Friday, September 5, 2014

Dharm Gyan (धर्म ज्ञान)

क्यों ॐ कहलाता है प्रणव मंत्र?
सनातन धर्म और ईश्वर में आस्था रखने वाला हर व्यक्ति देव उपासना के दौरान शास्त्रों, ग्रंथों में या भजन और कीर्तन के दौरान ॐ महामंत्र को अनेक बार पढ़ता, सुनता या बोलता है। धर्मशास्त्रों में यही ॐ प्रणव नाम से भी पुकारा गया है। असल में इस नाम से जुड़े गहरे अर्थ हैं, जो अलग-अलग पुराणों और शास्त्रों में तरह से बताए गए हैं। यहां हम जानते शिव पुराण में बताए ॐ के प्रणव नाम से जुड़े भाव और महत्व को -

शिव पुराण में प्रणव के अलग-अलग शाब्दिक अर्थ और भाव बताए गए हैं। जिनके मुताबिक -
- प्र यानी प्रपंच, न यानी नहीं और व: यानी तुम लोगों के लिए। सार यही है कि प्रणव मंत्र सांसारिक जीवन में प्रपंच यानी कलह और दु:ख दूर कर जीवन के अहम लक्ष्य यानी मोक्ष तक पहुंचा देता है। यही कारण है ॐ को प्रणव नाम से जाना जाता है।
- दूसरे अर्थों में प्रनव को प्र यानी यानी प्रकृति से बने संसार रूपी सागर को पार कराने वाली नव यानी नाव बताया गया है।
- इसी तरह ऋषि-मुनियों की दृष्टि से प्र - प्रकर्षेण, न - नयेत् और व: युष्मान् मोक्षम् इति वा प्रणव: बताया गया है। जिसका सरल शब्दों में मतलब है हर भक्त को शक्ति देकर जनम-मरण के बंधन से मुक्त करने वाला होने से यह प्रणव है।
- धार्मिक दृष्टि से परब्रह्म या महेश्वर स्वरूप भी नव या नया और पवित्र माना जाता है। प्रणव मंत्र से उपासक नया ज्ञान और शिव स्वरूप पा लेता है। इसलिए भी यह प्रणव कहा गया है।

यह मौत में भी देता है साथ!
यह सभी जानते हैं कि जन्म के समय हर व्यक्ति खाली हाथ आता है और मौत होने पर खाली हाथ चला जाता है। यहां तक कि माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी, पुत्र, पुत्री सहित अनेक संबंधी भी मृत शरीर का साथ छोड़ देते हैं। किंतु धर्म शास्त्रों में लिखी बातों पर गौर करें तो व्यक्ति अकेला नहीं जाता है, बल्कि उसके साथ जाने वाला भी कोई होता है। कौन है वह जो हर व्यक्ति के साथ जीवन ही नहीं मृत्यु में भी साथ निभाता है? जानते हैं -

धर्म शास्त्रों में यह बात गहराई से समझकर व्यवहार में अपनाई जाए तो संभवत: व्यक्ति ही नहीं हमारे आसपास फैले अशांत और कलह भरे माहौल को खुशहाल बना सकती है। क्योंकि यह बात जीवन से जुड़ी सच्चाई ही उजागर नहीं करती बल्कि व्यावहारिक संदेश भी देती है।

शास्त्र लिखते हैं कि -
मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्टलोष्टसमं जना:।
मुहूर्तमिव रोदित्वा ततोयान्ति पराङ्मुखा:।।
तैस्तच्छरीमुत्सृष्टं धर्म एकोनुगच्छति।
तस्माद्धर्म: सहायश्च सेवितव्य: सदा नृभि:।।

इसका सरल और व्यावहारिक अर्थ यही है कि मृत्यु होने पर व्यक्ति के सगे-संबंधी भी उसकी मृत देह से कुछ समय में ही मोह या भावना छोड़ देते हैं और अंतिम संस्कार कर चले जाते हैं। किंतु इस समय भी मात्र धर्म ही ऐसा साथी होता है, जो उसके साथ जाता है।

इस बात में संकेत यही है कि धर्म पालन यानि व्यक्ति द्वारा जीवन में किए गए अच्छे काम ही उसकी पहचान, व्यक्तित्व और चरित्र बनाते हैं। यह तभी संभव है जब व्यक्ति ने जीवन में स्वभाव, व्यवहार और बोल में प्रेम, सच, दया, भलाई जैसी बातों को अपनाया हो। इसलिए माना गया है कि ऐसा व्यक्ति मृत्यु के बाद भी लोगों की यादों में हमेशा जीवित रहता है।

धर्म के नजरिए से यही भाव व्यक्ति की मृत्यु होने पर धर्म के साथ जाने से जुड़ा है। इसलिए जहां तक संभव हो जिंदग़ी में अच्छा और ऊंचा उठने का संकल्प रखें। ताकि जीवन में ही नहीं मौत के पहले भी मन अशांत और बेचैन न रहे।

इन 6 बुराईयों को दूर कर बने सफल व धनवान
धन-संपत्ति या सुख-सुविधाओं की चमक किसी न किसी रूप में अपना असर दूसरों पर भी छोड़ती है। इनका प्रभाव या आकर्षण किसी के भी मन में वैसे ही सुखों को पाने की चाहत पैदा करता है। गुणी व्यक्ति में यह चाहत प्रेरणा के रूप दिखाई देती है, तो गलत व्यक्ति किसी छोटे रास्ते इनको पाने के लिए गलत कामों को चुनते हैं। वहीं धर्म की नजरिए से सुख पाने का सबसे अच्छा उपाय है- कर्म।

धर्म शास्त्रों में ऐश्वर्य और ऊंचाई पाने के लिए कर्म से ही जुड़े कुछ व्यावहारिक दोषों को दूर करना भी अहम माना है। जिसके बिना कोई भी व्यक्ति दु:ख और पतन की खाई में गिर सकता है। खासतौर पर सफलता के लिए बेताब आज की युवा पीढ़ी के लिए यह छ: दोष दूर करना बहुत जरूरी है।

हिन्दू धर्म शास्त्र महाभारत में लिखा है कि -
षड् दोषा: पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता।
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता।।

यहां बताए ये छ: दोष या दुर्गुणों का व्यावहारिक अर्थ कुछ ऐसा है -

नींद - अधिक सोना समय को खोना माना जाता है, साथ ही यह दरिद्रता का कारण बनता है, इसलिए नींद भी संयमित, नियमित और वक्त के मुताबिक हो।
तन्द्रा - तन्द्रा यानि ऊँघना निष्क्रियता की पहचान है। यह कर्म और कामयाबी में सबसे बड़ी बाधा है।
डर - भय व्यक्ति के आत्मविश्वास को कम करता है। जिसके बिना सफलता संभव नहीं।
क्रोध - क्रोध व्यक्ति के स्वभाव, गुणों और चरित्र पर बुरा असर डालता है।
आलस्य - आलस्य लक्ष्य को पाने में सबसे बड़ी कमजोरी है। संकल्पों को पूरा करने के लिए जरूरी है आलस्य को दूर ही रखें।
दीर्घसूत्रता - इसका सीधा मतलब है जल्दी हो जाने वाले काम में अधिक देर नहीं होना चाहिए।

स्त्री की कामयाबी तय करते हैं ये सूत्र
आज महिलाएं हर क्षेत्र में अपने गुण, योग्यता और ताकत का लोहा मनवा रही है। जिससे वे सारी दकियानूसी सोच और परंपराएं पीछे छूटती चली जा रही हैं, जिससे घर की दहलीज के अंदर स्त्री की जिंदगी तमाम हो जाती है। इस बात का मतलब यह नहीं है कि आज कामकाजी स्त्रियां बेहतर और गृहस्थ महिला कमतर है। बल्कि यही बताना है कि स्त्रियां दोनों ही रूपों में समान रूप और जज्बे से जिम्मेदारियों को पूरा करती है।

धर्म शास्त्रों में भी ऐसी ही अनेक गृहस्थ और पतिव्रता स्त्रियों के बारे में लिखा गया है, जो आज भी हर नारी के लिए आदर्श और प्रेरणा है। भारतीय संस्कृति में ही ऐसे ही गुणों के लिए शक्ति रूपा माता सीता को याद किया जाता है। अनेक लोगों माता सीता के जीवन को संघर्ष से भरा भी मानते हैं, लेकिन असल में उनके ऐसे ही जीवन में हर कामकाजी या गृहस्थ स्त्री के लिए बेहतर और संतुलित जीवन के अनमोल सूत्र छुपे हैं। जानते हैं ये संदेश -

- माता सीता ने असाधारण पातिव्रत धर्म का पालन किया। वनवास श्रीराम को मिला, किंतु सीता ने महल के सारे सुख ओर दौलत के ऊपर पति का साथ सही माना।
- वनवास के दौरान रावण द्वारा अपहरण और अशोक वाटिका में रहने के दौरान शील, सहनशीलता, साहस और धर्म का पालन करने से नहीं चूकीं। उन्होंने रावण की ताकत और वैभव के आगे अपने पति श्रीराम और शक्ति के प्रति पूरा विश्वास ही नहीं रखा बल्कि अपने शील और साहस के बल पर रावण को भी झुकने को मजबूर किया।
- श्रीराम के द्वारा त्याग करने पर भी उस फैसले को कुल के सम्मान के लिए बिना किसी को दोषी ठहराए सीता ने पूरी सहनशीलता के साथ स्वीकार कर धर्म का पालन किया।
इन बातों का निचोड़ यही है कि आज की स्त्री भी सीता के पावन चरित्र की तरह ही सेवा, संयम, त्याग, शालीनता, अच्छे व्यवहार, हिम्मत, शांति, निर्भयता, क्षमा और शांति को जीवन में स्थान देकर कामकाजी और दाम्पत्य जीवन के बीच संतुलन के साथ सफलता और सम्मान भी पा सकती है।

ऐसे लोग हमेशा रहते हैं दु:खी
सुख के पीछे कहीं न कहीं पाने का भाव जुड़ा है तो दु:ख के पीछे खोने को। जहां व्यक्ति कोशिशों के जरिए ही कुछ पा सकता है, वहीं व्यक्ति के अपने दोष या खामियां ही उसके दु:ख का कारण बन जाती है। किंतु साधारण इंसान दु:खों में खुद के दोष ढूंढने के बजाय दूसरों को कारण मानकर विचार व व्यवहार करता है।

हिन्दू धर्म शास्त्रों में इंसान के विचार और व्यवहार को सही और संतुलित करने के लिए अनेक सूत्र बताते हैं। जिनसे हर व्यक्ति अपने दु:ख के कारण जानकर सुखी जीवन बीता सकता है।

धर्म ग्रंथ महाभारत में स्वभाव से जुड़ी कुछ ऐसी बातें बताई गई हैं, जिनके कारण कोई व्यक्ति हमेशा ही दु:खी रहता है। इन दोषों
को दूर कर हर व्यक्ति व्यावहारिक जीवन में बेहतर बदलाव ला सकता है।

महाभारत में लिखा है -
ईर्ष्या घृणो न संतुष्ट: क्रोधनो नित्यशङ्कित:।
परभाग्योपजीवी च षडेते नित्यदु:खिता:।।

सरल शब्दों में मतलब है कि जिन लोगों के स्वभाव में ऐसे दोष होते हैं, वह सदा संताप और कष्टों से घिर होते हैं -
- ईर्ष्या यानी जलन रखने वाला
- घृणा यानी नफरत करने वाला
- असंतोषी
- क्रोधी यानी गुस्सैल व्यक्ति
- हमेशा शंका करने वाला
- दूसरे के भाग्य पर जीवन जीने वाला यानी दूसरों पर पर आश्रित या सुखों पर जीवन बिताना।

तब नहीं होती श्री गणेश की पहली पूजा
हिन्दू धर्म में पंचदेवों को एक ही ईश्वर का अलग-अलग रूप और शक्तियां माना जाता है। यही कारण है कि जो व्यक्ति किसी भी कामना सिद्धि या हर काम में सफलता चाहता है, शास्त्रों के मुताबिक उसे एक नहीं बल्कि अनेक देवताओं की पूजा करना चाहिए। जिसके लिये श्री गणेश के संग सूर्यदेव, दुर्गा, शिव और श्री विष्णु की पूजा जरूरी बताई गई है।

ऐसी स्थिति में जबकि किसी भक्त की पंचदेवों में ही गहरी आस्था हो तो सबसे पहले किस देवता की पूजा करे? क्योंकि सामान्यत: श्री गणेश को पहले पूजने की परंपरा है। इस संबंध में शास्त्रों में बताया गया है कि समान भक्ति भाव होने पर भक्त को सबसे पहले गणेश नहीं बल्कि सूर्य देव की पूजा करनी चाहिए। जानते हैं इससे जुड़ी शास्त्रों में लिखी यह बात -

शास्त्र कहते हैं -
रविर्विनायकश्चण्डी ईशो विष्णुस्तथैव च।
अनुक्रमेण पूज्यन्ते व्युत्क्रमे तु महद् भयम्।।

इसका अर्थ है उपासक को पंचदेवों में सबसे पहले भगवान सूर्य उनके बाद श्री गणेश, मां दुर्गा, भगवान शंकर और भगवान विष्णु को पूजना चाहिए।

इन 10 लोगों को न दें सीख

शास्त्रों की सीख पर गौर करें तो धर्म जीवन को सुखी, शांत, अनुशासित और संयम से जीने की राह बताता है। किंतु व्यावहारिक सच यह भी है कि अनेक लोग दूसरों से अच्छी बात या अच्छे व्यवहार की अपेक्षा रखते हैं, किंतु दूसरों की ऐसी ही अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाते।

ऐसे लोग दूसरों को धर्म की बातें जैसे प्रेम, सत्य, परोपकार, दान, अच्छे आचरण की सीखे देने में पीछे नहीं रहता, किंतु सीखने या सुनने में रुचि नहीं लेते। कुछ लोग विवशता या स्वार्थ के कारण भी सही बातों को नजरअंदाज करते हैं। सीधे शब्दों में कहें तो ऐसे लोगों से धर्म की बात करना कलह, विवाद या अशांति का कारण बन सकता है।

धर्मग्रंथ महाभारत में किसी न किसी कारण से ऐसे ही धर्म विरोधी लोगों से दूर रहने की सीख दी गई है। जानते हैं कौन है वह दस लोग -
- नशेड़ी
- पागल
- क्रोधी
- लापरवाह
- भूखा
- कामी
- भयभीत
- थका हुआ
- जल्दबाजी करने वाला
- लालची या लोभी
व्यावहारिक रूप से भी ऐसे लोग मजबूरी, स्वार्थ या स्वाभाविक दोषों के कारण अच्छाई को नकारते हैं।

अगर चाहें रफ्तारभरी ज़िंदगी तो...

धर्मशास्त्रों से लेकर इंसानी जीवन पर गौर करें तो पता चलता है कि देव, दानव हो या मानव तीनों में ही एक बुराई दु:ख का कारण बनी। वह है - अहं। घमण्ड, दंभ, शेखी, हेकड़ी, नकचढ़ापन भी इसके ही अलग-अलग रूप है। आखिऱ ऐसा क्यों होता है कि नासमझ ही नहीं विद्वानों पर भी अहं हावी हो जाता है? यहां जानते हैं धार्मिक और व्यावहारिक नजरिया -

धर्म के नजरिए से इंसानी देह पांच तत्वों से बनी है। जिसमें मन और बुद्धि के साथ अहंकार भी स्वाभाविक रूप से बसता है। सरल शब्दों में अहंकार का मतलब किसी भी काम या कर्तव्य को पूरा करते यह भाव आ जाना कि सिर्फ मैं ही इस कार्य को करने के काबिल या समर्थ हूं।

व्यावहारिक जीवन के नजरिए से समझें तो बीता समय और यादें भी किसी भी व्यक्ति की सोच मे बदलाव लाकर अहं का कारण बन जाती है। यह सच जानते हुए भी कि समय और उसकी गति पर किसी का काबू नहीं होता या बीते समय में जाना असंभव है। फिर भी अनेक अवसरों पर व्यक्ति बुरे अनुभवों और यादों को मन में रखकर जीवन गुजारता है। जिसके चलते अच्छी हालात या समय आने पर वह भी दूसरें लोगों से बुरा व्यवहार या बातें भी करता है, जो अहं का ही रूप होता है।

अहं का कारण हमेशा बुरा अनुभव ही नहीं होता, बल्कि सफलता भी सिर चढऩे पर अहं का कारण बन सकती है। क्योंकि अनेक मौकों पर इंसान कामयाबी की खुशियों और यादों में इतना डूब जाता है कि दूसरों को कमतर समझ उपेक्षा या अपमान भी कर देता है, जो असल में अहं ही होता है।

इस तरह बीते समय का दु:ख, सफलता का नशा और उससे बनी काल्पनिक सोच व माहौल भी अहंकार को पालता-पोषता है। किंतु दोनों ही हालात में अहं व्यावहारिक जीवन पर होने वाले बुरे असर से ज़िंदगी थम सी जाती है। जिससे बचने का एक ही सटीक उपाय है कि आज को सच मानकर और अपनाकर तनावरहित, शांत किंतु रफ्तारभरी जिंदगी बिताई जाए।

बुराइयों पर कहर ढाता है शनि का ऐसा रंग-रूप

हिन्दू धर्म में सूर्य पुत्र शनिदेव को पृथ्वी का न्यायदाता माना जाता है। जिसका अर्थ है वह ऐसे देवता हैं, जो अच्छे-बुरे कर्मों के हिसाब से जगत के प्राणियों को दण्ड देते हैं। दण्डाधिकारी होने से उनका स्वभाव क्रूर भी माना गया है। इसलिए शनि भक्ति के पीछे संदेश यही है कि व्यक्ति अच्छे कर्म, विचारों और संयम के साथ जीवन गुजारे।

असल में शास्त्रों में लिखी बातों पर गौर करें तो शनि की दशा हमेशा दु:ख देने वाली नहीं होती है। क्योंकि शनि देव के प्रसन्न होने पर अपार धन, सुख-संपदा मिलती है। किंतु रुष्ट होने पर व्यक्ति को गहरे दु:ख पाने के साथ सम्मान भी खो देता है। यह स्थिति तभी बनती है, जब व्यक्ति की सोच, व्यवहार या आचरण अपवित्र होते हैं।

शास्त्रों में राजा दशरथ द्वारा की गई शनि स्तुति में शनि का ऐसा अद्वितीय स्वरूप बताया गया है, जो बुराईयों और दुष्ट प्रवृत्तियों पर कहर बनकर टूटता है। जानते हैं कैसा है शनि का वह रूप?
- शनि का रंग कृष्ण या नीला भगवान शंकर की तरह है।
- उनकी दाढ़ी, मूंछ ओर जटा बढ़ी हुई और शरीर मांसहीन यानी कंकाल जैसा है।
- उनकी बड़ी-बड़ी गहरी और धंसी हुई आंखे हैं।
- पेट का आकार भयानक है, घोर तप से पेट पीठ से सटा हुआ है।
- उनका शरीर लंबा-चौड़ा किंतु रुखा है।
- उनकी दाढ़ें काल का साक्षात रूप मानी जाती हैं।
- इस भयानक रूप के साथ वह धीरे-धीरे चलते हैं।

यह धन कभी चोरी नहीं होता!

क्या ऐसा संभव है कि व्यक्ति हमेशा धनवान बना रहे और उसके धन की न हानि हो, न चोरी? चूंकि इंसानी जीवन में धन की अहमियत मात्र शारीरिक सुख और सुविधाओं को पाने तक ही नहीं बल्कि यह विचार और व्यवहार को भी नियत करने वाला होता है। इसलिए धन हानि इच्छापूर्ति, रोग या चोरी के रूप में हो ही जाती है। किंतु शास्त्रों में ऐसा ही धन बताया गया है, जिससे व्यक्ति हमेशा अमीर बना रहता है। जानते हैं कौन-सा है वह धन -

शास्त्रों में विद्या को ऐसा धन बताया गया है जो गुप्त भी होता है और सुरक्षित भी। विद्या या ज्ञान इंसान के चरित्र, आचरण और व्यक्तित्व को उजला बनाने वाली होती है। शास्त्रों में लिखी यह बात साफतौर पर जीवन में विद्या के महत्व को उजागर करती है-
लिखा है कि -

विद्या नाम कुरूपरूपमधिकं विद्यापति गुप्तं धनं।
विद्या साधुकरी जनप्रियकरी विद्या गुरूणां गुरु:।।

विद्या बन्धुजनार्तिनाशनकरी विद्या परं दैवतं।
विद्या राजसु पूजिता हि मनुजो विद्याविहीन: पशु:।।

सरल शब्दों में जानें तो विद्या बदसूरत व्यक्ति को भी खूबसूरत बना देती है। यही नहीं यह व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार को पावन कर लोकप्रिय व भरोसेमंद भी बनाती है। यह व्यक्ति की ही नहीं बल्कि परिवार को भी संकट से बचाती है। विद्वान के आगे ऊंचे पद पर बैठा व्यक्ति भी झुक जाता है।

इस तरह विद्या से दूर इंसान पशु के समान माना गया है। किंतु विद्या या विद्वानता ऐसा धन है, जिसे कोई दूसरा किसी भी तरह से चुरा नहीं सकता।

यह था श्रीराम के पुत्र लव-कुश का वंश

हिन्दू धर्म में भगवान श्रीराम विष्णु अवतार माने जाते हैं। श्रीराम ने धर्म, नीति, चरित्र और आचरण से ऐसे आदर्श स्थापित किए कि वह मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम से पूजनीय हैं। पुराणों के मुताबिक भगवान राम सूर्यवंशी राजा दशरथ के पुत्र थे।
सामान्यत: धर्मावलंबी भगवान राम के वंश और कुल के साथ उनके दो पुत्रों लव-कुश के बारे में तो जानते हैं, लेकिन अनेक लोग उनके भाई लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के पुत्र और कुश के पुत्र-पौत्र की जानकारी नहीं रखते। इसलिए जानते हैं इससे ही जुड़ी रोचक बातें -

- भगवान श्री राम के भाई भरत के दो पुत्रों का नाम तार्क्ष और पुष्कर।
- लक्ष्मण का पुत्र चित्रांगद और चन्द्रकेतु
- शत्रुघ्न के पुत्र सुबाहु और शूरसेन

इसी तरह राम पुत्र कुश का वंश इस तरह आगे बढ़ा -
कुश - अतिथि - निषध - नल - नभ - पुण्डरीक - क्षेमन्धवा - देवानीक - अहीनक - रुरु - पारियात्र - दल - छल - उक्थ - वज्रनाभ - गण - उषिताश्व - विश्वसह - हिरण्यनाभ - पुष्पक - ध्रुवसन्धि - सुदर्शन - अग्रिवर्ण - पद्मवर्ण - शीघ्र - मरु - सुश्रुत - उदावसु - नन्दिवर्धन - सकेतु - देवरात - बृहदुक्थ - महावीर्य - सुधृति - धृष्टकेतु - हर्यव - मरु - प्रतीन्धक - कुतिरथ - देवमीढ़ - विबुध - महाधृति - कीर्तिरात - महारोमा - स्वर्णरोमा - ह्रस्वरोमा - सीरध्वज
कुश वंश के राजा सीरध्वज को सीता नाम की एक पुत्री हुई। सूर्यवंश इसके आगे भी बढ़ा, जिसमें कृति नामक राजा का पुत्र जनक हुआ, जिसने योगमार्ग का रास्ता अपनाया था।

गृहस्थी पर संकट का संकेत हैं ये 6 बातें
हिन्दू धर्मशास्त्रों की दृष्टि से गृहस्थ जीवन चार पुरुषार्थों को पाने का अहम चरण है। सुखी, शांत और लंबे गृहस्थ जीवन के लिए आपसी विश्वास, सहयोग, संतोष, मन और विचारों में तालमेल जैसी बातें जरूरी होती है। चूंकि काल पर किसी का काबू नहीं होता, इसलिए अच्छा या बुरा समय भी गृहस्थ जीवन में आता है। जिसके लिए हर व्यक्ति को पूरी तरह से तैयार रहना चाहिए। शास्त्रों में कुछ ऐसी ही बातें लिखी हैं जो व्यक्ति को परिवार पर आने वाले संकट के संकेत देती हैं। जिनको पहचान कर समय रहते गृहस्थी को कलह से बचाया जा सकता है।

जानते हैं वह 6 बातें जिनसे गृहस्थ जीवन में उथल-पुथल मच सकती हैं -

बुद्धिहीन पुत्र - ऐसे पुत्र के गलत कामों, खराब आचरण और गंदे चरित्र से परिवार भी लज्जित और संकट में पड़ जाता है।

कलहप्रिय स्त्री - अशांत स्वभाव की स्त्री से घर में कलह पैदा होता है। आपसी कटुता से गृहस्थी की गाड़ी डगमगा जाती है।

रोग - बार-बार बीमारी का प्रकोप परिवार के हर सदस्य पर मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से बुरा असर डालता है।

दारिद्रय - घर या परिवार के सदस्यों में किसी भी रूप में अपवित्रता दरिद्रता के संकेत है, जिससे परिवार विपत्तियों में पड़ सकता है।

कुअन्न का भोजन - आहार शुद्धि ही तन, मन, व्यवहार और विचार को पवित्र बनाती है। किंतु घर में अशुद्ध या मांसाहार भोजन के रूप में अपवित्रता परेशानियों का कारण बन सकती है।

कलंक - परिवार और व्यक्ति की प्रतिष्ठा व मान-सम्मान एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। इसलिए किसी भी व्यक्ति के गलत आचरण, चरित्र से लगा कलंक परिवार में बिखराव ला सकता है।

धर्म उपदेशों में बताई इन बातों को अगर आप भी गृहस्थ जीवन में घटता देखें तो सावधान होकर इनको सुलझाने की हर संभव कोशिश करें। तभी तनाव, कलहमुक्त जीवन का लुत्फ संभव होगा।

यह है असफलता से बचने का अहम सूत्र
सफलता इंसान को ऊर्जावान बनाती है। कामयाबी इंसान को शरीर, मन और विचारों के स्तर पर पूरे विश्वास और उत्साह से भर देती है। तब असंभव बातें भी संभव लगती है। कामयाबी से साधारण व्यक्ति भी असाधारण बनकर दूसरों की नजरों में प्रेरणा बन जाता है। अनेक लोग मात्र धन, सुविधा या अनुकूल हालात को ही ऐसी सफलता का कारण मानते हैं। जबकि धर्मशास्त्रों के मुताबिक कामयाबी के लिए इन बातों के अलावा भी एक गुण अहम है, जो हर इंसान में होना जरूरी है। जानते हैं यह खूबी -

असल में जीवन में काम ही इंसान को पहचान और सम्मान देता है। हिन्दू धर्म शास्त्रों में भी कर्म को ही सुख और सफलता का मंत्र बताया गया है। यह कर्म तभी संभव है जब इंसान में उद्यम यानी मेहनत और परिश्रम का भाव संकल्प की तरह मौजूद रहे। यही कारण है कि शास्त्र लिखते हैं कि -

आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महिरिपु:।
नास्त्युद्यमसमो बन्धु: कुर्वाणो नावसीदति।।

संदेश है कि परिश्रम की भाव ही हर इंसान का सबसे अच्छा मित्र है। जिसके रहते कोई भी व्यक्ति कभी भी नाकामी या पतन का सामना नहीं करता है। जबकि इसके विपरीत आलस्य यानी काम को टालने या बचने की मानसिकता इंसान के लिये दुश्मन बनकर बार-बार नाकामयाबी का मुंह देखने को मजबूर करती है।

गुणों की अनदेखी से आती हैं ये 3 आफतें

धर्मशास्त्रों की शिक्षाओं से यह संदेश मिलता है कि धर्म-अधर्म, सत्य-असत्य का संघर्ष युगों से चलता आ रहा है और आगे भी जारी रहेगा। किंतु आख़िरकार किसी न किसी रूप से बाजी धर्म के पक्ष में ही झुकती है। फिर चाहे ऊपरी तौर पर अधर्म या बुराई ही ज्यादा दु:ख देने वाली दिखाई दे।

व्यावहारिक रूप से भी समझें तो परिवार, समाज या कार्यक्षेत्र में पद, पैसा या सुखों की चाहत में इंसान पर श्रेष्ठता का अहं, स्वार्थ या हित की भावना इतनी हावी हो जाती है कि तब वह सही या गलत का फर्क समझें बगैर क्षणिक लाभ के लिये योग्यता या गुणी व्यक्तियों की उपेक्षा, अनदेखी या अहित करने को भी सही ठहराता है। लेकिन वह भूल जाता है लंबे वक्त के लिये यह सोच या नीति अनचाहे दु:ख और संकट का कारण बन सकती है।

हिन्दू धर्मग्रंथ शिव पुराण में प्रजापति दक्ष द्वारा श्रेष्ठता के दंभ में भगवान शिव के अपमान के बाद आया संकट इस बात का ही संदेश देते हैं। इस प्रसंग में साफतौर पर सीख दी गई है कि जब पूजनीय लोगों के स्थान पर अपूज्यनीय लोगों को पूजा जाता है। वहां दरिद्रता, मृत्यु या भय इन तीन मुसीबतों का सामना जरूर करना पड़ता है।

संकेत यही है कि जीवन में बड़े सुखों की चाहत में क्षण भर के लिए भी विवेक (सही और गलत का फर्क) का साथ न छोड़ स्वयं के साथ दूसरों की काबिलियत और सम्मान को अहमियत दें। इससे मिली सफलता तमाम संकटों से रक्षा कर चैन के साथ सहयोग और प्रेम भी लाएगी।

देवी-देवता भी पूजते हैं ऐसे अद्भुत शिवलिंग
हिन्दू धर्म व शैव शास्त्रों में पंचदेवों में भगवान शिव को परब्रह्म माना गया है। ब्रह्मरूप होने के कारण शिव को निष्कल यानि निराकार भी माना गया है। शिव का निराकार रूप शिवलिंग के रूप में पूजित है। धार्मिक मान्यताओं में शिवलिंग पूजा सभी तरह के संताप को दूर कर कल्याणकारी मानी गई है। शास्त्रों के मुताबिक आशुतोष शिव की प्रसन्नता के लिए देवता, ऋषि-मुनियों यहां तक कि दैत्यों ने भी शिवलिंग पूजा से शक्ति और कामनाओं की पूर्ति की। शिवपुराण में अलग-अलग देवी-देवताओं द्वारा भी अलग-अलग पदार्थो, धातु व रत्नों से बने शिवलिंग की पूजा करना बताया गया है। शिवपुराण में लिखा है कि भगवान विष्णु ने पूरे जगत के सुख और कामनाओं की पूर्ति के लिए भगवान विश्वकर्मा को अलग-अलग तरह के शिवलिंग बनाकर देवताओं को देने की आज्ञा दी। यहां जानते हैं विश्वकर्मा द्वारा किस-किस तरह के शिवलिंग देवताओं को दिए गए?

इन्द्र - पद्मराग
मणि कुबेर - सोना
धर्म - पुखराज
वरुण - श्याम या काले रंग
विष्णु - इन्द्रनील
ब्रह्मा - चमकीला सोने
विश्वेदेव - चांदी
वसुगण - पीतल
अश्विनी कुमार - पार्थिव लिंग
लक्ष्मी - स्फटिक
आदित्यगण - तांबे
सोम - मोती
अग्रिदेव - हीरे
ब्राह्मण - मिट्टी
मयासुर - चन्दन
नाग - मूंगा
देवी - मक्खन
योगी - भस्म
यक्ष - दही
ब्रह्मपत्नी - रत्न
बाणासुर - पारद या पार्थिव

यह है सुख के साथ संपत्ति पाने का सूत्र

धर्मशास्त्रों के मुताबिक कर्म ही व्यक्ति के सुख और दु:ख नियत करते हैं। फिर चाहे वह पूर्वजन्मों के हो या वर्तमान जीवन के। व्यावहारिक जीवन में भी देखा जाता है कि यही सुख और संपत्ति पाने के लिए हर इंसान तरह-तरह से कोशिशें करता है। वहीं दु:ख व संकट से बचने के लिए भी हरसंभव तरीके अपनाता है। किंतु सुख और दु:ख कब और कितना मिलेगा, यह जानना मुश्किल है। क्या कोई ऐसा उपाय है, जो हमेशा व्यक्ति को सुख पाने और दु:ख से दूर रहने की राह बता सके?

हिन्दू धर्मग्रंथ तुलसीकृत रामचरितमानस न केवल धार्मिक और आध्यात्मिक लाभ देता है, बल्कि इसमें लिखें धर्म उपदेश व्यावहारिक जीवन को साधने के सूत्र भी बताते हैं। यहां जानते हैं रामचरितमानस में लिखी वह चौपाई, जो खुशी को पाने और दु:खों से बचने के साफ और सीधे तरीके बताती है -

जहां सुमति तहं संपत्ति नाना। जहां कुमति तहं बिपत्ति निदाना।।
इस चौपाई का व्यावहारिक अर्थ यही है कि अच्छी सोच, आचरण और संगति से बना स्वभाव और व्यवहार मनचाहे सुख देने वाला होता है। जिसके लिए व्यक्ति शिक्षा, कुशल और परिश्रम को जीवन में स्थान दे। धर्म के नजरिए से इस बात का अर्थ है कि सद्बुद्धि व्यक्ति को बुरे कामों से दूर रख अनेक तरह के सुखों से जोड़ती है।

इसके विपरीत बुरे विचार, कर्म और साथ व्यक्ति के लिए दु:ख यानी विपत्ति का कारण बनते हैं। जिसे यहां कुमति बताया गया है। धर्म दर्शन भी यही है कि पाप कर्मों से बुद्धिदोष पैदा होता है और बुरी सोच गलत कामों से अलग नहीं होने देती, जो आखिरकार व्यक्ति के गहरे संकट का कारण बन जाती है।

मृत्यु को बुलावा है ऐसे काम
इंसानी स्वभाव होता है कि उसे दूसरों के दोष जल्दी नजर आ जाते हैं। लेकिन अपनी कमियों को पहचानने में चूक करता है। इस कमजोरी की वजह से इंसान अनेक परेशानियों का सामना करता है। फिर भी हर व्यक्ति स्वयं को र्निदोष या निष्पाप मानकर अपने आस-पास होने वाले दोष व अपराधों को देखता-सुनता तो है, पर अपने बारे में यह विचार करना नहीं चाहता कि वह भी किसी न किसी तरह से पाप से जुड़ा है।

दरअसल धर्म के नजरिए से कोई भी व्यक्ति पाप से अछूता नहीं। क्योंकि जीवन में हर व्यक्ति मन, वचन, कर्म से कोई न कोई पाप जरूर करता है। कुछ लोगों को पाप उजागर होता है, वहीं कुछ का पाप दबा रहता है। किंतु उसके भी बुरे नतीजे जरूर मिलते हैं। धर्म शास्त्र महाभारत में व्यावहारिक जीवन से जुड़े ऐसे ही पाप कर्म बताए गए हैं। जिनको करने से व्यक्ति पाप का भागी बनता है और ऐसे पापों का बढऩा ही अंत का कारण बनता है।

- घर में आग लगाना या कलह करवाना
- चुगली करना
- मित्र के साथ विश्वासघात
- परायी स्त्री को बुरी नजर से देखना, बुरा व्यवहार या संबंध बनाना
- गर्भ हत्या करने वाला
- ब्राह्मण होकर शराब पीना
- क्रूर स्वभाव वाला
- धर्म या ईश्वर का विरोध
- वेद की बुराई करना
- शराब बेचना
- हथियार वनाना या बेचना
- वाचालता या बकवास करना
- जहर देना
- गुरु की स्त्री से संबंध
- शक्तिशाली होते हुए किसी के द्वारा रक्षा की मांग करने पर भी उसके साथ हिंसा करना।

ये हैं धन पाने और बचाने के 4 तरीके
धन व्यक्ति के शरीर, मन और व्यवहार में असाधारण ऊर्जा और विश्वास भर देता है। वहीं धन के अभाव से बलवान व्यक्ति का जोश, उत्साह और मानसिक बल भी डांवाडोल हो जाता है। यही कारण है कि सांसारिक जीवन में सुख बंटोरने की चाहत से व्यक्ति धन कमाने ही नहीं, बल्कि उसे बचाने के लिए भी भरपूर कोशिश करता है।
इंसान की धन की इसी जरूरत को ही ध्यान में रखकर विचारे करें तो क्या कोई ऐसा उपाय है? जिससे कोई भी व्यक्ति धन कमा और बचा सकता है। धन की इसी अहमियत को समझाते हुए हिन्दू धर्मग्रंथ महाभारत में लक्ष्मी को पाने और उसकी प्रसन्नता बनाए रखने के कुछ अहम सूत्र बताए गए हैं। जानते हैं ऐसे ही चार तरीके -
कहा गया है कि -

श्रीर्मङ्गलात् प्रभवति प्रागल्भात् सम्प्रवर्धते।
दाक्ष्यात्तु कुरुते मूलं संयमात् प्रतितिष्ठत्ति।।
इस श्लोक में साफ तौर पर चार सूत्र बताए गए हैं। समझते है इनका शाब्दिक व व्यावहारिक मतलब -

- पहला अच्छे कर्म से लक्ष्मी आती है। व्यावहारिक नजरिए से परिश्रम या मेहनत और ईमानदारी से किए गए कामों से धन की आवक होती है।
- दूसरा प्रगल्भता सरल शब्दों में धन का सही प्रबंधन यानी बचत से वह लगातार बढ़ता है।
- तीसरा चतुरता यानी अगर धन का सोच-समझकर उपयोग, आय-व्यय का ध्यान रखा जाए तो अधिक धन का संतुलन बना रहता है।
- चौथा और अंतिम सूत्र संयम यानी मानसिक, शारीरिक और वैचारिक संयम रखने से धन की रक्षा होती है। सरल शब्दों में कहें तो सुख पाने और शौक पूरा करने की चाहत में धन का दुरुपयोग न करें।

यह चार संदेश देती हैं श्री गणेश की चार भुजाएं
हिन्दू धर्मशास्त्रों के मुताबिक कलियुग में भगवान गणेश के धूम्रकेतु रूप की पूजा की जाती है। जिनकी दो भुजाएं होती है। किंतु भगवान गणेश का चार भुजाधारी स्वरूप भी पूजनीय है। जिनमें से एक हाथ में अंकुश, दूसरे हाथ में पाश, तीसरे हाथ में मोदक व चौथे में आशीर्वाद है। श्री गणेश के चार हाथ प्रतीक रूप में जीवन से जुड़े कुछ संदेश देते हैं -

पहले हाथ में अंकुश इस बात का सूचक है कि कामनाओं यानी वासना व विकारों पर संयम जरूरी है।

पाश नियंत्रण, सयंम और दण्ड का प्रतीक है। हर व्यक्ति को स्वयं के आचरण और व्यवहार में इतना संयम और नियंत्रण रखना जरूरी है, जिससे जीवन का संतुलन बना रहे।

मोदक यानि जो मोद (आनन्द) देता है, जिससे आनन्द प्राप्त हो, संतोष हो, इसका गहरा अर्थ यह है कि तन का आहार हो या मन के विचार वह सात्विक और शुद्ध होना जरूरी है। तभी आप जीवन का वास्तविक आनंद पा सकते हैं।

मोदक ज्ञान का प्रतीक है। जैसे मोदक को थोड़ा-थोड़ा और धीरे-धीरे खाने पर उसका स्वाद और मिठास अधिक आनंद देती है और अंत में मोदक खत्म होने पर आप तृप्त हो जाते हैं, उसी तरह वैसे ही ऊपरी और बाहरी ज्ञान व्यक्ति को आनंद नही देता परंतु ज्ञान की गहराई में सुख और सफलता की मिठास छुपी होती है।

इस प्रकार जो अपने कर्म के फलरूपी मोदक भगवान के हाथ में रख देता है, उसे प्रभु आशीर्वाद देते हैं। यही चौथे हाथ का संदेश है।

काम भारी और मुश्किल लगता है, क्योंकि..
साधारण व्यक्ति के लिए धर्म पर बात करना तो सरल है, लेकिन धर्म को जीवन में उतारना या व्यवहार में अपनाना उतना ही मुश्किल। मानवीय स्वभाव भी होता है कि वह आसानी, सुविधा और अच्छा व्यवहार चाहता है और बुरे समय या बातों से दूर रहना पसंद करता है। किंतु मुश्किल काम या हालात को आसान और अनुकूल बनाना तभी संभव है जब व्यवहार, विचार और स्वभाव में कुछ जरूरी बदलाव लाए जाए।

धर्मशास्त्रों में बताए कुछ सूत्र हर व्यक्ति को धर्म से जोड़कर व्यावहारिक जीवन को भी सुखी और शांत बनाते हैं। जानते हैं क्या कहते हैं ये सूत्र? लिखा गया है कि -

असता धर्मकामेन विशुद्धं कर्म दुष्करम्।
सता तु धर्मकामेन सुकरं कर्म दुष्करम्।।

शाब्दिक अर्थ है धर्म की कामना करने वाले इंसान का आचरण अगर बुरा है तो उसके लिए पवित्र काम करना कठिन है। किंतु अगर उसका आचरण पवित्र है तो उसके लिए मुश्किल काम भी आसान हो जाते हैं।

व्यावहारिक मतलब यही है कि जो व्यक्ति अपनी खुशियों और कामयाबी के साथ दूसरों से भी प्रेम, सहयोग और सम्मान चाहता है तो पहले वह स्वयं अपने बोल, व्यवहार व सोच में सुधार लाए। वह कटु बोल, दूसरों के अपमान या उपेक्षा, ईर्ष्या जैसे बुरे भावों को छोड़ दे। इन बदलावों से दूसरों का भरपूर प्रेम, सम्मान, मदद और भरोसा व्यक्ति को मिलेगा।

यह बात परिवार, कार्यक्षेत्र और पूरे जीवन पर लागू होती है। ऐसा होने पर आप कहीं भी हो, वहां हर पल और काम आसान बन जाएगा।

सुख-शांति के लिए इन 9 बातों को गुप्त रखें
इंसान के स्वभाव में एक रोचक बात होती है कि दूसरों की जिन बातों में वह फायदा देखता है, उसे तुरंत जानना चाहता है। किंतु जिन बातों से वह स्वयं लाभ कमाता है, वह यथासंभव उजागर नहीं करना चाहता। ऐसी सोच इंसान के कर्म, व्यवहार और स्वभाव को भी नियत करती है। इसलिए हर व्यक्ति को कोशिश जरूर करना चाहिए कि ऐसी सोच जीवन और रिश्तों में नकारात्मक नतीजे न लाए। शास्त्रों में भी ऐसी ही कुछ बातों को गुप्त रखने की सीख दी गई है, जिनसे कोई भी इंसान अनचाहे कलह से बच सकता है।

शास्त्रों के मुताबिक नीचे लिखी नौ बातें किसी भी व्यक्ति को अनचाही परेशानी से बचा सकती है -

वित्त यानी धन - धन किसी भी व्यक्ति की ताकत का पैमाना होता है। यह दूसरों का आपके प्रति व्यवहार नियत ही नहीं करता, बल्कि इसके उजाग़र होने पर शत्रु द्वारा या मित्र के मन भी लोभ आने पर किसी न किसी रूप में हानि पहुंचाई जा सकती है।

गृहछिद्र यानी घर की फूट
 - घर या परिवार का आपसी कलह उजागर होना परिवार के साथ हर सदस्य को व्यक्तिगत, व्यावहारिक और सामाजिक स्तर पर नुकसान का कारण बनता है।

मंत्र - शास्त्रों के मुताबिक गुरु हो या इष्ट मंत्र, इनको गुप्त रखने पर ही इनकी शक्तियों का लाभ मिलता है।

औषध - शास्त्रोक्त मान्यता है कि औषधी के शुभ प्रभाव गुप्त रखने पर ही होते हैं।

मैथुन - शास्त्रों में इंसान के लिए काम यानी मैथुन क्रिया की मर्यादा नियत की गई है। जिनका भंग होना या इसका उजाग़र होना चरित्र हनन का कारण बनता है।

दान - धार्मिक दृष्टि से गुप्त दान बहुत ही पुण्य देने वाला होता है, जबकि दान देकर बताना अपयश का कारण बनता है।

मान - अपनी मान-प्रतिष्ठा का बखान भी अहं पैदा करता है, जिससे अनेक स्वाभाविक दोष पैदा होते हैं।

अपमान - अनेक मौकों पर अपमान को छुपा लेना या पचा लेना व्यक्ति के लिए हितकारी होता है। बार-बार स्वयं के अपमान को उजागर करना व्यक्ति की कमजोरी बताने के साथ ही स्वयं के मानसिक कष्टों का कारण भी बनता है।

आयु - व्यावहारिक रूप से आयु को गुप्त रखना मुश्किल होता है। किंतु अनेक अवसरों पर उम्र छुपाना भी हानि से बचा सकता है। इसमें दर्शन देखें तो व्यक्ति द्वारा आयु को औरों की तुलना में स्वयं से छिपाना सार्थक है यानी उम्र का ख्याल दिमाग पर हावी न रख कर्म के संकल्प के साथ जीवन जीना चाहिए।

चिंता और निराशा दूर करते हैं ये सूत्र

हर इंसान के जीवन में ऐसे अनेक अवसर आते हैं, जब वह हालात से जूझता हुआ दिखाई देता है। कुछ लोग अपनी हिम्मत और जज्बे से समय को बदलकर अपना बना लेते हैं, तो कुछ टूटकर बिखर भी जाते हैं। किंतु जीवन के प्रति सही और सकारात्मक सोच रखी जाए तो हर मुश्किलों से पार पाना संभव है। शास्त्रों में ऐसे ही अनमोल सूत्रों को बताया गया है, जिनसे किसी भी अशांत स्थिति में इंसान अपना संतुलन बनाए रख सकता है।

ऋग्वेद का एक बेहतरीन सूत्र है -
विश्वाउत त्वया वयं धारा उदन्या इव। अति गाहे महि द्विष:।।

जिसका सरल शब्दों में यही संदेश है कि जीवन में अनेक परेशानियां, मुसीबतें, जिम्मेदारियां या शत्रु रुकावटे पैदा करते हैं। किंतु ईश्वर व खुद पर भरोसे के दम पर इन पर काबू पाया जा सकता है। ठीक उसी तरह जैसे नाव से नदी पार की जाती है।

यहां दो सूत्र साफ हो जाते है हैं कि संकट और मुसीबतों से बाहर आने के लिए खुद पर विश्वास और भगवान के प्रति आस्था व श्रद्धा सबसे बड़ी ताकत है। यह शक्ति तभी संभव है जब इंसान शांत चित्त रहने का अभ्यास करें। क्योंकि अशांत मन से पैदा हुए तरह-तरह के दोषों, चिंता और घबराहट से इंसान डगमगा जाता है। इसके उल्टे शांत दिमाग से सोच, ऊर्जा और एकाग्रता के संतुलन द्वारा बुरे वक्त को भी आसानी से बदला जा सकता है।

इन बातों को अपनाएं, हमेशा रहेंगे खुश
जीवन में अपेक्षा दु:खों के अनेक कारणों में एक होती है। इसी तरह इच्छाओं का भी कोई अंत न होने से मृत्यु के पहले या बाद भी इंसान की अंतिम इच्छा के बारे में विचार किया जाता है। इन बातों का अर्थ यह नहीं है कि अपेक्षा या इच्छाओं को कष्टों का कारण मानकर कोई व्यक्ति कर्तव्यों या जिम्मेदारियों से मुंह मोड ले बल्कि ज्यादा अपेक्षा न रखते हुए नि:स्वार्थ भाव से काम और दायित्वों को पूरा करे।

यह सब जानते हुए भी अनेक लोग उम्मीदों और इच्छाओं पर काबू न होने से जीवन को उलझन बना लेते हैं। जिससे वे अपने साथ ही दूसरों का जीवन भी अशांत कर देते हैं। इस अशांति से बचने के लिए ही हिन्दू धर्म शास्त्र गीता, वेद, उपनिषद आदि में जियो और जीने दो का संदेश देते हैं।

लिखा गया है -

सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वेसन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:ख भाग्भवेत्।।

इस सूत्र में सभी के सुखी होने और दु:ख से बचने की कामना की गई है। व्यावहारिक जीवन के लिए शास्त्रों में बताए ऐसे ही उपदेशों का ही सरल शब्दों में निचोड़ बताया जा रहा है कि इंसान अपना काम, सोच और व्यवहार कैसा रखे? जिससे उसकी इच्छाएं और अपेक्षा दायरे में रहे और वह भी दूसरों की उम्मीदों पर खरा उतर सके -

- किसी को किसी भी रूप में दु:ख न दें बल्कि सुख देने की कोशिश करें।

- सभी के साथ प्रेम रखें यानी बोल, व्यवहार और स्वभाव में प्रेम को स्थान दे।

- हमेशा मेहनत को ही सफलता का सूत्र बनाए और आलस्य से दूर रहें।

- लाभ के लिये मर्यादा और मूल्यों को कभी न भूलें।

- ऐसे कामों से बचें जो अपमान का कारण बने या चरित्र पर दाग लगे।

- बुरे समय या हालात में गहरे दु:ख या शोक में न डूबें। सुख-दु:ख में समान रहने का अभ्यास करें।

- बच्चों की तरह साफ मन और स्वभाव रखें, जो पल में ही कटुता भूल जाए।

- हिम्मत और साहस रखें।

- हमेशा ईश्वर पर आस्था और विश्वास रखें।

- मृत्यु को न भूलें और संसार को अस्थायी ठिकाना मानें। इससे अहंकार नहीं आएगा।

सही है या गलत, समझ नहीं आता, क्योंकि..
जीवन को सफल और सुखी बनाने के लिए अहम होता है - निर्णय। किंतु फैसला करने के लिए जरूरी है सही और गलत की समझ, जिसे विवेक कहते हैं। विवेक के अभाव में अच्छे या बुरे की पहचान करना मुश्किल हो जाता है। जिसके नतीजे में मिली असफलता जीवन में कलह और अशांति ला सकती है। क्या आप जानते हैं कि वक्त आने पर सही फैसला न ले पाने की कमजोरी आपके स्वभाव में मौजूद होती है। जानते हैं वह दोष और उससे बचने का उपाय-

यह ऐसी कमजोरी है जो धर्म के नजरिए से दोष भी मानी गई है। यह दोष है - क्रोध यानी गुस्सा। जी हां, क्रोध वह कारण है, जिससे विवेक खो जाता है। हिन्दू धर्म ग्रंथ गीता में क्रोध को दोष मानकर लिखा गया है -

क्रोधाद्भवति सम्मोह:।

जिसका सरल शब्दों में मतलब है क्रोध से विवेक यानी बुरे या भले को समझने वाली बुद्धि खत्म हो जाती है। जिससे अंत में नुकसान ही हाथ लगता है। यहां सवाल ये उठता है, कि क्रोध से कैसे बचें? जवाब है अगर क्रोध से बचना है तो इंसान इन दो उपायो को अपनाएं -

शास्त्रों के मुताबिक गुस्सा पैदा होने का कारण ज्ञान की कमी होती है। वहीं इसके बढऩे का कारण अभिमान होता है। इसलिए अगर जीवन में लगातार तरक्की और सुखों की चाहत है तो हर इंसान को हर तरह के ज्ञान को पाने की भरसक कोशिश करना चाहिए। साथ ही घमंड से बचकर भी रहे। इन दो उपायों से क्रोध भी काबू में रहेगा और सही क्या? गलत क्या? की समझ भी बनी रहेगी।

जबर्दस्त शक्ति व ऊर्जा देता है गायत्री मंत्र
गायत्री वेदमाता मानी गई है। वह ज्ञान या चेतना शक्ति मानी जाती है। ज्ञान शक्ति रूप चारों वेदों की उत्पत्ति भी गायत्री से ही मानी गई है। यही कारण है कि इस शक्ति का साकार रूप माता गायत्री के रूप में पूजनीय है।

शास्त्रों के मुताबिक गायत्री उसे कहा जाता है जो इस शक्ति का गायन, ध्यान, स्मरण या जप करने वाले की त्राण यानी रक्षा करे। गायत्री की इसी महाशक्ति की उपासना के लिए गायत्री मंत्र का महत्व बताया गया है। गायत्री मंत्र को महामंत्र और सर्वश्रेष्ठ मंत्र बताया गया है। यह मंत्र है -

ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्॥

यहां जानते हैं गायत्री साधना व मंत्र जप के धार्मिक, व्यावहारिक व वैज्ञानिक लाभ -
धार्मिक दृष्टि से गायत्री महामंत्र के 24 अक्षर 24 देव शक्तियों का रूप है। जिनके स्मरण से तन, मन और विचारों के दोष दूर होकर जीवन में प्रेम, शांति, विवेक, आत्म बल आता है।

गायत्री के 24 अक्षरों का संबंध 24 तत्वों पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, गंध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द, वाक्य, पैर, मल, मूत्रेंद्रिय, त्वचा, आंख, कान, जीभ, नाक, मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त और ज्ञान से माना गया है।

वैज्ञानिक नजरिए से इनका संबंध मानव शरीर की 24 ग्रंथियों से है। यही कारण है कि जब गायत्री मंत्र बोला जाता है, तब उसकी शब्द शक्ति और ऊर्जा शरीर के रग-रग में प्राणशक्ति का संचार करती है। जिससे शारीरिक अंग और कियाएं सही ढंग से काम करती है और खून शुद्ध होता है। जिससे गायत्री उपासक निरोग और ऊर्जावान बना रहता है।

भक्ति और रिश्तों के लिए जरूरी ऐसा प्रेम

आज के दौर में रिश्ते हो या भक्ति, दोनों में सच्चे प्रेम के स्थान पर स्वार्थ या दिखावा अधिक दिखाई देता है। जबकि धर्मशास्त्रों में प्रेम धर्म पालन का अहम अंग बताया गया है। सरल शब्दों में कहें तो बोल, व्यवहार और आचरण में अगर प्रेम का भाव नहीं उतरता तो सुखों की आशा करना व्यर्थ है। आखिर एक साधारण इंसान सच्चे प्रेम को कैसे जाने और अपनाएं? शास्त्रों में लिखी कुछ बातों से इस सवाल का जवाब बेहतर तरीके से समझा जा सकता है।

हिन्दू धर्म शास्त्र नारद भक्ति सूत्र में लिखा है - अनिर्वचनीयं प्रेम स्वरूपम्।

इसका आसान शब्दों में मतलब है कि प्रेम महसूस किया जा सकता है, लेकिन बोलकर बताया नहीं जा सकता। प्रेम का भाव अनुभव योग्य, अटूट, अदृश्य, इच्छाओं और अपेक्षाओं से परे होता है।

इस तरह कहा जा सकता है कि स्वार्थ, गुणों या इच्छा के वशीभूत होने पर पैदा भाव प्रेम नहीं होता, बल्कि आकर्षण होता है। इसके विपरीत नि:स्वार्थ प्रेम कभी कम नहीं होता, वह अमर और अंतहीन होता है। ऐसा प्रेम ही सांसारिक जीवन में किसी चाहने वाले को दिलो-दिमाग और व्यवहार में करीब रखता है। वहीं भक्ति में ऐसे प्रेम से भक्त का मन भगवान के ही चिंतन और मनन में डूब जाता और उसे दूसरों में भी भगवान के अलावा कोई नजर नहीं आता।

देवी लक्ष्मी के बताए इन 3 उपायों से मिलता है धन
हिन्दू धर्म ग्रंथों में देवी लक्ष्मी को सुख, ऐश्वर्य और धन की देवी माना गया है। दरअसल, प्राचीन ऋषि-मुनियों ने ज्ञान और अनुभव के द्वारा सांसारिक जीवन में धन का महत्व जानकर ही इसे न केवल धर्म, काम और मोक्ष के साथ इंसानी जीवन के चार पुरुषार्थों में शामिल किया बल्कि इसे शक्ति और पवित्रता के साथ भी जोड़ा गया है।

शक्ति का यही रूप महालक्ष्मी के रूप में पूजनीय है, वहीं इसे पाने के लिए पवित्रता को अपनाने पर जोर दिया गया है। जिसके लिए दरिद्रता यानी मन, वचन, कर्म में बुराईयों से दूर रहकर पवित्र आचरण, विचार और परिश्रम के द्वारा धन कमाया जाए। ऐसा धन ही यश, सम्मान और निरोगी जीवन देने वाला माना गया है।

व्यावहारिक जीवन में धन पाने और बढ़ाने के लिए इंसान अनेक तरीकों के बारे में विचार करता है, कुछ अपनाता भी है। जिनमें वह कभी सफल होता है तो कभी असफल भी। लेकिन शास्त्रों में धन पाने के कुछ ऐसे उपाय बताए गए हैं, जो धन के साथ-साथ हमेशा सुख, शांति और प्रतिष्ठा भी बढ़ाते हैं।

शास्त्रों के मुताबिक धन कमाने और बढ़ाने के ये उपाय स्वयं देवी लक्ष्मी द्वारा बताए गए हैं। इन उपायों को आधुनिक संदर्भ में सोच-विचार किया जाए तो यह बहुत ही खुशहाल बनाने वाले हैं। लिखा गया है कि -

धनमस्तीति वाणिज्यं किंचिस्तीति कर्षणम्।
सेवा न किंचिदस्तीति भिक्षा नैव च नैव च।।

सरल शब्दों में इसका अर्थ यह है कि अगर धन हो तो व्यवसाय करें। कम पैसा हो तो कृषि कार्य करें। अगर धन न हो तो कोई नौकरी करना ही बेहतर है। किंतु किसी भी हालात में धन पाने के लिए किसी के सामने भिक्षा न मांगे।

व्यावहारिक रूप से इन बातों का संकेत यही है कि हर इंसान को मेहनत और समर्पण के साथ धन कमाने और बढ़ाने की हरसंभव कोशिश करना चाहिए।

यह है अशांति से बचने का बेहतर तरीका
अशांति आज की जीवनशैली का अभिन्न हिस्सा बन चुका है। अनेक लोग अशांत जीवन का कारण बाहर या दूसरों में तलाशते रहते हैं। जबकि सुकून और शांति को पाने का उपाय हर इंसान के पास मौजूद होता है, किंतु वह उसको न अपनाने के कारण बेचैन रहता है। क्या है यह कारण जानते हैं?-

दरअसल, सच का दायरा बोल तक खत्म नहीं होता, बल्कि उसकी अहमियत तभी है, जब बोल को कर्म में उतार दिया जाए। अगर हम झूठ के सहारे चलते हैं तो कभी भी भीतर से शांत नहीं रह सकते। शांति के लिए सत्य जरूरी है।

हम परिवार, दोस्तों और सहकर्मियों के साथ होने पर कई बार यह सुनते और कहते हैं कि कथनी और करनी में अंतर नहीं होना चाहिए। इस बात का व्यावहारिक पक्ष देखने पर यह पाते हैं कि अक्सर यह बात हर व्यक्ति दूसरे से चाहता है, किंतु स्वयं का मौका आने पर वह ऐसा करने में चूक जाता है। वास्तव में इस बात में भी सत्य यानि सच का महत्व साफ दिखाई देता है।

सरल शब्दों में आप जब आप अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक या सामाजिक कार्यों के लक्ष्यों को बनाते समय जो बातें करें, तो उन बातों को सच्ची लगन और ईमानदारी से पूरा करने की हरसंभव कोशिश करें। ऐसी सच्चाई से मिली सफलता औरों की नजर में भरोसेमंद बनाएगी।

सार यह है कि असफलता से विचलित होकर मान-सम्मान कायम रखने की सोच में दिखावटी या बनावटी बातें की जा सकती है। लेकिन उससे आप सफल नहीं हो सकते। आप खुद से भाग नहीं सकते। बल्कि खुद के प्रति सच्चे और ईमानदार बनने पर ही आप सुख, सफलता और भरोसा पा सकते हैं।

बात साफ है कि जब-जब आप सच के साथ चलेंगे तब सच भी जीवन में सुख, सफलता और शांति लाकर आपका साथ निभाएगा।

इन 4 शक्तियों से मिलती है मनचाही सफलता

शक्ति के बिना जीवन का कोई भी मकसद पूरा करना असंभव है। यही कारण है कि इंसान शक्ति का संचय किसी न किसी रूप में करता है और अलग-अलग तरह की गुण और शक्तियों के द्वारा कामयाबी की ऊँचाईयों को छूता भी है। लेकिन शास्त्रों में शक्ति के ऐसे चार रूप बताए गए हैं, जो हर इंसान के सुखी, शांत और कामयाब जीवन के लिए बहुत जरूरी है।

जानते हैं शक्ति यानी बल के ऐसे ही चार रूप जिसको पाना, बढ़ाना या बनाए रखना हर इंसान का लक्ष्य होना ही चाहिए -

देह बल - निरोग, ऊर्जावान, तेजस्वी देह यानी शरीर को सफल जीवन की पहली जरूरत है। यह खान-पान, रहन-सहन के संयम और अनुशासन के द्वारा ही संभव है। वहीं धार्मिक और आध्यात्मिक उपायों में हनुमान उपासना बहुत ही कारगर मानी गई है।
धन बल - शास्त्रों में सुखी जीवन के लिए धन को भी अहम माना गया है। जहां धन का अभाव व्यक्ति के तन, मन और विचारों से कमजोर बनाता है। वहीं धन संपन्नता व्यक्ति के आत्मविश्वास और सोच को मजबूत बनाती है। धन और ऐश्वर्य के लिए शास्त्रों में देवी लक्ष्मी की उपासना का महत्व बताया गया है।
बुद्धि बल - सफल, सुखी और शांत जीवन के लिए सबसे बड़ी ताकत बन जाता है- बुद्धि बल। क्योंकि बुद्धि की ताकत ही शरीर और धन बल को भी काबू कर करती है। बुद्धि के अभाव में शरीर से बलवान और धनवान भी दुर्बल हो जाता है। इसलिए बुद्धिबल के बिना शरीर और धन बल को भी बेमानी माना गया है। धार्मिक दृष्टि से भगवान श्री गणेश और सरस्वती की उपासना बुद्धि बल को बढ़ाने वाली होती है।
देव बल - ईश्वर का स्मरण एक ऐसी शक्ति है, जो अदृश्य रूप में भी शक्ति, ऊर्जा, एकाग्रता और आत्मविश्वास को बढ़ाने वाला होता है। शास्त्रों में भगवान के मात्र नाम का ध्यान भी देवकृपा करने वाला माना गया है। यही कारण है कि जागते और सोते वक्त देव स्मरण व इष्ट की उपासना का धार्मिक परंपराओं में महत्व बताया गया है।

आगे बढ़ना है तो अपनाएं श्री हनुमान के ये सूत्र
आज अनेक युवाओं के संघर्ष भरे जीवन का एक बड़ा कारण लक्ष्य का अभाव भी है। जिससे तमाम कोशिशों के बाद भी अनेक अवसरों पर वह असफलता का सामना करते हैं। हालांकि लक्ष्य न साधने या एकाग्रता भंग होने का कारण कभी-कभी विपरीत हालात भी होते हैं। लेकिन ऐसे ही बुरे वक्त के थपेड़ों से जूझकर जो मकसद को पा ले, ऐसा चरित्र ही दुनिया में प्रेरणा बन जाता है।

हिन्दू धर्म शास्त्रों में रुद्रावतार श्री हनुमान का चरित्र शक्ति, ऊर्जा, बल के सही उपयोग और मजबूत इरादों से लक्ष्य भेदने के सूत्र सिखाता है। यहां जानते हैं रामायण में श्री हनुमान से जुड़े प्रसंगों के माध्यम से कुछ ऐसे ही अहम सूत्र -

रावण द्वारा सीताहरण के बाद श्री हनुमान ने माता सीता की खोज में लंका तक पहुंचते तक अनेक मुश्किलों का सामना किया। लेकिन इस दौरान अपने लक्ष्य के प्रति वह इतने दृढ़ थे कि उसको पाने के लिए उन्होंने बुद्धि, बल और साहस से सारी मुसीबतों को मात दी। यहां जानते हैं क्या सिखाते हैं श्री हनुमान -

मैनाक पर्वत - दरअसल, मैनाक पर्वत कर्मशील को विश्राम के लालच का प्रतीक है, ऐसा भाव लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए कहीं न कहीं आता है। श्री हनुमान द्वारा इसे ठुकराकर कर आगे बढऩा यही संदेश देता है कि लक्ष्य को पाना है तो हमेशा गतिशील रहें।
सुरसाराक्षसी - सुरसा उन बाधाओं और उतार-चढ़ाव का प्रतीक है, जो लक्ष्य में रुकावटे डालते हैं। किंतु श्री हनुमान ने अपने आकार को बढ़ा-छोटा कर यही संदेश दिया कि हालात के मुताबिक ढल कर लक्ष्य से ध्यान न हटाएं।
सिंहिका - मकसद को पाने के लिए ऐसा वक्त भी आता जब इंसान के मन में दूसरों की सफलता से द्वेष या ईर्ष्या के भाव पैदा होते हैं, जिससे लक्ष्य पाना मुश्किल हो सकता है। सिंहिका ऐसे ही बुरे भावों की प्रतीक है। जिसे मारकर श्री हनुमान ने यही संदेश दिया कि लक्ष्य को पाने के लिए ऐसी सोच से दूर हो जाना चाहिए।
लंका और लंकिनी - लंका और उसकी रक्षक लंकिनी असल में खूबसूरती, मोह और आसक्ति का रूप है। जिसके कारण कोई भी संत और तपस्वी भी लक्ष्य से भटक सकता है। किंतु श्री हनुमान लंकिनी को मारकर और लंका के सौंदर्य से प्रभावित हुए बगैर सीता की खोज कर लंका में आग लगाकर यही संकेत करते हैं कि लक्ष्य को पाने के लिए प्रलोभन, मोह, आकर्षण से दूर रहना ही हितकर होता है।

श्री हनुमान की अलग-अलग मूर्तियां पूरी करे एक विशेष कामना

श्री हनुमान भक्ति धर्म, गुण, आचरण, विचार, मर्यादा, बल और संस्कार से जोड़ देती है। श्री हनुमान के इस दिव्य चरित्र के कारण भी चिरंजीवी और कालजयी है। यही कारण है कि हर युग और काल में श्री हनुमान का स्मरण सुखदायी और संकटनाशक माना गया है। श्री हनुमान के प्रति ऐसी आस्था और विश्वास के साथ उनके अलग-अलग रूप पूजनीय है।

हनुमान जयंती के पुण्य अवसर पर हम यहां बता रहें हैं श्री हनुमान की कुछ विशेष मूर्तियों की उपासना से कौन-सी कामनाओं की पूर्ति और शक्तियां प्राप्त होती है?
वीर हनुमान - वीर हनुमान की प्रतिमा की पूजा साहस, बल, पराक्रम, आत्मविश्वास देकर कार्य की बाधाओं को दूर करती है।
भक्त हनुमान - राम भक्ति में लीन भक्त हनुमान की उपासना जीवन के लक्ष्य को पाने में आ रहीं अड़चनों को दूर करती है। साथ ही भक्ति की तरह वह मकसद पाने के लिए जरूरी एकाग्रता, लगन देने वाली होती है।
दास हनुमान - दास हनुमान की उपासना सेवा और समर्पण के भाव से जोड़ती है। धर्म, कार्य और रिश्तों के प्रति समर्पण और सेवा की कामना से दास हनुमान को पूजें।
सूर्यमुखी हनुमान - शास्त्रों के मुताबिक सूर्यदेव श्री हनुमान के गुरु हैं। सूर्य पूर्व दिशा से उदय होकर जगत को प्रकाशित करता है। सूर्य व प्रकाश क्रमश: गति और ज्ञान के भी प्रतीक हैं। इस तरह सूर्यमुखी हनुमान की उपासना ज्ञान, विद्या, ख्याति, उन्नति और सम्मान की कामना पूरी करती है।
दक्षिणामुखी हनुमान - दक्षिण दिशा काल की दिशा मानी जाती है। वहीं श्री हनुमान रुद्र अवतार माने जाते हैं, जो काल के नियंत्रक है। इसलिए दक्षिणामुखी हनुमान की साधना काल, भय, संकट और चिंता का नाश करने वाली होती है।
उत्तरामुखी हनुमान - उत्तर दिशा देवताओं की मानी जाती है। यही कारण है कि शुभ और मंगल की कामना उत्तरामुखी हनुमान की उपासना से पूरी होती है।

यह रोचक बात है श्री हनुमान जन्म और लंकादहन का कारण

श्री हनुमान रामायण रूपी माला के रत्न पुकारे गए हैं, क्योंकि श्री हनुमान की लीला और किए गए कार्य अतुलनीय और कल्याणकारी रहे। श्री हनुमान ने जहां राम और माता सीता की सेवा कर भक्ति के आदर्श स्थापित किए, वहीं राक्षसों का मर्दन किया, लक्ष्मण के प्राणदाता बने, देवताओं के भी संकटमोचक बने और भक्तों के लिए कल्याणकारी बने। रामायण में आए श्री हनुमान से जुड़ें ऐसे ही अद्भुत संकटमोचन करने वाले प्रसंगों में लंकादहन भी प्रसिद्ध है।

सामान्यत: लंकादहन के संबंध में यही माना जाता है कि सीता की खोज करते हुए लंका पहुंचे और रावण के पुत्र सहित अनेक राक्षसों का अंत कर दिया। तब रावण के पुत्र मेघनाद ने श्री हनुमान को ब्रह्मास्त्र छोड़कर काबू किया और रावण ने श्री हनुमान की पूंछ में आग लगाने का दण्ड दिया। तब उसी जलती पूंछ से श्री हनुमान ने लंका में आग लगा रावण का दंभ चूर किया। किंतु पुराणों में लंकादहन के पीछे भी एक ओर रोचक बात जुड़ी है, जिसके कारण श्री हनुमान ने पूंछ से लंका में आग लगाई। जानते हैं वह रोचक बात -
दरअसल, श्री हनुमान शिव अवतार है। शिव से ही जुड़ा है यह रोचक प्रसंग। एक बार माता पार्वती की इच्छा पर शिव ने कुबेर से सोने का सुंदर महल का निर्माण करवाया। किंतु रावण इस महल की सुंदरता पर मोहित हो गया। वह ब्राह्मण का वेश रखकर शिव के पास गया। उसने महल में प्रवेश के लिए शिव-पार्वती से पूजा कराकर दक्षिणा के रूप में वह महल ही मांग लिया। भक्त को पहचान शिव ने प्रसन्न होकर वह महल दान दे दिया।

दान में महल प्राप्त करने के बाद रावण के मन में विचार आया कि यह महल असल में माता पार्वती के कहने पर बनाया गया। इसलिए उनकी सहमति के बिना यह शुभ नहीं होगा। तब उसने शिवजी से माता पार्वती को भी मांग लिया और भोलेभंडारी शिव ने इसे भी स्वीकार कर लिया। जब रावण उस सोने के महल सहित मां पार्वती को ले जाना लगा। तब अचंभित और दु:खी माता पार्वती ने विष्णु को स्मरण किया और उन्होंने आकर माता की रक्षा की।

जब माता पार्वती अप्रसन्न हो गई तो शिव ने अपनी गलती को मानते हुए मां पार्वती को वचन दिया कि त्रेतायुग में मैं वानर रूप हनुमान का अवतार लूंगा उस समय तुम मेरी पूंछ बन जाना। जब मैं माता सीता की खोज में इसी सोने के महल यानी लंका जाऊंगा तो तुम पूंछ के रूप में लंका को आग लगाकर रावण को दण्डित करना।
यही प्रसंग भी शिव के श्री हनुमान अवतार और लंकादहन का एक कारण माना जाता है।

है शांति और खुशियों की चाहत तो अपनाएं यह कारगर फार्मूला
संसार का हर प्राणी चाहे वह पशु-पक्षी हो या इंसान शांति और सुकून पसंद करता है। खासतौर पर इंसानी जिंदगी की बात करें तो अशांति का असर तन, मन और व्यवहार पर देखा जा सकता है। किंतु इंसान देखने, सुनने और महसूस करने के बाद भी बाहरी बातों या कारणों को बेचैनी का जिम्मेदार मानता है। जबकि शांति पाने का बेहतर उपाय हर इंसान के स्वभाव और प्रवृत्ति में छुपा होता है।

आज की तेज रफ्तारभरी जिंदगी में शांत और प्रसन्न रहने के लिए प्रभु यीशु द्वारा बताया यह सूत्र बहुत कारगर साबित हो सकता है। ईसा मसीह द्वारा बताया शांति का यह उपाय है - क्षमा या माफ करना। हालांकि हर इंसान के लिए इस गुण को अपना लेना इतना आसान नहीं है, किंतु असंभव भी नहीं।

ईसा मसीह ने यही सिखाया कि मन के हालात की मानवीय संबंधों में अहम भूमिका होती है। इसलिए जीवन में जो लोग अपने मन पर काबू कर उसे अपनी इच्छानुसार चलाना चाहते है, उनके लिये बहुत जरूरी है कि वे अपने मन से दूसरों के लिए द्वेष, दुर्भावना, ईर्ष्या, कटुता को निकाल फेंके, जो क्षमाभाव द्वारा ही संभव है।

क्षमा भाव से ही विनम्रता, करुणा, दया की भावना पैदा होती है, जो स्वभाव को सहज, सरल बनाती है और मन को स्वस्थ्य रखती है। वहीं मन में घृणा, कटुता विरोध और संशय की भावना मन को बीमार रखेगी और कलह, अशांति का कारण बनेगी। इसलिए क्षमा करना सीखें, जिससे शांत मन और एकाग्रता जीवन के नियत लक्ष्यों तक पहुंचने में मददगार होगें।

किससे और कैसा करें प्रेम?

प्रेम के अनेक रूप और रंग है। स्नेह, वात्सल्य, भक्ति के रूप में प्रेम के बगैर इंसान ही नहीं भगवान से भी जुडऩा संभव नहीं। प्रेम छोटे-बड़े, ऊंच-नीच या अमीरी-गरीबी का भेद खत्म कर देता है। यही कारण है कि हर धर्म प्रेम को सभी भावनाओं में श्रेष्ठ मानता है। इसी कड़ी में ईसाई धर्म में प्रभु यीशु के जीवन और उपदेशों में प्रेम के द्वारा ही सुकूनभरा जीवन जीने के सूत्र मिलते हैं।

ईसा मसीह ने शत्रुओं द्वारा सूली पर लटकाने के बाद भी ईश्वर से उनको माफ करने की प्रार्थना की। ईसा के इस क्षमामूर्ति रूप में भी उस प्रेम के दर्शन होते हैं, जो समर्पण, त्याग के भावों के साथ उम्मीदों से परे होता है। प्रभु यीशु के प्रेम के इस अनूठे रूप ने संसार को यही दृष्टि दी कि दुर्जनों को अपना बनाने के लिए भलाई और प्रेम का मार्ग बेहतर है।

प्रभु यीशु का पूरा जीवन और आचरण प्रेम, सत्य और ईमानदारी से भरा था। जिसका प्रमाण यीशु की यह बात है जिसके मुताबिक अपने पड़ोसी से सदा प्यार करो, पड़ोसी से प्यार करोगे तो संसार आप से प्यार करेगा, जो प्रेम के साथ आज भी समाज को अच्छाई और भलाई के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।

प्रभु यीशु ने प्रेम को ही व्यावहारिक और मानसिक द्वंद से बचने का सही तरीका माना। उन्होनें बताया कि प्रेम के साथ शांति, दया, अहिंसा, क्षमा जीवन में आते हैं। इसलिए स्वयं के दुर्गुणों के अंत के लिए भी प्रेम को अपनाना जरूरी है। इस तरह गुड फ्रायडे यही संदेश देता है कि बुराई पर अच्छाई से, हिंसा पर अहिंसा से और नफरत पर प्रेम से ही जीत पाई जा सकती है।

इन पर गिरती है शनि की गाज
हिन्दू धर्म शास्त्रों के मुताबिक शनि सूर्य पुत्र हैं। शनि दण्डाधिकारी या न्याय के देवता भी कहलाते हैं। उनका स्वभाव और दृष्टि क्रूर बताई गई है। ज्योतिष शास्त्रों के अनुसार इनका असर शनि दशा, साढ़े साती या कुण्डली में शनि के बुरे योग में माना जाता है, जो सबल व्यक्ति को भी बेहाल कर सकता है।

शनि के स्वभाव, क्रूर दृष्टि और दण्डाधिकारी होने से जुड़ी पौराणिक कथा है। जिसके मुताबिक शनि-सूर्य पिता-पुत्र होने पर भी उनके बीच शत्रुभाव है। जिसका कारण यह बताया गया है कि शनि सूर्य की पत्नी छाया की संतान थे। किंतु शनि के जन्म के समय उनका रंग-रूप देखकर सूर्य ने अपना पुत्र मानने से इंकार किया और छाया की उपेक्षा और अपमान किया।

माता का अपमान सहन न कर शनि ने घोर तप कर भगवान शिव को प्रसन्न किया और सूर्य से भी अधिक बलवान बनने का वर मांगा। भोलेनाथ ने भी शनि को इस वर के साथ ही नवग्रहों में सबसे ऊंचा स्थान और इंसान ही नहीं देवताओं को भी शनि की शक्ति के आगे नतमस्तक होने का वर दिया। इसके अलावा बुरे कर्मों के लिए जगत के हर प्राणी को दण्ड देने का अधिकार भी दिया।

यही कारण है कि धार्मिक मान्यताओं में शनि की तिरछी नजर सबल, सक्षम को भी पस्त करने वाली मानी गई है। शनि की ऐसी ही क्रूर दृष्टि से कौन-कौन बदहाल हो सकता है? इसका जवाब भी शास्त्रों में लिखा गया है कि -

देवासुरमनुष्याश्च सिद्धविद्याधरोरगा:।
तव्या विलोकिता: सर्वे नाशं यान्ति समूलत:।।

जिसका अर्थ है - देवता, असुर, मनुष्य, सिद्ध, विद्याधर और नाग इन सभी का शनि की टेढ़ी नजर समूल नाश कर सकती है।

इन 10 रिश्तों से रखें सही तालमेल, हमेशा रहेंगे सुखी

आज इंसान पर भौतिक सुखों की चाहत इतनी हावी दिखाई देती है कि वह सही और गलत का फर्क समझकर भी नजरअंदाज कर देता है। यही विवेकहीनता भविष्य में जीवन में अशांति घोल देती है। जबकि सुखी और सफल जीवन बनाने में मात्र धन या सुविधाएं ही अहम नहीं होती, बल्कि वह सारे रिश्ते, भावनाएं व अदृश्य देव कृपा भी महत्व रखती हैं, जिनके बीच या साथ कोई व्यक्ति पनपता और जुड़ा रहता है।

हिन्दू धर्म ग्रंथ रामचरितमानस भी व्यावहारिक जीवन से जुड़े संदेश देता है। सुन्दरकाण्ड में लिखी चौपाई में इंसानी जीवन में रिश्तों के सही प्रबंधन के ऐसे सूत्र बताए गए हैं, जिनको समझ और अपनाकर भौतिक सुखों के साथ आध्यात्मिक सुख भी पाए जा सकते हैं। जानते हैं वह चौपाई और उसका अर्थ, जो श्रीराम और शरणागत विभीषण से संवाद के दौरान आई है -

जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुह्रद परिवारा।।
सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बॉंध बरि डोरी।।

शाब्दिक सरल अर्थ जानें तो इस चौपाई में श्रीराम ने स्वयं बताया है कि उनको वह प्रिय है जो माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार के ममताभरे धागों को एक सूत्र में बांधकर उनके साथ मन को मेरे चरणों में बांध देता है।

संकेत यही है कि हर इंसान के जीवन में यहां बताए 10 रिश्तें अहम है। जिनके बिना जीवन संपूर्ण नहीं माना जाता। इनसे सही तालमेल और संतुलन होने पर ही हर इंसान चिंता, डर और दु:खों से दूर होता है। किंतु इनके साथ थोड़ा भी असंतुलन अशांति लाता है। इसलिए इन सुखों को स्थायी बनाने के लिए इन रिश्तों और खुशियों के साथ रहकर ईश्वर का स्मरण और भक्ति की जाए तो इंसान सुख-दु:ख में समान रहना सीख हर तरह से मजबूत भी बना रहता है। सार यही है कि गृहस्थ जीवन में सही संतुलन बनाने पर आध्यात्मिक जीवन और देव कृपा भी संभव है।

शत्रु को चारों खाने चित्त कर देता है यह तरीका
इंसान सामाजिक प्राणी माना गया है। यही कारण है कि धर्म शास्त्रों में भी इंसान को अनुशासन और संयम से जीवन गुजारने के लिए आचरण और व्यवहार की मर्यादाएं नियत है। किंतु हर इंसान इनका पालन नहीं करता। बस, यही कारण आपसी टकराव, संघर्ष और कलह को पैदा करता है, जिससे मनचाहे लक्ष्य को पाना मुश्किल हो जाता है।

यह स्थिति परिवार, समाज, कार्यक्षेत्र में बड़े या छोटे स्तर पर देखी जाती है। ऐसी हालात से निबटने के लिए ही हिन्दू धर्म शास्त्रों में बताए कुछ सूत्र कारगर साबित हो सकते हैं। अगर आप भी आज की चकाचौंधभरी जिंदगी की इस दौड़ में बने रहने या कामयाबी के ऊंचे मुकाम छूने की चाहत रखते हैं तो यहां बताया जा रहा है वह तरीका, जिसके आगे विरोधी भी नतमस्तक हो सकते हैं -

हिन्दू धर्म ग्रंथ महाभारत में लिखा है कि -

प्राप्यापदं न व्यथते कदाचि- दुद्योगमन्विच्दति चाप्रमत्त:।
दु:खं च काले सहते महात्मा धुरन्धरस्तस्य जिता: सपत्ना:।।

सरल शब्दों में अर्थ है कि विपरीत हालात या मुसीबतों के वक्त जो इंसान दु:खी होने के स्थान पर संयम और सावधानी के साथ पुरुषार्थ, मेहनत या परिश्रम को अपनाए और सहनशीलता के साथ कष्टों का सामना करे, तो उससे शत्रु या विरोधी भी हार जाते हैं।

इस बात में संकेत यही है कि अगर जीवन में तमाम विरोध और मुश्किलों में भी मानसिक संतुलन और धैर्य न खोते हुए हमेशा सकारात्मक सोच के साथ आगे बढऩे का मजबूत इरादा रखें तो राह में आने वाले हर विरोध या रुकावट का अंत हो जाता है।

श्री हनुमान की ऐसी शक्ति के आगे शनि भी होते हैं नतमस्तक
रुद्राक्ष शिव का अंश माना गया है। धार्मिक मान्यताओं में इसकी उत्पत्ति भी शिव के आंसुओं से मानी गई है। रुद्र और अक्ष यानी आंसु शब्द को मिलाकर इसे रुद्राक्ष पुकारा जाता है। शिव का अंश होने से ही यह सांसारिक पीड़ाओं को दूर करने वाला तो माना ही गया है। साथ ही धर्म और आध्यात्मिक रूप से भी रुद्राक्ष का प्रभाव धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष देने वाला होता है।

पुराणों में अलग-अलग रूपों और आकार के रुद्राक्ष जगत के लिए संकटमोचक, सुख-सौभाग्य देने वाले और मनोरथ पूरे करने वाले बताए गए हैं। रुद्राक्ष की पहचान उस पर बनी धारियों से होती है। इन धारियों को रुद्राक्ष का मुख मानकर शास्त्रों में एकमुखी से इक्कीस मुखी रुद्राक्ष का महत्व बताया गया है।

इन सभी रुद्राक्ष में अलग-अलग देव शक्तियों का रूप और वास माना गया है। जिनमें बहुत से दुर्लभ हैं। जिनमें चौदह मुखी रुद्राक्ष श्री हनुमान का रूप माना गया है। जिसकी पूजा या धारण करने से श्री हनुमान की शक्तियों का प्रभाव विपत्तियों से बचाने वाला माना गया है।

श्री हनुमान भी रुद्रावतार है और रुद्राक्ष भी शिव का वरदान माना गया है। वहीं पौराणिक मान्यताओं में शनि ने शिव कृपा से ही शक्ति और ऊंचे पद को पाया। इसलिए माना गया है कि शिव और हनुमान की शक्तियों के आगे शनि भी नतमस्तक रहते हैं।

यही कारण है कि शनि साढ़े साती, महादशा या शनि पीड़ा के दौरान चौदह मुखी रुद्राक्ष को पहनना या उसकी उपासना शनि दशा में अनिष्ठ से रक्षा ही नहीं करती, बल्कि सुख-सौभाग्य लाने वाली होती है।

चौदहमुखी रुद्राक्ष श्री हनुमान कृपा से उपासक को निडर, ऊर्जावान, निरोगी बनाता है। यह संतान व भूतबाधा दूर करता है। धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक इसके गुण व शुभ प्रभाव अनंत है। यह स्वर्ग के सुख के साथ ही शनि पीड़ा जैसे क्रूर देवीय प्रकोप से भी बचाता है।

बुद्धि फेर देती हैं ये बातें..! इनसे बचकर रहें
हर धर्म में अच्छी और बुरी ताकतों के बीच संघर्ष में अच्छाई की जीत और उसे अपनाने को ही जीवन में अपने साथ दूसरों के सुखों का सूत्र बताया गया है। हर इंसान जीवन में व्यक्तिगत रूप से भी व्यावहारिक जीवन में हर रोज अच्छे-बुरे को चुनने की मानसिक जद्दोजहद में लगा रहता है।

सुख की चाहत में इंसान की यह कवायद उसके मन को अस्थिर और अशांत भी करती है। मन की शांति और स्थायी सुख पाने के लिये ही हिन्दू धर्मग्रंथ श्रीमद्भावतगीता में एक छोटा-सा सूत्र बताया गया है।

लिखा गया है कि -

'मन: स्वबुद्ध्यामलय नियम्य'

जिसका अर्थ है कि अपनी पवित्र बुद्धि से ही मन को साधें। इसमें बुद्धि की पावनता द्वारा कर्म, वचन और व्यवहार में बुराई से बचने का संकेत है। यह तभी संभव है जब यहां बताए जा रहे कुछ बुरे काम और भावों से इंसान बचकर रहे। जानते हैं शास्त्रों में बताई ये बुरी बातें -

अहं, कर्महीनता, नफरत यानी घृणा, बुरे संस्कार और आचरण, मान-सम्मान की लालसा, राग, मोह, आसक्ति, ईष्र्या, द्वेष, स्त्री प्रसंग, स्वार्थ भाव के कारण मन व ह्दय से उदार न होना, दुराग्रह, झूठा दंभ।

स्वभाव, व्यवहार से जुड़ी ये सारी बातें इंसान के बुद्धि और विवेक पर सीधे ही बुरा असर डालती है, जिससे जीवन में आए बुरे बदलाव दु:ख और पीड़ा का कारण बन सकते हैं। इसलिए संयम और समझ के साथ इन बुरी बातों से बचने की यथासंभव कोशिश करें।

जादुई खूबी! जिससे पाएं लगातार सफलता
हर इंसान की जिंदगी का काफी समय और बल सफलता पाने या सफलता को कायम रखने में लग जाता है। वहीं दूसरी ओर सच यह भी है कि वक्त के उतार-चढ़ाव से सफलता या असफलता का दौर स्थायी नहीं होता। नाकामी और कामयाबी के दौर में मिले अच्छे-बुरे अनुभव इंसान को कभी सुख देते हैं तो कभी कसक भी छोड़ देते हैं।

इंसान के मन को ऐसे छुपे दु:खों से दूर रखने के लिये शास्त्रों व संत-महात्माओं ने कुछ ऐसी व्यावहारिक बातें बताई हैं, जो सफलता या असफलता दोनों ही हालात में हर इंसान की ताकत और खुशियों का कारण बन सकती है। इस बात को इंसान को व्यवहार में उतारना ही चाहिए।

सफलता और सुख का ऐसा ही एक सूत्र है - मीठी वाणी या बोल। जी हां, शब्द और बोल में कटुता जहां भारी दु:खों का कारण बन सकते हैं, वहीं मीठे और कोमल शब्द और वाणी इंसान को गहरी मुसीबतों से बाहर निकाल सकती है।

धार्मिक दृष्टि से भी वाणी में मां सरस्वती का वास माना गया है। इसलिए मीठे वचन मां सरस्वती की उपासना ही हैं। महान ग्रंथ रामचरितमानस रचने वाले संत गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा भी है कि -

तुलसी मीठे वचन ते सुख उपजत चहुं ओर।
बसीकरन यह मंत्र है परिहरु बचन कठोर।।

साफ है कि मीठे बोल अपार सुख का कारण बनते हैं। इसलिए वाणी में पहले कोमलता लाने की कोशिश करें। शब्द और आवाज से कर्कशता या कड़े शब्दों को निकालें। इसके साथ ही मानसिक अभ्यास से दूसरों की प्रतिकूल बातों को सुनकर आवेशित होने की आदत पर काबू पाएं, जिससे वचन कठोर हो जाते हैं।

मीठी वाणी और मन के संतुलन और अभ्यास से हर इंसान अच्छी-बुरी स्थितियों में भी दूसरों को अपना बनाकर सहयोग, प्रेम और विश्वास पाता है, जो कामयाबी की राह बेहद आसान बना देते हैं। सरल शब्दों में कहें तो मीठे शब्दों के जादू से सारी दुनिया को मुट्ठी में करना संभव हो सकता है।


दूसरों का भला कीजिए, आपका कल्याण स्वयं हो जाएगा
राजा रंतिदेव को अकाल के कारण कई दिन भूखे-प्यासे रहना पड़ा। मुश्किल से एक दिन उन्हें भोजन और पानी प्राप्त हुआ, इतने में एक ब्राह्मण अतिथि के रूप में आ गया। उन्होंने बड़ी श्रद्धा से ब्राह्मण को भोजन कराया।

उसके बाद एक शूद्र अतिथि आया और बोलाः ‘‘मैं कई दिनों से भूखा हूँ, अकालग्रस्त हूँ।’’ बचे भोजन का आधा हिस्सा उसको दे दिया। फिर रंतिदेव भगवान को भोग लगाएं, इतने में कुत्ते को लेकर एक और आदमी आया।

बचा हुआ भोजन उसको दे दिया। इतने में एक चाण्डाल आया, बोला: ‘‘प्राण अटक रहे हैं, भगवान के नाम पर पानी पिला दो।’’ अब राजा रंतिदेव के पास जो थोड़ा पानी बचा था, वह उन्होंने उस चाण्डाल और कुत्ते को दे दिया। इतने कष्ट के बाद रंतिदेव को मुश्किल से रूखा-सूखा भोजन और थोड़ा पानी मिला था, वह सब उन्होंने दूसरों को दे दिया।

बाहर से तो शरीर को कष्ट हुआ लेकिन दूसरों का कष्ट मिटाने का जो आनंद आया, उससे रंतिदेव बहुत प्रसन्न हुए तो वह प्रसन्नस्वरूप, सत्-चित्-आनंदस्वरूप परमात्मा जो अंतरात्मा होकर बैठा है साकार होकर नारायण के रूप में प्रकट हो गया, बोला: ‘‘रंतिदेव! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ, क्या चाहिए ?’’

रंतिदेव बोले :
‘‘न कामयेऽहं गतिमीश्वरात् परा मष्टर्ध्दियुक्तामपुनर्भवं वा ।
आर्तिं प्रपद्येऽखिलदेहभाजा मन्तःस्थितो येन भवन्त्यदुःखाः ॥

मैं भगवान से आठों सिद्धियों से युक्त परम गति नहीं चाहता। और तो क्या, मैं मोक्ष की भी कामना नहीं करता। मैं चाहता हूँ तो केवल यही कि मैं संपूर्ण प्राणियों के हृदय में स्थित हो जाऊँ और उनका सारा दुःख मैं ही सहन करूँ, जिससे और किसी भी प्राणी को दुःख न हो ।
(श्रीमद्भागवत : 9.21.12)

प्रभु ! मुझे दुनिया के दुःख मिटाने में बहुत शांति मिलती है, बहुत आनंद मिलता है। बस, आप ऐसा करो कि लोग पुण्य का फल सुख तो स्वयं भोगें लेकिन उनके भाग्य का जो दुःख है, वह मैं उनके हृदय में भोगूँ ।’’

भगवान ने कहा: ‘‘रंतिदेव! उनके हृदय में तो मैं रहता हूँ, तुम कैसे प्रवेश करोगे ?’’ बोले: ‘‘महाराज! आप रहते तो हो लेकिन करते कुछ नहीं हो। आप तो टकुर-टकुर देखते रहते हो, सत्ता देते हो, चेतना देते हो और जो जैसा करे ऐसा फल पाये... मैं रहूँगा तो अच्छा करे तो उसका फल वह पाये और मंदा करे तो उसका फल मैं पा लूं।

दूसरे का दुःख हरने में बड़ा सुख मिलता है महाराज! मुझे उनके हृदय में बैठा दो।’’ जयदयाल गोयंदकाजी कहते थे: ‘‘भगवान मुझे बोलेंगे: तुझे क्या चाहिए? तो मैं बोलूँगा: महाराज! सबका उद्धार कर दो।’’

तो दूसरे संत ने कहा कि ‘‘अगर भगवान सबका उद्धार कर देंगे तो फिर भगवान निकम्मे रह जायेंगे, फिर क्या करेंगे?

उन्होंने कहा कि ‘‘भगवान निकम्मे हो जायें इसलिए मैं नहीं माँगता हूँ और सबका उद्धार हो जाय यह संभव भी नहीं, यह भी मैं जानता हूँ। लेकिन सबका उद्धार होने की भावना से मेरे हृदय का तो उद्धार हो जाता है न!’’

जैसे किसीका बुरा सोचने से उसका बुरा नहीं होता लेकिन अपना हृदय बुरा हो जाता है, ऐसे ही दूसरों की भलाई सोचने से, भला करने से अपना हृदय भला हो जाता है।

भीड़ और चमत्कार से प्रभावित नहीं होना
किसी के चमत्कार, किसी के बहुत बड़े विज्ञापन, किसी के नाटक से प्रभावित मत होइए। आपकी आत्मा और आपका हृदय जब गवाही दे तभी स्वीकार करना। इसलिए भी प्रभावित नहीं होना कि किसी के पास में बहुत भीड़ आ रही है।

इतने सारे लोग जा रहे हैं तो जरूर कोई बात होगी, यह बात मत सोचना कभी भी, क्योंकि आज का युग विज्ञापन का युग है, लोग नाटक और ड्रामा बहुत करते हैं।

अगर आप यह मानते हैं कि अपना कल्याण आपको करना है, तो किसी तरह के विज्ञापन, किसी तरह के चमत्कार, किसी तरह के ड्रामे और किसी तरह के वे लोग जिनको पहले से ही यह सिखाया जाता है कि खड़े होकर यह कहो हमें यह चमत्कार हो गया, हमें यह लाभ हो गया।

बीस-बीस आदमी एक साथ खड़े होकर घोषणा करते हैं, अमुक जगह चमत्कार हो गया और वही बीस आदमी हर जगह जाएंगे, चमत्कार की घोषणा करने के लिए। भोली जनता कभी नहीं समझ पाती। इसलिए सबसे पहले यह बात ध्यान रखना कि धर्म के नाम पर कोई भी किसी तरह का ड्रामा करता हो उसको देखकर प्रभावित नहीं होना।

सबसे पहले यह निश्चय करना कि जो कहा जा रहा है, वह आपके हृदय के अनुकूल है। दूसरी बात व्यवहारिक जगत् में, व्यवहार के पक्ष में वे बातें ठीक हैं। तीसरी बात सोचना शास्त्र सम्मत है, चौथी बात सोचना विज्ञान सम्मत है या नहीं, यह केवल अन्धविश्वास तो नहीं है।

सारी बातों का निश्चय करने के बाद एकान्त में बैठकर चिन्तन करना और जब लगे आपको कि कहीं सही जगह आप आ गए हैं, तो फिर हिलने नहीं देना अपने मन को। अगर आपको यह एहसास हो जाए कि आप सही जगह पहुंच गए हैं तो फिर एक ही स्थान पर खोदते चले जाना पानी जरूर मिल जाएगा।

अगर दस जगह आपने गड्ढा खोदना शुरू कर दिया तो पानी भी मिलने वाला नहीं है और शक्ति भी व्यर्थ हो जाएगी। अपने मन को एक जगह जरूर टिका लेना लेकिन यह बात ध्यान रखना कि सत्य तक पहुंचने के लिए शुरूआत में थोड़ा-सा परिश्रम करना पड़ेगा।

जानिए, अच्छाई और बुराई में वास्तविक अंतर क्या है
सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। 
नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥
(श्री रामचरित. सुं.कां.: 39.3)

अच्छाई-बुराई सबके अंदर छुपी है। अच्छाई को बढ़ाते जाओ तो बुराई भाग जायेगी। बुराई को बढ़ाते जाओ तो अच्छाई भागेगी नहीं, अच्छाई दबी रहेगी क्योंकि परमात्मारूपी तुम्हारा मूल स्वरूप अच्छाई से भरा है। जीव कितना भी पापी, पामर हो जाय फिर भी उसके अंदर से अच्छाई नष्ट नहीं होती। बुराई मिथ्या है, अच्छाई वास्तविकता है। कितना भी बुरा आदमी हो उसमें कुछ-न-कुछ अच्छाई रहेगी ही, अच्छाई को नष्ट नहीं कर सकता कोई। अच्छाई ईश्वरत्व है और बुराई विकार है।

विकार की जिंदगी लम्बी नहीं है। भगवान शाश्वत हैं, विकार शाश्वत नहीं हैं। आप सतत दो-चार घंटे क्रोधी होकर दिखाओ, चलो एक घंटा ही क्रोधी होकर दिखाओ, नहीं हो सकता। दो घंटे आप सतत कामी होकर दिखाओ, नहीं हो सकता।

कामविकार के समय में दो घंटे आप उसी भाव में नहीं रह सकते, क्रोध में दो घंटे नहीं रह सकते लेकिन शांति में आप वर्षों तक रह सकते हैं, आनंद में वर्षों तक रह सकते हैं। आनंद तुम्हारी असलियत है, अमरता तुम्हारी असलियत है, सज्जनता तुम्हारी असलियत है, पवित्रता तुम्हारी असलियत है क्योंकि तुम परमात्मा के वंशज हो, विकारों के वंशज नहीं हो बिल्कुल पक्की बात है। विकार धोखा है, आने-जानेवाला है। काम आया तुम कामी हो गये, काम चला गया तुम शांत। क्रोध आया तुम क्रोधी हो गये, क्रोध चला गया तुम वही-के-वही, मोह आया तुम मोहित हुए फिर तुम वही-के-वही, चिंता आयी तुम चिंतित हो गये फिर तुम वही-के-वही। तुम शाश्वत हो ये आने-जानेवाले हैं, इनका गुलाम क्यों मानते हो अपने कोअपनी असलियत को जान लो कि आप वास्तव में कौन हो, आपका वास्तविक स्वरूप क्या है, आप कितने महिमावान हो, आप कितने धनवान हो। आप अपनी महिमा को नहीं जानते इसीलिए परेशान रहते हो। सात्त्विक साधना और अपने दिव्य आत्मस्वभाव के प्रभाव को आप नहीं जानते।

यह जानते हुए भी कि परिस्थितियाँ सदा एक जैसी नहीं रहती हैं, आप परिस्थितियों के गुलाम हो जाते हो। 
मानव तुझे नहीं याद क्या तू ब्रह्म का ही अंश है। 
कुल-गोत्र तेरा ब्रह्म है, सद्ब्रह्म का तू वंश है॥

संसार तेरा घर नहीं, दो चार दिन रहना यहाँ। 
कर याद अपने राज्य की, स्वराज्य निष्कंटक जहाँ॥

जानिए, सारी परेशानियों की असली जड़ क्या होती है?
मोह माने क्या? उलटा ज्ञान - जो हम नहीं हैं उसको हम मैं मानते हैं और जो हम हैं उसका पता नहीं। रावण क्या है? मोह का स्वरूप है और विष्णु क्या हैं? जो सबमें बस रहे हैं और सबका हित चाहनेवाले, अकारण दया, करुणा-वरुणा बरसानेवाले हैं, वे हैं भगवान नारायण, भगवान विष्णु; जो कि सृष्टिकर्ता, भर्ता, भोक्ता हैं।

अकारण दया बरसानेवाले, दीनदयालु होते हुए भी उनको सृष्टि करनी है। अब सब पर दया करते रहेंगे तो सृष्टि कैसे चलेगी? इसीलिए एक संविधान बनाया कि जो उनकी दया की आकांक्षा करते हैं, उनकी प्रार्थना-पूजा करते हैं उनको तो वे अंतर्प्रेरणा दें अथवा बाहर से अवतरित होकर उनकी मदद करें और बाकी जो अपने मोह, अहंकार, काम-क्रोध से भिड़ते हैं, वे भिड़ते-भिड़ते थक जाते हैं। फिर दूसरी-तीसरी योनियों में आते-आते देर-सवेर उनको समझ आती है कि अंतरात्मा में, आत्मा-परमात्मा में गोता मारे बिना सुख नहीं मिलता।

लोग बोलते हैं कि वस्तुओं के आश्रय बिना सुख नहीं मिलता परंतु सच्चाई तो यह है कि परमात्मा के आश्रय बिना सुख नहीं मिलता। रात को सब कुछ छोड़कर एक परमात्म-आश्रय में जीव डूब जाता है तो नींद का सुख मिलता है। परमात्मा और आपके बीच अज्ञान होता है किंतु सत्संग, दीक्षा-शिक्षा और जप के द्वारा अज्ञान ज्यों-ज्यों क्षीण होता जायेगा, त्यों-त्यों परमात्म-प्रेरणा जीवन में प्रकट होती जायेगी, परमात्म-प्राप्ति निकट हो जायेगी।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यंति जन्तवः। (गीता : 5.15)

अज्ञान से ज्ञान आवृत्त हो गया है। देवताओं ने भगवान नारायण से प्रार्थना की : ‘‘प्रभु! रावण और राक्षस बड़ा दुःख दे रहे हैं। उन्होंने बड़ा तहलका मचा दिया है।’’

भगवान नारायण ने कहा : ‘‘कोई बात नहीं, तुम लोग निश्चिंत हो जाओ। रावण आदि का वध मैं करूँगा।’’ फिर वही देवाधिदेव परमेश्वर सत्ता दशरथनंदन होकर रामजी के रूप में आयी।

वाल्मीकि रामायणमें श्रीरामजी को भगवान के रूप में नहीं बल्कि नर रूप में दर्शाया गया है, क्योंकि श्रीरामजी नर तन में थे और नर-मर्यादा में जी रहे थे। सीताजी को रावण ले गया तो हाय सीते! सीते-सीते!!...कहकर रुदन करने लगे। परात्पर भगवान नारायण एक स्त्री के लिए क्यों रोयेंगे?

रामचंद्रजी नरलीला कर रहे थे। नारायण के अवतार हैं, लेकिन नर रूप में एक-दूसरे के प्रति अपना कर्तव्य, स्नेह व सहानुभूति कैसी होनी चाहिए - इसकी मंगलमय प्रेरणा देनेवाला अवतार है। भगवान राम का श्रीविग्रह तो अभी नहीं है परंतु उनके आचरण, गुणगान और उनकी तन्मात्राएँ अभी भी विश्व में व्याप रही हैं। लोगों में सज्जनता, स्नेह, धर्मपालन तथा दुःखियों के प्रति आर्तभाव, दयालुता और सुखियों के प्रति प्रसन्नता - इस प्रकार के श्रीरामजी की तन्मात्राओं के सद्गुण अभी भी फैले हुए हैं।

भगवान राम की स्मृति, भगवान राम के नाम का जप बड़ा पुण्यदायी है और भगवान राम की कार्यकुशलता, अहा! ... रामजी करने योग्य कार्यों को तत्परता से करते और जो नहीं करना है उसको मन से हटा देते, व्यर्थ का चिंतन नहीं करते थे, सारगर्भित बोलते थे। दूसरे को मान देते व आप अमानी हो के उसका मंगल हो ऐसा बोलते थे। आप भी अपने नाते-रिश्तेदार का, किसीका भी अमंगल न चाहो तो आपका हृदय भी मंगलभवन, अमंगलहारी होने लगेगा। यह आप कर सकते हो। आप भगवान राम की नाईं धनुष धारण नहीं कर सकते लेकिन रामजी के गुण तो अपने हृदय में धारण कर सकते हो।

रामजी हीन शरणागति नहीं लेते थे। कैकेयी ने हीन शरणागति ली तो कितनी बदनाम और दुःख पैदा करनेवाली हुई। भगवान राम छोटे आदमी की बातों में, खुशामदखोरों की बातों में नहीं आते थे। उन लोगों को यथायोग्य प्रसन्न कर देते पर उनकी बातों में नहीं आते थे। अपने विवेक से निर्णय करते, रोम-रोम में रमे हुए राम में समाधिस्थ होते, शांतात्मा होते और कभी-कभी गुरु वसिष्ठजी का मार्गदर्शन लेते थे।

दशरथनंदन श्रीराम बड़ों का आदर करते, अपने जैसों से स्नेह से व्यवहार करते और छोटों से दयापूर्ण व्यवहार करते। कोई सौ-सौ गलतियाँ कर लेता किंतु रामजी उसके लिए मन में गाँठ नहीं बाँधते और कोई उनकी भलाई या सहयोग करता तो उसका उपकार नहीं भूलते थे - ऐसे थे मर्यादा पुरुषोत्तम रामजी। रात्रि को सोते समय तथा प्रातःकाल उठकर बिस्तर पर ही आत्मशांति का सुमिरन करते थे, ‘सुख-दुःख देनेवाली परिस्थितियाँ, व्यवहार बदलनेवाला है पर मेरा आत्मा एकरस, अबदल है। मैं उसीके ध्यान में पुष्ट हो रहा हूँ।आप भी यह कर सकते हैं।

आप रात्रि को शयनखंड में जाने पर और सुबह उठते समय ऐसा चिंतन करेंगे तो आपके जीवन में रोज रामनवमी होने लगेगी अर्थात् आपके हृदय में रामजी का प्राकट्य होने लगेगा।


दृष्टि बदलकर देखिए मंदिर मस्जिद में फर्क नहीं
जैसे आकाश ने सबको घेरा हुआ है, जैसे जीवन की ऊर्जा सभी में व्याप्त है, वैसे ही कण- कण, चाहे पदार्थ का हो, चाहे चेतना का, परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है। कृष्ण इस सूत्र में अर्जुन से कह रह हैं कि मेरे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।

पहले इस मौलिक धारणा को समझ लें, फिर हम सूत्र को समझें। जैसा हम देखते हैं, तो सभी चीजें अलग-अलग मालूम पडती हैं। कोई एक ऐसा तत्व दिखाई नहीं पड़ता, जो सभी को जोड़ता हो। जब हम देखते हैं, तो माला के गुरिए ही दिखाई पड़ते हैं। वह माला के भीतर जो पिरोया हुआ सूत का धागा है, जो उन सबकी एकता है, वह हमारी आंखों से ओझल रह जाता है।

जब भी हम देखते हैं, तो हमें खंड दिखाई पड़ते हैं, लेकिन अखंड का कोई अनुभव नहीं होता। यह अखंड का जब तक अनुभव न हो, तब तक परमात्मा की कोई प्रतीति भी नहीं है। इसीलिए हम कहते हैं कि परमात्मा को मानते हैं, मंदिर में श्रद्धा के फूल भी चढ़ाते हैं, मस्जिद में उसका स्मरण भी करते हैं, गिरजाघर में उसकी स्तुति भी गाते हैं। लेकिन फिर भी वह परमात्मा, जिसके चरणों में हम सिर झुकाते हैं, हमारे हृदय के भीतर प्रवेश नहीं कर पाता है।

आश्चर्य की बात कि हम जिस अखंड की खोज में मंदिर और मस्जिद और गुरुद्वारे में जाते हैं, हमारा मंदिर, हमारा मस्जिद, हमारा गुरुद्वारा भी हमें खंड-खंड करने में सहयोगी होते हैं। हम मंदिर और मस्जिद के बीच भी एक को नहीं देख पाते हैं। हिंदू और मुसलमान और ईसाई के पूजागृहों में भी हमें फासले की दीवारें और शत्रुता की आड़े दिखाई पड़ती हैं। मंदिर भी अलग-अलग हैं, तो यह पूरा जीवन तो कैसे एक होगा?

मंदिर अलग नहीं हैं, लेकिन हमारे देखने का ढंग केवल खंड को ही देख पाता है, अखंड को नहीं देख पाता है। तो हम जहां भी अपनी दृष्टि ले जाते हैं, वहां ही हमें टुकड़े दिखाई पड़ते हैं। वह समग्र, जो सभी को घेरे हुए है, हमें दिखाई नहीं पड़ता है। अर्जुन की भी तकलीफ वही है।

उसे भी अखंड का कोई अनुभव नहीं हो रहा है। उसे दिखाई पड़ता है, मैं हूं। उसे दिखाई पड़ता है, मेरे मित्र हैं, प्रियजन हैं शत्रु हैं। उसे दिखाई पड़ता है; सिर्फ एक, जो सभी के भीतर छिपा हुआ है, वह भर दिखाई नहीं पड़ता है। इसलिए कृष्ण और अर्जुन के बीच जो चर्चा है, वह दो दृष्टियों के बीच है।

अर्जुन खंडित दृष्टि का प्रतीक है और कृष्ण अखंडित दृष्टि के। कृष्ण समग्र की (दि होल) वह जो पूरा है, उसकी बात कर रहे हैं और अर्जुन टुकड़ों की बात कर रहा है। शायद इसीलिए दोनों के बीच बात तो हो रही है, लेकिन कोई हल नहीं हो पा रहा है। उन दोनों का जीवन को देखने का ढंग ही भिन्न है।

इस सूत्र में कृष्ण अर्जुन को एक-एक बात गिना रहे हैं कि मैं कहां- कहां हूं। इतना ही कहना काफी होता कि मैं सब जगह हूं। इतना ही कहना काफी होता कि सभी कुछ मैं ही हूं। लेकिन यह बात अर्जुन को स्पष्ट न हो पाएगी। अर्जुन को खंड-खंड में ही गिनाना पड़ेगा कि कहां-कहां मैं हूं। शायद उसे खंड-खंड में उस एक की झलक मिल जाए, तो खंड खो जाएं और अखंड की प्रतीति हो सके।

इसलिए कृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन, निश्चय करने की शक्ति एवं तत्वज्ञान और अमूढ़ता.....।
ये तीन शब्द बहुत कीमती हैं। निश्चय करने की शक्ति! जैसा हमारे पास मन है, अगर हम ठीक से समझें, तो हम कह सकते हैं, मन है अनिश्चय करने की शक्ति। मन का सारा काम ही यह है कि वह हमें निश्चित न होने दे। मन जो भी करता है, अनिश्चय में ही करता है। कोई भी कदम उठाता है, तो भी पूरा मन कभी कोई कदम नहीं उठाता। एक हिस्सा मन का विरोध करता ही रहता है।

अपनी दृष्टि ज्ञानमय बनाएं
जगत कैसा है? पहले देखो, आपके मन का भाव कैसा है? जैसा आपका भाव होता है, जगत वैसा ही भासित होता है। सुर (देवत्व का) भाव होता है तो आप सज्जनता का, सद्गुण का नजरिया ले लेते हैं और आसुरी भाव होता है तो आप दोषारोपण का नजरिया ले लेते हैं। जिस एंगल से फोटो लो वैसा दिखता है। जगत में न सुख है न दुःख है, न अपना है न पराया है। आप राग से लेते हैं, द्वेष से लेते हैं कि तटस्थता से लेते हैं। आप जैसा लेते हैं ऐसा ही जगत दिखने लगता है।

कोई भी जगत का व्यवहार किया जाता है तो उसे सच्चा समझकर चित्त को उससे विह्वल न करो, नहीं तो आसुरी वृत्ति हो जायेगी, शोक हो जायेगा, दुःख हो जायेगा। अच्छा होता है तो उसका अहंकार न करो। हो-होके बदलनेवाला जगत है, यह द्वैतमात्र है- या तो सुख या तो दुःख। इन दोनों के बीच का तीसरा नेत्र खोलो ज्ञान का। आध्यात्मिकता की पराकाष्ठा है ज्ञानमयी दृष्टि करना- सुख में भी न उलझना, दुःख में भी न उलझना।

न खुशी अच्छी है, न मलाल अच्छा है।
यार तू अपने-आपको दिखा दे, बस वो हाल अच्छा है॥
प्रभु! तू अपनी चेतनता, अपनी सत्यता, अपनी मधुरता दे।

दायां-बायां पैर पगडण्डी पर, सीढ़ियों पर रखते-रखते देव के मंदिर में पहुंचते हैं, ऐसे ही सुख-दुःख, लाभ-हानि, जीवन-मृत्यु इनको पैरों तले कुचलते-कुचलते जीवनदाता के स्वरूप का ज्ञान पाना चाहिए, उसी में विश्रांति पानी चाहिए, उसी में प्रीति होनी चाहिए।

हम अच्छे बुरे या हां ना में उत्तर देते हैं। यह सब ज्ञान के कारण होता है। यह है इन्द्रियों का ज्ञान। इन्द्रियों की गहराई में मन का ज्ञान। मन की गहराई में बुद्धि का ज्ञान। लेकिन इन्द्रियां, मन और बुद्धि में ज्ञान कहां से आता है? ‘मैंसे। मैंमाना वही चैतन्य, जहां से मैंस्फुरित होता है। सबको मैंचाहिए। जहां से मैंउठता है उस चैतन्य का सुख चाहिए। है न! कोई बोलता है: ‘‘मैं हूँ, तुम नहीं हो।’’ तो क्या आप मानोगे?

आप बोलोगे: ‘‘मैं भी हूँ। मैं कैसे नहीं हूं? मैं हूं तभी तुम हो। मैं हूं तभी तुम दिखते हो।’’ ‘मैंही मेरे में तृप्त है। मैं, मैं, मैं, मैं...ये आकृतियाँ अनेक हैं, अंतःकरण अनेक हैं लेकिन मैंकी सत्ता एक है। उसी मैंमें आराम पाओ। गहरी नींद में आप अपने मैंमें ही तो जाते हो, और क्या है?

उस मूल ज्ञान को मैंके रूप में जान लिया तो आपका तो काम हो गया, देवत्व प्रकट हो गया लेकिन आपकी वाणी सुननेवाले को भी महापुण्य होगा।

एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध।
तुलसी संगत साध की, हरे कोटि अपराध॥
सुख देवें दुःख को हरें, करें पाप का अंत।
कह कबीर वे कब मिलें, परम सनेही संत॥

उन्नति और मन की शुद्घता की शुरूआत करें भोजन से
भोजन सिर्फ पेट भरने और शरीर को पालने के लिए नहीं करना चाहिए। भोजन का उद्देश्य भी सिर्फ इतना ही नहीं है कि आप अपने उदर की ज्वाल को शांत करें और तृष्ण की पूर्ति करें। भोजन करते समय अगर आप कुछ बातों का ध्यान रखेंगे तो स्वास्थ्य उत्तम रहेगा। मन में उठने वाले बुरे विचारों में कमी आएगी और आत्म उन्नति का रास्ता सरल होगा।

उन्नति सिर्फ बड़ी-बड़ी नौकरी पाना या बड़ा बिजनेसमैन बन जाना नहीं है। उसली उन्नति व्यवहार और आत्मा की सद्गति है। इसकी शुरूआत आप भोजन के दौरान कर सकते हैं। इसके लिए सबसे पहले जरूरी है कि आपका भोजन शुद्घ हो। गीता में भी कहा गया है कि उत्तम मुनष्य को बासी, दूषित और मन को विचलित करने वाले आहार से बचना चाहिए। इसलिए पवित्र भोजन ग्रहण करें।

जब भोजन करने बैठें तो अपने भोजन का कुछ भाग अलग निकालकर रख लीजिए। वैसे तो नियम है कि अग्नि में आहुति देकर गउ ग्रास निकाल लें। आस-पास में अगर कोई भूखा व्यक्ति बैठा है तो उसका भी ध्यान रखें। भोजन करते समय उसकी तरफ देखते हुए यह सोचें कि यह मेरे भगवान का प्रसाद है। प्रसाद हमेशा मिलजुल कर ग्रहण करना चाहिए।

मेरे परमात्मा ने जो कृपापूर्वक आज मुझे अन्न दिया है मैं उसका ध्न्यवाद करूं। भोजन करते समय कभी किसी प्रकार की शिकायत नहीं कीजिए। भोजन करने के दौरान मन पर किसी प्रकार का बोझ न लादें। प्रसन्न रहें। भगवान का आभार प्रकट करते हुए भोजन ग्रहण करें।

भोजन करते समय एक बात का ख्याल अवश्य रखें कि आप जो भोजन कर रहे हैं वह कैसे प्राप्त हुआ है। आप यह भी सोचें कि मेरी कमाई पवित्र है या चालाकी की।
  
अपने शरीर को जानिए और स्वस्थ रहिए
आप ऐसा न समझें कि उच्च-रक्तदाब सिर्फ बूढ़ों की ही बीमारी है। यह तो एक अजीब सी अज्ञानता है। आज के समय में यह बीमारी सब से ज़्यादा 20 से 40 साल के व्यक्तियों को हो रही है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि 100 में से 90 प्रतिशत मामलों में ब्लडप्रेशर का कोई लक्षण भी नहीं दिखता है।

होता क्या है कि, कभी किसी दिन ब्लड प्रेशर नापा जाए और वह सामान्य से ज़्यादा हो और संजोग से उस दिन आपका सिर भी दुःख रहा हो, तो आप उसका कनेक्शन ब्लडप्रेशर के साथ बना लेते हो कि, इसी कारण मेरा सिर दुःख रहा है।

जबकि सिर दुखने के कोई और कारण भी हो सकते हैं। जैसे माइग्रेन होने से या रात को ठीक से नींद न आने से और सब से बड़ा कारण है चिंता। किसी ने तुम्हारे अहंकार को चोट पहुँचायी, तो तुम अंदर ही अंदर कुलबुला जाते हो। इस कुलबुलाहट का नतीजा है सिर दुखना।

क्या आप यह जानते हैं कि अगर आपको कब्ज़ हो, तब भी सिर-दर्द होता है? अब तुम कहोगे कि भला सिर-दर्द का कब्ज़ से क्या लेना-देना? जबकि कब्ज का इससे बड़ा गहरा लेना-देना है। अगर आपकी आंतों में मल फंसा हुआ है तो... जैसे तुम्हारी किचन के कूड़ेदान में तुम कूड़ा डालते जाओ और उसे बाहर नहीं फेंको, तो गरमी की वजह से अगले दिन उसमें से सड़ांध उठनी शुरू हो जाती है।

अब आप ज़रा सोचिए! सड़ांध आ रही हो और फिर भी आप कूड़ा बाहर न फेंको, तो बदबू बढ़ जाने से बंदा बेहोश हो कर गिर भी सकता है। तुमने सुना होगा कि म्युनिसिपालिटी के कुछ-एक कर्मचारियों ने सीवरेज का ढक्कन खोला और खोलते ही उसमें से निकल रही भयंकर गैस के कारण वे कर्मचारी मर गये। सीवरेज-लाइन में मनुष्यों की विष्ठा के कारण ऐसी ज़हरीली गैसें बनती जाती हैं, जिससे आदमी मर सकता है।

यही काम हमारे शरीर में भी होता है। मल जब आंतों में पड़ा-पड़ा सड़ जाता है, तो अंदर से सड़ांध उठती है। इसी सड़ांध से सिर दुःखता है, जी घबराता है, दिल कच्चा होता है, वमन की भावना होने लगती है। मैंने ऐसे भी कई लोग देखे हैं, जिनको शौच न लगे, तो भी कोई फिक्र नहीं लगती। दो दिन नहीं होगी, तो भी कहते कोई बात नहीं, चलता है।तीसरे दिन भी न हो, तो कहते चलो, अब कुछ ले ही लें।जो खाया-पीया है, वही अभी बाहर नहीं निकला, ऊपर से और खाते जाते हैं।

उनका खाने का प्रोग्राम तो चलता ही रहता है, वह तो बंद होता नहीं। हर 4 घण्टे में भूख लग जाती है। हर 6 घण्टे में चाय-कॉफी चाहिये। अगर आपके शरीर का सिस्टम ठीक नहीं है, तो चाय आपको और भी कब्ज़ कर देगी। माने तुम कब्ज़ को और पक्का कर रहे होते हो। चाय पीकर तुम उस पर सीमेंट लगा लेते हो कि बाहर आना ही मत, अंदर ही बैठे रहना!जो मल तुम्हारी आंतों में फंसा रहता है, वह जितना सड़ता जाता है, उतनी पेट में ज़हरीली गैस बनती जाती है।

इसी गैस के कारण पूरा पाचन तंत्र ख़राब हो जाता है। डकारें आने लगती हैं, सिर दुखने लगता है। बहुत बार इसी को तुम कहते हो कि मुझे ज़रूर ब्लडप्रेशर है। ब्लडप्रेशर का और सिर दुखने का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। ब्लडप्रेशर से सिर तो चकरा सकता है, पर सिर दुख नहीं सकता। सिर चकराने के भी और दस कारण हो सकते हैं। लेकिन ब्लडप्रेशर के उतार-चढ़ाव के अपने कोई विशेष लक्षण नहीं होते हैं।

इसलिए ब्लडप्रेशर की जांच तो होती रहनी चाहिए, हालांकि सुबह-शाम ब्लडप्रेशर नापने की मशीन लेकर बैठना भी उचित नहीं है। अपने शरीर के सिस्टम को समझना यह आपकी मुख्य जि़म्मेदारी होनी चाहिये। आपके शरीर में जो कुछ दिक्कतें आ रही हो, उन दिक्कतों को आप ख़ुद ही कैसे ठीक कर सकते हैं इसका ज्ञान होना भी ज़रूरी है।

कितना महत्वपूर्ण है हमारे शरीर में मौजूद प्राण
प्राण-ऊर्जा पाँच प्रकार की होती है: अपान, व्यान, उदान, समान और प्राण। मनुष्य के पूरे शरीर का संचालन इसी प्राण-उर्जा से हो रहा है। इस प्राण-ऊर्जा के सम्बन्ध में एक पुरातन वैदिक कथा कई उपनिषदों में आयी है। मन, श्वास, प्राण, वाणी, श्रोत्रा और नेत्र ये पाँच इन्द्रियाँ और प्राण एक बार आपस में बहस करने लगे कि उनमें से कौन सर्वश्रेष्ठ और सब से महत्त्वपूर्ण है।

इस झगड़े से निवृत्त होने के लिये उन्होंने निर्णय लिया कि एक-एक करके हर शक्ति शरीर को छोड़े और यह देखा जाये कि किसकी अनुपस्थिति सब से ज़्यादा महसूस होती है। सब से पहले वाणी ने शरीर का साथ छोड़ा, परन्तु मौन हो जाने पर भी शरीर तो चलता ही रहा।

फिर इसके बाद दृष्टि यानी देखने की शक्ति ने शरीर का साथ छोड़ दिया। लेकिन अन्धा होने के बावजूद भी शरीर का कार्य बंद नहीं हुआ। इसके पश्चात् श्रवण शक्ति के साथ छोड़ने पर शरीर बहरा तो हो गया, परन्तु उसका कार्य तो फिर भी चलता रहा। मन के साथ छोड़ने पर शरीर तो अचेत हुआ, परन्तु वह अभी भी बना रहा।

आखि़र में जैसे ही प्राण-ऊर्जा ने साथ छोड़ना शुरू किया, तब शरीर मरने लगा और उसकी अन्य सभी इन्द्रियाँ भी अपनी शक्ति खोने लगी। तब वह सभी शक्तियाँ प्राण-ऊर्जा के पास दौड़ीं और उसे शरीर में रहने के लिये उन्होंने मना लिया और उसके सर्वश्रेष्ठ होने की घोषणा की।

प्राण ही देह और इन्द्रियों की सभी क्षमताओं को शक्ति देता है। इसके बिना वे क्षमताएँ कार्यान्वित नहीं हो सकतीं। प्राण-उर्जा के बिना हम कुछ नहीं कर सकते। इस कहानी का तात्पर्य यह है कि अपनी अन्य क्षमताओं पर नियंत्रण पाने के लिये हमारा प्राणपर प्रभुत्व पाना अत्यंत आवश्यक है।

प्राण कई स्तरों पर कार्य करता है और श्वास से लेकर स्वयं चैतन्य-शक्ति तक सभी आयामों में यह संलग्न रहता है। प्राण केवल आधरभूत जीवन-शक्ति ही नहीं है, बल्कि मन और शरीर के तल पर कार्य करने वाली उर्जा का भी यह मौलिक स्वरूप है। असल में मौलिक सर्जन-शक्ति से निर्मित यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड इस प्राण की ही अभिव्यक्ति है। यहाँ तक कि चेतना को परिवर्तित करने वाली कुण्डलिनी या आत्मिक शक्ति भी इसी जागृत प्राण से विकसित होती है।

वैश्विक तल पर प्राण के दो मौलिक स्वरूप हैं। पहला प्राण का वह अप्रकट़ रूप है, जो सम्पूर्ण सृष्टि से बढ़कर शुद्घ चैतन्य की शक्ति है, जो सर्व उत्पन्न जगत् से परे है। प्राण का दूसरा या प्रकट रूप स्वयं सृजनात्मकता का स्रोत है। प्रकृति की क्रियात्मक प्रवृत्ति से माने रजोगुण से प्राण उत्पन्न होता है।

प्रकृति तीन गुणों से मिल कर बनी है। एक है सत्त्वगुणया समन्वय की वृत्ति, जिससे हमारा मन बना। दूसरा है रजोगुणया क्रियाशीलता, जिससे प्राण उत्पन्न हुआ। और तीसरा है तमोगुणया जड़ता, निष्क्रियता, जिससे यह स्थूल शरीर बना है।

निश्चय ही यह तर्क दिया जा सकता है कि मुख्यतः प्रकृति प्राणमय या रजोगुणात्मक होती है। प्रकृति शक्ति है, उर्जा है। जब यह ऊर्जा उच्च आत्मिक या शुद्घ चैतन्य की ओर, माने परम पुरुष की ओर आकर्षित होती है, तब यही ऊर्जा सात्त्विक हो जाती है। अज्ञान की जड़ता के कारण यही ऊर्जा तामसिक हो जाती है।

हमारे स्थूल अस्तित्व से संबंधित जो प्राण या मौलिक उर्जा है, यह वायु तत्त्व का ही परिवर्तित रूप है, मुख्यतः श्वसन द्वारा जिसे हम भीतर लेते हैं, वह ऑक्सीजन ही हमें जीवित रखता है। जैसे वायु आकाश या अवकाश में उत्पन्न् होती है, प्राण भी अवकाश में ही उदित होता है और उससे बहुत नजदीकी से जुड़ा रहता है। जहाँ भी हम अवकाश उत्पन्न करते हैं, वहीं पर यह प्राण या उर्जा स्वयं ही पैदा हो जाती है। 


आखिर मनुष्य के लिए धर्म की जरूरत क्यों है?
सबसे पहले यह सवाल उठता है कि धर्म क्या है। क्योंकि धर्म को जाने बिना हम उसकी जरुरत को नहीं समझ सकते। तो चलिए सबसे पहले धर्म को ही ढूंढते हैं। ढूंढना इसलिए पड़ रहा है क्योंकि अब धर्म के ऊपर संप्रदाय के इतने आवरण चढ़ा दिए गए हैं कि धर्म भी खुद को नहीं पहचान पा रहा है कि वह कौन है और उसका वास्तविक स्वरूप क्या है।

अब चुकि हम धर्म का अर्थ ढूंढने निकले हैं तो सबसे पहले महाभारत युद्ध समाप्त होने के बाद की वह घटना याद आती है जब युधिष्ठिर भीष्म से ज्ञान लेने आते हैं और पूछते हैं कि, धर्म क्या है? भीष्म साफ शब्दों में समझते हैं: धारणात् धर्म इत्याहुः धर्मों धारयति प्रजाः। यः स्यात् धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः।। यानी जो धारण करता है, एकत्र करता है, अलगाव को दूर करता है, वह ‘‘धर्म’’ हैं।

इसे साफ अर्थो में जानें तो जो मानव को, मानवता को, समाज को और राष्ट्र को आपस में जोड़े वही धर्म है। जो मनुष्य को अधोगति में जाने से बचाए वही धर्म। इसके विपरीत जो भी है वह धर्म नही है यानी जो एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से लड़ाए वह अधर्म है। महर्षि व्यास ने पुराणों का सार बताते हुए नारद से कहा है 'परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम्।' यानी दूसरों की सहायता करना पुण्य है, धर्म है और किसी भी प्राणी को सताना, कष्ट पहुंचाना पाप यानी अधर्म है।

लेकिन धर्म को इन परिभाषाओं में बांधकर नहीं रखा जा सकता है। वास्तव में धर्म इससे कहीं व्यापक है। धर्म एक मार्गदर्शक है, गुरू है, अंधे की आंख, कमजोर की लाठी, ताकवर का डर और ज्ञानियों का ज्ञान है जो उन्हें सही राह पर चलना सीखता है। जिस मनुष्य को सही राह पर चलना आ गया है वास्तव में उनके लिए तो किसी धर्म की जरूरत ही नहीं है। लेकिन मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक अहंकार, लोभ, अभिमान और मोह के बंधन में बंधा रहता है। इसलिए मनुष्य में मनुष्यता को बनाए रखने के लिए धर्म की आवशयकता है। धर्म के नहीं होने पर मनुष्य आसमान में भटकते दिशाहीन बादलो की तरह नष्ट हो जाएगा। मनुष्य को नष्ट होने से बचाने के लिए ही धर्म की आवशयकता है।

भीष्म ने धर्म को धारण करने वाला बताया है इस एक शब्द से भी मुनष्य के लिए धर्म की आवश्यकता को समझा जा सकता है। धारण करने से अर्थ है अपने में समेट लेना जैसे आप वस्त्र धारण करते हैं तो उसे अपने ऊपर समेट लेते हैं, आप उस वस्त्र के हो जाते हैं और वस्त्र आपका हो जाता है। यह आपके शरीर की खामियों को छुपा लेता है।

धर्म भी उसी प्रकार है आपके मन के अंदर कई तरह की खामियां हैं, कितने ही दूषित विकार हैं धर्म उन सभी को ढंक कर आपके वयक्तित्व और चरित्र को उभारने की प्रेरणा देता है। जब आपको लगने लगे कि आपके अंदर की खामियां आप पर हावी होने लगी हैं तो समझ लीजिए आप धर्म से दूर जा रहे हैं और उस वक्त आपको धर्म के बारे में सोचना चाहिए और अपने धर्म को पहचान कर अपनी दिशा बदल लेनी चाहिए ताकि आप अपने धर्म को जी सकें।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....
मनीष

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