Tuesday, July 15, 2014

Jeene Ki Rah3 (जीने की राह)

धर्मग्रंथ की अनकही सीख
महाभारत: भगवान कृष्ण ने 18 अध्याय का उपदेश देने में अपना वक्त क्यों जाया किया। अर्जुन के हर सवाल का जवाब देने में? आखिर अर्जुन को धर्मयुद्ध के लिए समझाने-बुझाने, मनाने, राजी करने की क्या जरूरत थी? भगवद् गीता की जरूरत ही क्या थी? कृष्ण को तो अर्जुन से बस यह कहना चाहिए था, 'मेरे तीन चक्कर लगाओ, थोड़ा घी और दूध चढ़ाओ, देह पर चंदन का लेप लगाओ, मेरे चरणों पर लेट जाओ, चार बार साष्टांग प्रणाम करो और धनुष-बाण उठाकर युद्ध के मैदान पर कूद पड़ो... तुम्हारी जीत तय है।' जरा इस बारे में सोचें कि आखिर अर्जुन को इतना संघर्ष क्यों करना पड़ा? उनके लिए क्या संभव नहीं था? कृष्ण सिर्फ एक नजर से उन सभी का सफाया कर सकते थे, जो धर्मयुद्ध में उनके विरुद्ध मैदान पर आ धमके थे।

जरा सोचें: यदि ईश्वर की पूजा-अर्चना ही पर्याप्त है तब बाइबिल क्यों है? कुरान क्यों है? भगवद् गीता क्यों है? किसी धर्मग्रंथ की जरूरत क्यों है? यदि हर रविवार चर्च में जाना और प्रभु ईशु पर भरोसा जताना ही काफी है तो फिर ईशु ने 'क्या करें और क्या नहीं करें' का उपदेश देने में अपने तीन साल क्यों खराब किए, जो बाद में बाइबिल के रूप में सामने आया? यदि दिन में पांच बार नमाज अता करना ही काफी है तो फिर कुरान की तमाम बातें क्यों है?

धर्मग्रंथ की सीख- यह कॉलम किसी धर्मग्रंथ की समीक्षा या उसकी कमियां निकालने की कोशिश नहीं है। किसी धर्म विशेष को बढ़ावा देने का प्रयास भी नहीं है। यह तो अस्पष्ट सीख को स्पष्ट करने की ईमानदार कोशिश भर है। अनकहा कहने का प्रयास। सभी धर्मों के बीच सौहार्द बढ़ाने के लिए सच्चा आध्यात्मिक मूल्यांकन।

अनकहा संदेश: यदि भगवान संदेशवाहक है तो धर्मग्रंथ उसके संदेश हैं। संदेशवाहक में ईश्वरीय प्रभाव तभी आ सकता है जब संदेशों को पूरी ईमानदारी से जिया जाए। यह व्यर्थ है कि हम संदेश को नजरअंदाज करें और ईश्वर से मदद के लिए प्रार्थना करें। वास्तव में संदेश नजरअंदाज कर हम संदेशवाहक को ही असहाय बना देते हैं। भले ही आप गणित के शिक्षक के पुत्र हों लेकिन यदि 2+2 = 3 लिखेंगे तो गलत हैं। दूसरी ओर, यदि आप परीक्षक के बारे में कुछ भी नहीं जानते और 2+2 = 4 लिखते हैं तो सही हैं।

दरअसल, हम यह मान बैठते हैं कि हम जो पूजा-अर्चना करते हैं, चढ़ावा चढ़ाते हैं, उन सबके बदले भगवान हमारी रक्षा या मदद करेगा। हम ईश्वर को कई प्रकार से रिश्वत की पेशकश करते हैं ताकि वह हमारा कोई काम जल्दी करा दे या किसी अवसर को हमारे पक्ष में कर दे या हमारे किसी प्रिय की उम्र लंबी कर दे, आदि... लेकिन हम ईमानदारी, सत्यनिष्ठा, कर्म, अहिंसा, प्रेम और ऐसे ही सद्गुणों को बड़ी आसानी से नजरअंदाज करते हैं, जो सभी जीवन-मूल्य हैं।

सिर्फ हिंदू होने भर से कोई कृष्ण की कृपा का पात्र नहीं हो सकता। लेकिन इंसान होने के नाते कोई भी भगवद् गीता का अनुसरण करके, उसमें बताए मूल्यों को आत्मसात करके ईश्वर की कृपा पा सकता है। इसी तरह खुद को ईसाई कहने और 'क्रास' पहनने भर से प्रभु ईशु का आशीर्वाद नहीं मिलता। इसकी बजाय कोई भी व्यक्ति जो बाइबिल के उपदेश आत्मसात कर और उसके बताए रास्तों पर चलकर भगवत्कृपा का पात्र हो सकता है।

सिर्फ मूल्यों को समझना काफी नहीं है... आपको उन पर अमल भी करना चाहिए। संदेशवाहक के प्रति समर्पण का भाव जरूर रखें, लेकिन इसके साथ-साथ संदेश का मान भी रखें, इस पर अमल करें। ईश्वर सिर्फ विश्वास का नहीं, बल्कि जुड़ाव का विषय है... उसके संदेशों से जुड़ाव और उस पर अमल का विषय है... इसे ही दूसरे शब्दों में जीवन-दर्शन कहा गया है।

बच्चों को दें सद्विचार रूपी जीवन-सूत्र
बाजार में घूमते हुए हम अपने बच्चों को उनके आग्रह पर या अपनी मर्जी से कई वस्तुएं दिलाते हैं। ऐसा करते समय हमारे सामने वस्तु की कीमत और हमारी हैसियत, अपनी पसंद या बच्चों की पसंद काम करती है। इसी तरह हम बच्चों को जीवन में कुछ समस्याओं के समाधान भी देते रहें। कुछ ऐसी बातें उनके दिमाग में उतारते रहें, जो भले ही उस समय काम न आएं, पर जब माता-पिता या पालक के रूप में हम उनके साथ न हों, तब हमारी दी हुई बातें उनके काम आएं। पर ध्यान दीजिए, ये वे फॉर्मूले होने चाहिए, जिन्हें हम आजमा चुके हों। बिना आजमाया कोई फॉर्मूला अपने बच्चों को न सौंपें। सद्विचारों का उपयोग भी एक तकनीक है। औजार की तरह चारों तरफ सद्विचार फैले हुए हैं पर दिखाई नहीं देते। इन्हें देखने और ढूंढऩे में एक विशेष दृष्टि और प्रयास लगते हैं।

इन्हें धर्म-शास्त्रों में खोजा जा सकता है, जहां समस्याएं निपटाने के कई औजार बिखरे पड़े हैं। यदि सजगता, व्यावहारिकता और समर्पण से पढ़ें तो हर पृष्ठ पर एक कैंची, स्कू्रड्राइवर, पेचकस जैसे कई औजार मिल जाएंगे। शिशु को जन्म देने वाली मां के पास ऐसी कई तकनीकें होती हैं, जो शिशु के लालन-पालन में उपयोगी रहती हैं। यह सिर्फ मां ही जानती है। मातृत्व एक भाव है। यह भाव अपने बच्चों के साथ जीवनभर बनाए रखिए। इसी में अनेक तकनीकें छिपी हैं। पिता को भी एक सीमा के बाद अपने भीतर मातृत्व का भाव लाना पड़ता है, तब संतान उसके पूर्ण नियंत्रण में होगी।

सहयोग लें पर निर्भर न हो जाएं
जब हम सफलता के लिए पूरी ताकत लगा रहे होते हैं उस समय कहीं हमसे एक भूल न हो जाए। यह भूल संभव है सहयोग लेने के मामले में। इसमें दो बातें होती हैं। दूसरों के सहयोग की ज्यादा आदत हो जाए तो जीवन में आलस्य आ जाएगा और न लेने की इच्छा बलवती हो जाए तो अहंकार का प्रवेश हो जाएगा, किंतु सहयोग सफलता के लिए एक जरूरी तत्व है। एक खतरा और है, लोगों पर निर्भर होने का।

किसी पर निर्भर होना और उससे सहयोग लेना दो भिन्न बातें हैं। सहयोग लेना एक खूबी है, निर्भर होना एक कमजोरी है। पति-पत्नी के बीच कभी-कभी यह खेल चलता है। महिलाएं जानती हैं कि पुरुष के रूप में वे अपने पति को आसानी से वश में नहीं कर पाएंगी, इसलिए निर्भर बना लेती हैं। ऐसे ही दफ्तरों में कई बॉस अपने अधीनस्थ पर निर्भर हो जाते हैं। उनके अधीनस्थ उनकी इसी कमजोरी का फायदा उठा लेते हैं। इसलिए ध्यान केंद्रित हो सहयोग लेने और देने पर, क्योंकि जब हम किसी पर निर्भर रहने लगते हैं तो हमारी खूबियां साथ छोड़ देती हैं। हम मक्कार, कामचोर होने लगते हैं। भले ही ऊपर से हम इन कमजोरियों को ढंक लें पर जब रात को हम सोएंगे तो हम नींद में भी बेचैन रहेंगे। हमारा नाकारा व्यक्तित्व हमें ठीक से सोने नहीं देगा। इसीलिए आध्यात्मिक जीवनशैली में कहा गया है कि सोने से पहले दिन का विश्लेषण करें और मेडिटेशन के बाद सोएं। इससे सहयोग लेने की कला निखरेगी और निर्भर होने की कमजोरी खत्म होगी।

जरूरी हो तो वीर भाव जगाना पड़ेगा
अच्छा काम हाथ में लेने का अर्थ यह नहीं है कि सफलता मिल ही जाएगी। भले कार्य में भी बाधाएं आती हैं। कुछ मनुष्यों का स्वभाव बन जाता है अच्छे काम में अकारण अड़ंगा लगाने का। जब ऐसे लोगों से सामना करना पड़े, तब श्रीराम और समुद्र वाला प्रसंग ध्यान में रखना चाहिए। सुंदरकांड समापन की ओर है। अब समुद्र पूरी तरह समझ गया है कि श्रीराम से बैर लेना ठीक नहीं। उसने अपनी भूल पर क्षमा भी मांगी। तब तुलसीदासजी मानव मनोविज्ञान पर टिप्पणी करते हैं। श्रीराम कथा के चार वक्ता और चार श्रोता हैं। शंकरजी ने पार्वतीजी को सुनाई। याज्ञवल्क्यजी ने भारद्वाजजी को श्रवण कराया।

काकभुशुण्डिजी कह रहे हैं और पक्षीराज गरुडज़ी कथा सुन रहे हैं। फिर तुलसीदासजी द्वारा हमें श्रीरामकथा देना। चौपाई आती है - काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच। बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच।। काकभुशुण्डिजी कहते हैं - हे गरुडज़ी! सुनिए, चाहे कोई करोड़ों उपाय करके सींचे, पर केला तो काटने पर ही फलता है। नीच विनय से नहीं मानता, वह डांटने पर ही झुकता है। अच्छे काम में जब गलत लोग बाधाएं पहुंचाएं तो हमें अपने भीतर के वीर भाव को जगाना ही पड़ेगा। आवेश व्यक्त करने के अहिंसक तरीके हैं। किंतु आवश्यकता पडऩे पर हिंसा भी अनुचित नहीं होती। यहां डांट का अर्थ ही है अपने आवेश को सही काम की पूर्णता के लिए व्यक्त करना। अगर सभी विनम्रता से मान जाएं, तो पृथ्वी को स्वर्ग बनने में क्या देर लगेगी।

जो आपको आजादी दे वही सफलता
सभी लोग सफलता चाहते हैं। आजकल हम बच्चों को पहली सांस से ही सफलता की लोरियां सुनाना शुरू कर देते हैं। मुझसे पिछले दिनों प्राइमरी कक्षा में पढ़ रहे कुछ बच्चों ने प्रश्न पूछा कि सफलता का मतलब क्या होता है। एक क्षण के लिए तो मैं भी चौंक गया कि इस बाल उम्र में इन्हें सफलता का क्या अर्थ बताया जाए। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता में कुछ जगह सफलता के मतलब समझाए थे। यदि हम उनका निचोड़ निकालें तो सफलता के तीन अर्थ हैं। पहला जीतना, दूसरा आजादी और तीसरा संरक्षण। आपकी सफलता ऐसी होनी चाहिए कि आपको लगे कि आप जीते हुए हैं, क्योंकि कई बार जीत के नीचे हार होती है।

जीतने वाला भीतर-भीतर जानता है कि मैं हार गया हूं। यह पूरी सफलता नहीं है। दूसरी बात है, सफलता के बाद हमें आजादी महसूस होनी चाहिए । कहीं बंधे हुए नहीं हैं। लोग पद, प्रतिष्ठा, धन से भी बंध जाते हैं। गुलामी कैसी भी हो अशांति लाती है। सफलता का तीसरा अर्थ है संरक्षण। हम स्वयं को सुरक्षित महसूस करें, निर्भय हों और हमारे संपर्क में रहने वाले लोग भी हमारे सान्निध्य में स्वयं को संरक्षित मानें। ये तीन बातें हों, तब हम सफल माने जाएंगे। सफलता के लिए जो भी तरीके आप अपनाएं एक सूत्र सब पर समान रूप से लागू होगा और वह है अपनी पूरी ताकत लगाकर कर्म  करें। कुछ भी बचाकर न रखें। एक नैतिक उत्तेजना अपने भीतर लगातार बनाए रखें। एक गहरी प्यास जब तक नहीं जागेगी, कर्म के परिणाम में सफलता हाथ नहीं आएगी।

सोने के पहले खुद का आकलन करें
कम्प्यूटर के इस युग में भी कुछ पुरानी दुकानों में जाएं तो एक मुनीम बही-खाते लिखता हुआ नजर आएगा। आज का हिसाब आज मिलना ही चाहिए, पुराने सेठ-मुनीम में यह अघोषित अनुबंध हुआ करता था। दुकान के दरवाजे बंद करने की अनुमति बही-खाते से ही ली जाती थी। ऐसा ही एक बही-खाता हमें अपने निजी जीवन का बनाना चाहिए। इसे आज की भाषा में डेली चार्ट कह लें।

यह सुनिश्चित किए बिना न सोएं कि जो काम आज किए जाने थे वे पूरे हुए या नहीं। कामयाबी और नाकामी का बही-खाता भविष्य को उज्जवल बनाएगा ही। यदि सोने के पहले आज के बही-खाते को सही तरीके से लिखा जाए, पढ़ा जाए तो दूसरे दिन हम अधिक आत्मविश्वासी, प्रभावशाली और प्रसन्न हो सकेंगे। हमारे प्रयास सही दिशा में हो रहे हैं, जिन्हें यह समझ में आ जाता है उनके जीवन में संतोष पैदा होता है।

अपने कार्यों केआकलन की एक विधि यह है कि हमारे पास कुछ ऐसे मनुष्य हों, जो हमारे लिए बही-खाते का काम करें। वे हमारे माता-पिता, मित्र या गुरु भी हो सकते हैं। दूसरी विधि के तहत कुछ शास्त्र, साहित्य के जरिये खुद को सजग बनाए रख सकते हैं। तीसरी विधि में कुछ स्थानों को चुन लें, जहां जाने पर हमें अपना विश्लेषण करने में सुविधा होती हो। यह मंदिर या अन्य कोई प्राकृतिक स्थल भी हो सकता है। हम अपने घर को भी इसमें शामिल कर सकते हैं। यदि हम इन बही-खातों से गुजरें तो हमारे जीवन का हिसाब-किताब कभी नहीं बिगड़ेगा।

रुचि भर देती है काम करने का उत्साह
इंसानों में जितने भेद होते हैं उनमें एक बड़ा भेद रुचि का होता है। अभिन्न मित्रों में भी भिन्न रुचियां पाई जाती हैं। एक ही माता-पिता की संतानों की रुचियां अलग-अलग होती हैं। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार हमारा उस व्यक्ति-परिस्थिति से तालमेल हो जाना ही रुचि है। बेहतर तालमेल ही रुचि में बदल जाता है। जिस काम में हमें रुचि होती है उसे हम अच्छे ढंग से करते हैं, लेकिन यह भी सही है कि किसी काम को लगातार करते रहें तो उसमें रुचि जाग जाती है। रुचि है बहुत महत्वपूर्ण तत्व। जब आप किसी बड़े अभियान में जुटे हुए हों; कहीं नौकरी कर रहे हों या स्वयं का व्यवसाय हो। देखिए, रुचि कैसे काम आती है। हमारे भीतर की नैतिकता लगन जगाती है और हम पूरी लगन से इसी काम में जुट जाते हैं, परंतु केवल लगन से काम नहीं चलता।

उत्साह यदि न हो, तो लगन भी हांफने लगती है। यदि उत्साह जुड़ जाए तो सफलता मिलनी ही है। लगन में उत्साह जोडऩे के लिए उन कामों में रुचि लें, जिन्हें हम न जानते हों। हमारी जितनी कम जानकारी हो, उतनी ही अधिक रुचि बढ़ा दें। जैसे किसी खेल को हमने कभी न खेला हो तो उसकी जानकारी निकालना शुरू करें। जिस कला से कभी हमारा संबंध न रहा हो उसके बारे में थोड़ी खोजबीन करें। जिस साहित्य से हम कभी न गुजरे हों उसके अध्ययन से अपनी रुचि को जोड़ दें। यह जो अतिरिक्त रुचि का कार्य होगा वह हमारे लगन में उत्साह भर देगा। इस मनोवैज्ञानिक प्रयोग को करने में कोई नुकसान नहीं है।

शब्द मूल्यवान हैं, फालतू खर्च न करें
हम बातचीत में सबके साथ एक ही तरह के शब्दों का उपयोग नहीं कर सकते। व्यक्तियों के बदलते ही शब्दों के चयन के प्रति सावधान रहें। जब आप प्रोफेशनल हों तो शब्दों में आदेश, निवेदन एक साथ होंगे। बच्चों के बीच शब्द चयन  जानकारी देने और समझ बढ़ाने के लिए होगा। समाज में होने पर शब्दों में पारदर्शिता का भाव रहे। जीवनसाथी से चर्चा में शब्द पूरी तरह छनकर भावना से ओतप्रोत होने चाहिए। सीधी-सी बात है, हर व्यक्ति और स्थिति के लिए शब्दों की अभिव्यक्ति सजगता से की जाए, क्योंकि बाहर बोले जा रहे शब्द धीरे-धीरे अंदर भी असर करते हैं। आप मीठा बोलिए, उसका कुछ रस भीतर जरूर उतरेगा। आपके शब्दों में प्रेरणा का भाव होगा तो धीरे-धीरे आप खुद प्रेरित होने लगेंगे। अपने शब्दों को जेब में रखे सिक्कों की तरह मूल्यवान समझें। जरा भी फालतू खर्च न करें। हर शब्द सकारात्मक, खुशनुमा, दिल को छूने वाला और अर्थ लिए हुए हो।

निंदा जैसे घटिया काम में तो शब्द बिलकुल भी खर्च न किए जाएं। योग-विज्ञान के अनुसार मन का दूसरा बिंदू जिह्वा है, जहां से शब्द झरते हैं। जीभ का आग्रह मन को चलायमान करेगा, इसलिए अन्न और शब्द जिनका संबंध जीभ से ही होता है, दोनों के मामले में सावधान रहें। जबान से शब्द निकल रहे होते हैं तब उसका असर भीतर मन पर भी पड़ता है। मन शांति और अशांति का केंद्र है, इसलिए अच्छे शब्द आपकी शांति बढ़ाएंगे। शांति की खोज करना है तो शब्दों के मामले में उदार, समझदार और ईमानदार होते जाएं।

चार बातों के जरिये संघर्ष से निपटें
जीवन गणित की तरह नहीं होता, जिसमें सबकुछ तय शुदा होता है। कभी भी परिणाम उसके फॉर्मूले के बाहर नहीं आते, लेकिन जीवन में सबकुछ तय नहीं होता। आज जो है जरूरी नहीं कि वैसा कल भी मिले। जीवन की सबसे अच्छी तुलना रसायन शास्त्र से हो सकती है। यह विभिन्न तत्वों के मिश्रण से मिलने वाले परिणाम का अध्ययन है। जीवन भी कई लोगों के मिश्रण से तैयार होता है, इसीलिए मनुष्य के जीवन का एक हिस्सा है संघर्ष। कब किसके जीवन में उतर आए कह नहीं सकते। कुछ लोगों का जीवन तो संघर्ष से ऐसे जुड़ जाता है कि उन्हें इसे जीवनशैली ही मानना पड़ता है।

कुछ लोग जिनको सबकुछ आसानी से मिल रहा होता है उनके जीवन में जब संघर्ष आता है तो या तो वे परेशान हो जाते हैं या समझदार बन जाते हैं। चार बातों से संघर्ष उतरता है- स्थिति, व्यक्ति, वस्तु और हम स्वयं। स्थिति का संबंध भाग्य से भी है। व्यक्तियों से जब संघर्ष हो तो उन्हें अपने अनुकूल बनाना चाहिए। वस्तु के संघर्ष को उसकी गुणवत्ता से दूर किया जा सकता है और हमें स्वयं को ऐसी स्थिति में मजबूत बनाना चाहिए।

जब भी जीवन में संघर्ष आए विचार, परिश्रम, धैर्य, प्रसन्नता पर काम करना शुरू कर दें। विचारों को स्पष्ट और परिपक्व बना लें। आलस्य छोड़कर घोर परिश्रम अपना लें। बिलकुल भी अधीर न हों और निजी रूप से खूब प्रसन्न रहें। योग के आठ चरणों का परिणाम ये चार बातें हैं। संघर्ष से निपटने के लिए विचार, परिश्रम, धैर्य और प्रसन्नता शस्त्र की तरह काम करेंगे।

पंच तत्वों का सदुपयोग देता है स्वास्थ्य
यह प्रकृति पंच तत्वों से बनी है। आकाश, वायु, जल, अग्नि और पृथ्वी। ये जितने बाहर हैं, उतने ही हमारे भीतर भी मौजूद हैं। इनका संतुलन स्वास्थ्य है और असंतुलन बीमारी। सुंदरकांड में श्रीराम ने जब क्रोध दिखाया तो समुद्र डरा और बहुत ही दार्शनिक ढंग से क्षमा याचना की। तुलसीदासजी ने लिखा है, 'सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे।। गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी। तव प्रेरित माया उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए।।'

काकभुशुण्डिजी ने कहा-हे गरुडज़ी सुनिए! समुद्र ने भयभीत होकर चरण पकड़कर श्रीरामजी से कहा मेरे सब अपराध क्षमा करें।  आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन सबकी करनी स्वभाव से जड़ है। आपकी माया से प्रेरित होकर ये सब उपयोगी बनते हैं।' जब परमात्मा हस्तक्षेप करता है तो हम इनका भरपूर फायदा उठा सकते हैं। इन पंचतत्वों में विज्ञान ने भी हस्तक्षेप किया है।

फायदा भी उठाया है, लेकिन विज्ञान के हर लाभ के पीछे एक हानि भी छिपी है, क्योंकि विज्ञान ने इन पंचतत्वों का दोहन, शोषण और मर्दन एकसाथ कर दिया है। हम अपने भीतर परमशक्ति के हस्तक्षेप को यदि ठीक से समझ लें, तो हम हमारे लिए इन तत्वों का सही उपयोग कर सकेंगे। इनका सदुपयोग न सिर्फ हमें स्वस्थ रखेगा, बल्कि संसार में भी खूब क्रियाशील रखेगा। हमारे परिश्रम में थकान नहीं होगी और हमारे विश्राम में भरपूर शांति रहेगी। समुद्र माफी मांगते-मांगते बात बड़े पते की कह गया।

परिपूर्ण सुख के लिए शांति आवश्यक
यदि आप सुख की सीढिय़ां चढऩा चाहते हैं तो यह जरूरी नहीं है कि आप अमीर ही हों। केवल धन सुख का कारण नहीं बन सकता। संपूर्ण सुखी होने के लिए शांति भी आवश्यक है। धन से प्राप्त साधन नकारे भी नहीं जाने चाहिए। अमीरी की आलोचना ज्यादातर वे ही लोग करते हैं, जो अपनी गलतियों के कारण अमीर नहीं बन पाए। जिन्हें धन के साथ शांति चाहिए उन्हें अपनी कार्यशैली और रवैये पर ध्यान देना होगा। कार्यशैली आपको योजना बनाने में, लोगों का सहयोग लेने में काम आती है, जबकि आपका रवैया आपके भीतर ऊर्जा, अतिरिक्त योग्यता और भरपूर शक्ति भरता है। कार्यशैली का रुख बाहर की ओर होता  है जबकि रवैया हमें खुद से जोड़ता है। सिर्फ कार्यशैली के माध्यम से सफल होने वाले अशांत पाए गए। रवैये के प्रति जागरूक लोग धन आने पर अशांत नहीं होते, इसलिए सुख की सीढिय़ां चढ़ते समय हाथों में कार्यशैली हो और पैरों में रवैया। जो भी लोग सफल हुए हैं वे अपने भीतर यह जानते थे कि हम सफल होकर ही रहेंगे।

कार्यशैली और रवैये में तालमेल के लिए दिनभर में प्रयोग करते रहें।  एक प्रयोग तो यही है कि मशीन की तरह काम न करते हुए हर काम से इंसानी रिश्ता बनाएं। जो भी काम करें उसमें डूब जाएं। यह भी एक तरह का मेडिटेशन होगा। यदि आप भोजन बना रहे हैं, कॉफी तैयार कर रहे हैं या कपड़े पहन रहे हों तो पूरी तरह वर्तमान में रहें। खुद को इस कृत्य से गहनता से जोड़ लेंगे तो भीतर वाइब्रेशन महसूस होने लगेंगे। यहीं पर रवैया और कार्यशैली एक हो जाते हैं।

इंद्रियों को शांत बनाने पर काम करें
मशीनों का इतना उपयोग नहीं होता था इसलिए केवल शिक्षित होना पर्याप्त था, किंतु अब टेक्नोलॉजी का समय है। कभी सोचा नहीं था कि जीवन के गोपनीय क्षेत्रों में मशीनें इतना दखल देने लगेंगी। एक ही उदाहरण काफी है गोपनीयता भंग होने का- प्रेमपत्रों की जगह एसएमएस ने ले ली। जो रिश्ते कभी भावनाओं में डूबकर तैयार होते थे उनके फैसले अब फेसबुक पर हो जाते हैं। यदि वर्जिश की इच्छा नहीं है तो ऐसी मशीनें आ गई हैं कि बस आप चिपककर खड़े हो जाएं, वे तनबदन हिला देंगी, इसलिए अब शिक्षित होने के साथ-साथ प्रशिक्षित होना भी जरूरी है। व्यावसायिक संस्थानों में तो प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जाते हैं, किंतु हमें स्वयं अपना एक प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाना चाहिए। इंद्रियों को शांत करने का प्रशिक्षण। सात दिन के सात चरण बना लें।

हमारे शरीर में भी सात चक्र हैं। करना क्या है यह बिलकुल स्पष्ट होना चाहिए। दूसरा, जो करना है उसका तरीका या विधि पूरी तरह ज्ञात हो। तीसर, शुरू से परिणाम पर नजर रखें। चौथा चरण होगा परिणाम मिलने पर उसे टिकाए रखें। पांचवां, इस सफलता के आने पर अहंकार न आए, इसकी अतिरिक्त सावधानी और छठा, अपनी सफलता का के्रडिट उन सभी को दें, जिनका इसमें प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहयोग था। सातवां चरण हमारे अवकाश का दिन होना चाहिए। इस दिन पूरा आराम करें, लेकिन साथ में इस बात का चिंतन जारी रहे कि अब इस पड़ाव से और आगे कैसे जाना है। यह एक आध्यात्मिक प्रयोग है सात चरण का, करते रहिए।

धन आए तो खुद को ध्यान से जोड़ लें
अमीर बनने के कई तरीके इन दिनों फॉर्मूले के रूप में बाजार में मिलते हैं। देखा जाए तो धन कमाने के मोटेतौर पर पांच तरीके अपनाए जाते हैं। किसी ऐसे परिवार से जुड़ जाओ जो धनाढ्य हो। बस उस परिवार से अमीरी उठाने की अक्ल होनी चाहिए। या फिर धनवान मित्र बना लिए जाएं। कई लोग जीवनभर मित्रों की बैसाखी पर चलते हुए धनवान हो गए। भाग्यशाली होने से भी पैसा आता है। चौथा तरीका है घोर परिश्रम और पांचवां ढंग है अपराध के जरिये दौलत कमाना। अधिकतर लोग इसी पंचामृत से धन का स्वाद चख रहे हैं।

अमीर बनने के और भी तरीके हो सकते हैं। किंतु अमीर बने रहने का असली तरीका एक ही है- खुद को जान लेना। दूसरों की जान पहचान से कमाई दौलत किसी भी दिन खिसक लेगी। अगर आप कंगाल न भी हुए तो भी दौलत बचाने के लिए उतने ही परेशान होते रहेंगे, जितना एक कंगाल होता है। हम क्या हैं और हमारी योग्यता कैसी है यह समझ अध्यात्म से आती है। खुद को जान लेने पर दौलत न तो नशा बनकर चढ़ती है और न ही गरीबी दुर्गति जैसी होती है। पैसा हो या न हो जीवन के प्रति लगाव बना रहता है।

लगन होनी चाहिए पैसा कमाने के लिए और लगाव होना चाहिए जीवन को प्रेमपूर्ण बनाने के लिए। अत: अमीर बने रहने के लिए लगातार अपनी उदासी को बाहर फेंकते रहें और धन से तिजोरी को भरते रहें। भरना और खाली करना दोनों एक साथ चलना चाहिए। इसलिए जब धन का आना बढ़े तो खुद को ध्यान से जरूर जोड़ दें।

मन से मुक्ति में ही है प्रसन्नता
कहा जाता है विपरीत परिस्थितियों में अपना आत्मविश्वास न छोड़ें। मदद दूसरे लोग भी करेंगे, लेकिन खुद पर किए विश्वास में बड़ी ताकत होती है। किसी ने कहा है आत्मविश्वास सफलता की कुंजी है। चलिए, आज इस पर विचार  करें कि यह आत्मविश्वास आता कहां से है। अगर दूसरे दे सकते तो हम भेंट में ले लेते। आत्मविश्वास हमारे ही भीतर का बाय-प्रोडक्ट है। इसका सीधा संबंध मस्तिष्क से है। हमारे भीतर एक मन है, दूसरा हृदय है और तीसरा मस्तिष्क है। जब भी हम कोई काम करते हैं, हमारे शरीर के अलावा भीतर ये तीन चीजें भी सक्रिय हो जाती हैं। बल्कि इन तीनों की सक्रियता को ही शरीर के अंग रिएक्ट करते हैं। आत्मविश्वास का संबंध मस्तिष्क से है।

जैसे मन हमेशा कारण ढूंढ़ता है, वैसे ही मस्तिष्क निदान निकालने में रुचि रखता है। मन का मूल स्वभाव नकारात्मक है। गलत बातें उसे पसंद हैं। मस्तिष्क में बुद्धि क्रियाशील होती है। अत: यहां सकारात्मक रहने की संभावना अधिक है। यदि मस्तिष्क पर थोड़ा काम किया जाए तो मन की गलत बातों को बुद्धि फिल्टर कर देती है।

फिर मस्तिष्क आत्मविश्वास को जन्म देता है। मन हमें दूसरी बातों में इतना व्यस्त कर देता है कि हम भूल ही जाते हैं कि हमारे भीतर ही खुशी भी है। जितना हम मन को निष्क्रिय करेंगे, उतना ही मस्तिष्क पर काम कर सकेंगे। जैसे ही मन निष्क्रिय होता है मस्तिष्क भीतर भरी खुशी को पकड़ लेता है। मस्तिष्क को मौका दीजिए वह चुन-चुनकर खुशियां हमें दे देगा।

पंचतत्वों से जुड़कर समस्या समाधान
हम दो तरीके से सफलता को दूर रखते हैं। एक तो यह कि हम काम की शुरुआत में ही कई बहाने तैयार कर लेते हैं। अधिकांश लोग छुट्टी खत्म होते ही काम पर नहीं लौटते। जन्म, मरण और परण जो भारतीय संस्कृति में सोलह संस्कार में गिने गए हैं, उन्हें लोग बहानों के लिए उपयोग में लाते हैं। दूर के रिश्तेदारों की शादी में कई-कई दिनों तक जाना और घर में किसी का जन्म होने पर अधिक छुट्टियां लेना। कुछ लोग तो हर रिश्तेदार की मृत्यु पर छुट्टी लेकर ही शोक मनाते हैं। हमें पता नहीं लगता कि खुशी और गम के ये पल कब बहानों में बदल जाते हैं।

दूसरा कारण है जब हमारे कामकाज में समस्याएं आती हैं तो हम भूल जाते हैं कि इनका तोड़ इन्हीं के भीतर छुपा है। सावधानी से खोज लें तो हममें और हमारी सफलता में दूरी कम हो जाए। समस्या के समाधान के लिए व्यावसायिक और व्यावहारिक प्रयासों के अलावा एक आध्यात्मिक प्रयोग भी करें। प्रकृति के पंचतत्वों से अपना तालमेल बनाएं।

थोड़ी देर के लिए किसी खुले स्थान पर जाएं। सीधे खड़े होकर, जहां आपके पैर हैं उसके आगे के पृथ्वी के हिस्से को देखें और आंख बंद करके दोनों भौंहों के बीच में धरती के उस टुकड़े की कल्पना करें। ऐसा ही अग्नि, जल, वायु और आकाश के साथ करें। वायु को दोनों भौंहों के बीच में महसूस करें। थोड़ी देर के लिए संसार से कटकर पंचतत्व से जुड़ जाएं। अचानक उस विपरीत परिस्थिति का छिपा हुआ तोड़ आपके मस्तिष्क में आ जाएगा। यह टोटका नहीं योग विज्ञान है, कभी करके देखिएगा।

भोग में साक्षी भाव हो तो सुख ही सुख
परमात्मा ने जब मनुष्य को संसार में भेजा तो उसकी मूल वृत्ति जन्म से सुख लेने की थी। ईश्वर को सच्चिदानंद कहा गया है। वह सदैव आनंद में रहता है और भक्तों से आशा करता है कि वे हर हाल में खुश रहें। सुखी रहने की संभावना मनुष्य के भीतर कूट-कूटकर भरी हुई है, लेकिन वह अपने आसपास दुख के कई केंद्र खोल लेता है। वह भूल जाता है कि सुख-दुख में भेद है ही नहीं। सुंदरकांड में समुद्र अपनी गलती पर पश्चाताप करने के बाद श्रीराम से कहता है, 'प्रभु आयसु जेहि कहं जस अहई। सो तेहि भांति रहें सुख लहई।। प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही। ढोल गवांर सूद्र पसु नारी। सकल ताडऩ के अधिकारी।।

जिसके लिए स्वामी की जैसी आज्ञा है, वह उसी प्रकार से रहने में सुख पाता है। प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा (दंड) दी, किंतु मर्यादा भी आपकी ही बनाई हुई है। ढोल, गवांर, शूद्र, पशु और स्त्री ये सब शिक्षा (दंड) के अधिकारी हैं। शुरुआत में वह कहता है जिसको आप जैसी आज्ञा देंगे वह उस तरीके से सुखी रहेगा। भगवान ने मनुष्य को एक स्थायी आज्ञा दी है कि भोग करने के बाद भी होश बना रहे। लगातार अभ्यास करते रहें कि भोग हम कर रहे हैं और हमारी चेतना साक्षी बनकर उसे देख रही है। यदि ऐसा है तो सुख ही सुख है। इसके बाद तो समुद्र ने जो पंक्तियां कहीं उन्हें लेकर लोग गोस्वामी तुलसीदासजी को नारी विरोधी बताने लगे। इसी स्तंभ में अब आगे के कुछ अंशों में इन बहुचर्चित चौपाइयों पर चर्चा करेंगे।

वर्तमान में रहकर ही सच्ची सेवा संभव
इन दिनों व्यक्तियों और संस्थाओं पर समाजसेवा का जुनून चढ़ा है। बकायदा एनजीओ बनाकर समाज के में लोग फैल गए हैं। इसके पीछे  छिपा हुआ उद्देश्य तो धन कमाना है तो कुछ लोग ख्याति अर्जित करने के चक्कर में हैं। बड़े लोगों के लिए यह फैशन भी है। इसके पीछे टैक्स बचाने का चक्कर भी है, लेकिन यदि आपके पास धन न हो, किसी संस्था का सहारा न हो, बहुत प्रतिष्ठा भी न हो और फिर भी आप सेवा करना चाहें तो पहले भक्ति कर लें, क्योंकि भक्ति का एक अंग सेवा भी है। भक्त नि:स्वार्थ प्रभु सेवा की तरह ही सेवा करेगा।

आप एक सेवा तो कर ही सकते हैं और वह है किसी के काम आना और इसका दायरा बहुत बड़ा है। किसी व्यक्ति को यह अहसास दिलाना कि वह योग्य है, महत्वपूर्ण है, उपयोगी है यह भी एक तरह की सेवा होगी। समाज में ऐसे अनेक लोग हैं, जिन्हें अपनी योग्यता की जानकारी नहीं होती। वे अकारण कुंठित होकर जीवन जीते हैं जबकि असाधारण होने की महत्ता उनके भीतर रहती है। इस काम में आपको न तो अधिक धन लगाना है और न ही अधिक परिश्रम करना है।

जिससे भी मिलें गर्मजोशी से मिलें, पूरी ईमानदारी के साथ उसकी प्रशंसा करें। खोजें कि उसके व्यक्तित्व की किस बात की प्रशंसा करके उसे प्रोत्साहित किया जा सकता है। ध्यान रखें इस दौरान एक आध्यात्मिक भाव जरूर बना रहे। सेवा करते समय न तो भूतकाल पर दृष्टि डालें और न ही भविष्य पर नजर रखें। सच्ची सेवा तब होती है जब आप वर्तमान पर टिके होते हैं।

भीतर की खामोशी देती है ऊर्जा
आप जिंदगी में दो तरह के लोगों से जरूर मिलेंगे। बहुत व्यस्त लोग और बिलकुल खाली लोग। कुछ ऐसे भी होते हैं जो कभी बहुत व्यस्त रहते हैं और कभी खाली भी मिलते हैं। केवल व्यस्त रहना नशा बनकर बीमारी बन जाएगा और हमेशा खाली रहना आलस्य बनकर आपको अस्वस्थ कर देगा। जरूरत पर खूब व्यस्त रहना और आवश्यकता पडऩे पर खाली भी हो जाना यह एक कला है। दोनों को ही योजनाबद्ध तरीके से बिताएं। जिन कामों को शॉर्ट में किया जा सकता हो उन्हें लंबा न तानें। ध्यान दीजिए शॉर्टकट और शॉर्ट में काम करने में फर्क है। संक्षिप्त का जीवन में अपना महत्व है।

त्वरित करें, लेकिन संतुलित करें। जो कार्य महत्व के न हों उन्हें व्यस्तता के क्षणों में भी न करें और खालीपन में भी उन्हें न अपनाएं। व्यस्तता में पूरी तरह डूब जाएं। जैसे पानी का कोई टैंक लबालब भरा हो और जब फुर्सत निकले एक-एक बूंद की तरह खाली हो जाएं। यह फुर्सत अगली व्यस्तता के लिए ताकत बन जाएगी। व्यस्तता के समय क्या करना है इसके तरीके आपको व्यावसायिक प्रबंधन में मिल जाएंगे, लेकिन खालीपन के समय अध्यात्म काम आता है। आंख बंदकर के महसूस करें कि हमारे भीतर समुद्र की लहरें उठ रही हैं। तीन काम करती हैं लहरें-भिगोती हैं, धक्का देती हैं और खींचती हैं। ठीक ऐसा ही अपने भीतर होने दीजिए और इसी क्रिया को भीतर देखें। बहुत जल्दी आप अपने भीतर एक खामोशी पाएंगे, जो आपके खालीपन को अगली व्यस्तता के लिए ऊर्जा बना देगी।

शिकायती चित्त त्यागें, लोकप्रिय होंगे
सभी के भीतर एक दबी-छिपी इच्छा होती है कि हम भी लोकप्रिय हो जाएं। फिर प्रदर्शन के इस जमाने में जो दिखता है वो बिकता है। बाजार का यही कानून है। अयोग्य और अनुपयोगी चीजें भी प्रदर्शन के बल पर योग्य और उपयोगी के आगे निकल गईं। लोकप्रिय होने में कोई बुराई नहीं है। यदि आप योग्य हैं और लोकप्रिय हैं तो यह भी एक तरह की समाजसेवा ही है। आज प्रबंधन के इस युग में आपको लोकप्रिय होने के लिए एक लिखित और स्पष्ट योजना बना लेनी चाहिए। वरना घुटन महसूस होने लगेगी। कुछ लोग ऊपर से तो कहते हैं कि वे ख्याति नहीं चाहते, लेकिन उनके भीतर का व्यक्तित्व पूछ-परख चाहता है, सम्मान की अपेक्षा रखता है।

यह भाव प्रबल होने पर लोकप्रिय होने की इच्छा बलवती हो जाती है। लोकप्रिय होने के लिए अपनी याददाश्त तेज रखें, खासतौर पर लोगों के नाम और उनसे संबंधित तारीखों को याद रखें। बधाई और शोक संदेश देने में पारंगत और उदार रहें। अपने शिकायती चित्त को विराम दे दें। दूसरों की पसंद का पूरा लेखा-जोखा रखें। बहुत अच्छे श्रोता बन जाइए। आप लोगों को बोलने का जितना अधिक मौका देंगे, वक्त आने पर आप उतने ही ज्यादा सुने जाएंगे। बातों में अर्थ और माधुर्य दोनों रखें। अपनी आध्यात्मिक शक्ति को जो हर एक के भीतर होती है, दूसरों में स्थानांतरित करते रहें। इसके अलावा एक उपाय और है, थोड़ा अविश्वसनीय लगेगा, लेकिन किया जा सकता है। वह है अपने भीतर का अहंकार गिरा दें।

भीतर के कुसंग से खुद को बचाएं
कुसंग से बड़े-बड़ों का पतन हो गया है। बर्बाद होने वाले लोगों की संगत को बारीकी से देखिएगा। पाएंगे कि जिन लोगों के साथ वे उठते-बैठते थे वे ही उनके पतन का कारण बने। मनुष्य का भविष्य उसकी संगत पर आधारित है। जो लोग आपको अच्छे लगते हों, पर यदि उनके साथ आपको कुसंग की बदबू आती हो तो तुरंत दूरी बना लें। आज सार्वजनिक जीवन में हमें अनेक लोगों से मिलना-जुलना पड़ता है। कामकाज में कई लोगों के साथ लंबा वक्त भी बिताना होता है।

कुछ लोगों की बातों से हमें लगाव जाग जाता है। वे खराब होते हुए भी हमें प्रभावित करते हैं। मन को गंदी और गलत बातें पसंद हैं, इसलिए वह कुसंग की ओर तुरंत लुढ़कता है। कुसंग का मतलब केवल आचरणहीन व्यक्तियों के साथ रहना ही नहीं है, नकारात्मक विचार वालों से भी दूरी बनाए रखें। जो लोग उदास हों, जिंदगी के यथार्थ से मुंह मोड़कर शुतुरमुर्ग की तरह गर्दन गाड़ चुके हों तो उनसे सावधान हो जाएं।

हमेशा ऐसे लोगों का संग करें जिन्होंने जीवन के रोमांच को बनाए रखा है। जो जीवन के प्रति अत्यधिक आशान्वित रहते हों। जिनकी बातचीत में ही हिम्मत झलकती हो, लेकिन मामला यहीं खत्म नहीं हो जाता। आप बाहर से अच्छी संगत तब ही रख पाएंगे, जब आप भीतर से मन को कुसंग से बचाएंगे। हमारे मन को कुसंग करने के लिए बाहरी लोगों की जरूरत नहीं पड़ती। वह भीतर ही भीतर घोर कुसंग का संसार बनाने में समर्थ है तो पहले खुद को भीतर बचाएं, फिर बाहर की तैयारी करें।

ध्यान से यूं भगाएं नकारात्मकता
हमारे जीवन में कई किस्म की समस्याएं होती हैं। कुछ वास्तविक होती हैं और कुछ को हम आमंत्रित करते हैं। कुछ समस्याएं केवल पुरुषों के जीवन में होती हैं, तो कुछ का लेना-देना केवल महिलाओं से होता है। इनके पास अपना समाधान तो है ही, एक-दूसरे की मदद करने से समस्याएं कम भी हो जाती हंै। मगर कुछ समस्याएं ऐसी भी हैं जिनका निदान उन्हें खुद ही ढूंढऩा होता है। जैसे कामकाजी महिलाओं की एक बड़ी समस्या है कि वे किस तरह घर और बाहर का संतुलन बैठाएं। अधिकांश महिलाओं ने कामकाज इसलिए स्वीकार किया है कि वे अपने परिवार को आर्थिक सहयोग दे सकें। शौक के नाम पर काम करने वाली महिलाओं की संख्या भारत में कम है। जिन महिलाओं को घर और बाहर का बहुत दबाव रहता हो, उन्हें एक आध्यात्मिक प्रयोग करते रहना चाहिए।

अवकाश के दिन 15 मिनट का समय निकालें और एकांत में बैठ जाएं। आंखें बंदकर अपने भीतर उतरें, नाभि पर ध्यान टिकाएं और पिछले हफ्ते की सारी नेगेटिविटी पर केंद्रित हो जाएं। नीरस स्थितियों का चिंतन करें। कभी रोना आया हो तो वह घटना भी देखें। क्रोध और झगड़े वाली परिस्थिति को चिंतन में लाएं। इस समूची नेगेटिविटी पर ध्यान दें और विचार करें कि ये गुब्बारे की तरह हैं। जब गुब्बारा इन नेगेटिव थॉट से भर जाए तो एक सुई से उसे फोडऩे की कल्पना करें। रिलेक्स हो जाएं, गहरी सांस लेते हुए इस ध्यान की मुद्रा से बाहर आ जाएं। कामकाजी महिलाओं के लिए यह प्रयोग पूरे हफ्ते काम आएगा।

इंद्रियां दिखाती हैं मुश्किल वक्त में राह
कोई असंभव काम करने निकलें और शुरुआत में हमारे पास सही रास्ता न हो फिर भी आत्मविश्वास यदि बना रहे तो रास्ते निकल ही आते हैं। अर्थात यदि हमारे पास कोई लक्ष्य है और आरंभ में मार्ग न दिखे तो निराश होकर न बैठ जाएं। कभी-कभी तो उठकर चलना ही आधा रास्ता पार करने जैसा हो जाता है। संसार में हमें कई लोग शिक्षा देने वाले, सहयोग देने वाले मिल जाएंगे। मदद लेने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन अपनी इंद्रियों पर जरूर भरोसा रखें।

हमारे पास दस इंद्रियां हैं। यदि इन पर हमने सही नियंत्रण रखा तो अलग-अलग समय पर अलग-अलग इंद्रियां हमें समाधान सुझा देंगी। ये अत्यधिक बलवान होती हैं। इनका मालिक यदि इनका सही उपयोग न करे तो ये उसी को बर्बाद कर देती हैं। जब कभी हमें इंद्रियों का उपयोग लेना हो तो शरीर और मन को एक कर दें। कुछ समय के लिए खाली बैठ शरीर और मन के अंतर पर विचार करें। मन या तो बीते हुए पर टिकता है या आने वाले समय में प्रवेश कर जाता है। मन को वर्तमान में रुचि नहीं है। शरीर इसका उल्टा होता है। वह वर्तमान में ही जीता है। इसलिए अधिकतर मौकों पर शरीर और मन एक-दूसरे से मिल ही नहीं पाते। शरीर यदि टिका हुआ है तो मन चलायमान है। शरीर जब चलता है तो मन दौड़ जाता है। इन दोनों को एक करने का तरीका है गहरी सांस लीजिए और छोड़ दीजिए। इस दौरान अपने विचारों को रोक दीजिए। केवल सांस की क्रिया ही शरीर और मन को एक कर देगी और हमारी ही इंद्रियां हमें समाधान बता देंगी।

मन पर होना चाहिए बुद्धि का नियंत्रण
जब आप बुद्धिमान लोगों के बीच में बैठें तो लगातार अध्ययन करते रहें कि वो कौन-सी चीज है, जो आपके मुकाबले इन लोगों को अधिक बुद्धिमान बनाती है। ईर्ष्या बिलकुल न करें। अपने से अधिक बुद्धिमान लोगों की मन ही मन प्रशंसा करें। कहते हैं प्रशंसा करने से सामने वाले के गुण अपने भीतर आने लगते हैं। इसलिए ध्यान रखिएगा, गलत लोगों की कभी तारीफ मत करना, वरना यह उनके दुर्गुणों को आमंत्रण देने जैसा होगा। कोई हमसे अधिक बुद्धिमान क्यों है, इस पर विचार करेंगे तो आपको खुद ही उत्तर मिल जाएगा। बुद्धि का सही समय पर सही उपयोग करने वाला बुद्धिमान होता है।

बुद्धि का उपयोग न करें तो यह विरोधी बन जाती है। इसका उपयोग करें तो यह सहयोगी बन जाएगी। फिर यदि बुद्धि का संचालन मन से है तो अधिकतर इसका दुरुपयोग ही होगा, क्योंकि मन को उल्टे काम करना पसंद है। उसकी दिशा ही नकारात्मक है। बुद्धि को मन से स्वतंत्र रखिए। या फिर इतना मजबूत कर दीजिए कि वह मन का संचालन करने लगे। या फिर मन को ही कमजोर कर दें ताकि वह बुद्धि के साथ छेड़छाड़ ही नहीं कर पाए। मन को कमजोर करना है तो उसकी रुचि उससे छीनें। मन की रुचि है वासनाओं में। इन्हें मन से बाहर फेंकें। मन फिर वासनाएं इकट्ठी कर लेगा, लेकिन इस दौरान एक फायदा होगा कि हम मन और वासना का अंतर पहचान जाएंगे। यहीं से हमें बुद्धि के सदुपयोग का समय मिल जाएगा। हम भी बुद्धिमान हैं यह भाव इसी का परिणाम होगा।

आत्म नियंत्रण प्रभावी प्रबंधन की कुंजी
सभी लोगों की इच्छा होती है श्रेष्ठ और असाधारण लोगों की श्रेणी में हम भी आ जाएं। जब आप विशिष्ट होने की कोशिश करें तो ध्यान रखिएगा कि कुछ बातें हमें असाधारण बनने से रोकती भी हैं। आम आदमी होने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन खास होना भी कोई दोष नहीं है। जो अपने ही आलस्य और अयोग्यता के कारण आगे नहीं बढ़ पाए वे आम आदमी की खोल ओढ़कर सहानुभूति के पात्र बनना चाहते हैं।

दूसरे के कंधे पर चढ़कर जीवन की यात्रा पूरी करना आम लोगों की आदत सी बन जाती है, जबकि परमात्मा ने हर एक में कुछ न कुछ खास दिया है। किंतु हमारी ही तैयारी नहीं होती कि हम उस विशेष को अपने भीतर से टटोलें और वक्त आने पर उसका उपयोग कर लें। जो लोग दूसरों की प्रगति से ईष्र्या रखते हैं, वे कभी आगे नहीं बढ़ सकेंगे। इसमें बिल्कुल ऊर्जा नष्ट न की जाए। सारी ऊर्जा अपनी प्रगति में लगाएं। इसके लिए तीन बातें जरूरी हैं। पहला, लोगों पर काम करना, जिनसे आपका संपर्क रहता है।

दूसरा, आपके काम के क्षेत्र में जो भी आपका प्रोडक्ट है उसकी क्वालिटी को लेकर सावधान रहना और तीसरा, इन दोनों बातों का ठीक से प्रमोशन करना। वैसे तो ये तीनों काम भौतिक दृष्टि से मैनेजमेंट कहलाते हैं, लेकिन यदि इसमें योग को और जोड़ दिया जाए तो प्रबंधन सरल और प्रभावी हो जाएगा। योग में एक काम इंद्रियों का नियंत्रण भी होता है। जैसे ही इंद्रियां नियंत्रित होती हैं आपके शरीर से प्रभावशाली वाइबे्रशन होते हैं और वे इन तीनों कामों को सरल बना देते हैं।

सफलता का मंत्र है अतिरिक्त परिश्रम
दूसरे आपको पसंद करें इसकी तैयारी आपको ही करनी होगी। यदि आप बहुत अधिक पढ़े-लिखे नहीं हैं, अनुभवी भी नहीं हैं तो आपको कोई क्यों पसंद करेगा। किसी सिस्टम में आपसे अधिक एजुकेटेड, टैलेंटेड लोग हों तो आप पीछे रह जाएंगे। अतिरिक्त परिश्रम आज के समय में वह पूंजी है जिससे आप सफलता का ताला खोल सकते हैं। हर बॉस आपकी इस योग्यता का कायल होगा। उसे भरोसा रहेगा कि भले ही आपके पास ऊंची शिक्षा नहीं है, लेकिन अतिरिक्त परिश्रम आपकी खूबी है। अतिरिक्त परिश्रम का मतलब जरूरत से ज्यादा काम करना नहीं होता।

इसका अर्थ है कि जो काम किया जाए जमकर किया जाए। काम में पूरी तरह डूब जाएंं। अतिरिक्त कार्य के लिए अतिरिक्त ऊर्जा चाहिए। चलिए, अतिरिक्त ऊर्जा प्राप्त करने के लिए एक आध्यात्मिक प्रयोग करते हैं। प्रतिदिन थोड़ी देर के लिए दोनों हाथों को ऊपर ले जाएं, पैरों को चौड़ा करें। हो सके तो थोड़ा कूद लें, फिर सामान्य हो जाएं। कुछ ऐसी एक्सरसाइज करें जैसे तेज हवा चलने पर पेड़ हिल रहा है। अपने शरीर को सुविधानुसार हिला-डुला लें और फिर खामोशी से खड़े हो जाएं। मन ही मन कल्पना करें कि हम एक पेड़ बन गए। हमारी जड़ें पृथ्वी में समाई हैं और हम पृथ्वी से ऊर्जा अपने भीतर ले रहे हैं। जैसे धरती वृक्ष को देती है। फल वृक्ष का दिया कम और धरती का दिया ज्यादा होता है। हम ऐसा ही महसूस करें कि हमें पृथ्वी से कुछ मिल रहा है और यही हमारी अतिरिक्त ऊर्जा होगी।

निंदा रस को अपने भीतर प्रवेश न दें
कई लोगों का स्वभाव होता है कि जब तक वे दूसरों की आलोचना न कर लें, उन्हें चैन नहीं  मिलता। उन्हें विपरीत टिप्पणी करने की आदत सी पड़ जाती है। वे पास होंगे तो उनकी नेगेटिविटी हमें प्रभावित करेगी। ताज्जुब नहीं कि हमें भी आलोचना करने की इच्छा होने लगे। निंदा में बड़ा रस आता है। दुनियादारी में ऐसे लोगों से बचना भी मुश्किल है। खासतौर पर जब वे हमसे बड़ी उम्र के या प्रभावशाली हों तो मर्यादा के कारण हम उन्हें रोक भी नहीं पाएंगे। ऐसे में पहली बात तो यह कि उनके शब्दों को अपने भीतर न आने दें। एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल दें। दूसरा तरीका यह है कि यदि संभव हो तो तुरंत विषय को बदल देें। तीसरा तरीका यह होगा कि या तो उन्हें चलता कर दें या खुद चल दें। मगर किसी भी हालत में नकारात्मक विचारों को अपने भीतर प्रवेश न करने दें। एक काम और करते रहिए कि जब आलोचना चल रही हो तब भीतर आप दूसरा पक्ष सोचते हुए प्रशंसा में डूबने लगें।

किसी के मुंह से आलोचना के शब्द सुनते हुए अपने आपको काटना थोड़ा मुश्किल काम है। इसके लिए प्रतिदिन यह अभ्यास करें। कमर सीधी रखें, आंखें बंद करें और ऐसी कल्पना करिए कि आपकी सांसें सीढ़ी बन गई हैं और उन सीढिय़ों से भीतर उतर रहे हैं। जब सांस बाहर निकले तो बहुत धीरे-धीरे सोचते रहें कि आप सीढिय़ां चढ़कर बाहर आ रहे हैं। दो-तीन मिनट की यह क्रिया आपको स्वयं से जोडऩे में सहायक होगी और यहीं से आप गलत लोगों के गलत शब्दों से कट सकेंगे।

जीवनभर के घाव दे जाते हैं शब्द
हमारे यहां शब्दों को भी शस्त्र माना गया है। कुछ शब्द तो जीवनभर के घाव दे जाते हैं। कहते हैं मनुष्य के शरीर में जुबान एक ऐसा अंग है जिस पर चोट लग जाए तो सबसे जल्दी ठीक होती है और शरीर के इस अंग से यदि किसी को चोट पहुंचाई जाए तो जीवनभर उसके ठीक होने की संभावना नहीं होती। कहते हैं लात का तोड़ होता है, बात का नहीं। सुंदरकांड में समापन के नजदीक पहुंचकर समुद्र ने श्रीराम से एक ऐसी पंक्ति बोल दी, जिसे लेकर श्रीरामचरित मानस के शोधकर्ता खूब शोर मचाते हैं। यह चौपाई है - ढोल गंवार सूद्र पसु नारी। सकल ताडऩा के अधिकारी।।

इसमें पांच लोगों की तुलना की गई है। यदि इसमें नारी नहीं होती तो तुलसीदासजी के विरुद्ध इतना उपद्रव नहीं होता। कुछ लोगों ने तो उन्हें नारी विरोधी घोषित कर दिया। लोग अपने-अपने ढंग से इसका विश्लेषण करते हैं। मैंने सुना है एक बार एक पति ने इस चौपाई को सुना, फिर पत्नी से कहा, 'इसका अर्थ जानती हो न।' पत्नी ने तुरंत जवाब दिया, 'हां। इसमें चार बातें तुम्हारे लिए कही गई हैं और एक मेरे लिए।' इस प्रसंग को विनोद की दृष्टि से भी देख सकते हैं और गंभीरता से भी। तुलसी क्या चाहते थे इसका उत्तर तो उनके साथ ही चला गया। अब सिर्फ विद्वानों का चिंतन रह गया है। यह तो तय है कि तुलसी नारी विरोधी नहीं थे। वे कवि नहीं शुद्ध ऋषि थे। कवि केवल कल्पना से चलता है और ऋषि अपने भीतर अंतरभाव जगाता है।

असफलता से उबरने का सूत्र
शायद ही कोई व्यक्ति ऐसा हो, जिसने कभी हार का मुंह न देखा हो। असफलता के क्षेत्र अलग-अलग हो सकते हैं। कोई व्यवसाय में सफल होगा तो परिवार के फ्रंट पर असफलता मिली होगी। कोई परिवार में सुखी है तो कहीं और मात खा रहा होगा। इसीलिए असफलता को लेकर सबके अलग-अलग नजरिये होते हैं। पहली श्रेणी उनकी है जिन्हें हम निराश कह सकते हैं। ये असफलता मिलने पर पूरी तरह टूट जाते हैं। उनकी घोषणा होती है कि अब कुछ नहीं हो सकता। सब खत्म हो गया। इनकी निराशावृत्ति असफलता को और ठोस बना देती है। दूसरे वे हैं जो निराश तो नहीं हैं, लेकिन थके हुए रहते हैं। निराश व्यक्तियों को यदि मृत मानें तो ये बीमारों की श्रेणी में आएंगे। ये असफलता से उबरने की थोड़ी बहुत कोशिश करते हैं, लेकिन काफी समय लगा देते हैं। कभी मानते हैं कि बुरे समय से बाहर आ जाएंगे तो कभी यह भी कहते हैं कि अब कुछ नहीं हो पाएगा।

तीसरे होते हैं उत्साही। ये मानते हैं कि असफलता अस्थायी है और स्थायी है सफलता जिसे हमें प्राप्त करना ही है। ये अपनी ही तैयारी में जुट जाते हैं। असफल दौर में दूसरे क्या कह रहे हैं इसकी ये चिंता नहीं पालते। हमारे जीवन में ऐसा दौर आए तो एक काम करिए। कागज-कलम लेकर बैठ जाएं और असफलता को लेकर जो भी मन में विचार आ रहे हैं लिखते चलें, भले ही मरने-मारने की बात हो, पर ईमानदारी से लिखें और खुद ही पढ़ें। एक हफ्ते में ही आप असफलता से बाहर निकल आएंगे।

'मैं' न हो तो परिवार बनता है ताकत
काम न करने के सबके पास अपने बहाने होते हैं। एक बार मैंने एक प्रयोग किया। जब भी मैं किसी से मिलता और मुझे लगता कि ये बहाने बना रहे हैं तो मैं नोट कर लेता। एक माह बाद मैंने हिसाब लगाया कि सबसे अधिक बहानों में था परिवार फिर समय और स्वास्थ्य। इन्हीं की आड़ में लोग अपने निकम्मेपन को स्थापित करते हैं। कई लोग तो भौतिक प्रगति में परिवार को बाधा मानते हैं। परिवार सिमट गए हैं इसलिए छोटे परिवार को बाधा मानते हैं, लेकिन संयुक्त परिवारों को भी दोष देते हैं। कई लोग पारिवारिक दायित्व के कारण आगे नहीं बढ़ पाते, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि परिवार को दोषी बताया जाए।

परिवार को केंद्र में रखकर प्रगति के क्षेत्र बदले जा सकते हैं। जैसे बुजुर्ग माता-पिता या भाई-बहनों की जिम्मेदारी होने पर कुछ लोग अपने शहर से बाहर नहीं जा पाते और फिर जीवनभर मन ही मन दुखी होते रहते हैं। हालांकि, ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने जिम्मेदारियां निभाईं और कॅरिअर में आगे भी बढ़े। दरअसल, परिवार में रहने का तरीका बदलें तो यह ताकत बन जाता है। परिवार कमजोर बनता है सदस्यों के अहंकार के कारण। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि हर मनुष्य में कुछ हिस्सा पशुओं का होता है और कभी-कभी वह वैसा आचरण करता भी है। मगर पशुओं की खूबी है कि उनमें 'मैं' नहीं होता। घर में हम इस 'मैं' विहीन पशु-भाव को बनाए रखें। यह परिवार को हमारी ताकत बना देगा। परिवार की ताकत साथ है तो हारने की संभावना सदैव कम रहेगी।

ध्यान से बनाएं वृद्धावस्था को दिव्य
जो भी काम करें, पूरे प्राण लगाकर करें। यानी हम और हमारे काम में कोई अंतर न रहे। कृत्य और कर्ता जब एक हो जाते हैं तो बिना लगाए ही ध्यान लग जाता है। जब शरीर सक्षम होता है तब हम और हमारे कर्म में भेद अधिक होता है। इसीलिए जवानी में 'मैं कर रहा हूं' इसकी उद्घोषणा ज्यादा ही होती है। फिर बुढ़ापा आते-आते शरीर असक्षम हो जाता है, लेकिन भीतर का शोर जवानी जैसा ही रहता है। 'मैं' कर लूंगा की जगह 'मैंने किया' इसका हल्ला होने लगता है और इसीलिए लोग बुढ़ापे में भी अशांत रहते हैं। पूरा जीवन जीने के बाद भी अशांति बनी रहे तो सोचने की बात है।

बुढ़ापे में जीवन को पूरा जीने का अभ्यास बढ़ाते जाएं अर्थात जो भी करें उसमें पूरी तरह डूब जाएं। बुढ़ापे में याददाश्त कमजोर हो जाती है, इसलिए आप जो भी कर रहे होते हैं आपको मालूम नहीं होता, लेकिन यह एक कमजोरी है। होना यह चाहिए कि अच्छी याददाश्त के साथ भी पूरी तरह डूबकर काम करें। कला का प्रदर्शन तब श्रेष्ठ होता है, जब कलाकार और कला एक-दूसरे में डूब जाते हैं। जीवन के प्रति कलाकार बन जाएं।

कुछ भक्त जैसे प्रार्थना में डूब जाते हैं, वैसे ही पूरे जीवन को प्रार्थना बना लें, इसलिए वृद्धावस्था में थोड़ा समय मेडिटेशन को जरूर दिया जाए। ध्यान का संबंध प्राण से है, प्राण यानी वायु। वायु की क्रिया से प्रतिदिन जुडऩे पर हम होश में रहकर भी खोने की कला सीख जाते हैं। इसे समर्पण का जीवन भी कहा जा सकता है। यहीं से वृद्धावस्था बोझ नहीं, दिव्य बन जाएगी।

झगड़ा करके क्रोध को मौका न दें
किसी ने कहा है क्रोध की पर-स्त्री का नाम झगड़ा है। अभी यह न सोचें कि क्रोध की पत्नी कौन है। यहां हम क्रोध और झगड़े के संबंधों पर विचार कर रहे हैं। जैसे निंदा में रस होता है, वैसे ही झगड़े में भी एक स्वाद है। कुछ लोग जब तक दिन में दो-चार बार झगड़ न लें, खुद को पौरुषहीन मानने लगते हैं। क्रोध जैसे दुर्गुण को झगड़े से प्रवेश का मौका मिलता है। यदि आप गौर करें कि पिछले दिनों कितनी बार, किन मुद्दों पर झगड़े थे तो पाएंगे कि झगड़ों का संबंध बड़ी बातों से कम था। बहुत छोटी-छोटी बातों पर झगड़ा हो जाता है। इनमें सबसे आगे पति-पत्नी होते हैं। ईमानदारी से देखें तो 100 में से 90 बार वे फिजूल ही झगड़ते हैं। ध्यान रखिएगा कि झगड़े में आपके चेहरे की पूरी आकृति बदलने लगती है। क्रोध पूरे शरीर पर प्रभाव डालता है। झगड़े का संबंध ज्यादातर शब्द और मुखाकृति से होता है।

यदि आप क्रोध रूपी दुर्गुण से बचना चाहें तो शुरुआत करिए झगड़े की वृत्ति से बचने से। इसके लिए एक छोटा सा अभ्यास करिए। प्रात:काल ब्रश करते समय अपने चेहरे पर विनोद और हास्य के अलग-अलग भाव लाएं। खुद को देखकर खुद पर हंसें। चेहरे को जितना विनोदी बनाएंगे, होठों को जितना मुस्कान का अवसर देंगे, इसका उतना ही भीतर असर होगा। जब झगड़े की स्थितियां आएंगी, आपको सुबह की मुस्कान याद आ जाएगी। अचानक आप झगड़े की परिधि से बाहर फिंक जाएंगे और क्रोध को वह मौका मिलना बंद हो जाएगा, जिसके कारण वह राज करता है।

जो हो उसे स्वीकार करें, अशांति घटेगी
हमारे चिंतन और कर्म के बीच में एक ब्रिज होता है, जिसको योजना कहेंगे। बिना प्लानिंग के कोई काम न किया जाए यह आदर्श वाक्य है। कई संस्थान तो केवल प्लानिंग पर ही काम करते हैं। इसके लिए बड़ी-बड़ी एजेंसियां बन गई हैं। उनमें लक्ष्य, प्रोडक्ट, मार्केट, ग्राहक, हानि-लाभ की दृष्टि से सोचा जाता है। जो अच्छे योजनाकार गहराई में जाकर योजना बनाते हैं। ऐसे लोग केवल आंकड़ों पर न टिककर फिलॉसफी पर भी काम करते हैं।

शुरुआत यह रहती है कि प्लानिंग की एप्रोच पॉजीटिव रहे। मुद्दों से बिलकुल न भटका जाए। देश-काल-परस्थिति की दृष्टि से क्रियान्वयन किया जाए, क्योंकि चिंतन सही रूप से कर्म में तभी बदलता है, जब योजना ठीक हो। हर प्रोजेक्ट की योजना अलग-अलग होती है, लेकिन मनुष्य के जीवन की योजना सबके लिए एक जैसी होगी। हम अपने बारे में जब योजना बनाएं तो पहली बात यह ध्यान रखें कि लोग हमारा उपयोग तो करें, लेकिन दुरुपयोग न होने दें।

काम करने में ऊर्जा कहां से आएगी, बाहर की नहीं, भीतर की। इस पर भी ध्यान रखें। बाहर जो पॉजीटिविटी लानी है उसके लिए भीतर तैयारी कैसे की जाए। जैसे स्कूली बच्चा होमवर्क करता है, जीवन की योजना बनाते समय वैसे हो जाएं। अध्यात्म  कहता है प्रकृति में कुछ चीजें होकर रहती हैं। जो उन्हें स्वीकार करता है। उससे कम अशांति होती है। इस भाव को अपने भीतर जाग्रत करें और फिर जीवन की योजना बनाएं। इससे योजना अमल में लाने में संघर्ष कम होगा।

वक्त के मुताबिक बदलते हैं शब्दों के अर्थ
एक आदमी के भीतर कई आदमी होते हैं। सुबह जिस व्यक्ति से आप मिलेंगे, दोपहर को वह कोई दूसरा ही होगा। शाम होते ही आप उसका नया रूप देख सकते हैं और रात तो अच्छे-अच्छों को बदल देती है। ऐसे ही शब्द भी स्थितियों के साथ अपने अर्थ परिवर्तित कर लेते हैं। सुंदरकांड में श्रीराम से बातचीत करते हुए समुद्र ने जो चौपाई कही थी वह विश्व विवादित है। ढोल गवांर सूद्र पसु नारी। सकल ताडऩा के अधिकारी।। समुद्र ने कहा था - ढोल, गवांर, शूद्र, पशु और स्त्री ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं। अब इसमें पहली आपत्ति तो यह है कि स्त्री को जिनसे जोड़ा गया है उनकी बहुत प्रतिष्ठा नहीं थी। दूसरी आपत्ति यह कि ये सब शिक्षा के अधिकारी कैसे हुए। इस पंक्ति पर बहुत शोध हो चुके हैं। व्याख्यान भी  हुए पक्ष और विपक्ष में। सबसे पहले ताडऩा शब्द को समझें। यदि इसकी व्याख्या सही हो जाए तो कुछ आपत्तियां स्वत: समाप्त हो जाएंगी। ताडऩ का एक अर्थ होगा ताडऩा। जैसे कहें कि मैंने उसकी मंशा को ताड़ लिया।

इसे वॉच करना भी कहेंगे। दूसरा अर्थ है प्रताडऩा, यानी टार्चर। दोनों अर्थ में यह चौपाई अलग स्वरूप लेती है। तुलसी के मस्तिष्क को उनके युग की स्थितियां भी प्रभावित कर रही थीं। वह दौर नारी प्रधान नहीं था। उसे ठीक से पुरुष प्रधान भी नहीं कहा जा सकता। वह समय तो जिसकी लाठी, उसी की भैंस का था। इसलिए इस पंक्ति को नारी अपमान की पंक्ति कहकर तुलसीदासजी को कटघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता। आगे फिर विचार करते रहेंगे।

दुख से मुक्ति का उपाय है स्वीकृति
सभी लोगों के जीवन में एक न एक बार ऐसा मौका आता है जब आप सही हों और लोग आपको गलत समझ रहे हों। बाहरी हालात इतने उलझे हुए हों कि खुद को सच साबित करने के लिए आपको बड़ी ताकत लगानी पड़ती है। कई बार हम खुद ही इतना उलझ जाते हैं कि कोई ओरछोर ही नजर नहीं आता। घुटन के इस माहौल में अपने ही लोगों द्वारा पूछे गए साधारण प्रश्न भी क्रोध पैदा कर देते हैं। ऐसे में मनुष्य या तो चिड़चिड़ा हो जाता है या फिर उसकी चिंतन प्रक्रिया इतनी तेज हो जाती है कि वह कोई शारीरिक बीमारी पाल लेता है। कभी-कभी तो ऐसे लोग 'कब घर लौटेंगे', जैसे साधारण प्रश्न पर चिढऩे लगते हैं। क्रोध समाधान की दिशा को बदल देता है। इसीलिए मेडिटेशन लगातार करते रहना चाहिए, क्योंकि ध्यान से आपकी स्वीकृति की शक्ति बढ़ जाती है। इस समय हमारा मन और मस्तिष्क इस बात पर जुटा रहता है कि जो दुख या संकट आया है उसे कैसे दूर किया जाए। इससे कैसे मुक्त हुआ जाए।

इसका अत्यधिक चिंतन भी अशांत बना देता है। ध्यान करने वाले लोग चीजों से बड़ी आसानी से राजी हो जाते हैं। ऐसे समय में सबसे पहले स्वीकार कीजिए कि दुख आया है। दुख की स्वीकृति में ही उसके अंत का आरंभ है। जब संकट आ ही गया है तो स्वीकृति का भाव बढ़ाकर फिर निराकरण की ओर चलें। जैसे धूप है तो पसीना आएगा, कांटा चुभा है तो दर्द होगा। इसे स्वीकार करना ही पड़ेगा। ऐसी ही स्वीकृति ध्यान का परिणाम है और फिर संकट से निपटा जाए।।

आभार से भरा होना ही सकारात्मकता
कई बार नई पीढ़ी के बच्चे प्रश्न पूछते हैं - पॉजीटिविटी और नेगेटिविटी क्या होती है। क्योंकि माना जाता है कि अधिक पॉजीटिव यानी सकारात्मक होने पर मनुष्य के भीतर एक ढीलापन आ जाता है। जोश खत्म होने लगता है जबकि नेगेटिविटी व्यक्तित्व को आक्रामक बनाती है। आज  आक्रामक व्यक्तित्व जल्दी सफल होते हैं। यदि नेगेटिव न रहें तो लोग आपको कुचलकर या आपकी सीढ़ी बनाकर ऊपर चढ़ जाएंगे। धोखे खाते रहेंगे। इसलिए संदेह करते रहें। मैं कुछ लोगों को जानता हूं, जो नेगेटिविटी के पक्ष में बड़ा तार्किक भाषण देते हैं। केवल संसार उपलब्ध करना हो तो पॉजीटिविटी और नेगेटिविटी के अर्थ बदल जाएंगे, लेकिन यदि मनुष्य जीवन का भीतरी आकलन करे तो इन दोनों का नफा-नुकसान अलग आएगा।

पॉजीटिविटी का सीधा-सा अर्थ है हमारे पास जो भी है उसके लिए परमात्मा के प्रति अत्यंत आभार से भरे रहें। इसका यह अर्थ नहीं है कि जो मिला है उसमें बढ़ोतरी नहीं करनी है। जो उपलब्ध नहीं है उसके प्रति बेकार की उदासी न लाएं। सभी धर्मों में भक्ति को बड़ा महत्व दिया गया है। कर्मकांड में भाव आ जाए तो पूजा। पूजा में समर्पण जुड़ जाए तो भक्ति। भक्ति और ध्यान एक ही ऊर्जा के दो रूप हैं। दोनों का संयुक्त परिणाम है पॉजीटिविटी। दोनों का अभाव है नेगेटिविटी। इसलिए भक्ति करते रहें। भक्त कभी नेगेटिव नहीं होता। वह  आभार से भरा होता है। उसका हर कृत्य करुणा में डूबा होता है। यहीं पॉजीटिविटी और नेगेटिविटी का द्वंद्व समाप्त हो जाता है।

खराब अतीत को जागरूकता में जीएं
बीते हुए के साथ जागरूक होकर बर्ताव करें। हमारे जीवन के बीते हुए वक्त में बहुत सारे लोग हमें मिलते रहे होंगे। कुछ अच्छे होंगे, जिन्होंने हमारे साथ अच्छा किया होगा। कुछ गलत भी होंगे, जिन्होंने हमें परेशानी में डाला होगा। अच्छे लोगों को याद रखें, लेकिन हम उल्टा करते हैं। गलत लोगों को नहीं भूल पाते। हम उन्हें हमेशा यादों के रूप में अपनी पीठ पर लादकर चलते हैं। सारा मामला विक्रम-बेताल की तरह हो जाता है। उनकी यादें बेताल बनकर हमारी पीठ पर चिपक जाती हैं और हम अपना आज भी बिगाड़ लेते हैं। कुछ बातों को आध्यात्मिक दृष्टि से देखें। संभव है वे नहीं जानते होंगे कि यह क्या कर रहे हैं। यदि जान-बूझकर भी किया हो तो अब हम बदले की भावना में क्यों जीएं? बीते वक्त की सिगरेट पीने से सबसे बड़ा कैंसर होता है।

इसे भूलकर अपने आज को संवारें। किसी से पूछें कि नींद के बाद आप क्या करते हैं, तो सामान्य जवाब होगा उठ जाते हैं, जाग जाते हैं। यानी आदमी सोता है या जागता है। इसका आध्यात्मिक अर्थ है कि आदमी दो तरह की नींद लेता है। एक तो वह जो सचमुच की नींद है, जिसमें आप जाग नहीं रहे होते हैं। दूसरी नींद वह है जिसमें आंख खोलकर सोते हुए भी हम एक सपना देखते हैं बीते हुए का। मेरे साथ ऐसा हुआ था, मैं कैसे भूल जाऊं। जब भी मौका मिलेगा मैं भी वैसा करूंगा या करूंगी। इसका मतलब आप फिर सो गए। और यदि आप जागे नहीं हैं तो अपना वर्तमान कैसे संवार पाएंगे।

पैदल चलने को ध्यान बना लें
यह अत्यधिक गतिमान रहने का समय है। धीमे कोई चलना ही नहीं चाहता, हर व्यक्ति जल्दी में है। यदि कुछ प्राप्त करना है तो चाल तेज रखनी ही होगी, लेकिन जल्दबाजी जीवन के लिए महंगी पड़ सकती है। आध्यात्मिक दृष्टि से सोचिएगा कि यह जल्दबाजी कामकाज की दृष्टि से है या भीतर की बेचैनी के कारण। दोनों में फर्क है। आप यदि अपने लक्ष्य के लिए गति में हैं और लंबे समय ऐसे ही रहे, तो भीतर से तनाव और बेचैनी में आ जाएंगे।

कुछ समय बाद आपकी गति बेचैनी का परिणाम बन जाएगी। थोड़े दिन बाद आपको खुद ही समझ में नहीं आएगा कि आप कर क्या रहे हैं। गति में कुछ धैर्य की जरूरत है। समझदार लोग अपनी तेजी और धैर्य का संतुलन बना लेते हैं। देखिए, बेचैनी के साथ जल्दबाजी करेंगे तो ध्यान इधर-उधर बंटा हुआ रहेगा। काम बिगड़ते जाएंगे, लेकिन यदि ध्यान के साथ गति बनाएंगे तो जो करेंगे पक्का कर पाएंगे। हमारे जीवन में गति या चाल का तीन तरह से संबंध है। एक है पैदल चलना, यह भी गति है।

दूसरा होता है किसी साधन पर बैठकर चलना। चाहे वह दो पहिया वाहन हो या हवाई जहाज। तीसरी गति होती है मन की गति। इन तीनों का संबंध आपस में ठीक से बनाइए। प्रतिदिन थोड़ा पैदल चलें और इसे व्यायाम ही न मानें। इसे मेडिटेशन भी बना सकते हैं। जब आप पैदल चल रहे हों उस समय शरीर चले, लेकिन मन को रोक लें। कोई विचार न करें सिर्फ चलते रहें। ऐसा ही वाहन में बैठने पर भी किया जा सकता है। यह आपके पूरे व्यक्तित्व को शांत बना देगा।

विचार शून्य सांस से मिलती है शांति
हम इस बात के लिए काफी सजग रहते हैं कि बाहर से हमारे शरीर को नुकसान न हो। धूप से सावधानी रखते हैं कि सन बर्न न हो जाए। सर्दी में गर्म कपड़े पहनते हैं ताकि शीत न लग जाए। हालांकि, ऊपर से व्यवस्थित होने के बाद भी बहुत सारे लोग भीतर से अशांत पाए जाते हैं।

चूंकि हम अपने समय और ऊर्जा का बड़ा हिस्सा बाहरी व्यवस्थाओं को ठीक करने में लगा देते हैं, इसलिए जान ही नहीं पाते कि एक महत्वपूर्ण इंतजाम भीतर से भी किया जाना है, जिसका संबंध शांति और स्वास्थ्य दोनों से है।

अपने रोज के जीवन में एक सावधानी और रखिए। वह सावधानी है अपनी सांस के प्रति सजगता। ऐसा कहने पर ज्यादातर लोग इसे योग से जोड़ लेते हैं या फिलॉसफी की बात मान लेते हैं। दरअसल, हमें इस विज्ञान को समझना पड़ेगा। शांति के लिए तीन बातों के प्रति थोड़ा जागरूक हो जाएं।

हमारी जीवनशैली में पहला प्रभाव डालता है प्रदूषित वातावरण। इसके बाद हमारा भोजन और तीसरा महत्वपूर्ण दबाव होता है विचारों का। वैज्ञानिकों का कहना है प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क में प्रतिदिन 60 हजार विचार आते-जाते हैं। विचारों को लाने-ले जाने का काम सांस करती है।

इसी के कारण मनुष्य अपने फेफड़ों का ५० प्रतिशत से भी कम उपयोग कर पाता है। फलस्वरूप पूरे शरीर को ठीक से प्राण-वायु नहीं मिल पाती। २४ घंटे में कुछ समय विचार-शून्य सांस लीजिए तो प्राण-वायु पूरे शरीर में ठीक से वितरित हो जाएगी। फिर आपको शांत होने से कोई नहीं रोक सकता।

अच्छे व्यक्तियों का सदुपयोग करें
जीवन की यात्रा में हमें अच्छे-बुरे लोग मिलते हैं। बुरों से बचना है और अच्छों का सदुपयोग करना है। एक विचारधारा कहती है यदि आपके साथ कुछ गलत हुआ है तो उसकी जिम्मेदारी या तो हालात पर है या दूसरे व्यक्तियों पर यानी आप जिम्मेदार नहीं हैं। इसलिए जब भी कभी ऐसा हो, इन दोनों पर ही काम करिए यानी खुद को मुक्त रखें। दूसरी ऋषि-मुनियों की विचारधारा कहती है मनुष्य की खुद की भी जिम्मेदारी है। इसलिए स्वयं का मूल्यांकन भी करिए।

सुंदरकांड के इस प्रसंग में समुद्र रामजी की मदद करने के लिए तैयार हो गया। शुरुआत में समुद्र द्वारा जो विरोध किया जा रहा था इसमें श्रीराम केवल हालात पर नहीं टिके। उन्होंने खुद पर भी काम किया। उनकी दो विशेषताएं थीं - खुद का पराक्रमी होना और दूसरे के लिए मददगार। समुद्र समझ गया कि श्रीराम से उलझने से नुकसान होगा। अत: वह उनसे कहता है- एहिं सर मम उत्तर तट बासी। हतहु नाथ खल नर अघ रासी।। सुनि कृपाल सागर मन पीरा। तुरतहिं हरी राम रन धीरा।। 'इस बाण से मेरे उत्तर तट पर रहने वाले पाप के राशि दुष्ट मनुष्यों का वध कीजिए। कृपालु और रणधीर श्रीराम ने समुद्र के मन की पीड़ा सुनकर उसे तुरंत ही हर लिया समुद्र के उत्तर तट पर कुछ दुष्ट लोग रहते थे। वह उनसे परेशान था। समुद्र जान चुका था कि राम मेरी मदद करेंगे। राम ने समुद्र के मन की पीड़ा को सुनकर अपने बाण से उन दुष्ट लोगों को मार दिया। यह उदाहरण है अपने सामने आए हुए अच्छे व्यक्ति के सदुपयोग का।

विवाह को बनाएं एक सुंदर रिश्ता
शादियां जुए के खेल में दांव की तरह हैं। कोई सफल हो गया, कोई हार गया। जो लोग पति-पत्नी के रिश्ते निभा रहे हैं, जरूरी नहीं कि वे सफल हो गए हैं। हर पति-पत्नी के बीच अपने वैवाहिक रिश्ते को लेकर एक उदासी और असंतोष बना ही रहता है। पहले इसे समझौते के लेपन से दबा दिया जाता था और आजकल के जोड़े ज्यादा बर्दाश्त नहीं करते। इसलिए आजकल इसका समापन अदालतों में ज्यादा होने लगा है। इसलिए तनावग्रस्त जोड़ों को सत्संग का प्रयोग करते रहना चाहिए। सत्संग का अर्थ है किसी के साथ ऐसा संग करना जहां हृदय की प्रधानता हो, बुद्धि गौण रहे और सारा वातावरण सद्भाव का हो। स्त्री और पुरुष, दोनों के व्यक्तित्व कई बातों में असमान भी होते हैं और कुछ बातों में एक जैसे भी होते हैं।

असमानता को बुद्धि के स्तर पर निपटाया जाए और एक जैसे स्वभाव को दिल से समझा जाए। जब आप अपने जीवनसाथी के साथ बुद्धि के स्तर पर हों तो अपने परिवार के नेतृत्व का बंटवारा करें। यानी बारी-बारी से एक-दूसरे को नेतृत्व करने दें। इससे बुद्धि को थोड़ा संतोष मिल जाएगा। दोनों में जो समानताएं हैं उसे दिल से लिया जाए, क्योंकि हृदय शिकायत नहीं करता। हृदय का मूल स्वभाव स्वीकार करना है। यहीं सत्संग शुरू होगा। तो जो तनाव-गर्मी बुद्धि के कारण आई वह सत्संग में थोड़ी गलने लगेगी और दो अलग-अलग अस्तित्व भी शांति से रह सकेंगे। आज के दौर में शादी है तो एक खेल, लेकिन इसे सुंदर रिश्ते में बदलने के लिए यह भी एक तरीका है।

संन्यासी की वृत्ति से अपनों को वक्त दें
आज अधिकांश परिवारों में अपने लोगों को समय न दे पाना भी तनाव का एक कारण है। कई परिवार तो इसके कारण टूट भी रहे हैं। व्यस्त आदमी धन के बंटवारे में तो सक्षम हो गया पर समय के बंटवारे में नादान साबित हो रहा है। जब अपने लोगों को समय देने का दबाव बनता है तो चतुर लोग इसमें भी अभिनय करने लगते हैं। इस धोखे को पकड़ा जा सकता है। जो व्यक्ति शरीर से यहां मौजूद है, वह भीतर से गायब हो चुका है। दिखावट तो सुंदर हो सकती है, लेकिन अहसास के स्तर पर यह छल बहुत दिनों नहीं चलता।

एक सुझाव पर विचार कीजिए। आप जब अपने घर में अपने लोगों के बीच हों, उन्हें समय दे रहे हों तो एकदम संन्यासी की तरह हो जाएं। बात सुनने में उल्टी लगेगी कि घर में तो गृहस्थ की तरह होना चाहिए, लेकिन इसी में इसका अर्थ छुपा है। गृहस्थ गणित में माहिर होता है। वो कई चीजें तौल-मौल कर करता है। गृहस्थ में अपने-पराए का भेद भी रहता है। दिखाना-छुपाना गृहस्थ की अदा है। तब अपने लोगों के साथ संबंध निभाने में भी यही सब चलता है, लेकिन संन्यासी की एक विशेषता होती है। वह सिर्फ परमात्मा के लिए जीता है। संन्यास का अर्थ ही यह है कि परमशक्ति के प्रति निष्ठा। संन्यासी का अर्थ है जो बाहर है वही भीतर और जैसे ही इस वृत्ति से आप अपने लोगों के बीच समय दे रहे होते हैं, आप शतप्रतिशत वहीं होते हैं। तब उस समय में पे्रम की सुगंध अपने-आप बहने लगती है और परिवार को बचाने के लिए प्रेम बहुत बड़ा जरिया है।

क्रोध को क्षमा के जरिये काबू में लाएं
क्या आपको गुस्सा बहुत आता है? ज्यादातर लोगों का जवाब रहता है, 'हां'। आजकल किसी को कम गुस्सा आता ही नहीं है। जब भी आता है जमकर आता है। हां, प्रदर्शन में उसकी तीव्रता कम-ज्यादा हो सकती है। लोग क्रोध कम करने के लिए अनेक प्रयास करते हैं। सबसे सरल तरीका है योग। प्राणायाम द्वारा क्रोध नियंत्रित होता है, लेकिन फिर समय की  दिक्कत है। अगर ऐसा है तो एक बात का अभ्यास बढ़ा दीजिए। हमारी बहुत सी आदतों की तरह क्रोध भी आदत ही है। चलिए, आदत से आदत को मारें।

अपने भीतर क्षमा करने की आदत विकसित करें। क्षमा करने का यह मतलब नहीं है कि आप कमजोर बन जाएं और क्षमा करते समय खुद को लाचार समझें। क्षमा को मजबूरी के रूप में न लें। ध्यान रखिएगा, क्षमा वही लोग कर सकते हैं जो भीतर से बहुत मजबूत होते हैं। प्रयोग करें, जिन परिस्थितियों में आप सामने वाले पर क्रोधित हो सकते हैं, उसकी गलती पर आवेश व्यक्त कर सकते हैं, उन परिस्थितियों में क्षमा कर दें। क्षमा एक टाइम गेप है। इस दौरान आप स्वयं का और सामने वाले का मूल्यांकन कर पाएंगे। उसकी जिस गलती पर गुस्सा आया था, उसे आप दूसरे रचनात्मक तरीके से दूर कर पाएंगे। क्षमा करके आप एक अच्छा व्यवसाय कर रहे हैं। नुकसान कोई नहीं उठाना चाहता। सामने वाला क्रोध करके नुकसान उठा चुका है। आप क्षमा करके फायदा उठा रहे हैं। क्षमा करने की आदत आपके भीतर बड़प्पन लाएगी और बड़प्पन में बहुत बड़ा संतोष है।

हृदय पर ध्यान से व्यक्तित्व में संतुलन
पागल कोई नहीं होना चाहता। किसी स्वस्थ व्यक्ति को पागल कह दो तो वह गाली ही मानेगा। जो सचमुच विक्षिप्त है, वह व्यक्त नहीं कर पाता कि इस अवस्था में होता क्या है। विज्ञान से पूछो तो वह कहेगा कि शरीर में हार्मोनल बैलेंस बिगड़ गया है। अध्यात्म नए दृष्टिकोण के साथ कहता है कि दो तरह के पागलपन हैं - एक स्थायी, दूसरा अस्थायी। स्थायी वालों की तो भगवान ही जाने, लेकिन क्रोध को अस्थायी पागलपन कहा गया है।

मतलब लगभग 99 प्रतिशत आबादी आधी पागल है। कौन, कब फट पड़े भरोसा नहीं होता। क्रोध का अघोषित स्वर है मैं सही हूं, दूसरा गलत है। इसकी शुरुआत ही इस विचार से होती है।  गुस्सा हमारी प्राण ऊर्जा को खा जाता है। चिकित्सक कहते हैं क्रोध आने पर हाइड्रोक्लोरिक एसिड बढ़ जाता है। यह एसिड गरिष्ठ भोजन पचाने में काम आता है, लेकिन इसकी जरूरत से ज्यादा मात्रा शरीर को भीतर से नुकसान पहुंचाती है। ब्लड प्रेशर, हाईपरटेंशन, डायबिटीज ये सब इसके परिणाम बताए जाते हैं। क्रोध अपने साथ चिंता लेकर चलता है।

चलिए, इसका आध्यात्मिक इलाज पकड़ते हैं। क्रोध में हम अपने से हटकर दूसरे पर केंद्रित हो जाते हैं। जैसे ही क्रोध आए आप स्वयं पर टिकना शुरू कर दें। थोड़ी देर आंख बंद करके अपने अनाहत चक्र यानी हृदय के स्थान पर भाव केंद्रित करें। जल्दी ही लगेगा कि यह केंद्र आपके क्रोध को गला रहा है। यह व्यक्तित्व में संतुलन लाता है और क्रोध के पागलपन से आगे भी बचाता है।

अपने बच्चों के साथ संयुक्त ध्यान करें
बहुत सारे लोग इस निजी समस्या से गुजरे होंगे और वह है हमारे माता-पिता के साथ लंबे समय रहते हुए उन दोनों के कौन-कौन से गुण-दोष अपनाए जाएं या छोड़े जाएं। चूंकि बाल मन ठीक से व्यक्त नहीं कर पाता कि यह भी एक समस्या है, क्योंकि लालन-पालन के दौर में उसका समूचा नियंत्रण माता-पिता के हाथ में होता है। अत: मानसिक रूप से वह स्वतंत्र नहीं रह पाता कि यह तय कर सके कि कितना अच्छा मां से लेना है और कितना बुरा पिता का छोड़ देना है।

माता-पिता पहले पति-पत्नी होते हैं और उससे पहले स्त्री-पुरुष रहते हैं, जो दो अलग-अलग परंपराओं से आए हुए हैं। तो बच्चे तक लालन-पालन के दौरान जो हालात आए हैं वे दो विपरीत दिशाओं से आए हैं। चूंकि लालन-पालन में बच्चा सबकुछ बाहर देखता है। जैसे पिता रोज-रोज की दिनचर्या में कम डांटते हैं। मां की रोक-टोक अधिक है। इस मामले में पिता अच्छे लगते हैं।

कहीं स्वतंत्रता देने के मामले में मां अच्छी लगने लगती है। एक बाल मन सिर्फ अच्छा और बुरा देखता है, सही-गलत नहीं। इसलिए माता-पिता को अपने बच्चों के साथ संयुक्त मेडिटेशन करना चाहिए। ध्यान करते समय बच्चों को जितना नाभि पर टिकाएंगे वे अपनी मां के मूल स्वरूप से जुड़ेंगे और जितना दोनों भौहों के बीच आज्ञा चक्र पर टिकाएंगे, वे पिता से जुड़ेंगे। यही माता-पिता का मूल स्वरूप है, जो अत्यधिक पवित्र है, प्रेमपूर्ण है, वह उनको मिलेगा। फिर ऐसे बच्चे उम्र के हर पड़ाव में अपने माता-पिता से जुड़े रहेंगे।

योजना हो तो कदम व्यावहारिक होंगे
बिना योजना के कोई काम न करें। प्रबंधन के इस युग में यह आदर्श वाक्य है। जैसे नक्शे के भीतर स्थान, दूरी, दिशाएं सबकुछ होता है वैसे ही योजना में इन सबको मिलाकर एक पूरी रणनीति होती है। यदि आप योजनाबद्ध तरीके से काम करते हैं तो आपको हर व्यक्ति स्वीकार करेगा। योजना बनाने की क्षमता आपके व्यक्तित्व में एक आकर्षण पैदा करेगी। योजना अपने आप में एक औजार है। या कहें कि ऐसी मास्टर चाबी जो हर ताला खोल सकती है।

सुंदरकांड समापन पर तुलसीदासजी ने चार पंक्तियों का एक छंद लिखा है। इसकी प्रथम पंक्ति है, 'निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ।' इसमें दो बातें हैं। समुद्र रामजी को एक सलाह देकर अपने घर चला गया और श्रीरामजी को उसका यह मत यानी सलाह बहुत अच्छी लगी। यह सलाह ही समुद्र द्वारा दी गई योजना थी। उसने श्रीराम को बताया था आपकी सेना में नल और नील नाम के वानर हैं। उनसे समुद्र के ऊपर सेतु निर्माण कराइए। चूंकि समुद्र के पास योजना थी तो श्रीराम को उसका मत अच्छा लगा। योजना आपकी गति को नियंत्रित बनाती है, क्योंकि लक्ष्य तक पहुंचने की गति तो आपको करनी ही है। किंतु यदि आप योजनाबद्ध हैं तो आपका हर कदम संतुलित, तार्किक और व्यावहारिक होगा। योजना बताती है कि आपने विचार भी किया है और आप में विचार को काम में बदलने की अक्ल भी है। इसलिए अपने आप को योजनाबद्ध रखें ताकि आप दूसरों के लिए हमेशा उपयोगी साबित हों।

असीम सुख का स्रोत है आत्मा
सभी लोग चाहते हैं भरपूर मिले। सीमा में कोई रहना ही नहीं चाहता। धन भी मिले तो असीम। प्रेम चाहते हैं तो भी खूब ज्यादा। अधिक और अधिक की आकांक्षा का यह समय चल रहा है। छोटे-मोटे में किसी को संतोष ही नहीं है। फिर जब अधिक मिलता नहीं है तो निराशा शुरू हो जाती है, क्योंकि सबकी अपनी  सीमा है। प्रयासों को कम मत करिए। अधिक से अधिक पाने के लिए ही करिए। अधिक से अधिक का अर्थ है शतप्रतिशत। शतप्रतिशत का व्यावहारिक अर्थ सेमिनार, वर्कशॉप, मीटिंग में समझाया जाता है, लेकिन क्या कभी शतप्रतिशत का स्वाद चखा है।

आइए, इसे आध्यात्मिक दृष्टिकोण से समझें। हम तीन बातों से बने हैं - शरीर, मन और आत्मा। चूंकि अधिक से अधिक पाने का जरिया शरीर है और हम इसे शरीर से जोड़कर ही चलते हैं, लेकिन शरीर सीमाओं में बंधा है। चाहे मामला भोजन का हो, वासनाओं का हो, परिश्रम का हो या नींद का। एक मुकाम के बाद शरीर रुक ही जाएगा। किंतु इस शरीर के भीतर जो आत्मा है उसकी कोई सीमा नहीं है। उसका हर सुख अनंत है। उसमें सबकुछ विराट है। इसलिए अपने जीवन में कुछ समय आत्मा पर जरूर टिकें, तब आपको समझ में आएगा कि असीम क्या होता है, शतप्रतिशत क्या होता है। सुख में सौ का गुणा क्या होता है। आत्मा कभी थकाएगी भी नहीं, बल्कि इसकी सीमाएं हर बार और आनंद को बढ़ाती है, क्योंकि यह उस विराट परमात्मा का हिस्सा है। इसलिए शरीर के साथ-साथ इससे भी जुड़े रहिए।

माता-पिता के प्रति आभार का भाव हो
कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जिन्हें वर्तमान में समझा नहीं जा सकता। समय बीतने के साथ ही आपको वो रिश्ते समझ में आते हैं। खासतौर पर माता-पिता का रिश्ता ऐसा ही होता है। जब हम कुछ नहीं जानते तो हमारे जीवन में ये दो सूरतें आती हैं। हो सकता है यह रिश्ता व्यस्त पुरुष व तनावग्रस्त स्त्री के रूप में आए। एक चिड़चिड़ा आदमी और प्रेमपूर्ण औरत की शक्ल में आए या  संभव है दोनों का संयुक्त प्रेम मिले या दोनों का संयुक्त तनाव हमारे लालन-पालन को झुलसा रहा हो। फिर हम बड़े हो जाते हैं। अब हमारा अपना नियंत्रण आरंभ हुआ। हम अपने फैसले खुद लेते हैं। जो कॅरिअर या लाइफ हमारी बनी है, उसके निर्माण के पुराने दृश्य कभी-कभी हमारे सामने आते हैं। जो कुछ अच्छा उन्होंने हमारे साथ किया होगा, अच्छी संतानें हमेशा इसका आभार व्यक्त करती हैं और करना भी चाहिए।

लेकिन माता-पिता भी मनुष्य हैं। कुछ उन्होंने ऐसा भी किया होगा जो हमें अच्छा नहीं लगा होगा। उनके इस दोषपूर्ण आचरण के लिए अब हमें क्या करना चाहिए? एक काम करिए, क्षमा भाव रखिए। यहीं से आदर भाव का जन्म होगा, जो दिखावटी नहीं होगा। नई पीढ़ी के बच्चे तो इतने मुंहफट हैं कि मां-बाप के मुंह पर कह देते हैं कि आपने हमारे लिए यह गलत किया था। इसलिए ऐसे बच्चों में इस क्षमा-भाव को जगाना होगा। जो लोग आपको दुनिया में लाए हैं उनके प्रति तो जितना आभार व्यक्त करें कम है, लेकिन क्षमा- भाव से करेंगे तो इस आदर में पवित्रता आ जाएगी।

प्रेम का परिणाम खुशी होना चाहिए
प्रेम में विरह का बड़ा महत्व बताया गया है। आंकड़े बताते हैं कि प्रेम करने वाले लोग इतिहास में दुखी पाए गए। दुखांत वाली प्रेम कहानियां खूब चलीं। ऐसा उन लोगों के साथ ज्यादा हुआ, जिन्होंने प्रेम का मतलब ठीक से नहीं समझा। प्रेम करने वाला यदि दुखी हो जाए तो इसका मतलब है प्रेम में कहीं न कहीं अति आग्रह और अहंकार था। इसीलिए हमारे शास्त्रों ने प्रेम को प्रार्थना और भक्ति से जोड़ा है। भक्ति का आधार हो, प्रार्थना की क्रिया हो तो उसका सही परिणाम प्रेम आएगा। जिसके जीवन में प्रेम है उसके जीवन में प्रसन्नता आनी ही चाहिए। प्रेम करने वाले लोग खुद भी खुश रहते हैं और दूसरों को भी खुश रखते हैं। प्रेमी बहुत आशावादी होता है। जिंदगी की चाल सीधी-सीधी नहीं होती। जिंदगी के रंग-ढंग बदलते रहते हैं। जो लोग जिंदगी के मामले में बहुत ज्यादा तय करके चलते हैं, वे परेशान भी ज्यादा होते हैं। प्र्रेमी व्यक्ति इस मामले मेें सुखी रहेगा। प्रेम यानी सबकुछ प्रसन्नता से स्वीकार करना। यदि आप प्रेम से सराबोर हैं, तो आपका सान्निध्य ही व्यक्ति का हृदय परिवर्तन कर देगा। प्रेमी के पास तीन चीजें होती हैं - आत्मविश्वास, ऊर्जा और उत्साह।

यदि आप अपने को प्रेमपूर्ण बनाना चाहें तो शुरुआत यहां से करें कि हम स्वयं तो प्रसन्न रहेंगे ही, अपने साथ के लोगों को भी खुश रखेंगे। जिंदगी है तो तनाव-दबाव आएंगे ही, पर लोगों को अपनी इस परेशानी के बोझ तले नहीं दबाएंगे। खुश रहें और खुश रखें, यह प्रेम का परिणाम होना चाहिए।

शिव-पार्वती दाम्पत्य के दिव्य उदाहरण
प्राय: पति-पत्नी में चर्चा के दौरान मतभेद हो जाते हैं। दोनों के बीच में एकांत सर्वाधिक घटता है और इसीलिए एकांत में अधिकांश जोड़े अमर्यादित हो जाते हैं। दोनों की ही वाणी में अहंकार और आवेश समा जाता है। फिर धीरे-धीरे इसके परिणाम सार्वजनिक हो जाते हैं। बोलचाल की भाषा में इसी को कलह कहेंगे। आज महेश जयंती है। माहेश्वरी समाज इसे अपना उत्पत्ति दिवस मानता है। इस तिथि का संबंध शंकर और पार्वतीजी के दाम्पत्य में हुई एक विशेष चर्चा से है। दोनों की आपसी चर्चा बड़ी अर्थपूर्ण रही है।

इन पति-पत्नी का वैचारिक स्तर अद्भुत रहा है। ऐसा भी नहीं है कि खटपट इनके बीच न हुई हो, लेकिन इन्होंने अपने जीवन की हर गतिविधि को महत्वपूर्ण निर्णय से जोड़ा है। एक कथा है कि राक्षसों से परेशान होकर देवताओं की ओर से ब्रह्माजी ने शिवजी से कहा, 'आप एकांत में पार्वतीजी की निंदा करें तो वे नया स्वरूप लेंगी और शुंभ, नि:शुंभ नामक दो दैत्यों को मारेंगी।' शिवजी ने एकांत में पार्वतीजी से कहा, 'तुम काली हो। थोड़े रोष के साथ पार्वतीजी कहने लगीं, 'पति आलोचना करे तो जीवन बेकार है। अब मैं इस वर्ण को त्यागकर दूसरा ग्रहण करूंगी। तब शिव बोले, 'मेरे मनोविनोद का भाव आपको भविष्य में समझ में आएगा।' और पार्वतीजी तपस्या करके काली त्वचा उतारकर गौरी के रूप में आईं। आज महेश जयंती के दिन दाम्पत्य को दिव्य बनाने के सूत्र शिव-पार्वती से लिए जाने चाहिए। इसी में परिवार और राष्ट्र की शांति छिपी है।

ध्यान से जागती है पढऩे में रुचि
बच्चों को पढ़ाई से डर क्यों लगता है? जिन्हें डर नहीं लगता उन्हें अरुचि होती है। कम बच्चे होते हैं जो स्वेच्छा से, समझ से, स्वयं पढ़ाई कर लेते हैं। माता-पिता दबाव बनाते हैं तब कोई बच्चा पढ़ाई करता है। शिक्षा को जब तक बाहरी दृष्टि से देखा जाएगा, ऐसा ही होगा। बच्चों को पढ़ाई-लिखाई से जोडऩे के लिए माता-पिता जितनी भी तकनीकें अपनाते हैं वे सब सांसारिक हैं। कॅरिअर ओरिएंटेड है, लाइफ ओरिएंटेड नहीं। चूंकि विद्यार्थी शिक्षा से अधूरे ढंग से जुड़ा है, इसलिए उसमें अरुचि और भय जाग जाता है।

विद्यार्थी को मस्तिष्क का सर्वाधिक उपयोग करना है, लेकिन उसका मन कहीं और भागता है। मन को काबू में लाकर मस्तिष्क को पढ़ाई से जोडऩा होगा, इसलिए बच्चों को सिखाया जाए कि जब वे पढऩे बैठें तो उनका पूरा शरीर पढऩे बैठे। इसके लिए परिवार में संयुक्त रूप से प्राणायाम, ध्यान कराना चाहिए। जो माता-पिता अपने बच्चों को पढऩे  बैठने से पहले प्राणायाम के लिए प्रेरित करेंगे, वे बच्चे पढ़ाई के दौरान समग्र रूप से डूबे रहेंगे। उनके शरीर की एक-एक कोशिका पढ़ाई में डूब जाएगी। ऐसे समय मस्तिष्क किसी भी विषय को आसानी से स्वीकार करता है। यहीं से मैमोरी लेवल हाई हो जाता है। इसको कहते हैं विद्या अध्ययन में गहरे उतरना। ऐसा इसलिए हो सकेगा, क्योंकि वह विद्यार्थी थोड़ी देर पहले प्राणायाम और ध्यान से गुजरा है, जिसमें यह सिखाया जाता है जो करो, जमकर करो। और यहीं से विद्या बोझ नहीं बनेगी, भय पैदा नहीं करेगी।

सही राह दिखाता है अवतारों का चरित्र
जीवन में हर मनुष्य कभी न कभी भटक जाता है। कुछ स्वेच्छा से भटकते हैं और कुछ को दूसरे भटका देते हैं। कुछ लोग स्वीकार करते हैं कि वे भटक गए थे तो कुछ मानते नहीं कि उन्होंने गलत रास्ता अपना लिया है। माना जाता है कि भटकने के लिए अंधकार चाहिए, लेकिन गलत मार्गदर्शन मिलने पर भी आदमी भटक जाता है। ये सारी बातें बाहर के भटकाव की हैं। मनुष्य के भीतर भी भटकाव होता है। इसे भ्रम या डिप्रेशन भी कहते हैं।

सुंदरकांड के समापन के दौर में समुद्र श्रीराम से प्रभावित होकर समर्पण कर चुका था। तुलसीदासजी अंतिम छंद में सुंदरकांड का माहात्म्य बता रहे हैं। दूसरी पंक्ति में वे लिखते हैं, 'यह चरित कलि मलहर जथामति दास तुलसी गायऊ।' यानी यह चरित्र कलियुग के पापों को हरने वाला है, इसे तुलसीदास ने अपनी बुद्धि के अनुसार गाया है। इशारा यह है कि सुंदरकांड में श्रीराम और हनुमानजी का जो चरित्र व्यक्त किया गया है वह कलियुग के पापों को मिटाने वाला है। भटककर जब आदमी गलत काम करता है तो उसे ईश्वर अवतार का चरित्र सही राह दिखाता है। इसीलिए ईश्वर की दिव्य शक्ति हमारे लिए नाव, दीपक और होश का काम करती है। नाव सही राह पर ले जाती है, दीपक से रोशनी प्राप्त होती है और होश में आने पर स्मृति ठीक रहती है। मनुष्य बहुत कुछ भूल गया है। उसने अपने भीतर अपना दीपक बुझा दिया है और इसीलिए भटका हुआ है। सुंदरकांड की एक-एक पंक्ति जीवन के मार्गदर्शन का संकेत है, जिसे तुलसीदासजी ने अपनी भक्त बुद्धि से गाकर हमको समझाया है।

दूसरों की निजता का सम्मान करें
सार्वजनिक जीवन में हमारे अनेक लोगों से संबंध बनते-बिगड़ते रहते हैं। अकारण संसार में कुछ भी नहीं होता। ध्यान रखिएगा जब भी आप किसी के संपर्क में आएं और यदि संबंधों को लंबी जिंदगी देना चाहें तो उनकी कुछ बातों के प्रति सजग हो जाएं। हरेक के भीतर उसकी अपनी ईमानदारी, करुणा, निजता, सभ्यता, विनम्रता और सम्मान होता है। इसे कोई नहीं खोना चाहता। एक तरह से यह उसका सुरक्षित दायरा होता है। लोग इसमें दूसरों का प्रवेश पसंद नहीं करते। दूसरों के इस क्षेत्र में प्रवेश करने की हमारी आदत बन जाती है। हमें रस आने लगता है और यहीं से संबंध बिगड़ते हैं।

आप उनकी इस निजता का सम्मान करिए। संबंध कभी नहीं बिगड़ेंगे। कोई अपने द्वार क्यों खोलेगा। आपके पास ऐसा क्या है कि वह अपनी निजता आपके सामने उजागर करे या आपको अनुमति दे कि आप उसमें आ सकें। आपकी एक ही विशेषता उसमें प्रवेश करा सकती है और वह है आपका प्रेमपूर्ण होना। हर वस्तु अपनी ही जैसी वस्तु को जन्म देने की क्षमता रखती है। भौतिक संपत्ति बांटने से कम होती है, लेकिन एक आध्यात्मिक संपत्ति ऐसी है जो बांटने से और बढ़ जाती है, उसका नाम है प्रेम। आप प्रेमपूर्ण हुए तो दूसरों पर प्रेम ही लुटाएंगे और प्रेम की दस्तक होने पर किसी के भी भीतर की निजता के सभी पहलू द्वार खोलने के लिए एकसाथ उठ खड़े हुए होंगे। प्रेमपूर्ण व्यक्ति का अपनी निजता के क्षेत्र में सभी स्वागत करते हैं और यदि आप प्रेमपूर्ण नहीं हैं, तो कम से कम दूसरों की निजता के लिए सम्मान से भरे जरूर रहें।

बच्चों को 'ना' कहें तो उस पर दृढ़ रहें
बच्चों और माता-पिता के बीच में कई बातों का संबंध होता है। उनमें से दो बातें इस संबंध को बहुत प्रभावित करती हैं और वे हैं हां या ना कहना। बच्चों की किसी भी मांग पर हां या ना कहने में बहुत ज्यादा सावधानी रखें, क्योंकि ये दो छोटे से शब्द भविष्य निर्माण की नींव हैं। बच्चों का लालन-पालन अनुशासन, समर्थन, प्रोत्साहन और अपनापन मांगता है। बालमन के पास परिपक्व विवेक नहीं होता।

इसलिए माता-पिता द्वारा किए जा रहे हां और ना का अर्थ नहीं समझ पाता। आप अपने इस हां-ना के निर्णय को उसे ठीक से समझाएं। यदि आप 'ना' कर रहे हैं तो सबसे पहले खुद पर पूरा भरोसा रखें। सोच-समझकर 'ना' कहें और फिर इस पर दृढ़ता से टिकें, क्योंकि बच्चे आपकी 'ना' पर अपनी जिद के हथियार फेंकेंगे। और यदि आपने किए हुए 'ना' को ढीला किया तो बच्चे इस खेल में माहिर हो जाएंगे।

जब 'ना' कर रहे हों तो अपने आपको थोड़ा-सा अपने अतीत में ले जाएं और विचार करें कि ऐसी स्थितियां जब आपके साथ बनी थीं, तब आपने क्या किया था। क्योंकि इस 'ना' में अनुशासन की घोषणा है। यदि अनुशासन का धागा एक बार टूटा, तो फिर गांठ भी नहीं लगेगी। इसी तरह 'हां' करते समय भविष्य पर दृष्टि डालें। हर 'हां' में एक सीख छिपी होनी चाहिए। क्योंकि बच्चों के सपनों पर आपकी 'ना' और आपकी 'हां' की पुचकार पड़ती है। 'ना' करने पर उनके आवेश को और 'हां' करने पर उनके उत्साह पर गहरी नजर रखें, क्योंकि ये दो शब्द अपने आप में मार्गदर्शन, प्रोत्साहन और भविष्य समेटे हुए हैं।

असफलता के लिए भी तैयार रहें
सफलता की ललक ने अच्छे-अच्छों को बेताब कर दिया है। फिर सफलता के साथ 'लगातार' शब्द और जुड़ गया है। निरंतर सफल रहने का नशा जब चढ़ता है तो मनुष्य कुछ बातें भूल जाता है। उसमें से एक यह है कि जब कभी असफल होना पड़े, तब क्या करेंगे। ऐसे लोगों की असफलता उन्हें तोड़ देती है। वे या तो गुस्से में आकर दूसरों को दोष देने लगते हैं या डिप्रेशन में डूबकर खुद का नुकसान करते हैं। सफलता के लिए खूब तैयारी करिए, पर थोड़ी बहुत तैयारी असफलता प्राप्त होने पर क्या करें इसकी भी करते रहिए। इसमें आध्यात्मिक दृष्टिकोण मददगार होगा।

अध्यात्म में समर्पण को महत्व दिया गया है। जब असफलता हाथ लगे तो थोड़ी देर के लिए समर्पित हो जाइए। अपनी महत्वाकांक्षा को समाप्त नहीं करना है, विश्राम देना है। हो सकता है आपके प्रतिद्वंद्वी इस स्थिति का लाभ उठाएं, पर उन्हें नहीं मालूम कि आप इस विश्राम में उनसे भी ज्यादा लाभ उठा रहे हैं। हरेक के भीतर एक सूरज है। जब हम सफलता की यात्रा पर निकलते हैं, तो हम ही उस सूरज को अपनी तीव्रता के बादल से ढंक देते हैं। जैसे बाहर का सूरज उगता है न, ऐसे ही भीतर भी एक सूरज उगाना पड़ता है। थोड़ा सा फर्क है कि भीतर का सूरज उगा ही हुआ है, बस उसके बादल छांटना है। यह घटना समर्पण के दौरान बड़ी आसानी से घटती है। थोड़ी देर स्वयं पर टिकेंगे तो आपके भीतर की विशेषताएं अपने आप अंगड़ाई लेने लगेंगी। और फिर आप तैयार हैं सफलता प्राप्त करने की अगली यात्रा के लिए।

हृदय केंद्रित रहने में जीवन की मस्ती
दूसरे हमारी ओर ध्यान दें, हमारी उपस्थिति को महत्व दिया जाए, हम हाशिये पर न पटक दिए जाएं,
इसके लिए इन दिनों बड़े दाव-पेंच चले जाते हैं। सभी अपनी पर्सनलिटी का प्रोजेक्शन चाहते हैं। व्यक्तित्व में विविधता आ जाए, इसके लिए प्रशिक्षण दिया जाता है। कई लोग तो अपने आपको स्थापित करने के लिए जरूरत से ज्यादा बोलते हैं। कुछ हरकतें करके अपनी मौजूदगी स्थापित करते हैं। लेकिन यह जरूरी नहीं है कि हर जगह आपकी मौजूदगी को ही महत्व दिया जाए। ये सब अहंकार की अंगड़ाइयां हैं। कुछ समय अपने आपको दृश्य से हटाना भी सीखिए। एक निश्चित दूरी जरूर बनाए रखिए। जरूरी नहीं है कि आप हमेशा चर्चा का विषय बने रहें, लेकिन इसमें भी बड़ा आकर्षण होता है। लोग इसका मोह छोड़ नहीं पाते, लेकिन इसकी आदत पड़ जाए तो मनुष्य के हाथ लोकप्रियता लगे या न लगे, अशांति जरूर मिल जाती है। एक आध्यात्मिक प्रयोग करते रहिए। आप अनुपस्थित रहकर भी उपस्थित रह सकेंगे और उपस्थिति को भी अनुपस्थिति बना सकेंगे।

इसे भीतरी मौन कहेंगे। जब आप भीतर खामोश होना शुरू होते हैं, तब ऐसा करना आसान है। प्रतिदिन थोड़ा समय मस्तिष्क शून्य हो जाइए। जो मस्तिष्क पर अधिक टिकते हैं, उन्हें अपने महत्व की ज्यादा फिक्र होती है। जैसे ही आपका मस्तिष्क शून्य होगा आप अपने आप हृदय पर टिकने लगेंगे और हृदय केंद्रित व्यक्तित्व इस बात की परवाह नहीं करता कि उसे बाहर से दूसरे महत्व दे रहे हैं या नहीं। वह सबके बीच रहकर भी अपनी मस्ती को जी सकेगा।

बुरे कर्म से बोझ बनती है जीवन यात्रा
किया हुआ व्यर्थ नहीं जाता। आप जो भी करेंगे उसका प्रभाव आप पर भी पड़ेगा। इसलिए जो भी करें सोच-समझकर करें। आदमी आजकल बहुत तेजी में है इसलिए करते समय सोचता कम है। कुछ तो मानते हैं कि सोचने से भी रफ्तार पर असर पड़ेगा। कर्म के मामले में हम रसोइये की तरह होते हैं। जैसे रसोइया अन्न से भोजन बनाता है, ऐसे ही हम कर्म से जीवन बनाते हैं। रसोई अन्न से ज्यादा खाना बनाने वाले की कला पर निर्भर होती है। अलग-अलग हाथ भोजन के स्वाद को बदल देते हैं। संसार में कर्म हमेशा रहा है और रहेगा, लेकिन करने वाले की नीयत और प्रकृति उसी कर्म को पूजा बना सकती है और अपराध भी। अच्छे काम का परिणाम अच्छा होगा ही। ठीक उसी जगह परिणाम मिलेगा यह जरूरी नहीं है। अच्छे कर्मों का बीज जहां बोया जाता है वहीं नहीं उगता। बीज इस धरती पर बोएंगे, पेड़ किसी दूसरी जगह उगेगा, लेकिन उगेगा जरूर और उसका फल भी आप तक पहुंचेगा। अच्छे कर्म जीवन यात्रा का फासला कम कर देते हैं। जब हमारा जन्म होता है उसी समय मृत्यु भी निश्चित हो चुकी होती है।

दोनों में बहुत फासला नहीं होता। आप आए और गए, लगभग ऐसी स्थिति जीवन-मरण के साथ है। इसके बीच की दूरी हरेक अपने-अपने हिसाब से महसूस करता है। अच्छे काम करने वालों की दूरी आनंद में बीत जाती है और बुरे काम करने वालों के लिए यह यात्रा बोझ बन जाती है। इसलिए कर्म के मामले में भी न भूलें कि किया हुआ लौटकर जरूर आएगा। अच्छा करें और अच्छा ही वापस लें।

अहंकार रहित वाणी में होता है सत्य
किसी बात को प्रस्तुत करने में केवल शब्द शिल्प ही काम नहीं आता। आज का समय सुंदर प्रस्तुति का समय है। किसी व्यक्ति, स्थान, स्थिति का वर्णन करते समय अपनी पूरी कल्पनाशक्ति उसमें लगा दें। आपकी वाणी में उपन्यासकार और नाटककार दोनों उतरने चाहिए। ध्यान रखिए इस समय लोग अच्छा सुनने के लिए तरस रहे हैं। आपकी कल्पनाशीलता, वाणी की मिठास, विचारों की शृंखला, शब्दों का चयन आपके व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाएगा। यह अभ्यास इसलिए भी करिए कि जब कभी सत्य को, सही बात को व्यक्त करना है तो वह प्रभावशाली ढंग से स्थापित हो सके।

आज बोलने में वे लोग ज्यादा पारंगत हैं जिनके पास झूठ है। इसीलिए सत्य हमेशा प्रभावशाली वाणी की तलाश में रहता है। जो लोग दिल से बोलने वाले वक्ता बनना चाहें, उन्हें एक आध्यात्मिक प्रयोग से गुजरना होगा। जब भी हम कुछ कहते हैं हमारा अहंकार भीतर से उछाल मारकर उस बात में जुडऩे लगता है। 'मैं  इतना हावी हो जाता है कि सत्य खो जाता है। और इस 'मैं के कारण ही लोग विषय को गलत ढंग से प्रस्तुत करते हैं। अहंकार की बाधा मिटी, मैं गला तो सत्य अपने आप निकलकर आएगा। आपकी वाणी से अहंकार हटेगा और सत्य जुड़ जाएगा और यहीं से आप जो कह रहे हैं उसे लोग स्वत: सुनेंगे। सच्ची बात अच्छे ढंग से बोलने वाले लोग धीरे-धीरे कम होते जा रहे हैं। गंदी बात खूब जमा-सजाकर बोलने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। सत्य की सेवा करनी है तो अपनी वाक्शक्ति को परिष्कृत करिए।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...मनीष

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