Friday, February 26, 2016

जीने की राह (Jeene Ki Rah 2)

क्रोध के सही उपयोग में ही फायदा
हम लोग दूसरों की कई बातों से परेशान हो जाते हैं, लेकिन कभी-कभी अपनी कुछ बातों से भी दिक्कत में आ जाते हैं। मुझसे कई लोग कहते हैं कि हम अपने गुस्से से बड़े परेशान हैं। क्रोध कर तो लेते हैं पर बाद में पछताते हैं। दुर्गुणों के साथ ऐसा ही होता है। पता नहीं उनमें क्या आकर्षण होता है। हमें लगता है हमने उनका उपयोग किया, परंतु असल में वे हमारा उपयोग कर लेते है। आज अगर क्रोध की चर्चा करें तो हमें समझना होगा कि किष्किंधा कांड में श्रीराम ने क्रोध का जैसा उपयोग किया वैसा हम भी करें। सुग्रीव से श्रीराम दुखी भी थे और उन पर क्रोधित भी, इसलिए उन्होंने लक्ष्मण से कहा, ‘जाओ, सुग्रीव को लेकर आओ।

लक्ष्मण बड़े भाई को क्रोध में देखकर ज्यादा उत्साह से चल दिए, क्योंकि वे उग्र स्वभाव के थे। उसके बाद श्रीराम के व्यवहार में जो परिवर्तन आया उस परिपक्वता पर तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘तब अनुजहिं समुझावा रघुपति करुना सींव। भय देखाइ लै आवहु तात सखा सुग्रीव।।अर्थात हे तात, सुग्रीव को केवल भय दिखाकर ले आओ। उसे मारने की बात नहीं कर रहा हूं। इसमें श्रीराम के लिए लिखा है कि वे दया की सीमा हैं। जिन्हें क्रोध पर नियंत्रण पाना हो वे भीतर की करुणा पर लगातार काम करते रहें। दूसरी बात, ‘भय दिखाकर ले आओका मतलब है श्रीराम क्रोध के उद्‌देश्य को जानते थे, सिर्फ भय दिखाना। इसी तरह हमें भी ज्ञात हो कि हम अपनी कमजोरी के कारण क्रोध नहीं कर रहे, उस व्यवस्था का आवश्यक तत्व मानकर क्रोध को ला रहे हैं और भेज भी देंगे, इसीलिए श्रीराम ने कहा कि बात सुग्रीव को मारने की नहीं, भय दिखाने की है। हम क्रोध में व्यथित हो जाते हैं, अनियंत्रित हो जाते हैं और यहीं से क्रोध नुकसानकारी है। यदि इसका सही उपयोग कर लिया जाए तो क्रोध भी फायदे पहुंचाकर जाएगा।

दो स्तरों पर जीवन को देखना ही धर्म
राजनीतिक-सामाजिक क्षेत्र में जब मतभेद होते हैं तो लोग मानकर चलते हैं कि ऐसा तो होगा ही, क्योंकि यहां सबके स्वार्थ और निजहित जुड़े रहते हैं। किंतु जब धार्मिक व्यक्ति विवाद में आते हैं तो लोगों की टिप्पणियां आक्रामक हो जाती हैं। यह कहना बड़ा आसान हो जाता है कि जिनके भरोसे लोग जीवन की शांति ढूंढ़ने निकले हैं वे ही लड़ रहे हैं, लेकिन धर्म के क्षेत्र में बहुत कुछ अनदेखा है। धर्म का मतलब ही है दो स्तरों पर जीवन को देखना। एक जो दिख रहा है और दूसरा जो नहीं दिख रहा। समाज और राजनीति दिख रहे पर चलती है और धर्म अनदेखे पर चलता है। कोई संत, महात्मा, किसी आरोपित आचरण के कारण कारागृह चला जाए, कलंक लग जाए, तो उसकी खिल्ली उड़ाना आसान है, लेकिन उसकी साधना में कुछ ऐसा था जो अनदेखा रह जाता है। दुनिया में सबसे सरल है किसी को बदनाम कर देना।

उज्जैन में होने वाले कुंभ के मेले, जिसे सिंहस्थ भी कहते हैं, को लेकर आए-दिन विवादों की चर्चा होती है। साधु-संत कभी एक-दूसरे के पक्ष में तो कभी विरोध में बयान देते हैं। लोग कहते हैं क्या साधु ऐसे होते हैं? जिस मनुष्य ने अपने दुर्गुणों की संख्या बहुत कम कर दी वह साधु हो गया, लेकिन दुर्गुण कभी किसी के नहीं मरते। कब, कौन-सा दुर्गुण अंगड़ाई ले ले, कोई भरोसा नहीं। परंतु एक दुर्गुण के परिणाम से किसी की समूची साधना खारिज नहीं की जा सकती। साधुओं के मतभेद फकीर की मस्ती है, जिसमें वह किसी का लिहाज नहीं पालता। फकीर जैसी मस्ती के विवाद और संसार में निजहित में डूबे हुए लोगों के विवाद का अंतर जिस दिन समझ में आएगा उस दिन हम धर्म के क्षेत्र की व्यर्थ की आलोचना बंद कर देंगे, क्योंकि जब-जब धर्म की बिना समझ से आलोचना की जाएगी, नुकसान धर्म और धर्म को मानने वालों का ही होगा।

भीतरी तैयारी से हटाएं बाहरी रुकावटें
बहुत कम लोग होंगे जो संपूर्ण रूप से स्वस्थ हैं। मुझे तो लगता है कि ऐसे लोग शायद ही हों जो कह सकें, ‘मैं बीमार नहीं हूं।’ कुछ बीमारियां ऐसी हैं जिनका इलाज डॉक्टर के पास नहीं है। ऐसी बीमारियों का इलाज आपको स्वयं करना है। यदि यह सीख गए तो आपको अपने जीवन की कुछ यात्राएं बड़ी आसान लगने लगेंगी। जैसे हम एक यात्रा पर निकले हैं, सफल हो जाएं, ख्यात बन जाएं, बड़े दिखने लगें, लोग हमें नोटिस करें, हमें सम्मान दें। इस यात्रा पर लगभग सभी निकले हैं। किसी ने कोई रूप दे दिया तो किसी ने कोई और रूप। ध्यान रखिए, यदि आप ऐसी यात्रा पर निकले हैं जहां अपने लक्ष्य की पूर्ति करनी है तो मान, अपमान और सम्मान की चिंगारियां, इसके छींटे आपके ऊपर गिरते रहेंगे। ये आपको चोट भी दे सकते हैं।

चोट घाव बनी और बीमारी शुरू हुई, इसलिए आपको कुछ कवच खुद तैयार करने होंगे, क्योंकि कामयाब होने में जो बाधाएं आने वाली हैं वे बाहर ही नहीं, भीतर से भी आएंगी। बाहर की बाधाएं दूसरे पहुंचाएंगे और भीतर की रुकावट हम ही शुरू करेंगे। हमारा जो अशांत चित्त है वह इसे और बढ़ाएगा। कोशिश करिए कि हम भीतर से कुछ समय ध्यान, मेडिटेशन से गुजरें। तब बिना संबंधों का लाभ उठाए हम अपनी ताकत से चीजों को बिगड़ने भी नहीं देंगे और सफल भी हो जाएंगे। यह तय है कि सफलता की यात्रा में हमें दूसरों की मदद लेनी है और जब दूसरे आए तो सहयोग भी होगा और असहयोग भी। मान-अपमान सब होगा। किंतु यदि आपने भीतरी तैयारी कर ली तो बाहरी रुकावटें अपने आप दूर हो जाएंगी। यदि भीतर से बाधाएं पैदा कर लीं तो किसी गुरु की आवश्यकता पड़ेगी या स्वयं को इस योग्य बनाना पड़ेगा कि कोई गुरु आकर कृपा कर दें। वरना सारी मेहनत जिस सफलता के लिए की जा रही है वह बेकार हो जाएगी।

लोगों में ईश्वर देखें, भेदभाव दूर होगा
भेदभाव की समस्या वर्षों से चली आ रही है। इसे लेकर युद्ध हुए, तब भी और अब भी। भेदभाव का अंतिम परिणाम हिंसा ही होता है। धर्म के क्षेत्र में भी भेदभाव ने पर्याप्त घुसपैठ कर रखी है, लेकिन बहुत बारीकी से देखें तो किसी भी धर्म के अवतार हों, शास्त्र हों या शीर्ष पुरुष हों, उन्होंने भेदभाव का खंडन किया है। परमपिता परमात्मा भाव का भूखा होता है, इसलिए उसकी दृष्टि में भेद होता ही नहीं है। जाति का भेद, धन के आधार पर भेद, पद के आधार पर भेद और स्त्री-पुरुष का भेद। इसके कई रूप हैं। शरीर में काम के अनुसार अंगों में भेद होता है, यह समझ में आता है। चूंकि हम शरीर की दृष्टि से जीवन बिताते हैं, इसलिए हम अंगों जैसा भेद मनुष्यों में भी करते हैं। यहीं से जाति-भेद आरंभ होता है, जबकि शास्त्रों के मुताबिक परमात्मा की घोषणा है कि महत्व काम का होना चाहिए जाति और लिंग का नहीं। गीता में कहा गया है, ‘पंडित: समदर्शिन:।’

इसका मतलब जो विद्वान हैं, जो भक्त हैं वह सबको समान देखता है। हमारे यहां शीर्ष धार्मिक पुरुषों ने शांति के लिए समानता का संदेश दिया है, क्योंकि वे जानते थे कि असमानता आई तो अशांति आई। जो लोग असमानता में विश्वास करेंगे, भेदभाव को बढ़ाएंगे वे कुल-मिलाकर समाज में अशांति ही लाएंगे। फिर धर्म का क्षेत्र तो संदेश देने का ही क्षेत्र है। यदि वहीं से मैसेज गलत आने लग जाएगा तो बाकी संसार तो उपद्रव करने के लिए तैयार ही बैठा है, इसलिए जिनका धर्म से जरा-सा भी संबंध है वह पहले तो यह समझें कि धर्म का अर्थ ही सब समान हैं। सभी के भीतर वही आत्मा है और वही आत्मा-परमात्मा है। यदि किसी परमशक्ति में विश्वास रखते हैं तो प्रत्येक मनुष्य में उसका दर्शन करें। तब न जाति का भेद होगा, न पद का, न प्रतिष्ठा का, न ही स्त्री और पुरुष होने का।

अनुचित से बचाती है हनुमान चालीसा
कुसंग तो करना ही नहीं चाहिए, लेकिन सतर्कता बरतें कि सदैव समझदार और योग्य लोग साथ रहें। ऐसे में दो फायदे होते हैं, ‘एक तो वे हमें सही सलाह देते हैं और दूसरा गलत करने से रोक लेते हैं। उनके पास यह कला होती है कि किसी बड़े अहंकारी व्यक्ति को भी सही बात समझा दे। सुग्रीव श्रीराम का काम भूल चुके थे। प्रवर्षण पर्वत पर श्रीराम और लक्ष्मण द्वारा सुग्रीव के प्रति क्रोध व्यक्त करने के प्रसंग में तुलसीदासजी ने पंक्ति लिखी, ‘इहां पवनसुत हृदयं बिचारा। राम काजु सुग्रीवं बिसारा।।’ इहां शब्द का अर्थ है यहां हनुमानजी ने विचार किया। वहां श्रीराम व लक्ष्मण बात कर रहे थे और यहां हनुमानजी तथा सुग्रीव में चर्चा चल रही थी। ‘इहां’ का मतलब यह भी है कि तुलसीदासजी भी मौजूद थे।

हनुमानजी एक योगी हैं। वे लोगों का मन पढ़ लेते हैं। कहीं न कहीं हनुमानजी को लग रहा था सुग्रीव गलती कर रहे हैं और श्रीराम क्रोधित हो रहे हैं। आदमी जब ऊपर उठता है तो नीचे की कई चीजें दिखना बंद हो जाती हैं। अहंकार भी एक अंधापन है। सुग्रीव को हित और अहित दोनों ही नहीं दिख रहे थे। तब हनुमानजी ने सुग्रीव को रामजी का काम याद दिलाया। हम सब सुग्रीव की तरह कोई न कोई ऐसी भूल जरूर करते हैं, जिसमें अहंकार का छींटा होता है। हमारे साथ हनुमानजी होने का मतलब ही यह है कि एक ऐसी सीख और समझ जीवन में बनी रहेगी कि जब भी कोई गलत कदम उठाएंगे हमारे ही भीतर की अंतरात्मा हमको समझाएगी कि सावधान हो जाओ। इन संकेत, इशारों का नाम ही हनुमान है। हनुमानजी हमारे साथ रहें इसका एक ही तरीका है कि श्री हनुमान चालीसा को सांस से अपने जीवन से जोड़े रहें। यहीं से उनकी अनुभूति जीवन में उतरेगी और हम अनुचित से बच सकेंगे।

बेटियों का चुनौतियों से परिचय कराएं
बेटे-बेटी के लालन-पालन में भेद नहीं होना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार तो यह पाप है। इस संसार की जो पहली पांच संतानें हुई थीं, उनमें से तीन बेटियां थीं। मनु-शतरूपा हिंदू संस्कृति के अनुसार मनुष्यों के पहले माता-पिता थे और उनसे जो मैथुनि सृष्टि निर्मित हुई उसमें दो पुत्र- उत्तानपाद और प्रियव्रत तथा तीन बेटियां -आकुति, देवहुति और प्रसूति ने जन्म लिया था। समझदार माता-पिता अब दोनों को एक जैसा पाल रहे हैं, लेकिन इसी के साथ एक जागरूकता और आनी चाहिए। लालन-पालन में भेद न करें, लेकिन दोनों के सामने जो भविष्य में चुनौतियां आने वाली हैं, उस फर्क को उन्हें जरूर समझाएं। बेटियों को एक दिन बहू बनना है, जो सबसे बड़ी चुनौती है।

इस समय की पढ़ी-लिखी बच्चियां अपने वैवाहिक जीवन के बाद के भविष्य को लेकर थोड़ी चिंतित तो हैं पर फिर भी एक बेफिक्री है कि संबंध नहीं जमा तो तोड़ लेंगे। किंतु उनके मां-बाप के लिए तो यह जीवन-मरण का प्रश्न है, इसलिए बच्चों के लालन-पालन में बेटे-बेटी को यह एहसास जरूर कराया जाए कि स्त्री के लिए क्या मायने हैं ससुराल के। पहला तो बदलाव, दूसरा अपेक्षा और तीसरा अपने ससुराल में आत्मनिर्भर होकर बिना कलह के मार्ग ढूंढ़ना। ये तीन बड़ी चुनौतियां स्त्री के सामने आती हैं। स्त्री जब बहू बनती है तो उसे नए घर में दो बातें नहीं भूलनी चाहिए। योजनाबद्ध तरीके से विनम्रता के साथ सबको जीता जाए। पेट की भूख सही ढंग से यदि मिटा दी जाए, तो दिल जीता जा सकता है, इसलिए अन्न पर माता-बहनों का नियंत्रण किसी भी घर में समाप्त नहीं होना चाहिए। जिस घर में माता-बहनों के हाथ से अन्न का नियंत्रण निकलेगा, उस घर में शांति संदेहास्पद हो जाएगी। इस चुनौती को इसी तरह से समझाया जाए।

संयुक्त परिवार जैसा है भारत
भारत आदर्श संयुक्त परिवार है। संयुक्त परिवार को बचाने वालों ने दो काम किए थे। एक, प्रत्येक सदस्य के स्वभाव का अध्ययन किया और उसे उसी छत के नीचे जीने की स्वतंत्रता दी। दो, त्याग सिखाया। धीरे-धीरे संयुक्त परिवारों के जुड़ाव का तीसरा कारण आया- आर्थिक गतिविधि। एक ही व्यापार-व्यवसाय के कारण जुड़े रहे, लेकिन धन के अपने दोष हैं। जिस धन से संयुक्त परिवार जुड़े रहे, वही धन उन्हें तोड़ता भी गया। भारत के साथ भी यही हुआ। यहां अनेक जाति, धर्म के लोग हैं। सबके अपने-अपने काम हैं, लेकिन फिर भी आए दिन अशांति, उपद्रव, हिंसा है। ऐसा धर्म व राष्ट्रीयता को न समझने के कारण है।

मनुष्य अपनी वासना और आर्थिक लोलुपता के कारण अपराध करे तो समझ में आता था, पर जब अपराध धर्म और राष्ट्रीयता की आड़ में हों यह बहुत खतरनाक स्थिति है, इसलिए नेतृत्व देने वाले, समाजसेवी, संजीदा लोगों को कहीं न कहीं राष्ट्रीयता के साथ धर्म और धर्म के साथ आध्यात्मिकता को बुद्धिमानी से जोड़ना पड़ेगा। इसमें जितनी देर होगी उतने खतरे बढ़ेंगे। आज राष्ट्र के साथ धर्म को जोड़ो तो लोग तुरंत सांप्रदायिकता का शोर मचाने लगते हैं। इसे बार-बार समझाया जाए कि धर्म का मतलब दस लक्षणों को जीवन में उतारना है। धैर्य, क्षमा, दम (संयम), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (शुद्धि, पवित्रता), इंद्रीय निग्रह (आंतरिक संयम), धी, विद्या, सत्य और अक्रोध। इन दस लक्षणों में से कोई भी ऐसा नहीं है जो मनुष्य को ऊंचा न उठाए। धर्म का मतलब है किसी को भी श्रेष्ठ होने की संभावना देना। फिर इसे राष्ट्रीयता, अपने काम से क्यों न जोड़ा जाए? इसलिए धर्म की गलत परिभाषा न करें और इस संयुक्त परिवार को प्रेमपूर्ण बनाने के लिए केंद्र में धर्म रखा जाए, तभी भारत, भारत रहेगा।

संगठन की तरह हो परिवार
जंगल का एक नियम है, जो भी कमजोर पशु अकेला छूटा, वह अपने से बड़े हिंसक पशु का शिकार हो जाएगा। इसीलिए हम पाते हैं कि जंगल में पशु दौड़ते ही रहते हैं, क्योंकि पता नहीं कब आक्रमण हो जाए, कब खतरा सामने आ जाए। आजकल नगरीय जीवन में भी ऐसा ही होने लगा है। आप जिस भी शहर में रहते हों कमोबेश उसमें कुछ जंगलराज समानांतर चल रहे हैं। किसी कॉर्पोरेट ऑफिस में जाएं, किसी बड़े मॉल में जाएं, बाजार की भीड़ हो या विवाह का उत्सव, सब जंगलराज की तरह एक-दूसर के शिकार में लगे हैं। कभी-कभी तो शिकार इस तेजी से होता है कि शिकार और शिकारी का फर्क भी खत्म हो जाता है। शिकारी शिकार बन सकता है, शिकार शिकारी बन जाता है। जंगल में पशु भी जानता है कि समूह में रहेंगे तो बच जाएंगे। शहर में हमें भी समूह में रहने की जरूरत है।

मनुष्य की अधिक संख्या भीड़ भी कहलाती है और समूह भी। भीड़ का न कोई उसूल होता है न कोई भाव, लेकिन भीड़ यदि व्यवस्थित हो जाए, किसी एक अच्छे उद्‌देश्य के लिए एकत्र हो जाए तो समूह बन जाएगा। केवल समूह से भी काम नहीं चलेगा। समूह में जब एक-दूसरे के हित की बात हो तो यह एकता संगठन बन जाती है। आज घर में पति-पत्नी भी भीड़ की तरह रहते हैं, भटक रहे हैं। इन्हें संगठन में बदलना होगा। इसीलिए भारतीय संस्कृति ने विवाह को गठबंधन कहा है, क्योंकि संगठन एक-दूसरे के हित के लिए होता है। संगठन के परिणाम सदैव हितकारी होते हैं। हर परिवार का हर सदस्य एक-दूसरे से एक संगठन बनाकर चले। अन्यथा आज एक छत के नीचे भारी भीड़ इकट्‌ठी हो गई है। बाहर से अकेलापन और भीतर से भीड़ की अशांति मनुष्य की नीति बन गई है, इसलिए एक बार फिर परिवार में भी संगठन पर काम किया जाना चाहिए।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....मनीष



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