Friday, February 1, 2013

Jeene Ki Rah (जीने की राह )


इच्छा को मारना नहीं मोड़ना है
इच्छा  और आशा के बिना संसार में काम चलता नहीं है और संसार मिलता भी नहीं है। इच्छा को समझना पड़ता है और आशा को जगाना होता है। इच्छा को ठीक समझा न गया तो ये बलात हमें खींचकर भविष्य में पटकती है। इसकी पूर्ति न हो तो यह अतीत में भी ले जाती है।

मनुष्य यहीं से अशांत होने लगता है। कई बार तो इच्छापूर्ति न हो तो लोग हीनभावना से ग्रस्त हो जाते हैं। साधन नगण्य होंयोग्यता कम होतो दृष्टिकोण को हीन बनने में देर नहीं लगेगी। यहां इच्छा के साथ आशा की भूमिका काम आती है।

आशा मनुष्य में आत्मविश्वास और सतत परिश्रम की प्रेरणा है। आशा है तो इच्छा हीनभावना पैदा नहीं करेगी। यूं भी समझा जा सकता है कि इच्छापूर्ति की भावना मध्य में है और उसके आगे-पीछे आशा और निराशा चलते हैं। इच्छा को मारना नहीं हैमोड़ना है।

जैसे इच्छा को कर्तव्य-पालन की ओर मोड़ दें तो इसका भी आनंद लूटा जा सकता है। इच्छा को संयमशीलतासज्जनताईमानदारी से जोड़ दें तो जीवन सफलता का पर्याय ही बन जाएगा। इच्छा को संसार में सावधानी से उपयोग में लाएं। इसके लिए इसके आध्यात्मिक अर्थ को भी समझना होगा। जब हम प्रतिदिन ध्यान करते हैं तो हम वर्तमान पर टिके हुए रहते हैं।

इच्छा वर्तमान पर रुकने पर समझ से जुड़ जाती है। अब वह नुकसानदायक न होकर जीवन के लिए सहयोगी बन जाती है। ध्यान में सबकुछ शून्य होता हैपर इसके पश्चात परिणाम में इच्छा और आशा जुड़कर मनुष्य को स्वास्थ्यसफलता एवं सदाचार से जोड़कर जीवन का नया स्वाद देती है।

जैसा बोएंगेवैसा ही काटेंगे
मनुष्य  को तीन चीजें कुदरत से मिलती हैं- शरीरमन और आत्मा। हमें शरीर से श्रम को साधना है। हम शरीर तो बदल नहीं पाएंगेजो है उसी का उपयोग करना है। मन भी हमें जन्म से मिला है। इसकी अदला-बदली भी किसी से नहीं हो सकेगी। इसके मूल स्वरूप में जो भी सुधार करना हैहमें ही करना है और आत्मा तो हमारा वास्तविक स्वरूप है।

जीवन में जितना इसके निकट जाएंगेअपने होने का आनंद उठा पाएंगे। ये तीनों तयशुदा हैं। हमें सारा ताना-बाना इन्हीं के आसपास बुनना है। अब इन तीनों के अलावा जो सांसारिक संपदा हैवह चौथी वस्तु हमें स्वयं अर्जित करनी हैयह ईश्वर नहीं देता। इसकी कमाई हमें ही करनी है।

हांपरमात्मा इनके उपयोगदुरुपयोग में भले ही अपना हस्तक्षेप कर देपर अर्जित करना हमारा दायित्व होगा। इसे कहते हैं - जैसा बोएंगे वैसा काटेंगे। शरीरमनआत्मा बीज की तरह हैंइन्हें तपाकर हम अपना वर्चस्व प्राप्त कर सकते हैं। फिर इस वर्चस्व से हमें परिवारसमाज और राष्ट्र की सेवा करनी है। तप के बीज से सेवा का वृक्ष तैयार करना चाहिए। लेकिन जीवन यहीं नहीं रुकता।

भारतीय संस्कृति मूल में विश्वास रखती है। पश्चिम कहता है कि परिणाम पर टिक जाओ। बाहर जो मिलेउसे भोगो। पूर्व कहता है कि परिणाम के साथ मूल को कभी मत भूलो। बाहर से भीतर जाने की प्रक्रिया बंद मत करो। इसे कहेंगेवृक्ष से वापस बीज बनाना। यह पूर्णरूपेण आध्यात्मिक क्रिया होगी। वृक्ष से जब बीज बनेगातो यह बहुत सूक्ष्म घटना होगी। गहराई में जाकर यह कृत्य पूरा होगा। इस गहराई में ही भौतिक ऊंचाई छिपी रहेगी।

मौन रहने का अभ्यास करें
आजकल अविश्वास करना मजबूरी-सा हो गया है। भरोसा ही नहीं होता कि सामने वाला जो बोल रहा हैवह सही ही होगा। हर घड़ी अपने साथ धोखा या छल होने का डर रहता है।

दफ्तरों में अधिकांश नियम-कायदे इसीलिए बने हैं कि मौका पाकर लोग गलत काम न कर पाएं। अब लोग बाहर बात करते समय एक-दूसरे के शब्दों में भीतर विश्वसनीयता ही टटोलते रहते हैं। ऐसा लगता है कि हर शब्द में बे-भरोसे की गुठली भरी होगी।

शब्द को जरा-सा चूसोतो कहीं धोखे की गुठली बाहर न आ जाए। जिन पर राष्ट्र का भार हैवे आश्वासनों से ठग रहे हैं। जो शिक्षा के क्षेत्र में जिम्मेदार हैंवे वक्त आने पर शोषण से नहीं चूकते। व्यवसाय करने वालों ने तो मान ही लिया है कि लाभ धोखे की पुड़िया में मिलता है। सबसे ज्यादा पीड़ादायक दृश्य है धर्म के क्षेत्र में। यहां आस्था ही लूट का विषय बन गई है।

इस समूचे दृश्य में हमें अपनी भूमिका बनाए रखनी है। जब सारा जल ही जाल हो तो मछली बचकर कहां जाएऐसी ही स्थिति आज ईमानदारआस्थावाननिष्ठावान व्यक्ति की हो गई है। उसे समझ नहीं आता कि ऐसे वातावरण में बोलें या नहीं बोलें। अध्यात्म कहता हैकुछ काम नहीं किए जाने पर भी होने का परिणाम देते हैं। जैसे विपरीत वातावरण में बाहर-भीतर दोनों से ज्यादा न बोलें।

बोलने के प्रयास में ऊर्जा खर्च होती ही हैपर न बोलने में भी प्रयास लगता है। एक नई स्थिति का अभ्यास करेंवह है मौन की स्थिति। भीतर से न बोलना और न ही बोलने से स्वयं को रोकने का प्रयासबस मौन। चौबीस घंटे में थोड़ा मौन बाहर के इस विपरीत वातावरण में आपको ठगे हुए से लगने से बचा लेगा।

शुभ करके ऊपर उठना ही स्वर्ग है
मनुष्य  का हृदय शिकायत करना छोड़ दे और बुद्धि धन्यवाद देना सीख जाए तो वह प्रार्थना की मुद्रा में आ जाता है। प्रार्थना केवल क्रिया नहींआंख भी है। परमात्मा को देख सकने वाली आंख की बुद्धि तर्क से परे रहती है। उस आंख का हृदय श्रद्धा से भरा रहता है। ऐसा ही बदलाव सुंदरकांड में विभीषण के भीतर हनुमानजी ने लाया था। विभीषण ने पूछा था कि क्या कभी श्रीराम मुझे स्वीकार करेंगेइस संदेह में भी शिकायत थी। हनुमानजी ने विभीषण की बुद्धि और हृदय दोनों ही बदल दिए। इसी का परिणाम था कि भरी सभा में विभीषण अपने भाई रावण को समझाते हैं।

रावण जैसे व्यक्ति को समझाने में जो साहस और स्पष्टता चाहिएवह हनुमानजी विभीषण में प्रसूत कर गए थे। समझाते हुए विभीषण उदाहरण देते हैं- काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ। सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत।। यानी हे नाथ! कामक्रोधमद और लोभये सब नर्क के रास्ते हैं। इन्हें छोड़कर श्रीरामचंद्रजी को भजिएजिन्हें संत लोग भजते हैं।

कामक्रोधअहंकार और लोभ इन चारों को नर्क का मार्ग बताया है। रावण के माध्यम से हम भी समझ लें कि ये दुर्गुण हमारे आसपास नर्क का निर्माण कर देते हैं। नर्क का अर्थ केवल मरने के बाद की स्थिति ही न ली जाए। हम गलत काम करके जब गिरते हैंतो हमारा पतन होता है। हम अशांत होते हैंयही नर्क है। शुभ करके ऊपर उठना ही स्वर्ग है। मरने के बाद हम कहां जाएंगेयह कौन बता सकता है। तुलसीदासजी ने चारों दुर्गुणों को नर्क का मार्ग कहा है। लेकिन गीता में श्रीकृष्ण ने इनमें से तीन दुर्गुणों को नर्क का द्वार बताया है। मार्ग से द्वार तक इनसे सावधान ही रहा जाए।

नारदजी से सीखा जाए समय प्रबंधन
शरीर पर टिककर संसार की वस्तुओं को उपलब्ध करना ही सफलता माना जा रहा है। सब मिलने के बाद भी अशांति रहने की वजह से प्रबंधन में आज मानवीय पक्ष पर बात होने लगी है। हम जितने यंत्रवत होंगेउतने ही ज्यादा शरीर पर टिकेंगे।

जितने मानवीय होंगेउतना ही आत्मा के निकट जाने का प्रयास करेंगे। बाहरी लक्ष्य के साथ भीतर के उद्देश्य भी जीवित रखने होंगे। भीतर स्थान-साधन कम हैंपर ध्येय यहां का भी खूब बड़ा है। बाहर के जगत में शिक्षायोग्यता हासिल करने के लिए लंबा वक्त लग सकता है। पर भीतर आत्मशोधन सीमित समय में भी हो सकता है।

भारत में एक चरित्र हुए हैं नारदउनसे समय प्रबंधन सीखा जाए। वे कहीं भी अधिक समय नहीं रुक सकतेइसके लिए वे शापित हैं। लेकिन थोड़े-थोड़े समय में यह पात्र लोगों के बड़े-बड़े काम कर गया। सतत सक्रियतासीमित समय और सदा हितकारी के प्रतीक हैं नारद।

हमें अपने भीतर बदलाव और दूसरों में परिवर्तन लाने के लिए समय का दान और निर्धारित गति का अभ्यास स्वयं करना होगा। इसे ही आंतरिक साधना कहा गया है। यह भी एक संपत्ति है। इसे लोगों में जितना बांटेंगेनारद की तरह यह उतनी ही बढ़ेगी। इसे बचाने जाएंगेतो नष्ट हो जाएगी। सांसारिक संपत्ति देने से कम होती है।

आध्यात्मिक दौलत लुटाने पर बढ़-चढ़कर लौट आती है। भूमि पर लगाया गया एक दाना सैकड़ों बनकर लौट आता हैलेकिन आध्यात्मिक भूमि तो अनंत उपजाऊ होती है। परमात्मा की खेती में लगाया गया छोटा-सा अंश भी अनंत गुना होकर लौट आता है।

तन निष्क्रिय और मन भाग रहा है
भागमभाग  के इस दौर में बाहर से देखो तो लगता है कि हमारे कामकाज हमसे दौड़-भाग करवा रहे हैं। लेकिन यह अर्द्धसत्य है। हमारे काम-धंधों से ज्यादा हमें मन भगाता है। तन की भागमभाग से विश्राम करने के तरीके तो फिर भी हैंलेकिन मन को पकड़कर विश्राम कराना आसान नहीं है। दो तरीके हैं। पहला है इसे सुविचारों से स्थिर रखें। गलत और गंदे विचारों की ओर यह तुरंत भागता है। इस पर कड़ी निगाह रखनी होगी। दूसराअत्यधिक सजग रहिए जिससे कि इसे सुविचार मिलते रहें।

यदि कभी मन बुरे विचार गटक लेतो तुरंत इसका संबंध बुद्धि और आत्मा से काट दें। वरना यह इंद्रियों के माध्यम से वहां उपद्रव और हलचल मचा देगा। इंद्रियां तृप्ति मांगती हैं और मजेदार बात यह है कि एक को संतुष्ट करें तो दूसरी जाग जाती है। इनकी मांग अनवरत चलती रहती है। पहले तरीके के बाद दूसरा अपनाएं। इसमें एक कदम आगे बढ़ना होगा।

सुविचार से स्थिर करना ही काफी नहीं होगा। अब इसे अविचार से शून्यनिष्क्रिय करना होगा। आनंद या पूर्ण शांति तब ही मिलेगी। बच्चों के जन्म की तैयारी और लालन-पालन में भी यह प्रयोग करें। उनके जन्म के समय मन स्थिर रहे सुविचारों से और लालन-पालन में मन निष्क्रिय तथा तन सक्रिय रहे। अभी उल्टा हो रहा हैबच्चों के पालन-पोषण में माता-पिता का तन निष्क्रिय है और मन भाग रहा है। मां के निज तन के पावन स्पर्श की जगह उससे भी अधिक इन बच्चों को कुछ और ही चीजें छू रही हैं और इसकी कीमत आज पूरा परिवार चुका रहा है।

सबसे बड़ा सृजनकर्ता है परमात्मा
अपनी  सृजन शक्ति का बचाव करने के लिए कई बार निर्माणकर्ता सारा दोष औजार पर डाल देते हैं। संसार का सबसे बड़ा सृजनकर्ता है परमात्मा। मनुष्य जैसी अद्भुत कृति बनाने के बाद उसने उसके शरीर में कुछ शारीरिक और मानसिक औजार दिए हैं।

इनके माध्यम से मनुष्य अपनी गतिविधियों पर सही तरीके से नियंत्रण पा सकता है। इन औजारों का सदुपयोग ही सद्कर्म है। औजारों का गलत संचालन या उपयोग श्रेष्ठ तत्वों का सत्यानाश कर देगा। जन्म तक तो सृजनकर्ता ईश्वर होता है। इसके बाद जब जीवन शुरू होता है तो सृजन स्वयं मनुष्य के हाथ आ जाता है।

कई लोग जब जीवन निर्माण में चूक जाते हैं तो दोष औजार पर देते हैंस्वयं की सृजन शक्तिमति पर नहीं। कारीगरी हमारी खराब हो और दोष औजारों पर देना ही भ्रम है। विज्ञान ने विष से औषधि बना दीसृजन इसी संभावना का नाम है। ऊपर वाले ने इंसान के भीतर कुछ भी निंदनीय नहीं रखा। पर हम अपने औजार जिन्हें इंद्रियां भी कहा गया हैका दुरुपयोग कर गलत काम कर जाते हैं। हमारे पास संस्कारों की एक पुरानी परंपरा है।

संस्कार हमारे इंद्रिय रूपी हथियारों को तरोताजासाफ-सुथरा और सही मार्ग पर रखने के काम आते हैं। इस समय संस्कारों पर प्रतिदिन काम करना होगा। इन्हें खाली पड़े रहने देंगे तो ये बासी हो जाएंगे। अब तो लगता है कि हम संस्कारों को रखकर कहीं भूल ही गए हैं। कुछ ने तो जानबूझकर इन्हें हटा दिया है। पुन: इन्हें जीना होगा। जीवन से संस्कार जुड़ते ही हर औजार सही काम करेगा।

अपने मूल को कभी न भूलें
मनुष्य  को तीन चीजें कुदरत से मिलती हैं। शरीरमन और आत्मा। हमें शरीर से श्रम साधना है। हम शरीर बदल नहीं पाएंगेजो है उसी का उपयोग करना है। मन भी हमें जन्म से मिला है। इसका भी किसी से एक्सचेंज ऑफर नहीं हो सकेगा।

जो भी सुधार करना हैइसके मूल स्वरूप में हमें ही करना है और आत्मा तो हमारा वास्तविक स्वरूप है। जीवन में जितना इसके निकट जाएंगेअपने होने का आनंद उठा पाएंगे। ये तीनों तयशुदा हैं। हमें सारा ताना-बाना इन्हीं के आसपास बुनना है। अब इन तीनों के अलावा जो सांसारिक संपदा हैवह चौथी वस्तु हमें स्वयं अर्जित करनी हैयह ईश्वर नहीं देता। इसकी कमाई हमें ही करनी है।

हांपरमात्मा इनके उपयोगदुरुपयोग में भले ही अपना हस्तक्षेप कर देपर अर्जित करना हमारा दायित्व होगा। इसे कहते हैं जैसा बोएंगे वैसा काटेंगे। शरीरमनआत्मा बीज की तरह हैंइन्हें तपाकर हम अपना वर्चस्व प्राप्त कर सकते हैं। फिर इस वर्चस्व से हमें परिवारसमाज और राष्ट्र की सेवा करनी है। तप के बीज से सेवा का वृक्ष तैयार करना चाहिए। लेकिन जीवन यहीं नहीं रुकता। भारतीय संस्कृति मूल में विश्वास रखती है।

पश्चिम कहता है कि परिणाम पर टिक जाओबाहर जो मिले उसे भोगो। पूर्व कहता है परिणाम के साथ मूल को कभी मत भूलोबाहर से भीतर जाने की प्रक्रिया बंद मत करो। इसे कहेंगे वृक्ष से वापस बीज बनाना। यह पूर्णरूपेण आध्यात्मिक क्रिया होगी। वृक्ष से जब बीज बनेगातो यह बहुत सूक्ष्म घटना होगी। गहराई में जाकर यह कृत्य पूरा होगा। इस गहराई में ही भौतिक ऊंचाई छिपी रहेगी।

अपने भीतर के रावण से रहें सावधान
मानवीय संबंधों में निकटता और दूरी बड़ी मायने रखती है। धर्म के क्षेत्र में गुरु का सान्निध्य और प्रभु की शरणागति का बड़ा महत्व है। सुंदरकांड में विभीषण को हनुमानजी का जो सत्संग मिला थावह गुरु की निकटता जैसा था। हनुमानजी विभीषण को मंत्र दे गए थे। अब भरी सभा में विभीषण अपने बड़े भाई रावण को समझा रहे थे।

समझाते-समझाते विभीषण प्रभु की शरणागति पर रावण को प्रेरित करते हैं- ताहि बयरु तजि नाइअ माथा। प्रनतारति भंजन रघुनाथा।। देहु नाथ प्रभु कहुं बैदेही। भजहु राम बिनु हेतु सनेही।। यानीवैर त्यागकर उन्हें मस्तक नवाइए। वे श्रीरघुनाथजी शरणागत का दुख नाश करने वाले हैं। हे नाथ! उन प्रभुसर्वेश्वर को जानकीजी दे दीजिए और बिना ही कारण स्नेह करने वाले श्रीरामजी को भजिए। यहां कहा गया है माथा टिकाएं। यानी अहंकार गिरा दें।

उसके बिना शरणागति संभव भी नहीं है। श्रीराम को यहां बिना कारण ही स्नेह रखने वाला कहा गया है। आजकल तो लोग कारण हो तो भी स्नेह नहीं करतेबस संबंधों के सौदे करते हैं। यहां रावण को नाथ कहते हुए विभीषण ने श्रीराम को प्रभु’ शब्द से संबोधित किया है। रावण को नाथ इसलिए कहा कि यदि वह मारा गया तो लंकावासी अनाथ हो जाएंगे।

श्रीराम को प्रभु कहकर उन्हें सामथ्र्यवान बताया है। वे इतने समर्थ हैं कि सीताजी को ले ही जाएंगे। लगे हाथ विभीषण सीताजी के नाम को वैदेही’ शब्द देकर रावण को सीख देते हैं कि सीताजी विदेह हैंदेह से मुक्त हैंअत: वे आपके अधीन नहीं होंगी। गुरु सान्निध्य और प्रभु शरणागति के सूत्र रावण ठुकरा देता है। हमारे भीतर का अरूप रावण जब ऐसा करे तो सावधान हो जाएं।

बालपन की बूंदों को मिले सही संगत
बचपन में हम अच्छी-बुरी संगत का मतलब भले ही न समझेंपर किसी न किसी का साथ जरूर चाहिए होता है। बचपन मे विवेक कम या नहीं के बराबर रहता हैअत: अच्छा-बुरा जो मिलेमन वह स्वीकार करने लगता है। इस समय ग्रहणशीलता चरम पर होती हैक्योंकि नए के लिए पर्याप्त स्थान और आग्रह उपलब्ध है। हर बच्चे में उसका नैसर्गिक और मौलिक गुण जन्म से ही होता है। माता-पिता उसके लालन-पालन में कमल के पत्ते और जलकण जैसा व्यवहार रखें तो भविष्य में बच्चे की योग्यता निखरकर आएगी। दूसरे पेड़ों के पत्तों पर पानी की बूंद उन पर गिरे तो वे उसे सोख लेते हैंलेकिन कमल का पत्ता बूंद को बूंद ही रहने देता है।

जलकण की अपनी हस्ती मिटती नहीं। कमल का पत्ता न बूंद को सोखता है और न ही स्वयं भीगता है। इसलिए बालपन की बूंदों को सही संगत दी जाए। गर्म लोहे पर पानी की बूंद गिरेगी तो सूख जाएगी। यदि यही जलकण समुद्र में किसी सीप में गिर जाए तो विशेष नक्षत्र में मोती बन जाएगी। फिर जिस व्यक्तित्व में मोती होने की तैयारी होगीउसे भविष्य में हीरा बनने से कोई नहीं रोक सकेगा।

इसलिए यह ध्यान रखना बहुत आवश्यक है कि बचपन को कौन-सी संगत दी जाए। संसार में मेल-जोल का नियंत्रण तो हम संभाल लेते हैं। बच्चों को आरंभ से परमात्मा की संगत दी जाए। बच्चे में दूसरे के प्रवेश पर खलबली मचती ही है। कभी वह भयभीत होगा तो कभी प्रसन्न होगा। ईश्वर का सान्निध्य उसे आत्मविश्वास देगा। आगे आने वाले जीवन में फिर वह बालपन किसी के भी प्रवेश के प्रति संयमितसुरक्षित और अनुभवी रहेगा।

संयमित देह स्वर्ग के समान है
खूबसूरत,  महंगा चांदी का पात्र होउसे चंदन की लकड़ी सुलगाकर गरम किया जाए और फिर इसमें लहसुन पकाई जाए तो इसे क्या कहेंगेयह होगा सही वस्तुओं का गलत उपयोग। हमने अपने मानव शरीर के साथ यही किया। एक शानदार बगीचे में विष के वृक्ष लगाकर जो फल खाए जा रहे हैंवे दुष्परिणाम देंगे ही सही। जो लोग अपने जीवन को दिव्य यात्रा पर ले जाना चाहेंउनके लिए शरीर उपयोगी वाहन है। हर वाहन का रख-रखाव करना पड़ता है। शरीर की देखभाल का नाम है तप। इसके मामले में केवल बाहरी सजावट से काम नहीं चलता है। जीवन में तप आता है संयम से।

संयमित देह अपने आप में स्वर्ग है। प्रकृति ने हमें सद्गुणों के साथ दुगरुण भी दिए हैं। शरीर में एक व्यवस्था दी गई है। जीवन-ऊर्जा सामान्य रूप से नीचे काम केंद्रों पर पड़ी रहती है। ऊर्जा यहां रहने पर दुगरुण सक्रिय रहेंगे। कामक्रोधलोभमदमोहमत्सर(ईष्र्या) यहां पड़ी ऊर्जा से शक्ति पाकर दुष्परिणाम देते हैं। प्रकृति ने इस ऊर्जा को ऊपर उठाने की सुंदर और सहज व्यवस्था दी है। प्राणायाम की क्रिया इसमें मददगार होगी। जैसे-जैसे ऊर्जा ऊपर उठती हैये ही दुगरुण सद्गुणों में बदलने लगते हैं।

अलग-अलग बाहरी साधनों से दुगरुणों पर काम करना मुश्किल हैलेकिन भीतर ऊर्जा ऊपर उठाने से सारे दुगरुण एक साथ नियंत्रित और परिवर्तित होंगे। शरीर यहीं से मन की ओर यात्रा करेगा। मन चूंकि विचारों से भरा हैअत: प्राणायाम वायु के नियंत्रण से मन को खाली करेगा। खालीनिष्क्रिय और नियंत्रित मन तुरंत शरीर से आत्मा की ओर जाने में सहायक होगा। आत्मा का लक्ष्य पाने में शरीर इस तरह से सहायक बनता है।

बदलाव और नाश को पहचानना होगा
संसार  में हर वस्तु नाशवान हैइसलिए परिवर्तनशील तो होगी ही। बदलाव विकास और विनाश दोनों का कारण बनता है। इसलिए पश्चिम कहता है कि जो  बदल रहा हैउसे आज ही भोग लो। विज्ञान का शोध भी इसी पर टिका है कि बदलाव और नाश को पहचानोउस पर शोध करो और जरूरत पड़े तो उसे नया बना लो।

भारत ने इसे आध्यात्मिक रूप से देखा है। प्रकृति परिवर्तनशील और नाशवान है। यह तो स्वीकार कियालेकिन इसके पीछे एक परमतत्व हैजिसे अलग-अलग धर्मो ने अपना-अपना नाम दिया है। यह ईश्वर सदैव रहता है और होकर भी नहीं दिखता। इतना ही नहींयह सबमें समान रूप से फैला है। इस परमपिता ने अपने उपयोग के लिए मनुष्य को विवेक दिया है।

इसका सदुपयोग करेंगे तो लाभ हैदुरुपयोग में हानि होगी। एक कंप्यूटर प्रोग्राम की तरह सारी व्यवस्था ऑटोरोमिंग में डाल दी गई है। इसलिए यह नियंता भी हैनियम भी है। जैसे आंख सारे संसार को देखती हैपर आंख हमें नहीं दिखती। उसे देखने के लिए आईना चाहिए। यदि आप दर्पण में लगातार स्वयं की आंख को देखें तो आप पाएंगे कि अचानक आप अपने से अलग हो गए। एक साक्षी भाव जागा स्वयं के प्रति। ऐसा ही भाव उस परमात्मा के प्रति रखेंगे तो वह अनेक वस्तुओं में दिखेगा।

अभी हम हर बात से स्वयं को जोड़ लेते हैं। भूख-प्यास लगती है तो कहने में आता है कि मैं भूखा-प्यासा हूं। दरअसल शरीर है प्यासा या भूखा। ‘‘मैं’’ नामक अस्तित्व इससे अलग है। यह अस्तित्व आगे जाकर आत्मा से मिलवाएगा। तब हम नाशवान और सदैव रहने वाले का सही अंतर समझ लेंगे।

जीवन में सीखें वियोग की कला
जिस संसार को मुट्ठी में भरने के लिए हम बेताब रहते हैंवह तेजी से बदल रहा है। भूतकाल व भविष्य काल की संधि को देखना हो तो संसार देख लें। संसार का अर्थ ही है चलता हुआ।

जिस भविष्य के प्रति हम अत्यधिक योजनाबद्ध रहते हैंवह तुरंत वर्तमान बनकर शीघ्र ही भूत में बदल जाता है। यहां मिलने से ज्यादा वियोग है। दुनियादारी में जब हमें वियोग मिलता है तो मन भारी हो जाता है और दिल दुखने लगता है। वियोग की पीड़ा से बचना हो तो विमुख होने की कला बड़े काम आएगी। दुनिया छोड़नी नहीं हैबस थोड़ा-सा विमुख हो जाना है। विमुख होने का मतलब मुंह मोड़ना न समझा जाए। यहां सजग हो जाना या होश का जागना ही विमुखता है।

संसार में अधिकांश वस्तुएं मोम की बनी जैसी हैं। उन्हें आकार दिया गया है। वस्तुओं का अपना ढांचा है और मनुष्यों का अपना मुखौटा है। हमारे होश से यह मोम पिघलने लगता है। अब यह भी समझ लें कि होश का क्या मतलब है। इंद्रियों के सदुपयोग का नाम होश है। दुनिया से हमारा मेल-मिलापपरिचय करवाने वाली इंद्रियां ही होती हैं। लेकिन इंद्रियां महज माध्यम हैं और माध्यम पर पूरा भरोसा कर लेना खतरनाक होगा।

चीजों को पकड़कर हम तक पहुंचाने में ये धोखा दे सकती हैं। आंख और कान की बात से इसे समझें। ये जब देखें और सुनें तो ध्यान रखें कि ये सिर्फ माध्यम हैंइनके पीछे शरीर में एक अदृश्य प्रमुख है। जो इसे प्राप्त करने का अधिकारी हैवही आत्मा है। इंद्रियों द्वारा ली जा रही जानकारियों का भोक्ता हमारा अस्तित्व है। हम अस्तित्व पर टिककर इंद्रियों से संसार में काम लेंगेतब हम विमुख होकर वियोग के दुख से मुक्त रहेंगे।

हमारे जीवन से जुड़ी चार भूलें
जिंदगी में मनुष्य चार छोटी-छोटी भूलें कर जाता हैजिनके परिणाम बड़े होते हैं।चूंकि मामला शरीर से जुड़ा हैइसलिए हम ध्यान ही नहीं दे पाते।इनमें पहली भूल है- यह शरीर मेरे लिए है। दूसरीमेरा है यह शरीर। तीसरीमैं ही शरीर हूं। 

चौथी मूल हैमैं शरीर को बचा लूंगा। जो वस्तु हमें मिली हैवह हमारी कैसे हो सकती है। भेंट तो भेंट ही होगी।शरीर प्रतिदिन क्षय होता जा रहा है। इसमें और हमारे स्वरूप में अंतर करना बुद्धिमानी होगी। जितना हम अपने आत्मस्वरूप पर टिकेंगेउतना ही अपने देह रूप से परिचित होते जाएंगे।

शरीर हमें इस संसार से जोड़ने के लिए बना और मिला है। संसार पंचतत्व यानी पृथ्वीजलअग्निवायु और आकाश से निर्मित है। शरीर के निर्माण में भी ये ही पंचतत्व सम्मिलित हैं। हमारी आत्मा से शरीर चिपकता हैमन के माध्यम से।मन चलता है विचार से।

विचार के प्राण हैं शब्द। इसलिए शब्द शून्य होने का अभ्यास करें।शब्दों का भी सेतु बन जाता है, जो हमारे स्वरूप और हमारी देह को जोड़ देता है। जैसे ही हम शब्द गिरा देंगेहम अपने बारे में सोचना बंद कर देंगे और देखना शुरू हो जाएगा। इस तरह सोचने में खर्चहोने वाली ऊर्जा सत्य दर्शन के काम आएगी।

स्वयं को देखने की यह क्रिया अध्यात्म में साक्षी साधना बन जाती है। स्वयं को देखते ही वास्तविक स्वरूप और देह का अंतर नजर आने लगेगा। यह परिणाम बीमारी के समय बड़ा काम आता है। हम देख सकेंगे कि बीमारी शरीर से जुड़ी है।यह परिपक्व भाव जागेगा कि मैं (आत्मस्वरूप) बीमार नहीं हूंमेरा शरीर बीमार है। यह भाव शरीर के शीघ्र स्वस्थ होने में मददगार साबित होगा। 

करें असली मुखिया की पहचान
धरती  की छाती जमकर बींधने के बाद भी उसके गर्भ में पर्याप्त पानी है। लेकिन इस पानी को भी ढूंढ़ना पड़ता है। आज भी लोग टोटकों का उपयोग करते हैं यह जानने के लिए कि धरती के किस हिस्से में पानी निकलेगा। 
यह हिसाब अपने व्यावसायिक प्रबंधन के जीवन पर भी लागू करिए। जब भी किसी व्यवस्था में प्रवेश करें या उसका अंग बनेंयह ध्यान रखिए कि बागडोर किसके हाथ में है। उस व्यक्तिस्थान या नियम के प्रति केंद्रित रहें। बिखरेबहके और बचकाने प्रयास बिलकुल न करें। व्यवस्थाओं में व्यक्ति का महत्व होता ही है। देख लें कि असली प्रमुख कौन है। कुछ प्रमुख लोग स्वयं को नेपथ्य में लेकर चलते हैं। कई मुखौटों वाले चेहरे के पीछे भी असली चेहरा किसी और का ही होता है। उसे ढूंढ़ें।

उसके इरादों को जानें और उसी पर केंद्रित रहें। ऐसे ही स्थान का महत्व है। प्रबंधन की भाषा में स्थान को पद भी कहा जा सकता है। प्राप्त होने के पहले इसके चयन में और प्राप्त हो जाने के बाद इसके निभाने में कोई कसर न छोड़ें। महत्वपूर्ण तीसरी बात है नियम। हर व्यवस्था में एक मूलभूतमूल्य आधारित नियम होता है। उसे समझें और अपनाएं।

ये तीनों बातें हम तब ठीक से कर पाएंगेजब हम स्वयं भीतर से इसका प्रयोग और पालन कर चुके होंगे। भक्ति एक कायदा हैयोग एक अनुशासन है। हर गतिविधि में कोई एक इंद्रिय प्रमुख होती है। उस पर इन तीनों प्रबंधन की तरह भीतर कार्य करें। हम पाएंगे कि हम अपने भीतर की अराजकताअव्यवस्था को समाप्त कर बाहर भी सफलता का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं। 

परमात्मा से जोड़े फकीरी का अंदाज 
फकीरी  कोई स्टेटस नहीं हैन ही यह कोई पहचान है और न ही जीवनशैली। यह है एक प्रवृत्ति। फकीरी का अंकुर फूटता है स्वभाव की जमीन पर। परमात्मा से जुड़ने के लिए फकीरी का अंदाज एक सेतु की तरह है। दरअसल ऊपरवाला सदैव स्वभाव में जीता है। 

संसार व्यवहार से चलता है और संसार बनाने वाला स्वभाव से। जब हम स्वभाव पर टिककर जीते हैं तो कई विशेषताओं में से एक दुर्लभ बात हमारे भीतर यह आ जाती है कि हम कोमल और कठोर दोनों जीवनशैली आसानी से जी लेते हैं। भीतर से कोमल होने का अर्थ यह नहीं है कि कायर हो गए और बाहर से कठोर होने का भी यह अर्थ नहीं है कि निष्ठुर हो गए। कोमलता हमें दूसरों का दुख देख पिघला देगी और कठोरता हमें बड़ी से बड़ी चुनौती में आत्मविश्वासी बनाएगी।

परमात्मा जब अवतार लेता है तो दुष्टों के प्रति वज्र से भी अधिक कठोर हो जाता है तथा भक्तों के प्रति पुष्प से भी अधिक कोमल बन जाता है। वैसे तो मनुष्य में भीतर और बाहर भेद नहीं होना चाहिएलेकिन एक भेद स्वीकार्य है। वह हैभीतर की कोमलता तथा बाहर की कठोरता। दूसरों के कष्ट में भीतर से व्यथित होना उसके कष्ट निवारण की प्रेरणा ही देगा। ऐसी कोमलता कमजोरी नहीं बल्कि दयासहृदयताकरुणा और प्रेम की जननी ही सिद्ध होगी। बाहर से कठोर दिखने पर लोग हमें गंभीर और अबूझ समझेंगे। भले ही लोग हमें मन की बात सबके सामने उजागर न करने वाला मानेंलेकिन हमारा उदारसहयोगीपरोपकारी आचरण सबको स्वीकार होगा ही। 

पंचतत्वों पर करते रहें विश्लेषण 
मनुष्य  के पास कुछ भी स्थायी नहीं होता। एक अस्थायी जमावट के साथ पूरी जिंदगी निकल जाती है। इस पूरी यात्रा में इसकी खोज भी जारी रखना चाहिए कि फिर स्थायी क्या है। अस्थायी की प्राप्ति के लिए इतना बड़ा उद्योग हैतो फिर स्थायी के लिए कुछ तो प्रयास करना चाहिए। 

आज जो हैउससे अधिक पा लिया जाएगा तो विकास होगा। प्रगति की ऐसी ही परिभाषाएं संसार में चलती हैं। लेकिन हम भूल जाते हैं कि जो स्थिति कल नहीं थीवह आज हो जाएगीतो मामला यहीं खत्म नहीं होगाकल ये फिर नहीं रहेगी। इसलिए सबसे पहले यह जाना जाए कि हम सदैव और अटल हैं।

यह जो आत्मा हैयही हम हैं। इसलिए हमारा संपर्क परमात्मा नामक अटल में होना आसान है। वह हमें पहले से मिला हुआ है। हम संसार से इतना जुड़ गए कि वह परमात्मा खो-सा गया है। हम बाहर ही बाहर इतना व्यस्त हो गए कि भीतर की यात्रा और आत्मस्वरूप के दर्शन ही दुर्लभ हो गए। उसके अनुभव का अभाव हो गया है।

चूंकि संसार संयोग से बनता हैअत: हमने भी इस दुनिया में संयोग बना लिया है। शरीर पंचतत्व से नहीं बनायह पंचतत्वों के मिलन से बना है। यह मिलना टूटा कि शरीर भी गया। इसलिए यदाकदा जीवन में पंचतत्वों की भूमिका पर विश्लेषण करते रहना चाहिए। पृथ्वीजलवायुअग्निआकाश की हमारे शरीर के साथ संयोग की जितनी समझ हमें होती जाएगीउतने हम शरीर और आत्मा की पृथकता को अच्छे-से जान लेंगे। यह विश्लेषण हमें शरीर की बुनियाद और आत्मा के शाश्वत स्वरूप से परिचित कराएगा।

भक्त की सुमति सत्य का साथ देने में है
मनुष्य  का सबसे बड़ा शत्रु कौन है। सतही तौर पर इस सवाल के जवाब की लंबी सूची होगीलेकिन गहराई में एक ही जवाब होगा - इंसान खुद का सबसे बड़ा शत्रु है। हमने अपने कुछ इतने नुकसान कर डाले हैंजो शायद हमारा शत्रु भी नहीं कर पाया होगा। चलिएसुंदरकांड के रावण को देखें।

बड़े-बड़े शत्रुओं को पराजित करने वाला खुद अपना ही शत्रु बन बैठा था। सुंदरकांड में उसेउसी के दरबार में कुछ लोग सुंदर तरीके से समझा रहे थे। विभीषण अपने बड़े भाई को अब सिद्धांतों का उदाहरण देकर समझाने लगते हैं। सुमति कुमति सब के उर रहहीं।

नाथ पुरान निगम अस कहहीं।। जहां सुमति तहं संपति नाना। जहां कुमति तहं बिपति निदाना।। यानीहे नाथ पुराण और वेद ऐसा कहते हैं कि सुबुद्धि(अच्छी बुद्धि) और कुबुद्धि(खोटी बुद्धि)सबके हृदय में रहती हैजहां सुबुद्धि हैवहां नाना प्रकार की संपदाएं (सुख की स्थिति) रहती हैं और जहां कुबुद्धि हैवहां परिणाम में विपत्ति (दुख) रहती है। यह बात विभीषण ने हनुमानजी से सीखी थी। 

श्रीहनुमानचालीसा में तुलसीदासजी ने हनुमानजी के लिए लिखा है- 
कुमति निवार सुमति के संगी। अक्ल की बात सुनकर उसे सही जगह इस्तेमाल करना सबसे बड़ी अक्ल हैअन्यथा कोरा ज्ञान मानसिक बोझ को बढ़ाने में ही काम आएगा। यही विभीषण कर रहे थे। रावण को भी लगता है कि मेरा छोटा भाई मेरा तो थापर भीरू था। इसके आचरण में दीनता थीअब आक्रामक विचारवान कैसे हो गया। दरअसल हनुमानजी उन्हें यह समझा गए थे कि भक्त की सुमति यही है कि वह सत्य का साथ दे। 

अपने अहंकार को मिटाना होगा
आक्रमण हमेशा हथियार से होयह जरूरी नहीं होता। कुछ लोगों का व्यवहार ही उनका शस्त्र बन जाता है। मूर्ख और अहंकारी लोगों से सदैव सावधान रहना चाहिए। ये गुण दिख भी सकते हैं और नहीं भी। हमारे पारिवारिक और सामाजिक जीवन में ऐसे व्यक्ति आते रहेंगे। ध्यान रखेंतलवार के सामने जरूरी नहीं है कि तलवार ही निकाल ली जाए।

कई बार तलवार के आक्रमण के सामने शरीर को मोडऩाबचाना भी युद्ध का हिस्सा होगा। तीर को अपने ऊपर झेलना और डंडे को छाती चौड़ी कर अपने से टकरा देना समय और ऊर्जा दोनों खर्च करने जैसा होगा। जब हम अहंकारी और मूर्ख व्यक्तियों के सामने होंतो इन विधियों का उपयोग करें। जिसके मूल में अहंकार होगाउसकी सतह पर क्रोध होगा ही।

ऐसे लोग स्थितियों की वास्तविकता को न समझकर अपने हिसाब से हालात को मानकर चलते हैं। यह व्यवहार उनके क्रोध में मूर्खता का तड़का लगा देता है। वे अपने क्रोध का कारण दूसरों में देखते हैंजबकि अपने अहंकार के मूल को भूल जाते हैंयही मूर्खता है। ऐसे लोग जब हमारे जीवन में आएंजो बात-बात पर अकारण क्रोधी होंचिड़चिड़े होंतो दो काम होंगे।

उनका रिफ्लेक्शन हमें भी उनके जैसा बना सकता है। बड़ी बात नहीं है कि हम अपने आपको थोड़ी देर बाद एक आईने के सामने खड़ा पाएं। दोनों एक जैसी हरकत करने लगें। प्रतिक्रिया के रूप में किया गया हमारा क्रोध उनके अहंकार को पोषित करेगाबढ़ाएगा। उस समय हमें हमारे मूल से अहंकार को मिटाना होगातब बाहर हमारा क्रोध स्वत: गायब होगा। 

अव्यवस्थित जीवन एक धीमा जहर
जीवन  में कुछ स्वाद अचानक भी प्रवेश कर जाते हैं। धीरे-धीरे ये अपनी जगह बनाकर आदत बन जाते हैं। बहाना बनाना ऐसा ही एक खतरनाक स्वाद है। इसकी शुरुआत होती है अस्त-व्यस्त जीवनशैली से। अव्यवस्थित रहने की आदत पड़ जाए तो मनुष्य बहाने बनाना आसानी से सीख जाता है। आप यदि अव्यवस्थित हैं तो आपके आसपास के लोग निश्चित ही आपको विश्वसनीय नहीं मानेंगे।

अव्यवस्थित रहना एक धीमा जहर है। अव्यवस्थित व्यक्ति एक तरह से बेहोश ही रहता है। जो लोग इस दोष से मुक्ति पाना चाहेंवे इसके समापन की शुरुआत आरंभ से ही करें। किसी अव्यवस्थित हो रहे कार्य को बीच में व्यवस्थित करना कठिन हो जाता है।

व्यवस्थित रहने की शुरुआत सुबह उठने से प्रारंभ करें। जो लोगखासतौर पर बच्चे यदि लापरवाह होंउन्हें सुधारने के लिए उनकी दिनचर्या में सुबह उठने से प्रयास प्रारंभ करें। यह सुनिश्चित अनुभव है कि सही समय पर की गई शुरुआत मार्ग की कठिनाइयों को काफी हद तक सुगम कर देगी।

प्रात: उठना और रात सोने की क्रिया को जो लोग व्यवस्थित कर लेंगेउन्हें अन्य मौकों पर व्यवस्थित होने में सुविधा होगी। तीसरा मौका तब होता हैजब आप पूजा करने बैठते हैं। इस पूरी क्रिया को बड़ी सावधानी से करें। यह वह अवसर होता हैजब आपके आसपास दिव्य शक्ति काम कर रही होती है।

जैसे उठते और सोते समय हमारी ऊर्जा हमारे सर्वाधिक निकट होती है। इस समय बिल्कुल हड़बड़ाहटजल्दबाजी न करें। व्यवस्थित रहना आज के दौर में और भी जरूरी हैक्योंकि बाहर सब तेजी से गतिमान है और भीतर से शांति के तरीके हम खोते जा रहे हैं।

भीतर से हल्का होने की कसरत है आंसू
जानवर  और इंसान में जितने फर्क हैंउनमें एक बड़ा फर्क यह है कि जानवर एक निश्चित रूपक्रिया और तरीके से व्यवहार करता है। जबकि मनुष्य की गतिविधियां अचानक और अनपेक्षित होती हैं।

जानवरों का शिकार करने वाले लोग इस मनोविज्ञान को जानते हैं कि पशु का व्यवहार अधिकांश मौकों पर तयशुदा रहता है। अत: उसे एक फ्रेम के तहत मारना या पकडऩा आसान होता है। पशु लाचार होता है केवल इसीलिए शिकार नहीं बनताबल्कि कभी-कभी उसकी लापरवाही भी उसको फंसा देती है।

इस मामले में मनुष्य का व्यवहार तयशुदा नहीं होतालिहाजा उसे शिकार बनाना कठिन होता है। मनुष्य कई तरीके से एक-दूसरे को फंसाता है। उनमें से एक विधि है आंसू। आंसू को भी लोगों ने हथियार बना लिया है। यह केवल प्रदर्शन की क्रिया ही नहींबल्कि प्रहार का माध्यम भी है। आदमी और औरत ने इसका अलग-अलग इस्तेमाल किया है।

वैसे सामान्य रूप से रोना भीतर से हल्का होने की कसरत जैसा है। लेकिन आदमियों ने सोच लिया है कि यह काम तो औरतों का है। इस कारण वे कठोर होते गए और उनकी कुछ बीमारियां स्त्रियों से अलग बनती गईं। हार्ट अटैक इसीलिए स्त्रियों के मुकाबले पुरुषों को ज्यादा होता है। स्त्रियों के आंख के आंसू भीतर से उन्हें हल्का बना देते हैं।

स्त्री हो या पुरुष आंसू के मामले में एक काम समान रूप से करेंएकांत कमरे में परमात्मा के सामने कभी-कभी आंसू जरूर गिरा दें। परमशक्ति के समक्ष गिरे आंसू अमृत से कम नहीं होंगे। और संसार के लिए बहाए आंसू व्यर्थ ही मान लें।

बिना कारण उदास रहना ठीक नहीं
कुछ  लोग दुखी होते नहींरहते हैं। हालात बाहर से बिगड़ जाएं और मनुष्य दुखी हो तो फिर भी समझ में आता है। इसे दुखी होना कहेंगे। लेकिन सब ठीक हो फिर भी अकारण मन को उचाट रखेंइसे दुखी रहना कहा जाएगा।

ये लोग उदासी को रक्त में बहा लेते हैं। परेशान रहना इनके सिस्टम में आ जाता है। ये पलकें भी झपकाएंगे तो परेशानी के साथ। ये अपने उठनेबैठने और लेटने में भी परेशानी को जोड़ लेते हैं। ये मौकों की तलाश में रहते हैं कि किसी तरह दुखी हो जाएंयदि मौका न मिले तो खुद बना लेते हैं।

परमात्मा द्वारा दी गई सृजन-शक्ति का दुरुपयोग करते हुए ये लोग दुखों का सृजन करने लगते हैं। हर हाल में परेशान रहना इनके लिए जन्मसिद्ध अधिकार-सा हो जाता है। धीरे-धीरे एक बीमारी ये लोग और पाल लेते हैंवह है अपने दुख का कारण दूसरों को मानना।

ये मानकर चलने लगते हैं कि यदि घटना में दूसरे नहीं होते तो ये दुखी भी नहीं रहते। दूसरे को दोषी बनाने या मानने में ये उस बची-खुची ऊर्जा को भी नष्ट कर देते हैंजो इन्हें सुखी बना सकती थी। जब कभी हमारा सामना ऐसे लोगों से हो या हमारे ही भीतर हमें स्वयं में ऐसा व्यक्तित्व नजर आए तो फौरन अपनी सांस पर काम करिए।

दुख का कारण दूसरे हैं यह विचार सांस से प्रवेश कर रग-रग में घुलता है। आप किसी नाममंत्र या गुरुमंत्र से सांस को जोड़कर नाभि तक अपने भीतर लाएं और बाहर फेंके। विचारशून्य सांस लें और स्वयं पर केंद्रित हो जाएं। यहीं आप अपने दुख का कारण अपने में देख पाएंगे। और यही सुख की ओर उठा पहला कदम होगा।

सफलता में सभी भागीदार बनें
कुछ बातें प्रदर्शन के बिना आकार ही नहीं ले पाती हैं। वहींकुछ बातें प्रदर्शन करते ही अपना स्वरूप खो बैठती हैं। संसार में प्रदर्शन को बड़ा महत्व दिया जाता है। कभी-कभी तो दिखावा ही योग्यता बन जाता है। दौलत और देह दोनों को वस्तु की तरह दर्शाया जाता है।

दुनिया में यह दिखावा अहंकार और अवसाद दोनों को बढ़ाता है। इसी प्रकार जब उपलब्धि आध्यात्मिक होती है तो इसका प्रदर्शन नहीं हो सकता। यह अनुभूति व्यक्त करते ही अपना स्वादअपने अर्थ खो देती है। अध्यात्म में जो अव्यक्त हैवही महत्वपूर्ण है। हांइस अनुभूति को बांटा तो जा सकता हैलेकिन बयान नहीं किया जा सकता।

सफलता एक तरह से ऊपर चढ़ना ही है। हम सफलता की सीढ़ी कितनी ही चढ़ जाएंपर इसे अपने माथे पर न चढ़ने दें। विजय तिलक भले ही मस्तक पर होपर जीत सिर पर नृत्य न करने लगेवरना जिस दिमाग ने हमें सफलता दिलाई है उसे खराब होने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। सफलताएं प्रदर्शन की मांग करती हैं। प्रदर्शन में एक गतिशीलता लगती है। जबकि जब भी हम जीवन के जिस भी क्षेत्र में सफल होंथोड़ा-सा जरूर रुक जाएं। यह रुकना जीवन में निरहंकारिता साधन के लिए होना चाहिए।

सतत गतिशीलता भी एक अति आत्मविश्वास पैदा कर देती हैजो भविष्य के लिए घातक हो सकता है। अनिर्धारित गति जीवन का संतुलन बिगाड़ देगी। इसलिए अपनी सफलता को प्रदर्शन की जगह बांटने से जोड़ें। विचार करें कि सफलता भले ही हमें मिली होलेकिन सब इसमें भागीदार बनें। और अंतिम सत्य भी यही है कि हम सब एक हैं।

खुद को बचाकर ईश्वर नहीं मिलता
खुद  को बचाकर ईश्वर नहीं मिलता। यहां बचाने का अर्थ है स्वयं के प्रति मोहअपने झूठे मैं’ को ही अपना अस्तित्व मान लेना। जब अपने से लगाव में कटाव किया जाता हैतब उस परमशक्ति की ओर चलना हो सकता है।

स्वयं से कटने के लिए हमारे पूर्वजों ने एक अनूठा प्रयोग कियाकिस्से-कहानियां सुनाने का। कथाओं की पंक्तियों में पात्रों को लेकर जो रहस्य होता हैउसी में हम स्वयं को खो देते हैं। सुंदरकांड में विभीषण अपने भाई रावण को परत-दर-परत समझा रहे थे। उनकी समझाइश कहानी कहने जैसी थी। उनकी पंक्तियों में सीताजी एक प्रमुख पात्र थीं। विभीषण से जब हनुमानजी पहली बार मिले थेतब उन्होंने इसी शैली में समझाया था।

विभीषण के सामने सीताजी को एक महत्वपूर्ण पात्र के रूप में रखा था। विभीषण यही प्रयोग करते हुए रावण से कहते हैं- तव उर कुमति बसी बिपरीता। हित अनहित मानहु रिपु प्रीता।। कालराति निसिचर कुल केरी। तेहि सीता पर प्रीति घनेरी। यानीआपके हृदय में उल्टी बुद्धि आ बसी है। इसी से आप हित को अहित और शत्रु को मित्र मान रहे हैं। जो राक्षसकुल के लिए कालरात्रि के समान हैंउन सीता पर आपकी बड़ी प्रीति है।

विभीषण चाहते थे कि रावण खुद को बचाए,  यानी अहंकार से रहित हो। तब ही वह सीताजी की ओर सही रूप से चलेगा और उनके माध्यम से श्रीराम तक पहुंचेगा। सीताजी को विभीषण काल रात्रि बताकर रहस्यमयी भाषा ही बोल रहे थे। परंतु रावण सुनने और कहने में पूरी तरह से एक तरफा ही हो चुका था।

क्रमश:...

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है......MMK 



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