Sunday, June 10, 2018

जीवन जीने की राह (Jeevan Jeene Ki Rah6)

बुढ़ापे में स्मृतिदोष से बचाए ॐ का उच्चारण
सबको सबकुछ याद नहीं रहता और रखना भी नहीं चाहिए। कुछ बातों को भुला देने में ही शांति है, स्वास्थ्य है। बुढ़ापा आने पर उसका आक्रमण शरीर के जिन हिस्सों या स्थिति पर होता है उनमें से एक है याददाश्त। इस अवस्था में अच्छे-अच्छों को स्मृति दोष हो जाता है। चिकित्सा विज्ञान इसे अलग-अलग बीमारी का नाम देता है। पार्किंसन्स ऐसी ही बीमारी है। जिसे भी लगती है, पूरे घर के लोग परेशान हो जाते हैं। इससे मुकाबले के लिए मेडिकल साइंस में बहुत शोध हो रहा है। बुढ़ापा सभी को आना है। इससे कोई नहीं बच सकता, इसलिए जब वृद्धावस्था की दस्तक होने लगे तो विचारशून्य होने की आदत डालिए। इस दौर में जब स्मृति दोष की बीमारी लगती है उस समय विचार उलझ जाते हैं और आप भूलने लगते हैं। यहां विचारशून्यता का अर्थ भी भूलना है, पर वह भूलना उलझने के बाद है और यह भूलना सुलझने के बाद। विदेशों में इस बात पर शोध चल रहा है कि जिनको पार्किंसन्स या ऐसी कोई बीमारी हो जाती है उनके मस्तिष्क में बाहर से कोई यंत्र लगा दिया जाए। मस्तिष्क में कुछ ऐसी तरंगें पैदा कर दी जाएं, जिनसे स्मृति दोष दूर हो सके। हमारे ऋषि-मुनियों ने ऐसी तरंगें पैदा करने के लिए ॐ का उच्चारण बताया है। आज भी विदेशों में कई वैज्ञानिक ॐ के उच्चारण को लेकर शोध कर रहे हैं। ॐ में तीन वर्ण हैं- अ, उ और म। वेदों का सार है इसमें और इसके उच्चारण से मस्तिष्क में फिर वही प्रवाह पैदा हो सकता है जो आज चिकित्सा वैज्ञानिक किसी यंत्र द्वारा पैदा करना चाह रहे हैं। योजनाबद्ध ढंग से वृद्धों से आग्रह किया जाए कि समय का एक बड़ा हिस्सा ॐ की ध्वनि के साथ बिताएं। यह प्रयोग वृद्धावस्था के स्मृति दोष से छुटकारा देने में बड़ा मददगार होगा।

कंठ पर ध्यान करके सहनशीलता बढ़ाएं
अपनी शक्ति को सहनशक्ति में बदलना एक कला है। यह है तो बड़ा कठिन काम पर जिसने सावधानी से कर दिया वे जीवन का भरपूर आनंद उठा सकते हैं। हम समाज में, परिवार में सदैव स्वतंत्र व स्वछंद नहीं रह सकते। परिवार में रिश्तों के कारण और कामकाज की जगह अपने व्यावसायिक लक्ष्य के कारण बहुत कुछ सहन करना पड़ता है। हो सकता है आप आफिस में बॉस को सहन कर रहे हों, अधीनस्थ कर्मचारियों को बर्दाश्त कर रहे हों। ऐसे ही हालात घर में भी बन जाते हैं। पति को लगता है पत्नी को सहन कर रहा हूं, पत्नी समझती है मैंने बहुत सहन किया इसीलिए गृहस्थी चल पा रही है। ये ही दृश्य दूसरे रिश्तों में भी हो जाते हैं। ध्यान रखिए, सहन करना बहुत अच्छी बात है। लेकिन यदि ठीक से सहन करने की कला न आई तो आप दो नुकसान उठाएंगे- संबंधों का और स्वास्थ्य का। सहनशीलता अपने भीतर उतारने के लिए थोड़ा दमन करना पड़ता है। यहां दमन का अर्थ दबाना नहीं, बल्कि अपने मन को मोड़ना है। योग में इसकी बहुत अच्छी विधि बताई गई है। हमारे शरीर में सात चक्र हैं। हर चक्र का अपना स्वभाव, प्रभाव, रंग, फूल व तत्व है। कंठ वाला चक्र है विशुद्ध, जिसका स्वभाव सहनशीलता, फूल मोगरा और तत्व आकाश है। जैसे ही ध्यान कंठ में लगाकर कल्पना करेंगे कि मैं इस समय विशुद्ध चक्र पर टिका हूं और आपका जो भी मंत्र हो, कोई और न हो तो हनुमान चालीसा का जप कर लीजिए। इसकी प्रत्येक पंक्ति मंत्र है। हर चौपाई जब मंत्र के रूप में विशुद्ध चक्र पर जुड़ेगी तो पाएंगे धीरे-धीरे आपकी सहनशीलता बढ़ती जाएगी। ऐसी सहनशीलता जो संबंधों को दबाव में नहीं लाएगी और खुद दबाव में आकर अपना स्वास्थ्य नहीं बिगाड़ेंगे। सहन करना सीखिए, अच्छा समय आपकी प्रतीक्षा कर रहा है।

धन-यश पाने के बाद मौन को साधें
जिनके पास बहुत अधिक समृद्धि होती है, उनके पास समस्याएं भी उतनी ही ज्यादा होंगी। परेशानियां मनुष्य का पीछा नहीं छोड़तीं, अशांति अंगद की तरह पैर जमाए खड़ी रहती है। आज जिसे देखो वह सफलता और शांति के पीछे दौड़ रहा है। दौड़ना भी चाहिए। कुछ न कुछ सभी को पाना है। भौतिक जगत में सबकुछ कमाने के लिए जो परिश्रम किया और बहुत कुछ मिल जाने के बाद भी परेशान हैं तो एक प्रयोग करिएगा। शांति से बैठकर सोचिएगा कि एक दिन आपके पास वह नहीं था जो आज है।

इस बात को धन-दौलत से न जोड़ें। जोर इस बात पर दीजिए कि तब आपकी पहचान नहीं थी। कोई आपको नहीं जानता था। धीरे-धीरे पहचान बनी और आपने बहुत कुछ पा लिया। अब, जब बहुत कुछ पा लिया है तो पुन: उस शून्य में जाएं जहां कुछ नहीं था। बहुत कम लोग आपको जानते थे, माता-पिता के साये में सुरक्षित थे। थोड़ी देर सोचिए कि जब कुछ नहीं था तब भी आप थे और आज सबकुछ है तब भी आप हैं, लेकिन कहीं खो गए हैं। पहले अपने को ढूंढ़िए। यह काम दो चरण में करें।

पहला अपने उस होने को पकड़ें जो आप वर्षों पहले थे। वहां एक शून्य पाएंगे। दूसरी बात, जो आपने अभी पाया है उसका ठीक से अनुभव करें। इन दो चरणों के लिए मौन बहुत जरूरी है। योग का एक चरण मौन है। किसी ने बिल्कुल ठीक कहा है कि भगवान को सबसे ज्यादा भक्त का मौन सुनाई देता है। चौबीस घंटे में कुछ समय मौन साधें, अपने पुराने शून्य को ढूंढ़े और आज जो उपलब्ध है उसमें कुछ ऐसा है जिस पर आपकी नज़र नहीं जा रही हो उसे प्राप्त कर लें। फिर देखिए, जितनी दौलत, समृद्धि, नाम-प्रतिष्ठा कमाई है वह आपको अशांत नहीं कर पाएगी। यदि आप अशांत हैं तो ये सब किसी काम के नहीं होंगे।

संबंधों में विश्वसनीयता पर ध्यान दें
संबंध बनाते समय ध्यान रखिएगा कि कुछ को उजागर रखना है और कुछ को गोपनीय। नेटवर्किंग के इस जमाने में ऐसा माना जाता है कि जिसकी नेटवर्किंग तगड़ी है वह जल्दी सफल होगा। संबंधों के माध्यम से सफलता अर्जित करना हो तो एक शब्द ध्यान में रखें- ‘सार्थकता। हर संबंध आपसे कुछ लेता भी है और देता भी। इसकी तुलना समझदारी से कीजिए। जिससे भी संबंध बनाएं तो ध्यान रखिएगा वह आपकी अनुपस्थिति में आपको क्या लाभ दिला सकता है। मौजूदगी में तो वह लिहाज अथवा दबाव में आकर फायदा पहुंचाने का प्रयास करेगा ही। संबंधों की सही कसौटी यह होगी कि जब आप न हो तब वह आपके बारे में सकारात्मक सोचे, बोले, आपकी प्रशंसा करे, आपका हित चाहे। दूसरों के सामने आपके प्रति एक ऐसा नज़रिया पेश करे कि लोग आपको लाभ पहुंचाने को आतुर हो जाएं। इस मामले में शरीर से सीखिए। ऊपर वाले ने शरीर तंत्र कुछ ऐसा बनाया है कि एक अंग दूसरे को फायदा पहुंचाता है और फायदा लेता भी है। अंगों का आपस में तालमेल नहीं बैठे तो बीमारी आना ही है। अध्यात्म सिखाता है, जिस प्रकार आप शरीर के प्रति जागरूक हैं, हर अंग का उपयोग क्या और कैसे करना यह जानते हैं, ऐसा ही मनुष्यों के साथ कीजिए। अच्छी नेटवर्किंग का यानी आपकी अनुपस्थिति में आपके लिए हितकारी व्यक्ति से संबंध। संबंध बनाते समय अपनी छवि को मांजते रहें। जब आप संबंध बना रहे हैं तब दूसरा भी आपसे यही कर रहा होता है। आपके संबंधों को लेकर उसके पास कोई मापदंड है और वहां आपकी छवि बड़ा काम करेगी। यहां दो बातें और महत्व रखती हैं- आपका व्यवहार व विश्वसनीयता। संबंध बनाते वक्त छवि के साथ व्यवहार और विश्वसनीयता पर भी जरूर काम कीजिए।

प्रेम बेटी जैसा दें पर दर्जा बहू का ही हो...
जीवन अपने आपमें एक यात्रा है। इसमें कई छोटी-छोटी यात्राएं और चलती रहती हैं। पुरुष और स्त्री की इस यात्रा में एक जगह भेद आ जाता है। स्त्री एक ऐसी यात्रा करती है, जो पुरुषों को नहीं करनी पड़ती। वह है मायके से ससुराल की। चूंकि स्त्री एक लंबी यात्रा करके आती है, इसलिए उसके सामने खुद को एक नए माहौल में ढालने की चुनौती होती है। मेरे संपर्क में कई परिवार हैं, जो कहते हैं हम अपनी बहू को बेटी की तरह रखते हैं। सोचने की बात यह है कि उन्हें ऐसा कहने की जरूरत क्यों पड़ती है? बहू को बहू रहने दीजिए। उसके बेटी होने का स्थान और समय अलग है। वह माता-पिता के साथ बेटी के रूप में तैयार हुई और बहू बनकर आपके घर आई इसमें जमीन-आसमान का फर्क है। बहू को बेटी क्यों बनाया जाए? उसे बहू की तरह ही प्रेम और मान दें। किसी भी स्त्री के जीवन में बेटी होते समय पुरुष या तो पिता या भाई के रूप में होता है। विवाह के बाद जीवनसाथी के रूप में एक और पुरुष जुड़ जाता है और यहीं से सारे दृश्य बदल जाते हैं। एक बेटी के रूप में उसने पिता का घर देखा था, जो पूरा ही उसका था। लेकिन बहू बनते ही ससुराल में दो महत्वपूर्ण कक्ष जीवन में आते हैं- रसोईघर और शयनकक्ष। किचन और बैडरूम के इस तूफान से निपटने की तैयारी बेटी बनकर नहीं हो सकती। उसका सामना बहू बनकर ही किया जा सकता है, इसलिए बहू को प्रेम तो उतना ही दिया जाए जितना बेटी को दिया जाता है लेकिन, दर्जा बहू के रूप में ही हो। भारत की पूंजी यहां के परिवार है और परिवारों के टूटने का एक कारण इस यात्रा की थकान भी है। ध्यान रखिए, इस यात्रा के बाद स्त्री का सम्मान और उसे दिया जाने वाला प्रेम घटना नहीं चाहिए। तब ही परिवार बच सकेंगे।

अपनों से साझा करें अशांति का कारण
अशांति भी एक आदत बन जाती है। कई लोग पूरा जीवन अशांति में ही निकाल देते हैं। विचार कीजिए, हमारे पास जिंदगी में कुछ बातें या चीजें नहीं होती हैं। उन चीजों या स्थितियों की तलाश में निकलते हैं, उन्हें पाने के लिए घोर परिश्रम करते हैं। चूंकि कोई वस्तु, पद या धन पाना है तो बेचैनी स्वाभाविक है। खूब श्रम करने के बाद अशांत हो जाएं तो कोई बात नहीं लेकिन चौंकाने वाली स्थिति तो वह है कि बहुत दौड़-भाग के बाद वांछित वस्तु प्राप्त हो जाए तब भी हम शांत नहीं हों। अभाव में अशांति थी, उसके बाद प्राप्ति में भी अशांति है। इसका मतलब है अशांत रहना हमारी आदत हो गई है। जब अशांत होते हैं तो उस अशांति का कारण बाहर ढूंढ़ते हैं। कभी भीतर उतरकर देखिए। पाएंगे, आपकी अशांति का कारण आपका ही मन है। मन से चाहत की तरंगें लगातार निकलती रहती हैं। मन सत्य के प्रति संदेह रखने में बड़ा माहिर होता है और ऐसा करते-करते धीरे-धीरे हमारी अशांति का कारण बन जाता है। कारण हमारे भीतर है, इलाज बाहर ढूंढ़ रहे हैं। यहां से अशांति और बढ़ती जाती है और धीरे-धीरे आदत ही बन जाती है। घर-परिवार में खुशी का कोई मौका हो लेकिन, मन अपनी हरकतों से अशांत कर देगा। आसपास के लोग प्रसन्न होंगे और आप अशांत..। जब भी लगे कि आप अशांत हैं तो एक प्रयोग जरूर कीजिएगा। आस-पास जो भी आपके अपने, विश्वसनीय लोग हैं उनमें अपनी अशांति का कारण जरूर बांटिए। मन तो यहां भी रोकने का प्रयास करेगा परंतु कोई न कोई ऐसा होना ही चाहिए, जिसे आप अपनी अशांति का कारण बता सकें। ऐसा नहीं हुआ तो मन अशांति का संग्रह कर हो सकता है आपको कोई ऐसी बीमारी दे दे जिसका आपके पास कोई इलाज ही न हो।

समय व स्वास्थ्य में संतुलन है कम्फर्ट जोन...
आधुनिक प्रबंधन में कहा जाता है कि संघर्ष करने वाले को अपने कम्फर्ट जोन से बाहर निकलकर सफलता अर्जित करना चाहिए। कम्फर्ट जोन उसे कहा जाता है जहां मनुष्य अपनी सुविधा में रहता है। जिं़दगी का एक ऐसा ताना-बाना बुन लेता है, जिससे बाहर निकलने पर परेशानी होती है। कोई अपने परिवार को कम्फर्ट जोन मान लेता है, कोई किसी नगर या स्थान को तो किसी के लिए मकान छोड़ना मुश्किल हो जाता है। कुल-मिलाकर आलस का एक नाम कम्फर्ट जोन है। हम जो भी करेंगे, अपनी सुविधा से करेंगे। ऐसे लोग संघर्ष को दुर्भाग्य मान लेते हैं और इसीलिए सफलता पाने के लिए सीमाएं तोड़कर परिश्रम करते हैं। अपनी योग्यता को ऐसा मथ देते हैं जैसे अमृत पाने को समुद्र मंथन किया जा रहा हो। जिस समय आप ऐसा कर रहे होते हैं उस समय आधे से ज्यादा संसार यही कर रहा होता है। इसलिए भी संघर्ष बढ़ जाता है। धन के लक्ष्य पर यदि कुछ लोग चल रहे हों तब तो उन्हें सुविधा है पर सभी दौड़ रहे हों तो प्रतिस्पर्धा बन जाती है। ऐसे समय कम्फर्ट जोन से निकलना साहस का काम तो है लेकिन, यदि ठीक से समझा न जाए तो वह दु:साहस बन जाता है और दु:साहस परेशानी में पटक देता है। इसीलिए आज बहुत दौड़-भाग करने वाले लोग भी परेशान हैं। कम्फर्ट जोन का मतलब यह नहीं होता कि जीवन को केवल सुविधा में रखें। इसी प्रकार इससे बाहर निकलने का अर्थ यह भी नहीं कि अनाप-शनाप परिश्रम करने लगें। समय और स्वास्थ्य इन दोनों को ठीक से साध लेना अध्यात्म की दृष्टि में कम्फर्ट जोन है। परमात्मा ने प्रकृति को चौबीस घंटों में इतने अच्छे ढंग से बांटा है कि इनको ठीक से समझ लें तो आपका समय प्रबंधन भी ठीक होगा और स्वस्थ भी रहेंगे।

खान-पान की समझ से बनाएं बुढ़ापा सुखद
माता-पिता को अपने बच्चों से अपेक्षाएं रखनी ही पड़ती हैं। भले ही वे कहें कि हम बच्चों का लालन-पालन अपने प्रेम व कर्तव्य के कारण कर रहे हैं। इन्हें बड़ा कर पैरों पर खड़ा कर दें उसके बाद हम अपना स्वतंत्र जीवन जिएंगे। खासतौर पर आजकल माता-पिता तैयारी भी ऐसी करते हैं। आर्थिक रूप से ऐसा ताना-बाना बुन लेते हैं और कहते भी हैं कि बच्चों के भरोसे बुढ़ापा न बिताना पड़े ऐसी कोशिश करेंगे। यही बात बुढ़ापे में उनके लिए अशांति का कारण बन जाती है। आप बच्चों से अपेक्षाएं रखें भी तो इसमें दिक्कत क्या है? बुढ़ापे में बच्चों पर आधारित जीवन जीने में कौन-सा पाप है? प्रकृति के इस विधान में क्यों छेड़छाड़ की जाए? अपेक्षाओं की समझ का नाम जनरेशन गैप है। आज की गुजरती पीढ़ी के लोग इसे लेकर बड़े परेशान हैं, जबकि यह तो हर दौर में रहा है। अपेक्षा तो रखना है पर उसके चार चरण होने चाहिए। आइए, खान-पान की दिनचर्या से इन चार चरणों को ठीक से समझ लिया जाए। वृद्ध लोगों को यह जानकारी होनी चाहिए कि कौन-सा भोजन आपके लिए उपयोगी है और उसी अपेक्षा को बच्चों में स्थापित कीजिए। दूसरा अपनी डाइट से आपका बहुत अच्छा परिचय होना चाहिए। जवानी में जो भी पसंद रहा हो, खाया-पीया हो, जरूरी नहीं कि बुढ़ापें में भी उसी पर अड़ जाएं। तीसरी बात अन्न के प्रति ज्ञान है तो आप अपनी भोजन-व्यवस्था को लेकर किसी पर दबाव न बनाते हुए सामने वाले के लिए सुविधाजनक हो जाएंगे। चौथा चरण है भोजन का बोध। मतलब अब अन्न से अधिक सांस का भोजन लेना है। जो बूढ़े माता-पिता जनरेशन गैप से परेशान होना नहीं चाहते उनकी अपनी हर अपेक्षाओं के प्रति तैयारी इन चार चरणों में होनी चाहिए। शायद जनरेशन गैप जीवन के अंतिम चरण को और आनंदमय बना दे।

अपनी ऊर्जा लोगों को मनाने में भी लगाएं..
परमात्मा ने मनुष्य का शरीर बनाकर सबसे बड़ा चमत्कार यही किया है कि इसमें ऊर्जा की असीम संभावनाएं छोड़ी हैं। उस ऊर्जा का सदुपयोग करना है या दुरुपयोग, यह हमारे ऊपर है। इन दिनों हमने दिनचर्या ऐसी बना ली है कि शरीर झोंक दिया गया है और इस बात का बिल्कुल हिसाब नहीं रखा जाता कि अपनी ऊर्जा के साथ क्या कर रहे हैं। यूं तो ऊर्जा के बहुत सदुपयोग हैं, लंबी सूची है। परंतु एक उपयोग जरूर करिएगा कि उसका एक बड़ा हिस्सा दूसरों को मनाने में जरूर लगाएं। आपके जीवन में बहुत से ऐसे लोग होंगे जो किसी न किसी कारण से आपसे रूठ गए होंगे और यदि रूठने का अधिकार न हो तो उदास होंगे। कोशिश कीजिए कभी उनको मनाएं। खासकर परिवार में यदि कोई सदस्य रूठा हुआ हो तो पूरी ऊर्जा लगाकर उसे मनाएं। हम दो कारणों से लोगों को नहीं मनाते। एक तो अहंकार कि हमें क्या करना है किसी को मनाकर और दूसरा उसका अहित चाहते हुए ऊर्जा की दिशा मोड़ लेते हैं। किसी ने आपका बुरा किया हो या वह इस लायक न हो तो भी कम से कम घर-परिवार में यदि कोई रूठा है, उदास है तो उसे जरूर मनाइए। ऐसा नहीं करके हम एक ऐसा बीज बो रहे होते हैं जिसमें दूसरे के प्रति लापरवाही हैं, कुंठा है, ईर्ष्या और क्रोध रखे हुए हैं। ऐसा करके अपना ही नुकसान करते हैं। बीज तो आपने दूसरे के लिए बोया लेकिन, जमीन आपकी थी। उगा तो वह आप ही की धरती पर। दूसरों को फायदा तो नहीं पहुंचा पाए पर अपना नुकसान जरूर कर गए। भले ही आप दूसरों के प्रति लापरवाह हो गए हों, अहंकार में डूबे हों पर जो बीज बोया है उसकी जड़ आप ही के भीतर उतरी है। इसलिए कभी-कभी अपनी ऊर्जा दूसरों के हित के लिए भी जरूर खर्च करें।

नीति विरुद्ध काम की कीमत चुकानी होगी
नीति के विरुद्ध जब भी कोई काम करेंगे, उसकी कीमत चुकानी पड़ेगी। कायदे जब भी तोड़े जाएंगे, खुद का भी नुकसान करेंगे और दूसरों को भी हानि पहुंचाएंगे। उदाहरण के लिए यदि कोई ट्रैफिक नियम तोड़ा तो हो सकता है एक्सिडेंट हो जाए। उसमें आपका भी नुकसान हो सकता है और आप बच गए तो हो सकता है सामने वाले को हानि उठानी पड़ जाए। जीवन में भी ऐसा ही चलता है। रावण को उसके मंत्री लगातार गलतफहमी में रख रहे थे कि आप तो अजेय हैं, आपको कौन जीत सकता है? अहंकारी व्यक्ति प्रशंसा सुनकर और बावला हो जाता है। पत्नी मंदोदरी समझा चुकी थी, बाद में बेटा प्रहस्त समझा रहा था। इस दृश्य पर तुलसीदासजी लिखते हैं- ‘सबके बचन श्रवन सुनि कह प्रहस्त कर जोरि। नीति बिरोध न करिअ प्रभु मंत्रिन्ह मति अति थोरि।। सबकी बात सुनकर प्रहस्त हाथ जोड़ते हुए रावण से कहता है- मंत्रियों की बातों में आकर नीति के विरुद्ध मत जाइए। इनकी तो मति बहुत छोटी है। यहां रावण के बेटे ने हनुमानजी को याद किया था। बोला- यह मत भूलो कि एक वानर आया था और जो कुछ कर गया उसे आज तक हम याद कर रहे हैं। रावण के माध्यम से प्रहस्त हमें भी समझा रहा है कि जीवन में जब भी नीति पालने या समझने में दिक्कत हो तो हनुमानजी से जुड़े रहिए। आगे लिखते हैं, ‘सुनत नीक आगंे दुख पावा। सचिवन अस मत प्रभुहि सुनावा।।’ अर्थात मंत्रियों ने आपको जो भी सम्मति सुनाई है वह सुनने में तो अच्छी है पर आगे जाकर दुख ही देगी। प्रहस्त यदि हनुमान का उदाहरण दे रहे हैं तो आज हनुमानजी हमारे बड़े काम के हैं। नीति कभी न तोड़ें और जब कोई अच्छी बात बताई जा रही हो, आज भले ही कड़वी लगे लेकिन, भविष्य में आपके बड़े काम की हो सकती है। यह समझदारी जरूर रखें।

चार मौकों पर याद करके ईश्वर से जुड़ें
भक्तों के लिए मार्ग और मंजिल का फर्क समाप्त हो जाता है। जिनका संबंध परमात्मा से बन गया है वे कृत्य और परिणाम दोनों को अलग करके नहीं चलते। भक्ति का महत्व हर धर्म में है। शरीर पर कुछ विशेष वस्त्र-वस्तुएं धारण कर लेना, शृंगार कर लेना या किसी धर्मस्थल पर जाकर कर्मकांड कर लेना ही भक्ति नहीं है। दरअसल, भक्ति का संबंध भरोसे से है। भक्त बनते ही यह भरोसा हो जाता है कि मैंने जो मार्ग चुना है वही मेरी मंजिल है। जो काम आरंभ किया जा रहा है इसी में परिणाम है, क्योंकि इन दोनों में परमात्मा बसे हैं। आपने मार्ग चुना, भगवान मंजिल लिए खड़ा है। यह भरोसा बनाना आसान काम नहीं है। इसके लिए जीवन में चार समय खास सावधानी रखिएगा- घर से निकलने से पहले, घर आने के बाद, रात को सोने से पहले और सुबह उठने के बाद। ये चार समय ऐसे हैं, जिनमें पहले दो का संबंध सार्वजनिक है और बाद के दो का संबंध निजी। निजी में हम परमात्मा से आसानी से जुड़ जाते हैं। सोने से पहले थोड़ा भगवान को याद कीजिए और उठने के बाद भी परमात्मा के भरोसे दिन की शुरुआत करें। ये काम निजी हैं लेकिन, भरोसे को बढ़ाएंगे। घर से निकलकर संसार में जाते समय अत्यधिक शांत रहते हुए भरोसा रखिए कि घर से जो कदम आप बाहर निकाल रहे हैं उस समय आप अकेले नहीं हैं। कई सांसारिक लोग साथ हैं और सबसे बड़ा साथ है भगवान का। दिनभर के सारे काम निपटाकर शाम को जब घर आएं तो पहला कदम ऐसा रखें जैसे वैकुंठ में रख रहे हों। भगवान ही आपको सुरक्षित वापस लाया है। इस क्रिया में भगवान का भरोसा बड़ा काम आएगा और ये चार अवसर जीवन को आनंदित कर देंगे, प्रसन्नता से भर देंगे।

ज्ञान, कर्म व उपासना से भोलापन बचाएं
बेईमानी का अभाव भोलापन नहीं है। कई बार हम यह समझ लेते हैं कि ईमानदार लोग बड़े भोले होते हैं। भोलापन एक ऐसी आंतरिक व्यवस्था है, जिसमें निज और परहित दोनों संतुलन के साथ होते हैं। कोई बेईमान आदमी भी भोला हो सकता है और ईमानदार कुटिल हो सकता है, इसलिए भोलापन एक मौलिकता है। जीवन में जब किसी नीति और नेतृत्व के साथ समय गुजार रहे हों, इन दोनों में भोलापन बचाइएगा। इस दौर में तो यह गलतफहमी फैली हुई है कि जो भोला है उसे कोई भी ठग सकता है। ऐसा हो भी सकता है। यदि आप ठगा रहे हैं इसका मतलब है दूसरे आपके भोलेपन का दुरुपयोग कर रहे हैं। लेकिन, यदि मूल रूप से अपने भोलेपन पर टिके हैं तो फिर भोले का भगवान होता है, यह भरोसा भी मत छोड़िए। चाहें कि भीतर भोलापन बचा रहे तो ज्ञान, कर्म और उपासना के सिद्धांत को समझिए। इन तीन से आपका संबंध जरूर होता है और सभी धर्मों ने इसे अपने-अपने ढंग से व्यक्त किया है। कोई न कोई काम आप करेंगे ही। यह कर्म है। पढ़े-लिखे हैं तो ज्ञान है और किसी धर्म की पूजा-पाठ से जुड़े हैं यह है उपासना। लेकिन जब भोलेपन का संबंध आएगा तो ज्ञान का मतलब होगा सदैव लेते रहें। यह कभी न समझें कि आपने जो जान लिया वही पूर्ण है। जहां से जो भी ज्ञान मिले, सदैव ग्रहण करते रहें। आपका कर्म नशा न बन जाए, यहां से भी भोलापन बचता है। उपासना का अर्थ होता है अपना शत-प्रतिशत झोंक देना। हंड्रेड परसेंट कमिटमेंट। जो भी करें, डूबकर करें, जमकर करें। यहीं से ज्ञान, कर्म और उपासना आपके भीतर के भोलेपन को बचाएगी। भोलेपन को तराशा, बचाया तो इसका एक अच्छा परिणाम होगा आप कभी अशांत नहीं रहेंगे, क्योंकि ऊपर वाले की ताकत आपके लिए शांति बनकर उतरेगी।

घर के बुजुर्गों को पुरानी यादों में ले जाएं
उम्र और जीने की तमन्ना का तालमेल जिंदगीभर ठीक से नहीं बैठ पाता। ज्यादातर लोगों के साथ ऐसा ही होता है कि जब जीने की बहुत इच्छा होती है तो उम्र साथ नहीं देती और खासकर बुढ़ापे में जब जीने की इच्छा नहीं रहती तो उम्र साथ नहीं छोड़ती। इस विचार को खास तौर पर अपने परिवार में जरूर अपनाइए। घर के बड़े-बूढ़ों को ध्यान से देखते हुए समझने की कोशिश करें कि एक उम्र के बाद वे जिंदा नहीं रह पाते, उन्हें जिंदा रखना पड़ता है। बड़े-बूढ़ों की सेवा का यही मतलब नहीं है कि उनके शरीर को संभाल लें, उनके खाने-पीने का ध्यान रख लें या उनके दैनिक कामों में मदद कर दें। शरीर जब वृद्धावस्था की घोषणा कर देता है तो जीने की इच्छा समाप्त होने लगती है। ऐसे समय ध्यान रखिएगा, उन्हें जिंदा रखने के लिए कुछ ऐसी गतिविधि करते रहें, जिनसे उन्हें कुछ पुरानी बातें याद आ सकें। जो उम्र धीरे-धीरे मृत्यु की ओर बढ़ रही है वह पीछे गुजरे जीवन पर टिक सके। इसलिए बड़े-बुढ़ों को समय दीजिए। खास तौर पर उनसे बात कीजिए। यदि वे चुप हैं तो इसलिए नहीं कि बोल नहीं पा रहे हैं, बल्कि इसलिए कि उनकी बात करने की इच्छा खत्म हो गई होती है। उस इच्छा को जगाइए। ऊपर से वो जिंदा दिख रहे होते हैं पर भीतर ही भीतर खत्म चुके होते हैं। उनके साथ वह वक्त बिताइए जो कभी उन्होंने आपके साथ बिताया होगा। आज के इस दौर में तो बुढ़ापे में शरीर जीने की इच्छा को और खत्म कर देता है। इस उम्र में शरीर से जो पीड़ा उन्हें उठाना है वह तो वे ही उठाएंगे। उसमें शायद आप कुछ न कर सकें लेकिन, जीवन को लेकर जो निराशा उनके भीतर आ गई होती है उसे समझदारी से दूर करने का प्रयास जरूर करें, क्योंकि एक दिन हम सभी को भी ऐसा दौर देखना ही है।

शांति चाहिए तो शरीर से अलग होना सीखें
जीवन के कुछ क्षण ऐसे होते हैं जो जिंदगी की रफ्तार को थाम या रोक देते हैं। सांसारिक दृष्टि से वह स्थिति मौत होगी और आध्यात्मिक दृष्टि से उसे ध्यान कहेंगे। इस समय लोगों की जिंदगी बहुत तेजी से दौड़ रही है। रुकना चाहें तो भी रुक नहीं सकते। लेकिन उन क्षणों को बनाए रखिए जहां थोड़ी देर के लिए जीवन रुकता है। जब जीवन रुकता है तो आप मर गए होंऐसा नहीं है। आप मृतवत यानी मरे जैसे हो जाते हैं। मर जाने और मरे जैसे हो जाने में बड़ा फर्क है। जैसे ही कुछ क्षण के लिए जिंदगी रुकती हैआपको महसूस होगा कि जिस शरीर के रूप में पहचाने जाते हैं आप वह नहीं हैं। कहने को कह सकते हैं मेरा शरीर परंतु जैसे ही ऐसा मानते हैंआप अलग हो जाते हैंशरीर अलग हो जाता है। यहां आकर थोड़ी देर के लिए जिंदगी रुक जाती है और उस समय आप दुनिया के सबसे शांत व्यक्ति होते हैं। इस दौड़ती जिंदगी में यदि थोड़ी देर शांत रहना चाहें तो शरीर को शाकाहार और नियमित बनाइए। शरीर शुद्धि के लिए शाकाहार जरूरी है। मांसाहार मनुष्य के लिए बना ही नहीं है। मनुष्य का शरीर तो तैयार ही इस तरह से हुआ है कि वह शाकाहार ही करे। शाकाहार का संबंध किसी धर्म या आचरण से नहीं बल्कि शरीर की शुद्धि से है। जब शरीर शुद्ध होता है तो उसे अलग होने में सुविधा हो जाती है। शुद्ध शरीर वाले लोग अपने से अलग होना आसान कर लेंगे। तटस्थ होना आसान होगा। जैसे ही शरीर से थोड़ा अलग होते हैं उसी समय जिंदगी रुकती है और आप एकदम शांत हो जाते हैं। है तो बड़ी महंगी चीज पर यदि तैयारी के साथ करें तो बहुत सस्ते में मिल सकती है। तैयारी ठीक से नहीं की तो आपके पास कितनी ही दौलत होशांति जैसी चीज कभी नहीं पा सकेंगे।

सलाह को बुद्धि की पूरी एकाग्रता से सुनें
जब किसी बड़े अभियान की तैयारी में हों तो सलाह लेना भी चाहिए और कभी-कभी बिना मांगे भी मिलेगी। नीति के वचन मुश्किल से मिलते हैं और यह कतई जरूरी नहीं है कि नीति अथवा सही बात आपको कोई विनम्रता या सही ढंग से कह दे। कभी-कभी कठोर रूप में भी अच्छे वचन सामने आएंगे लेकिन, यदि आपने मान लिया कि ये मुझे पसंद नहीं है तो नुकसान उठाएंगे। ऐसा ही नुकसान रावण उठा रहा था। भरी सभा में बेटा प्रहस्त मंत्रियों की चापलूसी पर टिप्पणी कर पिता को समझाता है। पिता-पुत्र की वार्ता पर तुलसीदासजी लिखते हैं, ‘बचन परम हित सुनत कठोरे। सुनहिं जे कहहिं ते नर प्रभु थोरे।। ‘प्रथम बसीठ पठउ सुनु नीति। सीता देइ करहुं पुनि प्रीती।।’ यहां प्रहस्त ने तीन बातें कही। पहली- वाणी सुनने में कठोर है पर हितकारी है। दूसरी- ऐसे वचन बोलने और सुनने वाले लोग अब कम रह गए हैं और तीसरी बात कही नीति से सुनते हुए सीता को लौटाकर श्रीराम से प्रीति यानी मैत्री कर लीजिए। हमारे जीवन में जब कोई ऐसा प्रसंग आए और कोई सही सलाह दे तो उसे बुद्धि, हृदय और आत्मा तीनों स्तरों पर सुनें। ध्यान रखिए, हृदय और आत्मा के स्तर पर किसी बात को सुनने के लिए बड़ी साधना करनी पड़ती है, जो सबके लिए संभव नहीं। लेकिन, कम से कम बुद्धि के स्तर पर तो अच्छी बात सुनें, जिसके लिए बुद्धि के चार स्तर होते हैं- पहला, पूरी एकाग्रता से एक-एक शब्द सुनिए। दूसरा, सुनी गई बात पर विचार करें पर मूल्यांकन के साथ। तीसरा, जो बात आपने सुनी वह आपके किस काम की है इस पर गौर करें और चौथा, यदि बात अच्छी है तो उसे लागू करने में देर न करें। सही बात के लिए विलंब खतरा बन जाता है। जीवन में शुभ को कभी न टालें।

बच्चों से उम्मीदों का स्वरूप बदलना पड़ेगा
अपने बच्चों की जीवनशैली हमने खुद बदली है। माता-पिता के रूप में उन्हें एक ऐसे दौर से गुजारा है, जहां शरीर पूरी तरह झोंक दिया जाता है। कार्य आरंभ करने से पहले ही परिणाम का ताना-बाना बून लिया जाता है। इसमें कोई बुराई नहीं है। यदि ऐसी तैयारी नहीं करेंगे तो बच्चे निश्चित रूप से पिछड़ जाएंगे। प्रतिस्पर्धा के इस युग में कौन शिखर पर जाना नहीं चाहता? पर चूंकि हमने बच्चों की जीवनशैली बदल दी है, इसलिए भविष्य में उनसे उम्मीदों का स्वरूप भी बदलना पड़ेगा। आज माता-पिता यदि सोचें कि उन्होंने अपने माता-पिता को जैसा समय, मान और अपनापन दिया वैसा ही सब हमारे बच्चे भी हमें लौटाएंगे तो यह मुश्किल है। हमने उनके व्यक्त्वि का गठन इस प्रकार से कर दिया है, जिसमें अपनों के लिए जगह कम है, अपनेपन का भाव लगभग समाप्त होता जा रहा है। ऐसे में आज के माता-पिता को बच्चों से उम्मीद की शक्ल बदलना पड़ेगी। संतोष रखिए, जो मिल जाए उसी को पर्याप्त मान लीजिए। क्योंकि इस दौर में तो लोगों ने जमीनें इतनी बांट दी हैं कि अब बांटने के लिए उसके टुकड़े भी नहीं बचे। ऐसे लोगों की नज़र अब आसमान पर है और जो जमीन तथा आसमान बांटने की तैयारी कर चुके हों, जायदाद का बंटवारा करते समय मां-बाप को गौण रखेंगे, दूर रखेंगे, महत्वहीन कर देंगे। हर परिवार में बंटवारा होता है। एक समय था जब बड़े-बूढ़े निर्णय करते थे और छोटे उसे मान लेते थे। अब वह दौर नहीं रहा। अब तो बंटवारा खुद किया जाएगा और हो सकता है बड़े-बूढ़ों की भावना, मंशा और उपस्थिति को मान न देते हुए विवाद और मतभेद के साथ किया जाए। ऐसा हो तो बेचैन न हों। जिस दौर के बच्चे आपने तैयार किए हैं, वे जिस भी ढंग से काम करें, सावधानी से उनका लाभ उठा लें।

गुणों के संग्रह से सफलता को जीत में बदलें
सफलता और जीत में फर्क है। सफलता सतही मामला है और जीत का संबंध गहराई से है। बुरे लोग भी सफल हो सकते हैं लेकिन, वे जीत गए ऐसा नहीं कहा जा सकता। बुराई व बुरे लोग सदैव रहे हैं और सफल भी होते रहे हैं। किसी भी धर्म के शास्त्र उठाएं तो पाएंगे शैतान, दैत्य जीतते रहे हैं लेकिन, यह उनकी जीत नहीं मानी जा सकती। वे विजयी नहीं, सफल हुए हैं। रावण ने, कंस ने लंबे समय राज किया। जीवन के हर क्षेत्र में सफलता अर्जित की लेकिन, वास्तविक जीत उन्हें कभी हासिल नहीं हुई। हम अपने भीतर कितनी अच्छाई बचाते हैं, कितने सदगुण संग्रहित कर पाते हैं, कितना परहित करते हैं, नीति और परम्परा पर कितने टिके हुए हैं इससे हमारी विजय तय होती है। सफलता का इनसे कोई लेना-देना नहीं है। लोग गलत साधन अपनाकर भी सफल हो जाते हैं। चूंकि बचपन से पाठ पढ़ाया जाता है कि सफल होना ही है। साधन भले ही अनुचित हों, परिणाम सफलता ही होना चाहिए। यह एक सिद्धांत बन गया है और इसीलिए सफल लोग अशांत व बेचैन पाए जाते हैं। सफलता को जीत में बदलना हो तो अपने भीतर सद्गुणों का संग्रह करना पड़ेगा। सच का साथ देना पड़ेगा, आंतरिक रूप से स्वयं को पवित्र रखना होगा। पवित्र व्यक्ति ही विजयी हो सकता है। सफलता अर्जित करने में कोई बुराई नहीं है लेकिन, उस सफलता के साथ-साथ विजय की वृत्ति भी जीवित रखें। किसी को पराजित करके आप जीत नहीं सकते। असली जीत स्वयं को जीतने पर होती है और स्वयं को जीतने का मतलब होता है अपने दुर्गुणों का विनाश करना। अपनी सफलता को विजय में बदलने के लिए सांसारिक प्रयोग काम नहीं आएंगे। इसके लिए कुछ आध्यात्मिक प्रयोग करते रहिए। उनमें एक शुभ कार्य है नियमित योग।

परिवार को ऐसा नेतृत्व दें कि वह प्रसन्न रहे..
परिवार मेंएक-दूसरे के प्रति गैर-जिम्मेदार रहना भी एक तरह का आतंक है। ग्लोबल दृष्टि से देखें तो इस समय दुनिया के सारे देश जिन-जिन समस्याओं से जूझ रहे हैं उनमें से एक बड़ी है परिवार के ढांचे का ध्वस्त होते जाना। सामाजिक स्थिति तो लगभग सभी देशों में विकृत रूप ले चुकी है। दुनिया में साढ़े छह करोड़ लोग विस्थापित हो गए हैं। यह एक पारिवारिक पीड़ा है। लोग अपने ही घर में सदस्यों को ढूंढ़ रहे हैं। दुनिया की इस भीड़ में अपने लोग कब खो गए, पता ही नहीं चला। भारत के घरों की भी ऐसी ही स्थिति है। बच्चों को पढ़ा-लिखाकर उन्हें इतनी योग्यता दी कि उन्होंने सबसे पहली छलांग घर से बाहर ही लगाई। छलांग भी इतनी लंबी कि कई लोगों के तो लौटकर आने की संभावना ही खत्म हो गई। यह उनका गमन हुआ, उत्थान हुआ परंतु लगा जैसे वे पलायन कर गए। आज भी कई परिवार उदास हैं। कई माता-पिता बच्चों से दूर होने का दुख व्यक्त भी नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि वे जानते हैं, इसमें उनकी भी भूमिका है। जब घर के सदस्य बिखर गए तो एक आतंकी संगठन घर में भी प्रवेश कर गया जिसका नाम है अकेलापन। इस समय दुनिया में कई आतंकी संगठन अपने-अपने ढंग से हिंसा कर रहे हैं, गलत काम कर रहे हैं पर हमारे घरों में अकेलापन एक ऐसे ही अनुचित संगठन के रूप में प्रवेश कर गया है। पांच-दस लोगों के बीच में रहने के बाद भी लोगों को अकेलापन लगता है। जिनके हाथों में परिवार का नेतृत्व है वे परिवार को आर्थिक दृढ़ता देते हैं, सामाजिक पहचान देते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में उच्चता देते हैं लेकिन यह भी ध्यान रखें कि आप जिस भी पद से नेतृत्व कर रहे हों, परिवार की उदासी जरूर मिटाएं। बाकी सदस्यों को प्रसन्नता और शांति जरूर दें।

नेतृत्व वह जो हवा का रुख जल्दी पहचानें
समझदार नेतृत्व का एक लक्षण यह होता है कि वह हवा का रुख जल्दी और सावधानी से पहचान लेता है। नेतृत्व कर रहा कोई राजा हो या राजनेता, वह जानता है कि इतने प्रभावशाली हो जाओ ताकि प्रजा या जनता पीछे चलने लगे। समय रहते हवा का रुख नहीं पहचाना तो नेतृत्व पर सवाल खड़े हो जाएंगे। आज के नेता इस कला में माहिर हैं। लंका कांड के प्रसंगों में रावण राजा और नेता दोनों था। राजा इसलिए कि लंका की गद्दी पर बैठा था और नेता इसलिए कि विद्वान और विश्वविजेता होने के कारण राक्षसों की भारी भीड़ का नेतृत्व कर रहा था। हवा का रुख नहीं पहचान पाने पर क्या नुकसान उठाने पड़ सकते हैं यह रावण से सीखिए। बेटा प्रहस्त लगातार समझा रहा था पर वह समझने को तैयार नहीं था, अहंकार की वाणी बोले जा रहा था। यहां तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘अबहीं ते उर संसय होई। बेनुमूल सुत भयहु घमोई।। सुनि पितु गिरा परुष अति घोरा। चला भवन कहि बचन कठोरा।।’ अर्थात रावण ने उल्टा प्रहस्त पर ही प्रहार कर दिया। कोसते हुए कह रहा था, ‘तेरे हृदय में अभी से संशय हो रहा है? तू बांस की जड़ में घमोई की तरह हमारे वंश के लायक नहीं।’ पिता की अहंकार से भरी वाणी सुन प्रहस्त कठोर बातें कहता हुआ भवन में चला गया। आगे लिखा- ‘हित मत तोहि न लागत कैसें। काल बिबस कहुं भेषज जैसें।।’ जैसे मृत्यु के वश में हुए रोगी को दवा असर नहीं करती, ऐसे ही अहंकारी को हित की बातें अच्छी नहीं लगतीं। जिसके जीवन में दुर्गुणों की अति हो जाए, समझ लीजिए वह दुनिया का सबसे खतरनाक रोग पाले हुए है, जिसका कोई इलाज भी नहीं। जीवन में छोटे-मोटे अभियान पर निकलें तो अच्छी सलाह जरूर स्वीकार करें और अमल में भी लाएं।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है... मनीष
ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....




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