पानी के तीन
रूपों जैसे पति-पत्नी के रिश्ते
हमारे यहां दृष्टांत
से सिद्धांत समझाने
की पुरानी परम्परा
है। दृष्टांत और
उदाहरण में छोटा-सा फर्क
है। बहुत से
लोग हर बात
को समझाने में
कुछ उदाहरण दिया
करते हैं। जैसे
व्यापार की दुनिया
में खेल का
उदाहरण दे देते
हैं। खिलाड़ियों को
व्यापार का उदाहरण
देकर समझाते हैं।
हमारे यहां दृष्टांत
से सिद्धांत समझाने
की पुरानी परम्परा
है। दृष्टांत और
उदाहरण में छोटा-सा फर्क
है। बहुत से
लोग हर बात
को समझाने में
कुछ उदाहरण दिया
करते हैं। जैसे
व्यापार की दुनिया
में खेल का
उदाहरण दे देते
हैं। खिलाड़ियों को
व्यापार का उदाहरण
देकर समझाते हैं।
व्यापार की दुनिया
में खेल का,
खेल की दुनिया
में व्यापार का
और परिवार में
इन दोनों का
उदाहरण देना, ऐसे प्रयोग
बहुत लोग करते
हैं। यदि आप
कर रहे हों
तो थोड़ा सावधान
हो जाएं। किसी
एक जगह का
उदाहरण जरूरी नहीं कि
दूसरी जगह उपयोगी
रहे और सही
साबित हो।
उदाहरण के तौर पर यदि आप अपने व्यवसाय में खेल का उदाहरण दें कि खेल में कोई एक जीतता है, दूसरे को हारना ही पड़ता है..। लेकिन याद रखिएगा, व्यापार में हार-जीत से जरूरी है ग्राहक को जीतना। अब यह नियम खेल में लागू नहीं होता। वहां कोई ग्राहक नहीं होता। आपके सामने आपका प्रतिद्वंद्वी है और आपको या तो जीतना है या हारना है। ये दोनों उदाहरण घर में बिल्कुल नहीं चल सकते। परिवार में न तो कोई हारता है न किसी की जीत होती है, क्योंकि परिवार न तो व्यापार की तरह चलता है, न खेल की तरह। वहां सभी जीतते हैं और हारते भी सभी हैं। एक रिश्ता पति-पत्नी का ऐसा होता है, जिसके आगे न तो किसी खेल का उदाहरण चलेगा, न व्यवसाय का। इसे समझाने का अच्छा उदाहरण हो सकता है पानी। पानी की तीन स्थिति होती है। जमी हुई स्थिति बर्फ है। कुछ दंपती बर्फ की तरह जड़ हो जाते हैं। पिघला तो तरल होकर सबमें मिल जाता है यह दूसरी स्थिति है। तीसरी स्थिति होती है भाप। जिस दिन ये दोनों भाप बनकर एक-दूसरे में घुल जाते हैं, उस दिन से इनके साथ-साथ पूरे परिवार के लिए शुभ की शुरुआत होगी।
अर्जित ज्ञान समय रहते
दूसरों तक पहुंचाएं
जीवन में विपरीत
का अनुभव होना
ही चाहिए। इसके
लिए प्रयोग करते
रहें। यदि आप
अमीर हैं तो
इसका विपरीत यानी
गरीबी जरूर देखिए।
प्रसिद्धि कमाई है
तो गुमनामी क्या
होती है इसे
भी चखिए। हर
स्थिति का एक
विपरीत है और
जीवन में परिपक्वता
लाने के लिए
उसका अनुभव, उसका
स्वाद होना ही
चाहिए।
जीवन में विपरीत
का अनुभव होना
ही चाहिए। इसके
लिए प्रयोग करते
रहें। यदि आप
अमीर हैं तो
इसका विपरीत यानी
गरीबी जरूर देखिए।
प्रसिद्धि कमाई है
तो गुमनामी क्या
होती है इसे
भी चखिए। हर
स्थिति का एक
विपरीत है और
जीवन में परिपक्वता
लाने के लिए
उसका अनुभव, उसका
स्वाद होना ही
चाहिए। लेकिन विपरीत का
अनुभव करना आसान
नहीं है। उसके
लिए तप करना
पड़ता है।
हिंदू शास्त्रों में जब यह प्रश्र उठाया जाता है कि सबसे बड़ा तप कौन-सा? तो उपनिषद में इसका उत्तर है स्वाध्यायी। इसका शाब्दिक अर्थ तो है स्वयं का अध्ययन। लेकिन इसके तीन चरण होते हैं तब स्वाध्यायी होता है। यदि आपकी रुचि तप में है तो फिर सबसे बड़ा तप ही कीजिए। तीन स्तर से स्वाध्यायी पूरा होता है।
पहला, ज्ञान को सही
जगह से प्राप्त
करें। वह स्थान
शास्त्र या गुरु
हो सकते हैं।
जब सही जगह
से ज्ञान प्राप्त
हो जाए तो
उसे बहुत अच्छे
तरह से जीवन
में उतारें। स्वाध्यायी
का दूसरा स्तर
है दोहरा जीवन
न जीएं और
तीसरा चरण है
जो कुछ आपने
पाया उसे आगे
बढ़ाएं। लोगों में बांटे,
खासकर नई पीढ़ी
तक जरूर पहुंचाएं।
अर्जित ज्ञान को समय
रहते दूसरों तक
नहीं पहुंचाया तो
तप एक तरह
से खंडित ही
माना जाएगा। तपस्वी
व्यक्ति केवल धार्मिक
कार्य करे यह
जरूरी नहीं है।
एक तपस्वी जब दुनियादारी में उतरता है तो उसका तप उसे सिखाता है कि तुम अपना पेट भर सके ऐसा काम तो करो ही लेकिन, हमारे काम के कारण कई लोगों का पेट पल जाए ऐसा जरूर किया जाए। आज के दौर में जब चारों ओर वासनाओं की आंधियां चल रही हों, गलत रास्ते से लक्ष्य प्राप्त करने के तरीके सिखाए जा रहे हों, मनुष्य अधीर और अधीर होता जा रहा है ऐसे समय जीवन में तप का बड़ा महत्व है।
लक्ष्य बड़े हों
तो दिल भी
बड़ा होना चाहिए
बड़े सपने देखे
जाएं, विशाल अभियान
हाथ में लिए
जाएं, लक्ष्य छोटे
न हों। ऐसी
बातें आजकल युवा
पीढ़ी को सिखाई
जाती हैं। उन्हें
दक्ष किया जाता
है कि छोटा
मत सोचो, बड़ा
ही बनना है।
आसमान के तारे
से नीचे की
बात न करो।
बड़े सपने देखे जाएं, विशाल अभियान हाथ में लिए जाएं, लक्ष्य छोटे न हों। ऐसी बातें आजकल युवा पीढ़ी को सिखाई जाती हैं। उन्हें दक्ष किया जाता है कि छोटा मत सोचो, बड़ा ही बनना है। आसमान के तारे से नीचे की बात न करो। तारे तोड़ने का इरादा रखोगे तो भले ही हाथ कुछ न लगे, कम से कम कीचड़ में सनने से तो बच जाएंगे। उड़ान ऐसी हो कि आसमान भेद दो। कम से कम धरती की धूल गंदा तो नहीं कर पाएगी। ऐसे सारे सूत्र आधुनिक प्रबंधन में सिखाए जाते हैं। ये सब बहुत अच्छा है। ऐसा होना भी चाहिए लेकिन, इसे थोड़ा आध्यात्मिक दृष्टि से भी देखा जाए। अध्यात्म कहता है लक्ष्य बड़े हों तो हृदय भी बड़ा होना चाहिए। दिल बड़ा हो तो बड़े लक्ष्य प्राप्त करने में दिक्कत नहीं होती, क्योंकि बड़े दिल में चारों दुर्गुण (काम, क्रोध, अहंकार और लोभ) अपने अच्छे और बुरे दोनों रूप में रहते हैं। काम अपने आपमें एक ऊर्जा है और विलास भी। जिसका हृदय बड़ा होता है वह ऊर्जा के सदुपयोग और भोग-विलास की मस्ती दोनों का संतुलन बैठा लेता है। क्रोध की उत्तेजना स्वयं को और दूसरों को अनुशासन सिखा सकती है और इसकी कमी आपको कमजोर प्रशासक बना सकती है। बड़े दिल वाला संतुलन करके चलता है। अहंकार से आप प्रभावशाली भी हो सकते हैं और इसके कारण अकेले भी हो सकते हैं। बड़े दिल वाला अहंकार को नियंत्रित करके चलता है। चौथा दुर्गुण है लोभ। आपकी इस वृत्ति में अनेक लोग समा जाएं तो सबका भला हो जाएगा, वरना यह वृत्ति आपको मृत्यु तक ले जाएगी। दुर्गुण सभी में होते हैं पर उनमें से सदगुण निकाल लेना और सदगुण को दुर्गुणों से बचा लेना बड़े दिल वालों की विशेषता होती है, इसलिए जिनके लक्ष्य बड़े हों वे हृदय जरूर बड़ा रखें।
गलत काम करके
सही लक्ष्य नहीं
मिलते
भोग-विलास की वृत्ति
वे सारे आईने
तोड़ देती है,
जिनमें आदमी अपना
विकृत चेहरा देख
सके। विलासी व्यक्ति
के विचार भी
एकतरफा हो जाते
हैं। उसका हर
इरादा दूसरे को
भोगने का होता
है। फिर इसके
लिए वह झूठ
भी बोलता है,
हिंसा भी करता
है। इसका बहुत
बड़ा उदाहरण था
रावण। लंकाकांड के
आरंभ में श्रीराम
सेना के साथ
लंका में डेरा
डाल चुके थे।
बेटे प्रहस्त द्वारा
समझाने के बाद
रावण अपने महल
में चला गया
जहां हर दिन
नाच-गाने की
महफिल चलती थी।
अप्सराएं नृत्य कर रही
थीं, रावण विलास
में डूबा अट्टहास किए
जा रहा था।
इस दृश्य पर
तुलसीदासजी ने एक
दोहा लिखा, ‘सुनासीर
सत सरिस सो
संतत करइ बिलास।
परम प्रबल रिपु
सीस पर तद्यपि
सोच न त्रास।।’ अर्थात राम के
रूप में मौत
माथे पर नाच
रही थी फिर
भी विलासी रावण
को न चिंता
थी न कोई
डर। भय नहीं
होने का यह
मतलब नहीं कि
रावण निर्भय था।
न ही यह
मान सकते हैं
कि वह बहुत
आत्मविश्वास से भरा
था इसलिए चिंतित
नहीं था। दरअसल
नशे में डूबा
आदमी इन दोनों
(डर व चिंता)
के प्रति लापरवाह
हो जाता है।
भूल ही जाता
है कि ऐसा
करते हुए वह
स्वयं के अहित
के साथ और
भी कई लोगों
को परेशानी में
डाल रहा है।
आज के समय
में हम रावण
से यह शिक्षा
ले सकते हैं
कि जब किसी
बड़े अभियान की
तैयारी कर रहे
हों तो भोग-विलास से बचकर
रहें। भोग-विलास
आलस्य और लापरवाही
के रूप में
भी जीवन में
उतरता है। जब
सामने चुनौती खड़ी
हो और आप
लापरवाह या आलसी
हो जाएं तो
समझो रावण वाली
गलती कर रहे
हैं। प्रतिस्पर्धा के
इस दौर में
जबकि जीवन में
हर पल कोई
चुनौती है, गलत
काम करते हुए
सही लक्ष्य प्राप्त
नहीं किए जा
सकते।
भरोसा हो तो
भरपूर बरसती है
ईश-कृपा
मनुष्य कई घटनाओं
का जोड़ है।
हमारे आसपास प्रतिपल
कुछ घटता है,
हमें स्पर्श कर
जाता है। कुछ
घटनाएं धक्का दे जाती
हैं, कुछ दाएं-बाएं से
निकल जाती हैं।
गौर करें तो
हमारा व्यक्तित्व कई
घटनाओं के जोड़
से बना है।
मनुष्य कई घटनाओं का जोड़ है। हमारे आसपास प्रतिपल कुछ घटता है, हमें स्पर्श कर जाता है। कुछ घटनाएं धक्का दे जाती हैं, कुछ दाएं-बाएं से निकल जाती हैं। गौर करें तो हमारा व्यक्तित्व कई घटनाओं के जोड़ से बना है। चूंकि हमारे पास समय नहीं रहता तो हम उनका मूल्यांकन नहीं करते लेकिन, कुछ घटनाएं ऐसी हैं जो संकेत करती हैं कि अब आगे कष्ट होना है, हानि उठानी पड़ेगी, हम चिंता में डूबने वाले हैं। ऐसी घटना को साहित्य में विपत्ति कहा गया है। जब किसी मनुष्य के जीवन में विपत्ति आती है तो वह उससे निपटने के कई तरीके अपनाता है। तुलसीदासजी रामभक्त तो थे ही, बहुत बड़े समाजसेवक भी थे। वे चाहते थे कि भक्त को उदास नहीं होना चाहिए। इसलिए उन्होंने एक बहुत अच्छी पंक्ति लिखी है, ‘तुलसी साथी विपत्ति के विद्या विनय विवेक। साहस सुक्रति सुसत्यव्रत रामभरोसे एक।। तुलसी ने सात बातें बताई हैं, जो विपत्ति के समय हमारी मदद करेंगी। शुरुआत की है विद्या से। जब विपत्ति आती है तो शिक्षा मनुष्य का सबसे बड़ा सहारा है। इसलिए पढ़ाई-लिखाई के इस युग में बच्चों को जरूर पढ़ाएं। फिर कहते हैं पढ़ा-लिखा आदमी विनम्र होना चाहिए। तीसरे में कहा है शिक्षा का उपयोग विवेक से करें। साहस न छोड़ें, अच्छे काम करें, सत्य पर टिके रहें। इन छह के अलावा सबसे बड़ा सहारा है भरोसा भगवान का, जिसे उन्होंने रामभरोसा कहा है। भरोसा एक तरह का पात्र है। उस परमशक्ति की कृपा लगातार बरस रही है। यदि अपने पात्र को खुला रखा तो लबालब हो जाएगा। भगवान समान रूप से कृपा बरसाते हैं। जिसके पास भरोसे का पात्र है, उसका भर जाता है और फिर विपत्ति के समय यह भरोसा ही उसकी सबसे बड़ी ताकत बन जाता है।
अपने शरीर में
अच्छे अतिथि बनकर
रहें
यदि संभाला नहीं तो
शरीर भी स्वभक्षी हो जाता है। यानी यह शरीर जिसे हम खिलाते-पिलाते हैं, एक दिन हमें
ही खा जाता है। यदि संभाला नहीं तो शरीर भी स्वभक्षी हो जाता है। यानी यह शरीर जिसे
हम खिलाते-पिलाते हैं, एक दिन हमें ही खा जाता है। बात बड़ी गहरी है पर इसे ठीक से
समझना पड़ेगा। आज ज्यादातर लोग शरीर का मतलब नाम, धर्म, पद-प्रतिष्ठा की एक पहचान मान
लेते हैं और समझते हैं यही शरीर है। यह भोग-विलास का माध्यम, खाने-पीने का रास्ता है।
तो क्या सचमुच शरीर केवल इतना है? इन दिनों लगातार काम करने की ललक नशा बनकर जिन-जिन
चीजों का नुकसान कर रही है उनमें एक है शरीर। समाजसेवा के क्षेत्र में एक शब्द चलता
है मित्र। कोई वृक्ष मित्र बन जाता है, कोई इको फ्रेंडली हो जाता है। कंप्यूटर के जानकारों
के लिए कहा जाता है यह कंप्यूटर फ्रेंडली है। आप बेशक कई चीजों के मित्र बनें लेकिन
प्रयास कीजिए शरीर मित्र भी बनें। यदि शरीर से मित्रता निभाई तो शायद वृद्धावस्था में
यह भी आपसे दोस्ती निभाएगा। वरना बुढ़ापे में तो अपना ही शरीर अपना दुश्मन हो जाता
है। इस शरीर को थोड़ा जीतना पड़ता है। जैसे घुड़सवार कमजोर हो तो घोड़े का क्या दोष?
शरीर इंद्रियों से बना है और इंद्रियों पर चढ़कर काम करना पड़ता है, वरना ये आपको पटक
देंगी। असल में हम शरीर हैं ही नहीं। हम आत्मा हैं जो शरीर में अतिथि के रूप में है।
जब आप किसी के अतिथि होते हैं तो इस बात के लिए सावधान रहते हैं कि यहां की वस्तु का
उपयोग तो कर सकता हूं पर इस पर मेरा अधिकार नहीं है। अच्छे अतिथि जहां जाते हैं, बड़े
कानून-कायदे से रहते हैं। आप भी अपने शरीर में अतिथि बनकर रहें। उसे साफ-सुथरा रखें,
उसका मान करें। जो शरीर मित्र बनेगा वह स्वयं को जीत लेगा और जो खुद से जीता, फिर दूसरों
के लिए उसे हराना मुश्किल हो जाता है।
हमारा चरित्र व भीतर
की गंभीरता बची रहे
गलती करके उसे स्वीकार
नहीं करना और बड़ी गलती है। कुछ लोग गलत बात या काम करने के बाद पता ही नहीं लगा पाते
कि इसमें गलती हो गई और कुछ ऐसे भी होते हैं, जिन्हें मालूम होता है कि गलती हो गई
पर स्वीकार नहीं करते।
गलती करके उसे स्वीकार नहीं करना और बड़ी गलती है। कुछ लोग गलत बात या काम करने के बाद पता ही नहीं लगा पाते कि इसमें गलती हो गई और कुछ ऐसे भी होते हैं, जिन्हें मालूम होता है कि गलती हो गई पर स्वीकार नहीं करते। स्वीकार कर लेने से गलती हल्की या दूर हो जाती है। लेकिन, हम लोग अड़ जाते हैं और उस गलती का कारण स्वयं में न देखते हुए दूसरों में ढूंढ़ने लगते हैं। इस दौर में ऐसा ज्यादा होने लगा है। कोई अपनी गलती मानने को तैयार ही नहीं। इसका एक बड़ा कारण है कि लोग गंभीरता से कट गए। हर बात को हल्के में लेने लगे। पहले ‘गंभीरता’ शब्द का उपयोग समझाने के लिए किया जाता था। जैसे- परीक्षाएं आ रही
हैं, थोड़ा गंभीर हो जाओ, सामने बहुत बड़ी चुनौती है, इसे गंभीरता से लो..
इसका मतलब होता था आगे भविष्य में गलती न हो। आज आदमी अपनी जीवनशैली में गंभीरता नहीं रख पाता। व्यक्तित्व में अजीब-सा उथलापन दिखने लगा है। ध्यान रखिए, गंभीर होने का मतलब यह नहीं है कि मुंह थोड़ा चढ़ा हुआ हो, जरूरत पड़ने पर भी बात न करें, एक चुप्पी ओढ़ ली जाए। गंभीर बनने या दिखने के लिए व्यक्तित्व में तीन बातें उतारनी होती हैं। एक, परिश्रम। गंभीर व्यक्ति आलसी नहीं हो सकता। दो, परमार्थ। गंभीरता इसी में है कि सदकार्य करते हुए दूसरों का भला करें। तीसरी महत्वपूर्ण बात है चरित्र। गंभीर व्यक्ति चरित्र पर टिकता है। आज तो बड़े से बड़ा अपराध करने के बाद भी लोग गंभीर नहीं हैं। जिसे जो समझ में आता है, बोल रहा है, कर रहा है। लेकिन, यदि सच्चे भारतीय हैं तो हमारा चरित्र और हमारे भीतर की गंभीरता बची रहनी चाहिए। इसके लिए परिश्रम, परमार्थ और चरित्र इन तीन चीजों पर काम करते रहिए।
चातुर्मास में जीवन सद्गुण संकल्प से जोड़ें
नींद एक ऐसी जरूरत
है, जिसके बिना कोई रह नहीं सकता। हिंदू धर्म में नींद को बहुत सुंदर दर्शन से जोड़ा
गया है। नींद एक ऐसी जरूरत है, जिसके बिना कोई रह नहीं सकता। हिंदू धर्म में नींद को
बहुत सुंदर दर्शन से जोड़ा गया है। आज की तिथि हरिशयनी एकादशी कहलाती है। आज से विष्णुजी
चार महीनों के लिए निद्रा में जाएंगे। विष्णु सात्विक भाव के प्रतीक हैं और जब सत्वभावचार
मास निद्रा में है तो हमारी जिम्मेदारी और बढ़ जाएगी। इन चार महीनों में कोई ऐसा संकल्प
लीजिए जो भीतर के सात्विक भाव को बनाए रखे। जब विष्णु सोते हैं तो वेद हमारे मार्गदर्शक
बन जाते हैं। जो वेद न पढ़ सके वह ऐसे शास्त्र पढ़ें, जिनमें वेद का निचोड़ हो।
ऐसा ही शास्त्र है रामचरित मानस। इन चार महीनों में रामचरित मानस से संदेश लिया जा सकता है कि कैसे परमपिता अपने आपको विश्राम में लेकर संदेश देता है कि विश्राम का अर्थ है ऊर्जा का पुनर्संचरण। लंका कांड में रावण भोग-विलास में डूबा हुआ था और रामजी सेना लेकर लंका पहुंच चुके थे। तब तुलसीदासजी ने लिखा, ‘तहं तरू किसलय सुमन सुहाए। लछिमन रचि निज हाथ डसाए।। ता पर रुचिर मृदुल मृगछाला। तेहिं आसन आसीन कृपाला।।’ अर्थात लक्ष्मणजी ने वृक्षों के कोमल पत्ते और सुंदर फूलों पर अपने हाथों से कोमल मृगछाल बिछा दी जिस पर कृपालु श्रीराम विराजमान थे। यहां रामजी किस तरह से बैठे हैं, बताया गया है। यह वही दृश्य है कि विष्णु सोकर भी होश में हैं। हम लोग नींद का मतलब इतना समझते हैं कि जागने के समापन को नींद कहते हैं। असल में होना यह चाहिए कि नींद भी आए और होश भी रहें। राम उस समय पूरे होश में थे और रावण जागते हुए भी सोया हुआ था। यही स्थिति उसके पतन का कारण बनी थी। हम भी चातुर्मास से संदेश लें कि इन चार महीनों में अपने भीतर के सदगुण, संकल्प बहुत अच्छे से जीवन से जोड़ेंगे।
ऐसा ही शास्त्र है रामचरित मानस। इन चार महीनों में रामचरित मानस से संदेश लिया जा सकता है कि कैसे परमपिता अपने आपको विश्राम में लेकर संदेश देता है कि विश्राम का अर्थ है ऊर्जा का पुनर्संचरण। लंका कांड में रावण भोग-विलास में डूबा हुआ था और रामजी सेना लेकर लंका पहुंच चुके थे। तब तुलसीदासजी ने लिखा, ‘तहं तरू किसलय सुमन सुहाए। लछिमन रचि निज हाथ डसाए।। ता पर रुचिर मृदुल मृगछाला। तेहिं आसन आसीन कृपाला।।’ अर्थात लक्ष्मणजी ने वृक्षों के कोमल पत्ते और सुंदर फूलों पर अपने हाथों से कोमल मृगछाल बिछा दी जिस पर कृपालु श्रीराम विराजमान थे। यहां रामजी किस तरह से बैठे हैं, बताया गया है। यह वही दृश्य है कि विष्णु सोकर भी होश में हैं। हम लोग नींद का मतलब इतना समझते हैं कि जागने के समापन को नींद कहते हैं। असल में होना यह चाहिए कि नींद भी आए और होश भी रहें। राम उस समय पूरे होश में थे और रावण जागते हुए भी सोया हुआ था। यही स्थिति उसके पतन का कारण बनी थी। हम भी चातुर्मास से संदेश लें कि इन चार महीनों में अपने भीतर के सदगुण, संकल्प बहुत अच्छे से जीवन से जोड़ेंगे।
संस्थान व कर्मचारी
परस्पर मददगार बनें
हर हाल में हम किसी
सूक्ष्म नेत्र के परीक्षण में होते हैं। वह ईश्वर हो सकता है, आपका जमीर हो सकता है।
आप स्वयं को जरूर देख रहे होंगे। इस बात को कभी न भूलें कि आपको कोई देख रहा है। अकेले
में कुछ करते हुए मान लें कि जो भी कर रहे हैं उसे कोई नहीं देख रहा है तो यह आपकी
बहुत बड़ी गलतफहमी होगी। हर हाल में हम किसी सूक्ष्म नेत्र के परीक्षण में होते हैं।
वह ईश्वर हो सकता है, आपका जमीर हो सकता है। आप स्वयं को जरूर देख रहे होंगे। कुछ संस्थानों
में जो एचआर विभाग होता है, उसमें इस बात पर बहस होती है कि हमारे यहां काम करने वालों
के व्यक्तिगत जीवन में संस्थान कितना हस्तक्षेप करेगा। कई बार काम करने वाले कुछ लोग
कहते हैं हमारे निजी जीवन में संस्थान को कोई रुचि नहीं होनी चाहिए। उन्हें परिणाम
चाहिए, जो हम परिश्रम से दे रहे हैं। वैधानिक दृष्टि से बात सही है लेकिन, नैतिक दृष्टि
से देखेंगे तो अर्थ बदल जाएंगे। निजी जीवन के क्रियाकलाप सार्वजनिक जीवन पर प्रभाव
डालेंगे ही। यदि आप अपने एकांत या निजी जीवन में परेशान हैं तो इसका असर कामकाज पर
पड़ेगा। शास्त्रों में कहा गया है कि जल में स्नेह और अनुराग स्वत: होता है, इसीलिए
वह नीचे की तरफ दौड़ता है। किसी में भी घुल-मिल जाना पानी का लक्षण या स्वभाव है। इसे
करुणा की वृत्ति कहते हैं। संस्थान अपने काम करने वालों में निजी रूप से रुचि रखे यह
पानी जैसी वृत्ति है। वह हस्तक्षेप नहीं, सहानुभूति है। ये ही भाव काम करने वालों को
भी रखना चाहिए। उन्हें लगना चाहिए कि हमारा निजी जीवन इतना भी निजी नहीं है कि उसे
संस्थान से पूरी तरह ही काट लिया जाए। दोनों ही एक-दूसरे में पानी की तरह भाव रखें।
एक-दूसरे को जानें और निजी व सार्वजनिक जीवन में इतनी रुचि जरूर लें कि एक-दूसरे की
परेशानी को कम करने में मददगार बन सकें।
ख्याति मिलने पर अहंकार
में डूबें
मशहूर लोगों को उन्हीं
की ख्याति का
खंजर जरूर चुभता
है। जब उससे
घायल होते हैं
तो कई बार
तो घाव लाइलाज
हो जाते हैं। मशहूर
लोगों को उन्हीं
की ख्याति का
खंजर जरूर चुभता
है। जब उससे
घायल होते हैं
तो कई बार
तो घाव लाइलाज
हो जाते हैं।
लोकप्रिय होने की
चाह मनुष्य स्वभाव
में है। नाम,
मान, पहचान सभी
चाहते हैं। ध्यान
रखिएगा, लोकप्रिय बने रहने
की आदत है
तो थोड़ी सावधानी
बरतें।
ख्याति बहुत तरल होती है। लोकप्रिय लोग कल्पना में बहने लगते हैं। पहचान की स्वीकृति की चाहत मनुष्य को बेचैन कर देती है। जब वह थोड़ा ख्यात हो जाता है तो यह मान लेता है कि मेरे बारे में जो मैं सोच रहा हूं वह सब सही है और दूसरे भी ऐसा ही सोचें। ऐसे लोग इसके लिए बाहर की स्थितियों, व्यक्तियों पर दबाव बनाते हैं लेकिन, स्थितियां सदैव एक जैसी नहीं रहतीं। संसार नाम ही सरकने का है। स्थितियां बदल जाती हैं, लोग हट जाते हैं पर ख्यात लोग उसी दुनिया में उलझे रहते हैं। बड़े-बड़े बादशाह दफन हो गए। जिनके सिक्के चलते थे उन्हें कोई पूछने वाला नहीं रहा। ऐसे ही एक दिन सभी की लोकप्रियता दिशा मोड़ेगी। यदि आप जरा भी लोकप्रिय हैं तो इस बात का ध्यान रखिएगा कि ख्याति अनियंत्रित, अनियमित, सशर्त, अस्थायी होकर अहंकार के साथ आती है। उसके साथ एक अनोखा डर जुड़ा होता है। ख्यात लोग इस बात को लेकर भयभीत रहते हैं कि यह मान, पहचान किसी भी तरह बना रहे, कहीं चला जाए। ऐसे में आप दयनीय स्थिति में जाते हैं। इसलिए जब भी ख्यात होने की स्थिति बने, पहले तो उसे सावधानी से अर्जित करें और मानकर चलें कि यह अस्थायी है। आज हमारे पास है, कल किसी और के पास हो सकती है। यदि लोकप्रियता चली भी जाए तो आप वही रहेंगे जो थे। ख्याति मिल जाने पर अहंकार पालें और चली जाने पर अवसाद में डूबें।
हठ को मन
से नहीं, बुद्धि
से जोड़ना होगा..
हठ करो-हासिल
करो, इस तरह
के आदर्श वाक्य
से लोगों को
प्रोत्साहित और प्रेरित
किया जाता है। कहते
हैं यदि ज़िद ठान लें तो संसार में जो चाहें, पा सकते हैं। हठ करो-हासिल करो, इस तरह
के आदर्श वाक्य से लोगों को प्रोत्साहित और प्रेरित किया जाता है। हठ करना बुरी बात
नहीं है। हठ यदि शुभ संकल्प में बदल जाए तब तो बात ही अलग होगी। दार्शनिक लोग कहते
हैं दुनिया में तीन लोगों का हठ बड़ा चर्चित है- राजहठ, बालहठ और त्रियाहठ। राजा जिद
पर आ जाए, बच्चा मचल जाए और स्त्री अपनी बात मनवाने पर अड़ जाए तो परिणाम लोग अलग-अलग
ढंग से भुगतते हैं। शास्त्रों में एक बात बड़े अच्छे ढंग से कही गई है कि संसार में
केश (बाल) और नाखून का हठ भी बड़ा मशहूर है क्योंकि दोनों को काटो और फिर उग आते हैं।
इसके अलावा एक और हठ बताया गया है- मन का। हमारा मन बड़ा हठी होता है। कितना ही काबू
में करने की कोशिश कर लें, वह अपना काम दिखा ही देता है। मन दो तरह के हैं- मंकी माइंड
और काउ माइंड। मंकी माइंड का मतलब है किसी बंदर की तरह उछलकूद करने वाला। काउ माइंड
वह जो गाय की तरह शांत हो और जिसमें से पॉजीटिव वाइब्रेशन्स निकल रहे हों। विचार करें
हमारा मन कैसा है और प्रयास कीजिएगा काउ माइंड हो। मन हर एक पर अपने वांछित व्यवहार
का दबाव बनाता है। जैसा मैं चाहता हूं वैसा ही हो जाए यह मन का अति आग्रह या हठ है।
चूंकि बाहर उसका हठ पूरा नहीं हो पाता इसलिए भीतर दृश्य निर्मित करता है और भीतर के
ये ही दृश्य आपको तनाव में पटक देते हैं। छलावा, षड्यंत्र ये सब मन के हठ के परिणाम
हैं। याद रखिएगा, हठ यदि मन से जुड़ा है तो आप नुकसान में हैं और यदि बुद्धि से जुड़ा
है तो सफलता के मतलब बदल जाएंगे।
गुरु न मिले
तो हनुमानजी को
गुरु मान लें
कोई बच्चा माता-पिता
या परिवार के
बड़े-बुजुर्गों की
अंगुली पकड़कर ही दुनियादारी
देखने और उसे
समझने की शुरुआत
करता है। कहा जाता है मानव जीवन की पहली पाठशाला परिवार होती है। सच भी
है, कोई बच्चा माता-पिता या परिवार के बड़े-बुजुर्गों की अंगुली पकड़कर ही दुनियादारी
देखने और उसे समझने की शुरुआत करता है। लेकिन, इस तथ्य को भी नहीं भुला सकते कि माता-पिता
या परिवार से प्राप्त शिक्षा सफलता की सीढ़ियां तो दिखा सकती हैं परंतु लक्ष्य तक पहुंचने
के लिए कुछ और भी चाहिए। बिना सही मार्गदर्शन के केवल ज्ञान या जानकारी के बूते कामयाबी
के शीर्ष तक नहीं पहुंचा जा सकता। यह मार्गदर्शन सिर्फ गुरु ही दे सकते हैं। बात महान
दार्शनिक अरस्तू की हो या स्वामी विवेकानंद की, इनके समग्र दर्शन और व्यक्तित्व के
पीछे गुरु कृपा का आलोक ही काम कर रहा था। स्वामी विवेकानंद ने तो स्वयं ही स्वीकार
किया था कि यदि गुरु रूप में रामकृष्ण परमहंसजी नहीं मिले होते तो मैं साधारण नरेंद्र
से ज्यादा कुछ नहीं होता। हर माता-पिता की चाहत होती है उनकी संतान श्रेष्ठ होकर शीर्ष
तक पहुंचे। समय रहते बच्चों के लिए कोई योग्य गुरु ढूंढ़ दीजिए। वे वहीं पहुंच जाएंगे,
जिस मुकाम पर आप उन्हें देखना चाहते हैं। हालांकि श्रेष्ठ गुरु मिल जाना भी इस दौर
की बड़ी चुनौती है। तुलसीदासजी ने श्री हनुमान चालीसा की सैंतीसवीं चौपाई, ‘जै जै जै
हनुमान गोसाई कृपा करहुं गुरुदेव की नाई’ लिखकर इस चुनौती को बहुत आसान कर दिया है। कोई अच्छा गुरु नहीं मिले
तो हनुमानजी को ही गुरु और हनुमान चालीसा को मंत्र मान लीजिए। सफल कैसे हुआ जाए और
सफलता मिल जाने के बाद क्या किया जाए यह हनुमानजी से अच्छा कोई नहीं सिखा सकता। गुरु
रूप में उनकी जो कृपा बरसेगी वह आपका जीवन बदल देगी। कल गुरुपूर्णिमा है, क्यों न शुरुआत
इसी शुभ दिन से की जाए..
राम से सीखें एक साथ कई भूमिकाएं निभाना
दो हाथ से चार गेंद
उछालना और किसी एक को भी गिरने नहीं देना, यह काम या तो जादूगर कर सकता है या कोई बड़ा
कलाबाज। दो हाथ से चार गेंद उछालना और किसी एक को भी गिरने नहीं देना, यह काम या तो
जादूगर कर सकता है या कोई बड़ा कलाबाज। लेकिन कुछ लोग वास्तविक जिंदगी में भी अपने
कामों, अपनी परिस्थितियों को ऐसे ही उछालते हैं। एक बार में अनेक काम साध लेते हैं
और सफल भी हो जाते हैं। प्राणियों में सिर्फ इंसान है, जिसे मानव कहा गया है और वह
इसलिए कि उसके भीतर मानस होता है। मानस सक्रिय होता है तो मस्तिष्क बनकर कई काम एक
साथ करने की क्षमता रखता है। लंकाकांड के एक अनूठे दृश्य पर तुलसीदासजी ने लिखा है,
‘प्रभु कृत सीस कपीस उछंगा। बाम दहिन दिसि चाप निसंगा।। दुहुं कर कमल सुधारत बाना।
कह लंकेस मंत्र लगि काना।। बड़भागी अंगद हनुमाना। चरन कमल चापत बिधि नाना।। प्रभु पाछें
लछिमन बीरासन। कटि निषंग कर बान सरासन।।’ यहां बताया गया है कि किस प्रकार राम विश्राम की मुद्रा में लेटे
हैं और सुग्रीव, विभीषण, हनुमान, अंगद आदि उनके आसपास बैठे सेवा में लगे हैं। श्रीराम
विश्राम भी कर रहे हैं और सक्रिय भी हैं। स्वयं काम कर रहे हैं और अपने सभी साथियों
को भी काम पर लगा रखा है। जब मनुष्य का मस्तिष्क सक्रिय होता है तो चार रंगों से गुजरता
है। इन्हें शास्त्रों ने वर्ण कहा है। पहला होता है शूद्र। इसे आज की भाषा में स्वामी
भक्ति कह सकते हैं। दूसरा वैश्य। यानी चौकसी के साथ अपने हानि-लाभ के लिए सक्रिय रहना।
क्षत्रिय वर्ण में नेतृत्व क्षमता आ जाती है और ब्राह्मण वर्ण यानी ज्ञान का सदुपयोग
करना। इस तरह एक मस्तिष्क आपको कई अवसरों से गुजार सकता है। जब एक साथ कई भूमिकाएं
चल रही हों तो श्रीराम से सीखा जाए कैसे दो हाथों में चार गेंद उछालें और गिरने भी
न दें। यही कलाबाजी आपकी योग्यता बन जाएगी।
संतान के भीतर सद्विचारों
की तरंगें उतारें
अच्छी-अच्छी बातों-सूक्तियों
को तोड़-मरोड़कर रुचिकर बनाते हुए नारों की शक्ल में उछाल देने की कला वॉट्सएप ने सबको
सिखा दी आदर्श वाक्यों, अच्छी-अच्छी बातों-सूक्तियों को तोड़-मरोड़कर रुचिकर बनाते
हुए नारों की शक्ल में उछाल देने की कला वॉट्सएप ने सबको सिखा दी है। जिसे देखो वह
मोबाइल के माध्यम से ज्ञान बांट रहा है। फिर उस ज्ञान को हम नेत्रों से पढ़ते तो हैं
लेकिन, बात हृदय तक नहीं पहुंचती। कुल-मिलाकर चारों ओर ज्ञान की वर्षा हो रही है पर
आचरण में उतारने को कोई तैयार नहीं। जैसे भिखारी भीख मांगता है और लोग कह देते हैं
आगे बढ़ो, बस उसी तरह ज्ञानवर्धक संदेश तुरंत आगे बढ़ाए जा रहे हैं। किसी इंसान को
तैयार करना हो तो सबसे पहले उसके आचरण पर काम करना पड़ता है। माता-पिता संतान को सिर्फ
जन्म ही नहीं देते, उन्हें तैयार भी करते हैं। बायो टेक्नोलॉजी के इस युग में लगातार
प्रयोग हो रहे हैं, जिनमें कुछ चौंकाने वाले हैं। एक ही पेड़ पर हर डाली अलग-अलग आकार
और स्वाद के फल दे सकती है। ऐसे सफल प्रयोग हो चुके हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार मनुष्य
को सिर्फ एक प्रतिशत दूसरी बातें प्रभावित करती हैं, बाकी निन्यानबे प्रतिशत वह प्रकृति
द्वारा संचालित होता है। जब फलों पर इतना काम हो रहा हो तो संतानरूपी फसल पर भी गंभीरता
से काम करना पड़ेगा। इसकी शुरुआत उनके आचरण से कीजिए। अन्न का मन पर पूरा असर पड़ता
है। बायो टेक्नोलॉजी के युग में खान-पान की चीजों पर बहुत काम हो रहा है परंतु ध्यान
रखिए, एक अन्न विचारों का भी होता है। माता-पिता के शरीर और मस्तिष्क से निकली तरंगें
भी अन्न की तरह प्रभावी होकर बच्चों के लिए बहुत उपयोगी होती हैं। सद्विचारों की ये
तरंगें उनके भीतर उतारिए। कहीं ऐसा न हो कि हम उन्हें मौखिक निर्देश, आदर्श वाक्य और
सूत्र बांटते रहें और वो सब ऊपर से निकलकर उनका आचरण कोरा रह जाए।
अपने अंदर अध्यात्म
का स्वराज्य लाएं
भारत में जो भी किया
जाए, भारतीयता उससे विलग नहीं होनी चाहिए। राज्य और स्वराज्य दो अलग चीजें हैं। हमारे
देश का जो राज्य, जो शासन है वह लगातार ऐसे प्रयोग कर रहा है कि एक भारतीय की संवैधानिक
स्थिति में कुछ अनुकूल और कुछ प्रतिकूल परिवर्तन आ रहे हैं। कई इनके समर्थन हैं तो
कुछ विरोध भी कर रहे हैं। सामान्यजन के पास सिवाय प्रतीक्षा करने के और कुछ नहीं है।
ऐसे समय जब नए-नए नियम आ रहे हों, कर के रूप बदल रहे हों, देश विकास के मार्ग पर गति
पकड़ रहा हो, उपलब्धि होने और नहीं होने- दोनों ही स्थितियों में अध्यात्म की बहुत
जरूरत पड़ेगी। भारत में जो भी किया जाए, भारतीयता उससे विलग नहीं होनी चाहिए। कुछ मामलों
में अध्यात्म और भारतीयता एक ही है। राज्य वह होता है, जिसे कुछ लोग चलाते हैं। जैसे
हमारे यहां लोकतंत्र है। लेकिन स्वराज्य का मामला थोड़ा आत्मा से जुड़ा है। आप जितना
स्वराज्य पर टिक जाएंगे, राज्य से होने वाली तकलीफों की पीड़ा कम होगी और उपलब्धियों
का सदुपयोग कर सकेंगे। स्वराज्य की सीधी-सी परिभाषा है स्वयं द्वारा स्वयं पर शासन।
यहां स्वयं का मतलब आत्मा से है। जितना आत्मा को जानेंगे उतना ही स्वराज्य का आनंद
ले पाएंगे। स्वयं मर्यादा में रहना सीख गए तो दूसरों को भी यही सहूलियत देंगे और खुद
भी हर स्थिति का आनंद ले सकेंगे। स्वराज्य पाने के लिए चौबीस घंटे में कुछ समय योग
करिए। तब स्वयं पर शासन करते हुए बाहर की परिस्थितियों से उतने प्रभावित नहीं होंगे,
जितने आज होकर परेशानी उठा रहे हैं। बाहर की दुनिया तो ऐसे ही चलती है। जो राजा आएगा,
अपना सिक्का चलाएगा। उसका सिक्का आपके लिए कोड़ा और घोषणाएं पीड़ा न बन जाए, इसलिए
अध्यात्म की दृष्टि से एक स्वराज्य अपने भीतर जरूर ले आइए।
अहिंसक भाव हो
तो व्यक्तित्व सुखदायक..
एक चौंकाने वाला आंकड़ा
सामने आया है कि मनुष्यों के बीच सामूहिक हिंसा कम होकर व्यक्तिगत हिंसा बढ़ गई है।
एक चौंकाने वाला आंकड़ा
सामने आया है
कि मनुष्यों के
बीच सामूहिक हिंसा
कम होकर व्यक्तिगत
हिंसा बढ़ गई
है। सामूहिक हिंसा
की जो भी
घटनाएं हो रहीं
हैं वे आतंकियों
द्वारा की जा
रही है। हिंसा
का अर्थ किसी
का रक्त बहाना
या किसी की
जान लेना ही
नहीं है। गहराई
से विचार करें
तो आपके द्वारा
किसी को आहत
करना भी हिंसा
ही है।
मनोवैज्ञानिकों
का मानना है
इन दिनों जीवनशैली
ऐसी हो गई
कि व्यक्तिगत रूप
से मनुष्य बहुत
हिंसक होकर साथ
रहने वालों को
लगातार आहत कर
रहा है, उनके
प्रति हिंसा कर
रहा है। एक-दूसरे के साथ
रहने के बाद
भी लोग असुरक्षित
महसूस करते हुए
असहिष्णु होते जा
रहे हैं। व्यक्तिगत
हिंसा कम करना
हो तो पहले
अपने व्यक्तित्व में
दो बातें देखिए-
क्या आप मनभावन
हैं या सुखदायक
व्यक्तित्व के धनी
हैं? मनभावन व्यक्तित्व
वाले लोग अच्छे
तो लग सकते
हैं पर भीतर
से वो क्या
कर रहे हैं,
कौन-सी नेगेटिव
एनर्जी फैला रहे
हैं, यह आप
नहीं जान पाएंगे।
सुखदायक प्रवृत्ति वाले साथ
वालों को हमेशा
पॉजिटिव वायब्रेशन्स ही देेंगे।
हमारे भीतर विचार
सूचना और ऊर्जा
दोनों लेकर आते
हैं। जब ये
किसी निर्णय या
इरादे से जुड़ते
हैं तब तरंगें
बनती हैं। यदि
आप भीतर से
अहिंसक हैं तो
ये ही तरंगे
पॉजिटिव और हिंसक
हैं तो निगेटिव
हो जाएंगी। आज
व्यक्तिगत हिंसा के लक्षण
परिवार में रिश्तों
के बीच उतर
आए हैं। बच्चे
ऐसा-ऐसा बोल
जाते हैं कि
माता-पिता आहत
हो जाते हैं।
माता-पिता की
वाजिब डांट भी
बच्चों को हिंसा-सी लगती
है। पति-पत्नी
के बीच आक्रमण
के दृश्य तो
गजब के ही
होते हैं। इन
नकारात्मक स्थितियों से स्वयं
और परिवार को
दूर रखना हो
तो भीतर अहिंसक
भाव पैदा करते
हुए व्यक्तित्व को
सुखदायक बनाइए।
ऊर्जा पाने के
लिए ईश्वर पर
ध्यान लगाएं
जीवन में असफल
रहना कोई नहीं
चाहता लेकिन, कुछ
अवरोध ऐसे जाते
हैं जिनसे निपटना
ही पड़ता है। असफलता
यदिभयानक है तो अवरोध डरावना होता है। जीवन में असफल रहना कोई नहीं चाहता लेकिन, कुछ
अवरोध ऐसे जाते हैं जिनसे निपटना ही पड़ता है। इसके लिए आंतरिक शक्ति, अतिरिक्त ऊर्जा
प्राप्त करनी होगी। जब हम किसी बड़ी यात्रा पर चलते हैं तो कुछ रुकावटें कुदरत दे देती
है और कुछ हम स्वयं पैदा कर लेते हैं। दुनिया में कई महान लोगों को कुदरती रुकावटों
का सामना करना पड़ा है। सूरदासजी दृष्टिहीन थे, तुलसीदासजी को जीवन के अंतिम दौर में
कैंसर हो गया था। चर्चिल हकलाते थे, सुकरात का पारिवारिक जीवन तनावपूर्ण था और आचार्य
नरेंद्रदेव दमा से पीड़ित थे। लेकिन, ये सब तमाम रुकावटों से पार पाते हुए अपने लक्ष्य
तक पहुंचे। हमारे जो भी भौतिक लक्ष्य हों पर एक बड़ा लक्ष्य होना चाहिए दुर्गुणों का
सामना कर उन्हें खत्म करना। रावण दुर्गुणों का जीता-जागता स्वरूप था। लंका कांड में
राम उससे टक्कर लेने जा रहे थे और इस पर तुलसीदासजी ने दोहा लिखा- ‘एहि बिधि कृपा रूप
गुन धाम रामु आसीन। धन्य ते नर एहिं ध्यान जे रहत सदा लयलीन।।’
यहां कृपा, रूप और गुण तीन बातें
रामजी से जोड़ते हुए कहा गया है कि जो लोग इसमें ध्यान लगाएंगे उन्हें अतिरिक्त ऊर्जा
मिलेगी। प्रकृति और परमपिता की कृपा, उनका रूप गुण हमारे लिए एक शक्ति है। ऐसा तुलसीदासजी
ने इसलिए लिखा कि अब रावण से टकराने का अवसर रहा था। राम तो एक बार टकराए थे पर हमें
तो हर दिन अपने ही भीतर के रावण से टकराना है। इसीलिए जो आंतरिक शक्ति ऊर्जा प्राप्त
करनी है उसमें परमशक्ति की कृपा, रूप और गुण का ध्यान लगाइए। बाधाएं-रुकावटें अपने
आप दूर हो जाएंगी। वरना ये अवरोध असफलता के बड़े कारण बन जाएंगे।
परिवार में अन्य
सदस्यों के लिए
उपयोगी बनें
हम दूसरों का उपयोग
कर लें लेकिन,
जब दूसरा हमारा
उपयोग करे तो
कई तरह के
समीकरण बैठाने लगते हैं। अपना
थोड़ा-बहुत उपयोग दूसरों के लिए भी होने दें, इसमें कोई बुराई नहीं है। हम लोग इस मामले
में बड़े सावधान रहते हुए खुद को बचाकर चलते हैं। हम दूसरों का उपयोग कर लें लेकिन,
जब दूसरा हमारा उपयोग करे तो कई तरह के समीकरण बैठाने लगते हैं। बाहर की दुनिया में
ऐसा चल सकता है पर आजकल लोग घर में भी ऐसा ही करने लगे हैं। परिवार छोटे होते जा रहे
हैं लेकिन, यदि अपनापन नहीं बचा तो छोटे परिवार बनाने से भी क्या मतलब?..
मजबूरीवश कभी-कभी परिवार छोटे करना पड़ते हैं। अब बहुत सारे लोग एक साथ नहीं रह सकते। काम-धंधे के कारण घर से बाहर निकलना पड़ता है। यदि किसी परिवार में तीन या चार सदस्य हैं और लगे कि हमारा परिवार छोटा है तो वो एक प्रयोग कर सकते हैं। हर सदस्य तय कर ले कि ये बचे हुए तीन मेरा जमकर उपयोग करें। गणित कुछ ऐसा बैठेगा कि चार लोगों का परिवार सोलह जैसा सुख देने लगेगा। अपना उपयोग दूसरे करें ऐसा स्वभाव बनाने के लिए एक आध्यात्मिक प्रयोग करिए। हमारे शरीर के सात चक्रों में कोई एक केंद्रीय चक्र होता है जहां से हमारा स्वभाव नियंत्रित होता है। उस चक्र का जो स्वभाव होगा, हम वैसा ही करते हैं।
इसीलिए बहुत नज़दीकी
संबंध होने के
बाद भी लोगों
के स्वभाव अलग-अलग होते
हैं। एक ही
माता-पिता के
बच्चों की आदतें,
क्रिया-कलाप में
अंतर होता है।
यदि लगातार गहरी
सांस के साथ
प्रत्येक चक्र पर
चिंतन करें तो
कुछ दिनों में
अंदाज हो जाएगा
कि आपका केंद्रीय
चक्र क्या है?
उस पर टिककर
अपने स्वभाव को
परिपक्व कीजिए, अपने आप
प्रसन्नता के साथ
अपना उपयोग दूसरों
को करने देंगे।
यहीं से छोटे
परिवार का एकाकीपन
दूर होकर आप
कम लोगों में
भी ज्यादा का
आनंद उठा पाएंगे।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है... मनीष
ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है... मनीष
ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....
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