Wednesday, August 19, 2015

Jeene Ki Rah8 (जीने की राह)

दोनों लोक में गुरु-मंत्र उपयोगी
विज्ञान ने मनुष्य की भौतिक समस्याओं के समाधान दिए हैं, लेकिन जीवन के कुछ प्रश्न अभी भी अनुत्तरित हैं। उसमें से एक प्रश्न है गुरु की जीवन में क्या आवश्यकता है? गुरु भी एक मनुष्य है और हम भी मनुष्य हैं। जब हम समर्थ हैं, प्रयास हमें ही करना है तो गुरु क्यों बनाया जाए? परमात्मा तक सीधे यात्रा की क्षमता सबमें नहीं होती। इस मार्ग पर उतार-चढ़ाव, अंधे मोड़ आएंगे ही। गुरु हमें गुरु-मंत्र का दीपक दे देते हैं।

गुरु हमारे अहंकार को काटता है और हमारा मूल व्यक्तित्व निखरकर आ जाता है। गुरु कहीं भी हमें लाचार नहीं बनाता। वह हमें परमात्मा तक पहुंचने में सक्षम बना देता है। लोग सारे दायित्व गुरु पर छोड़ देते हैं। गुरु-शिष्य के संबंध में सबसे महत्वपूर्ण है गुरु-मंत्र। इसके द्वारा शक्ति का संचार होता है और शक्ति के संचय से हम बनेंगे शक्तिवान और ऐसा व्यक्ति जीवन के हर क्षेत्र में जरूर सफल होगा। पूरी एकाग्रता और निष्ठा से गुरु-मंत्र जपें। गुरु-मंत्र आध्यात्मिक घटना है, पर आपको संसार में भी सफलता दिलाएगा। एकाग्रता से दृढ़ता आएगी और दृढ़ता से जब भी कोई काम किया जाएगा सफलता मिलकर रहेगी, इसलिए जो लोग संसार को भी प्राप्त करना चाहें उनके लिए भी गुरु और उनका मंत्र उपयोगी ही रहेगा।

यदि जीवन में कोई अवसर मिले और गुरु प्राप्त हो रहे हों तो चूक न जाएं। अन्यथा प्रतिदिन प्रार्थना में भगवान से कहें कि कोई गुरु भेज दें और फिर जो मंत्र प्राप्त हो उस मंत्र पर टिकें। व्यक्ति के रूप में गुरु मिल जाना बहुत बड़ी उपलब्धि है, लेकिन हमारा ही अति आग्रह यदि हमें रोके तो एक विनम्र प्रस्ताव रख रहा हूं हनुमानजी को गुरु बना लीजिए। आप पाएंगे श्री हनुमानचालीसा मंत्र बन जाएगी और आपको वह सारी उपलब्धियां मिल जाएंगी जो जीवन में गुरु के मिलने पर होती है।

सावन में क्रोध, अहंकार मिटा दें
हम परिवार में दो ढंग से जी सकते हैं। पसंद के आधार पर या प्रेम के आधार पर। पसंद-नापसंद को घर के बाहर रखें। संसार में पसंद-नापसंद के साथ रहना व्यावहारिक घटना है, ऐसा करना भी चाहिए। परंतु परिवार में यदि हम कहें कि यह रिश्ता हमें पसंद है, यह पसंद नहीं है तो परिवार बोझ बन जाएगा और टूट भी सकता है। परिवार में सिर्फ प्रेम रखिए। जहां प्रेम है वहां पसंद-नापसंद का सवाल ही नहीं उठता। परिवार दो कारणों से टूटते हैं - अहंकार और क्रोध।

पसंद-नापसंद की वृत्ति इन्हें जन्म देती है, लेकिन प्रेम दोनों को गला देता है। हमें इन दोनों का रूपांतरण करना चाहिए। अहंकार मिटेगा विनम्रता से, क्रोध जाएगा त्याग से। परिवार में विनम्रता और त्याग उतर आए तो न तो आप किसी के प्रति अहंकारी होंगे और न क्रोध करेंगे। कागज पर हस्ताक्षर करने से पहले हम देखते हैं कि उस पर लिखा क्या है? कोरे कागज पर कोई दस्तखत नहीं करता। क्रोध व अहंकार के साथ यही करें। जीवन-पृष्ठों पर जब-जब क्रोध-अहंकार उतरें, गतिविधि का हस्ताक्षर बिल्कुल न करें। करना ही पड़े तो मौन के हस्ताक्षर करिए, मुस्कान की कलम से। दोनों विकार वाणी से व्यक्त होते हैं। विज्ञान भी कहता है कि ज्यादा ऊंचा बोलने से क्रोध-अहंकार बढ़ते हैं। लोग समझते हैं गुस्सा आने पर हम जोर से बोलते हैं।

दरअसल जोर से बोलने से गुस्सा और बढ़ जाता है, अत: घर में मौन रहने व धीरे बोलने का प्रयोग करते रहें, जो तब ज्यादा काम आएगा जब आप इसे सावन माह से जोड़ लेंगे। यह प्रकृति के भीगने का समय है। शिव उपासना में जल का बड़ा महत्व है। यह जीवन में शीतलता लाता है। चलिए, पूरे सावन इस बात का अभ्यास करें कि मौन रखेंगे, मीठी वाणी बोलेंगे और धीमे-धीमे बोलेंगे। इस बार सावन में क्रोध और अहंकार धुल जाने चाहिए।

जीवनशैली का प्राण है सत्संग
विज्ञान ने सिद्ध किया है कि एक वस्तु यदि कुछ समय दूसरी वस्तु के पास रखी रह जाए, तो उनके गुण-दोष एक-दूसरे में उतर जाते हैं। ऐसा ही मनुष्यों के साथ भी है। आप किसी दुर्गुणी व्यक्ति के साथ समय बिताएंगे तो पाएंगे कि दुर्गुण आपके भीतर स्थान बना रहे हैं। इससे बचने के लिए आपको बहुत अधिक संयम की ताकत लगेगी। इसके उलट सद्‌गुणी व्यक्तियों के साथ रहें तो न चाहते हुए भी उनकी अच्छी बातें आपके भीतर प्रवेश करने लगेंगी।

ध्यान दीजिए न चाहते हुए भी, इसीलिए हमारे यहां सत्संग का बड़ा महत्व है। इसमें जो संग शब्द है, वह अच्छी जीवनशैली के लिए प्राण है। जब कहीं, जहां भी अच्छे व्यक्ति का संग मिले लाभ उठाइए। किंतु अच्छे व्यक्ति मिलने मुश्किल हों, तो किसी शास्त्र का, पवित्र स्थान का संग कर लीजिए। वह भी सत्संग है। कुछ स्थान ऐसे हैं जिन्हें तीर्थ, मंदिर कहते हैं, वहां भी सत्संग घटेगा। ऐसे गुण जिनकी तलाश में आपको बहुत समय लगाना पड़े, परिश्रम करना पड़े, वह आपके जीवन में आसानी से उतर जाएंगे। जब आप किसी अच्छे व्यक्ति के पास बैठे होते हैं, तो आप पाएंगे कि शरीर बैठा है, लेकिन मन भीतर से कह रहा है भागो। वह उस अच्छे व्यक्ति पर संदेह कराएगा।

एक अरुचि-सी जगाने लगता है। ऐसे समय आप अपने मन से बात करिए। अभी हम सत्संग कर रहे हैं, एक अच्छे व्यक्ति के पास बैठे हैं। फिर पूछिए कि क्या तुम यहीं हो? एक गूंज-सी भीतर उठेगी, ‘क्या तुम यहीं हो,’ जब तक कि वो यह न कहे कि हां मैं यहीं हूं, क्योंकि मन रुका और आप शांत हुए। फिर आपके भीतर अच्छी बाते बहुत आसानी से प्रवेश कर जाएंगी। इसलिए जब भी मौका मिले सत्संग करिए और उस समय मन से पूछते रहिए कि क्या तुम यहीं हो? कहीं मत जाना, रुके रहना।

ऐसे हो जाते हैं हम व्यसनाधीन
आपने जीवन में कुछ मित्र बनाए होंगे। संभव है कुछ शत्रु भी बनाए हों या कुछ लोग अपने आप शत्रु बन गए हों। कुछ ऐसे भी मित्र हो सकते हैं, जो पहले तो मित्र लगे और बाद में शत्रु जैसा व्यवहार कर रहे हैं। यह है बाहर की दुनिया का मामला। आइए, अब बात ऐसे मित्र की जो पहले मित्र है और बाद में शत्रु। इनका नाम है व्यसन मित्र। दुर्गुण मित्र बनकर बाद में जो दुश्मनी निकालते हैं, तब पछतावा होता है। तीन तरीके से मनुष्य व्यसन करता है। पहला, नशा करना। जैसे शराब, अफीम, गांजा, भांग का सेवन। इसका संबंध शरीर से है। दूसरा है कर्म का नशा। जैसे जुआं खेलना, सट्‌टा लगाना। तीसरा रूप है काम-भोग। पर पुरुष-गमन, पर स्त्री-गमन। जब मनुष्य में इनमें से कोई भी एक आए या तीनों आएं, शुरू में मित्र लगते हैं, लेकिन धीरे-धीरे ये मनुष्य के व्यक्तित्व को खोखला करते हैं।

संभलने तक देर हो जाती है। ज्यादातर लोग जागते हुए सपना देखते हैं। नींद में देखे सपने तो याद रहते हैं पर जागते हुए देखे सपने हम भूल जाते हैं। सारे कामकाज चल रहे हैं और भीतर सपनों में खोए हैं। व्यसन एेसे लोगों के जीवन में जल्दी उतरते हैं, क्योंकि जब आदमी सपने में खो जाता है तो व्यसन को प्रवेश का मौका मिल जाता है। आज चारों तरफ दुर्गुणों की आंधियां चल रही हैं। ऐसे में हम खुद बचें और बच्चों की इनसे रक्षा करें। बचने के दो तरीके हैं- सावधानी और सतर्कता। बाहर सावधानी रखें और भीतर सतर्क रहें। सावधानी का संबंध शरीर से है और सतर्कता का संबंध मन से है। सावधानी मतलब गिर जाना। सतर्कता मतलब गिरकर उठना। जिसने यह साध लिया वह फिर कैसे भी विपरीत वातावरण में रहे, व्यसन उस पर हावी नहीं होंगे। व्यसन से बचें वरना अपना व पूरे परिवार का बहुत बड़ा नुकसान कर देंगे।

प्रेमपूर्ण रहना सुंदरता का प्रतीक
किसी भी वस्तु का सौंदर्य केवल उसकी सजावट में नहीं, बल्कि उसके सदुपयोग और समय रहते नष्ट होने के पहले ही उसके परिणाम ले लिए जाएं, इस बात में है। हम सभी सौंदर्य पसंद करते हैं। यदि हमको सौंदर्य से लगाव है तो छोटी से छोटी चीजों का सदुपयोग करना सीख जाएं। कपड़े उतारकर फेंकना, चप्पल-जूतों को बेतरतीब ढंग से रखना, भोजन झूठा छोड़ना, कार के दरवाजे को जोर से बंद करना और बेजान चीजों को लात मार देना।

हम तो यह मानकर चलते हैं कि सामने वाली वस्तु बेजान है, लेकिन कहीं न कहीं हमारी यह क्रिया हमारे व्यक्तित्व को प्रभावित करती है। इसलिए जीवन में सौंदर्य बनाना हो तो हर काम को तन्मयता और समर्पण से करिए। काम बाहर हो रहा है और एक सौंदर्य हमारे भीतर घट रहा होगा। अपनी वस्तु के प्रति तो हम फिर भी थोड़े जागरूक हैं, क्योंकि अपनी है। अपने भीतर सौंदर्य जगाने की दृष्टि से अच्छा व्यवहार करिए। अगर हम किसी दूसरे से कोई वस्तु लें, तो उसके प्रति अतिरिक्त सावधान रहें। पहले तो यह मानकर चलें जो वस्तु हमने दूसरे से ली है वह अतिथि के रूप में है। समय रहते उसे वापस लौटाना है। ली गई वस्तु जब लौटाएं तो पूरी तरह आभार से भरकर लौटाएं। वस्तु के प्रति भी और वस्तु देने वाले के प्रति भी। जिन्हें मेडिटेशन में रुचि हो वो दूसरे की वस्तु का उपयोग करने में और लौटाने में जितने सावधान रहेंगे वे पाएंगे कि जीवन की यह क्रिया उनके ध्यान लगाने में मदद करेगी।

विचार का संबंध मन से है और मन दूसरों की वस्तु के प्रति अतिरिक्त रुचि रखता है। आप दूसरों की वस्तु लौटाते हैं तो मन निष्क्रिय होता है। अपनी वस्तु के प्रति सजग होते हैं मन आपके नियंत्रण में आ जाता है। परिणाम में आपका ध्यान आसानी से लगेगा और आप खूब सौंदर्य से भरपूर होंगे। जीवन में प्रेमपूर्ण रहना भी सुंदरता का प्रतीक है।

परिवार का पालन भी यज्ञ है
सभी धर्मों के पास अपनी-अपनी पूजा पद्धति में कुछ विशेष क्रियाएं हैं। गिरजाघर की प्रेयर का अपना मतलब भी है। मस्जिद में पढ़ी गई नमाज भी अपने आप में संदेश है। गुरुद्वारे में जिस तरह से ग्रंथ-साहिब पढ़ा जाता है, उससे पूरी तरह नादब्रह्म प्रभावित हो जाता है। ऐसे ही हिंदू-धर्म में यज्ञ है। हवन सामग्री को कुछ मंत्रों के साथ विप्रगण प्रभावित करते हैं और अग्नि, हवन सामग्री, मंत्र और पुरोहित के सद्कर्म मिलकर पूरे वातावरण को शुभ और कल्याणकारी स्थिति से जोड़ते हैं। भारत के परिवारों में कोई न कोई वरिष्ठ व्यक्ति होता है, जि सकी जिम्मेदारी होती है परिवार का भरण-पोषण करना।

पहले यह दायित्व संभालने वाले को सम्मान भी मिलता था। अब बदले हुए परिवारों में कुछ सदस्यों को जिम्मेदारी तो उठानी पड़ती है, पर उन्हें यह पीड़ा होती है कि मान नहीं मिलता, क्योंकि शक्ति के छोटे-छोटे केंद्र बन गए हैं। ऐसे में इन लोगों को यज्ञ की फिलॉसफी को जीवन में उतारना चाहिए। परिवार का लालन-पालन एक यज्ञ की तरह है, जिसमें सबकुछ स्वाहा के बाद शुभ निकलता है। हवन का धुआं अपने आप में दिव्य संदेश है। यदि आप परिवार का लालन-पालन इस दृष्टि से करेंगे तब लगेगा जो किया वो अनूठा था।

इस भाव के लिए एक यज्ञ भीतर भी किया जा सकता है। शांति से बैठ जाइए और मूलाधार चक्र की ऊर्जा को धीरे-धीरे सहस्त्रार यानी मस्तक के ठीक बीच में लाइए। जैसे यज्ञ में हवन सामग्री डाली जाती है ऐसे ही भीतरी यज्ञ में ऊर्जा को सामग्री समझकर नीचे से ऊपर उठाइए। ऊर्जा जितनी ऊपर उठेगी आप उतने ही आनंदित होंगे और अपने किए हुए के परिणाम को अच्छे से जानकर उसको भी खूब प्रसन्नता से स्वीकार करेंगे। ये दोनों यज्ञ करते रहिए, आप जहां भी नेतृत्व दे रहे हों परिवार या बाहर, आपको हर हाल में आनंद आएगा।

कर्म फल के प्रति आसक्ति न हो
कर्म-योग बहुत श्रेष्ठ है, लेकिन इसमें जब परिणाम की आसक्ति जुड़ जाती है, तो वह इसे दूषित कर देती है। एक बात दिमाग मेें बिठा लें कि पूरे प्रयास के बाद भी जीवन में कुछ बातें अपने ही ढंग से होकर रहेगी। हमारा अधिकार शत-प्रतिशत कर्म पर है, शत-प्रतिशत परिणाम पाने में नहीं है। सही को पूरे प्रयास से करना चाहिए, लेकिन गहरे में यह स्वीकृति बनी रहे कि कुछ ऐसा होगा, जिस पर हमारा नियंत्रण नहीं रह पाएगा और उस समय विचलित न हों।

स्वीकृति के इसी भाव को और अस्वीकृति की इसी दशा को आस्तिक और नास्तिक शब्द दिए गए हैं। वैसे माना जाता है कि जो ईश्वर की सत्ता पर विश्वास करे वह आस्तिक और जो न करे वह नास्तिक। नास्तिक व्यक्ति ईश्वर को इसलिए अस्वीकार करता है कि उसकी घोषणा रहती है जो भी हूं, मैं ही हूं और इसीलिए कर्म और परिणाम के प्रति उसका अति-आग्रह हो जाता है। यह तय है कि जो होना है वह होकर रहेगा और यहीं से वह विचलित हो जाता है। मन आपको आस्तिक होने से रोकता है और यदि आप आस्तिक हों जाते हैं तो गलत ढंग से आपको आस्तिक बना देता है, लेकिन जैसे ही स्वीकृति का भाव आता है आप घर, ऑफिस में हों, अकेले हों, जो भी घटनाएं आपके जीवन से गुजरेंगी आप उसे सही ढंग से स्वीकार करेंगे।

आस्तिक होने का यह भी अर्थ है कि अपनी आध्यात्मिक चेतना का सद्पयोग करना। नास्तिकता इसी चेतना का दुरुपयोग है। आध्यात्मिक चेतना हमें यह सिखाती है कि हमारा जन्म कुछ विशेष बातों के लिए हुआ है और वह मृत्यु के पहले हमे करना ही है, लेकिन हम उलझ जाते हैं परिणाम मे। स्वीकार करिए, जो होगा उसे देखेंगे, लेकिन कर्म पूरी ताकत से करेंगे। आस्तिक के लिए ईश्वर का सहारा मददगार है। वह नास्तिक को परेशान कर जाता है।

सुखी रहना जन्मसिद्ध अधिकार
बिना तैयारी के जीवन में कुछ भी न लाएं। यदि हम धन, पद, प्रतिष्ठा या परिवार चाहते हैं, तो इसके लिए तैयारी जरूर करें। यदि तैयार नहीं हैं तो हम अपरिपक्व होंगे और जो बातें हमारे जीवन में आने वाली हैं उनका उपयोग ठीक से नहीं कर पाएंगे। जिनसे सुख मिल सकता है वह दुख का कारण बन जाएंगे। तैयारी के लिए संकल्प लेना पड़ता है कि यदि धन आएगा तो हम तैयार हैं उसके सदुपयोग के लिए। हमारी इंद्रियां बहाना बनाने में माहिर हैं, लेकिन उन्हें नियंत्रित करने की तैयारी है तो जीवन में जो स्थितियां आ रही हैं उसमें वे दुरुपयोग नहीं करेंगी।

तब आप हर हाल में सुखी होंगे, क्योंकि आपकी तैयारी ठीक है। जैसे धन का सदुपयोग करने के लिए हम उसे बंैक में डिपॉजिट करते हैं, ऐसे ही कुछ विचारों, निर्णयों, व्यक्तित्वों को स्टॉक करना सीखें। जीवन के किसी मोड़ पर भविष्य में वे काम आएंगे। तैयारी इसी का नाम है। यह नहीं किया तो इंद्रियां तुरंत उनका दुरुपयोग शुरू कर देंगी। याद रखिए इंद्रियां आसानी से नियंत्रण में नहीं आएंगी। आंख को जो करना है वो छोड़कर सारे दृश्य देखेगी, जो उसे नहीं देखने हैं। जीभ, त्वचा, कान ये सारी इंद्रियां बिना नियंत्रण के नुकसान ही पहुंचाएंगी। अच्छे लोग अच्छाई से तो जुड़ना चाहते हैं, पर हिम्मत नहीं करते।

कई बार तो व्यक्तियों की अच्छाई उनकी मजबूरी होती है। बुरा आदमी बुरा काम किसी न किसी हिम्मत के साथ करता है। इसीलिए हम पाते हैं अच्छे लोग टूटे, दुखी, परेशान नजर आते हैं। हिम्मत नहीं थी तो संकल्प नहीं लिया। संकल्प नहीं लिया तो तैयार नहीं थे और जब तैयार ही नहीं थे तो घटनाएं परेशान करेंगी ही। अब यह संकल्प लिया जाए कि हम तैयार हैं हर बात के लिए कि हम सुखी रहेंगे, क्योंकि सुखी रहना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।

संसार व ईश्वर के फर्क को समझें
एक विरोधाभास सभी के जीवन में अपने-अपने ढंग से बना रहता है। जो लोग भगवान को मानते हैं वे पूरी ताकत संसार छोड़ने में लगा देते हैं। जिन्होंने अपनी सारी शक्ति संसार में झोंक दी है, उन्हें भगवान से परहेज शुरू हो जाता है। कुछ लोग दोनों को पकड़े हुए हैं, तो पूरा जीवन उलझन और भ्रम में पड़े रहते हैं बस इसी भ्रम के कारण भक्त भी तनाव में पाए जाते हैं, जबकि भक्ति और अशांति ये साथ नहीं हो सकते। अशांत चित्त से भक्ति हो ही नहीं सकती। ध्यान रखिए, संसार में रहना है, तो उसे पाने की कोशिश मत करिए, उसमें रहना ही उसे पाना है। संसार कभी किसी को नहीं मिला, क्योंकि संसार कभी भी स्थिर नहीं रहता, प्रतिपल नष्ट हो रहा है। अब परमात्मा की बात करते हैं। भगवान नित्य प्राप्त है और जो मिला ही हुआ है उसे फिर क्या पाना।

थोड़ा-सा होश जगाइए वह अपने आप दिख जाएगा। यह आपकी क्षमताओं में शामिल है। एक ताकत भगवान में भी नहीं है और वह है अपने भक्तों से दूर जाना। हम ही उनसे दूर भागते हैं। संसार पाने का ऐसा युद्ध है, जिसमें जीत भी जाएं तो हाथ में हार ही लगेगी। यदि पाए हुए परमात्मा के लिए होश जगाने के युद्ध में हार भी जाएं तो भी आपकी जीत ही है। इस हार में भी एक तृप्ति, एक सुगंध है। संसार मिल भी जाए तो सावधान हो जाना, क्योंकि इस पाए हुए में भी बहुत कुछ खोना है। हमारे जितने संत, महात्मा, फकीर हैं ये भगवान के सामने हारे हुए हैं और इसीलिए जीत गए। नेपोलियन व सिकंदर ने दुनिया जीत ली पर वे सबसे अधिक हारे हुए लोग हैं। हमें संसार और परमात्मा के इस अंतर को समझना है, फिर चाहे संसार में रहें, चाहे भक्ति करें दोनों का आनंद समान रूप से उठा सकेंगे।

हम से इस प्रकार मिलते हैं भगवान
भगवान अपने भक्तों से किस ढंग से मिलते हैं यदि यह जानना हो, तो उनकी कथाओं को पढ़ना चाहिए। श्रीराम केवट से मिले हों, श्रीकृष्ण ने सुदामा से क्या व्यवहार किया? बुद्ध से उनके भिक्षु जब सवाल-जवाब करते थे तो किस प्रकार होते थे? महावीर और नानक के निकट जाकर लोग कैसा महसूस करते थे? मोहम्मद साहब के खास लोगों ने उनमें क्या देखा? ये सब ईश्वर के रूप हैं, उनके प्रतिनिधि हैं।

यदि हम इनको ठीक से समझ लें, तो हम जान जाएंगे परमात्मा अपने भक्तों से किस तरह मिलता है। किष्किंधा कांड के संबंध में शंकरजी पार्वतीजी को कथा सुना रहे हैं, जानतहूं अस प्रभु परिहरहीं। काहे न बिपति जाल नर परहीं।। जो लोग जानते हुए भी ऐसे प्रभु को त्याग देते हैं, वे क्यों न विपत्ति के जाल में फंसें?’ यहां शिवजी के माध्यम से तुलसीदासजी ने बताया है कि श्रीराम बहुत कृपालु हैं। वे सुग्रीव से मिले तो दया का भंडार खोल दिया था। ऐसे दयालु भगवान को लोग भूल जाते हैं। सुग्रीव ने जो गलती की हम भी वही कर रहे हैं। ईश्वर को त्याग देंगे तो संकट जरूर आएगा।

जिस ढंग से ईश्वर हमसे मिलते हैं उसी तरीके से हम भी दूसरे लोगों से मिलें। शास्त्रों में किसी से मिलने का एक तरीका है। पहली बात, जो भी आपके सामने हो उसे पूरा देखें। हम जब भी किसी से मिलते हैं एक अनदेखा भाव हमारे भीतर रहता है, क्योंकि हमारे भीतर अपने ही समीकरण चल रहे होते हैं। दूसरी बात, उस व्यक्तित्व को, उनकी बातों को अपनी आती-जाती सांस से जोड़ें और तीसरी बात उस व्यक्ति की छवि अपने हृदय पर उतारें, पर ध्यान रखें सामने वाला व्यक्ति साफ-सुथरा, सही होना चाहिए। अच्छे लोगों से मिलने पर यह तीन काम करें। भगवान अपने भक्तों से इसी तरह मिलता है।

उपकार में अहंकार मौजूद न हो
उन अवसरों को तलाश करते रहिए, जिनमें हम दूसरों के लिए मददगार साबित हो जाएं। चाहे व्यक्ति समर्थ हो या असमर्थ। लोगों को यह अहसास दिलाना कि हम उनके हैं या उनके हो सकते हैं, अपने आप में एक बहुत बड़ी पूजा है। हमारा प्रभाव और स्वभाव दोनों ही दूसरों के काम आ सकें तो यह हमारी उपलब्धि होगी। जो असमर्थ हैं, कमजोर हैं वह तो मदद पाने के लिए बेताब रहते ही हैं। हम इतने योग्य हो जाएं कि समर्थ लोग भी उस मौके की तलाश में रहें, जिसमें हम उनके लिए मददगार बन सकें।

सहयोग, मदद और एहसान इन तीनों में जो भी अंतर है वह अहंकार का है। मदद करिए निरहंकारी होकर। सहयोग में थोड़ी-सी अपेक्षा आ सकती है, लेकिन अहंकार आते ही यह एहसान में बदल जाता है और फिर सारे किए-धरे पर पानी फिरने लगता है। जिनके भीतर भक्ति-भाव होता है, जो सच्चे भक्त होते हैं वह दूसरों की मदद के लिए उतावले होते है। जब तक दूसरों की मदद नहीं करते बेचैन रहते हैं, लेकिन आपकी मदद उपकार में बदलने को हो, तो तुरंत सावधान हो जाएं, क्योंकि इस उपकार के बाद जो बचता है वह है अहंकार। सामने वाला आभार व्यक्त करेगा और आपका अहंकार पोषित होने लगेगा, इसलिए जब भी किसी की मदद करें तो उसे तुरंत भूल जाएं। मदद पर कुछ सोचना ही नहीं है।

एहसान के बाद यदि सन्नाटा आ गया तो अहंकार पैदा नहीं होगा। दूसरों की मदद के लिए सदैव तैयार रहें, लेकिन इसे अहंकार के कारण अपने नुकसान में न बदलें। जब आप दूसरों की मदद कर रहे होते हैं तब परमात्मा इस बात के लिए तैयार हो जाता है कि मुझे इसकी मदद करनी होगी, लेकिन जैसे ही हमारी मदद अहंकार में बदलेगी ईश्वर भी अपना उठाया हुआ कदम पीछे खींच लेता है। अच्छे काम के बुरे परिणाम इसी को कहते हैं।

स्वीकृति से खत्म करें तनाव
जब भी आप किसी को बदलने का प्रयास करेंगे, तो वह दबाव में आएगा और झगड़े शुरू हो जाएंगे। पति-पत्नी के बीच मतभेद और झगड़े के जितने कारण हैं उनमें बड़ा कारण है एक-दूसरे को बदलने में जुटे रहना। पति चाहता है मेरे हिसाब से चले और पत्नी के अपने आग्रह होते हैं। दोनों एक-दूसरे का व्यक्तित्व बदलते-बदलते सीमाएं लांघ जाते हैं और अस्तित्व बदलने का प्रयास करने लगते हैं। जब बात अस्तित्व पर आती है, तो फिर विद्रोह अपने-अपने ढंग से होने लगता है। दोनों में से जो भी दबे वह डिप्रेशन में डूब जाता है। यदि दोनों ईमानदारी से अपनी बुराइयों की लिस्ट बनाएं तो दोनों की लगभग एक जैसी ही बनेगी। सिर्फ दोषारोपण का स्वभाव विवाद को जन्म देता है। एक-दूसरे से इतनी अपेक्षाएं होती हैं कि उन्हें पूरा करने में असहज हो जाते हैं। फिर संबंध खराब होकर टूट जाते हैं। रिश्ता बचाना हो तो प्रयास दोनों करें तब तो अच्छा है। अन्यथा जिसे लगता है कि संबंध बचना चाहिए, उसे ही पहल करनी चाहिए।

कुछ दिनों के लिए संकल्प ले लें कि अब सिर्फ हांमें जीना है। जो भी स्वीकृति में जीता है, वह जल्दी शांत हो जाएगा। यदि एक भी शांत होने लगे तो उसका प्रभाव दूसरे पर पड़ेगा ही। यदि किसी बात पर सहमति न बने तो तुरंत उस बात को भूल जाएं। घटना जैसी भी घटे उसे स्वीकार करें। एक दिन आप पाएंगे कि आपके जीवनसाथी ने आपकी इसी स्वीकृति की आदत के कारण अपनी आदतें भी बदलनी शुरू कर दी हैं। जो ऊर्जा अस्वीकृति में लग रही थी, वही ऊर्जा अब शांति में बदलने लगेगी और इस ऊर्जा के कारण संबंध प्रगाढ़ होंगे ही इसलिए जब कभी आपको ऐसा लगे कि आप अपने जीवनसाथी से तनाव में हैं, तो पहला प्रयोग अपने पर करें सहमत होना आरंभ कर दें।

बच्चों को बाग में जरूर ले जाएं
बहुत से युवा माता-पिता अपनी भूमिका के मामले में अपरिपक्व होते हैं। कुछ तो अब भी उसी पुरानी दुनिया में डूबे रहते हैं। वे माता-पिता बनने के बाद भी विवाह पहले की मौज-मस्ती छोड़ना नहीं चाहते। आप जैसे ही माता-पिता बनते हैं सबसे पहले आपको दिनचर्या में परिवर्तन लाना पड़ेगा। फिर सोच में परिवर्तन लाएं।
अगर मां-बाप ठीक से नहीं जुड़ते हैं, तो इसकी कीमत बच्चा चुकाएगा। इसलिए जैसे ही आप मां-बाप बनें आपको अपने पुराने संबंधों, पुरानी जीवनशैली में परिवर्तन करना ही होगा। कई मां-बाप इसमें चिढ़ जाते हैं। ऐसे में फिर माता-पिता एक-दूसरे पर जिम्मेदारी डालने लगते हैं और जल्दी से पति-पत्नी बन जाते हैं। पति-पत्नी यानी आपस का झगड़ा, माता-पिता यानी ऐसी समझ, जिससे बच्चों का लालन-पालन होना है। आपको जब भी समय मिले बच्चों को लेकर बाग-बगीचे मे जरूर जाएं।

मां-बाप यदि बच्चे के साथ किसी बच्चे के रूप में हैं तो यह जीवन को संयुक्त रूप से नया रूप देना है, क्योंकि यह वाटिका-सत्संग अद्‌भुत होता है। पेड़-पौधों में प्राण ऊर्जा होती है। जब आप अपने बच्चों के साथ किसी बाग में बैठते हैं, तो अपने आप ऊर्जा एक-दूसरे में स्थानांतरित होती है। बच्चों में यह भाव घर कर जाता है कि हम सब एक-दूसरे पर निर्भर हैं, जैसे यह वृक्ष हैं। विज्ञान कहता है कि पौधे भाव पकड़ते हैं और भाव छोड़ते भी हैं। यह प्रयोग अद्‌भुत साबित हो सकता है, लेकिन लोग समय मिलने पर मॉल जाते हैं या और किसी शोर वाली जगह ले जाते हैं, वहां भी जाना चाहिए, लेकिन संतुलन स्थापित करने के लिए किसी न किसी वाटिका मे अपने परिवार, अपने बच्चों के साथ कभी न कभी जरूर जाते रहें, क्योंकि वहां से जो लेकर आएंगे वो कहीं और से नहीं मिल पाएगा।

आत्म परीक्षण से क्रोध काबू करें
क्रोध करने वाले लगभग सभी लोग यह चाहते हैं कि उनका क्रोध करना छूट जाए। गुस्सैल से गुस्सैल आदमी भी इसे अपनी कमजोरी मानता है। कई लोग तो क्रोध करने के बाद उदासी में भी डूब जाते हैं। क्रोध समाप्त हो इसके लिए एक छोटी-सी सोच अपनी जीवनशैली में जरूर उतारें। जब कभी खाली बैठे हों व ऐसी स्थिति न हो कि क्रोध आने वाला है, तो थोड़ा अपने जीवन में पीछे जाइए। यदि आप 40 साल के हैं तो आयु को तीन भागों में बांट लें।

फिर देखिए कि आपके जीवन में ऐसी कौन-सी घटनाएं घटी थीं। हर उम्र के पड़ाव की जड़ में जाकर आप निश्चित रूप से पाएंगे कि क्रोध की जड़ें आपकी होंगी, लेकिन खाद-पानी दूसरे का होगा। किसी और का अतीत क्रोध बनकर आप पर छा गया। फिर वह आपका अतीत बना और आपने अपने बीते हुए को किसी और पर क्रोध बनाकर डाला। यह एक शृंखला है। अब आप विचार करेंगे तो पकड़ लेंगे कि किन बातों पर आपको क्रोध आया। आप पाएंगे कि अधिकतर मौकों पर दूसरे लोग थे। धीरे-धीरे आपको यह विचार आने लगेगा कि आज तक हम वही कर रहे हैं। पुराने समय में जिन बातों पर आपको क्रोध आया है उन बातों पर अब क्रोध न करें।

बस, धीरे-धीरे आप पाएंगे कि आपको क्रोध से मुक्ति मिल रही है। अपने दिवंगत माता-पिता, पितृजन या किसी ईष्ट का चित्र अपने निकट जरूर रखें। जब भी क्रोध आए उस तस्वीर को गौर से देखिएगा। यदि क्रोध कर चुके हों और उसके बाद एकांत मिलने पर तस्वीर पर नजर गड़ाएं। लगभग डूब जाएं उस तस्वीर में। आप पाएंगे धीरे-धीरे आप क्रोध से मुक्त होने लगेंगे। जिन्हें जीवन में सफलता की लंबी यात्रा करनी हो, उन्हें अपनी ऊर्जा बचाकर रखनी चाहिए और ऊर्जा को सबसे ज्यादा यदि कोई खाता है तो क्रोध।

उचित हों लक्ष्य प्राप्ति के साधन
हम खाली कभी नहीं बैठते। कुछ न कुछ काम हर समय चलता रहता है। सोते वक्त नींद अपना काम कर रही होती है, जिससे जागने के बाद किए काम प्रभावित होते हैं। साधकों व भक्तों को सिखाया जाता है कि कोई भी काम जागरूक रहकर, होश में करें। इससे हम उद्देश्य प्राप्ति के लिए गलत साधन उपयोग में नहीं लाएंगे।

लक्ष्य तक पहुंचने के लिए साधन तो सही हों, लेकिन उससे ज्यादा महत्वपूर्णर यह है कि जब आप अपने लक्ष्य पर पहुंच जाएं तब भी जिन साधनों का उपयोग कर रहे हैं वे सही होने चाहिए। देखा जाता है कि लक्ष्य तक पहुंचने के लिए सही साधन अपनाने वाले लोग, लक्ष्य पर पहुंचने के बाद सही साधन छोड़ देते हैं। 

राजनीति में ऐसा देखा जाता है। समर्पित, ईमानदार लोग भी सत्ता पर बैठते ही वे सारे सही मार्ग छोड़ देते हैं, जिनसे वे वहां तक पहुंचे थे। किष्किंधा कांड के इस प्रसंग में यही दिखता है। सुग्रीव ने श्रीराम और हनुमानजी जैसे साधन अपनाए और सत्ता तक पहुंच गए। राजा बनने के पहले सुग्रीव ने वचन दिया था कि मैं सीताजी की खोज के लिए वानर भेजूंगा। श्रीराम ने उस समय सुग्रीव से कहा भी था। तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘अंगद सहित करहु तुम्ह राजू। संतत हृदयं धरेहु मम काजू।। जब सुग्रीव भवन फिरि आए।

रामु प्रबरषन गिरि पर छाए।जब सुग्रीव को श्रीराम समझा रहे थे तो इस बात पर उन्होंने दबाव डाला था, ‘मेरे काम का हृदय में सदा ध्यान रखना।यह है कर्तव्य। आपको सत्ता जिसके लिए मिली है उसके बाद अपने दायित्व, कर्तव्य को मत भूलिए। हम लोग यहीं चूक जाते हैं और इसलिए चूक जाते हैं कि हमारे भीतर एक सूक्ष्म अहंकार होता है। वह कुछ ऐसी विकृतियां पैदा करता है कि हम उन विकृतियों को लेकर जीने लगते हैं।

मध्यस्थता में तटस्थ होना जरूरी
यदि आप किसी बड़े पद पर हैं, आपके निर्णय को लोग मान्य करें और किसी विवाद में लोग आपकी मध्यस्थता चाह रहे हों तो ऐसे समय यदि आप सावधान नहीं हैं तो पक्षपात कर सकते हैं। लोगों की अपेक्षा है कि आप तटस्थ होकर काम करें। तटस्थ रहने के लिए अध्यात्म की जरूरत है। आधुनिक प्रबंधन आपको किसी को निपटाना, कोई आपको न निपटाए इससे बचना सिखा सकता है, लेकिन तटस्थता आत्मा के निकट होने पर सधती हैै।

आप जितना शरीर पर टिकेंगे आक्रामक होने की उतनी संभावना रहेगी। षड्यंत्र की सूझ-बूझ आपके भीतर हो सकती है, लेकिन मध्यस्थता में दोनों पक्ष की अच्छाइयां और बुराइयां ठीक से समझनी पड़ेगी। ऐसे समय कुटिल बुद्धि काम नहीं करेगी। आत्मा के निकट होने पर आप जानते हैं कि अच्छे की अच्छाई बाहर आए, बुरे की बुराई समाप्त हो जाए। यही सही मध्यस्थता है। कभी-कभी तटस्थता में लोग अत्यधिक कठोर हो जाते हैं। कठोर व्यक्ति बाहरी दृश्य देखता है जबकि तटस्थ व्यक्ति भीतर की संवेदनाएं भी पकड़ता है। परिवार में आप बड़े हों, कुछ सदस्यों में मतभेद दूर करना हो तो आपको संवेदना के स्तर पर अपनी तटस्थता जोड़नी है, न कि कठोर होकर कोई फैसला सुना दें।

इसके लिए प्रेम और सहजता चाहिए, क्योंकि आपका निर्णय किसी को चोट पहुंचा सकता है, लेकिन आपका तटस्थ होना किसी के लिए संतोष का कारण और किसी के लिए समझ का कारण होगी। मध्यस्थ बनना हो तो सबसे पहले कुछ समय मेडिटेशन कीजिए। अपने चक्रों पर काम करिए। चक्रों के बीच घूम रही जीवन ऊर्जा आपकी तटस्थता को संवेदना से जोड़ेगी। अन्यथा आप सिर्फ अपनी पसंद का कठोर निर्णय सुना देंगे। उसमें स्थिति का सही मूल्यांकन नहीं हो पाएगा और व्यक्तियों को अकारण हित और अहित प्रदान कर देंगे।

ऐसे जानें अपना मूल व्यक्तित्व
हमारे व्यक्तित्व का बड़ा हिस्सा दूसरों द्वारा तैयार किया गया है। माता-पिता के लालन-पालन से एक हिस्सा तैयार हुआ। फिर जीवन में मित्र आए, अच्छे और बुरे दोनों किस्म के लोग हमें मिले। सबने अपनी छाप छोड़ी और व्यक्तित्व का नया हिस्सा तैयार हो गया। ऐसे में अपना मूल व्यक्तित्व जानना हो तो यह प्रयोग करें। कुछ भजन तो ऐसे होते हैं कि यदि उन्हें ठीक से सुन लिया जाए तो रूपांतरण आसानी से घट सकता है। जब भजन सुनें तो जैसे तीन अंतरे का भजन हो तो पहले अंतरे के शब्दों को आंख बंद करके एक कान से भीतर लाएं और दूसरे से बाहर करें। शब्दों को ऐसे भीतर लाएं जैसे हाथ से पकड़कर ला रहे हैं।

हम भजन के शब्दों के प्रति अत्यधिक जुड़ जाएंगे। जब भजन का दूसरा अंतरा सुनें तो शब्दों को कान में लाएं और धीरे से हृदय तक ले जाएं। थोड़ी देर उन शब्दों को हृदय पर रोकें और दूसरे कान से बाहर निकाल दें। यह आध्यात्मिक प्रयोग शुरू-शुरू में कठिन लगेगा, लेकिन अभ्यास से आसान हो जाएगा। तीसरे चरण में उस भजन को पूरी तरह भीतर पी जाएं। एक कान से भीतर लाएं और भीतर ही रख दें। चाहें तो दोनों ही कानों से उसको भीतर ला सकते हैं।

आपको पढ़ने में यह बात अजीब लग रही होगी, लेकिन करके देखिए। भजन के शब्द जब ऐसे भीतर उतरेंगे तो हमे अंतरतम से शांत कर देंगे, क्योंकि श्रवण से हम अपने भीतर प्रवेश कर रहे हैं। सांस भजन के शब्दों का वाहक बन गई है। धीरे-धीरे पाएंगे कि आप उस भजन के साक्षी हो गए हैं। यहीं से आप अपने मूल व्यक्तित्व से जुड़ जाएंगे। जो दूसरों ने दिया या दूसरों से जो हमने लिया है और जो हमारे लिए जरूरी नहीं है उसकी हम ठीक से सफाई कर सकेंगे। यह प्रयोग कभी करके जरूर देखिएगा।

प्रतियोगिता के साथ प्रेम सिखाएं
आजकल जीवन में जितनी बातें सिखाई जाती हैं उनमें से एक है प्रतियोगिता। तीन बातों का अंतर ठीक से समझ लें - प्रतियोगिता, प्रतिस्पर्द्धा और प्रतिद्वंद्विता। बच्चों की पढ़ाई शुरू होते ही प्रतियोगिता का भाव उनके भीतर पैदा कर दिया जाता है। विद्यालय में प्रवेश से प्रतियोगिता शुरू हो जाती है। बच्चा समझ जाता है कि जहां प्रवेश में ही प्रतियोगिता है वहां पढ़ाई में क्या होगा? धीरे-धीरे प्रतियोगिता से भरा यह व्यक्तित्व बड़ा होने लगता है।

जीवन के क्षेत्र बदलने पर यही प्रतियोगिता प्रतिस्पर्द्धा में बदल जाती है। बच्चे जैसे-जैसे बड़े होंगे शरीर को दूसरों में रुचि जाग जाती है, इसलिए प्रतियोगिता प्रतिस्पर्द्धा में बदल जाती है। या तो यह मुझे मिले वरना किसी को भी नहीं मिले, ऐसा भाव आ जाता है। इसी का नाम प्रतिस्पर्द्धा है और ऐसे लोग जब घर बसाते हैं तो यही प्रतिस्पर्द्धा पति-पत्नी के बीच शुरू हो जाती है और पहुंच जाती है प्रतिद्वंद्विता पर। अधिकांश जोड़ों की लड़ाई बड़े मुद्‌दों पर होती ही नहीं। जीवनसाथी ने चादर ठीक से समेटी नहीं। डाइनिंग टेबल पर भोजन गिरा दिया, पलंग पर बेतरतीब ढंग से बैठ या लेट गए और झगड़ा शुरू। झगड़ा उस विषय पर नहीं, झगड़ा हो रहा है प्रतिद्वंद्विता के भाव का।

इसलिए जो मां-बाप अपने बच्चों को प्रतियोगिता सिखा रहे हैं, वे सावधानी बरतें कि भविष्य में इनका दाम्पत्य इसकी कीमत न चुकाए। इसका यह मतलब नहीं है कि बच्चों को प्रतियोगिता से काट दिया जाए, बल्कि प्रेम का अर्थ भी समझाया जाएं। परमात्मा से ठीक से जोड़ा जाए। फिर जीवनसाथी एक-दूसरे से छोटे मुद्‌दों पर नहीं उलझेंगे। यह जानते हुए कि चीज गलत हो रही है, लेकिन प्रेम से सुधारेंगे। इसलिए प्रेम और परमात्मा उस समय से जोड़े रखिए जब प्रतियोगिता शुरू हो रही हो।

संबंधों की समझ का त्योहार राखी
यदि दो लोग मिल रहे हों, तो यह मान लेते हैं कि हम दो व्यक्ति हैं। दो मित्र हो सकते हैं, पति-पत्नी हो सकते हैं। किंतु जब भी दो लोग मिलेंगे तो वे दो नहीं छह लोग होते हैं। सुनने में अजीब लगेगा। दरअसल, हम शरीर, मन और आत्मा से बने हैं। जब हम केवल देह पर टिके होते हैं तब हम अलग व्यक्ति होते हैं। मन और आत्मा के स्तर पर अलग, लेकिन होते संयुक्त हैं। इसलिए जब दो व्यक्ति मिलते हैं तो वे दो नहीं छह होते हैं। संभव है कि एक व्यक्ति आत्मा पर तो दूसरा शरीर पर टिका है।

पति-पत्नी चूंकि सर्वाधिक निकट होते हैं तीनों ही मामले में, लेकिन वे मानकर चलते हैं कि हम दो ही हैं, जबकि यूनिट छह है। इसलिए रिश्ते की समझ के लिए हमें शरीर, मन और आत्मा के अंतर को समझना होगा। आत्मा अंत तक साथ रहेगी। मन तो विचार-स्मृति से बनता है। कई बार गायब हो जाता है। शरीर को यहीं रह जाना है। यह समझ जैसे-जैसे परिपक्व होगी हम यह भी समझ जाएंगे कि हमारे जन्म से कुछ रिश्ते बने और मृत्यु तक कुछ रिश्ते रहेंगे। कुछ रिश्ते आएंगे और कुछ चले जाएंगे। इस समझ के बाद हम रिश्तों का मान करने लगते हैं। फिर भारत में ऋषि-मुनियों ने त्योहार बनाए ही इसलिए हैं। इनमें से एक त्योहार रक्षाबंधन रिश्तों की समझ पैदा करता है।


यदि रिश्तों से सही रूप में जुड़ना है तो शरीर, मन और आत्मा के अंतर को जानें। कहते हैं जब इन तीनों की समझ होती है तब व्यक्तित्व निर्मल हो जाता है। व्यक्तित्व की निर्मलता का मतलब है बाहर से विनम्रता और भीतर से प्रसन्नता। इन दोनों के साथ जो भी रिश्ता निभाया जाएगा उसमें परमात्मा की सुगंध होगी। आज रक्षाबंधन के दिन यह संदेश दिया जाए कि हम अपने भीतर के तीनों रूप शरीर, मन और आत्मा को हर रिश्ते के साथ पूरी समझ से जोड़ेंगे।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....मनीष

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