Friday, July 8, 2016

श्रीमद् भागवत Srimdbhagwat Part (5)

लक्ष्मी को पाना है तो परिश्रमी बनिएं
हमने पढ़ा कि समुद्र मंथन के दौरान जो विष निकला उसे भगवान शंकर ने पी लिया। रात को शिवजी की तबीयत खराब हो गई। गरमी चढ़ी तो शिवजी ने पार्वतजी से कहा पार्वती कुछ बेचैनी सी हो रही है। पार्वती ने बोला सब थे तब बोलना था अब रात को किसको बुलाऊंगी? एक काम करो मेरे ऊपर धतूरा चढ़ा दो, शंकरजी ने कहा- भांग का लेपन कर दो और मेरा जलाभिषेक कर दो, मैं शांत हो जाऊंगा। पार्वती ने वैसे ही किया। यही वजह है कि आज भी धतूरे, भांग एवं शीतल जल से शंकरजी की पूजा की जाती है।

याद रखिए कि जब मस्तिष्क का मंथन करेंगे तो सबसे पहले विष ही निकलेगा। विषपान की आदत डालिए, नीलकंठ बनिए। समुद्र मंथन के दौरान आठवें नंबर पर निकली लक्ष्मीजी। जैसे ही लक्ष्मीजी निकलीं तो देवता और दैत्य चौंक गए। सबके सब देखने लग गए लक्ष्मी आई हैं। सबकी इच्छा थी कि हमें मिल जाए। लक्ष्मीजी से कहा गया आपको स्वतंत्रता है आप इनमें से जिसे चाहें वरण कर लें। लक्ष्मी चलीं किसको वरण करूं। सबसे पहले उन्होंने निगाह डाली तो साधु-संत बैठे हुए थे वो खड़े हुए। हाथ जोड़कर बोले हमारे पास आ जाओ। लक्ष्मी बोलीं- देखो तुम हो तो भले लोग, लेकिन तुमको सात्विक अहंकार होता है कि हम दुनिया से थोड़े ऊपर उठे हैं, भगवान के अधिक निकट हैं तो तुम्हारे पास तो नहीं आऊंगी। अहंकारी मुझे बिल्कुल पसंद नहीं हैं।

साधु-संतों को छोड़कर आगे चली तो ब्रह्माजी नजर आ गए उन्होंने कहा-बाबा! आप तो बाप बराबर हो और मैं आपकी बेटी हूं। आगे चली गईं। देवता खड़े हो गए, इंद्र के नेतृत्व में हमारी हो जाओ, उन्होंने कहा-तुम्हारी तो नहीं होऊंगी। बोले क्यों? तुम देवता बनते हो पुण्य से और पुण्य से कभी लक्ष्मी नहीं मिला करती। लक्ष्मी की एक ही पसंद है पुरुषार्थ और परिश्रम।

जब रावण ने वरदान में पार्वती को ही मांग लिया
हमने पढ़ा कि समुद्रमंथन के दौरान जब लक्ष्मी निकली तो सभी उन्हें पाने के लिए लालायित हो उठे। शंकरजी ने कहा सभी इसको मांग रहे हैं तो हम भी लाइन में लग जाएं। लक्ष्मीजी ने शंकरजी को देखा बोलीं आपकी तो नहीं होऊंगी मैं! चाहे जिसको चाहे जब टिका देते हो तो पता नहीं मुझे किसके पल्ले बांध दो? क्योंकि शिवजी का इतिहास तो आप भी जानते होंगे कि रावण ने जब शिवजी की स्तुति की तो शिवजी इतने प्रसन्न हुए कि रावण को अपना भक्त बनाकर जो भी मांगा वो सब दे दिया और जैसे ही प्रणाम करके रावण उठा तो दुष्ट रावण ने देखा कि शिवजी के पास पार्वती खड़ी थी और सुंदर थी पार्वती।

सौंदर्य रावण की सबसे बड़ी कमजोरी थी। रावण ने कहा आपने सब दे तो दिया भोलेनाथ एक चीज और चाहिए। उन्होंने कहा मांग-मांग क्या मांगता है। रावण ने पार्वती मांग ली। अच्छा मांग ली, तो वो भी ठीक है ले जा। ऐसा कहते हैं कि रावण पार्वतीजी को लेकर चल भी दिया। अब भोलेनाथ बड़े परेशान कि मैंने क्या कर दिया। इतने में नारदजी आए। नारदजी ने मार्ग में रावण को रोका और बोले इन्हें कहां ले जा रहा हो? रावण ने कहा-वरदान में भोलेनाथ ने दिया है।

नारद ने कहा तुझे पता है ये पार्वती नहीं है। ये तो पार्वती की प्रतिछाया है । पार्वती को तो पहले ही शिवजी ने पाताल में मय दानव के यहां छिपा रखा है। असली पार्वती चाहता है तो वहां जा।रावण भागा पाताल में और वहां ढूंढऩे लगा। एक सुंदर स्त्री आती हुई दिखी तो रावण वहीं रूक गया। रावण बोला-आपका परिचय, तो वो बोली मैं मंदोदरी हूं मय दानव की बेटी। रावण ने कहा चल तू ही चलेगी। पार्वती को भूलकर मंदोदरी से ही विवाह कर लिया। इसका नाम रावण है जो सिर्फ स्त्रियों पर टिकता है रिश्तों पर नहीं टिकता।

इसलिए विष्णु का वरण किया लक्ष्मी ने
हमने पढ़ा कि समुद्र मंथन के दौरान लक्ष्मी निकली तो उन्हें कहा गया कि आप जिसे चाहें उसका वरण कर सकती हैं। लक्ष्मी बोलीं कि मैं उसके पास नहीं जाती जो मेरा निवेश करना नहीं जानता। मैं उसके पास जाती हूं जो मेरा निवेश करना जानता हो। जिसको इनवेस्टमेंट का ज्ञान हो। मेरी सुरक्षा करना जानता हो। फिर लक्ष्मीजी ने इधर-उधर देखा तो एक ऐसा भी है जो मेरी तरफ देख ही नहीं रहा है बाकी सब लाइन लगाकर खड़े हैं तो उनके पास गई।

लक्ष्मी ने जाकर देखा तो मुंह ओढ़कर लेटे हुए थे भगवान विष्णु। लक्ष्मी ने पैर पकड़े, चरण हिलाए। विष्णु बोले क्या बात है? वह बोलीं मैं आपको वरना चाहती हूं। विष्णु ने कहा-स्वागत है। लक्ष्मी जानती थीं कि यही मेरी रक्षा करेंगे। तब से लक्ष्मी-नारायण एक हो गए। लक्ष्मी आती है तो छाती पर लात मारती है तो आदमी अहंकार में चौड़ा हो जाता है और जाती हैं तो एक लात पीठ पर मारती करती हैं तो आदमी औंधा हो जाता है। लक्ष्मी की रक्षा कीजिए। उसके सम्मान की रक्षा कीजिए। वो आपके लिए सतत उपलब्ध है।
अब नवें नंबर पर वारूणी निकली। मदिरा जैसे ही निकली तो दैत्य लाइन में लग गए। भगवान ने कहा-ले जाओ। देवताओं को तो लेना भी नहीं था। इसके बाद और मंथन किया तो पारिजात निकला। पारिजात को अपनी जगह भेज दिया। चंद्रमा निकले तो चंद्रमा को अपनी जगह भेज दिया। 12वें नंबर पर सारंगधनु निकला, विष्णुजी सारंगपाणि हैं, अपने धनुष को लेकर चले गए। अब सबसे अंत में निकला अमृत। इतनी देर बाद जीवन में अमृत मिलता है। तेरह सीढ़ी पार करेंगे तब मिलता है ऐसे ही नहीं मिल जाता।

लोग कहते हैं यह 14 का आंकड़ा क्या है? ये है पांच कमेन्द्रियां, पांच जनेन्द्रियां तथा अन्य चार हैं- मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। ये चौदह पार करने के बाद ही परमात्मा प्राप्त होते हैं।

भगवान विष्णु ने क्यों लिया मोहिनी अवतार?
समुद्र मंथन के दौरान सबसे अंत में धन्वन्तरि अमृत कलश लेकर निकले। जैसे ही अमृत मिला अनुशासन भंग हुआ। देवताओं ने कहा हम ले लें, दैत्यों ने कहा हम ले लें। इसी खींचातानी में इंद्र का पुत्र जयंत अमृत कुंभ लेकर भाग गया। सारे दैत्य व देवता भी उसके पीछे भागे। असुरों व देवताओं में भयंकर मार-काट मच गई। इस दौरान अमृत कुंभ में से कुछ बूंदें पृथ्वी पर भी झलकीं। जिन चार स्थानों पर अमृत की बूंदे गिरी वहां प्रत्येक 12 वर्ष बाद कुंभ का मेला लगता है।

इधर देवता परेशान होकर भगवान विष्णु के पास गए। भगवान ने कहा-मैं कुछ करता हूं। तब भगवान ने मोहिनी अवतार लिया। देवता व असुर उसे ही देखने लगे। दैत्यों की वृत्ति स्त्रियों को देखकर बदल जाती है। सभी उसके पास आसपास घूमने लगे। भगवान ने मोहिनी रूप में उन सबको मोहित किया। मोहिनी ने देवता व असुर की बात सुनी और कहा कि यह अमृत कलश मुझे दे दीजिए तो मैं बारी-बारी से देवता व असुर को अमृत का पान करा दूंगी। दोनों मान गए। देवता एक तरफ तथा असुर दूसरी तरफ बैठ गए। स्त्री अपने मोह में, रूप में क्या नहीं करा सकती पुरूष से।

फिर मोहिनी रूप धरे भगवान विष्णु ने मधुर गान गाते हुए तथा नृत्य करते हुए देवता व असुरों को अमृत पान कराना प्रारंभ किया । वास्तविकता में मोहिनी अमृत पान तो सिर्फ देवताओं को ही करा रही थी जबकि असुर समझ रहे थे कि वे भी अमृत पी रहे हैं। एक राक्षस था राहू, उसको लगा कि कुछ गडग़ड़ चल रही है। वो मोहिनी की माया को समझ गया और चुपके से बैठ गया सूर्य और चंद्र के बीच में। देवताओं के साथ-साथ राहू ने भी अमृत पी लिया। और इस तरह राहू भी अमर हो गया।

राहू-केतु क्यों हैं सूर्य-चंद्र के दुश्मन?
हमने पढ़ा कि भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप लेकर छलपूर्वक देवताओं को अमृत पीला दिया। यह बात राहू नामक दैत्य ने जान ली और वह रूप बदलकर देवताओं के बीच जा बैठा। जैसे ही राहु ने अमृत पीया वैसे ही सूर्य और चंद्र ने भगवान से कहा यह तो राक्षस है। तत्काल भगवान ने सुदर्शन चक्र निकाला और उसका वध किया। राहू के दो टुकड़े हो गए। एक बना राहू दूसरा बना केतु। लेकिन उसने दुश्मनी पाल ली चंद्र और सूर्य से। इसीलिए ग्रहण लगता है। इस तरह भगवान ने देवताओं को अमर कर दिया और दैत्य अपनी ही मूर्खता से ठगा गए। यहां समुंद्र मंथन की कथा पूरी हुई।

अब हम वामन अवतार में प्रवेश करते हैं। वामन अवतार में भगवान ने बिना युद्ध के ही सारा काम कर लिया। भगवान वामन छोटे से बालक, बड़े सुन्दर से अदिति और कश्यप के यहां पैदा हुए। उस समय दैत्यों का राजा बलि हुआ करता था। बलि बड़ा पराक्रमी राजा था। उसने तीनों लोकों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। उसकी शक्ति के घबराकर सभी देवता भगवान वामन के पास पहुंचे । सभी की बात सुनकर भगवान वामन बलि के सामने गए। उस समय बलि यज्ञ कर रहा था। बलि से उन्होंने कहा राजा मुझे दान दीजिए। बलि ने कहा-मांग लीजिए। वामन ने कहा तीन पग मुझे आपसे धरती चाहिए। दैत्यगुरु भगवान की महिमा जान गए। उन्होंने बलि को दान का संकल्प लेने से मना कर दिया।

लेकिन बलि ने कहा - गुरुजी ये क्या बात कर रहे हैं आप। यदि ये भगवान हैं तो भी मैं इन्हें खाली हाथ नहीं जाने दे सकता। बलि ने संकल्प ले लिया। भगवान वामन ने अपने विराट स्वरूप से एक पग में बलि का राज्य नाप लिया, एक पैर से स्वर्ग का राज नाप लिया। बलि के पास कुछ भी नहीं बचा। तब भगवान ने कहा तीसरा पग कहां रखूं। बलि ने कहा- -मेरे मस्तक पर रख दीजिए। जैसे ही भगवान ने उसके ऊपर पग धरा राजा बलि पाताल में चले गए। भगवान ने बलि को पाताल का राजा बना दिया।

जब भगवान विष्णु राजा बलि के द्वारपाल बने
हमने पढ़ा कि भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर दो पग में धरती और आकाश नाप लिए। इसके बाद तीसरा पग उन्होंने बलि के सिर पर रखा जिसके कारण बलि पाताल में चला गया। भगवान ने बलि से प्रसन्न होकर उसे पाताल का राजा बना दिया। बलि भी बहुत समझदार था। उसने कहा- भगवान आप मुझसे अगर प्रसन्न है तो मुझे एक वर दीजिए। भगवान ने कहा-मांग, क्या मांगता है। बलि ने कहा आप मेरे यहां द्वारपाल बनकर रहिए। बलि के द्वार पर विष्णु पहरेदार बनकर खड़े हैं और बलि पाताल पर राज कर रहा है।

कई दिन हो गए भगवान वैकुण्ठ नहीं पहुंचे। लक्ष्मीजी ने नारदजी को याद किया। कहा-प्रभु आए ही नहीं हैं बहुत दिन हो गए। नारदजी ने कहा- वहां खड़े हैं डंडा लेकर, चलो बताता हूं। पहरेदार की नौकरी कर रहे हैं। पाताल में लेकर आए देखो ये खड़े हैं। लक्ष्मीजी ने कहा ये पहरेदार कहां से बन गये। देखिए, भगवान् की लीला भी कैसी विचित्र है? लक्ष्मीजी ने विचार किया, मैं बलि से इनको मांग लूं। वो बलि के पास गईं। भगवान पहरेदार थे तो सीधे-सीधे मांग भी नहीं सकती थीं। लक्ष्मीजी गईं बलि के पास और कहा राजा बलि मुझे अपनी बहन बना लो। बलि ने यह प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया। कुछ दिन बाद राखी का त्योहार आया। लक्ष्मी ने कहा लाओ मैं आपको राखी बांध दूं।

बलि ने कहा-बांध दो। जैसे ही लक्ष्मीजी ने बलि के हाथ में राखी बांधी, बलिराज ने कहा-बोल बहन मैं तुझे क्या दे सकता हूं? तुरंत लक्ष्मीजी ने कहा- ये द्वारपाल मुझे दे दो। बलि ने कहा ये कैसी बहन है? द्वारपाल ले जाकर क्या करेगी? क्या बात है, आप कौन हैं, बलि ने पूछा। तब उन्होंने बताया- मैं लक्ष्मी हूं। बलि ने कहा मैं तो धन्य हो गया। पहले बाप मांगने आया आज मां मांग रही है। वाह क्या मेरा भाग्य है। आप इन्हें ले जाओ मां। इस तरह लक्ष्मी भगवान को बलि की पहरेदारी से छुड़ाकर लाईं।

भगवान विष्णु ने क्यों लिया मत्स्यावतार ?
भागवत में अब मत्स्यावतार की कथा आ रही है। राजा सत्यव्रत था। राजा सत्यव्रत एक दिन जलांजलि दे रहा था नदी में। अचानक उसकी अंजलि में एक छोटी सी मछली आई। उसने देखा तो सोचा वापस सागर में डाल दूं लेकिन उस मछली ने बोला-आप मुझे सागर में मत डालिए अन्यथा बड़ी मछलियां मुझे खा जाएंगी। तो उसने अपने कमंडल में रखा। मछली और बड़ी हो गई तो उसने अपने सरोवर में रखा, तब मछली और बड़ी हो गई। राजा को समझ आ गया कि यह कोई साधारण जीव नहीं है। राजा ने मछली से वास्तविक स्वरूप में आने की प्रार्थना की।

साक्षात चारभुजाधारी भगवान विष्णु प्रकट हो गए और कहा कि ये मेरा मत्स्यावतार है। भगवान ने सत्यव्रत से कहा-सुनो राजा सत्यव्रत! आज से सात दिन बाद प्रलय होगी। तुम एक नाव में सप्त ऋषि के साथ बैठ जाना, वासुकी नाग को रस्सी बना लेना और मैं तुम्हें उस समय ज्ञान दूंगा। ऐसा कहते हैं कि उसको मत्स्यसंहिता का नाम दिया गया। यहां आकर आठवां स्कंध समाप्त हो रहा है।आठवें स्कन्ध में भगवान की लीला देखी, समुद्र मंथन देखा, वामन अवतार देखा, मत्स्यावतार देखा और अब नवम स्कंध में प्रवेश कर रहे हैं।

यह स्कंध भगवान का स्कंध है। नवां स्कंध रामायण का स्कंध है। रामायण सीखाती है जीना। राजा परीक्षित की बुद्धि को स्थिर करने के लिए, शुद्ध करने के लिए नवें स्कंध में सूर्यवंशी और चंद्रवंशी राजाओं की कथा कही गई है। सूर्य हैं बुद्धि के स्वामी और चंद्र हैं मन के स्वामी। बुद्धि की शुद्धि के लिए सूर्यवंशी रामचन्द्रजी का चरित्र कहा गया और मन की शुद्धि के लिए चन्द्रवंशी श्रीकृष्ण का चरित्र कहा गया। रामचन्द्रजी मर्यादा का पालन करेंगे तो हमारे मन का रावण मरेगा। हमारे मन का काम मरेगा तो परमात्मा कृष्ण पधारेंगे।

भगवान को पाना है तो मर्यादा व प्रेम को जीवन में उतारें
भागवत में अब श्रीराम व श्रीकृष्ण की कथा आएगी। सूर्यवंश में श्री रघुनाथजी और चंद्रवंश में श्रीकृष्ण अवतरित हुए। वासना के विनाश हेतु सन्त धर्म बताने पर भी शुकदेवजी को लगा कि परीक्षित के मन में अब भी सूक्ष्म वासना बाकी रह गई है। जब तक बुद्धि में काम वासना है श्रीकृष्ण के दर्शन उसे नहीं होंगे। अत: राजा के मन में शेष रही काम-वासना का पूर्णत: नाश करने के लिए शुकदेवजी ने सूर्यवंश और चन्द्रवंश की कथा सुनाई।

यदि रामजी को मन में बसाओगे, मर्यादा पुरूषोत्तम रामचन्द्र का अनुकरण करोगे तो भगवान मिलेंगे। उनकी लीला का अनुकरण नहीं कर सकते। श्रवण करना चाहिए। उनका चरित्र चिंतनीय है। श्रीकृष्ण की लीला चिंतन करने के लिए और चिंतन करके तन्मय होने के लिए साधक का बर्ताव कैसा होना चाहिए? वह रामचन्द्रजी ने बताया। सिद्ध पुरूष का बर्ताव श्रीकृष्ण जैसा होना चाहिए। रामचन्द्र की लीला सरल है जबकि श्रीकृष्ण की सारी लीला गहन है।

राम दिन के 12 बजे आए और कृष्ण रात्रि को 12 बजे आए। एक मध्यान्ह में आए दूसरे मध्यरात्रि में आए। एक तो राजा दशरथ के भव्य राजप्रसाद में अवतरित हुए और दूसरे कंस के कारागृह में। रामचन्द्र मर्यादा में हैं तो श्रीकृष्ण प्रेम में हैं। मर्यादा और प्रेम को जीवन में उतारेंगे तो सुखी हो जाएंगे। नृसिंह अवतार की कथा में क्रोध नाश की, वामन अवतार की कथा में लोभ के नाश की बात कही गई है। काम का जब नाश होता है तब श्रीकृष्ण प्रकट होते हैं। राम और कृष्ण हमारे जीवन का हिस्सा हैं। हमारी सांस-सांस में बसते हैं। राम सीधा-सीधा शब्द है। राम शब्द में ही कोई तोडफ़ोड़ नहीं है। र, आ और म। श्रीकृष्ण नाम में ही बांके हैं।

इंद्र ने क्यों बाधा डाली राजा मरूत के यज्ञ में?
राजा परीक्षित ने शुकदेवजी से कहा कि मुझे सत्यव्रत मनु के वंश की कथा सुनाइये। शुकदेवजी ने वर्णन करते हुए बताया कि इस कल्प में राजेश्वरी श्री सत्यव्रत वैवस्वत मनु बने। मनु वैवस्वत सूर्यवंश के आदि प्रवर्तक हैं और उनका विवाह श्रद्धा नामक स्त्री से हुआ। उनके वंश में अनेक सन्तानें हुईं। दिष्टी के वंश में मरूत नाम के चक्रवर्ती राजा हुए और मरूत के गुरु थे बृहस्पति और यही बृहस्पति इन्द्र के भी गुरु थे। मरूत राजा को यज्ञ कराना था और बृहस्पति ने मना कर दिया क्योंकि उन्हें इन्द्र के यहां उसी समय यज्ञ कराने जाना था।

मरूत को नारदजी मार्ग में मिल गए। उन्होंने अपनी कठिनाई बताया तो नारदजी ने कहा कि बृहस्पति के छोटे भाई सम्वर्त को बुला लीजिए। वे भी गुरु समान हैं। तब मरुत ने सम्वर्त से संपर्क किया। सम्वर्त ने कहा - मैं यज्ञ तो करा दूं किन्तु मेरा ऐश्वर्य देखकर बृहस्पति तुम्हें कहेंगे कि वे तुम्हारा यज्ञ कराने को तैयार है और फिर तुम्हारे गुरु बनना चाहेंगे। यदि वैसा समय आया और तुमने मेरा त्याग किया तो मैं तुम्हें भस्म कर दूंगा।राजा मरूत ने सम्वर्त की शर्त को स्वीकार कर लिया। सम्वर्त ने राजा को मन्त्र दीक्षा दी, यज्ञ आरंभ होने लगा।

यज्ञ के सभी पात्र स्वर्ण के थे। राजा के वैभव और यज्ञ की भव्य तैयारी को देखकर बृहस्पतिजी लालयित हो गए और उन्होंने इन्द्र से कहा। इन्द्र ने अग्नि के द्वारा सन्देश भेजा कि इस यज्ञ में बृहस्पति को ही गुरु बनाया जाए। यदि ऐसा नहीं हुआ तो इंद्र इस यज्ञ में बाधा डालेंगे। बृहस्पति और सम्वर्त में इस बात को लेकर विवाद हो गया। गुरु-गुरु में युद्ध हो गया। जिस देव को सम्वर्त योगी आज्ञा करते वह वहां उपस्थित होता और वह देव प्रत्यक्ष अहिरभात यज्ञ का ग्रहण करता। यज्ञ चल रहा है। मरूत के इस यज्ञ का वर्णन ऋग्वेद में भी है। भागवत में तो यह संक्षिप्त में ही वर्णित है।

कपिल मुनि ने राजा सगर के पुत्रों को भस्म किया
श्रीशुकदेवजी ने कहा कि- हे राजा परीक्षित। राजा अम्बरीष के कुल में आगे पुरंजय नाम का शक्तिशाली राजा हुआ। पूर्वकाल में दैत्यों और देवताओं का युद्ध हुआ। देवता पराजित होकर पुरंजय के पास सहायता के लिए आए। पुरंजय ने कहा कि इंद्र मेरा वाहन बनें तो मैं सहायता करूंगा। इन्द्र को स्वीकार करना पड़ा। इंद्र ने बैल का रूप धारण किया। राजा पुरंजय शस्त्र सज्जित होकर उस पर आरूढ़ हुए और देवताओं को विजय दिलाई। चूंकि दैत्यों का पुर जीतकर इन्द्र को दिया था, इसीलिए उनका नाम पुरंजय पड़ा। इन्द्र को वाहन बनाया, इसलिए उनका नाम इंद्रवाह पड़ा और बैल के कंधे पर बैठकर युद्ध किया, इसलिए नाम काकोस्थ पड़ा।

राजा पुरंजय के आगे जाकर पुत्र हुए उसमें सत्यव्रत भी हुआ। यही सत्यव्रत बाद में त्रिशंकु कहलाया। सत्यव्रत के यहां पुत्र हुआ हरिशचन्द्र। हरिशचन्द्र की संतान का नाम सगर पड़ा। सगर ने एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया। उस यज्ञ के अश्व को इन्द्र ने चुराया और कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया। सगर के पुत्रों ने घोड़े की खोज में पाताल तक खोद डाला। कपिल मुनि के आश्रम में वो घोड़ा दिखा। उन्होंने कपिल मुनि को ढ़ोंगी समझा और ज्यों ही कपिलमुनि ने नेत्र खोला सगर के पुत्र वहीं भस्म हो गए । जब पुत्र नहीं लौटे तो उन्होंने अपनी दूसरी पत्नी से उत्पन्न अंशुमान को खोज के लिए भेजा।

अंशुमान ने वहां पहुंच कर कपिल मुनि को तपस्यारत देखा। उन्होंने मुनि की प्रशंसा की, तब मुनि ने उनको सारी घटना बताई। घोड़ा देते हुए कहा कि वे इससे अपने पिता का यज्ञ सम्पन्न करें और मृत पितरों का गंगाजल से उद्धार करें। गंगाजल के बिना मृत पितरों का उद्धार संभव नहीं है। अंशुमान घोड़ा लेकर वन में प्रस्थान कर गया।

इसलिए गंगा को भागीरथी भी कहते हैं
हमने पढ़ा कि सूर्यवंशी राजा सगर ने अश्यमेध यज्ञ किया उस यज्ञ का घोड़ा इंद्र ने चुराकर कपिलमुनि के आश्रम में बांध दिया। जब सगर के पुत्रों ने यज्ञ का अश्व कपिल मुनि के आश्रम में देखा तो उन्होंने मुनि का अपमान किया। मुनि की आंख खोलते ही सगर के सभी पुत्र भस्म हो गए। बाद में सगर ने अपने दूसरे पुत्र अंशुमन को अश्व की खोज में भेजा तो उसे कपिल मुनि मिले और उन्होंने कहा यदि इनकी मुक्ति चाहते हो तो गंगाजल से इनका तर्पण करना होगा। सगर के बाद अंशुमन राजा बना। राजा बनने के बाद अंशुमान ने बहुत यत्न किए लेकिन वह गंगा को धरती पर नहीं ला पाए।

अपने पुत्र दिलीप को राज सौंपकर वह भी वन में चले गए। दिलीप ने भी बहुत यत्न किए लेकिन वह भी गंगा को नहीं ला सके। किन्तु दिलीप के पुत्र भगीरथ की तपस्या से गंगाजी प्रसन्न हुईं और उनको दर्शन दिए। गंगा ने कहा कि मैं पृथ्वी पर आ तो जाऊंगी पर मेरे वेग को कोई न रोक सका तो मैं सीधे पाताल में चली जाऊंगी, फिर मेरा लौटना सम्भव नहीं है। तब भगीरथ ने भगवान शंकर की स्तुति की, उनसे निवेदन किया कि वे अपनी जटा में गंगा को धारण करें। गंगाजी का अवतरण हुआ और सगर पुत्रों को मुक्ति मिली। इसीलिए गंगा को भागीरथी भी कहते हैं।

भगीरथ के कुल में सवदास नाम का राजा हुआ, जिसे श्राप रहा और वह नि:संतान रह गया। वशिष्ठ जी ने स्थिति देखी और उनकी पत्नी को अपने तेज से गर्भवती बना दिया। जब उसके यहां संतान पैदा हुई तो उनका नाम अषमग रखा गया। आगे चलकर इसी वंश में खटवांग नामक राजा हुआ। खटवांग के बाद दीर्घबाहु राजा हुआ उसके बाद रघु हुए। उन्हीं के नाम से सूर्यवंश का नाम रघुवंश हुआ। रघु राजा ने कई यज्ञ किए और रघु के घर अज का जन्म हुआ और अज के घर दशरथ का जन्म हुआ और राजा दशरथ के यहां भगवान राम का अवतरण हुआ।

जन्म-मरण के बंधनों से मुक्ति दिलाती है रामकथा
भागवत में हम सूर्यवंश की कथा सुन रहे हैं। भागवत में राम जन्म की चर्चा नहीं आई है पर आज हम इस गौरव की अनुभूति को ले लें कि कृष्ण जन्म तो हम कर ही रहे हैं साथ ही संक्षेप में रामकथा का श्रवण भी करते चलें। रामकथा जन्म-मरण के बंधनों से मुक्ति दिलाती है। सूर्यवंशी राजा दशरथ के यहां चार पुत्र हुए । सबसे बड़े थे राम, फिर भरत, लक्ष्मण और सबसे छोटे थे शत्रुघ्न। चारों राजकुमार बड़े हुए, लेकिन रामजी को देखकर दशरथजी को एक दिन चिन्ता हुई। रामजी जैसे-जैसे बड़े होने लगे, आचरण में वैराग्य दिखने लगा।

भजन-पूजन करते, अच्छी-अच्छी बातें करते तो दशरथजी को चिन्ता हुई कि मेरे बेटे को ये वैराग्य कैसे पैदा हो रहा है जबकि मैं तो राजा हूं। वे गुरु के पास गए। ऐसा कहते हैं कि वशिष्ठजी ने भगवान को योग वशिष्ठ सीखाया। उन्होंने कहा कि वैराग्य होना बहुत अच्छी बात है पर आप राजकुल के सदस्य हैं। आपके दायित्व क्या होने चाहिए, अपने कर्तव्यों को पहचानें और भगवान फिर उस मार्ग पर चलें। चारों राजकुमार बड़े हो गए। एक दिन अचानक ऋषि विश्वामित्रजी आए। विश्वामित्रजी ने दशरथजी से कहा-हम बहुत परेशान हैं, राक्षस यज्ञ नहीं करने देते। आप ये दोनों राजकुमार राम और लक्ष्मण हमें दे दें।

दशरथजी यह सुनकर संशय में पड़ गए। कहा- इतने सुकोमल राजकुमार राक्षसों से कैसे लड़ेंगे? आप इन छोटे-छोटे बच्चों को राक्षसों से लड़ाने ले जा रहे हैं, मना करने लग गए विश्वामित्रजी को। विश्वामित्रजी ने वशिष्ठजी की ओर देखा। वशिष्ठजी ने दशरथजी से कहा कि तुम्हारे बच्चे यज्ञ से पैदा हुए हैं और यज्ञ के लिए मांगे जा रहे हैं, दे दो। ये कुछ सीखकर ही आएंगे। सैद्धांतिक ज्ञान श्रीराम ने वशिष्ठ से प्राप्त किया। अब व्यावहारिक ज्ञान विश्वामित्रजी से प्राप्त करने जा रहे हैं। दोनों राजकुमारों को विश्वामित्र ले गए। दोनों राजकुमारों ने दैत्यों से यज्ञ की रक्षा की और यज्ञ संपन्न हुआ।

जब भगवान राम ने सीता का वरण किया
हमने पढ़ा कि ऋषि विश्वामित्र राम व लक्ष्मण को अपने साथ ले गए और राम-लक्ष्मण ने कई राक्षसों का वध कर यज्ञ संपन्न करवाया। यहां से विश्वामित्र राम व लक्ष्मण को जनकपुर ले गए। जनकपुर में धनुष यज्ञ हुआ। राम ने भगवान शंकर का धनुष खेल ही खेल उठा लिया और जैसे ही उस पर प्रत्यंचा चढ़ाने लगे वह टूट गया। सीताजी को भगवान ने वरण किया, विवाह हुआ। भगवान का विवाह हो रहा है। इधर जनकपुर की स्त्रियां बैठी हुई हैं और इधर भगवान की बारात बैठी है।

ऐसा कहते हैं कि मिथिला की स्त्रियां टिप्पणियां करने में बड़ी चतुर थीं। सीताजी की सखियों ने रामजी को देखा और कहा-देखो ये दशरथ के बेटे हैं । अयोध्या के राजकुमार यज्ञ से पैदा हुए हैं, खुद नहीं हुए। लक्ष्मणजी को तो ये सब बर्दाश्त था ही नहीं। उन्होंने कहा हम तो फिर भी यज्ञ में से पैदा हुए हैं पर हम जिसको ले जा रहे हैं वो तो जमीन में से निकली है फिर भी ले जा रहे हैं। अयोध्या में तो यज्ञ से होते हैं पर जनकपुरी में जमीन में से निकालते हैं। हास्य, विनोद के प्रसंग से भगवान का विनोद हो रहा है। देखिए जीवन में जब हम परिवार में मिले, जब कोई उत्सव हो तो मनोविनोद की प्रवृत्ति बनाए रखिए, गाम्भीर्य को थोड़ी देर बाहर कर देना चाहिए।

उम्र परिवार में बाधा नहीं होना चाहिए। परिवार में उम्र नहीं होती, परिवार में रिश्ता होता है। तो भगवान अपने उत्सव में आनन्द मना रहे हैं। विवाह हो गया। बारात घर लौटकर आई। यहां बालकाण्ड पूरा हुआ। इसके बाद राजा दशरथजी विचार कर रहे हैं। निर्णय लेते हैं कि कल राम को राजा बना दिया जाए, फैसला हो गया। घोषण कर दी गई। अयोध्या में उत्साह हो गया। सब प्रसन्न हो गए।

जब भगवान राम को मिला वनवास
हमने पढ़ा भगवान राम का विवाह हुआ और दशरथ से सोचा कि राम को राजा भी बना दूं। यह बात मंथरा को पता लग गई। मंथरा नीचे आई और सीधे कैकयी के भवन में चली गई और कैकयी को बुद्धि फेर दी और कहा देखो आपको राजा से दो वरदान लेना हैं। एक काम करो, कोपभवन में चली जाओ और राजा आए तो मांग लेना। राजा जब रात को काम निपटाकर आए तो कैकयी के महल में गए। जैसे ही द्वार पर गए तो मंथरा मिल गई, मंथरे कहां है रानी। मंथरा ने कहा-कोप भवन में, राजा घबराए।

दशरथ अन्दर गए तो देखा कैकयी नीचे बैठी जमीन पर बाल बिखरे हुए, लम्बी-लम्बी सांसे ले रही हैं। दशरथजी कैकयी से कह रहे हैं हे मृदुवचनी, हे गजगामिनी, हे कोमलनयनी। यहां कोप भवन में क्यों बैठी हो? कैकयी ने कहा-आपने मुझे दो वरदान मांगने के लिए कहा था। वह आज मैं मांगती हूं कि भरत को राजगद्दी दो और राम को वनवास। यह सुनकर दशरथजी अचेत हो गए, होश में आने पर बोले-ये वरदान वापस ले ले। मैं तेरे पैर पड़ता हूं। कैकयी लाख समझाने पर भी नहीं मानी। भगवान राम को सूचना मिली कि आपका राजतिलक निरस्त हो रहा है। आपको वन जाना है।

भगवान ने कहा स्वीकार है। भगवान जब वन को जाने लगे तब सीताजी ने कहा मैं भी चलूं, लक्ष्मणजी बोले मैं भी चलूं। भगवान ने कहा-नहीं, तुम्हें यहां रहना है। जब रामजी ने बिल्कुल मना कर दिया तो लक्ष्मण ने कहा आप जाओगे और जैसे ही सरयू नदी पार करोगे मैं सरयू में कूदकर जान दे दूंगा। राम जानते थे कि ये जो कह रहा है वह कर देगा। तो राम, सीता और लक्ष्मण तीनों वन जाने के लिए निकले।

पुत्र वियोग में प्राण त्यागे राजा दशरथ ने
भागवत में हम रामकथा का श्रवण कर रहे हैं। हालांकि भागवत में रामकथा नहीं है लेकिन कृष्णकथा के साथ रामकथा का आनंद भी लेते चलें। रामकथा में हम वनवास के प्रसंग पर है। राम, लक्ष्मण व सीता जब वन जाने के लिए चले तो अयोध्या के लोगों ने कहा-हम भी चलेंगे। भगवान ने कहा-चलो। सभी साथ चले और तमसा नदी के तट पर जब पहली रात आई और भगवान ने कहा चलो सोते हैं तो सब सो गए। जैसे ही सब सो गए भगवान ने लक्ष्मण व सीता से कहा सुनो-सुनो उठो जल्दी और चल दो यहां से।
भगवान चले गए और सुबह नींद खुली अयोध्यावासियों की तो उन्होंने कहा अरे भगवान कहां गए। भगवान चले गए हो-हल्ला होने लगा। इसके बाद भगवान केवट से, गुहराज से मिलते हैं। भारद्वाज ऋषि के आश्रम में गए, वाल्मीकि के आश्रम गए। आखिर में चित्रकूट गए और वहीं ठहर गए। इधर अयोध्या का दृश्य आता है। सुमन्त अयोध्या पहुंचे। दशरथ ने कहा-कहां हैं मेरे बच्चे? सुमन्त ने कहा वो तो चले गए। दशरथ दहाड़े मारकर रो रहे हैं। राम के वियोग में दशरथजी ने प्राण छोड़ दिए।

इधर भरतजी को सूचना मिली, भरतजी जैसे ही आए सारी अयोध्या ने कहा-इसमें इसका षडय़ंत्र था। भरतजी आते हैं और सीधे कैकयी के महल में जाते हैं तो लोग कहते हैं कि षडय़ंत्र बिल्कुल पक्का हो गया। लेकिन भरत कैकयी के महल में इसलिए जाते थे क्योंकि वे जानते थे कि राम कैकयी के महल में ही मिलेंगे। उनको तो सूचना थी ही नहीं कि क्या दुर्घटना हो गई। जैसे ही पहुंचे, कैकयी और मंथरा ने बताया। भरत ने कहा-अरे मां ये तूने क्या किया। भरत फैसला लेते हैं कि मैं श्रीराम को लेने जाऊंगा, मैं श्रीराम को वापस लेकर आऊंगा।

जब लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक काटी
हमने पढ़ा कि भरत को जब पता चला कि राम को वनवास दे दिया गया है तो वे बोले- मैं भैया को पुन: लेकर आऊंगा। सब लोग बोलते हैं कि हम भी आपके साथ चलेंगे। भरतजी के साथ, गुरुदेव के साथ सब लोग चित्रकूट पहुंचते हैं। भगवान से भरत का मिलन होता है। भगवान से भरतजी कह रहे हैं कि आप चलिए ये राज्य आप ले लीजिए। भगवान बोलते हैं, नहीं भरत अब तुम इसको स्वीकार करो। एक भाई छोडऩे को तैयार है दूसरा भाई वापस उसको दे रहा है। यह संवेदनशीलता की पराकाष्ठा है।

राम बोलते हैं ये पादुका लेकर तू चला जा। पादुका लेने का अर्थ है कि भगवान ने अपना दायित्व तुझको दिया। चित्रकूट से सब लोग रवाना होते हैं। अरण्यकाण्ड में प्रवेश करते हैं। चित्रकूट छोड़कर भगवान् अत्रि-अनुसूइया के आश्रम में आए। फिर अगस्त्य ऋषि के आश्रम में आते हैं और फिर दंडक वन में पहुंचते हैं। पंचवटी में शूर्पणखा आ जाती है। शूर्पणखा लक्ष्मण पर मोहित हो जाती है और बोलती है तुम मुझसे विवाह करो। लक्ष्मण मना कर देते हैं। शूर्पणखा सीता को खाने के लिए लपकती है तो लक्ष्मणजी शूर्पणखा के नाक-कान काट देते हैं। शूर्पणखा रावण के पास पहुंचती है। रावण को भड़काती है कि मैं तेरे लिए सुंदर-सी स्त्री ला रही थी, पर दो राजकुमार अड़ गए।

वो जानती थी कि सुंदर स्त्रियां मेरे भाई की कमजोरी है। बदला खुद का लेना था, भाई को दूसरे तरीके से भड़का रही है। भाई भी भड़क गया, उसने कहा-ठीक है । अभी जाते हैं और रावण लंका से निकलता है। एक दिन भगवान ने एकांत में सीताजी से कहा कि सीते! अब लीला का अवसर आ गया है। तुम और मैं अकेले हैं लक्ष्मण बाहर गया है तुम एक काम करो तुम अग्नि में प्रवेश कर जाओ और अपनी प्रतिछाया यहां छोड़ दो। रावण तुम्हारा अपहरण करेगा। जाओ तुम अग्नि में निवास कर लो। सीताजी अपनी प्रतिछाया वहां छोड़ती हैं और अग्नि में निवास कर जाती हैं।

साधु के वेश में किया रावण ने सीता का हरण
रामकथा में सीताहरण का प्रसंग हम पढ़ रहे हैं।हमने पढ़ा लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक काट दी और रावण ने सीता के अपहरण की योजना बनाई। योजनानुरूप रावण का मामा मारीच स्वर्ण मृग के रूप में आश्रम के पास से निकलता है, सीता मृग को देखकर रामजी से कहती हैं कि मुझे यह स्वर्ण मृग चाहिए। जिद पर अड़ गईं सीताजी। भगवान ने भी धनुष बाण उठाया और उसके पीछे चल दिए।

जाते-जाते लक्ष्मण से कह गए कि सावधान रहना, ये आश्रम मत छोडऩा। ये वीरान है, बियाबान है कुछ हो न जाए। लक्ष्मण ने कहा-ठीक है। इधर मारीच को जैसे ही बाण लगा, उसने श्रीराम की आवाज में लक्ष्मण चिल्लाया। सीताजी ने सुना तो उन्होंने लक्ष्मणजी से कहा-यह तुम्हारे भैया की आवाज है, कहा-दौड़ो। लक्ष्मण बोल रहे हैं आपको कहां सुनाई दे रही है मुझे तो सुनाई ही नहीं दे रही। लक्ष्मण ने मना कर दिया क्योंकि राम ने आश्रम छोडऩे से मना किया था। सीताजी ने लक्ष्मणजी से कहा-नहीं आपको जाना पड़ेगा। लक्ष्मणजी ने कहा- ठीक है मां। लक्ष्मण रेखा खींचकर जाने लगे, तो बोले इसके बाहर मत आइएगा।

इधर लक्ष्मणजी गए उधर रावण आया और रावण ने जैसे ही पैर उठाया अग्नि जली। बोला- ये तो लक्ष्मण रेखा है। रावण ने साधु का भेष धरा और कहा भिक्षां देहिं। सीताजी ने कहा आ कर ले जाओ। रावण ने कहा-नहीं मैं भीतर नहीं आ सकता, यदि आप देना चाहें तो बाहर आइए। रावण को जल जाने का डर था। जैसे ही सीताजी बाहर निकलीं और रावण ने उनका अपहरण कर लिया। लंका ले जाते समय रावण का जटायु से युद्ध हुआ। जटायु को घायल करके रावण सीताजी को ले जाता है। इधर भगवान राम, लक्ष्मण को देखते ही बोले- तुम यहां क्यों आए? लक्ष्मण ने पूरी बात बताई। दोनों दौड़ कर आश्रम आए लेकिन तब तक रावण सीता माता का अपहरण कर चुका था।

जब जामवंत ने हनुमान को उनकी शक्ति याद दिलाई
हमने पढ़ा कि रावण साधु का वेश धर कर माता सीता का हरण कर लेता है। राम काफी प्रयास करते हैं लेकिन फिर भी सीता का कोई पता नहीं चलता। सीता को ढूंढते हुए भगवान किष्किंधा आते हैं। यहां से किष्किंधा कांड प्रारंभ होता है। यहां रामकथा में पहली बार हनुमानजी का प्रवेश होता है। रामजी के जीवन में पहली बार हनुमानजी आए हैं। रामकथा में हनुमानजी का प्रवेश हुआ है। हनुमानजी का परिचय होता है और हनुमानजी श्रीराम से कहते हैं कि आईए-आईए आप सुग्रीव से मैत्री करिए। चलिए मेरे साथ। भगवान बोलते हैं-ठीक है।

हनुमान ने सुग्रीव से मैत्री करवाई। राम बाली का वध करते हैं और सुग्रीव को किष्किंधा का राजा बना देते हैं। राजकाज मिलने पर सुग्रीव भगवान का काम भूल जाता है। आदमी को राजकाज मिल जाए तो रामकाज पहली फुर्सत में भूल जाता है। सुग्रीव भी भूल गए, पर लक्ष्मण ने याद दिलाई। सुग्रीव ने वानरों से कहा कि सीताजी की सूचना लेकर आओ। वानर विचार कर रहे हैं कि कैसे समुद्र लांघा जाए? सबकी हिम्मत जवाब दे गई। तब जामवंत तथा वानरों ने हनुमानजी को उनकी शक्ति का स्मरण करवाया। शक्ति का स्मरण होते ही हनुमानजी लंका जाने हेतु तैयार होते हैं।

तब हनुमानजी चले हैं और फिर हनुमानजी को एक-एक करके सुरसा, सिंहिका, लंकिनी जो भी मिला सबको पराजित करते हुए विभीषण को प्रभु राम के पक्ष में आने का न्योता देते हैं। इसके बाद हनुमानजी अशोक वाटिका जाते हैं और माता सीता को प्रभु राम का संदेश सुनाते हैं । भूख लगने पर अशोक वाटिका के फल खाते हैं साथ ही वाटिका उजाड़ भी देते हैं। रावण का पुत्र अक्षयकुमार जब हनुमानजी को पकडऩे आता है तो वध कर देते हैं। इसके बाद मेघनाद आता है वह ब्रह्मास्त्र छोड़ता है। हनुमानजी ब्रह्माजी का मान रखने के लिए उस अस्त्र के बंधनों से बंध जाते हैं।

रावण का वधकर श्रीराम सीता के साथ अयोध्या आए
मेघनाद हनुमानजी को ब्रह्मास्त्र से बांधकर रावण के दरबार में लेकर आता है। रावण देखता है इस वानर की इतनी हिम्मत। मेरे पुत्र को मारा और अशोक वाटिका भी उजाड़ दी। इतना उपद्रव किया है इसने। रावण ने आज्ञा दे दी इसकी पूंछ जला दो। हनुमानजी की पूँछ तो नहीं जलती वे पूरी लंका में आग लगा देते हैं। लंका दहन करके लौटकर हनुमान सीताजी को प्रणाम करते हैं। सीताजी से चूड़ामणी लेकर रामजी के पास आते हैं। रामजी ने मुद्रिका दी थी। सीताजी ने चूड़ामणी दी। वापस लौटकर हनुमानजी भगवान को प्रणाम करते है तथा पूरी घटना का वर्णन सुनाते हैं।

हनुमानजी की बहुत प्रशंसा होती है। इधर रावण द्वारा भगाए जाने पर विभीषण श्रीराम की शरण में आ जाता है। पूरी बात जानकर भगवान लंका जाने के लिए कूच करते हैं। रास्ते में समुद्र आ जाता है। वानरों की सेना लेकर कैसे जाएं समुद्र पार। यह प्रश्न उठता है। यहां भगवान विभीषण से पूछ रहे हैं यह समुद्र कैसे लांघा जाए। जैसे ही भगवान श्रीराम ने विभीषण की सलाह पर समुद्र से निवेदन किया लक्ष्मणजी क्रोधित हो गए। लक्ष्मणजी ये सब काम पसंद ही नहीं करते, राम और निवेदन और वो भी समुद्र से। भगवान से लक्ष्मणजी कहते हैं हे प्रभु आप इस सागर को सुखा दीजिए। भगवान चुपचाप हैं। रामजी कहते हैं लक्ष्मण थोड़ा धैर्य रखो।

राम जानते थे कि मैं वरिष्ठ हूं। मुझे नेतृत्व देना है। तीन दिन बाद भगवान ने समुद्र को डांटा तो समुद्र ने रास्ता सुझाया। समुद्र पर बांध बनाकर भगवान सेना सहित लंका में पहुंच गए। अंगद को भेजा। अंगद ने संदेश दिया। युद्ध हुआ। रावण को भगवान मारते हैं, सीताजी को लेकर आते हैं। अवध प्रस्थान करते हैं। उत्तरकाण्ड के आरम्भ में हनुमानजी और भरत मिलते हैं। राम का राज्याभिषेक होता है। यहां आकर रामकथा समाप्त होती है। भागवत में संक्षेप में है।

जब पृथ्वी राजविहीन हो गई तब देवताओं ने क्या किया?
रामकथा के बाद शुकदेवजी अब कथा को आगे बढ़ाते हैं। उन्होंने परीक्षित को बताया कि एक बार इक्षवाकु के पुत्र निमी ने अपने मन में यज्ञ करने का निश्चय किया और महर्षि वसिष्ठ से ऋत्विज बनने की प्रार्थना की। वसिष्ठजी ने बताया कि पूर्व से ही उनको इन्द्र ने यज्ञ के लिए निवेदन किया है तो यज्ञ पूर्ण होने पर ही वे निमी के यज्ञ में आ पाएंगे। निमी को लगा कि न मालूम कब जीवन समाप्त हो जाए, विलम्ब नहीं करना चाहिए, इसलिए उन्होंने दूसरे ऋषियों बुलाकर यज्ञ आरम्भ कर दिया।

इधर इन्द्र के यज्ञ से जब वसिष्ठ लौटे और निमी को जब यज्ञ करते देखा तो उन्हें क्रोध आ गया। उन्होंने निमी को शाप दिया। निमी ने भी वसिष्ठ को लोभी होने का शाप दे दिया और दोनों का अंत हो गया। कालान्तर में वसिष्ठ की तो उत्पत्ति वरूण से हुई किन्तु निमी ने तो पुन: देह धारण की इच्छा ही नहीं की थी। तब पृथ्वी राजा विहीन हो गई तो देवताओं ने निमी के शरीर को मथकर उससे पुत्र उत्पन्न किया। देह सम्बन्ध के बिना उत्पन्न होने से उसका नाम विदेह पड़ा। इस वंश का भावी उत्पादक होने से उसको जनक कहा गया।

शुकदेवजी ने कहा- राजा जनक की वंशावली विस्तार में सुनिए। जिस वंश से पुरुरवा आदि राजा हुए वे सोमवंशी कहलाए। नारायण की नाभि से निकले हुए कमल से ब्रह्माजी और ब्रह्माजी से उनके गुण, कर्म, स्वभाव के अनुकूल ही अत्रि नामक पुत्र का जन्म हुआ। अत्रि के नेत्रों से आनन्दमय अश्रुओं से अमृतमय चन्द्रमा उत्पन्न हुआ। चन्द्रमा ने अपने गुरु बृहस्पति की पत्नी तारा को छीन लिया। बृहस्पति ने तारा को वापस करने के लिए बार-बार कहा, किन्तु चन्द्रमा नहीं माना, फलस्वरूप संग्राम छिड़ गया।

ब्रह्माजी ने चन्द्र को डांटा और तारा वापस दिलाई। इस अवधि में तारा गर्भवती हो गई। उसके गर्भ से बुध ने जन्म लिया। उस बालक पर बृहस्पति और चन्द्र दोनों अपना अधिकार जताने लगे। तब ब्रह्माजी ने तारा के वास्तविक पिता के विषय में जानकर उसे चन्द्र को दिलवा दिया।

परशुराम ने क्यों किया था क्षत्रियों का विनाश?
हमने पढ़ा कि चंद्र ने अपने गुरु बृहस्पति की पत्नी तारा का हरण कर लिया तब ब्रह्मा ने तारा को पुन: बृहस्पति को दिलाया। उसी दौरान तारा ने बुध को जन्म दिया। तब ब्रह्माजी ने उसके पिता के बारे में जानकर उसे चंद्र को दे दिया। बुध ने ईला से विवाह कर पुरुरवा को जन्म दिया। पुरुरवा सौन्दर्य से परिपूर्ण था। स्वर्ग की अप्सरा उर्वषी पुरुरवा की ओर आकर्षित हो गई। पुरुरवा और उर्वषी से छ: पुत्र उत्पन्न हुए थे। जिसमें गाधि राजा बाद में हुए।

गाधि की सत्यवती कन्या का विवाह ऋचिक ऋषि से हुआ। एक समय सत्यवती और उसकी माता को संतान की इच्छा हुई। ऋषि ने पत्नी के लिए ब्राह्मण मन्त्रों से और सास के लिए क्षत्रिय मन्त्रों से अभिमन्त्रित चरू मंगवाया और जब वे स्नान को गई तो मां बेटी ने चरू बदल लिए। फलस्वरूप यह हुआ कि सत्यवती के गर्भ से तो जमदग्नि और उनकी माता के गर्भ से विश्वामित्र उत्पन्न हुए। जमदग्नि ने रेणुका से विवाह करके उसके गर्भ से अंशुमान आदि अनेक तेजस्वी पुत्रों को जन्म दिया, जिनमें सबसे कनिष्ठ पुत्र परशुराम थे।

परशुराम को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। कार्तवीर्य अर्जुन के पुत्रों द्वारा जमदग्नि ऋषि की हत्या करने से क्रोधित होकर उन्होंने इक्कीस बार धरती से क्षत्रियों का नाश कर दिया था। गाधि पुत्र परम तेजस्वी विश्वामित्र ने अपने तप बल से क्षत्रिय धर्म को छोड़कर ब्रह्म ऋषि का पद प्राप्त किया। उनके भी 100 पुत्र थे। पुरुरवा के पुत्र आयु के नहूष हुए और उनके कुल में आगे जाकर ययाति ने शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और राक्षसराज वृषपर्वा की कन्या शर्मिष्ठा से विवाह किया।

शुक्राचार्य के श्राप से जवानी में ही बूढे हो गए ययाति
भागवत में शुकदेवजी पुरुरवा के वंश का वर्णन कर रहे हैं। शुकदेवजी ने राजा परीक्षित को बताया कि एक बार दानवराज वृषपर्वा की कन्या शर्मिष्ठा व शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी अन्य सखियों सहित एक वन में भ्रमण करने के लिए गईं। सभी वस्त्र उतारकर सरोवर में जल विहार करने लगीं तभी शंकर भगवान उधर से निकले। उनको आता देखकर सभी सखियों ने सरोवर से जल्दी-जल्दी निकलकर वस्त्र पहने और भूल से देवयानी ने शर्मिष्ठा के वस्त्र पहन लिए। अपने वस्त्र देवयानी को पहने देख शर्मिष्ठा ने देवयानी को कुएं में डाल दिया।

थोड़ी देर बाद पुरुवंशी राजा ययाति आखेट के लिए वहां से निकले। कुएं में से आवाज आने पर वे उसके समीप गए। कुएं में देवयानी दिखाई दी, उसे निकाला। आपस में परिचय हुआ और दोनों ने विवाह कर लिया। शुक्राचार्य की भी स्वीकृति हो गई। देवयानी अपने घर लौट आई। तब देवयानी ने शर्मिष्ठा के व्यवहार के बारे में अपने पिता शुक्राचार्य को बताया। शुक्राचार्य वृषपर्वा के घर गए। वृषपर्वा ने क्षमा मांगी और निर्णय देवयानी पर छोड़ दिया गया। देवयानी ने शर्त रखी कि शर्मिष्ठा उसके विवाहित पति की दासी बनकर रहना स्वीकार करे, किन्तु यह भी शर्त थी कि वह ययाति के साथ सम्बन्ध नहीं रखेगी।

किन्तु एक दिन शर्मिष्ठा पुत्रवती होने की ललक में राजा ययाति के पास पहुंची और राजा ने उसकी इच्छा को पूर्ण किया। यह बात जानकर देवयानी अपने पिता के घर चली गई। पिता ने जब यह बात सुनी तो ययाति को वृद्ध होने का श्राप दिया। लेकिन फिर कहा कि यदि तुम्हारा कोई पुत्र अपना यौवन दे दे तो तुम पुन: युवा हो सकते हो। ययाति नगर लौटे, उन्होंने पुत्रों से यह बात कही, किन्तु किसी ने अपना यौवन देना स्वीकार नहीं किया। तब उनके छोटे पुत्र पूरु ने अपना यौवन देना स्वीकार किया। अन्त में जब ययाति को बोध हुआ तो उन्होंने पूरु को यौवन लौटा दिया और परमधाम चले गए।

जब शुकदेवजी ने ली परीक्षित की परीक्षा
शुकदेवजी ने परीक्षित को बताया कि पहले मैंने सूर्यवंश की कथा सुनाई अब चंद्रवंश की सुनाता हूं। इक्षवाकु हुआ, निली हुआ। निली के बाद जनक के वंश के विषय में सुनाया। जनकराज के बाद चंद्रवंश की चर्चा करते हैं। कहते हैं अत्रि हुआ, अत्रि से चन्द्रमा फिर बुध, शांबी, गादी राजा की सत्यव्रती पुत्री हुई। उसके वंश में आगे जाकर विश्वामित्र हुए, परशुराम हुए फिर ययाति की कथा सुनाते हैं। ययाति के वंश में पुरुरवा पैदा हुआ और उसके बाद नहुष हुए।

इनकी 12वीं पीढ़ी में दुष्यंत पैदा हुआ और दुष्यंत के यहां भरत पैदा हुआ। शांतनु इस पीढ़ी में पैदा हुए। कुरु राजा थे उनके नाम पर कुरुवंश पड़ा। शांतनु की संतान थे भीष्म और यहां से कुरुवंश की चर्चा करते-करते शुकदेवजी बताते हैं। हे परीक्षित! इस वंश में फिर तुम पैदा हुए और तुम्हारे पुत्र जन्मेजय, सूतसेन हुए, भीमसेन हुए, उग्रसेन हुए और तुम्हारे वंश का अंतिम राजा क्षेमक हुआ। इसके बाद तुम्हारा वंश समाप्त हो गया। सारी वंशावली बता दी।अब भागवत में श्रीकृष्ण का प्रवेश हो रहा है। भागवत का फल है दशम स्कंध।

दशम स्कंध के आरंभ में शुकदेवजी ने राजा परीक्षित की परीक्षा ली। कहा- पांच दिनों से एक आसन से बैठे हो, कुछ जलपान करना हो, भोजन आदि करना हो तो कर सकते हो। परीक्षित ने कहा कि भगवन अन्न तो क्या मैंने तो जल भी त्याग दिया है। भूख-प्यास मुझे अब बिल्कुल सता नहीं पाती। राजा के वचन सुनकर शुकदेवजी को बड़ी प्रसन्नता हुई, राजा सुपात्र और जिज्ञासु भी हैं। दशम स्कंध तो भगवान श्रीकृष्ण का हृदय है। वे रस स्वरूप हैं अत: जीव भी रस स्वरूप है। श्रीकृष्ण कथा सभी प्रकार के जीवों को आकर्षित करती हैं।

कंस ने क्यों बंदी बनाया देवकी व वसुदेव को?
भागवत में हम दसवां स्कंध आरंभ कर रहे हैं। इसमें भगवान श्रीकृष्ण की कथा है। शुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि- हे पाण्डुनन्दन। परीक्षित! राक्षसों के अत्याचार से पीडि़त और त्रस्त पृथ्वी गाय का रूप धारण कर ब्रह्माजी की शरण में गई। ब्रह्माजी उसको शंकरजी के समीप ले गए। शिवजी उस समय भगवान विष्णु की आराधना कर रहे थे। तदनानुसार ब्रह्माजी ने पृथ्वी को आश्वस्त करते हुए कहा कि भगवान विष्णु शीघ्र ही यदुकुल में वसुदेव की पत्नी देवकी के गर्भ से श्रीकृष्ण के रूप में जन्म लेकर अवतार धारण करेंगे।

हे राजन। यदुवंशियों में भजमान राजा के वंश में विदुरत के पुत्र राजा शूरसेन बड़े तेजस्वी थे। उनके दस पुत्र और पांच कन्याएं हुई। उनके ज्येष्ठ पुत्र का नाम वसुदेव था। वसुदेव का विवाह देवक की पुत्री देवकी से हुआ। शूरसेन ने मथुरा को अपनी राजधानी बनाया। देवकी के आठवें गर्भ से भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ। कंस देवकी का चचेरा भाई था। देवकी के विवाह के समय कंस को आकाशवाणी सुनाई दी कि देवकी की आठवीं संतान उसका काल सिद्ध होगी। यह सुनकर कंस ने देवकी और उसके पति को बंदी बनाकर कारागृह में डाल दिया।

कंस शुरु से ही अत्याचारी था। आठ वर्ष की आयु में इसने जरासंघ को पराजित कर दिया था। कंस ने अपने पिता को बंदी बना लिया तथा स्वयं सिंहासन पर आरूढ़ हो गया। राज्य सम्भालते ही अपने राज्य में पूजापाठ, जप-तप आदि कर्म बंद करवा दिए। उसने कई राजाओं को जब जीत लिया तो फिर इंद्र को भी जीतने की लालसा हुई। इंद्र को जब विदित हुआ तो वह लुप्त हो गया था और इस प्रकार निरन्तर कंस का अत्याचार बढऩे लगा।

जब कंस को सताने लगा मृत्यु का भय
हमने पढ़ा कि आकाशवाणी से डरकर कंस ने देवकी व वसुदेव की बंदी बना लिया। श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित। वसुदेवजी ने प्रशंसा आदि सामनीति और भय आदि भेदनीति से कंस को बहुत समझाया परन्तु वह क्रूर तो राक्षसों का अनुयायी हो रहा था। उसे देवताओं से मारे जाने का भय हो रहा था इसलिए वसुदेवजी के समझाने पर भी वह नहीं माना।

वसुदेवजी ने कंस का विकट हठ देखकर यह विचार किया कि किसी प्रकार यह समय तो टाल ही देना चाहिये। इस मृत्युरूप कंस को अपने पुत्र दे देने की प्रतिज्ञा करके मैं इस दीन देवकी को बचा लूं। वसुदेवजी ने कहा- कंस! आपको देवकी से तो कोई भय है नहीं, जैसा कि आकाशवाणी ने कहा है। भय है पुत्रों से सो इसके पुत्र मैं आपको लाकर सौंप दूंगा। कंस मान गया।समय आने पर देवकी ने पहले पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम था कीर्तिमान। वसुदेवजी ने उसे लाकर कंस को दे दिया। ऐसा करते समय उन्हें कष्ट तो अवश्य हुआ, परन्तु उससे भी बड़ा कष्ट उन्हें इस बात का था कि कहीं मेरे वचन झूठे न हो जाएं।

जब कंस ने देखा कि वसुदेवजी का अपने पुत्र के जीवन और मृत्यु में समान भाव है एवं वे सत्य में पूर्ण निष्ठावान भी हैं, तब वह बहुत प्रसन्न हुआ और उनसे हंसकर बोला-वसुदेवजी! आप इस नन्हें से सुकुमार बालक को ले जाइये। इससे मुझे कोई भय नहीं है, क्योंकि आकाशवाणी ने तो ऐसा कहा था कि देवकी के आठवें गर्भ से उत्पन्न सन्तान के द्वारा मेरी मृत्यु होगी। वसुदेवजी ने कहा-ठीक है और उस बालक को लेकर वे लौट आए।

जब भगवान शेषनाग देवकी के गर्भ में आए
जब कंस ने देवकी के पहले पुत्र को जीवित छोड़ दिया तो भगवान नारद कंस के पास आए और उससे बोले- व्रज में रहने वाले नन्द आदि गोप, उनकी स्त्रियां, वसुदेव आदि वृष्णिवंशी यादव, देवकी आदि यदुवंश की स्त्रियां और नन्द, वसुदेव दोनों के सजातीय बंधु-बांधव और सगे-संबंधी सब के सब देवता हैं। उन्होंने कंस को यह भी बताया कि दैत्यों के कारण पृथ्वी का भार बढ़ गया है, इसलिए देवताओं की ओर से अब उनके वध की तैयारी की जा रही है।

जब देवर्षि नारद इतना कहकर चले गए तो कंस को विश्वास हो गया कि देवकी के गर्भ से विष्णु भगवान ही मुझे मारने के लिए पैदा होने वाले हैं। यह सोचकर उसने देवकी और वसुदेव को हथकड़ी-बेड़ी से जकड़कर कैद में डाल दिया । उसने यदुवंशियों से घोर विरोध ठान लिया। देवकी और वसुदेव ने भी यह मान लिया कि शायद ईश्वर की यही मर्जी है। यह तो भगवान की कृपा ही है कि उनका नाम स्मरण करने के लिए एकांतवास तो मिला। समय बीतता गया और देवकी ने छ: संतानों को जन्म दिया। उन सभी की कंस ने हत्या कर दी।

इधर जब भगवान के अवतरण का समय आने लगा तो धरती का भार अपने फन पर उठाने वाले भगवान शेष भगवान विष्णु के पास गए और कहा- हे परमात्मा। राम जन्म में आप मेरे बड़े भाई बने, तब मैं अनुज होने के कारण आपको वन जाने से नहीं रोक पाया। इसलिए हे कृपानिधान। आपके कृष्णावतार लेने पर मैं आपका अग्रज बनना चाहता हूं ताकि इस रूप में भी आपकी सेवा कर सकूं। तब भगवान ने इसकी सहर्ष स्वीकृति दे दी और भगवान शेष देवकी के सातवें गर्भ में आ गए।
जैसे ही भगवान देवकी के गर्भ में आए देवकी के शरीर से प्रकाश पूरी कोठरी में फैल गया। यह देख कंस और डर गया।

इसलिए बलराम को संकर्षण भी कहते हैं
हमने पढ़ा कि देवकी के सातवें गर्भ में भगवान शेष आ गए। जब भगवान शेष के जन्म का समय आया तो उसके पहले ही भगवान के कहने पर योगमाया का आगमन हुआ। भगवान ने योगमाया को आदेश दिया कि देवी तुम ब्रज में जाओ। वहां नन्दबाबा के गोकुल में वसुदेव की पत्नी रोहिणी भी निवास करती हैं । इस समय मेरा वह अंश जिसे शेष कहते हैं देवकी के गर्भ में स्थित है उसे वहां से निकालकर तुम रोहिणी के गर्भ में रख दो। कल्याणी, अपने समस्त ज्ञान, बल आदि अंशों के साथ मैं देवकी का पुत्र बनूंगा और तुम नन्दबाबा की पत्नी यशोदा के गर्भ से जन्म लेना।

तुम लोगों को मुंह मांगे वरदान देने में समर्थ हो। मनुष्य तुम्हें अपनी समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाली जानकर धूप, दीप, नैवेद्य एवं अन्य प्रकार की सामग्रियों से तुम्हारी पूजा करेंगे। देवकी के गर्भ में से खीचें जाने के कारण शेषजी को लोग संसार में संकर्षण और बलभद्र भी कहेंगे।भगवान् ने जब इस प्रकार का आदेश दिया तो योगमाया ने कहा कि जो आज्ञा उनकी बात शिरोधार्य की। जैसा भगवान ने कहा उन्होंने वैसा ही किया।

योगमाया ने देवकी का गर्भ ले जाकर रोहिणी के उदर में रख दिया। समय आने पर भगवान शेष का जन्म हुआ। दाऊजी ने आंखें खोली ही नहीं, जब तक मेरा कन्हैया नहीं आएगा मैं आंखें नहीं खोलूंगा। यशोदा पूर्णमासी से बलरामजी की नजर उतारने की विनती करती हैं। पूर्णमासी कहती हैं कि यह तो किसी का ध्यान कर रहा है। इस बालक के कारण तेरे घर में बालकृष्ण पधारेंगे।

कंस ने क्यों वध नहीं किया देवकी का
जब लोगों को यह मालूम हुआ कि देवकी का सातवां गर्भ गिर गया तो उन्हें बड़ा दु:ख हुआ। देवकी और वसुदेव ने भी इसे भगवान की लीला ही समझी। और जब देवकी ने आठवां गर्भधारण किया तो कंस ने सेवकों को सावधान कर दिया कि मेरा काल आ रहा है इसलिए तुम सचेत रहना। भगवान के गर्भ में आते ही देवकी का शरीर तेजोमय हो गया। ऐसा लगने लगा मानों कई सूर्य देवकी के भीतर ही समा गए हों। इतना प्रकाश की कोई देवकी को देखने में भी समर्थ नहीं था। जैसे पूर्व दिशा चन्द्रदेव को धारण करती है। वैसे ही शुद्ध सत्व से सम्पन्न देवकी ने विशुद्ध मन से सर्वात्मा एवं आत्म स्वरूप भगवान को धारण किया।

भगवान सारे जगत में निवास रखते हैं। देवकी उनका ही निवास स्थान बन गई। देवकी के गर्भ में भगवान विराजमान हो गए थे।
जब कंस ने देखा तब वह मन ही मन कहने लगा कि अब की बार मेरे प्राणों के दुश्मन विष्णु अवश्य ही देवकी के गर्भ में आ गया है। पहले उसने सोचा कि देवकी की हत्या कर दूं पर बाद में उसने विचार किया कि देवकी को मारना तो ठीक न होगा क्योंकि वीर पुरूष स्वार्थवश अपने पराक्रम को कलंकित नहीं करते। एक तो यह स्त्री है, दूसरी बहन है और तीसरी गर्भवती है। इसको मारने से तो तत्काल ही मेरी कीर्ति, लक्ष्मी और आयु नष्ट हो जाएगी। यह सोचकर उसने देवकी को नहीं मारा।

जब कंस के कैदखाने में आए भगवान शंकर व ब्रह्मा
हमने पढ़ा कि देवकी के आठवें गर्भ में भगवान विष्णु आए इसका परिणाम यह हुआ कि कंस को उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते और चलते-फिरते भगवान विष्णु का भय सताने लगा। उस पर मृत्यु का भय इतना हावी हो गया कि उसे चहुंओर भगवान विष्णु ही नजर आने लगा।

शुकदेवजी कहते हैं-हे परीक्षित। जब भगवान के अवतरण का समय आया तो भगवान शंकर और ब्रह्माजी कंस के कैदखाने में आए उनके साथ अपने अनुचरों समस्त देवता और नारदादि ऋषि भी पधार गए। ब्रह्मा, शंकर, नारद आदि सभी देवताओं ने भगवान श्रीहरि की स्तुति की। उस समय आकाश के सभी नक्षत्र, ग्रह और तारे शान्त सौम्य हो रहे थे। दिशाएं स्वच्छ प्रसन्न थीं, निर्मल आकाश में तारे जगमगा रहे थे।

ब्राह्मणों के अग्निहोत्र की कभी न बुझने वाली अग्नियां जो कंस के अत्याचार से बुझ गई थीं। वे इस समय अपने आप जल उठीं। पृथ्वी भी मंगलमय हो गई। भगवान का जन्म वर्णन-सन्त पुरूष पहले से ही चाहते थे कि असुरों की बढ़ती न होने पाए, अब उनका मन सहसा प्रसन्नता से भर गया। जिस समय भगवान के आविर्भाव का अवसर आया। स्वर्ग में देवताओं की डुगडुगियां अपने आप बज उठीं। किन्नर और गन्धर्व मधुर स्वर में गाने लगे तथा सिद्ध और चारण भगवान के मंगलमय गुणों की स्तुति करने लगे। बड़े-बड़े देवता और ऋषि-मुनि आनन्द से भरकर पुष्प की वर्षा करने लगे। जन्म और मृत्यु के चक्र से छुड़ाने वाले जनार्दन के अवतार का समय था।

कंस के कारागर में हुआ भगवान श्रीकृष्ण का अवतार
भादौ मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को जब चंद्रमा रोहिणी नक्षत्र में था उसी समय परमपिता परमेश्वर भगवान विष्णु देवकी के गर्भ से प्रकट हुए। स्वर्ग में देवताओं की डुगडुगियां अपने आप बज उठीं। किन्नर और गन्धर्व मधुर स्वर में गाने लगे तथा सिद्ध और चारण भगवान के मंगलमय गुणों की स्तुति करने लगे।

वसुदेव ने देखा कि उनके सामने चार हाथों में शंख, चक्र, गदा, कमल लिए साक्षात परब्रह्म खड़े हैं। वे बहुमूल्य वैदूर्यमणी के किरीट और कुण्डल की कांति से युक्त सुंदर घुंघराले बाल, सूर्य की किरणों के समान चमक रहे हैं। गले में कौस्तुभ मणि झिलमिला रही है। वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह है। वर्षाकालीन मेघ के समान श्यामल शरीर पर मनोहर पीताम्बर लहरा रहा है। और वसुदेव के देखते ही देखते चारभुजाधारी भगवान विष्णु छोटे बालक के समान दिखने लगे। उस बालक के अंग-अंग से अनोखी छटा छिटक रही है। जब वसुदेवजी ने देखा कि मेरे पुत्र के रूप में तो स्वयं भगवान आए हैं। तो पहले तो उन्हें असीम आश्चर्य हुआ।

फिर आनन्द से उनकी आंखें खिल उठीं। उनका रोम-रोम परमानन्द में मग्न हो गया। भगवान् श्रीकृष्ण अपने अंग कान्ति से सूतिका ग्रह को जगमगा रहे थे। श्री शुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित। इधर देवकी ने देखा कि मेरे पुत्र में तो पुरुषोत्तम भगवान् के सभी लक्षण मौजूद हैं। तो उसे परम आनंद की अनुभूति हुई और कंस का भय भी ह्रदय से जाता रहा। फिर वसुदेव व देवकी ने बड़े पवित्र भाव से भगवान विष्णु की स्तुति की।

देवकी व वसुदेव कौन थे पूर्वजन्म में
हमने पढ़ा कि भगवान विष्णु ने धरती पर श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया और उनके अदुभुत स्वरूप को देखकर वसुदेव और देवकी ने उनकी स्तुति की। तब भगवान विष्णु देवकी से कहते हैं - देवी। स्वायम्भू मन्वन्तर में जब तुम्हारा पहला जन्म हुआ था, उस समय तुम्हारा नाम था पृश्नि और ये वसुदेव सुतपा नाम के प्रजापति थे। तुम दोनों के हृदय बड़े ही शुद्ध थे।तुम दोनों ने वर्षा, वायु, शीत, उष्ण आदि को सहन किया और प्राणायाम के द्वारा अपने मन के मल धो डाले। तुम्हारे तप से प्रसन्न होकर मैंने तुम्हें वरदान दिया था कि मैं तुम्हारे गर्भ से पुत्र रूप में जन्म लूंगा। अपने उसी वरदान के अनुसार तुम्हारे उस जन्म में मैं तुम्हारा पुत्र हुआ।

उस जन्म में मेरा नाम पृश्निगर्भ था। दूसरे जन्म में तुम अदिति और वसुदेव ने कश्यप के रूप में जन्म लिया। तब भी मैं तुम्हारा पुत्र हुआ। उस समय मेरा नाम उपेंद्र था। शरीर छोटा होने के कारण मुझे वामन भी कहा गया। सती देवकी। तुम्हारे इस तीसरे जन्म में भी मैं उसी रूप से फिर तुम्हारा पुत्र हुआ हूं। मेरी वाणी सर्वदा सत्य होती है। इतना कहकर भगवान चुप हो गए और एक साधारण शिशु का रूप धारण कर लिया।

भगवान की लीला से ही वसुदेव और देवकी को भी भगवान के रूप का स्मरण नहीं रहा। तब वसुदेवजी ने भगवान् की प्रेरणा से अपने पुत्र को लेकर बंदीगृह से बाहर निकलने की इच्छा की। उसी समय नन्द पत्नी यशोदा के गर्भ से उस योगमाया का जन्म हुआ, जो भगवान् की शक्ति होने के कारण उनके समान ही जन्म रहित है।

जब कंस के कारागार के सभी बंधन टूट गए
जब कंस के कारागार में भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ तब वसुदेवजी ने भगवान् की प्रेरणा से ही अपने पुत्र को लेकर बंदीगृह से बाहर निकलने की इच्छा की। किंतु बाहर कैसे निकला जाए क्योंकि बाहर तो सैनिकों का पहरा था। तब भगवान की लीला से वसुदेव ने जैसे ही बालक रूपी भगवान को टोकरी में लिटाया वैसे ही सारे बंधन टूट गए। जेल के ताले स्वयं खुल गए। पहरेदार भी उस समय निन्द्रामग्न हो गए। भगवान की लीला के अनुसार वसुदेवजी ने उस बालक को उठाया गोकुल जाने लगे तो बीच में यमुना नदी पड़ी।
वसुदेवजी नदी में उतर गए तभी तेज बारिश होने लगी। भगवान भीगे नहीं इसके लिए शेषनाग ने उनके ऊपर छत कर दी। तब वसुदेवजी ने उस बालक को गोकुल में नन्दजी के घर लेजाकर यशोदा के पास लेटा दिया तथा वहां लेटी नवजात बालिका को उठाकर बंदीगृह में लौट आए। जेल में पहुंचकर वसुदेवजी ने उस कन्या को देवकी की शय्या पर सुला दिया और अपने पैरों में बेडिय़ां डाल लीं तथा पहले की तरह वे बंदीगृह में बंद हो गए। भगवान की लीला से देवकी, वसुदेव और यशोदा किसी को भी इस पूरी घटना के बारे में पता ही नहीं चला यहां तक की देवकी व यशोदा को प्रसव पीड़ा का ज्ञान ही नहीं रहा।

उधर थोड़ी देर बात जब यशोदा को चेत हुआ तो उसने देखा कि उसके पास एक सुंदर सा बालक शय्या पर सो रहा है। उसने नन्दजी और वसुदेवजी की दूसरी पत्नी रोहिणी को बताया तो उन्हें भी बड़ा आश्चर्य हुआ कि बिना प्रसव पीड़ा के संतान उत्पन्न हो गई। सबने इसे भगवान का चमत्कार माना। सुबह होते ही शोर मच गया कि नंदजी के घर बालक का जन्म हुआ है। पूरा गांव आनन्द में डूब गया, उत्सव मनाया जाने लगा। नाच-गाना होने लगा। यशोदा और नंदजी की खुशियों का भी ठीकाना नहीं रहा।

भागवत का सार छिपा है दसवें स्कंध में
भागवत में हम दशम स्कंध पढ़ रहे हैं। एक बार पुन: कुछ बातें याद करते चलें। इस ग्रंथ में हम विचार कर चुके हैं कि इसमें भगवान् का वाङमय स्वरूप है, शास्त्रों का सार है और जीवन का व्यवहार है। दशम स्कंध इस पूरे शास्त्र का प्राण है। हमने तीन अध्याय तक दशम स्कंध की कथा पढ़ी। भगवान् का जन्म हो गया। ऐसा कहते हैं कि दसवां स्कंध बोलते-बोलते शुकदेवजी खिल गए क्योंकि अब कथा शुकदेवजी नहीं, उनके भीतर बैठकर स्वयं श्रीकृष्ण कर रहे हैं।

इसलिए जिन प्रसंगों में हम प्रवेश कर रहे हैं वह हमारे ह्रदय को स्पर्श करेंगे। हमने सात दिन में दाम्पत्य के सात सूत्र जीवन में उतारने का संकल्प लिया है। हमने पहले दिन स्पष्ट विचार किया कि संयम का क्या महत्व है। दूसरे दिन संतुष्टि का महत्व जाना। तीसरे दिन संतान और चौथे दिन संवेदनशीलता और अब संकल्प का दिन है। आगे हम सक्षम होना और समर्पण को जान लेंगे।
दाम्पत्य यदि संकल्पित है तो बड़ा दूरगामी परिणाम देगा। दाम्पत्य में कुछ संकल्प लेने ही पड़ेंगे और जिनका दाम्पत्य बिना संकल्प के है वो लगभग उसको नष्ट ही कर रहे हैं। पहले स्कंध में हमने महाभारत से रहना सीखा। दूसरे स्कंध से आठवें स्कंध तक गीता से कर्म करना सीखा। नवें स्कंध में हमने रामायण से जीना सीखा और अब दस, ग्यारह और बारहवें स्कंध के माध्यम से हम भागवत में मरने की कला सीखेंगे। हमारे सामाजिक जीवन में पारदर्शिता, व्यावसायिक जीवन में परिश्रम, पारिवारिक जीवन में प्रेम और निजी जीवन में पवित्रता बनी रहे, इसके प्रसंग हम लगातार देख रहे हैं।

जब कंस ने देवकी व वसुदेव से क्षमा मांगी
हमने पढ़ा कि वसुदेव भगवान श्रीकृष्ण को गोकुल छोड़ आए और योगमाया को अपने साथ कारागार में ले आए। किसी को इसका भान तक नहीं हुआ। जब कारागार में से शिशु के रोने की आवाज आई तो द्वारपालों की नींद टूट गई और वे तुरंत कंस के पास गए और देवकी की आठवीं संतान के जन्म की बात बताई। यह सुनकर कंस बड़ा डर गया क्योंकि उसे पता था कि देवकी की आठवीं संतान ही मेरा वध करेगी। फिर भी वह गिरते-पड़ते कारागार तक पहुंचा।

जब उसे मालूम हुआ कि देवकी की आठवीं संतान तो कन्या है तब उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने उस कन्या को उठाया और जैसे ही पत्थर पर पटकने लगा वह कन्या हवा में उड़ गई और उसने अष्टभुजा देवी का रूप धारण कर लिया। उसके हाथों में धनुष, त्रिशूल, बाण, ढाल, तलवार, शंख, चक्र और गदा थे। देवी योगमाया ने कंस को बताया कि तेरा काल कहीं ओर जन्म ले चुका है। इतना कहकर वह अन्तर्धान हो गई। देवी की यह बात सुनकर कंस ने देवकी और वसुदेव को कैद से छोड़ दिया और अपने किए पर पश्चाताप करने लगा। कंस ने अपनी बहिन देवकी और वसुदेवजी के चरण पकड़ लिए और वह तरह-तरह से उनके प्रति अपना प्रेम प्रकट करने लगा।

जब देवकी ने देखा कि भाई कंस को पश्चाताप हो रहा है तब उन्होंने उसे क्षमा कर दिया। जिनके गर्भ में भगवान ने निवास किया व जिन्हें भगवान के दर्शन हुए। उन देवकी व वसुदेव के दर्शन का ही फल था कि कंस के ह्रदय में सद्गुणों का उदय हो गया। जब तक कंस देवकी व वसुदेव के सामने रहा तब तक ये सद्गुण रहे। दुष्ट मंत्रियों के बीच जाते ही वह फिर पहले जैसा दुष्ट हो गया।

जब कंस ने नवजात शिशुओं को मारने का आदेश दिया
शुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित! जब वसुदेव और देवकी ने इस प्रकार प्रसन्न होकर निष्कपट भाव से कंस के साथ बातचीत की, तब उनसे अनुमति लेकर कंस अपने महल में चला गया। वह रात्रि बीत जाने पर कंस ने अपने मंत्रियों को बुलाया और योगमाया ने जो कुछ कहा था वह सब उन्हें सुनाया। कंस के मंत्री पूर्णतया नीतिनिपुण नहीं थे।

दैत्य होने के कारण स्वभाव से ही वे देवताओं के प्रति शत्रुता का भाव रखते थे। अपने स्वामी कंस की बात सुनकर वे देवताओं पर और भी चिढ़ गए और कंस से कहने लगे-भोजराज! यदि ऐसी बात है तो हम आज ही बड़े-बड़े नगरों में, छोटे-छोटे गांवों में, अहीरों की बस्तियों में और दूसरे स्थानों में जितने बच्चे हुए हैं वे चाहे दस दिन से अधिक के हों या कम के, सबको कोई उपाय कर जल्दी ही मार डालेंगे। इस प्रकार उन बालकों क साथ देवकी की आठवी संतान भी नष्ट हो जाएगी और आपको कोई भय भी नहीं रहेगा।कंस ने भी इसके लिए हामी भर दी।

इधर बालक के जन्म की खुशी में नंदग्राम में उत्सव मनाया जा रहा था। पूरा गोकुल आनंद मना रहा था। आसपास के गांव की सभी स्त्रियां नंदबाबा के घर बालक को आशीर्वाद देने पहुंची। साथ-साथ वे मंगलगान भी गाती जाती थीं। नंदबाबा ने भी विशाल ह्रदय से दान दिया। उस दिन से नंदबाबा के व्रज में सब प्रकार की रिद्धि-सिद्धि अठखेलियां करने लगीं और भगवान श्रीकृष्ण के निवास तथा अपने स्वभाविक गुणों के कारण वह लक्ष्मीजी का क्रीडास्थल बन गया।

"कन्हैया तो काल का काल है"
जब पूरा ब्रज भगवान श्रीकृष्ण के जन्म का उत्सव मना रहा था तो भगवान शंकर के मन में भी विष्णु के बालस्वरूप के दर्शन करने की इच्छा हुई। भादौ शुक्ल द्वादशी के दिन भगवान शंकर गोकुल में आए। शिवजी के पास एक दासी आई और कहने लगी कि यशोदाजी ने ये भिक्षा भेजी है इसे स्वीकार कर लें और लाला को आशीर्वाद दे दें। शिव बोले मैं भिक्षा नहीं लूंगा, मुझे किसी भी वस्तु की अपेक्षा नहीं है मुझे तो बालकृष्ण के दर्शन करना है। दासी ने यह समाचार यशोदाजी को पहुंचा दिया। यशोदाजी ने खिड़की में से बाहर देखकर कह दिया कि लाला को बाहर नहीं लाऊंगी, तुम्हारे गले में सर्प है जिसे देखकर मेरा लाला डर जाएगा। शिवजी बोले कि माता तेरा कन्हैया तो काल का काल है, ब्रह्म का ब्रह्म है। वह किसी से नहीं डर सकता, उसे किसी की भी कुदृष्टि नहीं लग सकती और वह तो मुझे पहचानता है।

यशोदाजी बोलीं-कैसी बातें कर रहे हो आप? मेरा लाला तो नन्हा सा है आप हठ न करें। शिवजी ने कहा- तेरे लाला के दर्शन किए बिना मैं यहां से नहीं हटूंगा। इधर बाल कन्हैया ने जाना कि शिवजी पधारे हैं और माता वहां ले नहीं जाएंगी, तो उन्होंने जोर से रोना शुरु किया। शिवजी की बहुत विनय करने के बाद यशोदाजी बालकृष्ण को बाहर लेकर आई। शिवजी ने सोचा कि अब कन्हैया मेरे पास आएंगे, शिवजी ने दर्शन करके प्रणाम किया किन्तु इतने से तृप्ति नहीं हुई। वे अपनी गोद में लेना चाहते थे। शिवजी यशोदाजी से बोले कि तुम बालक के भविष्य के बारे में पूछती हो, यदि इसे मेरी गोद में दिया जाए तो मैं इसकी हाथों की रेखा अच्छी तरह से देख लूंगा। यशोदा ने बालकृष्ण को शिवजी की गोद में रख दिया। शिवजी समाधि में डूब गए। जब हरि और हर एक हो गए तो वहां कौन क्या बोलेगा।

श्रीकृष्ण का अर्थ ही आनंद है
हमने पढ़ा कि भगवान शंकर भगवान श्रीकृष्ण के बाल रूप के दर्शन करने आए। यशोदाजी बालकृष्ण को शिवजी को देती हैं। शिवजी कहते हैं-यशोदा तेरा पुत्र तो सम्राट होने वाला है। शिवजी अति आनन्द की अवस्था में नाचने लगे। बालकृष्ण को हृदय में बसाकर शिवजी कैलाश लौटे।अब बांके बिहारीजी की लीला आरम्भ हो रही है और हमने देखा कि जब कृष्ण का जन्म होता है और हम आनन्द मनाते हैं तो कहा जाता है नन्द घर आनन्द भयो, नन्द घर कृष्ण भयो, यह नहीं कहा जाता। क्योंकि कृष्ण आनन्द का पर्याय है। कृष्ण का जन्म हुआ इसका मतलब आनन्द का जन्म हुआ। अब आनन्द ही आनन्द है। आनन्द मनाने की तैयारी गोकुल के लोग कर रहे हैं।

कृष्ण जन्म के कुछ दिन बाद नन्द बाबा कंस को कर देने के लिए मथुरा पहुंचे। उन्होंने कंस को स्वर्णथाल तथा पंचरत्न भेंट किए। यह समाचार भी दिया कि उनके घर पुत्र का जन्म हुआ है। कंस क्या जाने कि कन्हैया उसका ही काल है। उसने बालक को आशीर्वाद दिया और कह दिया कि वह भी बड़ा होकर राजा बने। कंस ने अनजाने में ही कृष्ण को आशीष दे दिया। शत्रु भी जिसे आशीर्वाद दे और वंदन करे, वो है श्रीकृष्ण।इधर जब कंस को योगमाया द्वारा कही गई बात का स्मरण हुआ तो वह घबरा गया। उसने पूतना नामक राक्षसी को बुलाया और उससे कहा कि आस-पास के गांवों में जितने भी नवजात शिशु हैं उनका वध कर दे।

पूतना भादौ कृष्ण चतुर्दशी की सुबह गोकुल आई। पूत का अर्थ है पवित्र। जो पूत नहीं है वह है पूतना। पूतना चतुर्दशी के दिन क्यों आई क्योंकि उसने चौदह ठिकानों पर वास किया। अविद्या, वासना आदि चौदह स्थानों में बसती है। पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच कर्मेंद्रियां, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार यह चौदह स्थान हैं वासना व अविद्या रूपी पूतना के बसने के।

पूतना कौन थी पिछले जन्म में?
कंस के कहने पर पूतना गोकुल आई। उसने एक सुंदर स्त्री का रूप धरा। उसको किसी ने रोका नहीं और वह सीधे नंद बाबा के घर में घुस गई। भागवत में पूतना के पूर्वजन्म का वर्णन भी है। उसी के अनुसार-राजा बलि और रानी विंध्याचल की पुत्री का नाम रत्नमाला था। जब वामन अवतार में बलि राजा से भगवान यज्ञ में भिक्षा मांगने आए थे, तब उनके स्वरूप को देखकर रत्नमाला के हृदय में स्नेह उमड़ आया और उसके मन में आया कि कितना अच्छा होता, अगर मैं इस बालक को पुत्र के रूप में पा सकती । मैं उसे पयपान कराकर उसका लालन-पालन करके धन्य हो जाती।

वामन के तेजस्वी स्वरूप को देखकर रत्नमाला के हृदय में पुत्र स्नेह उमड़ आया था। किंतु जब रत्नमाला ने देखा कि भगवान वामन ने भिक्षा के रूप में उसके पिता की सारी संपत्ति छीन ली है तो यह देखकर उसके मन में शत्रु भाव भी उमड़ आया और उसके मन में इच्छा हुई कि इस बालक को दूध में विष मिलाकर पीला दूं। भगवान वामन ने रत्नमाला की दोनों इच्छाओं को मन ही मन जान लिया और स्वीकार भी कर लिया।यही रत्नमाला दूसरे जन्म में पूतना के रूप में जन्मी। पूतना बालकृष्ण को मारने के लिए गोकुल पहुंच गई। पूतना ने जैसे ही कृष्ण को गोद में लेकर दूध पिलाने के लिए सीने से लगाया।

उसे भयंकर पीड़ा होने लगी। दर्द से छटपटाई, अपने असली रूप में आ गई। दर्द जब और असहनीय हो गया तो कृष्ण को लेकर आकाश में उडऩे लगी। कृष्ण ने दूध के साथ ही उसके प्राण भी शरीर से खींच लिए। बेहाल पूतना का शरीर धरती पर गिर गया और उसके प्राण पखेरु उड़ गए।

इतना भयानक रूप था पूतना का 
पूतना जब मरी तो उसके शरीर ने गिरते-गिरते भी छ: कोस के भीतर के वृक्षों को कुचल डाला। यह बड़ी ही अद्भुत घटना हुई। पूतना का शरीर बड़ा भयानक था, उसका मुंह हल के समान तीखी और भयंकर दाढ़ों से युक्त था। उसके नथुने पहाड़ की गुफा के समान गहरे थे। लाल-लाल बाल चारों ओर बिखरे हुए थे। आंखें अंधे कुएं के समान गहरी, भयंकर भुजाएं, जांघें और पैर नदी के पुल के समान तथा पेट सूखे हुए सरोवर की भांति जान पड़ता था। पूतना के उस शरीर को देखकर सब के सब ग्वाल और गोपी डर गए।

जब गोपियों ने देखा कि बालक श्रीकृष्ण उसकी छाती पर निर्भय होकर खेल रहे हैं तब वे बड़ी घबराहट और उतावली के साथ झटपट वहां पहुंच गईं तथा श्रीकृष्ण को उठा लिया।बृजवासी यह चमत्कार देखकर आश्चर्यचकित भी थे और आशंकित भी। यह चमत्कार और बालकृष्ण की लीला उन्हें समझ नहीं आई। इस भारी विपत्ति में बालक कृष्ण का सकुशल रहना, परमात्मा की कृपा मान रहे थे, लेकिन परमात्मा तो स्वयं अब मां यशोदा की गोद में खेल रहे थे।बृजवासियों ने कुल्हाड़ी से पूतना के शरीर को टुकड़े-टुकड़े कर डाला और गोकुल से दूर ले जाकर लकडिय़ों पर रखकर जला दिया।

जब उसका शरीर जलने लगा, तब उसमें से ऐसा धुंआ निकला जिसमें से अगर (एक सुगंधित वनस्पति) की सी सुगंध आ रही थी। क्यों न हो, भगवान ने जो उसका दूध पी लिया था जिससे उसके सारे पाप तत्काल ही नष्ट हो गए थे। पूतना एक राक्षसी थी। लोगों के बच्चों को मार डालना और उनका खून पी जाना यही उसका काम था। भगवान् को भी उसने मार डालने की इच्छा से ही अपना दूध पिलाया था। फिर भी उसे वह परमगति मिली, जो सत्पुरुषों को मिलती है।

जब श्रीकृष्ण ने किया उत्कच का उद्धार
श्री शुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित! गोकुल में एक बार भगवान श्रीकृष्ण के करवट बदलने का अभिषेक उत्सव मनाया जा रहा था। उसी दिन उनका जन्म नक्षत्र भी था। घर में बहुत सी स्त्रियों की भीड़ लगी हुई थी। गाना-बजाना हो रहा था। उन्हीं स्त्रियों के बीच में खड़ी हुई यशोदाजी ने अपने पुत्र का अभिषेक किया। उस समय ब्राह्मण मंत्र पढ़कर आशीर्वाद दे रहे थे।

शिशु श्रीकृष्ण एक छकड़े के नीचे सोए हुए थे। उनके पांव अभी लाल-लाल कोंपलों के समान बड़े ही कोमल और नन्हे-नन्हे थे। परन्तु वह नन्हा सा पांव लगते ही विषाल छकड़ा उलट गया। उस छकड़े पर दूध-दही आदि अनेक रसों से भरी हुई मटकियां और दूसरे बर्तन रखे हुए थे। वे सब के सब फूट गए और छकड़े के पहिये तथा धुरे अस्त-व्यस्त हो गए, उसका जूआ फट गया।इस छकड़े में हिरण्याक्ष का पुत्र उत्कच था। जिसे लोगश ऋषि ने आश्रम के वृक्ष उखाडऩे के अपराध में शाप दिया था। कृष्ण का पैर छकड़े से लगा, छकड़ा उलटा और उसमें बैठे उत्कच को परमगति मिल गई। वह शाप से मुक्त हो गया।

कोई उत्कच को देख नहीं पाया लेकिन नंदलाल ने उसका उद्धार कर दिया।करवट बदलने के उत्सव में जितनी भी स्त्रियां आई हुई थीं, वे सब और यशोदा, रोहिणी, नन्दबाबा और गोपगण इस विचित्र घटना को देखकर व्याकुल हो गए। वे आपस में कहने लगे-अरे, यह क्या हो गया? वह छकड़ा अपने आप कैसे उलट गया?यशोदाजी ने समझा यह किसी राक्षस आदि का उत्पात है। उन्होंने अपने रोते हुए लाड़ले लाल को गोद में लेकर ब्राह्मणों से वेदमन्त्रों के द्वारा शान्तिपाठ कराया।

जब तृणावर्त का वध किया श्रीकृष्ण ने
हमने पढ़ा कि श्रीकृष्ण ने पूतना और उत्कच का खेल ही खेल ही वध कर दिया। लेकिन श्रीकृष्ण पर जो विपत्तियां या बलाएं आ रही थीं वे अभी और आने वाली थीं। स्वयं श्रीकृष्ण भी उनका इंतजार कर रहे थे। एक दिन की बात है यशोदाजी अपने प्यारे लल्ला को गोद में लेकर दुलार रही थीं। सहसा श्रीकृष्ण चट्टान के समान भारी बन गए। वे उनका भार न सह सकीं। उन्होंने भार से पीडि़त होकर श्रीकृष्ण को पृथ्वी पर बैठा दिया।

तृणावर्त नाम का एक दैत्य था। वह कंस का निजी सेवक था। कंस की प्रेरणा से ही बवंडर के रूप में वह गोकुल में आया और बैठे हुए श्रीकृष्ण को उड़ाकर आकाश में ले गया। यशोदा ने जब यह देखा तो वह बेसुध हो गई। इधर तृणावर्त बवंडर रूप से जब भगवान श्रीकृष्ण को आकाश में उठा ले गया, तब उनके भारी बोझ को न संभाल सकने के कारण उसका वेग शांत हो गया। वह अधिक चल न सका।

तृणावर्त अपने से भी भारी होने के कारण श्रीकृष्ण को नीलगिरी की चट्टान समझने लगा। भगवान ने इतने जोर से उसका गला पकड़ा कि वह असुर वहीं ढेर हो गया। उसकी आंखें बाहर निकल आईं। बोलती बंद हो गयी। उसके प्राण-पखेरू उड़ गए और बालक श्रीकृष्ण के साथ वह व्रज में गिर पड़ा। भगवान् श्रीकृष्ण उसके वक्ष:स्थल पर लटक रहे थे। यह देखकर गोपियां विस्मित हो गईं। उन्होंने झटपट वहां जाकर श्रीकृष्ण को गोद में ले लिया और लाकर उन्हें माता को दे दिया।

जब श्रीकृष्ण के मुख में यशोदा को ब्रह्माण्ड दिखा
एक दिन की बात है, यशोदाजी अपने प्यारे शिशु को अपनी गोद में लेकर बड़े प्रेम से स्तनपान करा रही थीं। वे वात्सल्य-स्नेह से इस प्रकार सराबोर हो रही थीं कि उनके स्तनों से अपने आप ही दूध झरता जा रहा था। जब वे प्राय: दूध पी चुके और माता यशोदा उनके मुस्कान से युक्त मुख को चुम रही थीं उसी समय श्रीकृष्ण को जंभाई आ गई और माता ने उनके मुख में यह देखा। उसमें आकाश, अंतरिक्ष, ज्योतिर्मण्डल, दिशाएं, सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, वायु, समुद्र, द्वीप, पर्वत, नदियां, वन और समस्त चराचर प्राणी स्थित हैं। परीक्षित! अपने पुत्र के मुंह में इस प्रकार सहसा सारा जगत देखकर यशोदाजी का शरीर कांप उठा। उन्होंने अपनी बड़ी-बड़ी आंखें बन्द कर ली। वे अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गईं।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं-परीक्षित! यदुवंशियों के कुलपुरोहित थे श्री गर्गाचार्यजी। वे बड़े तपस्वी थे। वसुदेवजी की प्रेरणा से वे एक दिन नन्दबाबा के गोकुल में आए। गर्गाचार्य ने कहा कि यदि नामकरण ठीक तरह से करना है तो आधा दिन लग जाएगा और नन्दबाबा तुम तो सारे गांव को बुलाओगे। वे सब यहां इकट्ठे होंगे और मुझे जल्दी करने को कहेंगे तो विधि ठीक ढंग से नहीं हो पाएगी। नन्दजी ने कहा कि धार्मिक विधि तो ठीक से ही होनी चाहिए, यदि आप चाहे तो मैं किसी को नहीं बुलाऊंगा। इसको संकेत रूप में समझें। एकान्त में नाम जप हो सकता है। एकान्त का भावार्थ है एक मात्र ईश्वर में ही सभी प्रवृत्तियों का लय होना। मन को पूर्णत: एकाग्र करके ही नाम जप किया जाए। जब नाम पर पूरा मन लगा दिया जाएगा, तब मन हट जाएगा और नाम रह जाएगा।

जब मुनि गर्गाचार्य ने किया यशोदानंदन का नामकरण
हमने पढ़ा यादवों के कुलगुरु श्रीगर्गाचार्य गोकुल में आए। नंदबाबा ने उनसे बालकों के नामकरण की इच्छा प्रकट की। तब यह बात तय हुई कि नामकरण बिना किसी उत्सव से चुपचाप किया जाएगा। नंदबाबा ने हां कह दिया।सबसे पहले गर्गाचार्यजी ने देवी रोहिणी के पुत्र का नामकरण किया और नंदबाबा से कहा- यह रोहिणी का पुत्र है इसलिए इसका नाम होगा रौहिणेय। यह अपने सगे-सम्बन्धी और मित्रों को अपने गुणों से अत्यन्त आनन्दित करेगा। इसलिए इसका नाम होगा राम। इसके बल की कोई सीमा नहीं है, अत: इसका एक नाम बलराम भी है। संकर्षण के माध्यम से यह देवकी के गर्भ से रोहिणी के गर्भ में आया है इसलिए इसका एक नाम संकर्षण भी होगा।

इसके बाद गर्गाचार्यजी ने यशोदानंदन का नामकरण किया-नंदलाल को देखते ही गर्गाचार्यजी का चेहरा खुशी से खिल उठा। उन्होंने कहा- यशोदा यह जो सांवले रंग का तुम्हारा पुत्र है। यह प्रत्येक युग में शरीर ग्रहण करता है। पिछले युगों में इसने क्रमश: श्वेत, रक्त और पीत-ये तीन रंग स्वीकार किए थे। अब की यह कृष्णवर्ण हुआ है। इसलिए इसका नाम कृष्ण होगा। नन्दजी! यह तुम्हारा पुत्र पहले कभी वसुदेवजी के घर भी पैदा हुआ था इसलिए इस रहस्य को जानने वाले लोग इसे वसुदेव भी कहेंगे।
तुम्हारे पुत्र के और भी बहुत से नाम हैं तथा रूप भी अनेक हैं। इसके जितने गुण हैं और जितने कर्म, उन सबके अनुसार अलग-अलग नाम पड़ जाते हैं। मैं तो उन नामों को जानता हूं, परन्तु संसार के साधारण लोग नहीं जानते। यह अपनी लीलाओं से सबको आनंदित करेगा और दुष्टों का सर्वनाश करेगा।

जब सारा जगत श्रीकृष्ण के मुख में समा गया
शुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित। कुछ ही दिनों में बलराम और श्याम घुटनों और हाथों के बल चल-चलकर गोकुल में खेलने लगे। कान्हा की लीलाओं को देखकर गोपियों का मन अस्थिर होकर लीलाओं में ही तन्मय हो जाता था। एक दिन बलराम आदि ग्वालबाल श्रीकृष्ण के साथ खेल रहे थे। उन लोगों ने मां यशोदा के पास आकर कहा मां। कन्हैया ने मिट्टी खायी है। माता यशोदा ने श्रीकृष्ण का हाथ पकड़ लिया। यशोदा मैया ने डांटकर कहा-क्यों रे नटखट। तू बहुत ढीठ हो गया है। तूने मिट्टी क्यों खाई? देख तो तेरे दल के तेरे सखा क्या कह रहे हैं। तेरे बड़े भैया बलदाऊ भी तो उन्हीं की ओर से गवाही दे रहे हैं।

श्रीकृष्ण ने कहा-मां। मैंने मिट्टी नहीं खाई। ये सब झूठ बोल रहे हैं। यदि तुम इन्हीं की बात सच मानती हो तो मुंह तुम्हारे सामने ही है, तुम अपनी आंखों से देख लो। यशोदाजी ने कहा अच्छी बात। यदि ऐसा है तो मुंह खोल। माता के ऐसा कहने पर भगवान श्रीकृष्ण ने अपना मुंह खोल दिया। परीक्षित। यशोदाजी ने देखा कि कृष्ण के मुंह में चर-अचर सम्पूर्ण जगत विद्यमान है । सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड कृष्ण के श्रीमुख में समाया हुआ है। सभी देवता, सभी लोक, सम्पूर्ण ज्योर्तिमण्डल, सारे गृह-नक्षत्र लाला के छोटे से मुख में दिखाई दे रहे थे।

माता हैरान थीं, उनके मन में कई शंका-कुशंकाएं जन्म ले रही थीं। वे सोचने लगीं कि यह कोई स्वप्न है या भगवान की माया? तब भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी वैष्णवी योगमाया का उनके हृदय में संचार कर दिया। माता यशोदाजी तुरंत वह घटना भूल गईं। माया का प्रभाव ऐसा चला कि क्षण भर पहले की घटना भी याद नहीं रही। उन्होंने पुन: अपने लल्ला को गोद में उठा लिया और स्नेह करने लगीं।

नंद व यशोदा कौन थे पूर्व जन्म में?
राजा परीक्षित ने शुकदेवजी महाराज से पूछा- हे भगवन। सारे वेद, उपनिषद, सांख्य योग और भक्तजन जिनके माहात्म्य का गीत गाते नहीं थकते, उन्हीं भगवान ने यशोदाजी को पुत्र सुख प्रदान किया। नन्दबाबा तथा यशोदाजी ने ऐसी कौन सी तपस्या की थी, जिसके कारण स्वयं भगवान ने उन्हें पुत्र रूप में सुख प्रदान किया।

शुकदेवजी ने बताया- नन्दबाबा पूर्वजन्म में एक श्रेष्ठ वसु थे। उनका नाम था द्रोण और उनकी पत्नी का नाम था धरा।उन्होंने ब्रह्माजी के आदेशों का पालन करने की इच्छा से उनसे कहा-भगवन। जब हम पृथ्वी पर जन्म लें, तब जगदीश्वर भगवान श्रीविष्णु हमारे घर में पुत्र रूप में आनन्द बिखेंरे तथा हमारा जीवन सार्थक करें। ब्रह्माजी ने कहा ऐसा ही होगा। वे ही परमयशस्वी द्रोण ब्रज में पैदा हुए और उनका नाम हुआ नन्द और वे ही धरा इस जन्म में यशोदा के नाम से उनकी पत्नी हुई।

परीक्षित। अब इस जन्म में जन्म-मृत्यु के चक्र से छुड़ाने वाले भगवान उनके पुत्र हुए और समस्त गोप-गोपियों की अपेक्षा इन पति-पत्नी नन्द और यशोदाजी का उनके प्रति अत्यन्त प्रेम हुआ। ब्रह्माजी की बात सत्य करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण बलरामजी के साथ ब्रज में रहकर समस्त ब्रजवासियों को अपनी बाल-लीला से आनन्दित करने लगे।भगवान की ऐसी लीलाएं ब्रज भूमि पर हुईं कि गोप-गोपियां बने देवताओं की प्रसन्नता व आनन्द की कोई सीमा ही नहीं रही। जो आनन्द स्वर्ग में नहीं मिला, वो ब्रज भूमि पर नित्य सुलभ हो रहा था। सारे गोप-गोपियां, देवता, सारे गण कृष्ण भक्ति में रम गए। भक्ति जीवन में आ जाए तो मुक्ति का रास्ता भी खुल जाता है।

राजा जनक के पास क्यों गए शुकदेवजी?
हमारे पुराण पुरुष श्री शुकदेवजी ने अपने पिता परम ज्ञानी श्री वेदव्यासजी से एक दिन प्रश्न किया कि मैं कौन हूं? उन्होंने उत्तर दिया-जो ब्रह्म आनन्द और विज्ञान-स्वरूप है, चित्त के द्वारा सारे संकल्पों को देना ही मानों उसे ग्रहण कर लेना है, जिसके संकोच से जगत का विनाश और विकास से निर्माण होता है, वही सच्चिदानंद स्वरूप ब्रह्म मैं हूं, दूसरा नहीं। इस उत्तर से श्री शुकदेवजी संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने सोचा यह तो मैं पहले ही जानता था। इसमें इन्होंने कौन सी नई बात बता दी। श्री शुकदेवजी को यह भ्रम होना स्वाभाविक था, क्योंकि निकटतम व्यक्ति द्वारा दिया गया ज्ञान मोहजनित होने के कारण अज्ञान के आवरण से ढंका रहता है। श्री व्यासजी शुकदेजी के मन की बात जान गए, उन्होंने राजा जनक के पास उन्हें मिथिलापुरी भेजा और कहा कि राजा विदेह के पास जाओ और ज्ञानार्जन करो।

पिता के निर्देश पर श्री शुकदेवजी विदेह नगर पहुंचे। श्री शुकदेवजी ने राजप्रसाद के द्वारपाल के माध्यम से महाराज जनक के पास अपने आगमन का संदेश पहुंचाया। संदेश सुनकर राजा जनक ने उन्हें वहीं द्वार पर ठहरने के लिए कहलवाया। साधारण जनों के मध्य की बात होती तो राजा जनक के इस व्यवहार पर कुछ आपत्ति ज्ञानियों के मध्य की बात थी। अत: इस व्यवहार से न द्वारपाल चकित थे और न ही श्रीशुकदेवजी, यह प्रथम परीक्षा थी। सात दिन तक द्वार पर ही रहकर उन्हें प्रतीक्षा करनी पड़ी। ज्ञानार्जन हेतु धैर्य परीक्षण का यह पहला सोपान कहा जा सकता है।

माखन की नहीं मन की चोरी करते हैं श्रीकृष्ण
हमने पढ़ा कि महर्षि वेदव्यास ने शुकदेवजी को ज्ञान प्राप्त करने के लिए राजा जनक के पास भेजा। जनक ने सात दिनों तक शुकदेवजी को महल के द्वार पर ही खड़ा रखा। फिर प्रांगण में उन्हें ठहरने के लिए कहा गया। प्रांगण में राजा का वैभव देखकर भी शुकदेवजी भ्रमित नहीं हुए। प्रांगण से चारों ओर देखना सहज सम्भव था। मतिभ्रम की स्थिति से परे बुद्धि इस बात का प्रतीक है कि ज्ञान प्राप्ति हेतु बुद्धि बिलकुल निर्मूल हैं, स्वच्छंद है और धुंध रहित है।

इस प्रकार एक सप्ताह और बीता, तत्पश्चात उन्हें अन्त:पुर में लाया गया, जहां राजप्रसाद की युवतियां उनकी सेवा में लगी थी। नाना प्रकार भोज्य तथा भोग-सामग्री से उनका सत्कार किया गया। श्री शुकदेवजी इससे तनिक भी विचलित नहीं हुए। उनकी समभाव-स्थिति बनी रही। जब राजा जनक ने श्री शुकदेवजी की इस परमोच्च स्थिति को जान लिया, तब उन्होंने उनसे भेंट की और उनका सत्कार किया। इस कथा से स्पष्ट होता है कि स्व-स्वरूप जानने के लिए मोह-त्याग, धैर्य-धारण, निर्मल मन-बुद्धि तथा समभाव के सोपानों से गुजरकर जनक जैसे गुरुके समक्ष पहुंचना होगा। मन प्रभु को देना पड़ेगा, तो प्रभु हमारे हो जाएंगे।

माखन चोरी की लीला का यही रहस्य है। मन माखन है। मन की चोरी ही तो माखन चोरी है। कृष्ण औरों के चित चोर लेते हैं फिर भी पकड़े नहीं जाते। हमारी तैयारी होना चाहिए मन देने की।

माखन क्यों चुराते थे श्रीकृष्ण?
जब बालकृष्ण थोड़े बड़े हुए तो अपने साथियों के साथ ब्रज धाम में लीलाएं करने लगे। अपने गरीब बालग्वालों को माखन खिलाने के लिए माखन चुराने लगे। इससे गोपियों को भी आनंद आने लगा। गोपियों ने प्यार से श्रीकृष्ण का नाम माखनचोर रख दिया। जब यह बात यशोदा को पता चली तो वे श्रीकृष्ण पर गुस्सा करने लगीं। वे अपने लाला से आग्रह करने लगीं कि बाहर का नहीं घर का माखन ही अच्छा है।

फिर यशोदाजी ने सोचा-घर का कामकाज नौकर संभालते हैं इसीलिए शायद लाला को घर का माखन पसंद नहीं है और माखन की चोरी करता फिरता है। आज मैं स्वयं ही मन्थन करके माखन बनाकर उसे खिलाऊंगी और तृप्त करूंगी।प्रात:काल में स्नानादि कार्यों से निवृत्त होकर पीला वस्त्र पहनकर यशोदाजी दही मंथन के काम में लग गईं। यशोदाजी कन्हैयाजी को याद कर रही थीं सो इस काम में भक्ति भी मिली हुई थी। हमें व्यवहार को भक्तिमय बनाना है हमारा प्रत्येक व्यवहार ऐसा हो कि वह भक्तिमय बन जाए तो ही सार्थकता है।

यह काम भक्त ही कर सकता है। भक्त और साधक का अंतर गोकुल में नजर आता है। आज भक्ति की साक्षात प्रतिमा बनकर भक्त के रूप में यशोदाजी बैठी हैं।माता यशोदा पुष्टि भक्ति का स्वरूप हैं। उनके दर्शन पाएंगे तो कृष्ण के दर्शन हो सकेंगे। यशोदा साधक हैं दही मंथन साधन है, श्रीकृष्ण साध्य हैं। साधना ऐसी करो कि साध्य अपने आप आए। साधना तन्मय हो तो साधक को साध्य स्वयं आकर जगाता है। यशोदा की भक्ति देखकर कृष्ण ने पीछे से आंचल पकड़ लिया। तुम भी सेवा साधना में ऐसे डूब जाओ कि साध्य स्वयं तुम्हारे द्वार पर आ जाए और यही पुष्टि भक्ति है।

श्रीकृष्ण ने क्यों फोड़ी दही की मटकी?
हमने पढ़ा कि यशोदा ने बालकृष्ण को खिलाने के लिए अपने हाथों से माखन बनाया। उस समय बालकृष्ण सो रहे थे। जब बालकृष्ण जागे तो माता को ढूंढते हुआ उधर आ पहुंचे जहां माता यशोदा माखन बना रही थीं। उन्होंने पीछे से माता का आंचल खींचा। यशोदा तो काम में ऐसी लीन थी कि उन्हें खबर तक नहीं हुई, कन्हैया माता से कहने लगा-मां मुझे भूख लगी है, पहले दूध पिला दो।

उसी समय भगवान श्रीकृष्ण दूध पीने के लिए दही मथती हुई अपनी माता के पास आए। उन्होंने अपनी माता के हृदय में प्रेम और आनन्द को और भी बढ़ाते हुए दही की मथानी पकड़ ली तथा उन्हें मथने से रोक दिया। श्रीकृष्ण माता यशोदा की गोद में चढ़ गए। वात्सल्य स्नेह की अधिकता से माता यशोदा के स्तनों से दूध तो स्वयं झर ही रहा था। वे उन्हें पिलाने लगीं और मन्द-मन्द मुसकान से युक्त उनका मुख देखने लगीं। इतने में ही दूसरी ओर अंगीठी पर रखे हुए दूध में उफान आया। उसे देखकर यशोदाजी उन्हें अतृप्त ही छोड़कर जल्दी से दूध उतारने के लिए चली गईं। इससे श्रीकृष्ण को कुछ क्रोध आ गया। तब श्रीकृष्ण ने पास ही रखा हुआ दही का मटका फोड़ डाला, बनावटी आंसू आंखों में भर लिए और दूसरे घर में जाकर अकेले में बासी माखन खाने लगे।

इस घटना से अभिप्राय है कि जब मन भगवान में लीन हो तो भक्त को संसार का मोह छोडऩा पड़ता है, अगर मन फिर संसार में भटके तो परमात्मा नाराज होगा ही। यशोदा ने लाला को छोड़कर रसोई के दूध की चिन्ता में पड़ गईं तो कृष्ण नाराज हो गए। मन में भक्ति स्थिर हो तो नाराज परमात्मा को भी मनाया जा सकता है।

माता यशोदा ने क्यों बांधा बालकृष्ण को ?
हमने पढ़ा कि माता यशोदा दूध उफनता देख बालकृष्ण को अतृप्त छोड़कर दूध उतारने चली जाती हैं। गुस्से में बालकृष्ण दही की मटकी फोड़ देते हैं। यशोदाजी जब वापस आती हैं तो देखती हैं कि दही का मटका फूटा पड़ा है। वे समझ गईं कि यह सब मेरे लाला की करतूत है। इधर-उधर ढूंढने पर पता चला कि श्रीकृष्ण एक उलटे हुए ऊखल पर खड़े हैं और छीके पर का माखन ले-लेकर बंदरों को खूब लुटा रहे हैं।

उन्हें यह भी डर है कि कहीं मेरी चोरी खुल न जाए इसलिए चौकन्ने होकर चारों ओर ताकते जाते हैं। यह देखकर यशोदारानी पीछे से धीरे-धीरे उनके पास जा पहुंची। जब श्रीकृष्ण ने देखा कि मां हाथ में छड़ी लिए मेरी ही ओर आ रही है, तब झट से ओखली पर से कूद पड़े और डरकर भागने लगे। उन्हें पकडऩे के लिए यशोदाजी भी दौड़ीं। श्रीकृष्ण का हाथ पकड़कर वे उन्हें डराने लगीं। तब माता यशोद ने श्रीकृष्ण को ओखल से बांधने का निश्चय किया। बांधने के लिए वे जिस भी रस्सी को उठाती, वही छोटी पडऩे लगती।

काफी प्रयास करने के बाद भी जब यशोदा कृष्ण को नहीं बांध पाई तो परेशान हो गई। इस घटना का अभिप्राय है कि भगवान को तो केवल भावों से बांधा जा सकता है, क्रोध और अहंकार से भगवान बंधने वाले नहीं। माता ने सारे प्रयास कर डाले लेकिन कृष्ण बंध नहीं पाए। दो अंगुल रस्सी कम पड़ गई, एक अंगुल भक्ति की और दूसरी भावना की। भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि माता बहुत थक गई हैं तब कृपा करके वे स्वयं ही बंधन में बंध गए। इस प्रकार भगवान ने स्वयं बंधन स्वीकार कर लिया।

जब श्रीकृष्ण ने मुक्ति दी कुबेरपुत्रों को
जब माता यशोदा ने बालकृष्ण को ओखल से बांध दिया तब कृष्ण वृक्ष रूप में शापित जीवन बिताने वाले कुबेर के पुत्र नलकुबेर और मणिग्रीव के उद्धार करने के विचार से मूसल खींचकर वृक्षों के समीप ले गए और दोनों के मध्य से स्वयं निकलकर ज्यों ही जोर लगाया कि दोनों वृक्ष उखड़ गए और इन दोनों का उद्धार हो गया।

शुकदेवजी ने कहा-परीक्षित। नलकुबेर और मणिग्रीव। ये दोनों धनाध्यक्ष कुबेर के लाड़ले लड़के थे और इनकी गिनती रुद्र भगवान के अनुचरों में भी होती थी। इससे उनका घमंड बढ़ गया। एक दिन वे दोनों मंदाकिनी के तट पर कैलाश के रमणीय उपवन में वारुणी मदिरा पीकर मदोन्मत हो गए थे। बहुत सी स्त्रियां उनके साथ गा-बजा रहीं थीं और वे पुष्पों से लदे हुए वन में उनके साथ विहार कर रहे थे। वे स्त्रियों के साथ जल के भीतर घुस गए और जल क्रीडा करने लगे। संयोगवश उधर से देवर्षि नारदजी आ निकले। उन्होंने यक्षपुत्रों को देखा और समझ लिया कि ये इस समय मतवाले हो रहे हैं।

इसलिए ये दोनों अब वृक्षयोनि में जाने के योग्य हैं। ऐसा होने से इन्हें फिर इस प्रकार का अभिमान न होगा। वृक्षयोनि में जाने पर भी मेरी कृपा से इन्हें भगवान की स्मृति बनी रहेगी और मेरे अनुग्रह से देवताओं के सौ वर्ष बीतने पर इन्हें भगवान श्रीकृष्ण का सान्निध्य प्राप्त होगा और फिर भगवान के चरणों में परम प्रेम प्राप्त करके ये अपने लोक में चले आएंगे। तभी से वे वृक्षयोनि में अपने उद्धार की प्रतीक्षा कर रहे थे।

फल बेचने वाली का उद्धार किया श्रीकृष्ण ने
हमने पढ़ा कि बालकृष्ण ने वृक्षरूपी कुबेर के पुत्रों को मुक्ति दिलाई। वृक्षों के गिरने से जो भयंकर आवाज हुई। उसे सुन नन्दबाबा आदि गोप आवाज की दिशा में दौड़े। उन्होंने देखा कि दो वृक्ष गिरे हुए हैं और पास ही बालकृष्ण ओखल से बंधे हुए खेल रहे हैं। किसी को कुछ समझ नहीं आया कि वृक्ष कैसे गिरे?

वहां कुछ बालक खेल रहे थे। नंदबाबा से उनसे पूछा तो उन्होंने बताया कि कृष्ण इन दोनों वृक्षों के बीच में से होकर निकल रहा था। ऊखल तिरछा हो जाने पर दूसरी ओर से इसने उसे खींचा और वृक्ष गिर पड़े। हमने तो इनमें से निकलते हुए दो पुरुष भी देखे हैं। इस बात को किसी ने नहीं माना। तब नन्दबाबा ने कृष्ण के बंधन खोलकर उसे गोद में उठा लिया और आश्चर्य से देखने लगे।

एक दिन कान्हा के घर के सामने से एक फल बेचने वाली निकली। वह आवाज लगाती जाती- ताजे मीठे फल ले लो। यह सुनकर कृष्ण भी अंजुलि में अनाज लेकर फल लेने के लिए दौड़े। अनाज तो रास्ते में ही बिखर गया, पर फल बेचने वाली ने बालकृष्ण की मोहिनी सूरत देखकर उनके हाथ फल से भर दिए। भगवान ने उसके इस प्रेम के बदले में उसकी फल रखने वाली टोकरी रत्नों से भर दी।

वास्तव में वह फल भगवान के प्रति प्रेम व आस्था का प्रतीक हैं और वह रत्न भगवान द्वारा दिया गया उपहार। इस घटना से अभिप्राय है कि यदि हम प्रेम व आस्था से भगवान की भक्ति करेंगे तो भगवान भी अपने भक्त की हर मनोकामना पूरी करेंगे।

ब्रज छोड़कर वृंदावन आकर क्यों बसे ब्रजवासी?
जब नंदबाबा आदि बड़े-बूढ़े गोपों ने देखा कि ब्रज में तो बड़े-बड़े उत्पात होने लगे हैं। तब उन्होंने मिलकर यह विचार किया कि ब्रजवासियों को कहीं दूसरे स्थान पर जाकर रहना चाहिए। ब्रज के एक गोप का नाम था उपनन्द। उन्हें इस बात का पता था कि किस समय किस स्थान पर रहना उचित होगा। उन्होंने कहा-भाइयों। अब यहां ऐसे बड़े-बड़े उत्पात होने लगे हैं, जो बच्चों के लिए तो बहुत ही अनिष्टकारी हैं। इसलिए हमें यहां से अपना घरबार समेट कर अन्यत्र चलना चाहिए। देखो यह सामने बैठा हुआ नंदराय का लाड़ला श्रीकृष्ण है, सबसे पहले यह हत्यारी पूतना के चंगुल से छूटा। इसके बाद भगवान की दूसरी कृपा से इसके ऊपर इतना बड़ा छकड़ा गिरते-गिरते बचा। बवंडर रूपधारी दैत्य तो इसे आकाश में ले गया था लेकिन वह भी इसका कुछ नहीं बिगाड़ सका। तब भी भगवान ने ही इस बालक की रक्षा की। यमलार्जुन वृक्षों के गिरने के समय उनके बीच में आकर भी इसे कुछ नहीं हुआ। यह भी ईश्वरीय चमत्कार था।

इससे पहले कि अब कोई और खतरा यहां आए हमें अपने बच्चों को लेकर अनुचरों के साथ यहां से अन्यत्र चले जाना चाहिए। यहां से कुछ दूर वृन्दावन नाम का एक वन है। वह पूर्णत: हरियाली से आच्छादित है। हमारे पशुओं के लिए तो वह बहुत ही हितकारी है। गोप, गोपी और गायों के लिए वह केवल सुविधा का ही नहीं, सेवन करने योग्य स्थान भी है। सो यदि तुम सब लोगों को यह बात जंचती हो तो आज ही हम लोग वहां के लिए कूच कर दें। उपनन्द की बात सुनकर सभी ने हां कह दी और सभी आवश्यक वस्तुएं व अपना गौधन लेकर वृंदावन में आकर बस गए।

श्रीकृष्ण की कर्मस्थली है वृंदावन
हमने पढ़ा कि नंदबाबा आदि सभी गोप-गोपियां अपना गौधन आदि संपत्ति लेकर वृंदावन में आकर बस गए। वृन्दा का अर्थ है भक्ति। सो भक्ति का वन है वृन्दावन। बालक के पांच वर्ष पूर्ण होने पर उसे गोकुल से वृन्दावन ले जाया जाए अर्थात लाड़ प्यार की प्राथमिक अवस्था में से अब उसे भक्ति के वन में लाया जाना चाहिए। बच्चों का हृदय बड़ा कोमल होता है अत: उसे दिए गए संस्कार उसके मन में अच्छी तरह जम जाते हैं। उसे बचपन में अच्छें संस्कार देंगे, तो उसका यौवन भ्रष्ट नहीं होगा और वह जीवनभर संस्कारी बना रहेगा।

अब भगवान गोकुल छोड़ चुके हैं। नई जगह आए हैं वृन्दावन और वृन्दावन के बारे में ऐसा कहते हैं कि वृन्दावन में राजा नहीं हुआ, वृन्दावन में रानी हुई है राधा। यह राधा का क्षेत्र है। वृन्दावन के पास में एक गांव था बरसाना और बरसाना के मुखिया थे वृषभानु और उनकी बेटी थी राधा। भगवान की जन्मस्थली थी गोकुल और कर्मस्थली वृन्दावन। भागवत कथा में यहां से राधाजी का प्रवेश हो रहा है।

यदि भागवत को बारीकी से पढ़ें, तो भागवत में श्री या तो शुकदेवजी के लिए एक बार लगा है या कृष्णजी के लिए एक बार लगा है। बाकी किसी भी पात्र के लिए भागवतजी में श्री नहीं लगाया जाता। लोगों ने पूछा ऐसा क्यों, तो व्यासजी ने बताया ये भागवत में श्री शब्द का अर्थ है राधा। जैसे श्रीमद्भागवत यहां भागवत की शुरुआत में ही राधाजी का स्मरण किया गया है। चूंकि उनके बिना भागवत हो ही नहीं सकती।

वत्सासुर व बकासुर का वध किया श्रीकृष्ण ने
वृंदावन में रहते हुए श्रीकृष्ण अपने बड़े भाई के साथ गाय-बछड़ों को चराने के लिए जाने लगे। कंस ने वत्सासुर राक्षस को वहां भेजा। एक दिन कृष्ण ने देखा कि बछड़े व्याकुल होने लगे, तो उन्होंने स्थिति समझकर वत्सासुर को टांगों से पकड़ा और उसका प्राणान्त कर दिया।एक दिन की बात है, सब ग्वालबाल अपने बछड़ों को पानी पिलाने के लिए जलाशय के तट पर ले गए। उन्होंने पहले बछड़ों को जल पिलाया और फिर स्वयं भी पिया। ग्वालबालों ने देखा कि वहां एक बहुत बड़ा जीव बैठा हुआ है। वह ऐसा मालूम पड़ता था, मानो इन्द्र के वज्र से कटकर कोई पहाड़ का टुकड़ा गिरा हो।

ग्वालबाल उसे देखकर डर गए। वह बक नाम का एक बड़ा भारी असुर था जो बगुले का रूप धर के वहां आया था। उसकी चोंच बड़ी तीखी थी और वह स्वयं बड़ा बलवान था। उसने झपटकर श्रीकृष्ण को निगल लिया। जब कृष्ण बगुले के तालु के नीचे पहुंचे, तब वे आग के समान उसका तालु जलाने लगे। बकासुर ने तुरंत ही कृष्ण को उगल दिया और फिर बड़े क्रोध से अपनी कठोर चोंच से उन पर चोट करने लगा। तब भगवान श्रीकृष्ण ने उसकी चोंच पकड़कर दो टुकड़े कर दिए। ऐसी वीरता देखकर ग्वालबाल आश्चर्यचकित हो गए।

जब बलराम आदि बालकों ने देखा कि श्रीकृष्ण बगुले के मुंह से निकल कर हमारे पास आ गए हैं, तो बड़ा आनन्द हुआ। सबने कृष्ण को गले लगाया। इसके बाद अपने-अपने बछड़े हांककर सब वृंदावन में आए और वहां उन्होंने घर के लोगों को सारी घटना कह सुनाई।

अजगर बने अघासुर का वध किया श्रीकृष्ण ने
भागवत में हम श्रीकृष्ण द्वारा वृंदावन मे की गई लीलाओं को पढ़ रहे हैं। एक दिन भगवान श्रीकृष्ण ग्वाल-बालों के साथ गायों को चराने वन में गए। उसी समय वहां अघासुर नाम का भयंकर दैत्य भी आ गया । वह पूतना और बकासुर का छोटा भाई तथा कंस का भेजा हुआ था।वह इतना भयंकर था कि देवता भी उससे भयभीत रहते थे और इस बात की बाट देखते थे कि किसी प्रकार से इसकी मृत्यु का अवसर आ जाए।

कृष्ण को मारने के लिए अघासुर ने अजगर का रूप धारण कर लिया और मार्ग में लेट गया। उसका वह अजगर शरीर एक योजन लम्बे बड़े पर्वत के समान विशाल एवं मोटा था।अघासुर का यह रूप देखकर बालकों ने समझा कि यह भी वृंदावन की कोई शोभा है। उसका मुंह किसी गुफा की तरह दिखता था। बाल-ग्वाल उसे समझ न सके और कौतुकवश उसे देखने लगे। देखते-देखते वे अजगर के मुंह में ही घुस गए। लेकिन श्रीकृष्ण अघासुर की माया को समझ गए।

अघासुर बछड़ों और ग्वालबालों के सहित भगवान श्रीकृष्ण को अपनी डाढ़ों से चबाकर चूर-चूर कर डालना चाहता था। परन्तु उसी समय श्रीकृष्ण ने अपने शरीर को बड़ी फुर्ती से बढ़ा लिया कि अजगररुपी अघासुर का गला ही फट गया। आंखें उलट गईं। सांस रुककर सारे शरीर में भर गई और उसके प्राण निकल गए। इस प्रकार सारे बाल-ग्वाल और गौधन भी सकुशल ही अजगर के मुंह से बाहर निकल आए। कान्हा ने फिर सबको बचा लिया। सब मिलकर कान्हा की जय-जयकार करने लगे।

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....
मनीष

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