अगले तीन दिन लक्ष्मी माता के स्वरुपों और आखिरी के तीन दिन सरस्वती माता के स्वरुपों की पूजा करते है। मान्यता है कि नवरात्र में नौ दिन सिद्धि प्राप्ति और कुंडलिनी जाग्ररण करने के दिन होते हैं। इन नौ दिनो में माता के पूजन के पहले दिन मुलाधार चक्र जागृत होता है। इस तरह नवे दिन निर्वाण चक्र की जागृति होती है ये नौ दिन विशेष सिद्धिदायक होते हैं। इसलिए नवरात्र नौ दिन के होते हैं।

भोलेनाथ को पूजा में क्या और क्यों ना चढ़ाएं?
भोलेनाथ को देवों के देव यानी महादेव भी कहा जाता है। कहते हैं कि शिव आदि और अनंत हैं। शिव ही एक मात्र ऐसे देवता हैं जिन्हें लिंग रूप में भी पूजा जाता है। शिव को प्रसन्न करने के लिए उन्हें अनेक ऐसी चीजें पूजा में अर्पित की जाती हैं। जो और किसी देवता को नहीं चढ़ाई जाती। जैसे आंक, बिल्वपत्र, भांग आदि। लेकिन शिव को भी कुछ पदार्थ पूजन में अर्पित करना शास्त्रों के अनुसार निषिद्ध माने हैं उन्हीं में से एक है हल्दी। सामान्यत: देवी-देवताओं के विधिवत पूजन आदि कार्यों में बहुत सी सामग्रियां शामिल की जाती हैं।
इन सामग्रियों में हल्दी भी शामिल की जाती है। हल्दी एक औषधि भी है और हम इसका प्रयोग सौंदर्य प्रसाधन में भी किया जाता हैं। धार्मिक कार्यों में भी हल्दी का महत्वपूर्ण स्थान है। कई पूजन कार्य हल्दी के बिना पूर्ण नहीं माने जाते। पूजन में हल्दी गंध और औषधि के रूप में प्रयोग की जाती है। हल्दी शिवजी के अतिरिक्त सभी देवी-देवताओं को अर्पित की जाती है। हल्दी का स्त्री सौंदर्य प्रसाधन में मुख्य रूप से उपयोग किया जाता है। शास्त्रों के अनुसार शिवलिंग पुरुषत्व का प्रतीक है, इसी वजह से महादेव को हल्दी इसीलिए नहीं चढ़ाई जाती है।
जलाधारी पर चढ़ाते हैं हल्दीशिवलिंग पर हल्दी नहीं चढ़ाना चाहिए परंतु जलाधारी पर चढ़ाई जानी चाहिए। शिवलिंग दो भागों से मिलकर बनी होती है। एक भाग शिवजी का प्रतीक है और दूसरा हिस्सा माता पार्वती का। शिवलिंग चूंकि पुरुषत्व का प्रतिनिधित्व करता है अत: इस पर हल्दी नहीं चढ़ाई जाती है। हल्दी स्त्री सौंदर्य प्रसाधन की सामग्री है और जलाधारी मां पार्वती से संबंधित है अत: इस पर हल्दी जाती है।


आप जानते हैं, नवरात्रि पर घर में जौ (जवारे) क्यों लगाना चाहिए!
चैत्र प्रतिपदा से हिन्दू नववर्ष के प्रारंभ के साथ ही बड़े नवरात्र भी शुरू होते हैं। ये नौ दिन माता की आराधना के लिए महत्वपूर्ण माने जाते हैं। नवरात्रि में देवी की उपासना से जुड़ी अनेक मान्यताएं हैं उन्ही में से एक है नवरात्रि पर घर में जवारे या जौ लगाने की। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि इसके पीछे मान्यता क्या है?
दरअसल नवरात्रि में जवारे इसलिए लगाते हैं क्योंकि मान्यता है कि जब सृष्टी की शुरूआत हुई थी तो पहली फसल जौ ही थी। इसलिए इसे पूर्ण फसल कहा जाता है। यह हवन में देवी-देवताओं को चढ़ाई जाती है यही कारण है कि इसे हविष्य अन्न भी कहा जाता है। वसंत ऋतु की पहली फसल जो ही होती है। जिसे हम माताजी को अर्पित करते हैं।
कहा जाता है जौ उगाकर भविष्य से संबंधित भी कुछ बातों के संकेत मिलते हैं जैसे यदि जौ तेजी से बढ़ते हैं तो घर में सुख-समृद्धि तेजी से बढ़ती है। अगर जौ हल्के रंग के हों तो भविष्य में घर की समृद्धि में किसी तरह की वृद्धि होती है और यदि ये जौ मुरझाए हुए या इनकी वृद्धि कम हुई हो तो भविष्य में कुछ अशुभ घटना का संकेत मिलता है। एक अन्य मान्यता के अनुसार जौ से ही चावल उत्पन्न हुए हैं। लेकिन इस मान्यता के पीछे मूल भावना यही है कि माताजी के आर्शीवाद से पूरा घर वर्षभर धनधान्य से भरा रहे।

नवरात्रि में उपवास क्यों रखना चाहिए?
हिंदू धर्म के अनुसार वर्ष में चार नवरात्रि होती है। इनमें प्रमुख है चैत्र व आश्विन नवरात्रि। इनके अलावा दो गुप्त नवरात्रि भी होती है लेकिन आम लोग केवल इन दो नवरात्रि के बारे में ही जानते हैं और साथ ही ऐसे लोग भी बहुत कम हैं जो ये जानते हैं कि इन दोनो नवरात्रि में उपवास क्यों रखते हैं? दरअसल ऋतुविज्ञान के अनुसार ये दोनों मास (चैत्र व आश्विन) गर्मी और सर्दी की संधि के महत्वपूर्ण महीने हैं।
गर्मी का मौसम चैत्र से प्रारंभ हो जाता है। ऋतु परिवर्तन का समय ही वह मुख्य समय होता है जब बीमारी फैलाने वाले बैक्टिरिया और जीवाणु अधिक सक्रीय रहते हैं। ऋतु परिवर्तन के कारण इन दिनों में अधिकांश लोगों को पेट से संबंधित पेरशानियों का सामना करना पड़ता है, इसीलिए शरीर की शुद्धि के लिए नौ दिन उपवास रखते हैं।
साथ ही अगर शास्त्रों के नजरिए से देखें तो नव शब्द का अर्थ है नया।अत: नव संवत्सर के प्रारंभिक दिन होने के कारण इन दिनों को नव कहना सुसंगत है तथा दुर्गा देवी के भी नौ स्वरूप हैं इसीलिए नौ दिनों तक माता की उपासना होती है। ऐसी मान्यता है कि इन नौ दिनों तक उपवास रखने और सच्ची श्रद्धा से माता का पूजा-पाठ करने पर हर मनोकामना पूर्ण होती है।

नवरात्रि में दुर्गासप्तशती का पाठ क्यों करना चाहिए
नवरात्रि पूरे भारत मे बड़े हर्षोउल्लास के साथ मनाया जाता है, यह नौ दिनो तक चलता है। इन नौ दिनो मे हम तीन देवियों पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के नौ स्वरुपों की पूजा करते है। पहले तीन दिन पार्वती के तीन स्वरुपों(कुमार, पार्वती और काली), अगले तीन दिन लक्ष्मी माता के स्वरुपों और आखिरी के तीन दिन सरस्वती माता के स्वरुपों की पूजा करते है। ये तीनो देवियां शक्ति, सम्पदा और ज्ञान का प्रतिनिधित्व करती है और इन्हे देवी दुर्गा का स्वरूप माना जाता है।
इसीलिए नवरात्रि में दुर्गा सप्तशती के पाठ का विशेष महत्व है क्योंकि सप्तशती में देवी के प्राकट्य, देवताओं द्वारा देवी की स्तुति और पराक्रम का वर्णन किया गया है।सप्तशती में वर्णन है कि देवी द्वारा कई राक्षसों का विनाश भी किया गया है और उसके बाद देवताओं को वरदान दिए गए हैं। मां दुर्गा ने स्वयं कहा है कि जो नवरात्रि में मेरे गुणों का गान करेगा और देवताओं द्वारा कि गई स्तुति का पाठ करेगा। उसके घर में कभी धन-धान्य की कमी नहीं होगी। उसके कुल कि मैं रक्षा करूंगी। ऐसी मान्यता है कि सप्तशती का पाठ करने या सुनने मात्र से बुरे सपने नहीं आते और कभी भी ऊपरी बाधाएं परेशान नहीं करती हैं। ज्योतिष के अनुसार नौ ग्रहों के बुरे प्रभाव से भी सप्तशती के पाठ से मुक्ति मिलती है।

हल्दी का उपयोग शुभ माना जाता है क्योंकि...

हल्दी की छोटी सी गांठ में बड़े गुण होते हैं। शायद ही कोई ऐसा घर हो जहां हल्दी का उपयोग न होता हो। पूजा-अर्चना से लेकर पारिवारिक संबंधों की पवित्रता तक में हल्दी का उपयोग होता है।पूजा-अर्चना में हल्दी को तिलक व चावल से साथ इस्तेमाल किया जाता है। हल्दी का सबसे ज्यादा उपयोग घर के दैनिक भोजन में होता है। स्वास्थ्य के लिए हल्दी रामबाण ही है।हल्दी का उपयोग शरीर में खून को साफ करता है। हल्दी के उपयोग से कई असाध्य बीमारियों में फायदा होता है।
भोजन में उपयोग भोजन के स्वाद को बढ़ा देता है।तंत्र-ज्योतिष में भी हल्दी का महत्वपूर्ण स्थान होता है। तंत्रशास्त्र के अनुसार, बगुलामुखी पीतिमा की देवी हैं। उनके मंत्र का जप पीले वस्त्रों में तथा हल्दी की माला से होता है।हिन्दू धर्म दर्शन में भी हल्दी को पवित्र माना जाता है। ब्राह्मणों में पहना जाने वाला जनेऊ तो बिना हल्दी के रंगे पहना ही नहीं जाता है।जब भी जनेऊ बदला जाता है तो हल्दी से रंगे जनेऊ को ही पहनने की प्रथा है। इसमें सब प्रकार के कल्याण की भावना निहित होती है।शारीरिक सौन्दर्य को निखारने में भी हल्दी की महत्वपूर्ण भूमिका है। आज भी गांवों में नहाने से पहले शरीर पर हल्दी का उबटन लगाने का चलन है। कहते हैं इससे शरीर की कांति बढ़ती है और मांसपेशियों में कसावट आती है।
हल्दी को शुभता का संदेश देने वाला भी माना गया है। आज भी जब कागज पर विवाह का निमंत्रण छपवाकर भेजा जाता है, तब निमंत्रण पत्र के किनारों को हल्दी के रंग से स्पर्श करा दिया जाता है। कहते हैं कि इससे रिश्तों में प्रगाढ़ता आती है।वैवाहिक कार्यक्र मों में भी हल्दी का उपयोग होता है। दूल्हे व दुल्हन को शादी से पहले हल्दी का उबटन लगाकर वैवाहिक कार्यक्रम पूरे करवाए जाते हैं। इतने गुणों के कारण ही हल्दी को पवित्र माना जाता है।

मंदिर जाएं तो क्या ध्यान रखें?

जब भी श्रद्धालु कोई मनोकामना लेकर देवालयों में जाते हैं तो वहां कुछ समय बैठते अवश्य है। मंदिर में कैसे बैठना चाहिए इस संबंध में भी विद्वानों द्वारा कुछ बातें बताई गई हैं। ऐसा माना जाता है कि मंदिरों में ईश्वर साक्षात् रूप में विराजित होते हैं। किसी भी मंदिर में भगवान के होने की अनुभूति प्राप्त की जा सकती है। भगवान की प्रतिमा या उनके चित्र को देखकर हमारा मन शांत हो जाता है और हमें सुख प्राप्त होता है।
मंदिर में भगवान का ध्यान लगाने के लिए बैठते समय ध्यान रखना चाहिए कि हमारी पीठ भगवान की ओर न हो। इसे शुभ नहीं माना जाता है।मंदिर में कई दैवीय शक्तियां का वास होता है और वहां सकारात्मक ऊर्जा हमेशा सक्रीय रहती है। यह शक्ति या ऊर्जा देवालय में आने वाले हर व्यक्ति के लिए होती है। यह हम पर ही निर्भर करता है कि हम वह शक्ति कितनी ग्रहण कर पाते हैं। इन सभी शक्तियों का केंद्र भगवान की प्रतिमा ही होती है जहां से यह सभी सकारात्मक ऊर्जा संचारित होती रहती है।
में यदि हम भगवान की प्रतिमा की ओर पीठ करके बैठ जाते हैं तो यह शक्ति हमें प्राप्त नहीं हो पाती। इस ऊर्जा को ग्रहण करने के लिए हमारा मुख भी भगवान की ओर होना आवश्यक है।भगवान की ओर पीठ करके नहीं बैठना चाहिए इसका धार्मिक कारण भी है। ईश्वर को पीठ दिखाने का अर्थ है उनका निरादर। भगवान की ओर पीठ करके बैठने से भगवान का अपमान माना जाता है। इसी वजह से ऋषिमुनियों और विद्वानों द्वारा बताया गया है कि हमारा मुख भगवान के सामने होना चाहिए, पीठ नहीं।

चतुर्थी पर चंद्रमा की पूजा क्यों की जाती है?
चतुर्थी स्त्रियों के लिये बड़ा ही महत्वपूर्ण पर्व तथा अवसर होता है। पत्नियों की ऐसी दृढ़ मान्यता होती है कि चंद्रमा की पूजा करने और कृपा प्राप्त करने से उनके पति की उम्र मथा सुख-समृद्धि में इजाफा होता है लेकिन इस परंपरा को बनाए जाने के पीछे वैज्ञानिक क कारण क्या है ये बहुत कम लोग जानते हैं। दरअसलचंद्रमा पृथ्वी के नजदीक होने के कारण, पृथ्वीवासियों को बड़ी गहराई से प्रभावित करता है। कहते हैं चंद्रमा से निकलने वाले सूक्ष्म विकिरण इंसान को शारीरिक और मानसिक दोनों ही स्तरों पर असर डालते हैं।
चौथ या महीने की अन्य चतुर्थी के दिन चंद्रमा की कलाओं का प्रभाव विशेष असर दिखाता है। इसलिये इस दिन की पूजा से विशेष लाभ होता है।चंद्रमा को जल चढ़ाते समय, चंद्रमा की किरणें पानी से परावर्तित होकर साधक को आश्चर्यजनक मनोबल प्रदान करती हैं। ज्योतिष के अनुसार ऐसी मान्यता है कि चंद्र की पूजा जरुर करना चाहिए क्योंकि चंद्रमा को मन का कारक या देवता होने के कारण मन को सकारात्मक ऊर्जा और आत्मविश्वास से भर देता है।

आखिर क्यों, तंत्र क्रियाएं शमशान में ही की जाती हैं?
तंत्र क्रियाओं का नाम सुनते ही जहन में अचानक शमशान का चित्र उभर आता है। जलती चिता के सामने बैठा तांत्रिक, अंधेरी रात और मीलों तक फैला सन्नाटा। आखिर क्यों अधिकांश तंत्र क्रियाएं शमशान में की जाती है। यदि आपके मन में भी ये सारे सवाल हैं तो आइये जानते हैं क्यों ये साधनाएं शमशान में की जाती हैं।
दरअसल शमशान ही वह स्थान है जहां के वातावरण में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह की शक्तियां होती हैं। जहां चाहे मुश्किल से लेकिन नकारात्मक को सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है। तंत्र क्रियाएं हर तरह के शमशान में नहीं हो सकती हैं। इसकी सिद्धि के लिए भी विशेष शमशान होना जरूरी है। ऐसे शमशान जिसके किनारे कोई नदी हो और दूसरा कोई सिद्ध मंदिर उसके क्षेत्र में हो।
तांत्रिक ऐसे शमशानों में साधना करना पसंद करते हैं जहां रोजाना 2-4 शव जलाए जाते हों। शमशान का नदी के किनारे होना इसलिए जरूरी है क्योंकि पानी सृजन का प्रतीक है, वह पवित्र भी है और उसे ब्रह्म भी माना जाता है। नदी के किनारे होने से वहां सकारात्मक ऊर्जा रहती है, जो सृजनशीलता बढ़ाती है। वहीं श्मशान संहार का प्रतीक है। जहां नकारात्मक ऊर्जा प्रचुर होती है।
इसी नकारात्मक ऊर्जा के प्रभाव से खुद को बचाने के लिए तांत्रिक ऐसे शमशान में साधना करना पसंद करते हैं। पास ही मंदिर होने से भी नकारात्मक ऊर्जाओं का प्रभाव कम होता है और उन पर आसानी से नियंत्रण पाया जा सकता है। इस नकारात्मक ऊर्जा को इन्हीं दो कारणों से तांत्रिक सकारात्मक में बदल देते हैं। इन साधनाओं के माध्यम से ही यह चमत्कार संभव है। इसीलिए ये साधनाएं शमशान में की जाती हैं।

रात में श्मशान या कब्रिस्तान न जाएं, क्योंकि...

श्मशान का नाम सुनते ही हर इंसान के मन में एक अजीब सा डर पैदा हो जाता है। आपने जब भी कभी रात के समय श्मशान में जाने की नहीं सिर्फ पास से गुजरने की बात भी यदि अपने घर के किसी बुजुर्ग के सामने कही होगी, तो उन्हें यही कहते सुना होगा कि रात के समय श्मशान नहीं जाते।
ऐसी बात सुनकर सामान्यत: सभी के दिमाग में यही सवाल उठता है कि रात के समय श्मशान क्यों नहीं जाएं? आखिर इसके पीछे क्या कारण है?कुछ लोग इसे सिर्फ अंधविश्वास मानते हैं लेकिन ये अंधविश्वास नहीं है। दरअसल रात के समय निशाचरी या नकारात्मक शक्तियों का अधिक प्रभाव रहता है। रात के समय नकारात्मक शक्तियां किसी भी कमजोर व्यक्ति को तुरंत अपने प्रभाव में ले लेती हैं।
यदि कोई व्यक्ति भावनात्मक रूप से कमजोर है, नेगेटीव थिंकिंग से घिरा हुआ है तो ये संभावना बढ़ जाती है कि उस व्यक्ति को नकारात्मक शक्तियां घेर ले। जब व्यक्ति इन नकारात्मक शक्तियों के प्रभाव में आ जाता है तो उसे कई तरह की परेशानियों से घेर लेती हैं। इसीलिए रात के समय शमशान में जाना हमारे लिए वर्जित किया गया है। विज्ञान भी मानता है कि सकारात्मक और नकारात्मक शक्तियों का प्रभाव हम पर होता है। कमजोर सोच के व्यक्तियों को नकारात्मक शक्ति तुरंत प्रभावित कर लेती है।

नवरात्रि में पूजन के समय जरुर बनाएं हल्दी-कुमकुम के पैर क्योंकि...
देवी पूजा के दौरान अनेक बातों का ध्यान रखा जाता है उन्हीं में से एक परंपरा है पूजन स्थल पर हल्दी व कुमकुम से देवी मां के चरणों की आकृति बनाने की। देवी के चरणों की आकृति पूजन स्थल पर क्यों बनाते हैं ये बहुत कम लोग जानते हैं। देवी मां के चरणों के यह प्रतीक अत्यंत शुभफलदायी माने जाते हैं। मान्यता है कि मां के चरणों में आध्यात्मिक ऊर्जा होती है जो हमारे मस्तिष्क को प्रखर बनाती है।
चरण गतिशीलता का प्रतीक माने जाते हैं जिसका अर्थ है जीवन निरंतर आगे बढ़ता है हमें भी अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए सांसारिक बंधनों को पीछे छोड़ते हुए प्रभु के श्रीचरणों में जाकर मोक्ष की प्राप्ति करनी है। हल्दी व कुमकुम का उपयोग इसलिए किया जाता है कि हिंदू धर्म में इन दोनों को अत्यंत शुभ माना जाता है। पूजा स्थल के अलावा आप घर के मुख्य द्वार के चौखट पर भी माता के चरणों की आकृति बना सकते हैं ताकि मां का आशीर्वाद आपके कुटुंब पर हमेशा बना रहे। ध्यान रहे कि चरणों को आमने-सामने अंकित करने के बजाए, दायां चरण आगे व बायां चरण इससे थोड़ा पीछे की ओर बनाएं।

क्यों करना चाहिए नवरात्रि में कन्याओं के पैर का पूजन?
मारी भारतीय संस्कृति में हर त्यौहार से जुड़ी अनेक परंपराएं हैं। नवरात्रि के त्यौहार से जुड़ी भी कई परंपराएं हैं। उन्ही में से एक परंपरा है कन्याओं के पैरों का पूजन कर उन्हें भोजन करवाने की। इसका धार्मिक कारण यह है कि कुमारी कन्याएं माता के समान ही पवित्र व पूजनीय होती हैं। दो वर्ष से लेकर दस वर्ष की कन्याएं साक्षात माता का स्वरूप मानी जाती है। यही कारण है कि इसी उम्र की कन्याओं के पैरों का विधिवत पूजन कर भोजन कराया जाता है।
शास्त्रों के अनुसार एक कन्या की पूजा से ऐश्वर्य, दो की पूजा से भोग और मोक्ष, तीन की अर्चना से धर्म, अर्थ व काम, चार की पूजी से राज्यपद, पांच की पूजा से विद्या, छ: की पूजा से छ: प्रकार की सिद्धि, सात की पूजा से राज्य की, आठ की पूजा से संपदा और नौ की पूजा से पृथ्वी के प्रभुत्व की प्राप्ति होती है।कुमारी पूजन में दस वर्ष तक की कन्याओं का विधान है। इससे अधिक उम्र की कन्याओं को देवी पूजन में वर्जित माना गया है। दो वर्ष की कन्या कुमारी, तीन वर्ष की कन्या त्रिमूर्ति, चार वर्ष की कल्याणी, पांच वर्ष की रोहिणी, छ: वर्ष की काली, सात वर्ष की चण्डिका, आठ वर्ष की शांभवी, नौ वर्ष की दुर्गा और दस वर्ष की सुभद्रा स्वरूप होती है।

शाम को इस समय नहीं करना चाहिए भोजन क्योंकि...
हमें कैसा जीवन जीना चाहिए, हमारे विचार कैसे होने चाहिए, हमारे कर्तव्य और अधिकार क्या हैं और हमें किस समय क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। ऐसे ही कई प्रश्नों के उत्तर शास्त्रों में मिल जाते हैं। हमारे यहां दैनिक कार्यों से जुड़ी भी कुछ परंपराएं हैं जैसे सुबह जल्दी उठना, शाम के समय नहीं सोना, शाम के समय नहीं पढऩा और सूर्यास्त के समय खाना नहीं खाना।
कहते हैं शाम के समय भोजन नहीं करना चाहिए। इस समय तो पूरे भक्तिभाव से भगवान की पूजा-अर्चना एवं संध्या करनी चाहिए। कहते हैं इन सभी कामों को शाम को करने से आयु तो घटती ही है, साथ ही यश, लक्ष्मी, विद्या आदि सभी का नाश हो जाता है और इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि सूर्यास्त के समय भोजन करने से पाचन शक्ति प्रभावित होती है और पेट से जुड़ी कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

मां दुर्गा को लाल फूल ही चढ़ाना चाहिए क्योंकि...
भगवान को फूल चढ़ाने का अर्थ यह है कि हम कोमलता और सरलता से प्रभु के चरणों में खुद को समर्पित करते हैं। ठीक इसी तरह भगवान भी हमें कोमलता और सरलता से आशीष प्रदान करते हैं, हमारी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं। भगवान फूलों की सुगंध की तरह हमारे जीवन में भी खुश्बू फैला देते हैं। नवरात्रि में माताजी को विशेष रूप से लाल रंग के पुष्प चढ़ाए जाते हैं क्योंकि लाल रंग मां दुर्गा का प्रिय माना गया है। साथ ही पुष्प प्रतीक है कोमलता, सरलता का।
लाल रंग को उत्साह, उत्तेजना व ऊर्जा का प्रतीक माना जाता है। इसलिए मां को नवरात्रि में लाल रंग के और विशेषकर गुड़हल के फूल चढ़ाए जाते हैं क्योंकि ऐसी मान्यता है कि लाल पुष्प जहां रहते हैं वहां का वातावरण हमेशा उत्साह से भरा रहता है साथ ही घर के सारे लोगों में एक नई ऊर्जा का संचार होता है यानी लाल रंग के पुष्प चढ़ाने का यही कारण है कि इससे शक्ति स्वरूपा मां दुर्गा से आर्शीवाद में ऊर्जा व शक्ति दोनों की प्राप्ति होती है।

दाह संस्कार में मृतक के मुंह पर चंदन क्यों रखते हैं?

हिंदू परंपरा के अनुसार मृतक का दाह संस्कार करते समय उसके मुख पर चंदन की लकड़ी रख कर जलाने की परंपरा है। यह परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। इस परंपरा के पीछे सिर्फ धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक कारण भी छिपे है।
चंदन की लकड़ी अत्यंत शीतल मानी जाती है। उसकी ठंडक के कारण लोग चंदन को घिसकर मस्तक पर तिलक लगाते हैं, जिससे मस्तिष्क को ठंडक मिलती है। धार्मिक मान्यता के अनुसार मृतक के मुख पर चंदन की लकड़ी रख कर दाह संस्कार करने से उसकी आत्मा को शांति मिलती है तथा मृतक को स्वर्ग में भी चंदन की शीतलता प्राप्त होती है।
इसका वैज्ञानिक कारण अगर देखा जाए तो मृतक का दाह संस्कार करते समय मांस और हड्डियों के जलने से अत्यंत तीव्र दुर्गंध फैलती है। उसके साथ चंदन की लकड़ी के जलने से दुर्गंध पूरी तरह समाप्त तो नहीं होती लेकिन कुछ कम जरुर हो जाती है। यही कारण है दाह संस्कार करते समय शव के मुख पर चंदन की लकड़ी रखी जाती है।

सुबह जागने के बाद कभी न भूलें यह '6 काम' करना
शास्त्रों के अनुसार हर समय के लिए अलग-अलग परंपराएं बताई गई हैं। सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक कई जरूरी कर्म बताए गए हैं जिन्हें करना हमारे स्वास्थ्य और धर्म के नजरिए से फायदेमंद है।
ऐसा माना जाता है सुबह नींद से जागने के बाद हम कोई शुभ कर्म करें तो पूरा दिन अच्छा रहता है। इसी वजह से कई ऐसी परंपराएं निर्धारित की गई हैं जिन्हें अपनाने वाले इंसान को किसी प्रकार की परेशानी या दुख नहीं रहता। साथ ही इनसे स्वास्थ्य लाभ भी प्राप्त होता है। प्रतिदिन के सभी आवश्यक कार्यों के अतिरिक्त यहां कुछ कर्म ऐसे बताए जा रहे हैं जिन्हें प्रतिदिन करने से आपके लिए सुख और समृद्धि के नए रास्ते खुलेंगे।
सुबह उठते ही सबसे पहले हमें हमारे हाथों का दर्शन करना चाहिए। शास्त्रों में कर्म को प्रधान बताया गया और हाथों से कर्म किए जाते हैं। साथ ही एक और भी मान्यता है कि हमारे हाथों में विष्णु, लक्ष्मी और सरस्वती का वास होता है। सुबह-सुबह इनके दर्शन से दिन अच्छा रहता है।
प्रतिदिन जल्दी उठकर योग करना चाहिए। योग या ध्यान करने से हमारे मन को शांति और शरीर को कई रोगों से लडऩे की शक्ति मिलती है। दिनभर स्फूर्ति बनी रहती है और आलस्य नहीं रहता।
नित्य क्रियाओं के बाद पूजन-अर्चन करें। थोड़ा समय भगवान की भक्ति के लिए निकालना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार भगवान की भक्ति से सभी परेशानियां दूर होती हैं और जीवन सुखी बनता है।
सूर्य को अध्र्य दें। प्रतिदिन सूर्य को अध्र्य देने से कई लाभ प्राप्त होते हैं। सूर्य को ज्योतिषीय महत्व भी है। यदि किसी व्यक्ति की पत्रिका में सूर्य अशुभ स्थिति में हो तो प्रतिदिन सूर्य को जल चढ़ाने से सभी दोष दूर होते हैं। साथ ही सूर्य मान-सम्मान और आकर्षक व्यक्तित्व देने वाले देवता माने गए हैं। इनकी आराधना से यह सभी इच्छाएं पूर्ण होती हैं।
शास्त्रों में माता-पिता को भगवान के बराबर ही बताया गया है। यदि माता-पिता आपसे खुश नहीं है तो देवी-देवताओं की कृपा भी प्राप्त नहीं की जा सकती अत: प्रतिदिन उनका आर्शीवाद लें। घर से निकलने से पहले थोड़ा दही या कुछ मीठा खाकर निकलें।

भगवानों के वाहन पशु ही क्यों होते हैं?
किसी भी मंदिर में जाइए, किसी भी भगवान को देखिए, उनके साथ एक चीज सामान्य रूप से जुड़ी हुई है, वह है उनके वाहन। लगभग सभी भगवान के वाहन पशुओं को ही माना गया है। शिव के नंदी से लेकर दुर्गा के शेर तक और विष्णु के गरूढ़ से लेकर इंद्र के ऐरावत हाथी तक। लगभग सारे देवी-देवता पशुओं पर ही सवार हैं।
आखिर क्यों सर्वशक्तिमान भगवानों को पशुओं की सवारी की आवश्यकता पड़ी, जब की वे तो अपनी दिव्यशक्तियों से पलभर में कहीं भी आ-जा सकते हैं? क्यों हर भगवान के साथ कोई पशु जुड़ा हुआ है?
भगवानों के साथ जानवरों को जोडऩे के पीछे कई सारे कारण हैं। इसमें अध्यात्मिक, वैज्ञानिक और व्यवहारिक कारणों से भारतीय मनीषियों ने भगवानों के वाहनों के रूप पशु-पक्षियों को जोड़ा है। वास्तव में देवताओं के साथ पशुओं को उनके व्यवहार के अनुरूप जोड़ा गया है।
जैसे शिव भोलेभाले, सीधे चलने वाले लेकिन कभी-कभी भयंकर क्रोध करने वाले देवता हैं तो उनका वाहन नंदी है। दुर्गा तेज, शक्ति और सामथ्र्य का प्रतीक है तो उनके साथ सिंह है। ऐसे ही बाकी देवताओं के साथ भी पशुओं को उनके व्यवहार और स्वभाव के आधार पर जोड़ा गया। दूसरा सबसे बड़ा कारण है प्रकृति की रक्षा। अगर पशुओं को भगवान के साथ नहीं जोड़ा जाता तो शायद पशु के प्रति हिंसा का व्यवहार और ज्यादा होता।
हर भगवान के साथ एक पशु को जोड़कर भारतीय मनीषियों ने प्रकृति और उसमें रहने वाले जीवों की रक्षा का एक संदेश दिया है। हर पशु किसी न किसी भगवान का प्रतिनिधि है, उनका वाहन है, इसलिए इनकी हिंसा नहीं करनी चाहिए। मूलत: इसके पीछे एक यही संदेश सबसे बड़ा है।

वैशाखी 14 को, क्यों मनाते हैं वैशाखी?
वैशाखी का त्योहार पंजाब, हरियाण आदि प्रदेशों में बड़ी ही धूमधाम व हर्षोल्लास से मनाया जाता है। प्रतिवर्ष यह त्योहार अप्रैल माह में मनाया जाता है। इस बार यह त्योहार 14 अप्रैल, गुरुवार को है।
वैसे तो वैशाखी का पर्व मूलत: फसल पकने की खुशी में मनाया जाता है। इस समय गेंहू की फसल पककर तैयार हो जाती है। किसान जब अपनी फसल लहलहाती देखता है तो उसके मन में अपने आप ही उमंग और उल्लास हिलोरे मारने लगता है। इस खुशी को सभी लोग मिलकर नाच-गाकर मनाते हैं। इसी पर्व का नाम वैशाखी है। पंजाब में तरन-तारन की वैशाखी बहुत प्रसिद्ध है, जहां प्रतिवर्ष भव्य मेले का आयोजन होता है।
इस स्थान पर सन 1768 में सिक्खों के गुरु श्रीरामदासजी की स्मृति में एक गुरुद्वारा स्थापित किया गया, जिसके साथ एक सरोवर भी है। वहां के लोगों का विश्वास है कि इस पवित्र सरोवर में स्नान करने से सभी असाध्य रोग दूर हो जाते हैं। पंजाब की वैशाखी की विशेष महत्वता है। इस दिन सिक्खों के दसवें गुरु श्रीगोविंदसिंहजी ने खालसा पंथ की स्थापना की थी।

मुख्यद्वार पर क्यों लगाना चाहिए, काले घोड़े की नाल?
ज्योतिष के अनुसार घर के मुख्यद्वार पर काले घोड़े की नाल लगाने से घर पर किसी की बुरी नजर नहीं लगती और बरकत बनी रहती है। घर का मुख्य द्वार उत्तर, उत्तर-पश्चिम या पश्चिम में हो तो उसके ऊपर बाहर की तरफ घोड़े की नाल जरूर लगा देना चाहिए। ऐसी मान्यता है कि काले घोड़े की नाल से शनिदोष दूर होते हैं क्योंकि ज्योतिष के अनुसार काले घोड़े के पैरों पर शनि का विशेष प्रभाव माना गया है। शनि न्याय के देवता हैं।
वे मेहनत करने वाले लोगों पर विशेष रूप से कृपा करते हैं साथ ही उन्हे भी श्यामवर्ण ही माना गया है। इसलिए ऐसी मान्यता है कि काले घोड़े की नाल घर के मुख्यद्वार पर लगाने से सुरक्षा एवं सकारात्मक ऊर्जा मिलती है। नाल इंग्लिश वर्णमाला के अक्षर यू के आकार में लगाना चाहिए। काले घोड़े की नाल की नाल से शनि संबंधी दोष भी दूर होते हैं। इसी वजह से शनि पीड़ा को कम करने के लिए काले घोड़े की नाल का छल्ला भी पहना जाता है।वही नाल घर के दरवाजे पर लगाने से धन, सुख, समृद्धि बनी रहती है। परिवार के सभी सदस्य सदैव बुरी नजर से बचे रहते हैं।

घर में नहीं रखते बंद घड़ी क्योंकि...
कहते हैं समय हर व्यक्ति के लिए अमुल्य होता है क्योंकि बीता हुआ समय कभी वापस लौटकर नहीं आता है। जो आज है वो कल नहीं होगा और जो कल था वह आज हो नहीं सकता। इसलिए कहते हैं चलना ही जिंदगी है। घर की हर वस्तु का अपना अलग महत्व होता है और उसी के अनुसार उसका प्रभाव हमारे जीवन पर पड़ता है। इन्हीं में से महत्वपूर्ण वस्तु है घड़ी। घड़ी हमें हमेशा चलते रहने का संदेश देती है।
एक तरफ घड़ी जहां हमें समय की सही जानकारी देती है वहीं इससे वास्तु के अनुसार हमारे परिवार के सदस्यों पर सकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव पड़ता है। घड़ी भी वातावरण में बहती हुई सकारात्मक ऊर्जा को संकलित करती है जिसका प्रभाव घर के सदस्य पर पड़ताहै।
बंद घड़ी को हानिकारक माना जाता है।बंद घड़ी नकारात्मक ऊर्जा को बढ़ाती है और पॉजीटिव एनर्जी का प्रभाव कम करती है। घर में बंद घड़ी नहीं रखनी चाहिए। यदि कोई घड़ी बंद है तो उसे तुरंत ही चालु करें अन्यथा उसे घर से हटा दें। फेंगशुई की मान्यता है बंद घड़ी से घर में धन की आवक भी प्रभावित होती है।घड़ी ऐसी जगह लगानी चाहिए जहां से सभी को आसानी से दिखाई दे सके।


घर में इकट्ठा नहीं होना चाहिए, कबाड़ क्योंकि...

कहते हैं घर में साफ-सफाई रखने से घर में लक्ष्मी का स्थाई निवास तो होता ही है साथ ही पितृ की भी प्रसन्न होते है घर के बड़े-बुजूर्ग भी घर को साफ रखने की बात कहते हैं क्योंकि जहां पुराना सामान रखा रहता है वहां ठीक से साफ-सफाई नहीं हो पाती और वहां मकड़ी जाले बना लेती है। धूल-मिट्टी फैल जाती है। इस वजह से वहां दरिद्रता का निवास हो जाता है और लक्ष्मी ऐसे स्थान को छोड़कर चली जाती है।
महालक्ष्मी ऐसे स्थान पर ही निवास करती हैं जहां पूरी साफ-सफाई और स्वच्छता बनी रहती है। इसके विपरित परिस्थितियों में दरिद्रता का निवास हो जाता है। जिससे परिवार को कई प्रकार की आर्थिक हानि उठाना पड़ सकती है। घर की आय नहीं बढ़ती और सदस्यों को कई परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है।
वास्तु शास्त्र के अनुसार भी घर में पुराना सामान रखना अशुभ माना गया है।इससे परिवार के सभी सदस्यों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है साथ ही अधिक नकारात्मक विचार भी आते हैं।कबाड़ा रखने से फैली गंदगी हमारे स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक है। इससे हमें कई बीमारियां हो सकती है। धूल-मिट्टी फैल जाती है। इस वजह से वहां दरिद्रता का निवास हो जाता है और लक्ष्मी ऐसे स्थान को छोड़कर चली जाती है। महालक्ष्मी ऐसे स्थान पर ही निवास करती हैं जहां पूरी साफ-सफाई और स्वच्छता बनी रहती है।
इसके विपरित परिस्थितियों में दरिद्रता का निवास हो जाता है। जिससे परिवार को कई प्रकार की आर्थिक हानि उठाना पड़ सकती है।घर की आय नहीं बढ़ती और सदस्यों को कई परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। वास्तु शास्त्र के अनुसार भी घर में पुराना सामान रखना अशुभ माना गया है। इससे परिवार के सभी सदस्यों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है साथ ही अधिक नकारात्मक विचार भी आते हैं।कबाड़ा रखने से फैली गंदगी हमारे स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक है। इससे हमें कई बीमारियां हो सकती है।

इसलिए खास है सन् 1699 की वैशाखी

वैशाखी का त्योहार मन में हर्ष और उल्लास भर देता है। वैशाखी मनाने के पीछे कई कारण भी है। यह पर्व सालों से मनाया जा रहा है फिर भी सन् 1699 में वैशाखी के दिन जो हुआ उसने भारतीय इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया।
गुरु तेग बहादुर सिंह जी की हत्या के बाद उनके बेटे गुरु गोविंद सिंह दसवें गुरु कहलाए। इन्होंने लोगों में बलिदान देने और संघर्ष की भावना बढ़ाने के लिए 3 मार्च, 1699 को वैशाखी के दिन केशगढ़ साहिब के पास आनंदपुर में एक सभा बुलाई। इस सभा में हजारों लोग इकट्ठा हुए। गुरु गोविंद सिंह ने यहां पर लोगों के मन में साहस पैदा करने के लिए लोगों से जोश और हिम्मत की बातें कीं। उन्होंने लोगों से कहा कि जो लोग इस कार्य के लिए अपना जीवन बलिदान करने के लिए तैयार हैं, वे ही आगे आएं।
इस सभा में गुरु गोविंद जी अपने हाथ में एक तलवार लेकर आए थे। उनके बार-बार आह्वान करने पर भीड़ में से एक जवान लड़का बाहर आया। गुरु जी उसे अपने साथ तंबू के अंदर ले गए और खून से सनी तलवार लेकर बाहर आए। उन्होंने लोगों से कहा कि जो बलिदान के लिए तैयार है, वह आगे आए। एक लड़का फिर आगे बढ़ा। गुरु उसे भी अंदर ले गए और खून से सनी तलवार के साथ बाहर आए। उन्होंने ऐसा पांच बार किया। आखिर में वे उन पांचों को लेकर बाहर आए। उन्होंने सफेद पगड़ी और केसरिया रंग के कपड़े पहने हुए थे। यही पांच युवक उस दिन से पंच प्यारे कहलाए।
इन पंच प्यारों को गुरु जी ने अमृत (अमृत यानि पवित्र जल जो सिख धर्म धारण करने के लिए लिया जाता है) चखाया। इसके बाद इसे बाकी सभी लोगों को भी पिलाया गया। इस सभा में मौजूद हर धर्म के अनुयायी ने अमृत चखा और खालसा पंथ का सदस्य बन गया।

थकान से हैं परेशान, तुरंत करें ये 4 काम
कई बार इंसान समझ नहीं पाता कि आखिर उसे हुआ क्या है। वो चाहता है कि वह ज्यादा से ज्यादा मेहनत-मशक्कत करे लेकिन चाह कर भी वह ऐसा कर नहीं पाता। सभी जानते हैं कि बगैर मेहनत किये जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता हासिल नहीं की जा सकती।
उस स्थिति को क्या कहें जब कोई चाह कर भी अपनी मंजिल की तरफ कदम न बढ़ा सके। थकान एक ऐसी ही समस्या है जिसके कारण शारीरिक और मानसिक दोनों तलों पर व्यक्ति असमर्थ और अयोग्य सिद्ध होता है।
थकान को सिर्फ शारीरिक समस्या मानकर उपाय करने से पूरी सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती। इसीलिये हम कुछ ऐसे बेहद सरल और कारगर उपाय लेकर आए हैं जो शरीर ही नहीं बल्कि मन के लिये भी टॉनिक का काम करेंगे.....
ध्यान - उगते हुए सूरज की ओर मुखातिब होकर बैठें। मन को एकाग्र करते हुए सकारात्मक ऊर्जा को गहरी सांसों के माध्यम से अपने अंदर खींचे और भीतर ही समाहित कर लें।
प्रात:भ्रमण- यानी तांबें की बर्तन में रखा पानी पीने के बाद अपनी क्षमता और उम्र के अनुसार 2 से 4 किलोमीटर तक किसी साफ-सुथरे और प्राकृतिक वातावरण में मोर्निंग वॉक करना चाहिये।
अध्यात्म- मानसिक जड़ता और निराशाजनक थकान से छुटकारा पाने में आध्यात्मिक किताबों का पढऩा 100 फीसदी कारगर होता है।
उषापान- रात में तांबे के पात्र में रखे हुए पानी को सुबह उठकर क्षमता के अनुसार पीने से शारीरिक चेतना और उत्साह में निश्चित ही बढ़ोत्तरी होती है।

सूर्यास्त के समय नहीं करनी चाहिए पढाई क्योंकि...
हमारी हिन्दू संस्कृति कई मायनों में सभी से अलग है पर कुछ अनुकरणीय बातें इसमें ऐसी भी हैं कि जो सभी धर्मों में समान रूप से मानी जाती हैं। हिन्दू संस्कृति में जो भी परंपराएं बनाई गई हैं उनका कोई ना कोई वैज्ञानिक कारण भी जरुर है।
हमारे यहां दैनिक दिनचर्या से जुड़ी अनेक परंपराएं हैं। उन्हीं में से एक है सूर्यास्त के समय पढ़ाई नहीं करने की क्योंकि सूर्यास्त के समय सूर्य का प्रकाश कुछ धुंधला सा हो जाता है इसलिए इस समय किसी भी तरह की लाइट में पढऩे पर आंखों पर अधिक जोर पड़ता है इसलिए आंखों पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

महिलाएं भी पूजा कर सकती हैं हनुमानजी की, क्योंकि...
कलयुग में जल्द ही प्रसन्न होने वाले देवी-देवताओं में हनुमानजी भी शामिल हैं। पवनपुत्र बजरंगबली भक्तों के सभी दुख और क्लेश दूर करते हैं। इनकी भक्ति करने वाले श्रद्धालु को सभी देवी-देवताओं की कृपा प्राप्त होती है। इसी वजह से इनका ध्यान करने वाला हमेशा प्रसन्न और समृद्धिशाली होता है।आमतौर पर यह धारण है कि महिलाओं को हनुमानजी के मंदिर में प्रवेश नहीं करना चाहिए।
उनकी पूजा नहीं करना चाहिए लेकिन शास्त्रों के अनुसार ऐसा नहीं है महिलाएं भी हनुमानजी का पूजन कर सकती हैं क्योंकि हनुमानजी परिवार के देवता हैं। जीवन के हर रिश्ते को हनुमान जी ने बखुबी निभाया है। कहते हैं राम व सीता को मिलाने में उन्होंने महत्वपूर्ण किरदार निभाया। इसलिए पति-पत्नी के रिश्ते को मजबुत बनाने के लिए भी हनुमान का पूजन किया जाता है। वे हर महिला को अपनी माता की तरह मानते हैं क्योंकि वे बाल ब्रह्मचारी हैं। इसलिए महिलाएं भी हनुमानजी का पूजन कर उनका आर्शीवाद प्राप्त कर सकती है।

कुमकुम के तिलक पर चावल लगाना जरूरी क्यों?

हिन्दू धर्म पूजन से जुड़ी अनेक परंपराएं हैं। उन्ही में से एक परंपरा है पूजन के समय माथे पर अधिकतर कुमकुम का तिलक लगाने की और उस पर चावल लगाकर चावल पीछे की तरफ फेंकने की। तिलक ललाट पर या छोटी सी बिंदी के रूप में दोनों भौहों के मध्य लगाया जाता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से तिलक लगाने से दिमाग में शांति, तरावट एवं शीतलता बनी रहती है।
मस्तिष्क में सेराटोनिन व बीटाएंडोरफिन नामक रसायनों का संतुलन होता है। मेघाशक्ति बढ़ती है तथा मानसिक थकावट विकार नहीं होता। साथ ही कुमकुम का तिलक त्वचा रोगों से मुक्ति दिलवाता है। चावल लगाने का कारण यह है कि चावल को शुद्धता का प्रतीक माना गया है और कुछ चावल के दाने सिर के ऊपर से फेंकने का कारण यह है कि शास्त्रों के अनुसार चावल को हविष्य यानी हवन में देवताओं को चढ़ाया जाने वाला और शुद्ध अन्न माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि कच्चा चावल सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करने वाला है।
इसी कारण पूजन में कुमकुम के तिलक के ऊपर चावल के दाने लगाए जाते हैं साथ ही चावल को पीछे की तरफ इसलिए फेंका जाता है ताकि हमारे आसपास जो भी नकारात्मक ऊर्जा उपस्थित हो वह सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित हो जाए और हम सकारात्मक विचारों के साथ जीवन जीएं नकारात्मक सोच हमें छू भी ना पाए।

नई दुल्हन गृहप्रवेश करे तो इस बात का जरूर रखें ध्यान
हमारे यहां कोई भी शुभ काम किया जाता है तो मुहूर्त जरुर देखा जाता है क्योंकि माना जाता है कि इससे कार्य में सफलता मिलती है हमारे यहां शादी में भी हर रस्म ज्योतिष और हमारे धर्म ग्रंथ के अनुसार गृह प्रवेश के समय के आधार पर ही मुहूर्त में निभाई जाती है लेकिन अक्सर लोग गृहप्रवेश के समय मुहूर्त का ध्यान नहीं रखते हैं। नवविवाहित युगल का जीवन निर्भर करता है।
इसी वजह से सही समय और शुभ मुहूर्त देखकर ही वर-वधू को गृह प्रवेश कराया जाता है। ऐसा माना जाता है यदि निश्चित समय पर कोई शुभ मुहूर्त नहीं आ रहा हो तो कुछ समय के लिए गृह प्रवेश टाल देना चाहिए।हमारे धर्म ग्रंथों के अनुसार वधू को लक्ष्मी का ही रूप माना गया है। यदि गलत समय में वधू को गृह प्रवेश कराया जाता है तो उस घर में लक्ष्मी स्थाई रूप से नहीं रुकती।
इसी वजह से सही समय देखकर ही नववधू को घर में प्रवेश कराने की परंपरा है। इससे दूल्हे के घर में लक्ष्मी का स्थाई वास होता है और वर-वधू का जीवन सुख-समृद्धि के साथ-साथ खुशियों भरा होता है।नवीन वधू के प्रवेश के लिए रात्रिकाल में शुभ माना जाता है। इसके लिए विशेषकर स्थिर संज्ञक नक्षत्र (उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद व रोहिणी) शुभ माने गए हैं। साथ ही किसी ज्योतिषी या पंडित के बताए शुभ मुहूर्त में नवदंपत्ति को घर लेकर आएं।

ऐसी मूर्ति का पूजन अपशकुन माना जाता है क्योंकि...
हमारे हिन्दू धर्म में पूजा से जुड़ी अनेक परंपराएं हैं इसीलिए हमारे यहां पूजा में कई छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखा जाता है क्योंकि उनसे जुड़ी कई शकुन व अपशकुन की मान्यताएं हैं।
ऐसी ही एक मान्यता है खंडित मूर्ति का पूजन ना करने की।हमेशा पूजन आदि कर्म करते समय यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि मूर्ति किसी भी प्रकार से खंडित या टूटी हुई न हो, खंडित मूर्ति की पूजा को अपशकुन माना गया है।
शास्त्रों के अनुसार ऐसी मुर्ति के पूजन से अशुभ फल की प्राप्ति होती है। मान्यता है कि प्रतिमा पूजा करते समय भक्त का पूर्ण ध्यान भगवान और उनके स्वरूप की ओर ही होता है। अत: ऐसे में यदि प्रतिमा खंडित होगी तो भक्त का सारा ध्यान उस मूर्ति के उस खंडित हिस्से पर चले जाएगा और वह पूजा में मन नहीं लगा सकेगा।
जब पूजा में मन नहीं लगेगा तो व्यक्ति की भगवान की ठीक से भक्ति नहीं कर सकेगा और वह अपने आराध्य देव से दूर होता जाएगा। इसी बात को समझते हुए प्राचीन काल से ही ऋषि-मुनियों ने खंडित मूर्ति की पूजा को अपशकुन बताते हुए उसकी पूजा निष्फल ठहराई गई है।

लड़कियों के लिए जरुरी है ये पांच श्रृंगार क्योंकि...
हमारे यहां लड़की हो या लड़का सभी के लिए कुछ ना कुछ परंपराएं जरुर बनाई गई हैं। लड़कियों के श्रृंगार से जुड़ी भी कुछ परंपराएं है। जिन्हे परंपरा बनाने के पीछे कुछ वैज्ञानिक कारण भी है। ऐसे ही लड़कियों के लिए पांच श्रृंगार आवश्यक माने गए हैं। ऐसा माना जाता है कि इन पांच श्रृंगार के कई फायदे हैं।
लड़कियां बिंदी का उपयोग सुंदरता बढ़ाने के उद्देश्य से करती हैं और विवाहित महिलाओं के लिए यह सुहाग की निशानी मानी जाती है। हिंदू धर्म में शादी के बाद हर स्त्री को माथे पर लाल बिंदी लगाना आवश्यक परंपरा माना गया है।बिंदी का संबंध हमारे मन से भी जुड़ा हुआ है। योग शास्त्र के अनुसार जहां बिंदी लगाई जाती है वहीं आज्ञा चक्र स्थित होता है। यह चक्र हमारे मन को नियंत्रित करता है।
काजल को सोलह शृंगार में भी शामिल किया गया है। सभी यही सोचते हैं कि काजल का उपयोग सुंदरता बढ़ाने के लिए किया जाता है। परंतु सुंदरता बढ़ाने के साथ-साथ काजल के अन्य उपयोग भी हैं। जैसे काजल में औषधिय गुण होते हैं जो आंखों के लिए एक औषधि का काम करता है। जिससे आंखों की देखने क्षमता बढ़ती है और नेत्र रोगों से भी बचाव हो जाता है। साथ ही काजल दूसरों की बुरी नजर से भी रक्षा करता हैं।
नोजपिन या नथनी ट्रेडिशनल टच के साथ मार्डन लुक देकर खूबसूरत लड़कियों की सुन्दरता को और बढ़ा देती हैं। नाक छेदन हमारे शास्त्रों के अनुसार एक अनिवार्य परंपरा है। ऐसा उनकी शारीरिक संचरना को ध्यान में रखकर परंपरा से जोड़ा गया है। स्त्रियां शारीरिक रूप से काफी संवेदनशील होती हैं उन पर मौसम के छोटे-छोटे परिवर्तन का भी गहरा प्रभाव पड़ता है
सोने और चांदी के कड़े हड्डियों को मजबूत करते थे और लगातार घर्षण से इन धातुओं के गुण भी शरीर को मिलते थे, जिससे महिलाओं को आरोग्य मिलता था तथा अधिक उम्र में भी वे स्वस्थ्य रहती थीं। इसके पीछे एक और कारण यह भी था। वह यह कि सभी की जिंदगी में उतार -चढ़ाव आते हैं। उस बुरे समय ये गहने आर्थिक सहारा भी देते हैं इसीलिए हमारे यहां सोने के कंगन पहनने की परंपरा बनाई गई है।
पायल महिलाओं के सोलह श्रंगार में अहम भूमिका निभाती है। पायल पहनने के पीछे यह वजह है कि प्राचीन काल में महिलाओं को पायल एक संकेत मात्र के लिए पहनाई जाती थी। जब घर के सभी सदस्य एक साथ बैठे होते थे तब यदि कोई पायल पहनी स्त्री वहां आती थी तो उसकी छम-छम आवाज से सभी को अंदाजा हो जाता कि कोई महिला उनकी ओर आ रही है। जिससे वे सभी व्यवस्थित रूप से आने वाली महिला का स्वागत कर सके, उसे सम्मान दे सके

सुन्दरकांड का पाठ क्यों करना चाहिए?
बजरंग बली को प्रसन्न करने के लिए हनुमान चालिसा का पाठ किया जाता है। वहीं सुंदरकांड का पाठ भी सबसे अच्छा उपाय है हनुमानजी की कृपा प्राप्ति का।सुंदरकांड गोस्वामी तुलसीदास द्वारा लिखी गई रामचरितमानस के सात कांडों में से एक हैं। रामचरितमानस के सभी कांड भगवान की भक्ति के लिए सर्वोत्तम हैं परंतु सुंदरकांड का महत्व अत्यधिक बताया गया है।
ऐसा माना जाता है कि किसी भी प्रकार की परेशानी हो, कोई काम नहीं बन रहा हो, आत्मविश्वास की कमी हो या कोई और समस्या कई ज्योतिषी और संत भी लोगों को ऐसी स्थिति में सुंदरकांड का पाठ करने की सलाह देते हैं।रामचरितमानस के सुंदरकांड की कथा सबसे अलग है। संपूर्ण रामचरितमानस भगवान राम के गुणों और उनकी पुरुषार्थ से भरे हैं। सुंदरकांड एकमात्र ऐसा अध्याय है जो भक्त की विजय को दर्शाता है।
मनोवैज्ञानिक नजरिए से देखा जाए तो यह आत्मविश्वास और इच्छाशक्ति बढ़ाने वाला कांड है। हनुमान जो कि जाति से वानर थे, वे समुद्र को लांघकर लंका पहुंच गए और वहां सीता की खोज की। लंका को जलाया और सीता का संदेश लेकर लौट आए। यह एक आम आदमी की जीत का कांड है, जो अपनी इच्छाशक्ति के बल पर इतना बड़ा चमत्कार कर सकता है। इसमें जीवन में सफलता के महत्वपूर्ण सूत्र भी हैं। इसलिए पूरी रामायण में सुंदरकांड को सबसे श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि यह व्यक्ति में आत्मविश्वास बढ़ाता है।

क्यों और क्या जरूर करें, शुभ काम से पहले?
हिन्दू धर्म में दैनिक दिनचर्या से जुड़े हर कार्य के लिए कुछ परंपराएं,रिवाज या शकुन है उन्ही में से एक परंपरा है किसी भी नए कार्य या शुभ कार्य करने से कुछ मीठा खाने की।हम जब भी किसी परीक्षा या किसी शुभ कार्य के लिए घर से निकलते हैं तो हमारे बुजुर्ग कुछ मीठा खाकर जाने की बात कहते हैं। आखिर इससे फायदा क्या होता है? ऐसा माना जाता है मीठा खाकर कुछ भी कार्य करने से हमें सफलता मिलती है। मीठा खाने से हमारा मन शांत रहता है। हमारे विचार भी मिठाई की तरह ही मीठे हो जाते हैं। हमारी वाणी में मिठास आ जाती है। यदि हमारा मन किसी दुखी करने वाली बात में उलझा हुआ है और हम मीठा खा लेते हैं तुरंत ही मन प्रसन्न हो जाता है। मीठा खाने के बाद हम किसी भी कार्य को ज्यादा अच्छे से कर सकते हैं। साथ ही घर से निकलते समय मीठा खाने से हमारे सभी नकारात्मक विचार समाप्त हो जाते हैं और हमारे अंदर सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। कुछ लोग दही और शकर खाकर किसी भी शुभ कार्य की शुरूआत करते हैं। इस मीठे स्वाद से हमारा मन तुरंत ही दूसरे सभी बुरे विचारों से हट जाता है। मीठा खाने से रक्त संचार बढ़ जाता है। एनर्जी मिलती है।शुभ कार्य के पहले मीठा खाना चाहिए परंतु ज्यादा मीठा स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।

इस समय घर में ना करें झाड़ू पोछा क्योंकि...
हमारे रोज के कार्यो में से ही एक महत्वपूर्ण कार्य है सफाई। कहते हैं कि जिस घर में साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखा जाता है वहां लक्ष्मी का स्थाई निवास रहता है। इसीलिए रोज ही घर की साफ-सफाई की जाती है, झाड़ू-पौछा किया जाता है।
वास्तु शास्त्र के अनुसार शाम या रात्रि के समय घर की साफ-सफाई निषेध की गई है। सुबह सफाई करने के बाद घर के सभी सदस्य नहा लेते हैं जिससे शरीर पर लगे बीमारी के कीटाणु साफ हो जाते हैं और उन कीटाणुओं से बीमार होने की संभावना समाप्त हो जाती है।
यदि रात्रि के समय सफाई करेंगे तो वह सारे कीटाणु घर के सदस्यों के शरीर पर चिपक जाएंगे। रात्रि के समय सभी सदस्य नहाते भी नहीं है ऐसे में उन कीटाणुओं से हमारे स्वास्थ्य को खतरा रहता है। तो उस खतरे से हमें बचाने के लिए रात्रि के समय साफ-सफाई, झाड़ू-पौंछा नहीं करना चाहिए। साथ ही शास्त्रों के अनुसार ऐसी मान्यता है कि शाम के समय घर में पोछा लगाने से या झाड़ू लगाने से घर में अलक्ष्मी का वास होता है या लक्ष्मी रूष्ट हो जाती है।
पौंछा लगाने के पानी में थोड़ा नमक मिला लेना चाहिए क्योंकि माना जाता है कि ऐसा करने से घर के वास्तुदोष में कमी आ जाती है। इस पानी से बीमारी फैलाने वाले सभी कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। साथ ही नमक नकारात्मक शक्तियों को भी दूर करता है। घर के वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह भी बढ़ जाता है।

घर में नहीं रखना चाहिए ऐसी तस्वीरें क्योंकि...
कहते हैं मकान को घर केवल एक परिवार ही बना सकता है क्योंकि घर ही वो जगह होती है जहां इंसान सूकून महसूस करता है। दिनभर की भागदौड़ और थकान के बाद अगर घर का माहौल शांत और खुशनुमा हो तो सारी थकान एक पल में ही छृ-मंतर हो जाती है। इसीलिए घर की सजावट आजकल सभी लोग विशेष रूप से ध्यान रखते हैं कि उनका घर चाहे छोटा हो लेकिन खूबसूरत दिखे।
किसी घर की सजावट उस घर में रहने वाले व्यक्तियों की सोच को बताती है। घर में तस्वीरें लगाना भी घर के इंटीरियर का एक हिस्सा होता है। वास्तु के अनुसार घर में अनेक तरह की तस्वीरों को शुभ माना गया है जैसे घर में नदियों-झरने, पर्वत, दौड़ते हुए घोड़े आदि प्राकृतिक दृश्यों को लगाना बहुत अच्छा माना जाता है। इस तरह की तस्वीरें घर में लगाना बहुत शुभ माना जाता है।
मगर वास्तु के अनुसार घर में कभी टूटी तस्वीर नहीं रखनी चाहिए। घर में टूटी तस्वीर रखने पर घर में क्लेश होता है। घर के सदस्यों में झगड़े होते हैं साथ ही नकारात्मक ऊर्जा बढ़ती है। इसके अलावा घर में जंगली जानवरों की तस्वीर और महाभारत के युद्ध की तस्वीर आदि को भी शुभ नहीं माना जाता है मान्यता है कि ऐसी तस्वीरें घर की सकारात्मक ऊर्जा को बहुत अधिक प्रभावित करती है। इसलिए अगर घर में कोई तस्वीर टूट जाए तो उसे तुरंत घर से बाहर कर दें।

ग्रहों के अशुभ प्रभाव को रत्न क्यों और कैसे दूर करते हैं?
कुछ लोग शौकिया तौर पर रत्न धारण करते हैं तो कुछ ज्योतिष मान्यताओं के आधार पर। लेकिन क्या रत्नों से ज्योतिष का कोई संबंध है?रत्नों की रमणीयता जहां मानव मन को मोहित कर अपने आकर्षण से लुभाती रहती है वहीं हर कोई इनको पाने के लिए लालायित रहता है।रत्नों को पहनने से जहां समृद्धि की भावना समाहित रहती है वहीं शारीरिक, मानसिक, भौतिक आदि आपदाओं से बचने के उद्देश्य से भी रत्नों को पहना जाता है।कुण्डली में नवग्रहों के प्रभाव से बचने या उसे अपने पक्ष में करने के लिए रत्न पहने जाते हैं।
कुछ लोग इसे अंधविश्वास मानते हैं पर वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर यह सिद्ध हो चुका है कि इष्ट-प्राप्ति और अनिष्ट-निवारण में ये रत्न अपनी प्रभावकारी भूमिका निभाते हैं।सूर्य की किरणें सात रंग की होती हैं। ये किरणें जब रत्नों पर पड़ती हैं तो सकारात्मक ऊर्जा का भण्डार इन रत्नों से हमारे शरीर में प्रवेश करता है। यही सइससे मनुष्य के अंदर का आत्म-विश्वास जागता है और वह निरंतर आगे बढऩे की दिशा में प्रयासरत हो जाता है। इन रत्नों का प्रभाव भी राशि अनुसार पहनने वाले पर पड़ता है।जिस किसी भी कमजोर ग्रह का प्रभाव हमारे शरीर पर विपरीत पड़ता है सूर्य की किरणें रत्नों द्वारा उस कमी को पूरा करती हैं और वह कमजोर कमी दूर हो जाती है।

कालसर्प योग को परेशानी देने वाला क्यों माना जाता है?
उतार-चढ़ाव अच्छा और बुरा समय सभी की जिंदगी में आता है लेकिन कुछ लोगों के जीवन हमेशा संघर्षो से भरा रहता है। यदि ज्योतिष की सलाह लेते हैं तो अक्सर ऐसे लोगों की कुंडली में कालसर्प दोष होता है। अगर जन्म कुंडली में केतु चौथे और राहु दसवें भाव में हो तो ये दोनों ग्रह मिलकर घातक कालसर्प योग बनाते हैं। इस योग में जन्म लेने वाला व्यक्ति यदि माँ की सेवा करें तो उसे उत्तम घर व सुख की प्राप्ति होती है।
ऐसा कालसर्प योग शुभ कम और अशुभ ज्यादा होता है।जिसकी कुंडली में ये घातक कालसर्प दोष होता है वो जातक हमेशा सुख प्राप्त करने के लिए कोशिश करता रहता है लेकिन उसके पास कितना ही सुख आ जाये तब भी उसका मन नहीं भरता। ऐसे व्यक्ति को पिता से भी दूर रहना पड़ता है। उसका वैवाहिक जीवन सुखमय नहीं रहता।
ऐसे कालसर्प वालों को बिजनेस और कार्यक्षेत्र में अप्रत्याशित समस्याओं का मुकाबला करना पड़ता है कालसर्प एक ऐसा योग है जिससे व्यक्ति को आर्थिक, शारीरिक और मानसिक रूप से परेशान होना पड़ता है। ऐसे व्यक्ति को मुख्य रूप से संतान संबंधी कष्ट होता है। इस योग के कारण जीवन के किसी ना किसी क्षेत्र में परेशान अवश्य रहना पड़ता है। इसलिए ज्योतिष के अनुसार इस दोष को काले सर्प के सामन भयानक माना जाता है इसलिए इसे कालसर्प योग कहा जाता है।

एकाग्रता बढ़ाने के लिए सफेद चीजों का दान क्यों करते हैं?

कई लोग ऐसे होते हैं जो हर कार्य को करने के लिए मेहनत तो बहुत करते हैं लेकिन फिर भी उन्हें अपने काम में पर्याप्त सफलता नहीं मिलती है। इसका एक कारण मन एकाग्र ना होना भी है। इसलिए कहते हैं कि अगर मन एकाग्र हो और लक्ष्य को प्राप्त करने की जिद हो तो व्यक्ति असंभव सा लगने वाला कार्य भी आसानी से कर गुजरता है। अगर ज्योतिष के दृष्टीकोण से देखा जाए तो एकाग्रता में कमी का कारण चंद्र होता है। क्योंकि ज्योतिष शास्त्र के अनुसार चंद्र को मन का कारक माना गया है। चंद्र ही एक मात्र ऐसा ग्रह है जो मन की ही तरह तेजी से गतिशील है।
चंद्र बहुत तेज गति से चलता है। चंद्र मात्र ढाई दिन ही एक राशि में रुकता है। इसके चंचल स्वभाव के कारण ही इसे मन का कारक ग्रह भी कहा जाता है। चंद्र हमारे मन को पूरी तरह प्रभावित करता है। यदि चंद्र नीच का या अशुभ फल देने वाला हो तो व्यक्ति पागल भी हो सकता है। चंद्र विपक्ष में होने पर व्यक्ति कोई भी निर्णय ठीक से नहीं कर पाता। मन भटकता रहता है।
इसीलिए चंद्र को बलवान बनाने के लिए सफेद चीजों का दान करने को कहा जाता है। जैसे कुंवारी कन्याओं को दूध पिलाना, सफेद मिठाई का दान करना या सफेद कपड़े का दान, बड़ के वृक्ष पर दूध चढ़ाना या चांदी के सिक्के को नदी में प्रवाहित करने से चन्द्र को बल मिलता है। इसलिए ऐसी मान्यता है कि मन को एकाग्र करने के लिए सफेद चीजों का दान करना चाहिए।

आप जानते हैं, सोलह संस्कार क्यों बनाए गए!
हमारे पूर्वजों ने हर काम बहुत सोच-समझकर किया है। जैसे जीवन का चार आश्रम में विभाजन, समाज का चार वर्णो में वर्गीकरण, और सोलह संस्कार को अनिवार्य किया जाना दरअसल हमारे यहां हर परंपरा बनाने के पीछे कोई गहरी सोच छूपी है। सोलह संस्कार बनाने के पीछे भी हमारे पूर्वजों की गहरी सोच थी तो आइए जानते हैं कि जीवन में इन सोलह संस्कारो को अनिवार्य बनाए जाने का क्या कारण था?
गर्भाधान संस्कार- यह ऐसा संस्कार है जिससे हमें योग्य, गुणवान और आदर्श संतान प्राप्त होती है। शास्त्रों में मनचाही संतान के लिए गर्भधारण किस
पुंसवन संस्कार- यह संस्कार किया जाता है। पुंसवन संस्कार के दो प्रमुख लाभ- पुत्र प्राप्ति और स्वस्थ, सुंदर गुणवान संतान है।
सीमन्तोन्नयन संस्कार- यह संस्कार गर्भ के चौथे, छठवें और आठवें महीने में किया जाता है। इस समय गर्भ में पल रहा बच्च सीखने के काबिल हो जाता है। उसमें अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म आएं, इसके लिए मां उसी प्रकार आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार करती है।
जातकर्म संस्कार- बालक का जन्म होते ही इस संस्कार को करने से गर्भस्त्रावजन्य दोष दूर होते हैं।
नामकरण संस्कार- जन्म के बाद 11वें या सौवें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है। ब्राह्मण द्वारा ज्योतिष आधार पर बच्चे का नाम तय किया जाता है।
निष्क्रमण संस्कार- निष्क्रमण का अर्थ है बाहर निकालना। जन्म के चौथे महीने में यह संस्कार किया जाता है। हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश जिन्हें पंचभूत कहा जाता है, से बना है। इसलिए पिता इन देवताओं से बच्चे के कल्याण की प्रार्थना करते हैं।
अन्नप्राशन संस्कार- यह संस्कार बच्चे के दांत निकलने के समय अर्थात 6-7 महीने की उम्र में किया जाता है। इस संस्कार के बाद बच्चे को अन्न खिलाने की शुरुआत हो जाती है।
मुंडन संस्कार- बच्चे की उम्र के पहले वर्ष के अंत में या तीसरे, पांचवें या सातवें वर्ष के पूर्ण होने पर बच्चे के बाल उतारे जाते हैं चूड़ाकर्म संस्कार कहा जाता है। इससे बच्चे का सिर मजबूत होता है तथा बुद्धि तेज होती है।
कर्णवेध संस्कार- इसका अर्थ है- कान छेदना। परंपरा में कान और नाक छेदे जाते थे। इसके दो कारण हैं, एक- आभूषण पहनने के लिए। दूसरा- कान छेदने से एक्यूपंक्चर होता है। इससे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त का प्रवाह ठीक होता है।
उपनयन संस्कार- उप यानी पास और नयन यानी ले जाना। गुरु के पास ले जाने का अर्थ है उपनयन संस्कार।आज भी यह परंपरा है। जनेऊ में तीन सूत्र होते हैं। ये तीन देवता- ब्रह्म, विष्णु, महेश के प्रतीक हैं।
विद्यारंभ संस्कार- जीवन को सकारात्मक बनाने के लिए शिक्षा जरूरी है। शिक्षा का शुरू होना ही विद्यारंभ संस्कार है। गुरु के आश्रम में भेजने के पहले अभिभावक अपने पुत्र को अनुशासन के साथ आश्रम में रहने की सीख देते हुए भेजते थे।
केशांत संस्कार- केशांत संस्कार अर्थ है केश यानी बालों का अंत करना, उन्हें समाप्त करना। विद्या अध्ययन से पूर्व भी केशांत किया जाता है। मान्यता है गर्भ से बाहर आने के बाद बालक के सिर पर माता-पिता के दिए बाल ही रहते हैं। इन्हें काटने से शुद्धि होती है। शिक्षा प्राप्ति के पहले शुद्धि जरूरी है, ताकि मस्तिष्क ठीक दिशा में काम करें।
समावर्तन संस्कार- समावर्तन संस्कार अर्थ है फिर से लौटना। आश्रम में शिक्षा प्राप्ति के बाद ब्रह्मचारी को फिर दीन-दुनिया में लाने के लिए यह संस्कार किया जाता था। इसका आशय है ब्रह्मचारी को मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षो के लिए तैयार हैं।
विवाह संस्कार - यह धर्म का साधन है। दोनों साथ रहकर धर्म के पालन के संकल्प के साथ विवाह करते हैं। विवाह के द्वारा सृष्टि के विकास में योगदान दिया जाता है। इसी से व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता है।
अंत्येष्टी संस्कार - अंत्येष्टि संस्कार इसका अर्थ है अंतिम यज्ञ। आज भी शवयात्रा के आगे घर से अग्नि जलाकर ले जाई जाती है। इसी से चिता जलाई जाती है। आशय है विवाह के बाद व्यक्ति ने जो अग्नि घर में जलाई थी उसी से उसके अंतिम यज्ञ की अग्नि जलाई जाती है। इससे पर्यावरण की रक्षा होती है।

शादी में क्यों निभाई जाती है कन्यादान की रस्म?
बेटियां माता-पिता के घर की रौनक होती हैं। कहते हैं जिस घर में बेटिया नहीं होती वहां शादी ब्याह हो या कोई तीज त्यौहार कुछ खालीपन सा लगता हैं। हर व्यक्ति इतना भाग्यशाली नहीं होता कि उसे कन्यादान का सुख प्राप्त हो सके क्योंकि कन्यादान का शास्त्रों में बहुत अधिक पूण्यकार्य माना गया है। कन्यादान का अर्थ है कन्या की जिम्मेदारी योग्य हाथों में सौंपना।
कन्यादान के बाद कन्या नये घर में जाकर परायेपन का अनुभव न करे, उसे भरपूर प्यार और अपनापन मिले। सहयोग की कमी अनुभव न हो, इसका पूरा ध्यान रखना चाहिये। कन्या के हाथ हल्दी से पीले करके माता-पिता अपने हाथ में कन्या के हाथ, गुप्तदान का धन और पुष्प रखकर संकल्प बोलते हैं और उन हाथों को वर के हाथों में सौंप देते हैं। वह इन हाथों को गंभीरता और जिम्मेदारी के साथ अपने हाथों में पकड़कर, इस जिम्मेदारी को स्वीकार करता है।
कन्या के रूप में अपनी पुत्री, वर को सौंपते हुए उसके माता-पिता अपने सारे अधिकार और उत्तरदायित्व भी को सौंपते हैं। कन्या के कुल गोत्र अब पितृ परम्परा से नहीं, पति परम्परा के अनुसार होंगे। कन्या को यह भावनात्मक पुरुषार्थ करने तथा पति को उसे स्वीकार करने या निभाने की शक्ति देवशक्तियाँ प्रदान कर रही हैं । इस भावना के साथ कन्यादान का संकल्पबोला जाता है। संकल्प पूरा होने पर संकल्प करने वाला कन्या के हाथ वर के हाथ में सौंप देता है, यही परंपरा कन्यादान कहलाती है।

क्यों करते हैं भगवान की आरती?
आरती का अर्थ होता है व्याकुल होकर भगवान को याद करना उनका स्तवन करना, आरती पूजा के अंत में धूप, दीप, कपूर से की जाती है। इसके बिना पूजा अधूरी मानी जाती है। आरती में एक, तीन, पांच, सात यानि विषम बत्तियों वाला दीपक प्रयोग किया जाता है। आरती चार प्रकार की होती है: - दीप आरती - जल आरती - धूप, कपूर, अगरबत्ती से आरती - पुष्प आरती दीप आरती: दीपक लगाकर आरती का आशय है। हम संसार के लिए प्रकाश की प्रार्थना करते हैं। जल आरती: जल जीवन का प्रतीक है। आशय है हम जीवन रूपी जल से ईश्वर की आरती करते हैं।
धूप, कपूर, अगरबत्ती से आरती: धूप, कपूर और अगरबत्ती सुगंध का प्रतीक है। यह वातावरण को सुगंधित करते हैं तथा हमारे मन को भी प्रसन्न करते हैं। पुष्प आरती: पुष्प सुंदरता और सुगंध का प्रतीक है। अन्य कोई साधन न होने पर पुष्प से आरती की जाती है। आरती एक विज्ञान है। आरती के साथ-साथ ढोल-नगाढ़े, तुरही, शंख, घंटा आदि वाद्य भी बजते हैं। इन वाद्यों की ध्वनि से रोगाणुओं का नाश होता है। वातावरण पवित्र होता है। दीपक और धूप की सुंगध से चारों ओर सुगंध का फैलाव होता है। पर्यावरण सुगंध से भर जाता है। आरती के पश्चात मंत्रों द्वारा हाथों में फूल लेकर भगवान को पुष्प समर्पित किए जाते हैं तथा प्रार्थना की जाती है।

रात को झूठे बर्तन क्यों नहीं रखना चाहिए?

हमारे यहां दैनिक कार्यों से जुड़ी भी अनेक परंपराएं बनाई गई है। जैसे सुबह जल्दी उठना, नहाने के बाद ही मंदिर जाना या पूजा करना, शाम के समय सफाई नहीं करना व रात को झूठे बर्तन नहीं छोडऩा आदि। हमारे यहां बनाई गई ऐसी हर एक परंपरा के पीछे कोई ना कोई वैज्ञानिक कारण भी जरूर छूपा होता है। हमारे शास्त्रों के अनुसार रात्रि को झूठे बर्तन छोडऩा निषिद्ध माना गया है। क्योंकि इससे घर की सुख व समृद्धि नष्ट होती है और साथ ही घर में अलक्ष्मी का वास होता है।
इसके पीछे वैज्ञानिक कारण यह है कि रात को घर में झूठे बर्तन रखने से उन बर्तनों में छोटे-छोटे बैक्टिरिया जन्म ले लेते हैं और रातभर में इनकी संख्या तेजी से बढऩे लगती है। सुबह इन बर्तनों की सफाई करने पर भी इनमें बैक्टिरिया रह जाते हैं जो बीमारियों का कारण बनते हैं। साथ ही अगर वास्तुशास्त्र के दृष्टीकोण से भी रात्रि को घर में बर्तन रखना शुभ नहीं माना जाता है क्योंकि इससे घर में नकारात्मक ऊर्जा बढऩे लगती है और सकारात्मक ऊर्जा कम होने लगती है। इसलिए ऐसी मान्यता है कि रात को झूठे बर्तन नहीं छोडऩा चाहिए।

भगवान की तरफ पीठ करके क्यों नहीं बैठना चाहिए?

भगवान की आराधना करते समय हम बहुत सी बातों का ध्यान रखते हैं। पूजा करते समय भी कुछ नियमों का ध्यान जरुर रखना चाहिए क्योंकि हमारे पूर्वजों द्वारा बनाए बए हर नियम के पीछे कोई बहुत गहरी बात छूपी होती है।
इसीलिए पूजा को पूरा फल प्राप्त करने के लिए हमें ऐसे नियमों का पालन जरूर करना चाहिए। ऐसा ही एक नियम है मंदिर में या पूजा स्थल पर जहां भगवान की प्रतिमा स्थापित की गई हो उस और पीठ करके नहीं बैठना चाहिए।
कहते हैं ऐसी जगह पर विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए कि हमारी पीठ भगवान की ओर न हो। इसे शुभ नहीं माना जाता है।मंदिर में कई दैवीय शक्तियां का वास होता है और वहां सकारात्मक ऊर्जा हमेशा सक्रीय रहती है।
यह शक्ति या ऊर्जा देवालय में आने वाले हर व्यक्ति के लिए होती है। यह हम पर ही निर्भर करता है कि हम वह शक्ति कितनी ग्रहण कर पाते हैं। इन सभी शक्तियों का केंद्र भगवान की प्रतिमा ही होती है जहां से यह सभी सकारात्मक ऊर्जा संचारित होती रहती है।
यदि हम भगवान की प्रतिमा की ओर पीठ करके बैठ जाते हैं तो यह शक्ति हमें प्राप्त नहीं हो पाती। इस ऊर्जा को ग्रहण करने के लिए हमारा मुख भी भगवान की ओर होना आवश्यक है। भगवान की ओर पीठ करके नहीं बैठना चाहिए इसका धार्मिक कारण भी है। ईश्वर को पीठ दिखाने का अर्थ है उनका निरादर।
भगवान की ओर पीठ करके बैठने से भगवान का अपमान माना जाता है। इसी वजह से ऋषिमुनियों और विद्वानों द्वारा बताया गया है कि हमारा मुख भगवान के सामने होना चाहिए, पीठ नहीं।

घर में क्यों नहीं रखते महाभारत?

अधिकांश हिंदू परिवारों में धर्म ग्रंथ के नाम पर रामचरितमानस या फिर श्रीमद् भागवत पुराण ही मिलता है। महाभारत जिसे पांचवां वेद माना जाता है, इसे घरों में नहीं रखा जाता। बड़े-बुजुर्गों से पूछे तो जवाब मिलता है कि महाभारत घर में रखने से घर का माहौल अशांत होता है, भाइयों में झगड़े होते हैं। क्या वाकई ऐसा है? अगर यह मिथक है तो फिर हकीकत क्या है, क्यों रामायण को घर में स्थान दिया जाता है लेकिन महाभारत को नहीं।
वास्तव में महाभारत रिश्तों का ग्रंथ है। परिवारिक, सामाजिक और व्यक्तिगत रिश्तों का ग्रंथ। इस ग्रंथ में कई ऐसी बातें हैं जो सामान्य बुद्धि वाला इंसान नहीं समझ सकता। पांच भाइयों के पांच अलग-अलग पिता से लेकर एक ही महिला के पांच पति तक। सारे रिश्ते इतने बारिक बुने गए हैं कि आम आदमी जो इसकी गंभीरता और पवित्रता को नहीं समझ सकता।
वह इसे व्याभिचार मान लेता है और इसी से समाज में रिश्तों का पतन हो सकता है। इसलिए भारतीय मनीषियों ने महाभारत को घर में रखने से मनाही की है क्योंकि हर व्यक्ति इस ग्रंथ में बताए गए रिश्तों की पवित्रता को समझ नहीं सकता।इसमें जो धर्म का महत्व बताया गया है वह भी सामान्य बुद्धि से नहीं समझा जा सकता, इसके लिए गहन अध्ययन और फिर गंभीर चिंतन की आवश्यकता होती है।

क्यों और किस दिन नहीं खरीदना चाहिए तेल?

शनिवार से जुड़ी हमारे यहां कई मान्यताएं हैं जैसे शनिवार को कोई नया काम शुरू नहीं करना चाहिए, बाल नहीं कटवाना चाहिए, ऐसी ही एक मान्यता है शनिवार के दिन तेल और लोहा नहीं खरीदना चाहिए दरअसल शनिवार के लिए कई नियम बनाए गए हैं जिससे शनिदेव का बुरा प्रभाव हम पर न पड़े। इन्हीं नियमों में से एक है कि शनिवार के दिन घर में तेल खरीदकर नहीं लाना चाहिए। शनि को न्यायधिश माना गया है।
इसी वजह से यह काफी कठोर ग्रह है। इसकी क्रूरता से सभी भलीभांति परिचित हैं। इसी वजह से सभी का प्रयत्न रहता है कि शनि देव किसी भी प्रकार से रुष्ट ना हो। शनि गलत कार्य करने वालों को मॉफ नहीं करता। जिसका जैसा कार्य होगा उसे शनि वैसा ही फल प्रदान करता है। ज्योतिष के अनुसार शनि के कोप से बचने के लिए ऐसे कई कार्य मना किए गए हैं जो शनिवार के दिन हमें नहीं करने चाहिए। इन्हीं कार्यों में से एक कार्य यह वर्जित है कि शनिवार को घर में तेल लेकर नहीं आना चाहिए।
क्योंकि तेल शनि को अतिप्रिय है और शनिवार को तेल का दान किया जाना चाहिए। इस दिन तेल घर लेकर आने से शनि का बुरा प्रभाव हम पर पड़ता है। यदि घर के किसी सदस्य पर शनि की अशुभ दृष्टि हो तो उसके लिए यह और भी अधिक बुरा फल देने वाला सिद्ध होगा। इन बुरे प्रभावों से बचने के लिए शनिवार के दिन घर में तेल लेकर न आए बल्कि तेल का दान करें और शनि देव को तेल अर्पित करें।

पूजा में घी का दीपक ही क्यों लगाना चाहिए?
दीपक ज्ञान और रोशनी का प्रतीक है। पूजा में दीपक का विशेष महत्व है। आमतौर पर विषम संख्या में दीप प्रज्जवलित करने की परंपरा चली आ रही है। दरअसल दीपक जलाने का कारण यह है कि हम अज्ञान का अंधकार मिटाकर अपने जीवन में ज्ञान के प्रकाश के लिए पुरुषार्थ करें। हमारे धर्म शास्त्रों के अनुसार पूजा के समय दीपक लगाना अनिवार्य माना गया है। दीपक के रूप में हम संसार के लिए कहते हैं आरती कर घी का दीपक लगाने से घर में सुख समृद्धि आती है। इससे घर में लक्ष्मी का स्थाई रूप से निवास होता है। साथ ही हमारे शास्त्रों के अनुसार पूजन में पंचामृत का बहुत महत्व माना गया है और घी उन्हीं पंचामृत में से एक माना गया है।

इसीलिए घी का दीपक लगाया जाता है। साथ ही ज्योतिष के अनुसार दीपक को सकारात्मकता का प्रतीक व दरिद्रता को दूर करने वाला माना जाता है। ऐसी भी मान्यता है कि घर में घी का दीपक जलाने से वास्तुदोष भी दूर होते हैं।गाय के घी में रोगाणुओं को भगाने की क्षमता होती है। यह घी जब दीपक में अग्नि के संपर्क से वातावरण को पवित्र बना देता है। प्रदूषण दूर होता है। दीपक जलाने से पूरे घर को फायदा मिलता है। चाहे वह पूजा में सम्मिलित हो अथवा नहीं। दीप प्रज्जवलन घर को प्रदूषण मुक्त बनाने का एक क्रम है।

क्यों और कौन सी पांच चीजें बनाती हैं पूजा को सफल?
शास्त्रों के अनुसार पूजा में दूध, दही, घी, शहद और मिश्री का उपयोग होता है इन पांच चीजों के बिना पूजा अधूरी मानी जाती है।

हिन्दू धर्म में इन पांचों को पवित्र माना गया है। और जब इन पांचों को मिलाया जाता है तब इसे पंचामृत कहा जाता है। पंचामृत यानि पांच अमृत।

पंचामृत का पहला भाग दूध होता है जो हमें गाय से मिलता है गाय में देवी देवताओं का वास होने से दूध को अमृत माना गया है।

पंचामृत का दूसरा और तीसरा भाग दही एवं घी दूध से ही प्राप्त होता है इसलिए यह भी अमृत माना गया है।

हिन्दू धर्म में शहद पूर्ण पवित्र रस माना गया है। भगवान को चढऩे वाले सुगन्धित फूलों के रस से ही शहद बनता है इसलिए यह पवित्र और अमृत के समान है। पंचामृत का पाचवां भाग मिश्री होता है जिसको इन सब में मिलाने से पूर्ण अमृत बनता है।

कहीं कही गन्ने का रस भी शुद्ध और पवित्र होने के कारण उपयोग किया जाता है।स्वास्थ्य की दृष्टि से देखा जाए तो प्रसाद के रूप में पंचामृत यानि इन सब चिजों से बने मिश्रण को खाने से सभी प्रकार के रोगों का नाश भी होता है।

दरअसल पंचामृत आत्मोन्नति का प्रतीक है। यह पांचों सामग्री किसी न किसी रूप में आत्मोन्नति का संदेश देती है।

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....MMK

11 comments:

  1. thanks for make this page.......

    ReplyDelete
    Replies
    1. Akash Deep ji @ आपकी टिप्पणि बहुमूल्य हैं यहां आकार आपके भाव प्रकट करने का बहुत बहुत आभार…स्नेह बनाये रखे….

      Delete
  2. अति सुन्दर

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपकी टिप्पणि बहुमूल्य हैं,अपने भाव प्रकट करने का बहुत बहुत आभार.

      Delete
  3. Kaushal saab...
    kisi ka bura karke kabhi sukhi reh saka hai koi??...
    Hum nimbu mirchi sadak pe fek kar yeh kaamna kare ki mera bhala ho jaye aisa kabhi nai ho skta
    .

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपकी टिप्पणि बहुमूल्य हैं,अपने भाव प्रकट करने का बहुत बहुत आभार.

      Delete
  4. What can I say about this page.. I never saw these type of many good information. So good

    ReplyDelete
    Replies
    1. भुवनेश्वर जी हार्दिक धन्यवाद आपकी टिप्पणि बहुमूल्य हैं,अपने भाव प्रकट करने का बहुत बहुत आभार...

      Delete
  5. Manish Ji aapne bahot acchi jankari di hai,par main apse ye janana chahati Hun ki agar hamare dur k rishtedar ki mrityu ho jati hai aur wo humare ghar se b dur rehta hai to uski mrityu pe Hume apne ghar pe koun se niyam apnane chahiye...? Jb tk tirahi nhi Ho jati Kya hum apne ghar me puja nhi kr skte hain?

    ReplyDelete
    Replies
    1. मृत्यु के समय से परिवार के सदस्य 13 दिन तक माला लेकर जप न करें।किंतु निःस्वार्थ, भगवत्प्रीत्यर्थ मानसिक जप तो प्रत्येक अवस्था में किया जा सकता है और करना ही चाहिए।

      Delete