Friday, October 23, 2015

Jeene Ki Rah10 (जीने की राह)

खुद को भुलाना नुकसानदायक
नशे का मतलब होता है स्वयं को भूल जाना। लोग नशा करते ही इसीलिए हैं कि खुद को भूल जाएं। जब मनुष्य खुद को भूलने को तैयार हो तब वह कई किस्म के नशे पाल लेता है। धन, रूप, बल, पद इन सबका तो नशा होता ही है। फिर उसका मैंइतना हावी हो जाता है कि खुद से कट जाता है। इनसे भी खतरनाक मदिरा, तंबाकू, अफीम, गांजा और भी ऐसे नशे हैं, जिन्हें फैशन के रूप में नई पीढ़ी ने अपना लिया है। जरा-सा धन आया, जीवन जीने का स्तर उठा और आदमी इस किस्म के नशे पाल लेता है। गलत काम जब लोग करते हैं तो नशा कर लेते हैं। जिन्हें हिंसा करनी होती है वे भी नशे में डूब जाते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि नशा करने के बाद हम खुद को भूल जाएंगे।

अगर हमारे भीतर कहीं कोई अच्छा आदमी है तो वह हमको रोक नहीं सकेगा और जो गलत हम करने जा रहे हैं उसके लिए स्वतंत्र रहेंगे। जरा-सा उत्सव का माहौल हो, प्रसन्नता में डूबना हो, लोग नशे की ओर दौड़ पड़ते हैं जैसे बिना नशे के खुशी मनाई ही नहीं जा सकती, लेकिन वह भूल जाता है कि इस नशे की कीमत भविष्य में उसका शरीर चुकाएगा। चुस्ती-फुर्ती का अभाव, नींद पूरी नहीं होना, दिन में सपने देखना, मेहनत से जी चुराना और किसी काम में तबीयत न लगना, भूख न लगना आदि। नशे का एक बड़ा परिणाम रक्तदोष भी है। मन ने थोड़ी देर भोग-विलास में डुबोया और कीमत शरीर को चुकानी पड़ी। धार्मिक दृष्टि से तो आज की पीढ़ी नकार देती है कि नशे से कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन उन्हें बताना पड़ेगा कि नशे का धर्म से लेना-देना नहीं है। धर्म का अच्छे जीवन से लेना-देना है। जो भी अच्छा जीवन जीना चाहे वह कम से कम अपने से जुड़ा रहे, क्योंकि अपने को भुलाने के लिए नशा किया जाता है और यह जीवन के प्रति बड़ा नुकसानदायक सौदा है।

खुलापन दिव्य दांपत्य की कुंजी
पति-पत्नी में मतभेद हो जाना कोई नई बात नहीं है। समझदार दंपती समझदारी से निपटाते हैं और नासमझ रिश्तों को तोड़ देते हैं। जब दोनों अधिक पढ़े-लिखे हों तो मतभेद को रोकना मुश्किल है। बुद्धि का मूल स्वभाव है टकराना, लेकिन समझदार दंपती अपने मतभेद को उस दायरे में समेट लेते हैं जहां रिश्ते के साथ अपने-अपने व्यक्तित्व और अस्तित्व भी बच जाते हैं। दोनों एक-दूसरे में जिन बातों को ढूंढ़ते हैं, उसमें एक यह भी है कि हम कहां हैं इनके जीवन में। दोनों की पसंद भिन्न हो तो कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन दोनों जब अपने आस-पास रहस्य का वातावरण बना लेते हैं तब संदेह पैदा होना स्वाभाविक है। फिर इस दौर में तो दोनों को एक-दूसरे से दूर ज्यादा समय बिताना पड़ता है।

यदि बिताए गए अज्ञात समय की जानकारी ठीक से शेयर न की जाए तो समझ लीजिए विवाद के बीज ही बोए जा रहे हैं। एक-दूसरे के प्रति यदि संदेह आ जाए तो फिर दोनों को लगने लगता है कि हमारे निजी जीवन में हस्तक्षेप किया जा रहा है। जो जीवन प्रेमपूर्ण आग्रह से चलना चाहिए, उसमें हस्तक्षेप की छाया आ जाती है। लोग किए गए प्रेम की भी पुष्टि चाहते हैं। पुरुष हो या स्त्री दोनों ही दावे करने लगते हैं कि हम भले ही बाहर से कठोर हों, लेकिन भीतर से नारियल, अखरोट की तरह मुलायम हैं और अपने आवेश को सही साबित करने लगते हैं। नारियल और अखरोट का उदाहरण तो ठीक है, लेकिन यह भी याद रखना चाहिए कि यह बाहर से कठोर और भीतर से मुलायम जरूर हैं, लेकिन जब ये सड़ जाते हैं तो बाहर से पता नहीं लगता कि भीतर से कितने सड़े हुए हैं, इसलिए अपने व्यक्तित्व को नारियल और अखरोट बनाने से पहले भीतर की ताजगी के प्रति सजग रहें। जीवनसाथी खुली किताब की तरह एक-दूसरे को पढ़ाएं। इसी में दांपत्य दिव्य हो जाएगा।

लक्ष्य प्राप्ति का साधन हैं शास्त्र
मनुष्य को लक्ष्य पर पहुंचने के लिए कई तरह के साधन अपनाने पड़ते हैं। आध्यात्मिक माध्यम का एक लाभ है कि वे हमारी भौतिक यात्रा में भी काम आते हैं। श्रीराम सीताजी के विरह में थे और उनके संग थे भाई लक्ष्मण। दुख की घड़ी में भी श्रीराम अपने भाई को जीवन से संबंधित कुछ बातें बता रहे थे। श्रीराम जानते थे कि इससे दो लाभ होंगे। दोनों भाइयों के बीच सत्संग होगा, मेरा मनोबल भी बढ़ेगा और लक्ष्मण के मन में जो ग्लानि है वह भी दूर होगी। इस पूरी बातचीत को श्रीराम प्रकृति से जोड़कर कर रहे थे। दर्शन को प्रकृति से जोड़ने के अद्भुत प्रयोगों में से यह एक था।

श्रीराम लक्ष्मण से कहते हैं और तुलसीदासजी ने व्यक्त किया है - समिटि समिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा।। सरिता जल जलनिधि महुँ जाई। होइ अचल जिमि जिव हरि पाई।। जल एकत्र होकर तालाबों में भर रहा है, जैसे सद्‌गुण (एक-एक कर) सज्जन के पास चले जाते हैं। नदी का जल समुद्र में जाकर वैसे ही स्थिर हो जाता है, जैसे जीव श्रीहरि को पाकर अचल हो जाता है। हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहिं नहिं पंथ। जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रंथ।। पृथ्वी घास से परिपूर्ण होकर हरी हो गई है, जिससे रास्ते समझ नहीं पड़ते। जैसे पाखंड-मत के प्रचार से सद्‌ग्रंथ गुप्त (लुप्त) हो जाते हैं। तीन बातों पर श्रीराम ने प्रकाश डाला है। सद्‌गुण की बात की है, फिर कहा है जब व्यक्ति परमात्मा से जुड़ता है तब उसका जीवन कैसा हो जाता है। इन दोनों को प्राप्त करने के लिए जो आध्यात्मिक साधन हैं वे हैं हमारे शास्त्र। शास्त्रों की स्थिति पर भी श्रीराम ने इशारा किया है। जैसे ही हम ईश्वर से जुड़ते हैं, नदी का बहता हुआ जल समुद्र से मिलने पर एक गहराई, एक अलग ही रूप ले लेता है। इन दोनों स्थितियों को प्राप्त करने के लिए शास्त्र का सहारा लिया जाना चाहिए।

सुख और दुख से परे है आनंद
जब जीवन में सुख आता है हम सुखी हो जाते हैं और जब दुख आता है तो हम दुखी हो जाते हैं। सोचना यह है कि हमारा अपना क्या योगदान रहा। जैसे वे आए हम वैसे हो गए। इसीलिए हमारे ऋषि-मुनियों ने एक नई स्थिति हमें सौंपी है- आनंद। आनंद में हमारी भूमिका आरंभ हो जाती है। दुख कभी किसी के जीवन में कम नहीं होंगे, लेकिन जो आध्यात्मिक व्यक्ति होते हैं वे समझ जाते हैं कि दुख आए तो दुखी नहीं होना है। दुख का आना और हमारा दुखी होना इसमें हम जितना भेद कर देंगे, जितनी दूरी बना देंगे, उतने ही हम आनंद के निकट चले जाएंगे। सुख आता है तो मनुष्य अहंकार में डूब जाता है, दुख आता है तो तनावग्रस्त हो जाता है। ये दोनों ही चीजें भीतर से पैदा की गई हैं।

बाहर से हमेशा हालात आते हैं। जब मन उनमें जुड़ता है तो फिर तनाव पैदा होता है और तनाव हमेशा भीतर से जन्म लेता है, क्योंकि उसमें मन की भूमिका होती है। यही मन सुख में अहंकार उछाल देता है। हम दोनों ही स्थितियों में अपने आपको थोड़ा संसार से अलग करके भीतर स्वयं से जुड़ें तो लगने लगेगा कि सुख आए या दुख, दोनों को ही हम अलग खड़ा होकर देख रहे हैं। इस प्रयोग को यूं भी कर सकते हैं कि हमारे आस-पड़ोस में कोई दुख की घटना हो जाए और हमारा उनसे सामान्य संबंध हो तो दूर से ही उस घटना को देखते हैं। उनसे मिलकर संवेदना व्यक्त करते हैं, लेकिन बाहर निकलते ही हमारा सामान्य जीवन शुरू हो जाता है, क्योंकि हम जानते हैं यह दुख हमारा नहीं है। अपने सुख-दुख को भी ऐसे ही दूर खड़े होकर देखा जा सकता है, लेकिन इसके लिए जरूरी है कि खुद के सुख-दुख से खुद को अलग किया जाए। खुद को अलग करने के लिए कहीं जुड़ना पड़ेगा, इसलिए जितना ज्यादा हो सके, भगवान से जुड़ने का प्रयास कीजिए।

ईश्वर प्राप्ति की तीन योग्यताएं
किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करना हो तो कोई न कोई योग्यता जरूरी है। धीरे-धीरे शिक्षा और अनुभव इतने अधिक प्रभावशाली हो जाएंगे कि बिना इसके दो वक्त की रोटी जुटाना भी मुश्किल हो सकता है। वह दौर गया कि अनपढ़ लोग और आप भाग्य के भरोसे धन और संपत्ति अर्जित कर सकते थे। आज ऐसी योग्यता की बात करें जिस पर लोगों का ध्यान नहीं जाता, क्योंकि सब मानकर चलते हैं योग्यता का परिणाम नाम और दाम होना चाहिए। लोग भूल जाते हैं कि दुनिया में सफलता प्राप्त करने के लिए जो योग्यता लगती है वह दुनिया बनाने वाले के सामने बिल्कुल अलग रूप ले लेती है।

लोग यह मान लेते हैं कि जिस योग्यता से दुनिया मिल रही है उसी से दुनिया बनाने वाला भी मिल जाएगा। यहीं से अशांति का जन्म होता है। सब मिल जाने के बाद भी ऐसा लगता है कि कुछ खोया-खोया सा है। खुशी के सारे साधनों के बाद भी हम मस्त नहीं हो पाते। हमारी प्रसन्नता, हमारी मस्ती एक अभिनय बन जाती है। अपना दर्द हम ही समझ पाते हैं। परमात्मा के सामने बिल्कुल भोले, बेअकल और मस्त जैसे हो जाएं। भगवान को मस्त लोग बहुत अच्छे लगते हैं। मस्त उसको कहते हैं, जो हर हाल को स्वीकार कर ले। मस्ती का मतलब होता है किसी ऐसी शक्ति के भरोसे जीना, जो हमारा कभी बुरा नहीं होने देगी। भगवान कहते हैं कभी-कभी मेरे द्वार पर भी आकर लोग अक्ल लगाते हैं। कुछ तो इस चक्कर में होते हैं कि चलो भगवान मिल गया तो भगवान जैसे ही हो जाएं और भगवान कहते हैं तुम्हें जैसा मैंने बनाया है वैसे बनो। न मेरे जैसे बनो और न उससे हटो जो तुम्हें बनना है। भगवान के सामने खड़े होने की यह तीन योग्यताएं यदि हमारे भीतर आ जाएं तो जो योग्यता संसार में है वह भी सफलता के साथ शांति प्रदान करेगी।

समय का सम्मान, ईश्वर की पूजा
आजकल बुद्धि और हृदय के संतुलन पर जोर दिया जाता है। इसका फायदा समय प्रबंधन में मिलता है। इन दिनों जिन बातों से लोग परेशान हैं उनमें समय प्रबंधन भी है। छह बातों का ध्यान रखकर इसे बड़ी आसानी से साधा जा सकता है। एक, जो काम जिस समय पर किया जाना चाहिए, उसी समय पर करें। इसके लिए खुद पर दबाव बनाना पड़ेगा। कार्य और समय दोनों को ठीक से साधें। जैसे सुबह टहलना चाहिए, रात्रि भोजन के बाद थोड़ा घूमा जा सकता है। यह तो एक उदाहरण जैसा है। दो, जो भी काम करें, व्यवस्थित रूप से करें। तीन, काम को प्रबंधन के साथ किया जाए। व्यवस्थित काम करने और प्रबंधन के साथ काम करने में अंतर है।

जैसे किसी कार्य की मशीनरी एक व्यवस्थित ढंग है, लेकिन उसको चलाना एक प्रबंधन है। ऐसा ही समय के मामले में कीजिए। चार, समय के क्षेत्र ठीक से बंटे हों। कितना समय घर में देना है, कितना मित्रों को, कितना व्यवसाय में और कितना समय समाज को देना है। यानी क्षेत्र ठीक से बंट जाएं और उसमें जितना समय दिया जाना चाहिए, दिया जाए। पांच, अपने समय को परिणाम से जरूर जोड़ें, क्योंकि परिणाम के प्रति जागरूक नहीं हैं तो वह समय नष्ट करना ही है।

छह, यह कभी न भूलें कि चौबीस घंटे ही होते हैं। इसी चौबीस घंटे में हो सकता है हमें अड़तालीस घंटे का काम करना पड़े और यदि चूक जाएं तो दो घंटे के परिणाम भी हम नहीं दे सकेंगे। समय-काल को परमात्मा का रूप माना गया है। जो लोग पूजा-पाठ करते हैं, ईश्वर में भरोसा रखते हैं उनको समय का सम्मान करना चाहिए। इन छह तरीकों से यदि समय का सम्मान किया गया तो अपने आप में यह परमात्मा की पूजा हो जाएगी। और इस समय प्रबंधन में बुद्धि तथा हृदय का संतुलन बड़ा काम आता है।

प्रशंसा और आलोचना में सहज रहें
दुनिया में कई आवाजें बड़ी मीठी होती हैं। किसी को कोयल की आवाज मीठी लगती है। कुछ लोगों को अपने बच्चों की आवाज भी मीठी लगती है। जीवनसाथी की आवाज में मिठास पाने वाले लोग अब कम ही होंगे, लेकिन फिर भी वाणी की मिठास आज भी कायम है। ध्यान दीजिए, सबसे मीठी आवाज लगती है अपनी प्रशंसा या अपने प्रशंसक की। जब कोई हमारी तारीफ करता है तो हमारे व्यक्तित्व में मिठास घुलने लगती है। प्रशंसा की यह मिठास न सिर्फ कानों में प्रवेश करती है बल्कि मन से गुजरकर हृदय में घुल जाती है। यहीं से कुछ झंझटें भी शुरू हो जाती हैं, क्योंकि प्रशंसा के भीतर अदृश्य विष छुपा होता है। प्रशंसा हमें अच्छे कर्म के लिए प्रेरित कर सकती है या अहंकार पैदा कर गिरा भी सकती है। प्रशंसा को धीर-गंभीर लोग तुरंत पचाने में लग जाते हैं और किसी अच्छे काम के लिए प्रेरित होते हैं। प्रशंसा प्रेरणा बन जाती है।

मूर्ख प्रशंसा सुनकर अहंकार पाल लेते हैं। उनका मैंऔर प्रबल हो जाता है। मैंलगभग दूसरी मौत का नाम है। हमें इससे बचना चाहिए, क्योंकि कुछ लोग हमारी प्रशंसा अहंकार बढ़ाकर हमें बर्बाद करने के लिए कर सकते हैं। यही प्रशंसा का जहर है। तीसरी श्रेणी में वे लोग आते हैं जो न गंभीर होते हैं और न मूर्ख। इन्हें सहज कह सकते हैं। सबसे अच्छा तरीका यही है। सहजता से सुनिए और भूल जाइए। तब प्रशंसा ऐसा लाभ देगी, जो दिखेगा नहीं लेकिन भविष्य में काम कर जाएगा। आप सहज हैं तो सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि प्रशंसा के समय आपकी सोच, जो हो सो हो, लेकिन आलोचना के समय आप परेशान नहीं होंगे। आलोचना के समय धीर-गंभीर व्यक्ति को भी ताकत लगानी पड़ती है और मूर्ख तो आवेश में आ ही जाते हैं। सहज व्यक्ति दोनों ही स्थिति में अपनी खुशी से सौदा नहीं करेगा।

परिपक्व मनुष्य में क्रोध नहीं होता
लोग अपने क्रोध का कारण दूसरों को बताते हैं, लेकिन गहरे में हम ही उसका कारण हैं। अब तो लोग अपनी खुशी का भी कारण दूसरों में ढूंढ़ने लग गए हैं। कुछ तो मानते हैं कि हमें खुशी कोई दूसरा ही दे सकता है। किंतु क्रोध की तरह खुशी का कारण भी हम ही हो सकते हैं। भीतर खुशी ढूंढ़ने के लिए प्रकृति बहुत अच्छा साधन है। किष्किंधा कांड में तुलसीदासजी बता रहे हैं कि श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा, ‘दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई।। नव पल्लव भए बिटप अनेका, साधक मन जस मिलें बिबेका।।चारों दिशाओं में मेंढकों की ध्वनि ऐसी सुहावनी लगती है, मानो विद्यार्थियों के समुदाय वेद पढ़ रहे हों। वृक्ष नए पत्तों से ऐसे सुशोभित हो गए हैं, जैसे साधक का मन विवेक (ज्ञान) प्राप्त होने पर हो जाता है।

अर्क जवास पात बिनु भयऊ। जस सुराज खल उद्यम गयऊ।। खोजत कतहुं मिलइ नहिं धूरी। करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी।।मदार और जवासा बिना पत्ते के हो गए। जैसे श्रेष्ठ राज्य में दुष्टों का उधम खत्म हो जाता है। धूल कहीं खोजने पर भी नहीं मिलती, जैसे क्रोध का आवेश होने पर धर्म का ज्ञान नहीं रह जाता। वृक्षों के नए पत्तों को साधक के मन की स्थिति से जोड़ा है। यह सही है कि मन में जब विवेक जाग जाता है तो ज्ञान ऐसे ही लबालब होता है। श्रीराम उस समय राजा नहीं थे, लेकिन किसी श्रेष्ठ राज्य की कल्पना उनके मन में चल रही थी। उन्होंने कहा है कि जैसे एक स्वच्छ व्यवस्था में धूल नहीं होती, ऐसे ही एक परिपक्व मनुष्य में क्रोध नहीं होना चाहिए, क्योंकि क्रोध धूल की ही तरह है, जो पानी से मिल जाए तो कीचड़ हो जाए और उड़कर आंख में लग जाए तो दृष्टि को बाधा पहुंचा सकती है। बस, क्रोध इसी तरह है। इन सुंदर कल्पनाओं में श्रीराम जीवन का बड़ा संदेश हमें दे रहे हैं।

संसार में रहकर ईश्वर प्राप्ति संभव
रास्तों का सबसे बड़ा काम होता है किसी को मंजिल पर पहुंचाना। जब ट्रैफिक ज्यादा हो तो रास्ते उसी अनुसार बनाए जाते हैं। इस समय हम बात कर रहे हैं दो तरह के रास्तों की। एक, प्रभु मार्ग पर चलें और संसार को पाएं। दो, संसार के मार्ग पर चलते हुए परमात्मा को पाना। जब हम भगवान के मार्ग पर चल रहे होते हैं, तो हमारी मंजिल ईश्वर को पाना हो। कई पड़ाव आएंगे। हमें उन पर रुकना भी है, उपयोग भी करना है, लेकिन हमारा लक्ष्य होगा ईश्वर को पाना। इसका मतलब यह नहीं है कि पूजा-पाठी हो जाएं। ईश्वर का जीवन में आना मतलब शांति, सहजता का आना। यदि आप लक्ष्य पर पहुंचने के बाद शांत नहीं हैं तो समझ लीजिए ईश्वर से दूर हैं। दूसरे रास्ते पर संसार पाना उद्‌देश्य होता है और बीच में ईश्वर के पड़ाव बना लिए जाते हैं।

वहां अशांति हर हाल में हाथ आएगी, क्योंकि परमात्मा पड़ाव नहीं, लक्ष्य है। इन दिनों पूजा-पाठ पाखंड में बदल रहा है। लोग भूल गए हैं कि भक्ति का एक अर्थ है सत्संग। सेवा का भाव हो और धैर्य व्यक्तित्व में उतरे। तीनों बातें भक्ति का गहना हैं। जिन्हें भक्ति करनी हो उनका लक्ष्य ईश्वर प्राप्ति हो, लेकिन संसार भी नहीं छोड़ना है। संसार में जो भी जरूरी है वह किया जाना चाहिए। संसार में रहकर अपना लक्ष्य ईश्वर याद रहे, यह काम सत्संग करता है। फिर जब ईश्वर को पाने निकले हैं, संसार का भी उपयोग कर रहे हैं, तो सेवा करनी चाहिए। लक्ष्य पर निकले हैं इसलिए अधीर होना स्वाभाविक है, लेकिन धैर्य बनाए रखें। इसलिए इस भ्रम को दूर किया जाए कि यदि ईश्वर से जुड़ें तो संसार छोड़ना पड़ेगा या संसार से जुड़ जाएं तो ईश्वर छूट जाएगा।

सत्संग में मन पर निगाह रखें
सहज दिखना और शांत दिखना आजकल व्यावसायिक जीवन का आवश्यक तत्व है। बड़ी उम्र के लोग तो इसमें बहुत माहिर हैं। किंतु नई पीढ़ी इस मामले में थोड़ी ईमानदार है। यदि वह शांत है तो भी और अशांत है तो भी व्यक्त करने में देर नहीं करती। पिछले दिनों सातवें दिन कथा समाप्ति पर साथ रहे युवा उद्योगपति ने सहजता से कहा, ‘सात दिन से कुर्ता-पजामा पहनकर कथा में लगा हूं। मेरा दिमाग खराब हो गया। अब मैं कल से इसे ठीक करूंगा।मैं सोचने लगा कि क्या सात दिन की कथा में किसी का दिमाग खराब हो सकता है, क्योंकि दिमाग तो कमाने में भी खराब हो रहा होगा। वह धर्म-कर्म के कार्य में खुद को असहज महसूस कर रहा होगा, इसीलिए उसने यह टिप्पणी की।

जब ऐसे लोग दो पैसा कमाने में बेचैन और अशांत होते हैं तब उन्हें समझ में आता है कि दिमाग तो यहां भी खराब होना है। खराबी का अर्थ है, जिस काम में दिमाग लगाओ अगर उससे शांति नहीं मिल रही तो दिमाग को दूसरी तरफ लगाया जाए। संसार में जब हम परिश्रम करते हैं तो इसमें शरीर काम आता है, लेकिन धर्म-कर्म के क्षेत्र में मन काम करता है। शरीर से मतलब परिश्रम करना है तो स्वस्थ भी रहना है, लेकिन जैसे ही सत्संग में उतरें, पूजा-पाठ में आएं तो शरीर छोड़कर मन पर टिक जाइए। वहां शरीर को देखना है, यहां मन पर नजर रखना है और जब यह दोनों ठीक से होने लगेंगे, तो दिमाग खराब होने के अर्थ ठीक निकल आएंगे, क्योंकि दिमाग दुनिया भी खराब करती है और दुनिया बनाने वाले के रास्ते में भी दिमाग खराब हो जाता है, पर दोनों के अर्थ अलग होते हैं। मीरा, कबीर, रहीम, और तुलसीदासजी को दुनिया के एक वर्ग ने दिमाग खराब होने वाला ही बताया था। अब हम समझ सकते हैं कि हमारे लिए इन सबका क्या मतलब होगा।

धन का चक्र समझें, चक्कर से बचें
अब धीरे-धीरे उत्सव और त्योहारों का समय आने वाला है। दिवाली तक तो भारतीय मन की उत्सवधर्मिता, पर्व-प्रेम चरम पर होगा। पहले उत्सव का मतलब था किसी ईष्ट से जुड़कर अपने जीवन में प्रसन्नता लाना। धीरे-धीरे बाजार का प्रवेश हो गया। जहां उत्सवों में रिश्ते मजबूत किए जाते थे, वहां अब वस्तुएं प्रवेश कर गईं। कुल-मिलाकर उत्सव का अर्थ हुआ वस्तुओं को प्राप्त करना, इसीलिए विज्ञापनों के लिए तो उत्सव मार्केट है। बहुत परिश्रम से कमाया धन न चाहते हुए भी आप ऐसे खर्च कर जाएंगे, जो आपको नहीं करना चाहिए। लक्ष्मीजी की घोषणा है कि धन की तीन गति है - दान, भोग और नाश। या तो सत्कार्य, सेवा में लगाइए वरना वह भोग में और भोग से नाश में जरूर जाएगा।

भारतीय संस्कृति के शास्त्रों ने जैसे कालचक्र बताया है, वैसा ही धनचक्र भी होता है। मतलब धन घूमकर आएगा, लेकिन स्वरूप बदला हुआ होगा। इसी चक्र को चक्कर भी कहा गया है। चक्र मतलब एक अवसर जो दोबारा आएगा। चक्कर मतलब उलझना, पूरी तरह से बर्बाद होना। समय चक्र पर फिर दिवाली आ रही है। पिछली बार भी आई थी, लेकिन अब वह लौटकर नहीं आ सकती। आएगी दिवाली ही, पर चूंकि चक्र है तो वह अपना रूप बदल लेगी। हमें हर बार चक्र पर यह सीखना है कि धन का भी अपना चक्र है। जो धन आज आपके पास है वह कल नहीं है, जबकि कल वह हमारे पास होना चाहिए, पर चक्र पर समझ कर करेंगे तो हम धन का सद्पयोग करेंगे, पर चक्कर में उलझकर करेंगे तो हम इसी धन को भोग और नाश में बर्बाद कर देंगे। तो आने वाला समय आकर्षण का समय है। लगातार वस्तुएं आपको खींचेंगी अपनी ओर। उलझ न जाएं चक्कर की तरह, उपयोग करें चक्र की तरह।

निज हित का साधन न बने सेवा
परोपकार जैसे शब्द इस दौर में अपना अर्थ खो चुके हैं। सभी को यही लगता है कि अब वही काम किया जाए, जिसमें अपना हित जरूर हो। सब अपने हित पर इतने केंद्रित हैं कि धीरे-धीरे दूसरे का अहित करने में भी नहीं चूकते। मनुष्य परोपकार व सेवा में भी अपने हित देखने लगता है। अपने हित साधने में बुराई नहीं है। सेवा निज हित का साधन बन जाए यह गलत है। श्रीराम अपने छोटे भाई लक्ष्मण को यही समझा रहे हैं। ससि संपन्न सोह महि कैसी, उपकारी कै संपति जैसी। निसि तम घन खद्योत बिराजा, जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा।अन्न से युक्त (लहलहाते खेतों से भरी) पृथ्वी कैसी शोभित हो रही है, जैसे उपकारी पुरुष की संपत्ति।

रात के घने अंधकार में जुगनू शोभा पा रहे हैं, मानो दम्भियों का समाज आ जुटा हो। इन पंक्तियों में तुलसीदासजी कहते हैं कि उपकारी की फसल जानती है कि एक दिन मुझे कटना है और नए ढंग से दूसरों के काम आना है। उपकारी वृत्ति के लोग मानते हैं कि हमारे परिश्रम से हम यश, धन, प्रतिष्ठा जो भी अर्जित करें वह दूसरों के काम जरूर आए, क्योंकि हर फसल अपने भीतर यह जानती है कि एक दिन मुझे कटना है और वह कटने के लिए इसलिए तैयार है कि उसके जरिये दूसरों का हित होना है। इन्हीं पंक्तियों में तुलसीदासजी ने यह भी कहा है कि यदि रात को फसल देखें तो उसके आसपास कुछ जुगनू मंडराते हैं। जो पाखंड है, जो सेवा को प्रदर्शन से जोड़ते हैं, जिनके मन में अपने अहंकार की पूर्ति के लिए ही सेवा करने का भाव रहता है वो सब दंभी हैं। आज सेवा के क्षेत्र में ऐसे ही लोग आ गए हैं, जो चमकते हैं, दिखते हैं, अपना हित साधते हैं और हट जाते हैं। श्रीराम यहां हमें संदेश दे रहे हैं कि सेवा अवश्य कीजिए लेकिन उन जुगनुओं की तरह नहीं जो आए, चमके और चले गए।

अकेलेपन का कारण है अहंकार
कभी-कभी लोगों के बीच में रहने के बाद भी हमें अकेलापन लगने लगता है। घर-परिवार में किसी बात पर विवाद हो जाए, कामकाज की जगह सफलता न मिले तो लगता है हम अकेले पड़ गए। अकेलापन यदि अधिक समय टिक जाए तो आदमी स्वयं को असहाय महसूस करने लगता है। उसे लगता है दुनिया में कोई मेरे साथ नहीं है। फिर यह असहाय होने का भाव धीरे-धीरे अवसाद यानी डिप्रेशन में बदल जाता है। जब कभी आपको ऐसा लगे कि अकेलापन लग रहा है तो सबसे पहले विचार करें कि इसमें आपका कितना योगदान है। क्योंकि सामान्यत: हम दूसरों को ही दोषी मानेंगे। अब थोड़ा सा इस पर विचार कीजिएगा कि ये सब बाहरी स्थितियां हैं। इनसे हटकर थोड़ा सा भीतर उतरिए।

आप पाएंगे कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारी अस्वीकृति की वृत्ति ने हमें अकेला कर दिया। बात-बात पर ना करना, दूसरों से असहमति बताना धीरे-धीरे हमारा स्वभाव बन जाता है। और यदि ऐसा लगता है कि आप इन दिनों अधिक ना कर रहे हैं तो फिर गहरे जाकर दो बातों पर विचार करें। या तो कोई बात गलत हो, अवैधानिक हो, अनुचित हो और हम अस्वीकृति का भाव रखें तब तो बात समझ में आती है लेकिन यदि अस्वीकृति, असहमति की स्थिति अहंकार के कारण है तो यह अहंकार एक न एक दिन हमें अकेलेपन में डूबो ही देगा। जब घर में या बाहर आप अपने आप को अकेला महसूस करें उस समय तुरंत स्वयं के भीतर झांककर देखिए कि कहीं इसके पीछे असहमति का भाव और उस असहमति के पीछे अहंकार तो नहीं? और यदि ऐसा है तो बीमारी की जड़ हमारे ही भीतर है। ऐसे में दूसरों को दोष देना बंद कर तुरंत स्वयं का ही उपचार करवाएं। अकेलापन भविष्य के लिए अच्छा नहीं है।

पूर्वजों के प्रति श्रद्धा है श्राद्ध
नई पीढ़ी के कुछ लोग सवाल उठाते हैं कि श्राद्ध क्यों जरूरी है? उन्हें लगता है कि ब्राह्मणों ने दक्षिणा पाने के लिए श्राद्ध जैसा कर्मकांड बचाए रखा है, लेकिन भारत की संस्कृति में व्यर्थ कुछ भी नहीं है। श्राद्ध को केवल कर्मकांड की जगह भावनात्मक गतिविधि मानें तो सारे मतलब बदल जाएंगे। आज रिश्ते वैसे ही सिकुड़ते जा रहे हैं। मां-बाप होने के अर्थ बदल गए तो बूढ़े मां-बाप होने के अर्थ और बदल जाएंगे। फिर उनके जो मां-बाप रहे होंगे, जिन्हें दादा-दादी, नाना-नानी कहें उनकी स्मृति तो कोई रखना ही नहीं चाहेगा। नई पीढ़ी इस सर्वे पर ध्यान दें, जिसके अनुसार 100 में से 90 बच्चों को अपने दादा-दादी, परदादा-दादी का नाम मालूम नहीं है, जबकि उनकी स्मृति बहुत तीव्र है।

ऐसे समय श्राद्ध से जुड़ने का मतलब है अपने पूर्वजों को याद करना। यह सवाल सही है कि थाली में रखी हुई खीर-पूरी, ब्राह्मण को दी दक्षिणा पितृों तक कैसे पहुंचती होगी? विज्ञान की दृष्टि से यह सिर्फ ढकोसला हो सकता है, लेकिन भावनात्मक दृष्टि से सारा मामला स्मृतियों का है। जैसे किसी भी वृद्ध के साथ आप कुछ समय रहें तो आपको एक अनुशासन पालना पड़ता है। धीरे चलना पड़ता है, जोर से बोलना पड़ता है। उनके साथ जीवन गुजारें तो उनकी कई बातें अलग ढंग से लेनी पड़ती हैं। ऐसे ही गुजरे लोगों का श्राद्ध है। ये भोजन, ये पूजा सिर्फ स्मृतियों की सुंदर-सी ड्रिल है, इसलिए बच्चों को चाहिए कि वे भले ही श्राद्ध में अधिक समय न दें। बहुत बड़ा ब्राह्मण भोज न दें, लेकिन पूर्वजों को याद करने के लिए श्राद्ध पक्ष का सम्मान तो करें। इन पंद्रह दिनों में अपनेे तरीके से पितृों को याद कीजिए। उनके अधूरे कार्यों को पूरा करना एक तरीका हो सकता है। इसलिए श्राद्ध पक्ष को भावनात्मक रूप से एक पखवाड़े जिया जाए।

देवस्थान होते हैं ऊर्जा के केंद्र
प्रकृति ने हमारे चारों ओर ऊर्जा के कई केंद्र बना रखे हैं। कुछ लोगों को पुस्तक पढ़ने से, कुछ को खेलने से, कुछ को मित्रों के साथ उठने-बैठने से ऊर्जा प्राप्त होती है। ऊर्जा के सबसे बड़े केंद्र हैं देव स्थान। चाहे वो मंदिर हों, मस्जिद हो, गिरिजाघर हो या गुरुद्वारा। जब भी किसी देव स्थान पर जाएं, चार बातों पर ध्यान देना चाहिए। एक, यह अच्छी तरह महसूस करें कि देव स्थान की जगह दिव्य ही होगी, क्योंकि जिस धरती पर यह स्थान बनता है, धरती अपना प्रभाव छोड़ती ही है। दो, उसमें जिस किसी की भी प्रतिष्ठा है जो अवतार, जो व्यक्तित्व वहां विराजमान है, उसको स्थापित करते समय जो भी कर्मकांड किया गया वह भी अपना प्रभाव छोड़ता है ऊर्जा देने में। तीन, जो लोग वर्षों से वहां आ-जा रहे हैं उनकी पॉजीटिव एनर्जी वहां एकत्र हुई होगी।

आजकल इस बात की बड़ी चर्चा है कि एक अंतरराष्ट्रीय व्यावसायिक व्यक्ति ने भारत के एक मंदिर में जाना स्वीकार किया। हर भारतीय को इस बात पर गर्व। किंतु केवल मंदिर जाने से कुछ नहीं होना है। उस मंदिर या देव स्थान से आपको कुछ प्राप्त करना हो तो चौथी बात बड़ी महत्वपूर्ण हो जाती है और वह है हमारी मनोभूमि। शक्ति का एक केंद्र हमारे भीतर भी है, जो बाहर की अच्छी शक्ति को भीतर खींचता है। यदि इस केंद्र को हमने निष्क्रिय कर रखा है तो आप कैसे भी दिव्य स्थान पर चले जाएं, आपको कुछ नहीं मिलेगा और जिनको भी मिला है उनकी चौथी तैयारी बड़ी महत्वपूर्ण थी। आपके भीतर एक केंद्र हैं, जो ऊर्जा को समेटता है। योग की दृष्टि में उसे नाभि कहते हैं। तो जब किसी देव स्थान पर जाएं तो वहां की समूची ऊर्जा अपनी नाभि में उतरे इसके लिए थोड़ी देर शांति से वहां बैठेंं, मानसिक रूप से जुड़ें। यदि हमारी लेने की तैयारी नहीं है तो दे रही प्रकृति कब तक हमारा साथ देगी?

सफलता के बाद संयम जरूरी
किष्किंधा कांड में श्रीराम सीताजी से विरह के क्षणों में लक्ष्मण से चर्चा कर रहे हैं। वे मनुष्य जीवन में होने वाली घटनाओं का प्रकृति के आधार पर चिंतन करते हैं। श्रीरामचरितमानस में कुछ पंक्तियां ऐसी आई हैं, जिन्हें लेकर लोग तुलसीदासजी पर नारी विरोधी होने का आरोप लगाते हैं। श्रीराम के मस्तिष्क में यह बात घूम रही है कि स्त्री के जीवन में कैसे-कैसे संकट आ सकते हैं, इसीलिए उदाहरण देते समय स्त्री की स्वतंत्रता, उसके परिणाम को उन्होंने खेत और वर्षा से जोड़ दिया। इसे तुलसीदासजी ने इस प्रकार लिखा है। महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं। जिमि सुतंत्र भएं बिगरहिं नारीं।। कृषी निरावहिं चतुर किसाना।

जिमि बुध तजहिं मोह मद माना।’ ‘भारी वर्षा से खेतों की क्यारियां फूट चली हैं, जैसे स्वतंत्र होने से स्त्रियां बिगड़ जाती हैं। चतुर किसान खेतों को निराह रहे हैं (उनमें से घास आदि को निकालकर फेंक रहे हैं)। जैसे विद्वान लोग मोह, मद और मान का त्याग कर देते हैं।प्रश्न उठता है कि स्वतंत्र होने पर क्या पुरुष नहीं बिगड़ते? जीवन कुछ नीतियों, सिद्धांतों, मूल्यों से चलता है। इन्हें जो भी तोड़ेगा उसका जीवन बिगड़ेगा ही, लेकिन जब पुरुष आचरण से बिगड़ता है तो उसके नुकसान अलग होंगे और जब स्त्री आचरण से गिरती है तो उसके परिणाम अलग होंगे। जैसे सीताजी ने स्वयं निर्णय लिया था कि उन्हें अकेला छोड़ा जाए और उनके असुरक्षित होते ही रावण को अवसर मिल गया, इसलिए स्त्री की स्वतंत्रता के जो खतरे हैं श्रीराम यहां उस पर टिप्पणी कर रहे हैं। वे कहते हैं समझदार लोगों को मोह, मद, और मान का त्याग कर देना चाहिए। अन्यथा जो उपलब्धियां उन्होंने अपनी योग्यता से प्राप्त की हैं ये उसे नुकसान पहुंचाएंगी सबक है कि हम सफल होने के बाद भी अनुशासन, संयम के दायरे में रहें और दुर्गुणों को अपने से दूर रखें।

गुणों की मार्केटिंग जरूरी
हर व्यक्ति के भीतर सेल्समैन होता है। कोई उसका उपयोग करता है और कोई जानते हुए भी नहीं करता। बाजार के इस युग मंें लोग खरीदने के लिए बेताब हैं या बिकने के लिए बेचैन। जिन्हें अपने गुणों का ठीक से प्रदर्शन करना नहीं आएगा वे उन गुणों के साथ घर में ही बैठे रह जाएंगे। जिन्हें प्रदर्शन करने में महारत हासिल है, जो मार्केटिंग करना जानते हैं, जिनका जनसंपर्क तगड़ा है वो तो दुर्गुण भी बेच देते हैं। इसलिए कम से कम जिनके पास गुण हैं, वे उन्हें समाज-राष्ट्र में जरूर प्रस्तुत करें, उपयोग में लाएं। अपने सद्‌गुणों की मार्केटिंग करना केवल इसलिए जरूरी नहीं है कि हम ही उसका लाभ उठाएं। इसलिए भी जरूरी है कि कहीं न कहीं दूसरों को भी उसका लाभ मिलेगा। उसका उपयोग परिवार में भी करें। कई बार हम कोई बात घर के सदस्यों तक पहुंचाना चाहते हैं और पहुंचा नहीं पाते।

रिश्तों में जो खटास आती है उसका एक कारण यही है। जीवनशैली में खुलापन आ गया और अपनेपन से खुलापन चला गया। एक अच्छा सेल्समैन सामने वाले को इस बात के लिए प्रोत्साहित करता है कि आप जो चाहते हैं वह आपको मिल जाए। हमें अपने परिवारों में सभी सदस्यों के बीच लगातार इस बात की जांच-पड़ताल करते रहना चाहिए कि कोई कुंठित तो नहीं है, कोई अपने आप को दबा हुआ तो महसूस नहीं कर रहा है। कोई कुछ कहना चाहता है और लोग सुन नहीं रहे ऐसी स्थिति तो नहीं बन गई। कहीं ऐसा तो नहीं कि उसके अधिकारों का दमन हो रहा हो। एक अच्छे सेल्समैन की यह खूबी है कि वह अपना प्रोडक्ट तो बेच ही देता है, लेकिन सामने वाले को लाभ भी पहुंचाता है, उसकी उपयोगिता की पूर्ति भी करता है। अपने इस गुण का उपयोग परिवार को जोड़े रखने और प्रसन्न रखने में जरूर कीजिए।

भीतरी शुद्धता लाती है स्वच्छता
स्वच्छता के प्रति आग्रह लगातार बढ़ते रहना चाहिए, क्योंकि इसका सीधा संबंध स्वास्थ्य से है। हमारे देश में पिछले कुछ समय से स्वच्छता एक अभियान बन गया है। साफ-सफाई से रहना अपने आप में भक्ति है, अनुशासन है, लेकिन यदि इसे केवल राष्ट्रीय और सामाजिक अनुशासन के रूप में लेंगे तो लोग सफाई भी दिखावे की तरह करेंगे। यही वजह है कि हम ऐसे लोगों को देखते हैं, जो सफाई के मामले में भी भेदभाव करते हैं। अपने घर को साफ रखेंगे, लेकिन घर के बाहर सड़क को गंदा कर देंगे। सफाई को न सिर्फ हमारे, बल्कि सबके स्वास्थ्य से जोड़कर देखना चाहिए।

यह प्रेरणा इसलिए दी जानी चाहिए कि हम बिना हाथ धोए बहुत सारे कीटाणु अपनी देह में आमंत्रित करते हैं। हाथों को धोकर भोजन करना और अन्य गतिविधि करने के बाद हाथ धोना बड़ा आवश्यक है। हाथों से कर्मकांड संपन्न होता है, इसलिए उसकी पवित्रता पर अत्यधिक ध्यान दिया गया और हमारे यहां हाथ मिलाने की जगह नमस्कार की पद्धति लाई गई। दिल साफ रखने के लिए हाथ साफ रखे जाएं, इसमें कोई बुराई नहीं है। जिस दिन स्वच्छता को हम परमात्मा से जोड़ देंगे, उस दिन हम भेदभाव भी समाप्त कर देंगे। गंदगी करने की वृत्ति कहीं न कहीं भीतर आपको दुर्गुणी बनाएगी, व्यसनी बनाएगी और गलत आचरण से जोड़ेगी। इसलिए हाथ साफ करते हुए मन, वचन और कर्म तीनों की शुद्धता पर भी प्रयास करते रहना चाहिए और जिसने इनकी शुद्धता पर काम किया वह फिर बाहरी स्वच्छता के प्रति कोई दिखावा नहीं करेगा। उसके लिए वह सहज जीवनशैली होगी, जिसकी आज बहुत आवश्यकता है।

दैनिक जीवन में माइक टेस्टिंग
सभी के जीवन में कुछ गतिविधियां ऐसी हो जाती हैं, जिनके होने का पता नहीं चलता। कभी-कभी तो समझ में ही नहीं आता कि ऐसा क्यों हो गया या ऐसा क्यों किया जा रहा है। ऐसा भी होता है कि अभी जो काम दिख रहा है, वह है तो छोटा-सा, लेकिन आगे महत्वपूर्ण हो जाएगा। हैलो - माइक टेस्टिंग..ऐसी ही आवाज सुनने की हर माइक को आदत पड़ गई है। श्रोता के रूप में हमने भी कभी न कभी सुनी होगी। इसके पीछे कोई शब्द, कोई संदेश नहीं है, लेकिन करना जरूरी है, क्योंकि भविष्य में सारी आवाज इसी टेस्टिंग पर टिकी है। जीवन में हमारी कई गतिविधियां माइक टेस्टिंग की तरह होती हैं। थोड़ा कुछ ऐसा करते रहिए जो बिल्कुल माइक टेस्टिंग की तरह हो, क्योंकि भविष्य में उसके परिणाम आने हैं। इस एक शब्द में कोई मैसेज नहीं है, कोई उपयोगिता नहीं है।

जैसे सुबह उठकर थोड़ी-सी देर, 10-15 मिनट योग करना। एक हल्की आवाज है योग में, लेकिन दिनभर की ध्वनि इससे नियंत्रित हो जाएगी। आप माइक टेस्टिंग को भोजन के संदर्भ में जरूर जोड़कर देखिएगा। हम दिनभर में कई बार कुछ ऐसा खाते-पीते रहते हैं, जिसका उस समय कोई परिणाम नहीं दिखता। कभी-कभी तो स्वाद भी नहीं रहता। बिना स्वाद के ही खाते-पीते रहते हैं। बिना भूख के भोजन कर जाते हैं। उस समय तो पता नहीं लगता, लेकिन बाद में इसके परिणाम आते हैं और जरूरी नहीं है कि केवल पाचन तंत्र तक ही इसका प्रभाव हो। पाचन तंत्र यदि संतुलित है तो शरीर पर चढ़ रही चर्बी तक वह थोड़ा-सा भोजन काम दिखाएगा, इसलिए भोजन को माइक टेस्टिंग की तरह लीजिए। जो भी लें, जितना भी लें, लेकिन सावधान रहिए। बिल्कुल इसी भाव से उसको ग्रहण करें कि भविष्य में इसके फायदे और नुकसान क्या हो सकते हैं।

बाहर की भाषा भीतर न लाएं
संसार में अनेक तरह की भाषाएं बोली जाती हैं, लेकिन यह सही है कि हर मनुष्य दो भाषाएं जानता है। एक वह जो बाहर बोल रहा है और दूसरी वह जो भीतर, स्वयं से बोली जाती है। जब हमको हमसे बात करनी हो तो वह भाषा बिल्कुल नहीं होगी, जिसमें हम बाहर दुनिया से बात कर रहे हैं। चूंकि भीतर की भाषा भावपूर्ण होती है, इसलिए इसमें प्रत्येक शब्द का एक अर्थ है। बाहर बहुत कुछ ऐसा भी बोला जाता है, जिसका अर्थ तो दूर, अनर्थ की भी तैयारी होने लगती है। कुछ लोग बाहर की भाषा को भीतर बुलाने की गलती करतेे हैं और यहीं से हमारे लिए चीजों के मतलब बदल जाते हैं। जब कभी ध्यान करने बैठेंगे, नहीं लग पाएगा। हमारे मन को वही भाषा पसंद है, जिससे उसकी आकांक्षाओं की पूर्ति होती है और इसीलिए मन बाहर की भाषा को भीतर खींचता है। भीतर शब्द उतरे और आप शून्य से बाहर हुए, ध्यान से हट गए।

जो लोग अपने भीतर की भाषा को समझ जाएंगे वो उसे घर से जोड़ लेंगे। यूं समझ लीजिए कि जब बाहर से अपने घर में आएं तो वही भाषा बोलिए जो आपके भीतर है एकदम प्रेमपूर्ण, एकदम शांत। आज आदमी घर में भी वही भाषा बोलता है जो बाजार की है। लिहाजा कलह, अशांति होनी ही है। घर में बच्चे जिस भाषा को सुनना चाहते हैं वह अलग है। जीवनसाथी का संबंध जिस भाषा से है वह अलग है। माता पिता बच्चों से, बच्चे माता पिता से बात करें, वह भाषा बिल्कुल अलग है। 
इसमें सामने वाले के शब्दों के प्रति धैर्य, समझ होनी चाहिए, इसलिए अपने भीतर की और अपने घर की भाषा को एक बनाएं और बाहर की दुनिया की भाषा, जिसमें दो पैसे कमाना, नाम, प्रतिष्ठा कमाना है वह भाषा इससे थोड़ी अलग होगी। जो भाषा के क्षेत्र का विभाजन ठीक से कर लेंगे भाषा उन्हें वह दे जाएगी, जिसकी खोज में सभी लगे हुए हैं।

कलयुग में दिव्य जीवन संभव
भारत की संस्कृति में काल को सुंदर ढंग से बांटा गया है। चार युग की कल्पना अवतारों को ही व्यक्त करने के लिए नहीं थी। ऋषि-मुनियों ने चार युगों को मनुष्य की जीवनशैली से जोड़ा है। 

सतयुग का आचरण बहुत शुद्ध होता था। त्रेतायुग में श्रीराम ने अवतार लिया और उस समय आचरण में थोड़ी गिरावट आई। मंथरा जैसे लोग सक्रिय हुए। रावण जैसे योग्य लोगों ने गलत रास्ता पकड़ा। द्वापर आते-आते जीवन मूल्य लगभग ध्वस्त होने लगे। जितना विपरीत श्रीकृष्ण ने देखा उतना श्रीराम ने नहीं देखा। फिर कलयुग में सारी बातें ही उल्टी होने लगेंगी। बुराइयां आसानी से पनपेंगी, लेकिन अच्छे बने रहने की संभावना उतनी ही जीवित रहेगी। श्रीराम ने लक्ष्मण से चर्चा में 19वें और 20वें उदाहरण में कलयुग को धर्म से जोड़ा है। वे कहते हैं जब कलयुग आता है तो धर्म चला जाता है।

इसका मतलब नहीं कि सभी अधार्मिक हो जाएंगे बल्कि अच्छे बने रहने के लिए चुनौतियां अधिक लगेंगी। इसीलिए श्रीराम केे उदाहरण को तुलसीदासजी ने चौपाई में व्यक्त किया है, ‘देखिअत चक्रबाक खग नाहीं। कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं।। ऊधर बरषइ तुन नहिं जामा। जिमि हरिजन हियं उपज न कामा।चक्रवाक पक्षी दिखाई नहीं दे रहे हैं। जैसे कलियुग को पाकर धर्म भाग जाते हैं। ऊसर में वर्षा होने पर भी घास तक नहीं उगती। जैसे हरिभक्त के हृदय में काम नहीं उत्पन्न होता। बंजर भूमि पर बारिश गिरे तो फसल नहीं उगती। भक्त अपने हृदय को इतना शुद्ध और परिपक्व कर लेता है कि काम, क्रोध, मद और लोभ जैसे दुर्गुण अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाते। हम सब कलयुग में रह रहे हैं और श्रीराम लक्ष्मणजी के माध्यम से हमें यह सिखा रहे हैं कि कलयुग में भी दिव्यता से रहा जा सकता है। बाहर यदि विपरीत स्थितियां हों, तो जीवन में चुनौतियों का आनंद बढ़ जाता है।

मनोबल बढ़ाएं, दुर्गुणों को मात दें
विजय की कामना हमारा सहज स्वभाव है। सभी जीतना चाहते हैं और जीतना भी चाहिए। आज भी लोग जितनी दौड़-भाग कर रहे हैं उसके पीछे सफलता की कामना है। सफलता विजय का ही एक रूप है। यदि हम विश्वविजेताओं के जीवन में भी झांकें तो पाएंगे कि सफल होने के बाद भी उन्हें पूर्ण सफलता मिल गई, ऐसा नहीं कह सकते। रावण जैसा विजेता संसार में दूसरा नहीं था। उसने चारों दिग्पाल जीत लिए थे। इंद्र, यम, वरुण और कुबेर सभी को उसने पराजित किया था। मनुष्य उसके नाम से कांपते थे और ऋषि-मुनियों को उसने इतना परेशान किया था कि उनको लगता था अब संभवत: धर्म नहीं बचेगा। रावण की सफलता इसलिए अधूरी मानी जाएगी कि उसने अपनी योग्यता का दुरुपयोग किया था। हर दशहरे पर हम रावण दहन करके मान लेते हैं कि बुराइयों का नाश हो गया।

संभवत: रावण जानता था कि लोग उसे मिटाने का प्रयास करेंगे और इसलिए जाते-जाते वह अपने जीवित रहने की व्यवस्था कर गया था, इसलिए आज भी जीवित है। राम ने रूप-रावण मार दिया, पर रावण अपने अरूप भाव को बचा गया। हम अपने बच्चों को समझाएं कि रावण केवल लंका का राजा नहीं था। उसने योजनाबद्ध ढंग से दुर्गुण फैलाए कि वे लोगों की रग-रग में बस गए। इसीलिए श्रीहनुमान चालीसा का जाप किया जाए, ताकि हनुमान चालीसा की पंक्तियां मंत्र बनकर मनुष्य का मनोबल बढ़ाएं और उस मनोबल से हम रावणरूपी दुर्गुणों का सामना करें। हम अपने परिवार, समाज और राष्ट्र में रावण रूपी बुराई को समाप्त करने के लिए जागरूक हो सकें।

अपनी ही भूलों से हारा रावण
रावण ने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि जिस छोटे भाई विभीषण को मैं लात मारकर भगा रहा हूं, मेरा यह चरण-प्रहार मेरी ही मौत का कारण बन जाएगा। अहंकार मनुष्य के सोचने की क्षमता को खा जाता है। जिस रावण ने अनेक युद्ध लड़े, योजनाबद्ध ढंग से शासन किया वो रावण शीर्ष पर पहुंचने पर अहंकार में डूब गया। कामी वह था ही। अहंकार ने उसके क्रोध को और हवा दी। धीरे-धीरे रावण के सारे निर्णय उसके पतन मार्ग के लिए मील के पत्थर साबित होने लगे। इधर, श्रीराम जानते थे कि सेना व साधनों के मामले में वे रावण से कमजोर हैं। श्रीराम के पास यदि कोई पंूजी थी तो उनके भाई लक्ष्मण और हनुमानजी। इन दो व्यक्तियों के साथ पूरा युद्ध लड़ना था। समझदार और समर्पित साथी हों तो वे मूर्ख और चापलूसों की बड़ी-भारी फौज से भी बड़े काम के साबित होंगे। श्रीराम समझ चुके थे कि रावण कोे मारने के लिए उसकी गलतियां ही काम आएंगी।

विभीषण को लात मारकर रावण ने ऐसी ही भूल की थी। जैसे ही विभीषण ने श्रीराम की शरणागति ली, रामजी ने राजतिलक कर दिया। इसके पीछे श्रीराम की दूरदर्शिता और आत्मविश्वास था। विभीषण को भरोसा हो गया कि श्रीराम जिसको देने पर उतरते हैं तो पूरा दे देते हैं। जो बात सगा भाई नहीं दे सका वह निर्वासित राजकुमार दे गया। बस, विभीषण ने तय कर लिया कि जैसे भी हो श्रीराम को जिताना है। रावण जैसे दुर्गुणों के लिए हमें भी अपने भीतर संगठन शक्ति बनानी पड़ेगी। हमें बहुत योजनाबद्ध ढंग से काम करना पड़ेगा, क्योंकि आज हमारे आस-पास के वातावरण से दुर्गुण कभी भी प्रवेश कर सकते हैं, इसलिए जिनके पास योजना होगी, संगठन शक्ति होगी, समर्पण का भाव होगा और दूसरों के लिए हितकारी दृष्टिकोण होगा वे लोग श्रीराम की तरह अपने भीतर के रावण को अवश्य मार सकेंगे।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....
मनीष

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