Thursday, April 9, 2015

Jeene Ki Rah4 (जीने की राह)

अपने भीतर सद्‌विचार उतारें
कई बार हम विचार करते हैं कि अपनी कुछ आदतों को बदल डालेंगे। कुछ आदतें ऐसी होती हैं, जिनके बारे में दूसरे लोग जानते हैं और हमें टोकते रहते हैं, लेकिन कुछ गलत आदतें ऐसी भी होती हैं, जिनके बारे में केवल हम ही जानते हैं। ऐसी आदतें बदलने में बहुत झंझट होती है। हमारा बाहर का वातावरण हमारे स्वभाव में परिवर्तन के लिए बड़ा उपयोगी होता है। वातावरण बदलने का मतलब है अपने आचार-विचार को बदलना। यदि आप आचार-विचार बदलना चाहते हैं तो सबसे सरल काम है अच्छे लोगों की संगत में उठना-बैठना शुरू कर दीजिए। हमारा मन हमें सत्संग से रोकेगा, क्योंकि उसे कुसंग पसंद है।

अच्छे व्यक्तियों का संग करने में परेशानी हो तो अच्छी किताबें पढ़ना शुरू कर दीजिए। सद्‌विचार प्रतिदिन हमारे भीतर उतरेंगे। पुस्तक को लगातार न पढ़ें। जैसे दिनभर में हम बीच-बीच में पानी पीते रहते हैं, ऐसे ही दिन में जब समय मिले कुछ अच्छे पन्ने पढ़ लीजिए। हमारे मन-मस्तिष्क में विचार लगातार चलते रहते हैं। विचारशून्य होना ध्यान की अवस्था है। जब हम अच्छी पुस्तक पढ़ते हैं या अच्छे लोगों की संगत में बैठते हैं तब इस बात की गुंजाइश बढ़ जाती है कि हम भीतर आ रहे विचारों का निरीक्षण कर सकें कि क्या शुभ-अशुभ, उचित-अनुचित उतर रहा है। एक तरह से यह स्वनिर्मित चैकपोस्ट होगी। किन विचारों को भीतर जाना चाहिए और किन्हें रोकना है, इसका विवेक धीरे-धीरे जाग जाएगा। आप समझने लगेंगे कि व्यर्थ विचार भीतर जाकर किस तरह का नुकसान पहुंचाते हैं। जो ऊर्जा किसी रचनात्मक कार्य में काम आ सकती है वह फालतु के सोच-विचार में खप जाती है, इसलिए दिनभर में किसी अच्छी पुस्तक को थोड़ा-थोड़ा पीते रहिए।

दोस्ती आसान, निभाना कठिन
दोस्ती दुनिया में एक बड़ी जिम्मेदारी का नाम है। मित्रता करना आसान है और निभाना उतना ही कठिन। मित्र, मित्र से अपेक्षा करे यह तो स्वाभाविक है। यदि आप सक्षम हैं तो अपने मित्र की मदद करना आपका धर्म बन जाता है। अब तो समय का इतना अभाव हो गया है कि लोगों के पास दुश्मनी के लिए भी वक्त नहीं है तो दोस्ती के लिए वक्त कहां से लाया जाए, इसलिए लोग सिर्फ संबंध बनाते हैं। जिसे आज दोस्ती का नाम दिया जा रहा है वह तो सौदेबाजी को अपनेपन का जामा पहनाने का काम है। चलिए, किष्किंधा कांड में दो मित्रों के आचरण को देखें। हनुमानजी के माध्यम से सुग्रीव श्रीराम के मित्र बन चुके थे। रामजी ने जब उनकी पीड़ा सुनी तो अपने मित्र के आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए थोड़ी अतिश्योक्तिपूर्ण बात कह दी। सुनु सुग्रीव मारिहउं बालिहि एकहिं बान। ब्रह्म रुद्र सरनागत गएं न उबरिहिं प्रान।। उन्होंने कहा - हे, सुग्रीव सुनो। मैं एक ही बाण से बालि को मार डालूंगा। ब्रह्मा और रुद्र की शरण में जाने पर भी उसके प्राण न बचेंगे। यह सुग्रीव के आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए था। आगे श्रीराम ने मित्रता के छह लक्षण बताए हैं। आज हम लोगों के लिए यह संदेश बड़े काम का है, जब अधिकांश लोग दोस्ती निभाने से मुंह चुरा रहे हों। श्रीराम ने कहा था - जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी। निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना।। जो लोग मित्र के दुख से दुखी नहीं होते, उन्हें देखने से ही बड़ा पाप लगता है। अपने पर्वत के समान दुख को धूल के समान और मित्र के धूल के समान दुख को सुमेरु (बड़े भारी पर्वत) के समान जानें।

जानकारी को परेशानी न बनाएं
बहुत जानकारियां दिमाग में भरने से दिमाग भी थक जाता है। जैसे थके हुए लोगों को चलने में दिक्कत होती है ऐसे ही थका हुआ मस्तिष्क भी अपनी चाल बिगाड़ लेता है। आजकल कम्प्यूटर ने जानकारी बटोरना बहुत आसान कर दिया है। मैंने अनेक लोग देखे हैं, जो बीमार हो जाए तो उसकी स्टडी में लग जाते हैं। फिर या तो डॉक्टर को मूर्ख मान लेते हैं या खुद को परेशान कर लेते हैं। जानकारी मिल गई, पर ज्ञान अधूरा ही रहा, इसलिए यदि कम परेशान न होना हो तो सबकुछ समझने की कोशिश न करें। जिसे देखो वह विज्ञान को क्रीम की तरह चुपड़ने के चक्कर में है।

इस दुनिया में बहुत कुछ हमारी कल्पना से परे है उसमें खुद को व्यर्थ न कुदाएं। वरना अपना चैन बिगड़ जाएगा। कई बार ऐसा होता है कि हमसे संबंधित व्यक्ति, स्थिति और वस्तु अचानक अजीब व्यवहार करने लगते हैं। हम जुट जाते हैं उसके रिसर्च में कि ऐसा क्यों हुआ। छोड़िए, कुछ चीजों को होने दीजिए। कुदरत अपना काम कर रही है। हमारी अच्छी-खासी चलती गाड़ी अचानक बंद हो जाती है। अब हम उस गाड़ी के इंजन में घुुसकर रिसर्च करें कि ऐसा क्यों हुआ। परिचित व्यक्ति अचानक ऐसा व्यवहार कर जाता है, जिसकी कल्पना नहीं रहती और हम जुट जाते हैं उसके डीएनए टेस्ट में। कोई परिस्थिति जिसकी हमने उम्मीद नहीं की, अचानक बदल जाती है और हम भाग्य तथा भगवान को ढूंढ़ने लगते हैं, कोसने लगते हैं। जिंदगी एक पसरी हुई पहेली है। एक छोर पकड़ेंगे, दूसरा फिसल जाएगा। होने दीजिए कुछ बातों को। आप उत्सुकता बनाए रखें, संतोष भीतर उतारें और कुछ नया करने का उत्साह कभी न खोएं। जो होगा, अच्छा ही होगा। यह भरोसा जीवन में स्वाद भर देता है।

संतान के गुणों को पहचानिए
अपने बच्चे सभी को प्यारे लगते हैं। ईमानदार मां-बाप उनका भविष्य संवारने के लिए उनकी गलतियों और कमजोरियों के प्रति सख्त होते हैं। अगर इसमें भी लाड़ आड़े आ गया तो पूरे वंश का नुकसान है। हम इसलिए लगातार देखते रहते हैं कि कहीं यह कोई गड़बड़ न कर दे पर इसमें एक भूल हो जाती है। वह यह कि हमारे बच्चों में कुछ नैसर्गिक गुण होते है, जिनकी हम इस अतिरिक्त चौकन्नेपन के कारण अनदेखी कर जाते हैं। ये बातें बड़ी छोटी-छोटी होती हैं। पकड़िए हमारे बच्चे किन चीजों में दक्ष हैं। कोई अंताक्षरी बहुत अच्छी खेलता है।

उसके मुंह से गाने के बोल फूल की तरह झरते हैं। कोई पहेलियां बहुत अच्छी बुझाता है। कुछ बच्चे टेलीफोन नंबर और पता याद रखने में कमाल करते हैं। किसी को एक बार रास्ता बता दो तो दुबारा भूलता नहीं। जब बड़े कोई बात भूल जाएं तो कुछ बच्चे उन्हें तुरंत भूली हुई बात याद दिला देते हैं, यानी याद दिलाने में माहिर होते हैं, इसलिए पढ़ाई-लिखाई से हटकर उनकी कुछ ऐसी खूबियां हैं जिन पर हमें नजर रखना चाहिए। अगर बच्चा अन्य संतानों से बड़ा है तो उसकी गंभीरता को तराशें और यदि सबसे छोटा है तो उसकी मौज को पनपने दें। ये दोनों ही कुदरत की देन होती हैं, इसलिए हमारी अतिरिक्त जागरूकता में उनकी नैसर्गिक शक्ति का दमन न हो जाए। यह भी पूजा-पाठ का ही एक हिस्सा होगा कि आप चौबीस घंटे में कुछ समय दूर से अपने बच्चों की हरकतों को देखिएगा और पढ़ाई-लिखाई से हटकर यदि वेे कोई अनूठा काम करें तो उसे योजनाबद्ध तरीके से उसकी खूबी में बदलिए। उसे तराशने का भरपूर मौका दीजिए। अन्यथा ऐसी योग्यता स्वत: विसर्जित हो जाएगी तथा हम और वह बच्चा भविष्य में एक साथ पछताएंगे।

स्वाध्याय से मिलती है शांति
शिक्षा का केवल यही अर्थ नहीं है कि आदमी दो वक्त की रोटी कमाने के लायक हो जाए। धन तो बिना पढ़े-लिखे लोगों के जीवन में भी आ जाता है। दरअसल शिक्षा से मनुष्य पशु जैसी स्थिति से बाहर निकलकर मनुष्य बन जाता है। शास्त्रों कहा गया है कि विद्या मनुष्य का मानसिक संस्कार करती है। शिक्षा अर्जित करने के लिए विषय, परिश्रम और एकाग्रता की जरूरत पड़ती है। जिस संस्थान में आप शिक्षित हो रहे हैं उसका भी महत्व होता है। अच्छी शिक्षा के लिए ये चार बातें जरूरी हैं, लेकिन बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती।

शिक्षा के साथ स्वाध्याय को जोड़ना पड़ेगा। बच्चों को समझाना होगा कि जितनी आवश्यक शिक्षा है उतना ही जरूरी है स्वाध्याय को समझना। स्वाध्याय का सीधा अर्थ होता है स्वयं का अध्ययन। इसे आत्म-शिक्षण भी कहते हैं। इसमें चिंतन, मनन और अध्ययन तीन बातें आती हैं। शिक्षा के साथ ये तीन बातें जुड़ जाएं तो जो सफलता हाथ लगती है वह बहुत दृढ़ होती है। शिक्षा पूर्ण ही तब होगी जब मनुष्य स्वाध्याय से गुजरेगा। शिक्षा यदि परिश्रम है तो स्वाध्याय तप है। शिक्षा यदि सुख और सफलता प्रदान करती है तो स्वाध्याय धैर्य और शांति देगा। शिक्षा हमें उन केंद्रों पर ले जाती है जहां मनुष्य की सफलता के सूत्र बसे हुए हैं। स्वाध्याय हमें वासनाओं की जड़ों तक ले जाएगा। आज के समय में स्वाध्याय इसलिए भी आवश्यक है कि जो लोग समय के उपयोग के मामले में गड़बड़ा रहे हैं वे यह मान लेते हैं कि एक विद्यार्थी के पास पढ़ने-लिखने के अलावा जो समय बचा है वह मौज-मस्ती में बिताया जाए, लेकिन थोड़ा समय भी स्वाध्याय को दिया तो शिक्षा के साथ अन्य गतिविधियों के संतुलन के लिए समय की समझ आसानी से आ जाएगी।

मित्रता भी संपत्ति की तरह है
मनुष्य जीवन में मित्रता भी संपत्ति के रूप में देखी गई हैै। श्रीराम ने दो लोगों से अद्‌भुत मित्रता की थी। वे थे सुग्रीव और विभीषण। इन दोनों के बीच में हनुमानजी महाराज थे। मित्र कैसे हों यह श्रीराम के संवादों से सीखा जा सकता है। सुग्रीव से चर्चा करते हुए श्रीराम ने कहा था- कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा।। एक, मित्र का धर्म है कि वह बुरे मार्ग से रोककर अच्छे मार्ग पर चलाए। दो, गुण प्रकट करे व अवगुण छिपाए। देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई।। बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा।। तीन, देने-लेने में मन में शंका न रखे। अपने बल के अनुसार सदा हित ही करता रहे।

विपत्ति के समय में तो सदा सौगुना स्नेह करे। वेद कहते हैं कि संत (श्रेष्ठ) मित्र के गुण (लक्षण) ये हैं। छह तरह की बातें मित्र के लिए मित्र के मन में होनी चाहिए। श्रीराम जब कहते हैं कि मित्र के गुणों को प्रकट करें, निंदा न करें तो सीधा-सा सिद्धांत है किसी की अच्छी बात याद करने से सामने वाले के सद्‌गुण हमारे भीतर उतरने लगते हैं। चौथी बात मित्रों के बीच जब किसी वस्तु का अदान-प्रदान हो तो उसमें कंजूसी न बरतें। खुला दिल दोस्ती का गहना होता है। पांचवीं बात के रूप में श्रीराम ने बताया कि अपने बल के अनुसार अपने मित्रों का हित करिए। यदि आप सक्षम हैं, तो उसका लाभ दोस्तों को भी पहुंचाएं और अंतिम, विपत्ति के समय स्नेह के साथ खड़े रहें। स्नेह इसलिए कहा है कि जब कोई अपना विपत्ति मं  पड़ता है तो हम तनाव में आकर चिड़चिड़े हो जाते हैं। क्रोध में अपने लोगों पर आरोप करने लगते हैं। जब संकट आए तो सारा ध्यान संकट मिटाने पर लगाया जाए, दोषारोपण या किसकी गलती है, यह बाद में देखा जाए।

अपने जीवन को प्रकृति से जोड़ें
जीवन को कई दार्शनिकों ने कोरा कागज बताया है। इस पर जो लेखनी चलती है उसे परिस्थिति और विचार कहते हैं। जब दुख आता है तो जीवन के कागज पर लिखे ये बोल साफ होने लगते हैं और सुख आने पर ठीक से पढ़ने में आ जाते हैं। इसी बात को ऋषि-मुनियों ने अपने ढंग से समझाया है। जिस परिस्थिति में व्यक्ति का जन्म होता है; जिन विचारों के साथ उसका पालन-पोषण होता है, वह वैसा ही बन जाता है। हम देखते हैं कि विभिन्न धर्मों के लोगों की श्रद्धा और समर्पण शत-प्रतिशत रहता है। इस मामले में वे निर्दोष और ईमानदार होते हैं, लेकिन ऐसे लोग भी विरोधाभासी बातों में जीने लगते हैं। एक धर्म अहिंसा, जीव-दया, शाकाहार तो दूसरा धर्म बलि और मांसाहार को मानता है। एक धर्म कहता है पूरे वस्त्र पहनो। दूसरा वस्त्र छोड़ने को त्याग मान लेता है। इस विरोधाभास के बीच कोई सही ढंग निकालना पड़ेगा। मनोवैज्ञानिकों से पूछो तो वे कह देते हैं, जो सही है उसे पाला जाए, लेकिन सही की परिभाषा क्या है? ऋषि-मुनि कहते हैं आप किसी भी धर्म और देश में रहें, हैं प्रकृति का हिस्सा। जीवन के जिस आचरण में आप प्रकृति के विरुद्ध हैं, पृथ्वी, अग्नि, वायु, जल और आकाश का दुरुपयोग कर रहे हैं तो वह गलत है। उस रहन-सहन को बदल डालिए जो प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करे, इसीलिए मांसाहार-शाकाहार, धर्म परंपराएं इन सब पर विचार होना चाहिए; क्योंकि मापदंड है प्रकृति। परमात्मा को हर धर्म ने अपने तरीके से व्यक्त किया, इसलिए उसके रूप बदल दिए, लेकिन प्रकृति सदैव उसी रूप में रहेगी। अपने रहन-सहन, अपने विचारों को प्रकृति से जोड़िए और प्रकृति के प्रति ईमानदार होकर संतुलित जीवनशैली बिताई जाए।

पितृ पुरुषों से आचरण शुद्धि
हमारे बच्चों के पास हर विषय की जानकारी प्राप्त करने के साधन हैं। ऐसे में माता-पिता बच्चों को दो जानकारियां अपने स्तर पर देते रहें। परिवार के पितृ पुरुषों और देश के महापुरुषों की। उन्हें इनकी जीवनी से परिचित कराएं और प्रेरित करें कि वे इसे अपने जीवन से जोड़ें। सामान्य ज्ञान की परीक्षा में महापुरुषों की संक्षिप्त जानकारी मांगी जाती है। इसका संबंध परीक्षा पास करने से होता है। हालांकि, जीवन की असली परीक्षा में महापुरुषों की जीवनी काम आती है।

वंश के पितृ पुरुषों ने भले ही कोई अद्‌भुत, अनूठा कार्य न किया हो, लेकिन उनके बारे में परिवार के बच्चों को मालूम होना चाहिए। यह जीवनी उन्हें परिवार के प्रति प्रेम से जोड़ेगी और महापुरुषों की जीवनी नई पीढ़ी को समाज और राष्ट्र के प्रति दायित्व से परिचित कराएगी। इनसे जुड़ने के तीन तरीके हो सकते हैं। सुनकर, पढ़कर और साथ रहकर। सुनाने का काम घर के बड़े लोग करें।

पढ़ने के लिए हम उन्हें प्रेरित करें और यदि कोई महापुरुष या पितृ पुरुष जीवित है तो बच्चों को उनके साथ समय बिताने के लिए प्रेरित करें। यह भी स्वाध्याय है। इससे हमें अपना जीवन समझने का अवसर मिल जाता है। हम और हमारे बच्चे भी अनेक लोगों से मिलते हैं। ज्यादा आशंका यही होती है कि लोग हमारे आचरण को दूषित कर जाएं। आचरण में पवित्रता लाने वाले लोग सार्वजनिक जीवन में कम मिलते हैं। ऐसे में जब हम पितृ पुरुषों और महापुरुषों से जुड़ते हैं तो हमारे भीतर व्यवहार शुद्धि, आचरण शुद्धि अपने-आप होने लगती है। हमारे परिवार के संबंध में क्या शुभ है, हमारे राष्ट्र और समाज के लिए क्या कल्याणकारी है, इन बातों की समझ पितृ पुरुष और महापुरुष की जीवनी से जुड़कर जल्दी आ जाती है।

महत्वाकांक्षा को योग-बल दें
आज प्रबंधन के युग में महत्वाकांक्षी होना योग्यता मान ली गई है। सफलता प्राप्त करने के लिए महत्वाकांक्षी होना बुरा नहीं है। महत्वाकांक्षा जब तक प्रेरणा बनी रहे तब तक तो लाभकारी है, लेकिन हम भूल जाते हैं कि महत्वाकांक्षा के भीतर एक भावनात्मक आवेग होता है। आवेग और आवेश कैसा भी हो, भविष्य में दिक्कत देगा। दूसरों से प्रतिस्पर्धा करके इच्छित फल प्राप्त हो यह आज की प्रबंधकीय शैली है। जब ऐसा नहीं होता तो मनुष्य निराश हो जाता है या आशाहीन बन जाता है। महत्वाकांक्षा तीव्र आकांक्षा में बदल जाती है। जो योग्यता है वही पीड़ा पहुंचाने लगती है और यहीं से तनाव उत्पन्न होता है। कम पढ़े-लिखे लोग तनाव को उसी रूप में लेते हैं जिस रूप में वह आया है। पढ़े-लिखे लोग तनाव में अपना बहुत कुछ मिला देते हैं। इधर महत्वाकांक्षा खूब परिश्रम करा चुकी है तो आदमी तन से थक चुका होता है। तनाव के मामले में मन अपना काम कर रहा होता है और चूंकि हमारा आत्मा से परिचय होता नहीं है, इसलिए हम तन और मन में ही उलझकर रह जाते हैं, इसलिए पढ़े-लिखे व्यक्तियों को चाहिए कि वे अपनी महत्वाकांक्षा से समझौता न करें, उसे जरूर जाग्रत रखें, लेकिन जीवन में संतोष जरूर उतारें। यह भ्रम है कि संतोष और महत्वाकांक्षा दोनों साथ नहीं चल सकते। परिश्रम तन का मामला है, महत्वाकांक्षा उसी से जुड़ी है। इससे जब तनाव आता है तो मन सक्रिय हो जाता है, लेकिन संतोष आत्मा का विषय है। प्रतिदिन थोड़ा समय अपनी आत्मा से जुड़ेंगे तो संतोष पनपेगा, जो महत्वाकांक्षा को नियंत्रित करेगा, बाधित नहीं। संभव है तब तनाव हमारे लिए ऊर्जा बन जाए, इसलिए महत्वाकांक्षी व्यक्ति को योग, ध्यान अवश्य करना चाहिए।

सत्संग से बनाएं जीवन सार्थक
ऐसे लोग हैं, जिनकी दिक्कत यह है कि समय कैसे बिताया जाए और दूसरा वह वर्ग है, जिसकी दिक्कत यह है कि समय कैसे निकाला जाए। दोनों ही लोग सत्संग से जरूर जुड़ें। सत्संग का अर्थ किसी महात्मा की कथा न समझ लें। सत्संग कई ढंग से किया जा सकता है। इसमें रुचि को संतुष्टि मिलती है। नई जानकारियां मिलती हैं और भ्रम दूर हो जाता है। हम मानसिक और आत्मिक रूप से कुछ ऐसी खोज में होते हैं, जो सत्संग में पूरी होती है। समय का सबसे अच्छा सदुपयोग यही है। इसके लिए किसी पंडाल में जाने की जरूरत नहीं है। सत्संग में कोई महात्मा या गुरु हो यह भी आवश्यक नहीं। माता-पिता संतान के साथ सत्संग कर सकते हैं। 

जीवनसाथी आपस में सत्संग कर सकते हैं और यदि अकेले हैं तो किसी पुस्तक के साथ सत्संग संभव है। बिना सत्संग बुद्धि का दुरुपयोग होने की आशंका बढ़ जाती है, क्योंकि जो धन-वैभव हम अर्जित करते हैं, उसे अच्छी बातों से जोड़ने की प्रेरणा सत्संग से ही मिलेगी। अन्यथा सांसारिक मार्ग पर तो अर्जित धन और प्रतिष्ठा कलंकित भी हो सकते हैं। सत्संग आपको लगातार जागरूक रखेगा कि आस-पास के वातावरण पर दृष्टि रखिए, सावधान रहिए। सत्संग दृष्टि देता है कि आप स्वयं को और दूसरों को ठीक से पहचान सकें। जैसे ही आप सत्संग में प्रवेश करते हैं क्रांति घटती है स्वयं के निरीक्षण की। सत्संग से आप में विचारों के निरीक्षण की शक्ति आ जाती है, क्योंकि ये विचार ही हमारा व्यक्तित्व बनाएंगे और यदि इसके पहले विचारों का निरीक्षण-परीक्षण ठीक से हो जाए तो आप जीवन की आधी से ज्यादा बाजी तो जीत चुके होते हैं। अत: समय का कितना ही अभाव हो, कुछ समय सत्संग में जरूर बिताएं।

भक्ति में भावना का बहुत महत्व
थोड़ा-बहुत डर सभी को लगता है। प्रत्यक्ष भय से मनुष्य निपट भी ले, लेकिन एक अज्ञात भय सबको सताता है। भय से निपटने के लिए बहुत बड़ा बहादुर बनना आवश्यक नहीं है। जूना पीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरिजी इसे बहुत सुंदर ढंग से कहते हैं। भक्ति भय से नहीं, भावना से होती है। भक्ति एक तरह की क्रांति है जिंदगी को बदलने के लिए, इसलिए भक्त को भक्ति का भाव जानना आवश्यक है, अन्यथा वह धर्मभीरू बन जाता है। फिर उसे हर समय देवता के नाराज होने की आशंका होती है। चार तरह के भक्त होते हैं। एक, जो दुख से घबराकर भगवान का नाम भजता है। दूसरा, अर्थार्थी अर्थात वह किसी कामना से भजन करता है। तीसरा, जिज्ञासु यानी जिज्ञासा के कारण भगवान का स्मरण करता है। चौथा भक्त सबसे उत्तम भक्त है जो ज्ञानपूर्वक अनन्य प्रेम से परमात्मा का नाम जपता है।

वह भगवान से दुनिया की वस्तुएं न मांगकर भगवान को ही मांगता है। मंदिरों में भीड़ बढ़ी है। भगवान के दर्शन करने के लिए लंबी कतारें लगती हैं, लेकिन भक्ति की भावना में कमी आई है। भावना के बिना किए गए कर्म का मर्म समझ में नहीं आता। भक्ति में भावना का बहुत महत्व है। मुख से नाम उच्चारण करें और हृदय में भाव आ जाए। पहली बात तो यह कि हम अपने भीतर भक्ति उतारें और अपनी भक्ति को भावना से जोड़ दें। यहां से शुरू होगा वह भरोसा कि हमारी पीठ पर किसी बहुत बड़ी शक्ति का हाथ है। हमारे आस-पास ईश्वर की कृपा का सुरक्षा घेरा चलता है, इसलिए भक्ति को ठीक से समझा जाए। भावना से यदि भक्ति की गई तो परिणाम भी शत-प्रतिशत मिलेंगे वरना भक्ति भी सौदा हो जाएगी और सौदा करने वाले लोग सदैव भयभीत पाए जाएंगे।

अच्छा मित्र पाना बड़ी उपलब्धि
अच्छा मित्र जीवन में बड़ी उपलब्धि है। आजकल लोगों को सिर्फ संबंधों में रुचि है। मित्रता का दायित्व कोई नहीं लेना चाहता। किष्किंधा कांड में श्रीराम मित्रों के लक्षण बता चुके थे। फिर उन्हेंं स्मरण आया कि कुमित्रों-मित्रों की परिभाषा भी बता दी जाए। वे कहतेे हैं कि कुमित्र कैसे होते हैं। तुलसीदासजी ने चौपाई लिखी है- आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई।। जाकर चित अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई।।जो सामने तो बना-बनाकर कोमल वचन कहता है और पीठ-पीछे बुराई करता है। हे भाई, जिसका मन सांप की चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को तो त्यागने में ही भलाई है। सावधान रहिए। यदि व्यक्ति बहुत कोमल वचन बोल रहा है । सच्चा मित्र स्पष्ट बात करता है। तीसरी बुराई है मन में कुटिलता रखना। कुटिलता तो मित्रता में विष है। एक-दूसरे के प्रति खुला हृदय होना चाहिए।

चौथी बात श्रीराम कमाल की बोलते हैं जैसे सांप की चाल टेढ़ी होती है ऐसे ही कुमित्र का मन होता है। सांप अपनी चाल टेढ़ी ही इसलिए रखता है कि न जाने कब पलटकर डसने का काम करना पड़े। श्रीराम ने यह भी बताया- सेवक सठ नृप कृपन कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी।। सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज मैं तोरें।।मूर्ख सेवक, कंजूस राजा, कुलटा स्त्री और कपटी मित्र ये चारों शूल के समान पीड़ा देने वाले हैं। हे सखा, मेरे बल पर अब तुम चिंता छोड़ दो। मैं सब प्रकार से तुम्हारे काम आऊंगा। तुम्हारी सहायता करूंगा। इस प्रकार श्रीराम ने आश्वस्त किया कि संसार में धोखा देने वाले लोग बहुत होंगे, लेकिन अब चूंकि मुझसे मित्रता हो गई है तो निश्चिंत रहना। मैं जिनके साथ हूं उन्हें किस बात की चिंता।

अपने विवेक का अनादर न करें
अनेक लोगों से मिलते-जुलते रहने से कभी-कभी हम अपना मूल स्वरूप भूलने लगते हैं। हम देखते हैं कि यदि निगेटिव विचारधारा के लोगों के साथ थोड़ा अधिक समय बिताया जाए तो हमारे भीतर भी नकारात्मकता उतरने लगती है। सार्वजनिक जीवन में मजबूरीवश लोगों का सान्निध्य लेना पड़ता है। तब हमारा विवेक ही हमारी रक्षा करेगा। वही हमें समझाता है कि दूसरों से कितना लेना और अपना क्या देना है। निवृत्त शंकराचार्य स्वामी सत्यमित्रानंद गिरिजी का कहना है यदि मानव का व्यवहार शुद्ध है तो परमार्थ शुद्ध है ही। व्यवहार को शुद्ध करने के लिए जीवन में सावधान रहना पड़ता है। उस व्यक्ति की यह भावना भी नहीं रहती कि मैं कोई तप कर रहा हूं, क्योंकि वह जीवन का सहज अंग बन जाता है। जीवन में जो कुछ भी सहज है, वह स्थायी होता है। 

जो कृत्रिम को धारण करने की चेष्टा करनी पड़ती है। कृत्रिमता बार-बार विकृत होती है और सहजता में कभी कोई दूषण नहीं आता है। भक्त के भीतर विवेक ही परमात्मा का प्रतिनिधि है। यदि वह साथ नहीं होता तो कभी सामने से आने वाला पत्थर आंख में लग सकता है और उससे आंख जा सकती है, परंतु वह प्रतिनिधि तुरंत आदेश देता है और आप अपनी गर्दन नीची कर हाथ ऊपर कर लेते हैं। यह संपूर्ण क्रिया एक क्षण में ही हो जाती है। मनुष्य कभी जागरूक नहीं रह पाता परंतु परमात्मा का प्रतिनिधि बार-बार जाग्रत करता है। मानव मन में पहला विचार बुराई के रूप में जगाता है परंतु तुरंत दूसरा विचार आता है कि यह उचित नहीं है। विवेक निरंतर जागता रहता है। परंतु जब मानव विवेक का बार-बार अनादर करता है तब विवेक पर मन का नियंत्रण हो जाता है और ऐसा विवेक मरे हुए जैसा है, जिससे हमें नुकसान ही नुकसान होगा।

मिलनसारिता आवश्यक गुण
मजबूत से मजबूत किले में भी कोई दीवार कमजोर रह जाए, तो आक्रमण के दौरान पूरा किला उसकी कीमत चुकाता है। ऐसे ही हमारे व्यक्तित्व में कोई ऐसा छिद्र होता है, कमजोर नस होती है, जिसमें से दुर्गुण प्रवेश कर जाते हैं और कुछ लोग उस नस पर हाथ रखकर हमारा दुरुपयोग कर लेते हैं। एक कमजोरी होती है दूसरों से घुलने-मिलने में बहुत संकोच महसूस करने की। सामूहिक अवस्था में या तो कुछ लोग डर जाते हैं या असहज होकर भीतर ही भीतर परेशान रहते हैं। घुलना-मिलना एक गुण है। चाहे कितने ही और कैसे भी लोगों के बीच में हों, अपने आप को असहज न करें। आप पूरी तरह सक्षम हैं कि योग्य से योग्य और अयोग्य से अयोग्य के साथ भी अपनी सहजता नहीं खोएंगे।

एक मनोवैज्ञानिक रक्षा कवच अपने आसपास रखिए। भारत में इसके लिए एक बहुत सुंदर व्यवस्था की गई है और वह है कुछ त्योहार। त्योहार का मतलब ही है आपस में घुलना-मिलना। इसमें ऐसी गतिविधि होती है, जो लोगों को आपस में जोड़ देती है। अभी-अभी होली बीती है, जो रंगों का निराला पर्व है। बड़ी अजीब-अजीब अवस्था में लोग इससे जुड़ जाते हैं। इसकी मस्ती अच्छे-अच्छों को मिलनसार बना देती है। रंगों का मतलब ही होता है मिल जाना। अब हम नवरात्रा में प्रवेश कर जाएंगे। हमें अपनी ऊर्जा को प्रकृति की ऊर्जा से जोड़ना है। नवरात्रि भक्त की मस्ती और आनंद के दिन हैं, चूक मत जाइएगा। भारतीय संस्कृति मिलनसारिता और एकांत दोनों में संतुलन का आग्रह करती है। कुछ त्योहार हमें सार्वजनिक रूप से सक्रिय रहने का आग्रह करते हैं तो कुछ कहते हैं अपने आप में सिमट जाओ। परमात्मा की अनुभूति दोनों ही स्थितियों में हो सकती है।

मुफ्त के सौदों से सावधान रहें
मुफ्त में कुछ भी मिले तो सावधान हो जाएं। अब सौजन्य सम्मान नहीं, अपराध बनता जा रहा है। हमारे सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन में लगातार ऐसी घटनाएं घट रही हैं कि हमें यह तय कर लेना चाहिए कि यदि कोई मुफ्त में हमें कुछ भी दे तो बिल्कुल न लें। आप समझ रहे होंगे कि सौजन्य काम कर रहा है, लेकिन उसके पीछे दबे पांव अपराध आ रहा होगा। यह घोर लेन-देन का युग है। मनुष्य ने हर सांस में धंधा करने की कसम खा ली है। धन कहां से उगाया जाए, वसूला जाए सारी अक्ल इसी में झोंकी जा रही है, इसलिए अपने आप को समझाएं कि फ्री में मिल रही चीज जहर की तरह है। जिस सुविधा पर आपका अधिकार न हो, जिसे भोगने के लिए आप योग्य न हों, अगर वह आपको तश्तरी में रखकर दी जा रही है तो समझ लीजिए यह गलत सौदा है। देने वाला आपसे इसकी कीमत जरूर वसूलेगा।

अब तो धार्मिक लोगों के दान-खाते भी पुण्य की कमाई के लिए खोले जाते हैं। फिर सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन में कोई आपको क्यों कुछ मुफ्त देगा, इसलिए अत्यधिक सावधान रहें और कोई भी प्रस्ताव आपके सामने आए तो उसे बिल्कुल हवा न दें। प्रलोभन में न आना, खुद को भविष्य में सुरक्षित रखने जैसा है। लोभ अच्छे-अच्छों से बुरे काम करा लेता है। ऐसी सौजन्यता पर बिल्कुल उदारता न दिखाएं, सख्त हो जाएं। मुफ्त की भावनाओं को भीतर प्रवाहित न होने दें वरना जितना आपको मिल रहा है, उससे ज्यादा कीमत चुकानी पड़ेगी। यदि अपराध की शक्ल में ऐसा हुआ तो किस-किस को सफाई देते फिरेंगे, इसलिए अपने आपको भगवान से जोड़िए। सफाई भी देनी पड़े तो उसे देंगे। यदि आपने फैसला कर लिया है कि सफाई भगवान को ही देंगे तो फिर बचाएगा भी वही।

भरोसा देता है गुरु का सान्निध्य
हम जिनके सान्निध्य में रहते हैं, धीरे-धीरे उन्हीं जैसे होने लगते हैं, इसीलिए गुरु के सान्निध्य का महत्व है। गुरु कई रूपों में हमारे जीवन में आ सकते हैं। किष्किंधा कांड में श्रीराम सुग्रीव के जीवन में मित्र के रूप में आए थे, लेकिन काम गुरु का कर रहे थे। जब श्रीराम अपनी बात कह चुके तो सुग्रीव ने कहा और तुलसीदासजी ने लिखा - कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा। बालि महाबल अति रनधीरा।। दुंदुभि अस्थि ताल देखाए। बिनु प्रयास रघुनाथ ढहाए।।हे रघुवीर सुनिए, बाली महान बलवान और अत्यंत रणधीर है। फिर सुग्रीव ने श्रीरामजी को दुंदुभि राक्षस की हडि्डयां और ताल के वृक्ष दिखलाए। श्री रघुनाथजी ने ताल वृक्षों को बिना परिश्रम आसानी से ढहा दिया। यहां एक शब्द आया है बिनु प्रयासयानी बिना परिश्रम के श्रीराम यह काम कर गए। यह आध्यात्मिक दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है। गुरु की उपस्थिति ऐसी ही होती है। हमारे जीवन में जब कोई गुरु हो, तो हम यह न मानें कि गुरु करता हुआ ही दिखे। ज्यादातर मौकों पर गुरु कुछ करता नहीं दिखेगा। हमको संदेह भी हो सकता है, लेकिन वह बिना दिखाए बहुत कुछ कर रहे होते हैं। गुरु भीतर से परमात्मा से भरा हुआ है। 

अब हमारी श्रद्धा उसमें से खींच सकती है। वह कोई सहायता, कोई प्रयास नहीं करेगा। आपको उससे लेना होगा। हम गुरु को जो उपलब्धि मिली उसके सहभागी हो सकते हैं। जो ऊर्जा उन्हें उपलब्ध हुई है उसका उपयोग हम अपने लिए कर सकते हैं, लेकिन करना हमें होगा। श्रीरामजी का अपरिमित बल देखकर सुग्रीव की प्रीति बढ़ गई और उन्हें विश्वास हो गया कि ये बाली का वध अवश्य करेंगे। हमारे जीवन में भी जब समस्या आए तब गुरु का सान्निध्य हमें भरोसा दिलाएगा।

वृद्धावस्था में चाहिए समर्पण
बूढ़े और जवान लोगों मेें जिन-जिन बातों पर मतभेद होता है उनमें से एक है जीवनशैली। पुरानी पीढ़ी के लोग कुढ़ते रहते हैं कि नए बच्चे जिस ढंग से जिंदगी जी रहे हैं वह ठीक नहीं है। फिर विवाद आरंभ हो जाता है। हमें दोनों ही पीढ़ी को ठीक से समझना और समझाना होगा। कितने ही उपाय कर लीजिए, बुढ़ापा आता है तो जाता नहीं और जवानी लौटकर नहीं आती। दोनों का अपना महत्व है। जैन संत तरुणसागरजी अपने निराले ढंग से इसी बात को समझाते हैं। वृद्धावस्था को भुनभुनाते हुए नहीं, गुनगुनाते हुए जीया जाए। युवा अवस्था में केवल खाने-पीने का मकसद न हो। उसमें जीयो और जीने दो का उद्‌देश्य भी होना चाहिए। मनुष्य जीवन तो हर हाल में जीना है, लेकिन आह के साथ नहीं, वाह के साथ। विदेशी संस्कृति यानी खाओ, पीयो, मौज करो, लेकिन भारतीय संस्कृति कहती है जीयो ऐसे कि शांति से मर सकें और मरो ऐसे कि लोग याद करते रहें।


पश्चिमी संस्कृति लर्निंग और अर्निंग सिखाती है। भारत की संस्कृति लर्निंग, अर्निंग के साथ लिविंग भी सिखाती है। आदमी किसी भी धर्म का हो उसे यह स्पष्ट होना चाहिए कि धर्म केवल मारने से नहीं बचाता, बल्कि मरने से भी बचाता है। जवानी में दुर्गुण नशे के रूप में भी आ जाते हैं। नशारूपी डाकू तो लूटकर ही जाएगा। आपको खाली कर देगा। तंबाकू में आप पत्ती नहीं, जीवन रगड़ रहे होते हैं। सिगरेट से ज्यादा तो जिंदगी जल जाती है, इसलिए नशा कभी न करें। बूढ़े लोगों को यह समझना चाहिए कि अब जीवन के समापन पर धैर्य के साथ ईश्वर भक्ति बढ़ा दें। बहुत ज्यादा संसार पर टिप्पणी न करें, संसार में न उलझें। जवानी की गति संतुलित हो और बुढ़ापे की गति समर्पित हो। दोनों ही उम्र आनंद देगी।


आत्मविश्वास का स्रोत आत्मा
कभी-कभी दुनिया में हम चारों तरफ से लाचार हो जाते हैं। कुछ ऐसी स्थितियां बन जाती हैं कि हम सबसे निराश होने लगते हैं। तब हमें समझाया जाता है कि आत्मविश्वास मत छोड़ना। चलिए, आज इसी पर बात करते हैं कि आत्मविश्वास होता क्या है। स्वामी विवेकानंद ने कहा है, ‘हम विश्वास करें कि हम आत्मा हैं तो शक्ति, पवित्रता तथा वह सबकुछ जो श्रेष्ठ है, हमारे भीतर आ जाएगा।हमें अपनी आत्मा से साक्षात्कार करने के लिए उत्सुकता बढ़ा लेनी चाहिए खासतौर पर तब जब आप निराश हों। जब हम किसी समस्या का समाधान ढूंढ़ रहे होते हैं तो कई लोगों से मिलते हैं। 

ऐसे में अपनी आत्मा से मिलने में क्या बुराई है। जैसे ही आप अपनी आत्मा से परिचय बढ़ाते हैं, आपकी इच्छा शक्ति प्रबल होने लगती है। तब आप चाहे भौतिक काम करें या आध्यात्मिक, परिणाम अलग ही मिलेंगे, क्योंकि हमारी अंतरात्मा में अनंत संभावनाएं हैं, बस हमें उस पर आस्था रखनी है। हम अपने आपको शरीर और मन मानते हैं, इसलिए हम समाधान भी शरीर और मन से जुड़े लोगों से लेने लगते हैं, लेकिन जैसे ही आत्मा से जुड़ेंगे मन चुपचाप बैठ जाएगा और शरीर पूरी मदद करेगा। आत्मा इस शरीर के भीतर है और आत्मा तक पहुंचने के लिए किसी एकांत में बैठ जाएं, अपने भीतर गहरे में उतरें, विचार शून्य सांस लेना शुरू करें। धीरे-धीरे आपको आत्मा की निकटता मिलने लगेगी। उसके बाद आत्मा स्वयं आपकी मदद करने लगेगी। शुरुआत आपको करनी है, अंत करने के लिए आत्मा तैयार है। दुनिया का कोई कार्य ऐसा दुर्लभ नहीं जो आप न कर सकें। आपका शरीर उस आत्मा से संचालित होकर कठिन से कठिन कार्य भी आसानी से कर सकेगा।

कामना को ईश्वर की ओर मोड़ें
जरा-जरा सी बात पर तनाव आ जाना, दूसरों पर झल्लाहट उतारना आजकल ये लक्षण अधिकतर लोगों में देखे जा रहे हैं। काम और उसके परिणाम के प्रति अत्यधिक अपेक्षा तनाव का कारण है। चूंकि हम जीवन का अधिकतर समय संसार में गुजारते हैं, इसलिए संसार की सुख-सुविधाएं प्राप्त करना हमारा लक्ष्य हो जाता है। तौर-तरीके भी सांसारिक हो जाते हैं और उलझनें शुरू हो जाती हैं। हमें थोड़ा धार्मिक बने रहना होगा, क्योंकि धर्म एक बहुत अच्छी बात सिखाता है कि इच्छाओं का दमन नहीं करना चाहिए। यदि कोई धर्म यह कहे कि अपनी कामनाओं को दबा दो तो या तो वह गलत कह रहा है या हम उसका अर्थ गलत समझ रहे हैं। अच्छा कर्म करेंगे तो परिणाम अच्छा मिलेगा, लेकिन कामना यदि दूषित है तो अच्छा कर्म भी तनाव दे जाएगा। 

इसलिए कामना को थोड़ा-सा परमात्मा की ओर मोड़ दें। इससे हम काम करते समय शुद्ध होते हैं। मसलन, हम व्यवसाय कर रहे हैं, लेकिन हमारी कामना ईश्वर से जुड़ी है तो हम सोचेंगे कि धन आने पर कुछ अच्छा काम करेंगेे। किसी को ठगेंगे नहीं, झूठ नहीं बोलेंगे। ईश्वर से जुड़ने पर ऐसे सद्‌विचार पनपने लगते हैं। नीयत साफ होने लगती है। जैसे मां-बाप बनते ही संतान का लालन-पालन हमारी जिम्मेदारी है, ऐसे ही मनुष्य शरीर मिलते ही हमारा दायित्व है कि इसमें जिंदगी हम डालें। अब मनुष्य हम बन जाते हैं और सोचते हैं कि जीवन चलाएं संसार वाले। ऐसा नहीं हो सकता। मनुष्य बने हैं तो हमारे भीतर मनुष्यता उतरे, जीवन उतरे। यह काम हमें करना है। ईश्वर से अपनी कामना जोड़नेे से हमें अपने मनुष्य होने का बोध जल्दी हो जाएगा। यहीं से हम काम कोई भी करें, अच्छे से करेंगे, ईमानदारी से करेंगे और परेशान नहीं होंगे।

तेजस्विता से बनाएं प्रभावी व्यक्तित्व
व्यक्तित्व को प्रभावी बनाने के लिए बाहर और भीतर से प्रयास करने पड़ते हैं। हमारा दिखना व्यक्तित्व को बाहर से प्रभावी बनाता है, लेकिन हमारा होना भीतर का विषय है। संसार हमें देखता है और परमात्मा की नजर हमारे होने पर होती है, क्योंकि भीतर जो हमारी गतिविधियां चल रही होती हैं, वैसे हम होते हैं। दिखते हम अलग हैं, होते कुछ और हैं। अगर अपने व्यक्तित्व को प्रभावी बनाना चाहते हैं तो हमें तेजस्वी जरूर होना चाहिए। तेज हमारे भीतर भरा हुआ है, हमें इसका सदुपयोग करना चाहिए। अपने भीतर के तेज को बाहर प्रकट करने के लिए प्रमादपूर्ण जीवन से बचना होगा। प्रमाद का अर्थ है प्रकृति के विरुद्ध जाकर जीवन जीना। हम जीवन में कुछ क्रियाएं ऐसी कर जाते हैं जिससे हमारे तेज पर प्रभाव पड़ता है। हमारी तेजस्विता को दो बातें प्रभावित करेंगी। एक हमारी दिनचर्या और दूसरा परमात्मा से जुड़ाव।

हमारा कोई भी क्रियाकलाप ईश्वर से नहीं छुपा हुआ है। संसार से तो हम छुपा सकते हैं, लेकिन भगवान से कैसे छुपाएंगे। इस बात को दृढ़ता से उतार लें कि उससे कुछ छिपा नहीं है तो फिर गलत काम क्यों किया जाए। जैसे ही हम अनुचित का त्याग करते हैं, हमारे भीतर शुद्धता उतरती है। शुद्धता धीरे-धीरे निर्मलता में बदलती जाती है। ये दोनों मिलकर हमारी तेजस्विता को प्रबल करते हैं। यही तेज फिर हमारे व्यक्तित्व को निखारता है। अच्छे व्यक्तित्व के आसपास संसार चलता है। हम चाहते हैं हमारी पर्सनालिटी का प्रोजेक्शन सही हो और इसके लिए हम अधूरे प्रयास करते हैं जो केवल बाहरी होते हैं। धर्म का आचरण पालते हुए, प्रकृति का सम्मान रखते हुए और सही ढंग से परमात्मा से जुड़ते हुए जो जीवनशैली अपनाई जाएगी, उससे व्यक्तित्व में निखार आएगा।

त्याग से भगवान नहीं मिलते
कुछ लोग जो दुनियादारी में डूबे रहते हैं, उन्हें दुनिया बनाने वाले की फिक्र नहीं होती। धर्म क्या होता है, भगवान क्या हैं, हम परमात्मा से क्यों जुड़ें, इन सब बातों के बारे में कुछ लोग बिलकुल नहीं सोचते। जब जिंदगी में तनाव आता है, चाहा हुआ नहीं होता, तब ऐसे लोग थोड़ी फिक्र पालते हैं। जो ईश्वर को मानते हैं और संसार में भी रहते हैं, ऐसे लोगों को एक बड़ा भ्रम सताता है कि हमें इसमें संतुलन कैसे बैठाना है। हमेशा इस बात के लिए परेशान होते रहते हैं कि क्या ईश्वर को पाने के लिए दुनिया छोड़ दें या दुनिया में उतरेंगे तो ईश्वर छूट जाएगा। इस बात को हमें बहुत ठीक ढंग से समझ लेना चाहिए कि परमात्मा ने यह कहीं भी नहीं कहा कि मुझे पाने के लिए संसार छोड़ दिया जाए। किष्किंधा कांड में श्रीराम सुग्रीव को अपनी उपस्थिति के बारे में समझाते हैं और सुग्रीव तुरंत एक टिप्पणी करते हैं।

तुलसीदासजी ने लिखा है - उपजा ग्यान बचन तब बोला। नाथ कृपां मन भयउ अलोला। सुख संपति परिवार बड़ाई, सब परिहित करिहउं सेवकई।।जब ज्ञान उत्पन्न हुआ तब वे ये वचन बोले कि हे नाथ, आपकी कृपा से अब मेरा मन स्थिर हो गया। सुख, संपत्ति, परिवार और बड़प्पन सबको त्यागकर मैं आपकी सेवा ही करूंगा। यहां भगवान कहते हैं कि मुझे पाने के लिए सुख छोड़ना नहीं है, सुख को समझना है। मेरे लिए सम्पत्ति को मत त्यागिए, सम्पत्ति का सदुपयोग करिए। परिवार में प्रेमपूर्ण रहना ज्यादा जरूरी है, बजाय परिवार को छोड़ने के। बड़प्पन को नहीं छोड़ना है, बल्कि अहंकार को त्यागना है। इन सबके साथ फिर मेरी सेवा करना है। भगवान की सेवा करने का अर्थ है भगवान के बनाए हुए इस संसार में उन लोगों की सेवा करना जिन्हें जरूरत है। सुग्रीव और श्रीराम की यह बातचीत हमारे लिए आज भी उपयोगी है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...मनीष

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