Thursday, September 12, 2019

जीवन जीने की राह (Jeevan Jeene Ki Rah9)

नवीनता की खोज में मूल्य न छूट जाएं...
जवानी को अनदेखे को देखने में, अथाह की थाह पाने में बड़ा मजा आता है। जवानी अज्ञात कुछ भी नहीं रखना चाहती। इसीलिए कई बार जीवन की कई ढंकी चीजों पर भी टूट पड़ती है। शास्त्रों में तो लिखा है कि युवा पीढ़ी को वैसा ब्रह्म बहुत अच्छा लगता है, जिसका चिंतन कभी किसी ने न किया हो। जिसका चिंतन हो चुका हो, उसका आकर्षण समाप्त हो जाता है। इसीलिए जवान लोग नया-नया ढूंढ़ने में लग जाते हैं। आज का धर्म है मैक इन इंडिया। यह भी एक खोज है। कहते हैं ब्रह्म को जानना हो तो नई दृष्टि विज्ञान की चाहिए और उसको जीना हो तो नई दृष्टि संस्कार की चाहिए। युवा पीढ़ी जब खोजने निकलेगी तो सहारा विज्ञान का लेना पड़ेगा लेकिन, जिसे खोजने निकले हैं उसके भीतर कुछ ऐसा है, जिसके लिए विज्ञान के साथ संस्कार और संस्कृति की भी जरूरत पड़ेगी। उमंग और उत्साह जवानी के लक्षण हैं लेकिन, इसे बनाए रखने के लिए जवानी भटककर गलत रास्ते पर चली जाती है। उमंग के लिए जीवन को विलास में न बदला जाए। युवा यदि संस्कार से जुड़ते हैं तो एक बात बहुत अच्छे से समझ में आएगी कि वे युवा हैं इसलिए एक पीढ़ी बाद आए हैं। तो जो पीढ़ी गुजरी उससे कुछ नया करके जाएं और जो नई पीढ़ी आएगी उसके लिए और कुछ नया छोड़कर जाएं लेकिन, मूल्य न छूट जाएं। नए को खोजिए, नवीनता सांस में उतारिए लेकिन, ऐसा न हो कि वह भोग-विलास लेकर आ जाए। ऐसा हुआ तो वह नया बहुत महंगा पड़ जाएगा।

संसार में रहकर भी हम ईश्वर के अंश...
तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘बिस्वरूप रघुबंसमनि करहुं वचन बिस्वासु। लोक कल्पना बेद कर अंग अंग प्रति जासु।। पति-पत्नी केबीच झगड़े के जितने कारण हैं उनमें एक है हस्तक्षेप। दोनों में सबसे अधिक निकटता होती है और इतनी नज़दीकी वाले लोग भी यदि हस्तक्षेप पर आपत्ति ले तो कलह होना ही है। इसलिए जब भी हस्तक्षेप जैसी स्थिति बने, दोनों को ही सबसे पहले यह देखना चाहिए कि हस्तक्षेप के पीछे अहंकार है या हित की भावना। केवल हठ है या प्रेम भी बोल रहा है। मंदोदरी जब पति रावण को समझाने का प्रयास कर रही थी और वह समझ नहीं रहा था तो प्रभाव बनाने के लिए राम के व्यक्तित्व पर टिप्पणी की। तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘बिस्वरूप रघुबंसमनि करहुं वचन बिस्वासु। लोक कल्पना बेद कर अंग अंग प्रति जासु।।’ यहां मंदोदरी ने श्रीराम को विश्वरूप कहा है। यानी सारा संसार उन्हीं का रूप है। परमात्मा प्रकृति के कण-कण में बसा है। हमारे भीतर भी वह उसी प्रमाण में है। यदि उसका सदुपयोग कर लें तो सही मार्ग पर जाएंगे और उसके विपरीत चलना ही गलत रास्ता है, जो रावण कर रहा था। परमात्मा विश्वरूप है इसलिए विशाल है और हम लोग ओस की बूंद की तरह बहुत छोटे हैं। पर ओस की बूंद की एक खूबी होती है कि वह जिस पत्ते पर होती है उसका रंग उसी में उतरता है। लगता है बूंद का रंग वही है जो पत्ते का है। पर ऐसा है नहीं। ओस की बूंद पत्ते से बिल्कुल अलग है। हम संसार में रहें, उस संसार की झलक हममें दिखे पर अलग हटते ही वापस परमात्मा का अंश बन जाएंगे। रावण इसे भले ही नहीं समझा हो पर हमारे लिए अभी समझने की संभावनाएं बनी हुई हैं।

अपनी दृष्टि को भीतर की ओर मोडि़ए....
दूसरों की गलतियां देखना बहुत आसान है लेकिन, अपनी भूल देखने के लिए निगाह दूसरी चाहिए। जिन नेत्रों से हम बाहर की दुनिया देखते हैं, जिनके माध्यम से कई दृश्य जीवन में उतार लेते हैं वे आंखें स्वयं की भूल देखने के काम नहीं आतीं। दूसरों की गलतियां देखना बहुत आसान है लेकिन, अपनी भूल देखने के लिए निगाह दूसरी चाहिए। इन्हीं आंखों को थोड़ा-सा भीतर मोड़ दें तब अपनी भूल नज़र आ सकती है। चूंकि नेत्रों का शारीरिक गठन बाहर खुलता है इसलिए लोग इतने आदी हो जाते हैं कि भूल ही जाते हैं कि इन्हें भीतर भी मोड़ा जा सकता है। पलकें तो आदमी या तो नींद में बंद करता है या जितनी स्वत: झपकती है उतनी ही बंद होंगीं। यदि किसी से पांच-दस मिनट पलकें बंद कर बैठने को कहें तो उसके भीतर तूफान शुरू हो जाता है। लेकिन, जिन्होंने लंबे समय पलक बंद करने का अभ्यास कर लिया उनके नेत्र भीतर की ओर अपने आप मुड़ने लगेंगे और अपनी भूलें भी दिखने लगेंगीं। भीतर नेत्र मुड़ते ही आपका दृष्टिकोण बदल जाएगा और आसपास जितने रिश्ते, जितने व्यक्ति हैं, उनकी समझ के मामले में आप परिपक्व हो जाएंगे। फिर जो आपको नापसंद हों, उन्हें लेकर भी सोचने लगेंगे कि इसके पीछे का कारण मैं ही तो नहीं? खुशी और गम इसी दृष्टिकोण से उत्पन्न होने लगेंगे। मनोवैज्ञानिकों ने तो कहा है सुख-दुख साइकोलॉजिकल स्थितियां हैं। यदि स्वयं को देखने में योग्य हो गए तो दूसरे जिन बातों से दुखी हैं उन्हीं में सुख ढूंढ़ लेंगे। वरना खुशी की बातें या स्थितियां भी गम दे जाएंगीं। जब भी समय मिले, पलकों को अपनी ओर से बंद करिए।

परिवार भीतर के संसार का पहला दरवाजा...
ईश्वर मात्रा से नहीं, गुण से प्रगट होता है। इसे थोड़ा सरल बनाकर समझा जाए। सबसे पहले तो यह तय कर लें कि ऊपर वाला प्रकट कहां होता है। यानी किन-किन चीजों में उसको देखा जा सकता है? हमारे पास दो तरह के संसार हैं। एक बड़ा जो बाहर है, जिसमें हमारा व्यावसायिक, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन चलता है। एक छोटा संसार है जो भीतर का है। इसमें निजी जीवन संचालित होता है। परिवार का जीवन बाहर और भीतर के बीच का होता है। परिवार में कुछ गतिविधियां बड़े संसार जैसी होती हैं। धन-दौलत, अपना-पराया ये बाहर का संसार है, जो परिवार में भी होता है। इन दोनों में ही परमात्मा का अंश होता है लेकिन, बाहर के संसार में यदि परमात्मा को खोजें तो वह बड़ा जरूर है यानी मात्रा में अधिक हो सकता है पर गुण में छोटा ही होगा। जब अपने भीतर के छोटे संसार में उतरेंगे तो परमात्मा मात्रा में भी छोटा मिलेगा और गुण में एक स्वाद देता जाएगा। ईश्वर की खोज बाहर कठिन हो सकती है। ईश्वर खोजने से ज्यादा जीने का विषय है और जिंदगी जीने के मौके परिवार व निजी जीवन में ज्यादा हैं। बाहर के संसार में जब जीवन जीने जाते हैं तो कई बाधाएं होती हैं। वहां एक खींचतान है इसलिए आप जीवन को लेकर थोड़ा असहज महसूस करेंगे। अत: रोज थोड़ी देर भीतर के छोटे और निजी संसार में जरूर जाया करें, जिसका पहला दरवाजा परिवार होता है। इसका माध्यम है योग। प्रयोग करके देखिए, परिवार के मतलब भी बदल जाएंगे और परमात्मा का स्वाद भी।

समर्पण से जीवनसाथी के अस्तित्व को जानें...
समझदार पति-पत्नी एक-दूसरे का व्यक्तित्व तो बचा लेते हैं लेकिन, अस्तित्व नहीं बचा पाते। उसके लिए समझ से ज्यादा समर्पण जरूरी होता है। चूंकि उम्र का एक लंबा समय दोनों ने अलग-अलग बिताया होता है और पति-पत्नी बनने के बाद इनकी पहली मुलाकात व्यक्तित्व से ही होती है, इसलिए सारी समझ इसी को बचाने में लगा दी जाती है। जीवनसाथी का अस्तित्व टटोलने के लिए केवल निकटता काम नहीं आती। समर्पण भाव भी पैदा करना पड़ता है, जिसकेे लिए अहंकार छोड़ना जरूरी है। व्यक्तित्व गतिशील भी होता है और परिवर्तनशील भी। जैसे-जैसे किसी विवाहित जोड़े की उम्र बढ़ती है, उनके व्यक्तित्व में भी परिवर्तन आने लगता है। बहुत से लोग जो पहले गंभीर थे, अब मस्ताने हो गए और वैवाहिक जीवन की शुरुआत मस्ती से करने वाले थक गए, उदास हो गए। अस्तित्व भी गतिशील होता है लेकिन, परिवर्तनशील नहीं होता। इसलिए जीवनसाथी के अस्तित्व को टटोलना हो तो थोड़ा रुकना पड़ेगा। यहां रुकने से मतलब है उसके शरीर से आगे बढ़कर उसकी आत्मा को स्पर्श करना। आज भी अधिकतर जोड़े जीवन की यात्रा शरीर से शुरू कर शरीर पर ही खत्म कर देते हैं। शरीर झलकता है व्यक्तित्व से और आत्मा के दर्शन होंगे अस्तित्व में। जिन क्षणों में जरा भी जीवनसाथी की आत्मा महसूस की जाती है, वो दांपत्य के दिव्य क्षण होते हैं। इन्हें पाने के लिए शुरुआत समर्पण से ही करनी पड़ेगी।

प्रार्थना में करुणा से भक्ति पैदा होती है...
विज्ञान ने भौतिकता को तो आसान बना दिया है लेकिन, आत्मिक बातें कठिन होती जा रही हैं। इन दिनों हमारे जीवन में एक विषय है जनसंपर्क। मोबाइल ने इसे इतना सरल कर दिया कि सारी दुनिया मुट्ठी तो दूर, उंगली की छोटी-सी नोक पर आ गई है पर प्रेमपूर्ण संबंधों के मतलब ही बदल गए। प्रेम पर वासना की ऐसी परत जमी कि लोग भूल ही गए प्रेम होता क्या है। ऐसे में प्रेमपूर्ण होना कठिन हो गया है। यदि हमें दूसरों को प्रेम का मतलब समझाना हो या खुद प्रेम में उतारना हो तो एक आध्यात्मिक तरीका है- करुणामय हो जाना। करुणा प्रेम का ऐसा विकल्प है, जिसमें थोड़ी बहुत सुगंध और स्वाद रह सकता है। करुणा की विशेषता यह है कि वह अलग-अलग क्रिया में भिन्न परिणाम देती है। करुणा को सहयोग से जोड़ दें तो प्रेम की झलक मिलेगी। करुणा वाणी से जुड़ जाए तो भरोसा पैदा होता है। चिंतन में यदि करुणा का समावेश हो जाए तो परिपक्वता आ जाती है। क्रिया से जुड़ जाए तो परोपकार बनने लगता है। क्रोध में उतर आए तो हितकारी दृष्टि, स्नेह और ममता जाग जाती है। मांग में करुणा आने पर प्रार्थना पैदा होती है और प्रार्थना में यदि करुणा उतर जाए तो फिर भक्ति पैदा हो जाती है। जब भी भीतर करुणा उतरे, पहला काम यह किया जाए कि इसे दूसरों से जोड़ें। अपनी करुणा को खुद पर खर्च करने में कंजूसी न करें। यदि प्रेमपूर्ण होना कठिन हो तो कम से कम करुणामय तो हो ही जाएं। करुणामय व्यक्ति विज्ञान का भी दुरुपयोग नहीं करेगा।

दक्षता बढ़ाने के लिए भीतर पंचतत्व उतारें....
संगठन पंचतत्वकी तरह व्यक्त होता है। आजकल परिवार हो या व्यापार, संगठन का महत्व बढ़ रहा है। राष्ट्र की तो ताकत ही संगठन है। यदि कुछ लोग एक छत के नीचे, एक साथ रह रहे हों तो उस रहन-सहन को संगठन में बदल लेना चाहिए। किसी संस्थान में यदि संगठन ठीक से उतर आए तो अधिकारियों और कर्मचारियों की योग्यता, निष्ठा, ईमानदारी और परिश्रम के मतलब ही बदल जाएंगे। हम अपने संस्थान या संगठन में किसी से उम्मीद करते हैं कि वह किसी एक क्षेत्र में परिपक्व, कामयाब हो तो दूसरे क्षेत्र में भी वैसा ही प्रदर्शन करे। प्रबंधन की भाषा में कहें तो यदि कोई मार्केटिंग में दक्ष है तो वह एचआर विभाग में कमजोर पड़ जाता है। पर यदि संगठन को पंचतत्व से जोड़ें तो सभी लोग सभी कामों में दक्ष हो सकेंगे। पंचतत्व में सबसे पहले पृथ्वी को समझें। इसमें पहाड़ भी होते हैं, वृक्ष भी हैं। दूसरा तत्व है जल जिसमें नदी, तालाब, समुद्र हैं। तीसरा है अग्रि। इसमें राख, अग्नि और धुंआ है। वायु में वेग, सुगंध और आंधी है तथा अंतिम तत्व यानी आकाश विशाल है, ध्वनि लिए हुए है और बादल का परदा उस पर है। ये पांचों तत्व एक साथ मिलकर पूरी सृष्टि चलाते हैं। हमारे भीतर ये पंचतत्व हैं और यदि ये संगठित हो जाएं, तो वह व्यक्ति जिस भी संगठन में होगा, उसे ऊंचाइयां देगा। प्रयास करें कि इस पूरी प्रकृति में जो पंचतत्व हैं वे हमारे भीतर उतरें और हम जिस भी संगठन से जुड़ें, हर क्षेत्र में दक्ष होकर उसके लिए खूब योगदान दे सकें।

सोच-समझकर किसी की जय जयकार करें...
परमात्मा की जय की जाए यह तो समझ में आता है पर दो कोड़ी के लोगों की भी जय करने लगते हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि जब किसी की जय कर रहे होते हैं तो उसके गुण-दुर्गुण आपके भीतर उतरने लगते हैं। अब तो उन लोगों की भी जय-जयकार होती है, जिनमें गुण ढूंढ़े नहीं मिलते और दुर्गुण रोम-रोम में होते हैं। लिहाजा जय का नारा भी एक-दूसरे के भीतर दुर्गुण स्थानांतरित करने का जरिया बन जाता है। बहुत सारी चीजों की जय करें तब इस जय के नारे को गृहस्थी से भी जोड़ें। जय गृहस्थी, जय परिवार, जय ऐसा कहने में बुराई नहीं है। परिवार में सब लोग अपना यशदान करते हैं। एक की खूबी दूसरे में उतरे, जिनमें योग्यता है वो उसका परिणाम परिवार में देना चाहें तो दिनभर में एक बार ‘जय गृहस्थी’ जरूर बोला जाए। जिस घर में हम रहते हैं, जिस परिवार के सदस्य हैं उससे हमें बहुत कुछ मिला होता है। जयकारे का मतलब है अब वह लौटाया जाए। परिवार भी एक संस्था है और हमारा कारोबार भी एक संस्था है। संसार नाम की संस्था में इंद्रियां फैलती हैं, परिवार नामक संस्था में इंद्रियां मुड़ती हैं। इसलिए जब इंद्रियों का उपयोग संसार में कर चुके हों और घर लौट रहे हों तो इंद्रियों द्वारा संग्रहित वस्तुओं को थोड़ा छानकर घर में लाएं। जय शब्द के अर्थ ठीक से समझें। जय का मतलब यदि परिवार में ठीक से उतार सकें तो आज परिवार टूटने के जो खतरे हमारे सामने मंडरा रहे हैं वो दूर हो जाएंगे।

अहंकार को काबू कर पुरुष परिवार बचाएं...
नारी की उपस्थिति से ही मकान घर बनता है। वरना वह ईंट-सीमेंट के ढांचे से ज्यादा कुछ नहीं होता। पुरुष अपने स्वभाव के कारण मकान को घर बना ही नहीं सकता। यह काम महिलाएं ही करती हैं। किसी भी घर का आधार आपसी समझ और प्रेम होता है। रावण के पास बहुत बड़ा महल था। पत्नी मंदोदरी बार-बार उस महल को घर बनाने का प्रयास करती पर जिद्दी और अहंकारी रावण ऐसा होने नहीं दे रहा था। मंदोदरी जब समझा रही थी तो रावण ने न सिर्फ पत्नी का मजाक उड़ाया बल्कि समूची नारी जाति पर व्यक्तिगत टिप्पणी कर दी। रावण विद्वान था लेकिन, अहंकार जितने भेद पैदा करता है उनमें से एक स्त्री और पुरुष का भी कर देता है। अहंकार से भरी रावण की उस वाणी पर तुलसीदासजी ने लिखा, ‘साहस अनृत चपलता माया। भय अबिबेक असौच अदाया।। रिपु कर रूप सकल तैं गावा। अति बिसाल भय मोहि सुनावा।।’ रावण मंदादरी से कहता है- साहस, झूठ, चंचलता, छल, भय, अविवेक, अपवित्रता और निर्दयता.. तूने शत्रु का समग्र रूप गाकर मुझे बड़ा भारी भय सुनाया? यहां वह स्त्रियों के आठ अवगुण गिना रहा है। हमारे समाज में, परिवार में जब पुरुष के भीतर का रावण अंगड़ाई लेता है तो मातृशक्ति पर इसी तरह के आरोप जड़ देता है, आलोचना करने लगता है और इसी भेद के कारण घर टूट जाते हैं। घर-परिवार में रहते हुए अपने भीतर के रावण को नियंत्रित रखिएगा। वरना भारत की सबसे बड़ी पूंजी परिवार है और हम अपने ही भीतर के रावण के कारण उसे तोड़ बैठेंगे।

रिश्तों को मन से बचाएं, हृदय से निभाएं...
रिश्ते भी फसल की तरह होते हैं। इनके बीज बड़ी सावधानी से बोना पड़ते हैं और उससे भी ज्यादा सावधानी देख-रेख में बरतनी पड़ती है। फसल के लिए सबसे नुकसानदायक होती है खरपतवार। ये वो छोटे-छोटे पौधे होते हैं जो मूल फसल के पौधे के आसपास उगकर उसका शोषण करते हैं। किसान समय-समय पर खरपतवार को नष्ट करता रहता है। रिश्तों की फसल बचाना है तो मस्तिष्क, मन, हृदय और आत्मा को समझना होगा। मस्तिष्क के रिश्ते व्यावहारिक होते हैं। व्यापार की दुनिया में मस्तिष्क काम आता है। हृदय में घर-परिवार के रिश्ते बसाए जाते हैं। आत्मा से रिश्ते निभाना थोड़ा ऊंचा मामला है। रिश्तों की फसल में सबसे खतरनाक खरपतवार मन के रूप में होती है। यहां-वहां फैली गाजरघास या किसी नदी में उगी जलकुंभी को देखेंगे तो मन की भूमिका समझ जाएंगे। मन रिश्तों के मामले में ऐसा ही करता है। इसलिए रिश्ते निभाइए हृदय से। उन्हें पालना हो तो आत्मा का उपयोग कीजिए। मस्तिष्क से रिश्ते निभाने पड़ते हैं यह जीवन का व्यावहारिक पक्ष है लेकिन, रिश्तों को मन से पूरी तरह बचाइएगा। रिश्तों की फसल के लिए सबसे अच्छी खाद होती है समय, समझ और समर्पण की। यह खाद ठीक ढंग से दी जाए तो फसल बहुत अच्छे से फूलेगी-फलेगी, अन्यथा मन भेद को जन्म देता है। भेद का अर्थ है संदेह, ईर्ष्या, झूठ, कपट। यहीं से रिश्ते एक-दूसरे का शोषण करने पर उतर आते हैं। रिश्तों की फसल बहुत सावधानी से बोइए, उगाइए, बचाइए और फल के परिणाम तक ले जाइए।

नाम-दाम कमाएं पर त्याग की वृत्ति रखें...
एक दिन ऊपर जाने का मौका आएगा ही और कहीं ऐसा न हो कि तब हमारा उत्साह खत्म हो जाए। सीढ़ियों के सहारे आप ऊपर से नीचे उतर सकते हैं और नीचे से ऊपर चढ़ भी सकते हैं। परमात्मा जब अवतार लेता है तो ऊपर से नीचे धरती पर उतरता है। अपनी लीला से यह संदेश देता है कि मैं ईश्वर हूं पर ऊपर से नीचे उतरकर मनुष्य बन गया हूं। अगर ऊपर से नीचे उतरा जा सकता है तो नीचे से ऊपर क्यों नहीं चढ़ सकते? यह प्रश्न हर अवतार ने अपने समय के मनुष्यों से किया है और आज भी कर रहा है। हम चाहें तो ऊपर चढ़ सकते हैं। इसमें मदद करेंगे हमारे धर्म ग्रंथ। आपका संबंध किसी भी धर्म से हो, सभी के पास अपने ग्रंथ हैं और उनके प्रसंग या संदेश ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ी हैं। सीढ़ी चढ़ने या उतरने में जरा-सी लापरवाही हुई तो गिर भी सकते हैं। सीढ़ी चढ़ते हुए जब सबसे ऊपर के पायदान पर पहुंचते हैं तो वहां भगवान को नहीं पाएंगे। आपको लगेगा स्वयं ही भगवान जैसे हो गए। सबसे ऊंची पायदान पर आप और भगवान में कोई फर्क नहीं है। लेकिन, ऊपर चढ़ने में हमें संसार की आसक्ति रोकती है। संसार नीचे की ओर खींचता है, इसलिए जब ऊपर चढ़ना हो तो उत्साह बनाए रखना पड़ेगा, जिसमें त्याग, आकांक्षा दोनों जुड़े रहेंगे। आकांक्षा से हम संसार में उतरते हैं और यदि त्याग की वृत्ति आ जाए तो संसार छोड़कर सीढ़ी चढ़ने में दिक्कत नहीं होगी। संसार में खूब नाम-दाम कमाइए पर त्याग की वृत्ति रखिए। एक दिन ऊपर जाने का मौका आएगा ही और कहीं ऐसा न हो कि तब हमारा उत्साह खत्म हो जाए।

मन कुटिल हो तो गुण भी दोष दिखते हैं...
माया को छल बताकर कहता है स्त्री छली होती है, जबकि स्त्री को अपनी देह के कारण माया माना गया है। स्त्री का चरित्र भावनाओं की लहर की तरह होता है, जिसकी कोई व्याख्या नहीं की जा सकती, अनुभूति जरूर की जा सकती है। पुरुष का चरित्र आक्रामक होकर शोषण की वृत्ति रखता है। स्त्री के चरित्र की कूटनीतिक चालों की तरह व्याख्या रावण जैसे लोग ही कर सकते हैं। लंका कांड में मंदोदरी जब पति रावण को समझा रही थी तो चूंकि वह उस समय राजनीतिक भाषा बोल रहा था, चरित्र में कुटिलता उतर आई तो स्त्रियों की आठ खूबियों को दोष बता दिया। पहले कहा- साहस। स्त्री का सबसे बड़ा साहस होता है कि वह मां बनने की क्षमता रखती है। जबकि प्रसव मृत्यु को आमंत्रण भी हो सकता है। अनृत, यानी झूठ। रावण कहता है स्त्रियां झूठ बहुत बोलती हैं। तो क्या पुरुष इसमें कम पड़ता है? स्त्री की चंचलता को वह दोष बताता है, जबकि चंचलता उसका खुलापन है। माया को छल बताकर कहता है स्त्री छली होती है, जबकि स्त्री को अपनी देह के कारण माया माना गया है। उसे डरपोक कहता है। जो परिवार के लिए कुछ भी करने को तैयार हो वह डरपोक कैसे हो सकती है? उसके बाद अविवेक का दोष बताता है। जबकि स्त्री का विवेक पुरुष के मुकाबले अधिक जागा हुआ होता है। इसी प्रकार अपवित्रता और निर्दयता को भी उसने स्त्रियों के साथ दोष के रूप में जोड़ा है। रावण जैसे लोग समाज में स्त्रियों के प्रति इस प्रकार की टिप्पणियां कर समूची मानवता के विरोधी बन जाते हैं। राम ऐसे ही रावण को मिटाने के लिए धरती पर आए थे।

प्रेम पति-पत्नी के रिश्ते का प्राण है...
खतरा तब और बढ़ता है जब स्त्री-पुरुष एक-दूसरे पर सत्ता जमाने लगते हैं। सत्ता स्वभाव से ही स्वभक्षी होती है। इसकी कामना रखने वाला तैयार रहे कि यह एक दिन उसे भी कुतर-कुतरकर खा जाएगी। खतरा तब और बढ़ता है जब स्त्री-पुरुष एक-दूसरे पर सत्ता जमाने लगते हैं। उनमें जेंडर कॉन्शसनेस की समस्या आ ही जाती है। मैं स्त्री हूं, मैं पुरुष हूं ऐसे झगड़े नौकरी-व्यापार में दिखना आम है, लेकिन जब पति-पत्नी एक-दूसरे पर सत्ता बनाना चाहते हैं तो कीमत बच्चे चुकाते हैं। आजकल पढ़े-लिखे स्त्री-पुरुषों के लिए प्रेम एक काम हो गया है। प्रेम इस रिश्ते का प्राण है लेकिन, व्यस्तताओं के बीच प्रेम काम की तरह निपटाया जा रहा है। यह फर्क जरूर है कि पुरुष के पास स्त्री के मुकाबले काम अधिक होते हैं, इसलिए प्रेम उसके लिए अंतिम प्राथमिकता है। स्त्रियां भी बहुत काम करती हैं, उनके लिए भी प्रेम एक काम है। इसीलिए दोनों के बीच रूखापन उतर आया है। स्त्रियों के मन में यह भाव गहरा रहा है कि वे पुरुषों से पीछे न रह जाएं। स्त्री के पास उसका स्वधर्म इतना मजबूत है कि जहां खड़ी हो, वहीं ऊंचाई पा सकती है। उसे ऊंचा होने के लिए पुरुष का प्लेटफॉर्म चाहिए भी नहीं। लेकिन दोनों के बीच अजीब-सा मुकाबला है और उसमें प्रेम दम तोड़ता जा रहा है। जैसे ही पति-पत्नी के बीच का प्रेम टूटता है, उनकी उदासी बच्चों में उतर आती है। आजकल ज्यादातर बच्चे चिड़चिड़े और जिद्दी इसलिए भी पाए जाते हैं कि उनके प्रेम का स्रोत समाप्त हो गया है। प्रेम को प्रेम ही रहने दीजिए। तब ही रिश्ते सुरक्षित रह पाएंगे।

समय के महत्व को ठीक से समझें...
सबको सभी बातों का ज्ञान हो जाए, जरूरी नहीं है। जब हम अज्ञान की स्थिति में होते हैं तो कुछ वस्तुओं, व्यक्तियों को लेकर भ्रम हो जाता है। पर दुनिया का सबसे बड़ा भ्रम है स्वयं के बारे में गलतफहमी। रावण ऐसे ही भ्रम में जी रहा था। पत्नी मंदोदरी के समझाने पर पहले तो उसने मंदोदरी की आलोचना की। फिर अपनी प्रशंसा के बीच बड़ी सफाई से उसकी भी तारीफ करने लगा। कहता है, ‘सारा संसार मेरे वश में है यह बात तेरी कृपा से अब मेरी समझ में आई है। मैं तेरी चतुराई समझ गया हूं। तू समझाने के बहाने मेरी प्रभुता का बखान कर रही है।

इस संवाद पर तुलसीदासजी ने लिखा, ‘तव बतकही गूढ़ मृगलोचनि। समुझत सुखद सुनत भय मोचनि।। मंदोदरि मन महुं अस ठयऊ। पियहि काल बस मति भ्रम भयऊ।।’ रावण कहता है, ‘हे मृगनयनी, तेरी बातें बड़ी रहस्यभरी हैं। समझने पर सुख देने वाली और सुनने से भय मुक्त करने वाली हैं।’ तब मंदोदरी सोचने लगी कि काल के वश में होने के कारण पति को मति-भ्रम हो गया है।

हमें यह समझना है कि समय इंसान की बुद्धि को बदल देता है। इसलिए समय का सम्मान करें, उसके महत्व को ठीक से समझें। यदि अपने ही समय को पढ़ना नहीं आया तो एक दिन वह बुद्धि को पलटकर ऐसा आचरण करा सकता है कि आप सोच भी नहीं सकते। सच है, काल पर किसी का वश नहीं होता लेकिन, कम से कम अपने ऊपर तो वश है कि काल को समझ सकें और रावण जैसी गलती न करें।

मिलकर निर्णय लें, मिलकर जीना सीखें....
परिवार में बड़े-बूढ़े कई आदर्श वाक्य सुनाते रहते हैं। ऋषि-मुनियों ने तो गृहस्थ जीवन पर बहुत कुछ कहा है लेकिन, आज के दौर में परिवार जिन हालात से गुजर रहे हैं उसमें शंकराचार्यजी ये शब्द बहुत काम काम हैं,‘न नेयो न नेता। यानी आने वाले समय में न कोई नेता होगा और न ही कोई उनका अनुयायी। सबको मिलकर चलना होगा। आज परिवारों में यह इसलिए लागू है, क्योंकि यहां सबको मिलकर चलना ही पड़ेगा वरना परिवार तेजी से टूटते जाएंगे।

शिक्षा से प्राप्त योग्यता और धन से प्राप्त जीवनशैली ने परिवारों में शक्ति के कई केंद्र बना दिए। सब नेतृत्व चाहते हैं। बड़े तो इस झंझट में उलझे ही हैं, छोटे से बच्चे को भी लगता है कि मेरा कहा माना जाए। लेकिन अब मिल-जुलकर ही चलना पड़ेगा। काल प्रवाह से परिवार भी नहीं बचे। बहुत तेजी से पुराना गुजरता जा रहा है और नित नया परिवारों में प्रवेश कर रहा है। ऐसे में मिल-जुलकर, एक-दूसरे की बात का मान रखकर ही परिवार चलाने पड़ेंगे। सबसे पहले अहंकार विलीन करना होगा।

किसी एक को नहीं, परिवार के प्रत्येक सदस्य को अपनी योग्यता को परिवार का हिस्सा मानना पड़ेगा। अपनी शिक्षा को परिवार की देन समझना होगा। वरना परिवार बंट जाएंगे। लेकिन इस बंटवारे में तन भले ही बंट जाएं पर मन न बंटे। छत बंट जाए पर रिश्ते नहीं टूट जाएं। इसलिए शंकराचार्यजी की इस बात को याद रखते हुए सब मिलकर ही निर्णय लें, मिलकर ही जीना सीखें।

मूल्यों पर चलकर होश में रहना आसान...
होश, बेहोश और जोश ये स्थितियां सभी के जीवन में घटती हैं। कुछ लोग जानते हैं कि कब होश में रहना, कैसे बेहोशी से बचना कैसे इन दोनों के बीच जोश बनाए रखना है। होश का मतलब है जब ज़िंदगी की राह में गिरें तो गिरे ही नहीं रहना है, उठना भी है। जोश यानी आगे बढ़ना और बेहोशी का मतलब है रुक जाना। प्रगति करना हो तो बदलाव पर नज़र रखिए। एक तो स्वयं में हो रहे बदलाव पर पकड़ होनी चाहिए, दूसरा आपके आसपास के वातावरण में हो रहे बदलाव की भी पूरी समझ होनी चाहिए। पहले जीने के लिए परम्परा आधारित जीवन पर्याप्त था लेकिन, वक्त बदला तो परम्पराएं भी तेजी से बदलीं। इसलिए अब परम्परा आधारित जीवन नुकसान पहुंचा सकता है। जैसे पिछले दिनों गुरु परम्परा प्रश्नों के घेरे में गई। अब लोग लंबे समय तक गुरुओं से दूरी बना सकते हैं या गुरु बनाने में संकोच करेंगे। जब परम्परा आधारित जीवन से हटें तो मूल्य आधारित जीवन पर जाएं। मूल्य कभी नहीं बदलेंगे। सत्य, अहिंसा, प्रेम, करुणा ये मूल्य हैं। मूल्यों पर चलने वालों के लिए होश बनाए रखना आसान होगा। ज़िंदगी की राह में ठोकरें लगेंगी, आप गिर भी जाएंगे पर यदि होश कायम है तो खुद को उठा भी लेंगे। यदि खुद को नहीं बदला, परम्पराओं पर टिके रहे तो यह भी बेहोशी होगी, जो इनसान के कदम लड़खड़ा देती है, उसे रोक देती है। होश और बेहोशी के बीच जरूरत पड़ती है जोश की। यह जोश ही आपको आगे ले जाएगा।

अपनी योग्यता को अहंकार से न जोड़ें...
राजसत्ता पर बैठे व्यक्ति की जब कमर टूट जाती है तो वह न किसी की गर्दन मरोड़ सकता है और न ही खुद उसकी गर्दन मरोड़ने की जरूरत रह जाती है। युद्ध शुरू होने से पहले ही रावण का आचरण बता रहा था कि उसकी कमर टूट चुकी है। घर, सेना और मैदान में सभी दूर हालात विपरीत हो रहे थे। पत्नी मंदोदरी ने समझाया तो पहले तो उसका परिहास किया, फिर शब्दों में उसकी प्रशंसा ढूंढ़ने लगा। यहां तुलसीदास ने व्यंग्य करते हुए लिखा है, ‘एहि बिधि करत बिनोद बहु प्रात प्रगट दसकंध। सहज असंक लंकपति सभॉ गयउ मद अंध।’ यानी इस प्रकार अज्ञानवश विनोद (हास-परिहास) करते हुए रावण को सुबह हो गई। तब स्वभाव से निडर और अहंकार में अंधा लंकापति सभा में पहुंचा। पति-पत्नी एकांत में रहें, विनोद करें तो ये अच्छे लक्षण हैं। लेकिन, रावण तब विनोद कर रहा था, जब उसे बहुत गंभीर होना था।

तुलसीदासजी ने उसे निडर बताने के साथ अंधा भी लिखा। दु:साहसी व्यक्ति की यदि दृष्टि चली जाए तो उसके लिए खतरा बढ़ जाता है। फिर उसका हर कदम गलत होता है। रावण के माध्यम से हमें यही समझना चाहिए कि जब आप अपनी योग्यता को अहंकार से जोड़ते हैं, शिक्षा को भोग-विलास में उतार लेते हैं तो फिर सही निर्णय ले पाने की संभावना समाप्त हो जाती है। शिक्षित व्यक्ति को दुर्गुण नहीं पालना चाहिए, योग्य को आलसी नहीं होना चाहिए। वरना जो आचरण रावण कर रहा था वैसा ही हम भी जीवन में कहीं न कहीं करते रहेंगे।

करुणा से मिलती है संकल्प को ताकत...
संकल्प लेकर उसे तोड़ना इंसान की फितरत हो गई है। बड़े संकल्प की तो बात दूर है, छोटा-मोटा संकल्प भी पूरा नहीं कर पाते। बहुत से लोग हैं, जो रात को संकल्प लेते हैं कि सुबह जल्दी उठेंगे और सुबह होने पर रात का संकल्प धरा रह जाता है। भोजन के नियंत्रण का संकल्प खाना दिखते ही टूट जाता है। क्यों हमारे संकल्प पूरे नहीं हो पाते? संकल्प पूरा करने के लिए संयम आवश्यक है और संयम में भगवान की उपस्थिति बहुत जरूरी है। यदि आप संयम में यह मानकर चलेंगे कि परमात्मा अनुपस्थित होकर भी मुझे देख रहा है तो संयम को ठीक से पाल सकेंगे। परमात्मा सदैव साथ है, यह भाव उतरते ही आपके भीतर जो सबसे बड़ा गुण आता है वह है करुणा। जब आप करुणामय होते हैं तो न तो अपने प्रति अपराध करेंगे, न दूसरे के प्रति कुछ गलत कर पाएंगे।

करुणामय व्यक्ति का संयम भी बहुत तगड़ा होता है, क्योंकि उसे परमात्मा का सहारा मिल जाता है। वेद में कहा गया है-’श्रत्ते दधामि प्रथमाय मन्यवे। इसमें ऋषि ने परमात्मा से कहा है कि आपका जो पहला संकल्प होगा उसमें मेरी पूरी श्रद्धा है और वह संकल्प है सबके लिए करुणा। इसलिए जब कोई संकल्प लें, उसे पूरा करने के लिए जिस संयम की आवश्यकता हो उसमें सदैव यह ध्यान रखें कि आप अकेले उसे पूरा नहीं कर पाएंगे। इसमें एक और परमशक्ति की ताकत लगेगी। जैसे ही करुणामय हुए, अपने संयम को ताकत दे सकेंगे और फिर संकल्प कभी नहीं टूटेंगे।

जीवन की जडे़ं ढूंढ़ने के लिए मंदिर जाएं..
किस मंदिर में जाकर माथा टेंकें, किस मूर्ति को मान्यता दें? आजकल लोग यह सवाल बहुत पूछते हैं। धर्म के प्रति आधुनिक दृष्टि रखने में बुराई नहीं है पर आधुनिक होते-होते लोग आलोचनात्मक हो जाते हैं। आसान है यह कहना कि मंदिरों में सिवाय लूट के और क्या है। लोग भीख मांगने जाते हैं भगवान से। बाबाओं ने मंदिरों को लूट का केंद्र बना रखा है, पुजारी अपनी दुकान चलाता है। ऐसी बातें आसानी से कह दी जाती हैं। मुझसे लोग पूछते हैं कि आखिर मंदिर जाएं क्यों? इसका उत्तर है यदि आप किसी बात को ठीक से नहीं देख-समझ पाएंगे तो उसका सही अर्थ नहीं पकड़ पाएंगे। यह सही है कि मंदिर लूट, अंधविश्वास, मारामारी के केंद्र बन गए हैं लेकिन, हर बात का सतह के नीचे का पहलू होता है। भले ही सब भीख मांगने जा रहे हों, कोई लूट रहा हो, आप वहां से बहुत कुछ प्राप्त कर सकते हैं। आप जीवन की जड़ें ढूंढ़ने मंदिर में जाएं। जीवन सदैव मौन या एकांत में मिलता है। अभ्यास कीजिए उस देवस्थान पर कितना भी शोर हो पर आपके भीतर शांति घट जाए। 

दूसरे क्या कर रहे हैं यह छोड़ प्रार्थना कीजिए, अपना रोम-रोम धैर्य से भर लीजिए। पूजा-पाठ, कर्मकांड, हल्ला-गुल्ला ये अपनी-अपनी रुचि का विषय हैं और काफी हद तक मनुष्य की मानसिकता पर टिका है। कोई टिप्पणी या आलोचना करने की जगह उस वरदान से न चूकें जो मंदिर की उस चारदीवारी में बड़ी आसानी से मिल सकता है। जो श्रेष्ठ है, मिल सकता है, उसे लपक लीजिए।

नियति व्यवस्था है पर निर्णय हमें लेना है....
जब सब कुछ भगवान की इच्छा से हो रहा है, हर परिणाम में भाग्य काम कर रहा है, हर बात का कोई निमित्त है तो फिर गलत को गलत क्यों ठहराया जाता है? इस तरह के प्रश्न आजकल पढ़े-लिखे समाज में खूब उछाले जाते हैं। केवल सैद्धांतिक पंक्तियों को पकड़ेंगे तो आरोप सही लगेंगे लेकिन, यह अच्छे से समझना होगा कि भगवान जितना नियंता है, उतनी ही नियति है। नियंता का अर्थ है व्यवस्था चलाने वाला और नियति का मतलब है उसने एक ऐसी नीति बना दी है, जो कंप्यूटर के सॉफ्टवेयर की तरह है। आप जैसा करेंगे, वैसा परिणाम मिल जाएगा। नियंता के रूप में भगवान ने नियम बनाया कि पृथ्वी गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण हर चीज को खींचती है। अब यदि गिर जाएं तो यह नहीं कह सकते कि भगवान की इच्छा थी, पृथ्वी ने खींच लिया तो गिर गए। नियंता ने नियम बनाया लेकिन, गिरना आपकी नियति थी। आप ठीक से संभल नहीं पाए तो पृथ्वी खींच रही है। भगवान कृष्ण ने महाभारत युद्ध से पहले कहा था, ‘एक तरफ मैं अकेला हूं, वह भी बिना शस्त्र उठाए तथा दूसरी ओर मेरी सेना होगी। आपको जो लेना हो, ले लो। कौरवों ने सेना चुनी, पांडवों ने निहत्थे कृष्ण को चुन लिया। कुल मिलाकर निर्णय हमारे ऊपर है, भगवान अपनी व्यवस्था कर चुके हैं। इसलिए ऐसे प्रश्नों का कोई मतलब नहीं है। आपको संभावना और चयन ऊपर से दिया गया है और उसी के दायरे में अपना जीवन चलाइए।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है... मनीष
ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....

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