Sunday, October 20, 2013

Mahabharat (महाभारत ) Part 2

कैसे मिले युद्ध के लिए अर्जुन को शस्त्र? 
जन्मेजय ने पूछा अर्जुन किस प्रकार दिव्य अस्त्र प्राप्त किए? वैशम्पायनजी ने कहा जन्मेजय अर्जुन हिमालय लांघकर एक बड़े कंटीले जंगल में जा पहुंचे। उसे देखकर अर्जुन के मन में प्रसन्नता हुई। वे उसी जंगल में रहकर आनंद से तपस्या करने लगे। पहले महीने में उन्होंने तीन-तीन दिन पर पेड़ों से गिरे सुखे पत्ते खाए। दूसरे महीने में पंद्रह-पंद्रह दिन में। चौथे महीने में बांह उठाकर पैर के अंगूठे की नोक के बल पर बिना किसी आधार के खड़े हो गए। केवल हवा पीकर तपस्या करने लगे। अर्जुन के तेज से दिशाएं धुमिल होने लगी। भगवान शंकर ने उनसे कहा मैं आज अर्जुन की इच्छा पूरी करूंगा। भगवान शंकर ने भील का रूप ग्रहण किया। भील का रूप धरकर वे अर्जुन के पास आए। बहुत से भूत-प्रेत भी उनके साथ भील के वेष में उनके साथ आए।

भगवान शंकर जब अर्जुन के पास आए तो उन्होंने देखा कि शूकर का वेष धारण कर तपस्वी अर्जुन को मार डालने की घात देख रहा है। अर्जुन ने भी शूकर को देख लिया। उन्होंने उसके ऊपर गांडिव को टंकारते हुए कहा कि तु मुझ निरअपराध को मारना चाहता है। मैं तुझे अभी यमराज के हवाले करता हूं। ज्यो ही उन्होंने बाण छोडऩा चाहा, भील के वेष में आए शिवजी ने उन्हें रोका और कहा कि मैं पहले से ही इसे मारने का निश्चय कर चुका हूं। इसलिए तुम इसे मत मारो।

अर्जुन को बड़ा आश्चर्य हुआ जब...

अर्जुन ने भील की बात ना सुनते हुए उस शूकर पर तीर चला दिया। शिवजी ने भी उसके ऊपर तीर चलाया। दोनों के तीर शूकर के ऊपर जाकर टकराए और वह शूकर दानव के रूप में प्रकट होकर मर गया। अब अर्जुन ने भील की ओर देखा। उन्होने कहा-तू कौन है इस वन में अकेला क्यों घूम रहा है? यह शूकर मेरा तिरस्कार करने के लिए यहां आया था, मैंने पहले ही इसका विचार कर लिया था। फिर तूने इसका वध क्यों किया? अब मैं तुझे जीता नहीं छोड़ूंगा। भील ने कहा इस शूकर पर मैंने तुमसे पहले प्रहार किया। मेरा भी विचार पहले का था। यह मेरा निशाना था। मैंने ही इसे मारा है तुम तनिक ठहर जाओ। मैं बाण चलाता हूं। शक्ति हो तो सहो। नहीं तो तुम्ही मुझ पर बाण चलाओ। भील की बात सुनकर अर्जुन क्रोध से आगबबूला हो गए। वे भील पर बाणों की वर्षा करने लगे।

अर्जुन के बाण जैसे ही भील के पास आते, वह उन्हें पकड़ लेता। भीलवेषधारी शंकर हंसकर कहते कि मार खूब मार जरा सी भी कमी ना करे। अर्जुन ने बाणों की झड़ी लगा दी। भील एक बाल भी बांका न हुआ। यह देखकर अर्जुन के आश्चर्य की सीमा ना रही। अर्जुन ने धनुष की नोंक से मारना शुरू किया। भील ने धनुष भी छीन लिया। अब घुसे की बारी आयी।

भील ने बदले में जो घूसा मारा उससे अर्जुन को दोनों भुजाओं में दबाकर पिण्डी कर दिया वे हिलने-चलने में भी असर्मथ हो गए। दम घुटने लगा। थोड़ी देर बाद अर्जुन को होश आया। उन्होंने मिट्टी की एक वेदी बनायी। उस पर भगवान शंकर की स्थापना की ओर से शरणागत होकर उनकी पूजा करने लगे। अर्जुन को बड़ा आश्चर्य जो पुष्प उन्होंने शिवजी की मूर्ति पर चढ़ाया है वह उस भील के सिर पर है।

अर्जुन ने उर्वशी को देखा तो...अर्जुन भगवान के चले जाने के बाद रथ की प्रतिक्षा कर रहे थे। थोड़ी ही देर में इन्द्र का सारथि मातलि दिव्य रथ की प्रतीक्षा कर रहे थे। थोड़ी ही देर में इन्द्र का सारथि सातलि दिव्य रथ लेकर वहां उपस्थित हुआ। उस रथ की उज्जवल कांति से आकाश में अंधेरा मिट गया। बादल तितर बितर हो रहे थे। भीषण ध्वनि से दिशाएं प्रतिध्वनित हो रही थी। उसकी कांति दिव्य थी। रथ में तलवार, शक्ति, गदाएं, तेजस्वी, भाले, वज्र पहियोंवाली, तोपें आदि दस हजार हवा की रफ्तार से चलने वाले घोड़े थे। उस दिव्य रथ की चमक से आंखे चौंधिया जाती थी।

सोने के डण्डे में झंडा लहरा रहा था। मातलि सारथि ने अर्जुन के पास आकर प्रणाम करके कहा श्रीमान देवराज इन्द्र आपसे मिलना चाहते हैं। आप उनके रथ पर शीघ्र सवार होकर चलिए। सारथि की बात सुनकर अर्जुन के मन में बहुत प्रसन्नता हुई। शास्त्रोक्त रीति से उन्होंने देवताओं का तर्पण किया। मन्दराचल से उठकर वहां से तपस्वी ऋषि मुनियों की दृष्टी से ओझल हो गए। अर्जुन ने देखा कि वहां सूर्य का, चंद्र का अथवा अग्रि का प्रकाश नहीं था। अपनी पुण्य प्राप्त कांति से चमकते रहते है आर पृथ्वी से तारों के रूप में दीपक के समान दिखते है। वे पुण्यात्मा पुरुषों का मार्ग लांघकर आगे निकल गया था। इसके बाद राजर्षियों के पुण्यवान लोक पड़े उसके बाद उन्हें इन्द्र की पुरी अमरावती के दर्शन हुए। स्वर्ग का दृश्य बहुत ही सुन्दर था। अमरावती में देवताओं के सहस्त्रों इच्छानुसार चलने वाले विमान खड़े थे।

सभी महर्षि अर्जुन की पूजा में लग गए। वे अर्जुन का स्वागत करने के लिए ही बैठे हुए थे। उनके साथ अप्सराएं थी उन्होंने सभी ने अर्जुन उचित सेवा व सत्कार किया। एक दिन अनुकूल अवसर पाकर देवराज इन्द्र ने अर्जुन से कहा अब तुम चित्रसेन गंधर्व से नाच-गाना सीख लो। अब अर्जुन चित्रसेन से नाच गाना सीखने लगे। यह सब करते हुए अर्जुन को अपनी माता का याद आ गई। एक दिन की बात है इन्द्र ने देखा कि अर्जुन उर्वशी की ओर देख रहा है। उन्होंने चित्रसेन को एकान्त में बुलाकर कहा कि तुम उर्वशी को मेरा संदेश दो कि वह अर्जुन के पास जाए।

तब अर्जुन शर्म के कारण जमीन में गड़ से गए...इस तरह उर्वशी जब अर्जुन के पास पहुंची और अर्जुन ने उर्वशी को देखा तो वे मन ही मन कई तरह की शंका करने लगे। उन्होंने संकोचवश आंखें बंद कर ली। गुरुजन के समान उसका आदरसत्कार किया और बोले मैं तुम्हे सिर झुकाकर नमस्कार करता हूं। मैं तुम्हारा सेवक हूं मुझे आज्ञा करों। उर्वशी अचेत सी हो गई। उसने देवराज से कहा इन्द्र की आज्ञा से चित्रसेन मेरे पास आया था।

उसने मेरे पास आकर आपके गुणों का वर्णन किया। आपके पास आने की प्रेरणा दी इसलिए मैं आपके पास आई हूं। केवल आज्ञा की ही बात नहीं है जब से मैंने आपको देखा है और आपके गुणों के बारे में सुना है तब से मेरा मन आप पर लग गया। मैं काम के वश मैं हूं। बहुत दिनों से मैं यह चाहती थी कि आप मुझे स्वीकार करें। उर्वशी की बात सुनकर मारे संकोच के अर्जुन जमीन में गड़ गए। उन्होंने अपने हाथों से अपने कान बंद कर लिए और कहा आप मेरे लिए मेरी गुरुपत्नी के समान है।

क्यों दिया उर्वशी ने अर्जुन को नपुंसक होने का शाप?
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वसभा में मैंने तुम्हे देखा था तो मेरे मन में कोई बुरा भाव नहीं था। मैं यही सोच रहा था कि पुरुवंश की यही आनन्दमयी माता है तुम्हे पहचानते ही ही मेरी आंखे से खिल उठी। इसी से मैं तुम को देख रहा था। मेरे संबंध में आपको कोई और बात नहीं सोचना चाहिए। उर्वशी ने कहा अर्जुन अप्सराओं का किसी के साथ विवाह नहीं होता।

हम स्वतंत्र हैं इसलिए मुझे गुरुजन की पदवी पर बैठाना उचित नहीं है। आप मुझ पर प्रसन्न हो जाइए। मैं काम वेग में जल रही हूं।आप मेरा दुख मिटाइए। अर्जुन ने कहा मैं तुमसे सच कह रहा हूं। दिशा और विदिशाएं अपने अधिदेवताओं के साथ मेरी सुन ले। जैसे कुन्ती, माद्री, और इन्द्रपत्नी शचि मेरी माताएं है। वैसे ही तुम पुरुवंश की जननी होने के कारण मेरी पुज्यनीय माता हो।

मैं तुम्हारे चरणों में झुककर प्रणाम करता हूं। अर्जुन की बात सुनकर उर्वशी क्रोध के मारे कांपने लगी। उसने अर्जुन को शाप दिया- उर्वशी ने कहा मैं तुम्हारे पिता इन्द्र की आज्ञा से ही तुम्हारे पास आई थी फिर भी तुम मेरी इच्छा पूरी नहीं कर रहे हो। इसलिए जाओ तुम्हे स्त्रियों के नर्तक होकर रहना पड़ेगा और सम्मानरहित होकर तुम नपुसंक नाम से प्रसिद्ध होओगे। इतना कहकर वह अपने निवास स्थान लौट चली।

जब अर्जुन उर्वशी का शाप सुनकर घबरा गए तो...उसके बाद अर्जुन जल्दी से चित्रसेन के पास गए और उर्वशी ने जो कुछ कहा था, वह सब कह सुनाया। चित्रसेन ने सारी बातें इन्द्र से कहीं। इन्द्र ने अर्जुन को एकान्त में बुलाकर बहुत कुछ समझाया और हंसते हुए कहा अर्जुन तुम्हारे जैसा पुत्र पाकर कुंती सचमुच पुत्रवती हुई। तुमने अपने धैर्य से तुमने अपने धैर्य से ऋषियों को भी जीत लिया है। उर्वशी ने तुम्हे शाप दिया है उससे तुम्हारा बहुत काम बनेगा। जिस समय तुम तेहरवे वर्ष का गुप्तवास करोगे उस समय तुम एक वर्ष तक नपुसंक के रूप में एक महीने तक छूपकर रहोगे। फिर तुम्हे पुरुषत्व की प्राप्ति हो जाएगी। उनकी चिंता मिट गयी। वे गंधर्वराज चित्रसेन के साथ रहकर स्वर्ग के सुख लूटने लगे।

अर्जुन इन्द्र के आधे आसन पर बैठ गए मन ही मन सोचने लगे कि अर्जुन को यह आसन कैसे मिल गया। इसने कौन सा ऐसा पुण्य किया है। किन देशों को जीता है। जिससे इसे इंद्रासन प्राप्त हो। इन्द्र ने लोमेश मुनि के मन जान ली। उन्होंने कहा मुनि श्री आपके मन में जो यह विचार उत्पन्न हुआ है उसका उत्तर मैं आपको देता हूं। अर्जुन केवल मनुष्य नहीं है। यह मनुष्यरूपधारी देवता है। मनुष्यों में तो इसका अवतार हुआ है। यह सनातन ऋषि नर है। इसने इस समय पृथ्वी पर अवतार लिया है। वे वरदान पाकर अपने आपको भूल गए हैं।

बाद में पछताने से क्या फायदा?अधिकतर माता-पिता अपने बच्चों से किसी तरह की गलती होने पर उनसे दो तरह का व्यवहार करते हैं या तो वे अपने बच्चों को समझाने के लिए उन्हें मारते पीटते हैं या फि र उनकी गलत बात पर भी उन्हें नहीं टोकते और मोह के कारण उन्हें अपना लेते हैं। महाभारत का यह दृश्य हमें यही सीख देता है कि दोनों तरह का व्यवहार ही आपके और आपकी संतान के लिए बुरा हो सकता है इसलिए जब आपकी संतान किसी ऐसी बात के लिए जिद करे जो उसके आने वाले कल को प्रभावित कर सकती है तो ऐसे में उसके मोह में अंधे ना हो बल्कि उसे समझाएं व उचित मार्गदर्शन करें वरना बाद में पछताने के अलावा कोई रास्ता नहीं रह जाता।

राजा धृतराष्ट्र को अर्जुन के स्वर्ग में निवास करने का समाचार वेदव्यास जी से मिला। उनके जाने के बाद धृतराष्ट्र ने संजय से कहा- संजय मैंने अर्जुन के स्वर्ग में रहने का समाचार सुना। क्या तुम्हे इस बात का पता है? मेरे पुत्र दुर्योधन की बुद्धि मन्द है। इसी से वह बुरे कामों में लगा रहता है। वह अपनी दुष्टता के कारण राज्य का नाश कर देगा। युधिष्ठिर बहुत धर्मात्मा है। वे साधारण बात में भी कभी झूठ नहीं बोलते है। उन्हें अर्जुन जैसा भाई मिला है। वे चाहें तो तीनो लोकों पर राज कर सकते हैं। जिस समय अर्जुन अपने बाणों का उपयोग करेगा। उस समय भला उसके सामने कौन खड़ा होगा। संजय ने कहा- महाराज आपने दुर्योधन के बारे में जो बात कही है वह सच है। अर्जुन के संबंध में मैंने यह सुना है कि उन्होंने युद्ध में अपने धनुष का बल दिखाकर भगवान शंकर को प्रसन्न कर लिया है।

अर्जुन की परीक्षा लेने के लिए भगवान शंकर स्वयं भील का वेष धारण करके उनके पास आए उनसे युद्ध किया था। उन्होंने युद्ध में प्रसन्न होकर अर्जुन को दिव्य अस्त्र दिया। अर्जुन की तपस्या से खुश होकर सभी लोकपालों ने भी उसे दिव्य अस्त्र व शस्त्र दिए। ऐसा अर्जुन के सिवा और कौन है? अर्जुन का बल अपार है उनकी शक्ति अपरिमित है। धृतराष्ट्र ने कहा संजय मेरे पुत्रों ने पांडवों को बहुत कष्ट दिया है। उनका बहुत अपमान किया है। हमारे पक्ष में ऐसा कोई भी योद्धा नहीं है जो पांडवों से ज्यादा योग्य हो। मैंने दुर्योधन की बात में आकर अपने हितैषी लोगों की बात नहीं मानी। अब लगता है कि मुझे बहुत पछताना पड़ेगा। संजय ने कहा महाराज आप सब कर सकते थे लेकिन आप अपने पुत्र के मोह के कारण उसे बुरे काम करने से नहीं रोक पाएं।

हंस ने राजा से क्या वादा किया?उनके आने पर युधिष्ठिर ने उनका बहुत आदर-सत्कार किया। उनके विश्राम कर लेने पर युधिष्ठिर अपना वृतांत सुनाने लगे। उन्होंने कहा कि महाराज कौरवो ने कपट बुद्धि से मुझे बुलाकर छल के साथ जूआ खेला और मुझ अनजान को हराकर मुझसे सब कुछ छीन लिया। इतना ही नहीं उन्होंने मेरी पत्नी द्रोपदी को घसीटकर भरी सभा में अपमानित किया। तब बृहदश्व ने कहा आपका यह कहना ठीक नहीं है कि आपके जैसा दुखी राजा और कोई नहीं हुआ। यदि आप आज्ञा दें तो मैं आपको नल राजा की कहानी सुनाता हूं।

तब युधिष्ठिर ने कहा महाराज मुझे उनकी कथा सुनाकर धन्य कीजिए।निषध देश में वीरसेन के पुत्र नल नाम के एक राजा थे। बहुत सुन्दर और गुणवान थे। वे सभी तरह की अस्त्र विद्या में भी बहुत निपुण थे। उन्हें जूआ खेलने का भी थोड़ा शोक था। उन्हीं दिनों विदभग् देश में भीमक नाम के एक राजा राज्य करते थे। वे भी नल के समान ही सर्वगुण सम्पन्न थे। उन्होंने दमन ऋषि को प्रसन्न करके उनके वरदान से चार संतान प्राप्त की थी- तीन पुत्र और एक कन्या । पुत्रों के नाम थे दम,दान्त व दमन पुत्री का नाम था दमयन्ती। दमयन्ती लक्ष्मी के समान रूपवन्ती थी। बड़ी-बड़ी आंखे थी। उस समय देवताओं और यक्षों मे कोई भी कन्या इतनी रूपवती नहीं थी।

उन दिनों कितने ही लोग उस देश में आते और राजा नल से दमयन्ती के गुणों का बखान करते। एक दिन राजा नल ने अपने महल के उद्यान में कुछ हंसों को देखा। उन्होंने एक हंसे को पकड़ लिया। हंस ने कहा आप मुझे छोड़ दीजिए तो हम लोग दमयन्ती के पास जाकर आपके गुणों का ऐसा वर्णन करेंगे कि वह आपको जरूर वर लेगी।

जरा गौर से सुनिए! क्योंकि ये है एक अमर प्रेम कहानी...वे सब हंस उड़कर राजकुमारी दमयन्ती के पास गए। दमयन्ती उन्हें देखकर बहुत खुश हुई। हंसों को पकडऩे के लिए दौडऩे लगी। दमयन्ती जिस हंस को पकड़कर दौड़ती। वही हंस बोल उठता- रानी दमयन्ती निषध देश का एक नल नाम का राजा है। वह राजा बहुत सुन्दर है। मनुष्यों में उसके समान सुंदर और कोई नहीं है। वह मानो साक्षात कामदेव का स्वरूप है। यदि तुम उसकी पत्नी बन जाओ तो तुम्हारा जन्म और रूप दोनों सफल हो जाए।

वह अश्विनीकु मार के समानसुन्दर है। मनुष्यों में उसके समान सुंदर और कोई नहीं है। जैसे तुम स्त्रियों में रत्न हो, वैसे ही नल पुरुषों को भूषण है। तुम दोनों की जोड़ी बहुत सुंदर है। दमयन्ती ने कहा- हंस तुम नल से भी ऐसी ही बात कहना। हंस ने लौटकर राजा नल को उनका संदेश दिया। दमयन्ती हंस के मुंह से राजा नल की कीर्ति सुनकर उनसे प्रेम करने लगी।

उसकी आसक्ति इतनी बढ़ गई कि वह रात दिन उनका ही ध्यान करती रहती। शरीर धूमिल और दुबला हो गया। वे कमजोर सी दिखने लगी। सहेलियों ने दमयन्ती के मन के भाव जानकर राजा से निवेदन किया कि आपकी पुत्री अस्वस्थ्य हो गई हैं। राजा ने बहुत विचार किया और अंत में इस निर्णय पर पहुंचा कि मेरी पुत्री विवाह योग्य हो गई है।

कहते हैं कलयुग में जरूर सुनना चाहिए ये कहानी...दमयन्ती के पिता ने सभी देशों के राजा को स्वयंवर के लिए निमंत्रण पत्र भेज दिया और सूचित कर दिया। सभी देश के राजा हाथी व घोड़ों के रथों से वहां पहुंचने लगे। नारद और पर्वत से सभी देवताओं को भी दमयन्ती के स्वयंवर का समाचार मिल गया। इन्द्र और सभी लोकपाल भी अपने वाहनों सहित रवाना हुए। राजा नल को भी संदेश मिला तो वे भी दमयन्ती से स्वयंवर के लिए वहां पहुंचे। नल के रूप को देखकर इंद्र ने रास्ते में अपने विमान को खड़ा कर दिया और नीचे उतरकर कहा कि राजा नल आप बहुत सत्यव्रती हैं।

आप हम लोगों के दूत बन जाइए। नल ने प्रतिज्ञा कर ली और कहा कि करूंगा। फिर पूछा कि आप कौन है तो इन्द्र ने कहा हम लोग देवता है। हम लोग दमयन्ती के लिए यहां आएं हैं। आप हमारे दूत बनकर दमयन्ती के पास जाइए और कहिए कि इन्द्र, वरुण, अग्रि और यमदेवता तुम्हारे पास आकर तुमसे विवाह करना चाहते हैं। इनमें से तुम चाहो उस देवता को अपना पति स्वीकार कर लो।

नल ने दोनों हाथ जोड़कर कहा कि देवराज वहां आप लोगों का और मेरे जाने का एक ही प्रायोजन है। इसलिए आप मुझे वहां दूत बनाकर भेजे यह उचित नहीं है। जिसकी किसी स्त्री को पत्नी के रूप में पाने की इच्छा हो चुकी हो वह भला उसको कैसे छोड़ सकता है और उसके पास जाकर ऐसी बात कह ही कैसे सकता है? आप लोग कृपया इस विषय में मुझे क्षमा कीजिए। देवताओं ने कहा नल तुम पहले हम लोगों से प्रतिज्ञा कर चुके हो कि मैं तुम्हारा काम करूंगा। अब प्रतिज्ञा मत तोड़ो। अविलम्ब वहां चले जाओ। नल ने कहा- राजमहल में निरंतर कड़ा पहरा रहता है मैं कैसे जा सकुंगा।

और राजकुमारी ने कह दी अपने दिल की बातइन्द्र की आज्ञा से नल ने राजमहल में बिना रोक टोक के प्रवेश किया। दमयन्ती और उसकी सहेलियां भी उसे देखकर मुग्ध हो गयी और लज्जित होकर कुछ बोल न सकी। तुम देखने में बड़े सुंदर और निर्दोष जान पड़ते हो। पहले यहां आते समय द्वारपालों ने तुम्हे देखा क्यों नहीं? उनसे तनिक भी चूक हो जाने पर मेरे पिता बहुत कड़ा दण्ड देते हैं। नल ने कहा- मैं नल हूं। लोकपालों का दूत बनकर तुम्हारे पास आया हूं।

सुन्दरी ये देवता तुम्हारे साथ विवाह करना चाहते हैं। तुम इनमें से किसी एक देवता के साथ विवाह कर लो। यही संदेश लेकर मैं तुम्हारे पास आया हूं। उन देवताओं के प्रभाव से जब मैंने तुम्हारे महल में प्रवेश किया तो मुझे कोई देख नहीं पाया। मैंने तुमसे देवताओं का संदेश कह दिया है अब जो कहना है कह दो। अब तुम्हारी जो इच्छा हो करो।

दमयन्ती ने बड़ी श्रृद्धा के साथ देवताओं को प्रणाम करके मन्द मुस्कान के साथ कहा स्वामी मैं तो आपको ही अपना सर्वस्व मानकर अपने आप को आपके चरणों में सौंपना चाहती हूं। जिस दिन से मैंने हंसों की बात सुनी तभी से मैं आपके लिए व्याकुल हूं। आपके लिए ही मैंने राजाओं की भीड़ इकट्ठी की है। यदि आप मुझ दासी की प्रार्थना अस्वीकार कर देंगे तो मैं जहर खाकर मर जाऊंगी।

दमयन्ती की खुशी का ठिकाना ना रहा जब...राजा नल ने दमयन्ती से कहा- जब बड़े-बड़े लोकपाल तुमसे शादी करना चाहते हैं फिर तुम मुझ मनुष्य से क्यों शादी करना चाहती हो। मैं तो उन देवताओं के चरणों की धूल के बराबर भी नहीं हूं। तुम अपना मन उन्हीं में लगाओ। देवताओं का अप्रिय करने पर इंसान की मृत्यु हो सकती है। तुम मेरी रक्षा करो और उनको वरण कर लो। नल की बात सुनकर दमयन्ती घबरा गई। उसकी आंखों में आंसु छलक आए। उस समय दमयन्ती का शरीर कांप रहा था हाथ जुड़े हुए थे। उसने कहा मैं आपको वचन देती हूं कि मैं आपको ही पति के रूप में वरण करूंगी।

राजा नल ने कहा-अच्छा तब तो तुम ऐसा ही करो परंतु यह बतलाओ कि मैं यहां उनका दूत बनकर आया हूं। अगर इस समय मैं अपने स्वार्थ की बात करने लगूं तो यह कितनी बुरी बात है। मैं तो अपना स्वार्थ तभी बना सकता हूं जब वह धर्म के विरूद्ध ना हो। तब दमयन्ती ने गदगद कण्ठ से कहा राजा इसके लिए एक निर्दोष उपाय है। उसके अनुसार काम करने पर आपको दोष नहीं लगेगा।

वह यह उपाय है कि आप सभी लोकपालों के साथ स्वयंवर मंडप में आए। मैं आपको वर लुंगी। तब आपको दोष भी नहीं लगेगा। देवताओं के पूछने पर उन्होंने कहा मैं दमयन्ती के पास गया तो मुझे देखकर वे और उनकी सखियां सभी मुझ पर मोहित हो गई और आप लोगों के प्रस्ताव को उनके सामने रखने के बाद भी वे मुझे ही वरण करने पर तुली हैं।

दमयन्ती ने कैसे पहचाना असली राजा नल को?स्वयंवर की घड़ी आई। राजा भीमक ने सभी को बुलवाया। शुभ मुहूर्त में स्वयंवर रखा। सब राजा अपने-अपने निवास स्थान से आकर स्वयंवर में यथास्थान बैठ गए। तभी दमयन्ती वहां आई। सभी राजाओं का परिचय दिया जाने लगा। दमयन्ती एक-एक को देखकर आगे बढऩे दिया जाने लगा। आगे एक ही स्थान पर नल के समान ही वेषभुषा वाले पांच राजकुमार खड़े दिखाई दिए। यह देखकर दमयन्ती को संदेह हो गया, वह जिसकी और देखती उन्हें सिर्फ राजा नल ही दिखाई देते। इसलिए विचार करने लगी कि मैं देवताओं को कैसे पहचानूं और ये राजा है यह कैसे जानूं? उसे बड़ा दुख हुआ। अन्त में दमयन्ती ने यही निश्चय किया कि देवताओं की शरण में जाना ही उचित है। हाथ जोड़कर प्रणामपूर्वक स्तुति करने लगी। देवताओं हंसों के मुंह से नल का वर्णन सुनकर मैंने उन्हें पतिरूपण से वरण कर लिया है।

मैंने नल की आराधना के लिए ही यह व्रत शुरू कर लिया है। आप लोग अपना रूप प्रकट कर दें, जिससे में राजा नल को पहचान लूं। देवताओं ने दमयन्ती की बात सुनकर उसके दृढ़-निश्चय को देखकर उन्होंने उसे ऐसी शक्ति दी जिससे वह देवता और मनुष्य में अंतर कर सके। दमयन्ती ने देखा कि शरीर पर पसीना नहीं है। पलके गिरती नहीं हैं। माला कुम्हलाई नहीं है। शरीर स्थिर है। शरीर पर धूल व पसीना भी नहीं है। दमयन्ती ने इन लक्षणों को देखकर ही दमयन्ती ने राजा नल को पहचान लिया।

और कलयुग नल के शरीर में प्रवेश कर गयाजिस समय दमयंती के स्वयंवर से लौटकर इन्द्र व अन्य लोकपाल अपने-अपने लोकों को जा रहे थे। उस समय उनकी मार्ग में ही कलयुग और द्वापर से भेंट हो गई। इन्द्र ने पूछा कलयुग कहा जा रहे हो? कलियुग ने कहा-मैं दमयन्ती के स्वयंवर में उससे विवाह करने के लिए जा रहा हूं। इन्द्र ने कहा अरे स्वयंवर तो कब का पूरा हो गया। दमयन्ती ने राजा नल का वरण कर लिया है।

हम लोग देखते ही रह गए। कलयुग ने क्रोध में भरकर कहा - तब तो यह अनर्थ हो गया। उसने देवताओं की उपेक्षा करके मनुष्य को अपनाया, इसलिए उसको दण्ड देना चाहिए। देवताओं ने कहा- दमयन्ती ने हमारी आज्ञा प्राप्त करके ही नल को वरण किया है। वास्तव में नल सर्वगुण सम्पन्न और उसके योग्य है। वे समस्त धर्मों के जानकार हैं।

उन्होंने इतिहास पुराणों सहित वेदों का भी अध्ययन किया है। उनको शाप देना तो नरक में धधकती आग में गिरने के समान है। अब कलयुग ने द्वापर से कहा मैं अपने क्रोध को शान्त नहीं कर सकता। इसलिए मैं नल के शरीर में निवास करूंगा। मैं उसे राज्यच्युत कर दूंगा। तब वह दमयन्ती के साथ नहीं रह सकेगा। इसलिए तुम भी जूए के पासों में प्रवेश करके मेरी सहायता करना।

द्वापर ने उसकी बात स्वीकार ली। द्वापर और कलयुग दोनों ही नल की राजधानी में आ बसे। बारह वर्ष तक वे इस बात की प्रतीक्षा में रहे कि नल में कोई दोष दिख जाए। एक दिन राजा नल संध्या के समय लघुशंका से निवृत होकर पैर धोए बिना ही आचमन करके संध्यावंदन करने बैठ गए। यह अपवित्र अवस्था देखकर कलियुग उनके शरीर में प्रवेश कर गया।

जूए में राजा नल सबकुछ हार गए तब...कलयुग दूसरा रूप धारण करके वह पुष्कर बनकर उसकी बात स्वीकार करके वह पुष्कर के पास गया और बोला तुम नल के साथ जुआं खेलो मेरी सहायता करो। जूए में जीतकर निषध राज का राज्य प्राप्त कर लो। पुष्कर उसकी बात स्वीकार करके नल के के पास गया। द्वापर भी पासे का रूप धारण करके उसके साथ चला। जब पुष्कर ने राजा नल को जूआ खेलने का आग्रह किया। तब राजा नल दमयन्ती के सामने अपने भाई की बार - बार की ललकार सह ना सके। उन्होंने पासे खेलने का निश्चय किया।

उस समय नल के शरीर में कलयुग घुसा हुआ था, इसीलिए नल जो कुछ भी जूए में लगाते हार जाते। प्रजा और मंत्रियों ने राजा को रोकना चाहा लेकिन जब वे नहीं माने तो मंत्रियों ने द्वारपाल को रानी दमयंती तक राजा को रोकने का संदेश पहुंचवाया। तब रानी नल दमयन्ती को बोली आपकी पूरी प्रजा आपके दुख के कारण अचेत हुई जा रही है। इतना कहकर दमयंती भी रोने लगी। लेकिन राजा नल कलयुग के प्रभाव में थे।

इसीलिए जो पासे फेंकते वही उनके प्रतिकुल पड़ते। जब दमयंती ने यह सब देखा तो उसने धाय को बुलवाया और उसके द्वारा राजा नल के सारथि वाष्र्णेय को बुलवाया। उन्होंने ने उससे कहा सारथि तुम जानते हो कि महाराज बहुत संकट में है। अब यह बात तुम से छिपी नहीं है। तुम रथ जोड़ लो और मेरे बच्चों को रथ में बैठाकर कुंडिनगर ले जाओ। उसके बाद पुष्कर ने राजा नल का सारा धन ले लिया और बोला तुम्हारे पास दावं पर लगाने के लिए और कुछ है या नहीं। यदि तुम दमयंती को दावं पर लगाने के लायक समझो तो उसे लगा दो।

क्योंकि पत्नी का यही धर्म हैएक दिन राजा नल ने देखा कि बहुत से पक्षी उनके पास ही बैठे है। उनके पंख सोने के समान दमक रहे हैं। नल ने सोचा कि इनकी पांख से कु छ धन मिलेगा। ऐसा सोचकर उन्हें पकडऩे के लिए नल ने उन पर अपना पहनने का वस्त्र डाल दिया। पक्षी उनका वस्त्र लेकर उड़ गए। अब नल नंगे होकर बड़ी दीनता के साथ मुंह नीचे करके खड़ा हो गए।

पक्षियों ने कहा तु नगर से एक वस्त्र पहनकर निकला था। उसे देखकर हमें बड़ा दुख हुआ था ले अब हम तेरे शरीर का वस्त्र लिए जा रहे है। हम पक्षी नहीं जूए के पासे हैं। नल ने दमयन्ती से पासे की बात कह दी। तुम देख रही हो, यहां बहुत से रास्ते है। एक अवन्ती की ओर जाता है। दूसरा पर्वत होकर दक्षिण देश को। सामने विन्ध्याचल पर्वत है। यह पयोष्णी नदी समुद्र में मिलती है। सामने का रास्ता विदर्भ देश को जाता है। यह कौसल देश का मार्ग है।

इस प्रकार राजा नल दुख और शोक से भरकर बड़ी ही सावधानी के साथ दमयन्ती को भिन्न-भिन्न आश्रम मार्ग बताने लगे। दमयन्ती की आंखें आंसु से भर गई। दमयन्ती ने राजा नल से कहा क्या आपको लगता है कि मैं आपको छोड़कर अकेली कहीं जा सकती हूं। मैं आपके साथ रहकर आपके दुख को दूर करूंगी। दुख के अवसरो पर पत्नी पुरुष के लिए औषधी के समान है। वह धैर्य देक र पति के दुख को कम करती है।

राजा नल ने क्यों किया दमयंती को छोडऩे का फैसला?उस समय नल के शरीर पर वस्त्र नहीं था। धरती पर बिछाने के लिए एक चटाई भी नहीं थी। शरीर पर धूल से लथपथ हो रहा था। भूख-प्यास से परेशान राजा नल जमीन पर ही सो गए। दमयन्ती भी उनके साथ ये सारे दुख झेल रही थी। राजा नल भी जमीन पर ही सो गए। दमयन्ती के सो जाने पर राजा नल की नींद टूटी। सच्ची बात तो यह थी कि वे दुख और शोक की के कारण सुख की नींद सो भी नहीं सकते थे। वे सोचने लगे कि दमयंती मुझ से बड़ा प्रेम करती है। प्रेम के कारण ही उसे इतना दुख झेलना पड़ेगा। यदि मैं इसे छोड़कर चला जाऊं तो संभव है कि इसे सुख भी मिल जाए। अन्त में राजा नल ने यही निश्चय कि इसे सुख भी मिल जाए।

दमयन्ती सच्ची पतिव्रता है। इसके सतीत्व को कोई भंग नहीं कर सकता। इस प्रकार त्यागने का निश्चय करके और सतीत्व की ओर से निश्चिन्त होकर राजा नल ने यह विचार किया कि मैं नंगा हूं और दमयन्ती के शरीर पर भी केवल एक वस्त्र है। फिर भी इसके वस्त्रों में से आधा फाड़ लेना ही श्रेयस्कर है लेकिन फांडू़ कैसे? शायद यह जाग जाए? राजा नल ने यह सोचकर दमयंती को धीरे से उठाकर उसके शरीर का आधा वस्त्र फाड़कर शरीर ढक लिया। दमयंती नींद में थी। राजा नल उसे छोड़कर निकल पड़े। थोड़ी देर बाद वे शांत हुए और वे फिर धर्मशाला लौट आए।

और मगर ने रानी को निगलने के लिए जकड़ लियाथोड़ी देर बाद जब राजा नल का हृदय शांत हुआ ,तब वे फिर धर्मशाला में इधर-उधर घूमने लगे और सोचने लगे कि अब तक दमयन्ती परदे में रहती थी, इसे कोई छू भी नहीं सकता था। आज यह अनाथ के समान आधा वस्त्र पहने धूल में सो रही है। यह मेरे बिना दुखी होकर वन में कैसे रहेगी? मैं तुम्हे छोड़कर जा रहा हूं सभी देवता तुम्हारी रक्षा करें। उस समय राजा नल का दिल दुख के मारे टुकड़े- टुकड़े हुआ जा रहा था।

शरीर में कलियुग का प्रवेश होने के कारण उनकी बुद्धि नष्ट हो गई थी। इसीलिए वे अपनी पत्नी को वन में अकेली छोड़कर वहां से चले गए। जब दमयंती की नींद टूटी, तब उसने देखा कि राजा नल वहां नहीं है। यह देखकर वे चौंक गई और राजा नल को पुकारने लगी।

जब दमयंती को राजा नल बहुत देर तक नहीं दिखाई पड़ें तो वे विलाप करने लगी। वे भटकती हुई जंगल के बीच जा पहुंची। वहां अजगर दमयंती को निगलने लगा। दमयंती मदद के लिए चिल्लाने लगी तो एक व्याध के कान में पड़ी। वह उधर ही घूम रहा था। वह वहां दौड़कर आया और यह देखकर दमयंती को अजगर निगल रहा है। अपने तेज शस्त्र से उसने अजगर का मुंह चीर डाला। उसने दमयन्ती को छुड़ाकर नहलाया, आश्वासन देकर भोजन करवाया।

रानी ने क्यों दिया मुसीबत से बचाने वाले को ही शाप?
दमयन्ती जब कुछ शांत हुई। व्याध ने पूछा सुन्दरी तुम कौन हो? किस कष्ट में पड़कर किस उद्देश्य से तुम यहां आई हो? दमयन्ती की सुन्दरता, बोल-चाल और मनोहरता देखकर व्याध मोहित हो गया। वह दमयंती से मीठी-मीठी बातें करके उसे अपने बस में करने की

कोशिश करने लगा। दमयन्ती उसके मन के भाव समझ गई। दमयंती ने उसके बलात्कार करने की चेष्टा को बहुत रोकना चाहा लेकिन जब वह किसी प्रकार नहीं माना तो उसने शाप दे दिया कि मैंने राजा नल के अलावा किसी और का चिंतन कभी नहीं किया हो तो यह व्याध मरकर गिर पड़े। दमयंती के इतना कहते ही व्याध के प्राण पखेरू उड़ गए। व्याध के मर जाने के बाद दमयंती एक निर्जन और भयंकर वन में जा पहुंची।

राजा नल का पता पूछती हुई वह उत्तर की ओर बढऩे लगी। तीन दिन रात दिन रात बीत जाने के बाद दमयंती ने देखा कि सामने ही एक बहुत सुन्दर तपोवन है। जहां बहुत से ऋषि निवास करते हैं। उसने आश्रम में जाकर बड़ी नम्रता के साथ प्रणाम किया और हाथ जोड़कर खड़ी हो गई। ऋषियों को प्रणाम किया। ऋषियों ने दमयन्ती का सत्कार किया और उसे बैठने को कहा- दमयन्ती ने एक भद्र स्त्री के समान सभी के हालचाल पूछे।

फिर ऋषियों ने पूछा आप कौन है तब दमयंती ने अपना पूरा परिचय दिया और अपनी सारी कहानी ऋषियों को सुनाई। तब सारे तपस्वी उसे आर्शीवाद देते हैं कि थोड़े ही समय में निषध के राजा को उनका राज्य वापस मिल जाएगा। उसके शत्रु भयभीत होंगे व मित्र प्रसन्न होंगे और कुटुंबी आनंदित होंगे। इतना कहकर सभी ऋषि अंर्तध्यान हो गए।

रानी ने मुश्किल समय में भी रख दी शर्त क्योंकि...दमयंती रोती हुई एक अशोक के वृक्ष के पास पहुंचकर बोली तू मेरा शोक मिटा दे। शोक रहित अशोक तू मेरा शोक मिटा दे। क्या कहीं तूने राजा नल को शोकरहित देखा है। तू अपने शोकनाशक नाम को सार्थक कर।दमयन्ती ने अशोक की परिक्रमा की और वह आगे बढ़ी। उसके बाद आगे बड़ी तो बहुत दूर निकल गई। वहां उसने देखा कि हाथी घोड़ों और रथों के साथ व्यापारियों का एक झुंड आगे बढ़ रहा है। व्यापारियों के प्रधान से बातचीत करके दमयंती को जब यह पता चला कि वे सभी चेदीदेश जा रहे हैं तो वह भी उनके साथ हो गई। कई दिनों तक चलने के बाद वे व्यापारी एक भयंकर वन में पहुंचे। वहा एक बहुत सुंदर सरोवर था। लंबी यात्रा के कारण वे लोग थक चुके थे। इसलिए उन लोगों ने वहीं पड़ाव डाल दिया। रात के समय जंगली हाथियों का झुंड आया। आवाज सुनकर दमयंती की नींद टूट गई। वह इस मांसाहार के दृश्य को देखकर समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या करे? वे सभी व्यापारी मर गए वो वहां से भाग निकली और दमयंती भागकर उन ब्राह्मणों के पास पहुंची और उनके साथ चलने लगी शाम के समय वह राजा सुबाहु के यहां जा पहुंची। वहां उसे सब बावली समझ रहे थे। उसे बच्चे परेशान कर रहे थे।

उस समय राज माता महल के बाहर खिड़की से देख रही थी उन्होंने अपनी दासी से कहा देखो तो वह स्त्री बहुत दुखी मालुम होती है। तुम जाओ और मेरे पास ले आओ। दासी दमयंती को रानी के पास ले गई। रानी ने दमयंती स पूछा तुम्हे डर नहीं लगता ऐसे घुमते हुए। तब दमयंती ने बोला में एक पतिव्रता स्त्री हूं। मैं हूं तो कुलीन पर दासी का काम करती हूं। तब रानी ने बोला ठीक है तुम महल में ही रह जाओ। तब दमयंती कहती है कि मैं यहां रह तो जाऊंगी पर मेरी तीन शर्त है मैं झूठा नहीं खाऊंगी, पैर नहीं धोऊंगी और परपुरुष से बात नहीं करुंगी। रानी ने कहा ठीक है हमें आपकी शर्ते मंजुर है।

जैसे ही राजा ने कहा दश सांप ने डंस दिया...जिस समय राजा नल दमयन्ती को सोती छोड़कर आगे बढ़े, उस समय वन में आग लग रही थी। तभी नल को आवाज आई। राजा नल शीघ्र दौड़ो। मुझे बचाओ। नागराज कुंडली बांधकर पड़ा हुआ था। उसने नल से कहा- राजन मैं कर्कोटक नाम का सर्प हूं। मैंने नारद मुनि को धोखा दिया था। उन्होंने शाप दिया कि जब तक राजा नल तुम्हे न उठावे, तब तक यहीं पड़े रहना। उनके उठाने पर तू शाप से छूट जाएगा। उनके शाप के कारण मैं यहां से एक भी कदम आगे नहीं बढ़ सकता। तुम इस शाप से मेरी रक्षा करो। मैं तुम्हे हित की बात बताऊंगा और तुम्हारा मित्र बन जाऊंगा। मेरे भार से डरो मत मैं अभी हल्का हो जाता हूं वह अंगूठे के बराबर हो गया। नल उसे उठाकर दावानल से बाहर ले आए। कार्कोटक ने कहा तुम अभी मुझे जमीन पर मत डालो। कुछ कदम गिनकर चलो। राजा नल ने ज्यो ही पृथ्वी पर दसवां कदम चला और उन्होंने कहा दश तो ही कर्कोटक ने उन्हें डस लिया। उसका नियम था कि जब कोई बोले दश तभी वह डंसता था।

आश्चर्य चकित नल से उसने कहा महाराज तुम्हे कोई पहचान ना सके इसलिए मैंने डस के तुम्हारा रूप बदल दिया है। कलियुग ने तुम्हे बहुत दुख दिया है। अब मेरे विष से वह तुम्हारे शरीर में बहुत दुखी रहेगा। तुमने मेरी रक्षा की है। अब तुम्हे हिंसक पशु-पक्षी शत्रु का कोई भय नहीं रहेगा। अब तुम पर किसी भी विष का प्रभाव नहीं होगा और युद्ध में हमेशा तुम्हारी जीत होगी।

और राजा बन गया सारथीराजा नल वहां से चलकर दसवें दिन राजा ऋतुपर्ण की राजधानी अयोध्या में पहुंच गए। यह कहकर कर्कोटक ने दो दिव्य वस्त्र दिए और वह अंर्तध्यान हो गया। राजा नल वहां से चलकर दसवें दिन राजा ऋतुपर्ण की राजधानी अयोध्या में पहुंच गया। उन्होंने वहां राजदरबार में निवेदन किया कि मेरा नाम बाहुक है। मैं घोड़ों को हांकने और उन्हें तरह-तरह की चालें सिखाने का काम करता हूं।

घोड़ो की विद्या मेरे जैसा निपुण इस समय पृथ्वी पर कोई नहीं है। रसोई बनाने में भी में बहुत चतुर हूं, हस्तकौशल के सभी काम और दूसरे कठिन काम करने की चेष्ठा करूंगा।

आप मेरी आजीविका निश्चित करके मुझे रख लीजिए। उसकी सारी बात सुनकर राजा ऋतुपर्ण ने कहा बाहुक मैं सारा काम तुम्हें सौंपता हूं। लेकिन मैं शीघ्रगामी सवारी को विशेष पसंद करता हूं। तुम्हे हर महीने सोने की दस हजार मुहरें मिला करेंगी। लेकिन तुम कुछ ऐसा करो कि मेरे घोड़ों कि चाल तेज हो जाए। इसके अलावा तुम्हारे साथ वाष्र्णेय और जीवल हमेशा उपस्थित रहेंगें।

राजा नल रोज दमयन्ती को याद करते और दुखी होते कि दमयन्ती भूख-प्यास से परेशान ना जाने किस स्थिति में होगी। इसी तरह राजा नल ने दमयंती के बारे में सोचते हुए कई दिन बिता दिए। ऋतुपर्ण के पास रहते हुए उन्हें कोई ना पहचान सका। जब राजा विदर्भ को यह समाचार मिला कि मेरे दामाद नल और पुत्री राज पाठ विहिन होकर वन में चले गए हैं।

राजमाता ने कैसे पहचाना रानी को?

तब उन्होंने सुदेव नाम के एक ब्राह्मण को नल-दमयंती का पता लगाने के लिए चेदिनरेश के राज्य में भेजा। उसने एक दिन राज महल में दमयंती को देख लिया। उस समय राजा के महल में पुण्याहवाचन हो रहा था। दमयंती- सुनन्दा एक साथ बैठकर ही वह कार्यक्रम देख रही थी। सुदेव ब्राह्मण ने दमयंती को देखकर सोचा कि वास्तव में यही भीमक नन्दिनी है। मैंने इसका जैसा रूप पहले देखा था। वैसा अब भी देख रहा हूं। बड़ा अच्छा हुआ, इसे देख लेने से मेरी पुरी यात्रा सफल हो गई। सुदेव दमयंती के पास गया और उससे बोला दमयंती मैं तुम्हारे भाई का मित्र सुदेव हूं। मैं तुम्हारी भाई की आज्ञा से तुम्हे ढ़ूढने यहां आया हूं। दमयंती ने ब्राह्मण को पहचान लिया। वह सबका कुशल-मंगल पूछने लगी और पूछते ही पूछते रो पड़ी।

सुनन्दा दमयंती को रोता देख घबरा गई। उसने अपनी माता के पास जाकर उन्हें सारी बात बताई। राज माता तुरंत अपने महल से बाहर निकल कर आयी। ब्राह्मण के पास जाकर पूछने लगी महाराज ये किसकी पत्नी है? किसकी पुत्री है? अपने घर वालों से कैसे बिछुड़ गए? तब सुदेव ने उनका पूरा परिचय उसे दिया। सुनन्दा ने अपने हाथों से दमयंती का ललाट धो दिया। जिससे उसकी भौहों के बीच का लाल चिन्ह चन्द्रमा के समान प्रकट हो गया। उसके ललाट का वह तिल देखकर सुनन्दा व राजमाता दोनों ही रो पड़े। राजमाता ने कहा मैंने इस तिल को देखकर पहचान लिया कि तुम मेरी बहन की पुत्री हो। उसके बाद दमयंती अपने पिता के घर चली गई।

तब खत्म हुई रानी की खोजअपने पिता के घर एक दिन विश्राम करके दमयंती अपनी माता से कहा कि मां मैं आपसे सच कहती हूं। यदि आप मुझे जीवित रखना चाहती हैं तो आप मेरे पतिदेव को ढूंढवा दीजिए। रानी ने उनकी बात सुनकर नल को ढूंढवाने के लिए ब्राह्मणों को नियुक्त किया। ब्राह्मणों से दमयंती ने कहा आप लोग जहां भी जाए वहां भीड़ में जाकर यह कहे कि मेरे प्यारे छलिया, तुम मेरी साड़ी में से आधी फाड़कर अपनी दासी को उसी अवस्था में आधी साड़ी में आपका इंतजार कर रही है। मेरी दशा का वर्णन कर दीजिएगा और ऐसी बात कहिएगा।

जिससे वे प्रसन्न हो और मुझ पर कृपा करे। बहुत दिनों के बाद एक ब्राह्मण वापस आया। उसने दमयंती से कहा मैंने राजा ऋतुपर्ण के पास जाकर भरी सभा में आपकी बात दोहराई तो किसी ने कुछ जवाब नहीं दिया। जब मैं चलने लगा तब बाहुक नाम के सारथि ने मुझे एकान्त में बुलाया उसके हाथ छोटे व शरीर कुरूप है। वह लम्बी सांस लेकर रोता हुआ मुझसे कहने लगा।

उच्च कुल की स्त्रियों के पति उन्हें छोड़ भी देते हैं तो भी वे अपने शील की रक्षा करती हैं। त्याग करने वाला पुरुष विपत्ति के कारण दुखी और अचेत हो रहा था। इसीलिए उस पर क्रोध करना उचित नहीं है। लेकिन वह उस समय बहुत परेशान था।जब वह अपनी प्राणरक्षा के लिए जीविका चाह रहा था। तब पक्षी उसके वस्त्र लेकर उड़ गए। जब ब्राह्मण ने यह बात बताई तो दमयंती समझ गई कि वे राजा नल ही हैं।

इसलिए रानी ने फिर से रचाया स्वयंवर....ब्राह्मण की बात सुनकर दमयंती की आंखों में आंसु भर आए। उसने अपनी माता को सारी बात बताई। तब उन्होंने कहा आप यह बात अब अपने पिताजी से ना कहे। मैं सुदैव ब्राह्मण को इस काम के लिए नियुक्त करती हूं। तब दमयंती ने सुदेव से कहा- ब्राह्मण देवता आप जल्दी से जल्दी अयोध्या नगरी पहुंचे। राजा ऋतुपर्ण से यह बात कहिए कि दमयंती ने फिर से स्वेच्छानुसार पति का चुनाव करना चाहती है।

बड़े-बड़े राजा और राजकुमार जा रहे हैं। स्वयंवर की तिथि कल ही है। इसलिए यदि आप पहुंच सकें तो वहां जाइए। नल के जीने अथवा मरने का किसी को पता नहीं है, इसलिए वह इसीलिए कल वे सूर्योदय पूर्व ही पति वरण करेंगी। दमयंती की बात सुनकर सुदेव अयोध्या गए और उन्होंने राजा ऋतुपर्ण से सब बातें कह दी। सुदेव की बातें सुनाकर बाहुक को बुलाया और कहा बाहुक कल दमयंती का स्वयंवर है और हमें जल्दी से जल्दी वहां पहुंचना है। यदि तुम मुझे जल्दी वहां  पहुंच जाना संभव समझो तभी मैं वहां जाऊंगा।

ऋतुपर्ण की बात सुनकर नल का कलेजा फटने लगा। सोचा कि दमयंती ने दुखी और अचेत होकर ही ऐसा किया होगा। संभव है वह ऐसा करना चाहती हो। नल ने शीघ्रगामी रथ में चार श्रेष्ठ घोड़े जोत लिए। राजा ऋतुपर्ण रथ पर सवार हो गए। रास्ते में ऋतुपर्ण ने उसे पासें पर वशीकरण की विद्या सिखाई क्योंकि उसे घोड़ों की विद्या सीखने का लालच था। जिस समय राजा नल ने यह विद्या सीखी उसी समय कलियुग राजा नल के शरीर से बाहर आ गया।

रानी ने राजा को पहचानने के लिए क्या किया?कलियुग ने नल का पीछा छोड़ दिया था। लेकिन अभी उनका रूप नहीं बदला था। उन्होंने अपने रथ को जोर से हांका और शाम होते-होते वे विदर्भ देश में पहुंचे। राजा भीमक के पास समाचार भेजा गया। उन्होंने ऋतुपर्ण को अपने यहां बुला लिया ऋतुपर्ण के रथ की गुंज से दिशाएं गुंज उठी। दमयंती रथ की घरघराहट से समझ गई कि जरूर इसको हांकने वाले मेरे पति देव हैं। यदि आज वे मेरे पास नहीं आएंगे तो मैं आग में कुद जाऊंगी।

उसके बाद अयोध्या नरेश ऋतुपर्ण जब राजा भीमक के दरबार में पहुंचे तो उनका बहुत आदर सत्कार हुआ। भीमक को इस बात का बिल्कुल पता नहीं था कि वे स्वयंवर का निमंत्रण पाकर यहां आए हैं। जब ऋतुपर्ण ने स्वयंवर की कोई तैयारी नहीं देखी तो उन्होंने स्वयंवर की बात दबा दी और कहा मैं तो सिर्फ आपको प्रणाम करने चला आया। भीमक सोचने लगे कि सौ-योजन से अधिक दूर कोई प्रणाम कहने तो नहीं आ सकता। लेकिन वे यह सोच छोड़कर भीमक के सत्कार में लग गए। बाहुक वाष्र्णेय के साथ अश्वशाला में ठहरकर घोड़ो की सेवा में लग गया। दमयंती आकुल हो गई कि रथ कि ध्वनि तो सुनाई दे रही है पर कहीं भी

मेरे पति के दर्शन नहीं हो रहे। हो ना हो वाष्र्णेय ने उनसे रथ विद्या सीख ली होगी। तब उसने अपनी दासी से कहा हे दासी तु जा और इस बात का पता लगा कि यह कुरूप पुरुष कौन है? संभव है कि यही हमारे पतिदेव हों। मैंने ब्राह्मणों द्वारा जो संदेश भेजा था। वही उसे बतलाना और उसका उत्तर मुझसे कहना। तब दासी ने बाहुक से जाकर पूछा राजा नल कहा है क्या तुम उन्हें जानते हो या तुम्हारा सारथि वाष्र्णेय जानता है? बाहुक ने कहा मुझे उसके संबंध में कुछ भी मालुम नहीं है सिर्फ इतना ही पता है कि इस समय नल का रूप बदल गया है। वे छिपकर रहते हैं। उन्हें या तो दमयंती या स्वयं वे ही पहचान सकते हैं या उनकी पत्नी दमयंती क्योंकि वे अपने गुप्त चिन्हों को दूसरों के सामने प्रकट नहीं करना चाहते हैं।

इस तरह हुआ अमर प्रेम कहानी का सुखद अंतअब दमयंती की आशंका और बढ़ गई और दृढ़ होने लगी कि यही राजा नल है। उसने दासी से कहा तुम फिर बाहुक के पास जाओ और उसके पास बिना कुछ बोले खड़ी रहो। उसकी चेष्टाओं पर ध्यान दो। अब आग मांगे तो मत देना जल मांगे तो देर कर देना। उसका एक-एक चरित्र मुझे आकर बताओ।

फिर वह मनुष्यों और देवताओं से उसमें बहुत से चरित्र देखकर वह दमयंती के पास आई और बोली बाहुक ने हर तरह से अग्रि, जल व थल पर विजय प्राप्त कर ली है। मैंने आज तक ऐसा पुरुष नहीं देखा। तब दमयंती को विश्वास हो जाता है कि वह बाहुक ही राजा नल है।

अब दमयंती ने सारी बात अपनी माता को बताकर कहा कि अब मैं स्वयं उस बाहुक की परीक्षा लेना चाहती हूं। इसलिए आप बाहुक को मेरे महल में आने की आज्ञा दीजिए। आपकी इच्छा हो तो पिताजी को बता दीजिए। रानी ने अपने पति भीमक से अनुमति ली और बाहुक को रानीवास बुलवाने की आज्ञा दी। दमयंती ने बाहुक के सामने फिर सारी बात दोहराई। तब दमयंती के आखों से आंसू टपकते देखकर नल से रहा नहीं गया। नल ने कहा मैंने तुम्हे जानबुझकर नहीं छोड़ा। नहीं जूआ खेला यह सब कलियुग की करतूत है। दमयंती ने कहा कि मैं आपके चरणों को स्पर्श करके कहती हूं कि मैंने कभी मन से पर पुरुष का चिंतन नहीं किया हो तो मेरे प्राणों का नाश हो जाए।

ऐसा अद्भुत दृश्य देखकर राजा नल ने अपना संदेह छोड़ दिया और कार्कोटक नाग के दिए वस्त्र को अपने ऊपर ओढ़कर उसका स्मरण करके वे फिर असली रूप में आ गए। दोनों ने सबका आर्शीवाद लिया दमयंती के मायके से उन्हें खुब धन देकर विदा किया गया। उसके बाद नल व दमयंती अपने राज्य में पहुंचे। राजा नल ने पुष्कर से फिर जूआं खेलने को कहा तो वह खुशी-खुशी तैयार हो गया और नल ने जूए की हर बाजी को जीत लिया। इस तरह नल व दमयंती को फिर से अपना राज्य व धन प्राप्त हो गया।

किसे मिलता है तीर्थ यात्रा का फल?नल दमयंती की कथा पुरी होने के बाद युधिष्ठिर ने बृहदश्व ऋषि वहां से चले गए। उनके जाने पर धर्मराज युधिष्ठिर ऋषि-मुनियों से अर्जुन की तपस्या के संबंध में बातचीत करने लगे। तब सभी पांडव भाइयों ने अर्जुन के बिना बड़ी वियोग व उदासी से दिन बिताए। वे दुख और शोक में डूबते रहते थे। उन्हीं दिनों नारद मुनि उनके पास आए। उन्होंने युधिष्ठिर से कहा महाराज सभी लोग आपकी पूजा करते हैं।

जब आप हम पर प्रसन्न है तो हम लोग ऐसा अनुभव कर रहे हैं कि आपकी कृपा से हमारे सारे काम सिद्ध हो गए। आप कृपा करके हम लोगों को एक बात बताएं कि जो तीर्थ यात्रा का सेवन करता हुआ पृथ्वी की प्रदक्षिणा करता है उसे क्या फल मिलता है? तब उन्होंने कहा एक बार तुम्हारे पितामह भीष्म हरिद्वार के ऋषि और पितरों क ी तृप्ति के लिए कोई अनुष्ठान कर रहे थे। वहीं एक दिन पुलस्त्य ऋषि आए। भीष्म ने उनकी सेवा पूजा करके यही प्रश्र किया जो तुम मुझसे कर रहे हो। पुलत्स्य मुनि ने जो कुछ कहा वही मैं तुमको सुनाता हूं।

पुलस्त्य ऋषि ने भी भीष्म से कहा जिसके हाथ दान लेने व बुरे कर्म करने से अपवित्र होते हैं। जिसके पैर नियमपूर्वक पृथ्वी पर पड़ते हैं। जीव जन्तुओं का अपने नीचे दबाकर दूसरों को सुख पहुंचाने के लिए चलते हैं। जिसका मन दूसरों क अनिष्ट चिंतन से बचता हो। जिसकी विद्या, मारण, मोहन, उच्चाटन से युक्त व विवाद पैदा करने वाली ना हो, जिसकी तपस्या अंत:करण की शुद्धि और जनकल्याण के लिए हो, जिसकी कृति और कीर्ति निष्कलंक हो, उसे तीर्थों का वह फल जिसका शास्त्रों में वर्णन मिलता है प्राप्त होता है।

इस तीर्थ की यात्रा से मिलते हैं सारे सुखपुष्कर तीर्थ बहुत ही प्रसिद्ध है। पुष्कर में करोड़ो तीर्थ निवास करते हैं। दित्य, वसु, रूद्र, साध्य, गंधर्व हमेशा वहां उपस्थित रहते हैं। जो उदार पुरुष मन से कभी पुष्कर का स्मरण करता है उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और स्वर्ग की प्राप्ति होती है। इस तीर्थ में जो स्नान करता है और देवता-पितरो को संतुष्ट करता है। उसे अश्चमेघ यज्ञ से भी दस गुना फल प्राप्त होता है।

जो पुष्करारण्य तीर्थ में एक ब्राह्मण को भी भोजन कराता है। उसे इस लोक और परलोक में सुख मिलता है। मनुष्य जिस तरह का भोजन करता है उसी वस्तु के द्वारा श्रद्धा के साथ ब्राह्मण को भोजन करावे। किसी से भी ईष्र्या न करे। जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र परम पवित्र पुष्कर तीर्थ में स्नान करते हैं, उन्हें जन्म नहीं ग्रहण करना पड़ता।

कार्तिक के महीने में पुष्कर तीर्थ का स्नान करने पर अक्षय लोकों की प्राप्ति होती है। जो सायं और सुबह दोनों हाथ जोड़कर पुष्कर क्षेत्र में आए हुए तीर्थों का स्मरण करता है, उसे सारे तीर्थों का पूण्य प्राप्त होता है। पुष्कर तीर्थ में स्नान करने मात्र से पाप नष्ट हो जाते हैं।जैसे देवताओं में विष्णु प्रधान है वैसे ही तीर्थों में पुष्कर प्रधान है।

कलियुग में यहां आने वाले के खत्म हो जाएंगे सारे पापतीर्थराज पुष्कर के बारे में बताने के बाद पुलस्त्यजी ने प्रयाग की महिमा का वर्णन किया। उन्होंने कहा कि प्रयाग में ब्रह्मा आदि देवता दिशाएं, दिक्पाल, लोकपाल साध्यपितर, सन्तकुमार आदि परमर्षि, अप्सरा, सुपर्ण आदि सभी रहते हैं। ब्रह्मा के साथ स्वयं विष्णुभगवान भी वहां निवास करते हैं। प्रयाग क्षेत्र में अग्रि के तीन कुंड है। उनके बीचों-बीच से श्री गंगाजी प्रवाहित होती है। तीर्थशिरोमणि सूर्यपुत्री यमुनाजी भी आती है। वहीं यमुनाजी का गंगाजी के साथ संगम हो रहा है।

गंगा और यमुना के बीच के भाग को पृथ्वी की जांघ समझना चाहिए। यहां बड़े-बड़े राजा यज्ञ करते हैं इसी से यह भूमि पवित्र हुई है। ऋषिलोग कहते हैं कि प्रयाग के नाम को याद करने से और वहां कि मिट्टी स्पर्श करने से सारे पाप मुक्त हो जाते हैं। यह देवताओं की यज्ञ भूमि यहां स्नान करने से अश्चमेघ यज्ञ का फल प्राप्त होता है। चार प्रकार कीविद्याओं के अध्ययन का व सच बोलने का जो पुण्य होता है। वहां देवनदी गंगा भी है इसीलिए यहां आने वाले के सैकड़ों पाप नष्ट हो जाते हैं। सतयुग में सभी तीर्थ पुण्यदायक होते हैं। त्रेता में पुष्कर और द्वापर में कुरूक्षेत्र की विशेष महिमा है। कलियुग में तो एकमात्र गंगा का ही सबसे ज्यादा महत्व है। गंगाजी नामोच्चारण मात्र से पापों को धो बहाती है। दर्शनमात्र से क ल्याण करती है। स्नान और पान से सात पिढिय़ां तक पवित्र हो जाती है। जब तक मनुष्य की हड्डिया गंगा के जल में रहती हैं तो उसे स्वर्ग जैसा सम्मन मिलता है। इसीलिए कलियुग मे इस तीर्थ का विशेष महत्व रहेगा।

ऐसा करने से मिलता है तीर्थ यात्रा का सौगुना फलयुधिष्ठिर नारदजी द्वारा तीर्थों की महिमा सुनने के बाद अपने भाइयों से सलाह की और उन सभी की सहमति से वे धौम्य ऋषि के यहां पहुंचे। युधिष्ठिर ने अपने पुरोहित धौम्य ऋषि से कहा अर्जुन तपस्या के लिए वन गया है। अर्जुन हम सब में सर्वश्रेष्ठ है। आप कृपा करके कोई ऐसा पवित्र और रमणीय वन बताइए। जहां सत्पुरूष रहते हों।तब धौम्य ऋषि ने कहा तीर्थो का महात्म्य सुनने से पुण्य मिलता है और उसके बाद उनकी यात्रा करने से सौगुना फल की प्राप्ति होती है। उसके बाद धौम्य ऋषि ने कहा कि मैं आपको पूर्व दिशा के तीर्थों का महत्व व वर्णन सुनाता हूं। नैमिषारणाय नाम का एक तीर्थ हैं जहां गोमती नदी के तट पर अनेक देवता व ऋषि यज्ञ करते हैं। गया का नाम तो आपने सुना ही होगा।

गया के संबंध में प्राचीन विद्वानों का मत है कि मनुष्य का पुत्र अगर उसका पिण्डदान गया के किनारे करे तो उसका बहुत जल्दी उद्धार होता है। गया क्षेत्र में एक महानदी नाम का और गयशिर पाम का तीर्थ स्थान है। वहां एक अक्षयवट नाम का महावट है।जहां पिण्डदान करने पर अक्षय फल मिलता है। विश्वामित्र की तपस्या का स्थान कौशिकी नदी हैं जहां उन्होंने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया था। भागीरथी नदी भी पूर्व दिशा में ही बहती है भागीरथी नदी जिसके तट पर राजा भागीरथ ने कई यज्ञ किए व दक्षिणाएं दी। प्रयाग भी पूर्व दिशा में ही है। अगस्त्य मुनि का आश्रम व अन्य कई ऋषियों की तपोभूमि भी पूर्व ही है।

और पांडवों ने शुरू की तीर्थयात्रायुधिष्ठिर व अन्य भाइयों ने सारे तीर्थों का महत्व सुनने के बाद। युधिष्ठिर व सभी पाण्डव जहां रहने लगे वहां एक दिन लोमेश मुनि आए। लोमेश मुनि के आने पर सारे पांडव उनकी आवभगत में जुट गए। सेवा व सत्कार हो जाने के बाद युधिष्ठिर ने पूछा मुनि किस उद्देश्य से आपका आगमन कैसे हुआ है? लोमेश मुनि ने कहा मैं सब लोकों में घूमता रहता हूं। एक बार में इन्द्रलोक पहुंचा। वहां मैंने देखा कि देवसभा मे देवराज इन्द्र के आधे सिंहासन पर बैठे हुए हैं। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। देवराज इन्द्र ने अर्जुन की ओर देखकर मुझसे कहा कि देवर्षे तुम पांडवों के पास जाओ। उन्हें अर्जुन का कुशल-मंगल सुनाओ। इसीलिए मैं तुम लोगों के पास आया हूं।

मैं तुम लोगों की हित बात करता हूं। तुम सब ध्यान से सुनों। तुम लोगों की अनुमति लेकर अर्जुन जिस अस्त्र विद्या को प्राप्त करने गए थे। वह उन्होंने शिवजी से प्राप्त कर ली थी। उसके प्रयोग की विधि भी अर्जुन ने सीख ली है। इन्द्र ने तुमसे कहने के लिए यह संदेश दिया है कि युधिष्ठिर तुम्हारा भाई अस्त्र विद्या में निपुण हो गया है और अब उसे यहां निवातकवच नामक असुरों को मारना है। यह काम इतना कठिन है कि बड़े-बड़े देवता भी नहीं कर सकते। यह काम करके अर्जुन तुम्हारे पास चला जाएगा। तुम तपस्या करके आत्मबल प्राप्त करो। तुम जाओ और तप करों क्योकि तप से बड़ी कोई वस्तु नहीं है। युधिष्ठिर ने उनसे कहा आपकी बात सुनकर मुझे बहुत सुख मिला। देवराज इन्द्र ने आपके द्वारा जो मुझे तीर्थ यात्रा करने का आदेश दिया है। मैं उसका पालन करना चाहता हूं। अब आज्ञा हो तो मैं आपके साथ-साथ तीर्थयात्रा करने के लिए चलूंगा। उसके बाद वे लोग तीर्थ यात्रा पर चल पड़े।

तीर्थ पर जाने से पहले जरूर ध्यान रखें ये बाततीन रात तक काम्यक वन में रहने के बाद युधिष्ठिर ने तीर्थयात्रा की तैयारी की। एक वनवासी ब्राह्मण उनके पास आकर बोले कि महाराज आप लोमेश मुनि के साथ तीर्थ की यात्रा करने जा रहे है। आप हमें भी अपने साथ ले चलिए, क्योंकि आपके बिना हमलोग तीर्थयात्रा करने में असमर्थ हैं। हिंसक पशु-पक्षी और कांटे आदि के कारण इन तीर्थों पर सामान्य मनुष्य नहीं जा सकते। आपके भाइयों के संरक्षण में रहकर हमलोग भी तीर्थयात्रा कर लेंगे। आपका ब्राह्मणों पर स्वाभाविक ही प्रेम है। इसलिए हम आपके साथ चलना चाहते हैं तब थोड़ी देर सोचने के बाद कहा चलिए आप भी हमारे साथ चल सकते हैं।

जब सभी तीर्थ यात्रा पर चलने को तैयार हो गए तो युधिष्ठिर ने सबकी शास्त्रोक्त विधि से पूजन किया। उन्होंने कहा- तीर्थ जाने के लिए शारीरिक शुद्धि और मानसिक शुद्धि दोनों की आवश्यकता होती है। मन की शुद्धि ही पूर्ण शुद्धि है। अब तुमलोग किसी के प्रति द्वेष बुद्धि ना रखकर सबके प्रति मित्रबुद्धि रखो। इससे तुम्हारी मानसिक शुद्धि हो जाएगी। ऋषियों की यह बात सुनकर द्रोपदी और पाण्डवों ने प्रतिज्ञा की कि हम ऐसा ही करेंगे। अब स्वास्तिवचन होने के बाद युधिष्ठिर ने सभी के चरण छूए और उसके बाद पांडवों ने अपनी तीर्थयात्रा आरंभ की।

अगस्त्य मुनि की बात सुनकर राजा के होश क्यों उड़ गए?
सभी पांडव तीर्थयात्रा करते हुए गयशिर क्षेत्र में पहुंचे वहां उन्होंने चर्मुर्मास्य यज्ञ कर ब्राह्मणों को बहुत सी दक्षिणा दी। युधिष्ठिर अगस्त्याश्रम आए। यहां लोमेश मुनि ने उनसे कहा एक बार अगस्त्य मुनि ने एक गड्डे में अपने पितरों को उल्टे सिर लटके देखा तो उनसे पूछा आप लोग इस तरह नीचे को सिर किए क्यों लटक हुए हैं? तब उन वेदवादी मुनियों ने कहा, हम तुम्हारे पितृगण हैं और पुत्र होने की आशा लगाए हम इस गड्ढे में लटके हुए हैं।

बेटा अगत्स्य यदि तुम्हारे एक पुत्र हो जाए तो इस नरक से हमारा छुटकारा हो सकता है। अगस्त्य बड़े तेजस्वी थे। उन्होंने पितरों से कहा पितृगण आप निश्चिंत रहिए। मैं आपकी इच्छा पूरी करूंगा। पितरों को इस प्रकार ढांढस बंधाने के बाद अगस्त्य ऋषि ने विवाह के लिए विचार किया। लेकिन उन्हें उनके अनुरूप कोई भी स्त्री नहीं मिली। तब उन्होंने विदर्भ के राजा के पास गए और उन्होंने कहा मैं आपसे आपकी पुत्री लोपामुद्रा मांगता हूं। ऋषि अगस्त्य की बात सुनकर राजा के होश उड़ गए। वे ना तो इस प्रस्ताव को स्वीकार कर सके और न कन्या देने का साहस।

अगस्त्य मुनि की पत्नी ने रख दी एक अजीब शर्त?वे ये बात महारानी को बताते हुए बोले महर्षि अगस्त्य हमारी पुत्री से विवाह करना चाहते हैं वे योग्य हैं यदि मैं उन्हें मना करूंगा तो वे हमें अपनी शाप की अग्रि में भस्म कर देंगे। बताओ इस विषय में तुम्हारा क्या मत है? तब राजा और रानी दोनों को देखकर लोपामुद्रा ने उनके पास आकर कहा, पिताजी आप मेरा विवाह उनसे कर दीजिए मुझे कोई समस्या नहीं है।

पुत्री की यह बात सुनकर राजा ने शास्त्र विधि से अगस्त्यजी के साथ उसका विवाह कर दिया। पत्नी मिल जाने पर अगस्त्यजी ने उससे कहा देवि। तुम इन बहुमूल्य वस्त्रों को त्याग दो। तब लोपामुद्रा ने अपने दर्शनीय बहुमूल्य और महीन वस्त्रों को त्याग दिया और पेड़ की छाल व मृगचर्म धारण कर वह अपने पति के समान ही व्रत और नियमों का पालन करने लगी। तदन्तर भगवान अगस्त्य हरिद्वार क्षेत्र में आकर अपनी पत्नी के साथ तपस्या करने लगी। लोपामुद्रा बड़े ही प्रेम से पति की सेवा करती थी।

एक बार जब लोपामुद्रा ऋतुस्नान से निवृत हुई तो उनका रूप तप के कारण और अधिक सुंदर दिखाई दे रहा था। जब अगस्त्य मुनि ने समागम के लिए उनका आवाह्न किया तो उन्होंने कुछ सकुचाते हुए अगस्त्य ऋषि से कहा मेरी इच्छा है कि अपने पिता के महलों मैं जिस प्रकार के सुंदर वेष-भूषा से मैं सजी रहती थी, वैसे ही यहां भी रहूं और तब आपके साथ मेरा समागम हो। साथ ही आप भी बहुमूल्य हार और आभूषणों से विभूषित हों। इन काषायवस्त्रों को धारण करके तो मैं समागम नहीं करूंगी।

गृहस्थी तभी सुखी हो सकती है जब....
कोई भी दो पहियां गाड़ी तभी ठीक से चल सकती है जब उसके दोनों पहिए ठीक से काम करें। उसी तरह गृहस्थी की गाड़ी तभी ठीक से चल सकती है। जब पति-पत्नी की आपसी समझ अच्छी हो। दोनों एक- दूसरे की भावनाओं का सम्मान करें व एक-दूसरे की जरूरतों का ध्यान रखें। तो जिंदगी में बड़ी से बड़ी मुश्किलों का सामना करना आसान हो जाता है। महाभारत की यह कहानी हमें यही बता रही की पति-पत्नी के रिश्ते की आपसी समझ कैसी होनी चाहिए।

यह तप की भूमि बहुत पवित्र है। किसी भी तरह से हमें इसे अपवित्र नहीं करना चाहिए। यह सुनकर अगस्त्यजी बोले- तुम्हारे घर में जो धन था, वह ना तुम्हारे पास है ना मेरे पास फिर ऐसा कैसे हो सकता है। लोपामुद्रा बोली- स्वामी तपोधन से बड़ा कोई धन इस संसार में नहीं है। आप उससे सबकुछ एक ही क्षण में प्राप्त कर सकते हैं। तब अगस्त्य ऋषि ने कहा वो तो ठीक है लेकिन इससे मेरे तप का क्षय होगा अब तुम कोई ऐसा उपाय बताओ कि मेरा तप भी क्षीण ना हो और तुम्हारी इच्छा भी पूरी हो जाए। लोपामुद्रा ने कहा मैं आपका तप क्षीण नहीं करना चाहती।

इसलिए आप उसकी रक्षा करते हुए मेरी कामना पूर्ण करें। तब अगस्त्य ऋषि राजा श्रुतर्वा के पास गए। वहां राजा ने उनका खूब सेवा सत्कार किया। उसके बाद अगस्त्य ऋषि ने राजा से कहा - राजन् आपके पास मैं धन की इच्छा लेकर आया हूं। आपको जो भी धन दूसरों को कष्ट पहुंचाये बिना मिला हो उसमें से आप मुझे अपनी शक्ति के अनुसार दान दे दीजिए। अगस्त्य ऋषि की बात सुनका राजा ने अपना सारा हिसाब उनके सामने रख दिया। जब मुनि ने देखा कि इनका तो आय व व्यय दोनों बराबर है। उसमें से थोड़ा सा भी लेने पर प्राणियों को दुख होगा। इसलिए उन्होंने कुछ नहीं लिया। फिर वे श्रुतर्वा को साथ लेकर वे राजा व्रन्धवके पास चले वहां भी वही हुआ जो श्रुर्तवा के यहां हुआ था। उनका आय व व्यय दोनों ही बराबर था। इस तरह जब उन्हें सभी राजाओं के पास ऐसा धन नहीं मिला तो वे सभी राजाओं के परामर्श पर इल्वल नाम के एक दैत्य के पास गए। वह दानव बड़ा ही धनवान था।

जब उसे इस बात का पता चला कि अगस्त्य मुनि उसके पास दानवों को लेकर आ रहे हैं तो वह उन्हें लेने गया। उनका आदर-सत्कार किया। फिर उसने पूछा बताइये मुनि मैं आपकी क्या सेवा करूं तब मुनि अगस्त्य ने सारी बात बताई। अगस्त्य ने उनसे अपनी आवश्यकता अनुसार धन दान में लिया और लोपामुद्रा की सारी इच्छाएं पूरी की। तब लोपामुद्रा ने कहा- आपने मेरी सारी इच्छाएं पूरी कर दीं, अब मैं हमारे एक पराक्रमी पुत्र को जन्म देना चाहती हूं।

हर पति का है ये कर्तव्य....जीवन का हर निर्णय पति-पत्नी को साझा रूप से लेना चाहिए। पति का कर्तव्य होता है कि वह हर फैसले में पत्नी की राय जरूर लें। यह सोच आधुनिक नहीं है। यह तो प्राचीनकाल से ही चली आ रही है। इसीलिए कहते हैं जहां नारियों को सम्मान दिया जाता है। वहां देवता निवास करते हैं। महाभारत की यह कथा हमें यही बता रही है कि गृहस्थी का हर फैसला पति-पत्नी दोनों को मिलकर लेना चाहिए ताकि जीवन सुखमय व शांतिपूर्ण रहे

अगस्त्य मुनि ने कहा-
मैं तुम्हारे सदाचार से बहुत खुश हूं। इसलिए तुम्हारे बारे में जो मैं सोचता हूं वह सुनो तुम्हे सहस्त्र पुत्रों के समान सौ पुत्र हो या सौ के समान दस पुत्र हो? या सौ को परास्त कर देने वाला एक ही पुत्र हो तुम क्या चाहती हो?

तब लोपामुद्रा ने कहा- मुझे तो सौ को पराजित करने वाला एक ही पुत्र चाहिए। उसके बाद लोपामुद्रा का गर्भ ठहरा। दोनों फिर वन में रहने लगे। लगभग सात साल गर्भ से रहने के बाद लोपामुद्रा ने एक पुत्र को जन्म दिया। उनके पुत्र के जन्म के बाद उनके पूर्वजों को मोक्ष मिला। यह स्थान अगस्त्याश्रम के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस आश्रम के ही पास भागीरथी नदी है। भगवान राम ने जब परशुरामजी को तेज विहीन कर दिया था। तब उन्होंने इसी तीर्थ में स्नान करके फिर से तेज प्राप्त किया था।

ऐसे चूर-चूर हुआ परशुराम का अभिमान...लोमेश मुनि की यह बात सुनकर युधिष्ठिर ने भाइयों और द्रोपदी के साथ उस तीर्थ में स्नान करने से उनका तेजस्वी शरीर और ज्यादा तेजस्वी लगने लगा। स्नान के बाद युधिष्ठिर ने लोमेश मुनि से पूछा मुनि बताइए कि इस तीर्थ में स्नान से अपना खोया तेज किस तरह प्राप्त हुआ। लोमेश मुनि बोले युधिष्ठिर में आपको परशुरामजी का चरित सुनाता हूं। आप सावधान होकर सुनिए। महाराज दशरथजी के यहां भगवान विष्णु ने ही रावण के वध के लिए रामवतार धारण किया। रामजी ने अपने बचपन में ही बहुत से पराक्रम के काम किए थे। उनके बारे में सुनकर परशुरामजी को बहुत आश्चर्य हुआ। वे अपना क्षत्रियों का संहार करने वाला धनुष लेकर उनके साथ ही अयोध्या आए।

जब राजा दशरथ को उनके आने के बारे में पता चला तो वे रामजी को सबसे आगे रखकर उन्हें राज्य की सीमा पर भेजा। परशुरामजी ने राम जी से कहा मेरा यह धनुष काल के समान कराल है। यदि तुममें बल हो तो इसे चढ़ाओ। तब रामजी ने उनके हाथ से वह धनुष लेकर उसे खेल ही खेल में चढ़ा दिया। फिर मुस्कुराते हुए उससे टंकार किया। इसके बाद परशुरामजी ने कहा लीजिए आपका धनुष तो चढ़ा दिया, अब और क्या सेवा करूं? तब परशुरामजी ने उन्हें एक दिव्य बाण देकर कहा इसे धनुष पर लगाकर तुम्हारे कान तक खींच कर बताओ।

यह सुनकर रामजी समझ गए कि परशुरामजी अभिमानी हैं। रामजी ने उनसे कहा आप ने पितामाह ऋत्वीक की कृपा से विशेषत: क्षत्रियों को हराकर ही यह तेज प्राप्त किया है। इसीलिए निश्चित ही आप मेरा भी तिरस्कार कर रहे हैं। मैं आपको दिव्य नेत्र देता हूं। उनसे आप मेरे रूप को देखिए। तब परशुरामजी ने रामजी मे सारी श्रृष्ठि को देखा। रामजी ने बाण छोड़ा तो वज्रपात होने लगा।

रामजी उस बाण से परशुरामजी को भी व्याकुल कर दिया। उनके शरीर से मानों तेज गायब हो गया। वे निस्तेज हो गए। इस तरह परशुरामजी का घमंड चूर-चूर हो गया। उन्होंने कहा तुमने साक्षात विष्णु के सामने ठीक से बर्ताव नहीं किया। अब तुम जाकर नदी में स्नान करो तभी तुम्हे तुम्हारा तेज फिर से प्राप्त होगा। इस तरह अपने पितृजन के कहने पर परशुरामजी ने वहां स्रान किया और अपना खोया तेज प्राप्त किया।

इस तरह इन्द्र को मिला वज्रयुधिष्ठिरजी से लोमेशजी बोले मैं आपको अगस्त्यजी की बहुत दिव्य और आलौकिक कथा सुनाता हूं। आप सावधान होकर सुनिए। सतयुग में कालकेय नाम का एक राक्षस था। वह वत्रासुर के अधीन था। सभी राक्षस देवताओं पर अक्सर आक्रमण किया करते थे। तब सब देवताओं ने मिलकर सोचा वृत्रासुर का वध करना अब जरूरी हो गया। वे इन्द्र को आगे लेकर ब्रह्माजी के पास आए। ब्रह्मा ने यह देखकर उनसे कहा देवताओं तुम जो काम करना चाहते हो, वह मुझसे छिपा नहीं है।

मैं तुम्हे वत्रासुर के वध का उपाय बताता हूं। पृथ्वी पर दधीच नाम के एक ऋषि रहते हैं जो स्वभाव से बहुत उदार हैं। तुम सब उनसे जाकर वर मांगो। जब वे तुम्हे वर देने को तैयार हो जाएं। तब उनसे कहना कि तीनों लोक के हित के लिए आप हमें अपनी हड्डियां दे दीजिए। तब वे देह त्यागकर तुम्हे अपनी हड्डिया दे देंगे। तुम एक छ: दांतों वाला एक बहुत भयानक वज्र बनाना। उस वज्र से इन्द्र वत्रासुर का वध कर सकेगा। मैंने तुम्हें सब बातें दी हैं, अब जल्दी करो।

ब्रह्माजी के इस प्रकार कहने के बाद सभी देवता सरस्वती के दूसरे तट पर ऋषि दधीच के पास गए। देवताओं ने दधीच से प्रार्थना की। सभी की प्रार्थना पर दधीची ने शरीर त्याग किया। देवता ब्रह्मा के आदेश के अनुसार उनकी हड्डियां सभी देवता विश्वकर्मा के पास ले गए। विश्वकर्मा ने उनकी हड्डियों से वज्र तैयार किया और उस वज्र को इन्द्र को देकर कहा कि आप लोग वत्रासुर को भस्म कर डालिए। उसके बाद देवताओं ने वत्रासुर पर हमला बोल दिया। इन्द्र ने अपनी पूर्ण शक्ति के साथ जब वत्रासुर पर प्रहार किया तो वह गिर पड़ा। वज्र की चोट से वह कुछ ही समय बाद मारा गया।

और तब पृथ्वी पर अंधेरा छा गयाभगवान विष्णु की यह बात सुनकर देवगण ब्रम्ह्माजी अगस्त्य मुनि के आश्रम आए। वहां उन्होंने देखा कि अगस्त्यजी ऋषियों से घिरे हुए बैठे हैं। देवता उनके निकट गए। सभी देवता अगस्त्य मुनि की स्तुति गाने लगे। स्तुति में उन्होंने कहा पूर्वकाल में इन्द्र पद पाकर राजा नहुष ने जब सभी लोकों को तृप्त करना शुरू किया।

पर्वतराज विन्ध्याचल सूर्य पर क्रोधित होकर एक साथ बहुत ऊंचे हो गए थे। इससे संसार में अंधेरा रहने लगा। उस समय प्रजा मरने लगी। उस समय आपकी शरण लेने से ही उन्हें शान्ति मिली थी। अब आप ही हमारा सहारा हैं। इतनी कथा सुनने के बाद युधिष्ठिर ने लोमेश से कहा विन्ध्याचल क्रोधित होकर अचानक सूर्य की तरफ क्यों बढऩे लगा?

तब लोमेश मुनि बोले सूर्य उदय और अस्त होने में पर्वतराज सुवर्णगिरी सुमेरु की प्रदक्षिणा किया करते थे। यह देखकर विंध्याचल ने कहा सूर्यदेव जिस प्रकार तुम सुमेरु के पास जाकर उसकी परिक्रमा करते हो, उसी तरह मेरी भी किया करो। इस पर सूर्य ने कहा मैं अपनी इच्छा से सुमेरु की प्रदक्षिणा नहीं करता।

इसलिए करता हूं क्योंकि उन्होंने जगत की रचना की है। उन्होंने मेरे लिए यह मार्ग निर्दिष्ट कर दिया है। सूर्य के ऐसी बात सुनकर विध्यांचल को गुस्सा आ गया। वह सूर्य की तरफ तेजी से बढऩे लगा। तब सभी देवता विन्ध्य के पास आए और अनेकों उपायों से उसे रोकने लगे। उसने किसी कि एक ना सुनी। फिर वे सभी अपनी प्रार्थना लेकर अगस्त्य मुनि के पास गए। वे कहने लगे- भगवन पर्वतराज विन्ध्य ने सूर्य और चंद्र के मार्ग व नक्षत्रों की गति को रोक दिया है।

तब अगस्त्य मुनि समुद्र पी गए और...देवताओं की यह बात सुनकर अगस्त्यजी अपनी पत्नी के सहित विन्ध्याचल के पास आए और उससे बोले, पर्वत प्रवर मैं किसी कार्य के लिए दक्षिण की तरफ जा रहा हूं। इसलिए मेरी इच्छा कि तुम मुझे उधर जाने का रास्ता दो। जब तक मैं उधर से लौटू़। तब तक तुम मेरी प्रतिक्षा करना, उसके बाद अपनी इच्छा के अनुसार बढ़ते रहना।

विंध्याचल से यह कहकर अगस्त्यजी दक्षिण की ओर चले गए और वहां से आज तक नहीं लौटे। इतनी कथा सुनाने के बाद लोमेश मुनि ने युधिष्ठिर से कहा जितनी कथा मुझे तुम्हे सुनानी थी सुना चूका। अब मैं तुम्हे कालकैयों का संहार कैसे हुआ वह कथा सुनाता हूं। देवताओं की प्रार्थना सुनकर अगस्त्य ऋषि ने कहा आप लोग यहां कैसे आए हैं और मुझसे क्या वर चाहते हैं? तब देवताओं ने कहा

हमारी ऐसी इच्छा है कि आप महासागर को पी जाइए।

ऐसा होने पर हम समुद्र में छूपे सारे कालकेय राक्षसों को मा डालेंगे। देवताओं की बात सुनकर मुनिवर अगस्त्य ने कहा अच्छा मैं तुम्हारी इच्छा पूरी करूंगा और संसार का दुख दूर कर दूंगा। तब देवताओं की मार से कालकेय का संहार करने लगे। जब सभी राक्षसों का संहार हो गया तो सभी देवता ब्रम्ह्माजी के पास आए और उनसे समुद्र भरने की प्रार्थना की।

ऐसे हुए राजा को एक साथ साठ हजार पुत्र....युधिष्ठिर ने लोमेश मुनि से पूछा कि समुद्र भरने में भागीरथ के पूर्व पुरुष किस प्रकार कारण हुए, भागीरथ ने उसे किस प्रकार भरा यह प्रसंग में आपसे सुनना चाहता हूं। लोमेश मुनि ने कहा इक्ष्वाकुवंश में सगर नाम के एक राजा थे। वे बड़े ही सुंदर थे। उनकी विदर्भी और शैब्या नाम की दो पत्निया थी। उन्हें साथ लेकर वे कै लास पर्वत पर गए। तपस्या करने लगे। कुछ कला तपस्या करने पर उन्हें भगवान शंकर के दर्शन हुए। महाराज सागर ने दोनों रानियों के सहित भगवान के चरणों में प्रणाम किया और पुत्र के लिए प्रार्थना की। तब शिवजी ने राजा व रानियों को कहा तुमने जिस मुहूर्त में वर मांगा है। उसके प्रभाव से तुम्हारी एक रानी को तो बहुत शूरवीर साठ हजार पुत्र होंगे। वे सब एक साथ ही नष्ट हो जाएंगे।

दूसरी रानी से वंश को चलाने वाला केवल एक ही शूरवीर पुत्र होगा। ऐसा कहकर भगवान शंकर अंर्तध्यान हो गए। शिवजी के आर्शीवाद से दोनों ही रानियों ने शीघ्र ही गर्भ धारण किया। समय आने पर वैदर्भी के गर्भ से एक तुंबी उत्पन्न हुई। शैव्या के के गर्भ से एक देवरूपी बालक ने जन्म लिया।राजा ने उस तुंबी को फेंकवाने का विचार किया तो आकाशवाणी हुई। तुम इस तरह अपने पुत्रों का त्याग नहीं कर सकते हो। एक तुंबी में जितने बीज हैं सभी निकालकर उन्हें कुछ-कुछ गरम किए हुए घी से भरे घड़ों में रख दो। इससे तुम्हे साठ हजार पुत्र होंगे। उसने ऐसा ही किया और हर एक घड़े की रक्षा के लिए एक दासी नियुक्त कर दी। समय बीतने के बाद उन घड़ों से साठ हजार पुत्र हुए। वे सभी क्रुर कर्म करने वाले थे। सगर ने अश्वमेघ यज्ञ की दीक्षा ली।

और तब मारे गए राजा के साठ हजार पुत्र...उनका घोड़ा पृथ्वी पर घूमने लगा। राजा के पुत्र रखवाली पर नियुक्त थे। घूमता-घूमता वह जलहीन समुद्र के पास पहुंचा, जो उस समय भयंकर लग रहा था। राजकुमार बड़ी सावधानी से उसकी चौकसी कर रहे थे। वह वहां पहुंचने पर अदृश्य हो गया। जब वह ढूंढने पर भी न मिला तो राजपुत्रों ने समझा कि उसे किसी न चुरा लिया है और राजा सगर के पास आकर ऐसा ही कह दिया। हमने समुद्र, द्वीप, वन, नंद सभी छान डाले, परंतु हमें न तो घोड़ा ही मिला और न उसको चुरानेवाला। पुत्रों की यह बात सुनकर सगर को बहुत गुस्सा आया और उन्होंने आज्ञा दी कि जाओ फिर घोड़े की खोज करो और बिना उस यज्ञपशु के लौटकर मत आना।

पिता का ऐसा आदेश पाकर सगरपुत्र फिर सारी पृथ्वी में घोड़े की खोज करने लगे। अंत में उन्होंने एक जगह पृथ्वी फटी हुई देखा। उसमें उन्हें एक छिद्र भी दिखाई दिया। तब वे कुदाल और हथियारों से छिद्र को खोदने लगे। खोदते-खोदते उन्हें बहुत समय बीत गया। लेकिन फिर भी उन्हें घोड़ा नहीं दिखाई दिया। इससे उनका गुस्सा और ज्यादा बढ़ गया और उन्होंने ईशान्य कोण में पाताल लोक तक खोद डाला। वहां उन्होंने अपने घोड़े को घूमता देखा तो उसके पास ही उन्हें महात्मा कपिल भी दिखाई दिए।

घोड़े को देखकर कपिल मुनि को गुस्सा आ गया। उन्होंने गुस्से में आकर सभी मंद बुद्धि पुत्रों को भस्म कर दिया। जब नारद जी ने राजा को जाकर यह समाचार सुनाया तो वे उदास हो गए। लेकिन तभी उन्हें शिवजी के दिए वर का स्मरण हो गया। इसलिए उन्होंने अपने पोते अंशुमान को बुलाकर कहा मेरे साठ हजार पुत्र नष्ट हो गए।

इसलिए राजा ने अपने पुत्र का त्याग कर दियाअपने धर्म की रक्षा और प्रजा के हित के जिए मैंने तुम्हारे पिता को भी त्याग दिया है। तब युधिष्ठिर ने लोमेश मुनि से पूछा-राजा ने अपने पुत्रों को त्याग क्यों कर दिया था? तब लोमेश मुनि ने बोला -महाराज सगर का शैव्या से गर्भ से उत्पन्न पुत्र का नाम असमंजस था। वह अपने पुरवासियों के कमजोर बच्चों को रोने चिल्लाने पर भी गला फाड़कर नदी में डाल देता था। इसी कारण सभी पुरवासी उससे बहुत डरते थे। इस सब से परेशान होकर वे सभी पुरवासी राजा राजा के पास गए। पुरवासियों की बात सुनकर महाराज सगर उदास हो गए ।

फिर मंत्रियों को बुलाकर उन्होंने कहा यदि आप लोग मेरा कुछ अच्छा करना चाहते हैं तो तुरंत ही एक काम करें- मेरे पुत्र असमंजस को अभी इस नगर से बाहर निकाल दीजिए। राजा की आज्ञा के अनुसार सभी पुरूवासियों के हित के लिए उन लोगों ने ऐसा ही किया। सगर ने अंशुमान से कहा बेटा में तुम्हारे पिता को नगर से निकाल चुका हूं। मेरे और सब पुत्र भस्म हो गए हैं। यज्ञ का घोड़ा भी नहीं मिला है। इसलिए मुझे बहुत दुख हो रहा है। तुम किसी तरह से वह घोड़ा ढूँढ़ कर लाओ ताकि में यज्ञ सम्पन्न कर पाऊं।

अब अंशुमान उसी स्थान पर आया जहां पृथ्वी खोदी गई थी। उसी मार्ग से उसने समुद्र में प्रवेश किया। वहां उसने उस घोड़े और महात्मा कपिल को देखा। उनके दर्शन कर उसने प्रणाम किया और उनकी सेवा में वहां आने का निवेदन किया। अंशुमान की बातें सुनकर महर्षि कपिल बहुत प्रसन्न हुए। उससे बोले मैं तुम्हे वर देना चाहता हूं, तुम्हारी जो इच्छा हो मांग लो। अंशुमान ने पहले वर में अश्वमेघ यज्ञ का घोड़ा मांगा और दूसरे में पितरों को पवित्र करने की प्रार्थना की।

तब धरती पर उतरी गंगाइतना सुनने के बाद कपिलमुनि ने कहा तुम जो वर मांगते हो वह मैं तुम्हे देता हूं। तुमसे सगर का जीवन सफल होगा। तुम्हारे पिता भी पुत्रवान में गिने जाएंगे। तुम्हारे प्रभाव से ही वे सब स्वर्ग प्राप्त करेंगे। तुम्हारा पौत्र भागीरथ सगर पुत्रों का उद्धार करने के लिए स्वर्गलोक से गंगाजी लाएगा। कपिलजी के इस तरह कहने के बाद अंशुमान घोड़ा लेकर सगर की यज्ञशाला में आ गया। इसके बाद बहुत दिनों तक राजा सगर ने अपनी प्रजा का पिता के समान पालन किया।

अंशुमान ने भी अपने पितामह के ही समान राज्य किया। उन्हें दिलीप नाम के धर्मात्मा पुत्र हुए। उस राज्य को सौंपकर अंशुमान भी परलोक सिधार गए। दिलीप को जब अपने पितरों के विनाश की कहानी पता चली तो उन्हें बहुत चिंता हुई। वे उनके उद्धार का उपाय सोचने लगे और उन्होंने गंगाजी को लाने के लिए बहुत कोशिशें की। बहुत कोशिश करने पर भी वे सफल नहीं हो पाए। उनको भागीरथ का नाम का पुत्र हुआ। उसे राज्य पर सौंप कर दिलीप वन को चले गए। राजा भागीरथ चक्रवर्ती और महारथी थे। उन्हें जब मालुम हुआ के उनके पूर्वज कपिल मुनि के क्रोध से भस्म हो गए। तब उन्होंने कई सालों तक कंद-मूल खाकर तपस्या की। लगभग एक हजार साल बीत जाने के बाद गंगा नदी प्रकट हुई। तब गंगा ने उनसे पूछा कि तुम क्या चाहते हो तब भगीरथ ने कहा मेरे पितृगण की मुक्ति के लिए आप से प्रार्थना करता हूं। तब मां गंगा ने कहा-भागीरथ अगर मैं तुम्हे यह वर दे दूं तो तीनों लोकों में जल प्रलय आ जाएगा।

मेरे आकाश से जमीन पर आने के वेग को जो धारण कर सके। ऐसा कोई उपाय करो। तब भागीरथ ने पूछा कि तीनों लोकों में ऐसा कौन है जो आपको धारण करने में सक्षम है। तब मां गंगा ने कहा केवल शिवजी ही हैं जो मुझे धारण कर सकते हैं। तब भागीरथजी ने कैलास पर जाकर सैकड़ों सालों तक तपस्या की। तब शिवजी प्रकट हुए और उन्होंने भागीरथ से कहा कि अब तुम गंगा से प्रार्थना करों, मैं स्वर्ग में उसे धारण कर लुंगा। तब गंगाजी धरती पर उतरी। उन्होंने भागीरथ से कहा मैं किस मार्ग से चलूं। यह सुनकर राजा भगीरथ उन्हें उस स्थान पर ले गए जहां उनके पूर्वजों की अस्थियां थी।

हिरनी के गर्भ से लिया ऋषि ने जन्म क्योंकि...
एक बार युधिष्ठिर नन्दा और अपरनन्दा नाम की नदियों पर गए जो हर प्रकार से पाप और भय को नष्ट करने वाली थी। तब लोमेशजी ने युधिष्ठिर से कहा राजन्- इस नदी में स्नान करने वाला हर तरह के पाप से मुक्त हो जाता है। यह सुनकर युधिष्ठिर ने अपने भाइयों के साथ उस नदी में स्नान किया। उसके बाद वे लोग कौशिक नदी के किनारे गए। वहां जाकर लोमेशजी ने युधिष्ठिर से कहा- इस नदी के किनारे आपको जो आश्रम दिखाई दे रहा है। वह कश्यप मुनि का है। महर्षि विभाण्डक के पुत्र ऋषिश्रृंग का आश्रम भी यहीं है। उन्होंने एक बार अपने तप के प्रभाव से वर्षा को रोक दिया था। वे परमतेजस्वी हैं। उन्होंने विभाण्डकमुनि और मृगी के उदर से जन्म लिया है।

अनावृष्टी होने पर उस बालक के भय से वृत्रासुर वध करने वाले इन्द्र ने कैसे वर्षा की। तब युधिष्ठिर ने कहा लेकिन पशुजाति के साथ योनी संसर्ग होना तो शास्त्रों की दृष्टी से गलत है। तब लोमेशजी बोले महर्षि विभाण्डक बड़े ही साधुस्वभाव और प्रजापति के समान तेजस्वी थे। उनका वीर्य अमोघ था। तपस्या के कारण अंत:करण शुद्ध हो गया। एक बार वे एक सरोवर पर स्नान करने लगे। वहां उर्वशी अप्सरा को देखकर जल में ही उनका वीर्य स्खलित को गया।

इतने में ही वहां एक प्यासी मृगी आई वह जल के साथ वीर्य भी पी गई। इससे उसका गर्भ ठहर गया। वास्तव में वह एक देवकन्या थी। इसे शाप देते हुए कहा था कि तू मृगजाति में जन्म लेकर एक मुनि पुत्र को उत्पन्न करेगी। तब शाप से छूट जाएगी। विधि का विधान अटल है। इसी से महामुनि ऋषिश्रृंग के नाम से प्रसिद्ध हुए। उनके सिर पर एक सींग था। इसलिए उनके मन में हमेशा ब्रम्हचर्य रहता था।

राजा ने ब्राह्मण को दान से मना किया तो...इसी समय अंगदेश में महाराज दशरथ के मित्र राजा लोमपाद राज्य करते थे। हमने ऐसा सुना था कि उन्होंने किसी ब्राह्मण को कोई चीज देने की प्रतिज्ञा करने के बाद उसे मना कर दिया था। इसीलिए ब्राह्मणों ने उनको त्याग दिया। इससे उनके राज्य में वर्षा होनी बंद हो गई। प्रजा में हाहाकार मच गया।तब उन्होंने ब्राह्मणों से उपाय पूछा कि आप ही लोग बताइये। सभी उपाय सोचने में लग गए। वे सब अपना मत प्रकट करने लगे। तब उनमें से एक ने कहा राजा ब्राह्मण आप पर कुपित है। इसका आप प्रयाश्चित कीजिए।

ऋषिश्रृंग नाम के एक मुनिकुमार है। वे वन में ही रहते हैं और बहुत सरल स्वभाव के हैं। उन्हें स्त्री जाति के बारे में तो पता ही नहीं है। उन्हें आप अपने देश में बुला लीजिए। वे यदि यहां आ गए तो तुरंत वर्षा होने लगेगी। यह सुनकर राजा ने लोमपाद ने अपने अपराध का प्रायश्चित करवाया। उनके प्रसन्न होने पर उन्होंने अपने राज्य के मंत्रियों की सलाह से राज्य की प्रधान वैश्याओं को बुलवाया और कहा सुन्दरियों तुम जाओ और किसी तरह मोहित करके ऋषि श्रृंग को मेरे राज्य में ले आओ।

तब वैश्या ने राजा से कहा मैं अपने तपोधन से ऋषिश्रृंग को लाने का प्रयत्न करुंगी। उसके बाद उस वृद्धा ने अपनी बुद्धि के अनुसार नौका पर एक आश्रम तैयार किया। उस आश्रम को उसने बनावटी फूल व फल से सजाया। उसने विभाण्डक मुनि के आश्रम से कुछ दूरी पर जाकर गुप्तचरों को बोला जाओ पता लगाकर आओ मुनि विभाण्डक किस समय आश्रम से बाहर जाते हैं। उसके बाद उसने अपनी पुत्री वैश्या को सब बात समझाकर ऋषिश्रृंग के पास भेजा।

उसका ऐसा रूप देखकर मुनि हैरान हो गए!

उस वैश्या ने मुनि की आश्रम पहुंचकर उनके दर्शन किए। उसने मुनि का आशीर्वाद लिया। ऋषिश्रृंग ने कहा आप की कांति साक्षात तेज पुंज के समान है। मैं आपको पैर धोने के लिए जल दूंगा। अपने धर्म के अनुसार कुछ फल भेट करूंगा। यह कृष्णचर्म से ढ़का हुआ आसन है। इस पर विराज जाइए। आपका आश्रम कहा है? आप किस नाम पसंद है। तब वैश्या बोली मेरा आश्रम यहां से तीन योजन की दूरी पर है। मेरा ऐसा नियम है कि मैं किसी के पैर नहीं छूता और नहीं किसी को छूने देता हूं।

तब ऋषि ने उसे कु छ फल दिए और कहा आप इसमें से रूचि अनुसार ग्रहण करे। उस वैश्या की लड़की ने उन सब फलों को त्यागकर अपने पास से कुछ स्वादिष्ट फल निकालकर व कुछ रसीले पदार्थ व शर्बत निकालकर मुनि को दिए। उसके बाद तो जैसे ऋषिश्रृंग का ध्यान भटकने लगा था। उसके बाद वो वैश्या वहां से चली गई। ऋषि श्रृंग उस वैश्या को पहचान नहीं पाएं क्योंकि वे स्त्री जाति से ही अनजान थे।जब ऋषिश्रृंग के पिता लौटकर आए तब उन्होंने उनसे कहा पिताजी आपके जाने के बाद एक जटाधारी ब्रह्मचारी आश्रम आए थे। वह सोने के समान काया वाले थे। उनके शरीर पर बिल्कुल रोम नहीं थे। गले के नीचे दो मासपिंड थे। वह चलता था तो अजीब सी झनकार होती थी। उसे देखकर मेरे मन में उसके प्रति बहुत प्रिति और आसक्ति उत्पन्न हो रही थी। उसने मुझे बहुत स्वादिष्ट फल और कुछ पदार्थ पिलाया जिसे पीकर मुझे बहुत आनंद हुआ। ऋषिश्रृंग की बात सुनकर विभांडक मुनि बोले बेटा ये तो राक्षस है।

ये ऐसे ही विचित्र और दर्शनीय रूप में घूमते रहते हैं। ये बहुत पराक्रमी होते हैं। बेटा ये तुम्हारी तपस्या में विघ्र डालना चाहते हैं। यह कहकर राक्षस ने उन्हें रोक दिया और खुद विभांडक मुनि उस वैश्या को ढंूढने लगे। जब तीन दिन तक कुछ पता नहीं चला तब वे आश्रम लौट आए। जब विभांडक मुनि आश्रम से बाहर गए तो वैश्या अपनी युक्ति से उन्हें ले गई और जैसे ही वे राजा लोमपाद के राज्य में पहुंचे तो वहां जल ही जल हो गया।

ब्राह्मण होकर भी क्षत्रिय की तरह क्यों थे परशुराम?वैशम्पायनजी कहते हैं जन्मेजय उस सरोवर में स्नान करके महाराज युधिष्ठिर कौशि की नदी के किनारे होते हुए सभी तीर्थ स्थान में गए। उन्होंने समुद्र तट पर पहुंचकर गंगाजी के स्थान में मिली हुई पांच सौ नदियों की धारा से स्नान किया। इसके बाद वे समुद्र के किनारे-किनारे अपने भाइयों सहित कलिंग देश आए। वहां लोमेश जी कहने लगे यह कलिंगदेश है। यहां वैतरणी नदी बहती है। इस स्थान पर देवताओं का आश्रय लेकर खुद धर्मराज ने यज्ञ किया था। पाण्डवों ने द्रोपदी सहित वैतरणी नदी में उतरकर पितृतर्पण किया। इसके बाद वे महेन्द्रपर्वत पर गए। वहां एक रात निवास किया।वहां रहने वाले तपस्वीयों ने उनका बहुत सत्कार किया। लोमेश मुनि ने उन सभी ऋषियों का परिचय युधिष्ठिर को दिया। वीरवर ने परशुराम से पूछा भगवान परशुराम इन तपस्वीयों को किस समय दर्शन देंगे।

तपस्वीयों को उनका दर्शन चतुर्दशी और अष्टमी को होता है। आज की रात बीतने पर कल चर्तुदशी होगी तब आप भी उनके दर्शन कर लेना। युधिष्ठिर ने पूछा- आप परशुरामजी के सेवक है।उन्होंने पहले जो-जो कार्य किए थे वे सभी आपने प्रत्यक्ष देखे हैं। जिस प्रकार उन्होंने क्षत्रियों को परास्त किया था। तब अकृतव्रण ने कहा मैं तुम्हे परशुरामजी का चरित्र सुनाता हूं। उन्होंने है हद्यवंश के अर्जुन का वध किया था। तब उसके एक हजार भुजाएं थी। दतात्रेय की कृपा से उन्हें एक सोने का विमान मिला था। उसकी गति को पृथ्वी पर कोई रोक नहीं सकता था। किसी समय कन्नौज नामक नगर में गाधि नाम का एक बलवान राजा था। वह वन में जाकर रहने लगा। वहां उसके एक कन्या उत्पन्न हुई। जो अप्सरा के समान सुंदर लगी थी। उसका नाम था सत्यवती। ऋचीक मुनि ने राजा के पास जाकर याचना की। राजा गाधि ने ऋचीक मुनि के साथ सत्यवती का ब्याह कर दिया। विवाहकार्य सम्पन्न हो जाने पर अपने पुत्र को पत्नी के साथ देखकर भृगु ऋषि बहुत खुश हुए। तब उन्होंने अपने पुत्रवधु को वर मांगने को कहा। तब उसने ससुरजी को प्रसन्न देखकर अपने और अपनी माता के लिए पुत्र की याचना की। तब भृगुजी ने कहा तुम और तुम्हारी माता दोनों ऋतुस्नान के बाद अलग-अलग वृक्षों से आलिंगन करना। वह पीपल का और तुम गुलर का आलिंगन करना।

इसके अलावा मैंने ये दो चरू तैयार किए हैं इनमें रखा पदार्थ तुम सावधानी पूर्वक खा लेना। जब बहुत दिन बाद वे लौटे तो उन्होंने जाना कि सत्यवती ने गलत वृक्ष का आलिंगन किया व गलत चरू की सामग्री का सेवन किया। यह देखकर उन्होंने कहा सत्यवती तुम्हारा पुत्र इसीलिए ब्राह्मण होकर भी क्षत्रिय के समान व्यवहार करेगा। तब सत्यवती ने बार-बार प्रार्थना की ओर कहा कि मेरा पुत्र ऐसा ना हो भले ही पौत्र ऐसे स्वभाव वाला हो जाए।

इसलिए परशुराम ने अपनी मां का ही सिर काट दियाउसके बाद जमदग्रि ने वेदाध्यन आरंभ किया और नियम से स्वाध्याय करने लगे। फिर उन्होंने राजा प्रसेनजित के पास जाकर उनकी पुत्री रेणुका के लिए याचना की और राजा ने जमदग्रि से अपनी बेटी का विवाह कर दिया। रेणुका का आचरण सब प्रकार से अपने पति के अनुकूल था। उनके साथ आश्रम में रहकर वह भी तपस्या करने लगी। उनके चार पुत्र हुए। इसके बाद परशुराम पैदा हुआ जो इनका पांचवा पुत्र था। एक बाद जब सब पुत्र फल लेने चले गए। जब रेणुका स्नान करने को गई। तब उन्होंने देखा कि राजा चित्ररथ जलक्रीड़ा कर रहे हैं। राजा को जलक्रीड़ा करते देख। रेणुका उन पर मोहित हो गई। उसके बाद वे आश्रम लौटी। वहां उन्हें मानसिक रूप से थका हुआ देखकर मुनि ने अपनी दिव्य शक्तियों से जान लिया। इसके बाद उन्होंने तुरंत अपने पुत्रों से कहा तुम अपनी मां को तुरंत मार डालो। वे सभी हक्के-बक्के हो गए और कुछ नहीं बोल सके । तब मुनि ने क्रोधित होकर उन्हें शाप दिया।

जिससे उनकी विचारशक्ति नष्ट हो गई। उन सबके पीछे परशुरामजी आए। उनसे मुनि जमदग्रि ने कहा बेटा अपनी इस पापिनी मां को मार डालो। इसके लिए मन किसी तरह का खेद मत कर। सुनकर परशुरामजी ने अपनी माता का मस्तक काट डाला। उसके बाद जमदिग्र का क्रोध शांत हो गया। उन्होंने प्रसन्न होकर अपने बेटे से कहा तुम्हारी जो जो कामना है सब मांग लो। तब उन्होंने कहा पिताजी मेरी माता जीवित हो जाएं। उन्हें मेरे द्वारा मारे जाने के बात याद ना रहे। मेरे चारों भाई स्वस्थ्य हो जाएं, युद्ध में मेरा सामना करने वाला कोइ ना हो, मैं लंबी आयु प्राप्त करूं।

तो परशुरामजी ने सारे क्षत्रियों को मार डालाएक बार इसी तरह उनके सब पुत्र बाहर गए थे। उसी समय अनूप देश का राजा कार्तवीर्य अर्जुन उनके आश्रम आ गया। जिस समय वह आश्रम आया। मुनिपत्नी रेणुका ने उसका आतिथ्य स्वीकार किया। उसने सत्कार की कुछ कीमत न करके आश्रम की होमधेनु के डकारते रहने पर भी उसके बछड़े को हर लिया। वहां के पेड़ आदि भी तोड़ दिए। जब परशुरामजी आश्रम में आए तो स्वयं जमदग्नि जी ने उनसे सारी बात कहीं। उन्होंने होम की गाय को भी रोते देखा। यह सुनकर और देखकर वे बहुत दुखी हुए। वे सहस्त्रार्जुन के पास आए और उसकी सैकड़ो भुजाओं को काट दिया और उसे काल के हवाले कर दिया। इससे सहस्त्रार्जुन के पुत्रों को बहुत दुख हुआ।

उन्होंने एक दिन परशुरामजी की अनुपस्थिति में जमदग्रि के आश्रम पर हमला बोल दिया। जब वे उनकी हत्या करके चले गए। उसके कुछ देर बाद परशुरामजी समिधा लेकर आश्रम पहुंचे। वहां अपने पिताजी को मरे हुए देखकर उन्हें बहुत दुख हुआ। वे फूट-फूटकर रोने लगे। कुछ समय तक करूणा पूर्वक विलाप करते रहे, फिर उन्होंने अपने पिता का अग्रि संस्कार किया और प्रतिज्ञा की में सारे क्षत्रियों का संहार कर दूंगा। उन्होंने अकेले ही कार्तवीर्य के सब पुत्रों को मार डाला। उन्होंने पूरी पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियहीन कर दिया।

राजकुमारी ने अनजाने में ऋषि च्यवन की आंखें फोड़ दी तो...इस तरह उस तीर्थ की कहानी सुनने के बाद पांडव शर्याति यज्ञ स्थान पर पहुंचे। लोमेश मुनि ने एक स्थान कि ओर संकेत करते हुए युधिष्ठिर से कहा महाराज यह शर्याति यज्ञ स्थान है। यहां कौशिक मुनि ने अश्विनीकुमार सहित सौमपान किया था। इसी स्थान पर महर्षि च्यवन ने इन्द्र को स्तब्ध कर दिया था। यहीं उन्हें राजकुमारी सुकन्या प्राप्त हुई थी। तब युधिष्ठिर ने पूछा च्यवनमुनि को क्रोध क्यों हुआ? उन्होंने इन्द्र को स्तब्ध क्यों किया? अश्विनीकुमारों को उन्होंने सोमपान का अधिकारी कैसे बनाया?

महर्षि भृगु का च्यवन नामक एक बड़ा ही तेजस्वी पुत्र था। वह इस सरोवर के तट पर तपस्या करने लगा। वह मुनिकुमार बहुत समय तक वृक्ष के समान निश्चल रहकर एक ही स्थान पर वीरासन में बैठा रहा। धीरे -धीरे अधिक समय बीतने पर उसका शरीर घास और लताओं से ढक लिया। उनके शरीर पर चीटियों ने अड्डा जमा लिया। वे चारों तरफ से देखने पर केवल मिट्टी का एक पिंड जान पड़ते थे। इस तरह बहुत समय बीत गया। एक दिन राजा शर्याति इस सरोवर पर क्रीडा करने के लिए आया। उसकी चार सुन्दरी रानियां और एक सुंदर कन्या थी। उसका नाम सुकन्या थी। वह कन्या अपनी सहेलियों के साथ टहलती हुई च्यवन मुनि के उस बांबी के पास आ गई उसमें से च्यवन मुनि की चमकती आंखे देखकर उसे कौतुहल हुआ। फिर उसने बुद्धि भ्रमित हो जाने से उसे कांटे से छेद दिया। इस प्रकार आंखे फूट जाने के कारण उन्हें बहुत दुख हुआ और उन्होंने शर्याति की सेना के मल-मूत्र बंद कर दिए।

सेना कि यह दशा देखकर राजा ने पूछा यहां च्यवनऋषि रहते हैं। वे स्वभाव के बहुत क्रोधी हैं। उनका जाने-अनजाने में किसने अपमान किया है। यह बात जब सुकन्या को मालूम हुई तो उसने कहा मैं घूमती-घूमती बांबी के पास आ गई। वहां मैंने उस बांबी में जुगनू से चमकते हुए जीव को छेद दिया। यह सुनकर शर्याति तुरंत ही बांबी के पास गए। वहां उन्हें च्यवन ऋषि दिखाई दिए। राजा ने उनसे क्षमा मांगी। तब उन्होंने कहा इस गर्वीली कन्या जिसने मेरी आंखें फोड़ी हैं। मैं इसे पाकर ही क्षमा कर सकता हूं।

और वे बुढ़े से हो गए जवानयह बा त सुनकर राजा शर्याति ने बिना विचारे च्यवन ऋषि को अपनी कन्या दे दी। उस कन्या को पाकर च्यवन मुनि प्रसन्न हो गए। सती सुकन्या भी अपने तप के नियमों का पालन करते हुए। प्रेमपूर्वक तपस्वी की परिचर्चा करने लगे। एक दिन सुकन्या स्नान करके अपने आश्रम में खड़ी थी। उस समय उस पर अश्विनी कुमारों की दृष्टी पड़ी। वह साक्षात देवराज की कन्या के समान अंगो वाली थी। तब अश्चिनीकुमारों ने उसके समीप जाकर कहा तुम किसकी पुत्री हो और किसकी पत्नी हो इस वन में क्या करती हो?

यह सुनकर सुकन्या ने सहज भाव से कहा मैं महाराज शर्याति की कन्या और महर्षि च्यवन की पत्नी हूं। तब अश्विनी कुमार बोले हम देवताओं के वैद्य हैं तुम्हारे पति को युवा और रूपवान कर सकते हैं। यह बात अपने पति से जाकर कहो उनकी यह बात उनकी पत्नी ने जाकर उन्हें बताई। मुनि ने अपनी स्वीकृति दे दी। तब उसने अश्विनी कुमारों से वैसा करने के लिए कहा अश्विनीकुमारों ने कहा मुनि इस सरोवर में प्रवेश करें। महर्षि च्यवन रूपवान होने को उत्सुक थे। उन्होंने तुरंत जल में प्रवेश किया। उनके साथ अश्विनीकुमारों ने भी उनमें गोता लगाया। फिर एक मुहूर्त बीतने पर वे तीनों उस सरोवर से बाहर निकले तो वे सभी युवा, दिव्यरूपधारी आकृति वाले थे। उन तीनों को ही देखकर अनुराग में वृद्धि होती थी।

उन तीनों ने ही कहा सुन्दरि हम तीनों में से एक को वर लो। सुकन्या एक बार तो सहम गई उसके मन से निश्चय करके उसने अपने पति को पहचान लिया। इस प्रकार अपनी पत्नी और मनमाना रूप व यौवन पाकर च्यवन मुनि बहुत प्रसन्न हुए। अश्चिनीकुमारों से बोले में वृद्ध था, तुमने मुझे रूप और यौवन दिया है। इसलिए मैं भी तुम्हे सौमपान का अधिकार दिलवाऊंगा। यह सुनकर अश्विनी कुमार प्रसन्न होकर स्वर्ग को चले गए। च्यवन और सुकन्या आश्रम में देवताओं के समान विहार करने लगे।

इन्द्र उन्हें सोमपान से रोकना चाहता था क्योंकि...ऋषि च्यवन ने अश्विनीकुमारों से कहा मैं वृद्ध था तुमने जो यौवन मुझे दिया। मैं इसलिए तुम्हे सोमपान का अधिकार दिलवाऊंगा।
यह सुनकर अश्विनीकुमार प्रसन्न होकर स्वर्ग को चले गए। च्यवन और सुकन्या उस आश्रम में देवताओं के समान विहार करने लगे। जब शर्याति ने सुना कि च्यवन मुनि युवा हो गए हैं तो उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। वह अपनी सेना सहित आश्रम पहुंचे। राजा और रानी को ऐसा लगा मानों उन्हें पूरी पृथ्वी का राज्य मिल गया हो। फिर च्यवन मुनि ने राजा से कहा मैं आपसे यज्ञ करवाऊंगा। आप सारी सामग्री तैयार करवाइए। राजा ने बहुत प्रसन्नता से उनकी बात मान ली। जब यज्ञ का दिन आया।

महर्षि च्यवन ने यज्ञ की शुरूआत की। उन्होंने अपनी यज्ञ का कुछ भाग अश्विनी कुमारों को दे दिया। तब इन्द्र ने उन्हें रोकते हुए। ये चिकित्साकार्य करते हैं और मनमाना रूप धारण कर मृत्युलोक में भी विचरते रहते हैं। इन्हें सोमपान का अधिकार कैसे हो सकता है। जब च्यवन ऋषि देखा कि देवराज बार-बार उसी बात पर जोर दे रहे हैं। उन्होंने उनकी उपेक्षा कर अश्विनीकुमारों को देने के लिए उत्तम सोमरस लिया। उन्हें इस प्रकार अश्विनीकुमारों के लिए सोमरस लेते देख इन्द्र को भयंकर क्रोध आया। इन्द्र उन पर वज्र छोडऩे को उद्धत हुआ। वो जैसे ही प्रहार करने लगे कि च्यवन ने उनकी भुजाओं को स्तंभित कर दिया। उन्होंने अपने तपोबल से मद नामक एक राक्षस उत्पन्न किया। इससे इन्द्र को बड़ा ही दुख हुआ। उसके बाद अश्विनीकुमारों ने सोमपान किया। उसके बाद इन्द्र ने च्यवन मुनि से क्षमा मांगी। उसके बाद च्यवन मुनि का कोप शांत हुआ।

और राजा की कोख से हुआ पुत्र का जन्मयुधिष्ठिर ने पूछा युवानश्व के पुत्र मान्धाता तीनों लोकों में प्रसिद्ध थे। उनका जन्म किस प्रकार हुआ है? लोमेश मुनि ने कहा राजा युवनाश्च इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न हुआ था। उसने एक सहस्त्र अश्वमेघ करके भी बहुत से यज्ञ किए और उन सभी में बहुत बड़ी-बड़ी दक्षिणाएं दी। अपने मंत्रियों को राज्य की बाघ डोर सौंपकर वे वन में रहने लगे। एक बार महर्षि भृगु ने पुत्र प्राप्त करने के लिए यज्ञ कराया। रात्रि के समय उपवास से गला सूख जाने के कारण राजा को बहुत प्यास लगी। उसने आश्रम के भीतर जाकर पानी मांगा।

जब लोग रात के समय जागरण से थककर गहरी नींद में थे। किसी ने उनकी आवाज न सुनी। महर्षि ने एक बड़ा जल का कलश रख था। राजा ने उसे पी लिया क्योंकि कुछ देर में तपोधन भृगुपुत्र के सहित सब मुनिजन उठे और उन सभी ने उस घड़े को जल से खाली देखा। तब उन सभी ने आपसे में मिलकर पूछा कि यह किसका काम है। इस पर युवनाश्व सच-सच कह दिया कि मेरा है। यह सुनकर भृगपुत्र ने कहा राजन् - यह काम अच्छा नहीं हुआ। तुम्हारे एक महान् बलवान पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हो इसी उद्देश्य से ही मैंने यह जल अभिमंत्रित करके रखा है।

अब जो हो गया उसे भी पलटा नहीं जा सकता। अवश्य ही जो कुछ हुआ है वह दैवकी की ही प्रेरणा से हुआ है। तुमने प्यास के कारण अभिमंत्रित जल पिया है। इसीलिए अब तुम्हे ही प्रसव करना होगा। फिर सौ वर्ष बीतने के बाद राजा की बांयी कोख फाड़कर एक सूर्य जैसा ही तेजस्वी बालक निकला। ऐसा होने पर भी बहुत आश्चर्य हुआ कि इससे राजा की मौत नहीं हुई। इस पर बालक को देखने के लिए खुद इंद्र आए। उनसे देवताओं ने पूछा यह बालक क्या पीएगा। तब इन्द्र ने उसके मुंह में अंगुली डालकर कहा मेरी अंगुली पिएगा। इसीलिए उसका नाम मांधाता होगा।

इसलिए बाज ने राजा से मांगा उनका मांस...युधिष्ठिर व अन्य पांडव लोमेश मुनि के साथ कई तीर्थो की यात्रा करते हुए। उज्जानक तीर्थ पहुंचे। इसके पास ही यह कुशवान सरोवर है। यहीं राजा उशीनर इन्द्र से अधिक धार्मिक हो गए थे। इसीलिए अग्रि और इन्द्र दोनों उनकी परीक्षा लेने पहुंचे। इन्द्र ने बाज का रूप धारण किया और अग्रि ने कबूतर का। इस तरह वे उशीनर की यज्ञ शाला में पहुंचे।

तब बाज के डर से कबूतर अपनी रक्षा के लिए राजा की गोदी में जाकर छुप गया। तब बाज ने कहा राजन आप इस कबूतर को मुझे दे दीजिए। मैं भूख से मर रहा हूं। यह कबूतर मेरा आहार है। आप धर्म के लोभ से मेरा आहार ना छिने। तब राजा ने कहा यह मेरी शरण में आया है। इसने जान बचाने के लिए मेरा आश्रय लिया है। इसे तुम्हारे चंगुल में न पडऩे दूं तो यह अधर्म है। तब बाज बोला सब प्राणी आहार से ही उत्पन्न होते हैं। मैंने बहुत दिनों से भोजन नहीं किया है। यदि आज आपने मुझे भोजन से वंचित किया तो मैं मर जाऊंगा। तब राजा ने कहा आप ठीक कह रहे हैं। आप अच्छी बाते कह रही हैं, क्योंकि आप साक्षात गरुड़ का रूप है। धर्म के मर्म को अच्छी तरह समझते हैं।

लेकिन मैं मेरी शरण में आए इस पक्षी को त्याग नहीं सकता। अगर आपक ो इस कबूतर पर स्नेह है तो इसी के बराबर अपना मांस कबूतर पर स्नेह है तो इसी के बराबर अपना मांस काटकर तराजू में रख दीजिए। जब वह तौल में इस कबूतर के बराबर हो जाए तो वहीं मुझे दे दीजिए। उसी से मेरी तृप्ति हो जाएगी। तब राजा ने अपना मांस काटकर तौलना आरंभ किया। यह देखकर बाज बोला मैं इन्द्र हूं और ये अग्रिदेव हैं। हम आपकी धर्मनिष्ठा की परीक्षा लेने आए थे।

इसलिए अष्टावक्र का शरीर टेड़ा हो गया...उशीनर तीर्थ के बाद मुनि लोमेश ने कहा उद्दालक के पुत्र वेतकेतु इस पृथ्वी में मंत्रशास्त्र में पारंगत समझे जाते हैं। ये जो यह फल-फूलों से सम्पन्न आश्रम उन्ही का है। आप इसके दर्शन कीजिए। इस आश्रम में महर्षि वेतकेतु को साक्षात सरस्वती देवी के दर्शन हुए थे। उद्दालक मुनि का कहोड नाम से प्रसिद्ध एक शिष्य था। उसने अपने गुरू देव की बहुत सेवा की। इससे प्रसन्न होकर उन्होंने बहुत जल्द सब वेद पढ़ा दिए। अपनी कन्या सुजाता का उसके साथ विवाह कर दिया। कुछ समय बीतने के बाद सुजाता गर्भवती हुई। वह गर्भ इंद्र के समान तेजस्वी था। एक दिन कहोड वेदपाठ कर रहे थे। उस समय वह बोला पिताजी आप रातभर वेद पाठ करते हैं लेकिन ठीक-ठाक नहीं होता।

शिष्यों के बीच में ही इस प्रकार का आक्षेप करने से पिता को बहुत गुस्सा आया। उन्होंने उसे शाप दिया कि तू पेट से ही टेढ़ी-टेढ़ी बातें करता है। इसीलिए तू आठ जगह से टेढ़ा पैदा होगा। जब अष्टावक्र पेट में बढऩे लगे तो सुजाता को बहुत दुख हुआ। उसन एकान्त में अपने धनहीन पति को धन लाने की प्रार्थना की। तब अष्टावक्र से इसके विषय में कुछ मत कहना इसी कारण अष्टावक्र को पैदा होने के बाद कुछ भी पता न चला।

बड़ा बनने के लिए क्या जरूरी है?
अष्टावक्र की आयु बारह वर्ष की थी। एक बार वह उद्दालक की गोद में बैठा था। उसी समय श्रुतकेतु आये और उन्होंने पिता की गोद से अष्टावक्र को खींचा और कहा यह गोदी तेरे पिता की नहीं हैं। श्वेतकेतु की यह बात सुनकर अष्टावक्र को बहुत दुख हुआ।

उसने घर जाकर अपनी माता से पूछा मां मेरे पिता कहा गए हैं। इससे सुजाता को बहुत भय हुआ और उसने शाप के डर से सब बात बता दी। यह सब रहस्य सुनकर उन्होंने श्वेतकेतु से मिलकर यह सलाह की कि हम दोनों राजा जनक के यज्ञ में चलें। मैंने सुना है वह यज्ञ बहुत विचित्र है। वहां हम ब्राह्मणों के बड़े-बड़े शास्त्रार्थ सुनेंगे। ऐसी सलाह करके वे दोनों मामा-भानजे राजा जनक के समृद्धि सम्पन्न यज्ञ के लिए चल दिए। यज्ञशाला के दरवाजे पर पहुंचकर वे भीतर जाने लगे तो द्वारपाल ने कहा आप लोगों को प्रणाम है। राजा के आदेशनुसार हमारा निवेदन है उस पर ध्यान दें। इस यज्ञशला में बालकों को जाने की आज्ञा नहीं है, केवल वृद्ध और विद्वान ब्राह्मण ही इसमें प्रवेश कर सकते हैं।

तब अष्टावक्र ने द्वारपाल मनुष्य अधिक सालों की उम्र होने से, बाल पक जाने से या धन से बड़ा नहीं माना जाता। ब्राह्मण तो वही बड़ा है जो वेदों का वक्ता हो। ऋषियों ने ऐसा नियम बताया है। चाहो तो किसी भी विद्वान के साथ मुझसे शास्त्रार्थ करवा लो मैं उसे हराकर दिखाऊंगा। द्वारपाल बोला ठीक है मैं तुम्हे ले चलता हूं पर वहां जाकर तुम्हे विद्वान जैसा काम करके दिखाना होगा।

ऐसा कहकर द्वारपाल उन्हें राजा के पास ले गया। तब अष्टावक्र ने कहा राजन मैंने सुना है आपके यहां एक बंदी है। जो ब्राह्मणों को शास्त्रार्थ में पराजित कर देता है। वह बंदी कहा है मैं उससे मिलूंगा।तब राजा ने कहा आज तक कई लोग मेरे पास ये विचार लेकर आए पर उसे कोई नहीं हरा सका। उसके बाद बंदी और अष्टावक्र के बीच शास्त्रार्थ करवाया गया जिसमे अष्टावक्र विजय हुआ।

तब हनुमानजी रास्ता रोक कर लेट गए...अष्टवक्र की कथा सुनने के बाद गंधमादन की यात्रा के बाद पांडव बदरिकाश्रम पहुंचे। वहां छ: दिन तक पांडव अर्जुन का उस स्थान पर मिलने की इच्छा से इंतजार करते रहे। इतने ही में देवयोग से ईशानकोण की ओर से बहते हुई हवा से एक कमल उड़ आया। वह बड़ा दिव्य और साक्षात सूर्य के समान था। उसकी गंध बहुत ही अनूठी और मोहक थी। पृथ्वी पर गिरते ही उस पर द्रोपदी की निगाह पड़ी। वे उसके पास आयी और बहुत प्रसन्न होते हुए बोली आर्य मैं वह कमल धर्मराज को भेंट करूंगी। यदि आपका मेरे प्रति वास्तव में प्रेम है तो मेरे लिए ऐसे ही बहुत से पुष्प ले आइए। मैं उन्हें काम्यकवन में अपने आश्रम पर ले जाना चाहती हूं।

भीमसेन से ऐसा कहकर द्रोपदी उसी समय उस फूल को लेकर धर्मराज के पास चली गई। भीमसेन जहां से वो फूल लेकर आए थे। उसी ओर वो दूसरे फूल ले जाने के विचार से तेजी से चले। उन्होंने मार्ग के विघ्रों को हटाने के लिए बहुत तेज बाणों का उपयोग किया। उस शब्द से चौकन्ने होकर बाघ अपनी गुफाओं को छोड़कर भागने लगे। उस वन में महावीर हनुमानजी रहते थे। उन्हें अपने भाई भीमसेन के उधर आने का पता लग गया। उन्होंने सोचा कि भीमसेन का इधर होकर स्वर्ग में जाना उचित नहीं हैं। ऐसा करने से संभव है मार्ग से कोई उनका तिरस्कार कर दें। यह सोचकर वे केले के बगीचे से होकर जाने वाले सकड़े मार्ग को रोककर लेट गए। वहां पड़े-पड़े जब उन्हें नींद आने लगी। अपनी पूंछ फटकारते थे तो उसकी प्रतिध्वनि सब ओर फैल जाती थी।

जब भीम ने हनुमानजी की पूंछ उठानी चाही तो....हनुमान जी की पूंछ टंकार की प्रतिध्वनि जब सब ओर फैल गई। इस तरह की गर्जना से भीमसेन के रोएं खड़े हो गए। वे उसके कारण को ढूंढने लगे। ढूंढते हुए वे उनकी नजर उस बगीचे पर लेटे हुए वनराज हनुमान पर पड़ी। उनके ओंठ पतले थे। जीभ और मुंह लाल थे। कानों का रंग भी लाल-लाल था। उनका हर अंग मानों एक प्रज्वलित अग्रि के समान था। अपनी शहद के समान पीली आंखों से इधर-उधर देख रहे थे। उनका शरीर बहुत स्थूल था। वे स्वर्ग के रास्ते को रोककर हिमालय की तरह स्थिर थे। उस वन में हनुमानजी को अकेले लेटे देखकर महाबली भीमसेन निर्भय उनके पास चले गए। बिजली की कड़क के समान सिहंनाद करने लगे। भीमसेन की उस गर्जना से वन के सभी पशु-पक्षी आदि सभी डर गए।

महाबली हनुमानजी ने भी अपनी आंखें खोलकर भीमसेन की तरफ देखकर कहा मैं तो रोगी हूं यहां आनंद से सो रहा था। तुमने मुझे क्यों जगा दिया। तुम समझदार हो। तुम्हें जीवों पर दया करनी चाहिए। तुम्हारी प्रवृति धर्म के नाश की है। बताओ तो तुम हो कौन और इस वन में किस लिए आए हो। यहां कोई मनुष्य नहीं रह सकता है। आगे तुम्हे कहां तक जाना है? यहां से आगे तो यह पर्वत अगम्य है। इस पर कोई भी चढ़ नहीं सकता। तुम ये कंद मूल खाकर यहां विश्राम करो। आगे जाने का प्रयत्न करके अपने प्राण खतरे में क्यों डालते हो? हनुमानजी बोले मैं तो बंदर हूं, तुम इस मार्ग से जाना चाहते हो। सो मैं तुम्हे इधर नहीं जाने दूंगा। अच्छा है कि तुम यहां से लौट जाओ। नहीं तो मारे जाओगे।

भीमसेन ने कहा ज्ञान से जानने में आने वाले निर्गुण परमात्मा में आपका अपमान नहीं करूंगा। अगर मुझे भगवान के स्वरूप का ज्ञान नहीं होता तो शायद में आपको भी उसी तरह लांघ जाता जिस तरह हनुमानजी समुद्र लांघ गए। हनुमानजी ने कहा ये हनुमानजी कौन थे जो समुद्र लांघ गए। तब भीमसेन ने कहा वे वानरप्रवर मेरे भाई हैं। रामायण में वे बहुत ही विख्यात हैं। वे सीताजी को बचाने के लिए सौ योजन का समुद्र लांघ गए थे। मैं भी बल में उन्ही के समान हूं। तब हनुमानजी ने कहा मैं तो बुढ़ा हूं इस कारण मुझमें तो उठने की शक्ति नहीं है। इसलिए कृपा करके मेरी पूंछ हटाकर निकल जाओ। तब भीम ने दोनों हाथों से उनकी पूंछ को उठाना चाहा पर असर्मथ रहे। उन्होंने अपना मुंह लाज से झूका लिया।

जब भीम को आया गुस्सा तो...एक बार की बात है धर्मराज के पास एक राक्षस आया और उसने धर्मराज से कहा मैं मंत्र विद्या में निपुण ब्राह्मण हूं। आपकी शरण में रहना चाहता हूं। ऐसा कहकर वह सर्वदा पाण्डवों के धनुष और तरकस द्रोपदी को उड़ा ले जाने की ताक में वही रहने लगी। उस राक्षस का नाम जटासुर था। एक बार भीम वन में गए। उस समय जटासुर भयानक रूप धारण कर लिया। तीनों पाण्डव द्रोपदी और सारे शास्त्रों को उठाकर चला गया। सहदेव जैसे-तैसे छूट गए और उस राक्षस से अपनी कौशिकी नाम की तलवार छीनकर जिस ओर भीमसेन गए थे। उस ओर आवाज लगाने लगे। फिर धर्मराज युधिष्ठिर ने उससे कहा मुर्र्ख ऐसी चोरी करने से तेरे धर्म का नाश हो रहा है। तुझे सब प्रकार धर्म का विचार करके ही काम करना चाहिए। जिसने तुम्हे अन्न खिलाया हो और जिन्होंने आश्रय दिया हो, उनसे द्रोह नहीं करना चाहिए।

ऐसा कहकर युधिष्ठिर उसके लिए भारी हो गए। उनके भार से दबकर उसकी गति तेज नहीं रही। तब धर्मराज नकुल से कहा तुम और द्रोपदी यहां से चले जाओ। यहां से थोड़ी दूर ही भीम होगा। बस अब वह आता ही होगा, फिर इस राक्षस का कही नाम निशान भी नहीं रहेगा। उस राक्षस को देखकर सहदेव ने धर्मराज युधिष्ठिर से कहा राजन् इस राक्षस से मुक्ति के लिए हमें इससे युद्ध करना होगा। फिर सहदेव ने उस राक्षस को ललकारा और कहा अरे ओ राक्षस तू मुझे मारकर द्रोपदी को ले जाना चाहता है। मैं तुझे ऐसा नहीं करने दूंगा तू ऐसा करे उससे पहले ही मैं तुझे मार डालूंगा। तभी सहदेव को दूर से आते हुए भीम दिखाई दिए। जब भीम ने द्रोपदी और अन्य पांडवों को परेशानी में देखा। यह देखकर उन्हें बहुत गुस्सा आया। उन्होंने अपनी गदा से उस राक्षस पर प्रहार किया। दोनों की बीच युद्ध हुआ। उस युद्ध में भीम ने जटासुर को अपनी कोहनी से चोट करके उसका सिर धड़ से अलग कर दिया।

तो इसलिए भीम ने अकेले ही कर दी कुबेर पर चढ़ाईएक दिन भीमसेन उस पर्वत पर आनंद से एकांत में बैठे हुए थे। उस समय द्रोपदी ने उनसे कहा अगर सारे राक्षस आपके बाहुबल से पीडि़त होकर इस पर्वत को छोड़कर भाग जाए तो कैसा रहे। फिर तो यह पर्वत हर तरह के डर से रहित हो जाएगा। मेरे मन में बहुत दिनों से यह बात आ रही है। द्रोपदी की बात सुनकर भीमसेन ने सुवर्ण की पीठवाला धनुष, तलवार, तरकश, उठा लिए, वे हाथ में गदा लेकर गंधमादन की ओर आगे बढऩे लगे।

उस पर्वत की चोटी पर जाकर वे वहां से कुबेर के महल को देखने लगे। वह सुवर्ण और स्फटिक के भवनों से सुशोभित था। उसके चारों और सोने का परकोटा बना हुआ था। उसमें सब प्रकार के रत्न जगमगा रहे थे। तरह-तरह के उद्यान उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। उन्होंने शंख बजाया। शंख की आवाज से यक्ष, राक्षस, गंधर्वों के रोंगटे खड़े हो गए। वे गदा परिघ, तलवार, त्रिशूल शक्ति और फरसा लेकर भीमसेन की अपने प्रबल वेगवाले भाले से उनके चलाए हुए त्रिशूल, तलवार, आदि फेंककर दक्षिण दिशा को भागे। उधर कुबेर का मित्र मणिमान नाम का राक्षस रहता था।

उसने यक्ष-राक्षसों को भागते देखकर मुस्कुराकर कहा- तुम अनेकों को अकेले आदमी ने परास्त कर दिया। अब तुम कुबेर के पास जाकर क्या कहोगे। उन सबसे ऐसा कहकर वह राक्षस शक्ति, त्रिशूल और गदा लेकर भीमसेन पर टूट पड़ा। भीमसेन ने भी उसे हाथी की तरह अपनी ओर आते देखकर वत्सदंत नामक तीन बाणों से उसकी पसलियों पर प्रहार किया। इससे मणिमान बहुत क्रोध में भर गया। उसने अपनी भारी गदा उठाकर भीमसेन के ऊपर छोड़ी। परंतु भीमसेन गदायुद्ध की चालों में बहुत दक्ष थे। उन्होंने उसके उस प्रहार व्यर्थ कर दिया।

जब कुबेर ने पांडवों को देखा तो...इस समय गुफाओं में अनेक प्रकार के शब्दों से गुंजते देखकर अजातशत्रु युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव, धौम्य, द्रोपदी ब्राह्मण और भीमसेन को न देखकर उदास हो गए। फिर द्रोपदी को अष्र्टिपेण मुनि को सौंपकर वे सब वीर अस्त्र-शस्त्र लेकर एक साथ पर्वत पर चढऩे लगे। पहाड़ की चोटी पर पहुंचकर उन्होंने इधर-उधर दृष्टी डाली तो देखा कि एक ओर भीमसेन खड़े हैं और वही उनके मारे हुए अनेकों विशालकाय राक्षस पृथ्वी पर पड़े हैं। भीमसेन को देखकर सब भाई उनसे गले मिले और फिर वहीं बैठ गए। महाराज युधिष्ठिर ने कुबेर के महल और मरे हुए राक्षसों की ओर देखकर भीमसेन ने कहा भैया भीम तुमने यह पाप साहस या मोहवश ही किया है। तुम मुनियों का सा जीवन व्यतीत कर रहे हो, इस तरह हत्या करना तुम्हे शोभा नहीं देता। देखो तुम मेरी प्रसन्नता चाहते हो तो ऐसा मत करो।

इधर भीमसेन के आक्रमण से बचे हुए कुछ राक्षस बड़ी तेजी से दौड़कर कुबेर के पास आए। चीख-चीखकर उनसे कहने लगे-आज संग्राम भूमि में एक अकेले मनुष्य ने क्रोधवश नाम के राक्षसों को मार डाला है। वे सब वहां मरे हुए पड़े हैं हम जैसे-तैसे वहां से जान बचाकर निकले हैं। आपका मित्र मणिमान भी मारा जा चूका है। यह सब कांड एक मनुष्य ने ही कर डाला है। अब जो करना चाहे वही कीजिए। यह समाचार पाकर सभी यक्ष और राक्षस बहुत क्रोधित हुए। उनकी आंखें लाल हो गई कुबेर ने राक्षसों से पूछा यह कैसे हुआ? फिर यह दूसरा अपराध भी भीमसेन का ही सुनकर उसका गुस्सा और बढ़ गया। उसने आज्ञा दी हमारा रथ सजा लाओ। रथ तैयार हो जाने पर राजराजेश्चर महाराज कुबेर उस पर चढ़कर चले। जब वे गंधमादन पर पहुंचे तो यक्ष राक्षसों से घिरे हुए कुबेरजी को देखकर पांडव रोमांचित हो गए। कुबेर महाराज पांडु के बड़े धनुषधारी पुत्र को देखकर वह प्रसन्न हो गए। वे उनसे देवताओं का ही कार्य कर करवाना चाहते थे। इसलिए उन्हें देखकर वे दिल से संतुष्ट हुए। धर्म के रहस्य को जानने वाले कुबेर को सभी पाण्डवों ने प्रणाम किया। अपने को उनका अपराधी सा माना। वे सब यक्षराज को घेरकर हाथ जोड़कर खड़े हो गए

इसलिए मुनि ने दिया कुबेर को शापकुबेर ने पांडवों को देखा तो वे धर्मराज से बोले आप सभी यहां रह सकते हैं। भीमसेन के हाथ से जिनकी भी मृत्यु हुई है। वे अपने काल से ही मरे है। आपका भाई तो निमित मात्र है। एक बार कुशस्थली नाम के स्थान पर देवताओं की मंत्रणा हुई। उसमें मुझे भी बुलाया गया था। तब मैं तरह-तरह के अस्त्रों व शस्त्रों से सुसज्जित वहां पहुंचा। वहां मेरे साथ तीन सौ महापद्य यक्ष भी थे।

रास्ते में मुझे अगस्त्य मुनि मिले। वे यमुनाजी के तट पर बैठकर कठीन तपस्या कर रहे थे। उस समय मेरा राक्षस मित्र मणिमान भी मेरे साथ था। उसने गर्व और मूर्खता के अधीन होकर अगस्त्य मुनि पर थुक दिया। इस कारण वे महर्षि नाराज हो गए उन्होंने उसे शाप दिया कहा- तुम्हारे इस मित्र ने मेरा अपमान किया है इसलिए यह अपनी सेना सहित केवल एक ही मनुष्य के हाथों मारा जाएगा। मुझे भी शाप दिया कितुम्हे भी इन सेनानियों के कारण दुखी होना पड़ेगा। फिर उस मनुष्य के दर्शन करने पर ही तुम्हारा दुख दुर होगा जिसने उन्हें मारा होगा। इस प्रकार महर्षियों में श्रेष्ठ अगस्त्यजी ने शाप दे दिया था। उस शाप से आज आपके भाई ने मुझे मुक्त किया है।

किससे और क्यों डर रहे थे गदाधारी भीमभीम तो दस हजार हाथियों के समान बल वाले थे। वे उस अजगर से बहुत भयभीत कैसे हो गए? जो कुबेर को भी युद्ध में ललकार सकते हैं। भीम को आप एक सांप से डरा हुआ बता रहे हैं। यह बड़े आश्चर्य की बात है। जिस समय पाण्डव लोग महर्षि वृषपर्वा के आश्रम पर आए। वहां के अनेकों प्रकार की आश्चर्यजनक घटनाओं से युक्त वनों में निवास करने लगे उन्ही दिनों की बात है। एक बार भीमसेन ने अपनी अच्छा के अनुसार वन देखने के लिए आश्रम से बाहर निकले। उस समय उनकी कमर तलवार बंधी थी। और हाथ में धनुष था।

भीमसेन धीरे-धीरे चले जा रहे थे। इतने में उनकी दृष्टि एक विशालकाय अजगर पर पड़ी, जो एक पर्वत की कंदरा में था। उसके पर्वत के समान विशाल शरीर से सारी गुफा रूकी हुई थी। उसके शरीर की कांति हल्दी के समान पीले रंग की थी। उसके मुंहसे सारी गुफांए रूकी हुई थी। उसे देखते ही भय के मारे शरीर के रोएं, खड़े हो जाते थे। उसकी लाल-लाल आंखें मानो आग उगल रही थी। वह जीभ से बारबार अपने जबड़े चाट रहा था। वह अजगर काल के समान विकराल और समस्त प्राणियों को भयभीत करने वाला था। भीमसेन को सहसा अपने पास पाकर वह महासर्प क्रोध से भर गया और उनके शरीर को लपेट लिया। अजगर को मिले हुए वर के प्रभाव के कारण जब उसक स्पर्श भीमसेन से होते ही उनकी चेतना लुप्त हा जाती।

भीमसेन को छोडऩे के लिए सर्प ने रख दी ये कैसी शर्त?भीमसेन को सहसा अपने निकट पाकर वह महासर्प बहुत गुस्से में भर गया। उसने बलपूर्वक अपनी भुजाओं में भीमसेन को लपेट लिया। अजगर के मिले हुए वर के प्रभाव से उसका स्पर्श होते ही भीमसेन की चेतना लुप्त हो गई। वे बेकाबु हो गए और धीरे-धीरे छुटने के लिए तडफ़ड़ाने लगे। मगर उसने ऐसा बांध लिया कि वे हिल भी ना सके। भीमसेन के पूछने पर उस अजगर ने अपने पूर्वजन्म का परिचय दिया तथा शाप और वरदान की कथा सुनाई। फिर भी वे सर्पबंधन से छुटकारा न पा सके। इधर राजा युधिष्ठिर बड़े भयंकर उत्पात से घबरा गए। युधिष्ठिर का बायां हाथ फड़कने लगा। ये सब अपशकुन देखकर वे समझ गए थे कि कोई बड़ी मुसीबत आ गई है। उन्होंने द्रोपदी से पूछा भीमसेन कहां है? द्रोपदी बोली उन्हें तो वन गए देर हो गई है। तब अर्जुन को द्रोपदी का रक्षा कार्य सौंपकर नकुल व सहदेव को ब्राह्मणों की सेवा में नियुक्त किया।

उसके बाद वे भीम के पैरों के चिन्हों की खोज में चल पड़े। वे उन्हें ढुंढते हुए उसी पर्वत पर पहुंच गए। उन्होंने देखा कि भीम को अजगर ने जकड़ा हुआ है। धर्मराज ने भीम से कहा कुंती के पुत्र होकर तुम इस आपत्ति में कैसे फंस गए। यह पर्वाताकार अजगर कौन है। बड़े भाई धर्मराज को देखकर भीम ने सारी बात कह सुनाई। धर्मराज ने सर्प से कहा- तुम मेरे इस पराक्रमी भाई को छोड़ दो। तुम्हारी भूख मिटाने के लिए मैं तुम्हे दुसरा आहार दूंगा। सर्प बोला- यह राजकुमार मेरे मुख के पास आकर खुद मुझे भोजन के रूप में मिला है।

अगर तुम रुकोगे तो कल तुम भी मेरे आहार बनोगे। सर्प तुम कोई देवता हो या दैत्य या वास्तव में सर्प ही हो? सर्प बोला मैं पूर्व जन्म में नहुष राजा था। मैंने अपनी तपस्या से इंद्रियों पर विजयी पाई थी। मेरा अहं बढ़ गया था। इसीलिए मैंने मन्दोमत होकर ब्राह्मणों का अपमान किया था। इसीलिए मुझे अगस्त्य मुनि ने शाप दिया था। उनके शाप के अनुसार ही दिन के छटे भाग में तुम्हारा भाई मुझे भोजन के रूप में मिला है मैं इसे नहीं छोड़ुंगा। लेकिन अगर तुम मेरे पूछे हुए प्रश्रों का उत्तर अभी दे दोगे तो मैं तुम्हारे भाई को छोड़ दुंगा।

तब सर्प ने भीम को छोड़ायुधिष्ठिर ने उससे कहा तुम अपनी इच्छा के अनुसार मुझसे प्रश्र करों। उसके बाद सर्प ने युधिष्ठिर से कई प्रश्र किए। उन सभी प्रश्रों के युधिष्ठिर ने उत्तर दिए। उसके बाद सर्प ने क्षमा याचना कर भीम को छोड़ दिया और स्वर्ग गमन किया। जिन दिनों पाण्डव लोग सरस्वती के तटपर निवास करते थे। उसी समय वहं कार्तिक पूर्णिमा का पर्व लगा।

उस अवसर पर पाण्डवों ने बड़े-बड़े तपस्वीयों के साथ सरस्वती तीर्थ पर कई पुण्य कर्म किए। एक दिन एक ब्राह्मण जो अर्जुन का प्रिय मित्र था। यह संदेश लेकर आया कि महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण यहां जल्द ही पधारने वाले हैं। भगवान को यह मालूम हो चुका है कि आप लोग इस वन में आ गए हैं। वे हमेशा ही आप लोगों से मिलने को उत्सुक रहते हैं। आपके कल्याण की बातें सोचा करते हैं। वह ब्राह्मण यह बात कह ही रहा था कि देवकीनंदन भगवान कृष्ण सत्यभामा सहित रथ पर सवार होकर पांडवों के पास पहुंचे। वे सभी पांडवों से मिले उनके हाल-चाल पूछे उसके बाद वे द्रोपदी से बोले प्रद्युम्र तुम्हारे पुत्रों को बहुत अच्छे से शस्त्र शिक्षा दे रहा है।

किस दान का क्या पुण्य मिलता है?जब श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर बात कर रहे थे। तभी मार्कण्डेय मुनि वहां प्रकट हुए। तब युधिष्ठिर ने उनसे रूकने की प्रार्थना की उन्होंने कहा महात्मा मार्कण्डेयजी हम आपसे श्रेष्ठ ब्राह्मणों के बारे में पूछना चाहते हैं। तब मार्कण्डेय मुनि ने ब्राह्मणों के चरित्र के बारे में बताया। उसके बाद एक बार मुनिवर ने सरस्वती देवी से कुछ प्रश्र किया। उसके उत्तर में सरस्वती ने जो कुछ कहा, वह मैं तुम्हे सुनाता हूं। ताक्ष्र्य ने पूछा- इस संसार में मनुष्य का कल्याण करने की वस्तु क्या है? किस तरह का आचरण करने से मनुष्य अपने धर्म से भ्रष्ट नहीं होता? देवी तुम मुझसे इसका

वर्णन करो, मैं तुम्हारी आज्ञा का पालन करूंगा। मुझे दृढ़ विश्वास है। तुमसे उपदेश ग्रहण करके मैं अपने धर्म से गिर नहीं सकता। जो प्रमाद छोड़कर पवित्रभाव से नित्य स्वाध्याय प्रणव मंत्र का जप करता है। मार्गो से प्राप्त होने योग्य सगुण ब्रह्मा को जान लेता है। वही देवलोक से ऊपर ब्रह्मलोक में जाता है। देवताओं के साथ उसका मित्रभाव हो सकता है। दान करने वाले को भी उत्तम लोक की प्राप्ति होती है। वस्त्रदान करने वाला चंद्र लोक तक जाता है। स्वर्ण देने वाला देवता होता है। जो अच्छे रंग की हो, सुगमता से दूध दुहवा लेती हो, अच्छे बछड़े देने वाली हो। वे गौ के शरीर में जितने रोएं हों, उतने वर्षो तक परलोक में पुण्यफलों का उपभोग करते हैं। कांसी की दोहनी में द्रव्य, वस्त्र आदि रखकर दक्षिणा के साथ दान करते हैं। उसकी सारी कामनाए पूर्ण होती है। गोदान करने वाला मनुष्य अपने पुत्र, पौत्र आदि सात पीढिय़ों का नरक से उद्धार करता है। शास्त्रीय विधि के अनुसार अन्य वस्तुओं का दान करने वाला मनुष्य इंद्र लोक तक जाता है। जे सात वर्षों तक हवन करता है वह पीढिय़ों का उद्धार कर देता है।

तब आया प्रलय और हो गया सबकुछ खत्मइसके बाद पाण्डुनंदन युधिष्ठिर ने मार्कण्डेयजी कहा अब आप हमें वैवस्वत मनु के चरित्र को सुनाइए। तब मार्कण्डेयजी ने सुनाना शुरू किया- सूर्य के एक प्रतापी पुत्र था, जो प्रजापति के समान महान मुनि था। उसने बदरिकाश्रम में जाकर पैर पर खड़े हो दोनों बांहे उठाकर दस हजार वर्ष तक भारी तप किया एक दिन की बात है।मनु चारिणी नदी के तट पर तपस्या कर रहे थे। वहां उनके पास एक मत्स्य आकर बोला-मैं एक छोटी सी मछली हूं। मुझे यहां अपने से बड़ी मछलियों से हमेशा डर बना रहता है। वैवस्वत मनु को उस मत्स्य की बात सुनकर बड़ी दया आई। उन्होंने उसे अपने हाथ पर उठा लिया। पानी से बाहर लाकर एक मटके में रख दिया। मनु का उस मत्स्य में पुत्रभाव हो गया था। उनकी अधिक देख भाल के कारण वह उस मटके में बढऩे और पुष्ट होने लगा।

कुछ ही समय में वह बढ़कर बहुत बड़ा हो गया। मटके में उसका रहना कठिन हो गया। एक दिन उस मत्स्य ने मनु को देखकर कहा भगवन अब आप मुझे इससे अच्छा कोई दूसरा स्थान दीजिए। तब मनु ने उसे मटके में से निकालकर एक बहुत बड़ी बावली में डाल दिया। वह बावली दो योजन लंबी और एक बहुत बड़ी बावली में डाल दिया। वह बावली दो योजन लंबी और एक योजन चौड़ी थी। वहां भी मत्स्य अनेकों वर्षों तक बढ़ता रहा। वह इतना बढ़ गया कि अब उस बावड़ी में भी नहीं रह पाया।

तब उसने मुनि से प्रार्थना की उसने कहा मुनि- आप मुझे गंगाजी में डाल दीजिए। उसके बाद जब उसे गंगाजी भी छोटी पढऩे लगी तो उसने मुनि से कहा - मुनि में अब यहां हिल-डुल नहीं सकती आप मुझे समुद्र में डाल दी। उसके बाद उस मत्स्य ने प्रसन्न होकर मुनि से कहा आप सप्तर्षि को लेकर एक नौका में बैठ जाएं क्योंकि प्रलय आने वाला है। उसके बाद सभी सप्तऋषि उस नाव में बैठकर चले गए। उसके बाद जब मनु को सृष्ठि करने की इच्छा हुई तो उन्होंने बहुत बड़ी तपस्या करके शक्ति प्राप्त की, उसके बाद शक्ति आरंभ की।

जब प्रलय आने वाला होगा तो ऐसे मिलेंगे संकेतइस तरह मत्स्योपाख्यान सुनने के पश्चात युधिष्ठिर ने मार्कण्डेय मुनि से कहा कि आपने तो अनेक युगों के बाद प्रलय देखा है। आप हमें सारी सृष्टी के कारण से संबंध रखने वाले कथा सुनना चाहता हूं।मार्कण्डेयजी ने कहा ये जो हम लोगों के पास भगवान कृष्ण बैठे हैं ये ही समस्त सृष्टि का निर्माण और संहार करने वाले हैं। ये अनंत हैं इन्हें वेद भी नहीं जानते। जब चारों युगों की समाप्त हो जाते हैं। तब ब्रम्ह्म का एक दिन समाप्त हो जाता है। यह सारा संसार ब्रह्म के दिनभर में रहता है। दिन समाप्त होते ही संसार नष्ट हो जाता है। जब सहस्त्र युग समाप्त हो जाते हैं तब सभी मनुष्य मिथ्यावादी हो जाते हैं। ब्राह्मण शुद्रों के कर्म करते हैं। शुद्र वैश्यों की भांति धन संग्रह करने लगते हैं या क्षत्रियों के कर्म से अपनी दिनचर्या चलाने लगते हैं। शुद्र गायत्री जप को अपनाते हैं। इस तरह सब लोगों का व्यवहार विपरित हो जाता है। मनुष्य नाटे कद के होने लगते हैं। आयु, बल, वीर पराक्रम सब घटने लगता है। उनकी बात में सच का अंश बहुत कम होता है।

उस समय स्त्रियां भी नाटे कद वाली और बहुत से बच्चे पैदा करने वाली होती हैं। गांव-गांव में अन्न बिकने लगता है। ब्राह्मण वेद बेचने लगते हैं। वेश्यावृति बढऩे लगती है। वृक्षों में फल-फूल बहुत कम लगते हैं। गृहस्थ अपने ऊपर भार पढऩे पर इधर-उधर टैक्स की चोरी करने लगते हैं। मदिरा पीते हैं और गुरुपत्नी के साथ व्याभिचार करते हैं। जिनसे शरीर में मांस व रक्त बढ़े उन लौकिक कार्यों को करते हैं। स्त्रियां पति को धोखा देकर नौकरों के साथ व्याभिचार करती हैं। वीर पुरुषों की स्त्रियां भी अपने स्वामी का परित्याग करके दूसरों का आश्रय लेती हैं। इस तरह सहस्त्र युग पूरे होने लगते हैं। इसके बाद सात सूर्यों का बहुत प्रचण्ड तेज बढ़ता है।

वे सातों सूर्य नदी और समुद्र आदि जो पानी होता है उसे भी सोख लेता है। पृथ्वी का भेदन वह अग्रि रसातल तक पहुंच जाती है। इसके बाद अशुभकारी वाय और वह अग्रि, देवता, असुर, गंधर्व, यक्ष, सर्प आदि से युक्त सशक्त विश्व को ही जलाकर भस्म कर डालते हैं। फिर आकाश में मेघों की घनघोर घटा घिर आती है। बिजली कौंधने लगती है। भयंकर गर्जना होती है। उस समय इतनी वर्षा करते रहते हैं। इससे समुद्र मर्यादा छोड़ देते हैं। पर्वत फट जाते हैं और पृथ्वी जल में डुब जाती है।

ये कैसे हुआ, एक छोटा सा लड़का इतने बड़े आदमी को निगल गया?प्रलय के कारण बताने के बाद मार्कण्डेय ने राजा युधिष्ठिर से कहा। राजा युधिष्ठिर एक समय की बात है। जब मैं एकार्णव के जल में सावधानी पूर्वक बहुत देर तक तैरता-तैरता बहुत दूर जाकर थक गया विश्राम करने की कोई भी जगह ना मिली। तब किसी समय उस अनंन्त जलराशि मैं मैंने एक बड़ा सुंदर और विशाल वट का वृक्ष देखा। उसकी चौड़ी शाखा पर एक सांवला सा सुंदर बालक बैठा था। उसका मुख कमल के समान कोमल और चंद्रमा के मान नेत्रों को आनंद देने वाला था। उसकी आंखें खिले हुए कमल जैसी थी। उसे देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। सोचने लगा- सारा संसार तो नष्ट हो गया। फिर ये बालक यहां कैसे सो रहा है।

मैं भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों काल का ज्ञाता हूं तो भी मैं इस बालक के बारे में कुछ क्यों नहीं देख पा रहा हूं। तब वह बालक जिसके चेहरे की कांति अद्भुत थी। वह मेरे कानों में बोला मार्कण्डेय मैं जानता हूं तुम बहुत थक गए हो और विश्राम लेने की इच्छा करते हो। तुम पर कृपा करके यह निवास दे रहा हूं। उस बालक के ऐसा कहने पर मुझे अपने जीवन और मनुष्य होने पर बहुत दुख हुआ।

इतने में ही बालक ने अपना मुंह फैलाया और मैं उसके मुंह में जा पड़ा। वहां मुझे सारे राष्ट्र और नगरों से भरी एक पृथ्वी दिखाई दी। मैंने उसमें गंगा, यमुना, सरस्वती आदि नदियों को भी देखा। ब्राह्मण लोग अनेकों यज्ञों द्वारा यजन कर रहे थे। क्षत्रिय राजा सब वर्णों और प्रजा को प्रसन्न कर रहे थे। क्षत्रिय राजा सब वर्णों की प्रजा सबको सुखी प्रसन्न रखते थे। वैश्य लोग न्यायपूर्वक खेती का काम और व्यापार कर रहे थे।

उदर में भ्रमण करते हुए मुझे सारी पृथ्वी के विभिन्न स्थान दिखाई दे रहे थे। ये सब मुझे उस बालक के उदर से दिखाई दिया। मैं हर रोज फलाहार करता और घूमता रहता। इस प्रकार सौ वर्ष तक विचरते रहा। उसके बाद एक बार उस बालक ने सहसा उसने मुंह को खोला और मैं बाहर आ गया। देखा तो वह अमित तेजस्वी बालक ने प्रसन्न होकर कुछ मुस्कुराते हुए कहा मार्कण्डेय तुमने मेरे शरीर में विश्राम तो कर लिया है पर फिर भी तुम थके से जान पड़ते हो। तब मैंने उस बालक के पैर छूकर कहा भगवान मैंने आपके भीतर प्रवेश करके सारा संसार देख लिया है।

लंबे समय तक जीने वालों को कौन से दुख सहन करने पड़ते हैं?मार्कण्डेय मुनि से कई धर्मोपदेश सुनने के बाद युधिष्ठिर बोले मैं बक और इन्द्र के समागम की बात सुनना चाहता हूं। तब उन्होंने कथा सुनाना शुरू किया। एक दिन की बात है देवराज इन्द्र अपनी प्रजा को देखने के लिए ऐरावत चढ़कर निकले। वे पूर्व दिशा में समुद्र के पस एक सुंदर और सुखद स्थान पर नीचे उतरे। वहां एक बहुत सुंदर आश्रम था। जहां बहुत से मृग और पक्षी दिखाई पड़ते थे। उस रमणीक आश्रम में इंद्र ने बक मुनि का दर्शन किया। बक भी देवराज इंद्र को देखकर मन में बहुत प्रसन्न हुए और उन्हें बैठने को आसन देकर उनका स्वागत किया तब इंद्र ने बक से सवाल कि आपकी उम्र एक लाख वर्ष हो गई है। अभी भी आप स्वस्थ्य हैं। इसका कारण क्या है? और अपने अनुभव बताइए कि ज्यादा समय तक जीने वाले व्यक्ति को क्या-क्या दुख देखने पड़ते हैं।

बक ने कहा- अप्रिय मनुष्यों के साथ रहना पड़ता है। प्रिय व्यक्तियों के मर जाने से उनके वियोग में जीवन बीताना पड़ता है। कभी-कभी दुष्ट मनुष्यों का साथ मिलता है। किसी भी चिरंजीवी के लिए इससे बढ़कर दुख क्या होगा? अपने सामने ही पत्नी और पुत्रों की मौत होती है। दोस्तों के लिए हमेशा वियोग बना रहता है।

युधिष्ठिर ने कहा अब ये बताइए चिरंजीवी मनुष्यों को सुख किस बात में है?

जो अपने परिश्रम से किय हुआ घर में केवल साग बनाकर खाता है, दुसरों के अधीन नहीं होता उसे ही सुख है। दूसरों के सामने दीनता न दिखाकर अपने घर में फल और साग भोजन करना अच्छा है। दूसरे घर में तिरस्कार सह कर रोज मीठा खाना भी अच्छा नहीं है। जो दुसरे के घर में ऐसे अन्न खाता है वह कुत्ते के समान है। जो हमेशा मेहमानों के बाद में भोजन करता है। उतने ही हजारों गायों के दान पुण्य उस दाता को होता है। उसके द्वारा युवावस्था में जो पाप हुए हैं। वे सब नष्ट हो जाते हैं।

जानिए, किसको कैसे वश में करें?
पाण्डवों ने मार्कण्डेयजी से कहा आपने ब्राह्मणों की महिमा तो सुनाई अब आप हमें क्षत्रियों के महत्व के बारे सुनाएं। तब मार्कण्डेय मुनि ने कहा अच्छा सुनों मैं क्षत्रियों का महत्व सुनाता हूं। कुरूवंशी क्षत्रियों में एक सुहोत्र नाम का राजा था। एक दिन वे महर्षियों का सत्संग करने गए। जब वहां से लौटा तो रास्ते में अपने सामने की ओर उसनं उशीनरपुत्र राजा शिबि के रथ पर आते देखा तो निकट आने पर उन दोनों ने अवस्था के अनुसार एक-दूसरे का सम्मान किया। लेकिन गुण में अपने को बराबर समझकर एक ने दूसरे से सलाह न ली। इतने में वहां नारदजी आ पहुंचे। उन्होंने उशीनरपुत्र राजा शिबि के रथ पर आते देखा। उन्होंने पूछा यह क्या बात है?

तुम दोनों एक-दूसरे का रास्ता रोककर खड़े हो? वे बोले मार्ग अपने से बड़े को दिया जाता है। हम दोनों तो समान है। अत: कौन किसको मार्ग दे? यह सुनकर नारदजी ने तीन श्लोक पढ़े, जिनका सारांश यह है-कौरव। अपने साथ कोमलता का बर्ताव करने वाला क्रुर मनुष्य भी कोमल बन जाता है।फिर वह सज्जन से साधुता का बर्ताव कैसे नहीं करेगा? अपने उपर एक-बार किए हुए उपकार का भाव होता है। ऐसा कोई नियम नहीं है। इस उशीनर कुमार राजा शिबि का व्यवहार तुम से ज्यादा अच्छा है। नीच प्रकृति वाले मनुष्य को दान देकर वश में करे, झूठे को सत्यभाषण से वश में करें, क्रूर को क्षमा से और दुष्ट को अच्छे व्यवहार से तुम्हे अपन वश में करें। अत: तुम दोनों उदार हो अब तुमसे एक जो अधिक उदार हो वह मार्ग छोड़ दे। ऐसा कहकर नारदजी मौन हो गए। यह सुनकर कुरूवंशी राजा सुहोत्र शिबि को अपने दायी ओर करके उनकी प्रशंसा करते हुए चले गए। इस तरह राजा शिबि का महत्व अपने मुख से कहा है।

पांचों पांडवों के साथ द्रोपदी कैसे रहती थी?एक दिन की बात है पाण्डव और ब्राह्मण लोग आश्रम में बैठे थे। उसी समय द्रोपदी और सत्यभामा भी आपस में मिलकर एक जगह बैठी। उन दोनों की भेंट बहुत दिनों बाद हुई। दोनों ही आपस में बाते करने लगी। सत्यभामा ने द्रोपदी से पूछा बहिन तुम्हारे पति पाण्डवलोग तुम से हमेशा प्रसन्न रहते हैं। मैं देखती हूं कि वे लोग सदा तुम्हारे वश में रहते हैं। तुम मुझे भी ऐसा कुछ बताओ कि मेरे श्याम सुंदर भी मेरे अधीन हों।

तब द्रोपदी बोली सत्यभामा ये तुम मुझसे कैसी दुराचारणी स्त्रियों के बारे में पूछ रही हो। जब पति को यह मालूम हो तो वह अपनी पत्नी के वश में नहीं हो सकता। तब सत्यभामा ने कहा तो आप बताएं कि आप पांडवों के साथ कैसा आचरण करती हैं। तब द्रोपदी बोली तुम गौर से सुनों मैं तुम्हे सब सच-सच सुनाती हूं। तुम सुनो मैं अहंकार और काम क्रोध को छोड़कर बड़ी ही सावधानी से सब पाण्डवों की स्त्रियों के सहित सेवा करती हूं। मैं अहंकार और काम क्रोध को छोड़कर बड़ी सावधानी से सब पाण्डवों की सेवा करती हूं। मैं ईष्र्या से दूर रहती हूं। मन को काबू में रखकर केवल सेवा की इच्छा से ही अपने पतियों का मन रखती हूं। यह सब करते हुए अभिमान को अपने पास नहीं फटकने देती। मैं कटुभाषण से दूर रहती हूं। असभ्यता से खड़ी नहीं होती। खोटी बातों पर दृष्टि नहीं डालती। बुरी जगह पर नहीं बैठती, दुषित आचरण के पास नहीं फटकती।

उनके अभिप्राय को पूर्ण संकेत का अनुसरण करती हूं। देवता, मनुष्य, सजाधजा या रूपवान कैसा ही पुरुष हो मेरा मन पाण्डवों के सिवाय कहीं नहीं जाता। उनके स्नान करते बिना स्नान नहीं करती। उनके बैठे बिना स्वयं नहीं बैठती। जब-जब मेरे पति घर में आते हैं मैं घर साफ रखती हूं। समय पर भोजन कराती हूं। सदा सावधान रहती हूं। घर में गुप्त रूप से अनाज हमेशा रखती हूं। मैं दरवाजे के बाहर जाकर खड़ी नहीं होती हूं। पतिदेव के बिना अकेले रहना मुझे पसंद नहीं। साथ ही सास ने मुझे जो धर्म बताएं है मैं सभी का पालन करती हूं।

इस दोहे का अर्थ है कि भक्तों का ध्यान स्वयं भगवान ही रखते हैं। जो भी भगवान के सच्चे भक्त हैं उन्हें भरण-पोषण, धन, खाना आदि की चिंता नहीं करनी चाहिए। अत: व्यक्ति को धन आदि का संग्रह भी नहीं करना चाहिए। सच्चे भक्त के साथ हमेशा ही भगवान रहते हैं। जब-जब हमें किसी भी वस्तु, धन आदि की आवश्यकता होती है भगवान तुरंत ही वह मनोकामना पूर्ण कर देते हैं।

हमें प्राप्त होने वाले सुख और दुख का निर्धारित समय है। जब सुख का समय आएगा तब सुख अवश्य मिलेगा और जब दुख का समय आएगा तो उसे कोई रोक नहीं सकता।

ऐसा माना जाता है कि समय से पहले और भाग्य से अधिक कभी भी किसी भी व्यक्ति को कुछ नहीं मिल सकता। भगवान का ध्यान करते हुए हमें कड़ी मेहनत करना चाहिए।

राज की बात: पति के मन को कैसे करें वश में?मैं पति के मन को अपने वश में करने का यह निर्दोष मार्ग बताती हूं। यदि तुम इस पर चलोगी तो अपने स्वामी के मन को अपनी और खीच लोगी। स्त्री के लिए इस लोक या परलोक में पति के समान कोई दूसरा नहीं है। उसकी प्रसन्नता होने पर वह सब प्रकार के सुख पा सकती है और उनके असंतुष्ट होने पर उनके सारे सुख मिट्टी में मिल जाते हैं।

जिस प्रकार वे यह समझें कि मैं इसे प्यारा हूं, तुम वही काम करो। जब तुम्हारे पति के द्वार पर आने की आवाज पड़े तो तुम आंगन में खड़ी होकर उनके स्वागत के लिए तैयार रहो और जब वे भीतर आ जाएं तो तुरंत ही आसन और पैर धोने के लिए जल देकर उनका सत्कार करो। यदि वे किसी काम के लिए दासी को आज्ञा दे तो वह काम तुम खुद उठकर करो। श्रीकृष्ण को ऐसा मालूम होना चाहिए।

तुम सब प्रकार उन्हें ही चाहती हो। तुम्हारे पति यदि तुमसे कोई ऐसी बात कहें कि जिसे गुप्त रखना आवश्यक न हो तो भी तुम उसे किसी मत कहो। पतिदेव के जो प्रिय स्नेही हितैषी रहो, उन्हें तरह-तरह के उपायों से भोजन कराओ। जो उनके शत्रु हों उनसे हमेशा दूर रहो। प्रद्युम्र और संाब तुम्हारे पुत्र ही हैं। एकांत में तो उनके पास भी मत बैठों। जो बहुत कुलीन हो उन्ही स्त्रियों से तुम्हारा प्रेम होना चाहिए।

इस तरह तुम पति की सेवा करो। इस समय भगवान श्रीकृष्ण मार्कण्डेय मुनियों और महात्मा पाण्डवों के साथ तरह-तरह उनके मनोनुकूल बातें कर रहे थे। तब सत्यभामाजी ने द्रोपदी को गले मिलकर ढ़ाढस बंधाया। वे बोली कृष्णे तुम चिंता न करो व्याकुल मत होओ। इस प्रकार रात-रातभर जागना छोड़ दो। तुम्हारे पति फिर राज्य प्राप्त कर लेंगे। अपने पतियों सहित इस पृथ्वी पर राज्य करोगी।

कर्ण कहता है दूर्योधन को जाओं पांडवों के पास क्योंकि...इस प्रकार वन में रहकर जाड़ा, गर्मी, से पांडवों के शरीर धूप से झुलस गए। पाण्डव वन में कुटी बनाकर रहते थे। जब वे सभी इसी तरह रहने लगे। उनके पास अनेकों ब्राह्मण आते। एक दिन एक ब्राह्मण आया उनसे मिलकर वह कौरवों से मिला। फिर धृतराष्ट्र के पास पहुंंचा। वृद्ध कुरुराज ने आसन देकर उसका यथोचित सत्कार किया। ब्राह्मण ने कहा कि इस समय युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, और नकुल व सहदेव बहुत परेशानी झेल रहे हैं। द्रोपदी का हाल भी मत पूछिए, वह वीरपत्नी होकर भी अनाथा सी हो रही है। सब ओर से दुखों से दबी हुई है।

उसकी बातें सुनकर राजा धृतराष्ट्र को बहुत दुख हुआ। जब उन्होंने सुना कि राजा के पुत्र और पौत्र होकर भी पाण्डव लोग इस प्रकार दुख की नदी में पड़े हुए हैं। वे लंबी-लंबी सांसे लेकर कहने लगे। धर्मपुत्र युधिष्ठिर तो मेरे अपराध पर ध्यान नहीं देंगे। अर्जुन भी उन्हीं का अनुसरण करेगा। इस वनवास से भीम का कोप तो उसी प्रकार बढ़ रहा है। जैसे हवा लगने से आग सुलगती रहती है। इन्होंने जो राज्य जुए से छीना है, उसे ये बहुत अच्छा मानते है। अनेकों अर्जुन अद्वितीय धर्नुधर है। उसका गाण्डीव धनुष बहुत वेगवाला है।

अब उसके सिवा उसने और भी दिव्य अस्त्र प्राप्त कर लिए हैं। ऐसा यहां कौन है जो इन तीनों का तेज को सहन कर सके। धृतराष्ट्र की ये सब बातें शकुनि ने सुनी और फिर कर्ण के साथ एकान्त में बैठे हुए। दुर्योधन के पास जाकर उसे सुनाई। उस समय दुर्योधन उदास हो गया। कर्ण ने उससे कहा अपने पराक्रम से तुमने पाण्डवों को यहां से निकाला है। अब तुम अकेले ही पृथ्वी का उपयोग इस प्रकार करो जैसे इंद्र स्वर्ग भोगता है। मैंने सुना है कि आजकल पांडव किसी वन में ब्राह्मणों के साथ रहते हैं। तुम भी उनके पास जाओ और अपने ठाठ-बाट के सूर्य से तेज से पांडवों को संतप्त करो। दुर्योधन से ऐसा कहकर कर्ण शकुनि चुप हो गए। तब राजा दुर्योधन ने कहा कर्ण तुम जो कुछ कहते हो वह बात मेरे मन में बसी है। पांडवों को मृगचर्म में देखकर मुझे जो खुशी होगी वैसी इस सारी पृथ्वी का राज्य पाकर भी नहीं होगी।

धृतराष्ट्र ने दूर्योधन को मना किया क्योंकि उन्हें ये डर था कि...दुर्योधन से ऐसा कहकर कर्ण और शकुनि चुप हो गए। तब राजा दुर्योधन ने कहा-कर्ण तुम जो कहते हो, वह बात मेरे मन में भी बसी हुई है। पाण्डवों को वल्कवस्त्र और मृगचर्म ओढ़े देखकर मुझे जैसी खुशी होगी। वैसी इस सारी पृथ्वी का राज्य पाकर भी नहीं होगी। भला इससे बढ़कर प्रसन्नता की बात क्या होगी कि मैं द्रोपदी को वन में गेरुए कपड़े पहने देखूं। मुझे कोई ऐसा उपाय नहीं सूझ रहा है। जिससे कि मैं द्वैतवन जा सकूं और महाराज भी मुझे वहां जाने की आज्ञा दें। इसलिए तुम मामा शकुनि और भाई दु:शासन के साथ सलाह करके कोई ऐसी युक्ति निकालों, जिससे हमलोग द्वैतवन में जा सकें। सब लोग बहुत ठीक ऐसा कहकर अपने-अपने स्थानों को चले गए। रात बीतने पर सुबह होते ही वे फिर दुर्योधन के पास आए।

तब कर्ण ने दुर्योधन से कहा जिससे द्वैतवन में जाने का एक उपाय सूझ गया है। इस काम के लिए महाराज हमें अवश्य अपनी अनुमति दे देंगे। पाण्डवों से मेल-जोल करने के लिए भी समझावेंगे। ग्वाले लोग द्वैतवन में तुम्हारे आने की बाट देखते ही है, इसलिए घोषणा यात्रा से हम वहां जरूर जा सकते हैं। इस तरह सलाह करके वे सब राजा धृतराष्ट्र के पास आए।

उन्होंने पहले ही से समंग नाम के एक गोप को पढ़ाकर ठीक कर लिया था। उसने राजा धृतराष्ट्र से निवेदन किया है कि आपकी गाएं समीप ही आई हुई है। इस पर कर्ण और शकुनि ने कहा इस समय गौएं वहीं ठहरी हुई हैं। यह समय उनके रंग और आयु की गिनती के लिए बहुत उपयुक्त है। इसलिए आप दुर्योधन को वहां जाने की आज्ञ दे दीजिए। यह सुनकर धृतराष्ट्र ने कहा गायों की देखभाल करने में तो कोई आपत्ति नहीं है। मैंने सुना है आजकल पाण्डवलोग भी उधर कहीं पास ही में ठहरे हुए हैं। इसलिए मैं तुम लोगों को वहां जाने की अनुमति नहीं दे सकता, क्योंकि तुमने उन्हें कपट से जुए में हराया है। उन्हें वन में रहकर बहुत कष्ट भोगना पड़ रहा है। वे तब से लगातार तप कर रहे हैं। तुम तो अहंकार और मोह में चूर हैं। इसलिए उनका अपराध किए बिना मानोगे नहीं और ऐसा होने पर वे अपने तप के प्रभाव से तुम्हे भस्म कर देंगे। यही नहीं उनके पास कई दिव्य अस्त्र-शस्त्र भी हैं। इसलिए गुस्सा हो जाने पर वे पांचों वीर मिलकर तुम्हे खत्म कर देंगे।

तब भड़क उठी दुर्योधन के मन में बदले की आग....दुर्योधन गायों की गिनती के बाद द्वैतवन सरोवर पहुंचा। उस समय उसका ठाठ बाद बहुत बढ़ा-चढ़ा था। वहां उस सरोवर के तट पर ही धर्मपुत्र युधिष्ठिर कुटी बनाकर रहते थे। वे महारानी द्रोपदी के सहित इस समय दिव्य विधि से एक दिन में समाप्त होने वाला कोई यज्ञ कर रहे थे। तभी दुर्योधन ने अपने सहस्त्रों सेवकों को आज्ञा दी कि शीघ्र ही यहां क्रीडा भवन तैयार करो। जब वे वन के दरवाजे में घुसने लगे तो उनके मुखिया को गंधर्वों ने रोक दिया, क्योंकि उनके पहुंचने से पहले ही वहां गंधर्वराज चित्रसेन जलक्रीड़ा करने के विचार से अपने सेवक, देवता और अप्सराओं के सहित आया हुआ था। उसी ने उस सरोवर को घेर रखा था।

इस प्रकार सरोवर को घिरा हुआ देख वे सब दुर्योधन के पास लौट आए। उनकी बात सुनकर दुर्योधन ने उन्हें आज्ञा दी। उन्होंने वहां जाकर गंधर्वों से कहा इस समय धृतराष्ट्र के पुत्र महाबली महाराज दुर्योधन भी यहां हैं और वे यहां एक क्रीड़ा भवन बनवाना चाहते हैं। तब गंर्धव ने कहा दुर्योधन बहुत ही मंद बुद्धि है। उसे कुछ भी होश नहीं है इसीलिए हम देवताओं पर इस तरह हुकूमत चलाता है। तुम तो अपने राजा के पास लौट जाओ, नहीं तो इसी समय यमराज के घर हवा खोओगे। तब वे सब योद्धा दुर्योधन के पास आए और गंधर्वों ने जो-जो बातें कही थी। वे सब दुर्योधन को सुना दी। इससे दुर्योधन का गुस्सा भड़क उठा। उसने अपने सेनापतियों को आज्ञा दी। मेरे अपमान करने वाले इन लोगों को जरा मचा तो चखा दो। युद्ध के लिए कौरव तैयार हो गए।

परिवार सुखी तभी बना रहेगा जब...कोई परवा नहीं वहां देवताओं के सहित स्वयं इंद्र ही क्रीड़ा क्यों न करता हो। योद्धा कमर कसकर तैयार हो गए और गंधर्वों को मार-पीटकर उस वन में घुसे। गंधर्वों ने यह सब समाचार अपने स्वामी चित्रसेन को जाकर सुनाया। तब उसने उन्हें आज्ञा दी कि जाओ इन नीच कौरवों की अच्छी तरह से सबक सिखाओ। उसके बाद एक-एक कौरव वीर को दस-दस गंधर्वों ने घेर लिया। उनकी मार से पीडि़त होकर वे रणभूमि से प्राण लेकर भागे। इस प्रकार कौरवों की सारी सेना तितर-बितर हो गई। अकेला कर्ण ही पर्वत के समान अपने स्थान पर अचल खड़ा रहा। दुर्योधन कर्ण और शकुनि तीनों घायल हो गए तो भी उन्होंने गंधर्वों के आगे पीठ नहीं दिखाई। वे बराबर मैदान में डटे रहे।जब दुर्योधन ने देखा कि गंधर्वों की सेना उसी की तरफ बढ़ रही है तो उसने उसका जवाब देने के लिए भीषण बाणवर्षा की।

उस बाणवर्षा की कुछ भी परवा न कर गंधर्वों ने उसे मार दिया। उन्होंने अपने बाणों से उसके रथ को चूर-चूर कर दिया। तब दुर्योधन को गंधर्वों सं छुड़वाने के लिए आतुर हुए। उन मंत्रियों को रो-रोकर धर्मराज से कहा महाराज दुर्योधन को गंधर्व पकड़कर ले गए हैं।

आप उनकी रक्षा कीजिए। तब युधिष्ठिर ने कहा कुल में या परिवार में झगड़े होते ही रहते हैं। लेकिन कोई बाहर का व्यक्ति कुल पर आक्रमण करता है तो उसे हमारे आपस में कितने ही झगड़े हों हमें अपनों का साथ देना चाहिए। हमेशा इंसान को किसी व्यक्ति विशेष के बारे में न सोचते हुए अपने कुल के बारे में सोचना चाहिए। कुल के नाम को प्राथमिकता देना चाहिए।

जब दुर्योधन के लिए कर्ण ने जीत लिया पूरा भारत...
गंधर्वों से युद्ध में पांडवों द्वारा बचाए जाने के बाद दुर्योधन हस्तिनापुर लौट गया। पितामाह भीष्म ने उसे कहा जब तुम द्वेतवन को जाने के लिए तैयार हुए थे। उसी समय मैंने तुमसे कहा था कि तुम्हार द्वैतवन जाना उचित नहीं। वहां तुम्हे शत्रुओं ने बंधक बनाया। पांडवों ने तुम्हे छुड़वाया। यह सब कर्ण के कारण हुआ है। यह दुष्टबुद्धि कर्ण धर्म और युद्धकौशल दोनों में ही पाण्डवों के बराबर नहीं है। अत: इस कुल की वृद्धि के लिए पाण्डवों से संधि करना ही बेहतर है।

भीष्म के इस तरह कहने पर दुर्योधन हंसकर शकुनि के साथ चल दिया। उन्हें जाते देख कर्ण और दु:शासन आदि भी उनके पीछे हो लिए। उन्हें अपनी बात सुने बिना जाते देख भीष्म अपने महल चले गए।उनके जाने पर धृतराष्ट्र और राजा दुर्योधन फिर उसी जगह आकर अपने मंत्रियों से सलाह करने लगा कि हमारा हित किस प्रकार हो और अब हमें मिथ्या करना चाहिए। उस समय कर्र्ण ने कहा-राजन सुनिए मैं आपसे एक बात कहता हूं। भीष्म सदा ही हमारी निंदा करते रहते हैं। आपसे द्वेष करने के कारण वो मुझसे भी द्वेष करते हैं। आपके आगे वे मेरी तरह-तरह से निंदा करते रहते हैं। आप मुझे सेवक सेना और सवारी देकर पृथ्वी विजय करने की आज्ञा दीजिए।

कर्ण की बात सुनकर दुर्योधन ने कहा- वीर कर्ण तुम सदा ही मेरा हित करने के लिए उद्यत रहते हो। यदि तुम्हारा निश्चय है कि मैं अपने सारे शत्रुओं को परास्त कर दूंगा तो तुम जाओ और मेरे मन को शांत करो। दुर्योधन के ऐसा कहने पर कर्ण ने अपनी दिग्विजय यात्रा के लिए सभी आवश्यक चीजे तैयार करने की आज्ञा दी। फिर अच्छा मुहूर्त देखकर मांगलिक द्रव्यों से स्नान कर कुच किया। उसके बाद कर्ण ने एक के बाद एक चारों और अपनी दिग्विजय का परचम लहराया और फिर हस्तिनापुर लौट आया तो सभी ने अगवानी कर विधिवत उसका स्वागत किया। दुर्योधन ने हर्षित होकर कर्ण से कहा मैंने पाण्डवों के यहां राजसूय यज्ञ देखा था। वह मैं भी करना चाहता हूं। परन्तु ब्राह्मणों से सलाह करने पर उन्होंने कहा कि आप राजसूयज्ञ नहीं कर सकते। लेकिन वैष्णव यज्ञ कर सकते हैं।

सफलता के लिए जरूरी है ऐसा संकल्पव्यासजी जब पांडवों के यहां पहुंचे और उन्हें दान का महत्व समझाने लगे तब युधिष्ठिर ने पूछा महात्मा मुदगल नामक ऋषि रहते थे। वे बहुत ही धर्मात्मा थे। हमेशा सच बोलते हुए किसी की भी निंदा नहीं करते थे। आप उनकी कहानी सुनाईए तब मुनि बोले उन्होंनेअतिथियों की सेवा का उन्होंने व्रत ले रखा था। घर में स्त्री थी, पुत्र था और वे स्वयं थे। तीनों एक पक्ष में एक ही दिन भोजन करते थे। उनका प्रभाव ऐसा था। प्रत्येक पर्व के दिन देवराज इन्द्र देवताओं के सहित उनके यज्ञ में साक्षात उपस्थित होकर अपना भाग लेते थे। इस प्रकार मुनिवृति से रहना और प्रसन्न चित से अतिथियों को अन्न देना। यही उनके जीवन का व्रत था। किसी के प्रति द्वेष न रखकर बड़े शुद्धभाव से वे दान करते थे। इसलिए वह एक द्रोण अन्न पंद्रह दिन के भीतर कभी घटता नहीं था। बराबर बढ़ता रहता था। दरवाजे पर अतिथि देखकर उस अन्न में अवश्य वृद्धि हो जाती थी। सैकड़ो ब्राह्मण और विद्वान उसमें से भोजन पाते, पर कमी नहीं आती। मुनि इस व्रत की ख्याति बहुत दूर तक फैली हुई थी।

एक दिन उनके बारे में दुर्वासा मुनि के कानों में पड़ी। वे पागलों का सा वेष बनाकर कटु वचन बोलते हुए वे वहां पहुंचे। वहां जाकर बोले विप्रवर आपको मालूम होना चाहिए कि मैं यहां भोजन की इच्छा से आया हूं। मुदगल ने कहा मैं आपका स्वागत करता हूं। मुदगल ने अपने भूखे अतिथियों को बहुत श्रद्धा से भोजन परोसकर जिमाया। दुर्वासा मुनि सारा भोजन चट करने के बाद अन्त में जब उठने लगे तो जो कुछ जूठा बचा था। उसे अपने शरीर में लपेट लिया और जिधर से आए थे। उधर ही निकल गए। इसी प्रकार दूसरे पर्र्व पर भी आए और भोजन करके चले गए। मुदगल मुनि को परिवारसहित भूख रह जाना पड़ा। फिर वे अन्न के दानों का संग्रह करने लगे।

ऐसा उन्होंने छ: बार किया। लेकिन कभी भी मुदगल ऋषि के मन में कोई विकार नहीं आया। यह देखकर दुर्वासा मुनि बहुत खुश हुए और उन्होंने कहा कि भूख बड़े-बड़े धार्मिक विचारों के विचार हिला देती है। तुमसे मिलकर में बहुत खुश हूं। अपनी इन्द्रियों पर काबु रखकर कमाए गए धन को शुद्ध हृदय से दान करना बहुत कठिन है। यह सब कुछ तुमने सिद्ध कर लिया। तुमसे मिलकर मैं बहुत प्रसन्न हूं। तुम्हारा अपने ऊपर अनुग्रह मानता हूं। दुर्वासा मुनि इस तरह की बात कर ही रहे थे तभी उन्हें लेने वहां देवताओं का विमान आया।

जब पांडवों ने द्रोपदी को जयद्रथ के रथ पर बैठे देखा तो....जब पांडव वन में से आश्रम की ओर लौट रहे थे। उस समय एक गीदड़ बहुत जोर से रोता हुआ वाम भाग से निकल गया। पापी कौरवों ने यहां आकर कोई महान उपद्रव किया है। इस प्रकार बातें करते हुए। जब वे आश्रम पर आए तो देखते हैं कि उनकी प्रिय द्रोपदी की दासी धात्रेयिका रो रही है। उसे उस अवस्था में देख इंद्रसेन सारथि रथ से उतर पड़ा और दौड़ते हुए उसके पास जाकर बोला तू इस तरह धरती पर पड़ी-पड़ी क्यों रो रही है? तेरा मुंह सुृखा हुआ है। दीन हो रहा है। उन निर्दयी और पापी कौरवों ने यहां आकर राजकुमारी दूर नहीं गई होगी। जल्दी रथ लौटाओ और जयद्रथ पीछा करो। अब यहां आकर राजकुमारी द्रोपदी को कोई कष्ट तो नहीं दिया।

दांयी बोली- इन्द्र के समान पराक्रमी इन पांचों पांडवों का अपमान करके जयद्रथ द्रोपदी को हर ले गया हैं। देखो, अभी उसके रथ के निशान हैं अभी राजकु मारी दूर नहीं गई होगी। जल्दी रथ लौटाओ जयद्रथ का पीछा करो। अब यहां अधिक देर नहीं होनी चाहिए। पांडव अने धनुष की टंकार करते हुए उसी मार्ग से चले। पांडवों ने भी मुनि को भी देखा जो भीम के पुकार रहे थे। तभी पांडवों को घोड़े के टापों से उड़ती हुई आवाज सुनाई पड़ी। पांडवों ने मुनि को कहा अब आप सुख पूर्वक चलिए। पांडवों ने जब देखा कि जो भीम को पुकार रहे थे। पांडवों ने मुनि को आश्चासन दिया। जब उन्होंने एक ही दूर जाने पर जयद्रथ की फौज के घोड़ों की टापों से उड़ती हुई धुल दिखाई दी। जब उन्होंने एक ही रथ में अपनी प्रियतमा द्रोपदी और जयद्रथ को बैठे देखा तो उनकी क्रोधाग्रि जल उठी।

फिर तो भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव सबने जयद्रथ को ललकारा। पांडवों को आया देख शत्रुओं के होश उड़ गए। पैदल सेना तो बहुत डर गई, हाथ जोडऩे लगी। पांडवों ने उसे तो छोड़ दिया। किंतु शेष जो सेना थी, उसे सब ओर से घेरकर इतनी बाण वर्षा की कि अंधकार सा छा गया। उसे उस अवस्था में देख इंद्रसेन सारथि रथ से उतर पड़ा और दौड़ते हुए। उसके पास जाकर बोला- तू इस तरह धरती पर पड़ी-पड़ी क्यों रो रही है? तेरा मुंह सूखा हुआ है। उन निर्दयी और पापी कौरवों ने यहां आकर राजकुमारी द्रोपदी को कष्ट तो नहीं दिया। दायी बोली इंद्र के समान पराक्रमी इन पांचों पांडवों का अपमान करके जयद्रथ द्रोपदी को हर ले गया है।

जानिए, कैसे हुआ रावण का जन्म?
द्रोपदी को छुड़ा लेने के बाद धर्मराज युधिष्ठिर ने मार्कण्डेयजी से कहा आप हमे रामचंद्रजी का चरित्र कुछ विस्तार के साथ सुनना चाहता हूं। अत: आप बताइए कि रामजी किस वंश में प्रकट हुए, उनका बल और पराक्रम कैसा था। साथ ही रावण के बारे में भी बताइए। तब मार्कण्डेयजी सुनाने लगे। दशरथ के धर्म और अर्थ को जानने वाले पुत्र राम, लक्ष्मण, भरत और श्त्रुघ्न। राम की पत्नी का नाम सीता था। अब रावण के जन्म की कथा सुनो। ब्रह्मजी रावण के पितामह थे। उनके पुत्र पुलस्त्यजी थे। उपकी पत्नी का नाम गौ था।

उससे कुबेर नाम का पुत्र हुआ वह अपने पितामह की सेवा में अधिक रहने लगा। ये देखकर पुलस्त्य मुनि को यह देख बहुत क्रोध हुआ। उन्होंने अपने आपको ही दूसरे शरीर से प्रकट किया। इस प्रकार आधे शरीर से रूपांतर धारण कर पुलत्स्यजी विश्रवा नाम से विख्यात हुए। पुलत्स्य के आधे देह से जो विश्रवा नामक मुनि प्रकट हुए थे। वे कुबेर कुपित दृष्टि से देखने लगे। राक्षसों के स्वामी कुबेर को यह बात जब पता चली के उनके पिता उन पर क्रोधित हैं तो उन्होंने उनके पास तीन राक्षस कन्याएं जिनका नाम पुष्पोत्कटा, राका और मालिनी। मुनि उनकी सेवाओं से प्रसन्न हो गए। उन्होंने पुष्पोत्कटा के दो पुत्र रावण के दो पुत्र हुए रावण और कुंभकर्ण। इस पृथ्वी पर इनके समान बलवान दूसरा कोई नहीं था। मालिनी से एक पुत्र विभीषण का जन्म हुआ। राका के गर्भ से एक पुत्र और एक पुत्री हुई। पुत्र का नाम खर था और पुत्री का नाम शूर्पणखा। विभीषण इन सब में अधिक सुंदर, भाग्यशाली, धर्मरक्षक, और सत्कर्मकुशल था। रावण के दस मुख थे।

ऐसे मिली रावण को सोने की लंका...एक दिन कुबेर महान समृद्धि से युक्त हो पिता के साथ बैठे थे। रावण आदि ने जब उनका वह वैभव देखा तो रावण के मन में भी कुबेर की तरह समृद्ध बनने की चाह पैदा हुई। तब रावण, कुंभकर्ण, विभीषण और शूर्पणखा ये दोनों तपस्या में लगे हुए अपने भाइयों की प्रसन्न चित्त से सेवा करते थे। एक हजार वर्ष पूर्व होने पर रावण ने अपने मस्तक काट-काटकर अग्रि में आहूति दे दी। उसके इस अद्भुत कर्म से ब्रह्मजी बहुत संतुष्ट हुए उन्होंने स्वयं जाकर उन सबको तपस्या करने से रोका। सबको पृथक-पृथक वरदान का लोभ दिखाते हुए कहा पुत्रों मैं तुम सब प्रसन्न हूं। वर मांगों और तप से निवृत हो जाओ। एक अमरत्व छोड़कर जो जिसकी इच्छा हो मांग लो। तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी। तुमने महत्वपूर्ण पद प्राप्त करने की इच्छा से जिन सिरों की आहूति दी है वे सब तुम्हारे शरीर में जुड़ जाएंगे। तुम इच्छानुसार रूप धारण कर सकोगे। रावण ने कहा हम युद्ध में शत्रुओं पर विजयी होंगे-इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। गंधर्व, देवता, असुर, यक्ष, राक्षस, सर्प, किन्नर और भूतों से मेरी कभी पराजय न हो। तुमने जिन लोगों का नाम लिया। इनमें से किसी से भी तुम्हे भय नहीं होगा।केवल मनुष्य से हो सकता है।

उनके ऐसा कहने पर रावण बहुत प्रसन्न हुआ। उसने सोचा-मनुष्य मेरा क्या कर लेंगे, मैं तो उनका भक्षण करने वाला हूं। इसके बाद ब्रह्मजी ने कुंभकर्ण से वरदान मांगने को कहा। उसकी बुद्धि मोह से ग्रस्त थी। इसलिए उसने अधिक कालतक नींद लेने का वरदान मांगा। विभीषण ने बोला मेरे मन में कोई पाप विचार न उठे तथा बिना सीखे ही मेरे हृदय में ब्रम्हास्त्र के प्रयोग विधि स्फुरित हो जाए। राक्षस योनि में जन्म लेकर भी तुम्हारा मन अधर्म में नहीं लग रहा है। इसलिए तुम्हें अमर होने का भी वर दे रहा हूं। इस तरह वरदान प्राप्त कर लेने पर रावण ने सबसे पहले लंका पर ही चढ़ाई की और कुबेर से युद्ध जीतकर लंका को कुबेर से बाहर दिया।

ऐसी गलतफहमी होती है सबसे बुरीसीताहरण के दुख से व्याकुल रामचंद्रजी पम्पा सरोवर पर आए। उसके जल में स्नान करके उन्होंने पितरों का तर्पण किया। उसके बाद दोनों भाई पर्वत पर चढऩे लगे। उस समय पर्वत की चोटी पर उन्हें पांच वानर दिखाई पड़े। सुग्रीव ने जब दोनों को आते देखा तो उन्होंने अपने बुद्धिमान मंत्री हनुमान को भेजा। हनुमान से दोनों की बातचीत हो जाने पर दोनों ने सुग्रीव से मित्रता की।

उसके बाद रामजी ने सुग्रीव से बाली की रक्षा की प्रतिज्ञा की। सुग्रीव ने उन्हें सीता को ढंूढने में मदद करने का विश्वास दिलाया। फिर सब मिलकर युद्ध की इच्छा से किष्किंधा पहुंचे। वहां जाकर सुग्रीव ने जिस प्रकार सिंहनाद कर रहा उससे मालूम होता है कि इसे कोई सहायक मिल गया है लेकिन बाली नहीं रूका वह बिना उसके बल की परवाह करते हुए। युद्ध करने जा पहुंचा। उसके बाद सुग्रीव और बाली में लंबा युद्ध चला। जब रामजी ने बाली को तीर मारना चाहा तो उन्हें सुग्रीव और बाली के बीच अंतर समझ नहीं आ रहा था।

तब हनुमानजी ने सुग्रीव के गले में फूलों का हार डाल दिया और रामजी ने बाली को पहचानकर उसका वध किया। इस कथा से यही बात समझ आती है कि दुश्मन चाहे कितना ही कमजोर हो उसे कमजोर नहीं समझकर और चौकन्ने रहकर उसका सामना करना चाहिए कभी भी ये गलतफहमी ना पाले की कोई आपसे कमजोर है।

रावण सीताजी से दूर रहता था क्योंकि उसे मिला था ऐसा शापकाम के वश में होकर जब रावण सीता को लंका ले गया। उसने उसे सुंदर भवन में ठहराया। जो अशोक वाटिका के निकट था। सीता तप्स्विनी के वेष में वहां ही रहती और तप उपवास किया करती थी। वह इसी कारण दुबली हो गई।रावण ने सीता की रक्षा के लिए राक्षसियों को नियुक्त कर दिया जो बहुत भयानक दिखाई पड़ती थी। वे सब के सब सीता को सब ओर से घेरकर बहुत ही सावधानी के साथ रात-दिन सेवा करती थी।

वे बहुत ही कठोर तरीके से उन्हें धमकाती ओर कहती थीं। आओ हम सब मिलकर इसको काट डालें और तिल जैसे छोटे-छोटे टूकड़े करके खा जाएं। उनकी बातें सुनकर सीता ने कहा-तुम लोग मुझे जल्दी खा जाओ। मुझे अपने जीवन का थोड़ा भी लालच नहीं है। मैं अपने प्राण दे दूंगी लेकिन रामजी के अलावा कोई परपुरुष मुझे छू भी नहीं सकता। अगर ऐसा हुआ तो मैं अपने प्राण त्याग दूंगी। सीता की बात सुनकर एक राक्षसी रावण को सुचना देने चली गई।

उनके चले जाने पर एक त्रिजटा नाम की राक्षसी वहां रह गई। वह धर्म को जानने वाली और प्रिय वचन बोलने वाली थी। उसने सीता को संत्वना देते हुए कहा सखी तुम चिमा मत करो। यहां एक श्रेष्ठ राक्षस रहता है जिसका नाम अविंध्य है। उसने तुमसे कहने के लिए यह संदेश दिया है कि तुम्हारे स्वामी भगवान राम अपने भाई लक्ष्मण के साथ कुशल पूर्वक हैं। वे इंद्र के समान तेजस्वी वनराज सुग्रीव के साथ मित्रता करके तुम्हे छुड़वाने की कोशिश कर रहे हैं। अब रावण से तुम्हें नहीं डरना चाहिए क्योंकि रावण ने नल कूबेर की पत्नी रंभा को छुआ था तो उसे शाप मिला था कि वह किसी पराई स्त्री के साथ उस इच्छा बिना संबंध नहीं बना पाएगा और अगर ऐसा किया तो वह भस्म हो जाएगा।

त्रिजटा का ये सपना सुन सीता समझ गई रावण की मौत पक्की है...त्रिजटा बोली एक बार रावण ने नलकु बेर की स्त्री रंभा का स्पर्श किया था, इसी से उसको शाप हुआ कि परस्त्री को विवश करके उस पर बलात्कार नहीं कर सकता। तुम्हारे स्वामी रामचंद्रजी लक्ष्मण को साथ लेकर शीघ्र ही यहां आने वाले हैं। उस समय सुग्रीव उनकी रक्षा में रहेंगे। भगवान राम अवश्य ही तुम्हे यहां से छुड़ा ले जाएंगे। मैंने भी अनिष्ट की सूचना देने वाले सपने देखें हैं। जिनसे रावण का विनाशकाल निकट जान पड़ता है। सपने में देखा है कि रावण का सिर मूढ़ दिया गया है। उसके सारे शरीर पर तेल लगा है।

वह कीचड़ में डूब रहा है। यह भी देखने में आया कि गधों से जुते हुए रथ पर खड़ा होकर वह बारंबार नाच रहा है। उसके साथ ही ये कुं भकर्ण आदि भी मूंढ़-मूढ़ाए लाल-चंदन लगाए हुए हैं। लाल-लाल फूलों की माला पहने नंगे होकर दक्षिण दिशा को जा रहे हैं। केवल विभीषण श्वेत पर्वत के ऊपर खड़े हुए हैं। विभीषण के चार मंत्री भी उनके साथ उन्हीं के वेष में देखे गए हैं। ये लोग उस आने वाले महान डर से मुक्त हो जाएंगे। स्वप्र में यह भी देखा कि भगवान राम के बाणों से समुद्र सहित सम्पूर्ण पृथ्वी आच्छादित हो गई है। यह निश्चय है कि तुम्हारे पति का सुयश सारी पृथ्वी पर फैल जाएगा। त्रिजटा की यह बात सुनकर सीता के मन में बड़ी आशा बंध गई की पतिदेव से भेंट होगी। उसकी बात समाप्त होते ही सभी राक्षसियां सीता के पास आ गई।

सीता एक शिला पर बैठी पति की याद में रो रही थी।

इतने में ही रावण ने आकर उन्हें देखा। काम बाण से पीडि़त होकर सीता के पास पहुंचा। रावण कहने लगा सीते आजतक तुमने अपने पति पर अनुग्रह दिखाया। यह बहुत हुआ अब मुझ पर कृपा करो। रावण के ऐसा कहने पर सीता ने मुंह फेर लिया। उनकी आंखों में आंसु की झड़ी लग गई। राक्षसराज तुमने बहुत बार ऐसी बातें कहीं है जिससे मुझे तकलीफ पहुंची हैं। मैं परायी स्त्री हूं। पतिव्रता हूं तुम किसी तरह भी मुझे पा नहीं सकते। यह कहकर सीता आंचल से अपना मुंह छुपाकर रोने लगी। उसका ऐसा उत्तर पाकर रावण अंतरध्यान हो गया।

जानिए, शादी लव हो या अरेंज क्या कहते हैं हमारे धर्मशास्त्र?उसके बाद युधिष्ठिर ने मार्कण्डेय मुनि से पूछा मुनिवर द्रोपदी के लिए मुझे जैसा शोक होता है वैसा न तो अपने लिए होता है। न ही किसी कन्या के लिए और न राज्य छिन जाने के लिए। यह जैसी पतिव्रता है, वैसी क्या कोई दूसरी नारी भी आपने पहले कभी कहीं देखी सुनी है।

तब मार्कण्डेयजी ने कहा राजकन्या सावित्री ने यह कुल कामिनियों का परम सौभाग्यरूप पतिव्रत्य का सुयश प्राप्त कर लिया था। वह मैं कहता हूं सुनो मद्रदेश के अश्वपतिनाम का एक बड़ा ही धार्मिक राजा था।

जिसकी पुत्री का नाम सावित्री था। सावित्री जब विवाह योग्य हो गई। तब महाराज उसके विवाह के लिए बहुत चिंतित थे। उन्होंने सावित्री से कहाबेटी अब तू विवाह के योग्य हो गयी है। इसलिए स्वयं ही अपने योग्य वर चुनकर उससे विवाह कर लें। धर्मशास्त्र में ऐसी आज्ञा है कि विवाह योग्य हो जाने पर जो पिता कन्यादान नहीं करता, वह पिता निंदनीय है। ऋतुकाल में जो स्त्री से समागम नहीं करता वह पति निंदा का पात्र है। पति के मर जाने पर उस विधवा माता का जो पालन नहीं करता । वह पुत्र निंदनीय है।

तब सावित्री शीघ्र ही वर की खोज करने के लिए चल दी। वह राजर्षियों के रमणीय तपोवन में गई। कुछ दिन तक वह वर की तलाश में घुमती रही। एक दिन मद्रराज अश्वपति अपनी सभा में बैठे हुए देवर्षि बातें कर रहे थे। उसी समय मंत्रियों के सहित सावित्री समस्त वापस लौटी। तब राजा की सभा में नारदजी भी उपस्थित थे। नारदजी ने जब राजकुमारी के बारे में राजा से पूछा तो राजा ने कहा कि वे अपने वर की तलाश में गई हैं। जब राजकुमारी दरबार पहुंची तो और राजा ने उनसे वर के चुनाव के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि उन्होंने शाल्वदेश के राजा के पुत्र जो जंगल में पले-बढ़े हैं उन्हें पति रूप में स्वीकार किया है।

उनका नाम सत्यवान है। तब नारदमुनि बोले राजेन्द्र ये तो बहुत खेद की बात है क्योंकि इस वर में एक दोष है तब राजा ने पूछा वो क्या तो उन्होंने कहा जो वर सावित्री ने चुना है उसकी आयु कम है। वह सिर्फ एक वर्ष के बाद मरने वाला है। उसके बाद वह अपना देहत्याग देगा। तब सावित्री ने कहा पिताजी कन्यादान एकबार ही किया जाता है जिसे मैंने एक बार वरण कर लिया है। मैं उसी से विवाह करूंगी आप उसे कन्यादान कर दें। उसके बाद सावित्री के द्वारा चुने हुए वर सत्यवान से धुमधाम और पूरे विधि-विधान से विवाह करवा दिया गया।

जिद करके ही बदली जा सकती है दुनिया क्योंकि.....कहते हैं जिद करना अच्छी बात नहीं है। लेकिन क्या ये बात पूरी तरह से सही है? नहीं क्योंकि सही चीज या सही कारण की गई जिद गलत नहीं होती। उसी को दृढ़ संकल्प कहा जाता है और जब ऐसी जिद की जाती है तब ही दूनिया बदली जा सकती है। तब ही लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है। दृढ़संकल्प में वो शक्ति है जो मृत व्यक्ति में भी प्राण फूंक सकती है। ऐसी ही एक कथा हमारे धर्मशास्त्र में भी है वह है सत्यवान और सावित्री की कथा। तब सावित्री ने कहा पिताजी कन्यादान एकबार ही किया जाता है जिसे मैंने एक बार वरण कर लिया है। मैं उसी से विवाह करूंगी आप उसे कन्यादान कर दें। उसके बाद सावित्री के द्वारा चुने हुए वर सत्यवान से धुमधाम और पूरे विधि-विधान से विवाह करवा दिया गया

सत्यवान व सावित्री के विवाह को बहुत समय बीत गया। जिस दिन सत्यवान मरने वाला था वह करीब था। सावित्री एक-एक दिन गिनती रहती थी। उसके दिल में नारदजी वचन सदा ही बना रहता था। जब उसने देखा कि अब इन्हें चौथे दिन मरना है। उसने तीन दिन व्रत धारण किया। जब सत्यवान जंगल में लकड़ी काटने गया तो सावित्री ने उससे कहा कि मैं भी साथ चलुंगी। तब सत्यवान ने सावित्री से कहा तुम व्रत के कारण कमजोर हो रही हो। जंगल का रास्ता बहुत कठिन और परेशानियों भरा है। इसलिए आप यहीं रहें। लेकिन सावित्री नहीं मानी उसने जिद पकड़ ली और सत्यवान के साथ जंगल की ओर चल दी।

सत्यवान जब लकड़ी काटने लगा तो अचानक उसकी तबीयत बिगडऩे लगी। वह सावित्री से बोला मैं स्वस्थ महसूस नही कर रहा हूं सावित्री मुझमें यहा बैठने की भी हिम्मत नहीं है। तब सावित्री ने सत्यवान का सिर अपनी गोद में रख लिया। फिर वह नारदजी की बात याद करके दिन व समय का विचार करने लगी। इतने में ही उसे वहां एक बहुत भयानक पुरुष दिखाई दिया। जिसके हाथ में पाश था। वे यमराज थे। उन्होंने सावित्री से कहा तू पतिव्रता स्त्री है। इसलिए मैं तुझसे संभाषण कर लूंगा। सावित्री ने कहा आप कौन है तब यमराज ने कहा मैं यमराज हूं। इसके बाद यमराज सत्यवान के शरीर में से प्राण निकालकर उसे पाश में बांधकर दक्षिण दिशा की ओर चल दिए। सावित्री बोली मेरे पतिदेव को जहां भी ले जाया जाएगा मैं भी वहां जाऊंगी। तब यमराज ने उसे समझाते हुए कहा मैं उसके प्राण नहीं लौटा सकता तू मनचाहा वर मांग ले।

तब सावित्री ने वर में अपने श्वसुर के आंखे मांग ली। यमराज ने कहा तथास्तु लेकिन वह फिर उनके पीछे चलने लगी। तब यमराज ने उसे फिर समझाया और वर मांगने को कहा उसने दूसरा वर मांगा कि मेरे श्वसुर को उनका राज्य वापस मिल जाए। उसके बाद तीसरा वर मांगा मेरे पिता जिन्हें कोई पुत्र नहीं हैं उन्हें सौ पुत्र हों। यमराज ने फिर कहा सावित्री तुम वापस लौट जाओ चाहो तो मुझसे कोई और वर मांग लो। तब सावित्री ने कहा मुझे सत्यवान से सौ यशस्वी पुत्र हों। यमराज ने कहा तथास्तु। यमराज फिर सत्यवान के प्राणों को अपने पाश में जकड़े आगे बढऩे लगे। सावित्री ने फिर भी हार नहीं मानी तब यमराज ने कहा तुम वापस लौट जाओ तो सावित्री ने कहा मैं कैसे वापस लौट जाऊं । आपने ही मुझे सत्यवान से सौ यशस्वी पुत्र उत्पन्न करने का आर्शीवाद दिया है। तब यमराज ने सत्यवान को पुन: जीवित कर दिया। उसके बाद सावित्री सत्यवान के शव के पास पहुंची और थोड़ी ही देर में सत्यवान के शव में चेतना आ गई।

जानिए, कर्ण से क्यों डरते थे पाण्डव?जन्मेजय ने पूछा लोमेशजी ने इन्द्र के वचनानुसार पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर से जो यह महत्वपूर्ण वाक्य कहा था कि तुम्हें जो बड़ा भारी भय लगा रहता है और जिसकी तुम किसी के सामने चर्चा भी नहीं करते, उसे भी अर्जुन के स्वर्ग में आने पर मैं दूर कर दूंगा। वैशम्पायनजी धर्मात्मा महाराज युधिष्ठिर को कर्ण से वह कौन सा भारी भय था। जिसकी वह किसी के आगे बात भी नहीं चलाते थे?

तब वैशम्पायनजी कहते हैं भरतश्रेष्ठ राजा जन्मेजय! तुम पूछ रहे हो अत: मैं तुम्हें वह कथा सुनाता हूं। सावधानी से मेरी बात सुनो। जब पांडवों के वनवास के बारह वर्ष बीत गए तब इंद्र कर्ण से उनके कवच व कुंडल मांगने को तैयार हुए। जब सूर्यदेव को इन्द्र का ऐसा विचार मालूम हुआ तो वे कर्ण के पास आए और सपने में ब्राह्मण का रूप बनाकर कर्ण से बोले - हे कर्ण में स्नेहवश तुम्हारे पास आया हूं। इसलिए मैं जो कह रहा हूं। उस पर ध्यान दो। देखो पाण्डवों का हित करने की इच्छा से इंद्र तुम्हारे पास कवच और कुंडल मांगने के लिए आएंगे। उन्हें तुम्हारे इस नियम का पता है कि किसी सत्पुरुष के मांगने पर तुम अपनी कोई भी वस्तु उसे दे सकते हो। अगर तुम जन्म के साथ ही तुम्हे प्राप्त कवच और कुंडल उन्हें दे दोगे तो तुम्हारी आयु क्षीण हो जाएगी। इसलिए तुम्हे इनकी रक्षा करना चाहिए। तब कर्ण ने पूछा आप मेरे प्रति बहुत स्नेह दिखाते हुए मुझे उपदेश कर रहे हैं। यदि इच्छा हो तो बताइए इस ब्राह्मणवेष में आप कौन हैं?

ब्राह्मण ने कहा मैं तुम्हारा पिता सूर्य हूं। मैं स्नेहवश ही तुम्हे ऐसी सम्मति दे रहा हूं। तुम मेरी बात मानकर ऐसा ही करो। इसी में तुम्हारा विशेष कल्याण है। जब स्वयं भगवान सूर्य ही मुझे मेरे हित की इच्छा से उपदेश कर रहे हैं तो मेरा परम कल्याण तो निश्चित ही हैं किंतु आप मेरी यह प्रार्थना सुनने कृपा करें। मैं अपना नियम नहीं तोड़ सकता हूं। अगर इंद्र ब्राह्मण का रूप बनाकर आए तो मैं अपने कवच और कुंडल जरूर दान दे दूंगा। मेरे जैसे लोगों को यश की रक्षा करनी चाहिए प्राणों की नहीं।

कर्ण तुम देवताओं की गुप्त बातें नहीं जान सकते। इसलिए इसमें जो रहस्य है, वह मैं तुम्हें नहीं बताना चाहता। समय आने पर तुम्हें वह स्वयं पता चल जाएगा। कर्ण ने कहा- सूर्य देव आपके प्रति मेरी जैसी भक्ति है। वह आप जानते ही हैं। यह बात भी आपसे छिपी नहीं है कि मेरे लिए अदेय कुछ भी नहीं है। तब सूर्य बोले अगर तुम उन्हें अपने कवच और कुंडल दो तो उनसे प्रार्थना करना कि वे अपनी शत्रुओं का संहार करने की अमोघ शक्ति तुम्हे दे दें। इंद्र की वह शक्ति बहुत प्रबल है। वह सैकड़ो-हजारों शत्रुओं का संहार करे बिना हाथ में लौटकर नहीं जाती। ऐसा कहकर भगवान सूर्य अंर्तध्यान हो गए।

कैसे लगती थी, कुंती रिश्ते में कृष्ण की बुआ?जन्मेजय ने पूछा मुनि सूर्यदेव जो गुप्त बात कर्ण को नहीं बताई वह क्या थी? तथा कर्ण के पास जो कवच कुंडल थे। वे कैसे थे और उसे कहां से प्राप्त हुए थे। वैशम्पायन बोले- मैं तुम्हे वह सुर्यदेव की गुप्त बात बताता हूं। यह भी सुनाता हूं कि वे कवच और कुंडल कैसे थे। पुरानी बात है, एक बार राजा कुंतीभोज के पास एक महान तेजस्वी ब्राह्मण आया। वह राजा से बोला मैं आपके घर भिक्षा मांगने आया हूं। लेकिन आपको या आपके सेवकों को मेरा कोई अपराध नहीं करना होगा यदि आपकी रूचि हो तो इस प्रकार मैं आपके यहां रहूंगा और इच्छानुसार आता जाता रहूंगा।

तब राजा कुन्तीभोज ने प्रेमपूर्वक उनसे कहा - ब्राह्मण देवता मेरी पृथा नाम की एक कन्या है। वह बड़ी सुशील और सदाचारिणी है। वह आपकी सेवा करेगी। उसके बाद राजा ने पृथा को आज्ञा दी और कहा बेटी तुम मेरी बात को झूठी मत होने देना ब्राह्मण देवता की खूब मन लगाकर सेवा करना। तू वसुदेवजी की बहन है और मेरी संतानों में सबसे श्रेष्ठ है। राजा शूरसेन ने ऐसी प्रतिज्ञा की थी कि अपनी प्रथम संतान मैं आपको दूंगा। उस प्रतिज्ञा के अनुसार ही उनके देने से तू मेरी पुत्री हुई।

इस पर कुंती ने कहा मैं बहुत सावधान होकर इनकी सेवा करूंगी। कुंती के ऐसा कहने पर राजा निश्चिंत हो गए। उसके बाद वे ब्राह्मण से बोले यह मेरी बहुत ही सुख में पली हुई कन्या है। अगर इससे कोई गलती हो तो इसे क्षमा करें। कुंती लगातार ब्राह्मण देवता की सेवा करने लगी। वे देवता भी बहुत अजीब थे। वे भी कभी समय से आते तो कभी नहीं आते। लेकिन कुंती उनकी सेवा में हमेशा तत्पर रहती। जब इस तरह एक वर्ष बीत गया तब ब्राह्मण देवता ने कुन्ती को वरदान देने की इच्छा जताई।

उनके एक बार ऐसा कहने पर तो कुंती ने मना कर दिया। लेकिन दुबारा ऐसा कहने पर पृथा ने शाप के भय से मना नहीं किया। तब उन्होंने उसे अर्थववेद के कुछ मंत्रों का उपदेश दिया और उसे वरदान दिया कहा इस मंत्र से तू जिस देवता का आवाह्न करेगी, वही तेरे अधीन हो जाएगा। उसकी इच्छा हो या न हो, इस मंत्र के प्रभाव से वह तेरे अधीन हो जाएगा।

जानिए, कुंती ने क्यों दिया कर्ण को जन्म और क्या था कर्ण का असली नाम?ब्राह्मण देवता के चले जाने के बाद एक दिन कुंती महल पर खड़ी हुई उदय होते हुए सूर्य की ओर देख रही थी। उस समय उन्हें सूर्य के कवच कुंडलधारी स्वरूप के दर्शन हुए। सूर्य का वह रूप बहुत सुंदर था। उसी समय ब्राह्मण के द्वारा दिए गए मंत्रों का जप करने का कौतुहल कुंती के मन में उठा। उसने उन मंत्रों की परीक्षा करने के लिए मंत्रों से सूर्यदेव का आवाह्न किया। तभी सूर्य भगवान वहां प्रकट हुए और बोले तुम्हे क्या चाहिए। तब घबराकर कुं ती बोली मुझे आपसे कुछ नहीं चाहिए।

मैं तो सिर्फ जिज्ञासा के कारण आपका आवाह्न किया था। तब सूर्यदेव ने कहा तू मुझसे जाने को कहती है तो मैं चला तो जाऊंगा लेकिन देवता का आवाह्न किया है तो तुझे मुझे इस तरह से वापस नहीं लौटाना चाहिए। सूर्य बोला तू बालिका है, इसलिए मैं तेरी खुशामद कर रहा हूं, किसी स्त्री का विनय नहीं करता, तू मुझे अपना शरीर दान कर दे, इससे तुझे शांति मिलेगी।

तब कुंती बोली मेरे माता-पिता जब तक मेरा दान नहीं करते तब तक मैं अपने धर्म का पालन करूंगी। सूर्य ने कहा ऐसा करने तेरा आचरण अधर्ममय नहीं माना जाएगा। भला लोकों के हित की दृष्टी से में अधर्म का आचरण कैसे कर सकता हूं। तब कुंती बोली यदि ऐसी बात है और मुझसे आप जो पुत्र उत्पन्न करें वह जन्म से ही कवच व कुंडल हो तो मेरे साथ आपका समागम हो सकता है। सूर्य ने उनकी बात मान ली। कुंती बोली- आप जैसा कह रहें अगर ऐसा हो जाए तो मैं आपसे पुत्र उत्पन्न करना चाहूंगी।

तब भगवान भास्कर से उन्हें गर्भ स्थापित हुआ। उसके बाद कुंती ने एक धाय की उपस्थित में गर्भ का समय पूरा होने पर एक पुत्र को जन्म दिया। फिर उसे पिटारी में रखकर सूर्य देव से प्रार्थना कर नदी में बहा दिया। वही पिटारी तैरती-तैरती अश्वनदी से चंबल नदी तक गई फिर वह यमुना नदी तक पहुंची। उसके बाद यमुना बहती-बहती वह गंगाजी में चली गई। जहां अधिरथ सूत रहता था। उस चम्पापुरी में आ गई। उसे कोई पुत्र नहीं था। जब गंगा के किनारे उसने उस पिटारी को देखा तो कोतुहल के कारण जल से बाहर निकलवाया। जब उसे औजारों से खुलवाया। तब उसमें से उन्हें वह कवच कुण्डल पहने हुए दिव्य बालक मिला। जिसे उसने और उसकी पत्नी ने विधिवत ग्रहण किया। उसका नाम कवच और कुंडल के कारण वसुषेण रखा गया। वसुषेण या वृष नाम से विख्यात हुआ। उसे ही सुत पुत्र कर्ण भी कहा गया।

कौन से है अर्जुन के दस नाम और ये नाम क्यों रखे गए?एक बार की बात है कि जब कौरवों ने नपुसंक वेषधारी पुरुष को रथ में चढ़कर शमीवृक्ष की तरफ जाते हुए देखा तो वे अर्जुन के आने की आशंका से मन ही मन बहुत डरे हुए थे। तब द्रोणाचार्य ने पितामह भीष्म से कहा गंगापुत्र यह जो स्त्रीवेष में दिखाई दे रहा है, वह अर्जुन सा जान पड़ता है। इधर अर्जुन रथ को शमी के वृक्ष के पास ले गए और उत्तर से बोले राजकुमार मेरी आज्ञा मानकर तुम जल्दी ही वृक्ष पर से धनुष उतारो।

ये तुम्हारे धनुष के बाहुबल को सहन नहीं कर सकेंगे। उत्तर को वहां पांच धनुष दिखाई दिए। तब उत्तर पांडवों के उन धनुषों को लेकर नीचे उतारा और अर्जुन के आगे रख दिए। जब कपड़े में लपेटे हुए उन धनुषों को खोला तो सब ओर से दिव्य कांति निकली। तब अर्जुन ने कहा राजकुमार ये तो अर्जुन का गाण्डीव धनुष है। तब राजकुमार उत्तर ने नपुसंक का वेष धरे हुए अर्जुन से कहा अगर ये धनुष पांडवों के हैं तो पांडव कहां हैं? तब अर्जुन ने कहा मै अर्जुन हूं। तब उत्तर ने पूछा कि मैंने अर्जुन के दस नाम सुने हैं? अगर तुम मुझे उन नामों का व उन नामों के कारण बता दो तो मुझे तुम्हारी बात पर विश्वास हो सकता है।

उत्तर बोला- मैंने अर्जुन के दस नाम सुने हैं? यदि तुम मुझे उन नामों का कारण सुना दो तो मुझे तुम्हारी बात का विश्वास हो जाएगा। अर्जुन ने कहा- मैं सारे देशों को जीतकर उनसे धन लाकर धन ही के बीच स्थित था इसलिए मेरा नाम धनंजय हुआ। मैं संग्राम में जाता हूं तो वहां से शत्रुओं को जीते बिना कभी नहीं लौटता हूं। इसलिए मेरा दूसरा नाम विजय है। मेरे रथ पर सुनहरे और श्वेत अश्व मेरे रथ में जोते जाते हैं इसलिए मैं श्वेतवाहन हूं। मैंने हिमालय पर जन्म लिया था इसलिए लोग मुझे फाल्गुन कहने लगे।

इंद्र ने मेरे सिर पर तेजस्वी किरीट पहनाया था, इसलिए मेरा नाम किरीट हुआ। मैं युद्ध करते समय भयानक काम नहीं करता इसीलिए में देवताओं के बीच बीभत्सु नाम से प्रसिद्ध हूं। गांडीव को खींचने में मेरे दोनों हाथ कुशल हैं इसलिए मुझे सव्य सांची नाम से पुकारते हैं। मेरे जैसा शुद्धवर्ण दुर्लभ है और मैं शुद्ध कर्म ही करता हूं। इसलिए लोग मुझे अर्जुन नाम से जानते हैं। मैं दुर्जय का दमन करने वाला हूं। इसलिए मेरा नाम जिष्णु है। मेरा दसवां नाम कृष्ण पिताजी का रखा हुआ है क्योंकि मेरा वर्ण श्याम और गौर के बीच का है।

दोबारा क्यों हुआ था, द्रोपदी का भरी सभा में अपमान?पांडवों के मसत्यदेश की राजधानी में रहते हुए दस महीने बीत गए। यज्ञसेन कुमारी द्रोपदी भी वहां दासी की तरह रहने लगी। जब एक वर्ष पूरा होने में कुछ ही समय बाकी रह गया तब कि बात है। मत्स्यनरेश का साला कीचक अपनी बहन से मिलने आया। तब उसकी नजर महल में काम करती हुई द्रोपदी पर पड़ी। द्रोपदी की अद्भुत सुंदरता देखकर वह मुग्ध हो गया। उसने अपनी बहन से कहकर राजकुमारी द्रोपदी के पास आकर बोला- कल्याणी! तुम कौन हो? कहां से आई हो? सुंदरी अगर तुम चाहो तो मैं अपनी पहली स्त्रियों को त्याग दूंगा। उन्हें तुम्हारी दासी बनाकर रखूंगा।

बस तुम मेरी रानी बन जाओ। द्रोपदी ने कहा मुझ से ऐसा कहना उचित नहीं है। संसार के सभी प्राणी अपनी स्त्री से प्रेम करते हैं, तुम धर्म पर विचार कर ऐसा ही करो। दूसरे की स्त्री की ओर कभी किसी प्रकार भी मन नहीं चलाना चाहिए। मेरे पति पांच गंधर्व मेरे पति हैं। द्रोपदी के इस तरह ठुकराने पर कीचक कामसंप्तत होकर अपनी बहन सुदेष्णा के पास जाकर बोला- बहिन जिस उपाय से भी सौरंध्री मुझे स्वीकार करे, सो करो नहीं तो मैं उसके मोह में अपने प्राण दे दूंगा। तब उसकी बहिन ने उसे समझाते हुए कहा मैं सौरंध्री को एकांत में तुम्हारे पास भेज दूंगी।

कुछ समय बाद रानी सुदेष्णा ने सौरंध्री को अपने पास बुलाकर कहा मुझे बहुत जोर से प्यास लग रही है। तुम कीचक के आवास पर जाओ और कुछ पीने योग्य लेकर आओ।तब द्रोपदी कीचक के महल में डरते-डरते गई। कीचक ने जब उसे देखा तो वह अपने आप को रोक नहीं पाया उसने द्रोपदी की ओर बढऩे की कोशिश की। कीचक का तिरस्कार कर द्रोपदी जब वहां से भागने लगी। कीचक ने भी उसका पीछा किया और भागती हुई द्रोपदी के केश पकड़ लिए। फिर राजा के सामने ही उसे जमीन पर गिराकर लात मारी। उस समय राजसभा में युधिष्ठिर और भीमसेन भी बैठे थे।

विराट नगर के राजा ने क्यों किया युधिष्ठिर का ऐसा अपमान?अर्जुन ने कहा- तुम लोगों का कल्याण हो। डरो मत, अपने देश को लौट जाओ। मैं संकट में पड़े हुए को नहीं मारना चाहता। इस बात के लिए तुम लोगों को पूरा विश्वास दिलाता हूं। उसके बाद राजकुमार उत्तर व अर्जुन विराटनगर लौट गए। तब तक विराटनगर के राजा को यह नहीं पता था कि कुमार उत्तर युद्ध के लिए गए हैं।

राजा विराट ने जब सुना कि उनका पुत्र अकेला बृहनला को सारथि बनाकर केवल एक रथ साथ में ले कौरवों से युद्ध करने गया है, वे मन ही मन घबरा रहे थे। मंत्रियों ने कहा- जिसका सारथी किन्नर है, उसके अब तक जीवित रहने की तो संभावना ही नहीं है। राजा विराट को दुखी देखकर युधिष्ठिर ने हंसकर कहा- राजन यदि बृहनला सारथि है, तो विश्वास कीजिए।

आपका पुत्र सभी को युद्ध में जीत सकता है। तीनों लोकों में उसे कोई पराजित नहीं कर पाएगा। इतने में उत्तर के भेजे हुए दूत विराटनगर में आ पहुंचे और उन्होंने उत्तरकुमार की विजयी का समाचार सुनाया। युधिष्ठिर बोले- यह बड़े सौभाग्य की बात है कि गौएं जीतकर वापस लायी गई। कौरव हारकर भाग गए। इसमें आश्चर्य करने की आवश्यकता नहीं है। जिसका सारथि ब़ृहन्नला हो, उसकी विजय तो निश्चित है।

राजा ने हर्षित होकर युधिष्ठिर से कहा कंकजी पासे मंगवाइए। हम बहुत हर्षित हैं हमें पासे खेलने की इच्छा है। तब युधिष्ठिर ने कहा मैंने सुना है कि हर्ष से भरे हुए चालाक खिलाड़ी के साथ जुआं नहीं खेलना चाहिए। इसलिए आपके साथ जुआं खेलने का साहस नहीं होता। तब राजा ने कहा क्यों न खेले हम जुआं आखिर हमारे बेटे ने कौरवों पर विजय हासिल की है।

तब युधिष्ठिर ने कहा बृहनला जिसका सारथी हो वह भला, युद्ध क्यों नहीं जीतता। तब राजा बहुत क्रोधित हो गया बोला- तू मेरे बेटे की प्रशंसा एक हिजड़े के साथ कर रहा है। राजा विराट चिढ़ गया और युधिष्ठिर पर पासा उठाकर जोर से फेंक दिया। युधिष्ठिर की नाक से खून निकलने लगा। फिर उसने युधिष्ठिर को डांटते हुए कहा अब ऐसा न करना।


क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......
मनीष

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