Monday, November 4, 2013

Jeene Ki Rah4 (जीने की राह )

महत्वाकांक्षा को परहित से जोड़ें
अपनी योग्यता को परिणाम देने का नाम महत्वाकांक्षा है। लेकिन जब इसमें निज की अति हो जाए, शोषण का शोक जुड़ जाए और सफलता नशा बनकर चढ़ जाए तब यह एक रोग बन जाती है। एक ऐसा रोग जिसका जहर पूरे शरीर में फैल जाता है। ऐसे व्यक्ति के भाग्य से शांति चली जाती है।

महत्वाकांक्षी होने में बुराई नहीं है। यदि आपके पास योग्यता है तो उसका फायदा मिलना ही चाहिए। इसलिए अपनी महत्वाकांक्षा के साथ एक आध्यात्मिक दृष्टिकोण रखें। किसी भी काम को पूरा करने के लिए तीन तरीके हैं - ज्ञान, कर्म और उपासना। काम कौन-सा अच्छा है इसे ज्ञान से तय किया जाता है। किया जाने वाला काम सही है या गलत इसका निर्णय बुद्धि करती है। बुद्धि भी तीन प्रकार की होती है। एक साधारण बुद्धि होती है, दूसरी कुबुद्धि और तीसरी होती है सुबुद्धि। इसे सात्विक बुद्धि भी कहा गया है जो लगातार योग से तैयार होती है।

लगातार योग इसे मेधा में बदल देता है और बाद में मेधा प्रज्ञा में बदल जाती है। प्रज्ञापूर्ण लोग जो भी कर्म करेंगे वो सही होगा और उपासना का अर्थ है पूर्ण समर्पण के साथ काम करना। इस तरह महत्वाकांक्षा जब ज्ञान, कर्म और उपासना से ठीक से संचालित होती है, तब वह परहित का भाव लेकर चलती है। परहित का भाव न हो तो महत्वाकांक्षा छीना-झपटी की तरह है। इसमें मानवता के नियम लागू नहीं होते। लूटना पड़ जाए तो लूट लो। आज अधिकांश लोग इसी तरह की महत्वाकांक्षा में जी रहे हैं। इसलिए अपनी महत्वाकांक्षा को परहित से जरूर जोड़ें।

जीवन का वास्तविक लक्ष्य परमात्मा
हमें सिखाया जाता है कि बचपन से ही जीवन का लक्ष्य तय होना चाहिए। आज की सारी शिक्षा प्रणाली इसी पर आधारित है। बच्चे जब मां-बाप पर आधारित होते हैं तो माता-पिता उनके उद्देश्य की पूर्ति के लिए पूरा जीवन झोंक देते हैं। स्वतंत्र होने पर मनुष्य अपने उद्देश्यों के लिए खुद जुट जाता है। कहा जाता है कि लक्ष्य स्पष्ट होना चाहिए और उसे प्राप्त करने के लिए कोई कसर छोडऩी नहीं चाहिए।

पर इसका अर्थ यही लगाया जाता है कि मनुष्य-निर्मित संसार ही हमारा उद्देश्य है। लोग सांसारिक उपलब्धियों को ही अपना लक्ष्य बना लेते हैं। लेकिन एक सीमा के बाद इसी पर टिक जाने का अर्थ है उलझनें पैदा करना। कितने ही सांसारिक उद्देश्य रखें, लेकिन एक उद्देश्य कभी न भूलें और वह है ईश्वर। वेदों में ईश्वर प्राप्ति को मानव जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य बताया गया है। ईश्वर प्राप्त करने में संसार नहीं छोडऩा पड़ता, लेकिन जो लोग केवल संसार प्राप्त करने में लगते हैं उनका ईश्वर जरूर छूट जाता है।

संसार, विज्ञान से जुड़े लोगों ने वेद-शास्त्र और परमात्मा को नहीं माना, लेकिन शास्त्र और ऋषि-मुनि विज्ञान और संसार को मानते हैं। ऋषि-मुनियों के समय भी जीवन विज्ञान पर खड़ा हुआ था, लेकिन उतना ही परमात्मा से भी जुड़ा हुआ था। विज्ञान की दुनिया तो फिर भी बसती-उजड़ती रहती है, लेकिन परमात्मा के संसार का आनंद ही अलग है। इसलिए कम से कम हम अपने बच्चों को यह जरूर सिखाएं कि दुनिया को पकडऩा बहुत कठिन नहीं है, लेकिन थोड़ी ऊर्जा परमात्मा को पकडऩे में भी लगाएं।

प्रवास का सुफल देने वाली पांच बातें
दुनिया का दायरा खूब बढ़ गया है। पहले गांव, नगर छोटे हुआ करते थे। इसीलिए जीवन में दौड़-भाग इतनी नहीं थी। अब तो महानगरों में काम पर जाने-आने में इतना समय लग जाता है, जितने में हवाई जहाज से एक देश से दूसरे देश में पहुंच जाएं। इसलिए यात्रा और जनसंपर्क  आवश्यक अनुष्ठान जैसे हैं। किसी विशेष कार्य के लिए यात्रा करते समय पांच बातों का ध्यान रखिएगा। समय, स्वास्थ्य, उद्देश्य, काम के लोगों की स्पष्ट सूची और ठहरने का स्थान। बातें छोटी हैं, लेकिन यदि साधी जाएं तो प्रवास का परिणाम सफल होगा।

पहली बात, हम भारतीयों में समय के मामले में जन्मजात लापरवाही रहती है। जीवन की धारा में समय बड़ा महत्वपूर्ण है। यदि समय चूक जाएं तो जीवन की धारा आगे बढ़ जाएगी और हम वहीं खड़े रह जाएंगे। दूसरी बात, जिन्हें लगातार प्रवास करना हो उन्हें स्वास्थ्य अथवा भोजन के मामले में अत्यधिक सतर्क रहना चाहिए, क्योंकि आप अपने बिगड़े स्वास्थ्य के कारण दूसरों के काम भी बिगाड़ रहे होते हैं।

तीसरी बात जिस काम के लिए जा रहे हों, उसका उद्देश्य स्पष्ट रखें। वरना श्रम तो होगा, सृजन नहीं हो पाएगा। चौथी बात, जिनसे भी हमारा संपर्क होने जा रहा है, उनसे पर्सनल टच रखें। भले ही उद्देश्य व्यावसायिक हों, लेकिन आपकी उपस्थिति उन्हें व्यक्तिगत और पर्सनल लगे और अंतिम बात ठहरने के स्थान के मामले में सात्विक बने रहें। ध्यान रखिएगा स्थान का भी अपना महत्व होता है।

बोलते समय शब्द भी हृदय से निकले
इस समय सामाजिक जीवन में जितने युद्ध चल रहे हैं उसमें एक युद्ध बोले जाने और न सुने जाने का भी है। बोलने वाले की शिकायत है कि उसे ठीक से सुना नहीं जा रहा। सुनने वालों का आरोप है कि अच्छे से बोला नहीं जा रहा। इस संघर्ष ने तो पति-पत्नी के रिश्ते तक खराब करवा दिए हैं। दो पीढिय़ों में इसी बात को लेकर मतभेद की खाई बढ़ती जा रही है। एक ही ध्येय वाले धर्म आमने-सामने खड़े हो गए। चलिए, आज इस पर विचार करें कि यह युद्ध कैसे रोका जाए। इसमें भाषा की एक बड़ी भूमिका है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो शब्द कहे वे शब्द सार्वभौमिक हैं।

गीता से साबित होता है कि भाषा का महत्व चार बातों से है - शब्द, उद्देश्य, स्थान और पात्र यानी कौन बोल रहा है और किससे बोली जा रही है। इन चार बातों के साथ हर भाषा अपनी जगह महत्वपूर्ण है। कोई भी भाषा बोलते समय शब्द एक यात्रा से गुजरकर बाहर आएंगे। थोड़ा अभ्यास कीजिए। शुरुआत  हृदय से होनी चाहिए। फिर दूसरा पड़ाव मस्तिष्क रहे। फिर इसे आंख से गुजारिए। इसके बाद कंठ में थोड़ा विश्राम दें, तब जिव्हा पर आए और होठ अपनी भूमिका निभाएं। हृदय श्रद्धा का केंद्र है।

अकारण एक भी शब्द न उगलें। मस्तिष्क उन शब्दों को सार्थक करेगा। इसके बाद कंठ उसमें मिठास डाल देगा। फिर जिव्हा उच्चारण का काम कर देगी और होठ मुस्कान के साथ उसे छठवें पड़ाव से बाहर विदा करेंगे। ऐसी भाषा मौन भी स्वीकार करेगा।

प्रकाश में सुनें अंतरात्मा की आवाज
लोगों को कहते सुना होगा कि हम जो भी कर रहे हैं अपनी अंतरात्मा को सुनकर कर रहे हैं। लोग समझ नहीं पाते कि अंतरात्मा की आवाज सुनाई कैसे देती है। क्या ऐसी कोई आवाज होती भी है? इसका बाहरी कानों से भी कोई लेना-देना नहीं है। इसका संबंध चिंतन से है, जो भीतर की आवाज का कान है। मुश्किल यह है कि हमारे भीतर दो तरह के लोग बोल रहे होते हैं। हर एक के भीतर भगवान और शैतान बसे हैं, बस प्रतिशत का फर्क है।

भले आदमी के भीतर भगवान का प्रतिशत अधिक रहता है और शैतान का कम। गलत लोगों में यह प्रतिशत उलटा हो जाता है। इसलिए जब भी आप चिंतन कर रहे हों तो समझ लें भीतर के कान सक्रिय हो गए और सावधानी से सुनिएगा कि आवाज किसकी है शैतान की या भगवान की। हमारे भीतर के शैतान की एक और खूबी है। वह भगवान की जैसी आवाज में बोल सकता है।

यह जो जैसी है, पैरोडी है, नकल है, इसे पहचानने में कहीं हम गड़बड़ा न जाएं। भीतर की आवाज प्रकाश से सुनी जाती है। सामान्य रूप से कहा जाता है कि प्रकाश का संबंध देखने से है, पर यह बाहरी जगत की बात है। भीतर का प्रकाश सुनने के लिए काम आता है।

अंधकार में शैतान को अवसर मिल जाता है कि वह भगवान की आवाज की नकल में हमको गलत बात भी सच का यकीन करा देता है। इसलिए अंतरात्मा को भीतर के प्रकाश में सुनें और इसके लिए योग का सहारा लें।

सन्मार्ग पर चलना शपथ का उद्देश्य
लोग अपने-अपने तरीके से एक-दूसरे को बांध लेते हैं। कहीं प्रेम से बांधा जाता है तो कहीं अपनेपन में। कुछ लोग दुश्मनी के कारण भी बंधे हुए रहते हैं। बंधन का एक और तरीका है- कसम का बंधन। भारत में कसम देने की लोक परंपरा है। संविधान में इसे ही शपथ का नाम दे दिया गया है। शपथ इसलिए ली जाती है कि सही के प्रति जो निर्णय लिया गया है उसे अवश्य पूरा किया जाए। पर शपथ की आड़ में कुछ लोग गलत काम भी करते हैं। कसम को भी हथियार बना लिया गया है। इसे राक्षसी वृत्ति कहते हैं। रावण पक्ष के लोग इसमें बड़े माहिर थे।

जब रावण के दूत पकड़े गए और राजा सुग्रीव ने आदेश दे दिया कि इन्हें अंग भंग किया जाए, तब देखिए राक्षसों ने क्या किया। सुंदरकांड में आया है- 'सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए। बांधि कटक चहु पास फिराए।। बहु प्रकार मारन कपि लागे। दीन पुकारत तदपि न त्यागे।। जो हमार हर नासा काना। तेहि कोसलाधीस कै आना। सुग्रीव के आदेश पर वानरों ने राक्षसों को प्रताडि़त करना आरंभ किया।

राक्षस गिड़गिड़ाने लगे, तब भी वानरों ने उन्हें छोड़ा नहीं तो राक्षसों ने कह दिया यदि हमारे नाक-कान काटोगे तो तुम्हें भगवान श्रीराम की कसम। वानरों को रुक जाना पड़ा। धर्म, संस्कृति, सभ्यता ये सब एक तरह की शपथ हैं सन्मार्ग पर चलने के लिए। राक्षसी वृत्ति के लोग धर्म की आड़ में ही अधर्म के काम करते हैं। संस्कृति के परदे में तमाम असांस्कृतिक कृत्य करते हैं।

विसर्जन ऐसा कि गणेशजी प्रसन्न हों
कई बार जीवन में आरंभ से अंत महत्वपूर्ण हो जाता है। यह देश, काल और परिस्थितियों पर निर्भर करता है। वैसे तो जितना महत्व आरंभ का है, उतना ही अंत का है। अब जीवन को ही लें। जन्म पर हमारा वश नहीं है इसलिए अंत महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि जीवन के अंत में हम यह नहीं कह सकेंगे। आरंभ से अंत महत्वपूर्ण है इसकी एक सुंदर घटना गणेश प्रतिमा का विसर्जन है। गणेशजी ऐसे देवता हैं जिन्होंने कहा है, 'मेरा आरंभ भी उत्सव है और अंत भी उत्सव'

शुरुआत की धूमधाम और समापन के उत्साह में कोई कमी न रहे। लेकिन हमारी जरा सी लापरवाही, प्रदर्शन के अति आग्रह ने अंत की सूरत बिगाड़ दी है। हम गणेश प्रतिमा का विसर्जन करते हुए कहते हैं अगले वर्ष बप्पा फिर आइएगा और गणेशजी हमसे कह रहे हैं, 'अगले वर्ष तब आऊंगा जब इस वर्ष विदा करते समय आने लायक रखोगे।'

यह मांग गणेशजी की भी है,  'मेरे विसर्जन को दिव्य और स्थायी बनाओ। मैंने जीवनभर शुभ का निर्माण किया है और जल को दूषित करके मेरे ही नाम पर अशुद्ध न किया जाए। मैं विवेक का देवता हूं और विवेक हमेशा यह घोषणा करता है कि देश, काल, परिस्थिति में साधनों का सद्पयोग करना।'

गणेशजी इस बात से बहुत प्रसन्न होंगे यदि उन्हें घर के जल में विसर्जित करके उनके पंचतत्व के एक रूप को अपने ही घर की क्यारी में पुन: आने के लिए आमंत्रित करें। वे फिर आएंगे और अपने साथ ढेर सारा शुभ लाएंगे।

विचारों में स्पष्टता लाती हैं पुस्तकें
आजकल के बच्चे पूछते हैं कि ग्रंथ, शास्त्र, पोथी और किताब में क्या अंतर है? आए दिन उन्हें कहा जाता है, 'शास्त्रों का पालन करो, धर्म-ग्रंथ पढ़ो।' ऐसे में इंटरनेट की पीढ़ी तो पूछेगी कि आखिर शास्त्र क्यों पढ़े जाएं, पोथी किस बात की होती है? आइए, इस पर विचार करें। पढऩे का संबंध पांच बातों से है - पहला, जानकारी से। दूसरा, इन्हें ज्ञान हासिल करने की दृष्टि से पढ़ा जाता है। जानकारी सतह का मामला है, ज्ञान गहराई है। तीसरी बात श्रद्धा से पढ़ा जाता है। चौथा पक्ष है पढऩे की वृत्ति ही होती है।

पढऩे की रुचि रखने वालों को जानकारी, ज्ञान और श्रद्धा से कोई लेना-देना नहीं होता। सबसे महत्वपूर्ण पांचवीं बात यह है कि जो भी साहित्य पढ़ें उसका संबंध जीवन से होना चाहिए। मनुष्य के जीवन की विशेषता यह है कि वह अंतरतम तक जीवंत होना चाहिए। कई लोग भीतर से बुझे हुए, मरे हुए से हैं। सिर्फ बाहर से गतिशील दिखते हैं। शास्त्र भरपूर जानकारी देते हैं। यदि गहराई से पढ़ें तो इनमें ज्ञान भी निकल आता है।

जानकारी, ज्ञान और श्रद्धा मिलाकर जिसे पढ़ा जाए वे ग्रंथ बन जाते हैं। फिर वे सामान्य पुस्तकें नहीं रह जातीं। जैसे पत्थर की मूर्ति प्राणप्रतिष्ठित होते ही पूजनीय हो जाती है, ऐसे ही पुस्तक में पढऩे वाला अपनी रुचि और वृत्ति की प्राणप्रतिष्ठा करता है। इसलिए आज की पीढ़ी के बच्चों को पढऩे से जरूर जोड़ें। पुस्तक पढऩे की आदत विचारों में स्पष्टता लाएगी और जीवन को जड़ बनाने से रोकेगी।

बुजुर्गों के सम्मान की परंपरा श्राद्ध
उम्र बढऩे के साथ सोच-विचार के धरातल भी बदल जाते हैं। बुजुर्गों को बात करते हुए देखें, उनके चिंतन पर उनकी शारीरिक स्थिति का प्रभाव नजर आएगा। बुढ़ापे में स्मृति क्षीण होने कारण वे एक ही विषय को बार-बार दोहराते हैं। अनुभव के कारण अधिकांश मौकों पर बड़े-बूढ़े आपस में बात कम और बहस ज्यादा करते दिखेंगे। चूंकि शरीर काम कर नहीं पाता और मन अत्यधिक सक्रिय होता है इसलिए मन का सारा दबाव चिंतन पर पड़ता है और वे चिंतन के सहारे जीते हैं।

वे या तो बैठे-बैठे सोचते रहेंगे या कोई सुनने वाला मिल जाए तो बीते समय की बातों को दोहराते रहेंगे। यदि ऐसा सतत चलता रहे तो वृद्धावस्था बोझ लगने लगती है। जीवन ऊब से भर जाता है। कुछ मृत्यु का इंतजार करने लगते हैं तो कुछ मृत्यु के भय से डरने लगते हैं। वे भूल जाते हैं कि जीवन समग्र का नाम है। जीवन की समग्रता में बचपन, जवानी और बुढ़ापा तीनों शामिल हैं। इसलिए भारतीय परंपरा में श्राद्ध पर्व के रूप में मनाया जाता है।

अन्न, पूजा आदि हमारे पितरों को कैसे और कितना पहुंचता है यह आज की पीढ़ी के लिए बहस का विषय हो सकता है, लेकिन वे इससे सहमत होंगे कि श्राद्ध पक्ष के इन १५ दिनों में अपने आस-पास के वृद्धजन, माता-पिता का भरपूर सेवा-सम्मान करना चाहिए। संकल्प लें कि श्राद्धपक्ष के बाद भी जीवनभर अपने गुजरे हुए और जीवित वरिष्ठ परिजनों के साथ विनम्रता और सेवापूर्ण व्यवहार करेंगे।

अपने भीतर खोजें दूसरे के गुण-दोष
जब हम किसी से दुखी होते हैं, जब हम किसी को नापसंद करते हैं या जब हम किसी में दोष देख रहे होते हैं, उस समय हमारी सारी दृष्टि उसके बाहरी रूप पर होती है। किसी के अंदर झांककर अपनी नापसंदगी का कारण खोजना कठिन है। इसीलिए हम अच्छे लोगों का भी गलत मूल्यांकन कर जाते हैं। जब भी किसी से मिलें, उसे दर्पण मान लें। उसमें जो भी अच्छाई या बुराई आपको दिखे उसे तुरंत अपने लिए देखना शुरू करें। यदि सामने वाले की अच्छाई हम अपने भीतर खोज लें तो इससे अधिक मुनाफे की मेल-मुलाकात और क्या होगी।

इसी प्रकार यदि उसके दोष हम अपने भीतर पकड़ लें तो स्वयं को सुधारने की इससे अच्छी प्रक्रिया हो नहीं सकती। कभी भी किसी भी संबंध से भागें नहीं। अक्सर लोग अपने सगे-संबंधियों से भी कतराने लगे हैं। पति-पत्नी एक-दूसरे से भागते हैं। एक ही छत के नीचे बाप-बेटा एक-दूसरे से चिढ़ते हैं। भाई-भाई मुंह फेर लेते हैं। घर में जब भी किसी सदस्य के सामने हों, तो उसके भीतर खुद को खोजें।

भागने से आप कभी भी खुद को नहीं पा सकेंगे। नियम बना लें कि जब भी आप किसी से मिलें तो समझ लें कि स्वयं से ही भेंट हो रही है। यह तरीका धीरे-धीरे हमें भीतर से प्रेमपूर्ण बना देगा। धीरे-धीरे परमात्मा से मिलने की स्थिति में ला देगा। दूसरे व्यक्ति को ऐसे निहारें जैसे स्वयं को दर्पण में देख रहे हों। आंखों को भी लगेगा कि मेरा इससे अच्छा उपयोग क्या हो सकता है।

विरोध बुराई से हो, बुरे व्यक्ति से नहीं
सच्चे भक्त अपने भीतर भगवान देखते हैं और फिर अपने भीतर के भगवान को दूसरों में भी देखते हैं। यहीं से उनके व्यक्तित्व में सदाशयता उतरती है। अपनी अंतरात्मा को परमात्मा की निकटता दे चुके लोग बहुत कठोर नजर आने पर भी भीतर से मुलायम होते हैं। श्रीराम के छोटे भाई लक्ष्मण इसी श्रेणी में आते हैं। सुग्रीव के कहने पर वानर रावण के दूतों के नाक-कान काटने पर उतारू हो गए थे। राक्षस दूतों ने भगवान की सौगंध दे दी। कसम की वजह से वानर राक्षसों को सजा नहीं दे पा रहे थे। तभी अपने आवेश के लिए पहचाने जाने वाले लक्ष्मणजी का प्रवेश होता है।

उनसे क्षमा की उम्मीद कम ही की जाती है। संभव था कि वे श्रीराम की सौगंध को अलग रखकर दंड देने में पीछे नहीं हटते, लेकिन हुआ बिल्कुल विपरीत। तुलसीदासजी ने सुंदरकांड में लिखा है, 'सुनि लछिमन सब निकट बोलाए। दया लागि हंसि तुरत छोड़ाए।। रावन कर दीजहु यह पाती। लछिमन बचन बाचु कुलघाती।।' राक्षसों की वाणी सुनकर लक्ष्मणजी ने उन्हें पास बुलाया। उन पर दया व हंसी आई और उन्हें छोड़ दिया, लेकिन साथ में एक चिट्ठी दी।

उसमें लिखा, 'ऐ कुलघाती रावण, लक्ष्मण की इस चिट्ठी को जरूर पढऩा।' दरअसल लक्ष्मण इस सिद्धांत के व्यक्ति हैं कि परमात्मा का साम्राज्य सभी के भीतर समान रूप से है। इसीलिए एक तरफ वे क्षमा कर रहे हैं और दूसरी तरफ क्रोध में रावण को चिट्ठी भी भेज रहे हैं। उनका विरोध बुराई से है, बुरे व्यक्ति से नहीं।

हर व्यक्ति में समाई है दिव्य शक्ति
शास्त्रों में परमात्मा के एक रूप को विश्व रूप कहा गया है। इस विचार से सभी धर्म सहमत हैं। इससे भगवान का दायरा बढ़ जाता है और उनके भक्तों की संकुचित वृत्ति खत्म होने लगती है। जैसे एक मां-बाप की संतान होने पर मां-बाप भेद नहीं करते। संतानें भी जानती हैं कि हम एक हैं। ऐसे ही परमात्मा का विश्व रूप हमें इस बात के लिए प्रेरित करता है कि पूरा संसार उसका परिवार है। जन्म के कारण धार्मिक स्थितियां पृथक हो सकती हैं, लेकिन हैं सब हम उसी की संतान, परंतु भेदभाव वैरभाव जगा देता है।

भेद की यह वृत्ति बहुत नजदीक के संबंधों में भी अलगाव और बिखराव ला देती है। पति-पत्नी एक ही भगवान को मानते हैं, लेकिन एक-दूसरे के प्रति विलग भाव रखते हैं। यही हाल धार्मिक संस्थाओं में हो जाता है। आज घर-घर में लोगों ने देव स्थान बनाए हैं। समान धर्म और अलग-अलग धर्म, दोनों से जुड़े लोग प्रतिस्पद्र्धा और प्रदर्शन पर उतर आए हैं, जबकि वे दावा करते हैं परमात्मा के विश्व रूप को मानने का।

लोग भगवान की खोज में निकलते हैं, लेकिन खुद की खोज नहीं करते। आप जितना खुद को ढूंढऩे में लगेंगे, उतना ही इस समझ से परिपक्व हो जाएंगे कि जो दिव्य शक्ति मुझ में है वह निश्चित ही सभी में समाई होगी। ऐसा है जरूर। किसी की प्रकट है तो किसी की दबी हुई है। भगवान हर एक की सांस-सांस में बसा है। जो भी सांस ले रहा है वह परमात्मा को ही अपने भीतर स्थान दे रहा है। इसके बावजूद लोग एक-दूसरे से भेद बना लेते हैं।

प्रार्थना में बढ़ाएं क्षमा मांगने का भाव
कोई व्यक्ति प्रार्थना करता है तो सामान्यत: यह माना जाता है कि कोई मांग की जा रही है। धीरे-धीरे ऊपर वाले से कुछ न कुछ मांगने के लिए ही लोग प्रार्थना करने लगते हैं। हमें क्या चाहिए, कितना मिलना चाहिए यह हमसे अधिक ईश्वर जानता है। मांग को कम करने के लिए प्रार्थना में क्षमा मांगने का भाव बढऩा चाहिए। हम पल-पल अपराध कर रहे हैं। कुछ अपराध तो ऐसे हैं जिन्हें हम गलत मानते ही नहीं। वे हमारी जीवनशैली का हिस्सा हो गए हैं, लेकिन ऊपर वाले की दुनिया में उसकी परिभाषा के अनुसार जो अपराध है उसका दंड भी है।

जब हम मालिक होते हैं तो सेवकों के प्रति अपराध कर जाते हैं। सेवक होते हुए मालिकों के लिए गलत भाव रखते हैं। हमारी पांच ज्ञानेंद्रियां और पांच कर्मेंद्रियां तो जैसे अपराध करने के लिए तत्पर ही रहती हैं। परमात्मा पिछले गलत कर्मों के परिणाम को भुगतने की हिम्मत देता है और आगे आप न करें इसके लिए होश देता है। इसलिए ऊपर वाले को पतित-पावन कहा गया है। हमें परमात्मा से क्षमायाचना करने में जरा भी संकोच नहीं करना चाहिए, क्योंकि जो उसने हमें दिया है हम उसका दुरुपयोग कर चुके होते हैं।

उसने हमें सांसारिक सफलता दी तो हमने उसकी दी हुई आत्मा को ही दफन कर दिया। हमें धन मिला तो हमने इसके उपयोग के विवेक को मार डाला। हमने वैभव और ख्याति की शाखाएं तो फैलाईं, लेकिन सत्य और समर्पण की जड़ों को खोखला कर दिया। इसलिए उससे क्षमा मांगी जाए।

असत्य का आवरण ज्यादा नहीं चलता
सत्य की उपेक्षा करना आदत बन जाता है। सत्य की आड़ में सबसे अधिक असत्य उतारे जाते हैं। कई बार तो सत्य को हथियार बनाकर अंधकार और अविश्वास पैदा कर दिए गए हैं। आज आतंकवादियों को सत्य के नाम पर ही तैयार किया जा रहा है। हिंसा जैसे असत्य को उन्होंने सत्य के रूप में स्वीकार कर लिया है। वैमनस्य और शत्रुता असत्य का परिणाम है। रावण को श्रीराम लगातार सत्य से परिचित करवा रहे थे। सीता स्वयंवर में धनुष तोड़कर उसे पहला परिचय दिया। फिर शूर्पणखा के नाक-कान काटकर दूसरा परिचय दिया।

तीसरी बार हनुमानजी लंका जलाकर लौटे और चौथी बार लक्ष्मण ने रावण को चिट्ठी भेजी। रावण ने हर बार सत्य को असत्य से ढंकने का प्रयास किया। असत्य का आवरण बहुत दिन नहीं चलता। विजयादशमी को सत्य सामने आ ही गया। लक्ष्मण की चिट्ठी के बाद भी रावण संभला नहीं। तुरत नाइ लछिमन पद माथा। चले दूत बरनत गुन गाथा।। कहत राम जसु लंका आए। रावन चरन सीस तिन्ह नाए।। बिहसि दसानन पूंछी बाता।

कहसि न सुक आपनि कुसलाता।। लक्ष्मणजी की चिट्ठी हाथ में लेकर दूत तुरंत रावण की ओर चल दिए। रावण ने भरी सभा में उनसे बातचीत की। वह सभा में खिसयानी हंसी के साथ श्रीराम के पक्ष की जानकारी लेना चाहता है। जबकि लक्ष्मण ने रावण के सामने फिर सत्य रखा था कि तुम गलत मार्ग पर हो, अब भी अवसर है और रावण ने उस सच को अपने अहंकार की हंसी में उड़ा दिया।

गांधीजी का जीवन गीता आधारित योग
हमारे परिवारों में एकता बनी रहे इसके लिए प्रेम और अपनापन जरूरी है, लेकिन इस समय प्रेम और अपनेपन की परिभाषाएं भी बदल गई हैं। प्रेम में वासना घोल दी गई है और अपनेपन को स्वार्थ से चिपका दिया गया है। लिहाजा इनसे तो परिवार बचेंगे नहीं। इसलिए परिवार बचाने के लिए अब एक आध्यात्मिक तेज की भी जरूरत है।

यह परिवार को न सिर्फ जोड़ेगा, बल्कि श्रेष्ठ और सफल भी बनाएगा। इसके अभाव में कई सफल परिवार टूटे हैं और श्रेष्ठ लोग भी भीतर से बिखरे हुए हैं। इसलिए परिवारों के केंद्र में योग आवश्यक है। केवल भक्ति रहेगी तो कर्मकांड हावी हो जाएंगे। कर्मकांड में पुरुषार्थ जुड़ा है इसलिए उसे नकारा नहीं जाना चाहिए, लेकिन इसके साथ यदि योग आ जाए, तो परिवार आध्यात्मिक तेज को प्राप्त कर सकेगा। गांधीजी ने पूरे राष्ट्र को परिवार मानकर यही प्रयोग किया था।

उन्होंने धर्म के मार्ग से प्रवेश किया और आध्यात्मिकता तक पहुंचे। राष्ट्रसेवा उनका कर्मकांड था, लेकिन गीता पर आधारित जीवन उनका योग था। श्रीराम को केवल राजा दशरथ के बेटे के रूप में पूजना एक कर्मकांड है, लेकिन १४ वर्ष श्रीराम ने जो किया, जिस तरह से वे रहे वह एक योग है। गांधीजी ने सत्ता से लेकर सामान्य व्यक्ति तक जितने आध्यात्मिक प्रयोग किए हैं, इतिहास में दूसरा उदाहरण नहीं मिलेगा।

उनका योग हमें यथार्थवादी और सत्य की मजबूत जमीन पर खड़ा कर गया। उनके लिए आजादी का मतलब था बाहर और भीतर से परिपक्व भारतीय और हम उल्टा कर गए। बाहर से जो गरीब हैं वे भीतर से अत्यधिक थक गए और जो बाहर से अमीर रहे वे अशांत होते गए।

लक्ष्य पूर्ति की अगन को लगन बनाएं
बिना ध्येय के जीवन ऐसा है जैसे हाथ में पतवार तो है, नाव नहीं है। ध्येय को पूरा करने की लगन न हो तो बिल्कुल ऐसा होगा जैसे नाव है, पतवार नहीं। शास्त्रों में कहा गया है, अक्षय ध्येयनिष्ठा हृदन्त: प्रजागर्तु तीव्रानिशम्। यानी हृदय के अंत:करण में ध्येय-निष्ठा अक्षय हो और पूरी तीव्रता से रात-दिन प्रज्वल्लित रहे। सरल भाषा में कहें तो अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए एक आग सी भीतर लगनी चाहिए। ऐसी अग्नि कई लोगों के भीतर जल भी जाती है। इसकी ताकत से वे सफल होकर शीर्ष पर पहुंच भी जाते हैं, लेकिन वह अग्नि भीतर से उन्हें झुलसा देती है।

दरअसल ध्येय पूर्ति की अग्नि एक उत्साह है, उमंग है। इसे लेकर हमें दो काम करने हैं। पहला यह कि जो खुद के भीतर है उसे दूसरों में स्थानांतरित करें। आपका उत्साह दूसरों की नीरसता दूर करे। बड़े-बड़े अभियान इसी तरह जोत से जोत जलाते हुए पूरे होते हैं, लेकिन यह सावधानी रखनी होगी कि उमंग और उत्साह की यह अग्नि हमें भीतर से झुलसा न दे। इसके लिए भक्ति-योग का जल हमारे भीतर होना चाहिए।

भक्ति के जल के साथ लक्ष्य पूर्ति की अग्नि अगन न बनकर लगन बन जाती है। जब हम अपना उत्साह दूसरे में भरते हैं, तब हमारे मन में यह भाव भी जाग जाता है कि जो भगवान हमारे भीतर है वही दूसरों में बसा है। भगवान स्वयं में खोजा जाता है और उसकी खोज पूरी तभी होती है जब हम उसे दूसरों में भी देखें। यही खोज हमारे लिए जीवन की मंजिल की खोज बन जाती है।

सदाचरण से प्रसन्न होते हैं पितृ
किसी संस्था में जरा कामयाबी मिलने पर उससे जुड़े लोग कुछ दिन बाद एक-दूसरे पर आरोप लगाने लगते हैं। शोषण का आरोप लगाना तो आम हो गया है। शोषण की कहानियां सारी हदें पार कर रही हैं। अच्छे-अच्छे अभियान इस कारण टूट गए। दरअसल शोषण की शुरुआत स्वार्थ से होती है। इससे बचने के लिए अपने भीतर श्रद्धा के बीज बोएं। जिस संस्था में लोग श्रद्धा से भरे हुए होंगे वे एक-दूसरे का शोषण नहीं करेंगे, बल्कि अपने विकास में एक-दूसरे की प्रगति भी देखेंगे। सामाजिक शोषण अहंकार और धार्मिक शोषण भावना कराती है। मानसिक शोषण बुरी आदतों द्वारा कराया जाता है। कुछ लोग मानते हैं कि दूसरों को रौंदकर ही आगे बढ़ा जा सकता है।

आज एक बहुत ही महत्वपूर्ण और अर्थपूर्ण त्योहार है सर्वपितृ अमावस्या। श्रद्धा क्या होती है और कितना गहरा परिणाम देती है यह त्योहार इसका उदाहरण है। शोषण की वृत्ति में जीने वाले लोग सर्वपितृ अमावस्या पर अपने पितरों को याद करते हुए ध्यान रखें कि एक दिन आपको भी उसी स्थिति में जाना है। पितृ बनते ही समूची पवित्रता उस दिव्यात्मा में उतर जाती है।

हमारे पवित्र पितरों को हमारा दूषित आचरण से दुख पहुंचा रहा है। आज का श्रेष्ठ कृत्य यह हो कि हम शोषण जैसी आदतों का विसर्जन कर दें। अर्पित किए गए अन्न से पितृ जितने तृप्त होते हैं, उससे अधिक प्रसन्न वह हमारे श्रद्धापूर्ण सदाचरण के संकल्प से होंगे। किसी दूसरे का शोषण करके आप एक ऐसा पाप करते हैं, जिसका हिसाब फिर तीसरा ही चुकाता है।

देह का अहंकार गलाने के नौ दिन
मनुष्य में एक बड़ा अहंकार देह का अहंकार होता है। यह अहंकार हमें आत्मा से दूर करता है और जो आत्मा से दूर है उसे परमात्मा की निकटता नहीं मिल सकती। शरीर के अहंकार को गलाने का मतलब यह नहीं  कि शरीर के प्रति लापरवाह हो जाएं। इसका सदुपयोग करना भी इसके अहंकार का गलना ही है।

आने वाले नौ दिन शरीर के अहंकार को गलाने के लिए बहुत उपयोगी हैं। इन नौ दिनों में हम शक्ति, तप और उत्सव  का मिला-जुला संसार निर्मित करेंगे। नवरात्रि में शक्ति आराधना का अर्थ है दुर्गुणों का संहार करना। तब हम आरोग्य को प्राप्त होंगे। स्वास्थ्य, शरीर का जन्मसिद्ध अधिकार है। 

उत्सव का मतलब है मिलनसारिता, जनविकास में भागीदारी। गरबा सामूहिक नृत्य ही नहीं है, आपसी मेलजोल से किसी लक्ष्य पर पहुंचने का संदेश भी है। इसलिए इन नौ दिन शरीर पर खूब काम करें। यह अभ्यास पूरे वर्ष काम आएगा। केवल प्रदर्शन और शोरगुल में न उलझ जाएं। हम अपने स्वयं के भीतर जितने दूषित हैं और उन दोषों की पूर्ति के लिए शरीर का उपयोग करते हैं। शुरुआत में आप इससे थोड़े गलत काम कराते हैं। बाद में जब ये करने लगता है तो आप रोक नहीं पाते। देखते ही देखते सबसे अच्छा मित्र सबसे बड़ा शत्रु बन जाता है।

नवरात्रि में शरीर को मित्र बनाने के नौ अवसर हैं, चूक न जाएं। शरीर के निर्माण में और उसके बाद भी शरीर पर सबसे बड़ा अधिकार मां का होता है। मां इन नौ दिनों में हमारे बहुत नजदीक हैं। इसलिए शक्ति, तप और उत्सव को सोच समझकर मनाएं।

हमारे भीतर मौजूद है सुरक्षा कवच
मनुष्य सबसे ज्यादा अशक्त तब हो जाता है, जब वह परमात्मा से संपर्क तोड़ लेता है। ध्यान रखिएगा जब परमशक्ति हमारे साथ न हो तो अच्छे लोग भी हमारे पास से चले जाएंगे। परमात्मा हमारे जीवन में होने का अर्थ है हम प्रेम, करुणा और क्षमा से भरे हुए रहेंगे। इनके जाते ही हम ईष्र्या, घृणा और क्रोध से भर जाएंगे। ये बातें हमें भीतर से कमजोर बनाती हैं। वे दुनिया के सर्वाधिक निर्बल लोग हैं, जो क्रोध और घृणा से भरे हुए हैं।

इनकी अधिक समय उपस्थिति संताप में बदल जाती है और संताप भीतर तथा बाहर दोनों ही से दुखदायी है। परमात्मा की निकटता का लाभ यह है कि हम उनके हृदय में और वो हमारे हृदय में उतरता है। धीरे-धीरे हम में एक बदलाव शुरू होता है और हम, हम नहीं रहकर परमात्मा जैसे ही होने लगते हैं। यहीं से दैहिक सुख के सही अर्थ समझ में आ जाते हैं। देह का सुख क्षणिक है और हम स्थायी की तलाश में रहते हैं।

फिर भी मंथन चलता रहता है। देह है तो वह अपना काम दिखाएगी। वह हमें खींचती है और अपने ऊपर टिकाती है। इसलिए संभव है हम बड़ी सावधानी के बाद भी कोई गलत काम कर जाएं, क्योंकि देह का क्षणिक सुख भी बड़ा प्रबल होता है। वह अपने पर टिकाकर झूठ, संशय, भय, हताशा, छल, कपट इनमें उलझा देता है। ये सब पैशाचिक कृत्यों के जन्मदाता हैं। बाहर जब ऐसी गड़बड़ हो, तो तुरंत अपने भीतर वहां जाएं, जहां हम परमात्मा से जुड़े हुए हैं। उस परिसर में हमें अपना सुरक्षा कवच मिल जाएगा। इसलिए उस परमशक्ति से जुड़े रहना जरूरी है।

सत्य स्वीकारने नहीं देता अहंकार
जीवन में सूचनाओं का बड़ा महत्व होता है। सूचना तंत्र की कमजोरी से बड़ी-बड़ी सत्ताएं समाप्त हो गईं। इसके दो पक्ष हैं, सूचना को सही रूप में एकत्रित करना तथा एकत्रित सूचना को ठीक से ग्रहण करना। लापरवाही सूचना के एकत्रीकरण में और अहंकार सही सूचना को ग्रहण करने में बाधक होता है। रावण को उसके गुप्तचर लगभग सही सूचना दे रहे थे। पुनि कहु खबरि बिभीषन केरी। जाहि मृत्यु आई अति नेरी।।

दशमुख रावण ने हंसकर पूछा, ‘अरे शुक! अपनी कुशल क्यों नहीं कहता? उस विभीषण का समाचार सुना, मृत्यु जिसके अत्यंत निकट आ गई है।करत राज लंका सठ त्यागी। होइहि जव कर कीट अभागी।। पुनि कहु भालु कीस कटकाई। कठिन काल प्रेरित चलि आई।। मूर्ख ने रा\'य करते हुए लंका को त्याग दिया। अभागा अब जौ का कीड़ा ((घुन)) बनेगा ((जौ के साथ जैसे घुन भी पिस जाता है, वैसे ही नर-वानरों के साथ वह भी मारा जाएगा)) फिर भालू और वानरों की सेना का हाल कह, जो कठिन काल की प्रेरणा से यहां चली आई है।

अहंकारवश रावण सही सूचना को अनसुना कर रहा था। सही सूचना को सुनकर रावण को अपनी भावी नीति बदलनी चाहिए थी, लेकिन अहंकार गलत दृश्यों का निर्माण भी करता है। उसका अहंकार वाणी बनकर भरी सभा में प्रदर्शित हो रहा था। ऐसा रावण के साथ ही नहीं होता, हमारे साथ भी हो सकता है। हम लोग जीवन में कई बार अपने अहं के कारण सही को स्वीकार नहीं करते और जब अपने साथ गलत हो जाए, तो भाग्य और भगवान को कोसने लगते हैं।

कर्म के भीतर छिपी शांति को खोजें
जो लोग अपने कर्म में छिपी हुई शांति को खोज लेते हैं वे कर्म के परिणाम पर परेशान नहीं होते। यह खूब काम करने का युग है और काम को लोगों ने नशा बना लिया है। परिश्रमी अंत में परेशान दिखते हैं। थोड़े से अभ्यास की जरूरत है। कर्म शुरू करने से पहले एक विशेष किस्म की सजगता अपने भीतर बढ़ाइए। वह सजगता है कर्म के भीतर उपस्थित शांति के कुछ तत्वों के प्रति। ये तत्व व्यक्ति, स्थिति, स्थान और निर्णय में शामिल होते हैं।

हर अभियान के पूर्व शांति के इन तत्वों पर काम कर लें, क्योंकि एक बार जब आप कर्म की पतवार लेकर संसार सागर में कूदेंगे, तो फिर समय नहीं मिलेगा। इसलिए शांति-सूत्रों का संचय करके ही छलांग लगाएं। जीवन है तो शांति होनी ही चाहिए। इनमें विरोध हम पैदा करते हैं। हमारे जन्म के समय जैसी शांति थी, वैसी मृत्यु के समय भी घटेगी। चूंकि जन्म और मृत्यु पर हमारा वश नहीं है, इसलिए उस समय की शांति हम समझ नहीं पाते, लेकिन थोड़ी सी सजगता हमें जीवन में काम आएगी। इसे कहते हैं बाहर कर्म और भीतर शांति।

इसे यूं समझें कि जीवन के केंद्र में शांति के तत्व ढूंढ़कर इकट्ठा करें और परिधि पर जमकर कृत्य करें। जब परिधि पर थक जाएं तो अपने ही केंद्र में उतर जाएं। कुछ लोग अपने केंद्र को कब्र की तरह बना लेते हैं तो कुछ चिता की तरह जलाते रहते हैं। वहां दोनों ही नहीं होना चाहिए। वहां एक गहरी शांति, एक दिव्य अनुभव मौजूद होगा। वहां तक जाने के लिए सांस उपयोगी है। सांस के माध्यम से परिधि और केंद्र के बीच की यात्रा करते रहना चाहिए।

भय से मुक्त करता है सत्संग
अपने हित के लिए सजग रहना समझदारी है। ऐसा कोई काम करना भी नहीं चाहिए, जिसमें अकारण अपना अहित हो जाए। वैसे भी यह जिंदगी को तोड़-मरोड़कर चलने का समय है। पर जब हम धर्म से जुड़े हों, परमात्मा से संबंध रखना चाहते हों तो हम दूसरों के हित के प्रति भी उदासीन न हों। मुश्किल यह है कि दूसरों का हित मनुष्य आसानी से नहीं करता। उसमें भी निजहित का छींटा जरूर लगाता है। परहित के पहले आत्म निरीक्षण जरूरी है। क्योंकि हमारे ही भीतर कुछ ऐसी आदतें होती हैं, जो हमको परहित में लगने से रोकती हैं। आदतें सुधरती हैं दृष्टिकोण से।

दृष्टिकोण में परिपक्वता लाने के लिए समझ की जरूरत होती है। ये दोनों सत्संग से मिलती हैं, इसलिए जीवन में थोड़ा बहुत समय सत्संग के लिए जरूर निकालिए। यूं तो सत्संग के लिए बहुत उद्देश्य बताए गए हैं, पर एक बड़ा उद्देश्य है भय से मुक्ति। सत्संग मनुष्य के अकेलेपन को मिटाता है, अंधकार को हटाता है व भय से मुक्त करता है। हमारी यहीं बातें किसी का हित करने में हमारे सामने बाधा बन जाती हैं।

सत्संग को लेकर एक और गलतफहमी लोगों को रहती है और वह है प्रभु स्मरण। केवल भगवान का नाम जपने या रटने से जीवन भयमुक्त नहीं होता। भगवान का स्मरण और भगवानमय जीवन, दो अलग-अलग बातें हैं। सत्संग से हम ऊपर वाले को केवल याद ही नहीं करें, बल्कि उसके जैसे होने की तैयारी शुरू कर दें। सत्संग माइक्रोफोन नहीं, एक ऐसा पुल है जिसके माध्यम से दोनों किनारे एक होने को तैयार हो जाते हैं।

इंद्रियों में संतुलन से समय प्रबंधन
समय प्रबंधन के प्रति गंभीर लोगों को अध्यात्म की दृष्टि से समय को देखने पर एक नया विचार मिल सकता है। अधिकांश मौकों पर आपके टाइम मैनेजमेंट को दूसरे लोग गड़बड़ा देते हैं। उन पर आपका पूरी तरह से कोई नियंत्रण नहीं हो सकता, लेकिन हम अच्छी तरह जानते हैं कि हमारे भीतर इसका कारण मौजूद है। हमारी पांच कर्मेंद्रियां और पांच ज्ञानेंद्रियां हैं। इनमें जब संतुलन बिगड़ता है, तब भीतर से समय को हम बर्बाद करते हैं।

कर्मेंद्रियां और ज्ञानेंद्रियां एक साथ चलनी चाहिए। हाथ, पैर, उत्सर्जन की दो इंद्रियां और कंठ ये कर्मेंद्रियां हैं। आंख, नाक, कान, त्वचा और जिह्वा ये ज्ञानेंद्रियां हैं। जहां इनका तालमेल बिगड़ा वहां हमने खुद ही समय प्रबंधन को ध्वस्त किया। सही समय प्रबंधन का सबसे बड़ा फायदा यह है कि आप किसी भी कार्य में परिणाम को पूर्व से महसूस करने लगते हैं। चाहे सफलता पूरी तरह न दिखाई दे, पर सही समय प्रबंधन उसका धुंधला रूप सामने ला देता है। मंजिल मिले या न मिले, पर मोड़ और पड़ाव की जानकारी मिलने लगती है।

अब ये भी समझ लें कि कर्मेंद्रियां और ज्ञानेंद्रियों में संतुलन बनाने के लिए क्या करना पड़ता है। निरहंकारी होना सबसे सही तरीका है। हमारे भीतर सबसे बड़ा साम्राज्य अहंकार का है। उसने अपनी सत्ता से क्रोध, लोभ, ईष्र्या, द्वेष, घृणा, मोह, आसक्ति, राग, विराग जैसे मंत्री नियुक्त कर रखे हैं। इनका सबसे बड़ा काम है ज्ञानेंद्रियों और कर्मेंद्रियों में दूरी बनाकर विपरीत दिशा में ले जाना। ये इंद्रियों को आपस में असहमत बना देते हैं और अनियंत्रित भी।

परमात्मा समभाव में घटी अनुभूति
एक घने जंगल में ईश्वर को पूर्णत: समर्पित एक संत सभी बाह्य आडम्बरों से मुक्त सादगी का जीवन व्यतीत करते थे। वे प्रत्येक शाम आसपास के ग्रामीणों को उपदेश देते। उन्हें सुनकर ग्रामीण अपने जीवन को सुधारने का प्रयत्न करते एक दिन एक शिक्षित युवक संत के पास आया। उसने संत को प्रणामकर अपनी जिज्ञासा रखी, गुरुजी! आप ईश्वर की बात करते हैं। क्या आपने ईश्वर के दर्शन किए हैं, जो आप साधिकार इस विषय पर इतना कुछ कह पाते हैं?

संत ने कुछ नहीं कहा और स्नेपूर्वक उसके सिर पर हाथ फेर दिया। युवक ने समझा कि संत के पास मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं है। फिर उन्होंने कहा, आओ, हम कुछ देर यहां के बगीचे में घूमें। बगीचे में गुलाब औरा रजनीगंधा के सुगंधित फूल लगे थे। युवक बोला, गुरुजी! इन फूलों की सुगंध से सारा वातावरण महक रहा है। संत ने कहा, वत्स! तुम ठीक कहते हो, किंतु एक बात बताओ कि यह सुगंध तुम्हें दिखाई दे रही है?

युवक बोला- जी, नहीं। सुगंध तो अनुभव की जाती है। तब संत ने कहा- क्रबस, यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है। तुम्हारे शरीर में जब कभी कहीं चोट लगती है, तो दर्द होता है। क्या इस दर्द को तुम देख सकते हो? युवक बोला- नहीं, वह भी अनुभूत ही होता है। संत ने अंतिम रूप से युवक का समाधान करते हुए कहा- आत्मा और परमात्मा के साथ भी यही बात है। आत्मा को परमात्मा की अनुभूति के द्वारा उसका साक्षात्कार होता है, न कि स्थूल नेत्रों से। युवक अब पूर्णत: संतुष्ट था। संत का आभार मानते हुए वह चला गया। परमात्मा सदैव अनुभूति के स्तर पर ही घटता है और यह घटना तब होती है, जबकि मन पूर्णत: निर्लिप्त तथा समभाव को प्राप्त हो चुका हो।

द्रौपदी ने किया पुत्रों के हत्यारे को क्षमा
महाभारत का एक प्रसंग है। द्रौपदी के पांच पुत्र एक रात सो रहे थे। युद्ध में अश्वत्थामा के पिता द्रोणाचार्य द्रोपदी के भाई धृष्टधुम्न के हाथों वीरगति को प्राप्त हुए थे। अत: प्रतिहिंसा से भरे अश्वत्थामा पांडवों के शिविर में घुसे और द्रौपदी के पांचों पुत्रों को मार डाला। अपने पुत्रों को मृत देखकर द्रौपदी विलाप करने लगीं।

पांडवों के हृदय प्रतिशोध की ज्वाला  में जलने लगे। अर्जुन ने अश्वत्थामा को पकड़ लिया। उसने द्रौपदी से कहा, तुम्हारा अपराधी सामने खड़ा है। तुम जो बोलोगी, वही दंड इसे दिया जाएगा।ञ्ज हालांकि द्रौपदी अपने पुत्रों के अवसान से दुख में डूबी हुई थीं और क्रोध भी कम नहीं था, किंतु अश्वत्थामा को देखकर उनके हृदय में मां की ममता उमड़ आई। उनका क्रोध शांत हो गया। वे बोलीं, आर्य! इन्हें छोड़ दीजिए। इनके प्राण लेने से मुझे मेरे पुत्र वापस नहीं मिल जाएंगे। द्रौपदी के उत्तर से हैरान अर्जुन ने कहा, क्रयह तुम्हारे पुत्रों का हत्यारा है। क्या इसे दंड देने से तुम्हें शांति नहीं मिलेगी?

तब द्रौपदी बोलीं, नहीं आर्य! ये मेरे अपराधी अवश्य हैं, किंतु किसी मां के बेटे भी हैं। जिस तरह मैं अपने पुत्रों की मृत्यु से शोक सागर में डूबी हूं, उसी प्रकार इनके मरने से गुरु पत्नी को बहुत चोट पहुंचेगी। मैं मां हूं और इसलिए किसी दूसरी मां को दुखी करना नहीं चाहती। मैं इन्हें क्षमा करती हूं और आप लोग भी ऐसा ही करें। पांडवों ने अश्वत्थामा को छोड़ दिया। क्षमा पाकर उन्हें घोर पश्चाताप हुआ। वे सिर झुकाए वहां से चले गए। दंड, अपराधी में विपरीत सोच भरता है, जबकि क्षमा से उसे पछतावा होता है और वह सुधार की राह पर बढ़ता है। अत: अपने स्वभाव में क्षमा को स्थान देना चाहिए।

बालक शेख सादी ने ऐसे छोड़ी परनिंदा
शेख सादी के नाम से हम सभी परिचित हैं। उनके जीवन से जुड़ी अनेक कहानियों से अच्छी शिक्षा मिलती है। इसलिए आज भी उन कहानियों को बड़े उत्साह से पढ़ा और सुना जाता है। उनके बाल्यकाल की एक घटना है। उनके पिता ने एक दिन विचार किया कि उन्हें लेकर मक्का की यात्रा करें। शेख सादी ने भी बड़े उत्साह से उनके साथ जाने की इच्छा व्यक्त की। चूंकि उन्होंने अपने पिता सहित अनेक बुजुर्गों से मक्का के विषय में काफी कुछ सुन रखा था, इसलिए स्वाभाविक रूप से उन्हें वहां जाने की इच्छा थी। फिर उन्हें यात्रा पर जाना अच्छा भी लगता था।

शेख सादी के पिता उन्हें लेकर मक्का के लिए रवाना हुए। ये लोग जिस दल में शामिल थे, उसका यह नियम था कि वे लोग आधी रात के समय उठकर अल्लाह की इबादत करते थे। शेख सादी और उनके पिता ने भी इस नियम का पालन किया। एक रात जब सभी लोग इबादत कर रहे थे, तो उनमें से कुछ लोग सो रहे थे। यह देखकर शेख सादी के बालमन को बुरा लगा।

उन्होंने अपने पिता से कहा, देखिए पिताजी! ये लोग कितने आलसी हैं। प्रार्थना के समय ऐसे सो रहे हैं। अपने पुत्र के मुख से दूसरों की बुराई सुनकर शेख सादी के पिता को अच्छा नहीं लगा। वे बोले, सादी! तू न जागता तो बेहतर होता। उठकर दूसरों की निंदा करने से तो न उठना अधिक अच्छा है।

पिता की बात ने शेख सादी को अपनी भूल का अहसास कराया। उस दिन के बाद उन्होंने कभी किसी की बुराई नहीं की। सकारात्मक ऊर्जा, सत्कार्य की प्रेरणा है, जबकि परनिंदा ऐसा अवगुण है जो ईष्र्यावश जन्म लेकर व्यक्ति में नकारात्मक दृष्टि को विकसित करता है। अत: परनिंदा से बचना चाहिए।

दृष्टिहीन साधु ने वाणी से जाना व्यक्तित्व
एक बार एक राजा अपने मंत्री और सेवक के साथ शिकार पर गया। राजा काफी दूर तक गया, किंतु कोई शिकार हाथ नहीं लगा। एक जलाशय पर पानी पीने के लिए तीनों रुके तो राजा को अचानक एक हिरण दिखाई दिया। राजा ने बिना कुछ बोले घोड़ा उसी दिशा में दौड़ा दिया। मंत्री और सेवक उसके साथ में आते, उसके पहले ही राजा घने जंगल में ओझल हो गया। राजा के लौटने में देर होती देख मंत्री ने सेवक को राजा को खोजने का हुक्म दिया।

रास्ते में एक दृष्टिहीन साधु को कुटिया में बैठा देख सेवक ने पूछा, क्र क्यों रे अंधे! इधर से कोई घुड़सवार तो नहीं गया? जवाब मिला मुझे नहीं पता। काफी देर सेवक का इंतजार कर मंत्री भी राजा की खोज में निकला। वह भी उसी कुटिया पर आया और पूछा- ओ साधु! क्या इधर से कोई घुड़सवार गया है? साधु ने कहा- हां! एक सेवक अभी यहां से होकर गया है। मंत्री आगे बढ़ गया।

थोड़ी देर बाद राजा स्वयं वहां पहुंचा और उसने साधु से कहा, साधु महाराज! प्रणाम। इधर से दो आदमी गए क्या? साधु बोला, क्रराजन! पहले आपका नौकर आया, फिर आपका मंत्री और अब आप पधारे हैं। राजा को साधु के दृष्टिहीन होने के बावजूद इतनी सही जानकारी देने पर आश्चर्य हुआ। तीनों की मुलाकात हुई तो उन्होंने अपनी हैरानी साधु के समक्ष रखी। साधु ने कहा, आपके संबोधन से मैंने आपको पहचाना।

अशिक्षित सेवक ने मुझे अंधे का संबोधन दिया। मंत्री ने कुछ शिक्षित होने के कारण साधु और राजा ने पूर्ण शिक्षित होने के कारण साधु महाराज कहा। राजा, साधु की बुद्धिमानी का कायल हो गया। सही अर्थों में शिक्षित व्यक्ति संस्कारवान होता है। ये ही संस्कार प्रत्येक स्थान पर उसकी शालीनता को दर्शाते हैं और समाज की दृष्टि में उसे आदरणीय बनाते हैं।

स्वावलंबन के बल पर बना बांध
वर्षों पहले उत्तरप्रदेश के एक छोटे से गांव में किसी संन्यासी बाबा ने डेरा डाला। सदैव प्रभु का नाम जपने वाले बाबा लोगों का दुख-दर्द बिल्कुल नहीं देख पाते थे। उनका मानना था कि मानव सेवा, ईश्वर की सबसे बड़ी सेवा है। बाबा ने गंगा के किनारे अपनी एक कुटिया बना रखी थी। जिस गांव में बाबा रहते थे, वहां वर्षा के दिनों में गंगा में बाढ़ आ जाती थी, जिससे सारे गांव में पानी भर जाता था। लोग जंगलों में, पेड़ों पर चढ़कर दिन बिताते। खाने-पीने की समस्या खड़ी हो जाती।

गांव वालों ने कई बार प्रशासन से बांध बनाने की मांग की, किंतु किसी ने उनकी समस्या को गंभीरता से नहीं लिया। बाबा ग्रामीणों को कष्ट में देखते तो बड़े दुखी हो जाते, किंतु इस समस्या को दूर करने का उपाय नहीं सुझाई देता। एक दिन बाबा से रहा नहीं गया। उन्होंने कुदाली और टोकरी उठाई और चल पड़े स्वयं बांध बनाने। ग्रामीणों को शंका हुई कि इतना बड़ा बांध बाबा अकेले कैसे बनाएंगे? किंतु बाबा दृढ़ निश्चयी थे। वे मिट्टी खोदने लगे और दिनभर खोदते रहे।

ग्रामीणों ने उनका निश्चय देखा तो वे भी उनके साथ आ लगे। सभी ने सोचा कि बाबा उनकी भलाई के लिए ही तो यह सब कर रहे हैं, फिर हमें भी उनका साथ देना चाहिए। जब सभी ने मिलकर मेहनत की तो एक वर्ष में बांध बनकर तैयार हो गया। गंगा की ओर की मिट्टी पानी से कटे नहीं, इसलिए पत्थरों को जमाना भी जरूरी था। सभी ने मिलकर पैसा इकट्ठा किया और बाहर से पत्थर मंगवाए। इस प्रकार सभी के सहयोग से ऐसा मजबूूत बांध बना कि गांव की समस्या सदा के लिए दूर हो गई। स्वावलंबन से असंभव दिखाई देने वाले कार्य भी संभव हो जाते हैं। इससे बंद राहें खुल जाती हैं और बड़े लक्ष्य हासिल होते हैं।

नूरी साबित हुए खुदा के सच्चे बंदे
सूफी संत अबुलहसन नूरी के विषय में यह विख्यात था कि जब वे अंधेरी रात में बोलते थे तो उनके मुंह से इतना नूर बाहर आता था कि सारा घर जगमगा उठता था। इसीलिए उन्हें नूरी कहा जाने लगा। लोग उन्हें श्रद्धाभाव से देखते थे, किंतु एक वर्ग उनसे और अन्य सूफी संतों से द्वेष भाव रखता था। इन्हीं में से किसी ने एक बार खलीफा से शिकायत कर दी कि सूफियों की एक अत्यंत विचित्र जमात है जो गीत गाकर नाचती है और कुफ्र के कलमे जबान पर लाती है, इसलिए इन्हें कत्ल कर देना चाहिए।

खलीफा ने यह सुनकर सूफी संतों को कत्ल करने का हुक्म दे दिया। सबसे पहले जल्लाद रकाम नामक संत को मारने पहुंचा तो वहां नूरी को बैठे देखा। लोगों ने नूरी से कहा, ‘आपको मारने का हुक्म नहीं हुआ है। फिर आप यहां क्यों आकर बैठ गए?’ नूरी ने उत्तर दिया, ‘ हमारे मजहब की बुनियाद त्याग और बलिदान पर खड़ी है। मैं रकाम के बदले अपनी जान देना चाहता हूं, क्योंकि इसमें खुदा की खिदमत करने का मौका है। नूरी की बातों से जल्लाद कांप गया।

उसने खलीफा को यह बताया तो खलीफा ने अपना हुक्म वापस लेकर काजी से कहा, ‘कानून इन लोगों के विषय में क्या कहता है, यह मुझे धर्मग्रंथ देखकर बताओ।काजी ने धर्मग्रंथों को छान डाला, किंतु सूफी संतों के खिलाफ कुछ नहीं मिला। तब नूरी ने काजी को समझाया, ‘अल्लाह ने कुछ लोग ऐसे पैदा किए हैं, जिन्हें जिंदगी और मौत उसी के दीदार से हासिल होती है। वे उसके बिना एक पल भी जिंदा नहीं रह सकते। हम उन्हीं लोगों में से हैं। तब खलीफा को अपनी भूल का अहसास हुआ। उसने सभी सूफी संतों से क्षमा मांगी। जो दूसरों के लिए सर्वस्व बलिदान करने हेतु तत्पर रहे, वही सच्चे अर्थों में खुदा का बंदा है।

सच्ची आस्था ने कराए प्रभु दर्शन
एक व्यक्ति अत्यंत धार्मिक प्रकृति का था। वह सदैव प्रभु-चिंतन और सत्कर्म में लगा रहता। उसकी हार्दिक इच्छा थी कि एक दिन उसे प्रभु दर्शन दें। एक दिन साधु वेशधारी एक कपटी आदमी से उसकी भेंट हुई। उसने साधु समझकर उसे प्रणाम किया और भगवान के दर्शन की अपनी इच्छा व्यक्त की। कपटी आदमी समझ गया कि यह आसानी से जाल में फंस जाएगा। उसने कहा- यदि तू वास्तव में ईश्वर के दर्शन करना चाहता है तो जो कुछ तेरे पास है, उसे बेच दे और पैसे लेकर मेरे साथ चल। मैं तुझे भगवान के दर्शन कराऊंगा।

धार्मिक व्यक्ति उस कपटी की बातों में आ गया। उसने अपना सबकुछ बेच दिया और पैसे लेकर उसके साथ चल दिया। चलते-चलते मार्ग में एक कुआं मिला। कपटी साधु ने कहा- तू अपने सारे पैसे यहां मुंडेर पर रख और कुएं में झांक, तुझे भगवान के दर्शन हो जाएंगे।

उस भक्त ने जैसे ही रुपयों की पोटली मुंडेर पर रख कुएं में झांका, साधु ने उसे धक्का दे दिया। कुआं सूखा था, किंतु उस आदमी को तनिक भी चोट नहीं आई और वास्तव में उसे अपनी सच्ची लगन के कारण ईश्वर के दर्शन हो गए। उधर साधु जैसे ही रुपयों की पोटली बगल में छिपाकर चला, सामने से आते हुए सिपाही ने उसे पकड़ लिया। धमकाने पर साधु ने डरकर सच बात बता दी।

तब सिपाही उसे लेकर कुएं पर आया और भक्त को बाहर निकाला। लेकिन उसने यह कहते हुए साधु को दंडित करने से इंकार कर दिया- जिसने मुझे दुनिया की माया से छुटकारा दिलाकर प्रभु के दर्शन करा दिए, उसका मैं हार्दिक आभारी हूं। सिपाही ने कपटी साधु को छोड़ दिया। इस घटना ने उसे बदल दिया और उसने छल-कपट की राह छोड़कर प्रभु भक्ति में स्वयं को रमा लिया। सच्ची आस्था सदैव फलदायी होती है। इसलिए कहा गया है- विश्वासं फलदायकम्।

लोभ से बचाता है आत्मविश्वास
किसी व्यक्ति को पहचानने के लिए लोग जितने तरीके अपनाते हैं उनमें से एक है उसके माता-पिता की जानकारी। इस जानकारी से काफी हद तक पता लग जाता है कि यदि मां-बाप ऐसे हैं, तो संतान कैसी होगी। जब हमसे कोई गलत काम हो रहा हो तो इस विधि को अपनाइए। हमारे यहां ऋषि-मुनियों ने हर दुर्गुण के मूल स्रोत की जानकारी भी दी है।

चलिए, आज केवल पाप की बात करें। पाप का बाप कौन है।? शास्त्रों में लिखा है लोभ। सुनने में चाहे ऐसा न लगे, लेकिन सच है कि हर पाप इसी से पैदा हुआ है। लोभ का संबंध धन से ही नहीं है। यह विलास को जन्म देता है और विलास से काम जागता है। धन के बहुत सारे दोष हैं और लोभ की शुरुआत ही इससे होती है। आज के दौर में तो हर वार्ता, संबंध, निर्णय पैसे के आसपास घूम रहे हैं। जब लोभ हृदय में उतरता है तो क्रोध सीने पर बैठ जाता है। वासना निगाहों में चढ़ जाती है और अहंकार माथे पर नाचता है। इन सबका वजन मनुष्य की चाल बिगाड़ देता है। जिस धन के लिए इतने लोग बावले हैं, वह किसी का नहीं होता।

जिन्हें अपने पर विश्वास होता है, वे लोभ से आसानी से बच सकेंगे। जैसे ही आप अपने पर भरोसा रखते हैं, आपके साथ परमात्मा की उपस्थिति जुड़ जाती है। लोभी स्वयं को छोड़कर दूसरों में सुख ढूंढऩे लगता है। उसका विश्वास होता है कि उसे तृप्ति दूसरों से मिलेगी। यहीं से लोभ की शुरुआत होती है। जबकि खुद पर विश्वास यह सिखाता है कि आपके अलावा आपको कोई तृप्त नहीं कर सकता।

संभावनाओं को खत्म करती है अति
जीवन में समझ का मतलब होता है संतुलन। जब भी हम किसी से कहते हैं समझ से काम लो तो अर्थ होता है उस स्थिति में मूल्यांकन संतुलित दृष्टि से किया जाए। किसी अति पर न टिका जाए। अति के कारण धर्म टूट गए, अति के कारण कई लोगों के जीवन के उद्देश्य बदल गए। शास्त्रों में एक जगह कहा गया है- अति रूपेण वै सीता अति गर्वेण रावण:। अति दानात् बलिर्बद्धी ह्यति सर्वत्र वर्जयेतु।। सीताजी के सौंदर्य की अति ने उनका अपहरण करा दिया था।

रावण घमंड की अति के कारण मारा गया। दान की अति करने पर राजा बलि को भगवान वामन ने बंदी बना लिया था। इसलिए अति से सावधान रहें। घड़ी चलती ही तब है, जब उसका पेंडुलम एक अति पर जाकर लौटता है, रुकता नहीं है। जब लोग संतुलन के प्रति लापरवाह होते हैं, तो वे हर बात में अति करने लगते हैं। अति एक तरह का अंधापन है। हम दूसरा पक्ष देख ही नहीं पाते, जबकि संसार इस मामले में बहुत सुंदर है कि यहां विविधता है। बुराई है तो शीर्ष पर अ'छाई भी है।

और तो और किसी व्यक्ति के भीतर दोनों की संभावना है। अति संभावनाओं को समाप्त कर देती है। संतुलन संभावनाओं को उजागर करता है। जैसे व्यंग्य करने और सुनने में अ'छा लगता है, लेकिन इसमें अति आ जाए तो यह विकृत हो जाता है। अति के कारण हम एक पक्का दृष्टिकोण बना लेते हैं और इंसानों में भी भेद करने लगते हैं। दुनियाभर के देशों में मनुष्य की आकृतियां ही अलग-अलग हैं। नीग्रो, चीनी, अंग्रेज, भारतीय इन सबके चेहरे यदि मिलाएं, तो मनुष्य तो मनुष्य ही रहेगा, पर आकृतियां बदली हुई दिखेंगी। पर अति का अंधापन इंसानियत का मतलब बदल देता है।

ईश्वर से ज्ञान और कृपा ही मांगें
परमेश्वर के लिए कहा गया है कि वह दानियों का भी दानी है। उसे महादानी कहकर संबोधित किया जाता है। इसीलिए लोग उससे मांगने में जुट जाते हैं। दानी से मांगना भी चाहिए, लेकिन लोग यह भूल जाते हैं कि मांगा क्या जाए। दरअसल परमात्मा दो बातों का दान करता है-एक, जीवन में अज्ञान का अंधकार मिटाने के लिए ज्ञान का दान करता है और दूसरा, कृपा देता है। यही दो बातें ईश्वर से मांगनी चाहिए। हम संसार की चीजें मांगते हैं जबकि भगवान कहते हैं ये तुम्हें खुद ही जुटानी हैं। मंदिर और तीर्थस्थलों को हमने मांगने के केंद्र, सौदेबाजी के अड्डे बना लिए हैं।

अब तो लोग मंदिर प्रार्थना या दर्शन के लिए नहीं हिसाब-किताब निपटाने के लिए ही जाते हैं। या तो आदमी मंदिर में अहंकार के साथ खड़ा है या फिर भीख मांगने की कामना से। मजेदार बात तो यह है कि इस भीख के पीछे भी अहंकार छिपा है। पूजा से उस परम शक्ति को पकडऩा है, लेकिन हमारी अकड़ यह है कि हम तुझे नहीं, तुझसे चाहते हैं। इसीलिए लोग धार्मिक होने का गौरव भूलकर गर्व में बदल देते हैं। कर्मकांड अहंकार हो जाता है। जरा-सा हम धर्म-कर्म से जुड़े और हम दूसरों को छोटा मानने लगते हैं।

हम समझते हैं कि हमें ईश्वर का पता है। पूजा, यज्ञ, तीर्थ, मंदिर हमसे जुड़े हैं। तिलक लगाकर एक तरह से हम सर्टिफिकेट पर हस्ताक्षर ले लेते हैं और यहीं हम भूल जाते हैं कि उससे मांगा क्या जाए। मणि की जगह कंकर ले लेते हैं, जो भविष्य में सिवाय सिर फोडऩे के और कुछ काम नहीं आएगा।

अकेलापन बचाने की कला है संन्यास
यह बहस बहुत पुरानी है कि साधु-संतों को कितना और कैसा सार्वजनिक जीवन बिताना चाहिए। एक पक्ष कहता है जीवन मुक्ति का जो सुख किसी संन्यासी को मिला है, वह भले ही व्यक्त नहीं किया जा सकता, लेकिन बांटा तो जा सकता है। आपकी उपलब्धि सबकी उपलब्धि बन जाए तो क्या बुरा है। दुनिया में अधिकांश लोग परेशान हैं और यदि आपको परेशानी से मुक्त होने का सूत्र हाथ लग गया है, तो उसे दूसरे हाथों में सौंपने में क्या दिक्कत है। हालांकि संतों का दूसरा पक्ष कहता है कि इससे कुछ नहीं होना है।

जिसका चित्त सिद्ध हो गया, उसे अपने एकांत को भंग नहीं करना चाहिए। संसार किसी की बात नहीं सुनता। उसे होश की जरूरत ही नहीं है। उसने विनाश स्वीकार कर लिया है। संतों को संसार और संसारियों से दूर ही रहना चाहिए। लेकिन अध्यात्म कहता है जो रोशनी आपके भीतर जागी है, उसे दूसरे में भी प्र"वलित करें। संसार में साधु चला जाए इसकी कोई दिक्कत नहीं है, पर संसार साधु में चला जाए तो परेशानी शुरू हो जाती है। इसलिए सावधान संत संसारियों से मिलते हुए भी अपना एकांत बचा लेते हैं।

संसारी लोग साधु-संतों से अकेले में मिलना चाहते हैं, क्योंकि अकेले में मनुष्य अपनी भूल आसानी से स्वीकार कर सकता है। अब ऐसे में संत ने यदि अपना एकांत नहीं बचाया, तो संसारी का दूषित अकेलापन साधु के एकांत को भी खा जाता है। इसलिए लोगों तक पहुंचना भी है और अपनी आध्यात्मिक उपलब्धि दूषित भी नहीं करनी है, अब इस कला का नाम संन्यास होगा।

सौदागर से नहीं मिलती सिद्धि
आजकल देखा जाता है कि लोग अपनी निजी उपलब्धि को बहुत जल्दी संस्थागत बना देते हैं। समाजसेवी संगठन, धार्मिक संगठन, आश्रम आदि इन्हीं का परिणाम है। कुछ दिन बाद मनुष्य अपनी योग्यता के साथ इसमें अपने दुर्गुण भी ले आता है। संस्थानों के लिए सबसे बड़ा खतरा है अहंकार और उसके बाद शुरू होता है विलास। धार्मिक संस्थाओं के पास जो वैभव है वह किसी व्यावसायिक संस्था से कम नहीं होता।

व्यवसाय वालों को जो भोग घोर परिश्रम के बाद मिलता है, धर्म जगत के अग्रणी जिनमें साधु-संत, बाबा-फकीर सब शामिल हैं, आसानी से कमा लेते हैं। फिर आसपास के लोग अपने हिस्से का दाना चुगने में देर नहीं करते और न चाहते हुए भी धर्म व्यवसाय बन जाता है। एक व्यक्ति के अहंकार से निर्मित संस्था में कई व्यक्तियों का अहंकार जुड़ जाता है। सामूहिक अहंकार और फैलता है। सब एक-दूसरे का लाभ उठाने लगते हैं। जिस उद्देश्य के लिए यात्रा आरंभ हुई थी वह उद्देश्य बही-खाते और तिजोरी में उलझ जाता है।

श्रद्धा का उपयोग करना यदि अक्ल से आ गया तो तिजोरी खजाने में बदल जाती है। इसीलिए नई पीढ़ी धर्म जगत को एक खास निगाह से देखने लगी। नई उम्र के बच्चे यह सवाल गलत नहीं उठाते कि इस क्षेत्र के लोग जितना रचनात्मक योगदान दे रहे हैं, उससे ज्यादा समाज से ले रहे हैं। लेने के रास्ते विध्वंस के हैं। सौदागर से सिद्धि कैसे मिल सकती है। दान-पुण्य वाली भयभीत पीढ़ी को यह चल गया, लेकिन तकनीकी युग के बच्चे इसे बर्दाश्त नहीं कर पाए।

आत्मा की आवाज में भरा है आनंद
सीधी सी बात है शोर हो तो आवाज सुनाई नहीं देती। ऐसे में लोग दो काम करते हैं- या तो सुनना बंद कर देते हैं या शोर कम कराते हैं। बाहर के मामले में यह नियंत्रण आसान होता है, लेकिन ऐसा ही खेल ठीक भीतर भी चल रहा होता है जब हमारी इंद्रियां हमें विषयों की ओर ले जाकर पटक रही होती हैं। यह काम मन की सक्रियता से होता है। उस समय हमारी आत्मा हमें आवाज लगाकर रोकती है, लेकिन उसी समय क्रोध, लोभ, वासना, भय इनका शोर शुरू हो जाता है।

आत्मा की आवाज में आनंद भरा है, लेकिन हम उसे नहीं सुन पाते। हम उस शोर में डूब जाते हैं। जैसे शोर में जब आरती होती है तो शब्द किसी को समझ में नहीं आते। भगवान का नाम कोई नारा नहीं है, जो चिल्ला-चिल्लाकर बोला जाए। परमात्मा के नाम में गहरा शून्य छुपा है और उसके लिए शांति की जरूरत है। ईश्वर आत्मा के माध्यम से ही हर क्षण हमें सावधान कर रहा है, लेकिन हम उतने ही लापरवाह होते जाते हैं। इसके बाद भी भगवान ने इंसान के प्रति अपनी उम्मीद कभी खत्म नहीं की।

हम उस पर भरोसा रखें या न रखें, उसे हम पर पूरा भरोसा है। परमात्मा मनुष्य को लेकर कभी निराश नहीं हुआ। वह रोज न सिर्फ इन्हें बनाता है, बल्कि खुद भी इनके भीतर उतर आता है। परमात्मा इस उम्मीद को कभी नहीं खोता कि इनमें से कुछ लोग होंगे, जो मुझे उजागर कर देंगे और इसीलिए उसे दुनिया का सबसे बड़ा माई-बाप कहा गया है। यदि माता-पिता संतान से निराश ही हो जाएं, तो फिर वे माता-पिता किस बात के।

शरीर के मोह में रहकर न जीयें
बीमारी से ठीक होने पर बहुत कम लोग यह जानने की कोशिश करते हैं कि आखिर बीमार हुए क्यों थे। चिकित्सा शास्त्र के पास इसके अपने जवाब होते हैं, लेकिन जो भक्त हैं उन्हें इसे प्रकृति से जोड़कर देखना चाहिए। ऋषि-मुनियों ने प्रकृति के सूक्ष्म रूप की कल्पना मनुष्य के शरीर में की है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ये पांच तत्व हैं। जब इनका संतुलन बिगड़ता है, तब बीमारियां हमें घेरती हैं। हमारे शरीर में जो भी ठोस है उसका संबंध पृथ्वी की ठोस अवस्था से है। जल की तरलता भी शरीर में प्रवाहित है।

अग्नि की ऊष्मा से पूरा शरीर संचारित है। कभी ये पाचन शक्ति के रूप में है, तो कभी 'वर के रूप में इसे समझा जा सकता है। शरीर के भीतर जो भी प्रवाहमान है, वह वायु का सूक्ष्म रूप है। हृदय का समूचा संचालन इसी से है और आकाश का सूक्ष्म तत्व भी शरीर में बसा है। हमारे यहां शास्त्रों में प्रलयकाल की कल्पना की गई है। यह एक ऐसा अवसर है, जब प्रकृति को समाप्त होना है और पुनर्रचना के लिए तैयार हो जाना है। इसी आधार पर चार युग निर्मित किए गए हैं।

कुल मिलाकर सिद्धांत यह है कि एक दिन सबको नष्ट होना है और जो भी नष्ट हुआ है उसका फिर सृजन होगा। इन पांच तत्वों की जो सूक्ष्म स्थितियां हैं वे प्रलयकाल में विकराल हो जाती हैं और जब ऐसा होता है तब प्रकृति बचती नहीं। इसलिए यह शरीर भी नाशवान है। इसे इसलिए संभाला जाए कि इसमें आत्मा का वास है, लेकिन इससे चिपककर ही जीवन न जिया जाए।

निष्काम गृहस्थी संन्यास से ऊंची
नर्क की कल्पना संभवत: इसीलिए की गई है कि कुछ लोग इसके भय से कायदे में रहें। ऐसा माना जाता है कि घर-गृहस्थी में रहने वाले लोगों के मुकाबले साधु-संन्यासी अधिक तपस्वी होते हैं। हालांकि सारा मामला तप, त्याग और वैराग्य का ही नहीं है, इसके पीछे व्यक्तिगत  रुचि और जीवनशैली भी काम करती है। ऊपरी आवरण ओढ़कर आप इन दोनों में से कुछ भी बन सकते हैं और भीतर ही भीतर इन दोनों में से किसी एक की तरह आचरण कर भी सकते हैं। शास्त्रों में कहीं-कहीं तो संन्यास से अधिक गृहस्थ जीवन को महत्व दिया गया है।

यदि गृहस्थी में निष्कामता उतर आए तो यह संन्यास से भी ऊंची स्थिति हो जाएगी। पूजा-पाठ में जब करुणा उतर आए तो वह भक्ति बन जाएगी और भक्त चाहे घर में हो या जंगल में, गृहस्थ हो या संन्यस्त, उसका आत्म-त्याग और आत्म-दर्शन उसे योगी बना देगा, क्योंकि इंद्रियों का संयम दोनों ही स्थितियों में आवश्यक है। आजकल लोग साधु तो बन जाते हैं, पर इंद्रिय संयम के मामले में चूक जाते हैं। किसी एक साधु को गलती करते हुए देखकर बाकी सब दो तरीके से सावधान होते हैं।

कुछ तो यह सबक लेते हैं कि गलत काम नहीं करना चाहिए। दूसरी तरह के लोग वे होते हैं जो यह मानते हैं कि अब इस तरह से गलती करनी है कि पकड़े न जाएं। ये सारा ध्यान सावधानी पर लगाते हैं। अपराध मुक्त होने की जगह अपराध के तरीके के प्रति होशियार होने की कोशिश करते हैं। इसीलिए मनुष्य गृहस्थी में हो या साधुता में, उसे अपने आसपास तप बनाए रखने के लिए भय का निर्माण करना ही होगा। यह भय डराने वाला नहीं है, बल्कि प्रेम की पवित्रता में डुबोने वाला होना चाहिए।

कर्मकांड से जुड़ा प्राकृतिक अनुशासन
आमतौर पर बड़े-बूढ़े आज भी बच्चों से यह कहते हुए पाए जाते हैं कि भाई दिनचर्या ठीक रखो। इसका सीधा-सा अर्थ है सोने-उठने, खाने-पीने, सुनने-बोलने, देखने-जानने का संयम। ये सब दिनचर्या के हिस्से हैं। होते २४ घंटे ही हैं और इन्हें कालखंड में बांटकर कुछ गतिविधियां की जाती हैं।  बॉडी क्लॉक इसी के साथ काम करती है। अनियमित दिनचर्या आपकी सारी उपलब्धियों को ठिकाने लगा देगी। यदि खूब संपत्ति भी मिल गई, अपने शत्रुओं पर विजय भी हासिल कर ली, मित्रों पर खूब धन खर्च भी कर दिया, आलीशान कोठी में रहे या झोपड़ी में, शानदान कपड़े पहने या फटे-चीथड़े, ५६ भोग उड़ाए या रूखी-सूखी खाई, लेकिन यह सब यदि दिनचर्या के दायरे में नहीं हुआ तो होते हुए भी न होने जैसा होगा। इसीलिए हमारे यहां शास्त्रों ने दिनचर्या को कर्मकांड से जोड़ा।

सूर्य को जल देने से लेकर रात्रि में पढ़े जाने वाले मंत्र तक एक प्राकृतिक अनुशासन जुड़ा हुआ है। जैसे लोगों ने दिनचर्या के मामले में समय का दुरुपयोग किया, वैसे ही कर्मकांड को लेकर लोभ और भय का निर्माण किया। फिर दोनों की अति होने लगी। अस्त-व्यस्त दिनचर्या ने युवा पीढ़ी को मस्ती का एक ऐसा मंत्र दिया कि उन्होंने मान ही लिया जो कुछ है वह आज है। खाओ-पीयो और मौज करो, कल की कल देखेंगे।

कर्मकांड से जुड़े लोगों ने लोभ और भय की आड़ में पूजा को धंधा बना लिया। इसी अति के कारण धर्मों पर प्रहार हुआ। लोग कर्मकांड से मुक्त हुए और दिनचर्या से भी न बंधते हुए बेलगाम हो गए। मनुष्य की अशांति का एक बड़ा कारण यह भी रहा कि हमने  भोजन और शयन को केवल क्रिया मान लिया, जबकि यह जीवन की प्रतिछाया जैसा है।

योग से गुजरें, खुद धन्वंतरि हो जाएंगे
सबसे बड़ी दौलत निरोगी काया है। लोगों ने निरोगी शब्द भुला दिया और देह सबसे बड़ी सम्पत्ति बन गई। जिंदगी देह और दौलत के आसपास मंडराने लगी। जैसे शरीर की सम्पत्ति उसके निरोगी होने में है, ऐसे ही धन का महत्व उसे सदाचार से कमाने और खर्च करने में है। आज संयोग से दोनों का ही दिन है। धन्वंतरि देवताओं के वैद्य हैं। इस समय धरती पर हर किस्म के धन्वंतरि हैं। पहले एक चिकित्सक अनेक बीमारियों का इलाज कर देता था और अब एक बीमारी पर अनेक चिकित्सक लगते हैं।

पहले डॉक्टर पर भगवान जैसा भरोसा किया जाता था, अब दोनों संदेह के घेरे में हैं। जब आप अपना इलाज करा रहे होते हैं, तो हर सांस के साथ यह विचार चल रहा होता है कि आप ठीक हो रहे हैं या ठगा रहे हैं। मनुष्य का शरीर चिकित्सकों के लिए बैंक के एटीएम जैसा हो गया है। चाहे जिस अंग से, चाहे जितनी राशि निकाल लें। लोग शास्त्रों को पुराना बताकर भले ही खारिज करें, पर उनमें कुछ बातें कमाल की लिखी हैं। शास्त्रों ने चेतावनी दी है कि एक दिन जब यह शरीर छूटेगा, तो कोई साथ नहीं देगा।

इसलिए खुद अपने शरीर से अलग होने की क्रिया शुरू कर दें। घंटों डॉक्टरों का इंतजार करनेे के साथ-साथ कुछ समय खुद के साथ बैठने में भी बिताएं। इसी का नाम योग है। योग आपको शरीर, मन और आत्मा के अंतर से परिचित कराएगा। कुल मिलाकर जो योग से गुजरेगा वह अपना धन्वंतरि खुद हो जाएगा। चिकित्सकों की आवश्यकता को नकारा नहीं जाना चाहिए, लेकिन खुद की जागरूकता को खत्म भी नहीं करना चाहिए।

धन को संतोष से जोड़ा जाना चाहिए
परिश्रम और धन का पुराना नाता है। किसी के साथ भाग्य और धन का भी गहरा संबंध होता है। इन तीनों का संबंध संतोष से जोडऩा चाहिए। धन मिले या न मिले, संतोष बना रहे। कई बार लोग संतोष की आड़ में आलसी हो जाते हैं, यह भी न करें। पुराने जमाने में लोगों ने धन कमाने के लिए सब तरह की चेष्टाएं की थी। भर्तृहरि ने कहा है, 'धन की उम्मीद में लोग धरती के पेंदे तक खुदाई कर देते हैं। समुद्र की गहरी थाह में जाते हैं। श्मशान में रात-रात भर बैठकर मंत्र सिद्धि करते हैं और फिर भी भरोसा नहीं कि लक्ष्मी आ ही जाए।

आज के युग में नए तरीके अपनाए जाते हैं। इसलिए धन को संतोष से जोड़ा जाना चाहिए। हमारे यहां ऋषि-मुनियों ने धनपर्व को दिवाली से जोड़ दिया है। ये दिन सम्पत्ति की समझ के दिन हैं। इन पांच-सात दिनों में वर्षभर के लक्ष्मी प्रबंधन को समझना चाहिए। इसमें व्रत और उपवास से जोड़कर ईमानदारी, संतोष और परोपकार की नीयत डाली गई है। समाज एक-दूसरे से इस अवसर पर जुड़ जाता है।

इसका सीधा मतलब है, आपके पास सम्पत्ति हो तो उदार मन से उसे सबके लिए उपयोगी बनाएं। देने का सुख भी उत्सव है। यह विचार ही पर्व को जन्म देता है, लेकिन याद रखिए दौलत अपने साथ दुर्गुण जरूर लाती है। यदि आपने व्रत और उपवास साधे हैं, तो आप धन के दुरुपयोग से बच जाएंगे। पैसा मनुष्य को धक्का देता है कि चलो कुछ गलत करें। मन धनवान और निर्धन दोनों का समान रूप से चंचल होता है, लेकिन इसमें यदि लक्ष्मी की चंचलता जुड़ जाए तो धनवान को विलासी और निर्धन को अपराधी बनने में देर नहीं लगेगी।

प्रेम का प्रकाश ही अंधेरे का इलाज
साधारण से असाधारण बनने का एक तरीका सदाचार ही है, लेकिन लोगों ने इसे केवल सम्पत्ति से जोड़ लिया है। यदि आपके पास धन है, तो लोग आपको असाधारण मान लेंगे। आपकी प्रतिष्ठा में चार चांद लग जाएंगे। किंतु यह अधूरा विचार है। दिवाली की चकाचौंध के बाद जो दृश्य साफ हुआ है उसमें अपने सदाचार पर दृष्टि डालिए। अच्छे से कमाइए और उससे भी अच्छे से खर्च कीजिए। लक्ष्मी अच्छे मार्ग से घर में आए और पवित्र तरीके से घर से बाहर जाए।

सत्यवादी, संयमी, दयावान और परिश्रमी लोग लक्ष्मी की पसंद हैं। पिछले दिनों हमने इन्हीं सब पर खूब चिंतन किया और अब दीप पर्व की दृष्टि से नए वर्ष में इस विचार से शुरुआत करें कि जो देते हैं, वे फिर से पाते हैं। शुभ और शुभ बनकर आएगा। रहीम कहा करते थे - मांगने वाले तो मरे हुए हैं ही, लेकिन जो समर्थ होकर नहीं देता वह भी मुर्दा है। कुछ न कुछ दान जरूर कीजिए। आपके पास करेंसी की दौलत ही नहीं है।

विद्या, दया, सहयोग, सद्भाव, सेवा ये सब भी सम्पत्ति की श्रेणी में आते हैं। इन्हें खूब बांटिए। कुदरत ने इनके साथ स्थायी सिद्धांत जोड़ रखा है कि यह देने पर बढ़ता है और बचाने पर घटेगा। अगर ठीक से आसपास नजर डालें तो आप पाएंगे बहुत तरह के गरीब, दीन-दुखी लोग आपसे अपेक्षा लगाए खड़े हैं। दौलतमंद भी दुखी हो सकता है। इसलिए किसी का दुख कैसे दूर हो, इसका प्रयास करते रहें। दिवाली तो गई, पर उस अंधेरे को मिटाने के लिए सतत दीपक जलाते रहें, जो लोगों के भीतर स्थायी रूप से बसा हुआ है। प्रेम का प्रकाश ही इस अंधकार का इलाज है।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है... मनीष


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