Monday, December 4, 2017

जीवन जीने की राह (Jeevan Jeene Ki Rah11)

अपना भला करें पर दूसरों का बुरा हो....
निज हित की कामना सभी के भीतर होती है। कोई भी काम करना हो, अपना भला जरूर हो ऐसी भावना सभी रखते हैं। लोग अपने भले के लिए ही कार्य आरंभ करते हैं। बहुत कम लोग होते हैं जो अपना भी अच्छा हो जाए और दूसरे का बुरा भी हो ऐसी वृत्ति रखते हों। ऐसी वृत्ति हो तो अपनी भलाई सोचना स्वार्थ नहीं होगा। हमें स्वार्थ छोड़कर ऐसे काम जरूर करने चाहिए, जिनसे दूसरों का भला हो। कैसे अपना भला हो जाए, दूसरे का बुरा हो यह श्रीराम से सीखा जा सकता है। लंका कांड में भगवान राम अंतिम समय तक प्रयास करते रहे कि रावण के भीतर की बुराई मिट जाए। जामवंत के प्रस्ताव पर अंगद को दूत बनाकर भेजना तय हुआ। अंगद रामजी की सेना का सबसे युवा सदस्य था। नई पीढ़ी को समय रहते अधिकार और जिम्मेदारियां सौंप देनी चाहिए। अंगद जाने लगे तो श्रीराम ने उन्हें बड़ी अद्भुत शिक्षा दी। तुलसीदासजी ने लिखा, ‘बहुत बुझाइ तुम्हहि का कहऊॅ। परम चतुर मैं जानत अहऊॅ।।काजु हमार तासु हित होई। रिपु सन करेहु बतकही सोई।। रामजी कहते हैं, ‘अंगद, मैं जानता हूं तुम परम चतुर हो परंतु रावण से बात करते समय पूरी तरह से सावधान रहना। वैसी ही बात करना, जिससे हमारा काम भी हो जाए और उसका भी कल्याण हो। यह कहने के लिए बड़ी ताकत चाहिए। राम जैसे लोग ही ऐेसे संवाद बोल सकते हैं। जब हम भक्ति कर रहे हों, उसमें अपना भला जरूर सोचिए पर दूसरे का बुरा हो जाए, इसे लेकर भी सावधान रहिए।

काम में तत्परता के साथ सहजता भी हो...
अब आलस्यअपराध है। तय करने के तुरंत बाद ही काम निपटाना पड़ेगा। इसे तत्परता कहते हैं, जो धीरे-धीरे योग्यता बन जाती है। टीवी पर जोकरोड़पतिकार्यक्रम देखा जा रहा था, उसमें आपके पास कितना ही ज्ञान हो पर चयन तत्परता से होता था कि किसने सीमित समय में कितनी जल्दी उस काम को निपटाया। कई लोग जल्दी से काम निपटाते भी हैं।

धीरे-धीरे तत्परता आदत बन जाती है और आदत बनते ही वह हड़बड़ाहट में बदल जाती है। खूबी ही कमजोरी बन जाती है, क्योंकि तत्परता और हड़बड़ाहट के बीच सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है सहजता। अपनी सहजता कभी खोएं। कितनी ही जल्दी परफार्मेंस देना हो, सहज बनें रहें। वरना हड़बड़ा जाएंगे। खास तौर पर जब चुनौती सामने खड़ी हो तो हड़बड़ाहट बिल्कुल करें। मनुष्य के जीवन की समस्याएं उसके शरीर के दो अंगों की तरह होती हैं। बाल और नाखून। इन्हें काटते समय हम बहुत सावधान रहते हैं। यदि जल्दबाजी कर भी रहे हों तो हड़बड़ाहट नहीं करते, क्योंकि हम जानते हैं इनका जरा-सा गलत कटना नुकसान दे सकता है। इन्हे जड़ से उखाड़ने की गलती भी करें। इसी तरह जब समस्याएं-चुनौतियां सामने हों, तत्परता बनाए रखें, सहजता खोएं तो आप हड़बड़ाहट में नहीं उतरेंगे। परत-दर-परत जब आप समस्याओं को खोलेंगे तो सबसे नीचे समाधान छुपा हुआ पाएंगे। सहज होकर खोलेंगे तो उस अंतिम बिंदु पर पहुंच जाएंगे जहां समाधान हैं। इसलिए तत्पर रहें, सहज रहें, हड़बड़ाहट से बचें।

ईश्वर को पूजते हैं, तो उनके गुण भी अपनाएं..
सबसे शानदार इंसान वह है, जो दूसरों को खुशी बांट सके। दूसरों की झोली में जितनी अधिक प्रसन्नता, मस्ती और आनंद डालेंगे, ऊपर वाला इन्हीं चीजों से आपकी झोली भर देगा। लेकिन इसके लिए देने की तैयारी करनी होगी। जब भी कुछ देने जाएंगे तो मन समझाएगा कि क्यों बेकार का लेन-देन कर रहे हो? इस मामले में मन कंजूस है। इसके लिए भीतर वृत्ति पैदा करनी पड़ेगी तब बिना किसी समीकरण के दूसरों को कुछ दे पाएंगे। इस वृत्ति का नाम है दया। जैसे ही यह वृत्ति भीतर उतरती है, हम दूसरों की मदद करने की इच्छा रखने लगते हैं। किसी के कठिन समय में उसका सहारा बन जाते हैं। उसके साथ रहकर अपने जीवन का कुछ रस उसे दे देते हैं। लेकिन, यदि हमारे भीतर दया नहीं है तो यह काम नहीं कर पाएंगे और करेंगे भी तो जमानेभर के समीकरण बैठाएंगे। आपका संबंध किसी भी धर्म से हो, घर में कहीं कहीं परमात्मा की कोई छवि, मूर्ति या स्थान जरूर होगा। जो दूसरों का दुख दूर करने की भावना रखे उसे दयावान कहा गया है। ऐसा व्यक्ति बड़ा कीमती होता है। शास्त्रों में ईश्वर के रूप को दयामय माना है। इसीलिए रहीम और रहमान जैसे शब्द निकलकर आए। क्षमा, करुणा, दया ये दिव्य गुण परमात्मा में होते हैं और इसीलिए वह पूजनीय है। ऐसी शक्ति को यदि आप पूज रहे हैं तो उसके कुछ गुण हमारे भीतर भी उतरने चाहिए। जब बिना किसी समीकरण के दूसरों का हित करते हैं, ऊपर वाला हमारे लिए खुशियों की बारिश करने लगता है।

देह के साथ संयम रखेंगे तो प्रदर्शन से बचेंगे...
बहुत कमलोग ऐसे हैं, जो अकेले में अपनी देह के साथ मनुष्य जैसा व्यवहार करते हों। चाहे खान-पान का हो या भोग विलास, अकेले में मनुष्य अधिकांश मौकों पर जानवर जैसा हो जाता है। भोग-विलास में संयम रखना तो बड़े-बड़ों के बस की बात नहीं रही। एकांत में जिसने देह के साथ मनुष्य जैसा व्यवहार किया, वे समझ जाएंगे तप क्या होता है, एकांत की दिव्यता क्या होती है शरीर का सदुपयोग क्या होता है? कई बार हम एकांत में अपने शरीर के साथ ऐसा कर चुके होते हैं कि याद आने पर शर्मिंदगी महसूस होती है। यदि एकांत में मनुष्य देह को संयमित कर मनुष्य जैसा आचरण किया तो इसका लाभ आपके व्यावसायिक, सार्वजनिक जीवन में भी मिलेगा। वरना जब हम छुप-छुपकर बिना लोगों की जानकारी के देह के साथ जो खिलवाड़ कर चुके हैं उसी देह की हमारी आदत हो जाती है और हम सबके सामने जो भी काम करते हैं उसमें शरीर को प्राथमिक रखते हैं। इसीलिए कोई भी काम कर रहे हों, इरादा होता है लोग मुझे पहचानें, मुझे ख्याति मिले। लोग तो शरीर को लाइट हाउस बना देते हैं। जैसे जहाज को उतरने के लिए प्रकाश स्तंभ की आवश्यकता होती है, बस ऐसे ही लोगों ने शरीर को ऐसा इस्तेमाल किया कि सब हमें देखें, हमारा प्रदर्शन हो। यहां से अहंकार जन्म लेता है। अकेले में अपनी देह को मनुष्य समझें, फिर सबके सामने प्रदर्शन से बचेंगे। काम तो अपना ही कर रहे होंगे लेकिन, नाम और ख्याति की भावना नहीं आएगी।

सफलता मिलने पर अहंकार नहीं करें...
करना तो सब हमें ही है लेकिन, करा कोई और रहा है। वोऔरऐसी परमशक्ति है जिसे सभी धर्मों ने अपने-अपने हिसाब से नाम दिया है। जिस दिन ये समझ और भाव हमारे भीतर उतर आता है, उस दिन से हम सारे काम करते हुए भी शांत रह सकते हैं। हमारी जिंदगी ऊपर वाले की लिखी पटकथा है। इसे भाग्य से जोड़ें। पटकथा लिखने के बाद भी अभिनेता को अभिनय में हुनर दिखाना होता है। बहुत सारी चीजें पटकथा को सफल बनाती हैं। यह हमें अंगद समझा रहे हैं। जैसे ही तय हुआ कि वे श्रीराम के दूत बनकर रावण के पास जाएंगे, अंगद ने रामजी को प्रणाम करते हुए टिप्पणी की कि जिस पर आप कृपा कर दें, वह गुणों का सागर हो जाता है। अपने ऊपर किसी परमशक्ति को मानते हुए काम करना भी एक गुण है। यहां तुलसीदासजी ने लिखा,‘स्वयंसिद्ध सब काज नाथ मोहि आदरु दियउ। अस बिचारी जुबराज तन पुलकित हरषित हियउ।। स्वामी के सब काम अपने आप सिद्ध हैं। यह तो प्रभु ने मुझे आदर दिया है। ऐसा विचार कर अंगद का हृदय और शरीर पुलकित हो गया। ऊपर वाले के पास इतनी ताकत है कि वह सारे काम कर सकता है लेकिन, कराता हमसे है। हमें लगने लगता है हमने किया। हम तो निमित्त हैं, किसी भी घटना और स्थिति के कारणभर हैं। यह भाव जागने के बाद हमें आलसी नहीं होना है और ही भाग्य पर टिकना है, बल्कि यह मानना है कि सारे काम हम करेंगे। परिणाम यदि सफलता के रूप में आया तो अहंकार नहीं करेंगे, असफल रहे तो उदास नहीं होंगे।

शब्दों के पीछे के इरादे पर भी नज़र रखें...
शतरंज के खिलाड़ी इस बात के लिए तैयार रहते हैं कि आगे कौन-सी चाल हम चलेंगे और कौन-सी सामने वाला चलेगा। आगे की सोच के कारण शतरंज के अधिकतर खिलाड़ी विक्षिप्त-से हो जाते हैं। ऐसे में उन्हें एक तैयारी यह भी रखनी है कि खेल तो खेलना है पर पागल नहीं होना है। जैसे मोहरे चाल चलते हैं, ऐसे ही ज़िंदगी में एक शतरंज चलती रहती है और वह है शब्दचाल की शतरंज। जब भी किसी के शब्द सुनें, कोई आपसे बात कर रहा हो तो केवल सुनिएगा नहीं। शतरंज के खिलाड़ी की तरह उन शब्दों के पीछे बोलने वाला व्यक्तित्व उस समय कैसा है, किस नीयत से बोल रहा है, उसके क्या इरादे हो सकते हैं इस पर भी नज़र रखें। व्यक्ति जैसा होता है, कभी-कभी उससे हटकर बोलता है। एक उदाहरण है कि कैकयी मंथरा के शब्दों को ठीक से पकड़ नहीं पाई थी। मंथरा बोल रही थी मैं तुम्हारी सबसे बड़ी हितैषी हूं। कैकयी समझ नहीं पाई कि इन शब्दों के पीछे मंथरा का मतलब क्या है। आज हमारी व्यावसायिक दुनिया में मंथराओं की कमी नहीं है। मंथरा वृत्ति है, जो अच्छे-अच्छे समझदारों को निपटा देती है। मंथराएं सत्ता, पावर की निकटता बनाने में माहिर होती हैं। मंथरा जैसे लोग अपनी कमजोरी छिपाने के लिए चापलूसी भरे शब्द, हितैषी बनने के दावे करके समझदारों की बुद्धि हर लेते हैं। इसलिए खासतौर पर बाहर की दुनिया में शब्द सुनते समय सावधान रहिए, क्योंकि बोलने वाले की नीयत सुनाई नहीं देती, उसके पीछे के भाव दिखाई नहीं देते।

संतान के साथ गुरु-शिष्य का रिश्ता रखें
कई माता-पिता को तो यह पता ही नहीं होता कि वे माता-पिता बन क्यों गए? एक वर्ग इसको विवाह का परिणाम मानता है तो एक वर्ग कहता है बच्चे तो पैदा होते रहे हैं इसलिए हमने भी किए। संतानों को सुख दें, साधन उपलब्ध कराएं इसमें कोई बुराई नहीं है लेकिन, ऐसा करते-करते जब हम अति पर टिक जाते हैं तो हमसे ज्यादा कीमत हमारी संतान चुकाती है। आजकल के बच्चे माता-पिता से जो मिलता है उसे अपना हक मानते हैं। इसमें कोई दिक्कत भी नहीं है लेकिन, खतरा तब शुरू होता है जब वे इसे माता-पिता की ड्यूटी मान लेते हैं। उनका अनिवार्य कर्तव्य मानने लगते हैं। कई घरों में बहस करते हुए बच्चे कहते हैं हमारा अधिकार है कि हमको जरूरत की हर चीज मिले, क्योंकि आप ही हमें धरती पर लाए हैं। हमें सुविधाएं नहीं दे सकते थे तो फिर पैदा क्यों किया? कई बच्चों द्वारा माता-पिता पर इस प्रकार के प्रहार किए जाने लगे हैं। यहां माता-पिता एक प्रयोग कर सकते हैं कि बच्चों से एक रिश्ता और जोड़ें- गुरु-शिष्य का। अध्यात्म की दुनिया में जब कोई अपने गुरु से रिश्ता बनाता है तो अधिकतर शिष्य गुरु के प्रति आधी श्रद्धा रखते हैं और आधे संदेह में जीते हैं। बच्चे भी ऐसे ही होते हैं। उनमें माता-पिता के प्रति जो संदेह है उससे उनको लड़ने दें लेकिन, श्रद्धा के मामले में प्रयास करें कि उनकी श्रद्धा गतिमान हो। एक दिन जब बच्चे परिपक्व होंगे तो संदेह दूर हो जाएगा और उस समय श्रद्धा काम आएगी। इसलिए बच्चों से गुरु-शिष्य का संबंध भी रखें। ऐसा तब कर पाएंगे जब आपके जीवन में भी कोई गुरु हो। कोई और मिले तो हनुमानजी को ही गुरु बनाया जा सकता है। इस तरह अध्यात्म परिवार की बुनियाद बनेगा।

सुबह उठना यानी प्रकृति से श्रेष्ठतम लेना
आजकल जितने भी काम कठिन माने जाते हैं उनमें से एक है सुबह जल्दी उठना। आने वाले 10-15 साल बाद तो शायद देश के घरों में जल्दी उठने वाली पीढ़ी ही खत्म हो जाएगी। जल्दी उठने का महत्व तब समझेगा जब प्रात:काल का मतलब समझ में आएगा। प्रात:काल यानी सूर्योदय की घड़ी। चूंकि उस समय सूरज प्रकट होता है, इसलिए ध्यानमय, ज्ञानमय और पराक्रममय ऊर्जा बिल्कुल ताजी-ताजी प्रकट होती है। इस समय सारे देवता अपनी शक्ति के साथ हवा के रूप में आते हैं। शास्त्रकारों ने तो कालपुरुष को एक घोड़े की उपमा देते हुए कहा है कि उषाकाल यानी प्रात:काल उस घोड़े का सिर है। जिसने यह समय गंवाया, समझो उसने कालपुरुष का सिर ही काट दिया। इसलिए सुबह उठना केवल बिस्तर छोड़ना नहीं, उससे भी ज्यादा प्रकृति से कुछ पकड़ना है। सुबह जल्दी उठना एक अनुशासन है। फिर दिनभर हमें परिश्रम करना है। जिसे अनुशासन का स्पर्श मिल जाए वह कम श्रम में भी ज्यादा परिणाम पा लेगा। एक पहलवान दूसरे पहलवान को गिराकर उसकी छाती पर चढ़ जाए तो ऊपर वाले को ज्यादा ताकत लगती है, क्योंकि उसे फिक्र रहती है कि नीचे वाला पहलवान खिसक जाए। परिश्रम नीचे वाले पहलवान की तरह है। हमने ऊपर वाले के रूप में उस पर अनुशासन लाद दिया है। अनुशासन को दबाव बनाएं। सुबह उठने का मतलब यूं समझें कि प्रकृति जो अपना श्रेष्ठ दे रही है, हमें वह लेना है।

अशांति से काम करेंगे तो कामयाबी अधूरी...
इसमें बुराई नहीं है कि हमारा कोई आदर्श हो। जिन्हें हम रोल मॉडल मानते हैं, उन्होंने जैसे काम किए हैं यदि वैसे हम करें तो भी कोई दिक्कत नहीं। हमारी मौलिकता और जिन्हें हम श्रेष्ठ या अपना आदर्श मानते हैं उनकी अच्छी बातें यदि जुड़ जाएं तो परिणाम अच्छे ही आएंगे। इसे एक उदाहरण से समझें। अंगद हनुमानजी को रोल मॉडल मानते थे।

हनुमानजी की कार्यशैली पर बारीक नज़र रखते थे। इसीलिए जब हनुमानजी पहली बार लंका गए उस समय जो दृश्य उन्होंने निर्मित किया वही अंगद ने भी किया। लंका जाते समय हनुमानजी ने सभी वानर साथियों को प्रणाम किया, श्रीराम को हृदय में धरा, चेहरे पर प्रसन्नता रखी और रवाना हो गए। उसके बाद जब अंगद को दूत बनकर रावण के पास जाने का अवसर आया तो उन्होंने भी ऐसा ही किया। तुलसीदासजी ने लिखा, ‘बंदि चरन उर धरि प्रभुताई। अंगद चलेउ सबहिं सिरु नाई।।

श्रीराम के चरणों की वंदना कर, उनकी प्रभुता को हृदय में धरकर अंगद सबको प्रणाम करते हुए चल दिए। मनुष्य जब ईश्वर को हृदय में रख लेता है, काम में मस्ती रखता है तो उसके इरादे जरूर पूरे होते हैं। ऐसे लोगों को अवश्य आदर्श बनाएं, जिन्होंने जीवन में संघर्ष के समय धैर्य नहीं छोड़ते हुए पूरी शांति से काम किया। अशांत रहकर काम करेंगे तो कामयाबी अधूरी होगी। प्रसन्नता के साथ कठिन काम भी किया जाए तो सफलता अशांति नहीं लाती। किसी को आदर्श बनाते हुए उसके जैसी ही कार्यशैली अपनाई जाए तो राह आसान हो जाती है।

बदलाव भीतर से हो तो आसान होता है...
बदलाव मनुष्य का मूल स्वभाव है। कुछ कुछ बदलते रहना उसकी तासीर में है। बदलाव शब्द को अगर ठीक से समझा जाए तो यह हथियार भी बन जाता है। देश के नेता कहते हैं हम बदलाव की तैयारी में हैं। व्यवस्था बदल देंगे। लेकिन क्या करें जनता नहीं बदलती। लोग कहते हैं हम कैसे बदलें? नेता ही नहीं बदल रहे। चूंकि दोनों बदलाव का अर्थ नहीं समझते, इसलिए परिवर्तन के उन प्रयासों के अच्छे परिणाम नहीं निकल पाते।
हिंदू धर्म में अवतार की परम्परा बदलाव की कहानी है। राम ने चरित्र में बदलाव लाकर कृष्ण बन गए। देश-काल-परिस्थिति के अनुसार बदलाव जरूरी हो जाता है। लेकिन, याद रखें परिवर्तन दो तरह से होता है। एक बाहर की व्यवस्था में बदलाव जैसे हमारी जीवनशैली, कामकाजी दुनिया आदि में परिवर्तन। इसके लिए नियम, अनुशासन ये सब लादने पड़ते हैं। लेकिन इस समय यदि भीतर चैंज नहीं किया गया तो बाहर का बदलाव औपचारिकता, मजबूरी और दिखावा मात्र बन जाएगा।

मनुष्य जब भीतर से बदलने को तैयार होता है तब अपने संस्कारों पर काम करता है। वहां उसे बाहर कोई ढोंग या अभिनय नहीं करना होता। देश जब बदलेगा, तब बदलेगा परंतु कम से कम हम तो स्वच्छता, ईमानदारी, सेवा आदि को समझते हुए भीतर उतारें। भीतर का ऐसा बदलाव हमारे शरीर से निकलने वाली तरंगों को पॉजिटीव करता है और तब बाहर परिवर्तन लाना आसान हो जाता है।

मूर्ति को प्राण के भाव से पूजें, परिणाम मिलेंगे
शास्त्रों में लिखा है मूर्ति पूजा आदमी को ईमानदार बनाती है। लेकिन, मूर्ति के मामले में पूजा का अर्थ अलग ढंग से समझना होगा। कोई मूर्ति तब पूजने योग्य होती है, जब उसकी प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। यानी मनुष्य की तरह पत्थर में प्राण डालना। जब किसी ऐसी मूर्ति की पूजा करते हैं, उसमें तो प्राण देखना ही है, आपके साथ जो जीवंत लोग रहते हैं उनके भीतर के प्राणों का भी मोल समझना है। लोग मूर्ति को तो पूजते हैं पर आसपास रहने वालों के प्रति तो संवेदनशील होते हैं, प्रेमपूर्ण। जिस दिन घर में बच्चों के, पति-पत्नी, माता-पिता या किसी सदस्य के भीतर प्राण देख लेंगे, आपका पूरा व्यवहार बदल जाएगा। हम मूर्ति के सामने माथा झुका रहे हैं और अपने लोगों से झगड़ रहे हैं यह कहां तक ठीक है? सही है कि प्राण प्रतिष्ठित मूर्ति आपको देख रही होती है लेकिन जब कोई गलत काम करते हैं तो मूर्ति यह नहीं पूछती कि ये तुमने क्या किया? बल्कि यह बताती है कि तुम कुछ श्रेष्ठ कर सकते थे, जो नहीं किया। वे सजग करती हैं कि अपने आचरण को ऐसे उठाओ। जिन धर्मस्थलों पर प्राण प्रतिष्ठित मूर्तियां हों वहां इसीलिए जाना चाहिए कि उस जगह मंत्रोच्चार हो चुका होता है, कई लोग वहां श्रद्धा अर्पित करते हैं। जीवन के लिए ऊर्जा, मार्गदर्शन और प्रेरणा प्राप्त होती है। मूर्ति को प्राण के भाव से पूजा जाए तब तो परिणाम मिलेंगे, वरना आप केवल पत्थर पूजकर रहे हैं, जो मात्र औपचारिकता है, जिसका कोई सदपरिणाम प्राप्त नहीं होगा।

तीन पंखों की उड़ान पहुंचाती है ऊंचाई पर...
केवल लंबी छलांग से जीवन में सफलता नहीं मिलती। उसके लिए एक उड़ान भी जरूरी है। उड़ान का मतलब परिंदों से अच्छा और कौन समझ सकता है। लेकिन बहुत ऊंची उड़ान भरने वाले परिंदे भी यह नहीं जान पाते हैं कि उड़ान के लिए दो पंखों की जरूरत होती है। पक्षी तो केवल उड़ना जानते हैं। उनके लिए वह जीवन की एक ऐसी क्रिया है, जो पुरखे उन्हें सिखा गए। लेकिन, मनुष्य उड़ान को ठीक से समझ सकता है। उड़ान का मतलब समझ लें तो यह पता चल जाएगा कि पक्षी भले ही दो पंख से उड़ लें पर मनुष्य को उड़ने के लिए तीन पंख लगेंगे और ये हैं- ज्ञान, कर्म और उपासना के। जब उड़ान ले रहे होते हैं तो सबसे बड़ी बाधा हमारे दुर्गुण ही बनते हैं। इन्हीं दुर्गुणों से निपटने के लिए पंख गति के भी काम आते हैं और हथियार बनकर सुरक्षा के भी। जटायु ने अपने पंखों को शस्त्र बनाते हुए ही रावण से टक्कर ली थी। जीवन की कुछ यात्राएं ऐसी हैं, जहां किसी एक पंख के सहारे नहीं जाया जा सकता। हमारे पास ज्ञान, कर्म और उपासना रूपी पंख हैं और ज़िंदगी की उड़ान में इन तीनों की जरूरत पड़ेगी। जो केवल ज्ञान मार्ग से चलेंगे वे बाकी दो चीजें यानी कर्म और उपासना का मतलब नहीं समझ पाएंगे और उनका ज्ञान अधूरा रह जाएगा। तो केवल कर्म से और केवल उपासना से जीवन की यात्रा पूरी हो सकती है। ज्ञान, कर्म और उपासना के तीनों पंखों से भरी उड़ान उस ऊंचाई पर पहुंचा देगी, जिसे आप छूना चाहते हैं।

सीखे हुए को कर दिखाने में ही उसका महत्व...
चुनौती बड़ी हो तो प्रयास छोटे नहीं होने चाहिए। कोई बेजोड़ काम किया जाए, जिसे देखकर सब चौंक उठे तो वह लोगों की नज़र में आता है और हमें भी प्रोत्साहित करता है। अंगद हनुमानजी से प्रेरित थे और वे लंका में क्या करके आए थे, यह जान चुके थे। अंगद ने सुन रखा था कि हनुमानजी ने रावण के बेटे अक्षयकुमार को मार डाला था। एक बार हनुमानजी से पूछा भी था कि लंका में जाकर राजा के बेटे को ही मार दिया। ऐसा आपने क्या सोचकर किया? तब हनुमानजी ने कहा, ‘जब प्रहार ही करना हो तो सीधे उस स्थान पर किया जाए कि परिणाम हमारी सफलता में मददगार हो।अंगद को यह बात याद थी। तुलसीदासजी ने लिखा, ‘पुर पैठत रावन कर बेटा। खेलत रहा सो होइ गै भेटा।। तेहिं अंगद कहुं लात उठाई। गहि पद पटकेउ भूमि भंवाई।।लंका में प्रवेश करते ही अंगद की भेंट रावण के बेटे से हो गई, जो वहां खेल रहा था। उसने लात उठाई, तभी अंगद ने उसे पैर पकड़कर जमीन पर दे मारा। हनुमानजी ने तो अक्षयकुमार को इसलिए मारा था कि वह आक्रमण कर उन्हें रोकना चाहता था। उन्हें तो रावण तक पहुंचना था। लेकिन अंगद तो रावण तक सीधे पहुंच सकते थे क्योंकि वे दूत बनकर गए थे। फिर उन्होंने ऐसा क्यों किया? युवा वर्ग जोश में कभी-कभी होश खो देता है। अंगद ने भी वही किया पर हमें शिक्षा दे गए कि जीवन में जब बहादुरी दिखाने का अवसर आए तो फिर चूकना नहीं चाहिए। सीखा हुआ सही समय पर, सही ढंग से कर किया जाए तब ही सीखे का महत्व है।


उत्सवों के माध्यम से भीतरी बदलाव लाएं...
शरीर काहर अंग स्वार्थी है। वैसे यह सही है कि शरीर मन की तुलना में ईमानदार है। मन की बेईमानी के तो हर पल नए-नए किस्से हैं। लेकिन, यही मन जब शरीर पर आक्रमण करता है तो हर अंग को बेईमान, स्वार्थी, लुटेरा और विलासी बना देता है। कान को प्रशंसा सुनना पसंद है। आंखें वो सारे दृश्य देखना चाहती हैं जो उन्हें नहीं देखना चाहिए। इसी तरह बाकी अंगों से भी मन वो सारे काम करवाना चाहता है, जो मर्यादा में उन अंगों को नहीं करना चाहिए। कुल मिलाकर आज मनुष्य का जीवन मन से संचालित हो रहा है और इसका परिणाम अपराध के रूप में सामने आता है। शरीर से होने वाले और शरीर के प्रति किए जाने वाले अपराधों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। खासकर महिलाओं के प्रति जो अपराध हो रहे हैं उनमें उम्र की सीमा ही नहीं रही। स्त्री देह के साथ पुरुष के अपराध मन ने ऐसी मर्यादा तोड़ी कि अब ढाई साल की बच्ची से लेकर 80 बरस की स्त्री पर भी शारीरिक आक्रमण होने लगे हैं। जब सबकुछ शरीर पर केंद्रित हो जाए तो ऐसे दिन तो आने ही थे। हमारे देश में जितने उत्सव और त्योहार मनाए जाते हैं, सबके पीछे संदेश होता है नैतिक जीवनशैली। अब सामूहिक रूप से प्रयास करने होंगे कि हर उत्सव-त्योहार पर उस पीढ़ी को यह संदेश दिया जाए कि शरीर के साथ अनैतिक काम करें। अपने, दूसरे के। मनुष्य को भीतर से बदलने के लिए जो-जो भी प्रयास किए जाएं उनमें उत्सव और त्योहारों को जोड़ते हुए इनके संदेश को योजनाबद्ध तरीके से भारतीय मन तक पहुंचाया जाए।

ऊर्जा बचाने, प्रेमपूर्ण होने की साधना है मौन...
थकान औरविवाद इस समय ये दोनों ही बातें गलत जगह पर होने लगी हैं। कई लोग जरा-सी मेहनत करते हैं और थक जाते हैं। जो खूब परिश्रम करते हैं वो थकते तो देर से हैं पर गलत जगह थक जाते हैं। जैसे कोई घर आकर तब थकता है, जब बाकी सदस्य उसके साथ होते हैं। दिनभर खूब मेहनत की और जिनके लिए की उनके सामने आकर थक गए। ऐसे ही हाल विवाद के हैं। हम उस जगह विवाद करते हैं जहां प्रेमपूर्ण रहना चाहिए। और जहां विरोध करना चाहिए वहां बचते हैं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं थकान और विवाद जिन-जिन बातों से जुड़े हैं उनमें से एक है बोलना। शब्द और वाणी का परिणाम बोलना कहा जा सकता है। यदि आप बोलते समय सावधान नहीं हैं और शब्दों को शरीर से निकालने में बेहिसाब हैं तो थकेंगे भी और विवाद में भी पड़ेंगे। अब सवाल यह उठता हैं कि शब्दों को संतुलित कैसे किया जाए? ज्यादातर लोग जानते हैं कि चाहते हुए कुछ ऐसा बोलने में जाता है, जो विवाद का कारण बन जाता है। कई लोग तो यह जानते ही नहीं कि शब्द हमारी बहुत ऊर्जा खा जाते हैं। इसीलिए हम तब थक जाते हैं जब नहीं थकना चाहिए। शब्दों को इसलिए बचाइए कि उनका परिणाम दूसरी जगह दे सकें या ले सकें और अनावश्यक विवाद से भी बचे रहें। इसका एक तरीका है मौन। जब तक मौन नहीं साधेंगे, आप सिर्फ शब्दों का वहन करेंगे। जिन्होंने थोड़ी देर भी मौन साध लिया, वो शब्द से ऊर्जा भी बचा लेंगे और विवाद से बचे रहने के कारण और प्रेमपूर्ण हो जाएंगे।

सब कुछ ईश्वर पर छोड़ दें, अशांत नहीं होंगे...
हम कुली क्यों करते हैं? इसलिए कि हमारे पास जितना बोझ होता है उसे उठा नहीं पाते और किसी की आवश्यकता लगती है, जो उस वजन को उठा सके। यात्रा में कुली लगता है, यह तो सबको समझ में आता है पर जीवन की यात्रा में कुछ बोझ ऐसे होते हैं, जिन्हें उठाना नहीं चाहिए और हम उठा लेते हैं। ऐसे ही कुछ वजन स्मृतियों के, स्वार्थ के होते हैं। धीरे-धीरे ये इतने भारी हो जाते हैं कि हमारी चाल लड़खड़ा जाती है। शास्त्रों में एक शब्द आया है- रिक्त हो जाएं तो ईश्वर जल्दी मिल जाता है। रिक्त होने का अर्थ है थोड़ा खाली या निर्भार हो जाएं। अभी हम बहुत भारी हैं। अपने भीतर अहंकार का, हिंसा का, तनाव का इतना भार पैदा कर लिया है कि दबे ही जा रहे हैं। निर्भार होते ही भीतर शांति जागती है, आप प्रेमपूर्ण हो जाते हैं, जीवन में परमात्मा उतर आता है। परमात्मा के आते ही हम कहने लगते हैं- बस, अब जीवन की गाड़ी आप ही चलाइए। एक बार राजस्थान में यात्रा के समय टैक्सी ड्राइवर ने मुझे बार-बार हुकम, हुकम कहा। मैने पूछा- आप हमें हुकम क्यों कहते हैं? इसका मतलब तो आदेश होता है। तब उसने कहा- मैं जानता हूं हुकम का मतलब आदेश है पर मैं इसलिए कह रहा हूं कि आप ही हमारे आदेश हैं। नानकजी ने भी एक जगह ईश्वर के लिए लिखा था-‘हुजूर का हुकूम। जिस दिन हम परमात्मा को हुकूम या आदेश मान लेते हैं, उस दिन निर्भार हो जाते हैं। फिर कैसा भी काम करें, अशांत नहीं होंगे, क्योंकि आप जानते हैं हुक्म कोई और दे रहा है, हुकम कोई और है।

खुद के साथ रहने से मिलती है ऊर्जा...
चाहें या ना चाहें, सभी को दो तरह से जीना पड़ता है। या कहें कि जीने के लिए दो प्रकार के अवसर मिलते हैं। पहला, जब हम दूसरों के साथ जीवन बीता रहे होते हैं और दूसरा मौका स्वयं के साथ जीने का होता है। इन स्थितियों से कोई नहीं बचेगा। जब दूसरों के साथ जीते है,ं जो कि जरूरी भी है, उस समय हमारी तैयारी अपने साथ जीने की भी होनी चाहिए। यदि स्वयं के साथ जीने की तैयारी नहीं है तो तनाव में पड़ेंगे, अशांत रहेंगे। जब दूसरों के साथ रहते हैं तो उसमें अहंकार, स्वार्थ, झूठ, छल ये सब अपना काम करते ही हैं। खासकर मेरे-तेरे का खेल होना स्वाभाविक है। सामने वाले की अपनी सोच, आपकी अपनी मर्जी दोनों टकराएंगी ही। यदि आप सिर्फ दूसरों के साथ जीते हैं तो जरूर अशांत रहेंगे। इसलिए खुद के साथ जीने का ढंग भी आना चाहिए और यह संभव हो सकता है योग से। जब स्वयं के साथ जीते हैं तो हमारी और ईश्वर की मर्जी जुड़ जाती हैं। योग सिखाता है कि हमारे ऊपर भी एक परमशक्ति है। तो आपकी इच्छा को उस परमशक्ति की इच्छा से जोड़ दीजिए। बस, यहां से टकराहट बंद और आप शांत होना शुरू हो जाएंगे। हम मनुष्य बिना मांगे रह नहीं सकते। इसलिए ऊपर वाले से भी यह मांग करें कि मेरी मर्जी में तेरी मर्जी जुड़ जाए। फिर देखिए, आप व्यक्ति कोई और होने लगेंगे। अपने साथ रहने के बाद जो ऊर्जा प्राप्त होगी वही ऊर्जा दूसरों के साथ रहते हुए भी शांत रहने में मदद करेगी। कुछ समय अपने साथ जरूर रहिए, फिर संसार के साथ रहने में दिक्कत नहीं आएगी।


ज्ञान, कर्म और उपासना का संतुलन हो
हमारे कृत्य हमारी छाप बन जाते हैं। कुछ न कुछ तो सभी को करना है और लोग कर भी रहे हैं। लेकिन, जो अच्छा या बुरा करके जाएंगे उसे लोग याद रखेंगे और उनके मन में वैसी ही हमारी छाप बनती है। कई तो ज़िंदगी में ऐसे काम कर जाते हैं कि दुनिया छोड़कर जाने के बाद लोग उन्हेें उन कामों से याद रखते हैं। इसीलिए कृत्य ऐसे हों जो छवि भी अच्छी बनाएं। हमारे यहां ज्ञान, कर्म और उपासना, ये तीन शब्द अपने आप में जीवनशैली का संदेश हैं। केवल कर्म से जुड़ेंगे तो हो सकता है ज्ञान और उपासना का लाभ नहीं उठा सकें। कुल मिलाकर किसी एक पर आधारित जीवन नहीं चल सकता। इन तीनों का संतुलन चाहिए।

हनुमानजी तीनों का संतुलन रखकर परिणाम देने में अद्‌भुत थे और इसीलिए लंका कांड में एक घटना घटती है कि जब अंगद रामदूत बनकर लंका गए तो राक्षसों ने उनको देखा और जिस प्रकार से प्रतिक्रिया की उस पर तुलसीदासजी ने लिखा- ‘भयउ कोलाहल नगर मझारी। आवा कपि लंका जेहिं जारी।। भय के मारे लंका के राक्षसों में कोलाहल मच गया कि जिसने लंका जलाई थी, वही वानर फिर आ गया है।

ये पंक्तियां बता रही हैं कि राक्षसों को हनुमानजी और उनका पराक्रम याद था। हमारे लिए समझने की बात यह है कि जिस प्रकार हनुमानजी उनको याद थे, हम भी ऐसे ही कर्म रखते हुए वे सदपरिणाम दें जो कि लोगों के मन में उतर जाएं और वर्षों बाद भी हमें इस बात के लिए याद रखें कि यह अच्छा काम उनके द्वारा किया गया था।

आंखों के इस प्रयोग से बढ़ाएं सकारात्मकता
हम आंख वाले अंधे हैं। दुनिया में बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो देख सकते हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो नहीं देख पा रहे हैं। ज्यादातर लोग जो देख सकते हैं, उन्हें यह बात समझ लेनी चाहिए कि कहीं न कहीं हम भी अंधे हैं। देखने में दृष्टि महत्वपूर्ण होती है, दृश्य नहीं। हम लोग देखने का अर्थ सिर्फ दृश्य से ल़ेते हैं। कुछ न कुछ दिख रहा है और मान लेते हैं कि हम देख रहे हैं। पर इस सब के पीछे काम कर रही होती है दृष्टि। तीन बातें हमें अंधा बनाती हैं- अहंकार, अशिक्षा और स्वार्थ।

ध्यान रखिएगा, यदि अहंकार बलवान होता जा रहा है, स्वार्थ में डूब रहे हैं और पढ़े-लिखे नहीं हैं तो आप आंख होते हुए भी अंधे ही हैं। इसीलिए योग में आंख का भी प्रयोग है। आंख का बंद होना, खुलना और अधखुली आंख इन तीन बातों की कला जब समझ में आती है तो उसे दृष्टि कहा जाता है। कुछ लोग जन्मांध होते हैं, कुछ किसी दुर्घटना या उम्र के प्रभाव के कारण देख नहीं पाते।

ऐसे लोगों को एक प्रयोग करना चाहिए। पलकों को बहुत धीरे-धीरे खोलिए और वैसे ही धीरे-धीरे बंद कीजिए। चूंकि किसी भी कारण से संसार को नहीं देख पा रहे इसलिए आपके भीतर एक बेचैनी है, अवसाद होता है। मन उस स्थिति को और बल दे रहा होता है पर पलकों को धीरे-धीरे खोलने और बंद करने से मन की पॉजिटीविटी बढ़ती है और हमारे भीतर आ चुका दोष और निराश नहीं कर पाता। सबकुछ देख सकने वाले भी यह प्रयोग करें तो ‘आंख होकर भी अंधे की स्थिति से बच पाएंगे।

बच्चों के विकास को गांवों से जोड़िए..
भारत में जो भी प्रगति और विकास हो, भारतीयता उससे विलग नहीं होना चाहिए। इस आदर्श वाक्य को यदि जीवंत करना हो हर आदमी कुछ काम आसानी से कर सकता है। प्रवचन-कथाओं के लिए मुझे पूरे देश-दुनिया में प्रवास करना पड़ता है। इसी सिलसिले में एक बार किसी घर में ठहरा तो बड़ा चौंकाने वाला संवाद सुना। सुबह जब दूध वाला आया तो सात साल का बच्चा मां से पूछ रहा था यह आदमी दूध कहां से लाता है? प्रश्न छोटा था पर मेरे मन में सवाल कौंध गया। यदि बच्चों को यह नहीं मालूम कि दूध कहां से आता है तो हमें सोचना चाहिए कि यह शहरी गति किसी दिन इनको और अशांत कर देगी। आज भी भारत की पहचान गांवों से है। वहां बहुत कुछ ऐसा है जो हमें शांति प्रदान कर सकता है।


हमारे बच्चों को कहीं न कहीं गांव से जोड़ने के लिए कुछ प्रकल्प करते रहना चाहिए। गांव से सीधे आने वाले सामान से बच्चों को जरूर जोड़ें। गांवों के विकास के लिए सरकारी योजनाएं बना दी गईं, शहरी विकास के लिए मल्टी नेशनल बाजार व्यवस्था तैयार हो गई लेकिन, इन दोनों के बीच भारतीय मनुष्य का क्या होगा? इसलिए कम से कम अपने निजी विकास को गांव से जोड़े रखिए। आपका गांव से जुड़ना जीवन में कुछ ऐसा देगा जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। उस सुगंध से अपने व्यक्तित्व को महकाने के लिए कोई अवसर मत छोड़िए। हम गांव का मतलब गंदगी, अशिक्षा मान लेते हैं। लेकिन, इस अशिक्षा-गंदगी के पीछे एक बहुत बड़ी तालीम छुपी है। पकड़ सकें तो जरूर पकड़िएगा।

बुद्धि का उचित प्रयोग कर विलक्षण बनें
जीवन में सफल होने के लिए केवल बुद्धिमान होने से काम नहीं चलेगा। हमें विलक्षण भी होना पड़ेगा। क्या फर्क है इन दोनों में? बुद्धिमान होना परिश्रम है, एक व्यवस्थित प्रक्रिया है और इसमें शिक्षा सहयोग करती है। बुद्धि हम सबके भीतर होती है, क्योंकि शरीर का अंग मस्तिष्क है और मस्तिष्क में बुद्धि दी गई है। किसी के पास कम होगी, किसी के पास ज्यादा हो सकती है। यह एक इंस्ट्रुमेंट है, जो भगवान ने हमें दिया है। इसका थोड़ा-सा उपयोग कर लें तो बुद्धिमान हो जाएंगे। लेकिन, बुद्धि जब सार्वजनिक रूप से, निजी, पारिवारिक और व्यावसायिक रूप से सदुपयोग में आ जाए और अच्छे परिणाम दे दे उसे विलक्षणता कहते हैं। आपने कारोबार में कामयाबी हासिल कर ली और परिवार में कलह चल रहा है। परिवार संभाल लिया, धंधा ठीक चल रहा है पर निजी रूप से परेशान हैं। यदि सबकुछ ठीक हो और समाज या राष्ट्र के प्रति जिम्मेदार नहीं हैं तो समझ लीजिए बुद्धि का आधा ही उपयोग हो पा रहा है और आप विलक्षण होने से चूक रहे हैं। बुद्धि विलक्षण तब होती है या बुद्धिमान व्यक्ति अपने आपको विलक्षण तब मानें जब वह उक्त चारों क्षेत्र में पूरी तरह से सकारात्मक परिणाम दे सके। यदि इन चारों के प्रति जागरूक नहीं हैं तो एक न एक दिन आपका मन बुद्धि से वह काम करवा लेगा, जिसके सामने आने पर छवि खराब हो सकती है, प्रतिष्ठा गिर सकती है। आप अपराधी भी बन सकते हैं। बुद्धि का वैसा उपयोग कीजिए, जिसके लिए ईश्वर ने यह दी है। फिर आपको विलक्षण होने से कोई नहीं रोक सकता।

पुण्य भी गोपनीय रखकर ही करने चाहिए
पुण्य भी पाप की तरह गोपनीय बनाकर करना चाहिए। हम लोग जब कोई गलत काम करते हैं तो उसे छिपाने का प्रयास करते हैं और अच्छे काम को बहुत प्रचारित करने लगते हैं। जबकि सच तो यह है कि धर्म यानी सदकार्य गोपनीय हो और अधर्म (दुष्कर्मों) का प्रदर्शन करना चाहिए। जब अधर्म प्रदर्शित करेंगे तो स्वयं अपने आप नियंत्रित होने लग जाएंगे। लेकिन कभी-कभी पुण्य को इसलिए प्रकट करना पड़ता है कि पाप का नाश हो। यदि उद्‌देश्य ऐसा हो तो धर्म को, पुण्य को, अच्छी बात को प्रचारित करने में बुराई नहीं है।

अंगद ने लंका में ऐसा ही किया था। जब रामदूत बनकर पहुंचे तो उन्हें देख सारे राक्षस डर गए। लंका के राक्षस यानी दुर्गुण। क्या दृश्य लिखा है यहां तुलसीदासजी ने, ‘अब धौं कहा करिहि करतारा। अति सभीत सब करहिं बिचारा।। बिनु पूछें मगु देहिं दिखाई। जेहि बिलोक सोइ जाइ सुखाई।।मतलब राक्षसरूपी दुर्गुण भयभीत होकर विचार करने लगे कि अब पता नहीं विधाता क्या करेगा? वे बिना पूछे ही अंगद को रास्ता दे रहे थे। जिस पर भी अंगद की दृष्टि पड़ती, वह डर के मारे सूख जाता था। जब हम सदमार्ग पर चलते हैं तो बाधा पहुंचाते हैं हमारे ही दुर्गुण। यहां दुर्गुण अंगद की मदद कर रहे थे कि आप मंजिल तक पहुंच जाएं, क्योंकि रामदूत होने का पुण्य अंगद के साथ था। तो हमारे पुण्य तब जरूर प्रकट कीजिए जब पाप का विनाश करना हो। वरना अधिक प्रचारित सदकार्य भी अहंकार का कारण बन जाएंगे।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.... मनीष
ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....

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