Monday, June 27, 2016

जीने की राह (Jeene Ki Rah 6)

भीतरी संतुलन से क्रोध पर काबू पाएं
आजकल अधिकतर लोगों के जीवन में क्रोध ने स्थायी ठिकाना बना लिया है। फर्क यही है कि कुछ थोड़ी देर गुस्सा करते हैं और कुछ ज्यादा देर तक गुस्सा रहते हैं। किंतु जीवन को एक आशा अभी भी है, क्योंकि गुस्सा करने वाले लोग बाद में पछताते हैं। यही पछतावा गुस्से से बाहर ले जा सकता है। मालूम पड़ जाता है कि किस परिस्थिति में हमें गुस्सा आने वाला है। ऐसे समय गुस्सा करने से पहले आंखें बंद कर खुद को संतुलित कर लें। असंतुलित व्यक्ति को क्रोध जल्दी जकड़ लेता है। व्यक्तित्व भीतर से संतुलित होगा तो क्रोध उससे टकराकर चला जाएगा पर प्रकट नहीं हो पाएगा। भीतर संतुलन लाने के लिए छोटा-सा प्रयोग है।

रात को सोने से पहले अपने बाएं पैर पर खड़े हों, दाएं पैर को थोड़ा उठाएं और बाएं पैर के घुटने के भीतर वाले हिस्से पर दाएं पैर के पंजे को रख दें। दृश्य ऐसा होगा कि हम एक पैर पर खड़े हैं और दूसरा पैर मुड़कर उसका सपोर्ट बन गया है। दो-तीन मिनट खड़े रहें इसके बाद इस क्रिया को उल्टा कर दें। दाएं पैर पर खड़े हो जाएं, बाएं पैर को मोड़कर दाएं घुटने पर टिका लें। इसके बाद दोनों पैर पर खड़े हो जाएं। दोनों पैर चौड़े हों और कल्पना करिए कि एक बार शरीर का सारा वजन बाएं पैर पर था, दूसरी बार दाएं पैर पर रहा और अब ठीक बीच में है। चूंकि दोनों पैर एक-एक बार वजन उठा चुके होंगे इसलिए जब दोनों पैर जमीन पर होंगे और आपकी कल्पना यह होगी कि पूरा वजन दोनों पैर पर भी नहीं, बीच में उस गैप पर है जो दोनों पैरों के बीच में है। अचानक हफ्ते-दस दिन में आपके भीतर एक संतुलन स्थापित हो गया है। जब कभी क्रोध आए, आंखें बंद करें और इन तीनों स्थितियों पर क्रमश: विचार कर लें। बहुत जल्दी पाएंगे जिन परिस्थितियों में क्रोधित होते थे, आप वहीं रहे और वे स्थितियां आसपास से गुजर गईं।

मन, वचन व कर्म से एक होना जरूरी
जब हमें कोई महत्वपूर्ण दायित्व सौंपा जाए, वह तब पूरा होगा जब हमारे पास उसे करने का तरीका निराला होगा। चर्चा चल रही है किष्किंधा कांड के उस प्रसंग की जब वानरों को सीताजी की खोज का बड़ा दायित्व सौंपा गया था। सुग्रीव के मुंह से जो आदेश निकल रहे थे वे आज प्रबंधन के युग में किसी बड़ी जिम्मेदारी को पूरा करने के सबक हैं। तुलसीदासजी ने चौपाई लिखी, ‘मन क्रम बचन सो जतन बिचारेहु। रामचंद्र कर काजु संवारेहु।। भानु पीठि सेइअ उर आगी। स्वामिहि सर्ब भाव छल त्यागी।।मन, वचन तथा कर्म से उसी का (सीताजी का पता लगाने का) उपाय सोचना। श्रीरामचंद्रजी का कार्य सम्पन्न करना। सूर्य को पीठ से और अग्नि को हृदय से सेवन करना चाहिए। परंतु स्वामी की सेवा तो छल छोड़कर सर्वभाव से (मन, वचन, कर्म से) करनी चाहिए।

इन पंक्तियों में तुलसीदासजी ने मन, वचन और कर्म से काम करने की हिदायत दी है। होता यह है कि हमारे मन में कुछ और होता है, बोलते कुछ और हैं तथा करते कुछ और। जितना यह भेद है आप उतने ही कमजोर होते जाएंगे। मन, वचन और कर्म इन तीनों में मन और चंद्रमा एक-दूसरे से संचालित होते हैं। इसलिए रामजी के नाम को उन्होंने रामचंद्र लिखा, तो मन का संबंध चंद्रमा से है। कर्म का संबंध सूर्य से है और वचन का संबंध अग्नि से। आगे लिखा, ‘स्वामी का कार्य छल-कपट छोड़कर करना चाहिए।इसी के उदाहरण में समझाया कि जैसे हम सूर्य को पीठ से और अग्नि को सामने से सेंकते हैं तो इसमें हमारा स्वार्थ होता है, क्योंकि सूर्य पीठ से सेंकने पर ही उपयोगी है और अग्नि सामने से। नहीं तो दोनों नुकसान करेंगे। जब आपको कोई आदेश दिया जाए। स्वामी मतलब आपका प्रबंधन हो सकता है, वह आपकी व्यवस्था हो सकती है। ऐसे काम में छल-कपट या भेद न करें।

सफलता के लिए चाहिए प्रयोगधर्मिता
जब काम आपकी हैसियत से बड़ा हो तो मन का एक हिस्सा कहता है ऐसा न करो, असफल हो जाओगे। देखिए, किसी भी काम को करने के लिए पहले सृजनधर्मिता यानी क्रिएटिविटी चाहिए। फिर उसके साथ प्रयोगधर्मिता भी चाहिए। यह सिखाएगी कि असफलता से निराश न होते हुए दूसरा प्रयास करें। एक बार मैंने गांव में कुआं खोदने वालों के साथ एक व्यक्ति देखा, जो तंत्र-मंत्र करके जमीन के नीचे कहां पानी है, बता देता था। किंतु वह दस जगह बताता, जिसमें से आठ पर पानी नहीं मिलता। उसने मुझसे कहा, हम निराश नहीं होते, लगातार लगे रहते हैं। उसने एक बात बहुत अच्छी कही कि इन दिनों मैंने यह प्रयोगधर्मिता की कि पहले हम औजार और मानवशक्ति से कुआं खोदते थे, अब मशीनें बुला लीं।

मंत्र से पानी देखना और मशीन का उपयोग करना यह सृजन और प्रयोग दोनों का मिला-जुला रूप है। असफल हो रहे हों तो निराश होने की बजाय प्रयोग बड़ा काम आता है, क्योंकि जैसे ही हम प्रयोग करते हैं, जितने भी सकारात्मक विचार होते हैं, दौड़कर हमारी ओर चलने लगते हैं। जैसे ही हम थोड़ा-सा असफल होते हैं, नकारात्मक विचार तैयार ही रहते हैं, इसलिए असफलता के समय प्रयोगधर्मिता बढ़ा दें, पाएंगे आपके आसपास का वातावरण पॉजीटिव हो गया। जब सफलता नहीं मिल रही हो तो सोते समय यह मंत्र जरूर बोलें, ‘नहीं, मुझे निराश नहीं होना और हां, यह मैं करके रहूंगा।’‘नहींऔर हांवह भी अपने आप से कहना, एक मंत्र है। सुबह उठते समय नहीं और हांइन्हें सांस के साथ नाभि तक लाइए। नहीं, निराश नहीं होना और हां, सफल होना ही है। शरीर का वह संबंधित चक्र, सांस और दबाव से कहे गए हां-नहींतीनों जब जुड़ जाएंगे तो मंत्र की तरह प्रभावी होंगे और सकारात्मक विचार आपकी ओर आने लगेंगे।

वर्तमान के अभाव का आनंद उठाएं
दुनिया जो हमारा मूल्यांकन करती है वह अधूरा ही होगा, लेकिन जब हम अपना मूल्यांकन स्वयं करें तब हमारा मूल्यांकन पूरा होगा। इसे आज की भाषा में यूं भी कह सकते हैं कि संसार ने जो हमारे ऊपर टैग लगाया है उसको यदि सही ढंग से पहना है, तो हमें अपना टैग भी लगाना पड़ेगा। हमारे अलावा हमें अच्छी तरह कोई नहीं जान सकता। इसे तब और लागू करें जब आप अपने वर्तमान में जो अभाव आपके सामने है, उसे सोच-सोचकर निराश हो रहे हों। बहुत सारे लोगों के पास वे सारी चीजें नहीं होतीं जो दूसरों के पास हैं, तब हम परेशान होते हैं कि हमारे पास ऐसा कब होगा? अपने वर्तमान को देखेंगे तो अभाव हमें बहुत खलेगा, इसलिए स्वयं को समझाएं कि जिन बातों का अभाव है वे हमारी प्रगति में बाधा नहीं बनेंगी।

विचार करें कि मेरी हैसियत ऐसी है, जो वर्तमान से मेरे भविष्य को और संवारेगी। मैं इस आशा को समाप्त नहीं करूंगा कि आज जो नहीं है वह कल भी नहीं होगा। आप जिन समर्थ और समृद्ध लोगों को देख रहे हैं, हो सकता है कल इनके पास उतना नहीं रहा हो। मनोवैज्ञानिक हिटलर का उदाहरण देकर कहते हैं कि सच और झूठ में इतना ही फर्क है कि झूठ को लगातार, तेजी से दबाव के साथ बोला जाए तो वह सच लगने लगता है। वैसे यह सिद्धांत गलत है, पर हमारे काम का हो सकता है कि कोई एक बात लगातार दोहराई जाए तो आप पाएंगे कि वह सही होने लगती है। यदि सही बात हम दोहराने लगें फिर तो सत्य हमको मिलेगा ही। एक सत्य जीवन में उतारें कि भविष्य हमारे लिए उज्ज्वल है। भविष्य हमारे वर्तमान से और दिव्य होगा, इसलिए वर्तमान के अभाव का आनंद उठाएं और भविष्य की उपलब्धियों पर नज़र रखें। आपको वह जरूर मिलेगा जो आपने सोचा है।

माला जपने से मिलती है भीतरी ऊर्जा
पिछले दिनों सफर करते हुए एयरपोर्ट पर जब मैं माला जप रहा था तो एक बहुत पढ़े-लिखे युवक ने मुझे पूछा, ‘मैं जानना चाहता हूं कि माला जपने से क्या होता है?’ मैं जानता था यदि मैं कहूंगा परमात्मा मिलेंगे, यह एक पूजा है तो यह उत्तर इसके किसी काम का नहीं है। तब मैंने उससे कहा, ‘ इससे शक्ति मिलती है।जाहिर है उसका अगला सवाल था कि इससे शक्ति कैसे मिल सकती है? यदि ऐसा है तो मैं भी माला जपूंगा, लेकिन साबित कीजिए। मैंने साबित किया और उस युवक ने आजकल माला रखनी शुरू कर दी है।

जब हम मानसिक जप करते हैं तो हमारे भीतर घर्षण होता है। यदि हम दोनों हथेलियां रगड़ें तो हम गर्मी महसूस करते हैं। ऐसे ही लगातार भीतर जाती सांस के धक्के से शरीर में रक्त-प्रवाह बनता है। अब यदि सांस से हम किसी ऐसे नाम को जोड़ लें या मंत्र का संबंध बना दें, जिसमें हमारा विश्वास हो, तो सांस और मंत्र की रगड़ से ऊर्जा पैदा होगी जो रक्त-प्रवाह के जरिये शरीर में उत्तेजना पैदा करेगी। यह उत्तेजना वैसी नहीं है जैसी बाहरी चीजों को देखकर होती है। इसमें होश होता है।

किसी मंत्र, किसी नाम के साथ एक माला जपें, फिर माला को रोक लें और उसी शब्द को भीतर सुनें। कान जब बाहर से कोई शब्द सुनते हैं तो उसकी सीमा है। कान से सुने शब्द भीतर जो कंपन पैदा करते हैं, उन्हीं कंपनों के जरिये बाहर के शब्दों को सुनने की जगह भीतर ही भीतर सुनें तो ऊर्जा पैदा होगी। मैं फिर दोहरा रहा हूं। पहले माला जपेंगे, हमारे भीतर फ्रिक्शन (घर्षण) होगा। फिर हम उसी को स्वयं सुनेंगे तो एक कंपन पैदा होगा। यही घर्षण और कंपन हमारे लिए ऊर्जा बन जाता है। होशपूर्ण उत्तेजना इसी को कहेंगे। जब होशपूर्ण उत्तेजना आपके भीतर आए तब आप देखेंगे कि आपकी योग्यता क्या परिणाम देती है।

कर्तव्य की स्पष्टता प्रमुख गुण
जीवन में जो भी काम करें, स्वेच्छा से करें। स्वेच्छा यानी मनमर्जी नहीं, उस काम को करने के लिए अपने आप में स्पष्ट होकर पूरे व्यक्तित्व को स्वीकृति देना। तब जो भी काम करेंगे वह गलत नहीं होगा और सफलता के काफी निकट होगा। प्रसंग चल रहा है किष्किंधा कांड का। सीताजी की खोज के लिए दक्षिण दिशा में भेजे वानरों के दल का नेतृत्व अंगद कर रहे थे। सुग्रीव दल को समझाइश दे रहे थे। इसे अपने जीवन में लागू करने में फायदा ही होगा। तुलसीदासजी ने लिखा है-तजि माया सेइअ परलोका। मिटहिं सकल भवसंभव सोका।।माया (विषयों की ममता-आसक्ति) को छोड़कर परलोक प्राप्ति का साधन करना चाहिए, जिससे भव (जन्म-मरण) से उत्पन्न सारे शोक मिट जाएं।

यहां तीन शब्दों का प्रयोग हुआ है- माया, परलोक और शोक। माया के लिए आम शब्द है जादू।
जो दिखना चाहिए वह दिखता नहीं है, यही तो जादू है। परलोक का अर्थ है सफलता के साथ शांति और शोक का मतलब तनाव। सुग्रीव समझा रहे हैं उलझन छोड़कर पूरी स्पष्टता के साथ यह काम करना। हम लोग जब कोई दायित्व निभाते हैं तो भ्रम में डूब जाते हैं। तनाव में आ जाते हैं। सुग्रीव से सीखें कल क्या होगा, इस चक्कर में न पड़ें। आज क्या होगा इसको संवारें। आगे सुग्रीव ने कहा वे ही लोग भाग्यवान और गुणवान हैं, जो अपने कर्तव्य के प्रति स्पष्ट हैं। सोइ गुनग्य सोई बड़भागी। जो रघुबीर चरन अनुरागी।।सद्‌गुणों को पहचानने वाला (गुणवान) तथा बड़भागी वही है जो श्रीरघुनाथजी के चरणों का प्रेमी है। तुलसीदासजी कहना चाह रहे हैं चरण यानी आचरण। जिनका आचरण श्रीराम की तरह है वे ही लोग भाग्यवान और गुणवान हैं। हमें जीवन में महान लोगों द्वारा बताए गए मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। फिर भाग्य और गुण अपने आप हमारे गहने बन जाएंगे।

प्रशंसा व्यक्ति के काम की अधिक हो
भाषा का अपना द्वंद्व होता है। इसका सीधा संबंध शब्दों से होता है। मनुष्य जीवन में शब्दों का बड़ा प्यारा प्रयोग है - प्रशंसा और आलोचना। कोई कितना ही मौन साधे इन दो स्थितियों से बच नहीं सकता। हमारी भाषा कैसी हो यह एक कला है। सार्वजनिक जीवन में तो ठीक है, लेकिन परिवार में भाषा और शब्द, कलह और प्रेम का कारण बन जाते हैं। जब किसी की प्रशंसा करनी हो तो सबके सामने करिए और आलोचना करनी हो तो एकांत में करिए। आइए, पहले प्रशंसा को समझ लें। प्रशंसा में दो गड़बड़ हो सकती है। सामने वाला भ्रम में डूब सकता है, अहंकार में गिर सकता है या फिर हमें चापलूस मान सकता है, इसलिए प्रशंसा में उसके कार्य को अधिक फोकस करें। हम व्यक्ति की प्रशंसा करने लगते हैं। उसके काम को भी तीन भागों में बांटकर प्रशंसा करें।

एक, यह काम उन्होंने किया कैसे? हमें भी इसकी समझ होनी चाहिए, इसलिए बिना जाने किसी की प्रशंसा न करें। दो, अब ऐसे प्रशंसनीय कार्य कौन-कौन कर गए, इस तरह के कार्य की प्रशंसा करें। इसमें व्यक्ति की बात भी आ जाएगी और व्यक्तित्व की तुलना भी हो जाएगी। तीन, इस कार्य से अन्य लोगों को क्या फायदा होगा। ऐसा दर्शाने से उनका कार्य सेवा में बदल जाएगा। सामने वाले को महसूस होगा कि प्रशंसा उसके व्यक्तित्व की नहीं, उसके सेवा-कार्य की हो रही है। इससे वह अहंकार से बच जाएगा और वह जान जाएगा कि हर प्रशंसा करने वाला चापलूस नहीं होता। अब बात करते हैं आलोचना की। जब आलोचना करनी ही पड़ जाए तो सार्वजनिक रूप से बचें। व्यक्ति कितना ही बड़ा या छोटा क्यों न हो उससे अकेले में ही बात करें। सार्वजनिक रूप से की गई आलोचना अपमान में बदल जाती है और एकांत में की गई आलोचना अच्छी सलाह बन जाती है।

सत्संग बनकर दूसरों को सुख दें
दार्शनिक क्षेत्र में प्राय: कहा जाता है कि यह कभी न भूलो कि जीवन के अंत में मौत के साथ क्या जाएगा? सिकंदर जब इस दुनिया से गया तो उसके दोनों हाथ खाली थे। यह बात सुनने में बिल्कुल सीधी लगती है। यदि इस संवाद के पीछे के दर्शन को ठीक से समझा जाए तो जीते-जी बहुत बड़ी उपलब्धि हाथ लग जाएगी। यह तय है कि अंत समय दुनिया ने जो आपको दिया होगा वह आप नहीं ले जा सकते, लेकिन जो आपने दुनिया को दिया होगा वह आपके साथ जरूर जाएगा। मृत व्यक्ति के साथ जाती हुईं चीजें दिखती नहीं, लेकिन स्मृति में होती हैं, चर्चा में होती हैं, अनुभूति में होती हैं। हम जब संसार में रहते हैं तो इस दुनिया को क्या दे सकते हैं? सबसे पहले है धन। जरूरी नहीं है कि हमारे पास धन हो।

धन भी हो तो जरूरी नहीं कि हमारे पास देने का मन हो। इसलिए एक चीज संसार के लोगों को जरूर दें और वह है समय। दूसरों को ऐसा समय दीजिए जो उनके लिए हितकारी हो। जैसे कोई दुखी हो और यदि उसे आपके साथ वक्त बिताने का मौका मिल जाए तो उसका दुख खुशी में बदल जाएगा। अपने घर-परिवार के लोगों को उनके हिस्से का समय दीजिए। अभी तो न सिर्फ हम उनके हिस्से का समय चुरा रहे हैं, बल्कि डाका भी डाल रहे हैं। उन्हें समय देने का सबसे अच्छा तरीका है, भोजन के समय साथ रहें। शरीर को दो तरह की भूख होती है। दोनों में वह घनिष्ठता चाहता है। शरीर की भूख भोग-विलास से मिटती है, लेकिन सूक्ष्म शरीर पवित्र संग चाहता है। मनुष्य ने मनुष्य से पहला संबंध भोजन के माध्यम से ही जाना। बच्चा अपनी मां से पहली बार उसके दूध के जरिये जुड़ता है। भोजन में आत्मीयता होती है, इसलिए संसार में रहते हुए दूसरों को ऐसा समय दीजिए कि वह सत्संग बनकर उन्हें सुख प्रदान करे।

भीतर से तैयारी देगी स्थायी खुशी
आजकल खुश रहने की खूब बातेें की जाती हैं। यह बात सबको समझ में आ चुकी है कि 15-20 साल बाद खुशी जिंदगी के बाजार का सबसे महंगा प्रोडक्ट होगी। जिन्हें खुशी को स्थायी बनाना है, उन्हें शांति का मतलब समझना होगा वरना अस्थायी खुशी तो आसानी से मिलती रहेगी। हमारे ऋषि-मुनियों ने बड़ी सुंदर बात कही है कि खुश रहना है तो बहुत अधिक उठापटक न करते हुए बस, दो काम करो। पहला जब-जो करो, जमकर करो। खुद को शत-प्रतिशत उसमें झोंक दो। यदि नौकरी कर रहे हों तो जमकर सेवक बन जाओ। घर में माता-पिता हों तो शत-प्रतिशत माता-पिता बने रहो। दूसरी बात उन्होंने कही कि जीवन में खुशी साधन-सुविधा, धन-दौलत से ही नहीं मिलती। यह मन में उतार लें कि यदि जीवन में चुनौतियां आएं तो भी खुशी मिल सकती है। चुनौतियां कभी किसी की खत्म नहीं होंगी।

जिस युग में भगवान ने अवतार लिया उन्हें भी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। बुरा आदमी जब चुनौतियां देता है तो परेशानियां और बढ़ जाती हैं। आपका संबंध किसी से भी हो, भगवान और शैतान सभी में मिल जाएंगे। शैतान का मतलब ही चुनौती है, भगवान का मतलब ही समाधान है। धार्मिक लोग यह गलतफहमी दूर कर लें कि भक्त होने से, भगवान को मानने से चुनौतियां, समस्याएं नहीं आएंगी। आप तब भी दुखी रह सकते हैं और आपको खुश रहने के मंत्र खुद ढूंढ़ने पड़ेंगे। इसलिए यदि खुश रहना है तो जो तैयारियां हमारे ऋषि-मुनियों ने कीं, पीर-पैगंबर और अवतारों ने जो आचरण किया उन्हें हम भी अपना लें। जो भीतर से तैयार है वह स्थायी खुशी पाएगा। जिसकी तैयारी केवल बाहरी है उसके जीवन में खुशी आएगी और जाएगी। खुश रहने के मौके खुद ढूंढ़िए। दूसरों पर आधारित रहकर खुश रहने की तैयारी किसी नए दुख को आमंत्रण होगा।

धैर्य से नेतृत्व का भरोसा जीतें
हम कितने योग्य हैं इस बात को चार लोग समझते हैं। एक हैँ संसारी लोग, जिनसे हमारा बहुत गहरा नाता नहीं है। ये संसारी लोग हमारी योग्यता को थोड़ा-बहुत समझते हैं। दूसरा वर्ग होता है हमारे निकट के लोगों का। इनमें हमारे माता-पिता, भाई, बहन, जीवन साथी और रिश्तेदार हो सकते हैं। तीसरे हम खुद जो अपनी योग्यता से भली-भांति परिचित होते हैं। इन तीनों से सबसे ऊपर होता है भगवान। वह जानता है कि हम कितने सक्षम हैं और क्या कर सकते हैं। बाकी तीन जगह आप बड़ी-बड़ी बातें हांक सकते हैं परंतु ईश्वर के सामने सबकुछ साफ होता है। वह परम शक्ति किसी भी काम के लिए हमारा चयन पहले ही कर लेती है। किष्किंधा कांड में एक बड़ी सुंदर घटना आती है। सारे वानर प्रसन्न होकर सीताजी की खोज में चल पड़े, लेकिन हनुमानजी जो बहुत सहज और सरल थे, पीछे खड़े रहे।

तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘पाछे पवन तनय सिरू नावा। जानि काज प्रभु निकट बोलावा।। परसा सीस सरोरुह पानी। करमुद्रिका दीन्हि जन जानी।।इन पंक्तियों में हनुमानजी की सरलता और श्रीराम की सजगता प्रकट होती है। पहली बात तो यह कि हनुमानजी को प्रदर्शन करना बिल्कुल पसंद नहीं था और रामजी जानते थे कि बहुत सारे लोग जा रहे हैं पर कौन होगा, जो मेरा काम करेगा। इसीलिए उन्होंने हनुमानजी को जो सबसे पीछे थे, समीप बुलाया और अपनी अंगूठी निकालकर दे दी। यह हनुमान के प्रति उनका विश्वास था। हमें भी अपनी योग्यता पर इतना भरोसा होना चाहिए कि परमात्मा हम पर विश्वास कर सकें। वे चयन करेंगे तो मानकर चलिए हम सफल होकर रहेंगे। इसलिए थोड़ा धैर्य, थोड़ी समझ रखते हुए अपने नेतृत्व को यह विश्वास दिलाइए कि वह हम पर भरोसा कर सकता है। इस प्रसंग में हनुमानजी यही सीख दे रहे हैं।

विचारों की सफाई भी आवश्यक
यह बहुत सीधी-सी बात है कि भीड़ में सही और गलत को छांटना मुश्किल हो जाता है। भीड़ में जो लोग होते हैं उनका अपना कोई विवेक नहीं होता और इसीलिए जब-जब आप भीड़ से घिरे हुए होंगे, अपने आप को अशांत पाएंगे। किसी की योग्यता टटोलना हो, कोई जिम्मेदारी सौंपनी हो तो उसे भीड़ से निकालकर अकेले में लाना पड़ता है। मनुष्य अकेला हो तो आप उसकी जिम्मेदारी तय कर सकते हैं। मनुष्यों की भीड़ की कहानी तो स्पष्ट है ही, लेकिन विचारों की भीड़ भी यही परिणाम देती है। हमारे भीतर जो विचार भीड़ की तरह आ जाते हैं, लगातार आने लगते हैं, धक्का-मुक्की करते हैं तो हम भ्रम में पड़कर गलत की ओर चलने लगते हैं, अशांत हो जाते हैं। हमारे साथ ज्यादातर मौकों पर ऐसा ही होता है।

लगता है जैसे विचारों का रेला चला आ रहा हो। अब ऐसे में आप किस विचार को जिम्मेदार ठहराएंगे अच्छे काम के लिए। कैसे चयन करेंगे कि कौन-सा विचार आपको सफलता दिला सकता है, क्योंकि भीड़ में से छांटना बड़ा मुश्किल हो जाता है। एक प्रयोग करते रहिएगा। कई बार ऐसा होता है कि हम काम की चीज को रद्‌दी में फेंक देते हैं और हमारे आस-पास रद्‌दी पड़ी रह जाती है। विचारों की रद्‌दी को भी रोज-रोज साफ करते रहिए। सप्ताह में कोई एक दिन तय कर लें और इस रद्‌दी की सफाई करें। इसमें मजेदार बात यह है कि रद्‌दी के खरीदार भी आप ही हैं, बेचने वाले भी आप और ट्रेंचिंग ग्राउंड भी आप ही का है, लेकिन यदि यह सफाई नहीं की तो एक दिन विचारों की यह भीड़ आपको लगभग पागल जैसा बना देगी। आप बाहर से भले ही विद्वान, समझदार दिखें, लेकिन भीतर से लगभग पागल जैसे ही हरकतें शुरू कर देंगे। इसलिए विचारों की भीड़ को रद्‌दी मानकर जब भी मौका मिले ठिकाने लगाते रहिए, सफाई करते रहिए।

सफलता से प्रभावित न हो जीवनशैली
सफलता ऐसी होनी चाहिए जो जीवनशैली को नहीं, जीवन को प्रभावित करे। जब हम सफल होते हैं, तो सबसे ज्यादा प्रभावित होती है हमारी जीवनशैली। कार, बंगला, अच्छे कपड़े, अच्छे स्थानों पर घूमने जाना, महंगे शौक, ये सब जीवनशैली में आते हैं। ज्यादातर लोग सफलता को जीवनशैली से जोड़ते हैं और इसीलिए अशांत भी हो जाते हैं। सफलता जीवन को प्रभावित करने वाली होनी चाहिए, क्योंकि जीवन भीतर होता है। जीवन गहराई है, समग्र है और जीवनशैली एक छोटी-सी घटना। जब जीवन में उतरते हैं तो आप अहंकार शून्य होते हैं। अपने अलावा दूसरों को भी महत्व देते हैं। जीवनशैली का आग्रह खुद के लिए होता है। उसे प्रदर्शन अच्छा लगता है। इसी तरह जब असफल हो जाएं तो ध्यान रहे कि असफलता केवल जीवनशैली को प्रभावित करे, जीवन को प्रभावित न करे। विफलता में तनाव होगा, अवसाद होगा। इसे भीतर न ले जाएं।

जब विफल हों तो लाइफ स्टाइल बदल दें, लेकिन जीवन को उससे न जोड़ें। हम उल्टा करते हैं। सफलता को जीवन से काटते हैं व विफलता को जीवन से जोड़ते हैं। यहीं से अशांति आती है। सफल होने के लिए विश्वास चाहिए, लेकिन विफल हो जाएं तो विश्वास को श्रद्धा से जोड़ें। जल्दी ही असफलता से बाहर आ जाएंगे। जब हम विश्वास में जीते हैं तो कई लोगों के साथ रहते हैं। किसी और ने विश्वास किया, उसी सिद्धांत पर हमने भी विश्वास कर लिया। श्रद्धा अकेली होती है। यदि आपके भीतर किसी के प्रति श्रद्धा जागी तो आप यह चिंता नहीं करेंगे कि और कितने लोग उसके प्रति श्रद्धावान हैं। वह आपका निजी मामला है। विश्वास व श्रद्धा मिल जाएं तो भरोसा पैदा होता है। जब आपका भरोसा दृढ़ है, तब आप सफल होकर अशांत नहीं होंगे। विफल हैं तो भी शांत रहेंगे।

योग-ध्यान से अहंकार पर काबू पाएं
हर मनुष्य के शरीर में कुछ बातें ऐसी हैं, जो उसे खूब परेशान करती हैं। परेशान व दुखी होने के लिए जरूरी नहीं है कि आक्रमण बाहर से हो। हमारे भीतर भी कुछ ऐसा होता है, जिसके कारण हम खुद बहुत दिक्कत में आ जाते हैं। हमें यह समझना चाहिए कि हमारे शरीर में सबसे ज्यादा परेशान करने वाली चीज है हमारा अहंकार और सबसे ज्यादा न परेशान करने वाली चीज है हमारी सरलता। अहंकार हमें बात-बात पर परेशान करता है, क्योंकि तुलना से अहंकार को बहुत बेचैनी होती है। दूसरे के पास यदि कार है तो हमारा अहंकार अंगड़ाई लेने लगेगा। हमारे पास भी वैसी कार, वैसा मकान, वैसा पद हो।

अहंकार तो यहां तक उतर आता है कि भले ही मर जाओ या मार डालो पर मेरी पूर्ति जरूर होनी चाहिए, इसलिए हमें अपने भीतर के अहंकार और सरलता को पहचानना है, पकड़ना हैै और निदान निकालना है। किंतु सरलता का अर्थ हमें समझना पड़ेगा। बाहर से विनम्र हो जाएं, मीठा बोलने लग जाएं, इसी से सरलता नहीं आती। हम पारदर्शी हों, निर्मल हों साथ में स्पष्टवादी हों और भ्रम बिल्कुल न हो। सरलता की यह भी पहचान है कि लोग हम पर भरोसा कर हमारे सान्निध्य में खुद को सुरक्षित महसूस कर सकें। सच्ची सरलता तभी है, अन्यथा सबकुछ अभिनय होगा। आज के वक्त में हमारा अहंकार जब किसी के साथ रहता है तो उसे सुरक्षा देने की जगह अपने लिए क्या लूट सकते हैं, इसकी तैयारी करता है। दूसरों को आहत करना, अपने लिए कुछ भी करने पर उतर आना, ये सब अहंकार के लक्षण हैं। चूंकि मामला भीतर का है, इसलिए इससे निपटने की तैयारी भी भीतर करनी पड़ेगी। आप भीतर से कहां अहंकारी हैं और कहां निर्मल-सरल हैं यह जानना हो तो योग-ध्यान करना होगा। आप वहां पहुंच जाएंगे जहां हम सबको पहुंचना जरूरी है।

हनुमानजी के जरिये योग से जुड़ें
हनुमानजी से बड़ा कोई योगी नहीं। यह कोई दावा नहीं, मान्यता-सी है। सच तो यह है कि योग सबके लिए है। इसे किसी धर्म से जोड़ना नादानी होगी। किंतु यदि किसी को जानना है कि योग देता क्या है तो उसे हनुमानजी से परिचय जरूर करना चाहिए। श्रीराम ने हनुमानजी को साथ इसीलिए रखा, क्योंकि वे जानते थे कि जो बहुत बड़ा अभियान मुझे पूरा करना है उसमें आने वाली बाधाएं कोई योगी ही पार करा सकता है। हम भी ध्यान रखें हमारा लक्ष्य श्रीराम जैसा ही है। रावण चारों तरफ मौजूद हैं। रावण मतलब सफलता की ऊंचाइयों पर बैठा हुआ व्यक्ति, जो अब लगातार गलतियां कर रहा हो और उसका पतन हो रहा हो। आज कई लोग ऐसे हैं जो अपनी योग्यता का दुरुपयोग कर रहे हैं, रावण की तरह शीर्ष पर पहुंच गए हैं और अनुचित कर रहे हैं।

आप जिस भी क्षेत्र में जाएंगे ऐसे लोगों से आपका मुकाबला होगा। जो कुछ भी श्रीराम ने किया वह हमें करना है। वे हर बड़ा काम हनुमानजी से कराते थे। हनुमानजी ने हमें सिखाया है कि चुनौतियां कभी किसी की कम नहीं होंगी। पहली चुनौती या समस्या संसार से आती है। दूसरी सम्पत्ति से, तीसरी संबंधों से, चौथी स्वास्थ्य से और पांचवीं चुनौती आती है संतान से। जब ये चुनौतियां बाहर से आती हैं, तो योगी बाहर के साथ-साथ भीतर उतरना जानता है। जो लोग केवल बाहर रहकर इन चुनौतियों का सामना करेंगे वे एक दिन अशांत, परेशान होंगे, लेकिन जो थोड़ा अपने भीतर उतरेंगे उनके लिए चुनौतियों के आक्रमण कम होंगे। भीतर उतरकर अपनी आत्मा के निकट बैठा हुआ व्यक्ति इन चुनौतियों से बहुत अच्छे ढंग से जूझ सकेगा। योग का यह एक बहुत बड़ा परिणाम है, इसलिए जिन्हें योग से जुड़ना हो वे हनुमानजी को अपना माध्यम बना सकते हैं, क्योंकि उनसे बड़ा योगी और कौन हो सकता है।

हर घटना को साक्षी भाव से देखें
दूसरों के मामले में कई बार हम वे बातें सोच लेते हैं, जिनका उस व्यक्ति से कोई लेना-देना नहीं होता। हम किसी को फोन करें और व्यस्तता के कारण वह न उठाए तो हम मन ही मन सोचने लगते हैं कि यह इतना बड़ा हो गया कि हमें अवॉइड कर रहा है। अपने बच्चों, जीवनसाथी के भी फोन नहीं उठाने पर भी उनके लिए हमारे विचार ऐसे ही होते हैं। कभी सार्वजनिक रूप से किसी ने ठीक से हमसे चर्चा न की हो तो हमारा मन उसको आलोचना में घेर लेता है।

हम काफी समय ऐसे ही चिंतन में लगा देते हैं, जबकि घटना वैसी नहीं होती। इससे ऊर्जा भी नष्ट होती है और हम अकारण तनाव में आ जाते हैं। किसी के प्रति कोई नज़रिया रखना हो तो उसके तीन स्तर होते हैं। यदि केवल शरीर के स्तर पर नज़रिया बनाएंगे तो उसमें तेरे-मेरे की गुंजाइश बहुत होगी। हमें ऐसी उम्मीद थी, उसने ऐसा नहीं किया और हम उलझन में पड़ जाएंगे। मन के स्तर से नज़रिया बनाएंगे तो उदास बहुत जल्दी हो जाएंगे, क्योंकि हमारे हिसाब से घटना नहीं घटी तो मन तुरंत उदासी ला देता है या चिड़चिड़ा बना देता है।

तीसरा स्तर होता है आत्मा का। यह साक्षीभाव का स्तर है। जब आप किसी घटना के बारे में आत्मा के स्तर पर सोचते हैं तो आपको थोड़ा भीतर जाना पड़ता है। शरीर से चलकर मन को पार करके जब हम आत्मा पर पहुंचते हैं तब यह तो तय है कि आत्मा का कोई आकार हमें नहीं दिखेगा, लेकिन अभ्यास से यह भी तय हो जाएगा कि हम स्वयं से जुड़ रहे हैं, अपने आप को देख रहे हैं। इसके बाद किसी घटना का चिंतन करें तो हम पाएंगे जो हो गया सो हो गया, अब हम क्यों उलझें। बेकार में उन बातों को क्यों सोचें जिनके बारे में कन्फर्म नहीं हैं। आपके भीतर भारीपन नहीं आएगा, दूसरों के प्रति सदाशयी रहेंगे और अपने आप में प्रसन्न रहेंगे।

ऐसे दूर करें कलह पति-पत्नी
कामकाजी महिलाओं को जितनी समस्याओं का सामना करना पड़ता है उतना पुरुषों को नहीं करना पड़ता यह तो तय है। एक पुरानी कहावत है, ‘औरत घर से निकली समझो हाथ से निकली।यहां दो बातें हैं- हाथ और घर। कहावत बनाने वाला घर को स्त्री के लिए सबसे सुरक्षित स्थान मानता होगा। हाथ का मतलब है नियंत्रण। इसी हाथ के नियंत्रण ने पुरुष को शोषक बनाया और स्त्री शोषित होती रहे ऐसी व्यवस्था दी।

शिक्षा का विस्तार हुआ और महिलाएं कामकाज के लिए घर से निकलने लगीं तब उनके जीवन में कुछ कलह के केंद्र बने। वैसे तो संसार की सबसे पहली कामकाजी महिला सीताजी थीं। वे पहली बार पति राम के साथ घर से निकली थीं। यदि वे घर से निकलीं तो क्या हाथ से निकल गईं, निरंकुश हो गईं? बस यही बात समझनी है। स्त्री का काम करना केवल आर्थिक दृष्टिकोण से न देखें। इसमें मूल्य और परंपरा बहुत गहराई से जुड़े हैं।

पहले कलह के केंद्र परिवार और खासकर सास-बहू हुआ करते थे, लेकिन अब कलह का केंद्र बदल गया है। ससुराल वालों ने अनुमति दी और माता-पिता ने भी बेटियों को काम करने से नहीं रोका तो कलह का केंद्र हो गए पति-पत्नी। दोनों का कामकाजी होना दोनों के धैर्य को खा रहा है, इसलिए कामकाजी महिलाएं उन तमाम सेवानिवृत्त महिलाओं से जानें कि कामकाजी दौर में उन्होंने परेशानियों से कैसे पार पाया।

वे अच्छे से जानती हैं कि उनके कामकाजी होने का क्या फायदा और क्या नुकसान रहा। ये बात यदि आज की महिलाएं उनसे शेयर करें तो हो सकता है उन्हें पति-पत्नी का कलह दूर करने में सुविधा होगी। यदि ऐसा नहीं किया तो यह कलह का केंद्र एक दिन माता-पिता और बच्चों में उतरेगा और उस दिन स्त्री का कामकाजी होना बच्चों के लिए महंगा साबित हो सकता है।

ज़िद को योग से जोड़ें, शुभ होगा
आजकल ज्यादातर माता-पिता यह शिकायत करते हैं कि बच्चे बहुत ज़िद्‌दी हो गए हैं। हमें ज़िद शब्द की परिभाषा ठीक से समझनी चाहिए। बिना विवेक के जो मांग की जाती है और उसकी पूर्ति तत्काल हो जाए, जब यह अति आग्रह होता है तो वह ज़िद है। बच्चों में विवेक की कमी होती है और मांगी गई वस्तु उसी समय चाहते हैं। न मिले तो ज़िद अपने एक्टिव रूप उपद्रव में बदल जाती है, लेकिन ज़िद यदि विवेक से जुड़े तो वह संकल्प में बदलती है। जिस ज़िद से हम बड़े लक्ष्य प्राप्त करते हैं उसके नीचे संकल्प काम कर रहा होता है।
तो अपरिपक्व संकल्प ज़िद है और परिपक्व ज़िद संकल्प। ज़िद करते बच्चों को पूरी तरह से नहीं नकारें, क्योंकि उस समय उनकी ऊर्जा भीतर उफान पर होती है। यदि इस ऊर्जा को ठीक से रूपांतरित कर दें तो वह संकल्प में बदल जाएगी, इसलिए बच्चों को सिखाएं और बड़े भी सीखें कि कुछ बातों का ध्यान रखें कि इससे हमारी कार्यक्षमता का विकास होगा या नहीं, हमारा चित्त जागरूक बनेगा या नहीं, ज़िद की पूर्ति के बाद शांति मिलेगी या नहीं और ज़िद के दौरान पैदा ऊर्जा से हमारे मस्तिष्क की तरंगें कैसे प्रभावित हुईं।
नहीं तो सिरदर्द या ब्रेन हेमरेज तक हो सकता है। आदमी डिप्रेशन में जा सकता है। बाहरी वस्तुओं को पाने की वृत्तियों को थोड़ा भीतर मोड़ें तो पाएंगे जिस सुख की तलाश में हम बाहर हैं वह भीतर भी है, बल्कि उससे अच्छी स्थिति में है। बाहर के सुख को नकारना नहीं है पर भीतर के सुख को भी न भूलें। बस, यहीं से ज़िद के साथ संकल्प जुड़ जाए तो आप जो पाना चाहते हैं उसके परिणाम में कभी अशांत नहीं होंगे। अपने भीतर उतरकर सुख को टटोलने का नाम योग है। तो ज़िद को योग से जोड़े रखिए, फिर देखिए आपके संकल्प आपको कितने शुभ परिणाम देंगे।

आलसी होकर बैठना संतोष नहीं है
कहा है कि संतोषी सदा सुखी। परंतु आज का युवा कहेगा कि यह तो जीवन ध्वस्त करने जैसी बात है। इस दौर में जिसने संतोष किया समझ लीजिए वह पिछड़ गया, इसलिए संतोष शब्द को ठीक से समझना होगा। मनुष्य के जीवन की खूबी यह है कि वह कुछ न कुछ देता रहता है, इसलिए हमारी अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं। यहीं से असंतोष का जन्म होता है। इसका दूसरा नाम अशांति है, लेकिन कुछ लोगों ने इसे प्रगति नाम भी दिया है। जिससे मनुष्य आगे बढ़ता है, महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति करता है वह असंतोष नहीं, अति आग्रह है। यह तो तय है कि संतोषी व्यक्ति सुखी अवश्य होगा। संतोषी होना समझदारी है। अपनी सीमा को पहचानकर दूसरे से तुलना न करते हुए अपने आप को समर्थ बनाना संतोष है।
इस दुनिया में सभी अधूरे हैं। जिनके पास बहुत कुछ है वे भी कहीं न कहीं अधूरे हैं, इसलिए हम समझें कि सबको सब नहीं मिल जाता। इच्छा और आवश्यकता का अर्थ समझने पर ही जीवन में संतोष उतरता है। संतोष को कोई बेबसी न समझे इसलिए समझदारी से इसे स्वीकार कर लें। ध्यान रहें कि जीवन में जब भी संतोषी बनने का प्रयास करेंगे, आपका अहंकार बाधा पहुंचाएगा। अहंकार को दूसरों से आगे निकलना और अपने को छोटा न मानने में विशेष रुचि होती है। जिन्हें शांति की तलाश हो वे समझें कि संतोष की वृत्ति जीवन में परमात्मा पर भरोसा करने से बड़ी आसानी से उतरती है, क्योंकि जब हम ईश्वर पर भरोसा करते हैं तो एक बात दिल में उतर आती है कि हमारे परिश्रम का परिणाम वह हमारे लायक दे देगा और यही बात हमें संतोष की ओर ले जाती है। इसलिए संतोष का मतलब आलसी बनकर बैठ जाना नहीं है और असंतोष का मतलब प्रगति की राह पर चलना नहीं है। इसे ठीक से समझ लें तो शांति आसानी से मिल सकती है।

उत्साह हो तो काम अच्छा होता है
अगर किसी को कोई काम ठीक से समझाया जाए और वह उस काम के प्रति उत्साही हो, समर्पित हो तो काम बहुत अच्छे ढंग से निपटेगा। बात कर रहे हैं किष्किंधा कांड के उस प्रसंग की जिसमें सीताजी की खोज में सुग्रीव ने वानरों का दल भेजा था। सबसे पीछे खड़े हनुमानजी को देखकर श्रीराम ने एकांत में उनसे बात की थी। हमें इससे यह शिक्षा मिलती है कि किसी को काम सौंपते हुए क्या करना है, कैसे करना है और क्यों करना है, यह सब बहुत साफ तरीके से समझा दिया जाए। 

तुलसीदासजी ने चौपाई लिखी है - बहु प्रकार सीतहि समुझाएहु। कहि बल बिरह बेगि तुम्ह आएहु।। हनुमत जन्म सुफल करि माना। चलेउ हृदयं धरि कृपानिधाना।  श्रीराम ने कहा, ‘बहुत प्रकार से सीता को समझाना और मेरा बल तथा विरह (प्रेम) कहकर शीघ्र लौट आना। हनुमानजी ने अपना जन्म सफल समझा और कृपानिधान प्रभु को हृदय में धारण कर चले।

श्रीराम ने हनुमानजी से पहली बात कही कि सीता को समझाना है। जिस स्थिति में सीता होंगी, जो उनकी मानसिकता होगी उसमें सीधी बातचीत से काम नहीं चलेगा। उन्हें समझाना भी पड़ेगा। दूसरी बात कहते हैं मेरे बल की व्याख्या करना और जिस विरह में मैं डूबा हुआ हूं उसकी भी चर्चा करना। साथ ही सब काम करके शीघ्र लौट आना। हनुमानजी को जब यह कार्य सौंपा गया तो वे बहुत प्रसन्न हुए। आभार व्यक्त किया और भगवान को हृदय में रखकर चल दिए। हम कोई भी काम करें, उसके प्रति कृतज्ञता होनी चाहिए। काम को बोझ न मानें। परमात्मा को हृदय में रखने का अर्थ है ऐसी शक्ति को अपने से जोड़े रखें जो हमें निराशा से बचाए। इस दृश्य में हमने संदेश देने वाले की स्पष्टता देखी और काम करने के लिए जिन्होंने संदेश लिया उनकी प्रसन्नता व उत्साह की मानसिकता देखी। ये दोनों ही हमारे बड़े काम के हैं।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....मनीष

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