Friday, April 1, 2011

Jigyasa(जिज्ञासा) Part 7

क्यों करें भगवान से पहले गुरु की पूजा?
हिन्दू धर्म में आषाढ़ पूर्णिमा गुरु भक्ति को समर्पित गुरु पूर्णिमा का पवित्र दिन भी है। भारतीय सनातन संस्कृति में गुरु को सर्वोपरि माना है। वास्तव में यह दिन गुरु के रुप में ज्ञान की पूजा का है। गुरु अज्ञान रुपी अंधकार से ज्ञान रुपी प्रकाश की ओर ले जाते हैं। गुरु धर्म और सत्य की राह बताते हैं। गुरु से ऐसा ज्ञान मिलता है, जो जीवन के लिए कल्याणकारी होता है।

गुरु शब्द का सरल अर्थ होता है- बड़ा, देने वाला, अपेक्षा रहित, स्वामी, प्रिय यानि गुरु वह है जो ज्ञान में बड़ा है, विद्यापति है, जो निस्वार्थ भाव से देना जानता हो, जो हमको प्यारा है। गुरु का जीवन में उतना ही महत्व है, जितना माता-पिता का। माता-पिता के कारण इस संसार में हमारा अस्तित्व होता है। किंतु जन्म के बाद एक सद्गुरु ही व्यक्ति को ज्ञान और अनुशासन का ऐसा महत्व सिखाता है, जिससे व्यक्ति अपने सद्कर्मों और सद्विचारों से जीवन के साथ-साथ मृत्यु के बाद भी अमर हो जाता है। यह अमरत्व गुरु ही दे सकता है। सद्गुरु ने ही भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम बना दिया। इसलिए गुरुपूर्णिमा को अनुशासन पर्व के रुप में भी मनाया जाता है। इस प्रकार व्यक्ति के चरित्र और व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास गुरु ही करता है। जिससे जीवन की कठिन राह को आसान हो जाती है।
जब अध्यात्म क्षेत्र की बात होती है तो बिना गुरु के ईश्वर से जुडऩा कठिन है। गुरु से दीक्षा पाकर ही आत्मज्ञान, ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है।

हिन्दु धर्म ग्रंथों में गुरु को ब्रह्मा, विष्णु और महेश माना गया है।
गुरुब्र्रह्मा, गुरुर्विष्णु, गुरुर्देवो महेश्वरा:।
गुरुर्साक्षात् परब्रह्म तस्मै: श्री गुरुवे नम:॥

सार यह है कि गुरु शिष्य के बुरे गुणों को नष्ट कर उसके चरित्र, व्यवहार और जीवन को ऐसे सद्गुणों से भर देता है। जिससे शिष्य का जीवन संसार के लिए एक आदर्श बन जाता है। ऐसे गुरु को ही साक्षात ईश्वर कहा गया है। इसलिए जीवन में गुरु का होना जरुरी है।

जगत की हर रचना है गुरु

गुरु पूर्णिमा के अवसर पर हर धर्मावलंबी अपने गुरु के प्रति श्रद्धा और आस्था प्रगट करता है। जीवन में सफलता के लिए हर व्यक्ति गुरु के रुप में श्रेष्ठ मार्गदर्शक, सलाहकार, समर्थक और गुणी व्यक्ति के संग की चाहत रखता है। इसलिए वह गुरु के रुप में किसी संत, अध्यात्मिक व्यक्तित्व या किसी कार्य विशेष में दक्ष और गुणी व्यक्ति को चुनना चाहता है।
किंतु इस धारणा के विपरीत पुराणों में आए प्रसंग यह संदेश देते है कि अगर मन में लगन हो, इच्छा शक्ति हो, कुछ जानने, सीखने का दृढ संकल्प हो तो कोई भी व्यक्ति गुरु को कहीं भी पा सकता है। क्योंकि गुरु की महिमा ही ऐसी है कि ईश्वर की तरह गुरु हर जगह मौजूद है। सिर्फ चाहत और दृष्टि चाहिए गुरु को पाने और देखने की।

जगद्गुरु दत्तात्रेय ऐसे ही शिष्य के रुप में भी प्रसिद्ध हैं। जिनके अनेक गुरु हुए। जबकि उन्होनें किसी से गुरु दीक्षा नहीं पाई थी। आखिर यह कैसे संभव हुआ। बात वही थी-ज्ञान पाने की ललक।

गुरु दत्तात्रेय ने समस्त जगत में मौजूद हर वनस्पति, प्राणियों, ग्रह-नक्षत्रों को अपना गुरु माना। जिनकी प्रकृति और गुणों से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। इनकी संख्या २४ थी। इनमें प्रमुख रुप से पृथ्वी, आकाश, वायु, जल, सूर्य, चंद्र, कबूतर, मधुमक्खी, हाथी, अजगर, पतंगा, हिरण, मछली, गरुड़, मकड़ी, बालक, वैश्या, कन्या, बाण प्रमुख थे। जिनसे उन्होंने कोई गुरु मंत्र और शिक्षा नहीं ली। मात्र इनकी गति, प्रकृति, गुणों को देखकर अपनी दृष्टि और विचार से शिक्षा पाई और आत्म ज्ञान पा लिया। इससे ही श्री दत्तात्रेय जगद्गुरु बन गए।

गुरु दत्तात्रेय ने जगत को बताया कि मात्र देहधारी कोई मनुष्य या देवता ही गुरु नहीं होता। बल्कि पूरे जगत की हर रचना में गुरु मौजूद है। यहां तक कि स्वयं के अंदर भी। जिनको देखना और जानना बहुत जरुरी है।

थकान जरूरत भी है और बीमारी भी...
थकान जरूरत भी है और बीमारी भी। यदि जीवन का संतुलन बिगड़ा और थकान आई तो समझ लीजिए बीमारी आई और यदि वापस ऊर्जा अर्जित करने के लिए विश्राम किया जा रहा है तो ऐसी थकान वरदान भी साबित हो सकती है। इन दिनों जिस तरह की हमारी जीवनशैली है इसमें असंतुलन बहुत अधिक है।

खान-पान, काम-काज, बोल-चाल, रहन-सहन यहां तक उठने-बैठने में भी असंतुलन है। सुबह उठने से लेकर रात सोने तक शरीर की कुछ नियमित क्रियाएं हैं। आदमी उसे भूल गया है। चलिए महापुरुषों की ओर चलते हैं। बुद्ध बहुत काम किया करते थे और कभी थकते नहीं थे। आज भी कई साधु-संत उतना ही परिश्रम कर रहे हैं जितना एक कॉर्पोरेट जगत का सफल व्यक्ति। फकीर जब रात को सोते हैं तो पूरी बेफिक्री के साथ सो जाते हैं। बुद्ध से उनके शिष्यों ने एक बार पूछा था-आप थकते नहीं। बुद्ध का उत्तर था जब मैं कुछ करता ही नहीं तो थकूंगा कैसे। बात सुनने में अजीब लगती है लेकिन है बड़ी गहरी। अध्यात्म ने इसे साक्षी भाव कहा है। स्वयं को करते हुए देखना। यह वह स्थिति होती है जब तन सक्रिय होता है और मन विश्राम की मुद्रा में रहता है। आज ज्यादातर लोग असमय, अकारण थक जाते हैं, जिसका एक बड़ा कारण है असंतुलित जीवन। एक होता है थकान को महसूस करना और दूसरा है स्वाभाविक थकान। जिस समय आपकी रूचियों में, इच्छाओं में और मूल स्वभाव में धीमापन आने लगे, अकारण चिढ़चिढ़ाहट हो जाए, समझ लीजिए यह थकान बीमारी है। इसलिए प्रतिदिन थोड़ा योग, प्राणायाम, ध्यान करें। ये क्रियाएं अपनेआप में एक विश्राम है। करने वाला कोई और है हम तो कठपुतली हैं उसके हाथ की, यह मनोभाव भी थकान को मिटाएगा। क्या दिक्कत है ऐसा सोच लेने में।

यह होता है गृहस्थी का सबसे मधुर भाग
गृहस्थी परमात्मा का प्रसाद है। पर इसका सबसे मीठा, स्वादिष्ट और महत्वपूर्ण भाग है संतान। जो बच्चे परिवारों में ठीक से पल कर समाज में उतरेंगे वे धरती पर बोझ नहीं, समाज और राष्ट्र के लिए गौरव बनेंगे। किसी ने ठीक कहा है और हमारे ऋषिमुनि भी यही कहते थे कि बच्चों के साथ कभी-कभी बच्चा होना पड़ता है तब उसे बड़प्पन क्या होता है समझ में आता है।
अध्यात्म की दृष्टि से बच्चों के लालन-पालन में उन्हें दो चीजें सावधानी से देना चाहिए। और वह है खान-पान। वे क्या खा रहे हैं और क्या पी रहे हैं इससे उनका व्यक्तित्व बनता है।

कबीर लिख गए हैं-
जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय। जैसा पानी पीजिये, तैसी बानी होय।।

जैसा भोजन करोगे, वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे, वैसी वाणी होगी अर्थात् शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं, इसी प्रकार जो जैसी संगति करता है, उसका जीवन वैसा ही बन जाता है।
भोजन से मन बनता है। दरअसल मन अपने निर्माण के बाद जो भोजन करता है उसका नाम विचार है। वह विचार खाता है। जिन बच्चों का मन सात्विक भोजन से बनेगा, फिर वह मन भी सात्विक विचार खाएगा। ऐसे ही पानी से वाणी का संबंध है। जल शरीर में ऑक्सीजन लेकर जाता है। अपनेआप में यह प्राणायाम की क्रिया बन जाती है। बच्चों को सिखाया जाए जल हमेशा बैठकर पिया जाए। जो बच्चे सही शब्द सुनते हैं और सही विचार गुनते हैं उनका व्यक्तित्व पूर्ण होता है।

दूरदर्शिता, याददाश्त और चरित्र खानपान पर निर्भर है। इसलिए बच्चों के साथ यदि सचमुच उनका बचपन जोड़े रखना है तो उनके स्वाद पर नजर रखें और बच्चों को एक चीज पसंद है कि उनसे उन्हीं के लेवल पर आकर जीवन जिया जाए और बड़े इसी में चूक जाते हैं।

जीवन में आनंद यहीं से शुरू होता है...

दुनिया में सबको सब नहीं मिलता। कुछ लोग होते हैं जिन्हें काफी मिल जाता है लेकिन वे भी दुखी रहते हैं। थोड़े ऐसे भी हैं जिन्हें कम मिला वे भी सुखी नहीं हैं और ज्यादातर ऐसे हैं जिन्हें कुछ भी नहीं मिला उन्हें तो परेशान रहना ही है।
संसार के सुख-दुख को समझना पड़ता है। जब इसे जान लेते हैं, समझ लेते हैं तो यहीं से आनंद शुरु होता है। मुस्लिम फकीर इमाम शाफी का खयाल था कि दुनिया बड़ी नाचीज है इसे एक रोटी के एवज में खरीदना घाटे का सौदा है। खाने के मामले में उनका कहना था कि खाना न अच्छा होता है न बुरा। जायके का सारा मामला हलक में उतरने तक ही रहता है, उसके बाद सबका अंजाम एक ही है।

दुनिया में देखा-देखी कर जिन्दगी जीने का सिलसिला चलता है उस पर शाफी कहते थे दूसरे के मुकाबले हमारे पास ज्यादा माल हो, बराबरी करने के ऐसे खयाल तनाव ही देंगे। दूसरे से बराबरी माल की नहीं इबादत की करें। माल यहीं रह जाएगा और इबादत साथ जाएगी। गम और खुशी इन्हीं में बसे हैं लेकिन जब इबादत और गहरी हो जाए तो इसी को फकीर की मौज कहा गया है जिन्हें हिन्दुओं ने आनंद बोला है।

असली मकसद आनंद हासिल करना होना चाहिए। डायोजनीज नाम के फकीर को सिकंदर ने कहा था अभी तो मैं दुनिया जीतने निकला हूं इसलिए आपके पास बैठने में दिक्कत है। तो डायोजनीज ने कहा था दुनिया की यात्रा में तो अभी नहीं हमेशा ही दिक्कत रहेगी, क्योंकि हाथ खुशी मिले या गम, आनंद से फिर भी चूक जाओगे।

रोजाना पूजा से मिलते हैं ये फायदे
ईश्वर से जुडऩे के लिए सबसे सरल माध्यम है पूजा। कर्मकाण्ड में जब भावना अपना महत्व बढ़ाने लगे तो वह पूजा का सही स्वरूप है। पूजा से चार बातें मिलती हैं- अनुशासन, परिश्रम, धैर्य और दूरदर्शिता। इसीलिए न सिर्फ हिंदुओं ने बल्कि सभी धर्मों ने पूजा की एक निश्चित ड्रिल बनाई है।

कब, क्या, कितना करना इसमें एक अनुशासन छिपा है। सबसे पहले सूर्य को अध्र्य दिया जाता है जो धार्मिक कर्मकाण्ड ही नहीं असल में प्रकृति के तेज को प्रतिदिन अपने भीतर आमंत्रित करने की क्रिया है। तुलसी को प्रतिदिन जल चढ़ाया जाए। क्योंकि तुलसी में शांति के तत्व बसे हैं। गाय को गोग्रास देने का अर्थ है एक निश्छल आत्मा को अपने भीतर उतारना। गाय जैसी शुद्ध आत्मा और किसी पशु की नहीं है। पंचदेव माने गए हैं- गणेशजी, सूर्य, दुर्गाजी, विष्णुजी, शंकरजी।

देवपूजा का अर्थ है अपने पुरूषार्थ के साथ किसी और परमशक्ति पर भरोसा करना जो बिल्कुल भी अनुचित नहीं है। नित्य पूजा का अगला क्रम है किसी न किसी ग्रंथ का पाठ प्रतिदिन किया जाए। शुभ साहित्य के शब्द आपके चिंतन को सकारात्मक और सृजनशील बनाएंगे। इसके बाद जीवित माता-पिता, वृद्धजन तथा दिवंगत पितृजनों को प्रतिदिन प्रणाम करने का अर्थ है अपने भीतार की ऊर्जा को ऊपर उठाना।

बड़े-बूढ़े हमारे इस व्यक्तित्वरूपी वृक्ष के बीज हैं और कोई भी पेड़ कभी बीज से बड़ा नहीं होता। नित्य पूजा का यह अनुशासन, परिश्रम हमारे भीतर उस धैर्य और दूरदर्शिता को बढ़ाता है जिसकी जरूरत आज हर क्षेत्र में है। यदि किसी दिन ऐसा न भी कर पाएं तो एक काम जरूर करें, जरा मुस्कराइए...।

ये दो कमजोरियां हमें बना देती हैं अशांत
अपने शरीर से सुख भोगने की तीव्र इच्छा और दूसरे के अंगों की चाहत, ये दो कमजोरियां मनुष्य को शांत और स्वस्थ बने रहने में बाधक हैं। इन दोनों ही मामलों में मौका मिलते ही आदमी अपनी हदें लांघ देता है। एकांत के अवसरों पर तो जानवरों से भी गया-बीता व्यवहार क्रियाएं करने लगता है।

भजन, पूजन, सत्संग, शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद भी इन कमजोरियों से पार नहीं पा पाते। भीतरी पवित्रता परिपक्व और स्थाई कैसे रहे इसके लिए भारतीय ऋषियों ने एक दिव्य परंपरा निर्मित की है जिसे गुरु दीक्षा कहा गया है। अलग-अलग संतों ने इसकी अपने-अपने हिसाब से व्याख्या की है। आज केवल बुद्ध की ही बात लें। उन्होंने दीक्षा के लिए एक शब्द दिया है स्त्रोतापन्न।
यहां स्त्रोत का अर्थ है जल। ऐसा जल जो किसी उद्गम, स्त्रोत से प्रवाहित है, वह है गुरु। इस जल-पान का नाम दीक्षा है। इसे पीने का तरीका होगा। इसे दूर खड़े होकर नहीं पिया जा सकेगा, इसमें उतरना पड़ेगा, उतरे कि भीगे। भीतर-बाहर से भीगे कि दीक्षा घटी। जैसे ही गुरु कृपा हुई आपको पांच अनुभूतियां एकसाथ होंगी, इन्द्रियां वश में आने लगेंगी, मन में प्रसन्नता बढ़ेगी, चित्त की एकाग्रता सधेगी, अंत:करण पवित्र होने लगेगा तथा कभी-कभी आत्म साक्षात्कार भी होने लगेगा। इस सबका लाभ भौतिक जीवन को मिलेगा ही। इसलिए जीवन में गुरु का आना मात्र एक आध्यात्मिक प्रसंग ही नहीं है यह व्यावहारिक घटना भी है। दीक्षा का आत्मबल हमें कमजोरियों से मुक्त करेगा।

इस तरह भी पूरी हो सकती हैं आपकी इच्छाएं....
संसार टिका है चाहत पर। मनुष्य की इच्छाएं संसार को सजाती हैं, बनाती हैं। जितनी चाह अधिक होगी, संसार से निकटता उतनी ज्यादा होगी। संसार में रहते हुए अच्छी पत्नी, पति, बच्चे, मकान, पद, धन सबको चाहिए। इस चाह के बिना संसार बेकार है।

जब अनेक चीजें पाने की इच्छा हो तो उसे चाहत कहते हैं और जब यही चाहत अनेक की जगह एक के लिए हो जाए उसे अभीप्सा कहते हैं। अभीप्सा का सीधा सा अर्थ है कामना, यानी प्रबल इच्छा। चाहत से संसार मिलता है और अभीप्सा से परमात्मा की प्राप्ति होती है। यह सब सोचने का मामला है। संसारी सोचता है मुझे सब मिल जाए।

उसका यही चिंतन धीरे-धीरे सूक्ष्म होता है और फिर सोचता है सब मिल गया हो या न मिल गया हो सिर्फ एक मिल जाए। जिस दिन एक की कामना होने लगती है यहीं से भक्ति का जन्म होता है। इसलिए अपनी इच्छा और कामना को चिंतन से जोड़े रखना होगा। सुबह-शाम आपके चिंतन में क्या चलता है उससे आपकी चाहत और फिर कामना बनेगी। अध्यात्म में एक शब्द आया है मौलिक चिंतन। जब आप दूसरों के विचारों से संचालित होते हैं तब आप भीड़ का एक हिस्सा होते हैं।

भीड़ संसार का दूसरा नाम है और जितना आपका चिंतन मौलिक होता है उतने ही आप भीड़ से हटकर एकांत में उतरते हैं। और जितना एकांत में उतरेंगे उतना परमात्मा के निकट जाएंगे। इसलिए जब भी कोई चीज सुनें, देखें और पढ़ें सीधे अपने भीतर न उतारें, कुछ न कुछ अपना मौलिक चिंतन उसके साथ जरूर जोड़ लें। चिंतन को मौलिक बनाने के लिए दो काम जरूर करें बोलना और लिखना। अपने विचार को समय पर शालीनता के साथ व्यक्त करें और प्रतिदिन एक पृष्ठ उन विचारों का लिखें, यहीं से मौलिक चिंतन का विकास होगा।

अगर परिवार में पूरी तरह सुख-शांति चाहिए...
हम अपने परिवारों में भौतिक सुविधाओं को जितना जुटाएं उससे कुछ अधिक प्रेम और श्रद्धा को भी भरें। हर घर में बड़े-बूढ़े होते हैं। अब जो बुढ़ापा आ रहा है उसे धन-दौलत, सुख-सुविधा से ज्यादा, समय की जरूरत है। वे चाहते हैं कुछ पल परिवार के सदस्य उनके पास बैठे।

छोटे बच्चों पर प्रेम करना आसान है परन्तु घर के वृद्धों पर प्रेम करना बड़ा कठिन हो जाता है। घर की युवा और प्रौढ़ पीढ़ी के रूप में आप चाहेंगे कि वृद्ध आपकी आज्ञा माने। क्योंकि इस समय आप उनका लालन-पालन कर रहे होते हैं। कई वृद्ध समझ नहीं पाते और वे चाहते हैं आज्ञा तोड़ें, क्योंकि आज्ञा मनवाने में नई पीढ़ी के अहंकार की तृप्ति है और आज्ञा तोडऩे में बीत रही पीढ़ी के अहंकार की तृप्ति है। बूढ़ों को कभी-कभी लगने लगता है हमारे बच्चों का प्रेम एक धोखा है, प्रेम के नाम पर आप बच्चे का शोषण कर रहे हैं।
बड़े अपने बच्चों से प्रेम करें तो समझ लें कोई बड़ी बात नहीं है, महत्व की बात तब होती है जब बच्चे बड़ों के प्रति प्रेम से भर जाएं। यह तभी सम्भव है जब हमारे परिवार का मूल चित्त श्रद्धा से भरा हो। इसलिए परिवार के आधार में, परिवार का प्रत्येक सदस्य श्रद्धा और प्रेम से भरा रहे। तभी दोनों पीढिय़ां एक-दूसरे से प्रेम से जुड़े रहेंगे, आदर और सम्मान बना रहेगा।

हर संतान को यह लग रहा है कि जो हम सीख रहे हैं वह हमने हमारे मात-पिता से नहीं सीखा, मैंने खुद अर्जित किया है। इसलिए आजकल लोग घर के बड़े-बूढ़ों के पास नहीं बैठते, क्योंकि उन्हें जो चाहिए वे मानते हैं पहले से हमारे पास है लेकिन वे भूल जाते हैं बूढ़ी सांसें भी आशीर्वाद से भरी रहती है। जरा सा आशीर्वाद इसका मिल जाए तो भविष्य उज्जवल हो सकता है, जीवन संवर सकता है।

जीवन में मैनेजमेंट के लिए यह समझ जरूरी है

आज के युवा इस बात को जानते हैं कि अब नौकरी मिलने और उसमें बने रहने के मापदण्ड बदल गए हैं। पर्याप्त जानकारी, बुद्धिमानी, जनसम्पर्क, लगनशील, परिश्रम तथा नेतृत्व का गुण ये सब तो जरूरी हैं ही, परन्तु इस समय इन सबसे भी ज्यादा एक गुण प्रबंधन में देखा जाता है और वह है कॉमनसेंस।

इसके कुछ उदाहरण हनुमानजी ने प्रस्तुत किए हैं। लंका जाते समय सिंहिका नाम की राक्षसी मिली थी जिसको उन्होंने मार डाला था। वह ईष्र्या का प्रतीक थी। वह उड़ते हुए लोगों की परछाई पकड़कर उन्हें खा जाती थी। हनुमंतलालजी का मत है कि ईष्र्या को मार डालना चाहिए। ईष्र्यालु लोग अपनी सारी ऊर्जा दूसरों के भाग्य से लडऩे में लगा देते हैं, जबकि यदि मनुष्य को लडऩा है तो अपनी किस्मत से लडऩा चाहिए ताकि उसे बेहतर बना सकें।

भाग्य भले ही ना बदला जा सके किन्तु इस अपरिवर्तित भाग्य का सामना करने के लिए हालात तो बदले ही जा सकते हैं। फिर लंका के द्वार पर लंका की रक्षा करने वाली लंकिनी नामक राक्षसी मिली, उसने हनुमानजी को पहचाना और बलपूर्वक रोकने का प्रयास किया तब उन्होंने लंकिनी को मुक्का मारा और उसे घायल कर दिया। लंकिनी थी तो रक्षक, किन्तु वह रावण जैसे चोर की सेवा में थी। जो रक्षक एक गलत व्यवस्था की रक्षा करें उन पर प्रहार करना चाहिए।

हनुमानजी की चतुराई हमारे लिए प्रेरणादायक है। इसलिए उन्हें कहा गया है कि बिद्यावान गुनी अतिचातुर, फिर पंक्ति आती है-रामकाज करिबे को आतुर-वे आतुर हैं आलसी नहीं। जिसे रामभक्त होना हो, हनुमान भक्त होना हो, वे आलस्य छोड़ दें। अध्यात्म में आलस्य का कोई काम नहीं और अध्यात्म ही क्यों, सांसारिक जीवन में भी आलस्य अपराध है।

ये फर्क है जीने और रहने में...

रहने और जीने में फर्क है। रहते पशु भी हैं लेकिन जीने की संभावना सिर्फ मनुष्यों में होती है। कोई पशु अच्छा होगा तो आज्ञाकारी हो जाएगा, थोड़ी अधिक सेवा कर देगा। इससे ज्यादा वह और कुछ नहीं हो सकता लेकिन मनुष्य के पास हमेशा यह संभावना बनी रहेगी कि वह अपने ही मनुष्य होने का अतिक्रमण कर ले।

इसीलिए मनुष्य होना गौरव की बात है। और हमारा सबसे बड़ा गौरव यह होना चाहिए कि हम इस धरती को जीते-जी क्या देकर जाएंगे। हमारे लेने की सूची बहुत लम्बी है लेकिन देने का हिसाब छोटा और गड़बड़ है। क्या दिया जाए इस पर कभी-कभी भ्रम भी हो जाता है। इसीलिए महापुरुषों की जिंदगी में झांक लेना चाहिए। वे हमें सिखा गए क्या और कैसे दिया जा सकता है। ऐसा ही मनुष्य का एक जीवन जिया था गांधीजी ने।

उन्होंने जो दिया था वैसा कोई भी व्यक्ति दे सकता है बस, गांधीजी के निकट जाना होगा। गांधी पूरी तरह आत्मा पर जिए थे। बाहर और भीतर का अद्भुत संतुलन उनके व्यक्तित्व में था। उनके भौतिक निर्णयों पर मतभेद हो सकते हैं लेकिन उनका अध्यात्म निर्विवाद था। उन्होंने जीवन को सिर्फ शरीर से नहीं जोड़ा बल्कि आत्मा से सम्बद्ध कर दिया था। और वे इस संसार को वह दे गए जो आश्चर्य में डालता है। जो लोग दुनिया को कुछ श्रेष्ठ देना चाहते हैं उन्हें पहले अपने भीतर स्पष्ट होना पड़ेगा।

जितना हम अपने केन्द्र से जुड़ेंगे जो कि भीतर होता है उतना ही हम परिधि पर पड़े हुए संसार को अच्छा दे सकेंगे। अभी हम उल्टा कर जाते हैं। संसार को केन्द्र में रखते हैं और खुद परिधि पर आ जाते हैं। इसीलिए हमारा कॉन्ट्रीब्यूशन भी उल्टा हो जाता है। बेहतर देने के लिए बेहतर होना ही पड़ेगा। जो भीतर जाकर हुआ जाता है।

इसलिए जीवन बेरंग हो जाता है....
जीवन का अपना एक रंग रहता है जो सफेद होता है। जो सपने हम बुनते हैं वे जरूर रंग बिरंगे होते हैं। हिन्दुओं ने सूर्य को जल देने की क्रिया बड़ी अद्भुत बनाई है। जल देकर आह्वान और आभार दोनों व्यक्त किया जाता है। सूर्य से जीवन का रंग चमकीला सफेद मांगा जाता है। इसमें जीवन और तपिश दोनों समाहित है, लेकिन आजकल भौतिक युग में जीवन को इन्द्रधनुषी माना जाता है।
जीवन को सतरंगी बनाने के चक्कर में सारे ही रंग बेरंग हो जाते हैं। इन्द्रधनुषी जीवनशैली में आराम पसंगी, स्वादलिप्सा, प्रतिद्वंद्विता, वासना वृत्ति, भोग-प्रेम, अनियमितत जीवन ये सब समाए हैं। इनके परिणाम में हम बीमारियां पाल लेते हैं। ये जीवनशैली के रोग हैं। क्या क्या रोग हमने पाल लिए हैं, इसे तो हम बेहतर जानते हैं।

चलिए पुन: सूर्य से जुड़ें। सूर्य हमें तप सिखाता है। सूर्य से जीवन को जोडऩे का अर्थ है तपस्वी जीवन, नियमित, संयमित जीवन। विज्ञान बताता है कि सूर्य की किरणें विशेष परिस्थिति से गुजरकर इन्द्रधनुष बनाती हैं। हम स्वयं भी प्रिज्म के द्वारा सूर्य किरणों को इन्द्र धनुष रूप में देख सकते हैं, परन्तु यह अस्थाई है मूल स्वरूप नहीं। वास्तव में सूर्य किरण सफेद चमकीली है, बिल्कुल जीवन ऐसा ही है। हम भोग विलास के प्रिज्म या प्राकृतिक स्थितियां देकर इसे इन्द्रधनुषी बनाते हैं।

यदि हम कभी इन्द्रधनुष को छू सकें तो पाएंगे वह एक दम खाली है भ्रम जैसा आप चाहें तो आरपार निकल सकते हैं। इसलिए जीवन को संयमित रखकर उसके मूल रंग में रखें। अवसाद, आवेश और असुरक्षा का भाव असंतुलित जीवन के परिणाम हैं। रंग विज्ञानी मानते हैं कि सफेद रंग कईग् रंगों का परिणाम है। एक तरह से रंगों की पूर्णता का नाम सफेद रंग है। संयमित जीवन को इसी रूप में लिया जाए।

क्यों इतनी सफलता के बाद भी नहीं मिलती है शांति?
सफलता प्राप्त हो जाए और अशांति भी बनी रहे तो कारण ढूंढना चाहिए इसका एक कारण मोह भी हो सकता है। चलिए श्री
हनुमानचालीसा की उन्नीसवीं चौपाई की चर्चा करें।

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं। जलधि लाँघि गए अचरज नाहीं।।

आपने रामनाम अंकित मुद्रिका को मुंह में रखा और सौ योजन विस्तृत समुद्र को लांघ गए। आपकी अपार महिमा को देखते हुए इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। सीताजी को ढूंढने हनुमानजी समुद्र को लांघ कर लंका में गए थे। यहां समुद्र मोह का प्रतीक है। मोह की वृत्ति को पार करना एक बड़ी चुनौती है। ये पंक्तियां सीता शोध के पूर्व समुद्र तट पर बैठे वानरों के दृश्य की ओर संकेत करती है।
सीताजी भक्ति का प्रतीक हैं। जब हमारी भक्ति का अपहरण हो जाए तो हमें उसे पुन: प्राप्त करने के लिए मोह का सागर पार कर लंका जाना होगा। भक्ति (सीता) का अपहरण क्यों हो गया था, इस पर विचार करें। रावण के कहने पर मारीच ने स्वर्ण मृग का वेश बनाया था। सीताजी इस स्वर्ण मृग पर आकर्षित हो गई थीं।

स्वर्ण मृग क्या है? लोभ है, मोह है। जाते समय लक्ष्मणजी ने अपनी लक्ष्मण रेखा खींच दी थी। लक्ष्मण यानी साक्षात् वैराग्य। रावण (भोग) वेष बदलकर आया था। यह हमारे जीवन की कहानी है। भक्ति का अपहरण रावण कैसे करता है। जब हमारी भक्ति मोह में पड़ जाती है तब भोग वेष बदलकर आता है। वेष बनाने में भोग बड़ा दक्ष होता है। भोग के कई वेष होते हैं।
अहंकार, सम्मान या धर्म के रूप में भी आ सकता है और हम भी उसे अपना लेते हैं। जब भोग हमें आमंत्रित करे तो हमें अपने वैराग्य की रेखा खींचनी चाहिए। हनुमानजी के अलावा मोह का सागर कोई पार नहीं कर सका। इसलिए श्री हनुमानचालीसा का आश्रय लेना चाहिए।

ये मांगें भगवान से प्रार्थना में....
परमात्मा से जब भी की जाए गुण ग्रहण की ही प्रार्थना की जाए। प्रार्थना तो करें परन्तु उसे आचरण में भी लाएं। अन्यथा प्रार्थना फलीभूत नहीं हो पाएगी। गुण ग्रहण की प्रार्थना करने का अर्थ है कि हम सुबह उठकर एक अच्छा काम करने का संकल्प लें और रात सोने से पहले एक बुराई का त्याग करके सोएं। जो ऐसा करते हैं वे गुणग्राही, जीवन को गुणों से सम्पन्न बना लेते हैं। धन से सम्पन्न होना तो सरल एवं सहज है लेकिन गुणों से सम्पन्न होना मुश्किल हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हम बुराइयों को छोडऩे और अच्छाइयों एवं गुणों को ग्रहण करने में अपने आपको कमजोर पाते हैं। इस कमजोरी के कारण हम गुणों को देखने के स्थान पर दोष देखने लगते हैं। अपने व्यक्तित्व में सृजन का भाव लगातार विकसित करें। मानव जीवन को कल्पवृक्ष बनाने का श्रेय इन्हीं रचनात्मक विचारों का होता है। इस तथ्य को भली प्रकार समझते हुए चिन्तन को मात्र रचनात्मक एवं उच्च स्तरीय विचारों में ही संलग्न करना चाहिए। विचार मानव के जीवन में महान शक्ति है। वही कर्म के रूप में परिणत होती और परिस्थिति बनकर सामने आती है। जैसा बीज होगा वैसा पेड़ बनेगा। जैन मुनि प्रज्ञा सागरजी ने अपनी पुस्तक मेरी किताब में इस विषय पर बहुत अच्छे विचार दिए हैं। उनका कहना है- कुछ लोग दूसरे की कमी क्यों देखते हैं? अपनी कमी को छिपाने के लिए। जैसे लोमड़ी अंगूर तक नहीं पहुँच पाती तो स्वयं को दोष देने की बजाय अंगूरों को दोष देने लगती है। खाने की वासना तो है लेकिन अपनी असमर्थता छुपाने के लिए अंगूर को ही खट्टा बता दिया। ऐसे ही हम भी अपनी कमी छुपाते-छुपाते दूसरों की कमी देखने के आदी हो गए हैं।

रिश्तों के बोझ को ऐसे उठाएं कि जिंदगी हल्की हो जाए...

रिश्तों की जान संवेदना में होती है लेकिन आज रिश्ते भी बोझ बन गए हैं। दुनियाभर का वजन लादे हम लोग रिश्तों का बोझ उठाने में थके-थके से हो जाते हैं और जीवन बोझिल हो जाता है। मुस्लिम फकीर अबुल हसन खिरकानी जिन्दगी में छोटी-छोटी चीजों को अलग ही नजरिए से देखते थे। उनकी बात ठीक से समझ लें तो जिन्दगी के लिए बहुत बड़ा संदेश बन जाएगी। उनकी बीवी बड़ी तुनक मिजाज थीं।

एक दफा एक शख्स अबुल हसन के घर उनसे मिलने गए। उनकी बीवी से पूछा शेख कहा हैं। मोहतरमा पलट कर बोलीं - तू ऐसे नाकाबिल और बुरे आदमी को शेख कहता है, हाँ, मेरा शौहर जरूर जंगल में लकड़ी लेने गया है। वो जनाब पति-पत्नी के रिश्ते की गरमाहट और बोझ को समझ गए और जंगल पहुँचे। देखा तो ताज्जुब में आ गए। अबुल हसन चले आ रहे हैं उनके साथ एक शेर है और उस पर लकडिय़ों का बोझ रखा है। उन शख्स ने फरमाया आपकी बीवी आपके बारे में कुछ और ही अल्फाज कह रही है और आप ये करिश्मा किए जा रहे हैं। इसके जवाब में हसन ने मुस्कुराकर बड़ी गहरी बात कह दी- च्च्सुनो मेरे भाई यदि मैं अपनी बीवी की तुनक मिजाजी का बोझ न उठाऊं तो ये शेर मेरा बोझ क्यों उठाएगा?ज्ज् यदि बोझ ही बन जाएं, जो बन ही जाते हैं तो फिर उन्हें ऐसे उठाएं कि कम से कम जिन्दगी थोड़ी हल्की हो जाए।

हमारा जीवन भी इन बातों की सच्चाई से जुड़ा है। अगर हम रिश्तों के वजन को संवेदनशीलता से लें तो आसानी से जिया जा सकता है। अबुल हसन का जीवन ऐसे ही संदेश देता है, बस हमें इसे समझना है।

जीवन में मैनेजमेंट के लिए यह समझ जरूरी है
आज के युवा इस बात को जानते हैं कि अब नौकरी मिलने और उसमें बने रहने के मापदण्ड बदल गए हैं। पर्याप्त जानकारी, बुद्धिमानी, जनसम्पर्क, लगनशील, परिश्रम तथा नेतृत्व का गुण ये सब तो जरूरी हैं ही, परन्तु इस समय इन सबसे भी ज्यादा एक गुण प्रबंधन में देखा जाता है और वह है कॉमनसेंस।

इसके कुछ उदाहरण हनुमानजी ने प्रस्तुत किए हैं। लंका जाते समय सिंहिका नाम की राक्षसी मिली थी जिसको उन्होंने मार डाला था। वह ईष्र्या का प्रतीक थी। वह उड़ते हुए लोगों की परछाई पकड़कर उन्हें खा जाती थी। हनुमंतलालजी का मत है कि ईष्र्या को मार डालना चाहिए। ईष्र्यालु लोग अपनी सारी ऊर्जा दूसरों के भाग्य से लडऩे में लगा देते हैं, जबकि यदि मनुष्य को लडऩा है तो अपनी किस्मत से लडऩा चाहिए ताकि उसे बेहतर बना सकें।

भाग्य भले ही ना बदला जा सके किन्तु इस अपरिवर्तित भाग्य का सामना करने के लिए हालात तो बदले ही जा सकते हैं। फिर लंका के द्वार पर लंका की रक्षा करने वाली लंकिनी नामक राक्षसी मिली, उसने हनुमानजी को पहचाना और बलपूर्वक रोकने का प्रयास किया तब उन्होंने लंकिनी को मुक्का मारा और उसे घायल कर दिया। लंकिनी थी तो रक्षक, किन्तु वह रावण जैसे चोर की सेवा में थी। जो रक्षक एक गलत व्यवस्था की रक्षा करें उन पर प्रहार करना चाहिए।

हनुमानजी की चतुराई हमारे लिए प्रेरणादायक है। इसलिए उन्हें कहा गया है कि बिद्यावान गुनी अतिचातुर, फिर पंक्ति आती है-रामकाज करिबे को आतुर-वे आतुर हैं आलसी नहीं। जिसे रामभक्त होना हो, हनुमान भक्त होना हो, वे आलस्य छोड़ दें। अध्यात्म में आलस्य का कोई काम नहीं और अध्यात्म ही क्यों, सांसारिक जीवन में भी आलस्य अपराध है।

हम दुनिया में रहें, दुनिया हम में नहीं...
यह दुनिया एक सराय है। इसलिए फकीरों ने कहा है हम दुनिया में रहें दुनिया हम में न रहे। संसार से जितना लगाव बढ़ता है सांसारिक चीजें बेचैनी के उतने ही सामान हमारे भीतर उतार देती है। बलख के बादशाह इब्राहिम की जिंदगी का एक मशहूर किस्सा है। वे अपने दरबार में बैठे हुए थे। उनका मिजाज फकीरी रहता था। हर बात को गहरे तरीके से सोचते थे। एक बार एक शख्स उनके दरबार में सीधा घुस गया और बादशाह के सिंहासन के पास जाकर इधर-उधर देखने लगा। इब्राहिम ने पूछा क्या देख रहे हैं और क्या चाह रहे हैं। उस शख्स ने फरमाया एक-दो दिन का मुकाम चाहता हूँ। बादशाह बोले शौक से रहिए।

उस शख्स ने कहा रह तो जाता लेकिन यह तो सराय है और मुझे सराय में नहीं ठहरना। बादशाह चौंक गए उन्होंने कहा होश में बात करिए यह सराय नहीं बादशाह का महल है। उस शख्स ने फरमाया यह बताओ क्या तुमसे पहले भी इस जगह कोई रहते थे। बादशाह ने कहा- हाँ, मेरे पिता और उसके पहले मेरे दादा। कई पीढिय़ां इससे गुजर गईं। वह शख्स मुस्कुराया और बोला जब इतने लोग यहाँ रहकर चले गए तो फिर यह सराय नहीं हुई तो और क्या हुई। इसी का नाम तो दुनिया है। है सराय की तरह और हम हमेशा का ठिकाना मान लेते हैं। यहाँ कोई किसी का नहीं होता। मजबूर तमन्नाओं के कदम थक जाते हैं पर कोई किसी को सहारा नहीं देता। बादशाह समझ गए बात गहरी की जा रही है और उन्होंने उस शख्स से पूछा- आप कौन हैं तो पता लगा वे हजरत खिज्र थे।

दरअसल हम सब मुसाफिर हैं और मुसाफिर का मकसद मंजिल होता है। अपने मुकाम तक पहुंचने के लिए कुछ हल्के-फुल्के ठिकाने जरूर ले लेता है लेकिन मुसाफिर भूलता नहीं है कि उसकी मंजिल कौन-सी है। हम सबकी मंजिल वह परमशक्ति है, धर्म का मार्ग कोई भी हो।

कैसे मिलता है आनंद...?

बचपन से हमें खानपान के सलीके सिखाए जाते हैं, हमें आ भी जाते हैं। चलिए आज केवल पीने की बात करें, खाने की बात फिर कभी। एक चीज पीना हम नहीं सीख पा रहे, वह है आनंद को पीना। चाहते हुए भी इसका रसपान हम नहीं कर पाते हैं। आते हुए आनंद को भी हम छिटक देते हैं। मंगल भवन अमंगलहारी जैसी चौपाइयों को रटने वाले हम लोग अपने दुख से कम दुखी बल्कि दूसरों के सुख से ज्यादा दुखी रहते हैं।

यह वृत्ति हमारी आनंद की प्यास को विकृत कर देती है। संसार की हर गतिविधि में, प्रकृति के हर तत्व में रस भरा है। इसे साधन की पद्धति से रिफाईंड करना पड़ता है। इसी प्रक्रिया का नाम आनंद प्राप्त करना है। इस आनंद के घूंट को पूरा स्वाद लेकर पीना है। साधु संत यह कला जानते हैं कि हर सांस के साथ आनंद को कैसे भीतर उतारना है। हम सांसारिक लोग इसके लिए एक अभ्यास कर सकते हैं। जब भी पानी पिएं बैठकर ही पिएं। पीते समय कमर सीधी हो, आंखें बंद हों और पानी का घूंट भीतर उतारते समय महसूस करें कि आप जल नहीं प्रकृति का पूरा प्राण तत्व अपने भीतर घूंट दर घूंट उतार रहे हैं।

अपने ही हाथ से पानी के ग्लास को उचित स्थान पर मानसिक आभार देते हुए रख दीजिए। दिनभर में तीन-चार बार भी ऐसा अभ्यास सध जाए तो अन्य समय आनंद पी जाने में सरलता होगी। जलपान की ऐसी प्रक्रिया अपने आपमें प्राणायाम के परिणाम दे देगी। संत हर घड़ी, हर क्रिया से आनंद उठा लेते हैं। उन्हें तो कोई हार-फूल पहनाता है और उसमें गेंदा हो तो वे यह कह कर आनंद उठा लेते हैं यह संसार गेंदा फूल है, क्योंकि गेंदा एक ऐसा फूल है जो है तो फूल पर फेंक कर मारो तो चोट भी देता है। संत एक साथ हार-फूल और संसार-शूल को समझकर आनंद का रसपान कर लेते हैं।

प्रशंसा वो मदिरा है जो कानों से पिलाई जाती है
प्रशंसा वो मदिरा है जो कानों से पिलाई जाती है। हनुमान जी को अपनी प्रशंसा सुनना प्रिय नहीं था लेकिन तुलसीदासजी ने हनुमानचालीसा की चौदहवीं और पन्द्रहवीं चौपाइयों में लिखा है- सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा। नारद सारद सहित अहीसा।। जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते। कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते।। हे हनुमानजी! आपका यश कौन गा सकता है। श्री सनक, सनातन, सनंदन, सनतकुमार आदि मुनिगण, ब्रह्मा आदि देवगण, नारद, सरस्वती, शेषनाग, यमराज, कुबेर जैसे बुद्धि-शक्ति सम्पन्न और समस्त दिग्पाल आपका यश गाने में असमर्थ हैं। फिर सांसारिक विद्वान, कवियों की तो बात ही क्या करें। तुलसीदासजी ने पूरी श्रीहनुमानचालीसा में इस बात का ध्यान रखा कि श्री आंजनेय अपनी स्तुति से नाराज न हो जाएं। श्रीराम से जोड़कर यदि प्रशंसा हो तो उन्हें फिर भी मान्य है।

अपनी प्रशंसा न सुनने के स्वभाव के विपरीत श्रीहनुमानचालीसा की पंक्तियों को श्रीहनुमानजी ने इसलिए मान्यता दे दी कि वे अपने भक्तों को, साधकों को निर्णय लेने का पूरा अवसर देना चाहते हैं।

यह जीवन-प्रबंधन का एक महत्वपूर्ण सूत्र है। यदि इन पंक्तियों से अपने साधकों में नैतिक साहस और नई उत्तेजना पैदा होती है तो यह यशगान श्री आंजनेय को स्वीकार है। प्रबंधन में एक नियम है कि आपके अधीनस्थ या सहायक आपका कहना तब ही मानेंगे या आपके निर्णयों को स्वीकार इस कारण करेंगे कि उन्हें यह भरोसा हो कि आप उनसे अधिक योग्य हैं। बल्कि वे यह भी सोचते हैं कि समय विशेष आने पर आप उनका सही मार्गदर्शन कर सकेंगे।

जन्म और मृत्यु, दोनों का महत्व समान ही हैं
जन्म और मृत्यु का हिसाब हम संसारी लोग अलग-अलग रखते हैं। हमारे हिसाब से याद रखने के लिए जन्म ही है। मृत्यु को लगातार हम भूलने का प्रयास करते हैं लेकिन परमात्मा का हिसाब कुछ और तरीके का है। वे इन दोनों को अलग नहीं रखते।

परमात्मा की दृष्टि में जितना महत्वपूर्ण जन्म है उससे कम हैसियत मृत्यु की नहीं है। उनके लिए दोनों का महत्व समान है। श्रीकृष्ण आधी रात को पैदा हुए थे, राम भरी दोपहरी में आए थे। रात के अंधेरे में आकर श्रीकृष्ण एक बड़ा संदेश यह दे गए कि तुम्हारे जीवन में यदि अंधकार है, तुम प्रकाश की खोज में हो तो भी मैं तुम्हारे जीवन में आ जाऊँगा। जिस समय श्रीकृष्ण पैदा होकर मथुरा से गोकुल लाए गए और नन्दबाबा ने उन्हें चुपचाप यशोदाजी के पास रखा, उस समय गोकुलवासी गहरी नींद में सो रहे थे। जबकि सभी लोग पहले से तय कर चुके थे कि नन्दबाबा के यहां जब अष्टमी को संतान का जन्म होगा तो हम उत्सव मनाएंगे।

कथा ऐसी है कि श्रीकृष्ण के पहले यशोदाजी के यहां योगमाया ने जन्म ले लिया था। भगवान के आने के पहले माया आ जाती है और माया सुलाती है तथा जब मायापति आते हैं तो वे जगाते हैं। जीवन में भगवान के आने का अर्थ यही है कि हम माया से मुक्त हो जाएं। अपनी मृत्यु के समय भी कृष्ण उद्धव को ये उपदेश दे गए थे कि मैं चुपचाप आया और अंत में चुपचाप चला जाऊँगा। जो कुछ घटा है बीच में घटा है। जीवन और मृत्यु के बीच श्रीकृष्ण ने पूरी लीला बता दी। वे कहते हैं जिन्हें ये दोनों याद हैं उन्हें मध्य का जीवन जीने में दिक्कत नहीं आएगी। इसलिए हम भी जन्म और मृत्यु के अर्थ को समान महत्व से समझें और मध्य के जीवन को दिव्य बनाएं।

इन गुणों से मिलती है प्रशंसा और प्रतिष्ठा
ज्ञानियों को दुगुर्णों से दूर रहना चाहिए। ज्ञान और सद्गुण एक साथ कैसे रहें इसकी कला हनुमानजी जानते हैं। हनुमानचालीसा की पहली चौपाई में इन्हें ज्ञान और गुण का सागर लिखा है।
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर, जय कपीस तिहुं लोक उजागर

ज्ञान और गुण के सागर हनुमानजी आपकी जय हो। तीन लोक (स्वर्ग, भू और पाताल) आपसे प्रकाशमान हैं। अत: आप कपीस यानी वानरों के राजा हैं। इनका पहला नाम हनुमान लिखा है। जब इन्होंने सूर्य को मुंह में रख लिया था तब इन्द्र ने वज्र का प्रहार कर सूर्य को मुक्त कराया था, प्रहार से इनकी ठोढ़ी टूट गई थी। संस्कृत में ठोढ़ी को हनु कहा है, अत: इनका एक नाम हनुमान पड़ा।

लेकिन हनुमान का एक महत्वपूर्ण अर्थ है जो अपने मान का हनन कर दे वो हनुमान है। हनुमान के भक्त को निराभिमानी होना चाहिए। परमात्मा अहंकार शून्य चित्त में ही उतरते हैं। इन्हें ज्ञान, गुण का सागर कहा है मंदिर नहीं। एक फर्क है मंदिर में पवित्र होकर जाया जाता है। योग्यता मनुष्य की पहचान कैसे बन जाती है देखें, कपीस लिखा है हनुमानजी को। लेकिन वानरों के राजा सुग्रीव थे, हनुमानजी तो उनके मंत्री थे। परन्तु तुलसीदासजी का मानना है जो लोगों के दिल पर राज करे वो असली राजा है।

इसलिए उन्होंने हनुमानजी को राजा संबोधित किया। हनुमानजी पद से नहीं, पद हनुमानजी के नाम से जाना जा रहा है। योग्यता से प्रतिष्ठा को किस प्रकार जोड़ा जा सकता है यह इस चौपाई से पता चलता है, तिहुंलोक उजागर का अर्थ है अपने सद्कर्मों से प्रतिष्ठा अर्जित की जाए तथा उसे सीमित न रखें, उसका विस्तार हो ताकि अधिक से अधिक लोग उससे प्रेरित हो सकें। हनुमान केवल पूजनीय नहीं प्रेरक भी हैं।

इसलिए परिवारों में बिखराव आ रहा है....
यदि बात आचरण में नहीं उतरी तो शब्द वाणी विलास ही रहेंगे फलदायी नहीं होंगे। आचरणहीन शब्द संसार को धोखा दे सकते हैं, परन्तु परमात्मा से कैसे छुपाओगे। इसीलिए संतों ने कहा है जो कहा वह करो, भीतर कुछ बाहर कुछ मत रहो। मन, वचन और कर्म में एकरूपता परमात्मा की पसंद है। आज हम केवल परिवार की बात करें। इन दिनों अधिकांश परिवार अशांति का केन्द्र और उपद्रव के अड्डे बन गए हैं।
हर सदस्य अपने हिसाब से दूसरे सदस्य से मान, सहयोग, प्रेम चाहता है। सारे रिश्ते लेन-देन की डोर में बँध गए हैं। उस पर आधुनिक जीवनशैली ने सुविधाओं से ज्यादा मुगालता दे दिया। जिसे देखो उसे मुगालता है कि सही क्या है इसकी फिक्र छोड़ जो हम कर रहे हैं वही सही है।

अकबर इलहाबादी ने एक बढिय़ा बात कही थी-
हमको नई कशिश के हल्के जकड़ रहे हैं,
बातें तो बन रही हैं पर घर बिगड़ रहे हैं

घर में हर सदस्य अपने शिक्षित होने पर स्वयं को ज्ञानवान और अन्य को मूर्ख समझने का पहला दावा ठोकता है। परिवारों को अध्यात्म से जोड़ा जाए। पूजा और ध्यान परिवार की अनिवार्य दिनचर्या बना देनी चाहिए। ये दोनों काम बच्चों की शिक्षा को जानने से अधिक जीने का विषय बना देंगे। फकीरों ने कहा है थोड़ा जानो, ज्यादा जीओ।
आज आदमी जीना तो भूल ही गया है। बस वक्त गुजार रहा है। इसीलिए सब तरह से सम्पन्न लोग समय के मामले में कंगाल नजर आते हैं। जो लोग दाम्पत्य जीवन को आनंद से बिताना चाहते हैं उन्हें इस गृहस्थ जीवन के सत्य को जानने से अधिक जीने की कला आना चाहिए। और एक कला यह है कि मन, वचन तथा कर्म से अपने परिवारों में एक रहें। बाहर दिए जा रहे धोखे का खेल घर में न खेलें। दुनियादारी में जीतने, विजयी होने का सुख है तो घर में जीने का आनंद है।

सफलता के लिए सख्ती भी जरूरी है...
अपने दायित्व सदैव दूसरों पर थोपे और सौंपे नहीं जा सकते। लेकिन कुछ काम ऐसे भी होते हैं जो खुद भी करना पड़ते हैं और दूसरों से भी कराना पड़ते हैं। कभी-कभी तो खुद करना आसान होता है और दूसरों से काम लेना कठिन हो जाता है। हिन्दू धर्म में अवतारों ने कई उदाहरण ऐसे दिए हैं जिसमें उन्होंने कुछ काम दूसरों से लिए हैं और कुछ खुद ही किए हैं।

यह इस बात पर निर्भर करता है कि काम किस स्तर का है और परिणाम कितने महत्वपूर्ण होंगे। एक बार विष्णुजी ने नारद मुनि को सत्य-व्रत के बारे में समझाया था और कहा था इसका प्रचार संसार में जाकर करो। बाद में भगवान ने निर्णय लिया कि मैं स्वयं भी जाऊं। शतानंद नामक ब्राह्मण के सामने भगवान ने वृद्ध ब्राह्मण का वेष धरा और वार्तालाप किया। ऐसा सत्यनारायण व्रत कथा में आता है।

भगवान ने सोचा जो कुछ मैंने नारदजी को समझाया है क्या वैसा नारदजी संसार में लोगों को समझा सकेंगे? यह भगवान की कार्यशैली है कि वे हर कार्य करने में अत्यधिक सावधानी रखते हैं। कुछ कार्य स्वयं ही करना चाहिए। अपने सहायकों और साथियों पर आधारित रहने की एक सीमा रेखा तय करना होगी। इसका सीधा असर गुणवत्ता पर पड़ता है।

भगवान सत्य-व्रत की गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं करना चाहते थे। शत्-प्रतिशत परिणाम पाने के लिए भगवान ने स्वयं की भूमिका को सक्रिय भी रखा और इस बात की चिंता नहीं पाली कि नारद अन्यथा ले लेंगे। प्रबंधन का एक नियम है किसी व्यवस्था में शीर्ष व्यक्ति सदैव अच्छे बनने के चक्कर में असफल बॉस साबित हो जाते हैं। जो नेतृत्व सफलता तक पहुंचता है वह अपने सहायकों, साथियों में सदैव लोकप्रिय रहे यह आवश्यक नहीं है। सख्त और अप्रिय निर्णय भी लेना ही पड़ते हैं।

ऐसी प्रार्थना किसी काम की नहीं...
फकीरों ने कहा कि स्वयं को मिटाए बिना परमात्मा नहीं मिलता। यह संवाद भय पैदा करता है। स्वयं को मिटाने में डर लगता है लेकिन स्वयं को मिटाने का अर्थ है अपने अहंकार को गला देना। इसके लिए एक सरल प्रक्रिया है जप करना। जप कि यह विशेषता है कि नाम की बार-बार आवृत्ति होने पर रस बना रहता है। जप में, प्रार्थना में दरअसल स्वयं को मिटाना होगा।

मिटे बिना न तो सही प्रार्थना हो सकती है और न जप हो सकता है। यदि प्रार्थना करते-करते हम पिघले न, जप करते-करते हम स्वयं को न खो दें तो फिर ये प्रार्थना, हमारी अक्ल का हिसाब ही मानी जाएगा। फिर प्रार्थना एक गणित होगी, एक धंधा होगी।
एक चर्च में एक पादरी प्रवचन दे रहे थे तो उन्हें बड़ी हैरानी हुई क्योंकि सामने एक बुढिय़ा बैठी थी और पादरी जब भी ईश्वर का नाम लेते वह आमीन-आमीन कहती। आमीन, ओम का ही रूपांतरण है। लेकिन जब पादरी शैतान का नाम लेते तब भी बुढिय़ा कहती-आमीन। पादरी को बड़ी हैरानी हुई। प्रवचन के बाद जब वे मंच से उतरे और बुढिय़ा के पास गए, उस बुढिय़ा से कहा- समझ में नहीं आता कि ईश्वर का नाम लेते समय तो आमीन करते देखा, पर आप शैतान के नाम पर भी आमीन कह रही हैं।

बुढिय़ा ने कहा- यह मेरा मृत्यु का समय है, अंतिम समय है, किसी से भी बुरा क्यों बनें। क्या मालूम संसार से जाने के बाद में किसके पास जाना पड़े? पता नहीं भगवान के हाथ लगें या शैतान के। इसे कहेंगे गणित। यह पूजा नहीं की जा रही है। दोनों को राजी रखना क्या ठीक है? दरअसल यह बुद्धि का हिसाब है। यह मिटना नहीं है, यह मोलभाव है। जप एवं साधना ऐसे नहीं हो सकती, इसमें मिटना ही पड़ेगा।

भगवान को महसूस करना है तो यह करके देखें...
जिन्हें भक्ति करना हो, जो जीवन में शान्ति चाहते हों, अपने व्यक्तित्व में मौलिकता रखना चाहते हों उन्हें प्रकृति के साथ कुछ प्रयोग करना चाहिए। शास्त्रों में लिखा है प्रकृति परमात्मा की पहली और सच्ची प्रतिनिधि है। परमात्मा का रूप मनुष्य ने अपनी रूचि, श्रद्धा और जाति के अनुसार बना लिया है और यदि ऐसे स्वरूप की प्राप्ति न हो रही हो तो प्रकृति से अवश्य जुड़ें।
प्रकृति अपने से जुड़ाव को व्यर्थ नहीं जाने देती। प्रकृति पर एक दिन सुबह से ही विचार कर लें कि आज आप प्रकृति के प्रत्येक हिस्से के प्रति पूर्ण समर्पित हो जाएंगे। पूरा दिन प्रकृति के लिए होगा। अपनी सामान्य गतिविधि करते रहें लेकिन प्रकृति के जितने हिस्से उस दिन आपको दिखें या उनके संपर्क में आए तो आप उनके प्रति अतिरिक्त रूप से संवेदनशील बन जाएं। जैसे किसी पेड़ को देखें, किसी पक्षी को देखें या पशु को स्पर्श करें तो पूरी तरह प्रेम से भर जाएं।

विचार करें कि हम उस देश में रहते हैं जहां नदी, पहाड़, वृक्ष, पशु-पक्षी पूजे गए हैं। इस तरह से हम सम्पूर्ण पूजा के भाव में डूब जाएंगे। दिनभर में किसी पत्ती को स्पर्श करके विचार करें जैसे आप अपने बच्चे के गाल को स्पर्श कर रहे हैं। कुल मिलाकर आज का दिन प्रकृति के नाम है। इस विचार और कल्पना को अपनी रूचि से जोड़ते और बढ़ाते जाएं। रात को सोते समय चिंतन करें क्या हम आज प्रकृति में समा पाए?

जब हम प्रकृति के प्रति पे्रमपूर्ण रहेंगे तब हम इंसानों के प्रति भी पूरी संवेदनशीलता से भरे होंगे। यह एक अभ्यास है। लगातार उन महान व्यक्तियों का चिंतन करें जिन्होंने प्रकृति से प्रेम किया है तो आज सारे संसार ने उनसे प्रेम किया है। हम भी उनमें से एक क्यों न हों।

कैसे सामना करें बुरे वक्त का...
बुरा वक्त सब के साथ आता है, पर कुछ ही समझदार होते हैं जो उसमें से भी अच्छाई निकाल लेते हैं। जब हमारा समय अच्छा नहीं होता तो हम सबसे पहले यह करते हैं कि इस स्थिति का दोषारोपण करने के लिए किसी दूसरे को ढँूढ़ते हैं।
संकट के समय तो राग-द्वेष मिटाकर खुले दिल से सबको स्वीकार करना लाभकारी होगा। इसके लिए एक आध्यात्मिक अभ्यास करते रहना चाहिए।

दरअसल हम सारे अभ्यास तब शुरू करते हैं जब समय उल्टा आता है। सतत अभ्यास से विपरीत वक्त का प्रवाह, झोंका हल्का हो जाएगा। अध्यात्म कहता है स्वयं को लगातार वीतरागी बनाते रहो। वीतरागी होना वैरागी से थोड़ी ऊपर की स्थिति है। राग का अर्थ है सुख की उम्मीद दूसरे से करना। जब वो पूरी नहीं होती है तो द्वेष शुरू हो जाता है।

कुछ लोग द्वेष तो मिटा देते हैं उन्हें वैरागी कहेंगे, लेकिन कहीं न कहीं वे राग से जुड़े रहते हैं। द्वेष पर इनका नियन्त्रण है पर राग से जुड़े हुए हैं। वीतरागी जो होता है वह राग-द्वेष दोनों से ऊपर है। जीवन में विपरीत समय आना ही है ऐसे में वीतरागी वृत्ति का अभ्यास शत्रु-मित्र, अपने-पराए, राग-द्वेष से मुक्त करेगा और स्थितियों को सुलझाने में हर ओर से मदद मिल जाएगी। बुरे वक्त में तनाव कम होगा क्योंकि वीतराग भाव बाहर से काटकर हमें भीतर ले जाता है जहाँ आनंद का स्रोत है।

मदर टेरेसा के जीवन की एक घटना है। वे शुरू से ही सुंदर और सुशील थीं। आरम्भ में उनका लक्ष्य संन्यासिन बनने का था भी नहीं। लेकिन एक बार एक बीमारी के कारण वे बहुत कमजोर और कृशकाय हो गईं। सौंदर्य वैसा नहीं रहा। तब स्वयं से उन्होंने पूछा मेरे भीतर ऐसा क्या है जो सदैव बना रहेगा, मिटेगा नहीं और वे सेवा के क्षेत्र में उतर गईं। विपरीत से श्रेष्ठ कैसे निकाला जाए यह इसका उदाहरण है।

भगवान आपकी बात सुनेंगे, जरा ऐसे पुकारें
परमात्मा को पुकारने के लिए शोर से अधिक शून्य की जरूरत होती है। इस शून्य को मौन भी कहा गया है। ईसा मसीह ने ईश्वर के लिए एक बड़ा आश्वासन यह दिया है कि जैसे ही हम उसे पुकारेंगे वह चला आएगा। उसका द्वार खटखटाएंगे वह दरवाजा खोल देगा। उसे याद करेंगे वह अपनी उपस्थिति दर्ज कराएगा। कुल मिलाकर इसका अर्थ यह है कि भरोसा रखो, ईश्वर क्रिया की प्रतिक्रिया जरूर करता है।

भक्तों के मामले में वह लापरवाह, निष्क्रिय और उदासीन बिल्कुल नहीं है। उसे बुलाने के लिए एक गहन आवाज लगाना पड़ती है। इसी का नाम संतों ने शक्ति कहा है। परमात्मा के सामने आप स्वयं को जितना निरीह, दीनहीन बनाएंगे आध्यात्मिक दुनिया में उतने ही शक्तिशाली माने जाएंगे। इसीलिए कहते हैं प्रार्थना करते समय यदि आंसू आ जाएं तो समझ लीजिए प्रार्थना शक्तिशाली हो गई।
तीन दरवाजे हैं जहां से शक्ति प्रवेश करती है-मन, वचन और शरीर। मन की चूंकि अनेक भागों में बंटने की रूचि होती है इसलिए वह शक्ति को भी तोड़ देता है। व्यर्थ और अनर्थ की बातचीत वचन की शक्ति को कमजोर करती है। और शरीर से तो हम स्वास्थ्य के मामले में लापरवाह होकर अपनी दैहिक शक्ति को खो बैठते हैं। यदि इन तीनों के मामले में सावधान रहा जाए और फिर परमात्मा को पुकारा जाए तो वह पुकार अपने परिणाम देगी। ज्यादातर लोग परमात्मा तक कैसे पहुंचे इसके तरीकों में उलझ जाते हैं और जीवन बीत जाता है।

सीधा सा तरीका है उसके सामने पहुंच जाओ और जैसे हम होते हैं वैसे ही हम बने रहें। उदाहरण के तौर पर कोई भीखारी हमारे सामने आकर खड़ा हो जाए और वह कुछ न कहे तो भी हम समझ जाएंगे ये क्यों खड़ा है? बस ऐसे ही परमात्मा के सामने अपने होने के साथ खड़े हो जाएं। बाकी जिम्मेदारी फिर उसकी है।

इस प्रार्थना को जल्दी सुनते हैं भगवान...
अध्यात्म का एक स्वरूप है आनन्द की खोज। जो लोग परमपिता परमेश्वर से जुडऩा चाहें उन्हें मुस्कुराना जरूर आना चाहिए। हर धर्म ने मुस्कुराहट को अपने-अपने तरीके से जरूरी ही माना है। मुस्कुराहट आनन्द की सतह है। जैसे समंदर में लहरें उठती हैं ऐसे ही आनन्द के समुद्र में मुस्कुराहट की लहर उठती है।

आजकल देखा गया लोग घर से निकलते हैं अपने धंधे-पानी, नौकरी-पेशा तक जाते-जाते जितने लोग मिलते हैं सबको देखकर मुस्कुराते हैं और घर आते ही एकदम सीरियस हो जाते हैं। घर में एक-दूसरे सदस्यों को देखकर कोई नहीं मुस्कुराता। हम घर में आपस में झगड़ते हैं और दूसरों को देखकर मुस्कुराते हैं। अपनों से मिलकर हंसिए।

जिस क्षण हम मुस्कुराते हैं परमात्मा मुड़कर हमारी ओर चलने लगता है। जो स्माईल जीने की चीज है वह लेने और देने की चीज बन गई है। हम मुस्कुराहट को भी शस्त्र की तरह इस्तेमाल करते हैं जबकि वह हमारी शान्ति का कारण हो सकती है। कई लोगों की हंसी भी बीमार हो गई है। कई लोगों ने स्माईल को भी बिजनेस पीस बना डाला है। अब तो देखा गया है द्विअर्थी संवाद या अश्लील चर्चा पर ही लोग हंसते हैं।

जिन्हें भक्ति करना हो, जो सद्गुण अपनाना चाहें, जो शान्ति की खोज में हों उन्हें सदैव अपनी हंसी को प्रेम और करुणामयी बनाए रखना चाहिए। फकीरों को हंसता हुआ देखिए। उनकी हंसी में चोट नहीं होती और हम किसी को गिरता हुआ देखकर भी हंसने लगते हैं। यह बहुमूल्य क्रिया है। इसे प्रेम के साथ प्रदर्शित करिए। इसलिए सुबह हो या शाम, अपनों से मिलें या गैरों से, घर के भीतर हों या बाहर, जब भी मौका मिले जरा मुस्कुराइए...परमात्मा यह प्रार्थना जरूर सुनता और देखता है।

जो प्रेम मांगकर मिले उसका कोई मूल्य नहीं...
माता-पिता का एक मनोविज्ञान होता है सभी माता-पिता एक समय बाद बच्चों से प्रेम मांगने लगते हैं। प्रेम कभी मांगकर नहीं मिलता है और जो प्रेम मांगकर मिले उसका कोई मूल्य नहीं होता।

एक बात और समझ लें कि यदि माता-पिता बच्चों से प्रेम करें तो वह बड़ा स्वाभाविक है, सहज है, बड़ा प्राकृतिक है, क्योंकि ऐसा होना चाहिए। नदी जैसे नीचे की ओर बहती है, ऐसा माता-पिता का प्रेम है। लेकिन बच्चे का प्रेम माता-पिता के प्रति बड़ी अस्वाभाविक घटना है। ये बिल्कुल ऐसा है जैसे पानी को ऊपर चढ़ाना। कई मां-बाप यह सोचते हैं कि हमने बच्चे को जीवनभर प्रेम दिया और जब अवसर आया तो वह हमें प्रेम नहीं दे रहा, वह लौटा नहीं रहा।

इसमें एक सवाल तो यह है कि क्या उन्होंने अपने मां-बाप को प्रेम दिया था? यदि आप अपने माता-पिता को प्रेम, स्नेह और सम्मान नहीं दे पाए तो आपके बच्चे आपको कैसे दे सकेंगे? इसलिए हमारे यहां सभी प्राचीन संस्कृतियां माता-पिता के लिए प्रेम की के स्थान पर आदर की स्थापना भी करती हैं। इसे सिखाना होता है, इसके संस्कार डालने होते हैं, इसके लिए एक पूरी संस्कृति का वातावरण बनाना होता है।

जब बच्चा पैदा होता है तो वह इतना निर्दोष होता है, इतना प्यारा होता है कि कोई भी उसको स्नेह करेगा, तो माता-पिता की तो बात ही अलग है। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होने लगता है, हमारा प्रेम सूखने लगता है। हम कठोर हो जाते हैं। बच्चा बड़ा होता है, अपने पैरों पर खड़ा होता है तब हमारे और बच्चे के बीच एक खाई बन जाती है। अब बच्चे का भी अहंकार बन चुका है वह भी संघर्ष करेगा, वह भी प्रतिकार करेगा, उसको भी जिद है, उसका भी हठ है। इसलिए प्रेम का सौदा न करें इसे सहज बहने दें।

कोई पुरुष स्त्री के सामने कब हो जाता है बोना?
गृहस्थी बसाना सभी को पसंद है भले ही मजबूरी हो या मौज। अधिकांश लोग इससे गुजरते जरूर हैं। जब-जब गृहस्थी में अशांति आती है तब आदमी इस बात को लेकर परेशान रहता है कि क्या किसी के दाम्पत्य में शांति भी होती है। समझदार लोग गृहस्थ जीवन में शांति तलाश लेते हैं।

आचार्य श्रीराम शर्मा ने अपने एक वक्तव्य में गृहस्थी में अशांति के कारण को वासना भी बताया है। उन्होंने कहा है वासना के कारण पुरुष स्त्री के प्रति और कभी-कभी स्त्री पुरुष के प्रति जैसा द्वेष भाव रख लेते हैं उससे परिवारों में उपद्रव होता है। एंजिलर मछली का उदाहरण उन्होंने दिया है। यह मछली जब पकड़ी गई इसका आकार था 40 इंच। मामला बड़ा रोचक है लेकिन नर एंजिलर पकड़ में नहीं आ रहा था क्योंकि वह उपलब्ध नहीं था। एक बार तो यह मान लिया गया कि इसकी नर जाति होती ही नहीं होगी। लेकिन एक दिन एक वैज्ञानिक को मादा मछली की आंख के ऊपर एक बहुत ही छोटा मछली जैसा जीव नजर आया जो मादा मछली का रक्त चूस रहा था। यह नर मछली था। मादा का आकार 40 इंच था और नर का 4 इंच। पं. शर्मा ने इसकी सुंदर व्याख्या करते हुए कहा था कि नारी को भोग और शोषण की सामग्री मानने वाला पुरुष ऐसा ही बोना होता है। जो मातृशक्ति को रमणीय मानकर भोगने का ही उद्देश्य रखेंगे वे जीवन में एंजिलर नर मछली की तरह बोने रह जाएंगे।

हम इस में यह समझ लें कि जानवरों में उनकी अशांति का कारण वासनाएं होती हैं। केवल बिल्ली की बात करें बिल्ली का रुदन उसकी देह की पीड़ा नहीं उसकी उत्तेजित कामवासना का परिणाम है। ठीक इसी तरह मनुष्य भी इनके परिणाम भोगता है और उसका रुदन ही परिवार में अशांति का प्रतीक है।

वरुणदेव के अवतार हैं भगवान झूलेलाल
सिंधी समाज चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीय तिथि को भगवान झूलेलाल का जन्मदिन बड़े धूमधाम से मनाता है। सिंधी समाज के कई ग्रंथों में भगवान झूलेलाल का वर्णन है। भगवान झूलेलाल के जीवन से जुड़ी पूरी कहानी इस प्रकार है-

संवत 1007 में पाकिस्तान में सिंध प्रदेश के ठट्टा नगर में मिरखशाह नामक एक मुगल सम्राट राज्य करता था। उसने जुल्म करके हिंदू आदि धर्म के लोगों को इस्लाम स्वीकार करवाया। उसके जुल्मों से तंग आकर एक दिन सभी पुरुष, महिलाएं, बच्चे व बूढ़े सिंधु नदी के पास इकट्ठा हुए और उन्होंने वहां भगवान का स्मरण किया। कड़ी तपस्या करने के बाद, सभी भक्तजनों को मछली पर सवार एक अद्भुत आकृति दिखाई दी। पल भर के बाद ही वह आकृति भक्तजनों की आंखों से ओझल हो गई तब आकाशवाणी हुई कि हिंदू धर्म की रक्षा के लिए मैं आज से ठीक सात दिन बाद श्री रतनराय के घर में माता देवकी की कोख से जन्म लूंगा। निश्चित समय पर
रतनरायजी के घर एक सुंदर बालक का जन्म हुआ, जिसका नाम उदयचंद रखा गया।

मिरखशाह के कानों में जब उस बालक के जन्म की खबर पहुंची तो वह अत्यंत विचलित हो गया। उसने इस बालक के मारने की सोची, परंतु उसकी चाल सफल नहीं हो पाई। तेजस्वी मुस्कान वाले बालक को देखकर उसके मंत्री दंग रह गए। तभी अचानक वह बालक वीर योद्घा के रूप में नीले घोड़े पर सवार होकर सामने खड़ा हो गया। अगले ही पल वह बालक विशाल मछली पर सवार दिखाई दिया। मंत्री ने घबराकर उससे माफी मांगी। बालक ने उस समय मंत्री को कहा कि वह अपने हाकिम को समझाए कि हिंदू-मुसलमान को एक ही समझे और अपनी प्रजा पर अत्याचार न करे लेकिन मिरखशाह नहीं माना। तब भगवान झूलेलाल ने एक वीर सेना का संगठन किया और मिरखशाह को हरा दिया। मिरखशाह झूलेलाल की शरण में आने के कारण बच गया। कुछ समय पश्चात भगवान झूलेलाल संवत् 1020 भाद्रपद की शुक्ल चर्तुदशी के दिन अन्र्तधान हो गए।

एक दिन ऐसा करके देखें, जीने का नजरिया बदल जाएगा
जीवन को यदि गरिमा से जीना है तो मृत्यु से परिचय होना आवश्यक है। मौत के नाम पर भय न खाएं बल्कि उसके बोध को पकड़ें। एक प्रयोग करें। बात थोड़ी अजीब लगेगी लेकिन किसी दिन सुबह से तय कर लीजिए कि आज का दिन जीवन का अंतिम दिन है, ऐसा सोचनाभर है। अपने मन में इस भाव को दृढ़ कर लें कि यदि आज आपका अंतिम दिन हो तो आप क्या करेंगे।

बस, मन में यह विचार करिए कि कल का सवेरा नहीं देख सकेंगे, तब क्या करना...? इसलिए आज सबके प्रति अतिरिक्त विनम्र हो जाएं। आज लुट जाएं सबके लिए। प्रेम की बारिश कर दें दूसरों पर। विचार करते रहें यह जीवन हमने अचानक पाया था। परमात्मा ने पैदा कर दिया, हम हो गए, इसमें हमारा कुछ भी नहीं था। जैसे जन्म घटा है उसकी मर्जी से, वैसे ही मृत्यु भी घटेगी उसकी मर्जी से।

अचानक एक दिन वह उठाकर ले जाएगा, हम कुछ भी नहीं कर पाएंगे। हमारा सारा खेल इन दोनों के बीच है। सच तो यह है कि हम ही मान रहे हैं कि इस बीच की अवस्था में हम बहुत कुछ कर लेंगे। ध्यान दीजिए जन्म और मृत्यु के बीच जो घट रहा है वह सब भी अचानक उतना ही तय और उतना ही उस परमात्मा के हाथ में है जैसे हमारा पैदा होना और हमारा मर जाना।

इसलिए आज ऐसा महसूस करें आज आखिरी दिन है। कल रहें न रहें तो क्यों न आज जिएं। प्रेम से जिएं उस परमात्मा की मर्जी से जिएं। हमारे कई संत-महात्मा अपने जीवन के हर दिन को मौत की मस्ती के साथ जीते थे। क्योंकि इन लोगों का मानना था कि जन्म परमपिता परमेश्वर ने दिया है तो समापन भी वे ही करेंगे और उनका यही बोध कि आज का दिन अंतिम हो सकता है, उनको अमर बना गया। इसका एक आसान तरीका है जरा मुस्कुराइए...।

हनुमान ही दे सकते हैं यश और लक्ष्मी एक साथ...
हम मनुष्यों की एक बड़ी मांग ऐश्वर्य प्राप्ति की रहती है। छह प्रकार के ऐश्वर्य बताए गए हैं-धर्म, अर्थ, ज्ञान, यश, श्री और वैराग्य। श्रीराम ने यश और लक्ष्मी दोनों हनुमानजी को दी है तथा हमको यश और लक्ष्मी हनुमानजी ही दे सकते हैं।

श्री हनुमानचालीसा की तेरहवीं चौपाई में लिखा है-
सहस बदन तुम्हरो जस गावैं। अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं।

आपके यश का गान हजार मुख वाले शेषनाग भी सदैव करते रहेंगे। इस प्रकार करते हुए लक्ष्मीपति विष्णु स्वरूप श्रीराम ने उन्हें अपने गले से लगाया है। इसमें तुलसीदासजी कह रहे हैं कि आपका यश अनंतकाल तक असंख्य रूप में गाया जाएगा। यहां कहा गया है कि श्रीपति ने आपको कंठ से लगाया। श्रीपति का अर्थ है लक्ष्मीपति। गोस्वामीजी ने यहां सोच समझकर श्रीराम को श्रीपति संबोधित किया है।

हमें एक बात ध्यान में रखना होगी। भक्तों पर कृपा करने की भगवान की अपनी एक व्यवस्था होती है। हमें गहराई में जाकर समझना होगा कि भगवान नियंता ही नहीं, एक नियम भी हैं। जैसा धरती का एक नियम गुरुत्वाकर्षण का होता है। विज्ञान कहता है धरती का स्वभाव है कि वह वस्तु को अपनी ओर खींचती है। यह धरती का नियम है। असावधानी से चलते हुए यदि हम गिर जाएं और यह कहें कि धरती का स्वभाव है खींचना, इसीलिए हम गिर गए तो हम गलत हैं।

हम अपनी ही गलती से गिरे हैं। इसी तरह परमात्मा का नियम अपनी जगह है। जैसे नदी का स्वभाव सागर में मिलना है, उसका मिलना तय है। अब वह चट्टान से टकराकर जाए, मुड़कर जाए, जिस प्रकार से भी जाए। नियम यह है कि उसे सागर में मिलना है। उस नियम का पालन हमें करना चाहिए। इसका पालन करने में श्री हनुमानचालीसा हमारी मार्गदर्शक और सहयोगी है।

हनुमान से सीखें महत्वकांक्षाओं को पूरा करने का तरीका
अपनी महत्वाकांक्षाओं को हर हालत में पूरा करने का यह दौर है। तुलसीदास जी ने इस महत्वाकांक्षा को ही मनोरथ कहा है।

कीट मनोरथ दारु सरीरा, जेहि न लाग घुन को अस धीरा

मनोरथ कीड़ा है, शरीर लकड़ी है, ऐसा धैर्यवान कौन है जिसके शरीर में यह कीड़ा न लगा हो। आगे उन्होंने इसे और साफ करते हुए कहा है-

सुत बित लोक ईषना तीनी, केहि कै मति इन्ह कृत न मलीनी

पुत्र की, धन की और लोक प्रतिष्ठा की इन तीन प्रबल इच्छाओं ने किसकी बुद्धि को मलीन नहीं कर दिया, यानी बिगाड़ नहीं दिया। अच्छे-अच्छे इस चक्कर में उलझ गए। आज के प्रबंधन की भाषा में इसे ही अति व्यावसायिक दृष्टिकोण कहा गया है।

मान लिया गया है कि अपने लक्ष्य की पूर्ति में संवेदनाएं खतरा हो सकती हैं। अत: सिर्फ प्रोफेशनल एट्यीट्यूड रखो। व्यक्तिगत, संवेदनशील सम्बन्ध कुछ नहीं होते। सम्बन्ध काम के रखे जाएं, दिल के नहीं। अब तो आदमी इतना कामकाजी हो गया है कि दिल के भी सौदे करने लग गया। इस दौर में जो लोग जॉब शिफ्ट या जंप करते हैं ज्यादातर मौकों पर उनके साथ यही होता है कि वे या तो अपने पुराने मैनेजमेंट को भूल ही जाते हैं या उनके पुराने मालिक उनकी सूरत नहीं देखना चाहते।

हनुमानजी से सीखें कि सारे व्यावसायिक दायित्व रखते हुए भी सम्बन्धों में संवेदनाओं की गरिमा कैसे रखी जाए। रावण को मारकर जब राम अयोध्या लौटे तो कुछ समय बाद उन्होंने सभी वानरों को विदा किया। हनुमानजी थे तो राजा सुग्रीव के सचिव पर अब श्रीराम के साथ रहना चाहते थे, बड़ी मर्यादा से उन्होंने सुग्रीव से अनुमति ली थी-

तब सुग्रीव चरन गहि नाना, भाँति बिनय कीन्हे हनुमाना

सुग्रीव के चरण पकड़कर हनुमानजी ने अनेक प्रकार से विनीती की। उनके स्पष्ट और संवेदनशील व्यवहार के कारण ही उनके पुराने बॉस सुग्रीव को कहना पड़ा-

पुन्य पुंज तुम्ह पवनकुमारा, सेवहु जाइ कृपा आगारा

पवनकुमार तुम पुण्य की राशि हो, जाओ कृपाधाम राम की सेवा करो। हनुमानजी से सीखें अपने मनोरथों की पूर्ति में संवेदनाओं की गरिमा को कैसे जीवित रखें।

जानें, क्या है दुर्गा शब्द का अर्थ?

मां दुर्गा सभी दु:खों को हरने वाली हैं । वे अपने भक्तों को कभी निराश नहीं करती तथा उनकी हर मनोकामना पूरी करती हैं। इतना ही नहीं दुर्गा मां का नाम लेने से ही सारे कष्टों का निवारण अपने आप ही हो जाता है। देवीपुराण में दुर्गा शब्द का अर्थ बताया गया है उसके अनुसार-
दैत्यनाशार्थवचनो दकार: परिकीर्तित:।
उकारो विघ्ननाशस्य वाचको वेदसम्मत:।।
रेफो रोगघ्नवचनो गच्छ पापघ्नवाचक:।
भयशत्रुघ्नवचनश्चाकार: परिकीर्तित:।।

इस श्लोक के अनुसार दुर्गा शब्द में द अक्षर दैत्यनाशक, उ अक्षर विघ्ननाशक, रेफ रोगनाशक, ग कार पापनाशक तथा आ कार शत्रुनाशक है। इसीलिए मां दुर्गा को दुर्गतिनाशिनी भी कहते है। जो भी मां दुर्गा की सच्चे मन से भक्ति करता है माता उसके सभी दु:ख दूर कर उसे अपनी शरण में ले लेती हैं।

ऐसा हो रिश्ता पति-पत्नी का....
श्रीरामजी को वनवास जाना था। वे चाहते थे सीताजी माँ कौशल्या के पास रुक जाएं। सीताजी उनके साथ जाना चाहती थीं। कौशल्याजी भी चाहती थीं सीता न जाए। सास, बहू और बेटा, ऐसा त्रिकोण यहां पैदा हो गया था।
दुनिया में इस रिश्ते ने कई घर बना दिए और बिगाड़ दिए। लेकिन रामजी के धैर्य, सीताजी की समझ और कौशल्याजी की समझ ने रघुवंश का इतिहास बदल दिया। हमारे अवतारों की यह घटनाएं हमें अपने जीवन की छोटी-छोटी बातों में बड़े-बड़े संदेश दे जाती हैं। हमारे परिवारों में सास-बहू पति-पत्नी के संबंधों में जो विच्छेदन आता है उसका बड़ा मनोवैज्ञानिक संकेत है।

जब कोई किसी परिवार में किसी पर निर्भर होता है तो परिवार के सदस्य को लगता है कि हम उसकी जरूरत पूरी कर रहे हैं। माँ-बाप बच्चों को जब बड़ा करते हैं तो वे इसलिए प्रसन्न रहते हैं कि बच्चे उन पर निर्भर हैं। जैसे ही बच्चे बड़े हो जाते हैं तो वे अपना काम खुद करने लगते हैं। उनका अपना संसार बस जाता है, अब वो माँ-बाप पर निर्भर नहीं हैं। तब एक मनोवैज्ञानिक भीतरी अन्त:विरोध शुरू होता है।

सास-बहू के झगड़े का एक कारण यह भी होता है कि सास सोचती है कि इस बेटे को जो सदा से मेरे ऊपर निर्भर था, मुझे उसे बुद्धिमान बनाने में २५ साल लगे और इस नई औरत ने पांच मिनट में उसको बुद्धू बना दिया। जो बेटा सदा से मुझ पर निर्भर था वह आज इस पर निर्भर हो गया। यही हाल पति-पत्नी के होते हैं। वह भी एक-दूसरे को एक-दूसरे पर निर्भर करना चाहते हैं। दाम्पत्य का आधार प्रेम होना चाहिए।

हम पहले भी यह बात कर चुके हैं कि जिस परिवार के केन्द्र में प्रेम होगा वह परिवार फिर अहंकाररहित होगा उसमें बड़ा-छोटा, तेरा-मेरा नहीं होता और इसलिए विरोध की संभावना समाप्त हो जाती है।

भगवान को पाना हो तो पहले यह करें...

असंतुष्ट रहना मन का स्वभाव है। इसी खिन्नता के चलते मन व्यक्तित्व के भीतर कुछ स्थाई असंतोष के भाव भर देता है और इसीलिए अनेक लोगों को यह लगने लगता है कि हमें जो कुछ भी उपलब्ध हुआ है वह हमारी योग्यता से कम है और दूसरों को देखकर स्वयं यह सोचने लगता है कि जो अयोग्य हैं वह हमसे आगे निकल गए।

अपना मूल्यांकन करते समय मनुष्य अपनी योग्यताओं की तरफ कम और न मिली उपलब्धियों की ओर ज्यादा झुक जाता है। यहीं से बेचैनी शुरू होती है। हमारा अहंकार इसमें और उछालें देने लगता है। मन जो असंतुष्ट था वह और चंचल हो जाता है। चंचल मन में परमात्मा की झलक नहीं दिखती और ऐसी स्थितियों में जितना अधिक हम परमात्मा को महसूस करेंगे उतना ही जल्दी हम शान्त हो जाएंगे।

मन विक्षिप्त होकर संसार की ओर अधिक भागता है और जितना शान्त है परमात्मा की ओर उतना अधिक चलेगा। यहां एक बात समझ लें परमात्मा को पाने का अर्थ यह नहीं है कि संसार को नकारा जाए। अध्यात्म तो कहता है परमात्मा और संसार दो अलग-अलग बातें नहीं हैं। संसार अपनी जगह है और उसे स्वीकार भी करना है लेकिन संसार में परमात्मा देखने की दृष्टि बनाए रखना है।
जैसे ही संसार में परमात्मा को अधिक देखने लगते हैं वैसे ही हम इस सोच के प्रति स्पष्ट हो जाते हैं कि जितनी हमारे भीतर कमजोरियां हैं उनके मुकाबले हमें कष्ट और दु:ख कम मिले हैं और जितने हम योग्य हैं उससे अधिक हम प्राप्त कर चुके हैं। अपने दुर्गुणों के मुकाबले मान और प्रतिष्ठा पर्याप्त मिल चुकी है। योग्यता से अधिक या तो छल से मिलेगा या प्रभु कृपा से। छल का परिणाम वापस कष्ट ही होगा और प्रभु कृपा से प्राप्त उपलब्धि में प्रसन्नता है।

ये तीन चीजें बनाती हैं हमें योग्य...

आप किसी भी क्षेत्र में हों योग्यता के तीन प्रमाण माने जाते हैं। निरंतरता, विश्वसनीयता और समर्पण। कार्य के प्रति प्रयासों में जो निरंतरता होती है उससे आलस्य दूर होता है। हमारी कार्यशैली से बासी और ऊबाउपन चला जाता है। हमारा पूरा व्यक्तित्व ताजा रहता है। आज के समय में यह बहुत बड़ी उपलब्धि होगी कि आप किसी की नजर में विश्वसनीय माने जा रहे हैं।
ईमानदारी का प्रकट रूप है समर्पण। जो भी करें, जमकर करें। हनुमानजी में ये तीनों गुण थे। उनसे बल, बुद्धि और विद्या की माँग की जाती है। हनुमानचालीसा के आरंभ के दूसरे दोहे में लिखा गया है

बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन कुमार,
बल बुद्धि विद्या देहु मोही, हरहु कलेस विकार

अर्थात् -मैं अपने को बुद्धिहीन जानकर आपका स्मरण कर रहा हूं, आप मुझे बल, बुद्धि और विद्या प्रदान करके मेरे सभी कष्टों और दोषों को दूर करने की कृपा करें।

इसके पीछे सूत्र यह है कि बुद्धि विश्वसनीय हो, बल में समर्पण भाव रहे और विद्या निरंतर यानी सक्रिय रहे, जड़ न हो जाए।इन तीनों का जब संतुलन जीवन में होगा तो क्लेश (कष्ट), विकार (दोष) दूर हो सकेंगे। क्लेश पांच हैं-अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश (मृत्यु का भय)। क्लेश मनुष्य को पीड़ा पहुंचाते हैं।

पीडि़त मन कभी शांत नहीं हो सकता और विकार छ: माने गए हैं-काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह, भत्सर (ईष्र्या)। ये छ: मनुष्य को उसके लक्ष्य से भटकाते हैं। विकारों में जकड़ा हुआ व्यक्ति लक्ष्य की ओर ठीक से चल नहीं सकता। यह हनुमानजी की विशेषता है कि वे मनुष्यों के क्लेश और विकारों को पहचानते भी हैं और दूर करना जानते भी हैं।

मौत को समझने के यह तीन रास्ते हैं...
जीवन मिला है तो मृत्यु तय है। दुनिया की सबसे तयशुदा घटना है मौत। हम जीवनभर बहुत सारी ऊर्जा उन बातों पर लगाते हैं जो तय नहीं हैं। जो अस्पष्ट है, ना ही भरोसे का है हमारी इच्छाएं उसी की ओर दौड़ती हैं। इच्छाएं और वासनाएं जितनी हावी होंगी हमारी गुप्त शक्तियां प्रकट होने में उतनी ही देर लगेगी।

जितना हम गुप्त शक्तियों को जाग्रत कर लेंगे उतना हम मृत्यु को जान लेंगे। अब सवाल यह उठता है कि मौत को जानना क्या जरूरी है, जब आएगी तब आएगी और उसके बाद किसने देखा, क्या हुआ? एक वर्ग इस सिद्धांत से जीवन जीता है और दूसरा वर्ग है भयभीत लोगों का। ये जीवन को मौत के भय में गुजारते हैं। जरा बारीकी से देखें तो दोनों ही तरीके के लोगों का परिणाम एक सा है। मौत का भय या मृत्यु का अज्ञान, दोनों एक जैसे नतीजे देते हैं।

तीसरा तरीका है मृत्यु का ठीक से परिचय कर लेना। जिसने मौत को जान लिया उसने फिर जीवन होश में जी लिया। जीवन अशांत, उदास, उबाऊ और थका हुआ इसीलिए लगता है कि हम सबसे सुनिश्चित घटना के प्रति होश में नहीं हैं। ये बेहोशी अगले जन्म तक परिणाम देगी। हम जो आज हैं वह पीछे से आया और लाया हुआ है।

इसीलिए संतों का उनके जन्म पर पूरा अधिकार होता है और सामान्यजन का जन्म वश में नहीं होता। कहां, कब पैदा होना यह वश के बाहर है, लेकिन दिव्य पुरुष इस मामले में कन्फर्म बर्थ-डेथ वाले होते हैं। हम भी मृत्यु से परिचय ले सकते हैं। तीन तरीके हैं गुरुकृपा, सत्संग और ध्यान। इन तीनों के माध्यम से जो मृत्यु को जान लेगा फिर वो जीवन को भी पूरी मस्ती से जी लेगा।

गृहस्थी में ऐसे रहें, हर सुख मिलेगा...
जीवन में श्रेष्ठ क्या है इसकी सबकी अपनी-अपनी परिभाषा होती है। किसी धार्मिक आदमी से पूछो तो वह कहेगा श्रद्धा के बिना धर्म बेकार है। किसी आध्यात्मिक आदमी से पूछो तो वह प्रेम पर टिक जाएगा। कोई योद्धा हो और लम्बे समय से रणक्षेत्र में हो तो उसके लिए घर से बढ़कर और कुछ नहीं होगा। व्यापारी व्यवसाय को उत्तम बताएगा।

ऐसे जीवन के अनेक क्षेत्र हैं जिनमें सबकी अपनी-अपनी राय होगी। कल्पना करिए ये सब एक जगह मिल जाएं तो जीवन का दृश्य क्या हो? और इसका नाम है दृष्टि। दाम्पत्य एक तरह का कोलाज है। यहां धर्म, प्रेम, श्रद्धा, शान्ति, अशान्ति, लोभ सब एक साथ मिल जाएगा। जोगी, यति, तपस्वी, फकीर, महात्मा, सफल व्यवसायी, उच्च शिक्षाविद् सबकुछ इस एक छत के नीचे घट सकता है।
इसलिए दाम्पत्य को संन्यास से भी कठिन माना है। इसमें धैर्य और दूसरे के लिए जीने की तमन्ना रखना पड़ती है। गृहस्थी से गुजरे हुए लोग स्वतंत्र जीवन जीने वाले लोगों के प्रति परिपक्व और गंभीर नजर आते हैं। परमात्मा की खोज में निकलने वाले लोग केवल पहाड़ों, जंगलों से निकलेंगे ऐसा नहीं है, चूल्हा, चौका, शयनकक्ष और आंगन परमात्मा ने इन्हें भी अपना स्थान बनाया है।

भगवान् ने अपने लिए एक नाम रखा है ब्रह्म। इसका अर्थ बड़ा सुन्दर है। इसका अर्थ है जो सदा विस्तार की ओर चले, हमेशा विराट होने की सम्भावना अपने अंदर रखे, जो अनन्त हो। और यह भाव गृहस्थी में बड़ा काम आता है क्योंकि भीतर से विशाल हुए बिना बाहर का विराट कैसे उपलब्ध होगा। गृहस्थी में आनन्द लाना चाहें और विराट की अनुभूति करना चाहें तो एक काम तो कर ही लें जरा मुस्कुराइए...

अगर शांति चाहिए तो इससे दोस्ती कीजिए...
यदि आप शांति की तलाश में हैं तो अपनी दोस्ती मौन से भी कर ली जाए। पुरानी कहावत है मौन के वृक्ष पर शांति के फल लगते हैं। मौन और चुप्पी में फर्क है। चुप्पी बाहर होती है, मौन भीतर घटता है। चुप्पी यानी म्यूटनेस जो एक मजबूरी है। लेकिन मौन यानी साइलेंस जो एक मस्ती है। इन दोनों ही बातों का संबंध शब्दों से है।

दोनों ही स्थितियों में हम अपने शब्द बचाते हैं लेकिन फर्क यह है कि चुप्पी में बचाए हुए शब्द भीतर ही भीतर खर्च कर दिए जाते हैं। चुप्पी को यूं भी समझा जा सकता है कि पति-पत्नी में खटपट हो तो यह तय हो जाता है कि एक-दूसरे से बात नहीं करेंगे, लेकिन दूसरे बहुत से माध्यम से बात की जाती है।

भीतर ही भीतर एक-दूसरे से सवाल खड़े किए जाते हैं और उत्तर भी दे दिए जाते हैं। यह चुप्पी है। इसमें इतने शब्द भीतर उछाल दिए गए कि उन शब्दों ने बेचैनी को जन्म दे दिया, अशांति को पैदा कर दिया। दबाए गए ये शब्द बीमारी बनकर उभरते हैं। इससे तो अच्छा है शब्दों को बाहर निकाल ही दिया जाए।

मौन यानी भीतर भी बात नहीं करना, थोड़ी देर खुद से भी खामोश हो जाना। मौन से बचाए हुए शब्द समय आने पर पूरे प्रभाव और आकर्षण के साथ व्यक्त होते हैं। आज के व्यावसायिक युग में शब्दों का बड़ा खेल है। आप अपनी बात दूसरों तक कितनी ताकत से पहुंचाते हैं यह सब शब्दों पर टिका है। कुछ लोग तो सही होते हुए भी शब्दों के अभाव, कमजोरी में गलत साबित हो जाते हैं।

कोई आपको क्यों सुनेगा यदि आपके पास सुनाने लायक प्रभावी शब्द नहीं होंगे। इसलिए यदि शब्द प्रभावी बनाना है तो जीवन में मौन घटित करना होगा। समझदारी से चुप्पी से बचते हुए मौन को साधें। चुप्पी चेहरे का रौब है और मौन मन की मुस्कान। जीवन में मौन उतारने का एक और तरीका है जरा मुस्कराइए...

हनुमान से सीखें, कैसे हो शरीर की साज-संभाल
मानव के समूचे विकास और उपयोगिता में देह भी प्रमुख भूमिका रखती है। व्यावहारिक दृष्टिकोण से हम देखें कि इन दिनों बड़ी-बड़ी कंपनियों में फायनेंशियल इन्वेस्टमेंट, फिजीकल इन्वेस्टमेंट के साथ-साथ, बल्कि इनसे भी ज्यादा ह्यूमन इन्वेस्टमेंट पर जोर दिया जा रहा है।

इस मामले में हनुमानजी एक श्रेष्ठ उदाहरण हैं। मानव के रूप में उन्होंने स्वयं का खूब सद्पयोग होने दिया तथा दूसरों को प्रेरित करके उन्हें भी मौका दिया। हनुमानचालीसा की चौथी चौपाई में लिखा है-
कंचन बरन बिराज सुबेसा, कानन कुंडल कुंचित केसा।

आप सुनहरे रंग वाले सुन्दर वस्त्र धारण किए हुए और घुँघराले बालों वाले हैं। कानों में कुंडल पहने हैं। हनुमानजी के श्रृंगार के वर्णन के पीछे जीवन का एक बहुत बड़ा दर्शन छुपा है। यह सही है कि शरीर में आसक्ति न हो पर उसके महत्व को भी नकारा न जाए। शरीर पर टिकें ना, पर उसके सहारे को छोडें भी नहीं।सम्पूर्ण मानव किसी भी कारपोरेट जगत् की सबसे बड़ी पूंजी है और मानव की सम्पूर्णता में देह खासी भूमिका रखती है।

इन पंक्तियों में सुसज्जित देह को स्वीकृति दी गई है वह भी एक ब्रह्मचारी के वर्णन से।इन पंक्तियों में हनुमानजी का कितना सुंदर वर्णन कर रहे हैं गोस्वामीजी। हनुमानजी हमेशा पूरी तैयारी में रहते हैं। उनकी दृष्टि में ब्रह्मचारी होने का यह अर्थ नहीं कि औघड़ जैसे रहें। वे शरीर के सौंदर्य के प्रति जागरूक हैं। सुसज्जित रहने का स्वभाव भी एक गुण है। वे यह नहीं कहते कि जो ब्रह्मचर्य का पालन करे वह सौंदर्यबोध को ठुकरा दे। सुंदरता की अनुभूति भी परमात्मा तक पहुंचने में साधक बन जाती है।

सफलता मिलने के बाद भी अगर आप परेशान रहते हैं तो...

इन दिनों सफलता प्राप्त करना नशे की तरह हो गया है। कोई भी असफल नहीं रहना चाहता। मजेदार बात यह है कि जो असफल हो जाते हैं वो तो परेशान नजर आते ही हैं पर ज्यादातर लोग सफल होने के बाद भी अशांत रहते हैं।

अध्यात्म कहता है श्रद्धावान चित्त अशांत नहीं होगा। इसलिए हमें अपने काम के प्रति अत्यधिक श्रद्धा पैदा करना होगी। लगन और श्रद्धा में फर्क है। लगन जब बहुत गहरी उतर जाती है तब श्रद्धा होती है और श्रद्धा का अर्थ है हमने अपने अलावा एक ऐसे अस्तित्व को स्वीकार किया है जो हमारी सफलता और असफलता के परिणामों को लेकर हमारी मदद करेगा।

दो दृष्टांत ध्यान में लाएं फिर बात सरलता से समझ में आएगी। राम अवतार में राम के दर्शन हो जाना किसी के लिए भी बड़ी सफलता थी। लेकिन दो पात्र ऐसे हुए जो राम के दर्शन के बाद भी अशांत हो गए। शिव की पहली पत्नी सती, जिन्होंने श्रीराम को देखा, परीक्षा लेने का विचार किया और सीता का रूप धरकर छल से परीक्षा ली थी। अंत में वे अशांत हुईं।

इसी तरह शूर्पणखा ने भी श्रीराम के दर्शन किए थे और उसे भी नाक, कान कटवाना पड़े थे। राम दर्शन के बाद असफलता और अशांति क्यों? यह बड़े सूत्र की बात है। दरअसल इन दोनों का ही प्रयास था कि राम को हम अपने तरीके से मानेंगे और पाएंगे। वह तरीका अहंकार व वासना में डूबा हुआ था। हम भी जीवन में जब-जब अपने लक्ष्य के प्रति अहंकार और वासना रखेंगे परिणाम इसी प्रकार मिलेंगे।

श्रद्धा वह तत्व है जो नीयत को शुद्ध करती है। श्रद्धा अपने साथ शुद्धता को लेकर ऐसे चलती है जैसे गर्भवती स्त्री अपने गर्भ को संभालकर चलती है और शुद्ध आचरण से किया हुआ कार्य सफलता तथा असफलता दोनों मे शांति अवश्य देता है।

असफलता और परेशानी का निवारण ऐसे करें...
हमारा सोचा हुआ काम जब नहीं होता है तो कुछ लोग केवल स्थितियों का विश्लेषण करते हैं। कुछ सारा दोष दूसरों पर डाल देते हैं। जो धर्म भीरू हैं वे लोग भगवान और भाग्य को भी बीच में ले आते हैं। बहुत कम लोग होते हैं जो अपनी असफलता, दु:ख और परेशानियों का कारण व निदान अपने भीतर ढूंढते हैं।

एक फकीर के पास आदमी ने जाकर कहा दुनिया में बहुत दु:ख हैं। जिधर देखो लोग परेशान हैं। कब हटेंगे दुनिया से दु:ख। उस फकीर ने कहा। दुनिया दु:खी नहीं है, तुम ही दु:ख हो। बात बड़ी गहरी है और सारे फकीर, संत-महात्मा यही कहते हैं। जिन्दगी दु:ख है, दुनिया नहीं।

यह दु:ख और सुख का खेल मन में है पहले यहां से शुरू होता है और फिर इसका प्रतिबिम्ब दुनिया में नजर आता है। फौजियों को परेड क्यों कराई जाती है? युद्ध में परेड काम नहीं आती लेकिन उनका शरीर लेफ्ट और राईट की ध्वनि के साथ अनुशासन में आ जाता है। और युद्ध में परेड नहीं अनुशासन काम आता है।

ठीक ऐसे ही हमें जीवन के संघर्ष में विचारों का अनुशासन काम आएगा। इसी को कहा गया है दु:ख हम हैं, संसार नहीं। पहले दुकानों पर एक तख्ती लगी रहती थी जिस पर लिखा होता था आज नगद, कल उधार। इसमें कल शब्द बड़ा महत्वपूर्ण है, क्योंकि कल कभी आता नहीं। हर कल आज है, वर्तमान है।

जिस दिन आप भूतकाल को छोड़ेंगे, वर्तमान से जोड़ेंगे और भविष्य को योजना के स्तर पर पकड़ेंगे उस दिन आपकी पकड़ अपने सुख-दु:ख पर अलग ढंग से होगी। इसलिए जब भी जीवन में दु:ख जैसा आए, उसके कारण में स्वयं को जरूर खोजिए और ऐसा करते हुए एक काम अवश्य करें जरा मुस्कुराइये...

तरक्की के लिए यह चीज बहुत जरूरी है...
संसार में उन्नति करने के लिए जिन बातों की जरूरत होती है उनमें से एक है आत्मबल। यदि मानसिक अस्थिरता है तो यह बल बिखर जाता है। इस कारण भीतरी व्यक्तित्व में एक कंपन सा आ जाता है। भीतर से कांपता हुआ मनुष्य बाहरी सफलता को फिर पचा नहीं पाता, या तो वह अहंकार में डूब जाता है या अवसाद में, दोनों ही स्थितियों में हाथ में अशांति ही लगती है।

यह आत्मबल जिस ऊर्जा से बनता है वह ऊर्जा हमारे भीतर सही दिशा में बहना चाहिए। हमारे भीतर यह ऊर्जा या कहें शक्ति दो तरीके से बहती है। पहला विचारों के माध्यम से, दूसरा ध्यान यानी अटेंशन के जरिए।

हम भीतर जिस दिशा में या विषय पर सोचेंगे यह ऊर्जा उधर बहने लगेगी और उसको बलशाली बना देगी। इसीलिए ध्यान रखें जब क्रोध आए तो सबसे पहला काम करें उस पर सोचना छोड़ दें। क्योंकि जैसे ही हम क्रोध पर सोचते हैं ऊर्जा उस ओर बहकर उसे और बलशाली बना देती है। गलत दिशा में ध्यान देने से ऊर्जा वहीं चली जाएगी। इसे सही दिशा में करना हो तो प्रेम जाग्रत करें।

इस ऊर्जा को जितना भीतरी प्रेमपूर्ण स्थितियों पर बहाएंगे वही उसकी सही दिशा होगी। फिर यह ऊर्जा सृजन करेगी, विध्वंस नहीं। माता-पिता जब बच्चे को मारते हैं तब यहां क्रोध और हिंसा दोनों काम कर रहे हैं। बाहरी क्रिया में क्रोध-हिंसा है, परन्तु भीतर की ऊर्जा प्रेम की दिशा में बह रही होती है। माता-पिता यह क्रोध अपनी संतान के सृजन, उसे अच्छा बनाने के लिए कर रहे होते हैं।
किसी दूसरे बच्चे को गलत करता देख वैसा क्रोध नहीं आता, क्योंकि भीतर जुड़ाव प्रेम का नहीं होता है। इसलिए ऊर्जा के बहाव को भीतर से चैक करते रहें उसकी दिशा सदैव सही रखें, तो बाहरी क्रिया जो भी हो भीतर की शांति भंग नहीं होगी।

जीवन में जब भी दुख और तनाव आएं, ये करें
दु:ख और आघात सभी की जिन्दगी में आते रहते हैं। कोशिश करिए ये अल्पकालीन रहें, जितनी जल्दी हो इन्हें विदा कर दीजिए। इनका टिकना खतरनाक है। क्योंकि ये दोनों स्थितियां जीवन का नकारात्मक पक्ष है। यहीं से तनाव का आरम्भ होता है।
तनाव यदि अल्पकालीन है तो उसमें से सृजन किया जा सकता है। रचनात्मक बदलाव के सारे मौके कम अवधि के तनाव में बने रहते हैं। लेकिन लम्बे समय तक रहने पर यह तनाव उदासी और उदासी आगे जाकर अवसाद यानी डिप्रेशन में बदल जाती है।

कुछ लोग ऐसी स्थिति में ऊपरी तौर पर अपने आपको उत्साही बताते हैं, वे खुश रहने का मुखौटा ओढ़ लेते हैं और कुछ लोग इस कदर डिप्रेशन में डूब जाते हैं कि लोग उन्हें पागल करार कर देते हैं। दार्शनिकों ने कहा है बदकिस्मती में भी गजब की मिठास होती है।

इसलिए दु:ख, निराशा, उदासी के प्रति पहला काम यह किया जाए कि दृष्टिकोण बहुत बड़ा कर लिया जाए और जीवन को प्रसन्न रखने की जितनी भी सम्भावनाएं हैं उन्हें टटोला जाए। मसलन अकारण खुश रहने की आदत डाल लें। हम दु:खी हो जाते हैं इसकी कोई दिक्कत नहीं है पर लम्बे समय दु:खी रह जाएं समस्या इस बात की है। हमने जीवन की तमाम सम्भावनाओं को नकार दिया, इसलिए हम परेशान हैं।

पैदा होने पर मान लेते हैं बस अब जिन्दगी कट जाएगी लेकिन जन्म और जीवन अलग-अलग मामला है। जन्म एक घटना है और उसके साथ जो सम्भावना हमें मिली है उस सम्भावना के सृजन का नाम जीवन है।

इसलिए केवल मनुष्य होना पर्याप्त नहीं है। इस जीवन के साथ होने वाले संघर्ष को सहर्ष स्वीकार करना पड़ेगा और इसी सहर्ष स्वीकृति में समाधान छुपा है। सत्संग, पूजा-पाठ, गुरु का सान्निध्य इससे बचने और उभरने के उपाय हैं। इसी के साथ ऐसी स्थिति में एक काम और करिए जरा मुस्कुराइए...

गृहस्थी में केवल वासना ही न हो...
अगर आपके दांपत्य में अशांति ज्यादा हो और प्रेम घट रहा हो तो यह आपस में मिल बैठकर बात करने से सुलझ सकता है। अधिकतर ऐसा होता है कि दांपत्य शुरू तो प्रेम से होता है लेकिन फिर यह वासना पर आकर ठहर जाता है। अगर दांपत्य में खुशहाली चाहिए तो आपको वासना से ऊपर उठकर प्रेम पर ही टिकना होगा। तभी गृहस्थी खुशहाल रहेगी। हमारी पहचान भी बनी रहेगी।

जब-जब गृहस्थी में अशांति आती है तब आदमी इस बात को लेकर परेशान रहता है कि क्या किसी के दाम्पत्य में शांति भी होती है। समझदार लोग गृहस्थ जीवन में शांति तलाश लेते हैं। आचार्य श्रीराम शर्मा ने अपने एक वक्तव्य में गृहस्थी में अशांति के कारण को वासना भी बताया है। उन्होंने कहा है वासना के कारण पुरुष स्त्री के प्रति और कभी-कभी स्त्री पुरुष के प्रति जैसा द्वेष भाव रख लेते हैं उससे परिवारों में उपद्रव होता है। एंजिलर मछली का उदाहरण उन्होंने दिया है।

यह मछली जब पकड़ी गई इसका आकार था 40 इंच। मामला बड़ा रोचक है लेकिन नर एंजिलर पकड़में नहीं आ रहा था क्योंकि वह उपलब्ध नहीं था। एक बार तो यह मान लिया गया कि इसकी नर जाति होती ही नहीं होगी। लेकिन एक दिन एक वैज्ञानिक को मादा मछली की आंख के ऊपर एक बहुत ही छोटा मछली जैसा जीव नजर आया जो मादा मछली का रक्त चूस रहा था। यह नर मछली था। मादा का आकार 40 इंच था और नर का 4 इंच।पं. शर्मा ने इसकी सुंदर व्याख्या करते हुए कहा था कि नारी को भोग और शोषण की सामग्री मानने वाला पुरुष ऐसा ही बोना होता है।

जो मातृशक्ति को रमणीय मानकर भोगने का ही उद्देश्य रखेंगे वे जीवन में एंजिलर नर मछली की तरह बोने रह जाएंगे।हम इस में यह समझ लें कि जानवरों में उनकी अशांति का कारण वासनाएं होती हैं। केवल बिल्ली की बात करें बिल्ली का रुदन उसकी देह की पीड़ा नहीं उसकी उत्तेजित कामवासना का परिणाम है। ठीक इसी तरह मनुष्य भी इनके परिणाम भोगता है और उसका रुदन ही परिवार में अशांति का प्रतीक है।

अगर आप अभावों में जी रहें हैं तो...

अभाव किसी को भी नहीं भाता। वस्तु पास में न हो, स्थिति अनुकूल न रहे तब जो अभाव होता है वह तो समझ में आता है परन्तु मन चाहा मिल जाए और फिर भी जीवन में अभाव, असंतोष बना रहे, खतरा यहां से शुरू होता है और आज अनेक लोग इसी खतरनाक स्थिति में जी रहे हैं। जो लोग ये मानते हैं कि सम्पन्नता के साधनों से ही प्रसन्नता आएगी और प्रगति होगी वे भूल जाते हैं कि केवल इससे ही कुछ नहीं होगा।

इन बाहरी साधनों के साथ भीतर की मनोवृत्ति पर भी काम करते रहना होगा। हमारी मनोवृत्ति में यदि संतोष, सहानुभूति, संयम और सदाचार नहीं है तो बाहर से सबकुछ मिल जाने पर भी अभाव का भाव बना रहेगा जो अशांति का कारण बनेगा। इसी कारण जिनके पास सबकुछ है जरूरी नहीं कि उनके पास शांति भी हो।

भौतिकता और आध्यात्मिकता का संघर्ष यहीं से शुरू होता है। भौतिकता कहती है पदार्थ ही प्रमाण है, मटैरिएलिस्कि एप्रोच बनाए रखो, भावनाएं भ्रांति हैं। आध्यात्मिकता का आग्रह है पदार्थ गौण हैं, संवेदनाओं को साधो, इसी छीना-झपटी में मनुष्य उलझ जाता है फिर कैसे जीतें इस द्वन्द को? गुरूनानक की बात काम आ सकती है। वे कहते हैं

जिउ भावै तिउ राखु तूं मै हरि नामु अधारू

हे प्रभु जैसे भी तुझे भाता हो हमें रख, तेरी मर्जी। ये जो दो शब्द हैं तेरी मर्जी ये हमारे सारे पुरूषार्थ को पवित्र और प्रभावशाली बना देंगे। हम कर्म तो पूरा करेंगे पर फल की प्राप्ति या अप्राप्ति हमें अशांत नहीं करेगी।
नानक कहते हैं ऐसे रहते हुए शब्द की, नाम की कमाई करो। व्यावसायिक जीवन में जो भी कमाएं परन्तु आध्यात्मिक जीवन की इस आमदानी को न भूलें जिसे नानक ने च्च्नामु अधारूज्ज् कहा। नाम की कमाई सारे अभाव दूर कर देती है।

भगवान को पाने के लिए ये बातें जरूरी हैं...
दुनिया और दुनिया बनाने वाले दोनों को यदि हम पाना चाहें तो जीवन में एक संतुलन बनाना पड़ेगा। यह संतुलन शक्ति से बनता है। हमारे भीतर छ: प्रकार की शक्तियाँ हैं जिन्हें हम ठीक से जान लें तो हमारे लिए भौतिकता और भक्ति समझना आसान हो जाएगा।
1. पराशक्ति - यह सब शक्तियों का मूल और आधार है।
2. ज्ञान शक्ति - यह मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार का रूप धारण कर, मनुष्य की क्रिया का कारण बन जाती है। इसके द्वारा दूरदृष्टि, अंतज्र्ञान और अंतदृष्टि जैसी सिद्धियां प्राप्त होती हैं।
3. इच्छाशक्ति - यह शरीर के स्नायु मण्डल में लहरें उत्पन्न करती हैं जिससे इन्द्रियां सक्रिय होती हैं और कार्य करने की तरफ संचालित होती हैं। जब यह शक्ति सत्गुण से जुड़ जाती है तो सुख और शान्ति की वृद्धि होती है।
4. क्रियाशक्ति - सात्विक इच्छा शक्ति इसी के द्वारा कार्यरूप में परिणित फल को पैदा करती है।
5. कुण्डलिनी शक्ति - यह एक तरह से जीवन शक्ति है। इसके दो रूप हैं समष्टि और व्यष्टि। समष्टि का अर्थ है पूरी श्रृष्टि में कई रूपों में विद्यमान रहना जैसे - पेड़-पौधों में प्राण, प्रकृति का जीवन तत्व। व्यष्टि रूप में मनुष्य के शरीर के भीतर तेजोमई शक्ति के रूप में रहती है। इसी शक्ति के द्वारा मन संचालित होता है। इसे परमात्मा की ओर मोड़ दें तो माया के बंधन से मुक्ति मिलती है। यह साधना से जागृत होती है।
6. मातृका शक्ति - यह अक्षर, बिजाक्षर, शब्द, वाक्य तथा गान विद्या की शक्ति है। मंत्रों में शब्दों को जो प्रभाव होता है वह इसी के कारण है। इसी शक्ति की सहायता से इच्छा शक्ति और क्रिया शक्ति अपना फल दे पाती है। इसके बिना कुण्डलिनी शक्ति नहीं जागती। अपनी इन शक्तियों को भीतर से पहचानें और इनका उपयोग सफलता प्राप्त करने में करें।

जीवन में सबसे श्रेष्ठ क्या है....
जीवन में श्रेष्ठ क्या है इसकी सबकी अपनी-अपनी परिभाषा होती है। किसी धार्मिक आदमी से पूछो तो वह कहेगा श्रद्धा के बिना धर्म बेकार है। किसी आध्यात्मिक आदमी से पूछो तो वह प्रेम पर टिक जाएगा। कोई योद्धा हो और लम्बे समय से रणक्षेत्र में हो तो उसके लिए घर से बढ़कर और कुछ नहीं होगा। व्यापारी व्यवसाय को उत्तम बताएगा। ऐसे जीवन के अनेक क्षेत्र हैं जिनमें सबकी अपनी-अपनी राय होगी। कल्पना करिए ये सब एक जगह मिल जाएं तो जीवन का दृश्य क्या हो? और इसका नाम है दृष्टि। दाम्पत्य एक तरह का कोलाज है। यहां धर्म, प्रेम, श्रद्धा, शान्ति, अशान्ति, लोभ सब एक साथ मिल जाएगा। जोगी, यति, तपस्वी, फकीर, महात्मा, सफल व्यवसायी, उच्च शिक्षाविद् सबकुछ इस एक छत के नीचे घट सकता है। इसलिए दाम्पत्य को संन्यास से भी कठिन माना है।

इसमें धैर्य और दूसरे के लिए जीने की तमन्ना रखना पड़ती है। गृहस्थी से गुजरे हुए लोग स्वतंत्र जीवन जीने वाले लोगों के प्रति परिपक्व और गंभीर नजर आते हैं। परमात्मा की खोज में निकलने वाले लोग केवल पहाड़ों, जंगलों से निकलेंगे ऐसा नहीं है, चूल्हा, चौका, शयनकक्ष और आंगन परमात्मा ने इन्हें भी अपना स्थान बनाया है। भगवान् ने अपने लिए एक नाम रखा है ब्रह्म। इसका अर्थ बड़ा सुन्दर है। इसका अर्थ है जो सदा विस्तार की ओर चले, हमेशा विराट होने की सम्भावना अपने अंदर रखे, जो अनन्त हो। और यह भाव गृहस्थी में बड़ा काम आता है क्योंकि भीतर से विशाल हुए बिना बाहर का विराट कैसे उपलब्ध होगा। गृहस्थी में आनन्द लाना चाहें और विराट की अनुभूति करना चाहें तो एक काम तो कर ही लें जरा मुस्कुराइए...

ऐसों की सलाह कभी न माने
जीवन का गहरा अनुभव यही कहता है कि व्यक्ति को दूसरों की सलाह से काम करने की बजाय अपने विवेक से ही निर्णय लेना चाहिये। कई बार ऐसा होता है कि हम दूसरों के कहने पर ही हर काम कर लेते हैं और अपनी बुद्धि का उपयोग ही नहीं करते। और जब तक बात हमारे समझ में आती है बहुत देर हो चुकी होती है। जबकि होना यह चाहिए कि दुसरों की बात को पहले हम अपनी कसौटी पर कसे और फिर निर्णय लें कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं? ऐसा करने से हम कभी धोखा नहीं खाएंगे और न ही कभी नुकसान उठाना पड़ेगा।

एक आदमी मछली बेचने का व्यापार करता था। उसकी एक दुकान थी जिस पर बोर्ड लगा था और उस बोर्ड पर लिखा था- फ्रेश फीश सोल्ड हियर। एक दिन उसके यहां एक मित्र आया वो बोला- जब तुम फ्रेश फीश ही बेचते हो तो लिखने की क्या आवश्यकता है। तब उस मछली बेचने वाले ने बोर्ड पर से फ्रेश हटा दिया।

थोड़े दिन बाद कोई दूसरा मित्र मिलने वाला आया वह बोला- तुम मछली यहां ही बेचते हो या और कहीं भी बेचते हो? तो वह बोला- सिर्फ यही बेचता हूं। तो वह मित्र बोला- तो इसमें लिखने की क्या आवश्यकता है। तो दुकानदार ने हियर भी हटा दिया। अब बचा सिर्फ फीश सोल्ड।

एक दिन और कोई परिचित आया वह बोला- सोल्ड लिखा है तो बेचते ही हो फ्री तो देते नहीं हो तो इसे भी हटाओ। अब बोर्ड पर लिखा रह गया सिर्फ फिश। कुछ दिनों बाद फिर कोई आया तो उसने कहा बदबू के कारण दूर-दूर तक पता चलता है कि यहां मछली बिकती है तो यह लिखने की क्या जरुरत है। उसने फिश भी मिटा दी।

और फिर एक दिन किसी ने कहा कि जब कुछ लिखा ही नहीं है तो बोर्ड भी हटा दो। तो इस तरह उस दुकान पर लगा बोर्ड भी हट गया।

मन में उठते बुरे विचार... कैसे लगाएं रोक
मन को निंयत्रित करना और उसमें उठते बुरे और अनुचित खयालात को रोक देना असंभव नहीं तो बेहद कठिन तो अवश्य ही है। आज मनुष्य के जीवन में परेशानियों और कठिनाइयों का अम्बार लगा हुआ है जिससे उसका मन भटकता ही रहता है। जैसे-जैसे समय बदल रहा है ठीक उसी तरह हमारी सोच और काम के तरीके में भी परिवर्तन आ रहा है।

अधिकतर लोग दुर्भावानाओं से घिरे रहते हैं।अगर इनसे छुटकारा पाना है तो हनुमानजी का ध्यान सबसे उत्तम उपाय है। हनुमानजी बुरे विचारों को समाप्त कर हमारे मन को शुद्धता और पवित्रता प्रदान करते हैं। रोज सुबह-सुबह कुछ समय किसी भी सुविधाजनक आसन में बैठकर प्राणायाम करें और साथ भगवान हनुमानजी का ध्यान करते हुए इस पंक्ति का जप करें- महाबीर विक्रम बजरंगी। कुमति निवार सुमति के संगी।

इस पंक्ति के जप से साधक के सभी बुरे विचार, कुमति नष्ट हो जाती है और विचारों में शुद्धता आती है। इस पंक्ति का अर्थ यही है कि भगवान हनुमान महावीर हैं और वे अपने भक्तों की कुमति को दूर करके उन्हें शुद्ध विचारों वाला बना देते हैं। हनुमानजी का ध्यान हमें पूरी तरह धार्मिक बनाता है साथ ही हमारे जीवन की सभी समस्याओं का प्रभाव कम कर देता है।

गंगा स्नान की चाह है तो सिर पर रुद्राक्ष रख यह मंत्र बोल नहाएं
हिन्दू धर्म में गंगा को मां का दर्जा दिया गया है। यह देव नदी भी मानी गई है। क्योंकि पौराणिक मान्यताओं में गंगा स्वर्ग से भू-लोक में जगत कल्याण के लिए राजा भगीरथी के घोर तप से आई। इस दौरान गंगा के अलौकिक वेग को भगवान शंकर ने अपनी जटाओं से काबू किया। यही कारण है कि युग-युगान्तर से गंगा पावन और मोक्ष देने वाली मानी जाती है। वैज्ञानिक रूप से यह साबित हो चुका है कि गंगा का जल पवित्र और रोगनाशक है।

यही कारण है कि धर्म में आस्था रखने वाले अनेक लोग गंगा स्नान की गहरी चाहत रखते हैं। इनमें कुछ लोगों की गंगा स्नान चाहत पूरी होती है, लेकिन कुछ जिम्मेदारियों या व्यस्तता के चलते गंगा स्नान से वंचित रहते हैं। इसलिए ऐसे ही आस्थावान लोगों के लिए यहां बताया जा रहा है शास्त्रों में लिखी बातों पर आधारित वह तरीका जो गंगा स्नान के समान ही माना गया है। डालते हैं एक नजर-

शास्त्रों में गंगा स्नान के पुण्य और सुख पाने का यह उपाय है रुद्राक्ष को सिर पर रखकर नीचे बताए मंत्र बोलकर स्नान करना। जिसके लिए एक रुद्राक्ष सिर पर धारण करें। इसके बाद स्नान के लिए जल सबसे पहले सिर पर डालें और यह मंत्र बोलें -

रुद्राक्ष मस्तकै धृत्वा शिर: स्नानं करोति य:।
गंगा स्नान फलं तस्य जायते नात्र संशय:।।

इसके अलावा ऊँ नम: शिवाय यह मंत्र भी मन ही मन स्मरण करें। इस मंत्र में रुद्राक्ष को सिर पर रखकर स्नान का फल गंगा स्नान के समान बताया गया है। स्नान का यह तरीका तन के साथ मन को भी पवित्र और सकारात्मक ऊर्जा से भर देता है।

तब यह दुनिया सबसे मुश्किल काम लगता है...
हमारे देश में बात-बात पर धर्म की दुहाई दी जाती है। धर्म पर बात करना आसान है, धर्म को समझना सरल नहीं है, धर्म को समझ कर पचा लेना उससे भी अधिक मुश्किल है, लेकिन सबसे कठिन है धर्म में जी लेना।

धर्म में जी लेना जितना कठिन है, जीने के बाद उतना ही आसान भी है। बिल्कुल इसी तरह है कि जब कोई पहली बार साइकिल सीखने जाता है तब उसे ऐसा लगता है कि दुनिया में इससे असंभव काम कोई नहीं, क्योंकि जैसे ही वह दोपहिया वाहन पर बैठता है, वह लडख़ड़ाता है, गिर जाता है।

सीखने वाला आदमी जब दूसरे को साइकिल मस्ती में चलाते हुए देखता है तो उसे बड़ा अजीब लगता है। यह कैसे मुमकिन है मैं तो पूरे ध्यान से चला रहा हूं फिर भी गिर जाता हूं और वह बड़ी मस्ती में चला रहा है। जब एक बार आदमी साइकिल चलाना सीख जाता है तो वह भी मस्ती से साइकिल चला लेता है।

धर्म का मामला कुछ इसी तरह का है, जब तक उसे जिया न जाए यह बहुत खतरनाक, परेशानी में डालने वाला, लडख़ड़ाकर गिर जाने वाला लगता है। लेकिन एक बार यदि धर्म को हम जी लें तो फिर हम उस मस्त साइकिल सवार की तरह हैं जो अपनी मर्जी से लहराते हुए चलाता है, अपनी मर्जी से रोक लेता है, अपनी मर्जी से उतर जाता है और बिना लडख़ड़ाहट के चला लेता है। जीवन में धर्म बेश कीमती हीरे की तरह है। जिसे हीरे का पता नहीं वो जिंदगीभर कंकर-पत्थर ही बीनेगा।

पहले तो हमारी तैयारी यह हो कि हम जौहरी की तरह ऐसी नजर बना लें कि धर्म को हीरे की तरह तराश लें। वरना, हम हीरे को भी कंकर-पत्थर बनाकर छोड़ेंगे। धर्म को तराशने की एक क्रिया का नाम है जरा मुस्कराइए...।

सच को समझने के लिए यह जरूरी है...

हमारी समझ में जो बात आती है ज्यादातर मौकों पर हम उसे सही और सत्य मान लेते हैं। जो बात हमारी समझ से बाहर है या तो हम उसे गलत साबित कर देते हैं या नकार देते हैं। हमारी बुद्धि के विपरीत जो भी दिखता है उसे हम इसलिए खारिज कर देते हैं कि हम अपनी बुद्धि को सही मानते हैं।

पढ़ाई-लिखाई के इस युग में ज्यादातर लोग यह मान लेते हैं कि सत्य मेरी ही समझ पर समाप्त होता है। इससे आगे सब कुछ असत्य है और बेकार है। इसीलिए उलझनें समाप्त नहीं होती। जिस समय हम यह मानते हैं कि मेरी समझ से परे भी सत्य हो सकता है, वहीं से सत्य मिलने की संभावना बढ़ जाती है।

जो लोग सचमुच सत्य को प्राप्त करना चाहते हों उन्हें लगातार वर्तमान पर टिकने की आदत बनाना होगी। ईश्वर को जानते, पहचानते जो काम किए जाएंगे वे सत्य के निकट होंगे। अतीत पर टिककर हम भगवान को भूल जाते हैं और अत्यधिक भविष्य में खोकर भी हम परमात्मा को याद नहीं रख सकते, क्योंकि इन दोनों स्थिति में हमारा 'मैं' सक्रिय रहता है।

वर्तमान एक ऐसी स्थिति होती है जहां 'मैं' कमजोर पड़ता है और वहीं से भगवान का प्रवेश सरल हो जाता है। बीता हुआ कल और आने वाला कल हमें जानकारियों से भर देगा, पर वर्तमान हमें अनुभव से जोड़ता है। इस समय हम जानकारियों का ढेर बन गए हैं, जबकि हमें अनुभव की बहती हुई नदी बनना है। वर्तमान में टिकने का एक बड़ा फायदा यह होता है कि हमारी ऊर्जा जबर्दस्त रूप से संगठित होकर अपने लक्ष्य से जुड़ जाती है।

हम अपने काम में डूबकर ध्यानस्थ स्थिति पर चले जाते हैं। कार्य का परफेक्शन इसे ही कहते हैं। वर्तमान हमें तन्मय बनाता है और अपने काम में डूबा हुआ, तन्मय व्यक्ति अतीत का अधिक लाभ उठाएगा और भविष्य का सही उपयोग कर जाएगा।

हनुमान चालीसा सिखाती है भक्ति का सही तरीका
भक्ति में हृदय की प्रमुखता होती है। बुद्धि से भक्ति करने में बाधा आएगी। प्रेम का स्थान हृदय है। हनुमानचालीसा की अंतिम चौपाई में तुलसीदासजी ने भगवान से निवेदन किया है हमारे हृदय में विराजिए। हनुमानचालीसा मन से आरंभ हुई थी। पहले ही दोहे में

श्री गुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।

बरनउँ रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि।।

यहां निज मनु का अर्थ है कि मन रूपी दर्पण को गुरु के चरणों की धूल से साफ किया जाता है। तो मन को लगातार साफ, शुद्ध करें और हृदय में परमात्मा के लिए स्थान बनाएं। मन और हृदय के बीच में हनुमानचालीसा ने प्रवाह लिया है। 40वीं चौपाई में लिखा गया है-

तुलसीदास सदा हरि चेरा। कीजै नाथ हृदय महँ डेरा।।

हे हनुमानजी! यह तुलसीदास सदा सर्वदा के लिए श्रीराम (हरि) का सेवक है। ऐसा समझ कर आप उसके (तुलसीदास) के हृदय में निवास करिए। इस अंतिम चौपाई में 'नाथ' शब्द का प्रयोग किया है, 'कीजै नाथ हृदय महँ डेरा।' नाथ इसलिए कहा कि यदि हमको लगे कि हम अनाथ हैं, तो फिर हमारे भीतर बाबा हनुमंतलालजी की कृपा का अनुभव करें, हम अनाथ नहीं रहेंगे।

तुलसीदासजी तो अनाथ थे ही। इसलिए अंत में उन्होंने अपने प्रभु को नाथ संबोधन से याद किया। आगे 'डेरा' शब्द का प्रयोग किया है। गोस्वामीजी ने स्पष्ट मांग की है कि- हे हनुमानजी! अकेले मत आना, पूरा डेरा- डण्डा लेकर आना। डेरा-डण्डा से मतलब है कि आप तो आएंगे ही साथ में रामजी, सीताजी, लक्ष्मणजी पूरा डेरा लेकर आना।

भक्त का हृदय भगवान का कैम्प होता है। डेरे में जब सब होते हैं, तब जाकर फिर डेरा पूरा लगता है और लगता तो कोई एक दिन में नहीं उठता। इसलिए कहा है कि महाराज डेरा लेकर आना।

कैसे जीतें कामवासना को?
काम वासना अध्यात्मिक जीवन में सबसे बड़ी परेशानी है। इसे दबाया नहीं जा कसता या तो इसके आगे हार जाएं या फिर इसे जीत लें। वासना से समझौता कठिन है, इसे थोड़ा भी मौका दिया जाए तो यह हमारे पूरे आध्यात्मिक जीवन पर हावी हो जाती है। इसे जीतने के कई तरीके हैं लेकिन अध्यात्मक और योग ही सबसे अच्छा रास्ता है। काम को जीत लें तो फिर कामनाएं अपनेआप हथियार डाल दंगी। जब तक काम का भाव शरीर में जीवित है कामनाएं भी उठती रहेंगी।

आध्यात्मिक जीवन में निष्कामता का बड़ा महत्व है। सभी के मन में यह प्रश्न उठता है आखिर कामनाओं का त्याग कैसे हो। गीता में चार प्रकार बताए हैं कामना त्याग के। एक विस्तारक प्रक्रिया, दो एकाग्र प्रक्रिया, तीन सूक्ष्म प्रक्रिया तथा चौथी है विशुद्ध प्रक्रिया। विस्तारक प्रक्रिया का अर्थ है हमारी जो कामना व्यक्तिगत हो उसे हम सामाजिक रूप दे दें। जैसे हम अपने बच्चे को पढ़ाना चाहें तो पूरे गांव में ही स्कूल खोल लें। इससे हमारी वासना शुद्ध रूप से विस्तृत होकर विलीन हो जाएगी। दूसरी प्रक्रिया है एकाग्र। इसमें जो भी हमारी प्रबल वासना हो केवल उस पर ही अपने चित्त को टिका दें और अन्य वासनाओं को छोड़ दें। यह ध्यान योग जैसा है। जैसे-जैसे एकाग्रता सधेगी, साधक उस एकमात्र वासना से मुक्त होने लगता है। तीसरी विधि है सूक्ष्म प्रक्रिया।

इसमें स्थूल वासनाओं को त्यागकर सूक्ष्म वासनाओं पर टिक जाएं। शरीर या बुद्धि को सजाना हो तो उसके स्थान पर मन और हृदय को सजाएं। इससे हम अंतर्मुखी होंगे और बाहरी वासनाएं गिर जाएंगी। इसे संतों ने ज्ञानयोग की युक्ति कहा है। चौथी प्रक्रिया है विशुद्ध। इसमें वासना को न व्यक्तिगत, न सामाजिक, न स्थूल, न सूक्ष्म मानें। दो ही तरह की वासना होगी, शुभ या अशुभ वासना। अच्छी वासना को रखें और बुरी वासना को त्याग दें। विनोबाजी एक उदाहरण देते थे यदि मीठा खाना हो तो मिठाई के स्थान पर आम खा लें। इस तरीके से इस प्रक्रिया में वासना को मारने का दबाव नहीं है बल्कि अशुभ को शुभ में परिवर्तित करने का आग्रह है। अशुभ वासनाओं का त्याग और शुभ वासनाओं की पूर्ति करते-करते मन एक दिन शुद्ध होकर वासनाहीन हो जाता है। इसीलिए यह चौथी पद्धति अधिक मान्य है। अन्य में थोड़े खतरे हैं।

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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