Friday, January 11, 2013

Jainism( जैन धर्म)

ऐसे जन्मा जैन धर्म
जैन शब्द का अर्थजैन शब्द 'जिन' से बना है। जिसका अर्थ है वह पुरुष जिसने समस्त मानवीय वासनाओं (भोग प्रवृत्तियों) पर विजय प्राप्त कर ली है। अर्थात् जिसने अपने मन को जीत लिया हो तथा सांसारिक इच्छाओं पर नियंत्रण कर लिया हो। तीर्थंकर इन्हीं गुणों से पूर्ण थे, अत: इनके द्वारा चलाया गया धर्म जैन धर्म कहलाया।

जैन धर्म का प्रारंभ एवं इतिहास जैन धर्म के अनुयायियों (मानने वाले) की मान्यता है कि उनका धर्म अनादि (अनंत समय पहले का) और सनातन है। सामान्यत: लोगों में यह मान्यता है कि जैन पंथ का मूल उन प्राचीन पंरपराओं में रहा होगा, जो आर्यों के आगमन से पूर्व इस देश में प्रचलित थीं। किंतु यदि आर्यों के आगमन के बाद से भी देखें तो ऋषभदेव और अरिष्टनेमि को लेकर जैन धर्म की परंपरा वेदों तक पहुंचती है। महाभारत के युद्ध के समय, इस संप्रदाय के प्रमुख नेमिनाथ थे, जो जैन धर्म में एक तीर्थंकर हैं। ई.पू. आठवीं सदी में 23वें तीर्थंकर पाश्र्वनाथ हुए, जिनका जन्म काशी में हुआ था। काशी के पास ही 11वें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ का जन्म हुआ था। इन्हीं के नाम पर सारनाथ का नाम प्रचलित है। जैन धर्म में श्रमण- संप्रदाय का पहला संगठन पाश्र्वनाथ ने किया था। ये श्रमण वैदिक परंपरा के विरुद्ध थे। महावीर तथा बुद्ध के काल में ये श्रमण कुछ बौद्ध तथा कुछ जैन हो गए। इन दोनों ने अलग-अलग अपनी शाखाएं बना ली। भगवान महावीरजैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर वर्धमान हुए, जिनका जन्म ई.पू. 599 में हुआ था। 72 वर्ष की आयु में देहत्याग किया।

महावीर स्वामी ने शरीर छोडऩे से पूर्व जैन धर्म की नींव काफी मजबूत कर दी थी। अहिंसा को उन्होंने जैन धर्म में अच्छी तरह स्थापित कर दिया था। सांसारिकता पर विजयी होने के कारण वे जिन (जयी) कहलाये। उन्हीं के समय से इस संप्रदाय का नाम जैन हो गया। अशोक के अभिलेखों से यह पता चलता है कि उसके समय में मगध में जैन धर्म का प्रचार था। लगभग इसी समय, मठों में बसने वाले जैन मुनियों में यह मतभेद शुरू हुआ कि तीर्थंकरों की मूर्तियां कपड़े पहनाकर रखी जाए या नग्न अवस्था में। इस बात पर भी मतभेद था कि जैन मुनियों को वस्त्र पहनना चाहिए या नहीं। आगे चलकर यह मतभेद और भी बढ़ गया। ईसा की पहली सदी में आकर जैन-मतावलंबी (जैन धर्म को मानने वाले) मुनि दो दलों में बंट गए। एक दल श्वेतांबर कहलाया जिसके साधू सफेद वस्त्र (कपड़े) पहनते थे, और दूसरा दल दिगंबर कहलाया जिसके साधु नग्न (बिना कपड़े के) ही रहते थे।

जैन धर्म का प्रचार-प्रसार ईसा की पहली शताब्दीं में क लिंग के राजा खारावेल ने जैन धर्म स्वीकार किया। ईसा की आरंभिक सदियों में उत्तर में मथुरा और दक्षिण में मैसूर जैन धर्म के बहुत बड़े केंद्र थे। पांचवीं से बारहवीं शताब्दीं तक दक्षिण के गंग, कदम्बु, चालुक्य और राष्ट्रकूट राजवंशों ने जैन धर्म के प्रचार -प्रसार में बहुत सहयोग एवं सहायता प्रदान की। इन राजाओं के यहां अनेक जैन कवियों को आश्रय एवं सहायता प्राप्त होती थी। ग्याहरवीं सदी के आसपास चालुक्य वंश के राजा सिद्धराज और उनके पुत्र कुमारपाल ने जैन धर्म को राजधर्म बना दिया तथा गुजरात में उसका व्यापक प्रचार-प्रसार किया। हिंदी के प्रचलन से पूर्व अपभ्रंश भाषा का प्रयोग होता था। अपभ्रंश भाषा के कवि, लेखक एवं विद्वान हेमचंद्र इसी समय के थे। हेमचंद्र कुमार पाल के दरबार में ही थे। सामान्यत: जैन मतावलंबी शांतिप्रिय स्वभाव के होते थे। इसी कारण मुगल शासन काल में इन पर अधिक अत्याचार नहीं होते थे। उस समय के साहित्य एवं अन्य विवरणों से प्राप्त जानकारियों के अनुसार अकबर ने जैन अनुयाइयों की थोड़ी बहुत मदद भी की थी। मगर धीरे-धीरे जैनियों के मठ टूटने एवं बिखरने लगे। जैन धर्म मूलत: भारतीय धर्म है। भारत के अतिरिक्त पूर्वी अफ्रीका में भी जैन धर्म के अनुयायी रहते हैं।

यह सिखाता है जैन धर्म
जैन धर्म का सारमनुष्य को सदैव सत्कर्म करना चाहिए। जीवन का हर क्षण आत्मज्ञान (कैवल्य) की प्राप्ति में लगाना चाहिए। सत्य, प्रेम, अहिंसा, दया, करुणा, परोपकार, एवं सेवा जैसे उच्च सात्विक गुणों को अवश्य ही जीवन में अपनाना चाहिए। भोग-विलास से दूर रहकर प्रत्येक कर्म पवित्र एवं सात्विक ही करना चाहिए। नैतिक जीवन अपनाकर ही मनुष्य इस माया (जन्म-मरण का चक्र) के बंधन से मुक्त हो सकता है।

जैन धर्म की प्रमुख मान्यताएं एवं सिद्धांतजैन धर्म के धार्मिक उपदेश मूलत: नैतिक मूल्यों पर आधारित है। इन उपदेशों में अधिकतर पाश्र्वनाथ और महावीर की शिक्षाएं हैं। पाश्र्वनाथजी के अनुसार चार महाव्रत है- 1. अङ्क्षहसा, 2. सत्य, 3. अस्तेय और 4. अपरिग्रह। चौबीसवें तीर्थंकर वर्धमान महावीर इन महाव्रतों में ब्रह्मचर्य को भी जोड़ा। इस प्रकार जैन धर्म के पांच महाव्रत हो गए हैं। जैन धर्म में भिक्षुओं के लिए इन पांच महाव्रतों का पालन करना अत्यंत आवश्यक है। अहिंसावास्तव में जैन धर्म का मूल आधार अहिंसा ही है। मन वचन और कर्म से किसी को दु:ख या कष्ट न पहुंचाना ही अहिंसा है। जीवधारियों को इंद्रियों की संख्या के आधार पर वर्गीकृत किया गया है। जिनकी इंद्रियां जितनी कम विकसित हैं, उनको शरीर त्याग में उतना ही कम कष्ट होता है। इसलिए एक इंद्रिय जीवों जैसे: वनस्पति, कंद, फूल-फल आदि को ही जैनधर्मी ग्रहण करते हैं। जैन धर्म में आचार-विचार का बड़ा ध्यान रखा जाता है। छोटे से छोटे व्यवहार के लिए भी धार्मिक एवं नैतिक नियमों का विधान किया गया है।

जैन धर्म की मान्यताएं जैन धर्म की मान्यताओं के अनुसार विश्व सदैव से है, सदैव रहा है और सदैव बना रहेगा। जैन धर्म के अनुसार यह विश्व दो अंतिम, सनातन और स्वतंत्र पदार्थों में विभक्त है, वे हैं- 1. जीव और 2. अजीव। इन पदार्थों में एक जड़ है और दूसरा चेतन। जैन धर्म में अजीव के पांच प्रकार बताए गए हैं।

1. पुद्गल (प्रकृति)
2. धर्म (गति)
3. अधर्म (अगति अथवा लय)
4. आकाश (देश)
5. काल (समय)

जैन धर्म की मान्यताओं के अनुसार संपूर्ण जीवधारी आत्मा तथा प्रकृति के सूक्ष्म मिश्रण से बने हैं। उनमें संबंध जोडऩे वाली कड़ी कर्म है। कर्म सिद्धांतकर्म के आठ प्रकार और अगणित उप प्रकार हैं। कर्म के फल से जुड़े होने के कारण ही आत्मा को अनेक शरीर धारण करने पड़ते हैं, और इसी कारण आत्मा जन्म-मरण के बंधन में फंस जाता है। जैन धर्म में पाश्र्वनाथ के उपदेश को चातुर्याम सम्वर-संवाद कहते थे। ये चातुर्याम संवाद थे।

1. हिंसा का त्याग
2. असत्य का त्याग
3. स्तेय का त्याग
4. परिग्रह का त्याग।

महत्वपूर्ण बात यह है कि पाश्र्वनाथ के पूर्व, अहिंसा केवल तपस्वियों के आचरण में सम्मिलित थी, किंतु पाश्र्वनाथ मुनि ने अहिंसा को सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह के साथ जोड़कर सभी के लिए व्यवहारिक बना दिया।

जैन धर्म का दर्शन एवं स्वरूप
जैन धर्म और दर्शन का उद्देश्य है आत्मा को प्रकृति के मिश्रण से मुक्त कर उसको कै वल्य (पूर्णत: मुक्त एवं पवित्र) की स्थिति में पहुंचाना। इस कैवल्य की अवस्था में कर्म के बंधन टूट जाते हैं और आत्मा अपने को प्रकृति के बंधनों से मुक्त करने में समर्थ हो जाता है। इसी अवस्था को मोक्ष भी कहा जाता है। मोक्ष की इस अवस्था में समस्त दु:ख, भय, अभाव एवं कष्ट समाप्त हो जाते हैं और आत्मा स्थायी और अटूट परमानंद की अवस्था में पहुंच जाता है। मोक्ष के संबंध में जैन धर्म की यह मान्यता वैदिक मान्यता से भिन्न है। वेदांत के अनुसार मोक्ष की अवस्था में आत्मा का ब्रह्म के साथ पूर्णत: मिलन हो जाता है और आत्मा का पृथक कोई अस्तित्व नहीं बचता।

जबकि जैन धर्म एवं दर्शन के अनुसार कै वल्य या मोक्ष की अवस्था में भी आत्मा का अपना निजी अस्तित्व एवं स्वरूप बना रहता है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा स्वभावत: निर्मल और प्रज्ञ है। प्रकृति के संपर्क के कारण ही आत्मा अज्ञानता, माया और कर्म के बंधन में पड़ जाता है। कैवल्य ज्ञानकैवल्य की प्राप्ति के लिए केवल ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। इसके उपाय हैं- 1. सम्यक् दर्शन (तीर्थंकरों में पूर्ण श्रद्धा), 2. सम्यक् चारित्र्य (पूर्ण नैतिक आचरण और सम्यक् ज्ञान (शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान): जैन धर्म बिना किसी बाहरी सहायता के स्वयं अपने पुरुषार्थ द्वारा ही आत्म कल्याण प्राप्त करने का मार्ग बतलाता है। जैन धर्म एवं दर्शन ने भारतीय धर्म एवं दर्शन को भी कई प्रकार से प्रभावित किया। आचार-शास्त्र में नैतिक आचरण, विशेषकर अहिंसा को इससे नया बल मिला। जैन-दर्शन 'आस्रव के सिद्धांत में विश्वास करता है, जिसका अर्थ यह है कि कर्म के संस्कार, क्षण-क्षण प्रवाहित हो रहा है। कर्म के इन संस्कारों का प्रभाव जीव पर क्षण-क्षण पड़ता जा रहा है। संस्कारों के इस प्रभाव से बचने का यही उपाय है कि मनुष्य चित्त-तृत्तियों का निरोध (रोकथाम) करें, मन को विवेक के द्वारा काबू में लाए। योन की समाधि का अवलंबन और तपश्चर्या में लीन रहना भी जैन दर्शन की मान्यता है।

आत्म ज्ञान प्राप्ति का मार्ग कैवल्य प्राप्ति की साधना के लिए जैन धर्म एवं दर्शन में, सात सोपानों (सीढिय़ों) का उल्लेख किया गया है। ये सात सोपान ही जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष नामक सात तत्व है। जीव आत्मा है। अजीव वह ठोस द्रव्य (शरीर) है, जिसमें आत्मा निवास करती है। जीवन और अजीव का मिलन ही संसार है। अतएव मोक्ष साधना का मार्ग यह है कि जीव (आत्मा) को अजीव (पदार्थ) से पृथक कर दिया जाए। आत्मा और परमात्मा के बीच की माया की दीवार को गिराकर की कै वल्य या मोक्ष की स्थिति प्राप्त की जा सकती है। किंतु जीव-अजीव से बंधा कैसे है? इसका उत्तर 'आस्रव है। विभिन्न कर्मों के करने से जो संस्कार प्रकट होते हैं, उसी के कारण जीव अजीव से बंध जाता है। अतएव इस बंधन को नष्ट करने का उपाय यह है कि जीव कर्मों से क्षरित (उत्पन्न) होने वाले संस्कारों से अलिप्त (पृथक) रहने का प्रयत्न करें। यह प्रक्रिया 'संवर कहलाती है। पर इनता प्रयास ही पर्याप्त नहीं है। आत्मा को तो पूर्व जन्मों के संस्कार भी घेरे रहते हैं, एवं प्रभावित करते हैं। इन पूर्व जन्मों के संस्कारों से मुक्त हाने या छूटने की साधना का नाम 'निर्जरा' है। जीवन रूपी नोका में छेद है। जिनसे उसमें पानी भरता जा रहा है। छेदों को बंद करना ही 'संवर' साधना है और जीवन रूपी नाव में पहले से ही जो पानी (पूर्व जन्मों के संस्कार) भरा हुआ है, उसे उलीचने का नाम निर्जरा है। संवर और निर्जरा के द्वारा जिसने अपने को 'आस्रवो' (संस्कारों) से मुक्त कर लिया वही मोक्ष का अधिकारी है।

मोक्ष की साधनाजैन दर्शनों में मोक्ष (कैवल्य) की साधना केवल सन्यासी ही कर सकते हैं। इन सन्यासियों को जैन धर्म में पांच कोटियों (श्रेणियों) में बांटा गया है। जिनका समन्वित नाम पंच परमेष्ठी है। ये पंच परमेष्ठी हैं: अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु। साधुओं को उपदेश देने वाले उपाध्याय और आचार्य कहलाते हैं। सिद्ध वह है जिसने शरीर छोड़कर मोक्ष प्राप्त कर लिया है और अर्हत् तीर्थंकरों को कहते हैं। अर्हत् तो चौबीस ही हुए हैं, किंतु सिद्ध कोई भी जीव हो सकता है, जिसकी सांसारिक विषय वासनाएं, भोग-विलास की लिप्साएं छूट गई हैं। जो सुख-दुख से ऊपर उठ गया, जिसकी इंद्रियां वशीभूत है वह सिद्ध है। सिद्ध की कोटि परमात्मा की कोटि है। वैदिक दर्शन एवं जैन दर्शन में यह भेद है कि वैदिक धर्म में परमात्मा का मात्र एक ही माना गया है, जबकि जैन धर्म के अनुसार जो भी व्यक्ति सिद्ध हो गया, वह स्वयं परमात्मा है।

जैन धर्म की प्रमुख शाखाएं

जैन धर्म की प्रमुख शाखाएंजैन धर्म की दो प्रमुख शाखाएं हैं। पहली शाखा है दिगंबर और दूसरी शाखा श्वेतांबर कहलाती है। दिगंबर:'दिगंबर' का अर्थ है दिक् (दिशा) है अंबर (वस्त्र) जिसका अर्थ है नग्न। अपरिग्रह और त्याग का यह चरम उदाहरण है। दिगंबर स्वरूप के पीछे का दर्शन संपूर्ण त्याग है। संपूर्ण त्याग अर्थात् किसी भी प्रकार का संग्रह, यहां तक कि शरीर के वस्त्रों का भी त्याग। जैनियों की दिगंबर शाखा की मान्यता है कि स्त्रियों को मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता क्योंकि वे वस्त्र का पूर्णत: त्याग नहीं कर सकती। दिगंबरों के तीर्थंकरों की मूर्तियां पूर्णत: नग्न होती है। दिगंबर शाखा के अनुयायी श्वेतांबरों द्वारा मानित अंग साहित्य को भी प्रमाणिक नहीं मानते। श्वेतांबरश्वेतांबर का अर्थ है 'श्वेत (वस्त्र) है आवरण जिसका। श्वेतांबर शाखा के अनुयायी वस्त्रों के पूर्ण त्याग अर्थात् नग्नता को अधिक महत्वपूर्ण नहीं मानते। श्वेतांबरों द्वारा स्थापित मूर्तियां नग्न नहीं होती बल्कि वे कच्छ धारण करती है। जैन धर्म में एक तीसरी उपशाखा सुधारवादी स्थानकवासियों की है, जो मूर्ति पूजा की विरोधी है। यह शाखा आदिम सरल स्वच्छ व्यवहार तथा सादगी की समर्थक है। इन्हीं की एक शाखा तेरह पंथियों की है जो इनसे उग्र सुधारक है।

जैन धर्म में तीर्थंकर

जैन धर्म में उन 'जिनों' एवं महात्माओं को तीर्थंकर कहा गया है, जिन्होंने असंख्य जीवों को इस संसार से तार (उद्धार करना) दिया है। तीर्थ कहते हैं घाट को, किनारे को। धर्म तीर्थ को प्रवर्तन करने वाले 'तीर्थंकर' कहे जाते हैं। जो इस प्रकार है:

1. श्री ऋषभ देव
2. श्री अजितनाथ
3. श्री संभवनाथ
4. श्री अभिनंदन
5. श्री सुमतिनाथ
6. श्री पदमप्रभु
7. श्री सुपाश्र्वनाथ
8. श्री चंद्रप्रभ
9. श्री पुष्पदंत
10. श्री शीतलनाथ
11. श्री श्रेयांसनाथ
12. श्री वासुपूज्य
13. श्री विमलनाथ
14. श्री अनंतनाथ
15. श्री धर्मनाथ
16. श्री शांतिनाथ
17. श्री कुन्थुनाथ
18. श्री अरहनाथ
19. श्री मल्लीनाथ
20. श्री मुनि सुव्रत
21. श्री निमिनाथ
22. श्री अरिष्टनेमि
23. श्री पाश्र्वनाथ
24. श्री महावीर स्वामी

हमारे कर्मों का फल: सुख-दुख

मानवता की रक्षा के लिए भारतीय इतिहास में कई बार दिव्य शक्तियों का अवतरण हुआ है। समाज में जब-जब अधर्म, पाप, अनाचार, बुराइयां, कुरुतियों ने पैर पसारे हैं तब-तब इन दिव्य शक्तियों ने मानवता को इनसे बचाया है। करीब 600 ईसा पूर्व ऐसे ही एक समय आया जब चारो ओर पाप, अधर्म और बुराइयां व्याप्त हो गई। लोगों के मन से दया, करुणा की भावनाएं क्षीण होने लगी तभी जन्म हुआ भगवान महावीर का।

महावीर स्वामी का संक्षिप्त परिचयत्याग एवं तपस्या की मूर्ति महावीर का जन्म चैत्र मास में शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को वैशाली नगर (बिहार) के एक राज परिवार में हुआ। इनके पिता सिद्धार्थ एवं माता त्रिशाला थी। बालक का नाम रखा गया वद्र्धमान। ऐसा कहा जाता हैं कि जब वर्धमान के जन्म के समय उनकी माता त्रिशाला को 14 अद्भूत स्वप्न आए, जिससे माता को आभास हो गया था कि यह संतान कोई दिव्य शक्ति है।

वद्र्धमान का प्रारंभिक जीवन पूर्णतया राजसी था। फिर भी उनकी रूचि इन सुख-सुविधाओं में नहीं थी। उनका मन तो जीवन-मृत्यु क्यों, सुख-दुख क्यों जैसे रहस्यों की खोज में लगा रहता था। इसी अरूचि और जीवन के रहस्यों को खोजने के लिए वे 30 वर्ष की आयु में वन को प्रस्थान कर गए। वन में उन्होंने 12 वर्षों तक कठोर तपस्या की। तब उन्हें केवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई और इसके बाद ही वद्र्धमान भगवान महावीर कहलाए। भगवान महावीर सत्य, अङ्क्षहसा, अपरिहर्य, क्षमा, दया, करुणा, ब्रह्मचर्य जैसे गुणों की साक्षात मूर्ति ही थे। महावीर स्वामी को जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर माना गया है। उन्होंने हिंसा, पशुबलि पर रोक लगवाई, जाति-पांति के भेदभाव को दूर किया। पावापुरी में कार्तिक मास की कृष्ण अमावस्या पर भगवान महावीर ने 72 वर्ष की आयु निर्वाण प्राप्त किया।

महावीर स्वामी के लाइफ मैनेजमेंट के सूत्र:
मानव जीवन को सरल और महान बनाने के लिए महावीर स्वामी ने कई अमूल्य शिक्षाएं दी हैं। जिनमें सत्य को अपनाना, अहिंसा, अपरिहर्य, क्षमा, दया, करुणा, ब्रह्मचर्य, अधर्म को त्यागना शामिल है। उन्होंने त्याग, संयम, प्रेम, करुणा, शील, सदाचार का पवित्र संदेश फैलाया। भगवान महावीर ने चतुर्विध संघ की स्थापना की। महावीर स्वामी की शिक्षाएं:

सत्य: सत्य ही सच्चा तत्व है। वह बुद्धिमान प्राणी है जो सत्य को अपनाता है। सत्य का साथ देने से ही मनुष्य मृत्यु को तैरकर पार कर जाता है।

अहिंसा: संसार में जो भी जीव निवास करते हैं उनकी हिंसा नहीं और ऐसा होने से रोकना ही अहिंसा है। सभी प्राणियों पर दया का भाव रखना और उनकी रक्षा करना।

अपरिग्रह: जो मनुष्य सांसारिक भौतिक वस्तुओं का संग्रह करता है और दूसरों को भी संग्रह की प्रेरणा देता है वह सदैव दुखों में फंसा रहता है। उसे कभी दुखों से छुटकारा नहीं मिल सकता।

ब्रह्मचर्य: ब्रह्मचर्य ही तपस्या का सर्वोत्तम मार्ग है। जो मनुष्य ब्रह्मचर्य का पालन कठोरता से करते हैं, स्त्रियों के वश में नहीं हैं उन्हें मोक्ष अवश्य प्राप्त होता है। ब्रह्मचर्य ही नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र,
संयम और विनय की जड़ है।

क्षमा: क्षमा के संबंध में महावीर कहते हैं 'संसार के सभी प्राणियों से मेरी मैत्री है वैर किसी से नहीं है। मैं हृदय से धर्म का आचरण करता हूं। मैं सभी प्राणियों से जाने-अनजाने में किए अपराधों के लिए क्षमा मांगता हूं और उसी तरह सभी जीवों से मेरे प्रति जो अपराध हो गए हैं उनके लिए मैं उन्हें क्षमा प्रदान करता हूं।

अस्तेय: जो पराई वस्तुओं पर बुरी नजर रखता हैं वह कभी सुख प्राप्त नहीं कर सकता। अत: दूसरों की वस्तुओं पर नजर नहीं रखनी चाहिए।

दया: जिसके हृदय में दया नहीं उसे मनुष्य का जीवन व्यर्थ हैं। हमें सभी प्राणियों के दयाभाव रखना चाहिए। आप अहिंसा का पालन करना चाहते हैं तो आपके मन में दया होनी चाहिए।

छुआछूत: सभी मनुष्य एक समान है। कोई बड़ा-छोटा और छूत-अछूत नहीं हैं। सभी के अंदर एक ही परमात्मा निवास करता है। सभी आत्मा एक सी ही है।

हिताहार और मिताहार: खाना स्वाद के लिए नहीं, अपितु स्वास्थ्य के लिए होना चाहिए। खाना उतना ही खाए जितना जीवित रहने के लिए पर्याप्त हो। खान-पान में अनियमितता हमारे स्वास्थ्य के खिलवाड़ है जिससे हम रोगी हो सकते हैं।

कर्म की महिमा और सुख-दुख
पुरानी सर्वविदित कहावत है जैसी करनी, वैसी भरनी। वही बात भगवान महावीर ने कही है। कोई बहुत कम मेहनत पर भी अत्यधिक सफलता प्राप्त करता है तो कोई काफी मेहनत करने के बाद भी असफलता ही पाता है। भारतीय संस्कृति में यह सभी पूर्व में किए गए कर्मों पर ही आधारित हैं। भगवान महावीर ने मनुष्य के जीवन में सुख-दुख क्यों? इस रहस्य की खोज की और तप के बल पर उन्हें यह ज्ञान हुआ कि हम खुद ही सुख और दुख का कारण है। अन्य कोई हमें सुखी या दुखी कर ही नहीं सकता। फिर भी कोई हमारा बुरा कर रहा है, वे उस व्यक्ति के बुरे कर्म हैं। परंतु उसकी सफलता हमारे बुरे कर्मों का फल ही है।

कौन हैं भगवान ऋषभदेव ?
जैन धर्म का जन्म भारत में और विस्तार पूरी दुनिया में हुआ। वृषभनाथ को ही जैन ऋ षभदेव कहते हैं। इन्हीं से जैन धर्म या श्रमण परम्परा का प्रारम्भ माना जाता है। यह जैनियों के प्रथम तीर्थंकर हैं। इनसे पूर्व जो मनु हुए हैं वही जैनियों के कुलकर हैं। कुलकरों की क्रमश: 'कुल' परम्परा के सातवें कुलकर नाभिराज और उनकी पत्नी मरुदेवी से ऋ षभ देव का जन्म चैत्र कृष्ण-9 को अयोध्या में हुआ। ऋ षभदेव स्वयंभू मनु से पाँचवीं पीढ़ी में इस क्रम में हुए- स्वयंभू मनु, प्रियव्रत, अग्नीघ्र, नाभि और फि र ऋषभ। कुलकर नाभिराज से ही इक्क्षवाकू कुल की शुरुआत मानी जाती है। जब ऋषभदेव मां के गर्भ में थे तब उनकी मां ने चौदह (या सौलह) शुभ चीजों का सपना देखा था। उन्होंने देखा कि एक सुंदर सफेद बैल उनके मुँह में प्रवेश कर गया है।

एक विशालकाय हाथी जिसके चार दाँत हैं,एक शेर,कमल पर बैठीं देवी लक्ष्मी,फूलों की माला,पूर्णिमा का चाँद,सुनहरा कलश,कमल के फूलों से भरा तालाब,दूध का समुद्र,देवताओं का अंतरिक्ष यान,जवाहरात का ढेर,धुआं रहित आग,लहराता झंडा और सूर्य। इस स्वप्र के बारे में जब विद्वान ज्योतिषियों और तत्वज्ञानियों को पता चला तो उन्होंने इनके विश्वविख्यात होने की घोषणा की।

जो भी इसमें अच्छा लगे वो मेरे गुरू का प्रसाद है,
और जो भी बुरा लगे वो मेरी न्यूनता है....MMK

No comments:

Post a Comment