Monday, November 22, 2010

Gyan (ज्ञान)

ज्ञान प्रत्येक स्थान व समय पर उपयोगी होता है
एक सेठ के पास बड़ी मिल थी। उससे बहुत सारे लोगों की जीविका चलती थी। लाखों का उत्पादन होता था और सेठजी करोड़ों में खेलते थे। अपने कर्मचारियों का भी वे समुचित ध्यान रखते थे। आखिल मिल तो कर्मचारियों के बल पर चलती है। इस तथ्य को वे हमेशा याद रखते थे। कर्मचारी भी उनके स्नेह के मद्देनजर उनके प्रति निष्ठावान थे। एक दिन अचानक सेठजी की मिल में समस्त कार्य रुक गए क्योंकि किसी महत्वपूर्ण मशीन में खराबी आ गई थी। मिल में कार्यरत कर्मचारियों से लेकर विशेषज्ञ तक अपना दिमाग लगा-लगाकर हार किंतु, मशीन चालू न हो पाई। सेठजी भी बड़े हैरान-परेशान हो गए। उन्होंने अपने कारिंदों को इधर-उधर दौड़ाया कि कहीं से किसी मशीन सुधारक को लेकर आओ।थोड़ी देर बाद वे लोग एक सामान्य से व्यक्ति को लेकर आए। सेठजी ने उसे देखते हुए सशंकित भाव से पूछा- ‘‘भाई, तुम इस मशीन को चालू कर पाओगे?’’उस आदमी ने मशीन को ध्यान से देखा और कहा- ‘‘मैं मशीन ठीक कर दूंगा, किंतु इस कार्य के पंद्रह हजार रुपए लूंगा।’’सेठ जी बड़ी दुविधा में पड़े कि इतने छोटे-से काम के इतने रुपए दें या नहीं। किंतु मशीन के न चलने पर उत्पादन बंद होगा और फिर भारी नुकसान होगा। उन्होंने हामी भर दी। तत्पश्चात् उस आदमी ने मशीन की एक खास जगह पर कसकर एक हथौड़ा मारा और मशीन चालू हो गई। सेठजी बोले- ‘‘अरे भाई, इसमें तो कुछ भी काम नहीं था। फिर पंद्रह हजार किस बात के लेते हो?’’ तब वह आदमी बोला- ‘‘हथौड़े की चोट तो कोई भी मार सकता है, किंतु कितने लोग हैं, जो जानते हैं कि चोट कहां मारना चाहिए?’’सेठजी निरुत्तर हो गए और चुपचाप उसे पंद्रह हजार रुपए दे दिए।

कथा का संकेत है कि जीवन में किसी बात का ज्ञान कभी निर्थक नहीं होता। वह कभी न कभी, कहीं न कहीं अवश्य काम आता है। इसलिए स्वयं की रुचि, योग्यता व साधनों के अनुकूल ज्ञान अवश्य प्राप्त करना चाहिए। ताकि अवसर आने पर असफलता का मुंह न देखना पड़े।

ज्ञान से श्रेष्ठता आती है
प्राचीन काल में एक राजा था। वह संत-महात्माओं का बड़ा आदर करता था। एक बार उसके राज्य में किसी पहुंचे हुए संत का आगमन हुआ। राजा ने अपने सेनापति को उन्हें ससम्मान दरबार में लाने का आदेश दिया। सेनापति एक सुसज्जित रथ लेकर संत के पास पहुंचा।राजा के आमंत्रण की बात सीधे कहने के स्थान पर सेनापति ने विनम्रता से सिर झुकाकर अभिवादन करने के बाद कहा- ‘‘हमारे महाराज ने आपको अपना प्रणाम भेजा है। यदि आप अपनी चरण-रज से उनके आवास को पवित्र कर सकें, तो बड़ी कृपा होगी।’’ संत ने सहज ही अपनी स्वीकृति दे दी और राजमहल चलने की तैयारी करने लगे।संत अत्यंत नाटे कद के थे। उन्हें देखकर सेनापति को यह सोचकर हंसी आ गई कि इस ठिगने कद के व्यक्ति से उनका लंबा-चौड़ा और बलिष्ठ राजा आखिर किस तरह का विचार-विमर्श करना चाहता है?संत, सेनापति के हंसने का कारण समझ गए, किंतु फिर भी उन्होंने पूछा, तो सेनापति बोला-‘‘आप मुझे क्षमा करें। वास्तव में मुझे आपके नाटे कद पर हंसी आ गई। क्योंकि हमारे महाराज बहुत लंबे हैं। उनके साथ बात करने के लिए आपको तख्त पर चढ़ना पड़ेगा।’’

संत ने मुस्कराकर कहा- ‘‘मैं जमीन पर रहकर ही तुम्हारे महाराज से बात करुंगा। छोटे कद का लाभ यह होगा कि मैं जब भी बात करुंगा तो सिर उठाकर करुंगा, किंतु तुम्हारे महाराज लंबे होने के कारण मुझसे जब भी बात करेंगे, सिर झुकाकर बात करेंगे।’’सेनापति को संत के इस ज्ञानयुक्त उत्तर पर नतमस्त्क होना पड़ा।वस्तुत: श्रेष्ठता कद से नहीं, ज्ञान से आती है। यदि व्यक्ति की दृष्टि व विचार ज्ञान से परिपूर्ण होंगे, तो वह प्रत्येक स्थान सम्मान का पात्र बनेगा और समाज के लिए सदैव प्रणम्य होगा। इसके विपरित अज्ञानी व्यक्ति को सदैव उपहास व निंदा की दृष्टि से देखा जाता है।-

क्यों विष्णु करते हैं शेषनाग पर शयन?
हिन्दू धर्म में भगवान विष्णु को जगत का पालन करने वाले देवता माना जाता है। भगवान विष्णु का स्वरूप शांत, आनंदमयी, कोमल, सुंदर यानि सात्विक बताया गया है। वहीं दूसरी ओर भगवान विष्णु के भयानक और कालस्वरूप शेषनाग पर आनंद मुद्रा में शयन करते हुए भी दर्शन किए जा सकते हैं।

भगवान विष्णु के इसी स्वरूप के लिए शास्त्रों में लिखा गया है -
शान्ताकारं भुजगशयनं यानि शांतिस्वरूप और भुजंग यानि शेषनाग पर शयन करने वाले देवता भगवान विष्णु। साधारण नजरिए से यह अनूठा देव स्वरूप अचंभित करता है कि काल के साये में रहकर भी देवता बिना किसी बैचेनी के शयन करते हैं। किंतु भगवान विष्णु के इस रूप में मानव जीवन से जुड़ा छुपा संदेश है -
जिंदगी का हर पल कर्तव्य और जिम्मेदारियों से जुड़ा होता है। इनमें पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक दायित्व अहम होते हैं। किंतु इनदायित्वों को पूरा करने के साथ ही अनेक समस्याओं, परेशानियों, कष्ट, मुसीबतों का सिलसिला भी चलता रहता है, जो कालरूपी नाग की तरह भय, बैचेनी और चिन्ताएं पैदा करता है। जिनसे कईं मौकों पर व्यक्ति टूटकर बिखर भी जाता है।

भगवान विष्णु का शांत स्वरूप यही कहता है कि ऐसे बुरे वक्त मेंसंयम, धीरज के साथ मजबूत दिल और ठंडा दिमाग रखकर जिंदगी की तमाम मुश्किलों पर काबू पाया जा सकता है। तभी विपरीत समय भी आपके अनुकूल हो जाएगा। तभी व्यक्ति सही मायनों में पुरूषार्थी कहलाएगा। इस तरह विपरीत हालातों में भी शांत, स्थिर, निर्भय व निश्चिंत मन और मस्तिष्क के साथ अपने धर्म का पालन यानि जिम्मेदारियों को पूरा करना ही विष्णु के भुजंग या शेषनाग पर शयन का प्रतीक है।

कैसे कायम रहें उनकी खुशियाँ?
हर माता-पिता अपनी संतान के गुणी, योग्य, आत्मनिर्भर बनने और सुखद भविष्य की कामना करते हैं। उनके लिए हर सुख-सुविधाओं को जुटाने की हरसंभव कोशिश करते हैं। संस्कारित संतान माता-पिता के त्याग और स्नेह का मान रख उम्मीदों पर खरी भी उतरती है। लेकिनकई मौकों पर सपूत होने पर भी परिस्थितियों के कारण पैदा हुई गलतफहमी या वैचारिक मतभेद रिश्तों में दुराव पैदा कर देते हैं। जिससे माता-पिता के साथ संतान भी अलगाव की घुटन में समय काटते हैं। हिन्दू धर्म में संबंधों के आदर्श और मर्यादाओं का पाठ सिखाने वाला पावन ग्रंथ रामचरितमानस माता-पिता और संतान के रिश्तों में मिठास बनाए रखने और रिश्तों में आई दरार को भरने वाले सूत्र बताता है -

मानस की चौपाई है -
सुनु जननी सोइ सुत बड़भागी।
जो पितु मात बचन अनुरागी।।

इस चौपाई का सार यही है कि किस्मतवाला पुत्र वही होता है, जो अपने माता-पिता से मधुर वाणी बोलता है।
संदेश यही है कि आज के भौतिक युग में माता-पिता और संतान में पैदा हो रही कटुता को खत्म करने के लिए अहं को दूर कर प्रेम को स्थान दे तो रिश्तों की पावनता और गरिमा को जिंदा रखा जा सकेगा। अहं को दूर करने के लिए संवाद या बोलचाल बेहतर शुरूआत होती है। लेकिन सबसे जरूरी बात यह हो कि माता-पिता से संवाद में विनम्रता, स्नेह, सम्मान और मिठास हो। यही बातें उनके दिलों को सबसे अधिक सुकून और तसल्ली देगा। जिसके आगे बड़े से बड़ा भौतिक सुख भी कमतर रहेगा। ऐसे रिश्ते व्यक्तिगत रूप से भी मानसिक सुख और बेहतर जिंदगी का आनंद देगे।

करामाती नतीजे देता है प्रेम
हर धर्म में प्रेम को मानवीय भावों में सबसे ऊपर रखा गया है। धर्म के नजरिए से ईश्वर से साक्षात्कार प्रेम को जीवन में उतारे बिना संभव नहीं है। प्रेम ऊंच-नीच, छोटे-बड़े और अमीरी-गरीबी के भेदभाव से परे होता है। इसलिए इसका असर भी गहरा होता है।

व्यावहारिक जीवन में प्रेम अनेक रूप और रंगों में दिखाई देता है। इंसानी प्रेम मोहब्बत, स्नेह, वात्सल्य भक्ति के रुप में जाहिर होता है। प्रेम विचारों और मन को ऐसी स्थिति में ले जाता है, जहां व्यक्ति खुद को भूलकर बस देना ही याद रखता है। समर्पण, त्याग के भावों के साथ ही उम्मीदों से परे होकर व्यक्ति आनंद की ऐसी स्थिति में जीवन जीता है, जहां जिंदगी का हर लम्हा बेहद खूबसूरत और सूकुनभरा महसूस होता है।

प्रेम हर व्यक्ति की जिंदगी का अहम हिस्सा होता है। कोई कितना ही नकारे किंतु उसके जीवन में किसी न किसी तरह प्रकट हो ही जाता है। हम मानवीय संबंधों में प्रेम खोजते हैं, तो पाते हैं कि प्रेम ऊर्जा देता है। हर व्यक्ति को प्रेम का पहला एहसास परिवार में होता है। इसलिए जानते हैं ताउम्र प्रेम कैसे किसी व्यक्ति के लिए करामाती नतीजे देता है? -

- बचपन से ही प्यार का पहला एहसास माँ से होता है। जिसे हर शिशु महसूस कर आनंदित होता है। मां का वात्सल्य जीवनभर परिवार के प्रति समर्पण पैदा करता है।
- माता-पिता की मोहब्बत के दम पर ही हर शिशु अपने पैरों पर खड़ा होता है और चलना सीखता है।
- जिंदगी की दिशा तय करने वाली किशोरावस्था में भी मिलने वाली हर सुख-सुविधाओं के पीछे परिवार में बेहद प्रेम की भूमिका होती है।
- भाई-बहनों का प्यार जीवन के लक्ष्यों तक पहुंचने में उमंग और उत्साह बनाए रखता है।
- महिला या पुरूष मित्र का प्रेम भी सफलता के लिए प्रेरणा साबित होता है।
- गृहस्थ जीवन मे जीवनसाथी का प्रेम आपको जिम्मेदार और संजीदा बना देता है।
- वृद्धावस्था में अपनी संतान का लगाव और स्नेह ही उम्र के इस कठिन दौर में तरह-तरह के कष्ट और बैचेनी में भी सहारा और सुकून देता है।
- सामाजिक नजरिये से भी प्रेम ऐसी ताकत होता है, जो विरोध को समर्थन, दुश्मनी को मित्रता और नफरत को चाहत में बदल सकता है।

यह गुण देगा हर इम्तिहान में कामयाबी
हिन्दू धर्म में गहरी आस्था और श्रद्धा का पावन ग्रंथ रामचरित मानस का सरल शब्दों में सार ढूंढे तो यही पाते हैं कि यह आम जन को जीने के सलीके सिखाता है। इसमें व्यावहारिक जिंदगी के लिए संदेश छुपा है कि मर्यादाओं के पालन से साधारण इंसान भी समाज में ऊंचा दर्जा पा सकता है।

आज जबकि देखा जाता है कि जरूरतों, सुविधाओं की पूर्ति या मान-सम्मान के मसले पर दो पीढिय़ों के वैचारिक मतभेद या यूं कहें कि माता-पिता और संतान में भी टकराव के हालात पैदा हो रहे हैं। जिससे बनी संवादहीनता की स्थिति रिश्तों में दुराव और अलगाव पैदा कर दु:खों का सिलसिला शुरु कर देती है। रामचरित मानस में ऐसी ही समस्याओं को दूर करने के सूत्र बताए गए हैं। राम और मानस की गहराई में उतरकर जानते हैं कुछ ऐसे ही सूत्र -

रामचरित मानस में चौपाई है -
प्रात:काल उठि कै रघुनाथ।
मात-पिता-गुरु नावइं माथा।।

इस चौपाई के माध्यम से भगवान राम की माता-पिता और गुरु के लिए गहरी आस्था और सम्मान का भाव बताया गया। किंतु इसकी गूढ़ता में व्यक्तित्व और चरित्र विकास का सूत्र है। जिससे माता-पिता से ही नहीं आपके प्रेरक, मार्गदर्शक से भी गहरे और मधुर संबंध ताउम्र रखे जा सकते हैं।

इस चौपाई का माता-पिता और गुरु को प्रणाम करने की परंपरा निभाना मात्र ही अर्थ नहीं है। बल्कि मूल भाव यह है कि आप हमेशा ही माता-पिता और गुरु (जिससे आपने कुछ सीखा या ज्ञान लिया हो) के लिए पूरा सम्मान, प्रेम और भरोसा रखें। जिससे उनका आपके प्रति विश्वास और उम्मीदें बनी रहेगी। जिससे उनके चेहरे, नजरों और शब्दों में पैदा हुए खुशी और आत्मीयता के भाव हर स्थिति में खासतौर पर मुश्किल हालातों में आपका संबल बनेगे। माता-पिता के लिए ऐसी भावना और मधुर रिश्ते आपके आत्मविश्वास को जिंदा रखेंगे। जिससे आप खुले दिल और जोश के साथ जिंदग़ी के हर इम्तिहान में सफल होंगे। आपका चरित्र और व्यक्तित्व दिन-ब-दिन बेहतर होगा।

सात दुर्लभ प्रश्न और उनके दुर्लभ उत्तर ! सबसे बड़ा दुख ! सबसे बड़ा सुख ! सबसे दुर्लभ शरीर ! सबसे बड़ा पुण्य ! सबसे बड़ा पाप ! संत-असंत का भेद और मानस रोग !

पक्षीराज गरुड़जी फिर प्रेम सहित बोले- हे कृपालु(काकभुशुण्डिजी)! यदि मुझ पर आपका प्रेम है, तो हे नाथ! मुझे अपना सेवक जानकर मेरे सात प्रश्नों के उत्तर बखान कर कहिए।

हे नाथ! हे धीर बुद्धि! पहले तो यह बताइए कि सबसे दुर्लभ कौन सा शरीर है फिर सबसे बड़ा दुःख कौन है और सबसे बड़ा सुख कौन है, यह भी विचार कर संक्षेप में ही कहिए।
संत और असंत का मर्म (भेद) आप जानते हैं, उनके सहज स्वभाव का वर्णन कीजिए। फिर कहिए कि श्रुतियों में प्रसिद्ध सबसे महान्‌ पुण्य कौन सा है और सबसे महान्‌ भयंकर पाप कौन है।फिर मानस रोगों को समझाकर कहिए। आप सर्वज्ञ हैं और मुझ पर आपकी कृपा भी बहुत है।

काकभुशुण्डिजी ने कहा:-
हे तात अत्यंत आदर और प्रेम के साथ सुनिए। मैं यह नीति संक्षेप से कहता हूँ।मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नहीं है। चर-अचर सभी जीव उसकी याचना करते हैं। वह मनुष्य शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है तथा कल्याणकारी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को देने वाला है। ऐसे मनुष्य शरीर को धारण (प्राप्त) करके भी जो लोग श्री हरि का भजन नहीं करते और नीच से भी नीच विषयों में अनुरक्त रहते हैं, वे पारसमणि को हाथ से फेंक देते हैं और बदले में काँच के टुकड़े ले लेते हैं जगत्‌ में दरिद्रता के समान दुःख नहीं है तथा संतों के मिलने के समान जगत्‌ में सुख नहीं है। और हे पक्षीराज! मन, वचन और शरीर से परोपकार करना, यह संतों का सहज स्वभाव है। संत दूसरों की भलाई के लिए दुःख सहते हैं और अभागे असंत दूसरों को दुःख पहुँचाने के लिए। कृपालु संत भोज के वृक्ष के समान दूसरों के हित के लिए भारी विपत्ति सहते हैं (अपनी खाल तक उधड़वा लेते हैं)॥

किंतु दुष्ट लोग सन की भाँति दूसरों को बाँधते हैं और (उन्हें बाँधने के लिए) अपनी खाल खिंचवाकर विपत्ति सहकर मर जाते हैं। हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी! सुनिए, दुष्ट बिना किसी स्वार्थ के साँप और चूहे के समान अकारण ही दूसरों का अपकार करते हैं॥ वे पराई संपत्ति का नाश करके स्वयं नष्ट हो जाते हैं, जैसे खेती का नाश करके ओले नष्ट हो जाते हैं। दुष्ट का अभ्युदय (उन्नति) प्रसिद्ध अधम ग्रह केतु के उदय की भाँति जगत के दुःख के लिए ही होता है।और संतों का अभ्युदय सदा ही सुखकर होता है, जैसे चंद्रमा और सूर्य का उदय विश्व भर के लिए सुखदायक है। वेदों में अहिंसा को परम धर्म माना है और परनिन्दा के समान भारी पाप नहीं है।

शंकरजी और गुरु की निंदा करने वाला मनुष्य (अगले जन्म में) मेंढक होता है और वह हजार जन्म तक वही मेंढक का शरीर पाता है। ब्राह्मणों की निंदा करने वाला व्यक्ति बहुत से नरक भोगकर फिर जगत्‌ में कौए का शरीर धारण करके जन्म लेता है॥ जो अभिमानी जीव देवताओं और वेदों की निंदा करते हैं, वे रौरव नरक में पड़ते हैं। संतों की निंदा में लगे हुए लोग उल्लू होते हैं, जिन्हें मोह रूपी रात्रि प्रिय होती है और ज्ञान रूपी सूर्य जिनके लिए बीत गया (अस्त हो गया) रहता है॥

जो मूर्ख मनुष्य सब की निंदा करते हैं, वे चमगादड़ होकर जन्म लेते हैं। हे तात! अब मानस रोग सुनिए, जिनसे सब लोग दुःख पाया करते हैं। सब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है। उन व्याधियों से फिर और बहुत से शूल उत्पन्न होते हैं। काम वात है, लोभ अपार (बढ़ा हुआ) कफ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता।यदि कहीं ये तीनों भाई (वात, पित्त और कफ) प्रीति कर लें (मिल जाएँ), तो दुःखदायक सन्निपात रोग उत्पन्न होता है। कठिनता से प्राप्त (पूर्ण) होने वाले जो विषयों के मनोरथ हैं, वे ही सब शूल (कष्टदायक रोग) हैं, उनके नाम कौन जानता है (अर्थात्‌ वे अपार हैं)।

ममता दाद है, ईर्षा (डाह) खुजली है, हर्ष-विषाद गले के रोगों की अधिकता है (गलगंड, कण्ठमाला या घेघा आदि रोग हैं), पराए सुख को देखकर जो जलन होती है, वही क्षयी है। दुष्टता और मन की कुटिलता ही कोढ़ है।अहंकार अत्यंत दुःख देने वाला डमरू (गाँठ का) रोग है। दम्भ, कपट, मद और मान नहरुआ (नसों का) रोग है। तृष्णा बड़ा भारी उदर वृद्धि (जलोदर) रोग है। तीन प्रकार (पुत्र, धन और मान) की प्रबल इच्छाएँ प्रबल तिजारी हैं॥ एक ही रोग के वश होकर मनुष्य मर जाते हैं, फिर ये तो बहुत से असाध्य रोग हैं। ये जीव को निरंतर कष्ट देते रहते हैं, ऐसी दशा में वह समाधि (शांति) को कैसे प्राप्त करे?।

नियम, धर्म, आचार (उत्तम आचरण), तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान तथा और भी करोड़ों औषधियाँ हैं, परंतु हे गरुड़जी! उनसे ये रोग नहीं जाते। इस प्रकार जगत्‌ में समस्त जीव रोगी हैं, जो शोक, हर्ष, भय, प्रीति और वियोग के दुःख से और भी दुःखी हो रहे हैं। मैंने ये थो़ड़े से मानस रोग कहे हैं। ये हैं तो सबको, परंतु इन्हें जान पाए हैं कोई विरले ही। प्राणियों को जलाने वाले ये पापी (रोग) जान लिए जाने से कुछ क्षीण अवश्य हो जाते हैं, परंतु नाश को नहीं प्राप्त होते। विषय रूप कुपथ्य पाकर ये मुनियों के हृदय में भी अंकुरित हो उठते हैं, तब बेचारे साधारण मनुष्य तो क्या चीज हैं॥

यदि श्री रामजी की कृपा से इस प्रकार का संयोग बन जाए तो ये सब रोग नष्ट हो जाएँ। सद्गुरु रूपी वैद्य के वचन में विश्वास हो। विषयों की आशा न करे, यही संयम (परहेज) हो। श्री रघुनाथजी की भक्ति संजीवनी जड़ी है। श्रद्धा से पूर्ण बुद्धि ही अनुपान (दवा के साथ लिया जाने वाला मधु आदि) है। इस प्रकार का संयोग हो तो वे रोग भले ही नष्ट हो जाएँ, नहीं तो करोड़ों प्रयत्नों से भी नहीं जाते॥

हे गोसाईं! मन को निरोग हुआ तब जानना चाहिए, जब हृदय में वैराग्य का बल बढ़ जाए, उत्तम बुद्धि रूपी भूख नित नई बढ़ती रहे और विषयों की आशा रूपी दुर्बलता मिट जाए। इस प्रकार सब रोगों से छूटकर जब मनुष्य निर्मल ज्ञान रूपी जल में स्नान कर लेता है, तब उसके हृदय में राम भक्ति छा रहती है। शिवजी, ब्रह्माजी, शुकदेवजी, सनकादि और नारद आदि ब्रह्मविचार में परम निपुण जो मुनि हैं,॥

हे पक्षीराज! उन सबका मत यही है कि श्री रामजी के चरणकमलों में प्रेम करना चाहिए। श्रुति, पुराण और सभी ग्रंथ कहते हैं कि श्री रघुनाथजी की भक्ति के बिना सुख नहीं है। कछुए की पीठ पर भले ही बाल उग आवें, बाँझ का पुत्र भले ही किसी को मार डाले, आकाश में भले ही अनेकों प्रकार के फूल खिल उठें, परंतु श्री हरि से विमुख होकर जीव सुख नहीं प्राप्त कर सकता॥

मृगतृष्णा के जल को पीने से भले ही प्यास बुझ जाए, खरगोश के सिर पर भले ही सींग निकल आवे, अन्धकार भले ही सूर्य का नाश कर दे, परंतु श्री राम से विमुख होकर जीव सुख नहीं पा सकता॥
बर्फ से भले ही अग्नि प्रकट हो जाए (ये सब अनहोनी बातें चाहे हो जाएँ), परंतु श्री राम से विमुख होकर कोई भी सुख नहीं पा सकता। जल को मथने से भले ही घी उत्पन्न हो जाए और बालू (को पेरने) से भले ही तेल निकल आवे, परंतु श्री हरि के भजन बिना संसार रूपी समुद्र से नहीं तरा जा सकता, यह सिद्धांत अटल है॥

प्रभु मच्छर को ब्रह्मा कर सकते हैं और ब्रह्मा को मच्छर से भी तुच्छ बना सकते हैं। ऐसा विचार कर चतुर पुरुष सब संदेह त्यागकर श्री रामजी को ही भजते हैं। मैं आपसे भली-भाँति निश्चित किया हुआ सिद्धांत कहता हूँ- मेरे वचन अन्यथा (मिथ्या) नहीं हैं कि जो मनुष्य श्री हरि का भजन करते हैं, वे अत्यंत दुस्तर संसार सागर को (सहज ही) पार कर जाते हैं। हे नाथ! मैंने श्री हरि का अनुपम चरित्र अपनी बुद्धि के अनुसार कहीं विस्तार से और कहीं संक्षेप से कहा। हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी ! श्रुतियों का यही सिद्धांत है कि सब काम भुलाकर (छोड़कर) श्री रामजी का भजन करना चाहिए॥

श्रीकृष्ण की दिनचर्या सिखाए समय की कद्र
भगवान श्रीकृष्ण ने कर्म का अमर संदेश जगत को दिया, जो युगों के बदलाव के बाद भी प्रासंगिक है। कर्म का सिद्धांत बताकर जगत को गति देने वाले भगवान श्रीकृष्ण का नित्य जीवन यानि दिनचर्या भी समय और कर्म की अहमियत बताती है। भगवान श्रीकृष्ण की यह दिनचर्या श्रीमद्भागवत पुराण के दसवें स्कन्ध में बताई गई है।

भगवान श्रीकृष्ण की दिनचर्या आम व्यक्ति खासतौर पर युवा पीढ़ी के लिए यही प्रेरणा है कि जिंदगी के हर पल का सदुपयोग करें।किसी भी तरह व्यर्थ समय गंवाए अच्छे कार्यों में मन लगाएं, व्यवहार कुशल बनकर दूसरों की जिंदगी से जुड़ी परेशानियों को दूर करने में सहयोगी बने। परिवार, समाज और राष्ट्र के लिए अपने कर्तव्यों को संकल्प के साथ पूरा करें। इस तरह भगवान श्रीकृष्ण की दिनचर्या समय काटने नहीं समय के साथ चलने का संदेश है। जानते हैं भगवान श्री कृष्ण की इसी दिनचर्या की रोचक बातों को -

- भगवान श्री कृष्ण सुबह ब्रह्ममुहूर्त में जागते हैं।
- इसके बाद स्नान कर तन पर धोती और दुपट्टा डालकर संध्या पाठ करते हैं।
- संध्या पाठ के बाद हवन और मौन साधकर गायत्री जप करते हैं।
- सूर्यदेव के उदय होने पर सूर्य पूजा और ऋषि, देवता और ब्राह्मणों की पूजा करते हैं।
- इसके बाद गौ दान करते हैं। वह रोज १३०८४ गाय दान करते हैं।
- ब्राह्मणों को वस्त्र-आभूषण दान करते हैं।
- गाय, ब्राह्मण, देवता, कुटुंब के बुजूर्गों, गुरु को नमन कर शुभ वस्तुओं को छूते हैं।
- सुबह की इन क्रियाओं के बाद वह अपना चेहरा घी और दर्पण में देखते हैं। इसके बाद फिर से गाय, बैल ब्राह्मण और देव मूर्तियों को नमन करते हैं।
- इसके बाद नगरवासियों और महल में रहने वालों वासियों की समस्या सुनकर सुलझातें और कामनाएं पूरी करते हैं।
- जब तक भगवान यह कार्य पूरा करते है, तब तक उनका सारथी दारुक रथ लेकर आ जाता है।
- तब भगवान श्रीकृष्ण उस रथ में उद्धवजी और सत्यकि के साथ बैठकर महल से बाहर आते हैं।
- जहां से वह यदुकूल के साथ दरबार में जाते हैं। जहां वह सिंहासन पर बैठकर राजपाट चलाते हैं। राज्य संबंधित समस्याओं और जरूरतों पर विचार करते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण की दिनचर्या हमे बहुत ही सरल शब्दों में सीख देती है कि समय पर सोना, समय पर जागना हर व्यक्ति को स्वस्थ्य, धनवान और बुद्धिमान बनाता है। यह संदेश बचपन में ही हर व्यक्ति पाठशाला में सुन लेता है,लेकिनअपनाने में भूल करता या भूल जाता है। क्योंकि किसी सीख को जीवन में उतारना कर्मयोगी के लिए संभव है। ऐसे ही कर्मयोगी भगवान श्रीकृष्ण कहलाते हैं।

अनासक्ति से होती है ईश-प्राप्ति
नई-नई दीक्षा प्राप्त एक शिष्य ने अपने गुरु से कहा- ''गुरुदेव! उपासना में मेरा मन ही नहीं लगता। मैं कोशिश कर करके हार गया हूं। आप ही मार्ग बताइए।गुरुदेव ने उस पर एक गंभीर दृष्टि डाली और बोले- ''तुम ठीक ही कहते हो, वत्स। यहां ध्यान लगेगा भी नहीं। चलो, कहीं और चलकर साधना करते हैं। हम आज सायंकाल ही यह स्थान छोड़ देंगे।सूर्यास्त होने के साथ ही गुरु और शिष्य किसी अन्य स्थान की ओर चल पड़े। गुरु के हाथ में एक कमंडल था और शिष्य के हाथ में झोला। गुरु बिल्कुल अलस भाव से चल रहे थे और शिष्य झोले को अत्यंत यत्नपूर्वक संभालते हुए सावधानी से चल रहा था।

मार्ग में एक कुआं दिखाई दिया। शिष्य को प्यास लग रही थी। उसने गुरुजी से थोड़ी देर रुकने को कहा। दोनों ने रुककर पानी पीया। फिर शिष्य ने शौच की इच्छा व्यक्त की। गुरु ने उसे जाने हेतु कहा। उसने अत्यंत सावधानी से अपना झोला गुरु के पास रखा और शौच के लिए चल दिया। जाते-जाते उसने कई बार झोले की ओर देखा। जब वह उस स्थान से हट गया और शौच से निवृत्त हुआ ही था कि उसे एक जोरदार आवाज सुनाई दी। ऐसा लगा कि कोई भारी वस्तु कुएं में फेंकी गई है। शिष्य तेजी से दौड़ता हुआ आया और अपना झोला टटोलकर देखा। फिर रुआंसे स्वर में बोला- ''गुरुजी! इसमें सोने की ईंट थी। उसका क्या हुआ?गुरु ने शांति से जवाब दिया- ''कुएं में चली गई। अब हम भी वहीं लौट चलते हैं, जहां से चले थे। अब तुम्हें ध्यान लगाने में कोई समस्या ना आएगी क्योंकि आसक्ति का बिंदू समाप्त हो गया।गुरु की बातों ने शिष्य की आंखे खोल दी और वह ईश्वर की भक्ति में रम गया। इस जातक कथा का सार यह है कि आसक्ति का मन से पूर्णत: परित्याग किए बिना कोई भी व्यक्ति ईश भक्ति में मन नहीं लगा सकता। शांति व एकाग्रता के लिए निरासक्ति आवश्यक है, जो मोहरहित होने पर ही प्राप्त होती है।

गुरुनानकजी से सीखें जीवन प्रबंधन के सूत्र
सिक्ख धर्म के संस्थापक गुरुनानकजी का जन्म उस समय हुआ जब भारत में मुगलों का अत्याचार बढ़ता जा रहा था। गुरुनानक बचपन से ही बहुत बुद्धिमान थे। उनका ध्यान धर्म आध्यात्म की ओर अधिक था। जैसे-जैसे वे बड़े होते गए उन्होंने सामाजिक कुरीतियों का विरोध करना शुरू कर दिया। गुरुनानकजी का पूरा जीवन आदर्श व्यक्तित्व को दर्शाता है। आदर्श जीवन कैसे जीना है? इस संबंध में गुरुनानकजी ने कुछ सूत्र बताए हैं-

- ईश्वर एक है। गुरुनानकजी के अनुसार ईश्वर एक है और हमें उसी की उपासना करनी चाहिए।
- नानकजी ने कहा है कि इस संसार को चलाने वाला परमात्मा हर जगह और सभी प्राणियों में मौजूद है।
- परमात्मा सर्वशक्तिमान है और जो उसकी आराधना करता है उसे किसी का भय नहीं रहता।
- हमें ईमानदारी और मेहनत से कार्य करना चाहिए। हम धर्म के मार्ग पर चलते हुए अपना जीवन यापन करें।
- कभी भी कोई बुरा कार्य न करें।
- जाने-अनजाने में कभी भी किसी को परेशान ना करें।
- हमेशा, हर परिस्थिति में सदैव खुश रहे।
- भगवान से सदैव अपने गलत कार्यों के लिए क्षमा याचना करते रहें।
- यदि हम सक्षम हैं तो गरीबों और जरूरतमंद लोगों की मदद करनी चाहिए।
- गुरुनानक के अनुसार हम सभी समान हैं। परमात्मा की नजरों में स्त्री और पुरुष बराबर हैं।
- खाना इतना ही खाएं जितना जीने के लिए जरूरी है।
- हमेशा लालच और अन्य बुरी प्रवृत्तियों से दूर रहना चाहिए।

कैसे होते हैं भगवान?
अलग-अलग धर्मों में ईश्वर के अलग-अलग नाम और स्वरुप बताए गए हैं। धर्म में आस्था रखने वाला हर व्यक्ति भगवान पर गहरा विश्वास और आस्था रखता है। वह जिंदगी में अच्छे-बुरे पलों में ईश्वर का ध्यान जरूर करता है। वह साकार हो या निराकार रूप में भगवान की प्रसन्नता के लिए अनेक जतन करता है। हर धर्म के नजरिए से ईश्वर का स्वरुप बहुत विस्तृत और गहरा है। इसलिए धर्म से जोड़कर व्यावहारिक नजरिए से जानते हैं कि भगवान कैसे होते हैं? आम जीवन में पद, प्रतिष्ठा और धन के आधार पर किसी व्यक्ति को देवता का दर्जा दे दिया जाता है। सामाजिक रस्मों के तहत किसी का सम्मान गलत भी नहीं है, किंतु देवता बना देने के पहले यह जरूर जानें कि आखिर भगवान कौन होता है? असल में भगवान का स्थान धर्म से भी ऊपर होता है। साथ ही भगवान चार बातों से दूर होता है। वह है धर्म-अधर्म, कार्य-कारण। इन चार बातों में भेद से दूर होकर फल देने वाले ही भगवान होते है। धर्म शास्त्रों में झांके तो यह बात साफ हो जाती है। जैसे भगवान राम ने विभीषण को राजपाट दे दिया, वहीं रावण को भी मुक्ति दे दी। यही बात प्रहलाद और हिरण्यकशिपु के संदर्भ में दिखाई देती है। इन प्रसंगों में प्रवृत्ति के अनुसार प्राप्त हुए फल का फर्क दिखाई देता है लेकिन भेदरहित ईश्वर के गुण भी साफ देखे जा सकते हैं।

इन सांकेतिक संदेशों को व्यावहारिक जीवन में ढूंढे तो भगवान वह होता है जो मदद करे। किंतु मदद कौन कर सकता है? मदद वही कर सकता है, जो स्वार्थ से दूर और कुछ करने के बदले कुछ पाने की इच्छा से दूर होता है। बिना किसी भेदभाव और पक्षपात के निर्णय करने वाला ही वास्तव में भगवान की तरह भरोसेमंद और संकटमोचक का पद पाता है।

अच्छे मित्रों को कभी धोखा ना दें...
एक मस्त-मौला बंदर था जो कि किसी नदी के किनारे फलदार वृक्षों पर रहता था। दिनभर पेड़ों पर मस्ती करता और वहीं से फल तोड़कर खाता और अपने उदर की पूर्ति करता था। इसी तरह उसका जीवन चल रहा था। एक दिन वह वृक्ष पर बैठा फल खा रहा था तभी एक मगरमच्छ किनारे पर आया और वह इधर-उधर ललचाई नजरों से देखने लगा। उसकी हालत देखकर सहसा ही अंदाजा हो रहा था कि वह बहुत भुखा और व्याकुल है।

बंदर उसे देख रहा था, मगरमच्छ की यह हालत देखकर बंदर के मन में उसके लिए दया की भावना जाग गई और उसने मगरमच्छ से पूछा क्या हुआ भाई? इतने परेशान क्यूं हो? मगरमच्छ ने जवाब दिया बहुत दिनों से भुखा हूं कोई शिकार नहीं मिला, इसी वजह से परेशान हूं। बंदर को दया आई और उसने कुछ फल तोड़कर उसकी ओर फेंक दिए, मगरमच्छ को रसदार और स्वादिष्ट फल खा कर आनंद की अनुभूति हुई। उसे खुश देखकर बंदर ने कुछ और फल उसे दे दिए। इसी तरह वह दिन बीत गया। अगले फिर मगरमच्छ बंदर के पास आ गया और बंदर ने उसे फल खिलाए। अब उनकी दोस्ती गहरी होती गई। रोज शाम को मगरमच्छ कुछ फल अपनी पत्नी के लिए भी ले जाने लगा। मगरमच्छ की पत्नी ने पूछा आप रोज-रोज इतने फल कहां से लाते हैं? इस पर बंदर से दोस्ती की पूरी बात उसने कह सुनाई। ऐसे ही दिन बितने लगे।मगरमच्छ की पत्नी से हृदय से दुष्ट थी इसी दुष्टता के चलते एक दिन उसके मन में ख्याल आया कि जो बंदर इतने स्वादिष्ट और मीठे फल खाता है उसका हृदय कितना मीठा होगा, उसे खाने और ज्यादा मजा आएगा। बस फिर क्या था उसने जैसे-तैसे मगरमच्छ को मना लिया कि वह बंदर का दिल लेकर आए। शुरू में मगरमच्छ दोस्त के साथ धोखा करने से मना करता रहा परंतु अंतत: पत्नी की बात उसे माननी पड़ी।

मगरमच्छ ने योजना बनाकर बंदर से कहा कि मेरी पत्नी को रोज तुम्हारे दिए हुए फल खिलाता हूं जिससे वह अतिप्रसन्न है और तुमसे मिलना चाहती है। बंदर भी खुश हुआ और ठीक है परंतु मैं चलुंगा कैसे? मुझे तैरना नहीं आता। मगरमच्छ ने कहा तुम मेरी पीठ पर बैठ जाओ। बंदर तुरंत ही उसकी पीठ पर बैठ गया। रास्ते में बहुत तेजी से तैर रहे मगरमच्छ से उसने कहा धीरे चलो भाई, मुझे डर लग रहा है। यह सुनकर मगरमच्छ ने कहा अब तो तुझे मरना ही है और मगरमच्छ ने उसकी पत्नी की इच्छा बताई कि उसे तुम्हारा दिल खाना है। यह सुनकर बंदर हतप्रभ रह गया। परंतु उसने धैर्य से बुद्धि का प्रयोग करते हुए कहा अरे भाई पहले बताना था ना मैं तो मेरा दिल पेड़ पर ही छोड़ आया हूं। पहले बताते तो साथ लेकर आते। यह बात सुनकर मगरमच्छ तुरंत ही वापस पेड़ की ओर चल दिया। जैसे पेड़ के करीब पहुंचे वैसे ही तुरंत बंदर पेड़ चल गया और बोला मूर्ख क्या कभी कोई अपना हृदय बाहर छोड़ सकता है। तूने दोस्ती के नाम को बदनाम कर दिया अब जा मर मैं तो चला। मगरमच्छ को खाली हाथ मुंह लटकाकर लौटना पड़ा।

इस कहानी का सबक यही है कि विपरित परिस्थितियों में हमें सावधानी और बुद्धि से काम लेना चाहिए। साथ ही किसी दुष्ट की बातों में आकर अच्छे मित्रों से धोखा नहीं करना चाहिए।

सच्चा मित्र कौन...
दो मित्र थे... बहुत अच्छी थी उनकी दोस्ती... एक दूसरे पर जान देते थे... कभी भी, कहीं भी दोनों साथ में रहते थे। एक का नाम था लालू और दूसरे का था गोलू। लोगों को दोनो की जोड़ी बड़ी अजीब लगती थी। क्योंकि लालू कुछ ज्यादा ही दुबला था और गोलू कुछ ज्यादा मोटा।

एक दिन दोनो खेल-खेल में गांव से बहुत दूर निकल गए और जंगल में रास्ता भटक गए। शाम होने को आई थी परंतु उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। ऐसे में दोनों को डर भी लग रहा था। डरने की बात भी थी क्योंकि घना जंगल था और वहां कई खुंखार जानवर रहते थे। दोनों डरते हुए चले जा रहे थे तभी सामने से एक भालू आता दिखाई दिया। भालू को देखकर दोनों की हालत खराब हो गई। अब दोनों को समझ नहीं आ रहा था क्या करें? क्या ना करें? दोनों वहां से भागे और दुबला-पतला लालू तुंरत ही एक पेड़ पर चढ़ गया। गोलू भी पेड़ पर चढऩे की कोशिश करने लगा परंतु मोटा होने की वजह नहीं चढ़ पा रहा था और लालू ने भी उसकी कोई मदद नहीं की। इतनी देर में भालू उसके पास आ गया। तब गोलू ने धैर्य नहीं खोया और उसने कहीं सुना था कि भालू मृत शरीर को नहीं खाता है। बस फिर क्या था वह जमीन पर लेट गया और सांस रोक ली। भालू उसके पास आया, उसने सुंघने लगा और उसे मृत समझकर वहां से चला गया। इस तरह गोलू की जान बच गई। भालू के जाने के बाद लालू नीचे आया और गोलू से बोला मित्र तुम ठीक हो? इस पर गोलू ने चिढ़कर कहा कि जो बुरे समय में साथ ना दे वह सच्चा मित्र नहीं है और तुमने मेरा साथ छोड़ दिया। यह सुनकर लालू को अपनी गलती का एहसास हुआ परंतु उसके बाद दोनों की मित्रता टूट गई।

अंतत: इस कहानी से यही शिक्षा मिलती है कि बुरे समय में जो साथ दे वही सच्चा मित्र है, सच्चा हितेषी है। परंतु जो विपरित परिस्थिति में हमें अकेला छोड़कर भाग जाए ऐसे लोगों से सदा दूर रहना चाहिए।

मदद करों पर सोच-विचार कर...
मदद, हेल्प, सहयोग जैसे शब्द आजकल हम दिनभर में कई बार दोहराते हैं, सुनते हैं। सभी को किसी ना किसी की कभी ना कभी मदद लेना पड़ती है और हम मदद करते भी हैं। परंतु कई बार किसी की मदद करने के चक्कर में उलटे हमें भी समस्याओं का सामना करना पड़ता हैं। किसी गलत व्यक्ति की मदद करने के क्या परिणाम हो सकते हैं इस संबंध में एक कथा प्रचलित हैं।

एक राजा, जिसका आलीशान महल, असंख्य सेवक और बहुत बड़ा राज्य था। उसका शयनकक्ष सारी सुविधाओं से सुसज्जित था परंतु राजा की मुलायम शैय्या पर एक जूं रहती थी जो हर रात राजा का खून चूसा करती थी। एक दिन कहीं से एक खटमल भी उस बिस्तर पर आ गया, जिसे देखकर जूं ने उसे वहां से चले जाने को कहा। परंतु खटमल चतुर था उसने जूं को किसी तरह बातों से बहला-फुसलाकर कहा मैं अभी रात को कहां जाऊंगा? आज रात मदद कर दो रहने दो यहां मैं कल चले जाऊंगा। जूं उसकी बातों में आ गई और उसने खटमल से कहा कि तुम राजा का खून उसके सोने के समय चूस सकते हो। अब तक राजा भी अपनी शैय्या पर लेट चुका था और खटमल से रहा नहीं गया और उसने राजा का डंक मार दिया। राजा तुरंत ही उठा और सेवकों को बुलाकर शैय्या देखने को कहा। खटमल तो तुरंत ही कहीं जा छुपा परंतु जूं नहीं छिप सकी और सेवकों की नजर में आ गई और उन्होंने जूं को मार दिया। किसी भी अयोग्य व्यक्ति की मदद करने से उलटे हम ही मुसीबत में फंस सकते हैं। अत: किसी की भी मदद करो परंतु अच्छे से सोच-विचार कर।

एक सियार जंगल का राजा...
किसी जंगल में सियारों का झुंड रहता था। उस झुंड में एक सियार बड़ा कपटी और धूर्त था। दूसरों को परेशान करने में उसे बहुत आनंद प्राप्त होता था। एक दिन वह घुमते-घुमते शहर जा पहुंचा। शहर में सभी कुत्ते उसके पीछे पड़ गए और वह उनसे डरते-डरते किसी कपड़े रंगने वाले घर में घुस गया। घर में एक टंकी जो लाल रंग के पानी से भरी थी उसमें वह सियार जा गिरा। लाल पानी में गिरने से सियार का रंग पूरा लाल हो गया। वह वहां से बाहर निकला और कुत्ते उस अजीब से दिखने वाले सियार को देखकर भाग गए। सियार भी जैसे-तैसे फिर से अपने जंगल आ गया। जंगली जानवरों अजीब से लाल सियार को देख और सभी भयभीत हो गए और उससे डरने लगे। सभी जानवरों को डरते देख सियार ने खुद को महान पराक्रमी बताया और बोला आज से मैं ही तुम्हारा राजा हूं। सभी जानवर डरे हुए तो थे ही अत: उसे ही राजा मान लिया। अब शेर, चीता, हाथी आदि सभी उसके आदेश का पालन करने लगे। लाल सियार ने अपनी जाति के सभी सियारों को वहां से भगा दिया और राजा बनकर जंगल पर राज करने लगा। फिर एक दिन जोरदार बारिश हुई जिसमें उस लाल सियार का रंग धुलने लगा। शेर आदि जानवरों ने उस धुर्त-कपटी सियार को पहचान लिया और उसे वहीं मार डाला।

इस कहानी का सार यही है कि कभी भी दूसरों को बेवकूफ बनाकर वाहवाही नहीं लुटना चाहिए, नहीं तो जब भी भेद खुलेगा तो सभी घृणा करने लगेंगे।

सुख में सब साथी...
सुख में तो सभी साथ देते हैं परंतु जब बुरा समय आता है तो कोई साथ नहीं देता। ऐसा ही कुछ हुआ एक चूहे के साथ। नाम था उसका चीची। चीची किसी संयासी के घर के पास बिल बनाकर रहता था। संयासी रोज रात अपने घर में ऊंचे स्थान पर खाने की स्वादिष्ट भोजन रखता था। उस स्थान तक सामान्यत: कोई चूहा नहीं पहुंच पाता था। परंतु जब इस स्थान के बारे में चीची को पता लगा और वह बहुत खुश हुआ। अब वह रोज रात को वहां जाता और संयासी का सारा खाना खुद भी खाता और अपने साथी अन्य चूहे को भी दे देता था। इसी तरह बहुत से दिन बीत गए। फिर एक दिन उस संयासी के यहां उसका मित्र साधु आया। संयासी ने मित्र से सारी बात कह सुनाई कि चूहे उसका सारा खाना रोज खा जाते हैं। वह मित्र देखकर हैरान था कि कोई चूहा इतनी ऊपर तक कैसे पहुंच सकता है? उसे शंका हुई कि जरूर इस चूहे के बिल के नीचे खजाना होगा जिसके बल पर यह इतनी ऊपर कूद लगा लेता है। अब दोनों मित्र चूहे के आने की प्रतिक्षा करने लगे और चूहे के आते ही पीछा कर उसके बिल तक जा पहुंचे। दोनों मित्रों ने उस बिल की खुदाई कर दी और वहां से उन्हें खजाना मिल गया। धन चले जाने से चूहे का बल समाप्त हो गया और धीरे-धीरे जब वह अन्य चूहों को खाना उपलब्ध नहीं करा सका तो सभी उसका साथ छोड़कर चले गए। ऐसे में उसकी मित्रता एक कौएं से हुई और वह कौआं उसे रोज खाना उपलब्ध कराने लगा।

यह बात पूर्णतया सत्य है कि अच्छे समय में सभी आपका साथ देते हैं, आपका ध्यान रखते हैं, आपकी बात सुनते हैं परंतु परिस्थिति वश कभी हम पर बुरा समय आ जाए तो सभी साथ छोड़ देते हैं। साथ देते हैं तो बस सच्चे मित्र। आपके सच्चे हितेशी ही आपके बुरे समय में भी आपका सहयोग करने के लिए सदैव तत्पर खड़े रहते हैं।

सर्वश्रेष्ठ बछड़े का टूटा घमंड
किसी गांव में एक बहुत गरीब किसान रहता था। उसके घर में उसकी पत्नी भी थी। दोनों पत्नी धन के अभाव से बहुत दुखी रहा करते थे। फिर एक दिन गांव में भूकंप आया और पूरा गांव बरबाद हो गया। अब उनके पास शहर जाने के अलावा कोई और रास्ता नहीं था। पति-पत्नी शहर की ओर निकल गए। वहां किसान ने मजदूरी करना शुरू और थोड़ा पैसा भी जमा कर लिया। कुछ समय बाद उनके गांव का कोई व्यक्ति उन्हें सूचना दे गया कि गांव में अब सब ठीक हो गया है। यह सुनकर किसान और उसकी पत्नी गांव की ओर चल दिए। रास्ते में उन्होंने एक गर्भवती गाय खरीद ली। गांव पहुंचकर गाय ने कुछ दिनों में एक बछड़े को जन्म दिया। बछड़े के भाग्य से किसान की फसल अच्छी हो गई और उसके पास बहुत पैसा आ गया। बछड़े को शुभ मानकर किसान ने उसके गले में सुंदर सी घंटी बांध दी। पैसा आने पर उसने कुछ और गाय-बैल और बछड़े खरीद लिए। अब सभी गाय-बैल और बछड़े साथ रहते पर वह घंटीवाला बछड़ा सभी से अलग ही रहता था। एक अन्य बछड़े ने घंटी वाले बछड़े से पूछा तुम हम सब से अलग क्यों रहते हो? घमंडी घंटीवाला बछड़ा बोला मैं मालिक का लाड़ला घंटीवाला बछड़ा हूं, तुम सभी से मैं श्रेष्ठ हूं तो तुम जैसे छोटो के साथ नहीं रह सकता।

वहीं गांव के पास जंगल में सभी गाय-बैल और बछड़े घास चरने जाते थे। उस जंगल में एक शेर आया उसने देखा कि एक बछड़े बाकी सभी से अलग-अलग और बहुत चल रहा है। शेर आसान शिकार समझकर उसे मारकर खा गया। इस तरह उस घंटीवाले बछड़े घमंड के कारण अपनी जान से हाथ धो बैठा।

इस कहानी से यही सीख मिलती है कि हमें घमंड से चूर होकर खुद को सर्वश्रेष्ठ नहीं समझना चाहिए। घमंड में कभी किसी अन्य को छोटा भी नहीं समझना चाहिए। साथ ही अपने लोगों का साथ कभी नहीं छोडऩा चाहिए।

बिच्छु का स्वभाव है डंक मारना और हमारा...?
परमात्मा ने सभी जीवों को अपना अलग-अलग स्वभाव दिया है। सभी प्राणी उसी स्वभाव के अनुसार जीवन जीते हैं। जैसे बिच्छु का स्वभाव होता है डंक मारना। ऐसी ही एक कथा है: एक ज्ञानी और तपस्वी संत थे। दूसरों के दुख दूर करने में उन्हें परम आनंद प्राप्त होता था। एक बार वे सरोवर के किनारे ध्यान में बैठे हुए थे। तभी उन्होंने देखा एक बिच्छु पानी में डूब रहा है। वे तुरंत ही उसे बचाने के लिए दौड़ पड़े। उन्होंने जैसे ही बिच्छु को पानी से निकालने के लिए उठाया उसने स्वामीजी को डंक मारना शुरू कर दिया और वह संत के हाथों से छुटकर पुन: पानी में गिर गया। स्वामीजी ने फिर कोशिश परंतु वे जैसे ही उसे उठाते बिच्छु डंक मारने लगता।
ऐसा बहुत देर तक चलता रहा, परंतु संत ने भी हार नहीं मानी और अंतत: उन्होंने बिच्छु के प्राण बचा लिए और उसे पानी से बाहर निकाल लिया। वहीं एक अन्य व्यक्ति इस पूरी घटना को ध्यान से देख रहा था। जब संत सरोवर से बाहर आए तब उस व्यक्ति ने पूछा- स्वामीजी मैंने देखा आपने किस तरह जहरीले बिच्छु के प्राण बचाए। बिच्छु को बचाने के लिए अपने प्राण खतरे में डाल दिए। जब वह बार-बार डंक मार रहा था तो फिर आपने उसे क्यों बचाया? इस प्रश्न को सुनकर स्वामीजी मुस्काए और फिर बोले- बिच्छु का स्वभाव है डंक मारना और मनुष्य का स्वभाव है दूसरों की मदद करना। जब बिच्छु नासमझ जीव होते हुए भी अपना डंक मारने का स्वभाव अंत समय तक नहीं छोड़ रहा है तो मैं मनुष्य होते हुए दूसरों की मदद करने का मेरा स्वभाव कैसे छोड़ देता। बिच्छु के डंक मारने से मुझे असनीय पीड़ा हो रही है परंतु उसकी जान बचाकर मुझे जो परम आनंद प्राप्त हुआ उससे मैं बहुत खुश हूं।

एक मरा हुआ गधा
एक लड़के ने किसी गरीब किसान से एक गधा 1000 रुपए में खरीदा। लड़के ने गधे को अगले दिन ले जाने की बात कही और किसान ने हां कर दी। अगले दिन लड़का गधा लेने आया, परंतु गधा तो रात में मर चुका था।
गरीब किसान ने मॉफी मांगते हुए कहा: बेटा गधा तो रात को मर गया। अब जैसा तुम बताओ वैसा ही करते हैं।
लड़के ने कहा: ठीक है फिर मेरे 1000 रुपए लौटा दो। किसान ने कहा- बेटा पैसे तो खर्च हो गए अब मेरे पास कुछ नहीं बचा। लड़के ने कहा: ठीक है फिर मरा हुआ गधा ही ठेले पर रख दो। किसान ने कहा: मरे हुए गधे का क्या करोगे? लड़के ने कहा: मैं इस गधे को लॉटरी निकालकर बेच दूंगा और इससे पैसा कमा लूंगा। किसान ने कहा: ऐसा कैसे हो सकता है? मरा गधा कौन खरीदेगा? लड़के ने कहा: मैं बेच दुंगा, आप बस गधा ठेले पर चढ़ा दो।

लड़का मरा हुआ गधा लेकर बाजार के चौराहे पर चला गया और वहां जोर-जोर चिल्लाने लगा 100 रुपए दो और जिसकी लॉटरी निकल जाएगी एक गधा उसका हो जाएगा। लोगों ने सोचा 100 रुपए में गधा मिल जाएगा कोशिश कर लेते हैं शायद हमारी लॉटरी निकल जाए। यह सोच कर करीब 50 लोगों ने उस लड़के को 100-100 रुपए दे दिए। इस तरह उसके पास 5000 रुपए जमा हो गए। और उसने किसी एक व्यक्ति की लॉटरी निकाली दी। वह व्यक्ति गधा लेने आया तो लड़के ने उससे माफी मांगते हुए कहा गधा तो मर गया है आपके 100 रुपए वापस ले लीजिए। मरा गधा लेकर क्या करुंगा? यह सोचकर लॉटरी विजेता 100 रुपए लेकर चला गया।
इस तरह लड़के ने समझदारी से 4900 रुपए कमा लिए।

झूठी शान, आफत में जान
किसी राज महल के एक पेड़ पर कपटी कौआं रहता था। वह रोज राज महल से चोरी छुपे खाना चुराता और मजे से रहता। उसके दिन इसी तरह कट रहे थे। महल के पास ही एक झील थी जहां हंस रहते थे। हंसों को देखकर कौएं ने सोचा कि हंस कितने प्यारे और सुंदर दिखाई देते हैं। किसी तरह इनसे दोस्ती हो जाए तो मजा आ जाए।

एक दिन कौआं झील पर पानी पीने के बहाने से गया और वहां एक हंस से बोला मुझे प्यास लगी है, आपकी आज्ञा हो तो झील के पानी से अपनी प्यास बुझा लूं। हंस ने बोला जल पर सभी का समान अधिकार है। अत: तुम पानी पी सकते हो। बस फिर इसी तरह रोज कौआं वहां जाता और हंस से मिलता। इसी तरह उन दोनों की अच्छी दोस्ती हो गई। एक दिन हंस ने मित्र कौएं को अपने घर खाने पर बुलाया। हंस का आलीशान और सुंदर घर देखकर कौआं हक्का-बक्का रह गया। घर में कई सेवक कौएं की आवभगत कर रहे थे। वहां कौएं को खाने के लिए तरह-तरह के व्यंजन दिए गए। खाना खाकर कौआं बहुत प्रसन्न हुआ।

अगले दिन कौएं ने सोचा हंस को मुझे भी दावत पर बुलाना चाहिए। परंतु मेरे पास तो कुछ भी नहीं, ना ही ऐसा घर, ना ही खाना कुछ नहीं। फिर उसे एक युक्ति समझ आई और वह राज महल में गया जहां हर कार्य समय पर किया जाता था। रोज सैनिकों की परेड निकलती, गीत-संगीत आदि सभी कार्यक्रम निश्चित समय पर किए जाते थे। सब अच्छे से समझकर कौएं ने हंस से कहां मैं उस राज महल का राजा हूं और आपको दावत का निमंत्रण देता हूं। हंस ने निमंत्रण स्वीकार किया और उसके साथ राजमहल की ओर उड चला। कौआ हंस को राज महल में अपने पेड़ पर ले आया और उस समय सैनिकों की परेड का समय था अत: कौआं हंस से बोला यह परेड आपके लिए ही आयोजित की गई है। हंस कौएं का वैभव देखकर बहुत खुश हुआ। फिर किसी तरह कौएं ने जो खाना चुरा-चुराकर जमा किया था वह हंस को खिलाया फिर रात्रि के समय राजमहल में गीत-संगीत का कार्यक्रम हुआ तो कौएं ने फिर हंस से बोला यह संगीत का कार्यक्रम भी आपके लिए ही है। हंस और खुश हुआ। सुबह सैनिक परेड किए बिना कहीं बाहर जा रहे थे जिसे देखकर हंस कौएं से बोला मित्र आपके सैनिक बिना आपकी आज्ञा के कहीं जा रहे हैं।

कौआं झूठी शान दिखाने के लिए उन्हें रोकने का प्रयास काउ... काउ... काउ... चिल्ला कर करने लगा। कौएं की काउ-काउ को अपशकुन मानकर वे सभी सैनिक वहीं रुक गए, परंतु थोड़ी देर बाद फिर जाने लगे तो कौआ फिर चिल्लाया। इस बार एक सैनिक ने धनुष पर बाण चढ़ाया और कौएं की ओर छोड़ दिया जो सीधा कौएं के पास बैठे हंस को जा लगा और हंस वहीं मर गया। कौआं जोर-जोर से रोने लगा कि मेरी झूठी शान के चक्कर में एक निर्दोष मित्र की जान चली गई। उसके इस तरह चिल्लाने पर एक बाण और आया जिसने कौएं की जान ले ली। हमें भी झूठी शान दिखाने के चक्कर में नहीं फंसना चाहिए। ऐसी झूठी शान दिखाने से अपनी जान पर बन आती है। कई झूठ बोलना पड़ते हैं और कभी ना कभी झूठ सामने आ ही जाता है और उस समय हमारा मान-सम्मान नष्ट हो जाता है।

पार्वती की युक्ति से दूर हुआ सूखा
एक बार शिवजी और मां पार्वती भ्रमण पर निकले। उस काल में पृथ्वी पर घोर सूखा पड़ा था। चारों ओर हाहाकार मचा हुआ था। पीने को पानी तक जुटाने में लोगों को कड़ी मेहनत करना पड़ रही थी। ऐसे में शिव-पार्वती भ्रमण कर रहे थे। मां पार्वती से लोगों की दयनीय स्थिति देखी नहीं गई। वे उदास हो गई परंतु शिवजी से कुछ बोल नहीं सकी। तभी शिव-पार्वती को एक किसान दिखाई दिया जो कड़ी धूप में सूखे खेत को जोत रहा था। पार्वती को यह देखकर अत्यंत आश्चर्य हुआ और उन्होंने शिवजी से पूछा- स्वामी इस सूखे के समय जहां पीने का पानी तक नहीं मिल रहा है, वहीं ये बेचारा किसान इस धूप में व्यर्थ ही कड़ी मेहनत कर रहा है। तब शिवजी ने कहा कल्याणी वह खेत में हल इसलिए चला रहा है ताकि खेत जोतने की उसकी आदत ना छूट जाए। यह बात सुनकर पार्वती को ध्यान आया शिवजी के शंख बजाने से वर्षा होती है। यह सोच वे शिवजी से बोली स्वामी आपने भी बहुत दिनों से अपना शंख नहीं बजाया, कहीं आप शंख बजाना ना भूल जाए। यह सुनकर शिवजी ने शंख बजा दिया और पृथ्वी पर घनघोर बारिश हो गई जिससे भयंकर सूखा समाप्त हो गया।

कबूतरों का झुंड फंस गया जाल में...
किसी जंगल में कबूतरों का एक झुंड रहता था। उस झुंड का सरदार था मन्कु कबूतर। सभी उसका कहा मानते थे। उस समय जंगल में भयंकर सूखा पड़ा और जंगल की सारी हरियाली सूख गई, पानी के सारे तालाब सूख गए, किसी के खाने के लिए कुछ बाकी ना रहा। सभी जानवरों की तरह कबूतरों का भी बुरा हाल हो गया। मन्कु सरदार ने सोचा इस तरह को सारे कबूतर मारे जाएंगे इसलिए उसने फैसला किया कि कहीं और उड़कर जाना चाहिए।

सभी कबूतर मन्कु के पीछे-पीछे उड़ चले। बहुत दूर उडऩे के बाद भी उन्हें कुछ खाने का दिखाई नहीं दे रहा था तभी एक कबूतर को खेत में बहुत सारा अन्न बिखरा हुआ दिखाई दिया। उसने मन्कु सरदार को इशारा किया सरदार भी भूख से बेहाल हो रहा था अत: उसने सभी कबूतरों को आदेश दिया कि वे दाना चुग लें। कबूतरों का झुंड बिखरे दानों पर टूट पड़ा, परंतु वहां कोई यह नहीं समझ सका कि इतना दाना किसी ने क्यों बिखेर रखा है? दरअसल इतना दाना एक बहेलिए ने पक्षियों को पकडऩे के लिए बिखेरा था इसलिए वहीं उसने जाल भी फैला रखा था। फैल जाल से अनभिज्ञ सभी कबूतर दाना चुगने में मशगुल थे कि इतने में फैला हुआ जाल उन सभी के ऊपर आ गिरा और वे जाल में फंस।

अब मन्कु सरदार खुद का सिर पिटने लगा और बोला मैं समझ क्यों नहीं सका इतना दाना कोई ऐसे ही क्यों फैलाएगा? पर अब हो भी क्या सकता था। सभी कबूतर विलाप करने लगे की अब हमारी मौत आ ही गई है। तभी मन्कु सरदार ने शांत होकर सभी से कहा कि एकता में बड़ा बल होता है, हम सब एक साथ मिल जाए तो बहुत कुछ अब भी कर सकते हैं। इतने एक कबूतर फडफ़ड़ाया कि सरदार साफ-साफ बोलों अब जाल में फंसे कबूतर क्या कर सकते हैं? तब मन्कु सरदार बोला सभी कबूतर अपनी-अपनी चोंच में जाल का धागा पकड़ लो और जब में इशारा करूं पूरा जोर लगाकर उडऩा शुरू कर देना। इसी दौरान कबूतरों को बहेलिया आता दिखाई दिया अब तो सभी के पसीने छुट गए। तभी मन्कु ने इशारा कर दिया और सभी कबूतर जाल को साथ उडऩे लगे। जाल सहित कबूतरों को उड़ता देख बहेलिए का मुंह खुला का खुला ही रहा गया। वहीं कुछ ही दूर एक पहाड़ी पर मन्कु सरदार की दोस्त चीची चूहिया बहुत से साथियों के साथ रहती थी। मन्कु सभी कबूतरों को उसी पहाड़ पर ले गया और अपनी दोस्त चीची चूहिया से सारी घटना सुनाकर जाल काटने का अनुरोध किया। कुछ ही देर में चीची और उसके साथियों ने पूरा जाल काट दिया। अब सभी कबूतर आजाद हो गए और चीची चूहिया को धन्यवाद देकर वहां से उड़ चले।

कहानी का सारांश यही है कि मुसीबत के समय घबराना नहीं चाहिए और एक-दूसरे को बुरा-भला बोलने से अच्छा है कि एक साथ मिलकर समस्या से निपटा जाए। एकता में बहुत शक्ति होती है।

कौआं उड़ा बाज की उड़ान...
एक बहुत आलसी कौआं था, नीम के पेड़ पर था उसका घोंसला। वह इतना आलसी था कि हमेशा इसी तांक में रहता कि कहीं से उसे बिना परिश्रम के ही दाना-पानी मिलता रहे। वहीं उसके पास ही किसी पेड़ पर एक बाज रहता था। वह बाज बहुत तेज और होशियार था। इसी वजह से बाज बहुत अच्छे शिकारी भी होते हैं। कौआं रोज बाज को देखता और उसकी तरह उडऩे की कोशिश करता।

कौएं के पेड़ के पास खरगोश रहते थे। एक दिन उसने देखा बाज बहुत से ही एकदम जमीन की ओर आया और एक खरगोश को झपट कर ले गया। कौएं ने सोचा खरगोश का स्वादिष्ट मांस खाने के लिए मुझे भी बाज की ही तरह खरगोश शिकार करना पड़ेगा। उसने एक छोटे खरगोश को निशाना बनाने की योजना बनाई। योजना के अनुसार उसने भी बहुत ऊंची उड़ान भरी और एकदम तेजी से ऊंचाई से नीचे की ओर आया इतने में खरगोश ने कौएं को अपनी ओर आते देखा और वह एकदम पहाड़ी के पीछे छिप गया। कौएं इतनी तेजी से नीचे आ रहा था कि एकदम खुद को रोक नहीं सका और उसकी चोंच जमीन पर टकरा गई जिससे उसकी गर्दन टूट गई और वह वहीं मर गया।

कौएं की इस हरकत से यही शिक्षा मिलती है कि किसी नकल करने से पहले हमें अपनी योग्यता का आंकलन करना चाहिए और उसके बाद योग्यतानुसार सोच-समझकर कार्य करनी चाहिए। दोस्त हैं सच्चे तो हर मुश्किल है आसान एक जंगल में चार दोस्त रहते थे चूहा, कछुआ, कौआं और हिरण। चारों की मित्रता काफी पुरानी और मजबूत थी। सभी सुख-दुख में एक-दूसरे का साथ दिया करते थे। वे रोज शाम मिलते और साथ खेलते खाना खाते, मस्ती करते। इसी तरह उनका जीवन चल रहा था।

एक शाम चूहा, कौआं और कछुआ को आ गए परंतु हिरण नहीं आया। इस वजह तीनों मित्र परेशान हो गए कि हिरण अभी तक क्यों नहीं आया। जब बहुत देर तक हिरण नहीं आया तो कछुआ बोला जरूर हिरण किसी मुसीबत में फंस गया है, नहीं तो अभी तक तो उसे आ जाना था। बाकी दोनों मित्रों ने कछुए की बात में सिर हिलाया। चूहा बोला अब हमें क्या करना चाहिए? कौआं बोला में उड़कर देखता हूं जहां वह घास चरने जाता है, कहीं हिरण वहीं तो नहीं है? परंतु अंधेरा घिर आया था अत: कौआं फिर बोला कि अंधेरे में मुझे दिखाई नहीं इसी वजह से मैं सुबह उड़कर हिरण को ढूंढता हूं। तीनों मित्र हिरण की याद में रातभर वहीं बैठे रहे।

जैसे ही सूर्य की पहली किरण आई कौआं तुरंत ही उड़ चला और कांउ... कांउ... कांउ... करके मित्र हिरण को पुकारने लगा। कुछ ही दूर उडऩे पर उसे किसी के रोने की आवाज सुनाई दी। वह तुरंत ही समझ गया कि यह तो हिरण के रोने की आवाज है और कौआं जल्द ही वहां पहुंच गया जहां से आवाज आ रही थी। कौएं ने देखा कि हिरण जाल में फंसा हुआ और रो रहा है। तब हिरण ने रोते-रोते बताया कि किसी शिकारी ने मुझे जाल में फंसा लिया और कुछ ही देर में वह आकर मुझे ले जाएगा। तब कौआं बोला मित्र तुम चिंता ना करो मैं चूहे को लेकर आता हूं वह तुम्हारा जाल पलभर में काट देगा।

कौआं तुंरत ही उड़कर कछुए और चूहे के पास पहुंचा सारी समस्या कह सुनाई। कौआं जल्द ही चूहे को पीठ पर बैठाकर हिरण के पास उड़कर पहुंच गया। चूहे ने भी कुछ ही समय में पूरा जाल काट दिया। इतने कछुआ भी वहां पहुंच गया। अब चारों मित्र खुशी मना ही रहे थे कि इतने में शिकारी वहां आ धमका। कौआं उड़ गया, चूहा तुरंत ही बिल में जा छिपा और हिरण भी फुदककर वहां से दूर भाग गया। अब रह गया कछुआ जो धीमी चाल की वजह से ज्यादा दूर नहीं जा सका है शिकारी ने उसे पकड़कर झोले में डाल दिया।

इधर तीनों मित्रों ने यह सब देखा तो उनके होश उड़ गए कि कछुए को कैसे बचाए? तब हिरण बोला मैं शिकारी के सामने जाता हूं वह झोला रखकर मुझे पकडऩे दौड़ेगा इतनी देर में चूहा कछुए को आजाद करा लेगा। चूहे और कौएं को योजना उचित लगी। अब हिरण तुरंत ही शिकारी के सामने पहुंच गया। शिकारी हिरण को देख झोला वहीं छोड़कर उसके पीछे भागा परंतु हिरण उसके हाथ ना आया इधर चूहे ने झोला कुतरकर कछुए को आजाद करा लिया।

कहानी का सार यही है कि मित्रता में कोई बड़ा-छोटा नहीं होता, सभी मित्र एक समान होते हैं। साथ ही सच्चे मित्र साथ हैं तो किसी भी मुश्किल से आसानी से निजात पाई जा सकती है।

महंगी पड़ी शरारत
एक जंगल में बंदरों का एक झुंड रहता था। बंदर तो स्वभाव से ही चंचल होते हैं परंतु उस झुंड में एक बहुत शरारती और सभी से पंगे लेने वाला बंदर था। सभी को इतना परेशान करता था कि सभी उसे मार-मारकर भगा देते थे। गर्मी के दिन थे, जंगल में खाने-पीने की समस्या खड़ी हो गई। नदी-झील से जल और पेड़ों से फल गायब हो गए। बंदरों के जीवन पर संकट आ पड़ा। तब सभी बंदरों ने चर्चा की और शहर की ओर जाने का फैसला किया।

कुछ दिनों में सभी बंदर शहर में आ पहुंचे, जहां वे एक लकड़ी की टाल को जहां बहुत से पेड़-पौधो थे, हरियाली थी वहां अपना रहने का स्थान बनाया। लकड़ी की टाल में मनुष्यों द्वारा लकड़ी के लट्ठे आरी से चीरने का कार्य किया जाता था। एक दिन सभी मजदूर खाना खाने गए और जाते-जाते वे एक लट्ठे में कीला फंसाकर गए ताकि लट्ठे में दोबारा आरी फंसाने में परेशानी ना हो। सभी मजदूरों के जाने के बाद वहां शांति देखकर शैतान बंदर का मन मचल गया और उसने शैतानी करना शुरू कर दी। कभी इधर कूदता तो कभी उधर, अन्य बंदरों ने उसे बहुत समझाया परंतु वह कहां किसी की सुनने वाला था। वो लगा रहा अपनी बदमाशी करने में। इसी शैतानी में उस लट्ठे के पास पहुंच गया जिसे चीरने के लिए मजदूर कीला फंसा के गए थे। अब उसने उस फंसे हुए कीले को देखा तो उसे तो और मजा आ गया, अब वह उस कीले से जोरआजमाइश करने लगा। थोड़ी ही देर में वह कीला निकलकर बाहर आ गया और अब बीच में से फटी हुई लकड़ी में फंस गई बंदर की पूंछ। पूंछ फंसते ही बंदर की जान निकल गई वह चिल्लाने लगा। इतने में वहां मजदूर भी आए जिन्हें देखकर शैतान बंदर और ज्यादा डर गया और जान बचाने के लिए वहां से जोर लगाकर भागा तो लकड़ी में फंसी उसकी पूंछ टूट गई। इस कहानी से यही सबक मिलता है कि जरूरत से ज्यादा शैतानी कभी-कभी मुसीबत का कारण भी बन जाती है।

जो काम करें, बस उसमें खो जाएं
आज जब हमारा ध्यान या मन एक जगह केंद्रित नहीं हो पाता, जिससे पढऩे और समझने जैसे कार्य में काफी समय लगता है। परंतु मन एक जगह केंद्रित कर कुछ पढ़ा जाए तो कुछ ही पलों में 400 पेज की किताब भी आसानी से पढ़ी जा सकती है।

ध्यान के संबंध में स्वामी विवेकानंद एक प्रसंग है, जब वे अपने विदेश मित्र के यहां गए हुए थे। रात के समय दोनों मित्र आपस में किसी विषय पर चर्चा कर रहे थे। तभी स्वामीजी के मित्र को कहीं जाना पड़ा। अब स्वामीजी घर में अकेले थे, उन्हें एक किताब दिखाई दी और उन्होंने किताब पढऩा शुरू कर दी। कुछ देर बाद उनका मित्र उनके समक्ष आकर खड़ा हो गया। परंतु स्वामीजी का ध्यान उनके मित्र की ओर नहीं गया वे किताब पढऩे में लगे रहे। जब स्वामीजी ने किताब पूरी पढ़ ली तो उन्होंने देखा कि उनका मित्र वहां खड़ा था। स्वामीजी ने क्षमा मांगते हुए कहा कि मैं किताब पढऩे में इतना खो गया था कि तुम कब आए पता ही नहीं चला। उनका मित्र मुस्करा दिया। दोनों मित्र फिर चर्चा करने लगे। इस बार स्वामीजी अभी-अभी जो किताब पढ़ी थी उसकी बातें बताने लगे। उनके विदेशी मित्र ने कहा आपने यह किताब पहले भी कई बार पढ़ी होगी, तभी आपको इस किताब की सारी बाते ज्यों की त्यों याद है। स्वामीजी ने कहा नहीं मैंने यह किताब अभी ही पढ़ी है। उनके मित्र को विश्वास नहीं हुआ कि 400 पेज की किताब कोई इतनी जल्दी कैसे पढ़ सकता है? तब स्वामीजी ने कहा कि यदि हम अपना पूरा ध्यान किताब में लगा दे और दूसरी सारी बातें छोड़ दे तो यह संभव है कि कम समय में ही 400 पेज की किताब पढ़ी जा सकती है, उस किताब की सारी बातें आपको याद रहेंगी।

दूसरों के कल्याण में ही अपना कल्याण
महाकवि भवभूति का कहना है कि कल्याण के प्रतिदान में कल्याण ही हमारे पास आता है। इस विषय में शिवपुराण में एक कथा है। वृत्रासुर नाम का राक्षस अतिबलशाली था। अपनी असीम शक्ति के बल पर उसने इंद्र का राज्य भी हड़प लिया था। सभी देवता उसके अत्याचारों से परेशान हो गए। सो एक दिन वे सभी ब्रह्माजी के पास गए और वृत्रासुर के संहार का उपाय पूछा।

ब्रह्माजी ने बताया कि महर्षि दधीचि की अस्थियों से बने अस्त्र से उसका संहार संभव है। यह सुनकर देवता दधीचि के पास पहुंचे और उन्हें अपनी समस्या कह सुनाई। दधीचि आत्मज्ञानी ऋषि थे। उन्होंने अकाल मृत्यु का वरण करना स्वीकार किया और उनके अवसान के बाद उनकी अस्थियों से बने वज्र से वृत्रासुर का संहार किया गया।

दधीचि का पुत्र पिपलाद उस समय बहुत छोटा था। बड़ा होने पर जब उसे पता चला कि उसके पिता देवताओं के स्वार्थ की बलि चढऩा पड़ा था, तो वह देवताओं के संहार के लिए भगवान शिव की तपस्या करने लगा। शिवजी ने प्रसन्न होकर उससे वर मांगने को कहा तो वह बोला मैं चाहता हूं आप अपना तीसरा नेत्र खोलकर देवताओं को भस्म कर दें।

शिवजी ने उसकी बात सुनकर स्नेहपूर्वक उसे समझाया तुम जो चाहते हो मैं वह कर सकता हूं परंतु इससे होने वाले विनाश के लिए क्या तुम तैयार हो? तुम्हारे नेत्र सूर्य है और मन चंद्रमा है। तुम्हारे अन्य अंग-प्रत्यंग भी विभिन्न देवताओं के रूप है। यदि तुम इन्हें नष्ट कर दोगे, तो तुम्हारा शरीर कैसे रहेगा? दूसरों का बुरा चाहने पर स्वयं का भी बुरा होता है, जैसा वृत्रासुर का हुआ।

पिपलाद को कल्याण का अर्थ समझ में आ गया और उसने अपने आग्रह को निरस्त कर दिया।
वस्तुत: दूसरों के कल्याण में ही स्वयं का कल्याण निहित होता है। यदि हम भलाई करेंगे, तो प्रतिफल में भलाई ही हमारे पास लौटकर आएगी।

मैं को त्यागने पर ही ईश्वर प्राप्ति संभव
जापानी धर्म साहित्य में ईश्वर की उपलब्धि का मार्ग बताती एक कथा है। जापान में एक परम ज्ञानी और तपस्वी फकीर हुए नानहेन। वे सांसारिक माया-मोह से परे निरपेक्ष और त्यागी पुरुष थे। एक बार एक व्यक्ति उनके पास आया और बोला- मैं संन्यास लेने के लिए आपसे दीक्षा पाना चाहता हूं। इसके लिए मैं सब कुछ पीछे छोड़ आया हूं-पत्नी, बच्चे, परिजन, मित्र, जमीन-जायदाद सब कुछ। नानहेन ने उसे ध्यान से देखा और पुछा- क्या तुम बिल्कुल अकेले हो? क्या वास्तव में सब कुछ छोड़ आए हो? वह बोला- आप स्वयं देख लें कि मेरे साथ कोई नहीं है।

नानहेन ने कहा-अपनी आंखें बंद करो और अपने अंतर्मन में झांककर देखो कि वहां कोई और तो नहीं है। जाओ, वहां सामने वटवृक्ष की छाया में बैठकर अंतर्मुखी हो जाओ। वह व्यक्ति नानहेन के आदेशानुसार वटवृक्ष की छाया में बैठकर ध्यान करने लगा। उसने आंखें बंद कर अपने अंतर्मन में झांका तो पाया कि जिस परिवार को वह पीछे छोड़ आया था, वह तो वहां मौजूद था। नानहेन ने ध्यानस्थ व्यक्ति के पास आकर पूछा- क्या तुम भीड़ को सचमुच पीछे छोड़ आए हो? उस व्यक्ति ने इंकार में सिर हिलाया।

नानहेन ने कहा- अरे भाई, जल्दी करो। संन्यास लेना है तो सभी को छोड़ आओ। इतना कहकर नानहेन ने अपनी कुटिया में जाकर भीतर से दरवाजा बंद कर लिया। काफी देर तक वह व्यक्ति अपने अंतर्मन से जूझता रहा फिर एक बिंदु पर आकर उसे ऐसा लगा कि शायद अब उसने सभी को छोड़ दिया है। ऐसा सोचकर उसने नानहेन के द्वार पर दस्तक दी, तो उन्होंने पूछा- कौन है? वह बोला- मैं हूं। तब नानहेन ने उसे समझाया-अभी भी भीड़ तुम्हारे साथ हैं। यह मैं कौन है? उसे भी छोड़कर आओ। यदि तुम वास्तव में इस भीड़ को छोड़ सको तो फिर यहां आने की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी क्योंकि फिर मैं भी तुम्हारे लिए भीड़ बन जाऊंगा। मैं से मुक्ति पा लो, फिर तुम्हें स्वयं ही ईश-उपलब्धि हो जाएगी। वस्तुत: परमात्मा से एकाकार होना तभी संभव होता है जब समस्त सांसारिक जुड़ावों से अलग होकर स्वयं के अस्तित्व को भी भूला दिया जाए।

ईमानदार लुहार को बड़ा प्रलोभन भी डिगा नहीं पाया
ईरान के धर्म साहित्य में ईमानदारी के महत्व पर केंद्रित एक कथा है। एक लुहार बहुत अच्छे हथौड़े बनाता था। वह अति निर्धन लेकिन परम संतोषी था। वह न्यूनतम कीमत पर हथौड़े बनाता और कभी अपने इस हुनर से उसने अतिरिक्त लाभ अर्जित करने का प्रयास नहीं किया। एक दिन एक बढ़ाई उसके पास आया और बोला-मेरे लिए एक अच्छा सा हथौड़ा बना दो। हम सात आदमी बाहर से काम करने आए हैं। मेरा हथौड़ा घर पर ही छूट गया है।

लुहार ने कुछ दिनों में बढ़ाई को एक बढिय़ा हथौड़ा बनाकर दे दिया लेकिन दाम कम ही लिए। उस बढ़ाई को वह हथौड़ा इतना अच्छा लगा कि उसने अपने साथ काम कर रहे अन्य लोगों के समक्ष उसकी प्रशंसा करते हुए उनसे भी उस लुहार से हथौड़ा बनवाने का आग्रह किया। उन सभी ने उस लुहार से हथौड़े बनवाए और अति प्रसन्न भाव से लौटे।

लुहार की प्रशंसा एक ठेकेदार तक पहुंची, तो उसने भी लुहार से कुछ हथौड़े बनाने का आग्रह किया, साथ ही यह भी कहा कि पहले बनाए हुए हथौड़ों से भी बढिय़ा बनाना। इस पर लुहार बोला-जब मैं कोई चीज बनाता हूं तो उसे पूर्ण निष्ठा व ईमानदारी से बनाता हूं और उसमें कोई कमी नहीं रखता, चाहे कोई भी बनवाए। शीघ्र ही लुहार की ख्याति चारों और फैल गई।

एक दिन राजा के सेनापति ने आकर उससे कहा- मैं तुम्हें डेढ़ गुने दाम दूंगा और तुम सारे हथौड़े महल के कार्य हेतु ही बनाना। लुहार ने यह कहते हुए स्पष्ट इंकार कर दिया कि मुझे अपने दाम में ही पूर्ण संतुष्टि है। वस्तुत: ईमानदारी महानतम शक्ति है, जिस पर व्यक्ति में ईमानदारी अपने पूर्ण स्वरूप में मौजूद हो, उसे बड़े से बड़ा प्रलोभन भी डिगा नहीं सकता। इसका कारण यह है कि ईमानदारी से व्यक्ति के भीतर वह आत्मिक बल पैदा होता है जो सभी बलों में सर्वश्रेष्ठ है।

हकीम लुकमान की अंतिम शिक्षा है-सत्संग
हकीम लुकमान के जीवन से जुड़ी एक घटना है। जब वे मृत्युशैय्या पर अंतिम सांस ले रहे थे तो उन्होंने अपने पुत्र को पास बुलाकर कहा-बेटा। मैं जाते-जाते एक अंतिम और अति महत्वपूर्ण शिक्षा देना चाहता हूं। इतना कहकर लुकमान ने पुत्र से धूपदान लाने के लिए कहा। जब वह धूपदान लेकर आया, तो लुकमान ने उसमें से चुटकी भर चंदन लेकर उसके हाथ में थमाया और संकेत से उसे कोयला लाने के लिए कहा। जब पुत्र कोयला लेकर आया तो उन्होंने दूसरे हाथ में कोयले को रखने का आदेश दिया। कुछ देर बाद फिर लुकमान ने कहा-अब इन्हें अपने-अपने स्थान पर वापस रख आओ। पुत्र ने वैसा ही किया। उसकी जिस हथेली में चंदन था, वह उसकी सुंगध से अब भी महक रही थी और जिस हाथ में कोयला था वह हाथ काला दिखाई पड़ रहा था।

लुकमान ने पुत्र को समझाया-बेटे। अच्छे व्यक्तियों का साथ चंदन जैसा होता है। जब तक उनका साथ रहेगा, तब तक तो सुगंध मिलगी ही, किंतु साथ छूटने के बाद भी उनके सद्विचारों की सुवास से जिदंगी तरोताजा बनी रहेगी जबकि दुर्जनों का साथ कोयले जैसा है। कुसंगति से प्राप्त कुसंस्कारों का प्रभाव आजीवन बना रहता है। इसलिए बेटा। जीवन में सदैव चंदन जैसे संस्कारी व्यक्तियों के ही साथ रहना और कोयले जैसे कुसंग से दूर रहना।

शायद इसीलिए कहा गया है-चंदन की चुटकी भली, गाड़ी भरान काठ अर्थात चंदन की चुटकी भी मन को उल्लास से भर देती है जबकि गाड़ी भर लकड़ी भी इस कार्य को संपन्न नहीं कर सकती। लुकमान का पुत्र उनके दिखाए मार्ग पर चलकर सदैव सुखी रहा। वस्तुत: लुकमान का यह उपदेश सत्संग की महिमा प्रस्थापित करता है। अच्छे व्यक्तियों का साथ शुभ फलदायी होता है जबकि बुरे व्यक्तियों का संगति अशुभ परिणामदायी। धैर्य और लगन से दुर्बलताएं की जा सकती पराजित विद्यालय में वह बाल मंदबुद्धि कहलाता था। उसके अध्यापक उससे नाराज रहते थे क्योंकि उसकी बुद्धि का स्तर औसत से भी कम था। कक्षा में उसका प्रदर्शन हमेशा निराशाजनक ही होता था।

अपने साथ के बच्चों के बीच वह हंसी-मजाक का विषय था। विद्यालय में वह जैसे ही आता, चारों ओर से उस पर तानों की बारिश होने लगती। इन सब बातों से परेशान होकर उसने विद्यालय आना ही छोड़ दिया।
एक दिन वह रास्ते पर बेकार सा घूम रहा था। घूमते हुए उसे जोरों की प्यास लगी। वह इधर-उधर पानी खोजने लगा। अंत में उसे एक कुआं दिखाई दिया। वह वहां गया और प्यास बुझाई। वह काफी थक चुका था इसलिए पानी पीने के बाद वहीं बैठ गया। अचानक उसकी नजर इस पत्थर पर गई, जिस पर बार-बार कुएं से पानी खींचने के कारण रस्सी के निशान पड़ गए थे।

वह मन ही मन विचार करने लगा कि जब बार-बार पानी खींचने से इतने कठोर पत्थर पर रस्सी के निशान पड़ सकते हैं, तो निरंतर प्रयास से मुझे भी विद्या आ सकती है। उसने यह विचार गांठ में बांध लिया और फिर से विद्यालय जाना शुरू कर दिया। उसकी लगन देखकर अध्यापकों ने भी उसे सहयोग किया। कुछ सालों के अथक प्रयासों से वह बालक विद्यालय का श्रेष्ठ विद्यार्थी सिद्ध हुआ और आगे चलकर उद्भर विद्वान वरदराज के रूप में प्रसिद्ध हुआ, जिसने संस्कृत में मुग्धबोध और लघुसिद्धांत कौमुदी जैसे ग्रंथों की रचना की।
आशय यह है कि दुर्बलताएं पराजित की जा सकती हैं। यदि धैर्य और लगन से लगातार प्रयास किए जाएं तो उन पर विजय प्राप्त कर प्रशंसनीयी लक्ष्यों को हासिल किया जा सकता है।

नैतिक विकास के लिए जरूरी है सत्संग
विष्णु पुराण में सत्संग के महत्व पर केंद्रित एक कथा आती है। एक संत थे, अत्यंत विद्वान और अतिस्नेही। एक दिन वे अपने शिष्यों के साथ भ्रमण पर निकले। रास्ते में उनका एक शिष्य पत्थर से ठोकर खाकर गिर पड़ा। संत ने उसे तत्काल सहारा देकर उठाया। शिष्य को उस पत्थर पर अत्यंत क्रोध आया इसलिए उसने एक पत्थर को एक जोरदार ठोकर मारी, जिससे स्वयं उसी के पैर में चोट लगी। यह देखकर संत ने उसे समझाया-तुमने पत्थर को मारा, पत्थर ने तो तुम्हें नहीं मारा। यदि तुम सावधानीपूर्वक चलते तो तुम्हें चोट नहीं लगती। तुम्हें चाहिए था कि पत्थर को राह से हटाकर किनार कर देते जिससे किसी दूसरे को चोट न लगे।

संत की बात सुनकर शिष्य ने उनसे क्षमा मांगी और पत्थर को राह से हटा दिया। आगे बढऩे पर एक उपवन दिखाई दिया। फूलों की महक से आकर्षित होकर गुरु-शिष्य वहां जाकर बैठ गए। संत ने गुलाब के एक पौधे के नीचे से मिट्टी का एक ढेला उठाकर उस शिष्य को सूंघने के लिए कहा। शिष्य ने उसे सूंघकर कहा-गुरुजी। इससे तो गुलाब के फूल की खूशबू आ रही है। तब संत बोले-मिट्टी की अपनी कोई सुगंध नहीं होती। वह जिस वस्तु के संपर्क में आती है, वैसी ही गंध अपना लेती है। यदि वह दुर्गंध के संपर्क में आएगी तो स्वयं भी दुर्गंधयुक्त हो जाएगी और सुगंध के संपर्क में आने पर सुगंधित हो जाएगी। मनुष्य को भी प्रकृति के इस सिद्धांत से कुछ सीखना चाहिए।

तात्पर्य यह है कि सत्संगति सदैव सद्गुणों का विकास करती है और कुसंगति दुर्गुणों का। सुसंस्कारित व्यक्ति भी कुसंगति में पड़कर कुमार्गगामी हो सकता है और कुसंस्कारित व्यक्ति में अच्छी संगति से सुधार संभव है। अत: ऐसे प्रयास करने चाहिए कि भले लोगों के साथ रहें ताकि स्वयं का उचित नैतिक विकास हो सके।

संकल्प से छूटती हैं बुरी आदतें...
भूदान आंदोलन के प्रणेता विनोबा भावे के पास एक मदिरा प्रेमी युवक आया और हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगा मैं बहुत परेशान हूं महात्मन। यह मदिरा मेरा पीछा ही नहीं छोड़ती। आप कुछ उपाए बताइए जिससे मुझे पीने की इस लत से मुक्ति मिल सके।

विनोबाजी ने कुद देर तक सोचना और फिर बोले- अच्छा बेटा। तुम कल मेरे पास आना, किंतु मुझे बाहर से ही आवाज देकर बुलाना, मैं आ जाऊंगा। युवक खुश होकर चला गया। अगले दिन वह फिर आया और विनोबाजी के कहे अनुसार उसने बाहर से ही उन्हें आवाज लगाई। तभी भीतर से विनोबाजी बोले- बेटा। मैं बाहर नहीं आ सकता। युवक ने इसका कारण पूछा, तो विनोबाजी ने कहा- यह खंबा मुझे पकड़े हुए है, मैं बाहर कैसे आऊं। ऐसी अजीब सी बात सुनकर युवक ने भीतर झांका, तो विनोबाजी स्वयं ही खंबे को पकड़े हुए थे। वह बोला- गुरुजी। खंबे को तो आप खुद ही पकड़े हुए हैं। जब आप इसे छोडेंगे, तभी तो खंबे से अलग होंगे न।

युवक की बात सुनकर विनोबाजी ने कहा- यही तो मैं तुम्हें समझाना चाहता था कि मदिरा छूट सकती है, किंतु तुम ही उसे छोडऩा नहीं चाहते। जब तुम मदिरा छोड़ दोगे तो मदिरा भी तुम्हें छोड़ देगी।
उस दिन के बाद से उस युवक ने मदिरा को हाथ भी नहीं लगाया।

वास्तव में दृढ़ निश्चय या इच्छाशक्ति, संकल्प से बुरी आदत को भी छोड़ा जा सकता है। यदि व्यक्ति खुद अपनी आदत को भी छोड़ा जा सकता है। यदि व्यक्ति खुद अपनी अनुचित आदतों से मुक्ति पाना चाहे और इसके लिए मन मजबूत कर संकल्प हो जाए, तो दुनिया की कोई ताकत उसे अच्छा बनने से नहीं रोक सकती।

बुरे समय में भी खुश रहो
फ्रांस के प्रसिद्ध दार्शनिक थे ज्यां पाल सात्र्र। उनका जीवन अनेक कठिनाइयों से भरा था किंतु इनसे वे स्वयं की जिंदादिली पर हावी नहीं होने देते थे। उदासी व निराशा से वे स्वयं को कोसो दूर रखते थे। वे स्वयं भी प्रसन्न रहते और दूसरों को भी संकट में प्रसन्न रहने की प्ररेणा देते थे।

ज्यां पाल सात्र्र की एक आंख पहले से ही खराब उन्हें पढऩे का बहुत शौक था। चिकित्सकों ने उन्हें सलाह दी कि वे लिखना-पढऩा बिल्कुल बंद कर दे, अन्यथा उनकी दूसरी आंख भी खराब हो जाएगी। किंतु सात्र्र ने लिखना-पढऩा बंद नहीं किया। वे निष्क्रीय होकर बैठना पंसद नहीं करते थे। उन्होंने अपने परिवार को राजी कर लिया कि कोई भी एक व्यक्ति प्रतिदिन उन्हें पुस्तक पढ़कर सुनाएगा। इस प्रकार परिवार की मदद से उन्होंने अध्ययन किया और एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की।

इसके अतिरिक्त सात्र्र ने अनेक पुस्तकें दूसरों को बोल-बोलकर लिखाई। इन पुस्तकों ने करोड़ों लोगों को श्रेष्ठ एवं आनंददायक जीवन बिताने की प्रेरणा दी। वृद्धावस्था में सात्र्र की दूसरी आंख भी खराब हो गई। एक प्रकार से वे अंधे ही हो गए। फिर भी उन्होंने प्रसन्नता का दामन नहीं छोड़ा। तब भी लोग उनके पास आते थे और सुखी जीवन के सूत्र लेकर जाते थे। इन काम के लिए उन्होंने प्रतिदिन कुछ समय निर्धारित कर रखा था।
इस प्रकार सात्र्र ने अपनी कार्य शैली से दुनिया को यह बता दिया कि किसी भी प्रतिकूलता से घबराकर प्रसन्नता का दामन नहीं छोडऩा चाहिए। मनुष्य में असीम सामर्थ्य छिपा होता है। यदि वह खुश होकर उसका उचित उपयोग करें तो जीवन अत्यंत उन्नत व आनंददायी तथा समाजोपयोगी बन जाएगा।

सकारात्मक सोच से मुक्ति मिलती है
एक दिन वन में गुजरते हुए नारदजी ने देखा कि एक मनुष्य ध्यान में इतना मग्न है कि उसके शरीर के चारों ओर दीमक का ढेर लग गया है। नारदजी को देखकर उसने उन्हें प्रणाम किया और पूछा प्रभु। आप कहां जा रहे हैं? नारदजी ने उत्तर दिया मैं वैकुंठ जा रहा हूं। तब उस व्यक्ति ने नारदजी से निवेदन किया आप भगवान से पूछकर आइएं कि मैं कब मुक्ति प्राप्त करुंगा? नारदजी ने स्वीकृति दे दी।

थोड़ा आगे जाने पर नारदजी ने एक दूसरे व्यक्ति को देखा अपनी धनु में मस्त उस व्यक्ति ने भी नारदजी को प्रणाम किया और अपनी जिज्ञासा उनके समक्ष रखी- आप जब भगवान के समक्ष जाए तो पूछे कि मैं मुक्त कब होऊंगा?नारदजी ने उसे भी हां कर दी। लौटते समय दीमक वाले व्यक्ति ने पूछा कि भगवान ने मेरे बारे में क्या कहा? नारदजी ने कहा- भगवान बोले कि मुझे पाने के लिए उसे चार जन्म और लगेंगे। यह सुनकर वह योग विलाप करते हुए कहने लगा- मैंने इतना ध्यान किया कि मेरे चारों ओर दीमक का ढेर लग गया फिर भी चार जन्म और लगेंगे। दूसरे व्यक्ति के पूछने पर नारदजी ने जवाब दिया भगवान ने कहा कि सामने लगे इमली के पेड़ में जितने पत्ते हैं, उसे मुक्ति के लिए उतने ही जन्म प्रयास करने पड़ेंगे। यह सुन वह व्यक्ति आनंद से नृत्य करने लगा और बोला मैं इतने कम समय में मुक्ति प्राप्त कर लूंगा। उसी समय देववाणी हुई मेरे बच्चे तुम इसी क्षण मुक्ति प्राप्त करोगे। वस्तुत: सफलता की अनिवार्य शर्त है कि सकारात्मक चिंतन यदि हम आत्म विश्वास के साथ आशावादी दृष्टिकोण अपना कर निरंतर कर्म करते रहे, तो लक्ष्य की उपलब्धि अवश्य होती है। इसलिए सदैव सकारात्मक सोचें।

एक दिन वन में गुजरते हुए नारदजी ने देखा कि एक मनुष्य ध्यान में इतना मग्न है कि उसके शरीर के चारों ओर दीमक का ढेर लग गया है। नारदजी को देखकर उसने उन्हें प्रणाम किया और पूछा प्रभु। आप कहां जा रहे हैं? नारदजी ने उत्तर दिया मैं वैकुंठ जा रहा हूं। तब उस व्यक्ति ने नारदजी से निवेदन किया आप भगवान से पूछकर आइएं कि मैं कब मुक्ति प्राप्त करुंगा? नारदजी ने स्वीकृति दे दी। थोड़ा आगे जाने पर नारदजी ने एक दूसरे व्यक्ति को देखा अपनी धनु में मस्त उस व्यक्ति ने भी नारदजी को प्रणाम किया और अपनी जिज्ञासा उनके समक्ष रखी- आप जब भगवान के समक्ष जाए तो पूछे कि मैं मुक्त कब होऊंगा? नारदजी ने उसे भी हां कर दी। लौटते समय दीमक वाले व्यक्ति ने पूछा कि भगवान ने मेरे बारे में क्या कहा? नारदजी ने कहा- भगवान बोले कि मुझे पाने के लिए उसे चार जन्म और लगेंगे। यह सुनकर वह योग विलाप करते हुए कहने लगा- मैंने इतना ध्यान किया कि मेरे चारों ओर दीमक का ढेर लग गया फिर भी चार जन्म और लगेंगे।

दूसरे व्यक्ति के पूछने पर नारदजी ने जवाब दिया भगवान ने कहा कि सामने लगे इमली के पेड़ में जितने पत्ते हैं, उसे मुक्ति के लिए उतने ही जन्म प्रयास करने पड़ेंगे। यह सुन वह व्यक्ति आनंद से नृत्य करने लगा और बोला मैं इतने कम समय में मुक्ति प्राप्त कर लूंगा। उसी समय देववाणी हुई मेरे बच्चे तुम इसी क्षण मुक्ति प्राप्त करोगे।

वस्तुत: सफलता की अनिवार्य शर्त है कि सकारात्मक चिंतन यदि हम आत्म विश्वास के साथ आशावादी दृष्टिकोण अपना कर निरंतर कर्म करते रहे, तो लक्ष्य की उपलब्धि अवश्य होती है। इसलिए सदैव सकारात्मक सोचें।

दूसरों के लिए जीना चाहिए
वर्ष 1979 को अंतरराष्ट्रीय बाल वर्ष के रूप में मनाया गया और इसी वर्ष बाल शिक्षा और बाल कल्याण के लिए अपना जीवन और प्राण समर्पित कर देने वाले पौलेंड के डॉ. जानुस कोरजाक की जन्म शताब्दी भी मनाई गई।
डॉ. कोरजाक पौलेंड की राजधानी वारसा में एक अनाथालय के निदेशक थे। अनाथालय के दो सौ बच्चों को उन्होंने अपनी संतान से अधिक स्नेह दिया और अक्सर आने पर उनके साथ ही मृत्यु को भी स्वीकार किया।
हुआ यूं कि उस समय नाजियों का दमन चक्र जोरों से चल रहा था। सभी यहूदियों को सामूहिक मृत्यु के लिए एक स्थान पर एकत्रित किया जा रहा था।

डॉ. कोरजाक को भी अपना अनाथालय छोड़कर उन दो सौ बच्चों के साथ नाजी कैंप में आना पड़ा, जहां कई लाख यहूदी भेड़े-बकरियों की तरह भरे पड़े थे। बच्चों को मौत की सूचना देने की कठोरता डॉ. कोरजाक की जबान नहीं कर सकी। उन्होंने बच्चों से कहा कि वे पिकनिक पर जा रहे हैं। उनके प्रशसंकों ने उनसे कहा कि यदि आप बच्चों का मोह छोड़ दें तो आपके प्राणों की रक्षा हो सकती है। तब डॉ. कोरजाक बोले- ये सभी बच्चे एक इकाई के रूप में मेरी आत्मा है। मैं जीवित अवस्था में अपनी आत्मा से अलग कैसे हो सकता हूं। अपने जीवन का सुख और स्वार्थ तो मैं उसी दिन भूल गया था, जब इन बच्चों की खातिर इस अनाथालय में आया था।

डॉ. कोरजाक आज नहीं रहे, किंतु मानवता के इतिहास के पृष्ठों पर वे स्वर्णाक्षरों मं दर्ज हो गए। प्रसंग का सार यह है कि दूसरों के लिए जीने और मरने वाले इंसान ही मानवता के सही अर्थों को जीते हैं। यदि हम सभी अपने साथ दूसरों के लिए भी थोड़ा बहुत ही सही पर कार्य करें तो मानवता बड़े रूप में साकार होकर इस धरती को खुशहाल बना देगी।

बिना सोचे किए कार्य से दुख प्राप्त होता है
हितोपदेश की एक कथा है, जो विचारशीलता के महत्व पर केंद्रित है। एक गीदड़ जंगल में इधर-उधर चक्कर काट रहा था कि अचानक कुएं में जा गरा। वह हाथ-पैर मारता रहा किंतु कुएं से बाहर न निकल सका। अंत में थककर सोचने लगा अब बाहर कैसे निकला जाए? तभी वहां एक बकरा आ पहुंचा। वह अपनी प्यास बुझाने के लिए कुएं के अंदर झांकने लगा। कुएं में उसे गीदड़ दिखाई दिया। वह बोला- कौन? गीदड़ भैया कुएं में क्या कर रहे हो? क्या पानी बहुत ही ठंडा और मीठा है, जो कुएं में ही उतर पड़े? गीदड़ ने हंसते हुए कहा- अरे बकरे भैया। बहुत प्यासे जान पड़ते हो। तुम भी आ जाओ और डटकर प्यास बुझाओ। पानी शर्बत की तरह मीठा है। बस पीते जाओ। पानी है खूब सारा। तुम्हारे जैसे हजार बकरे भी पीएं तो भी खत्म न हो।

गीदड़ की लुभावनी बातों में आकर बकरे ने बिना सोचे-विचारे ठंडे व मीठे पानी के लोभ में कुएं में छलांग लगा दी। गीदड़ तो यही चाहता था। वह तत्काल पहली छलांग में बकरे के सिर पर जा पहुंचा और दूसरी छलांग में कुएं से बाहर हो गया। बकरे ने घबराकर कहा यह क्या गीदड़ भैया? तुम तो खुली हवा में पहुंच गए। अब हम कैसे बाहर निकलेंगे? गीदड़ ने जवाब दिया- अब तुम अपनी मूर्खता पर आंसू बहाओ। जरा भी समझबुझ से काम लेते तो भला इस विपत्ति में क्यों फंसते? मैं तो चला।

कथा का संदेश यही है कि बिना सोचे समझे किए गए कार्यों से सदैव दुख ही प्राप्त होता है। अत: किसी भी कार्य को करने से पहले उसके परिणामों पर भली-भांति विचार कर लेना चाहिए। ताकि बाद में पछताना न पड़े। वस्तुत: सुविचारित कर्म ही सुख और संतोष के वाहक होते हैं।

व्यवहारिक ज्ञान संकट दूर करता है
रामचंद्र बाबू पेशे से वकील थे और उनकी वकालत भी काफी अच्छी चल रही थी। उन्हें अपने ज्ञानी होने का अहंकार भी था। एक बार उन्हें नदी पार कर किसी अन्य स्थान पर जाना था। एक नाविक से उनका सौदा पट गया। सो वे नाव में बैठ गए और नाविक नाव चलाने लगा। रास्ता जल्दी कट जाए इस लिहाज से परस्पर बातचीत होने लगी। पहले उन्होंने नाविक से उसका नाम, पता, आमदनी घर-बार इत्यादि के विषय में पूछा और फिर अपने प्रिय विषय शिक्षा पर आ गए।

उन्होंने नाविक से पूछा क्या तुम व्याकरण जानते हो? नाविक ने उत्तर दिया- नहीं बाबूजी। व्याकरण किसे कहते हैं? मुझे तो यही भी नहीं मालूम। रामचंद्र बाबू बोले- तुम्हारी चार आने जिंदगी बेकार हो गई। फिर उन्होंने प्रश्न किया क्या तुम्हें कविता आती है? नाविक के इंकार पर वे बोले फिर तो तुम्हारी आठ आने जिंदगी बेकार हो गई। थोड़ी देर बाद उन्होंने पूछ अच्छा तुम्हें गणित की जानकारी तो होगी। नाविक के मना करने पर वे बोले- तब तो तुम्हारी बारह आने जिंदगी बेकार हो गई। उसी समय नदी में भयानक तुफान उठा और नाव डगमगाने लगी। स्थिति की गंभीरता को समझते हुए नाविक नदी में कूद गया और तैरते हुए उसने रामचंद्र बाबू से पूछा आपको तैरना आता है? उन्होंने घबराते हुए नहीं कहा तो नाविक बोला तब तो आपकी सोलह आने जिंदगी नष्ट हो गई। इतने में नाव पलट गई और रामचंद्र बाबू डूबने लगे। तब उसी नाविक ने दया दिखाकर उनकी जान बचाई।

कथा का संदेश यही है कि जीवन की सार्थकता मात्र औपचारिक शिक्षा में ही निहित नहीं है। बल्कि व्यवहारिक ज्ञान का होना भी जरूरी है। क्योंकि कई महत्वपूर्ण अवसरों पर वह जीवन को संकट से बचाता है।

व्यवहारिक ज्ञान देता है श्रेष्ठ परिणाम
एक तत्ववेत्ता थे। वे निरंतर अध्ययन में लगे रहते थे। नित्य नवीन पुस्तकों को पढ़कर ज्ञार्नाजन करना उनके स्वभाव और शौक का अहम हिस्सा था। वे अपने संपर्क में आने वाले लोगों को भी सात्विक ज्ञान दिया करते थे। उनके उपदेश शुष्क ज्ञान से ओतप्रोत होते थे। उनके निवास स्थान के पास ही एक नदी बहती थी। उस नदी पर बांध बनाकर एक जलाशय का निर्माण किया गया था। जलाशय के स्वच्छ जल में वे नित्य ही स्नान किया करते थे। उस जलाशय में सुंदर लहरें जब अठखेलियां करतीं तो तत्ववेत्ता का दर्शनिक मन उत्साह से भर उठता। उन्हें ऐसी इच्छा होती थी कि वे उन लहरों को अपने में समेट लें, उन्हें चूम ले उनके साथ झूम जाए। किंतु उनके समक्ष कठिनाई यह थी कि वे तैरना नहीं जानते थे। इसलिए किनारे पर बैठकर ही स्नान कर लेते थे और मन मारकर लहरों को वहीं से देखा करते थे।

एक दिन उनके किसी शिष्य ने जब उनकी लहरों के साथ खेलने की इच्छा के विषय में सुना तो उसने उन्हें एक पेटी लाकर दे दी और कहा कि इसके साथ जब आप पानी में उतरेंगे तो पानी कितना ही गहरा क्यों न हो, आप डूबेंगे नहीं और सतह पर ही तैरते रहेंगे। अगले दिन तत्ववेत्ता महोदय पेटी को हाथों में लेकर बड़े विश्वास और उत्साह के साथ जलाशय में कूद गए। कूदते ही वे अतल गहराई में चले गए। बस पेटी सतह पर आ गई। उन्हें पानी में छटपटाते देख एक तैराक उन्हें खींचकर किनारे पर लाया। जब वे सामान्य हुए तो उन्होंने पूछा क्यों भाई। यह पेटी तो आदमी को डूबने नहीं देती, फिर मैं कैसे डूब गया? तैराक बोला कोरा ज्ञान नहीं काफी नहीं, व्यवहार भी आना चाहिए। यह पेटी तभी मदद करती है जब पेट से बांध ली जाती है।

कथा का संदेश यह है कि व्यवहारिक ज्ञान के बिना तात्विक ज्ञान मात्र अधूरा ही नहीं होता बल्कि कई अवसरों पर वह प्रतिकूल परिणाम भी देता है।

बस, समझिए अपने काम की बात
बात कुछ ही साल पुरानी है एक बूढ़ी धोबिन किसी कालोनी में चल रही विद्वानों कि धार्मिक संगोष्टी को सुनने रोज आया करती थी। लोगों को हैरानी हुई कि एक अनपढ़ और गरीब औरत को आखिर इन विद्वानों की गंभीर वार्ताओं को क्या समझती होगी। किसी ने आखिर उससे पूछ ही लिया कि उसकी समझ में क्या आता है? तो उसने कहा जो मेरी समझ में नहीं आता वो तो क्या बताऊं। लेकिन एक बात मेरी समझ में अच्छे से आ गई है। मैं तो अनपढ़ हूं और मेरे लिए एक ही बात काफी है। उस एक बात ने तो मेरा सारा जीवन ही बदल दिया है और वह बात है कि मैं भी प्रभु से दूर नहीं हूं, एक गरीब अज्ञानी औरत से भी ईश्वर दूर नहीं है। प्रभु निकट है निकट ही नहीं ,स्वयं में है। यह छोटा सत्य मेरी समझ में आ गया और अब मैं नहीं समझती की इससे बड़ा सच भी कोई हो सकता हैं।

लाइफ का फंडा-जीवन में बहुत सी बातें जानने से नहीं लेकिन सच कि एक छोटी सी अनुभूति से परिवर्तित हो जाता है और जो बहुत जानने में लगते हैं, वे अक्सर सच की छोटी सी चिंगारी को नहीं पहचान पाते हैं। सच की एक किरण ही बहुत है। किताबों का ढेर कई बार जो नही कर पाता वो सच की एक झलक कर जाती है। अंधेरे में उजाला करनें के लिए बड़े -बड़े बल्ब जलाने की जरुरत नहीं, सिर्फ मिट्टी का एक दिया जलाना ही काफी हैं।

डरने से अच्छा है बचने के उपाय
एक राजा ने किसी कारण नाराज होकर अपने मंत्री को एक बहुत बड़ी मीनार की ऊपरी मंजिल पर कैद कर दिया। उसकी सजा एक तरह से मौत की तरह ही थी। न तो उसे कोई खाना पंहुचाया जाता था और न ही उस गगनचुंबी इमारत से उसके भागने कि कोई सम्भावना थी। वह मंत्री जब मीनार की तरफ कैद करके ले जाया जा रहा था, तो लोगों ने देखा कि वह जरा भी दुखी नहीं है। उसकी पत्नी ने उसे रोते हुए विदा किया और पूछा कि वह खुश क्यों है? उसने कहा कि अगर रेशम की एक बहुत पतला धागा भी मेरे पास पहुंचाया जा सका, तो मैं स्वतंत्र हो जाऊंगा और क्या तुम मेरे लिए इतना भी नहीं कर सकोगी? उसकी पत्नी ने बहुत सोचा लेकिन उस की समस्या यह थी कि वह उस मीनार पर रेशम का पहला धागा पहुंचाया जाए तो कैसे?

जब उसकी समझ में कुछ नहीं आया तो उसने एक फकीर से पूछा। फकीर ने कहा भृंग नाम के कीड़े को पकड़ो। उसके पैर में रेशम का एक धागा बांध दो और उसकी मुंह पर शहद की एक बूंद लगाकर उसे मीनार की चोटी की तरफ करके छोड़ दो। उसी रात यह किया गया। वह कीड़ा शहद की गंध पाकर उसे पाने के लालच में धीरे-धीरे ऊपर चढऩे लगा। उसने आखिर अपनी लम्बा सफर तय किया और उसके साथ रेशम का धागा मीनार पर बंद मंत्री के हाथ में पहुंच गया। यह रेशम का पतला धागा उसकी मुक्ति और जीवन बन गया क्योंकि उससे फिर सूत का धागा बांधकर ऊपर पहुंचाया गया, फिर सूत के धागे से डोरी और उससे मोटा रस्सा पहुंचाया गया और उस रस्से के सहारे वह कैद से बाहर हो गया ।

लाइफ का फंडा-कभी भी मुश्किलों से घबराना नहीं चाहिए। संकट से डरने के बजाय उससे बचने के उपाय पर विचार करना चाहिए। सूर्य तक पहुंचने के लिए एक किरण ही बहुत है और वह किरण किसी को पहुंचाना भी नहीं है। वह हम सभी के पास है जो उस किरण को खोज लेते है वे सूरज को भी पा लेते है।

हुनर को संभालें, धन अपने आप आएगा
एक बूढ़ा संगीतकार किसी जंगल से गुजर रहा था। उसके पास बहुत सी स्वर्ण मुद्राएं थीं। रास्ते में कई डाकुओं ने उसे पकड़ लिया। उन्होंने उसका सारा धन तो छिन ही लिया साथ ही वाइलिन भी। वह अपने संगीत से व उस वाइलिन से बहुत प्यार करता था। संगीतकार ने डाकुओं से बड़ी ही नम्रता से अपना वाइलिन मांगा। वे डाकू बड़े चकित हुए। उन्होंने सोचा कैसा पागल आदमी है। धन वापस ना मांगकर ये बाजा मांग रहा है। डाकुओं ने सोचा कि यह बाजा हमारे किस काम का और उसे वापस लौटा दिया। वह संगीतकार उसे पाकर नाचने लगा और उसे वहीं बैठकर बजाने लगा। अमावस्या की अंधेरी रात सुनसान वन ऐसे वाइलिन का मीठा स्वर शुरू में तो डाकु अनमने मन सेे सुनते रहे फिर उनकी आंखों मे भी नमी आ गई। वे भाव विभोर हो उठे और उन्होंने न सिर्फ उसका सारा धन लौटा दिया बल्कि उसे वन के बाहर तक सुरक्षित भी पंहुचाया ।

लाइफ का फंडा संगीत उस संगीतकार का मूल स्वभाव भी था और हुनर भी, सो उसने डाकुओं से अपना हुनर, अपना साधन मांग लिया। यही हुनर उसके काम आया और डाकुओं ने उसके संगीत से प्रभावित होकर सारा धन भी लौटा दिया। लाइफ का फंडा यह है कि आप जब भी परेशानी में घिरें तो अपने स्वभाव और अपने हुनर पर भरोसा रखें, उसी को बचाएं, अगर हुनर बचा रहा तो धन-दौलत फिर मिल जाएंगे।

आपके अंदर क्या हैं?
एक अजनबी किसी गांव में पहुंचा। उसने उस गांव के बाहर बैठे एक बूढ़े आदमी से पूछा क्या इस गांव के लोग अच्छे व दोस्ती करने वाले हैं। उस बूढ़े आदमी ने सीधे उसके प्रश्न का उतर देने के बजाय उसी से पूछ लिया कि बेटा तुम जहां से आए हो वहां के लोग कैसे? वह अजनबी गुस्से से बोला बहुत बुरे, पापी और अन्यायी। सारी परेशानियों के लिए वे ही जिम्मेदार हैं। बूढ़ा थोड़ी देर सोचता रहा और बोला यहां के लोग भी वैसे ही हैं, तुम इन्हें भी वैसा ही पाओगे। वह व्यक्ति जा भी नहीं पाया था कि एक दूसरे व्यक्ति ने आकर वही प्रश्न दोहराया तो वृद्ध ने उससे भी वही प्रश्न किया कि बेटा तुम बताओ जहां से तुम आए हो वहां के लोग कैसे हैं? उस व्यक्ति की आंखें आंसुओं से भर गईं और वह बोला बहुत प्यार करने वाले, दयालु, मेरी सारी खुशी का कारण वे लोग ही थे। वह वृद्ध बोला यहां के लोग भी ऐसे ही हैं, तुम यहां के लोगों को भी कम दयालु नहीं पाओगे। मनुष्य-मनुष्य में भेद नहीं है। संसार दर्पण है जो हम दूसरो में देखते है वह अपनी ही प्रतिक्रिया है। जब तक सभी में शिव व सुन्दर दिखाई न देने लगे, तब तक यही सोचना चाहिये कि स्वयं में ही कोई खोट है।

लाइफ का फंडा- जो खुद मे ही नहीं है उसे दूसरों में खोजना असंभव है। जो जैसा होता है उसे दूसरे भी वैसे ही नजर आते हैं। सुन्दर को खोजने के लिए सारी धरती भटक लें पर जो खुद के अंदर ही नहीं है, उसे कहीं भी पाना असंभव है।स्वर्ग और नर्क क्या है?एक बार किसी गुरु से उसके शिष्य ने पूछा मैं जानना चाहता हुं कि स्वर्ग व नरक कैसे हैं? उसे गुरु ने कहा आंखे बंद करों और देखों। शिष्य ने आंखे बंद की और शांत शुन्यता में चला गया। गुरु ने कहा अब स्वर्ग देखों और थोड़ी देर बाद कहा अब नर्क देखों। उसके थोड़ी देर बाद गुरु ने पूछा- क्या देखा? वह बोला स्वर्ग में मैंने ऐसा कुछ नहीं देखा जिसकी लोग चर्चा करते हैं न ही अमृत की नदियां, न स्वर्ण भवन और न ही अप्सराएं। वहां तो कुछ भी नहीं था और नर्क में भी कुछ भी नहीं था न अग्रि की ज्वालाएं, न पीडि़तों का रूदन कुछ भी नहीं।शिष्य ने पूछा- इसका क्या कारण है? मैंने स्वर्ग देखा या नहीं देखा? गुरु हंसे और बोले- निश्चय ही तुमने स्वर्ग और नर्क देखे हैं लेकिन अमृत की नदियां, अप्सराएं, स्वर्ण भवन, पीड़ा व रूदन तुझे स्वयं वहां ले जाने होंगे। वे वहां नहीं मिलते जो हम अपने साथ ले जाते हैं वही वहां उपलब्ध हो जाता हैं। हम ही स्वर्ग हैं, हम ही नर्क । व्यक्ति जो अपने अंदर रखता है, वही अपने बाहर पाता है। भीतर स्वर्ग है तो बाहर स्वर्ग है और भीतर नर्क हो तो बाहर नर्क है। स्वयं में ही सब कुछ छुपा है।

हृदय कभी नहीं भरता
एक महल के द्वार पर भीड़ लगी थी। किसी फकीर ने राजा से भीख मांगी थी। राजा ने उससे कहा था जो भी चाहते हो मांग लो। वह राजा जो भी सुबह सबसे पहले उससे भीख मांगता था वह उसे इच्छित वस्तु देता था। उस दिन वह भिखारी सबसे पहले राजा के महल पहुंचा था। फकीर ने राजा के आगे अपना छोटा सा पात्र बढ़ाया और बोला इसे सोने की मुद्राओं से भर दो। राजा ने उसके पात्र में स्वर्ण मुद्राएं डाली तो उसे पता चला की वह पात्र जादुई है। जितनी अधिक मुद्राएं उसमें डाली गई वह उतना अधिक खाली होता गया। फकीर बोला नहीं भर सकें तो वैसा बोल दे मैं खाली पात्र लेकर चला जाउंगा। ज्यादा से ज्यादा लोग यही कहेंगे कि राजा अपना वचन पूरा नहीं कर सका। राजा ने अपना सारा खजाने खाली कर दियें,लेकिन खाली पात्र खाली ही था। उसके पास जो कुछ था, सब उस पात्र में डाल दिया गया लेकिन वह पात्र न भरा तो न भरा। तब राजा ने पूछा भिक्षु तुम्हारा पात्र साधारण नहीं है। इसे भरना मेरे बस की बात नहीं हैं। क्या मैं पूछ सकता हुं कि इस पात्र का रहस्य क्या है? कोई विशेष रहस्य नहीं है यह इंसान के हृदय से बना है। क्या आपको पता नहीं है कि मनुष्य का हृदय कभी नहीं भरता धन से, पद से, ज्ञान से, किसी से भी नहीं, किसी से भी भरो वह खाली ही रहेगा। क्योंकि वह इन चीजों से भरने के लिए बना ही नहीं है। इस सत्य को न जानने के कारण ही इंसान जितना पाता है उतना ही दरिद्र होता जाता है। इंसान का हृदय कुछ भी पाकर शांत नहीं होता क्यों? क्योंकि हृदय परमात्मा को पाने के लिए बना है।

खुद को पहचानें..
एक बार की बात है। एक बाप अपने तीन बेटों में संपत्ति बांटना चाहता था लेकिन वह समझ नहीं पा रहा था कि तीनों में से किस बेटे को अपनी जायदाद दे। तीनों जुड़वा थे उम्र से भी तय नहीं किया जा सकता है। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। तो उसने फकीर से सलाह ली। फकीर ने उसे एक तरीका बताया । उसने बेटों से कहा मैं तीर्थ यात्रा पर जा रहा हूं और बेटों को उसने कुछ बीज दिए और कहा कि इन बीजों को सम्हाल कर रखना। उसके बाद उनके पिता तीर्थ पर चले गए उसके बाद लम्बे समय के बाद लौटे। वे एक-एक कर तीनों के घर गए। पहले बेटेे के घर पहुंचे। पहले बेटे से उन्होंने पूछा बेटा मैंने जो तुम्हे बीज दिए थे उसका तुमने क्या किया? उसने कहा पिताजी कौन से बीज मुझे तो याद ही नही। पिता ने उसे कुछ भी नहीं कहा। उसके बाद पिता ने अपने दूसरे बेटे के घर जाकर भी यही प्रश्र किया। उसने अपनी तिजोरी की चाबी पिता को दे दी और कहा मैंने आपकी अमानत को तिजोरी में सम्हाल कर रखा है।

पिता को फिर निराशा हुई। अब वे तीसरे बेटे के पास गए और वही प्रश्र दोहराया। उसने कहा पिताजी आप को मेरे साथ कहीं चलना होगा। दोनों थोड़ी दूर चले और सामने एक बगीचा था। पुत्र ने कहा पिताजी ये रहे आपके बीज। पिता का दिल खुशी से झुम उठा और उसने खुश होकर अपनी सारी जायदाद अपने तीसरे बेटे के नाम कर दी। परमात्मा ने हर किसी को हुनर दिया है, सभी को समान शरीर दिया है और संभावनाएं भी। पर फर्क सिर्फ इस बात से पड़ता है कि आप किसी मौके में या अपने आप में कितनी संभावनाऐ देखते है और आप मौका हो या शरीर कितनी बेहतर तरीके से उसका उपयोग करते हैं। पिता ने अपने तीनों बेटों को समान बीज दिए थे पर तीनों ने उसका अपने ढंग से उपयोग किया। वैसे ही परमात्मा ने हम सभी को जीवन और अपने स्तर की संभावनाएं दी हैं। बस सब कुछ इसी पर टिका है कि हम उसका उपयोग कैसे करते हैं

वही रहो जो आप हो..
एक राजा था। उसके दरबारी खबर लाए उन्होंने बताया कि उसके राज्य में एक आदमी हैं जो कोयल की तरह बोलता है उसे इंसानों की भाषा नहीं आती, वह बिल्कुल कोयल की तरह बोलता है। राजा ने कहा मैंने बहुत सी कोयल की आवाज सुनी है, इसमे नया क्या है? लेकिन दरबारी नहीं माने उन्होंने राजा को जैसे-तैसे मनाया कि वह आदेश भेजकर उस आदमी को बुला लें ताकि सभी लोग जिन्होंने उसे नहीं सुना है, सुन सकें। जब वे लोग नहीं माने तो राजा ने उसे बुलवाया। उसने आते ही कोयल की आवाज निकालना शुरु कर दी। राजा ने थोड़ी देर उसे सुना और कहा बकवास बंद करो।आदमी को कोयल की तरह बोलना शोभा नहीं देता। तुम आदमी होने को पैदा हुए हो तुम्हे किसने कहा कि कोयल हो जाओ? जाओ मैं तुम्हे फंासी की सजा देता हूं।

परमात्मा ने बहुत सारी कोयल बनायी है कूकने के लिए । तुम-तुम होने के लिए पैदा हुए हो कोयल होने के लिए नहीं। वह आदमी घबरा गया और विनती करने लगा। तब राजा का गुस्सा थोड़ा ठंडा हुआ और राजा ने कहा। तुम जाओ यहां से और जिस दिन तुम अपनी भाषा बोलने लगो, जिस दिन तुम अपना व्यक्तित्व पहचान कर अपनी भाषा बोलने लगो तब आना। मैं तुम्हारा स्वागत करुंगा। आप भी वही रहिए जो आप हैं। नहीं तो उस राजा कि तरह परमात्मा भी आपसे यही कहेगा दूसरे की भाषा मत बोलो बाहर निकलो मैंने तुम्हे अपने जैसा होने के लिए बनाया है, दूसरे कि तरह होने के लिए नहीं ।आप अपने जैसे होने के लिए पैदा हुए हैं, नहीं तो आपके होने की क्या जरुरत है?आपका अपना व्यक्तित्व है, अपनी चेतना है। दूसरे के व्यक्तित्व की नकल करना धर्म नहीं अपने आप को खोजना धर्म है।

किस्मत भागने से नहीं, लडऩे से बदलती है
हम सभी के जीवन में समस्याएं हैं। कभी-कभी हम अपनी समस्याओं को बहुत कठिन और बड़ा बना लेते हैं। इतने भाग्यवादी हो जाते हैं कि हम जिन्दगी को मुसीबत समझकर समस्याओं से भागने लगते हैं लेकिन इस दौड़ में हम ये भूल जाते हैं कि मुसीबतें भागने से खत्म नहीं होतीं, बिना उनसे जूझे ये सुलझ भी नहीं सकतीं। एक आदमी हमेशा मुसीबतों से घिरा रहता था। उसका एक कदम ठीक होता तो दूसरा बिगड़ जाता। उसे सुधारने जाता तो तीसरा बिगड़ जाता। तीसरा सुधारने जाता तो कोई नई मुसीबत खड़ी हो जाती। कभी परिवार पर कोई संकट, तो कभी नौकरी पर। उनसे पार पाता तो कोई नई उलझन सामने आ जाती। वह बहुत परेशान हो गया। उसने सोचा कि ये मेरे साथ ही क्यों होता है। ऐसा कब तक चलता रहेगा? क्या जीवन में कभी सुख संतोष होगा? वह इतना निराश हो गया कि उसने आत्महत्या तक करने का प्रयास कर लिया पर किस्मत ने उसका वहां भी साथ नहीं दिया। वह बच गया और परिवार और इष्ट मित्रों ने उसे बहुत ताने सुनाए और उसे जिन्दगी से भागने वाला कहा सभी ने उसे धिक्कारा।

उसने सोचा कि स्थान बदलने पर शायद मेरा भाग्य बदल जाएगा। उसने एक छोटे से कस्बे को पसंद किया। वहां जाने के लिए उसने और उसके परिवार ने तैयारी कर ली। सामान लेकर उसने जैसे ही घर से बाहर कदम रखा तो देखा एक महिला सामने रास्ता रोके खड़ी है। उसने पूछा कौन हो तुम और क्या चाहती हो। महिला ने कहा तुम्हारा साथ। आदमी ने जवाब दिया लेकिन मैं तो शहर छोड़ रहा हूं। महिला ने मुस्कुरा कर कहा तो मैं भी वहां तुम्हारे साथ जाऊंगी। आदमी ने झल्लाकर उसका परिचय पूछा तो वह बोली- मैं तुम्हारी किस्मत हूं। यह सुनकर उसका दिल बैठ गया। उसने कहा जब तुम ही मेरा साथ छोडऩे को तैयार नही हो तो मैं कहीं भी जाकर क्या करुंगा? उस आदमी ने फैसला किया कि मैं यहीं रहकर अपना भाग्य बदलूंगा। निश्चय ही उसकी मेहनत रंग लाई, जी तोड़ मेहनत से सफलता उसके कदम चुमने लगी। अब वह भी खुश था और परिवार भी उल्लास के माहौल से कष्ट भी आता तो उसका तुरंत समाधान हो जाता।

जी भरकर जी लो आज..
अक्सर लोग अतीत को टटोलने या भविष्य के चक्कर में अपने आज के जीवन को भूला देते हैं। जो लोग अतीत को ही सोचते रहते हैं, उनका वर्तमान हाथ से छूट जाता है। जो भविष्य के खयालों में खोए रहते हैं वे भी वर्तमान की परवाह नहीं करते। हम आज में जीना भूल जाते हैं। अधिकतर लोगों का जीवन बीते दिनों की यादें या भविष्य की कपोल कल्पनाओं में बीत जाता है। वे इससे कुछ हासिल नहीं कर पाते। वास्तविकता तो यह है कि अतीत और भविष्य दोनों हमारे नियंत्रण से बाहर हैं। सच तो केवल वह आज है जिसमें हम जी रहे हैं।

तीन दोस्त एक साथ लम्बी यात्रा पर गए। वे एक रेगिस्तान से भी गुजरे। रेगिस्तान बहुत लम्बा था, रास्ते में आंधी आ गई। वे तीनों रास्ता भटक गए। उनका सारा सामान खो गया। अब उनके पास न तो भोजन था, न ही पानी। अंधेरा गहरा रहा था। उनके पास केवल रोटी का एक टुकड़ा और एक छोटी सी बोतल में पानी जो कि जैसे-तैसे बच गया था। उसमें तीनों की पूर्ति नही हो सकती थी। उन्होंने सोचा, बजाय इसके हम तीनों इसको खाएं और तीनों ही मर जाएं, इससे अच्छा है हम में से एक इसे खा ले और मंजिल तक पहुंच जाए। उन तीनों में विवाद हो गया कि कौन इसे खाए? कोई निर्णय नहीं हो सका। तो तीनों ने यह सोचा कि हम सो जाएं और रात में हम तीनों में से जो सबसे अच्छा सपना देखेगा वह सुबह रोटी-पानी का हकदार होगा। वो तीनों सो गए।

फिर सुबह उठे, उनमें से एक ने कहा मैंने बहुत अच्छा सपना देखा, मैंने देखा सपने में परमात्मा खड़ा है और उसने मुझसे कहा कि तेरा अतीत पवित्र है और आज तक के तेरे इस पवित्र जीवन के कारण तू रोटी-पानी ग्रहण करने का अधिकारी है। फिर दूसरे दोस्त ने कहा मेरे सपने में आकाश वाणी हुई, मैंने एक चमकीला प्रकाश देखा। आकाशवाणी से आवाज आई कि तेरा भविष्य उज्जवल है, तू ही भोजन का अधिकारी है। आने वाले दिनो में तू जगत का कल्याण करेगा। दोनो मित्रों ने तीसरे से पूछा तुमने क्या देखा तो वह बोला मुझे न तो कोई आवाज सुनाई दी न कोई परमात्मा दिखाई दिया मुझे तो मेरे भीतर से आवाज आई। तू उठ और रोटी- पानी ग्रहण कर ले। मैं तो खा भी चुका।

समझिए, शरीर और आत्मा में क्या अंतर है
शरीर और आत्मा के फर्क को आसानी से नहीं समझा जा सकता है। लोग शरीर को ही सबकुछ मान लेते हैं और आत्मा को भूल जाते हैं। हमारे शास्त्रों ने आत्मा पर सा ध्यान केंद्रित किया है। शरीर और आत्मा के बीच के अंतर को समझने में समय भी लगता है और ज्ञान भी। यह अंतर जिसे समझ में आ जाता है उसे दोनों तरह की सफलताएं मिलती हैं भौतिक भी और आध्यात्मिक भी। एक व्यक्ति ने महात्मा से प्रश्र किया। महात्मा जी आत्मा और शरीर के बारे में बताइए महात्मा जी ने उस आदमी को बहुत देर तक समझाया लेकिन उनकी समझ में कुछ नही आया। तो उन्होने एक प्रयोग किया। अपनी झोली में हाथ डाला और उसमे से आम निकालकर उन्होने उस आदमी को दिया। उसे कहा कि इस आम को संभाल कर रखे। व्यक्ति ने उसे संभालकर एक डिब्बे में रख दिया। महात्मा जी ने दस दिन बाद लौटकर उस आदमी से कहा जाओ फल मेरे सामने ले आओ। व्यक्ति ने डिब्बा लाकर महात्मा जी को डिब्बा लाकर दे दिया। महात्मा जी ने जैसे ही डिब्बा खोला और आम को हाथ में लेकर बोले जैसा सुन्दर आम मैंने तुम्हे दिया वैसा ही तुमने मुझे क्यों नही लौटाया। वह आदमी बोला मैंने तो आम को हाथ तक नही लगाया।डिब्बा बंद कर रखा था। किसी का हाथ इस तक नही पहुंचने दिया। लेकिन जहां इंसान का हाथ नही पहुंचता वहा भगवान का हाथ पंहुचता है, ताले इंसान के लिए हैं, भगवान के लिए नही उसका हाथ अंदर गया और उसे बिगाड़ गया। महात्मा जी ने कहा इसका रंग रुप कहां गया?वह बोला महाराज हर एक चीज समय के साथ बिगडऩे लगती है। महात्मा ने कहा क्या गुठली भी खराब हो गई। वह बोला नहीं। अब हम तुम्हें यही तो समझाना चाहते हैं कि आम का छिलका बाहर से गल गया, सड़ गया लेकिन गुठली खराब नहीं हुई। ऐसा ही तुने छिलका धारण किया हुआ है। जिसे शरीर कहते हैं। यह एक दिन सड़ जाएगा, गल जाएगा लेकिन जैसे गुठली का कुछ नहीं बिगड़ता, वैसे ही हमारी आत्मा सदा के लिए होती है। एक आम की गुठली तरह आत्मा फिर से शरीर धारण करेगी। तुम शरीर की चिंता मत करो। आत्मा की चिंता करो।

अगर खुद को खुशी की तलाश हो तो...
किसी को डरा धमका कर सत्ता हासिल की जा सकती है, सुख नहीं। डर और विनाश उसकी उपलब्धि होती है, प्रेम और सृजन नहीं। इसके विपरित अपनी शक्ति को रचनात्मक कार्यों में लगाने से हर तरफ से प्रेम, आनंद और खुशी मिलती होती है।

सकारात्मक रास्ते अपने आप खुलने लगते हैं इसलिए अगर आप चाहते हैं कि सभी आपको याद रखें तो आप जहां भी जाएं दूसरों को खुश रखने की कोशिश करें लेकिन खुश रहने के लिए सबसे पहले आप जो भी काम कर रहे हैं उसमें आपकी सौ प्रतिशत खुशी जरूरी है, तभी आप दूसरों को खुशी दे पाएंगे।एक महानगर में आंधी आई, उसमें बड़े-बड़े पेड़ धराशायी हो गए। बहुत सारे लोगों की मृत्यु हो गई।

आंधी में कई लोग बेघर हो गए, कई बच्चे अनाथ हो गए। कई मांओं की गोद सुनी हो गई। दूसरी जगहों से उस महानगर का संबंध टूट गया। जिससे पूरे शहर में अव्यवस्था फैल गई। यह देखकर फूली नही समा रही आंधी ने अपनी छोटी बहन बसंती बयार से प्रश्र किया क्या तुम मेरे समान शक्ति नहीं चाहती? जब मैं उठती हूं तो बड़े-बड़े भवनों को भी में खिलौनों की तरह मसल देती हूं। मेरी शक्ति देखकर अच्छे पहलवान भी अपने घरों में दुबक जाते हैं। पशु-पक्षी भी जान बचाकर भागते हैं।यह सुनकर बसंती बयार कुछ नहीं बोली और अपनी यात्रा पर निकल गई। उसे जाते देख आंधी भी उसके पीछे गई। आंधी ने देखा उसके आते देख नदियां, खेत, जंगल सभी मुस्कुराने लगे,बागों में फूल खिल उठे।

आंधी ने जब बसंती बयार के आने पर जो खुशी देखी तो उसे महसूस हुआ कि उसके आने पर लोगों के चेहरे पर जितना गम दिखाई देता है। उससे कई गुना ज्यादा खुशी दिखाई देती है। यह देख कर आंधी बहुत दुखी हो गई। उसे महसूस हुआ कि खुशी देने वाले की ताकत गम देने से कई गुना ज्यादा है क्योंकि खुशी को हर कोई याद रखना चाहता है और गम को हर कोई भुलाना।

कैसे बचें मन की पीड़ा से?
जीवन में हम कितनी सारी चीजें सीखते हैं, हमने यह नहीं सीखा कि मन की पीड़ा से कैसे बचें। हम छोटी सी बात का बतंगड़ बनाते हैं। दूसरे के बोले हुए शब्दों को इधर-उधर खींचते हैं। क्या आपकी जिन्दगी का इससे ज्यादा कोई महत्व नहीं है। हम सारा दिन किसी न किसी बात को लेकर शिकायत करते रहते हैं। रास्ते पर जाते हुए गन्दगी की बुराई और शिकायत करेंगे। हमारी तो प्रशंसा भी बुराई से भरी होती है। सारी जिन्दगी शिकायतों के साथ बिता देते हैं। भगवान भी कई बार अपने ही द्वारा बनाई गई इस इंसान नाम की अद्भुत रचना को समझ नहीं पाता है क्योंकि जब वो उसे पृथ्वी पर भेजता है तो वो एक पवित्र आत्मा के रुप में भेजता है। मगर यहां आकर हर एक अपने मन को इतनी शिकायतों व संस्कारो से भर लेता है कि परमात्मा उस पर
कृपा कर उसकी एक शिकायत को हल कर भी दे तो वह नई शिकायत पकड़ कर बैठ जाता है। एक आलसी आदमी था। उसका हमेशा यह रोना था कि बारिश नहीं हुई, इसलिए फसल नहीं हुई। एक दिन उस आदमी पर भगवान को तरस आ गया उन्होने सोचा इस बार बारिश करके बेचारे की सारी समस्या खत्म कर देता हंू।

बस फिर क्या था। उन्होंने उस गांव में उस साल खूब पानी बरसाया और सोचा चलो अब तो ये बेचारा आदमी सुखी हो जाएगा। उस साल अच्छी खासी बारिश हुई। खेतों में फसले भी अच्छी तैयार हुई। अब उस आदमी का पहला बहाना खत्म हो गया तो वह कहने लगा, मैं तो थक गया, कितना सारा काम करना पड़ता है। मैं तो दुखी हो गया। इससे तो अच्छा था कि बारिश नही थी। अभी तो फसल है, उसकी निगरानी भी करनी पड़ती है ताकि जानवर आकर उसे खा ना जाएं। तो क्या हुआ बारिश होने से भी शिकायत ना हो ने पर भी शिकायतों का सिलसिला कहां तक चलेगा? इसका कोई अंत नहीं।अब वह आदमी बारिश होने पर भी दुखी हो गया। इसका मतलब यह नहीं की इच्छा करना छोड़ दे। इच्छाएं तो रहती ही हैं, लेकिन हम सब के लिए जरुरी है अपने आप में तृप्त होना क्योंकि कोई भी वस्तु आपको ज्यादा देर तक खुश नहीं रख सकती। असली खुशी आप ही के अंदर है। वह मंदिर व मस्जिद में नहीं मिलेगी, हो सकता है हम अगर शिकायत करना छोड़ दें तो शायद वैसी थोड़ी मुस्कुराहट व खुशी हमारे जीवन में आ जाए जो पल भर के लिए नही हमेशा के लिए हो।

मुस्कुराहट ही जिन्दगी है
जीवन के आनंद को, जीवन के रस को और जीवन के गीतों को, जो प्राप्त नहीं कर पाते, वे कहते हैं जीवन खट्टा है, अंगूर खट्टे हैं जीवन बुरा है, जीवन अर्थहीन है। अपनी असफलता को छुपाकर और रो कर कोई भी अपने जीवन को सुखी नहीं बनाया जा सकता। हारे हुए लोग अपने आप को दोष न देकर जीवन को ही दोष देते हैं। जिनकी जिन्दगी में मुस्कुराहट नहीं होती वे कभी अपने जीवन को पूर्णता के साथ नहीं जी पाते। इसलिए जिन्दगी के हर पल को मुस्कुराहट के साथ स्वीकार कीजिए। तभी जिन्दगी को आनंद के साथ जी पाएंगे।तीन बहुत गहरे दोस्त थे। तीनों बहुत खुश मिजाज और जिन्दगी को खुलकर जीने में यकीन रखते थे। जहां भी वे जाते वहां खुशी और हंसी की लहर फैल जाती। उन तीनों से जो भी मिलता, उसे वे इस तरह मिलते की मिलने वाले के मन में खुशी की लहर दौड़ जाती। अक्सर लोग उनसे पूछते कि आप इतना खुश कैसे रह लेते हैं। उन्होने कहा जीवन में हंसी का भाव स्वीकार कर लेते हैं। तो जीवन अपने आप ही खुशियों से भर जाता है। जो जीवन को रोते हुए स्वीकार करेगा तो उसका जीवन से कोई संबंध नहीं हो सकता। भगवान को भी रोते हुए लोग पसंद नहीं है, भगवान के दिए इस जीवन को जो हंसी-खुशी अपनाता है, भगवान उसे ही मिलते हैं।

मुस्कुराहट ही किसी के जीवन को सफल बना सकती है क्योंकि इंसान हो या भगवान हर कोई मुस्कुराते हुए चेहरों को पसंद करता है। मुस्कुराहट ही वह मार्ग है जिससे परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है। समय बीतता गया तीनों बूढ़े हो गए । उन तीनों में से एक दिन एक की मृत्यु हो गई। लोगों ने सोचा अब तो ये रोएंगे जरुर, अब तो दुखी होंगे जरुर, आज तो हम उनकी आंखों मे आंसू देख लेंगे। उनकी पहचान के सारे लोग इकठ्ठे हो गए, लेकिन वो दोनो हंसते हुए अपने मरे हुए दोस्त को लेकर बाहर निकले और उन्होने गांव के लोगों से कहा कि आओ और देखो, कितना अद्भुत आदमी था। लोगों ने देखा जो उस आदमी की लाश पड़ी है लेकिन उसके होंठ मुस्कुरा रहे हैं। वह आदमी जो मर गया है वह हंसते हुए ही मर गया। वह अपने मित्रो को कह गया कि मैं मर जाऊं तो एक कृपा करना, मेरी लाश को स्नान मत करवाना और नए कपड़े भी मत पहनाना । दोनो दोस्तों ने उसकी अंतिम इच्छा का पालन किया। अब सारे परिचित लोग उसकी लाश को लेकर शमशान पहुंचे। वहां जैसे ही उसकी चिता को आग दी गई। आग लग गई ,लोग उदास खड़े हैं लेकिन फिर एकदम धीरे-धीरे भीड़ में हंसी छुटने लगी, लोग हंसने लगे। हंसी फैलती चली गई,जैसे ही लाश में आग लगी, लोगों को पता चला कि वह आदमी अपने कपड़ो के भीतर पटाखे और फुलझड़ी छिपा मर गया है। कपड़े से उसने भीतर पटाखे फुलझड़ी छिपा का मर गया है। लोग हंसने लगे और वे कहने लगे कि अद्भुत था। वह आदमी वह मरा हंसता हुआ, जीया हंसता हुआ और मरने के बाद भी लोग हंसते ही विदा दें इसकी व्यवस्था, इसका आयोजन कर गया। उन सभी लोगों को पता चल गया था कि हंसते हुए जीया जा सकता है। हंसते हुए मरा भी जा सकता है। मरने के बाद भी हंसी की संभावना पैदा की जा सकती है।

हर बुराई के पीछे अच्छाई छुपी होती है
हम में से अधिकांश लोग सिर्फ अपने अवगुण या दूसरों के अवगुणों को देखने या गिनाने में लगें रहते हैं, इसलिए हमारा ध्यान किसी की अच्छाई पर जाता ही नहीं। क्योंकि हमें तो बुराई देखने की आदत हो चुकी है। हम हर जगह बुराई ढुंढने में इतने मशगुल हैं, कि किसी के बुरे पहलु में हम अच्छाई ढूंढने की सोच भी नहीं पाते जबकि यह बात हम सब जानते हैं कि हर बुराई के पीछे कोई ना कोई अच्छाई छुपी होती है।

एक गांव में किसान रहता था। उस गांव में उसे पानी भरने अपने घर से बहुत दूर जाना पड़ता था। उसके पास पानी लेकर आने के लिए दो बाल्टियां थीं। उनमें से एक बाल्टी में छेद था। किसान रोज उस कुएं से पानी भरकर जब तक अपने घर तक लाता था। वह पानी सिर्फ डेढ़ बाल्टी रह जाता था, क्योंकि छेद वाली बाल्टी का पानी आधा ही रह जाता था। अब वो बाल्टी जिसमें कोई छेद नहीं था। उसे धीरे-धीरे घमंड आने लगा। वह उस छेद वाली बाल्टी से बोली तुम में छेद है। तुम किसी काम की नहीं मालिक बेचारा तुम्हे जब तक भरकर घर लेकर आता है, तुम्हारा आधा पानी खाली हो जाता है। यह सुनकर वह बाल्टी दुखी हो जाती उसे दूसरी बाल्टी रोज ताना मारती थी। एक दिन उस बाल्टी ने दुखी होकर अपने मालिक से कहा: मालिक आप मुझसे यदि परेशान हो गये हैं तो मेरे इन छेदों को बंद क्यों नहीं कर देते या फिर आप मुझे छोड़कर नई बाल्टी क्यों नहीं खरीद लेते तो किसान मुस्कुराते हुए बोला तुम इतनी दुखी हो तुम जानती हो कि तुम्हे मैं जिस रास्ते से भरकर यहां तक लाता हूं। उस रास्ते के एक ओर हरियाली है वहा कई छोटे-छोटे सुन्दर पौधे उग आए हैं। दूसरी ओर जहां से बिना छेद वाली बाल्टी को लेकर निकलता हूं। वहां हरियाली नहीं है सिर्फ सूखा है तो अगर वो बिना छेद वाली बाल्टी मेरे घर के सदस्यों की प्यास बुझा रही हो तो तुम भी तो कई नन्हे पौधों को जीवनदान दे रही हो बाल्टी यह सुनकर खुश हो गई उसे अपनी अहमियत का एहसास हो गया।

भरोसा करो लेकिन...
किसी भी व्यक्ति चाहे वो कैसा भी हो उसे सुधरने को मौका देना और उसे क्षमा करना ठीक है लेकिन किसी भी दुष्ट व्यक्ति पर आंख बंद करके विश्वास आपको दुख पहुचाने के साथ ही परेशानी में डाल सकता है। धोखे से बचने के लिए जरुरी है हमेशा भरोसा करें लेकिन सतर्कता के साथ क्योंकि किसी भी व्यक्ति की जो मूल प्रवृत्ति होती है वह उसे चाहकर भी नहीं छोड़ पाता। इसमें गलती उस व्यक्ति की नहीं, आपकी है।

एक व्यक्ति हमेशा अपने कामों से लोगों को परेशान करता था। लोग उससे बहुत दुखी थे। वह लोगों को परेशान करके बहुत खुश होता था। एक दिन वह बीमार हो गया। अचानक उसके व्यवहार में बदलाव आया। वह सब से ठीक से पेश आने लगा। उसके व्यवहार से सभी को आश्चर्य होने लगा लेकिन उसके रिश्तेदारों और लोगों को लगा कि शायद वह सुधर गया है। इसलिए सभी का व्यवहार धीरे-धीरे उसके प्रति बदलने लगा। एक दिन उसकी तबीयत अचानक ज्यादा बिगड़ गई तो उसने अपनी कालोनी वालों और रिश्तेदारों को इकट्ठा किया और कहा कि अगर आप सभी लोग चाहते हैं कि मरने के बाद मेरी आत्मा को शांति मिले तो आप सभी को मुझ से वादा करना होगा कि आप मेरी अंतिम इच्छा की पूर्ति करेंगें। लोंगो ने कहा ठीक है बताओ क्या है तुम्हारी अंतिम इच्छा? उसने कहा मैं चाहता हूं कि मेरे मरने के बाद मेरे सर में खूंटा ठोक दिया जाए । मैं चाहता हूं मुझे अपने जिन्दगी भर के गुनाहों कि सजा मिल जाए। लोगों ने उसे बहुत समझाया लेकिन वो था कि मानने को तैयार ही नहीं। उसी दिन उसकी मौत हो गई। उसके आसपास के लोग यही चाहते थे कि बेचारे की आत्मा को किसी तरह शांति मिल जाए इसलिए उन लोगों ने उसके सिर में खूंटा ठोंक दिया। अब उसके शव को शमशान ले जाने की तैयारी होने लगी। इतने मैं अचानक वहां पुलिस आई और उन लोगों से कहा कि आप लाश को नहीं ले जा सकते। सभी लोग स्तब्ध थे। उनमें से एक ने पूछा क्यों तो पुलिस ने कहा क्योंकि ये जो आदमी मरा है इसने चार दिन पहले ही रिपोर्ट लिखवाई थी कि शायद मेरी ही जान पहचान के लोग मेरे हत्या की साजिश कर रहे हैंऔर यदि मेरी अचानक मौत होती है तो इसका जिम्मेदार मेरे सभी जान पहचान वालों को माना जाए। वे सभी लोग सदमें में थे कि उस दुष्ट ने मरते हुए भी अपनी दुष्टता नहीं छोड़ी। आखिर गलती तो उन्ही की थी क्योंकि उन्होंने उस पर भरोसा किया।

धन की आग से जल्दी निकलों बाहर
एक बार की बात है। रामकृष्ण परमहंस की सत्संगति से एक धनाढ्य युवक बहुत प्रभावित था। वह एक दिन रामकृष्ण परमहंस के पास पहुंचा और बोला कि स्वामी जी मैं आपको एक हजार स्वर्ण मुद्र्राएं भेट करना चाहता हूं। रामकृष्ण ने उससे कहा इस कचरे को गंगा को भेंट कर आओ। अब वह क्या करें उसने वे मुद्राएं गंगा को भेट कर दी लेकिन वह बहुत देर नहीं लौटा क्योंकि उसने अपने स्वभाव के अनुसार एक-एक मुद्रा गिनकर फेंकी। जब वह वापस लौटकर रामकृष्ण के पास आया तो उन्होंने उससे पृछा की तुम्हें इतनी देर कैसे हो गई। उसने कहा कि मुद्राओं को गिन रहा था ना इसलिए देर हो गई।

उसकी यह दशा सुनकर परमहंस बोले जिस जगह तू एक कदम उठाकर पहुंच सकता था, वहां पहुंचने के लिए तुने हजार कदम उठाए। यदि तुम मेरे शिष्य बनना चाहते है तो ऐसे कैसे तुम सही मार्ग पर आगे बढ पाओगे?
वो बोला मैं धीरे-धीरे त्याग कर दुंगा। वे बोले क्या तुम आग में गिरोगे तो धीरे से बाहर निकलोगे और आग में से यदि जानबुझकर बाहर धीरे बाहर निकलोगे तो क्या इसका मतलब ये माना जाए कि तुम्हें आग दिखाई ही नहीं दे रही। सत्य को जानो अनुभव करो, तो किसी भी चीज का त्याग धीरे-धीरे नहीं होता है। सत्य की अनुभुति ही त्याग बन जाती है। अज्ञान जहां हजारों कदमों में नहीं पहुंचता ज्ञान वहां एक ही कदम में पहुंच जाता है।

मीठी और कड़वी होती है आपकी बोली
आप कैसी बातें करते हैं। किसी से कितने प्यार से बोलते हैं या कितना कड़वा बोलते है। आपकी बोली ही व्यक्तित्व की सबसे बड़ी छबि पेश करती है। ऐसा कहा जाता है कि किसी तीखे हथियार से ज्यादा गहरे घाव किसी के तीखे शब्दों के होते हैं क्योंकि हथियार से किए गए घाव तो भर जाते हैं लेकिन शब्दों के घाव कभी नहीं भरते। शब्दों के घाव हमेशा चुभन देते हैं। इस दुनिया में सिर्फ जुबान ही कड़वी और मीठी है। मीठा नहीं बोल सकते तो कोई बात नहीं लेकिन कोशिश करें कि आप जो भी बोले उससे किसी की भावनाएं आहत ना हो।
शब्दों के घाव से जुड़ी प्रेरक कथा है जो बताती है कि आप जो भी बोले, अच्छी तरह सोच-समझकर बोलें।
एक बार चार दोस्त बैठकर गप्पे लड़ा रहे थे। उनमें से एक ने पूछा कि संसार में मीठा क्या है? और तीखा क्या है? सभी ने अपनी राय दी किसी ने कहा गुड़ मीठा है। किसी ने कहा शक्कर। किसी ने कहा रसगुल्ले। सभी ने मनपसंद चीजों के नाम बताए। उनमें से एक दोस्त ने कहां कि मेरी राय में तो जुबान ही कड़वी और मीठी होती है। सब दोस्तों ने उसका खुब मजाक बनाया कहा ये कैसी अजीब बात है। उस बात को बहुत दिन गुजर गए। एक दिन उस दोस्त ने अपने सारे दोस्तों को खाने पर बुलाया। उसने अपने घर में दावत की पूरी तैयारी कर रखी थी। खाना लाजवाब बना था। अब सभी लोग खाना खाने बैठे तो वह बोला आप लोग तो ऐसे खा रहे हैं जैसे कभी खाना देखा ही नहीं कितनी देर हो गई।

ये सुनकर सभी दोस्त नाराज हो गए लेकिन सबसे अलग वह दोस्त एकदम निश्चिंत था। अब सारे दोस्त अपने-अपने घर चले गए। अब वह दोस्त जिसने सब का अपमान किया था। उसने अपने उस दोस्त को फोन लगाकर कहा कि मैं तुम सबसे मिलना चाहता हुं। वो दोस्त उसके स्वभाव को जानता था कि ये जो बोलता है वो साबित करके दिखाता है। इसलिए उसने हां कह दिया। उसने बड़ी मुश्किल से नाराज दोनों दोस्तों को मना लिया। उसने सब को कहा कि आप बताइये मैंने आपको क्या बुरा खाना खिलाया था? क्या मेरी व्यवस्था में कोई कमी थी तो उनमें से एक दोस्त बोला- नहीं, सब कुछ बहुत अच्छा था लेकिन तुम ने ऐसे शब्द को कह दिए की सारा जायका बिगाड़ दिया। उसने कहा ऐसा कैसे हो सकता है? उस दिन आप लोग ही तो मेरा मजाक बना रहा था कि जायका तो खाने में होता है। जुबान में नहीं तो फिर आप लोगों का जायका मेरे बिगाडऩे से कैसे बिगड़ गया। तीनों दोस्त मुस्कुराने लगे। कहने लगे हमे माफ कर दो हमने तुम्हारी बात का मजाक बनाया था लेकिन तुम सही थे। हम सभी मान गए की जुबान ही कड़वी और मीठी होती है।

लालच मन का कैंसर
स्वार्थी लोग दूसरो का अच्छा या बुरा सोचे बिना आगे बढऩे की सोचते हैं। लालची आदमी हमेशा और अधिक पाने की चाह रखता हैं। जरुरते पूरी की जा सकती है, लेकिन लालच नही, क्योंकि लालच मन का कैंसर है।
एक राजा का नियम था कि वह रोज अपने द्वार पर सबसे पहले आने वाले को मनचाहा दान देता था। एक दिन उसके राज्य के लालची किसान को जब यह बात पता चली तो उसने सोचा कि कल तो में राजा के दरवाजे सबसे पहले जाकर उस से ऐसा कुछ मांगूगा कि मैं मालामाल हो जाऊं। उसने ऐसा ही किया अगले दिन वह सुबह राजा के दरवाजे पर पहुंच गया। राजा ने बोला मांग लो क्या मांगना चाहते हो? उसने कहा राजा जी आप मुझे नहीं दे पाएंगे। राजा समझ गया कि ये बहुत लालची किस्म का इंसान है। जो भी मांगेगा इसके लालच में इसे कम ही लगेगा। राजा ने कहा तुम कौन हो तो वो बोला मैं एक किसान हूं। राजा ने कहा तो चलो तुम दौड़ लगाओ और सूरज डुबने के पहले तुम जहां तक बिना रूके दौड़ते जाओगे वहां से तुम्हे शुरुआत की जगह तक सूरज ढलने से पहले पंहुचना है। उस जगह तक की जमीन तुम्हारी। किसान खुश हो गया। उसने सोचा राजा कितना बेवकुफ है। इसे इतना भी समझ नहीं आता कि ऐसे तो इसकी सारी भूमि का स्वामी मैं बन जाऊंगा।

अब किसान ने दौडऩा शुरु किया। ज्यादा से ज्यादा जमीन पाने के लिए वह किसान दूसरे दिन सूरज निकलने से पहले ही निकल पड़ा। वह काफी तेजी से दौडऩे लगा। वह ज्यादा से ज्यादा जमीन हासिल करना चाहता था। थकने के बावजुद वह सारी दोपहर दौड़ता रहा। क्योंकि वह जिन्दगी में दौलत कमाने के उस मौके को गवाना नहीं चाहता था।दिन ढलते वक्त उसे शर्त याद आयी कि उसे सूरज डूबने के पहले उसे शुरुआत की जगह पहुंचना है। अपनी लालच की वजह से वह उस जगह से काफी दूर निकल चुका था। सूरज के डूबते-डूबते वह शुरूआत की जगह से काफी दूर था। सूरज डूबने का वक्त ज्यो-ज्यो पास आ रहा था। वह बुरी तरह से हाफने लगा, फिर भी वह बर्दाश्त से अधिक तेज भागने लगा। नतीजा यह हुआ कि सूरज डूबते- डूबते वह शुरुआत वाली जगह पर पहुंचा तो गया, पर उसका दम निकल गया और वह मर गया। उसको दफना दिया गया। उसे दफन करने के लिए जमीन के बस एक छोटे से टूकड़े की ही जरुरत पड़ी। इस कहानी में एक काफी सच्चाई और एक सबक छिपा है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता किसान अमीर था, या गरीब। किसी भी लालची व्यक्ति का ऐसा ही हश्र होता है।

मन की शक्ति से
आंतरिक शक्ति ही वह ताकत है,जो किसी को भी वो हर काम करने की हिम्मत देती है, जिसे कोई इंसान ये सोचता है कि ये मुझसे नही होगा। हर व्यक्ति हर काम कर सकता है सिर्फ जरुरत है तो अपनी पूरी आंतरिक शक्ति से लक्ष्य पर ध्यान केन्द्रित करने की।

राघव क्रिकेट की प्रेक्टिस करने लगातार जाता था। बहुत प्रेक्टिस करने के बाद भी वह टीम में सिलेक्ट नहीं हो पाया। जब वह प्रेक्टिस करता तो उसकी मां मैदान में बैठकर उसका इंतजार करती रहती थी। इस बार जब नया प्रेक्टिस सीजन शुरु हुआ, तो वह चार दिन तक प्रेक्टिस पर नहीं आया। क्वार्टर फाइनल और सेमीफाइनल मैच के दौरान भी नहीं दिखा। राघव फाइनल मैच के दिन आया। उसने अपने कोच के पास जाकर कहा आपने मुझे हमेशा रिजर्व खिलाडिय़ों में रखा और कभी क्रिकेट टीम में खेलने नहीं दिया लेकिन आज मुझे खेलने दीजिए। कोच ने कहा बेटा मुझे दुख है। मैं तुम्हे यह मौका नहीं दे सकता। फाइनल मैच है कालेज की इज्जत का सवाल है। मैं तुम्हें खिलाकर अपनी इज्जत दांव पर नहीं लगा सकता। राघव ने खूब मिन्नतें की। कोच का दिल पिघल गया।

कोच ने कहा ठीक है जाओ खेलो लेकिन याद रखना कि मैंने यह निर्णय अपने कर्तव्य के विरुद्ध लिया है, ध्यान रखना मुझे शर्मिंदा ना होना पड़े। मैच शुरु हुआ लड़का तूफान की तरह खेला उसने छ: गेंद पर छ: छक्के मारे। उस मैच का हीरो बन गया। उस मैच मैं टीम को शानदार जीत मिली। मैच खत्म होने के बाद कोच उस राघव के पास जाकर पूछा मैंने तुम्हे कभी इस तरह खेलते हुए नहीं देखा। यह चमत्कार कैसे हुआ?

राघव बोला कोच आज मेरी मां मुझे खेलते हुए देख रही थीं। कोच ने उस जगह मुड़कर देखा जहां उसकी मां
बैठा करती थीं। कोच ने कहा बेटा तुम जब भी मैच की प्रेक्टिस करने आते थे। तब तुम्हारी मां हमेशा उस जगह बैठा करती थीं लेकिन आज मै वहां किसी को नहीं देख रहा हूं। राघव ने बताया कि कोच मैनें आपको यह कभी नहीं बताया कि मेरी मां अंधी थीं। पांच दिन पहले ही उनकी मृत्यु हो गई। आज पहली बार वो मुझे ऊपर से देख रही हैं।

अगर चाहत हो सच्ची....
दुनिया मे ऐसी कोई वस्तु नही है, जिसकी चाहत आप सच्चे मन से रखे और वो आपको ना मिले। इच्छा ने ही शरीर को पैदा किया है। किसी भी चीज को पाने के लिए सिर्फ दृढ़ इच्छाशक्ति की जरुरत होती है। दृढ़ इच्छाशक्ति के लिए लक्ष्य जरुरी है। इसीलिए किसी भी चीज को पाने के लिए अपना लक्ष्य बनाओ। लक्ष्य को अपनाओ। उसी को अपनी जिंदगी मानकर काम करो।उसी के सपने देखो। उसी के सहारे जिवित रहो। किसी भी चीज को पाने के लिए जरुरी है। आपका दिल और दिमाग उसी के विचार से ओतप्रोत हो। सफलता का यही राजमार्ग है।

सड़क पर घुमते हुए आलसी व्यक्ति ने एक बूढ़े व्यक्ति को मकान के दरवाजे पर बैठे हुए देखा। उसने ठहरकर उस बूढ़े से एक गांव का पता ठिकाना पूछा। उसने कहा की अमुक-अमुक गांव यहां से कितना दूर है? वह बूढ़ा व्यक्ति कुछ नहीं बोला। उस आदमी ने बहुत बार अपना प्रश्र दोहराया।जब कोई जवाब नहीं मिला तो वह झुंझला गया। वह चलने के लिए मुड़ पड़ा। तभी बुढ़े ने उसे रोककर कहा। जिस गांव का तुम पता पूछ रहे हो वो गांव यहां से सिर्फ एक मील की ही दूरी पर है। उस आदमी ने कहा ये बात जब मैंने पूछी तभी क्यों नहीं बतायी। बूढ़े ने कहा क्योंकि तब तुम जाने के बारे में काफी उदासीन और ढीले से दिखाई दे रहे थे। जब तुम पक्के इरादे के साथ जाने के लिए अब तैयार दिखते हो। तब तुम उत्तर पाने के अधिकारी हो गए हो।

सही समय पर सही बात बोलें
राजा संग्राम सिंह जब मृत्यु को प्राप्त हुए, तो उनका इकलौता पुत्र सिंहासन पर बैठा। उसे पिता की मृत्यु का बहुत दुख था। इस वजह से वह कुछ व्यसनों का दास बन गया। उसका राजकाज में भी मन नहीं लगता था। धीरे-धीरे वह जनता के बीच बदनाम हो गया। जब उसे अपनी लोकप्रियता कम होने की बात मालुम हुई तो उसने अपने बेहद अक्लमंद मंत्री को बुलाकर कहा मेरी कमियां मुझे बताइए ताकि मैं उन्हें सुधारकर अच्छाशासक बन सकूं।मंत्री होशियार था किंतु खुशामदी नहीं। उसने कहा- महाराज। चुप रहने में हमेशा भलाई होती है। बोले वाला ही मारा जाता है। इसलिए मुझे क्षमा करें। मैं आपके दोष नहीं बता पाउंगा।

मंत्री ने अपने घर आकर सोचा अच्छा हुआ जो उसने इतनी सफाई से किनारा कर लिया। अन्यथा क्या पता कितना नुकसान उठाना पड़ता क्योंकि बात भलाई की हो और वह को भी भाए यह जरा मुश्किल है। हालांकि मंत्री ने दूसरे तरीके से राजा को सीख दी, किंतु राजा समझ नहीं सका।एक दिन राजा मंत्री के साथ शिकार पर गया। दिनभर कोई शिकार नहीं मिला। शाम को लौटते वक्त झाडिय़ों के पीछे छिपा एक तीतर कुछ बोल पड़ा। तभी राजा ने उसे तीर मारकर धराशायी कर दिया।तब मंत्री बोला- यही बात मैं आपको समझाना चाहता था। महाराज तीतर ना बोलता, ना मरता। तत्क्षण राजा को मानो आइना दिख गया और उस दिन से वह सुधर गया।आशय यह है कि बात भी अवसर देखकर ही बोली जानी चाहिए। अन्यथा अनिष्ट की आशंका बनी रहती है। वास्तव में अवसर का सही उपयोग ही अच्छे परिणाम देता है।

प्रतिभा को पहचानें
बच्चों में छिपी प्रतिभा को पहचान कर उसे प्रोत्साहित करना चाहिए यदि प्रतिभा निखार के आरंभिक दौर में उनसे कुछ गलतियां हो भी जाए, तो उसे अनदेखा कर उन्हें प्रेरित करना चाहिए। ताकि वे लगातार बेहतर से बेहतर की ओर बढ़ें। बात उन दिनों की है जब भारत गुलाम था। ग्वालियर के विक्टोरिया स्कूल की छठी कक्षा में एक छात्र पढ़ता था। वह पढऩे में जितना होशियार था, खेलों में भी उतना ही निपुर्ण था। स्कूल में वह छात्रों के साथ-साथ अध्यापकों का भी प्रिय था। उसके स्कूल के प्रधानाध्यापक अत्यंत क्रोधी स्वभाव के थे। सारा स्कूल उनसे डरता था किंतु वे प्रतिभा के कुशल पारखी थे। हालांकि इसे वे कभी प्रकट नहीं करते थे।

एक दिन वह छात्र स्कूल के मैदान में हॉकी खेल रहा था। अचानक भूलवश उसकी गेंद पास ही स्थित एक अंग्रेज अफसर के बंगले पर जा लगी और खिड़की के शीशे चटक गए। अफसर गुस्से में आगबबुला हो गया। उसने उस छात्र को तो भला-बुरा कहा ही, प्रधानाचार्य के पास उसकी शिकायत करने भी आया।प्रधानाचार्य ने उसकी बात सुनी और पता लगवाया कि वह छात्र कौन है, जिसने यह कार्य किया है। जब वह छात्र प्रधानाचार्य के सामने उपस्थित हुआ तो डर के मारे उसका बुरा हाल था किंतु प्रधानाचार्य उसे देखकर मुस्कुराए और फिर एक हॉकी व गेंद उपहार में देकर उसकी पीठ थपथपाई। उन्होंने उसे और मेहनत कर इस खेल में अपना भविष्य बनाने का प्रोत्साहन दिया।जानते हैं कि यह छात्र कौन था? वह था भारतीय हॉकी टीम का कप्तान रूपसिंह, जो भारतीय हॉकी जगत के प्रकाश स्तंभों में से एक बन बच्चों में छिपी प्रतिभा को पहचान कर उसे प्रोत्साहित करना चाहिए।

विनम्रता से बनता है अस्तित्व
व्यक्ति के हृदय में अहंकार आते ही उसे नष्ट होते देर नहीं लगती। अहंकारी को हर जगह उपेक्षा ही मिलती है। जबकि विनम्र को न केवल अपने जीवन में बल्कि परमात्मा के यहां भी यश और सम्मान मिलता है।महाभारत का प्रसंग है। युद्ध अपने अंतिम चरण में था। भीष्म पितामह शरशैय्या पर लेटे जीवन की अंतिम घडिय़ां गिन रहे थे। उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था और वे सूर्य के दक्षिणायन से उत्तरायण होने की प्रतिक्षा कर रहे थे। धर्मराज युधिष्ठिर जानते थे कि पितामह उच्च कोटि के ज्ञान और जीवन संबंधी अनुभव से संपन्न हैं। इसलिए वे अपने भाइयों और पत्नी सहित उनके समक्ष पहुंचे और उनसे विनती की- पितामह। आप विदा की इस बेला में हमें जीवन के लिए उपयोगी ऐसी शिक्षा दें, जो हमेशा हमारा मार्गदर्शन करें।

तब भीष्म ने बड़ा ही उपयोगी जीवन दर्शन समझाया। नदी जब समुद्र तक पहुंचती है, तो अपने जल के प्रवाह के साथ बड़े-बड़े वृक्षों को भी बहाकर ले आती है। एक दिन समुद्र ने नदी से प्रश्न किया। तुम्हारा जलप्रवाह इतना शक्तिशाली है कि उसमें बड़े-बड़े वृक्ष भी बहकर आ जाते हैं। तुम पलभर में उन्हें कहां से कहां ले आती हो? किंतु क्या कारण है कि छोटी व हल्की घास, कोमल बेलों और नम्र पौधों को बहाकर नहीं ला पाती। नदी का उत्तर था जब-जब मेरे जल का बहाव आता है, तब बेलें झुक जाती हैं और उसे रास्ता दे देती हैं। किंतु वृक्ष अपनी कठोरता के कारण यह नहीं कर पाते, इसलिए मेरा प्रवाह उन्हें बहा ले आता है। इस छोटे से उदाहरण से हमें सीखना चाहिए कि जीवन में सदैव विनम्र रहे तभी व्यक्ति का अस्तित्व बना रहता है।सभी पांडवों ने भीष्म के इस उपदेश को ध्यान से सुनकर अपने आचरण में उतारा और सुखी हो गए।

ऐसे स्वभाव और चरित्र नहीं बदलता
कई बार ऐसा होता है कि लोग अपने कार्य और रहन-सहन से हटकर वेश बना लेते हैं, अपनी पहचान छुपा लेते हैं लेकिन कपड़े और आभूषणों से कभी आपका स्वभाव और चरित्र नहीं बदल सकता। न ही आपका धर्म प्रभावित हो सकता है। वह तो आपके व्यवहार में है और जब भी वक्त आता है आपका धर्म, स्वभाव और चरित्र कपड़ों के आवरण से बाहर आकर हकीकत बता देता है।

महाभारत की एक छोटी सी कथा है। पांडव वन में वेश बदलकर रह रहे थे। वे ब्राह्मण के रूप में रह रहे थे। एक दिन मार्ग में उन्हें कुछ ब्राह्मण मिले। वे द्रुपद राजा की पुत्री द्रौपदी के स्वयंवर में जा रहे हैं। पाण्डव भी उनके साथ चल पड़े। स्वयंवर में एक धनुष को झुकाकर बाण से लक्ष्य भेद करना था। वहां आए सभी राजा लक्ष्य भेद करना तो दूर धनुष को ही झुका नहीं सके। अंतत: अर्जुन ने उसमें भाग लिया। अर्जुन ने धनुष भी झुका लिया और लक्ष्य को भी भेद दिया। शर्त के अनुसार द्रौपदी का स्वयंवर अर्जुन के साथ हो गया। पाण्डव द्रौपदी को साथ ले कर कुटिया में आ गए। द्रुपद को यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। वह अपनी पुत्री का विवाह अर्जुन जैसे वीर युवक के साथ करना चाहता था। द्रुपद ने पाण्डवों की वास्तविकता पता लगाने का एक उपाय किया। एक दिन राजभवन में भोज का आयोजन रखा। उसमें पाण्डवों को द्रौपदी और कुंती के साथ बुलाया गया। उन्होंने राजमहल को कई वस्तुओं से सजाया।

एक कक्ष में फल-फूल, आसन, गाय, रस्सियां और बीज जैसी किसानों के उपयोग की सामग्री रखवाई। एक अन्य कक्ष में युद्ध में काम आने वाली सामग्री रखी गई। इस तरह सुसज्जित राजमहल में पाण्डवों को भोज कराया गया। भोजन के बाद सभी अपनी पसंद की वस्तुएं आदि देखने लगे। ब्राह्मण वेशधारी पाण्डव सबसे पहले उसी कक्ष में गए जहां अस्त्र-शस्त्र रखे थे। राजा द्रुपद उनकी सभी क्रियाओं को बड़ी सूक्ष्मता से देख रहे थे। वे समझ गए कि ये पांचों ब्राह्मण नहीं हैं। जरूर ये क्षत्रिय ही हैं। अवसर मिलते ही उन्होंने युधिष्ठिर से बात की और पूछ ही लिया सच बताएं आप ब्राह्मण हैं या क्षत्रिय। आपने ब्राह्मण के समान वस्त्र जरूर पहन रखे हैं पर आप हैं क्षत्रिय। युधिष्ठिर हमेशा सच बोलते थे। उन्होंने स्वीकार कर लिया कि वे सचमुच क्षत्रिय ही हैं और स्वयंवर की शर्त पूरी करने वाला व्यक्ति और कोई नहीं स्वयं अर्जुन ही है। यह जानकर द्रुपद खुश हो गया। वह जो चाहता था वही हुआ।

कभी-कभी कमजोर कड़ी भी जान बचाती है
यह व्यक्ति का स्वभाव होता है कि वह प्रकृति के नियमों को जानता तो है लेकिन फिर भी उसे पूरे मन से स्वीकार नहीं करता। मृत्यु एक सच है, सभी को एक दिन मरना है लेकिन हर आदमी यह सोचता है कि वह अभी नहीं मर सकता। हम अगर प्रकृति के नियमों को जानते हैं तो उसे स्वीकार भी करना चाहिए।
मौत से कोई बच नहीं सकता यह सच है लेकिन मौत किसकी और कब आएगी यह प्रकृति तय करती है। हमारी जान किसके कारण बची हुई है, यह कोई नहीं जानता, इसलिए कभी सबसे कमजोर का साथ भी मुसीबत के वक्त नहीं छोडऩा चाहिए। बहुत पुरानी बात है, कुछ गांववाले अपने गांव से दूसरे गांव जा रहे थे। बीच में जंगल पड़ता था। गांव वालों की टोली में एक वृद्ध और चार युवक थे। अचानक जोर से बारिश होने लगी और बिजली कड़कने लगी।

सभी एक घने पेड़ के नीचे खड़े हो गए। जोरदार बिजली कड़कने लगी। बिजली गिरती लेकिन उस पेड़ के पास आकर लौट जाती, जिसके नीचे सभी खड़े थे। बूढ़े आदमी ने इस बात पर गौर किया और सबको बताया। सभी डर गए। बूढ़े ने कहा मुझे लगता है हममें से किसी की मौत इस घड़ी, इस बिजली से होने वाली है लेकिन जिनकी जिंदगी बाकी है, उनके कारण बिजली बार-बार पेड़ तक आकर लौट रही है। बूढ़े की बात सुन सभी घबरा गए। कोई कहने लगा मेरे बीवी बच्चे अकेले हैं, कोई कुंवारा था, किसी के बूढ़े मां-बाप थे। बात बूढ़े पर ही आ गई, युवकों ने कहा तुमहारी उम्र है मरने की, तुमने दुनिया भी देख ली है।

तुम्हारी ही मौत आई है। बात बिगड़ते देख, बूढ़े ने एक उपाय बताया, उसने कहा लडऩे से कुछ नहीं होगा। हमें मौत को स्वीकार करना चाहिए। हम बारी-बारी सामने वाले पेड़ के नीचे खड़े हो जाते हैं। जिसकी मौत आई होगी, उस पर बिजली गिर जाएगी। सभी डरे लेकिन कोई रास्ता भी नहीं था। अंतत: सभी मान गए। एक-एक करके पहले चारों युवक सामने वाले पेड़ के नीचे जाकर खड़े हुए लेकिन बिजली आकर लौट जाती।

चारों की जान में जान आ गई। सभी ने भगवान का शुक्रिया अदा किया कि उनकी मौत नहीं आई। अब बारी बूढ़े की थी। सभी ने उसे भारी मन से विदा किया। बूढ़ा इसे प्रकृति का निर्णय मानकर सामने वाले पेड़ के नीचे खड़ा हो गया। आसमान की तरफ देखकर बिजली का इंतजार करने लगा। तभी अचानक बिजली गिरी लेकिन उस पेड़ पर जिसके नीचे चारों युवक खड़े थे। बूढ़े ने देखा बिजली से पेड़ टूट गया और चारों युवक उसके नीचे दबकर मर गए।

ऐसी शक्ति आखिर किस काम की?
कहते हैं शिक्षा और शक्ति ऐसी होनी चाहिए जो राष्ट्र और समाज दोनों के काम आ सके। अगर आप केवल खुद के लिए ही कोई शक्ति संचय कर रहे हैं या कोई विद्या सीख रहे हैं तो उसका कोई अर्थ नहीं है। ऐसी शक्ति और शिक्षा जो किसी को सहायता न कर सके, वह किसी काम की नहीं। यह कहानी हमें बताती है कि बरसों मेहनत कर खुद के लिए पाई गई शक्ति या विद्या का कितना मोल होता है।

कहते हैं यह प्रसंग स्वामी विवेकानंद के जीवन का है। वे एक बार कहीं जा रहे थे। एक सरोवर के किनारे भीड़ जमा देखी तो रुक गए। उन्होंने देखा कोई बूढ़ा साधु लोगों को अपनी सिद्धि के बारे में बता रहे थे। विवेकानंद से उनसे उस शक्ति के बारे में पूछा तो साधु के एक चेले ने बताया कि हमारे बाबा ने 40 साल तक हिमालय में तपस्या करके यह सिद्धि हासिल की है। विवेकानंद ने पूछा कैसी सिद्धि? चेले ने बताया हमारे बाबा पानी पर चल सकते हैं। बहती नदी ही क्यों न हो, इन्हें पानी धार प्रभावित नहीं करती। ये बाढ़ वाली नदी पर भी आसानी से चल सकते हैं। विवेकानंद ने फिर पूछा क्या ये किसी को भी पानी पर चला सकते हैं?

चेले ने कहा नहीं, केवल बाबा ही पानी पर चल सकते हैं। विवेकानंद ने उस साधु से कहा बाबा तुमने अपनी जिंदगी के 40 साल ऐसी विद्या पाने में लगा दिए जिससे तुम एक आदमी को बाढ़ में बचा भी न सके। आपकी विद्या से तो अच्छी एक मल्लाह की विद्या है जिससे आदमी नदी तो पार कर सकता है। आपकी इस विद्या का समाज और देश को क्या लाभ मिला। अब वह साधु मौन खड़ा रहा। उसे अब अपनी विद्या पर गर्व नहीं था। शर्म आ रही थी।

तब लक्ष्मण को खाली हाथ लौटा दिया था रावण ने
कई लोग प्रबंधन से जुड़े होने के बावजूद भी परिस्थिति के अनुसार व्यवहार करना नहीं जानते। वे हर समय अपने ही प्रभाव में होते हैं। परिस्थितियों के अनुसार व्यवहार करना, अपनी भूमिका को समझना और सामने वाले से कोई काम निकलवाना। ये सब मैनेजमेंट के गुर होते हैं, जो हर व्यक्ति को पता नहीं होते। हम हैं भले एक ही लेकिन परिस्थिति के मुताबिक हमारी भूमिकाएं बदलती रहती है, हमें अपनी भूमिका के मुताबिक व्यवहार को सीखना चाहिए।

रामायण युद्ध की एक घटना इस बात की शिक्षा देती है। राम ने रावण की नाभि में तीर मार कर चित कर दिया था। वह रथ से धरती पर गिर पड़ा। अंतिम समय नजदीक था, रावण आखिरी सांसें ले रहा था। सभी उसके आसपास जमा होने लगे। ऐसा माना जाता है कि उस समय राम ने लक्ष्मण को आदेश दिया कि रावण महापंडित है, राजनीति का विद्वान है। जाओ उससे राजनीति के कुछ गुर सीख लो, वह युद्ध हार चुका है, अब हमारा शत्रु नहीं है। लक्ष्मण ने राम की बात मानी और रावण के नजदीक सिर की ओर जाकर खड़े हो गए, रावण से राजनीति पर कोई उपदेश देने की प्रार्थना की। रावण ने लक्ष्मण को देखा और उसे बिना शिक्षा दिए, यह कहकर लौटा दिया कि तुम अभी मेरे शिष्य बनने लायक नहीं हो।

लक्ष्मण ने राम के पास जाकर यह बात बताई। राम ने कहा तुम कहां खड़े थे, लक्ष्मण ने कहा रावण के सिर की ओर। राम ने कहा तुमने यहीं गलती की, तुम अभी योद्धा या युद्ध में जीते हुए वीर नहीं जो मरने वाले शत्रु के सिर के पास खड़े हो, अभी तुम एक विद्यार्थी हो, जो राजनीति सीखना चाहते हो, अबकी बार जाओ और रावण के पैर की ओर खड़े होकर प्रार्थना करना। लक्ष्मण ने ऐसा ही किया, रावण ने प्रसन्न होकर लक्ष्मण को राजनीति की कई बातें बताई। उसके बाद प्राण त्याग दिए।

सिर्फ नजरिया चाहिए, सफलता कदमों में होगी
सफलता केवल मेहनत से नहीं मिलती, इसके लिए सकारात्मक नजरिया भी होना चाहिए। कई लोग थोड़ी सी परेशानियों से घबरा जाते हैं, जब संकट आता है तो यह मानकर की सारी मेहनत बेकार गई, वे निराश होकर बैठ जाते हैं। सफलता उन्हें मिलती है जो कभी निराश नहीं होते, परेशानी और मुसीबत में भी अपने लिए कुछ सकारात्मक ही खोजते हैं।

जो चुनौतियों में भी अपना हित देखते हैं और उसे परमात्मा का दिया मान कर स्वीकार करते हैं, उस चुनौती को पूरा करने में पूरे मन से लग जाते हैं, सफलता उन्हें जल्दी मिल जाती है। एक बार नारद मुनि धरती पर घूमते हुए एक जंगल में पहुंचे। वहां उन्होंने एक अजीब नजारा देखा एक साधु एक पैर पर खड़ा होकर तपस्या कर रहा है, दूसरी ओर एक ग्वाला पेड़ के नीचे बैठकर बांसुरी बजा रहा है। नारद को देखकर दोनों उनके पास आ गए। साधु ने नारदजी से कहा भगवन आप तो सारे लोकों में घूमते हैं, क्या आप मेरा एक काम करेंगे?नारदजी ने कहा बताओ, साधु ने कहा मैं कई सालों से तपस्या कर रहा हूं क्या आप भगवान विष्णु से पूछकर बता सकते हैं कि मुझे मोक्ष कब मिलेगा? नारद ने कहा ठीक मैं अभी पूछकर आता हूं। तभी ग्वाले ने भी उनसे कहा अब आप जा ही रहे हैं तो मेरे बारे में भी पूछ लेना कि मुझे कब मोक्ष मिलेगा। नारदजी अंतध्र्यान हो गए।
थोड़ी देर बाद लौटे उन्होंने साधु से कहा मैंने नारायण से पूछा है, तुम्हें चालीस जन्मों के बाद ही मोक्ष मिल जाएगा। साधु निराश होकर बैठ गए। सारी तपस्या बेकार गई। बरसों बीत गए और कई सदियां और लग जाएंगी अभी। ग्वाले ने पूछा मुझे कब मोक्ष मिलेगा। नारद जी बोले अभी तुम्हें तीन सौ बार और जन्म लेना पड़ेगा। ग्वाला झूमने लगा, मेरे इतने ही जन्म और होंगे, मैं इतने समय तक और भजन कर सकूंगा, इस लोक के सुख भोग सकूंगा और फिर भगवान मुझे अपनी सेवा में बुला लेंगे।

नारद ने देखा तभी एक दिव्य वाहन वैकुंठधाम से आया, भगवान विष्णु के दूतों ने ग्वाले को उस यान में ब्ठिाया और अपने साथ ले गए। उसे तत्काल मोक्ष मिल गया। साधु ने कहा मैंने इतनी तपस्या की लेकिन मुझे मोक्ष नहीं मिला, इस ग्वाले को कैसे मिल गया। नारद ने कहा तुम केवल चालीस जन्मों की बात सुनकर निराश हो गए। तुम्हें कोई सुख नजर नहीं आया। ग्वाले ने तीन सौ जन्मों की बात सुनकर भी हर्ष व्यक्त किया, इसमें अपना भला ही देखा। उसका नजरिया सकारात्मक था।

कितना भरोसेमंद होता है कल पर भरोसा?
काम टालने की आदत, आने वाले कल की योजना या कल कर लेंगे का भाव हमें केवल आलस्य ही देता है। हकीकत है कि जो कुछ किया जाए वह आज ही हो। भविष्य की गर्त में क्या छिपा है किसी ने नहीं जाना। कोई भी बात कल पर टालने से पहले यह सोच लें कि क्या वाकई कल वही होगा जैसा आप चाह रहे हैं। तरक्की आज का सारा काम आज ही पूरा करने में है न कि कल पर टालने में।

महाभारत युद्ध के बाद हस्तिनापुर पर पांडवों का राज हो गया था। राजा युधिष्ठिर कुशलता से प्रजा का पालन कर रहे थे, चारों भाई भी उनकी खूब सहायता करते थे। राजा युधिष्ठिर ने रोजाना सुबह प्रजा के जरूरतमंदों और ब्राह्मणों को दान देने का समय तय कर रखा था। एक दिन युधिष्ठिर रोज की तरह दान देकर निवृत्त हुए और सभा की ओर जाने लगे। तभी एक गरीब व्यक्ति दान के लिए आ खड़ा हुआ। उसने युधिष्ठिर से याचना की, युधिष्ठिर ने विनम्रता से हाथ जोड़कर याचक से कहा भैया अभी दान का समय खत्म हो गया, आप कल आइए, आपको मनचाही वस्तु दान की जाएगी। गरीब जाने लगा, तभी भीम जोर-जोर से ताल ठोंककर जय हो, धर्मराज युधिष्ठिर की जय हो, चिल्लाने लगे।

युधिष्ठिर की समझ में नहीं आया। उन्होंने प्रेमवश भीम से पूछा भैया ऐसे क्यों चिल्ला रहे हो। भीम ने कहा भ्राताश्री आपने तो काल को जीत लिया है। आपकी जीत की खुशी में जयकारे लगा रहा हूं। युधिष्ठिर की समझ में नहीं आया तो उन्होंने पूछा मैंने कैसे काल को जीत लिया, काल तो सर्वथा अजेंय है। भीम ने कहा आपने उस गरीब को कल बुलाया है, यानी आप जानते हैं कि कल वो गरीब रहेगा, आप भी राजा ही रहेंगे। वो भी जीवित रहेगा और आप भी। युधिष्ठिर को तत्काल अपनी गलती समझ आ गई। उसने उस गरीब को बुलवाया और मनचाहा दान दिया। उसके बाद युधिष्ठिर ने नियम बना लिया कि जो भी काम आज किया जा सकता है उसे कल पर नहीं टालेंगे क्योंकि कल क्या होगा किसी को नहीं पता।

ऐसे सीधे होकर ही सुधरेगी जिंदगी
हर धर्म के धार्मिक और आध्यात्मिक सबक का निचोड़ यही होता है कि जिंदगी सही तरीकों से गुजारें। मानव जीवन के नजरिए से इन तरीकों का संबंध जीवनशैली और दिनचर्या से होता है। क्योंकि इन दो बातों पर ही जीवन में सुख और सफलता निर्भर है। इसलिए सही तरीकों से जीवन बिताने की जब भी बात हो तो एक शब्द सामान्यत: सबसे पहले जेहन में आता है और बोला भी जाता है, वह है सीधा। जैसे सीधे रास्ते चलना, सीधे बैठना, सीधा बोलना आदि। इन तीन बातों को ही सामने रखकर सोचें तो यह समझना आसान है कि सीधापन जिंदगी के लिए कितना अहम है।

सीधी राह चलने का मतलब भी सीधा है कि आप जिंदगी में हमेशा उन उपायों को अपनाएं, जिनसे आप बिना किसी उलझन और भ्रम के अपने नियत लक्ष्य तक पहुंचने में कामयाबी हासिल करें। यह उपाय शारीरिक, मानसिक और व्यावहारिक होते हैं। जैसे शरीर के स्तर पर स्वास्थ्य का ध्यान रखें, मन के स्तर पर एकाग्रता बनाए रखें, व्यर्थ की बातों और विषयों में समय न बिताएं। व्यावहारिक स्तर पर सभी के मेलजोल और सहयोग की भावना रखें।

दूसरी बात सीधे बैठना। यह बात सुनने में बहुत सामान्य सी लगती है, किंतु दैनिक जीवन में इसी क्रिया में चूक अनेक शारीरिक कष्टों का कारण बन जाता है। धर्म के नजरिए से पंचतत्वों से बना मानव शरीर पुरूषार्थ को पाने का माध्यम है। इसके लिए शरीर का निरोगी होने आवश्यक है। मानव शरीर के स्वास्थ्य में रीढ़ की हड्डी का बहुत योगदान होता है। क्योंकि रीढ़ न केवल शरीर को संतुलित करती है, बल्कि इसके साथ जुड़ा तंत्रिका तंत्र दिमाग का शरीर के बाकी अंगों से संबंध जोडऩे के साथ ही नियंत्रण भी करता है। इसलिए सीधे बैठकर रीढ़ के स्वास्थ्य के साथ शरीर भी स्वस्थ रखा जा सकता है।

तीसरी बात सीधा बोलना। आम जिंदगी में अक्सर लोग सीधा बोलने और कटु बोलने के बीच की महीन रेखा को समझने में चूक कर जाते हैं। इसका परिणाम कई मौकों पर संबंधों की खटास के रुप में सामने आता है। असल में सीधे बोलने का मतलब यही होता है कि आप अपनी बात बुद्धि और तर्क के साथ इस तरह रखें कि किसी भी विषय पर आपका पक्ष साफ और स्पष्ट रहे। न आप और न सुनने वाला भ्रम या उलझन की स्थिति में ही न रहे। आपकी सीधी बात में इतना खुलापन हो कि दिल और रिश्तों के दरवाजे खुले रहें।

इस तरह का सीधापन जिंदगी को सही दिशा देता है। लेकिन इस सीधेपन के साथ लचीलापन भी रखें। वरना जरूरत से अधिक सीधा होना अकड़ में तब्दील हो जाता है और ऐसी अकड़ जिंदगी, पीठ और चेहरे का रुप-रंग बदल सकती है।

सफलता का सूत्र : धर्म+शक्ति+धैर्य+विश्वास
सफलता के लिए केवल शक्तिशाली होना ही काफी नहीं होता है। सफलता के लिए धैर्य, धर्म, विश्वास और शक्ति का सामंजस्य होना जरूरी है। अगर इनका सामंजस्य नहीं हो तो फिर सफलता मिलना मुश्किल होता है। जरूरी है कि आप शक्ति के साथ धर्म पर विश्वास रखें, धैर्य से काम लें और परिस्थिति के अनुसार निर्णय लेने में सक्षम हों तो सफलता आसानी से आपके पास खुद चल कर आ जाएगी।

रामायण का एक प्रसंग इस बात को बहुत अच्छे से स्पष्ट करता है। राम, रावण से युद्ध के लिए समुद्र के किनारे पर आ गए थे। सेना सहित समुद्र को पार करने पर विचार विमर्श चल रहा था। तभी विभीषण को छोड़कर राम की शरण में आ गए। विभीषण जब समुद्र किनारे पहुंचे तो वानरों में खलबली मच गई। किसी ने उनको दूत समझा, किसी ने गुप्तचर। सभी के मन में शंका जाग गई कि रावण का भाई हमारे शिविर में क्यों आया है। सुग्रीव ने विभीषण को आकाश में ही ठहरने को कहकर राम के पास आ गए। सूचना दी कि रावण का भाई विभीषण आपसे मिलने आया है। राम ने सुग्रीव से पूछा कि क्या करना चाहिए।

सुग्रीव ने सलाह दी कि यह शत्रु का भाई है, हमारा भेद लेने आया है, यह राक्षस है और इस पर विश्वास नहीं किया जाना चाहिए। इसे बंदी बना लेना चाहिए। राम ने विचार किया और कहा नहीं हम पहले उससे मिलेंगे। बात करेंगे, वानर धैर्य से काम लें। अगर वह हमारा भेद भी लेने आया है तो कोई परेशानी नहीं है। इस दुनिया में जितने भी राक्षस हैं उन्हें लक्ष्मण अकेला ही मारने में सक्षम है। राम ने विभीषण से मुलाकात की, विभीषण राम के मित्र हो गए, जिसके साथ के कारण ही रावण को मारना संभव हो पाया।

राम शक्ति से सम्पन्न थे लेकिन उन्होंने धर्म और धैर्य नहीं छोड़ा, शत्रु पर भी विश्वास जताया, अपने बल पर भी उन्हें भरोसा था। जिसके सहारे उन्होंने रावण पर विजय पाई।

इससे बड़ा पाप और कोई नहीं.
अगर कोई हम पर कुछ उपकार कर रहा है, हम जरूरत पडऩे पर उस व्यक्ति की मदद न कर पाएं तो यह सबसे बड़ा पाप माना जाता है। जो मुसीबत में हमारी सहायता करे, उसकी सहायता करने के लिए हमेशा तत्पर रहने वाला व्यक्ति ही धर्म के मार्ग पर माना जाता है। हमारा धर्म कहता है कि किसी के उपकार का ऋण प्राण देकर भी चुकाना पड़े तो पीछे नहीं हटना चाहिए।

महाभारत के इस प्रसंग से इस बात को समझा जा सकता है कि किसी का एहसान चुकाने के लिए अगर खुद की संतान के प्राणों की कीमत देना पड़े तो पीछे नहीं हटना चाहिए। लाक्षागृह की आग से बचने के बाद पांचों पांडव और उनकी मां कुंती एक नगर में ब्राह्मण के घर आश्रय लेकर रह रहे थे। ब्राह्मण ने न केवल उनको आश्रय दिया बल्कि पूरे मन से उनकी सेवा भी करता था। कुंती और उसके पांचों बेटे उस ब्राह्मण के आभारी रहते थे। एक दिन कुंती ने ब्राह्मण के घर रोने की आवाजें सुनी। उसने ब्राह्मण से पूछा कि आप और आपका परिवार क्यों रो रहा है।

ब्राह्मण ने बताया कि नगर के बाहर जंगल में एक राक्षस रहता है जिसे रोजाना किसी एक नगरवासी को भोजन भेजना पड़ता है। नहीं तो वह नगर में उपद्रव शुरू कर देता है। जो व्यक्ति धान की गाड़ी लेकर जाता है राक्षस उसे भी खा जाता है। आज मेरे परिवार की बारी है। हमारे दो बच्चे हैं दोनों छोटे हैं, इसलिए हम पति-पत्नी में से किसी एक को जाना पड़ेगा। पत्नी कह रही है कि वो जाएगी, जबकि मैं जाना चाहता हूं। इसलिए हम रो रहे हैं। कुंती ने उनका दु:ख समझा। वह ब्राह्मण के प्रति आभारी थी, इसलिए कुंती ने कहा हम आपके आश्रय में रहते हैं, आपके हम पर बहुत उपकार है। आपके परिवार पर आया यह संकट हमारा भी है। आपको राक्षस के लिए भोजन लेकर जाने की आवश्यकता नहीं है।

मेरे पांच बेटे हैं, मैं जिसे कहूंगी वह राक्षस के लिए भोजन लेकर जाएगा। अगर वह मारा भी गया तो मेरे चार बेटे मेरी रक्षा के लिए शेष रहेंगे लेकिन मैं आपके परिवार पर आंच नहीं आने दूंगी। कुंती ने भीम को राक्षस के लिए भोजन लेकर जाने का आदेश दिया। भीम ने भी इसे स्वीकार किया। भीम ने भोजन की गाड़ी राक्षस को पहुंचाई और युद्ध में उसे मार गिराया। इस तरह ब्राह्मण का परिवार भी सुरक्षित हो गया और राक्षस भी मारा गया।

सुख को अपने अंदर ही खोजें
व्यक्ति के जीवन में सुख-दु:ख, धूप-छांव की तरह आते रहते हैं। इस ब्रह्माण्ड में शायद ही कोई ऐसा विरला हो जो पूर्णरूप से अपने आप को सुखी कह सकता हो।कहने का तात्पर्य यही है कि सुख-दु:ख मनुष्य जीवन के अभिन्य अंग बन चुके हैं। लेकिन कई ऐसे व्यक्ति भी होते हैं जो दु:ख में भी सुख को खोज लेते हैं।
बस अपने अंतर्मन में आशावादी दृष्टिकोण रखना चाहिए, जीवन में दु:खों के आने के बाद भी दिल दु:खी नहीं रहेगा। एक व्यापारी को व्यापार में एक लाख का घाटा हुआ। वह इसी चिन्ता में दिन-रात बेचैन रहने लगा। उसकी पत्नी समझदार थी। वह अपने पति को दिन-रात समझाती कि आपको एक लाख का घाटा नहीं बल्कि फायदा ही हुआ है।

लेकिन व्यापारी अपने दु:ख से परेशान हो उसकी कोई बात नहीं सुनता था। तब व्यापारी की पत्नी को एक उपाय सूझा। वह अपने पति को लेकर एक बहुत पहुंचे हुये संत के पास गई। संत ने उस आदमी से उसकी तकलीफ को पूछा तो उसने दु:खी मन से सब कह सुनाया। जब संत ने उसकी पूरी बात सुन ली तब उन्होंने उसकी पत्नी से भी यही प्रश्र किया। पर व्यापारी की पत्नी ने ऐसी किसी भी अनहोनी से इनकार कर दिया।

अब संत भी आश्चर्यचकित रह गए। उन्होंने व्यापारी की पत्नी से सब बात ठीक-ठीक बताने को कहा। व्यापारी की पत्नी ने संयत होते हुए कहा कि महाराज दरअसल मेरे पति को व्यापार में दो लाख के फायदे का अनुमान था पर कुल फायदा हुआ एक लाख रुपये का। इसलिए ये दु:खी हैं जबकि इन्होंने यह तो सोचा ही नहीं कि जहां पूरे दो लाख का नुकसान हो सकता था वहीं एक लाख का फायदा तो हुआ। व्यापारी की पत्नी की बात सुनकर संत बड़े प्रसन्न हुये और उन्होंने व्यापारी से कहा कि जो दु:ख में भी सुख को खोज लेने की बुद्धि रखते हैं वे कभी दिल छोटा नहीं करते। उन्हें कठिन से कठिन दु:ख-तकलीफ भी कमजोर नहीं कर सकती।

संत की बातें सुनकर व्यापारी को ढ़ांढस बंधा, साथ ही उसे अपनी पत्नी की बुद्धि पर भी गर्व महसूस हुआ।
कहानी का तात्पर्य यही है कि जो लोग दु:ख में भी सुख या प्रसन्न होने का अवसर ढ़ूढ़ लेते हैं, वे कभी जीवन में दु:ख का रोना नहीं रोया करते। अत: हमें दु:ख में भी घबराने की बजाय उसमें अपने लिए सकारात्मकता को खोजना चाहिए क्योंकि तभी हम खुशी से रह सकते हैं।

रुतबा बनाने के लिए करें ऐसी बातचीत
सुख, शांति और सुकूनभरी जिंदगी के लिए धन, साधन ही जरूरी नहीं, बल्कि व्यवहार के साथ बोल का भी महत्व है। धर्म शास्त्रों और साहित्य में भी मीठी वाणी से सफलता के सूत्र बताए गए हैं। असल में बोल के साथ बोलने का तरीका ही किसी के भी मन में आपकी पहली छबि बनाता है।

व्यावहारिक जीवन में मीठी वाणी का जादू दूसरों पर तभी संभव है, जबकि उसके साथ बोलने और बातचीत का तरीका भी सही हो। हिन्दू धर्म में बोलचाल के ऐसे ही कुछ सूत्र बताए गए हैं। जिनको अपनाकर आप अपनी बात से रुतबा और दबदबा बना सकते हैं। जानते हैं बातचीत के कुछ अहम सूत्र -

- बातचीत के समय आप अकेले ही न बोलते रहें, बल्कि दूसरों को भी बोलने का मौका दें।
- साफ और संतुलित आवाज में आत्मविश्वास के साथ बोलें यानि न अधिक कम न अधिक ऊंची आवाज में बात करें।
- बातचीत के दौरान झूठ बोलने, तीखा बोलने से बचें। साथ ही बुराई या विरोधी बातें न करें।
- यथासंभव बोले कम सुने अधिक। इसका अर्थ यह नहीं है कि बातचीत एकतरफा हो जाए। क्योंकि ऐसा होने पर दूसरों की नजर में आपकी अहंकारी या नासमझ की छबि बन सकती है। सार यह है कि अपनी बात को कम शब्दों में उचित तरीके से प्रस्तुत करने का अभ्यास करें।
- बुजूर्ग, गुरु या बड़ों के सामने जानकार होने पर भी अहं रखकर विद्वानता न बताएं। बल्कि उनके लिए सम्मान का भाव रखते हुए अपनी बात रखें।
- किसी व्यक्ति को पद और रिश्तों की मर्यादा के अनुसार संबोधित करें।
- आधुनिक समय में एक-दूसरे को नाम से संबोधन प्रचलित है। किंतु हिन्दी भाषा में बड़ों को आप और छोटी आयु के व्यक्ति को तुम कहा जाता है।
- बातों ही बातों में किसी को ताना न मारें या ऐसी मजाक न करें जहां व्यक्तिगत् जीवन से जुड़े विषय की हंसी उड़ाई जाए और दूसरा व्यक्ति दु:खी हो।
- भाषा भेद होने पर ही दूसरी भाषा में बातचीत करना उचित होता है। किंतु बोली या भाषा जानने पर भी अन्य या अंग्रेजी भाषा में बात करना अनुचित और अभद्र माना जाता है।
- किसी सामूहिक कार्यक्रम, जलसे में पहुंचकर निंदा करने के लिए गुपचुप या इशारों में ऐसी बातें न करें, जो दूसरों को समझ न आए। इससे आपकी छबि नकारात्मक बनेगी।
- दो व्यक्तियों की बातचीत के दौरान अनावश्यक बोलना भी अनुचित है।
- धर्म की नजर में जब दो व्यक्ति अकेले में बैठे बातें कर रहे हो, वहां जाना समझदारी नहीं बताया गया है।
- गैर जरूरी सवाल करना, चलती राह में अपरिचित से अनावश्यक बातें करना परेशानी का कारण बन सकता है।
- घर आए मेहमान या अतिथि को बैठाकर, जलपान करने के बाद ही बातचीत करना सभ्यता मानी जाती है।
इस तरह मीठे बोल के साथ बातचीत के इन तरीकों को व्यवहार में उतारने पर आपकी छबि उजली और सम्माननीय बन सकती है।

बेहतरी के अवसर बार-बार नहीं आते
व्यक्ति के जीवन में कई बार ऐसे अवसर आते हैं जो उसे आसमान की ऊंचाईयों तक पहुंचा देते हैं। जो इन अवसरों को पहचान लेता है वह जीवन में सफलता की परिभाषा गढ़ता है। पर कई बार व्यक्ति अपने अहं और एकाधिकारवादी छवि के कारण प्राप्त अवसरों को भुनाने में नाकामयाब रहता है।

एक साधु नदी में नहा रहा था तभी उसकी नजर एक चुहिया पर पड़ी। उसने लगभग मृतप्राय: चुहिया को बचाया और एक सुंदर लड़की का रूप देकर उसका पालन-पोषण करने लगा। जब वह बड़ी हुई तो साधु को उसकी शादी की चिंता हुई। साधु ने उस लड़की से पूछा कि तुम किससे शादी करना पसंद करोगी। लड़की बोली-जो दुनिया में सबसे ज्यादा ताकतवर और सबसे बड़ा हो मैं उसी से शादी करूंगी।

साधु बोला- दुनिया में सबसे बड़ा तो सूरज है जो पूरी दुनिया को प्रकाश देता है। लड़की बोली- सूरज को तो बादल अपने आगोश में लेकर ढ़ंाक लेते हैं। फिर सूरज बड़ा कैसे? साधु बोला- तो फिर बादल ही तुम्हारे लिए सबसे उपयुक्त वर होगा। लड़की फिर बोली- बादलों को पहाड़ रोक लेते हैं या उनकी गति थामकर उनका रुख मोड़ देते हैं। फिर बादल बड़े और ताकतवर कैसे? साधु बोला- तो फिर वो चूहा बड़ा जो बड़े-बड़े पहाड़ों में छेद कर देता है। इस बार चुहिया बनी लड़की तुरंत बोल उठी- मैं इसी से शादी करूंगी।

साधु ने मन ही मन सोचा कि किसी को कितना भी बड़ा बनाओ वह अपने अहं और एकाधिकारवादी सोच के कारण कभी बड़ा नहीं हो सकता। साधु ने उस लड़की को वापस चुहिया बनाया और उसकी शादी चूहे से करवा दी। कहने का तात्पर्य यही है कि व्यक्ति को मिले प्रत्येक बड़े अवसर को भुनाना चाहिए। माना कि चूहा पहाड़ों को खोदकर बड़ा पद पाता है पर व्यावहारिक पक्ष से देखा जाए तो चूहा कोई बहुत बड़ा या ताकतवर नहीं है।
पर लड़की बनी चुहिया ने व्यावहारिक पक्ष को छोड़कर अपनी नजरों से अवसर को देखा और चूक गई।
व्यक्ति को सफल होने के मौके बार-बार नहीं मिलते, इसलिए जहां भी अवसर मिले उसे भुना लेना चाहिए।

ऐसा होता है साफ दिल का इंसान
आम जीवन में धार्मिक या आध्यात्मिक होने का मतलब धार्मिक उपदेश देते किसी खास इंसान से होता है। जबकि साधारण जिंदगी से अलग होकर जब कोई व्यक्ति अध्यात्म की ओर बढ़ता है, तब उसे किसी ऊपरी दिखावे या बनावटी बातों की जरूरत नहीं होती। क्योंकि अध्यात्म का संबंध आत्मा से होता है। इसलिए वह भलाई, भद्रता और विनम्रता के रुप में बाहर दिखाई देता है। यहां जानते हैं उन लक्षणों को, जो अध्यात्म की ओर बढ़ते हुए व्यक्तित्व की पहचान होते हैं। जिसे सही मायनों में उदारता और आम भाषा में साफ दिल का इंसान भी कहा जाता है -

- वह इतना सरल, सहज और निस्वार्थ हो जाता है कि वह अधिकारों के स्थान पर सिर्फ कर्तव्यों को याद रखता है।
- वह किसी भी तरह की हानि या नुकसान होने पर भी आवेश, बदले की भावना से दूर होता है और उल्टे ऐसी हालात में स्नेह और माफी को महत्व देता है।
- वह दूसरों की गलतियां देखने, बुराई या ओछे विचारों से दूर रहता है और केवल गुणों और अच्छाईयों को ढूंढता और अपनाने की कोशिश करता है।
- ऐसा व्यक्ति बहुत ही धैर्य और संयम रखने वाला होता है। जिसके कारण वह बुरी लतों और गलत कामों से स्वयं को भटकाता नहीं है।
- दु:ख हो या सुख उसका व्यवहार और विचार संतुलित होते हैं। वह विपरीत हालात में घबराता नहीं है और नहीं सुख में अति उत्साहित होता है।
- कर्तव्यों की ही सोच होने से वह हर तरह की इच्छाओं यानि वासना पर काबू कर लेता है। इससे वह अपनी मानसिक शक्तियों का उपयोग भजन, संगीत, रचनात्मक कामों जैसे चित्रकारी, लेखन, साहित्य के पठन-पाठन में लगाता है।
- वह निर्भय होता है। वह मानसिक रुप से इतना जुझारू होता है कि इच्छाशक्ति से अपने लक्ष्य को पा लेता है।

अगर आपकी या किसी नजदीकी व्यक्ति की जिंदगी में कुछ ऐसे ही बदलाव नजर आ रहे है तो समझे ऐसे कदम वास्तविक सुख और शांति की ओर बढ़ रहे हैं।

मूर्खता में मौके ना छोड़े...
सामान्यत: सभी को जीवन में सफलता और सुख के लिए कई मौके मिलते हैं। कुछ लोग सही अवसर को पहचान कर उससे लाभ प्राप्त कर लेते हैं। वहीं कुछ लोग मूर्खतावश सही मौके को समझ नहीं पाते और सफलता, सुख-समृद्धि से मुंह मोड़ लेते हैं।
एक लड़का था, नाम था उसका सुखीराम। वह बहुत परेशान और दुखी था। सुखीराम के पास कोई खुश होने की कोई वजह नहीं थी। वह शिवजी का भक्त था। उसने भगवान की भक्ति से अपनी किस्मत बदलने की सोचा। अब वह दिन-रात भगवान की भक्ति में डूबा रहता। कुछ ही समय में परमात्मा उसकी श्रद्धा से प्रसन्न हो गए और उसके समक्ष प्रकट हो गए।

भगवान को अपने सामने देखकर सुखीराम ने अपने दुखी जीवन की कहानी सुनाना शुरू कर दी। वह विनती करने लगा कि उसे सभी सुख और ऐश्वर्य के साथ-साथ सुंदर और गुणवान पत्नी भी मिल जाए। इस पर शिवजी ने उसे अपनी किस्मत बदलने के लिए तीन मौके देने की बात कही। शिवजी ने कहा कि कल तुम्हारे घर के सामने से तीन गाय निकलेगी। किसी भी एक गाय की पूंछ पकड़ कर उसके पीछे-पीछे चले जाना तुम्हें सभी सुख प्राप्त हो जाएंगे। ऐसा वर पाकर सुखीराम खुश होकर अपने घर लौट आया। वह सुबह उठकर अपने घर के बाहर गाय के निकलने की प्रतिक्षा करने लगा। थोड़ी ही देर में एक सुंदर सुजसज्जित गाय निकली, उसे देखकर सुखीराम सोचने लगा कि दो गाय और आना है, शायद अगली गाय और ज्यादा धन, वैभव और सुख-समृद्धि देने वाली हो। इतना सोचते-सोचते वह पहली गाय उसके सामने से निकल गई। दूसरी गाय आई, वह बहुत ही गंदगी लिए हुए थी, उसके पूरे शरीर पर गोबर लगा हुआ था। उसे देखकर सुखीराम सोचने लगा इतनी गंदी गाय के पीछे कैसे जा सकता हूं? और वह तीसरी गाय का इंतजार करने लगा। तीसरी गाय आई तो उसकी पूंछ ही नहीं थी। सुखीराम सिर पकड़कर बैठ गया और अपनी किस्मत को कोसने लगा।

कहानी का सारंश यही है कि सही मौका मिलते ही उसका लाभ उठाने में ही समझदारी है, अन्य अवसरों की प्रतिक्षा करने से अच्छा है जो भी मौका मिला है उसका फायदा उठा लेना चाहिए।

लोगों का काम है कहना..
पुरानी फिल्म का एक गीत है, कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना...। यह गीत हमारे जीवन के साथ भी जुड़ा हुआ है। हम जब भी कुछ काम करते हैं, आसपास के लोग तरह-तरह की बात करते हैं। कुछ लोग हमारे काम की तारिफ करते हैं, तो कुछ बुराई। हमेशा ऐसा ही होता है क्योंकि लोगों का काम है कहना।
पुराने समय की बात है। एक पिता अपने पुत्र के साथ गांव में रहते थे। वे एक दिन शहर से गधा खरीदकर अपने घर लौट रहे थे, रास्ता लंबा था। वे तीनों पिता-पुत्र और वह गधा पैदल ही आ रहे थे। तभी किसी ने कहा कि गधा लेकर आए हो तो पैदल क्यों चल रहे हो? गधे पर बैठकर जाओं। पिता-पुत्र को यह बात ठीक लगी। वे दोनों गधे पर बैठ गए। कुछ दूर चलने के बाद फिर किसी राहगीर ने कहा कि कितने निर्दयी पिता-पुत्र हैं, बेचारे गधे पर दोनों बैठ गए। यह सुनकर पिता ने पुत्र को गधे पर बैठा दिया और खुद पैदल चलने लगा।

फिर कुछ दूर चलने के बाद किसी ने कहा कि कैसा पुत्र है? पिता तो पैदल चल रहा है और खुद गधे पर आराम से बैठा है। यह सुनकर पुत्र उतर गया और पिता को गधे पर बैठा दिया, पुत्र पैदल चलने लगा। फिर कुछ दूर चलने के बाद किसी व्यक्ति ने कहा कि कैसा बाप है खुद तो आराम से बैठा है और पुत्र तो पैदल चल रहा है। इसी तरह जो भी उन्हें कुछ बोलता वे पिता-पुत्र वैसा ही करते और जैसे-तैसे घर पहुंच गए। हमारे जीवन में भी कई बार ऐसा ही होता है। हम दूसरों की बात सुनकर कार्य शैली बदलते हैं, काम बदल लेते हैं लेकिन लोगों बोलना बंद नहीं करते। बेहतर है कि हम अपनी सोच-समझ के अनुसार कार्य करें और लोगों की बातों पर ध्यान न दें क्योंकि कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना...।

परिवार की खुशी के लिए ऐसे भी बने
धर्मशास्त्रों में वर्ण व्यवस्था बताई गई है यानि काम और कर्तव्यों के आधार पर समाज में चार तरह के मनुष्य होते हैं। यह है ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इनमें ब्राह्मण का समाज की भलाई के लिए शिक्षा प्राप्त करने, क्षत्रिय का युद्ध कला सीखकर रक्षा करने, वैश्य का उचित अर्थव्यवस्था बनाने और शूद्र का तीनों की सेवा करने का धर्म बताया गया है।

युगों और समय के बदलाव के बावजूद भी इस वर्ण व्यवस्था का असर समाज पर हावी है। कई मौकों पर यह कटुता, बिखराव और बैर का कारण बन जाती है। असल में वर्ण व्यवस्था मनुष्य को एक-दूसरे से बांटने के बजाय मानव के व्यक्तित्व और व्यावहारिक जीवन का विकास करती है। हर व्यक्ति स्वयं को एक वर्ण का मानकर अन्य तीन वर्णों के धर्म को भूल जाता है। जबकि सच यह है कि सुखी और सफल जिंदगी के लिए हर व्यक्ति को इन चारों वर्णों के धर्म और कर्तव्यों को कहीं न कही अपनाना जरूरी होता है यानि वर्ण व्यवस्था समाज में ही नहीं बल्कि परिवार में भी लागू होती है। यहां बताया जा रहा है कि कैसी स्थिति में किस खास वर्ण के कर्तव्यों का पालन अहम है?

खुशहाल जीवन की बात करें तो उसके लिए सबसे पहले यही विचार आता है कि दौलत की कोई कमी न हो। इसके लिए जरूरी है परिवार की आर्थिक स्थिति मजबूत हो। इस तरह जब धन या अर्थ की बात आती है तो यहां वैश्य धर्म और कर्तव्यों का पालन सुखी परिवार की जरूरत बन जाता है। किंतु वैश्य धर्म के पालन का संबंध धन के नजरिए से हीं नहीं बल्कि अन्य स्वाभाविक गुणों को व्यवहार में उतारने से है। वैश्य धर्म के पालन से पहले यह जानना भी जरूरी है कि असल में वर्ण व्यवस्था के मुताबिक वैश्य के गुण क्या होते हैं?

- वैश्य की खूबी होती है - जरूरत के मुताबिक खर्च करना यानि मितव्ययता और धन का सही जगह उपयोग करना यानि सदुपयोग।
- वह दूसरों को नुकसान पहुंचाए बगैर बुद्धि के सदुपयोग से लाभ पाने की मानसिकता रखता है यानि व्यापारिक स्वभाव।
- स्वभाव की बात करें तो वह बहुत ही सभ्य, व्यावहारिक और मिलनसार होता है।
- उसकी बातचीत इतनी मिठास से भरी होती है कि सुनने वाला और देखने वाला मंत्रमुग्ध हो जाए।
- उसके व्यवहार में विनम्रता होती है। वह दूसरों को पूरा सम्मान देता है।
- वह सच बोलता है।

व्यावहारिक जीवन में हम लक्ष्मी की प्रसन्नता चाहते हैं, लेकिन वास्तव में लक्ष्मी तभी खुश होगी, जब आप परिवार के हितों के लिए धन की बचत करने के साथ वैश्य के स्वाभाविक गुणों को भी जिंदगी में उतारें। हर गृहस्थ को वैश्य गुणों को भी अपनाना चाहिए। ताकि परिवार की जरूरतों को बिना किसी अभाव के पूरा किया जा सके।

Is There God वहाँ है भगवान
The proof for God is there, but you won't believe it
प्राणी के शरीर में होता है भगवान का वास
परमपिता परमात्मा प्रत्येक प्राणी के कण-कण में विद्यमान है मगर उनकों पहचानने के लिए शुद्ध एवं अंतर भाव को जगाना होगा। भगवान का जन्म नहीं होता वे तो अजन्मा है और केवल लीलाएं दिखाते है।

जो वस्तु पहले थी आज भी है और आगे भी रहेगी वह ईश्वर है ईश्वरीय भक्ति बिना गुरु के नहीं मिल सकती। किसी संत के पास जाकर उनके चरणों में बैठकर मन के भाव को शुद्ध करना होगा। जिस प्रकार बिजली के तारो में बिजली दिखाई नहीं देती परन्तु उसमें बिजली जरुर रहती है। उसी प्रकार श्रीमन्न नारायण कण-कण में व्याप्त है मगर उनको देखने के लिए चाहिए दिव्य चक्षु। श्रीमन्न नारायण के संकल्प मात्र से हजारों ब्रह्माड बन और बिगड़ सकते है। प्रभू तो भक्तों के आनन्द के लिए अनेन लीलाएं करते है।

भागवत कथा किसी राजा देवों की कथा नहीं यह तो भगवान का वाडमयस्वरूप है जिसके श्रवण मात्र से पानी के पापों का समन व मोक्ष स्वत: ही जाता है। यह मानव जीवन का पुरक ग्रन्थ है जिसका जितना श्रवण करो जिज्ञासा बढ़ती जाती है और परमानन्द की प्राप्ति होती है। यह आत्मा का परमात्मा से साक्षातकार करवाती है। सदगुरु ही जीव को परमात्मा का साक्षातकार करवा सकता है जिस पर गुरु की दृष्टि पड़ जाती है उसका जीवन धन्य हो जाता है।

कहां और कैसा है वैकुण्ठ?
सामान्य जन के लिए वैकुण्ठ पुण्य, सुख और शांति का लोक हैऔर ऐसा माना जाता है कि यह लोक देवपुरूष, महात्मा, गुणी, सज्जनों को सद्कर्मों से मिलता है। किंतु वास्तव में धर्म की नजर से वैकुण्ठ का अर्थ गहरा है, जो आम व्यक्ति को भी रहने और जीने के सार्थक संदेश और प्रेरणा देता है। इसलिए वैकुण्ठ चतुर्दशी (20 नवम्बर) पर्व पर जानते हैं वैकुण्ठ लोक से जुड़े धार्मिक, आध्यात्मिक और व्यावहारिक पहलुओं को -

धार्मिक दृष्टि - वैकुण्ठ धाम जगत पालक भगवान विष्णु का निवास स्थान है। भगवान विष्णु का धाम वैकुण्ठ बड़ा ही दिव्य है। वैकुण्ठ धाम चेतन है, स्वयं प्रकाशमान है। इसके अनेक नाम है - साकेत, गोलोक, परमधाम, परमस्थान, परमपद, परमव्योम, सनातन आकाश, शाश्वत-पद, ब्रह्मपुर। धार्मिक मान्यता है कि पृथ्वीलोक का सबसे बड़ा सुख वैकुण्ठ का निम्नतम सुख है। इससे हम सोच सकते हैं कि वैकुण्ठ धाम का सबसे बड़ा सुख कैसा होगा। इस तरह वैकुण्ठ परम सुख का धाम है।

कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी वैकुण्ठ चतुर्दशी कहलाती है। माना जाता है कि इस दिन व्रत करने से वैकुण्ठ लोक मिलता है।

आध्यात्मिक दृष्टि - अध्यात्म की नजर से वैकुण्ठ धाम मन की अवस्था है। वैकुण्ठ कोई स्थान न होकर आध्यात्मिक अनुभूति का धरातल है। जिसे वैकुण्ठ धाम जाना हो उसके लिए ज्ञान ही उम्मीद की किरण है। जिससे वह ईश्वर के स्वरूप से एकाकार हो जाता है। लेकिन जिसके भीतर परम ज्ञान है, भगवान के प्रति अनन्य भक्ति है, वे ही वैकुण्ठ पहुंच सकते हैं।

वहीं मानवीय जिंदगी के लिए वैकुण्ठ की सार्थकता ढूंढे तो वैकुण्ठ का शाब्दिक अर्थ है - जहां कुंठा न हो। कुंठा यानि निष्क्रियता, अकर्मण्यता, निराशा, हताशा, आलस्य और दरिद्रता। इसका मतलब यह हुआ कि वैकुण्ठ धाम ऐसा स्थान है जहां कर्महीनता नहीं है, निष्क्रियता नहीं है। व्यावहारिक जीवन में भी जिस स्थान पर निष्क्रियता नहीं होती उस स्थान पर रौनक होती है। वह जगह खुशियों से रोशन रहती है। चाहे वह परिवार, समाज हो या राष्ट्र।

इस तरह वैकुण्ठ का रहस्य यही है कि अगर व्यक्ति मन से एकाग्र होकर अच्छे कर्म करता हुआ जीवन गुजारे तो उसे जिंदगी में.... 
सुख, शांति, सुकून, खुशियों, दौलत, समृद्धि के रूप में वैकुण्ठ मिलता है। इस तरह यह साफ है कि वैकुण्ठ की राह हर व्यक्ति के सामने होती है। इसलिए वहां तक जाने और रहने का फैसला भी हर व्यक्ति को स्वयं ही करना होता है।

तुलसी विवाह - बुरी संगत और ख़यालों से बचने का संदेश कार्तिक मास में शुक्ल एकादशी पर देवप्रबोधिनी एकादशी के साथ तुलसी-शालिग्राम विवाह का पर्व भी मनाया जाता है। धार्मिक मान्यता है कि तुलसी विवाह का संकल्प और उसे पूरा करने से व्यक्ति सुखी और समृद्ध होता है। कामनाओं की पूर्ति में आने वाली अड़चने मिट जाती है।

व्यावहारिक नजरिए से कार्तिक शुक्ल एकादशी पर वर्षाकाल खत्म होते ही व्रत-नियमों का बंधन टूटता है। प्रकृति और मानवीय जीवन भी अपनी गति से बढऩे लगता है। सभी नई ताजगी, ऊर्ज और बल के साथ फिर से अपने कामकाज और सामाजिक कार्यों में लग जाते हैं। इसी तरह मौसम का बदलाव होता है। शरद का अंत और शिशिर ऋतु की शुरुआत होती है।

ऐसे बदलावों के बीच तुलसी विवाह हमें धर्म और व्यावहारिक जीवन में तुलसी का महत्व बताता है। भगवान के भोग, माला और चरणों में तुलसी चढ़ाई जाती है, आयुर्वेद में तुलसी को अहम औषधि बताया है। यह शीत ऋतु मे होने वाले कफ के बुरे असर को नष्ट करती है। तुलसी मन को पवित्र कर ईश्वरीय भक्ति में एकाग्र करती है।

भगवान को भी गर्म वस्त्र औढ़ाए जाते हैं। शीतकाल में भोग अर्पित किए जाते हैं। इस प्रकार यह पर्व हमारे धर्म, परंपरा, संस्कृति और आयुर्वेद के साथ जीवन को एक सूत्र में बांधता है। तुलसी विवाह से जुड़ी धार्मिक कथा भी व्यावहारिक जिंदगी के संदेश मिलते हैं - दानव जालंधर का उसकी पत्नी वृंदा के सतीत्व के बल से अंत असंभव था। तब भगवान विष्णु ने जालंधर का रूप लेकर वृंदा के पतिव्रत को भंग किया। जिसके बाद जालंधर भी मारा गया। दु:खी वृंदा ने विष्णु को शिला बन जाने का शाप दिया। तब विष्णु ने भी वृंदा को पौधा (तुलसी) बन जाने का शाप दिया।

इसी पौराणिक महत्व के लिए देवप्रबोधिनी एकादशी को शालिग्राम रूप विष्णु का वृंदा से विवाह कराया जाता है। इस कथा में व्यावहारिक जीवन का सूत्र है। चूंकि वृंद का शाब्दिक मतलब है झुण्ड या समूह। जब कोई व्यक्ति अंध निष्ठा और बुराई को अनदेखा कर गलत या दुर्जन का साथ देता रहे और इससे समाज दु:खी और पीड़ित होता रहे। तब बुराई के साथ सहयोगी को भी सबक सिखाने के लिए गुणों और ताकत का मेल होना जरूरी है। शास्त्रों में अवतारों का भी संदेश यही है। अशुभ का अंत कर शुभ, मंगल को स्थापित करना। सीधे शब्दों में कहें तो सुखों के लिए बुरी संगत छोड़ अच्छे काम, गुणों और आदतों को महत्व देना बहुत जरुरी है।

कैसे काल को टालता है महामृत्युंजय मंत्र?
धार्मिक मान्यताओं में भगवान शिव की आराधना के महामृत्युंजय मंत्र के प्रभाव से मृत्यु और मौत का भय भी टल जाता है। साथ ही इससे जन्मी चिंता, व्यग्रता, रोगों का शमन करना इस मंत्र शक्ति से संभव है। इस मंत्र जप के असरदार फल के पीछे धार्मिक आस्था के साथ मनोविज्ञान और व्यावहारिक विज्ञान है। जिससे यह जाना जा सकता है कि इस मंत्र का जप कैसे रोग, भय दूर करने में मदद करता है। समझते हैं इसी विज्ञान को
असल में मंत्र का शाब्दिक मतलब होता है - मनन और चिंतन। इसलिए मंत्र जप का विज्ञान यही है कि जब चिंतित, व्यग्र, रोगी और परेशानियों से घिरा व्यक्ति श्रद्धा और आस्था के साथ अपने इष्ट का मंत्र जप करता है।

तब ईश्वर ध्यान में लीन होने के दौरान मिलने वाली सकारात्मक ऊर्जा उसके मन और विचारों को चिंता, दु:ख और परेशानी से कुछ समय के लिए दूर ले जाती है। जिससे वह जिंदगी में नई ऊर्जा, उमंग व उत्साह महसूस करता है। इसी समय परिवार व इष्टमित्रों का प्रेम, स्नेह और भावनात्मक सहयोग उसके आत्मविश्वास को बढ़ा देता है। जिंदगी के लिए यही भरोसा उसे हर तरह के कष्टों से बाहर निकाल देता है। उसे जिंदगी की नई शुरुआत करने की प्रेरणा मिलती है।

दरअसल शरीर की आंतरिक और बाहरी शक्तियों के मजबूत और सक्रिय होने पर ही जीवन संभव है। मगर जब यही ताकत कमजोर होकर शिथिल हो जाएं तो मृत्यु का कारण बन जाती है। महामृत्युंजय मंत्र ऐसी प्राणशक्ति को मानसिक और व्यावहारिक रुप से सबल बनाकर जीवन में ऊर्जा भर देता है।
इसी कारण यह मंत्र मृत संजीवनी मंत्र कहलाता है। सृष्टि के नियम और मृत्यु के शाश्वत सत्य को स्वीकार कर धर्म और मनोवैज्ञानिक नजरिए से विचार करें तो यह मंत्र दु:खों का नाश कर सांसारिक सुख के आनंद के लिए शुभ फल देने वाला है।


जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है..MMK

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