Thursday, April 3, 2014

Jeene Ki Rah (जीने की राह)



जिंदगी में इंसानियत सबसे अच्छा धर्म
प्रसन्नता और शांति जिस भी कीमत पर मिले हमें हासिल कर लेनी चाहिए। यह आदर्श वाक्य खूब कहा और सुना जाता है, लेकिन इसे घटते हुए देखना एक अलग ही अनुभव है। मेरी पाकिस्तान यात्रा में भागवत कथा का दूसरा दिन मन पर केंद्रित था। प्रमुख प्रसंग कृष्ण जन्म का था। पाकिस्तान के घोटकी जिले के हयातपिताफी नामक कस्बे में शादाणी दरबार में कथा हो रही थी। हजारों हिंदू कृष्ण जन्म पर खूब मस्त थे और उस आनंद में मुस्लिम भाई भी डूबे थे। उन्होंने कहा कि किशन नाम के पात्र से हमने यह जाना कि बड़े से बड़े संघर्ष में भी भीतर का अमन, चैन खत्म नहीं करना चाहिए। जिसे हम हिंदू आनंद कहते हैं उसे मुझे कुछ मुस्लिमों ने खालिस खुशी बताया। उनका कहना था इसकी खोज तो हम भी कर रहे हैं।

परेशानियों का निपटारा करने का जो रूहानी अंदाज कथा में था उसमें मजहब कहां आड़े आता है। किशन जैसी संतान कौन मां-बाप नहीं चाहते। कृष्ण चरित्र ने यह बताया कि दूसरों के हित के लिए कैसे जिया जाए। मन इसमें बड़ी बाधा है। मनुष्य का मन विचारों का भोजन करके इतना सक्रिय हो जाता है कि वह शांत रहने ही नहीं देता। मन न हिंदू है, न मुसलमान। वासनाओं के मामले में, 'मैं यानी अहंकार के हिसाब में मन मजहब नहीं देखता। वह सबको समान रूप से बर्बाद करता है। मन के नियंत्रण के बाद जो खालिस खुशी मिलती है उसे प्राप्त करने के लिए कोई भी समझदार व्यक्ति किसी विशेष धर्म के बंधन में नहीं बंधना चाहेगा। जिंदगी को सबसे अच्छा धर्म लगता है इंसानियत का और भागवत का यही संदेश है।

भागवत से खिलता है जीवन का फूल
जन्म जिसका हुआ है उसकी मौत जरूर आएगी। केवल जन्म लेने से हमें मनुष्यता का गौरव नहीं मिल जाता। जन्म तो जानवर का भी होता है। जन्म को जीवन में बदलने की संभावना ऊपर वाले ने मनुष्य को दी है और इसीलिए मनुष्य जानवर से श्रेष्ठ है। जन्म-मृत्यु के बीच यदि जीवन न घटे तो हम में और जानवर में फर्क ही क्या रहेगा। मेरी पाकिस्तान यात्रा की भागवत कथा का तीसरा और अंतिम दिन आत्मा पर केंद्रित था। जो शरीर और मन को पार करके आत्मा तक पहुंचेंगे वे मृत्यु की कला सीख जाएंगे। पाकिस्तान के हजारों लोग इस बात से सहमत थे कि भारतीय संस्कृति के पास चार प्रमुख ग्रंथ हैं - महाभारत रहना सिखाती है, गीता करना सिखाती है, रामायण जीना सिखाती है और भागवत मरना सिखाती है। उस दिन हयातपीताफी में लोग मरने की कला सीख रहे थे भागवत कथा से।

भागवत के अंतिम प्रसंगों में मृत्यु जब जीवन में प्रवेश की घोषणा करती है, तब इंसान अपना मजहब भूल जाता है, क्योंकि मौत इस सीमा को नहीं मानती। कथा के बाद मुझे अनेक मुस्लिम भाइयों ने कहा कि आज महसूस हुआ कि रूह के नजदीक जाने पर जिदंगी के मायने ही बदल जाते हैं। हम जितना अपनी आत्मा के निकट होंगे, उतना ही अपने जीवन को होश में जी सकेंगे। जिंदगी खुद ही जीनी पड़ती है, दूसरों के कंधों पर तो शवयात्राएं निकला करती हैं। इसीलिए थोड़ा समय योग के माध्यम से अपनी आत्मा के पास बैठें और यहीं से हम स्वयं को जान लेते हैं। कोई भी देश हो भागवत के संदेश से जीवन का फूल तो एक जैसा ही खिलता है।

जीवन के नियंत्रण में शांति की कुंजी
दिनभर हम केवल व्यक्तियों में नहीं उलझे रहते, बल्कि घटनाओं से भी घिरे रहते हैं। व्यक्तियों को तो फिर भी नियंत्रित किया जा सकता है, लेकिन घटनाओं के मामले में हम बेबस हो जाते हैं। कई घटनाएं बिना दिखे भी घट जाती हैं। अनुभूति के स्तर पर आप उससे परिचित होते हैं। घटनाओं पर नियंत्रण पाने के लिए तीन काम कीजिए। उसके रहस्य में प्रवेश करें। उसकी गति को पकडऩे का प्रयास करें और उसके पीछे के संदेश को समझें। जिन्होंने कभी नाटक देखा है वे समझ सकेंगे। लेखक और निर्देशक नाटक में जब घटनाएं पेश करता है तो होता सबकुछ पात्रों के माध्यम से है, लेकिन दर्शकों को पात्र से अधिक घटना प्रभावित करती है। अभिनय लाजवाब हो तो भले ही पात्र हावी हो जाए।

अच्छा निर्देशक एक-एक सीन की टाइमिंग पर पकड़ रखता है। बस, हमें भी यही करना है। कहां दृश्य को धीमा करना है, कहां गति देनी है। कहां उसका सस्पेंस बनाए रखना है, कहां भीतर के संदेश को उजागर करना है। ऐसा थियेटर हम रोज अपने आसपास घटा सकते हैं। छोटा सा उदाहरण है। दृश्य को धीमा करने से जीवन में शांति आती है। खासतौर पर जब आप पूजा-पाठ कर रहे हों, मंत्र जप रहे हों तो अपने जीवन के दृश्यों को अत्यधिक धीमा कर दें। ऋषि-मुनियों ने कहा है मंत्र जप अत्यंत धीमी गति से होना चाहिए। एक-एक शब्द को अधिकतम धीमा कर दें। शांति उतनी ही गहन होगी। जब संसार में उतर रहे हों तो दृश्यों को गति दे दें। यह प्रयोग हमें अपने आसपास हो रही घटनाओं पर नियंत्रण करने में दक्ष बनाएगा।

सहजता ला देती है भीतर की अग्नि
बच्चों को बारीकी से देखिएगा कि जब वे कोई काम शुरू करते हैं तो पूरे उत्साह से करते हैं। उनकी प्रसन्नता बड़ी सहज होती है। खासतौर पर जब वे कोई खेल, खेल रहे होते हैं तो बच्चे सिर्फ खेलते हैं। उनकी बाल बुद्धि में जीत और हार हावी नहीं होती। जैसे ही वे बड़े होते हैं, जीत-हार का दबाव खेल का मूल मजा खराब करने लगता है। जब हम व्यावसायिक कार्यों में लगे हों तो अपने भीतर बालपन बचाए रखिएगा। यह सही है कि काम का परिणाम दबाव बनाता है, लेकिन जब अधिक दबाव में आ जाएं तो अपने भीतर के बच्चे को बाहर निकालें और परिणाम के प्रति बेफिक्र हो जाएं।

24 घंटे में थोड़ा बाल-सुलभ होकर अपने काम निपटाएं। आपका मन ऊबने से बचेगा। जिन लोगों ने कभी हवन-यज्ञ किया हो उन्हें ध्यान आएगा कि जब अग्नि बुझ जाती है तो उठता है धुआं। आंख, नाक और चमड़ी को परेशान करता है।  चेहरे पर कालिख सी जमने लगती है। सांस खांसी में बदलती है और आंखों में पानी आने लगता है। यहीं से यज्ञ में ऊब पैदा हो जाती है। तुरंत समझदार पुरोहित अग्नि प्रज्ज्वलित करने की व्यवस्था कर देता है और यजमान सामान्य होने लगते हैं।

जब हम कर्म-यज्ञ कर रहे होते हैं। दुनियादारी में दो पैसे कमाने के लिए जुटे हुए होते हैं, तब हमारे ही कर्मों का धुआं उठता है। अग्नि गायब हो जाती है। दूसरों के प्रति षड्यंत्र, ईष्र्या, अपना अहंकार हमें भीतर से कालिमा युक्त कर देता है। ऐसे में थोड़ी देर के लिए अपने भीतर का बालपन बाहर निकालें। यह बिलकुल ऐसा होगा कि अग्नि फिर प्रज्ज्वलित हो गई। आप सहज हो जाएंगे।

ऊर्जा का दुरुपयोग है क्रोध
हमारे शरीर में जितनी भी ऊर्जा है उसका हम सदुपयोग करें तो पूरा व्यक्तित्व निखर जाए। दुरुपयोग करें तो जीवन विकृत हो सकता है। इस ऊर्जा को अहंकार, क्रोध की ओर मोड़ा जा सकता है अथवा प्रेम और करुणा की ओर बहाया जा सकता है। ऊर्जा जब क्रोध से जुड़ती है तो पहले आंखों से टपकती है, फिर जुबान में उतरती है। ऊर्जा जब और बढ़ती है तो हाथों में उतरती है और आदमी पिटाई करने लगता है। ओवरफ्लो हो जाए तो आदमी लात चलाने लगता है। बहुत से लोग ऊर्जा का ऐसा उपयोग कर दूसरों को आकर्षित कर लेते हैं। मनुष्य का मनोविज्ञान ही ऐसा है कि वह विपरीत की ओर आकर्षित होता है।

लोग साधु-संतों के चरणों में प्रणाम करते हैं तो मामला केवल श्रद्धा का नहीं होता। उन्हें लगता है जो त्याग-तप हम नहीं कर पाए वो इन्होंने कर दिया। धार्मिक मेलों में कोई एक टांग पर खड़ा है तो किसी ने कांटों की शैया बना ली। लोग रुककर देखने लगते हैं, क्योंकि कुछ ऐसा किया जा रहा है जो सब नहीं कर सकते। क्रोध भी ऐसा ही प्रयोग है।

रावण के क्रोध में हमेशा ओवरफ्लो होता था। इसीलिए रावण बात-बात पर लात बहुत चलाता था। जनकसुता रघुनाथहि दीजे। एतना कहा मोर प्रभु कीजे।। जब तेहिं कहा देन बैदेही। चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही।। जानकीजी श्रीरघुनाथजी को दे दीजिए। हे प्रभु! इतना कहना मेरा कीजिए। जब विभीषण ने जानकीजी को देने के लिए कहा, तब दुष्ट रावण ने उसको लात मारी। ध्यान रखिएगा यदि हमारे भीतर क्रोध का ओव्हर फ्लो हो रहा हो तो समझ लें रावण बैठ चुका है।

निष्ठा में परिणाम का लालच नहीं होता
आजकल चापलूस होने को बुरा नहीं माना जाता। तलवे चाटने वाले लोग चूंकि कामयाब दिखते हैं इसलिए कई लोगों ने चापलूसी को योग्यता मान लिया है। चमचागिरी योग्य लोगों को हताश कर देती है। उन्हें लगता है की चापलूसों को योग्यता से अधिक मिल गया। यहीं से मनुष्य के भीतर निष्ठा और चापलूसी का संघर्ष शुरू हो जाता है। चापलूसी बाजीगरी है और निष्ठा जादू के समान है। बाजीगरी में हाथ की सफाई होती है। मामला सतही रहता है। जादू में सम्मोहन भी काम करता है, जो एक आंतरिक शक्ति है। यह सरलता से प्राप्त नहीं होती। इसके लिए आंतरिक परिश्रम करना पड़ता है।

आध्यात्मिक व्यक्ति हमेशा निष्ठा पर जोर देता है। हो सकता है आपकी निष्ठा को सांसारिक दृष्टि से देखकर उसे चापलूसी का नाम दे दिया जाए। अध्यात्म में चरण और चेहरे का बड़ा सुंदर फर्क देखा जाता है। पाश्चात्य ढंग से लोग चेहरे से प्रेम में उतरते हैं और हमारी संस्कृति कहती है चरणों से प्रेम में उतरा जाए। चेहरे से शुरू हुआ प्रेम नीचे गिरता है और चरण से जब प्रेम शुरू किया जाता है तो हम श्रद्धा के कारण उसे ऊपर चढ़ाते हैं और ऐसा प्रेम स्थायी होता है।  भारत में इसीलिए चरणों में झुककर प्रणाम करने की परंपरा है।

जब हम अध्यात्म से जुड़कर अपनी निष्ठा को किसी कार्य या व्यक्ति के प्रति रखेंगे तो हम चरणों से प्रवेश कर रहे होंगे। इसलिए अपनी निष्ठा पर अडिग रहिए। दूसरे भले ही उसे चापलूसी कहें, लेकिन आपकी अंतरात्मा जानती है कि आपकी निष्ठा कर्म में कर्तव्य देख रही है, परिणाम का लालच नहीं।

अच्छाइयां अपनाकर कमियां दूर करें
ऐसा कहते हैं सांप का विष तो काटने से चढ़ता है, लेकिन भोग-विलास और विषयों का विष केवल देखने से ही चढ़ जाता है। अगर विष केवल देखने से चढ़ता है तो विशेषता भी ऐसी ही होती है। यानी जैसे बुराई संगत से प्रवेश कर जाती है, ऐसे ही अच्छाई भी मेलजोल से आप में घुलमिल जाती है। इसलिए प्रयास करें कि हम अधिकांश मौकों पर दूसरों की विशेषताओं को अपने भीतर उतारें। पूर्ण कोई भी नहीं होता। अध्ययन करते रहें कि हमारे भीतर कौन-सी कमजोरियां हैं। कुछ कुदरती होती हैं तो कुछ कमजोरियां हम खुद ओढ़ लेते हैं। परमात्मा ने दोनों का निदान भी दिया है। आप अपनी कमी को साथियों की खूबियों से पूरा कर सकते हैं। इस भरपाई के लिए हमेशा योग्य व्यक्तियों की संगत में रहें।

कमजोरियों को दूर करने में कतई न हिचकें। संकोच और अहंकार आड़े आएंगे, लेकिन प्रयास करें कि अपनी कमी लंबे समय  भीतर न बनी रहे। किसी की योग्यता से अपनी कमी को दूर करना मुफ्त का सौदा है। इसे केवल देखकर भी पूरा कर सकते हैं। हो सकता है सामने वाला सहयोग न करे, लेकिन यदि आपकी तैयारी पूरी है तो वह अपनी अच्छाई को आपके भीतर उतरने से रोक नहीं सकेगा। अच्छाइयां भी तुरंत संक्रमित हो जाती हैं। ढूंढ़-ढूंढ़कर अच्छे लोगों की संगत में रहें। हम कोई अच्छा काम करें तो हमारी इच्छा होती है कि लोग हमें इसका श्रेय दें, लेकिन कई बार कुछ लोग श्रेय देने में कंजूस होते हैं। जब कभी ऐसा हो तो अपने को श्रेय न मिले तो उसकी पूर्ति दूसरों की अच्छाई से कर लें। यह फायदे का सौदा होगा।

ईश्वर से जुड़कर जीवन में जगाएं स्वाद
हर मनुष्य के भीतर एक आत्म रुचि होती है। वह उसी के अनुसार जीना चाहता है, लेकिन दुनिया में हमेशा ऐसा हो नहीं सकता। अधिकांश मौकों पर आपको दूसरों की मर्जी से चलना पड़ता है। चाहे नौकरी कर रहे हों या व्यवसाय। दूसरों की इच्छा के मुताबिक करना ही पड़ता है। ऐसे में कई बार हम आत्म रुचि को भूल जाते हैं। जब याद आती है तो स्थितियां ऐसी नहीं होती कि हम निज इच्छा के अनुसार कुछ कर सकें। फिर हमें अपने भीतर से आवाज सुनाई देने लगती है कि यह कैसा जीवन है। कब तक दूसरों के लिए करेंगे। अपने लिए तो कुछ कर ही नहीं पाए।

एक प्रयोग कीजिए अपनी आत्म रुचि को पूरा करने का मौका न मिले तो उसे परहित से जोड़ दीजिए। इस विचार को प्रबल कीजिए कि हम जो भी काम करें उसमें दूसरों का भला हो। इसके एवज में हमें कुछ मिले या न मिले तो फिक्र नहीं। फिर आपको आत्म रुचि पूरी करने जैसी तृप्ति मिलेगी। यदि लगे कि अपनी इच्छा का काम कर ही नहीं पाए और जीवन बीतता जा रहा है।

एक उदासी-सी आसपास छाई हुई है। बस, जिंदगी रस्सी हो गई और हम उससे बंधे घिसटते जा रहे हैं तो दूसरे स्तर पर परमात्मा से जुड़ जाएं। सभी धर्मों ने अपने ईश्वर होने के अलग-अलग प्रयोग किए जैसे ईश्वर के अवतार लेने की आख्यायिकाएं। केवल छिपे का सामना हो जाना ही अवतार है। जैसे ही आप परमात्मा के इस रूप से जुड़ते हैं आपका अकेलापन खत्म होने लगता है। आपकी आत्म रुचि को एक संगत और सहारा मिल जाता है और जीवन में स्वाद आने लगता है।

सत्ता में रहते स्वाध्याय आवश्यक
राजा महाराजा तो चले गए पर राज-सत्ता बनी हुई है। राज-सत्ता रहने तकराजा भी अलग-अलग रूप में रहेंगे ही। कभी राजवंश के सदस्य राजा हुआ करते थे अब राजनीतिक दलों के पदाधिकारी राजा हैं। राजपाठ को लेकर शास्त्रों में विस्तार से लिखा गया है। अग्नि पुराण और मत्स्य पुराण में तो राजा के कर्तव्यों पर बहुत ही अच्छा चिंतन व्यक्त हुआ है। मत्स्य पुराण में कहा है राजा के सिर पर मुकुट शोभा के लिए नहीं है। उसके कांटे अदृश्य हैं।

इसलिए राजा को सावधान रहना चाहिए। वह जितना स्वाध्याय प्रेमी होगा, उतना ही प्रजा हित के काम कर सकेगा। स्वाध्याय यानी स्वयं का अध्ययन। पहले राजा इसके लिए नियमित रूप से अपने गुरु के पास बैठा करते थे। आज के राजा स्वयं महागुरु हैं। समय के मामले में वे दरिद्र हैं। लूट और शोषण से फुर्सत मिले, तो स्वाध्याय करें। पुराणों में कहा है कि राजा को अपने सारे कर्म गोपनीय रखने चाहिए, लेकिन वे राजहित के निर्णय होने चाहिए, कुकर्म नहीं। चिंतन बगुले की तरह और पराक्रम शेर की तरह होना चाहिए।

पुराणों में कहा गया है कि प्रजा से राजा है। इसीलिए राजा की हर सांस प्रजा हित में होनी चाहिए। अब पुराण पढऩे का समय तो किसी के पास है नहीं। केवल सत्ता पर बैठने वाला व्यक्ति ही राजा नहीं है, परिवार का मुखिया भी राजा है। सच तो यह है कि हम अपनी इंद्रियों का जब उपयोग कर रहे हों, तब हम भी अपनी आंतरिक व्यवस्था के राजा हैं। राजा के भाव अभिव्यक्ति और कृत्य प्रजा के प्राण बन जाते हैं इसलिए जब जो राजा हो वह सही रास्ते पर चले।

अहंकार काबू में रखना समझदारी
अपनी अक्ल, पसंद-नापसंद और रुचि-अरुचि का जब अधिक प्रदर्शन किया जाता है तो इन्हें अहंकार में बदलने में देर नहीं लगती है। सार्वजनिक जीवन में यदि आगे बढऩा है तो इनको छुपाकर रखने में दिक्कत नहीं है। इनका स्थानांतरण दूसरे लोगों में किया जाए इसमें बुराई नहीं है। आज प्रतिस्पर्धा के समय में हर आदमी कुटिलता और अहंकार शस्त्रों की तरह लेकर चलता है। कुछ महत्वाकांक्षी लोग तो मानते हैं कि भले ही शस्त्र से हमें घाव लग जाए, लेकिन दूसरों पर प्रहार जरूर करेंगे। ऐसे समय जब आसपास सभी लोग आक्रमण की मुद्रा में हों, एक सावधानी रखें। वह यह कि दूसरों को अगर भ्रम हो कि वे हमसे ज्यादा समझदार हैं, हम कम अक्लमंद तो भी विचलित नहीं हों। उनकी यह गलतफहमी आपको सुविधाजनक मार्ग पर ले जाएगी।

ऐसे में हमें अपने अहंकार को दबाना पड़ता है, क्योंकि दुनिया में एक बड़ी बीमारी है खुद को ज्यादा समझदार समझना। जब हम दूसरों को अधिक अक्लमंद होने का मौका देते हैं तो यह सोच उन्हें हमारे मामले में शिथिल कर देती है। वे हमें कम से कम बाधा पहुंचाने की स्थिति में रहते हैं। यदि लंबा जाना है तो व्यर्थ का बोझ क्यों उठाएं। हर एक का चेहरा एक खुली किताब है, पढऩे की निगाह चाहिए। यदि कोई हमें नहीं पढ़ पा रहा है तो यह उसकी गलती है, लेकिन हम तो यह भूल न करें। किसी को पढऩे के लिए संग, चेहरा और आंख काफी होती है। किसी के दिल का हाल जान लेना और फिर अपनी सफलता का मार्ग चुन लेना एक साफ-सुथरी समझदारी है।

भय दिखाए बिना शत्रु से प्रीति असंभव
ऐसी धारणा है कि यदि आप युद्ध जैसी गतिविधि में शामिल हों तो सामने वाले को मौका नहीं देना चाहिए। हर अवसर को अपनी मुट्ठी में रखने वाले युद्ध जीत जाते हैं। मनुष्य दो तरीके से पराजय स्वीकार करता है-भय से या प्रेम से। सुंदरकांड में श्रीराम ने एक नया सिद्धांत प्रतिपादित किया था। वे लंका-प्रवेश के लिए समुद्र से मार्ग मांग रहे थे। हम भी नववर्ष में प्रवेश करने जा रहे हैं। श्रीराम से सीखें नववर्ष के स्वागत में भय और प्रीति का उपयोग कैसे किया जाए। उन्होंने शस्त्र रखकर समुद्र से मार्ग देने का निवेदन किया था। लक्ष्मणजी का कहना था समुद्र को अपने प्रताप से सुखाएं और पार निकल जाएं, किंतु अनूठे योद्धा श्रीराम अवसर देने के बाद ही पराजित करते हैं। उन्होंने समुद्र को तीन दिन का अवसर दिया। उसने राम की विनम्रता का गलत अर्थ लगा लिया और मार्ग नहीं दिया।

तुलसीदासजी तब पैदा हुआ दृश्य बताते हैं,'बिनय न मानत जलधि जड़। गए तीनि दिन बीति।। बोले राम सकोप तब। भय बिनु होइ न प्रीति।। तीन दिन बीत गए, किंतु जड़ समुद्र विनय नहीं मानता। क्रोधित श्रीराम बोले-बिना भय के प्रीति नहीं होती। ऊपर से देखा जाए तो बात गलत लगती है। जहां प्रीति है वहां भय हो ही नहीं सकता, किंतु श्रीराम बात कर रहे हैं अनुशासन की। नियम, कायदे और संविधान की। इनके लिए एक भय या अनुशासन का डंडा बहुत जरूरी है। जैसे माता-पिता बच्चों के सही लालन-पालन के लिए भय का निर्माण करते हैं, लेकिन उसके पीछे प्रीति होती है, श्रीराम का यही भाव समुद्र के प्रति था।

समर्पण से मिलती है जीवन-ऊर्जा
अब हम एक नई यात्रा पर निकल चुके हैं। यकीनन ज्यादातर लोग उत्साह से भरे होते हैं। नई-नई योजनाएं हम बना चुके होंगे। सफलता के तौर-तरीके दिमाग में उतरे हुए होंगे। प्रतिस्पर्धा की यात्रा पर हमें अपने ही समान लोग मिलते रहें तब तो यात्रा में कोई परेशानी नहीं होती। कमजोर के प्रति सावधानी रखें और समान वाले के साथ पूरी योग्यता झोंक दें तो भी विजय प्राप्त हो जाती है। किंतु चुनौती तब होती है जब हमसे अधिक शक्तिशाली सामने आ जाए। या तो उनसे उलझ जाएं या अलग हट जाएं। उलझने में यदि हमारी तैयारी पूरी न हो तो ऊर्जा और समय दोनों नष्ट होगा।

अलग हट जाना अपने आप में सफलता है। एक तीसरा आध्यात्मिक रास्ता है समर्पण का। यदि अहंकार है तो झुकना नजर आएगा, लेकिन अध्यात्म कहता है जब मनुष्य बिना अहंकार के झुकता है तो उसे समर्पण कहते हैं। इस समर्पण के दौरान हम धैर्य और आत्म नियंत्रण भी सीख जाते हैं। जो ऊर्जा बचती है वो आगे की यात्रा में काम आएगी। इसलिए समर्पण के दौरान भीतर से भी रुक जाएं।

भीतर विचारों के आवागमन को भी रोक दें। न कुछ पाने की आकांक्षा हो और न कुछ खोने का भाव हो। जीवन एक नया स्वाद ले लेगा। आपकी आंतरिक तैयारी आपके व्यक्तित्व को निखार रही होगी। आपके भीतर ऊर्जा की लहरें उठ रही होंगी, जो भविष्य के लिए नई ऊर्जा बनकर आपके काम आएगी। इसलिए जब कभी ऐसा अवसर आए तो विचार कीजिएगा और अपने समर्पण को आध्यात्मिक दृष्टि से जोड़कर थोड़ी देर एकांत में अगली तैयारी के लिए जुट जाएं।

ध्यान के जरिये बनाएं नया व्यक्तित्व
हर व्यक्ति के भीतर एक कलाकार मौजूद होता है। कभी वह संगीत, कभी चित्रकला, कभी नाटक से हमें जोड़े रखता है। वक्त की कमी भले ही हमें भीतर के इस विशिष्ट व्यक्तित्व का उपयोग न करने दे पर भीतर के इस मूर्तिकार को जरूर सक्रिय रखें। कला से नहीं जुड़ेंगे तो आपकी संवेदनाओं पर फर्क पड़ेगा, लेकिन भीतर का मूर्तिकार मर गया तो पूरे जीवन के निर्माण पर असर पड़ेगा। जब हम जन्म लेते हैं माता-पिता, परिवार और आसपास के वातावरण से हमारे चरित्र का निर्माण होने लगता है।

जो हम जन्म से अपने साथ नहीं लाए हैं, वह सब हमें दिया जाने लगता है। हमें जो आकार दिया जाता है वह पूरी जिंदगी कायम नहीं रहता। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है और हमारी अपनी अक्ल का अंकुरण होने लगता है, वहीं से हम उस डोर से टूटने लगते हैं जो जन्म से जुड़ी थी। यहीं से मूर्तिकार की भूमिका शुरू हो जाती है। संसार आपके हाथ में छेनी-हथौड़ी दे दे या आप खुद ढूंढ़ लें, पर वक्त रहते सावधानी से तराशने का काम शुरू कर दीजिए। लोगों ने जो भी छवि आपको दी है केवल उससे जिंदगी न बिता दें।

मूर्तिकार को मूर्ति बनाते समय पत्थर और अपनी आंख में एक सधा हुआ अंतर रखना पड़ता है। धुंधला दिखने लगे तो आकृति सही बन ही नहीं सकती। ऐसे ही व्यक्तित्व निर्माण के लिए एक दूरी बनानी जरूरी है और वह बनती है ध्यान से। थोड़ा रुककर बैठेंगे तो खुद को देखने का मौका मिलेगा। एक निश्चित दूरी से हम जान पाएंगे कि हम हैं क्या और होना क्या है। बस यही हमारे भीतर के मूर्तिकार की भूमिका है।

भक्त भीड़ नहीं समूह का हिस्सा बने
इस समय लोग अपने लक्ष्य को पाने के लिए बहुत जल्दी में हैं, लेकिन जल्दी को हड़बड़ी बनाने के खतरे हैं। तुरंत मिलने की तीव्र इच्छा के कारण लोग दूसरों पर भरोसा करने के लिए भी बेताब हो जाते हैं। कुछ ऐसे हैं कि स्वयं कम करें और दूसरे के परिश्रम से अधिक फायदा उठा लें। ऐसा वर्ग भी है जो दूसरों के माध्यम से ही सब पाना  चाहता है और इसीलिए कई लोग अपने आप को पूजनीय बना लेते हैं। आलोचना की जाती है कि लोगों ने धर्म को धंधा बना लिया है।

कई लोग तो व्यापार करने के लिए ही साधु बने, बल्कि वो मूल रूप से व्यापारी ही थे, बस चोला ओढ़ लिया। इनसे ज्यादा गलती वो कर रहे हैं जो इनके चरणों में औंधे गिरे हुए हैं। ऐसा लगता है जय-जयकार के मामले में जुबान अंधी हो गई और आंखों ने जुबान की तरह स्वाद लेना शुरू कर दिया। भारत के आसमान में यदि पत्थर उछालो तो हर पांचवां पत्थर किसी बाबा को जाकर लग सकता है।

सच्चे और तपस्वी संत चिंतित भी हैं और बेफिक्र भी। चिंतित हैं वे भक्तों के लिए, सच्चे इंसानों के लिए और बेफिक्र हैं अपनी छवि के लिए, लेकिन जिन्हें तामझाम जमाना है वे भीड़ इकट्ठा कर लेते हैं। जिसके आसपास जितनी अधिक भीड़, वे उतने ऊंचे किस्म के महात्मा होंगे। एकांत धर्म की जान थी और शोर ने उसी की जान ले ली। इसलिए हर जागरूक भक्त को चाहिए कि वो भीड़ का हिस्सा न बने, समूह का भागीदार बने। समूह का अपना चिंतन होता है, अपना चरित्र होता है और अपनी आध्यात्मिक अभिव्यक्ति को किसी अच्छे और सच्चे संत के लिए बचा कर रखें।

चिंतन के जरिये निपटें चिंतन से
अब हम लोग नए साल में गति ले चुके हैं। समय का चक्र बड़ी तेजी से घूमता है। कामकाज का दबाव लोगों पर इस कदर हावी है कि अधिकांश लोग यह भूल ही गए कि एक साल और बीत चुका है और हम नए साल में प्रवेश कर बैठे हैं। समय के प्रवाह में नए जैसा कुछ रह ही नहीं जाता। फिर भी नए साल के पहले महीने में नवीनता बनी रहे इसलिए एक काम किया जा सकता है। तय करें इस साल कम से कम फिक्र करेंगे। चिंता से मुक्ति के लिए एक सूची बनाएं। पिछले वर्ष हमने किन विषयों पर चिंता की उन्हें इस सूची में दर्ज करें, क्योंकि चिंता पालने के मामले में हम लोग बहुत उदार होते हैं। समस्या की बात तो दूर, उसकी आशंका से ही चिंता मग्न हो जाते हैं।

यह सही है कि भविष्य अज्ञात है। इसलिए चिंता होना स्वाभाविक है। इसलिए सबसे पहले चिंता का वाजिब कारण ढूंढ़ा जाए। तीन काम करें - पहले चिंता के व्यावहारिक पक्ष पर विचार करें, क्योंकि ज्यादातर चिंताएं सांसारिक होती हैं। फिर ढूंढ़ें इसमें नया क्या है। यदि मामला पुराना है तो तुरंत मुक्ति पा लें और चिंता से निपटने के लिए युद्ध की शैली की जगह सृजन का नजरिया अपनाएं। क्रिएटिविटी से उस चिंता से मुक्ति पाना है। ऐसा सोचकर आगे बढ़ेंगे तो चिंता घातक नहीं होगी। आध्यात्मिक तरीका अपनाएंगे, तो वैसी चिंताएं दोबारा आएंगी ही नहीं और आएंगी तो हम उनके प्रति बेफिक्र रहेंगे, लेकिन सांसारिक तरीके में भय बना रहेगा कि यदि यह चिंता बनी रही तो फिर क्या करेंगे। इसलिए अध्यात्म और संसार के चिंतन के साथ चिंताओं से निपटा जाए।

कर्मों का फल हर हाल में मिलता है
प्रकृति के एक विधान को संसार में आदर्श वाक्य की तरह कहा जाता है कि जो जैसा करेगा उसे वैसा ही परिणाम मिलेगा, लेकिन आज व्यावहारिक जगत में कई लोग इससे सहमत नहीं होते। उनका मानना है कि हम देख रहे हैं अच्छे लोग परेशान हैं, गलत लोग मजे कर रहे हैं। परमात्मा भी जानता है कि मेरे भक्त यह सवाल जरूर उठाएंगे। इसलिए उन्होंने किए हुए का परिणाम देने के मामले में एक अवधि बनाई है। वे गलत और सही व्यक्ति दोनों को मौका देते हैं। गलत हो तो सुधर जाओ और यदि अच्छे हो तो हिम्मत मत छोड़ो। सुंदरकांड में श्रीराम और समुद्र का प्रसंग परमात्मा के इसी नियम को दर्शा रहा है।

श्रीराम ने समुद्र से मार्ग मांगा। समुद्र ने मार्ग नहीं दिया। तीन दिन बीत जाने पर श्रीराम ने घोषणा की कि बिना डराए कभी-कभी परिणाम नहीं आता। उन्होंने लक्ष्मण को आदेश दिया- लछिमन बान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कसानू।। धनुष-बाण लाओ, समुद्र को सोखना ही पड़ेगा। यह लक्ष्मण की पसंद का काम था, क्योंकि थोड़ी देर पहले वे विरोध कर चुके थे कि श्रीराम समुद्र से मार्ग न मांगें। लक्ष्मण के मन में वही द्वंद्व था जो अच्छे लोगों के मन में होता है कि समुद्र गलत कर रहा है फिर भी राम कुछ नहीं कर रहे, लेकिन तीन दिन की अवधि परमात्मा सबको देता है। तीन के आंकड़े का अर्थ है ज्ञान, कर्म और उपासना के अवसर हर एक के जीवन में ईश्वर द्वारा दिए जाएंगे। आप इन तीनों में कोई भी मार्ग चुन लें, अन्यथा फिर कुदरत धनुष-बाण उठा लेती है। इन्हीं तीन दिनों में अच्छे लोग विचलित हो जाते हैं और बुरे लापरवाह।

खामोश रहकर दर्द को बांटिए
बताने पर गम हल्का हो जाता है। इसीलिए जब दुख आता है तो लोग आपस में मिल-बांटकर उसकी चर्चा करते हैं। कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि हम जानते हैं जिसे हम अपना दुख सुना रहे हैं उसके पास इसका निदान नहीं है और न ही वह सक्षम है, लेकिन फिर भी सुनाते हैं, क्योंकि मामला है भीतर की उथल-पुथल के बाहर निकल जाने का। बाहर उसे कौन झेल रहा है यह महत्वपूर्ण नहीं होता, लेकिन इसका उल्टा होने पर हम लोग कई बार भूल कर जाते हैं। जैसे ही कोई हमें अपनी समस्या बताना शुरू करता है, तो सुनाने वाले को लगता है हम सुन रहे हैं, लेकिन हम भीतर ही भीतर उसके लिए समाधान की खोज में लग जाते हैं। मजेदार बात यह है कि सुनाने वाला चाहता भी नहीं है कि आप समाधान करें। उसे आपका संग चाहिए अपना दर्द दिखाने के लिए। उसे सिर्फ ऐसे हाथ चाहिए जो आंसू पोंछ सकें। इससे ज्यादा उसकी अपेक्षा नहीं है, लेकिन हम हर हालत में समाधान के चक्कर में जुट जाते हैं।

हमारा खामोश रहकर उसका दर्द बांटना अपने आपमें उसका समाधान हो सकता है। इसलिए जब कोई अपना दुख आपको सुनाए, तो ईमानदार श्रोता बनकर सुनिए। जहां चाहत होती है वहां अशांति होती है। वह तो अशांत है ही और मदद करने की चाहत में हम भी अशांत होने लगते हैं। एक विश्राम दीजिए दोनों के बीच की वार्ता में। उसकी मांग नहीं है, तो हमारी ओर से भी क्रिया न हो। बस एक गहरी खामोशी रहे। संभवत: इसमें उसको बड़ी राहत मिल जाएगी।

भीतर की जिंदगी में झांकें
हम कहते हैं पेड़-पौधों में प्राण होते हैं, उनकी रक्षा की जाए। ऐसा हमें साबित करना पड़ता है। अब मनुष्यों की बात करें। हम मानकर ही चलते हैं कि मनुष्य यानी सप्राण। जिंदा है इसलिए मनुष्य है और इसीलिए हम किसी मनुष्य के भीतर जीवन नहीं देख पाते। मनुष्य में भी एक जीवन होता है। यह जीवन उसके जिंदा रहने से अलग है। इस जीवन को अस्तित्व कह सकते हैं। जब भी हम किसी के संपर्क में आएं, तो उसके भीतर के जीवन को नजरअंदाज न करें। किसी के भीतर के जीवन को टटोलने के लिए दिनभर में तीन काम अवश्य करें।

शब्द आभार में भरे हुए हों, क्षमा का भाव लबालब रहे और तीसरा विनम्रता के साथ प्रशंसा करें। ये तीन काम हमें किसी भी व्यक्ति के भीतर के जीवन पर टिकाएंगे। जब हम किसी के प्रति इन तीन माध्यमों से जाते हैं तब हम उसके भीतर के जीवन को स्पर्श कर पाते हैं।

इस मामले में मां द्वारा की गई अपने बच्चों की सेवाओं को ध्यान में लाएं। मां अपनी संतान में जीवन बड़ी आसानी से देख लेती है। इसीलिए मां की सेवा की कोई सूची नहीं बन सकती। हम जब भी किसी के संपर्क में आएं मातृत्व का भाव अपने भीतर जरूर जगाएं। किसी मां से पूछें कि उसने अपनी संतान के लिए क्या-क्या किया, तो शायद वह लिस्ट न दे पाए। हां, पर क्या नहीं कर पाई इसकी सूची जरूर बता सकेगी, क्योंकि वह अपनी संतान के भीतर के जीवन से जुड़ी थी। ऐसा ही प्रयास हम अपने साथ के लोगों से करें। इसका सीधा असर हमारे भीतर के जीवन पर भी पड़ेगा।

मनुष्यों के बीच तालमेल का मंत्र
हम जब कपड़े पहनते हैं तो तीन बातों का ध्यान रखते हैं। पहली, हमारी पसंद, जिसे हम अपने शरीर से जोड़कर चलते हैं। हमारी देह का आकार-प्रकार वस्त्र के साथ ठीक जंचता है या नहीं। फिर दूसरी स्थिति होती है अन्य लोगों की पसंद का ध्यान रखना। तीसरा होता है हम जो एक ही समय में तीन या चार वस्त्र पहने हुए होते हैं उनका तालमेल। इस मैचिंग में लोग या तो लापरवाह होते हैं या इतने गंभीर होते हैं कि काफी समय इसी में लगा देते हैं, लेकिन गौर करना चाहिए कि ऊपर के वस्त्र के साथ नीचे का वस्त्र किस रंग का ठीक रहेगा। 

आंतरिक वस्त्रों के साथ बाहरी वस्त्रों का तालमेल कितना सुविधाजनक रहेगा। यह सब अपने आपमें फिलॉसफी है और यह वस्त्र-दर्शन जब हम दूसरे लोगों के साथ जीवन बिता रहे हों, उस पर भी लागू होता है। जैसे अपने ही शरीर पर एक वस्त्र के साथ हम दूसरे को एडजस्ट करते हैं ऐसे ही हम अपने साथ अन्य मनुष्यों को रखना सीखें। कुछ लोग आपके अच्छे वक्त में आपके साथ ठीक रहेंगे और कुछ लोग बुरे वक्त में आपके साथ उपयोगी रहेंगे। यह काटछांट आनी चाहिए। जैसे हम वस्त्रों के मामले में सजग रहते हैं वैसे ही मनुष्यों के मामले में भी रहें। ध्यान दीजिए इसके लिए सबसे बड़ा प्रयास हमें करना पड़ेगा और वह होगा अपनी अकड़ छोडऩा। जैसे ही हम अपनी अकड़ छोड़ते हैं दूसरों को अवसर मिलता है हमारे साथ एडजस्ट होने का। अकड़ छोडऩे का अर्थ है दूसरे के समावेश की संभावना और इसी में सान्निध्य सुख है जो वस्त्र हमें सिखा जाते हैं।

भिन्न राय के बीच लक्ष्य एक हो
पहले के समय में पिता या पति या बड़ा भाई पूरे परिवार का नेतृत्व जीवनभर कर जाता था। बेशक उसकी तानाशाही भी अपना काम करती थी। अब भारत के परिवारों का ढांचा बदला है। शिक्षा ने जितने फायदे पहुंचाए उस फायदे में से भी लोगों ने नुकसान निकाला। पहले के मुकाबले परिवार के सदस्य अब अधिक पढ़े-लिखे हो गए। इसलिए नेतृत्व भी बंट गया, बिखर गया। सबकी अपनी-अपनी राय हो गई। इसमें कोई खतरा नहीं था, लेकिन उस राय के पीछे अहंकार काम करने लगा। घर के बाहर संस्थानों में ली गई शिक्षा घर के भीतर विस्फोट का कारण बनने लगी।

परिवार के अन्य सदस्यों के बीच जब टकराहट हो तो परिणाम इतने गंभीर नहीं आएंगे। सबसे बड़ा नुकसान हुआ जब यह उलझन पति-पत्नी के बीच होने लगी। अब ज्यादातर जोड़े पढ़े-लिखे होते हैं। इसलिए उनके सपने भी अलग-अलग होते हैं। सपने अलग-अलग रहें इसमें कोई दिक्कत नहीं, लेकिन लक्ष्य एक होना चाहिए, क्योंकि उनके लक्ष्य का सबसे बड़ा परिणाम है संतान। इसलिए पति-पत्नी को परिवार में नदी की तरह होना चाहिए। ध्यान दीजिए हर नदी अपने अलग-अलग उद्गम से चलती है।

अलग-अलग घाट नापती है, उसकी गति अलग होती है, लेकिन अंत में उसे मिटना होता है। नदी का अर्थ ही है मिटना। या तो किसी और नदी में या फिर महासागर में। पति-पत्नी घर-परिवार में नदी की तरह हैं, जो एक-दूसरे के लिए कभी महासागर हैं तो कभी खुद एक नदी हैं। जो इस तरह का जीवन जिएंगे वे अपने परिवार में सुखद परिणाम पाएंगे।

निकट के रिश्तों में अहंकार न लाएं
एक सूची बनाएं अपने व्यवहार की। किन लोगों से हम अच्छा और विनम्रतापूर्ण व्यवहार करते हैं, किनसे सामान्य व्यवहार करते हैं और वे लोग कौन हैं जिनके प्रति हम कर्कश हो जाते हैं। अगर सूची ईमानदारी से बनी तो अधिकांश लोग पाएंगे कि हम अपने निकट के लोगों से सबसे कम विनम्रता से पेश आते हैं। खासतौर पर पति पत्नी से और पत्नी पति से व्यवहार करते समय कम ही विनम्र रहते हैं। हम यह मानकर चलते हैं कि जीवनसाथी से अगर विनम्र व्यवहार करेंगे तो औपचारिकता होगी। वास्तव में इसके पीछे काम कर रहा होता है अहंकार। इसके कारण निकट के लोगों की रुचि, उनकी उम्मीदें, अपेक्षाओं, सपनों की ओर ध्यान ही नहीं जाता।

अहंकार ही इस उपेक्षा को जन्म देता है। संबंध यहीं से खराब होने शुरू होते हैं। अंतरंग साथी के प्रति मनुष्य जाने-अनजाने में लापरवाह होता जाता है। तेज रफ्तार जिंदगी अपने आस-पास प्रेम की संभावनाओं के तिनके उड़ा देती है। घर का माहौल सूखा-सूखा सा हो जाता है, इसलिए अपने लोगों के बीच हों तो अपना 'मैं' पूरी तरह से गिरा दें। जहां 'मैं' नहीं होगा, वहीं एक-दूसरे को समझने की शक्ति आएगी। इस 'मैं' के कारण ही लोगों को लगता है कि वे जो कर रहे हैं, सही कर रहे हैं। इसीलिए वे दावा भी करने लगते हैं कि हमने अपने जीवनसाथी, अपने परिवार के सदस्यों के लिए खूब किया। यह केवल 'मैं' की घोषणा है, जो गलतफहमी में बदल जाती है और इसी गलतफहमी के कारण पास में रहने वाले लोग बहुत दूर चले जाते हैं।

अच्छा करने की क्षमता ही जीवन है
कुछ लोग अपना व्यक्तित्व इस प्रकार बना लेते हैं कि उनमें जीवन की संभावना ही समाप्त हो जाती है। जीवन का अर्थ है कुछ अच्छा करने की क्षमता, क्योंकि जीवित रहने में और अपने भीतर जीवन होने में फर्क है। श्रीराम ने सुदरकांड में जब समुद्र से मार्ग मांगा तो तीन दिन बीत गए पर समुद्र ने मार्ग नहीं दिया। श्रीराम को क्रोध आया और तब उन्होंने टिप्पणी की कि सात लोगों से व्यवहार करना व्यर्थ है।

'सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति। सहज कृपन सन सुंदर नीती।। ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी। क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा। ऊसर बीज बएं फल जथा।' मूर्ख से विनय, कुटिल से प्रीति, कंजूस से सुंदर नीति, ममता में डूबे हुए से ज्ञान की चर्चा, अत्यधिक लोभी से वैराग्य की बातें, क्रोधी और कामी से भगवान की कथा कहना इस प्रकार है जैसे बंजर जमीन में बीज बोना। यानी बंजर जमीन में जब बीज डाला जाए तो उसकी फसल कभी नहीं उग सकती। मूर्ख, कुटिल, कंजूस, ममता मेंं डूबा हुआ, क्रोधी, लोभी और कामी। श्रीराम कहते हैं इन लोगों से जब भी हम कोई संपर्क रखें तो मानकर चलें कि ये ठीक से परिणाम नहीं देंगे। कई लोग ये सात तरह के दुर्गुण अपने व्यक्तित्व में उतार लेते हैं।

वे उस ऊखल की तरह हो जाते हैं, जिसमें बीज डालो तो कुछ नहीं उगता। परस्पर सहयोग की इस दुनिया में कुछ हम दूसरे लोगों को देते हैं, तो अन्य लोग हमसे भी कुछ लेते हैं, लेकिन हम देने ही लायक न रहें, तो समझ लीजिए इस धरती पर बोझ हैं। इसलिए प्रयास किए जाएं कि ये सात दुर्गुण हमारे भीतर न रहें।

सहजता में ही है जीवन की मस्ती
बदल बदलकर चीजों का इस्तेमाल करना मनुष्य का स्वभाव होता है। कपड़े, जूते, घडिय़ां, चश्मा, मोबाइल इनमें बदलाव जीवन में नवीनता लाने के लिए भी किया जाता है। नई वस्तुओं की तरह हमारे जीवन में नए लोग भी आते हैं। बहुत से ऐसे होते हैं जिनसे हमारे लेन-देन के संबंध होते हैं। दुनियादारी निभाने में बहुत सारे लोगों से संपर्क रखना पड़ता है। अनेक बार हम अभिनय की मुद्रा में होते हैं।

हम कभी धीर-गंभीर तो कभी औपचारिक, कभी आक्रामक तो कभी ओढ़ी हुई विनम्रता के साथ पेश आते हैं। हम अपना सहज और सही रूप कम ही जी पाते हैं। जिंदगी जिन कारणों से बोझिल होती है उनमें से एक कारण है हमारा अपनी सहजता से दूर रहना। एक प्रयोग करें। अपने जीवन में कुछ ऐसे लोग छांटें जिनके सामने हम अपने सहज रूप में रह सकें। उनके साथ हमारे भीतर कोई औपचारिकता न रहे। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो हमें वास्तविक रूप में देखना चाहते हैं। इनके बीच पूरी तरह खुलकर रहें। अपनी गरिमा नहीं खोना है। उनका सम्मान भी बचाए रखना है। जिस तरह का जीवन हम जी रहे हैं वह हमारे अहंकार का विस्तार होता है, लेकिन ऐसे लोगों के बीच जब हम सहज हो जाते हैं तो अहंकार गलने लगता है।

बाकी समय हम अभ्यास करते हुए आचरण करते हैं, लेकिन अपने लोगों के बीच हम बिलकुल वैसे हो जाएं, जैसे हम भीतर से हैं। रहन-सहन, आचार-व्यवहार दोनों में कोई अतिरिक्त चेष्टा न हो। एक अनिर्णय का शून्य भाव अपने लोगों के बीच बनाएं, आप पाएंगे एक मस्ती हमारे भीतर उठने लगेगी।

बुजुर्गों के साथ मित्रवत हो जाएं
बचपन जवानी, प्रौढ़ता और बुढ़ापा उम्र के ये चार पड़ाव हैं। हर एक का अपना स्वाद है। हम आज वृद्धों के साथ रिश्तों पर बात करते हैं। घर के बड़े-बूढ़ों की गतिविधियों से बहुत कुछ ऐसा सीखने को मिल जाएगा, जो किसी विद्यालय या विश्वविद्यालय में नहीं प्राप्त होगा। जैसे वरिष्ठजन पुरानी चीजों को तुरंत नहीं फेंकते। या तो उसे ठीक कराने की भरपूर कोशिश करते हैं या उसका कोई अन्य उपयोग खोजने का प्रयास करते हैं। आज की यूज एंड थ्रो शैली का असर संबंधों पर भी पड़ा है। लोग स्थायी रिश्ते रखने में ऊब महसूस करने लगे।

रिश्ते भी इस्तेमाल की वस्तु हो गए। उपयोग करो, फेंको, आगे बढ़ो और दूसरा ढूंढ़ों। इसे भी प्रबंधन मान लिया गया है, इसलिए घर के बड़े-बूढ़ों के साथ मित्रवत भाव से बैठें। मैं यह नहीं कह रहा कि उन्हें दोस्त बनाएं। मित्रवत यानी मित्र जैसे हो जाएं। कुछ उनसे पूछें, कुछ उन्हें बताएं। अध्यात्म में शिष्य खुद को खाली करके गुरु के पास आता है ताकि गुरु से अधिकतम ले सके।

आप कितने ही जानकार-समझदार हों, उस बुजुर्ग के मुकाबले बड़े पद पर हों, लेकिन उनसे बात करते समय ऐसा मानें जैसे प्रसाद बंट रहा है। बूढ़े लोगों की उम्र बढ़ती है तो वे ऊपर की ओर उठने लगते हैं यानी अब उन्हें परमात्मा की ओर जाना होता है। ऐसे में पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण उन पर कम काम करता है। वे हल्के होते हैं, उनके मुकाबले हम कम उम्र के हैं इसलिए भारी हैं, लेकिन उनके साथ रहकर हम भी हल्के होने लगेंगे। इस भाव से बड़े-बूढ़ों के साथ बैठें, व्यवहार करें।

साक्षी भाव से लाएं रिश्तों में शांति
वे लोग खुशकिस्मत हैं, जिन्हें चयन के अवसर मिलते रहते हैं। विज्ञान ने मनुष्य को इतने साधन उपलब्ध करा दिए हैं कि चयन की सीमा भी बढ़ गई। आपको कोई वस्तु नहीं जम रही, तुरंत दूसरी उपलब्ध है। धीरे-धीरे ये हालात मनुष्यों पर भी लागू हो गए। लोग रिश्तों में भी चुनाव करते हैं, लेकिन लगातार बदलाव का सिद्धांत जब रिश्तों पर लागू किया जाए, तब जीवन में अशांति आना अनिवार्य है। आज हम बात करेंगे ऐसी स्थितियों की जिनमें हमारे चयन की गुंजाइश खत्म हो जाती है। पहली तो यह कि हमें माता-पिता चुनने का अधिकार नहीं है। कुदरत ने जिनकी गोद में हमें डाला, हम आ गए। अब वे ही हमारी नियति होते हैं। कोई जबर्दस्ती इन्हें छोड़कर हटे तो बात अलग है। दूसरी स्थिति होती है यदि आप विवाहित हैं तो आपके ससुराल की। मजेदार बात यह है कि जीवनसाथी के चयन में हम खूब स्वतंत्र हैं। आप पूरी तरह आजाद हैं कि किसे अपने जीवन में पति या पत्नी के रूप में प्रवेश दें, लेकिन इसके बाद जो ससुराल आपको मिलता है वह आपकी नियति है।

यहीं से मनुष्य कठिन दौर से गुजरता है। आप उनको पसंद न करें तो भी उनके बीच रहना है। कुछ लोग इसे झंझट मानकर संबंध खराब कर लेते हैं। महिलाओं के लिए तो ससुराल चुनौती बन ही जाता है। इसीलिए कहा जाता है पुरुष का ससुराल महिला के ससुराल से ठीक ही रहता है। ऐसे में एक आध्यात्मिक प्रयोग करें और वह है साक्षी भाव का। न कर्ता, न भोक्ता, इसको धर्म ने साक्षी कहा है। यह भाव आपके जीवनसाथी और आपके बीच में शांति का भाव ले आएगा।

धीरज अपनाकर टाल सकते हैं कलह
अध्यात्म में कहा जाता है कि किए और अनकिए दोनों से अशांति पैदा होती है। इसलिए सुझाव दिया जाता है कि कृत्य सदैव जारी रहेगा, अत: शांति कहां से मिल सकती है इस पर ऊर्जा लगाई जाए।  उदाहरण गृहस्थ जीवन में देखने को मिलता है। परिवार में कुछ सदस्यों के काम दूसरों को पसंद नहीं आते। दूसरे की पसंद को स्वीकार करना, अपनी रुचि के मामले में धैर्य रखना यह परिवार में जीने की कला है। इस मामले में सबसे बड़ी चुनौती खड़ी होती है पति-पत्नी के बीच। हर जीवनसाथी 24 घंटे के दौरान कुछ ऐसे काम करता है जो या तो पत्नी को पसंद नहीं होते या पति को। अगर आप सूची बनाएं तो पाएंगे कि टूथब्रश में से पानी टपकना, मुंह धोते हुए वाश बेसिन के कांच पर छींटे उड़ जाना, पत्र-पत्रिकाओं को पढऩे के बाद बेतरतीब रख देना, जूते पहनकर घर में घूमना, घर में हर-कहीं बैठकर खाने की वस्तु के कण गिराना ऐसी अनेक शिकायतें हैं जो दोनों को एक-दूसरे से बनी रहती हैं। इन्हें लेकर पति-पत्नी आपस में भिड़ जाते हैं। सारा खेल अभिव्यक्ति का है। जो आपको पसंद न हो उसे कैसे रोका जाए या व्यक्त किया जाए, इसमें धीरज से काम लेना होगा। कुछ शब्दों का चयन करना होगा, जो उस समय हथियार की जगह ढाल की तरह काम करे। एक-दूसरे की चिढ़ बढ़ाने की जगह बहुत ही खामोशी से इन्हें रोका भी जा सकता है, लेकिन यदि लंबे समय यह सब चलता रहे और किसी एक में धैर्य न हो तो इन सब छोटी-छोटी बातों की संतान कलह होती है, जिसे आपको झेलना ही पड़ता है।

ऊंचा उठने के लिए ऊंची सोच जरूरी
असफल होने पर समझदार लोग उसके कारण ढूंढ़ते हैं और सही कारण ढूंढऩे में भी गलती कर जाते हैं। गलत कारण स्वीकार करने से फिर एक और असफलता की शुरुआत हो जाती है। ज्यादातर लोगों के कारणों का आधार योजना का गलत होना या निर्णय का ठीक न रहना होता है। मान लेते हैं कि कारण यही हैं। कुछ मानते हैं सहयोग सही नहीं मिला। कुछ लोग इसे दूसरा का षड्यंत्र मान लेते हैं। कुछ अपनी लापरवाही दूसरे की सजगता, अपना कम ज्ञान दूसरे की अधिक जानकारी को भी स्वीकार करते हैं, लेकिन ये सब स्थूल कारण हैं।

हमारी असफलता या सफलता का एक बड़ा कारण हमारी सोच है। भावना, ज्ञान, उत्साह, दूरदर्शिता और आत्म विश्वास मिलकर सोच तैयार होती है। सोच है छोटा-सा शब्द, परंतु इसमें पांच बातें जुड़ी हैं। प्रतिस्पर्धा के इस युग में सभी शीर्ष पर जाने की तैयारी में हैं। जैसे-जैसे आप ऊपर चढ़ेंगे लोगों की संख्या भी कम होती जाएगी। कठिन मुकाबले में कम ही लोग रह जाते हैं, भीड़ छंट जाती है।

इसलिए ऊंचाई पर टिकने के लिए सोच भी ऊंची रखनी होगी, क्योंकि जैसा हम सोचते हैं, वैसे ही हम हो जाते हैं। भीड़ छंटने के बाद अब आपका मुकाबला व्यक्तियों से होगा और व्यक्ति सदैव बड़ा ताकतवर होता है, भीड़ हिंसक हो सकती है, अनियंत्रित हो सकती है, परंतु व्यक्ति पूरे नियंत्रण के साथ ताकतवर होता है। अत: अपनी सोच कभी छोटी न रखें, क्योंकि आगे और ऊपर जाने के लिए, सफलता के नए-नए मापदंड बनाने के लिए सोच ही पहले काम आएगी, साधन बाद में।

विद्रोह में प्रकट होती है लक्ष्मण वृत्ति
सहनशीलता की सबकी अपनी सीमा होती है और दंड देने के अपने तरीके। श्रीराम इन दोनों मामलों में अद्भुत थे। उनकी सहन शक्ति और उत्तेजना दोनों में गजब की मर्यादा थी। इसीलिए संसार ने उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा। सुंदरकांड में समुद्र से मार्ग मांगने वाले प्रसंग में श्रीराम अलग रूपों में नजर आए हैं। वे विनम्रता से आरंभ करते हैं। विभीषण से सलाह ली, समुद्र से मार्ग की विनती की। यहां वे पूरी तरह से विनम्र दिख रहे हैं और तो और छोटे भाई लक्ष्मण के विरोध के बाद भी वे अपनी सदाशयता नहीं खोते। फिर उनका धैर्य सामने आता है। तीन दिन तक समुद्र मार्ग नहीं देता। तीन दिन का अर्थ है भूत, वर्तमान और भविष्य की दृष्टि से समय अवधि।

फिर आवेश आने के पहले वे अपनी राय व्यक्त करते हैं। उस वाणी को सुनकर भी समुद्र अकड़ में ही रहता है। तब वे स्पष्ट रूप से क्रिया पर उतरते हैं। तुलसीदासजी ने लिखा है, 'अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा । यह मत लछिमन के मन भावा। संधानेउ प्रभु बिसिख कराला। उठी उदधि उर अंतर ज्वाला।। ऐसा कहकर श्रीरघुनाथजी ने धनुष चढ़ाया। यह दृश्य लक्ष्मण के लिए रुचिकर था।

वे हिंसक नहीं, लेकिन आक्रामक वृत्ति के थे। मनोविज्ञान कहता है हमारे भीतर भी एक आक्रमक रूप छिपा है, जो फिल्मों के दृश्य, समाचारों के अपराध की जानकारियों में छिप-छिपकर रुचि लेता है। ऐसा ही रस लक्ष्मण को आ गया। वे चाहते ही थे कि समुद्र से विनय नहीं आक्रमण की भाषा में बात की जाए। अनेक बार हमारे भीतर की लक्ष्मण वृत्ति ही ऐसा विद्रोह रूप प्रकट करती है।

छोटों से व्यवहार में अहंकार न लाएं
सीधी सी बात है अपने से बड़ी उम्र के लोगों से सम्मानजनक व्यवहार रखें। थोड़ी सी मजबूरी, व्यवहारिकता यह काम करा ले जाती है। अगर फायदा मिल रहा हो तो भी लोग बड़ों के साथ सम्मान से पेश आ जाते हैं। यह हर संबंध में नफा-नुकसान नापने का दौर है। किंतु बड़ी चुनौती है अपनों से छोटों के साथ उचित व्यवहार की क्योंकि तब बड़े होने का एक अघोषित अहंकार सक्रिय हो जाता है। घर-परिवार में यह झंझट ज्यादा परिणाम देती है। खासतौर पर जब हमसे छोटा कोई गलती करे और हमें उसे सुधारना हो, तब हमारी कड़ी परीक्षा होती है। ऐसे में एक बात स्पष्ट रखें।

उम्र में छोटा व्यक्ति बुरा नहीं है, बुराई उसके कृत्य में है। हम उस किए हुए गलत काम पर ज्यादा ध्यान दें, बजाय इसके कि हम व्यक्ति को ही गलत ठहरा दें। बड़े होने और बड़प्पन में फर्क यहीं से शुरू होता है। हम किसी में परिवर्तन नहीं ला सकते, परंतु उसके द्वारा किए जा रहे गलत काम में फेरबदल आसानी से कर सकते हैं।

छोटी उम्र के लोग जब अपने से बड़ी उम्र वालों के संपर्क में आते हैं तो वे उनमें अपने अनुकूल व्यक्तित्व की तलाश करते हैं। अपनी उम्र का अनुशासन या निर्णय अपने से कम उम्र वालों पर लागू करने में सावधानी, समझ रखनी होगी। क्योंकि हरेक का व्यक्तित्व उसके अपनी उम्र के दौर से तैयार हुआ है। इस परिवर्तन को यदि छोटी उम्र वाले नहीं समझे तो उसके भीतर विद्रोह जाग जाता है। बड़ों को यह मनोविज्ञान समझना होगा कि इसके विचार और व्यक्तित्व में उम्र का जो गेप आया है उसे सहलाकर, समझदारी से पाटा जाए।

अनकही को सुनना भी महत्वपूर्ण
अधिकतर देखा गया है कि जो हमारा इरादा होता है हम वैसा बोल नहीं पाते हैं। हमारे विचार ठीक से अभिव्यक्ति नहीं हो पाते। कई बार हम अच्छे से जानते हैं कि हमें बोलना क्या है, लेकिन फिर भी मूल विषय के दाएं-बाएं ही अपने शब्द फेंकते रहते हैं। जैसे अच्छा तीरंदाज निशाने के इधर-उधर तीर फेंकता रहे। इसके पीछे चार कारण होते हैं। सामने वाले को बुरा न लग जाए, अपन कहीं नासमझ या बेवकूफ न मान लिए जाएं और अपने ही विचार पर सही या गलत होने का संदेह। चौथी बात शब्दों को लेकर लापरवाही की आदत ही पड़ गई हो। यदि ऐसा है तो हमें सावधान होना पड़ेगा। जो कहना चाहिए वह नहीं कह पा रहे हैं तो यह हमारे व्यक्तित्व का दोष है। चलिए आज विचार करें कि जब ऐसे व्यक्तियों से हमारा सामना हो, तब हम क्या करें?

हमें अपने भीतर एक खूबी निखारना चाहिए और वह है अनकही को सुनना। आप पाएंगे कि जानवर अनकही को भी सुनता है। मनुष्य इसमें चूक जाता है। अभ्यास करें सामने वालों के शब्दों के अर्थ को ही न पकड़ें, बल्कि पीछे के इशारों, संकेतों को भी समझें। किसी के भीतर क्या चल रहा है यह पकडऩा सीखें। वह क्या बोल रहा है यह दूसरी बात है, क्योंकि कभी-कभी अनकही, जो कहा जा रहा है उससे ज्यादा महत्वपूर्ण होती है। यदि किसी की अनकही को पकडऩा है तो एक प्रयोग करें। वार्तालाप के दौरान प्रेमपूर्ण हो जाएं। जितना आप प्रेम से भरे होंगे, उतना ही आप दूसरे को बोलने का मौका दे पाएंगे। यदि सामने वाला घुमाना भी चाहेगा, तब भी आप अनकही की गूंज सुन लेंगे।

योग्यता से मिलता है असली सम्मान
आजकल किसी की जेब से पैसा निकालना आसान काम नहीं रह गया है, यदि अपराध न किया जाए तो। इसके दो कारण हैं। पहला यह कि धन के मामले में सभी समझदार हो गए हैं। दूसरा, सामने वाला भी इसी चक्कर में है कि उसका हाथ हो और आपकी जेब। ठीक इसी तरह इन दिनों यही बात सम्मान के बारे में लागू होती है। हम किसी से जबर्दस्ती सम्मान नहीं हासिल कर सकते। आपका पद और उसकी मजबूरी हो तो बात अलग है, वरना दिल से सम्मान प्राप्त करना आसान नहीं है अब। यदि आप मिले हुए सम्मान के योग्य न हों तो यह सम्मान भी ज्यादा दिन नहीं चल पाएगा। अब तो समाज में चर्चा होने लगी है कि दिल से सम्मान पाने के योग्य लोगों की जात ही खत्म होती जा रही है।

एक समय ऐसा भी था कि दूसरों को सम्मान देने के लिए लोगों ने अपना आत्मविश्वास और आत्मसम्मान भी गौण कर दिया था। दूसरों से व्यवहार करते समय हरेक के भीतर एक काल्पनिक व्यक्तित्व होता है, अच्छा या बुरा। सम्मान देने के मामले में वही छवि काम करती है। पहले लोग समाज के अनुशासन के कारण ही एक-दूसरे को सम्मान देने लगे थे। न अब वैसा समाज रहा और न ही उसका अनुशासन। एक अजीब-सी स्वेच्छाचारिता, समाज में स्वतंत्रता के नाम पर फैल गई है। आधुनिकता का एक अर्थ उन्मुक्त होना मान लिया गया है, इसलिए निजी तौर पर हम यह प्रयास करें कि अपने आपको योग्य बनाएं कि हमें सम्मान देना दूसरे की प्रसन्नता का कारण बने।

भावनाओं को अभिव्यक्त होने दें
एक समय था कि लोग समाज और परिवार में जीते हुए उसके अनुशासन को मानते थे। फिर व्यक्तिगत स्वतंत्रता का आग्रह शुरू हुआ। लोगों ने इस अनुशासन की नई परिभाषाएं गढ़ीं। कुछ लोगों ने इसका अतिक्रमण किया। यह फायदे और नुकसान दोनों का सौदा साबित हुआ। जैसे-जैसे लोगों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रति रुचि बढ़ी, अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने में वे और बहादुर होते गए। बल्कि कई लोग तो अपनी संवेदनाओं को व्यक्त करने में दादागिरी पर उतर आए। घर-परिवार में भी एक सभ्य गुंडागिर्दी के लक्षण नजर आने लगे। जो भावनाएं कभी ढाल हुआ करती थीं, देखते ही देखते हथियार बन गईं। यह भी सही है कि अपनी भावनाओं को दबाना ठीक नहीं है। समाज में प्रदर्शन और औपचारिकता इतनी बढ़ गई है कि लोग अपने प्रियजन की मृत्यु पर रोना भी दबा लेते हैं।

आंसू गिराना कमजोरी और गंवार होने का लक्षण मान लिया जाता है। विरह में आंखें छलकें, तो समझें संवेदनाएं व्यक्त होने का मार्ग ढूंढ़ रही हैं। हालांकि नए जमाने में मान लिया जाता है कि पढ़े-लिखे, सभ्य और प्रतिष्ठित लोगों की आंखें नम नहीं होतीं। व्यक्तिगत स्वतंत्रता के इस कालखंड में जब आप हर तरह से स्वतंत्र होना चाहते हैं तो अपनी भावनाओं को भी समय पर अभिव्यक्ति दें। रोने और हंसने में कोई अतिरिक्त दिखावटी अनुशासन न लादें। इसके लिए भक्त बनना बड़ा सहयोगी होगा। जो लोग भक्ति का अर्थ समझते हैं वे विरह और मिलन में आंसू-मुस्कान को बाधा नहीं बनने देंगे।

अहंकार छोड़कर जाएं गुरु के सामने
अच्छे लोगों की हम निकटता चाहते हैं और जो हमें पसंद नहीं है उनसे हम भागना चाहते हैं। इन दोनों में हमारा अहंकार बाधा बनता है। अहंकार हमें उन लोगों से दूर ले जाता है जिनकी निकटता में हम स्वयं को जान सकते हैं, लेकिन हमारा मन इसमें बाधा बनता है। मन का क्रियात्मक रूप ही अहंकार है। सुंदरकांड में समुद्र और श्रीराम के बीच यही हुआ। जब श्रीराम आवेश में आए तब समुद्र मार्ग देने को  तैयार हुआ और मणियों का थाल भरकर भगवान के सामने पहुंचा। 'मकर उरग झष गन अकुलाने। जरत जंतु जलनिधि जब जाने।।

कनक थार भरि मनि गन नाना। बिप्र रूप आयउ तजि माना।।' मगर सांप तथा मछलियों के समूह व्याकुल हो गए। जब समुद्र ने जीवों को जलते जाना, तब सोने के थाल में अनेक मणियों को भरकर अभिमान छोड़कर वह ब्राह्मण के रूप में आया। इस प्रसंग पर तुलसीदासजी ने दो इशारे किए हैं। श्रीराम के क्रोध के आगे जलचर जलने लगे थे।

समुद्र को लगा इसका कारण मैं हूं। चूंकि उसे राम का सान्निध्य मिल रहा था इसलिए उसके अहंकार ने गलना शुरू किया और वह समझ गया कि यदि मैंने अभिमान नहीं छोड़ा तो मुझे श्रीराम की निकटता नहीं मिलेगी। फिर वह अभिमान छोड़कर उपस्थित हुआ। परमात्मा के सामने, गुरु के सामने और अपने माता-पिता के सामने हमें अभिमान शून्य होकर जाना चाहिए, क्योंकि अहंकार हटने के बाद हम इन तीनों के समक्ष अपना समर्पण भाव ला सकेंगे। वरना हमारा अहंकार इनसे दूर भागता है। इनका सान्निध्य नसीब वालों को ही मिलता है।

मित्रों को आकर्षित करती है सहजता
हमारे बीच कुछ ऐसे लोग होते हैं जिनके बहुत सारे मित्र होते हैं। इसका सतही कारण यह बताया जाता है कि जो लोग बहिर्मुखी होते हैं, वाचाल होते हैं, समीकरण बैठाने में कुशल होते हैं, उनके मित्रों का दायरा बड़ा होता है। किंतु यह ऊपरी तथ्य है। दोस्ती निभाने के लिए माली बनना पड़ता है।

माली अपने पेड़-पौधों से त्याग, सहयोग, समय, विश्वास और करुणा से पेश आता है। उन्हीं लोगों के दोस्त अधिक होते हैं, जिनमें ये पांच बातें होती हैं। आजकल कामकाज के संबंध होते हैं। वक्त गुजारने की यारियां बन जाती हैं, लेकिन दिल से दिल की दोस्ती कम नजर आती है। आज जिनके साथ हम घंटों उठते-बैठते हैं, फिर भी हम उनकी बात पर विश्वास नहीं करते।

हर बातचीत के नीचे अविश्वास की लहर चलती रहती है। हालांकि, कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिनकी हर  बात पर लोग विश्वास कर लेते हैं। इसमें बहुत दिनों तक पाखंड नहीं चलता। आपकी वाक् शैली कुछ समय तो लोगों को प्रभावित कर देगी, लेकिन लंबे समय तक यह अभिनय नहीं चल पाएगा।

यदि हम चाहते हैं कि लोग हम पर भरोसा करें, हमारे भी बड़ी संख्या में अच्छे मित्र हों, तो भीतर से सहज, साधारण बनकर रहने का अभ्यास बढ़ाएं। आप बाहर से कितने ही असाधारण हों, प्रतिष्ठित हों, प्रभावशाली हों, लेकिन भीतर से एकदम सहज रहें। मन हमें असहज बनाता है, जिसकी तीव्र इच्छा है कि हम असाधारण हो जाएं। साधारण बनने के लिए भीतर एक विचार स्थायी रूप से रोप दें और वह है हम कुछ भी नहीं हैं, सिर्फ उस परमात्मा का अंश हैं।

ध्यान बढ़ाता है स्वीकारने की क्षमता
इस बात को कभी अपने भीतर स्थायी रूप से मत उतरने दीजिए कि हम सब जानते हैं। यह गलतफहमी  सफलता की आपकी यात्रा को बाधित कर देगी। आपसे मिलने वाला छोटा या बड़ा व्यक्ति भी आपको कुछ अनमोल सीख दे सकता है पर हम लेने की तैयारी में नहीं होते। ध्यान रखिए, जिनके प्रति हमें श्रद्धा का भाव न हो उनसे भी कुछ सीखा जा सकता है। कभी-कभी हम मान लेते हैं कि हम उन्हीं से सीख हासिल करेंगे जिनके प्रति हमारे भीतर श्रद्धा-भक्ति होगी। दिल खुला रखें तो जिनसे हमें नफरत है, वे भी बहुत बड़ी सीख दे जाएंगे। जब भी हम किसी से कुछ सीखना चाहें तो तीन बातें करते रहें। एक तो उस व्यक्ति का अध्ययन करें, दूसरा उससे स्वयं की तुलना करें और तीसरा उसकी अच्छाई और बुराई में खुद को फ्रेम करें, फिर जो हमारे लायक है वो उठा लें। जब भी हम सीखने के दौर से गुजरते हैं हमारे भीतर एक रासायनिक प्रक्रिया शुरू हो जाती है। उससे हमारे व्यक्तित्व में भराव आ जाता है। यह भराव होता है ज्ञान का।

भीतर 'हमें सब आता है' यह घोषणा भरी हो तो अच्छी सीख बंद दरवाजे से टकराकर लौट जाती है। अध्यात्म में जब ध्यान की बात की जाती है, तो उसका यह मतलब नहीं होता कि भगवान को पाने के लिए ही मेडिटेशन किया जाए। ध्यान आपको भीतर से खाली करता है। यह खालीपन इतना पवित्र होता है कि इससे अच्छी बातें स्वीकार करने की क्षमता बढ़ जाती है। रात को या प्रात:काल किया हुआ ध्यान दिनभर आपके भीतर उस स्थान को खाली रखता है जहां श्रेष्ठ बातें प्रवेश कर सकती हैं।

आदतें ले जाती हैं सहज जीवन से दूर
एक होता है हमारा स्वभाव और दूसरी होती है आदत। इन दोनों से मिलकर हमारे व्यक्तित्व का वह महत्वपूर्ण हिस्सा तैयार होता है, जिससे हम अपना सांसारिक जीवन चलाते हैं। स्वभाव तैयार करने के लिए भीतरी प्रयास करने पड़ते हैं। थोड़ा एकांत साधना पड़ता है। अपने भीतर उतरकर मन, हृदय व मस्तिष्क को टटोलना पड़ता है। भक्ति करने वालों के लिए भीतर उतरना थोड़ा आसान रहता है। कर्मकांड में उलझे  लोगों को बाहर सुविधा रहती है। बाहर का सारा काम आदत से चलता है। इसलिए आदत पर टिके लोग बड़े कर्मकांडी बन जाते हैं। आदत का नतीजा अधिकांशत: अशांति है जबकि स्वभाव में जीने का परिणाम शांति है।

हमारे भीतर 90 प्रतिशत से अधिक आदतें दूसरों से आई होती हैं। यदि आप अपनी आदतों की सूची बनाएं तो पाएंगे कि इन्हें आपने जीवनभर दूसरों से ही एकत्रित किया है। इसीलिए ये आपकी जीवनयात्रा में सहायक बनने से अधिक व्यवधान बन जाती हैं। आदत के मामले में अत्यधिक सजगता रखिए, क्योंकि आपका शरीर आदतों से संचालित होता है। ये इतनी हावी हो जाती हैं कि शरीर पूरी तरह इन से नियंत्रित हो जाता है। आदतें प्राकृतिक जीवन-शैली से विपरीत दिशा में खींचती हैं। उदाहरण के तौर पर सूर्याेदय के आसपास उठना चाहिए। यह प्रकृति के निकट का निर्णय है, लेकिन आदत कहती है, देर से उठो। ऐसी कितनी ही आदतें हैं जो हमें सहज जीवनशैली से दूर ले जाती हैं। सावधान रहकर आदत से स्वभाव तक की यात्रा जारी रखें।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है...
मनीष

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