Thursday, November 18, 2010

Parampara Part (2)

क्यों करते हैं किसी की बुराई?
एक बहुत प्रसिद्ध दोहा है-
निंदक नियरे राखिए आंगन कुटि छबाय।
बिन पानी बिन साबुन निर्मल करे सुहाय।।

इस दोहे में यही कहा गया है कि अपनी निंदा, आलोचना, बुराई करने वालों सदा अपने पास रखना चाहिए। अपनी आलोचना सुनकर उसे सुधारने से हमारा स्वभाव अच्छा होता है और हमारी कमियां दूर होती हैं।
यह दोहा अति प्राचीन है और आज के युग में कोई अपनी बुराई कतई सुनना नहीं चाहता। भला मेरे काम में कमी कैसी? यही सोच है अधिकांश लोगों की। सभी चाहते हैं कि चारों ओर उनकी तारीफ हो, उनके कार्य में कमियां ना निकाले। परंतु जब उम्मीद के विपरित कोई बुराई या कमी निकाल देता है तो वहां उनका अहं जाग जाता है।
लोगों को मजा भी बुराई निकालने में ही आता है। दुसरों की बुराई करने को आज भी भाषा में निंदारस कहा जाने लगा है। बुराई करना जैसे एक फैशन हो गया है। किसी के अच्छे कार्यों को कोई एक बार भले याद ना करें परंतु यदि किसी से कोई चूक या गलती हो गई तो जैसे उसने गुनाह कर दिया।

दरअसल व्यक्ति दूसरों की बुराई करके अपनी कमजोरियों को छुपाना चाहता है। वह यही दिखाना चाहता है कि कमियां सिर्फ मुझ ही में नहीं है। कुछ लोगों की सोच होती है जो कार्य मैं नहीं कर सकता या मुझसे नहीं हुआ तो उसे कोई और कैसे कर सकता है? परंतु जब कोई वह कार्य कर देता है तो उसे अपनी कमजोरी का अहसास होता है और वह उसके कार्य में बुराई या कमी तलाश करने में लग जाता है।इसी तरह की भावनाओं से ग्रसित होकर दूसरों में बुराई ढूंढी जाती है और फिर उसे प्रचारित करने में उन्हें एक अद्भूत आंनद की प्राप्ति होती है।यदि कोई आपकी बुराई करता है या कमियां निकालता है तो कोशिश करनी चाहिए उसे पॉजिटिव रूप में लेने की और अपनी कमजोरी दूर करें। साथ ही दूसरों की बुराई करने से बचें। इससे होता कुछ नहीं है उलटा आपकी इमेज पर नेगेटिव प्रभाव पड़ता है।

कौन है पंच देवता?
हमारे शास्त्रो में पंच देव के नित्य पूजन का विधान बताया गया है। परंतु भाग दौड भरे जीवन में यह अब संभव नही रहा। बहुत लोग तो जानते भी नही होगे कि पंच देव कौन-कौन से है। सर्वविदित है कि हमारा शरीर पंच तत्वो से निर्मित है।तथा पांचो तत्वो के एक-एक देवता है। यह पांचो तत्व ओर उनके देवता निम्र प्रकार है:
१श्री गणेश-जल तत्व
श्री विष्णु- वायु तत्व
श्री शंकर- पृथ्वि तत्व
श्री देवी - अग्रि तत्व
श्री सूर्य- आकाश् तत्व
जीवन के लिए सर्वप्रथम जल की आवश्यकता होती है। इसलिए प्रथम पूज्य गणेश जल के अधिष्ठात्र देवता है।
वायु साक्षात विष्णु देवता से संबधित तत्व है। शंकर पृथ्वि तत्व, देवी अग्नि तत्व तथा सूर्य आकाश तत्व के देवता है।
इस प्रकार इन पांचों का पूजन कर हम अपने आप का हि पूजन करते है।

हिंदू धर्म में 33 करोड़ देवी-देवता कैसे?
सामान्यत: कहा जाता है कि हिंदुओं के 33 करोड़ देवी-देवता हैं। इतने देवी-देवता कैसे? यह प्रश्न कई बार अधिकांश लोगों के मन में उठता है। शास्त्रों के अनुसार देवताओं की संख्या 33 कोटि बताई गई हैं। इन्हीं 33 कोटियों की गणना 33 करोड़ देवी-देवताओं के रूप में की जाती है। इन 33 कोटियों में आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, इंद्र और प्रजापति शामिल है। इन्हीं देवताओं को 33 करोड़ देवी-देवता माना गया है।
कुछ विद्वानों ने अंतिम दो देवताओं में इंद्र और प्रजापति के स्थान पर दो अश्विनीकुमारों को भी मान्यता दी है। श्रीमद् भागवत में भी अश्विनीकुमारों को ही अंतिम दो देवता माना गया है। इस तरह हिंदू देवी-देवताओं में तैंतीस करोड़ नहीं, केवल तैंतीस ही प्रमुख देवता हैं। कोटि शब्द के दो अर्थ हैं, पहला करोड़ और दूसरा प्रकार या तरह के। इस तरह तैंतीस कोटि को जो कि मूलत: तैंतीस तरह के देव-देवता हैं, उन्हें ही तैंतीस करोड़ माना गया है।


क्यों है गाय की महिमा?

प्राचीन काल से ही ऋषिमुनियों ने गाय को पूजनीय बताया है। ऐसा क्यों? गाय में ऐसा क्या है? आइए जानते हैं:
गाय एकमात्र ऐसा प्राणी है जिसके मल मूत्र तक पवित्र हैं। गाय का दूध तो रोगों में उपयोगी है ही उसका मूत्र और गोबर भी अत्यंत उपयोगी है। जो हमारे स्वास्थ्य के लिए सर्वश्रेष्ठ है। गाय के मूत्र में पोटेशियम, सोडियम, नाइट्रोजन, फास्फेट, यूरिया, यूरिक एसिड होता है। दूध देते समय गाय के मूत्र में लेक्टोज की वृद्धि होती है। जो हृदय रोगों के लिए लाभकारी है। गाय का दूध फैट रहित परंतु शक्तिशाली होता है उसे पीने से मोटापा नहीं बढ़ता तथा स्त्रियों के प्रदर रोग आदि में लाभ होता है। गाय के गोबर के कंडे से धुआं करने पर कीटाणु, मच्छर आदि भाग जाते हैं तथा दुर्गंध का नाश होता है। गाय के समीप जाने से ही संक्रामक रोग कफ सर्दी, खांसी, जुकाम का नाश हो जाता है। गोमूत्र का एक पाव रोज सुबह खाली पेट सेवन करने से कैंसर जैसा रोग भी नष्ट हो जाता है।
गाय एकमात्र ऐसा प्राणी है, जो ऑक्सीजन ग्रहण करता है और ऑक्सीजन ही छोड़ता है।

क्यों हुआ मक्खी, मच्छरो का जन्म?
हम सभी इन मक्खी मच्छरों से परेशान होते हैं। इनके अलावा छोटे-मोटे कीडे-मकोड़े भी हमें घरों में परेशान करते हैं। इनके काटने या हमारे खाने पीने में आने से ये हमें घातक बीमारियां देते है। अक्सर यह विचार आता है कि भगवान ने इन औचित्यहिन जीवों का निर्माण क्यों किया?
यह जानने कि आवश्यकता है कि यह जीव ब्रह्मा द्वारा निर्मित नहीं हं। देवासुर सग्रांम के समय जब देव दानवों ने समुद्र मंथन किया था। तब समुद्र से हलाहल विष निकला, जिसे भगवान शंकर ने पी लीया था । विषपान के दौरान जो जहर बाहर गिरा वही विष छोटे-छोटे जहरीले कीटों में तब्दिल हो गया। यह वह वहीं मक्खी, मच्छर, खटमल हैं, जो आज भी हमारी परेशानी का कारण है। भगवान शंकर की हमारे ऊपर बड़ी दया है, जब जरा सा छलका हुआ विष इतना हानिकारक है, तब पूर्ण विष भगवान न पीते तो सृष्टि का क्या हाल होता?

सुंदरता को काला टिका...?
अक्सर देखने में आता है कि छोटे-छोटे बच्चों और सुंदर लड़कियों को चेहरे पर कहीं ना कहीं काला टिका लगा होता है। काला टिका लगाने की परंपरा के पीछे यही वजह है कि सुंदरता की ओर सभी जल्दी ही आकर्षित हो जाते हैं और कुछ लोग सुंदर चेहरे को एकटक देखते रहते हैं। उनकी ऐसी नजरों से बच्चे या सुंदर लड़कियों पर दुष्प्रभाव पड़ते हैं। काला टिका लगाने से एकटक देखने वाले की नजर काला रंग पर टिक जाती है जिससे उनकी नजर का बुरा प्रभाव नष्ट हो जाता है।

दूल्हे को घोड़ी पर ही क्यों बिठाते हैं?
लड़के की शादी हो और वह घोड़ी पर ना बैठे ऐसा कैसे हो सकता है? परंतु क्या आप जानते हैं दूल्हे को घोड़ी पर ही क्यों बैठाते हैं किसी और सवारी पर क्यों नहीं?
पुराने समय में कई बार शादियों के समय लड़ाइयां लड़ी जाती थी... लड़ाई दुल्हन के लिए और दूल्हे द्वारा अपनी वीरता दिखाने के लिए। ग्रंथों में ऐसे कई प्रसंग आते हैं जब दूल्हे को दुल्हन के लिए रणभूमि में युद्ध करना पड़ा। श्रीराम और सीता के स्वयंवर के समय भी ऐसा प्रसंग हुआ था। जब श्रीराम के गले में वरमाला डालने सीता जा रही थी तो वहां मौजूद सभी विरोधी राजाओं ने अपनी-अपनी तलवार निकाल ली थी और श्रीराम से युद्ध करने की तैयारी कर ली थी। परंतु परशुराम के आने के बाद सभी को ज्ञात हो गया कि श्रीराम से युद्ध साक्षात् मृत्यु से युद्ध होगा और वहां युद्ध टल गया। वहीं श्रीकृष्ण और रुकमणि के विवाह के समय भी युद्ध हुआ था। ऐसे कई प्रसंग हैं।इन्हीं कारणों से दूल्हे को घोड़े पर बैठाने की परंपरा शुरू की गई। वैसे उस समय हाथी की सवारी भी चलन में थी परंतु घोड़ा वीरता और शौर्य का प्रतिक माना जाता है और युद्ध के मैदान में घोड़े की ही अहम भूमिका होती है। दूल्हे का रूप भी किसी रणवीर के समान रहता है उसकी भी यही वजह है। आधुनिक युग में जब स्वयंवर और लड़ाइयों से जैसी परंपरा बंद हो गई तब दूल्हे को बतौर शगुन घोड़ी पर बैठाना शुरू कर दिया।

दूल्हा-दुलहन को हल्दी क्यों लगाते हैं?

विवाह की रस्मों एक रस्म होती है हल्दी लगाने की। शादी के अवसर पर हल्दी दूल्हा और दुल्हन दोनों को लगाई जाती है। अधिकांश लोग यही मानते हैं कि यह एक आवश्यक परंपरा है इसलिए इसका निर्वाह किया जाना अनिवार्य है। परंतु हल्दी को अनिवार्य करने के पीछे भी कुछ वजह है।
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि हल्दी एक औषधि है। हल्दी हमारी त्वचा के लिए तो वरदान की तरह है। हल्दी लगाने से त्वचा संबंधी अनेक बीमारियां दूर हो जाती है। त्वचा की खुश्की दूर होती है, त्वचा में चमक पैदा होती है। त्वचा संबंधी कई इंफेक्शन मात्र हल्दी लगाने से ठीक हो जाते हैं।
शादी से हल्दी लगाने की प्रथा जोडऩे की पीछे भी यही सब कारण हैं। शादी में हल्दी दूल्हा और दुल्हन के चेहरे के साथ-साथ शरीर के कई हिस्सों पर लगाई जाती है उनकी अच्छे से सफाई हो सके और पूरा शरीर कांतिवान हो जाए। त्वचा संबंधी रोगों में राहत मिल सके।

कैसे करे घर में पूजा?
घर में मंदिर का निर्माण ईशान कोण (उत्तर पूर्व) में ही होना चाहिए। मंदिर ठोस आधार पर रखा हुआ हो। मंदिर के नीचे दराज न हो। वो जमीन से ऊपर उठा नहीं हो तो बेहतर होता है। मंदिर के ऊपर ध्वजा का चिन्ह आवश्यक रूप से लगाना चाहिए। जगह नहीं हो तो घर की छत पर ध्वजा लगाना चाहिए। घर में शिवलिंग एक ही होना चाहिए। शिवलिंग पत्थर, संगमरमर से बना श्रेष्ठ होता है। इसके अलावा पारद, स्फटिक, सोना, चांदी के शिवलिंग भी पूजा के उपयोग में लाए जा सकते हैं। परंतु शिवलिंग ठोस ही होना चाहिए। खोखले शिवलिंग पूजन में त्याज्य हैं। लोहा, तांबा, पीतल के शिवलिंग का पूजन नहीं करें। घर में शिवलिंग अंगूठे के आकार का होना चाहिए। घर में महाकाली, महासरस्वती, महालक्ष्मी का फोटो या मूर्ती आप स्थापित कर सकते हैं, परंतु उनका पूजन नित्य होना आवश्यक है। महाकाली को हर मंगलवार को 7 या 11 हरे नीबू की माला आवश्यक रूप से पहनानी चाहिए तथा तीनों ही माताओं को गुलाब के फूल अति पसंद है। अत: गुलाब के फूल से ही उनका पूजन करना चाहिए।
यदि आपके घर में ठाकुर जी की सेवा होती है, तो उनकी सेवा उसी प्रकार होती है, जैसे एक छोटे बालक की। मंदिर की पवित्रता हमेशा बनाए रख्ेां, तथा यह प्रयास करें कि वहां हमेशा सुगंधित वातावरण रहे।

शादी में पान खिलाने की प्रथा...
यूं तो पान को मुख का आभूषण कहा जाता है और लोगों का शौक होता है पान खाना। किसी भी शुभ अवसर पर भोजनादि में पान खिलाने की परंपरा देखी जाती है। किसी भी शादी में दूल्हा और दुल्हन को पान खिलाने की अनिवार्य प्रथा है। जिसे सामान्यत: महज सौंदर्य को बढ़ाने की दृष्टि से ही देखा जाता है परंतु यह मात्र मुख का आभूषण नहीं है। शादी के अवसर पर दूल्हा-दुल्हन सहित सभी लोग तरह-तरह के व्यंजनों का लुत्फ उठाते हैं। खाते-पीते समय कोई नहीं सोचता कि अधिक और अनावश्यक खाने से पेट संबंधी रोग भी हो सकते हैं।
... तो बस उन्हीं पेट संबंधी रोगों से बचाने के लिए पान खिलाने की अनिवार्य प्रथा रखी गई है। पान एक औषधि भी है, जिससे पेट संबंधी कई बीमारियों की रोकथाम होती है। पान हमारा पाचन तंत्र सुव्यस्थित करने में भी सहयोग देता है। साथ ही हमारे द्वारा खाए गए कई प्रकार के व्यंजनों को पान पचा भी देता है।
पान के इन सभी गुणों के साथ पान मुख का आभूषण तो है ही जिसे खाने के बाद होंठों पर पानी लाली छा जाती है जो दूल्हा और दुल्हन की सुंदरता में चार चांद लगा देती है।


दूसरों से गले क्यों मिलते हैं...?
जब हम किसी अपने खास दोस्त या रिश्तेदार से मिलते हैं तो अधिकांशत: गले मिलकर उसका अभिवादन करते हैं। गले मिलने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। श्रीराम के जीवन में कई प्रसंग ऐसे आते हैं जब वे अन्य लोगों से गले मिलकर अपना प्रेम प्रकट करते हैं। गले मिलना अभिवादन मात्र नहीं है, गले मिलने से दो आत्माओं का भी परस्पर स्नेह बढ़ता है। दो शरीरों से निकलने वाली किरणे आपस में मिलती है जिससे उनके बीच आत्मीय प्रेम बढ़ता है। गले मिलने वालों का रिश्ता और भी गहरा हो जाता है। प्राय: दुश्मन भी जब दोस्त बनते हैं तो वे अपनी दुश्मनी को गले मिलकर ही दोस्ती में बदल लेते हैं। इसकी वजह यही है कि गले मिलने से अपनत्व का एहसास होता है और रिश्ते में प्रेम और विश्वास की बढ़ोतरी होती है।

नारियल क्यों अर्पित करते हैं?
पूजन में नारियल का प्रयोग लक्ष्मीजी के रूप में होता है। नारियल को श्रीफल भी कहा जाता है। धन अर्पित करने की हमारी शक्ति नहीं परंतु प्रतिक रूप से हम भगवान को श्रीफल अर्पित करते हैं। जिससे धन का अहंकार हमारे भीतर से निकल जाए और हम नारियल के भीतर की तरह श्वेत, कोमल और दोषरहित हो जाए।
नारियल ऊपर से जितना कठोर होता है अंदर से उतना मुलायम। जिसका स्वाद सभी को अच्छा लगने वाला है। पूजा में नारियल क्यों अर्पित किया जाता है? इसके कई कारण हैं... जैसे नारियल का जल मीठा और स्वास्थ्यवर्धक और बलदायक होता है उसी को हम प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं। रुद्ररूप से भी नारियल का पूजन किया जाता है। रुद्र हमारे गर्व का हनन करते हैं। इसलिए किसी-किसी पूजन में नारियल को बधार कर हम प्रतिक रूप से हमारे मान, गर्व भगवान के चरणों में समर्पित कर देते हैं।

रात को पेड़ के नीचे सोना...?
धधकती गर्मी में यदि पेड़ों की शीतलता देने वाली छाव मिल जाए तो सारी थकान उतर जाती है। दिन के समय पेड़ों के नीचे रहना हमारे स्वास्थ्य के लिए जितना लाभकारी है रात के समय उतना ही प्रतिकूल।
विज्ञान के अनुसार दिन में पेड़ कार्बन डाईआक्साइड ग्रहण करते हैं और ऑक्सीजन छोड़ते हैं। वहीं यह क्रिया रात के समय उलटी हो जाती है। मतलब रात में पेड ऑक्सीजन ग्रहण करके कार्बनडाई ऑक्सीइड छोड़ते हैं। चूंकि मनुष्य ऑक्सीजन ग्रहण करके कार्बनडाई आक्साइड छोड़ता हैं, अत: रात के समय पेड़ों के नीचे सोने से हमें पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं मिल पाती है। जिसका हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। रात्रिकाल में पेड़ों के नीचे से भी मना किया जाता है, इसकी वजह भी यही है। जिन्हें दमा या अन्य श्वास संबंधी कोई बीमारी हो उन्हें रात के समय पेड़ों के पास कतई नहीं जाना चाहिए।

जनेऊ पहनने से क्या लाभ?
पूर्व में बालक की उम्र आठ वर्ष होते ही उसका यज्ञोपवित संस्कार कर दिया जाता था। वर्तमान में यह प्रथा लोप सी गयी है। जनेऊ पहनने का हमारे स्वास्थ्य से सीधा संबंध है। विवाह से पूर्व तीन धागों की तथा विवाहोपरांत छह धागों की जनेऊ धारण की जाती है। पूर्व काल में जनेऊ पहनने के पश्चात ही बालक को पढऩे का अधिकार मिलता था। मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों पर कस कर दो बार लपेटना पड़ता है। इससे कान के पीछे की दो नसे जिनका संबंध पेट की आंतों से है। आंतों पर दबाव डालकर उनको पूरा खोल देती है। जिससे मल विसर्जन आसानी से हो जाता है तथा कान के पास ही एक नस से ही मल-मूत्र विसर्जन के समय कुछ द्रव्य विसर्जित होता है। जनेऊ उसके वेग को रोक देती है, जिससे कब्ज, एसीडीटी, पेट रोग, मूत्रन्द्रीय रोग, रक्तचाप, हृदय रोगों सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते।
जनेऊ पहनने वाला नियमों में बंधा होता है। वह मल विसर्जन के पश्चात अपनी जनेऊ उतार नहीं सकता। जब तक वह हाथ पैर धोकर कुल्ला न कर ले। अत: वह अच्छी तरह से अपनी सफाई करके ही जनेऊ कान से उतारता है। यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जिवाणुओं के रोगों से बचाती है। जनेऊ का सबसे ज्यादा लाभ हृदय रोगियों को होता है।

नंगे पैर क्यों जाते हैं देवस्थानों में...?
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा जैनालयों आदि देवस्थानों के अंदर सभी श्रद्धालु जूते-चप्पल बाहर उतारकर ही प्रवेश करते हैं। मंदिरों में नंगे पैर प्रवेश करने के पीछे कई कारण हैं। जैसे:

- देवस्थानों का निर्माण कुछ इस प्रकार से किया जाता है कि उस स्थान पर काफी सकारात्मक ऊर्जा एकत्रित होती रहती है। नंगे पैर जाने से वह ऊर्जा पैरों के माध्यम से हमारे शरीर में प्रवेश कर जाती है। जो कि हमारे स्वास्थ्य के लिए भी बहुत लाभदायक रहती है। साथ ही नंगे पैर चलना एक्यूप्रेशर थैरेपी ही है और एक्यूप्रेशर के फायदे सभी जानते हैं।

- हम देवस्थानों में जाने से पूर्व कुछ देर ही सही पर जूते-चप्पल रूपी भौतिक सुविधा का त्याग करते हैं। इस त्याग को तपस्या के रूप में भी देखा जाता है।

- जूते-चप्पल में लगी गंदगी से मंदिर की पवित्रता भंग ना हो, इस वजह से हम उन्हें बाहर ही उतारकर देवस्थानों में नंगे पैर जाते हैं।

क्यों कहते हैं नमस्ते?
जब भी हम किसी से मिलते हैं तो उसका अभिवादन नमस्ते कह कर करते हैं। नमस्ते का शाब्दिक अर्थ नम+अस+ते है। नम का अर्थ नमना या झुकना, अस अर्थात हम और ते का मतलब है तेरे लिए या आपके लिए। यानि पूरे शब्द का अर्थ है हम आपके लिए झुकते हैं।किसी के प्रति पूरे मन से आदर और सम्मान के भाव से झुकना ही नमस्ते का मतलब है।

क्यों किया जाता है मुंडन?
हिंदू धर्म पद्धतियों में मुंडन संस्कार एक महत्वपूर्ण परंपरा है। बच्चों का मुंडन, किसी रिश्तेदार की मृत्यु के समय मुंडन। आखिर मुंडन कराने से क्या लाभ होता है। क्यों इन्हें संस्कारों में शामिल किया गया है।
वास्तव में मुंडन संस्कार सीधे हमारे स्वास्थ्य से जुड़ा है। इसके लिए इस परंपरा के पीछे छिपे विज्ञान को समझना होगा। जन्म के बाद बच्चे का मुंडन किया जाता है, इसके पीछे मुख्य कारण है जब बच्च मां के गर्भ में होता है तो उसके सिर के बालों में बहुत से कीटाणु, बैक्टिरिया और जीवाणु लगे होते हैं जो साधारण तरह से धोने से नहीं निकल सकते। इसके लिए एक बार बच्चे का मुंडन जरूरी होता है। इसलिए जन्म के एक साल के भीतर बच्चे का मुंडन कराया जाता है। कुछ ऐसा ही कारण मृत्यु के समय मुंडन का भी होता है। जब पार्थिव देह को जलाया जाता है तो उसमें से भी कुछ ऐसे ही जीवाणु हमारे शरीर पर चिपक जाते हैं। नदी में स्नान और धूप में बैठने का भी इसीलिए महत्व है। सिर में चिपके इन जीवाणुओं को पूरी तरह निकालने के लिए ही मुंडन कराया जाता है।

सीधी सूंड वाले सिद्धिविनायक
गणेशजी गणों के नायक हैं। हर कार्य के पूर्व उनका स्मरण कार्य सफल होने की गारंटी है। घर के बाहर जाने से पूर्व हमेशा उनका स्मरण करना चाहिए। कभी भी यह नही बोलना चाहिए कि मैं जा रहा हूं। घर से बाहर निकलते समय दरवाजे पर सीधे हाथ की सूंड वाले गणेशजी जिनको सिद्धिविनायक कहते हैं का चित्र लगाना चाहिए। उनके दर्शन कर बाहर निकलने से सभी कार्य सिद्ध होते है।घर के बाहर दरवाजे पर उल्टे हाथ की तरफ सूंड़ वाले गणेशजी का चित्र लगाना चाहिए, जिनको विघ्न विनाशक कहते हैं, जब हम बाहर से आते है, तो हमारे साथ कई अलाएं-बलाएं भी आती है, बाहर से आने वाले परिचित मेहमान वगैरह भी अपने साथ बलाएं लाते हैं, घर के बाहर लगे विघ्नविनायक गणेश चित्र को देखते ही सारी बलाएं एवं विघ्न नाश हो जाते हैं तथा हम शुद्ध होकर घर में प्रवेश करते है।

क्यों चढ़ते हैं गहने देवताओ पर?
देवी-देवता पर आभूषण चढ़ाए जाने का विशेष महत्व हैं। पूजा में स्वर्ण आभूषण ही चढ़ाए जाते हैं। यह धन, संपदा तथा सौंदर्य के प्रतीक हैं। ऐसा क्यों होता है? आईए जानते हैं।
स्वर्ण आत्मा का प्रतीक है जिस तरह आत्मा अजर-अमर शुद्ध है। उसी प्रकार स्वर्ण हर काल में शुद्ध है। भाव यह है कि हम आभूषण के रूप में अपनी आत्मा को देवता के चरणों में समर्पित कर रहे हैं। यह हमारे स्वास्थ्य के लिए भी लाभकारी है। स्वर्ण को पहनने एवं छूने से शरीर में तेज की वृद्धि होती है, चर्म रोग नही होते तथा शरीर में कांति आती है। स्वर्ण धाक, स्वर्णभस्म, शक्तिवर्धक टॉनिक एवं औषधियों में प्रयोग होती है। श्वास, कफ, नपुसंकता, शीघ्र वीर्यपात, टीबी, आदि रोगों को दूर करने में यह प्रयोग होती है।ऐसी मान्यता है कि जिस घर में स्वर्ण होता है। वहां लक्ष्मी का वास होता है। धन, धान्य का अभाव नहीं रहता। स्वर्णाभूषण पहनने वाली महिला के पास दरिद्रता नहीं आती।जिस तरह स्वर्ण मूल्यवान है। हमारा शरीर भी मूल्यवान है। स्वर्ण की तरह मूल्यवान हमारा यह शरीर भगवान को समर्पित हो यही भावना रहती है। स्वर्ण को छूते ही शरीर में सुरक्षा तेज स्वास्थ्य की वृद्धि होती है।

मौन कब धारण करें?
मौन रहना भी एक तपस्या ही है। मौन रहने से हमारे शरीर में अद्भूत शक्ति का संचार हो जाता है। प्राचीन काल में अधिकांश ऋषि-मुनि मौन धारण किए रहते थे। परंतु आज के समय में हर समय मौन रह पाना असंभव सा ही है। फिर भी शास्त्रों के अनुसार कुछ ऐसे काल निर्धारित किए गए हैं जहां हमें मौन रहना ही चाहिए। जैसे: मल-मूत्र त्याग करते समय, मैथुन क्रिया के समय, रक्तस्राव में, दातुन या ब्रश करते समय, श्राद्ध करते समय और भोजन करते समय। इन अवधियों में पूर्णरूप से मौन धारण करना चाहिए। इसके अतिरिक्त हमें दिन में कुछ ऐसा समय और निर्धारित करना चाहिए जब हमारी सारी इंद्रियों को आराम दिया जाए। इंद्रियों का आराम जैसे: मौन रहना, आंखे बंद करके आंखों को आराम, एक जगह प्राणायाम अवस्था में बैठकर शरीर को आराम, सोचना बंद करके मस्तिष्क को आराम। इंद्रियों को आराम देने से शरीर में हर पल एक नई ऊर्जा एकत्र होगी जिससे आपके व्यक्तित्व में निखार आएगा।

विवाह कैसे-कैसे...?
विवाह का अवसर सामान्यत: सभी के जीवन में एक बार अवश्य आता है। सभी धर्म में विवाह की अलग-अलग विधियां बताई है। जिनके अनुसार स्त्री-पुरुष को जीवनभर के लिए एक रिश्ते में बांधा जाता है। हिंदू शास्त्रों के अनुसार विवाह की आठ विधियां बताई गई हैं। इन आठ विधियों में 4 विधियां श्रेष्ठ और नैतिक तथा अन्य 4 को पूर्णतया अनैतिक माना गया है।
विवाह की श्रेष्ठ व नैतिक विधियां: देव, आर्णु, ब्राह्म और प्राजान्य।
विवाह की अनैतिक विधियां: गंधर्व, असुर, राक्षस और पिशाच।
सामान्यत: हमारे समाज ने श्रेष्ठ और नैतिक विधियों से विवाह ही कराए जाते हैं।

नशा वर्जित क्यों...?
नशीले पदार्थों का सेवन करना सभी धर्मों में वर्जित किया गया है। सभी धर्म शास्त्रों के अनुसार नशा करने वाला व्यक्ति भगवान को कभी प्रिय नहीं हो सकता। आज तरह-तरह के नशीले पदार्थों का उपयोग बहुत अधिक मात्रा में किया जा रहा है। शराब का सेवन तो जैसे फैशन ही बन गया है। हर जगह, हर पार्टी में शराब आम तौर पर सभी के लिए उपलब्ध कराई जाती है। जबकि शराब आदि का सेवन किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं है। नशा समाज और धर्म दोनों के लिए ही खतरनाक है। नशे में व्यक्ति का दिमाग पूरी तरह निष्क्रिय हो जाता है। उसे अच्छा-बुरा कुछ भी समझ नहीं आता। बुद्धि जैसे भ्रष्ट ही हो जाती है। नशे में व्यक्ति घिनौने कार्य कर बैठता है और नशा उतरने पर उसे पछतावा होता है। परंतु जो हो गया सो हो गया, फिर भी व्यक्ति नशा करना नहीं छोड़ता। नशे की वजह से रोजाना कई घर बरबाद हो जाते हैं। नशा करना धन, संस्कार और शरीर के लिए विष के समान है। इन्हीं कारणों से शराब आदि का सेवन धर्म शास्त्रों के अनुसार वर्जित किया गया है।

एक ही गौत्र में विवाह...?
आजकल एक ही गौत्र में विवाह के कई मामले सामने आ रहे हैं। यह एक सामाजिक और धार्मिक बहस का मुद्दा भी बन गया है। कुछ लोग इसके पक्ष में है वहीं एक वर्ग सगौत्र विवाह का गलत मान रहा है।
हमारी धार्मिक मान्यता के अनुसार एक ही गौत्र या एक ही कुल में विवाह करना पूर्णतया प्रतिबंधित किया गया है। यह प्रतिबंध इसलिए लगाया गया क्योंकि एक ही गौत्र या कुल में विवाह होने पर दंपत्ति की संतान अनुवांशिक दोष के साथ उत्पन्न होती है। ऐसे दंपत्तियों की संतान में एक सी विचारधारा, पसंद, व्यवहार आदि में कोई नयापन नहीं होता। ऐसे बच्चों में रचनात्मकता का अभाव होता है। विज्ञान द्वारा भी इस संबंध में यही बात कही गई है कि सगौत्र शादी करने पर अधिकांश ऐसे दंपत्ति की संतानों में अनुवांशिक दोष अर्थात् मानसिक विकलांगता, अपंगता, गंभीर रोग आदि जन्मजात ही पाए जाते हैं। शास्त्रों के अनुसार इन्हीं कारणों से सगौत्र विवाह पर प्रतिबंध लगाया था।

क्यो लगाते है, चन्दन तिलक?
पूजन में तिलक लगाने का बड़ा महत्व है। पूजन के अलावा रोजाना तिलक लगाना हमारे लिए लाभकारी है। आइए जानते हैं, कैसे?स्नान के बाद देवी-देवताओं की प्रतिमा को चंदन समर्पित किया जाता है। पूजन करने वाला भी अपने मस्तक पर चंदन का तिलक लगाता है। यह सुगंधित होता है तथा इसका गुण शीतलता देने वाला होता है। भगवान को चंदन अर्पण करने का भाव यह है कि हमारा जीवन आपकी कृपा से सुगंध से भर जाए तथा हमारा व्यवहार शीतल रहे यानी हम ठंडे दिमाग से काम करे। अक्सर उत्तेजना में काम बिगड़ता है। चंदन लगाने से उत्तेजना काबू में आती है। स्त्रियों को मस्तक पर कस्तूरी का तिलक या बिंदी लगाना चाहिए। गणेशजी, हनुमानजी, माताजी या अन्य मुर्तियों से सिंदूर निकालकर ललाट पर नही लगाना चाहिए। सिंदूर उष्ण होता है।
चंदन का तिलक ललाट पर या छोटी सी बिंदी के रूप में दोनों भौहों के मध्य लगाया जाता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से चंदन का तिलक लगाने से दिमाग में शांति, तरावट एवं शीतलता बनी रहती है। मस्तिष्क में सेराटोनिन व बीटाएंडोरफिन नामक रसायनों का संतुलन होता है। मेघाशक्ति बढ़ती है तथा मानसिक थकावट विकार नहीं होता।

ऐसे पाएं श्रीगणेश की कृपा...
हर मांगलिक कार्य में प्रथम पूज्य श्री गणेश जल्द ही प्रसन्न होने वाले देवता है। श्री गणेश की पूजन पद्धति के अनेक विधि विधान हैं। गणेशजी को सर्वाधिक प्रिय दूर्वा चढ़ाने से वे शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं और भक्त को मनोवांछित फल प्रदान करते हैं। ज्यादा विधि विधान के बिना भी दूर्वा आसानी से चढ़ाई जा सकती है। श्री गणेश की यह सरलतम पूजा है। 21 दूर्वा लेकर श्री गणेशाय नम: इस मंत्र जाप करकेदूर्वा को श्री गणेश की मूर्ति पर चढ़ावें। साथ ही अक्षत, पुष्प, गंध, धूप, दीप और प्रसाद अर्पित करें। इस तरह प्रतिदिन पूजा करने पर कुछ ही दिनों में आपको श्री गणेश की कृपा प्राप्त हो जाएगी।

श्री गणेश मंत्र
श्री गणेशाय नम:

श्री एकदंताय नम:

श्री विनायकाय नम:

श्री गणाधिपाय नम:

श्री इभवक्त्राय नम:

श्री उमापुत्राय नम:

श्री सर्वसिद्धिप्रदाय नम:

श्री विघ्ननाशनाय नम:

श्री कुमारगुरवे नम:

श्री ईशपुत्राय नम:

श्री मूषकवाहनाय नम:

क्या-क्या प्रिय है गणपति को...
- हर मांगलिक कार्य की शुरुआत श्री गणेश के नाम से ही होती है।

- गणेशजी को दूर्वा सर्वाधिक प्रिय है।

- श्री गणेश को लाल व सिंदूरी रंग और इन्हीं रंगों के फूल अतिप्रिय है।

- पार्वती नंदन बहुत अच्छे लेखक हैं।

- मूषक (चूहा) श्री गणेश वाहन है।

- बहुत जल्द प्रसन्न होकर भक्तों के कष्टों को दूर करने के लिए प्रसिद्ध हैं।

- दाम्पत्य जीवन को सुखी बनाने के लिए श्रीगणेश का पूजन करना चाहिए क्योंकि गणेशजी गृहस्थाश्रम के आर्दश भगवान है।

- स्वस्तिक इनका मंगल चिन्ह श्री गणेश का प्रतीक स्वरूप हैं।

- चतुर्थी के दिन श्री गणेश पूजन का विशेष पुण्य प्राप्त होता है।


क्यो चढ़ाते है, दूर्वा गणेश को?
दूर्वा यानि दूब यह एक तरह की घास है जो पूजन में प्रयोग होती है। एक मात्र गणेश ही ऐसे देव है जिनको यह चढ़ाई जाती है। दूर्वा से गणेश जी प्रसन्न होते हैं।
दूर्वा गणेशजी को अतिशय प्रिय है। इक्कीस दूर्वा को इक्कठी कर एक गांठ बनाई जाती है तथा कुल 21 गांठ गणेशजी को मस्तक पर चढ़ाई जाती है।
इस बारे में एक कथा प्रचलित है। ऋषि मुनि और देवता लोगों को एक राक्षस परेशान किया करता था। जिसका नाम था अनलासुर (अनल अर्र्थात् आग) देवताओं के अनुरोध पर गणेशजी ने उसे निगल लिया। इससे उनके पेट में तीव्र जलन हो गई तब कश्यप मुनि ने दूर्वा की 21 गांठ बनाकर उन्हें खिलाई जिससे यह जलन शांत हो गई।
दूर्वा एक औषधि है। इस कथा द्वारा हमे यह संदेश प्राप्त होता है की पेट की जलन, तथा पेट के रोगों के लिए दूर्वा औषधि का कार्य करती है। मानसिक शांति के लिए यह बहुत लाभप्रद है। यह विभिन्न बीमारियों में एंटिबायोटिक का काम करती है, उसको देखने और छूने से मानसिक शांति मिलती है और जलन शांत होती है।
वैज्ञानिको ने अपने शोध में पाया है कि कैंसर रोगियों के लिए भी यह लाभप्रद है।

दुर्योधन की पूजा...?
श्रीकृष्ण द्रोही महाभारत युद्ध के कारण दुर्योधन को सामान्यत: बुराई का प्रतिक माना जाता है। सभी दुर्योधन को बुरा ही कहते हैं परंतु कुछ लोगों की आस्था का केंद्र है दुर्योधन। वे दुर्योधन को भगवान के समान मानते हैं और उसकी पूजा करते हैं। उन लोगों के लिए सभी देवताओं के पहले दुर्योधन की प्रमुख देवता है।
केरल के एक जिले कोल्लम दुर्योधन के भक्त हैं जो सभी देवताओं से पहले दुर्योधन की पूजा करते हैं। उसके बाद वहां श्रीगणेश आदि देवताओं को पूजा जाता है।
एक अन्य स्थान है जहां दुर्योधन आराध्य देव है। यह स्थान उत्तराखंड में स्थित है। वहां एक क्षेत्र है हर की दून, जहां के गांव वाले दुर्योधन की पूजा करते हैं। उन लोगों का मानना है कि दुर्योधन ही उनकी सारी मुसीबतों और इच्छाओं की पूर्ति करते हैं।
उत्तरांचल के कुछ गांव ऐसे हैं जहां पांडवों का नाम लेना तक अनुचित समझा जाता है और दुर्योधन को भगवान माना जाता है।

शंख का पूजा में महत्व
हिंदू मान्यता के अनुसार कोई भी पूजा, हवन, यज्ञ आदि शंख के उपयोग के बिना पूर्ण नहीं माना जाता है। धार्मिक शास्त्रों के अनुसार शंख बजाने से भूत-प्रेत, अज्ञान, रोग, दुराचार, पाप, दुषित विचार और गरीबी का नाश होता है। शंख बजाने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। महाभारत काल में श्रीकृष्ण द्वारा कई बार अपना पंचजन्य शंख बजाया गया था।
आधुनिक विज्ञान के अनुसार शंख बजाने से हमारे फेफड़ों का व्यायाम होता है, श्वास संबंधी रोगों से लडऩे की शक्ति मिलती है। पूजा के समय शंख में भरकर रखे गए जल को सभी पर छिड़का जाता है जिससे शंख के जल में कीटाणुओं को नष्ट करने की अद्भूत शक्ति होती है। साथ ही शंख में रखा पानी पीना स्वास्थ्य और हमारी हड्डियों, दांतों के लिए बहुत लाभदायक है। शंख में कैल्शियम, फास्फोरस और गंधक के गुण होते हैं जो उसमें रखे जल में आ जाते हैं।

खंडित मूर्ति की पूजा क्यों नहीं करते?
ईश्वर की भक्ति में भगवान की मूर्ति का अत्यधिक महत्व है। प्रभु की मूर्ति देखते ही भक्त के मन में श्रद्धा और भक्ति के भाव स्वत: ही उत्पन्न हो जाते हैं। शास्त्रों के अनुसार भगवान की प्रतिमा पूर्ण होना चाहिए कहीं से खंडित होने पर प्रतिमा पूजा योग्य नहीं मानी गई है। खंडित मूर्ति की पूजा को अपशकुन माना गया है। प्रतिमा की पूजा करते समय भक्त का पूर्ण ध्यान भगवान और उनके स्वरूप की ओर ही होता है। अत: ऐसे में यदि प्रतिमा खंडित होगी तो भक्त का सारा ध्यान उस मूर्ति के उस खंडित हिस्से पर चले जाएगा और वह पूजा में मन नहीं लगा सकेगा। जब पूजा में मन नहीं लगेगा तो व्यक्ति की भगवान की ठीक से भक्ति नहीं कर सकेगा और वह अपने आराध्य देव से दूर होता जाएगा। इसी बात को समझते हुए प्राचीन काल से ही ऋषि-मुनियों ने खंडित मूर्ति की पूजा को अपशकुन बताते हुए उसकी पूजा निष्फल ठहराई गई है।

रात में क्यों नहीं करते घर की सफाई?
महिलाएं रोज ही अपने घर की साफ-सफाई करती हैं, झाड़ू-पौछा करती हैं। सामान्यत: सभी के घरों में सुबह-सुबह ही नहाने से पूर्व ही साफ-सफाई का कार्य कर लिया जाता है। सभी धर्म शास्त्रों के अनुसार शाम या रात्रि के समय घर की साफ-सफाई निषेध की गई है। इसकी वजह यह है कि घर के कचरे में बीमारी फैलाने वाले कीटाणु रहते हैं जो सफाई के समय हमारे शरीर पर चिपक जाते हैं, यह कीटाणु स्वास्थ्य के हानिकारक होते हैं। सुबह सफाई करने के बाद घर के सभी सदस्य नहा लेते हैं जिससे शरीर पर लगे बीमारी के कीटाणु धुल जाते हैं और उन कीटाणुओं से बीमार होने की संभावना समाप्त हो जाती है। परंतु यदि रात्रि के समय सफाई करेंगे तो वह सारे कीटाणु घर के सदस्यों के शरीर पर चिपक जाएंगे। रात्रि के समय सभी सदस्य नहाते भी नहीं है ऐसे में उन कीटाणुओं से हमारे स्वास्थ्य को खतरा रहता है। तो उस खतरे से हमें बचाने के लिए रात्रि के समय साफ-सफाई निषेध की गई है।

शव को जलाते क्यों हैं?
सनातन धर्म में किसी की मृत्यु के उपरांत उसके शव को जलाने का विधान है। शरीर से प्राण निकलने के पश्चात बहुत जल्द ही मानव शरीर सडऩे लगता है, शरीर में कीड़े पडऩा शुरू हो जाते हैं। ऐसे में शरीर से दुर्गंध आना भी शुरू हो जाती है। जो कि जीवित मनुष्य के लिए स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत अधिक हानिकारक है। इसी वजह से मृत शरीर को जल्द से जल्द जलाने की प्रथा लागू की गई है। परंतु शव को जलाया ही क्यों जाता है? इस संबंध में धर्म शास्त्र के अनुसार जलाने से मृत शरीर से उत्पन्न होने वाले सभी संक्रामक कीटाणु, दुर्गंध आदि शत-प्रतिशत नष्ट हो जाते हैं। साथ ही जलाने से ऐसा भी माना जाता है कि पंचभूतों (अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश) से बना शरीर उसी में विलीन हो जाता है।

घर में तुलसी का पौधा क्यों जरूरी?
अधिकांश हिंदू घरों में तुलसी का पौधा अवश्य ही होता है। तुलसी घर में लगाने की प्रथा हजारों साल पुरानी है। तुलसी को दैवी का रूप माना जाता है। साथ ही मान्यता है कि तुलसी का पौधा घर में होने से घर वालों को बुरी नजर प्रभावित नहीं कर पाती और अन्य बुराइयां भी घर और घरवालों से दूर ही रहती है।
यह तो है तुलसी का धार्मिक महत्व, परंतु विज्ञान के दृष्टिकोण से तुलसी एक औषधि है। आयुर्वेद में तुलसी को संजीवनी बुटि के समान माना जाता है। तुलसी में कई ऐसे गुण होते हैं जो बड़ी-बड़ी जटिल बीमारियों को दूर करने और उनकी रोकथाम करने में सहायक है। तुलसी का पौधा घर में रहने से उसकी सुगंध वातावरण को पवित्र बनाती है और हवा में मौजूद बीमारी के बैक्टेरिया आदि को नष्ट कर देती है। तुलसी की सुंगध हमें श्वास संबंधी कई रोगों से बचाती है। साथ ही तुलसी की एक पत्नी रोज सेवन करने से हमें कभी बुखार नहीं आएगा और इस तरह के सभी रोग हमसे सदा दूर रहते हैं। तुलसी की पत्नी खाने से हमारे शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता काफी बढ़ जाती है।

शिशु के लिए मां दूध अमृत समान क्यों?
मां की ममता के कई रूप हैं। मां बच्चे को अपने आंचल की छांव से दुनिया के सभी दुखों से बचाने का प्रयास करती है। नवजात शिशु जब खुद कुछ समझ भी नहीं पाता उस समय मां ही उसकी भावनाओं को समझती है।
नवजात शिशु बहुत ही नाजुक होता है उस पर वातावरण का बुरा प्रभाव जल्द ही हो जाता है। शिशु में रोगों से लडऩे की शक्ति बिल्कुल नहीं होती, ऐसे में मां का दूध ही उसे रोग प्रतिरोधी क्षमता प्रदान करता है। मां का प्रारंभिक दूध शिशु के लिए अमृत के समान होता है, जो उसे कई बड़ी बीमारियों से जीवनभर बचाता है। मां के दूध में कई ऐसे तत्व होते हैं जो शिशु के विकास में शतप्रतिशत सहायक होते हैं। डॉक्टरों द्वारा भी मां के दूध को नवजात शिशु के लिए अमृत बताया गया है। जिन बच्चों को मां का दूध नहीं मिलता उनमें कई बीमारियां पनप जाती है। उनका बौद्धिक विकास बहुत धीमा होता है। ऐसे बच्चों में जीवनभर रोगों से लडऩे की क्षमता में कमी रहती है।साथ ही भावनात्मक रूप से देखा जाए तो जो माताएं अपने शिशुओं को स्तनपान कराती है उनका उस बच्चे के प्रति ममत्व बहुत अधिक रहता है, वहीं बच्चे का स्नेह भी मां के प्रति बहुत बढ़ जाता है। स्तनपान से शिशु में मां के संस्कार, गुण और विशेषताएं स्वत: पहुंच जाते हैं।

छोटे बच्चे के हाथ में धातु के कड़े क्यों?
नवजात शिशुओं के हाथों में धातु के कड़े पहनाए जाते हैं। सभी माता-पिता अपने नौनिहालों के हाथों में यथा शक्ति धातु के कड़े अवश्य पहनाते हैं। यह परंपरा प्राचीन काल से ही चली आ रही है। इस प्रथा की वजह शिशु का स्वास्थ्य है। धातु के कड़े पहनने से शिशु के हाथों में कड़े से बार-बार घर्षण होता है जो शिशु को लौह तत्व की पूर्ति करता है। साथ ही कड़े के घर्षण से कलाई की हड्डियां मजबूत होती है। शिशु के दांत आने में भी उसे ज्यादा परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ता है।

घर के पूजन कक्ष में क्या-क्या न रखें?
सभी के घरों में भगवान के लिए भी यथाशक्ति अलग घर या मंदिर अवश्य होता है। मंदिर में अपने इष्ट देव की मूर्ति, तस्वीर, पूजा का अन्य सामान रखा जाता है। परंतु शास्त्रों में भगवान की मूर्तियों की संख्या के संबंध में कुछ विशेष बातें बताई गई हैं जैसे-
- घर के मंदिर में श्री गणेश की 3 प्रतिमाएं नहीं होना चाहिए।
- मंदिर में दो शिवलिंग नहीं होना चाहिए तथा शिवलिंग अंगूठे के आकार का होना चाहिए।
- देवी या माताजी की 3 प्रतिमाएं नहीं रखें।
- सूर्य देव की 2 प्रतिमा नहीं रखना चाहिए।
- मंदिर में पूजा के उपयोग हेतु शंख भी रखा जाता है। शंख की संख्या भी 2 नहीं होना चाहिए।
- कुछ लोग मंदिर में विभिन्न यंत्र, चक्र आदि भी रखते हैं। जैसे गोमती चक्र, लक्ष्मी यंत्र, रुद्र यंत्र इत्यादि। गोमती चक्र अधिकांश लोगों के मंदिर में रखा जाता है। गोमती चक्र की संख्या भी 2 नहीं होना चाहिए।

तिलक कैसे-कैसे?
तिलक हिंदू संस्कृति में एक पहचान चिन्ह का काम करता है। तिलक केवल धार्मिक मान्यता नहीं है बल्कि कई वैज्ञानिक कारण भी हैं इसके पीछे। तिलक केवल एक तरह से नहीं लगाया जाता। हिंदू धर्म में जितने संतों के मत हैं, जितने पंथ है, संप्रदाय हैं उन सबके अपने अलग-अलग तिलक होते हैं। आइए जानते हैं कितनी तरह के होते हैं तिलक। सनातन धर्म में शैव, शाक्त, वैष्णव और अन्य मतों के अलग-अलग तिलक होते हैं।
शैव- शैव परंपरा में ललाट पर चंदन की आड़ी रेखा या त्रिपुंड लगाया जाता है।
शाक्त- शाक्त सिंदूर का तिलक लगाते हैं। सिंदूर उग्रता का प्रतीक है। यह साधक की शक्ति या तेज बढ़ाने में सहायक माना जाता है।
वैष्णव- वैष्णव परंपरा में चौंसठ प्रकार के तिलक बताए गए हैं। इनमें प्रमुख हैं-
लालश्री तिलक-इसमें आसपास चंदन की व बीच में कुंकुम या हल्दी की खड़ी रेखा बनी होती है।
विष्णुस्वामी तिलक- यह तिलक माथे पर दो चौड़ी खड़ी रेखाओं से बनता है। यह तिलक संकरा होते हुए भोहों के बीच तक आता है।
रामानंद तिलक- विष्णुस्वामी तिलक के बीच में कुंकुम से खड़ी रेखा देने से रामानंदी तिलक बनता है।
श्यामश्री तिलक- इसे कृष्ण उपासक वैष्णव लगाते हैं। इसमें आसपास गोपीचंदन की तथा बीच में काले रंग की मोटी खड़ी रेखा होती है।
अन्य तिलक-
गाणपत्य, तांत्रिक, कापालिक आदि के भिन्न तिलक होते हैं। साधु व संन्यासी भस्म का तिलक लगाते हैं।

पूजा में क्यों वर्जित हैं लोहा, एल्युमीनियम
भारतीय पूजा पद्धति में धातुओं के बर्तन का बड़ा महत्व है। हर तरह की धातु अलग फल देती है और उसका अलग वैज्ञानिक कारण भी है। सोना, चांदी, पीतल, तांबा सभी धातुओं का अपना-अपना महत्व होता है। पूजा पद्धति में लोहा और एल्युमीनियम को वर्जित माना गया है।
लोहा, स्टील और एल्यूमीनियम को अपवित्र धातु माना गया है तथा पूजा और धार्मिक क्रियाकलापों में इन धातुओं के बर्तनों के उपयोग की मनाही की गई है। इन धातुओं की मूर्तियां भी नहीं बनाई जाती। लोहे में हवा पानी से जंग लगता है। एल्यूमीनियम से भी कालिख निकलती है। इसलिए इन्हें अपवित्र कहा गया है। जंग आदि शरीर में जाने पर घातक बीमारियों को जन्म देते हैं। इसलिए लोहा, एल्युमीनियम और स्टील को पूजा में निषेध माना गया है।

क्यों रखते हैं भगवान के भोग में तुलसी
भगवान को भोग लगे और तुलसी दल न हो तो भोग अधूरा ही माना जाता है। तुलसी को परंपरा से भोग में रखा जाता है। कारण तुलसी दल का औषधीय गुण है। एकमात्र तुलसी में यह खूबी है कि इसका पत्ता रोगप्रतिरोधक होता है। यानि कि एंटीबायोटिक। संभवत: भोग में तुलसी को अनिवार्य किया गया कि इस बहाने ही सही लोग दिन में कम से कम एक पत्ता ग्रहण करें ताकि उनका स्वास्थ्य ठीक रहे। इस तरह तुलसी स्वास्थ्य देने वाली है।
तुलसी का पौधा मलेरिया के कीटाणु नष्ट करता है। नई खोज से पता चला है इसमें कीनोल, एस्कार्बिक एसिड, केरोटिन और एल्केलाइड होते हैं। तुलसी पत्र मिला हुआ पानी पीने से कई रोग दूर हो जाते हैं। इसीलिए चरणामृत में तुलसी का पत्ता डाला जाता है। तुलसी के स्पर्श से भी रोग दूर होते हैं।
तुलसी पर किए गए प्रयोगों से सिद्ध हुआ है कि रक्तचाप और पाचनतंत्र के नियमन में तथा मानसिक रोगों में यह लाभकारी है। इससे रक्तकणों की वृद्धि होती है। तुलसी ब्रrाचर्य की रक्षा करने एवं यह त्रिदोषनाशक है। रक्तविकार, वायु, खांसी, कृमि आदि की निवारक है तथा हृदय के लिए हितकारी है।

वेदों का अध्ययन क्यों जरूरी
आजकल की शिक्षा पद्धति विद्यार्थियों को शिक्षित जरूर बना सकती है परंतु जीवन का वास्तविक ज्ञान नहीं दे सकती। इसी वजह से हम कई बार जीवन में हताश और निराश हो जाते हैं। जबकि वेदों में जीवन की हर समस्या के समाधान मौजूद हैं। जिनका ज्ञान होने के बाद मनुष्य को जीवनभर कोई परेशानी या निराशा नहीं हो सकती है। सुख-दुख की वास्तविक परिभाषा का ज्ञान वेदों के अध्ययन के बाद ही प्राप्त हो सकता है। वेदों में चारों फल धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष संबंधी सभी सूत्र मौजूद हैं। अत: वेदों के अध्ययन से मनुष्य को हर क्षेत्र में उन्नति और सुख की प्राप्ति स्वत: ही हो जाती है। साथ ही वेदों को पढऩे का धार्मिक महत्व भी है। वेदों को पढऩे से जो पुण्य प्राप्त होता है वह अक्षय होता है और हमारे कई जन्मों के पापों के फल को नष्ट कर देने वाला होता है। इन कारणों से वेदों के अध्ययन को अनिवार्य बताया गया है।

क्यों चुराते की दूल्हे के जूते...
शादी... विवाह... में सिर्फ दूल्हा-दुल्हन ही नहीं बल्कि दोनों के परिवार का हर सदस्य उत्साह और उमंग के साथ खुशियां मनाता है। एक ओर जहां शादी के कई पारंपरिक रीति-रिवाज जुड़े हैं, वहीं आधुनिक शादियों में दूल्हे के जूते चूराने की भी एक परंपरा देखने में आती है। इस परंपरा का उद्देश्य होता है कि दोनों परिवारों के मध्य आपसी प्रेम बना रहे और समारोह में थोड़ी हंसी-मस्ती का माहौल बन जाए। इस परंपरा में दूल्हे के जूते दुल्हन की बहनें और सहेलियां चुरा लेती हैं। जूते लौटाने पर बदले दूल्हे को उन्हें रुपए देने होते हैं। इस प्रथा एक खेल की तरह ही है। इसके लिए दुल्हन की बहनें और सहेलियां पूरी कोशिश करती हैं कि किसी भी तरह दूल्हे के जूते हाथ आ जाए और दूल्हे के भाई और दोस्त यह कोशिश करते हैं कि दूल्हे के जूते चोरी ना हो सके। यह दोनों ही परिवार की प्रतिष्ठा का मुद्दा भी होता है।

दूल्हा-दुल्हन क्यों पहनाते हैं वरमाला?
विवाह तब तक पूरा नहीं माना जाता जब तक वर-वधू एक दूसरे को वरमाला ना पहना दे। वरमाला प्रतीक है दो आत्माओं के मिलन का। जब श्रीराम ने सीता स्वयंवर में धनुष तोड़ा, तब सीता ने उन्हें वरमाला पहना कर पति रूप में स्वीकार किया। इसी तरह वरमाल के संबंध में कई प्रसंग हमारे धर्म ग्रंथों में भी दिए गए हैं। वरमाला फूलों और धागे से बनती है। फूल प्रतिक हैं खुशी, उत्साह, उमंग और सौंदर्य का, वहीं धागा इन सभी भावनाओं को सहेज कर रखने वाला माध्यम है। जिस तरह फूलों के मुरझाने पर भी धागा उन फूलों का साथ नहीं छोड़ता उसी तरह वरमाला नव दंपत्ति को भी यही संदेश देते हैं कि जैसे अच्छे समय में हम साथ-साथ रहे वैसे ही बुरे समय में भी एक-दूसरे के साथ कदम से कदम मिलाकर चले, किसी एक को अकेला ना छोड़े।

क्यों करते हैं अन्नदान
अन्न यानी भोजन जीवन का आधार होने से ब्रह्म कहा गया है। अन्नदान न सिर्फ भूख शांत करता है। अन्न यज्ञ की आहुति के समान जब भूखे व्यक्ति के मुख में जाता है तो उससे प्राप्त होने वाली संतुष्टिï उसके रोम-रोम से फूटकर ऐसे दान करने वाले को आशीर्वाद देती है।
अन्नदान सामाजिक सरोकार प्रदर्शित करता है। भारतीय संस्कृति में अन्न को पवित्रता का स्थान दिया है। हमारे यहां युद्ध के दौरान शत्रु पक्ष को हानि पहुंचाने के लिए खेत-खलिहान जलाने, जंगल, वृक्ष काटने को निषेध रहा है। यह अन्न के प्रति सम्मान का सूचक है। अन्न को उत्पन्न करने वाला कृषक अन्नदाता कहलाता है।
सनातन संस्कृति भूखे को अन्न और प्यासे को जल देने का संदेश देती है, यही मानव का स्वधर्म है।

क्यों करते हैं हवन
भगवान की आराधना की कई विधियां हैं। सभी भक्त अपनी श्रद्धानुसार भगवान को प्रसन्न करने की चेष्टा करते हैं। इन्हीं विधियों में से एक है हवन। हवन अर्थात् देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना। इसे अग्रिहोत्र भी कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि हवन से देवता प्रसन्न होते हैं। हवन के अंतर्गत कुंड में प्रज्जवलित अग्नि में आहूति दी जाती है। यह आहूति तुरंत ही देवताओं को प्राप्त हो जाती है। अत: हवन का विशेष महत्व माना गया है।
देवताओं की पूजा करने के लिए हवन क्यों किया जाए? यह जिज्ञासा सहज ही उठती है। वास्तव में देवता सूक्ष्म शरीरवाले होते हैं अर्थात् वे दिखाई नहीं देते। अग्नि में हवन किए गए द्रव्य की गंध उनको प्राप्त होती है। वे इसी से तुरंत ही संतुष्टï होते हैं। इसीलिए स्वाहा बोलते हुए यज्ञ की पवित्र अग्रि में देवताओं को आहुतियां दी जाती हैं। देवताओं की प्रसन्नता से हवन करने वाले भक्तों की सारी मनोकामनाएं स्वत: ही पूर्ण हो जाती हैं और देवताओं की कृपा के साथ ही अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।
ऐसा नहीं है कि हवन का सिर्फ धार्मिक महत्व है, इसका वैज्ञानिक महत्व भी है। हवन से ही वातावरण शुद्ध होता है, वर्षा भी इसी से होती है। वर्षा से ही हमें जल, अन्नादि प्राप्त होता है। चूंकि हवन में कई औषधिय गुण वाली सामग्री प्रयुक्त की जाती है, जिससे हवन के धुएं में कई औषधिय गुण आ जाते हैं जिनसे वातावरण में मौजूद विषेले कीटाणु नष्ट हो जाते हैं साथ ही हमारी त्वचा की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।

क्यों बनाते हैं स्वस्तिक?
किसी भी धार्मिक कार्यक्रम में या सामान्यत: किसी भी पूजा-अर्चना में हम दीवार, थाली या जमीन पर स्वस्तिक का निशान बनाकर स्वस्ति वाचन करते हैं। किसी भी पूजन कार्य का शुभारंभ बिना स्वस्तिक को बनाए नहीं किया जाता। स्वस्तिक श्री गणेश का प्रतीक चिन्ह है। चूंकि शास्त्रों के अनुसार श्री गणेश प्रथम पूजनीय हैं, अत: स्वस्तिक का पूजन करने का अर्थ यही है कि हम श्रीगणेश का पूजन कर उनसे विनती करते हैं कि हमारा पूजन कार्य सफल हो।
साथ ही स्वस्तिक धनात्मक ऊर्जा का भी प्रतीक है, इसे बनाने से हमारे आसपास से नकारात्मक ऊर्जा दूर हो जाती है। स्वस्तिक का चिन्ह वास्तु के अनुसार भी कार्य करता है, इसे घर के बाहर भी बनाया जाता है जिससे स्वस्तिक के प्रभाव से हमारे घर पर किसी की बुरी नजर नहीं लगती और घर में सकारात्मक वातावरण बना रहता है।

पान क्यों चढ़ाते हैं पूजन में?
हिंदू धर्म के पूजन विधान में देवता को पान चढ़ाने का भी महत्व है। पान को तांबुल भी कहते है।
यह महत्वपूर्ण पूजन सामग्री है। भगवान के पूजन के दौरान प्रसाद अर्पित किया जाता है, तथा फिर फल उन्हें समर्पित किया जाता है। फल के बाद तांबुल समर्पित किया जाता है।
पान, मुख शुद्धि के साथ भोजन को पचाने में भी सहायक होता है। यह कई रोगों की रोकथाम में प्रयुक्त किया जाता है। अत: इसका पूजन सामग्री में प्रयोग होता है।
पान खिलाकर हम अतिथि का सत्कार करते हैं। भोजन के बाद पान खिलाकर हम मेहमानवाजी की पूर्णता प्रदान करते हैं। मांगलिक कार्यों में पान का प्रयोग अनिवार्य होता है।
पान में औषधिय गुण है। पान, तीक्ष्ण, कसैला, चटपटा, वातनाशक, भूख बढ़ाने वाला होता है। सर्दी-जुकाम, पेट दर्द की बीमारियां, गठान, सूजन पान का पत्ता लाभकारी होता है।
पान में उपयोग होने वाला चूना हमारे शरीर की हड्डियों के लिए उपयोगी होता हैं। पान पाचन शक्ति को बढ़ाने वाला होता हैं।

शमशान से आकर नहाना आवश्यक क्यों ?
शवयात्रा में जाना और मृत शरीर को कंधा देना लगभग सभी धर्मों में बड़े ही पुण्य का कार्य माना गया है। धर्म शास्त्रों का कहना है कि शवयात्रा में शामिल होने और अंतिम संस्कार के मौके पर उपस्थित रहने से, इंसान को वैराग्य रूपी सर्वश्रेष्ठ ज्ञान और परम फल की प्राप्ति होती है। इस मौके पर उपस्थित रहना यानि काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद औरअंहकार जैसे मनोविकारों से कुछ समय के लिये छुटकारा पा लेना है।
पर जब शमशान जाने के इतने सारे सांसारिक और आध्यात्कि लाभ हैं, तो वहां से आकर तुरंत नहाने की जरूरत क्या है? नहाया तो जब जाता है जब हम अशुद्ध हो जाते हैं। फिर पुण्य का कार्य करके तुरंत नहाने की क्या आवश्यकता है? सतही दृष्टि से सोचने पर यहां विरोधाभास नजर आता है, किन्तु समाधान पाने के लिये गहराई में उतरने की आवश्यकता है। शव का अंतिम संस्कार होने से पूर्व ही वह वातावरण में उपस्थित सूक्ष्म एवं संक्रामक कीटाणुओं से ग्रसित हो जाता है। इसके अतिरिक्त स्वयं मृत व्यक्ति भी किसी संक्रामक रोग से ग्रसित हो सकता है। अत: वहां पर उपस्थित इंसानों पर किसी संक्रामक रोग का असर होने की संभावना रहती है। जबकि पानी से नहा लेने से संक्रामक कीटाणु आदि पानी के साथ ही बह जाते हैं।
इसके साथ ही एक अन्य कारण भी तंत्र-शास्त्रों में बताया जाता है। शमशान भूमि पर लगातार ऐसा ही कार्य होते रहने से एक प्रकार की नकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह बन जाता है जो कमजोर मनोबल के इंसान को हानि पहुंचा सकता है। क्योंकि स्त्रियां अपेक्षाकृत पुरुषों के, कमजोर ह्रदय की होती हैं, इसलिये उन्हैं शमशान भूमि जाने से रोका जाता है। दाह संस्कार के पश्चात भी मृतआत्मा का सूक्ष्म शरीर कुछ समय तक वहां उपस्थित होता है, जो अपनी प्रकृति के अनुसार कोई हानिकारक प्रभाव भी डाल सकता है।

भगवान को अगरबत्ती क्यों लगाते हैं?
अधिकांश लोग रोजाना विधि-विधान से भगवान की पूजा भले ना करें परंतु ईश्वर के सामने अगरबत्ती अवश्य लगाते हैं। भगवान को अगरबत्ती लगाना भी एक सामान्य व कम समय की पूजा ही है। अगरबत्ती लगाने का धार्मिक महत्व यही है कि ईश्वर को याद करना और उनकी आराधना करना परंतु इसका कुछ और महत्व भी है। अगरबत्ती का सुगंधित धुआं घर के वातावरण को भी महका देता है। पुराने समय में अगरबत्ती कई औषधियां को मिलाकर बनाई जाती थी। अगरबत्ती जलाने पर जो धुआं होता है वह उन औषधियों के गुण लिए होता है, जिससे घर में फैले सूक्ष्म कीटाणु धुएं के प्रभाव से नष्ट हो जाए या घर से बाहर निकल जाए, ताकि वे कीटाणु हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित ना कर सके।

माला जपने से क्या फायदा ?
जप किसी शब्द अथवा मंत्र को दोहराने की क्रिया ही नहीं है। यह पूजा-पाठ की परंपरा का हिस्सा है तो विज्ञान भी। जब हम किसी शब्द को बार-बार दोहराते हैं तो उसे जप करना कहते हैं। पूजा पद्धति में जप के माध्यम से ईश्वर के स्वरूप पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। राम, कृष्ण, शिव, दुर्गा, हनुमान आदि देवताओं के जप की परंपरा मिलती है। जप के माध्यम से भीतरी शक्ति को जागृत किया जा सकता है। आइए, जानें जप से किस तरह हम नई ऊर्जा से भर सकते हैं...।

जप के प्रकार-जप करने के तीन तरीके हैं-
वाचिक- जब किसी शब्द या मंत्र को आवाज के साथ दोहराया जाता है।
उपांशु- मुंह से आवाज नहीं निकालते हुए जीभ (जुबान) से शब्द को दोहराना।
मानसिक- केवल मन ही मन किसी शब्द या मंत्र को दोहराना।

जप के फायदे - जप करने से हमारे अंदर सोई हुई आध्यात्मिक शक्ति जागती है। जिससे पूजा में होने वाली अनुभूति को अधिक निकटता से अनुभव किया जा सकता है। ईश्वर की अनुभूति के नजदीक पहुंचने के लिए सभी धर्मों-संप्रदायों में जप का तरीका अपनाया गया है। चैतन्य महाप्रभु ने जप को काफी महत्व दिया। श्री रामकृष्ण परमहंस के अनुसार एकाग्र होकर प्रभुनाम का जप करने से उनके रूप के दर्शन और साक्षात्कार भी होता है। वैज्ञानिक दृष्टिï से भी जप के प्रभाव सिद्ध पाए गए हैं। सामान्यत: कठिन परिस्थितियों में हम अचानक भगवान का नाम लेने लगते हैं जिससे हममें कुछ शक्ति आती है, कुछ राहत मिलती है, एक अनजानी सुरक्षा की भावना उपजती है। जब अचानक शुरू हुए जप का इतना प्रभाव होता है तो नियमित जप की शक्ति का अनुमान लगाया जा सकता है।

पछतावा क्यों जरूरी...?
पछतावा या प्रायश्चित का मतलब है हमारे द्वारा कोई गलती, त्रुटि या किसी का अहित हो जाने पर उसके बुरे फल या प्रभाव से बचने के लिए कोई उपाय करना। प्राचीनकाल से ही प्रायश्चित करने की परंपरा चली आ रही है।
सामान्य जीवन ही नहीं धार्मिक कार्यों, जैसे पूजा, हवन-यज्ञादि में भी प्रायश्चित का विधान है। कई बार हमसे जाने-अनजाने किसी का अहित हो जाता है और जब हमें वह हमारी गलती का अहसास होता है, उस समय हमारे पास पछतावा या प्रायश्चित करने के अलावा अन्य कोई रास्ता नहीं होता। प्रायश्चित के भी कई तरीके हैं जैसे- सामान्य रूप से की गई गलती के लिए मॉफी मांग ली जाए। या हमारी त्रुटि की वजह से किसी को हुई आर्थिक हानि की भरपाई कर दी जाए। कई बार हम अन्य लोगों को मानसिक और शारीरिक रूप से भी दुख पहुंचा देते हैं, जिसकी भरपाई करना असंभव होता है। ऐसे में प्रायश्चित करना बहुत कठिन हो जाता है परंतु फिर भी हमें जो भी उचित प्रायश्चित हो वह अवश्य करना चाहिए।
इसी तरह धार्मिक पूजा-अर्चना के अंत में प्रायश्चित अवश्य ही किया जाता है। उस प्रायश्चित का मतलब यही होता है कि पूरे पूजन कार्यक्रम में हमसे यदि जाने-अनजाने कोई त्रुटि हो गई हो या कोई चूक हो गई हो तो भगवान उसके लिए हमें क्षमा करें।


राधे-राधे के जप से क्यों प्रसन्न होते हैं श्रीकृष्ण
हिंदू धर्म के कई शास्त्रों के अनुसार राधा का नाम जपने से श्रीकृष्ण जल्द ही प्रसन्न हो जाते हैं। श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के बाद किसी भी व्यक्ति के लिए सुख-समृद्धि के सभी द्वार खुल जाते हैं। श्रीकृष्ण और राधा अपने अटूट निस्वार्थ प्रेम के कारण ही सच्चे प्रेम के प्रतीक माने गए हैं।
राधा नाम की महिमा के संबंध में एक प्रसंग है। देवर्षि नारद राधा की महिमा और ख्याति देखकर उससे ईष्र्या करने लगे थे। इसी ईष्र्या वश वे श्रीकृष्ण से राधा को दिए गए महत्व को जानने के लिए उनके पास पहुंचे। जब वे श्रीकृष्ण के पास पहुंचे तो श्रीकृष्ण ने नारदजी से कहा कि मेरे सिर में दर्द है। तब देवर्षि ने कहा प्रभु आप बताएं मैं क्या कर सकता हूं? जिससे आपका सिर दर्द शांत हो। श्रीकृष्ण ने कहा आप मेरे किसी भक्त का चरणामृत लाकर मुझे पिला दें। उसी चरणामृत से मुझे शांति मिलेगी।
नारदजी से सोच में पड़ गए कि भगवन् का भक्त तो मैं भी हूं, परंतु मेरे चरणों का जल श्रीकृष्ण को कैसे पिला सकता हूं? ऐसा करना तो घोर पाप है और इससे निश्चित ही मुझे नरक भोगना पड़ेगा। यह सोचते हुए वे देवी रुकमणी के पास पहुंचे और श्रीकृष्ण की वेदना कह सुनाई। रुकमणी ने भी देवर्षि नारद की बात का समर्थन किया और कहा कि प्रभु को अपने चरणों का जल पिलाना अवश्य की घोर पाप है।तब नारदजी ने सोचा राधा भी श्रीकृष्ण की भक्त है उसी से प्रभु का कष्ट दूर करने की बात करनी चाहिए। वे राधा के पास पहुंच गए और श्रीकृष्ण के सिर दर्द और उसके निवारण के लिए उनके भक्त के चरणामृत की बात कही। राधा ने तुरंत ही एक पात्र में जल भरा और उसमें अपने पैर डालकर वह पात्र नारदजी देते हुए कहा कि मैं जानती हूं ऐसा जल श्रीकृष्ण को पिलाना बहुत बड़ा पाप है और मुझे अवश्य ही नरक भोगना पड़ेगा परंतु मेरे प्रियतम के कष्ट को दूर करने के लिए मैं कुछ भी कर सकती हूं, नरक भी भोगना पड़ेगा तब भी मुझे खुशी ही प्राप्त होगी।यह सुनकर देवर्षि नारद की आंखे खुल गई कि देवी राधा परम पूजनीय है। वे प्रभु श्रीकृष्ण की सबसे बड़ी भक्त हैं। इसी वजह से भगवन् श्रीकृष्ण राधे-राधे के जप से तुरंत ही प्रसन्न हो जाते हैं। अब नारदजी भी राधे-राधे का जप करने लगे।

सूर्य को क्यों मानते हैं भगवान ?

विज्ञान पढ़ा लिखा मनुष्य आज बुद्धि और तर्क के आधार पर सोचता और निर्णय लेता है। विज्ञान सूर्य को धधकता हुआ गोला मानता है। जबकि धर्म-अध्यात्म में सूर्य के सूक्ष्म गुणों को देखते हुए उसे देवता या भगवान माना गया है। वैसे भी देवता का अर्थ भी देने वाला ही होता है। सूर्य जीवन का स्त्रोत है। सूर्य न हो तो चारों दिशाओं में अंधकार हो जाएगा। धूप के बिना वर्षा नहीं होगी। सूखी उजाड़ धरती रेगिस्तान बन जाएगी। वनस्पति, जीव-जंतु सब नष्ट हो जाएगा।
सूर्य से स्वास्थ्य- सूर्य की किरणों से हमें ऊर्जा, उत्साह और रोगों से लडऩे की शक्ति के साथ ही विटामिन भी मिलता है। सुबह सूर्य दर्शन के विधान से हम विटामिन-डी ले सकते हैं।
सूर्य और पृथ्वी- यूं तो पृथ्वी सूर्य का ही टुकड़ा है। सूर्य व पृथ्वी का अद्भुत संतुलन ही पृथ्वी पर जीवन का आधार बताया जाता है। यदि पृथ्वी सूर्य से नजदीक होती तब गर्मी से जीवन नहीं पनपता और दूर होने पर अत्यंत ठंड होती।
ज्योतिष और सूर्य- ज्योतिष शास्त्र में सूर्य एक प्रबलकारक ग्रह माना गया है। जन्म लग्न के वक्त सूर्य की शुभ स्थिति मनुष्य को विद्वान, पराक्रमी व तेजस्वी बनाती है।
सूर्य और मनुष्य- मनुष्य के लिए सूर्य प्रत्यक्ष देवता है। हमारे पूर्वजों ने सूर्य का महत्व समझकर ही उसे दैनिक पूजा-विधान का केंद्र बनाया था। संध्या, पूजन, गायत्री सूर्यावस्थान आदि इसके प्रमाण हैं। मानव शरीर में सूर्य का प्रथम स्थान हृदय का कहा गया है तथा द्वितीय स्थिति बौद्धिक चेतना की है, जिसमें सूर्य अपने निकटवर्ती ग्रह बुध को अपनी चेतनीय ऊर्जा प्रदान करता है तथा सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक दृष्टिकोण से सूर्य का अलग-अलग प्रभाव अलग-अलग राशियों पर पड़ता है तथा सूर्य अपनी उच्च राशि मेष में उत्तम फल प्रदान करते हैं, जिससे मनुष्य अतुल धन एवं ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति करता है तथा स्वयं की राशि सिंह में जब भी सूर्य का गोचर प्रवेश होता है अर्थात सिंह संक्रांति होती है तब यह सिंह राशि वाले जातकों पर विशेष कृपा करते हैं। राजनीतिक दृष्टि से व्यक्ति की, सत्ता की प्राप्ति का योग इसके उच्च आदि ग्रहों के साथ योग अथवा युति के आधार पर जाना जाता है।
मानव शरीर में सूर्य के प्रकाश का अपना महत्व है। पुराण में भी वर्णित है कि सूर्योपासना से आत्मविश्वास की प्राप्ति, यश, संपत्ति, समृद्धि आदि की प्राप्ति होती है तथा वर्तमान चिकित्सकीय पद्धति के आधार पर त्वचा एवं हड्डी पर सूर्य का आधिपत्य होता है। इसकी राशि की नीचता या कमजोरी से त्वचा के रोग एवं हड्डी के रोग पैदा होते हैं। पुराणोक्त वर्णित है कि कृष्ण के पुत्र साम्ब ने वर्ष पर्यंत सूर्योपासना से अपना श्वेत कुष्ठ का निवारण किया था। आज भी मूल चिकित्सकीय पश्चिमी वैज्ञानिक पद्धति में सूर्य ऊर्जा द्वारा त्वचा एवं हड्डी रोगों का इलाज किया जाता है।
सूर्य और ऊर्जा- हमारे जीवन में सौर ऊर्जा का प्रयोग बढ़ रहा है। सोलर कुकर को ही लें। इसमें पका भोजन लकड़ी या अन्य ईंधन पर बने भोजन से अधिक स्वादिष्ट और पौष्टिक होता है।
सूर्य और प्रकृति- प्रकृति का चक्र- ऋतु, दिन-रात, सब सूर्य को आधार बनाकर चलता है। इसी आधार पर वनस्पति, जीव और जंतु जन्मते और मरते हैं। वेदों में सूर्य को यम यानि नियंता कहा गया है।

मां दुर्गा का वाहन सिंह क्यों?

भक्तों की रक्षा के लिए दुष्टों का संहार करने वाली मां दुर्गा को हम सिंह पर विराजित देखते हैं। मां दुर्गा बुराइयों पर विजय का प्रतीक हैं। उन्हें परमात्मा की शक्ति भी माना गया है। दुर्गा का वाहन सिंह उग्रता और हिंसक प्रवृत्तियों का प्रतीक माना जाता है। मां दुर्गा सिंह पर सवार है इसका मतलब यही है कि जो उग्रता और हिंसक प्रवृत्तियों पर नियंत्रण पा सकता है वही शक्ति है। मां दुर्गा हमें यही संदेश देती है कि जीवन में बुराई और अधर्म पर नियंत्रण कर हम भी शक्ति संपन्न बन सकते हैं। जब हम अधर्म पर नियंत्रण कर धर्म की राह पर
चलेंगे तो भगवान को पाना उतना ही आसान हो सकता है।
संध्या पूजन का इतना महत्व क्यों है ?
धर्म की लगभग हरेक प्रसिद्ध पुस्तक में संध्या पूजन का विशेष महत्व बताया गया है। संध्या का शाब्दिक अर्थ संधि का समय है यानि जहां दिन का समापन और रात शुरू होती है, उसे संधिकाल कहा जाता है। ज्योतिष के अनुसार दिनमान को तीन भागों में बांटा गया है- प्रात:काल, मध्याह्न और सायंकाल। संध्या पूजन के लिए प्रात:काल का समय सूर्योदय से छह घटी तक, मध्याह्न 12 घटी तक तथा सायंकाल 20 घटी तक जाना जाता है। एक घटी में 24 मिनट होते हैं। प्रात:काल में तारों के रहते हुए, मध्याह्नï में जब सूर्य मध्य में हो तथा सायं सूर्यास्त के पहले संध्या करना चाहिए।

संध्या पूजन क्यों?

-नियमपूर्वक संध्या करने से पापरहित होकर ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।
-रात या दिन में जो विकर्म हो जाते हैं, वे त्रिकाल संध्या से नष्ट हो जाते हैं।
-संध्या नहीं करने वाला मृत्यु के बाद कुत्ते की योनि में जाता है।
-संध्या नहीं करने से पुण्यकर्म का फल नहीं मिलता।
-समय पर की गई संध्या इच्छानुसार फल देती है।
-घर में संध्या वंदन से एक, गो-स्थान में सौ, नदी किनारे लाख तथा शिव के समीप अनंत गुना फल मिलता है।

आरती क्यो करते है?

आरती यानी आर्त होकर व्याकुल होकर भगवान को याद करना उनका स्तवन करना, आरती पूजा के अंत में धूप, दीप, कपूर से की जाती है। इसके बिना पूजा अधूरी मानी जाती है। आरती में एक, तीन, पांच, सात यानि विषम बत्तियों वाला दीपक प्रयोग किया जाता है।
आरती चार प्रकार की होती है:
- दीप आरती
- जल आरती
- धूप, कपूर, अगरबत्ती से आरती
- पुष्प आरती
दीप आरती: दीपक लगाकर आरती का आशय है। हम संसार के लिए प्रकाश की प्रार्थना करते हैं।
जल आरती: जल जीवन का प्रतीक है। आशय है हम जीवन रूपी जल से ईश्वर की आरती करते हैं।
धूप, कपूर, अगरबत्ती से आरती: धूप, कपूर और अगरबत्ती सुगंध का प्रतीक है। यह वातावरण को सुगंधित करते हैं तथा हमारे मन को भी प्रसन्न करते हैं।
पुष्प आरती: पुष्प सुंदरता और सुगंध का प्रतीक है। अन्य कोई साधन न होने पर पुष्प से आरती की जाती है।
आरती एक विज्ञान है। आरती के साथ-साथ ढोल-नगाढ़े, तुरही, शंख, घंटा आदि वाद्य भी बजते हैं। इन वाद्यों की ध्वनि से रोगाणुओं का नाश होता है। वातावरण पवित्र होता है। दीपक और धूप की सुंगध से चारों ओर सुगंध का फैलाव होता है। पर्यावरण सुगंध से भर जाता है।
आरती के पश्चात मंत्रों द्वारा हाथों में फूल लेकर भगवान को पुष्प समर्पित किए जाते हैं तथा प्रार्थना की जाती है।
भाव यह है कि इन पुष्पों की सुगंध की तरह हमारा यश सब दूर फैले तथा हम प्रसन्नता पूर्वक जीवन बीता
पूतना एक रोग है
भगवान कृष्ण के जन्म के दो दिन बाद पूतना नाम की राक्षसी ने उनके प्राण हरने की कोशिश की थी।
भगवान श्रीकृष्ण ने उस पूतना राक्षसी का अन्त कर दिया था।
पूतना एक रोग है। छोटे बच्चो में यह रोग बड़ी आसानी हो से हो जाता है। भगवान ने हालांकी उस राक्षसी को समाप्त कर दिया था। फिर भी यह रोग अभी भी कभी कभार देखने को मिलता है।
जब कभी छोटे बालकों में ऐसे लक्षण दिखाई दे जैसे दूध नही पीना, दुध पीकर उल्टी कर देना, पतले दस्त करना, ऐंठना, जमीन पर लौट लगाना। तब श्रीमद्भागवत में वर्णित यह प्रयोग करने से रोग नाश हो जाता है।
गाय की पूंछ से बच्चे का झाड़े तथा निम्र श्लोक का पाठ करने से यह पूतना नामक रोग नष्ट हो जाता है।
श्लोक -
गोविंद माधव केशव, विष्णु हलधर हृषीकेश।
हरि योगेश्वर उपेंद्र हयग्रीव श्रीपति श्याम मनोहर।।
इसका पाठ करने से यक्ष, राक्षस भैरव,भूत, प्रेत, पिशाच, पूतना, मातृका, ज्येष्ठा आदि शरीर का नाश करने वालो का स्वयं नाश हो जाता हैं। जैसे भगवान श्रीकृष्ण ने पूतना का नाश किया था उसी तरह उनके इन नामों से बालकों के समस्त रोगों का नाश हो जाता हैं।

क्यों चढ़ाते हैं फल पूजन में?
पूजन में देवी-देवताओं को नैवेद्य के बाद फल चढ़ाए जाते हैं। फल पूर्णता का प्रतीक है।
फल चढ़ाकर हम अपने जीवन को सफल बनाने की कामना भगवान से करते हैं।
मौसम के अनुसार पांच प्रकार के फल भगवान को चढ़ाए जाते हैं। शक्ति अनुसार कम भी चढ़ा सकते हैं।
फल पूर्ण मीठे, रसदार, रंग और सुगंध से पूर्ण होते हैं। फल चढ़ाने का मनोविज्ञान यह है कि हम भी रसदार, मीठे, नया रंग से भरा जीवन जिएं और सफल होवें।
जीवन में अच्छे कर्म करें। फल जैसे सद्गुणों की खान है। वैसे ही हम भी बनें। क्योंकि अच्छे कार्य का फल अच्छा ही होता है।
फल भगवान को अर्पित करते समय यह भावना भी रहती है कि- हे ईश्वर, मैं यह छिद्र रहित मीठे रस से भरा फल आपको अर्पण कर रहा हूँ। अत: आप भी मेरा जीवन मीठे रस से भर दें और कहीं से भी मेरे घर में दुख का प्रवेश न हो ऐसी मुझ पर कृपा करं।

कमल का फूल क्यों प्रिय है भगवान को?
सभी देवी-देवताओं को पुष्प विशेष रूप से चढ़ाए जाते हैं। पुष्प अर्पित किए बिना कोई भी पूजा पूर्ण नहीं मानी जाती है। वैसे तो लगभग सभी प्रकार के पुष्प भगवान को चढ़ाए जाते हैं, परंतु पुष्पों में कमल का विशेष स्थान है। कमल का फूल सभी देवी-देवताओं को अतिप्रिय है। कमल की सुंदरता की महिमा इसी बात से सिद्ध होती है कि भगवान के नेत्रों की तुलना कमल के फूल से की जाती है।कमल का फूल का भगवान को विशेष प्रिय क्यों हैं? इसके कई कारण है जैसे: कमल पवित्रता का प्रतीक है, इसकी सुंदरता और सुगंध सभी का मन मोहने वाली होती है। साथ ही कमल यह संदेश देता है कि हमें कैसे जीना चाहिए? कमल कीचड़ में उगता है और उससे ही पोषण लेता है, लेकिन हमेशा कीचड़ से अलग ही रहता है। कमल का फूल पूर्ण विकास दर्शाता है। सांसारिक और आध्यात्मिक जीवन किस प्रकार जिया जाए इसका सरल तरीका बताता है। संसाररूपी कीचड़ में रहते हुए भी हमें किस तरह रहना चाहिए यह शिक्षा हम कमल से ले सकते हैं।कमल की आठ पंखुडिय़ां मनुष्य के अलग-अलग 8 गुणों की प्रतीक हैं, ये गुण हैं दया, शांति, पवित्रता, मंगल, निस्पृहता, सरलता, ईर्ष्या का अभाव और उदारता। इसका आशय यही है कि मनुष्य जब इन गुणों को अपना लेता है तब वह भी ईश्वर को कमल के फूल के समान प्रिय हो जाता है। साथ ही कमल में औषधीय गुण भी विद्यमान हैं। इसके बीजों से मखाने बनाए जाते हैं जो कि कई बीमारियों की रोकथाम हेतु उपयोग किए जाते हैं।

दान के बाद दक्षिणा क्यों जरूरी?
दान की महिमा को भारतीय सभ्यता में बड़े ही धार्मिक रूप में स्वीकार किया गया है। दान को मुक्ति और स्वर्ग की प्राप्ति का एक माध्यम माना गया है। दान के साथ दक्षिणा की अवधारणा भी अंगीकृत की गई है। दान के विषय में शास्त्र कहते हैं कि सद्पात्र को दिया गया दान ही फलदायी होता है। प्राचीन काल में ब्राह्मण को ही दान का सद्पात्र माना जाता था क्योंकि ब्राह्मण संपूर्ण समाज को शिक्षित करता था तथा धर्ममय आचरण करता था। ऐसी स्थिति में उनके जीवनयापन का भार समाज के ऊपर हुआ करता था।सद्पात्र को दान के रूप में कुछ प्रदान कर समाज स्वयं को सम्मानित हुआ मानता था। यदि आपके समर्पण का आदर करते हुए किसी ने आपके द्वारा दिया गया दान स्वीकार कर लिया तो आपको उसे धन्यवाद तो देना ही चाहिए। दान के बाद दी जाने वाली दक्षिणा, दान की स्वीकृति का धन्यवाद है। इसीलिए दान के बाद दी जाने वाली दक्षिणा का विशेष महत्व बताया गया है। इसका मनोवैज्ञानिक पक्ष है कि दान देने वाले व्यक्ति की इच्छाओं का दान लेने वाले व्यक्ति ने आदर किया है। इसीलिए वह धन्यवाद और कृतज्ञता ज्ञापित करने का पात्र भी है।

गुरुद्वारे में प्रवेश ऐसे करें
गुरुद्वारा सिक्ख धर्म ही नहीं सभी धर्म के लोगों की आस्था का केंद्र है। यहां विभिन्न समुदाय के लोग समान रूप से अरदास के लिए आते हैं। यहां अमीर-गरीब, ऊंच-नीच, जातपात आदि का कोई भेदभाव नहीं होता। गुरुद्वारे में प्रवेश करने से पूर्व कुछ छोटी-छोटी किंतु महत्वपूर्ण बातें ध्यान रखने योग्य हैं-
- यदि आपने कोई नशा जैसे शराब, सिगरेट, ड्रग्स इत्यादि ले रखा है तो गुरुद्वारे में प्रवेश कतई ना करें। यह गुरुग्रंथ साहिब के प्रति असम्मान दिखाता है।
- गुरुद्वारे में अपने साथ कोई हथियार ना ले जाए।
- गुरुद्वारे में प्रवेश से पूर्व सबसे पहले अपने जूते-चप्पल इत्यादि बाहर ही निकाल दें, साथ ही मौजे भी। कुछ लोग मौजे सहित ही गुरुद्वारे में प्रवेश कर जाते हैं। उससे उनके मौजे की बदबू से गुरुद्वारे का वातावरण प्रदुषित होता है, अत: मौजे भी बाहर ही निकाल देना चाहिए। इससे गुरुद्वारे की पवित्रता और सफाई बनी रहेगी।
- जूते उतारने के पश्चात अपने हाथ-पैर अच्छे से धो लें। ताकि आपके हाथ-पैर पूर्णरूप से साफ और स्वच्छ हो जाए।
- अपने सिर को कपड़े से ढंक लें। यह गुरुग्रंथ साहिब के प्रति सम्मान व्यक्त करता है। सिर पर कपड़ा ढंकने के कुछ और भी फायदे हैं जैसे सिर के मध्य भाग स्थित दशम द्वार को ढंकने से हमारा मन अंयत्र नहीं भटकता। क्योंकि दशम द्वार का संबंध हमारे मन से होता है।
- गुरुद्वारे में किसी भी परिस्थिति में अपने पैर गुरुग्रंथ साहिब की ओर करके ना बैठे। यह असम्मान की भावना व्यक्त करता है।
- चूंकि गुरुद्वारे के फर्श पर श्रद्धालु मत्था टेंकते हैं अत: फर्श को बिल्कुल गंदा ना करें क्योंकि ताकि अन्य श्रद्धालुओं के सिरों पर गंदगी ना लगे।
- गुरुग्रंथ साहिब और गुरुद्वारे की परिक्रमा घड़ी की सुई जिस दिशा में घुमती है उसी के अनुसार करें।
- गुरुद्वारे में कहीं भी बैठे अपना मुख ग्रंथ साहिब की ओर रखें।
- सभी गुरुद्वारों में लंगर चलाए जाते हैं जहां सभी को समान रूप से प्रसाद दिया जाता है। जो कि जातिभेद और ऊंच-नीच जैसी भावनाओं को मिटाता है। अत: वहां समान रूप से भोजन प्राप्त करें।

पूजन में कुश का उपयोग क्यों?
हिंदू धर्म में किए जाने वाले विभिन्न धार्मिक कर्म-कांडों में अक्सर कुश (विशेष प्रकार की घास) का उपयोग किया जाता है। इसका धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक कारण भी है। कुश जब पृथ्वी से उत्पन्न होती है तो उसकी धार बहुत तेज होती है। असावधानी पूर्वक इसे तोडऩे पर हाथों को चोंट भी लग सकती है। पुरातन समय में गुरुजन अपने शिष्यों की परीक्षा लेते समय उन्हें कुश लाने का कहते थे। कुश लाने में जिनके हाथ ठीक होते थे उन्हें कुशल कहा जाता था अर्थात उसे ही ज्ञान का सद्पात्र माना जाता था।
वैज्ञानिक शोधों से यह भी पता चला है कि कुश ऊर्जा का कुचालक है। इसीलिए सूर्य व चंद्रग्रहण के समय इसे भोजन तथा पानी में डाल दिया जाता है जिससे ग्रहण के समय पृथ्वी पर आने वाली किरणें कुश से टकराकर परावर्तित हो जाती हैं तथा भोजन व पानी पर उन किरणों का विपरीत असर नहीं पड़ता।
कुश से बने आसन पर बैठकर तप, ध्यान तथा पूजन आदि धार्मिक कर्म-कांडों से प्राप्त ऊर्जा धरती में नहीं जा पाती क्योंकि धरती व शरीर के बीच कुश का आसन कुचालक का कार्य करता है।

साधु क्यों पहनते हैं गेरूए वस्त्र
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार मनुष्य को सिर्फ सूर्य का प्रकाश ही नहीं अपितु सौर मंडल के अन्य ग्रहों की रश्मियां भी प्रभावित करती हैं। सौर ग्रहों की यह रश्मियां हमारी सोच को भी प्रभावित करती है। पुरातन समय में जब विद्वानों को इन बातों का ज्ञान हुआ तो इन ग्रहों की रश्मियों से होने वाले कुप्रभाव को रोकने के लिए विपरीत रंगों की आवश्यकता महसूस हुई। तब शोध के बाद यह पता चला कि पृथ्वी पर पाई जाने वाली गेरू एक ऐसी मिट्टी है जिसमें सूर्य और चंद्र ग्रहण के समय पडऩे वाले कुप्रभावों से बचाने की शक्ति होती है।इस तथ्य का वैज्ञानिक अध्ययन कर यह निष्कर्ष भी निकाला गया कि अगर गेरुए रंग के वस्त्र साधू व सन्यासी पहनें तो उन पर अन्य ग्रहों का असर कम हो जाएगा। इसीलिए गेरुए वस्त्र पहनने की परिपाटी ने जन्म लिया। गांवों में आज भी ग्रहण के समय गर्भवती महिलाओं तथा जानवरों के पेट पर गेरू लगाई जाती है, जिससे गर्भस्थ शिशु को किसी प्रकार की हानि न हो।

उत्तर में सिर रखकर क्यों नहीं सोते?
हमारे पूर्वजों ने नित्य की क्रियाओं के लिए समय, दिशा और आसन आदि का बड़ी सावधानी पूर्वक वर्णन किया है। उसी के अनुसार मनुष्य को कभी भी उत्तर दिशा की ओर सिर रखकर नहीं सोना चाहिए।इसके कारण है कि पृथ्वी का उत्तरी धुव्र चुम्बकत्व का प्रभाव रखता है जबकि दक्षिण ध्रुव पर यह प्रभाव नहीं पाया जाता।
शोध से पता चला है कि साधारण चुंबक शरीर से बांधने पर वह हमारे शरीर के ऊत्तकों पर विपरीत प्रभाव डालता है । इसी सिद्धांत पर यह निष्कर्ष भी निकाला गया कि अगर साधारण चुंबक हमारे शरीर पर विपरीत प्रभाव डाल सकता है तो उत्तरी पोल पर प्राकृतिक चुम्बक भी हमारे मन, मस्तिष्क व संपूर्ण शरीर पर विपरीत असर डालता है।
यही वजह है कि उत्तर दिशा की ओर सिर रखकर सोना निषेध माना गया है।

वर्ण व्यवस्था जाति आधारित नहीं मनोवैज्ञानिक है
भारत में वर्ण व्यवस्था पुरातन काल से चली आ रही है जो कि जाति आधारित नहीं बल्कि पूर्णत: मनोवैज्ञानिक है। कालांतर में यह व्यवस्था जाति आधारित कर दी गई जो कि पूर्णत: अनुचित है। व्यक्ति की जैसी मानसिक वृत्ति होती है उसी प्रकार की वह तरंगें छोड़ता है। ये तरंगें चार रंगों की होती है। इन्हीं के आधार पर वर्ण व्यवस्था का विज्ञान टिका है।

प्रथम श्रेणी के लोग बुद्धिवादी होते हैं। ये बुद्धि से ही समाज पर आधिपत्य जमाते हैं। ये बुद्धिर्यस्य बलं तस्य में विश्वास रखते हैं। ऐसे व्यक्तियों के मन की तरंगों का रंग श्वेत होता है। इन्हें ब्राह्मण अथवा विप्र वर्ण का माना जाता है।

दूसरे वर्ण के वे लोग हैं जो योद्धा श्रेणी के होते हैं। वे साहसी और पराक्रमी होते हैं। ये शारीरिक शक्ति से समाज पर आधिपत्य जमाते हैं। ये पारिवारिक परंपराओं के प्रति सजग होते हैं। ऐसे व्यक्तियों की मानसिक तरंगों का रंग लाल होता है। इन्हें क्षत्रिय वर्ण की संज्ञा दी गई है।

तीसरा वर्ण अर्थ व्यवस्था में दक्ष होता है। धन संग्रह ही इनका ध्येय होता है। ये अर्थ द्वारा ही समाज पर नियंत्रण करते हैं। इनका जीवन मूल्य अर्थ प्रधान होता है। ऐसी मनोवृत्ति के लोगों के मन की तरंगों का रंग पीला होता है। इन्हें वैश्य वर्ण का माना जाता है।

जो व्यक्ति केवल शारीरिक श्रम करने की ही योग्यता रखता है, शारीरिक श्रम ही जिसके जीवन का आधार होता है। भोजन प्राप्ति ही जिसके जीवन की ध्येय होता है तथा जिसमें प्रशासनिक योग्यता नहीं होती। ऐसे व्यक्ति की मानसिक तरंगों का रंग काला होता है। वर्ण व्यवस्था के आधार पर ऐसे ही व्यक्ति को शुद्र की संज्ञा दी गई है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK

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