Tuesday, January 2, 2018

जीवन जीने की राह (Jeevan Jeene Ki Rah)


श्रेष्ठता एकांत में ही जन्म लेती है
जब भी कोई मनुष्य अपने भीतरीपन को समझ लेता है, अपने एकांत से ठीक से गुजर जाता है तब उसके जीवन में श्रेष्ठ जन्म ले लेता है। हनुमानजी के साथ ऐसा ही हुआ था। वे आंखें बंद करके बैठे थे, चूंकि वानरों ने तय कर लिया था कि लंका अब सिर्फ हनुमान ही जा सकते हैं और इसीलिए जामवंत हनुमानजी को समझाते हैं- ‘पवन तनय बल पवन समाना। बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।। कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं।। हनुमानजी को बल, बुद्धि, विवेक से जोड़ते हुए कहा गया है कि संसार का ऐसा कोई काम नहीं, जो वे नहीं कर सकते।

सबसे चौंकाने वाली बात यह कि हनुमानजी के लिए विज्ञानी लिखा है। उनका काम करने का तरीका बहुत वैज्ञानिक था। आज के समय में विज्ञान और धर्म पीठ करके खड़े हो जाएं यह ठीक नहीं है। धर्म को भी विज्ञान की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी विज्ञान को धर्म की होनी चाहिए। दोनों कुछ मामलों में असहमत भी हैं और बहुत कम मामलों में सहमत हैं, लेकिन एक-दूसरे के बिना दोनों का काम भी नहीं चलता। अगर विज्ञान का महत्व धर्म में समझना हो तो हनुमानजी की जीवनशैली से समझा जा सकता है। एकांत धर्म का मामला है, सार्वजनिक गतिविधियां विज्ञान से जुड़ी हैं। वैज्ञानिक शोध सबको परिणाम मिले इसलिए होते हैं।

धर्म और अध्यात्म कहता है पहले एकांत से स्वयं को साधो, सक्षम बनो, फिर संसार में उतरो। श्रेष्ठता जब भी जन्मेगी, एकांत में ही जन्मेगी और इसके लिए एकांत साधना पड़ेगा। एकांत साध चुके हनुमानजी को जामवंत ने कहा कि आपने भीतर जो अध्यात्म पाया है अब उसका उपयोग बाहर ऐसे करिए जैसे विज्ञान का किया जाता है। इस संतुलन को हम भी जीवन में बनाए रखें तो हमारी सफलता शांति देकर जाएगी।

बाल मन व ममता से काबू होते हैं दुर्गुण
शेर को कुश्ती लड़कर न तो काबू में किया जा सकता है, न मारा जा सकता है। इसलिए यदि हिंसक जानवरों, कुछ हिंसक परिस्थितियों को जीतना हो तो ऐसी शैली अपनानी पड़ेगी जो दिखेगी तो गलत पर होगी सही। जब शेर का शिकार किया जाता है तो बहुत काम छुपकर होता है। मानवीय दृष्टिकोण से यह धोखा है, लेकिन व्यावहारिक बात यह है कि ऐसा किए बिना कोई व्यवस्था चलाई भी नहीं जा सकती। इसको अपने जीवन से जोड़कर देखें तो दुर्गुण हिंसक पशु की तरह हैं, जो कभी भी हम पर आक्रमण कर सकते हैं।

कुछ दुर्गुण ऐसे हैं, जिनके लिए हमें अभयारण्य बनाना पड़ेगा। अहंकार एक ऐसा दुर्गुण है जिसे मारा न जाए, क्योंकि इसमें जोश भी भरा है। क्रोध भी ऊर्जा का काम है। पर ये दुर्गुण जब आप पर आक्रमण करें और आप सोचे कि इनसे सीधे-सीधे निपट लें तो बिल्कुल शेर से कुश्ती लड़ने वाली बात होगी। कोशिश यह की जाए कि इन्हें एक जगह सुरक्षित रख दें, देखें, आनंद लें। इसके लिए थोड़ा छल करना पड़ेगा। हिंदू संस्कृति में भगवान विष्णु पालनकर्ता माने गए हैं। जब भी उन्होंने देखा कि सामने स्थितियां बहुत बिगड़ी हुई हैं खासकर दैत्यों के सामने तो उन्होंने छल से कई रूप रखे। स्त्री और बच्चे बनने में तो विष्णुजी ने कई कथाएं रच दीं। उनका यह चरित्र समझाता है कि दुर्गुणों का सामना करने के लिए हमें स्त्रैण चित्त और बालमन की जरूरत पड़ती है।

बालमन शुद्ध होता है और स्त्रैण चित्त में ममता होती है। ये दोनों दुर्गुणों को रोकने में बड़े काम आएंगे। इसके लिए कोई बड़ा आंदोलन नहीं चलाना है, बस भीतर की तैयारी ऐसी करें और समय के अनुसार उन विधियों को अपनाएं, इसलिए बहुत ही समझदारी, सावधानी और जरूरत पड़े तो छल के साथ दुर्गुणों के आक्रमण को रोकना ही होगा।

विचारशून्यता में किया कार्य सुंदर होगा
हमारे किए गए कार्यों का महत्व इसमें भी है कि कार्य संपन्न होने पर उसका अच्छापन सामने आए, उसकी निर्दोषिता दिखे और लोग प्रशंसा करें। इसी में उस कर्म की स्वीकृति है। इसके लिए अपनी क्रियाशक्ति में ओज और तेज भरना होगा। हर काम को बड़े अच्छे ढंग से पूरा कीजिए। अध्यात्म में सुंदर शब्द है- गौरव की कसौटी पर कसकर हर कृत्य को पूरा करें। इसमें जो सर्वश्रेष्ठ है उसे परखा जाएगा।

सीधी भाषा में कहें तो रोज परीक्षा देनी है इस भाव से काम कीजिए। पूरी तन्मयता लानी पड़ेगी तब काम पूरा होगा। अपना प्रत्येक कार्य परिपक्व और प्रशंसा के योग्य चाहते हैं तो कामों की प्राथमिकता तय करें। जिस काम को विशेष आवश्यकता की श्रेणी में लेना है उसे सुबह से ही ले लें और जुट जाएं। ध्यान रखिए, हमने जो तय किया है उसमें लोगों, परिस्थितियों, वक्त की और कई प्रकार की अन्य अड़चनें आ सकती हैं। एक बाधा और आती है वह है हमारी निजी स्वस्ति। हमारे भीतर कोई एक चीज है, जो हमें गड़बड़ा देगी। इस पर नियंत्रण पाते हुए काम में जुट जाएं। यदि एक प्रयोग करेंगे तो आपका प्रत्येक कार्य प्रशंसनीय हो जाएगा। दिनभर में एक-दो घंटे या इससे ज्यादा ऐसा समय निकालिए, जो थॉटलेस टाइम यानी विचारशून्य अवधि होगी। उस दौरान पूरी तरह विचारशून्य हो जाएं।

तय कर लीजिए कि दो घंटे विचारशून्य रहेंगे, केवल कृत्य करेंगे। मान लें कि हम मशीन हैं किसी के हाथ की, कोई परमशक्ति हमसे कृत्य करा रही है। बस, यह विचारशून्यता आपके कृत्य को इतना सुंदर बना देगी कि फिर उसको प्रशंसा मिलनी ही है। धीरे-धीरे यह अभ्यास बढ़ाते रहिए। विचारशून्य होने का मतलब है काम के प्रति लापरवाह नहीं होना, बिना चिंतन के कुछ नहीं करना। विचारों को रोककर जब कोई कृत्य किया जाता है तो परिणाम शुभ मिलते ही हैं।

भीतरी शक्ति का संग्रहण व उपयोग सीखें
परमात्मा ने जन्म से ही हमारे भीतर शक्ति डाली है। हम उसका कैसा उपयोग करते हैं इस पर हमारा जीवन टिका है। बचपन में इस शक्ति को बचाने और बढ़ाने का काम वे लोग करते हैं, जिन्होंने हमारा लालन-पालन किया हो। दुर्भाग्य से कुछ लोगों को ऐसे अवसर नहीं मिल पाते तो बचपन में उनकी ऊर्जा का उपयोग नहीं हो पाता। किंतु जिनको ठीक से लालन-पालन मिला हो वो जब युवा हो जाएं, तब तरुणाई से ही इस शक्ति का सदुपयोग सीख जाएं।

अवसर न मिले हों, दरिद्रता घेर चुकी हो तब तो वह शक्ति विचलित हो ही जाएगी, लेकिन जिन्हें सारे अवसर, सुख-सुविधाएं मिली हों वे भी शक्ति न बचाएं तो यह मूर्खता होगी। पहचानिए, मानिए और विश्वास कीजिए कि अपने भीतर शक्ति है, जिसे एकाग्रता से और तीव्र बनाना है। तो पहला काम हुआ एकाग्रता, दूसरा उसे ठीक से संग्रहित करना और तीसरा है उपयोग करना। जरा-सी भाप को यदि ठीक से एकाग्र कर लें, तो इंजन चलने लगता है। बंदूक की गोली बहुत छोटी होती हैं, लेकिन ये तीनों क्रियाएं उससे जुड़ी हैं। चिंगारी का स्पर्श मिलते ही चुटकीभर बारूद क्या गजब ढा सकता है।

हमारे भीतर हमारी शक्ति ऐसी ही बारूद की तरह है। उपयोग करना आना चाहिए। इस शक्ति का संग्रहण मस्तिष्क में कीजिए, क्योंकि मस्तिष्क खुद बहुत बड़ा बिजलीघर है। इसको एकाग्र करना हो तो मन से गुजारिए फिर शरीर से इसका उपयोग, इसका विस्तार कीजिए। इसमें काम आएगा गुरुमंत्र। गुरु एक मंत्र देगा और उस मंत्र को जैसे ही सांस से जोड़ेंगे, आप संग्रहित भी ठीक से करेंगे, एकाग्र भी अच्छे से होंगे और उपयोग तो श्रेष्ठ कर ही पाएंगे। जीवन में कोई गुरु नहीं मिले तो हनुमानजी को गुरु व हनुमान चालीसा को मंत्र बना लीजिए और अपनी शक्ति का अधिकतम सदुपयोग कीजिए।

अच्छे श्रोता बनने के लिए मेडिटेशन करें
जब सब एक-दूसरे को जीतने में लगे हों, तो लोग इस बात को लेकर बहुत परेशान हो जाते हैं कि कौन से रास्ते अपनाएं? अध्यात्म में बहुत सरल रास्ता है, जिससे जीत-हार का सवाल तो नहीं उठता, लेकिन आप अजातशत्रु यानी जिसका कोई शत्रु न हो, बन जाएंगे। फकीरों ने कहा है, शास्त्रों में लिखा है कि अच्छे श्रोता बन जाइए। यदि गहराई से किसी को सुना जाए तो आप मेडिटेशन से भी गुजर सकते हैं। इस तरह सुनने का व्यावहारिक लाभ यह है कि बोलने वाले के मन में आपके प्रति आदर का भाव जागता है, जो दोनों में निकटता बढ़ाता है और आप उसे अच्छे से जान पाते हैं। हर आदमी वह सबकुछ बोलना चाहता है जो मन में चल रहा होता है।

यदि आप उसे सुन लेते हैं तो उसे बड़ा संतोष मिलता है। ठीक से सुनकर आप उसकी परिस्थिति, उसके व्यक्तित्व पर ठीक से चिंतन कर पाएंगे। आजकल आधुनिक प्रबंधन में जब कोई व्यक्ति संस्थान छोड़कर जाता है तो उसका एग्जिट इंटरव्यू लिया जाता है, ताकि उसे ठीक से सुना जा सके कि वह क्यों जा रहा है और उसमें संस्थान के अनुकूल जो बातें पता चलें, उन्हें लागू किया जा सके। आप भी हर व्यक्ति को एग्जिट इंटरव्यू की तरह सुनें, क्योंकि वह आपके भीतर एंट्री ले रहा होता है। किसी के जाने पर यदि आप गंभीर हैं तो किसी के आने पर भी सावधान रहिए। इसी को नैतिक चर्चा कहेंगे। मतलब यह नहीं है कि सिद्धांत और नीतियों पर ही बात हो।

सामने वाले को ठीक से सुन लेना भी नैतिक चर्चा है। जिस समय आप नैतिकता, गहराई, शांति से सुनते हैं, बोलने वाले को तो प्रसन्नता होती ही है, आपको भी लाभ होगा। अच्छे श्रोता बनने के लिए भीतर से विचारशून्य होना पड़ता है और इसके लिए ध्यान यानी मेडिटेशन जरूर कीजिए।

मैं गिरते ही मिल जाते हैं भगवान
ईश्वर है या नहीं, यह संदेह और बहस का पुराना विषय है। जो मानते हैं कि भगवान होते हैं फिर उनका अगला चरण होता है उन्हें ढूंढ़ा जाए। जिसे कभी देखा न हो, उसे ढूंढ़ना और भी मुश्किल होता है। आइए, समझते हैं कि भगवान को ढूंढ़ने के कौन-कौन से तरीके हो सकते हैं। इसमें हनुमानजी बहुत दक्ष हैं। वे हमारे और भगवान के बीच की कड़ी हैं। उन्हें वे सारे तरीके और सूत्र आते हैं, जिनसे ईश्वर तक पहुंचा जा सकता है।

किष्किंधा कांड में तुलसीदासजी ने लिखा है,‘राम काज लगि तव अवतारा। सुनतहिं भयउ पर्वताकारा।’ जामवंत ने कहा और हनुमानजी पर्वत के आकार के हो गए। पर्वताकार हो जाने का मतलब है हनुमानजी यह जान चुके थे कि मेरा जो कुछ भी लक्ष्य है, रूप है वह परमात्मा को पाने के लिए है। यहां हनुमानजी सिखाते हैं कि जब हम अपने ‘मैं’ को ठीक से ढूंढ़ लेंगे तो पता चलेगा दरअसल ‘मैं था ही नहीं। वह एक भ्रम था। तो हनुमानजी ने सारी कोशिश अपने ‘मैं को ढूंढ़ने में लगाई। जामवंत ने कुछ कहा तो पर्वताकार हो गए।

हनुमानजी को समझ में आ गया कि मैं भगवान को ढूंढ़ने के लिए इस संसार में आया हूं। मेरे होने का मतलब ही यह है कि परमात्मा को प्राप्त कर लूं। अगर हम भी प्रतिदिन कुछ समय अपने ‘मैं को ढूंढ़ने में लगाएं तो जैसे ही उसे प्राप्त करेंगे, पाएंगे कि जिसे हम ढूंढ़ रहे थे दरअसल वह तो था ही नहीं। जैसे ही यह समझ हुई कि ‘मैं  कुछ होता ही नहीं, यहीं से परमात्मा आरंभ हो जाता है। ‘मैं  गिरते ही ‘तू दिखने लगता है। यह कला हमें हनुमानजी ने ही सिखाई। ‘मैं गिराने के लिए सबसे अच्छा साधन होता है योग-ध्यान करना। ‘मैं का निवास मन में होता है और मन तक सही तरीके से पहुंचने का ध्यान से अच्छा और कोई तरीका नहीं हो सकता।

मौलिक सोच वालों से ही सलाह लें
दुनिया में जो चीजें मुफ्त मिलती हैं उनमें से एक है सलाह। यदि आप कोई व्यवसाय या नौकरी कर रहे हों तो कार्यस्थल पर कुछ ऐसे लोग जरूर होंगे जो बिना मांगे सलाह देंगे। तेजी से बदलते वातावरण में हर बात का ज्ञान नहीं हो सकता। ऐसे में कुछ लोग तो चाहिए जो सलाह दें। जैसे खूब पढ़े-लिखे दक्ष लोग पद, धन कम और प्रतिष्ठा कमा लें तो अशांत हो जाएंगे। इसके लिए उन्हेें सलाह लेनी ही पड़ेगी।

सलाह लेने में कोई बुराई नहीं है पर किसी गलत व्यक्ति से सलाह न लें। दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं। पहले कुएं की तरह और दूसरे टंकी या हौज की तरह। जब आप हौज वाले लोगों से मिलेंगे तो वे नकारात्मक बातें करेंगे। उनकी प्रतिक्रियाएं कुंठा से भरी होंगी, क्योंकि हौज या टंकी में पानी बाहर से लाकर भरा जाता है।

उपयोग किया जा रहा है संग्रहण के लिए और आप समझ रहे हैं आपने निर्माण किया। कुएं का पानी किसी नदी से चलकर, किसी सागर से बहकर आया होता है, जिसे सामान्य भाषा में झरण कहते हैं। इसमें पृथ्वी के सारे तत्वों ने भूमिका निभाई होगी। जो लोग कुएं की तरह हैं उनके पास एक विचार होगा, गहराई होगी।

वे जानते हैं कि जो पानी मेरे पास है वह कहीं और से आया है। ऐसे लोगों का ‘मै’ गिरा हुआ होगा और वे जो सलाह देंगे वह सदैव सकारात्मक और जीवन की गहराई लिए होगी। इसलिए हमेशा उन लोगों का साथ रखिए जो कुएं की तरह गहरे हों, जिनकी झरण खुली हुई हो, जिनमें हमेशा पानी आता हो। कुआं छोटा हो, हौज बड़ा भी हो सकता है इसलिए बात यह नहीं है कि सलाह देने वाला व्यक्ति बड़ा है या छोटा। बात यह है कि वह भीतर से कैसा है। यदि कुटिल है तो नकारात्मक बात कहेगा, यदि सहज-सरल है तो कोई ऐसी बात कह जाएगा जो आपके लिए जीवनभर उपयोगी होगी।

अकेलापन नहीं, एकांत देता है भरोसा
पागल को देखकर मन में सवाल उठता है कि यह पागल हो क्यों गया? ईश्वर न करे आपको पागलखाने जाने का अवसर मिले पर यदि जाएं तो वहां लगे बोर्ड पर कुछ लक्षणों के अंत में यह भी लिखा होता है कि यदि ऐसा है तो आपको अपना मानसिक इलाज कराना चाहिए। हर व्यक्ति पाएगा कि इसमें से 80 प्रतिशत लक्षण उसमें हैं तो क्या वह पागल हो गया? हम कितने पागल हैं यह आपको अकेले में पता लगेगा। अकेले में इतने विचार हमारे भीतर आते हैं कि हम खुद से ही बातें करने लगते हैं।

बड़े से बड़ा समझदार व्यक्ति भी स्वयं से बात करता है और सारी सीमाएं लांघ जाता है। अकेले में जो भी बात की हो, जो भी विचार आपके भीतर प्रवेश किए हों, यदि उन्हें सिलसिलेवार कागज पर लिख लें और पढ़ें तो पता चल जाएगा कि आप किस किस्म के पागल हैं। अकेले में हमारी जीवन शक्ति खिसककर मन पर टिक जाती है।

मन को अकेलापन बहुत पसंद है। वह जानता है मेरा मालिक अकेला है और मैं इसे कहीं भी ले जाकर पटक सकता हूं। मन अपना काम शुरू कर देता है और फिर अकेलेपन में हम वो सब हो जाते हैं, जो बाहर नहीं हो पाए। धीरे-धीरे मन का खिलौना बन जाते हैं। लेकिन, जिस मन को अकेलेपन में अच्छा लगता है वही एकांत में डर जाता है। अकेलेपन को एकांत में बदलने के लिए योग करना पड़ता है, अपने भीतर परिपक्वता लानी पड़ती है।

एकांत में यह भरोसा होता है कि आपके अलावा एक परम शक्ति आपके साथ है। अकेलेपन में हम सारा संसार हमारे साथ है, ऐसा मान लेते हैं और अकेलापन पागल कर देता है, इसलिए जितने लोग, जितने विचार आएं, या तो उनको हटा दें या उनसे स्वयं हट जाएं। धीरे-धीरे अकेलापन एकांत में बदलने लगेगा और आप अपने ही पागलपन को पहचान जाएंगे।

सहज स्वीकारें विवाह बाद का बदलाव
सभी के जीवन में कभी न कभी ऐसा अवसर आता है जब लगने लगता है कि हमारी निजता कहीं खो गई है, मूल स्वभाव खंडित हो गया है। ऐसा अधिकतर लोगों के साथ विवाह के बाद होता है। मुझे कई युगल मिलते हैं, जो अलग-अलग अपनी पीड़ा व्यक्त करते हैं। वह पीड़ा पुरुषों में कम होती है, क्योंकि विवाह के बाद पुरुषों की परिस्थिति तो बदलती है, रहन-सहन बदल जाता है परंतु प्लेटफॉर्म नहीं बदलता। जिस परिवार में वे बड़े हुए हैं, उन्हें उसी परिवार में रहना है।

विवाह के बाद स्त्रियों के जीवन में चुनौतियां अधिक आती हैं, क्योंकि उन्हें नए परिवेश, नए परिवार के अनुसार ढलना पड़ता है। मायके में रहकर जैसा जीवन गुजारा है वह ससुराल में आकर या तो आहत होता है या अदृश्य हो जाता है। पिछले दिनों एक बहू ने शिकायत की कि इन दिनों जिस प्रकार का पारिवारिक जीवन है, कभी-कभी तो लगता है मेरा मूल स्वभाव ही खो गया है। देखिए, स्थितियों में कोई बदलाव नहीं हो सकता। ऐसे समय सबसे अच्छा तरीका है सबसे पहले स्थिति को अपने रोम-रोम में धन्यवाद भाव से स्वीकार करें। उस स्थिति को अभिशाप न मानते हुए परमात्मा शायद आपकी परीक्षा ले रहा है, ऐसा सोचकर उससे गुजरें। दुख बढ़ाने वाली बातों को सोचना, दोहराना छोड़, अपनी समूची चेतना और स्वभाव को परमात्मा से जोड़िए।

जीवन के प्रत्येक पल को प्रसन्नता की कसौटी पर कसें। जब भी कोई विपरीत परिस्थिति आए, सबसे पहले उसे सरल बनाएं, फिर उसमें अपने व्यक्तित्व का सहयोग दें, उसके बाद एक समझ तैयार होगी और फिर पूरी तरह सहज हो जाएंगे। सहज होकर ही इन हालात से निपटा जा सकता है। कष्ट को बार-बार याद करने से वह घटेगा नहीं, उल्टा बढ़ेगा ही।

बोलने में प्रस्तुति व समय का ध्यान रखें
बातचीत एक कला है। व्यक्ति और वस्तुओं की पहचान के साथ बच्चे का बोलना शुरू हो जाता है। झंझट शुरू होती है बाद में। जो लोग अधिक बोलते हैं उनके मुंह से कब कोई अप्रिय बात निकल जाए, पता नहीं लगता। ज्यादा बोलने के दो नुकसान हैं। एक तो सामने वाले पर आपकी अच्छी छवि नहीं बनती। दूसरा, हमारी ही मानसिक शक्ति खर्च हो जाती है और कई नुकसान उठाने पड़ सकते हैं। बोलते समय विषय, उसकी प्रस्तुति का क्रम और समय का निश्चित होना बहुत जरूरी है। चलिए, हनुमानजी से सीखते हैं यह कला।

हनुमानजी बड़बोले नहीं हैं, लेकिन वे जानते थे कि वानर निराशा में डूबे हुए हैं। इनके उत्साह को जगाने के लिए ऐसी वाणी बोलनी पड़ेगी, जिसमें बड़बोलापन दिखेगा। कहा, मैं खेल-खेल में इस समुद्र को लांघ सकता हूं। रावण को मारकर त्रिकूट पर्वत उखाड़कर ला सकता हूं। सुनने में अतिशयोक्ति लगती है, लेकिन हनुमानजी इस कला में माहिर थे कि शब्दों का कैसे उपयोग किया जाए। इसके तुरंत बाद उन्होंने जामवंत से विनम्रतापूर्वक प्रश्न पूछा और तुलसीदासजी ने लिखा,‘जामवंत मैं पूंछउं तोही। उचित सिखावनु दीजहु मोही।। हे जांबवान, मैं तुमसे पूछता हूं। मुझे उचित सीख देना कि मुझे क्या करना चाहिए। चूंकि जामवंत श्रीराम की सेना के सबसे वृद्ध सदस्य थे।

हनुमानजी उनके अनुभव का लाभ लेना चाहते थे। लेकिन इसी पंक्ति में हनुमानजी ने ‘उचित’ भी बोल दिया। उचित शब्द आया है तो लगता है कि क्या जामवंत अनुचित भी बोल सकते थे। हनुमानजी जानते थे कि जामवंत वृद्ध हैं। बातचीत करते हुए बूढ़े लोग कुछ भूल जाते हैं, विषय से भटक जाते हैं। बुढ़ापा सबको आना है। ऐसे लोगों के लिए यह बातचीत शिक्षा है। हम इसकी चर्चा करते चलेंगे।

योग्य पालक बनना है तो प्राणायाम करें
कुछ खेल ऐसे होते हैं, जिनमें प्रदर्शन खुलकर करना पड़ता है और कुछ ऐसे होते हैं; जिनमें छुपाना ही उसकी खूबी है। ताश का खेल ऐसा ही होता है। आपकी गोपनीयता आपकी चाल को मजबूत बनाएगी। बच्चों के लालन-पालन में माता-पिता को कभी-कभी ताश के खेल की तरह निर्णय लेने पड़ते हैं।

वर्षों पहले लालन-पालन में संतानों के प्रति माता-पिता आंख बंद करके भरोसा कर सकते थे। चूंकि आज के बच्चे भी चाल चलने में माहिर हैं, तो लालन-पालन अंधेरी गुफा से गुजरने जैसा है। पता नहीं गुफा का मुहाना कब मिले। इस अंधकार को ऐसे प्रकाश से मिटाना होगा, जिसे अध्यात्म में आत्म-प्रकाश कहा है। माता-पिता को सबसे पहले एक प्रयोग खुद पर करना होगा। पिता या माता की भूमिका में अपना पति-पत्नी होना या पुरुष-स्त्री होना बिलकुल अलग रखें, क्योंकि इससे आपके वाइब्रेशन में फर्क आएगा। पुरुष या पति, स्त्री या पत्नी के रूप में तनाव, बेचैनी, निराशा, आवेश और उदासी काम कर रही होती है। ऐसे में जब आप माता-पिता होते हैं और यदि अपने पुरुष या स्त्री, पति या पत्नी होने की स्थिति को नहीं भूलेंगे तो आपके निगेटिव वाइब्रेशन बच्चे लेंगे। अपने आप को इस स्थिति से काटने के लिए उस आत्म-प्रकाश को जगाना पड़ेगा, जिससे लालन-पालन की सुरंग में रोशनी आ जाए, आप अपनी संतानों को ठीक से देख सकें तथा बच्चे भी आपको ठीक से पहचान सकें।

प्राणायाम मनुष्य को उसकी काया से काटता है। जब आप देह से हटते हैं तब पुरुष या पति, स्त्री या पत्नी की भूमिका से हटना आसान हो जाता है और आप पिता या माता की भूमिका में आसानी से आ जाते हैं। एक ऐसी भूमिका जो भीतर से प्रसन्नचित्त, आशान्वित और सहज होगी।

बच्चों के खेल को मस्ती में न बदलने दें
राइट और रियलिटी में फर्क देखना हो तो छोटे बच्चों में झांकिए। बचपन में सही और वस्तुस्थिति की समझ नहीं होती। मसलन, यह सही है कि बच्चों के पास बहुत धन है। वे धनाढ्य परिवार में हैं, लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि वह धन का उपयोग वैसा नहीं कर सकते जैसा बड़े लोग कर रहे होंगे। अधिकतर बच्चे सनकी और जिद्‌दी इसीलिए हो जाते हैं। हर बच्चा अपने साथ मूल स्वभाव लेकर आता है।

पुनर्जन्म मानने वाली हिंदू संस्कृति तो कहती है कि हर जन्म में पूर्व जन्म के संस्कार भी आते हैं। जो इसे नहीं मानते वे भी सहमत हैं कि जन्म-पूर्व समय में माता-पिता का आचरण भी बच्चों का स्वभाव बन जाता है। उस मूल स्वभाव को मिटाया नहीं जा सकता। उसके भीतर छुपी अच्छी-बुरी आदतें अपने समय में बाहर निकलेंगी जरूर। किंतु जन्म के बाद उस बच्चे में जो जोड़ना है उसे लेकर सावधान रहें। आजकल आम शिकायत है कि बच्चे जिद्‌दी बहुत हैं। ध्यान रखिए, कोई भी बच्चा जि़द पकड़ने के पहले चार चरणों से गुजरता है। एक, खेल। हर बच्चा खेलता है। यदि खिलौना नहीं मिले तो खुद से खेलने लगता है। परमात्मा ने बचपन को नैसर्गिक ऊर्जा दी है, वह खेल में निकलती है। दो, खेल मस्ती में बदल जाता है। बस, यहीं से सावधान होना पड़ेगा। खेल एक अनुशासित शारीरिक क्रिया होती है, लेकिन बच्चा नियम भंग करता है तो उसे मस्ती कहेंगे।

मस्ती पर नियंत्रण नहीं पाया गया तो अगला चरण है धमाल और यदि धमाल को नियंत्रित नहीं किया तो अगला चरण होगी शैतानी अौर फिर शुरू हो जाती है जिद। बच्चे की जिद को लेकर परेशान होने के पहले समय रहते तैयारी की जा सकती है। बालदेह अपने साथ भगवान की पहली ऊर्जा लेकर आई है। इसमें जोड़-घटाव हमें ही करना है।

ससुराल में अध्यात्म की दुनिया बसाएं
स्त्रियां अपने जीवन में पुरुषों के मुकाबले कुछ अलग ही हालात से गुजरती हैं। खासतौर पर जब मैं कथा कर रहा होता हूं तब ऐसी अनेक स्त्रियां मिलती हैं, जो बताती हैं कि विवाह के पश्चात हमारा वैवाहिक जीवन वैसा नहीं है, जैसा सोचा था और इसके कारण वे खुश नहीं हैं या डिप्रेशन में आ गईं हैं। इसका निदान दूसरे किसी व्यक्ति से नहीं मिल सकता, क्योंकि स्त्रियों को जीवन में एक बार प्लेटफॉर्म बदलना पड़ता है, जिससे पुरुष मुक्त हैं।

मायके से ससुराल तक की यात्रा हर स्त्री के लिए बड़ी कठिन और चुनौतीपूर्ण है। पीहर अतीत है, जहां लालन-पालन में लाड़-प्यार के कारण उसकी कमजोरियों को दबा दिया गया। समझदार माता-पिता ने यदि समझाया भी है तो रिजर्वेशन के साथ। वे भूल जाते हैं कि भविष्य में बेटी को इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है। ससुराल के जीवन में उसे आक्रामकता, स्पष्टता, परायापन और शोषण दिखने लगता है, क्योंकि वहां जो भी समझाएगा उसका लेवल वह नहीं होगा, जो मायके में माता-पिता का रहा होगा। उस युवती को लगता है कि ससुराल के लोग प्रेम नहीं, दिखावा कर रहे हैं। ऐसा हो भी सकता है और नहीं भी। लोग लाख चिल्ला लें कि सास-ससुर माता-पिता बनें, बहू को बेटी समझें, लेकिन होगा वही जो यथार्थ है।

मायके और ससुराल के बीच की यात्रा सुखमय बनानी है तो नई दुनिया बसानी पड़ेगी जो है अध्यात्म की दुनिया। घर चलाते हुए किसी भी स्त्री के लिए योग का बड़ा परिणाम होगा आत्मबल और आंतरिक प्रसन्नता। यह ताकत उसे स्वयं ही अर्जित करनी होगी। आपके लिए कोई नहीं बदलेगा, लेकिन यदि आप बदल गईं तो फिर उस योग के दायरे में आकर दूसरे भी शायद ऐसे हो जाएंगे जैसा आप चाहती हैं।

बच्चों को गहरे रिश्तों का उपहार दें
जन्मदिन और उपहार परम्परा है। बच्चों के जन्मदिन पर हम ढूंढ़-ढूंढ़कर उपहार देते हैं। इसे उल्टा करके बोलिए। उपहार ऐसा दें कि उससे नया जन्म हो जाए। दार्शनिक कहते हैं- हम प्रतिदिन मरते हैं। जिस दिन मृत्यु आती है उस दिन पल-पल मरने का काम पूरा हो जाता है। ऐसे ही हम प्रतिदिन जन्म भी लेते हैं। यदि इस बात को समझें तो उपहार के मतलब बदल जाएंगे। बच्चों को आप जो सबसे अच्छा उपहार दे सकते हैं वह है गहरा रिश्ता।

कुछ ऐसे रिश्ते हैं कि यदि सही ढंग से जीवन में आ जाएं तो इससे अच्छा कोई उपहार नहीं। यह कठिन चुनौती का दौर है। कभी संसार परेशान करेगा, कभी संपत्ति उलझा देगी, कभी संबंधों से पीड़ा होगी, कोई स्वास्थ्य के कारण टूट जाएगा और कभी संतान से दिक्कत पैदा होगी। ऐसे समय गहरे रिश्ते ही काम आएंगे। बच्चों को कुछ ऐसे गहरे रिश्ते जरूर सौंप दीजिए। मैं ऐसे अनेक परिवारों को जानता हूं, जो सात समंदर पार रहने के बाद भी मुसीबत में एक-दूसरे के लिए दौड़ पड़ते हैं। यह रिश्ते की गहराई है कि वे एक-दूसरे का दर्द नहीं देख सकते। 

बच्चों को लालन-पालन के समय ही आपस में शिकायत करने वाले चित्त को विराम देना सिखाएं। उनमें सहयोग की भावना डालें और उसके बाद सहायता क्यों और कैसे की जाती है इसे कूट-कूटकर भर दें।
कभी-कभी माता-पिता पाते हैं कि बच्चे आपस में मिलकर उनकी आलोचना कर रहे होते हैं। उनके लालन-पालन के ढंग पर असहमति व्यक्त हो रही होती है। ऐसे समय आवेश में न आएं, बल्कि यह मानें कि ये आपस में इस विषय पर खुल रहे हैं और उनका यही खुलना उन्हें एक बना देगा, इसलिए पारिवारिक जीवन जीने वाले लोगों के लिए किसी को देने के लिए सबसे बड़ा उपहार है एक ऐसा गहरा रिश्ता, जो विपरीत समय में आपके साथ खड़ा हो जाए।

बुजुर्गों के अनुभवों का लाभ लीजिए
पुरानी कहावत है, हर अच्छी चीज की सीमा होती है। अच्छा बहुत अधिक नहीं हो सकता पर एक अच्छी बात है, जो बहुत अधिक भी हो सकती है और वह है प्रशंसा। किंतु ध्यान रखें, तारीफ यदि सीमा लांघ जाए तो चापलूसी के घेरे में आ जाएगी या लोग संदेह करेंगे। प्रशंसा सदैव उपलब्धि के अनुपात में होनी चाहिए। जामवंत हनुमानजी की पर्याप्त प्रशंसा कर चुके थे।

हनुमानजी जानते थे, इस प्रशंसा के पीछे प्रोत्साहन है, प्रेरणा है। प्रशंसा मिले तो विनम्र हो जाएं। यह हनुमानजी की विनम्रता ही थी कि उन्होंने जामवंत से पूछा और तुलसीदासजी ने लिखा, ‘जामवंत मैं पूंछउं तोही। उचित सिखावनु दीजहु मोही।।’ जामवंतजी, उचित सीख दीजिए कि अब मुझे क्या करना चाहिए। यहां उचित शब्द का अर्थ है हनुमानजी जानते थे कि जामवंत वृद्ध हो गए हैं। किसी वृद्ध व्यक्ति से बात करें तो वह दो लेवल पर चलता है- अपने समय की पुरानी बात करेगा या एक ही विषय में दो-चार अन्य विषय डालकर सारी बातें एक साथ करने लग जाएगा। हनुमानजी गुजरती पीढ़ी को संदेश देना चाहते हैं कि आप बातचीत करते समय जागरूक रहें। आपका शरीर थका है, इन्द्रियां शिथिल हुई हैं, लेकिन होश बचाए रखिए। वे युवा पीढ़ी को भी संदेश देते हैं कि उन्हें बुजुर्गों की वाणी का सम्मान करना चाहिए, अनुभवों का लाभ लेना चाहिए।

जामवंत भी समझ गए थे कि उचित क्यों कहा गया है, इसलिए बहुत ही सारगर्भित ढंग से हनुमानजी से कहा,‘एतना करहु तात तुम्ह जाई। सीतहि देखि कहहु सुधि आई।।’ हे हनुमान, तुम इतना ही करो कि सीताजी को देखकर लौट आओ और उनकी खबर कह दो।’ हनुमानजी मन ही मन मुस्कुराए। जामवंतजी ने लिमिट बना दी है, लंका में जाकर सीमा में रहकर काम को अंजाम देना है और उन्होंने ऐसा ही किया भी।

न्याय से प्राप्त दुख सहना यानी तितिक्षा
हमारे शास्त्रों में धन पर बहुत लिखा गया है। लक्ष्मी न हो तो दुख, हो तो भी दुख। विशेषज्ञ जो भी विश्लेषण करें, पर आज भारतीय जीवन उथल-पुथल से गुजर रहा है। इसे आध्यात्मिक ढंग से देखें तो बाहर की दिक्कत पर तो कोई नियंत्रण नहीं किया जा सकता, लेकिन यह परेशानी भीतर अलग ढंग से स्वीकार की जा सकती है।

इस समय लोग त्रस्त, चिंतित और भयभीत हैं। इन तीनों स्थितियों का एकसाथ इलाज केवल अध्यात्म के पास है। भागवत के 11वें स्कंध के 19वें अध्याय में श्रीकृष्ण जीवन से जुड़े कुछ शब्दों की व्याख्या कर उद्धव को समझा रहे थे। उस समय एक शब्द आया ‘तितिक्षा। ‘तितिक्षा दु:खसंमर्षो जिह्वोपस्थजयो धृति:’ न्याय से प्राप्त दुख के सहने का नाम तितिक्षा है। जिह्वा और जननेंद्रियों पर विजय प्राप्त करना धैर्य है। श्रीकृष्ण ने बहुत अच्छे ढंग से समझाया जो आज हमारे बहुत काम का है। इस समय हमें जो दुख हो रहा है वह न्याय के कारण है। इसे अन्याय नहीं कह सकते, यह तितिक्षा है। आगे कृष्ण समझाते हैं- अपनी जीभ और खासकर भोग-विलास से जुड़ी इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने को धैर्य कहेंगे। जिन बड़े नोटों को मोक्ष प्रदान किया गया है उनके उत्तरकर्म में ऐसे दृश्य आने ही थे, क्योंकि लक्ष्मी की ये दो बड़ी संतानें लोगों के भोग-विलास और अनुचित आचरण में काम आने लगी थीं। यदि कृष्णजी की मानें तो आने वाले समय में धैर्य बहुत काम आएगा।

अधीरता अशांति को ही आमंत्रण देना है, इसलिए सत्संग कर लें, शास्त्र पढ़ लें और खासतौर पर योग कर लें। योग मनुष्य को वर्तमान से जोड़ता है। अभी की घटना हमें या तो अतीत में या भविष्य में फेंक रही है। हनुमान चालीसा से योग तो इस वक्त और कारगर होगा। वर्तमान पर टिकें, इसे समझें तो अतीत व भविष्य दोनों का सही ढंग से लाभ मिल जाएगा।

लापरवाही से बचें, बेपरवाही अपनाएं
जिम्मेदारी का अहसास खुद एक तपस्या है। गैर-जिम्मेदार लोग खुद के और दूसरों के लिए भी हानिकारक हैं। लापरवाहों से सदैव बचिए। बाहर का निपटारा तो कायदे-कानून लागू करके किया जा सकता है, लेकिन घर-आंगन में अपने ही लोगों की लापरवाही खुलेआम नाचती है।

बच्चों के लालन-पालन में माता-पिता को जिन बातों में ज्यादा दिक्कत आती है उसमें एक है लापरवाही। समय रहते यदि बच्चों की लापरवाही पर नियंत्रण नहीं पाया तो उसका अगला कदम आलस्य हो जाता है। आलस्य वक्त आने पर प्रमाद में बदल जाता है और प्रमादी व्यक्ति के द्वार पर सफलता कभी नहीं फटकती। अच्छे से अच्छे तपस्वी, समझदार और योग्य व्यक्ति के भीतर भी लापरवाही का थोड़ा अंश जरूर रहता है। ऋषि-मुनियों ने एक शब्द दिया है- बेपरवाही। गुरुनानक देव इस पर बहुत अच्छा बोले हैं। ओशो ने अपने ढंग से व्याख्या की और राम व कृष्ण तो इसे आचरण में उतारकर बता गए। हर धर्म के शीर्ष लोगों ने इसे अनूठे ढंग से जीया है। लापरवाही कृत्य से जुड़ी है। बेपरवाही परिणाम से जुड़ी है। बेपरवाह व्यक्ति कोई भी काम करना छोड़ता नहीं है, लेकिन परिणाम जो भी मिले वह परमशक्ति पर डाल देता है। जैसे ही ईश्वर पर भरोसा बढ़ाते हैं, वह आपकी बेपरवाही देखकर ही लापरवाही से बचा लेता है।

बच्चों को बारीकी से बेपरवाही का अर्थ बताया जाए। संतान ने आपके मुकाबले दुनिया कम देखी है। आपकी चाहत उसकी समझ बन जाना आसान नहीं है। बच्चे तो यह भी नहीं जानते कि वे लापरवाही कर रहे हैं। उन्हें लापरवाही की जगह बेपरवाही समझाएं, महान हस्तियों की कथा से जोड़ें। यदि वे बेपरवाही समझ गए तो लापरवाही जाती रहेगी।

टारगेट के तनाव से निकलने का सूत्र
इन दिनों प्रबंधन से जुड़े लोगों से यदि पूछें कि आपको सबसे ज्यादा तनाव किस बात का है? तो जवाब होगा टारगेट का। पुराणों में वर्णित एक राक्षस को वरदान था कि उसकी रक्त की बूंदें धरती पर गिरेंगी तो और बड़ी मात्रा में रक्त बढ़ जाएगा, इसीलिए देवी ने संहार करते समय उसके रक्त को पी लिया।

आजकल टारगेट इसी तरह हैं। सभी कहते हैं एक लक्ष्य पूरा करो तो अगली बार उसमें और अधिक जुड़ जाता है। कुछ तो इतने दबाव में आ गए हैं कि डिप्रेशन में चले गए अथवा दूसरी बीमारियां लग गईं। यह तय है कि लक्ष्य में बढ़ोतरी खत्म नहीं होगी। जो किया जा सकता है, कम से कम वह तो करें। वह है अपनी सुरक्षा। बढ़ते हुए लक्ष्य तक पहुंचना है, लेकिन खुद का नुकसान न हो जाए यह सावधानी भी रखनी होगी। नियम बना लें कि सुबह उठने, घर से निकलने, वापस घर आने पर और रात को सोते समय कुछ सकारात्मक शब्दों का प्रयोग करते रहेंगे। ऐसे शब्द जिनमें आशा, आनंद, विजय की कामना, जीत की जि़द जैसे भाव हों। कुछ लोग तो घर से निकलते समय काम के दबाव के कारण कहते हैं- आज फिर मरेंगे। ऐसे ही जब थके-मांदे घर आते हैं तो कहते हैं- आज भी निपट गए।

धीरे-धीरे ये शब्द सोच बन जाते हैं, जिससे परेशानियां बढ़ जाती हैं। हमारे यहां बहुत से ऐसे मंत्र, चौपाइयां, महापुरुषों-फकीरों के आदर्श वाक्य हैं, जिन्हें इन चार समय पर दोहराया जा सकता है। आप पाएंगे आपकी मानसिकता मे परिवर्तन आया और सोचने लगेंगे कि ‘क्या हुआ है?’ इसे छोड़ें और ‘ऐसा भी कुछ हो सकता है’ इस पर सोचें। भगवान ने मनुष्य बनाकर आप पर भरोसा किया है। आप उस पर भरोसा करके देखिए, आपका श्रेष्ठ आपको निराश नहीं होने देगा।

ध्यान, योग से मस्तिष्क रचनात्मक बनाएं
इस दौर में हर कोई ‘दोगुना’ के चक्कर में है। ईश्वर जानता था कि जब मनुष्य को संसार में भेजूंगा तो वह दोगुने के चक्कर में जरूर पड़ेगा, इसलिए हमारी पहले ही मदद कर दी। सारी इन्द्रियां दो कर दीं। आंख, नाक, कान, हाथ, पैर आदि। ये सब अंग तो दिखते हैं, लेकिन जो नहीं दिखता वह है हमारा मस्तिष्क।
फकीरों ने इसके भी दो भाग बताए हैं। विज्ञान इस पर काफी हद तक सहमत है। योग विज्ञान कहता है इसका बायां हिस्सा चंद्र और दायां सूर्य है। चंद्र स्वर स्त्रीभाव है और सूर्य स्वर पुरुषभाव। यह एक पूरा दर्शन है। काम की बात यह है कि जब भी हम किसी चुनौती के सामने होते हैं, हमारा मस्तिष्क दो तरह से काम करने लगता है।
एक रचनात्मक विचार और दूसरा परम्परागत सोच। जब आप रचनात्मक पक्ष से विचार कर रहे होते हैं तो परिवर्तन सहर्ष स्वीकार करते हैं। टेलीफोन, टीवी और कंप्यूटर पर वर्षों पहले जो बात कही गईं, कुछ लोगों ने उनकी खिल्ली उड़ाई, उसे स्वीकार नहीं किया, लेकिन रचनात्मक विचार वाले इससे उसी समय जुड़ गए और लाभ भी उठाया। आज भी यदि कहा जाए कि बैंक 24 घंटे खुले रहने चाहिए, रेल व्यवस्था सरकार से लेकर निजी हाथों में दे दी जाए, सरकारी अस्पताल बंद हो जाएं तो सुनकर जो लोग कहें कि यह खतरनाक है, वे पारम्परिक सोच वाले होंगे। यह सही है या गलत, हमें इसमें नहीं जाना है।

बात यह है कि ऐसी अविश्वसनीय बातें स्वीकार किस ढंग से करते हैं, यहां से रचनात्मक विचार हमारे काम आते हैं। यदि हमारे भीतर कुछ नया करने की ललक बनी रही, परिवर्तन से जुड़ने की इच्छा तीव्र होती गई तो कम परिश्रम में अधिक सफलता अर्जित कर लेंगे, इसलिए अपनी इन्द्रियों का उपयोग तो करते ही हैं, मस्तिष्क को भी रोज ध्यान-योग से गुजारते हुए रचनात्मक बनाइए।

सफलता के साथ दिलाए, वही नेतृत्व
सभी को कभी न कभी किसी न किसी नेतृत्व की जरूरत होती है। विज्ञान और तकनीक के इस युग में अब लोगों को सबकुछ खास तौर पर ज्ञान और जानकारी इतनी आसानी से मिल जाते हैं कि उन्हें इसके लिए नेतृत्व की जरूरत नहीं होती।

पहले यह काम नेता किया करते थे, लेकिन अब न ऐसे नेता रहे और न नेतृत्व ग्रहण करने वाले लोग। इसलिए इस युग में लोग किसी का नेतृत्व स्वीकार करने की बजाय बहस ज्यादा करते हैं। ऐसे समय में सामूहिक प्रयास खासकर अध्यात्म के क्षेत्र में इस स्थिति को और अच्छा बना सकता है, क्योंकि ज्ञान-विज्ञान ने जो अशांति दी है उसे अध्यात्म ही मिटा सकता है। अध्यात्म कहता है एकांत में खुद को शांत करें, परिपक्व करें और फिर यही प्रयोग सामूहिक रूप से भी करें। किष्किंधा कांड के अंतिम चरण में जामवंत हनुमानजी को समझा रहे हैं, ‘सीताजी को देखो, लौटकर आओ और उनकी खबर सुनाओ, यह स्पष्ट काम उन्होंने हनुमानजी को सौंपकर जो कहा और तुलसीदासजी ने लिखा वह हमारे बड़े काम का है। ‘तब निज भुज बल राजिव नैना। कौतुक लागि संग कपि सेना।।’ कमल नयन श्रीराम बाहुबल से राक्षसों का संहार कर सीताजी को ले आएंगे। खेल के लिए ही वे वानरों की सेना साथ लेंगे।

जामवंत ने हनुमानजी को समझाने के तुरंत बाद रामजी को याद करते हुए उनके पराक्रम का बखान किया। जीवन में जब भी कोई काम करने जाएं, यह न भूलें कि हमसे बड़ी एक शक्ति है और यदि वह हमारे साथ है तो जो भी काम करेंगे, उसमें सफलता तो सुनिश्चित होगी ही, बाद में शांत और प्रसन्नचित्त भी रहेंगे। ज्ञान-विज्ञान के इस युग में अब कोई ऐसा नेतृत्व चाहिए जो सफलता के साथ शांति भी दिलाए और वह नेतृत्व परमपिता परमेश्वर हो सकते हैं।

अपने वर्तमान को उत्साह से जोड़िए
आप चाहें या न चाहें, कुछ न कुछ काम तो करना ही पड़ेगा। कुछ लोग बहुत ज्यादा काम करते हैं, कुछ सामान्य रूप से काम करते हैं, लेकिन शायद ही कोई ऐसा होगा जो कुछ भी नहीं कर रहा हो। जिसको हम ‘कुछ भी नहीं कर रहा’ कहते हैं, दरअसल या तो वह दिशा भटकना है या आलस्य है। लेकिन, आलस्य भी दिशाहीन सूक्ष्म क्रिया है। केवल मुर्दा ही होता है जो कुछ नहीं करता।

हमें तो हर समय कुछ न कुछ करना ही है तो फिर जो भी करें, पूरे उत्साह से करें। चार स्तरों पर उत्साह रखा जा सकता है। एक, शरीर से उत्साह बनाए रखिए, दो, दिल से उत्साह होना चाहिए, तीन, दिमाग से भी उत्साह रखिएगा और चार, कभी-कभी मजबूरी में भी उत्साह बनाए रखना पड़ता है। जैसे बहुत थके हुए आए हों और घर में प्रवेश करते ही बच्चा जिद करे कि मेरे साथ खेलो। उस समय भले ही आप दिल-दिमाग और शरीर से थके हुए हों पर बच्चे के साथ उत्साह से खेलना पड़ता है। यह मजबूरी का उत्साह होता है। कई बार लोग इस उत्साह को जीवनसाथी के साथ भी प्रयोग में ले आते हैं लेकिन, इतना तो तय कर लीजिए कि बिना उत्साह के कोई काम नहीं करेंगे। उत्साह बना रहे इसके लिए शास्त्रों में एक वचन आया है, ‘नवो नवो भवति जाय मानव

रोज-रोज नया जन्म होता है। जो मनुष्य आपको कल मिला था वह आज वैसा नहीं है और स्वयं आप भी वह नहीं हैं, जो कल थे। पुराने कपड़े की तरह पुराना दिन फटकर चला जाता है और एक नया आपके सामने होता है। जब जीवन प्रवाह में रहता है, बहता हुआ रहता है तो स्वच्छ भी रहता है और शांत भी। इसलिए बीते हुए पर बहुत अधिक मत टिकिए, आने वाले कल को लेकर बहुत अधिक चिंतन न करें। बस, वर्तमान को उत्साह से जोड़िए। यहीं शांति बसी है।

पारिवारिक जीवन में गीता को उतारें
महाभारत में यूं तो बहुत से दृश्य ऐसे हैं जो बहुत बड़ा संदेश देते हैं, लेकिन कुरुक्षेत्र में युद्ध के पहले अनूठी घटनाएं घटी हैं जिनमें से एक है गीता का जन्म। युद्ध से ठीक पहले के दृश्य की विशेषता यह रही कि एक ही परिवार एक साथ भी खड़ा था और आमने-सामने भी खड़ा था। थोड़ी देर बाद कौरव-पांडवों के बीच युद्ध आरंभ होने वाला था। उसी समय अर्जुन की निराशा का समापन करने के लिए श्रीकृष्ण बोलने लगे।

गीता हिंसा के वातावरण में बोले गए प्रेम के अद्‌भुत बोल हैं। जब चारों ओर इतनी नकारात्मकता फैली हो, तब भगवान कृष्ण संसार के सबसे अद्‌भुत वक्तव्य जारी कर रहे थे। गीता की विशेषता यह है कि रोमांच के साथ रोमांस किया जा रहा था। रोमांस का अर्थ होता है प्रेम की अनुभूति। कृष्ण जैसे परत दर परत जीवन खोल रहे थे। उनके शब्द प्रेम से घुले हुए थे। हमारे परिवारों में भी कई बार कुरुक्षेत्र जैसे अवसर आ जाते हैं। अपने अपनों के सामने होते हैं। चाहे वे पिता-पुत्र, भाई-भाई या पति-पत्नी हों। ऐसे समय गीता बहुत बड़ा आश्वासन है। हमारे रिश्तों के बीच गीता अवश्य घटते रहनी चाहिए, क्योंकि अर्जुन का विरोध था कि मैं वह नहीं करूंगा जो आप कह रहे हैं।

कृष्ण चाहते थे जो मैं कह रहा हूं उसे तुम समझ लो और उसके बाद वह करो, जो तुम्हे ठीक लगे। आज परिवारों की भाषा ऐसी ही होनी चाहिए। अब परिवारों में नेतृत्व बंट चुका है। पहले एक दादा, पिता या बड़ा भाई जो कह देता था उसे सब मान लेते थे। अब परिवारों में शक्ति के छोटे-छोटे केंद्र बन गए हैं। ऐसे समय सदस्यों को एक-दूसरे के साथ जीने, समझने और करने के लिए जिस भाषा की जरूरत है वह गीता में बसी है। इसलिए प्रत्येक घर में न सिर्फ गीता रखी जाए बल्कि जरूरत पड़ने पर उसे पढ़ा भी जाए और जीवन में उतारा जाए।

मन काबू में तो व्यक्तित्व प्रभावशाली
यदि आप प्रभावशाली बनना चाहते हैं तो केवल धन, पद और प्रतिष्ठा से काम नहीं चलेगा। ये सब तो अस्थायी होते हैं। आज हैं, कल नहीं रहेंगे। फिर भी मनुष्य को प्रभावशाली होना चाहिए। आपसे कोई मिले, आपके पास बैठे तो उसे लगना चाहिए कि किसी ऐसे व्यक्ति के पास बैठे हैं, जिसके पास से जीवन की तरंगें महसूस हो रही हैं। यह तब होगा जब मन नियंत्रण में हो, आप भीतर से शाांत हों। जैसे ही मन नियंत्रित हुआ, हम प्रभावशाली हो जाते हैं, क्योंकि हमारे शरीर से पॉजिटीव रेज़ निकलने लगती हैं। इसलिए जिन्हें प्रभावशाली होना है उन्हें मन पर काम करते रहना चाहिए।

मन उत्सुक होता है और उसकी उत्सुकता तुरंत भोग में बदल जाती है। समय से पूर्व मनचाहा मिल जाए, सीमा से अधिक प्राप्त हो ये मन की मांग हैं। यदि चिकित्सा विज्ञान का कोई छात्र पढ़ते समय ऑपरेशन करने की सोचे तो यह ठीक नहीं होगा। किंतु मन खुद को आगामी भूमिकाओं में तुरंत पटक देता है। उसके अहंकार के शोर में शांति की गूंज दब जाती है। हमारे समूचे चिंतन पर जब मन प्रभावशाली होता है तो इसमें दूसरों का प्रवेश हो जाता है। याद रखिए, हमारे भीतर इतने दूसरे लोग प्रवेश कर जाते हैं कि हम उनसे छूट ही नहीं पाते। इसलिए ध्यान रखिए, अगर प्रभावशाली होना है तो मन जो आपाधापी मचाता है, अनेक व्यक्तियों को हमारे भीतर एक साथ प्रवेश करा देता है, इन सबसे बचना होगा।

इसलिए मन को नियंत्रत कीजिए और इसके लिए जब भी समय मिले, योग जरूर कीजिए। हनुमान चालीसा से मेडिटेशन मन को नियंत्रित करने का सरलतम तरीका है। जैसे ही मन नियंत्रित हुआ, आपके पास कोई सांसारिक पद न हो, धन न हो पर आपके रोम-रोम से प्रभाव बहेगा और दूसरे उसका दिल से सम्मान करेंगे।

भक्त बनकर जीवन में शांति उतारें
दुुनियादारी के सारे काम करते हुए यदि कोई खुश रहना चाहे तो वह जितने प्रयास करे वे सारे अधूरे हो सकते हैं। किंतु यदि कोई खुद को भक्त बना ले तो वह शांत जरूर हो सकेगा। आज के समय में भक्त बनने की बात कम जमती है। खास तौर पर नई पीढ़ी के बच्चे तो सवाल उछाल देते हैं कि आखिर भक्ति करें क्यों? किसी भी धर्म से हों, यदि भक्ति करते हैं तो आप अपने से ऊपर एक शक्ति पर विश्वास करने लगते हैं। ईश्वर से यह रिश्ता रस बनकर अापके जीवन में उतरता है। मनुष्य भीतर से जितना नीरस होगा उतना अशांत होगा और जितना रसभोर होगा उतनी जल्दी शांत हो जाएगा।

भक्ति को केवल पूजा या कर्मकांड न मानें। यह किसी परमशक्ति से अदभुत  रिश्ते की शुरुआत है, जिसमें सबकुछ अनुभूति पर आधारित है। भक्ति में पांच रस हैं- शांत, दास्य, सख्य, वात्सल्य और मधुर। हमें सबसे अधिक जरूरत है शांत रस की। विज्ञान के इस युग में प्रत्यक्ष अनुभव हावी हो गया है। अध्यात्म कहता है बहुत कुछ शांति अनुभूति पर आधारित है।

भक्ति में भी शांत रस का जन्म अनुभूति से होता है। हम सब शांति की तलाश में हैं। यदि भक्त बनते हैं तो दुनिया का कोई काम छोड़ना नहीं है लेकिन, हमारे भीतर शांत रस उतरेगा ही उतरेगा। फिर यही अनुभूति रस बनती है और यही रस आपको शांत करता है। रस दुनिया में भी होता है, लेकिन दुनिया की वस्तु में जो रस आता है वह अस्थायी होकर जल्दी अशांत करता है। परमात्मा से जुड़ने में जो रस आता है वह स्थायी होकर शांति को जन्म देता है। शांति जिस भी कीमत पर मिले, हासिल कर लीजिए। वरना आने वाले समय में तो इसे ढूंढ़ते रह जाएंगे। जीवन में सबकुछ मिलेगा, बस शांति का ही पता नहीं होगा।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....मनीष
ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....जय शुक्रताल धाम... 

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