Wednesday, October 5, 2016

जीवन जीने की राह (Jeevan Jeene Ki Rah)

दूसरों के गुण देख अपने में सुधार करें..
एक पुरानी कहावत है- छलनी कहे सूपवा से तोहरा में छेद। इसका सीधा-सा अर्थ है कि छेद दोनों में होते हैं। दोनों ही कचरे को साफ करते हैं। इस दौर के बच्चे तो ही छलनी को जान पाएंगे और ही सूपड़ा, क्योंकि अब तो कचरा साफ करने की ऐसी मशीन गई है कि कचरे को ही मुफ्त का प्रोडक्ट बना दिया गया है। कहावत यह है कि जो स्वयं दोषी होते हैं वो दूसरों पर दोषारोपण करते हैं। हम लोग 36 को 63 और 63 को 36 करने की कला में उलझे हुए हैं। मैं ऐसे अनेक लोगों को जानता हूं जो मुझसे मिलने पर सत्संग की समीक्षा करते हैं।
मेरी प्रशंसा की आड़ में दूसरों की आलोचना करते हैं। मुझे आश्चर्य नहीं होता कि कभी वे इसका उल्टा भी कर रहे होंगे। दूसरों की प्रशंसा करते हुए उनके सामने मेरी आलोचना कर रहे होंगे। अन्य विषयों में दोष ढूंढ़ा जाए तो हानि कम है, पर आजकल हम सत्संग-कथाओं में भी दोष ढूंढ़ने लगे हैं। हम जानते हैं कि गलत क्या है, लेकिन फिर भी जीवन-प्रवाह में सही का चयन नहीं करते। इसका कारण है हमारे भीतर हमने कुछ अड़चनें पैदा कर ली हैं। सत्संग अच्छा हो या बुरा, यदि तैयारी सुधरने की है तो हम लाभ उठा सकते हैं, लेकिन हमारे भीतर कुछ तत्व होते हैं जो जानते हैं कि यदि हमारा मालिक सुधरा तो फिर हम दुर्गुणों का क्या होगा, क्योंकि सत्संग सह-अस्तित्व का मामला है।

बहुत से लोगों के साथ आपको बैठना पड़ता है। किसी एक व्यक्ति की वाणी पर भरोसा करना होता है। बस, यहीं से सह-अस्तित्व आरंभ होता है। जब हम अकेले होते हैं तो स्वतंत्र रहते हैं, लेकिन जैसे ही सत्संग में हमारे साथ अन्य लोग होते हैं। दूसरों के साथ जब जीना पड़ता है तब हमारी परीक्षा होती है। उस समय हमें दूसरों के गुण देखकर अपने में सुधार करना चाहिए कि सूप और छलनी का खेल खेलना चाहिए।

लोगों में राष्ट्रीयता का बोध जगाना होगा..
पिछले दिनों एक युवक विदेश जाने की तैयारी कर रहा था। कुछ अव्यवस्था की मार झेली थी, इसलिए थोड़ा चिड़चिड़ा हो गया था। उसका कहना था देश से बाहर जाने के लिए वीज़ा की फीस और भीतर रहने के लिए रिश्वत देनी पड़ती है। किसी क्षेत्र में अव्यवस्था का सामना करने पर पूरे देश को कोसने वाले बहुत से लोग होते हैं। सही है कि देश में लाख सुधार करने के बाद भी कुछ भ्रष्ट और निकम्मों के कारण आम आदमी को बड़ी पीड़ा उठानी पड़ती है। यह भावना लोगों के भीतर घर कर गई है कि कितनी ही मेहनत करो, रिटर्न नहीं मिलता। ऐसे में बेचैनी या उदासी स्वाभाविक है।

राष्ट्रीयता के बोध के अभाव ने अधिकांश लोगों को देश पर ऐसी टिप्पणी करने पर मजबूर कर दिया है। इस समय जितने भी काम हमारे देश में चल रहे हैं एक और काम योजनाबद्ध ढंग से करना चाहिए और वह है लोगों के भीतर राष्ट्रीयता का बोध जगाया जाए। राष्ट्रीयता का बोध हो तो श्रम साधना में बदल जाता है। श्रम करने वाले बदले में मूल्य चाहते हैं, साधना करने वाले केवल देना जानते हैं। साहित्य में कहा गया है शब्दों में प्राण भरे जाते हैं तब वे पठनीय होते हैं। सामान्य व्यक्ति शब्द बोलता है और प्रज्ञावान उनमें प्राण घोलकर व्यक्त करता है। अब राष्ट्रीय व्यक्ति वह होगा जो धार्मिक होने के साथ-साथ नैतिक भी हो। लोगों को धार्मिकता और नैतिकता जोड़कर भीतर उतारनी होगी।

केवल धार्मिक व्यक्ति अधूरा राष्ट्रीय व्यक्ति होगा। केवल नैतिक व्यक्ति राष्ट्रबोध का सही अर्थ नहीं समझ पाएगा। अगर अभी योजना और विकास की आंधी में राष्ट्रीयता के बोध को नहीं बचाया तो यह पीढ़ी भारत को सिर्फ धरती का एक टुकड़ा मान लेगी जो वास्तव में है नहीं। भारत इस सबसे कुछ और ऊपर है।

योग को खेल भावना से करना बेहतर...
शतरंज का चतुर खिलाड़ी पिटे हुए मोहरों से अपनी अंगुलियां दूर ही रखता है। अच्छा खिलाड़ी बचाव और आक्रमण एकसाथ करता है। योग का खेल ऐसा ही है। जब हम योग को खेल कहते हैं तो शब्द थोड़ा अप्रिय लगता है, लेकिन अब ऐसे लोग कम हैं, जो योग को साधना के रूप में स्वीकार करते हैं। इस समय लोग खेल-खेल में गंभीर से गंभीर काम कर सकते हैं, इसलिए मैं योग को खेल से जोड़ रहा हूं। खेल भावना में हार-जीत से अधिक परफॉर्मेंस भरपूर होता है।

हारने पर दुश्मनी पैदा नहीं होगी और जीतने पर अहंकार नहीं आता। जिन्हें आएगा वे गलत रास्ते पर जा रहे होंगे। जैसे ही हम योग करने उतरते हैं थोड़ा शतरंज के खेल को दिमाग में रखिए। दुर्गुण पिटे हुए मोहरे हैं। आलस्य बार-बार आपको आकर्षित करेगा। अंगुलियां अपने ऊपर लाएगा और एक भी मोहरा गलत उठा लिया तो संभव है आपका बादशाह धराशायी हो जाए। आलस्य ऐसा दुर्गुण है, जिसे अधिक कोस भी नहीं सकते, क्योंकि उसका जुड़वां भाई है विश्राम। आप आलस्य पर आक्रमण करें, वह विश्राम को आगे कर देगा। कोई भीतर से समझाएगा कि आराम भी जरूरी है। तुम इसे आलस्य क्यों मान रहे हो और इसी लक्ष्मण-रेखा को आप नहीं समझ पाते। आराम की शक्ल में आलस प्रवेश कर जाता है। ये दोनों मिलकर आपके आनंद को खा जाते हैं, इसीलिए योग करने वाले लोग भी चिड़चिड़े हो जाते हैं।

लिहाजा, योग करने का जो भी तरीका आपके पास हो, लेकिन चौबीस घंटे में कुछ समय उसके लिए आरक्षित जरूर करें। मेरा हमेशा से आग्रह रहा है जो काम आसानी से किया जा सकता है वह पहले कर लें। श्री हनुमान चालीसा से ध्यान एक आसान क्रिया है। इसके बाद आप योग में उतर जाएं। आश्चर्य नहीं कि पहला कदम ही मंजिल बन जाए।

अच्छी बातों के उपयोग में देर करें
एक कायदा है कि यदि आपने कोई सबक सीखा है और उसे ठीक से याद रखना चाहें तो दूसरों को तुरंत सिखाएं। इसमें दो बातें हैं- पहली यह कि आपने सीखा और दूसरी किसी दूसरे को सिखा दिया। प्रबंधन की भाषा में इसे रियल लर्निंग कहेंगे। जो ज्ञान आपको प्राप्त हुआ है उसे अपने भीतर रोकें नहीं, तुरंत उसका प्रयोग करके देखें। इसे इस दृष्टांत से समझा जा सकता है।

किष्किंधा कांड में जामवंतजी ने अंगद को कई कथाएं सुनाईं, क्योंकि अंगद अवसाद में डूब चुके थे। थोड़ी देर बाद संपाती नाम का गिद्ध वानरों को देखता है तो मन ही मन कहता है भगवान ने आज मुझे खूब सारा भोजन दे दिया। सारे वानर डर जाते हैं। अंगद चूंकि नेतृत्व कर रहे थे और उन्होंने देखा कि संपाती बलवान है और इसके भाई जटायु ने सीताजी की रक्षा में अपने प्राण दे दिए थे, इसलिए विचार किया यदि इससे झगड़ा करेंगे तो व्यर्थ ऊर्जा नष्ट होगी, तो क्यों इसे अच्छी बात समझाई जाए। तो जामवंतजी के मुख से सुनी कथाएं अब गिद्ध संपाती को सीखा रहे हैं।

तुलसीदासजी ने पंक्तियां लिखी हैं- ‘कह अंगद बिचारी मन माहीं। धन्य जटायू सम कोउ नाहीं।। राम काज कारन तनु त्यागी। हरिपुर गयउ परम बड़भागी।।इसका परिणाम यह हुआ कि संपाती को अपना भाई याद आया और जटायु द्वारा किया गया श्रेष्ठ कार्य उसके लिए प्रेरणा बन गया। यहां इस प्रसंग की चर्चा इसलिए की जा रही है कि जीवन में जब भी कोई सीख मिले चाहे वह शास्त्र से मिले, किसी सत्संग से या अन्य किसी भी माध्यम से मिले, उसका उपयोग तुरंत अपने और दूसरों के ऊपर कीजिए। अन्यथा कितनी ही बातें हम पढ़-सुन लेते हैं पर जीवन में उनका उपयोग नहीं करते। अच्छी बातों का उपयोग करने में देर करें, बुरी बातों को टालते रहें।

दुर्गुणों से मुक्ति के लिए स्वयं पर टिकें...
जो लोग शांति की तलाश में हों उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि स्वयं पर टिके बिना शांति नहीं मिल सकती। मानवीय संबंधों के कारण जीवन में तेरा-मेरा बहुत अधिक उतर आता है। उसने ऐसा कर दिया, मैं ऐसा करूंगा, हमारी ऊर्जा इस तेरे-मेरे में ही उलझ जाती है। चाहते हम शांति हैं पर सारे काम करते अशांति के हैं, इसलिएस्वयं पर टिकनेको समझना होगा। इसमें बाधा पहुंचाने वाले तत्वों में प्रमुख होते हैं दुर्गुण। दुर्गुण बिल्कुल माफिया की तरह हैं। माफिया की दुनिया का कायदा है कि यहां सिंहासन कभी खाली नहीं रहता। बड़े से बड़ा अपराधी भी जानता है कि जान और सिंहासन दोनों एक दिन जाने ही हैं। दुर्गुण भी जानते हैं कि जिस दिन हमारा मालिक स्वयं पर टिका, हमारी मौत निश्चित है।

हम जितनी देर करते हैं, वे सिंहासन पर उतनी देर बैठे रहते हैं। कई बार तो जिंदगी बीत जाती है और हम दुर्गुणों को हटा नहीं पाते। स्वयं पर टिकने के जो प्रयास किए जाते हैं उनमें से एक है योग। योग में जितनी क्रियाएं हैं, उसके जो आठ चरण हैं वे बहुत सलीके से हमें अपनी आत्मा तक ले जाते हैं और इस यात्रा को ही स्वयं पर टिकना कहते हैं। जो लोग अपने आप से परिचित हो जाते हैं वे फिर दूसरों में नहीं उलझते। इसके लिए प्रकृति की भी मदद ली जाए, क्योंकि जब हम किसी पेड़ के पास, नदी के किनारे होते हैं तो नदी, पेड़ अन्यों के प्रति दूसरे का यातेराऐसा भाव नहीं रखते। यह भाव हममें सिर्फ मनुष्यों के प्रति होता है। मनुष्यों के बीच में बैठेंगे तो झंझटें चलती रहेंगी, लेकिन प्रकृति के साथ रहने पर इस झंझट से मुक्ति मिलकर स्वयं पर टिकने में आसानी हो जाती है। इसलिए जब भी अवसर मिले, प्रकृति के निकट रहिए और प्रकृति के तत्वों को बचाकर दुर्गुणों को समाप्त कीजिए।

ईश्वर का अनुग्रह है वैवाहिक जीवन..
सच किफायत से बरतने की चीज है, इसे जिंदगी में ठीक से अपनाएं। सत्य शब्द आता है तो अधिकतर मौकों पर लोग इसे सच बोलने से जोड़ लेते हैं, लेकिन हमारे जीवन में कुछ घटनाएं, कुछ स्थितियां सच का स्वरूप लेकर आती हैं। हमें सच की ही तरह इन घटनाओं को बहुत बारीकी से बचाकर चलना चाहिए। मनुष्य के लिए जीवन-मृत्यु दो ऐसे सच हैं, जिन्हें वह कभी बदल नहीं सकता। एेसा ही सत्य है विवाह। स्त्री हो या पुरुष यह ऐसी स्थिति है जिसके निर्वाह में लोग पूरी ताकत लगा देते हैं, लेकिन फिर भी जो सच है वह सामने आता ही है। इस सच को भी बहुत सावधानी से जीवन में उतारा जाना चाहिए। वैवाहिक जीवन के लिए कहते हैं गलत व्यक्ति से सही मुलाकात।

अधिकतर लोगों को विवाह के बाद यह भाव जागता है कि असहमति मतभेद के कारण है। अगर कोई और विकल्प होता तो कितना अच्छा होता। कोई कहता नहीं है पर नब्बे प्रतिशत जोड़ों में यह घुटन रहती है। शादीशुदा होकर हमेशा प्रसन्न रहना ऐसा तप है, जिसे बड़े-बड़े संत भी नहीं कर सकते। क्योंकि इस जीवन का एक सच यह भी है कि एक-दूसरे के प्रति निष्ठावान ही नहीं होना है, बल्कि एक-दूसरे की खूबियों को बाहर लाना है। उन विशेषताओं के साथ दोनों मिलकर जीएं। बात गहरी है परंतु जीवन के सच से जुड़ी है। एक-दूसरे की अच्छाइयों को लगातार प्रदर्शित करते हुए बुराइयों को विस्मृत भी करना पड़ेगा।

जो लोग जीवनसाथी की गलतियों को स्मृति से नहीं हटाएंगे वे कलह का निर्माण कर रहे होंगे, इसलिए जीवन का सच यह है कि उस परम शक्ति के प्रति अनुग्रह से भर जाएं, जिसने आपको जीवनसाथी दिया है और इस सच को खूब किफायत से अपने दांपत्य जीवन में बरतें।

ज्ञान-भक्ति के मेल से मिलता है प्रेम
परमात्मा तक पहुंचने के लिए फकीरों ने दो रास्ते बताए और बनाए हैं। एक है ज्ञान और दूसरा भक्ति का। जो मस्तिष्क केंद्रित लोग, जिनके लिए विचार प्रधान हैं वे ज्ञान से ईश्वर को प्राप्त करेंगे। जिनके लिए मस्तिष्क से अधिक दिल का मूल्य है वे भक्ति से चलेंगे। उनके लिए ज्ञान बहुत बड़ी कोशिश है, भक्ति सहज सरल है। भक्तिमार्गी ज्ञान मार्ग से परमात्मा तक नहीं पहुंच पाएगा। ऐसे ही यदि ज्ञानी भक्ति का रास्ता पकड़े तो भी दिक्कत जाएगी। भक्त धीरे-धीरे ध्यान को आसानी से उपलब्ध होगा, ज्ञानी को ध्यान में भी परेशानी आएगी क्योंकि मन शून्य हो जाए, विचारों का लोप हो जाए तो ध्यान लगता है।

भक्तिमार्ग से चलने वाला व्यक्ति अंत में परमात्मा तक पहुंचते-पहुंचते प्रेम को उपलब्ध हो जाएगा। ज्ञानी पहले ही दिन से प्रेम को अपने शोध में लेगा, खोजेगा और हो सकता है परमात्मा तक पहुंचते-पहुंचते उसे भी प्रेम मिले, लेकिन दोनों में फर्क यह होगा कि भक्त को अचानक मिल जाएगा, ज्ञानी को कोशिश करनी पड़ेगी। दरअसल, तो दोनों गलत हैं और दोनों सही। किसी एक को चुनने में भ्रम पैदा करें। जीवन में भक्ति की जो यात्रा है, जहां से प्रेम उपलब्ध होता है उसका नाम राधाजी हैं और जो ज्ञान से शुरू होकर प्रेम उपलब्ध होता है उसका नाम कृष्णजी है।

दुनियाभर में राधाजी के भक्त फैले हुए हैं। इस विषय पर बहुत शोध हो रहा है कि आखिर श्रीकृष्ण और राधाजी का रिश्ता क्या था? आज राधा अष्टमी पर कम से कम इस रिश्ते से एक बात तो समझ ही लें कि ज्ञान और भक्ति यदि मिल जाएं तो जो सबसे बड़ी उपलब्धि होगी वह होगी प्रेम की। राधा-कृष्ण की जोड़ी यदि प्रेमपूर्वक बना दें तो फिर शांत होने से कौन रोक सकेगा।

विचारों के उपवास से मिलेगी शांति
अधिक बोलने से सच दूर और शांति भंग हो जाती है। जो लोग बहुत ज्यादा बोलेंगे वे तथ्य से दूर होंगे ही, क्योंकि जिस भी घटना पर वे बोल रहे होंगे या जिस व्यक्ति पर चर्चा कर रहे होंगे हो सकता है उसके लिए दस शब्द ही उसके सच को बयान करने के लिए काफी हों। लेकिन जब कभी आप अधिक बोलेंगे तो उस अतिरिक्त में आपका अहंकार हो सकता है और गप भी हो सकती हैं। ऐसे ही जब हम अधिक सोचने लगते हैं तो भी जो विचार जरूरी नहीं हैं वे भी भीतर प्रवेश कर हमारी शांति को भंग कर देते हैं। नाम और शैली में फर्क हो सकता है, लेकिन सभी धर्मों ने उपवास को मान्यता दी है।

उपवास का अर्थ केवल यह नहीं है कि अन्न लेना या कम खाना। इसका एक बड़ा अर्थ है पचाना। यदि आपने अन्न नहीं लिया है तो विचारों का भोजन कर रहे हैं तो उसको भी ठीक से पचाएं। इस कला को समझने में ही शांति छिपी है। इसलिए जीवन में कुछ समय उपवास को जरूर महत्व दें। अन्न का नियंत्रण शरीर की दशा और स्वास्थ्य पर प्रभाव डालेगा और जब हम विचारों का उपवास करेंगे तो जो शून्यता भीतर उतरेगी वह शांति को उपलब्ध कराएगी। ध्यान में शरीर को थोड़ा शिथिल करना पड़ता है। जो लोग कम अन्न लेंगे उनका शरीर उनकी मदद करेगा। एक बार शरीर ने सहमति, सहयोग दे दिया तो फिर ध्यान बड़ा आसान हो जाता है, क्योंकि कुछ समय बाद शरीर को भी भूलना पड़ेगा।

एक बार शरीर भूलकर ध्यान में उतरे तो ऐसा लगेगा जैसे पूरा जीवन ही आपके भीतर केंद्रित हो गया है। आपके अलावा और कोई नहीं है और उन स्थितियों में आप अपने आपको शीघ्रता से शांत कर सकेंगे, इसलिए उपवास जरूर करें लेकिन ठीक से अर्थ समझकर।

सहायता करें तो उसमें अहंकार हो...
जीवन में दूसरों की सहायता करनी और लेनी पड़ती है। श्रीरामचरितमानस के एक प्रसंग में संपाति वानरों को देखकर खाने के लिए तैयार हो जाता है और अंगद उन्हें समझाते हैं। जब संपाति ने सुना कि मेरे भाई जटायु ने सीताजी की रक्षा यानी श्रीराम के कार्य के लिए अपने प्राण दे दिए तो सोचा मैं भी इनकी मदद करूं। तुलसीदासजी लिखते हैं, ‘मोहि लै जाहु सिंधुतट देउँ तिलांजलि ताहि। बचन सहाइ करबि मैं पैहहु खोजहु जाहि।। अर्थात मुझे समुद्र के किनारे ले चलो, मैं जटायु को तिलांजलि दे दूं। इस सेवा के बदले मैं तुम्हारी वचन से सहायता करूंगा।

जीवन में कई बार ऐसा अवसर आएगा कि हम दूसरों की मदद करना चाहें पर हमारे पास धन हो, साधन हो, लेकिन कम से कम वचन से तो सहायता की जा सकती है। आगे एक पंक्ति और आती है - तेज सहि सक सो फिरि आवा। मैं अभिमानी रबि निअरावा।

संपाति बताते हैं कि मैं और मेरा भाई जटायु जवानी में सूर्य के पास उड़कर गए थे। भाई तो लौट आया, लेकिन मैं अहंकार के कारण नहीं लौट पाया। यहां दूसरा शब्द आया है अभिमान। कई बार हम दूसरों की सहायता अपने अभिमान की तुष्टि के लिए करते हैं। हमें अहंकार होता है कि हम बड़े बन जाएं, लोग हमारी प्रशंसा करें, क्योंकि जब किसी की सहायता करते हैं तो हमारा हाथ ऊपर तथा सहायता लेने वाले का हाथ नीचे होता है। यहीं से हमारे अहंकार को तुष्टि मिलती है। इस प्रसंग से हम समझें कि पहली बात तो किसी की मदद करें तो अहंकार के बिना करें। दूसरी बात कि वचन से सहायता की जा सकती है कि कोई अच्छे बोल बोलें, कोई अच्छी बात सामने वाले को सुनाएं। कम से कम मुस्कुराकर दूसरों को प्रेरित तो किया ही जा सकता है। यही सबसे बड़ी सहायता होगी।

आचरण को नीति के अनुसार रखें
राजनीति को लाख गाली दे लें, लेकिन यह सबको पसंद भी है और नापसंद होने पर इससे गुजरना भी पड़ता है। चूंकि देश में लोकतंत्र है, तो जो भी काम किए जाएंगे हर मोड़ पर नेता जरूर मिलेगा, हर पड़ाव पर राजनीति दिखेगी। अब तो घर में भी राजनीति उतर आई है। जब आप कोई नौकरी करते हैं तो जिनकी नौकरी कर रहे होते हैं उन्हें, आपके घर वालों को और स्वयं आपको उम्मीद पैदा होती है कि इस नौकरी से मुझे यह मिल जाएगा।
नौकरी में अच्छे काम के बाद भी संतुष्टि को जो सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाती है वह है राजनीति। कॉर्पोरेट सेक्टर में अपने ढंग की राजनीति है। जो नेता नहीं बन पाए, जिन्हें राजनीति का अवसर नहीं मिला वे फिर नौकरी-धंधे की जगह, घर-परिवार में इस हुनर का उपयोग करने लगते हैं। मैं ऐसे अनेक लोगों को जानता हूं जो कहते हैं सब ठीक चल रहा है, पर पॉलिटिक्स के कारण परेशान हैं। कभी बॉस की पॉलिटिक्स तो कभी सब-ऑर्डिनेट की।

अब तो मां-बाप को भी लगता है कि बच्चे हमसे राजनीति कर रहे हैं। कुछ बच्चे खुलेआम कहते हैं कि हम तो परिणाम ही मां-बाप की राजनीति के हैं। क्या सचमुच राजनीति इतनी बुरी है? राजनीति गाली जैसी इसलिए हो गई, क्योंकि हम इसका उद्देश्य नहीं समझ सके। कोई भी सिस्टम नीति के अनुसार चले उस संयुक्त कायदे को राजनीति कहते हैं।

यह एक व्यवहार है जो षड्यंत्र में बदल गया है। एकाध क्षेत्र बचा था गुरु और शिष्य का, अब वहां भी शुरू हो गई, इसलिए जब भी आपका सामना राजनीति से हो, भगवान पर से भरोसा मत छोड़िएगा। आचरण को नीति के अनुसार रखिए। आप नीति संभालिए, ऊपर वाला राज संभाल लेगा और आपके लिए यही राजनीति फायदेमंद हो जाएगी।

क्रोध से परिजनों का आनंद भंग हो
क्रोध के लिए फकीरों ने कहा है कि यह गरजता ही नहीं, सरकता भी है। बड़े-बड़े संत-महात्माओं को भी क्रोध सकता है। क्रोध की तीन स्थितियां बनती हैं। उसे आप दबा लें, उसे कहीं ओर सरका दें और या उसे निकाल बाहर फेंकें। आजकल सभी को जरा-जरा सी बात पर क्रोध जाता है। भले ही आप किसी और पर क्रोध कर रहे हैं, लेकिन शरीर से जो निगेटिव वाइब्रेशन निकलते हैं वे आपके आसपास के लोगों को भी परेशान कर सकते हैं।

पिछले दिनों मैं और मेरी पत्नी शिमला के एक प्रमुख कैफेटेरिया में बैठे थे। उसी समय एक युगल अपनी छोटी बच्ची के साथ चाय पीने आया। वे कम उम्र के थे। बच्ची भी सात-आठ साल की रही होगी। पत्नी अत्यधिक पढ़ी-लिखी और किसी संस्थान की बड़ी पदाधिकारी लग रही थी। वे आरक्षित टेबल पर बैठ गए। बैरे ने मना किया और वह महिला गुस्सा हो गईं। उन्होंने मैनेजर को बुलाकर बैरे कोे हटाने की हिदायत दी। उनका क्रोध बढ़ता जा रहा था। पति बार-बार टोक रहा था कि छोड़ो, दूसरी टेबल पर बैठ जाते हैं, लेकिन महिला अड़ गई। पत्नी को बात मानते देख पति चुप हो गया। बच्ची दोनों को देखकर चुपचाप बैठ गई। उसकी उदासी में भी क्रोध था। देखते ही देखते तीनों का आनंद भंग हो गया।

क्रोध अपने परम मित्र अहंकार के बिना आता ही नहीं। ये दोनों ऐसे मित्र हैं जो अपने-अपने दुर्गुण एक-दूसरे पर डालते हैं। क्रोध आए तो उसकी ताकत आपसे अच्छे काम भी करा सकती है और गलत काम भी। इसलिए क्रोध को सरकाइए। कोई रचनात्मक कार्य किया जा सकता है। अपने संयम को क्रोध से शक्ति भी दी जा सकती है, लेकिन कम से कम इतना ध्यान तो रखें कि क्रोध आने पर आपका और आपके आसपास के लोगों का आनंद भंग हो।

काम ऊर्जा को रचनात्मक दिशा दें..
कामुक व्यक्ति सारे संबंध ताक पर रख देता है। जब किसी के सिर पर काम नाचता है तो कम से कम भीतर तो वह बर्बाद ही हो चुका होता है। हम सब अपने को बाहर से बचाने और अच्छा दिखाने में माहिर होते हैं, इसलिए अंदर जागी हुई काम ऊर्जा हमें अलग ढंग से नुकसान पहुंचाती है। यह शरीर को भड़काती है। इसीलिए आज काम को लेकर जो दृश्य सामने रहे हैं, जैसे बयान दिए रहे हैं वे मानव जीवन के लिए खतरनाक संकेत है।

80 वर्ष का बूढ़ा गोद ली हुई बच्चियों से दुराचार कर जाए, एक प्रतिष्ठित मंत्री अपने दुराचार को स्वाभाविक बताए। ये काम ऊर्जा की गलत समझ के परिणाम हैं। यह कह देना कि कामक्रीड़ा भी खान-पान की तरह मनुष्य की जरूरत है, ठीक नहीं है। खाने-पीने की जरूरत और काम की जरूरत में फर्क समझना होगा। जो ऊर्जा अन्न पचाने में लगती है वही ऊर्जा जब काम की ओर प्रवाहित होती है तो बर्बाद हो जाती है। इसलिए इसका सदुपयोग बचपन से ही सिखाना पड़ेगा। इसे थोड़ा शरीर से खिसकाकर, मन से गुजारकर आत्मा में ले जाने की आसान कला होती है, जिसका प्रयोग लोग नहीं करते। काम ऊर्जा तो पैदा होगी ही, पर चूंकि आप उसे मोड़ नहीं रहे तो वह शरीर को इतना भड़का देती है कि फिर ऐसे लोग सारे संबंध समाप्त कर देते हैं।

मौका मिलते ही समझदार से समझदार आदमी भी गलत काम कर जाता है। इसलिए जब भी समय मिले अपनी काम ऊर्जा को अपनी स्पाइनल कॉर्ड के बॉटम जिसे मूलाधार चक्र कहते हैं, वहां से थोड़ा ऊपर उठाइए। इसी का नाम योग है। श्री हनुमान चालीसा से काम ऊर्जा ऊपर उठकर आपको एक नया संकल्प देगी। इसी ऊर्जा से आप बर्बाद भी हो सकते हैं और इसी से आबाद भी।

भावना के जरिये परिवार से जुड़ें..
धीरे-धीरे यह तय होता जा रहा है कि पैसा कमाने के लिए बुद्धिमान होना पड़ेगा। कम पढ़े-लिखे लोग अब बहुत अधिक सर्वाइव नहीं कर पाएंगे। सारा वातावरण बुद्धिप्रधान होता जा रहा है। बुद्धि का सारा ध्यान संतुष्टि की ओर रहता है, इसीलिए जो लोग बुद्धि से चलते हैं, वे सामने वाले की संतुष्टि पर काम करते हैं। जैसे प्रबंधन में सिखाते हैं कि कस्टमर सेटिस्फेक्शन को सबसे ऊपर रखें। उसे संतुष्ट करेंगे तो धंधा ठीक से चलेगा। बाहर की दुनिया संतुष्टि से चल सकती है, लेकिन घर तृप्ति से चलता है।

बुद्धि संतुष्टि पर टिकती है और भाव तृप्ति पैदा करते हैं। इसीलिए आजकल प्रबंधन में भी कहा जाता है कि ग्राहक को केवल संतुष्टि के स्तर पर नहीं, तृप्ति के स्तर पर भी जोड़ें। अपने ग्राहक से इमोशनली अटैच हों। यह तो हमेशा से कहा जाता है कि परिवार में सारे संबंध भावनात्मक रूप से निभाने चाहिए। जैसे ही भाव जागता है हम एक-दूसरे को तृप्त करने में जुट जाते हैं। जब संबंध निभाना हो तो थोड़ा बुद्धि को पीछे रखकर भाव जगाएं। वैसे भी बुद्धि के मामले में कमजोर लोगों ने ही हमें बुद्धिमान घोषित किया है, वरना कोई बुद्धिमान दूसरे को बुद्धिमान नहीं मानता। इसलिए अपनी बुद्धि को कम से कम ऐसी जगह तो प्रयोग करें जहां भाव जगाना हो। जब भी परिवार में हों, भावनात्मक रूप से जुड़ें।

मैं यह नहीं कहता कि परिवार में बुद्धि का उपयोग किया जाए। व्यावहारिक जीवन में बुद्धि की जरूरत पड़ेगी, लेकिन मां-बाप बच्चों से बुद्धि के स्तर पर जुड़ेंगे तो एक दिन बच्चे उन्हें खारिज कर देंगे। यदि भावनात्मक स्तर पर जुड़ेंगे तो ये ही बुद्धिमान बच्चे सदैव मां-बाप के सामने बच्चे बने रहेंगे। भावनात्मक रूप से अपने परिवार से जुड़ने के लिए श्राद्ध हमारी बड़ी मदद करेंगे।

भीतर के परमात्मा से संबंध जोड़ें...
हम सबके भीतर जन्म से ही तीन व्यक्तित्व आए हैं- परमात्मा, महात्मा और आत्मा। महात्मा का मतलब जो सबके प्रति करुणामयी हो, हितकारी हो और परमात्मा को पाने के मार्ग पर चल चुका हो। हम धीरे-धीरे बड़े होते हैं और हमारे भीतर संसार प्रवेश करने लगता है। जिन लोगों ने हमारा लालन-पालन किया है उनका दायित्व है कि वे संसार के साथ ये जो तीन उपहार मिले हैं उन्हें बचाकर रखें। कहने का मतलब है संसार भी रहे और परमात्मा, महात्मा आत्मा भी रहे। अधिकतर लोग चूक जाते हैं, संसार हावी हो जाता है और ये तीन मूल, नैसर्गिक व्यक्तित्व हमसे बिछड़ जाते हैं और यहीं से जीवन में अशांति आती है।

किष्किंधा कांड के एक प्रसंग में संपाति ने कहा और तुलसीदासजी ने लिखा- ‘मुनि एक नाम चंद्रमा ओही।
लागी दया देखि करि मोही।। बहु प्रकार तेहिं ग्यान सुनावा। देहजनित अभिमान छड़ावा।। वहां चंद्रमा नाम के एक मुनि थे। मुझे देखकर उन्हें दया आई और उन्होंने बहुत प्रकार से मुझे ज्ञान सुनाया और मेरे देहजनित अभिमान को छुड़ा दिया। इसमें दो शब्द आए हैं। एक तो यह कि मुनि मिले जिन्हें दया आई। दूसरा, उन्होंने अभिमान छुड़वा दिया। हम सबके भीतर एक ऐसा दयावान महात्मा है। दूसरों के प्रति जितना करुणामयी होते जाएंगे, अपने प्रति उतने ही शांत होते जाएंगे। प्रयास करें कि हम दूसरों का अभिमान भी शांत करें। यह तभी संभव है जब हम निराभिमानी हों। हम सब भी जब संसार में कुछ प्राप्त करने निकलते हैं तो अभिमान के कारण लक्ष्य से भटक जाते हैं। इसलिए इस प्रसंग से यह सीखा जाए कि हमारे भीतर ही परमात्मा, महात्मा और आत्मा है। योग के माध्यम से यदि इनसे ठीक से परिचय हो जाए तो बाहर से हम सारे काम करते हुए बहुत शांत रहेंगे।

संयम का होश के साथ प्रयोग हो
हमने जीवन में कई बातों को ठीक से नहीं समझा और इसीलिए उन्हें अपनाते समय चूक जाते हैं। जैसे संयम को गलत ढंग से लिया तो इसका वांछित परिणाम नहीं मिलता। इसी तरह सामान्य अनुशासन है कि दूसरों को आदर दें। वाणी से भी और व्यवहार से भी। हमने संयम और आदर दोनों का दुरुपयोग किया। संयम को बुरी भावनाओं के दमन का साधन माना गया। इसीलिए संयमी घोषणा करते मिलते हैं कि हमने यह छोड़ दिया, वह त्याग दिया। वे भावनाओं का दमन करने लगते हैं।

संयम का अर्थ ऐसा हो, जैसा शास्त्रों में महामृत्युंजय मंत्र के लिए लिखा है- सूखा पत्ता वृक्ष से टूटता है तो वृक्ष को पता नहीं चलता। संयम ऐसा हो जैसे सूखा पत्ता टूट गया। ठीक ऐसे ही आदर के नाम पर या तो चापलूसी होती है या दूसरे के अहंकार को बढ़ावा दिया जाता है। बारीकी से देखें तो कई लोग आदर देकर अपना अहंकार तृप्त करते हैं। आदर-संयम दोनों सहज होने चाहिए। तुलसीदासजी ने जब श्री हनुमान चालीसा लिखी या श्रीरामचरित मानस में भी कई बार राम के आगे श्रीलगा जीलगा। हनुमानजी को भी हनुमान लिख दिया। मतलब यह नहीं कि आदर कम हो गया। जब भावनाएं सहज रूप से बहती हैं, करुणा प्रकट होती है, भक्ति जागती है तबश्रीऔरजीजैसे शब्द गिर जाते हैं। सामाजिक जीवन में भी हम सम्मान से दूसरों कोश्रीयाजीबोलते हैं, पर यदि नहीं बोलते हैं तो अपमान नहीं होगा।

मूल बात यह है कि आप भीतर से कैसे हैं। हम लोग बाहर परिवर्तन करके भीतर की गतिविधि चलाते हैं। होना यह चाहिए कि भीतर के परिवर्तन से बाहर की गतिविधि चले। इसी को जीवन प्रबंधन कहते हैं, इसलिए जीवन में संयम और आदर का होश के साथ प्रयोग करें, तब ये दोनों सही परिणाम देंगे।

दुर्गुणों को समझ लेना ही उनका विनाश..
मनुष्य के जीवन में दुर्गुण एक ही स्थिति में दो अलग-अलग परिणाम देते हैं। हम काम और क्रोध की ही बात करें, क्योंकि ये दोनों दुर्गुणों के नेता है। इनके पीछे अहंकार, लोभ दुर्गुणों की पूरी फौज चलती है। दुर्गुणों को एकांत प्रिय है, इसीलिए अकेले में अच्छे-अच्छे लोग गलत काम कर जाते हैं। किंतु दुर्गुण यह भी जानते हैं कि यदि एकांत में हमारा मालिक होश में गया तो फिर हमें जाना पड़ेगा। थोड़ी बहुत उठापटक के बाद दुर्गुण चले जाते हैं। जीवन में दुर्गुणों के साथ चार स्थितियां आएंगी। हमें इसे समझना होगा। पहली स्थिति है देखना, दूसरी परिचित हो जाना, तीसरी जानना और चौथी महत्वपूर्ण स्थिति है समझना।

पहले हम दुर्गुणों को देखते हैं या कोई हमें हमारे भीतर बुराई दिखा देता है। अगर देखने पर ही रुक गए तो दुर्गुण फायदा उठाएंगे। धीरे-धीरे आप दूसरी स्थिति में आते हैं- उनसे परिचय। दुर्गुण थोड़ा घबराते हैं। तीसरी स्थिति है उन्हें जानना। हम जानने लगते हैं कि दुर्गुण क्यों रहा है, इसका क्या नतीजा होगा। यहां दुर्गुण फिर हमारा विरोध करते हैं, हावी होने की कोशिश करते हैं। चौथी स्थिति है समझना। यह आते ही दुर्गुण विलीन हो जाता है, उसको हटना ही पड़ता है। मान लीजिए जीवन में काम और क्रोध जाग जाए तो थोड़ा एकांत में उन्हें जानने की कोशिश करें कि कहां से आया।

थोड़ा-सा परिणाम से दुर्गुण को जोड़िए। आप पाएंगे कि एक क्षणिक आवेश भविष्य के लिए महंगा पड़ सकता है। दुर्गुण की अनुपस्थिति ही शांति का प्रवेश है, इसलिए अपने दुर्गुण से लड़िए मत, उन्हें भगाइए भी मत। बस, उन्हें ठीक से समझ लीजिए। उनकी विदाई हुई कि आप प्रसन्नचित्त, प्रफुल्लित तथा शांत हो जाएंगे।

ईश्वर को कर्ता समझें, मिलेगी शांति
इस दौर में जिस तेजी से दुनिया बदल रही है, शायद पहले नहीं बदली। जिन्हें कल देखा था वे आज वैसे नहीं हैं और जिन्हें देख रहे हैं वे कब बदल जाएं पता नहीं। यदि हमारा जुड़ाव उस परमशक्ति से ऐसे हो कि जो कुछ भी नया हो रहा है वह कमाल का है और आप कर रहे हैं तो हमारा मैंयानी अहंकार गिर जाएगा। पिछले दिनों हवाई सफर में जैसे ही प्लेन टेक-ऑफ करने लगा, मैंने हाथ जोड़कर परमात्मा का स्मरण किया। पास बैठे पढ़े-लिखे समझदार युवक ने मुझसे पूछा, ‘आपको डर लग रहा है?’ मैंने कहा, ‘नहीं।वह बोला,‘हाथ क्यों जोड़ रहे हैं?’ मैंने कहा, ‘भगवान के प्रति आभार व्यक्त कर रहा हूं।उसने कहा कि इसमें आभार की क्या बात है?
मुझे उस युवक से कहना पड़ा कि जैसा भगवान ने इस संसार को बनाया है यदि आप इस बात को मान लें तो आपको आभार व्यक्त करना ही पड़ेगा। हर इंसान एक-दूसरे से अलग है। मनुष्य को इतना बड़ा आदर परमात्मा ने दिया है कि तू अपने आप में अलग है, तेरे जैसा कोई नहीं। परमात्मा का आभार व्यक्त करने से मन शांत होता है और एक बेफिक्री-सी जाती है। हमें लगता है हम कर रहे हैं, इसमें किसी भी शक्ति का क्या लेना-देना। हमारामैंऐसा हस्तक्षेप बन जाता है जो हमें अशांत करता है। कर हम ही रहे हैं, लेकिन इस भाव से कीजिए कि कुछ हो रहा है और हम कर रहे हैं। अभी उल्टा हो जाता है कि हम कर रहे हैं तो हो रहा है।

बस यहीं से अशांति जाती है। इस बोझ को बहुत अधिक मत उठाइए कि जो कुछ किया मैंने किया, जो कुछ करूंगा मैं करूंगा। यह वजन आपको अशांत कर देगा। हल्के होने के लिए इतना सोचना काफी है कि करने वाला कोई और है तथा करवाने के लिए मनुष्य के रूप में हमारा चयन किया गया है।

ध्यान कर्मकांड एक-दूसरे के पूरक
बहुत अधिक कर्मकांड करने वाले लोगों का ध्यान नहीं लगता और जो लोग मेडिटेशन से जुड़ते हैं उन्हें कर्मकांड अच्छा नहीं लगता। दोनों ही धारणाएं अधूरी हैं। कर्मकांड एक अनुशासन है। इसमें शरीर की प्रधानता होती है। मन थोड़ा स्वतंत्र होता है और आत्मा तक पहुंचने की संभावना कम होती है। ध्यान में शरीर अनुपस्थित-सा हो जाता है, मन नियंत्रित हो जाता है और आत्मा का स्पर्श सरल हो जाता है। इसीलिए ध्यानी कर्मकांड को स्वीकार नहीं करते।

कर्मकांड में पूजा-पाठ की पद्धति तो है ही, लेकिन आज हवन से इस बात को समझें कि कर्मकांड कैसे ध्यान में मदद कर सकता है। हवन करते हैं तो उसमें सामग्री के रूप में पंचतत्व की आहुति दी जाती है। विज्ञान भी सहमत है कि मनुष्य के शरीर का संचालन पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश इन पांच तत्वों से होता है। हवन के दौरान यह भाव जगाते रहिए कि हमने केवल अग्नि में सामग्री नहीं डाली है बल्कि इस शरीर को भी झोंक दिया है। आज नहीं तो कल मृत्यु के बाद यही होना है। जैसे ही आप शरीर के प्रति भी यह भाव रखेंगे, शरीर गौण होगा और आपको ध्यान करने में सुविधा हो जाएगी।

ध्यान करने वाले लोग कर्मकांड का मजाक उड़ाते हैं। किसी की खिल्ली उड़ाना या बदनाम करना बहुत आसान है, इसीलिए शांत होने का यह अवसर भी हम गंवा देते हैं। अगर ध्यान करना है तो जीवन में कुछ अनुशासन कर्मकांड का रखना होगा और यदि कर्मकांड कर रहे हैं तो हमारा उद्देश्य ध्यान से गुजरना भी होना चाहिए। जब भी पूजा करने बैठें, कर्मकांड करें तो भीतर ध्यान की झलक बनाए रखें और जब ध्यान आरंभ करें तब कर्मकाड का सम्मान करते हुए उसे सहयोगी मानें।

भीतर शांति पा लें तो दुखी नहीं होंगे..
आसक्त मन अशांत हो यह बात तो समझ में आती है, लेकिन कभी-कभी विरक्त मन भी परेशान होता है। जिन्हें वस्तुओं के प्रति आसक्ति होती है, उन्हें वे मिलें तो अशांत होने लगते हैं। ऐसे ही विरक्ति का मतलब लोग अभाव समझ लेते हैं। तुलसीदासजी ने अब किष्किंधा कांड में दो पात्रों की चर्चा की है। संपाति ने सूचना दी।गिरि त्रिकूट ऊपर बस लंका। तहं रह रावन सहज असंका।। तहं असोक उपबन जहं रहई। सीता बैठि सोच रत अहई।। त्रिकूट पर्वत पर लंका बसी हुई है। वहां स्वभाव ही से निडर रावण रहता है।

वहां अशोक नाम का उपवन (बगीचा) है, जहां सीताजी रहती हैं। इस समय भी वे सोच में मग्न बैठी हैं। ध्यान से पढ़ें तो यहां रावण और सीताजी की चर्चा है। यहां वर्णन पढ़कर लगता है कि गलत काम करने के बाद भी रावण निडर था। सीताजी के लिए अर्थ यह हुआ कि वे सही थीं, पर शोक में डूबी हुई थीं। दोनों पात्रों को अगर बाहर से देखें तो हम भ्रम में पड़ जाएंगे। इसीलिए जब हनुमानजी सीताजी से मिले थे तो उन्होंने समझाया था कि मां, जब स्थितियां विपरीत हों तो मनुष्य को अपने भीतर शांति ढूंढ़ना पड़ेगी। सीताजी ने शांति ऐसे ही प्राप्त की थी, पर वे फिर परेशान हो गईं।

रावणों को हम निर्भय देखेंगे, गलत काम करने वाले लोग सुखी नजर आएंगे और सही काम करने वाले लोग परेशान होंगे, लेकिन यह बाहरी दृश्य है। जीवन को गहराई से देखेंगे तो पाएंगे रावण जैसे लोग अधिक दिन सुखी नहीं रह पाएंगे। उनका पतन होना ही है। सीताजी जैसे लोग यदि हनुमानजी के बताए अनुसार शांति पकड़ लें तो फिर उन्हें कोई दुखी नहीं कर सकता। हमारे पास यदि यह सूत्र जाए तो कितनी ही लंकाएं हमारे बन जाएं, हमारी मस्ती कायम रहेगी और मंजिल भी मिल जाएगी।

पाने के प्रयास में खुद को खो देना..
सब खो जाए पर खुद को मत खो देना। इसे संत-फकीरों ने अपने-अपने ढंग से समझाया है। हम जीवन-यात्रा में कई चीजें पा लेते हैं और उनमें इतने मग्न हो जाते हैं कि भूल जाते हैं कि बहुत कुछ खो भी दिया है। वैसे बिना कुछ खोए पाया भी नहीं जा सकता, लेकिन यह तय करने में हम चूक जाते हैं कि जो पाया वह महत्वपूर्ण है या जो खोया वह जरूरी था। कई लोगों को जीवनभर समझ में नहीं आता कि जो खो दिया वह कितना मूल्यवान था। संबंध खो दिए तब सफलता हाथ लगती है।

ऋषि-मुनियों ने कहा है खोना तो पड़ेगा, लेकिन सब खोने के बाद भी खुद को मत खो देना। इसके लिए ऐसा प्रकाश जरूरी है, जिसमें हम स्वयं को देखते रहें और दिखते भी रहें। इसे चित्त कहा गया है। शास्त्रों ने जिसे स्वयं-प्रकाश कहा है। इससे हम जान सकेंगे कि हम शरीर से अलग कुछ हैं। वही आत्मा है। जब हम शरीर को विश्राम देते हैं तो थोड़ी देर के लिए अंधकार छा जाता है, जिसमें हम खो जाते हैं। यदि हम योग से जुड़े हैं, अपने प्रकाश को जानने की तैयारी है तो ऐसे अंधकार के बाद जब हम फिर प्रकाश में आएंगे तो अपने आप को पहचान जाएंगे। इसे यूं समझें कि विश्राम अगले उत्साह की तैयारी होती है।

किंतु बहुत सारे लोग विश्राम और आलस्य में अंतर समझ नहीं पाते। कुछ लोग अपने आलस्य को संतोष बता देते हैं। इसीलिए ऋषि-मुनियों ने कहा कि खुद को मत खोना। यदि आप खुद को प्रकाश में देखते रहेंगे तो आलस्य हावी नहीं होगा। इसीलिए सूर्य को जल देने की परंपरा है कि सूर्यप्रकाश आप जल के माध्यम से ग्रहण करते रहें, तो वह प्रकाश आपको कभी आलस्य के अंधकार में नहीं डूबने देगा और आप सब पाने के बाद कम से कम खुद को नहीं खोएंगे।

जीवन जानना है तो योग से गुजरना होगा..
जीवन को जानना और जीवन के बारे में जानना, ये दो अलग-अलग बातें हैं। सामान्य तौर पर अधिकतर लोग जीवन के बारे में जानकारी रखते हैं। कब जन्म हुआ, कहां हुआ, कैसे पढ़े-बढ़े, कहां काम किया और कैसे इस संसार से चले गए। क्या मनुष्य का जीवन केवल जानकारी पर टिका है। यह सतही मामला है, पर जीवन को जानना हो तो प्यास जगानी पड़ती है। हमारे यहां शास्त्रों में साधु-संतों की वाणी से एक बात बार-बार प्रकट होती है कि कोई सत्संग सुने, कोई शास्त्र पढ़े, तो उसे प्यास की दृष्टि से लेना। प्यास कैसी भी हो, बुझानी पड़ती है, इसीलिए कथाओं को रस कहा गया है। अच्छी बात पीनी ही पड़ती है। भले ही कान से पिएं।

सुनने में अजीब लगता है, लेकिन सामान्य पेय पदार्थ मुंह से पिए जाते हैं, पर जब कथा सुनना हो, सत्संग से गुजरना हो, ईश्वर की बात जीवन में उतारनी हो तो फिर पीनी ही पड़ेगी। सिर्फ कान से, बल्कि रोम-रोम से। तब परमात्मा की अनुभूति होती है। ऐसे जीवन जाना जा सकता है। जानकारी आसानी से उपलब्ध हो जाती है। जानना हो तो भीतर उतरना पड़ता है। जीवन जानने के लिए योग से गुजरना पड़ेगा। जब मैं यह कहता हूं कि थोड़ा समय आप योग को दीजिए, तब कई लोग कहते हैं कि समय ही तो नहीं है। इसीलिए हम कहते हैं कि अगर अतिरिक्त समय हो तो जो भी समय आप गुजार रहे हैं उसमें से ऐसे कुछ खंड निकाल लीजिए, जहां योग आपसे जुड़ जाए।

इसीलिए श्री हनुमानचालीसा से मेडिटेशन का जो कोर्स है, उसे सरल रखा गया है। जीवन जानने के लिए जिस योग से गुजरना है उसमें अतिरिक्त समय देकर सामान्य समय में ही जीवन को जान लें, क्योंकि हम जानकारी के लिए बहुत वक्त खर्च करते हैं, थोड़ा-सा समय जीवन जानने के लिए भी खर्च करिए।

पितरों से जुड़ना यानी ऊर्जा एकाग्र करना प्रबंधन की भाषा में समझाया जाता है कि जब लक्ष्य महान हो, उद्देश्य हटकर हो और अभियान विराट हो तो पूरी ताकत झोंकनी पड़ती है। पूरी ताकत लगाने का मतलब है शरीर में जो ऊर्जा है उसे एक जगह इकट्ठा करके झोंक दें। बाहर की एकाग्रता तो अनुशासन से, नियम से, दबाव में इकट्ठी की जा सकती है। बाहर की एकाग्रता तो लोभी को पैसे गिनने में और कामी को भोगते हुए जाती है। किंतु इस एकाग्रता से स्थायी सफलता नहीं मिलती। भीतर एकाग्र होने के लिए ऊर्जा को एक जगह इकट्ठा करके झोंकना पड़ेगा। ध्यान रखिएगा चिमटे का मुंह जलाना पड़ता है तब चूल्हे से रोटी निकल पाती है। खुद को झोंकना हो तो थोड़ा समय एकाग्रता के लिए ध्यान करिए। मेडिटेशन के बिना ऊर्जा तो पकड़ में आएगी और ही एकाग्र होकर हम उसे दूसरी दिशा में ले जा सकेंगे। यदि बाहरी स्तर पर ऊर्जा का उपयोग करके सफल हो भी गए तो अशांत हो जाएंगे।

ऊर्जा का एकत्रीकरण करना और एकाग्र करके उपयोग करना उन लोगों के लिए बहुत जरूरी है, जो सफल होने के साथ-साथ शांति भी चाहते हों। सर्वपितृ अमावस्या के दिन ऐसा माना जाता है कि अगर पूरे श्राद्धपक्ष में कुछ किया हो तो आज के दिन पितरों को याद कर लें। पितरों को याद करने का मतलब है अपनी ऊर्जा को एक दिशा में जोड़ना। हमारे शरीर में जो ऊर्जा बह रही है वह हमारे माता-पिता से गुजरकर उनके माता-पिता और उनके भी माता-पिता और जिनको हम पितर कहते हैं कहीं कहीं उनसे आई है। श्राद्ध को केवल कर्मकांड मानेंगे तो ब्राह्मणों का उत्सव कह देंगे, पर श्राद्ध को आप इस प्रयोग से जोड़ें कि अपनी ऊर्जा को एकाग्र करने के लिए पितरों से जुड़ना बड़ा उपयोगी होगा। ऐसा करके देखिए तो आपकी बाहरी सफलता में भी यह बहुत काम आएगी।

शक्ति के सदुपयोग के नौ दिन
दुनिया में कई चीजें बिखरी हुई हैं। कुछ लोग कुछ विशेष वस्तु चाहते हैं और उसके लिए बावले हो जाते हैं। जो ज्यादा दीवाने हैं वे पूरी दुनिया चाहते हैं। ऊपर वाला भी कमाल करता है। इस दुनिया में सबको सब नहीं देता। कुछ लोग जो चाहते हैं वह नहीं देता और जिसे अपेक्षा हो उसे जरूर दे देता है। उस नीली छतरी वाले का यह अजीब समीकरण लोगों को आज तक समझ में नहीं आया। किंतु कमाल देखिए, संसार में एक चीज भगवान ने सबको दी है। वह है समस्या। संसार में शायद ही कोई ऐसा होगा, जिसके जीवन में प्रॉब्लम नहीं है।

समस्या देने के मामले में भगवान ने कोई पक्षपात नहीं किया है। फर्क यह है कि आप इससे निपटते कैसे हैं। आज से शारदीय नवरात्र आरंभ हो रहा है। आप नौ दिन ऐसी शक्ति से गुजरने वाले हैं कि यदि ठीक से उपयोग कर लिया तो जो समस्या सबके साथ आपको मिली है, उसका निपटारा अपने ढंग से कर सकेंगे और अगर ठीक निदान निकाल लिया तो समस्या होते हुए भी नज़र नहीं आएगी। समस्या आपको परेशान नहीं करेगी। होगी जरूर, लेकिन रूप बदल जाएगा। ये नवरात्रि सिखाएगी कि कैसे अपनी शक्ति का सदुपयोग करें। इसी के साथ एक तिथि और जुड़ गई है अग्रसेन महाराज की जयंती। अग्रवाल समाज के पितृपुरुष को भी आज ही याद किया जाता है। शक्ति का उपयोग नवरात्रि सिखाएगी और जब शक्ति का सदुपयोग हो तो इस धरती पर कैसे लोग आते हैं यह अग्रसेनजी की जीवनी सिखाएगी।

समस्याएं अग्रसेनजी के जीवन में भी कम नहीं थी, लेकिन अपनी शक्ति से उन्होंने अपने आप को ऐसे स्थापित किया कि उन्हें श्रीराम के वंशज होने का गौरव मिला और श्रीकृष्ण के समकालीन होकर वे आज तक पूजे जाते हैं। इस बार की नवरात्रि समस्याओं के समाधान के दिन बना लिए जाएं।


हनुमान चालीसा से दुर्गुणों का समापन
ऐसा इंसान मिलना बहुत मुश्किल है, जो पूरी तरह से सुखी हो। सुखी दिखने और सुखी होने में फर्क है, क्योंकि जिंदगी यानी चुनाव। हर कोई कुछ कुछ चुनने की तैयारी में है। मजेदार बात यह है कि जब आप कोई एक चीज चुनते हैं तो दूसरी हाथ से निकल जाती है। किसी महिला को चुना तो संभव है ब्रह्मचर्य छोड़ना पड़े। पसंद अच्छा कॅरिअर है, तो हो सकता है परिवार छूट जाए। अधिक दोस्त बनाने के लिए लालायित हों, तो संभव है नज़दीकी रिश्तेदार छूट जाएं। छूटे का नुकसान समझ में आता है तो दुख शुरू हो जाता है और चुने हुए से अपेक्षा पूरी होना भी दुख है। दुख को बढ़ाता है मन उसे कम करती है आत्मा। हम मन से संचालित हैं। आत्मा तक हम पहुंच ही नहीं पाते।

आप 11 अक्टूबर को दशहरा पर्व से जुड़ें तो ध्यान रखें कि श्रीराम ने रावण को इसलिए नहीं मारा कि उसने सीताजी का हरण किया था। रावण ने मन के आसपास घूमने वाली जीवनशैली निर्मित की थी और लोग आत्मा तक नहीं पहुंचते थे। रावण जानता था कि मन अनुचित को चुनता है, इसलिए उसने शिक्षा और संस्कारों के साथ खूब छेड़छाड़ की। इन दोनों क्षेत्रों में आज भी रावण जीवित है, हम अपने दुर्गुणों को पहचानें जो रावण ने हमारे बीच छोड़े हैं। इन्हें खत्म करें, तब ही हम सही अर्थों में दशहरा मना पाएंगे।

दुर्गुणों के समापन के लिए श्री हनुमान चालीसा का सांस के साथ पढ़ा जाना खुद औषधि है। इसलिए, समय निकालकर इस अभियान से अवश्य जुड़ें और अपने पूरे परिवार, समाज और राष्ट्र को दुर्गुणों से बचाएं।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....मनीष
शिव हरि....जय गुरुदेव..जय गुरुदेव कल्याणदेव जी....



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