ॐ शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....
निष्काम, कर्मयोगी, तप, त्याग और सेवा की साक्षात मूर्ति ब्रह्मलीन स्वामी कल्याणदेव जी महाराज सच्चे अर्थों में सन्त थे। उनकी जन्मतिथि एवं शिक्षा-दीक्षा के बारे में निश्चित जानकारी किसी को नहीं है। एक मत के अनुसार जून 1876 में उनका जन्म ग्राम कोताना (जिला बागपत, उ.प्र.) के एक किसान परिवार में हुआ था। उनके पिता श्री फेरूदत्त जाँगिड़ तथा माता श्रीमती भोईदेवी थीं। कुछ लोग जिला मुजफ्फरनगर के मुण्डभर गाँव को उनकी जन्मस्थली मानते हैं। उनके बचपन का नाम कालूराम था।
निष्काम, कर्मयोगी, तप, त्याग और सेवा की साक्षात मूर्ति ब्रह्मलीन स्वामी कल्याणदेव जी महाराज सच्चे अर्थों में सन्त थे। उनकी जन्मतिथि एवं शिक्षा-दीक्षा के बारे में निश्चित जानकारी किसी को नहीं है। एक मत के अनुसार जून 1876 में उनका जन्म ग्राम कोताना (जिला बागपत, उ.प्र.) के एक किसान परिवार में हुआ था। उनके पिता श्री फेरूदत्त जाँगिड़ तथा माता श्रीमती भोईदेवी थीं। कुछ लोग जिला मुजफ्फरनगर के मुण्डभर गाँव को उनकी जन्मस्थली मानते हैं। उनके बचपन का नाम कालूराम था।
धार्मिक प्रवृत्ति के होने
के कारण दस
साल की अवस्था
में उन्होंने घर
छोड़ दिया था।
1900 ई0 में ऋषिकेश
में स्वामी पूर्णदेव
जी से दीक्षा
लेकर वे हिमालय
में तप एवं
अध्ययन करने चले
गये। 1902 में राजस्थान
में खेतड़ी नरेश
के बगीचे में
स्वामी विवेकानन्द से उनकी
भेंट हुई। विवेकानन्द
ने उन्हें पूजा-पाठ के
बदले निर्धनों की
सेवा हेतु प्रेरित
किया। इससे कल्याणदेव
जी के जीवन
की दिशा बदल
गयी।
1915 में गान्धी जी से
भेंट के बाद
स्वामी जी स्वाधीनता
संग्राम के साथ
ही हिन्दी और
खादी के प्रचार
तथा अछूतोद्धार में
जुट गये। इस
दौरान उन्हें अनुभव
आया कि निर्धनों
के उद्धार का
मार्ग उन्हें भिक्षा
या अल्पकालीन सहायता
देना नहीं, अपितु
शिक्षा की व्यवस्था
करना है। बस,
तब से उन्होंने
शिक्षा के विस्तार
को ही अपने
जीवन का लक्ष्य
बना लिया।
स्वामी जी ने
मुजफ्फरनगर जिले में
गंगा के तट
पर बसे तीर्थस्थान
शुकताल को अपनी
गतिविधियों का केन्द्र
बनाया। यह वही
स्थान है, जहाँ
मुनि शुकदेव जी
ने राजा परीक्षित
को वटवृक्ष के
नीचे पहली बार
भागवत की कथा
सुनायी थी। वह
वटवृक्ष आज भी
जीवित है। स्वामी
जी ने इस
स्थान का जीर्णाेद्धार
कर उसे सुन्दर
तीर्थ का रूप
दिया। इसके बाद
तो भक्तजन स्वामी
जी को मुनि
शुकदेव का अंशावतार
मानने लगे। स्वामी
जी ने गंगा
तट पर बसे
महाभारतकालीन हस्तिनापुर के विकास
में भी महत्त्वपूर्ण
योगदान दिया।
सरलता और सादगी
की प्रतिमूर्ति स्वामी
जी का प्रेम
एवं आशीर्वाद जिसे
भी मिला, वही
धन्य हो गया।
इनमें भारत के
प्रथम राष्ट्रपति डा.
राजेन्द्र प्रसाद से लेकर
पण्डित नेहरू, नीलम संजीव रेड्डी, इन्दिरा गान्धी, डा.
शंकरदयाल शर्मा, गुलजारीलाल नन्दा,
के.आर. नारायणन,
अटल बिहारी वाजपेयी
आदि बड़े राजनेताओं
से लेकर सामान्य
ग्राम प्रधान तक
शामिल हैं। स्वामी
कल्याणदेव जी सबसे
समान भाव से
मिलते थे।
स्वामी जी ने
अपने जीवनकाल में
300 से भी अधिक
शिक्षा संस्थाओं की स्थापना
की। वे सदा
खादी के मोटे
भगवा वस्त्र ही
पहनते थे। प्रायः
उनके वस्त्रों पर
थेगली लगी रहती
थी। प्रारम्भ में
कुछ लोगों ने
इसे उनका पाखण्ड
बताया; पर वे
निर्विकार भाव से
अपने कार्य में
लगे रहे। वे
सेठों से भी
शिक्षा के लिए
पैसा लेते थे;
पर भोजन तथा
आवास सदा निर्धन
की कुटिया में
ही करते थे।
शाकाहार के प्रचारक
इस सन्त को
1992 में पद्मश्री तथा 2000 ई.
में पद्मभूषण से
सम्मानित किया गया।
13 जुलाई 2014 की अतिरात्रि
में उन्होंने अपने
शिष्यों से उन्हें
प्राचीन वटवृक्ष एवं शुकदेव
मन्दिर की परिक्रमा
कराने को कहा।
परिक्रमा पूर्ण होते ही
12.20 पर उन्होंने देहत्याग दी।
तीन सदियों के
द्रष्टा 129 वर्षीय इस वीतराग
सन्त को संन्यासी
परम्परा के अनुसार
अगले दिन शुकताल
में भूसमाधि दी
गयी।
मां सरस्वती के भक्त तथा मुजफरनगर के इस महान सपूत को शत शत नमन....🙏🙏
मां सरस्वती के भक्त तथा मुजफरनगर के इस महान सपूत को शत शत नमन....🙏🙏
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है... मनीष
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