Tuesday, December 8, 2015

ब्रह्म और तन्त्र (Bharma and Tantra)

ब्रह्म और तन्त्र
ब्रह्म-ज्ञान और तन्त्र का साथ अनादि काल से रहा है। सही मायने में यह दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। लेकिन कलियुग में ब्रह्म-ज्ञान और तन्त्र को अलग-अलग कर दिया गया है। कलयुग में तन्त्र का इतना वीभत्स स्वरूप आम व्यक्ति को दिखाया गया कि वह तन्त्र और तान्त्रिक के नाम मात्र से डरने लगा। तन्त्र का वह काला पन्ना जो की दुश्मनों के लिऐ या दुष्टों के सर्वनाश के लिऐ तान्त्रिक इस्तेमाल करते थे, कलियुग में धन के लोभी उसी काले तन्त्र को आम व्यक्ति पर इस्तेमाल करने लगे। विधि के विधान का निरादर करने वाले इन लोभी तांत्रिकों का इतना भयावह अन्त होता है, कि इनकी मृत्यु के उपरान्त इनका कोई नाम लेवा तक नहीं बचता। किन्तु जो सतपुरूष होते है, वह तन्त्र का सही इस्तेमाल करते हुऐ या उचित प्रयोग करते हुऐ उसके द्वारा ब्रह्म को प्राप्त होते है और ऐसे तांत्रिक ब्रह्म-ज्ञानियों का नाम इतिहास में सुनहरे अक्षरों में लिखा जाता है। अगर हम ध्यान-पुर्वक इतिहास का अध्ययन करे तो हमें पता चलेगा की अनुचित प्रयोग करने वालों और उचित प्रयोग करने वालों का कैसा अन्त हुआ।

अगर बात करे त्रेता-युग की तो रावण, कुम्भकर्ण, मेघनाथ तीनो ही तंत्र के ज्ञाता थे एवं तीनों ही उस ब्रह्म को समझने और जानने वाले थे। कोई माने या न माने लेकिन सही मायने में ये तीनों महान विद्वान पंडित थे। लेकिन तन्त्र का अनुचित प्रयोग करने के कारण ही ये असमय मृत्यु को प्राप्त हुऐ। लेकिन रावण को मारने के कारण ही जो ब्रह्म-हत्या का दोष भगवान राम पर लगा, उसके प्रायश्चित स्वरूप उन्होने अश्वमेध यज्ञ करवाया। लेकिन आज अनेकों मूढ़-मति रावण, मेघनाथ और कुम्भकर्ण के पुतले जलाते है। सोचिये इन का क्या होगा। भगवान राम ने तो रावण को मार कर अश्वमेध यज्ञ करके अपना प्रायश्चित पूरा किया, किन्तु कलयुग में रावण का पुतला जलाने वाले, जो की कोई भी प्रायश्चित नही करते, इनका क्या परिणाम होगा। यह तो विधि ही जानती है, कि तन के पाप से बड़ा मन का पाप होता है। जिस रावण ने जो गुनाह किया था। उसकी सजा विधि के अनुसार उसे प्राप्त हुई, लेकिन आज हम काल्पनिक रूप में पुतले बना कर जलाते है।

जिसका की हमें कोई अधिकार नहीं है। कोई भी धर्म या कोई भी मत गुनहगार को उसके किये हुऐ गुनाह की सजा एक बार देता है, न की बार-बार। जबकि हम तो रावण को जला कर हर साल गुनाह करते है, तो क्या हम इसकी सजा से बच पायेंगे। हमारे अन्दर जो मन, बुद्धि और आत्मा है। उसका हम सही इस्तेमाल ही नहीं करते। अगर हम मन बुद्धि और आत्मा का सही प्रयोग करें तो हम से कभी भी जाने-अनजाने, तन या मन का गुनाह नहीं होगा। तंत्र का प्रयोग करके जो गुनाह रावण ने किया। विधि ने समय के अनुसार उसको सजा दी। लेकिन रावण को जला कर जो गुनाह हम साल कर रहें है। सोचिये विधि उसकी कितनी भयावह सजा हमें देगी। हमारे कहने का तात्पर्य यही है, कि अगर कोई भी व्यक्ति तंत्र का दुर-उपयोग करता है, तो वह विधि के विधान से बच नहीं सकता। समय अनुसार उसको सजा अवश्य मिलेगी।

अब हम द्वापर युग कि बात करते हैं। द्वापर युग में कंस, तन्त्र का सम्राट बना और उसी तन्त्र के बल पर उसने अपनी मृत्यु को टालना चाहा। जब उसे ज्ञात हुआ की, देवकी का 8वाँ पुत्र उसकी मृत्यु का कारण बनेगा तो उस ने तन्त्र का दुरुपयोग प्रारम्भ कर दिया। अपने तन्त्र के प्रयोग से कंस ने भगवान श्रीकृष्ण जी को मारने की भरसक कोशिश की, किन्तु होता वही है जो विधि के विधान में लिखा है। भगवान श्रीकृष्ण जी की ब्रह्म-विद्या के सामने कंस की तन्त्र विद्या हार गई और वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। भगवान श्रीकृष्ण जी भी स्वयं एक सिद्ध तांत्रिक थे। अनेकों ही व्यक्ति इस बात को नहीं मानते। हम जो भी समझते हैं, इस सब के पीछे हमारी चेतना हमारी श्रद्धा, हमारा विश्वास और हमारी आत्म-ज्योती काम करती है।

आज जितने भी धर्म-ग्रन्थ हमारे पास है। वह सभी दो से तीन हजार वर्ष तक के है। जब भगवान राम या भगवान श्रीकृष्ण जी का जन्म हुआ उस वक्त का प्रमाणिक ग्रन्थ कोई भी नहीं है। समय के अनुसार जिस कि मन बुद्धि ने जो कहा उसने अपने समय के अनुसार फेर बदल कर दिया। ग्रन्थों का अध्ययन करने के लिऐ हमें मन और श्रद्धा की नहीं, बल्कि विवेक-बुद्धि की आवश्यकता है। जब तक हम ग्रन्थों पर आँखें मूदँ कर विश्वास करते जायेंगे, तब तक हमें कुछ भी प्राप्त नहीं होगा। हमें आवश्यकता है, कि हम अपनी बुद्धि को हंस के समान बनाये, जो की पानी मिश्रित दूध में से, सिर्फ दूध को पी ले और पानी छोड़े दे। जब हमारी बुद्धि हंस के समान हो जायेगी और उसके पश्चात ग्रन्थों का अध्ययन करेंगे तो हमें पता चलेगा की भगवान श्रीकृष्ण जी एक सिद्ध तांत्रिक थे।

सबसे बड़ा उदाहरण भगवान श्रीकृष्ण जी द्वारा की गई रास लीला थी। इसी का बिगड़ा हुआ रूप भैरवी-साधना या भैरवी-चक्र है। भगवान श्रीकृष्ण जी द्वारा की गई लीला को सिर्फ लीला मात्र मानने से ब्रह्म की प्राप्ति नहीं होगी, बल्कि उस लीला के पीछे जो सार तत्त्व व सिद्धि का रहस्य छिपा हुआ है, उसे समझना होगा। जैसे कि भगवान श्रीकृष्ण जी द्वारा इन्द्र की पूजा को रोकना एवं गोवर्धन पूजा करवाने के पीछे जो सार तत्त्व था, वह यही था कि देवताओं की प्रार्थना करने से हमें कुछ भी प्राप्त नहीं होगा अपितु गोवर्धन पर्वत के ऊपर जो दुर्लभ जड़ी-बुटियाँ एवं पशुओं के लिऐ चारा है, उसके प्रति अपनी श्रद्धा को व्यक्त करना चाहिऐ। प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य है, कि हमें जहाँ से जो भी मिले, तो देने वाले के प्रति, हमें आदर भाव रखना चाहिऐ।

भगवान श्रीकृष्ण जी गोवर्धन की तरफ सकेंत करते हुऐ, हम सब को यही समझाने का प्रयास कर रहें है। उस समय में भी उन्होने गोकुल वासियों को यही समझाया, की जिस गोर्वधन पर्वत से तुम्हारी दैनिक आवश्यक्ताऐं पूरी होती है, उसके प्रति अपना आदर प्रकट करो। लेकिन आज अनेकों ही व्यक्ति उस पुरानी परम्परा को न समझ कर, गोवर्धन की पूजा एवं परिक्रमा करते है और यही समझते हैं कि इस प्रकार हमें वैकुंठ या मोक्ष की प्राप्ति हो जायेगी। किसी के प्रति आदर भाव या श्रद्धा रखना अलग बात है और मोक्ष की प्राप्ति अलग बात है। तुम चाहें जितनी परिक्रमा कर लो और चाहे जितनी पत्थर पूजा। तुम्हारा मन करे तो 56 भोग लगा लो, किन्तु इससे ब्रह्म-ज्ञान या मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी।

इसलिऐ भगवान श्रीकृष्ण जी ने भी गीता में कहा है, कि जो मुझ परमात्मा तत्त्व को (बल्कि मुझ कृष्ण को नहीं) पूजेगा, उसे ही परमात्मा की प्राप्ति होगी। हमें तन्त्र और ब्रह्म में भेद समझना होगा। गीता के अन्दर जो उद्-घोष है या यूँ कहे की सम्पूर्ण गीता ब्रह्म-ज्ञान है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण जी के अलावा अनेकों ही और भी तान्त्रिक हुऐ, जिनमें बर्बरीक का नाम भी इतिहास में सुनहरे अक्षरों में लिखा है। बर्बरीक- माँ कामाख्या देवी का परम उपासक एवं सिद्ध तान्त्रिक था। उसके पास ऐसे बाण थे, की वह चाहता तो एक बाण चला कर ही सम्पूर्ण कौरव सेना को समाप्त कर सकता था, किन्तु विधि के विधान के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण जी ने उसे ऐसा करने से मना किया और कलियुग में वही ‘बर्बरीक’- ‘खाटू श्याम बाबा’ के नाम से जाना जाता है। इसी प्रकार कलियुग में भी अनेकों ही सिद्ध तान्त्रिक पैदा हुऐ जो कि ब्रह्म को मानने वाले थे, जैसे की 9 नाथ 84 सिद्ध। लगभग 2,500 वर्ष पूर्व माहात्मा बुद्ध हुऐ, जो की एक सिद्ध तान्त्रिक के साथ-साथ ब्रह्म-ज्ञानी भी थे। बौद्ध धर्म की दो शाखाऐं बनी, एक महायान और दूसरी हीनयान। बौद्ध धर्म में नील-तारा तन्त्र की देवी है। अनेकों ही बौद्ध भिक्षु आज भी माहात्मा बुद्ध के साथ-साथ तन्त्र की देवी नील-तारा की उपासना करते है। माहात्मा बुद्ध के समय में ही जैन धर्म प्रकाश में आया। आज भी हजारों जैनी, जैन धर्म में स्थित तन्त्र की देवी पद्मावती, चक्रेश्वरी एवं क्षेत्रपाल देवता की पूजा करते है। जैन धर्म में स्वप्न सिद्धि के लिऐ या भूत, भविष्य, वर्तमान जानने के लिऐ, जैन धर्म में स्थित तन्त्र की देवी चक्रेश्वरी देवी की साधना होती है।

हिन्दु धर्म में भी तन्त्र और ब्रह्म की एकता कलियुग में अनेकों जगह देखने को मिलती है, उदाहरण स्वरूप 9 नाथ और 84 सिद्ध। अनेकों ही हिन्दू आज भी अपनें घरों में नौ नाथों में से बाबा गोरख नाथ जी को पूजते है। बाबा गोरख नाथ जी की कथा सबसे अलग है। आज तक जितने भी सिद्ध हुऐ है, उन सभी में गोरख नाथ जी अजुणी है। बाबा गोरक्ष नाथ जी एक सिद्ध तान्त्रिक होते हुऐ पूर्ण ब्रह्म-ज्ञानी एवं 36 मंडलों के रहस्यों के जानकार थे। आज भी बाबा गोरक्ष नाथ जी जीवित है। क्योंकि उन्होने अपनी देह का त्याग नहीं किया। आज तक संसार में 6 चिरंजीवी हुऐ है, किन्तु यह 6 चिरंजीवियों की जो गणना है। यह द्वापर युग तक की है, किन्तु कलयुग में बाबा गोरख नाथ जी भी चिरंजीवी है। लगभग 500 साल पूर्व सिखों के 10 वें गुरु – गुरु गोविन्द सिहं जी ने चण्डी साधना की और तान्त्रिक सिद्धि प्राप्त की और एक बार फ़िर से ब्रह्म और तन्त्र की एकता स्थापित हुई। इसी प्रकार रामकृष्ण-परमहंस भी सिद्ध तान्त्रिक होने के साथ-साथ पूर्ण ब्रह्म-ज्ञानी थे।

रामकृष्ण-परमहंस जी ने माता काली की सिद्धि के साथ ब्रह्म की उपासना की एवं उसे प्राप्त किया। इसी प्रकार वामाखेपा जी ने भी तारा सिद्धि के साथ-साथ ब्रह्म-ज्ञान को प्राप्त किया। लगभग 2000 वर्ष पूर्व आदि-शंकराचार्य जी का जन्म हुआ और उन्होंने ब्रह्म-ज्ञान को प्राप्त किया, किन्तु एक समय ऐसा भी आया की जब उन्होंने आदि शक्ति के श्रीविद्या रुप की सिद्धि की एवं गरीब ब्राहमण के झोपड़े में कनक-धारा स्तोत्र के द्वारा सोने के आंवलों कि बारिश हुई। आज भी यह कनक धारा स्तोत्र और श्रीविद्या का श्रीयन्त्र सम्पूर्ण जगत में विख्यात है। इस प्रकार त्रैता युग से लेकर कलियुग तक का अध्ययन करने पर हमें पता चलता है, कि तन्त्र और ब्रह्म एक दूसरे के पूरक है। ध्यान-पूर्वक समझने से हमें यह पता चलेगा कि तन्त्र की उपासना सही मायने में प्रकृति की उपासना है और ब्रह्म की उपासना या यों कहें की ‘ॐ’ या ‘सोऽहम्’ साधना उस निराकार परमात्मा की उपासना है, तो कुछ भी गलत नहीं होगा।

तन्त्र ही प्रकृति है। तन्त्र ही माया है। उस परमात्मा को जान लेना ब्रह्म-ज्ञान है और उसकी शक्तियों से हस्तगत होना ही तन्त्र है। उस परमपिता परमात्मा की शक्ति को तान्त्रिकों ने अनेकों नाम दिये है। जैसे की चण्डी, दुर्गा, आदिशक्ति, दस-महाविद्या, नौ दुर्गा, सात माता, 64 योगनी, आदि। सही मायने में एक विशेष शक्ति को जाग्रत करने के लिऐ, उस परमात्मा के उस विशेष नाम की पूजा ही तन्त्र है। तान्त्रिक अधिकतर परमात्मा के एक विशेष अंश को अपना इष्ट बना कर, उसकी सिद्धि करते है। उस इष्ट का जो अधिकार क्षेत्र होता है, उतने क्षेत्र में वह तान्त्रिक अपनी सिद्धि के द्वारा हस्तक्षेप कर सकता है। हिन्दू धर्म में उस परमात्मा के अंश रुप में 33 करोड़ देवी-देवता है। इन सभी के अपने-अपने अधिकार क्षेत्र है। जैसे कि माँ सरस्वति विद्या की देवी है। अगर कोई विद्या क्षेत्र कि सिद्धि करता है, तो उसे सभी वेद शास्त्रों का ज्ञान स्वतः ही हो जाऐगा। इस प्रकार अगर कोई लक्ष्मी अर्थात् धन क्षेत्र की सिद्धि करता है, तो उसके पास कभी भी धन की कमी नहीं होगी। काली अर्थात् शक्ति क्षेत्र की साधना करने वाला, शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है। शक्ति क्षेत्र की साधना करने वाले साधक के समक्ष श्त्रु टिक नहीं पाते और काल को प्राप्त हो जाते है। इसी प्रकार सभी देवी-देवताओं का अपना-अपना अधिकार क्षेत्र है। अग्नि का अपना कार्य है, जल का अपना और वायु का अपना। जहाँ ब्रह्म की प्राप्ति के लिऐ कोई समय सीमा नहीं है, कि वह हमें कब प्राप्त होगा। वहीं तान्त्रिक सिद्धियाँ समय सीमा से बंधी हुई है। ऐसी शक्तियों को प्राप्त करने के लिऐ योग्य गुरू का होना परम-आवश्यक है।

गुरू का चयन करते वक्त भी ध्यान रखा जाता है, कि गुरू ने जिस-जिस क्षेत्र की शक्तियाँ प्राप्त कर रखी है। वह आप को वही प्रदान कर सकता है या आपको उस क्षेत्र की सिद्धि करा सकता है। मान लीजिये कि किसी गुरू ने शक्ति क्षेत्र पर अधिकार प्राप्त कर रखा है। ऐसे गुरू के पास कोई ऐसा शिष्य पहुँच जाता है, जो कि विद्या क्षेत्र पर अधिकार प्राप्त करना चाहता है, तो शक्ति क्षेत्र का गुरू उस साधक को विद्या प्राप्ति हेतु साधना नहीं करा सकता। अगर ऐसा गुरू शिष्य बनाने के चक्कर में या अहंकार वश उस शिष्य को साधना कराना भी चाहे, तो भी सिद्धि सम्भव नहीं है। ऐसा गुरू शिष्य का मार्ग निर्देशन तो कर सकता है और वह जानकार है तो प्रारम्भिक पूजा भी प्रारम्भ करा सकता है, और शिष्य को विद्या क्षेत्री गुरू ढूढ़ने का रास्ता बता सकता है। लेकिन आज के समय में अनेकों ही गुरू एक अधिकार क्षेत्र के अधिकारी होते हुऐ भी, सभी क्षेत्रों के शिष्यों को दीक्षा देते है, जो की गुरू कि मर्यादा के खिलाफ है। सच्चे गुरू का कर्तव्य है, की वह शिष्य को उसी मन्त्र की दीक्षा दे, जो कि उस को अपने गुरू से प्राप्त हुआ है अथवा जिस मन्त्र से उसके गुरू ने उसको दीक्षित किया है। मान लीजिये एक शिष्य को उसके गुरू ने गायत्री मंत्र से दीक्षित किया है और उस शिष्य ने अनुष्ठान करते हुऐ, गायत्री क्षेत्र पर अधिकार प्राप्त किया है, तो वह शिष्य गुरू बन कर जिस भी शिष्य को दीक्षा देगा, तो वह दीक्षा गायत्री मंत्र के द्वारा ही दी जायेगी और आने वाला नया शिष्य अपनी गुरू की परम्परा को चलायेगा। अगर गायत्री क्षेत्र का गुरू किसी भी दूसरे क्षेत्र का मंत्र या दीक्षा किसी शिष्य को देता है और वह शिष्य उस क्षेत्र की साधना कराता है, तो उसे कभी भी सफलता नहीं मिलेगी।

हिन्दू मत के अनुसार- अनादि काल मे जब परमात्मा ने सृष्टि कि रचना की तो उस समय सृष्टि में अथाह जल राशि थी। इस जल राशि के अन्दर भगवान विष्णु कि उत्पत्ति हुई और भगवान विष्णु के नाभि कमल से ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई। सच चाहे जो भी हो पर शास्त्र कहते है कि ब्रह्मा और विष्णु में द्वंद पैदा हो गया। विष्णु जी कहने लगे की मैं बड़ा हूँ और ब्रह्मा जी कहने लगे की मैं बड़ा हूँ। दोनों के द्वंद को देखकर, वह निराकार परमात्मा दोनों के मध्य ज्योति-स्तम्भ के रूप में प्रकट हुआ। परमात्मा का यह ज्योति-स्तम्भ रूप साधक को अगम लोक में पहुँचने पर दिखाई देता है। ब्रह्मा और विष्णु दोनों उस ज्योति-स्तम्भ को देख कर आश्चर्य चकित रह गये। उस ज्योति-स्तम्भ के अन्दर से ॐ-ॐ की ऐसी मधुर ध्वनी ब्रह्मा और विष्णु को सुनाई दी। ॐकार स्वरूप मानते हुऐ, ब्रह्मा और विष्णु ने उस ज्योति-स्तम्भ की स्तुति की। उस ज्योति-स्तम्भ ने ब्रह्मा और विष्णु को आदेश दिया, की आप दोनों ही ॐकार की साधना करें एवं मुझ परमात्मा को जाने। ब्रह्मा और विष्णु ने ॐकार की साधना की एवं उस परमात्मा के दिव्य रूप के दर्शन प्राप्त किये। उस परमात्मा ने ब्रह्मा जी को आदेश दिया की आप सृष्टि की रचना करें और विष्णु जी आप ब्रह्मा जी द्वारा रचित सृष्टि का पालन करें।

सर्व प्रथम ब्रह्मा जी ने तमोगुणी सृष्टि कि रचना की जिसे अविद्या-पंचक अथवा पंचपर्वा-अविद्या भी कहते है किन्तु बाद में परमेश्वर कि कृपा से ब्रह्मा जी पुनः अनासक्त भाव से सृष्टि का चिन्तन करने लगे उस समय ब्रह्मा जी द्वारा स्थावर-संज्ञक वृक्ष आदि की सृष्टि की, जिसे मुख्य-सर्ग कहते है यह पहला सर्ग है इसे देख कर तथा वह अपने लिऐ पुरूषार्थ का साधन नहीं है, यह जान कर ब्रह्मा जी ने दूसरा सर्ग प्रकट किया, जो दुख से भरा हुआ था उस का नाम है तिर्यक्स्रोता। पशु-पक्षी आदि तिर्यक्स्रोता कहलाते है। वायु की भाँति तिरछा चलने के कारण ये तिर्यक् या तिर्यक्स्रोता कहे गये है। यह सर्ग भी पुरूषार्थ-साधन की शक्ति से रहित था। यह जान कर ब्रह्मा जी ने तीसरे सात्त्विक सर्ग की उत्पत्ति की जिसे उर्ध्वस्रोता कहते है। यह देव-सर्ग के नाम से विख्यात हुआ। देव सर्ग सत्यवादी तथा अत्यन्त सुख दायक था किन्तु उसे भी पुरूषार्थ साधन की रूची एवं अधिकार से रहित मान कर ब्रह्मा जी ने परमेश्वर का चिन्तन आरम्भ किया परमेश्वर कि कृपा से रजोगुणी सृष्टि का आरम्भ हुआ जिसे अर्वाक्स्रोता कहा गया है इस सर्ग में मनुष्य का जन्म हुआ जोकि पुरूषार्थ साधन के उच्च अधिकारी हैं। ध्यान-पूर्वक अध्ययन करें तो हमें पता चलता है कि प्रारम्भ में ब्रह्मा जी ने जिस सृष्टि कि रचना की वह अमैथुनी थी। अमैथुनी सृष्टि को देख कर ब्रह्मा जी परेशान हुऐ और ब्रह्मा जी ने परमेश्वर से प्रार्थना की, कि- हे परमेश्वर मैं जो भी सृष्टि पैदा करता हूँ, उसका विनाश नहीं होता, आप मुझे ऐसी शक्ति प्रदान करे की मैं नाशवान सृष्टि पैदा कर सकूँ। परमेश्वर ने ब्रह्मा जी को गायत्री मंत्र प्रदान किया और अनुष्ठान करने को कहा। सृष्टि में सर्वप्रथम ॐ अक्षर था। उसके पश्चात गायत्री मंत्र आया, इसलिऐ गायत्री मंत्र को महामंत्र या मंत्रराज अर्थात् मंत्रों का राजा कहा जाता है।

ब्रह्मा जी ने गायत्री मंत्र की साधना की और उस परमेश्वर की शक्ति को गायत्री अर्थात् सावित्री के रूप में प्राप्त किया। उसके पश्चात मैथुनी सृष्टि की उत्पत्ति प्रारम्भ हुई। समय-समय पर सावित्री ही अनेकों सिद्धों के सामने अलग-अलग रूप में प्रकट हुई। जिस साधक ने जिस-जिस रूप में उस शक्ति को प्राप्त करने की इच्छा की उस-उस साधक को वह शक्ति उसी-उसी रूप में प्राप्त हुई। अपने ही समय के अनुसार सभी साधकों ने अपने समक्ष प्रकट हुई उस शक्ति का नामकरण कर दिया। सर्वप्रथम उसे आदिशक्ति कहा जाता था। राजा दक्ष के यहाँ जन्म लेने पर वह सती कहलाई। सती भगवान शिव की अर्धागिनी बनी। जब सती ने अपने पति शिव के निरादर किये जाने पर अपने आप को हवन में समर्पित कर दिया।

यह शिव साक्षात पर-ब्रह्म परमेश्वर है। नाशवान सृष्टि की रचना से पूर्व ब्रह्मा जी ने उस परमेश्वर की स्तुति की, कि हे परमेश्वर मैं जो यह नाशवान सृष्टि पैदा करने जा रहा हूँ, इस नाते से मैं इस सृष्टि का पिता बन गया। मैं पैदा तो कर सकता हूँ, पर विनाश नहीं। इसी प्रकार विष्णु जी भी इस सृष्टि का पालन करते हैं, तो वह भी इस का विनाश नहीं कर सकते। इसलिऐ मैं चाहता हूँ, कि आप मेरे पुत्र के रूप में जन्म ले और सृष्टि के विनाश का कार्यभार संभालें, क्योंकि हे परमेश्वर सही मायने में तो आप ही सब को पैदा करने वाले और विनाश करने वाले हैं। हम दोनों तो निमित्त मात्र है। इस प्रकार वह परमेश्वर ही रूद्र रूप बन कर पैदा हुऐ और उन्होंने सती से विवाह किया।

सती की मृत्यु का समाचार पाकर रूद्र क्रोधित हो उठे और राजा दक्ष के यज्ञ को नष्ट कर दिया और सती के शरीर को अपने कन्धें पर डाल कर ब्रह्माण्ड में विचरने लगे। जब विष्णु जी ने देखा की रूद्र के इस कार्य से सृष्टि के सभी कार्य रूक रहें है, तो उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र के द्वारा उस सती के मृत शरीर के टुकडे-टुकडे कर दिये। उस आदिशक्ति सती के कुल 51 टुकडे हुऐ और पृथ्वी पर आ गिरे। जहाँ-जहाँ वह 51 टुकडे गिरे थे, वहीं-वहीं आज सिद्ध पीठ बने हुऐ हैं। आज हिन्दुस्तान में जो 51 पीठ हैं। ये पीठ वहीं हैं, जहाँ पर सती के शरीर के हिस्से गिरे थे। एक ही शरीर के हिस्से होने के उपरान्त भी स्थान और काल भेद से सभी के अलग-अलग नाम हैं एवं पूजा विधान अलग-अलग हैं। इसके पीछे जो मूल कारण है, वह यही है कि समय-समय पर जिस साधक ने जिस विधान से उस शरीर के उस हिस्से को आदिशक्ति का प्रतीक रूप मानते हुऐ साधना की और साधक की भावना के अनुसार ही जब वह शक्ति प्रकट हुई, तो साधक ने अपनी इच्छा अनुसार उसे एक नाम दे दिया। आज अनेकों ही साधक व साधारण भक्त जन इन पीठों में भी भेद रखते है, कि कोई पीठ छोटा है और कोई बड़ा। किन्तु पीठ या स्थान या प्रतीक कभी छोटा-बड़ा नहीं होता। इसके मूल में एक ही रहस्य शक्ति छुपी हुई है और वह है, श्रद्धा और भावना की। जिस पीठ के उपर आपकी श्रद्धा और भावना प्रगाढ़ होगी, वहीं से आप को चमत्कारिक लाभ प्राप्त होते हैं।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....मनीष

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