Wednesday, January 27, 2016

जीने की राह (Jeene Ki Rah 1)

नववर्ष पर करें जीवन रस का पान...
परमात्मा को रस स्वरूप भी कहा गया है। रस का संबंध पान से है। पेय हम मोटे तौर पर तीन भागों में बांट सकते हैं। पहला जल, दूसरा दूध या अन्य पौष्टिक पदार्थ तथा तीसरे आजकल के पेय, जो मनुष्य को ठंडा-गरम का एहसास कराते हैं। चौथा एक और पेय है जो मेरी दृष्टि में तो पीने लायक नहीं होना चाहिए और वह है मदिरा। इन चारों के साथ आपके जीवन की शांति जुड़ी हुई है। जल सबसे अधिक शांति पहुंचाएगा। बाकी के पेय पदार्थ थोड़ा बहुत सहारा हैं। दो बातें ध्यान में रखिए। कभी भी जल पीएं, बैठकर पीएं और उस जल को सांस से जोड़ें, क्योंकि जल में ऑक्सीजन होती है। इससे प्राणायाम के परिणाम प्राप्त होंगे। मैं सारी दुनिया में आग्रह करता हूं कि सांस के साथ श्री हनुमान चालीसा की चौपाइयों को जोड़ें।


चूंकि बात जल व सांस की निकली है, श्री हनुमान चालीसा का पाठ करें । उद्‌देश्य है सफलता के साथ शांति। आप इसे इसलिए कीजिए, क्योंकि नववर्ष में प्रवेश करते समय हमारे भीतर शांति का संकल्प होना चाहिए। आज श्री हनुमान चालीसा का रस पान सांसों के साथ करिए। आप, आपका परिवार शांति में डूब जाएगा। आज की रात लोग वह द्रव्य पीते हैं जो कभी शांति नहीं दे सकता। नववर्ष में तो जीवन रस का पान कीजिए। आप जीवन में उस रस का पान कर लेंगे, जिसका परिणाम सिर्फ शांति है, इसलिए इस अवसर का पूरा लाभ उठाइए।

पानी से मिल सकता है प्राण तत्व
प्यास हर व्यक्ति के जीवन में अपने-अपने ढंग से आती है। कहते हैं प्राणों की प्यास सबसे गहरी होती है। किसी को शरीर की तो किसी को प्रकृति की प्यास है। सब अपने-अपने ढंग से प्यासे हैं। जो लोग प्राणों की प्यास ठीक से बुझा लेंगे उनके लिए शांति प्राप्त करना कठिन नहीं होगा। शरीर की प्यास कैसे भी बुझाएं, अतृप्ति बनी ही रहेगी। धन-दौलत, पद-प्रतिष्ठा की प्यास भी बुझ़ाने पर नहीं बुझती। पानी पीते हुए भी यदि हम सजग रहें तो हम योग की क्रिया में ही होंगे। हम तय कर चुके हैं कि कभी-भी खड़े रहकर पानी नहीं पिएंगे। बैठकर, कमर सीधी रख और आंख बंद करके पीएं तो और अच्छा है। जब आप आंख बंद कर पानी पीते हैं तो उस पानी को भीतर उतरते हुए देखिए, महसूस कीजिए कि इस समय आप केवल जल नहीं ले रहे, उसके साथ प्राणतत्व ले रहे हैं।

प्रकृति में जो प्राणतत्व हैं, वही हम ऑक्सीजन के रूप में लेते हैं। जल के साथ उतनी ऑक्सीजन नहीं मिलेगी जितनी हम प्राणायाम से लेते हैं, लेकिन फिर भी एक हिस्सा अवश्य मिलेगा। क्यों न पानी की हर बूंद के साथ महसूस करें कि आपने ऑक्सीजन ले ली है और उसके बाद कभी अचानक खड़े न हों। वह जो प्राणतत्व या ऑक्सीजन आपने ग्रहण किया है उसको कल्पना से रोम-रोम में फैलाइए। विचार करें तो लगता है कि हमने पानी पीया, पेट में गया और बात खत्म हो गई, लेकिन अब एक नई बात शुरू कर सकते हैं कि उस जल में कुछ ऐसा था जो शांत जीवन के लिए जरूरी था और उसे रोम-रोम में फैला दीजिए। उसके बाद ही अपने स्थान से खड़े हों। यह पानी पीने का पहला चरण हुआ। आगे जल पीने का एक ऐसा प्रयोग करेंगे, जो अपने आप में एक साधना होगी। आपको अलग से कुछ नहीं करना है। जो भी करें, होश में करें। बस इतना काफी है।

प्राणायाम से सेहत और शांति
विज्ञान और तकनीक के इस युग में मनुष्य सबकुछ कर सकता है। टेक्नोलॉजी ने जीवन के हर क्षेत्र में प्रवेश कर लिया है। यह तय है कि अब जिसको भी विकास, प्रगति करना है उसे विज्ञान और तकनीक का सहारा लेना ही होगा, लेकिन ध्यान रखिए, नए साल में एक बात बिल्कुल नहीं भूलें कि विज्ञान सबकुछ कर सकता है, लेकिन एक काम दुनिया का कोई भी विज्ञान नहीं कर पाएगा और वह है बीते हुए वक्त को लौटाना। किष्किंधा कांड में श्रीराम सुग्रीव पर क्रोधित होकर कहते हैं, ‘जेहिं सायक मारा मैं बाली। तेहिं सर हतौं मूढ़ कहं काली।।जिस बाण से मैंने बाली को मारा था, कल उसी बाण से उस मूर्ख (सुग्रीव) को मारूंगा। श्रीराम ने कल मारने को कहा था, तो क्या कल यानी काल पर उनकी पकड़ थी। क्या वे समय को बांध सकते थे? शास्त्रों में लिखा है पार्वतीजी ने एक बार शंकरजी से पूछा था कि समय को कौन जीत सकता है।

शिवजी का उत्तर था, ‘कोई नहीं।पार्वतीजी ने आश्चर्य व्यक्त किया कि परमात्मा के अलावा क्या इस संसार में ऐसा कोई नहीं है, जो समय को जीत सके। तब शिवजी ने कहा कि एक व्यक्ति है, जो समय को जीत भले ही न सके, लेकिन ठीक से जी सकता है और जिसने ऐसा कर लिया वही जीत सकता है। शिवजी ने उसका नाम योगी बताया। हमारी बातचीत चल रही है योग से छह क्रियाओं को जोड़ने की- सोना, उठना, खाना, पीना, बोलना और सुनना। हम पीने की बात कर रहे हैं। अब नए वर्ष मेंं संकल्प लें कि जब भी जल पीएंगे, बैठकर पीएंगे। जल की प्रत्येक बूंद हमारे शरीर में ऑक्सीजन लेकर आ रही है और प्राणायाम में भी हम यही करते हैं। जिसने प्राणतत्व या कहें ऑक्सीजन को ठीक से ग्रहण कर लिया उसके लिए स्वास्थ्य और शांति दोनों ही आसानी से उपलब्ध हो सकेंगे।

भोजन के साथ पानी नहीं पीएं
हमारे चारों ओर ऐसा वातावरण है कि यदि आपको खुश रहना है तो खुशी को खींचकर लाना पड़ेगा। प्रकृति में प्रसन्नता चारों ओर बिखरी पड़ी है। हम भीतर उसे कैसे उतारते हैं, यह हमारे ऊपर निर्भर है। हम चर्चा कर रहे हैं पानी पीते हुए योग करने की। जितना अधिक जल पीएंगे आपके लिए शांत होना उतना ही आसान हो जाएगा। बात हो चुकी है कि जब भी पानी पीएं, बैठकर पीएं। अब इसमें कुछ सुझाव भी शामिल हो जाते हैं। जैसे प्रात:काल गुनगुने जल के साथ नींबू का रस, शहद ग्रहण करें आदि। स्वास्थ्य संबंधी एेसे सुझाव मिलते रहते हैं। कैसे उपयोग करना है, यह आप पर निर्भर है। तो चलिए, आज इन बातों को समझें कि सुबह जब पानी पीएं तो उसके बाद थोड़ा सा 10-15 मिनट घूमें जरूर। उसके बाद ही टॉयलेट जाएं। इससे आंतों को ठीक से पानी मिल जाता है। फिर दोपहर को भोजन के एक घंटे पूर्व जल पीएं।

ध्यान रखें भोजन करते हुए जलपान न करें। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं कि जितना भोजन करते हैं उतना पानी पीते हैं। यह एक मनोवैज्ञानिक बीमारी है। इससे पाचक रस पतले हो जाते हैं और ठीक से पाचन नहीं हो पाता। इसे बंद कर देना चाहिए। भोजन के डेढ़ से दो घंटे बाद अगर जल पीएं तो यह बहुत ही अच्छा होगा। फिर शाम को जितना अधिक पानी पी सकें, पीएं। उसके बाद 10-15 मिनट घूमें, क्योंकि शाम का समय वह अवसर होता है जब आपकी ऊर्जा पूरी तरह निगेटिव होती है और रात को सोने के पहले इतना जल पीएं कि आपको रात को उठना न पड़े। जल पीने की यह एक सामान्य प्रक्रिया हुई। अब हम जल को अपनी चार समय की ऊर्जा से जोड़ेंगे। आप जब भी जलपान करें, अपनी दिनचर्या के अनुसार कुछ नियम अवश्य बना लें। इसी में योग बसा हुआ है।

जल, भ्रमण और स्मरण की शाम
आजकल व्यस्त लोग झल्लाकर कहते हैं, ‘सांस लेने की तो फुर्सत नहीं है, खाने-पीने के लिए कहां से समय निकालें?’ और इसीलिए वे गलत तरीके से भोजन करते हैं और अनुचित ढंग से पानी पीते हैं। देखिए, समय उतना ही लगना है, लेकिन थोड़ा-सा संयम साध लें, नियम बना लें तो आपको जल पीने के साथ योग का लाभ मिल जाएगा। हम समझ चुके हैं कि सदैव बैठकर पानी पीएं और पानी पीते समय आंख बंद रखकर यह विचार करें कि आप केवल पानी नहीं पी रहे, इस समय आप अपने रोम-रोम में ऑक्सीजन उतार रहे हैं। प्राणायाम से हम पूरी तरह प्राणतत्व के साथ ऑक्सीजन लेते हैं। उससे कुछ कम मात्रा में यही क्रिया और अनुभूति हम 
जल के साथ कर सकते हैं।

इन दो चरणों के बाद तीसरे चरण में आपकी जो भी दिनचर्या है उसको चार भागों में बांट लें। सुबह उठकर जल पीकर घूमें। दोपहर भोजन के पूर्व जल पीएं और भोजन के बाद पर्याप्त समय दें फिर पानी पीएं। तीसरा समय शाम का है। इस समय अच्छे-अच्छों को उदासी घेर लेती है। दिनभर के कामकाज की समाप्ति करनी होती है, जो अधूरा रह गया उसका भी तनाव होता है। ऐसे समय दो-तीन गिलास पानी पीकर 5-10 मिनट जरूर घूमिए। हो सके तो किसी गाय को अवश्य स्पर्श करिएगा। जैसे भी हो सके अपनी मां से बात भी कर सकते हैं और यदि वे दिवंगत हैं तो उनकी आकृति को दोनों भौहों के बीच में ध्यान में ला सकते हैं। जल, भ्रमण और स्मरण ये तीन काम आपकी शाम सुधार देंगे। चौथा, रात को सोने से पहले इतना अंतर देकर जल पी लें कि रात को उठना न पड़े। बस, जलपान की यह क्रिया आपके लिए योग बन गई और आपको योग का पूरा नहीं तो इतना लाभ जरूर मिलेगा, जितना आप अभी नहीं उठा पा रहे हैं।

बुद्धि, मन और चित्त लगाकर सुनें
योग की एक सांसारिक परिभाषा यह भी है कि अपने किए हुए और जीए हुए का मूल्यांकन करना। सामान्य स्थिति में जो हम कर रहे हैं और जिसे हम जी रहे हैं, इसका विश्लेषण करते हैं। या तो अतीत में गिर जाते हैं या भविष्य में छलांग लगा लेते हैं। योग आपको वर्तमान पर रोकता है और वर्तमान में टिककर जब भी कोई चिंतन किया जाए, गतिविधि से जोड़ा जाए तो वह अपने आप में ध्यान की ही प्रक्रिया है। इसी को साधारण भाषा में एकाग्रता भी कहते हैं। एकाग्रता को ध्यान की बहन भी कहा जा सकता है।

हल्की सी छाया का नाम भी दे सकते हैं। आज जब मनुष्य को एकाग्रता साधने में ही बहुत परिश्रम लग रहा हो और उससे कहा जाए कि ध्यान करो तो उसका परेशान होना स्वाभाविक है। योग और खासतौर पर ध्यान के लिए उसे हमने सोना, उठना, खाना, पीना इन चार बातों से तो जोड़ लिया। अब पांचवीं बात करेंगे सुनना और हमारी छठी चर्चा होगी बोलने के लिए। पहले सुनने के सिद्धांत को समझें।

जब भी किसी की बात सुनी जाए, उसका ढंग क्या हो? श्रीराम कथा में एक प्रसंग आता है कि लक्ष्मण ने श्रीराम से कुछ सुनना चाहा तो श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा था- सुनहु तात बुद्धि मन चितलाई।अर्थात मेरी बात बुद्धि, मन और चित्त को लगाकर सुनना। यहां तीन बातें आई हैं। जब भी किसी को सुनें तो बुद्धि को एकाग्र करें, मन को शून्य करें और चित्त को शुद्ध करें। अगर यह तीन तैयारी कर ली तो आप जो भी सुन रहे हैं उसके प्रति न्याय करेंगे और लगभग योग के निकट पहुंच जाएंगे, क्योंकि श्रवण के समय हमारे शरीर के तीन अंग या कहें अवस्थाएं सक्रिय हो जाती हैं। हम श्रीराम के कहे हुए इन वचनों को ठीक से समझें और सुनने की क्रिया को भी गंभीरता से लें। यहीं से योग का आरंभ होगा।

पवित्र चित्त से सुनने में ही आनंद
अगर सुनना ठीक हुआ तो बोलना भी अच्छे से हो सकेगा। एक अच्छे वक्ता को अच्छा श्रोता भी होना चाहिए, क्योंकि जब हम कुछ सुन रहे होते हैं तो बहुत कुछ ऐसा चूक जाते हैं, जो महत्वपूर्ण है और बहुत बार बिना काम के शब्दों को अपने भीतर उतार लेते हैं। दोनों स्थितियोंं में ही नुकसान है। हम वही सुनना चाहते हैं, जो हमें पसंद है। तर्क से खारिज करना, छिद्रान्वेषण करना बुद्धि का स्वभाव है। अगर बुद्धि एकाग्र नहीं है तो सुने जा रहे शब्द बेकार में आहत होते रहेंगे। फिर मन को शून्य करिए, क्योंकि मन भागता बहुत है। बोलने वाले को लगता है कि मैं बोल रहा हूं ये सुन रहे हैं, पर मन गायब हो चुका होता है। अधिकांश लोग सुनने का अभिनय करते हैं।

पति-पत्नी के बीच तो यह बहुत होता है। मां-बाप बच्चों से बात कर रहे हैं, लेकिन बच्चों का मन उनको लेकर भाग चुका है, इसलिए मन को शून्य करना पड़ेगा। मन शून्य हुआ, आप वहीं रुके और जैसे ही आप रुककर किसी को सुनेंगे बस यहीं से योग आरंभ होता है, ध्यान घट सकता है। तीसरी बात, चित्त को शुद्ध कर लें। जितने पवित्र चित्त से आप किसी की बात सुनेंगे उतना ही आप उसका आनंद ले सकेंगे, इसलिए अपने श्रवण को योग से जोड़ें। अब अगले चरण में इस पर बात करेंगे कि सुनने का सिद्धांत तो हमने समझ लिया, अब क्रिया में कैसे उतारें। उसके भी तीन चरण हैं। पहला है भीतर लाना, दूसरा होगा शब्दों को रोकना और तीसरा चरण होगा कुछ शब्दों को तुरंत बाहर निकालना। पहले तो तैयार हो जाएं कि मन, बुद्धि, चित्त के साथ श्रवण करें, फिर करेंगे क्रिया, क्योंकि यह सुनना तो दिनभर चलने वाला काम है। यदि कुछ समय हमने इस तरह से सुना तो योग अपने आप होता रहेगा।

शब्दों के प्रति होश ही श्रवण योग
मनुष्य कान से सुनता है। यह एक सामान्य स्थिति है। किंतु पूरा शरीर ही कान बन जाए, सुनने का असली मजा तब ही है। इन दिनों हमारी चर्चा चल रही है कि जीवन की सहज क्रियाओं से योग को कैसे जोड़ा जाए। हमने सोना, उठना, खाना, पीना इन पर चर्चा की। अब गौर करेंगे सुनने और बोलने पर। आप बिना सुने नहीं रह सकते। कभी-कभी तो जो नहीं सुनना चाहते हैं, वह सुनना पड़ता है और जो सुनना चाहते हैं, वह सुनाई नहीं पड़ता। कान श्रवण इंद्री मानी गई है। सुनने की क्रिया को योग से जोड़ने के तीन चरण हैं। यूं तो हम एक साथ पूरा ही सुनते हैं, लेकिन उसको अब तीन भागों में बांट लेंगे। पहला होगा शब्दों को भीतर लाना, दूसरा शब्दों को भीतर रोकना और तीसरा चरण होगा शब्दों को बाहर फेंकना।

लगभग ऐसी ही क्रिया प्राणायाम में की जाती है। कुंभक, रेचक, पूरक। श्रवण का पहला चरण है भीतर लाना। हमें यह कला आनी चाहिए कि जब हम कोई बात सुन रहे हों तो शब्द कान के पास आएंगे। हम इस कला में माहिर हैं कि एक कान से सुनते हैं और दूसरे से बाहर निकालते हैं। इसमें किसी को अतिरिक्त रूप से कुछ सिखाना नहीं पड़ता। चूंकि यह हमारी आदत हो जाती है, इसलिए हम उन महत्वपूर्ण शब्दों को भी एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देते हैं, जो हमारे लिए शांति ला सकते हैं। इतनी कला तो मनुष्य को अपने आप ही आ गई कि एक कान से सुनना और दूसरे से बाहर निकालना। चलिए, आधी योग्यता यही है कि कान में लाए तो सही। अब हमें होश यह रखना है कि जो भी शब्द हम सुन रहे हैं जाने हों या अनजाने, बस इतने सावधान रहिए कि जिन्हें निकलना है वे तो निकल ही रहे हैं दूसरे कान से, पर जिन्हें रोकना है उनके प्रति थोड़ा होशपूर्ण हो जाएं।

भीतर ऊर्जा हो तो शांत होना आसान
पुराने जमाने में कहावत थी, ‘बिना बिचारे जो कहे, सो पाछे पछताए।बुजुर्ग कहते थे कि जब भी बोलना हो सोचकर बोलिए। सिर्फ बोलने के लिए मत बोलिए। योग से जोड़ने के क्रम में हमारी अंतिम क्रिया है बोलना। हम बोले गए शब्दों के साथ अपनी बहुत सारी ऊर्जा खत्म करते हैं। बहुत सारे लोग तो जान ही नहीं पाते कि वे क्या बोल रहे हैं। बोलना हमारी जरूरत होना चाहिए, परंतु बोलना हमारी आदत हो गया है। कुछ तो बिना बोले रह ही नहीं सकते। हर विषय, हर स्थिति, हर व्यक्ति और हर विचार पर टिप्पणी करना उनकी आदत में आ जाता है। वे भूल जाते हैं कि आप बोल नहीं रहे हैं, अपने भीतर की संचित ऊर्जा व्यर्थ नष्ट कर रहे हैं। जब आप निचोड़ दिए गए हों तो फिर शाम तक थककर अशांत होंगे ही।

पहली बात दिमाग में यह बैठाएं कि आपके पास आपकी ऊर्जा खर्च करने के जो भी साधन हैं उसमें एक बड़ा साधन हैं शब्द, जो बोलने से बाहर आते हैं। इसलिए पहले यह मानसिकता बना लें कि यदि शब्द बचाएंगे तो ऊर्जा बचेगी और भीतर ऊर्जा है तो आपके लिए शांत होना बहुत आसान है। यहां से हम इस अभ्यास को पकड़ेंगे कि बोलना तो है, लेकिन तीन तरीके से। पहले के लोगों ने कहा कि सोचकर बोलिए। मौजूदा वक्त तोल-मोलकर बोलने का है, क्योंकि यह व्यवसाय का, लेन-देन का युग है। इसीलिए कहा जाता है कि जो बोलो तोल-मोलकर, क्योंकि व्यावसायिक जगत हावी है। इसमें आप सफल होंगे, पर शांत नहीं हो पाएंगे। यदि शांत होना चाहते हैं तो अगला चरण है छानकर बोलिए। आध्यात्मिक लोगों के शब्द छने हुए होते हैं। अभी अपने आप में यह तय कर लें कि शब्द आपकी ऊर्जा खा सकते हैं, मौन बचा सकता है। अगले चरण में हम बोला कैसे जाए, इसको योग से जोड़कर देखेंगे।

मौन साधें तो शब्द प्रभावशाली होंगे
संवाद में एकाध शब्द जरूर ऐसा होना चाहिए, जो उस संवाद के प्राण हों, अर्थपूर्ण हों। किष्किंधा कांड में श्रीराम ने सुग्रीव के प्रति नाराजगी व्यक्त करते हुए लक्ष्मण से कहा था,‘जेहिं सायक मारा मैं बाली। तेहिं सर हतौं मूढ़ कहं काली।।कल उस मूर्ख सुग्रीव को मारूंगा। इस कल शब्द को कहकर श्रीराम ने बड़े गहन अर्थ दे दिए, जिसको लक्ष्मण भी नहीं समझ पाए। उनका कहना था मारना है तो आज ही मारिए, कल क्यों? लक्ष्मण युवा थे, आवेश में थे और श्रीराम धैर्य के प्रतीक हैं, इसीलिए श्रीराम के शब्दों में अद्‌भुत धैर्य छिपा है। उन्होंने कहा संभव है कल तक सुग्रीव बदल जाए, सुधर जाए। तब लक्ष्मण का कहना था ऐसे कैसे संभव है। श्रीराम कहते हैं इसलिए संभव है कि सुग्रीव के साथ हनुमान हैं। मैंने हनुमान को निकट से देखा है।

उनके पास जोश और होश दोनों है, इसलिए मैं कल तक की प्रतीक्षा कर रहा हूं। जिस समय ये दोनों भाई यहां बात कर रहे थे उस समय हनुमानजी सुग्रीव को समझा रहे थे और सुग्रीव को अपनी भूल का एहसास हो रहा था। श्रीराम के संवाद में जो कल शब्द आया यह उनकी समझ के साथ प्रदर्शित हुआ। हमें श्रीराम से यही सीखना चाहिए कि बोले गए प्रत्येक संवाद में कुछ शब्द ऐसे होने चाहिए, जो गहन अर्थ लिए हों। चूंकि श्रीराम मौन की कला जानते थे, कब-कितना बोलना है इसमें भी दक्ष थे, इसलिए रामकथा में वे कम ही बोले हैं। चुप्पी और मौन में फर्क है। चुप्पी बाहर का मामला है, मौन भीतर घटता है। चुप्पी में हम दूसरों से बात करना बंद करते हैं और मौन में स्वयं से चर्चा समाप्त हो जाती है। मौन शब्दों की, बोलने की एक सैद्धांतिक क्रिया है। जितना मौन साधेंगे, शब्द उतने ही प्रभावशाली हो जाएंगे। इस सिद्धांत पर विचार कीजिए। अब हम बोलने की क्रिया को योग से जोड़ेंगे।

बोलते समय शब्द नाभि से निकालें
व्यस्तता के इस दौर में जिन्हें शांति की तलाश हो उन्हें जीवन को योग से जोड़ना चाहिए। किंतु बहुत व्यस्त लोग योग के समूचे अनुशासन को नहीं पाल पाते, इसीलिए यहां मैंने दिनचर्या के साथ योग जोड़ने का प्रस्ताव रखा है। आप कितने ही व्यस्त हों, छह काम अवश्य करेंगे- सोना, उठना, खाना, पीना, सुनना और बोलना। पांच जीवन चर्याओं व योग पर हम चर्चा कर चुके हैं, अब छठी की चर्चा चल रही है- बोलना। हम समझ चुके हैं कि बोलने के पहले मौन बड़ा जरूरी है, इसलिए दिनभर में बोलने के बीच में मौन के मौके चुराते रहें। मौन का मतलब है विचारों का प्रवेश रोकना, क्योंकि मन विचारों को खींचता है और मौन भंग करता है। मन तक विचार न पहुंचे तो मौन घटेगा।

ऐसा अभ्यास बीच-बीच में करते रहिए तो आपके बोल अनमोल और प्रभावी होंगे ही। इस सिद्धांत के बाद अब क्रिया को समझते हैं। बोलने को यदि योग से जोड़ना हो तो तीन क्रियाएं अपनी वाणी से जोड़ दीजिए। पहला चरण है नाभि से बोलना। दूसरा कंठ से बोलना और तीसरा चरण होगा जीभ से बोलना। पहले चरण के अभ्यास में बोलते समय सारा ध्यान नाभि पर लगाएं और खुद को तैयार करें कि शब्द नाभि से निकल रहे हैं। आपकी व्यस्तता में ऐसे अवसर मिल जाएं तो नाभि पर टिक जाएं और मंत्र का उच्चारण करें। चाहे वह गायत्री मंत्र हो, श्री हनुमान चालीसा हो या अन्य कोई गुरु-मंत्र आपको नाभि से आसानी से जोड़ देता है। आप नाभि से बोल रहे हैं यह अनुभूति बढ़ जाती है। फिर जो शब्द बोलें अपने माता-पिता, बच्चे, जीवनसाथी और भी जो समीप के लोग हैं उनसे जब भी बात करें, शब्दों को नाभि से निकालिए। बोलते तो आप तब भी हैं, बस इस अनुभूति के साथ बोलिए। इस पहले चरण में योग अपने आप घट रहा होगा।

पंचतत्वों का आलिंगन देगा स्वास्थ्य
दुनिया भी अजीब-अजीब ढंग के अलग-अलग दिवस मनाती है। कहते हैं आज का दिन आलिंगन का दिन है। इसे हग-डे कहा गया है। बात सुनने में अजीब लगती है पर कुछ लोगों का आग्रह है कि एक-दूसरे को गले लगाइए। उद्‌देश्य यही है कि वे दूरियां जो भेदभाव बढ़ाती हैं, मिटा देनी चाहिए। किंतु गले लगाने की कल्पना मन में वासना भी जगा सकती है और यहीं से इसके अर्थ बदल जाते हैं। गले लगने के कई अर्थ हैं। शरीर में कंठ का अपना महत्व है। कई बार कहते हैं मुसीबत गले पड़ गई। मौत को भी गले लगा लिया जाता है। वरमाला भी गले में डाली जाती है, इसलिए आलिंगन पूरी तरह से देह की प्रक्रिया नहीं है। आलिंगन का अर्थ संरक्षण भी है। आनंद की पवित्रता आलिंगन से मिल सकती है।

दुनिया का सबसे सुंदर आलिंगन है मां के आंचल का और सबसे डराने वाला आलिंगन है मृत्यु का। इसका एक सुंदर आध्यात्मिक अर्थ भी है। यदि आपको आलिंगन का कोई अवसर न मिले तो परमात्मा को याद करिए। पांच तरह के आलिंगन आप कर सकते हैं- यह है पंचतत्व का आलिंगन। प्रकृति के रूप में वह भी आपका आलिंगन करने के लिए तैयार है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। समूची प्रकृति हमें अपने आलिंगन में लेने को तैयार है और अपना श्रेष्ठ दे रही है। इसलिए आज के दिन इस पर विचार करें कि जैसे हम आलिंगन को लेकर विलास में, आनंद में प्रेमपूर्ण होकर डूब जाते हैं; ऐसा ही व्यवहार प्रकृति के साथ कीजिए। जिस दिन पंचतत्वों का आलिंगन ठीक से हो गया उस दिन हम न सिर्फ स्वस्थ रहेंगे, बल्कि प्रसन्न भी रहेंगे। आज आलिंगन दिवस पर संकल्प लें कि यह केवल शरीर का मामला नहीं है इसमें आत्मा की भी भूमिका हो और प्रकृति से जुड़ेंगे तो यह सरलता से समझ में आएगा।

योग करने वाले कभी त्रस्त नहीं होंगे
आइए, आज फिर बोलने की क्रिया को योग से जोड़ते हुए आगे चलें। आप जान चुके हैं कि तीन चरण में बोलने की क्रिया योग से जुड़ सकती है। पहला चरण होगा नाभि से बोलना। इसके लिए मंत्रोच्चार करें। मंत्र नाभि से निकलें तो शब्द भी नाभि से बोलने का अभ्यास बढ़ जाएगा। अपने प्रिय और अंतरंग लोगों से शब्द नाभि से ही निकालें। आप पाएंगे आप भी शांत हैं और आसपास का वातावरण भी। दूसरा चरण है कंठ से बोलना। इसका प्रयोग तब कीजिए जब आप मित्रों, रिश्तेदारों और ऐसे लोगों के बीच हों जो आपके अपने हैं।

कंठ से बोलने के अभ्यास के लिए यदाकदा कोई भजन-कीर्तन गाइए। कोई गीत और गजल भी हो सकती है। जब इनको गाते हैं तो आप कंठ से जुड़ते हैं। कंठ विशुद्ध चक्र है जिसका स्वभाव है मनुष्य को सहनशीलता देना। आपके शब्द जब सामाजिक रूप से उन लोगों से जुड़ने के लिए कंठ से निकलेंगे तो आप पाएंगे शब्दों में धैर्य है, प्रभाव है। मैं फिर निवेदन कर दूं ये सारी क्रियाएं अनुभूति का मामला है। परिणाम में आप अंतर पाएंगे।

तीसरा चरण है केवल जीभ से बोलना। यहां आकर अब आपको सामान्य संसार से बात करना है तो आप चाहें या न चाहें, शब्द जीभ से ही निकलते हैं। इस प्रकार हमने जीवन की छह क्रियाओं से योग को जोड़ा है। अपनी व्यस्तता में कोई ज्यादा अतिरिक्त समय इसमें नहीं देना है। यह सारे काम आप कर ही रहे होते हैं, बस थोड़ी अनुभूति को अंतर में ले जाएं, कुछ आंतरिक क्रियाओं से जुड़ जाएं। समूचे जीवन के परिणाम बदल जाएंगे। आप कितने ही व्यस्त व्यक्ति हों लेकिन त्रस्त नहीं होंगे। खूब सफल होंगे, पर खूब शांत भी होंगे। आपको योग करने के लिए कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं करना है। पाएंगे कि आप कोई दूसरे ही व्यक्ति हैं।

दुख सहने की, परिश्रम करने की सबकी अपनी सीमा होती है।
दुख सहने की, परिश्रम करने की सबकी अपनी सीमा होती है। किंतु कुछ लोग अति कर देते हैं। अति हर बात की बुरी है परंतु येे लोग तर्क देते हैं कि हमारी सीमा ऐसी है। तो अपनी सीमा और अति में बारीक फर्क समझें। यदि क्षमता की सीमा में काम करें तो आपकी सफलता अद्‌भुत होगी। यदि सफलता के बाद आप आनंदित नहीं हैं तो कोई न कोई अज्ञात पीड़ा आपको सता रही है। मानकर चलिए कि आपकी सीमा अति में बदल गई जो अपने आप में बीमारी जैसी है। बुद्ध को जब बुद्धत्व प्राप्त हुआ तो उनके संपर्क में वे लोग भी आए जो उन्हें पहले से जानते थे। कुछ लोगों ने तो उनकी परीक्षा भी ली कि क्या सचमुच उन्हें बुद्धत्व प्राप्त हो गया है। बुद्ध के आने की सूचना मिलती तो लोग तैयारी करके रखते कि इनकी परीक्षा लेंगे और बुद्ध हर बार परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाते।

किसी ने बुद्ध से पूछा, ‘आप हमेशा विजयी हो जाते हैं?’ बुद्ध ने कहा, ‘मुझे न तो परीक्षा देनी है, न विजयी होना है। बुद्धत्व का मतलब ही है हर पल को जीना। जो शुभ है वह दूसरों को देना। जब मैं शुभ पर केंद्रित हूं तो अशुभ, अपमान, क्रोध, अहंकार इन सबसे क्या लेना-देना। ये सब अतियों के नाम हैं।दो अति पर सावधान रहने के लिए बुद्ध का विशेष आग्रह था- एक काम की अति और दूसरी खुद को पीड़ा पहुंचाने की अति। काम यानी भोग-विलास। इससे बचने के लिए जब संयम पर उतरता है तो भी अति पर आ जाता है। बुद्ध ने कहा है- मध्य मार्ग अपनाइए। अपने दृष्टिकोण, संकल्प, वाणी, कर्म, आजीविका, व्यायाम, स्मृति और समाधि इन आठ बातों में मध्य मार्ग अपनाइए। मध्य मार्ग का मतलब यही है कि अति पर न टिकें। जहां तक आनंद भंग न होता हो, वहां तक हर काम करना चाहिए। यही मध्य मार्ग है और अति से बचने का तरीका।


अद्‌भुत परिणाम देंगी ये पांच बातें
जब भी आप परिश्रम से कोई बड़ा काम करते हैं तो कुछ लोग आपके साथ होते हैं जो आपके सहयोगी होते हैं, अधीनस्थ या वरिष्ठ होते हैं। प्रबंधन की दृष्टि से आपको जो करना है कीजिए, लेकिन अध्यात्म की दृष्टि से पांच काम जरूर कीजिएगा। एक, काल यानी काम करने के समय का महत्व समझें, क्योंकि काल भी अपने हानि-लाभ मौके से पहुंचाता है। मसलन, यदि घूमना हो तो सबसे ज्यादा लाभकारी सुबह का ही समय है। दो, आपके साथ जो लोग काम कर रहे हैं, उनके बाहरी परिश्रम, योग्यता की जानकारी के साथ मनोवैज्ञानिक रूप से उनका स्तर क्या है यह मालूम होना चाहिए। तीसरा, उनकी इच्छा क्या है? वे आपके साथ क्यों जुड़े हैं? उनका भी कोई लक्ष्य होगा।

उनकी अपनी आकांक्षा-महत्वाकांक्षा होगी। कभी-कभी इसका लाभ उन्हें देते रहना चाहिए। चार, अध्यात्म की दृष्टि से पंचतत्वों- पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश का बड़ा महत्व है। जब आप कोई काम करते हैं तो ये पंचतत्व आपके साथ होते हैं। इनका उपयोग अपने साथियों को कैसे लाभ और हानि पहुंचाता है इसकी जागृति स्वयं भी रखिए और उनको भी कराइए।

पांच, स्त्री और पुरुष के भेद होने की जानकारी। योग्यता में दोनों में कोई भेद नहीं है, लेकिन मनोवैज्ञानिक स्तर पर, आंतरिक चिंतन में स्त्री और पुरुष में अंतर होता है। जो बातें, जो निर्णय आप किसी पुरुष के साथ कर रहे हों, अगर स्त्री के साथ वही करना पड़े तो थोड़े सावधान, सजग और आचरणशील रहें। इन पांच बातों को अपने परिश्रम के साथ जोड़े रखिए। मेहनत आपकी होगी और जो साथी आपसे जुड़े हुए हैं उनकी मेहनत इन पांच माध्यमों से आपकी मेहनत से जुड़कर अद्‌भुत परिणाम देगी।

भीतर के महात्मा की सुनें, भला होगा
हमारे मनुष्य होने में तीन बातें शामिल हैं। पहली, शरीर। उसके भीतर एक मन और फिर आत्मा। इसकी समझ जितनी परिपक्व होगी मनुष्य जीवन उतना ही गौरव और आनंद देता जाएगा। यदि शरीर पर टिककर जीवन बिताते हैं तो सफल तो होंगे पर घोर अशांत रहेंगे। मन पर हम बात करते रहे हैं। चलिए, आज आत्मा पर चलते हैं। आत्मा यानी हमारी अपनी पहचान जो हम हैं। इसके एक ओर परमात्मा है और दूसरी ओर एक महात्मा है। जैसे ही भीतर उतरे, हमें तीन चीजें मिलेंगी- महात्मा, आत्मा और परमात्मा। आत्मा तक पहुंच गए तो परमात्मा मिलना मुश्किल नहीं है, क्योंकि आत्मा का अगला कदम ही परमात्मा है। किंतु आत्मा के पहले आपको एक महात्मा भी मिलेगा। हरेक के पास संतत्व की संभावना आरंभ से है।


जन्म से ही फकीरी मिजाज हरेक के भीतर ऊपर वाला डालकर भेजता है, लेकिन हम अपने महात्मा की हत्या करते रहते हैं। नुकसान यह होगा कि आप आत्मा तक नहीं पहुंच पाएंगे। हम अपने भीतर के महात्मा को जब-जब मारेंगे, विवाद, भ्रम, अप्रिय स्थितियां बनेंगी ही। कितनी ही बार हमने अपने भीतर के महात्मा को मारा है। महात्मा मरते समय कोई शुभ नाम लेगा, जाते-जाते भी शुभ आशीर्वाद दे जाएगा। वह चला जाएगा, लेकिन नुकसान हम अपना कर लेंगे। हमारे भीतर जो महात्मा है वह लगातार अपने आचरण से संदेश दे रहा है। उस आचरण को शरीर पर लागू कीजिए। हमारे भीतर परमात्मा ने सारी संभावनाएं छोड़ी हैं। महात्मा, आत्मा और परमात्मा से जितने परिचित हो जाएंगे। शरीर से होने वाली क्रियाएं उतनी ही दिव्य होंगी। आज विचार करें कि कहीं आप अपने महात्मा को मार तो नहीं रहे और यदि हां तो रुक जाएं। विचार करें, जो लाभ पहुंचा सकता है, उससे हानि क्यों उठा रहे हैं।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....मनीष

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