माता-पिता के प्रति समर्पण गणेशजी से सीखें....
मनुष्य का जीवन
सुख-दुख का
जोड़ है। समय
एक जैसा किसी
के जीवन में
नहीं रहा।यदि कोई
सोच ले कि
उसके हिस्से सिर्फ
सुख ही आए,
तो यह उसकी
भूल होगी। सुख
के पीछे-पीछे
दुख भी आएगा
ही।
मनुष्य के जीवन
में दुख पांच
जगह से आता
है- संसार से,
संपत्ति से, संबंधों
से, स्वास्थ्य और
संतान से।बाकी दुखों
से तो इनसान
लड़ भी सकता
है परंतु संतान
के दुख से
बड़े-बड़े फौलादों
को टूटते देखा
है।संतान नहीं होने
की टीस तो
अपनी जगह होती
ही है लेकिन,
होकर अयोग्य निकल
जाने का दर्द
ज्यादा पीड़ा देता है।
इस दुख से
बचने का एकमात्र
उपाय है बच्चों
को जन्म से
ही संस्कारों से
जोड़ दिया जाए।
बच्चे संस्कारवान होंगे तो
संतान से मिलने
वाले संताप से
तो आप बचेंगे
ही, बाकी चार
प्रकार के दुखों
का भी धैर्य
के साथ सामना
कर सकेंगे।
ध्यान रखें, आपका दांपत्य
जितना सधा हुआ,
प्रेमपूर्ण और दिव्य
होगा, संतान उतनी
ही संस्कारित व
शीलवान होगी। इसका सबसे
अच्छा उदाहरण हैं
गौरीपुत्र भगवान गणेश। माता-पिता के
प्रति समर्पण क्या
होता है, आज
की पीढ़ी को
गणेशजी से सीखना
चाहिए जो कि
आज घर-घर
में विराजने वाले
हैं,दस दिन
तक चलने वाले
मंगल आराधना के
इस उत्सव में
एक संकल्प जरूर
लें कि इसवर्ष
कुछ ऐसा करेंगे,
जिसकी उपयोगिता समूचे
समाज के लिए
होगीएक बात और,
अपने घरों में
मिट्टी के ही गणेशजी की स्थापना
की जाए।
पर्यावरण की
दूष्टि से यह
भी समाज को
आपका बड़ा अवदान
होगा।
सामूहिक ध्यान से ईश्वर
की निकटता पाएं...
परमात्मा की निकटता
से क्या मिलता
है? इस प्रश्न
का सीधा उत्तर
तो है परमात्मा
ही मिल जाता
है। अब अगला
सवाल खड़ा होता
है परमात्मा होता
कैसा है? इसका
जवाब किसी के
पास नहीं है,
क्योंकि ऊपर वाले
की जितनी शक्लें
आज नीचे वालों
के पास हैं
वे सब हमने
ही बनाई हैं।
सच तो यह
है कि ईश्वर
महसूस करने का
मामला है। एक
बार उसे महसूस
कर लिया तो
फिर जो भी
रूप-आकृति तय
करेंगे वह मान्य
होगी। भगवान की
निकटता मिलने से एक
ताकत आती है,
जिसे भरोसे की
ताकत कहते हैं।
वह भरोसा ऐसा
होता है कि
सबकुछ हम कर
रहे हैं पर
वह (ऊपर वाला)
है जो निपट
लेगा। फकीर उमर
खय्याम के जीवन
की एक बहुत
अच्छी घटना है।
वे और उनका
शिष्य जंगल में
थे तभी शेर
आ गया। उमर
तो ध्यानमग्न थे।
शिष्य का ध्यान
टूटा और देखा
तो पेड़ पर
चढ़ गया। शेर
थोड़ी देर रुका
और चला गया।
शिष्य पेड़ से
उतरा और दोनों
चल दिए। उसी
समय तड़ाक की
आवाज आई। शिष्य
ने मुड़कर देखा
खय्याम ने खुद
के ही गाल
पर एक चांटा
मार लिया था।
शिष्य ने पूछा-
क्या हुआ? जवाब
मिला- एक मच्छर
आ गया था,
मैंने मार दिया।
शिष्य को आश्चर्य
हुआ। शेर के
सामने डरे नहीं
और जरा से
मच्छर ने हड़बड़ा
दिया! तब उमर
का जवाब था-
उस वक्त मैं
ऊपर वाले के
साथ था। फिर
शेर से क्या
डरना? इस समय
मैं नीचे वाले
के साथ हूं
तो मच्छर भी
हड़बड़ा देता है।
बात सिर्फ इतना
समझने की है
कि कोशिश ऐसी
कीजिए कि ऊपर
वाले का साथ
बना रहे। इसके
लिए सामूहिक ध्यान
का अभ्यास कीजिए।
इसका मतलब होगा
सभी को परमात्मा
की एक जैसी
निकटता मिले। आज घरों
में जो खंड-खंड प्रसन्नता
बिखरी है उसे
समेटने का एकमात्र
उपाय यही है।
अच्छी बातें कहने से
पहले खुद अपनाएं...
आपकी बात यदि
व्यावहारिक रूप से
आप पर लागू
हो जाए तो
आप उसे लेकर
सावधान हैं या
नहीं? कठिन समय
में अपनी घबराहट
पर बहादुरी का
मुखौटा ओढ़ लेना
कोई बुरी बात
नहीं है। लेकिन
जब आप किसी
दूसरे को कोई
प्रेरणा दे रहे
हों तब ऐसी
भूल न करें।
अगर ज्ञानवान दिखना
है तो कुछ
आदर्श वाक्य रटकर
उछाल दीजिए। लोग
आपको बुद्धिमान मान
लेंगे। कई लोग
मुझसे कहते हैं
कि आजकल ऐसा
करना पड़ता है।
प्रतिस्पर्धा के इस
दौर में योग्यता
को कई ढंग
से बताना पड़ता
है।
ऐसे लोगों से आग्रह
है कि यदि
ऐसे आदर्श वाक्य
ओढ़ना ही पड़े,
उनका प्रदर्शन करना
ही पड़े तो
उसमें व्यावहारिकता का
पक्ष जरूर रखें।
आपकी बात यदि
व्यावहारिक रूप से
आप पर लागू
हो जाए तो
आप उसे लेकर
सावधान हैं या
नहीं? इसे एक
उदाहरण से समझ
सकते हैं। एक
जगह पाड़ों की
लड़ाई हो रही
थी। देखने वालों
में एक साधु-महात्मा भी थे।
लड़ते-लड़ते पाड़े
जिस ओर भागते,
उधर की भीड़
भी भागने लगती।
एक पाड़ा जब
जनता की ओर
भागा तो लोग
भी भागे पर
महात्माजी खड़े रहे।
उनका आदर्श वाक्य था-
हम तो भगवान
के भरोसे हैं,
क्यों भागें? जो
भय से भाग
जाए वह साधु
ही कैसा? भागते
पाड़े ने उनके
पास आकर गर्दन
झुकाई तो बोले-
देखो, प्रणाम कर
रहा है। पहचान
के लोग साधुता
को प्रणाम ही
करते हैं। ये
आदर्श वाक्य सुनने
में अच्छे लग
रहे थे लेकिन,
अब आया व्यावहारिक
दृश्य। पाड़े ने गर्दन
उठाई। लोग चिल्लाए,
यह प्रणाम नहीं,
मारने की तैयारी
कर रहा है।
वास्तव में पाड़े
ने महात्माजी को
उछाल दिया। जहां
आदर्श वाक्य उछल
रहे थे वहां
बोलने वाला खुद
ही उछाल दिया
गया। ऐसा दृश्य
आपके जीवन में
भी अलग ढंग
से घट सकता
है। इसलिए जब
भी अच्छी बातें
उछालें, पहले देख
लीजिए खुद पर
कितनी लागू हो
रही है। वरना
गिरने का डर
बना रहेगा।
बदलाव के दौर
को शांति से
स्वीकार करें...
जो लोग सत्ता
का सुख और
अधिकारों को जमकर
भोग लेते हैं
और जिस दिन
ये उनके पास
नहीं रहते उस
दिन वे भूतपूर्व
नहीं ‘स्वर्गीय’ हो जाते
हैं। ऐसे कई
लोग देखे हैं,
जिनके पास बहुत
कुछ था तो
माथे पर अहंकार
नाच रहा था
और जब सब
छिन गया तो
जीते जी मर
गए। इसका यह
मतलब नहीं कि
उनकी मृत्यु हो
गई। कोई अकेला-सा हो
गया, कोई अवसाद
में डूब गया,
कोई उदासी से
घिर गया तो
कुछ सठिया-से
गए। स्थितियां सबकी
एक जैसी नहीं
रहती। तेजी से
बदलते दौर में
लोगों को इरादे
बदलने में देर
नहीं लगती। कब
किसकी नीयत बदल
जाए, पता ही
नहीं चलता। इस
बदलाव में आप
भी शामिल हैं।
जब आसपास और
भीतर बदलाव हो
रहा हो तो
जीवन को तुरंत
आध्यात्मिक मार्ग पर ले
जाएं। जब बदलाव
से गुजर रहे
होंगे, भीतरी अनुशासन की
जरूरत पड़ेगी। कहते
हैं अपने ऊपर
क्रोध करना आंतरिक
अनुशासन है। जब
चीजें बदलें तो
दूसरों पर गुस्सा
होना, अन्य लोगों
को कोसना बंद
करें। यदि आपको
नुकसान हुआ है
तो अपने आप
पर क्रोध करके
देखें कि आपकी
भूमिका कहां गलत
थी? स्वयं पर
क्रोध करने का
मतलब है स्वयं
की जिम्मेदारी तय
करना। जब हालात
बदलते हैं, कोई
सफल, कोई विफल
रह जाता है।
सफल नहीं हों
तो कई सवाल
खड़े हो जाते
हैं। जब असफलता
पर आसपास प्रश्न
उछलने लगे तो
बहुत कुछ ईश्वर
पर छोड़ दीजिए।
जीवन में हर
प्रश्न का उत्तर
मिल जाए, जरूरी
नहीं। कुछ प्रश्न
प्रकृति व परमात्मा
पर छोड़ दें
कि अब आप
ही इनका उत्तर
दीजिए, हम तो
फिर अगली तैयारी
में लगते हैं।
बदले हालात को
शांति से स्वीकार
करते हुए अगले
बदलाव में कामयाबी
की तैयारी करें।
यही बुद्धिमानी होगी।
दिल में सदैव
ऐसी बात हो
जो शांत रखे...
चंद्रमा के भीतर
की कालिमा देखकर
श्रीराम ने प्रश्न
पूछा और जिसने
जो उत्तर दिया
उसे सुनकर लगता
है कि...आदमी
के भीतर विष
हो या अमृत,
समय आने पर
बाहर छलक ही
जाता है। कुटिल
लोग भीतर के
विष को रोक
लेते हैं लेकिन,
सामान्य व्यक्ति के भीतर
जो भी होगा
वह बाहर आ
जाएगा। उदाहरण है लंका
कांड में सुबैल
पर्वत की झांकी
का दृश्य। चंद्रमा
के भीतर की
कालिमा देखकर श्रीराम ने
प्रश्न पूछा और
जिसने जो उत्तर
दिया उसे सुनकर
लगता है कि
जिसके भीतर जो
चल रहा होता
है वह बाहर
आ ही जाता
है। सुग्रीव ने
कहा- चंद्रमा के
भीतर जो कालापन
है वह पृथ्वी
की छाया है।
चूंकि सुग्रीव अपने
भाई बालि से
धरती के टुकड़े
के लिए उलझे
थे तो उन्हें
वहां भी धरती
ही दिखाई दे
रही थी। विभीषण
कहते हैं राहु
ने चंद्रमा पर
प्रहार किया था,
यह काला दाग
उसी का है।
वे रावण से
लात खाकर आए
थे तो उनके
मन में मारपीट
की बात बसी
थी। अंगद कहते
हैं जब ब्रह्माजी
ने कामदेव की
पत्नी रति का
मुखड़ा बनाया तो उसे
और सुंदर बनाने
के लिए इतना
हिस्सा चंद्रमा का ले
लिया। अंगद का
मतलब था किसी
एक का हक
दूसरे को दे
दिया। बालि के
बाद किष्किंधा का
राज्य मिलना था
अंगद को, मिल
गया सुग्रीव को।
अंगद के भीतर
यही दर्द था।
आखिर में हनुमानजी
ने जो उत्तर
दिया उस पर
तुलसीदासजी ने लिखा-
‘कह हनुमंत सुनहु
प्रभु ससि तुम्हार
प्रिय दास। तव
मूरति बिधु उर
बसति सोइ स्यामता
अभास।।’ अर्थात- प्रभु, चंद्रमा
आपका दास है।
आपकी सुंदर-श्याम
छवि उनके हृदय
में बसती है।
हनुमानजी के मन
में सदैव श्रीराम
की छवि बसती
है, इसलिए उन्होंने
रामजी की श्यामल
छवि को ही
चंद्रमा का कालापन
बताया। सीधी-सी
बात है अपने
हृदय में सदैव
ऐसी बातें रखिए,
जो आपको शांत
करे और बाहर
जो भी सुनें,
देखें या समझें
उसको भी प्रसन्नता
से भर दे।
नई पीढ़ी से
जुड़ने के पांच
विकल्प...
नए पुराने का झगड़ा
बहुत पुराना है
और नए-नए
ढंग से होता
रहता है। नई
पीढ़ी जब पुरानी
पीढ़ी के सामने
खड़ी होती है
तो मतभेद होना
स्वाभाविक है। बच्चों
के मन में
माता-पिता या
अन्य बुजुर्गों को
लेकर जो सवाल
खड़े होते हैं
उनमें से एक
शिकायत यह है
कि हम पर
अतिरिक्त दबाव, अपनी सोच
थोप रहे हैं।
नई पीढ़ी को
तो बात अपने
ढंग से समझ
में आएगी लेकिन,
पुराने लोग अधिक
समझदारी से काम
करें। पुराने समय
में जो मौज
थी, नई पीढ़ी
के लिए वह
मस्ती बन गई।
पुराने लोगों के अनुभव
इनके लिए विचार
में बदल गए।
गुजरे लोगों के
पास धैर्य था,
इनके पास उत्साह
है। उनके पास
होश था, ये
जोश में जीते
हैं। वो बीज
थे, ये उसके
अंकुर हैं। इन
दोनों के बीच
कोई कड़ी है
तो वह है
संस्कार। बच्चे सीधे-सीधे
संस्कार नहीं लेंगे।
महाभारत में दुर्योधन
के पिता जन्म
से दृष्टिहीन थे
और मां ने
स्वैच्छिक अंधत्व स्वीकार कर
लिया था। दोनों
कुछ देख नहीं
पा रहे थे।
दुर्योधन का लालन-पालन ऐसे
ही हुआ कि
माता-पिता की
दृष्टि नहीं मिली
और यहीं से
उसका भटकाव शुरू
हो गया। बड़े-बूढ़ों को यदि
नई पीढ़ी के
बच्चों से जुड़ना
है तो उनके
पास पांच विकल्प
होंगे। पहला बच्चों
के प्रति सदैव
प्रेमपूर्ण रहें। दूसरा दया
का भाव रखें
और तीसरे चरण
में उनके प्रति
करुणा पैदा करें-
प्रेम, दया और
करुणा। ये यदि
कठिन लगे तो
थोड़ा अपनापन पैदा
करें और पांचवां
विकल्प होगा सहानुभूति।
इस समय लालन-पालन के
दौरान कब, कौन-सा तत्व
काम आए, कह
नहीं सकते। कभी
सहानुभूति की जरूरत
पड़ेगी, कभी करुणा,
कभी अपनेपन की
तो कभी पांचों
की एक साथ।
पर यदि नई
पीढ़ी से जुड़े
रहना है, उनकी
अस्वीकृति और असंतोष
को ठीक से
समझना है तो
पहल बड़ों को
ही करनी पड़ेगी।
जो अच्छा हो रहा
है उस पर
ऊर्जा लगाएं...
जब ऊर्जा को अकारण
रोक लें या
गलत दिशा में
बहने दें तो
व्यक्तित्व जटिल बन
जाता है। मनुष्य
के शरीर में
जो ऊर्जा होती
है वह भीतर
या बाहर, बहेगी
जरूर। यह हमारे
ऊपर है कि
उस ऊर्जा को
किस दिशा में
बहने दें। हमारे
आचरण में जो
शक्ति, जो तेज
होता है, इसी
ऊर्जा से आता
है। यदि ऊर्जा
का दुरुपयोग करेंगे
तो व्यक्तित्व का
तेजस्वी भाव कमजोर
होगा। जब ऊर्जा
को अकारण रोक
लें या गलत
दिशा में बहने
दें तो व्यक्तित्व
जटिल बन जाता
है। आजकल तो
लोग गंभीरता का
एक ऐसा आवरण
ओढ़ लेते हैं
कि छोटी-छोटी
खुशी को भी
प्रदर्शित नहीं करते।
फिर धीरे से
दुख प्रवेश कर
जाता है। एक
प्रयोग करते रहिए।
ऊर्जा को बेकार
बहने से रोकना
है तो उसकी
दिशा प्रतिदिन सुबह
तय करिए कि
आज हम इस
बात की नोटिंग
करेंगे कि हमारे
साथ क्या अच्छा
घटने वाला है।
क्या बुरा अथवा
नापसंद का होने
वाला है इसे
भूल ही जाइए।
अपने आपको केवल
इसी पर केंद्रित
करें कि जो
भी अच्छा लगे,
तुरंत नोट कर
उसे दूसरों से
शेयर करें। उन्हें
भी बताएं आज
यह अच्छी बात
हुई, वह अच्छा
व्यक्ति मिला। कहने से
महसूस भी होता
है। जब आप
बाहर की छोटी-सी अच्छी
घटना को भी
दूसरों से कहेंगे
तो भीतर भी
अच्छा घटने लगेगा।
आनंद को तो
बहना है, आप
जो दिशा देंगे
उधर बह जाएगा।
वह दिशा तय
करने के लिए
अपनी ऊर्जा का
सदुपयोग करना पड़ेगा।
दिनभर ऊर्जा इस
बात में लगाइए
कि जो अच्छा
हो रहा है
उसे पकड़ें। बुरे
से ज्यादा मत
उलझिए। जो आपकी
पसंद का नहीं
है ऐसी घटनाएं
भी हो रही
हों तो उस
पर ज्यादा ऊर्जा
न लगाएं। अपने
आपको इस पर
टिकाइए कि कुछ
अच्छा भी तो
हुआ है और
वही हमारी पूंजी
है। फिर देखिए,
यही ऊर्जा उस
अच्छे से जुड़कर
आपके रोम-रोम
में प्रसन्नता भर
देगी।
मन में ध्यान
के प्रकाश से
दुर्गुणों को रोकें...
जिस भी जगह
उन्हें चोरी करनी
है यदि वहां
रहने वाले लापरवाह
हैं तो उनकी
राह आसान हो
जाती है। जिस
घर में दीया
जलता हो वहां
चोर नहीं जाते,
यह एक पुरानी
आध्यात्मिक कहावत है। जब
कोई चोर चोरी
करता है तो
शोर से बहुत
डरता है। दुर्गुण
भी चोर की
तरह हैं। मनुष्य
के भीतर ये
ऐसे ही प्रवेश
करते हैं। दुनिया
के चोर शोर
से डरते हैं
और दुर्गुणरूपी चोर
शून्य से डरता
है। एक चोर
के लिए चोरी
की क्रिया नौ
बातों से होकर
गुजरती है। पहला
होता है अंधकार।
चोरों के लिए
अंधेरा वरदान है। दूसरी
बात सूनसान मौका।
तीसरा ताला खुला
है या बंद,
इस पर काम
होता है। चौथी
बात जो चोरों
को फायदा पहुंचाती
है वह है
लापरवाही। जिस भी
जगह उन्हें चोरी
करनी है यदि
वहां रहने वाले
लापरवाह हैं तो
उनकी राह आसान
हो जाती है।
पांचवीं बात लोगों
की नींद चोर
के लिए बड़ी
अनुकूल होती है।
इसके बाद चौकीदार
सोया हुआ है
या जाग रहा
है उनकी क्रिया
इस पर भी
निर्भर होती है।
सातवीं भागने की ताकत
चोर को समर्थ
बनाती है। आठवीं
बात पकड़े गए
तो क्या किया
जाए, हिंसा या
समर्पण? और नौवीं
बात हिंसा की
तो चोरी चोरी
न रहकर डाका
हो जाएगी। अब
इसे हम अपने
दुर्गुणों से जोड़ें।
दुर्गुण भी ऐसे
ही नौ काम
करके हमारे भीतर
प्रवेश करते हैं।
पहला ही काम
यदि हम ठीक
कर लें तो
दुर्गुणरूपी चोर को
भीतर आकर बाकी
आठ काम करने
का अवसर नहीं
मिलेगा। वह पहला
काम है अंधेरा
मिटा दें। यह
अंधकार मिटता है ज्ञान
और ध्यान के
प्रकाश से। मस्तिष्क
में शिक्षा का
ज्ञान और मन
में ध्यान का
प्रकाश होना चाहिए।
मन दुर्गुणों को
आमंत्रित करता है,
बुद्धि उन्हें रोक सकती
है। यदि मन
नियंत्रित है और
बुद्धि जानती है किसे
प्रवेश देना, किसे रोकना
तो आपके भीतर
से आपकी शांति,
आपके चरित्र और
संस्कारों की चोरी
कभी नहीं हो
सकेगी।
रामजी को परिवार
में लाने वाले
तुलसीदास
गोस्वामी तुलसीदासजी ऐसे ही
कवि थे, जिन्होंने
जीवन को इस
ढंग से स्पर्श
किया कि कवि
से ऊंचे उठकर
ऋषि हो गए।
जो देह का
परदा हटाकर आत्मा
में झांक ले,
वर्तमान में खड़ा
होकर भविष्य में
देख ले, जो
शब्दों को इतना
तराशे कि भीतर
से नए-नए
अर्थ निकल आए,
जिसके भीतर परहित
की कामना हो,
शास्त्रों ने ऐसे
व्यक्ति को कवि
कहा है। हमारे
यहां एक से
एक कवि हुए
हैं। इन्हें दो
हिस्सों में बांटा
जा सकता है।
एक का संबंध
केवल साहित्य से
रहा और दूसरों
ने जीवन को
भी स्पर्श किया।
गोस्वामी तुलसीदासजी ऐसे ही
कवि थे, जिन्होंने
जीवन को इस
ढंग से स्पर्श
किया कि कवि
से ऊंचे उठकर
ऋषि हो गए।
उन्होंने लिखा है-
'स्वांत: सुखाय तुलसी रघुनाथ
गाथा।' इसका सीधा-सा अर्थ
है मैं अपने
सुख के लिए
कथा कर रहा
हूं। लेकिन, दूसरों
को सुख मिले
इसके लिए भी
तुलसी ने कोई
कमी नहीं छोड़ी।
समाज पर उन्होंने
दो बड़े उपकार
किए। जो राम
कभी ऋषि-मुनियों,
ज्ञानी-पंडितों के थे,
उनको परिवार के
राम बना दिया
और हमारे हनुमान
सौंपे। राम गलत
के विरोध में
अनुशासन के साथ
स्वर कैसे उठाया
जाता है, इसके
प्रतीक हैं और
दुर्गम व दुर्लभ
काम को पूरी
शांति व धैर्य
के साथ कैसे
किया जाता है,
इसके प्रतीक हनुमान
हैं। चरित्र-चित्रण
करने में तुलसी
अद्भुत थे और
अपनी रामकथा के
प्रत्येक चरित्र को प्रतीक
बनाकर जोड़ा। इसीलिए
उनका रामचरित मानस
आज न केवल
लोगों की रग-रग में
बसा है, बल्कि
एक आचार संहिता
बन गया।
आज जब हमारे
आसपास का वातावरण
इतना बिखरा-बिखरा,
उलझा-उलझा है,
अधिकतर लोग भ्रम
में हैं ऐसे
समय तुलसी ने
अपने साहित्य से
राम और हनुमान
के रूप में
हम लोगों को
जो स्पष्टता और
आत्मविश्वास दिया है
उन्हें उसी दृष्टि
से लिया जाना
चाहिए।
खुशी या गम
को बुलाना हमारे
हाथ में..
जब हम खुशी
से ऊपर उठकर
आनंद की बात
करते हैं तो
कई को खुशी
और आनंद का
फर्क समझ में
ही नहीं आता।
देखिए, खुशी विलास
करने पर भी
मिल सकती है
पर आनंद का
मतलब है भगवान
की भगवतता का
रस उठाना। उस
परमशक्ति को आप
जिस भी रूप
में मानें लेकिन,
रस उसकी हस्ती
में है, उसके
व्यक्तिगत रूप में
नहीं। एक बार
जब वह रस
समझ में आता
है तब आनंद
भी उतरने लगता
है। जीवन में
आनंद के प्रवेश
को रोकता है
अहंकार। आनंद और
अहंकार का छत्तीस
का आंकड़ा है
लेकिन, यदि आपकी
तैयारी ऊपर वाले
से जुड़ने की
है तो वह
अहंकार मिटाने को भी
तैयार है। इसका
उदाहरण लंकाकांड के प्रसंग
में मिलता है।
श्रीराम ने अचानक
जोर की ध्वनि
सुनी तो विभीषण
से पूछा यह
बिजली कहां चमक
रही है? जवाब
मिला कि रावण
के महल में
नाच-गाना चल
रहा है। उसके
मस्तक का छत्र
काले बादल की
तरह दिख रहा
है और मंदोदरी
के कान के
कुंडल बिजली जैसे
चमक रहे हैं।
यह सुन रामजी
मुस्कुराए और तुलसीदासजी
ने लिखा, ‘बाजहिं
ताल मृदंग अनूपा।
सोइ रव मधुर
सुनहु सुरभूपा।। प्रभु
मुसुकान समुझि अभिमाना। चाप
चढ़ाइ बान संधाना।।’ अर्थात विभीषण के बताने
पर उसे रावण
का अभिमान समझ
रामजी मुस्कुराए और
धनुष निकालकर बाण
साध लिया। जब-जब हम
अहंकार में डूबते
हैं, ऊपर वाला
हंसता है और
फिर उसे मिटाने
के लिए धनुष-बाण उठाता
है। जीवन में
जब विपरीत आता
है तो समझ
लो ऊपर वाला
परीक्षा ले रहा
है और जब
हम उस चुनौती
से पार हो
जाते हैं, संघर्ष
अच्छे से कर
लेते हैं तब
वह खुश होता
है और उसी
को आनंद में
बदलकर दे देता
है। हमारे हाथ
में है खुशी
को आनंद में
बदलें या उसी
खुशी के पीछे
खड़े गम को
आमंत्रित कर लें।
योग में है
वृद्धावस्था के अकेलेपन
से मुक्ति...
शरीर से वही
मिलेगा, जो वह
दे सकता है।
उसकी अपनी सीमा
है और हम
बेपनाह मांगे चले जाते
हैं। आत्मा असीम
है। जिस दिन
शरीर से भीतर
उतरकर आत्मा पर
टिकते हैं, आपको
जो भी मिलेगा,
अद्भुत और बहुत
अधिक होगा। इसलिए
एक उम्र के
बाद शरीर से
ऊंचा उठकर आत्मा
तक की यात्रा
कर ही लेनी
चाहिए। खासतौर पर वृद्धावस्था
में। बुढ़ापा केवल
झुर्रियां ही नहीं
लाता। अपने साथ
अकेलापन भी लाता
है। पहले जब
एक जीवनसाथी यानी
पत्नी के लिए
पति और पति
के लिए पत्नी
अधिक ख्यात, परिश्रमी
और दुनिया की
दौड़ में आगे
निकल जाता था
तो उसकी कीमत
दूसरा चुकाता था।
यह दुनिया का
उसूल है। पति
बहुत आगे निकला,
कीमत पत्नी ने
चुकाई। पत्नी ऊंची उठी
तो पति दुखी
हुआ लेकिन, इन
दोनों के बीच
यह सिलसिला खत्म
नहीं हुआ। चूंकि
यह रिश्ता टिका
ही अपेक्षा पर
है, इसलिए असंतोष
तो बना ही
रहेगा। किंतु आज परिवारों
में देखा जाता
है कि कामयाब
बच्चों के माता-पिता भी
बुढ़ापे में अकेले
रहने की कीमत
चुका रहे हैं।
उन्हें लगता है
कि जिन बच्चों
को हमने खूब
पढ़ा-लिखाकर योग्य
बनाया वे परिश्रम
और योग्यता से
आगे निकल गए
लेकिन, हमें क्या
मिला? एक सीमा
के बाद धन
और सुविधाएं भी
ज्वालामुखी का ढेर
लगने लगती हैं,
इसीलिए हर तीसरे
घर में कोई
बूढ़ा या बूढ़ी
अकेले पाएंगे। वृद्धावस्था
में यदि जीवनसाथी
में से एक
चला जाए तो
जो रह जाता
है, अकेलेपन का
दर्द वही जानता
है। इसलिए इस
अवस्था में आत्मा
पर टिकने के
प्रयास कर ही
लेना चाहिए और
वह संभव होगा
योग से। मेरा
तो सुझाव रहता
है कि वृद्धों
के लिए अलग
से योगसत्र आयोजित
किए जाएं। वहीं
वे अकेलेपन से
मुक्ति पा सकेंगे
वरना बुढ़ापा उनके
लिए और बोझ
बन जाएग।
भीतरी सफाई हमारी
आत्मिक जिम्मेदारी...
शरीर में तीन
केंद्र ऐसे हैं
जिनकी हमें आंतरिक
जागरूकता के साथ
सफाई करते रहना
चाहिए। साफ-सफाई
रखना राष्ट्रीय अभियान
तो बन गया
लेकिन, इसे निजी
निष्ठा बनाना जरूरी है।
हम अपने आसपास
के क्षेत्र को
साफ कर लें
यह हमारी नैतिक
जिम्मेदारी है। किंतु,
अपने भीतर के
कूड़े को भी
साफ करें यह
हमारी आत्मिक जिम्मेदारी
है। शरीर में
तीन केंद्र ऐसे
हैं जिनकी हमें
आंतरिक जागरूकता के साथ
सफाई करते रहना
चाहिए। एक, मस्तिष्क।
पढ़ने-लिखने के
इस दौर में
शिक्षा और जानकारी
कब मस्तिष्क के
कूड़े-करकट में
बदल जाए, आप
समझ ही नहीं
पाएंगे। दो, हृदय।
यहां भावनाएं इकट्ठी
होती रहती हैं
और इन्हें कचरा
बनने में देर
नहीं लगती। तीन,
मन- जो गंदगी
का ही अड्डा
है। इन्हें साफ
करने में कोई
झाड़ू या जेसीबी
नहीं लगती। ये
साफ होती है
एक खास ऊर्जा
से जिसका नाम
है जीवन ऊर्जा।
यदि इन्हें ठीक
से साफ नहीं
किया तो बीमारियां
तो आएंगी ही,
अकेलापन अलग घेर
लेगा। खूब पढ़े-लिखे, ख्यात और
जनसमूह से घिरे
लोग भी अकेलेपन
का शिकार हो
जाते हैं। आप
अकेले हो नहीं
सकते यह बात
स्वयं को समझाइए।
एक तो है
जीवन ऊर्जा और
दूसरी है कॉस्मिक
ऊर्जा जो ब्रह्मांड
में बह रही
है। जीवन ऊर्जा
से काम शुरू
किया कि कॉस्मिक
ऊर्जा उससे मिलने
आपकी ओर बह
निकलेगी। तब लगेगा
आप अकेले हो
ही नहीं सकते।
पूरा ब्रह्मांड, प्रकृति
की पूरी ताकत
और परमशक्ति स्वयं
आपके साथ है।
यहीं से अकेलापन
चला जाएगा। इसलिए
जब भी मौका
लगे, मस्तिष्क, हृदय
और मन को
धोते रहें। वरना
ये तीनों मिलकर
किसी बड़ी परेशानी
में डाल सकते
हैं।
योग के जरिये
व्यस्तता को खुशहाल
बनाएं...
छत्ते पर पत्थर
मारा जाए तो
फिर मीठा शहद
देने वाली ये
मक्खियां कितनी घातक हो
सकती हैं, इसे
कई लोगों ने
भुगता होगा। नियंत्रित
मन तो फिर
भी शहद का
छत्ता है लेकिन,
अनियंत्रित मन ध्वस्त
छत्ते से उड़ती
मधुमक्खी की तरह
होता है। छत्ते
पर पत्थर मारा
जाए तो फिर
मीठा शहद देने
वाली ये मक्खियां
कितनी घातक हो
सकती हैं, इसे
कई लोगों ने
भुगता होगा। बस,
मन भी ऐसा
ही है। शांत
है, सही जगह
लगा है तो
शहद दे देगा
वरना घाव देने
में नहीं चूकेगा।
बड़ी तेजी से
भागता और भगाता
है मन। इतना
दौड़ाता है कि
आप थक जाएंगे
और उस थकान
का नाम है
डिप्रेशन।
मन के कारण
लोगों ने फुर्सत
और व्यस्तता दोनों
का जमकर दुरुपयोग
किया है। यदि
मन नियंत्रित है
तो शरीर से
जो भी परिश्रम
करेंगे वह कृत्य
नहीं, निष्ठा होगी।
इसलिए मन पर
काम करने के
लिए थोड़ा योग
कीजिए। तब आपको
यह अंतर समझ
में आएगा कि
जो काम आप
करते हैं वही
मेहनत है। अपने
काम को तीन
हिस्सों में बांट
सकते हैं। एक
कर्म, दूसरा अतिरिक्त
कर्म और तीसरी
मेहनत। जितना मन पर
काम करेंगे, आपको
पता लग जाएगा
कि कर्म व
मेहनत का फर्क
ही खत्म हो
गया और आपकी
थकान जाने लगेगी।
लेकिन ऐसा तब
कर सकेंगे जब
यह उड़ता हुआ,
भागता हुआ मन
नियंत्रण में होगा।
वरना देखिए भारत के
गांवों में लोगों
को फुर्सत थी
लेकिन, वो भी
जीवन नहीं बना
पाए। शहरों में
लोग व्यस्त रहे,
वो भी परेशान
हुए, क्योंकि सारा
मामला मन का
है। यदि आप
फुर्सत में हैं
तो समय का
दुरुपयोग मत कीजिए
और व्यस्त हैं
तो समय को
नोच मत लीजिए।
थोड़ा मन पर
काम कीजिए, फिर
देखिए आपकी फुर्सत
भी निराली होगी
और व्यस्तता में
भी खुशहाली का
अहसास होगा।
धर्म का मतलब
है शांति के
साथ जीना...
कुछ लोग अपनापन
भी बड़े गजब
तरीके से निभाते
हैं। कांच का
मकान बनाकर दे
देंगे और आपको
लगेगा इन्होंने बड़ा
उपकार कर दिया।
लेकिन पूरे मोहल्ले
वालों के हाथों
में पत्थर भी
थमा देंगे। आप
समझ नहीं सकेंगे
कि आपका हित
हुआ है या
अहित। इन दिनों
व्यवसाय की दुनिया
में ऐसा ही
चल रहा है।
सरकार क्या कर
रही है, लोगों
को समझ नहीं
आ रहा। व्यापारियों
में आपसी विश्वास
डगमगाने लगा है।
पूरा बाजार ऐसा
हो गया है
कि लूटने वाले
को भी लग
रहा है मैं
लुट गया। व्यावसायिक
जीवन की इन
चुनौतियों का समाधान
अब बहुत अधिक
शरीर पर टिकने
से नहीं मिलेगा।
इसके लिए अपने
भीतर ऐसी यात्रा
करनी पड़ेगी जहां
एक महत्वपूर्ण पड़ाव
आत्मा का है।
चुनौतियां तो संसार
की हैं पर
आत्मिक स्तर से
निपटाएंगे तो यह
कठिन दौर भी
बीत जाएगा। रामचरित
मानस में तुलसीदासजी
ने समाज और
व्यवसाय का दृष्टिकोण
क्या हो, इसके
सूत्र भी दिए
हैं।
किष्किंधा कांड में
कुछ ऐसे इशारे
मिलते हैं, व्यावसायिक जीवन
की कई समस्याओं
का समाधान मिल
जाएगा। चूके नहीं,
क्योंकि धर्म का
मतलब है शांति
से जीना और
धन का मतलब
है अशांति का
आगमन।
रामबाण की तरह
इंद्रियां काबू में
रहे...
बिना इंद्रियों के जीवन
चल नहीं सकता।
इंद्रियां जितनी जरूरी हैं,
यदि ठीक से
उपयोग नहीं किया
तो उतनी ही
खतरनाक हो जाती
हैं.. भोग-विलास
केबीच रहकर अपने
आपको बचा लेना
बड़ा हिम्मत का
काम है। जब
सामने वैभव और
विलास हो तो
अच्छे-अच्छे संयमी
भी गलती कर
बैठते हैं। हमें
पतन के मार्ग
पर ले जाती
हैं हमारी इंद्रियां।
बिना इंद्रियों के
जीवन चल नहीं
सकता। इंद्रियां जितनी
जरूरी हैं, यदि
ठीक से उपयोग
नहीं किया तो
उतनी ही खतरनाक
हो जाती हैं।
लंकाकांड में जब
श्रीराम रावण के
दरबार में नृत्य
की आवाज सुनकर
तीर चलाते हैं
तो रावण के
छत्र-मुकुट और
मंदोदरी के कान
के कुंडल टूटकर
गिर जाते हैं।
श्रीराम ने तीर
यहां चलाया, निशाना
वहां लगा। ऐसा
कोई भी तीरंदाज
कर सकता है,
कमाल तो यह
था कि रामजी
का बाण वापस
आकर तरकश में
चला गया।
तुलसीदासजी
लिखते हैं- ‘अस
कौतुक करि राम
सर प्रबिसेउ आइ
निषंग। रावन सभा
ससंक सब देखि
महा रसभंग। ऐसा
चमत्कार कर रामजी
का बाण फिर
से तरकस में
जा घुसा। यह
देख रावण की
सभा भयभीत हो
गई। छोड़ा हुआ
तीर वापस जाए,
बोले गए शब्द
फिर आपके नियंत्रण
में जाएं ऐसा
कोई जादूगर ही
कर सकता है।
यहां हमें यह
समझना चाहिए कि
किस प्रकार तीर
गया, अपना काम
किया और वापस
नियंत्रण में गया।
रामजी सिखा रहे
हैं कि हमें
अपनी इंद्रियोंं का
उपयोग भी ऐसे
ही करना चाहिए।
उनको संसार में
विचरण के लिए
छोड़िए, आपकी आज्ञा
से ही वे
काम करें और
फिर पूरी तरह
नियंत्रण में हो
जाएं। इंद्रियों का
सदुपयोग ही हमें
ऐसी ही स्थिति
में ला सकता
है।
जीवनभर सीखना ही पूर्णता
पाने का मंत्र...
मार्कशीट जन्मकुंडली नहीं बन
जाती। बहुत ऊंचे
नंबर वाले भी
जीवन की यात्रा
के आरंभ में
पीछे पाए जाते
हैं। एक भविष्यवक्ता
किसी की भी
जन्मकुंडली को मार्कशीट
की तरह देखता
है और जो
भविष्य निर्माता होता है
यानी परिश्रमी व्यक्ति
अपनी मार्कशीट को
भी जन्मकुंडली में
बदल देता है।
सच तो यह
है कि जिसने
जीवन का अर्थ
सही समझ लिया
उसके लिए मार्कशीट
के मार्क्स ज्यादा
महत्व नहीं रखते।
मार्कशीट तैयार होती है
स्कूल, कॉलेज या विश्वविद्यालय
की चारदीवारी में।
यह कागज शिक्षा
की ललक, परिश्रम
और कभी-कभी
दबाव में तैयार
होता है। ऐसा
नहीं है कि
इसमें योग्यता नहीं
झलकती। यह एक
सहारा, एक आरंभ
है। मार्कशीट जन्मकुंडली
नहीं बन जाती।
बहुत ऊंचे नंबर
वाले भी जीवन
की यात्रा के
आरंभ में पीछे
पाए जाते हैं।
जीवन में एक
अलग ही ढंग
की मार्कशीट चलती
है जिसे तैयार
करता है ऊपर
वाला। समझदार लोग
जानते हैं हर
पल एक परीक्षा
है। सामान्य विद्यार्थी
परीक्षाएं पास करके
समझता है कि
मैं पढ़ा-लिखा
हो गया। यदि
वह इसी इरादे
से जीवन में
कूद गया तो
थक जाएगा। जीवन
हर पल परीक्षा
ले रहा है।
कौन-सा ऐसा
समय है जब
आप कुछ सीख
नहीं रहे होते?
जिसने सीखने के
मामले में अपने
को सदैव अधूरा
पाया वह एक
दिन वहां पहुंच
जाएगा जहां कोई
विरसी ही पहुंच
पाता है। इसलिए
लगातार प्रयास कीजिए वो
अंक पाने के
जो ऊपर वाले
की कलम से
निकलते हैं। उसकी
दी हुई मार्कशीट
हाथ में हुई
तो फिर कोई
भी भविष्यवक्ता जन्मकुंडली
देखकर बता सकेगा
आप कहां से
तैयार किए गए
हैं।
समझदारी के बिना
विद्वत्ता निरर्थक...
विद्वान और समझदार
में एक बारीक
फर्क होता है।
विद्वानों को प्रभावित
करने के लिए
विद्वान होना जरूरी
नहीं है। इतनी
सी समझदारी चाहिए
कि जो वो
चाहते हैं वैसा
कहीं से भी
लाकर अपनी वाणी
और व्यवहार में
प्रस्तुत कर दें
तो आप विद्वान
मान लिए जाएंगे।
विद्वत्ता के साथ
यदि समझदारी जुड़
जाए तो वह
सौ प्रतिशत लाभ
देती है। वरना
विद्वान से विद्वान
लोग भी जीवन
के अंतिम समय
में निराशा में
डूबे देखे गए
हैं। विद्वत्ता जब
सत्य को स्पर्श
करती है तो
उसे तोड़ नहीं
सकती, लेकिन सत्य
के जितने पहलू
हैं उनकी अभिव्यक्ति
में अंतर आने
से सत्य में
अंतर दिखने लगता
है। विद्वत्ता का
खेल अभिव्यक्ति पर
चलता है। जैसे
भगवान अपने भीतर
कई गुण समाए
रखता है। जिस
विद्वान की जिस
गुण में रुचि
होती है वह
उसी को भगवान
में से उजागर
करता है। इसीलिए
हर धर्म में
ईश्वर अलग-अलग
रूपों में गया।
जिसको जैसा अच्छा
लगा, उसने वैसा
ईश्वर बना दिया।
किसी ने जीवन
की परिभाषा मौज-मस्ती मान ली
तो विद्वान मौज-मस्ती पर भी
जमकर बोल लेता
है। विद्वत्ता यदि
अपने वाली पर
उतर आए तो
विलास और भोग
को योग से
जोड़कर परमात्मा की साधना
बना सकती है।
बच्चे जब पढ़-लिखकर विद्वान हो
जाएं तो उनको
समझ घर से
केवल माता-पिता
दे सकते हैं।
इसलिए विद्वान व्यक्ति
के साथ समझ
होना जरूरी है।
बिना समझ के
विद्वत्ता सूखे बारूद
जैसी है जो
थोड़ी सी गरमी
से विस्फोट में
बदल जाता है।
योग्यता को ईश्वर
से जोड़कर काबू
में रखें...
हम अपने बच्चों
को फार्मूला सॉल्व
करना सिखाते हैं
पर सॉल्यूशन को
ही फार्मूला बनाया
जा सकता है,
ऐसा नहीं सिखा
पाते। सॉल्यूशन यानी
समाधान अपने आप
में एक सूत्र
है। कभी-कभी
तो हम इतना
उलझ और केंद्रित
हो जाते हैं
कि समस्या के
आगे-पीछे देख
ही नहीं पाते।
शायद ही दुनिया
की कोई ऐसी
समस्या होगी जो
बिना समाधान के
आई हो। शिक्षित
व्यक्ति योग्य हो यह
जरूरी नहीं है।
इस आधुनिक युग
में सभी ने
मान लिया है
कि कुछ कठिन
असामान्य काम ही
करेंगे, इसमें योग्यता की
बहुत जरूरत है।
लेकिन योग्यता के
साथ एक खतरा
है अहं का।
श्रेष्ठत्व की भावना
आते ही योग्यता
आवारगर्दी में बदल
जाती है। अनियंत्रित
योग्यता अपराध भी करा
सकती है। योग्यता
को नियंत्रित करना
हो तो उसे
परमात्मा से जोड़
दीजिए। जब सभी
लोग कठिन काम
करने में लगे
हों तब एक
आसान काम है
भगवान से जुड़ना।
दुनिया में सबसे
सहज कोई है
तो वह है
ईश्वर। श्रद्धा, भरोसा, समर्पण
इनमें तो योग्यता
लगती है, ताकत।
और जब ईश्वर
मिल जाता है
तो मुश्किल से
मुश्किल काम भी
आसान हो जाते
हैं। बिना ईश्वर
से जुड़े कोई
योग्य नहीं हो
सकता। खासतौर पर
बच्चों को यह
जरूर सिखाएं कि
उनके पास हर
बात का समाधान
है। लेकिन, उस
समाधान को ढूंढ़ने
की जो दृष्टि
है वह किसी
किताब, किसी तकनीक
से नहीं बल्कि
ऊपर वाले की
कृपा से ही
मिल सकती है।
इसलिए स्वयं को
उस परमशक्ति से
अवश्य जोड़कर रखें।
कर्म को मन
से हटाकर हृदय
से जोड़ें...
अच्छे इनसान के पास
सबसे बड़ा साधन
उसकी अच्छी नीयत
होती है। आजकल
लोग नीयत के
मामले में बड़े
लापरवाह हैं। जिसकी
नीयत अच्छी होती
है, उसका साथ
नियति भी देती
है। सवाल उठता
है कि नीयत
अच्छी कैसे रखें?
इसमें सबसे बड़ी
बाधा है मन।
वह जब किसी
कृत्य से जुड़ता
है, सबसे पहले
परिणाम पर टिक
जाता है कि
इससे मिलेगा क्या?
यदि मन तय
कर ले कि
परिणाम ये ही
मिलना चाहिए तो
फिर वह गलत
रास्ते के लिए
प्रेरित करता है।
यहीं से नीयत
डगमगाने लगती है।
जिन्हें नीयत अच्छी
रखना हो उन्हें
अपने कर्मों को
मन से हटाकर
बुद्धि और हृदय
से जोड़ना चाहिए।
ऐसा तब होगा
जब मन का
हस्तक्षेप मिटेगा। हिंदू धर्म
में हवन की
पद्धति है। हवन
एक ऐसी क्रिया
है जिसमें समूचा
विज्ञान ऊर्जा देने के
लिए उतरा है।
इसमें जब अग्नि
प्रज्ज्वलित होती है
तो मंत्रों द्वारा
यह भी आह्वान
किया जाता है
कि उसके भीतर
का तेज हमें
अपने स्थान पर
खड़ा रहने के
लिए शक्ति दे।
अग्नि को वैराग्य
का देवता माना
गया है। उसके
भीतर की तेजस्विता
हममें आत्मविश्वास पैदा
करती है। इसलिए
आपका संबंध किसी
भी धर्म से
हो, अग्नि के
माध्यम का उपयोग
जरूर करें। हवन
करते समय जब
अग्नि और मंत्र
को जोड़ते हैं
तो परिणाम शत-प्रतिशत पॉजीटिव मिलते
हैं और भीतर
एक ऐसी ताकत
आ जाती है
कि फिर आप
अपनी ही नीयत
के प्रति दृढ़
होते हैं और
दूसरे उसका बहुत
अधिक मान करते
हैं।
स्वतंत्रता
अभिनय नहीं, हमारा
जीवन हो...
आज़ादी का सही
मतलब समझकर उसे
टिका तब ही
पाएंगे जब सद्गुणों
के साथ अच्छे
इनसान बनें। जमाने
के सामने बड़ी
सत्ता पर बैठ
जाएं, लोगों की
नज़र में एक
समर्थ, ख्यात व्यक्ति हो
जाएं लेकिन, भीतर
से अपने ही
दुर्गुणों से बंध
जाएं, यह एक
प्रकार की भीतरी
गुलामी है। आज़ादी
का सही मतलब
समझकर उसे टिका
तब ही पाएंगे
जब सद्गुणों के
साथ अच्छे इनसान
बनें। अधिकतर लोग
यहां चूक जाते
हैं। हमारे पास
अपनी सरकार है,
अंग्रेज जा चुके
लेकिन, भीतर से
अपने ही गुलाम
बने हुए हैं।
समझ में ही
नहीं आता हम
किस सत्ता से
संचालित हो रहे
हैं। लंका कांड
के एक प्रसंग
में रामजी ने
जब रावण के
छत्र-मुकुट गिराए
तो सारे लोग
भयभीत हो गए।
ऐसे भयभीत लोगों
को वह सही
बात बताकर अपनी
हंसी से भ्रमित
कर रहा था।
यहां तुलसीदासजी ने
लिखा, ‘दसमुख देखि सभा
भय पाई। बिहंसि
बचन कह जुगुति
बनाई।। सिरउ गिरे
संतत सुभ जाही।
मुकुट परे कस
असगुन ताही।। अर्थात-
सभा को भयभीत
देख रावण हंसकर
युक्ति रचते हुए
बोला, जिसके लिए
सिरों का गिरना
भी शुभ होता
रहा हो, उसके
लिए मुकुट गिरने
में कैसा अपशकुन?’
रावण की तरह
जो लोग भीतर
से दुर्गुणों से
संचालित होते हैं
वे बाहर ऐसा
ही अभिनय करते
हैं। स्वतंत्रता अभिनय
नहीं, हमारा जीवन
होना चाहिए। हम
लोग भी अपने
आपको कुछ ऐसा
समझा लेते हैं
कि अब हम
हर बात के
लिए स्वतंत्र हैं।
लेकिन यदि भीतर
से गुलाम हैं
तो बाहर की
यह स्वतंत्रता किसी
काम की नहीं
और इसीलिए देश
में अशांत लोगों
की संख्या बढ़ती
जा रही है।
आपकी सफलता शांति
के साथ हो
तो समझना आज
सचमुच सही स्वतंत्रता
दिवस मनाया, वरना
आप भी रावण
की ही तरह
भ्रमित हो रहे
हैं और होते
रहेंगे।
प्रेम यानी शरीर
से आत्मा तक
की यात्रा..
आज के बच्चों
के लिए तो
प्रेम के मतलब
ही बदल गए।
शरीफ किस्म की
नई पीढ़ी के
लिए प्रेम आकर्षण
है। प्रेम को
नापने का कोई
पैमाना नहीं होता,
यह बात सही
है। लेकिन प्रेम
को समझने का
तरीका हो सकता
है और होना
भी चाहिए, यह
उससे भी ज्यादा
सही है। आज
के बच्चों के
लिए तो प्रेम
के मतलब ही
बदल गए। शरीफ
किस्म की नई
पीढ़ी के लिए
प्रेम आकर्षण है।
जो कुछ बिगड़े
हुए हैं उनके
लिए यह सिर्फ
वासना है। प्रेम
स्त्री-पुरुष के बीच
ही हो, यह
भी प्रेम का
गलत अर्थ है।
असल में प्रेमपूर्ण
होना किसी भी
व्यक्तित्व की पूर्णता
है। मनुष्य के
भीतर प्रेम चार
जगह फैला हुआ
है- शरीर, मस्तिष्क,
हृदय और आत्मा।
शरीर पर प्रेम
का आरंभ तो
हो जाएगा पर
यहां रुकना नहीं
है। जो लोग
शरीर पर प्रेम
के प्रयोग करेंगे
उनके सान्निध्य में
जो भी आएगा,
उसके व्यक्तित्व में
निखार आएगा। प्रेम
की शुरुआत शरीर
से कर रहे
हैं तो प्रयास
करें कि साथ
जो भी रहे
उसे आपके व्यक्तित्व
से कुछ मिले।
फिर धीरे-धीरे
प्रेम मस्तिष्क में
प्रवेश करेगा। प्रेम शरीर
पर लंबे समय
टिका तो भोग
की मांग करेगा।
मस्तिष्क में शोषण
की इच्छा रखेगा।
जैसे ही प्रेम
को हृदय पर
लाएंगे, फिर लेने
की मांग नहीं,
देने के लिए
तैयार रहेगा, क्योंकि
हृदय समर्पण में
रुचि रखता है।
प्रेम को आगे
ले जाना हो
तो आत्मा तक
जाना पड़ेगा। प्रेम
के यहां पहुंचने
पर दूसरे के
अस्तित्व में आपका
अहसास जागने लगता
है, तृप्ति-सी
महसूस होती है।
बस, यहीं प्रेम
पूर्ण होने लगता
है। फिर उसमें
मिलन हो या
विरह, तृप्ति जरूर
बनी रहती है।
जिन्हें प्रेम को समझना
हो उन्हें योग
से जरूर गुजरना
चाहिए।
अपनी छवि और
गहराई पर काम
करते रहें...
आपकी छविआपका लेबल और
गहराई लेवल है।
छवि यानी लेबल
आपके परिश्रम और
ईमानदारी से तैयार
होने दीजिए। संसार
आपको छवि से
पहचानता है। यदि
सचमुच छवि निर्दोष
रखना चाहते हैं
तो लेबल के
अलावा लेवल (गहराई)
पर भी काम
कीजिए, जो कि
धैर्य विवेक से
तैयार होता है।
संसार में छवि
काम करती है
लेकिन, जब अपने
भीतर उतरते हैं,
ईश्वर की खोज
में जाते हैं
तो वहां लेवल
काम करता है।
आपकी छवि गहराई
से प्रभावित होनी
चाहिए और उस
गहराई में कहीं
कहीं परिश्रम और
ईमानदारी का भी
स्वाद हो। बाहर
हम जो भी
कर्म या श्रम
करते हैं उससे
भीतर की केमिस्ट्री
बदलती है। हमारे
भीतर एक पूरा
रसायन शास्त्र है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
स्त्री-पुरुष में केवल
इंद्रियों का फर्क
नहीं होता बल्कि
उनके भीतर की
केमिस्ट्री में भी
बड़ा अंतर होता
है। बाहर की
स्थितियां पुरुष के भीतर
की केमिस्ट्री को
अलग ढंग से
प्रभावित करेंगीं और स्त्री
को अलग तरीके
से। बाहर की
दुनिया गणित से
और भीतर की
केमिस्ट्री से चलती
है। केमिस्ट्री जो
प्रतिपल बदल सकती
है, उसे भीतर
सावधानी से संभालें।
बाहर कर्मकांड और
भीतर ध्यान करिए।
कर्मकांड का संबंध
परिश्रम और ध्यान
का काव्यात्मक है।
इसलिए आप पाएंगे
कि हमारे कुछ
धर्मशास्त्र काव्य में लिखे
गए हैं। कविता
का प्रवाह भीतर
और गणित के
सारे समीकरण बाहर
ले जाते हैं।
इसलिए व्यस्तता के
इस दौर में
शांति से अपने
लेबल और लेवल
को चेक करते
रहिए।
नदी की तरह
हमारे जीवन का
अंत हो...
अंतिम सांस यह
घोषणा करे कि
मैंने जो जीवन
जीया, जमकर जीया
और अब पूरे
संतोष से साथ
छोड़ रही हूं।
मृत्यु आने पर
जीवन को तृप्ति
मिलना चाहिए। अंतिम
सांस यह घोषणा
करे कि मैंने
जो जीवन जीया,
जमकर जीया और
अब पूरे संतोष
से साथ छोड़
रही हूं। तैयारी
ऐसी हो कि
मृत्यु आने पर
भीतर नदी जैसी
अनुभूति हो। जब
नदी किसी महासागर
से मिलती है
उसके बहाव में
सागर से मिलने
का उल्लास होता
है। हम भी
मृत्यु को महासागर
मानें और जीवन
को नदी की
तरह बहाते हुए
यह तैयारी रखें
कि एक एक
दिन सागर से
मिलना ही है।
उससे मिलने का
जो उत्साह है
उसका माध्यम मृत्यु
है। इसलिए जिस
दिन मौत आएगी,
आप तृप्त होंगे
कि इसी दिन
का तो इंतजार
था। लोग मौत
के भय से
भी टूट जाते
हैं, क्योंकि जीवन
सही ढंग से
जीया नहीं। मृत्यु
पहली बार ही
जीवन में आएगी
और वही जीवन
का अंत होगा।
एक प्रयोग करते
रहें- जीवन में
जो-जो पहली
बार घटा हो
उसकी सूची बनाएं
और बार-बार
पढ़ें। जैसे आपके
निजी, पारिवारिक और
सामाजिक जीवन में
किसी का पहला
स्पर्श कब हुआ?
स्कूल-कॉलेज गए
तो पहले दिन
क्या हुआ, आपका
मित्र कौन बना?
नौकरी में पहला
व्यक्ति कौन मिला?
पहली बार यदि
चांटा खाया तो
वह हाथ किसका
था? जीवन में
पहली बार घटी
ऐसी घटनाओं को
सूचीबद्ध कर फिर
उसे मृत्यु से
जोड़िए। सोचिए कि जिस
प्रकार पहली बार
जो-जो हुआ
और उससे जो
सुख मिला वैसा
ही सुख पहली
बार आकर मृत्यु
भी देने वाली
है। फिर देखिए,
मौत के दिन
का उत्साह और
आनंद ही बदल
जाएगा।
गृहस्थी में समर्पण
व समझ आवश्यक...
यदि आप विवाहित
हैं, घर-गृहस्थी
का दायित्व है
तो जीवन हर
दृष्टि से सहयोग,
समर्पण और समझ
की अपेक्षा करता
है। पेड़ की
देखभाल करने के
लिए उसे सभी
तरफ से संभालना
पड़ता है। केवल
जड़ पर काम
करें तो डाली
व फूल बिखर
सकते हैं, मुरझा
सकते हैं। केवल
फूल संभाल लें,
डालियों की देखभाल
कर लें तो
जड़ों को नुकसान
हो सकता है।
यदि आप विवाहित
हैं, घर-गृहस्थी
का दायित्व है
तो जीवन हर
दृष्टि से सहयोग,
समर्पण और समझ
की अपेक्षा करता
है। लंका कांड
में रावण जब
किसी की नहीं
सुन रहा था
तो यह काम
बड़ी बुद्धिमानी से
उसकी पत्नी मंदोदरी
अपने हाथ में
लेती है, जिस
पर तुलसीदासजी ने
लिखा- ‘सजल नयन
कह जुग कर
जोरी। सुनहु प्रानपति
विनती मोरी।। कंत
राम बिरोध परिहरहू।
जानि मनुज जनि
हठ मन धरहू।।
बिस्वरूप रघुबंसमनि करहु बचन
बिस्वासु। लोक कल्पना
बेद कर अंग-अंग प्रति
जासु।।’ अर्थात नेत्रों में
जल भरकर हाथ
जोड़ते हुए मंदोदरी
कहती है- हे
प्राणनाथ, मेरी बात
मानते हुए श्रीराम
से विरोध छोड़
दीजिए। उन्हें मनुष्य समझकर
हठ मत करिए।
रघुकुल शिरोमणि श्रीराम विश्वरूप
हैं। वेद जिनके
अंग-अंग में
लोकों की कल्पना
करते हैं। यहां
मंदोदरी ने तीन
काम किए- नेत्रों
में आंसू आए
मतलब वह बहुत
संवेदनशील थी, दोनों
हाथ जोड़ने का
मतलब है विनम्रता
भी रखी और
तीसरी बात, विश्वास
दिलाया। पति-पत्नी
का रिश्ता टिका
ही संवेदना, विनम्रता
और विश्वास पर
है। जिस प्रकार
रावण अपने परिवार
को तोड़ने पर
तुल गया था,
ऐसी भूल हम
न करें। चाहे
पति पत्नी को
समझाए या पत्नी
पति को, मंदोदरी
जैसी बुद्धिमानी आज
भी बहुत जरूरी
है।
सफल होना है
तो खुद को
दांव पर लगाएं...
हिम्मत ऐसी बनाएं
जैसे ईश्वर को
पाना है। कोई
भी काम करें,
पूजा की तरह
डूब जाएं। हवाई
जहाज में सफर
करते हुए यदि
जान खतरे में
पड़ जाए तो
बचाने के नियम
बिज़नेस क्लास और इकोनॉमी
वालों के लिए
समान रूप से
लागू होंगे। ज़िंदगी
की दौड़ या
सफर में भी
ऐसा ही है।
आपके लक्ष्य भले
ही दूसरों के
मुकाबले कम बड़े
हों, कोई बड़ा
अभियान नहीं हो
लेकिन, सफलता प्राप्त करना
हो तो बड़े
व्यक्ति जितनी ही ताकत
लगानी पड़ेगी। जान
बचाना और दांव
पर लगाना दो
अलग-बातें हैं।
जान दांव पर
लगाने में दो
बातें जरूरी हैं-
हिम्मत और गणित।
जान बचाने में
तो आप भाग
सकते हैं, छिप
सकते हैं, पीछे
हट सकते हैं
लेकिन, जब दांव
पर लगाई हो
तो हिम्मत चाहिए।
धर्मशास्त्रों में लिखा
है कि परमात्मा
को प्राप्त करना
हिम्मत का काम
है। जान दांव
पर लगाने जैसा
है। जैसे अंधेरे
में चलते हैं
तो हिम्मत चाहिए
और उजाले में
गणित की जरूरत
होती है। संसार
में जब आप
सफलता की राह
पर बढ़ेंगे तो
उजाला भी होगा
अौर अंधेरा भी
मिलेगा। इसके लिए
कुछ सांसारिक गणित
बैठाने पड़ेंगे। हिम्मत भी
जुटानी पड़ेगी। हिम्मत ऐसी
बनाएं जैसे ईश्वर
को पाना है।
कोई भी काम
करें, पूजा की
तरह डूब जाएं।
जैसे सच्चा भक्त
भगवान को पाने
के लिए विरह
में भी आनंद
उठाता है ऐसे
ही असफलता को
भी सफलता का
हिस्सा मान टूट
पड़ें। जब तक
खुद को दांव
पर नहीं लगाएंगे,
ठोस सफलता नहीं
मिल पाएगी। डटकर
उतनी ही मेहनत
कीजिए जितनी बड़े
काम वाला कर
रहा है। सफलता
के नियम दोनों
पर एक जैसे
ही लागू होंगे।
बदलाव में संकल्प
शक्ति से शांति
पाएं..
शांति इस बात
पर भी निर्भर
करती है कि
हम जीवन में
हो रहे बदलावों
को कैसे लेते
हैं। बदलाव तीन
पायदान से होकर
गुजरता है। हर
परिवर्तन का एक
भूतकाल है, फिर
वह अपने वर्तमान
से गुजरता है
और उसके बाद
भविष्य में पहुंचता
है। इन तीनों
समय हमारे साथ
कुछ घटता है।
भूतकाल का परिवर्तन
कुछ दबाव बनाता
है। यदि आप
किसी काम में
सफल हो सके
हों तो उसका
दबाव बन जाता
है। यदि सफल
हो गए तो
सफल कैसे बने
रहें उसका भी
प्रेशर साथ चलता
है। वर्तमान में
आकर यही दबाव
चिंता में बदल
जाता है। दबाव
चिंता का मिला-जुला नतीजा
तनाव में होता
है, जो पूरा
भविष्य बिगाड़ देता है।
भविष्य में सफल
होने का तो
तनाव होता ही
है, सफल होने
पर भी बना
रहता है। कुल-मिलाकर दबाव, चिंता,
तनाव हमारे परिवर्तन
में साथ चलते
रहते हैं। लगातार
बदल रहे इस
युग में यदि
आप हर हाल
में खुश रहना
चाहें तो रात
को सोते समय
और सुबह उठने
के बाद खुद
को समझाएं कि
इस बदलाव में
हमारी ओर जो
भी रहा होगा
वह श्रेष्ठ होगा,
बेहतर होगा और
जो जा रहा
होगा वह नि:कृष्ट होकर हमारे
किसी काम का
नहीं होगा। ऐसी
सोच से तनाव
तो आएगा लेकिन,
साथ शांति भी
आएगी। हर बदलाव
में शांति की
खोज जारी रखें।
कई चीजें ऐसी
बदलेंगीं जिन पर
आपका कोई अधिकार
नहीं। लेकिन अपनी
संकल्प शक्ति, सोच पर
आपका अधिकार है
और इसे लेकर
तैयार रहें कि
हर परिवर्तन में
जो भी शुभ
होगा, वह हमारे
पास जरूर आएगा।
जो भी इसमें
अच्छा लगे वो
मेरे गुरू का
प्रसाद है,
और जो भी
बुरा लगे वो
मेरी न्यूनता है...
मनीष
ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव
कल्याणदेव जी....
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