Sunday, February 1, 2015

Jeene Ki Rah2 (जीने की राह)

ऐसे करना चाहिए मंदिर में देव-दर्शन
मंदिरों की संख्या बढ़ती जा रही है और वहां जाने वालों की भी। कभी-कभी तो लगने लगता है कि मंदिर में जाना, आध्यात्मिक आयोजनों में संगत करना या तो मजबूरी या फैशन हो गया है। धर्म-कर्म में रुचि रखने वाले लोग मिलते हैं तो यही स्पर्द्धा शुरू हो जाती है कि किसने कितने मंदिर व तीर्थों की यात्रा की है । मनुष्य के अहंकार को धर्म का रास्ता बहुत अनुकूल लगता है, क्योंकि इस रास्ते में पुण्य भी मिल जाता है, प्रदर्शन भी हो जाता है। मंदिर में श्रद्धालु ऊपर वाले से भीख मांग रहे हैं और बाहर भिखारी नजर आएंगे। आस-पास की दुकानें देखो तो लगता है कि अधिकतर लोग लूटने की तैयारी में बैठे हैं। लूटमार का यही काम कुछ पंडे-पुजारी भी कर रहे हैं।  इनका दावा है कि यहां जो आ रहे हैं ये भी दुनिया लूटकर आए हैं। लुटेरों से लुटेरों की ही मुलाकात हो रही है। आइए, विचार करें कि हम जब मंदिर में प्रवेश करें तो हमें क्या करना चाहिए।

मंदिर में स्थापित प्रतिमा को सबसे पहले हमारे नेत्र देख रहे होते हैं। नेत्रों को हमारा मन देख रहा होता है। मन को बुद्धि और बुद्धि को आत्मा देखती है। आत्मा को परमात्मा देख रहा होता है। यदि मंदिर में परमात्मा से मिलने का यह क्रम ध्यान में रखेंगे तो फिजूल की बातों से मुक्त होने लगेंगे। प्रदर्शन-अहंकार, लूट-ठगी इन सबका देव-दर्शन से कोई लेना-देना नहीं है। आज का दौर ऐसा ही है, लेकिन कम से कम हमारी तैयारी ऐसी हो कि जब गर्भगृह में प्रवेश करें, तब नेत्रों से यात्रा शुरू करके, आत्मा से गुजरते हुए परमात्मा तक पहुंचें। इस प्रकार मंदिर में गुजारे हुए कुछ क्षण  हमें चौबीस घंटे के लिए ऊर्जा से भर देंगे।

पहली मुलाकात में सावधानी बरतें
जीवन में जब अच्छे और प्रभावशाली लोगों से मिलने का अवसर आए, तो अपने व्यवहार में अतिरिक्त सावधानी रखिए। हम इस स्तंभ में हर मंगलवार को किष्किंधा कांड की चर्चा करते हैं। दृश्य चल रहा था श्रीराम, लक्ष्मण हनुमानजी के कंधे पर थे और दूर से राजा सुग्रीव ने उन्हें देखा। इस प्रसंग में सभी ने एक-दूसरे से जो व्यवहार किया वह सीखने लायक है। तुलसीदासजी ने चौपाई लिखी है, ‘जब सुग्रीव राम कहुं देखा। अतिसय जन्म धन्य करि लेखा।जब सुग्रीव ने श्रीरामचंद्र को देखा तो अपने जन्म को धन्य समझा। सुग्रीव समझ चुके थे कि यदि हनुमान ने इन्हें कंधे पर चढ़ाया है, तो हो न हो ये ईश्वर हैं, जो राम बनकर मेरे यहां आए हैं। श्रीराम ने भी आत्मीय ढंग से सुग्रीव से पहली भेंट की।  सादर मिलेउ नाइ पद माथा। भेंटेउ अनुज सहित रघुनाथा।सुग्रीव चरणों में मस्तक नवाकर सादर सहित मिले। श्री रघुनाथ (राम) भी छोटे भाई सहित उनसे गले लगाकर मिले। सीख यह है कि जब किसी से भेंट हो, आदर-भाव जरूर बनाए रखें। अपने से छोटे के आदर देने से आप और बड़े हो जाते हैं। दो छोटे भाई सुग्रीव व लक्ष्मण आपस में मिल रहे थे। वैसे तो सुग्रीव-लक्ष्मण में जमीन आसमान का अंतर था, लेकिन छोटा भाई क्या और कैसा होता है यह परिचय भी श्रीराम ने सुग्रीव को करा दिया। समझदार लोग अपनी मुलाकात में कुछ संदेश बिना बोले और दिखाए ही दे देते हैं। यह प्रसंग बताता है कि कैसे अपनी उपस्थिति को प्रभावशाली और उपयोगी बनाया जाए।

वृद्धावस्था में आत्मा पर ध्यान टिकाएं
कई बार वृद्धावस्था में अचानक वासना प्रवेश कर जाती है और यदि उसे नहीं रोका गया, तो वह मृत्यु के क्षण में भी प्रभावशाली हो जाती है। इस जन्म की अंतिम वासना अगले जन्म में प्रभाव लेकर आएगी। जब-जब वासना के थपेड़े अधिक लगें तब-तब उससे सुरक्षा की तैयारी बढ़ा दें। वासनाएं युवावस्था ही नहीं, हर उम्र में प्रभाव डालती हैं। युवा अवस्था में शरीर पूरी ऊर्जा के साथ सक्रिय रहता हैइसलिए वासनाओं के साथ तालमेल बैठाने में उसे सुविधा मिल जाती है। वृद्धावस्था में शरीर मन का साथ नहीं देता, इसलिए दोहरा जीवन शुरू हो जाता है। बूढ़े लोग कभी-कभी आंतरिक रूप से जवानों के मुकाबले अधिक परेशान रहते हैं। अनुभव के कारण वे इसे छिपाने में कामयाब हो जाते हैं। अत: जैसे-जैसे उम्र बढ़ेसंसार से धीरे-धीरे मुक्ति पाएं। संसारी  लोग शरीर, मन और आत्मा को एक करके चलते हैं, जबकि आत्मा बिल्कुल अलग है।

वह दूर से मन और शरीर को देख सकती है। यह भाव आते ही संसार छूटने लगता है। वृद्धावस्था बढ़ने के साथ आत्मा पर टिकना अधिक कर दें। जिसे शरीर, मन और आत्मा का भेद मालूम पड़ जाए, फिर वह गृहस्थ होकर भी संन्यासी से बढ़कर है। यदि यह भेद समझ में न आए तो संन्यास में रहकर भी साधुता में दोष लाएगा, इसलिए वासनाओं के प्रति बढ़ती उम्र में खूब सावधानी बढ़ा दें। वृद्ध लोगों को योगा, मेडिटेशन आदि में ज्यादा समय देना चाहिए। वर्षों जिस शरीर ने साथ दिया उसकी बिदाई सम्मानजनक तरीके से होनी चाहिए।

मृत्यु को आनंद में बदलने की कला
ऋषि मुनियों को मृत्यु के आगमन और व्यक्ति के प्रस्थान पर गहरे चिंतन से यह पता लगा कि जीवन के अंत में मनुष्य खुद से ही प्रश्न पूछने लगता है। संभव है प्रश्न आत्मा शरीर से पूछ रही हो। इन प्रश्नों का उत्तर नहीं मांगा जाता, पर पूछे इसलिए जाते हैं कि आप देख लें, जान लें और चल दें अनंत यात्रा पर। यदि हम इस परिकल्पना को जीवन में लागू करें तो मृत्यु आनंद में बदल जाएगी। कुछ सवाल जो हमसे अंतिम समय में हम ही पूछेंगे, उन्हें आज भी टटोला जा सकता है।

श्रीकृष्ण को शिकारी का तीर लगने वाला था, तो उनके चिंतन में बहुत सारे लोग खड़े हो गए थे। गांधारी पूछ रही थी, ‘तुमने ऐसा क्यों किया कि मेरे वंश के बच्चे आपस में लड़कर मर गए।भीष्म ने पूछा, ‘मैंने कौन सा पाप किया कि मेरा परिवार मेरे ही सामने समाप्त हो गया।कुंती, अर्जुन, युधिष्ठिर सबके प्रश्न थे। द्रौपदी का सवाल था, ‘जब सबसे बड़ा अधर्म होने जा रहा था, तब आपने मेरी रक्षा की। फिर धर्म की संस्थापना के लिए आपने युद्ध कराया, तो क्या धर्म स्थापित हो गया?’ ऐसा सभी के साथ होना है। अगर आदमी इन स्मृतियों में उलझ गया, तो अंतिम यात्रा, जिसे फिर आगामी यात्रा बनना है, वह भारी हो जाएगी, इसलिए अंतिम समय में ऐसे सवाल को सिर्फ देखें और बिदा करें। जवाब देने की कोशिश करेंगे तो एक नई शुरुआत करेंगे। योग से खुद को जोड़े रखें, क्योंकि, जो लोग मेडिटेशन करते हैं, वे भूलने की कला जानते हैं। कितना याद रखना है इसमें दक्ष होते हैं और यही कला मृत्यु की कला बन जाती है।

श्रेष्ठ जीवन के लिए गुरु आवश्यक
भ्रम और भय दो बातें मनुष्य को बहुत परेशान करती हैं। हम किष्किंधा कांड की चर्चा कर रहे हैं। सुग्रीव या तो भ्रम में जीते थे या भय में, लेकिन वे इन दोनों से पार इसलिए हो गए, क्योंकि उनके जीवन में हनुमानजी थे। चलिए, इस घटना को देखते हैं। हनुमानजी श्रीराम को सुग्रीव के पास ले आए थे। अब सुग्रीव के मन में यह विचार आया, ‘कपि कर मन बिचार एहि रीती। करिहहिं बिधि मो सन ए प्रीती।।सुग्रीव सोच रहे हैं कि हे विधाता! क्या ये मुझसे प्रीति करेंगे। क्या श्रीराम मुझे अपना मित्र बनाएंगे, क्या मुझसे प्रेम करेंगे, क्या मैं उनका विश्वास जीत पाऊंगा। हम भी जब हमसे वरिष्ठ व श्रेष्ठ लोगों से मिलते हैं तो मन में यह बात उठती है। 

ऐसे समय आत्मविश्वास और प्रभु-कृपा काम आती है। दोनों हनुमानजी देते हैं। वैसे यह काम गुरु करते हैं, इसलिए जीवन में गुरु की आवश्यकता है। कोई गुरु न मिले तो हनुमानजी को गुरु बना लीजिए। तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘तब हनुमंत उभय दिसि की सब कथा सुनाइ। पावक साखी देइ करि जोरी प्रीति दृढ़ाइ।।तब हनुमानजी ने दोनों ओर की सब कथा सुनाकर अग्नि को साक्षी रखकर परस्पर दृढ़ करके प्रीति जोड़ दी। अग्नि को साक्षी इसलिए रखा कि अग्नि तटस्थता व अनुशासन की प्रतीक है, क्योंकि वे जानते थे कि मित्रता में रामजी द्वारा कोई गड़बड़ नहीं की जाएगी। यदि कोई चूक होगी तो सुग्रीव से ही होगी और आगे ऐसा हुआ भी। हम भी जब किसी श्रेष्ठ स्थिति से जुड़ते हैं, तो कहीं चूक न हो जाए, इसलिए गुरु की आवश्यकता है। हनुमानजी महाराज यदि हमारे साथ हैं, तो हम श्रेष्ठ स्थिति का पूरा लाभ उठा पाएंगे।

जीवनसाथी में हमेशा श्रेष्ठ को खोजें
हर बात का समय होता है, हर रिश्ते की उम्र होती है। इसी तरह गृहस्थी में भी कुछ बातों का समय तय होता है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण होता है पति-पत्नी का रिश्ता। शादी के फेरों से आरंभ होने वाला यह रिश्ता किसी एक की मृत्यु पर पूरा होता है। यदि यह रिश्ता बीच में दम तोड़ता है, तो जीवनसाथी  विदा होने के पहले रिश्ते की मृत्यु हो जाती है। इसे तलाक या अलगाव का नाम दिया जाता है। प्रगतिशील जोड़े तो रिश्ते के मजबूरी बनने पर तलाक लेकर अलग हो जाते हैं। कुछ घुट-घुटकर जीते हैं, पर रिश्ता तोड़ नहीं पाते। ऐसे में यदि आप रिश्ता बचाना चाहते हैं, तो एक-दूसरे की अच्छाइयों को देखने की कोशिश करें। जीवनसाथी में श्रेष्ठ को ढूंढ़-ढूंढ़कर निकालें। इसके लिए आपको अपनी पॉजीटिविटी बढ़ानी पड़ेगी। 10-15 साल के वैवाहिक रिश्ते में ऊब भी पैदा हो सकती है।

फिर चाहे सामाजिक दबाव व पारिवारिक मजबूरी के कारण दोनों अलग न भी हों। कई लोगों का तो दाम्पत्य ऐसा लगता है जैसे चरखी में से गन्ना निचोड़कर निकाल दिया गया हो। सारा रस समाप्त हो चुका होता है। ऐसे में आपको ढूंढ़ना पड़ेगा कि दोनों के बीच रस कहां रह गया है। बच्चे बड़े हो चुके होते हैं। भौतिक जिम्मेदारियां पूरी हो चुकी होती हैं। ऐसे में केवल एक-दूसरे के सान्निध्य का आकर्षण ही होता है, इसलिए अपने जीवनसाथी में श्रेष्ठ को ढूंढ़ा जाए। यदि आपके पास अच्छा ढूंढ़ने का मकसद है, तो आप जीवन के उत्तरार्द्ध में बैकुंठ का निर्माण कर रहे हैं। जिस स्वर्ग की तलाश में लोग जिंदगी बिता देते हैं वो स्वर्ग जिंदगी के मध्यांतर में या मध्यांतर के बाद भी मिल सकता है।

बीते समय की यादों में संतुलन रखें
स्मृतियां मनुष्य को मथ देती हैं। याद करने पर तो बीता हुआ सुख भी दुख देने लगता है, फिर दुख तो पीड़ा पहुंचाएगा ही। नए वर्ष में जो भी पिछले साल से आया है उनमें यादें भी हैं। ध्यान रखिएगा, ये नए वर्ष में बोझ न बन जाएं। अच्छी यादें अहंकार दे सकती हैं, बुरी यादें उदास बना सकती हैं। जीवन संतुलन मांगता है। जो अच्छा था वो काम आए और जो बुरा था वो रुकावट न बन जाए। बीता हुआ समय और संसार से गुजरे हुए परिजन लौटकर नहीं आते। अब उनकी स्मृतियों को हम चाहें तो अपनी ऊर्जा के सृजन का माध्यम बनाकर नए व अच्छे काम कर सकते हैं। इसके विपरीत हम उनकी यादों में डूबकर आने वाले वक्त को बिगाड़ भी सकते हैं। यादें दो काम और करती हैं। जब भी हम कुछ बातों को याद करते हैं तो हमें लगने लगता है कि हमने जो किया वो ठीक किया क्या? इस भ्रम से हम बाहर नहीं आ पाते और जब कुछ नया करने जाते हैं, तो पुरानी स्मृतियां डराती भी हैं कि कहीं गलत न हो जाए, इसलिए पूरी तैयारी रखिएगा कि आने वाला समय भय और भ्रम से मुक्त रहे। हम जो भी करेंगे पूरे आत्मविश्वास के साथ करेंगे। समय का पूरा सदुपयोग करेंगे। बीता वर्ष देश को बहुत बड़ा परिवर्तन दे गया है। राजनीतिक वातावरण में उम्मीद के बादल छाए हुए हैं। ये बादल कहीं बिना बरसे न चले जाएं, इसलिए हर एक को समुद्र की बूंद की तरह अपने जल से भाप वापस उस आकाश में पहुंचाना है। तो आइए, इस नए साल में अपने रचनात्मक योगदान की तैयारी रखें।

धैर्यवान श्रोता ही अच्छा वक्ता बनता है
अपनी बात को सबके बीच रखने के लिए प्रभावशाली वक्ता होना आवश्यक है। जरूरी नहीं है कि अच्छा वक्ता मंच से ही अपनी बात कहे। दो व्यक्तियों के बीच भी बात हो रही हो, तो भी बात को कहने का ढंग, अर्थ बदल सकता है। हम किष्किंधा कांड की चर्चा कर रहे हैं। हनुमानजी ने श्रीराम व लक्ष्मण की सुग्रीव के साथ अग्नि की साक्षी में मैत्री करा दी थी। हमारी संस्कृति में अग्नि का बड़ा महत्व है। विवाह में वर-वधू अग्नि कुंड के फेरे लेते हैं। इसका अर्थ यही है कि आपका आगामी जीवन एक-दूसरे के प्रति समर्पित हो। लक्ष्मण ने रामजी की ओर से सारी बातें सुनाईं। वैसे तो रामकथा में लक्ष्मणजी बहुत अच्छे वक्ता के रूप में सामने नहीं आते हैं। जब लक्ष्मणजी ने रामकथा सुनाई तो हनुमानजी ने बहुत ही धैर्य से सुना।


हनुमानजी जितने अच्छे वक्ता थे, उतने ही अच्छे श्रोता भी थे। हनुमानजी को भी खूब रस आया, इसीलिए चौपाई में लिखा है, ‘कीन्हि प्रीति कछु बीच न राखा। लछिमन राम चरित सब भाषा।।दोनों ने हृदय से प्रीति की, कुछ भी अंतर नहीं रखा। तब लक्ष्मणजी ने श्रीरामचंद्रजी का सारा इतिहास कहा। हनुमानजी यहां शिक्षा दे रहे हैं कि जो दूसरे के विचारों को धैर्य से सुनेगा, वह समय आने पर अपने विचारों को सुंदर ढंग से प्रस्तुत कर सकेगा। आज मनुष्य के चरित्र में एक और दिक्कत आ गई है कि कोई किसी को सुनना नहीं चाहता, सब अपनी ही बात रखना चाह रहे हैं। बिना सुने आप समझ कैसे सकेंगे, इसलिए अच्छे श्रोता जरूर बनिए।

मन शान्त होगा तो नहीं होती है थकान और कमजोरी
आज के दौर में धर्म-अध्यात्म को जीवन में उतारने की आवश्यकता है। इसके लिए सबसे पहले हमें अपने शरीर को स्वस्थ रखना चाहिए। शरीर स्वस्थ होगा तो मन प्रसन्न रहेगा, तभी हम धर्म-आध्यात्म का महत्व पूरी तरह से समझ सकते हैं।

शास्त्रों में कहा गया है जिसका मन निर्मल है, वे ही भगवान की कृपा प्राप्त कर सकते हैं। देव स्थान हमारे दु:खी मन को शान्त करने के लिए ही बनाए गए हैं। मन शान्त रहने से आत्मविश्वास बढ़ता है। जिसमें आत्मविश्वास है, वह परमात्मा पर भी विश्वास करेगा। आत्मशांति के लिए मन में आध्यात्म की आवश्यकता होती है। यदि आध्यात्म का सही प्रयोग किया जाए तो हम कभी थकेंगे नहीं और न ही शारीरिक रूप से कमजोरी का अनुभव करेंगे।

कैसे करें मन को शान्त
- स्वस्थ रहने के उपाय करते रहना चाहिए।
- स्वयं भी प्रसन्न रहें और दूसरे को भी प्रसन्न करने का प्रयत्न करें।
- नित्य अपने ईश्वर से अच्छे विचार और कर्म के लिए प्रेरित करने हेतु प्रार्थना करें।
- अपना काम कुशलता से पूरा करें और दूसरों की मदद के लिए तैयार रहें।
- कठिन परिस्थिति में ईश्वर को याद कर आत्मविश्वास और संयम बनाए रखें।
- प्रत्येक प्राणी को ईश्वर का अंश समझकर व्यवहार करें।
- प्रकृति का सम्मान करें।

वक्त की कमी को सूझबूझ से पूरा करें
गृहस्थी परमात्मा का प्रसाद है। यदि घर-परिवार में शांति नहीं है तो मनुष्य अपने जीवन को सफल नहीं मानेगा। आज लोग बहुत मेहनत करते हैं, लेकिन परिवार को भूल जाते हैं। कई बार उम्र के किसी पड़ाव पर परिवार बोझ लगने लग जाता है और  ऐसा भी दौर संभव है जब परिवार वालों को उम्र बोझ लगने लगे। वृद्ध को लगेगा कि मैंने परिवार में 70 साल बिताए और आज मेरी यह हालत कर दी गई है। हर उम्र में गृहस्थी का स्वाद बदल जाता है, क्योंकि उम्र धीरे-धीरे कुछ खोने भी लगती है। उम्र बढ़ती है तो दो दिशाओं में खींचती है और जब व्यक्तित्व दो दिशाओं में खींचा जाता है तो शरीर टूटने लगता है। बूढ़ापे में एक दिशा होती है भूतकाल की और दूसरी भविष्यकाल की। भविष्य का भय, बीते कल की यादें बुढ़ापे को बोझ बना देती हैं। आज आदमी के पास सबकुछ है, लेकिन वक्त के मामले में कंगाल है।

परिवार में कुछ सदस्य ऐसे होते हैं, जिनके साथ 5-10 मिनट बिताओ तो वे संतुष्ट हो जाते हैं। किसी को दिनभर बिताने पर भी तृप्ति नहीं मिलती, क्योंकि समय का अपना स्वाद है। इस दौर में कम समय में तृप्त होना सीखना होगा। यदि पत्नी उम्मीद करे कि पति मुझे उतना ही समय दे, जितना उसके माता-पिता देते थे तो यह असंभव-सा है। जितना वक्त हमने माता-पिता को दिया था जरूरी नहीं कि उतना समय हमारे बच्चे हमें दें, इसलिए समय के मामले में स्वाद बदलना होगा। प्रियजनों के साथ समय के स्वाद को जो लोग समझ लेंगे, उनकी गृहस्थी दिव्य हो जाएगी।

प्रसन्नता में फलीभूत होती है भक्ति
भक्त वो होता है जो विशिष्ट होकर भी सामान्य है। लोग भक्ति का अर्थ तिलक लगाना, शिखा रखना, मंदिर जाना मानते हैं जबकि भक्त का मतलब होता है जो अपनी क्षमता के ऊपर किसी और परमशक्ति को स्वीकार करता है। भक्त की सबसे बड़ी पूंजी होती है भरोसा। अगर परमात्मा पर भरोसा है तो भक्त विशिष्ट होकर भी सामान्य बन जाता है। जब योग भक्ति से जुड़ जाता है तो योग के आठ चरण होते हैं और उसका अंतिम चरण है समाधि। भक्त जब समाधि में उतरता है तो लोग समझते हैं  कि उसने संसार छोड़ दिया, जबकि तब वह संसार के प्रति और सामान्य हो जाता है।

यथार्थवादी दृष्टि में भक्त जानता है कि इस संसार में कितना मेरा है और कितना ऊपर वाले का बनाया हुआ है, इसलिए समाधिस्थ व्यक्ति इस पूरी प्रकृति में अखंड रस का पान कर लेता है। जो भक्त होता है वो कभी सूर्य से, कभी चंद्र से, कभी पेड़ से, कभी जल से रस लेता है। भक्त प्रकृति के रस का पान करता है, इसलिए वह बहुत प्रसन्न रहता है। भीतर प्रसन्नता हो और बाहर मुस्कान हो, यह भक्त की परिभाषा है और लक्षण भी। कुछ लोग बाहर मुस्कान ले आते हैं तो भीतर प्रसन्न नहीं रहते। भक्त स्वयं प्रसन्न रहता है और दूसरों को भी प्रसन्न रहने के लिए प्रेरित करता है। समाधिस्थ व्यक्ति वो होता है, जिसके पास लोगों को बैठने की इच्छा होती है। लोग अापके पास बैठना चाहें तो समझ लें कि आपकी भक्ति फलीभूत हो रही है। भक्ति का रस हमारे आस-पास सुगंध का वातावरण बनाता है।

संसार को ईश्वर की रचना मानकर कर्तव्य भाव रखें
यह जो संसार हमें बना-बनाया मिला है, यह ईश्वर ने बनाया है। हमको लगता है हमने बनाया है। मनुष्य यह मानने लगता है कि यह जो संसार है, इसे मैंने बनाया है। मेरे बच्चे, मेरा धंधा, मेरा बंगला, मेरी कार, मेरा नाम, मेरी प्रतिष्ठा, बस यहीं से भ्रम शुरू हो जाता है। शास्त्र हमें यह बताते हैं कि यह सब हमें ईश्वर ने दिया है। चूंकि इस संसार को हम अपनी इंद्रियों से देखते हैं, अपने राग-द्वेष द्वारा संसार की वस्तुओं में रंग डाल देते हैं। परमात्मा ने अच्छा-बुरा नहीं बनाया, उसने तो केवल वस्तु बनाई, लेकिन लोग राग-द्वेष की दृष्टि डालते हैं, तो अपना-पराया शुरू हो जाता है, इसलिए जब हम इस संसार को देखें तो एक भाव हमेशा बनाए रखना चाहिए कि यह संसार तो पहले से ही परमात्मा बना चुके थे और हमने सिर्फ अपनी इंद्रियों, अपने राग-द्वेष के कारण इसको अपना मान लिया है।

यह संसार तो किसी परम शक्ति की रचना है। हम भी इसके हिस्से हैं, तो फिर आनंद भी उसी हिसाब से लें। संसार में चाहे पत्नी, बच्चे, पति, मकान, संपत्ति हो, लेकिन गहराई में यह अहसास होना चाहिए कि यह सब ईश्वर का बनाया हुआ है। जब हमारे पास कुछ हो और उसके होने में पत्नी, भाई, पिता, बच्चे का भी सहयोग है तो जैसे हम ईश्वर का मान रखते हैं, वैसे ही इन सबका भी मान रखेंगे तो आनंद ज्यादा मिलेगा। यह मानकर चलना होगा कि परमात्मा ने यह संसार बनाकर हमको सौंप दिया है। हम सिर्फ इसके रक्षक हैं और अपना कर्तव्य पूरा कर रहे हैं। जैसे ही यह भाव मन में आएगा, जीवन के प्रति दृष्टि बदल जाएगी और समूची प्रकृति का आनंद उठा पाएंगे।

जागरूक व्यक्ति सच्चे अर्थ में मानव
जब मनुष्य मर्यादा के बाहर काम करता है तो टिप्पणी की जाती है कि वह तो पशु हो गया। खासतौर पर जब मनुष्य अपराध करने पर उतर आता है तो वह पशु जैसा व्यवहार करता है। आइए देखें कि मनुष्य और पशु में क्या अंतर है। वैसे सामान्य अंतर मजबूरी का होता है। पशु मजबूर होता है और मनुष्य अपने पुरुषार्थ से अपनी इच्छा का जीवन जी सकता है। मनुष्य की तरह पशु अंत:करण की जानकारी नहीं ले सकता। मनुष्य के भीतर के अंत:करण में चार बातें हैं- मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। जो इन चारों को ठीक से नहीं जान पाया, कहा जा सकता है वह भी पशु जैसी स्थिति में है। शास्त्रों में पशु को तिर्यक् कहा है यानी यदि पशु जमीन पर है, तो उसके शरीर में सिर, हृदय, पेट और इंद्रियां एक सीध में रहेंगी। मनुष्य में इनका क्रम ऊपर से नीचे होता है। 

पशु में ये समानांतर होने के कारण इन सबका मूल्य समान है। वह सबका एक ही उपयोग करता है। मनुष्य में सबसे पहले सिर है यानी बुद्धि की प्रधानता होगी। उसके नीचे हृदय, जहां संवेदनाएं होनी चाहिए। बुद्धि और संवेदनाएं एक-दूसरे से नियंत्रित रहें, संतुलित रहें। इसके बाद पेट आएगा, जिसमें कामनाएं हैं। मनुष्य की कामनाएं कभी तृप्त नहीं होती। पेट आज भरता है, कल फिर मांगता है। उसके बाद इंद्रियां आती हैं, जिसके पास भोग-विलास है। मनुष्य यदि अपने अंत:करण के प्रति जागरूक है, तो वह अपनी इंद्रियों, अंगों का सही उपयोग करेगा। यदि दुरुपयोग करता है तो उसके लिए टिप्पणी की जाती है कि वह जानवर जैसा हो गया है।

किसी के बन जाओ या किसी को अपना बना लो
गृहस्थी में कई बार हमारी परीक्षा होती। अपने जो हमसे मांग करते हैं, कोई इच्छा व्यक्त करते हैं तो आपके सामने यह चुनौती आ जाती है कि इनकी मांग और इच्छा को कैसे पूरा करें। हमारे परिवार में कभी-कभी ऐसा होता है, खासतौर पर पति-पत्नी के बीच में, क्योंकि पति-पत्नी का रिश्ता बाहर से आया हुआ होता है। ये किसी दूसरे परिवार से आकर मिले हुए होते हैं। जब इनका मिलन होता है तो इनके जीवन की पूर्व की घटनाएं और बाद की घटनाओं में मेल नहीं बैठता है तो तनाव शुरू हो जाता है। जब एक की कोई इच्छा हो, तो दूसरे को बड़े धैर्य से निभाना चाहिए। जो इस इच्छा को निभाना सीख गया वह गृहस्थी की नैया पार निकाल लेगा और जिसको यह कला नहीं आई, उसकी गृहस्थी कलह में डूब जाती है, इसलिए गृहस्थी चलाने का एक सीधा-सा फार्मूला है या तो किसी के बन जाओ या किसी को अपना बना लो।

जब भी कोई रिश्ता नया बने खासतौर पर पति-पत्नी का रिश्ता, तो चार बातें ध्यान में रखनी होगी। पहली बात जीवनसाथी की निजता का ध्यान रखें। हरेक की अपनी निजता एक मौलिकता, एक मूल स्वभाव होता है। उसकी निजता के साथ कभी भी छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए। दूसरी बात, जीवनसाथी के लक्ष्य की प्राप्ति में मदद करनी चाहिए। तीसरी बात, घर के सदस्यों की व्यक्तिगत इच्छा और रुचि का सम्मान करना चाहिए और चौथी बात, अपने जीवनसाथी की मांग को कभी सीधे इनकार नहीं करें। इनकार में दो बातें होती हैं- असहमति और विरोध। घरों में असहमति चलेगी, लेकिन विरोध किसी भी बात का नहीं होना चाहिए। असहमति का विकृत रूप होता है विरोध।


जीवन में ईश्वर लाने का प्रयास करें
किष्किंधा कांड में श्रीराम और लक्ष्मणजी को हनुमानजी सुग्रीव के पास लाकर मैत्री कराते हैं। मित्रता होने के बाद सुग्रीव श्रीराम से बातचीत करते हैं। तुलसीदासजी ने पंक्ति लिखी, ‘कह सुग्रीव नयन भरि बारी, मिलिहि नाथ मिथिलेस कुमारी।सुग्रीव ने नेत्रों में जल भरकर कहा, ‘हे नाथ, मिथिलेश कुमारी जानकी जी मिल जाएंगी।जो सुग्रीव अपने भाई बाली से परेशान होकर इधर-उधर भाग रहा था वह श्रीराम को आश्वासन दे रहा है कि चिंता मत करो प्रभु। ऐसा इसलिए हो गया, क्योंकि सामने श्रीराम खड़े थे। जब परमात्मा जीवन में आता है तब डरपोक से डरपोक आदमी भी बलशाली हो जाता है, निराश आदमी भी आशा की बात करता है।

सीताजी को जब रावण हर कर लेकर जा रहा था उस समय सुग्रीव ने भी अपने साथियों सहित यह घटनाक्रम देखा था। चूंकि सुग्रीव डरपोक था, इसलिए कुछ नहीं किया। हनुमानजी ने भी देखी होगी यह घटना, लेकिन विरोध नहीं किया। जब तक श्रीराम जीवन में नहीं आए, तब तक हनुमानजी को भी शक्ति का भान नहीं था, इसलिए हम कितने ही योग्य, बलशाली, समर्थ हों, बिना ईश्वरीय शक्ति के कुछ नहीं हैं। हनुमानजी के साथ भी ऐसा हुआ। श्रीराम के जीवन में आने से पहले वे सुग्रीव के सचिव के अलावा कुछ नहीं थे। जैसे ही श्रीराम ने उन्हें छुआ तो उनका नया परिचय सामने आया रामदूत के रूप में। किष्किंधा कांड का यह प्रसंग हमें भी समझा रहा है कि जीवन में परमात्मा को लाने का प्रयास करते रहना चाहिए।

जीवन में संघर्ष से आती है परिपक्वता
पारिवारिक जीवन में जब अचानक संघर्ष आता है तो तैयारी न होने पर लोग टूट जाते हैं या बिखर जाते हैं। टूट गए तो फिर जुड़ जाएंगे, लेकिन बिखर गए तो व्यक्तित्व के टुकड़े समेटना मुश्किल होगा। आज के बच्चों को तो मालूम ही नहीं है कि संघर्ष होता क्या है। मां-बाप प्रतिपल बच्चों को सुख देने के लिए बेचैन रहते हैं। इनके जीवन का 75 प्रतिशत संघर्ष तो मां-बाप ही पूरा कर देते हैं। ऐसे लोग होते हैं, जो पढ़ाई का खर्च खुद उठाते हैं। आज के बच्चे इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। इन्हें लगता है कि फीस मां-बाप को ही भरनी है। पेरेंट्स बच्चों को अच्छे से पढ़ा देते हैं, अच्छी-सी नौकरी लगवा देते हैं। बच्चों के जीवन में संघर्ष बचा ही नहीं। कुछ संघर्ष संतानों के लिए भी छोड़ना चाहिए।


एहसास कराना चाहिए कि जो सुविधाएं इन्हें मिल रही हैं, ये इनका अधिकार नहीं; बल्कि माता-पिता का उपकार है। परिंदा भी अपने छोटे बच्चों को पेड़ से धक्का दे देता है। इसके बाद वो बच्चा पेड़ से गिरता नहीं, उड़ जाता है और तब उस बच्चे को पता चलता है कि अगर धक्का नहीं दिया होता तो मैं आसमान में नहीं आया होता। इसी प्रकार जिंदगी के दरिया में इन बच्चों को हाथ-पैर चलाने देना होगा। जब संघर्ष आता है तो लोग दुर्भाग्य मानने लगते हैं। संघर्ष और दुर्भाग्य में फर्क है। दुर्भाग्य परेशान करता है, संघर्ष तराशता है। पांच चीजें बच्चों को अवश्य सिखाएं- परिश्रम, ईमानदारी, सहनशीलता, सहयोग की वृत्ति और परिणाम के प्रति बेफिक्र होना। इससे बच्चे परिपक्व होंगे।


बच्चों में जिम्मेदारी का अहसास जगाएं
घर के सदस्यों से, जीवनसाथी से, बच्चों से कोई काम कराना आजकल बड़ा मुश्किल हो गया है। अपने व्यवसाय या घर में जब भी किसी से काम लें, उसमें चार बातों का ध्यान रखें। एक, काम का बंटवारा ठीक से करें। यह मालूम होना चाहिए कि कौन-सा व्यक्ति क्या काम कर सकता है। बंटवारा गलत हुआ तो काम भी बिगड़ेगा। दो, जिसे काम सौंपा गया है, उस पर भरोसा रखें। तीन, स्त्री-पुरुष का भेद नहीं करें। कई लोग सोचते हैं कि महिलाएं यह काम नहीं कर पाएंगी। बस, यहीं से झंझट शुरू हो जाती है घरों में। औरतें भी कई बार यह मान लेती हैं कि यह काम आदमी नहीं कर सकते। ऐसे में काम हो या न हो, लेकिन स्त्री-पुरुष का झगड़ा जरूर शुरू हो जाता है।

चार, दायित्व बोध का भाव जगाना चाहिए, खासतौर पर बच्चों में। इसके अभाव में बच्चे जिम्मेदारी उठाने को तैयार नहीं होते, लेकिन सुविधाएं चाहते हैं। घर के छोटे-छोटे काम जो बच्चों के होते हैं वे नौकर या घर के बड़े सदस्य करते हैं। एक प्रयोग करें। बच्चों को कुछ काम सौंप दें और दूर से खड़े होकर देखें, लेकिन हस्तक्षेप नहीं करें। घर में पति-पत्नी, बाप-बेटे, भाई-बहन सबके काम करने के तरीके अलग हो सकते हैं। मुद्‌दा तरीके का नहीं; काम सही करने का है, इसलिए बच्चे जिस तरीके से भी काम करें उन्हें पूरा करने दें और धैर्य रखें। अगर काम में कोई गड़बड़ हो जाए तो उसे सही करने का समय देना चाहिए। ऐसे में अगर आपको क्रोध आ रहा है, तो शांत रहें। परिवार में शांति आएगी तो खुशी और आनंद बढ़ जाएगा।


जटिल स्वभाव के बच्चे को ऐसे संभालें
घर में कोई बच्चा दूसरों से बिल्कुल अलग स्वभाव का हो तो माता-पिता बहुत परेशान हो जाते हैं। यदि यह बच्चा दूसरों को भी परेशान कर रहा हो तो समस्या और भी विकट हो जाती है। चलिए, आज इसी पर विचार करते हैं। एक ही परिवार के बच्चे भी दुनिया को देखने के नजरिये, आदतों और प्रतिक्रिया व्यक्त करने में भिन्न होते हैं। संसार में आने के बाद बच्चे की पहली दृष्टि माता-पिता की ही दृष्टि होती है। अब उनकी जिम्मेदारी है कि वे उस बच्चे के भीतर जो उसकी अपनी दृष्टि है, उसका जो मूल व्यक्तित्व है उसे समय पर समझना शुरू कर दें। मूल स्वभाव पकड़ते ही उनके लिए यह जानना आसान हो जाएगा कि यह अन्य बच्चों से अलग क्यों है। यह तय है कि सारे बच्चों पर एक ही पैमाना नहीं लगाया जा सकता।

माता-पिता के लिए यह जानना अहम है कि वह क्या बन सकता है। हमारे शरीर मे दस इंद्रियां हैं, जिनका इस्तेमाल हमारे विवेक पर निर्भर है। इन इंद्रियों की संख्या में यदि कमी या कोई खराबी हो जाए और हम इसे समस्या मान लें, तो शरीर बोझ हो जाएगा। इनसे ही काम चलाने में बुद्धिमानी है। जैसे ही हम स्थितियों को स्वीकार या अस्वीकार करते हैं, हमारे शरीर के रसायन चक्र में परिवर्तन आता है। यह परिवर्तन तनाव लाता है या हमें तनाव से मुक्त करता है। ऐसे ही बच्चों को अपने शरीर के अंग की तरह मानिए। उन्हें संभाला जाए और उन्हें सही दिशा दी जाए। इस दृष्टि से किया गया लालन-पालन माता-पिता को तनाव मुक्त रखेगा और बच्चों का भविष्य भी उज्ज्वल रहेगा।

शिक्षित होने का आनंद बढ़ाता है योग
आजकल बाजार में हर वस्तु का विस्तार हो रहा है। वस्तुओं की इतनी किस्में बना दी गई हैं कि लोग बाजार में भटकते रहते हैं। किस्में जब तेजी से बदलती हैं तो फैशन बन जाता है। फैशन ओढ़ने-संवरने तक तो ठीक है, लेकिन यह चिंताजनक रूप से शिक्षा के क्षेत्र में प्रवेश कर गया है। लगातार कोर्स की संख्या बढ़ रही है। कुछ डिग्रियां रोजी-रोटी के काम आती हैं, कुछ स्टेटस से जुड़ गईं, कुछ टाइम-पास हैं और कुछ में सिर्फ फैशन है। जो शिक्षा जीवन संवार सकती थी, वह अब हथियार बनकर एक को दूसरे से लड़वा रही है, इसीलिए घरों में भी शिक्षित सदस्य आपस में उलझकर अशांत हो जाते हैं, जबकि ज्ञान का बड़ा उद्‌देश्य मनुष्य को शांति पहुंचाना है। ज्ञान और शिक्षा के बारीक अंतर को कोई समझना नहीं चाहता, इसीलिए शिक्षा को ही ज्ञान मान लिया गया। भक्त का मूल लक्षण है उसका शांत रहना। यदि भक्त अशांत है तो वह कहीं न कहीं केवल कर्मकांड में उलझा है। भक्ति को योग से भी जोड़ें। पढ़े-लिखे व्यक्तियों को हर विचार पर मंथन की आदत होती है। यह जरूरी भी है, लेकिन अनियंत्रित मंथन अशांति का कारण होता है। वे यदि ध्यान से जुड़ें, तो उन्हें बच्चों जैसी सरलता अपनानी होगी। ध्यान हमें अज्ञानी की तरह सरल बनाता है। पूरा व्यक्तित्व बालवाणी और बाल हृदय हो जाता है। यहीं से परमात्मा की प्राप्ति होती है, इसलिए शिक्षा जब जीवन में खूब उतर रही हो, तो थोड़ा समय योग-भक्ति को भी दीजिए, फिर देखिए शिक्षित होने का आनंद बढ़ जाएगा।

परमात्मा से जोड़ने वाला सेतु होता है गुरु
लोगों की जिंदगी बीत जाती है, पर चाहकर भी गुरु नहीं बना पाते। इसके पीछे बाहरी और आंतरिक कारण होते हैं। पहला बाहरी कारण हमारी निजी पसंद है। कुछ लोग लोकप्रिय या प्रसिद्ध व्यक्ति को गुरु बनाने की सोचते हैं। अगर पसंद का कारण बाहरी है तो गुरु का चयन गलत हो जाएगा। दूसरी बात, हम अपनी सुविधा से गुरु बनाते हैं। कई लोग सोचते हैं कि गुरु सुविधाजनक होना चाहिए। अगर किसी को सच्चा गुरु मिल गया, तो सबसे पहले वह शिष्य की सुविधा छीन लेगा। गुरु परमात्मा से मिलाने आपके जीवन में आता है, सुविधा देने नहीं। आंतरिक कारणों में सबसे बड़ा कारण हमारा मन है। हमारा मन सबसे बड़ी बाधा है। वह प्रमाण मांगता है कि इन्हें गुरु क्यों बनाएं? मन का दूसरा स्वभाव है संदेह करना। गुरु मंत्र के बाद गुरु और शिष्य के रिश्ते में कोई चीज है, तो वह है समर्पण। यदि संदेह है तो समर्पण नहीं हो सकता और समर्पण नहीं है तो मंत्र प्रभावी नहीं होगा। भगवान से मिलने में अहंकार बाधा पहुंचाता है और गुरु इसे दूर करता है। गुरु मंत्र व्यक्तित्व से परमात्मा के अस्तित्व को जोड़ने वाला सेतु है। जैसे मछली के लिए जल है, वैसे ही मनुष्य के जीवन में परमात्मा है। सिर्फ अहंकार हटाना है, परमात्मा की अनुभूति अवश्य होगी।


संकट में अहंकार छोड़कर समाधान स्वीकारें
जीवन में ऐसे अवसर भी आते हैं जब समर्थ और सक्षम व्यक्ति को ऐसे लोगों से मदद लेनी पड़ती है, जो संभवत: मदद करने योग्य नहीं होते। यदि समझदारी से काम लिया जाए तो कमजोर लोगों की संभावना को भी उपयोग में लिया जा सकता है। किष्किंधा कांड में श्रीराम ने यही किया था। सुग्रीव स्वयं बहुत कमजोर थे और अपने भाई बाली से डरकर छिपे हुए थे। तुलसीदासजी ने लिखा - कह सुग्रीव सुनहु रघुबीरा। तजहु सोच मन आनहु धीरा।। सब प्रकार करिहउं सेवकाई। जेहि बिधि मिलिहि जानकी आई।। सुग्रीव ने कहा, ‘हे रघुवीर सुनिए, सोच-विचार, चिंता छोड़ दीजिए और मन में धीरज लाइए।

मैं सब प्रकार से आपकी सेवा करूंगा, जिस उपाय से जानकीजी आकर आपको मिलें।अगर श्रीराम उस समय सोचते कि मैं इतना बड़ा व्यक्ति हूं और सुग्रीव मुझे समझा रहा है, तो उनकी समस्या का समाधान नहीं होता। सुग्रीव सेवा करने का आश्वासन भी दे रहे थे। श्रीराम ने उसे स्वीकार भी किया। जीवन में जब परेशानी हो तो छोटे-बड़े का चक्कर छोड़ दीजिए। सबसे बड़ी बुद्धिमानी है समस्या का समाधान निकाल लेना। परेशानी कभी भी, किसी को भी आ सकती है, इसलिए संकट के समय अपना अहंकार छोड़ दें और जहां भी समाधान मिल रहा हो उसे सम्मान से स्वीकार करें।

घर के सदस्यों की परेशानी का ख्याल रखें
अपनी व्यस्तता में हमें पता ही नहीं चलता कि घर में कोई सदस्य परेशान है। चाहे जीवनसाथी हो, मां-बाप या फिर बच्चे। घर के बाहर भले ही वे परेशान हों, लेकिन घर आने पर उसे ऐसा लगे कि कोई अपना है। उससे पूछिए कि हम तुम्हारे लिए क्या कर सकते हैं। इससे उसका मनोबल बढ़ेगा। कई बार लोग बाहर की समस्याओं को घर में नहीं बताते। घर की परेशानी में सास-बहू, बाप-बेटे, भाई-भाई तथा रिश्तेदारों का झगड़ा होता है। कई बार बड़े भाई से विवाद हो जाता है तो छोटा भाई सम्मान में कुछ बोलता नहीं, लेकिन भीतर ही भीतर घुटता रहता है।

यदि दूसरे सदस्य से परेशानी है तो इलाज अलग ढंग से होगा और यदि वह हमसे परेशान है तो इलाज अलग ढंग से निकालिए। गृहस्थी में मेडिटेशन, भजन-पूजन करिए और भगवान से कहिए कि मेरे परिजन उदास हैं, आज मेरे परिवार का वातावरण बोझिल हो गया है कोई मार्ग दिखाइए। आधी समस्या तभी हल हो जाती है, जब हम खुद सुधर जाते हैं। शेष समस्या को ठीक करने के लिए उसका विश्लेषण करिए। घर-गृहस्थी में जीने के दो ही प्यारे ढंग हैं, या तो किसी को अपना लो या किसी के हो जाओ। इस बात को जितना परिपक्वता से करेंगे, आप पाएंगे कि घर में उतनी ही शांति बढ़ जाएगी।


घर के सदस्यों की परेशानी का ख्याल रखें
अपनी व्यस्तता में हमें पता ही नहीं चलता कि घर में कोई सदस्य परेशान है। चाहे जीवनसाथी हो, मां-बाप या फिर बच्चे। घर के बाहर भले ही वे परेशान हों, लेकिन घर आने पर उसे ऐसा लगे कि कोई अपना है। उससे पूछिए कि हम तुम्हारे लिए क्या कर सकते हैं। इससे उसका मनोबल बढ़ेगा। कई बार लोग बाहर की समस्याओं को घर में नहीं बताते। घर की परेशानी में सास-बहू, बाप-बेटे, भाई-भाई तथा रिश्तेदारों का झगड़ा होता है। कई बार बड़े भाई से विवाद हो जाता है तो छोटा भाई सम्मान में कुछ बोलता नहीं, लेकिन भीतर ही भीतर घुटता रहता है।

यदि दूसरे सदस्य से परेशानी है तो इलाज अलग ढंग से होगा और यदि वह हमसे परेशान है तो इलाज अलग ढंग से निकालिए। गृहस्थी में मेडिटेशन, भजन-पूजन करिए और भगवान से कहिए कि मेरे परिजन उदास हैं, आज मेरे परिवार का वातावरण बोझिल हो गया है कोई मार्ग दिखाइए। आधी समस्या तभी हल हो जाती है, जब हम खुद सुधर जाते हैं। शेष समस्या को ठीक करने के लिए उसका विश्लेषण करिए। घर-गृहस्थी में जीने के दो ही प्यारे ढंग हैं, या तो किसी को अपना लो या किसी के हो जाओ। इस बात को जितना परिपक्वता से करेंगे, आप पाएंगे कि घर में उतनी ही शांति बढ़ जाएगी।

प्रसन्नता से किए भोजन से मिलता है स्वास्थ्य
भक्त को अन्न के प्रति बहुत सावधान रहना चाहिए। चार बातों का खास ध्यान रखना चाहिए। पहली बात, अन्न जिस धन से आया है वो धन कहां से आया है। गलत तरीके से कमाए धन से आया अन्न परिवार की मानसिकता बिगाड़ देगा। दूसरी बात, अन्न को किसने बनाया है। घर में मां, बहन, बेटी, धर्मपत्नी या परिवार की प्रतिष्ठित स्त्री ही भोजन बनाए, क्योंकि भोजन बनाने वाले की मानसिकता अन्न में उतरती है। विज्ञान ने इसकी पुष्टि की है। प्रसन्नता से जो भोजन पकेगा उसे खाकर सभी प्रसन्न होंगे। माताएं-बहनें भोजन पकाते समय श्री हनुमानचालीसा का जप करेंगी तो भोजन में अलग ही ऊर्जा होगी।

तीसरी बात, किस रूप में अन्न ग्रहण किया जा रहा है। अन्न के कई रूप हो गए हैं जैसे बर्गर, पिज्जा, डोसा, समोसा, वेज-नॉनवेज। अन्न का रूप पवित्र होना चाहिए। हमेशा शुद्ध वातावरण में भोजन करना चाहिए। जिव्हा भोजन को अंदर करती है और उसी समय शब्दों को बाहर फेंकती है। यदि कर्कश शब्द बोले जा रहे हैं, तो भोजन विषैला हो जाता है, जो पाचन को बिगाड़ देगा। शरीर के मान का सबसे अच्छा तरीका है भोजन बनाते और खाते समय प्रसन्नचित्त रहें। फिर देखिए यह शरीर कैसा स्वस्थ हो जाएगा और परिवार में प्रेम होगा।


जागरूक रहकर सहमति या असहमति दें
जीवन में जब भी सहमति-असहमति व्यक्त कर रहे हों, तब थोड़ा सावधान हो जाइए। रिश्ते, पोजीशन व विषय को देखकर फैसला देना होता है। जब हमारे सामने कोई बड़ा हो तब हमें 80 प्रतिशत ध्यान रिश्ते पर देना चाहिए और 20 प्रतिशत चिंता विषय की पालनी चाहिए, क्योंकि बड़े व्यक्ति का अनुभव व अहंकार भी काम कर रहा होता है। मामला घर का हो तो उस दृष्टि से देखिए; अगर व्यावसायिक हो तो अपना पूरा कॅरिअर ध्यान में रखिए, लेकिन इसमें विषय के प्रति गंभीर रहें। अगर आपकी विषय पर पकड़ है, तो आज नहीं तो कल सामने वाला बड़ा व्यक्ति आपकी बात मानेगा। इससे रिश्ते का भी सम्मान रह जाएगा और विषय भी बच जाएगा।

छोटों में विवेक व अनुभव की कमी होती है, इसलिए जब वे किसी विषय पर हां या ना कह रहे होते हैं तो आपको अत्यधिक सावधान रहना है, क्योंकि आप बड़े हैं। ऐसे समय विषय पर 80 प्रतिशत जागरूक रहिए और रिश्तों पर 20 प्रतिशत सतर्कता रखें। आप विषय की गंभीरता उसकी तुलना में ज्यादा समझ सकते हैं। आपके छोटे या बड़े होने पर यदि आप गलती कर रहे हैं, तो इसका असर आपके भविष्य पर पड़ने वाला है। इसलिए जीवन के जिन गंभीर विषयों पर हां या ना कहना है, तो पूरी तैयारी के साथ कहें।


झगड़ा हो जाए तो वाणी पर नियंत्रण रखें
झगड़ा हो जाना सामान्य बात है। वैसे तो झगड़ा करना अच्छी बात नहीं है, लेकिन झगड़ा हो ही जाए तो हमारे  बोलने का तरीका क्या होना चाहिए, इस पर ध्यान दें। झगड़ा होने पर मनुष्य सबसे पहले वाणी से गिरता है। फिर शरीर आक्रामक हो जाता है। कभी झगड़े की नौबत आए तो शब्दों को प्रकट करने के तरीके पर थोड़ा काम कीजिए। झगड़ा चार स्तरों पर हो सकता है। पहला, विचार के स्तर पर, जहां आप सलाह और समझाश दे रहे होते हैं। दूसरा भावना के स्तर पर। इसमें प्रेम और संवेदनाएं होती हैं, फिर भी झगड़ा चल रहा होता है। ऐसा घरों में ज्यादा होता है। तीसरा होता है क्रोध के स्तर पर। यहां हमारी पूरी तरह असहमति होती है। चौथा स्तर है सूचना देने का।

इसमें झगड़े के दौरान या तो हम कोई संदेश दे रहे होते हैं या आदेश। झगड़ा किसी भी स्तर का हो अपशब्द न कहें। आवेश में आकर जोर से न बोलें। वाणी को दबाएं भी नहीं, क्योंकि दबी हुई वाणी पूरे शरीर को नुकसान पहुंचा सकती है। एक छोटा-सा प्रयोग भी किया जा सकता है। अपनी दोनों भौहों के बीच जहां आज्ञा चक्र होता है, वहां पूरा ध्यान लगाएं। इसके बाद वाणी का प्रयोग  करें। ऐसा करेंगे तो एक गैप, एक शून्य आता है और शांति महसूस होगी। संभव है इस दौरान सामने वाला भी शांत हो जाए।

ईश्वर को पाने में सबसे बड़ी बाधक हमारी बुद्धि है
श्री रमण से किसी ने पूछा था, क्या सीखूं कि मुझे प्रभु उपलब्ध हो जाए? श्री रमण ने कहा, सीखना नहीं है, भूलना है। बहुत स्मरण है, वही बाधा है। जब समस्त स्मरण छूट जाए। स्व-स्मरण जाग्रत हो जाता है।किन्हीं ने पूछा है, जब बुद्धि असफल हो जाती है तो क्या हम श्रद्धा का सहारा न लें। श्रद्धा भी बुद्धि है। श्रद्धा बौद्धिक होती है। हम बड़ी मुश्किल में हैं दुनिया में। हम समझते हैं अश्रद्धा बौद्धिक होती है और श्रद्धा बौद्धिक नहीं होती है। अश्रद्धा भी बौद्धिक होती है, श्रद्धा भी बौद्धिक होती है। किससे श्रद्धा करते हैं? जो मानता है कि मैं ईश्वर को मानता हूं, वह किस चीज से मान रहा है ईश्वर को? तो वह बुद्धि से मान रहा है ईश्वर को।

जो कहता है, मैं ईश्वर को नहीं मानता, वह किससे नहीं मान रहा है? वह बुद्धि से नहीं मान रहा है। धार्मिक लोगों ने एक उलझाव पैदा कर दिया है। वे यह सोचते हैं कि श्रद्धा तो बौद्धिक नहीं है। और अश्रद्धा बौद्धिक है। अश्रद्धा भी बौद्धिक है और श्रद्धा भी बौद्धिक है। अगर आपकी बुद्धि बिलकुल असफल हो जाए खोजने में और यह कह दे कि मेरी बुद्धि कुछ भी नहीं खोजती तो न वह बुद्धि श्रद्धा करेगी, न अश्रद्धा क्योंकि श्रद्धा भी खोज है, अश्रद्धा भी खोज है। जो यह कह रहा है, ईश्वर नहीं है, उसने भी कुछ खोज लिया। जो यह कह रहा है, ईश्वर है, उसने भी खोज लिया। दोंनो की बुद्धि सफल हो गयी।

अगर बुद्धि टोटल फेल्योर हो जाए तो आप सत्य को उपलब्ध हो जाएंगे। अगर बुद्धि यह कह दे कि मैं कुछ भी नहीं खोज पा रही, और बुद्धि पर से आस्था उठ जाए और बुद्धि से आप बिलकुल निराश हो जाएं तो आपके भीतर प्रज्ञा का जागरण हो जाएगा।


चिंता से निपटने में मन नहीं, बुद्धि उपयोगी
जिंदगी में चिंताएं आती रहती हैं, लेकिन ये लंबे समय टिक जाएं तो बीमारी साबित होंगी। कई लोगों का स्वभाव बन जाता है चिंता पालना। वे छोटी-छोटी बातों से परेशान हो जाते हैं। जब हमारे जीवन में कोई चिंता आए तो क्या करें। हम इसे किसी पर थोप सकते हैं, मदद ले सकते हैं या साझा कर सकते हैं। वरना चिंता चिढ़ बनकर सामने आएगी और यदि इसका मौका न मिले तो कुंठा शुरू हो जाएगी। लोग हमारी चिंता को चार ढंग से लेगे। एक, तुम्हारी तुम जानो। दो, अच्छा हुआ, इनके साथ ऐसा ही होना था। तीन, लोग हमसे सिर्फ सहानुभूति रखेंगे। चार, लोग हमारी मदद तो करना चाहेंगे, लेकिन मदद करने का उनका अपना ढंग होगा। 

अत: रास्ता हमें ही निकालना होगा। आध्यात्मिक तरीका यह है कि पहले समाधान में मन व बुद्धि की भूमिका स्पष्ट कर लें। चिंता को बुद्धि से निपटाएंगे, तो वो फिर भी निपट जाएगी, लेकिन मन ने भूमिका निभाई तो गड़बड़ियां बढ़ जाएंगी, क्योंकि मन चीजों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करने में माहिर होता है। उसे वर्तमान में नहीं, भूतकाल या भविष्य की आड़ लेकर डराने में रुचि होती है। फिर लगने लगेगा कि इस चिंता का कोई निराकरण नहीं हो सकेगा। इसलिए चिंता के समय बुद्धिमानी से काम लिया जाए, मनमानी से नहीं।

सांस के जरिये शरीर को आत्मा से जोड़ें युवा
बचपन से किशोरावस्था और फिर युवावस्था के दौरान बहुत-सी चीजें बदलती हैं। सबसे ज्यादा परिवर्तन शरीर दिखाता है। मानसिकता थोड़ी अधिक खुल जाती है। अपने भीतर दमखम का एहसास होने लगता है। ऐसे वक्त में यदि शरीर पर संयम न रखा गया, तो उसकी क्षमता गलत दिशा में भी प्रवेश कर सकती है। शरीर में कुछ ऐसी मांगें उठने लगती हैं, जिसमें सही-गलत का भान चला जाता है। आजकल तंबाकू, सिगरेट, शराब और दैहिक लालसा बेकाबू होती जा रही है उसका कारण यही है कि उम्र के बदलाव में शरीर के प्रति आकर्षण तो रहा, पर सावधानी जाती रही। युवाओं को शरीर को सांस से जोड़ना सिखाना चाहिए। अभी शरीर सांस ले रहा होता है, लेकिन सांस से जुड़ा हुआ नहीं रहता।

उम्र के नशे में सांस लेना सिर्फ एक क्रिया है और इसके बंद होने पर मौत आ जाएगी। किंतु शरीर और सांस का संबंध केवल इतना ही नहीं है। यदि हम होश में सांस लेने लग जाएं, तो हम शरीर को यह एहसास दिला सकेंगे कि इसके भीतर आत्मा भी है। इसका एहसास जितना होगा शरीर की दिव्यता और तेजस्विता उतनी ही बढ़ जाएगी। अन्यथा शरीर नाम का आवरण तो पशुओं के पास भी होता है और इसीलिए मनुष्य इस शरीर के साथ पशु जैसे काम करने लगता है।

दूसरों के भीतर की अच्छाई को बचाने का प्रयास करें
अच्छे होने का मुखौटा अलग बात है और भीतर से अच्छा होना अलग बात है। अच्छी छवि, चरित्र जैसे गुणों को भी इस समय शस्त्र की तरह उपयोग में लिया जाता है। लोग समझ गए हैं कि अच्छे होने का फायदा दो पैसे कमाने में भी मिल सकता है, इसलिए ऐसे लोग वक्त-बेवक्त इसे मुखौटा बनाकर ओढ़ लेते हैं और हटा भी देते हैं। कभी ऐसा हो कि हमारे जीवन में किसी अच्छे व्यक्ति द्वारा कोई गलत काम हो जाए, तो हमें पहला प्रयास करना चाहिए कि उसके भीतर की अच्छाई को बचाया जाए। ऐसा व्यक्ति हमारा जीवनसाथी, बच्चे, माता-पिता, मित्र या सहयोगी भी हो सकते हैं। भूल कौन नहीं करता, लेकिन समझदारी इसी में है कि भूल के प्रति दृष्टिकोण सही रखा जाए। मूलरूप से अच्छा आदमी जब कोई गलत काम कर जाता है तो बाद में वह दिल से पछताता है और ऐसे समय यदि उसे सहारा न दिया जाए, तो टूट भी सकता है। वैसे भी संसार में अच्छाई की बहुत कमी है।

अगर किसी के भीतर की अच्छाई बिखर जाए तो समेटने में बड़ी ताकत लगेगी। अच्छे आदमी को संभालने के लिए कुछ संवाद बड़े काम आते हैं। जैसे जो हो गया वो हो गया, समय की मांग थी अब आगे बढ़ो, भूल कौन नहीं करता, परमात्मा द्वारा परीक्षा ली गई होगी, धैर्य रखो। इन संवादों के गलियारों के जरिये उसे वापस उसकी अच्छाई तक पहुंचाना चाहिए। यह समय किसी के साथ भी आ सकता है। जब हम किसी अच्छे व्यक्ति की अच्छाई बचा रहे होते हैं तो उस समय परमात्मा हमारे भीतर अपनी अच्छाइयों को स्थानांतरित कर रहा होता है। लाभ के इस सौदे को हाथ से मत जाने दीजिए।


पांचों ज्ञानेंद्रियों को स्वच्छ कर देते हैं आंसू
रोना आए तो क्या करें। पहला सवाल तो यह उठेगा कि रोएं क्यों? रोना कमजोर लोगों की निशानी है। आंसुओं पर केवल महिलाओं का ही अधिकार है। रोने को लेकर ऐसे संवाद सुनने को मिल जाते हैं। चलिए, इसको आध्यात्मिक दृष्टि से देखें कि कब और क्यों रोया जाए। संवेदनशीलता के समापन के इस दौर में इसका जवाब होना चाहिए। अब कोई किसी से भावनात्मक रूप से जुड़ना नहीं चाहता। नज़र आने वाली थोड़ी-बहुत संवेदनाओं एवं भावनाओं के पीछे भी देह और धन का चक्कर है। अध्यात्म में भक्ति का बड़ा महत्व है। भक्त ऐसा आदर्श व्यक्तित्व होता है, जो परमशक्ति को स्वीकार करता है, लेकिन परिश्रम और क्षमता में कमी नहीं आने देता। दुनिया का सबसे बहादुर प्राणी होता है भक्त, लेकिन भावनाओं के स्तर पर उसकी आंख में आंसू आ जाते हैं। ये कमजोरी के नहीं, अपने व्यक्तित्व को धोने, संवारने के कण हैं। किसी प्रसंग पर आंसू आ रहे हों, तो रोकने की गलती मत करिएगा, चाहे इसे सार्वजनिक रूप से न बहाएं। आंसू का जन्म हृदय से होता है। जिन क्षणों में आप हृदय तक पहुंचते हैं, वे जीवन की उपलब्धि होते हैं। आंसू हमारी पांचों ज्ञानेंद्रियों को धो देते हैं, इसलिए आंसुओं को स्वीकार करें, क्योंकि वे आने वाले वक्त के लिए ताकत भी बन सकते हैं।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है.....मनीष

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