विकासवाद भले ही यह मानता हो कि मनुष्य के पूर्वज उसके स्तर से गिरे हुए दूसरे जीव जंतु रहे होंगे, लेकिन अध्यात्म की मान्यता है कि वह मूलतः एक देवता है। हजारों साल के ज्ञात इतिहास में अभी तक ऐसा कोई क्षण नहीं आया, जिसमें यह सोचना पड़े कि सभ्यता अब नष्ट हो ही जाएगी और चारों तरफ विनाश के बादल गरजेंगे बरसेंगे। चारों तरफ घटाटोप अंधेरा छाया हो लेकिन सुबह की सुनहरी लालिमा अंततः उगी और बिखरी है। मनुष्य एक बार फिर उठा और चल दिया।
मनुष्य अपने भटकाव से छुटकारा पा सके तो उतने भर से स्वयं पार उतरने और अनेकों को पार उतार सकता है। इसके लिए कोई पहलवान या विद्वान होना जरूरी नहीं है। कबीर, दादू ,रैदास मीरा शबरी आदि ने संपन्नता के आधार पर वह श्रेय प्राप्त नहीं किया जो अब भी असंख्य लोगों को प्रेरित करता है। वह श्रेय उन्हें आंतरिक उत्कृष्टता के आधार पर ही प्राप्त हुआ।
हमारे पास शरीर, मन और अंतःकरण ये तीन ऐसी विशेष खदानें हैं, जिनमें से मनचाहे मोती निकाले जा सकते हैं। बाहरी सहयोग से भी लाभ होता है। कभी कभार अयोग्य और अवांछित लोगों पर भी भाग्य बरस सकता है। लेकिन सफलता दूसरों की मेहरबानी या भाग्य भरोसे ही नहीं है। सफलता उन्हें ही मिली जिन्होंने पुण्य प्रयास किए। गतिवानों और सक्रियजनों को कौन रोक पाया। गंगा का बहता हुआ संकल्प उसे महासागर तक पहुंचाए बिना बीच में कहीं रुका नहीं है।
जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है ... मनीष
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